|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली || (16)
विवाह
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
तया हि सहितः सर्वान् पुरुषार्थान् समश्नुते।।[1]
वट के नन्हें से बीज के अन्तर्गत एक महान वृक्ष छिपा रहता है, अज्ञानी लोग उसे भी अन्य पौधों के बीज की भाँति छोटा-सा ही बीज समझते हैं। अजवाइन के बीजों के साथ ही वट के बीज को भी बोते हैं, पहले-पहले दोनों का अंकुर एक-सा ही निकलता है, किन्तु आगे चलके अजवाइन का वृक्ष तो थोड़ा ही बढ़कर साल छः महीनों में ही सूख जाता है, किन्तु वट-वृक्ष निरन्तर बढ़ता ही रहता है और कालान्तर में जाकर वह एक महान विशाल वृक्ष बन जाता है, जिसकी छाया में बैठकर असंख्यों पसीनों से भींगे हुए प्राणी शीतलता का सुखास्वादन करते हैं, उसकी पूर्ण आयु का अनुमान भी नहीं किया जाता है। वह शाश्वत वृक्ष बन जाता है। निमाई यद्यपि अपने विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और विलक्षण थे, फिर भी साधारण लोग यही समझते थे कि कालान्तर में यह भी एक पाठशाला खोलकर नवद्वीप का अन्य पण्डितों की भाँति एक नामी पण्डित बन जायगा।
यह भी अन्य पण्डितों की भाँति स्त्री-पुत्रों में आसक्त होकर सुखपूर्वक संसारी सुखों का उपभोग करेगा। क्योंकि विद्वान हो अथवा मूर्ख संसारी विषयों में तो सब समानरूप से ही रत रहते हैं। बड़े लोगों की भोग-सामग्री बहुमूल्य ओर बड़ी होती है। छोटे लोग साधारण भोग-सामग्रियों से ही अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं, किन्तु उनमें आसक्ति दोनों की समान ही है। बँधे दोनों ही हैं। फिर चाहे वह बन्धन रस्सी का हो अथवा रेशम का। सोने की हो या लोहे की, बेड़ी तो समान ही हैं। दोनों ही बन्धन से प्रभु की इच्छा के बिना नहीं निकल सकते। अन्यान्य पण्डितों को धन के ही लिये विद्योपार्जन करते देख लोगों का यही अनुमान हो गया था कि निमाई भी अपने विद्या-बल से खूब धन प्राप्त करेगा। उन्हें यह पता नहीं था, इसके उपदेश से असंख्यों मनुष्य स्त्री, धन, परिवार और समस्त उत्तमोत्तम भोग-सामग्रियों को तुच्छ समझकर महाधन की प्राप्ति में कटिबद्ध हो जायँगे और अपने मनुष्य जन्म को सार्थक बनावेंगे।
संसारी लोग बेचारे और अनुमान कर ही क्या सकते हैं? इनका आरम्भिक जीवन आदि में अन्य साधारण जीवनों की भाँति था ही, इससे लोगों का यही अनुमान लगाना ठीक था। निमाई की अवस्था अब सोलह वर्ष की है। व्याकरण, अलंकार और न्याय में इन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली है। आगे पढ़ने की भी इच्छा थी, किन्तु कई कारणों से इन्होंने पाठशाला में जाकर पढ़ना बंद कर दिया। घर पर अकेली विधवा माता थी, निर्वाह का कोई दूसरा प्रबन्ध नहीं था।
आकाशी वृत्ति थी, ईश्वरेच्छा से जो भी आ जाता उसी पर निर्वाह होता। मिश्र जी कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ गये थे, उनके सामने भी इसी प्रकार निर्वाह होता था। अब निमाई समझदार हो गये, विद्वान भी बन गये, इसीलिये अब जीवन-निर्वाह के लिये भी कुछ उद्योग करना चाहिये। वृद्धा माता को सुख पहुँचाने का यही अवसर है। यह सब सोच-समझकर इन्होंने सोलह वर्ष की छोटी ही अवस्था में अध्यापन का कार्य करना आरम्भ कर दिया। इनकी विलक्षण बुद्धि और पठन-पाठन को अद्वितीय सुन्दर शैली से सभी शास्त्रीय ज्ञान रखने वाले पुरुष परिचित थे। इसलिये इन्हें नवद्वीप-जैसे विद्या के भारी केन्द्रस्थान में अध्यापक बनने में कोई कठिनता न हुई। नवद्वीप में मुकुन्द संजय नाम के एक विद्यानुरागी धनी-मानी व्यक्ति थे। उनके एक पुरुषोत्तम संजय नाम का पुत्र था।
संजय महाशय अपने पुत्र के पढ़ाने के निमित्त किसी योग्य अध्यापक की तलाश में थे। निमाई की ऐसी इच्छा देख उन्होंने इनसे प्रार्थना की। निमाई स्वयं ही एक पाठशाला स्थापित करने की बात सोच रहे थे, किन्तु उनके छोटे-से मकान में पाठशाला स्थापित करने के योग्य स्थान ही न था। संजय भगवत-भक्त होने के साथ धनी भी थे। बंगाल में प्रायः सभी धार्मिक पुरुषों के यहाँ एक ‘चण्डी-मण्डप’ नाम से अलग स्थान होता है, उसे ‘देवी-गृह’ या ‘ठाकुर-दालान’ भी कहते हैं। नवदुर्गाओं में उक्त स्थान पर ही चण्डीपाठ और पूजा तथा उत्सव हुआ करते हैं। यह स्थान ऐसे ही शुभ कार्यों के लिये सुरक्षित होते हैं। योग्य और विद्वान अतिथि के आने पर इसी स्थान में उनका आतिथ्यादि भी किया जाता है। अपनी शक्ति के अनुसार धनिकों का चण्डी-मण्डप विस्तृत, सुन्दर और अधिक कीमती होता है।
संजय महाशय का चण्डीमण्डप खूब बड़ा था। निमाई पण्डित ने उसी मण्डप में अपनी पाठशाला स्थापित की। इधर-उधर से बहुत-से छात्र इनका नाम सुनकर पढ़ने आने लगे। पुत्र के साथ संजय भी निमाई से विद्याध्ययन करने लगे। इनकी पढ़ाने की शैली बड़ी ही सरस तथा चित्ताकर्षक थी, इसलिये थोड़े ही समय में इनकी पाठशाला चल निकली और सैकड़ों छात्र इनके पास पढ़ने आने लगे। ये विद्यार्थियों के साथ गुरु-शिष्य का व्यवहारन करके एक प्रेमी मित्र का-सा व्यवहार करते। उनसे खूब हँसी-दिल्लगी करते, घर का हाल-चाल पूछते ओर अपनी सब बातें बताते। इससे विद्यार्थी इनके ऊपर अत्यधिक अनुराग रखने लगे। बहुत-से विद्यार्थी तो इनसे अवस्था में बहुत बड़े-बड़े थे। वे सब भी इनके पास अध्ययन करने आते और इनका हृदय से बहुत अधिक आदर करते थे। इस प्रकार इनकी पाठशाला नवद्वीप में एक प्रसिद्ध पाठशाला मानी जाने लगी।
व्याकरण-शास्त्र में गंगादास जी की पाठशाला को छोड़कर निमाई की पाठशाला सबसे श्रेष्ठ समझी जाती थी। निमाई विद्यार्थियों के साथ परिश्रम भी खूब करते थे। एक दिन निमाई पण्डित पाठशाला से पढ़ाकर अपने घर जा रहे थे। दैवात गंगा जी जाते हुए रास्ते में पं. बल्लभाचार्ज जी की तनया लक्ष्मीदेवी से उनका साक्षात्कार हो गया। बल्लभाचार्य निमाई के सजातीय ब्राह्मण थे। इन्होंने लक्ष्मीदेवी को पहले भी कई बार देखा था, किन्तु आज के दर्शन में विशेषता थी। लक्ष्मीदेवी को देखते ही परम सदाचारी निमाई के
‘भावस्थितानि जननान्तरसौहृदानि’
इस न्याय के अनुसार पूर्वजन्म के संस्कार जाग्रत हो उठे। स्वाभाविक सौहृद तो स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, इसमें चेष्टा करना या अनुराग करना तो कहा ही नहीं जा सकता। इन्होंने लक्ष्मीदेवी की ओर देखा। लक्ष्मीदेवी ने भी धीरे से इनकी ओर देखा और इनके पादपद्मों में भक्ति से मन-ही-मन प्रणाम करके वह गंगा की ओर चली गयी। ये अपने घर की ओर चले गये।
भावी की भवितव्यता तो देखिये उसी दिन बनवारी घटक नाम के जगन्नाथ मिश्र के स्नेही एक ब्राह्मण शचीदेवी के समीप आये और माता से कहने लगे- ‘निमाई अब सयाना हो गया है, अब उसके विवाह का शीघ्र ही उद्योग करना चाहिये। यदि तुम्हें पसंद हो तो पं. बल्लभाचार्य की एक कन्या है। तुम उसे चाहो तो देख सकती हो। लाखों में एक है, बड़ी ही सुशीला, सुन्दरी और बुद्धिमती लड़की है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। यदि तुम्हें यह सम्बन्ध मंजूर हो तो मैं पण्डित जी से इस सम्बन्ध में कहूँ।’
माता स्वयं पुत्र के विवाह की चिन्ता में थीं, किन्तु वे निमाई की इच्छा के बिना कोई सम्बन्ध निश्चित करना नहीं चाहती थीं। घर में कोई दूसरा आदमी सलाह करने के लिये था नहीं, पुत्र समझदार और सयाना था, उसकी अनुमति के बिना वे विवाह के सम्बन्ध में किसी को निश्चित वचन नहीं दे सकती थीं, अतः बात को टालते हुए माता ने कहा- ‘इस पितृ-हीन बालक का विवाह ही क्या है, अभी तो वह पढ़ ही रहा है। कुछ करने लगेगा तो देखा जायगा।’ घटक महाशय शचीमाता का ऐसा उदासीन भाव देखकर समझ गये कि माता को यह सम्बन्ध मंजूर नहीं। कारण कि पं. बल्लभाचार्य बहुत ही गरीब थे। ब्राह्मण ने समझा, माता अपने पण्डित पुत्र का निर्धन की लड़की के साथ विवाह करना नहीं चाहती। यह समझकर वे लौट आये। दैवात रास्ते में उन्हें निमाई मिल गये। इन्हें देखते ही निमाई खिल उठे ओर हँसते हुए बोले- ‘कहिये, घटक महाशय! किधर-किधर से आगमन हो रहा है।’
कुछ असन्तोष के भाव से घटक ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारी माता के पास पं. बल्लभाचार्य की पुत्री के साथ तुम्हारे विवाह की बातचीत करने गया था, सो उन्होंने मंजूर ही नहीं किया। कहो तुम्हारी क्या सलाह है?’
निमाई यह सुनकर हँस पड़े। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, वे हँसते हुए घर चले गये। घर पहुँचकर इन्होंने कुछ मुसकराते हुए कहा- ‘घटक उदास होकर जा रहे थे, बल्लभाचार्य जी का सम्बन्ध मंजूर क्यों नहीं किया?’ माता समझ गयी कि निमाई को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं है, इसलिये उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। दूसरे दिन घटक को बुलाकर उन्होंने कहा- ‘आचार्य महाशय, कल आप जो बात कहते थे, वह मुझे स्वीकार है, आप पं. बल्लभाचार्य से कहकर सब ठीक करा दीजिये। आप ही अब हमारे हितैषी हैं और घर में दूसरा है ही कौन? आपका ही लड़का है जैसे चाहें कीजिये।’ बनवारी घटक को यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी समय बल्लभाचार्य के घर पहुँचे।
आचार्य ने इनका सत्कार किया और आने का कारण जानना चाहा। इन्होंने सब वृत्तान्त बता दिया। इस संवाद को सुनकर पं. बल्लभाचार्य को तथा उनके समस्त घरवालों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे घटक से कहने लगे- ‘मेरा सौभाग्य है कि शची देवी ने इस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया है। निमाई पण्डित-जेसे विद्वान को अपना जामाता बनाने में मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। लड़की के पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के उदय होने पर ही ऐसा वर मिल सकता है, किन्तु आप मेरी परिस्थिति से तो परिचित ही हैं। मेरे पास देने-लेने के लिये कुछ नहीं है। केवल पाँच हरीति की के साथ कन्या को ही समर्पित कर सकूँगा। यदि यह बात उन्हें मंजूर हो तो आप जब भी कहें मैं विवाह करने को तैयार हूँ।’
घटक ने कहा- ‘आप इस बात की कुछ चिन्ता न कीजिये। शची देवी को रूपये-पैसे का लोभ नहीं है। वे तो सुशीला सुन्दरी लड़की ही चाहती हैं, आप प्रसन्नता के साथ विवाह की तैयारियाँ कीजिये।’ यह कहकर घटक महाशय बल्लभाचार्य जी से विदा होकर शची देवी के पास आये और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया। दोनों ओर से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। नियत तिथि के दिन अपने स्नेही बन्धु-बान्धव तथा विद्यार्थियों के साथ बरात लेकर निमाई बल्लभाचार्य जी के घर गये। आचार्य ने सभी का यथोचित सम्मान किया। गोधूलि की शुभ लग्न में निमाई पण्डित ने लक्ष्मी देवी का पाणिग्रहण किया।
लक्ष्मी देवी ने काँपते हुए हाथों से इनके चरणों में माला अर्पण की और भक्तिभाव के साथ प्रणाम किया। इन्होंने उन्हें वामांग किया। हवन, प्रदक्षिणा, कन्यादान आदि सभी वैदिक कृत्य होने पर विवाह का कार्य सकुशल समाप्त हुआ। दूसरे दिन आचार्य से विदा होकर लक्ष्मी देवी के साथ पालकी में चढ़कर निमाई घर आये। माता ने सती स्त्रियों के साथ पुत्र और पुत्रवधू का स्वागत किया। ब्राह्मणों को तथा अन्य आश्रित जनों को यथायोग्य द्रव्य-दान किया गया। लक्ष्मी देवी का रंग-रूप निमाई के अनुरूप ही था। इस जुगल जोड़ी को देखकर पास-पड़ोस की स्त्रियाँ परम प्रसन्न हुईं। कोई तो इन्हें रति-कामदेव की उपमा देने लगी, कोइई-कोई शची-पुरन्दर कहकर परिहास करने लगी, कोई-कोई गौर-लक्ष्मी कहकर निमाई की ओर हँसने लगी। सुन्दरी पुत्रवधू के साथ पुत्र को देखकर माता को जो आनन्द प्राप्त हुआ उसका वर्णन करना इस लोह की लेखनी के बाहर की बात है।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली || (17)
चंचल पण्डित
सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम्।
कायः परहितो यस्य कलिस्तस्य करोति किम्।।[1]
मिश्री को कहीं से भी खाओ उसका स्वाद मीठा ही होगा, घी-बूरे का लड्डू यदि टेढ़ा और इरछा-तिरछा भी बना हो तो भी उसके स्वाद में कोई कमी नहीं होती। इसी प्रकार प्रेम किसी भी प्रकार किया जाय, कहीं भी किया जाय, किसी के भी साथ किया जाय उसका परिणाम अनिर्वचनीय सुख ही होगा। हृदय में दया के भाव हों, अन्तःकरण शुद्ध हो, अपने स्वार्थ की मन में वाञ्छा न हो, फिर चाहे दूसरों के साथ कैसा भी बर्ताव करो, उन्हें चाहे गले से लगाकर आलिंगन करो या उनकी मधुर-मधुर भर्त्सना करो, दोनों में ही सुख है, दोनों से ही आनन्द प्राप्त होता है।
निमाई अब विद्यार्थी नहीं हैं। अब उनकी गणना प्रसिद्ध पण्डितों में होने लगी है। अब वे गृहस्थी भी बन गये हैं और अध्यापक भी। ऐसी दशा में अब उन्हें गम्भीरता धारण करनी चाहिये जिससे लोग उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा करें। किन्तु निमाई ने तो गम्भीरता का पाठ पढ़ा ही नहीं है। मानो वे संसार में सबसे बड़ी समझी जाने वाली मान-प्रतिष्ठा की कुछ परवाह ही नहीं रखते। ‘लोग हमारे इस व्यवहार से क्या सोचेंगे’ यह विचार उनके मन में आता ही नहीं। ‘लोगों को जो सोचना हो सोचते रहें। दुनियाभर के विचारों का हमने कोई ठेका थोडे़ ही ले लिया है। हमें तो जिसमें प्रसन्नता प्राप्त होगी, जिस काम से हमारा अन्तःकरण सुखी और शान्त होगा हम तो उसे ही करेंगे। लोग बकते हैं तो बकते रहें। हम किसी का मुँह थोड़े ही सी सकते हैं।’ बस, निमाई इन्हीं विचारों में मस्त रहते।
पाठशाला में विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। पढ़ाते-पढ़ाते बीच-बीच में ऐसी हँसी की बात कह देते हैं कि सभी खिलखिलाकर हँस उठते हैं। किसी लड़के को पाठ याद नहीं होता तो उसे आँखें निकालकर डाँटते नहीं। प्रेम के साथ कहते हैं, ‘भाई! तोते की तरह धुन लगा जाया करो। जैसे ‘अनद्यतने लुट्’ इसे बार-बार कहो।’ इतना समझाकर आप स्वयं सिर हिला-हिलाकर ‘अनद्यतने लुट्’ ‘अनद्यतने लुट्’ इस सूत्र को बार-बार पढ़ते। लड़के हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। तब आप दूसरे विद्यार्थी को समझाने लगते। पाठ समाप्त हुआ और साथ ही विद्यार्थी और पण्डित का भाव भी समाप्त हो गया। अब सभी विद्यार्थियों को साथी समझकर उन्हें लेकर गंगा-किनारे पहुँच गये। कभी किसी के साथ शास्त्रार्थ हो रहा है, कभी गंगा जी की बालुका में कबड्डी खेली जा रही है, कभी जल-विहार का ही आनन्द छिड़ा हुआ है।
निमाई पण्डित स्वयं अपने हाथों से विद्यार्थियों के ऊपर पानी उलीचते हैं, विद्यार्थी भी सब भूल-भालकर उनके ऊपर पानी उलीच रहे हैं। कभी-कभी दस-पाँच मिलकर एक साथ ही निमाई के ऊपर जल उलीचने लगते हैं, निमाई पण्डित जल से घबड़ाकर जल्दी से जल से बाहर निकलकर भागते हैं, पैर फिसल जाने से वे जल में गिर पड़ते हैं, सभी ताली देकर हँसने लगते हैं। दर्शनार्थी दूर से देखते हैं और खुश होते हैं। बहुत-से ईर्ष्यावश आवाजें कसने लगते हैं- ‘वाह रे पण्डित! पण्डितों के नाम को भी कलंकित करते हो। विद्यार्थियों के साथ ऐसी खिलवाड़?’ कोई चंचल पण्डित कहता- ‘छोटी उम्र में अध्यापक बन जाने का यही कुपरिणाम होता है।’ किन्तु उनकी इन बातों पर कौन ध्यान देता है, निमाई अपने खेल में मस्त हैं। कौन क्या बक रहा है, इसका उन्हें पता भी नहीं। कभी-कभी दूर से ही पुचकारते हुए कह देते- ‘अच्छा, बेटा, भूकते रहो। कभी-न-कभी टुकड़ा मिल ही जायगा।’ स्नान करके रास्ते में जा रहे हैं, किसी ने किसी को किसी के ऊपर ढकेल दिया है, वह मोरी में गिर पड़ा है, सभी ताली देकर हँस रहे हैं।
किसी पण्डित को देखते ही बड़ी कठिन संस्कृत बोलने लगते हैं। एक साथ ही उससे दस-बीस प्रश्न कर डाले। बेचारा बगल में आसन दबाये चुपचाप भीगी बिल्ली की भाँति बिना कुछ कहे ही गंगा की ओर चला जाता है, इनसे बातें करने की हिम्मत ही नहीं होती। बाजार में भी चौकड़ी मारकर भागते हैं। कूद-कूदकर चलना तो इनका स्वभाव ही था। रास्ते भी बच्चों की तरह कुदककर चलते। किसी वैष्णव को देखते ही उसे घेर लेते और उससे जोर से प्रश्न करते ‘किं तावत् वैष्णवत्वम्’ ‘वैष्णवता किसे कहते हैं?’ कभी पूछते ‘ऊर्ध्वपुण्ड्रेन किं स्यात्’ ‘ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाने से क्या होता है?’ बेचारे वैष्णव हैरान हो जाते और इनसे जैसे-तैसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। वे कहते जाते- ‘घोर कलियुग आ गया। पण्डित भी वैष्णवों की निन्दा करने लगे।’ कोई कहता- ‘अजी इस निमाई को पण्डित कहता ही कौन है, यह तो रसिकशिरोमणि है, उद्दण्डता की सजीव मूर्ति है, इसका भी कोई धर्म-कर्म है?’ कोई कहता- इतना छिछोरपन ठीक नहीं।’ उन्हीं दिनों श्रीअद्वैताचार्य की पाठशाला में चटगाँवनिवासी मुकुन्ददत्त नामक एक विद्यार्थी पढ़ता था। वह परम वैष्णव था। उसके चेहरे से सौम्यता टपकती थी। उसका कण्ठ बड़ा ही मनोहर था। वह अद्वैताचार्य की सभा में पद-संकीर्तन किया करता था और अपने सुमधुर गान से भक्तों के चित्त को आनन्दित किया करता था।
निमाई उससे मन-ही-मन बहुत स्नेह करते थे, किन्तु ऊपर से सदा उससे छेड़खानी ही करते रहते। जब भी वह मिल जाता, उसे पकड़कर न्याय की फक्कि का पूछने लगते। वह हाथ जोड़कर कहता- ‘बाबा! मुझे माफ करो, मैं तुम्हारा न्याय-फ्याय कुछ नहीं जानता। मैं तो वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन करता हूँ।’ तब आप उससे कहते- ‘अच्छा, वैष्णव की ही परिभाषा करो। बताओ वैष्णव के क्या लक्षण हैं?’ मुकुन्द कहते- ‘भाई, हम हारे तुम जीते। कैसे पिण्ड भी छोड़ोगे? तुमसे मगजपच्ची कौन करे? तुम पर तो सदा शास्त्रार्थ का ही भूत सवार रहता है। हमें इतना समय कहाँ है?’ इस प्रकार कहकर वे जैसे-तैसे इनसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। एक दिन ये गंगा-स्नान करके आ रहे थे, उधर से मुकुन्ददत्त भी गंगा-स्नान करने के निमित्त आ रहे थे, इन्हें दूर से ही आता देख मुकुन्ददत्त जल्दी से दूसरे रास्ते होकर गंगा की ओर जाने लगे। निमाई ने अपने विद्यार्थियों से कहा- ‘देखी, तुमने इस वैष्णव विद्यार्थी की चालाकी? कैसा बच के भागा जा रहा है, मानो मैं उसे देख ही नहीं रहा हूँ।
एक विद्यार्थी ने कहा- ‘किसी जरूरी काम से उधर जा रहे होंगे।’ आप जोर से कहने लगे- ‘जरूरी काम कुछ नहीं है। सोचते हैं वैष्णव होकर हम इन अवैष्णव लोगों से व्यर्थ की बातें क्यों करें। इसलिये एक तरफ होकर निकले जा रहे हैं।’ फिर जोरों से मुकुन्ददत्त को सुनाते हुए बोले- ‘अच्छा बेटा, देखते हैं कितने दिन इस तरह हमसे दूर रहोगे। यों मत समझना कि हम ही वैष्णव हैं। एक दिन हम भी वैष्णव होंगे और ऐसे वैष्णव होंगे कि तुम सदा पीछे-पीछे फिरते रहोगे।’ इन बातों को सुनते-सुनते मुकुन्द गंगा की ओर चले गये और ये अपनी पाठशाला में लौट आये। इनके पिता श्रीहट्ट के निवासी थे। नवद्वीप में बहुत-से श्रीहट्ट के विद्यार्थी पढ़ने के लिये आया करते और बहुत-से श्रीहट्टवासी नवद्वीप में रहते ही थे। ये जहाँ भी श्रीहट्ट के विद्यार्थी को देखते वहीं उसकी खिल्ली उड़ाते। श्रीहट्ट की बोली की नकल करते, उनके आचार-विचार की आलोचना करते। लोग कहते- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम भी तो श्रीहट्ट के ही हो। जहाँ के रहने वाले हो वहीं की खिल्लियाँ उड़ाते हो।’ ये कहते- ‘शर्म तो हमने उतारकर अपने घर की खूँटी पर लटका दी है, तुम झूठ मानो तो हमारे घर जाकर देख आओ।’ सभी सुनते और चुप हो जाते। कोई-कोई राज-कर्मचारियों तक से इनकी उद्दण्डता की शिकायत करते, किन्तु राजकर्मचारी इनके स्वभाव से परिचित थे, ये उन्हें देखकर जोरों से हँस पड़ते।
कर्मचारी शिकायत करने वाले को ही चार उलटी-सीधी सुनाकर विदा करते। इस प्रकार इनकी चंचलता नगरभर में विख्यात हो गयी। उन दिनों नवद्वीप में इने-गिने ही वैष्णव थे, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती थी। उन सबके आश्रयदाता थे अद्वैताचार्य। वैष्णवगण अपनी मनोव्यथा उन्हीं से जाकर कहते। वे वैष्णव को आश्वासन दिलाते, ‘घबड़ाओ मत। अन्तर्यामी भगवान हमारी दुर्दशा को भलीभाँति जानते हैं, वे प्रत्यक्ष रीति से हमारी दुर्गति देख रहे हैं। बहुत शीघ्र ही वे हमारा उद्धार करेंगे। एक दिन नवद्वीप में भक्ति की ऐसी बाढ़ आवेगी कि उसमें सभी नर-नारी सराबोर हो जायँगे। जितने दिन की यह विपत्ति है उतने दिन धैर्य से और काटो, अब शीघ्र ही नास्तिकवाद और हिंसावाद का अन्त होने वाला है।’
वैष्णव कहते- ‘निमाई पण्डित ऐसे विद्वान वैष्णवों की हँसी उड़ाते हैं।’ अद्वैत कहते- ‘तुम अभी निमाई को जानते नहीं, वे हृदय से वैष्णवों के प्रति बड़ा स्नेह रखते हैं, वे जो भी कुछ कहते हैं ऊपर से ही यों ही कह देते हैं। आगे चलकर तुम उन्हें यथार्थ रीति से समझ सकोगे।’ इस प्रकार वैष्णव तो आपस में ऐसी बातें किया करते और निमाई अपनी लोकोत्तर मधुर-मधुर चंचलता से नगरवासी तथा शचीदेवी और लक्ष्मीदेवी को आनन्दित और हर्षित किया करते।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(18)
नवद्वीप में ईश्वरपुरी
येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः।
किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः।।[1]
बड़े-बड़े विद्वान और धर्मकोविदों ने गृहस्थ-धर्म की जो इतनी भारी प्रशंसा की है, उसका एक प्रधान कारण है अतिथि-सेवा। गृहस्थ में रहकर मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि-सेवा भलीभाँति कर सकता है। भूखे को यथासामर्थ्य भोजन देना, प्यासे को जल पिलाना और निराश्रित को आश्रय प्रदान करके सुख पहुँचाना- इनसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म हो ही नहीं सकता। अहा! उस बड़भागी गृहस्थ के घर की कल्पना तो कीजिये। छोटा-सा लिपा-पुता स्वच्छा घर है, एक ओर तुलसी का बिरवा आँगन में शोभा दे रहा है, दूसरी ओर हल्दी और कुंकुम से पूजित सुन्दर-सी श्यामा गौ बँधी है। गृहिणी सुन्दर और हँसमुख है, छोटे-छोटे बच्चे आँगन में खेल रहे हैं। गृहिणी मुख से सुन्दर हरि नाम का उच्चारण करती हुई रसोई बना रही है, इतने ही में गृहपति आ गये। भोजन तैयार है, गृहपति ने गोग्रास निकाला, सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अग्नि में आहुत दी और द्वार पर खडे़ होकर किसी अतिथि की खोज करने लगे। इतने ही में क्या देखते हैं, एक विरक्त महात्मा कौपीन लगाये भिक्षा के निमित्त ग्राम की ओर आ रहे हैं। गृहस्थी ने आगे बढ़कर महात्मा के चरणों में अभिवादन किया और उनसे भिक्षा कर लेने की प्रार्थना की। सद्गृहस्थी की प्रार्थना स्वीकार करके संत उसके घर में जाते हैं। योग्य अतिथि को देखकर दम्पती हर्ष से उन्मत्त-से हो जाते हैं। अपने सगे जमाई की तरह उनका स्वागत-सत्कार करते हैं। महात्मा के चरणों को धोकर उस जल का स्वयं पान करते हैं और अपने घर भर को पवित्र बनाते हैं। संत को बड़ी ही श्रद्धा से अपने घर में जो भी कुछ रूखा-सूखा बना है, प्रेम से खिलाते हैं। भोजन करके महात्मा चले जाते हैं और गृहस्थी अपने बाल-बच्चे और आश्रित जनों के साथ उस शेष अन्न को पाता है। ऐसे गृहस्थधर्म से बढ़कर दूसरा कौन-सा धर्म हो सकता है? ऐसा गृहस्थी स्वयं तो पावन बन ही जाता है किन्तु जो लोग अतिथि होकर ऐसे गृहस्थ का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं वे भी पवित्र हो जाते हैं। ऐसे अन्न के दाता, भोक्ता दोनों ही पुण्य के भागी होते हैं। निमाई पण्डित को हम आदर्श सद्गृहस्थी कह सकते हैं। उनकी वृद्धा माता प्रेम की मानो मूर्ति ही हैं, घर में जो भी आता है उसको पुत्र की भाँति प्यार करती हैं और उससे भोजनादि के लिये आग्रह करती हैं। लक्ष्मीदेवी का स्वभाव बड़ा ही कोमल है, वे दिनभर घर का काम करती हैं ओर तनिक भी दुःखी नहीं होतीं।
निमाई तो रसिकशिरोमणि हैं ही, वे दो-एक के साथ बिना भोजन करते ही नहीं, लक्ष्मी देवी सबके लिये आलस्यरहित होकर रन्धन करती हैं और अपने पति के साथ उनके प्रेमियों को भी उसी श्रद्धा के साथ भोजन कराती हैं। कभी-कभी घर में दस-दस, पाँच-पाँच अतिथि आ जाते हैं। वृद्धा माता को उनके भोजन की चिन्ता होती है, निमाई इधर-उधर से क्षणभर में सामान ले आते हैं और उसके द्वारा अतिथि-सेवा की जाती है। नगर में कोई भी नया साधु-वैष्णव आवे यदि उसके साथ निमाई का साक्षत्कार हुआ तो वे उसे भोजन के लिये नवद्वीप में ईश्वरपुरी जरूर निमन्त्रित करेंगे और अपने घर ले जाकर भिक्षा करावेंगे। ये सब कार्य ही तो उनकी महानता के द्योतक हैं। पाठक श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी के नाम से तो परिचित ही होंगे और यह भी स्मरण होगा कि उनके अन्तरंग और सर्वप्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरीजी थे। भक्तशिरोमणि श्रीमाधवेन्द्रपुरी इस असार संसार को त्याग कर अपने नित्यधाम को चले गये- अन्तिम समय में उनके रूँधे हुए कण्ठ से यह श्लोक निकला था-
अति! दीनदयार्द्रनाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्यसे।
हृदयं त्वदलोककातरं दयित भ्राम्यति किं करोम्यहम्।।
अर्थात ‘हे दीनों पर दया करने वाले मेरे नाथ! व्रजेशनन्दन! इन चिरकाल की पियासी आँखों से आपकी अमृतोपम मकरन्दमाधुरी का कब पान कर सकूँगा। हे नाथ! यह हृदय तुम्हारे दर्शन के लिये कातर हुआ चारों ओर बड़ी ही द्रुतगति से दौड़ रहा है। हे चंचल श्याम! मैं क्या करूँ?’ यह कहते-कहते उन्होंने इस पांच भौतिक शरीर का त्याग कर दिया। अन्तिम समय में वे अपना सम्पूर्ण प्रेम श्रीईश्वरपुरी को अर्पण कर गये।
गुरुदेव से अमूल्य प्रेमनिधि पाकर ईश्वरपुरी तीर्थों में भ्रमण करते हुए गौड़ देश की ओर आये। इनका जन्मस्थान इसी जिले के कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। ये जाति के कायस्थ थे, कोई-कोई इन्हें वैद्य भी बताते हैं, किन्तु वैष्णवों की जाति ही क्या? उनकी तो हरिजन ही जाति है, फिर संन्यास धारण करने पर तो जाति रहती ही नहीं। ये सदा श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त-से बने रहते थे। जिह्व से सदा मधुर श्रीकृष्ण नाम उच्चारण करते रहते और प्रेम में छके-से, उन्मत्त-से, अलक्षितरूप से देश में भ्रमण करते हुए भाग्यवानों को अपने शुभ दर्शनों से पावन बनाते फिरते थे, इसी प्रकार भ्रमण करते हुए ये नवद्वीप में भी आये और अद्वैत आचार्य के घर के समीप आकर बैठ गये। आचार्य देखते ही समझ गये, ये कोई परम भागवत वैष्णव हैं, उन्होंने इनका यथोचित सत्कार किया। परिचय प्राप्त होने पर तो आचार्य के आनन्द का ठिकाना ही न रहा। उने गुरुदेव के प्रधान और परम प्रिय शिष्य उनके गुरुतुल्य ही थे।
