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मंगलाचरण

|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||

मंगलाचरण

वंशीविभूषितकरान्‍नवनीरदाभात्
पीताम्‍बरादरुणबिम्‍बफलाधरोष्‍ठात्।
पूर्णेन्‍दुसुन्‍दरमुखादरविन्‍दनेत्रात्
कृष्‍णात्‍परं किमपि तत्तवमहं न जाने।।

‘जिनके कर कमलों में मनोहर मुरलि का विराजमान है और जिनके शरीर की आभा नूतन मेघ के समान श्‍याम है, जो पुनीत पीताम्‍बर को धारण किये हुए हैं, जिनका मुख शरद के पूर्ण चन्‍द्रमा के समान है, नेत्र कमल के समान कमनीय हैं तथा बिम्‍बाफल के समान लाल हैं, ऐसे श्रीकृष्‍ण को छोड़कर मैं कोई दूसरा परतत्त्व नहीं जानता। अर्थात सर्वस्‍व तो ये ही वृन्‍दावनबिहारी मुरली मनोहर हैं।’


इष्ट-प्रार्थना

कदा वृन्दारण्ये विमलयमुनातीरपुलिने
चरन्तं गोविन्दं हलधरसुदामादिसहितम्।
अये कृष्ण स्वामिन् मधुरमुरलीवादनविभो
प्रसीदेत्याक्रोशन् निमिषमिव नेष्यामि दिवसान्।।

प्यारे! तुमसे किस मुख से कहूँ, कि मुझे ऐसा जीवन प्रदान करो। चिरकाल से महात्माओं के मुख से सुनता चला आ रहा हूँ, कि तुम निष्कि‌चनों के प्रिय हो, जिन्होंने आभ्यन्तर और ब्राह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जिनके तुम ही एकमात्र आश्रय हो, जो तुमको ही अपना सर्वस्व समझते हों, उन्हीं एकनिष्ठ भक्तों के हृदय में आकर तुम विराजमान होते हो, उन्हीं के जीवन को असली जीवन बना देते हो। उन्हीं के तुम प्यारे हो और वे तुम्हें प्यारे हैं। प्यारे! इस पामर प्राणी से तुम कैसे प्यार कर सकोगे? वंचना नहीं, अत्युक्ति नहीं, नाथ! यह कैसे कहूँ कि बनावट नहीं, किन्तु तुम तो अन्तर्यामी हो, तुमसे कोई बात छिपी थोडे़ ही है, इस अधम का तो तुम्हारे प्रति तनिक भी आकर्षण नहीं।

रोज सुनता हूँ अमुक के ऊपर तुमने कृपा की, अमुक को तुमने दर्शन दिये, इन प्रसंगों को सुनकर मुझे अधीर होना चाहिये, किन्तु कृपालो! अधीर होना तो अलग रहा, मुझे तो विश्वास तक नहीं होता, कि ऐसा हुआ भी होगा या नहीं। बहुत चाहता हूँ, तुम्हारा स्मरण करूँ, मन में तुम्हें छोड़कर दूसरा विचार ही न उठे, कान तुम्हारे गुण-कीर्तनों के अतिरिक्त दूसरी सांसारिक बातें सुनें ही नहीं। जिह्वा निरन्तर तुम्हारे ही नामामृत का पान करती रहे।

नेत्रों के सम्मुख तुम्हारी वही ललित त्रिभंगीयुक्त बाँकी चितवन नृत्य करती रहे। पैरों से तुम्हारी प्रदक्षिणा करूँ। करों से तुम्हारी पूजा-अर्चा करता रहूँ और हृदय में तुम्हारी मनोहर मूर्ति को धारण किये रहूँ, किन्तु नटनागर! ऐसा एक क्षण भी तो होने नहीं पाता। मन न जाने क्या ऊल-तमूल सोचता रहता है जब कभी स्मरण आता है, तो मन को बार-बार धिक्कारता हूँ, ‘अरे नीच! न जाने तू क्या व्यर्थ की बातें सोचता रहता है! अरे, उन मनमोहन की छवि का चिन्तन कर जिसके बाद फिर कोई चिन्तनीय चीज ही शेष नहीं रह जाती, किन्तु नाथ! वह मेरी सीख को सुनता ही नहीं। न जाने कितने दिन से यह इन घटपटादिकों को सोचता आ रहा है। विषयों के चिन्तन से यह ऐसा विषयमय बन गया है, कि तुम्हारी ओर आते ही काँपने लगता है और आगे बढ़ना तो अलग रहा, चार कदम और पीछे हट जाता है। कैसे करूँ नाथ! अनेक उपाय किये, अपने करने योग्य साधन जहाँ तक कर सका सब किये, किन्तु इस पर कुछ भी असर नहीं हुआ। हो भी तो कैसे? इसकी डोरी तो तुम्हारे हाथ में है।

तुमने तो इसकी डोरी ढीली छोड़ दी है, यदि तुम्हारा जरा भी इशारा हो जाता तो फिर इसकी क्या मजाल जो इधर-से-उधर तनिक भी जा सकता। मेरे साधनों से यह वश में हो सकेगा, ऐसी मुझे आशा नहीं। तुम्हीं जब बरजो तब काम चले।

इष्ट-प्रार्थना – 2

मैं हार्यो करि जतन बहुत विधि अतिसै प्रबल अजै।
‘तुलसिदास’ बस होय तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै।।

प्यारे प्रभु! जरा बरज दो। एक क्षण को भी तुम्हारे प्रेमसागर में डूब जाय तो यह जीवन सार्थक हो जाय। यह कलेवर निहाल हो जाय। जीभ नाना प्रकार के रसों में इतनी आसक्त है, कि इसे तुम्हारे नाम में मजा ही नहीं आता। निरन्तर स्वादु-स्वादु पदार्थों की ही वान्छा करती रहती है। हठात इसे लगाता हूँ, किन्तु बेमन का काम भी कभी ठीक होता है? नाथ! अब तो बस तुम्हारा ही आश्रय है। तुम्हारे प्रति अनुराग नहीं, विषयों से वैराग्य नहीं, जीवन में यथार्थ त्याग नहीं। जीवन क्या है, पूरा जंजाल बना हुआ है।

चाहता हूँ, अनन्य होकर तुम्हारा ही चिन्तन करूँ, नहीं कर सकता। इच्छा होती है, जीवन में यथार्थ त्याग हो, नहीं होता। सोचता हूँ, संसार से उपराम होऊँ, हो नहीं सकता। परिग्रह से जितना ही दूर होने की इच्छा करता हूँ, उतना ही अधिक संग्रही बनता जाता हूँ। तुम्हारे चरणों से पृथक होने से ऐसा होना अवश्यम्भावी है। शरीर को सुखाया। तितिक्षा का ढोंग रचा। ध्यान, जप, योग, आसन सभी तरफ मन को लगाया, किन्तु तुम्हारी यथार्थता का पता नहीं चला। तुम्हारे प्रेम में पागल न बन सका। हिर-फिरकर वही संसार भाँति-भाँति का रूप रखकर सामने आ गया। तुम छिपे ही रहे। अपने ऊपर अब विश्वास नहीं रहा, यह शरीर रोगों का अड्डा बन गया है। नेत्रों की ज्योति अभी से क्षीण हो गयी, दन्त खोखले हो गये। पाचन-शक्ति कम हो गयी, वायु के प्रकोप से शरीर के सभी अवयव वेदनामय बन गये, फिर भी यथार्थ जीवन लाभ नहीं कर सका।

अब सब तरफ से हारकर बैठ गया हूँ, अब तो एक यही बात सोच ली है, जो तुम कराओगे करूँगा, जहाँ रखोगे रहूँगा और जैसा नाच नचाओगे वैसा नाचूँगा। तो भी प्यारे! इस जीवन में एक ही साध है और वह साध अन्त तक बनी ही रहेगी। एक बार सबको भूलकर तुम्हारे चरणों में पागल की भाँति लोट-पोट हो जाऊँ, यही एक हार्दिक वासना है। अहा! ये सभी सांसारिक वासनाएँ जब क्षय हो जायँगी, जब एकमात्र तुम ही याद आते रहोगे, सोते-जागते आठों पहर तुम्हारी मनोहर मुरली की मीठी-मीठी ध्वनि ही सुनायी देती रहेगी, तुम्हारी उस मन्द-मन्द मुस्कान में ही चित्त सदा गोते लगाता रहेगा और मैं सभी प्रकार से लज्जा, संकोच तथा भय को त्याग कर पागलों का-सा नृत्य करता रहूँगा, तब यह जीवन धन्य हो जायगा, यह शरीर सार्थक हो जायगा। नाथ! मुझे रोने का वरदान दो, रोता रहूँ, पागल की भाँति सदा रोऊँ, उठते-बैठते, सोते-जागते सदा इन आँखों में आँसू ही भरे रहें, रोना ही मेरे जीवन का व्यापार हो। खूब रोऊँ, हर समय रोऊँ, हर जगह रोऊँ और जोर से रोते-रोते चैतन्यदेव की भाँति चिल्ला उठूँ-

हे देव! हे दयति! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करूणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा! हा! कदानु भवितासि पदं दृशोर्मे।।

क्रमशः ………….

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गुरु-वन्दना

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि।।[1]

गुरुदेव! तुम्हारे पादपद्मों में कोटि-कोटि प्रणाम है। अन्तर्यामिन्! तुम्हारे अनन्त गुणों का बखान यदि शेषनाग अपने सहस्र मुखों से सृष्टि के अन्त तक अहर्निश करते रहें तो भी उनका अन्त नहीं होगा। तब फिर मैं क्षुद्र प्राणी तुम्हारी विमल विरदावली का बखान भला किस प्रकार कर सकता हूँ? फिर भी तुम जाने जाते हो। तुम अगम्य हो, तो भी अधिकारी तुम तक पहुँचते हैं। तुम अनिर्वचनीय हो, तो भी शिष्य-प्रशिष्य परस्पर में मिलकर तुम्हारा निर्वचन करते हैं। तुम निर्गुण-निराकार हो फिर भी शिष्यों के प्रेमवश तुम सगुण-साकार होकर प्रकट होते हो। मनीषी तुम्हारे तत्त्व को परोक्ष बतलाते हैं, तो भी तुम प्रत्यक्ष होकर शिष्यों की पूजा-अर्चा को ग्रहण करते हो। हे गुरुदेव! इस प्रकार के तुम्हारे रूप को बारम्बार नमस्कार है।

हे ज्ञानावतार! मेरी पात्रता-अपात्रता का विचार न करना। पारस लोहे की पात्रता की ओर ध्यान नहीं देता, वह तो सामने आये हुए हर प्रकार के लोहे को सुवर्ण कर देता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही लोहे को कांचन बनाना है। तुम्हारे योग्य पात्रता क्या इन पार्थिव प्राणियों में कभी आ सकती है? अपने स्वभाव का ही ध्यान रखना। तुम्हारे दयालु स्वभाव की प्रशंसा सुनकर ही मैं समिधा हाथ में लिये हुए तुम्हारे श्रीचरणों में आया हूँ। ये वन्य पुष्प हैं, अभी की लायी हुई ये कुशा हैं और ये सूखी समिधा हैं, यही मेरे पास उपहार है और सम्भवतया यही तुम्हें प्रिय भी होगा।

हे निरपेक्ष! मेरी प्रार्थना स्वीकार करो और मुझे अपने चरणों में शरण दो। तुम्हारे पादपद्मों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। हे त्रिगुणातीत! मैं तुम्हारी दया का भिखारी हूँ, हम नेत्रहीनों को एकमात्र तुम्हारा ही आश्रय है। अज्ञान-तिमिर ने हमारी ज्योति को नष्ट कर दिया है? इसे अपनी कृपारूपी सलाका से उन्मीलित कर दो। जिससे हम तुम्हारी छवि का दर्शन कर सकें। हे मेरे उपास्यदेव! तुम्हें छोड़कर संसार में मेरा और कौन ऐसा हितैषी है? तुम ही एकमात्र मेरे आधार हो।

हे अनाश्रित के आश्रय! मेरी इस वद्धांजलि को स्वीकार करो। ‘न तो मैं तैरना ही जानता हूँ, न नाव खेना ही। फिर भी घोर समुद्र में बहा चला जा रहा हूँ, किधर जा रहा हूँ, कुछ पता नहीं।’ बवण्डर सामने से आता हुआ दीख रहा है, उससे कैसे बच सकूँगा, कुछ पता नहीं। अब एकमात्र तुम्हारा ही आश्रय है। कर्णधार बनकर मेरी सहायता करोगे तभी काम चल सकेगा। तुम्हारे पधारने के अतिरिक्त निःसृति का दूसरा मार्ग ही नहीं। चारों ओर से फूटी हुई इस जीर्ण तरणी पर जब तुम्हारे श्रीचरण पड़ेंगे तो यह सजीव होकर निर्दिष्ट-पथ की ओर आप-से-आप ही चल पड़ेगी।

हे घोर संसाररूपी समुद्र के एकमात्र कर्णधार! इस शुष्कजीवन में सरसता लाने वाले गुरुदेव! हम प्रणतों की ओर दृष्टिपात कीजिये। तुम्हारी जगन्मोहन मूर्ति का ध्यान करते-करते दिन व्यतीत हो जाता है, रात्रि आ जाती है, फिर भी मैं तुम्हारी कृपा से वंचित ही बना रहता हूँ। तुम्हारे निकट रहते हुए भी ‘तुम्हारा’ नहीं बन पाता। तुम्हारी चरण-छाया के सन्निकट बना रहने पर भी शीतलता से वंचित रहता हूँ। किसे दोष दूँ, मेरा दुर्दैव ही मुझे तुम तक नहीं पहुँचने देता। बस, इस जीवन में एक ही आशा है, उसी का ध्यान करता रहता हूँ-

वह दिन कैसा होयगा, जब गुरु गहैंगे बाँह।
अपना करि बैठायँगे चरण-कमल की छाँह।।

क्रमशः …….

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भक्त-वन्दना

प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-
व्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान्।
रूक्मांगदोद्धवविभीषणफाल्गुनादीन्
पुण्यानिमान्परमभागवतान्नतोऽस्मि।।

जिन्होंने दैत्यकुल में जन्म लेकर भी अच्युत की अनन्य भाव से अर्चा-पूजा की है, जिनके सदुपदेश से दैत्य बालक भी परम भागवत बन गये, जिन्होंने अपने प्रतापी पिता के प्रभाव की परवा न करके अपनी प्रतिज्ञा में परिवर्तन नहीं किया, जिन्हें हलाहल विष पान कराया गया, पर्वत के शिखर से गिराया गया, जल में डुबाया गया, अग्नि में जलाया गया तो भी जो अपने प्रण से विचलित नहीं हुए, जिनके कारण साक्षात भगवान को नृसिंहरूप धारण करना पड़ा, उन भक्ताग्रगण्य प्रह्लाद जी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है।

जो संसार के कल्याण की इच्छा से सदा नाना लोकों में भ्रमण करते रहते हैं, जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, जिनकी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिहत गति है, जो स्मरण करते ही सर्वत्र पहुँच जाते हैं, जिन्हें इधर-की-उधर मिलाने में आनन्द आता है, जो संगीत में पारंगत हैं और भक्ति के आदि आचार्य हैं, जो वीणा लेकर उच्च स्वर से अहर्निश ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ! नारायण वासुदेव’ इन नामों का संकीर्तन करते रहते हैं ऐसे भक्तशिरोमणि देवर्षि नारद जी के चरणों में मेरा केटि-कोटि प्रणाम है। जो मूर्तिमान तप हैं, जो पुराणों के मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने अनेक प्रकार के यज्ञों में विष्णु की आराधना की है, उन व्यासदेव जी के पिता परम भागवत महर्षि पराशर जी के पादपद्मों में अनन्त प्रणाम है। परम भागवत, परम वैष्णव पुण्डरीक ऋषि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया है, जिन्होंने कलि के जीवों के उद्धार के निमित्त पंचम वेद महाभारत और अठारह पुराणों की रचना की है, जो ज्ञानावतार हैं, उन महर्षि वेदव्यास देव को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।

जिनकी वैष्णवता के प्रभाव को सूचित करने के निमित्त भगवान ने शरण में आये हुए महर्षि दुर्वासा की स्वयं रक्षा न करके उन्हीं के पास भेजा था, जिनके परम भागवत होने की प्रशंसा से पुराणों के बहुत-से स्थल भरे पड़े हैं, उन राजर्षि अम्बरीष की चरणधूलि को मैं अपने मस्तक पर धारण करता हूँ। जो संसारी माया के प्रभाव से बचने के निमित्त बारह वर्ष तक माता के गर्भ में ही वास करते रहे, जिन्होंने मरणासन्न महाराज परीक्षित को सात दिनों में ही श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर मोक्ष का उत्तम अधिकारी बना दिया, उन अवधूतशिरोमणि महामुनि शुकदेव जी के चरणों में मैं श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने नैमिषारण्य की पुण्यभूमि में सूत के मुख से महाभारत और अठारहों पुराण श्रवण किये, जो ऋषियों के अग्रणी गिने जाते हैं, जिन्होंने हजारों वर्ष की दीक्षा लेकर भारी-भारी यज्ञ-याग किये हैं, उन सन्त-महन्त महर्षि शौनकजी की चरणवन्दना करके मैं अपने को कृतकृत्य बनाना चाहता हूँ।

जिन्होंने पिता का प्रिय करने के निमित्त आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया, जो अपनी प्रतिज्ञापालन के निमित्त अपने गुरु परशुराम जी से भी भिड़ गये, जिन्होंने पिता को प्रसन्न करके इच्छामृत्यु का अमोघ वरदान प्राप्त किया, जिनकी प्रतिज्ञा पूरी करने के निमित्त साक्षात भगवान ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी, उन गंगा के पुत्र वसु-अवतार महात्मा भीष्म पितामह के आशीर्वाद की मैं इच्छा करता हूँ। परम भागवत और परम वैष्णव दाल्भ्य ऋषि के चरणकमलों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जिन्होंने एकादशी व्रत के माहात्म्य को सम्पूर्ण पृथ्वी पर स्थापित किया, जिनके धर्म के कारण स्वयं धर्मराज भी भयभीत होकर पितामह की शरण में गये ओर उन्हें धर्मच्युत कराने के निमित्त अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त ‘मोहिनी’ नाम की एक सुन्दरी को भेजा, जिन्होंने मोहिनी के आग्रह करने पर अपने इकलौते प्यारे पुत्र का सिर देना तो मंजूर किया किन्तु एकादशी व्रत नहीं छोड़ा, उन राजर्षि रूक्मांगद के प्रति मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।

जो भगवान के परम अन्तरंग सखा गिने जाते हैं, भगवान की प्रेमपाती लेकर जो वृन्दावन की गोपिकाओं को ज्ञानोपदेश करने गये थे और वहाँ से परम वैष्णव होकर लौटे थे, जो भगवान के तिरोभाव होने पर उनकी आज्ञा से नर-नारायण के क्षेत्र में योगसमाहित हुए थे, उन परम भागवत उद्धव जी के चरणों में मेरा अधिकाधिक अनुराग हो।

जो अन्यायी भाई का पक्ष छोड़कर भगवान रामचन्द्रजी के शरणापन्न हुए और अन्त में लंकाधिपति बने, उन श्री रामचन्द्र जी के प्रियसखा अमर भक्त विभीषण को मैं नत होकर अभिवादन करता हूँ। जिनका सारथ्य महाभारत के युद्ध में स्वयं भगवान ने किया, जो इसी शरीर से स्वर्ग में वास कर आये, जिन्होंने शंकर जी से युद्ध करके उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्त किया, जिन्होंने अकेले गाण्डीव धनुष से अठारह अक्षौहिणी वाले महाभारत में विजय प्राप्त कर ली।

युद्ध से पराड्मुख होने पर जिन्हें भगवान ने स्वयं गीता का उपदेश दिया, जो भगवान के विहार, शय्या, आसन और भोजनों में सदा साथ-ही-साथ रहे, जिन्हें भगवान बड़े प्रेम से ‘हे पार्थ! हे सखा! है धनंजय!’ ऐसे सुन्दर सम्बोधनों से सम्बोधित करते थे, वे नरावतार श्रीअर्जुन जी मेरे ऊपर कृपा की दृष्टि करें। बौद्धों के नास्तिकवाद को मिटाकर जिन्होंने निर्विशेष ब्रह्म का व्याख्यान किया। जिन्होंने जगत के प्रपंचों को मिथ्या बताकर एकमात्र ब्रह्म को ही साध्य बताया। अभेदवाद को सिद्ध करते हुए भी जिन्होंने समुद्र की तरंगों की भाँति अपने को प्रभु का दास बताया, उन आचार्यप्रवर भगवान शंकराचार्य के चरणों में मेरा शत-शत प्रणाम है। जिन्होंने भक्तिमार्ग को सर्वसाधारण के लिये सुलभ बना दिया, जो जीवों के कल्याण के निमित्त स्वयं नरक की यातनाएँ सहने के लिये तत्पर हो गये।

जिन्होंने गुरु के मना करने पर भी सर्वसाधारण के लिये गोपनीय मन्त्र का उपदेश किया, उन विशिष्टाद्वैत के प्रचारक भक्त-वन्दना विष्णु-भक्त भगवान रामानुजाचार्य के चरणों में मेरा प्रणाम है। जिन्होंने लुप्त हुए विष्णु सम्प्रदाय का उद्धार करके पुष्टिमार्ग की स्थापना की, जो गृहस्थ में रहते हुए भी महान विरक्त और आसक्तिरहित बने रहे, जिन्होंने वात्सल्योपासना की मधुरता को दिखाकर अपने को स्वयं गोपवंश का प्रकट किया, जिन्होंने बालक श्रीकृष्ण की अर्चा-पूजा को ही प्रधानता देते हुए सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण को ही अन्तिम ध्येय बताया, उन शुद्धाद्वैत के प्रचारक बालकृष्णोपासक भगवान वल्लभाचार्य के चरणों में मेरी प्रीति हो।

जिन्होंने श्रीराधा कृष्ण की उपासना को ही सर्वस्व सिद्ध किया, जिन्होंने नीम के पेड़ में अर्क (सूर्य) दिखाकर भूखे वैष्णव को भोजन कराया, उन द्वैताद्वैतमत प्रवर्तक, मधुर भाव के उपासक भगवान निम्बार्काचार्य के चरणों में मेरा प्रणाम है।

जिन्होंने वृन्दावनविहारी की प्रीति को ही एकमात्र साध्य माना है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रम करके स्वयं हिमालय पर जाकर वेदव्यास जी से ज्ञात प्राप्त किया और वेदान्तसूत्रों पर भाष्य रचा, उन द्वैतमत के प्रवर्तक भगवान मध्वाचार्य आनन्दतीर्थ के पादपद्मों में मेरा बार-बार प्रणाम है। जिन्होंने छूताछूत और जाति-पाँति का कुछ भी विचार न करके सर्वसाधारण को भक्ति का उपदेश किया, जिनकी कृपा से चमार, नाई, छीपी, मुसलमान सभी जगत्पूज्य बन गये, जिन्होंने वैष्णव-समाज में सीता राम की सेवा-पूजा का प्रचार किया, उन आचार्यप्रवर श्रीरामानन्द स्वामी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। इनके अतिरिक्त दूसरे देशों के अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तक ईसा, मूसा, मुहम्मद आदि जितने आचार्य हुए हैं उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है। सम्पूर्ण पृथ्वी की धूलि के कणों की गणना चाहे हो भी सके, आकाश के तारे चाहे गिने भी जा सकें, बहुत सम्भव है सम्पूर्ण जीवों के रोमों की गणना की जा सके, किन्तु भक्तों की गणना किसी भी प्रकार नहीं हो सकती।

सृष्टि के आदि से अब तक असंख्य भक्त होते आये हैं। उन सबके केवल नामों को ही गणेश जी- जैसे लेखक दिन-रात्रि निरन्तर लिखते रहें तो महाप्रलय के अन्त तक भी नहीं लिख सकते। फिर मुझ-जैसे अल्पज्ञ की तो बात ही क्या है? शिव जी, नारद जी, ब्रह्मा जी, पाण्डव, सनत्कुमार इन भक्तों से लेकर सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- इन चारों युगों में, 18 मन्वन्तरों में, असंख्यों कल्पों में जितने भक्त हुए हैं, उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है, जिन्होंने सत्ययुग में कपिलरूप से भगवान का दर्शन किया है उन भगवत-भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। जिन्होंने त्रेता में रामरूप से भगवान का दर्शन किया है उन राम-भक्तों के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ। जिन्होंने व्यासरूप से द्वापर में भगवान के दर्शन किये हैं उन भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है।

कल्किरूप से जिन्होंने कलियुग में भगवान के दर्शन किये हैं और जो इस कलि के अन्त में करेंगे उन सभी भक्तों के पदपद्मों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है। जिन्होंने वाराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, कुमार, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हंस, पृश्निगर्भ, ऋषभदेव, पृथु, नृसिंह, कूर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, रामचन्द्र, वेदव्यास, भक्त-वन्दना बलदेव, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि- इन भगवान के अवतारों का दर्शन, स्पर्श और सहवास किया है, उन-उन अवतारों के भक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। कलिकाल में पैदा हुए कबीरदास, नानकदेव, दादूदयाल, पलटूदास, चरनदास, रैदास, बुल्ला, जगजीवनदास, तुलसीदास, सूरदास, मलूकदास, रामदास, निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव, एकनाथ, तुकाराम आदि जितने भी महापुरुष भगवत-भक्त हुए हैं उन सभी के चरणों में मेरा प्रणाम है। भक्तों में कौन छोटा और कौन बड़ा, इसका निर्णय जो करता है, वह महामूर्ख है।

शालग्राम की बटिया चाहे छोटी हो या बड़ी सभी एक-सी पूज्य हैं, इसलिये ये सभी भक्त एक ही भाँति पूज्य और मान्य हैं, इनके चरणों में प्रणाम करने से ही मनुष्य कल्याण-मार्ग का पथिक बन सकता है। इनके अतिरिक्त वर्तमान समय में जो भगवान के नामों का संकीर्तन करते हैं, लिखकर प्रचार करते हैं या जो स्वयं दूसरों से कराते हैं उन सभी नामभक्तों के चरणों में मेरा प्रणाम है। जो भगवान के गुणों का श्रवण करते हैं, जो भगवन्नाम का कीर्तन करते हैं, जो हर समय भगवत-रूप का स्मरण करते हैं, जो भगवान की पाद-सेवा करते हैं, जो भगवत-विग्रहों का अर्चन करते हैं, जो देवता, द्विज, गुरु, भगवत-भक्तों और भगवत-विग्रहों को नमन करते हैं, जो भगवान के प्रति सख्यभाव रखते हैं, जिन्होंने भगवान को आत्मनिवेदन कर दिया है उन सभी भक्तों के चरणों में मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है।

जो सम्प्रदायों के अन्तर्भुक्त हैं अथवा जो सम्प्रदायों में नहीं हैं, जो ज्ञाननिष्ठ हैं, जो देशभक्त हैं, जो जनतारूपी जनार्दन की सेवा करते हुए नाना भाँति की यातनाएँ सह रहे हैं, जिन्होंने देश की सेवा में ही अपना जीवन अर्पण कर दिया है, जो किसी भी प्रकार से जनता की सेवा कर रहे हैं, उन सभी भक्तों के चरणों में मेरा बार-बार प्रणाम है। वर्तमान काल में जितने भक्त हैं, जो हो चुके हैं अथवा जो आगे होंगे उन सभी भक्तों के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ। भक्त ही भगवान के साकाररूप हैं, भगवान की शक्ति का विकास पूर्णरूप से भक्त के ही शरीर में होता है। भक्तों का शरीर पार्थिव होते हुए भी चिन्मय है। वे साक्षात भगवत्स्वरूप ही हैं। भक्तों की चरणवन्दना करने से ही सब प्रकार के विघ्न मिट जाते हैं-

भक्ति भक्त भगवन्त गुरु, चतुर्नाम वपु एक।
इनके पद वन्दन किये, मेटत विघ्न अनेक।।

क्रमशः ………….

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व्यासोपदेश

इस युग के महापुरुषों में महाप्रभु चैतन्यदेवका स्थान सर्वोच्च कहा जाता है। वे भक्ति के मूर्तिमान अवतार थे, प्रेम की सजीव मूर्ति थे। उनके जीवन में परम वैराग्य, महान त्याग, अलौकिक प्रेम, अभूतपूर्व उत्कण्ठा और भगवान के लिये विलक्षण छटपटाहट थी। उनका अवतार संसार के कल्याण के ही निमित्त हुआ था। उन महापुरुष के जीवन से अब तक असंख्या जीवों का कल्याण हुआ है और आगे भी होगा। ऐसे महापुरुष का जीवन कल्याण की इच्छा रखने वाले जीवों के लिये निर्भ्रान्त पथ-प्रदर्शन बन सकता है। चैतन्य-चरित्र अगाध है और दुर्ज्ञेय है। साधारण जीवों के समझ में न तो वह आ ही सकता है, न दुष्कृति पुरुष उसे श्रवण ही कर सकते हैं। सौभाग्य से ऐसे चरित्रों के श्रवण का सुयोग मिलता है, सुनकर उसे यथावत समझने वाले तो विरले ही पुरुष होते हैं, जिनके ऊपर उनकी कृपा होती है वे ही समझ सकते हैं। फिर उन चरित्रों का कथन करना तो बहुत ही कठिन काम है।

मुझमें न भक्ति है, न बुद्धि। शास्त्रों का ज्ञान भी यथावत नहीं। चैतन्य के दुर्ज्ञेय चरित्र को भला मैं क्या समझ सकता हूँ। किंतु जितना भी कुछ समझ सका हूँ, उसका ही जैसा बन सकेगा, कथन करूँगा। मुझे पूर्ण आशा है कि कल्याण-मार्ग के पथिकों की मेरी इस टूटी-फूटी भाषा से अपने साधन में बहुत कुछ सहायता मिल सकेगी, क्योंकि चैतन्य-चरित्र इतना मधुर है कि वह चाहे कैसी भी भाषा में लिखा जाय, उसकी माधुरी कम नहीं होने की।

चैतन्य-कालीन भारत

भ्रातः कष्टमहो महान् स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्
पार्श्वे तस्य च सापि राजपरिषत् ताश्चन्द्रबिम्बाननाः।
उद्रिक्तः स च राजपुत्र निवहस्ते वन्दिनस्ताः कथाः
सर्वं यस्य वशादगात् स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः।।[1]

महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्य भाग में हुआ और वे लगभग आधी शताब्दी तक इस धराधाम पर विराजमान रहकर भावुक भक्तों को निरामय श्रीकृष्ण-प्रेम-पीयूष का पान कराते रहे। उस समय के और आज के भारत की तुलना कीजिये। आकाश-पाताल का अन्तर हो गया, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धर्मिक सभी प्रकार की स्थितियों में घोर परिवर्तन हो गया। न जाने इस्लाम-धर्म का वह दौर-दौरा कहाँ चला गया, मुसलमान बादशाहों के ऐश-आराम की वे बातें इतिहास के निर्जीव पृष्ठों पर ही लिखी रह गयीं।

हिन्दुओं की वह आचार-विचार की दृढ़ता, स्वधर्म के प्रति कट्टरता न जाने कहाँ विलुप्त हो गयी। उस समय लाखों सती स्त्रियाँ अपने पतियों के मृतक शरीरों के साथ हँसते-हँसते जीवित ही जल जाती थीं, इसे बीसवीं शताब्दी का महिलामण्डल कब स्वीकार करने लगा। न जाने एक रूपये के आठ मन चावलों की बात किसी ने वैसे ही लिख दी थी, क्या इसका अनुमान इस युग के मनुष्य कठिनता से कर सकेंगे? भक्तों का वह आदर्श प्रेम, कृष्णभक्ति की वह निष्कपटता, सेवा-पूजा में उतनी श्रद्धा और रति इन बीसवीं शताब्दी के साम्प्रदायिक पक्षपात से पूर्ण हृदयवाले भक्तों में कब देखने में आ सकती हैं। वे बातें तो समय के साथ ही विलुप्त हो गयीं। वह असली प्रेम तो उन महापुरुषों के साथ ही चला गया, अब तो साँप की लकीर शेष रह गयी है, उसे चाहे जैसे पीटते रहो। साँप तो निकल गया। वह तो उसी समय की रागिनी थी। महाकवि भवभूति ने ठीक ही कहा है-

समय एव करोति बलाबलं प्रणिगदन्त इतीव शरीरिणाम्।
शरदि हंसरवाः परूषीकृतस्वरमयूरमयू रमणीयताम्।।

अर्थात समय ही अच्छा और बुरा बनाने में कारण है। मयूरों का स्वर वर्षा में ही भला मालूम पड़ता है और हंसों का शरद्-ऋतु में ही। सचमुच समय की गति बड़ी ही विलक्षण है।

महाप्रभु, श्रीचैतन्यदेव का प्राकट्य जिस काल में हुआ, वह समय बड़ा ही विलक्षण था, उस युग को महान क्रान्ति-युग कह सकते हैं। उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में चारों ओर राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी प्रकार की घोर क्रान्ति मची हुई थी। उस समय तक प्रायः ऐसी मान्यता थी कि जो दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान है, वही सम्पूर्ण भारत का सर्वश्रेष्ठ नरपति है।

दिल्ली का सिंहासन ही भारतवर्ष को दिग्विजय करने का मुख्य चिह्न था। उस समय दिल्ली के सिंहासन पर लोदी-वंश का अधिकार था किन्तु उस वंश के बादशाहों में अब वीरता-पराक्रम बिलकुल नहीं रहा था, लोदी-वंश अपनी अन्तिम साँसों को जैसे-तैसे कष्ट के साथ पूर्ण कर रहा था, अफ़ग़ान-सरदार लोदी-वंश का अन्त करने पर तुले हुए थे, इसलिये उन्होंने काबुल के बादशाह बाबर को दिल्ली के सिंहासन के लिये निमन्त्रित किया। बाबर-जैसा राज्यलोलुप बादशाह ऐसे स्वर्ण समय को हाथ से कब खोने वाला था। पंजाब का शासन दौलत खाँ उसका पृष्ठ-पोषक था, ईसवी सन् 1526 में बाबर ने भारत वर्ष पर चढ़ाई की और पानीपत के इतिहास-प्रसिद्ध रणक्षेत्र में इब्राहिम लोदी को परास्त करके वह स्वयं दिल्ली का बादशाह बन बैठा और उसके पश्चात् उसका पुत्र हुमायूँ दिल्ली के तख्त पर बैठा। इधर राजपूताने में राणा सांगा ने हिन्दूधर्म की दुहाई देकर बाबर के विरुद्ध बलवा आरम्भ किया। दोनों में घोर युद्ध हुआ, किन्तु मैदान बाबर के ही हाथ रहा, राणा सांगा परास्त होकर भाग गये।

पंजाब में भी छोटी-मोटी पचासों रियासतें बन गयीं। उनमें के पहाड़ी राजा तो प्रायः सभी अपने को स्वतन्त्र ही समझते थे। पहाड़ों में छोटी-छोटी बीसों स्वतन्त्र रियासतें थीं। इधर दक्षिण में विजयनगर का अन्त हो चुका था। बहमनी वंश का अन्त होते ही अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा, बीदर और बरार- ये पाँच रियासतें एकदम अलग हो गयीं। बंगाल, बिहार, तिरहुत तथा उड़ीसा में भी छोटी-छोटी बहुत-सी मुसलमानी तथा हिन्दुओं की नयी रियासतें बन गयीं। इस प्रकार सम्पूर्ण भारतवर्ष में पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक एक भारी राजक्रान्ति मची हुई थी।

सैकड़ों छोटे-छोटे राज्य परस्पर में एक-दूसरे से लड़ते-भिड़ते रहते थे। सभी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिये जी-जान से प्रयत्न करते। कभी तो किसी मुसलमानी रियासत को दबाने के लिये मुसलमानों में से दूसरे वंश के सरदार किसी पराक्रमी हिन्दू-राजा की सहायता से उस पर चढ़ाई कर देते और कभी किसी हिन्दू-राज्य को नष्ट करने के निमित्त दो मुसलमान-सरदार मिलकर उस पर धावा बोल देते। सम्पूर्ण भारत में कोई एकच्छत्र शासक नहीं था। वह राज्य-परिवर्तन का समय था, जिसमें भी बलपराक्रम हुआ, जिसके भी अधीन बलवान सेना हुई, वही उस प्रान्त का शासक बन बैठा और दिल्ली के बादशाह ने भी उसे उसी समय शासक स्वीकार कर लिया। ऐसी तो उस समय राजनैतिक परिस्थिति थी। अब सामाजिक परिस्थिति पर भी थोड़ा विचार कीजिये।

मुसलमान को यहाँ आये सैकड़ों वर्ष हो चुके थे, फिर भी हिन्दू अपनी कट्टरता पर ही तुले हुए थे, वे अब तक मुसलमानों के साथ किसी भी प्रकार का संसर्ग नहीं करते थे। जिनका तनिक भी मुसलमानों से संसर्ग हो जाता, जो भूलकर भी कभी मुसलमानों के हाथ की कोई वस्तु खा लेता, वह एकदम समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता, फिर उसके उद्धार का समाज के पास कोई उपाय ही नहीं था। संस्कृत-विद्या का आदर था, पण्डितों की व्यवस्था की मान्यता थी, समाज में बस व्यवस्था के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा सकता। ब्राह्मणों का फिर भी बहुत अधिक प्रभाव था, उच्च वर्ण वाले नीच वर्ण वालों के साथ अत्याचार भी कम नहीं करते थे, इसलिये नीच समझे जाने वाले करोड़ों मनुष्य हिन्दू-धर्म को अन्तिम तिलान्जलि दे-देकर इस्लाम-धर्म की शरण में जा रहे थे। बंगाल में इसका प्रचार और प्रभाव अन्य प्रान्तों की अपेक्षा अत्यधिक था।

इस प्रकार हिन्दू-समाज और प्राचीन वर्णाश्रम धर्म चारों ओर से छिन्न-भिन्न हो रहा था। धार्मिक स्थिति तो उस समय की महान ही जटिल थी। लोगों में यज्ञ-यागादिकों के प्रति जो शंकराचार्य के पश्चात् कुछ-कुछ रुचि हुई थी, वह तान्त्रिक और शाक्त-पद्धतियों के प्रचार के कारण फिर से लुप्त होती जा रही थी। वैदिक कर्मों के प्रति मनुष्य उदासीन बनते जा रहे थे। दिन-रात ‘जगत मिथ्या है, ‘जगत् मिथ्या है।’ इन वाक्यों को सुनते-सुनते लोग उकता-से गये थे। वे मस्ति की विद्या से ऊबकर कुछ हृदय के आहार की तलाश में थे। सतियों में भी वह पति-प्रेम नहीं रहा। लोकप्रथा को स्थिर रखने के निमित्त कहीं-कहीं तो अनिच्छापूर्वक जबरदस्ती विधवा स्त्री को उसके पति के साथ जला देते थे। निम्न श्रेणी के पुरुष भगवत्-प्राप्ति के अनधिकारी समझे जाते, उन्हें किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों के करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत एक नूतन धार्मिक पद्धति का इच्छुक था।

लोग नीरस पद्धतियों से ऊबकर सरस पद्धति चाहते थे, ऐसे समय में भरत के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में बहुत-से महापुरुष एक साथ ही उत्पन्न हुए। उन सभी ने अपने-अपने प्रान्तों में वैष्णव-धर्म का प्रचार किया। इसलिये हम इस युग को वैष्णव-युग कह सकते हैं। सबसे पहले काशी में श्रीस्वामी रामानन्द जी महाराज हुए। वैरागी-सम्प्रदाय के ये ही आदि आचार्य समझे जाते हैं। इन्होंने भगवत-भक्ति में जाति-पाँति का बन्धन मेट दिया। इन्होंने सभी जातियों को समान रूप से भगवत्-भक्ति करने का अधिकार प्रदान किया। इनका सूत्र था- ‘हरि को भजै सो हरि का होय, जाति पाँति पूछै ना कोय।’ इनके बाद इनके बारह मुख्य शिष्य हुए जिनमें चमार, जुलाहे, छीपी, नाई आदि सभी अधिकांश में छोटी ही जाति के थे।

क्रमशः ….

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लेखक : ब्रह्मलीन श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी

चैतन्य-कालीन भारत

इन सबमें महात्मा कबीर बहुत ही प्रसिद्ध और परम उच्च स्थिति के महापुरुष हुए। इनके उच्च तत्त्वों का सम्पूर्ण भारतवर्ष के ऊपर समानभाव से प्रभाव पड़ा। ये महापुरुष परम ज्ञानी, आदर्श भक्त, अद्वितीय अनुरागी और सबसे बड़े निर्भीक थे। इस हेतु से प्रायः उच्च जाति के लोग डाह के कारण इनके द्वेषी बन गये। महात्मा रैदास, नामदेव जी आदि परमभक्त भी उसी काल में उत्पन्न हुए। इन सभी ने रूपान्तर-भेद से वैष्णव धर्म का ही प्रचार किया। कबीर-पंथ वैष्णव-धर्म का ही विकृत और रूपान्तरमात्र है। इधर उसी समय पंजाब में श्रीगुरु नानकदेव जी भी हुए, ये कबीरदास जी के समकालीन ही थे, इन्होंने भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में बारह वर्षों तक भ्रमण तथा तीर्थयात्रा करके पंजाब के करतारपुर में ही आकर रहने लगे।

इनके उपदेशों का लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। इसलिये लाखों मनुष्य इनके उपदेशों को सुन-सुन इनके शिष्य अथवा ‘सिक्ख’ बन गये, आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह जी ने इन्हीं सबका एक ‘सिक्खसंघ’ ही बना लिया। इनके बड़े पुत्र श्री चन्द जी भी एक बड़े त्यागी, तेजस्वी और प्रभावशाली महापुरुष थे, उन्होंने विरक्तों को ही उपदेश दिया। इसलिये उनके अनुयायी अपने को ‘उदासी’ कहने लगे। उदासी एक प्रकार के संन्यासी ही होते हैं, असल में तो यह भी वैष्णव-धर्म का ही रूपान्तर है, केवल ये लोग शिखा-सूत्र नहीं रखते। वैसे उदासी-सम्प्रदाय में भगवत -भक्ति ही मुख्य समझी जाती थी।

अब तो उदासी-सम्प्रदाय भी विचित्र ही बन गया है। इधर दक्षिण में महात्मा समर्थ गुरु रामदास जी ने भी राम-भक्ति का प्रचार किया। उनके प्रधान शिष्य छत्रपति महाराज शिवाजी केवल राज्यलोलुप लड़ाकू शूरवीर ही नहीं थे, वे परम भागवत वैष्णव थे, उनके युद्ध का प्रधान उद्देश्य होता था। हिन्दू-धर्म-रक्षण और गौ-ब्राह्मणों का प्रतिपालन। इनके द्वारा महाराष्ट्र में भजन-कीर्तन और भगवत-भक्ति का खूब प्रचार हुआ। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त श्रीतुकाराम जी महाराज भी इसी समय उत्पन्न हुए और उन्होंने अपनी अद्भुत भगवत-भक्ति के द्वारा सम्पूर्ण महाराष्ट्र देश को पावन कर दिया। ये विट्ठलनाथ जी के प्रेम में विभोर होकर स्वयं पद गा-गाकर नृत्य करते और स्वयं पदों की भी रचना करते थे। इनके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर साक्षात विट्ठलनाथ जी ने इन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वे सदा इनके साथ ही रहते थे। ये सशरीर वैकुण्ठ को चले गये। इनके द्वारा मराठी भाषा का ओर सम्पूर्ण महाराष्ट्र देश का बड़ा कल्याण हुआ। इधर काशी में भगवान श्रीवल्लभाचार्य जी भी उस समय विराजमान थे। काशी छोड़कर उन्होंने व्रजमण्डल का परम प्रसिद्ध पुण्यनगरी गोकुल पुरी में अपना निवास-स्थान बनाया।

शुद्धद्वैत-सम्प्रदाय के यही प्रधान आचार्य माने जाते हैं, ये श्री बालकृष्ण के उपासक थे। इनके द्वारा देश के विभिन्न स्थानों में श्रीकृष्ण भक्ति का खूब ही प्रचार हुआ। इनके शिष्य अधिकांश धनी ही पुरुष थे। गुजरात, काठियावाड़ की ओर इनके सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रचार हुआ। इनके सात पुत्र थे, उन सभी ने वैष्णव-धर्म का खूब प्रचार किया। इसी समय बंगाल में श्री चैतन्यमहाप्रभु का प्राकट्य हुआ। चैतन्य के पूर्व बंगाल की क्या दशा थी और चैतन्यदेव के द्वारा उसमें किस प्रकर परिवर्तन हुआ, इन सभी बातों का परिचय पाठकों को अगले अध्यायों में लग जायगा।

चैतन्य-कालीन बंगाल

यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटाः।।[1]

श्रीमद्भागवत में कीकट देश की परिभाषा की है कि जहाँ काला हिरन स्वेच्छा से विहार न करता हो, जहाँ ब्राह्मणों की भक्ति न होती हो और जहाँ शुचि, पवित्र सज्जन और विद्वान पुरुष निवास न करते हों, वे ही देश अपवित्र हैं। एक स्थान पर कीकट देशों के नाम भी गिनाये हैं। यथा-

अंगबंगकलिंगेषु सौराष्ट्रमगधेषु च।
तीर्थयात्रां विना गत्वा पुनः संस्कारमर्हति।।

अर्थात ‘अंगदेश, बंगदेश, कलिंगदेश, सौराष्ट्र ओर मगधदेश यदि इनमें तीर्थयात्रा बिना चला भी जाय तो उसे फिर से संस्कार करना चाहिये। ‘पूर्वकाल में ऐसी मान्यता थी कि बंगदेश में प्रवेश करते ही ब्राह्मण अपवित्र हो जाता है। महाभारत में स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख आया है। यहाँ तक कि तीर्थयात्रा के समय पाण्डव के साथ जो ब्राह्मण थे, वे बंगदेश की सरहद आते ही उने साथ से लौट गये।

तीर्थयात्रा के निमित्त भी उन्होंने बंगदेश में जाना उचित नहीं समझा। इसमें असली रहस्य क्या है, इसे तो सर्वज्ञ ऋषि ही समझ सकते हैं, किन्तु आजकल तो कोई इस प्रकार का आग्रह करने लगे तो उसे पागलखाने में भेजने के लिये सभी लोग सहमत हो जायँगे। जहाँ पर ऐसे देशों में न जाने के सम्बन्ध में वाक्य मिलते हैं, वहाँ ऐसे भी अनेकों प्रमाण भरे पड़े हैं कि भगवत-भक्त की लीलास्थली कोटि तीर्थों से भी बढ़कर पावन बन जाती है। जिस भूमि को महाप्रभु गौरांगदेव, परमहंस रामकृष्णदेव, विजयकृष्ण गोस्वामी तथा जगद्बन्धु ऐसे भगवत-भक्तों ने अपनी पदधूलि से पावन बनाया हो, जिसमें राजा राममोहन राय, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा ब्रह्मानन्द, केशवचन्द्र- जैसे भगवत-भक्त, समाज-सुधारक उत्पन्न हुए हों, जिस भूमि ने देशबन्धु चित्तरंजन दास- जैसे देशभक्त को जन्म दिया हो, आज भी जिसमें अरविन्द-जैसे योगी, रविन्द्र-जैसे विश्व-कवि, जगदीशचन्द्र वसु- जैसे जगत-विख्यात विज्ञान-वेत्ता और सुभाषचन्द्र- जैसे अनन्य देशभक्त सम्पूर्ण भारत का मुख उज्ज्वल कर रहे हों, उस देश को हम अब कीकट-देश कैसे कह सकते हैं? जब होगा, तब रहा हो, आज तो वही देश परम पावन बना हुआ है, चैतन्यदेव की लीला-भूमि के लिये भावुक भक्तों के हृदय में व्रजभूमि से कम आदर नहीं है।

नवद्वीप तो भक्तों के लिये पूर्व वृन्दावन ही बना हुआ है। जहाँ श्रीकृष्ण चैतन्य-जैसे परम भावुक और साक्षात प्रेम की सजीव मूर्ति प्रेमावतार महापुरुष का प्राकट्य हुआ हो, उसका महत्त्व वृन्दावन के सदृश होना ही चाहिये।

बंगाल भाव-प्रधान देश है। बंगाली प्रायः हृदय-प्रधान होते हैं, उन्हें ललित कलाओं से बहुत अनुराग है, वे प्रकृतिप्रिय हैं। उनका हृदय प्रकृति के साथ मिला हुआ है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का उनके हृदय-पटल पर गहरा प्रभाव पड़ता है, वे भावुक होते हैं, इसका प्रमाण उनके रहन-सहन में, खान-पान तथा उत्सव-पर्वों में प्रत्यक्ष मिलता है। बंगला-भाषा का अधिकांश साहित्य भावुकता-प्रधान ही है, उनमें उपन्यास, नाटक, ललितकाव्य आदि विषयों का ही प्राधान्य है। कुछ विशेष श्रेणी के पुरुषों को छोड़कर सर्वसाधारण लोग निष्काम कर्मों से एकदम अनभिज्ञ हैं। वे इस बात को प्रायः समझ ही नहीं सकते कि बिना कामना के भी कर्म हो सकता है। वहाँ जितना भी पूजा-पाठ और धार्मिक कृत्य होता है सभी सकाम भावना से किया जाता है।

संन्यास-धर्म का प्रचार बंगदेश में बहुत ही कम है। अब तो वहाँ कुछ-कुछ संन्यास-धर्म का प्रचार होने लगा है, नहीं तो पहले इसका प्रचार नहीं के ही बराबर था। अब भी बंगाल में मधुकरी-भिक्षा की परिपाटी नहीं है। बना-बनाया अन्न वहाँ भिक्षा में कठिनता से मिल सकेगा। अधिकांश बंगाली संन्यासी इधर उत्तर-भारत की ही ओर आकर रहने लगते हैं। अब भी उत्तर-भारत में बहुत-से सुयोग त्यागी और विरक्त बगाली महात्मा निवास कर रहे हैं। बंगदेश शक्ति-उपासक है। शक्ति की उपासना बिना रजोगुण के हो नहीं सकती। कुछ शाक्त भक्त सात्त्विक-पद्धति से फल-फूलों का ही बलिदान देकर शक्ति-उपासना करते हैं, किन्तु ऐसे भक्तों की संख्या उँगलियों पर ही गिनी जा सकती है, अधिकांश तो गरम-गरम रक्त द्वारा ही कालीमाई को प्रसन्न करने वाले भक्त हैं। प्रतिवर्ष दोनों नवरात्रों में करोड़ों जीवों का संहार देवी के नाम से किया जाता होगा।

भारतवर्ष भर में बंगाल-प्रान्त में ही खूब धूमधाम से नवरात्र मनाया जाता है, जिनमें लाखों बकरे कालीमाई के ऊपर चढ़ाये जाते हें। बंगालियों में निरामिषभोजी भी बहुत ही कम मिलेंगे। यदि बहुत-से मांस न भी खाते होंगे, तो मछली के बिना तो वे रह ही नहीं सकते। मछली के मांस की वे मांस में गणना नहीं करते। यहाँ तक कि बहुत-से वैष्णव भी मांस न खाते हुए भी मछली का सेवन करते हैं। केवल विधवा स्त्रियों को एकादशी के दिन मछली खाना मना है या कोई-कोई वैष्णव या ऊँची श्रेणी के भट्टाचार्य बचे हुए हैं, नहीं तो मछली के बिना बंगाली रह ही नहीं सकते। जिस बंगाली को स्नान के पूर्व शरीर में मलने को तेल नहीं मिला और भोजन के समय मछली नहीं मिली उसका जीवन व्यर्थ ही समझा जाता है, वह अपने समाज में या तो अत्यन्त ही दीन-हीन होगा या कोई परम योगी। सर्वसाधारण लोगों के लिये ये दोनों वस्तुएँ अत्यन्त ही आवश्यक समझी जाती हैं। जिस समय की हम बातें कह रहे हैं, उस समय बंगाल की बड़ी ही बुरी दशा थी।

चैतन्य-कालीन बंगाल

देशभर में मुसलमानों का आतंक छाया हुआ था, मनुष्य धर्म-कर्म से हीन होकर नाना प्रकार के पाखण्ड-धर्मों का आश्रय किये हुए थे। वाम-मार्ग का सर्वत्र प्रचार था। स्थान-स्थान पर घोर तान्त्रिक-पद्धतियों का अनुष्ठान होता हुआ दृष्टिगोचर होता था। मांस, मदिरा, मैथुन आदि पाँच वाममार्गियों के मकानों का सर्वत्र बोल-बाला था। शाक्त-धर्म का भी प्राबल्य था। बकरे-भैंसे का बलिदान तो साधारण-सी बात समझी जाती थी, कहीं-कहीं मनुष्यों तक की बलि दे दी जाती थी। (अब भी साल-दो साल में एक-आध ऐसी घटना सुनने में आ जाती है।) ब्राह्मण लोग अपने हाथों में खड्ग लेकर बलिदान करते।
वैष्णव-धर्म की लोग खिल्लियाँ उड़ाते थे, वाद-विवाद करते रहना ही विद्या का मुख्य प्रयोजन समझा जाता। भक्ति करना मूर्खों ओर अनपढ़ों का काम समझा जाता। इतना सब होने पर भी छूआछूत और छोटे-बड़ेपन का भूत सबके सिर पर सवार था। यदि कहीं किसी छोटी जाति वाले न उच्च-जाति के पवित्र पुरुष को छू लिया तो उसका धर्म ही भ्रष्ट हो गया। किसी विधवा ने मुसलमान से बात भी कर ली तो वह पतित हो गयी। समाज के वह किसी भी काम की नहीं रही।

इन सभी कारणों से मुसलमानों की संख्या बढ़ने लगी। नीची जाति के समझे जाने वाले पुरुष हिन्दू-धर्म की छत्र-छाया को छोड़कर नवीन इस्लाम-धर्म की शरण में आने लगे। इसी के परिणामस्वरूप तो आज बंगाल-प्रान्त में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों की ही संख्या अधिक है। सम्भवतः 52-53 फीसदी मुसलमान हैं। बंगाल में ब्राह्मण, वैद्य और कायस्थ ये ही तीन जाति शिक्षित और कुलीन समझी जाती थीं। जिनमें कायस्थों को तो ब्राह्मण लोग शूद्र ही बताते थे। उस समय कायस्थों में विद्या का खूब प्रचार था। राजकाजों में उनकी बुद्धि भी तीक्ष्ण थी। वे आचार-विचार में भी हिन्दुओं की कुछ परवा नहीं करते थे। वे मुसलमानों के नाम से ही ब्राह्मणों की भाँति दूर नहीं भागते थे।

उनका खान-पान, आचार-व्यवहार मुसलमानों से मिल जाता था। इसलिये बंगाल में अधिकांश जमींदार, ताल्लुकेदार और राजा कायस्थ ही थे। राजशक्ति और शासनशक्ति हाथ में होने के कारण बहुत-से विद्वान ब्राह्मण भी उनके दरबार में रहते थे। मुख से चाहे उन्हें शूद्र भले ही कहें, किन्तु उनके साथ ब्राह्मणों का सभी बर्ताव क्षत्रिय राजाओं का-सा ही था। उन्हें शास्त्रों का अध्ययन कराते, उनका दान-प्रतिग्रह ग्रहण करते, उनसे श्राद्ध, यज्ञ-यागादि कार्य भी ब्राह्मण लोग कराते ही थे, इस प्रकार क्षात्रधर्म उस समय बंगाल में कायस्थों में ही था। कायस्थों में संस्कृत के बड़े-बड़े ऊँचे विद्वान उस समय मौजूद थे। बहुत-से कायस्थ जमींदारों के तो नाम भी मुसलमानों की ही तरह होते थे।

जैसे बुद्धिमन्त खाँ, रामचन्द्र खाँ आदि-आदि। महाप्रभु गौरांग के प्रादुर्भाव के समय गौड़-देश के शासक सुबुद्धि खाँ या सुबुद्धि राय थे। उनके यहाँ हुसेन खाँ नामक बड़ा ही आत्माभिमानी और कुशाग्रबुद्धि भृत्य था। एक बार कोई काम बिगड़ जाने पर राजा ने उसकी पीठ पर क्रोध में चाबुक मार दिया। इससे वह आत्माभिमानी भृत्य जल उठा और उसने मन-ही-मन राजा को राज्यच्युत करने की कठोर प्रतिज्ञा की। बुद्धिमान तो वह था ही, बड़े-बड़े अधिकारी राजा से मन-ही-मन द्वेष करते थे, उसने सभी को साम-दान, दण्ड और भेद आदि नीतियों का आश्रय लेकर राजा को कैद कर लिया और आप स्वयं गौड़-देश का राजा बन बैठा। सुबुद्धि राय जब हुसेन खाँ के बन्दी थे तब उसकी स्त्री ने उसे सलाह दी कि इसे जान से मार दो, किन्तु हुसेन खाँ इतनी नीच प्रकृति का मनुष्य नहीं था, उसने कहा-‘चाहे इसने मेरे साथ कैसा भी चैतन्य-कालीन बंगाल बर्ताव किया हो, आखिर तो यह मेरा स्वामी रहा है और मैंने इसका नमक खाया है, मैं इसकी जान नहीं लूँगा।’ यह कहकर उसने राजा को छोड़ दिया। किन्तु उसने अपने जूँठे मिट्टी के बर्तन का पानी जबरदस्ती इनके मुँह में डाल दिया।

राजच्युत और धर्मभ्रष्ट हुए सुबुद्धि राय ने गौड़-देश के पण्डितों से इस पाप के प्रायश्चित्त की व्यवस्था चाही। धर्म के मर्म को भलीभाँति जानने वाले विद्वान ब्राह्मणों ने बहुत ही बढि़या व्यवस्था बतायी। उन्होंने कहा- ‘इस पाप का प्रायश्चित्त प्राणत्याग के अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। सो भी प्राणों का त्याग या तो गरम घृत पान करके किया जाय या धान के तुषारों में धीरे-धीरे सुलगाकर शरीर जलाया जाय।[1]

जन्म से राजसुखों को भोगने के आदी और ऐश-आराम में पले हुए सुबुद्धि राय की बुद्धि ने इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया, वे कोई और हल की व्यवस्था लेने के निमित्त वाराणसी के पण्डितों के पास गये। काशी के पण्डित भी कोई घाट थोडे़ ही थे, शास्त्रों का अध्ययन तो उन्होंने भी किया था, उन्होंने भी उसी व्यवस्था को बहाल रखा। प्राण त्याग ने में असमर्थ सुबुद्धि खाँ उधर-इधर भटकते हुए अपने जीवन को बिताने लगे। कालान्तर में जब महाप्रभु वाराणसी पधारे तब ये उनका नाम सुनकर उनके शरणापन्न हुए और अपनी सम्पूर्ण कथा कह सुनायी। सब कुछ सुनकर प्रभु ने आज्ञा दी- ‘अनिच्छापूर्वक प्राणों के त्याग से कोई लाभ नहीं। वृन्दावनवास करके अहर्निश कृष्ण-स्मरण करो और भक्त-महात्माओं की सेवा-पूजा करो। भगवन्नाम से ही करोड़ों जन्मों के पाप क्षय हो जाते हैं, एक जन्म की तो बात ही क्या?

प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके वे वृन्दावन में जाकर रहने लगे। कहते हैं- वे जंगलों में जाकर सूखी लकडि़याँ ले आते। वे तीन या चार पैसे जितने में भी बिक जातीं उन्हें बेचकर एक पैसे के चने खाकर तो स्वयं निर्वाह करते थे, शेष पैसों को एक दूकानदार के यहाँ जमा कर देते थे। उन बचे हुए पैसों का तेल खरीदकर बंगाली गरीब यात्रियों तथा भक्तों को स्नान के पूर्व लगाने के लिये देते थे। धन्य है, भक्ति हो तो ऐसी हो। इस प्रकार महात्मा सुबुद्धि राय जी ने अपने पानी पीने के पाप का ही प्रायश्चित्त नहीं किया, जन्म-जन्मान्तरों के पापों का प्रायश्चित्त कर डाला।

हुसेन खाँ ने राजगद्दी पर बैठते ही अपना शासन जमाने के लिये स्थान-स्थान पर अपने काजियों को नियुक्त किया। बहुत-से लोगों को इलाकों का ठेका दिया। वे एक प्रकार से पट्टेदार जमींदार ही समझे जाते थे, लोगों से लगान वसूल करके नियमित रकम तो बादशाह को देते, शेष जो बचती उसे अपने पास रख लेते। इस प्रकार नवद्वीप में बुद्धिमन्त खाँ, हरिपुरग्राम में गोवर्धनदास मजूमदार, कुलीनग्राम में मालाधर तथा खेतूरग्राम में कृणानन्ददत्त आदि इन कायस्थ जमींदारों को भी ठेके दिये गये। अधिकांश में ठेकेदार मुसलमान अथवा कायस्थ ही होते थे। नवद्वीप में चाँद खाँ नाम के एक क़ाज़ी की नियुक्ति की गयी और जगन्नाथ तथा माधव (जगाई-मधाई) नाम के क्रूरकर्मा दो ब्राह्मण भाइयों को वहाँ का कोतवाल बनाया गया। नवद्वीप के बेलपोखरिया नामक मोहल्ले में चाँद खाँ की कचहरी थी। उस समय क़ाज़ी मुंसिफ या जज का काम करते थे, वे हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों का फैसला करते थे, इसी प्रकार का एक मुलुक नाम का क़ाज़ी शान्तिपुर के समीप गंगा जी की धारा के पास रहता था।

नवद्वीप उस समय बंगाल भर में विद्या का सर्वश्रेष्ठ केन्द्र समझा जाता था। उसमें संस्कृत विद्या की पचासों पाठशालाएँ थीं, जो टोल के नाम से विख्यात थीं। दूर-दूर से विद्यार्थी आ-आकर नवद्वीप में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करते और नवद्वीप के नाम को देशव्यापी बनाते। उस समय संस्कृत के प्रधान केन्द्र नवद्वीप ने बहुत-से लोकप्रसिद्ध पण्डितों को उत्पन्न किया। मिथिला से न्याय के ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके उसका बंगाल और उड़ीसा में प्रचार करने वाले वासुदेव सार्वभौम उन दिनों नवद्वीप में ही पढ़ाते थे। उस समय के विद्वानों में नैयायिक रामचन्द्र, सार्वभौम विद्यावागीश, महेश्वर विशारद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य गंगादास आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

सार्वभौम के विद्यार्थियों में रघुनाथदास, भवानन्द, रघुनन्दन, कृष्णानन्द तथा मुरारी गुप्त आदि लोकप्रसिद्ध और भारी विद्वान हुए। इस प्रकार उस समय नवद्वीप बंगाल भर में विद्या का एक प्रधान स्थान समझा जाता था। सैकड़ों विद्यार्थी एक साथ ही गंगा जी के घाटों पर स्नान करते और परस्पर में शास्त्र चर्चा करते बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। चारों ओर पण्डितों की ही चहल-पहल रहती। कहीं न्याय की फक्किकाएँ चल रही हैं तो कहीं व्याकरण की पंक्तियाँ पूछी जा रही हैं। सभ्य और धनी-मानी पुरुषों में भी संस्कृत विद्या का आदर था।

वे संस्कृत विद्या को आज की भाँति हेय नहीं समझते थे। इसी कारण अध्यापक तथा विद्यार्थियों को भोजन-वस्त्रों की कमी नहीं रहती। धनी पुरुष उनके खाने-पहनने का स्वयं ही श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रबन्ध कर देते। ऐसी ही घोर क्रान्ति के समय में इस विद्या-व्यासंगिनी पुरी में महाप्रभु चैतन्यदेव का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी भक्ति-भागीरथी की बाढ़ में सभी पण्डितों के नास्तिकवाद को एक साथ ही बहा दिया। उनके भक्ति-भाव के ही कारण नवद्वीप भावुक भक्तों का अड्डा और भक्ति का केन्द्र बन गया।

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श्री श्रीचैतन्य चरित्र 1-15

|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||(1)

वंश परिचय

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।[1]

सचमुच में माता होना तो उसी का सार्थक कहा जा सकता है, जिसके गर्भ से भगवत्-भक्त पुत्र का जन्म हुआ हो। जन्म और मृत्यु ही जिसका स्वरूप है ऐसे इस परिवर्तनशील संसार में गर्भधारण तो प्रायः सभी योनि की माताएँ करती हैं, किन्तु सार्थक गर्भ उसी का कहा जा सकता है, जिसके गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र के ऊपर हरि-भक्तों की मण्डली में हर्ष-ध्वनि होने लगे। जिसके दर्शनमात्र से भक्तों के शरीर में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच और स्वरभंग आदि सात्त्विक भावों का उदय आप-से-आप होने लगे अथवा जिसके ऊपर विद्वान अथवा शूर-वीरों की सभा में सभी लोगों की समान-भाव से उसी के ऊपर दृष्टि पड़े। परस्पर में लोग उसी के सम्बन्ध में काना-फूँसी करें, असल में वही पुत्र कहलाने के योग्य है ओर उसे गर्भ में धारण करने वाली माता ही सच्ची माता है। वैसे तो शूकरी अथवा कूकरी भी साल में दस-दस, बीस-बीस बच्चे पैदा करती हैं, किन्तु उनका गर्भ धारण करना केवल मात्र अपनी वासनाओं की पूर्ति का विकारमात्र ही है। इसी भाव को लेकर कोई कवि बड़ी ही मार्मिक भाषा में माता को उपदेश करता हुआ कहता है-

जननी जने तो भक्त जनि, या दाता या शूर।

नाहिं तो जननी बाँझ रह, क्यों खोवे है नूर।।

भाग्यवती शची माता ने ही यथार्थ में माता-शब्द को सार्थक बनाया, जिसके गर्भ से विश्वरूप और श्रीकृष्ण चैतन्य-जैसे दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए। श्रीकृष्णचैतन्य अथवा महाप्रभु को पैदा करके तो वे जगन्माता ही बन गयीं। गौरांग-जैसे महापुरुष को जिन्होंने गर्भ में धारण किया हो उन्हें जगन्माता का प्रसिद्ध पद प्राप्त होना ही चाहिये।

महाप्रभु गौरांगदेव के पूर्वज श्रीहट्ट (हिलहट) निवासी थे। यह नगर आसाम प्रान्त में है और बंगाल से सटा हुआ ही है, वर्तमानकाल में यह आसाम प्रान्त का एक सुप्रसिद्ध जिला है। इसी श्रीहट्ट-नगर में भारद्वाजवंशीय परम धार्मिक और विद्वान उपेन्द्र मिश्र नाम के एक तेजस्वी और कुलीन ब्राह्मण निवास करते थे। धर्मनिष्ठ और स्वकर्मपरायण होने के कारण उपेन्द्र मिश्र के घर खाने-पीने की कमी नहीं थी। उनकी गुजर साधारणतया भलीभाँति हो जाती थी। उन भाग्यशाली ब्राह्मण के सात पुत्र थे। उनके नाम कंसारि, परमानन्द, पद्मनाभ, सर्वेश्वर, जगन्नाथ, जनार्दन और त्रैलोक्यनाथ थे। इनमें से पण्डित जगन्नाथ मिश्र को ही गौरांग के पूज्य पिता होने का जग-दुर्लभ सुयश प्राप्त हो सका।

पण्डित जगन्नाथ मिश्र अपने पिता की अनुमति से संस्कृत विद्या पढ़ने के लिये सिलहट से नवद्वीप में आये और पण्डित गंगादास जी की पाठशाला में अध्ययन करने लगे। इनकी बुद्धि कुशाग्र थी, पढ़ने-लिखने में ये तेज थे इसलिये अल्पकाल में ही, इन्होंने काव्यशास्त्रों का विधिवत अध्ययन करके पाठशाला से ‘पुरन्तर’ की पदवी प्राप्त कर ली।

इनके रूप-लावण्य तथा विद्या-बुद्धि से प्रसन्न होकर नवद्वीप के प्रसिद्ध पण्डित श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती ने अपनी ज्येष्ठा कन्या शची देवी का इनके साथ विवाह कर दिया। पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती भी नवद्वीप निवासी नहीं थे। इनका आदिस्थान फरीदपुर के जिले में मग्डोवा नामक एक छोटे-से ग्राम में था। ये भी विद्याध्ययन के निमित्त नवद्वीप आये थे और पढ़-लिखकर फिर यहीं रह गये। इनका घर ‘बेलपुकुरिया’ में काजीपाड़ा के समीप था। इनके यज्ञेश्वर और हिरण्य दो पुत्र और दो कन्याएँ थीं। छोटी कन्या का विवाह श्री चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ हुआ था और बड़ी कन्या जगन्माता शची देवी का पण्डित जगन्नाथ मिश्र के साथ। रूपवती और कुलवती पत्नी को पाकर पुरन्दर महाशय परम सन्तुष्ट हुए और फिर सिलहट न जाकर वहीं मायापुर में घर बनाकर रहने लगे। मायापुर में और भी बहुत-से सिलहटनिवासी ब्राह्मण रहते थे।

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शची देवी के गर्भ से एक-एक करके 8 कन्याओं का जन्म हुआ और वे अकाल में ही कालकवलित बन गयीं। इससे मिश्र-दम्पति का गार्हस्थ्य-जीवन कुछ चिन्तामय और दुःखमय बना हुआ था। गृहस्थी के लिये सन्तानहीन होना जितना कष्टप्रद है, उससे भी अधिक कष्टप्रद सन्तान होकर उसका जीवित न रहना है, किन्तु इस धर्मप्राण-दम्पति का यह दुख और अधिक कालतक न रह सका। थोडे़ ही दिनों के अनन्तर शची देवी के गर्भ से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ, जिसका नाम मिश्र जी ने विश्वरूप रखा। विश्वरूप सचमुच में ही विश्वरूप थे। माता-पिता को इस अद्वितीय रूप-लावण्ययुक्त पुत्र को पाकर परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। चन्द्रमा की कलाओं के समान विश्वरूप धीरे-धीरे बड़े होने लगे। इसप्रकार विश्वरूप की अवस्था नव दस वर्ष की हुई होगी कि तभी माघ-मास में शची देवी के फिर गर्भ रहा। बस, इसी गर्भ से महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रादुर्भाव हुआ।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(2)
प्रादुर्भाव

कालान्नष्टं भक्तियोगं निजं यः

प्रादुष्कर्तुं कृष्णचैतन्यनामा।

आविर्भूतस्तस्य पादारविन्दे

गाढं गाढं लीयतां चित्तभृंगः।।[1]

श्रीमद्भागवत तथा गीता में भगवान ने बार-बार श्रीमुख से जोर देकर कहा है कि मेरे पाने का एकमात्र उपाय भक्ति ही है। मैं योग से, ज्ञान से, जप से, तप से, समाधि से तथा यज्ञ-यागादि अन्य वैदिक कर्मों से इतना तुष्ट नहीं होता जितना कि भक्ति से प्रसन्न होता हूँ, केवल अनन्य भक्ति के ही द्वारा मेरा यथार्थ ज्ञान होता है कि मैं कैसा हूँ और मेरा प्रभाव कितना है। जिस भक्ति की इतनी महिमा है, वह भक्ति जिसके हृदय में हो उस भाग्यवान भक्त के महत्त्व का वर्णन भला कौन कर सकता है। वास्तव में भगवान और भक्त नाममात्र के ही लिये दो हैं, भक्त भगवान के साकार विग्रह का ही नाम है। भगवान स्वयं ही कहते हैं- ‘मैं तो भक्तों  के अधीन हूँ, कोई मेरा अपराध कर दे तो उसे तो मैं क्षमा कर भी सकता हूँ, किन्तु भक्तद्रोही के अपराध को मैं क्षमा करने में असमर्थ हूँ।’ भगवान भक्तों की महिमा को बतलाते हैं कि मैं भक्तों के पीछे-पीछे सदा इसलिये घूमा करता हूँ कि उनके चरणों की धूलि उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय तो मैं पावन हो जाऊँ। यहीं तक नहीं, भगवान स्वयं भक्तों का भजन करते हैं।

