भक्तमाल का परिचय :
महाभागवत श्री नाभादास जी महाराज उच्च कोटि के संत हुए है जिन्होंने इस संसार में श्री भक्तमाल ग्रन्थ प्रकट किया । भगवान् के भक्तो के चरित्र इस ग्रन्थ में नाभाजी द्वारा स्मरण किये गए है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है की इसमें सभी संप्रदयाचार्यो एवं सभी सभी सम्प्रदायो के संतो का सामान भाव से श्रद्धापूर्वक संस्मरण श्री नाभा जी ने किया है ।
संत तो प्रियतम के भी प्रिय है , भगवान् अपने से अधिक भक्तो को आदर देते है ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है – मोते संत अधिक कर लेखा । भगवान् से भी अधिक महिमा उनके भक्तो की है । गोस्वामी जी ने एक और पद में लिखा है –मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ।।
भक्तमाल नाम का रहस्य :
जैसा की इसके भक्तमाल नाम से स्पष्ट है की यह ग्रन्थ भक्तो के परम पवित्र चरित्र रुपी पुष्पों की एक परम रमणीय माला के रूप में गुम्फित है और इस सरस सौरभमयी तथा कभी भी म्लान न होनेवाली सुमन मालिका को श्री हरि नित्य -निरंतर अपने श्री कंठ में धारण किये रहते है ।
जैसे माला में चार वस्तुएं मुख्य होती है – मणियाँ ,सूत्र ,सुमेरु और फुंदना (गुच्छा ) वैसे ही भक्तमाल में भक्तजन मणि है ,भक्ति है सूत्र (जिसमे मणियाँ पिरोयी जाती है ),माला के ऊपर जो सुमेरु होता है वह श्री गुरुदेव है और सुमेरु का जो गाँठ रुपी गुच्छा है वह है हमारे श्री भगवान् ।
भक्तमाल कोई सामान्य रचना नहीं है,अपितु यह एक आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है । यह श्री नाभादास जी की समाधि वाणी है । तपस्वी, सिद्ध एवं महान् संत की अहैतुकी कृपा और आशीर्वाद से इस ग्रन्थ का प्राकट्य हुआ है । महाभागवत नाभादास जी जन्म से नेत्रहीन थे , जब श्री गुरुदेव की कृपा से बालक को दृष्टी प्राप्त हुई तब सर्वप्रथम संसार का नहीं अपितु संत दर्शन ही किये । (आगे चरित्र में पढ़े )
श्री नाभादास जी का वास्तविक स्वरुप :
एक बार ब्रह्मा जी ने व्रज के सब ग्वालबालों तथा गौओ और बछड़ो का हरण कर लिया था । इसपर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया के प्रभाव से वैसे ही अन्य ग्वाल – बालों ,गौओं तथा बछड़ो की सृष्टि कर दी ,व्रज के लोगो को इस बात का पता ही नहीं लगा । बाद में ब्रह्मा जी ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी तो भगवान् ने उन्हें इतना ही दंड दिया की तुम कलियुग में नेत्रहीन होकर जन्म ग्रहण करोगे ,किन्तु तुम्हारा यह अंधापन केवल पांच वर्ष तक ही रहेगा बाद में महात्माओ की कृपा से तुम्हे दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी । इस किंवदन्ती के अनुसार ब्रह्मा जी ही श्री नाभादास जी के रूप में प्रकट हुए ।
जो अन्य युगों में भक्त प्रकट हुए उनके चरित्र पुराणों में उपलब्ध होते है परंतु विशेषतः कलिकाल के जो भक्त है उनके चरित्र पुराणों में उपलब्ध नहीं है अतः इन चरित्रों का विस्तार करने हेतु, शैव वैष्णव भेद समाप्त करने हेतु ,संत सेवा ,भगवान् के उत्सवो एवं व्रतो में निष्ठा हेतु ,भक्त सेवा में अपराध से बचने हेतु और संत वेश निष्ठा प्रकट करने हेतु श्री नाभादास जी ने इस ग्रन्थ को प्रकट किया ।
संतो की दृष्टी में भक्तमाल का माहात्म्य :
वृन्दावन के महान सिद्ध संत पूज्य श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तमाली जी महाराज से पूज्य बक्सर वाले मामाजी (श्रीमन्नारायण दास नेहनिधि सियाअनुज )भक्तमाल ग्रंथ का अध्ययन करने लगे। जब ग्रन्थ कि पूर्णनता होने लगी तब आपने श्री भक्तमाली जी के सम्मुख श्रीमद भागवत श्लोकार्थ समेत पढ़ने की इच्छा प्रकट कि तो वे बड़े प्रेम से बोले – नारायणदास!क्या तुम्हारी इच्छा दास से पंडित बनने की है ?
यह सुन कर श्री मामाजी गुरुदेव के चरण पकड़ विव्हल हो गये और बोले – नहीं गुरु देव मुझ दास को संतो का दास ही बने रहने की इच्छा है पंडित बनाने कि इच्छा नहीं है । तब भक्तमाली जी ने कहा – फिर तुम केवल भक्तमाल जी का आश्रय लो इनका पठन पाठन , इनका ही धयान करो और इन्ही को प्रसाद रूप में भक्तो में वितरण करो भक्तमाल जी कि कृपा से एक दिन तुम्हारे हृदय में श्रीमद भगवत स्वयं प्रकट हो जायेगा । उनके दिव्य प्रकाश से तुम्हारा अंतःकरण प्रकाशित हो जाएगा और भक्तमाल जी कि कृपा से तुम महान् प्रेमी और वक्ता बनोगे । महान संत के आशीर्वाद द्वारा मामाजी भक्तमाली नाम से विभूषित हुए।
पुराणों में ,महाभारत में भी भक्त चरित्रों का ही वर्णन है । यह सब भी एक प्रकार से भक्त चरित्र ही है । पुराने समय में लोग विद्वान हुआ करते थे, वे पुराणों और शास्त्रो को पढ़ कर भक्तो के आचरण से शिक्षा लेते थे ,भक्ति के स्वरुप को समझते थे । कलियुग के जीव इतने जड़ बुद्धि के हुए की वे प्रायः कहने लगे- भगवान् की लीलाएं और उनका दर्शन अन्य युगों में होता था परंतु आज के समय में ऐसा कुछ नहीं होता । नाभा जी ने ऐसे बहुत से चरित्र भक्तमाल वे वर्णन किये है है जो कल- परसो के ही है । इन चरित्रों का पठन एवं श्रवण करने से हम कलिकाल के जड़ बुद्धि जीवो को बहुत लाभ मिलेगा और संतो में श्रद्धा बनेगी ।
पूज्य स्वामी जयरामदेव आदि अनेक सिद्ध संतो का मत है की भगवान् अपने नित्य धाम में श्री भक्तमाल का सदा स्वाध्याय करते है ,यही नहीं जो भगवान् के नित्य पार्षद और महाभागवत भक्त है वे भी नित्य भक्तमाल की कथा सुनते है । श्री अम्बरीष जी, श्री ध्रुव जी सभी नित्य भक्तमाल कथा सुनते है । श्री भक्तमाल के प्रमुख श्रोता श्री भगवान् है ।
पूज्य श्रीमन्नारायण दास (मामाजी ), श्री गणेशदास जी आदि भक्तमाली संतो ने सम्पूर्ण जीवन संतो को और भगवान् को भक्तमाल सुनाया । अवध के महान संत पूज्य श्री ब्रह्मचारी जी महाराज नित्य भगवान् को भक्तमाल कथा सुनते । धर्मसम्राट श्री स्वामी करपात्री जी महाराज को तो भक्तमाल की कथा का व्यसन ही था । जब कभी वे वृन्दावन पधारते, वे ताड़वाली कुंज (श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्तमाली जी की साधना स्थली ) मे जाकर भक्तमाली जी से कथा श्रवण करते । अन्य संतो से भी स्वामी करपात्री भक्तमाल कथा ही सुनना पसंद करते ।
एक समय की बात है पूज्य मामाजी को दवाखाने में भर्ती करवाया गया था और डॉक्टर ने बोलने से मना कर रखा था ।मामाजी को नित्य भगवान् और किसी न किसी संत को भक्तमाल सुनाने का अभ्यास था । रात बीतने पर सुबह जब डॉक्टर कक्ष में आया तब उसने आश्चर्य से पूछा – मामाजी पंख चल रहा है,अधिक गर्मी भी नहीं है फिर आप पसीने से लतपत कैसे ? मामाजी ने पहले कुछ बताया नहीं । डॉक्टर ने कहा – मामाजी डॉक्टर से कुछ नहीं छिपाना चाहिए तब मामाजी ने बताया की कल स्वप्न में धर्मसम्राट स्वामी श्री करपात्री जी पधारे और उनको हमने रात भर कथा सुनायी है ,इसी कारण से पसीना आ रहा है । ऐसे महान भक्तमाली सिद्ध संत श्री मामाजी महाराज ।
श्री नाभादास जी की गुरु परंपरा :
यतिराज श्रीमद् आद्य रामानंदाचार्य स्वामी के पवित्र परंपरा में श्री नाभादास जी का प्राकट्य हुआ । श्री रामानंद स्वामी के शिष्य हुए श्री अनंतानन्दचार्य जी , उनके शिष्य हुए श्री कृष्णदास पयोहारी जी ,उनके शिष्य हुए श्री अग्रदेवाचार्य जी, और उनके शिष्य हुए श्री नाभादास जी महाराज ।
कुछ संतो ने श्री नाभादास जी के जन्म के बारे में इस प्रकार जानकारी दी है : इनका जन्म ८ अप्रैल १५३७ को भद्राचलम नामक ग्राम में गोदावरी नदी के तट पर हुआ था । यह ग्राम आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में स्थित है परंतु अधिकतम संतो ने इनके पूर्वजो को हनुमानवंशीय महाराष्ट्रीय ब्राह्मण माना है । इनके पिता का नाम श्री रामदास जी और माता का नाम श्रीमती जानकी देवी था ।
कुछ संतो के मत यह भी है :परंपरा के अनुसार नाभादास डोम अथवा महाराष्ट्रीय ब्राह्मण जाति के थे। टीकाकार प्रियादास ने इन्हें हनुमानवंशीय महाराष्ट्रीय ब्राह्मण माना है। टीकाकार रूपकला जी ने इन्हें डोम जाति का मानते हुए लिखा है कि डोम नीच जाति नहीं थी, वरन् कलावंत, ढाढी, भाट, डोम आदि गानविद्याप्रवीण जातियों के ही नाम हैं। मिश्रबंधुओं ने भी इन्हें हनुमानवंशी मानते हुए लिखा है कि मारवाड़ी में हनुमान शब्द ‘डोम’ के लिए प्रयुक्त होता है।
श्री नाभाजी का जन्म प्रशंसनीय हनुमान-वंशमे हुआ।*हनुमान वंश क्या है ?
