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श्रीकृष्णचरितामृतम्-135

श्रीकृष्णचरितामृतम्-135


!! नख पे गिरवर लीयो धार, नाम “गिरधारी” पायो है !!


मेरे गिरधारी लाल !

बृजरानी नें नख पे गिरिवर उठाये हुए जब अपनें कन्हैया को देखा तो आश्चर्य से बोल उठीं ।

सब इस दिव्य झाँकी का दर्शन करके आनन्दित हो उठे थे ।

बृजवासी भूल रहे थे प्रलयकारी वर्षा के दुःख को……और भूलें क्यों नहीं सामनें खड़ा था गिरधारी ……….गिरवर को अपनी कनिष्ठिका में रखकर ……….नही नही ….कनिष्ठिका के नख पर ………….और ऊपर से वेणु नाद …………वेणु नाद इसलिये ताकि ये सब लोग भूख प्यास भूल जाएँ ……क्यों की ये वर्षा एक दो दिन की नही ….पूरे सात दिन सात रात तक बरसनें वाली थी ।

चरणों में नूपुर हैं , कमर में पीली काछनी है , गहरी नाभि है जिसके दर्शन हो रहे हैं ……..गले में झूलती वनमाला …..विशाल कन्धे पर चमचमाती पीताम्बरी है …….अधर पतले और अरुण हैं…….उठी हुयी नासिका है …..विशाल नेत्र हैं……..पर नेत्र चंचल हैं ।

सब चकित रह गए इस झाँकी के दर्शन करके …………..सबकुछ भूल गए ……….वस्त्र पूरे भींग गए हैं ……..पर किसी को भान भी नही है …….सबके नेत्रों के सामनें वह गिरधारी खड़ा है ।

दौड़ी बृजरानी अपनें गिरधारी लाल के पास…….तू हाथ हटा ! कितनी देर से हाथों को ऊपर किये खड़ा है……तेरी कोमल कलाइयाँ …….मुरक जायेगीं मेरे लाल !

बृजरानी का अपना वात्सल्य है ।

ए श्रीदामा ! मधुमंगल ! तुम अपनी अपनी लकुट क्यों नही लगाते …….मेरे लाला को ही सब दुःख देते हैं……मैया तो सबको डाँटनें लगी ।

हम भी कह रहे हैं इससे …….हाथ नीचे कर ले …..सुस्ता ले ……….तब तक हम अपनी लाठी लगाये रखेंगे……पर ये मानता ही नही ।

सभी सखाओं नें मैया बृजरानी को कहा ।

नही, मैया ! मैं ठीक हूँ…….तू और भीतर आजा……बाबा को भी बुला ले …………उसी समय बाबा भी अपनें परिकरों के साथ वहीं आगये थे …………बाबा ! सारे गौओं बछड़ों और वृषभों को यही ले आओ ……..यहाँ सब सुरक्षित हैं ।

आहा ! सर्वेश्वर श्रीकृष्ण, बृजवासियों की रक्षा करनें के लिये जो “गिरधारी” बन गया हो……वो बृजवासी भला यहाँ सुरक्षित नही होंगे !

पर देखो ना ! अब आप ही समझाओ………कितनी देर से गोवर्धन पर्वत को उठाया है इसनें…..अपनें हाथ नीचे करनें को बोलो ना !

ये सब हैं तो सही …….अपनी लकुटों में पर्वत को कुछ देर के लिये सम्भाल लेंगे । मैया बृजरानी नें अपनें पति बृजराज बाबा से कहा ।

हाँ हाँ, हाथ को नीचे कर ले……मनसुख भी जिद्द करनें लगा ….

तेरे हाथ को हम दबा देंगे …..तू बैठ जा ……..तेरे पाँव को हम दबा देते हैं ……तू जल पी ले …….मनसुख बोले जा रहा है ।

धीरे से कन्हैया नें मनसुख के कान में कहा …….”मैनें अगर अपनें हाथ नीचे कर लिये तो गोर्वधन पर्वत गिर जाएंगे”………

ओह ! सुन लो ये क्या कह रहा है ! मनसुख तो सब सखाओं को सुनानें लगा…….क्या कह रहा है ? श्रीदामादि सखा पूछनें लगे ।

ये कह रहा है इसनें अगर अपनी ऊँगली नीचे कर दी तो पर्वत गिर जायेगे……..ये सुनकर सब सखा हँसनें लगे…….

तो इसनें क्या सोच रखा है……इसकी ऊँगली पे टिके हैं इतनें बड़े गोवर्धन पर्वत , हमारी लाठी पे टिके हैं ।

और क्या ! मेरी ऊँगली पे ही तो हैं गोवर्धन !

कन्हैया नें भी कह दिया ।

अरे भाई ! रहनें दे……..थोडा सुस्ताले…..अपनें हाथ को नीचे कर ले …….हम दबा देते हैं……..बैठ जा !

मान नही रहे ये सखा ………….तो ठीक है ! ऐसा विचार कर कन्हैया नें थोड़ा हाथ नीचे जैसे ही किया …………

कट्ट कट्ट कट्ट , करके लाठियाँ टूटनें लगीं…….गोवर्धन पर्वत आनें लगे नीचे ।

कृष्ण बचा ! कन्हैया बचा !

सब चिल्लाये…….जोरों से चिल्लाये …..कन्हैया नें तुरन्त अपना हाथ ऊपर उठा लिया ……..तो गोवर्धन स्थिर हो गए फिर से ।

भैया ! लाला ! कन्हैया ! हमारी लाठी पे ना टिके तेरे गोवर्धन पर्वत …..पर तेरी ऊँगली पे कैसे टिक गए ?

हाँफते सखा सब पूछ रहे हैं कन्हैया से ।

क्यों उद्धव !

क्या ये बृजवासी कन्हैया को अभी भी भगवान नही मान रहे ?

तात ! भगवान मान लेंगे तो सारा का सारा “माधुर्य”, समाप्त ही न हो जाएगा ……ये तो अपना मानते हैं , सखा , भाई, पुत्र, प्रेमी यही सब मानते हैं ……..श्री कृष्ण, भगवान हैं ये बात तो ये सपनें में भी नही सोचते ……..इसलिये तो तात ! माधुर्य रस उमड़ पड़ा है इन ब्रजलीलाओं में । उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

कन्हैया विचार करनें लगे ……..क्या उत्तर दूँ इन्हें …………अब बोलूँ – मैं भगवान हूँ ……इसलिये ऊँगली में सात कोस का गोवर्धन टिक गया ………तो ये सब हँसेंगे …………..

सोच विचार कर कन्हैया बोले – मुझे जादू आता है ………..मनसुख बोला …….वो तो हमें पता है तू बहुत बड़ा जादूगर है ।

“जब तुम लोग मेरी ओर देख रहे थे टकटकी लगाकर ……तब हे बृजवासियों ! मैने तुम्हारी सारी शक्ति खींचकर अपनी इस ऊँगली में डाल दी”………तुरन्त मनसुख बोला – ओह ! तभी हम सोच रहे कि इतनी कमजोरी क्यों आ रही है ।……..उद्धव ये प्रसंग सुनाते हुए बहुत हँस रहे थे । ……इस तरह से आनन्दमय वातावरण वहाँ का बन गया था ………….और इस आनन्द को और बढ़ाते हुये बृषभान जी भी वहाँ आगये …..उनके साथ बरसानें का पूरा परिकर था …….श्रीराधा जी साथ में थीं ……..वो जैसे ही आईँ ………अपनी श्रीराधा को कन्हैया नें जैसे ही देखा……..वो तो सब कुछ भूल गए ……..

ए ! ए ! ए ! मनसुख दौड़ा हुआ श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच में आकर खड़ा हो गया ……और श्रीराधा रानी से बोला …….हम सब सखाओं की प्रार्थना है कृपा करके आज इस समय हमारे कन्हैया के सामनें मत आओ ……..नही तो !

क्या नही तो ? ललिता सखी नें आगे आकर कहा ।

तुम्हे स्मरण नही उस दिन की घटना ?

मनसुख नें ललिता सखी को स्मरण कराया ।

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गौचारण करके गोष्ठ में आये थे कन्हैया ………..गायों को दुहनें की तैयारी थी……..दूध दुहनें वाला पात्र रखा था अपनें दोनों पांवों में फंसा कर ……..और दुहनें जा ही रहे थे ……..दुह रहे थे ……तभी श्रीराधारानी वहाँ पर आगयीं …………..बस – कन्हैया नें जैसे ही श्रीराधा को देखा ………वो पांवों में फंसा पात्र गिर गया …..दूध फैल गया ………कन्हैया उस समय सब कुछ भूल गए थे ।

मनसुख बोला हे ललिते ! वहाँ तो दूध दुहनें का पात्र ही गिरा था कोई बात नही ……….पर यहाँ अगर दोनों के नयन मिल गए ….और ये पर्वत नीचे आजायेगा ……तो फिर जो होगा वो ……..

इतना कहकर मनसुख ललिता सखी के हाथ जोड़नें लगा ।

कृष्ण !

वर्षा का जल भीतर आरहा है…..महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया ।

देख लिया श्रीकृष्ण नें……..तभी नेत्र मूंद लिये और

“हे सुदर्शन चक्र ! यहाँ शीघ्र आओ”……आदेश था सुदर्शन चक्र को ।

देखते ही देखते चक्र वहाँ उपस्थित हुआ……..”तुम गोवर्धन पर्वत के ऊपर जाओ …..और जितना जल गिर रहा है ………उसे वहीँ के वहीं वाष्प बनाकर आकाश में ही उड़ा दो ” ।

जो आज्ञा भगवन् ! सुदर्शन चक्र गए गोवर्धन के ऊपर ……और सारे गिरते हुए जल को भाप बनानें लगे …………

पर कन्हैया नें अब तुरन्त अगस्त्य ऋषि का भी आव्हान किया …………

हे ऋषि ! आइये ! अब आप जल पीजिये………कन्हैया मुस्कुरा रहे थे ………मुस्कुराकर बोल रहे थे ।

पर उद्धव ! अगस्त्य ऋषि ? इनको जल पिलाना क्यों ?

उद्धव हँसते हुए बोले…तात ! एक समय के प्यासे थे अगस्त्य ऋषि ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-134

श्रीकृष्णचरितामृतम्-134


!! गोवर्धनधारी साँवरे !!


गोवर्धन प्रदक्षिणा के बाद खिलखिलाते हुये , आनन्द विभोर समस्त गोप गोपी अपनें अपनें घरों की ओर लौट रहे थे………सबके मुख में यही बात थी – कहाँ आनन्द आता था “इन्द्र पूजन” में……….अरी ! हमें तो छूनें कि भी मनाई थी …….बस हाथ जोड़कर फूल फेंकते रहो इन्द्र ध्वज में ।

ऊपर से व्रत और उपवास भी……..गोपियाँ बोल रही थीं ।

नजर उतारियो बृजरानी ! अपनें लाला के…….एक बूढी गोपी यशोदा जी को सलाह भी दे रही थी ।

अरी ! सबकी नजर कन्हैया पर ही तो थी…….सब कैसे घूर घूर के देख रहे थे ………नजर लग जायेगी कन्हैया के…….उतार दियो नजर …….नही तो हम उतार देंगी !

नही नही…..उतार दूँगी, अवश्य उतार दूँगी । बृजरानी कहतीं ।

छप्पन भोग में भी कितनौ आनन्द आयौ……..एक ग्वाला बोल रहा था ।

नयी रीत शुरू कर दी अपनें कन्हैया नें……आज तक तो देवों के पूजन में व्रत उपवास रखते थे……पर कन्हैया कि नई रीत …….देह को दुःख क्यों देना….प्रसाद है ये भोग…..इसे खूब खाओ और भजन करो…..भैया ! भरपेट ही भजन में मन लगै ! मनसुख बोला …..तो सब हँसे ।

श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ हैं ……उनका बरसाना आनें वाला है…..सखियाँ उनको छेड़ रही हैं……कन्हैया पीछे ही हैं……कभी कभी श्रीराधारानी किसी बहानें से पीछे मुड़ कर अपनें प्यारे को निहार लेती हैं ।

तभी –

काले काले मेघ आकाश में छा गए……..ये अचानक हुआ था ।

कार्तिक मास में इस तरह बादलों का छा जाना ……..किसी के समझ में नही आरहा था ……..भयानक मेघों कि गर्जना अब शुरू हो गयी थी ……..ग्वाल गोपी सब डर रहे थे ।

वर्षा शुरू हो गयी………..पर ये वर्षा कुछ अलग थी …….इनकी बुँदे प्रलयंकारी थे…….इतनें मोटे बून्द नभ से गिरते कभी किसी नें देखे नही थे…….अब तो हवा भी प्रचण्ड वेग से चल पड़ी थी ।

कुछ ही देर में चारों ओर जल ही जल दिखाई देनें लगा था ………

गौएँ भींग रही थीं ……….गोपियाँ इधर उधर वृक्षों के नीचे जहाँ जगह मिली वहीं खड़ी हो गयी थीं …….पर अब शीत के कारण वो सब कांपनें लगीं ……….जिनके बालक गोद में थे …….वो तो बैठ गयीं और अपनें बालक को छुपा कर वर्षा के जल से बचानें का प्रयास कर रही थीं ……पर वर्षा का रूप इतना रौद्र था कि कौन बच सकता था ।

गौएँ गोप गोपी अब शीत के कारण थर थर कांपनें लगे थे …………..उनको लगा उनके घर तो आज गिर ही जायेंगे ……जल मग्न होंने वाले हैं सब ………………..

कृष्ण ! कृष्ण ! कन्हैया ! भैया कान्हा ! लाला ! हमें बचा !

ये पुकार अब चारों ओर से चल पड़ी थी ………..सब श्रीकृष्ण को पुकार रहे थे……..हमें बचा लो भैया ! हमें बचा कन्हैया !

इस जल प्रलय से तो बृज मण्डल पूरा ही डूब जाएगा ।

आहा ! जैसे ही ये पुकार सुनी श्याम सुन्दर नें …………..

छपाक छपाक छपाक …… वे अरुण चारु चरण जल में दौड़ पड़े थे ।

मनसुख श्रीदामा मधुमंगल तोक इत्यादि ये सब अपनें कन्हैया के पीछे भागे ……कहाँ जाना है ? कहाँ जा रहे हो ?

कन्हैया कुछ नही बोल रहे ……..बस – नंगे चरण गोवर्धन कि ओर बढ़ रहे थे उनके ……….लाल मुख मण्डल हो गया था उनका ………उनसे देखी नही गयी थी अपनें बृजवासियों कि यह दशा ……..वर्षा और बढ़ गयी थी ………बीच बीच में मेघ कि भीषण गर्जना भी हो ही रही थी …….घना अन्धकार छा गया था पूरे बृजमण्डल में ।

गोवर्धन पर्वत के पास आकर थोडा रुके कन्हैया ..वो पूरे भींग गए थे उनकी पीली पीताम्बरी भींग के उनके देह से चिपक गयी थी मोर मुकुट भींग गया था……मनसुख इत्यादि सखा भी दौड़ते हुए पीछे आगये …….कन्हैया ! क्या करना है ?

“यहाँ एक गुफा देखी थी मैने”……..बड़ी जल्दी में थे कन्हैया……इधर उधर देख रहे थे…..तभी……”ये रही गुफा” ……

ये कहते हुए उस गुफा में कन्हैया प्रवेश कर गए……आजाओ ! तुम सब आजाओ ……भीतर से कन्हैया जोर से बोले……..पर ग्वाल बाल तो गुफा में आचुके थे……..ये लोग अकेले कन्हैया को कैसे छोड़ देते ।

देखो ! यहाँ ….यहाँ जल नही आरहा ………..कन्हैया नें सब सखाओं से कहा ………फिर कुछ सोच कर बोले ………अगर इस गुफा से गोवर्धन पर्वत को उठाया जाय …………और सब इस गोवर्धन पर्वत के नीचे आजायें तो हम सब बच जायेगे ……………

पहले तो मनसुख इत्यादि नें पर्वत को उठाना चाहा …………पर ऐसे कैसे उठ जाता ये सात कोस का विशाल पर्वत ………..

कन्हैया नें कहा …..रुको …….मैं कोशिश करता हूँ तुम सब भी मेरी सहायता करना ………मनसुखादि सखा बोले …….ठीक है …….हम अपनी लाठी लगा देंगे ।

देखते ही देखते ………….कन्हैया गोवर्धन पर्वत को उठानें लगे ……..और अहो ! गोवर्धन पर्वत उठ रहा था ।

मनसुख चिल्लाया ……..कन्हैया ! ये तो उठ गया पर्वत…….ओह ! ……अब पर्वत के मध्य में धीरे धीरे आगये थे कन्हैया ।

और अपनी सबसे छोटी ऊँगली कनिष्ठिका लगा दी थी ।

पर्वत के उठते ही वहाँ तो एक विशाल कक्ष सा बन गया था ………..हजारों हजार लोग वहाँ आसकते थे …….और वर्षा कि एक बून्द भी वहाँ नही आरही थी ।

मैं सब को बुलाकर लाऊँ ? मनसुख बाहर जानें लगा………

पर बाहर भीषण वर्षा थी…….और घना अन्धकार भी था ।

कन्हैया नें रोक दिया मनसुख को……और गिरवरधारी नें दूसरे हाथ से बाँसुरी निकाल , एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाये हुए…..और दूसरे हाथ, बाम हस्त से बाँसुरी को अधर में रख कर फूँक मार दी….

गूँजी बाँसुरी कि ध्वनि पूरे बृजमण्डल में………गौओं नें भागना शुरू किया उसी दिशा कि ओर जिधर से बाँसुरी कि ध्वनि आरही थी …….ग्वाल बाल गोपी बृजरानी बृजराज सब उसी ओर चल पड़े थे ।

पर आश्चर्य ये हुआ तात ! कि गोवर्धन अब मात्र सात कोस के नही पूरे बृजमण्डल में फैल रहे थे…….जो ग्वाल गोपी दुःखी थे उनके हृदय में अब आनन्द भर दिया था कन्हैया नें अपनी बाँसुरी से ।

और जैसे ही भींगते हुए गोवर्धन में आये ………ये क्या !

अद्भुत झाँकी थी – गिरिराज धरण की ।

छोटी ऊँगली में गोवर्धन पर्वत थे कन्हैया के , दूसरे हाथ से बाँसुरी अधर में धर कर बजा रहे थे ………..त्रिभंगी छटा थी इनकी …………..

गोप गोपी सब मन्त्रमुग्ध हो नाचनें लगे ……….इन्हें क्या चाहिए था यही तो ……अपना श्याम ! अपना “गोवर्धनधारी साँवरा” ।

कितना प्यारा लग रहा था ये आज ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-133

श्रीकृष्णचरितामृतम्-133


!! इन्द्र का कोप – “गोवर्धन पूजन” !!


आश्चर्य होता है तात ! देवराज इन्द्र, सर्वेश्वर से कुपित हो गए !

सर्वेश्वर के स्वजनों से कुपित हो गए !

तुम “देवराज” भी हो तो उनके कारण, तुम समस्त देवताओं के राजा भी हो तो सर्वेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जू के कारण ……तुम्हारा स्वर्ग भी है तो उन्हीं की कृपा से ……..हाँ ! तुम कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता हो …….अब “देवराज” तो तुम उनके लिये हो जो कर्म के आश्रित हैं ……..करते हैं और करनें का फल भोगते हैं …….पर जो सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के अपनें जन हैं ………जो कर्म के आश्रित नही अपनें श्रीकृष्ण के आश्रित हैं ……..क्या तुम उनका बाल भी बाँका कर सकते हो ? उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला सुनाते हुए कहते हैं –

तात ! कर्म नही करते बृजवासी ऐसा नही है …करते हैं …..पर उसका फल श्रीकृष्ण ही हैं ………फल अपनें लिये नही है …….तो फिर कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता इन्द्र का यहाँ क्या काम ?

अज्ञानता इन्द्र की है यहाँ…..अहंकार इन्द्र का दिखाई देता है यहाँ ।

पर इतना तो विचार करो…….तुम एक देवता के राजा मात्र हो …….स्वर्ग के अधिपति ही तो हो ……..पर हमारे गोलोक बिहारी कन्हैया की एक पलक गिरती है तो तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र जन्मते हैं और मर भी जाते हैं ।

ओह ! इन्द्र को क्रोधोन्माद हो उठा …….सुर होंने के बाद भी आसुरी भाव नें इन्द्र को जकड़ लिया……..पर इन सबसे अपनें नन्हे कन्हैया को क्या फ़र्क पड़नें वाला था……..इसे आनन्द आता है ……इसका आहार ही है – अहंकार …….ये अहंकार का ही भोजन करता है ।

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क्या ! मेरी पूजा अर्चना त्याग दी उन अहीरों नें ?

देवराज इन्द्र एकाएक क्रोधित हो उठे थे अपनी अमरापुरी में ।

नारायण नारायण !

इतना ही नही……….तुम्हारा जो इन्द्र ध्वज था उसे भी उखाड़ कर फेंक दिया है उन बृजवासियों नें ।

देवर्षि नारद जी आँखें मटका मटका कर इन्द्र को बता रहे थे ।

उन गोपों नें आपकी घोर अवज्ञा की है देवराज ! आपका आव्हान तक नही किया गया इस वर्ष………

पूजा अर्चना किसकी हुयी बृजमण्डल में इस वर्ष ?

इन्द्र नें देवर्षि से पूछा ।

आपका तो घोर अपमान ही हो गया …….गोवर्धन पर्वत की पूजा की गयी है इस वर्ष……..आपका नाम भी लेना उन लोगों नें उचित नही समझा ………इन्द्र ! सदियों से चली आयी आपकी पूजा रोक दी गयी……..ये आपका घोर अपमान है !

देवर्षि आग लगा रहे हैं………..इन्द्र का कोप बढ़नें लगा था ।

किसनें किया ये दुस्साहस ? कौन है वो जिसनें मेरी पूजा छुड़वा कर गोवर्धन की पूजा करवाई ! इन्द्र के क्रोध से उसका सिहांसन हिल रहा था ।

कृष्ण ! बृजपति नन्द का पुत्र है …..कृष्ण नाम है उसका ।

देवर्षि बोले जा रहे हैं – बृजवासी तो आपकी पूजा करना चाहते थे ……पर उस कृष्ण नें ही आपकी पूजा रुकवा दी …..और गिरी पर्वत की पूजा करवाई……..आप कुछ करिये …..नारायण ! नारायण !

इतना पर्याप्त था ………..देवर्षि मुस्कुराते हुए चल दिए ।

जाओ ! डुबो दो पूरे बृजमण्डल को !

इन्द्र चीखा अपनें मेघों पर……..उस कृष्ण की बात मान कर मेरी पूजा त्याग दी ….मुझे त्याग दिया उन ग्वालों नें ………अब मैं देखता हूँ मेरे क्रोध से कैसे बचेंगे वो लोग ।

बहा दो पूरे बृज को………प्रलयंकारी मेघ बरसो बृज मण्डल में …..

गोपों के समस्त पशु धन को बहा कर नष्ट कर दो ……….गरजो बृज में जाकर ……….मेघ !

इन्द्र को अत्यधिक क्रोध चढ़ गया था……..क्रोध जब अधिक चढ़ जाए तब आसुरी भाव प्रवेश कर जाता है……..और ये आसुरी भाव ही तो था – गायों को बहा दो ! ……गौ धन को नष्ट कर दो ! बृजवासियों को डुबो दो अतिजल वृष्टि से ……।

इतनें पर भी शान्ति नही मिली इन्द्र को तो उसनें “सांवर्तक” नामक मेघ को बुलाया………उद्धव बोले – ये मेघ प्रलय में ही बरसता है ……..उसको बुलाकर आज्ञा दी कि बरसों …………बृज को जैसे ही भी बहा दो ……….बृजवासियों को डूबा कर मार दो ।

मैं भी आरहा हूँ ………ऐरावत हाथी में बैठकर ……और मेरे हाथ मे बज्र भी होगा……….ऐसे नही मरेंगें बृजवासी तो मैं बज्रपात करूँगा ।

उद्धव बोले – देवर्षि नारद ऊपर से इन्द्र के क्रोध का निरीक्षण कर रहे थे ………….वो हँसे – अरे पागल इन्द्र ! ये ऐरावत हाथी समुद्र से ही तो निकला है ……..और समुद्र भगवान नारायण का घर है …..ये ऐरावत नारायण की वस्तु है तुम्हारी नही ………..ऐरावत मूल रूप से नारायण का ही है ………उनका एक संकेत मिले तो सूंड से उठाकर पैरों से तुझे ही तेरा वाहन ऐरावत कुचल देगा ………और हाँ बज्र पर भरोसा मत करना ………..उस बज्र में भी उन्हीं की ही शक्ति है ।

लेकिन देवर्षि प्रसन्न होकर अब आगे की लीला देखनें लगे थे ……..कि लीलाधारी इस इन्द्र को कैसे मजा चखाते हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-132

श्रीकृष्णचरितामृतम्-132


!! सात कोस की परिक्रमा – “गोवर्धन पूजन” !!


अपना कन्हैया लग रहा है ना ये गोवर्धन ?

प्रकट होकर छप्पन भोग आरोग रहे गिरिराज महाराज को मनसुख नें देखा तो श्रीदामा से ही पूछ लिया ।

पर इसके तो चार हाथ हैं ……..हमारे कन्हैया के दो ही हैं ।

अगर चार हाथ के स्थान पर दो ही हाथ होते तो क्या कन्हैया नही लगता ये गोवर्धन ?

हाँ , मनसुख ! तू तो सच कह रहा है …….श्रीदामा का ध्यान अब गया ………अरे मुस्कुराहट भी कन्हैया जैसी ………खानें का तरीका भी कन्हैया जैसा ! नेत्र भी वैसे ही चंचल……..मनसुख अपनी बात कहकर अब ऐसे खड़ा है जैसे उसी नें इस बात को पकड़ा हो …….या इस रहस्य को उसी नें खोला हो ।

फिर कुछ देर बाद मनसुख श्रीदामा के कान में कहनें लगा ………..

ऐसा नही लग रहा…..ये गोवर्धन बहुत दिन का भूखा है ?

श्रीदामा की हँसी फूट पड़ी…………ऐसे नही बोलते ………कान काट देंगे गोवर्धन ! श्रीदामा नें हँसते हुए ही कहा ।

इन्द्र थोड़े ही है अपना गोवर्धन है ये……ये बस खाना जानता है ।

मनसुख फिर शान्त भाव से खड़ा रहा………..वो गोवर्धन महाराज की लीलाओं को देख रहा था । बृजवासी भोग लेकर आते …….पर गोवर्धन महाराज एक ही बार में सब खा जाते हैं ।

मनसुख फिर श्रीदामा के कान में कुछ कहनें लगा…….इस बार श्रीदामा नें सुनी नही उसकी बात ……तो थोडा जोर से बोला……ये गिरिराज गोवर्धन हमारे लिये भी कुछ छोड़ेगा या स्वयं ही सब खा जायेगा !

ये मनसुख के बोलते ही…….पता नही क्या हुआ…….गोवर्धन महाराज नें इशारे में मनसुख को आगे बुलाया…….

अब जा ! खूब बोल रहा था ……अन्तर्यामी हैं गोवर्धन महाराज ……मजाक उड़ा रहा था तू …..अब फल भुगत ….श्रीदामा नें कहा ।

अरे ! तो मैने क्या गलत बोला था…..सब पीछे देखनें लगे…….मनसुख को ही गोवर्धन महाराज नें अपनें पास बुलाया था ……कन्हैया नें खुश होकर मनसुख से कहा ……..तेरे भाग्य खुल गए देख ! तुझे ही बुला रहे हैं मनसुख ! जा …..प्रणाम करके आशीर्वाद ले ।

डरता हुआ मनसुख गोवर्धन महाराज के पास पहुँचा……..”मुझे भोग लगाओ”……गोवर्धन महाराज की गम्भीर वाणी गूँजी ।

भोग लगा मनसुख ! कन्हैया नें कहा ।

मनसुख नें पास में रखे भोग सामग्रियों से लड्डू उठाया और गोवर्धन महाराज को खिला दिया……..वो लौटनें लगा …….तो फिर वही आवाज गूँजी …….प्रसाद नही लोगे ? मनसुख खुश हो गया ……..वो मुड़ा तो वही लड्डू गोवर्धन महाराज नें मनसुख के हाथों में दे दिया था ।

जैसे ही खानें के लिये लड्डू तोड़ा मनसुख नें …….उसमें से दो कानों के कुण्डल निकले…….ले ! ये तेरे लिये दिया है कन्हैया ! तू रख ले ……लड्डू को तो खा गया पर उसमें से जो सुवर्ण के कुण्डल निकले थे उसे कन्हैया को दे दिया था ।

ये तो लड़कियों के कुण्डल हैं ………कन्हैया हँसे ।

हाँ, तो मेरी भाभी को पहना देना……….मनसुख सहजता में बोला ।

तेरी भाभी ? हाँ मेरी भाभी ! ला दे कुण्डल …..मैं उसी को दे देता हूँ ……ये कहते हुए श्रीराधा रानी के पास मनसुख गया और उनके हाथों में दे दिया…….लाल मुख मण्डल हो गया था श्रीराधारानी का शरमा गयीं थीं वो ।

हे बृजवासियों ! वर माँगों मैं तुम सबसे बहुत प्रसन्न हूँ ।

गोवर्धन नें अब भोग पानें के बाद सब से वर माँगनें के लिये कहा ।

तात ! अद्भुत बात ये हुयी वहाँ ……सबनें यही वर माँगा की कन्हैया के प्रति हमारा प्रेम ऐसे ही बढ़ता रहे ……..कन्हैया ही हमारा एक मात्र प्रिय हो ।…….उद्धव विदुर जी को ये कथा सुना रहे हैं ।

श्रीराधारानी नें हाथ जोड़कर और नेत्रों को बन्दकर के माँगा कि …….मेरा सुहाग श्रीकृष्ण ही बनें …………

मैया यशोदा नें माँगा – मेरे लाला पर कभी कोई विपदा न आये ।

पर कुल मिलाकर सबनें श्रीकृष्ण के लिये ही माँगा …….क्यों कि श्रीकृष्ण के सिवा इनका कोई है ही नही ।

“तथास्तु”………कहकर गोवर्धन महाराज अंतर्ध्यान हो गए थे ।

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पर एक आश्चर्य हो गया …….इस आश्चर्य से मनसुख बड़ा प्रसन्न है ।

सब लोग सोच रहे थे सारा का सारा भोग गोवर्धन महाराज पा लेंगे …और पा भी लिया था सारे थाल खाली हो गए थे ।

पर जैसे ही गोवर्धन महाराज अंतर्ध्यान हुये ……..थालों में भोग प्रसाद पहले जैसा था वैसा ही भर गया ।

कन्हैया नें साष्टांग प्रणाम किया गोवर्धन को ………फिर तो सबनें प्रणाम किया ………….मनसुख नें तो बारम्बार प्रणाम किया ………क्यों की भोग प्रसाद सामनें आगया था वापस ।

पंगत लगी अब ……..महर्षि शाण्डिल्य नें कन्हैया से पूछा ……प्रदक्षिणा पहले लगायी जाए या फिर भोग सब बैठकर पाएंगे !

हाथ जोड़कर कन्हैया नें कहा ……..नही , महर्षि ! ये अर्चना इन्द्र की नही है ……जिसमें भूखों रहना पड़े व्रत उपवास करना पड़े …..ये तो गोवर्धन महाराज का प्रसाद है ……..सब पाएंगे पहले प्रसाद ………फिर उसके बाद नाचते गाते गोवर्धन की परिक्रमा देंगे ।

महर्षि गदगद् हैं इस शालग्राम स्वरूप गोवर्धन की पूजा करके ।

अन्य कोई द्विज जब इस “गोवर्धन पूजा” का रहस्य जानना चाहता है ….तो महर्षि शाण्डिल्य उससे कहते ……..ये गोलोक धाम के विशाल शालग्राम हैं ………..शालग्राम से भी ज्यादा इनकी शिला पूजनें का फल है ……ये सदा हरिदासवर्य हैं ..यानि समस्त हरिदासों में श्रेष्ठ ।

सबनें प्रसाद पाया ……कढ़ी भात, बाजरे की खिचड़ी……..ये इस गोवर्धन पूजन में आवश्यक बना दिया था कन्हैया नें……..बाकी अन्य मिष्ठान्न ……..पकवान …….नाना प्रकार के व्यंजन……..पर ये अब सब प्रसाद है……..सबनें आनन्दित होकर प्रसाद पाया ।

अब ? महर्षि नें कन्हैया से पूछा ।

“परिक्रमा”…….गोवर्धन नाथ की प्रदक्षिणा…..कन्हैया नें कहा ।

आगे आगे गौ को किया गया……….सुन्दर सुन्दर गौएँ हैं ……हल्दी के छापे उनके देह पर लगाये गए थे ……सोनें से सींग मढ़ी गयी थी …..चाँदी से खुर मढ़े गए थे ।

इनको आगे आगे रखा गया……..ब्राह्मणों को इनके पीछे ……..जिसमें महर्षि शाण्डिल्य इत्यादि थे ………और उनके पीछे बृजराज जी बृषभान जी गणमान्य व्यक्ति थे ……..उनके पीछे बृजवासिन थीं ….सुन्दर सुन्दर सजी धजी गीत गाती हुयी चल रही थीं……….बरसानें वाली सखियाँ अलग थीं और नन्दगाँव की अलग ।

श्रीराधारानी नें आनन्दित होकर गीत गाना शुरू किया था …….सब पीछे गा रही थीं……”गोवर्धन महाराज तेरे माथे मुकुट विराज रह्यो” ।

दान घाटी से परिक्रमा प्रारम्भ हुई …………….सबनें प्रणाम किया इस भूमि को ….और चल पड़े ………आहा ! क्या दिव्य शोभा बन गयी थी उस गोवर्धन परिक्रमा की …………….बीच बीच में सखाओं के मध्य चल रहे कन्हैया दूसरो को नाचनें के लिये उकसाते ……….तब वो ग्वाला जब नाँचता तब हँस हँस कर सब पागल हो जाते ।

अब जतीपुरा में सब परिक्रमार्थी पहुँचे थे ………ये जतीपुरा गोवर्धन पर्वत का मुख कहा जाता है ……..यहाँ ग्वालों नें दूध से गिरी गोवर्धन का अभिषेक किया …………कुछ देर बैठे पूरी श्रद्धा से प्रणाम निवेदित करते हुए ये लोग बढ़े ।

राधा कुण्ड श्याम कुण्ड…….इन कुण्डों में सबनें स्नान किया था ।

पता ही नही चला सात कोस कैसे जल्दी पूरे हो गए ?

श्रीराधारानी नें ललिता सखी से कहा था ।

ऐसा लग रहा है मिनटों में पूरी हो गयी परिक्रमा !

क्यों की दान घाटी आ गयी थी ………….और अब परिक्रमा पूरी करके सब लोग अपनें अपनें घरों में जानें वाले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-131

श्रीकृष्णचरितामृतम्-131


!! छप्पन भोग की झाँकी – “गोवर्धन पूजन” !!


महर्षि ! आप पुरुषसूक्त का पाठ करें …..आपके साथ द्विजवर्ग भी जो आया हुआ है यहाँ, वो भी पाठ करेंगे ……उस समय यमुना जल से अभिषेक होगा गिरिराज गोवर्धन का ।

नन्दनन्दन नें हाथ जोड़कर महर्षि शाण्डिल्य को निवेदन किया था ।

इतनौ जल ? सात कोस के हैं तेरे गिरिराज भगवान ! इतनौ जल कौन लावैगो ? और यमुना जी तनिक दूर पे हूं हैं ।

मनसुख नें साफ मना कर दिया ।

महर्षि की ओर से मुड़कर मनसुख की ओर देखा कन्हैया नें ………अरे ! इतने ग्वाल बाल हो तो सही ……लै आओ जल !

श्रीदामा नें कहा – सात कोस के तेरे भगवान हमारे जल लावै तो भींग जांगे ? लाला कन्हैया ! इतनौ जल यमुना जी ते नही आ पावैगो !

अच्छो ? सोचनें लगे कन्हैया ।

रुको !

एकाएक तेजपूर्ण मुखमण्डल हो गया कन्हैया का …….उनके नेत्र बन्द थे ……..वो एक एक नाम का स्मरण कर रहे थे ……और उनके नाम लेनें मात्र से वो उपस्थित ।

गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी , गोमती, गोदावरी, मन्दाकिनी, अलकनन्दा, गण्डकी ……….इन सब नदियों का स्मरण किया बस – सब उपस्थित थीं वहाँ ।

देखते ही देखते …….एक दिव्य कुण्ड प्रकट हो गया………

महर्षि शाण्डिल्य नें उस जल का छींटा लिया स्वयं ……….आनन्दित होकर बोले – इसमें तो सम्पूर्ण तीर्थों का जल है ……….विश्व की सारी नदियों का जल इसमें समाया हुआ है………आचमन किया महर्षि नें …………और मुस्कुराते हुये उस कुण्ड का नाम भी रख दिया ……….

“मानसी गंगा”……क्यों की नन्दनन्दन नें अपनें मन से इन गंगा जी को प्रकट किया था ….इसलिये नाम रखा मानसी गंगा ।

अब तो सब बृजवासी आनन्दित हो मानसी गंगा से ही जल लेकर गोवर्धन महाराज पर चढानें लगे……….सात कोस के गिरी गोवर्धन का अभिषेक भी देखते ही देखते सम्पन्न हो गया था ।

चन्दन लगाया गोवर्धन को………..साष्टांग सबनें प्रणाम किया ।

अब ? सब मुड़े कन्हैया की ओर ।

अब क्या ! छप्पन भोग लगेगा गोवर्धन महाराज को ।

कन्हैया नें कहा ………और साथ ही साथ अपनें सखाओं को कहा ……..भोग के जितनें थाल हैं सबमें भोग सजाकर लाओ ….और यहाँ गोवर्धन भगवान के सामनें रख दो ……….सजाकर रखना ……पँक्ति बद्ध करके रखना …………..

कन्हैया की बात मानकर सब ग्वाले बैलगाड़ियों में चले गए …..उनमें रखे हुये थे भोग के थाल ……..उन्हीं थालों में विभिन्न प्रकार के भोग थे ……बस पँक्तिबद्ध खड़े हो गए सब…….एक ग्वाला दूसरे को थाल पकड़वाता है……..दूसरा तीसरे को …….ऐसे करके थाल को सजाया गया……..एक भोग छप्पन प्रकार के थे……..गिनती करनें के लिये जो ग्वाला बैठा था वो भी भूल रहा था, इतनें पदार्थ हो गए ।

सब आनन्दित हैं सब रस में भींगें हुए हैं ……गोपियाँ तो इतनी आनन्दित हैं कि वो बात बात में नाच उठती हैं………क्यों की इन्द्र यज्ञ में तो इनको छूनें की भी मनाई थी ….पर इस गोवर्धन पूजन में इनका अपना अधिकार था……इनके प्रियतम नें ही ये अर्चना रखी थी ।

रसगुल्ला, चन्द्रकला, रबड़ी, पेड़ा, मोहन थाल, लड्डू, मोहन भोग, जलेबी, राजभोग, रसभरी, इमरती, माखन, मलाई, मलाई के लड्डू, मालपुआ, खीर, खीरमोहन, दूध भात, बालूशाही ।

पूड़ी , कचौड़ी, बेढई, चूरमा वाटी, घेवर, चीला, हलुआ, खीर भोग, साग के प्रकार इतनें हैं कि वर्णन कठिन है…….दाल, मुंग की दाल, अरहर की दाल, दही बड़े कांजी बड़े , भात , मीठे भात , नमकीन भात , सादे भात ………और कढ़ी ……..बाजरे की रोटी …….बाजरे की खिचड़ी ……मीठी खिचड़ी नमकीन खिचड़ी ……..दही , छाँछ ।

तात ! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ ? अनेक प्रकार के भोग हैं और अनेक प्रकार के व्यंजन………..सबको सजा कर रखा गया गोवर्धन महाराज के सामनें……दिव्य झाँकी है इस छप्पन भोग की ।

अब ? महर्षि नें श्रीकृष्ण से ही पूछा ।

अब तुलसी दल भोग में छोड़ा जाए …..कन्हैया नें कहा ।

नही , ऐसे नही होगा…….तुमनें कहा था हे कृष्ण ! कि तुम्हारे गोवर्धन नाथ प्रकट होकर भोग स्वीकार करेंगे ! ऐसे भोग तो हम देवराज इन्द्र की लगाते रहते थे …..प्रत्यक्ष होकर भोग स्वीकार करें तब है ।

ग्वालों नें पीछे से आवाज उठाई ……

कन्हैया मुस्कुराये……और देखते ही देखते ……गोवर्धन पर्वत में एक दिव्य प्रकाश छा गया……..ग्वाल बाल कुछ देख नही पा रहे थे ।

तभी – “मैं तुम लोगों की पूजा अर्चना से अतिप्रसन्न हूँ ……….अब लाओ, मुझे भोग लगाओ ………मैं तुम्हारे भोग को स्वीकार करके तुम्हे अनुग्रहित करता हूँ” ………

दिव्य चतुर्भुज रूप धारण करके श्याम वर्ण के स्वयं श्याम सुन्दर ही प्रकट हो गए थे ……अन्तर इतना ही था कि नन्दनन्दन की दो भुजाएँ थीं गोवर्धन नाथ के चार भुजा ।

दर्शन करके बृजवासी आनन्दित हो उठे ………और अब तो वाणी भी सुन ली ………….”मैं तुम लोगों की अर्चना से अतिप्रसन्न हूँ “

बस – इतना सुनते ही सब बृजवासी उछल पड़े ……बोल – गोवर्धन नाथ की …..जय जय जय जय …….सब झूम उठे ।

लाओ ! भोग …..और लाओ ! गोवर्धन महाराज भोग स्वीकार कर रहे हैं ….भोग आरोग रहे हैं …..सब देखते हैं और रस में मग्न होते हैं ।

श्रीराधा जी इतनी देर तक शान्त थीं……..कुछ कह नही रही थीं ……कुछ कर नही रही थीं ……बस अपनी सखियों के साथ बैठीं थीं ।

पर अब………एकाएक हँसनें लगीं …….ललिता सखी नें देखा ….तो पूछ लिया ……प्यारी जू ! क्यों हँस रही हैं आप ?

पहचानों ये गोवर्धन कौन हैं ? हँसते हुये श्रीराधा जी नें ललिता सखी को कहा , कौन हैं ? ललिता सखी नें पूछा ।

हमारे श्याम सुन्दर ही तो हैं …………..ये कहते हुए श्रीराधा रानी हँसती रहीं ………”.स्वयं ही पुजारी स्वयं ही पूज्य” ……स्वयं पूजे और स्वयं पूजावे…….सखी ललिते ! श्याम सुन्दर अद्भुत लीलाधारी हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-130

श्रीकृष्णचरितामृतम्-130


!! गोवर्धन को जाऊँ मेरी वीर – “गोवर्धन पूजन” !!


आहा ! महामहोत्सव का रूप ले लिया था “गोवर्धन पूजन” नें ।

कितनें सरल और निर्दोष थे ये सब बृजवासी …….प्रेम करते थे अपनें कन्हैया से……फिर जहाँ प्रेम होता है वहाँ प्रेमी की हर बात स्वीकार होती ही है……एक बार श्रीकृष्ण नें कहा……अपनें देवता को त्याग दो और मेरे देवता गोवर्धन की पूजा करो……त्याग दिया ।

देवता उत्पात मचायेगा……वज्रपात करेगा…..प्रलय ले आएगा …….

अब कुछ भी करे …….कन्हैया की बात हमें माननी ही है ……….क्यों की प्रेम है । उद्धव स्वयं उत्सव मूर्ति हैं…..आज इस उत्सव की लीला गाते हुये उद्धव आनन्दित हो उठे थे ।

तात ! प्रेम के लिये तात मात सुत दारा गृह – इन सबको छोड़ते तो देखा गया है ……पर इन बृजवासियों नें तो अपनें देवता को ही त्याग दिया …….प्रेम जो करवाये कम ही है – ये कहते हुए उद्धव हँसे ।

अमावस्या कल ही तो थी …….कार्तिक अमावस्या ……….क्या जगमग कर उठा था पूरा बृजमण्डल ……..दीप मालिकाएँ जगमगा उठीं थीं ।

आज प्रतिपदा है ……..कन्हैया नें अमावस्या के दूसरे दिन का ही मुहूर्त बताया था समस्त बृजमण्डल को …………..

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प्रातः उठकर स्नान किया बृजरानी नें ………….सुन्दर इत्र फुलेल लगाया …………लाल सुन्दर साड़ी पहनी …………..केशों को बांध कर जूड़ा बनाया ……..गजरा और लगा दिया उसमें ।

लाल बड़ी सी बन्दी माथे में ………आँखों में कजरा ।

कन्हैया को अच्छा लगता है उसकी मैया सजी धजी रहे ………..इसलिये ही ये सजती है …………..

“बहुत सुन्दर लग रही हो …….ऐसी लग रही हो जैसे मैं अभी तुम्हे ब्याह करके लाया हूँ” …………..हँसते हुए बृजराज नें बृजरानी को छेड़ा …….शरमा गयीं बृजरानी …….लाल मुखमण्डल हो गया था उनका ।

“बच्चों के सामनें आप कुछ भी बोलते हो “! यशोदा मैया अभी भी शरमा रही हैं …….गोरी मैया शरमाते हुये बहुत अच्छी लगती हैं ।

आप तो तैयार ही नही हुये ? बृजराज को देखकर मैया बोलीं ।

आइये इधर …………सुन्दर रेशमी पीली धोती बृजराज को दी ……..फिर वैसी ही बगलबन्दी ऊपर ………सुन्दर पटका जिसमें अद्भुत मोतियों का काम हुआ है ……….सिर में पगड़ी, हीरे की कलँगी उसमें और लगा दी………बाबा नें आज आभुषण धारण किये ……गले में मोतियों की माला….हाथों में सोनें के कडुवा…..हीरे उसमें जड़े हुए थे ।

और मस्तक में केशर का तिलक ……………

बाबा हँसे ……….बृजरानी ! अब बाहर आजाओ …………..लोग आगये हैं बाहर ………..और फिर बरसानें के बृषभान जी को भी तो लेकर चलना है और उनके साथ भी सुना है पूरा बरसाना ही चलेगा गोवर्धन पूजन के लिये ।

ये कहते हुये बृजराज बाहर आगये ……..बाहर कन्हैया हैं ……..गम्भीर हैं आज ………सब कन्हैया से ही पूछ रहे हैं ………….

कृष्ण ! कृष्ण ! महर्षि शाण्डिल्य पधार चुके थे उन्होंने कन्हैया को बुलाया ………..कन्हैया तुरन्त दौड़े हुये आये……..आज्ञा महर्षि ! सिर झुकाकर पूछा ।

गोवर्धन की पूजा किस विधि से की जाए ?

हे गुरुदेव ! गोवर्धन पर्वत स्वयं नारायण के स्वरूप हैं ………..इसलिये तुलसी , तुलसी की मञ्जरी …….यमुना जल , दूध दही घी मधु शर्करा इन सबसे गिरी गोवर्धन की अर्चना की जाए ।

नारायण , विष्णु, हरि, माधव केशव इन्हीं नामों का उच्चारण करते हुए गिरिराज गोवर्धन का पूजन हम सब करें ।

मुस्कुराकर महर्षि शाण्डिल्य नें श्रीकृष्ण की बात स्वीकार की ।

चलो ! चलो ! अब गाड़ियों को सजाया जाए……….कन्हैया प्रणाम करके महर्षि के पास से चले गए और दूसरी ओर जाकर बैलगाड़ियों को भी सजानें की व्यवस्था में स्वयं लग गए थे ।

गायों को सजाना है ना कन्हैया ? बलभद्र भैया नें आकर पूछा ।

हाँ …दाऊ ! उन्हें तो मुख्य सजाना है……उनको नहलाओ…..फिर हल्दी की छाप उनपर लगाओ…….सुवर्ण से उनकी सींग सजाओ …….चाँदी उनके खुर में लगाओ …….पीला वस्त्र उन्हें उढ़ाओ ।……बड़े भैया बलभद्र को समझा कर भेज दिया था कन्हैया नें

देखते ही देखते सहस्त्रों बैलगाड़ियाँ तैयार हो गयीं थीं ….गायों को स्वयं बलराम जी नें सजाया था ।

बैलगाड़ियों में छप्पन भोगों को रखा गया – छप्पन भोग, एक एक भोग, छप्पन प्रकार के थे …….अब सब अपनी अपनी बैलगाड़ियों में बैठ गए ……..सज धज कर आगे बृजपति ही चले …. भाई उपनन्दादि उनके साथ थे ………..

कन्हैया अपनें सखाओं के साथ बैठे …………इसी बैलगाडी की सबसे ज्यादा शोभा हो रही थी जिस में श्रीकृष्ण विराजे थे ।

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बरसानें से होकर जायेगें ये सब गोवर्धन के लिये ………..बरसानें वाले प्रतीक्षारत हैं………….जैसे ही गाड़ियाँ बरसानें से गूजरी सब आनन्दित हो उठे …….बृषभान जी और बृजराज दोनों गले मिले ……….बृजरानी और कीर्ति रानी दोनों प्रेम भाव से मिलीं और साथ में ही बैठीं ।

बृषभान नन्दिनी अपनी अष्टसखियों के साथ बैठीं हैं …………श्याम सुन्दर को निहार रही थीं पर जैसे ही श्याम सुन्दर नें श्रीराधारानी को देखा ………श्रीराधा नें दृष्टि घुमा ली ।

अब तो बैलगाड़ियों की लाइन बहुत लम्बी हो गयी थी ……पर दूर से देखनें में अद्भुत छटा लग रही थी इन सबकी ……….पीले पीले रेशमी वस्त्रों से सजे थे सारे बृषभ ।

गीत गाते हुए ……..जयजयकार करते हुए सब गोवर्धन की ओर चले जा रहे हैं……आनन्दित हैं सब ……….उत्साह उमंग अद्भुत है सबमें ।

बोलो – “गोवर्धन नाथ की” …….कन्हैया नें कहा ……..तो पीछे से सब बृजवासी बोल उठे – “जय जय जय जय” ।

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गोर्वधन में पहुँचकर साष्टांग प्रणाम स्वयं कन्हैया नें किया था ।

बस – फिर तो सब प्रणाम करनें लगे थे गिरी गोवर्धन को ।

महर्षि शाण्डिल्य नें पुरोहित अब कन्हैया को ही बना दिया ……….

महर्षि भी कन्हैया से ही पूछ रहे थे…क्या करना है ….क्या नही करना ।

पूजन की विधि जैसे शालग्राम भगवान की होती है वैसे ही हो रही थी ।

चौंसठ सुवर्ण के दोनों में यमुना जल डालकर उसमें तुलसी दल छोड़कर उन्हें पँक्ति बद्ध रखा गया था ………गोपियों को पूजन की आज्ञा नही दी गयी तो कन्हैया नें महर्षि शाण्डिल्य से कहा …..महर्षि ! ये इन्द्र याग नही है ………ये गिरी गोवर्धन की अर्चना है ….इसमें सबको अधिकार मिले ………..महर्षि नें स्वीकृती दी ।

अब तो सब गोपियाँ भी उत्साह से गोवर्धन का पूजन करनें लगीं थीं ।

बोलो – गिरिराज गोवर्धन की …….जय जय जय जय !

मनसुखा नाचते गाते बीच बीच में जयकारा लगा रहा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-129

श्रीकृष्णचरितामृतम्-129


!! श्रीकृष्ण की क्रान्ति – “गोवर्धन पूजन” !!


मेरे मात्र हाँ कह देनें से क्या होता है लाल ! समस्त बृजवासी मानें …..फिर सबसे पहले तो महर्षि शाण्डिल्य को माननी होगी तेरी बात ….वो समर्थन करेंगे तब जाकर गोर्वधन पूजन हो सकेगा ।

बृजराज बाबा नें अपनें पुत्र कन्हैया को समझाया था ।

तब देरी क्यों ? बुलाया जाए समस्त बृज के समाज को ……..और महर्षि शाण्डिल्य को भी ………गम्भीर होकर श्रीकृष्ण बोल रहे थे ।

“लो ! महर्षि पधार गए”……..बृजराज उठकर खड़े हो गए …….और बड़ी विनम्रता पूर्वक नमन किया था महर्षि शाण्डिल्य के चरणों में……और आसन दिया जिसमें महर्षि शाण्डिल्य विराजे ।

हे गुरुदेव ! मेरा पुत्र कुछ कहना चाहता है …………मैं तो इसका समर्थन नही करता…..क्यों की कर्मकाण्ड की रीति से इन्द्र पूजन हम कृषकों के लिये आवश्यक है …..तभी तो वर्षा होगी और अन्नों की उपज बढ़ेगी ।

बृजराज नें महर्षि शाण्डिल्य के सामनें अपनी बात रखी ।

हे कृष्ण ! तुम क्या कह रहे हो ? क्या ये बृजवासी इन्द्रयाग न करें ?

महर्षि नें श्रीकृष्ण का मत जानना चाहा ।

हाथ जोड़कर महर्षि को नमन करते हुए श्रीकृष्ण बोले थे –

भक्ति में दो ही पूजा चलती हैं महर्षि ! एक भगवान की या एक भक्त की …….इसके सिवा किसी की भी पूजा मान्य नही है ……….

श्रीकृष्ण गम्भीर विवेचना में उतर गए थे ।

गुरुदेव ! सकाम पूजा की अपेक्षा निष्काम को समस्त शास्त्रों नें और शास्त्रकारों नें श्रेष्ठ माना है …………देवताओं की पूजा सकाम ही होती है …….इसलिये इन देवों की पूजा से श्रेष्ठ भगवान की पूजा मानी जायेगी ….और भगवान से भी ज्यादा श्रेष्ठ उनके प्रिय भक्तों की पूजा है …..क्यों की भक्तों का जीवन सदैव दूसरों की सेवा में ही बीतता है ।

बड़े ध्यान से और मुस्कुराकर महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण की बातें सुन रहे थे और गदगद् हो रहे थे ।

हे गुरुदेव ! देवताओं में भी अहंकार उत्पन्न होता है ………..अहंकार ही नही देवताओं में तो आसुरी भाव का भी प्रकट होते देखा गया है ।

फिर आप तो सब जानते ही हैं ……आसुर भावापन्न देवता लोग अपनें ही पुजारी और उपासक का अहित करनें में भी देरी नही करते …….क्या महर्षि ! मैं सत्य नही कह रहा ? श्रीकृष्ण नें महर्षि से ही पूछा ।

मुस्कुराते हुये हाँ में सिर हिलाया महर्षि शाण्डिल्य नें ।

हे गुरुदेव ! पर भक्त कभी रुष्ट नही होते ……….आसुर भाव का उनमें उदय स्वप्न में भी नही होता …..दूसरे का हित …….वे सदैव दूसरे के हित के बारे में ही सोचते रहते हैं ………….करते रहते हैं ।

आप देखिये ना ! हमारे गोवर्धन पर्वत को ………..सदैव इन्होनें हमें दिया ही दिया है …….कभी लिया नही है……..इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस बार गोवर्धन नाथ की पूजा हो ……..मेरी कोई बात अगर आपको अनुचित लगी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ …….इसका कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए थे ।

महर्षि नें प्रसन्नमुद्रा में कहा – समस्त बृजवासियों को बुलाओ …….हे बृजराज ! श्रीकृष्ण की बातें सांख्योक्त हैं ……मैं तो समर्थन करता हूँ …..पर ये तुम्हारी प्राचीन परम्परा है…….समाज का भी समर्थन मिले इसलिये सबको बुलाओ …….समस्त बृजवासियों को ….और वो क्या कहते हैं उनकी भी सुनो !

जो आज्ञा गुरुदेव ! बृजराज नें महर्षि को प्रणाम किया …….और आज्ञा दी कि – आज सन्ध्या से पूर्व समस्त बृजवासी मेरे आँगन में एकत्रित हों……आवश्यक वार्ता करनी है ।

बृजराज की आज्ञा कुछ ही समय में पूरे बृजमण्डल में फ़ैल गयी थी ।

झुण्ड के झुण्ड सब आनें लगे नन्द के उस विशाल आँगन में ।

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ये क्या हो गया तुझे कन्हैया ! भला इन्द्र भगवान का भी कोई अपमान करता है ? मैया बृजरानी कन्हैया को समझा रही हैं ।

इन्द्र भगवान नही हैं मैया ! श्रीकृष्ण नें अपनी मैया को कहा ।

सब भगवान हैं ना ! सबमें भगवान हैं ना ! फिर इन्द्र भगवान क्यों नहीं ?

मैया बृजरानी का अपना तर्क है ।

सब भगवान हैं तो इन्द्र ही क्यों ? गोवर्धन क्यों नही ?

मेरी भोरी मैया ! इस बार मैं इन्द्र की पूजा बृज से बन्द करवा के ही रहूँगा ……….श्रीकृष्ण नें मुस्कुराते हुये कहा था ।

पर इन्द्र कुपित हो गया तो ? और उसनें प्रलयंकारी वर्षा कर दी तो ?

मेरी मैया ! मेरे गोवर्धन हमारी रक्षा करेंगे ………….वो सदैव हमारी रक्षा करते हैं …………..और इसके बाद भी इन्द्र में आसुरी भाव नें प्रवेश किया और बृज को डुबोनें का प्रयास किया तो फिर मैं भी इन्द्र से टकरा जाऊँगा ……….वो मुझे जानता नही है ….मैं भी अहीर कुमार हूँ …….वन पर्वतों में रहनें वाला – गोपाल ।

इतना कहकर वहाँ से चले गए थे श्रीकृष्ण ।

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सहस्त्रों बृजवासी अपनी अपनी बैल गाड़ियों में बैठकर नन्द आँगन में पहुँच गए हैं …….बृजराज नें भी सोचा नही था कि पूरा ही बृज मण्डल उमड़ पड़ेगा…..सब बैठे हैं…….उनका कन्हैया आज बोलेगा …..क्या बोलेगा किसी को पता नही ……दो दिन ही बचे हैं इन्द्र पूजन के ….तैयारियाँ चल रही है…..पर ये सभा क्यों बुलाई है नन्द महाराज नें ?

किसी को पता नही ……..पर सब इतना जानते हैं …….कि कन्हैया आज बोलेगा ………..।

कन्हैया आये……महर्षि शाण्डिल्य भी आये……बृजराज भी हैं ।

“इन्द्र की पूजा को त्याग कर हम सब एक नई और दिव्य परम्परा का प्रारम्भ करें ” – ब्रजपति के आदेश से कन्हैया नें प्रथम उस सभा में उठकर अपनी बात रख दी थी ।

“हम सब गोवर्धन की पूजा करें”………श्रीकृष्ण नें ये बात भी कह दी ।

ये कैसे हो सकता है ? हमारी सदियों से चली आरही परम्परा है ……

कुछ वृद्ध लोग उठे और विरोध करनें लगे थे ।

क्यों नही हो सकता ……और सदियों से चली आरही परम्परा अंध परम्परा भी तो हो सकती है ! और ये अंध परम्परा ही है …….क्यों हम किसी अहंकारी देवराज की पूजा करें ! क्यों ? श्रीकृष्ण गम्भीर होकर उच्च स्वर में बोले …………गोवर्धन नें क्या नही दिया हमें ……., फल, फूल, वन, जल , क्या इनके बिना हम जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं ? और हे मेरे बृजवासियों ! मेरी बात सुनो !

इन्द्र कोई और नही हम ही हैं ……….हम हैं ……….हम पुण्य करते हैं ……तब हम ही देवता बनते हैं …….इन्द्र बनते हैं ब्रह्मा बनते हैं ।

ये कहते हुए कन्हैया नें सबके सामनें एक चींटी को दिखाया ……..ये चींटी सहस्त्र बार इन्द्र बन चुकी है …………..इसलिये इन्द्र की पूजा करनें का आग्रह त्यागो ………….

एक बूढ़े बृजवासी नें उठकर महर्षि शाण्डिल्य से पूछा… …..क्या कन्हैया सत्य कह रहा है महर्षि ?

महर्षि शाण्डिल्य नें सिर हाँ में हिलाया और मुस्कुराये ।

आकृति कैसी है ये मुख्य नही है……आकृति क़ैसी भी हो सकती है …पर्वत के रूप में भक्ति का दिव्य रूप हमारे सामनें है – गोवर्धन पर्वत ।

और कर्म मुख्य है ……..मात्र देवों के भरोसे रहनें से क्या होगा ?

पूरी सभा में स्तब्धता छा गयी थी ……जब श्रीकृष्ण बोल चुके थे ।

अगर इन्द्र की पूजा छोड़कर अनिष्ट हुआ तो ?

एक वृद्ध बृजवासी नें फिर उठकर ये भी पूछा ।

“हो सकता है …….और इन्द्र हमारे बृज मण्डल को डुबोनें का प्रयास भी कर सकता है……..पर क्या हम डरकर इन्द्र की पूजा कर रहे हैं ?

भय और प्रलोभन से की गयी उपासना , उपासना नही कहलाती , हे बृजवासियों !

क्या दिया है तुम्हे इन्द्र नें ? पर गोवर्धन सबकुछ देते रहते हैं ……नित्य निरन्तर देते रहते हैं ……….किन्तु उनमें कभी अहंकार नही आता ……इन्द्र अहंकार से ग्रस्त है …………इसलिये इस बार !

और क्यों ! एक सूखे बाँस को खड़ा कर देते हो आप लोग ……..और उसमें एक ध्वज लगाकर इन्द्र कहकर पूजा करते हो …….अरे ! इससे श्रेष्ठ तो ये है कि सामनें हमारे गोवर्धन पर्वत हैं ………दिव्य हैं ….अद्भुत हैं …..इनकी शोभा तो देखो ……..इनकी पूजा करो !

क्या करना होगा हमें ?

करतल ध्वनि से श्रीकृष्ण की बात का समस्त बृजवासियों नें समर्थन किया ………और पूछा ।

छप्पन भोग बनाओ …….गोवर्धन नाथ को भोग लगाओ …….और सब बड़े प्रेम से उस प्रसाद को पाकर पूरे सात कोस की प्रदक्षिणा करो ।

गौओं का पूजन, गौओं को खिलाओ ………..आगे आगे गौ को करके हम सब गाते बजाते परिक्रमा करते हैं ।

बोलते बोलते श्रीकृष्ण आवेश में आगये थे ।

देवराज इन्द्र को आज तक आपनें देखा है ? इन्द्र प्रत्यक्ष हुआ कभी ?

पर मेरे गोवर्धन प्रकट होंगे ……….वो तुम सबसे प्रत्यक्ष होकर भोग स्वीकार करेंगे ……..मेरे गोवर्धन नाथ ! इतना कहते हुए श्रीकृष्ण नें गोवर्धन को प्रणाम किया ।

ये सुनते और देखते हुए समस्त बृजवासी आनन्द से उछल पड़े थे ।

जय हो जय हो ….की ध्वनि से पूरा नन्द का आँगन गूँज उठा था। ।

आनन्द से सब अपनें अपनें घरों में लौट आये ……और गोवर्धन को ही आज से सबनें अपना इष्ट स्वीकार कर लिया ।

छप्पन भोग की तैयारियों में लग गए थे सब ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-128

श्रीकृष्णचरितामृतम्-128


!! उपासना किसकी, देवता की या भक्त की – “गोवर्धन पूजन” !!


