मंगलाचरण
प्रेमानन्दोत्पुलकित गात्रौ,
विद्युद्धाराधर सम कान्तिः
राधा कृष्णौ मनसि दधानं,
वन्देहं श्रीहित हरिवंशम्
श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी की वाणियाँ
निगम-अगोचर बात कहा कहौं अतिहि अनौखी ।
उभय मीत की प्रीति-रीति चोखी ते चोखी ॥
वृन्दावन छबि देखि-देखि हुलसत हुलसावत ।
जल-तरंगवत् गौर-श्याम विलसत विलसावत ॥
ललितादिक निज सहचरी, निरखि-निरखि बलि जात नित ।
चौरासी हित पद कहे, चतुरन कौ यह परम वित ॥ – श्री वृंदावन दास (चाचाजी)
।।1।।
जोई-जोई प्यारौ करै सोई मोहि भावै,
भावै मोहि जोई सोई-सोई करै प्यारे ।
मोकों तो भावती ठौर प्यारे के नैंनन में,
प्यारौ भयौ चाहै मेरे नैंनन के तारे ।।
मेरे तन मन प्राण हूँ ते प्रीतम प्रिय,
अपने कोटिक प्राण प्रीतम मोंसों हारे ।
जय श्रीहित हरिवंश हंस-हंसिनी साँवल-गौर,
कहौ कौन करै जल-तरंगनी न्यारे ।।1।।
।।2।।
प्यारे बोली भामिनी आजु नीकी जामिनी,
भेंट नवीन मेघ सों दामिनी ।
मोहन रसिक-राइरी माई,
तासौं जु-मान करै, ऐसी कौन कामिनी ।
(जै श्री) हित हरिवंश श्रवण सुनत प्यारी,
राधिका रवन सों मिली गज-गामिनी ।।2।।
।।3।।
प्रात समय दोऊ रस लंपट,
सूरत-जुद्ध जय-जुत अति फूल ।
श्रम वारिज घनविन्दु वदन पर,
भूषण अंगहि अंग विकूल ।।
कछु रह्यौ तिलक शिथिल अलकावलि,
वदन कमल मानौं अलि भूल ।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन-रंग रँगि रहे,
नैंन बैंन कटि शिथिल दुकूल ।।3।।
।।4।।
आजु तौ जुवति तेरौ, वदन आनन्द भरयौ,
पिय के संगम के सूचत सुख चैंन ।
आलस-वलित बोल, सुरंग रँगे कपोल,
विथकित अरुण उनींदे दोऊ नैंन ॥
रुचिर तिलक-लेश, किरत कुसुम-केश,
सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न ।
करुणाकर उदार, राखत कछु न सार,
दसन-वसन लागत जब देंन ॥
काहे कौं दुरत भीरु, पलटे प्रीतम चीर,
बस किये श्याम सिखै सत मैंन ।
गलित उरसि माल, सिथिल किंकिनी जाल,
(जै श्री) हित हरिवंश लता-गृह सैंन।।4।।
।।5।।
आजु प्रभात लता-मंदिर में,
सुख बरसत अति हरषि युगल वर ।
गौर श्याम अभिराम रंगभरे,
लटकि-लटकि पग धरत अवनि पर ॥
कुच-कुमकुम रंजित मालावलि,
सुरत नाथ श्रीश्याम धाम घर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत,
चित्रित चतुर-शिरोमणि निजकर ॥
दम्पति अति अनुराग मुदित कल,
गान करत मन हरत परस्पर ।
(जैश्री) हित हरिवंश प्रशंस-परायण,
गायन अलि सुर देत मधुर तर ।।5।।
।।6।। ( राग विभास )
कौन चतुर जुवती प्रिया,
जाहि मिलन लाल चोर है रैन ।
दुरवत क्यों अब दूरै सुनि प्यारे,
रंग में गहले चैन में नैन ।।
उर नख चंद विराने पट,
अटपटे से बैन ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक
राधापति, प्रमथीत मैन ।।6।।
।।7।।
आजु निकुंज मंजु में खेलत,
नवल किशोर नवीन किशोरी ।
अति अनुपम अनुराग परस्पर,
सुनि अभूत भूतल पर जोरी ।।
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर,
नव कर्पूर पराग न थोरी ।
कौमल किसलय सयन सुपेसल,
तापर श्याम निवेसित गोरी ।।
मिथुन हास-परिहास परायण,
पीक कपोल कमल पर झोरी ।
गौर श्याम भुज कलह मनोहर,
नीवी-बंधन मोचत डोरी ।।
हरि-उर-मुकुर विलोकि अपनपौ,
विभ्रम विकल मान-जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रबोधत,
पिय-प्रतिबिंब जनाय निहोरी ।।
नेति-नेति बचनामृत सुनि-सुनि,
ललितादिक देखत दुरि चोरी ।
(जै श्री) हित हरिवंश करत कर धूनन,
प्रणयकोप मालावलि तोरी ।।7।।
।।8।
अति ही अरुन तेरे नैन नलिन री ।
आलस जुत इतरात रंगमगे,
भये निशि जागर मषिन मलिन री ।।
शिथिल पलक में उठत गोलक गति,
बिंध्यौ मोहन मृग सकत चलि न री ।
(जै श्री)हित हरिवंश हंस कल गामिनि,
संभ्रम देत भ्रमरनि अलिन री ।।8।।
।।9।। ( सारंग )
बनी श्रीराधा मोहन जू की जोरी ।
इंद्रनीलमणि श्याम मनोहर,
सातकुम्भ तनु गोरी ।।
भाल बिशाल तिलक हरि कामिनी,
चिकुर चन्द्र बिच रोरी ।
गज-नायक प्रभु चाल गयंदनी,
गति बृषभानु किसोरी ।।
नील निचोल जुवती, मोहन पट,
पीत अरुन सिर खोरी.