महाराष्ट्र में एक ऋग्वेदि ब्राह्मण परिवार था,हनुमान जी के वे अनन्य भक्त थे । उनके कोई संतान नहीं थी। किसी लौकिक प्रसंग में किसी ने पुत्रहीन कहकर उन्हें पीड़ित कर दिया और इस बात से दुखी होकर उन्होंने एक संत से पुत्र प्राप्ति की इच्छा की प्रार्थना करने लगे । संत ने उन्हें श्री हनुमान जी की उपासना करने के लिए कहा । श्री हनुमान जी की नित्य उपासना वे करने लगे और उनके चरणों में पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने लगे ।
एक दिन प्रसन्न होकर श्री हनुमान जी ने दर्शन दे कर कहा की तुम्हारे भाग्य में पुत्र सुख नहीं है पर आप हमारे बहुत प्रेमी भक्त हो अतः हनुमान जी ने आशीर्वाद दिया की मेरी कृपा से तुम्हारा वंश चलेगा । श्री हनुमान जी ने यह भी कहा था की आपके वंश में एक अद्भुत महात्मा प्रकट होंगे जिनके द्वारा जगत का कल्याण होगा । उस समय से इस वंश को हनुमान वंश कहा जाने लगा ।
श्री नाभादास जी जन्म से ही नेत्रहीन थे, नेत्र के चिन्ह तक नहीं थे । इस बात से इनके पिताजी बड़े दुखी हुए । पिताजी ने ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों से इनके भविष्य के बारे में पूछा तो ज्योतिषियों ने बताया की यह बहुत अद्भुत बालक है , यह जगत में लाखो लोगो का भक्ति मार्ग प्रशस्त करेगा ।जब ये २ वर्ष के थे तब इनके पिताजी का देहांत हो गया । उस के बाद माता ने इनका पालन पोषण किया । जब श्री नाभाजी ५ वर्ष के हुए उस समय महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड गया था , कोई फल खाकर , कोई घास खाकर गुजर करने लगा ।
अकाल से पीड़ित हो कर बालक को लेकर उनकी माता जल और अन्न की खोज में भटकने लगी । कही दूर दूर तक कुछ नही मिल रहा था । भटकते हुए वे राजस्थान की ओर आये और वहाँ एक वन में वृक्ष के निचे बालक को बिठा दिया ।थकान के कारण बालक को साथ ले कर घूमना कठिन हो गया था अतः माता ने कहा की बेटा तुम यही बैठो ,मै अन्न जल की खोज करने जाती हूँ ।अन्न जल की खोज में माता बहुत दूर तक निकल गयी और कमजोरी के कारण पृथ्वी पर गिरने लगी ।
उस समय उनको यह विश्वास हो गया की अब प्राण रहेंगे नहीं । इन्होंने भगवान् से विनती की – मेरे बालक को मै निर्जन वन में छोड़ कर आयी हूँ, नेत्रहीन ,पितृहीन बालक के अब आप ही रक्षक है । अपने अपने घर की तो सबको ममता होती है पर आपको तो सबके घरोकी ममता है । मै तो केवल जन्म देने वाली माता हूं , परंतु वास्तव में सबके माता -पिता आप ही है । इनकी माता का शरीर छूट गया और नाभाजी वन में रह गए। बहुत देर तक माता नहीं आयी जानकार नाभा जी माता को पुकारने लगे और कभी किसी वृक्ष से टकराते , कभी किसी वृक्ष से । श्री नाभा जी ने निश्चय किया की अब किसी नर से सहायता मांग कर कुछ नहीं होगा अब तो केवल नारायण ही सहायता कर सकते है ।
नाभाजी भगवान् नारायण को पुकारने लगे और इसी पुकार से भगवान् ने उनपर महान् कृपा की थी । श्री नभा जी की करुण पुकार को भगवान् ने सुन लिया । दैवयोग से श्री किल्हदेव जी और श्री अग्रदेव जी -यह दो महापुरुष हरिद्वार कुम्भ स्नान करके अपने आश्रम गलता जी (जयपुर) जा रहे थे। यह गलता आश्रम श्री गालव ऋषि का आश्रम माना जाता है । चलते चलते संतो को दो मार्ग पड़े ,एक वन (जंगल )वाला रास्ता और दूसरा राजमार्ग वाला रास्ता । उन्होंने सोचा की जंगल से जाना ठीक नहीं होगा अतः राजमार्ग से जाना ही उचित है । जैसे ही वे राजमार्ग की ओर चलने लगे उसी समय आवाज आयी – हे संतो ! ठहरए । आस पास कोई नहीं दिखाई पड़ा , इस बात से निश्चित ही गया की यह आकाशवाणी है ।
दोनों संत हाथ जोड़े खड़े हो गए । आगे आकाशवाणी हुई की आप इस रास्ते को छोड़कर वनमार्ग से जाएं , वहाँ आपको एक अनोखा रत्न प्राप्त होगा जिसके द्वारा जगत का बहुत बड़ा कल्याण होगा ।आकाशवाणी मौन होने पर दोनों संत सोचने लगे की हम फक्कड़ महात्माओ को रत्न से क्या लेना देना ? ये कैसी आकाशवाणी हो गयी ? तब श्री किल्हदेवजी कहने लगे की हो सकता है की वह रत्न पत्थर का न हो ।वह रत्न किसी और रूप में भी हो सकता है । दोनों संत जंगल वाले मार्ग की ओर चल दिए ।
रास्ते में उन्हें यह नेत्रहीन बालक दिखाई पड़ा। वह वन में भटक रहा है, पेड़ो से बारबार टकराता है । कह रहा है – हे दीनबंधु प्रभु नारायण चरणों में मुझे चकाना दो,जिसमे यह जीवन सार्थक हो ऐसा कोई सहज बहना हो । संतो ने सोचा की कही इसी बालक के लिए ही तो आकाशवाणी नहीं हुई ।संत उसके पास गए और श्री किल्हदेवजी जी ने नाभाजी से कहा – वत्स । जैसे ही यह शब्द नाभाजी ने सुना ,वे जान गए की यह कोई महात्मा है । आवाज की दिशा का अनुसंधान करके नाभाजी ने संत को प्रणाम् किया । नाभा जी से सन्तों ने कुछ प्रश्न किये – तुम्हारा पीता कौन है? बालक ने कहा -जो सबके पीता है वही हमारे पिता है?
आगे पूछा गया -क्या तुम अनाथ हो? बालक ने कहा – नहीं, जिसके नाथ जगन्नाथ वह अनाथ कैसे हो सकता है ? फिर संतो ने पूछा- कहा से आये हो? बालक ने कहा- अपने स्वरुप को भुला हुआ जीव यह नहीं जान पता की वह कहाँ से आया है, पर जहाँसे सब आये है मैं भी उसी भगवान् के नित्य धाम से आया हु । संतोने पूछा – तुम्हारा नाम क्या है?बालक ने कहा- पञ्च महाभूत और सात धातुओ से बना शरीर है, कैसे कहु मैं कौन हु । तुम्हे कहा जाना है – जाना तो मुझे भगवन के चरणकमलों में है परंतु संसार के जाल में फस गया हु , आप जैसे महापुरुष जब तक मार्ग नहीं बताते तब तक संसार को पार करना कैसे संभव है ।
फिर संतो ने पूछा – इस निर्जन वन में तुम्हारा रक्षक कौन है ? – जो माता के गर्भ में रक्षा करता है वही मेरी रक्षा कर रहा है । दोनों संत समझ गए के यह साधारण बालक नहीं है, अवश्य इसी बालक रत्न के लिए आकाशवाणी हुई थी , बड़े बड़े साधक भी ऐसे उत्तर नहीं दे पाते । शरीर के माता पिता के बारे में संतो ने पूछा तब नाभा जी ने सारी घटना सुनायी । संत जान गए की माता पिता शरीर छोड़ चुके है । सन्तों ने बालक से पूछा – क्या तुम हमारे साथ चलोगे ? हम गलता गादी ,जयपुर में विराजते है । बालक ने हाँ कहा ।
श्री अग्रदास जी ने अपने बड़े गुरुभाई श्री किल्हदेवजी जी से कहा – यह तो निश्चित है की इस बालक की भीतर वाली आँखे तो खुली हुई है परंतु यदि इसकी बहार वाली आखें खुल जाए तो यह और अधिक सेवा के योग्य हो जायेगा ।सर्व समर्थ सिद्ध महात्मा श्री किल्हदेवजी ने अपने कमण्डलु से जल लेकर नाभजी के नेत्रो पर छिड़क दिया। संतो की कृपा से नाभाजी के दोनों नेत्र खुल गये और सामने दोनों संतो की जोड़ी को नाभा जी ने निहारा । संतो के दर्शन पाकर श्री नाभा जी को परम आनंद हुआ । दोनों सिद्ध महापुरुषो के दर्शन पाकर नाभा जी उनके चरणोंमे पड गये। उनके नेत्रो में आँसू आ गये। दोनों संत कृपा करके बालक नाभजी को अपने साथ गलता जी (जयपुर )लाये।
संत महात्मा अवैष्णव के हाथ की सेवा ग्रहण करते नहीं अतः बालक को दीक्षा देने का निर्णय किया गया । श्री अग्रदेव जी ने से किल्हदेवजी से प्रार्थना की के आप बड़े है ,आप इस बालक पर कृपा करे । श्री किल्हदेव जी ने कहा – नहीं आप ही इसे दीक्षा दीजिये ,यह आपका ही है । श्री किल्हदेवजी की आज्ञा पाकर श्री अग्रदेव जी ने नाभा जी से कहा – बड़े गुरुभाई दीक्षा के लिए कह रहे है ,क्या तुम दीक्षा ग्रहण करोगे ?नाभा जी बोले – मुझे तो पता ही नहीं की मेरा हित किसमें है, मेरे जीवन की डोर तो अब आपके हाथ में है । शुभ मुहूर्त देखकर श्री अग्रदेव जी ने इन्हें श्रीराम मंत्रका उपदेश दिया और विधिवत पंचसंस्कार किये ।
पांचवा संस्कार – नामकरण का समय आनेपर गुरुदेव सोचने लगे की इसका क्या नाम रखा जाए ?( नाभा नाम तो इनका बहुत बाद में पड़ा , माता पिता द्वारा रखा नाम तो इन्हें याद ही नहीं था )।गुरुद्वव ने कहा – जब तुम हमें मिले थे तब तुम नारायण नाम पुकार रहे थे और जब तुमने हमारे दर्शन किये तब भी तुमने कहा – हे प्रभु नारायण आपकी जय हो ,आपने हमें चरणों में स्थान दिया है । तुम्हारा नाम आज से ‘नारायण दास’ होगा । गुरूजी के नाभि अथवा पेट की बात जान लेने के कारण आगे इनका नाम नाभा /नाभादास जी पड गया(आगे के प्रसंग में पढ़े) ।