हाँ तात !

उपासना किसकी ? एक अहंकारी देवता की या एक भक्त की ?

उद्धव पूछते हैं ।

देवता में अच्छाई के अहंकार हैं पर भक्त तो भाव और प्रेम के कारण नम्र है……..फिर किसकी उपासना एक अहंकार की या भाव और प्रेम से झुके प्रेमी हृदय की ?

देवता तो कोई भी हो सकता है …….पर भक्त होना अपनें आपमें धन्यता है……भक्त के होनें से ही पृथ्वी धन्य हो जाती है….भक्त के कारण ही वायुमण्डल भावपूर्ण हो उठता है ।….उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।

कार्तिक का महीना प्रारम्भ हुआ ही था ………..शीत ऋतु के आगमन की तैयारी थी ……..वातावरण बड़ा ही सुखप्रद हो उठा था ।

सात वर्ष के कन्हाई हो गए हैं ……….बृज मण्डल कन्हैया की इस अवस्था पर इठला रहा था ……….गौएँ चरानें आज नही गए कन्हैया ……..बस इधर उधर घूमते रहे दिन भर ……………फिर घर में आगये थे ……उनके साथ उनके सखा भी थे …..भूख लगी है कन्हैया को ।

मैया मैया ! कुछ खानें को दे ना !

रसोई में मैया यशोदा थीं उनके पास गए और कुछ माँगनें लगे थे ।

कुछ नही है, बाहर जा ! मैया नें कन्हैया को बाहर जानें को कहा ।

“पर तू पकौड़ी बना तो रही है” ……..तल रही थीं पकौड़ी यशोदा जी ।

हाँ , पकौड़ी बना रही हूँ पर भगवान के लिये …..तेरे लिए नही …..और पहले हमारा भगवान भोग लगायेगा फिर तू ……समझे ?

आज स्वभाव में कुछ तेजी थी मैया यशोदा के ।

पर – एक पकौड़ी ! छूनें ही जा रहे थे कन्हैया ।

मैने कहा ना ! छूना नही ……ये भगवान के लिए है ।

हँसे कन्हैया ……मैया बृजरानी को रोष हुआ ………हँसता क्यों है ?

क्यों की मैं ही तो हूँ सबसे बड़ा भगवान …….फिर ये दूसरा भगवान कौन आया है मेरे घर ? कन्हैया हँसते रहे ।

मैया यशोदा को पकौड़े तलनें थे इसलिये ज्यादा कुछ न बोलकर वो अपना काम करनें लगीं…..तभी कन्हैया नें एक पकौड़ी को छू लिया ।

रोष में आकर मैया यशोदा नें एक चपत कन्हैया के गाल में लगा दिया था……रोनें लगे कन्हैया…….यशोदा मैया नें रसोई से बाहर निकाल दिया कन्हैया को……वे रोते रोते बाबा बृजराज के पास गए ।

बड़े प्यार दुलार से अपनी गोद में बिठाया बाबा नन्द नें ……..फिर ताजा माखन खिलाया ……हाँ अब बताओ ! मेरे युवराज को किसनें मारा ?

आँसू पोंछते हुए कन्हैया बोले …….”मैया नें” ।

अरे ! सुनो ! मुझे तिल जौ और समिधा इनकी मात्रा ज्यादा चाहिए ………यज्ञ होगा और वर्षों की अपेक्षा इस बार ज्यादा बड़ा यज्ञ होगा ……अपनें सेवकों को बृजराज नें आज्ञा दे दी थी ।

बाबा ! क्या हो रहा है इस बार हमारे वृन्दावन में ?

सफेद बृजराज की दाढ़ी से खेलते हुए नन्दनन्दन नें पूछा था ।

मेरे लाल ! हम सब बृजवासी मिलकर इस बार देवराज इंद्र की पूजा करनें जा रहे हैं ………अपनें लाला को चूमते हुए नन्द बाबा नें कहा ।

क्यों ?

बड़ी मासूमियत से कन्हैया नें नन्दबाबा के मुख में देखते हुए पूछा ।

हाँ , बाबा ! क्यों ? इन्द्र की ही पूजा क्यों ?

प्रश्न सुनकर चौंक गए नन्दबाबा भी ……..क्या मतलब , क्यों ?

अरे मेरे लाल ! इन्द्र भगवान हैं ……..उनकी हम उपासना करेंगे पूजा करेंगे तो वे खुश होंगे ….और खुश होंगे तो वर्षा होगी …….और हम तो कृषक हैं ना लाला !

बाबा ! इन्द्र देवता है, हाँ देवता का राजा …….यही ना ?

बाबा ! पर इन्द्र भगवान नही है …….क्यों की जो भगवान होता है उसकी पूजा करो या न करो ….वो प्रसन्न होता ही है ।

कन्हैया अपनें बाबा बृजराज को समझा रहे हैं ।

इन्द्र एक देवता है …….इससे ज्यादा और कुछ नही ।

वर्षा इन्द्र के कारण नही होती ………कन्हैया नें अपनी बात कह दी ।

फिर किसके कारण होती है ये वर्षा ? बृजराज नें पूछा ।

गोर्वधन पर्वत के कारण ……वनों के कारण ……..यमुना के कारण …..हाँ बाबा ! यही सच है …………कन्हाई उठकर खड़े हो गए ……बाबा ! इन्द्र अगर हमारी पूजा से प्रसन्न होता है और पूजा न करनें से अप्रसन्न ……तो इसका मतलब …..वो अहंकारी है …….फिर अहंकारी की पूजा क्यों ? नही बाबा ! अहंकारी व्यक्ति कभी भी मेरी दृष्टि में पूज्य नही है ………….और इन को देखो ………मेरे गिरिराज गोवर्धन को …………ये तो भक्त हैं …..परम भक्त ………फल देते हैं …..जल देते हैं …………सबको छाँव देते हैं …………पर कभी आपसे पूजा की माँग की है !…………नही बाबा ! नही ………इनकी तलहटी में हम सब बृजवासी सुरक्षित हैं …………हमारे गौ वत्स सब सुरक्षित हैं …………बाबा ! हमारे पूज्य होनें चाहियें ये गोवर्धन पर्वत ।

तुम कहना क्या चाहते हो ? बृजराज नें कन्हैया से ही पूछा ।

मैं कहना चाहता हूँ अहंकारी की नही ….एक भक्त की पूजा करो बाबा !

मैं ये नियम समस्त जगत को बतानें आया हूँ …………..भक्त सबसे बड़ा होता है …….भक्त वो है …..जो भक्ति से भरा है …और भक्ति का अभिप्राय है सेवा ……….निष्काम सेवा …….क्या गोवर्धन की तरह कोई सेवा करता है ? पक्षियों की सेवा , वनों की सेवा , पशुओं की सेवा …..हम बृजवासियों की सेवा ……….और कुछ नही चाहते ये गोवर्धन पर्वत हमसे, ……निष्काम सेवा – बस ।

बाबा ! तब क्या हमें पूजा इनकी नही करनी चाहिए ? कन्हैया नें बाबा से ही अब पूछा ।

बाबा बृजराज चुप हो गए थे ………क्यों की बात सही थी कन्हैया की ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-127

श्रीकृष्णचरितामृतम्-127

!! “प्रेमधर्म” सब धर्मों से श्रेष्ठ है” – माथुर ब्राह्मणियों पर कृपा !!

हाँ , तात ! प्रेम धर्म से बड़ा कोई धर्म नही……धर्म का अभिप्राय यही होता है ना ! जिसनें हमें धारण किया है ? तो प्रेम नें ही हमें धारण किया है…….प्रेम से बड़ा तप और कुछ नही है ….प्रेम से बड़ा योग कुछ नही है…..प्रेम से बड़ा ज्ञान कुछ नही…..क्यों की प्रेमी ही सबसे बड़ा ज्ञानी है…..प्रेमी को ही ये पता रहता है कि ….मेरे प्रियतम के अलावा सब मिथ्या है सब झुठ है…..सत्य एक मात्र मेरा प्रियतम ही है ।

उद्धव उसी प्रसंग को भावपूर्ण होकर सुना रहे हैं……..

तात ! वो सब माथुर ब्राह्मणियां अपनें अपनें पतियों के यज्ञानुष्ठान को त्याग कर नन्दनन्दन के दर्शन करनें के लिये चल दी थीं ।

उद्धव ! उस यज्ञपत्नी का क्या हुआ जिसको उसके पति नें रोक दिया था…..वो तो विरह में डूब गयी होगी ? विदुर जी नें प्रश्न किया ।

तात ! वो तो अन्य यज्ञपत्नियों से पहले पहुँची ……..हाँ देह भले ही उसका यहीं था पर भावना से वो श्रीकृष्ण के पास ही थी ।

उनका अन्तःकरण श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में लग चुका था ।

उद्धव बोले – क्रिया का महत्व नही है इस प्रेम धर्म में …….इसमें तो भाव प्रधान है ।

श्याम सुन्दर एक शिला पर विराजे हैं…..पीताम्बर धारण किये हुए हैं ।

मुरलीमनोहर हैं…..वन माला उनके हृदय में झूल रही है…..उनका श्रृंगार पल्लवों से हुआ है ……..नट का सा रूप है ……चंचल उनकी चितवन है …….अद्भुत हास्य उनके मुखारविन्द पर खेल रही है ।

कानों में कमल के कुण्डल हैं …….उनकी घुँघराली अलकें उनके कपोलों पर लटक रही हैं । आहा !

उन ब्राह्मणियों नें कन्हैया के इस प्रेमपूर्ण झाँकी का जब दर्शन किया ……मुग्ध हो गयीं……..कुछ देर तक तो उन्हें देहभान भी न रहा ………वो चाहती थीं की आलिंगन करूँ नन्दनन्दन को…… चाहती थीं कि वे वृन्दावन बिहारी को …….उनकी सुरभित भुजाएँ इनके गले में पड़ें…….पर – देह भान भूल कर स्तब्ध हो निहारती रहीं वे सब ।

कुछ खिलाओगी भी या ऐसे ही देखती रहोगी ?

मनसुख नें उन ब्राह्मणियों को झंकझोरा ।

तब नन्दनन्दन को खीर अपनें हाथों से खिलानें लगीं ये सब ………….कोई भात और साग खिला रही हैं …….कोई हलुआ लाइ थी वो खिलानें लगी ।

मुग्ध हैं सब …….कुछ भान नही है इनको …..ये सब भूल चुकी हैं ।

सन्ध्या की वेला हुयी …….तब श्याम सुन्दर उठे ……और मुस्कुराते हुए बोले – आप लोग अब अपनें अपनें घरों में जाओ !

घरों में ? हँसी सब ब्राह्मणियां ………कौन सा घर ? कैसा घर ?

अब तो ये चरण ही हमारे घर हैं ………हम इनको छोड़कर कहीं नही जाएंगीं ……..हे नाथ ! हमें अपनें चरणों से दूर मत करो !

नेत्रों से अश्रु झरनें लगे उन ब्राह्मणियों के ।

पर हमारे पति हमें अब स्वीकार नही करेंगे । यज्ञ पत्नियों नें कहा ।

अरे ! स्वीकार की बात करती हो……..प्रेम और बढ़ेगा तुम्हारे प्रति तुम्हारे पतियों का…..श्रद्धा बढ़ेंगी…….तुम जाओ तो ।

नन्दनन्दन नें समझाया…..लौटनें की इच्छा नही थी इन सबकी……पर लौट गयीं………….।

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सामनें खड़े हैं इनके पति …………….डर रही थीं ये सब माथुर ब्राह्मणियाँ, पर एक अद्भुत घटना घट गयी ।

सब पतियों नें अपनी पत्नियों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ………अपनी पत्नियों के प्रति उनके मन में श्रद्धा जाग गयी थी ।

वे सब ब्राह्मण आपस में कह रहे थे …….यज्ञ हमनें किया ……..पर उसका फल तो इन्होनें प्राप्त किया ……….हमनें तो “स्वाहा स्वाहा” करके धूआँ मात्र उड़ाया ……..पर सर्वोच्च पुरुषार्थ प्रेम को तो इन्होनें ही पाया है ………यज्ञ का फल श्रीकृष्ण ही तो हैं ……….जो हमें नही इन्हें मिला है …….ऐसा कहते हुए सबनें अपनी पत्नियों को प्रणाम किया …..और ये भी कहा साथ में …….प्रेम धर्म ही सर्वोच्च धर्म है ।

कन्हैया भी अपनें सखाओं के साथ नन्दगाँव पहुँच गए थे ।

तात !

उद्धव नें ये प्रसंग भावपूर्ण होकर विदुर जी को सुनाया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-126

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 126 )

!! “देखन दै वृन्दावन चन्द” – माथुर ब्राह्मणियों का प्रेम !!


प्रेम में अधीरता ही धीरता है …….आहा ! प्रेम की अधीरता का रस वही ले सकता है ….जिसनें प्रेम को झक कर पीयो हो ……जीया हो ।

एक क्षण भी युगों के समान लगे , एक पल भी काटे न कटे …….लगे की काल ठहर गया क्या ? फिर इतना समय क्यों लग रहा है प्रियतम के मिलन में ! उफ़ ! तात ! ये अनुभव की बातें हैं ।

उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।

आज – गौ चारण करते करते मथुरा की सीमा में नन्दनन्दन पहुँच गए थे …….आज कुछ नही हैं पास में…….माखन मिश्री भी नही …..और घर से छाक भी अब आ नही सकता ……क्यों की दूर आगये हैं ।

क्या करें ? मथुरा की सीमा में ही नन्दनन्दन बैठ गए ………….

ग्वाल बाल सब थक गए थे वो सब भी बैठ गए ।

मनसुख के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ……….वो बारबार पोंछ रहा है ।

क्या हुआ मनसुख ! क्यों रो रहे हो? नन्दनन्दन नें बड़े प्रेम से पूछा था ।

“तुझे भूख लगी है”……ये कहते हुए फिर रोनें लगा ।

पर मुझे भूख नही है …….नन्दनन्दन हँसे ।

तू झूठ बोल रहा है………मनसुख के साथ सब ग्वाल सखा कहनें लगे ।

हमें भूख लगे कोई बात नही …..पर हमारा प्राण प्रिय सखा भूखा रहे !

श्रीदामा भी भावुक हो उठे थे ।

अच्छा ! अच्छा सुनो ! कन्हाई नें सबको शान्त किया ……..फिर इधर उधर देखनें लगे ……….सुगन्धित धूआँ उड़ रहा था पास में ………

कन्हैया बोले – वो देखो ! पास में यज्ञ हो रहा है ……….स्वाहा स्वाहा करके यज्ञपुरुष ब्राह्मण आहुति डाल हैं …..तुम जाओ ! और जाकर उनके पास जो जो खानें की सामग्रियाँ हैं मांग कर ले आओ !

लकड़ी अग्नि, यही सब खाओगे ? तोक नें कहा ।

हट्ट पागल ! खीर भी होगी ……हलुआ भी होगा ….क्यों की यज्ञ में इसकी भी आहुति दी जाती है ……….मनसुख थोडा समझदार बनकर सबको समझानें लगा ।

जाओ ! और माँग कर लाओ ……..हम यहीं बैठे हैं ।

कन्हैया इतना कहकर शान्त भाव से आसन बांध कर बैठ गए ।

सब ग्वाल सखा चल दिए उस ओर …..जिधर से धूम्र निकल रहा था ।



माथुर ब्राह्मण , पता नही कैसे प्रसन्न हो गया आज ये राजा कंस !

ब्राह्मण तो इसके शत्रु थे ……….एकाएक समस्त ब्राह्मणों को बुलाकर राजा कंस नें यज्ञ करनें की आज्ञा दे दी ……….और धन, धान्य स्वर्ण इत्यादि सब भरपूर दे दिया था ……..पर स्थान यज्ञ के लिये दिया ……….वृन्दावन और मथुरा की सीमा में ।

ब्राह्मण भोले थे ही …………आज राजा कंस प्रसन्न है उन्हें तो इसी बात से ही प्रसन्नता हो गयी थी ……….वृन्दावन के निकट यमुना के तट पर यज्ञ का आयोजन…………उनका परिवार भी वहीं रह रहा था …..क्यों की भोजन प्रसाद की व्यवस्था भी तो करनी थी ।

राजा कंस नें सम्पत्ती अकूत दे डाली थी ब्राह्मणों को ……….पता नही क्यों ? नही तो राजा कंस विप्र द्रोही ही तो था ।

स्वाहा ! स्वाहा ! स्वाहा ! सस्वर वैदिक मन्त्रों से यज्ञ हो रहा था …..ब्राह्मण शताधिक थे ……………….

बेचारे ये ग्वाल सखा वहाँ पहुँचे ………..पहले तो जाकर इन्होनें धरती में अपना मस्तक रखकर यज्ञ को और यज्ञ के देवता ब्राह्मणों को बड़ी श्रद्धा से नमन किया था ।

पर ब्राह्मणों नें ध्यान नही दिया ……….वैसे भी कोई छोटे छोटे बालकों पर कौन ध्यान देता है …………नही दिया ।

ये सब अहीर कुमार वहीं खड़े रहे …..इधर उधर देखते रहे ।

तोक सखा ने देखा ………खीर और हलुआ रखा हुआ है …और उसे भी यज्ञ कुण्ड में डालकर सब ब्राह्मण स्वाहा ! स्वाहा ! बोल रहे हैं ।

तोकसखा से रहा नही गया ………आहा ! हमारा कन्हैया वहाँ भूखा है और ये लोग अग्नि में डाल रहे हैं हलुआ खीर ?

हमें ये हलुआ दे दो ………बेचारे भोले बालक थे ये ………हमारे कन्हैया को भूख लगी है……….आप थोडा सा हलुआ दे दो ……….तोक नें विनती की ।

पर ब्राह्मणों नें सुनी नही ………सुनी भी तो कोई ध्यान नही दिया …..उपेक्षा कर दी इन बालको की ।

सुनो ! मेरी बात तो सुनो ! तोक सखा फिर बोलनें लगा …..तो श्रीदामा नें रोक दिया उसे ………ये लोग नही सुनेगें ! चलो यहाँ से !

श्रीदामा सबको लेकर वापस कन्हैया के पास लौटे ।

क्या लाये ? कुछ लाये ? कन्हैया नें उत्सुक हो पूछा ।

अग्नि कुण्ड का अंगार लाये हैं खाओगे ? श्रीदामा को गुस्सा आरहा था।

भाई ! हुआ क्या कुछ बताओ तो ? नन्दनन्दन नें जानना चाहा ।

अरे भैया ! क्या बतायें ……..हमारी ओर उन पण्डितों नें देखा भी नही ……..हमनें बारबार कहा ……..पर उन्होनें हमारी उपेक्षा कर दी ….

तोक सखा के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ………….तुझे भूख लगी है ……हमारा क्या है ? पर वहाँ कुछ नही मिला !

उठे कन्हाई ……तोक सखा के कन्धे में हाथ रखते हुए बोले ……सही स्थान पर नही गए तुम लोग ………अब मैं जहाँ बताता हूँ वहीं जाओ …….मुस्कुराते हुये कन्हैया बोले – उनकी पत्नियों के पास जाओ ……मेरा नाम लो …………

पर वहाँ भी हमनें तुम्हारा नाम लिया था ……..तोक आँसुओं को पोंछ कर बोला ।

सूखा है उनका हृदय …..आग में बैठ बैठकर सूख गया है उनका हृदय ….इसलिये मेरा नाम लो तो भी कोई असर नही होगा …….हाँ तुम जाओ अब यज्ञ पत्नियों के पास …..उन ब्राह्मण की ब्राह्मणियों के पास ।

तोक कुछ और बोलनें जा रहा था ……पर कन्हैया नें चुप करा दिया …..जाओ ………..मैं यहीं बैठा हूँ ।

सब सखा फिर चले गए थे वहीं यज्ञ मण्डप में ।



अरे ! ये लोग फिर आगये ? ब्राह्मण इन अहीर बालकों को देखकर क्रोध से इस बार भर गए थे ………इन्होनें अगर हमारी सामग्री छू ली तो सब अपवित्र हो जायेगा । पर इस बार ये सब कृष्ण सखा इनके शिविरों में गए ……….जहाँ इनकी पत्नियाँ यज्ञ के लिये भोग तैयार करती थीं ।

कौन हो तुम लोग ? कहाँ से आये हो ?

द्वार खटखटाया ग्वालों नें तो ब्राह्मणियों नें द्वार खोल दिया था ।

हम वृन्दावन से आये हैं ………….हम वृन्दावन में ही रहते हैं …….हमारे साथ हमारा “वृन्दावन बिहारी” भी आया है ……वो हमारा सखा है …उसे भूख लगी है ………….कुछ हो तो हमारे सखा के लिये दे दो !

सब सखाओं नें जल्दी जल्दी अपनी बात रख दी थी ।

आहा ! नेत्र सजल हो गए यज्ञ पत्नियों के ………..भाव उमड़ पड़ा ये नाम सुनते ही ………..क्या ! सच ! वृन्दावन बिहारी यहाँ आये हैं ?

तुम लोग सच कह रहे हो ? अरी ! सुन ! ये लोग सखा हैं श्रीकृष्ण के ? एक दूसरी से कहनें लगी ……..वो इन सबको देख रही है ……तुम सच कह रहे हो ? क्या श्रीकृष्ण यहीं हैं आस पास ?

सखाओं को अब आनन्द आनें लगा …….वाह ! बड़ा प्रभाव है हमारे कन्हैया का ? उसे भूख लगी है …..तोक नें फिर स्पष्ट कहा ।

ओह ! भूख लगी है उसे……….तो चलो ! ये जो भात है ……..इसे ही लेकर चलो ……..मेरे पास खीर भी है ….दूसरी यज्ञपत्नी बोली ।

मेरे पास साग भी है …………..तीसरी आगयी ……इस तरह सब ब्राह्मणियां एकत्रित हो गयीं ………..

पर ये सब तो “यज्ञ पुरुष” के भोग के लिये है ………..अगर हमनें ये सब सामग्री नन्दनन्दन को खिला दिया तो बड़े नाराज होंगें हमारे पतिदेव !

तब दूसरी हँसती हुयी बोली …….”.वो खुश कब थे हमसे ……वो नाराज ही रहते हैं …..इसलिये ये सब आज मत सोचो…………आज तो इन नयनों को धन्य बनाओ………आज तो इस जीवन को सार्थक करो …….चलो ! धर्म, नीति, मर्यादा , शील सबकुछ यहीं त्याग दो …..और नन्द नन्दन को निहारो …………आहा ! उनके चरणों में ये सब अर्पित !

ये कहते हुये भात, साग, खीर, सब लेकर चलीं ।

पर उनके पतियों नें यज्ञ करते हुए भी अपनी पत्नियों को उन ग्वालों के साथ जाते हुए देख लिया ।

अनुष्ठान है उससे उठ सकते नहीं हैं ये लोग ……पर एक ब्राह्मण उठ गया …….अपनी पत्नी को पकड़ लिया ……..और तो आगे चल दीं थीं ……पीछे कौन छूट गयी ये किसे परवाह ?

केश पकड़ कर बेचारी को वो ब्राह्मण अपनें घर में ले आया …….कमरे में बन्द कर दिया …………..बाहर से जंत्रित ताला लगा दिया ।

वो चीख पड़ी ……..एक झलक तो देखनें दो कन्हैया की, पतिदेव !

वो माधुर्य से भरा मुखारविन्द ! एक बार तो देखनें दो ……….हे पति ! क्या रखा है इस मिथ्या जाति के अभिमान में ? क्यों नही छोड़ देते ये मिथ्या दम्भ ? आप तो विद्वान् हो ! मेरे मन के प्रेम को तो देखो ……विशुद्ध प्रेम है ……….नन्दनन्दन को मैं देखना चाहती हूँ …….मैं भी उन्हें खीर खिलाना चाहती हूँ ………

पर उस ब्राह्मण का हृदय पसीजा नही ……….वो ब्राह्मणी रोते रोते वहीं मूर्छित हो गयी थी ।

अब तुम्हारे हृदय में कभी विकारों के अंकुर नही फूटेंगे …………क्यों की मैने चीरहरण के रूप में तुम्हारे काम विकारों का ही हरण किया था ।फिर ये क्या है , जो आपनें हमें लौटाया ? एक चतुर् गोपी बोल उठी ।मुस्कराते हुए श्याम सुन्दर बोले – ये तो प्रेम की प्रसादी है ………ये वासना नही ….ये तो उपासना है ……क्यों की प्रयास अब नही करना है …….बस मेरे प्रसाद की निरन्तर समीक्षा करनी है ।हमारे साथ महारास कब करोगे ? समस्त गोपियों नें एक स्वर में पूछा ।महारास ? मुस्कुराये श्याम सुन्दर…….प्रतीक्षा करो ।महारास की वेला आही है ………पर उसके लिये तीव्र प्रतीक्षा ।इतना कहकर हँसते खेलते श्याम सुन्दर चले गए ……गोपियाँ भी आह भरती हुयी श्याम सुन्दर की चारु चर्चा करती हुयी अपनें अपनें घरों में लौट आईँ…….और पल पल छिन छिन प्यारे के मिलन की प्रतीक्षा में बितानें लगीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-125

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 125 )

!! महारास की पूर्व भूमिका – “चीरहरण प्रसंग” !!


प्रेम के साधक इस साधना में अपनें को खपा देते हैं ……..ये साधना है प्रतीक्षा की साधना । प्रतीक्षा ! हाँ ……..पत्ता भी हिले तो लगे वो आया ……..आहट भी हो तो लगे वो आया ……नभ में बादल भी छा जाएँ तो लगे वो आया ………हर पल हर क्षण “वो आया” की रट साधक लगाता रहता है …………….तात ! प्यारे की प्रतीक्षा कितनी सुखद और आनंददायी है ….ये तो प्रतीक्षा में बैठे प्रेमियों को ही पता है ………..दिन गिनना, आशाओं को लेकर दिन गिनना ……कोई पल ऐसा नही जाता जिसमें प्रियतम की सुखद स्मृति न हो ……….पर तात ! उद्धव इतना ही बोल पाये ।विदुर जी नें उद्धव से पूछा था – क्या गोपियों को कोई वर प्राप्त हुआ श्याम सुन्दर से ? या कोई आश्वासन ? हाँ तात ! वर मिला बृजांगनाओं को श्याम सुन्दर द्वारा ।”मैं आनें वाली शरद में तुम्हारे साथ महारास करूँगा ! बस उस समय तक तुम प्रतीक्षा करो ” ।उद्धव प्रसंग सुनानें लगे थे यमुना के तट पर ।

गोपियाँ भींगी हुयी हैं ………श्याम सुन्दर नें वस्त्र दिए गोपियों नें वस्त्र धारण किये थे………लजा रही हैं अभी भी ये गोपियाँ ।दृष्टि नीचे है इनकी………प्रिय के दर्शन करके मुखमण्डल लाल हो गया है…….हल्की मुस्कुराहट मुख में है…………इनके संकोच को हटाया श्याम नें……और प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया था ।स्त्रियों में लज्जा पुरुषों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही होती है …….बिना प्रिय के आगे बढ़े वे आगे बढ़ती नही हैं ।पर अब तो खुल गयीं ……क्यों की कमल की सुंगध लिए श्याम सुन्दर की भुजाओं नें कस लिया था इन्हें ।गोपियाँ अब चरणों में बैठ गयीं …….उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धार बह चली थी …….चरणों को ही निहारती रहीं वे सब ।क्या चाहती हो ? कमल नयन नें पूछा ।आपके ये चरणारविन्द !………एक गोपी बोली ……..दूसरी को अवसर मिला तो उसनें कहा – इन कोमल कोमल चरणों को अपनें वक्ष में रखना चाहती हैं ………पर डरती हैं प्रिय ! कि हमारे वक्ष तो कठोर हैं ……..पर आपके चरण ! ओह ! माखन से भी कोमल ।”पर हम ये चाहती हैं”……..तीसरी गोपी नें दूसरी गोपी की बातों को काटते हुये कहा……..आप अपनें चरणों से हमारे वक्ष को रौंद दें …..जिससे हमारी काम , जो हमें जला रही है वो शान्त हो जायेगी प्यारे !

“पर इसके लिये तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी”……श्याम सुन्दर मुस्कुराते हुये बोले ।क्यों ? अब भी क्यों प्रतीक्षा ? एक गोपी नें तुरन्त प्रश्न किया ।क्यों की पूर्ण अनन्यता अभी सिद्ध नही हुयी है ………मैं उसको ही प्राप्त होता हूँ जो मुझ में ही पूर्णरूप से आश्रित हो ………हे गोपियों ! तुम मेरे प्रति आश्रित हो ……….पर अभी कुछ और शेष है ……….इसलिये उस शेष की पूर्णता के लिये तुम लोग प्रतीक्षा करो ……….काम वासना अब तुम्हे छू नही सकती …….सिद्धों को योगियों को भी थोड़ी सी असावधानी के कारण गिरते देखा गया है ……पर तुम्हारे साथ ऐसा नही होगा……..मेरे प्रेमी कभी गिरते नही हैं ……..क्यों की मैं स्वयं उन्हें सम्भालता हूँ ।हम कुछ समझ नही रही हैं प्यारे ! स्पष्ट कहो …………गोपियों नें गम्भीरता के साथ पूछा ।तुम सब समझती हो …….श्रुति रूपा हो तुम लोग ……..वेदों की ऋचा हो तुम लोग ………मुस्कुराये श्याम सुन्दर ।धान का छिलका एक बार अलग हो जाये ……तो उसमें फिर कभी अंकुर नही फूट पाता ……..और अंकुर के फूटनें की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है …………ऐसे ही हे मेरी प्राण प्यारी गोपियों !

अब तुम्हारे हृदय में कभी विकारों के अंकुर नही फूटेंगे …………क्यों की मैने चीरहरण के रूप में तुम्हारे काम विकारों का ही हरण किया था ।फिर ये क्या है , जो आपनें हमें लौटाया ? एक चतुर् गोपी बोल उठी ।मुस्कराते हुए श्याम सुन्दर बोले – ये तो प्रेम की प्रसादी है ………ये वासना नही ….ये तो उपासना है ……क्यों की प्रयास अब नही करना है …….बस मेरे प्रसाद की निरन्तर समीक्षा करनी है ।हमारे साथ महारास कब करोगे ? समस्त गोपियों नें एक स्वर में पूछा ।महारास ? मुस्कुराये श्याम सुन्दर…….प्रतीक्षा करो ।महारास की वेला आही है ………पर उसके लिये तीव्र प्रतीक्षा ।इतना कहकर हँसते खेलते श्याम सुन्दर चले गए ……गोपियाँ भी आह भरती हुयी श्याम सुन्दर की चारु चर्चा करती हुयी अपनें अपनें घरों में लौट आईँ…….और पल पल छिन छिन प्यारे के मिलन की प्रतीक्षा में बितानें लगीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-124

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 124 )!!

अनुष्ठान पूर्ण हुआ – “चीरहरण प्रसंग” !!

गोपियों का अनुष्ठान पूर्ण हुआ ……….नही नही तात ! पूर्ण नही पूर्णतम । उद्धव बोले – पूर्ण तो तब होता जब देवी कात्यायनी प्रकट होतीं और वर देंतीं गोपियों को ……..कहतीं – जाओ तुम्हे नन्द नन्दन मिलेगा ……….पर यहाँ तो अद्भुत हो गया ……..देवी प्रकट नही हुयी स्वयं नन्दनन्दन ही प्रकट हो गए ………तात ! ये प्रेम की लीला है ……पर अलौकिक है ………..हाँ देखनें में लगता अवश्य है कि सामान्य लौकिक लड़का लड़की की तरह यहाँ सब चल रहा है ……पर नही ….ये तो परब्रह्म की अपनी आत्मक्रीड़ा है ………….वृत्ति ही गोपियाँ हैं और आत्मा स्वयं श्रीकृष्ण हैं……..अपनें से अपनें खेल कर रहे हैं ………यही तो लीला है ……….उद्धव नें कहा – और आगे का प्रसंग सुनानें लगे ।**************************************************बृजांगनाओं के आनन्द का कोई ठिकाना नही है …………हाँ ठण्ड लग रही है ………..शीतल जल है और ऋतु भी तो शीत है ।पर श्याम सुन्दर आज स्वयं आगये ……….सोचा था गोपियों नें कि कितना अच्छा हो भगवती प्रकट हो जातीं और आज वर प्रदान करतीं कि ….जाओ ! तुम्हे मिलेगा तुम्हारा प्यारा ……..पर यहाँ तो प्यारा ही आगया ………….पर -हे श्याम सुन्दर ! हमारे वस्त्र दे दो ! यमुना जल से गोपियों नें श्याम सुन्दर को पुकारा ।एक बार में नही सुना कन्हैया नें ……….जब दो तीन बार जोर से चिल्लाकर बोलीं ………..तब जाकर ।मुझ से कह रही हो ? हँसते हुए बोले नन्दलाल ।हाँ , तुमसे ही कह रही हैं ……….गोपियों नें कहा ।हाँ , कहो ? कन्हैया चपलता कर रहे हैं ।हमारे वस्त्र दे दो ! समस्त गोपियों नें हाथ जोड़कर कहा ।क्या ? फिर कहना ? श्याम सुन्दर की नटखट छबि ।हमारे वस्त्र दे दो ………बड़ी जोर से बोला था सबनें ।इधर उधर देखनें लगे कन्हाई ………कहाँ हैं ? अरी ! कहाँ हैं तुम्हारे वस्त्र ?ये लटके तो हैं……….गोपियों नें कहा ।ये ? ये तो पुष्प हैं मेरे कदम्ब वृक्ष के …….रसिक शेखर मुस्कुराये ।इतनें बड़े बड़े पुष्प ? गोपियाँ एक दूसरे को देखकर हँसी ।और क्या ! मेरो जे कदम्ब को वृक्ष दुनिया ते निरालो है ….जामें ऐसे हीं पुष्प लगें । रसिक शिरोमणि मुस्कुरा रहे हैं ये कहते हुए ।अच्छा ! विनोद मत करो ……..हमारे वस्त्र हमें दे दो ।एक गोपी नें गम्भीर होकर कहा ।आओ ले जाओ ! कन्हैया फिर मुस्कुराये ।कैसे आएं ? एक दूसरी को देखती लजाते हुये बोलीं ।क्यों ? जैसे पहले नहा रही थीं ……जैसे पहले गयीं थीं जल में ऐसे ही निकल कर आजाओ ..और वस्त्र ले जाओ….सहजता से बोले जा रहे हैं कन्हाई ।न ……नही आसकतीं ! सखियों नें स्पष्ट कहा ।पहले कोई नही था यहाँ ! इसलिये हम नहा रही थीं ।एक भोली सी गोपी , उसनें श्याम सुन्दर को कहा ।कोई नही था ? कैसे कोई नही था ? कन्हाई आकाश को देखते हुए बोले – क्या ये आकाश नही था ? फिर यमुना की ओर देखते हुए बोले ……….क्या ये यमुना नही थी …….और – अपनें नयनों को बन्दकर के कन्हाई बोले ……आहा ! क्या ये हवा तुम्हे छू कर गुजर नही रही थी ?तभी एक सखी नें नयनों के कटाक्ष चलते हुए कहा – पर तुम नही थे ना ! मैं ? गम्भीर हो गए श्याम , मैं कहाँ नही हूँ ……….क्या मैं ही यमुना में नही बह रहा ? सखियों ! क्या मैं ही हवा के रूप में तुम्हे नही छू रहा ………क्या मैं ही आकाश की शून्यता में दिखाई नही दे रहा ?मैं कहाँ नही हूँ ………..मैं सर्वत्र हूँ …….समस्त में हूँ ।रसिक शेखर आज अद्भुत रूप में आगये थे । सब कुछ अब मानों ठहर सा गया ………….प्रेम की लहरें चलनें लगी …….श्याम सुन्दर मुस्कुरानें लगे ……..गोपियाँ देहातीत होनें लगीं ।जब यहीं हैं हमारे तो लज्जा क्या ? शील, मर्यादा, लज्जा अब इन सबके लिये स्थान बचा ही कहाँ है ! अब तो बस रोम रोम में छाने लगा है प्रियतम …………..गोपियाँ बाहर आनें लगीं …………कन्हैया देख रहे हैं ………….आवरण भंग किया है वृत्तीयों का ………..कुछ छुपाव अब शेष नही था ………..प्रियतम ही जब घूँघट उठाये तो ये परम सौभाग्य है उस प्रेयसी का ………….दुर्भाग्य तो वह होता जब ज्ञानियों की तरह स्वयं ही घुँघट उठाना पड़ता ।रुको ! कन्हैया कूदे वृक्ष से ………..सब गोपियाँ अपनें अपनें हाथों को ऊपर उठाकर ……बोलो -हे श्याम सुन्दर हम सब तुम्हारी ही हैं ……….तुम्ह जो कहोगे हम वही करेंगी ……….आहा ! तात ! ये प्रेम की अंतिम स्थिति है ……जहाँ प्रेमी पूर्णरूप से आवरण रहित हो जाता है ……….बस वो है और मैं !नही नही …”.मैं” अब है ही नही ……बस तू ही तू है ।वस्त्र दे दिया कन्हैया नें……आलिंगन किया प्रगाढ़ अपनी गोपियों को ।हमारे साथ महारास करो प्यारे ! पुकार उठीं गोपियाँ ।बस मुस्कुराये श्याम सुन्दर ।इन सबका अनुष्ठान पूर्ण हुआ …….नही नही पूर्णतम ।भगवती कात्यायनी भी इन महाभाग्यशाली गोपियों को प्रणाम कर रही थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-123

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 123 )!!

“चीरहरण” – प्रेम की ऊँचाई में..!!

क्या ! परब्रह्म श्रीकृष्ण नें गोपियों का चीरहरण किया ? विदुर जी नें आश्चर्य से पूछा था ।क्यों ? इसमें आश्चर्य क्या ? तात ! उद्धव बोले – “लोक में रस की अनुभूति कब होती है ? जब माँ अपनें बच्चे को गोद में लेती है ….क्या उस समय माँ अपनें चीर को वक्ष से हटाकर बच्चे को दूध नही पिलाती ? माँ उस समय अपना चीर न हटाये …….तो बालक दूध पी पायेगा ?श्रृंगार रस में बिना चीर हटाये क्या प्रेमी प्रेयसी मिल सकते हैं ? ये चीर क्या है ? तात ! ज्ञानी लोग कहते हैं ……..अविद्या ही आवरण चीर है……इसको बिना हटाये ब्रह्म साक्षात्कार भी तो सम्भव नही है ।गम्भीर होगये उद्धव …….फिर कुछ देर बाद बोले – रस का अनुभव करना है …….श्रीकृष्ण के साथ तादात्म्य अनुभव करना है तो वासना रूपी चीर को हटाना ही पड़ेगा …………इसमें गलत क्या है ?हाँ , ज्ञान मार्ग में साधक अपनें अविद्या रूपी वस्त्र को फेंककर स्वयं ब्रह्म से जा एक हो जाते हैं …….पर ये प्रेम का मार्ग है ……इसमें साधक स्वयं नही …….प्रियतम आकर हमारे घूँघट को उठाते हैं ।विदुर जी मुस्कुराये ….और उद्धव को बोले – उद्धव ! तो तुमसे मैं इन दिव्य श्याम सुन्दर की लीलाओं को और सुनना चाहता हूँ ….क्यों की रस स्वरूप श्रीकृष्ण की इन लीलाओं से मैं तृप्त नही हो रहा मेरी अतृप्ति और बढ़ ही रही है…..मुझे ये प्रसंग विस्तार से सुनाओ ! विदुर जी नें हाथ जोडे उद्धव को ।**************************************************एक मास का अनुष्ठान था इन बृजगोपियों का …………और इस तरह पूर्ण श्रद्धा से इन्होनें अपना अनुष्ठान पूरा किया था ।आज अनुष्ठान की पूर्णता है……………एक महिनें कैसे बीत गए इनको पता ही नही चला …………..आज सब गोपियाँ अतिउत्साह से चलीं थीं अपनें घरों से …….विधि नही है इनके अनुष्ठान में………मन्त्र का जाप करती तो थीं पर अविधिपूर्वक ……….मन्त्र में न न्यास करन्यास अंगन्यास कुछ नही ।ओह ! उद्धव ! फिर तो इन बेचारी गोपियों का अनुष्ठान पूर्ण नही हुआ …..क्यों की विधि विहीन कर्मकाण्ड निष्फल है…..ऐसा शास्त्र कहते हैं ।और शास्त्र तो ये भी कहते हैं कि विधि हीन यज्ञ अनुष्ठान यजमान का अहित करता ही है ……..विदुर जी नें फिर प्रश्न कर दिया था ।तात !उद्धव हँसे – जो अपनें स्त्री, पुत्र, धन सुख, इनके लिये अनुष्ठान करते हैं ……उनको तो विधि की आवश्यकता है …….विधि नही है तो सच में नाश भी हो सकता है उस कर्ता का……पर – जिसे कुछ नही, मात्र “श्रीकृष्ण” ही चाहियें……उसके लिये तो फल स्वयं श्री कृष्ण ही आकर प्रदान करते हैं …..देवताओं को हट जाना पड़ता है वहाँ से ।उद्धव बोले – तात ! गोपियों के अनुष्ठान को अपूर्ण करनें की ताकत है किसी में ? स्वयं देवी कात्यायनी में भी नही है ।अब दर्शन करो – “उन गोपियों नें सुन्दर पवित्र हृदय से कात्यायनी भगवती की आराधना अनुष्ठान प्रारम्भ की थी ….एक महिनें तक का अनुष्ठान था उनका …….पूरा मार्गशीर्ष महीना ।वैसे तात ! श्रीकृष्ण प्रथम दिन ही उनकी कामना पूरी कर सकते थे ….पर नही किया …..कारण ? कारण ये कि …..जितना विरह प्रियतम के लिये हृदय में जलता रहेगा उतना ही प्रेम और और पक्व होकर मधुर बन जाएगा ……….प्रेम मार्ग में प्रतीक्षा की बड़ी महिमा है ।प्यारे के निरन्तर स्मरण से हृदय के समस्त अशुभ नष्ट हो जाते हैं ……..मलीन वासनाएं हृदय में जन्मों जन्मों के जमा हैं ……सूक्ष् रहती हैं वे वासनाएं …….वे भी जल जाएँ …….ऐसी कृपा करके एक महिनें तक श्याम सुन्दर नें गोपियों को अनुष्ठान करनें दिया ।आज अंतिम दिन है……ब्रह्ममुहूर्त से भी पूर्व 3 बजे ही आगयीं सब गोपियाँ, यमुना के घाट पर ……वस्त्रों को रख दिए किनारे में ….तात ! ये घाट स्त्रियों का था …और अन्धकार भी होता ही है उस समय ……क्यों की सुबह के तीन बज रहे थे …इस समय कौन आएगा वहाँ ?सम्पूर्ण वस्त्रों को उतार कर ……सब गोपियाँ खिलखिलाती हुयी यमुना में उतरीं…….खेलनें लगीं यमुना में……हाय ! उस दिन की बात ! एक गोपी बोलनें जा रही थी , पर चुप हो गयी !यमुना जल को उछालती हुयी दूसरी गोपी बोली ……….बता ना ! क्या हुआ था उस दिन ? क्या तुझे भी छेड़ दिया था उस प्यारे नें ।अरी ! छेड़ा कहाँ ………..हद्द कर दी थी उस दिन …….वैसे बात तो दो वर्ष पूर्व की है । ….वो सखी दो वर्ष पहले की बात बता रही थी ।सब गोपियाँ उसके पास आगयीं ………बता ना ? खेल रहे थे अपनें सखाओं के साथ गेंद श्याम सुन्दर ………..फिर चुप हो गयी वो सखी ……..अरी ! बोल ! हमसे कहा लाज ? गेंद खो गया खेलते हुए ………कहीं चला गया होगा ………..मैं उधर से गूजरी तो मेरे पीछे ही पड़ गया वो साँवरा ! क्या कहके ? दूसरी गोपी नें पूछा ।”मेरी गेंद तेनें छुपा ली है” ………हाय ! सब गोपियाँ हँसनें लगीं …….जोर जोर से हँसनें लगीं ………..उनकी खिलखिलाहट से वातावरण प्रेमपूर्ण हो गया था ।फिर क्या कहा तेनें ? जब हँसी कुछ रुकी तब एक गोपी नें पूछा ।मैं क्या कहती पागल ! मैं तो लाज के मारे ! कुछ देर रुक कर वो सखी फिर बोली ………….मुझ से कह रहा था ! तेनें दो दो गेंद क्यों छुपाएँ हैं ! गोपियों की हँसी अब फूट पड़ी थी………कोई हाय ! हाय वीर ! कहकर शरमा रही थीं तो कोई – नटखट नें कुछ और तो नही किया ? ये कहकर उस सखी को छेड़ भी रही थीं ।यहाँ होता ना ! मैं तो उसे बताती ………..एक गोपी को काम ज्वर चढ़ गया था ………..मैं उसके गालों को पकड़ कर …..वो बस इतना ही बोल पाईँ ……फिर तो दस बीस डुबकी एक साथ लगानें लगी वो यमुना में ।अरी ! ज्यादा डुबकी मत लगा….सर्दी है, कहीं सर्दी गढ़ लग गयी तो !गढ़ तो श्याम सुन्दर गया है , हाय ! सर्दी की क्या मज़ाल की वो गढ़ जाए ………..हाँ , गर्मी चढ़ रही है तुझे तो वीर ! लगा डुबकी …………ये कहते हुए सब गोपियाँ भी डुबकी लगानें लगीं …………एक दूसरे पर जल उछालनें लगीं ………..कमल पुष्प को तोड़कर एक दूसरे पर फेंकनें लगीं ।कमल के पराग चारों ओर फ़ैल रहे थे ……..उनकी सुगन्ध से वातावरण और मादक हो चला था …..उफ़ !************************************************ओह ! सखी ! बहुत समय हे गयो ……अब तो यमुना जल से बाहर निकलो ! एक गोपी सबको समझानें लगी ।और कात्यायनी भगवती की पूजा भी तो करनी है …………फिर मन्त्र का जाप भी …………चलो चलो ! सब गोपियाँ ये कहते हुए जैसे ही बाहर आनें को उद्यत हुयीं …………..वस्त्र कहाँ हैं हमारे ? एक गोपी नें देखा किनारे पर वस्त्र ही नही है ।फिर जल में बैठ गयीं शरमा कर……..वस्त्र कहाँ है ? एक दूसरी से पूछनें लगीं ….बन्दर ले गए ? नही नही …इतनें सुबह कहाँ बन्दर ? आँधी आई नहीं ……तूफ़ान आया नही ……फिर वस्त्र कहाँ गए ?तभी – वो देखो ! एक गोपी नें दिखाया ऊपर …….कदम्ब का वृक्ष था एक पुराना ……..वो वृक्ष यमुना के तट पर ही था ………..उसकी एक डाली यमुना के मध्य तक गयी थी ……………श्याम सुन्दर ! हाय ! ये कैसे आगये ? सखियाँ मत्त हो यमुना में अपनें अंगों को छुपा रही थीं ।पर श्याम सुन्दर नें कदम्ब के चारों ओर गोपियों के वस्त्रों को लटका दिया है …..लहँगा , फरिया सब इधर उधर ……और स्वयं उस डाल पर लेट गए हैं उल्टे …..और नीचे देख रहे हैं अपनी प्यारी गोपियों को ….कि मेरे बारे में ये क्या क्या कहती रहती हैं ।गोपियाँ आनन्दित हैं ……अति आल्हादित हैं ……….क्यों की अनुष्ठान पूर्ण हुआ है इनका ……….ये जिसको चाह रही थीं ……वो स्वयं प्रकट हो गया था ……”जिससे” माँग रही थीं नन्दनन्दन …..वो भगवती नही प्रकट हुयीं …..बल्कि “जिसे” माँग रही थीं वो प्रकट हो गया ….आहा !उद्धव की वाणी अवरुद्ध हो गयी आज ……….वो प्रेम के रस में सरावोर होगये थे …….”ये प्रेम की ऊँचाई इन गोपियों की” ……इतना ही बोल सके उद्धव………फिर मौन हो गए ।सच ! प्रेम अनुभूति है ……..शब्द से परे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-122

श्रीकृष्णचरितामृतम्-122

!! बृज गोपियों का अनुष्ठान !!

अनुष्ठान ? विदुर जी चौंकें ।उद्धव ! प्रेमी भला व्रत अनुष्ठान में क्यों लगनें लगा ?उसे इन नियमों में बन्धनें की आवश्यकता क्या ? राग प्रगाढ़ है …..प्रियतम के प्रति अनुराग दृढ है ……..फिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी व्रत अनुष्ठान की ? यमुना के किनारे बैठे श्रीकृष्ण लीला विदुर जी को सुना रहे उद्धव नें जब कहा …….गोपियों नें मार्गशीर्ष मास में कात्यायनी देवी का अनुष्ठान किया था ………ये सुनकर विदुर जी नें आश्चर्यचकित होकर पूछा ।क्यों ? प्रेमी क्यों पड़े व्रत अनुष्ठान में ? तात ! उद्धव हँसे ।आपको क्या लगता है……..प्रियतम को पानें की जो आग प्रेमी के मन में धधक रही होती है ……वो आपको बैठे रहनें देगी ? नहीं ! वो आपको दौडाती है ………वो आग आपको बेचैन कर देती है ….कैसे मिलेगा ? कहाँ मिलेगा ? और जैसे भी मिले …..गण्डा ताबीज़ जो बाँधना हो वो प्रेमी बाँधता है……चाहे गंगा में यमुना में हजारों बार डुबकी लगानी पड़े वो लगाता है …….कोई झूठ में भी कह दे ऐसा करो ….तुम्हे प्रिय मिलेगा …….वो करेगा ………तर्क का स्थान कहाँ है वहाँ ? बुद्धि तो कबकी जबाब दे चुकी है…….बुद्धि नें तो कब का साथ छोड़ दिया है उस प्रेमी का …..हृदय नें अपना आधिपत्य जमा लिया है ।तात ! उद्धव कह रहे हैं – प्रियतम को पानें के लिये चाहे कुछ भी करना पड़े प्रेमी करता है ….उसके लिए नियम मुख्य नही है …….उसके लिए प्रियतम मुख्य है ………..नियम में रहकर प्रेमी मिलता हो तो वो नियमों में रहेगा ….अगर नियम तोड़ने से वो मिलता है ……तो नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुये वो चलता है …………ये प्रेम है तात !********************************************भगवती कात्यायनी की उपासना करो ……उनका व्रत करो ….अनुष्ठान करो …….प्रातः काल ही उठकर यमुना स्नान करके ……बालुका में ही भगवती की मूर्ति बनाओ…….और मन्त्र का जाप करो ।एक ऋषि मिले थे मार्ग में……… उनसे गोपियों नें श्रीकृष्ण प्राप्ति की बात पूछी….तब हँसते हुए ऋषि नें ये उपाय बता दिया था ।मार्गशीर्ष का महीना अतिउत्तम है ………ये भी कह दिया ।गोपियों नें अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया था ……ब्रह्ममुहूर्त से पहले ही चली जाती थीं यमुना स्नान करनें के लिये ये गोपियाँ ……….उस समय कोई होता नही था आस पास ……खूब स्नान करतीं ……..खेलतीं …श्रीकृष्ण की चर्चा करते हुए उन्मत्त रहतीं………..नग्न स्नान था उनका ये …….कोई वस्त्र नही होते थे उनके देह में ………उन्मुक्त भाव होता था उस समय उन गोपियों को ।फिर बाहर आतीं…….वस्त्र धारण करतीं………सब मिलकर बालुका में ही कात्यायनी देवी की मूर्ति बनातीं …….हाथ जोड़तीं ………..पुष्प चढ़ातीं ………फिर आँखें बन्दकर के मन्त्र को बुदबुदातीं ….ऋषि नें क्या मन्त्र दिया था …..वो बेचारी भूल गयीं …..विनियोग भूल गयीं …….न्यास , करन्यास, अंगन्यास सब भूल गयीं ………..अब तो वो अपना ही मन्त्र बुदबुदा रही हैं ………..उफ़ ! तात ! सुनोगे इन बृज गोपियों का वो मन्त्र !उद्धव बताते हैं – “हे कात्यायनी देवी ! नन्द गोप का लाला हमें पति के रूप में मिले” , सब यहीं कहतीं ……….कितनी भोली प्रार्थना है ना! कितनी अबोध प्रार्थना ! घण्टों तक देवी को मनातीं….भगवती के चरणों में अपनें माथे को रखकर रोतीं ………गिड़गिड़ातीं ………नन्द गोप का सुत चाहिए इन्हें !उद्धव हँसे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-121

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 121)

**!! “प्रेमी गोपाल” – एक झाँकी !!*

प्रेम की गली बहुत संकरी है ……उसमें एक ही जा सकते हैं ।प्रियतम का चिन्तन करते हुये वो प्रेमी भी अपनें आपको भूल जाता है ……फिर जब सामनें प्रियतम हो…..तब तो मात्रप्रिय ही है ….प्रेमी खो गया मिट गया……ये प्रेम गली है ही ऐसी ।

“सुनो ! इस गाय को उस स्थान में बाँध दो…….और उस भूरी को उधर”………….श्याम सुन्दर गौचारण करके गोष्ठ में आगये हैं ……..अपनें सखाओं को कह रहे हैं ……..समझा रहे हैं …………कि किस गौ को किस स्थान पर बाँधना है ।

“आहा ! सखी देख तो कितनें सुन्दर लग रहे हैं श्याम सुन्दर ……..हृदय से चरणों तक झूलती वनमाला ……और सिर में ?” श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ गोष्ठ में आचुकी हैं ……….और दूर खड़ी होकर श्याम सुन्दर को निहार रही हैं ।

सिर में ………….. गाय के खुर को बाँधनें की जो रस्सी होती है ना …….दूध दुहते समय गौ लात न मारे इसके लिये बाँधा जाता है ….उस रस्सी को श्याम सुन्दर नें अपनें सिर में बाँध रखा है ………पीताम्बरी को कमर में कस लिया है ……………और अपनी प्यारी गौ के पास बैठ गए हैं …………..मुस्कुराता उनका मुखारविन्द है ………..”

नही नही ……..अभी बछड़ों को मत हटाओ ……उन्हें भरपेट दूध पीनें दो …..जब स्वयं मुँह हटा लें तब दूध दुहना ……ग्वालों को कह रहे हैं श्याम सुन्दर ……..और हाँ …पहले शीतल जल से थन को धोना ….फिर दुहना …………अद्भुत ! श्याम सुन्दर सबको समझा रहे हैं ।

अच्छा भैया ! अब तू हमें सिखाएगा ? हमारे सामनें तू नंगा डोलता था …….मधुमंगल सखा श्याम सुन्दर को हँसते हुए बोला ।

श्रीराधारानी और सभी सखियाँ हँसीं …..खूब हँसी ……सखा भी हँसे ।

पर श्याम सुन्दर का ध्यान अभी गौ पर है……….

“नंगा तो मैं अभी भी डोल सकता हूँ”………..श्याम सुन्दर ये बोलकर स्वयं खुल कर हँसे………श्याम सुन्दर की हँसी जैसे ही गोष्ठ में गूँजी ……बछड़े उछलनें लगे आनन्द से………वो थन पर अपना मुँह लगाते हैं ……पर फिर मुँह हटाकर श्याम सुन्दर की ओर देखनें लग जाते हैं ………..और अपलक देखते रहते हैं ।

दूध पीयो ……………श्याम सुन्दर उनका मुँह थन की ओर कर देते हैं …….पर बछड़े इतनें आनन्दित हैं श्याम सुन्दर के साथ कि उछलते हुए फिर भाग जाते हैं ………..फिर , फिर लौटकर आते हैं ………।

आहा ! सखी ! देख !

आनन्द की धारा में बहते हुये श्रीराधारानी अपनी सखियों से कहती हैं……”.थन में मुँह न लगाकर श्याम सुन्दर को ही चाटनें लग गए हैं ये बछड़े……….श्याम सुन्दर हँसते हैं ……..बछडों को प्यार करते हैं……..चूमते हैं ।

श्रीराधारानी देख रही हैं ये सब लीला…….सखियों को इतना आनन्द आरहा है कि ………सबकुछ भूल गयी हैं …अपनें आपको भी ।

ऊपर देख ! कामधेनु जो स्वर्ग की गाय है ………वो तरस रही है …….आहा ! क्यों मैं नन्द गाँव की गाय नही बनी …..ऐसा क्या दुर्भाग्य था मेरा कि मैं स्वर्ग में आगयी …………..वो रो रही है ……अपनें आपको धिक्कार रही है ….और इन बृज की गायों की महिमा का गान कर रही है ।

क्यों न करे ! पूर्णब्रह्म को पाना बड़े बड़े योगियों को दुष्कर है …….पर ये गाय बछड़े ! इन्होनें पाया मात्र नही है ब्रह्म को , ये परब्रह्म को चाट रही हैं अपनी जीभ से …..इनके सौभाग्य से तो ब्रह्मा को भी चिढ हो रही होगी ।

देरी हो रही है ……..श्याम सुन्दर को घर भी जाना है …………

जब बछड़े थन में मुँह नही लगाते ……….लगाते भी हैं तो थोड़ा फिर श्याम सुन्दर के रूप को देखकर मत्त हो जाते हैं……तब श्याम स्वयं गौ के थन में अपना मुखारविन्द लगाकर दूध पीते हैं ।

पी रहे हैं ……..देख तो ! श्रीराधारानी की दशा प्रेमोन्मत्त हो चुकी है ।

तभी – श्याम सुन्दर की दृष्टि गयी श्रीराधारानी के ऊपर ………

बस ……इधर श्याम सुन्दर सबकुछ भूल गए ……गाय को दुहना है ये भी भूल गए …………अपनें आपको ही भूल गए …..बस श्रीराधा ही रह गयीं अब ………….दूध फ़ैल रहा है ………….गाय के .थन से दूध निरन्तर बह रहा है …….एक ही गाय के थन से नही …….गोष्ठ में जितनी गायें थीं …….सबके …..दूध की नदी मानों बह चली है………..

पर श्याम सुन्दर अपलक श्रीराधा को ही निहार रहे हैं ।

अपनी ईशता को ही श्रीजी के चरणों में चढ़ा दिया है श्याम सुन्दर नें ।

ये प्रेमी गोपाल है ! उद्धव बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 120

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 120)

!! धन्य हैं ये गिरिराज पर्वत – श्रीराधारानी नें कहा !!

चलो स्वामिनी जू ! श्याम सुन्दर तो आगे अपनें गोष्ठ पर पहुँचनें वाले हैं ।

ललिता सखी नें श्रीराधा जू जी से कहा ।

तात ! मुर्छित हो जाती हैं सब सखियाँ भावातिरेक में ……..पर उन्हें सब भान रहता है ………श्याम सुन्दर का नाम लेते ही उनके कर्णरन्ध्र सक्रिय हो जाते हैं ………।

ओह ! श्याम सुन्दर आगे चले गए ?

श्रीराधा जी उठीं और गोष्ठ की ओर चल दीं ……उनके पीछे सब सखियाँ और चन्द्रावली की सखियाँ भी………उद्धव नें कहा ।

तभी श्रीजी को गिरिराज पर्वत दिखाई दिए …………उनमें से झर रहे झरनें …………हरियाली और पुष्पों से पटा पड़ा है गिरिराज !

गोष्ठ में प्रवेश करते हुए एक बार और बांसुरी बजाते है श्याम सुन्दर ।

ओह !

श्रीराधा जी आनन्दित हो उठती हैं …….गिरिराज के झरनें और तेजी से बहनें लगते हैं ………तृण खड़े हो जाते हैं ………..

ये गिरिराज सच में समस्त विश्व के प्रेमियों में सर्वश्रेष्ठ है ……….देखो तो ………..बाँसुरी सुनते ही इसे रोमांच हो रहा है , उसके रोम कैसे खड़े हो रहे हैं ….ये तृण वृक्ष सब इसके रोम ही तो हैं ……..झरनें बह रहे हैं ………….ये इसके आँसू हैं ……….प्रेम के आँसू सखी ! ये कहते हुए श्रीराधिका जू हँसती हैं …..।

इसके ऊपर श्याम सुन्दर चढ़ते हैं ……..ये कहते हुए श्रीराधारानी गिरिराज को प्रणाम करती हैं ।

इनको तो एक श्याम सुन्दर के परम भक्त विंध्याचल से लाये थे ।

गोलोक से उतरे थे ये ………..पर पर्वतराज विंध्य के पुत्र के रूप में ।

दक्षिण में एक महात्मा रहते थे……..सिद्ध थे योगी थे ……”दक्षिण में इस गोवर्धन पर्वत को ले जाया जाए …जब काशीपुरी की यात्रा मर आये थे तब इनके मन में ये भाव जागा । इस भाव को उन्होंने गोवर्धन पर्वत के पिता विंध्य पर्वत राज से व्यक्त किया …..और उनसे माँगा ।

अपनें पुत्र को कैसे दें दें विंध्य ? वो मना करनें वाले थे ….पर गोवर्धन नें कहा …….पिता जी ! माँगनें वाले को कभी मना नही किया जाता ……….आप पुत्र मोह त्यागें और मुझे दें दें ।

पर गोवर्धन नें उन ऋषि से एक वचन लिया ………मैं जाऊँगा …पर आपनें मुझे जहाँ रखा वहाँ से मैं आगे नही बढूंगा .।

ये बात स्वीकार की उन ऋषि नें …………और लेकर चल दिए ।

यहीं पर आकर गोवर्धन नें अपना भार बढ़ा लिया था……ऋषि नें उन्हें नीचे रखा……..किन्तु कुछ समय बाद जब उन्होंने उठाया गोवर्धन को …..तब गोवर्धन उठे नही ……”अब मैं यहीं रहूँगा……मैने आपसे वचन भी तो लिया था”……..गोवर्धन नें नम्रता पूर्वक कहा ।

दिव्य दृष्टि सम्पन्न थे वो ऋषि…………. समझ गए कि मेरे इष्ट श्याम सुन्दर इसी स्थल पर अवतरित होकर लीला करेंगे ……और उनकी लीला का ये दिव्य उपकरण हैं गोवर्धन ।

श्रीराधारानी कहती हैं…….उन ऋषि नें भी यहीं रहकर तपस्या की है ।

आहा ! देखो ! मोर नृत्य कर रहे हैं इस गोवर्धन पर्वत के ऊपर ।

स्वामिनी जू ! अब शीघ्र चलो …..गोष्ठ में पहुँच गए श्याम सुन्दर ।

ललिता सखी नें फिर श्रीजी को भावसिंधु से निकाला …..इतना सुनते ही तेज चाल से चलनें लगी श्रीजी…….उनके पीछे सहस्त्रों सखियाँ थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 119

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 119)

!! उफ़ ! रूप माधुरी वेणु माधुरी !!

