भूमिका
कल कल करती हुई कालिंदी बह रहीं थींघना कुँज था फूल खिले थे उसमे से निकलती मादक सुगन्ध सम्पूर्ण वन प्रदेश को डालने आगोश में ले रहीं थी चन्द्रमा की किरणें छिटक रहीं थी यमुना की बालुका ऐसे लग रही थी

जैसे ये बालुका न हो कपूर को पीस कर बिखेर दिया गया हो ।
कमल खिले हैं कुमुदनी प्रसन्न है उसमें भौरों का झुण्ड ऐसे गुनगुना रहा हैजैसे अपनें प्रियतम के लिये ये भी गीत गा रहे होंबेला, मोगरा , गुलाब इनकी तो भरमार ही थी ।
ऐसी दिव्य प्रेमस्थली में, मैं कैसे पहुँचा था मुझे पता नही ।
मेरी आँखें बन्द हो गयीं जब खुलीं तब मेरे सामनें एक महात्मा थे बड़े प्रसन्न मुखमण्डल वाले महात्मा ।
मैने उठते ही उनके चरणों में प्रणाम किया ।
उनके रोम रोम से श्रीराधा श्रीराधा श्री राधा ये प्रकट हो रहा था ।
उनकी आँखें चढ़ी हुयी थीं जैसे कोई पीकर मत्त हो हाँ ये मत्त ही तो थे तभी तो कदम्ब और तमाल वृक्ष से लिपट कर रोये जा रहे थे रोनें में दुःख या विषाद नही था आल्हाद था आनन्द था ।
मैने उनकी गुप्त बातें सुननी चाहीं मैं अपनें ध्यानासन से उठा और उनकी बातों में अपनें कान लगानें शुरू किये ।
विचित्र बात बोल रहे थे ये महात्मा जी तो ।
कह रहे थे नही, मुझे तुम्हारा मिलन नही चाहिये प्यारे मुझे ये बताओ कि तुम्हारे वियोग का दर्द कब मिलेगा ।
तुम्हारे मिलन में कहाँ सुख है सुख तो तेरे लिए रोने में है तेरे लिए तड़फनें में है तू मत मिल अब तू जा मैं तेरे लिये अब रोना चाहता हूँ मैं तेरे विरह की टीस अपनें सीने में सहेजना चाहता हूँ तू जा जा तू ।
ये क्या महात्मा जी के इतना कहते ही
तू गया ? तू गया ? कहाँ गया ? हे प्यारे कहाँ ?
वो महात्मा दहाड़ मार कर धड़ाम से गिर गए उस भूमि पर
मैं गया मैने देखा उनके पसीनें निकल रहे थे पर उन पसीनों से भी गुलाब की सुगन्ध आरही थी ।
मैं उन्हें देखता रहा फिर जल्दी गया अपनें चादर को गीला किया यमुना जल से उस चादर से महात्मा जी के मुखारविन्द को पोंछा “श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा“यही नाम उनके रोम रोम से फिर प्रकट होनें लगा था ।
वत्स साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं और ये अनादिकाल से चली आरही धाराएं हैं
वो उठकर बैठ गए थे उन्हें मैं ही ले आया था देह भाव में ।
उठते ही उन्होंने इधर उधर देखा फिर मेरी ओर उनकी कृपा दृष्टि पड़ी मैं हाथ जोड़े खड़ा था ।
वो मुस्कुरायेउनका कण्ठ सूख गया थामैं तुरन्त दौड़ा यमुना जी गया एक बड़ा सा कमल खिला था, उसके ही पत्ते में मैने जमुना जल भरा और ला कर उन महात्मा जी को पिला दिया ।
वो जानें लगे तो मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया ।
तुम कहाँ आरहे हो वत्स
उनकी वाणी अत्यन्त ओजपूर्ण, पर प्रेम से पगी हुयी थी ।
मुझे कुछ तो प्रसाद मिले
मैनें अपनी झोली फैला दी ।
वो हँसे मैं पढ़ा लिखा तो हूँ नही ?
न पण्डित हूँ न शास्त्र का ज्ञाता मैं क्या प्रसाद दूँ ?
उनकी वाणी कितनी आत्मीयता से भरी थी ।
आप नें जो पाया हैउसे ही बता दीजिये मैने प्रार्थना की ।
उन्होंने लम्बी साँस ली फिर कुछ देर शून्य में तांकते रहे ।
वत्स साधना की सनातन दो ही धाराएं हैं
एक धारा है अहम् की यानि “मैं” की और दूसरी धारा है उस “मैं” को समर्पित करनें की
मेरा मंगल हो मेरा कल्याण हो मेरा शुभ हो इसी धारा में जो साधना चलती है वो अहंम को साधना है ।
पर एक दूसरी धारा है साधना की वो बड़ी गुप्त है उसे सब लोग नही जान पाते
क्यों नही जान पाते महात्मन् ? मैने प्रश्न किया ।
क्यों की उसे जाननें के लिये अपना “अहम्” ही विसर्जित करना पड़ता है“मैं” को समाप्त करना पड़ता है महाकाल भगवान शंकर जो विश्व् गुरु हैंजगद्गुरु हैंवो भी इस रहस्य को नही जान पाये तो उन्हें भी सबसे पहले अपना “अहम्” ही विसर्जित करना पड़ा यानि वो गोपी बनेपुरुष का चोला उतार फेंका तब जाकर उस रहस्य को उन्होंने समझा ।
ये प्रेम की अद्भुत धारा हैपरवो महात्मा जी हँसेये ऐसी धारा है जो जहाँ से निकलती है उसी ओर ही बहनें लग जाती है ।
तभी तो इस धारा का नाम धारा न होकर राधा है ।
जहाँ पूर्ण अहम् का विसर्जन है जहाँ ” मैं” नामक कोई वस्तु है ही नही है तो बस तू ही तू ।
त्याग, समर्पण , प्रेम करुणा की एक निरन्तर चिर बहनें वाली सनातन धारा का नाम है राधा राधा राधा राधा
वो इससे आगे कुछ बोल नही पा रहे थे ।
काहे टिटिया रहे हो ?
मैं चौंक गया ये मुझे कह रहे हैं ।
हाँ हाँ सीधे सीधे “श्रीराधा रानी” पर कुछ क्यों नही लिखते ?
ये आज्ञा थी उनकी मैने उनकी आँखों में देखा ।
मैं लिख लूंगा ? मेरे जैसा प्रेमशून्य व्यक्ति उन “आल्हादिनी श्रीराधा रानी” के ऊपर लिख लेगा ? जिनका नाम लेते ही भागवतकार श्रीशुकदेव जी की वाणी रुक जाती हैऐसी “श्रीकृष्णप्रेममयी श्रीराधा” पर मैं लिख लूंगा ? मैं कहाँ कामी, क्रोधी , कपटी लोभी क्या दुर्गुण नही हैं मुझ में ऐसा व्यक्ति लिख लेगा उन “श्रीकृष्ण प्रिया श्रीराधा” के ऊपर ?
वो महात्मा जी उठे मेरे पास में आये
और बिना कुछ बोले मेरे नेत्रों के मध्य भाग को अपनें अंगूठे से छू दिया ओह ये क्या
दिव्य निकुञ्ज दिव्याति दिव्य नित्य निकुञ्ज मेरे नेत्रों के सामनें प्रकट हो गया था ।
जहाँ चारों ओर सुख और आनन्द की वर्षा हो रही थी प्रेम निमग्ना सहस्त्र सखी संसेव्य श्रीराधा माधव उस दिव्य सिंहासन में विराजमान थेउन श्रीराधा रानी की चरण छटा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हो रहा थाउनकी घुंघरू की आवाज से ऊँ प्रणव का प्राकट्य है वो पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण अपनी आल्हादिनी के रूप में राधा को अपनें वाम भाग में विराजमान करके प्रेम सिन्धु में अवगाहन कर रहे थे ।
मैने दर्शन किये नित्य निकुञ्ज के
अब तुम लिखो
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 1
वो महात्मा जी खो गए थे उसी निकुञ्ज में ।
“यमुना जी जाना नही है ‘पाँच बज गए हैं ।
सुबह पाँच बजे मुझे उठा दिया मेरे घर वालों नें ।
ओह ये सब सपना था ?
मुझे आज्ञा मिली हैकि मैं श्रीराधाचरितामृतम् लिखूँ मुझे ये नाम भी उन्हीं दिव्य महात्मा जी नें सपनें में ही दिया है ।
पर कैसे ? कैसे लिखूँ ? “श्रीराधारानी” के चरित्र पर लिखना साधारण कार्य नही है मैनें अपना सिर पकड़ लिया ।
फिर एकाएक मन में विचार आया कन्हैया की इच्छा है वो अपनी प्रिया के बारें में सुनना चाहता है
ओह तो मैं सुनाऊंगा प्रमाण मत माँगना क्यों की “श्रीराधा” पर लिखना ही अपनें आप में धन्यता है और लेखनी की सार्थकता भी इसी में है ।
प्रेम की साक्षात् मूर्ति श्री राधा रानी के चरणों में प्रणाम करते हुए ।
कृष्ण प्रेममयी राधा, राधा प्रेममयो हरिः
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 2
( राधे चलो अवतार लें )
“जय हो जगत्पावन प्रेम कि जय हो उस अनिर्वचनीय प्रेम कि
उस प्रेम कि जय हो, जिसे पाकर कुछ पानें कि कामना नही रह जाती ।
उस ‘चाह” कि जय हो जिस “प्रेम चाह” से कामनारूपी पिशाचिनी का पूर्ण रूप से नाश हो जाता है ।
और अंत में हे यादवकुल के वंश धर वज्रनाभ तुम जैसे प्रेमी कि भी जय हो जय हो ।
महर्षि शाण्डिल्य से “श्रीराधाचरित्र” सुननें कि इच्छा प्रकट करनें पर महर्षि के आनन्द का ठिकाना नही रहा वो उस प्रेम सिन्धु में डूबनें और उबरनें लगे थे ।
हे द्वारकेश के प्रपौत्र मैं क्या कह पाउँगा श्रीराधा चरित्र को ?
जिन श्रीराधा का नाम लेते हुए श्रीशुकदेव जैसे परमहंस को समाधि लग जाती है वो कुछ बोल नही पाते हैं ।
हाँ प्रेम अनुभूति का विषय है वज्रनाभ ये वाणी का विषय नही है कुछ देर मौन होकर फिर हँसते हुए बोलना प्रारम्भ करते हैं महर्षि शाण्डिल्य हा हा हा हागूँगे के स्वाद कि तरह है ये प्रेम गूँगे को गुड़ खिलाओ और पूछो – बता कैसा है ?
क्या वो कुछ बोल कर बता पायेगा ? हाँ वो नाच कर बता सकता है वो उछल कूद करके पर बोले क्या ?
ऐसे ही वत्स तुमनें ये मुझ से क्या जानना चाहा
तुम कहो तो मैं वेद का सम्पूर्ण वर्णन करके तुम्हे बता सकता हूँ तुम कहो तो पुराण इतिहास या वेदान्त गूढ़ प्रतिपादित तत्व का वर्णन करना मुझ शाण्डिल्य को असक्य नही हैं पर प्रेम पर मैं क्या बोलूँ ?
प्रेम कि परिभाषा क्या है ? परिभाषा तो अनन्त हैं प्रेम कि अनेक कही गयी हैं अनेकानेक कवियों नें इस पर कुछ न कुछ लिखा है कहा है पर सब अधूरा है क्यों कि प्रेम कि पूरी परिभाषा आज तक कोई लिख न सका ।
पूरी परिभाषा मिल ही नही सकती क्यों कि प्रेम, वाणी का विषय ही नही है ये शब्दातीत है इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य फिर मौन हो गए थे ।
हे महर्षियों में श्रेष्ठ शाण्डिल्य आपनें “प्रेम” के लिए जो कुछ कहा वो तो ब्रह्म के लिए कहा जाता है तो क्या प्रेम और ब्रह्म एक ही हैं ? अंतर नही है दोनों में ?
मैं अधिकारी हूँ कि नही हे महर्षि मैं प्रेम तत्व को नही जानता आप कि कृपा हो तो मैं जानना चाहता हूँयानि अनुभव करना चाहता हूँ आप कृपा करें ।
हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ नें महर्षि शाण्डिल्य से कहा ।
हाँ, ब्रह्म और प्रेम में कोई अंतर नही है फिर कुछ देर कालिन्दी यमुना को देखते हुए मौन हो गए थे महर्षि ।
नही नही ब्रह्म से भी बड़ा है प्रेम मुस्कुराते हुए फिर बोले महर्षि शाण्डिल्य ।
तभी तो वह ब्रह्म अवतार लेकर आता है केवल प्रेम के लिए ।
प्रेम” उस ब्रह्म को भी नचानें कि हिम्मत रखता है क्या नही नचाया ? क्या इसी बृज भूमि में गोपियों नें उन अहीर कि कन्याओं नें माखन खिलानें के बहानें से उस ब्रह्म को अपनी बाहों में भर कर उस सुख को लूटा है जिस सुख कि कल्पना भी ब्रह्मा रूद्र इत्यादि नही कर सकते ।
उन गोपियों के आगे वो ब्रह्म नाचता है आहा ये है प्रेम देवता का प्रभाव नेत्रों से झर झर अश्रु बहनें लग जाते हैं महर्षि के ये सब कहते हुए ।
कृष्ण कौन हैं ? शान्त भाव से पूछा था वज्रनाभ नें ये प्रश्न ।
चन्द्र हैं कृष्ण महर्षि आनन्द में डूबे हुए हैं ।
कहाँ के चन्द्र ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
श्रीराधा रानी के हृदय में जो प्रेम का सागर उमड़ता रहता है उस प्रेम सागर में से प्रकटा हुआ चन्द्र है – ये कृष्ण ।
महर्षि नें उत्तर दिया ।
श्रीराधा रानी क्या हैं फिर ? वज्रनाभ नें फिर पूछा ।
वो भी चन्द्र हैं , पूर्ण चन्द्र महर्षि का उत्तर ।
कहाँ कि चन्द्र ? वज्रनाभ आनन्दित हैं , पूछते हुए ।
वत्स वज्रनाभ श्रीकृष्ण के हृदय समुद्र में जो संयोग वियोग कि लहरें चलती और उतरती रहती हैं उसी समुद्र में से प्रकटा चन्द्र है ये श्रीराधा ।
तो फिर ये दोनों श्रीराधा कृष्ण कौन हैं ?
दोनों चकोर हैं और दोनों ही चन्द्रमा हैं कौन क्या है कुछ नही कहा जा सकता इसे इस तरह से माना जाए राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है क्या वज्रनाभ प्रेम कि उस उच्चावस्था में अद्वैत नही घटता ? वहाँ कौन पुरुष और कौन स्त्री ?
उसी प्रेम कि उच्च भूमि में विराजमान हैं ये दोनों अनादि काल से इसलिये राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ये दो लगते हैं पर हैं नही ?
हे वज्रनाभ जो इस प्रेम रहस्य को समझ जाता है वह योगियों को भी दुर्लभ “प्रेमाभक्ति” को प्राप्त करता है ।
इतना कहकर भावसमाधि में डूब गए थे महर्षि शांडिल्य ।
हे राधे जय राधे जय श्री कृष्ण जय राधे
“ये आवाज काफी देर से आरही है देखो तो कौन हैं ?
विशाखा सखी नें ललिता सखी से कहा ।
कहो ना ज्यादा शोर न मचाएं वैसे भी हमारे “प्यारे” आज उदास हैं उनका कहीं मन भी नही लग रहा ।
पर ऐसा क्या हुआ ? ललिता सखी नें विशाखा सखी से पूछा ।
प्यारे अपनी प्राण “श्रीजी” को चन्द्रमा दिखा रहे थे और दिखाते हुये बोले “तिहारो मुख तो चन्द्रमा कि तरह है मेरी प्यारी
बस रूठ गयीं हमारी राधा प्यारी विशाखा सखी नें कहा ।
पर इसमें रूठनें कि बात क्या ? ललिता सखी फूलों कि सेज लगा रही थी और पूछती भी जा रही थी ।
जब प्यारे नें अपनी प्राण श्रीराधिका से उनके चिबुक में हाथ रखकर, उनके कपोल को छूते कहा “चन्द्र कि तरह मुख है तुम्हारो“
ओह तो क्या मेरे मुख में कलंक है ? मेरे मुख में काला धब्बा है
बस श्रीराधा प्यारी रूठ गयीं ।
ओह ललिता सखी भी दुःखी हो गयीपर श्याम सुन्दर को ये सब कहनें कि जरूरत क्या थी ? ।
पर श्रीराधा रानी को भी बात बात में मान नही करना चाहिए ना
विशाखा सखी नें कहा ।
प्रेम बढ़ता हैप्रेम के उतार चढाव में ही तो प्रेम का आनन्द है ।
यही तो प्रेम का रहस्य है रूठना फिर मनाना ।
श्रीराधे जय जय राधे जय श्री कृष्ण जय जय राधे
अरी अब तू जा और देख ये कौन आवाज लगा रहा है कह दे हमारे श्याम सुन्दर अभी उदास हैं क्यों कि उनकी आत्मा रूठ गयीं हैं अब वो मनावेंगे ।जा ललिते जा कह दे ।
ललिता सखी बाहर आयी कौन हैं आप ? और क्यों ऐसे पुकार रहे हैं क्या आपको पता नही है ये निकुञ्ज है श्याम सुन्दर अपनी आल्हादिनी के साथ विहार में रहते हैं ।
हमें पता है सखी हमें सब पता है पर एक प्रार्थना करनें आये हैं हम लोग उन तीनों देवताओं नें हाथ जोड़कर प्रार्थना कि ललिता सखी से ।
पर कुछ सोचती हुई ललिता सखी बोली आप लोग हैं कौन ?
हम तीनों देव हैं ब्रह्मा विष्णु और ये महेश ।
अच्छा आप लोग सृष्टि कर्ता , पालन कर्ता और संहार कर्ता हैं ?
ललिता सखी को देर न लगी समझनें में फिर कुछ देर बाद बोली पर आप किस ब्रह्माण्ड के विष्णु , ब्रह्मा और शंकर हैं ?
क्या ? ब्रह्मा चकित थेक्या ब्रह्माण्ड भी अनेक हैं ?
ललिता सखी हँसीअनन्त ब्रह्माण्ड हैं हे ब्रह्मा जी और प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अलग अलग विष्णु होते हैं अलग ब्रह्मा होते हैं और अलग अलग शंकर होते हैं ।
अब आप ये बताइये कि किस ब्रह्माण्ड के आप लोग ब्रह्मा विष्णु महेश हैं ?
कोई उत्तर नही दे सका तो आगे आये भगवान विष्णु हे सखी ललिते हम उस ब्रह्माण्ड के तीनों देव हैं जहाँ का ब्रह्माण्ड वामन भगवान के पद की चोट से फूट गया था ।
ओह अच्छा बताइये यहाँ क्यों आये ? ललिता नें पूछा ।
पृथ्वी में हाहाकार मचा है कंस जरासन्ध जैसे राक्षसों का अत्याचार चरम पर पहुँच गया है वैसे हम लोग चाहते तो एक एक अवतार लेकर उनका उद्धार कर सकते थे पर
ब्रह्मा चुप हो गए तब भगवान शंकर आगे आये बोले –
हम श्रीश्याम सुन्दर के अवतार कि कामना लेकर आये हैं सखी उनका अवतार हो और हम सबको प्रेम का स्वाद चखनें को मिले ।
भगवान शंकर नें प्रार्थना कि ।
और हम लोगों के साथ साथ अनन्त योगी जन हैं अनन्त ज्ञानी जन हैंअनन्त भक्तों कि ये इच्छा है की श्री श्याम सुन्दर की दिव्य लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में हो भगवान विष्णु नें ये बात कही ।
ठीक है आप लोग जाइए मैं आपकी प्रार्थना श्याम सुन्दर तक पहुँचा दूंगी इतना कहकर ललिता सखी निकुञ्ज में चली गयीं ।
प्यारी मान जाओ ना देखो मैं हूँ तुम्हारा अपराधी हाँ मुझे दण्ड दो राधे मुझे दण्डित करो इस अपराधी को अपने बाहु पाश से बांध कर हृदय में कैद करो ।
हे वज्रनाभ उस नित्य निकुञ्ज में आज रूठ गयी हैं श्रीराधा रानी और बड़े अनुनय विनय कर रहे हैं श्याम सुन्दर पर आज राधा मान नही रहीं ।
इन पायल को बजनें दो ना ये करधनी कितनी कस रही है तुम्हारी क्षीण कटि में इसे ढीला करो ना
हे राधे तुम्हारी वेणी के फूल मुरझा रहे हैं नए लगा दूँ नए सजा दूँ ।
युगल सरकार की जय हो
ललिता सखी नें उस कुञ्ज में प्रवेश किया ।
हाँ क्या बात है ललिते
देखो ना “श्री जी” आज मान ही नही रहींअसहाय से श्याम सुन्दर ललिता सखी से बोले ।
मुस्कुराते हुए ललिता नें अपनी बात कही हे श्याम सुन्दर बाहर आज तीन देव आये थे ब्रह्मा ,विष्णु , महेश
क्यों आये थे ? श्याम सुन्दर नें पूछा ।
“पृथ्वी में त्राहि त्राहि मची हुयी है कंसादि राक्षसों का आतंक“
ललिता आगे कुछ और कहनें जा रही थी पर श्याम सुन्दर नें रोक दिया बात ये नही है क्या राक्षसों का वध ये विष्णु या महेश से सम्भव नही है ?उठे श्याम सुन्दर तमाल के वृक्ष की डाली पकडकर त्रिभंगी भंगिमा से बोले “बात कुछ और है” ।
हाँ बात ये है कि वो लोग, और अन्य समस्त देवता समस्त ज्ञानीजन, योगी, भक्तजन आपकी इन प्रेममयी लीलाओं का आस्वादन पृथ्वी में करना चाहते हैं ताकि दुःखी मनुष्य आशा पाश में बंधा जीव महत्वाकांक्षा की आग में झुलसता जीव जब आपकी प्रेमपूर्ण लीलाओं को देखेगा सुनेगा गायेगा तो
क्या कहना चाहते थे वो तीन देव ?
