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Radhavallabh Lal Ji : राधावल्लभ लाल जी

श्री राधावल्लभ जी अनोखे विग्रह में राधा और कृष्ण एक ही नजर आते हैं।
इसमें आधे हिस्से में श्री राधा और आधे में श्री कृष्ण दिखाई देते हैं। माना जाता है कि जो भी सारे पाप कर्मों को त्याग कर निष्कपट होकर सच्चे मन के साथ मंदिर में प्रवेश करता है सिर्फ उस पर ही भगवान प्रसन्न होते हैं और उनके दुर्लभ दर्शन उनके लिये सुलभ हो जाते हैं।

लेकिन जिनके हृद्य में प्रेम और भक्ति की भावना नहीं होती वे लाख यत्न करने पर भी दर्शन नहीं कर पाते। इसी कारण इनके दर्शन को लेकर श्रद्धालुओं में भजन-कीर्तन, सेवा-पूजा करने का उत्साह रहता है


मंदिर का इतिहास


वृंदावन के सभी मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर में नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है यहाँ प्रत्येक दिन उत्सव मनाया जाता है जिसमे व्यहूला सबसे अधिक प्रचलित है। सवा चार सौ वर्ष पहले निर्मित मूल मंदिर को मुगल बादशाह औरंगजेबके शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। तब श्री राधा वल्लभ जी के श्रीविग्रहको सुरक्षा के लिए राजस्थान से भरतपुरजिले के कामां में ले जाकर वहां के मंदिर में स्थापित किया गया और पूरे 123 वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें फिर से यहां लाया गया।

वृंदावन के क्षतिग्रस्त मंदिर के स्थान पर अन्य नए मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के आचार्य श्रीहितमोहित मराल गोस्वामी के अनुसार मुगल बादशाह अकबर ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्व के अनुरूप 180 बीघा जमीन आवंटित की थी जिसमें से 120 बीघा अकेले राधा वल्लभ मंदिर को मिली थी। यह मंदिर श्री राधा वल्लभ संप्रदायी वैष्णवों का मुख्य श्रद्धा केन्द्र है। यहां की भोग राग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशज करते हैं।

मन्दिर का निर्माण संवत 1585 में अकबर बादशाह के खजांची सुन्दरदास भटनागर ने करवाया था। मुगल मन्दिर लाल पत्थर का है और मन्दिर के ऊपर शिखर भी था, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था।


वृंदावन के सभी मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर में नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है यहाँ प्रत्येक दिन उत्सव मनाया जाता है जिसमे व्यहूला सबसे अधिक प्रचलित है। सवा चार सौ वर्ष पहले निर्मित मूल मंदिर को मुगल बादशाह औरंगजेबके शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। तब श्री राधा वल्लभ जी के श्रीविग्रहको सुरक्षा के लिए राजस्थान से भरतपुरजिले के कामां में ले जाकर वहां के मंदिर में स्थापित किया गया और पूरे 123 वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें फिर से यहां लाया गया।

वृंदावन के क्षतिग्रस्त मंदिर के स्थान पर अन्य नए मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के आचार्य श्रीहितमोहित मराल गोस्वामी के अनुसार मुगल बादशाह अकबर ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्व के अनुरूप 180 बीघा जमीन आवंटित की थी जिसमें से 120 बीघा अकेले राधा वल्लभ मंदिर को मिली थी। यह मंदिर श्री राधा वल्लभ संप्रदायी वैष्णवों का मुख्य श्रद्धा केन्द्र है। यहां की भोग राग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशज करते हैं।

मन्दिर का निर्माण संवत 1585 में अकबर बादशाह के खजांची सुन्दरदास भटनागर ने करवाया था। मुगल मन्दिर लाल पत्थर का है और मन्दिर के ऊपर शिखर भी था, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था।


राधावल्लभ जी का विग्रह


श्री राधावल्लभ लाल जी का विग्रह है और राधावल्लभ के साथ में श्रीजी नहीं हैं केवल वामअंग में मुकुट की सेवा होती है.

हरिवंश गोस्वामी श्री राधाजी के परम भक्त थे, और वंशी के अवतार थे. उनका मानना था कि राधा की उपासना और प्रसन्नता से ही कृष्ण भक्ति का आनंद प्राप्त होता है. अतः उन्हें राधाजी के दर्शन हुए एवं एकादशी के दिन राधाजी ने उन्हें पान दिया था, अतः उनके सम्प्रदाए में एकादशी को पान वर्जित नहीं है.