प्रेम में जलन भी मधुर होता है……तात ! सच ये है ….जैसे गंगा में अपवित्र से अपवित्र नाला भी चला जाए तो पवित्रतम गंगा बन जाती है ……ऐसे ही प्रेम की गंगा में काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के कितनें भी गन्दे नाले चले जाएँ प्रेम पवित्र कर देता है ।

जलन भी फिर आवश्यकता बन जाती है ……सलोना साँवरा हो और बस मैं हूँ …….ये प्रेम अद्भुत है …..तात ! इसकी थाह वही पासकता है ……जो डूबेगा……उद्धव हँसे – जो डूब गया प्रेम में वह बताएगा कैसे ?

उद्धव विदुर जी को कहते हैं ……….गोपियाँ सुन रही हैं वेणु को ……उस वेणु को, जिसनें सबको जीत लिया है……सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम सिन्धु में सरावोर हो गयी है ।

तात !

कितना पीयेगी अमृत को …अरी ! निगोड़ी बाँसुरी ! कुछ तो हमारे लिये भी छोड़ दे ……….देख ! तेनें कैसा अपना ताण्डव मचा रखा है ……..आकाश में देख तो ! बेसुध होकर पड़ी हैं अपनें अपनें विमानों में अप्सरायें ………और जो अभी आही रही हैं विमानों से ……….उनकी तो बाँसुरी सुनकर विचित्र स्थिति हो रही है………..कटि वस्त्र अलग हो रहे हैं …………पर उन्हें भान ही नही है …………उनके पति उनकी ये स्थिति देखकर चिंतित हैं …….पर जब उनके भी कर्णरन्धों से बाँसुरी के स्वर चले जाते हैं ….तो वो भी बेसुध ही हो जाते हैं ।

श्रीराधारानी भाव की सर्वोच्च स्थिति में विराजमान होकर ये सब अपनी प्रिय सखियों को बता रही हैं ।

सखी ! सबकी दशा बिगड़ रही है …………………

पर देख तो ! हमारे ऊपर इस बाँसुरी का अत्याचार…….हम तो वैसे ही मरी हुयी थीं…..रूप माधुरी का पान कर करके ……..उस पर ये बाँसुरी और वज्राघात कर रही है…जला कर नमक मिर्च छिटकना ।………तभी सामनें श्रीराधारानी को वृक्ष में बैठे सहस्त्रों शुक दिखाई दिए …… सबके नेत्र बन्द थे ………….वो बाँसुरी की ध्वनि जो गूँज रही थी वातावरण में उसे सुन रहे थे ।

आहा ! सच में सबसे बड़े ऋषि मुनि तो ये पक्षी हैं ………….कितनी एकाग्रता सध गयी है इनकी …………..इतनी एकाग्रता तो बड़े बड़े योगियों में भी नही पाईँ जाती …………..सखी ! देख ……….अपनें नयनों को मूंद कर ………….बिना हलचल के शान्त होकर कैसे बैठे हैं ……..मानों किसी योगिराज की समाधि लग गयी हो !

पर सच है………जिसनें श्याम सुन्दर की बाँसुरी सुन ली …….वही महायोगी है……..उसको कुछ करना ही नही पड़ेगा …..सबकुछ
बाँसुरी ही करेंगी ।

और उधर देखो ! पारिजात के वृक्ष को …..कैसे जब बाँसुरी बजाते हुए श्याम सुन्दर निकलते हैं …..पारिजात पुष्पो को बरसाना शुरू कर देता है …….आहा ! क्या रूप माधुरी है ! ………इसके बाद वे मुस्कुरा भी रहे हैं ………मानों अब तो चारों ओर पुष्प ही पुष्प दिखाई दे रहे हैं ।

उफ़ ! श्री राधारानी कुछ देर तक स्तब्ध हो जाती हैं ।

ओह ! रूपमाधुरी के ऊपर ये वेणु माधुरी ……….दोनों कानों को बन्दकर नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहानें लगती हैं श्री राधारानी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 118

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 118)

!! “वेणु धर्म” के आचार्य “श्याम सुन्दर” !!

दो ही तो धर्म हैं इस जगत में…….वेणु धर्म और वेद धर्म ………तात ! वेद धर्म ज्ञान का मार्ग है ….पर वेणु धर्म तो प्रेम का अद्भुत सुपथ है ।

वेद में सबका अधिकार कहाँ ? पर वेणु में तो ब्राह्मण या शुद्र की छोडो वन, पशु पक्षी नदी पर्वत सबका अधिकार है ……..इसमें जड़ भी चेतन हो उठते हैं……ये प्रेम है …….यहाँ वेणु बजती है …..तो यमुना उछलती हुयी नन्दनन्दन के चरणों के पास पहुँच जाती है…..उद्धव कहते हैं – तात ! बादल बरस जाते हैं इस वेणु को सुनते ही ……मोर नृत्य करनें लग जाते हैं……..हिरणियाँ बाबरी हो जाती हैं ……गौएँ तृण चरना छोड़ कर उन्मत्त सी श्याम सुन्दर को ही निहारती रहती हैं ……बछड़ों नें दूध पीना छोड़ दिया कानों को खड़ा करके वे प्रेम के स्वर को सुन रही होती हैं ।

हे तात ! इस वेणु धर्म को प्रकट श्याम सुन्दर नें ही किया है ….समस्त जगत को सरलतम मार्ग दिखाया है…..प्रेम का ! यही है ……वेणु धर्म ।

प्रेम को आप कुछ भी कह सकते हैं….ध्यान धारणा समाधि ……सब प्रेम ही है ……..देहातीत हो उठता है प्रेमी ………..वो क्या बोल रहा है उसे भी पता नही होता …….प्रेम ही उससे कुछ भी बुलवाता है ……….वो अपनें में है कहाँ ! वो प्रेम के नचाये नाच रहा है …….अद्भुत ।

श्रीकीर्ति किशोरी जब वृन्दावन में बाँसुरी सुनती हैं …..तब उन्मत्त सी होकर वो भावातिरेक में बोलनें लगती हैं –

“इस बाँसुरी नें तो पता नही क्या जादू कर रखा है……अरी ! ये तो ब्रह्मा से भी आगे निकल रही है……ब्रह्मा अपनी सृष्टि से जैसे सबको मोहित करके रखते हैं …..ऐसे ही ये है….अपितु ब्रह्मा से भी बढ़कर ।

पर प्रिया जू ! ब्रह्मा की उपमा इस बाँसुरी से ?

ललिता सखी पूछती है ।

ब्रह्मा के तो चार मुख हैं ……..और चारों से वे उपदेश देते हैं वेद धर्म का ।

श्रीजी ये सुनकर हँसती हैं …….उन्मुक्त भाव से हँसती हैं …….

अरी मेरी सखी ललिते ! ब्रह्मा के तो चार ही मुख हैं …..इसके तो आठ मुख हैं…….ब्रह्मा तो चार मुख से ही वेदधर्म का उपदेश करते हैं …….ये तो आठों मुख से प्रेम धर्म का उपदेश ही नही …..जबरदस्ती पालन भी करवाती है …….और करना पड़ता है ………..न चाहनें के बाद भी .।

हँसती हैं श्रीराधारानी ये कहते हुए ।

पर – ब्रह्मा नें तो कमल पर बैठ सृष्टि की है ….इस बाँसुरी नें कौन सी सृष्टि की ? ललिता पूछती हैं ।

ब्रह्मा कमल पर बैठते हैं ……तो ये भी श्याम सुन्दर के कर कमलों पर विराजमान रहती है….और श्याम सुन्दर के मुखकमल को तकिया भी तो बनाती है …फिर बड़े आनन्द से प्रेम की सृष्टि ये निरन्तर करती है ।

ब्रह्मा तो हँस पर बैठते हैं …….ललिता बोलीं ।

अरी ! ब्रह्मा तो बेचारे एक ही हँस पर बैठते हैं……पर ये बाँसुरी तो हम जैसे हजारों लाखों कोटि कोटि प्रेमियों के मानस हँस पर विराजती है …….श्रीजी नें भाव में उत्तर दिया ।

ब्रह्मा वेद पढ़ते हैं……..तो ये बांसुरी प्रेम पढ़ती है और हम सबको पढ़ाती है ……………

पर इसे बंशी क्यों कहते हैं…………क्यों की ये फंसाती है ।

जैसे मछली को फंसाया जाता है …..बंशी ही डालकर……..ऐसे ही हम सबको इसनें फंसा लिया है ।

श्रीराधारानी मुस्कुरा मुस्कुरा के ये सब कह रही हैं ।

ये पुरुषों को भी फंसाती है या हम अबला स्त्रियों को ही ?

श्रीराधा जी कहती हैं…….नही, फंसाती तो ये सबको है ………पर हम स्त्रियाँ कोमल हृदय की होती हैं ना ……इसलिये हम ही पहले फंस जाती हैं ………ये तो हम अबलाओं से सबकुछ छीन लेती है ………हमारा कुल हमारी लज्जा ……………हाय ! सखी ! हमसे अच्छी तो ये वन की हिरणियाँ हैं …..मोरनी हैं …….कोयली है ……….आहा ! दिन भर ये श्याम सुन्दर को निहारती रहती हैं ………….दिन भर !

हाय ! हमारे तो भाग्य ही नही है …………हमसे ज्यादा भाग्यशाली तो ये सब हैं …..वन चरी ।…….श्रीराधारानी – हा, वेणुधर , हा मुरलीधर, हा श्याम सुन्दर – कहते हुए भाव में डूब जाती हैं ।

….इसे आप ध्यान , धारणा समाधि जो चाहे कह लो तात !

उद्धव बोले ……….और मौन हो गए थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 117

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 117)

!! महान तपस्विनी बाँसुरी !!

भाव समुद्र में डूब गयीं हैं श्रीकीर्ति कुमारी …..वेणु निरन्तर बज ही रही है अब …….वृन्दावन का वातावरण प्रेम के रस से पूरा भींगा हुआ है ।

तभी सामनें बाँस का झुरमुट दिखाई दिया श्रीभानु दुलारी को …….तमाल के कुञ्ज से निकल कर वे दौड़ पडीं और बाँस के वृक्षों से लिपट गयीं……आहा ! धन्य है तू बाँस ! तेरा कुल धन्य हो गया ! तू श्याम सुन्दर के अधरों से लगी है ! श्रीकीर्ति कुमारी आह भरती हैं फिर कहती हैं – हम भी इतनी भाग्यशाली नही है जितनी तू है !
हमको तो अधर का रस आज तक मिला नही ….और वे कृपा करेंगे तो मिल भी जाएगा …….पर एकान्त में मिलेगा…..किन्तु हे वेणु ! तुझे तो निर्लज्जता पूर्वक अधरामृत ये सबके सामनें पिला रहे हैं …………हाँ ! क्यों न पिलायें तेनें तप भी तो बहुत किया है ……….आहा ! महान तपश्विनी है तू तो …..सर्दी गर्मी सब कुछ सहा तेनें …………तुझे काटा गया …..पर तू सहती रही …….फिर तुझ में छिद्र किये गए ……………

श्रीराधारानी कुछ देर के लिये रूक जाती हैं ……….तभी दूसरी ओर भाव में डूबी चन्द्रावली और उसकी गोपियाँ भी इधर ही आजाती हैं ……..

पर श्रीराधारानी प्रेम में मत्त हैं ………

श्री राधिका जी बोलती हैं – अधरों का तकिया मिला है तुझे ……..अपनी कोमल उँगलियों से तेरे पांव दवाते हैं श्याम सुन्दर……..अपनें पलकों से पँखा करते हैं……..और इससे बड़ी बात तुझे आहार में अमृत दे रहे हैं….अधरामृत….अरी ! ये धरा का अमृत नही अधरामृत है …….तभी तो तू मत्त होकर बज रही है…….आहा ! क्या फल मिला है तुझे तपस्या का …..पर तपस्या का फल श्याम के अधरामृत तो हो नही सकते ……ये तो श्याम की कृपा के बिना कहाँ सम्भव है ।

श्रीराधारानी अभी भी बाँसों के वृक्ष को अपनें हृदय से लगाई हुयी हैं ।

अरी सखियों ! ये तो कुलटा है बाँसुरी ! हमारी सौत !

चन्द्रावली अपनी सखियों से उन्मादिनी होकर बोल रही है ।

इसका वंश अच्छा कहाँ हैं …..अशुभ माना जाता है इसे तो ……..बादल इसका बाप है …….क्यों की उसी से तो ये बढ़ती है …….और इसकी माँ की करतूत बताऊँ ! पृथ्वी इसकी माँ है ………कितनों को जन्म देती है …..नित्य चराचर को पैदा करती रहती है ………..फिर भी कुँवारी बनी है ………..अरी ! मैं बताती हूँ इसकी कहानी -………चन्द्रावली का अपना प्रेम है ……..प्रेम का कोई एक मापदण्ड कहाँ ?

असुर ले गया था इस पृथ्वी को ……..तब वराह बनकर विष्णु इसे असुर के घर से लेकर आये थे …….ऐसे इसके कितनें पति हैं कोई पता नही ……….।

फिर चन्द्रावली आकाश की ओर देखती है ……….बादलों को देखकर फिर कहना शुरू कर देती है ………..इसका पिता है ये ………..अजी छोडो इसकी बातें ………….चातक कितना प्रेम करता है इन बादलों से …..पर बूँद नही बरसाता ये उसके लिये …….भले ही चातक मर जाये इसकी बला से ।

ऐसे वंश में तो ये बाँसुरी पैदा हुयी है ।

…….”उफ़ ! कलेजा काट देती है” ……चन्द्रावली बांसुरी को सुनकर कानों में हाथ रख रही है क्यों की बाँसुरी फिर बज उठी थी ।

**

हा हा हा हा हा …….एकाएक हँस पड़ी फिर चन्द्रावली ………

सखियों ! अपना श्याम सुन्दर ही कौन से अच्छे कुल का है ………पता है – कोई कहता है वासुदेव …..तो कोई नन्दनन्दन कह रहा है ………इसके तो कुल का ही पता नही है ।

पर बाँसुरी पर इसकी इतनी कृपा क्यों ? चन्द्रावली फिर चकित भाव से उन बाँस के झुरमुट को देखती हैं …………फिर श्रीराधारानी पर उनकी दृष्टि रूक जाती है ।

अजीब है ये बाँसुरी ! हँस रही हैं अब श्रीराधारानी ।

तात ! यहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नही है ……सबके हृदयाकाश में श्याम सुन्दर ही छाए हुए हैं ।

अरी ! हमारे लिए तो कुछ प्रसाद छोड़ दे ……….पूरा का पूरा अधरामृत स्वयं ही पीये जा रही है ।

रानी हम अपनें को मानती थीं…..पर आज समझ में आया की रानी नही ….बाँसुरी ! तू तो महारानी है …….हम हैं तेरी दासी ……..पर रानी ! तुझे हम दासियों पर थोड़ी भी दया नही आरही ! कुछ तो छोड़ दे …….जूठन ही छोड़ दे !

धन्य है पर ये बाँसुरी ! फिर श्रीराधारानी का भाव बदला ।

तपस्या बहुत की है इस निगोड़ी बाँसुरी नें …………..

नही तो क्या है इसमें ? बाँस ! उसपर भी सूखी सूखी ………हरी भी होती तो कुछ बात थी ……पर सूखी ….उसपर भी छिद्र ……..छेद ही छेद ………..वो भी सात आठ छेद ……………इतना दोष होनें के बाद भी ऐसा सौभाग्य इसे मिला ……ये बिना तप के सम्भव नही है ।

इसलिये तो मैं कहती हूँ ये महान तपश्विनी है बाँसुरी ।

इसके बाद बाँसुरी बजती रही ……….और ये सब गोपियाँ भाव समुद्र में हिलोरें लेती रहीं थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 116

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 116)

!! “वेणु गीत”- महारास की पृष्ठभूमी !!

तात ! आप ध्यान कीजिये –

उद्धव बोले । विदुर जी नें तुरन्त अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया था ।

तात ! अब भाव जगत में जाकर उन गोपियों का अपनें हृदय में चित्र खींचिए …….

“अत्यन्त सुन्दर गोपियाँ सोलह श्रृंगार करके ….सज धज कर …..कदम्ब कुञ्ज पर आगयी हैं ……और प्रेम समाधि में जा भी चुकी हैं ।

चन्द्रावली की भावावस्था भंग हुयी……क्यों की कमल की तीव्र सुगन्ध नें चन्द्रावली को जगा दिया था …..और ये सुगन्ध जानी पहचानी थी……..ओह ! “तो श्रीराधा आई है” ……ये कहते हुए
मुँह बना लिया था चन्द्रावली नें ।……प्रेम में ईर्ष्या भी धन्य हो जाता है ।

“श्रीराधारानी” ….अपनी समस्त सखियों के साथ आज आगयीं थीं ।

तभी – श्याम सुन्दर की बाँसुरी बज उठी……..अब श्रीराधा भी वहीं की वहीं स्थिर हो गयीं ।

तमाल का कुञ्ज था ……तमाल का घना कुञ्ज था …….उसमें ही श्रीराधिका जी को बैठना पड़ा …..आगे चल ही नही पाईँ ……इनके भी नेत्र बन्द हो गए …….

मुस्कुराहट फ़ैल गयी मुखारविन्द पर…………

सखियों ! संसार में एक से एक वस्तु हैं ……जिन्हें हमारे नेत्र देखते रहते हैं ………पर देखना तो वही सार्थक है …..जो इस विश्व विमोहन श्याम सुन्दर को देखे……..आहा !

श्रीराधा रानी की सभी सखीयों के भी नेत्र बन्द हो गए थे ।

हे श्रीजी ! आगे बताओ …..श्याम सुन्दर कैसे लग रहे हैं ?

आहें भरते हुए सखीयों नें श्रीराधारानी से पूछा था ।

देखो ! देखो ! वे श्याम सुन्दर …….मोर मुकुट धारण किये हुए हैं …..आगे आगे गौओं का झुण्ड चल रहा है ….और पीछे वेणु नाद करते हुये वे चले आरहे हैं ………अरी देख तो वीर ! इनकी शोभा को ………..क्या लग रहे हैं ! ……….नील वर्ण, चमकता मणि हो मानों …….नही नही – मणि तो कठोर होता है ……पर ये तो नवनीत से भी कोमल हैं ……देख तो सखी ! मोर नाच रहा है ……..उसका पंख गिर गया है ……गिरा नही है……..श्याम सुन्दर को अपनी भेंट चढ़ा रहा है ।…….फिर कुछ देर रुक जाती हैं श्री राधारानी…..मुस्कुराते हुए फिर कहती हैं – यमुना रुक गयी है इनको देख कर…….अरे ! यमुना की धारा श्याम सुन्दर के चरणों के पास आगयी है……कमल पुष्प चढ़ा रही है उन अरुण युगल चरणों में ………..

अरे ! इन भीलनियों को तो देख !……श्रीराधा कहती हैं – श्याम सुन्दर के चरणों में लगे केशर तृण में लग गए हैं ………उन तृण के केशर को उठाकर भीलनियाँ अपनें वक्ष पर मल रही हैं ………इससे इनकी कामना शान्त हो रही है ।

पर केशर श्याम सुन्दर के चरणों पर लगे कैसे ?

श्रीराधारानी सोचती हैं ……..फिर हँसते हुए कहती हैं …….अरे ! ये तो कपटी हैं…………..फिर हँसती ही रहती हैं ।

वो नन्दगाँव की गोपी आज वन में गयी …….गयी क्या थी ….अपनें पति को भोजन देंने गयी थी …………पर हृदय में तो श्याम के दर्शन की ही कामना भरी है…….सामनें आगये उसी समय श्याम सुन्दर …….वो तो अपलक देखती रही……तन की सुध खो गयी ……….वस्त्र कब गिर पड़े उसे पता ही नही …….मूर्छित भी हो गयी ……तभी उस गोपी का पति आगया …..खोजता हुआ आगया था ।………श्रीराधा मुस्कुराते हुए बन्द नेत्रों से ये दर्शन कर रही हैं ।

श्याम सुन्दर नें देखा ………….पति आगया है …….अब मुझे देखेंगा तो इस बेचारी को ही घर जाकर डांटेगा …………श्याम सुन्दर भागे ……..झटपट भागते समय उस गोपी के वक्ष पर चरण पड़ गए ……गोपी नें केशर लगा रखा था वक्ष में …….वो केशर चरणों में लग गया …….तृण में वो केशर लग गए …….तृण का केशर अब ये भीलनियाँ हाथों में लेकर अपनें वक्ष पर ही मल रही हैं ……ओह !

कुछ देर तक मुस्कुराती रहीं श्रीराधारानी………..फिर बोलीं –

आकाश की इन अप्सराओं को तो देखो ……..श्याम सुन्दर की मोहनी मूरत को देखकर कैसी बाबरी हो गयी हैं …….चोटी ढीली हो रही है प्रेम की अधिकता के कारण …………उसमें लगे नन्दनवन के पुष्प झर रहे हैं और सीधे श्याम सुन्दर के ऊपर ही झर रहे हैं ……..आहा !

मुखमण्डल लाल हो उठा श्रीराधारानी का ……..शरमा गयीं एकाएक ।

फिर अपनें आपको सम्भालकर बोलीं ……….सखी ! दाऊ भैया साथ में हैं …….वो भी कितनें अच्छे लग रहे हैं ।

ललिता नें पूछा …..हे श्रीराधा ! ये बीच में दाऊ भैया कहाँ से आगये !

श्रीराधारानी चुप हो गयीं ।

…….प्रेम की बड़ी अटपटी चाल होती है ………कुछ गोप्य रखना हो तो फिर बात किसी और कि, की जाती है ।

भाव को छिपाना भी है ….और बताना भी है ……..ये दोनों प्रेम गली में साथ साथ चलते हैं ।

तभी ……श्याम सुन्दर नें फिर बाँसुरी बजा दी ……………..

प्रेम अब चरम पर पहुँच चुका था ।

“यही तो है महारास की पृष्ठभूमि” …….उद्धव नें भाव में डूबकर कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 115

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 115)

!! प्रेमसिद्धा गोपियाँ !!

सखियों ! इस मधुर मोहक स्वर को सुनकर मुझे तो ऐसा लगता है कि अपनें गुलाबी होंठों में श्याम सुन्दर नें बाँसुरी को रख उसमें अति उदारतापूर्वक फूँक मारकर अमृत को चारों ओर फैला दिया है ……..वायुमण्डल में ही प्रेम की सुवास फ़ैल रही है ….”वे” गोप गायों के साथ प्रवेश कर रहे हैं ……………..

बस इतना ही बोल पाई वो गोपी……अन्य सब गोपियों को रोमांच होंने लगा……..तात ! वो प्रेम की अद्भुत स्थिति थी ….उद्धव बोले ।

“कल चलेंगी” ………………….

सब गोपियों नें एक दूसरी से कहा था ।

कल जब श्याम सुन्दर आ रहे होंगे गौचारण करके तब उन्हें पास से जाकर देखेंगी ।

हाँ हाँ ……..अपनें अपनें घर से थोड़ा आगे ……………सखी ! घर से श्याम सुन्दर दीखते तो हैं ……..पर – परिवारी जन सब होंगे ।

गोपियों का अपना दर्द है ……….किसी को बताएं भी तो क्या ।

शरद प्रारम्भ हुआ है ………इस शरद ऋतु में वन की शोभा अद्भुत है ।

तात ! सब गोपियाँ तैयार हुयीं ……….रात भर सोई नही …..कहाँ नींद आएँगी !

सुबह से ही चित्त कृष्णाकार बन चुका है ।

शाम हुयी ……सब अपनें अपनें घरों से निकलीं …………जल भरनें के बहानें से……….तभी श्याम सुन्दर लौट रहे हैं………..उन्होंने बाँसुरी में फूँक क्या मारी ……………..

जहाँ थीं गोपियाँ वहीं रुक गयीं ……..उनके पद आगे बढ़ ही नही रहे …..उनकी धड़कनें तेज हो गयीं ………..अब बस ……..

कदम्ब का वृक्ष था ……..उसी की आड़ में खड़ी हो गयीं……….कोई भी गोपी बोल नही पा रही है……..पर हाँ ….चन्द्रावली बोली –

“पोली बाँसुरी में क्या उदारतापूर्वक फूँक मार रहे हैं श्याम सुन्दर !”

सब गोपियों को ये सुनते ही रोमांच होनें लगा ……..कोई तो गिर ही पड़ी, अपनें आपको सम्भाल भी नही पाईँ…….पर चन्द्रावली बोलती रही –

अरी सखियों ! श्याम सुन्दर की एक से बढ़कर एक छटाएं हैं …..वे नित नित रंग बदलते रहते हैं ………….फिर हँसती है चन्द्रावली ……..उसकी आँखें प्रेम में मत्त हैं ।

माथे में मोरमुकुट कानों में कनेर के पुष्प , अत्यन्त प्रभा युक्त स्वर्ण के समान चमकती पीताम्बरी …………उनके साथ उनके सुहृद सखा हैं …………..उनकी वो झूलती बैजयन्ति की माला ………..

चन्द्रावली की आँखें अब धीरे धीरे बन्द हो गयीं ………..सब गोपियों की तो पहले ही हो गयीं थीं ……………..”वे आरहे हैं…….बाँसुरी बजाते हुए आरहे हैं …………उनके रूप को देखकर वृन्दावन भी आनन्दित हो रहा है ………वन के पशु पक्षी सब ……………चन्द्रावली का ध्यान चल रहा है ……उसके साथ साथ अन्य सब गोपियां इसी ध्यान में सम्मिलित है ……….सखियों ! हिरणियाँ कैसे पागलों की तरह श्याम सुन्दर को देख रही हैं………..मोर नाचते हुए उनके आगे पीछे घूम रहे हैं ……सबसे मिल रहे हैं वे …..मोरों से …….कपि से ……पक्षियों से …….वृक्षों से ……

फिर एकाएक चन्द्रावली का रुदन शुरू हुआ……तो सबका हो चला ……..हमसे ज्यादा भाग्यशालिनी तो ये हिरणियाँ हैं ………..देखो ! कैसे अपनें पति हिरण के साथ श्याम सुन्दर को देख रही हैं ……आहा ! धन्य हैं इनके नेत्र ….श्याम सुन्दर को मानों नयनों से ही पीना चाहती हैं ……..

इतना ही बोल पाई वो चन्द्रावली ………फिर तो मूर्छित ही गयी…..सब की यही स्थिति थी ।

तात ! क्या ध्यान है !…………तीव्र प्रेम के कारण इन्हें प्रत्यक्ष हो रहा है ……..चिन्तन इतना प्रगाढ़ हो गया इनका ……..कि ये सबकुछ देख रही हैं …………मनोमयी कन्हैया की मूर्ति इनके सामनें प्रकट हो चली थी ……….वे उन्हें आलिंगन कर रही थीं ………….

तात ! ये प्रेमसिद्धा हैं ।

उद्धव की वाणी भी अवरुद्ध हो गयी अब ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 114

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 114)

!! उफ़ ! ये अनुराग !!

तात ! जीवन की सार्थकता अनुराग में ही है ।

यमुना के तट में बैठे हैं दो परमभागवत उद्धव और विदुर जी …..श्रीकृष्ण लीला का गान करके मत्त हैं ।

उद्धव स्वयं अनुराग में डूबकर बोल रहे हैं ।

जिस जीवन में प्रेम नही, वह जीवन नही जंजाल है ……..तात ! जो समय अपनें सनातन प्रियतम की प्रतीक्षा में न बीते वह समय क्या ?

उफ़ ! किसी के मिलनें की प्रतीक्षा ! पल पल छिन छिन गिना जाए वही तो समय की सार्थकता है ।

आँखें ! तात !, आँखें किसी के चितवन के लिये प्यासी बनी रहें …..यही तो आँखों की सार्थकता है !

उद्धव आज अनुराग के सुरभित जल में भींगें हुये हैं ।

कान सदैव किसी की मीठी बोली सुननें के लिये सदा उत्कंठित रहें ।

क्या यही कान की सफलता नही है ?

हृदय किसी के लिए तड़फता रहे ।……..हाँ, वो हृदय की क्या जो किसी की याद में न तड़फे ।

वो हृदय ही क्या जो किसी की मीठी स्मृति चुभती न रहे ।

स्मृति शून्य हृदय भी भला हृदय कहलानें योग्य भी है ?

किसी की उत्कंठा बिना काल यापन करना क्या काल की सार्थकता है ?

कुछ देर रूक गए उद्धव बोलते बोलते …………..यमुना के बहते जल को देखा ……..कमल खिले हुए हैं …….उनमें अपनी दृष्टि गड़ाई ……..फिर कुछ देर बाद बोले ………….

बृज की बृजांगनाएं विश्व वन्दनीय और परम भाग्यशाली है …….क्यों की उनकी हर चेष्टा में मात्र उनका वो साँवरा ही रहता है ।

उनके रोम रोम में साँवरा है ……प्रत्येक काल में उनका कन्हैया है …….हर वस्तु में वही वही है ………पल पल वे लीलामाधुरी का ही पान करती रहती हैं ।

ग्रीष्म ऋतु में घर में रहकर कन्हैया की लीलाओं का गान करती हैं …….जब बादल छा जाते हैं वर्षा ऋतु आ जाती है ………तब बादलों को देखकर अपनें श्याम घन की मधुर यादों में खो जाती हैं ………बारिश में भीगती हैं ……….कीच को अपनें देह में मलती हैं ……..कि मेरा कन्हैया इनमें चला है ………..चलता है …………..।

आकाश के इंद्र धनुष को देखती हैं ………तब नीले आकाश में कन्हैया ही इंद्र धनुष के रूप में दीखते हैं ……..वही नीलमणी …।

शरद प्रारम्भ हुआ………..कीच धरती की सूख गयी ………अब तैयार हो गया वृन्दावन …………नाना प्रकार के पुष्प खिल उठे हैं ………उसके सुगन्ध से महक रहा है पूरा वन प्रान्त ।

उस समय सुन्दर अतिसुन्दर कन्हैया सज धज के निकलते हैं ………बस ……..पुष्पों से पूरा मार्ग पटा दिया है इन गोपियों नें …………

उफ़ ! ये अनुराग भी …….उद्धव आज इतना ही बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 113

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 113)

!! “प्रेम – रस” – श्रीधाम वृन्दावन !!

तात ! चिन्मय वृन्दावन है ये ……प्रत्येक ऋतु यहाँ का आनन्द प्रदान करनें वाला है …………वर्षा के बाद अब आया है शरद ऋतु ।

यमुना का जल निर्मल हुआ अत्यन्त निर्मल ………वृक्ष ऐसे लग रहे हैं जैसे स्नान करके तैयार हो गए हों ………पृथ्वी ने हरे हरे दूब की मानों चादर ओढ़ ली हो …….कमल खिले हैं उसकी सुगन्ध चारों ओर बह रही है……..आपको पता है तात ! स्वयं कमला ( लक्ष्मी ) नें आकर वृन्दावन में कमल उगाये हैं ……….और वहाँ वहाँ उगाये हैं जहाँ से उनके पति श्रीकृष्ण चन्द्र गुजरेंगे …….आहा !

वायु सुरभित बह रही है …………..

ये तो हुयी वृन्दावन की बात …….अब सुनो इस वृन्दावन में रहनें वाली गोपियों की भाव दशा ! उद्धव नें कहा ।

प्रातः से ही प्रतीक्षा में बैठ जाती हैं अपनें अपनें घरों के द्वार पर …….

कि हमारा कन्हैया अब यहाँ से गौचारण के लिये गुजरेगा ।

तात ! क्या प्रेममयी दृष्टि है इन गोपियों की !…….उद्धव बता रहे हैं ।

इनकी दृष्टि में जड़ और चेतन जैसा कुछ नही है……सब कुछ प्रेममय है ……….सब कुछ भावमय है ……….भाव का ही उल्लास है …..प्रेम का ही विलास है……..यही दृष्टि तो है इन गोपियों की …….प्रेम दृढ़ और गाढ़ है, …….तभी इन गोपियों को पर्वत भी प्रसन्न दिखाई देते हैं ……..यमुना ठहरी हुयी लगती है……….वृक्ष और लताएँ झूमनें लग जाते हैं ….पक्षियों का अद्भुत गान शुरू हो जाता है………मोर का नृत्य सबका मन मोह लेता है……………..

ये ध्यान है तात ! उद्धव नें अपनी बात बीच में रोककर कहा ।

कैसे ? विदुर जी पूछते हैं…….उद्धव मुस्कुराते हुए बोले –

प्रातः दर्शन किये गोपियों नें उन गौचारण में जाते हुए कन्हैया के ।

मोर मुकुट धारण किये हुए हैं …….नट के समान भेष है उनका ……..कानों में कनेर के पुष्पों को खोंस लिया है ……..दिव्य बैजयन्ती की माला है………अधरों में बांसुरी है ……….पीताम्बरी फहर रही है ….आहा ! क्या दिव्य रूप माधुरी है ………इसी रूप माधुरी का पान तो अपनें नेत्रों से गोपियों करती रहती हैं ।

क्या प्रेम में पौरुष का कोई स्थान नही है ? विदुर जी नें पूछा ।

तात ! आप नीति वाले हैं……नैतिकता का मापदण्ड लेकर चलते हैं …ये कहते हुए उद्धव हँसे ।

उद्धव ! मेरा प्रश्न है ये…तुम बताओ , क्या प्रेम में पुरुषार्थ नही होता ?

क्यों नही है तात ! प्रेम में ही तो असली पुरुषार्थ है ……….क्या जिससे प्रेम होता है ….उससे मिलनेँ का प्रयास नही होता ? वह प्रयास चाहे लौकिक हो या अलौकिक ……..क्या फ़र्क पड़ता है ?

प्रेम करनें वाले देवताओं को भी मनाते हैं…….और स्वयं भी धूप ताप वर्षा सबका सामना करते हुये……प्रेमी कहीं भी हो उसके पास जाते हैं ।

और अगर जाना असक्य हो ……तो मन तो प्रियतम के पास होता ही है ………..यही ध्यान है । ……….उद्धव नें कहा । .

परिवार में रहते हुए भी पूर्ण गृहस्थी होते हुए भी …….ये गोपियाँ सदैव कन्हैया के ही चिन्तन ध्यान में लगी रहती हैं ………..सदैव !

इनका मन उनके ही पास है ………नही नही …..इनका मन ही कन्हैया बन चुका है ……………ऐसी स्थिति कोई साधारण तो नही है !

ये है प्रेम रस …….जो एक मात्र श्रीधाम वृन्दावन में ही छलक रहा है ।

और फिर कहूँ तात ! सच्चा पुरुषार्थ और अन्तिम – प्रेम ही है ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 112

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 112)

!! कन्हैया की गुरुपूर्णिमा !!

उन नन्हें नन्हे हाथों नें अक्षत रोरी चन्दन पुष्प अर्पित किये थे ।

फिर माखन और रोटी का भोग लगाया……..और साष्टांग नतमस्तक हुआ था गोर्वधन पर्वत के सामनें ये कन्हैया ।

आज गुरुपूर्णिमा है……..सबनें आज अपनें अपनें गुरु की पूजा करी है ……..पर कन्हैया नें तो गिरिराज को ही अपना गुरु मान लिया ।

फिर तो दूध की धार सब सखा गिरिराज की शिला पर चढानें लगे थे ।

देखते ही देखते पुष्पों का भी ढ़ेर लग गया……..

कन्हैया हाथ जोड़कर …..गुर साक्षात् ब्रह्म, नमः गुरुदेव…..बाल कृष्ण बुदबुदाते हैं……शुद्ध अशुद्ध मन्त्र का यहाँ कोई अर्थ नही है …..क्यों की कन्हैया अशुद्ध भी पढ़ेगा तो भी वह परम शुद्ध में ही गिना जायेगा ।

बालक आनन्दित हैं ……….आज गुरुपूर्णिमा मन गयी कन्हैया की ।

गुरु कौन होता है ?

गुरु पूर्णिमा के आनें से चार दिन पहले ही कन्हैया नें अपनी मैया को पूछा था ।

“जो सबसे बड़ा होता है”…………..मैया व्यस्त है रसोई में ……..इसलिये मैया नें ये उत्तर दिया ।

तोक ! बड़ा तो बाबा का “धर्म” है ……….तो वो गुरु है ?

“धर्म”……..बृजराज के बृषभ का नाम है …..बैल है .. ….जो बहुत बड़ा है …….उसके सामने कौन टिक पायेगा ।

“धर्म” गुरु है …….कन्हैया नें मैया की बात का यही अर्थ निकाला ………

वैसे भी इस बात को कौन इंकार करेगा……क्या धर्म ही गुरु नही है ?

बाबा बृजराज के पास कन्हैया और उसके सखा गए थे …………

बाबा भी अपनें कार्य में व्यस्त हैं …….पर कन्हैया के जाते ही वे सब कार्य छोड़ देते हैं ……और अपनी गोद में बैठा कर बड़े प्रेम से पूछते हैं ….कोई कार्य है लाला ?

बाबा ! आपके गुरु कौन हैं ? बाबा की सफेद दाढ़ी में अपनी ऊँगलियों को फंसाते हुये कन्हैया नें पूछा ।

महर्षि शाण्डिल्य ……………बाबा के यही तो गुरु हैं ।

तुरन्त उतर गए गोद से ……………बाबा व्यस्त थे इसलिये उन्होंने भी ज्यादा ध्यान नही दिया ।

महर्षि ! आपके गुरु कौन हैं ?

ये कन्हैया अपनें सखाओं के साथ महर्षि शाण्डिल्य की कुटिया में चला गया था ……और उनसे हाथ जोड़कर पूछ रहा था ।

मेरे गुरुदेव ? मुस्कुराये कन्हैया के प्रश्न पर महर्षि ।

भूतभावन भगवान शंकर , मेरे गुरुदेव हैं …..महर्षि नें उत्तर दिया ।

सब गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा सुबह करते हैं …..पर मेरे बाबा तो आपकी पूजा दोपहर बाद करते हैं…..क्यों ? आज प्रश्न करनें आया है ये कन्हैया ।

क्यों की तपोवल से मैं कैलाश चला जाता हूँ ब्रह्म मुहूर्त में ही …….और वहाँ जाकर अपनें गुरुदेव भूतभावन की पूजा करता हूँ ………..फिर लौटकर यहाँ आता हूँ तब बृजराज मेरी पूजा कर पाते हैं ।

ओह ! तो महर्षि के गुरु शंकर भगवान हैं ।

कन्हैया मन ही मन सोच रहे हैं ।

तुम पूछना क्या चाहते हो ?

हँसते हुये कन्हैया से बोल रहे है महर्षि ।

आपके गुरुदेव भगवान शंकर किसकी पूजा करते हैं ?

ये क्या प्रश्न हुआ ? पर कन्हैया के प्रश्न को ऐसे कैसे नजरअंदाज कर दें महर्षि भी ।

आँखें बन्द हो गयीं ऋषि शाण्डिल्य की ……………और पूर्व की गुरुपूर्णिमा में भगवान आशुतोष से पूछा हुआ स्वयं का प्रश्न स्मरण हो आया …………..

आपके भी कोई गुरु हैं क्या भगवन् !

बड़े संकोच से प्रश्न किया था महर्षि नें ।

इस प्रश्न पर समाधि ही लग जाती महादेव की ……पर महर्षि नें सम्भाल लिया………कुछ देर बाद भगवान साम्ब सदाशिव मुस्कुराकर बोले –

“श्री कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम्”……….मेरे भी और समस्त चराचर के गुरु तो श्रीकृष्ण ही है ……………..भगवान भूतभावन का ये उत्तर था ।

महर्षि ! महर्षि ! बताइये ना ? भगवान शंकर के गुरु कौन हैं ?

कन्हैया पूछ रहा है ……इसे उत्तर चाहिये ।

नेत्र खोलकर हँसे शाण्डिल्य ………….बड़े अच्छे लीलाधारी हो ……..हे श्रीकृष्ण ! आप ही सबके गुरु, जगद्गुरु ……सब हो ……फिर भी ये लीला ? मन ही मन बोल रहे थे महर्षि ।

भगवान शंकर के भी गुरु हैं ……….गिरिराज गोवर्धन ।

महर्षि नें ये समाधान दिया कन्हैया को ………..और इसलिये दिया कि गोर्वधन श्रीकृष्ण ही तो हैं …………..गोवर्धन श्रीकृष्ण का ही पर्वत रूप तो है …………..लीला धारी को ये कहना कि तुम ही हो सबके गुरु …..ये उसकी लीला में विघ्न डालना होता …….इसलिये महर्षि नें कहा …….गिरिराज गोवर्धन से बड़ा कोई नही है ।

बस उठ गए कन्हैया वहाँ से …..और प्रणाम करके महर्षि को निकल गए अपनें सखाओं के साथ ।

समझे ? तोक मधुमंगल अर्जुन श्रीदामा सुबल सबसे पूछ रहे थे ।

हाँ ………..सबनें उत्तर दिया ………

क्या समझे ? कन्हैया पूछ रहा है ।

मनसुख नें कहा …..सबसे बड़ा है गिरिराज पर्वत ………यही सब गुरुओं का भी गुरु है …………..इससे बड़ा कोइ नही ।

हाँ …………पर हमें ये पर्वत, शिक्षा उपदेश कैसे देगा ?

देगा नही ………देंगे ……..ये सबके गुरु हैं आदर से बोलो …….कन्हैया नें श्रीदामा को डाँटा तो श्रीदामा नें तुरन्त कान पकड़ लिये अपनें ।

ये हमें शिक्षा देते ही रहते हैं …………उपदेश करते ही रहते हैं …….

जैसे – कन्हैया कुछ सोच कर बोले ………….इनसे झरनें बहते हैं ……पर ये स्वयं उसका उपयोग न करके हम लोगों को जल देते हैं ………इसका मतलब …..परोपकार……अपनें लिये नही दूसरों के लिये जीयो ।…..मनसुख नें उछलकर ताली बजाई ………वाह ! वाह ! ।

उस तरह गुरुपूर्णिमा की तैयारी कर ली थी कन्हैया नें……….

तात ! उद्धव नें कहा विदुर जी को ।

गुरुपूर्णिमा आगयी…..और कन्हैया नें अपनें सखाओं के साथ …..

पूजा अर्चना की है अपनें गुरु स्वरूप गिरिराज गोर्वधन पर्वत की ।

अक्षत रोरी सब चढाया …………मन्त्र भी पढ़े मनसुख नें ……

भोग लगाया बड़े प्रेम से …………..फिर आरती ………….

सुनो ! गुरु, “तत्व” होता है ……गुरु सर्वत्र व्याप्त होता है ….चराचर में ……वो सामान्य नही ……..वो चैतन्य रूप होता है …………..उसके देह को मत देखो …….कि उसका पर्वत का देह है या मानव का …….उससे कोई फ़र्क नही पड़ता ………….गुरु तो गुरु है क्यों की वो तत्व है ।

आहा ! आकाश में खड़े हैं महादेव ब्रह्मा जी नारद जी समस्त देवी देवता और जगदगुरु के मुख से सब “गुरु तत्व” की व्याख्या सुन रहे हैं ।

सबनें श्रीकृष्ण के ऊपर अब पुष्प भी चढ़ाये ………..और अपना प्रणाम भी निवेदित किया था ……….”श्रीकृष्णम् वन्दे जगद्गुरुम्”…….इन नन्हे से सुकुमार को ऐसे ही जगदगुरू तो नही ही कहा जाता !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 111

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 111)

!! “दीन बन्धु कन्हैया” – एक अद्भुत प्रसंग !!

मैया ! ओ मैया ! मैं कल क्या दूँ कन्हैया को ?

मनसुख को आज नींद नही आरही ……..कल वर्ष गाँठ है कन्हैया की …..बृज में तो कन्हैया की वर्षगाँठ अष्टमी को नही नवमी को ही मनाई जाती है । आज मनसुख को नींद नही आरही ……ये अपनी कुटिया में कहाँ सोता है ……ये तो नन्दमहल में ही पड़ा रहता है ………मैया यशोदा इस काशी वासी ब्राह्मण बालक मनसुख का बड़ा आदर करती हैं ….।

बता ना मैया ! कल क्या दूँ मैं कन्हैया को उपहार ?

अरे ! तू तो अपनें सखा को एक मोर पंख भी दे देगा ना ….तो उससे भी वो अति प्रसन्न हो जाएगा । मैया बृजरानी नें कहा ।

तू मुझे कल उपहार देगा ?

तू कल मुझे उपहार देगा ?

मनसुख कुछ नही बोला……..इतना ही नही चुपके से मैया को भी चुप रहनें को कह दिया …….और स्वयं सो गया ।

अच्छा ! सो रहा है , बताएगा नही मनसुख ? पर मुझे पता है तू मुझे कल उपहार देनें वाला है ……………..

मैं तो नही दे रहा …………..इतना कहकर तान दुपट्टा सो गया था मनसुख ……..ये सोचता है ….पर इतना भी नही कि नींद ही खराब कर ले ………….कन्हैया भी सो गए थे ।

देवनाथ नाम था उन पण्डित जी का ……..माथुर ब्राह्मण थे ये …..

महाराज उग्रसेन कितना मानते थे इन्हें ………..कोई भी अनुष्ठान हो …….कोई भी पुण्य अवसर हो इन्हें ही राजमहल में बुलाया जाता था ।

पर इन दिनों ? इन दिनों तो महाराज उग्रसेन कारागार में बन्दी हैं ।

हे महाराज कंस ! वो देवनाथ ! आपके अहित और अमंगल के लिये कोई अनुष्ठान कर रहा है………कंस के लोगों नें शिकायत कर दी थी ।

पण्डित देवनाथ की पत्नी बालक “अर्जुन” को जन्म देकर स्वर्ग सिधार गयी थीं ………उस पुत्र बालक अर्जुन को पाल पोस कर देवनाथ नें ही बड़ा किया था …..बड़ा प्यार था अपनें पुत्र से…………..पर –

देवनाथ को आज उसके पुत्र के सामनें ही कंस के राक्षसों नें मार दिया था …………..तलवार से मस्तक अलग कर दिया था …………

अर्जुन की आयु इस समय 4 वर्ष की ही थी ……..वो तो मस्तक को धड़ से जोड़कर कह रहा था …….पिता जी उठिये ! पिता जी उठिये !

पर अब कहाँ उठते उसके पिता ।

वो रोता रोता मथुरा में घूमता ………..सब जानते थे कि कंस नें इसके पिता को मार दिया है ………पर कोई सहायता के लिए आगे नही आता था …कंस का भय था ……..कौन आगे आता ……!

अर्जुन आज पाँच वर्ष का हो गया …………….फल फूल खा लेता यमुना के किनारे जा कर ……….जल पी लेता यमुना का ……सो जाता किसी वृक्ष के नीचे …..।

आज ये यमुना किनारे चलता चलता वृन्दावन पहुँच गया था ………..पता नही क्यों इस स्थान पर पहुँचते ही इसे पहली बार जीवन में आनन्द की अनुभूति हुयी थी ।

क्या नाम है तुम्हारा ?

अर्जुन नें मनसुख को देखा …………..तो उसे लगा जैसे अपना कोइ सगा मिल गया हो ………वो हृदय से लग गया मनसुख के ।

मनसुख नें उसकी सारी बातें सुनीं……….अपनें आँसू पोंछे …….फिर एकाएक उठकर बोला ……….चल मेरे साथ !

वो चल दिया मनसुख का हाथ पकड़े ।

बेटा ! लाला ! जिद्द नही करते ……….चलो अब सबका उपहार खोलो……और देखो …….किसनें क्या दिया है ?

मैया यशोदा नें समझाना चाहा ।

पर नही ………मनसुख कहाँ है ? कन्हैया को तो बस यही धुन सवार है ……मनसुख नें कहा था मेरे लिये उपहार लेकर आएगा ……..फिर कहाँ गया ?

बृजराज नें भी समझाया …….पर नही …………उपनन्द नें ……यहाँ तक की महर्षि शाण्डिल्य नें भी ……….पर ।

इसको तो अपना सखा मनसुख चाहिये …………हाँ मनसुख ही ।

दाऊ का भी कहना आज नही मान रहा कन्हाई ….न अन्य सखाओं की बात ………बस मनसुख ।

तभी –

सामनें से आता हुआ मनसुख दिखाई दिया ………….

उसके नेत्रों में अश्रु थे ………….वो आया ……और सबके सामनें कन्हाई से बोला ……….”दीनबन्धु नाम है तेरा ! हे नन्दलाल ! आज इस नाम को सार्थक कर दे…………..उपहार लाया हूँ मैं तेरे लिये ……क्यों की इस उपहार को स्वीकार करनें का सामर्थ्य भी तुझ में ही है ।

गम्भीर हो गए नन्दलाल …………..क्या उपहार लाये हो ?

आवाज देकर बुलाया मनसुख नें – अर्जुन ! आओ ।

वो बालक ………फ़टे चीथड़े पहनें हुआ था ………..दुर्बल देह उसका ……पर कन्हैया को देखते ही वो तो हिलकियों से रो पड़ा ………दौड़ पड़ा और ………..वो तो चरणों में गिर रहा था ……पर ये दास थोड़े ही बनाता है ………ये तो सबको सखा बनाना ही जानता है ………उठा लिया और अपनें हृदय से लगा लिया …………

वो रोता जा रहा था अर्जुन …..और कहता जा रहा था ……..हिलकियों से कह रहा था ……”मेरे पिता को मार दिया कंस नें ……….मेरे पिता का कोई अपराध नही था………बस ….इतना सुनते ही लाल नेत्र हो गए थे नन्दनन्दन के………..”मैं उस कंस का सब कुछ मिटा दूँगा …..मित्र ! तुम मेरे हो अब…..मेरे ” दीनबन्धु कन्हैया रोष में आगये थे ……….पर आगे आया अब मनसुख …………कहो मेरा उपहार कैसा लगा ? कन्हैया नें अर्जुन को हृदय से लगाये ही कहा ……..बहुत सुन्दर ……..मनसुख ! तुम स्वयं अच्छे सखा हो मेरे.. …तो तुम अच्छा सखा ही दोगे…………मनसुख आनन्दित हो उठा था ।

उस बालक अर्जुन से सब मिले…………अब तो सब प्रसन्नता से भर गए थे ……..बड़े प्रेम से वर्ष गाँठ मनाई गयी थी कन्हैया की आज ।

तात !

वो अर्जुन भी कन्हैया की सखा मण्डली में सम्मिलित हो गया था ।

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 110

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 110)

!! वर्षा-नृत्य – एक अद्भुत झाँकी !!

आज दूर निकल गए दोनों , वर्षा ऋतु है ……बारिश हो ही रही है ।

कुञ्ज की छाँव में दोनों अब ठाड़े हैं ………पर नन्ही फुहियाँ तो पड़ ही रही हैं ……..बिजुली चमकती है तो श्रीराधा डर जाती हैं …….ये क्षण श्याम को बहुत प्रिय है क्यों की उनकी प्रिया उनके हृदय से लग जाती हैं ………..तब श्याम सुन्दर का आनन्द द्विगुणित हो जाता है ।

अब वर्षा कम हो गयी है ……..बादल जा रहे हैं ……जा रहे हैं दूसरी जगह बरसनें के लिये ।

अरे ! ये क्या ! अगनित मोर उस स्थान पर आजाते हैं ।

और पंखों को फैलाये नाचना शुरू कर देते हैं …………पंखो को फैलाते हैं फिर समेटते हैं ………फिर फैलाकर कम्पित कर देते हैं ।

ये सब कन्हाई के लिये कर रहे हैं ये मोर ……..करतल ध्वनि करते हुये उछल पड़ती हैं श्रीजी !

आपको अच्छा लग रहा है प्यारी ! बड़े प्यार से पूछते हैं श्याम ।

जब प्रिया हाँ कहती हैं …….तब पीताम्बरी कदम्ब में रखते हुये वे मोरों के साथ उतर पड़ते हैं नृत्य के लिए…..आहा ! श्याम घन को आज अपनें पास पाकर ये मोर , बड़ भागी मोर आनन्दित हो उठे हैं ।

जैसे मोर नृत्य कर रहे हैं वैसे ही …….नही नही …उससे भी सुन्दर श्याम सुन्दर नृत्य करते हैं ……मुग्ध हैं श्यामा प्यारी ये सब देखकर ।

मेघ गए थे पर यहाँ की इस दिव्य झाँकी नें उन्हें फिर बुला लिया था ।

हाँ ……ऐसे स्थान को छोड़कर ये मेघ भी अब कहाँ जाएँ ।

“श्याम मेघ” जहाँ स्वयं नृत्य कर रहा हो …………ओह !

छा गए मेघ फिर नभ में ……….फिर फुहियाँ पड़नें लगीं ……….

नीचे कोमल बालुका ……….ऊपर मेघाच्छन्न आकाश ……….श्रीराधा निहार रही हैं अपनें प्रियतम को ……..वे नृत्य कर रहे हैं ……….मोर के साथ ………..घूमते हैं …………फिर रुक जाते हैं ………ठुमकते हैं ……अपनी ग्रीवा को हिलाते हैं ………..जैसे मोर हिलाता है ।

अद्भुत !

“प्यारे ! तुम मोर से अच्छा नाचते हो”

…..खिलखिलाते हुये श्रीराधा रानी बोलीं ।

श्याम सुन्दर नें अपनी प्यारी की जब वो उन्मुक्त मुस्कुराहट देखि ……..तो कुञ्ज में गए …..और हाथ पकड़ कर मुक्त आकाश के नीचे लेकर आये …………नही , नही, ………..हँसते हुये मना करती हैं श्रीराधा ……पर श्याम अब कहाँ मानेंगें ।

मयूर पिच्छ लहरा रहा है ……..अलकें हिल रही हैं ……पीताम्बरी फहर रही है । श्रीजी की शोभा का वर्णन तो शब्दों में हो ही नही सकता ……..दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर घूम रहे हैं ……….अच्छे से घूम रहे हैं ……इन दोनों युगल के घूमनें के कारण ……सब घूम रहे हैं …….पृथ्वी, आकाश, वृक्ष वन ……….सब ।

श्रीराधारानी गिर न पड़ें इसके लिये श्याम सुन्दर अब रुक जाते हैं …..सम्भालते हैं अपनी प्रिया को …………बैठ जाते हैं अवनी पर …….क्यों की अब दोनों को चक्कर आरहे हैं ………..दोनों हँसते हैं ….एक दूसरे पर गिरते हैं …………।

प्यारे ! उन्मुक्त हँसते हुये श्रीराधा कह रही हैं ।

प्यारी ! कहो ……….श्याम भी हँस रहे हैं ।

कितना आनन्द आरहा है ना ! श्रीजी अपनें प्राण से कहती हैं ।

“पर सब नाच रहे हैं”……..श्याम सुन्दर की हँसी रुक ही नही रही ।

हाँ ….सच ! देखो प्यारी ! ये पृथ्वी नाच रही है …….ये आकाश नाच रहा है …….ये वृक्ष , ये वन सब नाच रहे हैं ।

प्राण ! तुम नाचोगे तो सब नाचेंगे ही ! श्रीराधा बोलीं ।

मैं कहाँ नाच रहा हूँ ? श्याम सुन्दर अब स्थिर बैठे हैं ।

तुम स्थिर हो या चंचल , पर प्यारे ! सच में स्थिर तो तुम ही हो ……बाकी सब नाच ही रहे हैं । श्रीराधा बोलीं ।

सब कुछ समझनें के बाद भी ये श्याम अबुझ बनता है ……..

पर तुमसे तो कोई पूछे ! …कि तुम नचा रहे हो इसलिये सब नाच रहे हैं ।

आनन्दित हो उठीं थीं श्रीराधा……हाँ …..सबको तुम नचा रहे हो प्यारे ! …….पृथ्वी, आकाश वृक्ष चराचर जीव …..सबको तुम नचा रहे हो ……इसलिये सब नाच रहे हैं …….।

पर…….मैं समझा नही , तुम कहना क्या चाहती हो प्यारी !

हद्द है ………..कितना अबुझ बनता है ये श्याम सुन्दर ।

पर फिर एकाएक श्यामसुन्दर नें अपनी प्यारी का हाथ पकड़ कर उठाया ……..और घूमनें लगे ………….अच्छे से घूमनें लगे ………पर अकेले कहाँ ……….पूरा आस्तित्व ही इनके साथ घूम रहा था …..पृथ्वी, आकाश, वृक्ष, वन और समस्त ब्रह्माण्ड ।

आहा ! तभी तो सर्वत्र हरा ही हरा हो गया ……….क्यों की घूम रहे हैं दोनों ……एक काला कृष्ण और एक स्वर्ण की तरह श्रीराधा ……दोनों को मिला दो तो होता है …..”हरा”…….सम्पूर्ण सृष्टी में युगलवर ही तो नृत्य कर रहे हैं ।

जय जय श्री युगल सरकार की ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 109

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 109)

!! सावन कौ झूला !!

बरसानौ है……या गाँव कौ नाम बरसानौ है……प्रेम कौ रस यहाँ बरसतौ ही रहे…….पर अभै तो वर्षा ऋतू और है…….बड़ी बड़ी बुँदन के प्रहार कूँ ब्रह्मांचल पर्वत ऐसे सह रह्यो है……जैसे दुष्टन कि वाणी कूँ कोई सन्त सहे है……..गहवर वन के मेढ़क ऐसे बोल रहे हैं ……जैसे वटु ब्रह्मचारी वेद कौ सस्वर पाठ कर रहे हौं ……..आकाश में बिजुरी चमके और फिर ऐसे चली जाए जैसे दुष्ट के हृदय में प्रेम आयो और कब गयो पतौ ही नायँ चले ।

आज सावन कौ प्रारम्भिक काल है ……..बरसानें की सखियन में अद्भुत उत्साह देखिवै में आय रह्यो है ……..अद्भुत उत्साह और उमंग ।

कदम्ब की डार में झूला डारयो है…….सब सखी आय के श्रीराधिका जू कूँ झुलाय रही हैं ।

“आग लगे ऐसे सावन पे”…………श्रीजी के हृदय में तो बस श्याम सुन्दर हैं ……और उनके बिना कहा सुख या झूला कौ ?

झौंटा देवे वारो श्याम सुन्दर होय……और झूलवे वारी श्यामा जू ।

कदम्ब के पुष्पन ते मादक सुगन्ध निकल रही है ……..पर या सुगन्ध ते कहा ? वो नीलमणी तो हैं नायँ………….

बू होते ! झुला तो रही हैं सखियाँ………झौंटा हूँ दे रही हैं ……..गीत भी गाय रही हैं ……..पर – साँवरे सजन बिना सब व्यर्थ है ।

आहा ! कितनौ आनन्द आतो अगर श्याम और मैं होती ………वो सलोना सजन होता और बस मैं होती…….पर उनके बिना तौ, ये सावन भी जीया में अगन ही लगाय रह्यो है………कहाँ हो प्यारे !

श्रीराधारानी कौ हृदय पुकार उठ्यो ।

अरी ललिता ! देख तो………बा दूर पे कोई सखी रोय रही है ।

हाँ सच में ही दूर गहवर वन में कोई नई नवेली नार रो रही थी …..उसके सुबुकनें की आवाज स्पष्ट आरही थी ……करुणा की मूर्ति हमारी लाडिली नें वाकौ रुदन सुन लियो हो ………..तभै तौ अपनी प्रिय सखी ललिता ते कही ……देखौ वहाँ………कोई सखी रोय रही है ।

सखियाँ गयीं………सच में एक सखी रोय रही ही ।

सब सखियाँ बाकुं लेकर आय गयीं श्रीजी के पास ।

नख ते सिख तक श्रीजी नें वा सखी कूँ देख्यो ……….बड़ी सुन्दर सखी है ……साँवरी है……..कटीले नयन हैं……..पतली कमर है ……..अद्भुत रूप सौन्दर्य की धनी है ये ………श्रीजी भी देखती रहीं ।

काहे कूँ रोवे है सखी ! श्रीजी नें वा सखी ते बड़े प्रेम ते पूछ्यो ।

“सावन आय गयो है …….पर मोकूँ झूला झुलाये वे वारो कोई नही है”,

बू साँवरी सखी फिर रोयवे लगी……….

अद्भुत करुणा ते भरी भई हैं हमारी लाडिली …….सजल नेत्र है गए इनके ………….कोई बात नही है …..मैं तो हूँ ना ! आओ ! मेरे ढिंग बैठो …… झूला में बैठो ………हम दोनों झूला झूलेंगे !

श्रीजी नें साँवरी सखी कौ हाथ पकड्यो और अपनें पास बैठावें लगीं ।

आप तो राजदुलारी हो …..और मैं कहाँ गोबर थापवे वारी ………नायँ नायँ आपके संग बैठनौं अपराध है………इतनौ कह के साँवरी सखी तो गीली धरती में ही बैठ गयी ।

पर श्रीजी की करुणा अनुपम है ……..हाथ पकड़ के अपनें पास ही बैठा लियो ……….बैठ गयी साँवरी सखी हू ।

अब तो सखियाँ झोटा दे रहीं हैं, साँवरी सखी प्रसन्न है …..हँस रही है …….पर कछु देर में ही साँवरी सखी होश खो बैठी ………श्रीजी के श्रीअंग कौ जैसे ही स्पर्श भयौ ………बू तो झूला में, श्रीजी के अंग में ही गिर पड़ी ……….वाके नेत्रन ते प्रेमाश्रु बहनें शुरू है गए है …….मुस्कुरा भी रही है ……….पर होश खो बैठी है वो सखी ।

तभी –

“अरे ! लाडिली ! जे साँवरी सखी नहीं है”…….सखियन नें झूला रोक दियो………और सब हँसवे लगीं, ताली बजाय के हँस रही हैं ।

ये सखी नही है ? श्रीजी के कन्धे में साँवरी सखी कौ सिर है ……वाही कूँ देख के श्रीजी चौंक के पूछ रही ।

सखी नहीं, जे तो सखा है……..सखियाँ हँस के लोट पोट हो रही हैं ।

क्या ?

श्रीराधा रानी फिर चौंक गयीं………..हाँ ……

…..ये देखो !

झूला, झुला रही थीं सखियाँ ……पवन बह रहे थे शीतल शीतल ।

हल्की हल्की बुँदे भी पड़ रही थीं ।

तभी ………..साँवरी सखी के लहँगा ते कछु गिर्यो हो …….

सखियन नें जब देखो ……….तो हँसवे लगीं …………बाँसुरी गिरी ही लहँगा ते……..अब तो सब सखियाँ लोट पोट हैं गयीं ।

श्री जी कूँ बतायौ …..लाडिली ! कोई सखी नहीं जे तौ कन्हैया हैं ।

क्यों बनें तुम ऐसे सखी ..प्यारे ! श्रीराधा रानी भाव में डूबकर पूछ रही हैं………..प्यारी ! मन नही लगे तुम्हारे बिना …………अब सखा भेष ते आउंगो तो मेरो प्रवेश नही हैं यहाँ ……जा लिये मैं सखी भेष में आयो ……………सजन नेत्रन ते कन्हैया बोले हे……..।

बस अपनें प्यारे के मुख ते जे सब सुनकर श्रीजी उठके खड़ी हैं गयीं और अपनें प्राण धन जीवन कन्हाई को अपनें ह्रदय से लगाय लियो ।

उसी समय काले काले बदरा घिर आये………मोर नाचवे लगे …..मोर बोलवे लगे ……..गहवर वन गूँज उठ्यो हो ।

“देखो सखी श्याम घटा घिर आई”

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 108

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 108)

!! वर्षा ऋतु में श्रीराधाकृष्ण !!