भगवान हस्तिनापुर में ही विराजमान थे। महाराज युधिष्ठिर प्रायः हर समय ही उनके पास रहते थे, उन्हें भगवान् के बिना चैन ही नहीं पड़ता था। एक दिन रात्रि के बारह बजे महाराज भगवान के स्थान पर पहुँचे। उस समय भगवान समाधि में बैठे हुए थे। धर्मराज बहुत देर तक हाथ जोडे़ खड़े रहे। कुछ काल के अनन्तर भगवान की समाधि भंग हुई। सामने धर्मराज को खडे़ देखकर उन्होंने उनका स्वागत किया और असमय में आने का कारण पूछा। धर्मराज ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया- ‘भगवन! और बातें तो मैं फिर पूछूँगा, इस समय जो मुझे बड़ा भारी संशय हुआ है, उसका उत्तर पहले दीजिये। आप चराचर जगत के एकमात्र स्वामी हैं, सम्पूर्ण प्राणियों के आप ही भजनीय हैं। ऋषि, महर्षि, देव, दानव, देवता तथा मनुष्य सभी आपका ध्यान करते हैं, इस समय आपको समाधि में बैठा देखकर मुझे महान कुतूहल उत्पन्न हुआ है कि आप किसका ध्यान करते होंगे? धर्मराज के प्रश्न को सुनकर भगवान् हँसे और मन्द-मन्द मुस्कान के साथ बोले- ‘धर्मराज! यह ठीक है कि सम्पूर्ण जगत् का एकमात्र मैं ही भजनीय हूँ, किन्तु मेरे भी भजनीय भक्त हैं, मैं सदा भक्तों का ध्यान किया करता हूँ।

यह सुनकर धर्मराज ने पूछा- ‘अच्छा इस समय आप किसका ध्यान कर रहे थे?’ भगवान ने गद्गद-कण्ठ से कहा- ‘जिन्होंने सर्वस्व त्याग कर केवल मेरे में ही अपने मन को लगा रखा है, जो एक-दो दिन से नहीं कई महीनों से बाणों  की शय्या पर बिना खाये-पिये पड़े हुए हैं, सम्पूर्ण शरीर तीरों से भिदा होने पर भी जो मत्परायण ही बने हुए हैं उन्हीं भक्तराज भीष्म पितामह का मैं इस समय ध्यान कर रहा था।’ भगवान की इस भक्तवत्सलता की बात सुनकर भक्ति की सर्वश्रेष्ठता के सम्बन्ध में किसे संशय रह सकता है? भगवान ही इस जगत के एकमात्र आश्रय हैं, उनकी भक्ति उनकी कृपा के बिना प्राप्त ही नहीं हो सकती।

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ज्ञान, कर्म तथा भक्ति के ही एकमात्र प्रवर्तक हैं। जब कर्म की शिथिलता देखते हैं तब आप नरपति-विशेष के रूप में उत्पन्न होकर कर्म का प्रचार करते हैं, जब ज्ञान का लोप देखते हैं तब मुनि-विशेष के रूप में प्रकट होकर ज्ञान का प्रसार करते हैं और जब भक्ति  को नष्ट होते देखते हैं तब भक्त-विशेष का रूप धारण करके भक्ति की महिमा बढ़ाते हैं। उन्हें स्वयं कुछ भी कर्तव्य नहीं होता, क्योंकि स्वयं परिपूर्ण स्वरूप हैं। लोककल्याण के निमित्त वे स्वयं आचरण करके लोगों को शिक्षा देते हैं। भगवान के लिये कोई बात ‘सहसा’ या ‘अकस्मात’ नहीं। जिस प्रकार नाटक का एक अभिनय देखने के अनन्तर हम प्रतीक्षा करते रहते हैं, कि देखें अब क्या हो। इतने में ही रंग-मंच पर सहसा दूसरे नये पात्रों को देखकर हम चकित हो जाते हैं, किन्तु नाटक के व्यवस्थापक के लिये इसमें सहसा या अकस्मात कुछ भी नहीं। उसे आदि से अन्त तक सम्पूर्ण नाटक का पता है कि इसके बाद कौन-सा पात्र क्या अभिनय करेगा।

इसी प्रकार इस जगत के रंग-मंच पर भगवान जो नाटक खेला रहे हैं, उसका उन्हें रत्ती-रत्ती भर पता है। उनके लिये भविष्य के गर्भ में कोई बात छिपी नहीं है। भविष्य का परदा तो हम अज्ञानियेां के नेत्रों पर पड़ा हुआ है। हम किसी घटना को देखकर ही उसे नयी और सहसा उत्पन्न हुई बताने लगते हैं, यही हमारी अपूर्णता है। कार्य को देखकर कारण के सम्बन्ध में सोचते हैं, किन्तु दिव्य दृष्टिवाले कारणों को पहले ही समझ जाते हैं, इसलिये उन्हें किसी भी घटना से कोई आश्चर्य नहीं होता। शाके 1407 (सं. 1542 विक्रमी) के फाल्गुन की पूर्णिमा का शुभ दिवस है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसन्नता छायी हुई है। राम-कृष्ण के मानने वाले सभी हिन्दुओं के घरों में अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार सुन्दर-सुन्दर पक्वान्न बनाये गये हैं। सबों ने अपने-अपने घरों को लीप-पोतकर स्वच्छ और सुन्दर बनाया है।

बहुत पहिले- सत्ययुग में- आज के दिन भक्तराज प्रह्लाद ने अग्नि में प्रवेश करके भक्ति की विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता दिखायी थी। भगवत-भक्ति के कारण उने पिता की भगिनी होली- जो इन्हें गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी स्वयं जल गयी किन्तु इनका बाल भी बाँका नहीं हुआ, इसी कारण भक्तों में अत्यन्त ही आह्लाद उत्पन्न हुआ और तभी से आज तक यह दिन परम पवित्र समझा जाता है। आज के दिन जीवन में नवजीवन का संचार होता है। वर्षभर की सभी बातें भुला दी जाती हैं, सालभर के वैर, द्वेष तथा अशुभ कर्मों को होली की ज्वाला में स्वाहा कर दिया जाता है। आज के दिन शत्रु-मित्र का कुछ भी विचार न करके सबको गले से लगाते हैं। इतने दिनों से होली होती तो थी, किन्तु यथार्थ होली तो आज ही है। तभी तो भक्तों के हृदय में कोई एक अज्ञात आनन्द हिलोरें मार रहा है।

पं. जगन्नाथ मिश्र अपने घर के एक कोने में बैठे हुए हैं। मिश्र जी के पास सांसारिक धन नहीं है, फिर भी ब्राह्मणों का जो धन है, जिसके कारण ब्राह्मणों को तपोधन कहा जाता है, उस धन का अभाव नहीं है। मिश्रजी का घर छोटा-सा है, किन्तु है खूब साफ-सुथरा। सम्पूर्ण स्थान गौ  के गोबर से लिपा है, आँगन में तुलसी का सुन्दर बिरवा लगा हुआ है। एक ओर एक गौ बँधी है। ब्राह्मणी ने ताँबे के तथा पीतल के बर्तनों को खूब माँजकर एक ओर रख दिया है। धूप लगने से वे चमक उठते हैं। मिश्र जी भोजन करके पुस्तक को पढ़ने लगे हैं। तीसरे पहर के बाद शची देवी को कुछ प्रसव-वेदना-सी प्रतीत हुई। घर में दूसरी कोई स्त्री थी नहीं। सास तथा देवरानी, जेठानी सभी श्रीहट्ट (सिलहट) में थीं। यहाँ तो शची देवी का पितृगृह था, इसलिये पं. चन्द्रशेखर (आचार्य-रत्न) की पत्नी अपनी छोटी बहिन को इन्होंने बुला लिया।

धीरे-धीरे वेदना बढ़ने लगी और साथ ही भक्तों के अज्ञात आनन्द की वृद्धि होने लगी। भगवान् मरीचिमाली अस्ताचल को प्रस्थान कर गये, किन्तु तो भी पूर्णिमा के चन्द्र उदय नहीं हुए। कारण कि वे चैतन्यचन्द्र के उदय होने की प्रतीक्षा में थे। इसी समय राहु ने सुअवसर पाकर चन्द्रमा को ग्रस लिया। ग्रहण का स्नान करने के निमित्त नवद्वीप के सभी घाटों पर स्त्री-पुरुषों की भारी भीड़ थी। असंख्यों नर-नारी उस पुण्य अवसर पर स्नान करने के निमित्त एकत्रित हुए थे। सभी के कण्ठों से राम, कृष्ण, हरि की मधुर ध्वनि निकल रही थी। जो कभी भी भगवान का नाम नहीं लेते थे, वे भी उस दिन प्रेम में उन्मत्त होकर कृष्ण- कीर्तन कर रहे थे।

हिन्दुओं को चिढ़ाने के व्याज से यवन भी ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर हिन्दुओं का साथ दे रहे थे। इसी महान आनन्द के समय में नामावतार श्रीगौरांगदेव का प्रादुर्भाव हुआ। शची देवी की भगिनी ने यह शुभ समाचार मिश्र जी को सुनाया। मिश्र जी की प्रसन्नता का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। वे तो पहले से ही अत्यधिक आनन्दित थे, किन्तु अब तो उनके आनन्द की सीमा ही न रही। क्षणभर में बिजली की तरह यह समाचार मुहल्ले भर में फैल गया। स्त्री-पुरुष जिसने भी सुना वही मिश्र जी के घर दौड़ा आया। श्री अद्वैताचार्य की धर्मपत्नी, श्रीवास जी की स्त्री आदि शची देवी की जितनी अन्तरंग सहेलियाँ थीं वे उपहार ले-लेकर बच्चे को देखने के लिये आ गयीं। विश्वरूप के द्वारा समाचार पाकर शची देवी के पिता नीलाम्बर चक्रवर्ती भी आ उपस्थित हुए। वे तो प्रसिद्ध ज्योतिषी ही थे, उसी समय उन्होंने गणना करके लग्न निकाली और जन्म-कुण्डली बनाकर ग्रहों के फल देखने लगे। इतने शुभ ग्रहों को देखकर वे आनन्द में गद्गद हो उठे और मिश्र जी से बोले- यह बालक कोई महान पुरुष होगा। इसके द्वारा असंख्यों जीवों का कल्याण होगा। इसके राजग्रह स्पष्ट बता रहे हैं कि यह असाधारण महापुरुष होगा।

इस प्रकार ग्रहों का फल सुनकर मिश्र जी के आनन्द की और भी अधिक वृद्धि हुई। उस समय उन्हें अपनी निर्धनता पर कुछ खेद हुआ। उनका हृदय कह रहा था कि ‘इस समय यदि मेरे पास कुछ होता तो इसी समय सर्वस दान कर डालता’ फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार उन्होंने अन्न-वस्त्र का दान अभ्यागत तथा ब्राह्मणों के लिये दिया। इस प्रकार वह रात्रि आनन्द तथा उत्साह में ही व्यतीत हुई। दूसरे दिन धूलेड़ी थी। उस दिन सभी परस्पर में मिलकर धूलि-कीच तथा अबीर-गुलाल और रंग से होली खेलते हैं। बस, उसी दिन कट्टर-से-कट्टर पण्डित भी स्पर्शास्पर्श का भेद नहीं मानते। सभी परस्पर में मिलते हैं। उस दिन भक्तों में महान आनन्द रहा। एक-दूसरे पर उत्साह के साथ रंग-गुलाल तथा दधि-हल्दी डाल रहे थे। मानो आज नन्दोत्सव मनाया जा रहा हो। भक्तों ने अनुभव किया कि आकाश में देवता उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता मिलाकर जयघोष कर रहे हैं और भक्तों को अभयदान देते हुए आदेश कर रहे हैं कि अब भय की कोई बात नहीं, तुम्हारे दुर्दिन अब चले गये। नवद्वीप में ही नहीं सम्पूर्ण देश में भक्ति-भागीरथी की एक ऐसी मनोरम बाढ़ आवेगी कि जिसके द्वारा सभी जीव पावन बन जायँगे और चारों ओर ‘हरि बोल, हरि बोल’ यही सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ेगी।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(3)
निमाई

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।

पीताम्बरधरः स्त्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः।।[1]

पं. जगन्नाथ मिश्र और श्रीशची देवी की मानसिक प्रसन्नता का वही अनुभव कर सकता है जिसकी अवस्था महाराज दशरथ और जगन्माता कौसल्या की-सी हो। अथवा कंस का वध करने के अनन्तर देवकी और वसुदेव को जो प्रसन्नता हुई होगी उसी प्रकार की प्रसन्नता मिश्र-दम्पति के हृदय में विद्यमान होगी। शची देवी की क्रमशः आठ कन्याएँ प्रसव होने के कुछ काल के ही पश्चात् परलोकगामिनी बन चुकी थीं। इस वृद्धावस्था में दम्पति सन्तान-सुख से निराश हो चुके थे कि भगवान का अनुग्रह हुआ और विश्वरूप का जन्म हुआ। विश्वरूप यथा नाम तथा गुण ही थे, इनका रूप विश्व को मोहित करने वाला था, किन्तु बालोचित चांचल्य इनमें बिलकुल नहीं था, चेहरे पर परम शान्ति विराजमान थी। माता-पिता इस सर्वगुणसम्पन्न पुत्र के मुख-कमल को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हुआ करते थे।

अब भगवान की कृपा का क्या कहना है! विश्वरूप के बाद दूसरे बालक को देखकर तो मिश्र-दम्पति अपने आपे को ही भूल गये थे। सब बालक 9 महीने या अधिक-से-अधिक 10 महीने गर्भ में रहते हैं, किन्तु गौरांग पूरे 13 महीने गर्भ में रहे थे। सात महीने में भी बहुत-से बच्चे होते हैं और वे प्रायः जीवित भी रहते हैं, किन्तु वे बहुधा क्षीणकाय ही होते हैं। बात यह है कि 6 महीने में गर्भ के बच्चे के सब अवयव बनकर ठीक होते हैं और सातवें महीने में जाकर उसमें जीवन का संचार प्रतीत होता हे। जीवन का संचार होते ही बच्चा गर्भ से बाहर होने का प्रयत्न करता है। जो माताएँ कमज़ोर होती हैं, उनका प्रसव सात ही महीनों में हो जाता है, किन्तु बहुधा सातवें महीने में बच्चे का प्रयत्न निर्बल होने के कारण असफल ही होता है। बाहर निकलने के प्रयत्न में बालक बेहोश हो जाता है और वह बेहोशी दो महीने में जाकर ठीक होती है।

जो बच्चे 8 ही महीनों में हो जाते हैं, वे बचते नहीं हैं, क्योंकि एक तो पहली बेहोशी और दूसरी प्रसव की बेहोशी, इसलिये कमज़ोर बालक उन्हें सह नहीं सकता। 10 महीने का बच्चा खूब तन्दुरूस्त होता है। 13 महीने गर्भ में रहने के कारण गौरांग पैदा होते ही सालभर के-से प्रतीत होते थे। इनका शरीर खूब मजबूत था, अंग के सभी अवयव सुगठित और सुन्दर थे। तपाये हुए सुवर्ण की भाँति इनके शरीर का वर्ण था, छोटी-छोटी दोनों भुजाएँ खूब उतार-चढ़ाव की थीं। हाथ की उँगली कोमल और रक्त-वर्ण की बड़ी ही सुहावनी प्रतीत होती थी। छोटे-छोटे गुदगुदे पैर, मांस से छिपे हुए सुन्दर टखने, सुन्दर गोल-गोल पिंड़रियाँ और मनोहर ऊरूद्वय थे।

छोटे कमल के समान सुन्दर मुख बड़ी-बड़ी आँखें और सुन्दर पैनी नासिका बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। गर्भ के सभी बालकों के इतने मुलायम बाल होते हैं कि वे रेशम के लच्छों को भी मात करते हैं, किन्तु गौरांग के बाल तो अपेक्षाकृत अन्य बालकों के बालों से बहुत बड़े थे। काले-काले सुन्दर घुँघराले बालों से उस सुचारू आनन की शोभा ठीक ऐसी बन गयी थी मानो किसी अधिक रसमय कमल के ऊपर बहुत-से भौंरे आकर स्वेच्छापूर्वक रसपान कर रहे हों। शचीमाता उस रूप-माधुरी को बार-बार निहारती और आश्चर्यसागर में गोते लगाने लगती। वह बच्चे के सौन्दर्य में एक अपूर्व तेज का अनुभव करती। धीरे-धीरे बालक एक मास का हुआ। बंगाल की ओर माता 21 दिन में अथवा महीने भर में प्रसूति-घर से बाहर होती है और तभी षष्ठी-पूजा भी होती है। नामकरण-संस्कार प्रायः चार महीनों में होता था, किन्तु अब तो लोग बहुत पहले भी करने लगते हैं। एक महीने के बाद गौरांग का निष्क्रमण-संस्कार हुआ। सखी-सहेलियों के साथ शचीदेवी बालक को लेकर गंगास्नान करने के निमित्त गयीं। वहाँ जाकर विधिवत गंगा जी का पूजन किया और फिर षष्ठीदेवी के स्थान पर उनके पूजन के निमित्त गयीं।

षष्ठी देवी कौन हैं, इनके सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् देशों की पृथक्-पृथक् मान्यता है। यह कोई शास्त्रीय देवी नहीं हैं, एक लौकिक पद्धति है। बहुत जगह तो यह बालकों के अशुभ को मेटने वाली समझी जाती हैं और इसीलिये बालक के कल्याण के निमित्त इनकी पूजा करते हैं। हमारी तरफ बालक के जन्म के छठे दिन षष्ठी (छठी) देवी का पूजन होता है। घर की सबसे मान्य स्त्री पहले-पहल पूजा करती है, फिर सम्पूर्ण कुल-परिवार की स्त्रियाँ आ-आकर पूजा करती हैं अैर भेंट चढ़ाती हैं। मान्य स्त्री उन सबको खाने के लिये सीरा-पूड़ी या कोई अन्य वस्तु देती है। हमारी ओर वैमाता (भावी माता) को ही षष्ठी मानते हैं, ऐसी मान्यता है कि वैमाता उसी दिन रात्रि में आकर बालक की आयुभर का शुभाशुभ भाग्य में लिख जाती है। वैमाता बालक के भाग्य को खूब अच्छा लिख जाय इसीलिये उसकी प्रसन्नता के निमित्त उसका पूजन करते हैं। नीचे के दोहे में यही बात स्पष्ट है-

जो विधना ने लिख दई, छठी रात्रि के अंक।

राई घटै न तिल बढ़ै, रहु रे जीव निसंक।।

कुछ भी हो, लौकिक ही रीति सही, किन्तु इसका प्रचार किसी-न-किसी रूप में सर्वत्र ही है।

षष्ठी देवी के स्थान पर जाकर शचीदेवी ने श्रद्धा भक्ति के साथ देवी का पूजन किया और वे बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त देवी के चरणों में प्रार्थना करके सखी-सहेलियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आयीं। बालक ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था, त्यों-ही-त्यों उसकी चंचलता भी बढ़ती जाती थी। विश्वरूप जितने अधिक शान्त थे, गौरंग उतने ही अधिक चंचल थे। एक महीने के ही थे कि अपने-आप ही आँगन में घुटनों के सहारे रेंगने लगते थे। चलते-चलते जोर से किलकारियाँ मारने लगते, कभी-कभी अपने-आप ही हँसने लगते। माता इन्हें पकड़ती, किन्तु इन्हें पकड़ना सहज काम नहीं था। ये स्तन पीते-ही-पीते कभी इतने जोर से दौड़ते कि फिर इन्हें रोक रखना असम्भव ही हो जाता था। पहले-पहले ये बहुत रोते थे, माता भाँति-भाँति से इन्हें चुप करने की चेष्टा करती किन्तु ये चुप ही नहीं होते थे। एक दिन ये छोटे खटोलने पर पड़े-पड़े बहुत जोरों से रो रहे थे। माता ने बहुत चेष्टा की किन्तु ये चुप नहीं हुए। तब तो माता इन्हें ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द निमाई बोल।।’ यह पद गा-गाकर धीरे-धीरे हिलाने लगीं। बस, इसका श्रवण करना था कि ये चुप हो गये। माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें चुप करने का एक सहज ही उपाय मिल गया। जब कभी ये रोते तभी माता अपने कोमल कण्ठ से गाने लगती-

हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।

इसे सुनते ही ये झट चुप हो जाते। इनके मुहल्ले की स्त्रियाँ इन्हें बहुत ही अधिक प्यार करती थीं, इसलिये घर के काम से निवृत्त होते ही वे शची देवी के घर आ बैठती। शचीदेवी का स्वभाव बड़ा ही मधुर था। उनके घर जो भी आती उसी का खूब प्रेमपूर्वक सत्कार करतीं और घर का काम-काज छोड़कर उनसे बातें करने लगतीं। इसलिये सभी भली स्त्रियाँ अपना अधिकांश समय शचीदेवी के यहाँ बितातीं। वे सभी मिलकर गौरांग को खिलाती थीं। बच्चे की जिसमें प्रसन्नता हो खिलाने वाले उसी काम को बार-बार करते हैं। गौरांग हरि-नाम संकीर्तन से ही परम प्रसन्न होते थे और सुनते-सुनते किलकारियाँ मारने लगते, इसलिये स्त्रियाँ बार-बार उसी पद को गातीं। कभी-कभी सब मिलकर एक स्वर से कीर्तन के पदों का गान करती रहतीं। इस प्रकार दिनभर शचीदेवी के घर में-

हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।

इसी पद की ध्वनि गूँजती रहती। इस प्रकार धीरे-धीरे बालक की अवस्था चार मास की हुई। मिश्र जी ने शुभ मुहूर्त  में बालक के नामकरण-संस्कार की तैयारियाँ कीं। अपने सहपाठी प्रेमी पण्डितों को उन्होंने निमन्त्रित किया। ब्राह्मणों ने विधि-विधान के साथ वेद-पाठ और हवन किया।

पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती ने जन्म-नक्षत्र के अनुसार बालक का नाम विश्वम्भर रखा। किन्तु जन्म की राशि के नाम प्रायः बहुत कम प्रचलित होते हैं। बच्चे का नाम तो माता-पिता  अपनी राजी से ही रख लेते हैं, यह सब जगह की रिवाज है कि बच्चे का आधा नाम लेने में ही सबको आनन्द आता है। इसलिये बच्चे का कैसा भी नाम क्यों न हो उसे तोड़-मरोड़कर आधा ही बना लेंगे। यह प्रगाढ़ प्रेम का एक मुख्य अंग है। शची देवी की सखियों ने भी गौरांग का नाम रख लिया ‘निमाई’। निमाई नाम के सम्बन्ध में लोगों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कइयों का कहना है कि जब ये उत्पन्न हुए थे, तब धात्री को ऐसा प्रतीत हुआ कि इनके शरीर में प्राणों का संचार नहीं हो रहा है। ये प्रसव के अनन्तर अन्य बालकों की भाँति रोये नहीं। जब इनके कान में हरि-मन्त्र बोला गया तब ये रोने लगे।

इसलिये माता ने कहा- ‘यह यमराज के यहाँ नीम की तरह कड़वा साबित हो।’ इसलिये इसका नाम माता ने ‘निमाई’ रख दिया। बहुतों का मत है कि इनका प्रसवगृह एक नीम के वृक्ष के नीचे था, इसलिये इनका नाम ‘निमाई’ रखा गया। बहुतों के विचार में यह नाम हीनता का द्योतक इसलिये रखा गया, कि बच्चे की दीर्घायु हो। लोक में ऐसा प्रचार है कि जिस माता की सन्तानें जीवित नहीं रहतीं वह अपनी सन्तान का इसी प्रकार हीन नाम रखती हैं। कुछ भी हो, हमारा मत तो यह है, यह नाम किसी अर्थ को लेकर नहीं रखा गया। प्यार में ऐसे ही नाम रखे जाते हैं और सर्वसाधारण में वही प्रेम का नाम प्रचलित होता है। जैसे नित्यानन्द का ‘निताई’, जगन्नाथ का ‘जगाई’ इत्यादि। कुछ भी क्यों न हो, सम्पूर्ण नवद्वीप में गौरांग का यही नाम सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ।

पण्डित होने पर भी सब लोग इन्हें ‘निमाई पण्डित’ के ही नाम से जानते तथा पहचानते थे। नामकरण-संस्कार के अनन्तर पिता ने इनके स्वभाव की परीक्षा करनी चाही। उन्होंने इनके सामने रूपये-पैसे, अन्न-वस्त्र, द्रव्य-शस्त्र तथा पुस्तकें रख दीं और बड़े प्रेम से बोले- ‘बेटा! इनमें किसी चीज को उठा तो लो।’ प्राय ‘बालक चमकीली चीजों को सबसे पहले पसन्द करते हैं, किन्तु यह स्वभाव तो सर्वसाधारण लौकिक बालकों का होता है, ये तो अलौकिक थे। झट इन्होंने सबसे पहले श्रीमद्भागवत की पुस्तक पर हाथ रख दिया। सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई। सबने एक स्वर से कहा- ‘निमाई बड़ा भारी पण्डित होगा।’ सच है-

होनहार बिरवान के होत चीकने पात।

इसीलिए गौरांग ने धरा ग्रन्थ पर हात।।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(4)
प्रेम-प्रवाह

अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यद्

विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।

कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं।

भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत् प्राप्यते।।[1]

ओत-प्रोतरूप से परिप्लावित इस प्रेमपयोधिरूपी जगत में जीव अपनी क्षुद्रता के कारण ऐसे संकीर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, कि उस प्रेमपीयूष का सम्पूर्ण स्वारस्य एकदम नष्ट हो जाता है। अहा! जब सुख-दुख में समान भाव हो जाय, किसी भी अवस्था में चित्त की वृत्ति सजातीय-विजातीय का अनुभव न करने लगे, उस समय के सुख का भला क्या कहना है? ऐसा प्रेम किसी विरले ही महापुरुष के शरीर में प्रकट होता है और उनकी प्रीति के पात्र कोई बड़भागी ही सुजन होते हैं। महापुरुषों में जन्म से ही यह विश्व-विमोहन प्रेम होता है। सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में हम चिरकाल से सुनते आ रहे हैं, कि वे जन्म से ही सभी प्राणियों में समान भाव रखते थे। महात्मा नानक जी जब बाल्यावस्था में भैंस चराने जाते तो एकान्त में बैठकर ध्यान करने लगते। बहुत-से लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक बड़ा भारी सर्प अपने फण से उनके ऊपर छाया किये रहता और जब वे ध्यान से उठते तब चला जाता। सिंहों को कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते अभी तक तपस्वियों के आश्रम में देखा गया है।

महापुरुषों के अंग में वह प्रेम की आकर्षक बिजली जन्म से ही होती है, कि पापी-से-पापी पुरुष की तो बात ही क्या है, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तक उनके आकर्षण से खिंचकर उनके चेरे हो जाते हैं। शची देवी के छोटे से आँगन में जो दिन-रात्रि ‘हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।’ की ध्वनि गूँजती रहती है, इसका कारण निमाई की अपूर्व रूपमाधुरी ही नहीं है, किन्तु उनकी विश्वमोहिनी मन्द-मुसकान ने ही पास-पड़ोसियों की स्त्रियों को चेरी बना लिया है, उन्हें निमाई की मन्द-मुसकान के देखे बिना कल ही नहीं पड़ती। माताओं का यह सनातन स्वभाव है कि उनकी सन्तान पर जो कोई प्रेम करता है तो उनके हृदय में एक प्रकार की मीठी-मीठी गुदगुदी होती है, उनका जी चाहता है इस प्यार करने वाले पुरुष को मैं क्या दे दूँ? स्त्रियाँ निमाई को जितना ही प्यार करतीं, शची माता निमाई को उतना ही और अधिक सजातीं। मातृ-हृदय को भी ब्रह्मा जी ने एक अपूर्व पहेली बनाया है। निमाई अभी छोटा है, बहुत-से स्थानों से बालक के लिये छोटे-छोटे सिले वस्त्र और गहने आये हैं। माता ने अब निमाई को उन्हें पहनाना आरम्भ कर दिया है। एक दिन माता ने निमाई को उबटन लगाकर खूब नहवाया। तेल डालकर छोटे-छोटे घुँघराले बालों को कंघी से साफ किया। एक पीला-सा कुर्ता शरीर में पहनाया।

हाथ के कडूलों को मिट्टी से घिसकर चमकीला किया। कमर में करधनी पहनायी, उसे एक काले डोरे से बाँध भी दिया। पैरों में छोटे-छोटे कडूले पहनाये। कण्ठ में कठुला पहनाया। कई एक काले गंडे-ताबीज बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त पहले से ही पड़े थे। बड़ी-बड़ी कमल-सी आँखों में काजल लगाया। बायीं ओर मस्तक पर एक काला-सा टिप्पा भी लगा दिया, जिससे बच्चे को नजर न लग जाय। खूब श्रृंगार करके माता बच्चे के मुख की ओर निहारने लगी। माता उस अपूर्व सौन्दर्य-माधुरी का पान करते-करते अपने आपे को भूल गयी। इतने में ही विश्वरूप ने आकर कहा- ‘अम्मा! अभी भात नहीं बनाया?’

कुछ झूठी व्यग्रता और रोब दिखाते हुए माता ने जल्दी से कहा- ‘तेरे इस छोटे भाई से मुझे फुरसत मिले तब भात भी बनाऊँ। यह तो ऐसा नटखट है कि तनिक आँख बचते ही घर से बाहर हो जाता है, फिर इसका पता लगाना ही कठिन हो जाता है।’ विश्वरूप ने कहा- ‘अच्छा ला, इसे मैं खेलाता हूँ। तू तब तक जल्दी से रन्धन कर।’ यह कह विश्वरूप ने बालक निमाई को अपनी गोद में ले लिया। माता तो दाल-चावल बनाने में व्यस्त हो गयी और विश्वरूप धूप में बैठ गये। भला विश्वरूप-जैसे विद्याव्यासंगी बालक ख़ाली कैसे बैठे रह सकते हैं? वे निमाई को पास बिठाकर पुस्तक पढ़ने लगे। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे उसमें तन्मय हो गये। अब निमाई को किसका भय? धीरे से रेंग-रेंगकर आप आँगन के दूसरी ओर एकान्त में जा पहुँचे? वहाँ पर एक कोई बड़भागी सर्प देवता बैठे हुए थे। बस, निमाई को एक नूतन खिलौना मिल गया। वे उनके साथ खेलने लगे।

माता शरीर से तो दाल-भात बनाती जाती थीं, किन्तु उनका मन निमाई की ही ओर लगा हुआ था। थोड़ी देर में जब उसने दोनों भाइयों में कुछ भी बातें-चीतें न सुनीं तो विश्वरूप को सावधान करने के निमित्त उन्होंने वहीं से पूछा- ‘विश्वरूप! निमाई सो गया क्या? मानो कोई घोर निद्रा से जागकर अपने चारों ओर जगाने वाले को भौंचक्के की भाँति देखता है, उसी प्रकार पुस्तक से नजर उठाकर विश्वरूप ने कहा- ‘क्या अम्मा! क्या कहा? निमाई? निमाई तो यहाँ नहीं है।’ मानो माता के कलेजे में किसी ने गरम ठेस लगा दी हो, उनका मातृहृदय उसी समय किसी अशुभ आशंका के भय से पिघलने लगा। वे दाल-भात को वैसे ही छोड़कर जल्दी से बाहर आयीं।

विश्वरूप भी उठकर खड़े हो गये। दोनों माँ-बेटे इधर-उधर निमाई को ढूँढ़ने लगे। आँगन के दूसरी ओर उन्होंने जो कुछ देखा उसे देखकर तो सबके छक्के छूट गये। माता ने बड़े जोर से एक चीत्कार मारी। उनकी चीत्कार को सुनकर आस-पास से और भी स्त्री-पुरुष वहाँ आ गये। सबों ने देखा निमाई का आधा शरीर धूलि-धूसरित है, आधा अंग तेल के कारण चमक रहा है। बालों में भी कुछ धूलि लगी है। कुर्ते में पीठ की ओर एक गाँठ लगी है, वह बड़ी ही भली मालूम पड़ती है। पीले रंग के वस्त्रों में से सुवर्ण-रंग का शरीर बड़ा ही सुहावना मालूम पड़ता है। सर्प गुड़मुड़ी मारे बैठा है। निमाई उसके ऊपर सवार है। उसने अपना काला गौ के खुर के चिह्न से चिह्नित विशाल फण ऊपर उठा रखा है। निमाई का एक हाथ फण के ऊपर है। एक से वे जमीन को छू रहे हैं। एक पैर में वलय देकर साँप चुपचाप पड़ा है। सूर्य के प्रकाश में उसका स्याह काला शरीर चमक रहा है।

निमाई को कोई चिन्ता ही नहीं। वे हँस रहे हैं। हँसने से आगे के दाँत जो अभी नये ही निकले हैं खूब चमक रहे हैं। देखने वालों के होश उड़ गये। सभी के हृदय में एक विचित्र आन्दोलन उठ रहा था। किसी की हिम्मत भी नहीं पड़ती थी कि बच्चे को साँप से छुड़ावे। इसी समय शची देवी छुड़ाने के लिये दौड़ीं। उनका दौड़ना था कि साँप जल्दी से अपने बिल में घुस गया। निमाई हँसते-हँसते माता की ओर चले। माता ने जल्दी से बालक को छाती से चिपटा लिया। उस समय माता को तथा अन्य सभी लोगों को जो आनन्द हुआ होगा उसका वर्णन भला कौन कर सकता है? सभी ने बच्चे को सकुशल काल के गाल में से लौटा देखकर भाँति-भाँति के उपचार किये। किसी ने झाड़-फूँक की, किसी ने ताबीज बनाया। स्त्रियाँ कहने लगीं- ‘यह कोई कुलदेवता है, तभी तो इसने बच्चे को कोई क्षति नहीं पहुँचायी।’ कोई-कोई बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ बच्चे का मुँह चूम-चूकर कहने लगीं- ‘निमाई, तू इतनी बदमाशी क्यों किया करता है? क्या तुझे खेलने को साँप ही मिले हैं? निमाई उनकी ओर देखकर हँस देते तभी सब स्त्रियाँ गाने लगतीं-

हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।

इस प्रकार निमाई की अधिक चंचलता देखकर माता उनकी अधिक चिन्ता रखने लगी। माता जितनी ही अधिक होशियारी रखती, ये उतना ही अधिक उसे धोखा भी देते।

एक दिन ये घर से निकलकर बाहर रास्ते में एकान्त में खेल रहे थे। शरीर पर बहुत-से आभूषण थे, उनमें कई सोने के भी थे। इतने में ही चोर उधर आ निकला। निमाई को आभूषण पहने एकान्त में खेलते देखकर उसके मन में बुरा भाव उत्पन्न हुआ और वह इन्हें पीठ पर चढ़ाकर एकान्त स्थान की ओर जाने लगा। इनके स्पर्शमात्र से ही उसकी विचित्र दशा हो गयी, उसे अपने कुकृत्यों पर रह-रहकर पश्चात्ताप होने लगा। निमाई का एक पैर उसके कन्धे के नीचे लटक रहा था। उस कमल की भाँति कोमल पैर को देखकर उसका हृदय भर आया। उसने एक बार निमाई के कमल की तरह खिले हुए मुँह की ओर ध्यानपूर्वक देखा। पीठ पर चढे़ हुए निमाई हँस रहे थे। चोर का हृदय पानी-पानी हो गया। जगदुद्धारक निमाई का वही पापी सर्वप्रथम कृपापात्र बना। इधर निमाई को घर में न देखकर माता-पिता को बड़ी चिन्ता हुई।

मिश्र जी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते गंगा जी  तक पहुँचे, किन्तु निमाई का कुछ भी पता नहीं चला। इधर शची देवी पगली की तरह आस-पास के मुहल्लों के सभी घरों में निमाई को ढूँढ़ने लगी। स्त्रियाँ कहतीं- ‘वह बड़ा चंचल है, घर में रहना तो मानो सीखा ही नहीं। तुम चिन्ता मत करो। यहीं कहीं खेल रहा होगा। मिल जायगा। चलो मैं भी चलती हूँ।’ इस प्रकार सभी स्त्रियाँ शचीमाता को धैर्य बँधाती थीं, किन्तु शची को धैर्य कहाँ? उन सबकी बातों को अनसुनी करती हुई माता एक घर से दूसरे घर में दौड़ने लगी। विश्वरूप अलग ढूँढ़ रहे थे। इधर चोर की चित्तवृत्ति शुद्ध होने से उसका भाव ही बदल गया। बस, वही उसका चोरी का अन्तिम दिन था। उसने धीरे से लाकर निमाई को उनके द्वार पर उतार दिया।

माता-पिता तथा भाई इधर ढूँढ़ रहे थे, किसी ने आकर समाचार दिया कि निमाई तो घर पर खेल रहा है। मानो मरू-भूमि में जलाभाव के कारण मरते हुए पथि को सुन्दर सुशीतल जल मिल गया हो अथवा किसी परम बुभुक्षित को अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ मिल गये हों, इस प्रकार की प्रसन्नता मिश्र जी को हुई। उन्होंने द्वार पर आकर देखा कि निमाई हँस रहा है। माता ने आकर बच्चे को छाती से चिपटाया। विश्वरूप ने भाई को पुचकारा। स्त्रियाँ आकर गाने लगीं-

हरि हरि बोल, बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल।।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(5)
अलौकिक बालक

स्वगर्भशुक्तिनिर्भिन्नं सुवृत्तं सुतमौक्तिकम्।

वंशश्रीतिलकीभूतं मन्दभाग्यस्य दुर्लभम्।।[1]

शची-रूपी सीपी के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है, जिसमें निमाई के समान संसार को सुख-शान्ति प्रदान करने वाला बहुमूल्य मोती पैदा हुआ? शची की समझ में स्वयं नहीं आता था कि यह बालक कैसा है? इसकी सभी बातें दिव्य हैं, सभी चेष्टाएँ अलौकिक हैं। देखने में तो यह बालक-सा प्रतीत होता है, किन्तु बातें ऐसी करता है कि अच्छे-अच्छे समझदार भी उन्हें सरलतापूर्वक नहीं समझ सकते। कभी तो उसे भ्रम होता और सोचने लगती यह कोई छद्म-वेष बनाये महापुरुष या देवता मेरे यहाँ क्रीड़ा कर रहे हैं और कभी-कभी मातृस्नेह के कारण सब कुछ भूल जातीं।

एक दिन माता ने देखा कि घर में बड़े जोरों का प्रकाश हो रहा है। बहुत-से तेजपूर्ण दिव्य-दिव्य पुरुष निमाई की पूजा  और स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर माता को बड़ा भय मालूम हुआ। वे जल्दी से घर के भीतर गयीं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा निमाई सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं। यह बात शची देवी ने अपने पति पण्डित जगन्नाथ मिश्र से कही। मिश्र जी ने कहा- ‘हम तो पहले से ही जानते थे, यह बालक कोई साधारण पुरुष नहीं है।’ इसी प्रकार एक दिन आँगन में ध्वजा, वज्र, कुश आदि शुभ चिह्नों से चिह्नित छोटे-छोटे पैरों को देखकर शची देवी विस्मित हो गयीं। उन्होंने वे चरणचिह्न मिश्र जी को भी दिखाये। भाग्यवान दम्पती ने उन चरणों की धूलि अपने मस्तक पर चढ़ायी।

मिश्र जी कहने लगे- ‘मालूम पड़ता है, घर के बालगोपाल ठाकुर सशरीर आँगन में घूमते हैं। यह हम लोगों का परम सौभाग्य है।’ इतने में ही उन्होंने निमाई के छोटे-छोटे पैरों में भी वे ही चिह्न देखे। मिश्र जी पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती को बुलाकर लाये और निमाई के हाथ तथा पैरों की रेखा उन्हें दिखायी। सब देखकर चक्रवर्ती महाशय बोले- ‘हमने उसी दिन जन्मकुण्डली ही देखकर कह दिया था कि यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है। भविष्य में इसके द्वारा संसार का बहुत कल्याण होगा।’ एक दिन मिश्र जी ने निमाई से कहा- ‘बेटा! भीतर से पुस्तक तो ले आ।’ निमाई हँसते हुए भीतर चले गये। मिश्र जी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो नूपुर की सुमधुर ध्वनि निमाई के पैरों में से होती जा रही है। उन्होंने शची देवी जी से पूछा- ‘निमाई को नूपुर तुमने पहना दिये हैं क्या?’ शची देवी ने उत्तर दिया- ‘नहीं तो, नूपुर तो मैंने नहीं पहनाये। देखते नहीं हो। उसके पैरों में सिवाय कडूलों के और कुछ भी नहीं है।’ मिश्र जी सब समझकर चुप हो गये। निमाई पुस्तक रखकर चले गये।

एक दिन ये अपनी माता से किसी बात पर झगड़ बैठे। चंचल तो ये थे ही, किसी बात पर अड़ गये। माता ने बहुत मनाया, नहीं माने, तब माता रोष में भरकर बाहर जाने लगी। इन्होंने अपने कोमल करों से माता पर थोड़ा प्रहार किया। माता का हृदय भर आया। उन्हें निमाई की अलौकिक लीलाएँ और उनकी लोकोत्तर सभी बातें स्मरण होने लगीं। वे अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। इसी बीच में उन्हें अपनी दरिद्रावस्था का भी स्मरण हो आया। दुःख के बीच में माता अधीर हो उठी और वहीं मूर्च्छित अलौकिक बालक होकर गिर पड़ी। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ शचीमाता को पंखा आदि से वायु करने लगीं। निमाई घबड़ा गये। माता की ऐसी अवस्था देखकर उनके होश उड़ गये। वे स्त्रियों से पूछने लगे- ‘माता किस प्रकार अच्छी हो सकेंगी? उनमें से किसी स्त्री ने कह दिया- ‘यदि दो ताजी नारिकेल ला सको और उनका जल इन्हें पिलाया जाय तो ये अभी अच्छी हो जायँ।’

यह सुनकर ये दौड़े-दौड़े बाहर गये और थोड़ी ही देर में दो बडे़-बड़े ताजा नारिकेल लेकर घर में वापिस आये। नारिकेल फोड़कर उसका जल शचीमाता के मुँह में डाला गया। धीरे-धीरे वे होश में आने लगीं। जब वे खूब होश में आ गयीं तब ये उनसे लिपटकर खूब रोये और रोते-रोते बोले- ‘माँ! न जाने मुझे क्या हो जाता है जो तुम्हें इतना तंग करता हूँ। मेरी माँ! अब कभी ऐसा काम न करूँगा।’ एक दिन ये वैसे ही रोने लगे और खूब जोर-जोर से रोने लगे।

माता-पिता ने इन्हें बार-बार समझाया, पुचकारा, बहलाया किन्तु ये मानते ही न थे। बराबर रोते ही जाते थे। अन्त में माता ने पूछा- ‘तू चाहता क्या है? क्यों इतना रोता है? मुझे सब बात बता दे। तू जो कहेगा वही चीज तुझे ला दूँ’। आपने रोते-ही-रोते कहा- ‘जगदीश और हिरण्य पण्डित के घर जो आज ठाकुर जी के लिये नैवेद्य बना है उसे ही लेकर हम चुप होंगे।’ यह सुनकर सभी चकित हो गये। किसी का भी साहस नहीं पड़ता था कि उनके घर जाकर बिना पूजा किये नैवेद्य को लाकर बालक को दे दे। सभी चुप होकर एक-दूसरे के मुख की ओर देखने लगे। निमाई फूट-फूटकर रो रहे थे। माता ने बहुत समझाया- ‘बेटा! पूजा माई की चीज है, जब तक भगवान का भोग नहीं लगता तब तक नहीं खाते। पूजा हो जाने दे, मैं जाकर उनके घर से ला दूँगी।

बिना पूजा किये जो बच्चे मिठाई को खा लेते हैं, उनके कान पक जाते हैं। रोवे मत। ये तेरे सब साथी तेरी हँसी करेंगे कि निमाई कैसा रोने वाला है?’ माता की इन बातों का निमाई पर कुछ भी असर नहीं हुआ। वे बराबर रोते ही रहे। किसी ने जाकर उन ब्राह्मणों से ये बातें कह दीं। ये दोनों वैष्णव ब्राह्मण पण्डित जगन्नाथ मिश्र के पड़ोसी थे और मिश्र जी से बड़ा प्रेम मानते थे। निमाई उनके घर बहुत जाया-आया करते थे। इस बात को सुनकर उनके घर के सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि निमाई को यह कैसे पता चला कि हमारे घर आज भगवान के लिये नैवेद्य तैयार हो गया है। कुछ भी हो, वे बड़ी प्रसन्नता से नैवेद्य लेकर निमाई के पास आये। निमाई ने सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर खा लिया, तब ये शान्त हुए। माता को इनकी ऐसी बातों पर बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगीं- इस पर जरूर कोई भूत-पिशाच आता है, इसलिये उन्होंने देवताओं के नाम से द्रव्य उठाकर रख दिया, देवियों की पूजा की और बहुत-सी मनौतियाँ भी मानीं। वे निमाई की ऐसी दशा देखकर मन में किसी अशुभ बात की शंका करके डर जातीं और बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त भाँति-भाँति के उपाय सोचतीं।

धीरे-धीरे इनकी अवस्था पाँच साल के लगभग हुई। पिता ने इनका अक्षरारम्भ कराया। लिखने के लिये हाथ में पट्टी और खड़िया दी। भला इन्हें क्या पढ़ना था, ये तो सभी कुछ पढे़-पढ़ाये ही आये थे। पिता को दिखाने के लिये तो कभी ये पट्टी पर कुछ उलटी-सीधे लकीरें करने लगते किन्तु वैसे पढ़ते कुछ भी नहीं थे। खड़िया को लेकर शरीर से मल लेते, लम्बे-लम्बे माथे पर उसके तिलक लगा लेते और माता से कहते- ‘अम्मा! तेरे घर में एक परम वैष्णव आया है, कुछ भिक्षा देगी?’ माता इनके तिलकों को देखती और हँस पड़ती। गोद में बिठाकर मुख चूमती और कहती- ‘बेटा इतना उपद्रव नहीं किया करते हैं। कुछ पढ़ना-लिखना भी चाहिये। अब तो निरा बालक ही नहीं है। तेरी बराबरी के ब्राह्मण के बालक पोथी पढ़ लेते हैं, तू वैसे ही दिनभर इधर-उधर खेला करता है।’ ये माता की बातों को सुन लेते और मुसकरा देते। खा-पीकर जल्दी बालकों में खेलने के लिये भाग जाते। सभी बालकों को लेकर ये उन्हें नाचना सिखाते।

तीन-तीन, चार-चार बालक मिलकर हाथ पकड़-पकड़ नाचते और घूमते-घूमते कभी चक्कर आने से धूलि में गिर भी पड़ते। कभी ऊपर हाथ उठा-उठाकर ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर खूब नाचते। इनके साथ-साथ और बालक भी ‘हरि बोल, हरि बोल’ की उच्च-ध्वनि करने लगते। रास्ता चलने वाले लोग इनके खेलों को देखकर खडे़ हो जाते और घंटों इनकी लीलाओं को देखा करते। बहुत-से विद्वान पण्डित भी उधर से निकलते, बच्चों के साथ निमाई को नाचते देखकर उन्हें अपनी पुस्तकी-विद्या पर बड़ी लज्जा आती। उनका जी चाहता था कि सब कुछ छोड़-छाड़कर इन बच्चों के ही साथ नृत्य करने लगें, किन्तु लोक-लज्जा उन्हें ऐसा न करने के लिये विवश करती। इस प्रकार ये खेल में भी बालकों को कुछ-न-कुछ शिक्षा देते रहते। पिता  इन्हें जितना ही पढ़ाना चाहते थे ये उतने ही पढ़ने से भागते थे। ज्यों-ज्यों इनकी अवस्था बड़ी होती जाती थी, त्यों-त्यों चंचलता भी पहले से अधिक बढ़ती जाती थी।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(6)
बाल्य-भाव

दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम्।

पुण्याधिका हि पश्यन्ति गंगाधरमिवात्मजम्।।[1]

‘इस काम के करने से क्या फायदा?’ ‘इसको क्यों करें, इससे हमारा क्या मतलब?’ ये प्रश्न स्वार्थजन्य हैं, स्वार्थ अज्ञानजन्य है और अज्ञान ही बन्धन का हेतु है। ‘भगवान् ने इस सृष्टि को क्यों उत्पन्न किया?’ यह सभी अज्ञानी जीवों की शंका है, जो बिना मतलब के कुछ करना ही नहीं जाते। इसीलिये भगवान व्यासदेव जी ने इसका यही सीधा-सादा उत्तर दिया है कि उसका कुछ भी मतलब नहीं। ‘बाल-लीलावत’ है। बच्चों को देखा है, ख़ाली गाड़ी देखकर उस पर बहुत दूर तक चढ़कर चले जाते हैं और फिर उधर से पैदल ही लौट आते हैं। कोई पूछे- ‘ऐसा करने से उन्हें क्या लाभ?’ इसका उत्तर कुछ भी नहीं। लाभ-हानि बच्चा जानता ही नहीं। उसके लिये दो चीज हैं ही नहीं या तो लाभ-ही-लाभ है या हानि-ही-हनि। या तो उसके लिये सभी वस्तु पवित्र-ही-पवित्र हैं या सभी अपवित्र हैं। वह ज्यों-ज्यों हम लोगों के संसर्ग में रहकर ज्ञान या अज्ञान सीखता जाता है, त्यों-ही-त्यों मतलब और फायदा सोचने लगता है। उस समय उसकी वह द्वन्द्वातीतपने की अवस्था धीरे-घीरे लोप हो जाती है। फिर वह मजा जाता रहता है।

बाल-भाव भी कितना मनोहर है, जब साधारण बालकों के ही विनोद में परम आनन्द और उल्लास भरा रहता है, तब दिव्य बालकों की लीलाओं का तो कहना ही क्या? उस समय तो लोग उन्हें नहीं जाते, ज्यों-ज्यों उनके जीवन में प्रकाश होने लगता है त्यों-ही-त्यों उन पुरानी बातों में भी रस भरता जाता है। निमाई अलौकिक बालक थे। उनकी लीलाएँ भी बड़ी मधुर और साधारण बालकों की भाँति होने पर भी परम अलौकिक थीं। पाठक स्वयं समझ लेंगे कि 3-4 वर्ष की अवस्था के बालक की कितनी गूढ़-गूढ़ बातें होती थीं।

एक दिन माता ने देखा, निमाई एकदम नंगा है। इधर-उधर से चीरें उठाकर लपेट ली है। सम्पूर्ण शरीर में धूलि लपेटे हुए है। एक घूरे पर अशुद्ध हाँड़ियों पर आप बैठे हैं। हाँड़ियों में से कारिख लेकर मुँह और माथे पर काली-काली लम्बी-लम्बी रेखाएँ खींच ली हैं। शरीर में जगह-जगह काली बिंदी लगा ली है। एक फूटी हाँड़ी को खपड़े से बजा-बजाकर आप कुछ गा रहे हैं। सुवर्ण-जैसे शरीर पर भस्म के ऊपर काली-काली बिंदी बहुत ही भली मालूम होती थी। जो भी उधर से निकलता वही उस अद्भुत स्वाँग को देखने के लिये खड़ा हो जाता। निमाई अपने राग में मस्त थे, उन्हें दीन-दुनिया का कुछ भी पता नहीं। किसी ने जाकर यह समाचार शचीमाता को सुनाया। माता दौड़ी-दौड़ी आयीं और दो-चार मीठी-मीठी प्रेमयुक्त कड़ी बातें कहकर डाँटने लगीं- ‘निमाई! तू अब बहुत बदमाशी करने लगा है। भला ब्राह्मण के बेटे को ऐसे अपवित्र स्थान में बैठना चाहिये?’

आपने कहा- ‘अम्मा! स्थान का क्या अपवित्र ओर क्या पवित्र? स्थान तो सभी एक-से हैं। हाँ, जो स्थान हरि-सेवा-पूजा से हीन हो वहाँ बैठना ठीक नहीं। इन हाँड़ियों में तो मैंने भगवान  का प्रसाद बनाया है। भला, फिर ये हाँड़ियाँ अपवित्र कैसे हुई?’

माता ने डाँटकर कहा- ‘बहुत ज्ञान मत छाँट, जल्दी से उठकर स्नान कर ले।’

निमाई भला कब उठने वाले थे? वे तो वहीं डटे रहे और फिर वही अपना पुराना राग अलापने लगे। माता ने जब देखा वह किसी भी तरह नहीं उठता, तो स्वयं जाकर इनका हाथ पकड़कर उठा लायीं और घर में आकर इन्हें स्नान कराया और स्वयं स्नान किया।

इसी प्रकार से सभी बालोचित लीलाएँ करते। कभी किसी कुत्ते के बच्चे को पकड़ लाते और उसे दूध-भात खिलाते। दिनभर उसे बाँधे रखते। माता यदि उसे भगा देती तो खूब रोते। कभी पक्षियों को पकड़ने को दौड़ते ओर कभी गौ के छोटे बच्चे के साथ खेलते और उससे धीरे-धीरे न जाने क्या-क्या बातें करते। सबके घरों में बिना रोक-टोक चले जाते। कोई कहती- ‘निमाई! तुझे हम सन्देश दें, जरा नाच तो दे।’ तब आप कहते- ‘पहले सन्देश (मिठाई) दो, तब नाचेंगे।’ वे सन्देश-लड्डू-पेड़े इन्हें दे देतीं। ये उसी समय कुछ मुँह में भर लेते, शेष को हाथ में लेकर ऊपर हाथ उठा-उठाकर खूब नाचते। इस प्रकार ये घर-घर जाकर खूब नाच दिखाते और खाने के लिये खूब माल पाते। स्त्रियाँ इन्हें बहुत प्यार करतीं। कोई केला देती, कोई मेवा देती, कोई मिठाई देती। ये सबसे ले लेते, स्वयं खाते ओर अपने साथियों को बाँट देते। इस प्रकार ये सभी के मन को अपनी ओर आकर्षित करने लगे और नर-नारियों को परम सुख देने लगे।

एक दिन ये बाहर से दौड़े-दौड़े आये ओर जल्दी से माता से बोले- ‘अम्मा! अम्मा! बड़ी भूख लग रही है, कुछ खाने के लिये हो तो दे।’

माता ने कहा- ‘बेटा! बैठ जा। अभी दूध-चिउरा लाती हूँ, उन्हें तब तक खा ले फिर झट से भात बनाऊँगी।’ यह कहर माता ने भीतर से लाकर एक कटोरे में दूध-चिउरा इन्हें दिया। माता तो देकर भीतर चली गयीं।, ये दूध-चिउरा न खाकर पास में पड़ी मिट्टी को खाने लगे। माता ने जब आकर देखा कि निमाई तो मिट्टी खा रहा है, तब वे जल्दी से कहने लगीं- ‘अरे निमाई! तू यह क्या कर रहा है? मिट्टी क्यों खाता है?’

आपने भोली सूरत बनाकर कहा- ‘अम्मा! तैने भी तो मुझे मिट्टी लाकर दी है। मिट्टी ही मैं खा रहा हूँ’। माता ने कहा- ‘मैंने तो तुझे दूध-चिउरा दिया है, उसे न खाकर तू मिट्टी खा रहा है।’

आपने कहा- ‘माँ! यह सब मिट्टी ही तो है। सभी पदार्थ मिट्टी के ही विकार हैं।’ माता इस मूढ़ ज्ञान को समझ गयी। पुचकारकर बोलीं- ‘बेटा! है तो सब मिट्टी ही किन्तु काम सबका अलग-अलग है। घड़ा भी मिट्टी है, रेत भी मिट्टी है। घडे़ में पानी भरकर लाते हैं, तो वह रखा रहता है और रेत में पानी डालें तो वह सूख जायगा। इसलिये सबके काम अलग-अलग हैं।’

आपने मुँह बनाकर कहा- ‘हाँ, ऐसी बात है? तब हमें तैंने पहले से क्यों नहीं बताया, अब ऐसा न किया करेंगे। अब कभी मिट्टी न खायेंगे। भूख लगने पर तुझसे ही माँग लिया करेंगे।’

इस प्रकार भाँति-भाँति की क्रीड़ाओं के द्वारा निमाई माता को दिव्य सुख का आस्वादन कराने लगे। माता इनकी भोली और गूढ़ ज्ञान से सनी हुई बातें सुन-सुनकर कभी तो आश्चर्य करने लगतीं, कभी आनन्द के सागर में गोता लगाने लगतीं।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(7)
बाल-लीला

पंकाभिषिक्तसकलावयवं विलोक्य

दामोदरं वदति कोपवशाद् यशोदा।

त्वं सूकरोऽसि गतजन्मनि पूतनारे!

इत्युक्तसस्मितमुखोऽवतु नो मुरारिः।।[1]

निमाई की सभी लीलाएँ दिव्य हैं। अन्य साधारण बालकों की भाँति वे चंचलता और चपलता तो करते हैं, किन्तु इनकी चंचलता में एक अलौकिक भाव की आभा दृष्टिगोचर होती है। जिसके साथ ये चपलता करते हैं, उसे किसी भी दशा में इनके ऊपर गुस्सा नहीं आता, प्रत्युत वह प्रसन्न ही होता है। ये चंचलता की हद कर देते हैं, जिस बात के लिये मना किया जाय, उसे ही ये हठपूर्वक बार-बार करेंगे- यही इनकी विशेषता थी। इन्हें अपवित्र या पवित्र किसी भी वस्तु से राग या द्वेष नहीं। इनके लिये सब समान ही है। एक दिन की बात है कि निमाई के पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र गंगास्नान करके घर लौट रहे थे। उन्होंने अपने घर के समीप एक परेदशी ब्राह्मण को देखा। देखने से वह ब्राह्मण किसी शुभ तीर्थ का प्रतीत होता था। उसके चेहरे पर तेज था, माथे पर चन्दन का तिलक था ओर गले में तुलसी  की माला थी। मुख से प्रतिक्षण भगवन्नाम का जप कर रहा था।

मिश्र जी ने ब्राह्मण को देखकर नम्रतापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया और अपने यहाँ आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना की। मिश्र जी के शील-स्वभाव को देखकर ब्राह्मण ने उनका अतिथि होना स्वीकार किया और वे उनके साथ-ही-साथ घर में आये। घर पहुँचकर मिश्र जी ने ब्राह्मण के चरणों का प्रक्षालन किया और उस जल को अपने परिवार के सहित सिर पर चढ़ाया, घर में छिड़का तथा आचमन किया। इसके अनन्तर विधिवत अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय तथा फल-फूल के द्वारा ब्राह्मण की पूजा  की और पश्चात् भोजन बना लेने की भी प्रार्थना की। ब्राह्मण ने भोजन बनाना स्वीकार कर लिया। शचीदेवी ने घर के दूसरी ओर लीप-पोतकर ब्राह्मण की रसोई की सभी सामग्री जुटा दी। पैर धोकर ब्राह्मण देव रसोई में गये। दाल बनायी, चावल बनाये, शाक बनाया और आलू भूनकर उनका भुरता भी बना लिया। शचीदेवी ने पापड़ दे दिये, उन्हें भूनकर ब्राह्मण ने एक ओर रख दिया।

सब सामग्री सिद्ध होने पर ब्राह्मण ने एक बड़ी थाली में चावल निकाले, दाल भी हाँड़ी में से निकालकर थाली में रखी। केले के पत्ते पर शाक और भुरता रखा। भुने पापड़ को भात के ऊपर रखा। आसन पर सुस्थिर होकर बैठ गये, सभी पदार्थों में तुलसी पत्र  डाले। आचमन करके वे भगवान का ध्यान करने लगे। आँखें बंद करके वे सभी पदार्थों को विष्णु भगवान के अर्पण करने लगे। इतने में ही घुँटुओं से चलते हुए निमाई  वहाँ आ पहुँचे और जल्दी-जल्दी थाली में से चावल लेकर खाने लगे। ब्राह्मण ने जब आँख खोलकर देखा तो सामने बालक को खाते पाया।

ब्राह्मण एकदम चौंक उठा और जोर से कहने लगा- ‘अरे, यह क्या हो गया?’ इतना सुनते ही निमाई भयभीत की भाँति वहाँ से भागने लगे। हाय-हाय करके मिश्र जी दौड़े। कोलाहल सुनकर शचीदेवी भी वहाँ आ गयीं। मिश्र जी बालक निमाई को मारने के लिये दौडे़। निमाई जल्दी से जाकर माता के पैरों में लिपट गये। इतने में ही ब्राह्मण दौडे़ आये। उन्होंने आकर मिश्र जी को पकड़ लिया और बड़े प्रेम से कहने लगे- ‘आप तो पण्डित हैं, सब जानते हैं। भला बच्चे को चौके-चूल्हे का क्या ज्ञान? इसके ऊपर आप गुस्सा न करें। भोजन की क्या बात है? थोड़ा चना-चर्वण खाकर जल पी लूँगा।’ सभी को बड़ा दुःख हुआ।

आस-पास के दो-चार और भी ब्राह्मण वहाँ आ गये। सभी ने मिलकर ब्राह्मण से फिर भोजन बनाने की प्रार्थना की। सभी की बात को ब्राह्मण टाल न सके और वे दूसरी बार भोजन बनाने को राजी हो गये। शचीदेवी ने जल्दी से फिर चौका लगाया, ब्राह्मण देवता स्नान करके रसोई बनाने लगे। अब के बनाते-बनाते चार-पाँच बज गये। शची देवी ने निमाई को पलभर के लिये भी इधर-उधर नहीं जाने दिया। संयोग की बात, माता किसी काम से थोड़ी देर के लिये भीतर चली गयी। उसी समय ब्राह्मण ने रसोई तैयार करके भगवान के अर्पण की। वे आँख बंद करके ध्यान कर ही रहे थे कि उन्हें फिर खटपट-सी मालूम हुई। आँख खोलकर देखते हैं, तो निमाई फिर दोनों हाथों से चावल उठा-उठाकर खा रहे हैं और दाल को अपने शरीर से मल रहे हैं। इतने में ही माता  भीतर से आ गयी। निमाई को वहाँ न देखकर वह दौड़कर ब्राह्मण की ओर गयी। वहाँ दाल से सने हुए निमाई को दोनों हाथों से भात खाते हुए देखकर वे हाय-हाय करने लगीं।

मिश्र जी भी पास ही थे। अबके वे अपने गुस्से को न रोक सके। बालक को जाकर पकड़ लिया। वे उसको तमाचा मारने को ही थे कि ब्राह्मण ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया और विनती करके कहने लगे ‘आपको मेरी शपथ है जो बच्चे पर हाथ उठावें। भला, अबोध बालक को क्या पता? रहने दीजिये, आज भाग्य में भोजन बदा ही नहीं है।’ निमाई डरे हुए माता की गोदी में चुपचाप चिपटे हुए थे, बीच-बीच में पिता की ओर छिपकर देख भी लेते कि उनका गुस्सा अभी शान्त हुआ या नहीं। माता को उनकी डरी हुई भोली-भाली सूरत पर बड़ी दया आ रही थी। इसलिये वे कुछ भी न कहर चुपचाप उन्हें गोद में लिये खड़ी थीं।

ब्राह्मण के आने के पूर्व ही विश्वरूप भोजन करके पाठशाला में पढ़ने के लिये चले गये थे। उसी समय वे भी लौट आये। आकर उन्होंने अतिथि ब्राह्मण के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया और चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनके सौन्दर्य, तेज और ओज को देखकर ब्राह्मण ने मिश्र जी से पूछा- ‘यह देवकुमार के समान तेजस्वी बालक किसका है?’ कुछ लजाते हुए मिश्र जी ने कहा- ’यह आपका ही है।’ ब्राह्मण एकटक विश्वरूप की ओर देखने लगा। विश्वरूप के विश्वविमोहन रूप के देखने से ब्राह्मण की तृप्ति ही नहीं होती थी। धीरे-धीरे विश्वरूप को सभी बातों का पता चल गया। उन्होंने ब्राह्मण देवता के सामने हाथ जोड़कर कहा- ‘महाराज! अबकी बार आप मेरे आग्रह से भोजन और बना लें। अबके मैं अपने ऊपर जिम्मेवारी लेता हूँ। अबकी बार आपको भोजन पाने तक में किसी भी प्रकार का विघ्न न होगा।’

ब्राह्मण ने बड़े ही प्रेम से विश्वरूप को पुचकारते हुए कहा- ‘भैया! तुम मेरी तनिक भी चिन्ता न करो। मेरी कुछ एक ही दिन की बात थोड़े ही है। मैं तो सदा ऐसे ही घूमता रहता हूँ। मुझे रोज-रोज भोजन बनाने का अवसर कहाँ मिलता है? कभी-कभी तो महीनों वन के कन्द-मूल फलों पर ही रहना पड़ता है। बहुत दिन चना-चर्वण पर ही गुजर होती है, कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। इसलिये मुझे तो इसका अभ्यास है। तुम्हारे यहाँ कुछ मीठा या चना-चर्वण हो तो मुझे दे दो उसे ही पाकर जल पी लूँगा। अब कल देखी जायगी।’

विश्वरूप ने बड़ी नम्रता से दीनता प्रकट करते हुए कहा- ‘महाराज! यह तो हम आपके स्वभाव से ही जानते हैं कि आपको स्वयं किसी बात की इच्छा नहीं। किन्तु आपके भोजन करने से ही हम सबको सन्तोष होगा। मेरे पूज्य पिता जी तथा माता जी बहुत ही दुःखी हैं। इनका साहस ही नहीं हो रहा है कि आपसे पुनः प्रार्थना करें। इन सबको तभी सन्तोष हो सकेगा जब आप स्वयं बनाकर फिर भोजन करें। अपने लिये नहीं किन्तु हमारी प्रसन्नता के निमित्त आप भोजन बनावें।’ विश्वरूप की वाणी में प्रेम था, उनके आग्रह में आकर्षण था ओर उनकी विनय में मोहकता थी। ब्राह्मण फिर कुछ भी न कह सके। उन्होंने पुनः भोजन बनाना आरम्भ कर दिया। अबके निमाई को रस्सी से बाँधकर माता तथा विश्वरूप ने अपने पास ही सुला लिया। ब्राह्मण को भोजन बनाने में बहुत रात्रि हो गयी। दैव की गति उसी समय सबको निद्रा आ गयी।

ब्राह्मण ने भोजन बनाकर ज्यों ही भगवान के अपर्ण किया त्यों ही साक्षात चतुर्भुज भगवान उनके सामने आ उपस्थित हुए। देखते-ही-देखते उनके चार की जगह आठ भुजाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। एक में माखन रखा था। दूसरे से खा रहे थे। शेष दो हाथों से मुरली बजा रहे थे।

भगवान ने हँसते हुए कहा ‘तुम मुझे बुलाते थे, मैं बालकरूप में तुम्हारे पास आता था, तुमने मुझे पहचाना नहीं। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगो।’ गद्गद कण्ठ से हाथ जोड़ते हुए ब्राह्मण ने धीरे-धीरे कहा- ‘हे पुरुषोत्तम! आपकी माया अनन्त है, भला मैं क्षुद्र प्राणी उसे कैसे समझ सकता हूँ? हे निरंजन! मुझ अज्ञानी के ऊपर आपने इतनी कृपा की, मैं तो अपने को इसके सर्वथा अयोग्य समझता हूँ।

भगवन! मैंने न कोई तप किया, न कभी ध्यान किया, जप, दान, धर्म, पूजा, पाठ मैंने आपकी प्रसन्नता के निमित्त कुछ भी तो नहीं किया। फिर भी मुझ दीन-हीन कंगाल पर आपने इतनी कृपा की, इसे मैं आपकी स्वाभाविक करुणा ही समझता हूँ। मेरा कोई ऐसा साधन तो नहीं था, जिससे आपके दर्शन हो सकें। हे नाथ! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दीजिये कि आपकी मंजुल मूर्ति मेरे मन-मन्दिर में सदा बनी रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मण ने बड़े ही आनन्द और उल्लास के साथ भोजन किया। इतने में ही माता आदि की आँखें खुलीं। निमाई को पास ही सोता देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई। जब देखा कि ब्राह्मण भी बड़े प्रेम से प्रसाद पाकर निवृत्त हो गये हैं तब तो उन्हें परम सन्तोष हुआ।

प्रातःकाल ब्राह्मण देवता निमाई को मन-ही-मन प्रणाम करके चले गये और जब तक वे रहे नित्यप्रति किसी-न-किसी समय आकर निमाई के दर्शन कर जाते थे। ऐसे बड़भागी भक्तों के दर्शन सद्गृहस्थियों को ही कभी-कभी होते हैं। निमाई  अब थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगे थे। स्त्रियाँ खिलाते-खिलाते कहतीं- ‘निमाई! तू ब्राह्मण का बालक होकर भिखारी ब्राह्मण के हाथ के चावल खा लेता है, अब तेरी जाति कहाँ रही? तेरा विवाह  भी न होगा। बहू भी न आवेगी। बेटा! ऐसे किसी के हाथ के चावल नहीं खाये जाते। देख, ब्राह्मण के बालक खूब पवित्रता से रहते हैं। तू अच्छी तरह से रहेगा, उपद्रव न करेगा तो तेरी बटुआ-सी बहू आवेगी, रून-झुन करती हुई घर में घूमेगी। अब तो ऐसी बदमाशी न करेगा?’ निमाई धीरे-धीरे कहने लगते- ‘हमें ब्राह्मणपने से क्या? हम तो ग्वाल-बाल हैं। ग्वालों की ही तरह जहाँ मिल जाता है खा लेते हैं। लाओ तुम्हारे घर का खा लें।’ यह सुनकर सभी हँसने लगती। और निमाई को सन्देश (मिठाई) आदि चीजें खाने को देतीं।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(8)
चांचल्य

किं मिष्टं सुतवचनं मिष्टतरं किं तदेव सुतवचनम्।

मिष्टान्मिष्टतमं किं श्रुतिपरिपक्वं सदेव सुतवचनम्।।[1]

इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र-दम्पति का प्रेम निमाई के प्रति अधिकाधिक बढ़ता ही जाता था। यही नहीं, किन्तु निमाई की चंचलता में माता-पिता को एक अपूर्व आनन्द आता था। मिश्र जी तो मनुष्य स्वभाव के कारण कभी-कभी बहुत चंचलता से ऊब कर नाराज भी हो जाते, किन्तु माता का हृदय तो सदा बच्चे की बातें सुनने के लिये छटपटाता ही रहता। सच है, बच्चे की बोली में मोहिनी विद्या है। संसार में बच्चे की तोतली बोली से बढ़कर बहुमूल्य वस्तु मिल ही नहीं सकती। देखा गया है, प्रायः माता का सबसे छोटी सन्तान पर बहुत अधिक ममत्व होता है। निमाई मिश्र जी की वृद्धावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसीलिये उनका भी इनके प्रति आवश्यकता से अधिक स्नेह था। इतनी चंचलता करने पर भी मिश्र जी उन्हें बहुत अधिक डाँटते-फटकारते नहीं थे। इसलिये ये मिश्र जी के सामने भी चंचलता करने में नहीं चूकते थे। सबसे अधिक तो ये माता के सामने उपद्रव करते। माता के सामने इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था।

पिता के सामने थोड़ा संकोच करते और भाई विश्वरूप के सामने तो ये कभी भी उपद्रव नहीं करते थे, उनसे तो ये बहुत ही अधिक संकोच करते थे। विश्वरूप भी इनसे अत्यधिक स्नेह करते, किन्तु वह स्नेह अव्यक्त होता था। प्रायः वे अपने प्रेम को लोगों के सामने प्रकट नहीं करते थे। निमाई भी उनका मन-ही-मन बहुत आदर करते थे। उनके आते ही भोले-भाले बालक की तरह चुपचाप बैठ जाते या बाहर उठ जाते। अब ये पिता जी के साथ गंगा-स्नान करने को भी जाने लगे। विश्वरूप सबकी धोती, तैल और भीगे आँवले लेकर आगे-आगे चलते और मिश्र जी उनके पीछे होते। निमाई कभी तो पिता जी की उँगली पकड़कर चलते और कभी भाई का वस्त्र पकड़े हुए चलते। रास्ते में चलते हुए इधर-उधर देखते जाते। पिता जी से भाँति-भाँति के ऊटपटाँग प्रश्न भी करते जाते।

मिश्र जी किसी का तो उत्तर दे देते और किसी को टाल देते। कभी-कभी आप दोनों से अलग होकर चलते। इस पर विश्वरूप इन्हें बुलाकर झट से गोद में ले लेते। गंगा-स्नान करके मिश्र जी तथा विश्वरूप सन्ध्या-वन्दन करते, ये भी बैठकर उनकी नकल करते। जैसे वे लोग जल छिड़कते, ये भी जल छिड़कते, जब वे आचमन करते, ये भी आचमन करते तथा सूर्य को अर्घ देने पर ये भी खड़े होकर सूर्य को अर्घ देते। कभी-कभी तैल लगाकर स्नान करने के अनन्तर फिर आप बालू में लोट जाते। पिता फिर से इन्हें स्नान कराते। घर आकर ये सब बातें अपनी माता से कहते। स्त्रियाँ पूछतीं- ‘बेटा! अच्छा तुमने सन्ध्या कैसे की?’ तब आप पद्मासन लगाकर बैठ जाते और आँखे बंद कर धीरे-धीरे ओष्ठ हिलाने लगते। कभी-कभी नाक बंद करके प्राणायाम का अभिनय करते।

जब ये अपने छोटे-छोटे हाथों को ऊपर उठाकर सूर्य की ओर टकटकी लगाकर उपस्थान का ढंग दिखाते तब स्त्रियाँ हँसते-हँसते लोट-पोट हो जातीं। इसी प्रकार ये जिस काम को देखते उसी की नकल करते। इनके चांचल्य से कभी-कभी बड़ी हँसी होती। एक दिन मिश्र जी के साथ ये गंगा-स्नान करने गये। स्नान करने के अनन्तर मिश्र जी प्रायः पास के भगवान  के मन्दिर में दर्शन करने जाया करते थे। ये भी शाम के समय कभी-कभी बालकों के साथ उसमें आरती देखने और प्रसाद लेने चले जाते थे। आज दोपहर को भी ये मिश्र जी के साथ मन्दिर में चले गये। मिश्रजी ने जिस प्रकार साष्टांग प्रणाम किया उसी प्रकार इन्होंने भी किया। उन्होंने प्रदक्षिणा की तब ये भी प्रदक्षिणा करने लगे। पिता जी को हाथ बाँधे देखकर इन्होंने भी हाथ जोड़ लिये और इधर-उधर देखते-भालते हाथ जोड़े जगमोहन में बैठ गये। पुजारी जी ने मिश्रजी को चम्मच में थोड़ा केसर-कपूर-मिश्रित प्रसादी चन्दन दिया। इनका ध्यान तो उस तरफ था ही नहीं, ये तो न जाने किस चीज को देख रहे थे। पुजारीजी ने थोड़ा-सा चन्दन इन्हें भी दिया। इन्होंने पंचामृत की तरह दोनों हाथ फैलाकर चन्दन को ग्रहण किया और चट से उसे खा गये। पुजारी जी तथा मिश्र जी यह देखकर हँसने लगे। कडुवा लगने से वे वहीं थू-थू करने लगे और गुस्सा दिखाते हुए बोले- ‘यह कड़वा-कड़वा प्रसाद पुजारी जी ने न जाने आज कहाँ से दे दिया?’

