श्रीकृष्णचरितामृतम्-135
!! नख पे गिरवर लीयो धार, नाम “गिरधारी” पायो है !!
मेरे गिरधारी लाल !
बृजरानी नें नख पे गिरिवर उठाये हुए जब अपनें कन्हैया को देखा तो आश्चर्य से बोल उठीं ।
सब इस दिव्य झाँकी का दर्शन करके आनन्दित हो उठे थे ।
बृजवासी भूल रहे थे प्रलयकारी वर्षा के दुःख को……और भूलें क्यों नहीं सामनें खड़ा था गिरधारी ……….गिरवर को अपनी कनिष्ठिका में रखकर ……….नही नही ….कनिष्ठिका के नख पर ………….और ऊपर से वेणु नाद …………वेणु नाद इसलिये ताकि ये सब लोग भूख प्यास भूल जाएँ ……क्यों की ये वर्षा एक दो दिन की नही ….पूरे सात दिन सात रात तक बरसनें वाली थी ।
चरणों में नूपुर हैं , कमर में पीली काछनी है , गहरी नाभि है जिसके दर्शन हो रहे हैं ……..गले में झूलती वनमाला …..विशाल कन्धे पर चमचमाती पीताम्बरी है …….अधर पतले और अरुण हैं…….उठी हुयी नासिका है …..विशाल नेत्र हैं……..पर नेत्र चंचल हैं ।
सब चकित रह गए इस झाँकी के दर्शन करके …………..सबकुछ भूल गए ……….वस्त्र पूरे भींग गए हैं ……..पर किसी को भान भी नही है …….सबके नेत्रों के सामनें वह गिरधारी खड़ा है ।
दौड़ी बृजरानी अपनें गिरधारी लाल के पास…….तू हाथ हटा ! कितनी देर से हाथों को ऊपर किये खड़ा है……तेरी कोमल कलाइयाँ …….मुरक जायेगीं मेरे लाल !
बृजरानी का अपना वात्सल्य है ।
ए श्रीदामा ! मधुमंगल ! तुम अपनी अपनी लकुट क्यों नही लगाते …….मेरे लाला को ही सब दुःख देते हैं……मैया तो सबको डाँटनें लगी ।
हम भी कह रहे हैं इससे …….हाथ नीचे कर ले …..सुस्ता ले ……….तब तक हम अपनी लाठी लगाये रखेंगे……पर ये मानता ही नही ।
सभी सखाओं नें मैया बृजरानी को कहा ।
नही, मैया ! मैं ठीक हूँ…….तू और भीतर आजा……बाबा को भी बुला ले …………उसी समय बाबा भी अपनें परिकरों के साथ वहीं आगये थे …………बाबा ! सारे गौओं बछड़ों और वृषभों को यही ले आओ ……..यहाँ सब सुरक्षित हैं ।
आहा ! सर्वेश्वर श्रीकृष्ण, बृजवासियों की रक्षा करनें के लिये जो “गिरधारी” बन गया हो……वो बृजवासी भला यहाँ सुरक्षित नही होंगे !
पर देखो ना ! अब आप ही समझाओ………कितनी देर से गोवर्धन पर्वत को उठाया है इसनें…..अपनें हाथ नीचे करनें को बोलो ना !
ये सब हैं तो सही …….अपनी लकुटों में पर्वत को कुछ देर के लिये सम्भाल लेंगे । मैया बृजरानी नें अपनें पति बृजराज बाबा से कहा ।
हाँ हाँ, हाथ को नीचे कर ले……मनसुख भी जिद्द करनें लगा ….
तेरे हाथ को हम दबा देंगे …..तू बैठ जा ……..तेरे पाँव को हम दबा देते हैं ……तू जल पी ले …….मनसुख बोले जा रहा है ।
धीरे से कन्हैया नें मनसुख के कान में कहा …….”मैनें अगर अपनें हाथ नीचे कर लिये तो गोर्वधन पर्वत गिर जाएंगे”………
ओह ! सुन लो ये क्या कह रहा है ! मनसुख तो सब सखाओं को सुनानें लगा…….क्या कह रहा है ? श्रीदामादि सखा पूछनें लगे ।
ये कह रहा है इसनें अगर अपनी ऊँगली नीचे कर दी तो पर्वत गिर जायेगे……..ये सुनकर सब सखा हँसनें लगे…….
तो इसनें क्या सोच रखा है……इसकी ऊँगली पे टिके हैं इतनें बड़े गोवर्धन पर्वत , हमारी लाठी पे टिके हैं ।
और क्या ! मेरी ऊँगली पे ही तो हैं गोवर्धन !
कन्हैया नें भी कह दिया ।
अरे भाई ! रहनें दे……..थोडा सुस्ताले…..अपनें हाथ को नीचे कर ले …….हम दबा देते हैं……..बैठ जा !
मान नही रहे ये सखा ………….तो ठीक है ! ऐसा विचार कर कन्हैया नें थोड़ा हाथ नीचे जैसे ही किया …………
कट्ट कट्ट कट्ट , करके लाठियाँ टूटनें लगीं…….गोवर्धन पर्वत आनें लगे नीचे ।
कृष्ण बचा ! कन्हैया बचा !