आचार्य ने इनकी गुरुवत पूजा की और कुछ काल नवद्वीप में ही रहने का आग्रह किया। पुरी महाशय ने आचार्य की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वहीं उनके पास रहकर श्रीकृष्ण कथा और सत्संग करने लगे। नवद्वीप में रहते हुए महामहिम श्रीईश्वरपुरी ने निमाई पण्डित का नाम तो सुना था, किन्तु साथ ही यह भी सुना था कि वे बड़े भारी चंचल हैं, वैष्णवों से खूब तर्क-वितर्क करते हैं। इसलिये पुरी महाशय ने भेंट नहीं की। एक दिन अकस्मात निमाई की ईश्वरपुरीजी से भेंट हो गयी। संन्यासी समझकर निमाई पण्डित ने पुरी महाशय को प्रणाम किया। परिचय पाकर उन्हें परम प्रसन्नता हुई। पुरी महाशय तो उनके रूप-लावण्य को देखकर मन्त्र मुग्ध की भाँति एकटक दृष्टि से उनकी ही ओर देखते रहे। उन्होंने सिर से पैर तक निमाई को देखा, फिर देखा और फिर देखा।
इस प्रकार बार-बार उनके अद्भुत रूप-लावण्य और तेज को देखते, किन्तु उनकी तृप्ति ही नहीं होती थी। वे सोचने लगे ये तो कोई योगभ्रष्ट महापुरुष- से जान पड़ते हैं, इनके चेहरे पर कितना तेज है, हृदय की स्वच्छता, शुद्धता और प्राणिमात्र के प्रति ममता इनके चेहरे से प्रस्फुटित हो रही है। ये साधारण पुरुष कभी हो ही नहीं सकते। जरूर कोई प्रच्छन्न वेशधारी महापुरुष हैं। पुरी को एकटक अपनी ओर देखते देखकर हँसते हुए निमाई बोले- ‘पुरी महाशय! अब इस प्रकार कहाँ तक देखियेगा। आज हमारे ही घर भिक्षा कीजियेगा, वहाँ दिनभर हमें देखते रहने का सुअवसर प्राप्त होगा।’ यह सुनकर पुरी महाशय कुछ लज्जित-से हुए और उन्होंने निमाई का निमन्त्रण बड़े प्रेम से स्वीकार कर लिया। भोजन तैयार होने के पूर्व निमाई अद्वैताचार्य के घर से पुरी को लिवा ले गये। शची माता ने स्वामी जी की बहुत ही अधिक अभ्यर्चना की और उन्हें श्रद्धा-भक्ति के साथ भोजन कराया। भोजन के अनन्तर कुछ काल तक दोनों महापुरुषों में कुछ सत्संग होता रहा, फिर दोनों ही अद्वैताचार्य के आश्रम में आये।
अब तो निमाई पण्डित पुरी महाशय के समीप यदा-कदा आने लगे। उन दिनों पुरी महाशय ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ नामक एक ग्रन्थ की रचना कर रहे थे। पुरी ने पण्डित समझकर इनसे उस ग्रन्थ के सुनने का आग्रह किया। गदाधर पण्डित के साथ सन्ध्या समय जाकर ये उस ग्रन्थ को रोज सुनने लगे। पुरी महाशय ने कहा- ‘आप पण्डित हैं, इस ग्रन्थ में जहाँ भी कहीं अशुद्धि हो, त्रुटि मालूम पड़े, वहीं आप बता दीजियेगा।’ इन्होंने नम्रता के साथ उत्तर दिया- ‘श्रीकृष्ण-कथा में भला क्या शुद्धि और क्या अशुद्धि।
भक्त अपने भक्ति-भाव के आवेश में आकर जो भी कुछ लिखता है, वह परम शुद्ध ही होता है। जिस पद में भगवत-भक्ति है, जिस छन्द में श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन है वह अशुद्ध होने पर भी शुद्ध है और जो काव्य श्रीकृष्ण-कथा से रहित है वह चाहे कितना भी ऊँचा काव्य क्यों न हो, उसकी भाषा चाहे कितनी बढि़या क्यों न हो, वह व्यर्थ ही है। भगवान तो भावग्राही हैं, वे घट-घट की बातें जातने हैं। बेचारी भाषा उनकी विरदावली का बखान कर ही क्या सकती है, उनकी प्रसन्नता में तो शुद्ध भावना ही मुख्य कारण है। यथा-
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
उभयोस्तु शुभं पुण्यं भावग्राही जनार्दनः।।
अर्थात मूर्ख कहता है ‘विष्णाय नमः’ [1]और विद्वान कहते हैं ‘विष्णवे नमः’ परिणाम में इन दोनों का फल समान ही है। क्योंकि भगवान जनार्दन तो भावग्राही हैं। उनसे यह बात छिपी नहीं रहती कि ‘विष्णाय’ कहने से भी उसका भाव मुझे नमस्कार करने का ही था।’ निमाई पण्डित का ऐसा उत्तर सुनकर पुरी महाशय अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘यह उत्तर तो आपकी महत्ता का द्योतक है। इस कथन से आपने श्रीकृष्ण-लीला की महिमा का ही वर्णन किया है। आप धुरन्धर वैयाकरण हैं, इसलिये पद-पदान्त और क्रिया की शुद्धि-अशुद्धि पर आप ध्यान जरूर देते जायँ।’ यह कहकर वे अपने ग्रन्थ को इन्हें सुनाने लगे। ये बड़े मनोयाग के साथ नित्यप्रति आकर उस ग्रन्थ को सुनते और सुनकर प्रसन्नता प्रकट करते।
एक दिन ग्रन्थ सुनते-सुनते एक धातु के सम्बन्ध में इन्होंने कहा- ‘यह धातु ‘आत्मनेपदी’ नहीं है ‘परस्मैपदी’ है।’ पुरी उसे आत्मनेपदी ही समझे बैठे थे। इनकी बात से उन्हें शंका हो गयी। इनके चले जाने के पश्चात् पुरी रात भर उस धातु के ही सम्बन्ध में सोचते रहे। दूसरे दिन जब ये फिर पुस्तक सुनने आये तो इनसे पुरी ने कहा- ‘आप जिसे परस्मैपदी धातु बताते थे, वह तो आत्मनेपदी ही है।’ यह कहकर उन्होंने उस धातु को सिद्ध करके इन्हें बताया। सुनकर ये प्रसन्न हुए और कहने लगे- ‘आप ही का कथन ठीक है, मुझे भ्रम हो गया होगा।’ इस प्रकार इन्होंने पुरी के समस्त ग्रन्थ को श्रवण किया। उस ग्रन्थ के श्रवण करने से इन्हें बहुत ही सुख प्राप्त हुआ। इनकी श्रीकृष्णभक्ति धीरे-धीरे प्रस्फुटित-सी होने लगी। ईश्वरपुरी के प्रति भी इनका आन्तरिक अनुराग उत्पन्न हो गया। कुछ काल के अनन्तर पुरी महाशय नवद्वीप से गया की ओर चले गये और निमाई पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में पढ़ाने लगे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(19)
पूर्व बंगाल की यात्रा
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।[1]
विधि के विधान को कोई ठीक-ठीक समझ नहीं सकता। जिसके पास प्रचुर परिणाम में भोज्य-पदार्थ हैं, उसे पाचनशक्ति नहीं। जिसकी पाचनशक्ति ठीक है, उसे यथेष्ठ भोज्य-पदार्थ नहीं मिलते। विद्वानों के पास धन का अभाव है, जिनमें विद्या-बुद्धि नहीं उनके पास आवश्यकता से अधिक अर्थ भरा पड़ा है। जहाँ धन है वहाँ सन्तान नहीं, जहाँ बहुत सन्तान है। वहाँ भोजन के लाले पड़े हुए हैं। इसी बात से तो खीजकर किसी कवि ने ब्रह्मा जी को बुरा-भला कहा है। वे कहते हैं-
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु।
विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुःपुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत।।
कवि की दृष्टि में ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने में बड़ी भारीभूल की है। देखिये सुवर्ण कितना सुन्दर है, उसमें यदि सुगन्ध होती तो फिर उसकी उत्तमता का कहना ही क्या था। ईख के डंडे में जब इतनी मिठास है, तब यदि उसके ऊपर कहीं फल लगता तो वह कितना स्वादिष्ट होता? ब्रह्मा जी उस पर फल लगाना ही भूल गये। चन्दन की लकड़ी में जब इतनी सुगन्ध है, तो उस पर कहीं फूल लगता होता तो उसके बराबर उत्तम फूल संसार में और कौन हो सकता? सो ब्रह्मा जी को उस पर फूल लगाने का ध्यान ही न रहा। विद्वान लोग बिना रूपये-पैसे के ही आकाश-पाताल एक कर देते हैं, यदि उनके पास कहीं धन होता तो इस सृष्टि की सभी विषमता को दूर कर देते, सो उन्हें दरिद्री ही बना दिया, साथ ही उनकी आयु भी थोड़ी बनायी। इन सब बातों को सोचकर कवि कहता है कि इसमें बेचारे ब्रह्मा जी का कुछ दोष नहीं है, मालूम पड़ता है, सृष्टि करते समय ब्रह्मा जी को कोई योग्य सलाह देने वाला चतुर मन्त्री नहीं मिला।
इसीलिये जल्दी में ऐसी गड़बड़ी हो गयी। मन्त्री के अभाव में हुई हो अथवा उन्होंने जान-बुझकर की हो, यह गलती तो ब्रह्मा जी से जरूर ही हो गयी कि उन्होंने विद्वानों को निर्धन ही बनाया। विद्वानों को प्रायः धन के लिये सदा परमुखापेक्षी ही बनना पड़ता है। किसी ने तो यहाँ तक कह डाला है ‘अनाश्रया न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः’ अर्थात पण्डित, स्त्री और बेल बिना आश्रय के भले ही नहीं मालूम पड़ते। बेचारे पण्डितों को वनिता-लता के साथ समानता करके उनकी व्यथा को और भी बढ़ा दिया है। जिस समय की हम बातें कह रहे हैं, उस समय संस्कृत-विद्या की आज की भाँति दुर्गति नहीं थी।
भारतवर्षभर में संस्कृत-विद्या का प्रचार था। बिना संस्कृत पढे़ कोई भी मनुष्य सभ्य कहला ही नहीं सकता था। बंगाल में ब्राह्मण ही संस्कृत-विद्या के पण्डित नहीं थे, किन्तु कायस्थ, वैश्य तथा अन्य जाति के कुलीन पुरुष भी संस्कृत-विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उस समय पण्डितों की दो ही वृत्तियाँ थीं, या तो वे पठन-पाठन करके अपना निर्वाह करें या किसी राजसभा का आश्रय लें। पण्डित सदा से ही दरिद्र होते चले आये पूर्व बंगाल की यात्रा हैं, इसका कारण एक कवि ने बहुत ही सुन्दर सुझाया है। उसने एक इतिहास बताते हुए कहा है कि ब्रह्मा जी के सुकृति (लक्ष्मी) और दुष्कृति (दरिद्रता) दो कन्याएँ थीं। सुकृति बड़ी थी, इसलिये विवाह के योग्य हो जाने पर ब्रह्मा जी ने उसे बिना ही सोचे-समझे मूर्ख को दे डाला। मूर्ख के यहाँ उसकी दुर्गति देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। तभी से वे दूसरी पुत्री दुष्कृति के लिये अच्छा-सा वर खोज रहे हैं, जिसे भी विद्वान, कुलीन और सर्वगुणसम्पन्न देखते हैं उसे ही दरिद्रता को दे डालते हैं।
निमाई पण्डित विद्वान थे, गुणवान थे, रूपवान और तेजवान भी थे, भला ऐसे योग्य वर को ब्रह्मा जी कैसे छोड़ सकते थे? उनके यहाँ भी दरिद्रता का साम्राज्य था, किन्तु वह निमाई पण्डित को तनिक व्यथा नहीं पहुँचा सकती। उनके सामने सदा हाथ बाँधे दूर ही खड़ी रहती थी। निमाई उसकी जरा भी परवा नहीं करते थे। उन दिनों योग्य और नामी पण्डित देश-विदेशों में अपने योग्य छात्रों के साथ भ्रमण करते थे, सद्गृहस्थ उनकी धन, वस्त्र और खाद्य-पदार्थों के द्वारा पूजा करते थे। आज की भाँति पण्डितों की उपेक्षा कोई भी नहीं करता था। निमाई की भी पूर्व बंगाल में भ्रमण करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपनी माता की अनुमति से अपने कुछ योग्य छात्रों के साथपूर्व बंगाल की यात्रा की। उस समय लक्ष्मी देवी को अपने पितृगृह में रख गये थे। श्रीगंगा जी को पार करके निमाई पण्डित अपने शिष्यों के साथ पद्मा नदी के तट पर राढ़-देश में पहुँचे।
बंगाल में भगवती भागीरथी की दो धाराएँ हो जाती हैं। गंगा जी की मूल शाखा पूर्व की ओर जाकर जो बंगाल के उपसागर में मिली है, उसका नाम तो पद्मावती है। दूसरी जो नवद्वीप होकर गंगा सागर में जाकर समुद्र से मिली है उसे भागीरथी गंगा कहते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के ओर दक्षिण-तट से लेकर पद्मा नदी पर्यन्त के देश को राढ़-देश कहते हैं। पहले ‘बंगाल’ इसे ही कहते थे।
उत्तर-तट को गौड़ देश कहते थे और दक्षिण-तट को बंगाल या राढ़ के नाम से पुकारते थे। आज जिसे पूर्व बंगाल कहते हैं, यथा-
रत्नाकरं समारभ्य ब्रह्मपुत्रान्तगं शिवे।
बंगदेशो मया प्रोक्तः सर्वसिद्धिप्रदर्शकः।।
गौड़-देश वालों से बंग-देश वालों का आचार-विचार भी कुछ-कुछ भिन्न था और अब भी है। निमाई पण्डित ने पद्मा के किनारे-किनारे पूर्व बंगाल के बहुत-से स्थानों में भ्रमण किया। जो भी लोग इनका आगमन सुनते वे ही यथाशक्ति भेंट लेकर इनके पास आते। वहाँ के विद्यार्थी कहते- ‘हम बहुत दिनों से आपकी प्रशंसा सुन रहे थे। आपकी लिखी हुई व्याकरण की टिप्पणी बड़ी ही सुन्दर है। हमें अपने पाठ में उससे बहुत सहायता मिलती है।’ कोई कहते- ‘आपकी पद-धूलि से यह देश पावन बन गया, आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य की हम प्रशंसा ही मात्र सुनते थे। आपके गुणों की कौन प्रशंसा कर सकता है?’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से इनकी प्रशंसा और पूजा करने लगे। इनके साथियों को भय था कि पण्डित जी यहाँ भी नवद्वीप की भाँति चंचलता करेंगे तो सब गुड़ गोबर हो जायगा, किन्तु ये स्वयं देशकाल को समझकर बर्ताव करने वाले थे।
कई मास तक ये पूर्व बंगाल में भ्रमण करते रहे, किन्तु वहाँ इन्होंने एक दिन भी चंचलता नहीं की। एक योग्य गम्भीर पण्डित की भाँति ये सदा बने रहते थे। इनसे जो जिस विषय का प्रश्न पूछता उसे उसी के प्रश्न के अनुसार यथावत उत्तर देते। यहाँ इन्होंने वैष्णवों की आलोचना नहीं की, किन्तु उलटा भगवद्भक्ति का सर्वत्र प्रचार किया। इन्होंने लोगों के पूछने पर भगवन्नाम का माहात्म्य बताया, भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की और कलियुग में भक्ति-मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ, सुलभ और सर्वोपयोगी बताया। किन्तु ये बातें इन्होंने एक विद्वान पण्डित की ही हैसियत से कही थीं, जैसे विद्वानों से जो भी प्रश्न करो उसी का शास्त्रानुसार उत्तर दे देंगे। भक्ति का असली स्त्रोत तो इनका अभी अव्यक्तरूप से छिपा ही हुआ था। उसे प्रवाहित होने में अभी देरी थी। फिर भी इनके पाण्डित्यपूर्ण उत्तरों से राढ़-देशवासी श्रद्धालु मनुष्यों को बहुत लाभ हुआ।
वे भगवन्नाम और भक्ति के महत्त्व को समझ गये, उनके हृदय में भक्ति का एक नया अंकुर उत्पन्न हो गया, जिसे पीछे से गौरांग की आज्ञानुसार नित्यानन्द प्रभु ने प्रेम से सींचकर पुष्पित, पल्लवित, फलान्वित बनाया। इस प्रकार ये शास्त्रीय उपदेश करते हुए राढ़-देश के मुख्य-मुख्य स्थानों में घूमने लगे। शाम को अपने साथियों को लेकर ये पद्मों में स्नान करते और घण्टों एकान्त में जलविहार करते रहते। लोग बड़े सत्कार से इन्हें खाने-पीने की सामग्री देते। इनके साथी अपना भोजन स्वयं ही बनाते थे। इस प्रकार इनकी यात्रा के दिन आनन्द से कटने लगे।
एक दिन महामहिम निमाई पण्डित एकान्त स्थान में बैठे हुए थे। उसी समय एक तेजस्वी ब्राह्मण उनके समीप आया। ब्राह्मण के चेहरे से उसकी नम्रता, शीलता, पवित्रता ओर प्रभु-प्राप्ति के लिये विकलता प्रकट हो रही थी। ब्राह्मण अपनी वाणी से निरन्तर भगवान के सुमधुर नामों का उच्चारण कर रहा था। उसने आते ही इनके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगा। इन्होंने उस ब्राह्मण को उठाकर गले से लगाया और अपना कोमल कर उसके अंग पर फेरते हुए बोले- ‘आप यह क्या कर रहे हैं, आप तो हमारे पूज्य हैं, हम तो अभी बालक हैं। आप स्वयं हमारे पूजनीय हैं।’ ब्राह्मण इनके पैरों को पकड़े हुए निरन्तर रुदन कर रहा था, वह कुछ सुनता ही नहीं था, बस, हिचकियाँ भर-भरकर जोरों से रोता ही था।
प्रभु ने आश्वासन देते हुए कहा- ‘बात तो बताओ, इस प्रकार रुदन क्यों कर रहे हों तुम पर क्या विपत्ति है, मंगलमय भगवान तुम्हारा सब भला ही करेंगे, मुझे अपने दुःख का कारण बताओ।’ प्रभु के इस प्रकार बहुत आश्वासन देने पर ब्राह्मण ने कहा- ‘प्रभो! मैं बड़ा ही अधम और साधन शून्य दीन-हीन ब्राह्मण-बन्धु हूँ। अभी तक इस संसार में मनुष्य का साध्य क्या है, उस तक पहुँचने का असली साधन कौन-सा है, इस बात को नहीं समझ सका हूँ। मैं सदा इसी चिन्ता में मग्न रहा करता था कि साध्य-साधन का निर्णय कैसे हो, भगवान से नित्य प्रार्थना किया करता था कि- ‘भगवन! मैं तुम्हारी स्तुति-प्रार्थना कुछ नहीं जानता। आपको कैसे पुकारा जाता है, यह बात भी नहीं जानता। इस दीन-हीन कंगाल को आप स्वयं ही किसी प्रकार साध्य-साधन का तत्त्व समझा दीजिये।’
अन्तर्यामी भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। कल रात में मैं सो रहा था। स्वप्न में एक महापुरुष ने आकर मुझसे कहा- ‘पूर्व बंगाल में जो आजकल निमाई पण्डित भ्रमण कर रहे हैं उन्हें तुम साधारण पण्डित ही न समझो, वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, उन्हीं के पास तुम चले जाओ, वे ही तुम्हारी शंका का समाधान करके तुम्हें साध्य-साधन का मर्म समझावेंगे।’ बस, आँख खुलते ही मैं इधर चला आया हूँ। आज मेरा जीवन सफल हुआ, मैं श्रीचरणों के दर्शन करके कृतकृत्य हो गया। प्रभु तनिक मुसकराये और फिर धीरे-धीरे तपन मिश्र से कहने लगे- ‘महाभाग! आपके ऊपर श्रीकृष्ण भगवान की बड़ी कृपा है। आपकी अन्तरात्मा अत्यन्त पवित्र है, इसीलिये आप सभी में भगवद्भावना करते हैं। मनुष्य जैसी भावना किया करता है, वैसे ही रात्रि में स्वप्न देखता है। आप इस बात को सत्य समझें और किसी के सामने प्रकाशित न करें।’
तपन मिश्र ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो! मुझे भुलाइये नहीं। अब तो मैं सर्वतोभावेन आपकी शरण में आ गया हूँ। जैसे भी उचित समझें मुझे अपनाइये ओर मेरी शंका का समाधान कीजिये।’ प्रभु ने हँसते हुए पूछा- ‘अच्छा, तुम क्या पूछना चाहते हो? तुम्हारी शंका क्या है?’ दीनभाव से तपन मिश्र ने कहा- ‘प्रभो! इस कलिकाल में प्राचीन साधन जो शास्त्रों में सुने जाते हैं, उनका होना तो असम्भव है। समयानुसार कोई सरल, सुन्दर और सर्वश्रेष्ठ साधन बताइये ओर किसको साध्य मानकर उस साधन को करें।’ प्रभु थोड़ी देर चुप रहे, फिर बड़े ही प्रेम के साथ मिश्र से बोले- ‘विप्रवर! प्रभु-प्राप्ति ही मनुष्य का मुख्य साध्य है। उसकी प्राप्ति के लिये प्रत्येक युग में अलग-अलग साधन होते हैं। सत्ययुग में ध्यान ही मुख्य साधन समझा जाता था, त्रेता में बड़े-बड़े़ यज्ञों के द्वारा उस यज्ञ पुरुष भगवान की अर्चना की जाती थी, द्वापर में पूजा-अर्चा के द्वारा प्रभु-प्रसन्नता समझी जाती थी, किन्तु इस कलियुग में तो केवल केशव-कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन बताया जाता है। जो फल अन्य युगों में उन-उन साधनों से हाते थे वही फल कलियुग में भगवन्नाम-स्मरण से होता है। यथा-
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।
बस, सब साधनों को छोड़कर हरि-नाम का ही आश्रय पकड़ना चाहिये। भगवान व्यासदेव तीन बार प्रतिज्ञा करके कहते हैं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।
अर्थात कलियुग में केवल हरि का ही नाम सार है। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कलियुग में हरि नाम को छोड़कर दूसरी गति नहीं है, नहीं है, नहीं है। लोग हरिनाम का माहात्म्य समझकर ही संसार में भाँति-भाँति की यातनाएँ सह रहे हैं। जो भगवन्नाम की महिमा समझ लेगा, फिर उसे भव-बाधाएँ व्यथा पहुँचा ही नहीं सकतीं।
मैं तुम्हें सार-से-सार बात, गुह्य-से-गुह्य साधन बताये देता हूँ। इसे खूब यत्नपूर्वक स्मरण रखना और इसे ही अपने जीवन का मूलमन्त्र समझना-
संसारसर्पदंष्टानामेकमेव सुभेषजम्।
सर्वदा सर्वकालेषु सर्वत्र हरिचिन्तनम्।।
अर्थात् संसाररूपी सर्प के काटे हुए मनुष्य के लिये एक ही सर्वोत्तम ओषधि है, वह यह कि हर समय, हर काल में और हर स्थान में निरन्तर हरिस्मरण ही करते रहना चाहिये। बस, मुख्य साधन यह है-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
‘ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का मन्त्र ही मुख्य साधन है। साध्य के चक्कर में अभी से मत पड़ो। इसका जप करते-करते साध्य का निर्णय स्वयं ही हो जायगा।’ प्रभु के मुख से साधन का गुह्य रहस्य सुनकर मिश्र जी को बड़ा ही आनन्द हुआ। आनन्द के कारण उनकी आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने रोते-रोते प्रभु के चरण पकड़कर प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपकी असीम अनुकम्पा से आज मेरे सभी संशयों का मूलोच्छेदन हो गया। अब मुझे कोई भी शंका नहीं रही। अब मेरी यही अन्तिम प्रार्थना है कि मुझे श्रीचरणों से पृथक न कीजिये। सदा चरणों के ही समीप बना रहूँ, ऐसी आज्ञा प्रदान कीजिये।’ प्रभु ने कहा- ‘अब काशी जाकर निवास कीजिये। कालान्तर में हम भी काशी जी आवेंगे तभी आपसे भेंट होगी। आपको वहीं शिवपुरी में जाकर रहना चाहिये।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके तपन मिश्र काशी जी को चले गये ओर इधर प्रभु अब घर लौटने की तैयारियाँ करने लगे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(20)
पत्नी-वियोग और प्रत्यागमन
पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः।
पत्युर्गतिसमा नास्ति दैवतं वा यथा पतिः।।[1]
पत्नी गृहस्थाश्रम में एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान वस्तु है, गृहिणी के बिना गृहस्थ ही नहीं। पत्नी गृहस्थ के कार्यों में मन्त्री है, सेवा करने में दासी है, भोजन कराने में माता के समान है, शयन में रम्भा के समान सुखदात्री है, धर्म के कार्यों में अर्धांगिनी है, क्षमा में पृथ्वी के समान है अर्थात् गृहस्थ की योग्य गृहिणी ही सर्वस्व है। जिसके घर में सुचतुर सुन्दरी और मृदुभाषिणी गृहिणी मौजूद है, उसके यहाँ सर्वस्व है, उसे किसी चीज की कमी ही नहीं और जिसके गृहिणी ही नहीं, उसके है ही क्या? लोकप्रिय निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी ऐसी ही सर्वगुणसम्पन्ना गृहिणी थीं। वे पति को प्राणों के समान प्यार करती थीं, सास की तन-मन से सदा सेवा करती रहती थीं और सदा मधुर और कोमल वाणी से बोलती थीं। उनका नाम ही लक्ष्मीदेवी नहीं था, वस्तुतः उनमें लक्ष्मीदेवी के सभी गुण भी विद्यमान थे। वे मत्र्यलोक में लक्ष्मी के ही समान थीं। ऐसी ही पत्नी को तो नीतिकारों ने लक्ष्मी बताया है-
यस्य भार्या शुचिर्दक्षा भर्तारमनुगामिनी।
नित्यं मधुरवक्त्री च सा रमा न रमा रमा।।
अर्थात ‘जिसकी भार्या पवित्रता रखने वाली, गृहकार्यों में दक्ष और अपने पति के मनोअनुकूल आचरण करने वाली है, जो सदा ही मीठी वाणी बोलती है, असल में तो वही लक्ष्मी है। लोग जो ‘लक्ष्मी-लक्ष्मी’ पुकारते हैं, वह कोई और लक्ष्मी नहीं हैं।’ निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी सचमुच में ही लक्ष्मी थीं। पूर्व बंगाल की यात्रा के समय माता के आग्रह से निमाई लक्ष्मीदेवी को उनके पितृगृह में कर गये थे। पति के वियोग के समय पतिव्रता लक्ष्मीदेवी ने बड़े ही प्रेम से अपने स्वामी के चरण पकड़ लिये ओर वियोग-वेदना का स्मरण करके वे फूट-फूटकर रोने लगीं। निमाई ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा- ‘इस प्रकार दुःखी होने की कौन-सी बात है? मैं बहुत ही शीघ्र लौटकर आ जाऊँगा, तब तक तुम यहीं रहो। मैं बहुत दिन के लिये थोड़े ही जाता हूँ। वैसे ही दस-बीस दिन घूम-घामकर आ जाऊँगा।’ उन्हें क्या पता था, कि यह लक्ष्मी देवी से अन्तिम ही भेंट है, इसके बाद लक्ष्मी देवी से इस लोक में फिर भेंट न हो सकेगी। लक्ष्मीदेवी को भाँति-भाँति से आश्वासन देकर निमाई पण्डित ने पूर्व बंगाल की यात्रा की। इधर लक्ष्मीदेवी पति के वियेाग में खिन्न चित्त से दिन गिनने लगीं, उन्हें पति के बिना यह सम्पूर्ण संसार सूना-ही-सूना दृष्टिगोचर होता था। उन्हें संसार में पति के सिवा प्रसन्न करने वाली कोई भी वस्तु नहीं थी।
प्रसन्नता की मूल वस्तु के अभाव में उनकी प्रसन्नता एकदम जाती रही, वे सदा उदास ही बनी रहने लगीं। उदासी के कारण उन्हें अन्न-जल कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उनकी अग्नि मन्द हो गयी, पाचनशक्ति नष्ट हो गयी ओर विरह-ज्वाला के ताप से सदा ज्वर-सा रहने लगा। पिता ने चिकित्सकों को दिखाया, किन्तु बेचारे संसारी वैद्य इस रोग का निदान कर ही क्या सकते हैं! वात, पित्त, कफ के सिवा वे चैथी बात जानते ही नहीं हैं। यह इन तीनों से विलक्षण ही धातु-विकार व्याधि है, इस कारण वैद्यों के उपचार से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे लक्ष्मी देवी का शरीर अधिकाधिक क्षीण होने लगा। किसी को भी उनके जीवन की आशा न रही। वे मानो अपने अत्यन्त क्षीण शरीर को अन्तिम बार पति-दर्शनों की लालसा से ही टिकाये हुए हैं, किन्तु उनकी यह अभिलाषा पूरी न हो सकी।
निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में अनुमान से अधिक दिन लग गये। अन्त में बड़े कष्ट के साथ वियोग-व्यथा को न सह सकने के कारण अपने पतिदेव के चरण-चिह्नों को हृदय में धारण करके उन्होंने इस पांचभौतिक शरीर का त्याग कर दिया। वे इस मर्त्यलोक की भूमि को त्यागकर सतियों के रहने योग्य अपने-पुण्य-लोक में पति-मिलन की आकांक्षा से चली गयीं। घरवालों ने रोते-रोते उनके सभी संस्कार किये। इधर निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में भ्रमण करते हुए कई मास बीच गये। अब इन्हें घर की चिन्ता होने लगी। इन्हें भान होने लगा कि हमारे घर पर जरूर कुछ अनिष्ट हुआ है, हृदय के भाव तो असंख्यों कोसों पर से हृदय में आ जाते हैं। लक्ष्मी देवी की अन्तिम वेदना इनके हृदय को पीड़ा पहुँचाने लगी। इन्हें अब कहीं आगे जाना अच्छा नहीं लगता था, इसलिये इन्होंने साथियों को नवद्वीप लौट चलने की आज्ञा दी।
आज्ञापाकर सभी नवद्वीप लौट चलने की तैयारियाँ करने लगे। बहुत-से नवीन छात्र भी विद्योपार्जन के निमित्त इनके साथ हो लिये थे। उन सभी को साथ लेकर ये नवद्वीप की ओर चल पड़े। इन्हें काफी धन तथा अन्य आवश्यकीय वस्तुएँ भेंट तथा उपहार में प्राप्त हुई थीं। थोडे़ दिनों में ये फिर नवद्वीप में ही आ गये। इनके आगमन का समाचार बिजली की तरह नगर में फैल गया। इनके इष्ट, मित्र, स्नेही तथा पुराने छात्र दर्शनों के लिये इनके घर पर आने लगे। ये सभी से यथोचित प्रेमपूर्वक मिले। सभी ने यात्रा के कुशल-समाचार पूछे। इन्होंने सबसे पहले अपनी माता के चरणों को स्पर्श किया। माता का चेहरा मुरझाया हुआ था, वे पुत्र-वधू के वियोग और पुत्र की चिन्ता के कारण अत्यन्त दुःखी-सी मालूम पड़ती थीं।
चिरकाल के बिछडे़ हुए अपने प्रिय पुत्र को पाकर माता के सुख का वारापार न रहा। गौ जिस प्रकार बिछुड़े हुए बछड़े को पाकर उसे प्रेम से चाटने लगती है उसी प्रकार माता निमाई के युवा शरीर के ऊपर अपना शीतल और कोमल कर फिराने लगीं। उनकी आँखों से निरन्तर प्रेमाश्रु निकल रहे थे। निमाई ने हँसते हुए पूछा- ‘अम्मा! सब कुशल तो है? मुझे अनुमान भी नहीं था, कि इतने दिन लग जायँगे, तुम्हें पीछे कोई कष्ट तो नहीं हुआ’ पुत्र के ऐसा पूछने पर माता चुप ही रहीं। तब किसी दूसरी स्त्री ने धीरे से लक्ष्मी देवी के परलोक-गमन की बात इनसे कह दी। सुनते ही इनके चेहरे पर दुःख, सन्ताप और वियोग के भाव प्रकट होने लगे। माता और भी जोरों के साथ्ज्ञ रुदन करने लगीं। निमाई की भी आँखों में अश्रु आ गये। उन्हें पोंछते हुए धीरे-धीरे वे माता को समझाने लगे- ‘माँ, विधि के विधान को मेट ही कौन सकता है? जो भाग्य में बदा होगा, वह तो अवश्य ही होकर रहेगा। इतने ही दिनों तक तुम्हारी पुत्र-वधू का तुमसे संयोग बदा था, इस बात को कौन जानता था?’