मिश्र जी ने हँसते हुए कहा- ‘बेटा, यह प्रसादी चन्दन है! इसे खाते नहीं हैं मस्तक पर लगाते हैं।’ आपने मुँह बनाकर कहा- ’तब आपने मुझे पहले से यह बात क्यों नहीं बतायी थी?’ पुजारी जी ने जल्दी से इन्हें एक पेड़ा दिया उसे पाकर ये खुश हो गये। घर आकर माता जी से इन्होंने सभी बातें कह दीं। अब तो ये अकेले गंगा जी  पर चले जाते और वहाँ घण्टों खेला करते। दो-दो, तीन-तीन बार स्नान करते। बालू के लड्डू बना-बनाकर अपने साथ के लड़कों को मारते, गंगा जी में से पत्र-पुष्प निकाल-निकालकर उनसे बालू में बाग बनाते और नाना प्रकार की बाल-लीलाएँ करते। मिश्र जी इन्हें बहुत समझाते कि बेटा! कुछ पढ़ना भी चाहिये, किन्तु ये उनकी बातों पर ध्यान ही न देते और दिनभर बालकों के साथ खेला ही करते। एक दिन मिश्रजी को इन पर बड़ा गुस्सा आया, ये इन्हें पीटने के लिये गंगा-किनारे गये। शचीदेवी भी मिश्रजी को क्रोध में जाते देखकर गंगा-किनारे के लिये उनके पीछे-पीछे चल दीं। वहाँ पर ये बच्चों के साथ खूब उपद्रव कर रहे थे।

मिश्र जी तो गुस्से में भरे ही हुए थे, इन्हें उपद्रव करते देखकर वे आपे से बाहर हो गये और इन्हें पकड़ने के लिये दौडे़। ये भी बड़े चालाक थे, पिता को गुस्से में अपनी ओर आते देखकर ये खूब जोर से घर की तरफ भागे। रास्ते में माता मिल गयीं। झट से ये उनसे जाकर लिपट गये। माता ने इन्हें गोद में उठा लिया, ये उनके अंचल से मुँह छिपाकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगे। माता कहती थी- ‘तू बहुत उपद्रव करता है, किसी की बात मानता ही नहीं, आज तेरे पिता तुझे खूब पीटेंगे।’ इतने में ही मिश्र जी भी आ गये, वे बाँह पकड़कर इन्हें शचीदेवी की गोद में से खींचने लगे। माता चुपचाप खड़ी थीं। इसी बीच और भी 10-5 आदमी इधर-उधर से आ गये। सभी मिश्रजी को समझाने लगे- ‘अभी बच्चा है, समझता नहीं। धीरे-धीरे पढ़ने लगेगा। आपको पण्डित होकर बच्चे पर इतना गुस्सा न करना चाहिये।’

सब लोगों के समझाने पर मिश्र जी का गुस्सा शान्त हुआ। पीछे उन्हें अपने इस कृत्य पर पश्चात्ताप भी हुआ। कहते हैं, एक दिन रात्रि के समय स्वप्न में किसी महापुरुष ने इनसे कहा- ‘पण्डित जी! आप अपने पुत्र को साधारण पुरुष ही न समझें। ये अलौकिक महापुरुषहैं। इनकी इस प्रकार भर्त्सना करना ठीक नहीं।’ स्वप्न में ही मिश्र जी ने उत्तर दिया- ‘ये चाहे महापुरुष हों या साधारण पुरुष, जब ये हमारे यहाँ पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं, तो हमें इनकी भर्त्सना करनी ही पड़ेगी। पिता का धर्म है कि पुत्र को शिक्षा दे। इसीलिये शिक्षा देने के निमित्त हम ऐसा करते हैं।’ दिव्य पुरुष ने फिर कहा- ‘जब ये स्वयं सब कुछ सीखे हुए हैं और इन्हें अब किसी भी शास्त्र के सीखने की आवश्यकता नहीं, तब आप इन्हें व्यर्थ क्यों तंग करते हैं?’

इस पर इन्होंने कहा- ‘पिता का तो यही धर्म है, कि वह पुत्र को सदा शिक्षा ही देता रहे। फिर चाहे पुत्र कितना भी गुणी तथा शास्त्रज्ञ क्यों न हो। मैं अपने धर्म का पालन अवश्य करूँगा और आवश्यकता होने पर इनको दण्ड भी दूँगा।’ महापुरुष इनसे प्रसन्न होकर अन्तर्धान हो गये। प्रातःकाल ये इस बात पर सोचते रहे। कालान्तर में वे इस बात को भूल गये। इनकी अवस्था ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-ही-त्यों इनकी कान्ति और भी दिव्य प्रतीत होने लगी। ये शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट थे। शरीर के सभी अंग सुगठित और मनोहर थे। शरीर में इतना बल था कि 4-4, 5-5 लड़के मिलकर भी इनको पराजित नहीं कर सकते थे। इनके चेहरे से चंचलता सदा छिटकती रहती। जो भी इन्हें देखता खुश हो जाता और साथ ही सचेष्ट भी हो जाता कि कहीं हमसे भी कोई चंचलता न कर बैठें। रास्ते में ये सदा कूदकर चलते।

सीढि़यों से गंगा जी में उतरना हो तो सदा एक-दो सीढ़ी छोड़कर ही कूदते-कूदते उतरें। रास्ते में दो-चार लड़कों को खेलते देखकर ये किसी दूसरे को उनके ऊपर ढकेल देते और फिर बड़े जोरों से हँस पड़ते। गंगा-किनारे पर छोटी-छोटी कन्याएँ पूजा की सामग्री लेकर देवी तथा गंगा जी की पूजा करने जातीं। आप उनके पास पहुँच जाते और कहते- ‘सब नैवेद्य हमें चढ़ाओ, हम तुम्हें मनोवान्छित वर देंगे।’ छोटी-छोटी कन्याएँ इनके अपूर्व रूप-लावण्य को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जातीं और इन्हें बहुत-सी मिठाई खाने को देतीं। ये उन्हें वरदान देते। किसी से कहते- ‘तुम्हें खूब रूपवान सुन्दर पति मिलेगा।’ किसी से कहते ’तुम्हारा विवाह  बड़े भारी धनिक के यहाँ होगा।’ किसी से कहते ‘तुम्हारे पाँच बच्चे होंगे।’ किसी को सात, किसी को ग्यारह बच्चे का वरदान देते।

कन्याएँ सुनकर झूठा रोष दिखाते हुए कहतीं- ‘निमाई! तू हमसे ऐसी बातें किया करेगा तो फिर हम तुझे मिठाई न देंगी।’ बहुत-सी कन्याएँ अपना नैवेद्य छिपाकर भाग जातीं तब ये उनसे हँसते-हँसते कहते- ’भले ही भाग जाओ मुझे क्या, तुम्हें काना पति मिलेगा। धनिक भी होगा तो महा कंजूस होगा। 5-5 सौत घर में होंगी, लड़की-ही-लड़की पैदा होंगी। यह सुनकर सभी लड़कियाँ हँसने लगतीं और इन्हें लौटकर मिठाई दे जातीं। किसी से कहते- हमारी पूजा करो, हम ही सबके प्रत्यक्ष देवता हैं। कभी-कभी मालाएँ उठा-उठाकर गले में डाल लेते। स्त्रियों के पास चले जाते और उन्हें पूजन करते देख कहते- ‘हरि को भजे तो लड़का होय। जाति पाँति पूछै ना कोय।’ यह सुनकर स्त्रियाँ हँसने लगतीं। जो इनकी गाँव-नाते से भाभी या चाची होतीं वे इन्हें खूब तंग करतीं और खाने को मिठाई देतीं। इन्हीं लड़कियों में लक्ष्मी देवी भी पूजा करने आया करती थी। वह बड़ी ही भोली-भाली लड़की थी। निमाई के प्रति उसका स्वाभाविक ही स्नेह था। पूर्व-जन्मों के संस्कार के कारण वह निमाई को देखते ही लज्जित हो जाती और उसके हृदय में एक अपार आनन्द-स्त्रोत उमड़ने लगता। ये सब लड़कियों के साथ उसे भी देखते, किन्तु इससे कुछ भी नहीं कहते थे, न कभी इससे मिठाई ही माँगी। इसलिये लक्ष्मीदेवी की हार्दिक इच्छा थी कि कभी ये मेरा भी नैवेद्य स्वीकार करें। किन्तु बिना माँगे देने में न जाने क्यों उसे लज्जा लगती थी। एक दिन लक्ष्मीदेवी को पूजा के लिये जाती देखकर आपने उससे कहा- ‘तू हमारी ही पूजा कर।’ यह सुनकर भोली-भाली कन्या बड़ी ही श्रद्धा के साथ इनकी पूजा करने लगी। छोटी-छोटी, पतली-पतली उँगलियों से काँपते हुए उसने निमाई के मस्तक पर चन्दन चढ़ाया, अक्षत लगाये, माला पहनायी, नैवेद्य समर्पण किया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

निमाई ने आशीर्वाद दिया- ‘तुम्हें देवतुल्य रूपवान तथा गुणवान पति प्राप्त हो।’ यह सुनकर बेचारी कन्या लज्जा के मारे जमीन में गड़-सी गयी और जल्दी वहाँ से भाग आयी। कालान्तर में इन्हीं लक्ष्मीदेवी को निमाई की प्रथम धर्मपत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये अपने साथ के सभी लड़कों में सरदार समझे जाते थे। चंचलता तो मानो इनकी नस-नस में भरी हुई थी। नटखटप ने में इनसे बढ़कर दूसरा बालक नहीं था। सभी लड़के इनसे अत्यधिक स्नेह करते, मानो ये बाल सेना के सर्वप्रधान सेनापति थे। लड़के इनका इशारा पाते ही कर्तव्य-अकर्तव्य सभी प्रकार के काम कर डालते। बालकपन से ही इनमें यह मोहिनी विद्या थी कि जो एक बार इनके साथ रह गया, वह सदा के लिये इनका गुलाम बन जाता था। इसलिये ये अपने सभी साथियेां को लेकर गंगा-किनारे भाँति-भाँति की बाल क्रीड़ाएँ करते। इन्हें स्त्री-पुरुषों को तंग करने में बड़ा मजा आता था। कभी-कभी ये बहुत से बालू के छोटे-छोटे लड्डू बनवाते। सभी की झोलियों में दस-दस, बीस-बीस लड्डू भर देते और एक ओर खडे़ हो जाते।

गंगा-स्नान करके जो भी निकलता सभी एक साथ तड़ातड़ बालू के लड्डू उनके ऊपर फेंकते और जल्दी से फेंककर भाग जाते। कभी-कभी किसी की सूखी धोती लेकर गंगा जी में डुबो देते। कभी ऐसा करते कि जहाँ दस-पाँच आदमी बैठे हुए बातें करते होते तो ये उनके पास जा बैठते और धीरे से एक के वस्त्र से दूसरे के वस्त्र को बाँध देते। जब वे स्नान करने को उठते तो एक-दूसरे को अपनी ओर खींचता। कभी-कभी वस्त्र भी फट जाता। ये अपने साथियों के साथ अलग खडे़ हुए ताली बजा-बजाकर खूब जोरों से हँसते, सभी लोग हँसने लगते, बेचारे वे लज्जित हो जाते।

कभी लड़कों के साथ घण्टों स्नान करते रहते। एक-दूसरे के ऊपर घण्टों पानी उलीचते रहते। किसी को कच्छप बनाकर आप उसके ऊपर चढ़ जाते। कभी धोती में हवा भरकर उसके साथ गंगा जी के प्रवाह की ओर बहते और कभी उस धोती के फूले हुए गुब्बारे में से हवा के बुलबुले निकालते। स्त्रियों के घाटों पर चले जाते, वहाँ पानी में बुड़की लगाकर कछुए का रूप बना लेते और स्नान करने वाली स्त्रियों के पैर डुबकी माकर पकड़ लेते। स्त्रियाँ चीत्कार मारकर बाहर निकलतीं तब ये हँसते-हँसते जल के ऊपर आते और सबसे कहते- ’देखो हम कैसे कछुए बने।’ स्त्रियाँ मधुर-मधुर भर्त्सना करतीं और कहतीं- ‘जू आज घर चल, मैं तेरी माँजी से सब शिकायत करूँगी। मिश्र जी तुझे मारते-मारते ठीक कर देंगे।’ कोई कहतीं। ‘इतना दंगली लड़का तो हमने कोई नहीं देखा। यह तो हद कर देता है।

हमारे लड़के भी तो इसने बिगाड़ दिये। वे हमारी बातें मानते ही नहीं।’ कोई कहती न जाने वीर! इस छोकरे में क्या जादू है, इतना उपद्रव करता है, फिर भी यह मुझे बहुत प्यारा लगता है’ इस बात का सभी समर्थन करतीं। स्त्रियों की ही भाँति पुरुष भी इनके भाँति-भाँति के उपद्रवों से तंग आ गये। बहुतों ने जाकर इनके पिता से शिकायत की। स्त्रियाँ भी शचीमाता के पास जा-जाकर मीठा उलाहना देने लगीं। शचीदेवी सभी की खुशामद करतीं और विनय के साथ कहतीं- ‘अब मैं क्या करूँ, तुम्हारा भी तो वह लड़का है। बहुत मना करती हूँ, शैतानी नहीं छोड़ता, तुम उसे खूब पीटा करो।’ स्त्रियाँ सुनकर हँस पड़तीं और मन-ही-मन खुश होकर लौट जातीं।

एक दिन कई पण्डितों ने जाकर निमाई की मिश्र जी से शिकायत की और कहा ‘अभी जाकर देख आओ तब तुम्हें पता चलेगा कि वह कितना उपद्रव करता है।’ यह सुनकर मिश्र जी गुस्से में भरकर गंगा-किनारे चले। किसी ने यह संवाद जाकर निमाई से कह दिया। निमाई जल्दी से दूसरे रास्ते होकर घर पहुँचे और अपने शरीर पर खड़ी आदि लगाकर माता से बोले- ‘अम्मा! मुझे तैल दे दे मैं गंगा-स्नान कर आऊँ।’ माता ने कहा- ‘अभी तक तैंने स्नान नहीं किया क्या?’ आपने कहा ’अभी स्नान कहाँ किया। तू जल्दी से मुझे तैल और धोती दे दे।’ यह कहकर आप तैल हाथ में लेकर और धोती बगल में दबाकर गंगा जी की ओर चले। उधर मिश्र जी ने गंगा जी के किनारे जाकर बच्चों से पूछा ’यहाँ निमाई आया था क्या?’ बच्चे तो पहले से ही सिखाये-पढ़ाये हुए थे। उन्होंने कहा ’आज तो निमाई इधर आया ही नहीं।’

यह सुनकर मिश्र जी घर की ओर लौटने लगे। घर से निकलते हुए बगल में धोती दबाये निमाई मिले। मिश्र जी ने कहा- ’तू इतना दंगल क्यों किया करता है?’ आपने जोर से कहा ’न जाने क्यों लोग हमारे पीछे पड़ गये हैं? यही बात अम्मा कहती थीं कि स्त्रियाँ तेरी बहुत शिकायत करती थीं। मैं तो अभी पढ़कर आ रहा हूँ। अब तक गंगा जी की ओर गया ही नहीं। यदि ये हमारी झूठी शिकायतें आ-आकर करते हैं तो अब हम सत्य ही किया करेंगे।’ मिश्र जी चुप हो गये और ये हँसते-हँसते गंगा जी की और स्नान करने चले गये। लड़कों में जाकर अपनी चालाकी का सभी वृत्तान्त सुनाया। लड़के सुनकर खूब जोर से हँसने लगे।

इस प्रकार इनकी अवस्था 5 वर्ष की हो गयी। माता-पिता  को इनकी इस चांचल्य-वृत्ति से बहुत ही आनन्द प्राप्त होता। विश्वरूप इनसे 11-12 वर्ष बड़े थे, किन्तु वे जन्म से ही बहुत अधिक गम्भीर थे, इसलिये पिता भी उनका बहुत आदर करते थे। अब तो उनकी अवस्था 16 वर्ष की हो चली थी, इसलिये ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्’ अर्थात पुत्र जब 16 वर्ष का हो जाय तो उससे मित्र की भाँति व्यवहार करना चाहिये, इस सिद्धान्तानुसार मिश्र जी उनके प्रति पण्डित का-सा व्यवहार करते।

एक दिन माता ने भोजन बनाकर तैयार कर लिया, किन्तु विश्वरूप अभी तक पाठशाला से नहीं आये। वे श्री अद्वैताचार्य की पाठशाला में पढ़ते थे। आचार्य की पाठशाला मिश्र जी के घर से थोड़ी दूर गंगा जी की ओर थी। माता ने निमाई से कहा- ’बेटा निमाई! देख तेरा दादा अभी तक भोजन करने नहीं आया। जाकर उसे पाठशाला में से बुला तो ला।’ बस, इतना सुनना था कि ये नंगेवदन ही वहाँ से पाठशाला की ओर चल पड़े। शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर झलमल-झलमल कर रही थी। गौरवर्ण शरीर पर स्वच्छ साफ धोती बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। निमाई  आधी धोती ओढ़े हुए थे। उनके बडे़-बड़े विकसित कमल के समान सुन्दर और स्वच्छ नेत्र मुखचन्द्र की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे।

आचार्य के सामने हँसते-हँसते इन्होंने भाई से कहा ‘दद्दा! चलो भात तैयार है, अम्मा तुम्हें बुला रही हैं।’ विश्वरूप ने निमाई को गोद में बिठा लिया और स्नेह से बोले- ’निमाई! आचार्य देव को प्रणाम करो’ यह सुनकर निमाई कुछ लजाते हुए मुसकराने लगे। वे लज्जा के कारण भाई विश्वरूप की गोद में छिपे-से जाते थे। आचार्य से आज्ञा लेकर विश्वरूप घर चलने को तैयार हुए। निमाई विश्वरूप का वस्त्र पकड़े उनके पीछे खड़े हुए थे। आचार्य ने निमाई को खूब ध्यान से देखा। आज पहले-ही-पहले उन्होंने निमाई को भलीभाँति देखा था। देखते ही उनके सम्पूर्ण शरीर में बिजली-सी दौड़ने लगी। उन्हें प्रतीत होने लगा कि मैं इतने दिन से जिन भवभयहारी जनार्दन की उपासना कर रहा हूँ, वे ही जनार्दन साकार बनकर बालक-रूप में मुझे अभय प्रदान करने आये हैं। उन्होंने मन-ही-मन निमाई के पादपद्मों में प्रणाम किया और अपने भाव को दबाते हुए बोले- ‘विश्वरूप! यह तुम्हारे भाई हैं न?’

विश्वरूप ने नम्रता पूर्वक कहा- ‘हाँ, आचार्य देव! यह मेरा छोटा अनुज है। बड़ा चंचल है, आपके सामने यह ऐसे चुपचाप भोले बालक की भाँति खड़ा है, आप इसे गंगा-किनारे या घर पर देखें तब पता चले कि यह कितना कौतुकी है। संसार को उलट-पलट कर डालता है। माता तो इससे तंग हो जाती हैं।’ आचार्य यह सुनकर हँसने लगे। निमाई विश्वरूप की आड़ में से छिपकर आचार्य की ओर देखने लगे। विश्वरूप का वस्त्र पकड़कर जाते-जाते दो-तीन बार निमाई ने फिर-फिर आचार्य की ओर देखा। आचार्य चेतना-शून्य-से हो गये। वे ठीक-ठीक न समझ सके कि हमारे चित्त को यह बालक हठात अपनी ओर क्यों आकर्षित कर रहा है। अन्त में ये ही आचार्य गौरांगदेव के मुख्य पार्षद हुए, जिनके द्वारा गौरांग अवतारी माने जाने लगे। इसलिये अब यह जान लेना जरूरी है कि ये अद्वैताचार्य कौन थे और इनकी पाठशाला कैसी थी?

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(9)
अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला

गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।

पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः।।[1]

जो आचार्य अद्वैत गौर-धर्म के प्रधान स्तम्भ हैं, गौर-लीलाओं के जो प्रथम प्रवर्तक, प्रबन्धक और संयोजक समझे जाते हैं, जिन्होंने वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध और बुद्धिवृद्ध होने पर भी बालक गौरांग की पद-रज को अपने मस्तक का सर्वोत्तम लेपन बनाया, जिन्होंने गौरांग से पहले अवतीर्ण होकर गौर-लीला के अनुकूल वायुमण्डल बनाया, उत्तम-से-उत्तम रंगमंच तैयार किया, उस पर गौरांग को प्रधान अभिनय-कर्ता बनाकर भक्तों के साथ भाँति-भाँति की लीलाएँ करायीं और गौरांग के तिरोभाव के अनन्तर अपनी सम्पूर्ण लीलाओं का संवरण करके आप भी तिरोहित हो गये। उन अद्वैताचार्य के पूर्वज श्रीहट्ट (सिलहट) जिले में लाउड़ परगने के अन्तर्गत नवग्राम नाम के एक छोटे-से ग्राम में रहते थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय भारत में बहुत-से छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें प्रायः स्वतन्त्र ही नरपति शासन करते थे। लाउड़ भी एक छोटी-सी रियासत थी। उन दिनों उस रियासत के शासनकर्ता महाराज दिव्य सिंह जी थे। महाराज परम धार्मिक तथा गुणग्राही थे। उनकी सभा में पण्डितों का बहुत सम्मान होता था। आचार्य के पूज्य पिता पण्डित कुबेर तर्कपंचानन महाराज की सभा के राज-पण्डित थे।

तर्कपंचानन महाशय न्याय के अद्वितीय विद्वान थे। उनकी विद्वत्ता की चारों ओर ख्याति थी। विद्वान होने के साथ-ही-साथ वे धनवान भी थे, किन्तु एक ही दुःख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसी कारण वे तथा उनकी धर्मपत्नी लाभादेवी सदा चिन्तित बनी रहती थीं। लाभादेवी के गर्भ से बहुत से बच्चे हुए और वे असमय में ही इस असार संसार को त्यागकर परलोकगामी हुए। इसी कारण तर्कपंचानन महाशय अपने पुराने गाँव को छोड़कर नवद्वीप के इस पार शान्तिपुर में आकर रहने लगे। यहीं पर लाभादेवी के गर्भ रहा और यथा समय पर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम रखा गया कमलाक्ष। ये ही कमलाक्ष आगे चलकर महाप्रभु अद्वैस के नाम से प्रसिद्ध हुए।

बालक कमलाक्ष आरम्भ से ही विनयी, चतुर, मेधावी तथा भगवत-परायण थे। उन दिनों बंगाल में शाक्त-धर्म और वाम-मार्ग का बोलबाला थ। धर्म के नाम पर लाखों मूक प्राणियों का वध किया जाता था और उसे बड़े-बड़े भट्टाचार्य और विद्यावागीशपरम धर्म मानते और बताते थे। कमलाक्ष इन कृत्यों को देखते और मन-ही-मन दुःखी होते कि भगवान  कब इन लोगों को सुबुद्धि देंगे, कब इन लोगों का अज्ञान दूर होगा, जिससे कि धर्म के नाम से ये प्राणियों की हिंसा करना बंद कर दें। निर्भीक ये बालकपन से ही थे, जिस बात को सत्य समझ लेते उसे किसी के भी सामने कहने में नहीं चूकते फिर चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो।

एक बार की बात है कि राज्य की ओर से काली देवी की विशेष पूजा के उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। इस समारोह में बालक कमलाक्ष भी गये। उन्होंने देखा काली माई की भेंट के लिये सैकड़ों बकरे तथा भैंसों का बलिदान किया गया है। दूर-दूर से काली माई के कीर्तन के लिये सुप्रसिद्ध कीर्तनकार बुलाये गये हैं। कमलाक्ष भी काली-मण्डप में बिना कालीमाई को प्रणाम किये जा बैठे। उनके इस व्यवहार से महाराज दिव्यसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी राजसभा के एक सुप्रतिष्ठित पण्डित के पुत्र के इस अधार्मिक व्यवहार से वे क्षुब्ध-से हो गये और कहने लगे- ‘कमलाक्ष! तुम देवी को बिना ही प्रणाम किये कैसे बैठ गये?’ इस पर बालक कमलाक्ष ने कुछ रोष के साथ कड़ककर कहा- ‘देवी तो जगज्जननी है। सभी प्राणी उसकी सन्तान हैं। जो माता  अपने पुत्रों को खाती है, वह माता नहीं राक्षसी है। पुत्र चाहे कैसा भी कुपुत्र हो किन्तु माता कुमाता कभी नहीं होती ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ एक सच्चिदानन्दभगवान ही पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके प्रणाम करने से ही सबको प्रणाम हो जाता हे। आप लोग देवी-देवताओं के नाम से अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं।’

बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा दिव्य सिंह अवाक् रहे गये। कमलाक्ष के पिता कुबेर तर्कपंचानन भी वहाँ बैठे थे, उन्होंने महाराज का पक्ष लेकर कहा- ’देवी-देवता सभी उस नारायण के ही रूप हैं।

इसलिये देवी की प्रतिमा के सम्मुख प्रणाम न करना महापाप है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ पिता की बात सुनकर कमलाक्ष निर्भीक होकर कहने लगे- ‘एक जनार्दन भगवान ही की पूजा  से सबकी पूजा हो सकती है, जहाँ प्राणियों की हिंसा होती हो, वह न तो देवस्थान है और न वह देवपूजा ही है।’ छोटे बालक के मुख से ऐसी बातें सुनकर सभी दर्शक आश्चर्य चकित हो गये। महाराज ने इनकी बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार अल्पावस्था में ही इन्होंने अपनी निर्भीकता, दयालुता और वैष्णव-परायणता का परिचय दिया। धीरे-धीरे इनकी अवस्था 12-13 वर्ष की हुई। पिता के समीप पढ़ने से इनकी तृप्ति नहीं हुई। उन दिनों इनके पिता लाउड़ में ही रहते थे, ये विद्याध्ययन के निमित्त शान्तिपुर चले गये, समाचार मिलने पर इनके माता-पिता भी इनके समीप शान्तिपुर ही आ गये। यहाँ पर रहकर इन्होंने वेद-वेदांग तथा नव्य-न्याय की विशेष शिक्षा प्राप्त की। थोड़े ही दिनों में ये एक नामी पण्डित गिने जाने लगे। कालान्तर में इनके माता-पिता परलोकवासी हुए। मरते समय इनके पिता आदेश दे गये थे कि- ’हमारा गया जी में जाकर श्राद्ध अवश्य करना।’

पिता की अन्तिम आज्ञा को पालन करने के निमित्त और उनकी परलोकगत आत्मा की शान्ति के निमित्त इन्होंने श्रीगया धाम की यात्रा की और वहाँ पर श्रीगदाधर भगवान के चरण चिह्नों का दर्शन करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पितृ श्राद्ध आदि सभी कृत्य बड़ी श्रद्धा के साथ कराये। अद्वैताचार्य अब युवा हो गये थे, भक्ति का अंकुर उनके हृदय में जन्म से ही था। विद्या ने उनके भक्तिभाव तथा प्रेम को और भी अधिक विकसित कर दिया। वे सदा जीवों के कल्याण की ही बात सोचा करते थे। संसार से उन्हें कुछ उपरामता-सी हो गयी। चित्त में वैराग्य तो पहले ही से था। अब माता-पिता के परलोक-गमन से ये निश्चिन्त हो गये। इसलिये इन्होंने भारत के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य पुण्य-तीर्थों की यात्रा की। सेतुबन्ध रामेश्वर, शिवकांची, मदुरा आदि तीर्थों  में भ्रमण करते हुए ये भगवान मध्वाचार्य के आश्रम पर पहुँचे। वहीं पर श्रीमाधवेन्द्रपुरी महाराज भी उपस्थित थे।

इन श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने ही पहले-पहल संन्यासियों में भक्तिभाव तथा मधुर उपासना का प्रसार किया। इनके प्रसिद्ध शिष्यों में श्रीईश्वरपुरी, श्रीपरमानन्दपुरी, श्रीब्रह्मानन्दपुरी, श्रीरंगपुरी, श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि तथा श्रीरघुपति उपाध्याय विशेष उल्लेखनीय हैं। श्रीईश्वरपुरी इनके अन्तरंग तथा प्रधान शिष्य थे। इन्हें ही श्रीगौरांग के दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीमाधवेन्द्रपुरी अद्वैताचार्य को देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। उनकी शीलता, नम्रता, विद्या, भक्ति और देश के उद्धार की सच्ची लगन को देखकर पुरी महाशय गद्गद हो उठे। उन्होंने अद्वैत को छाती से लगाया और श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा देकर इनमें नवशक्ति का संचार किया। अपने गुरुदेव के सामने भी इन्होंने अपनी मनोव्यथा कही। तब पुरी महाशय ने इन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘संसार की रचना उन्होंने ही की है। इस बढ़ते हुए कदाचार को वे ही भक्तभयहारी भगवान मेट सकेंगे, तुम घबड़ाओ मत।

भगवान शीघ्र ही अपने किसी विशेष रूप से अवतीर्ण होकर भक्ति का उद्धार करेंगे।’ गुरुदेव के आश्वासन से इन्हें विश्वास हो गया कि भगवान भक्तों के भय को भंजन करने के निमित्त अवश्य ही इस धराधाम पर अवतीर्ण होंगे। इसलिये ये अपने गुरुदेव की चरणरज मस्तक पर चढ़ार व्रज की यात्रा करते हुए शान्तिपुर लौट आये। श्रीअद्वैत की कुशाग्र बुद्धि और भगवत-भक्ति का श्रीमाधवेन्द्रपुरी पर प्रभाव पड़ा। जब उन्होंने गौड़देश की यत्रा की तो वे शान्तिपुर भी पधारे और कुछ काल अद्वैताचार्य के ही घर में रहे। अद्वैताचार्य नामी पण्डित होने के साथ ही धनवान भी थे। शान्तिपुर के वैष्णवों के वे ही एकमात्र आधार थे। उन दिनों शास्त्रार्थ करना ही पाण्डित्य का प्रधान गुण समझा जाता था।

वाद-विवाद में विपक्षी को पराजित करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करना ही उन दिनों भारी पण्डित होने का प्रमाण पत्र था। इसलिये बहुत से पण्डित अपने को दिग्विजयी बताते थे और जिसके भी पाण्डित्य की प्रशंसा सुनते उसी से शास्त्रार्थ करने को उद्यत हो जाते थे। आचार्य की ख्याति सुनकर भी एक दिग्विजयी तर्कपंचानन महाशय इनसे शास्त्रार्थ करने आये और अन्त में इनसे परास्त होकर वे इनके शिष्य बन गये। इसलिये इनकी ख्याति अब पहले से और भी अधिक हो गयी। इनके पिता के आश्रयदाता महाराज दिव्यसिंह जी भी इनकी प्रशंसा सुनकर इनके दर्शनों के लिये आये। उन्होंने इनका भक्तिभावपूर्ण पाण्डित्य देखकर अपने सफेद बालों वाला सिर इनके चरणों पर रख दिया और गद्गद कण्ठ से कहा- ‘आपने अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर दिया। कृपा करके मुझे भी अपने चरणों की शरण दीजिये।’ बूढे़ राजा शाक्त होने पर भी इनके शिष्य बन गये। वे इनमें बड़ी श्रद्धा रखते थे। अन्त में उन्होंने राज-काज छोड़कर एकान्त में अपना निवास स्थान बना लिया और कृष्ण-कीर्तन करते-करते ही शेष आयु का अन्त किया। अद्वैत की बाल-लीलाओं का वे सदा गुणगान करते रहते थे। उन्होंने संस्कृत में अद्वैत की बाल लीलाओं को लिखा भी था।

श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने इन्हें गृहस्थी बनने की आज्ञा दी। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके इन्होंने नारायणपुर निवासी पण्डित नृसिंह भादुड़ी की सीता और ठकुरानी नाम की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया और उनके साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगे। ये बड़े ही उदार, कोमलहृदय तथा कृष्ण-कथा-प्रिय थे। भेदभाव या संकीर्णता को ये कृष्ण-भक्ति में बाधक समझते थे। उन्हीं दिनों परम भक्त हरिदास भी इनके पास आये। ये यवन-बालक थे, किन्तु थे बड़े होनहार तथा कृष्ण-भक्त, इसलिये आचार्य ने इन्हें अपने पास ही रखकर व्याकरण, गीता, भागवत आदि को पढ़ाया। ये बड़े ही समझदार थे, आचार्य के चरणों में इनकी परम श्रद्धा थी, आचार्य भी इन्हें पुत्र की तरह मानते तथा प्यार करते थे।

हरिदास आचार्य के घर में ही भोजन आदि करते थे। एक नामी पण्डित होकर अद्वैताचार्य मुसलमान-बालक को अपने घर में रखते हैं, इस बात से सभी पण्डित तथा ब्राह्मण इनका विरोध करने लगे, किन्तु इन्होंने उनकी कुछ भी परवा न की। एक दिन किसी ब्राह्मण के यहाँ श्राद्ध के समय सबसे प्रथम आचार्य ने श्राद्धान्न हरिदास के ही हाथों में दे दिया। इससे कुपित होकर पण्डितों ने इनसे कुछ बुरा-भला कहा। इन्होंने निर्भय होकर कह दिया- ’हरिदास को भोजन कराने से मैं करोड़ों ब्राह्मणों के भोजनों का माहात्म्य समझता हूँ।’ इनकी इस बात से सभी भौचक्के-से रह गये। ये कोरे पण्डित ही न थे, किन्तु क्रियावान भक्त और विचारवान भी थे।

ये शास्त्रों का पठन-पाठन करते हुए भी सदा हरि-कीर्तन और भगवत-भक्ति में परायण रहते थे। उन दिनों अधिकांश पण्डित पुस्तकों के कीडे़ तथा शुष्क वाद-विवाद करने वाले ही थे। शास्त्रों के अनुसार क्रियाएँ करना तो वे जानते ही न थे। शास्त्रों में ऐसे पण्डितों को मूर्ख कहा है-

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा

यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्।

सुचिन्तितं चैषधमातुराणां

न नाममात्रेण करोत्यरोगम्।।

अर्थात ‘शास्त्र पढ़ने पर भी यदि उसके अनुसार आचरण न करे तो मनुष्य मूर्ख ही बना रहता है। जैसे-कैसे भी बढ़िया-से-बढ़िया औषध को मन से सोच लो, जब तक उसे घोट-पीसकर व्यवहार में न लाओगे तब तक नीरोग कभी भी नहीं बन सकते।’ उन दिनों के पण्डित ऐसे ही अधिक थे। अद्वैताचार्य की उनसे नहीं पटती थी, इसलिये इन्होंने अपनी एक नयी पाठशाला खोल ली। उसमें ये दिनभर तो शास्त्रों को पढ़ाते थे और रात्रि में हरिदास आदि अपने अन्तरंग भक्तों के साथ कृष्ण-कीर्तन करते थे। इनकी पाठशाला में विशेषकर भक्ति-शास्त्रों की ही चर्चा होती। इसलिये आस्तिक और भगवत-भक्त पण्डितगण इनके प्रति बड़ी ही श्रद्धा रखते थे। कहते हैं एक बार पण्डित जगन्नाथ मिश्र के घर जाकर इन्होंने उन्हें पुत्रवान होने का आशीर्वाद दिया था, तभी विश्वरूप का जन्म हुआ।

निमाई जब गर्भ में थे तब शचीदेवी ने एक बार इनके चरणों में भक्तिभाव से प्रणाम किया। इन्होंने आशीर्वाद दिया- ‘इस गर्भ से तुम्हारे अवतारी पुत्र उत्पन्न होगा।’ इस प्रकार सभी धार्मिक लोग इनका बहुत अधिक सम्मान करते थे। पण्डित जगन्नाथ मिश्र से इनका बहुत अधिक स्नेह था। विश्वरूप को मिश्र जी ने इन्हीं के हाथों सौंप दिया था। विश्वरूप- जैसे मेधावी, गम्भीर और होनहार बालक को पाकर ये परम प्रसन्न हुए और बड़े ही मनोयोग के साथ उनको पढ़ाने लगे। विश्वरूप एक बार जिस श्लोक को पढ़ लेते दुबारा फिर उन्हें पूछने की आवश्यकता नहीं होती थी। उनकी बुद्धि असाधारण थी। प्रायः आचार्य की पाठशाला में ऐसे ही विद्यार्थी पढ़ते थे। दिनभर घट-पट और अवच्छिन्न-अवच्छेदकता ही बकते रहने वाले तथा सदा व्याकरण की फक्किकाओं के ही ऊपर सम्पूर्ण शक्ति खर्च कर देने वाले विद्यार्थी इनके यहाँ बहुत कम थे। उनके लिये तो और ही बहुत-सी पाठशालाएँ थीं। भक्तितत्त्व और सद्ज्ञान-वर्धन के निमित्त ही आचार्य ने अपनी पाठशाला खोल रखी थी। उन्हें पाठशाला से कुछ आजीविका तो करनी ही नहीं थी। उनकी पाठशाला में सदा भक्तितत्त्व के ही ऊपर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रहती। विश्वरूप इन विषयों में सबसे अधिक भाग लेते। उनका चित्त बालकपन से ही संसार से विरक्त था। अद्वैताचार्य की कथाओं का तो आगे समय-समय पर यथास्थान उल्लेख होता ही रहेगा। अब आइये थोड़ा निमाई के दद्दा विश्वरूप के मनोविचारों को समझने की येष्टा करें। देखें वे अपने जीवन का क्या लक्ष्य स्थिर करते हैं।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(10)
विश्वरूप का वैराग्य

को देशः कानि मित्राणि कः कालः कौ व्ययागमौ।

कश्चाहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः।।[1]

भगवत्पादपद्मों से पृथक होकर प्राणी प्रारब्धकर्मानुसार असंख्य योनियों में भ्रमण करता हुआ मनुष्ययोनि में अवतीर्ण होता है। एक यही योनि ऐसी है जिसमें वह अपने सत्स्वरूप को पुनः प्राप्त कर सकता है। मनुष्ययोनि ही कर्मयोनि है, शेष सभी भोगयोनियाँ हैं। मनुष्य ही कर्म के द्वारा निष्कर्म और पुनरावृत्ति से रहित बन सकता है। पुनरावृत्ति कर्मवासनाओं के द्वारा होती है। जीव अपनी वासनाओं के द्वारा फिर-फिर जन्म ग्रहण करता है और मरणके दुःखों को भोगता है। यदि कर्मवासना क्षय हो जाय तो परावर भगवान का दर्शन हो जाता है। भगवद्दर्शन के तीन मुख्य धर्म हैं- (1) हृदय में जो अज्ञान की ग्रन्थि पड़ी हुई है, जिसके द्वारा असत पदार्थों को सत समझे बैठे हैं वह ग्रन्थि खुल जाती है। (2) अज्ञान संशय के द्वारा उत्पन्न होता है और संशय ही विनाश का मुख्य हेतु है, परावर के साक्षात हो जाने पर सर्वसंशय आप-से-आप मिट जाते हैं। (3) संसृति का मुख्य हेतु है कर्मबन्ध। कर्म ही प्राणियों को नाना योनियों में सुख-दुःख भुगताते रहते हैं। जिसे भगवत-साक्षात्कार हो गया है उसके सभी कर्म क्षय हो जाते हैं। बस, फिर क्या है! वह संसार-चक्र से मुक्त होकर अपने सत्स्वरूप को प्राप्त कर लेता है-

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।

यही तो जीव का परम पुरुषार्थ है। त्याग-धर्म सृष्टि के आदि में सबसे प्रथम उत्पन्न हुआ। सभी प्राणियों का मुख्य और प्रधान उद्देश्य है ‘त्याग’। इन संसारी विषयों का जभी त्याग कर सके तभी त्याग कर देना चाहिये। इसीलिये सृष्टि के आदि में सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन- ये चार त्यागी संन्यासी ही उत्पन्न हुए। भगवान के वामन, कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभदेव  आदि बहुत-से अवतारों ने त्याग का ही उपदेश दिया है। त्याग ही ‘साधन’ है इसीलिये मनुष्य को ही साधक कहा गया है। बहुत-से लोग कहते हैं गृहस्थ-धर्म यदि निष्कामभाव से किया जाय तो सर्वश्रेष्ठ है। किन्तु ये रोचक और श्रुतिमधुर शब्द हैं, जो पूर्वजन्म की संचित वासनाओं के अनुसार सर्वत्याग करने में समर्थ नहीं हो सकते, उनके आश्वासन के निमित्त ये शब्द हैं। जैसे मांस खाने की जो अपनी वासना का संवरण नहीं कर सकता उसके लिये कहते हैं- ‘यदि मांस खाना ही है तो यज्ञ करके जो शेष बचे उसे प्रसाद समझकर खाओ। ऐसा करने से हिंसा न होगी।

इन शब्दों में से ही स्पष्ट प्रतीत होताहै कि असल में अहिंसा तो वही है जिसमें किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाया जाय, किन्तु तुम उसका पालन नहीं कर सकते तो अपनी वासना को सर्वतोमुखी स्वतन्त्र मत छोड़ दो, उसे संयम में लाओ। कामवासना को संयम में लाने के ही लिये गृहस्थी होने की आज्ञा दी है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्महीन वासनाएँ तो बन्धन का हेतु हैं ही, किन्तु केवल धर्म भी बन्धन का हेतु है, यदि तुम अपनी वासनाओं को संयम में रखकर धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहोगे तो स्वर्ग का सुख भोगते रहोगे, जन्म-मरण के चक्कर से नहीं छूट सकते। ‘हाँ, यदि मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से जो धर्माचरण करोगे तो धीरे-धीरे इन कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे। पूर्वजन्म की वासनाओं के अनुसार प्राणी स्वयं इन बन्धनों में फँसता है। कर्दम प्रजापति ने दस हजार वर्ष तक भगवान की अनन्य भाव से भूख-प्यास सहकर और प्राणों का निरोध करके तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान उनके सम्मुख प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा तब उन्होंने हाथ जोड़े हुए गद्गद कण्ठ से कैसी सत्य बात कही थी।

उन्होंने कहा- ‘भगवान! मुझमें और ग्राम्य-पशु में कोई अन्तर नहीं। मैंने कामना से तुम्हारी उपासना की है, मैं काम-सुख का इच्छुक हूँ, यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं, तो मेरे अनुकूल मुझे भार्या दीजिये। यही मैं वरदान माँगता हूँ।’ दस हजार वर्ष की घोर तपस्या के फलस्वरूप भार्या का वरदान सुनकर भगवान के नेत्रों में जल भर आया और उस विन्दु के गिरने से ही विन्दुसर तीर्थ बन गया। वे अपनी माया की प्रबलता देखकर स्वयं आश्चर्यान्वित हो गये और स्वयं इनके यहाँ देवहूति के गर्भ से कलिपरूप में उत्पन्न हुए। भगवान कपिल  ने अपने पिता को तथा माता को तत्त्वोपदेश किया और अन्त में वे संसार से संन्यास लेकर भगवान के अनन्य धाम को प्राप्त हुए।

इसलिये कपिल भगवान का मत है- ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद् गृहाद् वा वनाद् वा।’ किसी भी आश्रम में क्यों न हो जब उत्कट वैराग्य हो जाय तब सर्व धर्मों का परित्याग करके एक प्रभु के ही पादपद्मों में मन लगाना चाहिये, यही प्राणिमात्र का परम पुरुषार्थ है। किन्तु उत्कट वैराग्य भी तो पूर्वजन्मों के परम शुभ संस्कारों से प्रापत होता है। निमाई के भाई विश्वरूप की अवस्था अब सोलह वर्ष की हो चली। वे साधारण बालक नहीं थे। मालूम पड़ता है वे सत्य अथवा ब्रह्मलोक के जीव थे, जो अपने अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण करने के निमित्त योगभ्रष्ट शुचि ब्राह्मण के घर में कुछ काल के लिये उत्पन्न हो गये थे। और लोग इस बात को क्या समझें?

माता-पिता के लिये तो वे साधारण पुत्र ही थे, माता-पिता का जो कर्तव्य है उसका वे पालन करने लगे। विश्वरूप अपने ममेरे भाई लोकनाथ को छोड़कर और किसी से विशेष बातें नहीं करते थे। लोकनाथ को वे प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। लोकनाथ इनसे साल-छः महीने अवस्था में छोटे थे, वे भी इनमें गुरु की भाँति भक्ति करते थे। दोनों के विचार भी एक-से थे, एकान्त में घण्टों परमार्थ-विषयक बातें होती रहतीं। मिश्र जी ने देखा पुत्र की अवस्था सोलह वर्ष की हो चुकी है, इसलिये इसके विवाह का कहीं से प्रबन्ध करना चाहिये। अपने विचार उन्होंने शचीदेवी के सम्मुख प्रकट किये। शचीदेवी ने भी इनकी बात का समर्थन किया। अब माता-पिता विश्वरूप के अनुरूप कन्या की खोज करने लगे। इधर विश्वरूप के विचारों में और अधिक गम्भीरता आने लगी। पंद्रह वर्ष की अवस्था के पश्चात् सभी युवकों के हृदयों में एक प्रकार की महान खलबली-सी उत्पन्न हुआ करती है। चित्त किसी अत्यन्त प्यारे के मिलन के लिये तड़पता रहता है। हृदय में एक मीठी-मीठी वेदना-सी होती है। जी चाहता है अपने को किसी के ऊपर न्यौछावर कर दें। इसी बात को समझकर माता-पिता इस अवस्था में लड़के का विवाह कर देते हैं और अपने हृदय को समर्पण करने के निमित्त संगिनी पाकर बहुत-से शान्त हो जाते हैं। बहुत-से धन के बन्धन में फँसकर, बहुत-से मित्र के प्रेम में फँसकर और बहुत-से विषयवासनाओं में फँसकर उस वेग को शान्त कर लेते हैं। उस वेग को जिधर लगाओ उधर ही वह लग जायगा। विश्वरूप ने उस प्रेम को माता-पिता के ही बीच में सीमित न रखकर उसे विश्व के साथ तद्रूप बनाना चाहा। वे इसी बात को सोचते रहते थे कि इस कोलाहलपूर्ण संसार से कैसे उपरत हो सकेंगे?

जब इन्होंने अपने विवाह की बात सुनी तब तो मानो इनके वैराग्यरूपी प्रज्वलित अग्नि में घृत की आहुति पड़ी। ये बार-बार सोचने लगे- ‘क्या विवाह करके संसारी सुख भोगने से मुझे परम शान्ति मिल सकेगी? क्या मैं गृहस्थी बनके अपने चरम लक्ष्य तक शीघ्र-से-शीघ्र पहुँच सकूँगा? क्या मुझे माता-पिता और भाइयों के ही बीच में अपने प्रेम को सीमित बनाकर संसारी बनना चाहिये? उनकी यह विकलता बढ़ती ही जाती थी। एक दिन लोकनाथ ने एकान्त में इनसे पूछा- ‘भैया! क्या कारण है, तुम अब सदा किसी गम्भीर विचार में डूबे रहते हो?’ उनकी बात सुनकर इन्होंने उन्हें टालते हुए कहा- ‘नहीं, कुछ नहीं, वैसे ही शास्त्रविषयक बातें सोचता रहता हूँ, कोई विशेष बात तो नहीं है।’

उन्होंने फिर कहा- ‘आप चाहे बतावें या न बतावें मैं सब जानता हूँ। फूफा जी आपके विवाह की सोच रहे हैं। आपके भावों को खूब जानता हूँ, कि आप विवाह के बन्धन में कभी न फँसेंगे। आप इसके लिये सबका त्याग कर सकते हैं, किन्तु मैं आपके चरणों में यही विनीत भाव से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपने चरणों से पृथक न करें- यही मेरी अन्तिम प्रार्थना है।’ विश्वरूप ने उन्हें गाढ़ आलिंगन करते हुए कहा- ‘भैया! तुम कैसी बात कर रहे हो। यदि ऐसा कुछ होगा भी तो मैं तुम्हारी सम्मति के बिना कुछ थोड़े ही कर सकता हूँ। तुम तो मेरे प्राण हो, भला तुम्हें छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ। दोनों भाई यथासमय भोजन करने के निमित्त अपने-अपने घर चले गये। विश्वरूप घर में बहुत ही कम रहते थे, केवल दोपहर को और शाम को भोजन करने के निमित्त घर जाते, नहीं तो सदा अद्वैताचार्य जी की पाठशाला में ही शास्त्रालोचना तथा गम्भीर विचार करते रहते।

इसीलिये माता-पिता को इनके मनोभावों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं हो सकी। बीच-बीच में जब निमाई इन्हें बुलाने जाते तब ये थोड़ी देर के लिये घर आ जाते और कभी-कभी निमाई से दो-चार बातें करते। मिश्र जी इनसे बातें करने में संकोच करते थे। इनके पढ़ने में किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालना चाहते थे। धीरे-धीरे विश्वरूप का वैराग्य दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक बढ़ने लगा। एक बार उन्होंने ज्ञानदृष्टि से देखा कि ये माता, पिता, भाई, मित्र आदि असल में चीज क्या हैं? विचार करते-करते वे संसारी-सम्बन्धों से ऊँचे उठ गये। उन्हें प्रतीत होने लगा, सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मों के अनुसार बिना सोचे-समझे दिन-रात कर्मों में जुटे हुए हैं। अन्धे की भाँति बिना आगे का ध्यान किये किसी अज्ञात मार्ग की ओर चले जा रहे हैं।

विचार करते-करते उन्हें संसार के सभी प्राणी समानरूप से रेंगते हुए-से दीखने लगे। जैसे किसी बहुत ऊँचे स्थान पर चढ़कर देखने से मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष सभी छोटे-छोटे भिनगे-से उड़ते दिखायी पड़ते हैं, उनमें फिर विवेक नहीं किया जा सकता कि कौन मनुष्य है, कौन पशु। सभी समानरूप से छोटे-छोटे कण-से दिखायी पड़ते हैं, उसी प्रकार विचार की ऊँची भित्ति पर चढ़कर विश्वरूप को ये संसारी जीव दीखने लगे। उनका माता-पिता तथा बन्धु-बान्धवों के प्रति जो मोह था, वह एकदम जाता रहा। वे अपने को समझ गये और मन-ही-मन कहने लगे- ‘ये संसारी लोग भी कितने दया के पात्र हैं! रोज न जाने क्या-क्या विचार करते रहते हैं। बड़े-बड़े विधान बनाते रहते हैं, किन्तु सभी किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से घूम रहे हैं।’ लोग कहते हैं, ‘अजी अभी संसार का सुख भोग लो।

आगे चलकर भगवद्भजन कर लेंगे। वे अज्ञ यह नहीं समझते कि यह शरीर क्षणभंगुर है, इसका दूसरे क्षण का भी पता नहीं।’ इन विचारों के आते ही उन्होंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। भर्तृहरि जी के इस श्लोक को वे बार-बार पढ़ने लगे-

यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा

यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्

प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।।

‘अरे ओ युवको! जब तक यह कोमल और नूतन शरीर स्वस्थ है, जब तक वृद्धावस्था तुमसे बहुत दूर चुपचाप तुम्हारी ताक में बैठी है, जब तक तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति न्यून नहीं हुई है और जब तक यह आयु शेष नहीं हुई है, तब तक ही आत्मा  के कल्याण का प्रयत्न कर लो, इसी में बुद्धिमानी है। नहीं तो घर में आग लगने पर जो कुँआ खोदने की बात सोचकर चुपचाप बैठा है, उसके घर में आग लगने पर वह जल ही जायगा। आग लगने पर कुँआ खोदने में प्रयत्न करना मूर्खता है।’

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(11)
विश्वरूप का गृह-त्याग

धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः।

जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये।।[1]

बन्धन का हेतु ममत्व है, ममत्व का सम्बन्ध मन से है। जिसने मन से ममत्व को निकाल दिया, वह तो नित्यमुक्त ही है। उसके लिये न कोई अपना है न पराया, वह तो अनेक रूपों में एक ही आत्मा को चारों ओर देखता है, फिर वह संकुचित सीमा में अपने को आबद्ध नहीं रख सकता। विश्वरूप ने निश्चय कर लिया कि मुझे इस गृह को त्याग देना चाहिये। जहाँ पर माता-पिता ही मुझे अपना समझते हैं, जहाँ नित्यप्रति भाँति-भाँति के संसारी प्रलोभनों के आने की सम्भावना है, ऐसी जगह अब अधिक दिन ठहरना ठीक नहीं है। ऐसा निश्चय कर लेने पर एक दिन इन्होंने अपनी माता  को एक पुस्तक देते हुए कहा- ‘माँ, यह पुस्तक निमाई के लिये है, जब वह बड़ा हो तो इस पुस्तक को उसे दे देना, भूल मत जाना।’

माता ने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘तब तक तू कहीं चला थोड़े ही जायगा। मैं भूल जाऊँ तो तू तो न भूलेगा। तू ही इसे अपने हाथ से उसे देना और पढ़ाना। तू भी तो अब पण्डित बन गया है। निमाई तुझसे ही पढ़ा करेगा।’ विश्वरूप ने मानसिक भावों को छिपाते हुए कहा- ‘हाँ, ठीक है, मैं रहा तो दे ही दूँगा, किन्तु तू भी इस बात को याद रखना।’ भोली-भाली माता को क्या पता कि मेरा विश्वरूप अब दो ही चार दिन का मेहमान है। दो-चार दिन के बाद फिर इसकी मनमोहिनी सूरत हम लोगों को कभी भी देखने को न मिल सकेगी। माता अपने काम-धंधे में लग गयी। जाड़े का समय है, खूब कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है। सभी प्राणी जाडे़ के मारे गुड़मुड़ी मारे रात्रि में सो रहे हैं। चारों ओर नीरवता का साम्राज्य है, कहीं भी कोलाहल सुनायी नहीं पड़ता, सर्वत्र स्तब्धता छायी हुई है। ऐसे समय विश्वरूप को निद्रा कहाँ?

वे तो भविष्य-जीवन को महान बनाने की ऊहापोह में लगे हुए हैं। घर में एक बार दृष्टि डाली। एक ओर माता सो रही है, उसके पास ही चुपचाप निमाई आँख बन्द किये हुए शयन कर रहे हैं। मिश्र जी दूसरी ओर रजाई ओढ़े खाट पर सो रहे हैं। विश्वरूप ने एक बार खूब ध्यान से पिता की ओर देखा। सिर के बाल पके हुए थे, मुँह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। हमेशा गृहस्थी की चिन्ता करते रहने से उनका स्वभाव ही चिन्तामय बन गया था, सोते समय भी मानो वे किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए हैं। निर्धन वृद्ध के चेहरे की ओर देखकर एक बार तो विश्वरूप अपने निश्चय से विचलित हुए।

उनके मन में भाव आया- ‘पिता वृद्ध हैं, आजीविका का कोई निश्चित प्रबन्ध नहीं, निमाई  अभी निरा बालक ही है, घर का काम कैसे चलेगा?’ किन्तु थोड़े ही देर बाद वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं यह क्या सोच रहा हूँ? जिसने इस चराचर विश्व की रचना की है, जो सभी के भरण-पोषण का पहले से ही प्रबन्ध कर देता है, उसको कर्ता न मानकर मैं अपने में कर्तापने का आरोप क्यों कर रहा हूँ? वृत्ति तो सबकी वही चलता है। मनुष्य तो निमित्तमात्र है। विश्वम्भर ही सबका पालन करते हैं, मुझे अपने सत्संकल्प से विचलित न होना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने सोती हुई माता को मन-ही-मन प्रणाम किया। छोटे भाई को एक बार प्रेमपूर्वक देखा और धीरे से घर से निकल पड़े। संकेत के अनुसार लोकनाथ उन्हें गंगा  तट पर तैयार बैठे मिले। दोनों एक-दूसरे को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए, अब उन्हें यह चिन्ता हुई कि रात्रि में गंगा-पार किस प्रकार जा सकते हैं। अब बहुत ही शीघ्र प्रातःकाल होने वाला है। इधर-उधर कहीं जायँगे तो पहचाने जाने पर पकड़े जायँगे। इसलिये गंगा-पार जाये बिना क्षेम नहीं है। उस समय नाव का मिलना कठिन था। दोनों ही युवक निर्भीक थे, जीवन का मोह तो उन्हें था ही नहीं।

मनुष्य इस जीवन-रक्षा के ही लिये साहस के काम करने से डरा करता है। जिसने जीवन की उपेक्षा कर दी है, जिसने अपने शीश को उतारकर हथेली पर रख लिया है, वह संसार में जो भी चाहे कर सकता है, उसके लिये कोई काम कठिन नहीं। ’असम्भव’ तो उसके शब्द-कोष में रहता ही नहीं। ये दोनों युवक भी भगवान का नाम लेकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी की गोद में बिना शंका के कूद पड़े। मानो आज वे जलती हुई भव-दावाग्नि से निकलकर जगज्जननी माँ जाह्नवी की सुशीतल क्रोड में शाश्वत शान्ति के निमित्त सदा के लिये प्रवेश करते हों। गंगा जी के किनारे रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे भी खूब तैरना जानते हैं, फिर ये तो युवक थे और तैरने में प्रवीण थे, सामान इन लोगों के पास कुछ था ही नहीं, इसलिये ये निर्विघ्न गंगा पार हो गये। जाड़े का समय था, शरीर के सभी वस्त्र भीग गये थे, किन्तु इन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं था। शीतोष्णादि द्वन्द्व तो तभी तक बाधा पहुँचा सकते हैं जब तक कि शरीर में ममत्व होता है। शरीर से ममत्व कम हो जाने पर मनुष्य द्वन्द्वों की वेदना से ऊँचा उठ जाता है, तभी वह निर्द्वन्द्व हो सकता है।

विश्वरूप निर्द्वन्द्व हो चुके थे। वे गीले ही वस्त्रों से आगे बढ़े चले गये। इसके पश्चात् विश्वरूप जी का कोई निश्चित वृत्तान्त नहीं मिलता। पीछे से यही पता चला कि इन्होंने किसी अरण्य नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर लिया और इनके संन्यास का नाम हुआ शंकरारण्य। इनके संन्यासी हो जाने पर लोकनाथ ने इनसे संन्यास लिया। दो वर्षों तक ये भारत के अनेक तीर्थों में भ्रमण करते रहे। अन्त में महाराष्ट्र के परम प्रसिद्ध तीर्थ पण्ढरपुर में इन्होंने श्रीविट्ठलनाथ जी के क्षेत्र में अपना यह पांच भौतिक शरीर त्याग कर दिया। देहत्याग के पूर्व इन्होंने अपना स्वकीय तेज श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के आश्रम में उनके परम प्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरी को प्रदान कर दिया था। उन्हीं से वह तेज नित्यानन्द के पास आया। इसीलिये नित्यानन्द को बलराम या शेषनाग को अवतार मानते हैं। इस प्रसंग को पाठक आगे समझेंगे। इधर प्रातःकाल हुआ।

मिश्र जी ने देखा विश्वरूप शय्या पर नहीं है। इतने सबेरे पिता से पहले वे उठकर कहीं नहीं जाते थे। पिता को एकदम शंका हो गयी। उन्होंने शय्या के समीप जाकर देखा। पहले तो सोचा गंगास्नान के लिये चला गया होगा, किन्तु जलपात्र और धोती तो ज्यों-की-त्यों रखी है। थोड़ी देर तक वे चुप रहे, फिर उनसे नहीं रहा गया, उन्होंने यह बात शचीदेवी से कही। शचीदेवी भी सोच में पड़ गयी। निमाई भी उठ बैठा। शचीदेवी ने कहा- ‘बेलपोखरा (शचीदेवी के पिता नीलाम्बर चक्रवर्ती का घर बेलपोखरा मुहल्ले में ही था, विश्वरूप लोकनाथ से शास्त्रविचार करने बहुधा वहीं चले जाते थे) लोकनाथ के पास चला गया हो।’ मिश्रजी जल्दी से चक्रवर्ती महाशय के घर गये। वहाँ जाकर देखा कि लोकनाथ भी नहीं है। सभी समझ गये। दोनों परिवार के लोग शोकसागर में मग्न हो गये। शचीदेवी दौड़ी-दौड़ी अद्वैताचार्य के यहाँ गयी। वहाँ भी विश्वरूप का कुछ पता नहीं था। क्षणभर में यह बात सर्वत्र फैल गयी कि विश्वरूप घर छोड़कर चले गये। चारों ओर से मिश्र जी के स्नेही उनके घर आने लगे। लोगों की भीड़ लग गयी।

अद्वैताचार्य भी अपने शिष्यों के साथ वहाँ आ गये। सभी भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करने लगे। कुछ भक्त कहने लगे- ‘अब घोर कलियुग आ गया। साधु-ब्राह्मणों का मान नहीं, वैष्णवों  को सर्वत्र अपमानित होना पड़ता है, धर्म-कर्म सभी लोप हो गये। अब यह संसार भले आदमियों के रहने योग्य नहीं रहा। हमें भी सर्वस्व छोड़कर विश्व के ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।’ कुछ कहते- ‘भाई! विश्वरूप को हम इतना निष्ठुर नहीं समझते थे, उसने अपने छोटे भाई का भी तनिक मोह नहीं किया।’

मिश्र जी की आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, वे मुख से कुछ भी नहीं कहते थे, नीची दृष्टि किये वे बराबर भूमि की ओर ताक रहे थे, मानो उन्हें सन्देह हो गया था कि इस भूमि ने ही मेरे प्राण प्यारे पुत्र को अपने में छिपा लिया है। उनके धँसे हुए कपोल और सिकुडी हुई खाल के ऊपर से अश्रु-विन्दु बह-बहकर पृथ्वी में गिरते जाते थे और वे उसी समय पृथ्वी में विलीन होते जाते थे। इससे उनका सन्देह और भी बढ़ता जाता था कि जो पृथ्वी बराबर इन अश्रुओं को अपने में छिपाती जाती है उसने ही जरूर मेरे बेटे विश्वरूप को छिपा लिया है। उनकी दृष्टि ऊपर उठती ही नहीं थी। लोग परस्पर में क्या बातें कर रहे हैं इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं था। उनके साथी-सम्बन्धी उन्हें भाँति-भाँति से समझाते, किन्तु वे किसी की भी बात का प्रत्युत्तर नहीं देते थे। इधर शचीदेवी के करूण-रूदन को सुनकर पत्थर भी पसीजने लगे। माता जोर-जोर से दहाड़ मारकर रुदन कर रही थीं।

विश्वरूप के गुणों का बखान करते-करते माता जिस प्रकार गौ अपने बच्चे के लिये आतुरता से रम्हाती है उसी प्रकार शचीदेवी उच्च स्वर से विलाप कर रही थीं। वे बार-बार कहतीं- ‘बेटा, इस बूढ़ी को अधजली ही छोड़कर चला गया। यदि मेरा और अपने बूढे़ बाप का कुछ खयाल न किया तो न सही, इस अपने छोटे भाई की ओर भी तूने नहीं देखा। यह तो तेरे बिना क्षणभर भी नहीं रह सकेगा। विश्वरूप! मैं नहीं जानती थी, कि तू इतना निर्दयी भी कभी बन सकेगा।’ माता के विलाप को सुनकर निमाई भी जोर-जोर से रोने लगे और रोते-रोते वे एकदम बेहोश हो गये। भ्रातृ-वियोग का स्मरण करके तथा माता-पिता  के दुःख को देखकर निमाई मूर्च्छित हो गये। उनका सम्पूर्ण शरीर संज्ञा शून्य हो गया। आस-पास की स्त्रियों ने जल्दी से निमाई को उठाया, उनके मुख में जल डाला और उन्हें सचेत करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करने लगीं। स्त्रियाँ शचीदेवी को समझा रही थीं- ‘शची! अब रोने से क्या होगा, धैर्य धारण करो। तुम्हारे पुत्र ने कोई बुरा काम तो किया ही नहीं। तुम्हारी सैकड़ों पीढ़ियों को उसने तार दिया।

भगवान की भक्ति से बढ़कर और क्या है? अब इस निमाई को ही देखकर धैर्य धारण करो। देख, तेरे रुदन से यह बेहोश हो गया है, इसका खयाल करके तू रोना बंद कर दे।’ माता ने कुछ-कुछ धैर्य धारण किया। निमाई को धीरे-धीरे चेतना होने लगी। वे थोड़ी ही देर में प्रकृतिस्थ हो गये। अपने आँसुओं को पोंछकर आप माता से बोले- ‘माँ! दद्दा चले गये तो कोई चिन्ता नहीं। मैं तुम लोगों की बड़ा होकर सेवा-शुश्रूषा करूँगा। आप लोग धैर्य धारण करें।’ लोग मिश्र जी से कह रहे थे। हम उत्तर की ओर जाते हैं, चार आदमियों को दक्षिण की ओर भेजो। लोकनाथ के पिता दो-चार आदमियों को लेकर गंगा-पार जायँ। अभी दो-चार कोस ही तो पहुँचे होंगे, हम उन्हें जल्दी ही लौटा लावेंगे। इन सब लोगों की बातें सुनकर ऊपर दृष्टि उठाकर मिश्र जी ने साहस के साथ कहा- ‘अब भाई! कहीं जाने से क्या लाभ?