वर्षा ऋतु नें बृज में प्रवेश किया…….आकाश में काले काले बादल छा गए…….बादल घुमड़ घुमड़ के छा रहे थे ।

पृथ्वी प्यासी थी अब उसकी प्यास बुझेगी ……..पृथ्वी ही क्यों समस्त जीवों की प्यास बुझनें वाली है ………बड़ी बड़ी बूंदे पड़नें लगी थीं ….देखते ही देखते जल ही जल हो गया सर्वत्र ……..बिजुली मध्य मध्य में चमक रही थी ….मेघ गम्भीर ध्वनि कर रहे थे ।

भरी दोपहरी में अन्धकार हो गया……..मेढ़क टर्र टर्र करके बोलना शुरू कर दिए…….

ग्वाल बालों नें गायों को देखना शुरू किया ………पर कन्हैया गिरिराज में चढ़कर अपनें सखाओं को बोले ………तुम लोग जाओ गायों को लेकर …..मैं कुछ समय बाद आऊँगा ।

क्यों बरसानें जाएगा क्या ? मनसुख नें हँसते हुए कहा ।

हट्ट !

कन्हैया गिरिराज पर्वत से उतर कर चल दिए बरसानें की ओर …….पर अपनें सखाओं को बताया नही ।

वर्षा में भींगते हुये ………आहा ! क्या शोभा बन रही थी ……वो घुँघराले केश भींग गए थे ………उन केशों से जल टपक रहा था ………कस्तूरी का तिलक बहकर कपोलों में आगया था ……….पीताम्बरी पूरी भींग गयी थी……..जैसे तैसे वृक्षों की ओट में वर्षा से बचते बचाते पहुँचे ये बरसाना……..पर पूरे के पूरे भींग गए श्याम सुन्दर ………आकाश के बादलों को देखो तो लगता नही कि ये वर्षा आज रुकेगी !

लाडिली ! चलिये ….मत भीजिये……..कन्हैया आएंगे नही !

ललिता सखी नें गहवर वन में बैठीं श्रीराधिका जू से विनती की ।

नहीं नही सखी ! वे आएंगे ……….उन्होंने मुझे कहा था वे अवश्य आएंगे ………….वर्षा तेज हो रही है ………पर श्रीराधा को इस बात की परवाह कहाँ ! ललिता छत्र ओढ़ाती हैं श्रीजी को……..पर छत्र से आज ये बुँदे रुकनें वाली कहाँ थीं ।

साड़ी भींग गयी है ……..चोली भींग गयी हैं ……….मस्तक में लगा हुआ श्याम बिन्दु भींग कर उनके गोरे कपोलों में आगया है ।

बारबार देखती हैं वृन्दावन की ओर ……अब आये ! कि अब आये !

वे कपटी हैं , मन के कपटी ……….ललिता सखी को अब रोष आरहा है श्याम सुन्दर के प्रति ……उनकी लाडिली भींग रही है ……….रोष क्यों नही आएगा !

हाँ …….मैं सच कह रही हूँ ……अपनें हृदय को जलाओ मत लाडिली !

वे तो कपटी हैं ………जैसे भौंरा होता है ना ………हर कली में बैठता है ऐसे ही वे भी किसी भी गोपी से मधुर सम्भाषण करके उसके हृदय में अपनी जगह बना लेते हैं ………वे अनन्य नही हैं ………वे किसी के अनन्य हो ही नही सकते ………..ललिता सखी समझा रही है श्रीराधा रानी को ।

निर्दयी हैं वे ………वे छलिया हैं ………….बारू की भीत चिनना उन्हें खूब आता है ………….वे प्रेम करनें योग्य ही नही हैं ……..फिर आप क्यों अपना हृदय जला रही हो !

ललिता के मुख से सब सुनकर श्रीजी नें ललिता की ओर देखा ……..

उन्हें कष्ट हुआ था,
अपनें प्रियतम के बारे में वो ऐसा सुन कैसे सकती थीं ।

सखी ! मेरी प्रिय सखी ललिते ! मेरी बात सुन ……………

वैसे ही मैं दुःखी हूँ कि मेरे” प्राण” अभी तक क्यों नही आये ………इसके बाद तू मेरे प्रियतम की निन्दा करके मेरे दुःख को और क्यों बढ़ा रही है………..मैं दुःखी हूँ ……….बहुत दुःखी हूँ ……..पर सखी ! मेरा हृदय शान्त है ……….शीतल है ………उसे मैं विरह की आग में जलाती नही हूँ ………..क्यों की हृदय अगर विरह में तापित हो गया तो मेरे प्रियतम झुलस जायेंगे …क्यों की वे वहीं रहते हैं ………..ओह ! उनका वो सुकोमल शरीर ……….उसमें ताप लगेगा ……उनको कष्ट होगा …….और तुझे क्या लगता है मैं अपनें “प्राण” को कष्ट होनें दूँगी ? मैं मर न जाऊँ उसी समय !

ये सब कहते हुए श्रीराधारानी प्रेम की सर्वोच्च स्थिति को भी पार कर चुकी थीं ………उनके देह से प्रेम की सुवास प्रकट हो रही थी …….वो लम्बी साँस लेती थीं जब जब तब उनकी साँसों से कमल की सुगन्ध आरही थी ……………

सखी ! तू नही समझेगी ! वे चाहे कैसे भी हों ……कपटी , निर्दयी , छलिया कैसे भी …….पर वे मेरे प्राण हैं ……….वे जैसे हैं मुझे वैसे ही स्वीकार्य हैं………फिर हँसती हैं श्रीराधा रानी ….।

तभी पीछे से श्याम सुन्दर आगये………..और अपनी प्यारी श्रीराधा रानी को अपनें बाहु पाश में भर लेते हैं ……।

ललिता सखी आनन्दित हो जाती हैं …….क्यों की श्रीजी का मुखमण्डल अब खिल गया है …………उनके आनन्द का कोई पारावार नही है ……………

पर ये क्या ! वर्षा और तेज हो गयी ……….दोनों भींग रहे हैं ।

तभी श्याम सुन्दर नें अपनी कारी कमरिया निकाली……उसे झाड़ा…..बुँदे सब गिर गयीं…..अब युगल सरकार नें उस कारी कमरिया को अपनें ऊपर डाल लिया था ….और दोनों एक दूसरे में खो गए ।

बादल अब और घुमड़ घुमड़ के आरहे थे ।

बिजुली जब जब चमकती तब श्रीजी श्याम सुन्दर के हृदय से लग जातीं……..श्याम सुन्दर नभ की ओर देखते हुये उस घन सौदामिनी को धन्यवाद कहते ।

इस लीला की साक्षी ललिता सखी ही थी ……….

उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 107

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 106)

!! दावानल बिहारी !!

क्या छबि थी तात ! उद्धव भाव विभोर होकर बोले ।

शताधिक फण थे उस कालियनाग के ……..उस पर त्रिभंगी मुद्रा से खड़े थे वनवारी……..अधरों पर बाँसुरी रखे हुए थे …….मुस्कुराहट अन्य दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही थी……..नाग मणियों की बहुमूल्य माला नाग पत्नियों नें स्वयं अपनें हाथों से पहनाया था …..उसकी चमक अद्भुत थी ।

आजा ! आजा ! सब ग्वाल सखा पुकार उठे थे ……….उनको जो प्रसन्नता हो रही थी उसका वर्णन करना शब्दों में असम्भव ही है ।

मैया यशोदा के देह में तो मानों प्राणों का पुनः संचार हो गया था ।

लाला ! आजा !

वो भी पुकारनें लगी थीं ।

बलभद्र अपनें वक्ष को चौड़ा करके चल रहे थे ……सबको मानों ये बताना चाहते थे कि ……देखा ! मैने जो कहा था वही सच हुआ ना !

नन्दबाबा तो इतनें प्रसन्न थे कि अतिप्रसन्नता के कारण उनके मुख से शब्द भी नही निकल रहे थे ……………

बाबा !

कालीय नाग के फण से ही कन्हैया अपनें बाबा से बात करनें लगे ।

बाबा ! आप चिन्ता मत करो ….ये कालीय नाग एक करोड़ नीलकमल के पुष्प आज ही मथुरा में पहुँचा देगा……..नन्दबाबा नें जैसे ही अपनें पुत्र के मुख से ये सुना तो आनन्दाश्रु उनके नेत्रों से बह चले थे ।

मनसुख बोला …….लाला ! अब तौ आजा ! या नाग के ही फण में ठाडौ रहेगो !

मनसुख की बातें सुनकर कन्हैया मुस्कुराये …….और नाग के फण से ही कूदे …………सीधे अपनें ग्वाल सखाओं के मध्य में ।

सबसे प्रथम बलराम नें अपनें अनुज को हृदय से लगाया था ।

फिर तो मैया यशोदा ……बाबा नन्द ………सखा वृन्द सब ।

दूर खड़ी है …………….कोई अत्यन्त सुन्दरी ………………..

वो कौन है ? श्रीदामा नें आगे आकर कहा ……..मेरी बहन है …….उसनें जब सुना कि तू कालीदह में कूद गया ………वो उसी समय बरसानें से आगयी थी ।

कन्हैया नें देखा अपनी प्राणप्रिया श्रीराधा को ।

श्रीदामा के पीठ में हाथ रखते हुए अपनी प्रिया को देखते हुए बोले ……पर श्रीदामा ! मैं तेरी गेंद नही ला पाया !

पागल ! तेरे लिये मेरे प्राण भी न्यौछाबर लाला ! गेंद क्या चीज है ।

श्रीदामा बोलता रहा …….कन्हैया आगे बढ़े , श्रीराधा शरमा रही हैं ।

श्रावण मास में बुलवाया है मैने इस कालीय नाग को राधे ! इसी का झूला डालेंगे कदम्ब की डार पे…….सबके सामनें ही अपनी श्रीजी को हृदय से लगा लिया था उस नट नागर नें ।

रात हो रही है……..अब कहाँ जायेगें ! क्यों न आज की रात्रि यहीं बिताई जाए ? बृजराज नन्द जी नें समस्त गोपी गोपों से ये सलाह ली ।

कृष्ण से मतलब है इन सबको …………..इनके साथ कन्हैया है तो सब आनन्द ही आनन्द है ………..

मनसुख बोला – और आनन्द आवेगौ ! कन्हैया के साथ रात भर रहेंगे …….वाह ! इस तरह सब गोप और गोपी आनन्दित हो उठे थे ।

वहीं रोटी बनाई गोपिन नें ……………मैया यशोदा नें अपनें लाला और बरसानें की लाली को अपनें हाथों से माखन और रोटी खिलाई …….दाऊ बड़े प्रसन्न हैं ……..वो तो अपनें अनुज को देखकर ही गदगद् हैं आज ………….सबनें माखन रोटी खाई ………..माखन कुछ विप्र आगये थे उन्होंने ही दिया था ………..नन्द जी नें उस सब विप्रों को अपनें गले का हीरों का हार दक्षिणा स्वरूप दिया …….खूब आशीर्वाद देते हुये वो सब चले गए थे ।

रात्रि हो गयी थी ……….भोजन सबनें कर ही लिया था ……..कोमल पत्तों का विस्तर लगा दिया मैया नें ………..बाँसों का झुरमुट था यहाँ ….ऋतू ग्रीष्म थी …….गर्मी अच्छी पड़ रही थी ।

कन्हाई सो गए ……..पास में ही श्रीराधा भी सो गयीं ……

इस तरह सब निश्चिन्त होकर सो गए थे उस रात्रि को ।

पर –

लाला ! बचा ! कन्हैया बचा ! कन्हैया !

सब ग्वाल बाल एकाएक अर्धरात्रि को पुकारनें लगे थे ।

क्या हुआ ? क्यों चिल्ला रहे हो ? कन्हैया कच्ची नींद में उठ गए ……..आँखों को मलते हुए अपनें ग्वाल सखाओं से पूछनें लगे थे ।

देख ! सामनें देख लाला ! नन्द बाबा नें भी कहा ।

ओह ! गर्मी के कारण बाँस सूखे हुए हैं……..फिर उसपर हवा चली …..तो बाँस में रगड़ हुआ ……..चिंगारी प्रकट हुयी उससे ही इस वन में आग लग गयी थी……अब तो चारों ओर हाहाकार मच गया था ।

कन्हैया जैसे ही दौड़े उस आग के पास …………..उसी समय श्रीराधिका नें कन्हैया का हाथ पकड़ा और अपनी और खींचा ।

प्यारे ! ये दावानल है ………..ऐसे पी नही पाओगे इसे ……….भयानक आग है ये …………….अपनें से अत्यन्त निकट लाकर कन्हैया से कह रही थीं राधिका ।

फिर ? कैसे ? बस इतना ही बोल पाये थे कन्हैया ।

मेरे अधरों का पान करो …………ये अमृत है अधरामृत ! तभी तुम इस दावानल का पान कर सकोगे ………..नही तो झुलस जाओगे ….इतना कहकर राधिका नें अपनी ओर खींचा श्याम सुन्दर को ।

अग्नि के कारण धुँआ बहुत था वन में …..इसलिये कोई देख न सका …………इस दोनों सनातन प्रेमियों के अधर मिले ……….

शक्ति मिली शक्तिमान को………..

श्याम सुन्दर गए उस आग में ……..दावानल में ……….और अपनें स्वांस को जब खींचा अपनें भीतर ……….सारी की सारी अग्नि कन्हैया नें पी ली थी ……………..पी रहे थे ………..।

बिहार कर रहे थे दावानल के साथ ……….कन्हैया आज ………..

अग्नि शान्त हुयी ……अग्नि बूझ गयी………तभी वर्षा प्रारम्भ हो गया ।

झूम उठे थे सब ग्वाल बाल ……………

पर –

श्रीराधा रानी दूर खड़ी होकर अपनें प्यारे नन्दनन्दन को देख रही थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 106

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 106)

!! “नृत्यति वनमाली” – अहो ! दिव्य झाँकी !!

हृद् के भीतर तल तक पहुँचे थे कन्हैया …………वे कूदे ही इस प्रकार थे कि ………..तल को छू लिया उनके चरणों नें ।

तात ! कालियनाग सो रहा था …………पर उसकी पत्नियां जागी हुयी थीं ………….अपलक देखती रहीं नन्दनन्दन को ।

उद्धव आनन्दित हैं आज …..गदगद् होकर इन लीला कथाओं का गान कर रहे हैं …………..हँसे उद्धव – तात ! कन्हैया की रूप माधुरी से आज तक कोई बच न पाया है …………नाग स्त्रियों को भी इसनें अपनें रूप पाश से बांध लिया था ……..अहो !

नाग पत्नियों नें आज तक ऐसा भुवन सुन्दर रूप देखा नही था ………

इतना सुकुमार अंग ! सांवला सलोना …..और फिर वो नयन ……कटीले , रसीले अधर ……….

फुफकारना चाहिए था इन्हें ……….पर एक ही दृष्टि में अपना हृदय दे बैठीं नन्दनन्दन को ………….पुकार उठीं …………

कौन हो बालक ! कहाँ से आये हो ? क्या नाम है तुम्हारा ? किस स्थान से आये हो और क्यों आये हो ?

नागपत्नियाँ एक नही थीं अनेक थीं ………….सबनें प्रश्न किये थे ।

उफ़ ! ये नन्दनन्दन मुस्कुरा और दिए …………..

मेरा नाम कन्हैया है ……….मैं यहीं बृज का हूँ ………….मेरा माता पिता बृजराज और बृजरानी हैं …………मैं उन्हीं का पुत्र हूँ ।

कुछ देर रुके .कन्हैया ……फिर सोते हुये कालियनाग को देखा ……..मुस्कुराते हुये एक चरण का प्रहार उसके देह पर किया ।

नही नही ……..ऐसा मत करो ………सब नाग पत्नियाँ पुकार उठीं ।

मैं तुम्हारे पति कलियनाग को नथनें आया हूँ ।

कन्हैया के मुखारविन्द से ये शब्द सुनते ही सब कहनें लगीं ……..पर क्यों ? क्यों नाथोगे हमारे पति को ?

श्रावण आरहा है …………….मैने अपनी प्रिया श्रीराधारानी को वचन दिया है कि मैं कालीय नाग को डोर बनाकर बरसानें में कदम्ब के वृक्ष पर झूला डालूँगा और उसमें हम दोनों झूलेंगे ………..कन्हैया नें अपना प्रेम प्रसंग छेड़ दिया था ।

तुम प्रेम करते हो ? क्या नाम बताया तुमनें ? नाग पत्नियाँ मुग्ध हैं नन्दनन्दन के रूप पर …….

हाँ ……बहुत प्रेम करता हूँ …………श्रीराधा ……यही नाम है उनका ।

पर ये काम तुमसे होगा नही ? क्यों की हमारे पति नागराज हैं ……..उन्हें अपनी क्रीड़ा का साधन मत समझो ………हे सुन्दर बालक ! एक बार वो जाग गए ना …….तो उनके विष से तुम्हारा ये रूप झुलस जाएगा ……………तुम जाओ यहाँ से …..जाओ !

तुम मेरे बारे में इतना क्यों सोच रही हो !

मुझे पुष्प चाहिये ……..नीलकमल के पुष्प……पता है मेरे बाबा कितनें दुःखी हैं ….मेरा पूरा बृजमण्डल दुःखी है ……कल तक अगर नीलकमल के पुष्प राजा कंस के पास न पहुँचे तो विध्वंस मचा देगा वो ।

हम दे देती हैं कमल के पुष्प ……जितनें चाहिये उतनें ले जाओ …..पर जाओ तुम यहाँ से ………नाग पत्नियाँ डर रही हैं ।

ना ,

बड़ी प्यारी झांकी थी ये कन्हैया की ………जब उन्होंनें मना किया ।

नीलकमल के पुष्प लेकर तेरा पति कालीय हमारे बृज में पहुँचायेगा ।

क्यों अपनी माता को जीवन भर दुःखी रखना चाहता है तू ……..क्यों अपनी प्रिया को जीवन भर आँसू देना चाहता है ?

तू मारा जाएगा बालक ! लौट जा …….हमारे पति अगर जाग गए ……

उसी समय उछलकर कन्हैया नें फिर अपनें चरण का प्रहार सोते हुये कालीय नाग के ऊपर किया था …………इस बार का प्रहार सबसे तेज था ……….वो उठ गया ……कालीय नाग फुफकारते हुए उठा ।

उसके मुख से विष निकल रहा था……वो और निकाल भी रहा था ।

डर से नागपत्नियां दूर खड़ी हो गयीं ।

सबसे पहले तो उठते ही कालीय नें कन्हैया को एक ही क्षण में बांध दिया चरण से लेकर मस्तक पर्यन्त …………..और उसके बाद विष छोड़नें लगा ……..हलाहल विष ।

कन्हैया मुस्कुराये……….अपनें श्रीअंग को कन्हैया नें फुलाना शुरू किया ………कालीय नाग की सारी नसें ढीली पड़ गयीं …….

बस उसी समय उछलते हुए कन्हैया उसके फण पर पहुँच गए ………और अपनें चरणों से प्रहार करनें लगे …….जोर से प्रहार किया ………

रक्त निकलनें लगा कालीय का …………….रक्त से यमुना का जल लाल होनें लगा ………..लाल ………..।

पर इतनी जल्दी हिम्मत कैसे हारता कालीय नाग वो फिर उठा …….और कन्हैया की और जैसे ही झपटा …………कन्हैया नें फिर उसे उछल कर अपनें चरणों से कुचल दिया ……….उसके फण को अपनें हाथों से मसल दिया ………….।

अहो ! ये क्या ! नाग पत्नियां देख रही हैं …………..विष का प्रभाव इस बालक पर नही हो रहा ….? वो समझ नही पा रहीं ……उसके पति अब थक गए हैं …………..उसके अंग शिथिल हो रहे हैं ।

कन्हैया नें अवसर देखा …….और कालीय नाग को पकड़ कर ऊपर लेकर आये …………..उसे घसीट रहे हैं …………अहो !

तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो ?

स्वर्ग में गए थे देवर्षि नारद जी …..और वहाँ देवराज की सभा में नाच रहे वाद्य बजा रहे गन्धर्वों को जाकर रोक दिया था ।

क्यों ? क्या हुआ ? देवर्षि ! क्या कुछ हो रहा है बृज में ?

देवराज को पता है देवर्षि बृज की ही बात कर रहे थे ।

हाँ ……आज तो अद्भुत होनें वाला है देवराज ! कालीय नाग पर हमारे नन्दनन्दन नृत्य करनें वाले हैं ………..हे गन्धर्वों ! यहाँ क्या वाद्य बजा रहे हो …….चलो ! बृज में चलकर बजाओ …………नन्दनदन को सुख मिलेगा …….और तुम्हारी कला धन्य हो जायेगी ।

देवर्षि की बातें सुनकर सब गन्धर्व चल दिए थे …….और साथ में देवता भी थे …………।

हे नागराज ! तुम अपनें रमणक द्वीप में जाओ ………..ये स्थान तुम्हारा नही है ……………मेरे बृजवासी तुम्हारे कारण बहुत दुःखी हैं ……..जीव जन्तु सब दुःखी हैं ………..तुम इस भूमि को छोड़ दो ।

जब हार गया कालीय नाग लड़ते लड़ते …………….वो थक गया …..उसका विषैला रक्त सब निकाल दिया कन्हैया नें ………….

तब वो अपनी समस्त पत्नियों के साथ कन्हैया के चरणों में नतमस्तक हो गया था ।

तब कन्हैया ने उसे समझाया था ।

पर आपका भक्त गरूण मुझे मार देगा………कालीय नाग नें कहा ।

नही मारेगा ……..क्यों की तुम मेरे भक्त बन चुके हो ………….मेरे चरण चिन्ह तुम्हारे मस्तक में हैं ………इसलिये कालीय ! तुम जाओ और रमणक द्वीप में ही निवास करो ……..नन्दनन्दन नें समझाया ।

सिर झुका लिया कालीय नाग नें …………….कन्हैया नें अवसर देखा …..और उछलते हुये उसके फण पर सवार हो गए थे ।

मैया देख ! मैया ! बाबा !

सब उठ गए …..मानों सबके देह में फिर से प्राणों का संचार हो गया ।

आहा ! कालीय के फण पर वो नटवर नाच रहा था ……..उसकी वो भंगी अद्भुत थी ………अहो ! तभी उसनें अपनी फेंट से बाँसुरी भी निकाल ली ……….वो अपनें अपनें चरण एक एक फण पर पटक रहे थे ……….वो हर फण को झुका रहे थे ………….।

उसी समय गन्धर्वों नें वाद्य बजानें शुरू कर दिए ……………

फण से रक्त की बुँदे फूट रही थीं ………….वो कन्हैया के चरणों में गिर रही थीं ……..अहो ! अद्भुत शोभा हो गयी उससे भी …..ऐसा लग रहा था जैसे रक्त वर्ण के पुष्प नन्दनन्दन के चरणों में मानों कालीय नाग चढ़ा रहा हो ।

सब ग्वाल सखा नाच उठे …..पर मैया यशोदा चिल्लाईं –

कन्हैया ! आजा ! आजा ….ये कालियनाग तोहे खा जायगो ……

“नाय खायेगो , मेरो चेला बन गयो है”…कन्हैया मुस्कुराते हुये बोले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 105

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 105)

!! जब शोकाकुल हुए बृजवासी – “कालीदह प्रसंग” !!

मैया यशोदा का हृदय “धक्क” करके रह गया ……

ओह ! ये एकाएक क्या हुआ ? बृजरानी कुछ समझ नही पा रही हैं ।

तभी कुछ श्वान ऊँची तान में रुदन करनें लगे ………..मैया नें अपनें कानों को बन्द कर लिया …….पर ये क्या ! मैया यशुमति के सिर से कौए उड़ रहे हैं……ये तो अपशकुन है …..मैया का हृदय काँप गया ।

बृजरानी ! मैं रसोई से दूध गर्म करके ले आई हूँ …………वो गोपी बोल ही रही थी कि उसके हाथ से वो सारा दूध गिर गया ………..उसका देह जल गया ……….बृजरानी दौड़ी उसके पास ……उसको तो कुछ नही हुआ …..पर दूध का फैलना अपशकुन ही है ।

बृजरानी अपनें कन्हैया के बारे में ही सोचनें लगी ……..आज वो कुछ अलग लग रहा था ………सुबह जल्दी भी उठ गया …….कह रहा था गौचारण करनें नही जाऊँगा ……….आज खेलूंगा …………सखाओं के साथ हम खेलनें जायँगे ………..कहाँ गया होगा वो ?

तभी – धूल से भरी आँधी चल पड़ी …………धूल ही धूल ……कुछ दिखाई नही दे रहा किसी को ।

भीतर रसोई में दही के बर्तन टूटकर गिरनें लगे …………यशोदा डर रही हैं ये सब देखकर ……….उनका हृदय काँप रहा है आज ………..

सूर्य का तेज भी कम हो गया ऐसा लगता है यशोदा मैया को ………

ओह ! ये क्या ! दिन में ही सियारों का झुण्ड गाँव में कैसे घुस आया ?

और सब सियार रोनें लगे थे ……….उनकी आवाज से नन्दगाँव का वातावरण बड़ा ही भयानक लग रहा था ।

रोहिणी दौड़ी हुयी आईँ बृजरानी के पास …………जीजी ! ये क्या हो रहा है आज ? मेरे तो कुछ समझ में नही आरहा …….ये सब अपशकुन है …………ये सब अच्छा नही है ।

रोहिणी ! कन्हैया कहाँ है ? देह कांपनें लगा बृजरानी का ………बता ना मेरा कन्हैया कहाँ है ?

जीजी ! आपके देह में ज्वर उठ रहा है …………आप इस तरह अज्ञात भय से भयभीत क्यों हो रही हैं ?

तभी …………..सामनें से बलराम को आते हुये देखा बृजरानी नें …….उठकर दौड़ पडीं ……….दाऊ ! तेरा भाई कहाँ है ? तू अकेला कैसे है यहाँ ? बता ! बलराम से यशुमति पूछ रही हैं ।

मैया ! वो आज मुझे लेके नही गया ……..मैने उससे कहा – मैं भी चलूँगा तेरे संग पर कहनें लगा ………..नहीं, तुम बड़े हो दादा …….हम छोटे हैं …….हमारे साथ तुम्हारा खेल बनता नही है …….आज हम ही जायेंगे तुम रहनें दो ………..बलराम नें अपनी बात बताई यशोदा मैया को ।

धड़ाम से गिर गयीं बृजरानी…………रोहिणी ! मेरा लाला आज कालीदह में ही गया है …….कल रात को मुझ से कह रहा था ……मैया ! कालीय नाग को मैं नथ कर लाऊँगा …….देख लेना !

वो अवश्य कालीय दह में ही गया है ……बृजरानी के अश्रु बह चले थे ।

दाऊ ! तू कहता था ना ……..सर्पों के बिल में अपना हाथ डालता है कन्हैया ……………..मैने उसे एक बार डाँटा भी था …….पर वो नही माना ……….ये सर्पों को गले में लटका लेना उसका खेल था ये ……पर उस नादान बालक को क्या पता कि कालीय नाग साधारण नही है ……………यशोदा मैया हिलकियों से रो रही हैं ।

देवता प्रमाद नही करते ………..वे शकुन और अपशकुन के माध्यम से मानव को अग्रिम सूचना देकर सावधान करते रहते हैं ……….बृजरानी ! तुमनें देखा ना ………कैसे अपशकुन हो रहे हैं……..उसी समय बृजपति वहीं आगये थे ……उन्होंने भी आते ही यही कहा……..चलो ! मुझे भी लग रहा है वो कालीदह में ही गया होगा ………क्यों की बलराम ! कल से ही वो अत्यन्त चिंतित था ……..”नीलकमल के पुष्प लानें की” राजा कंस का आदेश उसनें सुना था………वो अवश्य !

बृजपति के मुँह में अपना हाथ रख दिया यशोदा नें …….ऐसा मत कहिये ……मेरा लाला कालीदह में नही गया है ………वो ठीक है …उसे कुछ नही हुआ है ।

बलराम ! चलो ! कालीदह में जाकर देखें …….की उधर ही तो नही गया कन्हैया ? बृजपति जब चलनें लगे तो मैया यशोदा रोहिणी अन्य सभी गोपी और गोप, चल दिए थे कालीदह की ओर ।

खोजते खोजते कालीदह में ही सब पहुँच गए थे……..

दूर देखा ……बृजरानी का ह्रदय काँप रहा है……..दूर से देखा पीताम्बरी पहनें कुछ बालक धरती पर अचेत पड़े हैं ……….

ये तो मनसुख मधुमंगल श्रीदामा ? बृजपति उन्हें धरती में पड़ा देखकर दौड़ पड़े थे…….बृजराज के पीछे बलराम यशोदा रोहिणी सब गोपी ग्वाल भागे………..

मूर्छित पड़े हैं ये बालक ……..क्यों ? इन्हें क्या हुआ ? बृजरानी सबसे पूछ रही हैं……..मेरा कन्हैया कहाँ है ? सामनें देखा कदम्ब वृक्ष पर ………..कन्हैया की पीताम्बरी अटकी हुयी है……..उसके नीचे हृद है ……….वो खौल रहा है …….मेरा कन्हैया ! चीत्कार कर उठीं मैया यशोदा ।

मैया की चीत्कार सुनकर मनसुख उठा …………वो उठते ही रोनें लगा था ………….कहाँ है कन्हैया ? मनसुख ! बता कहाँ है मेरा कन्हैया ?

मैया यशोदा काँप रही हैं पूछते हुए …………..

” वो ! उस कदम्ब में चढ़ गया था ….और कूद गया कालीदह में ।”

मनसुख नें रोते हुए कहा ।

क्या ! कूद गया इस विषैले हृद में ? मैया यशोदा दौड़ पड़ी उसी कालीदह में ………..मेरा बेटा ! मेरा लाला ! वो यही गिरा है ………

खौल रहा है उस “हृद” का जल …………..मैया यशोदा कूद पड़तीं …..कूदनें ही जा रही थीं ……….पीछे से बलराम नें आकर पकड़ लिया …………विलाप करते हुए बृजराज नन्द जी भी कूदनें जा रहे थे उन्हें भी बलभद्र नें पकड़ कर बिठाया ।

क्यों हमें पकड़ रहा है बलराम ! क्यों ? मेरा लाला कूदा है इस कालीदह में …………अब हमें भी मरनें दे ………मैया फिर चीत्कार करते हुये दौड़ीं …….पर बलराम नें फिर सम्भाला ।

….मेरा लाला ! कूद गया इस कालीदह में !…विष से भरा हृद है ये तो .ओह ! कितना कष्ट हो रहा होगा उसे …..और मैं अभी तक ज़िंदा हूँ । मैया बाबा सब रोये जा रहे हैं ।

पर बेचारी भोली वात्सल्य की मारी मैया यशोदा ।

उसे कुछ नही हुआ …….उसे कुछ हो नही सकता !

दिव्य गम्भीर वाणी गूँजी बलभद्र की ।

एक अद्भुत तेज मुख मण्डल में व्याप्त हो गया था बलराम के ।

हँसे बलराम……….शेष अनन्त प्रभु हैं ये …………इसलिये उसी आवेश में हँसे और बोले – मैं कहता हूँ उसे कुछ नही होगा ……….वो ? सहस्र फण वाले शेषनाग में शयन करनें वाला है ………….ये कालिय क्या बिगाड़ेगा उसका………मेरी बात पर विश्वास कीजिये माँ ! और आप सबलोग ……..मेरा कन्हैया आएगा…….हम यहीं बैठे हैं वो अवश्य आएगा ।

बलभद्र के उस रूप को देखकर सब शान्त हो गए थे………बलराम जी अब शान्त भाव से बैठे हैं कालीदह में ………अन्य समस्त सखा भी जाग गए जो मूर्छित हो गए थे ।

तभी ………दाऊ ! देखो ! लाल लाल रंग हो रहा है यमुना का …..!

मनसुख नें कहा ।

………बृजरानी तो मूर्छित ही हो गयीं थीं ।

पर बलभद्र मुस्कुरा रहे थे शान्त भाव से ………

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 104

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 104)

!! कालीदह में कूदे श्याम !!

प्रातः उठते ही चल दिए थे कन्हैया ………..

ग्वाल बालों को उनके घरों से ले लिया था ………

“नहीं आज गैया चरानें नही जायेंगे”

….गोपाल नें अपनें सखाओं को कहा ।

क्यों ? सखाओं नें जब पूछा तो कन्हैया का उत्तर था – आज खेलेंगे ……बस खेलेंगे …….अब चलो ! कन्हैया को शीघ्रता है आज ।

पर कहाँ खेलेंगे ? मनसुख नें ही पूछा था ।

कालीदह में ………..कन्हैया नें उत्तर दिया ।

कालीदह ? मधुमंगल ,भद्र मनसुख भी चौंक गए थे ……..तभी बरसानें से श्रीदामा और सुबल भी आगये …………..कालीदह में खेलवे की कह रह्यो है कन्हैया ! मनसुख नें श्रीदामा को भी कहा ।

नाएं ….वामें तो कालीय नाग रहे है …………श्रीदामा भी डर गए ।

अरे ! कालीदह के भीतर थोड़े ही खेलेंगे ……बाहर खेलेंगे ……..और नाग तो भीतर रहता है ना ! कन्हैया की बात कौन टालेगा …………सब चल दिए कालीदह में खेलनें को ।

तात ! आज घर में किसी को कन्हैया नें कोई सूचना नही दी …कि वो कहाँ जा रहे हैं और खेलेंगे ………….और दाऊ भैया को भी लेकर नही गए …………..कारण तात ! अपनें दादा को कन्हैया ही बता चुके हैं ….कि आप शेष नाग हो और वो कालिनाग है ……….कहीं आपनें अपनें जाति का पक्ष ले लिया तो मेरे लिये भारी पड़ जाएगा ….इसलिये दाऊ दादा को बिना लिये गए थे आज कन्हैया ।

यहाँ तो कोई वृक्ष भी नही है……..न कोई लता न तृण …………

सखाओं नें देखा की कालीदह में कोई जीव जन्तु नही है ……बस यमुना की रेती हो रेती है …..।

वो देखो ! है तो सही कितना विशाल वृक्ष …..और कदम्ब का वृक्ष है ……..चलो चलो उसी के पास …………कन्हैया नें कदम्ब का वृक्ष दिखाया और ले चले उसके पास समस्त ग्वाल बालों को ।

वो कदम्ब यमुना के तट पर ही था …….विशाल कदम्ब था ।

ओहो ! उसके नीचे जैसे ही ग्वालों नें देखा …………….हृद का जल खौल रहा था विष के कारण ………….कोई जीव जन्तु लता कुछ भी नही था …….कहाँ से होता…….विष का प्रभाव था ।

ग्वाल बाल फिर बोले ………अरे ! यहाँ तो विष है …………नहीं लाला ! यहाँ नही नहानौ है ………अरे ! छुनौ हूँ नायँ ……..चल यहाँ ते ………ग्वालों नें वहाँ से चलनें के लिये कहा ।

यार ! तुम लोग डरते बहुत हो ………..चलो ! अपनी लकुट वृक्ष पर सबनें टिका दी ……..पीताम्बरी उतार कर रख दी वृक्ष में ही ……मोतिन की माला हार सब उतार दिया और वृक्ष में लटका दिया ।

चलो ! अब खेलते हैं…….अपनी काँछनी ऊपर उठाते हुए कन्हैया बोले ।

पर का खेलेंगे ? मनसुख नें पूछा ।

कन्दुक ….गेंद……..है किसी के पास ? कन्हैया नें पूछा ।

मनसुख नें सिर ना में हिलाया …….मधुमंगल नें भी……..पर सुबल नें इशारे में कहा …….श्रीदामा भैया के पास है गेंद ।

श्रीदामा ! ओ श्रीदामा ! गेंद है ? कन्हैया नें पूछा ।

हाँ है तो सही ……..पर ………श्रीदामा गेंद होनें के बाद भी देता नही है ।

क्यों ! क्या हुआ ? गेंद है तो दे……हम अब खेलेंगे ……दे गेंद !

कन्हैया माँगते हैं गेंद ।

देखो खोना नही……ये बहुत कीमती है गेंद…….स्वर्ण खचित गेंद है……..ये देखो……..श्रीदामा नें गेंद निकाल के दिखाई …………

कन्हैया बोले ……..है तो खेलने के लिये ही ना ! फिर ?

श्रीदामा नें गेंद दे दी कन्हैया को……….बस …उसी समय कन्हैया नें गेंद हाथ में जैसे ही ली……..खेल शुरू हो गया ।

श्रीदामा को देते हैं …..फिर श्रीदामा मधुमंगल को ..मधुमंगल मनसुख को ….मनसुख सुबल को ….सुबल भद्र को……..इस तरह खेल चल रहा है ……..यमुना की रेती है …….धूप के कारण रेत चमक रही है ।

“मुझे दे अब गेंद”………….श्रीदामा के पास बहुत देर से गेंद जा नही रही है …..जानबूझ कर कन्हैया श्रीदामा को गेंद दे ही नही रहे ।

पर इस बार भी नही दी कन्हैया नें श्रीदामा को गेंद ……………

श्रीदामा कन्हैया के पास गया ……….पर कन्हैया नें गेंद मनसुख की तरफ फेंक दी ………..श्रीदामा चिल्लाया …..मेरी गेंद है…..अब मैं किसी को खेलने नही दूँगा ………….।

कन्हैया नें कहा ……तेरी गेंद है ? ले अब खेल तू अपनी गेंद से …….

अरे ! ये क्या किया !

………गेंद जान बूझकर कन्हैया नें उस कालीदह में फेंक दिया था ।

दौड़कर श्रीदामा नें कन्हैया की फेंट पकड़ ली ……..गेंद दे मेरी !

कन्हैया नें बड़ी लापरवाही से कहा…….कल दे दूँगा……….

ऐसे कैसे कल दे दूँगा ? अभी दे ….अभी ! तूनें गेंद फेंकी कैसे ?

फेंट कस के पकड़ रखी है श्रीदामा नें कन्हैया की ।

देख श्रीदामा ! दो गेंद की जगह चार ले ले …….पर कल दूँगा अब ……..क्यों की अब तो गेंद गयी तेरी कालीदह में ! कन्हैया समझा रहे हैं ………पर श्रीदामा भी क्यों मानें कन्हैया की बात ……जानबूझकर कालीदह में डाली है गेंद ।

देख उधर ! कन्हैया नें ध्यान बंटाया श्रीदामा का ……और अपनी फेंट छुड़ाकर भागे ……….श्रीदामा पीछे भगा ………मैं छोड़ूँगा नही तुझे …..तू कहाँ तक भागेगा ………..!

पर ये क्या ! कन्हैया तो कदम्ब वृक्ष पर चढ़ गया ।

सब सखा स्तब्ध होकर देखनें लगे थे ।

अपनी काँछनी और ऊपर की कन्हैया नें ……….चढ़े और ऊपर …..।

तुझे गेंद चाहिये ? बोल तुझे तेरी गेंद चाहिये श्रीदामा ?

कन्हैया कदम्ब की सबसे ऊँची डाली पर चढ़ गए थे …………..

नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे श्रीदामा के ………………नही चाहिए गेंद ! तू आजा नीचे ! मनसुख चिल्लाया …………श्रीदामा को गेंद नही चाहिए तू आजा !

श्रीदामा नें जब नीचे देखा …..हृद में ……..खौल रहा था यमुना का जल कालीय नाग के विष के कारण ………….काँप गया श्रीदामा ………..ऊपर देखा उसनें उसका प्राणप्रिय सखा कदम्ब की चोटी पर चढ़ गया था ………..ओह ! ये अगर कूद गया तो ?

श्रीदामा नें अपनें आँसू पोंछे और जोर से चिल्लाया ………..गेंद नही चाहिये …….तू आजा ! तेरे लिये कल चार गेंद और ले आऊँगा ।

क्यों ! अब क्या हुआ ?

श्रीदामा की ही नही …..समस्त सखाओं की हिलकियाँ शुरू हो गयीं …….तू आजा ! कन्हैया ! तू आजा !

मैं कूद रहा हूँ………कन्हैया जोर से बोले ।

नही……..ऐसा मत कर……हाथ जोड़ते हुए सब रोनें लगे……नही ! तू आजा ! हम अब तुझ से कभी रुठेंगे नही ….झगड़ेंगे नही ……..श्रीदामा के साथ साथ सब गिड़गिड़ा रहे थे ।

पर ये क्या किया कन्हैया नें ? कूद गया कालीदह में ।

खौलता हुआ जल कालीदह का ………उसमें ही कूदा था ।

सब ग्वाल सखाओं की साँसें रुक गयीं ………स्तब्ध हो गए सब ……..

क्या कन्हैया कूदा कालीदह में ? सबका हृदय चीत्कार कर उठा था ।

ग्वाल सखा सब मूर्छित हो गए थे वहीं पर ………………

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 103

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 103)

!! कालिय नाग !!

कश्यप ऋषि , उनकी दो पत्नियां थीं …..

“कद्रु और विनीता” ।

……..विनीता शान्त भद्र स्वभाव की थीं ……वो भगवान नारायण के वाहन गरूण की माँ बनीं ……गरूण को जन्म दिया उन्होंने …….और कद्रु ? ये क्रोधी स्वभाव की होनें के कारण इनके पुत्र “सर्प – नाग” ये सब हुये ।

कन्हैया आज सोये नही हैं………इस कालिय नाग का इतिहास इन्हें जानना है……और वृन्दावन में ये कैसे आया…….ये भी समझना है ।

गरूण यहाँ क्यों नही आसकते ? कन्हैया सोच रहे हैं ।

गरूण का भोजन है सर्प नाग इत्यादि ……..फिर वृन्दावन में उनको क्यों नही बुलाया जा सकता ?

रमणक द्वीप से ये कालिय अपनें समस्त परिवार को भी यहीं वृन्दावन के इस “यमुना हृद” में ले आया था……..जिसके कारण यमुना में विष दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था …….क्या करें ?

तात ! कन्हैया अन्तर्यामी हैं ……इनसे कोई बात छुपी नही है ……..ये सब जानते हैं …….पर लीला कर रहे हैं …….तो लीला की मर्यादा का पालन भी तो आवश्यक है……लीला में आप सर्वान्तर्यामी नही बन सकते …..अगर बन गए तो लीला बनेगी ही नही ।

उद्धव नें विदुर जी को ये बात कही थी ।

गरूण की माँ विनीता दासी बन चुकी थीं नागों की माँ कद्रु की ।

छल किया कद्रु नें विनीता के साथ ……..और कपट से विनीता को दासी बना लिया ……अब माँ दासी बन गयी तो पुत्र भी दास ।

क्या सोच रहे हो कन्हैया ? दाऊ भैया नें जब देखा कि उनका अनुज आज सो नही रहा……तो कन्हैया से पूछ लिया……पर कन्हैया नें कोई उत्तर नही दिया…..तब दाऊ नें स्वयं ही कहा…….कालिय नाग के बारे में सोच रहे हो ?

कन्हैया नें दाऊ भैया के मुख की ओर देखा….फिर सिर हाँ में हिलाया ।

मैने ही आकर सन्धि कराई थी सर्पों में और गरूण में……..शेष स्वरूप दाऊ नें कन्हैया से कहा ।

मुझे आना पड़ा था क्यों की गरूण और सर्पों में वो भीषण युद्ध छिड़ गया कि उसके समाप्त होनें की कोई आशा ही नही थी ………..मुझे बीच में आना पड़ा……….मैने जब पूछा ……..कि सर्पों ! बताओ गरूण क्या करे ऐसा जिससे उसकी माँ और वो तुम लोगों की दासता से मुक्त हो जाए ………तब सर्पों की माँ कद्रु नें कहा था ……..स्वर्ग से अमृत ले आए ये गरूण और हमारे पुत्रों को दे दें………बस विनीता और गरूण दासत्व से मुक्त ।

कन्हैया ! मैने गरूण की ओर देखा था…और उसी समय सिर झुकाकर गरूण चले गए अमरापुरी….दाऊ जी कन्हैया को बता रहे हैं ।

जैसे तैसे देवों से लड़ झगड़ के गरूण अमृत का कलश ले तो आये पृथ्वी में ……पर थक गए थे ………इसलिये वो यमुना किनारे कदम्ब की डाल पर बैठ गए ……….वैसे गरूण का भार वो कदम्ब सह नही पाता किन्तु अमृत के दो तीन बुँदे उस वृक्ष पर गिर गयीं थीं इसलिये गरूण का भार उसनें थाम लिया ।

गरूण को भूख लगी थी ………..क्यों की देवों से युद्ध करके अमृत छीना था उन्होंने …..श्रम तो हुआ था……क्षुधा से व्याकुल हो उठे थे गरूण ……….तभी यमुना में एक विशाल मत्स्य को देखा ………..बस ………झुक कर जैसे ही उस मछली को मुँह में लेना चाहा गरूण नें ……

वो छटपटाई……….पर गरूण को भी क्या पता था उसी यमुना में एक सौभरि नामक ऋषि तपस्या कर रहे हैं…….उनके तप में विघ्न हुआ …….मत्स्य को आहार बना रहे हो गरूण ! सौभरि लाल लाल नेत्रों से गरूण को देख रहे थे ……ये श्रीधाम वृन्दावन है …….यहाँ आकर तो कमसे कम जीव हिंसा मत करो ।

दाऊ नें अपनें कन्हैया से कहा……कन्हैया ! गरूण को अहंकार था कि …..मैं भगवान नारायण का वाहन….और इन ऋषि को क्या ये पता नही है कि मेरा आहार ही यही है …..मत्स्य या सर्प, मैं शाकाहारी कहाँ हूँ मेरे लिये यही आहार निश्चित किया है मेरे नारायण भगवान नें ।

पर गरूण कुछ भी सोचते रहें ………..उन तपश्वी नें तो श्राप दे दिया था गरूण को कि ……तुम अब वृन्दावन में आकर किसी जीव को अपना आहार नही बनाओगे …..अगर बनाया तो तुम स्वयं शक्तिहीन हो जाओगे ………..तपश्वी का श्राप पाकर गरूण सर्पों के पास भागे …….अमृत सर्पों को प्रदान किया ………..दासत्व से मुक्त होते ही सर्वप्रथम गरूण नें सर्पों को अपना आहार बनाना शुरू कर दिया था ……..सृष्टि में हाहाकार मच गया ………नाग सर्प अब बचेंगे नही ………ब्रह्मा चिंतित हो उठे ………तब हे कन्हैया ! मुझे फिर मध्यस्थता निभानी पड़ी ……….दाऊ नें कहा ……मैं फिर गया मैने समझाया गरूण को ………..कि इस तरह हिंसा मत करो …….तुम को आहार चाहिये तो नित्य चार पाँच सर्प यहाँ रख दिए जायेंगे तुम खा कर चले जाना ।

सर्पों को ये स्वीकार था…..वो बेचारे करते भी क्या गरूण के सामनें ।

और गरूण को मेरी बात माननी ही पड़ी ।

ये क्रम ठीक चलता रहा ………….पर एक नाग बड़ा दुष्ट था ……….कन्हैया अब मुस्कुराये ……कालिय ! हाँ कालिय नाग ।

उसके सौ फन थे ………..इसका ही उसे अहंकार था ।

वो कालिय नाग तो गरूण के लिये रखे हुए अपनें सर्पों को ही खानें लगा ……

ये देखकर गरूण को बहुत क्रोध आया …………

क्यों की एक दो दिन की बात नही थी ………….कई दिनों से ये क्रम उस कालिय नाग का चल रहा था ।

गरूण नें पीछा किया कालियनाग का ……….वो भागा …………समुद्र में चला गया ……….पर गरूण नें समुद्र को भी खंगाल डाला ।

कालीय नाग समुद्र से होता हुआ गंगा में आया ……और गंगा से होता हुआ यमुना में ……फिर यमुना से ही वृन्दावन आगया था ……..क्यों की उसको पता था – गरूण वृन्दावन में नही आसकते ….और आ भी जाएँ तो हिंसा नही कर सकते ।

ओह ! लम्बी साँस ली कन्हैया नें ……………..फिर इसनें अपनें परिवार को भी बुला लिया …..कन्हैया नें ही कहा ।

हाँ ……………दाऊ भैया बोले ।

तुम दोनों अभी तक जगे हुए हो…..अर्धरात्रि हो गयी है ….सो जाओ ……

यशोदा मैया उठ गयीं थीं और दोनों भाइयों को बातें करते हुए सुना तो डाँटनें लगीं ।

कन्हैया दाऊ भैया के कान में फुसफुसाए ……….दादा ! कल मैं कालीदह में जाऊँगा …………और कालीय नाग को नथ कर लाऊँगा ………

मैं भी चलूँगा तेरे साथ ……….दाऊ बोले ।

नहीं दादा ! तुम नही …………कन्हैया सहज रहे ।

क्यों ? दाऊ नें पूछा ।

क्यों की तुम भी तो शेषनाग हो ………….और वहाँ अपनें जाति का पक्ष तुमनें लिया तो ? ये कहते हुए कन्हैया हँसे ।

“तुम सोते हो या मैं पिटाई करूँ तुम्हारी ” ……..मैया नें इस बार अच्छे से डाँटा था ।

चुपचाप सो गए अब दोनों भाई – बलराम कृष्ण ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 102

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 102)

!! नीलकमल के पुष्प और बृजराज की चिन्ता !!

ए बालकों ! बताओ ये बृजपति नन्द जी का महल कहाँ पर है ?

दो दूत मथुरा के थे ……….वो गौचारण करके लौट रहे कन्हैया और उनके सखाओं से ये पता पूछ रहे थे ।

हम सब वहीं जा रहे हैं ………मनसुख नें सहजता में कहा ……और ये भी कहा …..कि तुम लोग हमारे पीछे आओ ।

कन्हैया उन दो दूतों को बड़े ध्यान से देख रहे थे …………वो दूत सहज थे कोई असुर नही थे, हाँ दूत अवश्य राजा कंस के थे ।

राजा कंस नें दूत क्यों भिजवाये ? चिन्ता कन्हैया को होनी स्वाभाविक थी …….क्यों कि ये सब तो बेचारे बहुत भोले हैं …….लाठी चलाना मात्र आता है इन्हें …….छल छिद्र इनमें कुछ है नहीं ……..और राजा कंस ! वो तो समूल बृज को ही नष्ट करनें में अपनी शक्ति को लगा रहा है ।

तुम कौन हो ? क्यों आये हो ?

मनसुख ही पूछ रहा है उन दूतों से ।

राजा कंस के दूत हैं …..और उनका कुछ सन्देश लाये हैं तुम बृजवासियों के लिये ।

मनसुख कन्हैया का मुख देखनें लगा …….भद्र , तोक , सुबल श्रीदामा सब कन्हैया का ही मुख तांकनें लगे थे ।

कन्हैया कुछ नही बोले …………..अभी क्या बोलते वो भी ।

चलो ! मेरे साथ …………..घर की ओर न जा जाकर कन्हैया गोष्ठ की ओर मुड़ गए उन दूतों के साथ ………क्यों की घर में क्या ले जाना ……बृजराज बाबा तो अभी गोष्ठ में ही होंगे ……और उनके साथ बृज के विशिष्ठ जन भी मिलेंगे ही ।

बाबा ! ये दूत हैं …………..मथुरा से आये हैं ….।

गोष्ठ में पहुँच कर अपनें नन्दबाबा से कन्हैया नें कंस के दूतों को मिलाया …..और स्वयं अपनें बाबा के पीछे खड़े हो गए ।

मथुरा से आये हो ? बृजराज कुछ और पूछते कि उन दूतों नें स्वयं ही सब कुछ बता दिया …………हम राजा कंस के दूत हैं …….उन्होंने आप लोगों के लिये कुछ सन्देश भिजवाया है ………..आप अगर कहें तो हम उस सन्देश को पढ़कर सुनाये ?

दूतों नें बृजराज को अपना परिचय और आनें का कारण सब बता दिया था ……………..दूत आगे कुछ बोलते ….उससे पहले ही उपनन्दादि अनेक बृज के विशिष्ठ जन भी वहाँ आगये थे उन दूतों को देखकर ।

हाँ ……..सुनाओ ! क्या सन्देश है राजा कंस का ।

बृजराज चिन्तातुर हो उठे थे…….उन्होंने अपनें पीछे देखा था …..कन्हैया खडे हैं …..और वार्ता को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं ।

“हे बृजराज ! आप कुशल होंगें …..और आपका समाज भी कुशल होगा ऐसी मैं भगवान रंगेश्वर महादेव से प्रार्थना करता हूँ ।”

दूतों नें राजा कंस का सन्देश सुनाना शुरू कर दिया था ।

“श्रावण मास आरहा है …….आपके संज्ञान में ये बात है ही कि मैं भगवान शिव का परमभक्त हूँ ……….मेरे आराध्य भगवान रंगेश्वर महादेव मैं उनकी पूजा अर्चना इस श्रावण मास में नीलकमल के पुष्पों से करना चाहता हूँ …………और ये नीलकमल यमुना के कालीदह में पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं ……..मुझे ज्यादा नही …..एक करोड़ नीलकमल के पुष्प मथुरा में आप चार दिनों के भीतर पहुँचा दें …..अन्यथा आप जानते हैं मैं क्या कर सकता हूँ ।

मेरी आज्ञा का पालन शीघ्र हो ।

आज्ञा से – महाराजा कंस “

लाल नेत्र हो उठे थे कन्हैया के …………..जब उन्होंने ये देखा कि उनके पिता बृजराज अपार चिन्ता के सागर में डूब गए हैं ।

कैसे ? कैसे आएंगे वो नीलकमल के पुष्प !

बृजपति कुछ नही बोल पा रहे…….क्या बोलते ।

दूत तो राजा कंस का सन्देश सुनाकर जा चुके थे ।

पर तभी आकाश की ओर देखा कन्हैया नें………पर ये क्या !

देवर्षि नारद ?

आकाश में खड़े होकर हाथ जोड़ रहे हैं देवर्षि कन्हैया को ।

अब मुस्कुराये कन्हैया …….क्यों की लीलाधारी तुरन्त सब समझ गए …….कि देवर्षि का ही सब किया धरा है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !

एकाएक देवर्षि उतरे थे उस दिन मथुरा में ।

राजा कंस नें स्वागत किया……..एकान्त में बैठ कर चरण धोये देवर्षि के……कब मारोगे कन्हैया को ?

देवर्षि नें ही राजा कंस के सिर में हाथ रखते हुए ये प्रश्न किया था ।

सारे उपाय निष्फल हो रहे हैं……….हे गुरुदेव ! मैने क्या नही किया …पूतना को भेजा पर मार दी गयी वो ………श्रीधर गया ……पर वो भी …….शकटासुर , कागासुर और तो और कल ही मैने सुना कि तालवन में रहनें वाला वो धेनुकासुर भी मारा गया ।

राजा कंस नें अपना दुःख सब सुनाया था देवर्षि को ।

मैं एक उपाय बताऊँ ?……….नयनों को नचाते हुए बोले थे देवर्षि ।

हाँ गुरुदेव ! अब बस आपका ही तो आसरा है ।

कंस नें हाथ जोड़कर कहा ।

श्रावण में रंगेश्वर महादेव की पूजा करो ………और उनके अभिषेक में नीलकमल के पुष्प अर्पित करो ………..देवर्षि बोलते चले गए ………एक करोड़ नीलकमल के पुष्प …………।

वो कहाँ मिलेंगें ? कंस अभी तक बात को समझा नही था ।

बृज में ….वृन्दावन में……यमुना में खिले हुए हैं नीलकमल के पुष्प…..

देवर्षि नें कहा …….पर कंस अभी भी समझा नही ।

यमुना में कहाँ हैं नीलकमल ? कंस स्वयं से पूछता है ।

नहीं हैं ………..पर वृन्दावन में यमुना का एक हृद है ………वहाँ कालिय नामक महाविषधर नाग रहता है …………..देवर्षि शान्त भाव से अब बोल रहे थे …………उसके विष का इतना प्रभाव है कि उस हृद के ऊपर से भी कोई पक्षी गुजर जाए तो वो विष उसे मार गिराता है ……..

कोई उस हृद का जल पी नही सकता ………….क्यों की विषैला है …..पीनें की बात छोड़ो उस हृद के जल को कोई छू नही सकता …….मर जाएगा जो छूयेगा भी तो ।

तो उसमें नीलकमल के पुष्प हैं ? कंस नें देवर्षि से पूछा ।

हाँ हैं …….क्यों की नीलकमल में विष का प्रभाव नही पड़ता …..

देवर्षि नें बताया ।

तो तुम मँगवाओ वृन्दावन से नीलकमल के पुष्प और एक करोड़ …..

बृजराज वहाँ के राजा हैं ….उनको पत्र लिखो …….और कहो कि तुम्हे एक करोड़ नीलकमल चाहियें ……….

कंस अब जाकर समझा.था …….तो खूब ठहाका लगाकर हँसा ।

और वो ला नही पाएंगे …….क्यों की वहाँ विष है ……..और नही ला पाएंगे नीलकमल तो मैं बृज में हिंसा का ताण्डव मचा दूँगा ………..कंस अपनें राक्षसी स्वभाव में आगया था ।

मैं अब जा रहा हूँ उपाय बता दिया है मैने….अब जो करना है तुम करो ।

इतना कहकर देवर्षि चले गए ।

तुरन्त कंस नें अपनें दूत बुलाये और पत्र देकर कर वृन्दावन में उन्हें भेज दिया था ।

कन्हैया को हाथ जोड़े हुए हैं अभी भी देवर्षि नारद जी ।

हे गोपाल ! हे बृजजनपाल ! यमुना की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गयी है……कालिय नाग जब से आया है इस हृद में……तब से पशु पक्षी वृक्ष सब के लिये ये जल घातक बना हुआ है ……..हे बृज के राज दुलारे ! आप यमुना जल को शुद्ध करें ……….कालिय को हटायें यहाँ से …………मैने इसलिये ये सब किया है नाथ ! ये कहते हुए देवर्षि नतमस्तक हो रहे थे नभ से ही ।

कन्हैया चल पड़े थे अब अपनें महल की ओर ……….कन्हैया को अपनें बाबा का वो सचिन्त मुख मण्डल ही स्मरण में आरहा था ।

पर ये कालिय नाग है कौन ? कन्हैया एकाएक फिर गम्भीर हो उठे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 101

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 101)

!! नन्दभवन में सत्यनारायण कथा !!

नाना विघ्न मेरे लाला के ऊपर आय रहे हैं …………हे गुरुदेव ! हमारी इच्छा है कि कन्हैया के मंगल के ताईं एक सत्यनारायण भगवान की कथा अपनें महलन में हम रखें ………..आप आज्ञा दो भगवन् !

ब्रह्ममुहूर्त में ही यमुना स्नान करके बृजराज ऋषि शाण्डिल्य की कुटिया जा पहुँचे थे ……..”असुर समूह मेरे कन्हैया के पीछे पड़े भये हैं ……अब तो भगवान नारायण ही हमारे लाला की रक्षा कर सकें हैं ।”

सजल नेत्रों से बृजराज नें अपनें हृदय की बात ऋषि के सामनें रखी थी ।

” सब मंगल होगा ……..सब मंगल ही मंगल हो रहा है “

पता नही……….ऋषि शाण्डिल्य को कुछ गलत लगता ही नही है …..उनका कहना है ……..”मंगल भवन” का विधान कभी अमंगलपूर्ण हो ही नही सकता ……….।

आज अमावस्या है ………..उचित ही है ……कि भगवान नारायण के मंगल पवित्र नामों का और उनकी लीलाओं का गान हो …….वैसे तो आपके यहाँ भगवान नारायण ही स्वयं लीला कर रहे हैं ………ये कहते हुए ऋषि शाण्डिल्य मुस्कुराये ।

जाओ ! आप तैयारी करो …….हे बृजराज ! मैं समय पर पहुँच जाऊँगा ……….ऋषि नें कह दिया था ……..चरणों में प्रणाम करते हुए बृजराज प्रसन्नता पूर्वक वहाँ से चले गए और अपनें नन्दभवन में जाकर उत्साह से सत्यनारायण भगवान की पूजा कथा की तैयारियों में लग गए थे ।

पीली पीताम्बरी ओढ़ रखी है बृजराज नें ………..उनकी अर्धांगिनी बृजरानी उनके दाहिनी ओर बैठीं हैं ………गोद में कन्हैया …..ऊँघते हुए बैठे हैं ……..आज जल्दी ही जगा दिया कन्हैया को मैया नें …….क्यों की सत्यनारायण भगवान का पूजन जो होना है ।

रोहिणी भी बैठी हैं ….उनके गोद में दाऊ विराजे हैं ………..बाकी मनसुख, तोक, मधुमंगल, सब आगये हैं और पीछे बैठे हैं ।

कन्हैया बार बार छेड़ रहे हैं दाऊ दादा को ………..दाऊ दादा चुप रहनें का इशारा करते हैं …….पर कन्हैया मान नही रहे ।

फूल फेंक रहे हैं मनसुख के ऊपर ………..मनसुख हँस रहा है ………….मनसुख विचित्र मुखाकृति बना रहा है अपनी….जिसे देखकर कन्हैया खिलखिला कर हँस पड़ते हैं ……….आहा ।

शालग्राम भगवान की पूजा है नन्दमहल में ………….ऋषि शाण्डिल्य अपनें साथ विप्र वर्ग को लेकर बैठे हैं ………प्रथम स्नान प्रारम्भ हुआ शालग्राम भगवान का ……..स्नान करा रहे हैं बृजराज ………..मन्त्रोच्चार कर रहे हैं ऋषि शाण्डिल्य ।

आज बहुत गम्भीरता से देख रहे हैं पूजन के क्रम को कन्हैया …….

दूध से स्नान कराया शालग्राम जी को …….फिर दही से …….फिर शहद से …….फिर गौ के घृत से …….फिर शर्करा से …….।

ये सब कन्हैया नें पहली बार इतनें ध्यान से देखा था ……………..

मनसुख की ओर देखा कन्हैया नें ….मनसुख नें अपनें ओष्ठ पर जीभ फेरी…….” बडौ ही मीठो है नारायण भगवान”………कन्हैया खिलखिलाकर हँस पड़े……..चुप ! चुप बैठ …….मैया यशोदा नें चुप कराया ।

है गयौ अभिषेक ……..ऋषि नें बृजराज ते कही ……..और फिर सुन्दर वस्त्रन ते पौंछ के शालग्राम जी कौ सिहांसन में विराजमान कर दिया …….अब तो ऋषि शाण्डिल्य के नेत्र बन्द हैं ………बृजराज के हूँ नेत्र बन्द हैं ……..बृजरानी नें हूँ अपने नेत्र बन्द कर लिये ।

हे बृजराज ! भगवान नारायण के समान और कौन कृपालु हैं ?