सब चिल्लाये…….जोरों से चिल्लाये …..कन्हैया नें तुरन्त अपना हाथ ऊपर उठा लिया ……..तो गोवर्धन स्थिर हो गए फिर से ।
भैया ! लाला ! कन्हैया ! हमारी लाठी पे ना टिके तेरे गोवर्धन पर्वत …..पर तेरी ऊँगली पे कैसे टिक गए ?
हाँफते सखा सब पूछ रहे हैं कन्हैया से ।
क्यों उद्धव !
क्या ये बृजवासी कन्हैया को अभी भी भगवान नही मान रहे ?
तात ! भगवान मान लेंगे तो सारा का सारा “माधुर्य”, समाप्त ही न हो जाएगा ……ये तो अपना मानते हैं , सखा , भाई, पुत्र, प्रेमी यही सब मानते हैं ……..श्री कृष्ण, भगवान हैं ये बात तो ये सपनें में भी नही सोचते ……..इसलिये तो तात ! माधुर्य रस उमड़ पड़ा है इन ब्रजलीलाओं में । उद्धव नें विदुर जी को बताया ।
कन्हैया विचार करनें लगे ……..क्या उत्तर दूँ इन्हें …………अब बोलूँ – मैं भगवान हूँ ……इसलिये ऊँगली में सात कोस का गोवर्धन टिक गया ………तो ये सब हँसेंगे …………..
सोच विचार कर कन्हैया बोले – मुझे जादू आता है ………..मनसुख बोला …….वो तो हमें पता है तू बहुत बड़ा जादूगर है ।
“जब तुम लोग मेरी ओर देख रहे थे टकटकी लगाकर ……तब हे बृजवासियों ! मैने तुम्हारी सारी शक्ति खींचकर अपनी इस ऊँगली में डाल दी”………तुरन्त मनसुख बोला – ओह ! तभी हम सोच रहे कि इतनी कमजोरी क्यों आ रही है ।……..उद्धव ये प्रसंग सुनाते हुए बहुत हँस रहे थे । ……इस तरह से आनन्दमय वातावरण वहाँ का बन गया था ………….और इस आनन्द को और बढ़ाते हुये बृषभान जी भी वहाँ आगये …..उनके साथ बरसानें का पूरा परिकर था …….श्रीराधा जी साथ में थीं ……..वो जैसे ही आईँ ………अपनी श्रीराधा को कन्हैया नें जैसे ही देखा……..वो तो सब कुछ भूल गए ……..
ए ! ए ! ए ! मनसुख दौड़ा हुआ श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच में आकर खड़ा हो गया ……और श्रीराधा रानी से बोला …….हम सब सखाओं की प्रार्थना है कृपा करके आज इस समय हमारे कन्हैया के सामनें मत आओ ……..नही तो !
क्या नही तो ? ललिता सखी नें आगे आकर कहा ।
तुम्हे स्मरण नही उस दिन की घटना ?
मनसुख नें ललिता सखी को स्मरण कराया ।
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गौचारण करके गोष्ठ में आये थे कन्हैया ………..गायों को दुहनें की तैयारी थी……..दूध दुहनें वाला पात्र रखा था अपनें दोनों पांवों में फंसा कर ……..और दुहनें जा ही रहे थे ……..दुह रहे थे ……तभी श्रीराधारानी वहाँ पर आगयीं …………..बस – कन्हैया नें जैसे ही श्रीराधा को देखा ………वो पांवों में फंसा पात्र गिर गया …..दूध फैल गया ………कन्हैया उस समय सब कुछ भूल गए थे ।
मनसुख बोला हे ललिते ! वहाँ तो दूध दुहनें का पात्र ही गिरा था कोई बात नही ……….पर यहाँ अगर दोनों के नयन मिल गए ….और ये पर्वत नीचे आजायेगा ……तो फिर जो होगा वो ……..
इतना कहकर मनसुख ललिता सखी के हाथ जोड़नें लगा ।
कृष्ण !
वर्षा का जल भीतर आरहा है…..महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया ।
देख लिया श्रीकृष्ण नें……..तभी नेत्र मूंद लिये और
“हे सुदर्शन चक्र ! यहाँ शीघ्र आओ”……आदेश था सुदर्शन चक्र को ।
देखते ही देखते चक्र वहाँ उपस्थित हुआ……..”तुम गोवर्धन पर्वत के ऊपर जाओ …..और जितना जल गिर रहा है ………उसे वहीँ के वहीं वाष्प बनाकर आकाश में ही उड़ा दो ” ।
जो आज्ञा भगवन् ! सुदर्शन चक्र गए गोवर्धन के ऊपर ……और सारे गिरते हुए जल को भाप बनानें लगे …………
पर कन्हैया नें अब तुरन्त अगस्त्य ऋषि का भी आव्हान किया …………
हे ऋषि ! आइये ! अब आप जल पीजिये………कन्हैया मुस्कुरा रहे थे ………मुस्कुराकर बोल रहे थे ।
पर उद्धव ! अगस्त्य ऋषि ? इनको जल पिलाना क्यों ?
उद्धव हँसते हुए बोले…तात ! एक समय के प्यासे थे अगस्त्य ऋषि ।