विश्वरूप बालक तो है ही नहीं। यदि उसकी ऐसी ही इच्छा है, तो भगवान उसकी मनोकामना पूर्ण करें। यदि उसे संन्यास में ही सुख है तो वह संन्यासी ही बनकर रहे। आप सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करें कि वह संन्यासी होकर अपने धर्म  को यथारीति पालन करता रहे और फिर लौटकर घर में न आवे।’ पिता के ऐसे साहसपूर्ण वचनों को सुनकर सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी इसी सम्बन्ध की बातें करते हुए सुखपूर्वक घर लौट गये। माता-पिता ने धैर्य तो धारण किया, किन्तु उनके हृदय में सर्वगुण-सम्पन्न पुत्र के वियोग के कारण एक गहरा-सा घाव हो गया जो अन्त तक बना रहा। मिश्रजी तो एक ही घाव को लेकर इस संसार से विदा हो गये, किन्तु वृद्धा शची के तो आगे चलकर एक और भी बड़ा भारी घाव हुआ था, जिसकी मीठी-मीठी वेदना का रसास्वादन करते हुए उसने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार वेदनामय ही बिताया। गृहस्थ में जहाँ अनेक सुख और आनन्द के अवसर आते हैं, वहाँ ऐसे दुःख के भी प्रसंग बहुत आते हैं, जिनके स्मरणमात्र से छाती फटने लगती है। जगज्जननी सीता जी जब अपने प्राणनाथ श्रीरामचन्द्र जी के वियोग से अत्यन्त ही व्यथित हो उठीं ओर उनकी वेदना असह्या हो गयी तब उन्होंने रोते-रोते बड़ी ही मार्मिक वाणी में हनुमान जी से ये वचन कहे थे-

प्रियान्न संभवेद्दुःखमप्रियादधिकं भवेत्।

ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम्।।

वे जितात्मा सत्यवादी महात्मा धन्य हैं जिन्हें प्रिय की प्राप्ति में न तो सुख होता है ओर न अप्रिय की प्राप्ति में अधिक दुःख, व्यथा हो सकती है, जिनकी वृत्ति सुख-दुःख में समान रहती है, ऐसे महात्माओं के चरणों में बार-बार प्रणाम है।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(12)
निमाई का अध्ययन के लिये आग्रह

विद्यानाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो

धेनुः कामदुघा रतिश्य विरहे नेत्रं तृतीयं च सा।

सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणं

तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु।।[1]

पुत्र-स्नेह भी संसार में कितनी विलक्षण वस्तु है? जिस समय माता-पिता का ममत्व पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, उस समय वे कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान को खो बैठते हैं। बड़े-बड़े पण्डित भी पुत्र-स्नेह के कारण अपने कर्तव्य से च्युत होते हुए देखे गये हैं। भगवान की माया ही विचित्र है, उसका असर मूर्ख-पण्डित सभी पर समानरूप से पड़ता है। पण्डित जगन्नाथ मिश्र स्वयं अच्छे विद्वान थे, कुलीन ब्राह्मण थे, विद्या के महत्त्व को जानते थे, किन्तु विश्वरूप से विछोह से वे अपने कर्तव्य को खो बैठे। सर्वगुण सम्पन्न पुत्र के असमय में धोखा देकर चले जाने के कारण उनके हृदय पर एक भारी चोट लगी। वे इस विछोह का मूल कारण विद्या को ही समझने लगे।

उनके हृदय में बार-बार यह प्रश्न उठता था- ‘यदि विश्वरूप इतना अध्ययन न करता, यदि मैं उसे इस प्रकार सर्वदा पढ़ते रहने की छूट न देता, तो सम्भव है मुझे आज यह दिन न देखना पड़ता। इसलिये इनके मन में आया कि अब निमाई को अधिक पढ़ाना-लिखाना नहीं चाहिये। हाय रे! मोह! इधर अब तक तो निमाई कुछ पढ़ते ही लिखते न थे। दिनभर बालकों के साथ उपद्रव मचाते रहना ही इनका प्रधान कार्य था, किन्तु विश्वरूप के गृह त्याग ने के अनन्तर इनका स्वभाव एकदम बदल गया। अब इन्होंने उपद्रव करना बिलकुल छोड़ दिया। अब ये खूब मन लगाकर पढ़ने लगे। दिनभर खूब परिश्रम के साथ पढ़ते और खेलने-कूदने कहीं भी न जाते। माता-पिता के साथ भी अब ये सौम्यता का बर्ताव करने लगे। इस एकदम स्वभाव-परिवर्तन का पिता के ऊपर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। वे सोचने लगे- ‘मुझे जो भय था वही सामने आ उपस्थित हुआ।

निमाई भी अब विश्वरूप की भाँति अध्ययन में संलग्न हो गया। इसकी बुद्धि उससे कम तीव्र नहीं है। एक ही दिन में इसने सम्पूर्ण वर्णों की जानकारी कर ली थी, यदि इसे भी अध्ययन के लिये विश्वरूप की भाँति स्वतन्त्रता दे दी जाय तो यह भी हमारे हाथ से जाता रहेगा। यह सोचकर उन्होंने एक दिन निमाई को बुलाया और बड़े प्यार से कहने लगे- ‘बेटा! मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, तुम्हें मेरी वह बात चाहे उचित हो या अनुचित माननी ही पड़ेगी।’ निमाई ने नम्रतापूर्वक कहा- ‘पिताजी! आप आज्ञा कीजिये। भला, मैं कभी आपकी आज्ञा को टाल सकता हूँ! आपके कहने से मैं सब कुछ कर सकता हूँ।’

मिश्र जी ने कहा- ‘हम तुम्हें अपनी शपथ दिलाकर कहते हैं, तुम आज से पढ़ना बंद कर दो। हमारी यही इच्छा है कि तुम पढ़ने-लिखने में विशेष प्रयत्न न करो।’ जिस दिन से विश्वरूप गृह त्यागकर चले गये थे, उस दिन से निमाई माता-पिता की आज्ञा को कभी नहीं टालते थे। पिता की बात सुनकर इन्होंने नीचे सिर झुकाये हुए ही धीरे से कहा- ‘जैसी आज्ञा होगी मैं वही करूँगा।’ इतना कहकर ये भीतर माता के पास चले गये और पिता की आज्ञा माता को सुना दी। दूसरे दिन से इन्होंने पढ़ना-लिखना बिलकुल बंद कर दिया। अब इन्होंने अपनी वही पुरानी चंचलता फिर आरम्भ कर दी। लड़कों के साथ गंगा जी के घाटों पर जाते, घण्टों जल में ही स्नान करते रहते। कभी अपने साथियों को लेकर लोगों के ऊपर पानी उलीचते। स्त्रियों के पास चले जाते, छोटे-छोटे बच्चों को रूला देते। स्त्रियों के सूखे वस्त्रों को जल में फेंककर भाग जाते। किसी की घाट पर रखी हुई नैवेद्य को बिना उसके पूछे ही जल्दी से चट कर जाते। कोई आकर डाँटने लगता तो बड़े जोरों के साथ रोने लगते, सभी बालक इनके चारों ओर खडे़ हो जाते, आस-पास से और भी लोग इकट्ठे हो जाते। कोई तो उस डाँटने वाले को बुरा-भला कहता। कोई इन्हें शान्त करने की चेष्टा करता। बहुत-से कहते- ‘अजी! कोई कहाँ तक सहन करे, यह लड़का है भी बड़ा उपद्रवी, किसी की सुनता ही नहीं।’

इस प्रकार लोग नित्य-प्रति जा-जाकर मिश्र जी से शिकायत करते। मिश्र जी इन्हें पुचकारकर कहते- ‘बेटा! इतना दंगल नहीं करना चाहिये।’ आप धीरे से कहते- ‘तब हम करें क्या? जब पढ़ने न जायँगे तो बालकों के साथ खेल ही करेंगे। हमसे चुपचाप घर में तो बैठा नहीं जाता।’ पिता इनका ऐसा उत्तर सुनकर चुप हो जाते। ये भाँति-भाँति के खेल खेलने लगे। एक दिन आपने बहुत ही फटे-पुराने कपड़े पहन लिये, आँखों में पट्टी बाँध ली और एक लड़के का कंधा पकड़कर घर-घर भीख माँगने लगे। बहुत-से लड़के इनके साथ ताली बजा-बजाकर हँसते जाते थे। ये घरों में जाते और स्त्रियों से कहते- ‘माई! अन्धे को भीख डालना, भगवान तेरा भला करेंगे।’ स्त्रियाँ इनकी ऐसी क्रीड़ा देखकर खूब जोरों से हँसने लगतीं और इन्हें कुछ खने की चीजें दे देतीं। ये उसे अपने साथियों में बाँटकर खा लेते और फिर दूसरे घर में जाते। इस प्रकार ये अपने घर भी गये।

शचीमाता भोजन बना रही थी। आपने आवाज दी- ‘मैया! भगवान् तेरा भला करे, दूध-पूत सदा फलते-फूलते रहें, इस अन्धे को थोड़ी भीख डाल देना।’ माता निकलकर बाहर आयीं और इनका ऐसा रूप देखकर आश्चर्य के साथ कहने लगीं- ‘निमाई! तू कैसे होता जा रहा है, भला, ब्राह्मण के बालक को ऐसा रूप बनाना चाहिये। तू घर-घर से भीख माँग रहा है, तेरे घर में क्या कमी है? ऐसा खेल ठीक नहीं होता।’ आपने उसी समय पट्टी खोलकर कहा- ‘अम्मा! निर्धन ब्राह्मण का मूर्ख बालक अन्धा ही है, वह भीख माँगने के सिवा और कर ही क्या सकता है? मुझे पढ़ावेगी नहीं तो मुझे भीख ही तो माँगनी पड़ेगी।’ इनकी बात सुनकर शचीदेवी की आँखों में मारे प्रेम के आँसू आ गये, उन्होंने इन्हें जल्दी से गोद में लेकर पुचकारा। साथ के बच्चों को थोड़ी-थोड़ी मिठाई देकर बिदा किया और इन्हें स्नान कराके भोजन कराने लगी। ये जान-बूझकर उपद्रव करने लगे। जब ये घर पर रहते और कोई चीज बेचने वाला उधर आता तो माता से बार-बार आग्रह करते हमें अमुक चीज दिला दो। मिठाई वाला आता तो मिठाई लेने को कहते, फलवाला आता तो फलों के लिये आग्रह करते। चाट बिकने आती तो चाट ही खाने को माँगते। न दिलाने पर खूब जोरों से रोते और जब तक उसे पा नहीं लेते तब तक बराबर रोते ही रहते। चीज मिलने पर उसमें से थोड़ी-सी खा लेते, शेष को वैसे ही छोड़ देते।

माता बार-बार प्यार से समझाती- ‘बेटा! तू जानता नहीं, तेरे पिता निर्धन हैं, उनके पास इतने पैसे कहाँ से आये। तू दिनभर भाँति-भाँति की चीजों के लिये रोया करता है, जो भी बिकने आता है उसी के लिये आग्रह करने लगता है। इतने पैसे मैं कहाँ से लाऊँ?’ आप कहते- ‘हमें पढ़ने न दोगी तो हम ऐसा ही करेंगे। जब पढ़ेंगे नहीं तो यही करते रहेंगे। हमें इससे क्या मतलब, या तो हमें पढ़ने दो नहीं तो हम ऐसे ही माँगा करेंगे।’ इनकी ऐसी बातें सुनकर माता सोचती, इससे तो इसे पढ़ने ही दिया जाय तो अच्छा है, किन्तु विश्वरूप का स्मरण आते ही वह डर जाती और फिर उसे मिश्र जी के सामने ऐसा प्रस्ताव करने का साहस न होता। ये और भी अधिकाधिक चंचल होते जाते। एक दिन आपने गुस्से में आकर घर में से बहुत-से मिट्टी के बर्तन निकाल-निकालकर आँगन में फोड़ दिये और आप पास के ही एक धूरे पर जा बैठे। वहाँ उसी प्रकार अशुद्ध हाँड़ियों को अपनी भुजाओं में पहन लिया। टूटी-फूटी टोकरी को सिर पर रख लिया और खपड़े घिस-घिसकर उससे शरीर को मलने लगे।

माता बार-बार मने करतीं, किन्तु ये सुनते ही न थे, वहीं बैठकर चुपचाप फूटी हाँडि़यों को बजाने लगे। बहुत-सी पास-पड़ोस की स्त्रियाँ भी आ गयीं। गंगास्नान करने वाले खड़े हो गये। माता इन्हें बार-बार धिक्कार देते हुए ऐसे अपवित्र कार्य को करने से मना करतीं। ये कहते- ‘मूर्ख बेटे से तुम और आशा ही क्या रखी सकती हो? जब तुम हमें पढ़ाओगी नहीं तो हम ऐसा ही काम करेंगे। मूर्ख आदमी शुचि-अशुचि क्या जाने? इसका ज्ञान तो विद्या पढ़कर ही होता है।’ पास में खड़ी हुई स्त्रियाँ शचीमाता को उलाहना देते हुए कहतीं- ‘बालक कह तो ठीक रहा है। तुम इसे पढ़ने क्यों नहीं देती? यह तो बड़े भाग्य की बात है कि बच्चा पढ़ने के लिये इतना आग्रह कर रहा है। हमारे बच्चे तो मारने-पीटने पर भी पढ़ने नहीं जाते। इसे पढ़ने के लिये जरूर भेजा करो।’ पास में खडे़ हुए और भी लोग बच्चे की बात का समर्थन करने लगे। सबके समझाने से माता का भी भाव परिवर्तित हो गया।

उन्होंने प्यार के साथ कहा- ‘अच्छा, कल से पढ़ा करना, मैं तेरे पिता से कह दूँगी। अब आकर जल्दी से स्नान कर ले।’ अतना सुनते ही ये जल्दी से उठकर चले आये और माता के कथनानुसार शीघ्र ही गंगास्नान करके घर लौट आये। शची देवी ने पण्डित जी से बहुत आग्रह किया कि बच्चे को पढ़ने देना चाहिये। सभी पढ़े-लिखे संन्यासी थोड़े ही हो जाते हैं। नवद्वीप में हजारों पण्डित हैं, इतने विद्यार्थी हैं, इनमें से कोई भी संन्यासी नहीं हुआ। यह तो भाग्य की बात है। यदि इसके भाग्य में संन्यास ही होगा तो हम उसे रोक थोडे़ ही सकते हैं। ब्राह्मण का बालक मूर्ख ठीक नहीं होता। और भी बहुत-से लोगों ने पण्डित जी से आग्रह किया। सब लोगों के कहने से पण्डित जी ने पढ़ने की सम्मति दे दी। निमाई खूब मनोयोग के साथ पढ़ने-लिखने लगे। अब इन्होंने सभी प्रकार की चंचलता छोड़ दी। एक दिन इन्होंने नैवेद्य का पान खा लिया। उसे खाते ही ये बेहोश हो गये। थोड़ी देर में होश आने पर इन्होंने माता से कहा- ‘अम्मा! भैया विश्वरूप मेरे पास आये थे, उन्होंने कहा- ‘तुम भी संन्यासी हो जाओ’ हमने कहा- ‘हम बालक हैं, भला हम संन्यास का मर्म क्या समझें।

हम तो अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा ही करेंगे। यही हमारा धर्म है, हम अपने माता-पिता  को छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते।’ मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘अच्छा, तो ठीक है, माता जी के चरणों में हमारा प्रणाम कहना। अब हम जाते हैं।’ यह कहकर वे चले गये। इस बात को सुनकर माता को विश्वरूप की याद आ गयी। उनकी आँखों में से अश्रुओं की धार बहने लगी। उन्होंने अपने प्यारे निमाई को छाती से चिपका लिया। उनका मातृस्नेह उमड़ पड़ा और रूँधे हुए कण्ठ से रोते-रोते उन्होंने कहा- ‘बेटा निमाई! अब हमें तेरा ही एकमात्र सहारा है, हम वृद्ध अन्धों की तू ही एकमात्र लकड़ी है। हमारी सब आशाएँ तेरे ही ऊपर हैं। तू हमें विश्वरूप की तरह धोखा मत देना।’

निमाई बहुत देर तक माता की गोद में चिपके रहे, उन्हें माता की शीतल सुखदायी गोदी में परम शान्ति मिल रही थी, माता भी एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कर रही थी। इस प्रकार निमाई की अवस्था 9 वर्ष की हो गयी। शरीर इनका नीरोग, पुष्ट और सुगठित था, देखने में ये 16 वर्ष के-से युवक जान पड़ते थे। अब पिता ने इनके यज्ञोपवीत की तैयारियाँ कीं।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(13)
व्रत-बन्ध

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।

वेदपाठी भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।।[1]

संस्कार ही जीवन-पथ के परिचायक चिह्न हैं। जैसे संस्कार होंगे उन्हीं के अनुसार जीवन आगे बढ़ेगा। संयम और नियम ही उन्नति के साधन हैं। पूज्यपाद महर्षियों ने संयम के ही सिद्धान्तों पर वर्णाश्रम-धर्म का प्रसार किया और उनके लिये पृथक-पृथक विधान बनाये। द्विजातियों के लिये 16 संस्कारों की आज्ञा दी। गर्भाधान से लेकर मृत्यु अथवा संन्यास-पर्यन्त सभी संस्कारों  की एक विशेष विधि का निर्माण किया। जिनसे चित्त पर प्रभाव पड़े और भविष्य-जीवन उज्ज्वल बन सके। द्विजातियों का वेदारम्भ और उपवीत-संस्कार यही प्रधान संस्कार समझा जाता है।

असल में यज्ञोपवीत-संस्कार होने पर ही बालक के ऊपर वैदिक कर्म लागू होते हैं, इसीलिये इसे व्रत-बन्ध-संस्कार भी कहते हैं। पूर्वकाल में बच्चा जब पढ़ने के योग्य हो जाता था, तो उसे सद्गुरु के आश्रम में ले जाते थे, गुरु उसे ग्रहण करके शौच, आचार और वेद  की शिक्षा देते थे। बस, इसी को उपनयन-संस्कार कहते थे। विद्या समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से शिष्य जब घर को लौटता था, तो उसे समावर्तन-संस्कार कहते थे। ये तीनों संस्कार आज भी नाममात्र को होते तो हैं, किन्तु इन तीनों का अभिनय एक ही दिन में करा दिया जाता है। यह विकृत संस्कार आज भी हमारी महत्ता का स्मरण दिलाता है। आज निमाई का यज्ञोपवीत-संस्कार होगा। घर में विवाह-शादी की तरह तैयारियाँ हो रही हैं, मिश्र जी ने अपनी शक्ति के अनुसार इस संस्कार को खूब धूमधाम से करने का निश्चय किया है। घर के आँगन में एक मण्डप बनाया गया है। उसमें एक ओर विद्वान ब्राह्मण बैठे हुए हैं, उनके पीछे मिश्र जी के सम्बन्धी और स्नेही बैठे हैं। सामने स्त्रियाँ बैठी हैं, जो भाँति-भाँति के मंगलगीत गा रही हैं। द्वार पर बाजे बज रहे हैं, चारों ओर खूब चहल-पहल दिखायी पड़ती है।

ग्रहपूजा और हवनादि का कार्य कराने के निमित्त आचार्य सुदर्शन और विष्णु पण्डित प्रभृति विद्वान मिश्रजी के पास मण्डप में बैठे हुए हैं। यथासमय क्षौर कराकर निमाई  मण्डप में बुलाये गये। उनका सिर घुटा हुआ था, आचार्य ने उन्हें अपने हाथों से ब्रह्मचारियों के- से पीत वस्त्र पहनाये। पीले वस्त्र की लंगोटी पहनायी, ओढ़ने को मृगचर्म दिया और हाथ में बड़ा-सा एक पलास का दण्ड दिया। अब निमाई पूरे ब्रह्मचारी बन गये। गौर वर्ण के उज्ज्वल शरीर पर पीत वस्त्र बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। पिता के पास बैठकर इन्होंने समिधाधान किया, अग्नि में आहुति दी और यज्ञोपवीत धारण किया।

मिश्र जी ने एक वस्त्र की आड़ करके इनके कान में वेदमाता सावित्री अथवा गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। मन्त्र के श्रवण मात्र से ये भाव में निमग्न हो गये। मन्त्र सुनते ही इन्होंने एक बड़े जोर की हुंकार मारी और साथ ही अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। हाथ का दण्ड एक ओर पड़ा था और ये अचेत होकर पृथ्वी पर दूसरी ओर पड़े थे। दोनों नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही थी, प्राणवायु बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। यज्ञ के धूम्र लगने से लाल-लाल आँखें आधी खुली हुई थीं और ये संज्ञा शून्य हुए चुपचाप पृथ्वी पर पड़े थे। इनकी ऐसी अवस्था देखकर सभी घबड़ा गये। मिश्र जी ने इनके मुँह में जल डाला। कई आदमी पंखे से हवा करने लगे। धीरे-धीरे इनकी मूर्च्छा भंग हुई और ये कुछ काल में सचेत हो गये। सभी को इनकी इस अवस्था से महान आश्चर्य हुआ। सचेत होने पर इन्होंने पिता जी से कहा- ‘पिता जी! अब मुझे क्या करना चाहिये?’

ब्रह्मचर्य-व्रत लेने पर छात्र को गुरु-गृह में रहकर भिक्षा पर ही निर्वाह करना होता था, यज्ञोपवीत के समय आज भी एक दिन के लिये भिक्षा का अभिनय कराया जाता है। इसीलिये अब निमाई को भिक्षा माँगने के लिये झोली दी गयी। निमाई के हृदय पर उस संस्कार का बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा था। इन कृत्यों के कारण इनकी कायापलट-सी हो गयी। मुख पर एक अपूर्व ज्योति दृष्टिगोचर होने लगी। मुँड़ा हुआ माथा सूर्य के प्रकाश में दमकने लगा। एक हाथ में दण्ड लिये और दूसरे में झोली लटकाये ब्रह्मचारी के वेश में निमाई बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। मानो वामन भगवान  अपने भक्त बलि से भिक्षा माँगने जा रहे हों। ये पहले अपनी माता के पास भिक्षा माँगने गये, फिर बारी-बारी से सभी के पास भिक्षा माँगने लगे।

आचार्य ने इन्हें भिक्षा माँगने का प्रकार बता दिया था। उसी प्रकार ये सबके सामने जाते और- ‘भवति भिक्षां देहि’  कहकर झोली सामने कर देते। स्त्रियाँ इनके रूप-लावण्य को देखकर मुग्ध हो गयीं, माता मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थीं, उनके हृदय में पुत्र-स्नेह की हिलोरें निरन्तर उठ रही थीं। वे निमाई की शोभा को देखते-देखते तृप्त ही न होती थीं। अतृप्त दृष्टि से वे नीचा सिर किये हुए धीरे-धीरे निमाई की ओर निहार रही थीं। स्त्रियाँ इन्हें भाँति-भाँति की वस्तुएँ भेंट में देतीं। कोई फल देती, कोई मिठाई का थाल और कोई-कोई इनकी झोली में द्रव्य डाल देतीं। ये सभी के पास जाकर खड़े हो जाते, जिसके भी सामने खडे़ होते उसी की इच्छा होती कि इसे सर्वस्व समर्पण कर दें। इस प्रकार ये भिक्षा माँगते हुए इधर-से-उधर घूमने लगे।

इसी बीच में एक वृद्ध ब्राह्मण लाठी टेकते-टेकते संस्कारमण्डप में आया। उसने निमाई को इशारे से अपने पास बुलाया, ये जल्दी से उसके समीप चले गये। उसने अपने काँपते हुए हाथों से एक सुपारी इनकी झोली में डाल दी। इन्होंने उस सुपारी को जल्दी से झोली में से निकालकर अपने मुँह में डाल लिया। सुपारी के खाते ही इनकी विचित्र दशा हो गयी। ये किसी भारी भावावेश में मग्न हो गये और उसी भावावेश में माता से गम्भीर स्वर में बोले- ‘माँ! आज से एकादशी के दिन अन्न कभी न खाया करना, माता भी भावावेश में अपने को भूल गयी। वह समझ न सकी कि निमाई ही मुझसे उक्त बात कह रहा है। उसे प्रतीत हुआ मानो कोई दिव्य पुरुष मुझे आदेश कर रहे हैं। इसीलिये उसने विनय के साथ उत्तर दिया- ‘जो आज्ञा, आज से हरिवासर के दिवस अन्न ग्रहण न करूँगी।’ थोड़ी देर में इन्होंने कहा- ‘अच्छा, अब हम जाते हैं, अपने पुत्र की रक्षा करना।’ इतना कहकर ये फिर अचेत होकर गिर पड़े और थोड़ी देर बाद चारों ओर अपनी बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों को फाड़-फाड़कर देखने लगे, मानो व्रत-बन्ध कोई नींद से जागा हुआ आदमी आश्चर्य के साथ अपने पास के अपूर्व कार्यों को देख रहा हो। इनके प्रकृतिस्थ होने पर मिश्र जी ने पूछा- ‘बेटा! क्या बात थी, तुम क्या कह रहे थे’

इन्होंने सरलता के साथ उत्तर दिया- ‘नहीं तो पिता जी! मैंने तो कोई बात नहीं कही। मुझे कुछ भी पता नहीं, जाने क्या हुआ। मुझे कुछ निद्रा-सी प्रतीत होने लगी थी।’ इस बात को सुनकर सभी इस भावावेश के सम्बन्ध में भाँति-भाँति के तर्क-वितर्क करने लगे। किसी ने कहा- ‘किसी भूत-प्रेत का आवेश है’, किसी ने कहा- ‘किसी दिव्यात्मा का आवेश है।’ भक्तों ने कहा- ‘नहीं, यह साक्षात हरिभगवान का आवेश है।’ उसी दिन यज्ञोपवीत के समय इनका नाम ‘गौरहरि’ हुआ। स्त्रियों को यह नाम बहुत ही प्रिय था। अबसे वे निमाई को प्रायः ‘गौर’ या ‘गौरहरि’ ही कहकर पुकारने लगीं। यज्ञोपवीत-संस्कार के समाप्त होने पर गौर का समावर्तन-संस्कार किया गया। उनके वस्त्र बदल दिये गये। माता ने बड़ी-बड़ी आँखों में काजल लगा दिया। नूतन वस्त्र पहनकर गौर बाहर आये। उन्होंने सबसे पहले पिता के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया, फिर क्रमशः सभी वृद्ध ब्राह्मणों की चरण-वन्दना की। ब्राह्मणों ने इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद दिये। इस प्रकार बड़े ही आनन्द के साथ इनका व्रत-बन्ध-संस्कार समाप्त हुआ।

यज्ञोपवीत हो जाने के अनन्तर ये आचार्य सुदर्शन और विष्णु पण्डित के समीप पढ़ने के लिये जाने लगे। इनकी मेधाशक्ति बाल्यकाल से ही बड़ी तीक्ष्ण थी। अध्यापक एक बार जो इन्हें पढ़ा देते, फिर दूसरी बार इन्हें पूछने की आवश्यकता नहीं होती थी। इसीलिये अध्यापक इनसे बहुत ही प्रसन्न रहने लगे।

थोड़े दिनों के पश्चात् मिश्र जी  ने इन्हें मायापुर के निकटवर्ती गंगानगर की पाठशाला में पढ़ने के लिये भेजा। उस समय उस पाठशाला के प्रधानाध्यापक पण्डित गंगादास जी थे। पण्डित गंगादास जी व्याकरण के अद्वितीय विद्वान थे। व्याकरण में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी, बड़े-बड़े़ योग्य छात्र उनकी पाठशाला में अध्ययन करते थे। उस समय व्याकरण की वही पाठशाला मुख्य थी। निमाई भी अन्य छात्रों के साथ पण्डित गंगादास जी के समीप व्याकरण का अध्ययन करने लगी।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(14)
पिता का परलोकगमन

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं

भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः।

इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे

हा हन्त! हन्त!! नलिनीं गज उज्जहार।।[1]

पण्डित जगन्नाथ मिश्र की आशा-लता अब बड़ी ही तेजी के साथ बढ़ने लगी। उस लता पर छोटी-छोटी कलियाँ आने लगीं। उनकी भीनी-भीनी गन्ध के कारण मिश्रजी कभी-कभी अपने आपे को भूल जाते। वे सोचने लगते- ‘भगवान मेरी चिराभिलषित आशा को अब शीघ्र ही पूर्ण करेंगे।’ मेरी आशा-लता अब शीघ्र ही फूलने-फलने लगेगी। वह दिन कैसा सुहावना होगा, जिस दिन निमाई को बहू के साथ अपने आँगन में देखूँगा। माता-पिता की यही सबसे मधुर और सुखकरी कामना है कि वे अपने पुत्र को प्यारी पुत्रवधू के साथ देख सकें। संसार में यही उनके लिये एक सुन्दरतम सुअवसर होता है। शचीदेवी के सहित मिश्र जी उसी दिन की प्रतीक्षा करने लगे। ‘तेरे मन कुछ और है, विधना के कुछ और’ विधि को मिश्र जी का मनसूबा मंजूर नहीं था, उसने तो कुछ और ही रचना रच रखी थी। मिश्र जी अपने प्यारे पुत्र का विवाहोत्सव इस शरीर से न देख सके। निमाई अब ग्यारह वर्ष के हो गये। नियमित समय पर पढ़ने जाते और रोज आकर पिता जी के चरणों में प्रणाम करते।

एक दिन उन्होंने देखा, पिता जी ज्वर के कारण अचेत पड़े हैं। उन्होंने घबड़ाकर माता से पूछा- ‘अम्मा! पिता जी को क्या हो गया है?’ उदास होकर माता ने कहा- ‘बेटा! तेरे पिता को ज्वर आ गया है।’ निमाई  पिता की खाट के पास जा बैठे और धीरे-धीरे उनके माथे पर हाथ फेरने लगे। निमाई के सुकोमल शीतल कर-स्पर्श से पिता की तन्द्रा दूर हुई। उन्होंने क्षीण स्वर में कहा- ‘निमाई! बेटा! मुझे थोड़ा जल पिता दे।’

निमाई ने पास के बर्तन में से जल पिलाया, अपने वस्त्र से उनका मुँह पोंछा और प्रेम के साथ पूछने लगे- ‘पिता जी! अब आपकी तबीयत कैसी है?’ करवट बदलते हुए मिश्र जी ने कहा- ‘अब मैं अच्छा हूँ, चिन्ता की कोई बात नहीं, तू पढ़ने नहीं गया?’

निमाई ने अन्यमनस्क-भाव से कहा- ‘अब जब तक आपकी तबीयत अच्छी तरह से ठीक नहीं होती, तब तक मैं पढ़ने न जाऊँगा।’ मिश्र जी चुप हो गये, निमाई उदास-भाव से उनके पास बैठे रहे। कई दिन हो गये, ज्वर कम ही नहीं होता था, वैद्य को भी शची देवी ने बुलाया। घर में इतना द्रव्य नहीं था कि बडे़-बड़े वैद्यों को बुलाया जा सके। पास में जो मामूली वैद्य थे उन्हीं की बतायी हुई दवा कभी-कभी दी जाती। किन्तु रोग घटने के स्थान में बढ़ने लगा।

मिश्र जी अपने जीवन की आशा से निराश हो गये। उन्हें अपने अन्तिम समय का ज्ञान हो गया। क्षीण स्वर में उन्होंने शची देवी से कहा- ‘अब मेरे जीवन की कोई आशा नहीं है, मालूम होता है, इस शरीर से अब मैं अपनी आशा को पूरी होते न देख सकूँगा, अच्छा, जैसी रघुनाथ जी की इच्छा। मैं अब क्या कहूँ, मेरे साथ तुम्हें कुछ भी सुख प्राप्त न हो सका। भगवान की ऐसी ही मर्जी थी, अब मै तो थोड़े ही समय का मेहमान हूँ, निमाई  का खयाल रखना।’ इतना कहते-कहते मिश्र जी की साँस फूलने लगी। आगे वे कुछ भी न कह सके और चुप होकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगे। शची देवी फूट-फूटकर रोने लगी। पिता की ऐसी दशा देखकर निमाई ने उन्हें खाट से नीचे उतारने की सलाह दी। मिश्र जी नीचे दाभ के आसन पर लिटाये गये। मिश्र जी ने नीचे से धीरे-धीरे कहा- ‘मुझे श्री भागीरथी के तट पर ले चलो।’ उनकी इच्छा के अनुसार निमाई माता के साथ उन्हें स्वयं गंगातट पर ले गये। ग्यारह वर्ष के बालक ने किसी दूसरे को हाथ नहीं लगाने दिया। माता की सहायता से वे स्वयं मिश्र जी को गंगातट पर ले गये।’ निमाई ने भी समझ लिया कि अब पिता जी हमें छोड़कर सदा के लिये जा रहे हैं। इसलिये उन्होंने रोते-रोते कहा- ‘पिता जी! मुझसे क्या कहते हैं, मुझे किसके हाथों सौंप रहे हैं?’

मिश्र जी ने अपने शक्तिहीन हाथ को धीरे-धीरे उठाकर निमाई के सिर पर फिराया और उनके सिर को छाती पर रखकर क्षीण स्वर में कहा- ‘निमाई! मैं तुझे भगवान विश्वम्भर के हाथों सौंपता हूँ, वे ही तेरी रक्षा करेंगे।’ यह कहते-कहते मिश्र जी ने पुण्यतोया भगवती भागीरथी की गोद में अपना यह नश्वर शरीर त्याग दिया। निमाई और शचीदेवी चीत्कार करके रोने लगे। सगे-सम्बन्धियों ने उन्हें धैर्य धारण कराया। यथाविधि निमाई ने पिता की अन्त्येष्टि क्रिया की। पिता के परलोकगमन से उन्हें बहुत दुःख हुआ। माता को तो चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार प्रतीत होने लगा। उन्हें मिश्र जी की असामयिक मृत्यु से बहुत दुःख हुआ। घर में कोई दूसरा नहीं था। इसलिये गौर ने ही माता को धैर्य धारण कराया। उन्होंने माता से कहा- ‘अम्मा! भाग्य को कौन मेट सकता है। मृत्यु  तो एक-न-एक दिन सभी की होनी है। हमारे भाग्य में इतने ही दिन पिता जी का साथ बदा था। अब वे हमें छोड़कर चले गये। तुम इतनी दुःखी मत हो। तुम्हें दुःखी देखकर मेरा कलेजा फटने लगता है। मैं हर तरह से तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूँ।’ निमाई के समझाने पर माता ने धैर्य धारण किया और अपने शोक को छिपाया।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(15)

विद्याव्यासंगी निमाई

अन्या जगद्धितमयी मनसः प्रवृत्ति-

रन्यैव कापि रचना वचनावलीनाम्।

लोकोत्तरा च कृतिराकृतिरंगहृद्या

विद्यावतां सकलमेव गिरां दवीयः।।[1]

प्रायः मेधावी बालक गम्भीर होते हैं। उनके गाम्भीर्य में उनका पाण्डित्य प्रस्फुटित नहीं होता, वे लोगों के सम्मान-भाजन तो अवश्य बन जाते हैं, किन्तु सभी साथी उनसे खुलकर बातें नहीं कर सकते। उनके साथ संलाप करने में कुछ संकोच और भय-सा हुआ करता है। यदि प्रखर बुद्धिवाला छात्र मेधावी होने के साथ ही चंचल, हँसमुख और मिलनसार भी हो तब तो उसका कहना ही क्या? सुहागा मिले सोने में मानो सुगन्ध भी विद्यमान है। ऐसा छात्र छोटे-बड़े सभी छात्रों तथा अध्यापकों का प्रीति-भाजन बन जाता है। निमाई  ऐसे ही विद्यार्थी थे। ये आवश्यकता से अधिक चंचल थे ओर वैसे ही अद्वितीय मेधावी। हँसी का तो मानो मुख से सदा फुव्वारा ही छूटता रहता। ये बात-बात पर खूब जोरों से खिलखिलाकर हँसते और दूसरों को भी अपने मनोहर विनोदों से हँसाते रहते। इनके पास मुँह लटकाये कोई बैठ ही नहीं सकता था, ये रोते को हँसाने वाले थे। पं. गंगादास जी की पाठशाला में बहुत बडे़-बड़े विद्यार्थी अध्ययन करते थे, जो इनसे विद्यावृद्ध होने के साथ ही वयोवृद्ध भी थे। 30-30, 40-40 वर्ष के छात्र पाठशाला में थे।

इनकी अवस्था अभी 13-14 ही वर्ष की थी, फिर भी ये बड़े छात्रों से सदा छेड़खानी करते रहते। उन छात्रों में बहुत-से तो बड़े ही मेधावी और प्रत्युत्पन्नमति थे, जो आगे चलकर लोक-प्रसिद्ध पण्डित हुए। प्रसिद्ध कवि मुरारी गुप्त, कमलाकान्त, तन्त्र शास्त्र के सर्वमान्य आचार्य कृष्णानन्द उन दिनों उसी पाठशाला में पढ़ते थे। निमाई छोटे-बड़े किसी से भी संकोच नहीं करते थे, ये सभी से भिड़ जाते और उनसे वाद-विवाद करने लगते। विशेषकर ये वैष्णव-विद्यार्थियों को खूब चिढ़ाया करते थे। उनकी भाँति-भाँति से मीठी-मीठी चुटकियाँ लेते और उन्हें लज्जित करके ही छोड़ते थे। मुरारी गुप्त इनसे अवस्था में बड़े थे, किन्तु ये उन्हें सदा चिढ़ाया करते। मुरारी पहले तो बालक समझकर सदा इनकी उपेक्षा करते रहते। जब उन्हें इनकी विलक्षण बुद्धि का परिचय प्राप्त हुआ, तब तो वे इनके साथ खूब बातें करने लगे। ये कहते- ‘मुरारी! अमुक प्रयोग को सिद्ध करो।’ मुरारी उसे ठीक-ठीक सिद्ध करते। ये उसमें बीसों दोष निकालते, उसका कई प्रकार से खण्डन करते।

मुरारी इनकी तर्कशैली को सुनकर आश्चर्य प्रकट करने लगते, तब आप एक-एक शंका का समाधान करते हुए मुरारी के ही मत को स्थापित करते। फिर हँसकर कहते- ‘गुप्त महाशय! यह तो पण्डितों का काम है, आप ठहरे वैद्यराज! जड़ी-बूटी घोंट-पीसकर गोली बनाना सीख ली! नाड़ी देख ली, फिर चाहे रोगी मरे या जीये, तुम्हें अपने टके से काम।

‘वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर। यमस्तु हरते प्राणान् त्वं तु प्राणान् धनानि च।।’

तुम तो यमराज के सहोदर हो। तुम्हें नमस्कार है।’ मुरारी इनकी ये बातें सुनते और मन-ही-मन लज्जित होते, ऊपर से इनके साथ हँसने लगते, इस प्रकार ये मुरारी के साथ सदा ही विनोद करते रहते। कभी-कभी मुरारी अत्यन्त चिढ़ाने से खिन्न भी हो जाते, तब ये अपना कोमल कर कमल उनकी देहर पर फेरने लगते। इनके स्पर्शमात्र से ही वे सब बातें भूल जाते और इनके प्रति अत्यन्त स्नेह प्रकट करने लगते। मुरारी से इनकी खूब पटती थी और मुरारी भी इनसे हार्दिक स्नेह करते थे।

वाद-विवाद करने में ये अद्वितीय थे। जो भी छात्र मिल जाता उसी से भिड़ पड़ते और वह चाहे उल्टा कहे या सीधा, सभी का खण्डन करते और उसे परास्त करके ही छोड़ते। अपने-आप ही पहले किसी विषय का खण्डन कर देते, फिर युक्तियों द्वारा स्वयं ही उसका मण्डन भी करने लगते। विद्यार्थी इनकी ऐसी विलक्षण बुद्धि की बारम्बार बड़ाई करते और इनकी वाक्पटुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते। किसी भी पाठशाला के छात्र को गंगा तट पर या कहीं अन्यत्र रास्ते में पाते वहीं उसे पकड़ लेते और उससे संस्कृत में पूछते- ‘तुम्हारे गुरु का क्या नाम है? क्या पढ़ते हो?’ जब वह कहता अमुक पाठशाला में व्याकरण पढ़ता हूँ, तब झट आप उससे प्रयोग पूछने लगते। बेचारा विद्यार्थी इनसे जिस किसी भाँति अपना पीछा छुड़ाकर भागता।

शाम के समय सभी पाठशालाओं के छात्र दल बना-बनाकर गंगा जी के किनारे आते और परस्पर में शास्त्रालाप किया करते। ये उन सबमें प्रधान रहते। कभी किसी पाठशाला के छात्रों के साथ शास्त्रार्थ कर रहे हैं, कभी किसी पाठशाला के छात्रों को परास्त कर रहे हैं, यही इनका नित्यप्रति का कार्य था। दस-दस, बीस-बीस छात्र मिलकर इनसे शंका करने लगते। ये बारी-बारी से सबका उत्तर देते। इनकी पाठशाला वाले इनका पक्ष लेते। कभी-कभी बातों-ही-बातों में वितण्डा भी होने लगता और मार-पीट तक की नौबत आ जाती। इस बात में भी ये किसी से कम नहीं थे। इस प्रकार ये सभी पाठशालाओं के छात्रों में प्रसिद्ध हो गये। विद्यार्थी इनकी सूरत से घबड़ाते थे।

उन दिनों आजकल की भाँति व्याकरण के टीकाग्रन्थों का प्रचार नहीं था, छापेखाने नहीं थे, इसलिये पुस्तकें हाथ से ही लिखनी पड़ती थीं और मूल के साथ ही टीका को भी कण्ठस्थ करना पड़ता था। अध्यापक टीकाओं के ऊपर जो टिप्पणियाँ बताते उन्हें छात्र भूल जाते थे। इसलिये कई छात्र परस्पर मिलकर पाठ को विचार न लें तब तक पाठ लगता ही नहीं था। अब भी पाठशालाओं में बुद्धिमान छात्र अपने साथियों को पाठ विचरवया करते हैं। निमाई भी अपने साथियों को पाठ विचरवाते, इसलिये सभी छात्र इनका गुरु की भाँति आदर करते थे। ये विषय को इस ढंग से समझाते थे कि मूर्ख-से-मूर्ख भी छात्र सहज ही में पढे़ हुए पाठ को समझ जाता था।

उन दिनों गौरांग व्याकरण के ‘पंचीटीका’ नामक ग्रन्थ को समाप्त कर चुके थे, इन्होंने उसके ऊपर एक सरल टिप्पणी भी लिखी। इनकी की हुई टीका के ऊपर टिप्पणी विद्यार्थियों के बड़े ही काम की थी, बहुत शीघ्र ही विद्यार्थियों में इनकी टिप्पणी का प्रचार हो गया और बड़े-बड़े विद्वानों ने इनकी पाण्डित्यपूर्ण टिप्पणी की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। यहीं तक नहीं, उस टिप्पणी का नवद्वीप से बाहर अन्य देशों के छात्रों में भी प्रचार हुआ और सभी ने इनके पाण्डित्य की सराहना की। इस प्रकार इनकी प्रशंसा दूर-दूर तक फैल गयी। व्याकरण के साथ ही ये अलंकार के भी पाठ सुनते अैर उन्हें सुनते-सुनते ही हृदयंगम करते जाते थे। इस प्रकार ये थोड़े ही समय में व्याकरण तथा अलंकार में प्रवीण हो गये। उन दिनों नवद्वीप में जो न्याय का बोलबाला था। पण्डित व्याकरण पढ़कर न्याय नहीं जानता, उसका विशेष सम्मान नहीं होता था। न्याय में उन दिनों पं. वासुदेव सार्वभौम नदिया के राजा समझे जाते थे। न्याय में उन्हीं की पाठशाला सर्वश्रेष्ठ समझी जाती थी और उसमें सैकड़ों छात्र पढ़ते थे।

उस पाठशाला के पढे़ हुए छात्र आज संसारप्रसिद्ध पण्डित माने जाते हैं। नव्यन्याय की जो टीका ‘जागदीशी’ के नाम से न्याय का ही परिचय देती है उसी के प्रणेता पं. जगदीश के भी गुरु भवानन्द इसी पाठशाला के छात्र थे। ‘दीधिति’ नामक जगत्प्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रणेता पं. रघुनाथ जी भी उन दिनों इसी पाठशाला में पढ़ते थे। इस प्रकार वह पाठशाला न्याय का एक भारी केन्द्र बनी हुई थी। निमाई भी पाठशाला में जाकर न्याय का पाठ सुनने लगे। ऐसी पाठशालाओं में प्रत्येक छात्रों के पृथक पाठ नहीं चलते हैं। दस-पाँच पाठ होते हैं, अपनी जैसी योग्यता हो, उसी पाठ को जाकर सुनते रहो, बस, यही पढ़ाई थी। सैकड़ों छात्र और पण्डित पाठ सुनने आते हैं।

अध्यापक उनमें से बहुतों का नाम-पता भी नहीं जानते। वे पाठ सुनकर चले जाते हैं। आज भी काशी आदि बड़े-बड़े स्थानों की प्राचीन ढंग की पाठशालाओं में ऐसा ही रिवाज है। निमाई भी पाठशाला में जाकर पाठ सुन आते। सार्वभौम महाशय का उन दिनों इनके साथ कोई विशेष परिचय नहीं हुआ, किन्तु इनकी चंचलता, चपलता, वाक्पटुता और लोकोत्तर मेधा के कारण मुख्य-मुख्य छात्र इनसे बहुत स्नेह करने लगे। वे यह भी जानने लगे कि न्याय-जैसे गम्भीर विषय को निमाई भलीभाँति समझता है। वह अन्य बहुत-से छात्रों की भाँति केवल सुनकर ही नहीं चला जाता। पीछे जिनका हम उल्लेख कर चुके हैं वे ही ‘दीधिति’ महाग्रन्थ के रचयिता पण्डित रघुनाथ उन दिनों सभी छात्रों में सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। उन्हें स्वयं भी अपनी तर्कशक्ति और विलक्षण बुद्धि का भरोसा था। उनकी उस समय से ही यह प्रबल वासना थी कि मैं भारतवर्ष में एक प्रसिद्ध नैयायिक बनूँ। सम्पूर्ण देश में मेरी विलक्षण बुद्धि की ख्याति हो जाय। जो जैसे होनहार होते हैं, उनकी पहले से ही वैसी भावना होती है।

रघुनाथ की भी सर्वमान्य बनने की पहले से ही वासना थी। रघुनाथ के साथ निमाई का परिचय पहले से ही हो चुका था। उनके साथ इनकी गाढ़ी मैत्री भी हो चुकी थी। निमाई कभी-कभी रघुनाथ के निवासस्थान पर भी जाया करते और उनसे न्याय सम्बन्धी बातें किया भी करते थे। इनकी बातचीत से ही रघुनाथ समझ गये कि यह भी कोई होनहार नैयायिक हैं। वे समझते थे कि मुझसे न्याय में स्पर्धा रखने वाला नवद्वीप में दूसरा कोई छात्र नहीं है। निमाई से बातचीत करते-करते कभी उन्हें खटकने लगता कि यदि यह इसी प्रकार परिश्रम करता रहा, तो सम्भवतया मुझसे बढ़ सकता है। किन्तु उन्हें अपनी बुद्धि पर पूरा भरोसा था, इसलिये इस विचार को वे अपने हृदय में जमने नहीं देते थे।

एक दिन रघुनाथ को गुरु ने कोई ‘पंक्ति’ लगाने को दी। वह ‘पंक्ति’ रघुनाथ की समझ में ही नहीं आयी। वे दिनभर चुपचाप बैठे हुए उसी पंक्ति को सोचते रहे। तीसरे पहर जाकर वह पंक्ति रघुनाथ की समझ में आयी, उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। गुरु को बताकर वे अपने स्थान पर भोजन बनाने चले गये। निमाई का स्वभाव तो चंचल था ही, रघुनाथ को पाठशाला में न देखकर आप उनके निवासस्थान पर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा रघुनाथ भोजन बना रहे हैं। लकड़ी गीली है। रघुनाथ बार-बार फूँकते हैं, अग्नि जलती ही नहीं। धुएँ के कारण उनकी आँखें लाल पड़ गयी हैं और उनमें से पानी निकल रहा है। हँसते हुए निमाई ने रघुनाथ के चैके में प्रवेश किया। प्रेम के साथ हँसते हुए बोले- ‘पण्डित महाशय! आज असमय में रन्धन क्यों हो रहा है।’

अग्नि में फूँक देते हुए रघुनाथ ने कहा- ‘क्या बताऊँ भाई! गुरु जी ने एक ‘पंक्ति’ लगाने के लिये दी थी, वह मेरी समझ में ही नहीं आयी। दिनभर सोचते रहने पर अब समझ में आयी, उसे अभी गुरुजी को सुनाकर आया हूँ, इसीलिये भोजन बनाने में देर हो गयी।’

जल्दी से निमाई ने कहा- ‘जरा हम भी तो उस पंक्ति को सुनें। पंक्ति क्या थी आफत थी, जो आप-जैसे पण्डित की समझ में इतनी देर में आयी। जरूर कोई बहुत ही कठिन होगी। मैं भी उसे एक बार सुनना चाहता हूँ।’

रघुनाथ ने वह पंक्ति सुना दी। थोड़ी देर सोचने के अनन्तर निमाई हँस पड़े और बोले- ‘बस, इसी छोटी-सी ‘पंक्ति’ को इतनी देर सोचते रहे, इसमें है ही क्या?’ जरा आवेश के साथ रघुनाथ जी ने कहा- ‘अच्छा, कुछ भी नहीं है तो तुम्हीं लगाकर बताओ।’

इतना सुनते ही निमाई ने बड़ी ही सरलता के साथ पंक्ति के पूर्वपक्ष की स्थापना की। फिर यथावत एक-एक शंका का समाधान करते हुए उसे बिलकुल ठीक लगा दिया।

निमाई के मुख से उस इतनी कठिन पंक्ति को खिलवाड़ की भाँति हँसते-हँसते लगाते देख रघुनाथ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्हें जो शंका थी, वह प्रत्यक्ष आ उपस्थित हुई। उनकी सभी आशा पर पानी फिर गया। भोजन बनाना भूल गये। निमाई उनके मनोभाव को ताड़ गये कि रघुनाथ कुछ लज्जित हो गये हैं, इसलिये यह कहते हुए कि ‘अच्छा आप भोजन बनावें फिर मिलेंगे।’ पाठशाला की ओर चले गये। रघुनाथ ने जैसे-तैसे भात तो बनाया, किन्तु उनके हृदय में निमाई की बुद्धि के प्रति डाह होने के कारण उन्हें भोजन में आनन्द नहीं आया, जैसे-तैसे भोजन करके वे पाठशाला में आये। अब निमाई की अवस्था सोलह वर्ष की हो चुकी थी, उनके घुँघराले लम्बे-लम्बे बाल, तेजस्वी चेहरा, सुगठित शरीर, बड़ी-बड़ी सुहावनी आँखें, मिष्ट-भाषण और मन्द-मन्द मुस्कान देखने वाले को स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। वे सभी से दिल खोलकर मिलते और खूब घुल-घुलकर बातें करते। उनके मिलने वाले परस्पर में सभी यही समझते कि निमाई जितना अधिक स्नेह हमसे करता है, उतना किसी दूसरे से शायद ही करता हो। इसका कारण यह था कि उनके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था। जिसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति सम्मान है, उसे सभी अपना सगा-सम्बन्धी समझने लगते हैं। इसीलिये निमाई के बहुत अधिक स्नेही थे।

व्याकरण पढ़ने के अनन्तर ये न्याय का अभ्यास करने लगे और उसी बीच न्याय के ऊपर भी एक टिप्पणी लिखने लगे। इनके सहपाठी और स्नेही पं. रघुनाथ जी उसी समय अपने जगत प्रसिद्ध ‘दीधिति’ ग्रन्थ को लिख रहे थे। वे समझते थे, मेरा यह ग्रन्थ अर्वाचीन-न्याय के ग्रन्थों में अद्वितीय होगा। जब उन्होंने सुना कि निमाई भी एक न्याय का ग्रन्थ लिख रहे हैं, तब तो इनको भय मालूम पड़ने लगा और इनकी प्रबल इच्छा हुई कि उस ग्रन्थ को देखना चाहिये। यह सोचकर एक दिन उन्होंने निमाई से कहा- ‘भाई! हमने सुना है, न्याय के ऊपर तुम कोई ग्रन्थ लिख रहे हो? हमारी बड़ी इच्छा है, किसी दिन अपने ग्रन्थ को हमें भी दिखाओ’।

इन्होंने जोरों से हँसते हुए कहा- ‘अजी! आप भी कैसी बात कर रहे हैं। भला, हम न्याय-जैसे जटिल विषय पर लिख ही क्या सकते हैं? यह तो आप-जैसे पण्डितों का काम है। हम तो वैसे ही मनोविनोद के लिये खिलवाड़-सा करने लगे हैं। आपसे किसने कह दी?’ रघुनाथ ने आग्रह के साथ कहा- ‘कुछ भी हो, मेरी बड़ी प्रबल इच्छा है, यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो अपने ग्रन्थ को मुझे जरूर दिखाओ।’ इन्होंने जल्दी से कहा- ‘भला, इसमें आपत्ति की बात ही क्या हो सकती है? यह तो हमारा सौभाग्य है कि आप-जैसे विद्वान हमारी कृति को देखने की जिज्ञासा करते हैं। मैं कल जरूर उसे लेता आऊँगा।’ दूसरे दिन निमाई अपने ग्रन्थ को साथ लेते आये। पाठशाला से लौटते समय वे नाव पर बैठकर रघुनाथ को अपने ग्रन्थ को सुनाने लगे। रघुनाथ ज्यों-ज्यों उस ग्रन्थ को सुनते थे, त्यों-ही-त्यों उनकी मनोवेदना बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि वे ग्रन्थ को सुनते-सुनते फूट-फूटकर रोने लगे। निमाई अपनी धुनि में सुनाते ही जा रहे थे, उन्हें पता भी नहीं था कि रघुनाथ की ग्रन्थ के सुनने से क्या दशा हो रही है। सुनाते-सुनतो एक बार इन्होंने दृष्टि उठाकर रघुनाथ की ओर देखा। इनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

आश्चर्य प्रकट करते हुए निमाई  ने पूछा- ‘भैया! तुम रो क्यों रहे हो?’ आँसू पोंछते हुए रुद्धकण्ठ से उन्होंने कहा- ‘निमाई! तुमसे मैं अपने मनोगत भावों को छिपाकर एक नया दूसरा पाप न करूँगा। सत्य बात तो यह है कि मैं इस अभिलाषा से एक ग्रन्थ लिख रहा था कि वह सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ होगा। किन्तु तुम्हारे इस ग्रन्थ को देखकर मेरी चिराभिलषित आशा पर पानी फिर गया। भला, तुम्हारे इस ग्रन्थ के सामने मेरे ग्रन्थ को कौन पूछेगा?’ इसी मनोवेदना के कारण मैं अपने आँसुओं को रोकने में असमर्थ हो गया हूँ।’

यह सुनकर निमाई बड़े जोरों से हँसे और उन्हें स्पर्श करते हुए बोले- ‘बस, इस छोटी-सी बात के ही लिये आप इतना अनुताप कर रहे हैं। भला, यह भी कोई बात है, यह तो साधारण-सी पोथी है, मैं आपकी प्रसन्नता के निमित्त जलती अग्नि में भी कूदकर इन प्राणों को स्वाहा कर सकता हूँ, फिर यह तो बात ही क्या है? इस पुस्तक ने आपको इतना कष्ट पहुँचाया, तो इसे मैं अभी नष्ट किये देता हूँ।’ इतना कहते-कहते निमाई ने अपनी बड़े परिश्रम से हस्तलिखित पोथी को गंगा जी के प्रवाह में फेंक दिया। जाह्नवी के तीक्ष्ण प्रवाह की हिलोरों में पुस्तक के पन्ने इधर-उधर नाचने लगे, मानो निमाई के त्याग और प्रेम के गीत गा-गाकर वे आनन्द में थिरक रहे हों।

रघुनाथ ने निमाई को गले से लगाया और प्रेम के कारण रूँधे हुए कण्ठ से बोले- ‘भैया निमाई! ऐसा लोकोत्तर दुस्साध्य कार्य तुम्हीं कर सकते हो। इतनी भारी लोकैषणा को तृणवत समझकर उसका तिरस्कार कर देना तुम्हारे-जैसे ही महापुरुषों का काम है। हम तो कीर्ति और प्रतिष्ठा के कीड़े हैं।

हमारी पुस्तक की अपेक्षा तुम्हारे इस त्याग की संसार में लाखों गुनी ख्याति होगी और आगे के लोग इस त्याग के द्वारा प्रेम का महत्त्व समझ सकेंगे।’ इस प्रकार की बातें करते हुए दोनों मित्र अपने-अपने घर लौट आये। उसी दिन से निमाई का न्याय पढ़ना ही नहीं छूटा, किन्तु उनका पाठशाला जाना ही छूट गया। अब उन्होंने ऐसी विद्या को पढ़ना एकदम त्याग दिया। घर पर पिता की और ज्येष्ठ भ्राता  की बहुत-सी पुस्तकें थीं, वे उन्हीं का स्वयं अध्ययन करने लगे।

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श्री श्रीचैतन्य चरित्र 16-30

|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली || (16)
विवाह

न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।

तया हि सहितः सर्वान् पुरुषार्थान् समश्नुते।।[1]

वट के नन्हें से बीज के अन्तर्गत एक महान वृक्ष छिपा रहता है, अज्ञानी लोग उसे भी अन्य पौधों के बीज की भाँति छोटा-सा ही बीज समझते हैं। अजवाइन के बीजों के साथ ही वट के बीज को भी बोते हैं, पहले-पहले दोनों का अंकुर एक-सा ही निकलता है, किन्तु आगे चलके अजवाइन का वृक्ष तो थोड़ा ही बढ़कर साल छः महीनों में ही सूख जाता है, किन्तु वट-वृक्ष निरन्तर बढ़ता ही रहता है और कालान्तर में जाकर वह एक महान विशाल वृक्ष बन जाता है, जिसकी छाया में बैठकर असंख्यों पसीनों से भींगे हुए प्राणी शीतलता का सुखास्वादन करते हैं, उसकी पूर्ण आयु का अनुमान भी नहीं किया जाता है। वह शाश्वत वृक्ष बन जाता है। निमाई यद्यपि अपने विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और विलक्षण थे, फिर भी साधारण लोग यही समझते थे कि कालान्तर में यह भी एक पाठशाला खोलकर नवद्वीप का अन्य पण्डितों की भाँति एक नामी पण्डित बन जायगा।

यह भी अन्य पण्डितों की भाँति स्त्री-पुत्रों में आसक्त होकर सुखपूर्वक संसारी सुखों का उपभोग करेगा। क्योंकि विद्वान हो अथवा मूर्ख संसारी विषयों में तो सब समानरूप से ही रत रहते हैं। बड़े लोगों की भोग-सामग्री बहुमूल्य ओर बड़ी होती है। छोटे लोग साधारण भोग-सामग्रियों से ही अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं, किन्तु उनमें आसक्ति दोनों की समान ही है। बँधे दोनों ही हैं। फिर चाहे वह बन्धन रस्सी का हो अथवा रेशम का। सोने की हो या लोहे की, बेड़ी तो समान ही हैं। दोनों ही बन्धन से प्रभु की इच्छा के बिना नहीं निकल सकते। अन्यान्य पण्डितों को धन के ही लिये विद्योपार्जन करते देख लोगों का यही अनुमान हो गया था कि निमाई भी अपने विद्या-बल से खूब धन प्राप्त करेगा। उन्हें यह पता नहीं था, इसके उपदेश से असंख्यों मनुष्य स्त्री, धन, परिवार और समस्त उत्तमोत्तम भोग-सामग्रियों को तुच्छ समझकर महाधन की प्राप्ति में कटिबद्ध हो जायँगे और अपने मनुष्य जन्म को सार्थक बनावेंगे।

संसारी लोग बेचारे और अनुमान कर ही क्या सकते हैं? इनका आरम्भिक जीवन आदि में अन्य साधारण जीवनों की भाँति था ही, इससे लोगों का यही अनुमान लगाना ठीक था। निमाई की अवस्था अब सोलह वर्ष की है। व्याकरण, अलंकार और न्याय में इन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली है। आगे पढ़ने की भी इच्छा थी, किन्तु कई कारणों से इन्होंने पाठशाला में जाकर पढ़ना बंद कर दिया। घर पर अकेली विधवा माता  थी, निर्वाह का कोई दूसरा प्रबन्ध नहीं था।

आकाशी वृत्ति थी, ईश्वरेच्छा से जो भी आ जाता उसी पर निर्वाह होता। मिश्र जी कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ गये थे, उनके सामने भी इसी प्रकार निर्वाह होता था। अब निमाई  समझदार हो गये, विद्वान भी बन गये, इसीलिये अब जीवन-निर्वाह के लिये भी कुछ उद्योग करना चाहिये। वृद्धा माता को सुख पहुँचाने का यही अवसर है। यह सब सोच-समझकर इन्होंने सोलह वर्ष की छोटी ही अवस्था में अध्यापन का कार्य करना आरम्भ कर दिया। इनकी विलक्षण बुद्धि और पठन-पाठन को अद्वितीय सुन्दर शैली से सभी शास्त्रीय ज्ञान रखने वाले पुरुष परिचित थे। इसलिये इन्हें नवद्वीप-जैसे विद्या के भारी केन्द्रस्थान में अध्यापक बनने में कोई कठिनता न हुई। नवद्वीप में मुकुन्द संजय नाम के एक विद्यानुरागी धनी-मानी व्यक्ति थे। उनके एक पुरुषोत्तम संजय नाम का पुत्र था।

संजय महाशय अपने पुत्र के पढ़ाने के निमित्त किसी योग्य अध्यापक की तलाश में थे। निमाई की ऐसी इच्छा देख उन्होंने इनसे प्रार्थना की। निमाई स्वयं ही एक पाठशाला स्थापित करने की बात सोच रहे थे, किन्तु उनके छोटे-से मकान में पाठशाला स्थापित करने के योग्य स्थान ही न था। संजय भगवत-भक्त होने के साथ धनी भी थे। बंगाल में प्रायः सभी धार्मिक पुरुषों के यहाँ एक ‘चण्डी-मण्डप’ नाम से अलग स्थान होता है, उसे ‘देवी-गृह’ या ‘ठाकुर-दालान’ भी कहते हैं। नवदुर्गाओं में उक्त स्थान पर ही चण्डीपाठ और पूजा तथा उत्सव हुआ करते हैं। यह स्थान ऐसे ही शुभ कार्यों के लिये सुरक्षित होते हैं। योग्य और विद्वान अतिथि के आने पर इसी स्थान में उनका आतिथ्यादि भी किया जाता है। अपनी शक्ति के अनुसार धनिकों का चण्डी-मण्डप विस्तृत, सुन्दर और अधिक कीमती होता है।

संजय महाशय का चण्डीमण्डप खूब बड़ा था। निमाई पण्डित ने उसी मण्डप में अपनी पाठशाला स्थापित की। इधर-उधर से बहुत-से छात्र इनका नाम सुनकर पढ़ने आने लगे। पुत्र के साथ संजय भी निमाई से विद्याध्ययन करने लगे। इनकी पढ़ाने की शैली बड़ी ही सरस तथा चित्ताकर्षक थी, इसलिये थोड़े ही समय में इनकी पाठशाला चल निकली और सैकड़ों छात्र इनके पास पढ़ने आने लगे। ये विद्यार्थियों के साथ गुरु-शिष्य का व्यवहारन करके एक प्रेमी मित्र का-सा व्यवहार करते। उनसे खूब हँसी-दिल्लगी करते, घर का हाल-चाल पूछते ओर अपनी सब बातें बताते। इससे विद्यार्थी इनके ऊपर अत्यधिक अनुराग रखने लगे। बहुत-से विद्यार्थी तो इनसे अवस्था में बहुत बड़े-बड़े थे। वे सब भी इनके पास अध्ययन करने आते और इनका हृदय से बहुत अधिक आदर करते थे। इस प्रकार इनकी पाठशाला नवद्वीप में एक प्रसिद्ध पाठशाला मानी जाने लगी।

व्याकरण-शास्त्र में गंगादास जी की पाठशाला को छोड़कर निमाई की पाठशाला सबसे श्रेष्ठ समझी जाती थी। निमाई  विद्यार्थियों के साथ परिश्रम भी खूब करते थे। एक दिन निमाई पण्डित पाठशाला से पढ़ाकर अपने घर जा रहे थे। दैवात गंगा जी जाते हुए रास्ते में पं. बल्लभाचार्ज जी की तनया लक्ष्मीदेवी से उनका साक्षात्कार हो गया। बल्लभाचार्य निमाई के सजातीय ब्राह्मण थे। इन्होंने लक्ष्मीदेवी को पहले भी कई बार देखा था, किन्तु आज के दर्शन में विशेषता थी। लक्ष्मीदेवी को देखते ही परम सदाचारी निमाई के

‘भावस्थितानि जननान्तरसौहृदानि’

इस न्याय के अनुसार पूर्वजन्म के संस्कार जाग्रत हो उठे। स्वाभाविक सौहृद तो स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, इसमें चेष्टा करना या अनुराग करना तो कहा ही नहीं जा सकता। इन्होंने लक्ष्मीदेवी की ओर देखा। लक्ष्मीदेवी ने भी धीरे से इनकी ओर देखा और इनके पादपद्मों में भक्ति  से मन-ही-मन प्रणाम करके वह गंगा की ओर चली गयी। ये अपने घर की ओर चले गये।

भावी की भवितव्यता तो देखिये उसी दिन बनवारी घटक नाम के जगन्नाथ मिश्र के स्नेही एक ब्राह्मण शचीदेवी के समीप आये और माता से कहने लगे- ‘निमाई अब सयाना हो गया है, अब उसके विवाह का शीघ्र ही उद्योग करना चाहिये। यदि तुम्हें पसंद हो तो पं. बल्लभाचार्य की एक कन्या  है। तुम उसे चाहो तो देख सकती हो। लाखों में एक है, बड़ी ही सुशीला, सुन्दरी और बुद्धिमती लड़की है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। यदि तुम्हें यह सम्बन्ध मंजूर हो तो मैं पण्डित जी से इस सम्बन्ध में कहूँ।’

माता स्वयं पुत्र के विवाह की चिन्ता में थीं, किन्तु वे निमाई की इच्छा के बिना कोई सम्बन्ध निश्चित करना नहीं चाहती थीं। घर में कोई दूसरा आदमी सलाह करने के लिये था नहीं, पुत्र समझदार और सयाना था, उसकी अनुमति के बिना वे विवाह के सम्बन्ध में किसी को निश्चित वचन नहीं दे सकती थीं, अतः बात को टालते हुए माता ने कहा- ‘इस पितृ-हीन बालक का विवाह ही क्या है, अभी तो वह पढ़ ही रहा है। कुछ करने लगेगा तो देखा जायगा।’ घटक महाशय शचीमाता का ऐसा उदासीन भाव देखकर समझ गये कि माता को यह सम्बन्ध मंजूर नहीं। कारण कि पं. बल्लभाचार्य बहुत ही गरीब थे। ब्राह्मण ने समझा, माता अपने पण्डित पुत्र का निर्धन की लड़की के साथ विवाह करना नहीं चाहती। यह समझकर वे लौट आये। दैवात रास्ते में उन्हें निमाई मिल गये। इन्हें देखते ही निमाई खिल उठे ओर हँसते हुए बोले- ‘कहिये, घटक महाशय! किधर-किधर से आगमन हो रहा है।’

कुछ असन्तोष के भाव से घटक ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारी माता के पास पं. बल्लभाचार्य की पुत्री के साथ तुम्हारे विवाह  की बातचीत करने गया था, सो उन्होंने मंजूर ही नहीं किया। कहो तुम्हारी क्या सलाह है?’