माता ने रोते-रोते कहा- ‘बेटा, अन्तिम समय में भी वह तेरे आने की ही बात पूछती रही। ऐसी बहू अब मुझे नहीं मिलेगी, साक्षात लक्ष्मी ही थी।’ निमाई यह सुनकर चुप हो गये। माता फिर बड़े जोरों से रोने लगीं। इस पर प्रभु ने कुछ जोर देकर कहा- ‘अम्मा! अब चाहे तू कितनी भी रोती रह, तेरी पुत्र-वधू तो अब लौटकर आने की नहीं। वह लौटने के लिये नहीं गयी है। अब तो धैर्य-धारण से ही काम चलेगा।’ पुत्र के ऐसे समझाने पर माता ने धैर्य-धारण करके अपने आँसू पोंछे और निमाई को स्नानादि करने के लिये कहा। फिर स्वयं उन सबके लिये भोजन बनाने में लग गयीं। भोजन से निवृत्त होकर निमाई पण्डित अपने इष्ट-मित्रों के साथ पूर्व बंगाल की यात्रा-सम्बन्धी बहुत- सी बातें करने लगे और फिर पूर्व की भाँति पाठशाला में जाकर पढ़ाने लगे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(21)
नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित
सभायां पण्डिताः कोचित्केचित्पण्डितपण्डिताः।
गृहेषु पण्डिताः केचित्केचिन्मूर्खेषु पण्डिताः।।[1]
भगवद्दत्त प्रतिभा भी एक अलौकिक वस्तु है। पता नहीं, किस मनुष्य में कब और कैसी प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठे। अच्छे गाय कों को देखा है, वे पद को सुनते-सुनते ही कण्ठस्थ कर लेते हैं। सुयोग्य गायकों को दूसरी बार पद्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, एक बार के सुनने पर ही उन्हें याद हो जाता है। किसी को जन्म से ही ताल, स्वर और राग-रागिनियों का ज्ञान होता है और वह अल्प वय में अच्छे-अच्छे धुरन्धरों को अपने गायन से आश्चर्यान्वित बना देता है। कोई कवि होकर ही माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, जहाँ वे बोलने लगे, कि उनकी वाणी से कविता ही निकलने लगती है। कोई अनपढ़ होने पर भी ऐसे सुन्दर वक्ता होने हैं कि अच्छे-अच्छे शास्त्री और महामहोपाध्याय उनके व्याख्यान को सुनकर चकित हो जाते हैं। यह सब भगवद्दत्त शक्तियाँ हैं, इन्हें कोई परिश्रम करके प्राप्त करना चाहे तो असम्भव है। ये सब प्रतिभा के चमत्कार हैं और यह प्रतिभा पुरुष के जन्म के साथ ही आती है, काल पाकर वह प्रस्फुटित होने लगती है। बहुत-से विद्वानों को देखा गया है, वे सभी शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान हैं, किन्तु सभा में वे एक अक्षर भी नहीं बोल सकते। इसके विपरीत बहुत-से ऐसे भी होते हैं जिन्होंने शास्त्रीय विषय तो बहुत कम देखा है किन्तु वे इतने प्रत्युत्पन्नमति होते हैं कि प्रश्न करते ही झट उसका उत्तर दे देते हैं। किसी भी विषय के प्रश्न पर उन्हें सोचना नहीं पड़ता, जो प्रश्न सुनते ही ऐसा युक्तियुक्त उत्तर देते हैं कि सभा के सभी सभासद वाह-वाह करने लगते हैं, इसी का नाम सभा-पाण्डित्य है। पहले जमाने में पण्डित के माने ही वावदूक वक्ता या व्याख्यानपटु किये जाते थे।
जिसकी वाणी में आकर्षण नहीं, जिसे प्रश्न के सुनने पर सोचना पड़ता है, जो तत्क्षण बात का उत्तर नहीं दे सकता, जिसे सभा में बोलने से संकोच होता है, वह पण्डित ही नहीं। सभा में ऐसे पण्डितों की प्रशंसा नहीं होती। पाण्डित्यप ने की कीर्ति के वे अधिकारी नहीं समझे जाते। वे तो पुस्तकीय जन्तु हैं जो पुस्तकें उलटते रहते हैं। आज से कई शताब्दी पूर्व इस देश में संस्कृत-साहित्य का अच्छा प्रचार था। राज्यसभाओं में बड़े-बड़े पण्डित रखे जाते थे, उन्हें समय-समय पर यथेष्ठ धन पारितोषिक के रूप में दिया जाता था। दूर-दूर से विद्वान सभाओं में शास्त्रार्थ करने आते थे और राजसभाओं की ओर से उनका सम्मान किया जाता था।
पण्डितों का शास्त्रार्थ सुनना उन दिनों राजा या धनिकों का एक आवश्यक मनोरंजन समझा जाता था। जो बोलने-चालने में अत्यन्त ही पटु होते थे, जिन्हें अपनी वक्तृत्व-शक्ति के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी पूर्ण अभिमान होता था, वे सम्पूर्ण देश में दिग्विजय के निमित्त निकलते थे। प्रायः ऐसे पण्डितों को किसी राजा या धनी का आश्रय होता था, उनके साथ बहुत-से और पण्डित, घोडे़, हाथी तथा और भी बहुत-से राजसी ठाट होते थे। वे विद्या के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध केन्द्र-स्थानों में जाते और वहाँ जाकर डंके की चोट के साथ मुनादी कराते कि ‘जिसे अपने पाण्डित्य का अभिमान हो वह हमसे आकर शास्त्रार्थ करे। यदि वह हमें शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा तो हम अपना सब धन छोड़कर लौट जायँगे और वे हमें परास्त न कर सके तो हम समझेंगे हमने यहाँ के सभी विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली। यदि किसी की हमसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न हो तो हमें इस नगर के सभी पण्डित मिलकर अपने हस्ताक्षरों सहित विजय-पत्र लिख दें, हम शास्त्रार्थ किये बिना ही लौट जायँगे।’ उनकी ऐसी मुनादी को सुनकर कहीं के विद्वान तो मिलकर शास्त्रार्थ करते और कहीं के विजय-पत्र भी लिख देते, कहीं-कहीं के विद्वान उपेक्षा करके चुप भी हो जाते। दिग्विजयी अपनी विजय का डंका पीटकर दूसरी जगह चले जाते। धनी-मानी सज्जन ऐसे लोगों का खूब आदर करते थे और उन्हें यथेष्ठ द्रव्य भी भेंट में देते थे। इस प्रकार प्रायः सदा ही बड़े-बड़े शहरों में दिग्विजयी पण्डितों की धूम रहती।
चैतन्य देव के ही समय में चार-पाँच दिग्विजयी पण्डितों का उल्लेख मिलता है। आजकल यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, किन्तु फिर भी दिग्विजयी आजकल भी दिग्विजय करते देखे गये हैं। हमने दो दिग्विजयी विद्वानों के दर्शन किये हैं, उनमें यही विशेषता थी कि वे प्रत्येक प्रश्न का उसी समय उत्तर देते थे। एक दिग्विजयी आचार्य को तो काशी जी में एक विद्यार्थी ने परास्त किया था, वह विद्यार्थी हमारे साथ पाठ सुनता था, बस, उसमें यही विशेषता थी कि वह धाराप्रवाह संस्कृत बड़ी उत्तम बोलता था। दिग्विजय के लिये वाक्पटुता की ही अत्यन्त आवश्यकता है। पाण्डित्य की शोभा तब और अब भी वाक्पटुता ही समझी जाती है। ऐसे ही एक काश्मीर के केशव शास्त्री अन्य स्थानों में दिग्विजय करते हुए नवद्वीप में भी विजय करने के लिये आये। उन दिनों नवद्वीप विद्या का और विशेषकर नव्य न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। भारतवर्ष में उसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिये नवद्वीप को विजय करने पर सम्पूर्ण पूर्वदेश विजित समझा जाता था।
उस समय भी नवद्वीप में गंगादास वैयाकरण, वासुदेव सार्वभौम नैयायिक, महेश्वर, विशरद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य आदि धुरन्धर और नामी-नामी विद्वान् थे। नये पण्डितों में रघुनाथदास, भवानन्द, कमलाकान्त, मुरारीगुप्त, निमाई पण्डित आदि की भी यथेष्ठ ख्याति हो चुकी थी। नगर में चारों ओर दिग्विजयी की ही चर्चा थी। दस-पाँच पण्डित और विद्यार्थी जहाँ भी मिल जाते, दिग्विजयी की ही बात छिड़ जाती। कोई कहता- ‘नवद्वीप को विजय करके चला गया, तो नवद्वीप की नाक कट जायगी।’ कोई कहता- ‘अजी, न्याय वह क्या जाने, न्याय की ऐसी कठिन पंक्तियाँ पूछेंगे कि उसके होश दंग हो जायँगे।’ दूसरा कहता- ‘उसके सामने जायगा कौन? बड़े-बड़े पण्डित तो गद्दी छोड़कर सभाओं में जाना ही पंसद नहीं करते।’ इस प्रकार जिसकी समझ में जो आता वह वैसी ही बात कहता। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान् सभाओं में शास्त्रार्थ नहीं करते। कुछ तो पढ़ाने के सिवा शास्त्रार्थ करना जानते ही नहीं, कुछ विद्वान होने पर शास्त्रार्थ कर भी लेते हैं, किन्तु उनमें चालाकी, धूर्तता और बात को उड़ा देने की विद्या नहीं होती, इसलिये चारों ओर घूम-घूमकर दिग्विजय करने वाले वावदूकों से वे घबड़ाते हैं। कुछ अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा के डर से शास्त्रार्थ नहीं करते कि यदि हार गये तो लोगों में बड़ी बदनामी होगी। इसलिये बड़े-बड़े़ गम्भीर विद्वान् ऐसे कामों में उदासीन ही रहते हैं। विद्यार्थियों ने जाकर निमाई पण्डित से भी यह बात कही- ‘काश्मीर से एक दिग्विजयी पण्डित आये हैं। उनके साथ बहुत-से हाथी-घोड़े तथा विद्वान पण्डित भी हैं।
उनका कहना है, नदिया के विद्वान या तो हमसे शास्त्रार्थ करें, नहीं तो विजय-पत्र लिखकर दे दें। वैसे शास्त्रार्थ करने के लिये तो बहुत-से पण्डित तैयार हैं, किन्तु सुनते हैं, उन्हें सरस्वती सिद्ध है। शास्त्रार्थ के समय सरस्वती उनके कण्ठ में बैठकर शास्त्रार्थ करती है। इसी से वे सम्पूर्ण भारत को विजय कर आये हैं, सरस्वती के साथ भला कौन शास्त्रार्थ कर सकता है? इसलिये उन्हें बड़ा भारी अभिमान है। वे अभिमान में बार-बार कहते हैं- ‘मुझे शास्त्रार्थ में पराजय करने वाला तो पृथ्वी पर प्रकट ही नहीं हुआ है। इसलिये नदिया के सभी पण्डित डर गये हैं।’
विद्यार्थियों की बातें सुनकर पण्डितप्रवर निमाई ने कहा- ‘चाहे किसी का भी वरदान प्राप्त क्यों न हो, अभिमानी का अभिमान तो अवश्य ही चूर्ण होता है। भगवान का नाम ही मदहारी है, वे अभिमान ही का तो आहार करते हैं। रावण, वेन, नरकासुर, भस्मासुर आदि सभी ने घोर तप करके ब्रह्मा जी तथा शिवजी के बड़े-बड़े वर प्राप्त किये थे। दर्पहारी भगवान ने उनके भी दर्प को चूर्ण कर दिया। अभिमान करने से बड़े-बड़े़ पतित हो जाते हैं, फिर यह दिग्विजयी तो चीज ही क्या है?’ इस प्रकार विद्यार्थियों से कहकर आप गंगा-किनारे चले गये और वहाँ जाकर नित्य की भाँति जल-विहार और शास्त्रार्थ करने लगे। इन्होंने दिग्विजयी के सम्बन्ध में छात्रों से पता लगा लिया कि वह क्या-क्या करता है और एकान्त में गंगाजी पर आता है या नहीं, यदि आता है तो किस घाट पर और किस समय? पता चला कि अमुक घाट पर सन्ध्या-समय दिग्विजयी नित्य आकर बैठता है। निमाई उसी घाट पर अपने विद्यार्थियों के साथ जाने लगे और भी पाठशालाओं के विद्यार्थी कुतूहलवश वहीं आकर शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने लगे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(22)
दिग्विजयी का पराभव
परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।[1]
अर्थात ~ दूसरे लोग जिसकी प्रशंसा करें तो वह निर्गुण होने पर भी गुणवान हो जाता है और जो अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से करता है, फिर चाहे वह त्रिलोकेश इन्द्र ही क्यों न हो, उसे भी नीचा देखना पड़ता है।
महामहिम निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी पण्डित के साथ वार्तालाप करना चाहते थे, वे भरी सभा में उस मानी और वयोवृद्ध पण्डित की हँसी करना ठीक नहीं समझते थे। प्रायः देखा गया है, भरी सभा में लोगों के सामने अपने सम्मान की रक्षा के निमित्त शास्त्रार्थ करने वाले झूठी बात पर भी अड़ जाते हैं और उसे येन-केन प्रकारेण सत्य ही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य करने के कौशल का ही नाम तो आजकल असल में शास्त्रार्थ करना है। निमाई उससे शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते थे, किन्तु उसे यह बताना चाहते थे कि संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अद्वितीय वस्तु कोई नहीं है। कोई कितना भी अभिमान क्यों न कर ले, संसार में उससे बढ़कर कोई-न-कोई मिल ही जायगा। ब्रह्मा जी की बनायी हुई इस सृष्टि में यही तो विचित्रता है, कहावत है-
‘मल्लन कूँ मल्ल घनेरे, घर नाहिं तो बाहिर बहुतेरे’
अर्थात ‘बलवानों को बहुत-से बलवान मिल जाते हैं, उने समीप उनके समान न भी हों तो बाहर बहुत-से मिल जायँगे।’ इसी बात को जताने के निमित्त निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी से बातें करना चाहते थे। सन्ध्या का समय है, कलकलनादिनी भगवती भागीरथी अपनी द्रुत गति से सदा की भाँति सागर की ओर दौड़ी जा रही हैं, मानो उन्हें संसारी बातें सुनने का अवकाश ही नहीं, वे अपने काम में बिना किसी की परवा किये हुए निरन्तर लगी हुई हैं। कलरव करते हुए भाँति-भाँति के पक्षी आकाश-मार्ग से अपने-अपने कोटरों की ओर उड़े जा रहे हैं। भगवान भुवनभास्कर के अस्ताचल में प्रस्थान करने के कारण विधवा की भाँति सन्ध्या देवी रुदन कर रही है। शोक के कारण उसका चेहरा लाल पड़ गया है, मानो उसे ही प्रसन्न करने के निमित्त भगवान निशानाथ अपनी सोलहों कलाओं सहित गगन में उदित होकर प्राणिमात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं। पुण्यतोया जाह्नवी के वैडूर्य के समान स्वच्छ नील-जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बड़ा ही भला मालूम होता है। प्रायः सभी पाठशालाओं के बहुत-से मेधावी छात्र गंगा जी के जल के बिलकुल सन्निकट बैठकर शास्त्रचर्चा कर रहे हैं। एक-दूसरे से प्रश्न पूछता है, वह उसका उत्तर देता है, पूछने वाला उसका फिर से खण्डन करता है। उत्तर देने वाले की दस-पाँच विद्यार्थी मिलकर सहायता करते हैं, अब सहायता करने वालों से शास्त्रार्थ छिड़ जाता है। इस प्रकार सब एक-दूसरे को परास्त करने की जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं।
शास्त्रार्थ करने में असमर्थ छात्र चुपचाप उनके समीप बैठकर शास्त्रार्थ के श्रवणमात्र से ही अपने को आनन्दित कर रहे हैं। बहुत-से दर्शनार्थी चारों ओर घिरकर बैठ जाते हैं, कोई-कोई खडे़ होकर भी विद्यार्थियों के वाक्-युद्ध का आनन्द देखने लगते हैं, तब दूसरे विद्यार्थी उन्हें इशारे से बिठा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों में खूब ही शास्त्रालोचना हो रही है। इन सभी छात्रों के बीच निमाई पण्डित मानो सिरमौर हैं। इस शास्त्रार्थ की जान वे ही हैं, वे स्वयं भी विद्यार्थियों में मिलकर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरों को भी उत्साहित करते जाते हैं। दूसरे पंडित एकान्त में दूर खड़े होकर, कोई सन्ध्या का बहाना करके, कोई पाठ के बहाने से निमाई के मुख से निसृत वाक्सुधा का रसास्वादन कर रहे हैं। बहुत-से पण्डित यथार्थ में ही सन्ध्या करके मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों के समीप खड़े हो गये हैं, और एक-दूसरे के विवाद में कभी-कभी किसी की सहायता भी कर देते हैं। इसी बीच दिग्विजयी पण्डित भी अपने दो-चार अन्तरंग पण्डितों के साथ गंगाजी पर आये।
दिग्विजयी का सुन्दर सुहावना गौर वर्ण था, शरीर सुगठित और स्थूल था, बड़ी-बड़ी सुन्दर भुजाएँ, उन्नत वक्षःस्थल और गोल चेहरे के ऊपर बड़ी-बड़ी आँखें बड़ी ही भली मालूम पड़ती थीं। उनके प्रशस्त सुन्दर ललाट पर रोली की एक चैड़ी-सी बिन्दी लगी हुई थी, सिर के बाल आधे पक गये थे, चेहरे से रोब और विद्वत्ता प्रकट होती थी, शरीर में अभिमानजन्य स्फूर्ति थी, केवल एक सफेद कुर्ता पहने नंगे सिर आकर दिग्विजयी ने गंगा जी को प्रणाम किया, आचमन करके वे थोड़ी देर बैठे रहे। फिर वैसे ही मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों की ओर चले गये।
निमाई के समीप के विद्यार्थी ने इशारे से बताया, ये ही वे दिग्विजयी हैं। दिग्विजयी को देखकर निमाई पण्डित ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये आग्रह किया। पहले तो दिग्विजयी ने बैठने में संकोच किया, जब सभी ने आग्रह किया, तो वे बैठ गये। प्रायः मानियों के समीप ही मान-प्रतिष्ठा की परवा की जाती है, जो मान-अपमान से परे हैं उनके समीप मानी-अमानी, मूर्ख-पण्डित सभी समानरूप से जा-आ सकते हैं और उनकी सीधी-सादी बातों में वे मानापमान का ध्यान नहीं करते। इसीलिये तो लड़के, पागल तथा मूर्खों के साथ सभी बेखट के चले जाते हैं, उनसे उन्हें उद्वेग नहीं होता। उद्वेग का कारण तो अन्तरात्मा में सम्मान की इच्छा है। जिसके हृदय में सम्मान की लिप्सा है, वह माननीय लोगों में सम्मान के ही साथ जाना पसन्द करेगा, उसे इस बात का सदा भय बना रहता है, कि वहाँ मेरा अपमान न होने पावे। इसलिये उत्तम आसन का पहले से ही प्रबन्ध करा लेगा, तब वहाँ जाना स्वीकार करेगा।
विद्यार्थी तो मान-अपमान से दूर ही रहते हैं, उन्हें मान-अपमान की कुछ भी परवा नहीं रहती। चाहे विद्यार्थी सभी शास्त्रों को पढ़ चुका हो, जब तक वह पाठशाला में विद्यार्थी बना है, तब तक वह छोटे-से-छोटे विद्यार्थी से भी समानता का ही बर्ताव करेगा। विद्यार्थी-विद्यार्थी सब एक-से। इसीलिये विद्यार्थियों से भी किसी को उद्वेग नहीं होता। इसी कारण विद्यार्थियों के आग्रह करने पर महामानी लोक विख्यात दिग्विजयी पण्डित भी विद्यार्थियों के समीप ही बैठ गये। निमाई पण्डित ने अपना वस्त्र उनके लिये बिछा दिया। दिग्विजयी के सुखपूर्वक बैठ जाने पर सभी विद्यार्थी चुप हो गये। सभी ने शास्त्रार्थ बन्द कर दिया। हँसते हुए दिग्विजयी बोले- ‘भाई, तुम लोग चुप क्यों हो गये, कुछ शास्त्र-चर्चा होनी चाहिये।’ इतने पर भी सब चुप ही रहे। सभी विद्यार्थी धीरे-धीरे निमाई के मुख की ओर देखने लगे। कुछ प्रसंग चलने के निमित्त दिग्विजयी ने निमाई पण्डित से पूछा- ‘तुम किस पाठशाला में पढ़ते हो?’ निमाई इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गये, वे कुछ कहने ही को थे कि उनके समीप बैठे हुए एक योग्य छात्र ने कहा- ‘ये यहाँ के विख्यात अध्यापक निमाई पण्डित हैं।’
प्रसन्नता प्रकट करते हुए दिग्विजयी ने निःसंकोचभाव से उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘ओहो! निमाई पण्डित आपका ही नाम है? आपकी तो हमने बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। आप तो यहाँ के वैयाकरणों में सिरमौर समझे जाते हैं। हाँ, आप ही कोई व्याकरण की पंक्ति सुनाइये।’ हाथ जोड़े हुए नम्रतापूर्वक निमाई पण्डित ने कहा- ‘यह तो आप-जैसे गुरुजनों की कृपा है, मैं तो किसी योग्य भी नहीं। भला, आपके सामने मैं सुना ही क्या सकता हूँ, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य होने के योग्य भी नहीं। आपने संसार को अपनी विद्या-बुद्धि से दिग्विजय किया है। आपके कवित्व की बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। यह छात्र-मण्डली आपके कवित्व के श्रवण करने के लिये बड़ी उत्सुक हो रही है। कृपा करके आप ही अपनी कोई कविता सुनाने की कृपा कीजिये।’
यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित हँसने लगे। पास के दो-चार विद्यार्थियों ने कहा- ‘हाँ, महाराज! हम लोगों की इच्छा को जरूर पूर्ण कीजिये। हम सभी लोग बहुत उत्सुक हैं आपकी कविता सुनने के लिये।’ अब तक दिग्विजयी को नदिया में अपनी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कवित्व-शक्ति के प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त ही नहीं हुआ था। उसे प्रकट करने का सुअवसर समझकर उन्होंने कुछ गर्व मिली हुई प्रसन्नता के साथ कहा- ‘तुम लोग जो सुनना चाहते हो, वही सुनावें।’
इस पर निमाई पण्डित ने धीरे से कहा- ‘कुछ भगवती भागीरथी की महिमा का ही बखान कीजिये जिससे कर्ण भी पवित्र हों और काव्यामृत का भी रसास्वादन हो।’ इतना सुनते ही दिग्विजयी धारा-प्रवाह से गंगा जी के महत्त्व के श्लोक बोलने लगे। सभी श्लोक नवीन ही थे, वे तत्क्षण नवीन श्लोकों की रचना करते जाते और उन्हें उसी समय बोलते जाते। उन्हें नवीन श्लोक बनाने में न तो प्रयास करना पड़ता था, न एक श्लोक के बाद ठहरकर कुछ सोचना ही पड़ता था। जैसे किसी को असंख्य श्लोक कण्ठस्थ हों और वह जिस प्रकार जल्दी-जल्दी बोलता जाय, उसी प्रकार दिग्विजयी श्लोक बोल रहे थे। सभी विद्यार्थी विस्मितभाव से एकटक होकर दिग्विजयी की ओर आश्चर्यभाव से देख रहे थे। सभी के चेहरों से महान आश्चर्य- अद्भुत संभ्रम-सा प्रकट हो रहा था, उन्होंने इतनी विद्या-बुद्धिवाला पुरुष आज तक कभी देखा ही नहीं था।
विद्यार्थियों के भावों को समझकर दिग्विजयी मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होते जाते थे और दूने उत्साह के साथ चमक और अनुप्रासयुक्त श्लोकों को सुमधुर कण्ठ से बोलते जाते थे। एक घड़ी भी नहीं हुई कि वे सौ से अधिक श्लोक बोलकर चुप हो गये। घाट पर सन्नाटा छा गया। गंगा जी का कलरव बंद हो गया, मानो इतनी उतावली गंगा माता भी दिग्विजयी के लोकोत्तर काव्य-रस से प्रवाहित होकर उसे अपने प्रवाह में मिलाने के लिये कुछ काल के लिये ठहर गयी हो। उस नीरवता को भंग करते हुए मधुर और गम्भीर स्वर में निमाई पण्डित बोले- ‘महाराज! हम सब लोग आज आपकी अमृतमयी वाणी सुनकर कृतार्थ हुए।
हमने ऐसा अपूर्व काव्य कभी नहीं सुना था, न आप-जैसे लोकोत्तर कवि के ही कभी दर्शन किये थे। आपके काव्य को आप ही समझ भी सकते हैं। दूसरे की क्या सामर्थ्य है, जो ऐसे सुललित काव्य को यथावत समझ ले। इसलिये इनमें से किसी एक श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष हम और सुनना चाहते हैं।’ कुछ गर्व के साथ हँसते हुए दिग्विजयी ने कहा- ‘केशव की कमनीय कविता में दोष तो दृष्टिगोचर हो ही नहीं सकते। हाँ, व्याख्या कहो तो कर दूँ। बताओ किस श्लोक की व्याख्या चाहते हो’ यह बात दिग्विजयी ने निमाई पण्डित को युक्ति से चुप करने के ही लिये कह दी थी। वे समझते थे मेरे सभी श्लोक नवीन हैं, मैं जल्दी-जल्दी में उन्हें बोलता गया हूँ, ये उनमें से किसी को बता ही न सकेंगे, इसलिये यह बात यहीं समाप्त हो जायगी। किन्तु निमाई भी कोई साधारण पण्डित नहीं थे।
दिग्विजयी यदि भगवती के वर से कविवर हैं, तो ये भी श्रुतिधर हैं। झट से आपने अपने कोमल कण्ठ से यह श्लोक पढ़ा-
महत्त्वं गंगायाः सततमिदमाभाति नितरां
यदेषा श्रीविष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा।
द्वितीयश्रीलक्ष्मीरिव सुरनरैरर्च्यचरणा।
भवानीभर्तुर्या शिरसि विभवत्यद्भुतगुणा।[1]
(इस श्लोक का भाव यह है, कि इस गंगा देवी का महत्त्व सर्वदा देदीप्यमान है? इसी कारण यह बड़ी ही सौभाग्यशालिनी हैं। इनकी उत्पत्ति श्रीविष्णु भगवान के चरण कमल से हुई है। इनके चरणों की द्वितीय लक्ष्मी की भाँति सुर-नरगण सदा पूजा अर्चा करते रहते हैं। वे अदभुत गुण वाली देवी, भवानी के स्वामी श्रीमहादेव जी सिर पर से प्रवाहित हुई हैं।)
इस श्लोक को बोलकर आपने कहा- ‘इसकी व्याख्या और गुण-दोष कहिये।’ निमाई के मुख से अपने श्लोक को यथावत सुनकर दिग्विजयी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, उनका मुख फीका पड़ गया। सभी एकटक होकर निमाई की ओर देखने लगे, मानो दिग्विजयी की श्री, प्रतिभा, कान्ति और प्रभा निमाई के पास आ गयी हो। कुछ बनावटी उपेक्षा-सी करते हुए कहा- ‘आप बड़े चतुर हैं, मैं इतनी जल्दी-जल्दी श्लोक बोलता था, उनके बीच में से आपने श्लोक को कण्ठस्थ भी कर लिया। निमाई ने धीरे से नम्रतापूर्वक कहा- ‘सब आपकी कृपा है, कृपया इस श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष सुनाइये।’
दिग्विजयी ने कहा- ‘यह अलंकार का विषय है, तुम वैयाकरण हो, इसे क्या समझोगे?’