गलता आश्रम ,जयपुर में साधुसेवा प्रकट प्रसिद्ध थी। श्री अग्रदेवजी ने अपनी गुरुपरम्परा के अनुसार उपासना की विधि बताई और दो नियम इनके लिए निश्चित कर दिए – प्रथम संतो की सेवा (संतो की सीथप्रसादि, चरणोदक ग्रहण ) और दूसरी ठाकुरसेवा । गुरुदेव संतसेवा के महत्व को जानते थे और उनके गुरुदेव श्री कृष्णदास पयहारी जी द्वारा ही गलता जी में नित्य संत सेवा की परंपरा चलायी गयी थी । नाभाजी को भी उन्होंने संतसेवा में लगा दिया । संतों के चरणोदक तथा उनके सीथ-प्रसाद का सेवन करने से श्री नाभजी का संतोमे अपार प्रेम हो गया । आने जाने वाले सब संत श्री नारायणदास जी की संत सेवा की खूब प्रशंसा करते थे । श्री अग्रदेव जी और श्री किल्हदेवजी को यह सुनकर बहुत हर्ष होता था ।
गुरुदेव श्री अग्रदेव स्वामी द्वारा नाभा जी को भक्तमाल ग्रन्थ रचना की आज्ञा :
श्री जानकी जी की प्रधान सखी चन्द्रकला जी ही आचार्य स्वामी श्रीअग्रदेवजी महाराज के रूप में प्रकट हुई है । एक बार प्रातः काल श्री अग्रदेव जी महाराज भगवान् श्री सीताराम जी की मानसी सेवा में संलग्न थे और उनके शिष्य श्री नाभाजी महाराज अतिकोमल अवं मधुर संरक्षण के साथ धीरे-धीर प्रेमसेे पंखा कर रहे थे । मानसी सवा में श्री अग्रदेव जी ने श्री सीताराम जी को सुंदर स्नान करवाया, प्रक्षालन किया ,श्रृंगार किया, वस्त्र अर्पण किये और अंतिम सेवा थी पुष्पमाला धारण करवाने की । श्री रामजी सर झुकाये खड़े है पुष्पमाला पहन ने के लिए ।
उसी सम श्री अग्रदास जी का एक व्यापारी सेठ शिष्य जहाज पर चढ़ा हुआ समुद्री यात्रा कर रहा था। जहाज से व्यापार करने दूर निकल था । उसका जहाज भँवर में फस गया , जहाज में बड़े के भीतर जल भरने लग गया । चालाक निरुपाय हो गये , उन्होंने कहा – समुद्र में अताह जल है, बेड़े में छिद्र है । बचना बहुत मुश्किल है सेठ जी , अब तो कोई चमत्कार हो जाए तो ही बचना संभव है । आपका जिसपर विश्वास हो उसीको याद कर लो । तब उस शिष्य ने सोचा की हमारे गुरुदेव श्री अग्रदेवजी बड़े सिद्ध महात्मा है , बहुत से लोग भी उनको सिद्ध कोटि के संत बताते है । वह श्री अग्रदेव जी का स्मरण करने लगा । उससे श्रीअग्रदेव जी का ध्यान अतिसुंदर स्वरुप भगवान् श्री सीतारामजी की सेवा से हट गया।
अग्रदेव जी सोचने लगे की अब क्या किया जाए , इधर सरकार सर झुकाये खड़े है और उधर शिष्य के प्राण संकट में है । सेवा छोड़ कर शिष्य को बचते है तो सेवा अपराध हो जायेगा और सेवा करने में लग गए तो शिष्य डूब जायेगा । इसी विचार में अग्रदेव जी कोई सही निर्णय नहीं ले पा रहे थे । गुरुदेव की मानसी सेवा में विघ्न जानकार श्री नाभाजी ने वही पर खड़े खड़े पंखे को जोर से चलाया । पंखा चला इधर और हवा का झोंक पंहुचा समुद्र में । नाविक को भी संत कृपा से बुद्धि सुझी और छिद्र का पता चल गया ,उसने अपनी एड़ी वह लगा ली और एक क्षण में ऐसा हवा का झोंक आया की जहाज किनारे पर लग गया ।
नाविक ने कहा – सेठ जी ! आखें खोलो । आपकी पुकार स्वीकार हो गयी , हम लोग दिनरात समुद्र में यात्रा करते है अतः हमें हवाओ की दिशा का ज्ञान है परंतु पता नहीं आज अचानक विपरीत दिशा से हवा का झोंक आया और जहाज किनारे आ गयी । व्यापारी ने कहा – तुम्हे हवा का झोंका दिखाई दिया ,मुझे तो गुरु कृपा का झोंका दिखाई दिया । अब अग्रदेव जी ने सोचा की आश्रित की लाज बचनी चाहिए , भगवान को माला पीछे पहनाएंगे पहले शिष्य के प्राण बचाने चाहिए । मन से गुप्त रूप में समुद्र पर पहुचे । वहाँ उन्हें ना कोई जहाज दिखाई पड़ा ना कोई शिष्य ना तूफ़ान । अब वे सोचने लगे की इतने विशाल समुद्र पर मेरे प्रभु ने सेतु कैसे बनाया होगा ? एक क्षण के लिए भी यह नहीं ठहर रहा । वे सेतुबंधन लीला के चिंतन में डूब गए ।
बहुत देर तक गुरुदेव नहीं लौटे , वही समुद्र पर सेतुबंधन लीला का स्मरण करने में मग्न हो गए । श्री नाभाजी ने सोचा अब थोडा ढिठाई करनी पड़ेगी अथवा प्रभु सर झुकाये ऐसे ही खड़े रह जायेंगे । श्रीगुरुदेव से नाभा जी ने नम्र निवेदन किया – प्रभो ! जहाज तो बहुत दूर निकल गया,अब आप कृपा कर के समुद्र को मत निहारिये , आप तो प्रिय प्रियतम के रूप समुद्र का दर्शन कीजिये , उसी शोभापूर्ण भगवान् की सेवा में पुनः लग जाइये। यह सुनकर श्री अग्रदेव जी ने आँखे खोली और देखने लगे की हमारे मन की बात किसने जान ली ?
उनहे लगा की शायद यहां कोई सिद्ध महात्मा आ गए है जिन्होंने मेरे ह्रदय की बात जान ली हो । उन्हें यह लगा ही नहीं की नाभा जी यह बात बोल सकते है । जब आस पास कोई नहीं दिखाई दिया तब नाभादास जी से पूछा की अभी कौन बोला ? किसकी आवाज हमने सुनी ? श्री नाभाजी ने हाथ जोड़कर कहा- जिस अनाथ को आपने कृपा करके जंगल से यहां लाया ,जिसको आपने बचपन से सीथ-प्रसाद (संतो के पत्तल में बचा शेष भोजन प्रसाद) देकर पाला है,आपके उसी दास ने अभी यह प्रार्थना की है।
श्री नभाजी का उपर्युक्त कथन सुनकर श्री अग्रदेव जी को महान् तथा नवीन आश्चर्य हुआ। मनमें विचार करने लगे कि इसका यहाँ मेरी मानसी सेवा में प्रवेश कैसे हो गया और यही खड़े खड़े इसने जहाज की रक्षा कैसे की? विचार करते ही उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे जान गए कि यह सब संतो की सेवा तथा उनकेे सीथ- प्रसाद ग्रहण करने का ही प्रभाव है,जिससे ऐसी दिव्या दृष्टि प्राप्त हो गयी है।
अब जो मानसी सेवा अधूरी रह गयी थी ,उसमे पुनः लग गए । विलंभ के लिए सखी चन्द्रकला जी(अग्रदेव जी ) ने क्षमा मांगी । प्रभु श्रीराम मुस्कुराते दिखाई पडे , चन्द्रकला जी ने पूछा की प्रभु आप क्यों मुस्कुरा रहे है ?प्रभु ने कहा – चन्द्रकला ! यह बालक जो आपकी सेवा में है यह कोई साधारण बालक नहीं है ,साक्षात् ब्रह्मा जी ही है ।यह सब लीला हमारी इच्छा से हुई है , इस बालक के द्वारा जगत का बहुत बड़ा कल्याण होना है इसका बहुत अच्छे से संभल करना । प्रभु को माला पहनाकर मानसी सेवा से बहार आये और नारायणदास से कहा की तुमने हमारे पेट की बात (नाभि की बात ) जान ली इसीलिए तुम्हे जगत में नाभा नाम से जाना जायेगा । इस घटना के बाद से उनका नाम नाभा पड गया ।
**(नाभा नाम के संबन्ध में संतोंके मुख से एक और कथा सुनी गई है। वह यह कि अग्रदास जी भगवान् श्रीसीतारामजी की मानसी सेवा कर रहे थे। मानसी सेवामें प्रभुको मुकुट धारण करवा दिया था और माला धारण करानी थी। मानसी भावना में माला छोटी थी जो मुकुट के ऊपर से धारण कराने में कुछ जटिल-सी लग रही थी।
अग्रदास जी प्रयास कर रहे थे, परन्तु वह माला भगवान् श्रीसीतारामजी के गलेमें जा नहीं रही थी। उसी समय नारायणदास ने कहा – गुरुदेव! पहले यदि मानसी सेवामें मुकुट उतार लिया जाए, माला धारण कराकर फिर मुकुट धारण करा दिया जाए, सब ठीक हो जाएगा। तब अग्रदासजी ने कहा कि – नारायणदास ! तुमने तो मेरी नाभि की बात जान ली, आजसे तुम्हारा उपनाम नाभा होगा।)**
श्री अग्रदेव जी ने कहा कि तुम्हारे ऊपर यह साधुओ की कृपा हुई है। यह नहीं कहा की हमारी कृपा अथवा तुम्हारी सेवा का प्रताप है , उन्होंने कहा की संतो की कृपा से हुआ है । श्री अग्रदेव जी ने आगे कहा की अब तुम उन्ही साधु-संतों के गुण, स्वरुप और हृदय के भावो का वर्णन करो । इस आज्ञा को सुनकर श्री नाभा जी ने हाथ जोड़कर कहा- भगवन् ! मैं श्रीराम-कृष्ण के चरित्रों को तो कुछ गा भी सकता हूँ क्योंकि उन चरित्रों का आधार श्रीमद् भागवत ,वाल्मीकि रामायण इत्यादि परंतु संतों के चरित्रों का ओर छोर नहीं पा सकता हूँ, क्योंकि उनके रहस्य अति गंभीर है । बहुत से भक्त हुए जिन्होंने बडे गुप्त रूप में भजन किया । मैं भक्तो की भक्ति के रहस्य को नहीं पा सकता । तब श्रीअग्रदेव जी ने समझाकर कहा- जिन्होंने तुम्हे मेरी मानसी सेवा और सागर में नाव दिखा दी,वे ही भक्त भगवान् तुम्हारे ह्रदय में आकर सब रहस्यों को कहेंगे और अपना स्वरुप दिखाएंगे ।