श्याम सुन्दर नें ललिता की बात को बीच में ही रोककर स्पष्ट जानना चाहा ।
“आप अवतार लें पृथ्वी में आपका अवतार हो ” ।
ललिता सखी नें हाथ जोड़कर कहा ।
ठीक है मैं अवतार लूंगा
श्याम सुन्दर नें मुस्कुराते हुए अपनी प्रियतमा श्रीराधा रानी की ओर देखते हुए कहा ।
चौंक गयीं थी श्रीराधा रानी मानों प्रश्न वाचक नजर से देखा था अपनें प्रियतम को मानों कह रही हों “मेरे बिना आप अवतार लोगे ?
नही नही प्यारी आप तो मेरी हृदयेश्वरी होआपको तो चलना ही पड़ेगाश्याम सुन्दर नें फिर अनुनय विनय प्रारम्भ कर दिया था ।
नही प्यारे
अपनें हाथों से श्याम सुन्दर के कपोल छूते हुए श्रीराधा नें कहा ।
पर क्यों ? क्यों ? राधे
क्यों की जहाँ श्रीधाम वृन्दावन नहीं गिरी गोवर्धन नहीं और मेरी प्यारी ये यमुना नहीं इतना ही नहीं मेरी ये सखियाँ इनके बिना मेरा मन कहाँ लगेगा ?
तो इन सब को मैं पृथ्वी में ही स्थापित कर दूँ तो ?
आनन्दित हो उठी थींश्रीराधा रानी
हाँ फिर मैं जाऊँगी ।
पर लीला है प्यारी
याद रहे विरह , वियोग की पराकाष्ठा का दर्शन आपको कराना होगा इस जगत को ।
प्रेम क्या है प्रेम किसे कहते हैं इस बात को समझाना होगा इस जगत कोश्याम सुन्दर नें कहा ।
हे वज्रनाभ नित्य निकुञ्ज में अवतार की भूमिका तैयार हो गयी थी ।
महर्षि शाण्डिल्य से ये सब निकुञ्ज का वर्णन सुनकर चकित भाव से यमुना जी की लहरों को ही देखते रहे थे वज्रनाभ ।
“हे राधे वृषभान भूप तनये हे पूर्ण चंद्रानने“
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 3
( “भानु” की लली – श्रीराधारानी )
प्रेम की लीला विचित्र है प्रेम की गति भी विचित्र है
इस प्रेम को बुद्धि से नही समझा जा सकता है इसे तो हृदय के झरोखे से ही देखा जा सकता है ।
हो सकता है मिलन की चाँदनी रात का नाम प्रेम हो या उस चाँदनी रात में चन्द्रमा को देखते हुए प्रियतम की याद में आँसू को बहाना ये भी प्रेम हो सकता है ।
मिलन का सुख प्रेम है तो विरह वेदना की तड़फ़ का नाम भी प्रेम ही है शायद प्रेम का बढ़ना प्रेम का तरंगायित होना ये विरह में ही सम्भव है विरह वो हवा है जो बुझती हुयी प्रेम की आग को दावानल बना देनें में पूर्ण सहयोग करती है ।
कालिन्दी के किनारे महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण प्रपौत्र वज्रनाभ को “श्रीराधा चरित्र” सुना रहे हैंऔर सुनाते हुए भाव विभोर हो जाते हैं ।
हे वज्रनाभ मैं बात उन हृदय हीन की नही कर रहा जिन्हें ये प्रेम व्यर्थ लगता है मैं तो उनकी बात कर रहा हूँ जिनका हृदय प्रेम देवता नें विशाल बना दिया है और इतना विशाल कि सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखाई देता है कण कण में नभ में , थल में , जल मेंक्या ये प्रेम का चमत्कार नही है ?
इसी प्रेम के बन्धन में स्वयं सर्वेश्वर परात्पर परब्रह्म भी बंधा हुआ है यही इस “श्रीराधाचरित्र” की दिव्यता है ।
श्रीराधा रूठती क्यों हैं ? वज्रनाभ नें सहज प्रश्न किया ।
इसका कोई उत्तर नही है वत्स प्रेम निमग्न महर्षि शाण्डिल्य बोले ।
लीला का कोई प्रयोजन नही होता लीला उमंग आनन्द के लिए मात्र होती है ।हे यदुवीर वज्रनाभ प्रेम की लीला तो और वैचित्र्यता लिए हुए है इस प्रेम पथ में तो जो भी होता है वो सब प्रेम के लिए ही होता हैप्रेम बढ़ेऔर बढ़े बस यही उद्देश्य है ।
न न वत्स वज्रनाभ बुद्धि का प्रयोग निषिद्ध है इस प्रेम लीला में इस बात को समझो ।
फिर गम्भीरता के साथ महर्षि शाण्डिल्य समझानें लगे
ब्रह्म की तीन मुख्य शक्ति हैं महर्षि नें बताया ।
द्रव्य शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति
हे वज्रनाभ द्रव्य शक्ति यानि महालक्ष्मी क्रिया शक्ति यानि महाकालीऔर ज्ञान शक्ति यानि महासरस्वती ।
हे वज्रनाभ नौ दिन की नवरात्रि होती है तो इन्हीं तीन शक्तियों की ही आराधना की जाती हैएक शक्ति की आराधना तीन दिन तक होती है तो तीन तीन दिन की आराधना एक एक शक्ति कीतो हो गए नौ दिन नवरात्रि इसी तरह की जाती है ।
पर हे वज्रनाभ ये तीन शक्तियाँ ब्रह्म की बाहरी शक्ति हैं पर एक मुख्य और इन तीनों से दिव्यातिदिव्य जो ब्रह्म की निजी शक्ति है जिसे ब्रह्म भी बहुत गोप्य रखता हैउसे कहते हैं “आल्हादिनी” शक्ति महर्षि शाण्डिल्य नें इस रहस्य को खोला ।
आल्हाद मानें आनन्द का उछाल ।
हे वज्रनाभ ये तीनों शक्तियाँ इन आल्हादिनी शक्ति की सेविकाएँ हैं क्यों की द्रव्य किसके लिए ? आनन्द के लिए ही ना ?
क्रिया किसके लिए ? आनन्द ही उसका उद्देश्य है ना ?
और ज्ञान का प्रयोजन भी आनन्द की प्राप्ति ही है ।
इसलिये आल्हादिनी शक्ति ही सभी शक्तियों का मूल हैंऔर समस्त जीवों के लिये यही लक्ष्य भी हैं ।
फिर मुस्कुराते हुए महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ब्रह्म अपनी ही आल्हादिनी शक्ति से विलास करता रहता है ये सम्पूर्ण सृष्टि उन आल्हादिनी और ब्रह्म का विलास ही तो है यानि यही महारास है सुख दुःख ये हमारी भ्रान्ति है वज्रनाभ सही में देखो तो सर्वत्र आल्हादिनी ही नृत्य कर रही हैं ।
इतना कहते हुए फिर भावातिरेक में डूब गए थे महर्षि शाण्डिल्य ।
कहाँ हैं श्याम सुन्दर ?
बताओ चित्रा सखी कहाँ हैं मेरे कृष्ण
आज निकुञ्ज में आगये थे गोलोक क्षेत्र से कृष्ण के अंतरंग सखा ।
वो श्रीराधा को मना रहे हैं रूठ गयी हैं श्रीराधा
इतना ही कहा था चित्रा सखी नें पर पता नही क्या हो गया इन “श्रीदामा भैया” को क्या हो गया इनको आज इतनें क्रुद्ध ।
निकुञ्ज में प्रवेश कहाँ है सख्य भाव वालों का पर आज पता नही निकुञ्ज में कुछ नया ही हो रहा है ।
पैर पटकते हुए श्रीदामा चले गए थे उस स्थल में जहाँ श्रीराधा रानी बैठीं थीं ललिता और विशाखा भी वहीं थीं ।
क्यों ? रूठती रहती हो मेरे सखा से तुम ?
ये क्या हो गया था आज श्रीदामा को श्रीराधा रानी भी उठ गयीं थीं और स्तब्ध हो श्रीदामा का मुख मण्डल देख रही थीं ।
ललिता और विशाखा का भी चौंकना बनता ही था ।
क्या हुआ श्रीदामा ? तुम इतनें क्रोध में क्यों हो ?
कन्धे में हाथ रखा श्याम सुन्दर नें कुछ नही कृष्ण तुम्हे कितना कष्ट होता है ये श्रीराधा रानी बार बार रूठती रहती हैं तुमसे फिर तुम इन्हें मनाते रहते हो ।
पर तुम अपनें सखा का आज इतना पक्ष क्यों ले रहे हो श्रीदामा
क्यों न लूँ ? मेरा कितना सुकुमार सखा है देखो तो
इतना कहते हुए नेत्र सजल हो उठे थे श्रीदामा के ।
तुम्हे अभी पता नही है ना कि विरह क्या होता है वियोग क्या होता है हे राधे कृष्ण सदैव तुम्हारे पास ही रहते हैं ना इसलिये लाल नेत्र हो गए थे श्रीदामा के ।
मेरा ये श्राप है आपको श्रीराधे श्रीदामा बोल उठे ।
तुम पागल हो गए हो क्या श्रीदामा ? ललिता विशाखा बोल उठीं ।
हाँ मेरा श्राप है कि तुम जाओ पृथ्वी में और जाकर एक गोप कन्या के रूप में जन्म लो श्रीदामा के मुख से निकल गया ।
और इतना ही नही सौ वर्ष का वियोग भी तुम्हे सहना पड़ेगा ।
मूर्छित हो गयीं श्रीराधा रानी इतना सुनते ही
श्याम सुन्दर दौड़े अष्ट सखियाँ दौड़ीं जल का छींटा दिया पर कुछ होश आया तब भी वो “कृष्ण कृष्ण कृष्ण‘ यही पुकार रही थीं ।
प्यारी अपनें नेत्र खोलो श्याम सुन्दर व्यथित हो रहे थे ।
श्रीदामा को अब अपनी गलती का आभास हुआ थामैनें ये क्या कर दिया इन दोनों प्रेम मूर्ति को मैने अलग होनें का श्राप दे दिया ।
तब कन्धे में हाथ रखते हुए श्रीदामा के श्रीकृष्ण नें कहा मेरी इच्छा से ही सब कुछ हुआ हैहे श्रीदामा आप ही श्रीराधा रानी के भाई बनकर जन्म लोगे अवतार की पूरी तैयारी हो चुकी है इसलिये अब हे श्रीराधे जगत में दिव्य प्रेम का प्रकाश करनें के लिये ही आपका अवतार होना तय हो गया है ।
कुछ शान्ति मिली श्रीराधा रानी को श्याम सुन्दर की बातों से ।
पर मेरा जन्म पृथ्वी में किस स्थान पर होगा ? और आपका ?
हम आस पास में ही प्रकट होंगें भारत वर्ष के बृज क्षेत्र में ।
हमारे पिता कौन होंगें ? श्रीराधा रानी नें पूछा ।
चलो हे प्यारी मैं आपके अवतार की पूरी भूमिका बताता हूँ ।
इतना कहकर गलवैया दिए श्याम सुन्दर और राधा रानी चल दिए थे उस स्थान पर जहाँ हजारों वर्षों से कोई तप कर रहा था ।
हे सूर्यदेव हे भानु आप अपनें नेत्रों को खोलिए
श्याम सुन्दर नें प्रकट होकर कहा ।
सूर्य नें अपनें नेत्रों को खोला पर मात्र श्याम सुन्दर को देखकर फिर अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ।
हे भगवन् मुझे मात्र आपके दर्शन नही करनें मेरे सूर्यवंश में तो आपनें अवतार लिया ही था पर एक जो कलंक आपनें लगाया वो मैं अभी तक मिटा नही पाया हूँ ।
मुस्कुराये श्याम सुन्दर “सीता त्याग की घटना” से अभी तक व्यथित हो हे सूर्य देव
क्यों न होऊं ? आपकी विमल कीर्ति में ये सीता त्याग एक धब्बा ही तो था इसलिये
क्या इसलिये ? मैं तभी अपनें नेत्रों को खोलूंगा जब मेरे सामनें श्रीकिशोरी जी प्रकट होंगीं स्पष्टतः सूर्य नें कहा ।
तो देखो हे सूर्यदेव ये हैं मेरी आत्मा श्रीकिशोरी जी ।
यही सब शक्तियों के रूप में विराजित हैं यही सीता, यही लक्ष्मी यही काली सबमें इन्हीं का ही अंश है ।
हे वज्रनाभ सूर्यदेव नें जैसे ही अपनें नेत्रों को खोला सामनें दिव्य तेज वाली तपते हुए सुवर्ण की तरह जिनका अंग है ऐसी श्रीराधिका जी प्रकट हुयीं
सूर्य नें स्तुति की जयजयकार किया ।
आप क्या चाहते हैं ? आपकी कोई कामना , हे सूर्यदेव
अमृत से भी मीठी वाणी में श्रीराधा रानी नें सूर्य देव से पूछा ।
आनन्दित होते हुए सूर्य नें हाथ जोड़कर कहा मेरे वंश में श्रीराम नें अवतार लिया था पर आप का अपमान हुआ ये मुझे सह्य नही था श्रीराम तो अवतार पूरा करके साकेत चले गएपर मेरा हृदय अत्यन्त दुःखी ही रहता था कोमलांगी भोरी सरला मेरी बहू किशोरी को बहुत दुःख दिया मेरे वंश नें ।
तभी से मैं तपस्या कर रहा हूँ सूर्य देव नें अपनी बात कही ।
पर आप क्या चाहते हैं ? राधा रानी नें कहा ।
इस बार आप मेरी पुत्री बनकर आओ
सूर्यदेव नें हाथ जोड़कर और श्रीराधिका जू के चरणों की ओर देखते हुए ये प्रार्थना की ।
हाँ मैं आऊँगी मैं आपकी ही पुत्री बनकर आऊँगी ।
हे सूर्यदेव आप बृज के राजा होंगेंवृहत्सानुपुर ( बरसाना ) आपकी राजधानी होगीऔर आपका नाम होगा बृषभानु आप की पत्नी का नाम होगा कीर्तिदा
सूर्यदेव को ये वरदान मिला सूर्यदेव नें श्रीराधिकाष्टक का गान किया युगल सरकार अंतर्ध्यान हुए ।
पर प्यारे आपका अवतार ?
निकुञ्ज में प्रवेश करते ही श्री राधा रानी नें कृष्ण से पूछा था ।
मैं ? मुस्कुराये कृष्ण मैं तो एक रूप से वसुदेव का पुत्र भी बनूंगा और गोकुल में नन्द राय का भी देवकी नन्दन भी और यशोदानन्दन भी गोकुल से बरसाना दूर नही हैं फिर हम लोग गोकुल भी तो छोड़ देंगें और आजायेंगे तुम्हारे राज्य में ही यानि बरसानें में ही ।
हम यहाँ नही रहेंगी हम सब भी जाएँगी
श्रीराधा रानी की अष्ट सखियों नें प्रार्थना की और मात्र अष्ट सखियों नें ही नही उन अष्ट की अष्ट सखियों नें भी निकुञ्ज के मोरों नें भी निकुञ्ज के पक्षियों नें भी लता पत्रों नें भी ।
श्रीराधा रानी नें कहा ये सब भी जायेंगें ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी निकुञ्ज में ।
हे वज्रनाभ आस्तित्व प्रसन्न है आस्तित्व अब प्रतीक्षा कर था है उस दिन की जब प्रेम की स्वामिनी आल्हादिनी ब्रह्म रस प्रदायिनी श्रीराधा रानी का प्राकट्य हो ।
वज्रनाभ के आनन्द का ठिकाना नही हैइनको न भूख लग रही है न प्यासश्रीराधाचरित्र को सुनते हुए ये देहातीत होते जा रहे थे ।
भानु की लली या सावरिया सों नेहा , लगाय के चली
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 4
( बृजमण्डल देश दिखाओ रसिया )
उस निकुञ्ज वन में बैठे श्याम सुन्दर आज अपनें अश्रु पोंछ रहे थे ।
क्या हुआ ? आप क्यों रो रहे हैं ?
श्रीराधा रानी नें देखा वो दौड़ पडीं और अपनें प्यारे को हृदय से लगाते हुए बोलीं क्या हुआ ?
नही कुछ नही अपनें आँसू पोंछ लिए श्याम सुन्दर नें ।
मुझे नही बताओगे ?
कृष्ण के कपोल को चूमते हुए श्रीजी नें फिर पूछा ।
मुझे अब जाना होगा पृथ्वी में अवतार लेनें के लिए, मुझे अब जाना होगा पर मैं भी तो जा रही हूँ ना ? मैं भी तो आपके साथ अवतार ले रही हूँ ?
हाँ पर हे राधे मैं पहले जाऊँगा
तो क्या हुआ ? पर आप रो क्यों रहे हो ?
तुम्हारा वियोग हे राधिके इस अवतार में संयोग वियोग की तरंगें निकलती रहेंगी मेरा हृदय अभी से रो रहा है कि आपको मेरा वियोग सौ वर्ष का सहन करना पड़ेगा ।
पर प्यारे संयोग में तो एक ही स्थान पर प्रियतम दिखाई देता है पर वियोग में तो सर्वत्र सभी जगह
मुझे पता है मेरा एक क्षण का वियोग भी आपको विचलित कर देता हैपर कोई बात नही लीला ही तो है ये हमारा वास्तव में कोई वियोग तो है नहीन होगा
इसलिये आप अब ये अश्रु बहाना बन्द करो और हाँ
कुछ सोचनें लगीं श्रीराधा फिर बोलीं – हाँ मुझे बृज मण्डल नही दिखाओगे ? प्यारे मुझे दर्शन करनें हैं उस बृज के जहाँ हम लोगों की केलि होगी जहाँ हम लोग विहार करेंगें ।
चलो उठोश्रीराधा रानी नें अपनें प्राण श्याम सुन्दर को उठाया और दोनों “बृज मण्डल” देखनें के लिये चल पड़े थे ।
“श्रीराधाचरित्र” का गान करते हुये इन दिनों महर्षि शाण्डिल्य भाव में ही डूबे रहते हैं वज्रनाभ को तो “श्रीराधाचरित्र” के श्रवण नें ही देहातीत बना दिया है ।
हे वज्रनाभ ” बृज” का अर्थ होता है व्यापक और” ब्रह्म” का अर्थ भी होता है व्यापक यानि ब्रह्म और बृज दोनों पर्याय ही हैं इसको ऐसे समझो जैसे ब्रह्म ही बृज के रूप में पहले ही पृथ्वी में अवतार ले चुका है ।
गलवैयाँ दिए “युगल सरकार” बृज मण्डल देखनें के लिये अंतरिक्ष में घूम रहे हैं देवताओं नें जब “युगल सरकार” के दर्शन किये तो उनके आनन्द का ठिकाना नही रहा
हमें भी बृज मण्डल में जन्म लेनें का सौभाग्य मिलना चाहिए समस्त देवों की यही प्रार्थना चलनी शुरू हो गयी थी
हे वज्रनाभ इतना ही नही ब्रह्मा शंकर और स्वयं विष्णु भी यही प्रार्थना कर रहे थे ।
देवियों नें बड़े प्रेम से “युगल मन्त्र” का गान करना शुरू कर दिया था ।
इनकी भी अभिलाषा थी कि हम अष्ट सखियों की भी सखी बनकर बरसानें में रहेंगी पर हमें भी सौभाग्य मिलना चाहिए ।
इतना ही नही दूसरी तरफ श्रीराधिका जी नें देखा तो एक लम्बी लाइन लगी है ।
प्यारे ये क्या है ? इतनी लम्बी लाइन ? और ये लोग कौन हैं ?