इन्होंने नम्रता के साथ कहा- ‘महाराज! हमने अलंकार-शास्त्र का यथावत अध्ययन नहीं किया है तो उसे सुना तो अवश्य है, कुछ तो समझेंगे ही। फिर यहाँ अलंकार-शास्त्र के ज्ञाता बहुत-से छात्र तथा पण्डित भी बैठे हुए हैं, उन्हें ही आनन्द आवेगा।’ अब दिग्विजयी अधिक टालमटोल न कर सके, वे अनिच्छापूर्वक बेमन से श्लोक की व्याख्या करने लगे। व्याख्या के अनन्तर उपमालंकार और अनुप्रासादि गुण बताकर दिग्विजयी चुप हो गये। तब निमाई पण्डित ने बड़ी नम्रता के साथ कहा- ‘आज्ञा हो और आप अनुचित न समझें तो मैं भी इस श्लोक के गुण-दोष बता दूँ?’ मानो क्रुद्ध सर्प पर किसी ने पाद-प्रहार कर दिया हो, संसार विजयी सरस्वती के वर प्राप्त दिग्विजयी पण्डित के श्लोक में यह युवक अध्यापक दोष निकालने का साहस करता है, उन्होंने भीतर के दोष से बनावटी प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘अच्छा बताओ, श्लोक में क्या गुण-दोष हैं?’
निमाई पण्डित अब श्लोक की व्याख्या करने लगे। उन्होंने कहा- ‘श्लोक बड़ा ही सुन्दर है, वैसे लगाने से तो सैकड़ों गुण-दोष निकल सकते हैं, किन्तु मुख्यरूप से इसमें पाँच गुण हैं और पाँच दोष हैं।’ दिग्विजयी ने झुँझलाकर सिर हिलाते हुए कहा- ‘बताओ न कौन-कौन-से दोष हैं?’ निमाई ने उसी सरलता के साथ कहा- पहले श्लोक के गुण ही सुनिये।
(1) पहला गुण तो इसमें ‘शब्दालंकार’ है। श्लोक के पहले चरण में पाँच ‘तकारों’ की पंक्ति बड़ी ही सुन्दरता के साथ ग्रथित की गयी है। तृतीय चरण में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार ‘भकार’ बड़े ही भले मालूम पड़ते हैं। इन शब्दों के कारण श्लोक में शब्दालंकार-गुण आ गया है।
(2) दूसरा गुण है ‘पुनरुक्तिवदाभास’। पुनरुक्तिवदाभास उस गुण को कहते हैं जो सुनने में तो पुनरुक्ति प्रतीत हो, किन्तु पुनरुक्ति न होकर दोनों पदों के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हों। जैसे श्लोक में ‘श्री-लक्ष्मी-इव’ यह पद आया है। सुनने में तो श्री और लक्ष्मी दोनों समान अर्थवाचक ही प्रतीत होते हैं किन्तु यहाँ श्री और लक्ष्मी का अलग-अलग अर्थ न करके ‘श्रीसे युक्त लक्ष्मी’ ऐसा अर्थ करने से सुन्दर अर्थ भी हो जाता है और साथ ही ‘पुनरुक्तिवदाभास’ गुण भी प्रकट होता है।
(3) तीसरा गुण है ‘अर्थालंकार’। अर्थालंकार उसे कहते हैं, जिसमें अर्थ के सहित उपमा का प्रकाश किया हो। जैसे श्लोक में ‘लक्ष्मीः इव’ अर्थात लक्ष्मी की तरह कहकर गंगा जी को लक्ष्मी की उपमा दी गयी है। इस कारण बड़ा ही मनोहर ‘अर्थालंकार’ है।
(4) चौथा एक और भी ‘अर्थालंकार’ गुण है, उसका नाम है ‘विरोधाभासार्थालंकार’। विरोधाभासरूपी अर्थालंकार उसे कहते हैं कि उपमा-उपमेय एक-दूसरे से बिलकुल विभिन्न गुणवाले हों, जैसे-
अम्बुजमम्बुनि जातं क्वचिदपि न जातमम्बुजादम्बु।
मुरभिदि तद्विपरीतं पादाम्भोजान्महानदी जाता।।
अर्थात जल से तो कमलों की उत्पत्ति होती हुई देखी गयी है, किन्तु कमल से जल कभी उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु भगवान की लीला विचित्र ही है, उनके पाद-पद्मों से जगत्पावनी महानदी उत्पन्न हुई है। यहाँ कमल से जल की उत्पत्ति का विरोध है, किन्तु भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी प्रकार से समर्थ हैं, इसलिये आपके श्लोक में ‘विष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा’ इस पद से विष्णु भगवान के चरण-कमलों से उत्पत्ति बताने से ‘विरोधाभासरूपी अर्थालंकार’ आ गया है।
(5) पाँचवाँ एक और भी ‘अनुमान’ अलंकार है। श्लोक में साध्य वस्तु गंगाजी का महत्त्व वर्णन करना है। विष्णुपादोत्पत्ति उसका साधन बताकर बड़ा चमत्कारपूर्ण अनुमानालंकार सिद्ध हो जाता है अर्थात ‘विष्णुपादोत्पत्ति वाक्य ही अनुमानालंकार है।’ इस प्रकार पाँच गुणों को बताकर निमाई पण्डित चुप हो गये। सभी अनिमेषभाव से टकट की लगाये निमाई पण्डित की ही ओर देख रहे थे, उन्होंने ये सब बातें बडत्री सरलता और निर्भीकता के साथ कहीं थीं, दिग्विजयी का कलेजा भीतर-ही-भीतर खिंच-सा रहा था, वे उदासीनभाव से गंगाजी की सीढ़ी के घाट की ओर देख रहे थे, मानो वे कह रहे हैं, यह पत्थर यहाँ से हट जाय तो मैं इसमें समा जाऊँ। निमाई पण्डित के गुण बताने पर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। जैसे किसी शास्त्री पण्डित से कह दें आप थोड़ा-सा व्याकरण भी जानते हैं, जैसे उसे इस वाक्य से कोई विशेष प्रसन्नता न होकर और दुःख ही होगा, उसी प्रकार अपने काव्य को सर्वगुणसम्पन्न समझने वाले दिग्विजयी को इन पाँच गुणों के श्रवण से प्रसन्नता की जगह दुःख ही हुआ। उन्होंने कुछ चिढ़कर कहा- ‘अच्छा, ये तो गुण हो गये, अब तुम बता सकते हो तो इसके दोषों को भी बताओ।’_
यह सुनकर उसी गम्भीर वाणी से निमाई पण्डित कहने लगे- गुणों की भाँति दोष भी इसमें अनेकों निकाले जा सकते हैं, किन्तु पाँच मोटे-मोटे दोष प्रत्यक्ष ही हैं। श्लोक में दो स्थानों पर तो ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दो दोष हैं। तीसरा ‘विरुद्धमति’ दोष है, चैथा ‘भग्नक्रम’ ओर पाँचवाँ ‘पुनरुक्ति’ दोष भी है। इस प्रकार ये पाँच दोष मुख्य हैं, अब इनकी व्याख्या सुनिये।
(1) ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष उसे कहते हैं जिसमें ‘अनुवाद’ अर्थात परिज्ञात विषय आगे न लिखा जाय। ऐसा करने से अर्थ में दोष आ जाता है। आपके श्लोक का मूल विधेय है। ‘गंगा जी का महत्त्व’ और ‘इदम्’ शब्द अनुवाद है। आपने ‘अनुवाद’ को पहले न कहकर सबसे पहले ‘महत्त्वं गंगायाः’ जो ‘विधेय’ है उसे ही आगे कह दिया, इससे ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष आ गया।
(2) दूसरा ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष ‘द्वितीयश्रीलक्ष्मी’ इस पद में है। यहाँ पर ‘द्वितीयत्व’ ही ‘विधेय’ है, द्वितीयशब्द ही समास में पड़ गया। समास में पड़ जाने से वह मुख्य न रहकर गौण पड़ गया। इससे शब्दार्थ क्षय हो गया अर्थात लक्ष्मी की समता प्रकाश करना ही अर्थ का मुख्य तात्पर्य था, सो द्वितीय शब्द के समास में पड़ जाने से अर्थ ही नाश हो गया।
(3) तीसरे श्लोक में ‘विरुद्धमति’ दोष है। विरुद्धमति दोष उसे कहते हैं कि कहना तो किसी के लिये चाहते हैं और अर्थ करने पर किसी दूसरे पर घटता है। आपके श्लोक में ‘भवानीभर्तु’ पद आया है, आपका अभिप्राय शंकर जी से है, किन्तु अर्थ लगाने पर महादेव जी का न लगकर किसी दूसरे का ही भास होता है। ‘भवानीभर्ता’ के शब्दार्थ हुए (भवस्य पत्नी भवानी भवान्या भर्ता- भवानीभर्ता) अर्थात शिव जी की पत्नी का पति। इससे पार्वती जी के किसी दूसरे पति का अनुमान किया जा सकता है। जैसे ‘ब्रह्मणपत्नी के स्वामी को दान दो’ इस वाक्य के सुनते ही दूसरे पति का बोध होता है। काव्य में इसे ‘विरुद्धमति’ दोष कहते हैं, यह बड़ा दोष समझा जाता है।
(4) चौथा ‘पुनरूक्ति’ दोष है। पुनरूक्ति दोष उसे कहते हैं, एक बात को बार-बार कहना- या क्रिया के समाप्त होने पर फिर से उसी बात को दुहराना। आपके श्लोक में ‘विभवति’ क्रिया देकर विषय को समाप्त कर दिया है, फिर भी क्रिया के अन्त में ‘अद्भुतगुणा’ विशेषण दकर ‘पुनरुक्तिदोष’ कर दिया गया है।
(5) पाँचवाँ ‘भग्नक्रम’ दोष है। भग्नक्रम दोष उसे कहते हैं कि दो या तीन पदों में तो कोई क्रम जारी रहे और एक पद में वह क्रम भग्न हो जाये। आपके श्लोक के प्रथम चरण में पाँच ‘तकार’ तीसरे में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार भकारों का अनुप्रास है किन्तु दूसरा चरण अनुप्रासों से रहित ही है। इससे श्लोक में ‘भग्नक्रम’ दोष आ गया।’_
महामहिम निमाई पण्डित बृहस्पति के समान निर्भीक होकर धारा-प्रवाह गति से बोलते जाते थे। सभी दर्शकों के चेहरे से प्रसन्नता की किरणें निकल रही थीं। दिग्विजयी लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे थे। निमाई पण्डित का एक-एक शब्द उने हृदय में शूल की भाँति चुभता था, उससे वे मन-ही-मन व्यथित होते जाते थे, किन्तु बाहर से ऐसी चेष्टा करते थे, जिससे भीतर की व्यथा प्रकट न हो सके, किन्तु चेहरा तो अन्तःकरण का दर्पण है, उस पर तो अन्तःकरण के भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। निमाई पण्डित के चुप हो जाने पर भी दिग्विजयी नीचा सिर किये हुए चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने अपने मुख से एक भी शब्द इनके प्रतिवाद में नहीं कहा।
यह देखकर विद्यार्थी ताली पीटकर हँसने लगे। गुणग्राही निमाई पण्डित ने डाँटकर उन्हें ऐसा करने से निषेध किया। दिग्विजयी को लज्जित और खिन्न देखकर आप नम्रता के साथ कहने लगे- ‘हमने बाल-चापल्य के कारण ये बातें कह दी हैं। आप इनको कुछ बुरा न मानें। हम तो आपके शिष्य तथा पुत्र के समान हैं। अब बहुत रात्रि व्यतीत हो गयी है, आपको भी नित्यकर्म के लिये देर हो रही होगी। हमें भी अपने-अपने घर जाना है। अब आप पधारें। कल फिर दर्शन होंगे। आपके काव्य को सुनकर हम सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। रही गुण-दोष की बात, सो सृष्टि की कोई भी वस्तु दोष से ख़ाली नहीं है। गुण-दोषों के सम्मिश्रण से ही तो इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है।
कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि महाकवियों के काव्यों में भी बहुत-से दोष देखे जाते हैं। यह तो कुछ बात नहीं है, दोष ही न हों, तो फिर गुणों के महत्त्व को कौन समझे? अच्छा तो आज्ञा दीजिये’ यह कहकर सबसे पहले निमाई पण्डित ही उठ बैठे। इनके उठते ही सभी छात्र भी एक साथ ही उठ खडे़ हुए। सर्वस्व गँवाये हुए व्यापारी की भाँति निराशा के भाव से दिग्विजयी भी उठ खडे़ हुए और धीरे-धीरे उदास-मन से अपने डेरे की ओर चले गये। इधर निमाई पण्डित नित्य की भाँति हँसते-खेलते और चौकड़ी लगाते शिष्यों के साथ अपने स्थान को चले गये।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(23)
दिग्विजयी का वैराग्य
भोगे रोगभयं कुले च्तुतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।[1]
(भोग में रोका भय है, कुछ बढ़ने से उसके च्युत होने का भय है, अधिक धन होने में उससे राजभय है, मौन होने में दीनता का भय है, बल में शत्रु का भय है, रूप में वृद्धावस्था का भय है, शास्त्राभ्यास में वाद-विवाद में हार जाने का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में उसके नष्ट हो जाने का भय है, संसार के यावत पदार्थ सभी भय से भरे पड़े हैं। बस, एक वैराग्य ही भय से रहित है। वैराग्य में किसी का भी भय नहीं। भर्तृहरि वै. श. 35)
जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वादन नहीं किया है, वही लौटा अथवा सीरा में सुख का अनुभव करेगा। जिस स्थान में गुड़ से चीनी या शक्कर बनायी जाती है, उसके बाहर एक बड़ा-सा कुण्ड होता है, उसमें गुड़ का सम्पूर्ण काला-काला मैल छन-छनकर आता है। दूकानदार उस मैल को कारखाने में से सस्ते दामों में खरीद लाते हैं और उसे तंबाकू में कूटकर बेचते हैं। दूकानदार सीरे को काठ के बड़े-बड़े़ पीपों में भरकार और गाड़ी में लादकर ले जाते हैं। काठ के पीपे में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं, उनमें से सीरा रास्ते में टपकता जाता है, हमने अपनी आँखों से देखा है, कि गाँव के ग्वारिया उन बूँदों को उँगलियों से उठाकर चाटते हैं और मिठास की खुशी के कारण नाचने लगते हैं, जहाँ कहीं बड़ी-बड़ी दस-पाँच बूँदें मिल जाती हैं, वहाँ वे प्रसन्नता के कारण उछलने लगते हैं और खुशी में अपने को परम सुखी समझने लगते हैं। यदि उन्हें कहीं मिश्री खाने के लिये मिल जाय तो फिर वे उस बदबूदार सीरे की ओर आँख उठाकर भी न देखेंगे, क्योंकि असली मिठास तो मिश्री में ही है। सीरे में तो उसका मैल है। मिठास के संसर्ग के कारण ही मैल में भी मिठास-सा प्रतीत होता है।
अज्ञानी बालक उसे ही मिठास समझकर खुशी से कूदने लगते हैं। इसी प्रकार असली आनन्द तो वैराग्य में ही है, विषयों में जो आनन्द प्रतीत होता है, वह तो वैराग्य का मैलमात्र ही है, जिसने वैराग्य का रसास्वादन कर लिया, वह इन क्षणभंगुर अनित्य संसारी विषयों में क्यों राग करेगा? वैराग्य का पिता पश्चात्ताप है, पश्चात्ताप के बिना वैराग्य हो ही नहीं सकता। जब किसी महात्मा के संसर्ग में हृदय में अपने पुराने कृत्यों पर पश्चात्ताप होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। वैराग्य का पुत्र त्याग है, त्याग वैराग्य से ही उत्पन्न होता है, बिना वैराग्य के त्याग ठहर ही नहीं सकता। त्याग के सुख नाम का पुत्र है और शान्ति नाम की एक पुत्री। ‘त्यागान्नास्ति परं सुखम्’ त्याग से बढ़कर परम सुख कोई है ही नहीं। त्याग के बिना सुख हो ही नहीं सकता। भगवान भी कहते हैं- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ त्याग के अनन्तर ही शान्ति की उत्पत्ति होती है। अतः इस पूरे परिवार के आदिपुरुष या पूर्वज जनक पश्चात्ताप ही हैं। पश्चात्ताप के बिना इस परिवार की वंशवृद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये तो सत्संग की इतनी महिमा वर्णन की गयी है।
महापुरुषों के संसर्ग में जाने से कुछ तो अपने व्यर्थ के कर्मों पर पश्चात्ताप होगा ही, इसीलिये भगवती श्रुति बार-बार कहती है ‘कृतं स्मर’ ‘कृतं स्मर’ किए हुए का स्मरण करो। असली पश्चात्ताप तो सर्वस्व के नष्ट हो जाने पर या अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु के न प्राप्त होने पर ही होता है। जिन्हें परम सुख की इच्छा है और संसारी पदार्थों में उसका अभाव पाते हैं, वे संसारी सुखों में लात मारकर असली सुख की खोज में पहाड़ों की कन्दराओं में तथा एकान्त स्थानों में रहकर उसकी खोज करने लगते हैं उन्हीं को विरागी कहते हैं। दिग्विजयी पण्डित कैशव काश्मीरी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं संसार में सर्वोत्तम ख्याति लाभ करूँ, भारतवर्ष में मैं ही सर्वश्रेष्ठ कवि और पण्डित समझा जाऊँ। इसी के लिये उन्होंने देश-विदेशों में घूमकर इतनी इज्जत-प्रतिष्ठा और धूम-धाम की सामग्री एकत्रित की थी, आज एक छोटी उम्र के युवक अध्यापक ने उनकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। उनकी इतनी ऊँची आशा पर एकदम पानी फिर गया। उनकी इतनी जबरदस्त ख्याति अग्नि में जलकर खाक हो गयी, इससे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ।
गंगा जी से लौटकर वे चुपचाप आकर पलँग पर पड़ रहे। साथियों ने भोजन के लिये बहुत आग्रह किया किन्तु तबीयत खराब होने का बहाना बताकर उन्होंने उन लोगों से अपना पीछा छुड़ाया। वे बार-बार सोचते थे- ‘आज मुझे हो क्या गया? बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान मेरे सामने बोल नहीं सकते थे, अच्छे-अच्छे शास्त्री और आचार्य मेरे प्रश्नों का उत्तर देना तो अलग रहा, यथावत प्रश्न को समझ भी नहीं सकते थे, पर आज गंगा-किनारे उस युवक अध्यापक के सामने मेरी एक भी न चली। मेरी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, उसकी एक बात का भी मुझसे उत्तर देते नहीं बना। मेरी समझ में नहीं आता यह बात क्या है?’ उन्हें बार-बार सरस्वती देवी के ऊपर क्रोध आने लगा।
वे सोचने लगे- ‘मैंने कितने परिश्रम से सरस्वती मन्त्र का जाप किया था, सरस्वती ने भी प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे वरदान दिया था, कि मैं शास्त्रार्थ में सदा तुम्हारी जिह्वा पर निवास किया करूँगी, आज उसने अपना वचन कैसे झूठा कर दिया, आज वह मेरी जिह्वा पर से कहाँ चली गयी?’ इसी अधेड़-बुन में वे उसी देवी के मन्त्र का जप करने लगे और जप करते-करते ही सो गये। स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है।
स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है। इसे तुम्हें इस दिग्विजय का और मेरे दर्शनों का फल ही समझना चाहिये। यदि आज तुम्हारी पराजय न होती तो तुम्हारा अभिमान और भी अधिक बढ़ता। अभिमान ही नाश का मुख्य हेतु है। तुम निमाई पण्डित को साधारण पण्डित ही न समझो। वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, वे नररूपधारी श्रीहरि ही हैं, उन्हीं की शरण में जाओ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा और तुम इस मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो सकोगे।’
इतने में ही दिग्विजयी की आँखें खुल गयीं। देखते क्या हैं भगवान भुवनभास्कर प्राचीदिशि में उदित होकर अपनी जगन्मोहिनी हँसी के द्वारा सम्पूर्ण संसार को आलोक प्रदान कर रहे हैं। पण्डित केशव काश्मीरी को प्रतीत हुआ मानो मरीचिमाली भगवान मेरे पराभव के ही ऊपर हँस रहे हैं। वे जल्दी से कुर्ता पहनकर नंगे सिर और नंगे पैरों अकेले ही निमाई के घर की ओर चले। रास्ते में जो भी इन्हें इस वेश में जाते देखता, वही आश्चर्य करने लगता।
राजा-महाराजाओं की भाँति जो हाथी पर सवार होकर निकलते थे, जिनके हाथी के आगे-आगे चोबदार नगाड़े बजा-बजाकर आवाज देते जाते थे, वे ही दिग्विजयी पण्डित आज नंगे पैरों साधारण आदमियों की भाँति नगर की ओर कहाँ जा रहे हैं? इस प्रकार सभी उन्हें कुतूहल की दृष्टि से देखने लगे। कोई-कोई तो उनके पीछे भी हो लिये। नगर में जाकर उन्होंने बच्चों से निमाई पण्डित के घर का पता पूछा। झुंड-के-झुंड लड़के उनके साथ हो लिये और उन्होंने निमाई पण्डित का घर बता दिया।
उस समय गौर गंगा-स्नान करके तुलसी में जल दे रहे थे। सहसा दिग्विजयी पण्डित को सादे वेश में अकेले ही अपने घर की ओर आते देख उन्होंने दौड़कर उनका स्वागत किया। दिग्विजयी आते ही प्रभु के चरणों में गिर गये। प्रभु ने जल्दी से उन्हें उठाकर छाती से लगाते हुए कहा- ‘हैं हैं, महाराज! यह आप कर क्या रहे हैं? मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। आप जगत-पूज्य हैं, आप ऐसा करे मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? आप मुझे आशीर्वाद दीजिये, आप ही मेरे पूजनीय और परम माननीय हैं।’
गद्गद-कण्ठ से दिग्विजयी ने कहा- ‘प्रभो! मान-प्रतिष्ठा की भयंकर अग्नि में दग्ध हुए इस पापी को और अधिक सन्ताप न पहुँचाइये। इस प्रतिष्ठारूपी सूकरी-विष्ठा को खाते-खाते पतित हुए इस नारकीय को और अधिक पतित न बनाइये। अब मेरा उद्धार कीजिये।’ प्रभु उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गये और बड़े सत्कार से उन्हें बिठाकर कहने लगे- ‘आपने यह क्या किया, पैदल ही यहाँ तक कष्ट किया, मुझे आज्ञा भेज देते तो मैं स्वयं ही आपके डेरे पर उपस्थित होता।
मालूम होता है, आप मुझे सम्मान प्रदान करने और मेरी टूटी-फूटी कुटिया को पवित्र करने के ही निमित्त यहाँ पधारे हैं। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ। आज यह घर पवित्र हुआ। मेरी विद्या सफल हुई जो आप ऐसे महापुरुषों के चरण यहाँ पधारे।’
दिग्विजयी पण्डित नीचे सिर किये चुपचाप प्रभु की बातें सुन रहे थे। वे कुछ भी नहीं बोलते थे। इसलिये प्रभु ने धीरे-धीरे फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘कल मुझे पीछे से बड़ी लज्जा आयी। मैंने व्यर्थ में ही कुछ कहकर आपके सामने धृष्टता की, आप कुछ और न समझें। आपने सुना ही होगा, मेरा स्वभाव बड़ा ही चंचल है। जब मैं कुछ कहने लगता हूँ तो आगे-पीछे की सब बातें भूल जाता हूँ। बस, फिर बकने ही लगता हूँ! छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। इसी कारण कल कुछ अनुचित बातें मेरे मुख से निकल गयी हों तो उनके लिये मै। आपसे क्षमा चाहता हूँ।’
दिग्विजयी ने अधीर होकर कहा- ‘प्रभो! अब मुझे अधिक वंचित न कीजिये। मुझे सरस्वती देवी ने रात्रि में सब बातें बता दी हैं, अब मेरे उद्धार का उपाय बताइये।’ प्रभु ने कहा- ‘आप कैसी बातें कह रहे हैं? आप शास्त्रों के मर्म को भलीभाँति जानते हैं, फिर भी मुझे सम्मान देने की दृष्टि से आप पूछते ही हैं, तो मैं निवेदन करता हूँ। असल में मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य तो उसी को समझना चाहिये जिसके द्वारा प्रभु के पाद-पद्मों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हो। यह जो आप हाथी-घोड़ों को साथ लिये घूम रहे हैं, यह भी ठीक ही है, किन्तु इनसे संसारी भोगों की ही प्राप्ति हो सकती है। भगवत-प्राप्ति में ये बातें कारण नहीं बन सकतीं। आप तो सब जानते ही हैं-
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।
विदुषामिह वैदुष्यं भुक्तये न तु मुक्तये।।
अर्थात् सुन्दर सुललित सौष्ठवयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देने की युक्ति ये सब मनुष्य को संसारी भोगों की ही प्राप्ति करा सकती हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति नहीं हो सकती।
संसारी प्रतिष्ठा का महत्त्व ही क्या है? जो चीज आज है और कल नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। महाराज भर्तृहरि ने इस बात को भलीभाँति समझा था। वे स्वयं राजा थे, सब प्रकार के मान-सम्मान और संसारी भोग-पदार्थ उन्हें प्राप्त थे। उनकी राजसभा में बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान दूर-दूर से नित्यप्रति आया ही करते थे। इसीलिये उन्हें इन सब बातों का खूब अनुभव था, वे सब जानते थे कि इतने भारी-भारी विद्वान इज्जत-प्रतिष्ठा और अनित्य तथा दुःख का मुख्य हेतु बताने वाले धन के किस प्रकार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते रहते हैं।
इन्हीं सब कारणों से उन्हें परम वैराग्य हुआ। और उन्होंने अपने परम अनुभव की बात इस एक ही श्लोक में बता दी है-
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।।[1]