श्री नाभादास जी जिन भक्तो का स्मरण करते वह नाभाजी के चित्त में अपनी लीला प्रकट कर देते और नाभा जी उसको लिखते जाते परंतु जब उन्होंने वृन्दावन के अनन्य रसिको का स्मरण किया तब उनके चित्त में कोई लीला प्रकट नहीं हुई । श्री गुरुदेव से प्रार्थना करने पर उन्होंने बताया की इनकी स्वामिनी तो श्री राधारानी है ,उनका स्मरण किये बिन रसिको के चरित्र चित्त में नहीं आ सकते । अतः श्री नाभाजी ने पहले श्री राधारानी जी के चरणो का समरण किया उसके बाद समस्त रसिको की लीलाएं उनके चित्त में प्रकट हो गयी ।
किसी भी ग्रन्थ के लेखन का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है । ३ प्रकार के मंगलाचरण होते है – आशीर्वादात्मक , वस्तुनिर्देशात्मक , नमस्करात्मक । पहले में पाठको के लिए आशीर्वाद दिया जाता है । दूसरे में बताया जाता है की इस ग्रन्थ में किस विषय की चर्चा है । तीसरे में श्री गुरु इष्ट गणेश आदि को नमस्कार किया जाता है । विशेष बात यह है की श्री भक्तमाल के मंगलाचरण में तीनो प्रकार के मंगलाचरण आते है । नाभादास जी ने ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण के रूप में निम्न दोहे से किया है :
भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक
इनके पद बंदन किएँ नासत बिघ्न अनेक ।।
मंगल आदि विचार रहि वस्तु न और अनूप ।
हरि जन को जस गावते हरिजन मंगल रूप।।
संतन निरने कियो माथि श्रुति पुराण इतिहास ।
भजिबे को दोई सुघर के हरि के हरिदास ।।
(श्री गुरु)अग्रदेव आग्या दई भक्तन को जस गाऊ ।
भवसागर के तरन को नाहिंन और उपाउ ।।
जैसे गाय के थन देखने में चार है परंतु चारो के अंदर एक ही सामान दूध भरा रहता है,वैसे ही भक्त,भक्ति ,भगवान् और गुरु ये चारो अलग अलग दिखाई देने पर भी सर्वदा सर्वथा अभिन्न है । चारो में से एक से प्रेम हो जानेपर तीनो स्वतः प्राप्त हो जाते है । इनके श्रीचरणो की वन्दना करनेसे समस्त विघ्नों का पूर्णरूप से नाश हो जाता है । ग्रन्थ के आरम्भ मे मंगलाचाण के सम्बन्ध मे विचार करनेपर यही समझ मे आता है कि भक्त चरित्रो के समान दूसरी और कोई वस्तु सुन्दर नहीं है, जिससे मंगलाचरण किया जाय ।
भगवद्भक्तों का चरित्रगान करने मे भगवद्भक्त ही मंगलरूप हैं । वेद, पुराण, इतिहास आदि सभी शास्त्रो ने तथा सभी साधु सन्तो ने यही निर्णय किया है कि भजन, आराधना के लिये भगवान् या भगवान् के भक्त…दो ही सबसे सुन्दर है ।।स्वामी श्रीअग्रदेव जी ( श्री अग्रदग्स जी) ने मुझ नारायण दास (नाभादास) को आज्ञा दी कि भक्तों के यशोगान करो; क्योकि संसार सागर से पार होने का इससे सरल दूसरा कोई उपाय नहीं है ।।
श्री नाभा जी कहते है की भगवद्भक्तों के गुण और चरित्र का वर्णन करने से इस संसार में कीर्ति और सभी प्रकार के कल्याणों की प्राप्ति होती है ; आधिभौतिक , आधिदैविक , आध्यात्मिक -तीनो तापो का नाश होता है ।
जग कीरति मंगल उदै तीनौं ताप नसायँ ।
हरिजन को गन बरनते हरि हृदि अटल बसायँ ।।( भक्तमाल दोहा १०८)
श्री नाभाजी जीवो को सावधान करते हुए कहते है -यदि भगवान् को प्राप्त करने की आशा है तो भक्तो के गुणोंको गाइये ,निस्संदेह भगवत्प्राप्ति हो जायेगी ।नहीं तो जन्म -जन्मान्तरों में किये गए अनेक पुण्य भुने हुए बीज की तरह बेकार हो जायेंगे (भुने हुए बीज पुनः अंकुरित नहीं होते )। उनसे कल्याण न होगा, फिर जन्म -जन्म में पछताना पड़ेगा ।
(जो)हरि प्रापति की आस है तौ हरिजन गुन गाव ।
नतरु सुकृत भुंजे बीज ज्यौ जनम जनम पछिताय ।।
(भक्तमाल दोहा २१०)
जो भक्तो के चरित्रों को गाता है,श्रवण करता है तथा उनका अनुमोदन करता है ,वह भगवान् को पुत्र के सामान प्रिय है,उसे भगवान् अपनी गोद में बिठा लेते है ।
सो प्रभु प्यारौ पुत्र ज्यों बैठे हरि की गोद ।(दोहा २११)
सत्संग में संत चरित्रों को सुनते -सुनते उनमे श्रद्धा और विश्वास दृढ़ हो जाता है ।भक्त ,भक्ति ,भगवान् और गुरुदेव में श्रद्धा रखने वाले सभी प्राणी इसके अधिकारी है ।श्रद्धा विश्वास विहीन ,नास्तिक और कुतर्की व्यक्ति श्री भक्तमाल का अधिकारी नहीं है ।वे कदाचित् पढ़ेंगे और सुनेंगे तो संतो की और ग्रंथो की निंदा करेंगे । इससे लोक और परलोक दोनों बिगड़ जायेंगे ।
जैसे श्रीमद्भागवत और रामायण में चीर हरण,रास लीला और बाली वध की लीला रहस्यमयी है ,वैसे ही श्री भक्तमाल में कुछ भक्तो के चरित्र रहस्यपूर्ण है । इन लीलाओ को सबके लिए समझ पाना कठिन है अतः भक्तमाल को गुरुदेव अथवा संतो के श्रीमुख से श्रवण करना उत्तम है ।अविश्वास और कुतर्को को त्यागकर भक्तमाल का श्रवण ,मनन और निदिध्यासन करके जीवन को सफल बनाये । संत महात्माओ द्वारा श्री भक्तमाल का श्रवण करने से मनकी शंकाए मिटेंगी । यदि भक्त चरित्रों को समझने में परेशानी हो तो संतो के चरणों में जाकर उन्हें समझना चाहिए , संत और ग्रंथो के बारे में गलत विचार ,कुतर्क और अविश्वास नहीं करना चाहिए ।
जो भक्तमाल के रहस्य को जानने वाले है वे कभी भी किसी संत वेशधारी की निंदा नहीं करेंगे । प्रायः लोग कही सुनते है की अमुक संत ने ऐसा व्यवहार किया तो उसके बारे में गलत वचन प्रयोग करने लगते है ।यदि आपको उनपर श्रद्धा नहीं है तो न रखे,परंतु निंदा न करे । यदि वह सच्चा संत हुआ तो यह बहुत भारी अपराध निश्चित रूप से होगा । जिनमे वैष्णव चिन्ह (तिलक ,कंठी ) न भी दिखाई पड़े उन्हें ऐसा सोच कर सम्मान करे की इनके हृदय में अभी तक भक्ति जागृत नहीं हुई है । यह बहुत से भक्तमाली संतो का मत है ।
सभी संतो का बिना जाति विचार किये सम्मान करना सबसे जरुरी बात है । भक्ति का अधिकार सभी वर्णों के व्यक्तियो को है इस बात को प्रमाणित करने के लिए अनेक संत महात्मा विविध जातियों में प्रकट हुए है जैसे शबरी ,निषाद , चोखमेळा , तुकाराम ,कबीर ,रैदास ,धन्ना ,रसखान ,गुलाब सखी आदि । जो हरी को भजे वही हरी का है । पीपल का वृक्ष कौवे की विष्ठा से उत्पन्न होता है परंतु उसकी पूजा परिक्रमा पंडित करते है । तुलसी गन्दी जगह में भी प्रकट हो फिर भी उसे अपवित्र नहीं समझा जाता । कबीरदास जी ने कहा है –
जाति न पूछो साधू की ,पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का ,पड़ा रहन दो म्यान ।।
ग्रंथ के उपसंहार में श्री नाभादास जी कहते है – किसीको योग का भरोसा है ,किसी को यज्ञ का ,किसीको कुल का और किसी को अपने सत्कर्मो का , किंतु मुझ नारायण (नाभादास ) की तो केवल यही अभिलाषा है कि गुरुदेव की कृपा से भक्तो की यह माला मेरे हृदय देश में सदा विराजमान रहे ।
भक्तमाल के सुमेरु :
श्री नाभादास जी ने भक्तो की माला (भक्तमाल ) तो बनायीं परंतु माला का सुमेरु का चयन करना कठिन हो गया। किस संत को सुमेरु बनाएं इस बात का निर्णय कठिन हो रहा था । पूज्य श्री अग्रदेवचार्य जी के चरणों में प्रार्थना करने पर उन्होंने प्रेरणा की के वृंदावन में भंडारा करो और संतो का उत्सव करो ,उसी भंडारे उत्सव में कोई न कोई संत सुमेरु के रूप में प्राप्त हो जायेगा । सभी तीर्थ धामो में संतो को कृपापूर्वक भंडारे में पधारने का निमंत्रण भेजा गया । काशी में अस्सी घाट पर श्री तुलसीदास जी को भी निमंत्रण पहुंचा था परंतु उस समय वे काशी में नहीं थे । उस समय वे भारत के तत्कालीन बादशाह अकबर के आमंत्रण पर दिल्ली पधारे थे ।
दिल्ली से लौटते समय गोस्वामी तुलसीदास जी वृंदावन दर्शन के लिए पहुंचे । वे श्री वृंदावन में कालीदह के समीप श्रीराम गुलेला नामक स्थान पर ठहर गए । श्री नाभाजी का भंडारे में पधारना अति आवश्यक जानकार गोपेश्वर महादेव ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर गोस्वामी जी से भंडारे में जाकर संतो के दर्शन करने का अनुरोध किया । गोस्वामी जी भगवान् शंकर की आज्ञा पाकर भंडारे में पधारे । गोस्वामी जी जब वहां पहुंचे उस समय संतो की पंगत बैठ चुकी थी । स्थान पूरा भरा हुआ था ,स्थान पर बैठने की कोई जगह नहीं थी ।
तुलसीदास उस स्थान पर बैठ गए, जहां पूज्यपाद संतों के पादत्राण (जूतियां )रखी हुई थीं। परोसने वालो ने उन्हें पत्तल दी और उसमे सब्जियां व पूरियां परोस दीं। कुछ देर बाद सेवक खीर लेकर आया । उसने पूछा – महाराज ! आपका पात्र कहाँ है ? खीर किस पात्र में परोसी जाये ?