( जै श्री ) हित हरिवंश रसिक राधापति,
सूरत रंग में बोरी ।।9।।
।।10।। ( सारंग )
आजु नागरी-किशोर, भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं अंग-अंग परम माधुरी ।
करत केलि कंठ मेलि, बाहुदंड, गंड – गंड,
परस, सरस रास लास मंडली जुरी ।।
श्या- सुन्दरी बिहार, बाँसुरी मृदंग तार,
मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी ।
(जै श्री) देखत हरिवंश आलि, निर्तनी सुघंग चाल,
वारी फेरी देत प्राण देह सौं दुरी ।।10।।
।।11।।
मंजुल कल कुंज देश, हरि विशद वेश,
राका नभ कुमुद – बंधु, शरद जामिनी ।
साँवल दुति कनक अंग, बिहरत मिलि एक संग,
नीरद मनौ नील मध्य, लसत दामिनी ।।
अरुण पीत नव दुकुल, अनुपम अनुराग मूल,
सौरभयुत सीत अनिल, मंद गामिनी ।
किसलय दल रचित शैन, बोलत पिय चाटु बैंन,
मान सहित प्रतिपद, प्रतिकूल कामिनी ।।
मोहन मन मथत मार, परसत कुच-नीवी-हार,
वेपथयुत नेति नेति, बदति भामिनी ।।
नरवाहन प्रभु सुकेलि, बहुविधि भर भरत झेलि,
सौरत रस रूप नदी जगत पावनी ।।11।।
।।12।।
चलहि राधिके सुजान, तेरे हित सुख निधान,
रास रच्यौ श्याम तट कलिंद-नन्दिनी ।
निर्तत युवती समूह, राग रंग अति कुतूह,
बाजत रसमूल मुरलिका अनन्दिनी ।
वंशीवट निकट जहाँ, परम रमणि भूमि तहाँ,
सकल सुखद मलय बहै वायु मन्दिनी ।
जाती ईषद विकास, कानन अतिसय सुवास,
राका निशि शरद मास, विमल चन्दिनी ।।
नरवाहन प्रभु निहारि, लोचन भरि घोष-नारि,
नख-सिख सोन्दर्य काम-दुख-निकन्दिनी ।
विलसहु भुज ग्रीव मेलि, भामिनि सुख-सिन्धु झेलि,
नव निकुंज श्याम केलि जगत वन्दिनी ।।12।।
।।13।।
नन्द के लाल हरयौ मन मोर ।
हौं अपने मोतिन लर पोवत,
काँकर डारि गयौ सखि भोर ।।
बंक विलोकनि चाल छबीली,
रसिक शिरोमणि नन्द किसोर ।
कहि कैसे मन रहत श्रवण सुनि,
सरस मधुर मुरली की घोर ।।
इंदु गोविन्द वदन के कारण,
चितवन कौं भये नैंन चकोर ।
(जै श्री ) हित हरिवंश रसिक रस जुवती,
तू लै मिलि सखि प्राण अकोर ।।13।।
।।14।।
अधर अरुन तेरे कैसे कै दुराऊँ,
रवि शशि शंक भजन कियौ अपवस,
अध्बुध रंगन कुसुम बनाऊँ ।।
सुभ कौसेय कसिव कौस्तुभमणि,
पंकज-सुतन लेे अंगनि लुपाऊँ ।
हरषित इन्दु तजत जैसे जलधर,
सो भ्रम ढूँढि कहाँ हों पाऊँ ।।
अम्बुन दम्भ कछू नहीं व्यापत,
हिमकर तपै ताहि कैसे कैं बुझाऊँ ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक नवरग पिय,
भृकुटि भौंह तेरे खंजन लराऊँ।।14।।
।।15।।
अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी,
औंगी मौंगी रहति गरव की माती ।
हौं तोसौं कहत हारी, सुनिरी राधिका प्यारी,
निशि कौ रंग क्यों न कहत लजाती ।।
गलित कुसुम बैनी, सुनिरी सारग-नैंनी,
छूटी लट अचरा बदत अरसाती ।
अधर निरंग रँग रच्यौरी कपोलन,
जुवति चलति गजगति अरुझाती ।।
रहसि रमी छबीले, रसन बसन ढीले,
शिथिल कसनि कंचुकी उर राती ।।
सखी सौं सुनी श्रवन, वचन मुदित मन,
चलि हरिवंश भवन मुसिकाती ।।15।।
।16।।
आज मेरे कहे चलौ मृगनैंनी ।
गावत सरस जुवति मंडल में,
पिय सौं मिलैं भलें पिकबैंनी।।
परम प्रवीण कोक-विद्या में,
अभिनय निपुन लाग-गति लैनी ।
रूपरासि सुनि नवल किशोरी,
पल-पल घटत चाँदनी रैनी ।।
(जै श्री ) हित हरिवंश चली अति आतुर,
राधारवन सुरत सुख दैनी।
रहसि रभस आलिंगन चुम्बन,
मदन कोटि कुल भई कुचैनी ।16।।
।।17।।
आजु देखि ब्रज-सुन्दरी मोहन बनी केलि ।
अंस-अंस बाहु दै, किशोर जोर रूप रासि,
मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि ।।
नव निकुंज भ्रमर गुंज, मंजु घोष प्रेम पुंज,
गान करत मोर पिकनि अपने सुर सों मेलि ।
मदन मुदित अंग-अंग, बीच-बीच सुरत रंग,
पल-पल हरिवंश पिवत नैंन चषक झेलि।।17।।
।।18।।
सुनि मेरौ वचन छबीली राधा ।
तैं पायौ रससिंधु अगाधा ।।
तू वृषवानु गोप की बेटी ।
मोहनलाल रसिक हँसि भेटी ।।
जाहि बिरंचि उमापति नाये ।
तापै तैं वन-फूल बिनाये ।।
जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ ।
ताकौ तैं अधर सुधारस चाख्यौ ।।
तेरौ रूप कहत नहिं आवै ।
(जै श्री) हित हरिवंश कछुक जस गावै ।।18।।
।। 19 ।।
खेलत रास रसिक ब्रज-मंडन ।
जुवतिन अंस दिये भुज दंडन ।।
सरद विमल नभ चन्द्र विराजै ।
मधुर-मधुर मुरली कल बाजै ।।
अति राजत घनश्याम तमाला ।
कंचन-बेलि बनी ब्रजबाला ।।
बाजत ताल मृदंग उपंगा ।
गान मथत मन कोटि अनंगा ।।
भूषण बहुत विविध रंग सारी ।
अंग सुघंग दिखावत नारी ।।
बरसत कुसुम मुदित सुरयोषा ।
सुनियत दिवि दुंदुभि कल घोषा ।।
(जै श्री) हित हरिवंश मगन मन श्यामा ।
राधारवन सकल सुख धामा ।। 19 ।।
।।20।।
मोहनलाल के रसमाती ।
वधू गुपत-गोवत कत मोसौं,
प्रथम नेह सकुचाती ।।
देखी सँभार पीत पट ऊपर,
कहाँ चूनरी राती ।
टूटी लर लटकत मोतिन की,
नख बिधु अंकित छाती ।।
अधर-बिंब खंडित मषि मंडित,
गंड चलति अरुझाती ।
अरुण नैंन घूमत आलस जुत,
कुसुम गलित लटपाती ।।
आजु रहसि मोहन सब लूटी,
विविध आपुनी थाती ।
(जै श्री) हित हरिवंश वचन सुनी भामिनि,
भवन चली मुसकाती ।।20।।
तेरे नैंन करत दोउ चारी ।
अति कुलकात समात नहीं
कहुँ मिले हैं कुंज विहारी ।।
विथुरी माँग कुसुम गिरि गिरि परैं,
लटकि रही लट न्यारी ।
उर नख रेख प्रकट देखियत हैं,