हित हरिवंश जी की इस प्रेममई उपासना को सखी भाव की उपासना माना गया है. और इसी भाव को श्री राधा वल्लभ लाल जी की प्रेम और लाड भरी सेवाओं में भी देखा जा सकता है. जिस प्रेम भाव तथा कोमलता से इनकी सेवा पूजा होती है वह देखते ही बनती है. श्री राधावल्लभ लाल जी आज भी अपनी बांकी अदाओं से अपने भक्तों के मन को चुरा रहे हैं |

राधावल्लभ लाल सौंदर्य का एक ऐसा महासागर है जहाँ दिव्य प्रेम की लहरें सदा बहती हैं और हमेशा बढ़ती रहती हैं। उनके दर्शन से भीतर कुछ हलचल होती है और दिल दिव्य प्रेम का अनुभव करने लगता है। श्री राधावल्लभ लाल की उपस्थिति और उनकी निकटता किसी के जीवन को आत्मनिर्भर बनाती है और किसी भी द्वंद्व से मुक्त करती है।

सिर से पैर तक उसके दिव्य रूप की ‘परिक्रमा’ (परिधि) करने से, जीव सहज रूप से दिव्य प्रेम से भर जाता है। जो दिव्य दंपत्ति के चरण कमलों की कामना करता है, उसे श्री वृंदावन धाम में शरण लेनी चाहिए, क्योंकि यह उनका अपना दिव्य निवास है।


श्री विग्रह के बारे मे


राधावल्लभ मंदिर में विराजमान इस अनूठे विग्रह में आधे भाग में कृष्ण और आधे में राधा रानी है। यहां पर कई सदियों से एक कहावत है ‘राधा वल्लभ दर्शन दुर्लभ’। यहाँ पर आठों पहर दर्शन की ही तैयारी चलती रहती है, सखी भाव मे यहाँ अष्टायम सेवा (8 पहर की जाने वाली सेवा) मे तल्लीन रहते है।

यहां हर किसी को दर्शन नहीं होते। केवल वही व्यक्ति इस मंदिर में दर्शन कर पाते हैं जिनके ह्रदय में प्रेम है, भावुकता है और भक्ति हैं। इसी लिए यहां आने वाले भक्तजन उन्हें रिझाने के लिए भजन-कीर्तन करते हैं। उन्हें पंखा झलते हैं और यथासंभव उनकी सेवा-पूजा कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। कहा जाता है जिस पर भी भगवान राधावल्लभ प्रसन्न हो जाएं उनकी उसे अपनी प्रेम-भक्ति का दान देकर अपने निज सखियों मे शामिल कर लेते है।


राधावल्लभ जी का प्राक्ट्य


हरिवंश महाप्रभु 31वर्ष तक देव वन में रहे.अपनी आयु के 32वें वर्ष में उन्होंने दैवीय प्रेरणा से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया.मार्ग में उन्हें चिरथावलग्राम में रात्रि विश्राम करना पडा. वहां उन्होंने स्वपन में प्राप्त राधारानी के आदेशानुसार आत्मदेव जी की दो पुत्रियों के साथ विधिवत विवाह किया. बाद में उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों और कन्यादान में प्राप्त “श्री राधा वल्लभ लाल” के विग्रह को लेकर वृंदावन प्रस्थान किया.

आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह कहा से आया इसपर संतो ने लिखा है – आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे , आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । उन पूर्वज ने कहा – हमे तो कुछ माँगना आता ही नही , आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही क्रिया कर के दीजिये । भगवान शिव ने कहा “तथास्तु “। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी है । कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे । भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व है , अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके है सो देना ही पड़ेगा । भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया ।

उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है । श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये ।

हिताचार्य जब संवत् 1591में वृंदावन आए, उस समय वृंदावन निर्जन वन था. वह सर्वप्रथम यहां के कालिदेह ( जहाँ कालियनाग का मर्दन हुआ ) पर रहे. बाद में उनके शिष्य बने दस्यु सम्राट नरवाहन ने राधावल्लभलाल का मंदिर बनवाया, जहां पर हित जी ने राधावल्लभके विग्रह को संवत् 1591की कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को विधिवत् प्रतिष्ठित किया.

कार्तिक सुदी तेरस श्री “हित वृन्दावन धाम का प्राकट्य दिवस” है. सर्व प्रथम इसी दिन श्री हित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभ लाल को लेकर पधारे और मदन टेर [ ऊँची ठौर ] पर श्री राधा वल्लभ लाल को विराजमान कर लाड-लड़ाया.उन्होंने पंचकोसी वृन्दावन में रासमण्डल,सेवाकुंज,वंशीवट, धीर समीर, मानसरोवर,हिंडोल स्थल, श्रृंगार वट और वन विहार नामक लीला स्थलों को प्रकट किया |


श्री हरिवंश महाप्रभु


इनके पिता का नाम पं. व्यास मिश्र जी था और श्रीमती तारा रानी थी। इनका निवास सहारनपुर ज़िले के देववन्द गाव के कश्यप गौत्र के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे।
श्री हरिवंश जी का जन्म विक्रम संवत् 1559 में वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार को प्रातः सूर्योदयकाल में हुआ था

उस दिन मोहिनी एकादशी है जिनका जन्म व्रज भूमि पर होता है ( केवल यही एक ऐसे आचार्य है जिनका जन्म व्रज धाम पर हुआ ) जो की ठाकुर जी के बंसी का प्राकट्य है !