प्रेम करनौ कोई नारायण भगवान ते सीखे…….आहा ! देखौ तो वृन्दा नें श्राप दे दियो हो………भगवान नारायण को …..कि जाओ ! तुम पत्थर है जाओ ।………क्रोध रख सकते थे नारायण भगवान वृन्दा के प्रति …..श्राप दे सकते थे वृन्दा को नारायण भगवान भी…….पर नही ………वृन्दा के श्राप को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया …….और इतना ही…….उन्होंने ये भी कहा ………कि मैं तो पत्थर बनूंगा …..पर तुम वृन्दा तुलसी बनकर मेरे ऊपर जब तक नही चढोगी तब तक मैं प्रसन्न नही होऊंगा……..मेरी प्रसन्नता इसी में होगी कि मेरा भक्त मेरे मैं तुम्हे अर्पित करे ! ऋषि शाण्डिल्य सत्यनारायण भगवान की कथा सुना रहे हैं .।…….जिसनें श्राप दिया उसके प्रति भी इतना प्रेम भाव ! नयनों के कोर से अश्रु बह रहे थे ऋषि शाण्डिल्य के ।

और वो प्रसंग ! हे बृजराज ! भृगु ऋषि नें शयन किये भगवान नारायण के वक्ष पर अपनें चरणों का प्रहार किया ……

कोई और देवता होता तो श्राप दे देता……पर भगवान नारायण को तो तनिक रोष भी नही आया ………अपितु तुरन्त उठकर ऋषि भृगु के चरणों को सहलाने लगे ……..आपके चरण कोमल हैं मेरा वक्ष कठोर है ………आपके चरणों में कष्ट हुआ होगा ……..मुझे क्षमा करें………..

ये कथा सुनाते हुये अश्रु बह रहे हैं भावातिरेक के कारण भृगु ऋषि के ।

अश्रु तो बृजराज के भी बह रहे हैं………पर बृजराज नें कथा भाव में बहते हुये…….अपनें शालग्राम भगवान के दर्शन करनें चाहे ……..और उन्होंने उसी समय अपनें नेत्रों को खोल भी लिया……….

पर ये क्या ? शालग्राम भगवान कहाँ गए ? बृजराज इधर उधर खोजनें लगे …सिहांसन में अब शालग्राम भगवान नही हैं ।……पीछे बैठा मनसुख हँस रहा है ……खूब हँस रहा है ।

बृजराज के समझ में नही आरहा कि ……..शालग्राम भगवान अंतर्ध्यान कहाँ हो गए ?

बृजरानी नें भी अपनें नेत्रों को खोला……………सामनें सिंहासन खाली है ………..बृजराज नन्द जी इधर उधर खोज रहे हैं शालग्राम को ……..पर वो कहीं नही हैं …….ऋषि शाण्डिल्य कथा सुनाते जा रहे हैं ……उनके नेत्र बन्द हैं …….वो कथा जगत में ही खो गए हैं ।

कहाँ गए शालग्राम जी ? बृजराज अब अपनी अर्धांगिनी यशोदा से संकेत में पूछनें लगे थे……..कहाँ गए ?

दाऊ नें मैया को इशारा करके बताया …….”कन्हैया को देखो”…………जैसे ही कन्हैया को देखा …………….उसका मुँह फूला हुआ है ………….बृजरानी नें इशारे में पूछा ……तेरे मुँह में क्या है ? कन्हैया मात्र सिर हिलाते हैं …….कुछ नही है ।

बृजरानी समझ गयीं ……….समझेंगी नहीं अपनें ऊधमी लाला को !

एक गुलचा मारा गाल में …………..शालग्राम जी कन्हैया के मुख से निकल कर सीधे सिहांसन में विराजमान हो गए थे ……और तभी ऋषि शाण्डिल्य नें जयकारा लगाया ………बोलो – सत्यनारायण भगवान की जय ……….और अपनें नेत्र खोल लिए ऋषि नें ।

बृजराज कूँ भी पतो नही चल्यो कि – कहाँ अंतर्ध्यान है के फिर वापस हूँ आय गए भगवान !

क्या किया ये ? क्यों किया ये ? बृजरानी चपत लगा रही हैं कन्हैया के कपोलों में …………

मैया ! जे इतने मीठे मीठे वस्तुन ते न्हावै …………तो मोय लग्यो कितनें मीठे होंगे जे भगवान ! जा लिए मैने मुँह में रख लियो ।

मनसुख कन्हैया की बात सुनके जोर ते हँसवे लग्यो …………

बृजराज कुछ समझ ही नाँय पाये ……..ना बृजरानी नें बतायौ ।

अब भोग लगाओ भगवान कूँ ……..फिर बड़े प्रेम ते आरती करवै लगे सब ……….पर मनसुख खूब हँस रह्यो है………याहे बडौ आनन्द आयौ हो जब कन्हैया के शालग्राम कूँ मुख में रख लियो ।

बोलो सत्यनारायण की जय जय जय ……….

मनसुख धीरे मधुमंगल ते कह रह्यो ………….हमारौ सच्चो सत्यनारायण तो कन्हैया ही है ……..जा सत्यनारायण कूँ तौ हमारे कन्हैया नें मुँह में डाल लियो हो …………….वाह रे नटखट !

तात !

आनन्दित होते हुए उद्धव नें मात्र विदुर जी को सम्बोधन ही किया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 100

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 100)

!! धेनुक राक्षस का वध !!

तालवन को देखते देखते शून्य में पहुँच गए थे कन्हैया ।

“ओह ! तो ये”……..गम्भीर ही बने रहे नन्दनन्दन ।

भक्तराज प्रह्लाद के पुत्र हुए विरोचन, विरोचन के बलि ….और बलि का पुत्र था “साहसिक” ।

महाप्रतापी ……महाबली ………देवता तक काँपते थे इससे ।

एक दिन……….चला गया ये बदरी खण्ड में …….जहाँ नरनारायण तपस्या में लीन थे ………..ये क्षेत्र इस राक्षस को प्रिय लगा ।

पर उसी समय उस “साहसिक असुर” की भेंट हुई……एक अद्भुत सुन्दरी स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा से …..दोनों ही एक दूसरे पर मुग्ध हो गए ।

साहसिक का बलिष्ठ देह तिलोत्तमा को आकर्षित कर रहा था ।

हाथ पकड़ लिया साहसिक नें ……….निकट आया तिलोत्तमा के …..शरमा गयी थी वो ………….साहसिक मुस्कुराते हुए अप्सरा को लेकर गया एक गुफा में …………….।

तात ! ये बदरी क्षेत्र है …….ये तपस्थली है ……कोई भोग विलासिता की भूमि नही ………….उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

उसी गुफा में तप कर रहे थे …..ऋषि दुर्वासा ।

भोगरत प्राणी के परमाणु निम्न कोटि के होते हैं ……….जो आपके मन में भी विकार उत्पन्न कर देते हैं ………….वैसे ऋषि दुर्वासा के मन में कौन विकार उतपन्न कर सका है …….पर उनकी तपस्या टूट गयी ।

ऋषि नें देखा…….कहाँ ये गुफा शुद्ध सात्विकता के परमाणुओं से भरी हुयी थी …..वहीं भोग विलास करके इन दोनों नें ………छि !

क्रोध उठा ऋषि के मन में …….और उन्होंने श्राप दे डाला ……….

हे असुर ! जा ! तू गधा हो जा !

तिलोत्तमा सिर झुकाकर अपनें स्वर्ग में चली गयी ।

..पर वो साहसिक असुर …….पश्चाताप में जलनें लगा …………सच कहा है इन्होनें ……….ये केदार खण्ड बदरी क्षेत्र कोई विलासिता की भूमि नही है……….चरण पकड़ लिये ऋषि दुर्वासा के साहसिक नें …….अश्रु गिरनें लगे उसके नेत्रों से ……पर ऋषि दुर्वासा तो वहाँ से जा चुके थे ।

नन्दनन्दन शून्य में देखते हुए सब समझ गए……अब मुस्कुराये थे ये ।

कन्हैया ! काहे कूँ मुस्कुरा रह्यो है ? दाऊ नें आकर पूछी ।

नहीं दादा ! बस जा तालवन कूँ देख रह्यो हो …………।

तभी –

आज तो जे कन्हैया हमें भूखो ही मारगो……देखो ! दोपहरी है रही है …पेट में मूसा कूदते भये मर हू गए……मनसुख आपस में बोल रहा है ।

कहा भैया ! भूल लगी है ?

हाँ …….भूख तो लगी है …..पर तोहे तो राक्षसन कूँ मारनौ है ………श्रीदामा नें उलाहना के स्वर में जे बात कही ही ।

अरे ! बीर तो वाते कहें …..जो जा भूख नामक राक्षस कूँ मार देय …कन्हैया ! पहले तू लाला ! जा भूख असुर कूँ मार ….सबरौ झंझट ही खतम है जायगो ……….मनसुख नें भी अपनी बात कह दई ।

कन्हैया अब हँसे ………पर घर ते आज कछु नाँय आयो ।

अरे ! घर की छोड़ …..सामनें देख ! …..तालवन ……क्या सुन्दर पके भये ताल के फल हैं …..देख ! और क्या बढ़िया सुगन्ध आय रही है ।

भद्र सखा नें कन्हैया ते कही ।

पर ………मनसुख चुप है गयो ।

पर वर छोडो ………..जाओ ! फल है तो खावे के लिये ही तो हैं ।

जाओ फल खाओ ……..कन्हैया नें बड़ी सहजता में कह दियो ।

वहाँ असुर रहे है …………….श्रीदामा बोल्यो ।

अरे ! तो दाऊ दादा तुम्हारे साथ है …………..कन्हैया नें अपनें दाऊ कूँ उकसाये दियो ……..चौं दाऊ दादा ! जाओ ………रक्षा करो इन सबकी !

दाऊ चल दिए …….आओ मेरे पीछे पीछे ……कोई असुर कछु न कर पावेगो………दाऊ चल पड़े आगे और पीछे सब ग्वाल बाल ।

मैं भी आऊँ दादा ? कन्हैया चिल्लाये जोर ते ।

नायँ रहन दे ………मैं अकेलो ही पर्याप्त हूँ ………दाऊ चले गए थे ।

खाओ ! खाओ ! ताल वृक्ष के मीठे फल !

शेषावतार दाऊ नें सब ग्वालों से तालवन पहुँचते ही कह दिया था ।

खानें लगे फल ……….सब निश्चिन्त होकर खानें लगे थे ।

कन्हैया नें भी विचार किया ….अकेले यहाँ क्या रहूँ …..चलूँ मैं भी ।

कन्हैया भी आगये ……….और कन्हैया को देखकर तो सब और प्रसन्नता से उछल पड़े ………खूब खानें लगे थे फल ।

पर –

ये भयानक आवाज कहाँ से आरही है ! ग्वालों का फल खाना एकाएक रुक गया था ………क्यों की “ढेंचू ढेंचू” की ये आवाज इतनी भयानक थी कि चारों दिशाएँ कम्पित हो रहीं थीं ।

सामनें से एक विशाल गधा ………..धूल उड़ाता हुआ ………और धूल इतनी उड़ रही थी …..कि कोई किसी को देख नही पा रहा था ।

कन्हैया जोर से चिल्लाये – दादा !

सावधान हुए शेषावतार दाऊ……….सामनें आकर खड़ा हो गया था वो असुर ………जो गधे के रूप में था ।

दाऊ विद्युत गति से मुड़े ……..उस धेनुक नामक गधे के पैरों को जोर से पकड़ा ………….और संकर्षण बलभद्र नें चारों दिशाओं में उसे घुमाकर फेंक दिया.।

……….कन्हैया नें ताली बजाई ……..

क्यों की बलराम जी नें उसका एक ही बार में वध कर दिया था ।

पर कन्हैया अब अतिप्रसन्न हैं …………और ये देखकर तो और प्रसन्न हुये …….कि देवताओं नें उनके दाऊ भैया के ऊपर पुष्प बरसाए थे ।

ग्वाल सखाओं नें आनन्दित होकर खूब फल खाये …….पेट भरकर फल खाये …….अब ये वन असुर से मुक्त हो चुका था …इस बात की सबको प्रसन्नता थी ……विशेष प्रसन्नता तो हमारे नन्दनन्दन को हुयी ।

“बहुत बडौ काम कियो दाऊ दादा नें”………..वापस लौट रहे हैं वृन्दावन ते अपनें घर की ओर कन्हैया ………….क्या सुन्दर रूप है या समय कन्हैया कौ ………….मुस्कुरा रहे हैं …….कानन में कुण्डल नही हैं …….पर कुण्डल के स्थान पर कदम्ब के पुष्प हैं …………बैजयन्ति की अद्भुत सुगन्धित माला है …..जो उनके घोंटुन तक झूल रही है ।

फेंट में बाँसुरी है ………पीताम्बरी हवा के झौंकन ते हिल रही है ।

वाह ! वाह ! क्या बडौ काम कियो है आज हमारे दाऊ दादा नें ।

कन्हैया हँसते भये सबकूँ बताय रहे हैं ……………..दाऊ दादा फूल के कुप्पा है गए …………..

पतो है दाऊ दादा नें कितनौ बडौ काम कियो ?

फिर हँसते हुये उस बात कौ दोहराते हैं .कन्हैया ।

कहा कियो ? हमैं भी तो बताओ ? मनसुख आनन्द ले रह्यो है ।

“एक गधा कूँ मार दियो “

जे कहते भये जोर जोर ते हँस रहे हैं कन्हैया ……………सब हंसवे लगे……..मनसुखादि तो लोट पोट है गए धरती में ।

“वो कोई साधारण गधा नही था” ……….दाऊ दादा को इस तरह इन सबका हँसना अच्छा नही लग रहा ।

पर दादा ! गधा तो गधा ही था ……और तुमनें एक गधा कूँ मार दियो ……बहुत बडौ काम कियो है ……….ये कहते हुए फिर सब हँसनें लगे ।

तू चल ! मैं बताऊँ तोहे ………..मोहे छेड़ रह्यो है ?

दाऊ गुस्सा है रहे हैं ………………

तात ! ये सब इस तरह आनन्द लेते हुए …….हँसी विनोद करते हुए नन्दभवन में लौट आये थे ।

उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 99

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 99)

!! कन्हैया की प्रतिज्ञा !!

आज अपनें दोनों नन्हे हाथन कूँ उठाय के खडो है गयो कन्हैया ।

“दाऊ भैया ! मैं या पृथ्वी ते राक्षसन कूँ खतम कर दूँगा”

लाल मुखमण्डल है गयो हो वा समय कन्हैया को ………नेत्रन में जल भर आये ……..वु छोटो सो, अत्यन्त कोमल देह काँपवे लग्यो ।

बहुत बुरे होमें जे राक्षस …….सच में दाऊ भैया !

कन्हैया कुँ इतनौ गम्भीर काहूँ नें आज तक देख्यो नही है……”.इतनी चिन्ता मेरे अनुज कन्हैया कुँ !”……अब दाऊ भैया भी गम्भीर है गए…..

कन्हैया ! कहा भयो ? बोल ! काहूँ कूँ मारनों है ? काहूँ नें मेरे लाला को कछु अहित कियो है का ? बता ! वात्सल्य ते भर गए दाऊ ………और वैसे भी दाऊ जे कैसे सहन कर सकैं कि उनके प्रानन ते प्यारो कन्हैया आज चिंतित है ? दाऊ के रहते चिंतित ?

बता कन्हैया ! बता कहा भयो ?

दाऊ पूछ रहे हैं अपनें अनुज ते ।

कल कन्हैया , गैया चराय के जब अपने गोष्ठ में लौटे, तब –

झुकी कमर, काँपतों भयो अंग, पके केश झुर्रीयन ते भरो भयो शरीर ….हाथ में लठिया लेके वु बुढ़िया आय गयी ही……….वा के नेत्रन ते अश्रु बह रहे ……..वु बार बार अश्रुन कूँ पोंछ रही ।

कहा भयो ? बृजराज बाबा नें आय के पूछ्यो ……।

हे बृजराज ! मैं तालवन मैं रहूँ हूँ ……….वहाँ ताल के बड़े सुन्दर सुन्दर वन हैं ………और आस पास सरोवर भी हैं ……वहाँ ताल के बड़े मीठे फल लगें हैं ……..मै फलन कूँ तोड़ के ……..आस पास की गुफान में …..सन्त महात्मा की सेवा करती ……..और अपनी फूस की झोपडी में शान्ति ते रहती …भजन करती । पर ……..वा बुढ़िया नें अब अपनें आँसू पोंछे ………हिलकियाँ शुरू है गयीं हीं वाकी ………।

कहा भयो ! मो कूँ सब बताओ ?…..और धैर्य ते बताओ मैया ।

बड़े प्रेम ते बृजराज नें उन बुढ़िया मैया ते पूछी ही ।

दो वर्ष ते एक राक्षस आय गयो है तालवन में …….गधा है ……..नहीं नहीं मैं गारी नाय दे रही वा राक्षस कूँ ………वु सच में गधा ही है ………

गधा ? बृजराज के कुछ समझ में नही आया …….क्यों कि गधा कभी फल नही खाता ………….हाँ ……..बृजराज ! हाँ …..आप सच सोच रहे हो …….गधा फल नही खाता …..न खानें देता है ।

उसे मात्र नष्ट करनें में ही सुख मिलता है ……..हे बृजराज ! उसनें वनों के फलों में अपना आधिपत्य जमा लिया है …….बृजराज ! इतनौ ही नही ……..मेरी कुटिया उजाड़ दियो वानें…….सन्त ऋषिन की गुफान कूँ बन्द कर दियो …..बेचारे सन्त ऋषि मार दिए वाने, बुढ़िया के अश्रु अब ज्यादा बह रहे हैं ।

पर जे है कौन ? बृजराज नें सचिन्त हो पूछा ।

मैनें सुनी है ………..राजा कंस को राक्षस है जे ।

लम्बी साँस लई बृजराज नें कंस कौ नाम सुनके………..और अपनें सेवकन कूँ आज्ञा भी दे दियो ………….एक सुन्दर कुटिया या मैया की हमारे महलन के निकट बनाय दो ।

वु बुढ़िया तो अति प्रसन्न है गयी ….नंदमहलन के निकट वाकौ निवास बन गयो……..पर या घटना ते कन्हैया बड़े दुःखी है गये ।

दाऊ भैया ! वा बूढी मैया के मन में अब राक्षसन के प्रति कोई रोष नही है ……….पर मेरे मन में है ……….

सब ग्वाल सखा वहीं आगये अब ……. आँखिन के इशारे ते, दाऊ ते पूछ रहे हैं ………कहा भयो ?

कन्हैया कौ आज मन नही लग रह्यो है खेलवे में ……..उदास है गयो है कन्हैया ।

सब शान्त हैं आज ……न मनसुख कछु बोल रह्यो है ………न श्रीदामा …न मधुमंगल ………दाऊ भैया तो बस सोच रहे हैं ………..ये सोचेंगे क्या ! ये अब अपनें लाड़ले कन्हैया को देख रहे हैं ……..कैसे मैं इसे सहज बनाऊँ , हाँ ये सोच रहे हैं ।

थोड़ी देर में अपनें छोटे भाई ते सटके बैठ गए दाऊ भैया ………..फिर कन्हैया के अलकन में हाथ फेरते हुए बोले………”हम सब राक्षसन कूँ मार देंगे” सच ! कन्हैया ये सुनते ही प्रसन्नता से उछल पड़े थे ।

हाँ हाँ ………मैं तो जा लाठी ते खोपड़ी फाड़ दुंगो राक्षस की…….मनसुख आनन्द ते उछल के बोल्यो …………क्यों की कन्हैया खुश है गयो है …….और इन सब सखान कौ एक ही लक्ष्य है ……..”अपनौ कन्हैया खुश रहनौ चहिये – बाकी तौ भाड़ में जाय” ….

मैं एक मुक्का ते मार दुंगो राक्षस कूँ ………..अब सब कहवे लगे …….चौं की कन्हैया आज ऐसी बातन ते बड़े खुश है रहे हैं………….

“पर बेचारे ऋषि मुनि …..गुफान में बन्द करके मार दियो”……….कन्हैया अभी भी उस बात को स्मरण करके दुःखी हैं…………

मेरे साथ कुश्ती लड़के तो देखे वो राक्षस ! चटनी बनाय दुंगो ।

तोक सखा बोल रहा है ।

पर कन्हैया नें गम्भीर हो, अब उस तालवन की ओर देखा ……….

फिर बोले……दादा ! दूर जो दीख रह्यो है वही है ना तालवन ?

हाँ ……दाऊ नें कही ।

उस दिशा में कन्हैया देखते रहे थे ………….बहुत देर तक ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 98

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 98)

!! “वु टोटका वारी” – कन्हैया की नटखट झाँकी !!

वाकौ नाम कहा है पतो नहीं…….पर सब बृज में वाते “टोटका वारी” ही कहे हैं……बाल बच्चन के नजर टोटका उतारनौ, यामे सिद्ध है जे बूढी गोपी……या लिये याकौ नाम “टोटका वारी” ही पड़ गयो है ।

वैसे कहीं आवै जावै नही है …..पर आज सबेरे ही सबेरे पहुँच गयी नन्द भवन में…….याकुं कारी गैया कौ गोबर चहिये…….और वाके कछु बाल……टोटका करै तो आगयी गोबर और बाल लेवै कूँ ।

नैक ठहरो !

मैया बृजरानी नें उन्हें बिठायो फिर जल दैकें बृजरानी चली गयीं …….गोबर और कारी गैया के बाल लायवे कूँ गोष्ठ में ।

थोड़ी देर में आईँ बृजरानी……उनके हाथ में गोबर और कारी गैया के बाल है ।

पर जे कहा ?

“दारी !

कन्हैया नें मुँह फुलाए लियो हो …….और क्रोध में वा बुढ़िया कुँ देखकर कह रहे हैं ……..दारी !

हाँ जे गारी है ……..बृज की बड़ी प्रसिद्ध गारी है ……..आप कह सकते हो …….अश्लील गारी है जे तो ………हाँ पर जे गारी बृज में सब के मुँह में रहे है ……..”सारे” ” दारी” या “दारिके”……..अब गारी तो गारी है …….चाहे कुछ भी हो ……।

छोटा सो कन्हैया……सुबह सुबह उठते ही याकुं रोष आय गयो ……

बृजरानी नें देख्यो समझ नही पाईँ ………कहा भयो मेरे लाला कूँ ?

और आश्चर्य जे कि ………..वु टोटका वारी कन्हैया के चरनन में गिरी भई है …………..दुनिया कूँ आशिष देवै वारी …….अरे ! हाँ ……वा दिना कन्हैया कूँ भी तो लैं के गयीं हति बृजरानी ……..तब तो खूब आशीष दै रहीं ………पर आज कहा भयो !

आहा हा ! हे महादेव ! आप पधारे हो हमारे महलन में ……आओ ! मेरी दाहिनी और विराजमान है जाओ !

आहा हा ! हे भगवान विष्णु ! आज आप हूँ पधारे हो ……..महादेव के साथ ! आओ ! आप हूँ आसन ग्रहण करो !

ओहो ! गणपति गणेश ! पेट बडौ नाँय है गयो आपकौ ? लड्डुन कुँ खानौ कम करो …………पर आप आय गये हो तो आप हूँ आसन ग्रहण करो ……..बैठो !

अरे ! सप्त ऋषि ! आप सब एक साथ पधारे हो ……….आओ ! आप सबनकौ स्वागत है……..विराजमान है जाओ !

अब नींद में हैं कन्हैया ………..और नींद में ही बोले जा रहे हैं ।

बाहर बैठी है वु “टोटका वारी” ……..वाने सब सुन लियो है ……..”जे आवाज कहाँ ते आय रही है”………बस – वु तो महल में ही भीतर चली आयी ……..जब वानें देख्यो ……..आहा ! नीलमणी सोय रह्यो है ……..नेत्र बन्द हैं वाके ………..अद्भुत रूप माधुरी है ………लाल वर्ण के ओष्ठ हिल रहे हैं………आओ ! हे महादेव ! आओ हे भगवान विष्णु ! …………..

चकित ! वु टोटका वारी तो आश्चर्य में पड़ गयी ………..याके सामनें भगवान शंकर पधार रहे हैं ? और याकौ तेज तो देखो ? नायँ नायँ जे साधारण बालक नही है ……जे तो देवता है ………फिर विचार करे …..नहीं नहीं …..जे देवता भी नही ………महादेवता है ………भगवान है ………….

बस तुरन्त ही टोटका वारी नें लम्बी ढोग लगाई सोते भये कन्हैया के आगे……पर कोमल चरनन के स्पर्श करवे कौ लोभ त्याग न सकी ………छू लिये वाने कन्हैया के चरणारविन्द !

बस …….नींद खुल गयी कन्हैया की …………वु टोटका वारी के नेत्रन ते टप्प टप्प आँसू गिर रहे ……..वाने अपनें हाथ जोड़ लिए है …. ।

कन्हैया तुरन्त उठ के खड़े है गए …………रोष मुखमण्डल में स्पष्ट दिखाई दे रह्यो है ………नींद में विघ्न डाल लियो पाँव छू के या बुढ़िया नें ….।

बस – “दारी”…..अपनें मोती जैसे दाँतन ते वो गुलाबी अधर दवाय के ।

बृजरानी नें देख लियो और सब समझ भी लियो ………..।

कन्हैया अटपटो है ……याकुं ब्रह्मा भी नाँय समझ पामैं …..तो साधारण की बात ही कहा है !

तू गारी दे रह्यो है ?

बृजरानी कन्हैया के इस रूप पर तो मुग्ध हैं …..पर गारी देना ये तो अच्छे संस्कार नही है ।

तू या बुढ़िया मैया कुँ गारी दे रह्यो है ? बृजरानी नें फिर डाँट्यो ।

हाँ …..दई गारी ! ढिठाई से बोले कन्हैया ………” जे बुढ़िया मेरे सामनें सिर चौं पटक रही है ? मैं कोई पत्थर कौ देवता हूँ ?

मोय देवता कोई बनावै ना तो मैया ! मोय रिस आवै ……

मैं देवता नही ……मैं तो तुम्हारौ हूँ ……अपनौ हूँ ……….मोहे देवता बनाए के कोई परायो करे तो मैया ! मोहे बहुत रिस आवै ।

कन्हैया बोल दिए…….पर वु टोटका वारी ……….कन्हैया की जे बात पर भी …..”जय हो – जय हो”…….करवे लगी ………

कन्हैया नें फिर ……..”दारी ! गारी कूँ फिर दोहराय दियो ।

मैया भागी कन्हैया के पीछे ……..गारी दे रह्यो है …..मानें नही हैं ।

कन्हैया भागे ……….पर भागते हुए…….उस बुढ़िया टोटका वारी को जीभ दिखाते हुए …..सिगट्टा दिखाये के……”दारी दारी दारी” ।

पर वु टोटका वारी गदगद् है आज ……….पूर्णब्रह्म की ये छबि उसनें जो देखी है ……..वो समझ गयी कि हम जैसे सामान्य लोगों के बीच में प्रेम का सन्देश लेकर , वो पूर्णब्रह्म उतरा है ।

आहा ! विदुर जी के हृदय में ये झाँकी प्रकट हो गयी थी ………….

“दारी” – ये विदुर जी नें कहा ……और उद्धव और विदुर जी खूब हँसे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 97

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 97)

!! “जार शिखामणि” – एक निर्दोष लीला !!

अहाहा ! कैसो अद्भुत प्रेम है या बृज कौ ! सच , अगर या बृज की धूर बनवे की कामना ब्रह्मादि देवता करे हैं तो यामें आश्चर्य कहा ?

विशुद्ध प्रेम है या बृज कौ , और अपनौ कन्हैया ? वु तो प्रेमिन को चाकर है चाकर !

चोरन कौ सरदार तो है ही ……पर जितनें “जार” हैं ना या संसार में उनकौ हूँ जे सरदार है……वैसे देखि जाय तो पुरुष एक मात्र या विश्व ब्रह्माण्ड कौ अपनौ कन्हैया ही है ……बाकी सब “वाही” की हैं । ………इन गोपिन के जो पति हैं….या जगत की जितनी स्त्रियां हैं उनके जो पति हैं उन पतियन को भी जो पति है बु हमारो कन्हैया ही तो है ।

गलत मत समझियों या लीला कुँ…….क्यों की जा समय कन्हैया की अवस्था मात्र “छ वर्ष” की है ।…….उद्धव लीला कौ गान करके सुनाय रहे हैं विदुर जी कुं ।

कन्हैया ! ओ लाला ! तैनें भाभी कुँ छेड़ो है ?

मैया बृजरानी नें घर में आते भये अपनें लाडले कुँ आज डाँट लगाई ।

बृजरानी कुँ रिस आनौ स्वाभाविक है……..ये बेचारी नई बहु …..”चमेली वन” ते ब्याह के आई है …..सात दिना ही तो भये हैं याके ।

झूठो बहानों बनाएगी जे कहनौ सही नही है……..क्यों की नई आई है या नन्दगाँव में …….भोली छोरी है बेचारी…….अवई ब्याह भयो ही है ।

आज मैया बृजरानी के पास चली आई……..बृजरानी कुँ भी लग रह्यो है कि मेरी ही बहु है ।

वैसे या बहु नें कन्हैया की शिकायत अपनी सास ते हूँ करी …….पर सास कछु बोली नही …………बोली भी तो यही – “तू जा बृजरानी के पास और जाय के उलाहनौ देके आ …….जा ! “

बेचारी बहु …….जाते ही बृजरानी के चरण छूए यानें ……..मैया आशीर्वाद देंती कि जे तो रोयवे लगी …….फफक फफक के ।

अपनें आँचल ते यशुमति नें या के आँसू पोंछे ………..बड़ो ही प्यार कियो …….फिर पूछवे लगीं – कहा भयो ? काही कुँ रोवै है ?

अजी ! नई बहु नें जो सुनायो ……….सुनके तो बृजरानी क्रोधित हैं गयीं ……..रिस के मारे मुखमण्डल लाल है गयो ……।

बस, वाही समय कन्हैया खेलते भये आय गए …………

कन्हैया ! तैनें भाभी कुँ छेड़ो है ?

मैने ? भाभी कुँ ?

कन्हैया कछु समझ ही नाँय पाये ……क्यों की मैया नें एकाएक पूछ लियो हो ।

फिर ध्यान ते भाभी कुं देख्यो कन्हैया नें……..घूँघट लम्बी खेंच रखी ही …….झुक के मुँह में देखवे लगे…..देखवे जे लगे की, नई भाभी ही है या कोई और ?

जब पक्को है गयो …..भाभी है ! नई भाभी ही है …..

तब बड़े प्रसन्न है गए ………मैया ! मैया ! जे भाभी ते ही मैं कहतो …..”दूध पिवाय दे” । ……हद्द है …मैया को बतानें लगे थे ।

दूध ? मैया चौंक गयी ………पर कन्हैया तो कन्हैया है ………आँचल खींचवे लगे वा नई बहु के ।

हट्ट ! छोड़ ! छोड़ ! मैया समझ गयी कि ऊधमी है कन्हैया ……अब जे ऊधम मचायगो ।

कहा चहिये तोय ! चौं परेशान कर रह्यो है बेचारीये !

मैया नें फटकार लगाई ……..”दूध पिवावे नायँ भाभी ……….बोल मैया ! याते, मोकूँ दूध ….”

शरमा के धरती में गढ़ी जा रही है बेचारी नई बहु ………….

दूध कहाँ है याके ? मैया समझानों चाहे ।

“है तो” ………कन्हैया भी बोले ।

“पर आवै नाय “……………मैया कुँ भी हँसी आगयी ।

चौं ? चौं ना आवै ? अब मैया याकौ कहाँ उत्तर दे ।

“चौं कि …….बेटा नाय भयो याके ……जा लिये दूध नही आवे”……..मैया भी ज्यादा बोल नही पा रहीं ।

अरे अरे ! धरती में बैठ गयो जे कन्हैया तो ……और रोयवे लग्यो …………”तो या भाभी ते कह , बेटा दे दे …….जल्दी बेटा दे ………..

अब तो शरमाय के नई बहु भागी अपनें घर ………..और इधर अब मैया बृजरानी का हँस हँस के बुरा हाल हो गया था ।

पर कन्हैया अभी भी रो रहे हैं …….और अपनें नन्हे चरणों को पटक रहे हैं …….दूध पीनों है नई भाभी के ………….हद्द है !

“चौर जार शिखामणि”……….उद्धव भी हँसते हुए बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 96

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 96)

!! कुश्ती दंगल – “गौचारण प्रसंग” !!

अनन्त कि लीलाएँ भी अनन्त हैं …….मैं कहाँ तक गाऊँ ?

तात ! ये लीलाएँ रुकी नही हैं…….आज भी चल रही हैं ……..उद्धव कहते हैं – हाँ उस समय अधिकारी अनधिकारी सबको लीलाओं का सुख मिल जाता था, अवतार काल था वो ……पर अब मात्र अधिकारी के सन्मुख ही वो लीलाएँ प्रकट होती हैं ।

तात ! ब्रह्म कि लीलाएं हैं ये ….और मैं पूर्व में ही कह चुका हूँ – लीला का कोई उद्देश्य नही होता …….बस एक ही उद्देश्य है – अपनें आनन्द कि अभिव्यक्ति ……….तो हम लोगों का भी यही उद्देश्य होना चाहिये कि हृदय का आनन्द छलकनें लगे ………कन्हैया कि लीलाओं को सुनते गाते हुये हम अपनें भीतर के आनन्द को प्रकट होनें दें ……क्यों कि लीला का यही लक्ष्य है – अपनें आनन्द को चारों ओर फैलाना ।

विदुर जी आनन्दित हो उठते हैं…….सच कहा उद्धव ! क्यों कि ये कन्हैया आनन्द रूप ही हैं …….देखो उद्धव ! नभ में देखो ! बड़े बड़े तपश्वी बड़े बड़े सिद्ध योगिन्द्र तुम्हारे द्वारा गाई जा रही इन लीलाओं को सुनकर अपनें हृदय के सूखे आनन्द के सर को पुनः भर रहे हैं……….

क्यों बेकार में ज्ञान के शुष्क अरण्य में भटकें ? क्यों बेकार में नाक कान दवा कर योगी होनें का भ्रम फैलाएं …………..ये देखो ! आओ वृन्दावन ……….यहाँ वो ज्ञान का परमतत्व कन्हैया नृत्य कर रहा हैं ………योग का लक्ष्य वो आत्म तत्व यहाँ ग्वालों के साथ क्रीड़ा में मग्न है ………इसे देखो ! यही है जीवन का सार !

विदुर जी नें उद्धव से कहा – आप अब सुनाइये उन आनन्द पूर्ण गोपाल कि लीला………मैं जितना सुनता जा रहा हूँ मेरी प्यास और बढ़ रही है ……….उद्धव ! मुझे पिलाओ “श्रीकृष्णचरितामृतम्” ।

उद्धव सुनानें लगे –

कन्हैया ! तुझे किसनें मारा ?

दाऊ नें अपनें पास बुलाया आज वन में ………..और कन्हैया कि पीठ देखनें लगे थे ………ओह ! नेत्र सजल हो उठे दाऊ के ……..कन्हैया के सुकुमार पीठ में एक नन्हीं सी खरोंच आगयी थी ।

रक्त तो नही आया …….पर खरोंच अच्छे से ही लगी थी ।

नेत्र के जल छलछला आये थे दाऊ के……..तुझे ये चोट किसनें दी ?

कन्हैया को तो पता भी नही है कि उसके चोट भी लगी है ……..कहाँ ? कहाँ है चोट ?

यह क्या है ? दाऊ नें चोट को हल्के से छूते हुए कहा ।

अच्छा ये ? ये तो उस लता से है ………….कन्हैया नें सामनें कि एक लता बता दी ………….

तू उस लता के पुष्प लेनें गया था ? दाऊ अपनें छोटे भाई कि खरोंच भी कैसे देख लेते …….यह तो प्राणों से प्यारा है दाऊ भैया का ।

नही …..नही दाऊ भैया ! ……….मैं पुष्प लेनें गया था उधर ………….फिर दूसरी ओर दिखा दिया ।

तू उधर गया था पुष्प लेनें ? किधर ? दाऊ पूरी छान बीन करनें की सोच रहे हैं और क्यों न करें ……सुकुमार पीठ में खरोंच ?

मैं कदम्ब के पुष्प लेनें उधर गया था ….कन्हैया अब डर रहे हैं दाऊ से ।

क्यों की इनके मूड का कोई भरोसा नही है ………..कहो तो बड़ी बड़ी बातों को भी हँस कर टाल देते हैं ……….और कहो तो छोटी बातों को भी बड़ा बनाकर हंगामा कर देते हैं …………वैसे ये छोटी बात हो कैसे सकती है ….कन्हैया के खरोंच ? कठोर हृदय भी पिघल जाए ।

कितना सुकुमार तो है हमारा लाला ।

झूठ बोल रहा है तू ! लता उधर है और कदम्ब इधर है ……..पुष्प तोड़े तेनें कदम्ब से और खरोंच आयी लता से …….हैं ? दाऊ भैया को समझते देर न लगी कि ये साफ़ साफ़ झुठ बोल रहा है ।

पर ये क्या –

दूर खड़ा श्रीदामा रो रहा है ………….हिलकियों से रो रहा है ।

कन्हैया नें देख लिया है ……….वो दौड़ा श्रीदामा के पास …………

मत रो ….मत रो ….मैं नही कहूँगा दाऊ भैया से ……..मत डर मैं हूँ ना ?

पर तुझे चोट लगी उसका क्या ? इन नख नें तुझे खरोंचा है ………उफ़ ! कितना कष्ट हो रहा होगा तुझे ………….श्रीदामा बस रोये जा रहा है ।

क्या हुआ ? श्रीदामा क्यों रो रहा है ? दाऊ भैया वहीं आगये थे ।

नही नही …इसनें कुछ नही किया ! श्रीदामा नें कुछ नही किया …….इसका दोष नही है ………….कन्हैया को लग रहा है कि अब दाऊ कहीं श्रीदामा को पीट न दें ………..इसलिये ये अपनें सखा का बचाव कर रहा है ।

पर ये दाऊ हैं ………….श्रीदामा को शान्त कराया फिर पूछा ………

तब रोते रोते सच्ची बात बतानें लगा था श्रीदामा दाऊ भैया को ।

श्रीदामा ! आज मैं तुझ से लड़ूंगा …..कुश्ती !

कन्हैया नें ताल ठोकी थी ।

अरे जा ! एक ऐसी पटखनी दूँगा चित्त हो जाएगा तू !

श्रीदामा भी बोल उठा ।

ये कन्हैया हारता ही है अपनें सखाओं से ………..पर पता नही क्यों इसे हारनें में भी सुख मिलता है ………..कहाँ चली जाती है इसकी शक्ति सखाओं से लड़ते समय, पता नही ! वैसे तो बड़े बड़े दैत्यों को उठाकर पटक देता है ये …..पर अपनें सखाओं से हारता ही है .

अच्छा ! तो आ ना ! तू बोलता ज्यादा है श्रीदामा ! आज मैं ऐसा दांव सीख कर आया हूँ कि तू तो गया ! हये ! वो छ वर्ष का कन्हैया कैसे मुँह मटका मटका के बोल रहा था …….पर श्रीदामा भी तो छ वर्ष का ही है ……एक दो महीना आगे पीछे होगा ।

श्रीदामा नें पटके उतार कर रख दिए ……..अपनी माला , श्रृंग, लकुट सब रख दिया……..काँछनी ऊँची की ……….कमर कसा ।

फिर ताल ठोका इधर कन्हैया नें ………यमुना की सुकोमल बालुका है …..उसी पर ये कुश्ती दंगल आज हो रही है ।

फुदकता है कन्हैया ……उछलता ज्यादा है ये ……श्रीदामा गम्भीरता के साथ लड़ रहा है कुश्ती ……पर कन्हैया ? ये तो कुश्ती के नियम कानून सब को धता बताते हुये खेल रहा है ………..कुछ नही तो गुलगुली कर देता है श्रीदामा के पेट में …………चिड़िया की भाँति फुदकता है कन्हैया ………श्रीदामा के पैरों के नीचे से होकर निकल जाता है ……..इतनें में ही अपनी जीत समझ कर हँसता है ………..हाथ हिलाता है दर्शक बने अपनें सखाओं को ………….।

पर अब तो गुथ्थम गुत्था हो गयी श्रीदामा और कन्हैया में …….दोनों का मुख मण्डल लाल हो उठा है………श्रीदामा नें गिरा दिया कन्हैया को……….श्रीदामा खुश हो गया ……….”हार गया” …..वो जैसे अपनें दोनों हाथों को ऊपर करके चिल्लाया…….कन्हैया नें तुरन्त उठाकर उसे वापस गिरा दिया था……….पर मैने तुझे पहले गिराया है ……श्रीदामा बोल रहा है । ……पर .कन्हैया बोल रहा है – गिरानें से क्या होता है …….चित्त करना पड़ता है कुश्ती में ……….इसे कुछ पता ही नही ………….सब सखा ताली बजा रहे हैं……….श्रीदामा नें आज अपनी हार स्वीकार कर ली है ……..श्रीदामा अभी भी लेटा हुआ है बालू में ……..कन्हैया उसके पास है ………….और यमुना की बालू श्रीदामा के पेट और छाती में गिरा रहा है कन्हैया

तो तुम लोगों नें कुश्ती लड़ी आज ? दाऊ भैया बोल रहे हैं ।

श्रीदामा रो रहा है …………..पर इसमें इसका दोष नही है …….. कन्हैया नें कहा है ………….इसनें जान बूझ कर खरोंच नही लगाई है ।

मनसुख पारिजात का पत्ता तोड़कर ले आया था …..उस पत्ते के रस को खरोंच में लगा दिया दाऊ भैया नें ।

तुझे दर्द हो रहा होगा ना ! श्रीदामा को और रोना आरहा है ।

वो ये सोच सोचकर रो रहा है कि ……..अपना सखा कितना कोमल है उसको मेरी खरोंच लग गयी ……….।

अच्छा ! अब रोओ मत ……..दाऊ भैया नें इतना ही कहा ….और वहाँ से चले गए ……।

तू हार गया इसलिये रो रहा है ? कन्हैया नें फिर छेड़ा श्रीदामा को ।

तू हारा है ! श्रीदामा नें अपनें आँसू पोंछते हुए कहा ।

झूठे ! तुम बरसानें वाले सब झूठे हो……कन्हैया नें स्पष्ट कह दिया ।

झूठे चोर तो तुम नन्दगाँव वाले हो …….श्रीदामा कम थोड़े ही है ।

तो लड़, आ कुश्ती फिर हो जाए …………..इस छोटे से कन्हैया नें फिर ताल ठोकी ………….पर श्रीदामा के नेत्रों से फिर जल बहनें लगा ……..तेरे चोट लगेगी ! तू बहुत कोमल है …………..

कन्हैया कैसे अपनें सखा को इस तरह रोनें देता ……..श्रीदामा को हृदय से लगा लिया था ……….और बड़ी देर तक दोनों गले लगे रहे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 95

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 95)

!! ज्ञान घास है – “गौचारण प्रसंग” !!

तात ! राजमार्ग वही है जो प्यारे के महल तक पहुँचा दे ……और प्रेम ही वह राजमार्ग है….हाँ….मैं अपनें अनुभव से ये सब कह रहा हूँ ।

इन्ही ग्वाल सखाओं सखियों नें ही मुझे मूंडा था …..इसी बृज कि भूमि से मुझे प्रेम कि दीक्षा मिली थी …….हाँ तात !, उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं …….मैं तो ज्ञान कि ऊँचाई पर स्थित था ….देव गुरु बृहस्पति का परमशिष्य था ………ज्ञान विज्ञान में ही मेरा शोध था …..पर इस भूमि नें मुझे बताया कि प्रेम ही सबकुछ है ।

इस संसार सागर से पार लगानें वाला कुशल कर्णधार अगर कोई है तो वह है प्रेम ! तात ! प्रेम ही यहाँ नैया है और प्रेम ही खिवैया है ।

उद्धव कुछ देर के लिये मौन हो गए थे………फिर उन्होंने अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ………और मानसिक रूप से चले गए उसी स्थान पर जहाँ गौचारण करनें के लिये कन्हैया आये हैं ……उनके साथ उनके प्रिय ग्वाल सखा सब हैं ……….।

मध्य में कन्हैया में बैठे हैं ……………चारों ओर ग्वाल सखा घेरकर बैठे हुये हैं ……..मोरों कि पँक्ति अलग ही शोभायमान लग रही है ……कोयल कि कुहुक उस वातावरण को और संगीतमय बना रही है ।

पास में यमुना बह रही हैं ……उसके किनारे पर कमल के पुष्प खिले हुये है…….अनन्त कमल खिले हैं……..कमल नीले पीले हर रंग के हैं …….उनसे सुगन्ध बह रही है ।

कन्हैया अब थोडा लेट रहे हैं ………..अपनी कमर उन्होंने अच्छे से टिका ली है कदम्ब वृक्ष में …………चारों ओर सखा कुछ न कुछ बोल रहे हैं …………..मनसुख तो गुंजा कि माला बनाकर लाया है …….और बड़े प्रेम से कन्हैया को पहना रहा है …………..हाँ पहनाया नही है …पहना रहा है ……..धीरे धीरे पहना रहा है ।

“मनसुख ! जल्दी पहना” , मधुमंगल टोकता है ………क्यों कि ये कन्हैया के देखनें में विध्न डाल रहा है …………अरे ! इतनें परिश्रम से माला बनाई है …….अच्छे से पहनानें तो दे !

मनसुख नें पहना दी है अब माला ।

“अब अच्छा लग रहा है”……….मनसुख कहता है ।

हाँ तेरे ही माला से कन्हैया अच्छा लग रहा होगा ? मधुमंगल को चिढ हो रही है मनसुख से……….क्यों कि वो अभी भी हट नही रहा …..खड़ा है बीचों बीच ………अब तो हट जा भैया ! मधुमंगल को कन्हैया दीख नही रहे , दीख तो किसी को नही रहे अब ……क्यों कि बीचों बीच खड़ा हो गया है मनसुख ……..वो स्वयं ही निहारे जा रहा है कन्हैया को ।

कन्हैया ! कन्हैया !

सामनें से श्रीदामा आरहा है दौड़ता हुआ ।

लो ! अब ये आगये बरसानें के युवराज !

श्रीदामा को देखकर मनसुख हँसते हुए कहता है ………और स्वयं हट जाता है ।

कन्हैया ! कन्हैया !

श्रीदामा हाँफ रहा है ………और सीधे उसनें अपनें सखा कन्हैया का हाथ पकड़ लिया है ।

हाँ श्रीदामा ! क्या हुआ ? बता ! क्या बात है ?

सस्नेह कन्हैया नें अपनें सखा को पास में बिठाया और पूछा ।

ज्ञान किसे कहते हैं ? श्रीदामा नें बैठते ही पूछा था ।

पता है मैं अभी यहाँ आरहा था ना ! तो मैने देखा ……..एक कोई बाबा जी ….लम्बी दाढ़ी उसकी थी ………उसनें हमारे महल का द्वार खटखटाया ………..तो मैने ही खोला ।

फिर ? कन्हैया नें श्रीदामा से पूछा ।

लाली है ? श्रीराधा लाली ! मुझे लाली से काम है ……….

मुझे अजीब लग रहा था वो बाबा जी ……..मुझे दाढ़ी से चिढ है ……पता नही ये बाबा जी लोग दाढ़ी क्यों रखते हैं ! कन्हैया ! तुझे दाढ़ी अच्छी लगती है ? श्रीदामा नें कन्हैया से ही पूछा था ।

सिर “नही” में हिलाया कन्हैया नें ……..

हाँ मुझे भी पसन्द नही है …………

दढ़ियल बाबा जी ………श्रीदामा बोला ।

आगे तो बता , आगे क्या हुआ ?

कन्हैया नें पूछा ।

मैने उससे कहा ……लाली क्यों चाहिये ! मुझे बोलो …….मैं युवराज हूँ इस बरसानें का …………मनसुख नें हँसते हुये श्रीदामा कि पीठ ठोकी ….वाह ! बहुत सुन्दर कहा तेने श्रीदामा ! मनसुख के पीठ ठोकनें पर श्रीदामा और फूल गया …….और बतानें लगा ।

उद्धव बोले – तात ! कन्हैया कि आयु इस समय 6 वर्ष कि तो है ……और सखाओं कि भी इतनी ही है……..लगभग ।

आगे क्या हुआ ? कन्हैया नें आगे कि बात जाननी चाही ।

पर वो बाबा जी तो माना ही नही ……..जिद्द पकड़ के ही बैठ गया ……लाली को बुला दो …..उन्हीं के चरणों में विनती करूँगा ।

अब तुझे तो पता है मेरी बहन राधा कितनी भोली और संकोची है ………फिर भी वो आही गयी …..ललिता उसके साथ में थी ।

बहन राधा को देखते ही वो तो धरती में लोटनें लगा ………गिड़गिड़ानें लगा ………….”मुझे ज्ञान का दान दो”……….

ललिता हँसी और बोली ……ये किसकी छाँछ माँग रहा है ….बकरिया या भैंसिया कि ?

मैं उस समय समझ गया कि मेरी बहन को भी पता नही है “ज्ञान” किसे कहते हैं …..क्यों कि वो सिर झुकाये खड़ी रही …………

और ललिता को तो पता ही क्या होगा ?
वो ज्ञान को छाँछ समझ रही थी ।

विदुर जी ये प्रसंग सुनकर खूब हँसे ……………

उद्धव नें अब नेत्र खोले अपनें……और बोले …..तात ! अल्हादिनी से भला कोई ज्ञान माँगता है…..उनसे तो प्रेम या भक्ति, या फिर कन्हैया….

उसे ज्ञान चाहिए तो वो बरसानें क्यों गया ? खीज उठा था कन्हैया ।

श्रीदामा नें कहा ……वही तो …………..

अच्छा तुझे पता है कन्हैया ! “ज्ञान” किसे कहते हैं ?

मनसुख नें ये बात सबके बीच में कन्हैया से पूछी ।

हाँ ….तुझे पता है तो हम सबको बता …….हम भी जानें कि ज्ञान किसे कहते हैं ? सब सखा एक स्वर में बोले ।

तुम लोग इतना भी नही जानते !

आश्चर्य से सबको देखते हुए कन्हैया बोले …………..

अरे ! अपनें बाबा कि गोठ है ना ………..उसके पीछे जहाँ कूड़ा डाला जाता है ……….वहाँ एक झाड़ उग आया है ……देख लेना …….उसे ही “ज्ञान” कहते हैं……..कन्हैया नें बताया ।

ओह ! सब सखाओं नें तालियाँ बजाईं …….और कहा ……हमें तो पता ही नही था उस कूड़े कि जगह में उग आने वाले झाड़ को कहते हैं “ज्ञान”……..सब सखा अब सन्तुष्ट हो गए थे ….श्रीदामा सोचनें लगा था बरसानें के महल में आने के बाद भी वो बाबा जी कूड़े में उगे घास कि याचना कर रहा था !………अबुझ होते हैं ये बाबा लोग भी …..श्रीदामा मन ही मन कह रहा है ।

बुद्दू था वो बाबा जी ….बेकार में अपनी लाली को कष्ट दे रहा था ……..हमारे यहाँ आजाता ……हजारों ज्ञान उसकी झोली में तोड़ तोड़ कर हम सब डाल देते……..ये कहते हुए कोई सखा हँस रहा था तो कोई झुंझला रहा था ।

आज विदुर जी बहुत हँस रहे हैं …..अपना उत्तरीय मुख में रख कर हँस रहे हैं……उद्धव नें प्रसन्नता पूर्वक विदुर जी को देखा ….और बोले …तात ! आप विवेकवान व्यक्ति हैं क्या आप भी इस बात को झुठला सकते हैं की…..नन्द गोठ के कूड़े की ढ़ेर में उगा घास “ज्ञान” नही है ?

ये प्रेम कि भूमि है ……यहाँ ज्ञान को पूछता कौन है …….हाँ, इधर उधर उगा हुआ , घास ही तो ज्ञान है ……….प्रेम तो पुष्प है ….जिसमें से सुगन्ध निकलती है ।

अतएव प्रेम ही सर्वोपरि है ………उद्धव बोले ।

विदुर जी अभी भी हँसे जा रहे हैं ……..सच है उद्धव ! नन्द गोष्ठ के पीछे कूड़े कि ढ़ेर में उगा घास ही ज्ञान है …….जहाँ परमात्मा इतना सरल होकर सर्व साधारण के लिये उपलब्ध है ……….वहाँ ज्ञान अगर घास के रूप में उग गया हो …….तो आश्चर्य क्या !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 94

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 94)

!! सखाओ का अद्भुत प्रेम – “गौचारण प्रसंग” !!

“हम कन्हैया के हैं और कन्हैया हमारा”

तात ! यही सत्य है….कन्हैया को आप अपनें से अलग कर सकते हैं ?

फिर उद्धव स्वयं ही उत्तर देते हुए कहते हैं – नही ….अपनी आत्मा के सम्बन्ध में आपका जो विचार है …..वही तो कन्हैया है …….आत्मा ही है कन्हैया , और वही सत्य है …बाकी सब मिथ्या है झुठ है ………कैसे टुकुर टुकुर हमारे हृदय में बैठा वह देख रहा है …………हमारी गो यानि इन्द्रियों का पालक बन बैठा है …….”गोपाल” नाम ऐसे ही नही है ।

कन्हैया आपसे अलग हो गया …या आपको ऐसा लगे कि कन्हैया हम से अलग है……..तो आप या तो सपना देख रहे हैं ……या भ्रम कि स्थिति में हैं ……..तात ! जीव जब अपनें को कन्हैया से अलग मानता है ……तभी वह भय, शोक इत्यादि का सामना करता है ।

आज उद्धव नें विदुर जी को अपनी बात, अपनें हृदय कि बात बताई थी।

तात ! क्या अद्भुत प्रेम है बृजवासियों का…….

….उद्धव आनन्दित होकर ये प्रसंग सुनानें लगे थे ।

साँझ हो रही है…….लौट रहे हैं गौओं के साथ कन्हैया ……..ग्वाल सखाओं में लौटते समय उत्साह नही होता ……हाँ वन में, गौचारण में जाते हुए उत्साह चरम पर दिखाई देता है…….क्यों कि मिलन है अपनें सखा से , क्रीड़ा होगी वृन्दावन में……..साथ में खाएंगे ….खेलेंगे …..लड़ेंगे ……..हारेंगे जीतेंगे……….आहा ! पर लौटते समय …….अब वियोग होगा ………बिछुड़ना होगा ।

बस रात कि बात तो है ……सुबह तो फिर मिलना ही है ………..

तात ! एक रात ? कितनें पल होते हैं एक रात में ? हाँ पल पल गिनते रहते हैं ये सखा ……..करवट बदल बदल के पूरी रात इनकी गुजरती है……..उद्धव विदुर जी को आज उन सखाओं के प्रेम का वर्णन करके बताने वाले है ……….कि ये लोग कैसे रहते हैं ? इनकी कैसी स्थिति होती है बिना कन्हैया के रात्रि में ।

उदास से हैं ……..धूल उड़ रही है गौ के खुर से ……..सबका मुख धूल धूसरित हो गया है……….केश बिखरे हुए हैं ……………

कन्हैया तो कन्हैया ही है ………..गोपियाँ देख रही हैं अपनी अपनी अट्टालिकाओं में चढ़ चढ़कर ………कन्हैया के ऊपर पुष्प बरसा रही हैं ……कन्हैया किसी को हाथ हिला रहे हैं ……तो किसी को बस मुस्कुरा कर अपनें प्रेम का परिचय दे रहे हैं ………।

उदास हैं अब ये सब ग्वाल सखा………

सुन ना ! कन्हैया ! आज तो तुझे तेरे घर तक छोड़कर आएंगे ………सखाओं नें पीताम्बरी खेंची ये कहते हुए ।

नही ……….तुम लोग यहीं से चले जाओ ना ! कन्हैया वहीं से भेजना चाहते हैं …….पर – नही….हम तो तुझे तेरे घर पर ही छोड़कर आएंगे …………….सखा नही माननें वाले, कन्हैया को पता है इसलिये ये भी नही बोलते ज्यादा ।

पर नन्दमहल भी तो आगया……….

एक दो तीन ……सब बोले ……………फिर –

“यशोदा मैया खोल किबरिया लाला आयो गाय चराय”

सब एक स्वर गाते हैं ………सब गाते हैं …………हँसती हुयी बृजरानी आई हैं …………..सब बालकों को लड्डू दिया है ………..लड्डू लेकर जाना चाहिये अपनें अपनें घर ……..पर नही …….वहीं बैठ गए हैं ग्वाल सखा …..और कन्हैया से बतिया रहे हैं ।

अब जाओ तुम लोग ! मैया हाथ जोड़ती है ………छोटे छोटे बच्चों को हाथ जोड़ती है ? अजी ! अब अपनें घर पधारो ……इसलिये हाथ जोड़ती है ………….”दिन भर रहे हो कन्हैया के साथ पेट नही भरा” ……..इसलिये हाथ जोड़ती है ………..।

सुन ! कल हम कालीदह में जाएंगे ………..मधुमंगल कान में जाकर कन्हैया के कहता है ……………ना ! नही जाएंगे कालीदह में …..वहाँ तो काली नाग रहता है ……खा जायेगा ……….मनसुख स्पष्ट कहता है …….इतना ही नही ……………मैया बृजरानी को भी बता देता है …….देखो ! कालीदह में कन्हैया को चलनें कि कह रहा है मधुमंगल !

मारूँगी मैं तुम सबको………खबरदार ! जो कालीदह का नाम भी लिया तो…….वहाँ कालिय नाग है ……….खा जाएगा तुम सबको ।

मधुमंगल कि और देखकर आँखें मटकाता है मनसुख ……।

अब जाओ तुम लोग ….जाओ यहाँ से ………….कन्हैया थक गया है ……उसे अब विश्राम तो करनें दो ………..बृजरानी जब तक क्रोध नही दिखातीं , ये सब कन्हैया को छोड़ते ही कहाँ हैं ?

बेचारे दुःखी मन से उठते हैं …………गले लगते हैं ……कोई हाथ मिलाता है ………कोई कन्धे में हाथ रखते हुए कहता है ……कल मिलेंगे ……..कोई, अपना ध्यान रखना ………..कोई सखा ……कल गेंद लेकर चलेंगे …….खूब खेलेंगे ……………बृजरानी भीतर से फिर आती हैं ……..अब जाओगे या नही ? बेचारे ग्वाल सखा बेमन से निकल पड़ते हैं अपनें अपनें घरों कि ओर ।

पता है कन्हैया आज मेरे पीठ पर चढ़ गया ………….ये कहते हुए वो सखा खूब हँस रहा है …….माँ ! पता है ……….मैं जीत जाता पर बस जीतते जीतते रह गया …………अगर मैं जीत जाता तो कन्हैया कि पीठ में मैं बैठता …………वो ग्वाला रात्रि का भोजन करते हुये अपनी माँ को बड़े उत्साह से बता रहा है ।

अब खा भी ले ……..बोलता ही रहता है ………उसकी माँ उसे खानें को कहती है …………पर – नही माँ ! कन्हैया तो कोमल है ……….बहुत कोमल मैं उसके ऊपर कैसे चढूंगा ………..उसे कष्ट होगा ……….अगर वो हार भी गया ना ……तब भी मैं मना कर दूँगा ।

पागल हो गया है तू ……..अकेले अकेले बोले जा रहा है ……जल्दी खा और जा सोनें ………..उस ग्वाले कि माँ नें फिर डाँटते हुए कहा ।

मैं आज बाबा के साथ सोऊंगा……….माँ को कह चुका है ये बालक ।

क्यों ? क्यों सोयेगा अपनें बाबा के साथ ? माँ भी पूछती है ।

वो रात भर मेरी बात सुनते हैं ……….तू सो जाती है ।

अच्छा ! अच्छा ! सो जाना बाबा के साथ ……………

माँ नें इतना कहा……….वो तो उठ गया और भागा सोनें के लिये ………रात्रि हो रही थी ।

बाबा ! कोई कहानी सुनाओ ना ! अपनें दादा से पूछ रहा है वो ग्वाला ।

अब सो जा…….कहानी सुनाओ !……कितनी रात हो गयी है पता है !

दादा नें डाँटा ।

ये रात क्यों होती है ? वो बालक फिर कुछ देर में ही बोल पड़ा ।

पर उसके दादा नें इसका कोई उत्तर नही दिया ।

कन्हैया ! कन्हैया ! कन्हैया !

गा रहा है वो बालक……….फिर एकाएक उठ जाता है ……..बाबा ! सुबह हो गयी ? चुप ! सो जा इतनी जल्दी कैसे सुबह होगी …….सो जा ……अब बोलेगा ना तो पिटेगा तू । बूढ़े बड़े बाबा नें डाँट दिया इसे ……….वो फिर सोनें का स्वांग करनें लगा ।

मुश्किल से आधी घड़ी ही बीती होगी ……….बाबा ! सुबह हो गयी ?

नही हुयी मेरे लाल ! सो जा….

……इस बार बड़े प्रेम से कहा था दादा जी नें ।

बालक को इस बार डाँट नही पड़ी तो फिर बोला वो ……

“बाबा ! पता है …….कन्हैया बहुत हाँसी करता है ……सबको हँसाता है ……..हम सब तो हँसते हँसते लोट पोट हो जाते हैं” …………..विचित्र है ये ग्वाला ………..हँस रहा है ये कहते हुए ।

मटकी फोड़ दी बरसानेंवारी कि………चार मटकी थी उसके सिर में ……..वो चारों मटकी फोड़ दी ……….एक ही कंकड़ में …….।

बाबा सुनो ना ! आप फोड़ सकते हो ? बालक का प्रश्न है ।

ना …..मैं नही फोड़ सकता ……..दादा भी हाथ जोड लेते हैं …….तू अब सो जा …………और मुझे भी सोनें दे ।

हाँ ………कोई नही कर सकता मेरे कन्हैया कि बराबरी …………कोई नही ……….भगवान भी नही………..फिर दादा से बोलनें लग जाता है……….बाबा ! कन्हैया भगवान है ?

झुंझला उठते हैं उसके दादा ………..

हाँ हाँ ….सारे भगवान यहीं बृज में पैदा हो गए हैं…….अब तो सो जा !

दादा नें इस बार कर्रा डाँटा है ………….इसलिये वो बालक चुप हो गया ……………..कुछ देर में उसे झपकी भी आयी ……….पर फिर उठ गया ……इधर उधर देखा ………..सोते हुए अपनें दादा को जगाया …….बाबा ! सुबह हो गयी उठो ……………

अरे ! …….उसके दादा नें ऊपर देखा …..आकाश में देखा ………हे भगवान ! अभी कहाँ सुबह होगी ………..अभी तो बहुत समय है ।

बहुत समय है ? बाबा ! कितना समय और है ?

बाबा ! आज सुबह क्यों नही हो रही ?

बाबा ! कहीं ऐसा तो नही होगा ना …..कि सूर्य उदित ही न हों ?

बालक के अनेक प्रश्न उठ खड़े हो जाते हैं रात्रि में ।

तू बता ! क्या करना है सुबह तुझे ? सुबह होनें कि इतनी प्रतीक्षा क्यों है तुझे ? दादा उठ कर बैठ गए थे अब ……….

बाबा ! सुबह होते ही मैं जाऊँगा अपनें कन्हैया के साथ गौ चरानें …..