हे प्रिये ये समस्त तीर्थ हैं ये बद्रीनाथ हैं ये केदार नाथ हैं ये रामेश्वरम् हैं ये अयोध्या हैं ये हरिद्वार हैं ये जगन्नाथ पुरी हैं ये अनन्त तीर्थ आपसे प्रार्थना करनें आये हैं ।
और इनकी प्रार्थना है कि बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) के आस पास ही हमें स्थान दिया जाएतभी हमें भी आल्हादिनी का कृपा प्रसाद प्राप्त होता रहेगा नही तो पापियों के पापों को धोते धोते ही हम उस प्रेमानन्द से भी वंचित ही रहेंगें जो अब बृज की गलियों में बहनें वाला है ।
उच्च स्वर से , जगत का मंगल करनें वाली युगल महामन्त्र का सब गान करनें लगे थे ।
मुस्कुराते हुए चारों और दृष्टिपात कर रही हैं आल्हादिनी श्रीराधा रानी ।
और जिस ओर ये देख लेतीं हैंवो देवता या कोई तीर्थ भी, धन्य हो जाता है और “जय हो जय हो” का उदघोष करनें लग जाता है ।
बृज मण्डल का दर्शन करना है प्यारे
श्रीराधा रानी की इच्छा अब यही है ।
हाँ तो चलो मुस्कुराते हुए श्याम सुन्दर नें कहा और बृज मण्डल कुछ क्षण में ही प्रकट हो गया ।
ये है बृज मण्डल देखो श्याम सुन्दर नें दिखाया ।
ये हैं यमुना यमुना को देखते ही आनन्दित हो उठीं थीं। श्रीराधा रानी और ये गिरिराज गोवर्धन
और ये बृज की राजधानी मथुरादृश्य जैसे प्रकट हो रहे थे श्रीराधा रानी सबका दर्शन करती हैं ।
हे राधे ये देखो महाराजा सूरसेन इनके यहाँ पुत्र हुआ है “वसुदेव” नाम है उनका मेरे यही पिता बननें वाले हैं ।
हाथ जोड़कर श्रीराधा रानी नें प्रणाम किया नवजात वसुदेव को ।
और ये देखोये है मेरा गोकुल गाँव सुन्दर हैं ना
हाँ बहुत सुन्दर है श्रीराधारानी नें कहा ।
तमाल के अनेक वृक्ष हैं मोरछली कदम्ब नीम पीपलऔर अनेक पुष्प की लताएँ हैं उनमें पुष्प खिले हैं घनें वन हैं मादक सुगन्ध उन वन से आरहा है प्यारे देखो गोकुल में भी बधाई चल रही है यहाँ भी किसी का जन्म हुआ है श्रीराधा रानी आनन्दित हैं ।
वो हैं “पर्जन्य गोप” ये इस गाँव के मुखिया हैं इनके अष्ट पुत्र हो चुके ये इनके नवम पुत्र हैं “नन्द गोप” मेरे नन्द बाबा
मेरे बाबा मेरे यही पिता है हे श्रीराधे
पर आपके पिता तो वसुदेव जी ?
पिता जन्म देनें मात्र से नही बनते जब तक उनका वात्सल्य पूर्ण रूप से पुत्र में बरस न जाए तब तक पिता , पिता नही माता माता नही ।
नन्दबाबा इनका वात्सल्य मेरे ऊपर बरसा ।
श्रीराधारानी नें तुरन्त अपना घूँघट खींच लिया थाससुर जी जो हैं ।
और ये देखो हे राधे ये है आपका गाँव बरसाना श्याम सुन्दर नें दिखाया ।
अपनी होनें वाली जन्म भूमि को श्रीराधिका जू नें प्रणाम किया ।
पर प्यारे यहाँ भी उत्सव चल रहा है बधाई गाई जा रही हैं
कितनें प्रेमपूर्ण लोग हैं यहाँ के लगता है यहाँ भी किसी का जन्म हो रहा है
श्रीराधा के गले में हाथ डाले श्याम सुन्दर नें कहा आपके पिता जी का जन्म हो रहा है मेरे पिता जी का ? हँसी श्रीराधारानी ।
हाँ आपके पिता जी ।
देखो मेरी प्रिये वो जो भीड़ में बैठे हैं ना पगड़ी बाँधे मूंछो में ताव दे रहे हैं इनका नाम है “महिभान” ये बहुत बड़े श्रीमन्त हैं और शक्तिशाली भी बहुत हैं इनके यहाँ ही आज पुत्र जन्मा है आपके पिता जी “बृषभान” ।
सूर्यदेव के अवतार हैं ये श्रीकृष्ण नें कहा ।
इस बार दोनों युगलवर नें ही “बरसानें धाम” को प्रणाम किया था ।
“हमें इसी बरसाना धाम के पास ही स्थान दिया जाए“
बद्रीनाथ के “अधिदैव” आगे आयेउनके पीछे केदारनाथ भी थेश्रीराधा रानी मुस्कुराईं अच्छा ठीक है बरसानें के उत्तर दिशा की ओर बद्रीनाथ आप का निवास रहेगाकेदार नाथ को उनके पास में ही स्थान दे दिया था ।
बरसानें की रेणु ( रज कण ) में रामेश्वर धाम को स्थान मिला ।
यहाँ की गोपियाँ जहाँ चरण रखें हरिद्वार वहीं बहे ।
श्रीराधारानी नें समस्त तीर्थों को प्रसन्न किया फिर देवताओं की ओर देखते हुए बोलीं हे देवों तुम मथुरा में जन्म लोगे फिर द्वारिका तक तुम्हीं श्रीकृष्ण के साथ जाओगे ।
और देवियों इन सब देवों की पत्नियाँ तुम ही बनकर जाओ ।
“जय राधे जय राधे राधे , जय राधे जय श्रीराधे“
यही युगल संकीर्तन करते हुए सब देवता चले गए थे अपनें अपनें लोकों की ओर ।
हे आल्हादिनी हे हरिप्रिये हे कृष्णाकर्षिणी हम तीनों देवों को भी कुछ स्थान मिले बृज में हाथ जोड़कर ब्रह्मा , विष्णु , महेश नें प्रार्थना की तब मुस्कुराते हुए श्रीराधा रानी बोलीं –
हे विष्णु आप “गोवर्धन पर्वत” के रूप में बृज में रहोगे और हे ब्रह्मा आप मेरे बरसानें धाम में “ब्रह्माचल पर्वत” के रूप में यहाँ वास करोगे और हे शिव आप नन्द गाँव में “रुद्राचल पर्वत” के रूप में आपका वास रहेगा ।
दिव्यातिदिव्य स्वरूपिणी श्रीराधा रानी के माधुर्यपूर्ण वचन सुनकर तीनों देव आनन्दित हुए और प्रार्थना करते हुए अपनें अपनें धाम चले गए थे ।
राधे देखो वो ग्वाला
श्याम सुन्दर नें दिखायावो बृज का ग्वालाबड़े प्रेम से गौ चराते हुए बड़ी मस्ती में गाता जा रहा था
“बृज मण्डल देश दिखाओ रसिया बृज मण्डल“
महर्षि शाण्डिल्य नें कहा बृज की महिमा अपार है हे वज्रनाभ तुम्ही विचार करोजिस बृज की रज को स्वयं ब्रह्म चख रहा हो उस बृज की महिमा कौन गा सकता है ।
मुझे जाना पड़ेगा अब राधे अवतार का समय आगया
अपनें हृदय से लगाया श्याम सुन्दर नें श्रीराधा रानी को नेत्रों से अश्रु बह चले थे दोनों के ।
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 5
( गोकुल में प्रकटे श्यामसुन्दर )
आप क्या कह रहे हैं ब्रह्मा जी मैं और पुरोहित की पदवी स्वीकार करूँ ? आपनें ये सोच भी कैसे लिया ?
चलो कोई राजा या चक्रवर्ती होता तो विचारणीय भी पर एक गोप ग्वालों के मुखिया का मैं महर्षि शाण्डिल्य पुरोहित बनकर जाऊँ ?
मैं उस दिन विधाता ब्रह्मा से बहुत कुपित हुआ था हे वज्रनाभ
मैं तो पवित्रता का विशेष आग्रही थास्वच्छ और पवित्र स्थान ही मेरे प्रिय थे थोड़ी भी गन्दगी मुझ से सह्य न थी ।
उस दिन मैं अपनी तपः भूमिहिमालय में बैठ कर तपस्या कर रहा था मुझे तो हिमालय की भूमि प्रारम्भ से ही प्रिय थी ।
प्रातः की बेलागोपी चन्दन का उर्ध्वपुण्ड्र मेरे मस्तक पर लगा था कण्ठ में तुलसी की मालामैं प्रातः की वैष्णव सन्ध्या करनें के लिए तैयार ही था कि मेरे सामने विधाता ब्रह्मा प्रकट हो गए और उन्होंने मुझे कहा कि मैं बृज मण्डल में जाऊँ और वहाँ गोपों के मुखिया का पुरोहित बनूँ ।
मुझे रोष नही आता पर पता नही क्यों उस समय हे वज्रनाभ मुझे क्रोध आया और मैने विधाता को भी सुना दिया ।
रोष न करो वत्स शाण्डिल्य ब्रह्मा शान्त ही रहे ।
तुमनें जैसे रोष किया है ऐसे ही मैने वशिष्ठ से भी जब रघुकुल का पौरोहित्य स्वीकार करनें की बात कही थी तब वो भी ऐसे ही क्रुद्ध हो उठे थे पर मैने जब उन्हें कहा कि परमात्मा अवतरित हो रहे हैं इस रघुकुल में तो उन्होंने अतिप्रसन्न हो मुझे बारम्बार वन्दन किया था ।
तो क्या इन ग्वालों के यहाँ भी ईश्वर अवतार ले कर आरहे हैं ?
मैने व्यंग किया था विधाता से पर मेरी और देखकर चतुरानन मुस्कुराये निकुञ्ज से अल्हादिनी श्रीराधा और श्याम सुन्दर अवतार ले कर आरहे हैं
क्या हे वज्रनाभ मेरे आनन्द का कोई ठिकाना नही था मैं नाच उठा “क्या ऋषि वशिष्ठ जी जैसे मेरा भी भाग्योदय होनें वाला है ?
शायद उनसे ज्यादा क्यों की रामावतार एक मर्यादा का अवतार था पर ये अवतार तो विलक्षण है प्रेम की उन्मुक्त क्रीड़ा है इस अवतार में हँसे विधाता हे महर्षि शांडिल्य “रामावतार लीला” नायक प्रधान थी पर ये लीला नायिका प्रधान है क्यों की प्रेम की लीला में नायक गौण होता है ।
विधाता ब्रह्मा नें मुझे सब कुछ समझा दिया था मथुरा मण्डल में ही महावन है जिसे गोकुल कहते हैं वहाँ आपको जाना है वहीं मिलेंगें आपको “पर्जन्य गोप” उनके गोकुल में ही आपको पौरोहित्य कर्म करना है यानि आपको उनका पुरोहित बनकर रहना है ।विधाता को इससे ज्यादा मुझे समझानें की जरूरत नही थी इसलिये वो वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए ।
हे वज्रनाभ मैने बिलम्ब करना उचित नही समझा और हिमालय से नीचे उतरते हुए बृज मण्डल की ओर चल पड़ा था ।
महर्षि शाण्डिल्य आज अपनें बारे में बता रहे थे वज्रनाभ को कि कैसे वो “बृजपति नन्दराय” के कुल पुरोहित बने और इस का वर्णन करते हुए कितनें भाव में डूब गए थे महर्षि आज ।
हे वज्रनाभ मैं मथुरा आया मुझे अच्छा लगा यहाँ आकर क्यों की मैं सोचता हुआ आरहा था कि नगर के वातावरण से मुझे घृणा है हर तरह का प्रदूषण फैला रहता है नगर में फिर कोलाहल तो है ही मुझे तो हिमालय की आबोहवा ही अच्छी लगती रही थीपर मथुरा नगरी में आकर मुझे अच्छा लगा ।
महाराज उग्रसेन नें मेरा स्वागत किया था आचार्य गर्ग की कुटिया में मैं कुछ घड़ी ही रुका फिर गोकुल गाँव की ओर चल पड़ा ।
ओह कितनी सुखद और प्रेमपूर्ण ऊर्जा थी इस गाँव की ।
मेरा मन आनन्दित हो उठामोर नाच रहे हैं पक्षी बोल रहे हैं बन्दर उछल कूद कर रहे हैं वृक्षों में ।
सुन्दर सुन्दर गौएँ सुवर्ण से उनकी सींगें मढ़ी हुयी थीं चाँदी से उनके खुर मढ़ दिए थे ये सब भाग रही थीं आनन्द से इधर उधर ग्वाले इनके पीछे इनको सम्भालनें के लिए चल रहे थे ।
मेरे काँप उठा उस पवित्रतम भूमि में पैर रखते हुए कहीं इस भूमि की कोई चींटी भी न दव जाए आहा यहाँ की रज भी कितनी कोमल और सुगन्धित थी पवित्रतम ।
वृक्षावली घनी थीं फलों से लदे वृक्ष धरती को छू रहे थे ।
यमुना के किनारे बसा गाँव था ये गोकुलतभी मैने देखा सामनें एक सुन्दर से प्रौढ़ ग्वाल जो सुन्दर पगड़ी बाँधे हुए थे उनके साथ कई ग्वाले थे सबके हाथों में थाल थी उसमें क्या था ये मुझे नही पता था उस समय रेशमी वस्त्र से ढंका हुआ था वो थाल ।
“मैं पर्जन्य गोप“मेरे साथ मेरे ये नौ पुत्र हैं और कुछ मेरे मित्र और सेवक हैं हे महर्षि आज हमारी विधाता नें सुन ली हम धन्य हो गए वर्षों से हम लोग यही आशा में थे कि हमें कोई दैवज्ञ पुरोहित मिले और आज हमें आप मिल गए ।
कितनें भोलेपन से कहा था पर्जन्य गोप नें और उन थालों को मेरे सामनें रख दिया था किसी में मुक्ता मोती किसी में मेवा इत्यादि किसी में भिन्न भिन्न मोरों के पंख किसी में सुवर्ण की और रजत की गिन्नियां थीं ।
अपना परिचय भी कितनी जल्दी दिया था पर्जन्य नें
” राजा देवमीढ़ के दो विवाह हुए एक क्षत्रिय की कन्या से और एक वैश्य कन्या से क्षत्रिय कन्या से सूरसेन हुए और वैश्य कन्या से मैं पर्जन्य
मेरे पिता नें भाग बाँट भी दिया बंटवारा भी कर दिया गौ धन , कृषि कार्य ये सब मेरे भाग दे दिया और राज्य राजनीति सूरसेन को ।
सूरसेन मेरे भाई हैं उनको तो अच्छा पुरोहित मिल गया आचार्य गर्ग पर हमें बड़ी चिन्ता थी कि हमारे पास कोई पुरोहित नही हैं अब आप आगये हैं हमारा मंगल ही मंगल होगा ।
बडी विनम्रता से “पर्जन्य गोप” नें अपनी बात रखी ।
नौ पुत्र थे “पर्जन्य गोप” केपर सबसे छोटे पुत्र थे पर्जन्य के “नन्द” ।
मैने उन्हें ही देखा पाँच वर्ष के थे वो पर सबसे तेजवान मुस्कुराहट बहुत अच्छी थी
सबनें मेरे पद छूये ।
गोकुल गाँव के लोग कितनें भोले भाले थे ओह सब मेरा ही ख्याल रखते थे ।
समय बीतनें में क्या देरी लगती है वो तो दीर्घजीवी होनें का वरदान मुझे मिला है नही तो सब अपनें समयानुसार वृद्ध और मृत्यु को प्राप्त हो ही रहे थे ।
वृद्ध हो चले थे पर्जन्य गोप अबमुझे बुलाया था कुछ मन्त्रणा करनें के लिए मैं जब गया तो मुझे देखकर वहाँ बैठे बड़े बड़े सभ्य पुरुष खड़े हो गए ।
ये हमारे प्रिय मित्र हैं “महिभान“पर्जन्य नें परिचय कराया ये बरसानें के अधिपति हैं और ये मेरा पुत्र “बृषभान” महिभान कितनें सरल और मृदु थे और ये इनके पुत्र मैने देखा तेज़ इतना था “बृषभान” के मुख मण्डल में कि मुझ से भी देखा नही गया मैं स्तब्ध था उस बालक को देखते हुये ।
हे महर्षि आपको कष्ट देनें का कारण ये है कि मैं अब चाहता हूँ मेरे छोटे पुत्र जो नन्द हैं इनको मैं अपनी पगड़ी दे दूँ ।
और आप ? मैने पूछा था ।
हम तो जा रहे हैं भजन करनें बद्रीनाथ हम दोनों मित्र जा रहे हैं और ये भी अपनें पुत्र “बृषभान” को बरसानें का भार सौंप रहे हैं कन्धे में हाथ रखते हुए महिभान के, पर्जन्य नें कहा था ।
कुशलता से जो कार्यभार को सम्भाल सके उसे ही गद्दी दी जानी चाहिए ये अच्छी सोच थी पर्जन्य की “नन्द गोप” कुशल थे गांव वाले भी इनकी बात का आदर करते थे नेतृत्व क्षमता थी नन्द गोप में इनका विवाह हुआ यशोदा नामक कन्या से जो बहुत भोली थीं और निरन्तर अतिथि सेवा में ही लगी रहती थीं ।
उस दिन पर्जन्य गोप नें अपनी पगड़ी पहनाई गयी थी “नन्द” को सब आये थे राजासूरसेन के साथ वसुदेव भी आये थेमहिभान के साथ बृषभान भी बरसानें से विशेष मणि माणिक्य से सजी हुयी मोर पंख की कलँगी लगी हुयी पगड़ी लेकर आये थे और अपनें ही हाथों अपनें प्रिय मित्र नन्द को पहनाया था बृषभान नें ।
“ब्रजपति” बन गए आप मेरे मित्र” बृषभान नें अपनें हृदय से लगा लिया था नन्द को आप “बृजरानी” होगयीं बृषभान आज अपनी पत्नी को भी ले आये थे “कीर्ति” रानी को वही यशोदा के गले लगते हुए बोलीं थीं “आप भी कुछ भी कहती हो” भोली बहुत हैं बृजरानी यशोदा ।
काल की गति तो चलती ही रहती है हे वज्रनाभ मैं निष्काम भक्ति का आचार्य हूँ “निष्काम भक्ति ही सर्वोपरि है“यही मेरा सिद्धान्त हैमैं इसी सिद्धान्त का प्रचारक हूँ ।
पर क्या होगया था मुझे उन दिनों मैं भी कामना कर उठा था भगवान नारायण से“नन्द गोप के पुत्र हो” ।
मुझे अब हँसी आती है सन्तान गोपालमन्त्र के , मैने कितनें अनुष्ठान स्वयं किये थे मेरी हर समय यही प्रार्थना होती थी भगवान नारायण से की “नन्द के पुत्र हो” ।
मेरे साथ सम्पूर्ण गोकुल वासी भी इसी अनुष्ठान में लगे रहते थे कि उनके नन्दराय को पुत्र हो ।
जिस कामना के करनें से “श्याम सुन्दर पधारें“वो कामना तो निष्कामना से भी श्रेष्ठ है , है ना वज्रनाभ
पर नन्द राय और यशोदा बहुत प्रसन्न थे उस दिन मुझे प्रणाम किया जब मैनें उनकी प्रसन्नता का कारण पूछा तो उन्होंने बताया की बरसानें के अधिपति बृषभान के यहाँ एक सुन्दर बालक का जन्म हुआ है हम वहीं जा रहे थे ।
दूसरों के सुख में सुखी होना ही सबसे बड़ी बात है वज्रनाभ मैं देखता रहा था इन दोनों दम्पतियों को बरसानें चले गए वहाँ जाकर खूब नाचे कूदे और बालक का नाम भी रख दिया“श्रीदामा ।
हे यदुवीर वज्रनाभ मैं ज्योतिष का कोई विद्वान नही हूँ पर “ब्रजपति नन्द राय के पुत्र हो” इसलिये मै रात रात भर ज्योतिष की गणना को खंगालता था पर ज्योतिष नें भी मेरा कोई समाधान नही किया ।
पर एक दिन वो समय भी आया जब मुझे ये सूचना मिली कि यशोदा गर्भवती हैं मैं एक विरक्त वैष्णव मुझे क्या ? पर पता नही क्यों मुझे इतनी प्रसन्नता हुयी कि मैं उसका वर्णन नही कर सकता ओह देखो वज्रनाभ अभी भी मुझे रोमांच हो रहा है वो दृश्य अभी भी मेरी आँखों के सामनें नाच रहा है ।
हाँ ये सूचना देनें वाले स्वयं बृजपति नन्द ही थे मुझे पता नही क्या हुआ ये सुनते ही मैं तो नन्दराय का हाथ पकड़ कर नाच उठा ।
आश्चर्य प्रकृति प्रसन्न अति प्रसन्न हो रही थी यमुना का जल अमृत के समान हो गया था सुगन्धित जल प्रवाहित होनें लगा था यमुना में मोरों की संख्या बढ़ रही थी तोता कोयल ये सब गान करते थे ।
किसी को पता नही क्या होनें वाला है “पुत्र ही होगा” मेरे मुख से बारबार यही निकलता था पर ज्योतिषीय गणना कह रही थी कि “पुत्री” होगी पर मेरा मन नही मान रहा था ।
ब्राह्मणों को बुलवायामेरे ही कहनें पर नंदराय नें बुलवाया मैने विप्रों से मन्त्र जाप करनें की प्रार्थना की नित्य सन्तान गोपाल मन्त्र से सहस्त्र आहुति दी जाती थीं पूरा गोकुल गाँव आकर बैठता था बेचारे मन्त्र को तो समझते नही थे बस हाथ जोड़कर आँखें बन्दकर के यही कहते “नन्द के पुत्र हो” ।
अब हँसी आती है मुझे मेरे मन्त्र या यज्ञ अनुष्ठान से “श्याम सुन्दर” थोड़े ही आते वो तो आये इन भोले भाले बृजवासियों की भोली प्रार्थना से प्रेम की पुकार से ।
वो दिन भी आया भादौं कृष्ण अष्टमी की रात्रिवार बुधवार नक्षत्र रोहिणी
किसी को पता नही चला कि कब क्या हो गया ?