कहा दुरावति प्यारी ।।
परी है पीक सुभग गंडनि पर,
अधर निरँग सुकुमारी ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिकनी भामिनि,
आलस अँग अँग भारी ।।21।।
नैंननिं पर वारौं कोटिक खंजन ।
चंचल चपल अरुन अनियारे,
अग्र भाग बन्यौ अंजन ।।
रुचिर मनोहर बंक बिलोकनि,
सुरत समर दल गंजन ।
(जै श्री)हित हरिवंश कहत न बनै छबि,
सुख समुद्र मन रंजन ।। 22।।
राधा प्यारी तेरे नैंन सलोल ।
तौं निजु भजन कनक तन जोवन,
लियौ मनोहर मोल ।।
अधर निरंग अलक लट छूटी,
रंजित पीक कपोल ।
तूँ रस मगन भई नहिं जानत,
ऊपर पीत निचोल ।।
कुच जुग पर नख रेख प्रकट मानौं,
संकर सिर ससि टोल ।
(जै श्री) हित हरिवंश कहत कछू भामिनि,
अति आलस सौं बोल ।। 23 ।।
आजु गोपाल रास रस खेलत,
पुलिन कलपतरु तीर री सजनी ।
सरद विमल नभ चंद विराजत,
रोचक त्रिविध समीर री सजनी ।।
चंपक बकुल मालती मुकुलित,
मत्त मुदित पिक कीर री सजनी ।
देसी सुघंग राग रँग नीकौ,
ब्रज जुवतिनु की भीर री सजनी ।।
मघवा मुदित निसान बजायौ,
व्रत छाँड़यौ मुनि धीर री सजनी ।
(जै श्री)हित हरिवंश मगन मन स्यामा,
हरति मदन घन पीर री सजनी ।। 24 ।।
ब्रज जुवति जूथ में रूप अरु चतुरई,
सील सिंगार गुन सबनितें आगरी ।।
कमल दक्षिण भुजा बाम भुज अंस सखि,
गाँवती सरस मिलि मधुर सुर राग री ।
सकल विद्या विदित रहसि ‘हरिवंश हित’,
मिलत नव कुंज वर स्याम बड़ भाग री ।। 25 ।।
मोहनी मदन गोपाल की बाँसुरी ।
माधुरी श्रवन पुट सुनत सुनु राधिके,
करत रतिराज के ताप कौ नासुरी ।।
सरद राका रजनी विपिन वृंदा सजनि,
अनिल अति मंद सीतल सहित बासु री ।
परम पावन पुलिन भृंग सेवत नलिन,
कल्पतरु तीर बलवीर कृत रासु री ।।
सकल मंडल भलीं तुम जु हरि सौं मिलीं,
बनी वर वनित उपमा कहौं कासु री ।
तुम जु कंचन तनी लाल मरकत मनी,
उभय कल हंस ‘हरिवंश’ बलि दासुरी ।। 26 ।।
मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर ।
राजत नागरि नव कुसल किशोर ।।
जूथिका जुगल रूप मञ्जरी रसाल ।
विथकित अलि मधु माधवी गुलाल ।।
चंपक बकुल कुल विविध सरोज ।
केतकि मेदनि मद मुदित मनोज ।।
रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर ।
मुकुलित नूत नदित पिक कीर ।।
पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज ।
किसलय सैन रचित सुख पुंज ।।
मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग ।
बाजत उपंग बीना वर मुख चंग ।।
मृगमद मलयज कुंकुम अबीर ।
बंदन अगरसत सुरँगित चीर ।।
गावत सुंदरी हरी सरस धमारि ।
पुलकित खग मृग बहत न वारि ।।
(जै श्री) हित हरिवंश हंस हंसिनी समाज ।
ऐसे ही करौ मिलि जुग जुग राज ।। 27 ।।
राधे देखि वन की बात ।
रितु बसंत अनंत मुकुलित कुसुम अरु फल पात ।।
बैंनू धुनि नंदलाल बोली, सुनिव क्यौं अर सात ।
करत कतव विलंब भामिनि वृथा औसर जात ।।
लाल मरकत मनि छबीलौ तुम जु कंचन गात ।
बनी (श्री) हित हरिवंश
जोरी उभै गुन गन मात ।। 28 ।।
ब्रज नव तरुनी कदंब मुकुट मनि स्यामा आजु बनी ।
नख सिख लौं अंग अंग माधुरी मोहे स्याम धनी।।
यौं राजत कबरी गुंथित कच कनक कंज वदनी ।
चिकुर चंद्रिकनि बीच अरध बिधु मानौं ग्रसित फनी ।।
सौभग रस सिर स्त्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी ।
भृकुटि काम कोदंड नैंन सर कज्जल रेख अनी ।।
तरल तिलक तांटक गंड पर नासा जलज मनी ।
दसन कुंद सरसाधर पल्लव प्रीतम मन समनी ।।
चिबुक मध्य अति चारु सहज सखि साँवल बिंदु कनी ।
प्रीतम प्रान रतन संपुट कुच कंचुकि कसिब तनी
भुज मृनाल वल हरत वलय जुत परस सरस श्रवनी
स्याम सीस तरु मनौं मिडवारी रची रुचिर रवनी ।।
नाभि गम्भीर मीन मोहन मन खेलत कौं हृदनी ।
कृस कटि पृथु नितंब किंकिनि
वृत कदलि खंभ जघनी ।।
पद अंबुज जावक जुत भूषन प्रीतम उर अवनी ।
नव नव भाइ विलोभि भाम इभ विहरत वर कारिनी ।।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसिता
स्यामा कीरति विसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर
विस्व दुरित दवनी ।। 29 ।।
देखत नव निकुंज सुनु सजनी लागत है अति चारु ।
माधविका केतकी लता ले रच्यौ मदन आंगारु ।।
सरद मास राका निसि सजनी सीतल मंद सुगंध समीर।
परिमल लुब्ध मधुव्रत विथकित नदित कोकिला कीर।।
वहु विध रङ्ग मृदुल किसलय
दल निर्मित पिय सखि सेज ।
भाजन कनक विविध मधु पूरित धरे धरनी पर हेज ।।
तापर कुसल किसोर किसोरी करत हास परिहास ।
प्रीतम पानि उरज वर परसत प्रिया दुरावति वास ।।
कामिनि कुटिल भृकुटि अवलोकत
दिन प्रतिपद प्रतिकूल ।
आतुर अति अनुराग विवस हरि धाइ धरत भुज मूल ।।
नगर नीवी बन्धन मोचत एंचत नील निचोल ।
बधू कपट हठ कोपि कहत कल नेति नेति मधु बोल ।।
परिरंभन विपरित रति वितरत सरस सुरत निजु केलि ।
इंद्रनील मनिनय तरु मानौं लसन कनक की बेली ।।
रति रन मिथुन ललाट पटल पर श्रम जल सीकर संग ।
ललितादिक अंचल झकझोरति मन अनुराग अभंग ।।
(जै श्री) हित हरिवंश
जथामति बरनत कृष्ण रसामृत सार ।
श्रवन सुनत प्रापक रति राधा पद अंबुज सुकुमार।।30।।
आजु अति राजत दम्पति भोर ।
सुरत रंग के रस में भीनें नागरि नवल किशोर ।।
अंसनि पर भुज दियें विलोकत इंदु वदन विवि ओर ।
करत पान रस मत्त परसपर लोचन तृषित चकोर ।।