निमाई यह सुनकर हँस पड़े। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, वे हँसते हुए घर चले गये। घर पहुँचकर इन्होंने कुछ मुसकराते हुए कहा- ‘घटक उदास होकर जा रहे थे, बल्लभाचार्य जी का सम्बन्ध मंजूर क्यों नहीं किया?’ माता समझ गयी कि निमाई को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं है, इसलिये उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। दूसरे दिन घटक को बुलाकर उन्होंने कहा- ‘आचार्य महाशय, कल आप जो बात कहते थे, वह मुझे स्वीकार है, आप पं. बल्लभाचार्य से कहकर सब ठीक करा दीजिये। आप ही अब हमारे हितैषी हैं और घर में दूसरा है ही कौन? आपका ही लड़का है जैसे चाहें कीजिये।’ बनवारी घटक को यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी समय बल्लभाचार्य के घर पहुँचे।

आचार्य ने इनका सत्कार किया और आने का कारण जानना चाहा। इन्होंने सब वृत्तान्त बता दिया। इस संवाद को सुनकर पं. बल्लभाचार्य को तथा उनके समस्त घरवालों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे घटक से कहने लगे- ‘मेरा सौभाग्य है कि शची देवी ने इस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया है। निमाई  पण्डित-जेसे विद्वान को अपना जामाता बनाने में मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। लड़की के पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के उदय होने पर ही ऐसा वर  मिल सकता है, किन्तु आप मेरी परिस्थिति से तो परिचित ही हैं। मेरे पास देने-लेने के लिये कुछ नहीं है। केवल पाँच हरीति की के साथ कन्या को ही समर्पित कर सकूँगा। यदि यह बात उन्हें मंजूर हो तो आप जब भी कहें मैं विवाह करने को तैयार हूँ।’

घटक ने कहा- ‘आप इस बात की कुछ चिन्ता न कीजिये। शची देवी को रूपये-पैसे का लोभ नहीं है। वे तो सुशीला सुन्दरी लड़की ही चाहती हैं, आप प्रसन्नता के साथ विवाह  की तैयारियाँ कीजिये।’ यह कहकर घटक महाशय बल्लभाचार्य जी से विदा होकर शची देवी के पास आये और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया। दोनों ओर से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। नियत तिथि के दिन अपने स्नेही बन्धु-बान्धव तथा विद्यार्थियों के साथ बरात लेकर निमाई बल्लभाचार्य जी के घर गये। आचार्य ने सभी का यथोचित सम्मान किया। गोधूलि की शुभ लग्न में निमाई पण्डित ने लक्ष्मी देवी का पाणिग्रहण किया।

लक्ष्मी देवी ने काँपते हुए हाथों से इनके चरणों में माला अर्पण की और भक्तिभाव के साथ प्रणाम किया। इन्होंने उन्हें वामांग किया। हवन, प्रदक्षिणा, कन्यादान आदि सभी वैदिक कृत्य होने पर विवाह का कार्य सकुशल समाप्त हुआ। दूसरे दिन आचार्य से विदा होकर लक्ष्मी देवी के साथ पालकी में चढ़कर निमाई घर आये। माता ने सती स्त्रियों के साथ पुत्र  और पुत्रवधू का स्वागत किया। ब्राह्मणों को तथा अन्य आश्रित जनों को यथायोग्य द्रव्य-दान किया गया। लक्ष्मी देवी का रंग-रूप निमाई के अनुरूप ही था। इस जुगल जोड़ी को देखकर पास-पड़ोस की स्त्रियाँ परम प्रसन्न हुईं। कोई तो इन्हें रति-कामदेव की उपमा देने लगी, कोइई-कोई शची-पुरन्दर कहकर परिहास करने लगी, कोई-कोई गौर-लक्ष्मी कहकर निमाई की ओर हँसने लगी। सुन्दरी पुत्रवधू के साथ पुत्र को देखकर माता को जो आनन्द प्राप्त हुआ उसका वर्णन करना इस लोह की लेखनी के बाहर की बात है।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली || (17)
चंचल पण्डित

सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम्।

कायः परहितो यस्य कलिस्तस्य करोति किम्।।[1]

मिश्री को कहीं से भी खाओ उसका स्वाद मीठा ही होगा, घी-बूरे का लड्डू यदि टेढ़ा और इरछा-तिरछा भी बना हो तो भी उसके स्वाद में कोई कमी नहीं होती। इसी प्रकार प्रेम किसी भी प्रकार किया जाय, कहीं भी किया जाय, किसी के भी साथ किया जाय उसका परिणाम अनिर्वचनीय सुख ही होगा। हृदय में दया के भाव हों, अन्तःकरण शुद्ध हो, अपने स्वार्थ की मन में वाञ्छा न हो, फिर चाहे दूसरों के साथ कैसा भी बर्ताव करो, उन्हें चाहे गले से लगाकर आलिंगन करो या उनकी मधुर-मधुर भर्त्सना करो, दोनों में ही सुख है, दोनों से ही आनन्द प्राप्त होता है।

निमाई अब विद्यार्थी नहीं हैं। अब उनकी गणना प्रसिद्ध पण्डितों में होने लगी है। अब वे गृहस्थी भी बन गये हैं और अध्यापक भी। ऐसी दशा में अब उन्हें गम्भीरता धारण करनी चाहिये जिससे लोग उनकी इज्जत-प्रतिष्ठा करें। किन्तु निमाई ने तो गम्भीरता का पाठ पढ़ा ही नहीं है। मानो वे संसार में सबसे बड़ी समझी जाने वाली मान-प्रतिष्ठा की कुछ परवाह ही नहीं रखते। ‘लोग हमारे इस व्यवहार से क्या सोचेंगे’ यह विचार उनके मन में आता ही नहीं। ‘लोगों को जो सोचना हो सोचते रहें। दुनियाभर के विचारों का हमने कोई ठेका थोडे़ ही ले लिया है। हमें तो जिसमें प्रसन्नता प्राप्त होगी, जिस काम से हमारा अन्तःकरण सुखी और शान्त होगा हम तो उसे ही करेंगे। लोग बकते हैं तो बकते रहें। हम किसी का मुँह थोड़े ही सी सकते हैं।’ बस, निमाई इन्हीं विचारों में मस्त रहते।

पाठशाला में विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। पढ़ाते-पढ़ाते बीच-बीच में ऐसी हँसी की बात कह देते हैं कि सभी खिलखिलाकर हँस उठते हैं। किसी लड़के को पाठ याद नहीं होता तो उसे आँखें निकालकर डाँटते नहीं। प्रेम के साथ कहते हैं, ‘भाई! तोते की तरह धुन लगा जाया करो। जैसे ‘अनद्यतने लुट्’ इसे बार-बार कहो।’ इतना समझाकर आप स्वयं सिर हिला-हिलाकर ‘अनद्यतने लुट्’ ‘अनद्यतने लुट्’ इस सूत्र को बार-बार पढ़ते। लड़के हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। तब आप दूसरे विद्यार्थी को समझाने लगते। पाठ समाप्त हुआ और साथ ही विद्यार्थी और पण्डित का भाव भी समाप्त हो गया। अब सभी विद्यार्थियों को साथी समझकर उन्हें लेकर गंगा-किनारे पहुँच गये। कभी किसी के साथ शास्त्रार्थ हो रहा है, कभी गंगा जी की बालुका में कबड्डी खेली जा रही है, कभी जल-विहार का ही आनन्द छिड़ा हुआ है।

निमाई पण्डित स्वयं अपने हाथों से विद्यार्थियों के ऊपर पानी उलीचते हैं, विद्यार्थी भी सब भूल-भालकर उनके ऊपर पानी उलीच रहे हैं। कभी-कभी दस-पाँच मिलकर एक साथ ही निमाई के ऊपर जल उलीचने लगते हैं, निमाई पण्डित जल से घबड़ाकर जल्दी से जल से बाहर निकलकर भागते हैं, पैर फिसल जाने से वे जल में गिर पड़ते हैं, सभी ताली देकर हँसने लगते हैं। दर्शनार्थी दूर से देखते हैं और खुश होते हैं। बहुत-से ईर्ष्यावश आवाजें कसने लगते हैं- ‘वाह रे पण्डित! पण्डितों के नाम को भी कलंकित करते हो। विद्यार्थियों के साथ ऐसी खिलवाड़?’ कोई चंचल पण्डित कहता- ‘छोटी उम्र में अध्यापक बन जाने का यही कुपरिणाम होता है।’ किन्तु उनकी इन बातों पर कौन ध्यान देता है, निमाई अपने खेल में मस्त हैं। कौन क्या बक रहा है, इसका उन्हें पता भी नहीं। कभी-कभी दूर से ही पुचकारते हुए कह देते- ‘अच्छा, बेटा, भूकते रहो। कभी-न-कभी टुकड़ा मिल ही जायगा।’ स्नान करके रास्ते में जा रहे हैं, किसी ने किसी को किसी के ऊपर ढकेल दिया है, वह मोरी में गिर पड़ा है, सभी ताली देकर हँस रहे हैं।

किसी पण्डित को देखते ही बड़ी कठिन संस्कृत बोलने लगते हैं। एक साथ ही उससे दस-बीस प्रश्न कर डाले। बेचारा बगल में आसन दबाये चुपचाप भीगी बिल्ली की भाँति बिना कुछ कहे ही गंगा  की ओर चला जाता है, इनसे बातें करने की हिम्मत ही नहीं होती। बाजार में भी चौकड़ी मारकर भागते हैं। कूद-कूदकर चलना तो इनका स्वभाव ही था। रास्ते भी बच्चों की तरह कुदककर चलते। किसी वैष्णव  को देखते ही उसे घेर लेते और उससे जोर से प्रश्न करते ‘किं तावत् वैष्णवत्वम्’ ‘वैष्णवता किसे कहते हैं?’ कभी पूछते ‘ऊर्ध्वपुण्ड्रेन किं स्यात्’ ‘ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाने से क्या होता है?’ बेचारे वैष्णव हैरान हो जाते और इनसे जैसे-तैसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। वे कहते जाते- ‘घोर कलियुग  आ गया। पण्डित भी वैष्णवों की निन्दा करने लगे।’ कोई कहता- ‘अजी इस निमाई को पण्डित कहता ही कौन है, यह तो रसिकशिरोमणि है, उद्दण्डता की सजीव मूर्ति है, इसका भी कोई धर्म-कर्म है?’ कोई कहता- इतना छिछोरपन ठीक नहीं।’ उन्हीं दिनों श्रीअद्वैताचार्य की पाठशाला में चटगाँवनिवासी मुकुन्ददत्त नामक एक विद्यार्थी पढ़ता था। वह परम वैष्णव था। उसके चेहरे से सौम्यता टपकती थी। उसका कण्ठ बड़ा ही मनोहर था। वह अद्वैताचार्य की सभा में पद-संकीर्तन किया करता था और अपने सुमधुर गान से भक्तों के चित्त को आनन्दित किया करता था।

निमाई उससे मन-ही-मन बहुत स्नेह करते थे, किन्तु ऊपर से सदा उससे छेड़खानी ही करते रहते। जब भी वह मिल जाता, उसे पकड़कर न्याय की फक्कि का पूछने लगते। वह हाथ जोड़कर कहता- ‘बाबा! मुझे माफ करो, मैं तुम्हारा न्याय-फ्याय कुछ नहीं जानता। मैं तो वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन करता हूँ।’ तब आप उससे कहते- ‘अच्छा, वैष्णव की ही परिभाषा करो। बताओ वैष्णव  के क्या लक्षण हैं?’ मुकुन्द कहते- ‘भाई, हम हारे तुम जीते। कैसे पिण्ड भी छोड़ोगे? तुमसे मगजपच्ची कौन करे? तुम पर तो सदा शास्त्रार्थ का ही भूत सवार रहता है। हमें इतना समय कहाँ है?’ इस प्रकार कहकर वे जैसे-तैसे इनसे अपना पीछा छुड़ाकर भागते। एक दिन ये गंगा-स्नान करके आ रहे थे, उधर से मुकुन्ददत्त भी गंगा-स्नान करने के निमित्त आ रहे थे, इन्हें दूर से ही आता देख मुकुन्ददत्त जल्दी से दूसरे रास्ते होकर गंगा की ओर जाने लगे। निमाई  ने अपने विद्यार्थियों से कहा- ‘देखी, तुमने इस वैष्णव विद्यार्थी की चालाकी? कैसा बच के भागा जा रहा है, मानो मैं उसे देख ही नहीं रहा हूँ।

एक विद्यार्थी ने कहा- ‘किसी जरूरी काम से उधर जा रहे होंगे।’ आप जोर से कहने लगे- ‘जरूरी काम कुछ नहीं है। सोचते हैं वैष्णव होकर हम इन अवैष्णव लोगों से व्यर्थ की बातें क्यों करें। इसलिये एक तरफ होकर निकले जा रहे हैं।’ फिर जोरों से मुकुन्ददत्त को सुनाते हुए बोले- ‘अच्छा बेटा, देखते हैं कितने दिन इस तरह हमसे दूर रहोगे। यों मत समझना कि हम ही वैष्णव हैं। एक दिन हम भी वैष्णव होंगे और ऐसे वैष्णव होंगे कि तुम सदा पीछे-पीछे फिरते रहोगे।’ इन बातों को सुनते-सुनते मुकुन्द गंगा की ओर चले गये और ये अपनी पाठशाला में लौट आये। इनके पिता श्रीहट्ट के निवासी थे। नवद्वीप में बहुत-से श्रीहट्ट के विद्यार्थी पढ़ने के लिये आया करते और बहुत-से श्रीहट्टवासी नवद्वीप में रहते ही थे। ये जहाँ भी श्रीहट्ट के विद्यार्थी को देखते वहीं उसकी खिल्ली उड़ाते। श्रीहट्ट की बोली की नकल करते, उनके आचार-विचार की आलोचना करते। लोग कहते- ‘तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम भी तो श्रीहट्ट के ही हो। जहाँ के रहने वाले हो वहीं की खिल्लियाँ उड़ाते हो।’ ये कहते- ‘शर्म तो हमने उतारकर अपने घर की खूँटी पर लटका दी है, तुम झूठ मानो तो हमारे घर जाकर देख आओ।’ सभी सुनते और चुप हो जाते। कोई-कोई राज-कर्मचारियों तक से इनकी उद्दण्डता की शिकायत करते, किन्तु राजकर्मचारी इनके स्वभाव से परिचित थे, ये उन्हें देखकर जोरों से हँस पड़ते।

कर्मचारी शिकायत करने वाले को ही चार उलटी-सीधी सुनाकर विदा करते। इस प्रकार इनकी चंचलता नगरभर में विख्यात हो गयी। उन दिनों नवद्वीप में इने-गिने ही वैष्णव थे, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती थी। उन सबके आश्रयदाता थे अद्वैताचार्य। वैष्णवगण अपनी मनोव्यथा उन्हीं से जाकर कहते। वे वैष्णव को आश्वासन दिलाते, ‘घबड़ाओ मत। अन्तर्यामी भगवान हमारी दुर्दशा को भलीभाँति जानते हैं, वे प्रत्यक्ष रीति से हमारी दुर्गति देख रहे हैं। बहुत शीघ्र ही वे हमारा उद्धार करेंगे। एक दिन नवद्वीप में भक्ति की ऐसी बाढ़ आवेगी कि उसमें सभी नर-नारी सराबोर हो जायँगे। जितने दिन की यह विपत्ति है उतने दिन धैर्य से और काटो, अब शीघ्र ही नास्तिकवाद और हिंसावाद का अन्त होने वाला है।’

वैष्णव कहते- ‘निमाई पण्डित  ऐसे विद्वान वैष्णवों की हँसी उड़ाते हैं।’ अद्वैत कहते- ‘तुम अभी निमाई को जानते नहीं, वे हृदय से वैष्णवों के प्रति बड़ा स्नेह रखते हैं, वे जो भी कुछ कहते हैं ऊपर से ही यों ही कह देते हैं। आगे चलकर तुम उन्हें यथार्थ रीति से समझ सकोगे।’ इस प्रकार वैष्णव तो आपस में ऐसी बातें किया करते और निमाई अपनी लोकोत्तर मधुर-मधुर चंचलता से नगरवासी तथा शचीदेवी और लक्ष्मीदेवी को आनन्दित और हर्षित किया करते।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(18)
नवद्वीप में ईश्वरपुरी

येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः।

किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः।।[1]

बड़े-बड़े विद्वान और धर्मकोविदों ने गृहस्थ-धर्म की जो इतनी भारी प्रशंसा की है, उसका एक प्रधान कारण है अतिथि-सेवा। गृहस्थ में रहकर मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि-सेवा भलीभाँति कर सकता है। भूखे को यथासामर्थ्य भोजन देना, प्यासे को जल पिलाना और निराश्रित को आश्रय प्रदान करके सुख पहुँचाना- इनसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म हो ही नहीं सकता। अहा! उस बड़भागी गृहस्थ के घर की कल्पना तो कीजिये। छोटा-सा लिपा-पुता स्वच्छा घर है, एक ओर तुलसी का बिरवा आँगन में शोभा दे रहा है, दूसरी ओर हल्दी और कुंकुम से पूजित सुन्दर-सी श्यामा गौ  बँधी है। गृहिणी सुन्दर और हँसमुख है, छोटे-छोटे बच्चे आँगन में खेल रहे हैं। गृहिणी मुख से सुन्दर हरि नाम का उच्चारण करती हुई रसोई बना रही है, इतने ही में गृहपति आ गये। भोजन तैयार है, गृहपति ने गोग्रास निकाला, सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अग्नि में आहुत दी और द्वार पर खडे़ होकर किसी अतिथि की खोज करने लगे। इतने ही में क्या देखते हैं, एक विरक्त महात्मा कौपीन लगाये भिक्षा के निमित्त ग्राम की ओर आ रहे हैं। गृहस्थी ने आगे बढ़कर महात्मा के चरणों में अभिवादन किया और उनसे भिक्षा कर लेने की प्रार्थना की। सद्गृहस्थी की प्रार्थना स्वीकार करके संत उसके घर में जाते हैं। योग्य अतिथि को देखकर दम्पती हर्ष से उन्मत्त-से हो जाते हैं। अपने सगे जमाई की तरह उनका स्वागत-सत्कार करते हैं। महात्मा के चरणों को धोकर उस जल का स्वयं पान करते हैं और अपने घर भर को पवित्र बनाते हैं। संत को बड़ी ही श्रद्धा से अपने घर में जो भी कुछ रूखा-सूखा बना है, प्रेम से खिलाते हैं। भोजन करके महात्मा चले जाते हैं और गृहस्थी अपने बाल-बच्चे और आश्रित जनों के साथ उस शेष अन्न को पाता है। ऐसे गृहस्थधर्म से बढ़कर दूसरा कौन-सा धर्म हो सकता है? ऐसा गृहस्थी स्वयं तो पावन बन ही जाता है किन्तु जो लोग अतिथि होकर ऐसे गृहस्थ का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं वे भी पवित्र हो जाते हैं। ऐसे अन्न के दाता, भोक्ता दोनों ही पुण्य के भागी होते हैं। निमाई पण्डित को हम आदर्श सद्गृहस्थी कह सकते हैं। उनकी वृद्धा माता प्रेम की मानो मूर्ति ही हैं, घर में जो भी आता है उसको पुत्र की भाँति प्यार करती हैं और उससे भोजनादि के लिये आग्रह करती हैं। लक्ष्मीदेवी का स्वभाव बड़ा ही कोमल है, वे दिनभर घर का काम करती हैं ओर तनिक भी दुःखी नहीं होतीं।

निमाई तो रसिकशिरोमणि हैं ही, वे दो-एक के साथ बिना भोजन करते ही नहीं, लक्ष्मी देवी सबके लिये आलस्यरहित होकर रन्धन करती हैं और अपने पति के साथ उनके प्रेमियों को भी उसी श्रद्धा के साथ भोजन कराती हैं। कभी-कभी घर में दस-दस, पाँच-पाँच अतिथि आ जाते हैं। वृद्धा माता को उनके भोजन की चिन्ता होती है, निमाई इधर-उधर से क्षणभर में सामान ले आते हैं और उसके द्वारा अतिथि-सेवा की जाती है। नगर में कोई भी नया साधु-वैष्णव आवे यदि उसके साथ निमाई का साक्षत्कार हुआ तो वे उसे भोजन के लिये नवद्वीप  में ईश्वरपुरी जरूर निमन्त्रित करेंगे और अपने घर ले जाकर भिक्षा करावेंगे। ये सब कार्य ही तो उनकी महानता के द्योतक हैं। पाठक श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी के नाम से तो परिचित ही होंगे और यह भी स्मरण होगा कि उनके अन्तरंग और सर्वप्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरीजी थे। भक्तशिरोमणि श्रीमाधवेन्द्रपुरी इस असार संसार को त्याग कर अपने नित्यधाम को चले गये- अन्तिम समय में उनके रूँधे हुए कण्ठ से यह श्लोक निकला था-

अति! दीनदयार्द्रनाथ हे मथुरानाथ कदावलोक्यसे।

हृदयं त्वदलोककातरं दयित भ्राम्यति किं करोम्यहम्।।

अर्थात ‘हे दीनों पर दया करने वाले मेरे नाथ! व्रजेशनन्दन! इन चिरकाल की पियासी आँखों से आपकी अमृतोपम मकरन्दमाधुरी का कब पान कर सकूँगा। हे नाथ! यह हृदय तुम्हारे दर्शन के लिये कातर हुआ चारों ओर बड़ी ही द्रुतगति से दौड़ रहा है। हे चंचल श्याम! मैं क्या करूँ?’ यह कहते-कहते उन्होंने इस पांच भौतिक शरीर का त्याग कर दिया। अन्तिम समय में वे अपना सम्पूर्ण प्रेम श्रीईश्वरपुरी को अर्पण कर गये।

गुरुदेव से अमूल्य प्रेमनिधि पाकर ईश्वरपुरी तीर्थों में भ्रमण करते हुए गौड़ देश की ओर आये। इनका जन्मस्थान इसी जिले के कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। ये जाति के कायस्थ थे, कोई-कोई इन्हें वैद्य भी बताते हैं, किन्तु वैष्णवों की जाति ही क्या? उनकी तो हरिजन ही जाति है, फिर संन्यास धारण करने पर तो जाति रहती ही नहीं। ये सदा श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त-से बने रहते थे। जिह्व से सदा मधुर श्रीकृष्ण नाम उच्चारण करते रहते और प्रेम में छके-से, उन्मत्त-से, अलक्षितरूप से देश में भ्रमण करते हुए भाग्यवानों को अपने शुभ दर्शनों से पावन बनाते फिरते थे, इसी प्रकार भ्रमण करते हुए ये नवद्वीप में भी आये और अद्वैत आचार्य के घर के समीप आकर बैठ गये। आचार्य देखते ही समझ गये, ये कोई परम भागवत वैष्णव हैं, उन्होंने इनका यथोचित सत्कार किया। परिचय प्राप्त होने पर तो आचार्य के आनन्द का ठिकाना ही न रहा। उने गुरुदेव के प्रधान और परम प्रिय शिष्य उनके गुरुतुल्य ही थे।

आचार्य ने इनकी गुरुवत पूजा  की और कुछ काल नवद्वीप में ही रहने का आग्रह किया। पुरी महाशय ने आचार्य की प्रार्थना स्वीकार कर ली और वहीं उनके पास रहकर श्रीकृष्ण  कथा और सत्संग करने लगे। नवद्वीप में रहते हुए महामहिम श्रीईश्वरपुरी ने निमाई पण्डित  का नाम तो सुना था, किन्तु साथ ही यह भी सुना था कि वे बड़े भारी चंचल हैं, वैष्णवों से खूब तर्क-वितर्क करते हैं। इसलिये पुरी महाशय ने भेंट नहीं की। एक दिन अकस्मात निमाई की ईश्वरपुरीजी से भेंट हो गयी। संन्यासी समझकर निमाई पण्डित ने पुरी महाशय को प्रणाम किया। परिचय पाकर उन्हें परम प्रसन्नता हुई। पुरी महाशय तो उनके रूप-लावण्य को देखकर मन्त्र मुग्ध की भाँति एकटक दृष्टि से उनकी ही ओर देखते रहे। उन्होंने सिर से पैर तक निमाई को देखा, फिर देखा और फिर देखा।

इस प्रकार बार-बार उनके अद्भुत रूप-लावण्य और तेज को देखते, किन्तु उनकी तृप्ति ही नहीं होती थी। वे सोचने लगे ये तो कोई योगभ्रष्ट महापुरुष- से जान पड़ते हैं, इनके चेहरे पर कितना तेज है, हृदय की स्वच्छता, शुद्धता और प्राणिमात्र के प्रति ममता इनके चेहरे से प्रस्फुटित हो रही है। ये साधारण पुरुष कभी हो ही नहीं सकते। जरूर कोई प्रच्छन्न वेशधारी महापुरुष हैं। पुरी को एकटक अपनी ओर देखते देखकर हँसते हुए निमाई बोले- ‘पुरी महाशय! अब इस प्रकार कहाँ तक देखियेगा। आज हमारे ही घर भिक्षा कीजियेगा, वहाँ दिनभर हमें देखते रहने का सुअवसर प्राप्त होगा।’ यह सुनकर पुरी महाशय कुछ लज्जित-से हुए और उन्होंने निमाई का निमन्त्रण बड़े प्रेम से स्वीकार कर लिया। भोजन तैयार होने के पूर्व निमाई अद्वैताचार्य के घर से पुरी को लिवा ले गये। शची माता ने स्वामी जी की बहुत ही अधिक अभ्यर्चना की और उन्हें श्रद्धा-भक्ति के साथ भोजन कराया। भोजन के अनन्तर कुछ काल तक दोनों महापुरुषों में कुछ सत्संग होता रहा, फिर दोनों ही अद्वैताचार्य के आश्रम में आये।

अब तो निमाई पण्डित पुरी महाशय के समीप यदा-कदा आने लगे। उन दिनों पुरी महाशय ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ नामक एक ग्रन्थ की रचना कर रहे थे। पुरी ने पण्डित समझकर इनसे उस ग्रन्थ के सुनने का आग्रह किया। गदाधर पण्डित के साथ सन्ध्या समय जाकर ये उस ग्रन्थ को रोज सुनने लगे। पुरी महाशय ने कहा- ‘आप पण्डित हैं, इस ग्रन्थ में जहाँ भी कहीं अशुद्धि हो, त्रुटि मालूम पड़े, वहीं आप बता दीजियेगा।’ इन्होंने नम्रता के साथ उत्तर दिया- ‘श्रीकृष्ण-कथा में भला क्या शुद्धि और क्या अशुद्धि।

भक्त अपने भक्ति-भाव के आवेश में आकर जो भी कुछ लिखता है, वह परम शुद्ध ही होता है। जिस पद में भगवत-भक्ति है, जिस छन्द में श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन है वह अशुद्ध होने पर भी शुद्ध है और जो काव्य श्रीकृष्ण-कथा से रहित है वह चाहे कितना भी ऊँचा काव्य क्यों न हो, उसकी भाषा चाहे कितनी बढि़या क्यों न हो, वह व्यर्थ ही है। भगवान तो भावग्राही हैं, वे घट-घट की बातें जातने हैं। बेचारी भाषा उनकी विरदावली का बखान कर ही क्या सकती है, उनकी प्रसन्नता में तो शुद्ध भावना ही मुख्य कारण है। यथा-

मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।

उभयोस्तु शुभं पुण्यं भावग्राही जनार्दनः।।

अर्थात मूर्ख कहता है ‘विष्णाय नमः’ [1]और विद्वान कहते हैं ‘विष्णवे नमः’ परिणाम में इन दोनों का फल समान ही है। क्योंकि भगवान जनार्दन तो भावग्राही हैं। उनसे यह बात छिपी नहीं रहती कि ‘विष्णाय’ कहने से भी उसका भाव मुझे नमस्कार करने का ही था।’ निमाई पण्डित का ऐसा उत्तर सुनकर पुरी महाशय अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘यह उत्तर तो आपकी महत्ता का द्योतक है। इस कथन से आपने श्रीकृष्ण-लीला की महिमा का ही वर्णन किया है। आप धुरन्धर वैयाकरण हैं, इसलिये पद-पदान्त और क्रिया की शुद्धि-अशुद्धि पर आप ध्यान जरूर देते जायँ।’ यह कहकर वे अपने ग्रन्थ को इन्हें सुनाने लगे। ये बड़े मनोयाग के साथ नित्यप्रति आकर उस ग्रन्थ को सुनते और सुनकर प्रसन्नता प्रकट करते।

एक दिन ग्रन्थ सुनते-सुनते एक धातु के सम्बन्ध में इन्होंने कहा- ‘यह धातु ‘आत्मनेपदी’ नहीं है ‘परस्मैपदी’ है।’ पुरी उसे आत्मनेपदी ही समझे बैठे थे। इनकी बात से उन्हें शंका हो गयी। इनके चले जाने के पश्चात् पुरी रात भर उस धातु के ही सम्बन्ध में सोचते रहे। दूसरे दिन जब ये फिर पुस्तक सुनने आये तो इनसे पुरी ने कहा- ‘आप जिसे परस्मैपदी धातु बताते थे, वह तो आत्मनेपदी ही है।’ यह कहकर उन्होंने उस धातु को सिद्ध करके इन्हें बताया। सुनकर ये प्रसन्न हुए और कहने लगे- ‘आप ही का कथन ठीक है, मुझे भ्रम हो गया होगा।’ इस प्रकार इन्होंने पुरी के समस्त ग्रन्थ को श्रवण किया। उस ग्रन्थ के श्रवण करने से इन्हें बहुत ही सुख प्राप्त हुआ। इनकी श्रीकृष्णभक्ति धीरे-धीरे प्रस्फुटित-सी होने लगी। ईश्वरपुरी के प्रति भी इनका आन्तरिक अनुराग उत्पन्न हो गया। कुछ काल के अनन्तर पुरी महाशय नवद्वीप से गया  की ओर चले गये और निमाई  पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में पढ़ाने लगे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(19)
पूर्व बंगाल की यात्रा

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।[1]

विधि के विधान को कोई ठीक-ठीक समझ नहीं सकता। जिसके पास प्रचुर परिणाम में भोज्य-पदार्थ हैं, उसे पाचनशक्ति नहीं। जिसकी पाचनशक्ति ठीक है, उसे यथेष्ठ भोज्य-पदार्थ नहीं मिलते। विद्वानों के पास धन का अभाव है, जिनमें विद्या-बुद्धि नहीं उनके पास आवश्यकता से अधिक अर्थ भरा पड़ा है। जहाँ धन है वहाँ सन्तान नहीं, जहाँ बहुत सन्तान है। वहाँ भोजन के लाले पड़े हुए हैं। इसी बात से तो खीजकर किसी कवि ने ब्रह्मा जी को बुरा-भला कहा है। वे कहते हैं-

गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु।

विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुःपुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत।।

कवि की दृष्टि में ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने में बड़ी भारीभूल की है। देखिये सुवर्ण कितना सुन्दर है, उसमें यदि सुगन्ध होती तो फिर उसकी उत्तमता का कहना ही क्या था। ईख के डंडे में जब इतनी मिठास है, तब यदि उसके ऊपर कहीं फल लगता तो वह कितना स्वादिष्ट होता? ब्रह्मा जी उस पर फल लगाना ही भूल गये। चन्दन की लकड़ी में जब इतनी सुगन्ध है, तो उस पर कहीं फूल लगता होता तो उसके बराबर उत्तम फूल संसार में और कौन हो सकता? सो ब्रह्मा जी को उस पर फूल लगाने का ध्यान ही न रहा। विद्वान लोग बिना रूपये-पैसे के ही आकाश-पाताल एक कर देते हैं, यदि उनके पास कहीं धन होता तो इस सृष्टि की सभी विषमता को दूर कर देते, सो उन्हें दरिद्री ही बना दिया, साथ ही उनकी आयु भी थोड़ी बनायी। इन सब बातों को सोचकर कवि कहता है कि इसमें बेचारे ब्रह्मा जी का कुछ दोष नहीं है, मालूम पड़ता है, सृष्टि करते समय ब्रह्मा जी को कोई योग्य सलाह देने वाला चतुर मन्त्री नहीं मिला।

इसीलिये जल्दी में ऐसी गड़बड़ी हो गयी। मन्त्री के अभाव में हुई हो अथवा उन्होंने जान-बुझकर की हो, यह गलती तो ब्रह्मा जी से जरूर ही हो गयी कि उन्होंने विद्वानों को निर्धन ही बनाया। विद्वानों को प्रायः धन के लिये सदा परमुखापेक्षी ही बनना पड़ता है। किसी ने तो यहाँ तक कह डाला है ‘अनाश्रया न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः’ अर्थात पण्डित, स्त्री और बेल बिना आश्रय के भले ही नहीं मालूम पड़ते। बेचारे पण्डितों को वनिता-लता के साथ समानता करके उनकी व्यथा को और भी बढ़ा दिया है। जिस समय की हम बातें कह रहे हैं, उस समय संस्कृत-विद्या की आज की भाँति दुर्गति नहीं थी।

भारतवर्षभर में संस्कृत-विद्या का प्रचार था। बिना संस्कृत पढे़ कोई भी मनुष्य सभ्य कहला ही नहीं सकता था। बंगाल में ब्राह्मण ही संस्कृत-विद्या के पण्डित नहीं थे, किन्तु कायस्थ, वैश्य तथा अन्य जाति के कुलीन पुरुष भी संस्कृत-विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उस समय पण्डितों की दो ही वृत्तियाँ थीं, या तो वे पठन-पाठन करके अपना निर्वाह करें या किसी राजसभा का आश्रय लें। पण्डित सदा से ही दरिद्र होते चले आये पूर्व बंगाल की यात्रा हैं, इसका कारण एक कवि ने बहुत ही सुन्दर सुझाया है। उसने एक इतिहास बताते हुए कहा है कि ब्रह्मा जी के सुकृति (लक्ष्मी) और दुष्कृति (दरिद्रता) दो कन्याएँ थीं। सुकृति बड़ी थी, इसलिये विवाह के योग्य हो जाने पर ब्रह्मा जी ने उसे बिना ही सोचे-समझे मूर्ख को दे डाला। मूर्ख के यहाँ उसकी दुर्गति देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। तभी से वे दूसरी पुत्री दुष्कृति के लिये अच्छा-सा वर खोज रहे हैं, जिसे भी विद्वान, कुलीन और सर्वगुणसम्पन्न देखते हैं उसे ही दरिद्रता को दे डालते हैं।

निमाई पण्डित विद्वान थे, गुणवान थे, रूपवान और तेजवान भी थे, भला ऐसे योग्य वर को ब्रह्मा जी कैसे छोड़ सकते थे? उनके यहाँ भी दरिद्रता का साम्राज्य था, किन्तु वह निमाई पण्डित को तनिक व्यथा नहीं पहुँचा सकती। उनके सामने सदा हाथ बाँधे दूर ही खड़ी रहती थी। निमाई उसकी जरा भी परवा नहीं करते थे। उन दिनों योग्य और नामी पण्डित देश-विदेशों में अपने योग्य छात्रों के साथ भ्रमण करते थे, सद्गृहस्थ उनकी धन, वस्त्र और खाद्य-पदार्थों के द्वारा पूजा करते थे। आज की भाँति पण्डितों की उपेक्षा कोई भी नहीं करता था। निमाई की भी पूर्व बंगाल में भ्रमण करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपनी माता की अनुमति से अपने कुछ योग्य छात्रों के साथपूर्व बंगाल की यात्रा की। उस समय लक्ष्मी देवी को अपने पितृगृह में रख गये थे। श्रीगंगा जी को पार करके निमाई पण्डित अपने शिष्यों के साथ पद्मा नदी के तट पर राढ़-देश में पहुँचे।

बंगाल में भगवती भागीरथी की दो धाराएँ हो जाती हैं। गंगा जी की मूल शाखा पूर्व की ओर जाकर जो बंगाल के उपसागर में मिली है, उसका नाम तो पद्मावती है। दूसरी जो नवद्वीप  होकर गंगा सागर में जाकर समुद्र से मिली है उसे भागीरथी गंगा कहते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के ओर दक्षिण-तट से लेकर पद्मा नदी पर्यन्त के देश को राढ़-देश कहते हैं। पहले ‘बंगाल’ इसे ही कहते थे।

उत्तर-तट को गौड़ देश कहते थे और दक्षिण-तट को बंगाल या राढ़ के नाम से पुकारते थे। आज जिसे पूर्व बंगाल कहते हैं, यथा-

रत्नाकरं समारभ्य ब्रह्मपुत्रान्तगं शिवे।

बंगदेशो मया प्रोक्तः सर्वसिद्धिप्रदर्शकः।।

गौड़-देश वालों से बंग-देश वालों का आचार-विचार भी कुछ-कुछ भिन्न था और अब भी है। निमाई पण्डित ने पद्मा के किनारे-किनारे पूर्व बंगाल के बहुत-से स्थानों में भ्रमण किया। जो भी लोग इनका आगमन सुनते वे ही यथाशक्ति भेंट लेकर इनके पास आते। वहाँ के विद्यार्थी कहते- ‘हम बहुत दिनों से आपकी प्रशंसा सुन रहे थे। आपकी लिखी हुई व्याकरण की टिप्पणी बड़ी ही सुन्दर है। हमें अपने पाठ में उससे बहुत सहायता मिलती है।’ कोई कहते- ‘आपकी पद-धूलि से यह देश पावन बन गया, आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य की हम प्रशंसा ही मात्र सुनते थे। आपके गुणों की कौन प्रशंसा कर सकता है?’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से इनकी प्रशंसा और पूजा करने लगे। इनके साथियों को भय था कि पण्डित जी यहाँ भी नवद्वीप की भाँति चंचलता करेंगे तो सब गुड़ गोबर हो जायगा, किन्तु ये स्वयं देशकाल को समझकर बर्ताव करने वाले थे।

कई मास तक ये पूर्व बंगाल में भ्रमण करते रहे, किन्तु वहाँ इन्होंने एक दिन भी चंचलता नहीं की। एक योग्य गम्भीर पण्डित की भाँति ये सदा बने रहते थे। इनसे जो जिस विषय का प्रश्न पूछता उसे उसी के प्रश्न के अनुसार यथावत उत्तर देते। यहाँ इन्होंने वैष्णवों की आलोचना नहीं की, किन्तु उलटा भगवद्भक्ति का सर्वत्र प्रचार किया। इन्होंने लोगों के पूछने पर भगवन्नाम का माहात्म्य बताया, भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की और कलियुग  में भक्ति-मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ, सुलभ और सर्वोपयोगी बताया। किन्तु ये बातें इन्होंने एक विद्वान पण्डित की ही हैसियत से कही थीं, जैसे विद्वानों से जो भी प्रश्न करो उसी का शास्त्रानुसार उत्तर दे देंगे। भक्ति का असली स्त्रोत तो इनका अभी अव्यक्तरूप से छिपा ही हुआ था। उसे प्रवाहित होने में अभी देरी थी। फिर भी इनके पाण्डित्यपूर्ण उत्तरों से राढ़-देशवासी श्रद्धालु मनुष्यों को बहुत लाभ हुआ।

वे भगवन्नाम और भक्ति के महत्त्व को समझ गये, उनके हृदय में भक्ति का एक नया अंकुर उत्पन्न हो गया, जिसे पीछे से गौरांग की आज्ञानुसार नित्यानन्द प्रभु ने प्रेम से सींचकर पुष्पित, पल्लवित, फलान्वित बनाया। इस प्रकार ये शास्त्रीय उपदेश करते हुए राढ़-देश के मुख्य-मुख्य स्थानों में घूमने लगे। शाम को अपने साथियों को लेकर ये पद्मों में स्नान करते और घण्टों एकान्त में जलविहार करते रहते। लोग बड़े सत्कार से इन्हें खाने-पीने की सामग्री देते। इनके साथी अपना भोजन स्वयं ही बनाते थे। इस प्रकार इनकी यात्रा के दिन आनन्द से कटने लगे।

एक दिन महामहिम निमाई पण्डित एकान्त स्थान में बैठे हुए थे। उसी समय एक तेजस्वी ब्राह्मण उनके समीप आया। ब्राह्मण के चेहरे से उसकी नम्रता, शीलता, पवित्रता ओर प्रभु-प्राप्ति के लिये विकलता प्रकट हो रही थी। ब्राह्मण अपनी वाणी से निरन्तर भगवान के सुमधुर नामों का उच्चारण कर रहा था। उसने आते ही इनके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगा। इन्होंने उस ब्राह्मण को उठाकर गले से लगाया और अपना कोमल कर उसके अंग पर फेरते हुए बोले- ‘आप यह क्या कर रहे हैं, आप तो हमारे पूज्य हैं, हम तो अभी बालक हैं। आप स्वयं हमारे पूजनीय हैं।’ ब्राह्मण इनके पैरों को पकड़े हुए निरन्तर रुदन कर रहा था, वह कुछ सुनता ही नहीं था, बस, हिचकियाँ भर-भरकर जोरों से रोता ही था।

प्रभु ने आश्वासन देते हुए कहा- ‘बात तो बताओ, इस प्रकार रुदन क्यों कर रहे हों तुम पर क्या विपत्ति है, मंगलमय भगवान तुम्हारा सब भला ही करेंगे, मुझे अपने दुःख का कारण बताओ।’ प्रभु के इस प्रकार बहुत आश्वासन देने पर ब्राह्मण ने कहा- ‘प्रभो! मैं बड़ा ही अधम और साधन शून्य दीन-हीन ब्राह्मण-बन्धु हूँ। अभी तक इस संसार में मनुष्य का साध्य क्या है, उस तक पहुँचने का असली साधन कौन-सा है, इस बात को नहीं समझ सका हूँ। मैं सदा इसी चिन्ता में मग्न रहा करता था कि साध्य-साधन का निर्णय कैसे हो, भगवान से नित्य प्रार्थना किया करता था कि- ‘भगवन! मैं तुम्हारी स्तुति-प्रार्थना कुछ नहीं जानता। आपको कैसे पुकारा जाता है, यह बात भी नहीं जानता। इस दीन-हीन कंगाल को आप स्वयं ही किसी प्रकार साध्य-साधन का तत्त्व समझा दीजिये।’

अन्तर्यामी भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। कल रात में मैं सो रहा था। स्वप्न में एक महापुरुष ने आकर मुझसे कहा- ‘पूर्व बंगाल में जो आजकल निमाई पण्डित  भ्रमण कर रहे हैं उन्हें तुम साधारण पण्डित ही न समझो, वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, उन्हीं के पास तुम चले जाओ, वे ही तुम्हारी शंका का समाधान करके तुम्हें साध्य-साधन का मर्म समझावेंगे।’ बस, आँख खुलते ही मैं इधर चला आया हूँ। आज मेरा जीवन सफल हुआ, मैं श्रीचरणों के दर्शन करके कृतकृत्य हो गया। प्रभु तनिक मुसकराये और फिर धीरे-धीरे तपन मिश्र से कहने लगे- ‘महाभाग! आपके ऊपर श्रीकृष्ण भगवान की बड़ी कृपा है। आपकी अन्तरात्मा अत्यन्त पवित्र है, इसीलिये आप सभी में भगवद्भावना करते हैं। मनुष्य जैसी भावना किया करता है, वैसे ही रात्रि में स्वप्न देखता है। आप इस बात को सत्य समझें और किसी के सामने प्रकाशित न करें।’

तपन मिश्र ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो! मुझे भुलाइये नहीं। अब तो मैं सर्वतोभावेन आपकी शरण में आ गया हूँ। जैसे भी उचित समझें मुझे अपनाइये ओर मेरी शंका का समाधान कीजिये।’ प्रभु ने हँसते हुए पूछा- ‘अच्छा, तुम क्या पूछना चाहते हो? तुम्हारी शंका क्या है?’ दीनभाव से तपन मिश्र ने कहा- ‘प्रभो! इस कलिकाल में प्राचीन साधन जो शास्त्रों में सुने जाते हैं, उनका होना तो असम्भव है। समयानुसार कोई सरल, सुन्दर और सर्वश्रेष्ठ साधन बताइये ओर किसको साध्य मानकर उस साधन को करें।’ प्रभु थोड़ी देर चुप रहे, फिर बड़े ही प्रेम के साथ मिश्र से बोले- ‘विप्रवर! प्रभु-प्राप्ति ही मनुष्य का मुख्य साध्य है। उसकी प्राप्ति के लिये प्रत्येक युग में अलग-अलग साधन होते हैं। सत्ययुग  में ध्यान ही मुख्य साधन समझा जाता था, त्रेता में बड़े-बड़े़ यज्ञों के द्वारा उस यज्ञ पुरुष भगवान की अर्चना की जाती थी, द्वापर में पूजा-अर्चा के द्वारा प्रभु-प्रसन्नता समझी जाती थी, किन्तु इस कलियुग  में तो केवल केशव-कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन बताया जाता है। जो फल अन्य युगों में उन-उन साधनों से हाते थे वही फल कलियुग में भगवन्नाम-स्मरण से होता है। यथा-

कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।

बस, सब साधनों को छोड़कर हरि-नाम का ही आश्रय पकड़ना चाहिये। भगवान व्यासदेव तीन बार प्रतिज्ञा करके कहते हैं-

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।

अर्थात कलियुग में केवल हरि  का ही नाम सार है। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कलियुग में हरि नाम को छोड़कर दूसरी गति नहीं है, नहीं है, नहीं है। लोग हरिनाम का माहात्म्य समझकर ही संसार में भाँति-भाँति की यातनाएँ सह रहे हैं। जो भगवन्नाम की महिमा समझ लेगा, फिर उसे भव-बाधाएँ व्यथा पहुँचा ही नहीं सकतीं।

मैं तुम्हें सार-से-सार बात, गुह्य-से-गुह्य साधन बताये देता हूँ। इसे खूब यत्नपूर्वक स्मरण रखना और इसे ही अपने जीवन का मूलमन्त्र समझना-

संसारसर्पदंष्टानामेकमेव सुभेषजम्।

सर्वदा सर्वकालेषु सर्वत्र हरिचिन्तनम्।।

अर्थात् संसाररूपी सर्प के काटे हुए मनुष्य के लिये एक ही सर्वोत्तम ओषधि है, वह यह कि हर समय, हर काल में और हर स्थान में निरन्तर हरिस्मरण ही करते रहना चाहिये। बस, मुख्य साधन यह है-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

‘ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का मन्त्र ही मुख्य साधन है। साध्य के चक्कर में अभी से मत पड़ो। इसका जप करते-करते साध्य का निर्णय स्वयं ही हो जायगा।’ प्रभु के मुख से साधन का गुह्य रहस्य सुनकर मिश्र जी को बड़ा ही आनन्द हुआ। आनन्द के कारण उनकी आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने रोते-रोते प्रभु के चरण पकड़कर प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपकी असीम अनुकम्पा से आज मेरे सभी संशयों का मूलोच्छेदन हो गया। अब मुझे कोई भी शंका नहीं रही। अब मेरी यही अन्तिम प्रार्थना है कि मुझे श्रीचरणों से पृथक न कीजिये। सदा चरणों के ही समीप बना रहूँ, ऐसी आज्ञा प्रदान कीजिये।’ प्रभु ने कहा- ‘अब काशी जाकर निवास कीजिये। कालान्तर में हम भी काशी जी आवेंगे तभी आपसे भेंट होगी। आपको वहीं शिवपुरी में जाकर रहना चाहिये।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके तपन मिश्र काशी जी को चले गये ओर इधर प्रभु अब घर लौटने की तैयारियाँ करने लगे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(20)
पत्नी-वियोग और प्रत्यागमन

पतिर्हि देवो नारीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः।

पत्युर्गतिसमा नास्ति दैवतं वा यथा पतिः।।[1]

पत्नी गृहस्थाश्रम में एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान वस्तु है, गृहिणी के बिना गृहस्थ ही नहीं। पत्नी गृहस्थ के कार्यों में मन्त्री है, सेवा करने में दासी है, भोजन कराने में माता के समान है, शयन में रम्भा के समान सुखदात्री है, धर्म के कार्यों में अर्धांगिनी है, क्षमा में पृथ्वी के समान है अर्थात् गृहस्थ की योग्य गृहिणी ही सर्वस्व है। जिसके घर में सुचतुर सुन्दरी और मृदुभाषिणी गृहिणी मौजूद है, उसके यहाँ सर्वस्व है, उसे किसी चीज की कमी ही नहीं और जिसके गृहिणी ही नहीं, उसके है ही क्या? लोकप्रिय निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी ऐसी ही सर्वगुणसम्पन्ना गृहिणी थीं। वे पति को प्राणों के समान प्यार करती थीं, सास की तन-मन से सदा सेवा करती रहती थीं और सदा मधुर और कोमल वाणी से बोलती थीं। उनका नाम ही लक्ष्मीदेवी नहीं था, वस्तुतः उनमें लक्ष्मीदेवी के सभी गुण भी विद्यमान थे। वे मत्र्यलोक में लक्ष्मी के ही समान थीं। ऐसी ही पत्नी को तो नीतिकारों ने लक्ष्मी बताया है-

यस्य भार्या शुचिर्दक्षा भर्तारमनुगामिनी।

नित्यं मधुरवक्त्री च सा रमा न रमा रमा।।

अर्थात ‘जिसकी भार्या पवित्रता रखने वाली, गृहकार्यों में दक्ष  और अपने पति के मनोअनुकूल आचरण करने वाली है, जो सदा ही मीठी वाणी बोलती है, असल में तो वही लक्ष्मी है। लोग जो ‘लक्ष्मी-लक्ष्मी’ पुकारते हैं, वह कोई और लक्ष्मी नहीं हैं।’ निमाई पण्डित की पत्नी लक्ष्मीदेवी सचमुच में ही लक्ष्मी  थीं। पूर्व बंगाल की यात्रा के समय माता के आग्रह से निमाई लक्ष्मीदेवी को उनके पितृगृह में कर गये थे। पति के वियोग के समय पतिव्रता लक्ष्मीदेवी ने बड़े ही प्रेम से अपने स्वामी के चरण पकड़ लिये ओर वियोग-वेदना का स्मरण करके वे फूट-फूटकर रोने लगीं। निमाई ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए कहा- ‘इस प्रकार दुःखी होने की कौन-सी बात है? मैं बहुत ही शीघ्र लौटकर आ जाऊँगा, तब तक तुम यहीं रहो। मैं बहुत दिन के लिये थोड़े ही जाता हूँ। वैसे ही दस-बीस दिन घूम-घामकर आ जाऊँगा।’ उन्हें क्या पता था, कि यह लक्ष्मी देवी से अन्तिम ही भेंट है, इसके बाद लक्ष्मी देवी से इस लोक में फिर भेंट न हो सकेगी। लक्ष्मीदेवी को भाँति-भाँति से आश्वासन देकर निमाई पण्डित ने पूर्व बंगाल की यात्रा की। इधर लक्ष्मीदेवी पति के वियेाग में खिन्न चित्त से दिन गिनने लगीं, उन्हें पति के बिना यह सम्पूर्ण संसार सूना-ही-सूना दृष्टिगोचर होता था। उन्हें संसार में पति के सिवा प्रसन्न करने वाली कोई भी वस्तु नहीं थी।

प्रसन्नता की मूल वस्तु के अभाव में उनकी प्रसन्नता एकदम जाती रही, वे सदा उदास ही बनी रहने लगीं। उदासी के कारण उन्हें अन्न-जल कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उनकी अग्नि मन्द हो गयी, पाचनशक्ति नष्ट हो गयी ओर विरह-ज्वाला के ताप से सदा ज्वर-सा रहने लगा। पिता ने चिकित्सकों को दिखाया, किन्तु बेचारे संसारी वैद्य इस रोग का निदान कर ही क्या सकते हैं! वात, पित्त, कफ के सिवा वे चैथी बात जानते ही नहीं हैं। यह इन तीनों से विलक्षण ही धातु-विकार व्याधि है, इस कारण वैद्यों के उपचार से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे लक्ष्मी देवी का शरीर अधिकाधिक क्षीण होने लगा। किसी को भी उनके जीवन की आशा न रही। वे मानो अपने अत्यन्त क्षीण शरीर को अन्तिम बार पति-दर्शनों की लालसा से ही टिकाये हुए हैं, किन्तु उनकी यह अभिलाषा पूरी न हो सकी।

निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में अनुमान से अधिक दिन लग गये। अन्त में बड़े कष्ट के साथ वियोग-व्यथा को न सह सकने के कारण अपने पतिदेव के चरण-चिह्नों को हृदय में धारण करके उन्होंने इस पांचभौतिक शरीर का त्याग कर दिया। वे इस मर्त्यलोक की भूमि को त्यागकर सतियों के रहने योग्य अपने-पुण्य-लोक में पति-मिलन की आकांक्षा से चली गयीं। घरवालों ने रोते-रोते उनके सभी संस्कार किये। इधर निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में भ्रमण करते हुए कई मास बीच गये। अब इन्हें घर की चिन्ता होने लगी। इन्हें भान होने लगा कि हमारे घर पर जरूर कुछ अनिष्ट हुआ है, हृदय के भाव तो असंख्यों कोसों पर से हृदय में आ जाते हैं। लक्ष्मी देवी की अन्तिम वेदना इनके हृदय को पीड़ा पहुँचाने लगी। इन्हें अब कहीं आगे जाना अच्छा नहीं लगता था, इसलिये इन्होंने साथियों को नवद्वीप लौट चलने की आज्ञा दी।

आज्ञापाकर सभी नवद्वीप लौट चलने की तैयारियाँ करने लगे। बहुत-से नवीन छात्र भी विद्योपार्जन के निमित्त इनके साथ हो लिये थे। उन सभी को साथ लेकर ये नवद्वीप की ओर चल पड़े। इन्हें काफी धन तथा अन्य आवश्यकीय वस्तुएँ भेंट तथा उपहार में प्राप्त हुई थीं। थोडे़ दिनों में ये फिर नवद्वीप में ही आ गये। इनके आगमन का समाचार बिजली की तरह नगर में फैल गया। इनके इष्ट, मित्र, स्नेही तथा पुराने छात्र दर्शनों के लिये इनके घर पर आने लगे। ये सभी से यथोचित प्रेमपूर्वक मिले। सभी ने यात्रा के कुशल-समाचार पूछे। इन्होंने सबसे पहले अपनी माता के चरणों को स्पर्श किया। माता का चेहरा मुरझाया हुआ था, वे पुत्र-वधू के वियोग और पुत्र की चिन्ता के कारण अत्यन्त दुःखी-सी मालूम पड़ती थीं।

चिरकाल के बिछडे़ हुए अपने प्रिय पुत्र को पाकर माता के सुख का वारापार न रहा। गौ  जिस प्रकार बिछुड़े हुए बछड़े को पाकर उसे प्रेम से चाटने लगती है उसी प्रकार माता निमाई के युवा शरीर के ऊपर अपना शीतल और कोमल कर फिराने लगीं। उनकी आँखों से निरन्तर प्रेमाश्रु निकल रहे थे। निमाई ने हँसते हुए पूछा- ‘अम्मा! सब कुशल तो है? मुझे अनुमान भी नहीं था, कि इतने दिन लग जायँगे, तुम्हें पीछे कोई कष्ट तो नहीं हुआ’ पुत्र के ऐसा पूछने पर माता चुप ही रहीं। तब किसी दूसरी स्त्री ने धीरे से लक्ष्मी देवी के परलोक-गमन की बात इनसे कह दी। सुनते ही इनके चेहरे पर दुःख, सन्ताप और वियोग के भाव प्रकट होने लगे। माता और भी जोरों के साथ्ज्ञ रुदन करने लगीं। निमाई की भी आँखों में अश्रु आ गये। उन्हें पोंछते हुए धीरे-धीरे वे माता को समझाने लगे- ‘माँ, विधि के विधान को मेट ही कौन सकता है? जो भाग्य में बदा होगा, वह तो अवश्य ही होकर रहेगा। इतने ही दिनों तक तुम्हारी पुत्र-वधू का तुमसे संयोग बदा था, इस बात को कौन जानता था?’

माता ने रोते-रोते कहा- ‘बेटा, अन्तिम समय में भी वह तेरे आने की ही बात पूछती रही। ऐसी बहू अब मुझे नहीं मिलेगी, साक्षात लक्ष्मी ही थी।’ निमाई यह सुनकर चुप हो गये। माता फिर बड़े जोरों से रोने लगीं। इस पर प्रभु ने कुछ जोर देकर कहा- ‘अम्मा! अब चाहे तू कितनी भी रोती रह, तेरी पुत्र-वधू तो अब लौटकर आने की नहीं। वह लौटने के लिये नहीं गयी है। अब तो धैर्य-धारण से ही काम चलेगा।’ पुत्र के ऐसे समझाने पर माता ने धैर्य-धारण करके अपने आँसू पोंछे और निमाई को स्नानादि करने के लिये कहा। फिर स्वयं उन सबके लिये भोजन बनाने में लग गयीं। भोजन से निवृत्त होकर निमाई पण्डित अपने इष्ट-मित्रों के साथ पूर्व बंगाल की यात्रा-सम्बन्धी बहुत- सी बातें करने लगे और फिर पूर्व की भाँति पाठशाला में जाकर पढ़ाने लगे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(21)
नवद्वीप में दिग्विजयी पण्डित

सभायां पण्डिताः कोचित्केचित्पण्डितपण्डिताः।

गृहेषु पण्डिताः केचित्केचिन्मूर्खेषु पण्डिताः।।[1]

भगवद्दत्त प्रतिभा भी एक अलौकिक वस्तु है। पता नहीं, किस मनुष्य में कब और कैसी प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठे। अच्छे गाय कों को देखा है, वे पद को सुनते-सुनते ही कण्ठस्थ कर लेते हैं। सुयोग्य गायकों को दूसरी बार पद्य को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, एक बार के सुनने पर ही उन्हें याद हो जाता है। किसी को जन्म से ही ताल, स्वर और राग-रागिनियों का ज्ञान होता है और वह अल्प वय में अच्छे-अच्छे धुरन्धरों को अपने गायन से आश्चर्यान्वित बना देता है। कोई कवि होकर ही माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, जहाँ वे बोलने लगे, कि उनकी वाणी से कविता ही निकलने लगती है। कोई अनपढ़ होने पर भी ऐसे सुन्दर वक्ता होने हैं कि अच्छे-अच्छे शास्त्री और महामहोपाध्याय उनके व्याख्यान को सुनकर चकित हो जाते हैं। यह सब भगवद्दत्त शक्तियाँ हैं, इन्हें कोई परिश्रम करके प्राप्त करना चाहे तो असम्भव है। ये सब प्रतिभा के चमत्कार हैं और यह प्रतिभा पुरुष के जन्म के साथ ही आती है, काल पाकर वह प्रस्फुटित होने लगती है। बहुत-से विद्वानों को देखा गया है, वे सभी शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान हैं, किन्तु सभा में वे एक अक्षर भी नहीं बोल सकते। इसके विपरीत बहुत-से ऐसे भी होते हैं जिन्होंने शास्त्रीय विषय तो बहुत कम देखा है किन्तु वे इतने प्रत्युत्पन्नमति होते हैं कि प्रश्न करते ही झट उसका उत्तर दे देते हैं। किसी भी विषय के प्रश्न पर उन्हें सोचना नहीं पड़ता, जो प्रश्न सुनते ही ऐसा युक्तियुक्त उत्तर देते हैं कि सभा के सभी सभासद वाह-वाह करने लगते हैं, इसी का नाम सभा-पाण्डित्य है। पहले जमाने में पण्डित के माने ही वावदूक वक्ता या व्याख्यानपटु किये जाते थे।

जिसकी वाणी में आकर्षण नहीं, जिसे प्रश्न के सुनने पर सोचना पड़ता है, जो तत्क्षण बात का उत्तर नहीं दे सकता, जिसे सभा में बोलने से संकोच होता है, वह पण्डित ही नहीं। सभा में ऐसे पण्डितों की प्रशंसा नहीं होती। पाण्डित्यप ने की कीर्ति के वे अधिकारी नहीं समझे जाते। वे तो पुस्तकीय जन्तु हैं जो पुस्तकें उलटते रहते हैं। आज से कई शताब्दी पूर्व इस देश में संस्कृत-साहित्य का अच्छा प्रचार था। राज्यसभाओं में बड़े-बड़े पण्डित रखे जाते थे, उन्हें समय-समय पर यथेष्ठ धन पारितोषिक के रूप में दिया जाता था। दूर-दूर से विद्वान सभाओं में शास्त्रार्थ करने आते थे और राजसभाओं की ओर से उनका सम्मान किया जाता था।

पण्डितों का शास्त्रार्थ सुनना उन दिनों राजा या धनिकों का एक आवश्यक मनोरंजन समझा जाता था। जो बोलने-चालने में अत्यन्त ही पटु होते थे, जिन्हें अपनी वक्तृत्व-शक्ति के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी पूर्ण अभिमान होता था, वे सम्पूर्ण देश में दिग्विजय के निमित्त निकलते थे। प्रायः ऐसे पण्डितों को किसी राजा या धनी का आश्रय होता था, उनके साथ बहुत-से और पण्डित, घोडे़, हाथी तथा और भी बहुत-से राजसी ठाट होते थे। वे विद्या के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध केन्द्र-स्थानों में जाते और वहाँ जाकर डंके की चोट के साथ मुनादी कराते कि ‘जिसे अपने पाण्डित्य का अभिमान हो वह हमसे आकर शास्त्रार्थ करे। यदि वह हमें शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा तो हम अपना सब धन छोड़कर लौट जायँगे और वे हमें परास्त न कर सके तो हम समझेंगे हमने यहाँ के सभी विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली। यदि किसी की हमसे शास्त्रार्थ करने की हिम्मत न हो तो हमें इस नगर के सभी पण्डित मिलकर अपने हस्ताक्षरों सहित विजय-पत्र लिख दें, हम शास्त्रार्थ किये बिना ही लौट जायँगे।’ उनकी ऐसी मुनादी को सुनकर कहीं के विद्वान तो मिलकर शास्त्रार्थ करते और कहीं के विजय-पत्र भी लिख देते, कहीं-कहीं के विद्वान उपेक्षा करके चुप भी हो जाते। दिग्विजयी अपनी विजय का डंका पीटकर दूसरी जगह चले जाते। धनी-मानी सज्जन ऐसे लोगों का खूब आदर करते थे और उन्हें यथेष्ठ द्रव्य भी भेंट में देते थे। इस प्रकार प्रायः सदा ही बड़े-बड़े शहरों में दिग्विजयी पण्डितों की धूम रहती।

चैतन्य देव के ही समय में चार-पाँच दिग्विजयी पण्डितों का उल्लेख मिलता है। आजकल यह प्रथा बहुत कम हो गयी है, किन्तु फिर भी दिग्विजयी आजकल भी दिग्विजय करते देखे गये हैं। हमने दो दिग्विजयी विद्वानों के दर्शन किये हैं, उनमें यही विशेषता थी कि वे प्रत्येक प्रश्न का उसी समय उत्तर देते थे। एक दिग्विजयी आचार्य को तो काशी जी में एक विद्यार्थी ने परास्त किया था, वह विद्यार्थी हमारे साथ पाठ सुनता था, बस, उसमें यही विशेषता थी कि वह धाराप्रवाह संस्कृत बड़ी उत्तम बोलता था। दिग्विजय के लिये वाक्पटुता की ही अत्यन्त आवश्यकता है। पाण्डित्य की शोभा तब और अब भी वाक्पटुता ही समझी जाती है। ऐसे ही एक काश्मीर के केशव शास्त्री अन्य स्थानों में दिग्विजय करते हुए नवद्वीप में भी विजय करने के लिये आये। उन दिनों नवद्वीप विद्या का और विशेषकर नव्य न्याय का प्रधान केन्द्र समझा जाता था। भारतवर्ष में उसकी सर्वत्र ख्याति थी। इसलिये नवद्वीप को विजय करने पर सम्पूर्ण पूर्वदेश विजित समझा जाता था।

उस समय भी नवद्वीप में गंगादास वैयाकरण, वासुदेव सार्वभौम नैयायिक, महेश्वर, विशरद, नीलाम्बर चक्रवर्ती, अद्वैताचार्य आदि धुरन्धर और नामी-नामी विद्वान् थे। नये पण्डितों में रघुनाथदास, भवानन्द, कमलाकान्त, मुरारीगुप्त, निमाई पण्डित आदि की भी यथेष्ठ ख्याति हो चुकी थी। नगर में चारों ओर दिग्विजयी की ही चर्चा थी। दस-पाँच पण्डित और विद्यार्थी जहाँ भी मिल जाते, दिग्विजयी की ही बात छिड़ जाती। कोई कहता- ‘नवद्वीप को विजय करके चला गया, तो नवद्वीप की नाक कट जायगी।’ कोई कहता- ‘अजी, न्याय वह क्या जाने, न्याय की ऐसी कठिन पंक्तियाँ पूछेंगे कि उसके होश दंग हो जायँगे।’ दूसरा कहता- ‘उसके सामने जायगा कौन? बड़े-बड़े पण्डित तो गद्दी छोड़कर सभाओं में जाना ही पंसद नहीं करते।’ इस प्रकार जिसकी समझ में जो आता वह वैसी ही बात कहता। प्रायः बड़े-बड़े विद्वान् सभाओं में शास्त्रार्थ नहीं करते। कुछ तो पढ़ाने के सिवा शास्त्रार्थ करना जानते ही नहीं, कुछ विद्वान होने पर शास्त्रार्थ कर भी लेते हैं, किन्तु उनमें चालाकी, धूर्तता और बात को उड़ा देने की विद्या नहीं होती, इसलिये चारों ओर घूम-घूमकर दिग्विजय करने वाले वावदूकों से वे घबड़ाते हैं। कुछ अपनी इज्जत-प्रतिष्ठा के डर से शास्त्रार्थ नहीं करते कि यदि हार गये तो लोगों में बड़ी बदनामी होगी। इसलिये बड़े-बड़े़ गम्भीर विद्वान् ऐसे कामों में उदासीन ही रहते हैं। विद्यार्थियों ने जाकर निमाई पण्डित से भी यह बात कही- ‘काश्मीर से एक दिग्विजयी पण्डित आये हैं। उनके साथ बहुत-से हाथी-घोड़े तथा विद्वान पण्डित भी हैं।

उनका कहना है, नदिया के विद्वान या तो हमसे शास्त्रार्थ करें, नहीं तो विजय-पत्र लिखकर दे दें। वैसे शास्त्रार्थ करने के लिये तो बहुत-से पण्डित तैयार हैं, किन्तु सुनते हैं, उन्हें सरस्वती सिद्ध है। शास्त्रार्थ के समय सरस्वती उनके कण्ठ में बैठकर शास्त्रार्थ करती है। इसी से वे सम्पूर्ण भारत को विजय कर आये हैं, सरस्वती के साथ भला कौन शास्त्रार्थ कर सकता है? इसलिये उन्हें बड़ा भारी अभिमान है। वे अभिमान में बार-बार कहते हैं- ‘मुझे शास्त्रार्थ में पराजय करने वाला तो पृथ्वी पर प्रकट ही नहीं हुआ है। इसलिये नदिया के सभी पण्डित डर गये हैं।’

विद्यार्थियों की बातें सुनकर पण्डितप्रवर निमाई ने कहा- ‘चाहे किसी का भी वरदान  प्राप्त क्यों न हो, अभिमानी का अभिमान तो अवश्य ही चूर्ण होता है। भगवान का नाम ही मदहारी है, वे अभिमान ही का तो आहार करते हैं। रावण, वेन, नरकासुर, भस्मासुर आदि सभी ने घोर तप करके ब्रह्मा जी तथा शिवजी के बड़े-बड़े वर प्राप्त किये थे। दर्पहारी भगवान ने उनके भी दर्प को चूर्ण कर दिया। अभिमान करने से बड़े-बड़े़ पतित हो जाते हैं, फिर यह दिग्विजयी तो चीज ही क्या है?’ इस प्रकार विद्यार्थियों से कहकर आप गंगा-किनारे चले गये और वहाँ जाकर नित्य की भाँति जल-विहार और शास्त्रार्थ करने लगे। इन्होंने दिग्विजयी के सम्बन्ध में छात्रों से पता लगा लिया कि वह क्या-क्या करता है और एकान्त में गंगाजी पर आता है या नहीं, यदि आता है तो किस घाट पर और किस समय? पता चला कि अमुक घाट पर सन्ध्या-समय दिग्विजयी नित्य आकर बैठता है। निमाई उसी घाट पर अपने विद्यार्थियों के साथ जाने लगे और भी पाठशालाओं के विद्यार्थी कुतूहलवश वहीं आकर शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने लगे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(22)
दिग्विजयी का पराभव

परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।

इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।[1]

अर्थात ~ दूसरे लोग जिसकी प्रशंसा करें तो वह निर्गुण होने पर भी गुणवान हो जाता है और जो अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से करता है, फिर चाहे वह त्रिलोकेश इन्द्र ही क्यों न हो, उसे भी नीचा देखना पड़ता है।

महामहिम निमाई पण्डित  एकान्त में दिग्विजयी पण्डित के साथ वार्तालाप करना चाहते थे, वे भरी सभा में उस मानी और वयोवृद्ध पण्डित की हँसी करना ठीक नहीं समझते थे। प्रायः देखा गया है, भरी सभा में लोगों के सामने अपने सम्मान की रक्षा के निमित्त शास्त्रार्थ करने वाले झूठी बात पर भी अड़ जाते हैं और उसे येन-केन प्रकारेण सत्य ही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य करने के कौशल का ही नाम तो आजकल असल में शास्त्रार्थ करना है। निमाई उससे शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते थे, किन्तु उसे यह बताना चाहते थे कि संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अद्वितीय वस्तु कोई नहीं है। कोई कितना भी अभिमान क्यों न कर ले, संसार में उससे बढ़कर कोई-न-कोई मिल ही जायगा। ब्रह्मा जी की बनायी हुई इस सृष्टि में यही तो विचित्रता है, कहावत है-

मल्लन कूँ मल्ल घनेरे, घर नाहिं तो बाहिर बहुतेरे

अर्थात ‘बलवानों को बहुत-से बलवान मिल जाते हैं, उने समीप उनके समान न भी हों तो बाहर बहुत-से मिल जायँगे।’ इसी बात को जताने के निमित्त निमाई पण्डित  एकान्त में दिग्विजयी से बातें करना चाहते थे। सन्ध्या का समय है, कलकलनादिनी भगवती भागीरथी अपनी द्रुत गति से सदा की भाँति सागर की ओर दौड़ी जा रही हैं, मानो उन्हें संसारी बातें सुनने का अवकाश ही नहीं, वे अपने काम में बिना किसी की परवा किये हुए निरन्तर लगी हुई हैं। कलरव करते हुए भाँति-भाँति के पक्षी आकाश-मार्ग से अपने-अपने कोटरों की ओर उड़े जा रहे हैं। भगवान भुवनभास्कर के अस्ताचल में प्रस्थान करने के कारण विधवा की भाँति सन्ध्या देवी रुदन कर रही है। शोक के कारण उसका चेहरा लाल पड़ गया है, मानो उसे ही प्रसन्न करने के निमित्त भगवान निशानाथ अपनी सोलहों कलाओं सहित गगन में उदित होकर प्राणिमात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं। पुण्यतोया जाह्नवी के वैडूर्य के समान स्वच्छ नील-जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बड़ा ही भला मालूम होता है। प्रायः सभी पाठशालाओं के बहुत-से मेधावी छात्र गंगा जी के जल  के बिलकुल सन्निकट बैठकर शास्त्रचर्चा कर रहे हैं। एक-दूसरे से प्रश्न पूछता है, वह उसका उत्तर देता है, पूछने वाला उसका फिर से खण्डन करता है। उत्तर देने वाले की दस-पाँच विद्यार्थी मिलकर सहायता करते हैं, अब सहायता करने वालों से शास्त्रार्थ छिड़ जाता है। इस प्रकार सब एक-दूसरे को परास्त करने की जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं।

शास्त्रार्थ करने में असमर्थ छात्र चुपचाप उनके समीप बैठकर शास्त्रार्थ के श्रवणमात्र से ही अपने को आनन्दित कर रहे हैं। बहुत-से दर्शनार्थी चारों ओर घिरकर बैठ जाते हैं, कोई-कोई खडे़ होकर भी विद्यार्थियों के वाक्-युद्ध का आनन्द देखने लगते हैं, तब दूसरे विद्यार्थी उन्हें इशारे से बिठा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों में खूब ही शास्त्रालोचना हो रही है। इन सभी छात्रों के बीच निमाई पण्डित मानो सिरमौर हैं। इस शास्त्रार्थ की जान वे ही हैं, वे स्वयं भी विद्यार्थियों में मिलकर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरों को भी उत्साहित करते जाते हैं। दूसरे पंडित एकान्त में दूर खड़े होकर, कोई सन्ध्या का बहाना करके, कोई पाठ के बहाने से निमाई के मुख से निसृत वाक्सुधा का रसास्वादन कर रहे हैं। बहुत-से पण्डित यथार्थ में ही सन्ध्या करके मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों के समीप खड़े हो गये हैं, और एक-दूसरे के विवाद में कभी-कभी किसी की सहायता भी कर देते हैं। इसी बीच दिग्विजयी पण्डित भी अपने दो-चार अन्तरंग पण्डितों के साथ गंगाजी पर आये।

दिग्विजयी का सुन्दर सुहावना गौर वर्ण था, शरीर सुगठित और स्थूल था, बड़ी-बड़ी सुन्दर भुजाएँ, उन्नत वक्षःस्थल और गोल चेहरे के ऊपर बड़ी-बड़ी आँखें बड़ी ही भली मालूम पड़ती थीं। उनके प्रशस्त सुन्दर ललाट पर रोली की एक चैड़ी-सी बिन्दी लगी हुई थी, सिर के बाल आधे पक गये थे, चेहरे से रोब और विद्वत्ता प्रकट होती थी, शरीर में अभिमानजन्य स्फूर्ति थी, केवल एक सफेद कुर्ता पहने नंगे सिर आकर दिग्विजयी ने गंगा जी को प्रणाम किया, आचमन करके वे थोड़ी देर बैठे रहे। फिर वैसे ही मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों की ओर चले गये।

निमाई के समीप के विद्यार्थी ने इशारे से बताया, ये ही वे दिग्विजयी हैं। दिग्विजयी को देखकर निमाई पण्डित ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये आग्रह किया। पहले तो दिग्विजयी ने बैठने में संकोच किया, जब सभी ने आग्रह किया, तो वे बैठ गये। प्रायः मानियों के समीप ही मान-प्रतिष्ठा की परवा की जाती है, जो मान-अपमान से परे हैं उनके समीप मानी-अमानी, मूर्ख-पण्डित सभी समानरूप से जा-आ सकते हैं और उनकी सीधी-सादी बातों में वे मानापमान का ध्यान नहीं करते। इसीलिये तो लड़के, पागल तथा मूर्खों के साथ सभी बेखट के चले जाते हैं, उनसे उन्हें उद्वेग नहीं होता। उद्वेग का कारण तो अन्तरात्मा में सम्मान की इच्छा है। जिसके हृदय में सम्मान की लिप्सा है, वह माननीय लोगों में सम्मान के ही साथ जाना पसन्द करेगा, उसे इस बात का सदा भय बना रहता है, कि वहाँ मेरा अपमान न होने पावे। इसलिये उत्तम आसन का पहले से ही प्रबन्ध करा लेगा, तब वहाँ जाना स्वीकार करेगा।

विद्यार्थी तो मान-अपमान से दूर ही रहते हैं, उन्हें मान-अपमान की कुछ भी परवा नहीं रहती। चाहे विद्यार्थी सभी शास्त्रों को पढ़ चुका हो, जब तक वह पाठशाला में विद्यार्थी बना है, तब तक वह छोटे-से-छोटे विद्यार्थी से भी समानता का ही बर्ताव करेगा। विद्यार्थी-विद्यार्थी सब एक-से। इसीलिये विद्यार्थियों से भी किसी को उद्वेग नहीं होता। इसी कारण विद्यार्थियों के आग्रह करने पर महामानी लोक विख्यात दिग्विजयी पण्डित भी विद्यार्थियों के समीप ही बैठ गये। निमाई पण्डित ने अपना वस्त्र उनके लिये बिछा दिया। दिग्विजयी के सुखपूर्वक बैठ जाने पर सभी विद्यार्थी चुप हो गये। सभी ने शास्त्रार्थ बन्द कर दिया। हँसते हुए दिग्विजयी बोले- ‘भाई, तुम लोग चुप क्यों हो गये, कुछ शास्त्र-चर्चा होनी चाहिये।’ इतने पर भी सब चुप ही रहे। सभी विद्यार्थी धीरे-धीरे निमाई के मुख की ओर देखने लगे। कुछ प्रसंग चलने के निमित्त दिग्विजयी ने निमाई पण्डित से पूछा- ‘तुम किस पाठशाला में पढ़ते हो?’ निमाई इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गये, वे कुछ कहने ही को थे कि उनके समीप बैठे हुए एक योग्य छात्र ने कहा- ‘ये यहाँ के विख्यात अध्यापक निमाई पण्डित हैं।’

प्रसन्नता प्रकट करते हुए दिग्विजयी ने निःसंकोचभाव से उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘ओहो! निमाई पण्डित आपका ही नाम है? आपकी तो हमने बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। आप तो यहाँ के वैयाकरणों में सिरमौर समझे जाते हैं। हाँ, आप ही कोई व्याकरण की पंक्ति सुनाइये।’ हाथ जोड़े हुए नम्रतापूर्वक निमाई पण्डित ने कहा- ‘यह तो आप-जैसे गुरुजनों की कृपा है, मैं तो किसी योग्य भी नहीं। भला, आपके सामने मैं सुना ही क्या सकता हूँ, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य होने के योग्य भी नहीं। आपने संसार को अपनी विद्या-बुद्धि से दिग्विजय किया है। आपके कवित्व की बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। यह छात्र-मण्डली आपके कवित्व के श्रवण करने के लिये बड़ी उत्सुक हो रही है। कृपा करके आप ही अपनी कोई कविता सुनाने की कृपा कीजिये।’

यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित हँसने लगे। पास के दो-चार विद्यार्थियों ने कहा- ‘हाँ, महाराज! हम लोगों की इच्छा को जरूर पूर्ण कीजिये। हम सभी लोग बहुत उत्सुक हैं आपकी कविता सुनने के लिये।’ अब तक दिग्विजयी को नदिया में अपनी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कवित्व-शक्ति के प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त ही नहीं हुआ था। उसे प्रकट करने का सुअवसर समझकर उन्होंने कुछ गर्व मिली हुई प्रसन्नता के साथ कहा- ‘तुम लोग जो सुनना चाहते हो, वही सुनावें।’

इस पर निमाई पण्डित ने धीरे से कहा- ‘कुछ भगवती भागीरथी की महिमा का ही बखान कीजिये जिससे कर्ण भी पवित्र हों और काव्यामृत का भी रसास्वादन हो।’ इतना सुनते ही दिग्विजयी धारा-प्रवाह से गंगा जी के महत्त्व के श्लोक बोलने लगे। सभी श्लोक नवीन ही थे, वे तत्क्षण नवीन श्लोकों की रचना करते जाते और उन्हें उसी समय बोलते जाते। उन्हें नवीन श्लोक बनाने में न तो प्रयास करना पड़ता था, न एक श्लोक के बाद ठहरकर कुछ सोचना ही पड़ता था। जैसे किसी को असंख्य श्लोक कण्ठस्थ हों और वह जिस प्रकार जल्दी-जल्दी बोलता जाय, उसी प्रकार दिग्विजयी श्लोक बोल रहे थे। सभी विद्यार्थी विस्मितभाव से एकटक होकर दिग्विजयी की ओर आश्चर्यभाव से देख रहे थे। सभी के चेहरों से महान आश्चर्य- अद्भुत संभ्रम-सा प्रकट हो रहा था, उन्होंने इतनी विद्या-बुद्धिवाला पुरुष आज तक कभी देखा ही नहीं था।

विद्यार्थियों के भावों को समझकर दिग्विजयी मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होते जाते थे और दूने उत्साह के साथ चमक और अनुप्रासयुक्त श्लोकों को सुमधुर कण्ठ से बोलते जाते थे। एक घड़ी भी नहीं हुई कि वे सौ से अधिक श्लोक बोलकर चुप हो गये। घाट पर सन्नाटा छा गया। गंगा जी का कलरव बंद हो गया, मानो इतनी उतावली गंगा माता भी दिग्विजयी के लोकोत्तर काव्य-रस से प्रवाहित होकर उसे अपने प्रवाह में मिलाने के लिये कुछ काल के लिये ठहर गयी हो। उस नीरवता को भंग करते हुए मधुर और गम्भीर स्वर में निमाई पण्डित बोले- ‘महाराज! हम सब लोग आज आपकी अमृतमयी वाणी सुनकर कृतार्थ हुए।

हमने ऐसा अपूर्व काव्य कभी नहीं सुना था, न आप-जैसे लोकोत्तर कवि के ही कभी दर्शन किये थे। आपके काव्य को आप ही समझ भी सकते हैं। दूसरे की क्या सामर्थ्य है, जो ऐसे सुललित काव्य को यथावत समझ ले। इसलिये इनमें से किसी एक श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष हम और सुनना चाहते हैं।’ कुछ गर्व के साथ हँसते हुए दिग्विजयी ने कहा- ‘केशव की कमनीय कविता में दोष तो दृष्टिगोचर हो ही नहीं सकते। हाँ, व्याख्या कहो तो कर दूँ। बताओ किस श्लोक की व्याख्या चाहते हो’ यह बात दिग्विजयी ने निमाई पण्डित को युक्ति से चुप करने के ही लिये कह दी थी। वे समझते थे मेरे सभी श्लोक नवीन हैं, मैं जल्दी-जल्दी में उन्हें बोलता गया हूँ, ये उनमें से किसी को बता ही न सकेंगे, इसलिये यह बात यहीं समाप्त हो जायगी। किन्तु निमाई भी कोई साधारण पण्डित नहीं थे।

दिग्विजयी यदि भगवती के वर से कविवर हैं, तो ये भी श्रुतिधर हैं। झट से आपने अपने कोमल कण्ठ से यह श्लोक पढ़ा-

महत्त्वं गंगायाः सततमिदमाभाति नितरां

यदेषा श्रीविष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा।

द्वितीयश्रीलक्ष्मीरिव सुरनरैरर्च्यचरणा।

भवानीभर्तुर्या शिरसि विभवत्यद्भुतगुणा।[1]

(इस श्लोक का भाव यह है, कि इस गंगा देवी का महत्त्व सर्वदा देदीप्यमान है? इसी कारण यह बड़ी ही सौभाग्यशालिनी हैं। इनकी उत्पत्ति श्रीविष्णु भगवान के चरण कमल से हुई है। इनके चरणों की द्वितीय लक्ष्मी की भाँति सुर-नरगण सदा पूजा अर्चा करते रहते हैं। वे अदभुत गुण वाली देवी, भवानी के स्वामी श्रीमहादेव जी सिर पर से प्रवाहित हुई हैं।)

इस श्लोक को बोलकर आपने कहा- ‘इसकी व्याख्या और गुण-दोष कहिये।’ निमाई के मुख से अपने श्लोक को यथावत सुनकर दिग्विजयी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, उनका मुख फीका पड़ गया। सभी एकटक होकर निमाई की ओर देखने लगे, मानो दिग्विजयी की श्री, प्रतिभा, कान्ति और प्रभा निमाई के पास आ गयी हो। कुछ बनावटी उपेक्षा-सी करते हुए कहा- ‘आप बड़े चतुर हैं, मैं इतनी जल्दी-जल्दी श्लोक बोलता था, उनके बीच में से आपने श्लोक को कण्ठस्थ भी कर लिया। निमाई ने धीरे से नम्रतापूर्वक कहा- ‘सब आपकी कृपा है, कृपया इस श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष सुनाइये।’

दिग्विजयी ने कहा- ‘यह अलंकार का विषय है, तुम वैयाकरण हो, इसे क्या समझोगे?’