मेरे पास में ब्रह्ममुहूर्त के समय आये थे नंदराय
गुरुदेव गुरुदेव बाहर जोर जोर से बोले जा रहे थे ।
मैं अपनें भजन में लीन था पर मेरा मन आज शान्त नही था उत्साह और उत्सव से भर गया था ।
मैं उठा अपनी माला झोली रख दी मैने बाहर आया
क्या हुआ ? मैने नन्द राय से पूछा ।
गुरुदेव आपका अनुष्ठान पूरा हो गया आपकी कृपा बरस गयी ।
आपनें हम सब को धन्य कर दिया बोले जा रहे थे नन्द ।
पर हुआ क्या ? मैं हँसा ।
साथ में कई ग्वाले थे वो बतानें जा रहे थे पर नंदराय नें रोक दिया “ये सूचना मैं ही दूँगा गुरुदेव को“
हाँ हाँ आप ही दो पर शीघ्र बताओ बृजराज मैने कहा ।
गुरुदेव
गिर गए मेरे पग में नन्द ।
मेरे यहाँ एक नीलमणी सा सुन्दर, अत्यन्त सुन्दर बालक का जन्म हुआ है नन्द राय इससे आगे बोल न सके आनन्द के कारण उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी उनके आनन्दाश्रु बह चले थे नेत्रों से ।
क्या
मैने उछलते हुए बृजराज को पकड़ा
वो बार बार मेरे पैरों में गिर रहे थे मैने जबरदस्ती उन्हें उठाया और उनके हाथों को पकड़, मैं स्वयं नाच उठा हम दोनों नाच रहे थे ।
ऊपर से देवों नें पुष्प बरसानें शुरू किये हमारे ऊपर फूल बरस रहे थे हमारे आस पास सब ग्वाले इकठ्ठे हो गए ।
और सब बड़े जोर जोर से गा रहे थे
“नन्द के आनन्द भयो , जय कन्हैया लाल की“
हे वज्रनाभ मैं उस उत्सव का वर्णन नही कर सकता
वो आनन्द शब्दातीत है इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य प्रेम समाधि में चले गए थे ।
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 6
( बरसानें ते टीको आयो )
हे अनिरुद्ध नन्दन वज्रनाभ वास्तव में, इस पराभूत परिश्रान्त हृदय का विश्राम स्थल एक मात्र प्रेम ही है प्रेम ही है जो इस दुःख से कराहते मनुष्य को आनन्द सिन्धु की यात्रा में ले चलता है ।
हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ आत्मा के अनुकूल अगर कुछ है तो वह प्रेम ही है अरे आत्मा ही तो प्रेमस्वरूप है ।
इस जगत में अत्यन्त उज्वल और पवित्र कुछ है तो वह प्रेम है ।
याद रहे वज्रनाभ सब कुछ अनित्य है इस संसार में एक मात्र प्रेम ही है जो नित्य और शाश्वत है उसे फिर हम अजर अमर क्यों न कहें वो प्रेम, अमृत रूपा भी तो है ।
महर्षि शाण्डिल्य, यमुना के पुलिन में वज्रनाभ के सन्मुख, प्रेम की महिमा का गान कर रहे थे श्रीश्याम सुन्दर निकुञ्ज से उतरे हैं यशोदा के आँचल में तो ये प्रेम की ही महिमा है ।अब आगे साक्षात् प्रेम विशुद्ध प्रेम आकार लेनें जा रहा था
कितना सुन्दर नाम है ना उस गांव का “बरसाना‘इस गांव को अपनें ऊपर पाकर धरती भी धन्य हो रही थीयहाँ के अधिपति बृषभान उनकी भार्या कीर्ति रानी ।
पता नही क्यों ? महर्षि शाण्डिल्य, जब जब बरसानें की बात आती है मौन हो जाते हैं उनसे आगे कुछ बोला ही नही जाता ।
हाँ प्रेम है ही ऐसाफिर ये नगरी तो प्रेम की नगरी थी ना ।
“मेरे पुत्र हुआमैं बहुत प्रसन्न हूँ पर मेरे मित्र नंदराय के कोई पुत्र नही है कीर्ति रानी तुम्हे तो पता ही है मेरे पुत्र श्रीदामा के जन्म पर वो नन्द और यशोदा भाभी कितनें खुश थे पता है मैने तो उस समय भगवान से यही प्रार्थना की थी कि मेरे मित्र नन्द को भी पिता बननें का सौभाग्य मिलना चाहिए ।
खिरक ( गौशाला ) में बैठे थे बृषभान तभी उनके पास उनकी अर्धांगिनी कीर्ति रानी आ गयीं कीर्तिरानी की गोद में श्रीदामा शिशु थे वो आकर अपनें पति बृषभान के पास बैठ गयीं थीं ।
पता है कीर्तिरानी शास्त्र चाहे कुछ भी कहें कि पुत्र नही होगा तो पिता को स्वर्ग नही मिलेगा मुझे नही चाहिए स्वर्ग क्या स्वर्ग से कम है ये हमारा बरसाना ?
हम दोनों मित्र थे बृजपति नन्द और मैं बड़े हैं मुझ से नन्द राय पर हमारी मित्रता बहुत पक्की रही ।
तुम तो जानती ही हो मेरे विवाह के लिए मेरे पिता नें इतना प्रयास नही किया जितना प्रयास मेरे प्रिय मित्र नन्द राय नें किया था तब जाकर तुम जैसी सुन्दर सुशील भार्या मिली ।
“मुझे पुत्र नही चाहिए“मैं तो स्पष्ट ही कहता था
पर मेरे मित्र नन्द को पुत्र कि ही कामना थी मैं कहता भी था की “मेरे पुत्र जो मुझे होनें वाले हों विधाता तुम्हे दे दे पर मुझे तो कन्या ही चाहिए
सुन्दर प्यारी कन्या जो रुनझुन करती हुयी इस आँगन में डोले बाबा बाबा कहते हुए मेरे हिय से लग जाए मैं जब खिरक से लौटूं अपनें महल तो “बाबा लो जल पीयो“मुझे जल पिलायेतब मैं उस प्यारी, अपनी लाड़ली को हृदय से लगा लूँ ।
शास्त्र कहते हैं पिण्ड दान पुत्र के ही हाथों पितृयों को प्राप्त होता है पर कीर्ति रानी पितृलोक में जाएगा कौन ? हम तो फिर इसी बृज में आएंगे और बृज में भी बरसानें मेंन मिले हमें पितृलोक में पिण्ड हमें नही चाहिए अरे अर्यमा ( पितृलोक के राजा ) भी तरसते होंगें इस बरसानें में जन्म लेनें के लिए ।
“मुझे तो पुत्री की ही लालसा है“
कीर्ति रानी के गोद में खेल रहे शिशु श्रीदामा के कपोल को छूते हुये बृषभान नें कहा था ।
और हाँ जब श्रीदामा का जन्म हुआ था ना तब मैने कहा भी था मित्र नन्द से “मेरे पुत्र को ले जाओ “क्यों की मेरे यहाँ तो अब पुत्री का जन्म होनें वाला है ।
“तुम्हारी भाभी भी गर्भवती हैं“उसी समय ये शुभ समाचार दे दिया था मुझे मित्र नन्द नें तुम्हे तो पता है ना कीर्ति
हाँ मुझे पता है मैने उन भोली बृजरानी यशोदा भाभी को छेड़ा भी था वो कितना शर्मा रही थीं
तुम्हे पता नही है कीर्ति मैं जब विदा करनें बाहर तक आया था तो मित्र नन्द और भाभी बृजरानी को तब मैने मित्र नन्द को गले लगाते हुए कहा था “अब मेरी पुत्री होगीआपके पुत्र” ।
“तिहारे मुख में माखन को लौंदा” उन्मुक्त हँसते हुए नन्द राय नें मुझे कहा था और पता है मैने एक वचन भी दे दिया है मित्र को ।
चौंक गयीं थीं कीर्तिरानी क्या वचन दिया आपनें ?
मैने वचन दिया कि आपके पुत्र होगा और मेरी पुत्री होगी तो उसी समय “टीको ( सगाई ) होयगो” ।
“श्रीमान् बृहत्सानुपुर के अधिपति बृषभान की जय हो “
चार ग्वाले आगये थे दूसरे गांव के, उन्होंने ही प्रणाम करते हुए कहा ।
हाँ कहो पर आप लोग तो गोकुल के लगते हो ?
बृषभान नें पूछा ।
जी हम लोग गोकुल के हैं और श्रीश्री बृजपति नन्द राय के यहाँ से आये हैं
ओह आप लोग बैठिये बृषभान नें प्रसन्नता व्यक्त की ।
नही हम अभी बैठ नही सकते बस सूचना देकर हम वापस जा रहे हैं गोकुल के उन सभ्य ग्वालों नें कहा ।
पर सूचना क्या है ?
बृजपति श्री नन्द राय स्वयं आते पर वो अत्यन्त व्यस्त हो गए हैं इसलिये हमें उन्होंने भेजा है ।
ऐसा क्या हुआ , जिसके कारण व्यस्त हो गए बृजराज ?
“उनके पुत्र हुआ है ” गोकुल के ग्वालों नें बताया ।
जैसे ही ये सुना बृषभान नें उनके आनन्द का तो कोई ठिकाना ही नही रहा थासबसे पहले तो अपनें ही गले का हार उतार कर उन दूत का कार्य कर रहे , गोकुल के लोगों को दिया ।
कीर्तिरानी सुना तुमनें ? उछल पड़े थे आनन्द से बृषभान ।
आप तो ऐसे खुश हो रहे हैं जैसे आपके जमाई नें ही जन्म लिया है ।
कीर्तिरानी नें छेड़ा ।
और क्या ? देखना हमारी पुत्री और उनके पुत्र का विवाह होगा और ये ऐसे दम्पति होंगें जो सबसे अनूठे होंगें अद्भुत होंगें ।बृषभान के हृदय का आनन्द अपनी सीमा पार कर रहा था ।
पर उनके तो पुत्र हो गया आपकी पुत्री ?
होगी अवश्य होगी मेरी प्रार्थना व्यर्थ नही जायेगी मैने समस्त देवों को मनाया है वो सब मेरी सुनेंगे ।
पर आप नें ये नही पूछा कि मैं खिरक में आज क्यों आयी ?
कीर्तिरानी नें कुछ शर्माते हुए ये बात कही थी ।
क्यों ? मुझे नही पता हाँ वैसे तुम खिरक में कभी आयी नहीं पहली बार ही आयी हो
“मैं गर्भवती हूँ “और दाई कह रही हैं कि मेरे गर्भ में कन्या है ।
ओह
इतना सुनते ही गोद में उठा लिया था बृषभान नें कीर्ति रानी को और घुमानें लगे थे
उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले थे गोद में शिशु श्रीदामा भी मुस्कुरा रहे थे वो भी सोच रहे थे चलो मेरा सखा या बहनोई आगया अब मेरी बहन श्रीकिशोरी भी आनें वाली हैं ।
अरे क्या देख रहे हो जाओ पूरे बरसानें में ये बात फैला दो कि हम सब “टीका” लेकर जा रहे हैं गोकुल बृषभान नें आनन्द की अतिरेकता में ये बात कही ।
टीका लेकर ? यानि सगाई ?
गांव वालों नें पूछना शुरू किया ।
हाँ अभी से मैं कह रहा हूँ नन्द राय के पुत्र हुआ है अब मेरी पुत्री होगीये पक्का हैइसलिये टीका अभी ही जाना चाहिये हमारी तरफ सेहम लड़की वाले हैं ।बृषभान के आनन्द की कोई थाह नही है आज ।
हाँ सब सजो सब बरसानें की सखियाँ सजें और टीका लेकर हम सब बरसानें से नाचते गाते हुए गोकुल में चलें ।
पूरे बरसानें में ये बात फैला दी गयी
सुन्दर से सुन्दर श्रृंगार किया सखियों नें हे वज्रनाभ बरसानें की सखियाँ तो वैसे ही स्वर्ग की अप्सराओं को अपनी सुन्दरता से चिढ़ाती रहती थीं
पर आज जब सजनें की बारी आयी और स्वयं उनके महीपति बृषभान नें आज्ञा दी तब तो उर्वसी और मेनका भी इनकी दासी लग रही थीं
हाथों में सुवर्ण की थाल सजाये मोतियों की सुन्दरतम पच्चीकारी चूनर ओढ़ेघेरदार लंहगा पहनें ।
और नाचते गाते हुए सब चलीं गोकुल की ओरकीर्तिरानी नही जा पाईँ क्यों की वो गर्भवती थींपर बरसानें के अधिपति बृषभान सुन्दर पगड़ी बाँधे चाँदी की छड़ी लिएआगे आगे चल रहे थे ।
हे वज्रनाभ आनन्द का ज्वार ही मानों उमड़ पड़ा गोकुल में ।
बृजपति नन्द के द्वारे कौन नही खड़ा था आज मैं देख रहा था सब को देवता भी ग्वाल बाल बनकर घूम रहे थेदेवियों नें रूप धारण किया था गोपियों का पर कहाँ गोपियों का प्रेमपूर्ण सौन्दर्य और कहाँ ये देवियाँ ?
प्रकृति आनन्दित थी सब आनन्दित थेचारों दिशाएँ प्रसन्न थीं पर मैने देखा बृजपति का ध्यान तो अपनें मित्र बृषभान की ओर ही था वो बरसानें वाले मार्ग को ही देखे जा रहे थे ।
मैनें उनसे पूछा भी क्या देख रहे हैं बृजपति उस तरफ ?
पता नही मित्र बृषभान अभी तक क्यों नही आये ?
आएंगे उनके आये बिना सब कुछ अधूरा है क्यों की इस अवतार को पूर्णता तो उन्हीं से मिलेगी ना
क्या मतलब गुरुदेव ? मैं समझा नही ।
नही कुछ नही बृजपति नन्द
तभी सामनें से बृज रज उड़ती हुयी दिखाई दी आवाज आरही थी बड़ी सुमधुर और प्रेमपूर्ण हजारों बरसानें की गोपियाँ एक साथ गाती हुयी चली आरही थीं
बृजपति देखिये आगये आपके मित्र बृषभानऔर लगता है पुरे बरसानें को ही ले आये हैं मैने हँसते हुए बृजपति को बताया था ।
एक ही रँग के सबके वस्त्र थे पीले पीले वस्त्र सोलह श्रृंगार पूरा था उन सब सखियों का उनका गायन ऐसा लग रहा था जैसे सरस्वती की वीणा झंकृत हो रही हो आहा
बधाई हो मित्र बधाई हो
दूर से ही दौड़ पड़े थे बरसानें के अधिपति बृषभान ।
इधर से बृजपति दौड़े
हे वज्रनाभ मैं उस समय भूल गया कि मैं तो इनका पुरोहित हूँ, गुरु हूँ पर हँसते हुए बोले महर्षि शाण्डिल्य मैं इस लाभ से वंचित नही होना चाहता था ये दोनों इतनें महान थे कि एक की गोद में ब्रह्म खेलनें वाला था और एक की गोद में आल्हादिनी शक्ति खेलनें वाली थी ।
दोनों गले मिले मुझे देखा तो मेरी भी पद वन्दना की बृषभान नें फिर मेरी ओर ही देखते हुए बोलेआज गुरुदेव को मेरी एक सहायता करनी पड़ेगी
मैं ? मैं क्या कर सकता हूँ ?
मैने हँसते हुए पूछा ।
आपको, आज हमारे सम्बन्ध को और प्रगाढ़ बनाना होगा ।
पुण्यश्लोक बृषभान मैं समझा नही ।
गुरुदेव आप ही ये कार्य कीजिये हम दोनों को समधी बना दीजिये बृषभान नें हाथ जोड़कर कहा ।
हँसे बृजपति नन्द , खूब हँसें मैं भी हँसा
बृजपति नें हँसते हुए कहा पर आपकी पुत्री कहाँ है ?
आपकी भाभी गर्भवती है और लक्षणों से स्पष्ट है की गर्भ में पुत्री ही आई हैचहकते हुए ये बात बृषभान कह रहे थे ।
मैं गम्भीर हो गया मेरे मुख से निकला नन्द नन्दन और भानु दुलारी तो अनादि दम्पति हैं वो आये ही इसलिये हैं कि जगत को प्रेम का सन्देश दे सकें विमल प्रेम क्या होता है विशुद्ध प्रेम की परिभाषा क्या होती है यही बतानें के लिये ये दोनों आये हैं ।
हे वज्रनाभ ये सब कहते हुए मेरा मुखमण्डल दिव्य तेज से भर गया था मेरी बात सुनते ही स्तब्ध से हो गए थे दोनों ही ।
फिर कुछ देर बाद यही बोले दोनों गुरुदेव हम ग्वाले हैं आपकी इन गूढ़ बातों को हम नही समझ रहे पर हाँ इतना हमनें समझ लिया है किहमें ये सम्बन्ध बना ही लेना चाहिए ।
बृजपति नन्द की बातें सुनकर बृषभान आनन्दित हो , गले मिले ।
नगाड़े बज उठे बरसानें वालों के सब सखियाँ नाच उठीं अबीर गुलाल ये सब आकाश में उड़नें लगे
और बरसानें वाली सब सखियाँ तो गा रही थीं
“नन्द महल में लाला जायो, बरसानें ते टीको आयो“
हे वज्रनाभ मैं इतना आनन्दित था जिसका मैं वर्णन नही कर सकता ।
श्रीराधाचरितामृतम् – भाग 7
( श्रीराधारानी का प्राकट्य )
जय हो प्रेम की जय हो इस अनिर्वचनीय प्रेम की आहा जिसे पाकर सचमुच कुछ और पानें की इच्छा ही नही रह जाती ।
जिस प्रेम से सदा के लिये कामनाएं नष्ट हो जाती हैंउस प्रेम की जय हो ।
जिस प्रेम से ये जगत पावन हो जाता है ये पृथ्वी धन्य हो जाती है उस प्रेम का वर्णन कौन कर सकता है ।
ईश्वर है प्रेम ?
नही ये कहना भी पूर्ण सत्य नही है प्रेम ईश्वर का भी ईश्वर है जय हो जय हो प्रेम की ।
जिसकी दृष्टि में प्रेम उतर आता है उसे चारों ओर प्रेम की सृष्टि ही तो दिखाई देती है राग, द्वेष अहंकार इन सबको मिटानें में योगी एवम् ज्ञानीयों को कितनें परिश्रम करनें पड़ते हैं बारबार उस बदमाश मन को ही साधनें का असफल प्रयास ही करता रहता है साधक पर कुछ नही हो पाता मन वैसा ही है ।
पर प्रेम के आते ही प्रेम के जीवन में उतरते हीराग, द्वेष ईर्श्या अहंकार सब ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे बाज़ पक्षी को आकाश में देखते ही सामान्य पक्षी कहाँ चले जाते हैं पता ही नही ।
तो अपना सच में कल्याण चाहनें वालों क्यों नही प्रेम करते ?
क्यों इधर उधर भटकते रहते हो क्यों प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा की अग्नि में झुलसते रहते होक्यों कभी ज्ञान मार्ग तो कभी योग मार्ग के चक्कर लगाते रहते हो प्रेम के मार्ग में क्यों नही आते कितनी शीतलता है यहाँ देखो इस प्रेम सरोवर को कितना शीतल जल है इसका क्यों नही इसमें गोता लगाते ?