छूटी लटनि लाल मन करष्यौ ये याके चित चोर ।
परिरंभन चुंबन मिलि गावत सुर मंदर कल घोर ।।
पग डगमगत चलत बन विहरन रुचिर कुंज घन खोर ।
(जै श्री) हित हरिवंश
लाल ललना मिलि हियौ सिरावत मोर ।।31।।
आजु बन क्रीडत स्यामा स्याम
सुभग बनी निसि सरद चाँदनी,
रुचिर कुंज अभिराम ।।
खंडत अधर करत पारिरंभन,
एेंचत जघन दुकूल ।
उर नख पात तिरीछी चितवन,
दंपति रस सम तूल ।।
वे भुज पीन पयोधर परसत,
वाम दृशा पिय हार ।
वसननि पीक अलक आकरषत,
समर श्रमित सत मार ।।
पलु पलु प्रवल चौंप रस लंपट,
अति सुंदर सुकुमार ।
(जै श्री) हित हरिवंश आजु तृन टूटत
हौं बलि विसद विहार ।।32।।
आजु बन राजत जुगल किसोर ।
नंद नँदन वृषभानु नंदिनी उठे उनीदें भोर ।।
डगमगात पग परत सिथिल गति
परसत नख ससि छोर ।
दसन बसन खंडित मषि मंडित गंड तिलक कछु थोर।।
दुरत न कच करजनि के रोकें अरुन नैन अलि चोर ।
(जै श्री) हित हरिवंश
सँभार न तन मन सुरत समुद्र झकोर ।।33।।
बन की कुंजनि कुंजनि डोलनि ।
निकसत निपट साँकरी बीथिनु,
परसत नाँहि निचोलनि ।।
प्रात काल रजनी सब जागे,
सूचत सुख दृग लोलनि ।
आलसवंत अरुन अति व्याकुल,
कछु उपजत गति गोलनि ।।
निर्तनि भृकुटि वदन अंबुज मृदु,
सरस हास मधु बोलनि ।
अति आसक्त लाल अलि लंपट,
बस कीने बिनु मोलनि ।।
विलुलित सिथिल श्याम छूटी लट,
राजत रुचिर कपोलनि ।
रति विपरित चुंबन आलिंगन,
चिबुक चारु टक टोलनि ।।
कबहुँ श्रमित किसलय सिज्या पर,
मुख अंचल झकझोलनि ।
दिन हरिवंश दासि हिय सींचत,
वारिधि केलि कलोलनि ।।34।।
झूलत दोऊ नवल किसोर ।
रजनी जनित रंग सुख सुचत अंग अंग उठि भोर ।।
अति अनुराग भरे मिलि गावत सुर मंदर कल घोर ।
बीच बीच प्रीतम चित चोरति प्रिया नैंन की कोर ।।
अबला अति सुकुमारि डरत मन वर हिंडोर झँकोर।
पुलकि पुलकि प्रीतम उर लागति दे नव उरज अँकोर।।
अरुझी विमल माल कंकन सौं कुंडल सौं कच डोर ।
वेपथ जुत क्यों बनै विवेचत आनँद बढ़यौ न थोर ।।
निरखि निरखि फूलतीं ललितादिक
विवि मुख चंद चकोर ।
दे असीस हरिवंश प्रसंसत करि अंचल की छोर ।।35।।
आजु बन नीकौ रास बनायौ ।
पुलिन पवित्र सुभग जमुना तट मोहन बैंनु बजायौ ।।
कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि
सुनि खग मृग सचु पायौ ।
जुवतिनु मंडल मध्य स्याम घन सारँग राग जमायौ ।।
ताल मृदङ्ग उपंग मुरज डफ मिलि रससिंधु बढ़ायौ ।
विविध विशद वृषभानु नंदिनी अंग सुघंग दिखायौ ।।
अभिनय निपुन लटकि लट
लोचन भृकुटि अनंग नचायौ ।
ताता थेई ताथेई धरत नौतन गति
पति ब्रजराज रिझायौ ।।
सकल उदार नृपति चूड़ामनि सुख वारिद वरषायौ ।
परिरंभन चुंबन आलिंगन उचित जुवति जन पायौ ।।
वरसत कुसुम मुदित नभ नाइक इन्द्र निसान बजायौ ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधा पति
जस वितान जग छायौ ।। 36 ।।
बेगि चलहि उठि गहरु करति कत,
निकुंज बुलावत लाल।
हा राधा राधिका पुकारत,
निरखि मदन गज ढाल।।
करत सहाइ सरद ससि मारुत,
फूटि मिली उर माल।
दुर्गम तकत समर अति कातर,
करहि न पिय प्रतिपाल।।
(जै श्री) हित हरिवंश चली अति आतुर,
श्रवन सुनत तेहि काल।
लै राखे गिरि कुच बिच सुंदर,
सुरत-सूर ब्रज बाल।।37।।
चलहि उठि गहर करति कत,
निकुंज बुलावत लाल ।
हा राधा राधिका पुकारत,
निरखि मदन गज ढाल ।।
करत सहाइ सरद ससि मारुत,
फुटि मिली उर माल ।
दुर्गम तकत समर अति कातर,
करहि न पिय प्रतिपाल ।।
(जै श्री) हित हरिवंश चली अति आतुर,
श्रवन सुनत तेहि काल ।
लै राखे गिरि कुच बिच सुंदर,
सुरत – सूर ब्रज बाल ।। 38 ।।
खेल्यो लाल चाहत रवन ।
रचि रचि अपने हाथ सँवारयौ निकुंज भवन ।।
रजनी सरद मंद सौरभ सौं सीतल पवन ।
तो बिनु कुँवरि काम की बेदन मेटब कवन ।।
चलहि न चपल बाल मृगनैनी तजिब मवन ।
(जै श्री) हित हरिवंश
मिलब प्यारे की आरति दवन ।।39।।
बैठे लाल निकुंज भवन ।
रजनी रुचिर मल्लिका मुकुलित त्रिविध पवन ।।
तूँ सखी काम केलि मन मोहन मदन दवन ।
वृथा गहरु कत करति कृसोदरी कारन कवन ।।
चपल चली तन की सुधि बिसरी सुनत श्रवन ।
(जै श्री) हित हरिवंश मिले रस लंपट राधिका रवन ।।40।।
प्रीति की रीति रंगिलोइ जानै ।
जद्यपि सकल लोक चूड़ामनि दीन अपनपौ मानै ।।
जमुना पुलिन निकुंज भवन में मान मानिनी ठानै ।
निकट नवीन कोटि कामिनि
कुल धीरज मनहिं न आनै ।।
नस्वर नेह चपल मधुकर ज्यों आँन आँन सौं बानै ।
(जै श्री) हित हरिवंश चतुर सोई
लालहिं छाड़ि मैंड पहिचानै ।।41।।
प्रीति न काहु की कानि बिचारै ।
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै ।।
ज्यौं सरिता साँवन जल उमगत सनमुख सिंधु सिधारै ।
ज्यौं नादहि मन दियें कुरंगनि प्रगट पारधी मारै ।।
(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारँग
ज्यौं सलभ सरीरहि जारै ।
नाइक निपून नवल मोहन बिनु
कौन अपनपौ हारै ।।42।।
अति नागरि वृषभानु किसोरी ।
सुनि दूतिका चपल मृगनैनी,
आकरषत चितवन चित गोरी ।।
श्रीफल उरज कंचन सी देही,
कटि केहरि गुन सिंधु झकोरी ।
बैंनी भुजंग चन्द्र सत वदनी,
कदलि जंघ जलचर गति चोरी ।।
सुनि ‘हरिवंश’ आजु रजनी मुख,
बन मिलाइ मेरी निज जोरी ।
जद्यपि मान समेत भामिनी,
सुनि कत रहत भली जिय भोरी ।।43।।
चलि सुंदरि बोली वृंदावन ।