तुलसीदास जी ने एक संत की जूती हाथो में लेकर कहा -इसमें परोस दो खीर । यह सुनते ही खीर परोसने वाला क्रोधित को उठा बोला – अरे राम राम ! कैसा साधू है जो कमंडल नहीं लाया खीर पाने के लिए ,अपना पात्र लाओ । पागल हो गये हो जो इस जूती में खीर लोगे?
शोर सुनाई देने पर नाभादास जी वह पर दौड़ कर आये ।उन्होने सोचा कही किसी संत का भूल कर भी अपमान न हो जाए । नाभादास जी यह बात नहीं जानते थे की तुलसीदास जी वृंदावन पधारे हुए है । उस समय संत समाज में गोस्वामी जी का नाम बहुत प्रसिद्ध था, यदि वे अपना परिचय पहले देते तो उन्हें सिंहासन पर बिठाया जाता परंतु धन्य है गोस्वामी जी का दैन्य ।
नाभादास जी ने पूछा – संत भगवान् !आप संत की जूती में खीर क्यों पाना चाहते है ?यह प्रश्न सुनते ही गोस्वामी जी के नेत्र भर आये । उन्होंने उत्तर दिया – परोसने वाले सेवक ने कहा की खीर पाने के लिए पात्र लाओ । संत भगवान् की जूती से उत्तम पात्र और कौनसा हो सकता है ? जीव के कल्याण का सरल श्रेष्ठ साधन है की उसे अकिंचन भक्त की चरण रज प्राप्त हो जाए । प्रह्लाद जी ने कहा है – न अपने आप बुद्धि भगवान् में लगती है और न किसी के द्वारा प्रेरित किये जाने पर लगती है । तब तक बुद्धि भगवान् में नहीं लगती जब तक किसी आकिंचन प्रेमी रसिक भक्त की चरण रज मस्तक पर धारण नहीं की जाती । यह जूती परम भाग्यशालिनी है ।
इस जूती को न जाने कितने समय से संत के चरण की रज लगती आयी है और केवल संत चरण रज ही नहीं अपितु पवित्र व्रजरज इस जूती पर लगी है । यह रज खीर के साथ शरीर के अंदर जाएगी तो हमारा अंत:करण पवित्र हो जाएगा । संत की चरण रज में ऐसी श्रद्धा देखकर नाभा जी के नेत्र भर आये । उन्होंने नेत्र बंद कर के देखा तो जान गए की यह तो भक्त चरित्र प्रकट करते समय(भक्तमाल लेखन के समय) हमारे ध्यान में पधारे हुए महापुरुष है । नाभाजी ने प्रणाम् कर के कहा – आप तो गोस्वामी श्री तुलसीदास जी है , हम पहचान नहीं पाये ।
गोस्वामी जी ने कहा – हां ! संत समाज में दास को इसी नाम से जाना जाता है । परोसने वाले सेवक ने तुलसीदास जी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की । सभी संतो ने गोस्वामी जी की अद्भुत दीनता को प्रणाम् किया । इसके बाद श्री नाभादास जी ने गोस्वामी तुलसीदास जी को सिंहासन पर विराजमान करके पूजन किया और कहा की इतने बड़े महापुरुष होने पर भी ऐसी दीनता जिनके हृदय में है ,संतो के प्रति ऐसी श्रद्धा जिनके हृदय में है, वे महात्मा ही भक्तमाल के सुमेरु हो सकते है ।
संतो की उपस्तिथि में नाभादास जी ने पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी को भक्तमाल सुमेरु के रूप में स्वीकार किया ।जो भक्तमाल की प्राचीन पांडुलिपियां जो है ,उनमे श्री तुलसीदास जी के कवित्त के ऊपर लिखा है – भक्तमाल सुमेरु श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ।
महान संत पूज्य श्री रामकुमार दास जी का एक भाव है – तुलसीदास जी के सुमेरु होने पर किसी प्रकार की कोई शंका नहीं है , संदेह नहीं है और कोई विरोध भी नहीं है परंतु एक भाव उनका है की भक्तमाल सुमेरु पूज्य श्री कृष्णदास पयोहारी जी महाराज है (नाभा जी के दादा गुरु ) । उनका भाव है की कीसी भी माला के एक एक दाने में सूत्र एक ओर से जाता है परंतु एक सुमेरु ऐसा होता है जिसमेे सूत्र दोनो ओर से जाता है ।
माला के दानों में एक विशिष्ट दाना है सुमेरु । भक्तमाल में जितने भक्त है उनके प्रायः एक भक्त का एक छप्पय है । कही कही तो एक ही छप्पय में अनेक भक्तो का स्मरण किया गया है परंतु श्री कृष्णदास पयहारी जी ऐसे संत है जिनके लिए नाभा जी ने दो छप्पय छंद लिखे है । इस भाव के कारण उन्होंने श्री कृष्णदास पयहारी जी को सुमेरु के रूप में स्वीकार करने का भाव भी संतो को प्रिय है ।
ग्रंथ में दोहे तथा छप्पय संख्या :
श्री नाभादास जी की भक्तमाल में दोहे तथा छप्पयों की कुल संख्या २१४ है, कुछ संतो का मत है २१५ । एक पद को कुछ संत प्रक्षिप्त मानते है तथा कुछ संत मूल में मानते है । श्री अवध के महान रसिक संत श्री रूपकला जी की भक्तमाल पर टीका बहुत प्रसिद्ध है, उनका भाव है –
दशरथ जी का स्मरण भक्तमाल में अलग से नहीं किया गया है । श्री रूपकला जी कहते है की दशरथ जी का स्मरण तो भक्तमाल में है परंतु सीधे सीधे नहीं है । श्री मनु और शतरूपा जी ने नैमिषारण्य क्षेत्र में तपस्या करके भगवान् से अपने जैसा होने का वर माँगा ।
मनु जी ही दशरथ जी हुए और शतरूपा जी ही कौशल्या माता हुई । यह बात सभी के समझ में नहीं आती इसीलिए श्री रूपकला जी ने दशरथ जी के लिए एक छप्पय लिखा है । इसका भाव वे यह देते है की इस एक छप्पय को मिलाने पर संख्या २१६ हो जाती है । दशरथ जी के छप्पय को मिला लिया जाए तो १०८ और १०८ के बराबर २१६ हो जायेगा । यह २ अष्टोत्तरी हो जायेगी , एक माला श्री कनक बिहारी सरकार के कंठ में और एक माला श्री कनक बिहारिणी के कंठ में सुशोभित होगी ।अतः दशरथ जी के छप्पय को मिलाकर २१६ संख्या ही लेना उचित है और श्री रूपकला जी यह भी मानते है की किसी प्राचीन प्रति में कही उपलब्ध भी होता है ।
भक्तिरसबोधिनि टीका :
नाभादास जी के एक शिष्य हुए श्री गोविन्ददास जी जिन्होंने नाभाजी की आज्ञा से भक्तमाल जी की कथा का बहुत प्रचार किया । नाभाजी जब श्री साकेत धाम पधार गए उस समय भक्तमाल कथा का प्रचार कुछ कम हो गया । श्री नाभादास जी सखी रूप(नभा अली ) में श्री साकेत धाम में श्री सीताराम जी की नित्य सेवा किया करते थे । एक दिन प्रभु को नाभा अली के मुख पर उदासी दिखाई पड़ी । प्रभु ने पूछा की आपकी उदासी का क्या कारण है ? नाभा अली ने कहा की आपकी सेवा प्राप्त हो रही है ,दुःख तो नहीं है परंतु अब भक्तमाल की कथा का प्रचार कम होने लगा है क्योंकि छप्पय के अर्थ बहुत गूढ़ है ।
गोविन्ददास जी कथा तो कहते है पर उन्हें भी ऐसा लगता है की भक्तमाल जी की टीका हो जाए तो अच्छा होगा , आगे चलकर कही भक्तमाल कथा लुप्त न हो जाए ।प्रभु ने नाभा अली से कहा की आप किसी संत को भक्तमाल पर टीका करने की प्रेरणा करें । नाभा अली ने कहा – मुझे ऐसा कोई सुझ नहीं रहा , आप ही कृपा कर के आज्ञा करे की हम किस संत को प्रेरणा करे । श्री राम जी ने गौड़ीय वैष्णव संत श्री प्रियादास जी को प्रेरणा करने की आज्ञा करी ।
श्री प्रियादास जी का परिचय और भक्तमाल की टीका :
श्री गौरांग महाप्रभु ने नवद्वीप से अपने छः प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजा तथा वहां सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई और गौड़ीय संप्रदाय एवं महामंत्र का प्रचार करवाया । श्री चैतन्य महाप्रभु की पवित्र परंपरा के ६ गोस्वामी गण इस प्रकार है :
श्री रूप गोस्वामी पाद, श्री सनातन गोस्वामी पाद ,श्री जीव गोस्वामी पाद, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी पाद,श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी पाद, श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी पाद ।
श्री मद् गोपालभट्ट गोस्वामी पाद के शिष्य श्री निवासचार्य जी , उनके शिष्य श्री मनोहर दास जी ,उनके शिष्य हुए श्री प्रियादास जी महाराज । श्री प्रियादास जी के विषय में अधिक वर्णन प्राप्त नहीं हो पाता । बताया जाता है की इनका जन्म राजपुरा नामक ग्राम सूरत (गुजरात) में हुआ ।ये नवीन अवस्था में श्री वृन्दावन आ गए और श्री राधारमण मंदिर में श्री मनोहरदास जी के शिष्य हो गए । श्री साकेत धाम पधारने के १०० वर्ष बाद वैष्णवरत्न श्री प्रियादास जी को एक दिन श्री नाभादास जी द्वारा भक्तमाल पर टीका करने की आज्ञा हुई जिसका उन्होंने स्वयं इस प्रकार वर्णन किया है :
श्री प्रियादासकृत भक्तिरसबोधिनी टीका का मंगलाचरण :
महाप्रभु कृष्णचैतन्य मनहरनजू के चरण कौ ध्यान मेरे नाम मुख गाइये। ताही समय नाभाजू ने आज्ञा दई लई धारि टीका विस्तारि भक्तमाल की सुनाइये।।
कीजिये कवित्त बंद छंद अति प्यारो लगै जगै जग माहिं कहि वाणी विरमाइये। जानों निजमति ऐ पै सुन्यौ भागवत शुक द्रुमनि प्रवेश कियो ऐसेई कहाइये।। १।।
श्रीप्रियादासजी भक्तमाल की भक्तिसबोधिनी टीका का मंगलाचरण एवं इस टीका के लिखे जाने का हेतु बताते हुए कहते हैं कि एक बार मैं महाप्रभु श्री कृष्णचैतन्य एवं गुरुदेव श्री मनोहर दास जी के श्रीचरणकमल का हृदय मे ध्यान और मुख से नाम संकीर्तन कर रहा था, उसी समय श्रीनाभा जी ने मझे आज्ञा दी जिसे मैने शिरोधार्य कर लिया ।
वह आज्ञा यह थी कि श्री भक्तमाल की विस्तार पूर्वक टीका करके सुनाइये । टीका कवित्त छन्दों मे कीजिये, जो कि अत्यन्त प्रिय लगे और सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध हो । इस प्रकार भक्तोंका चरित्र कहकर अपनी वाणी को विश्राम दीजिये अर्थात् भक्तोंका चरित्र कहने में वाणी को लगा दीजिये ।
ऐसा कह श्रीनाभा जी ने वाणी को विश्राम दिया, तब मैने भावना में ही निवेदन किया कि मैं तो अपनी बुद्धि को जानता हूँ कि वह टीका करने में सर्वथा असमर्थ है परतु मैने श्रीमद्भागवत में सुना है कि श्री शुकदेव जी वृक्षो मे प्रवेश करके स्वयं बोले थे, वैसे ही आप भी मेरी जड़मति में प्रवेश कर के टीका की रचना कर लेंगे ।