इन श्रुति, स्मृति, पुराण और बड़े विस्तार के साथ शास्त्रों के ही पठन-पाठन में जिन्दगी को लगाये रहने से क्या होता है। बस इनसे स्वर्गरूपी ग्राम में एक कुटी बनाकर भोगों को भोगने का ही अवसर मिल जाता है।
इस कर्मकाण्ड के क्रिया-कलापों में कालयापन करने से क्या लाभ? जो इस दुःखरचना से युक्त संसार-बन्धन को विध्वंस करने में प्रलयाग्नि के समान तेजोमय हैं ऐसे प्रभु के पाद-पद्मों को नैरन्तर्य भाव से सेवन करते रहने के अतिरिक्त ये सभी कार्य वैश्यों के-से व्यापार हैं। एक चीज को देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना है। असली वस्तु तो प्रभु की प्राप्ति ही है। उसी के लिये उद्योग करना चाहिये।’
दिग्विजयी ने कहा- ‘अब आप हमें हमारा कर्तव्य बता दीजिये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिये। अब इन वणिक-व्यापार से तो एकदम घृणा हो गयी है।’
प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘आप शास्त्रज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं। शास्त्र में सभी विषय भरे पड़े हैं, आपसे कोई विषय छिपा थोड़े ही है, किन्तु हाँ, इसे मैं आपका परम सौभाग्य ही समझता हूँ कि इतनी बड़ी भारी प्रतिष्ठा से आपको एकदम वैराग्य हो गया है, लोग पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो छोड़ भी सकते हैं, किन्तु लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि बड़े-बड़े महापुरुष भी इसे छोड़ने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं होते। श्रीहरि भगवान की आपके ऊपर यह परम असीम कृपा ही समझनी चाहिये कि आपको इसकी ओर से भी वैराग्य हो गया। मैं तो परमसुखस्वरूप प्रभु की प्राप्ति में इसे ही मुख्य समझता हूँ। मैंने तो इस श्लोक को ही कर्तव्यता का मूलमन्त्र समझ रखा है-
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।[2]
धर्म का आचरण करो और विषयवासनारूपी जो लोकधर्म हैं उन्हें छोड़ दो। सत्पुरुषों का निरन्तर संग करो और हृदय से भोगों की इच्छा को निकालकर बाहर फेंक दो।
दूसरों के गुण-दोषों का चिन्तन करना एकदम त्याग दो। श्रीहरि की सेवा-कथारूपी जो रसायन है उसका निरन्तर पान करते रहो। बस, इसी को मैंने तो मनुष्यमात्र का कर्तव्य समझा है। इसके अतिरिक्त आपने जो समझा हो, उसे कृपा करके मुझे बताइये।’ श्रीमद्भागवत के माहात्म्य का यह श्लोक केशव पण्डित ने अनेक बार पढ़ा होगा और उसका प्रयोग भी हजारों बार अपने व्याख्यानों में किया होगा, किन्तु वे इसका असली अर्थ तो आज ही समझे। उनके कानों में यह पद-
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा।
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।
-बार-बार गूँजने लगा। प्रभु की आज्ञा लेकर और उनके उपदेश को ग्रहण करके दिग्विजयी पण्डित अपने डेरे पर आये। उनके पास जितने हाथी, घोड़े तथा अन्य साज-बाज के सामान थे, वे सभी उन्होंने उसी समय लोगों को बाँट दिये और अपने सभी साथियों को विदा करके वे भगवत-चिन्तन के निमित्त कहीं चले गये। इनका फिर पीछे किसी को पता नहीं चला। दिग्विजयी के पराभव से सभी लोग निमाई पण्डित की बड़ी प्रशंसा करने लगे और सभी पण्डितों ने मिलकर उन्हें ‘वादिसिंह’ की उपाधि प्रदान करना चाहा। इस प्रकार निमाई पण्डित की ख्याति और भी अधिक फैल गयी और उनकी पाठशाला में अब पहले से बहुत अधिक छात्र पढ़ने के लिये आने लगे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(24)
सर्वप्रिय निमाई
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।[1]
जिसे देखकर लोगों के मन में किसी प्रकार का भय या डर नहीं होता और जो दूसरों से भी किसी प्रकार की शंका नहीं करता, उनके सामने निर्भीकता के साथ बर्ताव करता है। जिसके लिये प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही समान हैं, वह संसारी मनुष्य कभी हो ही नहीं सकता। वह तो भगवान का अत्यन्त ही प्रिय नित्य शुद्ध मुक्तस्वरूप है। गीता 12/15
न तो बाह्य सौन्दर्य ही सौन्दर्य है और न बाह्य पवित्रता ही असली पवित्रता है। जिसका हृदय शुद्ध है, उसमें तनिक भी विकार नहीं है तो वह बदसूरत होने पर भी सुन्दर प्रतीत होता है, लोग उसके आन्तरिक सौन्दर्य के कारण उस पर मुग्ध हो जाते हैं और उसके इशारे पर नाचने लगते हैं। भीतर की पवित्रता ही चेहरे पर झलकने लगती है। उस पवित्रता में मोहकता है, इसी से लोग उनके वश में हो जाते हैं। यदि हृदय भी स्वच्छ शीशे की भाँति निर्मल हो और देह की कान्ति भी कमनीय और मनोहर हो तब तो उस देवतुल्य मनुष्य की मोहकता का कहना ही क्या है। फिर तो सोने में सुगन्ध ही है। ऐसा कौन सहृदय पुरुष होगा, जो ऐसे पुरुष के गुणों का प्रशंसक नहीं बन जाता। यदि ऐसा पुरुष प्रसन्नचित्त और चुलबुले स्वभाव का भी हो, तब तो सभी लोग उससे आत्मीय की भाँति स्नेह करने लगते हैं और उससे किसी भी मनुष्य को संकोच अथवा उद्वेग नहीं होता। बच्चे से लेकर बूढे़ तक उससे खिलावाड़ करने लगते हैं।
निमाई पण्डित में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान थे। उनका हृदय अत्यन्त ही कोमल और बड़ा ही विशाल था, उसमें मनुष्यमात्र के ही लिये नहीं, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और ममता के भाव भरे हुए थे, उनका शरीर सुगठित, सुन्दर और शोभायुक्त था। वे इतने अधिक सुन्दर थे कि मनुष्य उनके सौन्दर्य को ही देखकर मोहित हो जाते थे। चेहरे पर कभी सिकुड़न ही नहीं पड़ती थी। हर समय हँसते ही रहते और साथियों को भी अपनी विनोदपूर्ण बातों से सदा हँसाते रहते थे। स्वभाव में इतना चुलबुलापन था कि छोटे-छोटे बच्चों के स्वभाव को भी मात कर देते थे। इन्हीं सब कारणों से नगर के सभी लोग इनसे आन्तरिक स्नेह रखते थे, जो भी इन्हें देख लेता वही प्रसन्नता से खिल उठता। सभी जानते थे, निमाई अब बालक नहीं हैं, वे नवद्वीप के एक नामी पण्डित हैं, इन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजयी पण्डित को परास्त किया है, ये अपने लोकोत्तर प्रतिभा के कारण बंगाल के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये हैं।
सैकड़ों छात्र इनके पास विद्याध्ययन करने आते हैं, फिर भी वे उन्हें अपना एक साथी तथा प्रेमी ही समझते थे। उन लोगों को यह खयाल कभी नहीं होता था कि ये बड़े आदमी हैं, इनके साथ सम्मान और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिये। ये यदि शिष्टाचार या सम्मान करना भी चाहें तो निमाई पण्डित उन्हें ऐसा करने का अवकाश ही कब देने वाले थे। ये उन सबसे बिना बात ही छेड़खानी करते। बड़े-बड़े लोगों से परिहास करने में नहीं चूकते थे। इनके सभी कार्य विचित्र होते और उनसे सभी को प्रसन्नता होती। ये नवद्वीप के प्रत्येक मुहल्ले में घूमते। कभी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जा रहे हैं और उस मुहल्ले से इसमें। रास्ते में जो भी मिल जाता है उसी से कुछ-न-कुछ छेड़खानी करते हैं।
बड़े लोग कहते हैं- ‘पण्डित! अब थोड़ी गम्भीरता भी सीखनी चाहिये, हर समय लड़कपन ठीक नहीं होता। अब तुम एक गण्यमान्य पण्डित हो गये हो।’ ये झूठा आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए कहते, ‘हाँ, सचमुच अब हमारी गणना पण्डितों में होने लगी है, हमें तो पता भी नहीं। यदि ऐसी बात है तो हम कहीं जाकर किसी से गम्भीरता जरूर सीखेंगे।’ कहने वाले बेचारे अपना-सा मुँह लेकर चले जाते। ये विद्यार्थियों के साथ हँसते-खेलते फिर उसी भाँति चले जाते। इनका नगर-भ्रमण बड़ा ही मनोहर होता। देखने वाले इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह जाते। तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर था, उस पर एक हलकी-सी बनियायिन रहती। चैड़ी काली किनारी की नीचे तक लटकती हुई सफेद धोती के ऊपर एक हल्के-से पीले रंग की चादर ओढे़ रहते। मुख में पान की बीरी है, बाँये हाथ में पुस्तक है, दाहिने में एक हलकी-सी छड़ी है। साथ में दस-पाँच विद्यार्थी हैं, उनसे बातें करते हुए चले जा रहे हैं, बीच-बीच में कभी इधर-उधर भी देखते जाते हैं। किसी कपड़े वाले की दूकान को देखकर उस पर जा बैठते हैं। कपड़े वाला पूछता है- ‘कहिये महाराज! क्या चाहिये?’ आप हँसते हुए कहते हैं- ‘जो यजमान की इच्छा, जो दे दोगे वही ले लेंगे।’ दूकानदार हँसी समझता और चुप हो जाता। कोई-कोई दूकानदार जबरदस्ती इनके सिर कपड़ा मँढ़ देता।
आप उससे कहते- ‘लेने को तो हम लिये जाते हैं, किन्तु पास में पैसा नहीं है। उधार किसी से न कभी चीज ली है न लेते हैं। दामों की आशा न रखना।’ दूकानदार हाथ जोड़कर श्रद्धा के साथ कहते- ‘हमारा अहोभाग्य आप पहनेंगे, तो हमारा यह व्यवसाय भी सफल हो जायगा। यह कपड़ा और लेते जाइये। इसके किसी गरीब छात्र के वस्त्र बनवा दीजियेगा।’ ये प्रसन्नतापूर्वक उन वस्त्रों को ले आते। कोई-कोई दूकानदार इनसे कटाक्ष भी करता- ‘पैसा पास नहीं है, कपड़े खरीदने चले हैं।’ आप हँसते हुए कहते- ‘पैसा ही पास होता तो फिर तुम्हारी ही दूकान कपड़ा खरीदने को रही थी? फिर तो जी चाहता वहीं से खरीद लाते।’ कभी किसी गरीब वस्त्र बनाने वाले के यहाँ जाते। उसका थान देखते, उससे दाम पूछते और कहते- ‘दाम तो हमारे पास है नहीं, बोलो, वैसे ही दोगे’- वह श्रद्धा के साथ कहता, ‘हाँ, ले जाइये महाराज! आपका ही तो है।’ वे हँसते हुए चले आते।
इनके नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती के पास बहुत-से अहीरों के घर थे। वे दूध बेचने का व्यवसाय करते। आप उनके घरों में चले जाते और जिस अहीर को भी पाते उसी से कहते- ‘मामा! आज दूध नहीं पिलाओगे क्या?’ वे इन्हें बड़े सत्कार से अपने घरों को ले जाते। सभी मिलकर विद्यार्थियों के सहित इनका खूब सत्कार करते। कोई ताजा दूध पिलाता। कोई दही लाकर इनके सामने रख देता और थोड़ा खा लेने का आग्रह करता। ये निस्संकोच भाव से खाने लगते।
किसी स्त्री को देखकर कहते ‘मामी! तेरा दही तो खट्टा है, थोड़ी चीनी डाल देती तो स्वाद बन जाता।’ यह सुनकर कोई चीनी लेने दौड़ती। चीनी घर में न होती तो गुड़ ही ले आती। ये हँसते-हँसते गुड़ के साथ दही पीने लगते। विद्यार्थियों को भी दूध-दही पिलाते और फिर हँसते-हँसते पाठशाला की ओर चले आते। विशेषकर ये सीधे-सादे वैष्णवों को और सरल स्वभाव वाले दूकानदारों को खूब छेड़ते। दूकानदारों को भी इनके साथ छेड़खानी करने में आनन्द आता। एक पान वाले से इनका सदा झगड़ा ही बना रहता। ये उससे मुफ्त ही पान माँगा करते और वह मुफ्त देने से इनकार किया करता। तब ये अपने हाथ से ही उठा लेते। पान वाला हँस पड़ता, ये तब तक पान को चट कर जाते। पान वाले को ऐसा करने में नित्य नया ही आनन्द प्रतीत होता था, अतः यह झगड़ा प्रायः रोज ही हुआ करता। कभी तो दिन में दो-दो, तीन-तीन बार हो जाता। पान वाला बड़ा ही सरल और कोमल प्रकृति का पुरुष था।
वह इन्हें पुत्र की तरह मन-ही-मन चाहता था। वहीं श्रीधर नाम के एक भक्त दूकानदार थे। वे अत्यन्त ही गरीब थे, किन्तु थे परम वैष्णव। उनके पास रहने वाले उनके कारण बहुत ही परेशान रहते। वे रातभर खूब जोरों के साथ भगवन्नाम का कीर्तन करते रहते। पड़ोसियों की रात में जब भी आँखें खुलतीं तभी इन्हें भगवन्नाम का कीर्तन करते ही पाते। कोई कहता- ‘भाई, इस बूढे़ के कारण तो हम बड़े परेशान हैं, रातभर चिल्लाता रहता है, सोने ही नहीं देता?’ कोई कहता- ‘भगवान जाने इसे नींद क्यों नहीं आती। दिनभर तो दूकानदारी करता है और रातभर चिल्लाता रहता है, यह सोता किस समय है?’
कोई-कोई इनके पास जाकर कहते- ‘बाबा! भगवान बहिरा थोड़े ही है, जरा धीरे-धीरे भजन किया करो।’ ये कहते- ‘बेटा! धीरे-धीरे कैसे करूँ, तुम सब लोग तो दिन-रात काम में ही जुटे रहते हो, कभी भगवान का घड़ी भर को भी नाम नहीं लेते। इसलिये जिह्वा से नहीं ले सकते तो कान से तो सुनोगे ही, इसीलिये मैं जोर-जोर से भगवन्नाम का उच्चारण करता हूँ जिससे तुम सबों के कानों में भगवन्नाम पड़ जाय।’ इस प्रकार ये किसी की भी बात नहीं सुनते और हमेशा भगवान के मधुर नामों का उच्चारण करते रहते। ये केले के पत्ते ओर केले के भीतर के कोमल-कोमल कोपलों को बेचा करते। बंगाल में कोमल कोपलों का साग बनाया जाता है।
निमाई इनसे रोज ही आकर छेड़खानी किया करते। इनके खोल को उठा लेते और कहते- ‘पैसे के कितने खोल दोगे?’ वे कहते- ‘चार देंगे।’ तब आप कहते- ‘अजी आठ दो। सब जगह आठ-आठ तो बिक ही रहे हैं।’ श्रीधर कहते- ‘पण्डित! यह रोज-रोज की छेड़खानी अच्छी नहीं होती। जहाँ आठ बिक रहे हों, वहीं से जाकर ले आओ। हमने तो चार ही बेचे हैं, चार ही देंगे। तुम्हारी राजी पड़े ले जाओ, न राजी हो मत ले जाओ, झगड़ा करने से क्या फायदा?’
आप कहते- ‘हमें तो तुम्हारे ही खोल बहुत प्रिय लगते हैं, तुम्हीं से लेंगे और आठ ही लेंगे।’
श्रीधर कहते- ‘देखो, तुम अब सयाने हुए। ये बातें अच्छी नहीं होतीं। तुम्हें आठ दे देंगे तो फिर सभी आठ ही माँगेंगे। यदि ऐसी ही बात है, तो हम तुम्हें बिना ही मूल्य खोल दिया करेंगे।’
निमाई हँसते हुए कहते- ‘वाह! फिर कहना ही क्या है?’ नेकी और पूछ-पूछकर’ ‘मीठा और भर कठौता’ बस, यही तो हमें चाहिये।’
फिर कहते- ‘हमारी पूजा नहीं करते, माला हमें भी दिया करो’।
श्रीधर कहते- ‘माला तो मैं देवता के ही लिये लाता हूँ, गंगाजी के लिये पुष्प लाता हूँ, तुम्हें पुष्प-माला कैसे दूँ?’
आप कहते- ‘सबसे बड़े देवता तो हमी हैं, हमसे बढ़कर देवता और कौन हो सकता है? गंगा जी तो हमारे चरणों का धोवन हैं।’ यह सुनकर श्रीधर कानों पर हाथ रख लेते और दाँतों से जीभ काटते हुए कहते- ‘हाय पण्डित! पढ़े-लिखे होकर ऐसी बातें कहते हो! ऐसी बात के कहने से पाप होता है। तुम ब्राह्मण के कुमार होकर ऐसी पाप की बातें अपने मुँह से निकालते हो!’ कालान्तर में यही श्रीधर महाप्रभु गौरांग के अनन्य भक्त हुए और इन्होंने अन्त में उन्हें ईश्वर करके माना और अपने इन वाक्यों के लिये बहुत ही पश्चात्ताप प्रकट किया।
प्रभु इनसे अत्यन्त ही स्नेह रखते थे। गौर-भक्तों में श्रीधर का खोल बहुत ही प्रसिद्ध था। गौर को श्रीधर के खोल के बिना सभी व्यंजन रुचिकर ही नहीं होते थे। एक दिन ये घर की ओर जा रहे थे, रास्ते में पण्डित श्रीवास जी मिले। श्रीवास पण्डित अद्वैताचार्य के साथी और स्नेही थे। पण्डित जगन्नाथ मिश्र के ये अभिन्न मित्र थे, इनकी पत्नी मालती देवी और ये निमाई को सगे पुत्र की भाँति प्यार करते थे। ये भी इन दोनों में माता-पिता के समान श्रद्धा रखते थे। श्रीवास पण्डित को देखकर इन्होंने उन्हें प्रणाम किया।
पण्डित जी ने इन्हें आशीर्वाद दिया और बड़े ही प्रेम के साथ बोले- ‘निमाई! देखो, अब तुम बालक नहीं हो, यह बाल-चापल्य तुम्हें शोभा नहीं देता। इस तरह से उच्छृंखलता का जीवन बिताना ठीक नहीं। कुछ भक्तिभाव भी सीखना चाहिये। तुम्हारे पिता तो परम वैष्णव थे।
इन्होंने सरलता से कहा- ‘अभी थोड़े दिन और इसी तरह मौज कर लेने दो, फिर इकट्ठे ही वैष्णव बनेंगे और ऐसे वैष्णव बनेंगे कि वैष्णवों की तो बात ही क्या है, साक्षात विष्णु भी हमारे पास आया करेंगे।’
इनकी बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘आगे और कब होगे? अभी से कुछ भक्तिभाव करना चाहिये। किसी देवी-देवता में श्रद्धा रखते हो?’ इन्होंने कहा- ‘किस देवता में श्रद्धा रखें, आप ही कृपा करके बताइये?’
श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘जिसमें तुम्हारी श्रद्धा हो। देवपूजा करनी चाहिये और भगवन्नाम का यथाशक्ति जप करना चाहिये।’
निमाई जानते थे, कि वैष्णव ‘सोऽहम्’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इन वाक्यों से चिढ़ते हैं। इसलिये श्रीवास पण्डित को चिढ़ाने के लिये कहने लगे- ‘सोऽहम्’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हमारी तो इन्ही महावाक्यों पर श्रद्धा है। जब हम ही ब्रह्म हैं तब पूजा किसकी करें और जप किसके नाम का करें, आप ही बताइये?’
यह सुनकर श्रीवास पण्डित ने कानों पर हाथ रख लिया और बोले- ‘वैष्णव के पुत्र को ऐसी बात मुख से नहीं कहनी चाहिये। तुम तो लड़कपन किया करते हो।’ इतना सुनकर ये यह कहते हुए घर की ओर चले गये कि ‘अच्छा, किसी दिन देख लेना, हम कैसे वैष्णव बनते हैं, तब तुम हमारे पीछे-ही-पीछे लगे डोलोगे।’
इन्होंने यह बातें हँसी में कही थीं, किन्तु श्रीवास पण्डित को इन बातों से कुछ आशा-सी हुई। वे सोचने लगे- ‘यदि निमाई- जैसे पण्डित, मेधावी और सर्वप्रिय पुरुष वैष्णव बन जायँ तो वैष्णवधर्म का देशभर में झंडा फहराने लगे। अनाथ वैष्णव भक्त सनाथ हो जायँ।’ वे यही सोचते-विचारते गंगा जी की ओर चले गये। कालान्तर में श्रीवास पण्डित के विचार सत्य ही हो गये। वैष्णव-धर्म की विजय-दुन्दुभि से सम्पूर्ण देश गूँजने लग गया और भक्ति-भागीरथी की एक ऐसी भारी बाढ़ आयी जिसके कारण सभी विषमता दूर होकर चारों ओर समता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
लजाते हुए नीचे की ओर दृष्टि करते हुए धीरे से कन्या ने कहा- ‘विष्णुप्रिया’।
माता ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘अहा, ‘विष्णुप्रिया’ कैसा सुन्दर नाम है? जैसा सुन्दर शील-स्वभाव है उसी के अनुरूप सुन्दर नाम भी।’ फिर पूछा- ‘बेटी! तेरे पिता का क्या नाम है’? विष्णुप्रिया यह सुनकर चुपचाप ही खड़ी रहीं। उन्होंने इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब शचीमाता ने पुचकारते हुए कहा- ‘बता दे बेटी! बताने में क्या हर्ज है, क्या नाम है तेरे पिता का?’
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(25)
विष्णुप्रिया-परिणय
रूपसम्पन्नमग्राम्यं प्रेमप्रायं प्रियंवदम्।
कुलीनमनुकूलं च कलत्रं कुत्र लभ्यते।।[1]
रूप और सदगुणों से सम्पन्न, सभ्या अथवा सदव्यवहार में सुचतुर, अत्यन्त प्रेमयुक्त, सुन्दर वचन बोलने वाली, अच्छे कुल में उत्पन्न हुई तथा पति के मनोऽनुकूल आचरण करने वाली पत्नी बड़े भाग्य से ही मिलती है। सु. र. भां. 336/5
बहू के बिना घर सूना-ही-सूना लगता है, इसका अनुभव वही माता कर सकती है, जिसके घर में एक ही पुत्र हो और उसकी सर्वगुणसम्पन्ना पुत्र-वधू परलोकगामिनी हो चुकी हो, उसे चारों ओर से अपना ही घर उजड़ा हुआ-सा दिखायी पड़ता है, घर की लिपी-पुती स्वच्छ दीवालें उसे काटने को दौड़ती हैं। एकलौते पुत्र को देखते ही माता की छाती फटने लगती है और जब-जब पुत्र को स्वयं अपने हाथों से कुछ काम करते देखती है, तभी-तब अश्रुओं से अपनी छाती को भिगोती है। पुत्र-वधू से रहित युवक पुत्र को देखकर माता को महान कष्ट होता है। शचीमाता की भी ऐसी ही दशा थी, जब से लक्ष्मीदेवी परलोकगामिनी हुई हैं, तभी से माता का चित्त उदास रहता है। वे निमाई को देखते ही रोने लगती हैं। निमाई मन-ही-मन सब समझते हैं, किन्तु कुछ कहते नहीं हैं, चुप ही रहते हैं, कहें भी तो क्या कहें?
माता को सदा यही चिन्ता रहती है कि निमाई के योग्य कोई सुन्दरी और गुणवती कुलीन कन्या मिल जाय तो मैं जल्दी-से-जल्दी उसका दूसरा विवाह करके अपने घर को पहले की भाँति हरा-भरा, आनन्द उल्लासयुक्त देख सकूँ। वे गंगा-किनारे जब-जब जातीं तभी-तब वहाँ स्नान करने के निमित्त आयी हुई अपनी सजातीय सयानी कन्याओं के ऊपर एक हलकी-सी दृष्टि डालतीं और फिर निगाह नीची कर लेतीं। इस प्रकार वे रोज ही अपनी नवीन पुत्र-वधू की उन कन्याओं में खोज किया करतीं।
उन्हीं कन्याओं के बीच में वे एक परम सुन्दरी और सुशीला कन्या को भी देखतीं, वह कन्या प्रायः शचीदेवी को रोज ही मिलती। सुबह, शाम, दोपहर को जब भी शची माता स्नान के निमित्त आतीं तभी उस कन्या को घाट पर देखतीं, कभी तो वह स्नान करती होती, कभी देव-पूजन और कभी-कभी स्नान करके घर को जाती हुई शची देवी को मिलती। वह कन्या शची माता को जब भी देखती तभी वह बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करती।
शचीदेवी भी प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देतीं- ‘भगवान की कृपा से मेरी बेटी को योग्य पति प्राप्त हो।’ कन्या इस आशीर्वाद को सुनती और लज्जितभाव से नीची निगाह करके चली जाती।
एक दिन शचीमाता ने उस कन्या को बुलाकर पूछा- ‘बेटी! तेरा क्या नाम है?’
लजाते हुए और शरीर को कुछ टेढ़ा करते हुए धीरे से विष्णुप्रिया ने कहा- ‘राजपण्डित!’ माता ने जल्दी से कहा- पं. सनातन मिश्र की लड़की है तू? तब बताती क्यों नहीं है? राजपण्डित की पुत्री भी राजपुत्री होती है, तभी नहीं बताती थी, क्यों यही बात है न?’
विष्णुप्रिया लजाती हुई चुपचाप खड़ी रही। माता ने उससे और भी दो-चार बातें पूछकर उसे विदा किया। विष्णुप्रिया का शील-स्वभाव और सौन्दर्य शचीमाता की दृष्टि में गड़-सा गया था। वे बार-बार यही सोचने लगीं- ‘क्या ही अच्छा हो यदि यह लड़की मेरी पुत्र-वधू बन जाय? वे रोज घाट पर विष्णुप्रिया को देखतीं और उससे दो-चार बातें जरूर करतीं।
विष्णुप्रिया का अद्भुत रूप-लावण्य, उनकी अत्यन्त कोमल प्रकृति, प्रशंसनीय शील-स्वभाव और अनुपम विष्णु-भक्ति की वे मन-ही-मन बार-बार सराहना करतीं। इसलिये वे उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम प्रदर्शित करने लगीं। विष्णुप्रिया के मन में भी इनके प्रति भक्ति बढ़ने लगी।
शचीमाता बार-बार सोचतीं- ‘क्या हर्ज है, एक बार सनातन मिश्र से पुछवाऊँ तो सही, बहुत करेंगे वे अस्वीकार ही कर देंगे।’ फिर सोचतीं- ‘वे राजपण्डित हैं, धनाढ्य हैं, सब जगह उनकी भारी प्रतिष्ठा है, वे एक विधवा के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का सम्बन्ध क्यों करने लगे।’ यही सोचकर कुछ डर-सी जातीं और उनका साहस नहीं होता।
एक दिन उन्होंने साहस करके काशीनाथ मिश्र नाम के घटक को बुलाया और उनसे बोलीं- ‘मिश्रजी! तुमने सनातन मिश्र की लड़की देखी है?’