प्रेम प्रेम प्रेम निःश्वार्थ प्रेम के प्रचारक प्रेमाभक्ति के आचार्य जिन्होनें “शाण्डिल्य भक्ति सूत्र” की रचना कर जगत का कितना उपकार किया है ऐसे महर्षि शाण्डिल्य आज गदगद् हैं और गदगद् क्यों न हों वो जिस प्रेम की चर्चा युगों से कर रहे हैं उसी प्रेम का अवतरण आज होनें वाला है यानि प्रेम आकार लेगा ।
वज्रनाभ आँखें बन्द करके बैठे हैं भूमि बरसानें की है प्रेम कथा “श्रीराधाचरित्र” को सुनते हुये वज्रनाभ को रोमांच हो रहा है उनके नेत्रों से अश्रु बहते जा रहे हैं ये हैं श्रोता ।
और कहनें वाले वक्ता महर्षि शाण्डिल्यये तो थोडा ही बोलते हैं फिर इनकी वाणी ही अवरुद्ध हो जाती है आँखें चढ़ जाती हैं साँसें तेज गति से चलनें लगती हैंरोमांच के कारण शरीर में सात्विक भाव का प्राकट्य शुरू हो जाता है ।
आल्हादिनी का प्राकट्य होनें को है अब – हे वज्रनाभ
इतना ही बोल पाये थे महर्षि फिर प्रेम समाधि में स्थित ।
पर प्रेम की बातें मात्र सुनी नही जातीं उसे तो अनुभव किया जाता है इस बात को वज्रनाभ समझ गए हैं इसलिये वो भी बह जाते हैं डूब जाते हैं डूबते तो महर्षि ज्यादा हैं और कभी कभी चिल्ला भी उठते हैं “आगे “श्रीराधाचरित्र” को सुनना है तो हे वज्रनाभ मुझे बचाओ मुझे निकालो इस “अथाह प्रेमसागर” से नही तो हो सकता है मेरी हजारों वर्ष की समाधि लग जाए ।
हाँ ये है ही ऐसा चरित्र प्रेम चरित्र
श्याम सुन्दर का प्रेम अब आकार लेकर प्रकट होनें को है
महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया अपनें श्रोता वज्रनाभ को और फिर कथा सुनानें लगे
कीर्तिरानी मैने आज एक सपना देखाबड़ा विचित्र सपना थामेरा सपना सच होता है इसलिये मैं उस सपनें के बारे में विचार कर रहा हूँ और तुम्हे बता रहा हूँ ।
उस दिन बृषभान नें अपनी पत्नी कीर्ति को अपना सपना सुनाया ।
क्या सपना था आपका ? कीर्तिरानी नें पूछा ।
मैं भास्कर हूँ मैं सूर्य हूँ और मेरे सामनें सब देव खड़े हैं वो सब मुझ से कह रहे हैं चन्द्रमा के वंश में भगवान अवतार लेकर आगये पर तुम्हारे वंश में तो
मेरी कोई स्पर्धा नही है चन्द्रमा सेपर मेरे यहाँ तो साक्षात् आद्यशक्ति, आल्हादिनी शक्ति अवतरित होनें वाली हैं मैनें कहा ।
मेरी बात को सुनकर सब चुप हो गएपर मैने देखा मेरा पुत्र शनिदेव जिसकी मेरे से कभी बनी नही वो मेरी ये बातें सुनकर मेरे पास आया और बस इतना ही पूछा उसनें कहाँ पर प्रकट होनें वालीं हैं मेरी बहन ?
मैने स्पष्ट कहा शनिदेव से , बृज में, बृहत्सानुपुर में (बरसाना) ।
बस इतना सुनते ही वो वहाँ से चला गया और यहीं बरसानें में ही आकर रहनें लगा और तो और इस भूमि में उसनें मणि माणिक्य सुवर्ण ये सब पृथ्वी से प्रकट कर दिए ।
मैने देखा सपनें में कीर्तिरानी लोग जहाँ से धरती खोद रहे हैं वहीं से सोना रजत मणि इत्यादि प्रकट हो रहे हैं ।
हे कीर्तिरानी मैं सपनें से जाग गया था ये सब देखते हुए मेरी नींद खुल गयी थी मैं तुम्हारे पास आया तो क्या देखता हूँ मैं तुम दिव्य तेज़ से आलोकित हो रही हो तुम एक प्रकाश का पुञ्ज लग रही हो और ये देखो तुम्ही देखो तुम्हारे उदर में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भास्कर ही आगये हैं कितना तेज़ है ।
कीर्तिरानी नें अपनें पति बृषभान के हाथों को प्रेम से पकड़ा आराम से उठीं क्यों की अष्ट मास पूरे हो चुके थे ।
ये देखिये हे स्वामिन् ऐसे फूल आपनें कभी देखे थे ?
अपनें ऊपर बिखरे पुष्पों को दिखानें लगीं कीर्तिरानीबृषभान नें उन पुष्पों को लियादेखा और सूँघाये तो पृथ्वी के पुष्प नही हैं ।
हाँ और पता है मैने भी सपना देखा मेरा सपना भी बड़ा विलक्षण था।
कीर्तिरानी भी अपना सपना सुनानें लगीं
हे स्वामिन् मैने देखा मुझे कोई कष्ट नही हुआ है और एक बालिका मेरे गर्भ से प्रकट हो गयी है और वो कन्या इतनी सुन्दर है जैसे तपाये हुए सुवर्ण के समान उस कन्या की सब स्तुति कर रहे थे यहाँ तक कि लक्ष्मी सरस्वती महाकाली अन्य समस्त देव गण सब हाथ जोड़े खड़े थे और हे राधे जय जय राधे यही पुकार सब लगा रहे थे पर वो कन्या मुझे ही देखे जा रही थी।
“मैया“
आहा उसके मुख से मैने ये सुना बस इतना सुनते ही मेरे वक्ष से दुग्ध की धारा बह चलीवो मेरे पास आयी मेरा दुग्ध पान करनें लगीमैं क्या बताऊँ उस दृश्य को देखते ही मैं देहातीत हो गयी थी ।
“शायद अब उस कन्या के जन्म का समय आगया है“
इससे ज्यादा कहनें के लिये कुछ नही था बृषभान के पास ।
हे कीर्ति रानी समय बीतता जा रहा हैब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया है मैं जाता हूँ यमुना स्नान करनें इतना कहकर उठे बृषभान ।
अरे आप ? सामनें देखा “मुखरा मैया” खड़ी थीं
( ये कीर्तिरानी की माँ हैं )
कहाँ है मेरी बेटी कीर्ति ? आनन्दित होते हुए भीतर आगयीं ।
“ये रहीं आपकी पुत्री“बृषभान नें बड़ा आदर किया ।
सीधे जाकर मुखरा मैया नें अपनी बेटी की आँखें देखीं नाड़ी देखी उदर देखा ।
फिर आँखें बन्दकर खड़ी रहीं, कुछ बुदबुदाती भी रहीं ।
“आज ही होगी लाली“
मुखरा मैया नें स्पष्ट कह दिया हे वज्रनाभ कहते हैं इनकी वाणी कभी झूठी नही होती थी ।
बृषभान नें अपनें आनन्द को छूपाया और बोले इतनी सुबह आप आगयीं मैया ?
अरे मैने एक सपना देखा बृषभान हँसे अब सपना अपनी बेटी को सुनाओ मुझे देरी हो रही है मैं तो जाता हूँ स्नान करनें के लिए इतना कहते हुये बृषभान जी चल पड़े ।
आज मन बहुत प्रसन्न है भादौं का महीना हैअष्टमी तिथि है रात भर रिमझिम बारिश हुयी है वातावरण शीतल है ठण्डी ठण्डी हवा चल रही है पर हवा में सुगन्ध है चले जा रहे हैं बृषभान ।
बीच बीच में ग्वाले मिल रहे हैं वो सब भी आनन्दित हैं ।
एक कहता है हे भान महाराज कल शाम को मैनें गड्डा खोदा था मुझे मिट्टी की जरूरत थी तो मैने खोदा पर मैं क्या बताऊँ मुझे तो चमकते हुए पत्थर मिले मेरी पत्नी कह रही थीये हीरे हैं ये मणि हैं ।
मार्ग के लोग बृषभान को अपनी अपनी बातें बताते हुए चल रहे हैं और क्यों न बताएं पृथ्वी नें रत्नों को प्रकट करना शुरू कर दिया था ।
एक ग्वाला दौड़ा आया महाराज बृषभान की जय हो
रुक गए बृषभान जी क्या हुआ कुछ कहना है ?
हाँ रात में ही बिजली गिरी था मैं खेत में था डर गया जहाँ बिजली गिरी वहाँ जब मैं गया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही ।
क्यों ? क्या था वहाँ ? बृषभान नें पूछा ।
एक काली मूर्ति गिरी है पता नही क्या हैउस मूर्ति में से दिव्य तेज़ निकल रहा है ग्वाला बोलता गया ।
कहाँ है मुझे दिखाओ बृषभान उस ग्वाले के साथ गए ।
उन्हें जो लग रहा था वही था सपना पूरा हुआ था शनिदेव ही विग्रह में आगये थे ये तो ? हँसे बृषभान ।
पर किसी को कुछ बताया नही और ये मणि माणिक्य सब यही प्रकट कर रहे थे बरसानें में ।( “कोकिलावन” जो बरसानें के पास है वहाँ विश्व् प्रसिद्ध शनिदेव का मन्दिर भी है )
प्रणाम करके बृषभान चल दिए अब स्नान को पर आज बिलम्ब पर बिलम्ब हुआ जा रहा है स्नान नित्य करते थे ब्रह्म मुहूर्त में पर आज तो सूर्योदय भी होनें वाला है ।
पर क्या करें लोग मिल रहे हैं बातें करते हैं तो उनकी बातों का उत्तर देना , ये कर्तव्य है गाँव के मुखिया का ।
जैसे तैसे पहुँचे यमुना जी में
आहा आज यमुना भी आनन्दित हैं कितनी स्वच्छ और निर्मल हो गयी हैं किनारों में कमल खिले हैं उन कमलों में भौरों का गुँजार हो रहा है ।
स्नान करके बाहर आये बृषभान और फिर नित्य की तरह ध्यान करनें बैठ गए आज मन शान्त है आज मन अत्यन्त प्रसन्न हैं आज मन आनन्दातिरेक के कारण झूम रहा है ।
ये क्या यमुना के किनारे एक दिव्य कमल खिला है बहुत बड़ा कमल है ये तो उसके आस पास कई कमल हैं उन कमल के पराग उड़ रहे हैं सुगन्ध फ़ैल रही है वातावरण में ।
तभी उस मध्य कमल में बिजली सी चमकी ।
और देखते ही देखते एक सुन्दर सी कन्या खिलखिलाती हुयी उसमें प्रकट हुयीं ।
उस कन्या के प्रकट होते ही आकाश में देवों नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए
सब देवियों नें एक स्वर में गाना शुरू कर दिया ।
अरे महाराज उठिये उठिये पता है मध्यान्ह का समय हो गया है आप अभी तक ध्यान में बैठे हैं ?
एक ग्वाले नें आकर बड़े संकोच पूर्वक उठा दिया बृषभान को
उस आनन्द से बाहर आना पड़ा बृषभान को उठे चौंके सूर्य नारायण को देखकर सच में मध्यान्ह का समय हो गया था ।
इधर उधर देखा उस कमल को खोजा पर ध्यान में ये सब घटा था धीरे धीरे उसी आनन्द की खुमारी में बढ़ते जा रहे थे अपनें महल की ओर बृषभान जी ।
महाराज महाराज एक दासी दौड़ी
बाबा बाबा एक महल का सेवक दौड़ा
श्रीदामा दौड़ेये दो वर्ष के हो गए हैं ।
बाबा बाबा कहते हुए ये दौड़े ।
बृषभान समझ नही पा रहे हैं कि महल में ऐसा क्या हुआ ?
दौड़े वो भी महल की ओर
और जैसे ही कीर्तिरानी के महल में गए
कीर्तिरानी लेटी हुयी हैंउनके बगल में एक सुन्दर अति सुन्दर कन्या खेल रही है गौर वर्णी कमल की सुगन्ध उस कन्या के देह से निकल रही थी
नेत्रों से अश्रु बह चले बृषभान के आनन्दाश्रु ।
बाहर आये भीड़ लग चुकी है लोगों की समझ में नही आरहा कि क्या करूँ ?
मुखरा मैया दीपों की कई थाल अपनें सिर में सजाकर आज नाच रही हैं
लोगों नें गाना नाचना शुरू कर दिया है
बधाई हो बधाई हो बधाई हो ।
“देंन बधाई चलो आली, भानु घर प्रकटी हैं लाली“
सुन्दर सुन्दर सखियाँ बधाई लेकर चलीं भानु के महल की ओर ।
महर्षि शाण्डिल्य उस आनंदातिरेक में मौन हो गए क्या बोलें ?
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 8
( जब आँखें नही खोलीं, श्रीराधारानी नें)
“सिर्फ तू तेरा कोई विकल्प नही“
सच है प्रेमी का क्या विकल्प ?
प्रेम के लिए तो ‘प्रियतम” ही चाहिए अरे फूट जाएँ वे आँखें जो “प्रिय” को छोड़ किसी और को हम निहारें फूट जाएँ वे कान जो “प्रिय” की बातों के सिवा कुछ और सुनना पड़े ।
प्रेम अनन्यता की माँग करता है वज्रनाभ प्रेम, मछली के समान है भ्रमर प्रेम का आदर्श नही हो सकता प्रेम का आदर्श तो मीन है जिसे जल के सिवाय कुछ नही चाहिये दूध नही घी नहीसिर्फ जल और जल नही मिले तो मर जाना पसन्द है पर चाहिये तो सिर्फ जल ही आहा धन्य है मछली की अनन्यता ।
अपनी इष्ट श्रीराधारानी के प्राकट्य की कथा सुनकर भाव में डूब गए हैं वज्रनाभ महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं प्रेम के कुछ आदर्श हैं जिन्हें युगों युगों से प्रेमियों नें सम्मान दिया है
मछली पपीहा मोर
हे वज्रनाभ मछली की निष्ठा देखो जल के प्रति पपीहे की निष्ठा देखो स्वाति बून्द के प्रति पपीहा प्यासा मर जाएगा पर स्वाति बून्द को छोड़कर कुछ और पीयेगा ही नही
“गंगा जल भी नही“प्रेम उन्मत्तता से भरे महर्षि शाण्डिल्य बोले ।
और ‘मोर“श्याम घन देख आकाश में काले काले बादलों को देख वो नाच उठता है मोर का सर्वस्व है बादलमोर प्यार करता है बादल सेपर बादल ? बादल उस मोर के ऊपर बिजली गिराता है ।
बज्रपात करता है इतना करनें के बाद भी मोर के प्रेम में कमी कहाँ आती है ?
हे वज्रनाभ धन्यवाद देता हूँ मैं तुम्हे कि तुम्हारे कारण ही इन आल्हादिनी श्रीहरिप्रिया सर्वेश्वरी श्रीराधारानी के, पावन चरित्र के, गान करनें का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है ।
अब सुनो “श्रीराधाचरित्र” को इस चरित्र को जो भी सुनेगा गायेगा चिन्तन मनन करेगा उसके हृदय में प्रेम का प्राकट्य होगा ही ये पूर्ण सत्य है ।
कीर्तिरानी हमारी “लाली” अपनें नेत्रों को क्यों नही खोल रहीं ?
हे महाराज मेरा भी मन बहुत घबडा रहा है कहीं ?
नही ऐसा मत कहो ये अपनें नेत्रों को खोलेगी ।
श्रीराधारानी नें जन्म तो ले लिया पर नेत्र नही खोले ।
इतना ही नही दुग्ध का पान भी नही कर रहीं ।ये चिन्ता में डालनें वाली बात और हो गयी थी महल में बृषभान और कीर्तिरानी के साथ साथ महल के और बरसानें के लोग भी दुःखी होनें लगे थे ।
देखो ना कितनें खुश थे हमारे बृषभान महाराज और कीर्तिरानीपर ये क्या हो गयाबालिका न दूध पी रही हैं न नेत्र ही खोल रही है ।
बरसानें में इस तरह की चर्चाओं नें अपनी जगह बना ली थी ।
आज दो दिन होनें को हैंपर बच्ची ऐसे दूध नही पीयेगी तो वो जीयेगी कैसे ? नही ऐसे मत बोलो हमारे महाराज बृषभान ने बहुत तप व्रत किये हैं तब जाकर उनको ये बेटी हुयी है हे भगवान इस पुत्री को स्वस्थ कर दो ।
अजी स्वस्थ है बच्ची तो तुमनें देखा नही है क्या ?
क्या तेज़ हैक्या दमकता हुआ मुख मण्डल है पर आँखें नही खोल रही इतनी ही बात है ।कुछ लोग ये भी कहते पर इसके साथ सबका मत एक ही था कि मानों अपनें होंठ सिल ही लिए हैं उस बच्ची नें दूध ही नही पीयेगी तो बचेगी कैसे ?
कितनें झाड़ फूँक वालों को बुलायाकितनें वैद्यराज आयेऔर तो और कीर्तिरानी की माता “मुखरा मैया” नें भी बहुत “राई नॉन” कियापर सब कुछ व्यर्थ था कुछ फ़र्क ही नही पड़ा ।
बरसानें के लोग कितनें खुश थे पर अब बरसानें में उदासी सी छानें लगी थी सब नारायण भगवान से प्रार्थना करनें लगे थे कि हमारी “भानुदुलारी” को आप ठीक कर दें ।हमारे जीवन का सारा पुण्य हम अपनें बृषभान जी को देते हैं बस उनकी पुत्री ठीक हो जाए आँखें खोल ले और दूध पीनें लगे ।
हे वज्रनाभ इन भोले भाले लोगों को क्या पता की आस्तित्व किस दिव्य प्रेम का दर्शन करानें जा रहा है जगत को ।
यशोदा तुम्हे पता चला हमारे मित्र बृषभान के यहाँ पुत्री हुयी है बृजपति नन्द आनन्दित होते हुए बतानें लगे थे ।
कब ? बृजरानी आनन्दित हो उठीं वो दूध पिला रही थीं अपनें कन्हैया को कन्हैया नें भी सुना तो वो भी मैया की गोद में पड़े पड़े मुस्कुरानें लगे ।
कब हुयीं हैं उनके लाली ? बृजरानी नें पूछा ।
सिर झुकाकर बड़े संकोच से बोले नन्द दो दिन हो गए
देखो ना अब बड़े नाराज होंगें बृषभान पता नही कैसे मनाऊँगा मैं उन्हें
चलिये कोई बात नही मैं कीर्तिरानी को समझा दूंगी पूतना , तृणावर्त , शकटासुर इन सब राक्षसों का कितना आतंक फैला दिया है कंस नेंकन्हैया को हमनें कैसी कैसी विपत्तियों से बचाया है मैं समझा दूंगीवो मान जाएंगीं ।
बृजपति आपनें मुझे बुलाया ?
एक ग्वाले नें आकर नन्द को प्रणाम करते हुए पूछा ।
हाँ सुनो शताधिक बैल गाड़ियों को सुन्दर सुन्दर सजा दो और शीघ्र करो हम लोग बरसानें जा रहे हैं ।
नन्द राय की आज्ञा पाकर वो ग्वाला गया बैल गाडीयों को सजा दियासुन्दर तरीके से सजाया था ।
यशोदा और बृजपति नन्द एक गाडी में बैठे यशोदा की गोद में कन्हैया देखो देखो कैसे हँस रहा है कितना खुश है ऐसा प्रसन्न तो ये आज तक नही हुआ था “ससुराल जा रहा है मेरा कान्हा“इतना जैसे ही बोला यशोदा ने कन्हैया तो खिलखिला उठा ।
नन्द और यशोदा नें एक दूसरे को देखा और खूब हँसे ।
कितना अच्छा होता ना कि रोहिणी भी आजातीं
पर यशोदा मथुरा में अपनें पति वसुदेव से मिलनेँ गयीं हैं रोहिणी दाऊ को तो छोड़ जाती यशोदा नें फिर कहा ।
अपनें पुत्र को भला कोई छोड़ता है छोडो यशोदा तुम भी ।
बृजपति चले जा रहे हैं इस प्रकार चर्चा करते हुए ।
सौ से अधिक बैल गाडी हैं आधे गाडी में तो लोग बैठे हैं कुछ गाड़ियों में मणि माणिक्य सुवर्ण कुछेक गाड़ीयों में वस्त्र आभूषण इत्यादि कुछेक गाड़ियों में दूध माखन दही ये सब रखकर चले जा रहे हैं बरसानें की ओर ।
ये क्या बरसाना उदास है लोग सजे धजे हैं पर वो उल्लास और उमंग नही है किसी में ।
बृजपति नें बरसानें में प्रवेश किया, तो कुछ उदासी सी देखी, लोगों में ।
महल में चहल पहल तो है बन्दनवार भी लगाये हैं केले के खंभे बड़ी सुन्दरता से सजाएं हैं रंगोली तो हर बरसानें वाले के द्वार पर बना हुआ है मोतियों की चौक भी पुराई है ।
पर कुछ उदासी सी छाई है ।
महल में प्रवेश किया याचकों की लाइन लगी है महल के द्वार पर स्वयं खड़े हैं बृषभान जी सुन्दर रेशमी वस्त्र धारण किये हुए माथे में पगड़ी मोतियों की लड़ी गले मेंसोनें के कड़ुआ हाथों में बृषभान जी प्रसन्नता से सब कुछ लुटा रहे हैं ।
बधाई हो मित्र बधाई हो
जोर से आवाज लगाई बृजपति नन्द नें बरसानें के अधिपति बृषभान को ।
देखा बृषभान जी नें ।
कई बैल गाडीयाँ सजी धजी खड़ी हैं महल के द्वार पर
मित्र बृजपति और बृजरानी
दौड़ पड़े बृषभान जी ।
पास में गए तो गले नही मिले ।हम आपसे नाराज हैं दो दिन हो गए और आप अब आये हो हम आपसे बात नही करते ?