भक्तिसबोधिनी टीका का नामस्वरूप वर्णन:
रची कविताई सुखदाई लागै निपट सुहाई औ सचाई पुनरुक्ति लै मिटाई है। अक्षर मधुरताई अनुप्रास जमकाई अति छवि छाई मोद झरी सी लगाई है।।
काव्य की बडाई निज मुख न भलाई होति नाभाजू कहाई , याते प्रौढ़िकै सुनाई है। हृदै सरसाई जो पै सुनिये सदाई यह भक्तिरसबोधिनी सुनाम टीका गाईं है।। २ ।।
इस कवित्त मे श्रीप्रियादास जी अपने काव्य की विशेष ताएं एवं टीका का नाम बताते हुए कहते हैं कि मैंने टीका काव्य की ऐसो रचना की है, जो पाठकों और श्रोताओ को सुख देनेवाली है और अत्यन्त सुहावनी लगती है । इसमें सचाई हें अर्थात सत्य सत्य कहा गया है । पुनरुक्ति दोष को मिटा दिया गया है ।
अक्षरो की मधुरता, अनुप्रास और यमक आदि अलंकारो से अत्यन्त सुशोभित होकर इस टीका काव्य ने आनन्द की झरी सी लगा दी है । अपने काव्य की अपने मुखसे प्रशंसा करना अच्छा नहीं होता, परंतु इसे तो श्रीनाभाजी ने कहलवाया है, इसीसे इसकी प्रशंसा नि:शक होकर दृढतापूर्वक सुनायी है । यदि नीरस हृदय वाला व्यक्ति भी सदा इसका श्रवण करे तो उसके हृदय में सरसता होगी और सरस हृदयवाले के लिये बारम्बार सुननेपर भी यह टीका उत्तरोत्तर सरस प्रतीत होगी । ऐसी यह भक्तिरसबोधिनी सुन्दर नामवाली टीका गायी है, जो भक्ति के सभी रसों का बोध करानेवाली है ।
श्री भक्तिदेवी का श्रृंगार
श्रद्घाई फुलेल औ उबटनौ श्रवण कथा मैल अभिमान अंग अंगनि छुड़ाइये । मनन सुनीर अन्हवाइ अंगुछाइ दया नवनि वसन पन सोधो लै लगाइये।।
आभरन नाम हरि साधु सेवा कर्णफूल मानसी सुनथ संग अंजन बनाइये। भक्ति महारानीकौ सिंगार चारु बीरी चाह रहै जो निहारि लहै लाल प्यारी गाइये।। ३।।
श्रृंगारीत रूप विशेष आकर्षक होता है, अत: इष्टदेव को प्रसन्न करनेके लिये टीकाकार ने इस कवित्त में श्रीभक्ति देवी के श्रृंगार का वर्णन एक रूपक के द्वारा किया है । भक्ति देवी के श्रीविग्रह की निर्मलता के लिये श्रद्धारूपी फुलेल से शुष्कता दूरकर कथाश्रवणरूपी उबटन लगाइये और अहंकार रूपी मैल को प्रत्येक अंगसे छुडाइये । फिर मनन के सुन्दर जलसे स्नान कराकर दयाके अंगोछे से पोछिये ।
उसके बाद नम्रता के वस्त्र पहनाकर भक्तिमें प्रतिज्ञारूपी सुगन्धित द्रव्य लगाइये । फिर नाम संकीर्तन रूप अनेक आभूषण, हरि और साधुसेवा के कर्णफूल तथा मानसी सेवा की सुन्दर नथ पहनाइये । फिर सत्संग रुपी अंजन लगाइये। जो भक्तिमहारानी का इस प्रकार श्रृंगार करके फिर उन्हे अभिलाषारूपी बीडा (पान) अर्पण करके उनके सुन्दर स्वरूप का दर्शन करता रहे, वह श्रीप्रिया प्रियतम को प्राप्त करता है । ऐसा सन्तो एवं शास्त्रो ने गाया है ।।
भक्तिरसबोधिनी टीका की महिमा
शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, औ श्रृंगारु चारु, पाँचों रस सार विस्तार नीके गाये हैं । टीका कौ चमत्कार जानौगे विचारि मन, इनके स्वरूप मै अनूप लै दिखाये हैं।।
जिनके न अश्रुपात पुलकित गात कभू ,तिनहूँ को भाव सिंधु बोरि सो छकाये है । जौलौं रहैं दूर रहैं विमुखता पूर हियो, होय चूर चूर नेकु श्रवण लगाये हैं ।। ४ ।।
इस कवित्त में टीकाकार टीका की विशेषता बताते हुए कहते है कि इस भक्तिरसबोधिनी टोका में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और श्रृंगार – भक्ति के इन पाँचो रसो का तत्त्व विस्तार से अच्छी प्रकार वर्णन किया गया है । इनके सुन्दर स्वरूपो को जैसा मैने भलीभाँति उत्तम रीतिसे वर्णन करके दिखाया है, इस चमत्कार को पाठक एवं श्रोता अपने मनमें अच्छी तरह से विचार करनेपर ही जानेंगे ।
श्रवण, कीर्त्तन आदि करके प्रेमवश जिनके नेत्रो मे कभी भी आनन्द के आंसू नहीं आते हैं और शरीर में रोमांच नहीं होता है, ऐसे नीरस, कठोर हृदयवाले लोगो को भी भक्तिके भावरूपी समुद्र में डुबाकर तृप्त कर दिया है । जबतक वे इससे दूर है तभीतक भक्ति से पूर्ण विमुख हैं, किंतु यदि कान लगाकर इसका थोडा भी श्रवण करेंगे तो उनका हदय चूर चूर होकर रस से परिपूर्ण हो जायगा ।।
प्रियादास जी द्वारा भक्तमाल की महिमा :
पंच रस सोई पंच रंग फूल थाके नीके, पीके पहिराइवे को रचिकै बनाई है। वैजयन्ती दाम भाववती अलि ‘नाभा’, नाम लाई अभिराम श्याम मति ललचाई हैं।।
धारी उर प्यारी ,किहूँ करत न न्यारी ,अहो ! देखौ गति न्यारी ढरियापनको आई है। भक्ति छबिभार, ताते, नमितशृंगार होत, होत वश लखै जोई याते जानि पाई हैं ।। ५।।
प्रस्तुत कवित्त में श्रीभक्तमाल को पंचरंगी वैजयंती माला बताकर उसकी महिमा, सुन्दस्ता और भगवत्प्रियता का वर्णन किया क्या है । पूर्व कवित्त में कहे गये पांच रस ही मानो फूलों के सुन्दर गुच्छे हैं, भाववती नाभा नामकी सखीने अपने प्रियतम को पहनाने के लिये इसे अच्छी तरह से बनाया है ।
यह वैज़यन्ती माला इतनी सुन्दर है कि लोकामिराम श्यामसुन्दर श्रीराम की बुद्धि भी इसे देखकर ललचा गयी । उन्होने इस प्यारी वनमाला को अपने वक्ष:स्थलपर धारण किया, उन्हें यह इतनी प्रिय लगी कि इसे वे कभी भी अपने कण्ठ से अलग नहीं करते हैं । इस माला की विचित्र गति तो देखिये कि भगवान् ने इसे कण्ठ में धारण किया और यह लटक कर श्रीचरणोमे आ लगी है ।
इस मालामें भक्ति की सुन्दरता का भार है, इसीसे झुकी है । पंचरंगी भक्तमाल पहने हुए श्यामसुंदर क जो दर्शन करता है, वह उनके वशमें होकर उन्हें वशमें कर लेता है । यह रहस्य की बात भक्तमाल के द्वारा जानी गयी है ।।
सत्संग के प्रभाव का वर्णन :
भक्ति तरु पौधा ताहि विघ्न डर छेरीहू कौ, वारिदैे बिचारि वारि सींच्यो सत्संग सों । लाग्योई बढ़न, गोंदा चहुँदिशि कढन सो चढन अकाश, यश फैल्यों बहुरंग सों।।
संत उर आल बाल शोभित विशाल छाया ,जिये जीव जाल ,ताप गये यों प्रसंग सों । देखौ बढ़वारि जाहि अजाहू की शंका हुती, ताहि पेड बाँधे झूमें हाथी जीते जंग सों ।। ६।।
भक्ति का वृक्ष जब साधक के हृदय में छोटे से पौधे रूपमें होता है, तब उसे हानिका भय मायारूपी बकरी से भी होता है, अत: पौधे की रक्षाके लिये उसके चारों ओर विचाररूपी घेरा ( थाला ) लगाकर सत्संगरूपी जलसे सींचा जाता है, तब उसमें चारों ओर से शाखा प्रशाखाएं निकलने लगती हैं और वह आकाश की और चढने बढते लगता है ।
सरल साघुहृदयरूप थाले में सुशोभित इस विशाल भक्ति वृक्ष की छाया अर्थात् सत्संग पाकर त्रिविध तापोसे तपे जीवसमूह सन्तापरहित होकर परमानन्द प्राप्त करते हैं । इस प्रकार सार सम्भार करनेपर इस भक्ति का विचित्र रूप से बढना तो देखो कि जिसको पहले कभी छोटी सी बकरी भी डर था, उसीमें आज महासंग्रामविजयी काम, क्रोध आदि बड़े बड़े हाथी बंधे हुए झूम रहे है, परंतु उस वृक्ष को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा सकते हैं ।।
भक्तमाल स्वरुप वर्णन:
जाको जो स्वरूप सो अनूप लैे दिखाय दियो, कियो यों कवित्त पट मिहिं मध्य लाल है । गुण पै अपार साधु कहैं आंक चारिही में, अर्थ विस्तार कविराज टकसाल है।। सुनि संत सभा झूमि रही, अलि श्रेणी मानो, धूमि रही, कहैं यह कहा धौं रसाल है। सुने हे अगर अब जाने मैं अगर सही, चोवा भये नाभा, सो सुगंध भक्तमाल है।। ७।।
जिस भक्त का जैसा सुन्दरस्वरूप है, उसको श्रीनाभा जी ने अति उत्तम प्रकार से अपने काव्यों में स्पष्ट कर दिया है । कविता ऐसी की है कि जैसे महीन वस्त्रके अन्दर रखे हुए माणिक्य रत्न की चमक बाहर प्रकाश करे उसी प्रकार कविता की शब्दावली से भक्तस्वरूप प्रक्ट होता है । साधु भक्तो के गुण और उनकी महिमा अपार है, किंतु नाभाजी ने सन्तगुरुकृपा से थोड़े ही ‘अक्षरो मे भक्तोंके’ गुणोका ऐसो विचित्रता के साथ वर्णन किया है कि उसके अनेक अर्थ होते हैं और गुणोका अपार विस्तार हो जाता है ।
यही सच्चे टकसाली कवि की विशेषता है । संतो की सभा इसे सुनकर भक्तमाल काव्य का रसास्वादन कर आनन्द विभोर होकर झूम रही है, मानो सन्तरूपी भ्रमर समूह चरित्ररूपी सुगन्धित पुष्पो पर मंडरा रहा है । आश्वर्यचकित होकर वे कहते है कि यह कैसी विचित्र रसमयी कविता है ! मैने अगर अर्थात् स्वामी श्रीअग्रदेवजी का नाम तो सुना था, परंतु अब मैने जाना और अनुभव किया कि अगर (श्रीअग्रदेव जी – नाभाजी के गुरुदेव ) वस्तुत: अगर (सुगंधित वृक्ष ही) हैं, जिन से नाभाजी जैसा इत्र उत्पन्न हुआ है और जिसकी दिव्य सुगंध यह भक्तमाल है ।।
प्रियादास जी द्वारा भक्तमाल माहात्म्य वर्णन :
बड़े भक्तिमान, निशिदिन गुणगान करैं हरैं जगपाप, जाप हियो परिपूर है। जानि सुख मानि हरिसंत सनमान सचे बचेऊ जगतरीति, प्रीति जानी मूर है।।
तऊ दुराराध्य ,कोऊ कैसे के अराधिसकै, समझो न जात, मन कंप भयो चूर है। शोभित तिलक भाल माल उर राजै, ऐ पै बिना भक्तमाल भक्तिरूप अति दूर है।। ८।।
कोई बड़े साधक कैसे ही अच्छे भक्तिमान् हों, रात दिन भागवान् के गुणो को गान करते हों, संसार के पापो को हरते हों ,जप ध्यान आदि से उनका ह्रदय परिपूर्ण हो श्रीहरि और सन्तो के स्वरूप को जानकर सचाइसे उनकी सेवा और उनका आदर भी करते हों तथा उसमें सुख भी मानते हों – ज़गत के मायिक प्रपंचोसे बचे भी हों और प्रेम कोही मूलतत्त्व मानते हो इतनेपर भी भक्ति की आराधना कठिन है, उसकी आराधना कोई कैसे कर सकता है ?