सभी व्रज वासी ऐसे झूमे नाचे की अपने बच्चे के जन्म पर भी नहीं नाचे ! पुरे व्रज के लोग कितना आनंद लुटने में व्यस्त थे बच्चे बुठे सब बधाई गाने लगे ! बहुत ही अध्बुध दर्शय होता है ! वो फिर अपने गाव देववन्द आ जाते है ! और वहाँ भी बहुत बड़ा उत्सव करते है !


5 दिन हो जाते है, वहाँ नर्शिंग जी आ जाते है वो सबसे पहले हरिवश जी की 7 परिकर्मा करते है व्यास जी उनसे अनुरोध करते है की इनका नामकरण भी आप ही करे व्यास जी द्वारा जन्म कुंडली बना तो लेते है पर वो पूरी तरह कृष्ण जी की थी

फिर नरशी जी उनका नाम हरिवंश रखते है ( हरि के वंश है वो इसलिए उनका नाम रखा गया ) कोई हरिवंश जी के सामने राधा नाम लेता है तो वो किलकारी मारने लगता है !

हितहरिवंश महाप्रभु जी 16 वर्ष की आयु थी
अब व्यास जी को विवाह की चिंता हुई तो महाप्रभु जी का विवाह रुक्मणी जी से हुआ । उन्होंने उनकी भक्ति को आगे ही बढ़ाया । उनकी माता तरारानी और उनके पिता जी व्यास जी की इच्छा थी कि वो राधामाधव जी का दर्शन करें तो जीवन धन्य हो जाये तो उनको भी हरिवंशजी ने ठाकुर जी के प्रत्यक्ष दर्शन कराए !! फिर पहले माता का फिर पिता का शरीर पूरा हो जाता है ! श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का निकुंजगमन संवत् 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र संवत् 1590 में हुआ !

माता पिता की मृत्यु के उपरांत श्री हरिवंशजी को श्री जी ने सपने में आकर आदेश दिया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्तिपद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें | वो भजन करते करते पैदल निकल जाते है । रास्ते मे प्रेम बाँटते जाते है रास्ते मे एक शेर लेता होता है पर हरिवंशजी को सुध नही होती है उनका पैर उस के उप्पर पड़ गया था तो शेर खड़ा हो गया तब हरिवंशजी उनकी ठोड़ी ( Chin ) पकड़ कर बोलते है भाई हरि बोल हरि बोल । उतने में शेर में भी कृष्ण प्रेम का संचार हो जाता है। शेर के साथ हरिवंशजी खूब नाचे ।

चरथावल में आत्मदेव नामक ब्राह्मण के यहां ठाकुर श्रीराधाबल्लभजी विराजमान थे। आत्मदेव को श्री राधा जी ने स्वप्न में आज्ञा दी कि अपनी दोनों पुत्रियों ( कृष्णदासी एवं मनोहरी ) का विवाह श्रीहित हरिवंशजी से कर दो और दहेज में मुझे दे देना । यही सपना श्री जी का हरिवंश जी को भी आया । आत्मदेव ने श्री राधा जी की आज्ञा बताकर श्रीहित हरिवंशजी को ठाकुर श्री राम बल्लभ जी दे दिए और अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे कर दिया। चथड़ावल गांव में ही उनकी शादी हुई ।


मंदिर की आरती


ठाकुर जी की जो सेवाएं मन्दिर में होती हैं उन्हें ” नित्य सेवा ” कहा जाता है, जिनमें “अष्ट सेवा” होती हैं. “अष्ट आयाम ” का अर्थ एक दिन के आठ प्रहर से है| ये आठ सेवाएं इस प्रकार से हैं :-

  1. मंगला आरती : 5:00 – 6:00 AM
  2. धूप श्रृंगार आरती : 8:00 – 8:30 AM
  3. श्रृंगार आरती : 8:30 – 9:00 AM
  4. राजभोग आरती : 12:30 – 1:00 PM
  5. धूप संध्या आरती :- 5:00 – 5:15 PM
  6. उत्थापन औलाई :- 5:15 – 5:30 PM
  7. संध्या आरती :- 5:30 – 6:00 PM
  8. शयन आरती :- 9:00 – 9:30 PM

यहाँ पर सात आरती एवं पाँच भोग वाली सेवा पद्धति का प्रचलन है. यहाँ के भोग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशजों द्वारा सुचारू रूप से की जाती है. वृंदावन के मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर ही ऐसा है जिसमें नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है. इसके अलावा इस मन्दिर में व्याहुला उत्सव एवं खिचड़ी महोत्सव विशेष है


❑ रोज दर्शन करने के लिए व्हाट्सएप करे : 9460500125

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