मित्र का रूठना अधिकार है ।
हाँ हमसे गलती तो हो गयी है अब आप जो दण्ड दें वैसे भी मैं तो कहता ही था की सम्पत्ती वैभव इन बरसानें वालों के पास ही ज्यादा है “बृजपति” तो इन्हें ही बनाना चाहिये
नन्द जी नें हाथ जोड़कर आगे कहा हम तो नाम के ही बृजपति हैं सच्चे बृजपति तो हे बृषभान जी आप ही हो ।
तो क्या दण्ड दोगे हमें बृषभान जी ? “वैसे लड़के वालों के सामनें लड़की वालों को ज्यादा बोलना नही चाहिये” हँसते हुए बृजपति नें बृषभान जी को अपनें हृदय से लगा लिया था ।
क्या बात है उदास हो ? हे बृषभान जी आप सत्य पर दृढ रहनें वाले हैं इसलिये आपकी वाणी सदैव सत्य ही होती है ।
आपनें कहा था मुझे तो “लाली” चाहियेऔर देखिये आपके लाली हो गयी हँसते हुए बोले बृजपति नन्द ।
पर आप उदास हैं ? क्यों ? नन्द नें फिर पूछा ।
महल में चलते हुए बातें हो रही थीं कीर्तिरानी के पास में आगये थे सब लोग बृजरानी यशोदा के साथ कई गोकुल की सखियाँ चल रही थीं उनके हाथों में हीरे मोती मणि माणिक्य से भरे थाल थे जो “लाली” को न्यौछावर करनें के लिए लाईं थीं बृजरानी ।
बधाई हो कीर्तिरानी
लाला कन्हैया को गोद में लेकर ही दौड़ पडीं यशोदा ।
यशोदा भाभी कीर्तिरानी उठकर बैठ गयीं ।
नही लाली कहाँ है ? मैं देखूंगी , लाली कहाँ है ?
ये रही हमारी प्यारी लाली कीर्ति रानी नें दिखाया ।
ओह कितनी सुन्दर है ये तो ओह अपलक देखती रहीं उन “भानु दुलारी” को बृजरानी यशोदा ।
क्या न्यौछावर करूँ मैं ? थाल के मणि माणिक्य को छोड़ दिया बृजरानी नें अपनें गले का सबसे मूल्यवान हार उतार कर किशोरी जी को न्योछावर में दे दिया फिर भी मन नही माना अपनें हीरे से जड़े कड़े उतार कर लाली के ऊपर न्यौछावर कर लुटा दिया पर नही इसके आगे ये हार , ये कड़े क्या हैं
क्या दूँ ? क्या दूँ मैं ? बृजरानी भाव में उछल रही हैं ।
कुछ नही मिला तो अपनी गोद में खेल रहे कन्हैया को ही “श्रीजी” के ऊपर घुमा कर उनके ही बगल में रख दिया इससे बढ़िया न्यौछावर और कुछ नही है गदगद् भाव से बोलीं बृजरानी ।
पर ये क्या कन्हैया खुश कन्हैया को तो अपनी “प्राण” मिल गयीं वो खिसकते हुए अपनी “सर्वेश्वरी” के पास गए अपनें नन्हे करों से “प्रिया जू” के नन्हे नन्हें नेत्रों को छूआ बस फिर क्या था ।
नेत्र खुल गए श्रीराधा के खोल दिए नेत्र श्रीराधा नें ।
बृषभान जी नें देखा मेरी लाली नें अपनें नेत्र खोल दिए
वो तो बृजपति का हाथ पकड़ कर नाचनें लगे बृजपति आप पूछ रहे थे ना कि मैं उदास क्यों हूँ ? मेरी कन्या नें नेत्र नही खोले थे ।
ये बात फ़ैल गयी हवा की तरह पूरे बरसानें में अब तो सब लोग आनन्द मनानें लगे नाच गान फिर से शुरू हो गया ।
कीर्तिरानी के नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले थे यशोदा भाभी आप सोच नही सकतीं मैं कितनी खुश हूँ आज ।
हृदय से लगा लिया था बृजरानी नें कीर्तिरानी को
अरे देखो देखो ये दोनों कैसे खेल रहे हैं
ऐसा लग रहा है जैसे ये दोनों ही प्रेम के खिलौनें हैं और प्रेम से खेल रहे हैं प्रेम ही इनका सर्वस्व है ।
श्रीराधा कृष्ण दोनों बालक रूप में एक दूसरे को देखकर किलकारियां भर रहे थे ।
अरी कीर्ति बहुत खेल लिए अब थोडा दूध तो पिलाकर देखो
मुखरा मैया सबसे ज्यादा प्रसन्न हैंउन्होनें आकर दूध पिलानें के लिए कहा कीर्ति रानी जब दूध पिलानें लगींनही पीया दूध मात्र कन्हैया को ही देखती रहीं “लली श्रीराधा” पर कन्हैया नें अपनें कोमल हाथों से श्रीराधा के मुख को कीर्ति रानी के वक्ष की ओर कर दिया मानों कह रहे होंराधे अब तो मैं आगया अब तो दूध पी लो ।बस प्रियतम के सुख के लिए प्रियतम की बात सर्वोपरि है ये जानकर श्रीराधा रानी नें दूध पी लिया ।
हे वज्रनाभ ये प्रेम की लीला अद्भुत है इसे बुद्धि से नही समझा जा सकता ये तो हृदय के माध्यम से ही समझ में आता है ।
घर घर मंगल छायो आज, कीरति नें लाली जाई है ।
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 9
( नामकरण संस्कार )
ब्रह्म की जो आराधना करे वो “राधा” नही नही “ब्रह्म जिसकी आराधना करे वो राधा“श्रीराधा प्रेम हैप्रेम का मूर्तिमंत स्वरूप है श्रीराधा प्रेम का सच्चा अधिकारी कौन ? प्रेम का अधिकारी तो वही है जो अपनें आपको प्रियतम में मिटा देनें की हिम्मत रखता हो अपना आस्तित्व ही जो मिटा सके उसे ही कहते हैं “प्रेम” ।
मात्र रह जाए “प्रियतम” मैं मिट जाऊँ मैं न रहूँ बस तू रहे ।
हे वज्रनाभ इस प्रेम के रहस्य को समझना सरल नही है निःस्वार्थ की साधना किये बगैर ये “प्रेम साधना” अत्यन्त कठिन है जो मात्र “इससे क्या लाभ उससे क्या फायदा” इसी सोच से चलते हैं वो इस प्रेम के अधिकारी कहाँ ?
हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ “श्रीराधा” उस भावोन्माद का नाम है जो अपनें प्रेमास्पद के सिवा और कुछ चाहता नही
इतना कहकर फिर थोड़ी देर रुक गए महर्षि शाण्डिल्य नही नही प्रेमास्पद के सुख के लिये ही जो जीवन धारण किये हैं वही है श्रीराधा भाव प्रेम का उच्च शिखर है श्रीराधा भाव ।
स्वसुख की किंचित् भी कामना न रह जाए रह जाए “बस तुम खुश रहो“तुम प्रसन्न रहो तुम आनन्दित हो तो मुझे परमानन्द की प्राप्ति हो गयी मिल गयी मुझे मुक्ति मोक्ष या निर्वाण हे वज्रनाभ श्रीराधा भाव ऐसा उच्च भाव है तो विचार करो साक्षात् श्रीराधा क्या हैं ? श्रीराधा कहाँ स्थित होंगीं
मैने कह दिया ना पहले ही “श्री राधा” यानि जिसकी आराधना स्वयं ब्रह्म करेहे वज्रनाभ श्रीराधा का नामकरण करते हुये आचार्य गर्ग नें इसका अर्थ किया था ।
श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा
महर्षि शाण्डिल्य भाव में डूब गए ।
वसुदेव नें मथुरा से अपनें पुरोहित को भेजा आचार्य गर्ग को ।
गोकुल में जब आये तब मेरी ही कुटिया में आये थेमैने उनका अर्घ्य पाद्यादि से स्वागत कियातब बृजपति नन्द भी वहीँ आगये ।
“मैं नामकरण करनें आया हूँमुझे वसुदेव नें भेजा है “रोहिणी नन्दन” का नामकरण करनें आचार्य नें बड़े संकोचपूर्वक कहा था मैने उनका संकोच दूर करते हुए कहा नही आपको “नन्दनन्दन” का भी नाम करण करना होगा ।
पर पुरोहित तो आप हैं बृजपति केआचार्य नें मेरी ओर देखा ।
पर आपको पता हैऔर मेरे यजमान को भी पता है मैं कर्मकाण्डी नही हूँ मुझे ज्यादा रूचि भी नही है कर्मकाण्ड में ज्योतिष विद्या तो मुझे बहुत नीरस लगती है
मैने हाथ पकड़ा बृजपति का और कहा हम दोनों में कोई स्पर्धा नही है इसलिये आप आनन्द से आचार्य गर्ग के द्वारा अपनें पुत्र का भी नामकरण करवा लें ये मेरी आज्ञा है ।
पर अभी भी संकोच हो रहा था आचार्य को कि कैसे मैं दूसरे के यजमान को अपना बना लूँ
मैने आचार्य को सहज बनाते हुयेएक हास्य कर दिया
आचार्य पूछो बृजपति से अन्नप्रास संस्कार के दिन क्या हुआ था प्रारम्भ में ही नवग्रह का पूजन होना था पर मैं तो उन ग्रहों के नाम ही भूल गया फिर इन्होनें ही मुझे नाम बताये तब पूजन होता रहा मैं तो ऐसा हूँ ।
बृजपति चरणों में गिर गए थे मेरे, और बोले भगवन् आप जैसा महर्षि आप जैसा देहातीत विरक्त महात्मा और कौन होगा ऐसा महात्मा जो नवग्रहों में भी नारायण का दर्शन करके आनन्दित हो उठता है बृजपति मेरे प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं ।
पर मेरे आग्रह के कारण नामकरण संस्कार कराना आचार्य नें भी स्वीकार किया और बृजपति नें मेरी आज्ञा मानीं ।
“कृष्ण” नाम रखा था नन्दनन्दन का और रोहिणी नन्दन का नाम “राम“नामकरण करके मेरी ही कुटिया में आये थे आचार्य ।
नारायण हैं कृष्ण हे महर्षि मैने उनके चरणों में वो चिन्ह देखे जो चिन्ह नारायण के चरणों में हैं गदगद् भाव से बोल रहे थे आचार्य गर्ग ।
क्या इनकी आल्हादिनी के दर्शन नही करोगे ?
मैने मुस्कुराते हुये पूछा ।
क्या उनका भी प्राकट्य हुआ है ?
ये नारायण के अवतार नही हैं ये स्वयं अवतारी हैं स्वयं श्री श्याम सुन्दर निकुञ्ज से अवतरित हुए हैं तो वो अकेले कैसे आसकते हैं ?
आचार्य मेरे सामनें हाथ जोडनें लगे कृपा आपही कर सकते हैं वो कहाँ प्रकटी हैं ?
प्रेम की सुगन्ध को छुपाया नही जा सकताआप जाइए आपको जिस ओर से वो प्रेम की सुवास आती मिले बस चलते जाइए मैने मुस्कुराते हुए कहा आचार्य को शीघ्रता थी आल्हादिनी के दर्शन करनें कीउस ब्रह्म के साकार प्रेम को देखनें की वो मेरी कुटिया से बाहर निकले और चल पड़े जिधर से आल्हादिनी खींच रही थीं उन्हें ।
हे वज्रनाभ जब बरसानें पहुँचे आचार्य गर्ग तब उन्हें मार्ग में ही बृषभान जी मिल गए उन्होंने आचार्य के चरणों में प्रणाम किया कहाँ से पधारे आप आचार्य ? आज आपके चरणों को पाकर ये बरसाना धन्य हो गया है ।
मैं तो बृजपति नन्द के पुत्र का नामकरण करवा के आरहा हूँ ।
ओह तो फिर आपको मेरे महल में चलना ही पड़ेगाऔर मेरा आतिथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा विशेष आग्रह करनें लगे थे बृषभान जी ।
आचार्य की इच्छा पूरी हो रही थी वो इसीलिए तो आये थे बरसानें में ताकि एक झलक दर्शन के मिल जाएँ “श्रीकिशोरी” के ।
वो गए महल में कीर्तिरानी नें प्रणाम किया फिर बृषभान जी नें उन्हें एक उच्च आसन में बैठाकर उनका अर्घ्य पाद्यादि से पूजन किया
पर आपकी पुत्री कहाँ हैं ?
आचार्य अपनें को पूजवानें तो आये नही थे उन्हें तो दर्शन करनें थे ।
हे आचार्य मेरी और मेरी अर्धांगिनी की इच्छा है कि अगर तिथि मुहूर्त आज का ठीक हो तो आज ही नामकरण संस्कार आप कर दें ।
हाथ जोड़कर बृषभान जी नें कहा ।
ठीक है इतना कहकर मुहूर्त का विचार करनें लगे आचार्य गर्ग ।
पर कुछ ही देर में उनका मुखमण्डल प्रसन्नता से चमक उठा आज के जैसा मुहूर्त तो वर्षों बाद भी नही आएगा
कीर्तिरानी अपनें महल में गयीं बृषभान जी आनन्दित हो यमुना स्नान करनें चले गए इधर पूजन की तैयारियाँ आचार्य नें शुरू कीसामग्रियाँ सब ला लाकर ग्वाले देने लगे जो जो माँगते गए आचार्य ।
पर नामकरण संस्कार की तैयारियों में तो बिलम्ब हो जाएगा क्यों की मेरे साथ यहाँ कोई विप्र भी नही है महर्षि शाण्डिल्य नें मुझे गोकुल में सात विप्र दिए थे हे वज्रनाभ इतना सोच ही रहे थे आचार्य की तभी आकाश मार्ग से नवयोगेश्वर उतरनें लगे बरसानें में उनके साथ साथ ऋषि दुर्वासा भी आगये ।
आप ? चौंक कर उठ खड़े हुये आचार्य गर्ग
हाँ , आल्हादिनी के दर्शन का लोभ हम भी छोड़ नही पाये इसलिये हम भी आगये ऋषि दुर्वासा नें हँसते हुए कहा इनके दर्शन का लोभ स्वयं ब्रह्म नही त्याग पाते तो हम क्या हैं ।
हम को सेवा बताइये हम आपकी सहायता करगें आल्हादिनी के नामकरण संस्कार में कृपा करें नवयोगेश्वरों नें हाथ जोड़े ।
अच्छा ठीक है आप लोग अपना परिचय छुपाइयेगा बरसाने में किसी को पता न चले क्यों की प्रेम जितना गुप्त रहता है वो उतना ही खिला और प्रसन्न रहता है ।
बड़ी प्रसन्नता से आचार्य गर्ग की बात सबनें मानीं और तैयारियों में जुट गए ।
“हो गयीं सारी तैयारीयाँमहाराज और रानी को बालिका के साथ बुलाया जाए” आचार्य नें महल के सेवकों से कहा ।
तभी सबनें देखारेशमी पीले वस्त्र पहनें सूर्य के समान दिव्य तेज़ वाले बृषभान जी सुन्दर सी पगड़ी बाँधे आये ।
उनके साथ उनकी अर्धांगिनी “कीर्तिरानी” वो तो ऐसी लग रही थीं जैसे स्वर्ग की अप्सरा भी लज्जित हो जाए ।
पर सबकी दृष्टि थी कीर्तिरानी की गोद में
दाहिनें भाग में कीर्तिरानी बैठीं कीर्तिरानी के बाएं भाग में बृषभान जी बिराजे हैं ।
पर ये क्या ? आचार्य गर्ग स्तब्ध हो गए मानों मूर्तिवतआचार्य ही क्यों महर्षि दुर्वासा और नवयोगेश्वर भी ।
वो दिव्य तेज़ प्रकाश का पुञ्ज कीर्तिरानी की गोद में हिल रहा था चरण जब थोड़े हिलाये आल्हादिनी नें ओह समाधि सी ही लग गयी थी आचार्य गर्ग की तो ।
चक्र शंख गदा पदम् सारे चिन्ह हैं जो जो चिन्ह श्रीकृष्ण के चरणों में हैं वही चिन्ह आल्हादिनी के भी चरण में हैं ।
समाधि लग गयी चरण के नख से प्रकाश प्रकट हो रहा है वो प्रकाश ही समस्त विश्व् को प्रकाशित कर रहा है
आचार्य आचार्य आचार्य
निकट जाकर बृषभान जी को झकझोरना पड़ा आचार्य गर्ग को ।
तब जाकर वो उस दशा से बाहर आये ।
नाम करण संस्कार शुरू की जाए ? हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।
हाँ हाँ सब कुछ विचार किया आचार्य नें
मेरी गोद में एक बार लाली को ? पता नही क्यों आचार्य होनें के बाद भी कीर्तिरानी से प्रार्थना की मुद्रा में ही हर बात कह रहे थे गर्ग ।
आप आज्ञा करें आचार्य आप हाथ न जोड़ें बृषभान जी नें मुस्कुराते हुए कहा और कीर्तिरानी को इशारा किया ।
कीर्तिरानी नें आचार्य गर्ग की गोद में दे दिया लाली को ।
आहा दर्शन करते ही और अपनी गोद में पाते ही देह सुध पूरी तरह से भूल गए आचार्य ।
“राधा राधा राधा“यही नाम होगा इन बालिका का ।
आचार्य गर्ग के मुख से ये नाम सुनकर बृषभान जी नें दोहराया कीर्तिरानी भी आनन्दित हो उठीं बहुत सुन्दर नाम है
राधा राधा राधा
पर इसका अर्थ क्या होता है ? कीर्तिरानी नें पूछा ।
आँखें चढ़ी हुयी हैं आचार्य की उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे वो इस लोक में हैं ही नहीं ।
“स्वयं आस्तित्व जिसकी आराधना करे वो राधा” स्वयं “ब्रह्म जिनकी आराधना करे वो राधा“आहा राधा ।
ऋषि दुर्वासा आनन्दित हो उठे राधा राधा राधा कहते हुये वो भी मग्न हो गए नव योगेश्वरों की भी यही स्थिति है ।
इस कन्या शील कैसा होगा ?
आर्यमाता हैं कीर्तिरानी उनको तो ये चिन्ता पहले रहेगी
अत्यधिक सुन्दरी है मेरी कन्या आचार्य कहीं ये शील संकोच को गुमाकर
हँसे आचार्य श्रीराधा को कीर्तिरानी की गोद में देते हुए बोले विश्व् की जितनी सती हैं महासती हैं वो सब आपकी श्रीराधा के पद रेनू की कामना करती रहेंगीं ।
और विवाह ?