विशुद्ध भक्ति का स्वरूप समझ में नहीं आता है, मन कम्पित होकर शिथिल हो जाता है ।चाहे मस्तकपर सुन्दर तिलक और गलेमें कण्ठी माला सुशोभित हो, परंतु बिना भक्तमाल पठन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन किये भक्ति का स्वरूप बहुत दूर है, उसका जानना असम्भव है ।।
श्री प्रियादास जी ने सं १७६९ फाल्गुन कृष्णपक्ष सप्तमी को श्री वृंदावन धाम में भक्तमाल की टीका पूर्ण की । प्रियादास जी ने टीका में ६३४ कवित्त रचे है । बिना प्रियादास जी की टीका के भक्तमाल की कथाओ को समझना बड़ा कठिन है । श्री प्रियादास जी यह सिद्धांत निश्चित करते है की अन्य साधनों में साधना का अभिमान आने की संभावना रहती है परंतु भक्तो के चरित्र श्रवण से विनय,दैन्य एवं शरणागत होने का भाव पैदा होता है ,इसलिए भक्ति का सच्चा अधिकारी बनने के लिये भक्तो के चरित्रों का श्रवण करना आवश्यक है ।
श्री भक्तमाल के माहात्म्य का वर्णन करने वाले ३ सच्चे इतिहास पूज्य संत श्री वैष्णवदास जी द्वारा लिखे गए है । श्री वैष्णव दास जी यह प्रियादास जी के नाती चेला है अर्थात शिष्य के शिष्य है । किसी भी ग्रंथ का माहात्म्य श्रवण करने से उसमे अधिक श्रद्धा होती है । श्री वैष्णव दास जी द्वारा वर्णित भक्तमाल माहात्म्य के विषय में ३ सच्ची घटनाएँ इस प्रकार है :
भयौ चहै हरि पांति को सुनै सोई हरषाय । तहां दोय इतिहास है सुनिये चित्त लगाय ।।
१. श्री वैष्णवदास जी द्वारा भक्तमाल माहात्म्य का पहला इतिहास वर्णन : श्री भक्तमाल के प्रथम श्रोता भगवान् ही है –
वृन्दावन में श्री प्रियादास जी के एक मित्र थे जिनका नाम था श्री गोवर्धननाथ दास । इन्होंने प्रियादास जी के सानिध्य में भक्तमाल का अध्ययन किया था ,वे भक्तमाल की बहुत मधुर कथा कहते थे । एक समय संतो की जमात लेकर साथ ये जयपुर पहुंचे । यह उस समय की बात है जब मुघलो के अत्याचार के कारण राज मानसिंह श्री गोविन्द देव जी को वृंदावन से जयपुर ले गए थे । संतो ने प्रेम से गोविन्द देव जी मंदिर में दर्शन किया । वहाँ के वासियो ने श्री गोवर्धननाथ दास जी से ठाकुर जी को भक्तमाल कथा सुनाने का आग्रह किया ।
उन्होंने कहा – हमें पास ही साम्भर गांव में एक उत्सव में जाना है ।श्रोताओ ने आग्रह किया किंउत्सव जब आएगा तब आप चले जाना तब तक यहाँ कृपा करके भक्तमाल कथा सुनावे । कुछ दिन कथा कहने पर उन्होंने कहा – अब हमें उत्सव क निमित्त सम्भर गाँव जाना है ,लौटकर आनेपर पुनः कथा सुनाएंगे ।
जब महाराज जी पुनः जयपुर आये तब श्रोता आनंदित हुए और भीड़ जमा होने लगी । संत भगवान् श्री गोविन्द देव जी के मंदिर में कथा सुनाने बैठे । कथा के प्रारम्भ में संत जी ने पूछा – हमें नित्य कथा कहने का अभ्यास है ,हमें क्रम मालुम नहीं है । हमने कथा कहाँ पर रोकी थी ? पिछली कथा में किस भक्त का चरित्र सुनाया था ?
सब श्रोता मौन हो गए ,एक दूसरे का मुख देखने लगे । संत भगवान कहने लगे – आप लोग ध्यान देकर कथा नहीं सुनते है तब कथा आगे क्यों सुनावे ? वह पोथी बाँधने लगे और कहने लगे हम वृन्दावन जा रहे है । उस समय मंदिर में गौड़ीय परंपरा के सिद्ध संत गोस्वामी श्री राधारमण लाल जी विराजमान थे जो वहाँ के प्रमुख पूजारी भी थे। श्री गोविन्द देव जी उनसे प्रत्यक्ष बातें करते थे ।
प्रभु ने श्री राधारमण गोस्वामी जी को आवाज लगाकर अंदर बुलाया और कहा – बाबा आप कृपया जाकर श्री गोवर्धन नाथ दास जी से कह दीजिये की भक्त श्री रैदास जी का प्रसंग चल रहा था ,अब आप आगे की कथा सुनावे । प्रभु के श्रीमुख से यह बात सुनकर श्री राधारमण गोस्वामी जी के आँखों में अश्रु आ गए । उन्होंने जाकर गोवर्धन नाथ दास जी से कहा की – प्रभु कह रहे है की श्री रैदास भक्त तक की कथा हो चुकी है, अब आगे की कथा सुनावे ।
गोवर्धन नाथ दास जी कहने लगे – हम इस बात को कैसे मान ले की प्रभु ने कहा है ? वे जानते तो थे की प्रभु ने यह बात कही है परंतु संत जी इस बात की प्रतिष्ठा करने चाहते थे की भक्तमाल के प्रथम श्रोता श्री भगवान् है । संत ने कहा – यदि सभी सामने भगवान् ने आपसे कही बात पुनःकहे तब हम मानेंगे । ऐसा लहत ही मंदिर से मधुर आवाज आयी – श्री रैदास भक्त तक की कथा हो चुकी है ,अब आगे की कथा सुनावे । भगवान् की बात सबने सुनी , श्री गोवर्धननाथ दास जी के आँखों से अश्रु बहने लगे । उन्होंने कहा – अब कितना भी विलंभ हो हम भगवान् को कथा सुनाकर ही जायेंगे ।
इस तरह भगवान् ने स्वयं प्रमाणित किया की भक्तमाल के प्रथम श्रोता श्री भगवान् है –
श्री गोविंद देव विख्याता ,कही पुजारी सौं यह बाता । श्री रैदास भक्त की गाथा, भई कहो आगे अब नाथा ।।
सुनि सु पुजारी के दृगन पानी बह्यो अपार । याके श्रोता आप हैं यहै कियो निरधार ।
श्री भगवान् को भक्तमाल कथा बहुत अधिक प्रिय है । अनेक सिद्ध संतो का मत है की भगवान् नित्य अपने धाम में श्री भक्तमाल का पाठ करते है ।
२.श्री वैष्णवदास जी द्वारा भक्तमाल माहात्म्य का दूसरा इतिहास वर्णन : श्री भक्तमाल के प्रति भगवान् का प्रेम –
एक बार संतो ने प्रार्थना की के भक्तमाल की भक्तिरसबोधिनी टीका पूर्ण हो गयी है अतः ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करनी चाहिए । इसमें ऐसा कोई नियम नही रखा की कुछ निश्चित समय में परिक्रमा पूरी करनी है ,जितने दिन में परिक्रमा पूरी हो जाये उतने दिन सही । रास्ते में श्री भक्तमाल की कथा भी चलती रहेगी । संतो के संग परिक्रमा करने प्रियदास जी चल पड़े ।ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा मार्ग पर होडल नाम का एक निम्बार्क संप्रदाय का पुराण स्थान पड़ता है । उस समय वहाँ के महंत पूज्य श्री लालदास जी महाराज थे । श्री लालदास जी महान रसिक संत थे और संतो के चरणों में बहुत श्रद्धा रखते थे ।
श्री लालदास जी ने प्रियादास जी से श्री भक्तमाल कथा कहने का निवेदन किया । कथा में बहुत श्रोताओ की भीड़ होने लगी , बहुत से संत भी विराजे और श्री लालदास जी के सब शिष्य भी भक्तमाल कथा का रसपान करने बैठे ।जहाँ भक्तमाल की कथा होती है वहाँ भोज भंडारे भी बहुत होते है । भीड़ के साथ साथ कुछ चोर भी साधुओं का वेष बनाकर वहाँ आ गए ,वही खाने पिने लगे और मस्त रहने लगे । एक रात मौका पाकर चोरों ने कुछ सामान और उसके साथ में भगवान् की मूर्ति चुरा ली ।
प्रातः काल साधू जल्दी जाग जाते है, उन्होंने प्रातः काल देखा की मंदिर के गर्भगृह के द्वार खुले पड़े है, सिंहासन पर भगवान् नहीं है । भगवान् चोरी हो गए । समस्त साधू रोने लगे ,श्री लालदास जी भी रोने लगे । प्रियादास को यह सुनते ही ऐसा लगा की प्राण ही चले गए. प्रियादास जी का प्राण धन जीवन भक्तमाल को ही था । प्रियादास जी कहने वे कहने लगे की नाभा जी ने तो कहा था -भक्तों का चरित्र भगवान को बहुत प्रिय है । त्यों जन के गुन प्यारे हरि को ।
श्री प्रियादास जी कहने लगे – ठाकुर जी को हम कथा सुना रहे थे और ठाकुर जी बिच में ही भाग गए । ऐसा लगता है भगवान् को यह भक्तमाल कथा अच्छी नहीं लगती । साधुओं की दृष्टी संसार से अलग है, वे कहने लगे ठाकुर जी को यह भक्तमाल कथा अच्छी नहीं लगी इसलिए यहाँ से उठ कर चोरो के साथ चले गए ।