बाबा ! कन्हैया के बिना मन नही लगता ……….रात नही कटती …….मन को शान्ति नही मिलती …………..कुछ अच्छा नही लगता बाबा ! ये कहते हुए वो ग्वाला रोनें लगा ………।

दादा नें उसे चुप कराया ………….फिर कहानी सुनानें लगे ……..सुनाते सुनाते वो स्वयं सो गए ………पर वो कृष्ण सखा देखता रहा आकाश में ……..तारों को …..फिर चन्द्रमा को ………..ये चन्द्रमा मेरा कन्हैया है …और हम सब तारे …….कबड्डी खेल रहे हैं हम सब …………

फिर हँस पड़ता है ………………

जैसे तैसे सुबह हो गयी ………..वो उठा …………….नाचा उठते ही ……..स्नान किया जल्दी …………और फिर अपनी गैयाओं को लेकर चल पड़ा नन्द भवन कि ओर ।

उद्धव कहते हैं ये स्थिति सबकी है ……..प्रत्येक ग्वाल बालों कि ऐसी ही स्थिति है ……कन्हैया के सिवा इनका मन लगता ही नही है ।

उद्धव गदगद् हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 93

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 93)

!! गोप गोपी कौ सम्वाद – “गौचारण प्रसंग” !!

गौचारण करते करते थक गए आज कन्हैया ……..तो कदम्ब वृक्ष के नीचे सो गए …….. सखाओं नें देखा कि आज अपना लाला थक गया है ……तो उसे बिना जगाये गौओं को देखनें के लिये निकल गए थे ।

पास में था मनसुख ………सखाओं नें उसे वहीं कन्हैया के पास ही छोड़ दिया था ……ताकि उसकी नींद में कोई विघ्न न डाल सके ।

पर उसी समय कोई गोपी गा रही थी……….यमुना पास में ही थीं …..जल भरनें आगयी थी ये …….मनसुख नें जब ध्यान से देखा तो समझ गए, बरसानें की है …..और श्रीराधा की प्रिय सखी ललिता है ।

“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्रीराधे”

ललिता यही गाये जा रही है …………मनसुख नें सुना …….एक बार , दो बार पर बारबार यही – जय राधे जय राधे राधे …………

“जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्रीकृष्ण”

मनसुख ललिता के पास में चला गया……और चिल्लाकर गानें लगा ।

झुंझला गयी ललिता सखी …………..

ललिता – अरे मनसुख ! तू क्यों बेकार में हल्ला करे है ?

वा कारे कनुवाँ कौ नाम मत ले, अगर तोहे भजन ही करनौ है तो हमारी राजदुलारी बृषभान की प्यारी राजराजेश्वरी श्रीराधारानी को नाम ले ।

मनसुख – अरी बरसानें वारी ! साक्षात् श्रीकृष्ण परमात्मा हैं …..अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं ……जा बृज में लीला करबे के ताईं अवतार लियो है , वाकूँ तू “कारो” कहे है …….मोहे तो लगे तेरी मति बौराय गयी है ।

ललिता – तू तो ग्वारिया है ……सुन ! तू हमारी प्यारी किशोरी जू के स्वरूप कुँ कहा जान सके ? बस माखन खानों और तान दुपट्टा सो जानों याके सिवाय तोहे आवे कहा है ? अपनें परमात्मा ते पूछ के देखियो …….हमारी किशोरी जू के पीछे पीछे डोले …..चाहें तेरो सखा पूरन ब्रह्म ही चौं न होय ……पर हमारी श्रीराधा रानी कुँ देखे बिना वाहे चैन नाँय परे ।

और कहा कह रो मनसुख ! कारो काहे कुँ कहें हैं हम ? अरे ! कारे ते कारो ही कहिंगी ……….गोरी तो हमारी किशोरी जू हैं ………और हाँ सुन ! कारे रंग कुँ देख के सब डरप ही जावें ।

( ललिता खूब जोर से हँसती हैं और कहती हैं )

कारो रंग अशुभ सूचक भी है ………..पर उज्वल रंग तो हमारी श्रीजी को है …..या लिये “भोजन भट्ट”! तू हमारी श्रीराधारानी को ही नाम लियो कर …..समझे ?

मनसुख – अरी गाम की गूजरी ! तू पढ़ी लिखी तो है नाँय, तोहे कहा पतो कि रंग तो कारो ही श्रेष्ठ होय है …….तोहे पतो है हमारे कन्हैया कुँ कारो ही रंग प्रिय क्यों है ? सुन –

( मनसुख आनन्दित होकर बता रहा है )

कारे रंग में कोई और रंग चढ़े नही है…..हाँ कारो रंग सब रंगन पे चढ़ जाए ….पर कारे में कोई रंग नही……( मनसुख हँस रहा है ये कहते हुए )

कारे रंग में सखी ! कोई जादू टोना मन्त्र तन्त्र को प्रभाव नायँ पड़े ….याते कारो रंग ही श्रेष्ठ है ……….और सुन ….गोरे रंग पे कारो तिल अगर लग जाए तो सुन्दरता बढ़ जावे……..पर काले रंग पे सफेद तिल अगर आजावे तो वाकुं सफेद रोग कहें हैं ……..समझीं ! याते मैं कहूँ कि सर्वश्रेष्ठ तो कारो ही रंग है ।

ललिता – अरे मनसुख ! तू काही कुँ जिद्द करे ……….चाहे तूं कछु कह ले ………पर गोरो रंग ही सबनपे भारी है ……और हमारी श्रीराधा रानी गोरी हैं ……..गौरांगी हैं ।

सूर्य के किरण ते प्रकाशित विश्व ही सबकुं प्रिय लगे है ……अँधेरी रात कौन कुँ अच्छी लगे ? हाँ ….तुम्हारे जैसे चोर उठाईगीर कुँ छोड़के ।

( ललिता हँसती हैं )

चमक तो सूर्य के प्रकाश में है ………….रात में कहा धरो है ।

याही ते मैं कहूँ कि हमारी रासेश्वरी श्रीजी गौर हैं सूर्य के समान आभा प्रभा है उनकी …..पर तुम्हारो कन्हैया तो कारो है ……….न आभा है ….न प्रभा ……….बस कारो ही कारो है ……..( ये कहते हुए ललिता सखी फिर खूब हँसी ) ।

मनसुख – अरी बाबरी ! कारो नही है मेरो सखा ……श्याम है श्याम !

( ये सुनकर फिर ठहाका लगाई ललिता सखी ने…….और बोली – अब लाईन में आरहे हो मनसुख लाल ! )

मनसुख – अरी हँसे मत …..मेरी सुन पहले ……….मेरे कन्हैया कुँ तू रात्रि बताय रही है ………तो बाबरी ! दिन भर को हारयौ थक्यो मनुष्य वाही रात्रि में विश्राम कुँ प्राप्त करे है ……और बिना विश्राम के न सुख मिल सके न आनन्द ………और सुन ! रात्रि के कारण ही दिन को महत्व है ……..कारे के कारण ही गौर वर्ण को महत्व है ………नही तो ।

ललिता – अब तू बेकार की बातन्ने करे…….कोई प्रणाम है तो बता ……नही जा, रस्ता नाप !

मनसुख – सुन अब, मैं भी पण्डित हूँ ……सखी ! बता, आँखिन में कारो काजल क्यों आँजैं हैं ? याते गौर वर्ण की शोभा बढ़ जाए है ……अब देख ! तेरे गोरे रंग में ये कारे केश कितनें सुन्दर लग रहे हैं…….ऐसे ही कारी भौं, कारो तिल, कारी आँखिन की पुतरी, ये तो प्रमाण हैं……बता ?

( मनसुख अब हँस पड़ता है जब उसे लगता है कि उसकी बात ऊँची जा रही है और अब ललिता उत्तर नही दे पायेगीं )

बता ! मेरी बात अगर प्रामाणिक नही है तो कटवाये दे अपनें कारे बाल, कटवाये दे अपनें भौं, निकलवाये दे अपनी आँखिन की पुतरी ……….और हाँ …..सुन ! सुन ! जो तू अन्न इत्यादि खावे है …….वृक्षन की छाँया लेय है …..वाकुं सींचवे वारे कारे कारे बादर ही होमें हैं ………और सुन ! कारो रंग युवावस्था को प्रतीक है………और सफेद रंग बुढ़ापे को ……..नायँ समझ आय रही तो सुन – कारे बाल युवावस्था हैं …….और सफेद ? बुढापो ………….अब समझी ?

ललिता – बस , इतनी बातन ते ही श्रेष्ठ है गयो तेरो कन्हैया ?

तेनें कही ……कारे रंग पे कोई और रंग चढ़े नही है ………अरे भोजन भट्ट ! कसौटी कारी होय है , है ना ? पर वा कसौटी में चाँदी या सुवर्ण को रंग चढ़े है की नायँ ?

परन्तु उन सोना और चाँदी में कसौटी को रंग नही चढ़े ……ऐसे ही हमारी किशोरी जू को रंग तुम्हारे कन्हैया पे चढ़ जावेगो ………पर तेरे कन्हैया को रंग हमारी श्रीजी पे नही चढ़े ……..समझे ?

( ललिता सखी के तर्क के आगे पण्डित मनसुख लाल चुप हो गए )

मनसुख – अच्छा ! अच्छा सखी रहनें दे ……..गोरे रंग की भी अपनी विशेषता है और कारे रंग की भी ……….श्रीराधारानी के बिना हमारे कन्हैया कुँ चैन नायँ पड़े ……..और कन्हैया के बिना राधा रानी कुँ …….सखी ! दोनों बराबर हैं कोई बड़ो नही है ।

ललिता – वाह ! अब समानता की बात कर रहे हो मनसुख लाल !

नायँ, कोई समानता नही है तेरे कारे कन्हैया ते हमारी श्रीजी की ……..और हाँ ….कहा कह रहे हते तुम !……….कि कारे बाल युवावस्था को प्रतीक है .? …….अरे जान दो ……… …कारे केश सफेद होते भये तो सबनें देखे हैं ……पर सफेद केश कारे होते भये काहूँ नें देखे हैं ?

बस यही है सबते बड़ो प्रमाण …….कि सफेद रंग कारे में अपनों प्रभुत्व जमाय लेय ……..फिर हटे नहीं है ।

यासौ मेरी बात मान ले …………सफेद श्वेत रंग ही श्रेष्ठ है ……और आदि अनादि है ……..अब तो समझ में आयी ?

मनसुख – नायँ आयी ।

तभी – मनसुख ! ओ मनसुख ! पीछे से कन्हैया नें आवाज लगाई ….ले आय गयो तेरो कारो कन्हैया ! ये कहते हुए ललिता सखी हँसी ।

मनसुख ! साँझ है रही है….चल गैया घेर के लामें……कन्हैया बोले ।

अरे ठहर जा …….मोय या सखी ते शास्त्रार्थ करलैन दै …….मनसुख बोला । कन्हैया भी वहीँ आगये…….जब दोनों की बातें सुनी तो हँसे ……और मन्द मुस्कुराते हुये बोले – मनसुख ! जिद्द छोड़ दे …….रंग तो श्रीराधा रानी को ही श्रेष्ठ है …….मैं तो उनको दास हूँ …….दासता के कारण ही तो मैं कारो है गयो ……श्याम सुन्दर प्रसन्नता में बोले थे ।

मनसुख – वाह भैया ! हम यहाँ तोकूँ लेकर शास्त्रार्थ कर रहे हैं …..और तेनें आते ही कह दियो “मैं तो दास हूँ ” ।

मैं तो तेरी बढ़ाई कर रह्यो हो ……..मेरी जीत है रही ही ……पर तेनें आयके ……”मैं तो दास हूँ” कहकर मेरी हार करवाय दई ।

मनसुख को गुस्सा आरहा था अब ।

कन्हैया मुस्कुराये …….गुस्सा काहे कुँ …..मनसुख ! मेरे सखा ! सुन ……गौर तेज के बिना श्याम तेज की कही शोभा है ? हम दोनों दो नही हैं, एक ही हैं ………..कन्धे में हाथ रखते हुये मनसुख के कन्हैया नें कहा था ।

मनसुख – तू चुप रह ! हमैं तो तेरी बढ़ाई करवे वारो ही अच्छो लगे…..

तेरी कोई भी बुराई करे ना….वो हमें प्रिय नही ….हमें रिस आवे ।

ये कहते हुए मनसुख के नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे ……….फिर आँसू पोंछते हुए मनसुख नें कहा …………चाहे तू चोर है , चाहे तू छलिया है …नटखट है……बहरूपिया , लंगर, ढीट , कारो कलूटा कैसो भी होय ….पर तू मेरो सखा है ….प्राणन ते प्यारो सखा …….ये कहते हुए मनसुख कन्हैया के हृदय से लग गया था ।

मनसुख ! मेरे भैया ! तू बड़ो भोरो है …….श्रीराधा और मैं ……हम दोनों अलग कहाँ हैं ……एक ही तो हैं ।

वे मेरी अल्हादिनी शक्ति हैं ………….अच्छा एक बात बता मनसुख ! शक्ति और शक्तिमान दो हैं या एक ? मनसुख बहुत भोला है ……..सोचनें लग गया ……..ललिता हँसती हुयी बोलीं ……..मनसुख ! शक्ति है तभी तो शक्तिमान है ….शक्ति ही नही होगी तो शक्तिमान कैसे कहलायेगा ?

“धत्” …….अपनें सिर में मारा मनसुख ने …….इत्ती सी बात मेरी समझ में नही आयी …………….

ललिता हँसते हुयी अब बोली …………बोलो अब –

“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्री राधे “

पर मनसुख पक्का है ……….वो तो “जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्री कृष्ण”……..यही बोलते हुये अपनें सखा को लेकर चल पड़ा ………..भैया कन्हैया ! मैं तो तेरो सखा हूँ ……….मनसुख हँसते हुए बोला…….पर कुछ ही देर में ……”कन्हैया ! ये श्रीराधा नाम तुझे प्रिय है ना तो फिर तेरी प्रसन्नता के लिये मैं भी बोलूंगा”……..”जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्री राधे “

ललिता सखी नें सुन लिया – वो हँसती हुयी बोली …….

मनसुख लाल ! अब आये हो लाईन में ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 92

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 92)

!! “चन्द्रावली” – एक प्रेम कथा !!

प्रेम अद्भुत तत्व है तात ! प्रेम क्या है इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता …….जैसे ब्रह्म अवर्णनीय है ऐसे ही प्रेम है ।

उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला का गान सुना रहे हैं…….तात ! वैसे तो बृज प्रेम की ही भूमि है ……यहाँ प्रेम ही प्रेम है ……प्रेम तत्व से ही इस बृज का आन्तरिक निर्माण हुआ है…….बात गोप या गोपी की नही है…….बृज के कण कण में ही प्रेम व्याप्त है……उद्धव कह रहे हैं ।

“चन्द्रावली”

ये गोपी है ………श्रीराधारानी की बड़ी बहन लगती हैं ……..ताऊ जी की बेटी है ……..श्रीराधारानी शान्त हैं ……तो ये चंचल ……….श्रीराधारानी भोली हैं तो ये चतुर ….अत्यन्त चतुर , पर श्रीराधारानी से कम सुन्दर नही हैं ।

श्रीराधारानी बोलती नही हैं ………बहुत कम बोलती हैं …..पर ये चुप होती नही………उद्धव नें कहा ……..पर प्रेम तत्व अच्छे अच्छों को बदलनें की ताकत रखता है ।

चन्द्रावली इन प्रेम व्रेम के चक्कर में कभी पड़ी नही ……न इसके स्वभाव में है ये सब ………..पर बृज में कन्हैया से कोई बचा है ?

तात ! ये विचित्र है कन्हैया ………..अब इसनें दान ( कर ) माँगना भी शुरू कर दिया था ……….माखन बेचनें जिसे जाना हो …….वो दान दे …….नही तो मटकी फोड़ देंगे ।

बताइये ये भी कोई बात है ……….पर देना तो पड़ेगा ही ……नही तो मटकी फूटेगी ……….और वैसे भी ग्वालिन ग्वालों को माखन से ज्यादा मटकी से प्रेम होता है ………और जितनी पुरानी मटकी हो मोह उतना ही ज्यादा ।

लकुट लगा दी उस साँकरी गली में …………….पहली बार ये सुन्दरी निकली थी माखन लेकर -.चन्द्रावली ।

दान दे ! अकड़ थी आवाज में ………….

नही दूँ तो ? चन्द्रावली तेज गोपी है ………….

फिर तो मटकी से हाथ धोना पड़ेगा……कन्हैया नें मटकते हुए कहा ।

कुछ सोचकर चन्द्रावली बोली …….दान में क्या दूँ ? बोलो !

कुछ नही ………….”माखन खिला दे”…………..बोलनें में भी मधु टपक रहा था कन्हैया के ……..चन्द्रावली मुग्ध थी ।

लो ……..खाओ माखन ! बड़ी आसानी से खिलानें को तैयार हो गयी चन्द्रावली ……………..कन्हैया नें सोचा नही था कि ये सुन्दरी इतनी जल्दी मान जायेगी ।

पर – चन्द्रावली चतुर् है ………वो तुरन्त बोली ………पर तुम खाओगे कैसे माखन ?

“सखी ! हाथ में” ………कन्हैया नें हँसते हुए कहा ।

नही नही …………एक काम करो ना ………..वो रहे वट के पेड़ उसके पत्ता तोड़ लाओ ………मैं बढ़िया दोना बना दूंगी तुम खा लेना उसमें माखन ।

ठीक है ……….तू बैठ ! मैं अभी आया…………..कन्हैया दौड़े वट वृक्ष के पास और पत्ता तोड़नें लगे …….उस दिन कोई ग्वाल सखा साथ में थे नही ………गौ चरानें के लिये उन सबको छोड़कर ये इधर चले आये थे ।

चन्द्रावली नें अवसर देखा……..उसनें मन ही मन में कहा ……”मुझ चन्द्रावली से दान लेगा…….अरे ! जा तेरे जैसे बहुत देखे हैं” ………चन्द्रावली तो चली गयी …………..।

कन्हैया आये पत्ता तोड़कर ………..पर चन्द्रावली तो है ही नही ।

समझ गए कन्हैया……….मुझ को छल गयी ……….पर वो भी जानती नही है मुझे ………मैं छलूँगा ना …….तो फिर वो कहीं की नही रहेगी ।

और सच तात ! कन्हैया नें जब उसे छला तो वो कहीं की नही रही …..उसे प्रेम रोग नें ऐसा पकड़ा ……..उद्धव बता रहे हैं ।

चन्द्रावली ! ओ चन्द्रावली !

एक कोई सखी घूँघट करके ………..साड़ी गहनों से लदकर चन्द्रावली के पास पहुँची थी ।

हाँ ! कौन है ? चन्द्रावली नें भीतर से ही पूछा ।

मैं तेरी बहन ! बाहर से उस सखी नें कहा ।

पर मेरी बहन ? चन्द्रावली सोच में पड़ गयी ……..

सोचे मत …..मैं मामा की तू फूफी की ……..उस सखी नें कहा ।

अच्छा ! अच्छा ! आजा …….चन्द्रावली नें उसे भीतर बुला लिया ।

गले लगे दोनों……चन्द्रावली नें पूछा ….”तेरी छाती सूख कैसे गयी है” ?

“तेरी याद में…….तुझे याद करते करते मेरी छाती ही सूख गयी” ।

पर तेरे पाँव भी तो कठोर हैं ?

जब पाँव देखे और छूए तब वो कठोर थे …..चन्द्रावली नें पूछा ।

बहन ! तुझे खोजनें कहाँ कहाँ नही भटकी ……उस सखी नें उत्तर दिया ।

कन्हैया गले लगे रहे ……….तात ! कन्हैया के हृदय से जो लग जाए अब वो किसी और के काम का रहा ? रोमांच हो गया चन्द्रावली को ……..आनन्द अपनी सीमा पार कर गया …………आनन्दातिरेक के कारण उसके नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ………..चन्द्रावली अब उस सखी को छोड़ नही रही है ।

उस सखी को अब छटपटाहट हुयी …………अपनें आपको छुड़ाकर वो भागी और जब भागी …….तब चन्द्रावली नें देख लिया ………..तुम कन्हैया !

कन्हैया खिलखिलाकर हँस पड़े …….अंगूठा दिखाते हुए बोले ………मुझे छलेगी ? ले छल ।

अब तो लम्बी साँस लेते हुये चन्द्रावली गिर गयी ………..ओह ! कन्हैया का स्पर्श ! वो उनका आलिंगन ! कैसे भूल जाए ये चन्द्रावली ।

हो गया इसे प्रेम ……पक्का प्रेम……बाबरी ही हो गयी ये तो ।

मिलनें लगी कन्हैया से ………..नही मिलते ……तो नन्दमहल के चक्कर काटनें लगी । ……..प्रेम जो कराये कम ही है ।

कन्हैया भी रसिक शेखर हैं …………ये भी मिल लेते ……..गले लगते ……कुछ मीठी बतियाँ बनाते ……..चन्द्रावली अपनें आपको भूलनें लगी थी …………इसके जीवन में बस – कन्हैया …कन्हैया ….सिर्फ कन्हैया ही रह गया था ………।

नित्य मिलते थे चन्द्रावली से कन्हैया ………….ये भी नित्य वृन्दावन में आजाती थी ……..जल भरती ……ये सब तो बहाना था …..मुख्य तो कन्हैया को देखना ही था ।

उस दिन – श्रीराधा आगयीं कन्हैया से मिलनें …………चन्द्रावली के साथ कन्हैया थे ………अभी अभी तो आये ही थे ……….वो बैठी थी ……..बहुत देर से बैठी थी बेचारी …..कन्हैया आये तो वो बाबरी की तरह दौड़ी और कन्हैया को अपने हृदय से लगा लिया ।

पर तभी श्रीराधा आनें वाली हैं ……ये सूचना मिली कन्हैया को ……

चन्द्रावली को हटाया अपनें हृदय से …………क्या बात है प्यारे !

चन्द्रावली नें कन्हैया की ओर देखते हुए पूछा ।

बस ! चन्द्रावली ! तू यहाँ बैठ मैं आता हूँ ।

कन्हैया आज भागे चन्द्रावली के पास से ………..वो बेचारी चिल्लाई ……आओगे ना ? हां , आऊँगा ….यहीं बैठी रहना !

उफ़ ! ये प्रेम रोग सब रोगों से बुरा है…….उद्धव कहते हैं ।

कन्हैया को श्रीराधा मिल जाएँ तो और क्या चाहिये ……….साँझ तक श्रीराधा के साथ विहार करते रहे कन्हैया …………..भूल गए बेचारी चन्द्रावली को ………..वो बैठी है …….वो पल पल इधर उधर देख रही है ………..एक एक क्षण उसका युगों के समान बीत रहा है ।

पर कन्हाई उस दिन नही आये ………..उस दिन नही आये तो ये भूल ही गए थे चन्द्रावली को कि वो वहाँ बैठी हुयी है ।

एक दिन बीत गए …दो बीत गए ….तीन दिन…….ऐसे पूरे पाँच दिन ।

आज श्रीदामा नें कह दिया ……..चन्द्रावली जीजी तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठीं हैं ……..आज पाँच दिन हो गए हैं ।

क्या ! चौंक गए कन्हैया ………..वो अभी तक बैठी है !

हाँ …..शायद तुमनें उससे कहा था ……यहीं बैठना मैं आऊँगा ।

श्रीदामा की बात सुनकर कन्हैया भागे चन्द्रावली के पास ………..

पर वो तो प्रेममयी हो गयी थी…….प्रेम में पग गयी थी ………

कन्हैया उसके पास पहुँचे …………..पाँच दिन से वो यहीं है ………न कुछ खाया है न पीया है ………..बस ….कन्हैया नें कहा ……यहीं बैठे रहना ……मैं आऊँगा …..तो बैठी रही ।

कन्हैया नें जाकर चन्द्रावली को अपनें हृदय से लगा लिया …………चन्द्रावली रो पड़ी …………

पगली ! तू क्यों नही गयी अपनें घर ? कन्हैया पूछ रहे हैं उससे ।

तुमनें ही तो कहा था बैठे रहना……मैं आऊँगा……..तुम आ तो गए !

चूम लिया कन्हैया नें उस बाबरी चन्द्रावली को ।

तुम राधा से प्रेम करते हो ना ? मुझे सब पता है ……….वो मुझ से सुन्दर है ? कन्हैया के सामनें वो बहुत कुछ बोलती रही …….पर कन्हैया कुछ नही बोले …………उसका बड़े प्रेम से हाथ पकड़ा ……और उसे घर तक छोड़कर आये थे ।

तात ! ये भी श्रीकृष्ण की अद्भुत प्रेयसि थी ………….इसका प्रेम भी अद्भुत था ………हाँ …..श्रीकृष्ण प्रेम में इसनें भी अपनें आपको मिटा डाला था ……….चन्द्रावली ! उद्धव नें इसका नाम लेते हुये अपनें आँसू पोंछे थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 91

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 91)

!! गौचारण प्रसंग – “गोपी प्रेम” !!

वो “रजनी” आज प्रातः से ही छटपटा रही थी ……पास के गाँव से ब्याही थी ……..बहु थी नन्दगाँव की ।

कन्हैया की बातें खूब सुनती रहती………”प्रातः गौचारण करनें जाते हैं ………अब तो जा चुके………कोई बात नही सायंकाल तो आएंगे” ….प्रतीक्षा में बैठी है……..पर साँझ होनें में भी तो देर हो रही है ।

चलिये साँझ भी हो गयी………..छज्जे में सब चढ़ गए हैं …….पूरा नन्दगाँव देख रहा है नन्दनन्दन को ।

वो रजनी भी दौड़ी दौड़ी गयी छज्जे पर …………आनन्दित होकर- अपनें आपको सम्भाल कर ……हृदय की धड़कनों को काबू में रखकर देख रही है नीचे ……….आहा ! आगये वे गौचारण करके ………श्याम रंग धूल से धूसरित हो गया है ……….पर ये तो और सुन्दर लग रहे हैं …..केश, वो घुँघराले केश बिखरे हुए हैं …….मुखमण्डल पर मुस्कान है …..फेंट में बाँसुरी……….वो बाँसुरी रजनी को देखकर फेंट से निकाल ली है …….उफ़ ! छुप जाती है रजनी ………..उसके हिय की धड़कन बढ़ गयी है………वो फिर हिम्मत करके नीचे देखती है ……पर ये क्या ! कन्हैया तो सबको छोड़कर रजनी की ओर ही बढ़ रहे हैं…….और मुस्कुराते हुए बढ़ रहे हैं ………रजनी का हृदय धक्क करके रुक रहा है………उसकी घबराहट और आनन्द बढ़ता ही जा रहा है ।

ओह ! ये क्या दोनों बाहों को फैला दिया है नीचे कन्हैया नें ……..और इशारा करके बोले ……”.कूदो, मैं बाहों में लेता हूँ”……रजनी कूद भी जाती ……रजनी कूदनें के लिए तैयार ही थी कि ………”सत्यनाश हो तेरा” ……..पीछे से सास आगयी थी और चोटी पकड़ कर खींच लिया था भीतर ।

बेचारी रजनी ………नींद खुल गयी उसकी …..सुबह के 4 बज गए हैं ।

ओह ! सपना था ये …….और सपना उसे कहते हैं जो सच्चाई से बहुत दूर हो ……..ये सोचकर कुछ देर आह भरती रही बिस्तर में ही रजनी ……..फिर क्या करे ! स्नान किया…….तैयार हुयी …….कलेवा सबके लिये बनाया ……पर सास तो सोलह श्रृंगार करके बाहर छज्जे में बैठ गयी है ।

रजनी का पति तो गाय चरानें के लिये जाता ही था साथ में कन्हैया के ।

समय हुआ ………..प्रातः की वेला ……..कन्हैया अब गौचारण करनें के लिये वृन्दावन जा रहे हैं ……….कमरे में बन्द कर दिया था सास नें रजनी को ………और स्वयं सज धज के ………..

देखती रही सास …….उस रूप सुधा को अपनें नयनों के दोनों में भर कर पीती रही…….जब चले गए तब आह भरती हुयी आई आँगन में ।

क्या सुन्दर रूप धारण किया था नटखट नें …………सास आगे कुछ कहती कि ….रजनी बोल पड़ी ……”कल तो पीताम्बरी पहनी थी ….और मोर का पंख भी टेढ़ा ……और मुझे कह रहे थे ….कूदो ….मैं तुझे बाहों में भर लूँगा “……..रजनी ये कहते हुये भूल गयी कि ….सास के सामनें ऐसी बातें ।

हाय हाय ! मैने कितना सम्भालना चाहा इसे …..पर ये आखिर बिगड़ ही गयी ….देख लिया उस नटखट को इसनें ……..खानदान का भी असर होता है ………परपुरुष को देखकर कैसे खुश हो रही है……..देखो !

अजीब बिडम्बना है …….स्वयं देखो, तो कुछ नही ….और बहु नें देख लिया तो बिगड़ गयी ………हँसे उद्धव ये कहते हुए ।

रजनी को अब आदत पड़ गयी है ये सब सुननें की ……उसे कोई फरक नही पड़ता …….सास कुछ भी बोलती रहती है ……ये उसे पता है ।

शाम होनें को आयी………..अब गौचारण से लौटेंगे कन्हैया ……….

सास स्वयं तो कन्हैया को निहारना चाहती है ………पर बहु रजनी को निहारनें का अधिकार उसनें नही दिया है ।

आज घबराहट बढ़ रही है सास की ………..उसे लग रहा है ……मैं तो देखूंगी कन्हैया को …..पर रजनी को देखनें नही दूंगी ।

इसे कहाँ बैठाऊँ ………कमरे में ? सास फिर कहती है नही ….खिड़की से देख लेंगी कन्हैया को …………कहाँ छूपाउँ इसे …….

सोचते सोचते कन्हैया आगये………….सास बाहर खड़ी है ……….उसके पास रजनी है ……….आज इतनी जल्दी कैसे आगया नटखट !……..अब क्या करे वो सास ……….उसनें तुरन्त बहु रजनी का मुँह अपनी और मोड़ा ……और स्वयं निहारनें लगी कन्हैया को ……।

रजनी नें भी कोशिश नही की मुड़कर नन्दनन्दन को देखनें की ……..क्यों की उसे दिखाई दे रहे थे ……….सास कन्हैया को देख रही थी …..और सास की आँखों में रजनी अपनें प्रियतम को निहार रही थी ।

पर प्रेम में स्व का भान कहाँ रहता है ………..बोल पड़ी एकाएक रजनी ……माँ ! आपकी आँखों में तो कन्हैया और सुन्दर लग रहा है ………

योजना असफल हो गयी थी सास की………अपलक वो रजनी अपनी सास की आँखों में देखती रही ………..सास नें एक बार सोचा कि अपनें पलकों को बन्द कर लूँ .ताकि उसकी बहु कन्हैया को देख न सके……..पर ये वो कर न सकी …..क्यों की सामनें से वो अद्भुत सौन्दर्य सागर नन्दनन्दन आरहे थे ।

रजनी के नेत्रों में अब मात्र नन्दनन्दन ही थे …………वो प्रेम में डूब गयी थी …….उसे अब कुछ भी होश नही था ………इतना भी होश नही – वो अब अपनी सास को ही आलिंगन करनें लग गयी थी ।

उफ़ ! ये गोपियों का प्रेम ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 90

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 90)


!! आज कन्हैया बनें हैं “गोपाल” !!

उद्धव, कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण की दिव्यातिदिव्य लीलाओं को गा रहे हैं ………और गाते गाते ये देहातीत हो उठते हैं ……..श्रोता विदुर जी हैं जो मन्त्रमुग्ध होकर अपनें आराध्य की लीलाओं को सुन रहे हैं ।

तात ! कैलाश में गणपति गणेश आज बहुत प्रसन्न हैं ……..प्रसन्नता चरम पर है उनकी ……..वो नाच भी रहे हैं ……..उनका वो बड़ा उदर हिल रहा है ……….जिससे उनकी शोभा ही विलक्षण हो उठी है ।

वत्स ! तुम आज बड़े प्रसन्न हो ……? भगवती उमा नें अपनें लाडले पुत्र गणेश से पूछा था ।

माँ ! हाँ आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ ……….क्यों की श्रीकृष्णचन्द्र जू का कल गौचारण होनें जा रहा है ……….वो गोपाल बनेगे माँ !

मेरे पिता का नाम और श्रीकृष्णचन्द्र जू का नाम फिर एक ही हो जाएगा ………खिलखिलाते हुये गणेश नें अपनी माँ से कहा था ।

कैसे ? भगवती उमा नें पूछा ।

पशुपति और गोपाल , इन दो नामों में माँ ! आपको समानता नही दिखती ? गणेश नें अब गम्भीरता से कहा ।

पशुपति यानि जो पशुओं का पति है ….और गोपाल यानि गो का पालक …..रक्षक ……..दोनों का अर्थ एक ही है ना !

गणेश नें अपनी माँ को आगे ये भी बताया ……….

मेरे पिता जी तो जब से श्रीकृष्ण चन्द्र जू का प्राकट्य हुआ है बृज में तब से वहीँ हैं …………..पर माँ ! मैं ?

हाँ …….मेरा एक अंश श्रीकृष्णचन्द्र जू की मण्डली में है ………वो मनसुख मेरा ही अंश है …………उसका पेट इसलिये मेरी तरह ही है ……वो भी मोदक खूब खाता है ………..और हँसता रहता है मेरी तरह ……ये कहकर गणेश खूब हँसें ।

उनकी माँ मेरे पिता जी की ही परम भक्ता थीं ……….और उनका जो पुत्र हुआ मनसुख ……….मैने अपना अंश उस मनसुख में स्थापित कर दिया था …………..क्यों की मैं भी श्रीकृष्ण चन्द्र जू का सान्निध्य पाना चाहता था …………अब सुना है मैने कि श्रीकृष्ण जू की बाँसुरी भी मेरे पिता जी ही बन रहे हैं ……………….

पर माँ! मैं उस समय दुःखी हो जाता हूँ……….मैं सबके संकट हरने वाला , मैं सबके विघ्नों को दूर करनें वाला ……किन्तु मैया बृजरानी और बाबा बृजराज जब दुःखी हो जाते हैं ………..तब मैं उनका संकट दूर नही कर पाता ……..क्यों की उनका संकट तो श्रीकृष्ण चन्द्र जू की अपनी मोहनी मुस्कान के द्वारा ही दूर होगी ……वहाँ मेरी नही चलती ।

चलती तो मेरी पूरे बृज में ही नही है ……………वहाँ मेरी चलेगी ?

वहाँ तो केवल केवल श्रीकृष्ण चन्द्र जू की कृपा की वयार ही चलती है …वाकी हम जैसे देवताओं की वहाँ क्या चले ?

फिर एकाएक खिलखिलाकर गणेश हँसे …………..विधाता ब्रह्मा जी की क्या दशा की है ये मुझ सब पता है माँ ! वो श्रीकृष्ण हैं ………समस्त तेज उन्हीं से प्रकट है ………हम सबमें भी जो तेज शक्ति है वो भी उन्हीं की देन है …………….वही सबकुछ हैं …..ये कहते हुए गणपति आनन्दित हो रहे थे ।

माँ ! कल श्रीकृष्ण जू गौचरण करनें वाले हैं …………….और उसमें प्रथम पूजन मेरा ही होगा …….और वो पूजन श्रीकृष्ण चन्द्र अपनें कोमल करों से करेंगें …………आहा ! मैं धन्य हो जाऊँगा !

माँ !

और एकाएक आनन्दित होकर उछलते हुए अपनी माँ उमा भगवती के गोद में बैठ गए थे गणपति गणेश ।

जिद्द की ……..बहुत जिद्द की कन्हैया नें ………..कि अब हम गौचारण करनें जायेंगे ……….बाबा नन्द जी नें मना किया ……पर ये कहाँ माननें वाले थे ।………गौएँ मेरी बात मानती हैं ……..बाबा ! बृषभों को अगर मैं कह दूँ तो लड़ाई भी नही करते …….और मेरे पास बाँसुरी भी तो है ना ! उसको बजाते ही सारी गौएँ दौडी चली आती हैं ……..।

कन्हैया नें अपनें बाबा से ये बातें कही थीं ………….बाबा को ये सब पता है ………..वो अब कोई और बहाना बना नही सकते ………।

बृजराज ! तभी आचार्य गर्ग वहाँ पर पधारे , साथ में महर्षि शाण्डिल्य को भी लेकर आये थे ।

आचार्य ! चरणों में साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे बृजराज ।

चलो प्रणाम करो !

यही हैं वे पूज्य जिन्होनें तुम्हारा नामकरण किया था !

कन्हैया गए और चरणों में जैसे ही झुके…….आचार्य गर्ग नें उठालिया ……….ऋषि हैं ……..पर कन्हैया को देखकर सब अपनी मर्यादा भूल जाते हैं ………कपोल में चूम लिया था ।

अजीब है कन्हैया ……….पोंछ लिया कपोल …….फिर आचार्य गर्ग को झुकनें को कहा ……मुस्कुराते हुए गर्ग ऋषि झुके ……….तो कानों में कहा ……मुझे गौचारण में जाना है …….कल ही जाना है …….आप कह दीजिये ना मेरे बाबा से !

कानों में अमृत घोल दिया था मानों कन्हैया नें ।

बृजराज ! इन्हें भेज दीजिये गौचारण करनें……प्रसन्नता पूर्वक आचार्य नें बृजराज को कहा ।

मुहूर्त ? हे आचार्य गर्ग ! आप मुहूर्त भी निकाल दीजिये ।

हँसते हुए आचार्य फिर झुके ……कन्हैया से पूछा – मुहूर्त ?

कन्हैया नें कहा – कल का ।

महर्षि शाण्डिल्य नें पत्रा देखा ……… कार्तिक शुक्ल अष्टमी थी ।

मुहूर्त तो बहुत बढ़िया है कल का…….आचार्य गर्ग नें बृजराज को कहा ।

चौं रे ! तू महूर्त भी देख वे लग गयो !

दाऊ जी नें कन्हैया को देखते हुए कहा ।

मेरो संगत है …..मेरे संगत को प्रभाव है………..मनसुख नें गम्भीरता से दाऊ को कहा ।

आचार्य गर्ग नें प्रसन्नता पूर्वक कह दिया …….मैं आज महर्षि की कुटिया में ही ठहरनें वाला हूँ ………कल मैं भी उपस्थित रहूँगा ………..ये बात सुनते ही बृजराज के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ।

गोप वृन्द उछल रहे हैं …….गोपों की प्रसन्नता चरम पर पहुँच गयी है ।

हर मार्ग सजानें में लग गए हैं गोप, …….बन्दनवार बाँधनें में गोपियाँ आगे आगयी हैं ………..ध्वजा पताका तोरण ये सब लगाये जा रहे हैं ।

रंगोली काढनें की तैयारियाँ गोपियों की शुरू कर दी है ।

वाद्य वृन्द सब बजनें को उत्सुक हैं ………..पृथ्वी में भी और नभ में भी ………वृन्दावन की प्रकृति झूम उठी है ………….जो पुष्प नही खिलनें थे वे भी खिलनें लगे हैं ………….सुगन्धित वयार चल पड़ी है ।

तात ! आनन्द ही आनन्द छा रहा है वृन्दावन में ।

उद्धव नें कहा ।

प्रातः स्नानादि से निवृत्त हुए समस्त गोप बालक ……कन्हैया को भी उठाया मैया नें ……….माथे को चूमा …….आज मेरा लाला गोपाल बनेगा …..गौओ को चरानें जाएगा ………अपलक देखती रहीं ……..फिर स्नान कराया ………सुन्दर पीताम्बरी धारण कराई …………..मोतिन की माला गले में ………घुँघराले केशों को संवार दिया …..छोटी सी लकुट हाथ में दे दी ………मोर पंख सिर में लगा दिया ,

बाहर भीड़ खड़ी है ………….गोप बालक सब आगये हैं ……..आचार्य गर्ग भी महर्षि शाण्डिल्य के साथ पधारे हैं ……कुछ विप्र वृन्द भी साथ हैं ………..बृजराज सुन्दर रेशमी धोती पहनें हुए हैं …….ऊपर से रेशमी वस्त्र का ही उत्तरीय धारण किया हुआ है ……रत्नों और मोतियों की माला पहनें हैं ……..पगड़ी है सिर में ।

गोपियाँ सब खड़ी हैं सज धज कर…….अब प्रतीक्षा है नन्दनन्दन के बाहर आने की ।

मैया बृजरानी सुन्दर साड़ी पहन कर….अपनें छ वर्ष के पुत्र कन्हैया को गोद में लेकर आईँ मैया ।

पर उतर गए कन्हैया मैया की गोद से …………..और स्वयं ही चल पड़े …..उनकी चाल ………अद्भुत थी ….लकुट हाथ में लिये ।

विप्रों नें तैयारी कर रखी थी ……….हाथ में थाली लेकर छोटे से कन्हाई पूजन करनें लगे……प्रथम गणपति गणेश का …….आचार्य गर्ग नें कहा ।

कन्हैया नें हँसते हुए ऊपर नभ में देखा ……..गणपति गणेश पधारे ……पर इन्हें किसी नें देखा नही …….बस कन्हैया नें देखा ।

अपनें हाथों से गणेश का पूजन किया ………गणेश गणपति के आनन्द का आज पारावार नही है …..आहा !

फिर गायों का पूजन …………बड़े ही प्रेम से गौ का पूजन किया कन्हैया नें ………..आनन्द का क्षण था वो …….सारी गायों में होड़ मच गयी थी ….कि हमें भी पूजे कन्हैया ………….भद्र ! तू भी पूज …….तोक ! तू भी चन्दन लगा दे गायों के …………दाऊ भैया ! तुम भी ……..

सब कर रहे हैं पूजन …………।

“अब बृषभ का पूजन होगा” ……….आचार्य गर्ग नें कहा ।

उसी समय एक विशाल बृषभ वहाँ दौड़ता हुआ आया ………..

तात ! ये स्वयं धर्म थे ………..कन्हैया का कृपा सान्निध्य पानें के लिये ये आगये थे यहाँ ………..कन्हैया नें इनका भी पूजन किया ।

अब ? भोले पन से आचार्य गर्ग और महर्षि शाण्डिल्य की ओर देखकर पूछा कन्हैया नें ।

अब सबका आशीर्वाद लो ………आचार्य नें हँसते हुये कहा ।

कन्हैया नें प्रथम अपनी मैया यशोदा के चरण छूए ……..सजल नेत्रों से आशीष दिया मैया नें ….और अपनें हृदय से लगा लिया ।

फिर बाबा नन्द जी के चरण छूए …….पर पहले ही उठा लिया बाबा नें और चूम लिया कपोलों को ।

फिर रोहिणी मैया के .. …………इसके बाद आचार्य गर्ग महर्षि शाण्डिल्य समस्त विप्र वर्ग के ……।

विप्रों नें स्वस्तिवाचन द्वारा आशीर्वाद दिया नन्दनन्दन को ।

गोपियों नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए ………….नही नही ……पुष्प बरसानें तो देवों नें भी शुरू किये थे …..मंगल गान …..वाद्य……..सब बजनें लग गए ………आगे आगे गौओं को किया और पीछे चल दिए कन्हैया ………चारों ओर से जयजयकार हो रही है ।

तभी – “गोपाल बाल की ……जय जय जय !

“बाल गोपाल की ……जय जय जय !

ये ध्वनि, ये उदघोष गणपति गणेश नें किया था …….और नभ में वही आनन्दित होकर नृत्य कर रहे थे आज ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 89

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 89)


!! ब्रह्मा द्वारा नन्दनन्दन की स्तुति – “ब्रह्मस्तुति” !!

हंस में बैठे ब्रह्मा की इतनी भी हिम्मत नही हो रही कि वे कन्हैया से आँखें मिला सकें…….वो आँखें बन्द ही किये रहे कुछ देर…….फिर संम्भलकर हंस से उतरे……और साष्टांग कन्हैया के चरणों में प्रणाम किया उन्होंने…..प्रणाम मात्र नही किया , चरणों में लोट पोट हो गए थे ।

उस समय नन्दनन्दन के पास कोई नही था ………ग्वाल सखाओं को बछड़ों के साथ भेज दिया था ……वे मुरली मनोहर अकेले थे …….कदम्ब के वृक्ष में खड़े थे……..पर ब्रह्मा की ओर एक बार भी नही देखा कन्हैया नें ……..वे वृन्दावन की शोभा देखते रहे …..या कभी मोरों का नृत्य …………पर भूलकर भी ब्रह्मा की ओर तो देखा ही नही ।

ब्रह्मा को कुछ नही सूझ रहा …….वे डर रहे हैं ………..विधाता किससे डर रहा है …..एक 6 वर्ष के कन्हैया से ………..ब्रह्मा को अब कुछ दिखाई नही दे रहा …….बस दिखाई दे रहा है तो वो कन्हैया जो पीताम्बर धारण किये हुए है …..मुरली निनाद कर रहे हैं….और बीच बीच में खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं………….

नौमी ! हे नन्दनन्दन आपके चरणों में मेरा नमस्कार है ।

ब्रह्मा स्तुति कर रहे हैं……..

हे बाल कृष्ण प्रभु ! आप कितने अद्भुत रूप सौन्दर्य से भरे हुए हैं …..आपके हृदय में ये जो गुंजा की माला है कितनी शोभायमान लग रही है………और ये जो पीताम्बरी है ….जो वायु के कारण फहर रही है …….उससे तो हे शोभा सिन्धु ! आपका रूप दिव्यातिदिव्य हो गया है…….और हाँ …..ये आपके द्वारा बज रही बाँसुरी तो समस्त जीवों के ह्रद ताप को दूर करनें में समर्थ लग रही है …..हे पशुपांगज ! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम !

ब्रह्मा स्तुति कर रहे हैं……..”.ये आपका प्रेमावतार है ……..प्रेम में भला क्या विधि और क्या निषेध ? मैं भी मूढ़ हूँ……..इस बात के लिये मैं आपकी ही परीक्षा लेनें चल पड़ा…….ऐसे ही जैसे कोई बालक अपनें पिता की परीक्षा लेता हो ।

पर आपको मुझे क्षमा करना ही पड़ेगा ।

क्यों क्षमा करना पड़ेगा ?

गुस्से से मुँह गेंद की तरह फूला हुआ है नन्हे कन्हैया का ।

क्यों की नाथ ! बालक जब अपनी माँ के गर्भ में होता है …..तब वो भी तो अपराध करता है ……अपनी माँ को पैरों से मारता है …….पर माँ कभी इन अपराधो पर ध्यान नही देती……ऐसे ही आप भी मेरे द्वारा किये गए अपराधों को क्षमा करें ।

इन लीलाओं का मुझे दिखाना ये भी आपकी कृपा ही है मेरे प्रति ।

नाथ ! आपकी कृपा तो निरन्तर बरस ही रही है…….इसलिये कृपा की प्रतीक्षा नही करनी …..समीक्षा करनी है ……क्यों की सब कृपा है ।

मूर्ख है ये जीव ………ये सुख को तो कृपा समझता है …पर दुःख को कृपा नही मानता …….. वो ये नही सोचता कि …….दुःख तो परमकृपा है आपकी ……इस दुःख से ही तो जन्मांतरों के पाप ताप हमारे नष्ट होते हैं …….तब प्रेम के पुष्प खिलते हैं…….ब्रह्मा जी स्तुति कर रहे है ।

जाओ हम तुमसे नही बोल रहे ……..नन्दनन्दन नें मुँह फुला कर कहा ।

ब्रह्मा फिर उन ग्वाल सखाओं द्वारा सेवित चरणों में अपना मुकुट झुकानें लगे ………….

नाथ ! एक बात हम पूछ रहे हैं आप उत्तर दीजिये !

ब्रह्मा नें प्रश्न किया ।

हाँ पूछो …………मुँह मोड़ते हुए कन्हैया नें कहा ।

ये बृजवासी आपके सखा आपसे इतना प्रेम करते हैं ………आप इनको क्या दोगे इसके बदले में ?

तुमसे मतलब ब्रह्मा ! नन्हे से सुकुमार नें टका सा जबाब दिया ।

नहीं , फिर भी ……बताइये तो ! क्या देंगे इनके प्रेम के बदले में ?

कन्हैया बोले………मुक्ति दे देंगे !

मुक्ति देंगे ? हँसे ब्रह्मा ।

मुक्ति तो आपनें मारनें के लिये आई पूतना को भी दी…….उसके पूरे खानदान को दी ……..फिर वही मुक्ति इनको भी ?

प्रेम करनें वालों को भी मुक्ति ….और द्वेष रखनें वालों को भी ?

ब्रह्मा नें व्यंग किया ।

फिर ?

आहा ! अपनें प्रिय ग्वाल सखाओं की बातें सुनकर ये कितनें प्रसन्न हो गये थे ।

फिर हम क्या दें ब्रह्मा ? मासूमियत से पूछ रहे थे ब्रह्मा से ही ।

बस, भगवन् ! प्रेम के बदले देंने के लिये आपके पास कुछ नही है ………आपको तो इन बृजवासियों का ऋणी होकर ही रहना पड़ेगा ।

फिर ब्रह्मा भाव विभोर हो गए ………और कहनें लगे –

इन ग्वाल बालों की बातें मैं कहाँ तक करूँ ……….इनके भाग्यों को देखकर तो मैं ही ईर्ष्या से भर उठा था …….आहा ! पूर्णब्रह्म को इन्होंनें अपना सखा बना लिया ………..ये सौभाग्य किसे मिला है ।

ब्रह्मा रोते रहे ….चरणों में गिड़गिडाते रहे …..पर कन्हैया का हृदय पसीजा नही …………….

तात ! ब्रह्मा नें अब देखा कन्हैया तो मुझे देखकर और क्रोध से भर रहे हैं ……..कहीं ऐसा न हो कि मुझ से कह दें ……विधाता ! अब तुम ब्रह्मा की गद्दी के लायक नही रहे ……छोड़ दो ये ब्रह्मा पद ।

डरके मारे उठे ब्रह्मा ………और तीन परिक्रमा की नन्दनन्दन की ।

पर तीन परिक्रमा क्यों ? विष्णु, राम, कृष्ण इन की तो चार परिक्रमा होती है ना ! प्रश्न किया विदुर जी नें ।

“डर से”……..उद्धव नें उत्तर दिया ।

डर गए थे अंदर से ब्रह्मा……..उन्हें लगा – कहीं मुझे ब्रह्मा पद से ही न हाथ धोना पड़े …….इसलिये मात्र तीन परिक्रमा ही देकर भागे ।

हँसे विदुर जी……और बोल उठे – नन्दनन्दन आपकी सदा हीं जय हो ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 88

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 88)


!! जब ब्रह्मा का मोह भंग हुआ !!

कन्हैया अपनें से भी ज्यादा , प्रिय जनों का ध्यान रखता है ।

वो प्रिय जन, जो सबकुछ मानते हैं कन्हैया को ही ….कैसे ध्यान न रखें उनका अजी ! भक्त प्रिय हैं कन्हैया को ……….तात ! मुझ से स्वयं कन्हैया नें कहा था एक बार ……….मुझे ब्रह्मा इतनें प्रिय नही हैं …..न रूद्र, न मेरी अंगसंगा लक्ष्मी और न स्वयं मैं ……….मुझे तो मेरे प्रेमी जन सबसे ज्यादा प्रिय हैं ………और प्रेमी वह है …..जो स्वर्ग न चाहे ….न वैभव …..यहाँ तक की मुक्ति को भी ठुकरा दे……..वो चाहता है केवल मुझे ।

तात ! ब्रह्मा का अपराध अक्ष्म्य है ………..क्यों की एक वर्ष तक उनके प्रिय ग्वाल सखाओं को ब्रह्मा नें दूर रखा ।

पर आज बुद्धि काम नही कर रही विधाता की ……..उनकी बुद्धि मानों जबाब दे गयी है अब…….गगन से नीचे वृन्दावन की ओर देखा ब्रह्मा नें……….चारों सिर झुकाकर देख रहे थे……….

.ये क्या ?

ग्वाल सखा तो मेरे पास हैं ……..गुफा में छुपाकर आया हूँ उन्हें , फिर यहाँ कैसे ?

ब्रह्मा नें सोचा कहीं ग्वाल बाल गुफा से बाहर तो नही आगये ………..पर ऐसे कैसे आजायेंगे ? हंस को उड़ाया ब्रह्मा नें और गए उसी गुहा में ।

देखा …………पर वहाँ तो सब ग्वाल बाल गहरी नींद में सो रहे हैं …..माया का प्रभाव पूरा है उनके ऊपर ।

ब्रह्मा का चारों मस्तक चकराया ……..यहाँ हैं तो वहाँ कौन है ?

ब्रह्मा फिर चले वृन्दावन की ओर ……..तो मार्ग में क्या देखते हैं …….अनन्त विष्णु चले आरहे हैं सामनें से …………एक दो विष्णु नही हैं अनन्त हैं …….ब्रह्मा के कुछ समझ में नही आरहा ।

तभी सामनें से भगवान रूद्र चले आरहे हैं ……..एक दो रूद्र नही, ब्रह्मा नें देखा अनन्त रूद्र , ब्रह्मा असमंजस में हैं. ………वो सिर पकड़ कर बैठ गए हंस में ही …….पर ये क्या अब सामनें से ब्रह्मा चले आरहे हैं ………..पर ब्रह्मा अब चिंतित होनें लगे थे …..क्यों की ब्रह्मा भी एक नही थे ……अनन्त थे ……….किसी के चार मुख थे तो किसी के आठ …..कोई बत्तीस मुख वाला ब्रह्मा था ……।

ब्रह्माण्ड कितनें ? तात ! ये कोई बता सकता है क्या ?

अनन्त हैं ………कोई संख्या नही है ………..जब ब्रह्माण्ड अनन्त हैं …..तो उन ब्रह्माण्डों के विष्णु भी अनन्त ही होनें चाहियें ……फिर रूद्र भी ….और ब्रह्मा भी ।

उद्धव कहते हैं – घबराहट होनें लगी ब्रह्मा को……ये सब क्या है ?

हंस में फिर उड़े वृन्दावन के लिये ……….वो वृन्दावन में पहुँचे ही थे कि – ग्वाल सखा अब कोई नही दिखाई दे रहा ब्रह्मा को ….सबके सब कन्हैया ही दिखाई दे रहे हैं …..ग्वाल बाल कन्हैया ……..बछड़े कन्हैया ……..सब कन्हैया ।

ब्रह्मा समझ गए कि ये परमसत्ता हैं …..हम ब्रह्मा विष्णु महेश को भी जो उत्पन्न करनें वाले हैं ये वो परम आस्तित्व हैं ………..यही हैं वो ।

नेत्रों से विधाता के झरझर अश्रु बहनें लगे ………….मुझ से अपराध हो गया ……….मैं अनन्त की परीक्षा लेनें चला था ! डर रहे हैं ब्रह्मा उस नन्हे से कन्हैया से ………पर वो मुस्कुरा रहा है …………उफ़ ! उसकी हँसी ………..ब्रह्मा देह सुध भूल गए थे ।

कुछ ही देर में उनको होश आया ……तो वे फिर चले गुफा में ………जहाँ ग्वाल सखाओं और बछड़ों को कैद कर दिया था ब्रह्मा नें ।

उनको लेकर वृन्दावन आये………..वृन्दावन में आते ही ग्वाल बाल सब आनन्द से दौड़ पड़े थे कन्हैया की ओर ……..पर माया के द्वारा इनको पता ही नही चला कि एक वर्ष तक का वियोग इनका हो गया है ।

ये तो दौड़कर अपनें प्राण सखा कन्हैया से मिले ………..पर कन्हैया ज्यादा उत्साह से मिला …..कन्हैया के नेत्रों से तो अश्रु भी गिर रहे थे ।

ये सब देखकर ब्रह्मा कांपनें लगे …..उन्हें डर लगनें लगा …….कहीं कन्हैया मुझे ब्रह्मा के पद से ही न हटा दें………….वो हंस में ही बैठे नीचे वृन्दावन में उतरे………..अपनें हाथों को जोड़ रखा था विधाता नें …………उनके आठों नेत्र बन्द थे ……….वो मुरली मनोहर का ही ध्यान कर रहे थे………आहा !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 87

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 87)


!! उन दिनों बृज की हर कन्या ब्याही गयी थी… !!

ब्रह्मा नें कन्हैया की परीक्षा लेनी चाही ! कन्हैया की ?

जिनसे स्वयं ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं ..नही नही एक ब्रह्मा नही ….अनन्त अनन्त ब्रह्मा…..तात ! प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अलग अलग त्रिदेव हैं ये सब कन्हैया से ही प्रकट होते हैं …….ऐसे कन्हैया की परीक्षा !

नन्दनन्दन के प्राणप्रिय सखाओं को गुफा में छुपा दिया ..मात्र सखाओं को ही क्यों बछड़ों को भी ….और योगमाया से सुला कर छोड़ दिया ।

उस समय स्वयं ही कन्हैया को सब बनना पड़ा ……एक वर्ष तक के लिये ………ग्वाल बाल कन्हैया बनें , बछड़े कन्हैया बनें …….।

अकेला रह गया था उस एक वर्ष के लिये हमारा कन्हैया ……..बिल्कुल अकेला…….क्यों की उन एक वर्ष में कोई नही था कन्हैया के पास ……न उसके सखा , उसके बछड़े न बछिया ……..क्यों की सब स्वयं ही तो बन गए थे ।

एक दिन राधिका नें अपनें भाई श्रीदामा को देखा ……तो वो चौंक गयीं………बिना कुछ बोले चली गयीं थीं अपनें महल में ।

राधे ! ओ राधे ! पहली बार श्रीदामा नें अपनी बहन का नाम लिया था ………पर ये श्रीदामा था कहाँ ……ये तो कन्हैया ही बना था ।

रो गयी थीं उस दिन राधिका ……………कुछ नही बोलीं ।

ललिता सखी नें बहुत पूछनें की कोशिश की ……..पर श्रीजी नें कोई उत्तर नही दिया था ………….।

हाँ…….एक दिन वृन्दावन में कन्हैया के कर पकडे थे राधिका नें ….

उस समय वहाँ सब सखा थे ……….पर इस रहस्य को राधिका नही समझेंगी ?

ये क्या लीला है ? आँखों में आँखें डाल कर पूछ रही थीं ।

सजल नेत्र हो गए थे कन्हैया के उस दिन …………मैं कभी क्षमा नही कर पाउँगा विधाता को हे राधे ! मेरे सखाओं से उसनें मुझे दूर किया है ।

मैं बिल्कुल अकेला अनुभव कर रहा हूँ इस समय ……………मैं ही सब बना हूँ …………मैं ही हूँ ये सब ग्वाल सखा …बछड़े सब ।

समझ गयीं श्रीराधा रानी ………..प्यारे ! अपनें हृदय से लगा लिया था उस लीलाधारी को श्री जी नें ।

विचित्र हैं वो तपस्विनी पौर्णमासी भी ………..आज ढिढ़ोरा पीट दिया पूरे वृन्दावन में …………….आनें वाले 12 वर्षों तक विवाह का कोई मुहूर्त नही है ………है भी तो ऐसा सुन्दर नही है ……………

इन दिनों कुछ ज्यादा ही प्रसन्न हैं ये पौर्णमासी …………ये परमतपस्विनी हैं ………..ये सब कुछ समझती हैं …………

जिधर इनकी दृष्टि जाती है ……सब तरफ कन्हैया ही कन्हैया ।

ग्वाल सखा कन्हैया …..बछड़े कन्हैया ………ग्वाल सखाओं की पीताम्बरी कन्हैया ……उनकी लकुट कन्हैया ………..बछडों के गले में लटकी घण्टी कन्हैया ।

पौर्णमासी आनन्दित है इन दिनों ……..उसनें ढ़िढोरा और पीट दिया है……वो चाहती है …….सबका ब्याह कन्हैया से ही हो जाए ।

आहा ! इससे बढ़िया संयोग और कहाँ मिलेगा ?

अच्छा ! क्या ये बात सच है ! सब बृजवासी आकर पूछनें लगे पौर्णमासी से …………….

हाँ …….बारह वर्षों तक एक भी मुहूर्त नही है ………..ये अद्भुत मुर्हूत है ……..अपनी अपनी पुत्रियों का ब्याह करा दो ……कुछ दिनों में ही ।

बृजवासी फिर पूछते महर्षि शाण्डिल्य से ……..क्या ये सच है ?

इस रहस्य से ये भी तो अवगत थे ………..तो ऋषि मुस्कुरा जाते …….वो समझ गए हैं ……पौर्णमासी प्रत्येक गोपियों का ब्याह कन्हैया के साथ में ही करवाना चाहती हैं ………..ये आनन्द का प्रसंग था …….जीवन की सफलता थी इन गोपियों के लिये ……..कन्हैया ही वास्तव में इनके भर्ता बन रहे थे ।

हाँ …….पौर्णमासी भला झुठ कह सकती हैं …………..करवा दो ब्याह इसी समय जो जो ग्वाला तुम्हे प्रिय लगे ……..उसके साथ में …….

पर ऋषि ! हमारी बेटी तो अभी छोटी है …………कोई कहता …..

तो पौर्णमासी बीच में ही बोल पड़तीं …..कुछ नही होगा ………बड़ी हो जायेगी तब गौना करवा देना …………अभी ब्याह करवा ही दो ।

उद्धव आनन्दित होकर कह रहे हैं …..तपश्विनी पौर्णमासी इस बात को भी समझ गयीं थीं कि … आनें वाले समय में रास लीला होनें वाली है …..तब क्यों न इन सबको कन्हैया की ही बहुरिया बना दिया जाए ।

और आनन्द का क्षण था वो ………..जब हर वृन्दावन की कन्या ब्याही ………उस समय जिन जिन गोपों के साथ गोपियों का ब्याह हुआ वो सब तो कन्हाई ही थे……….आनन्द छा गया वृन्दावन में ।

पर ऊपर से विधाता ब्रह्मा देख रहे हैं …………उनकी बुद्धि अब काम नही कर रही …….क्यों की कन्हैया नें दूसरी सृष्टि प्रकट कर दी थी ।

तात ! इसे हारना नही आता ….कन्हैया जिद्दी है ………..चाहे कुछ भी हो जाए जीतेगा …..ये कन्हैया है ………भले ही रोकर जीतेगा पर जीतेगा । ……..यहाँ तो साल भर तक इसे अकेले रहना पड़ा …………किन्तु ब्रह्मा को हरा कर ही माना …………ये अपना कन्हैया है …….अपनों का पक्ष पहले लेता है ……….इसे मतलब नही है देवताओं से ….इसे मतलब है अपनें जन से …….अपनें लोगों से ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 86

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 86)


!! “सर्वरूप कन्हैया”- विधि मोह !!

कन्हैया नें मन ही मन कहा – ब्रह्मदेव ! देखो मेरी सृष्टि !

इसमें जीव नही है …..पंचभूतादि का कारण नही है ….कोई कर्म नही है …..न संस्कार हैं …..न प्रारब्ध ……फिर भी देखो ! मेरी सृष्टि !

तुम्हे ये सब चाहिये तब तुम्हारी सृष्टी बनती है ……..पर मुझे ! मात्र मेरे एक संकल्प की आवश्यकता है ।……अहंकार किस बात का ब्रह्मदेव !

तुम्हारी सृष्टि सामग्री मूलक है …..पर मेरी सृष्टि मात्र मेरे संकल्प से तैयार हो जाती है …………देखो !