घटक ने कहा- ‘लड़की मैंने देखी है, बड़ी ही सुन्दर, सुशील तथा गुणवती है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। मैं समझता हूँ तुम उस लड़की को अपनी पुत्र-वधू बनाकर जरूर प्रसन्न होगी।’
माता ने कहा- ‘यह तो तुम ठीक कहते हो, किन्तु वे धनाढ्य हैं, राजपण्डित हैं। बहुत सम्भव है वे इस सम्बन्ध को न स्वीकार करें। हमारी तो तुम दशा देखते ही हो, वैसे लड़की को अन्न-वस्त्र का तो घाटा न होगा।’
घटक ने जोर देकर कहा- ‘माता जी! तुम कैसे बात करती हो? भला, निमाई-जैसे योग्य, प्रतिष्ठित पण्डित को जमाई बनाने में कौन अपना सौभाग्य न समझेगा? मैं समझता हूँ, वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। मैं आज ही उनके यहाँ जाऊँगा और शाम को ही तुम्हें उत्तर दे जाऊँगा।’ यह कहकर काशीनाथ मिश्र माता को प्रणाम करके चले गये।
इधर पण्डित सनातन मिश्र बहुत दिनों से चाह रहे थे कि विष्णुप्रिया का सम्बन्ध निमाई पण्डित के साथ हो जाता तो बहुत अच्छा होता। किन्तु वे भी मन में कुछ संकोच करते थे कि निमाई आजकल नामी पण्डित समझे जाते हैं।
इस बीस बरस की ही अल्पावस्था में उन्होंने इतनी भारी ख्याति प्राप्त कर ली है, बहुत सम्भव है वे इस सम्बन्ध को स्वीकार न करें। यदि हमारी प्रार्थना पर भी उन्होंने इस सम्बन्ध को स्वीकार न किया तो इसमें हमारा बहुत अपमान होगा। प्रायः धनी लोग अपने मान का बहुत ध्यान रखते हैं, इसी भय से उन्होंने इच्छा रहने पर भी आज तक यह बात किसी पर प्रकट नहीं की थी।
सनातन मिश्र के हृदय में इसी प्रकार के विचार उठ ही रहे थे कि उसी बीच काशीनाथ घटक उनके समीप आ पहुँचे। घटक को देखकर उन्होंने इनका सम्मान किया, बैठने को आसन दिया और आने का कारण जानना चाहा। काशीनाथ घटक ने आदि से अन्त तक सब बातें कहकर अन्त में कहा- ‘शचीमाता ने मुझे बुलाकर स्वयं कहा है। इस बात को मैं अपनी ओर से कहता हूँ कि आपको अपनी पुत्री के लिये इससे अच्छा वर दूसरी जगह कठिनता से मिलेगा।’
प्रसन्नता प्रकट करते हुए सनातन मिश्र ने कहा- ‘निमाई पण्डित कोई अप्रसिद्ध मनुष्य तो हैं ही नहीं। देशभर में उनका यशोगान हो रहा है। उन्हें जामाता बनाने में मैं अपना परम सौभग्य समझता हूँ मेरी भी चिरकाल से यही इच्छा थी, किन्तु इसी संकोच से आज तक किसी पर प्रकट नहीं की कि वे सम्भव है स्वीकार न करें।’
घटक ने कहा- ‘इस बात की आप तनिक भी चिन्ता न करें, शची देवी जो कह देंगी वही होगा, निमाई उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते।’
सनातन मिश्र के घर में जब स्त्रियों ने यह बात सुनी तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। कोई कहने लगी- ‘लड़की का भाग्य खुल गया।’ कोई-कोई विष्णुप्रिया के ही सामने कहने लगी- ‘इतने दिन का इसका गंगा-स्नान और विष्णु-पूजा आज सफल हुई, साक्षात विष्णु के ही समान इसे वर मिल गया।’ ये सब बातें सुनकर विष्णुप्रिया लजाती हुई उठकर दूसरी ओर चली गयीं। स्त्रियाँ और भी भाँति-भाँति की बातें करने लगीं।
राजपण्डित सनातन मिश्र की स्वीकृति लेकर घटक महाशय सीधे शचीमाता के समीप पहुँचे और उन्हें यह शुभ संवाद सुना दिया। सुनकर शचीमाता को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसी समय विवाह की तिथि आदि भी निश्चय करा दी।
सनातन मिश्र के यहाँ तिथि आदि की सभी बातें पक्की करके काशीनाथ घटक आ ही रहे थे कि रास्ते में अकस्मात उनकी निमाई पण्डित से भेंट हो गयी।
निमाई ने उन्हें आलिंगन करते हुए कहा- ‘किधर से आ रहे हैं?’ आप तो सदा घटया ही करते हैं। कहिये किसे घटकर आये हैं?
हँसते हुए घटक ने कहा- ‘घटाकर तो नहीं आये हैं बढ़ाने की ही फ़िक्र है, तुम्हें एक से दो करना चाहते हैं। बताओ, क्या सलाह है?’ कुछ आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा। कैसा बढ़ाना, स्पष्ट बताइये?’
जरा आवाज को बढ़ाते हुए जोर देकर घटक ने कहा- ‘राजपण्डित सनातन मिश्र की पुत्री के साथ तुम्हारे परिणय की बातें पक्की करके आ रहा हूँ। बताओ तुम्हें मंजूर है न?’ बड़े जोर से हँसते हुए इन्होंने कहा- ‘हहाहा! हमारा विवाह? और राजपण्डित की पुत्री के साथ! हमें तो कुछ भी पता नहीं’ यह कहते-कहते ये हँसते हुए घर चले गये।
घटक को इनकी सूखी हँसी में कुछ सन्देह हुआ। सनातन मिश्र के यहाँ भी खबर पहुँच गयी। सुनते ही घर भर में सुस्ती छा गयी। सनातन मिश्र ने कहा- ‘जिस बात की शंका थी, वही हुई। मैं पहले ही जानता था, निमाई स्वतन्त्र प्रकृति के पुरुष हैं, वे भला, इस प्रकार सम्बन्ध को कब मंजूर करने वाले थे! हुआ तो कुछ भी नहीं, उलटी मेरी सब लोगों में हँसी हुई। सबको पता चल गया है कि लड़की का विवाह निमाई पण्डित के साथ होगा। यदि न हो सका तो मेरे लिये बड़ी लज्जा की बात है।’ यह सोचकर उन्होंने उसी समय काशीनाथ घटक को बुलाया और अपनी चिन्ता का कारण बताकर शीघ्र ही शचीमाता से इसके सम्बन्ध में निश्चित उत्तर ले आने की प्रार्थना की।
घटक महाशय उसी समय शचीमाता के समीप गये और राजपण्डित की चिन्ता का सभी वृत्तान्त कह सुनाया। सब कुछ सुनकर शची माता ने कहा- ‘निमाई मेरी बात को कभी टालता नहीं है, इसीलिये मैंने उससे इस सम्बन्ध में कुछ भी पूछ-ताछ नहीं की। आज वह पाठशाला से आवेगा तो मैं उससे पूछ लूँगी। मेरा ऐसा विश्वास है, वह मेरी बात को टाल नहीं सकता। कल मैं तुम्हें इसका ठीक-ठीक उत्तर दूँगी।’ माता का ऐसा उत्तर सुनकर घटक अपने घर को चले गये।
इधर जब शाम को पाठशाला से पढ़ाकर निमाई घर आये तब माता ने इधर-उधर की दो-चार बातें करके बड़े प्रेम से कहा- ‘निमाई बेटा! मैं एक बात पूछना चाहती हूँ। क्या सनातन मिश्रवाला सम्बन्ध तुझे मंजूर नहीं है? लड़की तो बड़ी सुशील ओर चतुर है। मैं उसे रोज गंगा जी पर देखती हूँ।’ कुछ लजाते हुए निमाई ने कहा- ‘मैं क्या जानूँ, जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो।’ माता को यह उत्तर सुनकर सन्तोष हुआ। इन्होंने अपनी माता के सन्तोषार्थ स्वयं एक मनुष्य के द्वारा सनातन के यहाँ विवाह की तैयारी करने की खबर भेज दी। इस खबर के पाते ही सनातन मिश्र के घर में फिर से दुगुना आनन्द छा गया और वे धूम-धाम के साथ पुत्री के विवाह की तैयारियाँ करने लगे।
इधर निमाई पण्डित के पास इतना द्रव्य नहीं था कि वे राजपण्डित की पुत्री के साथ खूब समारोह के साथ विवाह कर सकें। इसके लिये वे कुछ चिन्तित-से हुए। धीरे-धीरे इस बात की खबर इनके सभी विद्यार्थी तथा स्नेहियों को लग गयी। विद्यार्थी बड़े प्रसन्न हुए और आ-आकर कहने लगे- ‘गुरुजी! ज्योंनार की मिठाइयाँ तो खूब खाने को मिलेंगी। सनातन तो राजपण्डित ठहरे। खूब जी खोलकर विवाह करेंगे। बढ़िया-बढ़िया मिठाइयाँ बनावेंगे। खूब आनन्द रहेगा।’ ये सबकी बातें सुनकर हँस देते। उस समय नवद्वीप में बुद्धिमन्त खाँ ही सबसे बड़े जमींदार थे। वे उस समय के एक प्रकार से नवद्वीप के राजा ही समझे जाते। निमाई पण्डित से वे बहुत स्नेह करते थे। इनके विवाह की बात सुनकर वे इनके पास पाठशाला में आये। जिनके चण्डी-मण्डप में ये पढ़ाते थे, वे मुकुन्द संजय भी वहीं बैठे थे। उन्होंने इनका आगत-स्वागत किया। बुद्धिमन्त खाँ ने कहा- ‘पण्डित जी! सुना है आप दूसरा विवाह कर रहे हैं? यह बात कहाँ तक सच है? सुना है अबके राजपण्डित की पुत्री पसंद की है।’
कुछ लजाते हुए इन्होंने कहा- ‘आप जो भी सुनेंगे सब सत्य ही होगा। भला, आपके सामने झूठ बात कहने की किसकी हिम्मत हो सकती है?’
इस उत्तर से प्रसन्न होकर बुद्धिमन्त खाँ ने कहा- ‘तब तो खूब मिठाई खाने को मिलेगी। हाँ, एक प्रार्थना मेरी है, इस विवाह का सम्पूर्ण खर्च मेरे जिम्मे रहा।’ बीच में ही मुकुन्द संजय बोल उठे- ‘वाह साहब! सब आपका ही रहा, हम वैसे ही रहे। कुछ हमें भी तो अवसर दीजिये। अकेले-ही-अकेले आनन्द उठा लेना ठीक नहीं।’
हँसते हुए बुद्धिमन्त खाँ ने जवाब दिया- ‘आप भी अपनी इच्छा पूर्ण कर लें। कुछ भिखमंगे ब्राह्मण का विवाह थोड़े ही है। राजपण्डित की पुत्री के साथ शादी है। राजकुमार की ही भाँति खूब ठाट-बाट से विवाह करेंगे। आप जितना भी चाहें खर्च कर लें।’ इस प्रकार विवाह के सम्पूर्ण खर्च का भार तो इन दोनों धनिकों ने अपने ऊपर ले लिया। अब निमाई इस बात से तो निश्चिन्त हो गये, फिर भी उन्हें बहुत-सा काम स्वयं ही करना था। उसे लिये वे विद्यार्थियों की सहायता से स्वयं ही सब काम करने लगे।
सभी बड़े-बड़े पण्डितों को निमन्त्रित किया गया। विद्वन्मण्डली में से ऐसा एक भी पण्डित नहीं बचने पाया जिसके पास निमन्त्रण न पहुँचा हो। इधर पूर्वोक्त दोनों धनाढ्यों ने विवाह के लिये गाने-नाचने का, आतिशबाजी-फुलवारी का, अच्छे-अच्छे बाजों का तथा और भी सजावट के बहुत-से सामानों का भलीभाँति प्रबन्ध किया। नियत तिथि के दिन अपने स्नेही बहुत-से पण्डित, विद्यार्थियों तथा अन्य गण्यमान्य सज्जनों के साथ बरात सजाकर निमाई पण्डित विवाह के लिये चले। वे आगे-आगे पालकी में जा रहे थे। दोनों ओर चमर ढुर रहे थे। सबसे आगे भाँति-भाँति के बाजे बज रहे थे। इस प्रकार खूब समारोह के साथ वे सनातन मिश्र के द्वार पर जा पहुँचे। मिश्रजी ने सब लोगों का यथोचित खूब सम्मान किया। सभी के ठहरने, खाने-पीने और मनोरंजन का उन्होंने बहुत ही उत्तम प्रबन्ध कर रखा था। उनके स्वागत-सत्कार से सभी लोग अत्यन्त ही प्रसन्न हुए।
गोधूलि के शुभ लग्न में निमाई पण्डित ने विष्णुप्रिया का पाणिग्रहण किया। ब्राह्मणों ने स्वस्त्ययन पढ़ा, वेदज्ञों ने हवन कराया। इस प्रकार विवाह के सभी लौकिक तथा वैदिक कृत्य बड़ी ही उत्तमता के साथ समाप्त हुए। विष्णुप्रिया ने पतिदेव के चरणों में आत्मसमर्पण किया और निमाई ने उन्हें वामांग करके स्वीकार किया। सनातन मिश्र ने बहुत-सा धन तथा बहुमूल्य वस्त्राभूषण निमाई के लिये भेंट में दिये। इस सब कार्यों के हो जाने पर विवाह के सब कार्य समाप्त किये गये।
दूसरे दिन सनातन मिश्र ने सभी विद्वान पण्डितों की सभा की। उनकी योग्यतानुसार यथोचित पूजा की और द्रव्यादि देकर खूब सत्कार किया। तीसरे दिन विष्णुप्रिया के साथ दोला (पालकी) में चढ़कर निमाई अपने घर आये। चिरकाल से जिसे अपनी पुत्र-वधू बनाने के लिये माता उत्सुक थी, आज उसे ही पुत्र के साथ अपने घर में आयी देखकर माता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। वह उस युगल जोड़ी को देखकर मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो रही थी।
घर में घुसते समय चौखट में उँगली पिच जाने के कारण विष्णुप्रिया के कुछ खून निकल आया था। इसे अपशकुन समझकर उनका चित्त पहले तो कुछ दुःखी हुआ था, किन्तु थोड़े दिनों में वे इस बात को भूल गयी थीं। जब निमाई संन्यास लेकर चले गये, तब उन्हें यह घटना याद आयी थी और वह उसे स्मरण करके दुःखी हुई थीं। इस प्रकार विष्णुप्रिया को पाकर निमाई अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और विष्णुप्रिया भी अपने सर्वगुणसम्पन्न पति को पाकर परम आह्लादित हुईं।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(26)
प्रकृति-परिवर्तन
परोपदेशकुशला दृश्यन्ते बहवो जनाः।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेष्वपि दुर्लभाः।।[1]
दूसरे को बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे, उत्तम-से-उत्तम उपदेश करने वाले तो बहुत-से सुचतुर पण्डित मिल जायँगे, किन्तु जो एकदम अपने स्वभाव को ही पलट दें, ऐसे पुरुष हजारों में भी दुर्लभ हैं। कहीं करोड़ों में कोई ऐसे पुरुष निकलते हैं। सु. र. भां. 77/4
बाल्यावस्था का स्वभाव आगे चलकर धीरे-धीरे बदल जाता है, किन्तु युवावस्था में जो स्वभाव बन जाता है, उसका परिवर्तित होना अत्यन्त ही कठिन है। अवस्था ज्यों-ज्यों प्रौढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों स्वभाव में भी प्रौढ़ता होने लगती है और फिर जिस मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है वही उसका आगे के लिये स्वाभाविक गुण बन जाता है। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि बहुत-से लोगों का जीवन एकदम पलट जाता है, वे क्षणभर में ही कुछ-से-कुछ बन जाते हैं। जो आज महाविषयी-सा प्रतीत होता है, वही कल परम वैष्णवों के-से आचरण करने लगता है। जिसे हम कल तक आवारा-आवारा कहकर पुकारते थे, थोड़े दिनों में सहस्रों नर-नारी सिद्ध महात्मा मानकर उसी की पूजा-अर्चा करते हुए देखे गये हैं, किन्तु ऐसा परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में नहीं होता। ऐसे तो कोई विरले ही भाग्यशाली महापुरुष होते हैं। प्रायः देख गया है कि मनुष्य जब प्राकृति विचारों से ऊँचे उठने लगता है, तब हृदय के परिवर्तन के साथ उसके शरीर में भी परिवर्तन हो जाता है। शरीर के सभी अवयव स्वभाव के ही अनुसार बने हैं, मनुष्य जैसे-जैसे प्राकृतिक विचारों को छोड़ने लगता है वैसे-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग भी बदलते जाते हैं।
साधारण लोग उस परिवर्तन को रोग समझने लगते हैं। जो एकदम प्रकृति से ऊँचा उठ गया है, फिर उसका पांचभौतिक शरीर अधिक काल स्थिर नहीं रह सकता। क्योंकि शरीर के स्थायित्व के लिये रजोगुणजन्य प्राकृतिक अहंभाव की कुछ-न-कुछ आवश्यकता पड़ती ही है। तभी तो परम भावुक ज्ञानी और प्रेमी अल्पावस्था में ही इस शरीर को त्याग जाते हैं। श्रीशंकाराचार्य, चैतन्यदेव, ज्ञानेश्वर, रामतीर्थ, जगद्बन्धु ये सभी परम भावुक भगवत-भक्त प्रकृति से अत्यन्त ऊँचे उठ जाने के ही कारण शरीर को अधिक दिन नहीं टिका सके। कोई-कोई महापुरुष, अपने सत्संकल्प का कुछ अंश देकर लोक-कल्याण की दृष्टि से उस अवस्था में पहुँचने पर भी कुछ काल के लिये इस शरीर को टिकाये रहते हैं, फिर भी उनमें भावुकता की अपेक्षा ज्ञानांश की कुछ अधिकता होती है, तभी वे ऐसा कर सकते हें। भावुकता की चरम सीमा पर पहुँचने पर तो संकल्प करने का होश ही नहीं होता। जब हृदय में सहसा प्रबल भावुकता का उदय होता है, तो निर्बल शरीर उसका सहन नहीं कर सकता। किसी-किसी का शरीर तो उसी वेग में शान्त हो जाता है, बहुत-से उसे सहन तो कर लेते हैं, किन्तु पागल हो जाते हैं, कुछ कर-धर नहीं सकते।
जिनसे भगवान को कुछ काम कराना होता है, वे उस वेग को पूर्णरीति से सहन करने में समर्थ होते हैं, किन्तु शरीर पर उसका कुछ-न-कुछ असर पड़ना तो स्वाभाविक ही है, इसलिये उनके शरीर में या तो वायुरोग हो जाता है या अतिसार। बहुधा इन दो भयंकर रोगों के द्वारा ही उस भाव का शमन हो सकता है। संसारी लोगों को ये रोग प्रायः चालीस-पचास वर्ष की अवस्था के बाद हुआ करते हैं, किन्तु जिन लोगों के शरीर में प्रबल भावुकता के उदय होने के उद्वेग में ये रोग होते हैं, उनके लिये कोई नियम नहीं, कभी हो जाय। असल में उनके ये रोग साधारण लोगों के रोग की भाँति यथार्थ रोग नहीं होते, किन्तु वे रोग-से ही प्रतीत होते हैं और भावों के शमन होने पर आप ही शान्त हो जाते हैं। परमहंस रामकृष्णदेव को युवावस्था में ही यह उद्वेग उत्पन्न हुआ। किसी ने उसे वायुरोग, किसी ने मस्तिष्क रोग और किसी ने वीर्योन्मादरोग बताया। उनके परम भक्त मथुरा बाबू तो चिकित्सकों के कहने से उन्हें वेश्याओं तक के यहाँ ले गये, किन्तु उन्हें उन्माद या वायुरोग हो तब तो। वहाँ भी वे छोटे बालक की भाँति क्रीड़ा करते रहे। सालों वे अतिसार के भयंकर रोग से पीड़ित बने रहे।
उनके इस भाव को एक ब्राह्मणी ने ही समझा। पीछे से उनके बहुत-से भक्त भी समझ गये। चिकित्सक इन्हें अन्त तक वायुरोग बताते रहे और बोलने से मना करते रहे, किन्तु इन्होंने शरीर को टिका ही इसलिये रखा था, चिकित्सकों के मना करने पर भी धारा प्रवाह बोलते रहे, अन्त में गले में फोड़ा-सा हुआ और उसी की भयंकर वेदना में महीनों बिताकर वे इस नश्वर शरीर को त्याग गये। गले के फोड़े को चिकित्सक लोग अधिक बोलने का विकार बताते, उसके कारण इतनी पीड़ा होती कि तोले भर दूध पीने में भी उन्हें महाकष्ट होता था, किन्तु इस अवस्था में भी वे भक्तों को उपदेश तो निरन्तर करते ही रहे। चिकित्सकों के बार-बार जोर देकर मना करने पर वे कह देते- ‘अब इस शरीर का बनेगा ही क्या? इससे जिसका जितना भी उपकार हो सके उतना ही उत्तम है।’ क्योंकि वे शरीर के प्राकृतिक स्वभाव से एकदम ऊँचे उठ गये थे।
अब निमाई पण्डित के भी प्रकृति-परिवर्तन का समय आया। निमाई परम भावुक थे, यदि सचमुच इनके हृदय में एक साथ ही प्रबल भावुकता की भारी बाढ़ आती, तो चाहे इनका शरीर कितना भी बलवान क्यों नहीं था, वह उसका सहन कभी नहीं कर सकता। इसलिये इनकी भावुकता का उत्तरोत्तर विकास हुआ और अन्त में तो वे शरीर को एकदम भूलकर समुद्र में ही कूद पड़े। इनके जीवन में प्रेम के जैसे उत्तरोत्तर अद्वितीय भाव प्रकट हुए हैं, वैसे भाव संसार का इतिहास खोजने पर भी किसी प्रकटरूप से उत्पन्न हुए महापुरुष के जीवन में शायद ही मिलें! किसी के जीवन में क्या, बहुतों के जीवन में ये भाव प्रकट हुए होंगे, किन्तु वे संसार की दृष्टि से दूर जाकर प्रकट हुए होंगे, संसारी लोगों को उन भावों का पता नहीं चैतन्य के जीवन के भाव तो भक्तों ने प्रत्यक्ष देखे और उनके समकालीन लेखकों ने यथासाध्य उनका वर्णन करने की चेष्टा भी की है, किन्तु वे भाव तो अवर्णनीय हैं। संसारी भाषा इन अलौकिक भावों का वर्णन कर ही कैसे सकती है?