कामिनि कंठ लागि किन राजहि,
तूँ दामिनि मोहन नौतन घन ।।
कंचुकी सुरंग विविध रँग सारी,
नख जुग ऊन बने तरे तन ।।
ये सब उचित नवल मोहन कौं,
श्रीफल कुच जोवन आगम धन ।।
अतिसै प्रीति हुती अंतरगत,
(जैश्री) हित हरिवंश चली मुकुलित मन ।
निविड़ निकुंज मिले रस सागर,
जीते सत रति राज सुरत रन ।।44।।
आवति श्रीवृषभानु दुलारी ।
रूप रासि अति चतुर सिरोमनि अंग अंग सुकुमारी ।।
प्रथम उबटि मज्जन करि सज्जित नील बरन तन सारी ।
गुंथित अलक तिलक कृत सुंदर सैंदूर माँग सँवारी ।।
मृगज समान नैंन अंजन जुत रुचिर रेख अनुसारी ।
जटित लवंग ललित नासा पर दसनावलि कृत कारी ।।
श्रीफल उरज कँसूभी कंचुकि कसि
ऊपर हार छबि न्यारी ।
कृस कटि उदर गँभीर नाभि पुट जघन नितंबनि भारी ।।
मनौं मृनाल भूषन भूषित भुज स्याम अंस पर डारी ।
(जै श्री) हित हरिवंश जुगल करिनी गज
विहरत वन पिय प्यारी ।।45।।
विपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रूचि,
स्याम स्यामा मिले सरद की जमिनी ।
हृदै अति फूल समतूल पिय नागरी,
करिनि करि मत्त मनौं विवध गुन रामिनी ।।
सरस गति हास परिहास आवेस बस,
दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी ।
(जै श्री) हित हरिवंश सुनि लाल लावन्य भिदे,
प्रिया अति सूर सुख सुरत संग्रामिनी ।।46।।
वन की लीला लालहिं भावै ।
पत्र प्रसून बीच प्रतिबिंबहिं नख सिख प्रिया जनावै ।।
सकुच न सकत प्रकट परिरंभन अलि लंपट दुरि धावै ।
संभ्रम देति कुलकि कल कामिनि
रति रन कलह मचावै ।।
उलटी सबै समझि नैंननि में अंजन रेख बनावै ।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रीति रीति बस
सजनी स्याम कहावै ।।47।।
बनी वृषभानु नंदिनी आजु ।
भूषन वसन विविध पहिरे तन पिय मोहन हित साजु ।।
हाव भाव लावन्य भृकुटि लट हरति जुवति जन पाजु ।
ताल भेद औघर सुर सूचत नूपुर किंकिनि बाजु ।।
नव निकुंज अभिराम स्याम सँग नीकौ बन्यौ समाजु ।
(जै श्री) हित हरिवंश विलास रास
जुत जोरी अविचल राजु ।।48।।
देखि सखी राधा पिय केलि ।
ये दोउ खोरि खरिक गिरि गहवर,
विहरत कुँवर कंठ भुज मेलि ।।
ये दोउ नवल किसोर रूप निधि,
विटप तमाल कनक मनौ बेलि ।
अधर अदन चुंबन परिरंभन,
तन पुलकित आनँद रस झेलि ।।
पट बंधन कंचुकि कुच परसत,
कोप कपट निरखत कर पेलि ।
(जै श्री) हित हरिवंश लाल रस लंपट,
धाइ धरत उर बीच सँकेलि ।।49।।
नवल नागरि नवल नागर किसोर मिलि,
कुञ्ज कौंमल कमल दलनि सिज्या रची ।
गौर स्यामल अंग रुचिर तापर मिले,
सरस मनि नील मनौं मृदुल कंचन खची ।।
सुरत नीबी निबंध हेत पिय, मानिनी –
प्रिया की भुजनि में कलह मोंहन मची ।
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत, रोष –
हुंकार गर्व दृग भंगि भामिनि लची ।।
कोक कोटिक रभस रहसि ‘हरिवंश हित’,
विविध कल माधुरी किमपि नाँहिन बची ।
प्रनयमय रसिक ललितादि लोचन चषक,
पिवत मकरंद सुख रासि अंतर सची ।।50।।
दान दै री नवल किसोरी ।
माँगत लाल लाड़िलौ नागर,
प्रगट भई दिन दिन की चोरी ।।
नव नारंग कनक हीरावलि,
विद्रुम सरस जलज मनि गोरी ।
पूरित रस पीयूष जुगल घट,
कमल कदलि खंजन की जोरी ।।
तोपैं सकल सौंज दामिनि की,
कत सतराति कुटिल दृग भोरी ।
नूपुर रव किंकिनी पिसुन घर,
‘हित हरिवंश’ कहत नहिं थोरी ।।51।।
देखौ माई सुंदरता की सीवाँ ।
व्रज नव तरुनि कदंब नागरी,
निरखि करतिं अधग्रिवाँ ।।
जो कोउ कोटि कोटि कलप लगि
जीवै रसना कोटिक पावै ।
तऊ रुचिर वदनारबिंद की सोभा
कहत न आवै ।।
देव लोक भूलोक रसातल सुनि
कवि कुल मति डरिये ।
सहज माधुरी अंग अंग की
कहि कासौं पटतरिये ।।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रताप रूप गुन
वय बल स्याम उजागर ।
जाकी भ्रू विलास बस पसुरिव
दिन विथकित रस सागर ।।52।।
देखौ माई अबला के बल रासि
अति गज मत्त निरकुंस मोहन ;
निरखि बँधे लट पासि ।।
अबहीं पंगु भई मन की गति ;
बिनु उद्यम अनियास ।
तबकी कहा कहौं जब प्रिय प्रति ;
चाहति भृकुटि बिलास ।।
कच संजमन व्याज भुज दरसति ;
मुसकनि वदन विकास ।
हा हरिवंश अनीति रीति हित ;
कत डारति तन त्रास ।।53।।
नयौ नेह नव रंग नयौ रस,
नवल स्याम वृषभानु किसोरी।
नव पीतांबर नवल चूनरी;
नई नई बूँदनि भींजत गोरी।।
नव ‘वृंदावन हरित मनोहर
नव चातक बोलत मोर मोरी।
नव मुरली जु मलार नई गति;
श्रवन सुनत आये घन घोरी।।
नव भूषन नव मुकुट विराजत;
नई नई उरप लेत थोरी थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश असीस देत मुख
चिरजीवौ भूतल यह जोरी।।54।।
आजु दोउ दामिनि मिलि बहसीं।
विच लै स्याम घटा अति नौंतन, ताके रंग रसीं।।
एक चमकि चहुँ ओर सखी री, अपने सुभाइ लसी।
आई एक सरस गहनी में, दुहुँ भुज बीच बसी।।
अंबुज नील उमै विधु राजत, तिनकी चलन खसी।
(जै श्री) हित हरिवंश लोभ भेटन मन,
पूरन सरद ससी।।55।।
हौं बलि जाऊँ नागरी स्याम।
ऐसौं ही रंग करौ निसि वासर,
वृंदा विर्पिन कुटी अभिराम।।
हास विलास सुरत रस सिंचन,
पसुपति दग्ध जिवावत काम।
(जै श्री) हित हरिवंश लोल लोचन अली,
करहु न सफल सकल सुख धाम।।56।।
प्रथम जथामति प्रनऊँ (श्री) वृंदावन अति रम्य।
श्रीराधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्य।।