उद्धव कहते हैं – तात ! देखो ब्रह्मा जब ग्वाल बछड़ों को चुराकर ले गए ………तब हँसते हुए कन्हैया अपनें संकल्प से स्वयं ही ग्वाल बन गए …….बछड़े बन गए ……..जितनी संख्या थी ग्वालों की उतनें ही बनें …….जैसा उनका स्वभाव था वो सब कन्हैया ही बन गए थे ।

इस रहस्य को अभी ब्रह्मा नें नही समझा ………..वो तो लौटकर अपनें ब्रह्म लोक में चले गए………..

पर इधर कन्हैया नें देखा ……ब्रह्मा ब्रह्मलोक जा रहे हैं ……..अगर ये ब्रह्म लोक के भीतर चले गए …….तो पृथ्वी में हजारों वर्ष तुरन्त बीत जाएंगे ………..एक क्षण ब्रह्म लोक का ………पृथ्वी का एक वर्ष होता है …….कन्हैया विचार करते हैं …….ब्रह्मा को रोकना होगा ब्रह्म लोक जानें से …..ऐसा विचार करके एक लीला और करनें की ठानी कन्हैया नें ।

वो ग्वाला कहीं भगवान है ? ये देवता लोग किसी को भी भगवान बना देते हैं ……ब्रह्मा क्रोधित हैं ………..पर उनका क्रोध ज्यादा देर तक ठहरा नही ………..क्यों कि अपनें लोक में वो जैसे ही प्रवेश करनें लगे …..द्वारपालों नें उन्हें रोक दिया ……….”आप नही जा सकते” ।

क्यों ? ब्रह्मा चौंके ……..मेरा लोक और मैं नही जा सकता , क्यों ?

द्वारपालों नें कहा ………नकली हो आप …..ये मुखौटा , चार मुख का मुखौटा लगानें से कोई ब्रह्मा नही हो जाता ……..जाओ जाओ , आप नकली ब्रह्मा हो ……….।

ब्रह्मा चकित हैं ………ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे हैं कि ये हो क्या रहा है ! मेरे ही लोक में ये मेरे ही द्वारपाल मुझे रोक रहे हैं ।

अपनें आपको शान्त किया ब्रह्मा नें ……फिर द्वारपालों से बोले …….हम अगर नकली ब्रह्मा हैं तो असली ब्रह्मा कहाँ हैं तुम्हारे ?

द्वारपालों नें कहा ……भीतर हैं ……..उनकी ही आज्ञा है कि ……..नकली ब्रह्मा आएंगे तो उन्हे धक्के मारकर निकाल देना ………इसके बाद द्वारपाल ये भी बोले ………..हमें धन्यवाद करो कि हम धक्का नही दे रहे हैं …….नही तो ।

ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे …..उनकी बुद्धि चकरा रही है ……….

वो वापस लौटे वृन्दावन में …..उन्हें अब लग रहा था कि …..कहीं कन्हैया की ही सब लीला तो नही है ।

हंस में बैठे चल रहे हैं ब्रह्मा वृन्दावन की ओर …………

तो सामनें दिखाई देते हैं कन्हैया , नन्हे कन्हैया …….हँस रहे हैं ……..ब्रह्मा को देखकर ठहाके लगा रहे हैं ………….

रुक गए ब्रह्मदेव……क्यों की कहाँ जाएँ अब….उन्हें तो सर्वत्र वही कन्हैया ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं…..ब्रह्मदेव के पसीनें आ गए थे माथे में ।

साँझ हो रही है ……..वृन्दावन से लौट रहे हैं कन्हैया ग्वाल सखाओं के साथ…..बछड़ों को प्रेम से हाँकते हुये आरहे हैं ।

सर्वरूप हैं कन्हैया…….बछड़े भी वही बनें हैं ग्वाल सखा भी वही बनें हैं………घर पर लौटे सब ……उन ग्वालों की माताओं नें हृदय से लगाया अपनें बालकों को …..पर ये क्या उन्हें आज जितना आनन्द आरहा है ……उतना आज तक नही आया था ।

बछड़े गोष्ठ में लौटे हैं ………आज तक गायों को देखकर बछड़े दौड़ पड़ते थे ….दूध पीनें के लिये ……पर आज कुछ अद्भुत हो रहा था ।

बछड़ों को देखते ही गौएं दौड़ पडीं थीं…….उनके थनों से दूध अपनें आप बहनें लगा था…..इतनें प्रेम से चाट रही हैं अपनें वत्सो को गौएँ …. ये कोई एक दिन की बात नही थी……ये एक वर्ष तक चला था ………।

बलराम जी को कुछ सन्देह होनें लगा ………..एक दिन एकान्त में कन्हैया का हाथ पकड़कर दाऊ नें पूछा भी …….क्या लीला चल रही है कन्हैया ? कन्हैया हँसे ……..दाऊ ! बेटा अपनें बाप को बनानें चला था ……….वो ब्रह्मा ये भी समझते नहीं कि …….मैं उनका पिता हूँ ……तो मैं उनसे ज्यादा ही जानता हूँ ………ये कहते हुए हँसे थे कन्हैया ।

दाऊ भी अब प्रसन्न हुए ………मैं सोच ही रहा था कि ……..बछडों को गौएँ इतना प्यार क्यों कर रही हैं ……….अपनें बालकों को माताएँ इतना दुलार क्यों कर रही हैं ?

कुछ सोचकर फिर बोले बलभद्र – असली ग्वाल बाल कहाँ हैं ?

मेरी परीक्षा लेनें के लिये ब्रह्मा नें चुरा लिया है…….ग्वाल बालों को और मेरे बछड़ो को भी……कन्हैया नें गम्भीर होकर कहा ।

अच्छा ! अब सारी बातें दाऊ के समझ में आगयी थीं ।

तात ! ये लीला ऐसे ही नही रची कन्हैया नें ………….

उद्धव नें विदुर जी से कहा ।

वृन्दावन की हर माता जब यशोदा की गोद में कन्हैया को देखतीं तो अपनें भाग्य को कोसती……भाग्यशाली तो ये बृजरानी है ……जो कन्हैया को लाड लड़ाती है ………गोद में खिलाती है ………हे भगवान ! हमें ये सौभाग्य क्यों नही दिया !

तात ! कन्हैया सबकी सुनता है …..फिर इन परमप्रेमी बृजवासियों की नही सुनेगा ? सुनी ….और सब के बालक स्वयं ही कन्हैया बनकर एक वर्ष तक रहे ……ये सौभाग्य सबको प्रदान किया कन्हैया नें ।

सर्वरूप कन्हैया …………ब्रह्मा अब नभ से देख रहे हैं नीचे ……….वो अब शान्त नही हैं उनका हृदय अशान्त हो उठा है …………उनका अहंकार चूर्ण चूर्ण कर दिया है कन्हैया नें ……..ब्रह्मा चकित हैं …..ग्वाल बाल तो मेरे पास हैं ………पर नीचे वृन्दावन में ये कौन हैं …..बछड़े तो मैने चुरा लिए हैं …..फिर ये बछड़े कहाँ से आये ।

ब्रह्मा चकरा गये ………वो कुछ समझ नही पा रहे हैं ।

उद्धव अब आगे बताते हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 85

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 84)


!! ब्रह्मा को जब मोह हुआ….!!

“विधि” , ये नाम है ब्रह्मा जी का…..क्यों की यही तो विधान बनाते हैं ।

शास्त्रीय विधि, श्रोत स्मार्त विधि, हर क्रिया का विचार विवेक ……

ये सब ध्यान में रखते हैं ब्रह्मा जी ।

तात ! नन्दनन्दन की लीला का दर्शन करनें आगये थे यहाँ, सृष्टी का कार्य छोड़कर आये थे ……….

देवता सब “जय हो नन्दनन्दन की”…..कहकर जयघोष कर रहे थे ।

हंस में विराजे ब्रह्मा नें भी देखना चाहा कन्हैया को ……..पर उस समय तो इनका “वन भोज” चल रहा था……..और उस वन भोज में कोई विधि नही थी…….न कोई विधान था ।

कन्हैया खा रहे हैं…….ग्वाल सखा अपनें घरों से लाई हुई वस्तुएँ कन्हैया के मुख में दे रहे हैं…….कन्हैया भी खा रहे हैं……..यहाँ तक ब्रह्मा को कोई दिक्कत नही थी…….कन्हैया अपनी जूठन प्रसादी ग्वाल सखाओं को दे रहे हैं……..या उनके मुख में डाल रहे हैं ।

पर ब्रह्मा को दिक्कत यहाँ हुयी कि ……ग्वाल बालों नें अपनें मुख का जूठा जब कन्हैया को देना आरम्भ किया ।

उद्धव कहते हैं – तात विदुर जी ! ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे हैं ……ये स्वयं कर्म में लिप्त हैं ……..सृष्टि का कार्य कर्म बन्धन ही तो है …..रजोगुण के बिना सृष्टी होगी कैसे ?

पर ये तो त्रिगुणातीत लीला है……..ये तो विधि निषेध से परे की लीला है…….ये प्रेम की लीला है ।

तात ! जब तक आप ईश्वर से विमुख हो ……आपको विधि निषेध की आवश्यकता है ……….पर जो ईश्वर के सदैव सन्मुख है …….जिसका मन बुद्धि चित्त में बस ईश्वर ही समा गया हो …….उसे क्यों पड़ी है विधि निषेध की ? उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

आहा ! ये लड्डू कितना बढ़िया है …………मधुमंगल लड्डू खाते हुये प्रसन्न है ……..फिर उसके मन में आता है ……….धत् ! ये लड्डू तो कन्हैया को खिलाना था ……….मुँह से निकाल कर कन्हैया के मुख में दे देता है मधुमंगल ।

“ये मठरी है”……कोई ग्वाल सखा कह रहा है…..कन्हैया कहते हैं – मुझे दे ……..नही दूँगा पहले मैं चखूंगा ………..कहीं नमक या मिर्च ज्यादा तो नही है ! ये कहते हुए वो सखा मठरी को चखता है ………हाँ ……बढ़िया है ……..वो चखा हुआ फिर कन्हैया के मुख में ।

ये प्रेम लीला है ……..प्रेम का मार्ग अलग ही है …..उसमें न विधि है न निषेध है ………प्रेम – बस प्रेम है ।

ये क्या लीला है ? ब्रह्मा को अपना माथा पीटना ही पड़ा ।

ब्रह्मा की निपुणता सृष्टी के कार्यों में है …..इन प्रेम लीलाओं में नही है ।

आप सदैव बुद्धि से ही काम लेते हो ………पर कोई कोई प्रसंग ऐसे होते हैं ……….जहाँ बुद्धि और तर्क काम नही देते …….वहाँ तो हृदय से देखो …..हृदय से दर्शन करो , न कोई तर्क , न कोई वितर्क ।

कुछ कुछ क्रोध भी आनें लगा अब ब्रह्मा जी को…….तुम इसे ईश्वर मान रहे हो……जो विधि निषेध की धज्जियाँ उड़ा रहा है……..ईश्वर गम्भीर है……..ईश्वर अवतरित होकर वैदिक विधि का ससम्मान स्वयं पालन करता है……क्यों कि उसे हम जीवों से यही करवाना है ।

देवता सब चुप हो गए हैं अब …..ब्रह्मा जी नें आकर इस प्रेम लीला में अपनें तर्क का प्रयोग करना शुरू कर दिया था …….जिससे लीला का रस अब देवों को मिल नही रहा ।

तभी – हरी हरी दूब का लोभ बछड़ों को दूर ले जाता है……..ये सब ब्रह्मा नें तुरन्त किया था……उन्हें अपनें आपको बड़ा साबित करना था ।
ग्वाल सखाओं नें देखा……..कन्हैया ! अपनें बछड़े कहाँ गए ?

कन्हैया उठ कर खड़े हो गए थे एकाएक…….गम्भीर होकर उन्होंने नभ की ओर देखा था …….पर तुरन्त उनके मुख मण्डल पर एक अद्भुत हास्य तैरनें लगा ……मानों कह रहे हों…….”पुत्र ! आज अपने पिता की परीक्षा ले रहे हो ” !

सखाओं ! तुम सब खाते रहो…..मैं देखकर आता हूँ बछड़ों को ।

इतना कहकर अकेले कन्हैया हाथ में दही भात लिये ही उठे …….और बछड़ों को खोजनें चल पड़े थे ।

हँसे ऊपर से विधाता ब्रह्मा …….बछड़ों को चुरा लिया था ब्रह्मा नें ।

बछड़े नही हैं………दूर तक जाकर भी देखा कन्हैया नें ……..पर कहीं नही हैं……..चलो ! आजायेंगे ……ऐसा कहते हुये लौटे कन्हैया जहाँ उनके ग्वाल सखा थे ।

पर ये क्या ! यहाँ अब कोई नही है………ग्वाल सखाओं का भी हरण कर लिया था ब्रह्मा नें ।

ब्रह्मा देख रहे हैं कि – ये करता क्या है अब ?

मानों अब चुनौती दी कन्हैया नें ब्रह्मा को ।

तुम्हे सृष्टी का रहस्य अभी तक समझ में नही आया ब्रह्मा !

अहंकार करते हो कि मैं ही बनाता हूँ सृष्टि !

अरे ! तुम क्या बनाओगे ? बताओ क्या बनाते हो तुम ?

जीव तुम बनाते हो ? जीव तो अनादिकाल से है ।

जीव का अन्तःकरण बनाते हो ? अरे ! जब जीव है तो अन्तःकरण भी उसका है ……..उसमें वासना है , कर्म है , उसके अनुसार ही तो ब्रह्मा एक शरीर दे देते हैं ।…….फिर ब्रह्मदेव ! तुम बनाते क्या हो ?

मैं तुम्हे अब समझाता हूँ – सृष्टि का रहस्य क्या है ?

ये कहते हुए वो नन्हा सा कन्हैया हँसा ………..और देखते ही देखते दूसरी सृष्टि बना दी कन्हैया नें ।

अब यहाँ न अन्तःकरण की आवश्यकता थी ……..न कर्म न वासना …..न जीव ………….पर सब कुछ वैसा ही ……..।

विदुर जी पूछते हैं – ये कैसे किया नन्दनन्दन नें ?

उद्धव उत्तर देते हैं – ये नन्द नन्दन हैं ……सृष्टी के मूल में यही हैं …..ब्रह्मा विष्णु शंकर ये सब नन्दनन्दन की सृष्टि के ही एक हिस्सा हैं ।

स्वयं बन गए तात ! नन्दनन्दन स्वयं बन गए …….बछड़े बन गए , बछिया बन गए ……..ग्वाल बाल सब बन गए ।

ब्रह्मा को सृष्टि का कार्य स्मरण हो आया था …..तो वे हंस में बैठकर चल पड़े अपनें ब्रह्म लोक में ……………

यहाँ लीला चल रही है ………एक वर्ष तक कन्हैया ही बने हैं सब ….ग्वाल बाल बछड़े बछिया , सब ।

क्यों की ब्रह्मा का एक क्षण, ब्रह्म लोक का एक क्षण यहाँ पृथ्वी में एक वर्ष हो जाता है ….और एक वर्ष तक ये लीला चलती रही थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 84

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 84)

!! “जे तो जूठो खावे” – भक्तिवश्य भगवान् !!

मनसुख ! ओ रे मनसुख ! तू नाय लाओ अपनें घर ते कछु खायवे कुँ ?

वनभोज में सब ग्वाल सखा कुछ न कुछ अपनें घर से लाये थे ……पर मनसुख कुछ नही लाया था …….लाता भी कहाँ से ……इसकी माँ “तपश्विनी पौर्णमासी” वो स्वयं फलाहार करती हैं……वो भी सप्ताह में एक बार…..मनसुख नन्द भवन में ही खाता है ……ये कहाँ से लाये !

इतना सब है तो ! कितना खायेगा तू ?

मनसुख नें सामनें रखे भोज्य पदार्थों को दिखाते हुए कहा ।

“पर हम तो तेरे घर का खाएंगे”………….प्यारा सखा है मनसुख ……..कन्हैया इसे बहुत प्रेम करते हैं ।

कुछ भी खिला दे अपनें घर का यार ! अजीब जिद्द है सखा की ।

मैं ? मनसुख कुछ सोचनें लगा ………….

अरे भाई ! इतना क्यों सोचते हो………जो भी हो ले आओ !

भद्र नें भी कहा ।

मनसुख कुछ सोच रहा है…….माता की कुटिया में मैने गुड़ देखा था ।

गुड़ खायेगा ? मनसुख नें एकाएक पूछा कन्हैया से…….

सारे सखा हँसनें लगे…….गुड़ खिलायेगा कन्हैया को !

ऐसा वैसा गुड़ नही है………बहुत स्वादिष्ट गुड़ है …….तुम लोगों नें खाया नही होगा…….मनसुख बोल रहा है ।

अब बोलता ही रहेगा या ला कर खिलायेगा भी ?

कन्हैया नें मनसुख को “शीघ्र जा” कहकर धक्का दिया ।

अच्छा ! अच्छा ! अभी गया ……बस गया और गुड़ लेकर आता हूँ । मनसुख अपनें घर की ओर दौड़ा ।

कुटिया में गया ……मनसुख की माता पौर्णमासी ध्यान में लीन थीं ।

मनसुख खोजनें लगा गुड़ …………पूरी कुटिया इधर उधर कर दी ……सारा सामान अस्त व्यस्त कर दिया ……..पर गुड़ नही मिला ।

विध्न हुआ ध्यान में तो पौर्णमासी का ध्यान टूटा ……..उनका पुत्र मनसुख कुछ खोज रहा है …………….

मौन हैं इस समय मनसुख की माता ……..इशारे में पूछा ……क्या चाहिये ? मनसुख चिल्लाके बोला ……गुड़ कहाँ है माँ ? मैने दो दिन पहले यहाँ गुड़ देखा था …………मनसुख चरणों में बैठ गया अपनी मैया के ………माँ ! कन्हैया नें आज पहली बार मुझ से कुछ खानें के लिये माँगा है……..बड़े प्रेम से माँगा है माँ ! गुड़ कहा ?

पौर्णमासी नें इशारे में ही कहा – उस थैले में गुड़ है ……..गुड़ पुराना है …..पुराना गुड़ फायदे मन्द होता है ।

मनसुख उछलता हुआ थैले को देखनें लगा …..एक काली सी गुड़ की ढेली थी ….ये गुड़ ! …..बड़े अनमनें ढंग से गुड़ को लेकर चल पड़ा मनसुख ।

पर गुड़ को पाने में जितनी शीघ्रता थी मनसुख को ….अब लेकर कन्हैया के पास जानें में नही है ।

पद मनसुख के बढ़ नही रहे कन्हैया की ओर ……गुड़ हाथ में ही है …..वो तोड़नें की कोशिश करता है …….पर नही टूट रहा ।

इतना कठोर गुड़…..हाय ! कोमल मेरा कन्हैया है …….वो इस गुड़ को खायेगा ?

मन दुःखी हो गया मनसुख का ………पहली बार कन्हैया नें मुझ से कुछ खानें को माँगा है …….और मैं ये गुड़ खिला रहा हूँ उसे !

मनसुख ये सब सोचते हुए जा रहा है ।

पहुँच गया कन्हैया के पास में ।

“ये रबड़ी तो खा ! बस ! इतनी ही खायेगा ?

एक सखा मनुहार कर रहा था ……कन्हैया मना कर रहे थे ।

मनसुख वहीँ रुक गया …..उसके पद आगे बढ़ नही रहे अब ।

वो रबड़ी खा रहा है ……उसके सखा उसे खीर खिला रहे हैं ….और मैं ?

टप् टप् आँसू बहनें लगे मनसुख के …….”.रहनें दे …….इस गुड़ को तू कन्हैया को मत खिला” ……….मन ने ही मनसुख को रोका ।

सब सखाओं नें देखा मनसुख आगया है ………..पर दूर खड़ा है …..पता नही क्यों ?

अब कन्हैया नें भी मनसुख को देखा ……..वो दौड़े उसके पास ।

मनसुख देख रहा है ………..ये जिद्दी है ………ये गुड़ तो अवश्य खायेगा …पर उसके कोमल जबड़ों को कितना कष्ट होगा ………..

कन्हैया दौड़ रहे हैं ……..पास में पहुंचनें ही वाले है ।

इसे मैं ही खा लेता हूँ ………कह दूँगा – कल ले आऊँगा गुड़ !

इतना कहकर मनसुख नें उस गुड़ को अपनें मुँह में डाल लिया ।

ये क्या किया मनसुख ! तू कुछ खा रहा है ……..कन्हैया मनसुख के पास पहुँच गए थे……और पूछ रहे थे मनसुख से ।

लड्डू है……मेरी मैया नें बनाये थे…..काजू, बादाम पिस्ता सब है इसमें….मनसुख जोर लगा रहा है जबड़ों में…..पर गुड़ टूटता ही नही ।

कन्हैया नें गम्भीर होकर कहा ……….हम तो आज तेरे घर का ही खाएंगे …….अब तू कुछ भी कर ……कन्हैया भी अड़ गए ।

देख ! कन्हैया ! जिद्द नही करते ………कल ले आऊँगा तेरे लिये लड्डू ….पक्का ………आज रहनें दे ।

मनसुख से मुँह फुला लिया कन्हैया नें………जा कुट्टी ! नही बोलता मैं तुझ से ।

मुँह फेर कर बैठ गए ।

मनसुख का हृदय तो काँप गया ……उसका सखा उससे रूठ गया है !

पास में आया …………वहीँ बैठ गया मनसुख भी ।

लाला !

ये कहते हुये नेत्रों से मनसुख के झरझर अश्रु बहनें लगे थे ।

लाला ! तेरा ये सखा बहुत गरीब है ……उसके पास कुछ नही है ……

कन्हैया ! ये कोई लड्डू नही …गुड़ है गुड़ ! तू क्या खायेगा इसे ।

क्यों , तू खा सकता है मैं क्यों नही खा सकता ? अब इस कान्हा के प्रश्न का क्या उत्तर दे मनसुख ।

देख ! तू कोमल है ……..और ये गुड़ बहुत कठोर है ……तुझ से टूटेगी भी नही …..फिर तेरे जबड़ों में कष्ट भी होगा ना ! मनसुख नें समझाना चाहा । पर ये जिद्दी मानें तब ना !

“मैं गुड़ को तोड़ दूँगा”…….ऐसा कहते हुए मनसुख का मुँह पकड़ा कन्हैया नें …………और उसके मुँह से वो गुड़ निकाल लिया ……देरी नही की …….अपनें मुख में उस गुड़ को तुरन्त डाल भी लिया था ।

नेत्र बरस रहे हैं मनसुख के ………जब जब कन्हैया कहता है ……तेरे गुड़ जैसा स्वाद आज तक नही आया……..ये कहते हुए अपनें नेत्र बन्द कर रहा है कन्हैया……उसे स्वाद आरहा है ……वो स्वयं आनन्दित है ।

इस लीला का दर्शन नभ से सभी देवी देवता कर रहे हैं ………इन प्रेमावतार की दिव्य लीलाओं से सब मुग्ध हैं ।

पर – नाक मुँह सिकोड़कर अपनें वाहन हंस को वापस चलनें के लिए कह रहे हैं विधाता ब्रह्मा ।

क्या हुआ ब्रह्मदेव ? ये लीला आपको प्रिय नही लगी क्या ?

महादेव नें पूछा ।

ये क्या लीला है ! किसी का जूठा खाना ? ये मर्यादा कहाँ की है ?

महादेव हँसे ……….”ये प्रेमावतार हैं…….इनकी लीलाओं को बुद्धि से मत आंको ……हे ब्रह्मदेव ! इस लीला में विशुद्ध प्रेम तत्व है और कुछ नही……..आहा !

तात ! पर पता नही क्यों भगवान महादेव के मना करनें पर भी आज ब्रह्मा बुद्धि से मापनें चले थे श्रीकृष्ण को …………..

ये बुद्धि से पकड़ में आया है आज तक !……….जो आज आजाता ।

उद्धव नें ये बात कही थी विदुर जी से ।

“भक्तिवश्य भगवान”……लम्बी आह भरते हुये विदुर जी भी बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 83

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 83)

!! “वन भोज” – एक झाँकी !!

नभ आज देवताओं से फिर भर गया है ………..देवराज इन्द्र अपनी पत्नी शची के साथ पहले ही आगये हैं ……….देवता गण अपनें अपनें विमान में बैठे हैं ……….अकेले नही हैं आज ….उनकी अपनी अप्सरायें भी हैं …..जिद्द करके आगयी हैं …..इन्हें आज कन्हैया का “वन भोज” दर्शन करना है …….कल ही कह दिया था कन्हैया नें ………” कल का हमारा भोज वन में ही होगा” , “जय हो”, उछल पड़े थे सब ग्वाल बाल ।

सब अपनें अपनें घरों से कुछ न कुछ लेकर आना ………..हम कल वृन्दावन में ही आनन्द से भोज करेंगे ।

कन्हैया की बात ! सब ग्वाल सखाओं नें अपनें अपनें घरों में कहना शुरू कर दिया था शाम को वन से लौटते ही ।

“तू कल रबड़ी बनाना” एक सखा नें अपनी मैया को कहा ……….कल वन भोज है कन्हैया का ……..तू रबड़ी अच्छा बनाती है कन्हैया को एक बार तेरी बनाई रबड़ी मैने खिलाई थी तो उसे बहुत अच्छा लगा था ।

“मैया ! तू मठरी बनाना” कन्हैया को प्रिय लगती है मठरी …….कुछ तो नमकीन भी होना चाहिये ना ! मेरी बनाई मठरी कन्हैया को अच्छी लगेगी ? उस सखा की माँ ये पूछती है ……..मैया ! बहुत अच्छी लगेगी कन्हैया को ……तू मठरी बना ।

“तू बढ़िया खुटी हुयी खीर”………एक नें ये भी कहा ।

“तू दही भात बनाना” एक सखा नें अपनी माँ से दही भात बनवाई ।

आज इनको नींद आएगी ? उद्धव आनन्दित होकर बोल रहे हैं ।

ये सब आज सोयेंगे ही नही ………..इनका चिन्तन, मनन सब कुछ कन्हैया है……..ये जागते समय भी कन्हैया का चिन्तन करते हैं …..और सोते हुए भी कन्हैया ही इन्हें दीखता है ………..ये बड़े बड़े योगियों से भी महान हैं…….इनका चित्त ही बन चुका है कन्हैया ।

सुबह हुयी , सब आनन्दित होकर उठे …………उनकी माताओं नें वन भोज के लिये जो बनाया था……सब लिया …….स्नान इत्यादि जल्दी जल्दी में किया …..तैयार हुए और चल पड़े नन्द भवन की ओर ।

नन्दनन्दन तो पहले से तैयार हैं ……………आहा ! मोर पंख है सिर में ……..लकुट है हाथ में ………बाँसुरी है फेंट में …….एक तरफ बाँसुरी फेंट में खोस ली है…….और दूसरी तरफ श्रृंगी …………..पीताम्बरी धारण किये हुये हैं………मोतिन की माला ………माथे में गोरोचन का तिलक……..चरण अत्यन्त कोमल हैं ……पर कुछ लगाना नही है इन चरणों में ……….क्यों की इनकी “भूरी” कहाँ लगाती है पादुका ।

सब चल पड़े आज अतिउत्साह से………..बछिया बछड़े लेकर …आगे आगे ये सब हैं इनके पीछे हैं कन्हैया बलराम, फिर सब सखा हैं ………….क्या रूप है क्या सौन्दर्य है …..क्या छटा है ! देवता गण आनन्दित हैं ऊपर नभ में , ये रूप माधुरी कहाँ मिलेगी ?

वृन्दावन में पहुँचते ही बछिया बछड़े कोमल कोमल दूब चरनें लग गए थे …………इधर ग्वाल सखाओं नें कन्हैया को बिठाया ………सुन्दर पीताम्बरी श्रीदामा नें अपनी उतार कर बिछा दी थी ।

गन्दी हो जायेगी तेरी पीताम्बरी ! कन्हैया नें श्रीदामा को कहा ।

हो जानें दे ना ………कोई बात नही ……तू बैठ इसमें ।

कन्हैया को सखाओं की बात माननी ही पड़ती है …..बैठ गए ।

मनसुख आया हँसता हुआ……….वनों के फूलों की माला इसनें अभी अभी बनाई है ………एक माला में वृन्दावन के सारे पुष्प थे ।

कदम्ब के भी , मोरछली के भी , गुलाब कमल, जूही, सब सब ।

हँसते हुए मनसुख नें ये माला कन्हैया को पहनाई …….

सब सखाओं नें आनन्द से करतल ध्वनि की ।

अब सब सखा कन्हैया को घेर कर बैठ गए हैं………..चारों ओर सखा हैं …मध्य में कन्हैया हैं ।

हँस रहे हैं ………..हँसा रहे हैं सब को ।

अपनी पूँछ तो सम्भाल मनसुख !

सब सखा खूब हँसे …….पेट पकड़ पकड़ कर हँस रहे हैं ।

“मुझे भूख लगी है”…….कन्हैया के कहनें की तो देरी थी …………

सब सखाओं नें अपनी अपनी सामग्रियाँ निकालीं ……..

“ये दही भात”……….पहले दही भात ही निकाला एक सखा नें ।

इसे कहाँ रखूँ ? सखा सोच ही रहा था कि कन्हैया नें अपनें छोटे छोटे हाथ आगे कर दिए …………

हथेली में दही भात रख दिया …………..लड्डू है ये , दूसरे सखा नें …….उसी के ऊपर लड्डू डाल दिया ………….कन्हैया नें कहा ……ये तो खट्टा मीठा हो जायेगा ………..तभी तो वन भोज है ये ……तू समझता नही है कन्हैया ……….भद्र झुंझला गया है ।

हाँ …हाँ भद्र ठीक कहता है ………..खट्टा मीठा अच्छा लगेगा ।

कन्हैया को तो उसके सखा जो दें , वही अच्छा लगता है ।

“ये रबड़ी है”……….मनसुख दोंना बनाकर लाया है वन से …..वनों के पत्तों का क्या सुन्दर दोना बना दिया ।

रबड़ी रख दी उसमें ………..

“ये मठरी है”………..मठरी को हाथ में ही ले लिया …………

आहा ! दोनें की संख्या ही पचास से भी ज्यादा हो गए हैं ………..

तुम सब खाओ ……आओ ! कन्हैया नें कहा ।

मनसुख मुँह बनाकर बोला ……तू खा ले …….तेरे खानें से हमारा पेट भर जाएगा………मनसुख कुछ भी कहता है ।

कन्हैया नें भी लिया दही भात और आरोगनें लगे …..हँस रहे हैं ……..दही भात मुँह में लग गया है……….बीच बीच में लड्डू भी खा लेते हैं ……..ओह ! ये क्या …..खाँसी कैसे हुयी कन्हैया को ।

रुक रुक …..अभी मत खाना………ये कहते हुए यमुना जल एक दोनें में भर कर ले आया मनसुख ………यमुना जल पिलाया उसनें ………विचित्र है ये तो ……कन्हैया के पीठ में दो थप्पड़ भी मारा …….फिर बोला …..कन्हैया अब खा …..तुझे खाँसी नही होगी ।

कन्हैया फिर खाने लगे………”नजर मत लगाओ मेरे कन्हैया को”…….

नभ में देखते हुए बोला था मनसुख ….. किसी ओर को नही ……सीधे विधाता ब्रह्मा को देखते हुये बोला था ।

ब्रह्मा तो थोडा सकपका गए थे …..ये पृथ्वी का ग्वाला हमें कैसे देख पारहा है …….पर ये सखा तो अनादि है………..ये रहस्य ब्रह्मा नही समझ पा रहे अभी ।

यज्ञभुग् इन की बाल केलि देखकर मुग्ध हैं ।

…… जय जय हो नन्दनन्दन की ।

यही बार बार कह रहे है सब ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 82

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 82)

!! “जब सब सखा कन्हैया बनें” – बकासुर उद्धार !!

प्रेम तो इन बृजवासियों का है……सब कन्हैया से प्रेम करते हैं ।

तात ! गोकुल त्याग कर वृन्दावन आना ये अपनें आप में प्रेम का प्रमाण था इन बृजवासियों का ।

प्रत्येक बृजवासी , चाहे वो बालक हो या वृद्ध , चाहे पशु हों या पक्षी ……..यहाँ तक की बहती हुयी यमुना की धारा भी कन्हैया से प्रेम करती थी ………प्रेम अद्भुत है इस बृज का …..इसीलिये तो नन्दनन्दन यहाँ अवतरित हुये हैं ।

पर आज रात हो गयी है ……….किन्तु बरसानें का ये युवराज अभी तक सोया नही है ………क्यों ?

श्रीदामा भैया ! तुम सोते क्यों नही हो ?

श्रीजी नें बाहर घूमते अपनें भाई श्रीदामा से पूछा था ।

राधा ! क्या बताऊँ ! आज मैनें अपनी आँखों के सामनें जो देखा उससे मैं विचलित हूँ ……..बहुत विचलित ।

पर आज ऐसा हुआ क्या भैया !

बरसानें की वो लाडिली बात जानना चाहती है ।

वो दैत्य था……बछड़ा बनकर आगया था………हम सबनें उसे देखा………काला बछड़ा ।

ओह ! तो डर रहा है बरसानें का युवराज ! अपनें भाई को छेड़ा श्रीजी नें ।

नही …….लाली ! नही …….हमें डर नही लगता………पर झुठ नही बोलूंगा…….हाँ अपनें सखा कन्हैया को लेकर डर अवश्य लगता है ।

काँप गयीं थीं श्रीजी ।

क्या “उनको” कुछ हुआ ?

नहीं, हुआ नही, कन्हैया नें उस दैत्य को घुमाकर मार भी दिया ……..पर अन्य सखा कह रहे थे ………..गोकुल में तो आये दिन आते रहते थे अपनें कन्हैया को मारने के लिये दैत्य ……..जैसे – पूतना आयी थी …..शकटासुर कागासुर ………..और इन सबको राजा कंस ही भेजता है ………..ये लोग कन्हैया को मारना चाहते हैं ………श्रीदामा नें अपनी बहन राधिका को ये सारी बातें बता दीं थीं ।

कुछ होगा तो नही “उनको”………राधिका का हृदय काँप रहा है ।

सोच रहा हूँ क्या किया जाए……..जो भी हो हमारा कन्हैया बचा रहे ………बाकी तो हम रहें या न रहें…….अद्भुत प्रेम से भरे थे ये लोग ।

कुछ देर सोचनें के बाद ……श्रीदामा के मुखमण्डल में एक चमक आगयी थी ………………..हाँ …….ख़ुशी से उछल पड़े थे श्रीदामा ।

क्या हुआ श्रीदामा भैया ? राधिका नें पूछा ।

राजा कंस नें कन्हैया को तो देखा नही है …………वो अपनें दैत्यों को क्या बताता होगा ……….कि पीताम्बरी धारण करता है कन्हैया ……..बाँसुरी खोंस लेता है अपनी फेंट में …………वनमाला गले में रहती है उसके ……और मोर पंख सिर में लगाता है ।

श्रीदामा प्रसन्नता से बोला ……..अगर यही रूप हम सब सखा धारण कर लें ……तो कन्हैया तक राजा कंस के दैत्य पहुँच ही नही पाएंगे ।

छ वर्ष के हैं श्रीदामा …………..सब छोटे छोटे ही तो हैं ……..पर बालक मन को ये उपाय सूझा अपनें सखा की रक्षा के लिये ।

बस ……..”अब नींद आरही है ……..कल सुबह ही मैं सब सखाओं का यही श्रृंगार कराऊंगा …….जो कन्हैया करता है ……फिर तो किसी को कन्हैया तक पहुंचनें ही नही देंगे …………पहले हम से मिलो …..फिर हमारे कन्हैया से …………..ये कहते हुए हँसा श्रीदामा ……….और अपनें महल में चला गया ……..श्रीजी भी अपनें “प्रिय” का स्मरण करती हुयी अपनें महल में जाकर सो गयी थीं ।

क्या छटा है आज के वत्स चारण की…….एक कन्हैया कहाँ हैं आज …..सब सखा कन्हैया ही बन गए हैं …..सबके सिर में मोर पंख है ……सबकी फेंट में बाँसुरी है ……वनमाला है गले में झूलती हुयी ।

नन्दगाँव का हर व्यक्ति इन सबको देखकर हँस रहा है………

पर तात ! ये छोटे छोटे बालक लोग कन्हैया के प्रेम के चलते …….ओह ! उद्धव आनन्दित होते हैं……विचार करो तात विदुर जी !

जगत का रक्षक , परब्रह्म श्रीकृष्ण , उनकी रक्षा करनें के लिये ये सब सखा……. उन्हीं का रूप धारण करके चल रहे हैं ।

वृन्दावन में पहुँचकर सब खेलनें लगे……और बछिया बछड़े चरनें लगे ।

तभी – बकासुर दैत्य आगया ……..बगुला का रूप धारण करके आया था ये ………और बगुला भी साधारण नही ……….विशाल ।

जाजलि ऋषि , बड़े साधन निष्ठ तपस्वी थे ।

सागर और गंगा जहाँ मिलते हैं ……..भगवान कपिल ऋषि का जहाँ निवास है ऐसे गंगा सागर में बैठ कर भगवान कपिल का सत्संग सुन रहे थे ………….भगवान कपिल बड़े ही प्रेम से अध्यात्म के गूढ़ तत्व का विवेचन करते ……उसी का बाद में ऋषि जाजलि मनन करते ……अपनें में ही शान्त चित्त रहनें वाले ये ऋषि ……पर उस दिन इनको क्रोध आगया था तात ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

वो असुर सागर से मछलियाँ पकड़ पकड़ कर खानें लगा था ।

मैं कहाँ अध्यात्म के चिन्तन में लीन……..पर उसी समय मछलियों का कोलाहल ….रुदन …….चीत्कार……..मैं इन सबको सुन सकता हूँ ।

ऋषि जाजलि की साधना में विघ्न हुआ……..वो वहाँ से उठकर दूसरे तट में चल गए थे ……ये तट इस बार सागर का नही …..गंगा जी का था ………पर ये क्या बात हुयी …….वो दैत्य यहाँ पर भी आ धमका ।

मेरा चित्त कभी अशान्त नही हुआ था ………….मैने उस दैत्य से कहा भी कि …….तुम कहीं और जाओ ……..मैं यहाँ साधना में लीन हूँ ।

पर वो मेरे जैसे ऋषि की बातों को क्यों सुननें लगा …………

बस मछलियों को ताक रहा था …….और एक साथ अपनी विशाल मुट्ठियों में भर लेता मछलियों को ……..और खा जाता ।

ऋषि नें उसे बहुत बार समझाया ……पर वो माना नही ………

“जा बगुला हो जा”……….श्राप दे दिया ऋषि नें ।

वो देखते ही देखते बगुला बन गया ……विशाल बगुला ।

उद्धव कहते हैं ……………..ऋषि जाजलि के श्राप से ही वो दैत्य बगुला बना मथुरा में एक दिन आगया था ………….पूतना को इसनें बहन बना लिया ………..पूतना भी इसे भाई मानती थी ।

आज बकासुर नें अपनी बहन पूतना के बारे में जब सुना ………..कि एक ग्वाले नें उसकी बहन को मार दिया …..तो .वो क्रोधित हो उठा ….और कंस से बोलकर वो वृन्दावन में चला आया था ।

वो बगुला ! सब सखा उस बगुले के पास में चले गए थे ।

बकासुर देख रहा है ……….ये तो सब कृष्ण हैं ……….वो कुछ समझ नही पा रहा था ………हाँ शान्त भाव से खड़ा रहा ………..और सबको देख रहा था ।

कितना सुन्दर है ना ये बगुला …………सुबल सखा नें कहा ।

हाँ …..विशाल भी है ……..मैं बैठूँ इसके पीठ में ? मनसुख बोला ।

बकासुर देख रहा है …….वो समझ नही पा रहा कि इनमें से कौन है कृष्ण ……क्यों की सभी पीले वस्त्र पहनें हैं …..मोर मुकुट सबके है ।

मनसुख विनोद करते हुए बकासुर के पीठ में बैठ गया ।

बकासुर को लगा यही है कृष्ण ……….तो वो उड़ा ………..मनसुख नें देखा ……इतनी ऊँचाई तक तो कोई बगुला उड़ नही सकता ।

अब मनसुख चिल्लाया ………….अरे ! कन्हैया ! कन्हैया ! ये तो दैत्य है भाई ! बकासुर नें सुना ………..ये कृष्ण नही है ?

मनसुख चिल्लाये जा रहा है …………….कन्हैया कन्हैया !

बकासुर नीचे उतरा ………और यमुना में फेंक दिया मनसुख को ।

कन्हैया दौड़े ………तेज गति से दौड़े ……उनके सखाओं को कोई छेड़ दे ये इस नन्दनन्दन को स्वीकार कहाँ है ।

खानें के लिये दौड़ा बकासुर ………..चोंच अपनी खोल दी बकासुर नें …..

कन्हैया उसके चोंच में जाकर बैठ गए …………वो चोंच बन्द करना चाहता था ………पर कन्हैया खड़े हो गए चोंच में ही ।

और अपनें हाथों से उस बगुले की चोंच को ऊपर उठाते चले गए …..नीचे की चोंच पैर से दवा रखी है …..और ऊपर की चोंच को और ऊपर , ऊपर , और ऊपर…….चीर दिया बकासुर को कन्हैया नें ।

जय हो नन्दनन्दन की ………….जय हो यशोदा नन्दन की ।

मनसुख चिल्ला रहा है …………..श्रीदामा को बोला ………ऐसे उपाय मत बताया करो ……….कन्हैया सबसे भिड़ लेगा ………पर हमसे कुछ नही होगा …….बेकार में मैं आज मर जाता ! मनसुख बोला ……तो सब हँसे …………श्रीदामा नें कहा ……..ये मोर मुकुट तुझे ही शोभा देती है ……हमें नहीं ……….तू कुछ और है …….तू क्या है हमारी समझ में नही आता ! श्रीदामा के नेत्र सजल हो गए थे ।

अरे ! कुछ नही ………माखन खाता है खूब ये अपना कन्हैया …….इसलिये इसमें ज्यादा शक्ति है …….मनसुख का ये कहना है ।

सखाओं नें कन्हैया को बैठाया …….उसे माखन खिलानें लगे …….

अच्छा ! अच्छा बहुत हो गयी इसकी सेवा ……अब कुछ मेरी भी करो ……मुझे भी वो दैत्य ले गया था आकाश में ……..मर जाता मैं तो ?

सब सखा मनसुख की बातों पर हँसे …….कन्हैया तो मनसुख से हर समय प्रसन्न हैं ………ये कन्हैया को आनन्द देता रहता है ।

श्रीदामा को अपनें हृदय से लगाते हुए कन्हैया नें कहा था ………..मैं तुम सबसे बहुत प्रेम करता हूँ ……….सौगन्ध खाता हूँ अपनें बाबा की ।

कितना भोला है ना ! अपना कन्हैया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 81

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 81)

!! वत्सासुर का उद्धार !!

कन्हैया खेल रहे हैं वृन्दावन में ……….”वत्सपाल” बनकर आये हैं आज …..बछड़े बछियों को चरानें के लिये लाये हैं ।

अब वृन्दावन में बछड़े चर रहे हैं ……….उनके गले में माला अभी भी है ……न तो इन्होनें उसे तोड़ी है ……..न पुष्पों का खानें का प्रयास ही किया है …….कन्हैया नें पहनाई है क्यों हटायें ।

उधर कन्हैया खेल रहे हैं ………आँख मिचौली खेल रहे हैं ।

अब कन्हैया को छुपना है ………….पर ये छुप सकता है क्या ?

इसका तेज इसे किसी से भी छुपनें देगा ?

ये जिधर छिपते हैं …….उधर ही पक्षी बोलना शुरू कर देते हैं ……कपि सब उधर ही प्रसन्नता से दौड़ पड़ते हैं……झेंप कर बाहर आना ही पड़ता है कन्हैया को ।

मनसुख नें कहा था……”मैं लाठी चलाना सिखाऊंगा”…….ये बात एकाएक स्मरण हो आती है कन्हैया को ।

मनसुख ! लाठी चलाना सिखा ! कन्हैया को भी विविध खेल चाहियें …….एक से ये बहुत जल्दी बोर भी हो जाता है ।

“ठीक है…ये ले लाठी”……मनसुख नें अपनी लाठी कन्हैया को दी ।

अब ? लाठी पकड़कर कन्हाई नें पूछा ।

मुझें मार ! मनसुख बोला …………..

लाठी देखी कन्हैया नें ……फिर अपनें प्रिय सखा मनसुख को देखा ……..

अरे अरे ! ये तो रोनें लगा …………मैं तुझे क्यों मारू ? तू तो मेरा सखा है ! हये ! कितना प्यार करता है ये अपनें लोगों से ।

तुझे सीखनी है या नही ? मनसुख को गुस्सा आरहा है अब ।

पर मैं तुझे लाठी नही मार सकता ।

आँसुओं को पोंछते हुये कन्हैया नें कह दिया ।

कन्हैया ! कन्हैया। ! उधर जोर से चिल्लाया सुबल सखा ।

हाँ ……..सब सखाओं के साथ कन्हैया सुबल के पास पहुँचे। ।

देख तो ये बछड़ा ! कितना सुन्दर है ना ? सुबल नें उस बछड़े की पीठ में हाथ फेरते हुए कहा ।

पर सुबल ! ये हमारा बछड़ा नही है…….ये तो किसी और का है !

मनसुख नें आगे बढ़कर बछड़े को देखा ………हाँ ….इसके गले में कन्हैया की पहनाई माला भी नही है……..ये आया कहाँ से ?

सब सखा सोच रहे हैं ………….

तभी कन्हैया नें देखा……..उस बछड़े की आँखों में देखा……सब समझ गए.।…….ये नही समझेंगें तो कौन समझेगा ।

तात ! बात है त्रेता युग की …………..मुर नामक राक्षस का बेटा था प्रमिल, वशिष्ठ जी की गाय नन्दिनी को माँगनें चला था ये …….

उद्धव कहते हैं ……..तात ! विश्वामित्र कहते रह गए “नन्दिनी गाय” मुझे दे दो ……पर वशिष्ठ जी नें दी नही ……..क्यों की ये समस्त कामनाओं की दात्री है , और वशिष्ठ जी को लगा था कि सृष्टी में ब्रह्मा को ललकारनें वाले विश्वामित्र कहीं नन्दिनी गाय का दुरूपयोग न करें । ……..फिर इस असुर को अपनी गाय वशिष्ठ जी कैसे दे देते ।

छल किया इसनें ……….ब्राह्मण का रूप धारण करके माँगनें चला गया वशिष्ठ जी की कुटिया में …………

मुझे नन्दिनी गाय दे दें………इससे मेरा परिवार पल जाएगा और मैं तप साधना निश्चिन्त होकर कर सकूँगा !

वशिष्ठ जी कुछ बोलते उससे पहले ही नन्दिनी गाय बोल पडीं ………तात ! बोलीं नहीं ….सीधे श्राप ही दे दिया ……..

दुष्ट ! तू असुर होकर भी ब्राह्मण का भेष धारण कर रहा है …छल कर रहा है …..तू जा बछड़ा हो जा ।

नन्दिनी गाय के श्राप देते ही , वो तो उसी समय काला बछड़ा हो गया ।

ऋषि वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम किया ……नेत्रों से अश्रु टप् टप् बह रहे थे…..नन्दिनी गाय को भी प्रणाम किया उस बछड़ा बनें असुर नें ।

जाओ ! गोपाल ही तेरा उद्धार करेंगें ……….वशिष्ठ जी के मुख से निकल गया ………गोपाल ? नन्दिनी नें वशिष्ठ जी की ओर देखा ।

हाँ …..मेरे राघव गोपाल बनकर आयेंगें द्वापर में ….वही इसका उद्धार करेंगे ।

उद्धव कहते हैं ……..तात विदुर जी ! वही बछड़ा बना असुर पृथ्वी में घूमता रहा …….पर द्वापर में इस वत्सासुर को कंस मथुरा में ले आया था……और आज कन्हैया को मारने के लिये कंस नें इसे भेज दिया वृन्दावन. …….इस बात को कन्हैया समझ गए थे ।

कन्हैया उस बछड़े को देख रहे हैं ……….पर ये क्या ! उसनें अपनी लात से कन्हैया को मारने का प्रयास किया …… कन्हैया नें तुरन्त पूँछ समेत उसके पैरों को पकड़ा …….और जोर से घुमानें लगे …….स्वयं भी घूमनें लगे तीव्रता से ।

“ये तो दैत्य है” ……..सब बालक चिल्लाये ।

पर कन्हैया उसे घुमा रहे हैं………….और स्वयं भी विद्युत गति से घूम रहे हैं ।………पर ऐसे कब तक घुमाएगा हमारा कन्हैया ?

सखाओं को कष्ट होनें लगा ……”छोटा है हमारा कन्हैया ” ।

किन्तु कन्हैया नें भी कुछ समय बाद ही उसे घुमाकर दूर फेंक दिया था ………एक विशाल बरगद के पेड़ से वो असुर टकराया और वर्षों पुराना वो पेड़ टूटकर गिर गया – और……….

तात ! वत्सासुर का ये शरीर शान्त हो गया…..उसका उद्धार हो गया ।

वशिष्ठ जी स्वयं आकाश में उपस्थित थे उस समय ..अपनी नन्दिनी गाय के साथ……..उन्होंने नन्दनन्दन के ऊपर पुष्प बरसाते हुये आनन्द से यही कहा था ……

नन्दनन्दन ! आपकी जय हो ! जय हो !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 80

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 80)

!! वत्सपाल कन्हैया !!

हे भगवन् ! कन्हैया के “वत्स चारण” का मुहूर्त निकाल दीजिये ।

प्रातः ही महर्षि शाण्डिल्य की कुटिया में बृजराज पधारे थे ।

कौन चरायेगा वत्स ? क्या कन्हैया ? महर्षि नें चकित होकर पूछा ।

जी ! कल से हठ पकड़ कर बैठ गया है ……..कुछ खाता पीता भी नही है ……माखन फेंक देता है ……आप जानते ही हैं वो कितना हठी है ।

ऋषि मुस्कुराये……ठीक है …..ये कहते हुये ऊँगली में कुछ गणित बैठानें लगे ……..कल , कल का मुहूर्त उत्तम है ………ऋषि नें कहा ।

पर हुआ क्या ? ऋषि नें बृजराज से रूचि लेकर पूछा ।

तात ! ऋषि शाण्डिल्य भी सुनना चाहते हैं कि नन्दनन्दन नें क्या लीला की अब । उद्धव विदुर जी से बोले ।

बृजराज नें सुनाना आरम्भ किया ऋषि शाण्डिल्य को ।

“भद्र नें ही चढाया है कन्हैया को” …….बृजरानी आज क्रोधित हैं ।

सुबह से ही रट लगा रहा है गौ चारण करनें जाऊँगा ।

सुनो ! तुम लोग क्या क्या सिखाते रहते हो कन्हैया को !

सखाओं को डाँट रही हैं बृजरानी ।

नही ….मैने नही ! …..फिर मनसुख भद्र की ओर इशारा करके बताता है ।

मैं जानती हूँ तुम सब मिले हुए हो ………..

“मुझे जाना है गौ चरानें”

कन्हैया बस यही कह कह कर रो रहे हैं…..अपनें नन्हे नन्हे चरण पटक रहे हैं ।

सुन ! मेरे लाल ! गैया चरानें बड़े बड़े जाते हैं ।

मैया समझा रही है ………पर ऐसे कैसे मान जाएंगे !

“मैं भी तो बड़ा हो गया हूँ” , फिर अपनी लम्बाई नापनें लगे ।

तू समझता क्यों नही है ……….नुकीली सींगें हैं गैयाओं की ………..उसके खुर कितनें कठोर हैं……..और तू कितना माखन की तरह कोमल ……

ये कहते हुए मैया नें गोद में उठा लिया कन्हैया को ……….और माखन खिलानें लगीं ……क्यों कि अभी तक इसनें कुछ भी नही खाया ।

मैं नही खाऊँगा ! फेंक दिया माखन ……..हटा दिया मैया का हाथ ।

“मैं पिटूँगी तुझे”…….बस इतना ही बोलीं थीं मैया, कि जोर से रोना शुरू ……गोपियाँ सब इकट्ठी हो गयीं थीं ……क्या हुआ , क्या हुआ ?

हमारा कलेजा ही फट जाएगा ऐसा लगा इसका रुदन सुनकर ……….क्या कह रहा है ये बृजरानी ? गोपियों नें पूछना आरम्भ कर दिया था ।

अब इसकी हर जिद्द थोड़े ही मानी जायेगी ………….अरे ! गैया सींग मार दे …….उनके खुर, इसके कोमल पाँव में लग जाये …….गिर जाए ………कुछ भी हो सकता है …………मैं कैसे भेज दूँ इसे ।

गोपियों को भी कोई समाधान नही मिल रहा …………बृजरानी भी दुःखी हैं ……..गोप ग्वाल भी देख रहे हैं ।

मैया ! हम हैं ना ! हम सब सम्भाल लेंगे !

मनसुख नें आगे बढ़कर मैया को समझाते हुए कहा ।

सम्भालोगे तुम ! तुम भी तो छोटे छोटे हो …………हाँ ……..मैया बोली ……….लाला ! तुम भी जाओ और तुम्हारे साथ जो गैया चरानें जाते हैं वो भी जाएंगे…….कन्हैया नें मैया की बात सुनी सुननें तक रोये नही……….फिर रोना शुरू ……..नही ….बड़े नही जाएंगे …….हम छोटे छोटे ग्वाल ही जायेंगे ……..कन्हैया नें अपनी बात जोर देकर कही ।

दाऊ भैया तो हैं ना ! वो सब को बचा लेंगें ।

छोटा सखा भद्र बोला । ………इन सबको लगता है बलराम हैं तो डर किस बात का ………..वो सब देख लेंगें ।

चुप करो ! तुम्हीं लोगों नें इसे बिगाड़ा है ………दाऊ भी तो बालक ही है ……..बृजरानी नें सबको चुप करा दिया ………पर कन्हैया की बात का समाधान न निकला…….तो कन्हैया का रोना शुरू ही था ।

हे भगवन् ! मैं सन्ध्या को अपना कार्य इत्यादि देखकर जब महल में गया …..तो वहाँ कन्हैया का रुदन !………ओह ! मैं तो काँप गया ।

क्या हुआ ! क्या तुमनें फिर इसे दण्डित किया ?

मैने बृजरानी से पूछा था भगवन् !

कन्हैया मेरे सामनें आगया था रोते हुए ……………और मेरी गोद में बैठ गया ……………क्या चाहिये मेरे लाला को ? बोलो !

मैने उसके आँसू पोंछे ………….तो वो मुझ से बोला ……….

बाबा ! गैया चरानें जाऊँगा !

पर ! तुम छोटे हो !

नहीं …..मुझ से छोटे भी जाते हैं …….मैं बड़ा हो गया हूँ ।

मैं उसकी बातें सुनकर असमंजस में पड़ गया था ………….मुझे बृजरानी नें सारी बातें बता दीं थीं ………….मैं क्या करता !

मेरा प्राण है कन्हैया तो…………मैं तुरन्त बोला ………तुम बछड़े चरानें जा सकते हो ।

ठीक है………..मेरी गोद से उछल कर वो भागा बाहर ……..और सब ग्वाल सखाओं को इकठ्ठा करके बतानें लगा ………..मैं बछिया बछड़े चराऊँगा……छोटे छोटे बछड़े ………मेरी “भूरी” भी जायेगी ।

बछिया बछड़े ये दूर तक नही जाएंगे भगवन् ! ……….पास से ही उछलते हुए वापस गोष्ठ में ही आजायेगें…….मैं क्या करता ?

नही बृजराज ! तुम्हारे यहाँ सच में भगवान नारायण ही कोई लीला कर रहे हैं…….इसलिये तुम निश्चिन्त हो जाओ …..कल “वत्स पाल” हो जाएगा तुम्हारा युवराज । ऋषि शाण्डिल्य नें बड़ी प्रसन्नता से कहा ।

सोया कहाँ कन्हैया ! कल मुझे बछड़े चरानें जाना है ………..नही नही ……..पूरा नन्दगाँव ही नही सोया ………क्यों की उनका युवराज वत्सपाल बननें जा रहा था ।

उठ गए जल्दी ही ………….स्नान करानें की जिद्द करनें लगे मैया से ।

मैया नें स्नान करा दिया ……..घुँघराले बालों में तैल लगाकर उन्हें सम्भाल दिया …….काजल आँखों में ……..मोतियों की माला गले में ……..पीली पीताम्बरी ……….क्या दिव्य रूप हो गया था ।

तभी महर्षि शाण्डिल्य भी विप्रों के साथ पधारे ।

बछड़ों बछियाओं को सामनें लाया गया ……..आहा ! कोई दूध की तरह सफेद बछिया है कोई सफेद और काली …..भूरी तो है ही है ।

सुन्दर पूजन की थाली लेकर चलीं बृजरानी …….पर ये क्या ! वो थाली मैया के हाथों से लेकर स्वयं ही चल पड़े थे कन्हैया ।

बाबा नें गोद में लेना चाहा , पर नही ….चलकर ही गए ……आहा ! नन्हे से कन्हैया …….उनके हाथों में पूजन सामग्री ………….

ऋषि शांडिल्य नें मुस्कुराते हुए मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किया था ……कन्हैया नें अपनें नन्हे करों से तिलक किया ।…..अरे ! पहला तिलक तुझे करूँ ?

उछलती हुयी आगयी थी आगे “भूरी” ………मानों कह रही थी पहला तिलक मेरा ………कन्हैया नें उसका तिलक किया ……फिर सबका किया………लकुट ली ………तभी बृजरानी भीतर गयीं और एक काली कमरिया कन्धे में डाल दी कन्हाई के……..ताकि नजर न लगे ।

सब लोग देख रहे हैं ……..निहार रहे हैं कन्हैया के इस रूप को ।

गोपियाँ पुष्प चढ़ा रही हैं…..गोप लोग अपनें बृज के युवराज को ऐसे देख कर गदगद् हैं आहा !…….सच में नेत्र इन्हीं नें सफल किये हैं तात !

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 79

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 79)

!! “वो भूरी बछिया” – अद्भुत भाग्य पाया इसनें !!

आकाश देवों के विमान से भरा हुआ है आज……..सब दर्शन करनें के इच्छुक हैं कि कब नन्हे नन्दलाल गोदोहन करेंगें ।

स्वर्ग की कामधेनु गाय आज तरस रही है ……..मैं क्यों गोपाल के गोष्ठ की गाय न बनी ……..आहा ! नन्दनन्दन स्वयं दुह रहे हैं , अपनें नन्हे नन्हे करों से …………..

नही कामधेनु ! दुह मात्र नही रहे ………पी रहे हैं ………एक थन को मुँह में लगा लिया है नन्दनन्दन नें ……….कामधेनु इस दृश्य को देखकर दुःखी हो रही है ……..”मैं क्यों नही बनी गोपाल की गाय” ।

ये मैने दुही है ………ये मेरा दुहा हुआ दूध है …………..

सखा भद्र आज सुबह से ही खूब हल्ला मचा रहा है ……….छोटे से लोटे में दूध क्या दुह लिया …..इसे तो लग रहा है …….मैने बहुत बड़ा काम कर लिया ।

“कन्हैया दुह के दिखाये”……….मनसुख को बोल दिया भद्र नें ।

सो रहे थे कन्हैया ………..सुन लिया ।

उठ गए….आँखों को मला…बिखरी हुयी अलकें, कपोलों पर फैला काला काजल, कछनी का कोई पता नही…डगमग करते हुये बाहर आ गए थे ।

दिखा तो ! तू गाय का दूध दुह लेता है ?

भद्र सखा छोटा है कन्हैया से ।

हाँ ! मैं तो दुह लेता हूँ ……….पर तुम नही दुह पाओगे ।

क्यों ? मैं अभी दुहता हूँ ……..और तुझ से ज्यादा दुह के लाऊँगा ।

गैया पैर मार देगी तो ? भद्र नें डरानें दिया ।

मुझे नही मारती गैया……….चल ! अब ………ऐसा कहते हुये एक बार भीतर गए और सुवर्ण का एक छोटा सा लोटा ले आये ।

चल ………..अब चल ……भद्र भी साथ है …….और मनसुख भी साथ ही है ……………..

गए गोष्ठ में …………..पर वहाँ तो गाय है नही ……………

गाय कहाँ गयी ? इधर उधर देखा कन्हैया नें ।

तुम्हारे लिए गाय बैठी थोड़े ही रहेगी ! वो तो गयी चरनें ।

“पर मुझे तो गाय दुहनी है”……अजीब जिद्द पकड़ के बैठ गए हैं आज ये ।

भूरी कहाँ है ? कन्हैया नें इधर उधर देखा …………

मनसुख हँसा ……..वो दूध नही देगी …..तेरी भूरी दूध नही देगी ।

क्यू ? बड़ी मासूमियत से बोले थे कन्हैया ।

क्यू की ……….उसनें कोई बच्चा जना नही है ……और दूध तब आता है गाय के थन में ……..जब उसका बच्चा उसके थन में मुँह लगाये ……..

मनसुख नें समझा तो दिया कन्हैया को , पर ……….

मैं उसके थन में मुँह लगाकर पीयूं तो ?

क्यों ? मैं उसका बच्चा नही बन सकता ? ये हमें दूध पिलाती हैं …..उस दूध से दही, फिर माखन खाते हैं हम …………

कुछ सोचकर कन्हैया बोले …………..मैं पीयूँगा भूरी का दूध …….और देखता हूँ कैसे दूध नही देती वो भूरी ।

भूरी तो सूँघती है कन्हैया को …………आगयी, सुगन्ध से ही समझ गयी थी वो कि उसका कन्हैया आगया है ।

कन्हैया नें उसे देखा बोले – ……..देखो ! मेरी भूरी आगयी ……कन्हैया बड़े खुश हुए …….भूरी भी आकर कन्हैया को सूँघनें लगी थी ।

सहलाते रहे भूरी को कन्हैया ……….फिर धीरे से बोले …….”दूध देना हैं , इस भद्र नें जितना दुहा है उससे ज्यादा देना”……..कान में बोले थे ।

फिर बैठ गए भूरी के पैरों के पास ………………सब देख रहे हैं कन्हैया को कि ये करेगें क्या ? गोपियाँ आगयीं सब ………..आज कन्हैया गोदोहन करेंगें ………..देवों नें आकाश भर दिया है विमानों से ।

आहा ! तीन थन में से एक थन में अपना अधर लगा लिया कन्हैया नें ……वो भूरी तो आनन्द के कारण नेत्रों से अश्रु बहानें लगी ………..कोमल अधर भूरी के थन में जैसे ही लगे………उस भूरी नें पेट पिचकाए , मूत्र विसर्जन किया ……थन एकाएक मोटे हो गए……….

बस ……….उसी समय बाकी तीन थनों से दूध की धारा बह चली थी ।

एक थन भूरी का कन्हैया के मुख में है ……….

मुँह में दूध भर गया है कन्हैया के ………पी रहे हैं ……….कुछ फ़ैल रहा है ……..भद्र नें तुरन्त कहा ……..दूध फ़ैल रहा है ….लोटा तो लगा ।

कन्हाई नें तुरन्त वो सुवर्ण का लोटा लगा दिया था ……….लोटा तो क्षण में ही भर गया………अब तो फ़ैल रहा है ………….