इन्होंने नम्रता के साथ कहा- ‘महाराज! हमने अलंकार-शास्त्र का यथावत अध्ययन नहीं किया है तो उसे सुना तो अवश्य है, कुछ तो समझेंगे ही। फिर यहाँ अलंकार-शास्त्र के ज्ञाता बहुत-से छात्र तथा पण्डित भी बैठे हुए हैं, उन्हें ही आनन्द आवेगा।’ अब दिग्विजयी अधिक टालमटोल न कर सके, वे अनिच्छापूर्वक बेमन से श्लोक की व्याख्या करने लगे। व्याख्या के अनन्तर उपमालंकार और अनुप्रासादि गुण बताकर दिग्विजयी चुप हो गये। तब निमाई पण्डित ने बड़ी नम्रता के साथ कहा- ‘आज्ञा हो और आप अनुचित न समझें तो मैं भी इस श्लोक के गुण-दोष बता दूँ?’ मानो क्रुद्ध सर्प पर किसी ने पाद-प्रहार कर दिया हो, संसार विजयी सरस्वती के वर प्राप्त दिग्विजयी पण्डित के श्लोक में यह युवक अध्यापक दोष निकालने का साहस करता है, उन्होंने भीतर के दोष से बनावटी प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘अच्छा बताओ, श्लोक में क्या गुण-दोष हैं?’

निमाई पण्डित अब श्लोक की व्याख्या करने लगे। उन्होंने कहा- ‘श्लोक बड़ा ही सुन्दर है, वैसे लगाने से तो सैकड़ों गुण-दोष निकल सकते हैं, किन्तु मुख्यरूप से इसमें पाँच गुण हैं और पाँच दोष हैं।’ दिग्विजयी ने झुँझलाकर सिर हिलाते हुए कहा- ‘बताओ न कौन-कौन-से दोष हैं?’ निमाई ने उसी सरलता के साथ कहा- पहले श्लोक के गुण ही सुनिये।

(1) पहला गुण तो इसमें ‘शब्दालंकार’ है। श्लोक के पहले चरण में पाँच ‘तकारों’ की पंक्ति बड़ी ही सुन्दरता के साथ ग्रथित की गयी है। तृतीय चरण में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार ‘भकार’ बड़े ही भले मालूम पड़ते हैं। इन शब्दों के कारण श्लोक में शब्दालंकार-गुण आ गया है।

(2) दूसरा गुण है ‘पुनरुक्तिवदाभास’। पुनरुक्तिवदाभास उस गुण को कहते हैं जो सुनने में तो पुनरुक्ति प्रतीत हो, किन्तु पुनरुक्ति न होकर दोनों पदों के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हों। जैसे श्लोक में ‘श्री-लक्ष्मी-इव’ यह पद आया है। सुनने में तो श्री और लक्ष्मी दोनों समान अर्थवाचक ही प्रतीत होते हैं किन्तु यहाँ श्री और लक्ष्मी का अलग-अलग अर्थ न करके ‘श्रीसे युक्त लक्ष्मी’ ऐसा अर्थ करने से सुन्दर अर्थ भी हो जाता है और साथ ही ‘पुनरुक्तिवदाभास’ गुण भी प्रकट होता है।

(3) तीसरा गुण है ‘अर्थालंकार’। अर्थालंकार उसे कहते हैं, जिसमें अर्थ के सहित उपमा का प्रकाश किया हो। जैसे श्लोक में ‘लक्ष्मीः इव’ अर्थात लक्ष्मी की तरह कहकर गंगा जी को लक्ष्मी की उपमा दी गयी है। इस कारण बड़ा ही मनोहर ‘अर्थालंकार’ है।

(4) चौथा एक और भी ‘अर्थालंकार’ गुण है, उसका नाम है ‘विरोधाभासार्थालंकार’। विरोधाभासरूपी अर्थालंकार उसे कहते हैं कि उपमा-उपमेय एक-दूसरे से बिलकुल विभिन्न गुणवाले हों, जैसे-

अम्बुजमम्बुनि जातं क्वचिदपि न जातमम्बुजादम्बु।

मुरभिदि तद्विपरीतं पादाम्भोजान्महानदी जाता।।

अर्थात जल से तो कमलों की उत्पत्ति होती हुई देखी गयी है, किन्तु कमल से जल कभी उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु भगवान की लीला विचित्र ही है, उनके पाद-पद्मों से जगत्पावनी महानदी उत्पन्न हुई है। यहाँ कमल से जल  की उत्पत्ति का विरोध है, किन्तु भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी प्रकार से समर्थ हैं, इसलिये आपके श्लोक में ‘विष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा’ इस पद से विष्णु भगवान के चरण-कमलों से उत्पत्ति बताने से ‘विरोधाभासरूपी अर्थालंकार’ आ गया है।

(5) पाँचवाँ एक और भी ‘अनुमान’ अलंकार है। श्लोक में साध्य वस्तु गंगाजी का महत्त्व वर्णन करना है। विष्णुपादोत्पत्ति उसका साधन बताकर बड़ा चमत्कारपूर्ण अनुमानालंकार सिद्ध हो जाता है अर्थात ‘विष्णुपादोत्पत्ति वाक्य ही अनुमानालंकार है।’ इस प्रकार पाँच गुणों को बताकर निमाई पण्डित चुप हो गये। सभी अनिमेषभाव से टकट की लगाये निमाई पण्डित की ही ओर देख रहे थे, उन्होंने ये सब बातें बडत्री सरलता और निर्भीकता के साथ कहीं थीं, दिग्विजयी का कलेजा भीतर-ही-भीतर खिंच-सा रहा था, वे उदासीनभाव से गंगाजी की सीढ़ी के घाट की ओर देख रहे थे, मानो वे कह रहे हैं, यह पत्थर यहाँ से हट जाय तो मैं इसमें समा जाऊँ। निमाई पण्डित के गुण बताने पर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। जैसे किसी शास्त्री पण्डित से कह दें आप थोड़ा-सा व्याकरण भी जानते हैं, जैसे उसे इस वाक्य से कोई विशेष प्रसन्नता न होकर और दुःख ही होगा, उसी प्रकार अपने काव्य को सर्वगुणसम्पन्न समझने वाले दिग्विजयी को इन पाँच गुणों के श्रवण से प्रसन्नता की जगह दुःख ही हुआ। उन्होंने कुछ चिढ़कर कहा- ‘अच्छा, ये तो गुण हो गये, अब तुम बता सकते हो तो इसके दोषों को भी बताओ।’_

यह सुनकर उसी गम्भीर वाणी से निमाई पण्डित कहने लगे- गुणों की भाँति दोष भी इसमें अनेकों निकाले जा सकते हैं, किन्तु पाँच मोटे-मोटे दोष प्रत्यक्ष ही हैं। श्लोक में दो स्थानों पर तो ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दो दोष हैं। तीसरा ‘विरुद्धमति’ दोष है, चैथा ‘भग्नक्रम’ ओर पाँचवाँ ‘पुनरुक्ति’ दोष भी है। इस प्रकार ये पाँच दोष मुख्य हैं, अब इनकी व्याख्या सुनिये।

(1) ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष उसे कहते हैं जिसमें ‘अनुवाद’ अर्थात परिज्ञात विषय आगे न लिखा जाय। ऐसा करने से अर्थ में दोष आ जाता है। आपके श्लोक का मूल विधेय है। ‘गंगा जी का महत्त्व’ और ‘इदम्’ शब्द अनुवाद है। आपने ‘अनुवाद’ को पहले न कहकर सबसे पहले ‘महत्त्वं गंगायाः’ जो ‘विधेय’ है उसे ही आगे कह दिया, इससे ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष आ गया।

(2) दूसरा ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष ‘द्वितीयश्रीलक्ष्मी’ इस पद में है। यहाँ पर ‘द्वितीयत्व’ ही ‘विधेय’ है, द्वितीयशब्द ही समास में पड़ गया। समास में पड़ जाने से वह मुख्य न रहकर गौण पड़ गया। इससे शब्दार्थ क्षय हो गया अर्थात लक्ष्मी की समता प्रकाश करना ही अर्थ का मुख्य तात्पर्य था, सो द्वितीय शब्द के समास में पड़ जाने से अर्थ ही नाश हो गया।

(3) तीसरे श्लोक में ‘विरुद्धमति’ दोष है। विरुद्धमति दोष उसे कहते हैं कि कहना तो किसी के लिये चाहते हैं और अर्थ करने पर किसी दूसरे पर घटता है। आपके श्लोक में ‘भवानीभर्तु’ पद आया है, आपका अभिप्राय शंकर जी से है, किन्तु अर्थ लगाने पर महादेव जी का न लगकर किसी दूसरे का ही भास होता है। ‘भवानीभर्ता’ के शब्दार्थ हुए (भवस्य पत्नी भवानी भवान्या भर्ता- भवानीभर्ता) अर्थात शिव जी  की पत्नी का पति। इससे पार्वती जी के किसी दूसरे पति का अनुमान किया जा सकता है। जैसे ‘ब्रह्मणपत्नी के स्वामी को दान दो’ इस वाक्य के सुनते ही दूसरे पति का बोध होता है। काव्य में इसे ‘विरुद्धमति’ दोष कहते हैं, यह बड़ा दोष समझा जाता है।

(4) चौथा ‘पुनरूक्ति’ दोष है। पुनरूक्ति दोष उसे कहते हैं, एक बात को बार-बार कहना- या क्रिया के समाप्त होने पर फिर से उसी बात को दुहराना। आपके श्लोक में ‘विभवति’ क्रिया देकर विषय को समाप्त कर दिया है, फिर भी क्रिया के अन्त में ‘अद्भुतगुणा’ विशेषण दकर ‘पुनरुक्तिदोष’ कर दिया गया है।

(5) पाँचवाँ ‘भग्नक्रम’ दोष है। भग्नक्रम दोष उसे कहते हैं कि दो या तीन पदों में तो कोई क्रम जारी रहे और एक पद में वह क्रम भग्न हो जाये। आपके श्लोक के प्रथम चरण में पाँच ‘तकार’ तीसरे में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार भकारों का अनुप्रास है किन्तु दूसरा चरण अनुप्रासों से रहित ही है। इससे श्लोक में ‘भग्नक्रम’ दोष आ गया।’_

महामहिम निमाई पण्डित बृहस्पति के समान निर्भीक होकर धारा-प्रवाह गति से बोलते जाते थे। सभी दर्शकों के चेहरे से प्रसन्नता की किरणें निकल रही थीं। दिग्विजयी लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे थे। निमाई पण्डित का एक-एक शब्द उने हृदय में शूल की भाँति चुभता था, उससे वे मन-ही-मन व्यथित होते जाते थे, किन्तु बाहर से ऐसी चेष्टा करते थे, जिससे भीतर की व्यथा प्रकट न हो सके, किन्तु चेहरा तो अन्तःकरण का दर्पण है, उस पर तो अन्तःकरण के भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। निमाई पण्डित के चुप हो जाने पर भी दिग्विजयी नीचा सिर किये हुए चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने अपने मुख से एक भी शब्द इनके प्रतिवाद में नहीं कहा।

यह देखकर विद्यार्थी ताली पीटकर हँसने लगे। गुणग्राही निमाई पण्डित ने डाँटकर उन्हें ऐसा करने से निषेध किया। दिग्विजयी को लज्जित और खिन्न देखकर आप नम्रता के साथ कहने लगे- ‘हमने बाल-चापल्य के कारण ये बातें कह दी हैं। आप इनको कुछ बुरा न मानें। हम तो आपके शिष्य  तथा पुत्र के समान हैं। अब बहुत रात्रि व्यतीत हो गयी है, आपको भी नित्यकर्म के लिये देर हो रही होगी। हमें भी अपने-अपने घर जाना है। अब आप पधारें। कल फिर दर्शन होंगे। आपके काव्य को सुनकर हम सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। रही गुण-दोष की बात, सो सृष्टि की कोई भी वस्तु दोष से ख़ाली नहीं है। गुण-दोषों के सम्मिश्रण से ही तो इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है।

कालिदास, भवभूति, जयदेव  आदि महाकवियों के काव्यों में भी बहुत-से दोष देखे जाते हैं। यह तो कुछ बात नहीं है, दोष ही न हों, तो फिर गुणों के महत्त्व को कौन समझे? अच्छा तो आज्ञा दीजिये’ यह कहकर सबसे पहले निमाई पण्डित ही उठ बैठे। इनके उठते ही सभी छात्र भी एक साथ ही उठ खडे़ हुए। सर्वस्व गँवाये हुए व्यापारी की भाँति निराशा के भाव से दिग्विजयी भी उठ खडे़ हुए और धीरे-धीरे उदास-मन से अपने डेरे की ओर चले गये। इधर निमाई पण्डित नित्य की भाँति हँसते-खेलते और चौकड़ी लगाते शिष्यों के साथ अपने स्थान को चले गये।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(23)
दिग्विजयी का वैराग्य

भोगे रोगभयं कुले च्तुतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।[1]

(भोग में रोका भय है, कुछ बढ़ने से उसके च्युत होने का भय है, अधिक धन होने में उससे राजभय है, मौन होने में दीनता का भय है, बल में शत्रु का भय है, रूप में वृद्धावस्था का भय है, शास्त्राभ्यास में वाद-विवाद में हार जाने का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में उसके नष्ट हो जाने का भय है, संसार के यावत पदार्थ सभी भय से भरे पड़े हैं। बस, एक वैराग्य ही भय से रहित है। वैराग्य में किसी का भी भय नहीं। भर्तृहरि वै. श. 35)

जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वादन नहीं किया है, वही लौटा अथवा सीरा में सुख का अनुभव करेगा। जिस स्थान में गुड़ से चीनी या शक्कर बनायी जाती है, उसके बाहर एक बड़ा-सा कुण्ड होता है, उसमें गुड़ का सम्पूर्ण काला-काला मैल छन-छनकर आता है। दूकानदार उस मैल को कारखाने में से सस्ते दामों में खरीद लाते हैं और उसे तंबाकू में कूटकर बेचते हैं। दूकानदार सीरे को काठ के बड़े-बड़े़ पीपों में भरकार और गाड़ी में लादकर ले जाते हैं। काठ के पीपे में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं, उनमें से सीरा रास्ते में टपकता जाता है, हमने अपनी आँखों से देखा है, कि गाँव के ग्वारिया उन बूँदों को उँगलियों से उठाकर चाटते हैं और मिठास की खुशी के कारण नाचने लगते हैं, जहाँ कहीं बड़ी-बड़ी दस-पाँच बूँदें मिल जाती हैं, वहाँ वे प्रसन्नता के कारण उछलने लगते हैं और खुशी में अपने को परम सुखी समझने लगते हैं। यदि उन्हें कहीं मिश्री खाने के लिये मिल जाय तो फिर वे उस बदबूदार सीरे की ओर आँख उठाकर भी न देखेंगे, क्योंकि असली मिठास तो मिश्री में ही है। सीरे में तो उसका मैल है। मिठास के संसर्ग के कारण ही मैल में भी मिठास-सा प्रतीत होता है।

अज्ञानी बालक उसे ही मिठास समझकर खुशी से कूदने लगते हैं। इसी प्रकार असली आनन्द तो वैराग्य में ही है, विषयों में जो आनन्द प्रतीत होता है, वह तो वैराग्य का मैलमात्र ही है, जिसने वैराग्य का रसास्वादन कर लिया, वह इन क्षणभंगुर अनित्य संसारी विषयों में क्यों राग करेगा? वैराग्य का पिता पश्चात्ताप है, पश्चात्ताप के बिना वैराग्य हो ही नहीं सकता। जब किसी महात्मा के संसर्ग में हृदय में अपने पुराने कृत्यों पर पश्चात्ताप होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। वैराग्य का पुत्र त्याग है, त्याग वैराग्य से ही उत्पन्न होता है, बिना वैराग्य के त्याग ठहर ही नहीं सकता। त्याग के सुख नाम का पुत्र है और शान्ति नाम की एक पुत्री। ‘त्यागान्नास्ति परं सुखम्’ त्याग से बढ़कर परम सुख कोई है ही नहीं। त्याग के बिना सुख हो ही नहीं सकता। भगवान भी कहते हैं- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ त्याग के अनन्तर ही शान्ति की उत्पत्ति होती है। अतः इस पूरे परिवार के आदिपुरुष या पूर्वज जनक पश्चात्ताप ही हैं। पश्चात्ताप के बिना इस परिवार की वंशवृद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये तो सत्संग की इतनी महिमा वर्णन की गयी है।

महापुरुषों के संसर्ग में जाने से कुछ तो अपने व्यर्थ के कर्मों पर पश्चात्ताप होगा ही, इसीलिये भगवती श्रुति बार-बार कहती है ‘कृतं स्मर’ ‘कृतं स्मर’ किए हुए का स्मरण करो। असली पश्चात्ताप तो सर्वस्व के नष्ट हो जाने पर या अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु के न प्राप्त होने पर ही होता है। जिन्हें परम सुख की इच्छा है और संसारी पदार्थों में उसका अभाव पाते हैं, वे संसारी सुखों में लात मारकर असली सुख की खोज में पहाड़ों की कन्दराओं में तथा एकान्त स्थानों में रहकर उसकी खोज करने लगते हैं उन्हीं को विरागी कहते हैं। दिग्विजयी पण्डित कैशव काश्मीरी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं संसार में सर्वोत्तम ख्याति लाभ करूँ, भारतवर्ष में मैं ही सर्वश्रेष्ठ कवि और पण्डित समझा जाऊँ। इसी के लिये उन्होंने देश-विदेशों में घूमकर इतनी इज्जत-प्रतिष्ठा और धूम-धाम की सामग्री एकत्रित की थी, आज एक छोटी उम्र के युवक अध्यापक ने उनकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। उनकी इतनी ऊँची आशा पर एकदम पानी फिर गया। उनकी इतनी जबरदस्त ख्याति अग्नि में जलकर खाक हो गयी, इससे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ।

गंगा जी से लौटकर वे चुपचाप आकर पलँग पर पड़ रहे। साथियों ने भोजन के लिये बहुत आग्रह किया किन्तु तबीयत खराब होने का बहाना बताकर उन्होंने उन लोगों से अपना पीछा छुड़ाया। वे बार-बार सोचते थे- ‘आज मुझे हो क्या गया? बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान मेरे सामने बोल नहीं सकते थे, अच्छे-अच्छे शास्त्री और आचार्य मेरे प्रश्नों का उत्तर देना तो अलग रहा, यथावत प्रश्न को समझ भी नहीं सकते थे, पर आज गंगा-किनारे उस युवक अध्यापक के सामने मेरी एक भी न चली। मेरी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, उसकी एक बात का भी मुझसे उत्तर देते नहीं बना। मेरी समझ में नहीं आता यह बात क्या है?’ उन्हें बार-बार सरस्वती देवी के ऊपर क्रोध आने लगा।

वे सोचने लगे- ‘मैंने कितने परिश्रम से सरस्वती मन्त्र का जाप किया था, सरस्वती ने भी प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे वरदान दिया था, कि मैं शास्त्रार्थ में सदा तुम्हारी जिह्वा पर निवास किया करूँगी, आज उसने अपना वचन कैसे झूठा कर दिया, आज वह मेरी जिह्वा पर से कहाँ चली गयी?’ इसी अधेड़-बुन में वे उसी देवी के मन्त्र का जप करने लगे और जप करते-करते ही सो गये। स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है।

स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है। इसे तुम्हें इस दिग्विजय का और मेरे दर्शनों का फल ही समझना चाहिये। यदि आज तुम्हारी पराजय न होती तो तुम्हारा अभिमान और भी अधिक बढ़ता। अभिमान ही नाश का मुख्य हेतु है। तुम निमाई पण्डित को साधारण पण्डित ही न समझो। वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, वे नररूपधारी श्रीहरि ही हैं, उन्हीं की शरण में जाओ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा और तुम इस मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो सकोगे।’

इतने में ही दिग्विजयी की आँखें खुल गयीं। देखते क्या हैं भगवान भुवनभास्कर प्राचीदिशि में उदित होकर अपनी जगन्मोहिनी हँसी के द्वारा सम्पूर्ण संसार को आलोक प्रदान कर रहे हैं। पण्डित केशव काश्मीरी को प्रतीत हुआ मानो मरीचिमाली भगवान मेरे पराभव के ही ऊपर हँस रहे हैं। वे जल्दी से कुर्ता पहनकर नंगे सिर और नंगे पैरों अकेले ही निमाई के घर की ओर चले। रास्ते में जो भी इन्हें इस वेश में जाते देखता, वही आश्चर्य करने लगता।

राजा-महाराजाओं की भाँति जो हाथी पर सवार होकर निकलते थे, जिनके हाथी के आगे-आगे चोबदार नगाड़े बजा-बजाकर आवाज देते जाते थे, वे ही दिग्विजयी पण्डित आज नंगे पैरों साधारण आदमियों की भाँति नगर की ओर कहाँ जा रहे हैं? इस प्रकार सभी उन्हें कुतूहल की दृष्टि से देखने लगे। कोई-कोई तो उनके पीछे भी हो लिये। नगर में जाकर उन्होंने बच्चों से निमाई पण्डित के घर का पता पूछा। झुंड-के-झुंड लड़के उनके साथ हो लिये और उन्होंने निमाई पण्डित का घर बता दिया।

उस समय गौर गंगा-स्नान करके तुलसी में जल दे रहे थे। सहसा दिग्विजयी पण्डित को सादे वेश में अकेले ही अपने घर की ओर आते देख उन्होंने दौड़कर उनका स्वागत किया। दिग्विजयी आते ही प्रभु के चरणों में गिर गये। प्रभु ने जल्दी से उन्हें उठाकर छाती से लगाते हुए कहा- ‘हैं हैं, महाराज! यह आप कर क्या रहे हैं? मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। आप जगत-पूज्य हैं, आप ऐसा करे मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? आप मुझे आशीर्वाद दीजिये, आप ही मेरे पूजनीय और परम माननीय हैं।’

गद्गद-कण्ठ से दिग्विजयी ने कहा- ‘प्रभो! मान-प्रतिष्ठा की भयंकर अग्नि में दग्ध हुए इस पापी को और अधिक सन्ताप न पहुँचाइये। इस प्रतिष्ठारूपी सूकरी-विष्ठा को खाते-खाते पतित हुए इस नारकीय को और अधिक पतित न बनाइये। अब मेरा उद्धार कीजिये।’ प्रभु उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गये और बड़े सत्कार से उन्हें बिठाकर कहने लगे- ‘आपने यह क्या किया, पैदल ही यहाँ तक कष्ट किया, मुझे आज्ञा भेज देते तो मैं स्वयं ही आपके डेरे पर उपस्थित होता।

मालूम होता है, आप मुझे सम्मान प्रदान करने और मेरी टूटी-फूटी कुटिया को पवित्र करने के ही निमित्त यहाँ पधारे हैं। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ। आज यह घर पवित्र हुआ। मेरी विद्या सफल हुई जो आप ऐसे महापुरुषों के चरण यहाँ पधारे।’

दिग्विजयी पण्डित नीचे सिर किये चुपचाप प्रभु की बातें सुन रहे थे। वे कुछ भी नहीं बोलते थे। इसलिये प्रभु ने धीरे-धीरे फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘कल मुझे पीछे से बड़ी लज्जा आयी। मैंने व्यर्थ में ही कुछ कहकर आपके सामने धृष्टता की, आप कुछ और न समझें। आपने सुना ही होगा, मेरा स्वभाव बड़ा ही चंचल है। जब मैं कुछ कहने लगता हूँ तो आगे-पीछे की सब बातें भूल जाता हूँ। बस, फिर बकने ही लगता हूँ! छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। इसी कारण कल कुछ अनुचित बातें मेरे मुख से निकल गयी हों तो उनके लिये मै। आपसे क्षमा चाहता हूँ।’

दिग्विजयी ने अधीर होकर कहा- ‘प्रभो! अब मुझे अधिक वंचित न कीजिये। मुझे सरस्वती देवी ने रात्रि में सब बातें बता दी हैं, अब मेरे उद्धार का उपाय बताइये।’ प्रभु ने कहा- ‘आप कैसी बातें कह रहे हैं? आप शास्त्रों के मर्म को भलीभाँति जानते हैं, फिर भी मुझे सम्मान देने की दृष्टि से आप पूछते ही हैं, तो मैं निवेदन करता हूँ। असल में मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य तो उसी को समझना चाहिये जिसके द्वारा प्रभु के पाद-पद्मों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हो। यह जो आप हाथी-घोड़ों को साथ लिये घूम रहे हैं, यह भी ठीक ही है, किन्तु इनसे संसारी भोगों की ही प्राप्ति हो सकती है। भगवत-प्राप्ति में ये बातें कारण नहीं बन सकतीं। आप तो सब जानते ही हैं-

वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।

विदुषामिह वैदुष्यं भुक्तये न तु मुक्तये।।

अर्थात् सुन्दर सुललित सौष्ठवयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देने की युक्ति ये सब मनुष्य को संसारी भोगों की ही प्राप्ति करा सकती हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति नहीं हो सकती।

संसारी प्रतिष्ठा का महत्त्व ही क्या है? जो चीज आज है और कल नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। महाराज भर्तृहरि ने इस बात को भलीभाँति समझा था। वे स्वयं राजा थे, सब प्रकार के मान-सम्मान और संसारी भोग-पदार्थ उन्हें प्राप्त थे। उनकी राजसभा में बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान दूर-दूर से नित्यप्रति आया ही करते थे। इसीलिये उन्हें इन सब बातों का खूब अनुभव था, वे सब जानते थे कि इतने भारी-भारी विद्वान इज्जत-प्रतिष्ठा और अनित्य तथा दुःख का मुख्य हेतु बताने वाले धन के किस प्रकार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते रहते हैं।

इन्हीं सब कारणों से उन्हें परम वैराग्य हुआ। और उन्होंने अपने परम अनुभव की बात इस एक ही श्लोक में बता दी है-

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः

स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।

मुक्त्वैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं

स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।।[1]

इन श्रुति, स्मृति, पुराण और बड़े विस्तार के साथ शास्त्रों के ही पठन-पाठन में जिन्दगी को लगाये रहने से क्या होता है। बस इनसे स्वर्गरूपी ग्राम में एक कुटी बनाकर भोगों को भोगने का ही अवसर मिल जाता है।

इस कर्मकाण्ड के क्रिया-कलापों में कालयापन करने से क्या लाभ? जो इस दुःखरचना से युक्त संसार-बन्धन को विध्वंस करने में प्रलयाग्नि के समान तेजोमय हैं ऐसे प्रभु के पाद-पद्मों को नैरन्तर्य भाव से सेवन करते रहने के अतिरिक्त ये सभी कार्य वैश्यों के-से व्यापार हैं। एक चीज को देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना है। असली वस्तु तो प्रभु की प्राप्ति ही है। उसी के लिये उद्योग करना चाहिये।’

दिग्विजयी ने कहा- ‘अब आप हमें हमारा कर्तव्य बता दीजिये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिये। अब इन वणिक-व्यापार से तो एकदम घृणा हो गयी है।’

प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘आप शास्त्रज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं। शास्त्र में सभी विषय भरे पड़े हैं, आपसे कोई विषय छिपा थोड़े ही है, किन्तु हाँ, इसे मैं आपका परम सौभाग्य ही समझता हूँ कि इतनी बड़ी भारी प्रतिष्ठा से आपको एकदम वैराग्य हो गया है, लोग पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो छोड़ भी सकते हैं, किन्तु लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि बड़े-बड़े महापुरुष भी इसे छोड़ने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं होते। श्रीहरि भगवान की आपके ऊपर यह परम असीम कृपा ही समझनी चाहिये कि आपको इसकी ओर से भी वैराग्य हो गया। मैं तो परमसुखस्वरूप प्रभु की प्राप्ति में इसे ही मुख्य समझता हूँ। मैंने तो इस श्लोक को ही कर्तव्यता का मूलमन्त्र समझ रखा है-

धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्

सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।

अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा

सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।[2]

धर्म का आचरण करो और विषयवासनारूपी जो लोकधर्म हैं उन्हें छोड़ दो। सत्पुरुषों का निरन्तर संग करो और हृदय से भोगों की इच्छा को निकालकर बाहर फेंक दो।

दूसरों के गुण-दोषों का चिन्तन करना एकदम त्याग दो। श्रीहरि की सेवा-कथारूपी जो रसायन है उसका निरन्तर पान करते रहो। बस, इसी को मैंने तो मनुष्यमात्र का कर्तव्य समझा है। इसके अतिरिक्त आपने जो समझा हो, उसे कृपा करके मुझे बताइये।’ श्रीमद्भागवत के माहात्म्य का यह श्लोक केशव पण्डित ने अनेक बार पढ़ा होगा और उसका प्रयोग भी हजारों बार अपने व्याख्यानों में किया होगा, किन्तु वे इसका असली अर्थ तो आज ही समझे। उनके कानों में यह पद-

अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा।

सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।

-बार-बार गूँजने लगा। प्रभु की आज्ञा लेकर और उनके उपदेश को ग्रहण करके दिग्विजयी पण्डित अपने डेरे पर आये। उनके पास जितने हाथी, घोड़े  तथा अन्य साज-बाज के सामान थे, वे सभी उन्होंने उसी समय लोगों को बाँट दिये और अपने सभी साथियों को विदा करके वे भगवत-चिन्तन के निमित्त कहीं चले गये। इनका फिर पीछे किसी को पता नहीं चला। दिग्विजयी के पराभव से सभी लोग निमाई पण्डित की बड़ी प्रशंसा करने लगे और सभी पण्डितों ने मिलकर उन्हें ‘वादिसिंह’ की उपाधि प्रदान करना चाहा। इस प्रकार निमाई पण्डित की ख्याति और भी अधिक फैल गयी और उनकी पाठशाला में अब पहले से बहुत अधिक छात्र पढ़ने के लिये आने लगे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(24)
सर्वप्रिय निमाई

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।[1]

जिसे देखकर लोगों के मन में किसी प्रकार का भय या डर नहीं होता और जो दूसरों से भी किसी प्रकार की शंका नहीं करता, उनके सामने निर्भीकता के साथ बर्ताव करता है। जिसके लिये प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही समान हैं, वह संसारी मनुष्य कभी हो ही नहीं सकता। वह तो भगवान का अत्यन्त ही प्रिय नित्य शुद्ध मुक्तस्वरूप है। गीता 12/15

न तो बाह्य सौन्दर्य ही सौन्दर्य है और न बाह्य पवित्रता ही असली पवित्रता है। जिसका हृदय शुद्ध है, उसमें तनिक भी विकार नहीं है तो वह बदसूरत होने पर भी सुन्दर प्रतीत होता है, लोग उसके आन्तरिक सौन्दर्य के कारण उस पर मुग्ध हो जाते हैं और उसके इशारे पर नाचने लगते हैं। भीतर की पवित्रता ही चेहरे पर झलकने लगती है। उस पवित्रता में मोहकता है, इसी से लोग उनके वश में हो जाते हैं। यदि हृदय भी स्वच्छ शीशे की भाँति निर्मल हो और देह की कान्ति भी कमनीय और मनोहर हो तब तो उस देवतुल्य मनुष्य की मोहकता का कहना ही क्या है। फिर तो सोने में सुगन्ध ही है। ऐसा कौन सहृदय पुरुष होगा, जो ऐसे पुरुष के गुणों का प्रशंसक नहीं बन जाता। यदि ऐसा पुरुष प्रसन्नचित्त और चुलबुले स्वभाव का भी हो, तब तो सभी लोग उससे आत्मीय की भाँति स्नेह करने लगते हैं और उससे किसी भी मनुष्य को संकोच अथवा उद्वेग नहीं होता। बच्चे से लेकर बूढे़ तक उससे खिलावाड़ करने लगते हैं।

निमाई पण्डित में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान थे। उनका हृदय अत्यन्त ही कोमल और बड़ा ही विशाल था, उसमें मनुष्यमात्र के ही लिये नहीं, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और ममता के भाव भरे हुए थे, उनका शरीर सुगठित, सुन्दर और शोभायुक्त था। वे इतने अधिक सुन्दर थे कि मनुष्य उनके सौन्दर्य को ही देखकर मोहित हो जाते थे। चेहरे पर कभी सिकुड़न ही नहीं पड़ती थी। हर समय हँसते ही रहते और साथियों को भी अपनी विनोदपूर्ण बातों से सदा हँसाते रहते थे। स्वभाव में इतना चुलबुलापन था कि छोटे-छोटे बच्चों के स्वभाव को भी मात कर देते थे। इन्हीं सब कारणों से नगर के सभी लोग इनसे आन्तरिक स्नेह रखते थे, जो भी इन्हें देख लेता वही प्रसन्नता से खिल उठता। सभी जानते थे, निमाई अब बालक नहीं हैं, वे नवद्वीप के एक नामी पण्डित हैं, इन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजयी पण्डित को परास्त किया है, ये अपने लोकोत्तर प्रतिभा के कारण बंगाल के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये हैं।

सैकड़ों छात्र इनके पास विद्याध्ययन करने आते हैं, फिर भी वे उन्हें अपना एक साथी तथा प्रेमी ही समझते थे। उन लोगों को यह खयाल कभी नहीं होता था कि ये बड़े आदमी हैं, इनके साथ सम्मान और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिये। ये यदि शिष्टाचार या सम्मान करना भी चाहें तो निमाई पण्डित उन्हें ऐसा करने का अवकाश ही कब देने वाले थे। ये उन सबसे बिना बात ही छेड़खानी करते। बड़े-बड़े लोगों से परिहास करने में नहीं चूकते थे। इनके सभी कार्य विचित्र होते और उनसे सभी को प्रसन्नता होती। ये नवद्वीप के प्रत्येक मुहल्ले में घूमते। कभी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जा रहे हैं और उस मुहल्ले से इसमें। रास्ते में जो भी मिल जाता है उसी से कुछ-न-कुछ छेड़खानी करते हैं।

बड़े लोग कहते हैं- ‘पण्डित! अब थोड़ी गम्भीरता भी सीखनी चाहिये, हर समय लड़कपन ठीक नहीं होता। अब तुम एक गण्यमान्य पण्डित हो गये हो।’ ये झूठा आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए कहते, ‘हाँ, सचमुच अब हमारी गणना पण्डितों में होने लगी है, हमें तो पता भी नहीं। यदि ऐसी बात है तो हम कहीं जाकर किसी से गम्भीरता जरूर सीखेंगे।’ कहने वाले बेचारे अपना-सा मुँह लेकर चले जाते। ये विद्यार्थियों के साथ हँसते-खेलते फिर उसी भाँति चले जाते। इनका नगर-भ्रमण बड़ा ही मनोहर होता। देखने वाले इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह जाते। तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर था, उस पर एक हलकी-सी बनियायिन रहती। चैड़ी काली किनारी की नीचे तक लटकती हुई सफेद धोती के ऊपर एक हल्के-से पीले रंग की चादर ओढे़ रहते। मुख में पान की बीरी है, बाँये हाथ में पुस्तक है, दाहिने में एक हलकी-सी छड़ी है। साथ में दस-पाँच विद्यार्थी हैं, उनसे बातें करते हुए चले जा रहे हैं, बीच-बीच में कभी इधर-उधर भी देखते जाते हैं। किसी कपड़े वाले की दूकान को देखकर उस पर जा बैठते हैं। कपड़े वाला पूछता है- ‘कहिये महाराज! क्या चाहिये?’ आप हँसते हुए कहते हैं- ‘जो यजमान की इच्छा, जो दे दोगे वही ले लेंगे।’ दूकानदार हँसी समझता और चुप हो जाता। कोई-कोई दूकानदार जबरदस्ती इनके सिर कपड़ा मँढ़ देता।

आप उससे कहते- ‘लेने को तो हम लिये जाते हैं, किन्तु पास में पैसा नहीं है। उधार किसी से न कभी चीज ली है न लेते हैं। दामों की आशा न रखना।’ दूकानदार हाथ जोड़कर श्रद्धा के साथ कहते- ‘हमारा अहोभाग्य आप पहनेंगे, तो हमारा यह व्यवसाय भी सफल हो जायगा। यह कपड़ा और लेते जाइये। इसके किसी गरीब छात्र के वस्त्र बनवा दीजियेगा।’ ये प्रसन्नतापूर्वक उन वस्त्रों को ले आते। कोई-कोई दूकानदार इनसे कटाक्ष भी करता- ‘पैसा पास नहीं है, कपड़े खरीदने चले हैं।’ आप हँसते हुए कहते- ‘पैसा ही पास होता तो फिर तुम्हारी ही दूकान कपड़ा खरीदने को रही थी? फिर तो जी चाहता वहीं से खरीद लाते।’ कभी किसी गरीब वस्त्र बनाने वाले के यहाँ जाते। उसका थान देखते, उससे दाम पूछते और कहते- ‘दाम तो हमारे पास है नहीं, बोलो, वैसे ही दोगे’- वह श्रद्धा के साथ कहता, ‘हाँ, ले जाइये महाराज! आपका ही तो है।’ वे हँसते हुए चले आते।

इनके नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती के पास बहुत-से अहीरों के घर थे। वे दूध बेचने का व्यवसाय करते। आप उनके घरों में चले जाते और जिस अहीर को भी पाते उसी से कहते- ‘मामा! आज दूध नहीं पिलाओगे क्या?’ वे इन्हें बड़े सत्कार से अपने घरों को ले जाते। सभी मिलकर विद्यार्थियों के सहित इनका खूब सत्कार करते। कोई ताजा दूध पिलाता। कोई दही लाकर इनके सामने रख देता और थोड़ा खा लेने का आग्रह करता। ये निस्संकोच भाव से खाने लगते।

किसी स्त्री को देखकर कहते ‘मामी! तेरा दही तो खट्टा है, थोड़ी चीनी डाल देती तो स्वाद बन जाता।’ यह सुनकर कोई चीनी लेने दौड़ती। चीनी घर में न होती तो गुड़ ही ले आती। ये हँसते-हँसते गुड़ के साथ दही  पीने लगते। विद्यार्थियों को भी दूध-दही पिलाते और फिर हँसते-हँसते पाठशाला की ओर चले आते। विशेषकर ये सीधे-सादे वैष्णवों को और सरल स्वभाव वाले दूकानदारों को खूब छेड़ते। दूकानदारों को भी इनके साथ छेड़खानी करने में आनन्द आता। एक पान वाले से इनका सदा झगड़ा ही बना रहता। ये उससे मुफ्त ही पान माँगा करते और वह मुफ्त देने से इनकार किया करता। तब ये अपने हाथ से ही उठा लेते। पान वाला हँस पड़ता, ये तब तक पान को चट कर जाते। पान वाले को ऐसा करने में नित्य नया ही आनन्द प्रतीत होता था, अतः यह झगड़ा प्रायः रोज ही हुआ करता। कभी तो दिन में दो-दो, तीन-तीन बार हो जाता। पान वाला बड़ा ही सरल और कोमल प्रकृति का पुरुष था।

वह इन्हें पुत्र की तरह मन-ही-मन चाहता था। वहीं श्रीधर नाम के एक भक्त दूकानदार थे। वे अत्यन्त ही गरीब थे, किन्तु थे परम वैष्णव। उनके पास रहने वाले उनके कारण बहुत ही परेशान रहते। वे रातभर खूब जोरों के साथ भगवन्नाम का कीर्तन करते रहते। पड़ोसियों की रात में जब भी आँखें खुलतीं तभी इन्हें भगवन्नाम का कीर्तन करते ही पाते। कोई कहता- ‘भाई, इस बूढे़ के कारण तो हम बड़े परेशान हैं, रातभर चिल्लाता रहता है, सोने ही नहीं देता?’ कोई कहता- ‘भगवान जाने इसे नींद क्यों नहीं आती। दिनभर तो दूकानदारी करता है और रातभर चिल्लाता रहता है, यह सोता किस समय है?’

कोई-कोई इनके पास जाकर कहते- ‘बाबा! भगवान बहिरा थोड़े ही है, जरा धीरे-धीरे भजन किया करो।’ ये कहते- ‘बेटा! धीरे-धीरे कैसे करूँ, तुम सब लोग तो दिन-रात काम में ही जुटे रहते हो, कभी भगवान का घड़ी भर को भी नाम नहीं लेते। इसलिये जिह्वा से नहीं ले सकते तो कान से तो सुनोगे ही, इसीलिये मैं जोर-जोर से भगवन्नाम का उच्चारण करता हूँ जिससे तुम सबों के कानों में भगवन्नाम पड़ जाय।’ इस प्रकार ये किसी की भी बात नहीं सुनते और हमेशा भगवान के मधुर नामों का उच्चारण करते रहते। ये केले के पत्ते ओर केले के भीतर के कोमल-कोमल कोपलों को बेचा करते। बंगाल में कोमल कोपलों का साग बनाया जाता है।

निमाई इनसे रोज ही आकर छेड़खानी किया करते। इनके खोल को उठा लेते और कहते- ‘पैसे के कितने खोल दोगे?’ वे कहते- ‘चार देंगे।’ तब आप कहते- ‘अजी आठ दो। सब जगह आठ-आठ तो बिक ही रहे हैं।’ श्रीधर कहते- ‘पण्डित! यह रोज-रोज की छेड़खानी अच्छी नहीं होती। जहाँ आठ बिक रहे हों, वहीं से जाकर ले आओ। हमने तो चार ही बेचे हैं, चार ही देंगे। तुम्हारी राजी पड़े ले जाओ, न राजी हो मत ले जाओ, झगड़ा करने से क्या फायदा?’

आप कहते- ‘हमें तो तुम्हारे ही खोल बहुत प्रिय लगते हैं, तुम्हीं से लेंगे और आठ ही लेंगे।’

श्रीधर कहते- ‘देखो, तुम अब सयाने हुए। ये बातें अच्छी नहीं होतीं। तुम्हें आठ दे देंगे तो फिर सभी आठ ही माँगेंगे। यदि ऐसी ही बात है, तो हम तुम्हें बिना ही मूल्य खोल दिया करेंगे।’

निमाई हँसते हुए कहते- ‘वाह! फिर कहना ही क्या है?’ नेकी और पूछ-पूछकर’ ‘मीठा और भर कठौता’ बस, यही तो हमें चाहिये।’

फिर कहते- ‘हमारी पूजा नहीं करते, माला हमें भी दिया करो’।

श्रीधर कहते- ‘माला तो मैं देवता के ही लिये लाता हूँ, गंगाजी के लिये पुष्प लाता हूँ, तुम्हें पुष्प-माला कैसे दूँ?’

आप कहते- ‘सबसे बड़े देवता तो हमी हैं, हमसे बढ़कर देवता और कौन हो सकता है? गंगा जी तो हमारे चरणों का धोवन हैं।’ यह सुनकर श्रीधर कानों पर हाथ रख लेते और दाँतों से जीभ काटते हुए कहते- ‘हाय पण्डित! पढ़े-लिखे होकर ऐसी बातें कहते हो! ऐसी बात के कहने से पाप होता है। तुम ब्राह्मण के कुमार होकर ऐसी पाप की बातें अपने मुँह से निकालते हो!’ कालान्तर में यही श्रीधर महाप्रभु गौरांग के अनन्य भक्त हुए और इन्होंने अन्त में उन्हें ईश्वर करके माना और अपने इन वाक्यों के लिये बहुत ही पश्चात्ताप प्रकट किया।

प्रभु इनसे अत्यन्त ही स्नेह रखते थे। गौर-भक्तों में श्रीधर का खोल बहुत ही प्रसिद्ध था। गौर को श्रीधर के खोल के बिना सभी व्यंजन रुचिकर ही नहीं होते थे। एक दिन ये घर की ओर जा रहे थे, रास्ते में पण्डित श्रीवास जी मिले। श्रीवास पण्डित अद्वैताचार्य के साथी और स्नेही थे। पण्डित जगन्नाथ मिश्र के ये अभिन्न मित्र थे, इनकी पत्नी मालती देवी और ये निमाई को सगे पुत्र  की भाँति प्यार करते थे। ये भी इन दोनों में माता-पिता के समान श्रद्धा रखते थे। श्रीवास पण्डित को देखकर इन्होंने उन्हें प्रणाम किया।

पण्डित जी ने इन्हें आशीर्वाद दिया और बड़े ही प्रेम के साथ बोले- ‘निमाई! देखो, अब तुम बालक नहीं हो, यह बाल-चापल्य तुम्हें शोभा नहीं देता। इस तरह से उच्छृंखलता का जीवन बिताना ठीक नहीं। कुछ भक्तिभाव भी सीखना चाहिये। तुम्हारे पिता तो परम वैष्णव थे।

इन्होंने सरलता से कहा- ‘अभी थोड़े दिन और इसी तरह मौज कर लेने दो, फिर इकट्ठे ही वैष्णव बनेंगे और ऐसे वैष्णव बनेंगे कि वैष्णवों की तो बात ही क्या है, साक्षात विष्णु भी हमारे पास आया करेंगे।’

इनकी बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘आगे और कब होगे? अभी से कुछ भक्तिभाव करना चाहिये। किसी देवी-देवता में श्रद्धा रखते हो?’ इन्होंने कहा- ‘किस देवता में श्रद्धा रखें, आप ही कृपा करके बताइये?’

श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘जिसमें तुम्हारी श्रद्धा हो। देवपूजा करनी चाहिये और भगवन्नाम का यथाशक्ति जप करना चाहिये।’

निमाई जानते थे, कि वैष्णव ‘सोऽहम्’ और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इन वाक्यों से चिढ़ते हैं। इसलिये श्रीवास पण्डित को चिढ़ाने के लिये कहने लगे- ‘सोऽहम्’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ हमारी तो इन्ही महावाक्यों पर श्रद्धा है। जब हम ही ब्रह्म हैं तब पूजा किसकी करें और जप किसके नाम का करें, आप ही बताइये?’

यह सुनकर श्रीवास पण्डित ने कानों पर हाथ रख लिया और बोले- ‘वैष्णव के पुत्र को ऐसी बात मुख से नहीं कहनी चाहिये। तुम तो लड़कपन किया करते हो।’ इतना सुनकर ये यह कहते हुए घर की ओर चले गये कि ‘अच्छा, किसी दिन देख लेना, हम कैसे वैष्णव बनते हैं, तब तुम हमारे पीछे-ही-पीछे लगे डोलोगे।’

इन्होंने यह बातें हँसी में कही थीं, किन्तु श्रीवास पण्डित को इन बातों से कुछ आशा-सी हुई। वे सोचने लगे- ‘यदि निमाई- जैसे पण्डित, मेधावी और सर्वप्रिय पुरुष वैष्णव बन जायँ तो वैष्णवधर्म का देशभर में झंडा फहराने लगे। अनाथ वैष्णव भक्त सनाथ हो जायँ।’ वे यही सोचते-विचारते गंगा जी  की ओर चले गये। कालान्तर में श्रीवास पण्डित के विचार सत्य ही हो गये। वैष्णव-धर्म की विजय-दुन्दुभि से सम्पूर्ण देश गूँजने लग गया और भक्ति-भागीरथी की एक ऐसी भारी बाढ़ आयी जिसके कारण सभी विषमता दूर होकर चारों ओर समता का साम्राज्य स्थापित हो गया।

लजाते हुए नीचे की ओर दृष्टि करते हुए धीरे से कन्या ने कहा- ‘विष्णुप्रिया’।

माता ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘अहा, ‘विष्णुप्रिया’  कैसा सुन्दर नाम है? जैसा सुन्दर शील-स्वभाव है उसी के अनुरूप सुन्दर नाम भी।’ फिर पूछा- ‘बेटी! तेरे पिता का क्या नाम है’? विष्णुप्रिया यह सुनकर चुपचाप ही खड़ी रहीं। उन्होंने इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब शचीमाता ने पुचकारते हुए कहा- ‘बता दे बेटी! बताने में क्या हर्ज है, क्या नाम है तेरे पिता का?’

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(25)
विष्णुप्रिया-परिणय

रूपसम्पन्नमग्राम्यं प्रेमप्रायं प्रियंवदम्।

कुलीनमनुकूलं च कलत्रं कुत्र लभ्यते।।[1]

रूप और सदगुणों से सम्पन्न, सभ्या अथवा सदव्यवहार में सुचतुर, अत्यन्त प्रेमयुक्त, सुन्दर वचन बोलने वाली, अच्छे कुल में उत्पन्न हुई तथा पति के मनोऽनुकूल आचरण करने वाली पत्नी बड़े भाग्य से ही मिलती है। सु. र. भां. 336/5

बहू के बिना घर सूना-ही-सूना लगता है, इसका अनुभव वही माता कर सकती है, जिसके घर में एक ही पुत्र हो और उसकी सर्वगुणसम्पन्ना पुत्र-वधू परलोकगामिनी हो चुकी हो, उसे चारों ओर से अपना ही घर उजड़ा हुआ-सा दिखायी पड़ता है, घर की लिपी-पुती स्वच्छ दीवालें उसे काटने को दौड़ती हैं। एकलौते पुत्र को देखते ही माता की छाती फटने लगती है और जब-जब पुत्र को स्वयं अपने हाथों से कुछ काम करते देखती है, तभी-तब अश्रुओं से अपनी छाती को भिगोती है। पुत्र-वधू से रहित युवक पुत्र को देखकर माता को महान कष्ट होता है। शचीमाता की भी ऐसी ही दशा थी, जब से लक्ष्मीदेवी परलोकगामिनी हुई हैं, तभी से माता का चित्त उदास रहता है। वे निमाई को देखते ही रोने लगती हैं। निमाई मन-ही-मन सब समझते हैं, किन्तु कुछ कहते नहीं हैं, चुप ही रहते हैं, कहें भी तो क्या कहें?

माता को सदा यही चिन्ता रहती है कि निमाई के योग्य कोई सुन्दरी और गुणवती कुलीन कन्या मिल जाय तो मैं जल्दी-से-जल्दी उसका दूसरा विवाह करके अपने घर को पहले की भाँति हरा-भरा, आनन्द उल्लासयुक्त देख सकूँ। वे गंगा-किनारे जब-जब जातीं तभी-तब वहाँ स्नान करने के निमित्त आयी हुई अपनी सजातीय सयानी कन्याओं के ऊपर एक हलकी-सी दृष्टि डालतीं और फिर निगाह नीची कर लेतीं। इस प्रकार वे रोज ही अपनी नवीन पुत्र-वधू की उन कन्याओं में खोज किया करतीं।

उन्हीं कन्याओं के बीच में वे एक परम सुन्दरी और सुशीला कन्या को भी देखतीं, वह कन्या प्रायः शचीदेवी को रोज ही मिलती। सुबह, शाम, दोपहर को जब भी शची माता  स्नान के निमित्त आतीं तभी उस कन्या को घाट पर देखतीं, कभी तो वह स्नान करती होती, कभी देव-पूजन और कभी-कभी स्नान करके घर को जाती हुई शची देवी को मिलती। वह कन्या शची माता को जब भी देखती तभी वह बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करती।

शचीदेवी भी प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देतीं- ‘भगवान की कृपा से मेरी बेटी को योग्य पति प्राप्त हो।’ कन्या इस आशीर्वाद को सुनती और लज्जितभाव से नीची निगाह करके चली जाती।

एक दिन शचीमाता ने उस कन्या को बुलाकर पूछा- ‘बेटी! तेरा क्या नाम है?’

लजाते हुए और शरीर को कुछ टेढ़ा करते हुए धीरे से विष्णुप्रिया ने कहा- ‘राजपण्डित!’ माता ने जल्दी से कहा- पं. सनातन मिश्र की लड़की है तू? तब बताती क्यों नहीं है? राजपण्डित की पुत्री भी राजपुत्री होती है, तभी नहीं बताती थी, क्यों यही बात है न?’

विष्णुप्रिया लजाती हुई चुपचाप खड़ी रही। माता ने उससे और भी दो-चार बातें पूछकर उसे विदा किया। विष्णुप्रिया का शील-स्वभाव और सौन्दर्य शचीमाता की दृष्टि में गड़-सा गया था। वे बार-बार यही सोचने लगीं- ‘क्या ही अच्छा हो यदि यह लड़की मेरी पुत्र-वधू बन जाय? वे रोज घाट पर विष्णुप्रिया को देखतीं और उससे दो-चार बातें जरूर करतीं।

विष्णुप्रिया का अद्भुत रूप-लावण्य, उनकी अत्यन्त कोमल प्रकृति, प्रशंसनीय शील-स्वभाव और अनुपम विष्णु-भक्ति की वे मन-ही-मन बार-बार सराहना करतीं। इसलिये वे उनके प्रति अधिकाधिक प्रेम प्रदर्शित करने लगीं। विष्णुप्रिया के मन में भी इनके प्रति भक्ति बढ़ने लगी।

शचीमाता बार-बार सोचतीं- ‘क्या हर्ज है, एक बार सनातन मिश्र से पुछवाऊँ तो सही, बहुत करेंगे वे अस्वीकार ही कर देंगे।’ फिर सोचतीं- ‘वे राजपण्डित हैं, धनाढ्य हैं, सब जगह उनकी भारी प्रतिष्ठा है, वे एक विधवा के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का सम्बन्ध क्यों करने लगे।’ यही सोचकर कुछ डर-सी जातीं और उनका साहस नहीं होता।

एक दिन उन्होंने साहस करके काशीनाथ मिश्र नाम के घटक को बुलाया और उनसे बोलीं- ‘मिश्रजी! तुमने सनातन मिश्र की लड़की देखी है?’

घटक ने कहा- ‘लड़की मैंने देखी है, बड़ी ही सुन्दर, सुशील तथा गुणवती है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। मैं समझता हूँ तुम उस लड़की को अपनी पुत्र-वधू बनाकर जरूर प्रसन्न होगी।’

माता ने कहा- ‘यह तो तुम ठीक कहते हो, किन्तु वे धनाढ्य हैं, राजपण्डित हैं। बहुत सम्भव है वे इस सम्बन्ध को न स्वीकार करें। हमारी तो तुम दशा देखते ही हो, वैसे लड़की को अन्न-वस्त्र का तो घाटा न होगा।’

घटक ने जोर देकर कहा- ‘माता जी! तुम कैसे बात करती हो? भला, निमाई-जैसे योग्य, प्रतिष्ठित पण्डित को जमाई बनाने में कौन अपना सौभाग्य न समझेगा? मैं समझता हूँ, वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। मैं आज ही उनके यहाँ जाऊँगा और शाम को ही तुम्हें उत्तर दे जाऊँगा।’ यह कहकर काशीनाथ मिश्र माता को प्रणाम करके चले गये।

इधर पण्डित सनातन मिश्र बहुत दिनों से चाह रहे थे कि विष्णुप्रिया का सम्बन्ध निमाई पण्डित के साथ हो जाता तो बहुत अच्छा होता। किन्तु वे भी मन में कुछ संकोच करते थे कि निमाई आजकल नामी पण्डित समझे जाते हैं।

इस बीस बरस की ही अल्पावस्था में उन्होंने इतनी भारी ख्याति प्राप्त कर ली है, बहुत सम्भव है वे इस सम्बन्ध को स्वीकार न करें। यदि हमारी प्रार्थना पर भी उन्होंने इस सम्बन्ध को स्वीकार न किया तो इसमें हमारा बहुत अपमान होगा। प्रायः धनी लोग अपने मान का बहुत ध्यान रखते हैं, इसी भय से उन्होंने इच्छा रहने पर भी आज तक यह बात किसी पर प्रकट नहीं की थी।

सनातन मिश्र के हृदय में इसी प्रकार के विचार उठ ही रहे थे कि उसी बीच काशीनाथ घटक उनके समीप आ पहुँचे। घटक को देखकर उन्होंने इनका सम्मान किया, बैठने को आसन दिया और आने का कारण जानना चाहा। काशीनाथ घटक ने आदि से अन्त तक सब बातें कहकर अन्त में कहा- ‘शचीमाता ने मुझे बुलाकर स्वयं कहा है। इस बात को मैं अपनी ओर से कहता हूँ कि आपको अपनी पुत्री के लिये इससे अच्छा वर दूसरी जगह कठिनता से मिलेगा।’

प्रसन्नता प्रकट करते हुए सनातन मिश्र ने कहा- ‘निमाई पण्डित कोई अप्रसिद्ध मनुष्य तो हैं ही नहीं। देशभर में उनका यशोगान हो रहा है। उन्हें जामाता बनाने में मैं अपना परम सौभग्य समझता हूँ मेरी भी चिरकाल से यही इच्छा थी, किन्तु इसी संकोच से आज तक किसी पर प्रकट नहीं की कि वे सम्भव है स्वीकार न करें।’

घटक ने कहा- ‘इस बात की आप तनिक भी चिन्ता न करें, शची देवी जो कह देंगी वही होगा, निमाई उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते।’

सनातन मिश्र के घर में जब स्त्रियों ने यह बात सुनी तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। कोई कहने लगी- ‘लड़की का भाग्य खुल गया।’ कोई-कोई विष्णुप्रिया के ही सामने कहने लगी- ‘इतने दिन का इसका गंगा-स्नान और विष्णु-पूजा आज सफल हुई, साक्षात विष्णु के ही समान इसे वर  मिल गया।’ ये सब बातें सुनकर विष्णुप्रिया लजाती हुई उठकर दूसरी ओर चली गयीं। स्त्रियाँ और भी भाँति-भाँति की बातें करने लगीं।

राजपण्डित सनातन मिश्र की स्वीकृति लेकर घटक महाशय सीधे शचीमाता के समीप पहुँचे और उन्हें यह शुभ संवाद सुना दिया। सुनकर शचीमाता को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसी समय विवाह की तिथि आदि भी निश्चय करा दी।

सनातन मिश्र के यहाँ तिथि आदि की सभी बातें पक्की करके काशीनाथ घटक आ ही रहे थे कि रास्ते में अकस्मात उनकी निमाई पण्डित से भेंट हो गयी।

निमाई ने उन्हें आलिंगन करते हुए कहा- ‘किधर से आ रहे हैं?’ आप तो सदा घटया ही करते हैं। कहिये किसे घटकर आये हैं?

हँसते हुए घटक ने कहा- ‘घटाकर तो नहीं आये हैं बढ़ाने की ही फ़िक्र है, तुम्हें एक से दो करना चाहते हैं। बताओ, क्या सलाह है?’ कुछ आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा। कैसा बढ़ाना, स्पष्ट बताइये?’

जरा आवाज को बढ़ाते हुए जोर देकर घटक ने कहा- ‘राजपण्डित सनातन मिश्र की पुत्री के साथ तुम्हारे परिणय की बातें पक्की करके आ रहा हूँ। बताओ तुम्हें मंजूर है न?’ बड़े जोर से हँसते हुए इन्होंने कहा- ‘हहाहा! हमारा विवाह? और राजपण्डित की पुत्री के साथ! हमें तो कुछ भी पता नहीं’ यह कहते-कहते ये हँसते हुए घर चले गये।

घटक को इनकी सूखी हँसी में कुछ सन्देह हुआ। सनातन मिश्र के यहाँ भी खबर पहुँच गयी। सुनते ही घर भर में सुस्ती छा गयी। सनातन मिश्र ने कहा- ‘जिस बात की शंका थी, वही हुई। मैं पहले ही जानता था, निमाई स्वतन्त्र प्रकृति के पुरुष हैं, वे भला, इस प्रकार सम्बन्ध को कब मंजूर करने वाले थे! हुआ तो कुछ भी नहीं, उलटी मेरी सब लोगों में हँसी हुई। सबको पता चल गया है कि लड़की का विवाह  निमाई पण्डित के साथ होगा। यदि न हो सका तो मेरे लिये बड़ी लज्जा की बात है।’ यह सोचकर उन्होंने उसी समय काशीनाथ घटक को बुलाया और अपनी चिन्ता का कारण बताकर शीघ्र ही शचीमाता से इसके सम्बन्ध में निश्चित उत्तर ले आने की प्रार्थना की।

घटक महाशय उसी समय शचीमाता के समीप गये और राजपण्डित की चिन्ता का सभी वृत्तान्त कह सुनाया। सब कुछ सुनकर शची माता ने कहा- ‘निमाई मेरी बात को कभी टालता नहीं है, इसीलिये मैंने उससे इस सम्बन्ध में कुछ भी पूछ-ताछ नहीं की। आज वह पाठशाला से आवेगा तो मैं उससे पूछ लूँगी। मेरा ऐसा विश्वास है, वह मेरी बात को टाल नहीं सकता। कल मैं तुम्हें इसका ठीक-ठीक उत्तर दूँगी।’ माता का ऐसा उत्तर सुनकर घटक अपने घर को चले गये।

इधर जब शाम को पाठशाला से पढ़ाकर निमाई घर आये तब माता ने इधर-उधर की दो-चार बातें करके बड़े प्रेम से कहा- ‘निमाई बेटा! मैं एक बात पूछना चाहती हूँ। क्या सनातन मिश्रवाला सम्बन्ध तुझे मंजूर नहीं है? लड़की तो बड़ी सुशील ओर चतुर है। मैं उसे रोज गंगा जी पर देखती हूँ।’ कुछ लजाते हुए निमाई ने कहा- ‘मैं क्या जानूँ, जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो।’ माता को यह उत्तर सुनकर सन्तोष हुआ। इन्होंने अपनी माता के सन्तोषार्थ स्वयं एक मनुष्य के द्वारा सनातन के यहाँ विवाह की तैयारी करने की खबर भेज दी। इस खबर के पाते ही सनातन मिश्र के घर में फिर से दुगुना आनन्द छा गया और वे धूम-धाम के साथ पुत्री के विवाह की तैयारियाँ करने लगे।

इधर निमाई पण्डित के पास इतना द्रव्य नहीं था कि वे राजपण्डित की पुत्री के साथ खूब समारोह के साथ विवाह कर सकें। इसके लिये वे कुछ चिन्तित-से हुए। धीरे-धीरे इस बात की खबर इनके सभी विद्यार्थी तथा स्नेहियों को लग गयी। विद्यार्थी बड़े प्रसन्न हुए और आ-आकर कहने लगे- ‘गुरुजी! ज्योंनार की मिठाइयाँ तो खूब खाने को मिलेंगी। सनातन तो राजपण्डित ठहरे। खूब जी खोलकर विवाह  करेंगे। बढ़िया-बढ़िया मिठाइयाँ बनावेंगे। खूब आनन्द रहेगा।’ ये सबकी बातें सुनकर हँस देते। उस समय नवद्वीप में बुद्धिमन्त खाँ ही सबसे बड़े जमींदार थे। वे उस समय के एक प्रकार से नवद्वीप के राजा ही समझे जाते। निमाई पण्डित से वे बहुत स्नेह करते थे। इनके विवाह की बात सुनकर वे इनके पास पाठशाला में आये। जिनके चण्डी-मण्डप में ये पढ़ाते थे, वे मुकुन्द संजय भी वहीं बैठे थे। उन्होंने इनका आगत-स्वागत किया। बुद्धिमन्त खाँ ने कहा- ‘पण्डित जी! सुना है आप दूसरा विवाह कर रहे हैं? यह बात कहाँ तक सच है? सुना है अबके राजपण्डित की पुत्री पसंद की है।’

कुछ लजाते हुए इन्होंने कहा- ‘आप जो भी सुनेंगे सब सत्य ही होगा। भला, आपके सामने झूठ बात कहने की किसकी हिम्मत हो सकती है?’