वर जमुना जल सींचन दिनहीं सरद बसंत।
विविध भाँति सुमनसि के सौरभ अलिकुल मंत।।
अरुन नूत पल्लव पर कूँजत कोकिल कीर।
निर्तनि करत सिखी कुल अति आनंद अधीर॥
बहत पवन रुचि दायक सीतल मंद सुगंध।
अरुन नील सित मुकुलित जहँ तहँ पूषन बंध ।
अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज।
सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्वज पुंज।।
रसिक रासि जहँ खेलत स्यामा स्याम किसोर।
उभे बाहु परिरंजित उठे उनींदे भोर।।
कनक कपिस पट सोभित सुभग साँवरे अंग।
नील वसन कामिनि उर कंचुकि कसुँभी सुरंग।॥।
ताल रबाब मुरज उफ बाजत मधुर मृदंग।
सरस उकति गति सूचत वर बँसुरी मुख चंग।।
दोउ मिलि चाँचरि गावत गौरी राग अलापि।
मानस मृग बल वेधत भृकुटि धनुष दृग चापि।।
दोऊ कर तारिनु पटकत लटकत इत उत जात।
हो हो होरी बोलत अति आनंद कुलकात।।
रसिक लाल पर मेलति कामिनि बंधन धूरि।
पिय पिचकारिनु छिरकत तकि तकि कुंकुम पूरि।।
कबहुँ कबहुँ चंदन तरु निर्मित तरल हिंडोल।
चढ़ि दोऊ जन झूलत फूलत करत किलो।।
वर हिंडोर झँकोरनी कामिनि अधिक डरात।
पुलकि पुलकि वेपथ अँग प्रीतम उर लपटात।।
हित चिंतक निजु चेरिनु उर आनँद न समात।
निरखि निपट नैंननि सुख तृन तोरतिं वलि जात।।
अति उदार विवि सुंदर सुरत सूर सुकुमार।
(जै श्री) हित हरिवंश करौ दिन दोऊ अचल विहार।।57।।
तेरे हित लैंन आई, बन ते स्याम पठाई:
हरति कामिनि घन कदन काम कौ।
काहे कौं करत बाधा, सुनि री चतुर राधा;
भैंटि कैं मैंटि री माई प्रगट जगत भौं।।
देख रजनी नीकी, रचना रुचिर पी की;
पुलिन नलिन नव उदित रौंहिनी धौ।
तू तौ अब सयानी; तैं मेरी एकौ न मानी;
हौं तोसौं कहत हारी जुवति जुगति सौं।।
मोंहनलाल छबीलौ, अपने रंग रंगीलौ;
मोहत विहंग पसु मधुर मुरली रौ।
वे तो अब गनत तन जीवन जौवन तब;
(जै श्री) हित हरिवंश हरि भजहि भामिनि जौ।।58।।
यह जु एक मन बहुत ठौर करि,
कहु कौनें सचु पायौ।
जहँ तहँ विपति जार जुवती लौं,
प्रगट पिंगला गायौ।
द्वै तुरंग पर जोरि चढ़त हठि,
परत कौन पै धायौ।
कहिधौं कौन अंक पर राखै,
जो गनिका सुत जायौ।।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रपंच बंच
सब काल व्याल कौ खायौ।
यह जिय जानि स्याम स्यामा
पद कमल संगि सिर नायौ।।59।।
कहा कहौं इन नैननि की बात।
ये अलि प्रिया वदन अंबुज रस अटके अनत न जात।।
जब जब रुकत पलक संपुट लट अति आतुर अकुलात।
लंपट लव निमेष अंतर ते अलप कलप सत सात।।
श्रुति पर कंज दृगंजन कुच बिच मृग मद हवै् न समात।
(जै श्री) हित हरिवंश नाभि सर जलचर जाँचत साँवल गात॥60॥
आजु सखी बन में जु बने प्रंभु नाचते हैं ब्रज मंडन।
वैस किसोर जुवति अंसुन पर दियैं विमल भुज दंडन।।
कोंमल कुटिल अलक सुठि सोभित
अबलंबित जुग गंडन।
मानहु मधुप थकित रस लंपट नील कमल के खंडन।।
हास विलास हरत सबकौ मन काम समूह विहंडन।
(जै श्री) हित हरिवंश करत अपनौ जस
प्रकट अखिल ब्रह्मंडन॥61॥
खेलत रास दुलहिनी दूलहु।
सुनहु न सखी सहित ललितादिक,
निरखि निरखि नैंननि किन फूलहु।।
अति कल मधुर महा मौंहन धुनि,
उपजत हंस सुता के कूलहु।
थेई थेई वचन मिथुन मुख निसरत,
सुनि सुनि देह दसा किन भुलहु।।
मृदु पद न्यास उठत कुंकुम रज,
अदभूत बहत समीर दुकूलहु।
कबहुँ स्याम स्यामा दसनांचल-
कच कुच हार छुवत भुज मूलहु।।
अति लावन्य, रूप, अभिनय, गुन,
नाहिन कोटि काम समतूलहु।
भृकुटि विलास हास रस बरषत
(जै श्री) हित हरिवंश प्रेम रस झूलहु।।62।।
मोहन मदन त्रिभंगी।
मोहन मुनि मन रंगी।।
मोहन मुनि सघन प्रगट परमानँद गुन गंभीर गुपाला।
सीस किरीट श्रवण मनि कुंडल उर मंडित बन माला।।
पीतांबर तन धातु विचित्रित कल किंकिनि कटि चंगी।
नख मनि तरनि चरन सरसीरूह मोहन मदन त्रिभंगी।।
मोहन बैंनु बजावै।
इहिं रव नारि बुलावै।।
आईं ब्रज नारि सुनत बंसी रव गृह पति बंधु विसारे।
दरसन मदन गुपाल मनोहर मनसिज ताप निवारे।।
हरषित बदन बैंक अवलोकन सरस मधुर धुनि गाव।
मधुमय श्याम समान अधर धरे मोहन बैंनु बजावे।।
रास रचा बन माँही।
विमल कलप तरु छाँहीं।।
विमल कलपतरु तीर सुपेशल सरद रैंन वर चंदा।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै तहाँ खेलत नंद नंदा।।
अदभुत ताल मृदंग मनोहर किंकिनि शब्द कराहीं।
जमुना पुलिन रसिक रस सागर रास रच्यो बन माँहि।।
देखत मधुकर केली।
मोहे खग मृग बेली।।
मोहे मृगधैंनु सहित सुर सुंदरि प्रेम मगन पट छूटे।
उडगन चकित थकित ससि मंडल
कोटि मदन मन लूटे।।
अधर पान परिरंभन अति रस आनँद मगन सहेली।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक सचु पावत
देखत मधुकर केली।।63।।
बैंनु माई बाजै बंसीवट
सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।
दसननि कुंद कली छवि लज्जित लज्जित कनक समान पीत पट।।
मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत करत विनोद संग बालक भट।
दास अनन्य भजन रस कारन हित हरिवंश प्रकट लीला नट।।64।।
मूल-मदन मदन धन निकुंज खेलत हरि,
राका रुचिर सरद रजनी।
यमुना पुलिन तट सुरतरु के निकट,
रचित रास चलि मिलि सजनी।।
वाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग;
तैं न श्रवन सुन्यौ बैंनु बजनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु राधिका रमन,