कन्हैया बड़े खुश हैं……….गोपियाँ कन्हैया की इस लीला को देखकर गदगद् हैं ……..देवताओं नें फूल बरसानें का काम किया ।

कामधेनु अब उस भूरी से ईर्ष्या करनें लगी है ……..मैं भूरी ही बन जाती ….कामधेनु क्यों बनी !

देखा ! मैने दुहा है ये दूध !……..अब कन्हैया सबको दिखा रहे हैं अपनें द्वारा दुहा हुआ दूध ……अभी और दे रही है भूरी दूध ….कन्हैया ये भी कह रहे हैं ……….।

भूरी नें दूध दिया ? उस बछिया नें ? बृजराज को भी आश्चर्य हुआ ……..बृजरानी नें तो जाकर देखा ।

क्यों नही देगी भूरी दूध …………सच में भूरी का भाग्य है ही ऐसा कि कामधेनु भी ईष्या करे……….भूरी ! वो बछिया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 78

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 78)

!! पनघट पे छेड़ गयो री….!!

मेरे आनन्द का ठिकाना नही है……मैं शनिदेव…..धन्य हो गया नन्दगाँव के निकट आकर , अब लगता है ।….मेरे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र जु की अद्भुत दिव्यातिदिव्य लीलाओं का रसास्वादन हो रहा है …..आहा ! मुझे अब शिकायत नही अपनें पिता सूर्यदेव से …..मेरी बहन यमुना उसी , उसी का तट…..अद्भुत लीला रचते हैं मेरे आराध्य नन्दनन्दन जु …………..

नन्दगाँव का वो पनघट, मैं तो उसी का दर्शन करता रहता हूँ ……वहीँ होती है मेरे सरकार की लीलाएँ ।

शनिदेव इन दिनों धन्य हैं ……….हों भी क्यों नही तात ! इन लीलाओं के आस्वादन के लिये ब्रह्मादि तरसते हैं ……….वो लीलाओं के ये प्रत्यक्ष दर्शी बने ……….उद्धव नें विदुर को कहा ।

वो पनघट, …….आज कल नन्दगाँव के हर घर से गोपियाँ निकलती हैं जल भरनें……जल तो आवश्यक है……पर पाँच पाँच बरस की बालिकाओं नें भी घर वालों से लड़ झगड़कर अपनें लिये छोटी छोटी मटकी मंगा ली हैं ।

क्यों की इन्हें जल भरनें पनघट जाना है ………अजी ! वहाँ कन्हाई मिलेगा इसलिये जाना है…….वो मिलेगा ही, क्यों की सुबह से लेकर शाम तक वो वहीँ खेलता है …….दिन भर ।

अकेले नही ………सखाओं के साथ , सखा भी वैसे ही उपद्रवी ……मनसुख, भद्र, मधुमंगल, श्रीदामा , सब ।

अरे ! देखो मटकी फोड़ दी उस गोपी की …….सखा सब ताली बजाकर हँसे………वो गोपी रुक गयी …..भींग गयी है …….पूरी भींग गयी और मटकी भी फूट गयी उसकी……..पर ये क्या ! वो आनन्दित हो रही है ……..वो खड़ी है और मुस्कुरा रही है …..पर अपनें आनन्द को दिखाना नही चाहती ।

मेरी मटकी क्यों फोड़ी ? बो बालिका बोल भी नही पा रही है ।

पर ये क्या दूसरे ग्वाले नें उसकी चूनरी भी खींच दी पीछे जाकर ।

सखा सब देख रहे हैं …..कोई वृक्ष पर चढे हैं कोई दूर ……पर इस समय सब खेल के मूड में हैं …………….

क्या तू मेरी बहन की मटकी भी फोड़ेगा ?

श्रीदामा नें छेड़ और दिया ।

कहाँ हैं ? आनन्दित होकर मुड़े नन्दनन्दन ।

सामनें से आरही हैं …….बृषभान नन्दिनी साथ में सखियाँ है ।

हट् श्रीदामा ! वो कूदे कदम्ब वृक्ष से ……………आगे आगये ……और अपनी लकुट अड़ा दी ……….”.कर” देनों पड़ेगो ?

गम्भीर मुद्रा में बोले थे नन्दनन्दन ।

ये पनघट तुम्हारा कब से हुआ ? ललिता अकड़कर बोली ।

क्यों की यहाँ बरसानें वारिन को प्रवेश वर्जित है ……..मात्र नन्दगाँव, ……कन्हाई भी अड़ गए ।

बरसानें में भी तो पनघट हैं वहीँ जाओ ……ये केवल नन्दगाँव के, हम “कृष्ण कन्हैया” , और “दाऊ जी के भैया” का पनघट है ……ये पीछे से ग्वाल सखा सब बोले थे ।

“कर देनो ही पड़ेगो” ……फिर वही बात कन्हाई ठसक से कह रहे हैं ।

“हए ! बृजरानी की बहु बन जाएँ ये बृषभान की लली”……

यही “कर” माँग ले लाला !

पीछे से वो प्रभावती सखी बोली …..श्रीराधा जी तो शरमा कर वहाँ से चली गयीं ।

पर ललिता – अरे सोच विचार के बोलो ……..ये कहाँ माखन चोर ! और वो कहाँ बरसानें की राजदुलारी ………कोई तुलना ही नही है ।

“तेरो कहा चुराय लियो” ……..ये कहते हुए कन्हाई नें ललिता की मटकी में एक कंकड़ मारा ……….निशानें पर लगा था फूट ही गया …..नहा गयी ललिता सखी…….उधर सखियाँ भी हँस पडीं ।

“चार दिना है गए हैं तेनें मेरी मटकी फोड़ी नही है “….पीछे, पनघट से जल ले जा रही थी ….. ……..बेचारी प्रभावती !

अब मैं बूढी है गयी हूँ ? पूछती है कन्हाई से ।

“ले आज तेरी मटकी भी गयी”………एक कंकड़ उठा कर तक कर मारी प्रभावती की मटकी में भी कन्हैया ने …….इसको यही तो करना है………बाबरी नाच उठती है जब उसकी मटकी फूटती है उफ़ ! चार दिन से ये दुःखी थी ।

ये सब लीलाओं का दर्शन जब तात ! अपनें हृदय में करोगे ना …..तब रस उछलेगा ……दिव्य !

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

एक गोपी तो नित्य चार चार चार घड़े लाती है …….और उसे पता है फूटेंगे…….पर ये गोपियाँ भी तो यही चाहती हैं……..मेरे बड़े भैया यमराज कहते हैं……कि उसे तुम जो दोगे , देते हो…..वह तुम्हे वापस दुगुना करके देता है ।…..मैं धन्य हूँ इन लीलाओं का दर्शन करते हुए ।

मैं अब कहीं नही जाऊँगा ……….बृजराज भी जब जब अपनें कोषागार की ओर जाते हैं तब मैं भी पीछे से उनकी चरण धूलि को माथे से लगा लेता हूँ…….मैं शनिदेव बृज का वास पाकर धन्य हो गया हूँ ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 77

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 77)


!!”पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग 4 !!


ये लीला है , इसमें लीलायित स्वयं ब्रह्म हो रहा है …..ब्रह्म स्वयं लीला रचता है …..और फिर लीला ही बन जाता है …….वो रस लेता है …..रस स्वयं है …..फिर भी वह रस का रसिक है ।

तात ! लीला का कोई उद्देश्य नही होता….लीला का एक ही उद्देश्य है – आनन्द , रसानुभूति । उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

श्याम सुन्दर की बंशी चुरा ली श्रीराधारानी की सखियों नें…….क्यों की पूर्व में मुद्रिका श्याम नें राधा की चुराई थी……किन्तु तात ! कन्हाई भी कहकर गए कि……..मैं भी कृष्ण नही …….जो तुम्हे चोर बनाकर अपनी बाँसुरी वापस न ली तो………..

उद्धव कहते हैं – राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ……..राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं……फिर दोनों में चोरी कैसी ? और सखियाँ भी इनसे भिन्न कहाँ हैं ? वृन्दावन भी ब्रह्मस्वरूप ही है ……यानि धाम भी वही है ……तात ! यहाँ सब कुछ अद्वैत है …..किन्तु वह अद्वैत फिर रसानुभूति के लिये द्वैत बन जाता है …..यही तो अनादि लीला है ।

हूँ ………विदुर जी मुस्कुराते हैं ………..फिर कहते हैं – आगे सुनाओ उद्धव ! आगे कन्हाई नें कैसे अपनी बाँसुरी श्रीराधा रानी से ले ली ……..क्या लीला प्रकट हुयी……….सच में ! लीला चिन्तन एक अद्भुत साधना है …………और लीला तो अनन्त की लीला है ……इसलिये इसका तो कोई अंत ही नही है …….पर उद्धव ! कितनी लीला- कथा सुन लो …अघाते नही हैं ……….क्यों की रस है इसमें ……और रस ही तो कन्हाई है ।

विदुर जी ये कहते हुए मौन हो गए ……अब उन्हे आगे की लीला सुननी है । अब उद्धव उत्साहित होकर आगे सुनानें लगे थे ।

हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! हा कन्हाई !

कुञ्ज में ये आवाज धीमी धीमी आरही थी ।

हा नन्दनन्दन ! हा श्याम सुन्दर !

कोई पुकार रही है ……ललिते ! देख तो पुकार में करुणा भरी हुयी है ………..और हिलकियों से रो भी रही है………देख !

कुञ्ज में विराजीं श्रीराधा रानी नें अपनी सखी ललिता से कहा ।

हाँ ………हे स्वामिनी ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है……..मैं बाहर जाकर देखती हूँ………ऐसा कहते हुए ललिता सखी कुञ्ज से बाहर आगयीं थीं ।

हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन !

ललिता नें देखा ……सच में वह सखी तो बिलख रही थी ।

सुन अरी ! तू इतनी ब्याकुल क्यों हे रही है ……….क्या हुआ ?

और तू जिसका नाम ले रही है ना ! वो तो किसी काम का ही नही है ।

बस ऐसे ही मीठी मीठी बातें करता है ….और सबको फंसा लेता है ।

तू भी लगती है उस छलिया के जाल में फंस ही गयी …………सखी ! मेरी बात मान ………छोड़ दे उसे ……..वो तेरे लायक नही है ………तू कहाँ कोमलांगी , सुन्दर , कोमल देह तेरा …………क्यों इतनें सुन्दर देह में रोग लगा रही है …….मत कर प्रेम उस छलिया से ।

सखी !

हिलकियों से रो रही है वो सखी और ललिता को सम्बोधित करती हुयी कह रही है …………..सखी ! ये तो प्रेम है ………अब वे कैसे हैं ….कैसे नही हैं ……ये सब प्रेम कहाँ देखता है ………तो मैनें भी नही देखा ……..बस प्रेम हो गया ……….मेरे यहाँ आये थे खिलखिलाते हुये मुझे देखकर हँसनें लगे …….बस उसी समय मुझे उनसे प्रेम हो गया ……..और ये प्रेम की आग ऐसी जली कि आज मैं ही जल रही हूँ ।

ललिता नें उस सखी की बात सुनी …….फिर उसे पुचकाते हुए बोलीं …….अच्छा रो मत ……रो मत ……..मैं तुझे बताती हूँ ………कन्हाई मन का कपटी है…….हाँ मुख से मीठा मीठा बोलता है…….और तू ही नही है अकेली इस बृज में सबको पागल बनाया है उसनें …….मैं तो तेरे भले के लिये ही कह रही थी बाकी तेरी मर्जी !

ललिता सखी नें समझाया ……….कितनी सुन्दर है तू …साँवरी सखी ……मत लगा , ये रोग ………..बेकार हो जायेगी तू !

पर ये क्या ! ललिता की बातें सुनते ही वो सखी तो धरती में गिर गयी ……हां श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! …..

ललिता सखी घबडा गयी ……..उसे उठाया …….जल पिलाया ।

अच्छा तू कैसे ठीक होगी ? तुझे अभी कैसे शान्त करूँ मैं ?

हा श्याम सुन्दर ! बस एक बार दर्शन दे दो …..बस एक बार ।

वो फिर गिर गयी…….वो रोती ही जा रही है ।

ललिता के समझ में नही आरहा कि, क्या किया जाए………..

वो वापस कुञ्ज में गयी…….और श्रीराधारानी से प्रार्थना करनें लगीं ।

नही ….नही ………ललिते ! मैं कैसे श्यामसुन्दर बन जाऊँ ?

श्रीराधारानी नें साफ़ मना कर दिया ललिता सखी को ।

पर प्यारी जु ! आप अगर श्याम सुन्दर बन जाएँगी तो उस सखी के प्राण बच जायेगें …….नही तो उसका तो रो रोकर बुरा हाल है ।

हाँ ……वो श्याम सुन्दर के प्रेम में पागल हो गयी है……उसे श्यामसुन्दर के दर्शन हो जाएँ बस , …..हे कृपामयी ! आप श्याम सुन्दर का रूप धारण कर लो ……..और उसको दर्शन दे दो …..वो चली जायेगी …………ललिता सखी नें हाथ जोड़े श्रीजी के ।

पर मेरा श्रृंगार करेगा कौन ?

बिशाखा सखी आगे आयी ………….मैं कर दूंगी ।

ललिता नें कहा …..बिशाखा ! तुम शीघ्र श्रृंगार कर दो श्रीजी का ….श्याम सुन्दर बना दो…..मैं दूर से ही कराऊंगी और भेज दूंगी उसे ।

तात ! इधर बिशाखा श्रृंगार कर रही हैं राधा रानी का ………श्याम सुन्दर बना रही हैं राधा रानी को ……….

और उधर –

सखी ! तुझे श्याम सुन्दर के दर्शन करा दूँ तो ?

ललिता के मुख से ऐसा सुनते ही ……..वो सखी तो नाचनें लगी …….मैं तुम्हारा उपकार कभी नही भूलूंगी ………कृपा करो मेरे ऊपर …….नही तो मैं अपनें प्राण इसी यमुनाजी त्याग रही हूँ ।

ना ! ना ! ना ! ऐसा मत कर ..
……बस कुञ्ज में विराजे हैं श्याम सुन्दर !

अच्छा ! कहाँ हैं ? वो आनन्दित होती हुयी कुञ्ज की ओर भागी …..

अभी रूक …….मैं देखकर पूछकर आती हूँ ………..फिर तुझको लेकर चलूंगी ………ललिता कुञ्ज में जानें लगी ………तो सामनें बिशाखा आगयी …..इशारे में बोली ……..”श्रीजी तैयार हैं” ।

ललिता नें उस सखी को कहा …….ले सखी ! तेरे भाग्य ही खुल गए ……श्याम सुन्दर अब तुझे दर्शन देंगे ………….

नाचनें लगी वह सखी तो ……….मैं तुम्हारा उपकार भूल नही सकती ……..सखियों ! धन्य हो तुम धन्य हो ………।

ये रहे श्याम सुन्दर …….दर्शन कर सखी !

ललिता कुञ्ज में लेकर गयी उस सखी को, लताओं के मध्य राधा रानी श्याम सुन्दर का रूप धारण करके खड़ी हैं ।

ललिता नें दिखाया …………ये रहे श्याम सुन्दर !

वो सखी तो दौड़ी ……हा श्याम सुन्दर ! चरणों में गिर पड़ी ….हिलकियों से रो रही है …..कहाँ थे आप !

कुछ देर बाद वो सखी श्याम सुन्दर बनें श्रीराधा को देखनें लगी ।

हाँ ……मेरे श्याम सुन्दर आप ही हो …….लकुट, पीताम्बरी वही है …..मुकुट भी वही है ………..वनमाला भी वही है …….आहा !

और ? हँसी जोर से वो सखी ……..और “बाँसुरी भी वही है” !

ये कहते हुए सखी बनें श्याम सुन्दर नें राधारानी के हाथों से बाँसुरी छीन ली …………..

चोर हो तुम लोग……..ये कहते हुए कन्हैया हँसे जोर से हँसे ।

ललिता सखी तो देखती रह गयी…….राधा रानी भी अब हँस पड़ी थीं ।

मैने कहा था ना सखी ! कि मैं तुम्हे चोर बनाऊँगा ……..आज देखो ! चोर कौन है बताओ ? मेरी बाँसुरी चुराई …………..

ललिता सखी कुछ नही बोली ………क्या बोलतीं ।

राधारानी नें ही आगे बढ़कर कहा ……….पर गुरु तो आप ही हो …….ये मेरी सखियाँ हैं ……इन्हें कहा आवे चोरी करनो ………आपसे ही सीखीं हैं चोरी …………ये सुनते ही श्याम सुन्दर आगे बढ़े और अपनी प्रिया को आलिंगन में भर लिया था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 76

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 76)



!! “पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग 3 !!



दुःखी हो गए थे श्यामसुन्दर …….मुदरिया मिल गयी थी इनके पास …..”.चोर” नाम अब तो पूरा ही सार्थक हो गया था इनका ।

ज्यादा सोच विचार ठीक नही है ………इधर उधर देखा कन्हाई नें कमरिया ओढ़ कर सो गए ………..क्या सोचना ………..तान दुपट्टा सो गए ……….उदासी तो घनी थी ……..जिससे अभी अभी परिचय हुआ था उसी के सामनें चोर बन गए थे …..उनकी ही मुदरिया चुरा ली थी ।

पर कन्हाई इतना सोचते कहाँ हैं ………पनघट में आज हवा अत्यन्त शीतल चल रही थी …….नींद आगयी कन्हाई को ।

प्यारी रुको !

ललिता सखी नें श्रीराधारानी को रोका ।

क्या हुआ सखी ! क्यों रुको ? अब तो बरसानें चल !

नही राधिका जु ! एक बार चलो , देखें तो श्याम सुन्दर को , कि वो कर क्या रहे हैं ? ललिता सखी नें राधारानी से कहा ।

सखी ! देख उनको बहुत अपमान कर दियो है हमनें …….वे दुःखी हैं बहुत ………इसलिये अब चल बरसानें ।

अजी ! वाह ! चोरी करें वो …………और अपमान कियो हमनें !

स्वामिनी जु ! चोरी करि है उन्होंने आपकी ………..ललिता फिर मुखर हो चली थी ।

फिर कुछ सोचकर ललिता नें कहा ……….किशोरी जु ! चलें एक बार उनको देखें तो ……….कि वे कर क्या रहे हैं ?

उद्धव की भावातिरेक स्थिति है आज …………..वो जिस प्रेम लीला का बखान कर रहे हैं …….वो उच्चतम लीला है ।

श्याम सुन्दर किसका मन नही मोहता ……..इसका नाम “मनमोहन” ऐसे ही तो नही पड़ा…….जो इसे देख ले उसका मन ये अपनी ओर खींच ही लेता है ।

चलो !

राधिका जी को लेकर ललिता सखी फिर उसी पनघट में आयी ………तो क्या देखती हैं …………काली कमरिया ओढ़ कर सो रहे हैं कन्हाई …………गहरी नींद आगई थी उन्हें ।

स्वामिनी जु ! ये तो सो गए हैं …………..

राधा जी देख रही हैं ………ये सोते हुये भी कितनें अच्छे लग रहे हैं ……केश राशि बिखरकर मुख मण्डल में आगये थे………

श्याम की सुन्दरता को देखती रहीं राधा रानी ……….देह भान भूल गयी थीं ………अपनें आपको भूल गयी थीं ।

स्वामिनी जु ! एक काम करें …………अति उत्साहित होती हुयी ललिता सखी बोली …………..इन्होनें हमारी मुद्रिका चुराई हम इनकी बाँसुरी चुरा लेती हैं ……….ये ठीक रहेगा ………..हँसी ललिता ये कहते हुए – हिसाब बराबर ।

नही ललिता ! ये काम ठीक नही है ………….ये मत करो ………राधारानी नें रोका…….पर ललिता सखी आज मान नही रही …….चुपके से उसनें श्याम सुन्दर के फेंट में से बाँसुरी निकाल ही ली ।

स्वामिनी जु ! अब इनकूँ पतो चलेगी कि बरसानें वारिन ते उलझनों कितनों टेढ़ो काम है ।

आप रखो इसे …….ललिता सखी नें वो बाँसुरी राधा जी को दे दी ।

वे आएंगे माँगनें, तो मैं दे दूंगी ………….

नही ………..ऐसे नही देना है ………..नही तो उलटे हम चोर कहलाएंगी स्वामिनी जु ! आप इस बाँसुरी को छुपा कर रख लो ।

राधा रानी कुछ नही बोलीं…..बस बाँसुरी को रख लिया अपनें पास ।

सन्ध्या होनें को आरही है …….सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं ।

कन्हाई उठे …………अंगड़ाई ली ………….इधर उधर देखा ……..जम्हाई लेते हुये चुटकी बजाई ।

मन ही मन कहनें लगे ………..आज तो मैं बहुत सोय गयो ………देखो तो साँझ है वे वारी है …………..चलो अब घर चलूँ ।

अरे ! मेरी बाँसुरी कहाँ है ? कन्हाई नें जब देखा इधर उधर तो बाँसुरी गायब थी …………

‘चरोरन घर चोरी है गयी”………….हँसें कन्हाई ………..या बृज को सबते बड़ो चोर मैं हूँ ………पर मेरो भी चोर कौन है !

सोचनें लगे ………तभी , श्याम सुन्दर सब समझ गए ।

ओह ! तो राधारानी नें मेरी बाँसुरी चुराई है …….ललिता नें उकसाये के मेरी बाँसुरी चुराय लिनी है ………वो बाँसुरी तो राधा रानी के पास है अब ………….

नींद नही आवे बिना बाँसुरी के ………चैन नही पड़े बिना बाँसुरी के ।

कन्हाई उठे ………….और चल दिए श्रीराधारानी के पास ।

दिव्य कुञ्ज है …………..तमाल का कुञ्ज घना है ……….सामनें ही एक सरोवर भी है ……….कमल खिल रहे हैं उसमें ………….लताओं का झुकाव अलग ही कुञ्ज की शोभा को और दिव्य बना रहा है ।

कुञ्ज के मध्य में श्रीराधा रानी विराजमान हैं ……….अष्ट सखियाँ चारों ओर खड़ी हैं ……………….

श्याम सुन्दर गए उस दरबार में ।

ललिता सखी नें देखा तो आगे आकर खड़ी हो गयी ।

क्यों आये हो श्याम सुन्दर ! ललितासखी अकड़ कर बोली ।

कहाँ है ? कन्हाई बोले ।

हम पे नही है …..ललिता सखी नें कहा ।

का नही है ? हँसे कन्हाई ।

तुमनें कही , “कहाँ है “……..तो हमनें भी कही ……”हम पे नायँ” ……

प्यारे ! हम नें तो तुक मिलाई है……….ललिता अब हँसी ।

सखी ! तुक बाद में मिलइयो ……..पहले हमारी बाँसुरी दे दो ।

जाओ कन्हाई ! जाओ ! ये राधारानी को दरबार है ………यहाँ चोरन को काम नही है …….जाओ ।

कन्हाई नें राधारानी से हाथ जोड़कर कहा …………

मैं बाँसुरी के बिना रह नही सकता………मोकूँ नींद नही आवे है ………हे राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो !

ललिता सखी फिर आगे आयी ………..

हमारे पास में नही है ..श्याम सुन्दर !

……अगर मैने तुम्हारे पास ते बाँसुरी निकाल दियो तो ?

अब जाओ तुम यहाँ ते ……..ललिता नें छेड़ते हुए श्याम को कहा ।

मैं भी नन्द को छोरा नही …..जो मैने तुमते बाँसुरी नही लई तो !

मैं भी नन्द गाँव को हूँ ………मैं तुम बरसानें वारिन कुँ चोर बनाय के ही मानुंगो ………….और अपनी बाँसुरी कुँ ले जाउंगो ।

कन्हाई भी बोल कर चल दिए ………ललिता जोर से बोली ……..चोर तो तुम हो …………हमारी प्यारी जु चोरी नायँ करें ……..।

ये सुनकर कन्हैया भी गुस्से में चरण पटकते हुए चले गए थे ।

ये क्या है ? हँसे विदुर जी ।

आत्माराम की लीला …………अपनी ही आत्मा राधारानी से लीला करते हैं श्याम सुन्दर ……….यही तो सुन्दरता है इस लीला की ………उद्धव नें कहा ………..तात ! अब आगे सुनिये –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 75

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 75)



!! “पनघट पे”- एक प्रेम प्रसंग 2 !!



अरी सुन तो ! वे ऐसे नही हैं …….वे मेरी मुदरिया क्यों चुरानें लगे !

बृजराज कुँवर हैं वे ……..उनके पास क्या कमी , जो मेरी मुदरिया के पीछे पड़ेंगें ! ललिते ! रहनें दे उनको अगर पता चलेगा ना कि हमारे मन ये भाव है उनके प्रति …….तो सोच कितनें दुःखी होंगें ।

राधिका जी ललिता सखी को समझा रही हैं ………..पर ललिता ऐसे कैसे मान जाये ….!

आप बहुत भोरी हो ……..और वे चोरों के सरदार ……अँधेरी रात में भी चोरी करते फिरे थे ये गोकुल में ……….मुझे सब पता है ……

और आप अपनें ऊपर क्यों ले रही हो ………मेरे ऊपर डाल दो ना ……..हे राधिका जु ! कह देना कि ललिता कह रही है ………बस !

ठीक है …….जैसी तेरी इच्छा …..पर ललिते ! उन्होंने मुझे नृत्य सिखाया और मैं उनपर चोरी का आरोप लगाऊँ ?

आप कहाँ लगा रही हो …….मैं लगा रही हूँ ……….आप कह देना इस ललिता को अपनी तलाशी दो ……..ये आपकी तलाशी लेगी ।

ओह ! तू अब उन नन्दनन्दन की तलाशी भी लेगी ?

और क्या ? चोरों की तो तलाशी ही ली जाती है ……….ललिता बड़े ठसक से बोले जा रही थी ………और अपनी स्वामिनी को उसी पनघट में लेकर गयी जहाँ श्याम सुन्दर बैठे थे ।

ये प्रेमपूर्ण लीला है तात ! इसका दर्शन करो ! उद्धव नें कहा ।

“कन्हाई बैठे हुए हैं…….बड़े प्रसन्न हैं…..राधिका जु की मुद्रिका को बारबार चूम रहे हैं…….और बड़े आनन्दित हो रहे हैं ।

तभी सामनें से आती हुई देखीं राधिका जु और साथ में कई सखियाँ उनकी ………

तुरन्त फेंट में मुद्रिका छुपा ली ………….और खड़े हो गए ।

कहाँ है श्याम सुन्दर ?

ललिता सखी नें पास में पहुँचते ही पूछ लिया था ।

मेरे पास नाँय सखी ! कन्हाई भी बोल दिए ।

ललिता हँसी……खूब हँसी ……क्या नही है तुम्हारे पास ?

मोय का पतो, तेनें कही, कहाँ है ?

तो मैने भी तुक मिलाय दियो कि – मेरे पास नाँय ।

तुक मत मिलाओ ……अब तो मुद्रिका सीधे सीधे दे दो ।

मेरे पास में कहाँ तिहारी मुद्रिका सखी !

कन्हाई हँसनें लगे ।

मेरी नहीं मेरी स्वामिनी जु की मुद्रिका ………..दे दो ।

मेरे पास में नही है ……..बाकी तोय जो करनी होय कर ले ।

अब तो राधिका जु को आगे आना ही पड़ा ………हे प्यारे ! अगर आपकुँ हमारी मुद्रिका मिली होय तो दे दो ……नही तो हम जा रही हैं ।

बड़ी विनम्रता से राधिका जु नें कहा था ।

ललिता ताली बजाकर हँसी …………हे मेरी भोरी स्वामिनी ! चोरन ते ऐसे बात नही कियो जाय !

हम चोर हैं ? कन्हाई थोड़े क्रोधित से हुए ।

नही ….आप चोर नही ….चोरन के सरदार हो …….अब बातन कुँ मत बनाओ चुपचाप मुद्रिका दे दो ।

मेरे पास नही ……….दो टूक बोले ।

राजा से शिकायत कर देंगी …………कन्हाई बोले वो तो हमारे पिता जी हैं ………….ललिता बोली – नहीं कंस राजा से …….कन्हाई हँसते हुए बोले वो तो मेरे मामा हैं …………।

तलाशी दो अपनी……….कन्हाई से फिर ललिता बोली ।

अब रहनें दे ललिता ! इन के पास नही है मेरी मुद्रिका ……चल !

राधिका जु नें ललिता का हाथ पकड़ा और चलनें का आग्रह करनें लगीं ।

मुद्रिका तो लेकर जाऊँगी मैं …………….

चलो ! अपनें हाथ दिखाओ ………….कन्हाई नें जान बूझकर मुट्ठी बांध ली………..मुठ्ठी खोलो …….ललिता बोली ।

ले खोल दिया ………कन्हाई की मुठ्ठी में कुछ था ही नही ……

दूसरी मुठ्ठी खोलो ……….दूसरी मुठ्ठी में भी कुछ नही था ।

ललिते ! ज्यादा अपमान मत कर उनका ……..तू चल अब घर ।

राधारानी फिर बोलीं ।

रुको अभी स्वामिनी जु !

कुछ सोचकर ललिता बोली…….हे कन्हाई ! अब ये फेंट तो निकालो !

ना ! सखी ! ये फेंट नही दिखा सकूँ मैं…….कन्हाई डर गए ।

ललिता अब समझ गयी कि इसी में है मुद्रिका ……….छुपा रखी है मुद्रिका कन्हाई नें ।

फेंट कूँ खोलो प्यारे ! ललिता जिद्द करनें लगी ।

क्या करते कन्हाई भी आज इन बरसानें वारिन के चक्कर में जो पड़ गए थे………खोलो फेंट ! ललिता बोले जा रही है ।

कन्हाई नें फेंट खोली ………और मुद्रिका को दबा कर फेंट को झाड़नें लगे …………..देख सखी ! मुद्रिका नही है इसमें ।

मुझे तो दो …….अपनी फेंट मुझे दो मैं देखूंगी ……ललिता सखी फेंट माँगनें लगी कन्हाई से ।

ऐसे कैसे दे दूँ ? तू लेकर भग गयी तो ? कन्हाई बोले ।

हम तुम्हारी तरह चोर नही हैं कन्हाई ………..दे दो फेंट ।

अब तो देनी पड़ी ……क्या करते नही देते तो !

जब फेंट ललिता नें ली …….और उसे झाड़ा …………..बस श्यामा जु की मुदरिया गिर गयी ……………सब सखियाँ हँसीं ………..जय हो चोरन के सरदार की ……….ललिता सखी नें गुलचा मार दिया गालों में ……श्याम सुन्दर सिर झुकाये खड़े हैं ………..अब तो ऊपर भी नही देख रहे ……..बड़े ही शर्मिंदा हो रहे हैं ……..।

ये देखो मुद्रिका , हे स्वामिनी जु ! हम आपको कह तो रही थीं यही हैं चोर ………..अब कर लो चोर के दर्शन ।

देखा श्याम सुन्दर को राधा रानी नें…….उन्हें बड़ा दुःख हुआ ……कि श्याम सुन्दर कुछ नही बोल रहे ……बेचारे ! दुःखी हो गए हैं ।

जो हो गया सो हो गया सखी ! ………अब तुम कन्हाई से कुछ मत कहो …..और चलो अब ……इनको ज्यादा कहना इनको दुःखी करना ही है ।

पर जाते जाते एक दो गुलचा ललिता कन्हाई के गालों में मार कर ही गयी ……………और फेंट डाल दी कन्हाई के ऊपर ही ।

बहुत उदास हो गए थे इस घटना से कन्हाई …………..उनकी उदासी में मोर पक्षी ये सब भी उदास हो चले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 74

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 74)



!! “पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग !!


क्यों सब इसी पनघट पर आती हैं ………यमुना जी के घाट तो अन्य भी हैं …….पर सम्पूर्ण नन्दगाँव को इसी पनघट पर आना है …….और इतना ही नही अब तो बरसानें की सखियाँ भी यहीं आनें लगी हैं ………फिर स्वयं की असावधानी से मटकी फूट जाए तो दोष कन्हाई पर ……….

हँसे उद्धव ………..कोई कोई गोपी तो स्वयं ही मटकी फोड़ देती …….फिर झगड़ती बेचारे नन्दनन्दन से ………गुलचा मारती ……कपोल छूनें के बहाने हैं ये सब ………..पीताम्बरी खींच कर भागती ……..जब कन्हाई उसके पीछे लगते ……..तो वह अत्यन्त आनन्दित हो उठती ….और सबको बताती …..दिखाती कि …..कैसे मेरे पीछे पड़ा रहता है ये नन्द का छोरा……..एकान्त में गले लग जाती ……..फिर तो कहना ही क्या …….क्या क्या करती ।

एक दिन – अभी अभी तो वर्षा होकर थमी है ………आकाश में इंद्र धनुष भी निकल आया है ……वृक्ष जैसे नहा धोकर तैयार हो गए हैं….पक्षियों का कलरव फिर शुरू हो चुका है ……….धरती से रज की भीनीं भीनी सुगन्ध आरही है ………..यमुना जी का जल भी बढ़ ही गया था ।

इधर उधर देखा कन्हाई नें …………कोई नही है ……..सखा भी आज नही आये ………क्यों की बारिश ही बड़ी घनघोर हो रही थी ……..और उन्हें पता भी नही था कि कन्हाई आजायेगा ……..ये पता होता तो वो लोग घर में बैठते ?

कन्हाई नें एकान्त देखा ……….आज पनघट में कोई नही आया है ।

तुरन्त अपनी फेंट से बाँसुरी निकाली……….अधरों पर रखी …….थोडा झुके और जैसे ही उसमें फूँक मारी…….उफ़ ! पाषाण को भी पिघला दे ऐसा स्वर …………मोरों का झुण्ड तभी वहाँ आगया …………उनको देखकर कन्हाई और आनन्दित हो उठे ।

मोर नाचनें लगे ………….उनके संग, संग संग कन्हाई भी नाच रहे हैं ……..थोडा झुकते हैं ………..फिर अपनी ग्रीवा को मटकाते हैं ……..चरणों का हल्का प्रहार करते हैं फिर घूमते हैं ……..

मोर यही सब देखकर मुग्ध हैं…….वो सब रूक गए हैं ………कन्हाई को बड़े ध्यान से देखते हैं ……….फिर कन्हैया उनको कहते हैं ….ऐसे नाचों ………अजी ! बडी अद्भुत प्रेम सरिता बह चली थी ……….मोर नाचनें लगे थे ……एक दो नही …….सहस्रों मोर थे …….वे सब पंख फैलाकर नाच रहे थे ………कन्हाई , अब फिर बाँसुरी बजा रहे हैं ।

दूर से देख रही हैं ……बृषभान दुलारी ।

कदम्ब की ओट से …………अपलक देखकर देह सुध भूल जाती हैं ।

करतल ध्वनि करनें लगती हैं…….कदम्ब की ओट को छोड़कर बाहर आजाती हैं …….अद्भुत ! वाह !

वो छोटी सी किशोरी ………….कैसे वाह वाह किये जा रही हैं ।

कन्हाई नें जैसे ही देखा बृषभान दुलारी को…….उनकी तो “मन की भई” हो गयी थी ।

दौड़ पड़े फेंट में बाँसुरी को रखकर कन्हाई ।

आप ? यहाँ कैसे ? वो भी तो बोल नही पा रहे हैं अपनी प्रिया से ।

मैं ………….शरमा गयीं किशोरी ।

मुझे सिखा दोगे नृत्य ? हये ! कितनी मधुर आवाज ।

मैं आपको सिखाऊंगा ? हँसे कन्हाई ।

आप तो स्वयं सर्वगुण सम्पन्न हैं …….मैं आपको क्या सिखाऊँ ?

कन्हाई विनम्र हो रहे थे अपनी किशोरी के आगे ।

नही नही ……आप बहुत सुन्दर नृत्य करते हैं ………..कृपा नही करेंगें हमारे ऊपर ? श्रीजी भी जिद्द पर ही उतर आईँ ।

हा हा हा हा हा ………कृपा मेरी ? या आपकी ?

प्रेमस्वरूप हैं ……प्रेम ही प्रेम से तो इनका ये विग्रह बना है ।

चलिये – आपको सिखा ही देता हूँ……..वैसे मुझे आता नही हैं ।

ये कहकर किशोरी जु के पास गए ……..हाथों को पकड़ा ………और संकेत में बोले………इन हाथों को ऐसे रखना है ……..बोल नही रहे क्यों की अति प्रेम के कारण शब्द रूक गए हैं ।

एक हाथ ऐसे घुमाते हुए वापस यहीं लाना है …………और प्यारी !

ये प्यारी शब्द मुँह से सहज निकल गया ……..फिर रुककर बोले …..मैं “प्यारी” कह सकता हूँ ना ? शरमा गयीं राधा रानी ।

सुनिये अब – आपके हाथ जैसे चलें अपनें इन चरणों को भी उसी लय से चलाना है ………..और ये ग्रीवा इसको ऐसे मटकाइये ……….ओह ! कन्हाई की नकल करते हुए श्री जी नें ऐसे ग्रीवा मटकाई कि कन्हाई को भी कहना पड़ा ………..जय हो ……..मुझे बेकार में आप गुरु बना रही हैं ……गुरु तो मेरी आप हैं ।

श्रीजी कन्हाई की हर बात पर हँसती हैं ………..उनकी हर बात ध्यान से सुनती हैं ………….कटि प्रदेश को भी थोडा कष्ट दीजिये ………

हाथों को छूते हैं …….ग्रीवा का स्पर्श करते हैं …….अपनें कपोल से श्री जी के कपोल को मिलाते हैं ……………..।

और तात ! पता है इनके दर्शक कौन हैं……वही सहस्रों मोर ……वृक्ष में बैठे पक्षी …….बहती हुई यमुना …….और यमुना का पनघट ।

प्रियतम साथ हों …..प्रेमास्पद साथ हों ……तो काल की गति का किसको भान रहता है …………

“समय बहुत हो गया है …….अब मैं जाती हूँ ……मेरी सखियाँ मेरी वाट देख रही होंगी……..आपनें मुझे नृत्य सिखाया……आपका आभार ।

किशोरी जु नें धन्यवाद किया……फिर बोलीं ……..मैं अब जा रही हूँ ।

प्रेमावतार ऐसे ही तो नही कहा जाता इन कन्हाई को …….झट् से आलिंगन में भर लिया “कर कंज” में अपनें “कर” फंसा दिए ।

और चिन्हारी के रूप में किशोरी जु की मुद्रिका उतार ली ।

उद्धव विदुर जी को ये प्रसंग सुना रहे हैं ……।

क्या श्रीजी को पता नही चला ? विदुर जी नें पूछा ।

उद्धव हँसते हुए बोले…ये ऐसे चोर हैं …..जो सामनें वाले के आँखों से काजल चुरा लें……और उसे पता भी न चले ….मुद्रिका की क्या बात है !

अच्छा ! नयनों में अपार प्रेम भरकर कन्हाई को देखा किशोरी जु नें …….फिर चली गयीं ………

मोर बोलनें लगे….पक्षी कोलाहल करनें लगे किशोरी जु के जाते ही ।

चुप ! चुप ………….देखो ! ये है मेरी प्यारी की मुद्रिका …………सब मोरों को दिखाया ……….मोर आनन्दित हो उठे ।

उस मुद्रिका को चूम कर श्याम नें अपनी फेंट में रख ली थी ।

उद्धव भी आज प्रेम सिन्धु में डूबकर ये सब सुना रहे हैं ।

आप कहाँ थीं किशोरी जु ! दूर से आती हुयी राधिका को देखा तो सब सखियों नें दौड़कर पूछ लिया ………………

पहले तो शरमा गयीं ………..फिर बता ही दिया ………वो कन्हाई यमुना के किनारे नृत्य कर रहे थे ……….मैं मुग्ध होकर देखती रही …….सखी ! मैने उनसे बाद में प्रार्थना करी …….कि मुझे भी सिखा दो ………सखी ! उन्होंने मेरी बात मान कर मुझे सिखा भी दिया …..

ये बातें किशोरी जी मन्त्र मुग्ध होकर बोल रही थीं ।

नृत्य भी सिखाया और दक्षिणा भी दे दी ? ललिता सखी नें आगे बढ़कर कहा ।

नही सखी ! वो ऐसे नही हैं……..उन्होंने मुझ से कुछ नही माँगा ।

माँगा नही ….चुरा लिया ना ! ललिता सखी नें श्रीजी के हाथों को देखा ……….यहाँ की मुद्रिका कहाँ गयी ?

श्रीजी ने देखा ……….नृत्य में खो गयी होगी ! पर उन्हें दोष मत दो ….वो ऐसे नही हैं ………..श्रीजी कह रही हैं ।

अजी ! रहनें दो ……….उन्हीं नें चुराया है ………….हम सब जानती हैं …..गोकुल में बड़ा नाम कमाकर आये हैं वो ……..चोर हैं ।

ललिता सखी बोले जा रही हैं ।

नही ……ललिता ! ऐसे मत बोल ………..उन्होंने हमें नृत्य सिखाया और हम उन्हें चोर कहें…….ये गलत है । राधिका जु मानती ही नही ।

आप चलो ! आप मत बोलना ……हम बोलेंगी …….और हम साँची कहती हैं …………मुद्रिका उन्हीं के पास है ……हम लेकर ही रहेंगी …….

ये कहकर श्रीजी को ले सखियाँ उसी पनघट पर पहुँच गयीं थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 73

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 73)



!! श्यामाश्याम का प्रथम मिलन !!


एक दिन –

श्याम सुन्दर कदम्ब वृक्ष के नीचे खड़े होकर वेणुनाद कर रहे थे ।

अद्भुत , नाद का स्पर्श पाते ही पर्वतश्रेणियों के शिखर समूह द्रवित हो गये……..पक्षी तो आज नाद के कारण मौन व्रती मुनि के समान बस श्याम सुन्दर के रूप में ही त्राटक कर रहे थे ।

उफ़ ! जड़ कैसे चेतन बन, और चेतन में कैसी जड़ता छा रही थी ।

अपनें रस में ही भींग उठे थे श्याम सुन्दर…..”आत्माराम” अपनें इसी नाम को सार्थक बना रहे थे आज ।

तभी एक मोर नाचनें लगा……..उन्मत्त होकर नाचनें लगा ……वो रिझाना चाहता था श्याम सुन्दर को…….अपनें पीछे लगा कर वो कहीं ले जाना चाह रहा था…….उसके नृत्य पर रीझ उठे थे श्याम सुन्दर भी ……..चल पड़े मोर के पीछे पीछे………..

आगे आगे मोर था और पीछे उसके श्याम सुन्दर ।

वो मोर ले गया बरसानें में……..प्रथम बार बरसानें में पधारे थे ……उन्हें बड़ा आनन्द आया …….वहाँ की हवा अलग ही थी ………सुरभित प्रेम पूर्ण हवा………जो श्याम के अंगों को जब छू रही थी …..तब रोमांच हो रहा था उन्हें ।

एक सरोवर है ……..जिसे प्रेम सरोवर के नाम से जाना जाता है ……..वहाँ आईँ हैं श्रीराधा रानी ।

मोर नें अपनें पंख समेट लिए थे……इशारा करके बोला…..वो देखो –

श्याम सुन्दर नें देखा…….सुवर्ण के समान रूप था…….नाक के अग्रभाग पर छोटा काला तिल ………इसको देखकर ही तो आचार्य गर्ग नें कहा था – ये तो जगत की ईश्वरी हैं…….जगत जिसकी आराधना करता है ….वो इसकी आराधना करेगा ……इसलिये इसका नाम है – राधा ।

सिर की माँग अपनें आप निकली हुयी है……..इनकी माँ कीर्तिरानी नें कितना प्रयास किया कि ……इन रेशमी केशों को बिखेरकर इस माँग को छुपाया जाए ……….पर ये सम्भव न हो सका ।

छुपाना इसलिये चाहा था कि ………..माँग में ही लाल बिन्दु ये भी जन्मजात ही था …………दूर से देखो तो लगे माँग भरी हुयी है सिन्दूर से ………आहा ! ये किसी ओर की हो ही नही सकती …….ये तो अनादि दम्पति हैं राधा कृष्ण हाँ, कृष्ण की ही हैं ये श्रीराधा ।

अपलक देखती रहीं अपनें श्याम को………..श्याम तो सबकुछ भूल गए थे ……..सब कुछ……….दोनों के नयन मिले …..जुरे …..।

पास में गए, अपनी प्रिया के पास में…..

…हे गोरी ! तुम कौन हो ?

बड़े प्रेम से पूछा था श्याम नें ।

क्या नाम है तुम्हारा ? किसकी बेटी हो ? हँसते हुए फिर – मैने कभी तुम्हे बृज में देखा नही ………कौन हो तुम ?

मैं राधा !

वो अमृत वाणी श्याम सुन्दर के कानों में घुरी ।

वैसे मैं कहीं आती जाती नही हूँ……….अपनें ही बाबा के आँगन में खेलती हूँ ………पर तुम कौन हो ? बड़े प्रेम से पूछा ।

मैं ? मैं तो कन्हैया………गोकुल का कन्हैया !

मेरा नाम सब जानते हैं ……..बृज का कोई ऐसा व्यक्ति नही होगा जो मेरे नाम को न जानता हो ………मुझे न जानता हो …………तुम तो जानती ही होंगी गोरी ! मैं कन्हैया । …….बड़े ठसक से बोले थे कन्हाई ।

नही ……..मैं नही जानती ,……साफ मना कर दिया श्रीराधा रानी नें …….मैं नही जानती तुम्हे ।

दुःखी हो गए श्याम …….मुँह लटक गया …….उदास हो चले थे ।

सुनो सुनो ………क्या तुम ही हो वो नन्द के ढोटा ? जो चोरी करता फिरता है ! बताओ ? हँसी ये कहते हुये श्रीराधा रानी ।

गम्भीर हो गए श्याम सुन्दर…….हे राधे ! तुम्हारो कहा चुराय लियो हमनें …….हमें चोर मत कहो……सुनो ! चलोगी हमारे साथ हमारे गाँव नन्द गाँव में ? नटखट कन्हाई बोल उठे थे ।

दूर है ? पूछा श्याम से ।

नहीं पास में ही है…….मैं छोड़ दूँगा…….चलो ।

तात ! श्याम सुन्दर के साथ चल दीं श्रीराधा रानी…….और धीरे धीरे बतियाते हुए पहुँची नन्द गाँव ।

भरी दोपहरी का समय हो गया है ………..लाल मुख मण्डल सूर्य के ताप से दोनों का हो चला था …………..देखा बृजरानी नें ………….कन्हाई आज अपनें साथ ये किसे लाया है ………..बाहर आईँ बृजरानी ।

सुन्दर कन्या है …….सुन्दर कहना भी कम है ………..शुक के जैसी नासिका है……..अधर लाल है …….मानों कोई लाली लगाई हो ………….अनार के दानें की तरह दन्तपँक्ति हैं ………..मुस्कुराहट तो ऐसी है मानों फूल झर रहे हों……..हो क्यों नहीं , ये श्रीराधा जो हैं ।

लाली ! तू बरसानें की है ? बृजरानी नें गोद में ले गया श्रीराधा को ।

मैया ! मुझे भी ले अपनी गोद में” ……….कन्हैया भी तो बालक ही हैं …….बृजरानी नें दोनों को गोद में ले लिया ।

कीर्तिरानी की लाली है ना तू ?……….संकोच करते हुए उत्तर दे रही हैं…….”हाँ” मेरी मैया का नाम कीर्ति ही है ।

“राधा नाम है मेरा”…….अपना नाम भी बता दिया श्रीराधा रानी नें ।

बेटी ! कुछ खा ले……….उठकर माखन लेकर आईँ बृजरानी ।

मैया ! मैं भी” …….कन्हाई भी मांग रहे हैं माखन ……और राधा को भी देखते जा रहे हैं ……. बहुत प्रसन्न हैं आज ये ।

बेटी ! दोपहर है ……..अभी कहाँ जाओगी थोडा सो जाओ ………

बृजरानी महल में ले गयीं ………और राधा को सोने के लिए कहनें लगीं थीं ………….मैं भी …………कन्हाई को भी सोना है ।

अच्छा तू भी सो …………हँसते हुए बृजरानी नें दोनों को सुला दिया ।

पर ये क्या तुरन्त ही उठ गयीं राधा ……..और बोलीं ……मैं इसके साथ नही सोऊँगी ………..

पर क्यों ? क्यों बेटी ? बृजरानी ने लाली राधा से पूछा ।

मैं काली हो जाऊँगी ……….क्यों की ये काला है ।

खूब हँसी बृजरानी ………….बेटी ! कसौटी का रंग सोना में नही चढ़ता ……….सोनें का रंग कसौटी पर चढ़ता है ।

मेरी राधा ! तू सोना है …..तेरा रंग चढ़ेगा मेरे लाल पर ……पर मेरा लाल तो कसौटी है ………..ये कहते हुए राधा को चूम लिया था बृजरानी नें ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 72

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 72)

!! “श्रीदामा” – कन्हैया का नया सखा !!


श्रीदामा का मिलन हुआ कन्हैया से ……..दोनों के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ……..ये नया सखा मिला था ….वैसे श्रीदामा कोई नया नही है …….ये पुराना है ……अनादि सखा है ……..गोलोक में निज परिकर है कन्हैया का ये………श्रीदामा ।

पर –

अवतार काल में पृथ्वी में ये पहली बार मिल रहा था अपनें कन्हैया से ।

कल सन्ध्या को आये थे बृषभान जी नन्दगाँव………अकेले नही आये …….आज अपनें पुत्र को भी ले आये थे …….गौर वर्ण का वह बालक ……..पीली छोटी पाग सिर में बाँधे हुए था…….मुस्कुराता मुखमण्डल …..अद्भुत तेजयुक्त था वो ।

कन्हैया तो खिसकते हुए पहुँच गए बृषभान जी के पास में …..फिर बगल में शान्त बैठे श्रीदामा के पास ।

तुम्हे खेलना है ? जाओ ! थोड़ी देर खेल लो …….बृषभान जी बोले थे अपनें पुत्र श्रीदामा से ।

कन्हैया चंचल बहुत है …….तुरन्त ही श्रीदामा का हाथ पकड़ कर बोला ……..चलो ! तुम्हारे बाबा नें आज्ञा दे दी है ……अब चलो ।

श्रीदामा संकोची है……….पर कन्हैया इसके संकोच को निकाल फेंकेगा ……..देखते जाना ।

कन्हैया श्रीदामा का हाथ पकड़ कर ले गए और अपनी सखा मण्डली में ले आये थे ………..

नाम क्या है तुम्हारा ? कन्हैया नें पूछा था ।

संकोची है श्रीदामा….दो चार बार पूछनें पर ही बताया था अपना नाम – श्रीदामा ।

तुम कहाँ रहते हो ? बरसाना !……पास में ही है ।

बड़े सुन्दर हो तुम तो ? श्रीदामा के कपोल को छूते हुए कन्हैया बोले ।

मुझ से भी ज्यादा सुन्दर तो मेरी बहन है ………बालक.श्रीदामा नें कहा……

” बहन और मुझे साथ में कोई देख ले ……तो कोई ये बता नही सकता कि कौन भाई है और कौन मेरी बहन है ।

कन्हैया नें पीठ में हाथ मारी श्रीदामा के ………..यहाँ लेकर आओ अपनी बहन को ……..मैं तो बता दूँगा कि कौन तुम हो ..और कौन तुम्हारी बहन है । कन्हैया ही बोले थे ।

रुके कन्हैया…..कुछ सोचकर बोले…….तुम्हारी बहन का नाम क्या है ?

“श्रीराधा”………….श्रीदामा नें उत्तर दिया ।

कुछ देर के लिये आँखें बन्द हो गयीं थीं कन्हैया की …………ये नाम ऐसा अद्भुत है कि श्री कृष्ण को भी अंतर्मुखी बना देता है ये नाम ।

हमारे साथ मित्रता करोगे ? हँसते हुए कन्हैया नें अपना हाथ बढ़ाया ।

श्रीदामा नें तुरन्त सिर हाँ में ही हिलाया था………और फिर हाथ मिले और गले भी मिले ।

तुम नित्य आओगे हमारे पास ? कन्हैया नें श्रीदामा को पूछा ।

हाँ …..मेरा ग्राम बरसाना, पास में ही है ………वो देखो ! उस ऊँची पहाड़ी में महल दिखाई दे रहा है ना….वही है…..श्रीदामा नें दिखाया ।

तभी उस दिशा से हवा चली ……..और उस हवा के झोंके नें कन्हैया को छूआ ……..बस उसी समय कन्हैया रोमांचित हो उठे थे ।

( साधकों ! प्राचीन वृन्दावन में – नन्दगाँव बरसाना गोवर्धन यमुना जी ये सब आते थे….वर्तमान का वृन्दावन पंचकोशी है …..ये “सरस वृन्दावन” है….जहाँ मात्र श्रीराधा रानी से श्री कृष्ण का प्रेमालाप होता था )

बृषभान जी और बृजराज दोनों होकर अपनें बालकों को ढूंढनें निकल गए थे ……क्यों की रात्रि हो रही थी ।

नन्दजी को देखते ही कन्हैया दौड़ पड़े…..बृषभान जी के पास श्रीदामा ।

ये है मेरा बालक……..बृषभान जी नें दिखाया बृजराज को ।

श्रीदामा…….आपनें जब देखा था बृजराज ! तब ये बहुत छोटा था …….आप को स्मरण है क्या ? बृषभान जी नें पूछा ।

हाँ ……..मुझे स्मरण है ।

और ये है मेरा पुत्र कृष्ण …………नन्दबाबा नें परिचय दिया ।

लाला ! आओ …इधर आओ ………….बृषभान जी नें बुलाया कन्हैया को …..तो कन्हैया चले गए ।

और ये सब मेरे पुत्र के सखा हैं ………….नन्द बाबा के कहनें पर …..सब नें बृषभान जी के चरण छूए …………पर –

तू भी छू ………..कन्हैया हँसते हुये मनसुख से बोले ।

मैं तो ब्राह्मण हूँ ……….मैं कैसे छू सकता हूँ…………..मनसुख नें बृषभान जी की ओर देखते हुए ही कहा था ।

ओह ! ब्राह्मण हो आप ……फिर तो आपके चरण हमारे धाम में भी रखिये….पवित्र हो जायेगें….बृषभान जी नें हाथ जोड़कर मनसुख से कहा ।

पता नही ऐसा क्यों कहा …….गौ के खुर से स्थान पवित्र होता है …….पर मनसुख कोई गौ तो नही …..फिर इसके पाँव पड़नें से कोई भी स्थान पवित्र कैसे हो सकता है…….मेरे तो कुछ समझ में ही नही आया ।

कन्हैया सोच रहे थे ………….कि तभी मनसुख नें ऐसी बात कह दी …..कन्हैया तो शरमा गया और मैया की गोद में जाकर छुप गया था ।

आपकी बेटी है ? सुना है बड़ी सुन्दर है…..हमारे कन्हैया से उसकी सगाई करा दो ….फिर आऊँगा आपके यहाँ और खूब दावत उड़ाऊँगा ।

कुछ भी बोल देता है मनसुख…….अरे ! कुछ तो शरम करो ………..पर मनसुख को कौन समझाये ।

लग रहा था कन्हैया को कि बृषभान जी क्रोधित हो उठेंगे ऐसी बातें सुनकर ……..पर बृषभान जी तो बहुत अच्छे हैं …………..कन्हैया नें अब सोचा ……कितनें अच्छे हैं !

मनसुख के सामनें हाथ जोड़कर बोले ……..आप ही करवा दो मेरी बेटी और नन्दनन्दन के साथ सगाई ……………

कैसी है आपकी बेटी ? बोर कर रहा था अब मनसुख ।

फिर उत्तर की प्रतीक्षा बिना किये बोला …….आपके पुत्र .श्रीदामा जैसी ही लगती हैं क्या ? मनसुख पूछ रहा है ।

हाँ बृजराज ! मेरी राधा बेटी बिल्कुल श्रीदामा की तरह ही लगती है ।

कोई पहचान ही नही पाता दोनों को ……कभी श्रीदामा को राधा कह देते हैं …..कोई राधा को श्रीदामा……ये कहते हुए हँस रहे थे बृषभान जी ।

पर श्रीदामा से शर्त लगाई है अपनें कन्हैया नें……कि कल राधा को ले आना…..अपना कन्हैया तो पहचान लेगा – श्रीदामा है कि राधा हैं ?

मनसुख की बातों का कोई बुरा नही मानता ……….ये परम तपश्विनी पौर्णमासी का पुत्र है ………बृजराज नें बृषभान जी को कहा ।

नही ……….बड़ा अद्भुत बालक है ये ………..दिव्य प्रेम मयी ऊर्जा से ओतप्रोत ……..बृषभान जी नें मनसुख के लिये कहा था ।

पर सुन्दर तो आपका पुत्र है………कन्हैया काला है ….पर आपका पुत्र गौर वर्ण का है……….श्रीदामा के लिये कहा मनसुख नें ……और श्रीदामा के गोरे कपोलों को छूकर भागा ।

मनसुख की हर छोटी बड़ी हरकतों पर कन्हैया खूब हँसता है ………आज भी खूब हँसा…………..बृषभान जी मन्त्रमुग्ध होकर नन्दनन्दन को देखते ही रहे थे ।

श्रीदामा अब कन्हैया के सखाओं में प्रमुख बन गया था ………….नित्य बरसानें से नन्दगाँव आना……कभी कभी तो नन्दगाँव में ही सो जाना ।

एक दिन –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 71

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 71)

!! “वृन्दावन में प्रथम वेणु नाद” – एक अलौकिक नाद !!


कब सीखा बंशी बजाना श्याम नें – पता नही ।

पर आज श्याम आनन्दित हो अकेले ही निकल पड़े थे श्रीधाम वृन्दावन की शोभा को देखते हुए ………..

पीताम्बर धारी , मोर मुकुट सिर पर …….घुँघराले केश ……गले में लम्बी पुष्पों की झूलती हुयी माला ,

वृक्षों को छू रहे हैं ……….लताओं को आलिंगन कर रहे हैं …….पक्षियों से बतिया रहे हैं …..नभ के मेघों से अपनें वर्ण की तुलना कर रहे हैं ।

आगे मोरों का झुण्ड देखा ………श्याम को देखकर उन्हें भी अपनें प्रियतम मेघों की याद आगयी ………वो सब पंख फैलाये नाचनें लगे ।

पक्षियों का झुण्ड वृक्षों पर आगया था ………उन्होंने अपना सुर छेड़ दिया ……..उनकी बोली ……उनका अपना संगीत था ।

श्याम सुन्दर आज ये सब वृन्दावन में देख कर झूम उठे थे ।

इधर उधर देखा …………फेंट में बाँसुरी थी ……कब रखी थी पता नही ………कब सीखी ? किससे सीखी बजानी , पता नही ।

आज निकाल लिया …………..वृन्दावन सच में झूम उठा था ……..पक्षियों की बात कौन कर रहा है ……..पूरा का पूरा वन प्रान्त ही उन्मत्त हो गया था – जब अपनें कोमल पतले गुलाबी अधरों पर श्याम नें बंशी को रखा ………..झुके थोडा ……..अपनी सुरभित साँसों को खींचा और उन बंशी के रंध्रों में फूँक मार दी ।

उफ़ ! स्वर लहरी चल पड़ी……वृन्दावन झुमनें लगा……..वृक्ष , लता पक्षियों की कौन कहे……यमुना का प्रवाह स्थिर हो गया ।

उफ़ ! हिरणियाँ खड़ी हो गयीं सामनें आकर ……….और अपलक नेत्रों से श्याम को निहारने लगीं ।

तात ! ये स्थिति पृथ्वी की थी …….पर ये वेणु नाद रुकनें वाला था क्या ? ये तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रेम रस से भरना चाहता था ………….और ये किया इस वेणु रव नें ।

ये श्याम के द्वारा बजाई गयी थी ………..ब्रह्माण्ड का भेदन करते हुए ये सिद्ध लोक पहुँची – वेणु नाद…..सिद्ध अपनें ध्यान में लीन थे ….शान्त स्थिति में वो सब रहते थे ………पर ये क्या किया इस वेणु नाद नें …….बेचारे शान्त स्थिति वाले सिद्धात्माओं को अशान्त कर दिया था ।

ये प्रेम का नाद है ……….ये है ही ऐसा ।

शान्त को अशान्त कर दे और अशान्त को शान्त बना दे ……..ये बड़ा विचित्र है – प्रेम ।

अब उन सिद्ध लोक में रहनें वाले सिद्धों को समझ में नही आरहा कि ये हो क्या गया ? कोई सुमधुर सा स्वर गुंजा और ……ध्यान से उठा दिया …….अब प्रणायाम कर रहे हैं ……….ध्यान लगे इसका प्रयास कर रहे हैं …..पर सारे प्रयास निष्फल .।

तात ! ये वेणु नाद अब और आगे बढ़ा ………….नारद जी अपनें शिष्य तुम्बुरु के साथ कैलाश जा रहे थे ………..श्याम की वेणु नाद यहाँ तक पहुँची …..उफ़ ! पगला गए महान संगीतकार तुम्बुरु ।…..गुरुदेव ! ये कौन सा स्वर लग रहा है …….ये किस अद्भुत राग में बज रहा है …….तुम्बुरु जब तक सोचते हैं …..तब तक तो श्याम दूसरे से तीसरे राग रागिनियों में विचरकर वापस वहीँ आजाते हैं ।

उद्धव आनन्दित होकर बोले – तात ! आनन्दातिरेक में मूर्छित होनें के सिवा कोई और उपाय था नही तुम्बुरु के पास …….उन्हें मूर्छित होना ही पड़ा ।

वत्स ! श्याम की बजाई गयी बंशी है ………..राग रागिनियों के फेर में तुम मत पड़ो ……..बस तुम तो दोनों कर्णरंध्रों को खुला रखो …….और पीयो कानों से इस अद्भुत नाद को …….रस को ………..क्यों की ये बुद्धि से बहुत परे की वस्तु है ……..बुद्धि को त्यागों तुम्बुरु ! देवर्षि नें उठाया अपनें शिष्य को ।

उद्धव कहते हैं ………तात ! अब ये वेणु नाद कैलाश में पहुँची …….भगवान शंकर ध्यान कर रहे थे ……….

तभी श्याम की वेणु नाद कैलाश में ……….कैलाश में ओंकार नाद सदैव गुँजित रहता है …….पर इस वेणु नाद नें उस ओंकार नाद को भी फीका कर दिया था………..भगवान शंकर के हृदय में पहुँच कर खलबली मचा दी ………नेत्र खोल लिये महादेव नें ……..और नाचनें लगे …….पार्वती जी दौड़ी हुयी आईँ ……..भगवन् ! क्या हुआ ?

पार्वती जी से बोले – देवी ! नाद मेरे नन्दनन्दन का है ……….प्रेम से भरा अद्भुत नाद छेड़ दिया है वृन्दावन में…..सुनो ! महादेव पार्वती को कह रहे हैं ।

तात ! वेणु नाद, अब कैलाश से होते हुए ब्रह्म लोक में पहुँचा था …..ब्रह्म लोक में सृष्टी कर्ता कर्म का हिसाब किताब देख रहे थे …….नये सृष्टि को कैसे प्रारम्भ करना है आगे ………इस पर सोच रहे थे …….