इस उत्तर से प्रसन्न होकर बुद्धिमन्त खाँ ने कहा- ‘तब तो खूब मिठाई खाने को मिलेगी। हाँ, एक प्रार्थना मेरी है, इस विवाह का सम्पूर्ण खर्च मेरे जिम्मे रहा।’ बीच में ही मुकुन्द संजय बोल उठे- ‘वाह साहब! सब आपका ही रहा, हम वैसे ही रहे। कुछ हमें भी तो अवसर दीजिये। अकेले-ही-अकेले आनन्द उठा लेना ठीक नहीं।’

हँसते हुए बुद्धिमन्त खाँ ने जवाब दिया- ‘आप भी अपनी इच्छा पूर्ण कर लें। कुछ भिखमंगे ब्राह्मण का विवाह थोड़े ही है। राजपण्डित की पुत्री के साथ शादी है। राजकुमार की ही भाँति खूब ठाट-बाट से विवाह करेंगे। आप जितना भी चाहें खर्च कर लें।’ इस प्रकार विवाह के सम्पूर्ण खर्च का भार तो इन दोनों धनिकों ने अपने ऊपर ले लिया। अब निमाई इस बात से तो निश्चिन्त हो गये, फिर भी उन्हें बहुत-सा काम स्वयं ही करना था। उसे लिये वे विद्यार्थियों की सहायता से स्वयं ही सब काम करने लगे।

सभी बड़े-बड़े पण्डितों को निमन्त्रित किया गया। विद्वन्मण्डली में से ऐसा एक भी पण्डित नहीं बचने पाया जिसके पास निमन्त्रण न पहुँचा हो। इधर पूर्वोक्त दोनों धनाढ्यों ने विवाह के लिये गाने-नाचने का, आतिशबाजी-फुलवारी का, अच्छे-अच्छे बाजों का तथा और भी सजावट के बहुत-से सामानों का भलीभाँति प्रबन्ध किया। नियत तिथि के दिन अपने स्नेही बहुत-से पण्डित, विद्यार्थियों तथा अन्य गण्यमान्य सज्जनों के साथ बरात सजाकर निमाई पण्डित विवाह के लिये चले। वे आगे-आगे पालकी में जा रहे थे। दोनों ओर चमर ढुर रहे थे। सबसे आगे भाँति-भाँति के बाजे बज रहे थे। इस प्रकार खूब समारोह के साथ वे सनातन मिश्र के द्वार पर जा पहुँचे। मिश्रजी ने सब लोगों का यथोचित खूब सम्मान किया। सभी के ठहरने, खाने-पीने और मनोरंजन का उन्होंने बहुत ही उत्तम प्रबन्ध कर रखा था। उनके स्वागत-सत्कार से सभी लोग अत्यन्त ही प्रसन्न हुए।

गोधूलि के शुभ लग्न में निमाई पण्डित ने विष्णुप्रिया का पाणिग्रहण किया। ब्राह्मणों ने स्वस्त्ययन पढ़ा, वेदज्ञों ने हवन कराया। इस प्रकार विवाह के सभी लौकिक तथा वैदिक कृत्य बड़ी ही उत्तमता के साथ समाप्त हुए। विष्णुप्रिया ने पतिदेव के चरणों में आत्मसमर्पण किया और निमाई ने उन्हें वामांग करके स्वीकार किया। सनातन मिश्र ने बहुत-सा धन तथा बहुमूल्य वस्त्राभूषण निमाई के लिये भेंट में दिये। इस सब कार्यों के हो जाने पर विवाह के सब कार्य समाप्त किये गये।

दूसरे दिन सनातन मिश्र ने सभी विद्वान पण्डितों की सभा की। उनकी योग्यतानुसार यथोचित पूजा की और द्रव्यादि देकर खूब सत्कार किया। तीसरे दिन विष्णुप्रिया के साथ दोला (पालकी) में चढ़कर निमाई अपने घर आये। चिरकाल से जिसे अपनी पुत्र-वधू बनाने के लिये माता उत्सुक थी, आज उसे ही पुत्र के साथ अपने घर में आयी देखकर माता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। वह उस युगल जोड़ी को देखकर मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो रही थी।

घर में घुसते समय चौखट में उँगली पिच जाने के कारण विष्णुप्रिया के कुछ खून निकल आया था। इसे अपशकुन समझकर उनका चित्त पहले तो कुछ दुःखी हुआ था, किन्तु थोड़े दिनों में वे इस बात को भूल गयी थीं। जब निमाई संन्यास लेकर चले गये, तब उन्हें यह घटना याद आयी थी और वह उसे स्मरण करके दुःखी हुई थीं। इस प्रकार विष्णुप्रिया को पाकर निमाई अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और विष्णुप्रिया भी अपने सर्वगुणसम्पन्न पति को पाकर परम आह्लादित हुईं।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(26)
प्रकृति-परिवर्तन

परोपदेशकुशला दृश्यन्ते बहवो जनाः।

स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेष्वपि दुर्लभाः।।[1]

दूसरे को बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे, उत्तम-से-उत्तम उपदेश करने वाले तो बहुत-से सुचतुर पण्डित मिल जायँगे, किन्तु जो एकदम अपने स्वभाव को ही पलट दें, ऐसे पुरुष हजारों में भी दुर्लभ हैं। कहीं करोड़ों में कोई ऐसे पुरुष निकलते हैं। सु. र. भां. 77/4

बाल्यावस्था का स्वभाव आगे चलकर धीरे-धीरे बदल जाता है, किन्तु युवावस्था में जो स्वभाव बन जाता है, उसका परिवर्तित होना अत्यन्त ही कठिन है। अवस्था ज्यों-ज्यों प्रौढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों स्वभाव में भी प्रौढ़ता होने लगती है और फिर जिस मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है वही उसका आगे के लिये स्वाभाविक गुण बन जाता है। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि बहुत-से लोगों का जीवन एकदम पलट जाता है, वे क्षणभर में ही कुछ-से-कुछ बन जाते हैं। जो आज महाविषयी-सा प्रतीत होता है, वही कल परम वैष्णवों के-से आचरण करने लगता है। जिसे हम कल तक आवारा-आवारा कहकर पुकारते थे, थोड़े दिनों में सहस्रों नर-नारी सिद्ध महात्मा मानकर उसी की पूजा-अर्चा करते हुए देखे गये हैं, किन्तु ऐसा परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में नहीं होता। ऐसे तो कोई विरले ही भाग्यशाली महापुरुष होते हैं। प्रायः देख गया है कि मनुष्य जब प्राकृति विचारों से ऊँचे उठने लगता है, तब हृदय के परिवर्तन के साथ उसके शरीर में भी परिवर्तन हो जाता है। शरीर के सभी अवयव स्वभाव के ही अनुसार बने हैं, मनुष्य जैसे-जैसे प्राकृतिक विचारों को छोड़ने लगता है वैसे-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग भी बदलते जाते हैं।

साधारण लोग उस परिवर्तन को रोग समझने लगते हैं। जो एकदम प्रकृति से ऊँचा उठ गया है, फिर उसका पांचभौतिक शरीर अधिक काल स्थिर नहीं रह सकता। क्योंकि शरीर के स्थायित्व के लिये रजोगुणजन्य प्राकृतिक अहंभाव की कुछ-न-कुछ आवश्यकता पड़ती ही है। तभी तो परम भावुक ज्ञानी और प्रेमी अल्पावस्था में ही इस शरीर को त्याग जाते हैं। श्रीशंकाराचार्य, चैतन्यदेव, ज्ञानेश्वर, रामतीर्थ, जगद्बन्धु ये सभी परम भावुक भगवत-भक्त प्रकृति से अत्यन्त ऊँचे उठ जाने के ही कारण शरीर को अधिक दिन नहीं टिका सके। कोई-कोई महापुरुष, अपने सत्संकल्प का कुछ अंश देकर लोक-कल्याण की दृष्टि से उस अवस्था में पहुँचने पर भी कुछ काल के लिये इस शरीर को टिकाये रहते हैं, फिर भी उनमें भावुकता की अपेक्षा ज्ञानांश की कुछ अधिकता होती है, तभी वे ऐसा कर सकते हें। भावुकता की चरम सीमा पर पहुँचने पर तो संकल्प करने का होश ही नहीं होता। जब हृदय में सहसा प्रबल भावुकता का उदय होता है, तो निर्बल शरीर उसका सहन नहीं कर सकता। किसी-किसी का शरीर तो उसी वेग में शान्त हो जाता है, बहुत-से उसे सहन तो कर लेते हैं, किन्तु पागल हो जाते हैं, कुछ कर-धर नहीं सकते।

जिनसे भगवान को कुछ काम कराना होता है, वे उस वेग को पूर्णरीति से सहन करने में समर्थ होते हैं, किन्तु शरीर पर उसका कुछ-न-कुछ असर पड़ना तो स्वाभाविक ही है, इसलिये उनके शरीर में या तो वायुरोग हो जाता है या अतिसार। बहुधा इन दो भयंकर रोगों के द्वारा ही उस भाव का शमन हो सकता है। संसारी लोगों को ये रोग प्रायः चालीस-पचास वर्ष की अवस्था के बाद हुआ करते हैं, किन्तु जिन लोगों के शरीर में प्रबल भावुकता के उदय होने के उद्वेग में ये रोग होते हैं, उनके लिये कोई नियम नहीं, कभी हो जाय। असल में उनके ये रोग साधारण लोगों के रोग की भाँति यथार्थ रोग नहीं होते, किन्तु वे रोग-से ही प्रतीत होते हैं और भावों के शमन होने पर आप ही शान्त हो जाते हैं। परमहंस रामकृष्णदेव को युवावस्था में ही यह उद्वेग उत्पन्न हुआ। किसी ने उसे वायुरोग, किसी ने मस्तिष्क रोग और किसी ने वीर्योन्मादरोग बताया। उनके परम भक्त मथुरा बाबू तो चिकित्सकों के कहने से उन्हें वेश्याओं तक के यहाँ ले गये, किन्तु उन्हें उन्माद या वायुरोग हो तब तो। वहाँ भी वे छोटे बालक की भाँति क्रीड़ा करते रहे। सालों वे अतिसार के भयंकर रोग से पीड़ित बने रहे।

उनके इस भाव को एक ब्राह्मणी ने ही समझा। पीछे से उनके बहुत-से भक्त भी समझ गये। चिकित्सक इन्हें अन्त तक वायुरोग बताते रहे और बोलने से मना करते रहे, किन्तु इन्होंने शरीर को टिका ही इसलिये रखा था, चिकित्सकों के मना करने पर भी धारा प्रवाह बोलते रहे, अन्त में गले में फोड़ा-सा हुआ और उसी की भयंकर वेदना में महीनों बिताकर वे इस नश्वर शरीर को त्याग गये। गले के फोड़े को चिकित्सक लोग अधिक बोलने का विकार बताते, उसके कारण इतनी पीड़ा होती कि तोले भर दूध पीने में भी उन्हें महाकष्ट होता था, किन्तु इस अवस्था में भी वे भक्तों को उपदेश तो निरन्तर करते ही रहे। चिकित्सकों के बार-बार जोर देकर मना करने पर वे कह देते- ‘अब इस शरीर का बनेगा ही क्या? इससे जिसका जितना भी उपकार हो सके उतना ही उत्तम है।’ क्योंकि वे शरीर के प्राकृतिक स्वभाव से एकदम ऊँचे उठ गये थे।

अब निमाई पण्डित के भी प्रकृति-परिवर्तन का समय आया। निमाई परम भावुक थे, यदि सचमुच इनके हृदय में एक साथ ही प्रबल भावुकता की भारी बाढ़ आती, तो चाहे इनका शरीर कितना भी बलवान क्यों नहीं था, वह उसका सहन कभी नहीं कर सकता। इसलिये इनकी भावुकता का उत्तरोत्तर विकास हुआ और अन्त में तो वे शरीर को एकदम भूलकर समुद्र में ही कूद पड़े। इनके जीवन में प्रेम के जैसे उत्तरोत्तर अद्वितीय भाव प्रकट हुए हैं, वैसे भाव संसार का इतिहास खोजने पर भी किसी प्रकटरूप से उत्पन्न हुए महापुरुष के जीवन में शायद ही मिलें! किसी के जीवन में क्या, बहुतों के जीवन में ये भाव प्रकट हुए होंगे, किन्तु वे संसार की दृष्टि से दूर जाकर प्रकट हुए होंगे, संसारी लोगों को उन भावों का पता नहीं चैतन्य के जीवन के भाव तो भक्तों ने प्रत्यक्ष देखे और उनके समकालीन लेखकों ने यथासाध्य उनका वर्णन करने की चेष्टा भी की है, किन्तु वे भाव तो अवर्णनीय हैं। संसारी भाषा इन अलौकिक भावों का वर्णन कर ही कैसे सकती है?

सहसा एक दिन निमाई पण्डित रास्ता चलते-चलते पुस्तक फेंककर अपने घर की ओर भाग पड़े। रास्ते के सभी लोग डर गये। इनकी सूरत विचित्र ही बन गयी थी। घर पहुँचकर इन्होंने घर के सभी बर्तनों को आँगन में निकाल-निकालकर फोड़ना प्रारम्भ कर दिया। माता अवाक होकर इनकी ओर देखने लगीं। उनकी हिम्मत न हुई कि निमाई को ऐसा करने से रोकें। ये अपनी धुन में मस्त थे। किसी भी चीज की परवा नहीं करते। जो भी चीज मिल जाती उसे ही नष्ट करते। पानी को उलीचते, अन्न को फेंकते और वस्त्रों को बीच से फाड़ देते थे। माता बाहर जाकर आस-पास के लोगों को बुला लायीं। लोगों ने इन्हें इस काम से हटाने की चेष्टा की, किन्तु जो भी इनकी ओर जाता, उसे ही ये मारने के लिये दौड़ते। इसलिये किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। जैसे-तैसे लोगों ने इन्हें हटाकर शय्या पर सुलाया। चारों ओर से विद्यार्थी तथा इनके स्नेही इनकी शय्या को घेरकर बैठ गये। अब ये निरन्तर पागलों की भाँति बकने लगे। लोगों से कहते- ‘हम साक्षात विष्णु हैं, हमारी पूजा करो। संसार में हम ही एकमात्र वन्दनीय तथा पूजनीय हैं। तुम लोग निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन किया करो। संसार में श्रीकृष्ण का ही नाम सार है और सभी वस्तुएँ असार हैं। इस प्रकार ये न जाने क्या-क्या कहते रहे।’

लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भाँति-भाँति के अनुमान लगाते। कोई कहता- ‘भूतव्याधि है।’ कोई कहता- ‘किसी डाकिनी-शाकिनी का प्रकोप है।’ कोई-कोई उपेक्षा की दृष्टि से कहता- ‘अजी, बहुत बकवाद का यही तो फल होता है, दिनभर शास्त्रार्थ करके विद्यार्थियों के साथ मगजपच्ची करके तथा लोगों को छेड़कर बका ही तो करते थे। इन्हें कभी किसी ने चुपचाप तो देखा ही नहीं था। उसी का यह फल है, पागलपन है। मस्तिष्क का विकार है। गर्मी बढ़ गयी है और कुछ नहीं है।’

चिकित्सकों ने वायुरोग स्थिर किया। समाचार पाकर बुद्धिमन्त खाँ और मुकुन्द संजय- ये सभी धनी-मानी सज्जन वैद्यों को साथ लेकर निमाई के घर दौड़े आये। सभी घबड़ा गये। ये लोग बड़े-बड़े धनिक थे। नाना प्रकार की मूल्यवान ओषधियाँ इनके यहाँ रहती थीं। वैद्यों की सम्मतिसे विष्णुतैल, नारायणतैल आदि सुगन्धित और मूल्यवान तैल इनके सिर में मले जाने लगे। इनके सिर को तैल में डुबाया गया और भी भाँति-भाँति के उपचार किये जाने लगे। इस प्रकार कई दिनों में धीरे-धीरे ये स्वस्थ हुए। यह देखकर इनके प्रेमियों को परम प्रसन्नता हुई। धीरे-धीरे ये फिर पूर्व की भाँति अपनी पाठशाला में जाकर अध्यापन का कार्य करने लगे।

अब इनके स्वभाव में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया। अब ये पहले की भाँति लोगों से छेड़खानी नहीं करते थे। इनमें बहुत कुछ गम्भीरता आ गयी। वैष्णवों की हँसी करना इन्होंने एकदम छोड़ दिया। इन्हें स्वस्थ देखकर लोग कहते- ‘भगवान की बड़ी कृपा हुई आप स्वस्थ हो गये। यह शरीर नश्वर और क्षणभंगुर है, अब कुछ कृष्णकीर्तन भी करना चाहिये। आयु को इसी तरह बिता देना ठीक नहीं।’ ये हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते और उनकी बात को स्वीकार करते। लोगों को- विशेषकर वैष्णवों को इनके इस स्वभाव- परिवर्तन से परम प्रसन्नता हुई। अब ये नियमितरूप से भगवान की पूजा और तुलसी पूजन आदि कार्यों को करने लगे।

सन्ध्या-पूजा करके ये पढ़ाने के लिये जाते और सभी विद्यार्थियों के सदाचार के ऊपर अत्यधिक ध्यान रखते। जिस विद्यार्थी के मस्तक पर तिलक नहीं देखते उसे ही बुलाकर कहते- ‘आज तिलक क्यों नहीं धारण किया है?’ फिर सबको सुनाकर कहते- ‘जिसके मस्तक पर तिलक नहीं, समझ लो आज वह बिना ही सन्ध्या-वन्दन किये चला आया है।’ इस प्रकार जिसे भी तिलकहीन देखते उसे ही कहते- ‘पहले घर जाकर सन्ध्या-वन्दन करके तिलक धारण कर आओ, तब आकर पाठ पढ़ना।’ फिर आप समझाने लगते- ‘देखो भाई! सन्ध्या ही तो द्विजातियों का सर्वस्व है।

जो ब्राह्मण सन्ध्या-वन्दन तक नहीं करता उसे ब्राह्मण कह ही कौन सकता है? फिर वह पारमार्थिक उन्नति तो बहुत दूर रही, इहलौकिक उन्नति भी नहीं कर सकता। कहा भी है-

विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदाः शाखाः धर्मकर्मादि पत्रम्।

तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।

ब्राह्मणरूपी वृक्ष की सन्ध्या ही जड़ है। वेद ही उस वृक्ष की बड़ी-बड़ी चार शाखाएँ हैं और धर्म- कर्मादि ही उस वृक्ष के सुन्दर-सुन्दर पत्ते हैं, इसलिये खूब सावधानी के साथ जल आदि देकर जड़की ही सेवा करनी चाहिये, क्योंकि जड़ के नष्ट हो जाने पर न तो शाखा ही रह सकती है और न पत्ते ही।’ आप कहते- ‘जो साठ घड़ी के दिन-रात्रि में से दो घड़ी सन्ध्या के लिये नहीं निकाल सकता वह आगे उन्नति ही क्या कर सकता है?’ इनके इस कथन का विद्यार्थियों के ऊपर बड़ा ही प्रभाव पड़ता और वे सभी यथासमय उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर सन्ध्या-वन्दनादि करके तब पाठ पढ़ने आते। इन सभी बातों से विद्यार्थी इनके ऊपर बड़ा ही अनुराग रखने लगे और ये भी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करने लगे।

ये भाव इनके हृदय में भक्ति-भागीरथी के स्त्रोत उमड़ने के पूर्व के सूत्रपातमात्र ही हैं। निमाई के हृदय में भक्ति के स्त्रोत का उदय तो श्रीगयाधाम में श्रीविष्णु भगवान के पादपद्मों के दर्शन से ही होगा। वहीं से भक्ति-भागीरथी का प्रवाह नवद्वीप आदि पुण्यस्थानों में होर अपनी द्रुतगति से समस्त प्राणियों को पावन करता हुआ श्रीनीलाचल के महासागर में एकरूप हो जायगा। यह बात नहीं कि नीलाचन में जाकर प्रेमपयोधि में मिलने पर उस त्रितापहारी प्रेमपीयूषपूर्ण पावन प्रवाह की परिसमाप्ति हो जायगी, किन्तु वह प्रवाह भगवती भागीरथी  की भाँति अखण्डरूप से इस धराधाम पर सदा प्रवाहित ही होता रहेगा, जिसमें अवगाहन करके प्रेमी भक्त सदा सुख-शान्ति प्राप्त करते रहेंगे। इन सभी बातों का वर्णन पाठकों को अगले प्रकरणों में प्राप्त होगा।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(27)
भक्तिस्त्रोत उमड़ने से पहले

तावत्कर्मणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।

मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।।[1]

भक्ति तथा मुक्ति का प्रधान और मुख्य कारण कर्म ही है। निष्काम और सकाम-भेद से कर्म दो प्रकार का है। सकाम कर्म भुक्तिप्रद है। उससे भूः, भुवः और स्वर्ग- इन तीन ही लोकों के भोग प्राप्त हो सकते हैं और निष्काम कर्म के द्वारा आत्मशुद्धि होकर साधक भक्ति तथा मुक्ति का अधिकारी बनता है। जो हृदय-प्रधान साधक हैं उन्हें निष्काम कर्मों के करते रहने से साधु-महात्माओं में प्रीति उत्पन्न होती है। महात्माओं के अधिक संसर्ग में रहने से उन्हें भगवत-कथाओं में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। भगवत-कथाओं में श्रद्धा होने से भगवद्गुणों में रति हो जाती है। भगवद्गुणों में रति होने के बाद भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति ही अन्तिम साध्य वस्तु है, उसे ही पराकाष्ठा या परा गति कहते हैं। जो मस्तिष्क-प्रधान साधक होते हैं, उन्हें निष्काम कर्मों के द्वारा आत्मशुद्धि होकर भगवद्भक्ति प्राप्त होती है, फिर संसारी विषयों से वैराग्य होता है, वैराग्य से उन्हें ज्ञान की इच्छा उत्पन्न होती है और ज्ञान के द्वारा वे मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

मुक्ति ही प्राणिमात्र का चरम लक्ष्य है। यही जीवों की एकमात्र साध्य वस्तु है। इसीलिये मुक्ति तथा भक्ति का प्रधान हेतु वर्णाश्रमविहित कर्म ही है। जब तक भगवत-कथाओं में पूर्णरूप से श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय, बिना भगवत-कथा श्रवण किये चैन ही न पड़े अथवा जब तक संसारी विषयों से पूर्णरीत्या वैराग्य न हो जाय, चित्त सर्वदा इन संसारी भोगों से हटकर एकान्तवास के लिये लालायित न बना रहे तब तक सभी प्रकार के मनुष्यों को अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य-कर्मों को करते ही रहना चाहिये। जो श्रद्धा तथा वैराग्य के पूर्व ही अज्ञान के वशीभत होकर कर्मों का त्याग कर देते हैं, वे नारकीय जीव हैं, वे स्वयं कर्म-त्यागरूपी पाप के द्वारा अपने लिये न करके मार्ग को परिष्कृत करते हैं। ऐसे पुरुष न तो भक्त बन सकते हैं और न ज्ञानी, वे इस संसार-चक्र में ही पड़े घूमते रहते हैं।

कुछ ऐसे भी नित्यभक्त वा जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं, जिन्हें फिर से कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती, वे पहले से ही मुक्त अथवा भक्त होते हैं। शुक-सनकादि जन्म से ही मुक्त थे। नारदादि पहले से ही भक्त होकर उत्पन्न हुए, इनके लिये किसी प्रकार के विशेष कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं हुई। इनमें आरम्भ से ही वैराग्य तथा भक्ति विद्यमान थी। इसीलिये शुक-सनकादि आरम्भ से ही ज्ञानी बनकर स्वेच्छापूर्वक विचरण करते रहे और नारदादि सदा हरि-गुण गान करते हुए सभी लोकों को पावन बनाते फिरे। अतएव इनके लिये आरम्भ से ही कोई कर्तव्य-कर्म नहीं था।

अब प्रश्न यह है कि भक्ति तथा मुक्ति में कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? इनका उत्तर यही दिया जा सकता है कि या तो इनमें से कोई भी श्रेष्ठ नहीं या दोनों ही श्रेष्ठ हैं। ये दोनों ही स्थिति सनातन हैं, सदा से प्राणियों की ये ही दो परम स्थिति सुनी गयी हैं। वेद-शास्त्रों से ज्ञानी-महर्षियों ने इन्हीं दो स्थितियों का वर्णन किया है। ‘तस्य तदेव मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नः’ जिसके जो अनुकूल पड़े उसके लिये वही सर्वोत्तम है। हृदय और मस्तिष्क की ये दो ही शक्तियाँ हैं। जिसमें जिसकी प्रधानता होगी, उसको वही मार्ग रुचिकर होगा। दूसरे से उसे कोई प्रयोजन नहीं। वह तो अपने ही मार्ग को सर्वस्व समझेगा। अब यह प्रश्न उठता है कि बहुधा भक्तों को यह कहते सुना गया है कि ‘हम तो मुक्ति को अत्यन्त तुच्छ समझते हैं, भक्ति के बिना मुक्ति को हम तो ठुकरा देते हैं।’ इसके विपरीत ज्ञान-मार्ग के साधकों के द्वारा यह सुना गया है कि ‘मुक्ति ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है, भक्ति उसका साधन भले ही हो किन्तु साध्य वस्तु तो मुक्ति ही है। मुक्ति के बिना परम शान्ति नहीं।’ इनमें से किसकी बात मानें? दो बातें तो ठीक हो नहीं सकतीं। फिर वे दो ऐसी बातें जो परस्पर में एक-दूसरे के विरुद्ध हों।

यदि ध्यानपूर्वक इन दोनों बातों पर विचार किया जाय तो इन दोनों में कोई विरोध नहीं मालूम पड़ता। लोक में भी देखा जाता है कि जिस मनुष्य को जो वस्तु अत्यन्त प्रिय होती है, वह कहता है ‘मैं तो इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई वस्तु नहीं समझता।’ उसके कथन का अभिप्राय इतना ही है कि मुझे तो यही वस्तु अत्यन्त प्रिय है, मेरे लिये तो इससे बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। ‘नहीं’ कहने से उसका अभिप्राय अन्य वस्तुओं के ‘अभाव’ से न होकर ‘प्रिय’ से है। अर्थात मुझे इसके सिवा दूसरी वस्तु प्रिय नहीं है। उसका कथन एक प्रकार से ठीक भी है, जब तक उसकी उस वस्तु के प्रति अनन्यता न हो जायगी तब तक उसमें प्रीति कही ही नहीं जा सकती। इसी प्रकार भक्ति का मार्ग जिन्होंने ग्रहण किया है, उनके लिये ज्ञान के द्वारा मुक्ति प्राप्त करना कोई वस्तु ही नहीं है और जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया है, उनके लिये किसी भी प्रकार के नाम-रूप का चिन्तन करना महान विघ्न है। ये हम साधारण लोगों के समझने के लिये साधारण-सी दलीलें हैं।

वास्तव में तो भक्ति तथा मुक्ति दो वस्तु हैं ही नहीं। एक ही वस्तु को दो नामों से पुकारते हैं, अपनी भावना के ही अनुसार एक प्रिय वस्तु को दो रूपों में देखते हैं। साध्य तो एक ही है- उसे चाहे भक्ति कह लो या मुक्ति और उसका साधन भी एक ही है- अनासक्तभाव से भगवत-सेवा या कर्तव्य समझकर निष्काम कर्म। हाँ, करने की प्रक्रियाएँ पृथक-पृथक अवश्य हैं, जिनका रुचि-वैचित्र्य के कारण अधिकारी-भेद से पृथकृ-पृथक होना आवश्यक ही है। एक में त्याग ही प्रधान है, घर को त्यागो, संग को त्यागो, आसक्ति को त्यागो, नाम-रूप को त्यागो, फिर अपने-आपको भी त्याग दो। दूसरे में प्रेम की प्रधानता है, अच्छे पुरुषों से प्रेम करो, भगवद्भक्तों से प्रेम करो, भगवत-चरित्रों से प्रेम करो, प्रेम से प्रेम करो। फिर जाकर प्रेम में समा जाओ। ये मुक्ति-भक्ति दो मार्ग हैं। महाप्रभु चैतन्यदेव का जीवन तो भक्तिमार्ग का एक प्रधान स्तम्भ है।

उनके जीवन में शुद्ध भक्ति का परम पवित्र स्वरूप है, उसमें पक्षपात का लेश नहीं, दूसरे मार्ग के प्रति विद्वेष नहीं। किसी भी कर्म की उपेक्षा नहीं। संकुचित भावों की गन्ध नहीं। वहाँ तो शुद्ध प्रेम है! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ना चाहो त्यों-ही-त्यों अधिकाधिक प्रेम करो, यही शिक्षा उसमें ओत-प्रोतरूप से भरी पड़ी है। उनका नाम लेकर आज जो बातें कही जाती हैं, वे चैतन्यदेव की कभी हो ही नहीं सकतीं। इसका साक्षी उनका प्रेममय जीवन ही है। ये साम्प्रदायिक विचार तो पीछे के संकुचित बुद्धि वाले लोगों के मस्तिष्क से निकले हैं। अपनी चीज का नाम कोई जो चाहे रख ले। कोई रोकने वाला थोड़े ही है। चैतन्य का जीवन तो परम प्रेममय, सभी को आश्रय देने वाला परम महान है, उसमें भला साम्प्रदायिक संकुचित भावों का क्या काम? इनके हृदय में प्राणिमात्र के भावों का आदर था।

निमाई पण्डित का अब दूसरा विवाह हो गया है। विष्णुप्रिया  उनके सब प्रकार से अनुकूल आचरण करती हैं। उनका स्वभाव हँसमुख है, वे सुशीला हैं, गृहकार्यों में चतुर हैं और अत्यन्त ही पतिपरायणा हैं, वे अपने पति को ही सर्वस्व समझती हैं। यह सब होते हुए भी निमाई का चित्त अब उदास ही रहता है। पता नहीं क्यों? अब उनकी वह चपलता न जाने कहाँ चली गयी? घंटों एकान्त में न जाने क्या सोचा करते हैं? अब उन्हें संसारी बातों से अनुराग नहीं है। अब उनका हृदय किसी विशेष वस्तु के लिये छटपटाता-सा दिखायी पड़ता है। अब वे अपने में किसी एक विशेष अभाव का-सा अनुभव करने लगे हैं। इस बात से उनके सभी स्नेही चिन्तित रहते हैं।

जब हृदय में किसी प्रबल भाव का आगमन होने को होता है, तो उसके पूर्व हृदय एक प्रकार के अभाव का अनुभव करने लगता है। जी चाहता है कहीं चलकर अपनी प्रिय वस्तु को ले आवें। ऐसी ही दशा में लोग तीर्थों में जाते हैं। तीर्थों में अच्छे-अच्छे धार्मिक लोगों के सत्संग का सुयोग प्राप्त होता है, विरक्त साधु-महात्माओं के दर्शन होते हैं। उनके सत्संग तथा सदुपदेश से हृदय में एक प्रकार की शान्ति होती है। इसलिये निमाई की भी इच्छा तीर्थ-भ्रमण करने की हुई।

बंगाल में सकामकर्मों की प्रधानता है, वहाँ के बहुत ही कम मनुष्य निष्कामकर्म का महत्त्व जानते हैं। अधिकांश लोग किसी-न-किसी कामना से ही सम्पूर्ण धार्मिक कार्यों को करते हैं। सकामकर्मों में पितृश्राद्ध को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्मृतियों में तो पितृकर्मों से भी देवकर्मों की अधिक महत्ता दी गयी है। गृहस्थियों के लिये पितृकर्म ही मुख्य बताये गये हैं। पितृकर्मों में गयाधाम में जाकर पितरों के श्राद्ध करने का बहुत भारी माहात्म्य वर्णन किया गया है, इसलिये प्रतिवर्ष बंगाल से लाखों मनुष्य गया जी में पितृश्राद्ध करने आते हैं। दूसरे प्रान्तों से भी बहुत बड़ी संख्या में यात्री गया जी पितृश्राद्ध करने आते हैं, किन्तु बंगाल में इसका प्रचार अन्य प्रान्तों की अपेक्षा विशेष है। अबकी बार अन्य लोगों के साथ निमाई पण्डित ने भी गया में जाकर अपने पिता का श्राद्ध कर आने का विचार किया। किन्तु इनके विचार में अन्य लोगों की भाँति सकाम भावना नहीं थी, ये तो अपने अभाव को दूर करने और धार्मिक लोगों के भावों का आदर करने के निमित्त ही गया जी जाना चाहते थे।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(28)
श्रीगयाधाम की यात्रा

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।[1]

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, अन्य साधारण लोग उसी भाँति उसका अनुकरण करते हैं, जिस बात को वे प्रमाण मानते हैं उसे ही दूसरे लोग भी प्रामाणिक समझते हैं। गीता 3/21

आश्विन शुक्ला दशमी का दिवस है। आज के ही दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने लंका  पर विजय प्राप्त करने के लिये चढ़ाई की थी। घर-घर आनन्द मनाया जा रहा है। आज के ही दिन वर्षाकाल की परिसमाप्ति समझी जाती है। व्यापारी आज के ही दिन वाणिज्य के निमित्त विदेशों की यात्रा करते हैं। नृपतिगण आज के ही दिन दूसरे देशों को दिग्विजय करने के निमित्त अपनी-अपनी सेनाओं को सजाकर राज्य-सीमा से बाहर होते हैं। चार महीने एक ही स्थान पर रहने वाले परिव्राजक आज के ही दिन फिर से भ्रमण करना आरम्भ कर देते हैं। तीर्थयात्रा करने वाले भी आज के ही दिन यात्रा के लिये प्रस्थान करते हैं। अब के नवद्वीप से भी बहुत-से यात्री गयाधाम की यात्रा करने जा रहे थे। गौरांग के मौसा पं. चन्द्रशेखर भी गया को जाना चाहते थे, उन्होंने अपनी इच्छा निमाई को जतायी। सुनते ही इन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। माता की आज्ञा लेकर इन्होंने भी अपने कुछ स्नेही तथा छात्रों के साथ गया जी  की यात्रा का निश्चय किया सब सामान जुटाकर अन्य लोगों को साथ लेकर ये गयाधाम के लिये चल पड़े।

इस प्रकार ये अपने सभी साथियों के साथ आनन्द मनाते ओर प्रेम में श्रीकृष्ण-कीर्तन  करते हुए मन्दार नामक स्थान में पहुँचे। इन स्थान में पहुँचकर इन्हें बड़े जोरों से ज्वर आ गया। इनके साथी इनकी ऐसी दशा देखकर बहुत अधिक चिन्तित हुए और भाँति-भाँति के उपचार करने लगे, किन्तु इन्हें किसी प्रकार भी लाभ नहीं हुआ। अन्त में इन्होंने अपनी ओषधि अपने-आप ही बतायी। इन्होंने कहा- ‘मेरी व्याधि इन प्राकृतिक ओषधियों से न जायगी।

यह रोग तो असाध्य है, इसकी एकमात्र ओषधि है भगवत्कृपा! भगवान की प्रसन्नता का सर्वश्रेष्ठ साधन है ब्राह्मणों की अर्चा-पूजा। श्रीमद्भागवत में भगवान ने अग्नि और ब्राह्मण अपने दो ही मुख बताये हैं, उनमें ब्राह्मण को ही सर्वोत्तम सुख बताया है। वे अपने श्रीमुख से ही सनकादि महर्षियों की स्तुति करते हुए कहते हैं-

नाहं तथाग्नि यजमानहविर्विताने श्च्योतद्घृतप्लुतमदन् हुतभुड्मुखेन।

यद् ब्रह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः।।

अर्थात भगवान कहते हैं ‘मेरे अग्नि और ब्राह्मण ये दो मुख हैं, इनमें ब्राह्मण ही मेरा श्रेष्ठ मुख है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्मों को मेरे ही अर्पण कर दिया है और जो सदा सन्तुष्ट ही रहते हैं, ऐसा ब्राह्मण जो टपकते हुए घृत से व्याप्त सुस्वादु अन्न के व्यंजनों को खाता है, उसके प्रत्येक ग्रास के साथ मैं ही उस अन्न के रस का आस्वादन करता हूँ। उस ब्राह्मण की तृप्ति से जितना मैं तुष्ट होता हूँ, उतना यज्ञ में अग्निद्वारा, यजमान के अर्पण किये हुए कवि आदि से नहीं होता।’ ‘जिन ब्राह्मणों की ऐसी महिमा साक्षात भगवान ने अपने श्रीमुख से वर्णन की है, उन्हीं का पादोदक पान करने से मेरा यह रोग शमन हो सकेगा।’

यह सुनकर एक सरल- से विद्यार्थी ने प्रश्न किया- ‘गुरुजी! जो ब्राह्मण नहीं हैं केवल ब्रह्मबन्धु हैं[1] (अर्थात केवल नाममात्र के ही ब्राह्मण हैं, बस, जिन्होंने ब्राह्मण-वंश में जन्म ही भर ग्रहण किया है) उनका तो इतना सत्कार नहीं करना चाहिये। वे तो केवल काष्ठ की हस्ती के समान नाममात्र के ही ब्राह्मण  हैं, जैसे काष्ठ के हाथी से हाथीपने का कोई भी काम नहीं चलने का, उसी प्रकार जो अपने धर्म-कर्म से हीन है, जिसने विद्या प्राप्त नहीं की, उस नाममात्र के ब्राह्मण का हम आदर क्यों करें?’

निमाई पण्डित ने थोड़ी देर सोचने के अनन्तर कहा- ‘तुम्हारा कथन एक प्रकार से ठीक ही है, जो अपने धर्म-कर्म से रहित है, वह तो दूध न देने वाली वन्ध्या गौ के समान है, उससे संसारी स्वार्थ कोई सध नहीं सकता। फिर भी जो सभी कामों को सकाम भाव से नहीं करते हैं, जो श्रद्धा के साथ शास्त्रों की आज्ञानुसार अपने को ही सुधारने का सदा प्रयत्न करते रहते हैं, वे दूसरों के दोषों के प्रति उदासीन रहते हैं। हम दोषदृष्टि से देखना आरम्भ करेंगे तब तो संसार में एक भी मनुष्य दोष से रहित दृष्टिगोचर नहीं होगा। संसार ही दोष-गुण के सम्मिश्रण से बना है! इसलिये अपनी बुद्धि को संकुचित बनाकर गौ की सेवा करने में यह बुद्धि रखना ठीक नहीं कि जो गौ अधिक दूध  देगी हम उसी की सेवा करेंगे। जो दूध नहीं देती, उससे हमें क्या मतलब? ऐसी बुद्धि रखने से तो विचारों में संकुचितता आ जायगी। तुम तो शास्त्र की आज्ञा समझकर गौमात्र में श्रद्धा रखो। यह तो स्वाभाविक ही होगा कि जो गौ सुशील, सुन्दर तथा दुधारी होगी, उसकी सभी लोग इच्छा-अनिच्छापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करेंगे और अश्रद्धालु पुरुषों को भी सुमिष्ट दूध के लालच से प्रभावान्वित होकर ऐसी गौ की सेवा करते हुए देखा गया है, किन्तु यह सर्वश्रेष्ठ पक्ष नहीं है।

सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि मन में किसी भी प्रकार का पक्षपात न करके केवल शास्त्राज्ञा समझकर और अपना कर्तव्य मानकर गो-ब्राह्मणमात्र की सेवा करें। किन्तु ऐसे श्रद्धालु संसार में बहुत ही थोडे़ होते हैं। भगवान ने स्वयं क्रुद्ध हुए भृगु को अपनी छाती में जोर से लात मारते देखकर बड़ी नम्रता से दुःख प्रकट करते हुए कहा था- अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने। अर्थात हे ब्राह्मणदेव! आपके कोमल चरणारविन्दों को मेरी इस वज्र-सी छाती में लगने पर बड़ा कष्ट हुआ होगा।

ये बहुत ऊँचे साधक के भाव हैं, जो संसारी मान-प्रतिष्ठा तथा धन और विषयभोगों की इच्छा को सर्वथा त्याग कर एकमात्र भगवत-कृपा को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य समझकर सभी कार्यों को करते हैं, उन्हीं के लिये भगवान  अपने श्रीमुख से फिर स्वयं उपदेश करते हैं-

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्त-स्तुष्यद्धृदः  स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः।

वाण्यानुरागकलयात्मजवद्गृणन्तः सम्बोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः।।

‘जो पुरुष वासुदेव-बुद्धि रखकर कठोर बोलने वाले ब्राह्मणों की भी प्रसन्न अन्तःकरण से कमल के समान प्रफुल्लित मुख द्वारा अपनी अमृतमयी वाणी से प्रसन्नचित्त होकर स्तुति करते हैं और पिता के क्रुद्ध होने पर जिस प्रकार पुत्रादि क्रुद्ध न होकर उनका सत्कार ही करते हैं, उसी प्रकार उन्हें प्रेमपूर्वक बुलाते हैं, तो समझ लो ऐसे पुरुषों ने मुझे अपने वश में ही कर लिया है।’ क्रुद्ध होने वाले किसी भी प्राणी पर जो क्रोध नहीं करता वही सच्चा साधक और परमार्थी है। प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति ही जिसका एकमात्र लक्ष्य है, उसके हृदय में दूसरों के प्रति असम्मान के भाव आ ही नहीं सकते। इसलिये तुम लोग शीघ्र जाकर इस ग्राम के किसी ब्राह्मण का पादोदक लाकर मेरे मुख में डाल दो।’

इनकी आज्ञा पाकर दो-तीन विद्यार्थी गये और एक परम शुद्ध वैष्णव ब्राह्मण के चरणों को धोकर उसका चरणोदक ले आये। यह तो इनकी लोगों को ब्राह्मणों का महत्त्व प्रदर्शित करने की लीला थी। चरणोदक का पान करते ही ये झट से अच्छे हो गये और अपने सभी साथियों के साथ आगे बढ़ने लगे। पुनपुना-तीर्थ में पहुँचकर इन सब लोगों ने पुनपुन नाम की नदी में स्नान किया और सभी ने अपने-अपने पितरों का श्राद्धादि कराया। इसके अनन्तर सभी श्रीगयाधाम में पहुँच गये।

ब्रह्मकुण्ड में स्नान और देव-पितृ-श्राद्धादि करके निमाई पण्डित  अपने साथियों के सहित चक्रवेड़ा के भीतर विष्णु-पाद-पद्मों के दर्शनों के निमित्त गये। ब्राह्मणों ने पाद-पद्मों पर माला-पुष्प चढ़ाने को कहा। ये अपने विद्यार्थियों के द्वारा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, माला  आदि सभी पूजन की बहुत-सी सामग्री साथ लिवाते गये थे।

गयाधाम के तीर्थ-पण्डा जोरों से पाद-पद्मों का प्रभाव वर्णन कर रहे थे। वे उच्च स्वर से कह रहे थे- ‘इन्हीं पाद-पद्मों के धोवन से जगत-पावनी मुनि-मन-हारिणी भगवती भागीरथी  की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं चरणों का लक्ष्मी जी बड़ी श्रद्धा के साथ निरन्तर सेवन करती रहती हैं। इन्हीं चरणों का ध्यान योगीजन अपने हृदय-कमल में निरन्तर करते रहते हैं। इन्हीं चरणों को प्रभु ने गयासुर के मस्तक पर रखकर उसे सद्गति प्रदान की थी।’

असंख्य लोगों की भीड़ थी, हजारों आदमी पाद-पद्मों के दर्शन कर रहे थे और बीच-बीच में जय-घोष करते जाते थे। पण्डा लोग उनसे भेंट चढ़ाने का आग्रह कर रहे थे। बार-बार पाद-पद्मों का पुण्य-माहात्म्य सुनाया जा रहा था। पाद-पद्मों का माहात्म्य सुनते ही निमाई पण्डित आत्मविस्मृत हो गये। उन्हें शरीर का होश नहीं रहा। शरीर थर-थर काँपने लगा, युगल अरुण ओष्ठ कोमल पल्लव की भाँति हिलने लगे। आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। उनके चेहरे से भारी तेज निकल रहा था। वे एकटक पाद-पद्मों की ओर निहार रहे थे। वे कहाँ खड़े हैं, उनके पास कौन है, किसने उन्हें स्पर्श किया, इन सभी बातों का उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे संज्ञाशून्य-से होकर काँप रहे हैं, उनका शरीर उनके वश में नहीं है, वे मूर्च्छित होकर गिरने वाले ही थे कि सहसा एक तेजस्वी संन्यासी का सहारा लगने से वे गिरने से बच गये। उनके साथियों ने उन्हें पकड़ा और भीड़ से हटाकर जल्दी से बाहर ले गये।

बाहर पहुँचकर उन्हें कुछ होश आया और वे निद्रा से उठे मनुष्य की भाँति अपने चारों ओर आँखें उठा-उठाकर देखने लगे। सहसा उनकी दृष्टि एक लम्बे-से तेजस्वी संन्यासी पर पड़ी। वे उन्हें देखकर एक साथ चौंक उठे, उनके आनन्द का वारापार नहीं रहा। इन्होंने दौड़कर संन्यासी जी के चरण पकड़ लिये। अपनी आँखों से अश्रुविमोचन करते हुए संन्यासी ने इन्हें उठाकर गले से लगा लिया। इनके स्पर्शमात्र से संन्यासी महाशय बेहोश हो गये। दोनों ही आत्मविस्मृत थे। दोनों को ही शरीर का होश नहीं था, दोनों ही प्रेम में विभोर होकर अश्रुविमोचन कर रहे थे। यात्री इन दोनों के ऐसे अलौकिक प्रेम को देखकर आनन्द-सागर में गोते खाने लगे। बहुत-से लोग रास्ता चलते-चलते खड़े हो गये। चारों ओर से लोगों की भीड़ लग गयी। कुछ काल में संन्यासी को कुछ-कुछ चेतना हुई। उन्होंने बड़े ही प्रेम से इनका हाथ पकड़कर एक ओर बिठाया और अत्यन्त प्रेमपूर्ण वाणी से वे कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! आज मेरा भाग्योदय हुआ जो सहसा मुझे तुम्हारे दर्शन हो गये।

नवद्वीप में ही मेरा हृदय तुम्हारी ओर स्वाभाविक ही खिंचा-सा जाता था। मुझसे लोग कहते- ‘निमाई पण्डित  कोरे पोथी के ही पण्डित हैं, बड़े चंचल हैं, देवता तथा वैष्णवों की खिल्लियाँ उड़ाते हैं। आप उनहें अपना ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ सुनाकर क्या लाभ उठावेंगे?’ कोई-कोई तो यहाँ तक कहता- ‘अजी, ये तो पूरे नास्तिक हैं। वैष्णवों को छेड़ने में ही इन्हें मजा आता है।’ मैं उन सबकी बातें सुनता और चुप हो जाता। मेरा अन्तःकरण इन बातों को कभी स्वीकार ही नहीं करता था। मैं बार-बार यही सोचता था- ‘निमाई पण्डित- जैसे सरस, सरल, सहृदय और भावुक पुरुष, भक्तिहीन कभी हो नहीं सकते। इनके मुख का तेज ही इनकी भावी शक्ति का परिचय दे रहा है। आज आपके दर्शन के समय के भाव को देखकर मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। मैं कृतकृत्य हो गया।

भगवत-दर्शन से जो आनन्द मिलता है, उसी आनन्द का मैं अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने आनन्द को प्रकट करने में असमर्थ हूँ।’ इतना कहते-कहते संन्यासी महाशय का गला भर आया। आगे वे कुछ और भी कहना चाहते थे, किन्तु कह नहीं सके। उनके नेत्रों में से अश्रुधारा अब भी पूर्ववत बह रही थी।

संन्यासी महाराज की बातें सुनते-सुनते इन्हें कुछ चेतना हो गयी थी। इसलिये रूँधे हुए कण्ठ से कुछ अस्पष्ट स्वर में इन्होंने कहा- ‘प्रभो! आज मैं कृतार्थ हुआ। मेरी गया-यात्रा सफल हुई। मेरी असंख्यों पीढि़यों का उद्धार हो गया, जो यहाँ आने पर आपके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीर्थ में श्राद्ध करने पर तो उन्हीं पितरों की मुक्ति होती है, जिनके निमित्त श्राद्ध-तर्पणादि कर्म किये जाते हैं, किन्तु आप-जैसे परम भागवत वैष्णवों के दर्शन से तो करोड़ों पीढ़ियों के पितर स्वतः ही मुक्त हो जाते हैं। सब लोगों को आपके दर्शन दुर्लभ हैं। जिनका भाग्योदय होता है, उन्हीं को आपके दर्शन होते हैं।’ यह कहते-कहते इन्होंने फिर से संन्यासी महाशय के चरण पकड़ लिये।

संन्यासी जी ने हठपूर्वक अपने चरण छुड़ाये और इन्हें प्रेम वाक्यों से आश्वासन दिया। पाठक समझ ही गये होंगे ये संन्यासी महाशय कौन हैं। ये वे ही भक्ति-बीज के अंकुरित करने वाले श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी जी के सर्वप्रधान प्रिय शिष्य  श्री ईश्वरपुरी हैं, जिन्हें अन्तिम समय में गुरुदेव अपना सम्पूर्ण तेज प्रदान करके इस संसार से तिरोहित हो गये थे। नवद्वीप के प्रथम मिलन में ही ये निमाई पण्डित के अलौकिक तेज और अद्वितीय रूप-लावण्य पर मुग्ध होकर इन्हें एकटक देखते-के-देखते ही रह गये थे। इन्हें इस प्रकार देखते देखकर निमाई पण्डित ने हँसकर कहा था- ‘आज हमारे घर ही भिक्षा कीजियेगा, तभी हमें दिनभर भलीभाँति देखते रहने का सुअवसर प्राप्त हो सकेगा।’

उनकी प्रार्थना पर ये उनके घर भिक्षा करने गये थे और कुछ काल तक अपने स्वसम्पादित ग्रन्थ ‘श्रीकृष्णलीलामृत’ को भी उन्हें सुनाते रहे। तभी से पुरी महाशय के हृदय-पटल पर इनकी प्रेममयी मनोहर मूर्ति खिंच गयी थी। आज सहसा भेंट हो जाने पर दोनों ही आनन्द में डूब गये और आनन्द के उद्वेग में ही उपर्युक्त बातें हुई थीं। पुरी महाशय की आज्ञा लेकर निमाई पण्डित अपने स्थान के लिये विदा हुए। स्थान पर पहुँचकर इन्होंने साथियों को संग लेकर गया के सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों के दर्शन किये और वहाँ जाकर यथाविधि शास्त्ररीत्यनुसार श्राद्ध और पिण्डादि पितृ-कर्म किये।

अन्तः सलिता भगवती फल्गुनदी में जाकर इन्होंने पितरों के लिये बालुका के पिण्ड दिये। फल्गुका प्रवाह गुप्त है। उसका जल नीचे-ही-नीचे बहता है। ऊपर से बालू ढकी रहती है। बालू को हटाकर जल निकाला जाता है और यात्री उससे स्नान-सन्ध्यादि कृत्य करते हैं। प्रेत-गया, राम-गया, युधिष्ठिर-गया, भीम-गया, शिव-गया आदि सोलहों गया में निमाई पण्डित  ने अपने साथियों के साथ जा-जाकर पितरों के पिण्ड और श्राद्धादि कर्म किये, सब स्थानों में दर्शन तथा श्राद्ध करके ये अपने ठहरने के स्थान पर लौट आये।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(29)
प्रेम-स्त्रोत उमड़ पड़ा

श्रृण्वन्सुभद्राणि रथांगपाणे- र्जन्मानि कर्माणि च यानिलोके।

गीतानि नामानि तदर्थकानि गायन्विलज्जो विचरेदसंगः।।[1]

रथांगपाणिभगवान के ‘चक्रपाणि’ ‘गोपिजनवल्लभ’ ‘राधारमण’ आदि सुन्दर और सुमनोहर नामों का तथा उसके अर्थों का गान और उनकी अलौकिक दिव्य-दिव्य लीलाओं का संकीर्तन करता हुआ श्रेष्ठ भक्त निर्लज्ज और निरीह होकर निःसंगभाव से पृथ्वी पर विचरण करे। श्रीमद्भा. 11/2/39

संसार में उन्हीं मनुष्यों का जीवन धारण करना सार्थक कहा जा सकता है, जिनके हृदय-पटल पर हर समय मुरली मनोहर मुकुन्द की मंजुल मूर्ति नृत्य करती रहती हो। जिनके कर्ण-रन्ध्रों में प्रतिक्षण मनोहर मुरली की मधुर तान सुनायी पड़ती रहती हो। जिनके चक्षु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का दर्शन ही न करना चाहते हों, जिनका मनमधुप सदा भक्त-भयहारी भगवान के चरण-कमलों का मधुरातिमधुर मकरन्द-पान करता रहता हो, ऐसे शुभ-दर्शन भक्त स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, वे सम्पूर्ण संसार को भी अपनी पद-रज से पावन बना देते हैं। उनकी वाणी में उन्माद होता है, दृष्टि में जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होती है, उनके सभी कार्य अलौकिक होते हैं, उनके सम्पूर्ण कार्य लोकबाह्य और संसार के कल्याण करने वाले ही होते हैं।

निमाई पण्डित की हृदय-कन्दरा में से जो त्रैलोक्यपावन प्रेम-स्त्रोत उमड़ने वाला था, जिसका सूत्रपात चिरकाल से हो रहा था, अद्वैताचार्य आदि भक्तगण जिसकी लालसा लगाये वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, उस स्त्रोत का पृथ्वी पर परिस्फुट होने का सुहावना समय अब सन्निकट आ पहुँचा। जगत-विख्यात गयाधाम को ही उसके प्रकट करने का अखण्ड यश प्राप्त हो सका। यही पावन पृथ्वी इसका कारण बन सकी। अहा ‘वसुन्धरा पुण्यवती च तेन’। सचमुच वह वसुन्धरा बड़भागिनी है, जिसका संसर्ग किसी महापुरुष की लोकविख्यात घटना के साथ हो सके। वही संसार में पावन तीर्थ के नाम से विख्यात हो जाता है। निमाई पण्डित अपने निवास स्थान पर अन्य साथियों के साथ भोजन बना रहे थे। दाल-साग बनकर तैयार हो चुके थे। चूल्हे में से थोड़ी अग्नि निकालकर दाल को उस पर रख दिया था। साग दूसरी ओर चौके में ही रखा था। चूल्हे पर भात बन रहा था। निमाई उसे बार-बार देखते। चावल तैयार तो हो चुके थे, किन्तु उनमें थोड़ा-सा जल और शेष था, उसे जलाने के लिये और भात केा शुष्क बनाने के लिये हमारे पण्डित ने उसे ढक दिया था। थोड़ी देर बाद वे कटोरी को भात पर से उतार ही रहे थे कि इतने में ही उन्हें दूर से पुरी महाशय अपनी ओर आते हुए दिखायी दिये। कटोरी को ज्यों-की-त्यों ही पृथ्वी पर पटककर ये उनकी चरण-वन्दना करने के लिये दौड़े। पुरी ने प्रेमपूर्वक इनका आलिंगन किया और वे हँसते हुए बोले- ‘अपने स्थान से किसी शुभ मुहूर्त में ही चले थे, जो ठीक तैयारी के समय पर आ पहुँचे।’

नम्रता के साथ निमाई पण्डित  ने उत्तर दिया- ‘जिस समय भाग्योदय होता है और पुण्य-कर्मों के संस्कार जागृत होते हैं, उस समय आप-जैसे महानुभावों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। भोजन बिलकुल तैयार है, हाथ-पैर धोइये ओर भिक्षा करने की कृपा कीजिये।’

हँसते हुए पुरी महाशय बोले- ‘यह खूब कही, अपने लिये बनाये हुए अन्न को हमें ही खिला दोगे, तब तुम क्या खाओगे?’ नम्रता के साथ नीची निगाह करके इन्होंने उत्तर दिया- ‘अन्न तो आप ही का है, मैं तो केवल रन्धन करने वाला पाचकमात्र हूँ, आज्ञा होगी तो और बना दूँगा।’ पुरी ने देखा ये भिक्षा बिना कराये मानेंगे नहीं। इसलिये बोले- ‘अच्छा, फिर से बनाने की क्या आवश्यकता है, जो बना है उसी में से आधा-आधा बाँटकर खा लेंगे। क्यों मंजूर है न? किन्तु हम ठहरे संन्यासी और तुम ठहरे गृहस्थी। हमारी भिक्षा होगी और तुम्हारा होगा भोजन। इस प्रकार कैसे काम चलेगा? तुम भी थोड़ी देर के लिये भिक्षा ही कर लेना।’

कुछ हँसते हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘अच्छा, जैसी आज्ञा होगी, वही होगा। आप पहले हाथ-पैर तो धावें।’ यह कह इन्होंने अपने हाथों से पुरी जी के पैर धोये और उन्हें एक सुन्दर आसन पर बिठाया। पुरी महाशय बैठकर भोजन करने लगे। जब निमाई-जैसे प्रेमावतार परोसने वाले हों, तब भला फिर किसी तृप्ति हो सकती है, धीरे-धीरे इन्होंने आग्रह कर-करके सभी सामान पुरी महाशय को परोस दिया और वे भी प्रेम के वशीभूत होकर सारा खा गये। अग्नि तो जल ही रही थी, क्षणभर में ही दूसरी बार भी भोजन तैयार हो गया मानो अन्नपूर्ण ने आकर स्वयं ही भोजन तैयार कर दिया हो। भोजन तैयार होने पर इन्होंने भी भोजन किया और फिर परस्पर बातें होने लगीं।

हाथ जोड़े हुए निमाई पण्डित ने कहा- ‘भगवन! अब तो हमें बहुत दिन इस ब्राह्यवृत्ति के जीवन को बिताते हुए हो गये, अब हमें अपने चरणों की शरण प्रदान कीजिये। कृपा करके थोड़ी-बहुत श्रीकृष्णभक्ति हमें भी दीजिये।’

इनकी बात का उत्तर देते हुए पुरी महाशय ने कहा- ‘आप तो स्वयं ही श्रीकृष्ण-स्वरूप हैं, आपको भला भक्ति कौन प्रदान कर सकता है? आप स्वयं ही सम्पूर्णज्ञ संसार को प्रेम-प्रदान कर सकते हैं।’ दीनता के साथ इन्होंने कहा- ‘प्रभो! मेरी वंचना न कीजिये। मेरी प्रार्थना स्वीकृत कीजिये और मुझे श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान कर दीजिये।’ पुरी ने सरलता के साथ कहा- ‘आप श्रीकृष्ण-मन्त्र प्रदान करने को ही कहते हैं, हम आपके कहने पर अपने प्राण प्रदान कर सकते हैं, किन्तु हममें इतनी योग्यता हो तब तो? हम स्वयं अधम हैं।

प्रेम का रहस्य हम स्वयं नहीं जानते फिर आप-जैसे कुलीन और विद्वान ब्राह्मण को हम मन्त्र प्रदान कैसे कर सकेंगे?’ बड़ी सरलता के साथ आँखों में आँसू भरे हुए इन्होंने उत्तर दिया- ‘आप सर्वसामर्थ्यवान हैं, आप स्वयं ईश्वर हैं। आपका श्रीविग्रह ही प्रेम की सजीव मूर्ति है। आप चाहें तो संसार भर को प्रेम-पीयूष में प्लावित कर सकते हैं।’ कुछ विवशता दिखाते हुए पुरी ने कहा- ‘संसार को प्रेम-पीयूष के पुण्य-पयोधि में परिप्लावित करने की एकमात्र शक्ति तो आप में ही है, किन्तु आप अपने गुरुपद के गुरुतर गौरव का सौभाग्य मुझे ही प्रदान करना चाहते हैं, तो मैं विवस हूँ। आपकी आज्ञा को टाल ही कौन  सकता है। जैसी आपकी आज्ञा होगी, उसी प्रकार मैं करने के लिये तैयार हूँ।’ इतना कहकर पुरी महाशय मन्त्र-दीक्षा देने के लिये तैयार हो गये। उसी समय पत्रा देखकर दीक्षा की शुभ तिथि निश्चित की गयी। नियत तिथि आ गयी।

निमाई पण्डित नवीन उल्लास और आनन्द के साथ मन्त्र-दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गये। इनके सभी साथियों ने उस दिन दीक्षोत्सव के उपलक्ष्य में खूब तैयारियाँ की थीं। नियत समय पर पुरी महाशय आ गये। उनकी पद-धूलि इन्होंने मस्तक पर चढ़ाई और स्वस्त्ययन के पुण्य-श्लोक पढ़कर और भगवान के मधुर-मंजुल नामों का संकीर्तन करने के अनन्तर पुरी महाशय ने इनके कान में ‘गोपीजनवल्लभाय नमः’ इस दशाक्षरमन्त्र का उपदेश कर दिया। मन्त्र के श्रवणमात्र से ही ये मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और इन्हें अपने शरीर का बिलकुल ही होश नहीं रहा। साथियों ने भाँति-भाँति के उपचार करके इन्हें सावधान किया। बहुत देर के अनन्तर इन्हें कुछ होश हुआ। तब तो इनकी विचित्र ही दशा हो गयी। कभी तो खूब जोरों के साथ हँसते, कभी रोते और कभी ‘हा कृष्ण! हा पिता!’ ऐसा कहकर जोरों से रुदन करते। कभी यह कहते हुए कि ‘मैं तो श्रीकृष्ण  के पास व्रज में जाऊँगा’ व्रज की ओर भागते। इनके साथी इन्हें पकड़-पकड़कर लाते, किन्तु ये पागलों की भाँति उनसे अपने शरीर को छुड़ा-छुड़ाकर भागते। कभी फिर उसी भाँति जोरों से प्रलाप करने लगते। रोते-रोते कहते- ‘प्यारे! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चले गये? मेरे कृष्ण! मुझे अपने साथ ही ले चलो।’ इतना कहकर फिर जोरों से रोने लगते।

कभी रोते-रोते अपने विद्यार्थियों तथा साथियों से कहते- ‘भैया! तुम लोग अब अपने-अपने घर जाओ। अब हम लौटकर घर नहीं जायँगे, हम तो अब श्रीकृष्ण के पास वृन्दावन में ही जाकर रहेंगे। हमारी माता को हमारा हाथ जोड़कर प्रणाम कहना और कह देना तेरा निमाई तो पागल हो गया है।’ इनके सभी साथी इनकी ऐसी अलौकिक दशा देखकर चकित रह गये और इनका भाँति-भाँति से प्रबोध करने लगे, किन्तु ये किसी की मानते ही नहीं थे। इस प्रकार रुदन तथा प्रलाप में रात्रि हो गयी। सभी साथी तथा शिष्यगण सुख की नींद में सो गये, किन्तु इन्हें नींद कहाँ? सुखी संसार सुखरूपी मोह-निशा में शयन कर सकता है, किन्तु जिनके हृदय में विरह-वेदना की तीव्र ज्वाला उठ रही है, उनके नयनों में नींद कहाँ? सबके सो जाने पर ये जल्दी से उठ खड़े हुए और रात्रि में ही रुदन करते हुए व्रज की ओर दौड़े। इनके प्राण श्रीकृष्ण से मिलन के लिये छटपटा रहे थे। इन्होंने साथी तथा शिष्यों की कुछ भी परवा न की और घोर अन्धकार में अकेले ही अलक्षित स्थान की ओर चल पड़े। ये थोड़ी दूर ही चले होंगे कि इन्हें मानो अपने हृदय में एक दिव्य वाणी सुन पड़ी। इन्हें भास हुआ मानो कोई अलक्षित भाव से कह रहा है- ‘तुम्हारा व्रज में जाने का अभी समय नहीं आया है, अभी कुछ काल और धैर्य धारण करो। अभी अपने सत्संग से नवद्वीप के भक्तों को आनन्दित करके प्रेमदान करो। योग्य समय आने पर ही तुम व्रज में जाना।’ आकाशवाणी का आदेश पाकर ये लौटकर अपने स्थान पर आ गये और आकर अपने आसर पर पड़ गये।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(30)
नदिया में प्रत्यागमन

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।

हसत्यथो रोदिति रौति गाय- त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः।।[1]

नाम-संकीर्तन करने के कारण जिसका प्रभु के पाद-पद्मों में दृढ़ अनुराग उत्पन्न हो गया है, जिसका चिन्त प्रेम से द्रवीभूत हो गया है ऐसा भक्त पिशाच से पकडे़ हुए के समान अथवा पागल की भाँति कभी तो जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ता है, कभी दहाड़ मारकर रोता है, कभी रोते-रोते हू-हू करके चिल्लाने लगता है, कभी गाने लगता है और कभी संसार की कुछ भी परवा न करते हुए आनन्द उद्वेग में नृत्य करने लगता है। (ऐसे ही भक्तों के पाद-पद्मोंकी रज से यह पृथ्वी पावन बनती है)। श्रीमद्भा. 11/2/40

प्रेम में पागल हुए उन मतवालों के दर्शान जिन लोगों को स्वप्न में भी कभी हो जाते हैं, वे संसार में बड़भागी हैं, फिर ऐसे भक्तों के निरन्तर सत्संग का सौभाग्य जिन्हें प्रापत हो सका है, उनके भाग्य की तो भला सराहना कर ही कौन सकता है? इसीलिये तो महाभागवत विदुर जी ने भगवत-दासों के दासों का दास बनने में ही अपने को कृतकृत्य माना है। सचमुच भगवत-संगियों का संग बड़ा ही मधुमय, आनन्दमय और रसमय होता है। उनका क्षणभर का भी संसर्ग हमें संसार से बहुत दूर ले जाता है। उनके दर्शनमात्र से ही आनन्द उमड़ने लगता है।

निमाई पण्डित को मन्त्र-दीक्षा देकर श्रीईश्वरपुरी किधर और कहाँ चले गये, इसका अन्त तक किसी को पता नहीं चला। उन्होंने सोचा होगा, जगत-पूज्य प्रेमावतार लोक-शिक्षा के निमित्त गुरु मानकर हमें प्रणाम करेंगे, यह हमारे लिये अहसनीय होगा, इसलिये अब इस संसार में प्रकट रूप से नहीं रहना चाहिये। इसीलिये वे उसी समय अन्तर्धान हो गये। फिर जाकर कहाँ रहे, इसका ठीक-ठीक पता नहीं। इधर प्रातःकाल निमाई पण्डित उठे। लोगों ने देखा उनके शरीर का सारा कपड़ा आँसुओं से भीगा हुआ है, वे क्षणभर के लिये भी रात्रि में नहीं सोये थे। रातभर ‘हा कृष्ण! मेरे प्यारे! ओः बाप! मुझे छोड़कर किधर चले गये?’ इसी प्रकार विरहयुक्त वाक्यों के द्वारा रुदन करते रहे। इनकी ऐसी विचित्र अवस्था देखकर अब साथियों ने गया जी में अधिक ठहरना उचित नहीं समझा। इनके शिष्य इन्हें बड़ी सावधानी के साथ इनके शरीर को सँभालते हुए नवद्वीप की ओर ले चले। ये किसी अचैतन्य पदार्थ की भाँति शिष्यों के सहारे से चलने लगे। शरीर का कुछ भी होश नहीं है। कभी-कभी होश में आ जाते हैं, फिर जोरों से चिल्ला उठते हैं, ‘हा कृष्ण! किधर चले गये?

प्राणनाथ! रक्षा करो! पतितपावन! इस पापी का भी उद्धार करो।’ इस प्रकार ये श्रीकृष्ण प्रेम में बेसुध हुए साथियों के सहित कुमारहट्ट नाम के ग्राम में आये। जिनसे इन्होंने श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा ली थी, जिन्होंने इन्हें पण्डित से पागल बना दिया था, उन्हीं श्रीईश्वरपुरी जी का जन्मस्थान इसी कुमारहट्ट नामक ग्राम में था। प्रभु ने उस नगरी को दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया। फिर साधारण लोगों को गुरुमहिमा का महत्त्व बताने के लिये इन्होंने उस ग्राम की धूलि अपने वस्त्र में बाँध ली और साथियों से कहा- ‘इस धूलि में कभी श्रीगुरुदेव के चरण पड़े होंगे।

बाल्यकाल में हमारे गुरुदेव का श्रीविग्रह इसमें कभी लोट-पोट हुआ होगा। इसलिये यह रज हमारे लिये अत्यन्त ही पवित्र है। इससे बढ़कर त्रिलोकी में कोई भी वस्तु नहीं हो सकती। कुमारहट्ट का कुत्ता भी हमारे लिये वन्दनीय है। जिस स्थान में हमारे गुरुदेव ने जन्म धारण किया है, जहाँ की पावन भूमि में उन्होंने क्रीड़ा की है, वह हमारे लिये लाखों तीर्थों से बढ़कर है।’ इस प्रकार गुरुदेव का माहात्म्य प्रदर्शन करते हुए वह आगे बढ़े और थोड़े दिनों में नवद्वीप पहुँच गये। इनके गया से लौट आने का समाचार सुनकर सभी इष्ट-मित्र, स्नेही तथा छात्र इनके दर्शन के लिये आने लगे। कोई आकर इन्हें प्रणाम करता, कोई चरण-स्पर्श करता, कोई गले लगकर मिलता। ये भी सबका यथोचित आदर करते। किसी को पुचकारते, किसी को आशीर्वाद देते, किसी के सिर पर हाथ रख देते और जो अवस्था में बड़े थे और इनके माननीय थे, उन्हें ये स्वयं प्रणाम करते। वे इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। शचीमाता तथा विष्णुप्रिया के आनन्द का तो कुछ ठिकाना ही नहीं था। वे मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थीं। उस भारी भीड़ में वे दोनों एक ओर चुपचाप बैठी थीं। सबसे मिल लेने पर इन्होंने प्रेमपूर्वक सभी को विदा किया और स्वयं स्नानादि में लग गये। इनका भाव विचित्र था, शरीर की दशा एकदम परिवर्तित हो गयी थी। माता को इनकी ऐसी दशा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, किन्तु वे कुछ पूछ न सकीं।

तीसरे पहर जब ये स्वस्थ होकर बैठे तब श्रीमान पण्डित सदाशिव कविराज, मुरारी गुप्त आदि इनके अन्तरंग स्नेही इनके समीप आकर गया-यात्रा का वृत्तान्त पूछने लगे। सबकी जिज्ञासा देखकर इन्होंने कहना प्रारम्भ किया- ‘पुरी की यात्रा का क्या वर्णन करूँ? मैं तो पागल हो गया। जिस समय पादपद्मों का माहात्म्य मेरे कानों में पड़ा, जब मैंने सुना कि प्रभु के पादपद्म सभी प्रकार के प्राणियों को पावन और प्रेममय बनाने वाले हैं, पापी-से-पानी प्राणी भी इन पादपद्मों का सहारा पाकर अपार संसार-सागर से सहज में ही तर जाता है, जिन पादपद्मों के प्रक्षालित पय से त्रिलोकपावनी भगवती भागीरथी निकली हैं, उन पादपद्मों के दर्शन करने से किसे परमशान्ति न मिल सकेगी?’ इतना सुनते ही मैं बेहोश हो गया।

प्रभु अन्तिम शब्दों को ठीक-ठीक कह भी न पाये थे कि वे बीच में ही बेहोश होकर गिर पड़े। लोगों को इनकी ऐसी दशा देखकर महान आश्चर्य हुआ। सभी भौचक्के से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तीन महीने पहले उन्होंने जिस निमाई को देखा था, आज उसे इस प्रकार प्रेम में विह्वल देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। निमाई लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे थे। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे, शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। थोड़ी देर में वे ‘हा कृष्ण! हा प्राणनाथ! प्यारे! ओ मेरे प्यारे! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये?’ यह कहते-कहते बहुत जोरों के साथ रुदन करने लगे। सभी ने शान्त करने की चेष्टा की, किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। इन्होंने रूँधे हुए कण्ठ से कहा- ‘आज हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। कल हम स्वयं शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के निवासस्थान पर आकर अपनी यात्रा का समाचार सुनायँगे।’ इतना सुनकर इनके सभी साथी अपने-अपने स्थानों के लिये चले गये।

अब तो इनके इस अद्भुत नूतन भाव की नवद्वीप में स्थान-स्थान पर चर्चा होने लगी। हँसते-हँसते श्रीमान पण्डित ने श्रीवास आदि भक्तों से कहा- ‘आज हम आप लोगों को बड़ी ही प्रसन्नता की बात सुनाना चाहते हैं, आप लोग सभी सुनकर परम आश्चर्य करेंगे। गया में जाकर निमाई पण्डित  की तो काया पलट ही हो गयी। वे श्रीकृष्ण-प्रेम में विह्वल होकर कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी हँसते हैं और कभी-कभी जोरों से नृत्य करने लगते हैं। उनके जीवन में महान परिवर्तन हो गया है। आज तक किसी को स्वप्न में भी ऐसी आशा नहीं थी कि उनका जीवन इस प्रकार एक साथ ही इतना पलटा खा जायगा।’

परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘सचमुच ऐसी बात है? तब तो फिर वैष्णवों के भाग्य ही खुल गये। वैष्णवों का एक प्रधान आश्रय हो गया। निमाई पण्डित के वैष्णव हो जाने पर भक्ति फिर से सनाथ हो गयी। आप हँसी तो नहीं कर रहे हैं? क्या यथार्थ में ऐसी बात है?’