मोकौं भावै माई जगत भगत भजनी।।65।।
विहरत दोऊ प्रीतम कुंज।
अनुपम गौर स्याम तन सोभा वन वरषत सुख पुंज।।
अद्भुत खेत महा मनमथ कौ दुंदुभि भूषन राव।
जूझत सुभट परस्पर अँग अँग उपजत कोटिक भाव।।
भर संग्राम अमित अति अबला निद्रायत काले नैन।
पिय के अंक निसंक तंक तन आलस जुत कृत सैंन
लालन मिस आतुर पिय परसद उरु नाभि ऊरजात।
अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर विथकित वेपथ गात।।
नागरि निरखि मदन विष व्यापित दियौ सुधाधर धीर।
सत्वर उठे महामधु पीवत मिलत मीन मिव नीर।।
अवहीं मैं मुख मध्य विलोके बिंबाधर सु रसाल।
जागृत त्यौं भ्रम भयौ परयौ मन सत मनसिज कुल जाल।।
सकृदपि मयि अधरामृत मुपनय सुंदरि सहज सनेह।
तव पद पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह।।
प्रिया कहति कहु कहाँ हुते पिय नव निकुंज वर राज।
सुंदर वचन वचन कत वितरत रति लंपट बिनु काज।।
इतनौं श्रवन सुनत मानिनि मुख अंतर रहयौ न धीर।
मति कातर विरहज दुख व्यापित बहुतर स्वास समीर।।
(जै श्री) हित हरिवंश भुजनि आकरषे लै राखे उर माँझ।
मिथुन मिलत जू कछुक सुख उपज्यौ त्रुटि लव मिव भई साँझ।।66।।
रुचिर राजत वधू कानन किसोरी।
सरस षोडस कियें, तिलक मृगमद दियें,
मृगज लोचन उबटि अंग सिर खोरी।।
गंड पंडीर मंडित चिकुर चंद्रिका,
मेदिनि कबरि गुंथित सुरंग डोरी।
श्रवण ताटंक कै. चिबुक पर बिंदु दै,
कसूँभी कंचुकी दुरै उरज फल कोरी।।
वलय कंकन दोति, नखन जावक जोति,
उदर गुन रेख पट नील कटि थोरी।
सुभग जघन स्थली क्वनित किंकिनि भली,
कोक संगीत रस सिंधु झक झोरी।।
विविध लीला रचित रहसि हरिवंश हित;
रसिक सिरमौर राधा रमन जोरी।
भृकुटि निर्जित मदन मंद सस्मित वदन,
किये रस विवस घन स्याम पिय गोरी।।67।।
रास में रसिक मोहन बने भामिनी।
सुभग पावन पुलिन सरस सौरभ नलिन,
मत्त मधुकर निकर सरद की जामिनी।।
त्रिविध रोचक पवन ताप दिनमनि दवन,
तहाँ ठाढ़े रमन संग सत कामिनी।
ताल बीना मृदंग सरस नाचत सुधंग;
एक ते एक संगीत की स्वामिनी।।
राग रागिनि जमी विपिन वरसत अमी,
अधर बिंबनि रमी मुरलि अभिरामिनी।
लाग कट्टर उरप सप्त सुर सौं सुलप
लेति सुंदर सुघर राधिका नामिनी।।
तत्त थेई थेई करत गांव नौतन धरत,
पलटि डगमग ढरति मत्त गज गामिनी।
धाइ नवरंग धरी उरसि राजत खरी;
उभय कल हंस हरिवंश घन दामिनी।।68।।
मोहिनी मोहन रंगे प्रेम सुरंग,
मंत्र मुदित कल नाचत सुधगे।
सकल कला प्रवीन कल्यान रागिनी लीन,
कहत न बनै माधुरी अंग अंगे।।
तरनि तनया तीर त्रिविध सखी समीर।
मानौं मुनी व्रत धरयौ कपोती कोकिला कीर।।
नागरि नव किशोर मिथुन मनसि चोर।
सरस गावत दोऊ मंजुल मंदर घोर।।
कंकन किंकिनि धुनि मुखर नूपुरनि सुनि।
(जै श्री) हित हरिवंश रस वरषत नव तरुनी ॥69॥
आजु सँभारत नाँहिन गोरी।
फूली फिर मत्त करिनी ज्यौं सुरत समुद्र झकोरी।।
आलस वलित अरुन धूसर मषि प्रगट करत दृग चोरी।
पिय पर करुन अमी रस बरषत अधर अरुनता थोरी।।
बाँधत भृंगं उरज अंबुज पर अलकनि बंध किसोरी।
संगम किरचि किरचि कंचुकि बँध सिथिल भई कटि डोरी।।
देति असीस निरखि जुवती जन जिनकें प्रीति न थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश विपिन भूतल पर संतत अविचल जोरी।।70।।
स्याम सँग राधिका रास मंडल बनी।
बीच नंदलाल ब्रजवाल चंपक वरन,
ज्यौंव घन तडित बिच कनक मरकत मनी।।
लेति गति मान तत्त थेई हस्तक भेद,
स रे ग म प ध नि ये सप्त सुर नंदिनी।
निर्त रस पहिर पट नील प्रगटित छबी,
वदन जनु जलद में मकर की चंदिनी।।
राग रागिनि तान मान संगीत मत,
थकित राकेश नाम सरद की जामिनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु हंस कटि केहरी,
दूरि कृत मदन मद मत्त गज गामिनी।।71।।
सुंदर पुलिन सुभग सुख दाइक।
नव नव घन अनुराग परस्पर खेलत कुँवर नागरी नांइक।
सीतल हंस सुता रस बिचिनु परसि पवन सीकर मृदु वरषत।
वर मंदार कमल चंपक कुल सौरभ सरसि मिथुन मन हरषत।
सकल सुधंग विलास परावधि नाचत नवल मिले सुर गावत।
मृगज मयूर मराल भ्रमर पिक अदभुत कोटि मदन सिर नावत।
निर्मित कुसुम सैंन मधु पूरित भजन कनक निकुंज विराजत।
रजनी मुख सुख रासि परस्पर सुरत समर दोऊ दल साजत।।
विट कुल नृपति किसोरी कर धृत, बुधि बल नीबी बंधन मोचत।
‘नेति नेति’ वचनामृत बोलत प्रनय कोप प्रीतम नहिं सोचत ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक ललितादिक लता भवन रंध्रनि अवलोकत।
अनुपम सुख भर भरित विवस असु आनँद वारि कंठ दृग रोकत।।72।।
खंजन मीन मृगज मद मेंटत,
कहा कहौं नैननिं की बातैं।
सनी सुंदरी कहाँ लौं सिखईं,
मोहन बसीकरन की घातैं।
बंक निसंक चपल अनियारे,
अरुन स्याम सित रचे कहाँ तैं।
डरत न हरत परयौ सर्वसु
मृदु मधुमिव मादिक दृग पातैं॥
नैंकु प्रसन्न दृष्टि पूरन करि,
नहिं मोतन चितयौ प्रमदा तैं।
(जै श्री) हित हरिवंश हंस कल गामिनि,
भावै सो करहु प्रेम के नातैं।।73।।
काहे कौं मान बढ़ावतु है बालक मृग लोचनि।
हौंब डरनि कछु कहि न सकति इक बात सँकोचनी ।
मत्त मुरली अंतर तव गावत जागृत सैंन तवाकृति सोचनि।
(जै श्री) हित हरिवंश महा मोहन पिय आतुर विट विरहज दुख मोचनि ।।74।।
हौं जु कहति इक बात सखी,
सुनि काहे कौं डारत?