सहसा एक दिन निमाई पण्डित रास्ता चलते-चलते पुस्तक फेंककर अपने घर की ओर भाग पड़े। रास्ते के सभी लोग डर गये। इनकी सूरत विचित्र ही बन गयी थी। घर पहुँचकर इन्होंने घर के सभी बर्तनों को आँगन में निकाल-निकालकर फोड़ना प्रारम्भ कर दिया। माता अवाक होकर इनकी ओर देखने लगीं। उनकी हिम्मत न हुई कि निमाई को ऐसा करने से रोकें। ये अपनी धुन में मस्त थे। किसी भी चीज की परवा नहीं करते। जो भी चीज मिल जाती उसे ही नष्ट करते। पानी को उलीचते, अन्न को फेंकते और वस्त्रों को बीच से फाड़ देते थे। माता बाहर जाकर आस-पास के लोगों को बुला लायीं। लोगों ने इन्हें इस काम से हटाने की चेष्टा की, किन्तु जो भी इनकी ओर जाता, उसे ही ये मारने के लिये दौड़ते। इसलिये किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। जैसे-तैसे लोगों ने इन्हें हटाकर शय्या पर सुलाया। चारों ओर से विद्यार्थी तथा इनके स्नेही इनकी शय्या को घेरकर बैठ गये। अब ये निरन्तर पागलों की भाँति बकने लगे। लोगों से कहते- ‘हम साक्षात विष्णु हैं, हमारी पूजा करो। संसार में हम ही एकमात्र वन्दनीय तथा पूजनीय हैं। तुम लोग निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन किया करो। संसार में श्रीकृष्ण का ही नाम सार है और सभी वस्तुएँ असार हैं। इस प्रकार ये न जाने क्या-क्या कहते रहे।’
लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भाँति-भाँति के अनुमान लगाते। कोई कहता- ‘भूतव्याधि है।’ कोई कहता- ‘किसी डाकिनी-शाकिनी का प्रकोप है।’ कोई-कोई उपेक्षा की दृष्टि से कहता- ‘अजी, बहुत बकवाद का यही तो फल होता है, दिनभर शास्त्रार्थ करके विद्यार्थियों के साथ मगजपच्ची करके तथा लोगों को छेड़कर बका ही तो करते थे। इन्हें कभी किसी ने चुपचाप तो देखा ही नहीं था। उसी का यह फल है, पागलपन है। मस्तिष्क का विकार है। गर्मी बढ़ गयी है और कुछ नहीं है।’
चिकित्सकों ने वायुरोग स्थिर किया। समाचार पाकर बुद्धिमन्त खाँ और मुकुन्द संजय- ये सभी धनी-मानी सज्जन वैद्यों को साथ लेकर निमाई के घर दौड़े आये। सभी घबड़ा गये। ये लोग बड़े-बड़े धनिक थे। नाना प्रकार की मूल्यवान ओषधियाँ इनके यहाँ रहती थीं। वैद्यों की सम्मतिसे विष्णुतैल, नारायणतैल आदि सुगन्धित और मूल्यवान तैल इनके सिर में मले जाने लगे। इनके सिर को तैल में डुबाया गया और भी भाँति-भाँति के उपचार किये जाने लगे। इस प्रकार कई दिनों में धीरे-धीरे ये स्वस्थ हुए। यह देखकर इनके प्रेमियों को परम प्रसन्नता हुई। धीरे-धीरे ये फिर पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में जाकर अध्यापन का कार्य करने लगे।
अब इनके स्वभाव में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया। अब ये पहले की भाँति लोगों से छेड़खानी नहीं करते थे। इनमें बहुत कुछ गम्भीरता आ गयी। वैष्णवों की हँसी करना इन्होंने एकदम छोड़ दिया। इन्हें स्वस्थ देखकर लोग कहते- ‘भगवान की बड़ी कृपा हुई आप स्वस्थ हो गये। यह शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है, अब कुछ कृष्णकीर्तन भी करना चाहिये। आयु को इसी तरह बिता देना ठीक नहीं।’ ये हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते और उनकी बात को स्वीकार करते। लोगों को- विशेषकर वैष्णवों को इनके इस स्वभाव- परिवर्तन से परम प्रसन्नता हुई। अब ये नियमितरूप से भगवान की पूजा और तुलसी पूजन आदि कार्यों को करने लगे।
सन्ध्या-पूजा करके ये पढ़ाने के लिये जाते और सभी विद्यार्थियों के सदाचार के ऊपर अत्यधिक ध्यान रखते। जिस विद्यार्थी के मस्तक पर तिलक नहीं देखते उसे ही बुलाकर कहते- ‘आज तिलक क्यों नहीं धारण किया है?’ फिर सबको सुनाकर कहते- ‘जिसके मस्तक पर तिलक नहीं, समझ लो आज वह बिना ही सन्ध्या-वन्दन किये चला आया है।’ इस प्रकार जिसे भी तिलकहीन देखते उसे ही कहते- ‘पहले घर जाकर सन्ध्या-वन्दन करके तिलक धारण कर आओ, तब आकर पाठ पढ़ना।’ फिर आप समझाने लगते- ‘देखो भाई! सन्ध्या ही तो द्विजातियों का सर्वस्व है।
जो ब्राह्मण सन्ध्या-वन्दन तक नहीं करता उसे ब्राह्मण कह ही कौन सकता है? फिर वह पारमार्थिक उन्नति तो बहुत दूर रही, इहलौकिक उन्नति भी नहीं कर सकता। कहा भी है-
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदाः शाखाः धर्मकर्मादि पत्रम्।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।
ब्राह्मणरूपी वृक्ष की सन्ध्या ही जड़ है। वेद ही उस वृक्ष की बड़ी-बड़ी चार शाखाएँ हैं और धर्म- कर्मादि ही उस वृक्ष के सुन्दर-सुन्दर पत्ते हैं, इसलिये खूब सावधानी के साथ जल आदि देकर जड़की ही सेवा करनी चाहिये, क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न तो शाखा ही रह सकती है और न पत्ते ही।’ आप कहते- ‘जो साठ घड़ी के दिन-रात्रि में से दो घड़ी सन्ध्या के लिये नहीं निकाल सकता वह आगे उन्नति ही क्या कर सकता है?’ इनके इस कथन का विद्यार्थियों के ऊपर बड़ा ही प्रभाव पड़ता और वे सभी यथासमय उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्या-वन्दनादि करके तब पाठ पढ़ने आते। इन सभी बातों से विद्यार्थी इनके ऊपर बड़ा ही अनुराग रखने लगे और ये भी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगे।
ये भाव इनके हृदय में भक्ति-भागीरथी के स्त्रोत उमड़ने के पूर्व के सूत्रपातमात्र ही हैं। निमाई के हृदय में भक्ति के स्त्रोत का उदय तो श्रीगयाधाम में श्रीविष्णु भगवान के पादपद्मों के दर्शन से ही होगा। वहीं से भक्ति-भागीरथी का प्रवाह नवद्वीप आदि पुण्यस्थानों में होर अपनी द्रुतगति से समस्त प्राणियों को पावन करता हुआ श्रीनीलाचल के महासागर में एकरूप हो जायगा। यह बात नहीं कि नीलाचन में जाकर प्रेमपयोधि में मिलने पर उस त्रितापहारी प्रेमपीयूषपूर्ण पावन प्रवाह की परिसमाप्ति हो जायगी, किन्तु वह प्रवाह भगवती भागीरथी की भाँति अखण्डरूप से इस धराधाम पर सदा प्रवाहित ही होता रहेगा, जिसमें अवगाहन करके प्रेमी भक्त सदा सुख-शान्ति प्राप्त करते रहेंगे। इन सभी बातों का वर्णन पाठकों को अगले प्रकरणों में प्राप्त होगा।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(27)
भक्तिस्त्रोत उमड़ने से पहले
तावत्कर्मणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।।[1]
भक्ति तथा मुक्ति का प्रधान और मुख्य कारण कर्म ही है। निष्काम और सकाम-भेद से कर्म दो प्रकार का है। सकाम कर्म भुक्तिप्रद है। उससे भूः, भुवः और स्वर्ग- इन तीन ही लोकों के भोग प्राप्त हो सकते हैं और निष्काम कर्म के द्वारा आत्मशुद्धि होकर साधक भक्ति तथा मुक्ति का अधिकारी बनता है। जो हृदय-प्रधान साधक हैं उन्हें निष्काम कर्मों के करते रहने से साधु-महात्माओं में प्रीति उत्पन्न होती है। महात्माओं के अधिक संसर्ग में रहने से उन्हें भगवत-कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। भगवत-कथाओं में श्रद्धा होने से भगवद्गुणों में रति हो जाती है। भगवद्गुणों में रति होने के बाद भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति ही अन्तिम साध्य वस्तु है, उसे ही पराकाष्ठा या परा गति कहते हैं। जो मस्तिष्क-प्रधान साधक होते हैं, उन्हें निष्काम कर्मों के द्वारा आत्मशुद्धि होकर भगवद्भक्ति प्राप्त होती है, फिर संसारी विषयों से वैराग्य होता है, वैराग्य से उन्हें ज्ञान की इच्छा उत्पन्न होती है और ज्ञान के द्वारा वे मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
मुक्ति ही प्राणिमात्र का चरम लक्ष्य है। यही जीवों की एकमात्र साध्य वस्तु है। इसीलिये मुक्ति तथा भक्ति का प्रधान हेतु वर्णाश्रमविहित कर्म ही है। जब तक भगवत-कथाओं में पूर्णरूप से श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय, बिना भगवत-कथा श्रवण किये चैन ही न पड़े अथवा जब तक संसारी विषयों से पूर्णरीत्या वैराग्य न हो जाय, चित्त सर्वदा इन संसारी भोगों से हटकर एकान्तवास के लिये लालायित न बना रहे तब तक सभी प्रकार के मनुष्यों को अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य-कर्मों को करते ही रहना चाहिये। जो श्रद्धा तथा वैराग्य के पूर्व ही अज्ञान के वशीभत होकर कर्मों का त्याग कर देते हैं, वे नारकीय जीव हैं, वे स्वयं कर्म-त्यागरूपी पाप के द्वारा अपने लिये न करके मार्ग को परिष्कृत करते हैं। ऐसे पुरुष न तो भक्त बन सकते हैं और न ज्ञानी, वे इस संसार-चक्र में ही पड़े घूमते रहते हैं।
कुछ ऐसे भी नित्यभक्त वा जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं, जिन्हें फिर से कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती, वे पहले से ही मुक्त अथवा भक्त होते हैं। शुक-सनकादि जन्म से ही मुक्त थे। नारदादि पहले से ही भक्त होकर उत्पन्न हुए, इनके लिये किसी प्रकार के विशेष कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं हुई। इनमें आरम्भ से ही वैराग्य तथा भक्ति विद्यमान थी। इसीलिये शुक-सनकादि आरम्भ से ही ज्ञानी बनकर स्वेच्छापूर्वक विचरण करते रहे और नारदादि सदा हरि-गुण गान करते हुए सभी लोकों को पावन बनाते फिरे। अतएव इनके लिये आरम्भ से ही कोई कर्तव्य-कर्म नहीं था।
अब प्रश्न यह है कि भक्ति तथा मुक्ति में कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? इनका उत्तर यही दिया जा सकता है कि या तो इनमें से कोई भी श्रेष्ठ नहीं या दोनों ही श्रेष्ठ हैं। ये दोनों ही स्थिति सनातन हैं, सदा से प्राणियों की ये ही दो परम स्थिति सुनी गयी हैं। वेद-शास्त्रों से ज्ञानी-महर्षियों ने इन्हीं दो स्थितियों का वर्णन किया है। ‘तस्य तदेव मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नः’ जिसके जो अनुकूल पड़े उसके लिये वही सर्वोत्तम है। हृदय और मस्तिष्क की ये दो ही शक्तियाँ हैं। जिसमें जिसकी प्रधानता होगी, उसको वही मार्ग रुचिकर होगा। दूसरे से उसे कोई प्रयोजन नहीं। वह तो अपने ही मार्ग को सर्वस्व समझेगा। अब यह प्रश्न उठता है कि बहुधा भक्तों को यह कहते सुना गया है कि ‘हम तो मुक्ति को अत्यन्त तुच्छ समझते हैं, भक्ति के बिना मुक्ति को हम तो ठुकरा देते हैं।’ इसके विपरीत ज्ञान-मार्ग के साधकों के द्वारा यह सुना गया है कि ‘मुक्ति ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है, भक्ति उसका साधन भले ही हो किन्तु साध्य वस्तु तो मुक्ति ही है। मुक्ति के बिना परम शान्ति नहीं।’ इनमें से किसकी बात मानें? दो बातें तो ठीक हो नहीं सकतीं। फिर वे दो ऐसी बातें जो परस्पर में एक-दूसरे के विरुद्ध हों।
यदि ध्यानपूर्वक इन दोनों बातों पर विचार किया जाय तो इन दोनों में कोई विरोध नहीं मालूम पड़ता। लोक में भी देखा जाता है कि जिस मनुष्य को जो वस्तु अत्यन्त प्रिय होती है, वह कहता है ‘मैं तो इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई वस्तु नहीं समझता।’ उसके कथन का अभिप्राय इतना ही है कि मुझे तो यही वस्तु अत्यन्त प्रिय है, मेरे लिये तो इससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। ‘नहीं’ कहने से उसका अभिप्राय अन्य वस्तुओं के ‘अभाव’ से न होकर ‘प्रिय’ से है। अर्थात मुझे इसके सिवा दूसरी वस्तु प्रिय नहीं है। उसका कथन एक प्रकार से ठीक भी है, जब तक उसकी उस वस्तु के प्रति अनन्यता न हो जायगी तब तक उसमें प्रीति कही ही नहीं जा सकती। इसी प्रकार भक्ति का मार्ग जिन्होंने ग्रहण किया है, उनके लिये ज्ञान के द्वारा मुक्ति प्राप्त करना कोई वस्तु ही नहीं है और जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, उनके लिये किसी भी प्रकार के नाम-रूप का चिन्तन करना महान विघ्न है। ये हम साधारण लोगों के समझने के लिये साधारण-सी दलीलें हैं।
वास्तव में तो भक्ति तथा मुक्ति दो वस्तु हैं ही नहीं। एक ही वस्तु को दो नामों से पुकारते हैं, अपनी भावना के ही अनुसार एक प्रिय वस्तु को दो रूपों में देखते हैं। साध्य तो एक ही है- उसे चाहे भक्ति कह लो या मुक्ति और उसका साधन भी एक ही है- अनासक्तभाव से भगवत-सेवा या कर्तव्य समझकर निष्काम कर्म। हाँ, करने की प्रक्रियाएँ पृथक-पृथक अवश्य हैं, जिनका रुचि-वैचित्र्य के कारण अधिकारी-भेद से पृथकृ-पृथक होना आवश्यक ही है। एक में त्याग ही प्रधान है, घर को त्यागो, संग को त्यागो, आसक्ति को त्यागो, नाम-रूप को त्यागो, फिर अपने-आपको भी त्याग दो। दूसरे में प्रेम की प्रधानता है, अच्छे पुरुषों से प्रेम करो, भगवद्भक्तों से प्रेम करो, भगवत-चरित्रों से प्रेम करो, प्रेम से प्रेम करो। फिर जाकर प्रेम में समा जाओ। ये मुक्ति-भक्ति दो मार्ग हैं। महाप्रभु चैतन्यदेव का जीवन तो भक्तिमार्ग का एक प्रधान स्तम्भ है।
उनके जीवन में शुद्ध भक्ति का परम पवित्र स्वरूप है, उसमें पक्षपात का लेश नहीं, दूसरे मार्ग के प्रति विद्वेष नहीं। किसी भी कर्म की उपेक्षा नहीं। संकुचित भावों की गन्ध नहीं। वहाँ तो शुद्ध प्रेम है! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ना चाहो त्यों-ही-त्यों अधिकाधिक प्रेम करो, यही शिक्षा उसमें ओत-प्रोतरूप से भरी पड़ी है। उनका नाम लेकर आज जो बातें कही जाती हैं, वे चैतन्यदेव की कभी हो ही नहीं सकतीं। इसका साक्षी उनका प्रेममय जीवन ही है। ये साम्प्रदायिक विचार तो पीछे के संकुचित बुद्धि वाले लोगों के मस्तिष्क से निकले हैं। अपनी चीज का नाम कोई जो चाहे रख ले। कोई रोकने वाला थोड़े ही है। चैतन्य का जीवन तो परम प्रेममय, सभी को आश्रय देने वाला परम महान है, उसमें भला साम्प्रदायिक संकुचित भावों का क्या काम? इनके हृदय में प्राणिमात्र के भावों का आदर था।
निमाई पण्डित का अब दूसरा विवाह हो गया है। विष्णुप्रिया उनके सब प्रकार से अनुकूल आचरण करती हैं। उनका स्वभाव हँसमुख है, वे सुशीला हैं, गृहकार्यों में चतुर हैं और अत्यन्त ही पतिपरायणा हैं, वे अपने पति को ही सर्वस्व समझती हैं। यह सब होते हुए भी निमाई का चित्त अब उदास ही रहता है। पता नहीं क्यों? अब उनकी वह चपलता न जाने कहाँ चली गयी? घंटों एकान्त में न जाने क्या सोचा करते हैं? अब उन्हें संसारी बातों से अनुराग नहीं है। अब उनका हृदय किसी विशेष वस्तु के लिये छटपटाता-सा दिखायी पड़ता है। अब वे अपने में किसी एक विशेष अभाव का-सा अनुभव करने लगे हैं। इस बात से उनके सभी स्नेही चिन्तित रहते हैं।
जब हृदय में किसी प्रबल भाव का आगमन होने को होता है, तो उसके पूर्व हृदय एक प्रकार के अभाव का अनुभव करने लगता है। जी चाहता है कहीं चलकर अपनी प्रिय वस्तु को ले आवें। ऐसी ही दशा में लोग तीर्थों में जाते हैं। तीर्थों में अच्छे-अच्छे धार्मिक लोगों के सत्संग का सुयोग प्राप्त होता है, विरक्त साधु-महात्माओं के दर्शन होते हैं। उनके सत्संग तथा सदुपदेश से हृदय में एक प्रकार की शान्ति होती है। इसलिये निमाई की भी इच्छा तीर्थ-भ्रमण करने की हुई।
बंगाल में सकामकर्मों की प्रधानता है, वहाँ के बहुत ही कम मनुष्य निष्कामकर्म का महत्त्व जानते हैं। अधिकांश लोग किसी-न-किसी कामना से ही सम्पूर्ण धार्मिक कार्यों को करते हैं। सकामकर्मों में पितृश्राद्ध को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्मृतियों में तो पितृकर्मों से भी देवकर्मों की अधिक महत्ता दी गयी है। गृहस्थियों के लिये पितृकर्म ही मुख्य बताये गये हैं। पितृकर्मों में गयाधाम में जाकर पितरों के श्राद्ध करने का बहुत भारी माहात्म्य वर्णन किया गया है, इसलिये प्रतिवर्ष बंगाल से लाखों मनुष्य गया जी में पितृश्राद्ध करने आते हैं। दूसरे प्रान्तों से भी बहुत बड़ी संख्या में यात्री गया जी पितृश्राद्ध करने आते हैं, किन्तु बंगाल में इसका प्रचार अन्य प्रान्तों की अपेक्षा विशेष है। अबकी बार अन्य लोगों के साथ निमाई पण्डित ने भी गया में जाकर अपने पिता का श्राद्ध कर आने का विचार किया। किन्तु इनके विचार में अन्य लोगों की भाँति सकाम भावना नहीं थी, ये तो अपने अभाव को दूर करने और धार्मिक लोगों के भावों का आदर करने के निमित्त ही गया जी जाना चाहते थे।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(28)
श्रीगयाधाम की यात्रा
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।[1]
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, अन्य साधारण लोग उसी भाँति उसका अनुकरण करते हैं, जिस बात को वे प्रमाण मानते हैं उसे ही दूसरे लोग भी प्रामाणिक समझते हैं। गीता 3/21
आश्विन शुक्ला दशमी का दिवस है। आज के ही दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने लंका पर विजय प्राप्त करने के लिये चढ़ाई की थी। घर-घर आनन्द मनाया जा रहा है। आज के ही दिन वर्षाकाल की परिसमाप्ति समझी जाती है। व्यापारी आज के ही दिन वाणिज्य के निमित्त विदेशों की यात्रा करते हैं। नृपतिगण आज के ही दिन दूसरे देशों को दिग्विजय करने के निमित्त अपनी-अपनी सेनाओं को सजाकर राज्य-सीमा से बाहर होते हैं। चार महीने एक ही स्थान पर रहने वाले परिव्राजक आज के ही दिन फिर से भ्रमण करना आरम्भ कर देते हैं। तीर्थयात्रा करने वाले भी आज के ही दिन यात्रा के लिये प्रस्थान करते हैं। अब के नवद्वीप से भी बहुत-से यात्री गयाधाम की यात्रा करने जा रहे थे। गौरांग के मौसा पं. चन्द्रशेखर भी गया को जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी इच्छा निमाई को जतायी। सुनते ही इन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। माता की आज्ञा लेकर इन्होंने भी अपने कुछ स्नेही तथा छात्रों के साथ गया जी की यात्रा का निश्चय किया सब सामान जुटाकर अन्य लोगों को साथ लेकर ये गयाधाम के लिये चल पड़े।
इस प्रकार ये अपने सभी साथियों के साथ आनन्द मनाते ओर प्रेम में श्रीकृष्ण-कीर्तन करते हुए मन्दार नामक स्थान में पहुँचे। इन स्थान में पहुँचकर इन्हें बड़े जोरों से ज्वर आ गया। इनके साथी इनकी ऐसी दशा देखकर बहुत अधिक चिन्तित हुए और भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु इन्हें किसी प्रकार भी लाभ नहीं हुआ। अन्त में इन्होंने अपनी ओषधि अपने-आप ही बतायी। इन्होंने कहा- ‘मेरी व्याधि इन प्राकृतिक ओषधियों से न जायगी।
यह रोग तो असाध्य है, इसकी एकमात्र ओषधि है भगवत्कृपा! भगवान की प्रसन्नता का सर्वश्रेष्ठ साधन है ब्राह्मणों की अर्चा-पूजा। श्रीमद्भागवत में भगवान ने अग्नि और ब्राह्मण अपने दो ही मुख बताये हैं, उनमें ब्राह्मण को ही सर्वोत्तम सुख बताया है। वे अपने श्रीमुख से ही सनकादि महर्षियों की स्तुति करते हुए कहते हैं-
नाहं तथाग्नि यजमानहविर्विताने श्च्योतद्घृतप्लुतमदन् हुतभुड्मुखेन।
यद् ब्रह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः।।
अर्थात भगवान कहते हैं ‘मेरे अग्नि और ब्राह्मण ये दो मुख हैं, इनमें ब्राह्मण ही मेरा श्रेष्ठ मुख है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्मों को मेरे ही अर्पण कर दिया है और जो सदा सन्तुष्ट ही रहते हैं, ऐसा ब्राह्मण जो टपकते हुए घृत से व्याप्त सुस्वादु अन्न के व्यंजनों को खाता है, उसके प्रत्येक ग्रास के साथ मैं ही उस अन्न के रस का आस्वादन करता हूँ। उस ब्राह्मण की तृप्ति से जितना मैं तुष्ट होता हूँ, उतना यज्ञ में अग्निद्वारा, यजमान के अर्पण किये हुए कवि आदि से नहीं होता।’ ‘जिन ब्राह्मणों की ऐसी महिमा साक्षात भगवान ने अपने श्रीमुख से वर्णन की है, उन्हीं का पादोदक पान करने से मेरा यह रोग शमन हो सकेगा।’
यह सुनकर एक सरल- से विद्यार्थी ने प्रश्न किया- ‘गुरुजी! जो ब्राह्मण नहीं हैं केवल ब्रह्मबन्धु हैं[1] (अर्थात केवल नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, बस, जिन्होंने ब्राह्मण-वंश में जन्म ही भर ग्रहण किया है) उनका तो इतना सत्कार नहीं करना चाहिये। वे तो केवल काष्ठ की हस्ती के समान नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, जैसे काष्ठ के हाथी से हाथीपने का कोई भी काम नहीं चलने का, उसी प्रकार जो अपने धर्म-कर्म से हीन है, जिसने विद्या प्राप्त नहीं की, उस नाममात्र के ब्राह्मण का हम आदर क्यों करें?’
निमाई पण्डित ने थोड़ी देर सोचने के अनन्तर कहा- ‘तुम्हारा कथन एक प्रकार से ठीक ही है, जो अपने धर्म-कर्म से रहित है, वह तो दूध न देने वाली वन्ध्या गौ के समान है, उससे संसारी स्वार्थ कोई सध नहीं सकता। फिर भी जो सभी कामों को सकाम भाव से नहीं करते हैं, जो श्रद्धा के साथ शास्त्रों की आज्ञानुसार अपने को ही सुधारने का सदा प्रयत्न करते रहते हैं, वे दूसरों के दोषों के प्रति उदासीन रहते हैं। हम दोषदृष्टि से देखना आरम्भ करेंगे तब तो संसार में एक भी मनुष्य दोष से रहित दृष्टिगोचर नहीं होगा। संसार ही दोष-गुण के सम्मिश्रण से बना है! इसलिये अपनी बुद्धि को संकुचित बनाकर गौ की सेवा करने में यह बुद्धि रखना ठीक नहीं कि जो गौ अधिक दूध देगी हम उसी की सेवा करेंगे। जो दूध नहीं देती, उससे हमें क्या मतलब? ऐसी बुद्धि रखने से तो विचारों में संकुचितता आ जायगी। तुम तो शास्त्र की आज्ञा समझकर गौमात्र में श्रद्धा रखो। यह तो स्वाभाविक ही होगा कि जो गौ सुशील, सुन्दर तथा दुधारी होगी, उसकी सभी लोग इच्छा-अनिच्छापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करेंगे और अश्रद्धालु पुरुषों को भी सुमिष्ट दूध के लालच से प्रभावान्वित होकर ऐसी गौ की सेवा करते हुए देखा गया है, किन्तु यह सर्वश्रेष्ठ पक्ष नहीं है।
सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि मन में किसी भी प्रकार का पक्षपात न करके केवल शास्त्राज्ञा समझकर और अपना कर्तव्य मानकर गो-ब्राह्मणमात्र की सेवा करें। किन्तु ऐसे श्रद्धालु संसार में बहुत ही थोडे़ होते हैं। भगवान ने स्वयं क्रुद्ध हुए भृगु को अपनी छाती में जोर से लात मारते देखकर बड़ी नम्रता से दुःख प्रकट करते हुए कहा था- अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने। अर्थात हे ब्राह्मणदेव! आपके कोमल चरणारविन्दों को मेरी इस वज्र-सी छाती में लगने पर बड़ा कष्ट हुआ होगा।
ये बहुत ऊँचे साधक के भाव हैं, जो संसारी मान-प्रतिष्ठा तथा धन और विषयभोगों की इच्छा को सर्वथा त्याग कर एकमात्र भगवत-कृपा को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझकर सभी कार्यों को करते हैं, उन्हीं के लिये भगवान अपने श्रीमुख से फिर स्वयं उपदेश करते हैं-
ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्त-स्तुष्यद्धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः।
वाण्यानुरागकलयात्मजवद्गृणन्तः सम्बोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः।।
‘जो पुरुष वासुदेव-बुद्धि रखकर कठोर बोलने वाले ब्राह्मणों की भी प्रसन्न अन्तःकरण से कमल के समान प्रफुल्लित मुख द्वारा अपनी अमृतमयी वाणी से प्रसन्नचित्त होकर स्तुति करते हैं और पिता के क्रुद्ध होने पर जिस प्रकार पुत्रादि क्रुद्ध न होकर उनका सत्कार ही करते हैं, उसी प्रकार उन्हें प्रेमपूर्वक बुलाते हैं, तो समझ लो ऐसे पुरुषों ने मुझे अपने वश में ही कर लिया है।’ क्रुद्ध होने वाले किसी भी प्राणी पर जो क्रोध नहीं करता वही सच्चा साधक और परमार्थी है। प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति ही जिसका एकमात्र लक्ष्य है, उसके हृदय में दूसरों के प्रति असम्मान के भाव आ ही नहीं सकते। इसलिये तुम लोग शीघ्र जाकर इस ग्राम के किसी ब्राह्मण का पादोदक लाकर मेरे मुख में डाल दो।’
इनकी आज्ञा पाकर दो-तीन विद्यार्थी गये और एक परम शुद्ध वैष्णव ब्राह्मण के चरणों को धोकर उसका चरणोदक ले आये। यह तो इनकी लोगों को ब्राह्मणों का महत्त्व प्रदर्शित करने की लीला थी। चरणोदक का पान करते ही ये झट से अच्छे हो गये और अपने सभी साथियों के साथ आगे बढ़ने लगे। पुनपुना-तीर्थ में पहुँचकर इन सब लोगों ने पुनपुन नाम की नदी में स्नान किया और सभी ने अपने-अपने पितरों का श्राद्धादि कराया। इसके अनन्तर सभी श्रीगयाधाम में पहुँच गये।
ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव-पितृ-श्राद्धादि करके निमाई पण्डित अपने साथियों के सहित चक्रवेड़ा के भीतर विष्णु-पाद-पद्मों के दर्शनों के निमित्त गये। ब्राह्मणों ने पाद-पद्मों पर माला-पुष्प चढ़ाने को कहा। ये अपने विद्यार्थियों के द्वारा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, माला आदि सभी पूजन की बहुत-सी सामग्री साथ लिवाते गये थे।
गयाधाम के तीर्थ-पण्डा जोरों से पाद-पद्मों का प्रभाव वर्णन कर रहे थे। वे उच्च स्वर से कह रहे थे- ‘इन्हीं पाद-पद्मों के धोवन से जगत-पावनी मुनि-मन-हारिणी भगवती भागीरथी की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं चरणों का लक्ष्मी जी बड़ी श्रद्धा के साथ निरन्तर सेवन करती रहती हैं। इन्हीं चरणों का ध्यान योगीजन अपने हृदय-कमल में निरन्तर करते रहते हैं। इन्हीं चरणों को प्रभु ने गयासुर के मस्तक पर रखकर उसे सद्गति प्रदान की थी।’
असंख्य लोगों की भीड़ थी, हजारों आदमी पाद-पद्मों के दर्शन कर रहे थे और बीच-बीच में जय-घोष करते जाते थे। पण्डा लोग उनसे भेंट चढ़ाने का आग्रह कर रहे थे। बार-बार पाद-पद्मों का पुण्य-माहात्म्य सुनाया जा रहा था। पाद-पद्मों का माहात्म्य सुनते ही निमाई पण्डित आत्मविस्मृत हो गये। उन्हें शरीर का होश नहीं रहा। शरीर थर-थर काँपने लगा, युगल अरुण ओष्ठ कोमल पल्लव की भाँति हिलने लगे। आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। उनके चेहरे से भारी तेज निकल रहा था। वे एकटक पाद-पद्मों की ओर निहार रहे थे। वे कहाँ खड़े हैं, उनके पास कौन है, किसने उन्हें स्पर्श किया, इन सभी बातों का उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे संज्ञाशून्य-से होकर काँप रहे हैं, उनका शरीर उनके वश में नहीं है, वे मूर्च्छित होकर गिरने वाले ही थे कि सहसा एक तेजस्वी संन्यासी का सहारा लगने से वे गिरने से बच गये। उनके साथियों ने उन्हें पकड़ा और भीड़ से हटाकर जल्दी से बाहर ले गये।
बाहर पहुँचकर उन्हें कुछ होश आया और वे निद्रा से उठे मनुष्य की भाँति अपने चारों ओर आँखें उठा-उठाकर देखने लगे। सहसा उनकी दृष्टि एक लम्बे-से तेजस्वी संन्यासी पर पड़ी। वे उन्हें देखकर एक साथ चौंक उठे, उनके आनन्द का वारापार नहीं रहा। इन्होंने दौड़कर संन्यासी जी के चरण पकड़ लिये। अपनी आँखों से अश्रुविमोचन करते हुए संन्यासी ने इन्हें उठाकर गले से लगा लिया। इनके स्पर्शमात्र से संन्यासी महाशय बेहोश हो गये। दोनों ही आत्मविस्मृत थे। दोनों को ही शरीर का होश नहीं था, दोनों ही प्रेम में विभोर होकर अश्रुविमोचन कर रहे थे। यात्री इन दोनों के ऐसे अलौकिक प्रेम को देखकर आनन्द-सागर में गोते खाने लगे। बहुत-से लोग रास्ता चलते-चलते खड़े हो गये। चारों ओर से लोगों की भीड़ लग गयी। कुछ काल में संन्यासी को कुछ-कुछ चेतना हुई। उन्होंने बड़े ही प्रेम से इनका हाथ पकड़कर एक ओर बिठाया और अत्यन्त प्रेमपूर्ण वाणी से वे कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! आज मेरा भाग्योदय हुआ जो सहसा मुझे तुम्हारे दर्शन हो गये।