जोर देकर श्रीमान पण्डित ने कहा- ‘मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, हँसी का क्या काम? आप स्वयं जाकर देख आइये, वे तो बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन कर रहे हैं। कल सदाशिव, मुरारी आदि सभी लोगों को शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर बुलाया है, वहाँ अपनी यात्रा का समस्त वृत्तान्त सुनावेंगे।’ इस बात को सुनकर श्रीवास आदि सभी भक्तों को परम सन्तोष हुआ। किन्तु गदाधर पण्डित को अब भी कुछ सन्देह ही बना रहा। उन्होंने निश्चय किया कि ब्रह्मचारी के घर में छिपकर सब बातें सुनूँगा, देखें उन्हें यथार्थ में श्रीकृष्ण-प्रेम उत्पन्न हुआ है या नहीं। यह सोचकर वे दूसरे दिन नियत समय के पूर्व ही शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के घर में जा छिपे।

नियत समय पर सदाशिव पण्डित, मुरारी गुप्ता, नीलाम्बर चक्रवर्ती तथा श्रीमान पण्डित आदि सभी मुख्य-मुख्य गण्यमान्य भद्रपुरुष प्रभु की यात्रा का समाचार सुनने शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के स्थान पर गंगातीर आ पहुँचे। थोड़ी देर में प्रभु भी आ पहुँचे। आते ही इन्होंने वही राग अलापना आरम्भ कर दिया। कहने लगे- ‘भैया! मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरा प्यारा कृष्ण कहाँ चला गया? हाय रे! मेरा दुर्भाग्य! मेरा श्रीकृष्ण मुझसे बिछुड़ गया! मुझे बिलखता ही छोड़ गया।’ इतना कहते-कहते ये मूर्च्छित होकर गिर पड़े। इनकी ऐसी दशा देखकर भीतर घर में छिपे हुए गदाधर भी प्रेम में विह्वल होकर मूर्छा आने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े और जोरों से रुदन करने लगे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु की मूर्छा भंग हुई वे कुछ काल के लिये प्रकृतिस्थ हुए, किन्तु फिर भारी वेदना उठने के कारण जोरों से चीत्कार मारकर रुदन करने लगे। इनके रुदन को देखकर वहाँ जितने भी मनुष्य बैठे थे, सभी फूट-फूटकर रोने लगे। सबके रुदन से आकाश गूँजने लगा। क्रन्दन की ध्वनि से आकाशमण्डल भर गया। बहुत-से दर्शनार्थी आ-आकर खड़े हो गये। उनकी आँखों से भी अश्रु बहने लगे। इस प्रकार शुक्लाम्बर का घर रुदन के कारण कोलाहलपूर्ण हो गया।

कुछ काल के अनन्तर फिर प्रभु सुस्थिर हुए। उन्हें कुछ-कुछ बाह्यज्ञान होने लगा। स्थिर होने पर प्रभु ने शुक्लाम्बर जी से पूछा- ‘ब्रह्मचारी जी! घर के भीतर कौन है?’

प्रेम के साथ ब्रह्मचारी जी ने कहा- ‘आपका गदाधर है।’ ‘गदाधर’ इतना सुनते ही वे फिर फूट-फूटकर रोने लगे। रोते-रोते कहने लगे- ‘गदाधर! भैया! तुम ही धन्य हो। मनुष्य जन्म का यथार्थ फल तो तुमने ही प्राप्त किया है, हम तो वैसे ही रह गये। हमारी तो आयु वैसे ही बरबाद हुई।’ इतना कहकर फिर वही ‘हा कृष्ण! हा अशरणशरण! हा पतितपावन! कहाँ चले गये।’ फिर अधीर होकर लोगों के पैरों पर अपना सिर रख-रखकर कहने लगे- ‘भैया! मुझ दुखिया के ऊपर दया करो! मेरे दुःख को दूर करो। मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो।

मेरे प्राण उन्हीं से मिलने के लिये तड़प रहे हैं।’ प्रभु के इन दीनता भरे वाक्यों को सुनकर सभी का हृदय फटने लगा। सभी प्रेमावेश में आकर रुदन करने लगे। सभी अपने आपे को भूल गये। इस प्रकार रुदन और विलाप करते हुए शाम हो गयी और सभी अपने-अपने घर लौट आये।

दूसरे दिन स्वस्थ होकर महाप्रभु अपने विद्या-गुरु श्रीगंगादास पण्डित के घर गये और उन्हें प्रणाम करके बैठ गये।” गंगादास जी ने इनका आलिंगन किया और यात्रा का सभी वृत्तान्त पूछा। वे कहने लगे- ‘तुमने तो तीन-चार महीने लगा दिये। तुम्हारे सभी विद्यार्थी अत्यन्त दुःखी थे, उन्हें तुम्हारे पाठ के अतिरिक्त किसी पण्डित का पाठ अच्छा ही नहीं लगता है। इसीलिये वे लोग तुम्हारी बहुत प्रतीक्षा कर रहे थे। अच्छा हुआ अब तुम आ गये। अब तो पढ़ाओगे न?’

महाप्रभु ने कहा- ‘हाँ, प्रयत्न करूँगा, श्रीकृष्ण कृपा करेंगे तो सब कुछ होगा। सब उन्हीं के ऊपर निर्भर है।’ इस प्रकार उन्हें आश्वासन देकर फिर आप मुकुन्द संजय के चण्डीमण्डप में, जहाँ आपकी पाठशाला थी, वहाँ आये। संजय महाशय बड़े ही आनन्द के साथ प्रभु से मिले। उनके पुत्र पुरुषोत्तम संजय ने प्रभु के पादपद्मों में श्रद्धाभक्ति के साथ प्रणाम किया। प्रभु ने उसे आलिंगन किया। इस प्रकार दोनों पिता-पुत्र प्रभु के दर्शनों से परम प्रसन्न हुए।

स्त्रियों ने जब प्रभु के आगमन के समाचार सुने तो वे बड़ी ही आनन्दित हुईं और परस्पर में भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। कोई कहती- ‘अब तो निमाई पण्डित एकदम बदल आये।’ कोई कहती- ‘बड़े भाग्य से भगवत-भक्ति प्राप्त होती है। यह सौभाग्य की बात है कि निमाई-जैसे पण्डित परम भागवत वैष्णव बन गये।’ इस प्रकार सभी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरूप भाँति-भाँति की बातें कहने लगीं। सबसे मिल-जुलकर निमाई घर लौट आये।

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श्री श्रीचैतन्य चरित्र 31-45

Chaitnya Charitra 31-45

( श्री श्रीचैतन्य चरित्र 31-45 )



|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(31)
वही प्रेमोन्माद

यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धस- त्याक्रन्दते ध्यायति वन्दते जनम्।

मुहुः श्वसन वक्ति हरे जगत्पते नारायणेत्यात्मगतिर्गतत्रपः।।[1]

प्रेमी भक्त प्रेम के भावावेश में पिशाच से पकड़े जाने वाले मनुष्य के समान कभी तो खिलखिलाकर हँस पड़ता है, कभी जोरों से चीत्कार करने लगता है, कभी भगवान की मंजुल मूर्ति का ध्यान करने लगता है, कभी लोगों के चरण पकड़-पकड़कर उनकी वन्दना करता है, फिर बार-बार लम्बी-लम्बी साँसे छोड़ने लगता है। लोकलज्जा की कुछ भी परवा न करता हुआ जोरों से हे हरे! जगत्पते! हे नारायण! इस प्रकार उच्चारण करने लगता है। श्रीमद्भा. 7/7/35

जिसके हृदय में भगवत्प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे फिर अन्य संसारी बातें भली ही किस प्रकार लग सकती हैं? जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वाद कर लिया फिर वह गुड़ के मैल को आनन्द और उल्लास के साथ स्वेच्छा से कब पसन्द कर सकती है? स्थायी प्रेम प्राप्त होने पर तो मनुष्य सचमुच पागल बन जाता है, फिर उसे इस बाह्य-संसार का होश ही नहीं रहता। जिन्हें किन्हीं महापुरुष की कृपा से या किसी पुण्य-स्थान के प्रभाव के क्षणभर के लिये प्रेमावेश हो जाता है, वह तो वास्तव में प्रेम की झलक है। जैसे पर्वत के शिखर के ऊपर के बने हुए मन्दिर की किंचिन्मात्र धुँधली-सी चोटी देखकर सैकड़ों कोस दूर से ही कोई पथिक आनन्द में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे कि हम तो अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच गये। यही दशा उस क्षणिक प्रेमी की है। वास्तव में अभी वह सच्चे प्रेम से बहुत दूर है। प्रेममार्ग में यथार्थ रीति से प्रवेश हो जाने पर तो उसकी वृत्ति संसारी विषयों में प्रवेश कर ही नहीं सकती। वह तो सदा प्रेम-मद में उन्मत्त-सा ही बना रहेगा। वह न तो क्षणभर में ऊपर ही चढ़ जायगा और न दूसरे ही क्षण में नीचे गिर जायगा। उसकी स्थिति तो सदा एक-सी बनी रहेगी। कबीरदास जी कहते हैं-

छनहिं चढ़ै छन ऊतरै, सो तो प्रेम न होय।

अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।।

वास्तव में प्रेमी की स्थिति तो सदा एक ही रस रहती है, उसे प्रतिक्षण अपने प्रियतम से मिलने की छटपटाहट होती रती है। वह सदा अतृप्त ही बना रहता है। प्यारे के सिवा उसका दूसरा कोई है ही नहीं। उसका प्रियतम उसे चाहता है या नहीं इसकी उसे परवा नहीं। इस बात का वह स्वप्न में भी ध्यान नहीं करता। वह तो अपने प्यारे को ही सर्वस्व समझकर उसकी स्मृति में सदा अधीर-सा बना रहता है। रसिक रसखाने ने प्रेम के स्वरूप का क्या ही सुन्दर वर्णन किया है-

इक अंगी बिनु कारनहिं, इकरस सदा समान।

गनै प्रियहिं सर्वस्व जो, सोई प्रेम प्रमान।।

महाप्रभु चैतन्यदेव का प्रेम ऐसा ही था। उनकी हृदय-कन्दरा से जो भक्ति-भाव का भव्य स्त्रोत उदित हो गया, वह फिर सदा उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।

उनकी हृदय-कन्दरा से उत्पन्न हुई भक्ति-भगीरथी की धारा सावन-भादों की क्षुद्र नदी की भाँति नहीं थी जो थोड़े समय के लिये तो खूब इठलाकर चलती है ओर जेठ-मास की तेज धूप पड़ते ही सूख जाती है। उनके हृदय से उत्पन्न हुई प्रेम-सरिता की धारा सदा बहकर समुद्र में ही जाकर मिलने वाली स्थायी थी। उसमें कमी का क्या काम? वह तो उत्तरोत्तर बढ़ने वाली अलौकिक और अनुपम धारा थी, उसकी उपमा इन संसारी धाराओं से दी ही नहीं जा सकती। वह तो अनुभवगम्य ही है। महाप्रभु जब से गया से लौटकर आये हैं, तभी से उनकी विचित्र दशा है। वे भोजन करते-करते सहसा बीच में ही उठकर रुदन करने लगते हैं, रास्ता चलते-चलते पागलों की भाँति नृत्य करने लगते हैं। शय्या पर लेटे-लेटे सहसा उठकर बैठ जाते हैं और ‘हा कृष्ण! हा कृष्ण!’ कहकर जोरों से चिल्लाने लगते हैं। कभी-कभी लोगों से बातें करते-करते बीच में ही जोरों से ठहाका मारकर हँसने लगते हैं। रात भर सोने का नाम नहीं। लम्बी-लम्बी साँसें लेते रहते हैं, अधीर होकर अत्यन्त विरही की भाँति हिचकियाँ भरते रहते हैं और उनके नेत्रों से इतना जल निकलता है कि सम्पूर्ण वस्त्र गीले हो जाते हैं।

विष्णुप्रिया इनकी ऐसी दशा देखकर भयभीत हो जाती हैं और जाकर अपनी सास से सभी बातों को कहती हैं। शचीमाता पुत्र की दशा देखकर दुःख से कातर होकर रुदन करने लगती हैं और सभी देवी-देवताओं की मनौती मानती हैं। वे करुणाभाव से अधीर होकर प्रभु के पादपद्मों में प्रार्थना करती हैं- ‘हे अशरणशरण! इस दीन-हीन कंगालिनी विधवा के एकमात्र पुत्र के ऊपर कृपा करो। दयालो! मैं धन नहीं चाहती, भोग नहीं चाती, सुन्दर वस्त्राभूषण तथा सुस्वादु भोजन की मुझे इच्छा नहीं। मेरा प्यारा, मेरे जीवन का सहारा, मेरी आँखों का तारा यह निमाई स्वचछ और नीरोग बना रहे, यही मेरी प्रार्थना है।’ माता बार-बार निमाई के मुख की ओर देखतीं और उनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर अत्यन्त ही दुःखी होतीं।

महाप्रभु अब जो भी काम करना चाहते, उसे ही नहीं कर सकते। काम करते-करते उन्हें अपने प्रियतम की याद आ जाती और उसी के विरह में बेहोश होकर गिर पड़ते। ठीक-ठीक भोजन भी नहीं कर सकते। स्नान, सन्ध्या, पूजा का उन्हें कुछ भी होश नहीं, मुख से निरन्तर श्रीकृष्ण के मधुर नामों का ही अपने-आप उच्चारण होता रहता है। किसी की बात का उत्तर भी देते हैं तो उसमें भी भगवान की अलौकिक लीलाओं का ही वर्णन होता है। किसी से बातें भी करते हैं, तो श्रीकृष्ण के ही सम्बन्ध की करते हैं। अर्थात वे श्रीकृष्ण के सिवा कुछ जानते ही नहीं हैं। श्रीकृष्ण ही उनके प्राण हैं, श्रीकृष्ण ही उने धन हैं अर्थात उनके सर्वस्व श्रीकृष्ण ही हैं, उनके लिये संसार में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।

प्रभु के सब विद्यार्थियों ने जब सुना कि गुरुजी गयाधाम की यात्रा करके लौट आये हैं, तो एक-एक करके उनके घर पर आने लगे और पाठशाला में चलकर पढ़ाने की प्रार्थना करने लगे। सबके बहुत आग्रह करने पर प्रभु पाठशाला में पढ़ाने के निमित्त गये। किन्तु वे पढ़ावें क्या, लौकिक शास्त्रों को तो वे एकदम भूल ही गये, अब वे श्रीकृष्ण-कीर्तन के अतिरिक्त किसी भी विषय को नहीं कह सकते। उसी पाठ को विद्यार्थियों के लिये पढ़ाने लगे- ‘भैया! इन संसारी शास्त्रों में क्या रखा है? श्रीकृष्ण का नाम ही एकमात्र सार है, वह मधुरातिमधुर है। उसी का पान करो, इन लौकिक शास्त्रों से क्या अभीष्ट सिद्ध होगा? प्राणिमात्र के आश्रय-स्थान श्रीकृष्ण ही हैं। संसार की सृष्टि, स्थिति ओर लय उन ही श्रीकृष्ण की इच्छामात्र से होता रहता है। वे आनन्द के धाम हैं, सुखस्वरूप हैं। उनके गुणों का आर्त होकर गान करते रहना मनुष्यों का परम पुरुषार्थ है।’ इतना कहते-कहते प्रभु उच्च स्वर से कृष्ण-कीर्तन करने लगे।

इन बातों को श्रवण करके कुछ विद्यार्थी तो आनन्द-सागर में मग्न हो गये। वे तो बाह्यज्ञान-शून्य होकर परमानन्द का अनुभव करने लगे। कुछ ऐसे भी थे, जो पुस्तक की विद्या को ही सर्वस्व समझते थे। भट्टाचार्य और शास्त्री बनना ही जिनके जीवन का एकमात्र चरम लक्ष्य था, वे कहने लगे- ‘गुरु जी! आप कैसी बातें कर रहे हैं? हमें इन बातों से क्या प्रयोजन? इन बातों का विचार तो वैष्णव भक्त करें। हमें तो हमारी पाठ्य पुस्तक का पाठ पढ़ाइये। हम यहाँ पाठशाला में भक्ति-तत्त्व की शिक्षा लेने के लिये नहीं आये हैं, हमें तो व्याकरण, अलंकार तथा न्याय आदि पुस्तकों के पाठों को पढ़ाइये।’

उन विद्यार्थियों की ऐसी बातें सुनकर प्रभु ने कहा- ‘भाई! आज हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। आज आप लोग अपना-अपना पाठ बंद रखिये, पुस्तकों को बाँधकर रख दीजिये। चलो, अब गंगा-स्नान करने चलें। कल पाठ की बात देखी जायगी।’ इतना सुनते ही सभी विद्यार्थियों ने अपनी-अपने पुस्तकें बाँध दीं और वे प्रभु के साथ गंगा-स्नान के निमित्त चल दिये। गंगा जी पर पहुँचकर बहुत देर तक जल-विहार होता रहा। रात्रि हो जाने पर प्रभु लौटकर घर आये और विद्यार्थी अपने-अपने स्थानों को चले गये। दूसरे दिन महाप्रभु फिर पाठशाला में पहुँचे। प्रभु के आसनासीन हो जाने पर विद्यार्थियों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में से प्रश्न पूछना आरम्भ कर दिया। कोई भी विद्यार्थी इनसे कैसा भी प्रश्न पूछता उसका ये श्रीकृष्णपरक ही उत्तर देते।

कोई विद्यार्थी पूछता- ‘सिद्धवर्णसमाम्नाय बताइये?’ आप उत्तर देते- ‘नारायण ही सब वर्णों में सिद्ध वर्ण हैं।’ कोई पूछता- ‘वर्णों की सिद्धि किस प्रकार से होती है?’

प्रभु कहते- ‘ठीक बात तो यही है, प्रतिक्षण श्रीकृष्ण-नाम का ही संकीर्तन करते रहना चाहिये।’

यह सुनकर सभी विद्यार्थी एक-दूसरे के मुख की ओर देखने लगते। कोई तो यकित होकर प्रभु के श्रीमुख की ओर देखने लगता। कोई-कोई धीरे से कह देता ‘दिमाग में गर्मी चढ़ गयी है।’ दूसरा उसे धीरे से धक्का देकर ऐसा कहने के लिये निषेध करता।

प्रभु की ऐसी अद्भुत व्याख्याएँ सुनकर बड़े-बड़े विद्यार्थी कहने लगे- ‘आप ये तो न जाने कहाँ की व्याख्या कर रहे हैं, शास्त्रीय व्याख्या कीजिये।’

प्रभु इसका उत्तर देते- ‘मैं शास्त्रों का सार ही बता रहा हूँ। किसी भी पण्डित से जाकर पूछ आओ, वह सर्वशास्त्रों का सार श्रीकृष्ण-पद-प्राप्ति ही बतायेगा।’

विद्यार्थी बेचारे इनकी अलौकिक बातों का उत्तर दे ही क्या सकते थे? सब अपनी-अपनी पुस्तकें बाँधकर अपने-अपने स्थान के लिये चले गये। कुछ समझदार और बड़े छात्र पण्डित गंगादास जी की सेवा में पहुँचे।

वे प्रणाम करके उनके समीप बैठ गये। कुशल-प्रश्न के अनन्तर आचार्य गंगादास ने उनके आने का कारण पूछा। दुःखी होकर उन लोगों ने कहा- ‘महाराज जी! हम क्या बतावें, हमारे गुरुजी जब से गया से लौटे हैं, तभी से उनकी विचित्र दशा है। वे कभी हँसते हैं, कभी राते हैं। पाठशाला में आते तो पाठ पढ़ाने के लिये हैं, किन्तु पाठ न पढ़ाकर भक्ति-तत्त्व का ही उपदेश देने लगते हैं। हम लोग व्याकरण, न्याय, अलंकार तथा साहित्य आदि किसी भी शास्त्र का प्रश्न करते हैं, तो वे उसका कृष्णपरक ही उत्तर देते हैं। उनसे जो भी प्रश्न किया जाय उसी का उत्तर ऐसा देते हैं जो पाठ्य पुस्तक के एकदम विरुद्ध है। कभी-कभी पढ़ाते-पढ़ाते रोने लगते हैं और कभी-कभी जोर से ‘हा कृष्ण! हा प्यारे! प्राणवल्लभ! पाहि माम, राधावल्लभ! रक्ष माम्’ इन वाक्यों को कहने लगते हैं। अब आप ही बताइये, इस प्रकार हमारी पढ़ाई कैसे होगी? हम लोग घर-बार छोड़कर केवल विद्याध्ययन के ही निमित्त यहाँ पड़े हुए हैं, यहाँ पर हमारी पढ़ाई-लिखाई कुछ होती नहीं। उलटे पढ़े-लिखे को भूले जाते हैं। वे आपके शिष्य हैं, आप उन्हें बुलाकर समझा दें।’

पं. गंगादास जी वैसे तो बड़े भारी नामी विद्वान थे, किन्तु उनकी विद्या पुस्तकी ही विद्या थी। भक्ति-भाव से वे एकदम कोरे थे। ईश्वर के प्रति उनका उदासीन भाव था। ‘यदि ईश्वर होगा भी तो हुआ करे हमें उससे क्या काम, समय पर भोजन कर लिया, विद्यार्थियों को पाठ पढ़ा दिया। बस, यही हमारे जीवन का व्यापार है। इसमें ईश्वर की कुछ जरूरत ही नहीं।’ कुछ-कुछ इसी प्रकार के उनके विचार थे।

महाप्रभु के भक्त हो जाने की बात सुनकर वे ठहाका मारकर हँसने लगे और विद्यार्थियों से कहने लगे- ‘हाँ, सुना तो मैंने भी है कि निमाई अब भक्त बन आया है। पण्डित होकर उस पर यह क्या भूत सवार हो गया- यह तो अनपढ़ मूर्खों का काम है। ब्राह्मण पण्डित को तो निरन्तर शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में ही लगे रहना चाहिये। खैर, अब तुम लोग अपने-अपने स्थानों को जाओ। कल उसे मेरे पास भेज देना, मैं उसे समझा दूँगा। मेरी बात को वह कभी नहीं टालता है।’ इतना सुनकर विद्यार्थी अपने-अपने स्थानों पर चले गये।

दूसरे दिन प्रभु से विद्यार्थियों ने कहा- ‘आचार्य जी ने आज आपको अपने यहाँ बुलाया है, आगे आपकी इच्छा है, आज जाइये या फिर किसी दिन हो आइये।’ आचार्य गंगादास जी का बुलावा सुनकर प्रभु उसी समय दो-चार विद्यार्थियों को साथ लेकर उनके स्थान पर पहुँचे। वहाँ जाकर प्रभु ने अपने विद्यागुरु के चरणों की वन्दना की, गंगादास जी ने भी उनका पुत्र की भाँति आलिंगन किया और बैठने के लिये एक आसन की ओर संकेत किया। आचार्य की आज्ञा पाकर उनके बताये हुए आसन पर प्रभु बैठ गये। प्रभु के बैठ जाने पर साथ के विद्यार्थी भी पीछे एक ओर हटकर पाठशाला की बिछी हुई चटाइयों पर बैठ गये।

प्रभु के सुखपूर्वक बैठ जाने पर वात्सल्य-प्रेम प्रकट करते हुए आचार्य गंगादास जी ने कहा- ‘निमाई! तुम मेरे प्रिय विद्यार्थी हो, मैं तुम्हें पुत्र की भाँति प्यार करता हूँ। शास्त्रों में कहा है, अपने प्यारे की उसके मुख पर बड़ाई न करनी चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से उसकी आयु क्षीण होती है, किन्तु यथार्थ बात तो कही ही जाती है। तुमने मेरी पाठशाला के नाम को सार्थक बना दिया है, तुम-जैसे योग्य विद्यार्थियों को विद्या पढ़ाकर मेरा इतना दिनों का परिश्रम से पढ़ाना सफल हो गया। तुमने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य द्वारा मेरे मुख को उज्ज्वल कर दिया। मैं तुमसे बहुत ही प्रसन्न हूँ।’

आचार्य के मुख से अपनी इतनी प्रशंसा सुनकर प्रभु लज्जितभाव से नीचे की ओर देखते हुए चुपचाप बैठे रहे, उन्हेांने इन बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

आचार्य गंगादास जी फिर कहने लगे- ‘योग्य बनने के अनन्तर तुम अध्यापक हुए और तुमने अध्यापन-कार्य में भी यथेष्ठ ख्याति प्राप्त की। तुम्हारे सभी विद्यार्थी सदा तुम्हारे शील-स्वभाव की तथा पढ़ाने की सरल सुन्दर प्रणाली की प्रशंसा करते रहते हैं, वे लोग तुम्हारे सिवा दूसरे किसी के पास पढ़ना पसंद ही नहीं करते। किन्तु कल उन्होंने आकर मुझसे तुम्हारी शिकायत की है। तुम उन्हें अब मनोयोग के साथ ठीक-ठीक नहीं पढ़ाते हो। और लोगों ने भी मुझसे आकर कहा है कि तुम अनपढ़ मूर्खभक्तों की भाँति रोते-गाते तथा हँसते-कूदते हो, एक इतने भारी अध्यापक को ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं! तुम विद्वान हो, समझदार हो, मेधावी हो।

शास्त्रज्ञ होकर मूर्खों के कामों की नकल क्यों करने लगे हो? ऐसे ढोंग तो वे ही लोग बनाते हैं, जो शास्त्रों की बातें तो जानते नहीं, विद्या-बुद्धि से तो ही हैं, किन्तु मूर्खों में अपने को पुजवाना चाहते हैं, वे ही ऐसे ढोंग रचा करते हैं। तुम्हें इसकी क्या जरूरत है? तुम तो स्वयं विद्वान हो, बड़े-बड़े लोग तुम्हारी विद्या-बुद्धि पर ही मुग्ध होकर मुक्तकण्ठ से तुम्हारी प्रशंसा करते हैं और सर्वत्र तुम्हारी प्रतिष्ठा करते हैं, फिर तुम ऐसे अशास्त्रीय आचरणों को क्यों करते हो? ठीक-ठीक बताओ क्या बात है?’

ये सब बातें सुनकर भी प्रभु चुप ही रहे, उन्होंने किसी भी बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया।

गंगादास जी ने अपना व्याख्यान समाप्त नहीं किया। वे फिर कहने लगे- ‘तुम्हारे नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती एक नामी पण्डित हैं। तुम्हारे पूज्य पिता भी प्रतिष्ठित पण्डित थे, तुम्हारे मातृकुल तथा पितृकुल में सनातन से पाण्डित्य चला आया है, तुम स्वयं भारी विद्वान हो, तुम्हारी विद्या-बुद्धि से ही मुग्ध होकर सनातन मिश्र-जैसे राजपण्डित ने अपनी पुत्री का तुम्हारे साथ विवाह किया है। नवद्वीप की विद्वन्मण्डली तुम्हारा यथेष्ठ सम्मान करती है, विद्यार्थियों को तुम्हारे प्रति पूर्ण सम्मान के भाव हैं, फिर तुम मूर्खों के चक्कर में केसे आ गये? देखो बेटा! अध्यापक का पद पूर्वजन्म के बहुत बड़े भाग्यों से मिलता है।

तुम उसके काम में असावधानी करते हो, यह ठीक नहीं है। बोलो, उत्तर क्यों नहीं देते? अब अच्छी तरह से पढ़ाया करोगे?’ नम्रता के साथ महाप्रभु ने कहा- ‘आपकी आज्ञापान करने की भरसक चेष्टा करूँगा। क्या करूँ, मेरा मन मेरे वश में नहीं है। कहना चाहता हूँ कुछ और मुँह से निकल जाता है कुछ और ही!’ गंगादास जी ने प्रेम के साथ कहा- ‘सब ठीक हो जायगा। चित्त को ठीक रखना चाहिये। तुम तो समझदार आदमी हो। मन को वश में करो, सोच-समझकर बात का उत्तर दो। कल से खूब सावधानी रखना। विद्यार्थियों को खूब मनोयोग के साथ पढ़ाना। अच्छा!’

‘जो आज्ञा’ कहकर प्रभु ने आचार्य गंगादास को प्रणाम किया और वे विद्यार्थियों के साथ उनसे विदा हुए।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(32)
सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त

तत्कर्म हरितोषं यत्सा विद्या तन्मतिर्यया।

तद्वर्णं तत्कुलं श्रेष्ठं तदाश्रमं शुभं भवेत्।।[1]

जिस कर्म के द्वारा हरि भगवान सन्तुष्ट हो सकें वास्तव में तो वही कर्म कहा जा सकता है और जिससे मुकुन्द-चरणों में रति उत्पन्न हो सके वही सच्ची विद्या है। जिस वर्ण, जिस कुल में और जिस आश्रम में रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन करने का सुन्दर सुयोग प्राप्त हो सके वही वर्ण, कुल तथा आश्रम शुभ और पमर श्रेष्ठ गिना जा सकता है।

जिन नयनों में प्रियतम की छबि समा गयी, जिस हृदय-मन्दिर में श्रीकृष्ण की परमोज्ज्वल परम प्रकाशयुक्त मूर्ति स्थापित हो गयी, फिर भला उसमें दूसरे के लिये स्थान कहाँ? जिनका मन-मधुप श्रीकृष्ण-कथारूपी मकरन्द का पान कर चुका है, जिनके चित्त को चितचोर ने अपनी चंचल चितवन से अपनी ओर आकर्षित कर लिया है, वे फिर अन्य वस्तु की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते। उनकी जिह्वा सदा नारायणख्यपीयूष का ही निरन्तर पान करती रहेगी, उसके द्वारा संसारी बातें कही ही नहीं जा सकेंगी। उन्हीं कर्मों को वह कर्म समझेगा जिनके द्वारा श्रीकृष्ण के कमनीय कीर्तन में प्रगाढ़ रति की प्राप्ति हो सके। उसकी विद्या, बुद्धि, वैभव और सम्पदा तथा मेधा सभी एकमात्र श्रीकृष्ण-कथा ही है।

महाप्रभु का चित्त अब इस लोक में नहीं रहा, वह तो कृष्णमय हो चुका। प्राण कृष्णरूप बन चुके, मन का उनके मनोहर गुणों के साथ तादात्म्य हो चुका, चित्त उस माखनचोर की चंचलता में समा गया। वाणी उसके गुणों की गुलाम बन गयी, अब वे करें भी तो क्या करें? संसारी कार्य करने के लिये मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियाँ आदि कोई भी उनका साथ नहीं देतीं, वे दूसरे के वश में हो चुकीं। महाप्रभु की सभी चेष्टाएँ श्रीकृष्णमय ही होने लगीं।

आचार्य गंगादास जी की मधुर ओर वात्सल्यपूर्ण भर्त्सना के कारण वह खूब सावधान होकर घर से पढ़ाने के लिये चले। विद्यार्थियों ने अपने गुरुदेव को आते देखकर उनके चरणकमलों में साष्टांग प्रणाम किया और सभी सुख से बैठ गये। विद्यार्थियों का पाठ आरम्भ हुआ। किसी विद्यार्थी ने पूछा- ‘अमुक धातु का किस अर्थ में प्रयोग होता है और अमुक लकार में उसका कैसा रूप बनेगा?’

इस प्रश्न को सुनते ही आप भावावेश में आकर कहने लगे- ‘सभी धातुओं का एक श्रीकृष्ण  के ही नाम में समावेश हो सकता है, शरीर में जो सप्तधातु हैं ओर भी संसार में जितनी धातु सुनी तथा कही जा सकती हैं सभी के आदिकारण श्रीकृष्ण ही हैं। उनके अतिरिक्त कोई अन्य धातु हो ही न हीं सकती। सभी स्थितियों में उनके समान ही रूप बनेंगे। भगवान का रूप नील-श्याम है, उनके श्रीविग्रह की कान्ति नवीन जलधर की भाँति एकदम स्वच्छ और हल के नीले रंग की-सी है। उसे वैडूर्य या घन की उपमा तो ‘शाखाचन्द्रन्याय’ से दी जाती है, असल में तो वह अनुपमेय है, किसी भी संसारी वस्तु के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।’

प्रभु के ऐसे उत्तर को सुनकर विद्यार्थी कहने लगे- ‘आप तो फिर वैसी ही बातें कहने लगे। धातु का यथार्थ अर्थ बताइये। पुस्तक में जो लिखा है उसी के अनुसार कथन कीजिये!’

प्रभु ने अधीरता के साथ कहा- ‘धातु का यथार्थ अर्थ तो यही है, जो मैं कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त मैं और कुछ कह ही नहीं सकता। मुझे तो इसका वही अर्थ मालूम पड़ता है। आगे आप लोग जैसा समझें।’

इस पर विद्यार्थियों ने कुछ प्रेम के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा- ‘आप तो हमें ऐसी विचित्र-विचित्र बातें बताते हैं, हम अब याद क्या करें? हमारा काम कैसे चलेगा, इस प्रकार हमारी विद्या कब समाप्त होगी और इस तरह से हम किस प्रकार विद्या प्राप्त कर सकते हैं?’

आप प्रेम के आवेश में आकर कहने लगे- ‘सदा याद करते रहने की तो एक ही वस्तु है। सदा, सर्वदा, सर्वत्र श्रीकृष्ण के सुन्दर नामों के ही स्मरणमात्र से प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। सदा उसी का स्मरण करते रहना चाहिये। अहा, जिन्होंने पूतना- जैसी बालघ्नी को, जो अपने स्तनों में जहर पलेटकर बालकों के प्राण  हर लेती थी, उस क्रूर कर्म करने वाली राक्षसी को भी सद्गति दी, उन श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिन्तन करना ही मनुष्यों के लिये परम कल्याण का साधन हो सकता है। जो दुष्टबुद्धि से भी श्रीकृष्ण का स्मरण करते थे, जो उन्हें शत्रुरूप से विद्वेष के कारण मारने की इच्छा से उनके पास आये थे, वे अघासुर, बकासुर, शकटासुर आदि पापी भी उनके जगत-पालन दर्शनों के कारण इस संसार-सागर से बात-की-बात में पार हो गये, जिससे योगी लोग करोड़ों वर्ष तक समाधि लगाकर भाँति-भाँति के साधन करते रहने पर भी नहीं तर सकते, उन श्रीकृष्ण के चारू चरित्रों के अतिरिक्त चिन्तनीय चीज और हो ही क्या सकती है?’

’श्रीकृष्ण-कीर्तन से ही उद्धार होगा, श्रीकृष्ण-कीर्तन ही सर्वसिद्धिप्रद है, उसके द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है। श्रीकृष्ण-कीर्तन ही शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है, उसी के द्वारा मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से परित्राण पा सकता है। तुम लोगों को उसी श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहिये।’

इनकी ऐसी व्याख्या सुनकर सभी विद्यार्थी श्रीकृष्णप्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे। वे सभी प्रकार के संसारी विषयों को भूल गये और श्रीकृष्ण को ही अपना आश्रय-स्थान समझकर उन्हीं की स्मृति में अश्रु-विमोचन करने लगे।

उनमें से कुछ उतावले और पुस्तकी विद्या को ही परम साध्य समझने वाले छात्र कहने लगे- ‘हमें तो पुस्तक के अनुसार उसकी व्याख्या बताइये! उसे ही पढ़ने के लिये हम यहाँ आये हैं।’

प्रभु अब कुछ-कुछ स्वस्थ हुए थे। उन्हें अब थोड़ा-थोड़ा बाह्य-ज्ञान होने लगा। इसलिये विद्यार्थियों के ऐसा कहने पर आपने रोते-रोते उत्तर दिया- ‘भैया! हम क्या करें, हमारी प्रकृति स्वस्थ नहीं है। मालूम पड़ता है, हमें फिर से वही पुराना वायु-रोग हो गया है। हम क्या कह जाते हैं, इसका हमें स्वयं पता नहीं। अब हमसे इन ग्रन्थों का अध्यापन न हो सकेगा। आप लोग जाकर किसी दूसरे अध्यापक से पढ़ें! अब हम अपने वश में नहीं हैं।’

प्रभु के ऐसा कहने पर सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रोने लगे और विलाप करते हुए करूणकण्ठ से प्रार्थना करने लगे- ‘गुरुदेव! अब हम कहाँ जायँ? हम निराश्रयों के आप ही एकमात्र आश्रय हैं। हमें आपके समान वात्सल्य प्रेम दूसरे किस अध्यापक में मिल सकेगा? इतने प्रेम के साथ हमें अन्य अध्यापक पढ़ा ही नहीं सकता।

आपके समान सर्व संशयों का छेत्ता और सरलता के साथ सुन्दर शिक्षा देने वाला अध्यापक ढूँढ़ने पर भी हमें त्रिलोकी में नहीं मिल सकता। आप हमारा परित्याग न कीजिये। हम आपके रोग की यथाशक्ति चिकित्सा करावेंगे। स्वयं दिन-रात्रि सेवा-शुश्रूषा करते रहेंगे।’

उनकी आर्तवाणी सुनकर प्रभु की आँखों में से अश्रुओं की धारा बहने लगी। रोते-रोते उन्होंने कहा- भैया! तुम लोग हमारे बाह्य प्राणों के समान हो। तुमसे सम्बन्ध-विच्छेद करते हुए हमें स्वयं अपार दुःख हो रहा है, किन्तु हम करें क्या, हम तो विवश हैं। हमारी पढ़ाने की शक्ति ही नहीं। नहीं तो तुम्हारे-जैसे परम बन्धुओं के सहवास का सुख स्वेच्छापूर्वक कौन सत्पुरुष छोड़ सकता है?’

विद्यार्थियों ने दीनभाव से कहा- ‘आज न सही, स्वस्थ होने पर आप हमें पढ़ावें। हमारा परित्याग न कीजिये, यही हमारी श्रीचरणों में विनम्र प्रार्थना है। आप ही हमारी इस जीवन नौका के एकमात्र आश्रय हैं, हमें मझधार में ही बिलखता हुआ छोड़कर अन्तर्धान न हूजिये!’

प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा- ‘भैया! मेरा यह रोग असाध्य है। अब इससे छुटकारा पाने की आशा नहीं। किसी दूसरे के सामने तो बताने की बात नहीं है, किन्तु तुम तो अपनी आत्मा ही हो, तुमसे छिपाने योग्य तो कोई बात हो ही नहीं सकती। असल बात यह है कि अब हम पढ़ाने का या किसी अन्य काम के करने का यत्न करते हैं तो एक श्यामवर्ण का सुन्दर शिशु हमारी आँखों के सामने आकर बड़े ही सुन्दर स्वर में मुरली बजाने लगता है। उस मुरली की विश्वविमोहिनी तान को सुनकर हमारा चित्त व्याकुल हो जाता है और हमारी सब सुध-बुध भूल जाती है।

हम पागल की भाँति मन्त्रमुग्ध-से हो जाते हैं। फिर हम कोई दूसरा काम कर ही नहीं सकते।’ इतना कहकर प्रभु फिर जोरों के साथ फूट-फूटकर रोने लगे। उनके रुदन के साथ ही सैकड़ों विद्यार्थियों की आँखों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगीं। सभी ढाड़ बाँधकर उच्च स्वर से रुदन करने लगे। संजय महाशय का चण्डीमण्डप विद्यार्थियों के रुदन के कारण गूँजने लगा। इस करुणापूर्ण क्रन्दन-ध्वनि को सुनकर सहस्रों नर-नारी दूर-दूर से वहाँ आकर एकत्रित हो गये।

प्रभु अब कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए। अश्रु-विमोचन करते हुए उन्होंने कहा- ‘मेरे प्राणों से भी प्यारे छात्रो! अपनी-अपनी पुस्तकों को बाँध लो, आज से अब हम तुम्हारे अध्यापक नहीं रहे और न अब तुम ही हमारे छात्र हो, अब तो तुम श्रीकृष्ण  के सखा हो। अब सभी मिलकर हमें ऐसा आशीर्वाद दो जिससे हमें श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त हो सके। तुम सभी हमें हृदय से स्नेह करते हो, तुमसे हम यही दीनता के साथ भीख माँगते हैं। तुम सदा हमारे कल्याण के कामों में तत्पर रहे हो।’

प्रभु के मुख से ऐसे दीनतापूर्ण शब्द सुनकर सभी विद्यार्थी बेहोश-से हो गये। कोई तो पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिरने लगे और कोई अपने सिर को पृथ्वी पर रगड़ने लगे।

प्रभु ने फिर कहा- ‘मैं अन्तिम बार फिर तुम लोगों से कहता हूँ। तुम लोग पढ़ना न छोड़ना, कहीं जाकर अपने पाठ को जारी रखना।’ रोते हुए विद्यार्थियों ने कहा- ‘अब हमें न तो कहीं आप-जैसा अध्यापक मिलेगा और न कहीं अन्यत्र पढ़ने ही जायँगे। अब तो ऐसा ही आशीर्वाद दीजिये कि आपके श्रीमुख से जो भी कुछ पढ़ा है, वही स्थायी बना रहे और हमें किसी दूसरे के समीप जाने की जिज्ञासा ही उत्पन्न न हो। अब तो हमें अपने चरणों की शरण ही प्रदान कीजिये! आपके चरणों की सदा स्मृति बनी रहे यही अन्तिम वरदान प्रदान कीजिये!’

यह कहकर सभी विद्यार्थियों ने प्रभु को एक साथ ही साष्टांग प्रणाम किया और प्रभु ने भी सबको पृथक-पृथक गले से लगाया। वे सभी बड़भागी विद्यार्थी प्रभु के प्रेमपूर्ण आलिंगन से कृतकृत्य हो गये और जारों से ‘हरि बोल’ ‘हरि बोल’ कहकर हरिनाम की तुमुल-ध्वनि करने लगे।

प्रभु ने उन विद्यार्थियों से कहा- ‘भैया, हम लोग, इतने दिनों तक साथ-साथ रहे हैं। हमारा तुम लोगों से बहुत ही अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है, तुम ही हमारे परम आत्मीय तथा सुहृद हो। एक बार तुम सभी एक स्वर से श्रीकृष्णरूपी शीतल सलिल से हमारे हृदय की जलती हुई विरह-ज्वाला को शान्त कर दो। तुम सभी श्रीकृष्ण-रसायन पिलाकर हमें नीरोग बना दो।

एक बार तुम सभी लोग मिलकर श्रीकृष्ण के मंगलमय नामों का उच्च स्वर से संकीर्तन करो!’ विद्यार्थियों ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- ‘गुरुदेव! हम संकीर्तन को क्या जानें? हमें तो पता भी नहीं संकीर्तन कैसे किया जाता है? हाँ, यदि आप ही कृपा करके हमें संकीर्तन की प्रणाली सिखा दें तो हम जिस प्रकार आज्ञा हो उसी प्रकार सब कुछ करने के लिये उद्यत हैं।’ प्रभु ने सरलता के साथ कहा- ‘कृष्ण-कीर्तन में कुछ कठिनता थोड़े ही है, बड़ा ही सरल मार्ग है। तुम लोग बड़ी ही आसानी के साथ उसे कर सकते हो।’ यह कहकर प्रभु ने स्वयं स्वर के सहित नीचे का पद उच्चारण करके बता दिया-

हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।

गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

प्रभु ने स्वयं हाथ से ताली बजाकर इस नाम-संकीर्तन को आरम्भ किया। प्रभु की बतायी हुई विधि के अनुसार सभी विद्यार्थी एक स्वर से इस नाम-संकीर्तन को करने लगे। हाथ की तालियों के बजने से तथा संकीर्तन के सुमधुर स्वर से सम्पूर्ण चण्डीमण्डप गूँजने लगा। लोगों को महान आश्चर्य हुआ। नवद्वीप में यह एक नवीन ही वस्तु थी। इससे पूर्व ढोल, मृदंग, करताल आदि वाद्यों पर पद-संकीर्तन तो हुआ करता था, किन्तु सामूहिक नाम-संकीर्तन तो यह सर्वप्रथम ही था। इसकी नींव निमाई पण्डित की पाठशाला ही में पहले-पहल पड़ी। सबसे पहले इन्हीं नामों के पद से नाम-संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। प्रभु भावावेश में जोर से संकीर्तन कर रहे थे, विद्यार्थी एक स्वर से उनका साथ दे रहे थे। कीर्तन की सुमधुर ध्वनि से दिशा-विदिशाएँ गूँजने लगीं। चण्डीमण्डप में मानो आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। दूर-दूर से मनुष्य उस आनन्द-सागर में गोता लगाकर अपने को कृतार्थ बनाने के लिये दौड़े आ रहे थे। सभी आनन्द की बाढ़ में अपने-आपे को भूलकर बहने लगे और सभी दर्शनार्थियों के मुँह से स्वयं ही निकलने लगा-

हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।

गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

इस प्रकार चारों ओर से इन्हीं भगवन्नामों की ध्वनि होने लगी। पक्के-पक्के मकानों में से जोर की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ने लगी-

हरे हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।

गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

मानो स्थावर-जंगम, चर-अचर सभी मिलकर इस कलिपावन नाम का प्रेम के साथ संकीर्तन कर रहे हों। इस प्रकार थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु का भावावेश कुछ कम हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने ताली बजानी बंद कर दी और संकीर्तन समाप्त कर दिया। प्रभु के चुप हो जाने पर सभी विद्यार्थी तथा दर्शनार्थी चुप हो गये, उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु अब भी निकल रहे थे।

प्रभु ने उठकर एक बार फिर सब विद्यार्थियों को गले से लगाया। सभी विद्यार्थी फूट-फूटकर रो रहे थे। कोई कह रहा था- ‘हमारे प्राणों के सर्वस्व हमें इसी प्रकार मझधार में न छोड़ दीजियेगा!’ कोई हिचकियाँ लेते हुए गद्गदकण्ठ से कहता- ‘पढ़ना-लिखना तो जो होना था, सो हो लिया, आपके हृदय के किसी कोने में हमारी स्मृति बनी रहे, यही हमारी प्रार्थना है।’ प्रभु उन्हें बार-बार आश्वासन देते। उनके शरीरों पर हाथ फेरते, किन्तु उन्हें धैर्य होता ही नहीं था, प्रभु के स्पर्श से उनकी अधीरता अधिकाधिक बढ़ती जाती थी, वे बार-बार प्रभु के चरणों में लोटकर प्रार्थना कर रहे थे। दर्शनार्थी इस करूण दृश्य को और अधिक देर तक देखने में समर्थ न हो सके, वे कपड़ों से अपने-अपने मुखों को ढककर फूट-फूटकर रोने लगे। प्रभु भी इस करुणा की उमड़ती हुई तरंग में बहुत प्रयत्न करने पर भी अपने को न सँभाल सके। वे भी रोते-राते वहाँ से गंगा जी  की ओर चल दिये। विद्यार्थी उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। प्रभु ने सभी को समझा-बुझाकर विदा किया। प्रभु के बहुत समझाने पर विद्यार्थी दुःखित भाव से अपने-अपने स्थानों को चले गये और प्रभु गंगा जी से निवृत्त होकर अपने घर को चले आये।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(33)
कृपा की प्रथम किरण

निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान् वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि।

यदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं प्रोत्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति।।[1]

जिन्होंने भक्तों के वशीभूत होकर उन्हें सुख पँहुचाने के निमित्त भाँति-भाँति की अलौकिक लीलाए की हैं,; उन श्रीहरि के अद्वितीय गुणकर्मो तथा अद्भुत वीर्य-पराक्रमों के माहात्म्य का श्रवण करके प्रेमी भक्त के शरीर में कभी तो अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो जाते हैं, कभी आखों में से अश्रुधारा बहने लगती है, कभी गदगद कण्ठ से वह गान करने लगता है, कभी रोता है और कभी उन्मादी की भाँति प्रेम में निमग्न होकर नृत्य करने लगता है। श्रीमद्भा. 7/7/34

हृदय में जब सरलता और सरसता का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, तब चारों ओर से सद्गुण आ-आकर उसमें अपना निवास-स्थान बनाने लगते हैं। भगवद्भक्ति के उदय होने पर सम्पूर्ण सद्गुण उसके आश्रय में आकर बस जाते हैं। उस समय मनुष्य को पत्ते की खड़खड़ाहट में प्रियतम के पदों की धमक का भ्रम होने लगता है, वह पागल की भाँति चौंककर अपने चारों ओर देखने लगता है। यदि उसके सामने कोई उसके प्यारे की विरदावली का बखान करने लगे तब तो उसके आनन्द का पूछना ही क्या है, उस समय तो वह सचमुच पागल बन जाता है और उस बखान करने वाले के चरणों में लोटने लगता है। उसकी स्थिति उस विरहिणी की भाँति हो जाती है, जो चातक-पक्षी के मुख से भी ‘पिउ’ ‘पिउ’ की कर्णप्रिय मनोहर वाणी सुनकर अपने प्राण प्यारे की स्मृति में अधीर होकर नयनों से नीर बहाने लगती है। क्यों न हो, प्रियतम की पुण्य-स्मृति में मादकता ही इस प्रकार की है।

महाप्रभु अपने प्रिय शिष्यों के साथ रास्ते में प्रेमालाप करते हुए अपने घर की ओर चले आ रहे थे कि रास्ते में उन्हें आचार्य रत्नगर्भ जी का घर मिला। ये महाप्रभु के सजातीय ब्राह्मण थे, ये भी सिलहट के ही निवासी थे। प्रभु को रास्ते में जाते देखकर इन्होंने प्रभु को बड़े ही आदर के साथ बुलाकर अपने यहाँ बिठाया। रत्नगर्भ महाशय बड़े ही कोमल प्रकृति के पुरुष थे। इनके हृदय में काफी भावुकता थी, सरलता की तो ये मानो मूर्ति ही थे। शास्त्रों के अध्ययन में इनका अनुपम अनुराग था। प्रभु के बैठते ही परस्पर शास्त्र-चर्चा छिड़ गयी। रत्नगर्भ महाशय ने प्रसंगवश श्रीमद्भागवत का एक श्लोक कहा। श्लोक उस समय का था, जब यमुना किनारे यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ भगवान के लिये भोज्यपदार्थ लेकर उनके समीप उपस्थित हुई थीं। श्लोक में भगवान के उसी स्वरूप का वर्णन था।

बात यों थी कि एक दिन सभी गोपों के साथ बलराम जी के सहित भगवान वन में गौएँ चराने के लिये गये। उस दिन गोपों ने गँवारपन कर डाला, रोज जिधर गौओं को ले जाते थे, उधर न ले जाकर दूसरी ही ओर ले गये। उधर बड़ी मनोहर हरी-हरी घास थी। गौओं ने घास खूब प्रेम के साथ खायी और श्रीयमुना जी का निर्मल स्वच्छ जल पान किया। गौओं  का तो पेट भर गया, किंतु ग्वाल-बाल व्रज की ही ओर टकटकी लगाये देख रहे थे कि आज हमारी छाक (भोजन) नहीं आयी। छाक कैसे आये, गोपियाँ तो रोज दूसरी ओर छाक लेकर जाती थीं।

आज उन्होंने उधर जाकर वन में गौओं की बहुत खोज की, कहीं भी पता न चला तो वे छाक को लेकर घर लौट आयीं। इधर सभी गोप भूख के कारण तड़फड़ा रहे थे। उन सबने सलाह करके निश्चय किया कि कनुआ और बलुआ से इस बात को कहना चाहिये। वे अवश्य इसका कुछ-न-कुछ प्रबन्ध करेंगे। सभी ग्वाल-बाल प्यार से भगवान को तो ‘कनुआ’ कहा करते थे और बलदेव जी को ‘बलुआ’ के नाम से पुकारते थे। ऐसा निश्चय करके वे भगवान के समीप जाकर कहने लगे- ‘भैया कनुआ! तैंने अघासुर, बकासुर, शकटासुर आदि बड़े-बड़े राक्षसों को बात-की बात में मार डाला। बालकों के प्राण  हरने वाली पूतना के भी शरीर में से तैंने क्षणभर में प्राण खींच लिये, किंतु भैया! तैंने इस राँड़ भूख को नहीं मारा! यह राक्षसी हमें बड़ी पीड़ा पहुँचा रही है, तैंने हमारी समय-समय पर रक्षा की है, हमारे संकटों को दूर किया है। आज तू हमारी इस दुःख से भी रक्षा कर। हमें खाने के लिये कहीं से कुछ वस्तु दे।’

गोपों की इस बात को सुनकर भगवान अपने चारों ओर देखने लगे, किंतु उन्हें खाने की कोई भी वस्तु दिखायी न दी। उस वन में कैथ के भी पेड़ नहीं थे। यह देखकर भगवान कुछ चिन्तित-से हुए। जब उन्होंने बहुत दूर तक दृष्टि डाली तो उन्हें यमुना जी के किनारे कुछ वेदज्ञ ब्राह्मण यज्ञ करते हुए दिखायी दिये। उन्हें देखकर भगवान गोप-बालकों से बोले- ‘तुम लोग एक काम करो। यमुना-किनारे वे जो ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं, उनके पास जाओ और उनसे कहना- ‘हम कृष्ण और बलराम के भेजे हुए आये हैं, हम सब लोगों को बड़ी भूख लगी है, कृपा करके हमें कुछ खाने के लिये दे दीजिये।’ वे तुम्हें भूखा समझकर अवश्य ही कुछ-न-कुछ दे देंगे। रास्ते में ही चट मत कर आना। यहाँ ले आना। सब साथ-ही-साथ बाँटकर खायेंगे।

भगवान के ऐसा कहने पर वे गोप-ग्वाल उन ब्राह्मणों के समीप पहुँचे। दूर से ही उन्होंने यज्ञ करने वाले उन ब्राह्मणों को साष्टांग प्रणाम किया और यज्ञ-मण्डप के बाहर ही अपनी-अपनी लकुटी के सहारे खड़े होकर दीनता के साथ वे कहने लगे- ‘हे धर्म के जानने वाले ब्राह्मणो! हम श्रीकृष्णचन्द्र और बलदेव जी के भेजे हुए आपके पास आये हैं, इस समय इस सभी को बड़ी भारी भूख लगी हुई है, कृपा करके यदि आपके पास कुछ खाने का सामान हो तो हमें दे दीजिये। जिससे कृष्ण-बलराम के साथ हम अपनी भूख को शान्त कर सकें।

गोपों के ऐसी प्रार्थना करने पर वे ब्राह्मण उदासीन ही रहे। उन्होंने गोपों की बात पर ध्यान ही नहीं दिया। जब उन्होंने कई बार कहा, तब उन्होंने रूखाई के साथ कह दिया- ‘तुम लोग सचमुच बड़े मूर्ख हो, अरे, देवताओं के भाग में से हम तुम्हें कैसे दे सकते हैं? भाग जाओ, यहाँ कुछ खाने-पीने को नहीं है।’ ब्राह्मणों के इस उत्तर को सुनकर सभी गोप दुःखित-भाव से भगवान के समीप लौट आये और उदास होकर कहने लगे- ‘भैया! कनुआ! तैंने कैसे निर्दयी ब्राह्मणों के पास हमें भेज दिया। कुछ लेना-देना तो अलग रहा, वे तो हमसे प्रेमपूर्वक बोले भी नहीं। उन्होंने तो हमें फटकार बताकर यज्ञमण्डप से भगा दिया।’

गोपों की ऐसी बात सुनकर भगवान ने कहा- ‘वे कर्मठ ब्राह्मण हमारे दुःख को भला क्या कृपा की प्रथम किरण समझ सकते हैं। जो स्वयं स्वर्गसुख का लोभी है, उसे दूसरे के दुःख की क्या परवा। अब की तुम लोग उनकी स्त्रियों के समीप जाओ, उनका हृदय कोमल है, वे शरीर से तो वहाँ हैं, किंतु उनका अन्तःकरण मेरे ही समीप है। वे तुम लागों को जरूर कुछ-न-कुछ देंगी। तुम लोग हम दोनों भाइयों का नाम भर ले लेना।’ इस बात को सुनकर गिड़गिड़ाते हुए गोपों ने कहा- भैया कनुआ! तुम तेरे कहने से और तो सभी काम कर सकते हैं, किंतु हम जनाने में न जायँगे, तू हमें स्त्रियों के पास जाने के लिये मत कहे।’

भगवान ने हँसते हुए उत्तर दिया- ‘अरे, मेरी तो जान-पहचान जनाने में ही है। मेरे नाम से तो वे ही सब कुछ दे सकती हैं। तुम लोग जाओ तो सही।’

भगवान की ब्राह्मण-पत्नियों से जान-पहचान पुरानी थी। बात यह थी कि मथुरा की मालिनें पुष्प चुनने के निमित्त नित्यप्रति वृन्दावन आया करती थीं। जब वे ब्राह्मणों के घरों में पुष्प देने जातीं तभी स्त्रियों से श्रीकृष्ण  और बलराम के अद्भुत रूप-लावण्य का बखान करतीं और उनकी अलौकिक लीलाओं का भी गुणगान किया करतीं। उन्हें सुनते-सुनते ब्राह्मण-पत्नियों के हृदय में इन दोनों के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। वे सदा इनके दर्शनों के लिये छटपटाती रहती थीं। उनकी उत्सुकता आवश्यकता से अधिक बढ़ गयी थी। उनकी लालसा को पूर्ण करने के ही निमित्त भगवान ने यह लीला रची थी। जब भगवान ने कई बार जोर देकर कहा तब तो उदास मन से गोप ब्राह्मण-पत्नियों के पास पहुँचे और उसी प्रकार दीनता के साथ उन्होंने कहा- ‘हे ब्राह्मण-पत्नियो! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर बलदेव जी और श्री कृष्णचन्द्र जी बैठे हैं, वे दोनों ही बहुत भूखे हैं। यदि तुम्हारे पास कुछ खाने की वस्तु हो तो उन्हें जाकर दे आओ।’ ब्राह्मण-पत्नियों का इतना सुनना था कि वे प्रेम के कारण अधीर हो उठीं।

यह सुनकर कि श्रीराम-कृष्ण भूखे बैठे हैं, उनकी अधीरता का ठिकाना नहीं रहा। जिनके दर्शनों की चिरकला से इच्छा थी, जिनकी मनोहर मूर्ति के दर्शन के लिये नेत्र छटपटा-से रहे थे, वे ही श्रीकृष्ण-बलराम भूखे हैं और भोजन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, इस बात से उन्हें सुख-मिश्रित दुःख सा हुआ। वे जल्दी से भाँति-भाँति के पकवानों को थालों में सजाकर श्रीकृष्ण के समीप जाने के लिये तैयार हो गयीं। उनके पतियों ने बहुत मना किया, किंतु उन्होंने एक भी न सुनी और प्रेम में मतवाली हुई जल्दी से श्रीकृष्ण के समीप पहुँचने का प्रयत्न करने लगीं।

उस समय भगवान खूब सज-धजकर ठाट के साथ खड़े-खड़े उसी ओर देख रहे थे कि कोई आती है या नहीं। भगवान व्यासदेव जी ने बड़ी ही सुन्दरता के साथ भगवान के उस मधुर गोपवेश का सजीव और जीता-जागता चित्र खींचा है। भगवान का उस समय का वेश कैसा है, उनका शरीर नूतन मेघ के समान श्याम रंग का है। उस पर वे पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में वनमाला शोभित हो रही है। मस्तक पर मोरपंख का मनोहर मुकुट शोभित हो रहा है, सम्पूर्ण शरीर को सेलखड़ी, गेरू, पोतनी मिट्टी, यमुना-रज आदि भाँति-भाँति की धातुओं से रँग लिया है। कहीं गेरू की लकीरें खींच रखी हैं, कहीं यमुना-रज मल रखी है, कहीं पर सेलखड़ी घिसकर उनकी बिन्दियाँ लगा रखी हैं।

इस प्रकार सम्पूर्ण शरीर को सजा लिया है। कानों में भाँति-भाँति के कोमल-कोमल पत्ते उरस रखे हैं। सुन्दर नटका-सा वेश बनाये एक मित्र के कन्धे पर हाथ रखे हुए हैं। उनकी काली-काली घुँघुराली लटें सुन्दर गोल कपोलों के ऊपर लटक रही हैं। मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसी और देख रहे हैं। भगवान के ऐसे मनोहर वेश को देखकर कौन सहृदय पुरुष अपने आपे में रह सकता है? आचार्य रत्नगर्भ का कण्ठ बड़ा ही कोमल और सुरीला था, वे बड़े लहजे के साथ प्रेम में गद्गद होकर इस श्लोक को पढ़ने लगे-

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह-

धातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं

कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्।। [श्रीमद्भा. 10/23/22]

बस, इस श्लोक का सुनना था कि महाप्रभु प्रेम में उन्मत्त-से हो गये। जोरों के साथ जहाँ बैठे थे, वहीं से उछले और उसी समय मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें न शरीर का होश है न स्थान का। वे बेहोश पड़े जोरों के साथ लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे थे, थोड़ी देर में कहने लगे- ‘आचार्य! मेरे हृदय में प्रेम का संचार कर दो, कानों में अमृत भर दो। फिर से मुझे श्लोक सुना दो। मेरा हृदय शीतल हो रहा है।

अहा- ‘श्यामं हिरण्यपरिधिम्’ कैसे-कैसे, हाँ-हाँ फिर से सुनाइये।’ आचार्य उसी लहजे के साथ फिर श्लोक पढ़ने लगे-

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह-

धातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं

कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्।।

दूसरी बार श्लोक का सुनना था कि महाप्रभु जोरों से फूट-फूटकर रोने लगे। इनके रुदन को सुनकर आस-पास के बहुत-से आदमी वहाँ जुट आये। सभी प्रभु की ऐसी दशा देखकर चकित हो गये। आज तक किसी ने भी ऐसा प्रेम का आवेग किसी भी पुरुष में नहीं देखा था। प्रभु के कमल के समान दोनों नेत्रों की कोरों से श्रावण-भादों की वर्षा की भाँति शीतल अश्रुकण गिर रहे थे। वे प्रेम में विह्वल होकर कह रहे थे- ‘प्यारे कृष्ण! कहाँ हो? क्यों नहीं मुझे हृदय से चिपटा लेते। अहा, वे ब्राह्मण-पत्नियाँ धन्य हैं, जिन्हें नटनागर के ऐसे अद्भुत दर्शन हुए थे।’ यह कहते-कहते प्रभु ने प्रेमावेश में आकर रत्नगर्भ को जोरों से आलिंगन किया। प्रभु के आलिंगनमात्र से ही रत्नगर्भ उन्मत्त हो गये।

अब तक तो एक ही पागल को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो रहे थे, अब तो एक ही जगह दो पागल हो गये। रत्नगर्भ कभी तो जोरों से हँसते, कभी रुदन करते और कभी प्रभु के पादपद्मों में पड़कर प्रेम की भिक्षा माँगते। कभी रोते-रोते फिर उसी श्लोक को पढ़ने लगते। रत्नगर्भ ज्यों-ज्यों श्लोक पढ़ते, प्रभु की वेदना त्यों-ही-त्यों अत्यधिक बढ़ती जाती। वे श्लोक के श्रवणमात्र से ही बार-बार मूर्च्छित होकर गिर पड़ते थे। रत्नगर्भ को कुछ भी होश नहीं था। वे बेसुध होकर श्लोक का पाठ करते और बीच-बीच में जोरों से रुदन भी करने लगते। जैसे-तैसे गदाधर पण्डित ने पकड़कर रत्नगर्भ को श्लोक पढ़ने से शान्त किया, तब कहीं जाकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्यज्ञान हुआ। कुछ होश होने पर सभी मिलकर गंगा-स्नान करने गये और फिर सभी प्रेम में छके हुए-से अपने-अपने घरों को चले गये। इस प्रकार प्रभु की सर्वप्रथम कृपा-किरण के अधिकारी रत्नगर्भाचार्य ही हुए। उन्हें ही सर्वप्रथम प्रभु की असीम अनुकम्पा का आदि अधिकारी समझना चाहिये।

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|| श्री श्रीचैतन्य चरितावली ||
(34)
भक्त-भाव

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।[1]

भक्तगण दास्य, सख्य, वात्सल्य, शान्त और मधुर- इन पाँचों भावों के द्वारा अपने प्रियतम की उपासना करते हैं। उपासना में ये ही पाँच भाव मुख्य समझे गये हैं, किंतु इन पाँचों में भी दास्यभाव ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान है। या यों कह लीजिये कि दास्यभाव ही इन पाँचों भावों का मुख्य प्राण है। दास्यभाव के बिना न तो सख्य ही हो सकता है और न वात्सल्य, शान्त तथा मधुर ही। कोई भी भाव क्यों न हो, दास्यभाव इसमें अव्यक्त रूप से जरूर छिपा रहेगा। दास्य के बिना प्रेम हो ही नहीं सकता। जो स्वयं दास बनना नहीं जानता, वह स्वामी कभी बन ही नहीं सकेगा, जिसने स्वयं किसी की उपासना तथा वन्दना नहीं की है, वह उपास्य तथा वन्दनीय हो ही नहीं सकता। तभी तो अखिलब्राह्मण्ड कोटिनायक श्रीहरि स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं- ‘क्रीतोऽहं तेन चार्जुन’ हे अर्जुन! भक्तों ने मुझे खरीद लिया है, मैं उनका क्रीतदास हूँ। क्योंकि वे स्वयं चराचर प्राणियों के स्वामी हैं। इसलिये स्वामीपने के भाव को प्रदर्शित करने के निमित्त वे भक्त तथा ब्राह्मणों के स्वयं दास होना स्वीकार करते हैं और उनके पदरज को अपने मस्तक पर चढ़ाने के निमित्त सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करते हैं।

महाप्रभु अब भावावेश में आकर भक्तों के भावों को प्रकट करने लगे। भक्तों को सम्पूर्ण लोगों के प्रति और भगवत-भक्तों के प्रति किस प्रकार के आचरण करने चाहिये, उनमें भागवत पुरुषों के प्रति कितनी दीनता, कैसी नम्रता होनी चाहिये, इसकी शिक्षा देने के निमित्त वे स्वयं आचरण करके लोगों को दिखाने लगे। क्योंकि वे तो भक्ति-भाव के प्रदर्शक भक्तशिरोमणि ही ठहरे। उनके सभी कार्य लोकमर्यादा-स्थापन के निमित्त होते थे। उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं किया। यही तो प्रभु के जीवन में एक भारी विशेषता है। अध्यापकी का अन्त हो गया, बाह्यशास्त्र पढ़ना तथा पढ़ाना दोनों ही छूट गये, अब न वह पहला-सा चांचल्य है और न शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद की उन्मादकारी धुन। अब तो इन पर दूसरी ही धुन सवार हुई है, जिस धुन में ये सभी संसारी कामों को ही नहीं भूल गये हैं, किंतु अपने-आपको भी विस्मृत कर बैठे हैं। इनके भाव अलौकिक हैं, इनकी बातें गूढ़ हैं। इनके चरित्र रहस्यमय हैं, भला सर्वदा स्वार्थ में ही सने रहने वाले संसारी मनुष्य इनके भावों को समझ ही कैसे सकते हैं। अब ये नित्यप्रति प्रातःकाल गंगा-स्नान के निमित्त जाने लगे। रास्ते में जो भी ब्राह्मण, वैष्णव तथा वयोवृद्ध पुरुष मिलता उसे ही नम्रतापूर्वक प्रणाम करते और उसका आशीर्वाद ग्रहण करते।

गंगा जी पर पहुँचकर ये प्रत्येक वैष्णव की पदधूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाते। उनकी वन्दना करते और भावावेश में आकर कभी-कभी प्रदक्षिणा भी करने लगते। भक्तगण इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। कोई कहता- ‘भगवान करे आपको भगवान की अनन्य भक्ति की प्राप्ति हो।’ कोई कहता- ‘आप प्रभु के परम प्रिय बनें।’ कोई कहता- ‘श्रीकृष्ण तुम्हारी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।’ सबके आशीर्वादों को सुनकर प्रभु उनके चरणों में लोट जाते और फूट-फूटकर रोने लगते। रोते-रोते कहते- ‘आप सभी वैष्णवों के आशीर्वाद का ही सहारा है, मुझ दीन-हीन कंगाल पर आप सभी लोग कृपा कीजिये। भागवत पुरुष बड़े ही कोमल स्वभाव के होते हैं, उनका हृदय करुणा से सदा भरा हुआ होता है, वे पर-पीड़ा को देखकर सदा दुःखी हुआ करते हैं। मुझ दुखिया के दुःख को भी दूर करो? मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरी मनोकामना पूर्ण कर दो, मेरे सत्संकल्प को सफल बना दो। यही मेरी आप सभी वैष्णवों के चरणों में विनीत प्रार्थना है।

घाट पर बैठे हुए वैष्णवों की, प्रभु जो भी मिल जाती वही सेवा कर देते। किसी का चन्दन  ही घिस देते, किसी की गीली धोती को ही धो देते। किसी के जल के घड़े को भरकर उसके घर तक पहुँचा आते। किसी के सिर में आँवला तथा तैल ही मलने लगते। भक्तों की सेवा-शुश्रूषा करने में ये सबसे अधिक सुख का अनुभव करते। वृद्ध वैष्णव इन्हें भाँति-भाँति के उपदेश करते। कोई कहता ‘निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहना ही एकमात्र सार है। तुम्हें श्रीकृष्ण ही कहना चाहिये, श्रीकृष्ण के मनोहर नामों का ही स्मरण करते रहना चाहिये। श्रीकृष्ण-कथाओं के अतिरिक्त अन्य कोई भी संसारी बातें न सुननी चाहिये। सम्पूर्ण जीवन श्रीकृष्णमय ही हो जाना चाहिये। खाते कृष्ण, पीते कृष्ण, चलते कृष्ण, उठते कृष्ण, बैठते कृष्ण, हँसते कृष्ण, रोते कृष्ण, इस प्रकार सदा कृष्ण-कृष्ण ही कहते रहना चाहिये। श्रीकृष्णनामामृत के अतिरिक्त इन्द्रियों को किसी प्रकार के दूसरे आहार की आवश्यकता ही नहीं है। इसी का पान करते-करते वे सदा अतृप्त ही बनी रहेंगी।’

वृद्ध वैष्णवों के सदुपदेशों को ये श्रद्धा के साथ श्रवण करते, उनकी वन्दना करते और उनकी पद-धूलि को मस्तक पर चढ़ाते तथा अंजन बनाकर आँखों में आँजने लगते। इनकी ऐसी भक्ति देखकर वैष्णव कहने लगते- ‘कौन कहता है, निमाई पण्डित पागल हो गया है, ये तो श्रीकृष्ण-प्रेम में मतवाले बने हुए हैं। इन्हें तो प्रेमोन्माद है। अहा! धन्य है इनकी जननी को जिनकी कोख से ऐसा सुपुत्र उत्पन्न हुआ।’ वैष्णवग