प्रानरमन सौं क्यौंऽब करत,
आगस बिनु आरत।।
पिय चितवत तुव चंद वदन तन,
तूँ अधमुख निजु चरन निहारति।
वे मृदु चिबुक प्रलोइ प्रबोधत,
तूँ भामिनि कर सौं कर टारति।।
विबस अधीर विरह अति कतर सर
औसर कछुवै न विचारति।
(जै श्री) हित हरिवंश रहसि प्रीतम मिलि,
तृषित नैंन काहे न प्रतिपारति।।75।।
नागरीं निकुंज ऐंन किसलय दल रचित सैंन,
कोक कला कुसल कुँवरि अति उदार री।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटि भंग,
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।
मुखर नूपुरनि सुभाव किंकनी विचित्र राव,
विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नैंन सुरस सार री।।76।।
लटकति फिरति जुवति रस फूली।
लता भवन में सरस सकल निसि,
पिय सँग सुरत हिंडोरे झूली।।
जद्दपि अति अनुराग रसासव
पान विवस नाहिंन गति भूली।
आलस वलित नैंन विगलित लट,
उर पर कछुक कंचुकी खूली।।
मरगजी माल सिथिल कटि बंधन,
चित्रित कज्जल पीक दुकूली।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन सर जरजर ,
विथकित स्याम सँजीवन मूली।।77।।
सुधंग नाचत नवल किसोरी।
थेई थेई कहति चहति प्रीतम दिसि,
वदन चंद मनौं त्रिषित चकोरी।।
तान बंधान मान में नागरि
देखत स्याम कहत हो हो होरी।
(जै श्री) हित हरिवंश माधुरी अँग अँग,
बरवस लियौ मोहन चित चोरी।।78।।
रहसि रहसि मोहन पिय के संग री,
लड़ैती अति रस लटकति।
सरस सुधंग अंग में नागरि,
थेई थेई कहति अवनि पद पटकति।।
कोक कला कुल जानि सिरोमनि,
अभिनय कुटिल भृकुटियनि मटकति।
विवस भये प्रीतम अलि लंपट,
निरखि करज नासा पुट चटकति ॥
गुन गनु रसिक राइ चूड़ामनि
रिझवति पदिक हार पट झटकति।
(जै श्री) हित हरिवंश निकट दासीजन,
लोचन चषक रसासव गटकति।।79।।
वल्लवी सु कनक वल्लरी तमाल स्याम संग,
लागि रही अंग अंग मनोभिरामिनी।
वदन जोति मनौं मयंक अलका तिलक छबि कलंक,
छपति स्याम अंक मनौं जलद दामिनी।।
विगत वास हेम खंभ मनौं भुवंग वैनी दंड,
पिय के कंठ प्रेम पुंज कुंज कामिनी।
(जै श्री) सोभित हरिवंश नाथ साथ सुरत आलस वंत,
उरज कनक कलस राधिका सुनामिनी।।80।।
वृषभानु नंदिनी मधुर कल गावै।
विकट औंघर तान चर्चरी ताल सौं,
नंदनंदन मनसि मोद उपजावै।।
प्रथम मज्जन चारु चीर कज्जल तिलक,
श्रवण कुंडल वदन चंदनि लजावै।
सुभग नकबेसरी रतन हाटक जरी,
अधर बंधूक दसन कुंद चमकावै।।
वलय कंकन चारु उरसि राजत हारु,
कटिव किंकिनी चरन नूपुर बजावै।
हंस कल गामिनी मथति मद कामिनी,
नखनि मदयंतिका रंग रुचि द्यावे ।।
निर्त्त सागर रभसि रहसि नागरि नवल,
चंद चाली विविध भेदनि जनावै।
कोक विद्या विदित भाइ अभिनय निपुन,
भू विलासनि मकर केतनि नचावै।।
निविड़ कानन भवन बाहु रंजित रवन,
सरस आलाप सुख पुंज बरसावै।
उभै संगम सिंधु सुरत पूषन बधु,
द्रवत मकरंद हरिवंश अली पावै।।81।।
नागरता की राशि किसोरी।
नव नागर कुल मौलि साँवरी,
वर बस कियो चितै मुख मोरी।।
रूप रुचिर अंग अंग माधुरी,
विनु भूषन भूषित ब्रज गोरी।
छिन छिन कुसल सुधंग अंग में,
कोक रमस रस सिंधु झकोरी।
चंचल रसिक मधुप मौंहन मन.
राखे कनक कमल कुच कोरी।
प्रीतम नैंन जुगल खंजन खग,
बाँधे विविध निबंध डोरी।
अवनी उदर नाभि सरसी में,
मनौं कछुक मदिक मधु घोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश पिवत सुंदर वर,
सींव सुदृढ़ निगमनि की तोरी।।82।।
छाँड़िदैं मानिनी मान मन धरिबौ।
प्रनत सुंदर सुघर प्रानवल्लभ नवल,
वचन आधीन सौं इतौ कत करिबौं। ।
जपत हरि विवस तव नाम प्रतिपद विमल,
मनसि तव ध्यान ते निमिष नहिं टरिबौ।
घटति पलु पलु सुभग सरद की जामीनी,
भामिनी सरस अनुराग दिसि ढरिबौ।।
हौं जु कहति निजु बात सुनो मनि सखि,
सुमुखि बिनु काज घन विरह दुख भरी वै।
मिलत हरिवंश हित’ कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख सिंधु में तिरिबौ।।83॥
आजुब देखियत है हो प्यारी रंग भरी।
मोपै न दुरति चोरी वृषभानु की किशोरी;
सिथिल कटि की डोरी,नंद के लालन सौं सुरत लरी।।
मोतियन लर टूटी चिकुर चंद्रिका छूटी
रहसि रसिक लूटी गंडनि पीक परी।
नैननि आलस बस अधर बिंब निरस;
पुलक प्रेम परस हित हरिवंश री राजत खरी।।84।।