ठाकुर को यह चरित न प्यारे, यही ते चोरन संग पधारे।
अब हमारी परिक्रमा पूरी हुई, हम वृन्दावन वापस जा रहे है , हम अनशन करके प्राण त्याग देंगे और इसके बाद कभी कथा नहीं कहेंगे । श्री भक्तमाल के प्रधान श्रोता भगवान् ही यहाँ से चले गए अब कथा कैसे सुनाये । श्री लालदास जी रोने लगे और कहने लगे – श्री ठाकुर जी तो पहले ही चले गए अब संत भी चले जायेंगे तो हम क्या करेंगे । सब संत रोते हुए भगवान् को याद करने लगे ।
चोर भगवान् के मूर्ति लेकर एक खेत में आकर रुक गए और सोक्सहने लगे की यही विश्राम कर लेते है ,बाद में आगे बढ़ेंगे । चोर मूर्ति खेत में रख कर सो गए । संतो का दुःख ठाकुर से देखा नहीं गया, उन्होंने चोरो को स्वप्न में आदेश दिया की हमको वापस संतो के पास ले चलो। तुमने मुझे दो तरह का दुःख दिया – एक तो संत भूखे और हम भूखे और दूसरा हमको भक्तमाल कथा सुनने नहीं मिल रही अतः मैं तुम्हें चार प्रकार के दुःख दूँगा ।
चोर बहुत डर गए और कहने लगे – भाई ! हम अभी बहुत दूर नहीं आये है ,ठाकुर जी को वापस ले चलो । ठाकुर जी का डोला सजाकर चोर लालदास जी के स्थान की ओर नाचते गाते कीर्तन करते चलने लगे । होडल के ही एक ब्राह्मणदेवता ने यह बात प्रियादास जी और संतो को बताई। समस्त संत ठाकुर आनंद में हरिनाम का कीर्तन करने लगे और ठाकुर जी का स्वागत करने चले गए ।
श्री प्रियादास जी के चरणों में दण्डवत् करके चोरो ने कहा कि अब तक हम चोरी करने के लिए साधु बने थे परंतु अब संतो के चरणों के दास बने रहेंगे ,अब सच्चे साधु बनेंगे ।
संतो की कृपा से हम चोरो ने भगवान् के स्वप्न में दर्शन किये , भगवान् को संत और भक्तमाल अति प्रिय है । हम अब संत सेवा में लगे रहना चाहते है । चोरो ने श्री पूज्य श्री लालदास जी महाराज की शरण ग्रहण कर ली और सब उनके शिष्य हो गए ।
३.श्री वैष्णवदास जी द्वारा भक्तमाल माहात्म्य का तीसरा इतिहास वर्णन : श्री भक्तमाल ग्रंथ के स्पर्श मात्र से व्यापारी का उद्धार होना –
श्री वृन्दावन में एक दिन श्री प्रियादास जी भक्तमाल की कथा कह रहे थे । अलवर राजस्थान का एक वैश्य व्यापारी व्यक्ति श्री प्रियादास जी की भक्तमाल कथा श्रवण करने के लिए बैठ गया । उसको श्री भक्तमाल में वर्णित संत सेवा ,वैष्णव स्वरूप निष्ठा , धाम निष्ठा , नाम निष्ठा सुनकर अद्भुत आनंद हुआ ,उसकी संतो में और भक्तमाल ग्रन्थ में बहुत श्रद्धा हो गयी ।कथा समाप्ति पर श्री प्रियादास जी महाराज के पास वह व्यापारी आया और प्रणाम् करके कहने लगा महाराज जी आप कृपा करके यह भक्तमाल ग्रन्थ हमें लिखवा कर दीजिए।
उस ज़माने में हाथ से पाण्डु लिपि लिख कर दी जाती थी ,उस समय छापखाने नहीं हुआ करते थे अतः संत महात्मा ही ग्रन्थ लिख कर देते थे । श्री प्रियादास जी ने उस व्यक्ति से पूछा – भाई क्या तुम्हे भक्तमाल की कथा सुनने का या पढ़ने का कुछ अभ्यास है ? अथवा क्या तुम्हे भक्तमाल का वक्ता होना है ? या कोई अन्य प्रयोजन है । वह व्यापारी व्यक्ति कहने लगा -महाराज हमने तो पहली बार कथा सुनी है ।
हमें न पाठ करना है न किसी को यह कथा सुनना चाहते है क्योंकि हम तो व्यापारी है ,हमारे पास इतना समय भी नहीं है । प्रियादास जी ने कहा – जब तुम्हारे पास ग्रन्थ का उपयोग ही नहीं है तो क्यों हमसे इतना श्रम कराना चाहते हो ? तुम हमें सही उपयोग बताओ तो हम अवश्य तुम्हे ग्रन्थ लिख देंगे । उस व्यापारी ने कहा -महाराज मै घर के काम धंदे, स्त्री पुत्रो में उलझा हुआ हूँ ,साधू संग का अवसर नहीं है मेरे जीवन में ।
महाराज परंतु एक बात मै पक्की जानता हूँ की श्री भक्तमाल में समस्त संत विराजते है ,इस बात पर मेरी दृढ निष्ठा है की जैसे भागवत् जी में श्री कृष्ण विराजमान है, श्री रामायण में श्री राघव जी विराजमान है वैसे ही भक्तमाल मे सब संत विराजमान है । मै अपने लड़को से कह दूंगा की जब हमारा अंत समय आएगा ,उस समय यह ग्रन्थ हमारे छाती पर पधर देना, इतने संतो की कृपा से मेरी मृत्यु सुधर जायेगी और यमदूतों की हिम्मत नहीं होगी की हमें नर्क ले जाएं । संतो के बल से हमको भगवान् के चरण कमल अवश्य प्राप्त होंगे ।
उसका भाब सुन कर प्रियादास जी के नेत्र भर आये ।श्री प्रियादास जी ने कहा – तुमने भले ही भजन साधन न किया हो परंतु आपकी इस भक्तमाल ग्रन्थ पर अद्भुत निष्ठा है,मै आपको यह ग्रन्थ लिख कर देता हूँ तुम मरते समय इसे अपने हृदय (छाती )पर रख लेना, तुम साधुओं के बल से इस भवसागर से उबर जाओगे ।
मरती बार हृदय पर धरिहौं, इतने साधुन संग उबरिहौं
वह बनिया व्यक्ति ग्रन्थ लेकर घर गया, पूजन करके एक वस्त्र में लपेट कर आले में रख दिया । अब न नित्य पूजन करता, न तुलसी फूल पधराता ,कुछ नहीं बस रखा रह गया और भूल गया । उसने अपने पुत्रो से कह रखा था – देखो जब हमारा अंत समय आएगा उस समय हमारे ह्रदय पर यह आले में राखी पुस्तक पधरा देना ,वृन्दावन के एक महात्मा से एक ग्रन्थ लिखवा कर हमने लाया है । देखते देखते मृत्यु का समय निकट आया । गले में कफ अटक गया । वह थोडा इशारा करके पुत्रो से कुछ कहने लगा ।
पुत्र समझ गए की पिताजी ने अंत समय में आले में रखे ग्रन्थ को ह्रदय पर रखने को कहा था । पुत्रो ने ऐसा ही किया और जैसे ही ग्रन्थ ह्रदय पर स्पर्श हुआ उसका कंठ खुल गया और वह मुख से हरे कृष्ण गोविन्द नाम का उच्चारण करने लगा । पहले उसे भयंकर यमदूत दिख रहे आने लगे पर जैसे ही पोथी उसकी छाती पर रखी गयी वैसे ही सारे यमदूत वहाँ से चले गए । पुत्रो ने पिता से पूछा – पिताजी !पहले तो आप को देख के लगता था आप बहुत कष्ट में है परंतु अब आप बहुत प्रसन्न होकर भगवान् का नाम जप कर रहे है । लगता है कोई आश्चर्य घटना घटित हुई है ।
उसने कहा मुझे भयंकर यमदूत पीड़ा पंहुचा रहे थे परंतु तुम लोगो ने जैसे ही पोथी छाती पर रखी तब वे भाग गए । अब हमें संतो का दर्शन हो रहा है ,हमको श्री नामदेव ,श्री रैदास ,श्री सेना, श्री धन्ना ,श्री पीपा, श्री कबीर जी, श्री तुलसीदास जी आकाश में खड़े हैं । वे हमें अपने साथ भगवान् के धाम चलने को कह रहे है सो अब मै भगवान् के धाम जा रहा हूं । तुम मेरे जाने पर दुःख मत करना और यह नियम बना लेना की इस परिवार में किसीकी भी मृत्यु निकट आए , यह भक्तमाल ग्रन्थ उसके हृदय पर पधर दिया जाए । वह भगवान् का नाम उच्चारण करते करते संतो के साथ भगवान् के नित्य धाम को चला गया ।
श्री वैष्णवदास जी कहते हैं – जिस परिवार के यह व्यक्ति थे उनके सब संबंधी हमारे पास आये और उन्होंने हमें यह घटना सुनायी है अब और कितनी महिमा गाऊं इसकी महिमा तो अनंत है । उस परिवार के सदस्यों ने भक्तमाल कि कथा भी करवाई । श्री भक्तमाल की केवल पोथी को घर में रखना भी संत शुभ मानते है ।
Copyrights : http://www.bhaktamal.com ®
इस चरित्र से यह बात सोलह आना सिद्ध होती है की भक्तमाल में सम्पूर्ण संतो का निवास है और यह कोई सामान्य ग्रंथ नहीं है ।बहुत से संत कंठ में श्री भक्तमाल जी का मूल पाठ तावीज़ में बंद कर के निष्ठा से धारण करते है ।