पिता बृषभान की चिन्ता एक समस्त जगत के पुत्रियों के पिता से अलग नही है ।
राधा और नन्दसुत ये दोनों अभिन्न दम्पति हैंये दोनों अनादि हैं ।
आचार्य की बातें सुनकर बृषभान जी नें कहा “तो समय आनें पर आपके द्वारा ही ये विवाह सम्पन्न हो“हाथ जोड़े ये कहते हुए बृषभान जी नें ।
नही नही आपको हाथ जोड़नें की जरूरत नही है पर इस सौभाग्य से स्वयं विधाता ब्रह्मा नें ही मुझे वंचित कर दिया है ।
क्या मतलब ? बृषभान जी नें पूछा ।
इस सौभाग्य को विधाता ब्रह्मा स्वयं लेना चाहते हैं इसलिये वही इन दोनों का विवाह करायेंगें
इतना कहकर आचार्य मौन हो गएपर ये बात भोले भाले बृषभान जी की समझ में नही आयी
पर इतना समझ लिया कि मैने जो वचन दिया है बृजपति नन्द को कि नन्दनन्दन और राधा इन दोनों का परिणय होगा ही ।
हे वज्रनाभ ये “राधा नाम” हैइस नामका जो नित्य जाप करता है उसे पराभक्ति प्राप्त होती ही है वो सहज धीरे धीरे प्रेम स्वरूप बनता जाता हैउसके हृदय में आल्हाद नित्य ही वास करनें लगता है ।
इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य आल्हाद और आल्हादिनी के विलास का रस लेनें लगे थेक्यों की सर्वत्र उन्हीं का तो विलास चल रहा है ।
पराभक्ति प्रदायिनी करि कृपा करुणा निधि प्रिये
श्रीराधाचरितामृतम् – भाग 10
( देवर्षि नारद नें जब श्रीराधा के दर्शन किये)
जानें दो ना “वेद” के मार्ग को क्यों बेकार में उस कण्टक पथ पर चलना चाहते हो कर्मकाण्ड के नीरस नियम विधि के बन्धन में बंधना चाहते हो छोडो ना इस “वेणु” के मार्ग का आश्रय क्यों नही लेते राजपथ है तुम्हे कुछ करना भी नही है बस इस मार्ग पर आना है और चलना है बाकी अगर तुम रास्ते भूल भी जाओ तो भी सम्भालनें वाला तुम्हे हर पल हर पग में सम्भालता रहेगा वेद का मार्ग है “ज्ञान” का मार्ग और वेणु का मार्ग है “प्रेम” का मार्ग तो चलो ।
महर्षि शाण्डिल्य भाव से सिक्त है पूरे भींगें हुए हैं और उसी रस में अपनें श्रोता वज्रनाभ को भी भिगो दिया है
ऐसी दिव्य , ऐसी मधुर कथा आज तक मैने नही सुनी
सच है महर्षि इस प्रेम को वही पा सकता है जिसके ऊपर आप जैसे प्रेमी महात्माओं कि कृपा हो ।
महर्षि शाण्डिल्य नें जब अपनें श्रोता वज्रनाभ का पिघला हुआ हृदय देखा तो बड़े आनन्दित हुए ।
इस प्रेम की ऊँचाई में जब कोई पहुँचता है तब धर्म भी बाधक है और धर्म को भी त्यागना पड़ता है क्यों की परम धर्म है ये प्रेम जब परम् धर्म की प्राप्ति हो गयी तो फिर क्यों इन संसार के धर्मों में उलझना सब कुछ छूट जाता है इस प्रेम में ।
अरे वज्रनाभ तुम स्वयं विचार करो संसार के प्रेम में भी बिना त्याग के साधारण प्रेमी नही मिलता ये तो दिव्य प्रेम की बात हो रही है उस प्रेम की चर्चा हो रही है जिसे पानें के लिये शिव सनकादि नारद ब्रह्मा सब ललचा रहे हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य नें कहा एक दिन गोकुल में श्री बाल कृष्ण के दर्शन करनें आये थे देवर्षि नारद जीभक्ति के आचार्य नारद जी ।
देवर्षि नारद
मैं प्रसन्नता से दौड़ पड़ा था उनके स्वागत के लिए ।
महर्षि शाण्डिल्य
मुझे बड़े प्रेम से उन्होंने अपनें हृदय से लगाया था ।
मेरी कुटिया में आगये थे उस दिन देवर्षि
फल फूल और गौ दुग्ध मैने देवर्षि के सामनें रख दिए ।
अब कौन तुम्हारे ये फल फूल खायेगा महर्षि जो छक कर आया है माखन खाकर वो भी नीलमणी नन्दनन्दन के हाथों ।
मुझे अपनें पास बिठाया देवर्षि नें सुनो इन सब व्यवहार की आवश्यकता नही हैमैं कुछ कहनें आया हूँ उसे आप सुनिये और आप मेरे मित्र हैंइसलिये मेरा मार्गदर्शन भी कीजियेगा ।
अब आप ये क्या कह रहे हैंमैं भला आपका क्या मार्गदर्शन करूँगाआप की गति तो सर्वत्र है आपसे भला कुछ छुपा है क्या ?
पर मेरी इन बातों पर देवर्षि नें कुछ ध्यान नही दियावो शान्त रहे फिर गम्भीर होकर बोले एक बात पूछ रहा हूँ मुझे आप ही बता सकते हो देवर्षि नें मेरी ओर देखा ।
हाँ हाँ पूछिये मैने उनसे कहा ।
मुझे यही कहना है कि जब “श्यामघन” प्रकट हो गए हैं तो “दामिनी” कहाँ हैं ? क्यों की हे महर्षि शाण्डिल्य घन को शोभा दामिनी की चमक से ही है ना ?
मैं मुस्कुराया आपका अनुमान बिलकुल सत्य है देवर्षि जब ब्रह्म प्रकट हुआ है तो उसकी आल्हादिनी शक्ति भी प्रकटी होंगीं ।
तो उनका प्राकट्य कहाँ हुआ है ? महर्षि शाण्डिल्य मैं बहुत बेचैन हूँ मैने बाल कृष्ण के तो दर्शन कर लिए पर उनकी आल्हादिनी शक्ति के दर्शन बिना श्रीकृष्ण दर्शन का कोई विशेष महत्व नही है ।
हे वज्रनाभ
मेरे मित्र देवर्षि नारद नें कृपा कर मुझे एक रहस्य की बात बताई ।
हे महर्षियों में श्रेष्ठ शाण्डिल्य मुझे भगवान शंकर नें एक बार ये रहस्य बताया था उन्होंने मुझे कहा था ब्रह्म तभी कुछ कर सकता है जब उसके साथ शक्ति होती है बिना शक्ति के शक्तिमान कैसा ? इसलिये मात्र श्रीकृष्ण की आराधना तुम्हे कुछ नही देगी कृष्ण के साथ उनकी आल्हादिनी राधा का होना आवश्यक है ।
हे वज्रनाभ मुझे उस समय भगवान शंकर से ही ये युगल मन्त्र प्राप्त हुआ था उस समय माँ पार्वती भी वहीँ थीं तो उन्होंनें भी इस मन्त्र को ग्रहण किया
सोलह अक्षरों वाला ये युगल मन्त्र बड़ा ही गुप्त है और प्रेमाभक्ति को पानें वालों के लिये यही एक मार्ग है जो इस मन्त्र का नित्य चलते फिरते सोते जाप करता है वह निकुञ्ज का अधिकारी बनता ही है निकुञ्ज में उसका सहज प्रवेश हो जाता है ।
हे वज्रनाभ देवर्षि नें वह युगल मन्त्र मुझे भी प्रदान किया था ।
मैने प्रणाम करते हुये देवर्षि को कहा बरसानें में उनका प्राकट्य हुआ है पास में ही है बाकी , आप जाएँ और दर्शन करें क्यों की हे देवर्षि मैने सुना है अब कि उनके साथ साथ उनकी जो निज सहचरी थीं उनका भी प्राकट्य हो रहा है ।
देवर्षि आनन्दित होते हुये मुझे बारम्बार अपनें हृदय से लगाते हुये गोकुल से बरसानें की ओर चल पड़े थे ।
दिव्य महल है बरसानें में बधाई चल रही हैं ग्वाल बाल नाच रहे हैं गा रहे हैं धूम मची है चारों ओर ।
देवर्षि भाव में मग्न चल दिय उसी महल की ओर यही महल होगा अवश्य इसी महल में प्रकटी होंगी पर जैसे ही गए देवर्षि ।
गौर वर्णी एक बालिका का आज ही नाम करण संस्कार हुआ है
“ललिता” नाम है इनका
देवर्षि नें हाथ जोड़कर नवजात “ललिता सखी” को नमन किया ये अष्ट सखियों में प्रमुख सखी हैं श्रीराधा जी की
जैसे महादेव की कृपा , बिना नन्दी को प्रणाम किये नही पाई जा सकती जैसे भगवान श्रीराम की कृपा बिना हनुमान के नही पाई जा सकती ऐसे ही श्रीराधा रानी की कृपा भी इन सखियों की कृपा बिना नही पाइ जा सकती और समस्त सखियों में ये ललिता सखी बड़ी हैं देवर्षि नें हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया ।
पर श्रीराधा के दर्शन कब होंगें ? और वो कहाँ हैं ?
बरसानें के हर भवन में देवर्षि देखते जा रहे हैं हे वज्रनाभ जब से श्रीराधा रानी का प्राकट्य हुआ है इस बरसानें में सब के भवन महल सदृश ही लगते हैं
और बरसानें के अधिपति बृषभान जी नें सबके भवनों में हीरे और पन्नें जड़वा दिए हैं हँसे महर्षि शाण्डिल्य वज्रनाभ पर उनकी लाली श्रीराधा को ये हीरे और मणियाँ प्रिय नही हैं उन्हें तो मोर , तोता, हिरण घनें वृक्ष पुष्प हरियाली ये सब प्रिय है इसलिये स्वयं के महल में प्राकृतिक वस्तुओं का ही संग्रह किया था बृषभान जी नें ।
ये महल है बृषभान जी का जो इस बरसानें के अधिपति हैं एक सखी नें देवर्षि नारद जी को चलते हुए बता दिया था ।
देवर्षि नारद उस महल में गए सामनें से आरहे थे बृषभान जी देवर्षि को देखा तो तुरन्त दौड़ पड़े देवर्षि के चरणों में गिर गए और बड़े आग्रह से भीतर ले गए ।
ये है मेरा पुत्र “श्रीदामा“एक सुन्दर बालक नें देवर्षि को प्रणाम किया देवर्षि नें देखाऔर बोले – ये तो कृष्ण सखा है कृष्ण का अभिन्न सखा इतना कहकर उठ गए ।
क्यों की देवर्षि को लगा इनके पुत्र मात्र हैंजो इन्होनें मुझे बता दिया है पर जिनका मैं दर्शन करनें आया हूँ वो यहाँ भी नही हैं ।
देवर्षि वहाँ से जैसे ही चलनें लगे
देवर्षि एक कृपा और करें बृषभान नें चरण पकड़े ।
क्या ? क्या चाहते हो आप बृषभान ?
मेरी एक पुत्री है अगर आप उसे भी आशीर्वाद दें तो ?
देवर्षि आनन्दित हो उठे उस पुत्री का नाम ?
“श्रीराधा” बृषभान नें कहा ।
पर अपनी प्रसन्नता छुपाई देवर्षि नें कहाँ हैं वो कन्या ?
“मेरे अन्तःपुर में चलिये आप“बृषभान जी आगे आगे चले और पीछे उनके देवर्षि नारद जी ।
पालनें में एक दिव्य कन्या लेटी हुयी हैंतपते सुवर्ण के समान उनका रँग है केश काले काले बड़े सुन्दर हैं पर आश्चर्य माँग निकली हुयी है और तो और मस्तक में श्याम बिन्दु लगी ही हुयी है ये जन्मजात है देवर्षि नारद जी बृषभान जी नें कहा ।
मेरी एक प्रार्थना है अगर आप मानें तो ?
देवर्षि नें बृषभान जी से कहा ।
आप आज्ञा करें
बस कुछ घड़ी के लिये मुझे एकान्त चाहियेआप अगर
देवर्षि नें ये बात प्रार्थना की मुद्रा में कही थी ।
हाँ हाँ मैं बाहर खड़ा हो जाता हूँपर मुझे बताइयेगा कि मेरी पुत्री का भविष्य कैसा होगा ये कहते हुये बाहर चले गए बृषभान जी ।
श्रीराधा रानी के पास आये नारद जी हाथ जोड़कर जैसे ही वन्दन किया बस देखते ही देखते मुस्कुराईं श्रीराधा ।
उनके मुस्कुराते ही दिव्य निकुञ्ज वहाँ प्रकट हो गया एक दिव्य सिंहासन है उस सिंहासन में वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा रानी विराजमान हैं उनके अंग से प्रकाश निकल रहा है उनके पायल की ध्वनि से ओंकार नाद प्रकट हो रहा है
देवर्षि नें देखा धीरे धीरे लक्ष्मी , सरस्वती, महाकाली इत्यादि अनेकानेक देवियां चँवर लेकर ढुरा रही हैं
फिर मुस्कुराईं श्रीराधा रानी इस बार तो श्रीराधा के ही दाहिनें अंग से श्रीश्याम सुन्दर प्रकट हो गए
इन दोनों की छबि अद्भुत थी प्रेम नें ही मानों ये रूप धारण कर लिया था अद्भुत रूप था
हे वज्रनाभ देवर्षि नारद जी स्तुति करनें लगे
हे राधे आपही सृष्टि, पालन, संहार करनें वाली हो पर इतना ही नही आप तो अपनें प्रेमास्पद श्रीश्याम सुन्दर को ही आल्हाद प्रदान कर स्वयं आल्हादित होती हो आपका अपना कोई संकल्प नही है आप बस अपनें प्रेमास्पद के सुख के लिये ही सब कुछ करती हैं हे प्रेममयी देवी आपकी जय हो
हे कृष्ण प्रिये आपकी जय हो
हे हरिप्रिये आपकी सदाहीं जय हो
हे श्यामा आपही इस सृष्टि की मूल हैं ।
हे प्रेमरस वर्धिनी आपकी जय हो ।
हे राधिके आपकी जय, जय, जय हो ।
मुस्कुराईं श्रीराधा देवर्षि की स्तुति सुनकर पर ये क्या श्रीराधा रानी के मुस्कुराते ही सब कुछ बदल गया न वहाँ निकुञ्ज था न वहाँ श्याम सुन्दर थे न वहाँ रमा थीं न वहाँ उमा थीं ।
एक सुन्दर सा पालना है उस पालनें में श्रीराधारानी बाल रूप में खेल रही हैं नारद जी नें अपलक नेत्रों से दर्शन किये बारम्बार श्रीराधा रानी के चरणों को अपनें माथे से लगाया और बाहर आगये ।
कैसी है मेरी पुत्री ? कैसा उसका भविष्य ? इसका विवाह ?
कितनें प्रश्न थे एक पिता के और ये प्रश्न पहली बार नही किया था आचार्य गर्ग से भी यही प्रश्न करते रहे थे बृषभान जी ।
“ये तो नन्दनन्दन की आत्मा हैं“इतना ही बोल पाये थे और चल पड़े इसी युगल मन्त्र का उच्चारण करते हुए देवर्षि ।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे
पर हे वज्रनाभ देवर्षि नारद कौतुकी हैं कंस के पास चले गए थे सीधे बरसानें से ।
हँसे वज्रनाभ कंस के पास क्यों ?
अब इस बात को तो श्रीश्याम सुन्दर ही जानें क्यों की देवर्षि नारद जी उनके “मन” के ही तो अवतार हैं ।
श्रीराधाचरितामृतम्– भाग 11
( जब श्रीराधारानी को मारनें कंस आया )
( साधकों मुझ से कई लोगों नें पूछा है “श्रीराधा रानी श्रीकृष्ण से बड़ी हैं फिर आपनें उन्हें छोटी क्यों बताया ?
मैं स्पष्टतः कह देना चाहता हूँ मैं जो लिख रहा हूँ इसका आधार शास्त्रीय और प्रमाणिक है आधुनिक लेखक ही कहते हैं कि श्रीराधा कृष्ण से बड़ी थींउनके पास क्या प्रमाण है मुझे आज तक समझ नही आया क्यों कि गर्ग संहिता, बृज के सन्तों की वाणियों में, निम्बार्क सम्प्रदाय, राधबल्लभीय सम्प्रदाय एवम् चैतन्य सम्प्रदाय के महापुरुषों नें तो लिखा है श्रीराधा , कृष्ण से छोटी ही थीं मैं उन प्रमाणों के आधार पर ही लिख रहा हूँ और नायिका नायक से छोटी हो तभी “श्रृंगार रस” भी खिलता हैइसलिये प्रमाणिक बात यही है कि श्रीराधा छोटी थीं नन्दनन्दन से । राधे राधे )
धन्य है वो गोद जिसमें श्रीराधा खेल रही हैं धन्य है वो आँचल जिस आँचल में वो आल्हादिनी शक्ति प्रकट हुयीं हैं धन्य है धरित्री बरसाना जैसा प्रेम नगर अपनें मैं पाकर ।
अभी तो कुछ नही है देखते जाओ कंस जब श्रीराधा बड़ी होंगी ।
महर्षि शाण्डिल्य हँसेंऔर वज्रनाभ से बोले देवर्षि नारद की लीला उनके स्वामी श्याम सुन्दर ही जानें कौतुकी हैं नारद जीइन्हें कौतुक बहुत प्रिय हैसबसे सहज रहते हैं तुम्हे पता है ना वज्रनाभ कंस जैसे राक्षस भी गुरु मानते हैं देवर्षि को क्यों कि ये उन्हीं की भाषा सहजता में बोल लेते हैं हम लोग नही बोल पायेंगें ।
अब देखो चले गए बरसानें से सीधे मथुरा कंस के पास कंस नें स्वागत कियाफल फूल दिए स्वागत स्वीकार करनें के बाद देवर्षि कंस से बोले आनन्द आगया
तो फल फूल और लीजिये
देवर्षि हँसे कंस के पीठ में जोर से हाथ मारा और बोले नही कंस तुम्हारे इन फलों से देवर्षि को क्या आनन्द आएगा
आनन्द तो बरसानें में आया ।
बरसानें में ? कंस नें पूछा ।हाँ हाँ हाँ बरसानें में ।
कीर्तिरानी की गोद में वो शक्तिपुंज कृष्ण की आल्हादिनी शक्तिवो बृषभान की ललीउनके दर्शन करके आया हूँ आहा आनन्द आगया
हे कंस श्रीकृष्ण की शक्तियों का केंद्र तो वहीँ हैं ।
देवर्षि बोले जा रहे हैं ।
अब आप ये क्या कह रहे हैं पहले कह रहे थे गोकुल में मेरा शत्रु पैदा हुआ हैमैं उसी को मारनें में लगा हूँ पूतना भेजी पर वो मर गयी शकटासुर उसे भी मार दिया और सुना है कागासुर कल मरा हुआ मिला है मेरे सैनिकों को ।
तुम समझ नही रहे हो कंस अपनें आसन से उठे देवर्षि नारद कंस के कान में कुछ कहना चाहा फिर रुक गए इधर उधर सैनिकों को देखा कंस तुरन्त चिल्लाया “एकान्त” सब जाओ यहाँ से देख नही रहे देवर्षि मुझे कुछ गुप्त बातें बता रहे हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य मुस्कुराते हुये ये प्रसंग आज सुना रहे थे ।
कान में बोले देवर्षि, कंस के विष्णु नें अवतार लिया है कृष्ण के रूप में तुम्हे मारनें के लिये पर विष्णु की शक्ति बरसानें में प्रकट हुयी है विष्णु की शक्ति का वो केंद्र है राधा
राधा ? कंस डर गया ।
डरो मत कंस डरो मत
मैं हूँ तुम्हारे साथ पीठ थपथपाई कंस की ।
क्या करूँ मैं गुरुदेव आपही कोई उपाय बताएं ।
मार दोऔर क्या तुम भी तो महावीर होहटा दो विष्णु की शक्ति को कितनी सहजता में बोल रहे थे देवर्षि ।
मैं किसी राक्षस को भेजता हूँ अभी बरसानाकंस क्रोधित भी है पर डरा हुआ है ।
क्यों की अब दो दो शत्रु हो गए थेएक गोकुल में और ये बरसानें में ।
नही राक्षस को मत भेजो देवर्षि नें रोका ।
फिर राक्षसी ? कंस नें पूछा ।
नही तुम स्वयं जाओ और उनकी शक्ति का आंकलन करके आओ कंस विचार करनें लगा ।
विचार मत करो मथुरा नरेश जाओ
देखो भाई मुझे क्या है मै तो तुम्हारे भले के लिये ही बोल रहा हूँ
नारायण नारायण नारायण चल दिए देवर्षि ।
रथ लिया और कंस अकेले ही चल पड़ा था बरसानें की ओर नही किसी को साथ में नही लिया यहाँ तक की सारथि भी नही अकेले स्वयं रथ चलाते हुए चला था ।
मथुरा नरेश कंस राजा कंस आये हैं ।
बरसानें में हवा की तरह बात फ़ैल गयी ।
कंस अपनें रथ को लेकर घूम रहा है और ग्वालों के घरों में भी जा रहा है अभी तक किसी को क्षति तो पहुँचाई नही है पर सब डरे हुये हैं हे बृषभान जी
बरसानें के कुछ प्रधान लोगों नें आकर बृषभान जी से गुहार लगाई थी ।
डरो मत कंस हमारा कुछ नही बिगाड़ पायेगा और अगर उसनें इस बरसानें की क्षति की तो फिर उसे उसका दण्ड भोगना ही पड़ेगा क्रोध से लाल मुख मण्डल हो गया था बृषभान जी का ।
पर “बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताये“सहज हो गए थे बृषभान युवराज कंस क्यों आये हैं ये पता तो करो कहीं बरसानें में ऐसे ही भ्रमण में आये हों चलो बृषभान उठे और कंस के पास ही चल पड़े थे उनके साथ उनके कई ग्वाले थे ।
युवराज कंस की जय हो
शत्रु को भी सम्मान देना ये बृषभान जी का स्वभाव है ।
ओह बृषभान जी उतरा कंस रथ से ।
आप ठीक हैं ? आपके मित्र नन्दराय तो यदा कदा आते रहते हैं मथुरा पर आप नही आते ? कंस नें बृषभान जी से पूछा ।
अब मथुरा जैसे नगर मैं जानें की हमारी इच्छा नही होती बरसाना ही हमें प्रिय है और यहाँ के लोग मुझे छोड़ते भी नहीं ।
बीच में ही बात को रोकते हुए बृषभान नें पूछा “कर” यहाँ से समय पर तो पहुँचता है ना ?