नवद्वीप में ही मेरा हृदय तुम्हारी ओर स्वाभाविक ही खिंचा-सा जाता था। मुझसे लोग कहते- ‘निमाई पण्डित कोरे पोथी के ही पण्डित हैं, बड़े चंचल हैं, देवता तथा वैष्णवों की खिल्लियाँ उड़ाते हैं। आप उनहें अपना ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ सुनाकर क्या लाभ उठावेंगे?’ कोई-कोई तो यहाँ तक कहता- ‘अजी, ये तो पूरे नास्तिक हैं। वैष्णवों को छेड़ने में ही इन्हें मजा आता है।’ मैं उन सबकी बातें सुनता और चुप हो जाता। मेरा अन्तःकरण इन बातों को कभी स्वीकार ही नहीं करता था। मैं बार-बार यही सोचता था- ‘निमाई पण्डित- जैसे सरस, सरल, सहृदय और भावुक पुरुष, भक्तिहीन कभी हो नहीं सकते। इनके मुख का तेज ही इनकी भावी शक्ति का परिचय दे रहा है। आज आपके दर्शन के समय के भाव को देखकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। मैं कृतकृत्य हो गया।
भगवत-दर्शन से जो आनन्द मिलता है, उसी आनन्द का मैं अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने आनन्द को प्रकट करने में असमर्थ हूँ।’ इतना कहते-कहते संन्यासी महाशय का गला भर आया। आगे वे कुछ और भी कहना चाहते थे, किन्तु कह नहीं सके। उनके नेत्रों में से अश्रुधारा अब भी पूर्ववत बह रही थी।
संन्यासी महाराज की बातें सुनते-सुनते इन्हें कुछ चेतना हो गयी थी। इसलिये रूँधे हुए कण्ठ से कुछ अस्पष्ट स्वर में इन्होंने कहा- ‘प्रभो! आज मैं कृतार्थ हुआ। मेरी गया-यात्रा सफल हुई। मेरी असंख्यों पीढि़यों का उद्धार हो गया, जो यहाँ आने पर आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीर्थ में श्राद्ध करने पर तो उन्हीं पितरों की मुक्ति होती है, जिनके निमित्त श्राद्ध-तर्पणादि कर्म किये जाते हैं, किन्तु आप-जैसे परम भागवत वैष्णवों के दर्शन से तो करोड़ों पीढ़ियों के पितर स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं। सब लोगों को आपके दर्शन दुर्लभ हैं। जिनका भाग्योदय होता है, उन्हीं को आपके दर्शन होते हैं।’ यह कहते-कहते इन्होंने फिर से संन्यासी महाशय के चरण पकड़ लिये।
संन्यासी जी ने हठपूर्वक अपने चरण छुड़ाये और इन्हें प्रेम वाक्यों से आश्वासन दिया। पाठक समझ ही गये होंगे ये संन्यासी महाशय कौन हैं। ये वे ही भक्ति-बीज के अंकुरित करने वाले श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी जी के सर्वप्रधान प्रिय शिष्य श्री ईश्वरपुरी हैं, जिन्हें अन्तिम समय में गुरुदेव अपना सम्पूर्ण तेज प्रदान करके इस संसार से तिरोहित हो गये थे। नवद्वीप के प्रथम मिलन में ही ये निमाई पण्डित के अलौकिक तेज और अद्वितीय रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह गये थे। इन्हें इस प्रकार देखते देखकर निमाई पण्डित ने हँसकर कहा था- ‘आज हमारे घर ही भिक्षा कीजियेगा, तभी हमें दिनभर भलीभाँति देखते रहने का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा।’
उनकी प्रार्थना पर ये उनके घर भिक्षा करने गये थे और कुछ काल तक अपने स्वसम्पादित ग्रन्थ ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ को भी उन्हें सुनाते रहे। तभी से पुरी महाशय के हृदय-पटल पर इनकी प्रेममयी मनोहर मूर्ति खिंच गयी थी। आज सहसा भेंट हो जाने पर दोनों ही आनन्द में डूब गये और आनन्द के उद्वेग में ही उपर्युक्त बातें हुई थीं। पुरी महाशय की आज्ञा लेकर निमाई पण्डित अपने स्थान के लिये विदा हुए। स्थान पर पहुँचकर इन्होंने साथियों को संग लेकर गया के सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों के दर्शन किये और वहाँ जाकर यथाविधि शास्त्ररीत्यनुसार श्राद्ध और पिण्डादि पितृ-कर्म किये।
अन्तः सलिता भगवती फल्गुनदी में जाकर इन्होंने पितरों के लिये बालुका के पिण्ड दिये। फल्गुका प्रवाह गुप्त है। उसका जल नीचे-ही-नीचे बहता है। ऊपर से बालू ढकी रहती है। बालू को हटाकर जल निकाला जाता है और यात्री उससे स्नान-सन्ध्यादि कृत्य करते हैं। प्रेत-गया, राम-गया, युधिष्ठिर-गया, भीम-गया, शिव-गया आदि सोलहों गया में निमाई पण्डित ने अपने साथियों के साथ जा-जाकर पितरों के पिण्ड और श्राद्धादि कर्म किये, सब स्थानों में दर्शन तथा श्राद्ध करके ये अपने ठहरने के स्थान पर लौट आये।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(29)
प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ा
श्रृण्वन्सुभद्राणि रथांगपाणे- र्जन्मानि कर्माणि च यानिलोके।
गीतानि नामानि तदर्थकानि गायन्विलज्जो विचरेदसंगः।।[1]
रथांगपाणिभगवान के ‘चक्रपाणि’ ‘गोपिजनवल्लभ’ ‘राधारमण’ आदि सुन्दर और सुमनोहर नामों का तथा उसके अर्थों का गान और उनकी अलौकिक दिव्य-दिव्य लीलाओं का संकीर्तन करता हुआ श्रेष्ठ भक्त निर्लज्ज और निरीह होकर निःसंगभाव से पृथ्वी पर विचरण करे। श्रीमद्भा. 11/2/39
संसार में उन्हीं मनुष्यों का जीवन धारण करना सार्थक कहा जा सकता है, जिनके हृदय-पटल पर हर समय मुरली मनोहर मुकुन्द की मंजुल मूर्ति नृत्य करती रहती हो। जिनके कर्ण-रन्ध्रों में प्रतिक्षण मनोहर मुरली की मधुर तान सुनायी पड़ती रहती हो। जिनके चक्षु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का दर्शन ही न करना चाहते हों, जिनका मनमधुप सदा भक्त-भयहारी भगवान के चरण-कमलों का मधुरातिमधुर मकरन्द-पान करता रहता हो, ऐसे शुभ-दर्शन भक्त स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, वे सम्पूर्ण संसार को भी अपनी पद-रज से पावन बना देते हैं। उनकी वाणी में उन्माद होता है, दृष्टि में जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है, उनके सभी कार्य अलौकिक होते हैं, उनके सम्पूर्ण कार्य लोकबाह्य और संसार के कल्याण करने वाले ही होते हैं।
निमाई पण्डित की हृदय-कन्दरा में से जो त्रैलोक्यपावन प्रेम-स्त्रोत उमड़ने वाला था, जिसका सूत्रपात चिरकाल से हो रहा था, अद्वैताचार्य आदि भक्तगण जिसकी लालसा लगाये वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, उस स्त्रोत का पृथ्वी पर परिस्फुट होने का सुहावना समय अब सन्निकट आ पहुँचा। जगत-विख्यात गयाधाम को ही उसके प्रकट करने का अखण्ड यश प्राप्त हो सका। यही पावन पृथ्वी इसका कारण बन सकी। अहा ‘वसुन्धरा पुण्यवती च तेन’। सचमुच वह वसुन्धरा बड़भागिनी है, जिसका संसर्ग किसी महापुरुष की लोकविख्यात घटना के साथ हो सके। वही संसार में पावन तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। निमाई पण्डित अपने निवास स्थान पर अन्य साथियों के साथ भोजन बना रहे थे। दाल-साग बनकर तैयार हो चुके थे। चूल्हे में से थोड़ी अग्नि निकालकर दाल को उस पर रख दिया था। साग दूसरी ओर चौके में ही रखा था। चूल्हे पर भात बन रहा था। निमाई उसे बार-बार देखते। चावल तैयार तो हो चुके थे, किन्तु उनमें थोड़ा-सा जल और शेष था, उसे जलाने के लिये और भात केा शुष्क बनाने के लिये हमारे पण्डित ने उसे ढक दिया था। थोड़ी देर बाद वे कटोरी को भात पर से उतार ही रहे थे कि इतने में ही उन्हें दूर से पुरी महाशय अपनी ओर आते हुए दिखायी दिये। कटोरी को ज्यों-की-त्यों ही पृथ्वी पर पटककर ये उनकी चरण-वन्दना करने के लिये दौड़े। पुरी ने प्रेमपूर्वक इनका आलिंगन किया और वे हँसते हुए बोले- ‘अपने स्थान से किसी शुभ मुहूर्त में ही चले थे, जो ठीक तैयारी के समय पर आ पहुँचे।’
नम्रता के साथ निमाई पण्डित ने उत्तर दिया- ‘जिस समय भाग्योदय होता है और पुण्य-कर्मों के संस्कार जागृत होते हैं, उस समय आप-जैसे महानुभावों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। भोजन बिलकुल तैयार है, हाथ-पैर धोइये ओर भिक्षा करने की कृपा कीजिये।’
हँसते हुए पुरी महाशय बोले- ‘यह खूब कही, अपने लिये बनाये हुए अन्न को हमें ही खिला दोगे, तब तुम क्या खाओगे?’ नम्रता के साथ नीची निगाह करके इन्होंने उत्तर दिया- ‘अन्न तो आप ही का है, मैं तो केवल रन्धन करने वाला पाचकमात्र हूँ, आज्ञा होगी तो और बना दूँगा।’ पुरी ने देखा ये भिक्षा बिना कराये मानेंगे नहीं। इसलिये बोले- ‘अच्छा, फिर से बनाने की क्या आवश्यकता है, जो बना है उसी में से आधा-आधा बाँटकर खा लेंगे। क्यों मंजूर है न? किन्तु हम ठहरे संन्यासी और तुम ठहरे गृहस्थी। हमारी भिक्षा होगी और तुम्हारा होगा भोजन। इस प्रकार कैसे काम चलेगा? तुम भी थोड़ी देर के लिये भिक्षा ही कर लेना।’
कुछ हँसते हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘अच्छा, जैसी आज्ञा होगी, वही होगा। आप पहले हाथ-पैर तो धावें।’ यह कह इन्होंने अपने हाथों से पुरी जी के पैर धोये और उन्हें एक सुन्दर आसन पर बिठाया। पुरी महाशय बैठकर भोजन करने लगे। जब निमाई-जैसे प्रेमावतार परोसने वाले हों, तब भला फिर किसी तृप्ति हो सकती है, धीरे-धीरे इन्होंने आग्रह कर-करके सभी सामान पुरी महाशय को परोस दिया और वे भी प्रेम के वशीभूत होकर सारा खा गये। अग्नि तो जल ही रही थी, क्षणभर में ही दूसरी बार भी भोजन तैयार हो गया मानो अन्नपूर्ण ने आकर स्वयं ही भोजन तैयार कर दिया हो। भोजन तैयार होने पर इन्होंने भी भोजन किया और फिर परस्पर बातें होने लगीं।
हाथ जोड़े हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘भगवन! अब तो हमें बहुत दिन इस ब्राह्यवृत्ति के जीवन को बिताते हुए हो गये, अब हमें अपने चरणों की शरण प्रदान कीजिये। कृपा करके थोड़ी-बहुत श्रीकृष्णभक्ति हमें भी दीजिये।’
इनकी बात का उत्तर देते हुए पुरी महाशय ने कहा- ‘आप तो स्वयं ही श्रीकृष्ण-स्वरूप हैं, आपको भला भक्ति कौन प्रदान कर सकता है? आप स्वयं ही सम्पूर्णज्ञ संसार को प्रेम-प्रदान कर सकते हैं।’ दीनता के साथ इन्होंने कहा- ‘प्रभो! मेरी वंचना न कीजिये। मेरी प्रार्थना स्वीकृत कीजिये और मुझे श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान कर दीजिये।’ पुरी ने सरलता के साथ कहा- ‘आप श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान करने को ही कहते हैं, हम आपके कहने पर अपने प्राण प्रदान कर सकते हैं, किन्तु हममें इतनी योग्यता हो तब तो? हम स्वयं अधम हैं।
प्रेम का रहस्य हम स्वयं नहीं जानते फिर आप-जैसे कुलीन और विद्वान ब्राह्मण को हम मन्त्र प्रदान कैसे कर सकेंगे?’ बड़ी सरलता के साथ आँखों में आँसू भरे हुए इन्होंने उत्तर दिया- ‘आप सर्वसामर्थ्यवान हैं, आप स्वयं ईश्वर हैं। आपका श्रीविग्रह ही प्रेम की सजीव मूर्ति है। आप चाहें तो संसार भर को प्रेम-पीयूष में प्लावित कर सकते हैं।’ कुछ विवशता दिखाते हुए पुरी ने कहा- ‘संसार को प्रेम-पीयूष के पुण्य-पयोधि में परिप्लावित करने की एकमात्र शक्ति तो आप में ही है, किन्तु आप अपने गुरुपद के गुरुतर गौरव का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं विवस हूँ। आपकी आज्ञा को टाल ही कौन सकता है। जैसी आपकी आज्ञा होगी, उसी प्रकार मैं करने के लिये तैयार हूँ।’ इतना कहकर पुरी महाशय मन्त्र-दीक्षा देने के लिये तैयार हो गये। उसी समय पत्रा देखकर दीक्षा की शुभ तिथि निश्चित की गयी। नियत तिथि आ गयी।
निमाई पण्डित नवीन उल्लास और आनन्द के साथ मन्त्र-दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गये। इनके सभी साथियों ने उस दिन दीक्षोत्सव के उपलक्ष्य में खूब तैयारियाँ की थीं। नियत समय पर पुरी महाशय आ गये। उनकी पद-धूलि इन्होंने मस्तक पर चढ़ाई और स्वस्त्ययन के पुण्य-श्लोक पढ़कर और भगवान के मधुर-मंजुल नामों का संकीर्तन करने के अनन्तर पुरी महाशय ने इनके कान में ‘गोपीजनवल्लभाय नमः’ इस दशाक्षरमन्त्र का उपदेश कर दिया। मन्त्र के श्रवणमात्र से ही ये मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और इन्हें अपने शरीर का बिलकुल ही होश नहीं रहा। साथियों ने भाँति-भाँति के उपचार करके इन्हें सावधान किया। बहुत देर के अनन्तर इन्हें कुछ होश हुआ। तब तो इनकी विचित्र ही दशा हो गयी। कभी तो खूब जोरों के साथ हँसते, कभी रोते और कभी ‘हा कृष्ण! हा पिता!’ ऐसा कहकर जोरों से रुदन करते। कभी यह कहते हुए कि ‘मैं तो श्रीकृष्ण के पास व्रज में जाऊँगा’ व्रज की ओर भागते। इनके साथी इन्हें पकड़-पकड़कर लाते, किन्तु ये पागलों की भाँति उनसे अपने शरीर को छुड़ा-छुड़ाकर भागते। कभी फिर उसी भाँति जोरों से प्रलाप करने लगते। रोते-रोते कहते- ‘प्यारे! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चले गये? मेरे कृष्ण! मुझे अपने साथ ही ले चलो।’ इतना कहकर फिर जोरों से रोने लगते।
कभी रोते-रोते अपने विद्यार्थियों तथा साथियों से कहते- ‘भैया! तुम लोग अब अपने-अपने घर जाओ। अब हम लौटकर घर नहीं जायँगे, हम तो अब श्रीकृष्ण के पास वृन्दावन में ही जाकर रहेंगे। हमारी माता को हमारा हाथ जोड़कर प्रणाम कहना और कह देना तेरा निमाई तो पागल हो गया है।’ इनके सभी साथी इनकी ऐसी अलौकिक दशा देखकर चकित रह गये और इनका भाँति-भाँति से प्रबोध करने लगे, किन्तु ये किसी की मानते ही नहीं थे। इस प्रकार रुदन तथा प्रलाप में रात्रि हो गयी। सभी साथी तथा शिष्यगण सुख की नींद में सो गये, किन्तु इन्हें नींद कहाँ? सुखी संसार सुखरूपी मोह-निशा में शयन कर सकता है, किन्तु जिनके हृदय में विरह-वेदना की तीव्र ज्वाला उठ रही है, उनके नयनों में नींद कहाँ? सबके सो जाने पर ये जल्दी से उठ खड़े हुए और रात्रि में ही रुदन करते हुए व्रज की ओर दौड़े। इनके प्राण श्रीकृष्ण से मिलन के लिये छटपटा रहे थे। इन्होंने साथी तथा शिष्यों की कुछ भी परवा न की और घोर अन्धकार में अकेले ही अलक्षित स्थान की ओर चल पड़े। ये थोड़ी दूर ही चले होंगे कि इन्हें मानो अपने हृदय में एक दिव्य वाणी सुन पड़ी। इन्हें भास हुआ मानो कोई अलक्षित भाव से कह रहा है- ‘तुम्हारा व्रज में जाने का अभी समय नहीं आया है, अभी कुछ काल और धैर्य धारण करो। अभी अपने सत्संग से नवद्वीप के भक्तों को आनन्दित करके प्रेमदान करो। योग्य समय आने पर ही तुम व्रज में जाना।’ आकाशवाणी का आदेश पाकर ये लौटकर अपने स्थान पर आ गये और आकर अपने आसर पर पड़ गये।
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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(30)
नदिया में प्रत्यागमन
एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय- त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः।।[1]
नाम-संकीर्तन करने के कारण जिसका प्रभु के पाद-पद्मों में दृढ़ अनुराग उत्पन्न हो गया है, जिसका चिन्त प्रेम से द्रवीभूत हो गया है ऐसा भक्त पिशाच से पकडे़ हुए के समान अथवा पागल की भाँति कभी तो जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ता है, कभी दहाड़ मारकर रोता है, कभी रोते-रोते हू-हू करके चिल्लाने लगता है, कभी गाने लगता है और कभी संसार की कुछ भी परवा न करते हुए आनन्द उद्वेग में नृत्य करने लगता है। (ऐसे ही भक्तों के पाद-पद्मोंकी रज से यह पृथ्वी पावन बनती है)। श्रीमद्भा. 11/2/40
प्रेम में पागल हुए उन मतवालों के दर्शान जिन लोगों को स्वप्न में भी कभी हो जाते हैं, वे संसार में बड़भागी हैं, फिर ऐसे भक्तों के निरन्तर सत्संग का सौभाग्य जिन्हें प्रापत हो सका है, उनके भाग्य की तो भला सराहना कर ही कौन सकता है? इसीलिये तो महाभागवत विदुर जी ने भगवत-दासों के दासों का दास बनने में ही अपने को कृतकृत्य माना है। सचमुच भगवत-संगियों का संग बड़ा ही मधुमय, आनन्दमय और रसमय होता है। उनका क्षणभर का भी संसर्ग हमें संसार से बहुत दूर ले जाता है। उनके दर्शनमात्र से ही आनन्द उमड़ने लगता है।
निमाई पण्डित को मन्त्र-दीक्षा देकर श्रीईश्वरपुरी किधर और कहाँ चले गये, इसका अन्त तक किसी को पता नहीं चला। उन्होंने सोचा होगा, जगत-पूज्य प्रेमावतार लोक-शिक्षा के निमित्त गुरु मानकर हमें प्रणाम करेंगे, यह हमारे लिये अहसनीय होगा, इसलिये अब इस संसार में प्रकट रूप से नहीं रहना चाहिये। इसीलिये वे उसी समय अन्तर्धान हो गये। फिर जाकर कहाँ रहे, इसका ठीक-ठीक पता नहीं। इधर प्रातःकाल निमाई पण्डित उठे। लोगों ने देखा उनके शरीर का सारा कपड़ा आँसुओं से भीगा हुआ है, वे क्षणभर के लिये भी रात्रि में नहीं सोये थे। रातभर ‘हा कृष्ण! मेरे प्यारे! ओः बाप! मुझे छोड़कर किधर चले गये?’ इसी प्रकार विरहयुक्त वाक्यों के द्वारा रुदन करते रहे। इनकी ऐसी विचित्र अवस्था देखकर अब साथियों ने गया जी में अधिक ठहरना उचित नहीं समझा। इनके शिष्य इन्हें बड़ी सावधानी के साथ इनके शरीर को सँभालते हुए नवद्वीप की ओर ले चले। ये किसी अचैतन्य पदार्थ की भाँति शिष्यों के सहारे से चलने लगे। शरीर का कुछ भी होश नहीं है। कभी-कभी होश में आ जाते हैं, फिर जोरों से चिल्ला उठते हैं, ‘हा कृष्ण! किधर चले गये?
प्राणनाथ! रक्षा करो! पतितपावन! इस पापी का भी उद्धार करो।’ इस प्रकार ये श्रीकृष्ण प्रेम में बेसुध हुए साथियों के सहित कुमारहट्ट नाम के ग्राम में आये। जिनसे इन्होंने श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा ली थी, जिन्होंने इन्हें पण्डित से पागल बना दिया था, उन्हीं श्रीईश्वरपुरी जी का जन्मस्थान इसी कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। प्रभु ने उस नगरी को दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया। फिर साधारण लोगों को गुरुमहिमा का महत्त्व बताने के लिये इन्होंने उस ग्राम की धूलि अपने वस्त्र में बाँध ली और साथियों से कहा- ‘इस धूलि में कभी श्रीगुरुदेव के चरण पड़े होंगे।
बाल्यकाल में हमारे गुरुदेव का श्रीविग्रह इसमें कभी लोट-पोट हुआ होगा। इसलिये यह रज हमारे लिये अत्यन्त ही पवित्र है। इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई भी वस्तु नहीं हो सकती। कुमारहट्ट का कुत्ता भी हमारे लिये वन्दनीय है। जिस स्थान में हमारे गुरुदेव ने जन्म धारण किया है, जहाँ की पावन भूमि में उन्होंने क्रीड़ा की है, वह हमारे लिये लाखों तीर्थों से बढ़कर है।’ इस प्रकार गुरुदेव का माहात्म्य प्रदर्शन करते हुए वह आगे बढ़े और थोड़े दिनों में नवद्वीप पहुँच गये। इनके गया से लौट आने का समाचार सुनकर सभी इष्ट-मित्र, स्नेही तथा छात्र इनके दर्शन के लिये आने लगे। कोई आकर इन्हें प्रणाम करता, कोई चरण-स्पर्श करता, कोई गले लगकर मिलता। ये भी सबका यथोचित आदर करते। किसी को पुचकारते, किसी को आशीर्वाद देते, किसी के सिर पर हाथ रख देते और जो अवस्था में बड़े थे और इनके माननीय थे, उन्हें ये स्वयं प्रणाम करते। वे इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। शचीमाता तथा विष्णुप्रिया के आनन्द का तो कुछ ठिकाना ही नहीं था। वे मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थीं। उस भारी भीड़ में वे दोनों एक ओर चुपचाप बैठी थीं। सबसे मिल लेने पर इन्होंने प्रेमपूर्वक सभी को विदा किया और स्वयं स्नानादि में लग गये। इनका भाव विचित्र था, शरीर की दशा एकदम परिवर्तित हो गयी थी। माता को इनकी ऐसी दशा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, किन्तु वे कुछ पूछ न सकीं।
तीसरे पहर जब ये स्वस्थ होकर बैठे तब श्रीमान पण्डित सदाशिव कविराज, मुरारी गुप्त आदि इनके अन्तरंग स्नेही इनके समीप आकर गया-यात्रा का वृत्तान्त पूछने लगे। सबकी जिज्ञासा देखकर इन्होंने कहना प्रारम्भ किया- ‘पुरी की यात्रा का क्या वर्णन करूँ? मैं तो पागल हो गया। जिस समय पादपद्मों का माहात्म्य मेरे कानों में पड़ा, जब मैंने सुना कि प्रभु के पादपद्म सभी प्रकार के प्राणियों को पावन और प्रेममय बनाने वाले हैं, पापी-से-पानी प्राणी भी इन पादपद्मों का सहारा पाकर अपार संसार-सागर से सहज में ही तर जाता है, जिन पादपद्मों के प्रक्षालित पय से त्रिलोकपावनी भगवती भागीरथी निकली हैं, उन पादपद्मों के दर्शन करने से किसे परमशान्ति न मिल सकेगी?’ इतना सुनते ही मैं बेहोश हो गया।
प्रभु अन्तिम शब्दों को ठीक-ठीक कह भी न पाये थे कि वे बीच में ही बेहोश होकर गिर पड़े। लोगों को इनकी ऐसी दशा देखकर महान आश्चर्य हुआ। सभी भौचक्के से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तीन महीने पहले उन्होंने जिस निमाई को देखा था, आज उसे इस प्रकार प्रेम में विह्वल देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। निमाई लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे थे। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे, शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। थोड़ी देर में वे ‘हा कृष्ण! हा प्राणनाथ! प्यारे! ओ मेरे प्यारे! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये?’ यह कहते-कहते बहुत जोरों के साथ रुदन करने लगे। सभी ने शान्त करने की चेष्टा की, किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। इन्होंने रूँधे हुए कण्ठ से कहा- ‘आज हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। कल हम स्वयं शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के निवासस्थान पर आकर अपनी यात्रा का समाचार सुनायँगे।’ इतना सुनकर इनके सभी साथी अपने-अपने स्थानों के लिये चले गये।
अब तो इनके इस अद्भुत नूतन भाव की नवद्वीप में स्थान-स्थान पर चर्चा होने लगी। हँसते-हँसते श्रीमान पण्डित ने श्रीवास आदि भक्तों से कहा- ‘आज हम आप लोगों को बड़ी ही प्रसन्नता की बात सुनाना चाहते हैं, आप लोग सभी सुनकर परम आश्चर्य करेंगे। गया में जाकर निमाई पण्डित की तो काया पलट ही हो गयी। वे श्रीकृष्ण-प्रेम में विह्वल होकर कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी हँसते हैं और कभी-कभी जोरों से नृत्य करने लगते हैं। उनके जीवन में महान परिवर्तन हो गया है। आज तक किसी को स्वप्न में भी ऐसी आशा नहीं थी कि उनका जीवन इस प्रकार एक साथ ही इतना पलटा खा जायगा।’
परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘सचमुच ऐसी बात है? तब तो फिर वैष्णवों के भाग्य ही खुल गये। वैष्णवों का एक प्रधान आश्रय हो गया। निमाई पण्डित के वैष्णव हो जाने पर भक्ति फिर से सनाथ हो गयी। आप हँसी तो नहीं कर रहे हैं? क्या यथार्थ में ऐसी बात है?’
जोर देकर श्रीमान पण्डित ने कहा- ‘मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, हँसी का क्या काम? आप स्वयं जाकर देख आइये, वे तो बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन कर रहे हैं। कल सदाशिव, मुरारी आदि सभी लोगों को शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर बुलाया है, वहाँ अपनी यात्रा का समस्त वृत्तान्त सुनावेंगे।’ इस बात को सुनकर श्रीवास आदि सभी भक्तों को परम सन्तोष हुआ। किन्तु गदाधर पण्डित को अब भी कुछ सन्देह ही बना रहा। उन्होंने निश्चय किया कि ब्रह्मचारी के घर में छिपकर सब बातें सुनूँगा, देखें उन्हें यथार्थ में श्रीकृष्ण-प्रेम उत्पन्न हुआ है या नहीं। यह सोचकर वे दूसरे दिन नियत समय के पूर्व ही शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के घर में जा छिपे।
नियत समय पर सदाशिव पण्डित, मुरारी गुप्ता, नीलाम्बर चक्रवर्ती तथा श्रीमान पण्डित आदि सभी मुख्य-मुख्य गण्यमान्य भद्रपुरुष प्रभु की यात्रा का समाचार सुनने शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर गंगातीर आ पहुँचे। थोड़ी देर में प्रभु भी आ पहुँचे। आते ही इन्होंने वही राग अलापना आरम्भ कर दिया। कहने लगे- ‘भैया! मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरा प्यारा कृष्ण कहाँ चला गया? हाय रे! मेरा दुर्भाग्य! मेरा श्रीकृष्ण मुझसे बिछुड़ गया! मुझे बिलखता ही छोड़ गया।’ इतना कहते-कहते ये मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इनकी ऐसी दशा देखकर भीतर घर में छिपे हुए गदाधर भी प्रेम में विह्वल होकर मूर्छा आने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े और जोरों से रुदन करने लगे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु की मूर्छा भंग हुई वे कुछ काल के लिये प्रकृतिस्थ हुए, किन्तु फिर भारी वेदना उठने के कारण जोरों से चीत्कार मारकर रुदन करने लगे। इनके रुदन को देखकर वहाँ जितने भी मनुष्य बैठे थे, सभी फूट-फूटकर रोने लगे। सबके रुदन से आकाश गूँजने लगा। क्रन्दन की ध्वनि से आकाशमण्डल भर गया। बहुत-से दर्शनार्थी आ-आकर खड़े हो गये। उनकी आँखों से भी अश्रु बहने लगे। इस प्रकार शुक्लाम्बर का घर रुदन के कारण कोलाहलपूर्ण हो गया।
कुछ काल के अनन्तर फिर प्रभु सुस्थिर हुए। उन्हें कुछ-कुछ बाह्यज्ञान होने लगा। स्थिर होने पर प्रभु ने शुक्लाम्बर जी से पूछा- ‘ब्रह्मचारी जी! घर के भीतर कौन है?’
प्रेम के साथ ब्रह्मचारी जी ने कहा- ‘आपका गदाधर है।’ ‘गदाधर’ इतना सुनते ही वे फिर फूट-फूटकर रोने लगे। रोते-रोते कहने लगे- ‘गदाधर! भैया! तुम ही धन्य हो। मनुष्य जन्म का यथार्थ फल तो तुमने ही प्राप्त किया है, हम तो वैसे ही रह गये। हमारी तो आयु वैसे ही बरबाद हुई।’ इतना कहकर फिर वही ‘हा कृष्ण! हा अशरणशरण! हा पतितपावन! कहाँ चले गये।’ फिर अधीर होकर लोगों के पैरों पर अपना सिर रख-रखकर कहने लगे- ‘भैया! मुझ दुखिया के ऊपर दया करो! मेरे दुःख को दूर करो। मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो।
मेरे प्राण उन्हीं से मिलने के लिये तड़प रहे हैं।’ प्रभु के इन दीनता भरे वाक्यों को सुनकर सभी का हृदय फटने लगा। सभी प्रेमावेश में आकर रुदन करने लगे। सभी अपने आपे को भूल गये। इस प्रकार रुदन और विलाप करते हुए शाम हो गयी और सभी अपने-अपने घर लौट आये।
दूसरे दिन स्वस्थ होकर महाप्रभु अपने विद्या-गुरु श्रीगंगादास पण्डित के घर गये और उन्हें प्रणाम करके बैठ गये।” गंगादास जी ने इनका आलिंगन किया और यात्रा का सभी वृत्तान्त पूछा। वे कहने लगे- ‘तुमने तो तीन-चार महीने लगा दिये। तुम्हारे सभी विद्यार्थी अत्यन्त दुःखी थे, उन्हें तुम्हारे पाठ के अतिरिक्त किसी पण्डित का पाठ अच्छा ही नहीं लगता है। इसीलिये वे लोग तुम्हारी बहुत प्रतीक्षा कर रहे थे। अच्छा हुआ अब तुम आ गये। अब तो पढ़ाओगे न?’
महाप्रभु ने कहा- ‘हाँ, प्रयत्न करूँगा, श्रीकृष्ण कृपा करेंगे तो सब कुछ होगा। सब उन्हीं के ऊपर निर्भर है।’ इस प्रकार उन्हें आश्वासन देकर फिर आप मुकुन्द संजय के चण्डीमण्डप में, जहाँ आपकी पाठशाला थी, वहाँ आये। संजय महाशय बड़े ही आनन्द के साथ प्रभु से मिले। उनके पुत्र पुरुषोत्तम संजय ने प्रभु के पादपद्मों में श्रद्धाभक्ति के साथ प्रणाम किया। प्रभु ने उसे आलिंगन किया। इस प्रकार दोनों पिता-पुत्र प्रभु के दर्शनों से परम प्रसन्न हुए।
स्त्रियों ने जब प्रभु के आगमन के समाचार सुने तो वे बड़ी ही आनन्दित हुईं और परस्पर में भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। कोई कहती- ‘अब तो निमाई पण्डित एकदम बदल आये।’ कोई कहती- ‘बड़े भाग्य से भगवत-भक्ति प्राप्त होती है। यह सौभाग्य की बात है कि निमाई-जैसे पण्डित परम भागवत वैष्णव बन गये।’ इस प्रकार सभी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरूप भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। सबसे मिल-जुलकर निमाई घर लौट आये।
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