नही नही “कर” की चिन्ता नही है कुछ सोचनें लगा कंस ।
आपकी पुत्री हुयी है ? स्वयं ही पूछनें लगा क्यों की कंस समझ गया कि पुत्री के जन्म की बात ये मुझ से क्यों कहनें लगे ।
हाँ एक पुत्री हुयी है कंस को क्या कहें इससे ज्यादा ।
तो हमें दिखाओगे नही ? कंस आदेशात्मक भाषा बोल नही सकता था क्यों की ये ग्वाले भी कम न थे बरसानें के इनकी लाठी ही पर्याप्त है ।
पर भोले भाले हैं बृषभान बिना कुछ बोले अतिथि जानकर कंस को ले चले अपनें महल में ।
आप ये क्या करते हैं ? कंस दुष्ट है उसकी नजर अच्छी नही है फिर मेरी लाडिली को मैं क्यों दिखाऊं सब को ?
कंस को अतिथि कक्ष में बिठाकर बृषभान जी चले गए थेअन्तःपुर में ।
“कंस देखकर चला जाएगा“
अब मैं उसकी बात कैसे काट देता कीर्ति
वैसे मेरी लाडिली का वो कुछ बिगाड़ नही पायेगा बस कीर्ति कुछ क्षण के लिये ही तुम चली जाओ मैं कंस को बुला रहा हूँ पालनें में खेल रही लाली को वो देख लेगा और चला जाएगा मैं हूँ ना उसके साथ ।
आप ना ऐसी जिद्द न किया करेंमेरी लाली को अगर कुछ हो गया उसकी नजर भी तो खराब है पता है बृजरानी भाभी कह रही थीं कितना उत्पात मचा रखा है उसनें गोकुल में ।
अब जाओ तुम कुछ नही होगा मैं हूँ ना
पर जाते जाते डिबिया ली काजल की कीर्तिरानी नेंऔर बड़ा सा टीका माथे पर लगा दिया अपनी लाली के ।
कीर्तिरानी भीतर गयीं पर उनका मन फिर भी नही माना वापस आईँ और काजल ही पूरे मुँह में लगा दिया श्रीराधा रानी के
पर सूर्य बादलों से कैसे छुपेगा ?
आओ महाराज कंस आओ लेकर चल दिए कंस को अन्तःपुर में ।
देवर्षि की बातें कानों में गूँज रही है“गोकुल की शक्ति बरसानें में है उसको मार दो तो गोकुल वाला कृष्ण कुछ नही बिगाड़ पायेगा” ।
पालनें के पास पहुँचा कंसउसे – असीम ऊर्जा प्रवाहित हो रही है ऐसा लगनें लगापालनें की ओर देखनें की हिम्मत ही नही हो रही है कंस के पता नही क्यों श्रीराधा रानी की ओर ये दृष्टि ही नही उठा पा रहा ।
तुम क्षण भर के लिये बाहर जाओ बृषभान जाओ बाहर
कंस ये क्या कह रहा था बृषभान को बाहर जानें के लिये ।
वो वहीँ खड़े रहे नही गए ऐसे कैसे चले जाते
पर कंस तो दुष्ट है वो फिर बोला तुम निश्चिन्त रहो बस क्षण भर के लिये बाहर जाओ मेरी बात मानों ।
बृषभान बहुत सरल हैं भोले हैं तभी तो इस भोरी किशोरी के पिता हैं चले गए बाहर
कंस फिर मुख देखनें की कोशिश करनें लगा पर सूर्य का सा तेज़ उसकी आँखों को सहन नही हो रहा था
उसनें सोचा – इस लड़की के पैर पकड़ कर फेंक दूँ बाहरतभी मर जायेगी ।
श्रीराधा रानी के चरण पकड़नें के लिये जैसे ही वो बढ़ा
अल्हादिनी नें अपनें चरण बस थोड़े क्या हिलाये
ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ
टूटी खिड़कियांउसमें से कंस उड़ा और सीधे मथुरा में जाकर गिरा ।
जब खिड़कियों के टूटनें की आवाज आयीभागे सब श्रीराधा रानी के पालनें की ओर पर , पर लाली तो मुस्कुरा रही है और अपनें दोनों चरणों को फेंक रही हैं किलकारियां मार रही हैं ।
कंस कहाँ गया ? बृषभान जी नें इधर उधर देखा खिड़की टूटी है खिड़की के पास गएओह इसमें से गया कंस ?
गया नही भानु बाबा हमारी लाली से फेंक दिया जोर से चरण प्रहार किया कि वो तो उड़ गया ये कहते हुए ताली बजाकर हँसी वो बालिका चित्रा सखी ।
अंतरिक्ष से कंस की इस स्थिति को देखकर नारद जी हँसते हँसते लोट पोट हो गए थे कमर टूट गयी थी कंस की पर इस बात को उसनें किसी को नही बताया बता भी कैसे सकता था ।
हे वज्रनाभ अब धीरे धीरे श्रीराधा रानी बड़ी होनें लगीं ।
महर्षि शाण्डिल्य नें आनन्दित होते हुए कहा ।
श्रीराधाचरितामृतम् – भाग 12
( श्रीराधारानी का प्रथम प्रेमोन्माद )
जब तक तुम्हारा अन्तःकरण पिघलेगा नही तब तक आल्हादिनी का प्राकट्य कैसे होगा ? याद रहे अन्तःकरण जितना कठोर होगा आप “प्रेम” से उतनें दूर हो बहुत दूर ।
और प्रेम से दूर का मतलब ब्रह्म से दूर ब्रह्म से दूर मतलब अपनें आपसे दूरविचार करो हे वज्रनाभ प्रेम ही सर्वस्व है ।
गंगा गंगा तभी है जब उसमें शीतलता, पवित्रता, और मधुरता हो और अगर ये तीनों चीजें नही हैं तो गंगा गंगा नही है अगर अमृत में माधुर्य नही हैं तो अमृत कैसे अमृत हो सकता है ऐसे ही कृष्ण रूपी ब्रह्म में अगर राधा नही है तो वह कृष्ण भी अधूरा ही है कहो – वह कृष्ण, पूर्ण कृष्ण नही है ।
क्या ब्रह्म में आवश्यक नही कि आल्हाद हो वही आल्हादिनी शक्ति ही तो राधा के रूप में प्रकट है इस बात को स्पष्ट समझो हे वज्रनाभ प्रेम जब बढ़ता है तब एक उन्माद सा छा जाता है नही नही इस पथ में बुद्धि का प्रयोग निषेध है बुद्धि को छोड़ दो पहले फिर मेरी बात को समझोगे ।
महर्षि शाण्डिल्य आज प्रेम की और गहराई में उतार रहे थे हाँ प्रेम का पागलपन एक अलग आनन्द प्रदान करता हैजो इस प्रेम के उन्माद में डूब गया वो मुक्त हो गया उसे मिल गया मोक्ष
पर नही प्रेमियों नें कब माँगी मुक्ति प्रेमियों नें कब माँगा मोक्ष अरे इन्हें तो अब इस प्रेम के बन्धन में ही इतना आनन्द आरहा है कि हजारों मुक्तियाँ न्यौछावर हैं इस प्रेम के बन्धन में ।
वो सहज देहातीत हो जाता है वो प्रेमी बहुत उच्च कोटि का परमहंस हो जाता हैवो रोता है उसके आँसू गिरते हैं प्रेम के तो उन आँसुओं को अपनें में पाकर पृथ्वी धन्य हो जाती है ।
जब अपनें प्रियतम का नाम लेकर वो प्रेमी ऊँची साँस छोड़ता है तो उन पवित्र साँसों से दिशाएँ पवित्र हो जाती हैं
अरे वज्रनाभ इतना ही नही ऐसा प्रेमी जब गंगा स्नान को जाता है तो गंगा अपनें को धन्य समझती है तीर्थ , सही में तीर्थ हो जाता है ।
वह गिरता है वो उठता है पर लड़खड़ाते हुए फिर अपनें प्रियतम को पुकारनें लगता है तो उस के आनन्द को , नीरस तर्क वितर्क में पड़े लोग क्या जानें ?
हे वज्रनाभ सुनो अब – श्रीकृष्ण के प्रेम नें जो आकार लिया श्रीराधा के रूप में उनका ये प्रथम प्रेमोन्माद
महर्षि शाण्डिल्य आज स्वयं प्रेम उन्मादी लग रहे हैं ।
बड़ी हो रही हैं श्रीराधारानीऔर उनकी सखियाँ भी ।
सखियों में ललिता विशाखा रँगदेवी सुदेवी इत्यादि अष्ट सखियाँ हैं ।
कुञ्जों में विहार करना कुञ्जों में फूल बीनना मोर का नृत्य देखनायही सब प्रिय हैं इन्हें ।
आज चलते चलते बरसानें से कुछ दूरी पर एक दिव्य वन में सखियों के साथ “श्रीजी” पहुंचीं ।
आहा कितना सुन्दर वन है ये नाच उठीं वो “कीर्ति कुमारी” देख ललिते इस वन की शोभा को नाना प्रकार के पुष्प खिले हैं और देख इनमें भौरों का गुँजार कितना मधुर लग रहा है और ये गुलाब , जूही वेला मालती ।
और उधर देख उछल पडीं “भानु की लली” वो देख रँगदेवी मोरों का झुण्ड यहीं आरहा है ।
और उधर देख सुदेवी वो रहे शुक कितनें सुन्दर लग रहे हैं और उधर वो मैना आहा बता ना इस वन का क्या नाम है ? मुझे तो ये वन बहुत प्रिय लग रहा है ललिते तू ही बता श्रीराधा रानी को नाम जानना है इस वन का ।
तब ललिता सखी नें आगे बढ़कर बताया इस वन का नाम है “वृन्दावन” ।
वृन्दावन वृन्दावन वृन्दावन नाम लेनें लगीं श्रीराधा जी ।
सुना नाम लगता है कितना प्यारा नाम है ना ये कहते हुए नाच उठीं तभी –
राधे देखो उधर यमुना के किनारे ?
रँगदेवी सखी नें उस ओर दिखाना चाहा ।
क्या है बड़े भोले पन से श्रीराधा नें चौंक कर पूछा ।
अरे प्यारी उधर देखो यमुना में नील कमल के अनगिनत फूल
हाँ कितनें सुन्दर हैं ना ये फूल कितनें अच्छे लग रहे हैं ना ये नीलकमल श्रीराधा रानी नें दौड़ कर एक कमल तोड़ लिया ।
जैसे इस नील कमल का रँग है नाऐसा ही रँग “कृष्ण” का भी है ।
ललिता सखी नें सहजता में बोल तो दिया पर
क्या “कृष्ण” फिर बोल सखी क्या कहा – “कृष्ण” ?
आहा कितना प्यारा नाम है मैने इस नाम को पहले भी कहीं सुना है कितना सुन्दर नाम है “कृष्ण” ।
पर ये क्या इस नाम को सुनते ही श्रीराधा रानी के नेत्र बरसने लगे मुखमण्डल में हास्य है और नेत्रों में आँसू ?
ये क्या हो गया सखियाँ दौड़ी अपनी श्रीकिशोरी जी के पास ।
पर सखियों नें जब सम्भाला तब तक देर हो चुकी थी ये प्रेमोन्माद श्रीराधा का बढ़ चुका था ।
ललिते मुझे क्या हो रहा है देख ना मैं इस तरह क्यों उन्मादग्रस्त हो रही हूँइस “कृष्ण” नाम में ऐसा क्या है ।
अपनी गोद में सम्भाले श्रीराधा को जैसे तैसे वृन्दावन से बरसाना ले आईँ सखियाँ पर महल में आते ही सामने खड़ी थी एक और सखी जिसका नाम था “चित्रा” ।प्यारी देखो मैने एक चित्र बनाया है बहुत सुन्दर चित्र है आपको दिखानें ही लाई हूँ और हाँ बड़ी ठसक से फिर छुपाया चित्र को चित्रा सखी नें जिसका ये चित्र हैं ना उसी के सामनें बैठकर मैने ये बनाया है वो मेरे सामनें था और मैं उसे देख रही थी श्रीराधा रानी अपने पलंग में लेट गयीं और चित्रा उनसे बोले जा रही थी ललिता विशाखा रँग देवी सुदेवी ये सब वहीँ थीं ।
तुम धीरे बोलो चित्रा देख नही रही हो “लाडिली” कितनी थक गयीं हैंललिता इत्यादि सभी सखियों नें चित्रा को समझाना चाहा हाँ हाँ तुम्ही चिपकी रहो “लाडिली” सेमैं बस पाँच मिनट के लिये क्या आगयी कष्ट होनें लगा तुम्हे ?
चित्रा नें जब तेज़ आवाज में ये सब कहा तब सब चुप हो गयीं फिर भोली श्रीराधिका नें भी कह ही दियाअच्छा बता बात क्या है ? मुझे चित्र दिखानें आयी है ना चल दिखा
ना ऐसे नही पहले मेरी पूरी बात सुननी पड़ेगी उस चित्र को फिर छुपा लिया चित्रा सखी नें ।
अच्छा बता क्या बात है बैठ गयीं उठकर श्रीराधा रानी ।
मेरी बहुत इच्छा थी की मैं उनके दर्शन करूँउस नीलमणी के
चित्रा सखी बतानें लगी ।
वो चोर है वो माखन चुराता है पर वो तो हृदय भी चुरा लेता है ।
आज सुबह ही आगये थे हमारे यहाँ बृषभान बाबा और कहनें लगे गोकुल जा रहा हूँ चित्रा बेटी तुम चलो मेरे साथ वहाँ नन्द नन्दन का चित्र बनाना है मुझे विशेष रूप से कहा है बृजपति नन्द नेंचलो शाम तक आजायेंगे ।
मैं खुश हो गयी मैं उनकी शकट में बैठगयी और
आँखें बन्दकर चित्रा बोली ।और क्या ? श्रीराधा नें पूछा ।
वो नन्द का छोरा मेरे सामनें बैठ गया मुझे उसका चित्र बनाना था कितना सुन्दर है आहा
अच्छा अच्छा अब चित्र दिखा और जाश्री राधा सोयेंगी ।
ललिता नें फिर समझा कर कहा ।
अच्छा देखो ये मैने बनाया है उस नन्द के छोरे का चित्र ।
मटकती हुयी बोली चित्राऔर श्रीराधा के सामनें रख दिया चित्र ।
ये ? इसे मैं जानती हूँ ओह कितना सुन्दर है ये मेरा हृदय खींच रहा है ये तो श्रीराधा फिर उन्माद से भर गयीं नेत्रों से अश्रु फिर बहनें लगे ये मेरे हृदय को चीर रहा है मेरे हृदय में ये अपनी जगह बना रहा है कौन है ये ? श्रीराधा चीत्कार कर उठीं ।
अपनें आपको सम्भालो हे राधे विशाखा सखी आगे आईँ सम्भालो अपनें आपको
कुछ देर के लिए शान्त हुयीं श्रीराधा पर
विशाखा मैं तो आर्य कन्या हूँ ना मुझे तो एक ही के प्रति प्रेम होना चाहिए ना तभी तो मैं पर ये राधा तो बिगड़ रही है देखो कृष्ण नाम सुना तो मैं पागल सी हो गयी और फिर इस दूसरे का चित्र देखा तो मैं फिर उन्मादी हो उठी ये गलत है ये ठीक नही है मैं तो पतिव्रता कीर्तिरानी की पुत्री हूँ ना फिर ऐसे मेरा मन दो दो पुरुषों में कैसे चला गया धिक्कार है मुझेये गलत हो रहा है मेरे साथनही नही ।
चित्रा सखी समझ गयीअन्य सखियाँ भी समझ गयी कि “कृष्ण नाम” से प्रेम हुआ राधा का फिर इस चित्र के “नन्दनन्दन” से भी प्रेम हो गयाजिसे गलत मान रही हैं श्रीराधा रानी ।
ताली बजाकर हँसीं सब सखियाँ आप गलत कैसे हो सकती हो आप गलत हो ही नही अरी मेरी भोरी राधे जिनका चित्र आपनें देखा है यही तो कृष्ण हैं इन्हीं का नाम कृष्ण है इसलिये आप ऐसा मत सोचो की आप दो अलग अलग व्यक्तियों से प्रेम कर बैठी हो कृष्ण इन्हीं का नाम है ।
इतना सुनते ही चित्रा के हाथों से उस चित्र को लेकर श्रीराधा नें अपनें हृदय से लगा लिया और आनन्दित हो उठीं ।
हे वज्रनाभ प्रेम की गति टेढ़ी है इसे तुम सीधी चाल नही चला सकते ये है ही प्रेम ओह
अभी मिलन नही हुआ है अभी श्रीराधा रानी नें देखा नही कृष्ण को पर नाम सुनते ही चित्र में देखते ही प्रेम उछलनें लगा आल्हाद यानि “आनन्द की हद्द”
सुनो सुनो वज्रनाभ एक बात और सुनोमहर्षि शाण्डिल्य बोले प्रेमी रोते हैं पछाड़ खाते हैं चीखते हैं चिल्लाते हैं तो ऐसा मत सोचना कि ये बेचारे हैंइन्हें कष्ट हो रहा है नही ये तो आनन्द की हद्द में जी रहे हैंअरे “बेचारे” तो वे हैं जिन्हें प्रेम की एक छींट भी अभी तक नही पड़ी ।
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 13
( “प्यारी ही को रूप मानों प्यास ही को रूप है” )
बन्धन सुन्दर नही होते कुरूप ही होते हैं
पर हे वज्रनाभ एक ही बन्धन है जो सुन्दर है “प्रेम का बन्धन“।
दुनिया को मुक्ति बाँटनें वाला स्वयं बन्धन में बंध गया क्या दिव्य लीला हैऔर मैने तुम्हे बताया नालीला का कोई उद्देश्य नही होता लीला का एक मात्र उद्देश्य हैअपनें भीतर की आल्हादिनी शक्ति को जगाना क्यों कि वही प्रेम हैऔर वही ब्रह्म को भी बांध सकती है ।
इस प्रेम की गति को “विचित्रा गति” कहते हैं महर्षि शाण्डिल्य “श्रीराधा चरित्र” को आगे बढ़ाते हुये बोलेहे वज्रनाभ
साधारण बात को ही समझो “भौंरा लकड़ी में भी छेद करनें की हिम्मत रखता है पर वही भौंरा जब कमलपुष्प में बन्द हो जाता है तब वह उस अत्यन्त कोमल कमल के फूल को भी तोड़ नही पाता ये क्यों है ? यही है प्रेम की “विचित्रागति” है ।
जिन आँखों में अब प्रियतम बैठ गया उन आँखों में अब काजल भी नही लगा सकती वो प्रेमिन कहते कहते रुक गए महर्षि शाण्डिल्य फिर कुछ देर बाद बोलेकाजल तो साकार वस्तु है अरे जिन आँखों में प्रियतम बैठ गया है उन आँखों में तो नींद भी नही ठहर सकती नींद कहाँ ? प्रेमिन की आँखों में नींद के लिये जगह कहाँ वहाँ तो प्रियतम आ बैठा है ।
वैसे जरूरत भी नही है काजल या नींद कीक्यों की प्रियतम नें ही इन सबकी कमी पूरी कर दी हैकज्जल बनकर नयनों में लग गया है प्रियतमऔर प्रियतम ही मीठी नींद बनकर बस गया है इसलिये उस बाबरी प्रेमिन को जरूरत नही है काजल और नींद कीमहर्षि शाण्डिल्य स्वयं इस “श्रीराधा चरित्र” के “प्रेम सरोवर” गोता लगा रहे हैंऔर वज्रनाभ को भी खींचना चाहते हैं ।
बृजरानी यशोदा दौड़ रही हैं पर कृष्ण उनके हाथों में आही नही रहे ।
हाथ में छड़ी है मैं तुझे छोडूंगी नही मैं तुझे आज पीटकर ही रहूँगी परेशान कर रखा है सुबह से बृजरानी यशोदा का स्थूल शरीर है ये आज तक कभी इस तरह दौड़ीं ही नहीं उनके केश पाश खुल गए हैं उनमें से फूल झर गए और वे सब फूल धरती पर पड़े मानों रो रहे हैं अरे मैया बृजरानी से हम अलग हो गए हमारा दुर्भाग्य ।
साँसे फूल रही हैं थक गयीं हैं पसीनें चुचानें लगे थे ।
पर ललिते बृजरानी दौड़ क्यों रही हैं ? और कृष्ण नें ऐसा किया क्या ?
नन्द महल की सारी मटकियां तो तोड़ दीं कृष्ण नें ललिता सखी नें श्रीराधा रानी को बताया ।
अब तो “कृष्ण चर्चा” का व्यसन लग गया है श्रीराधा को ।
जब से “कृष्ण” नाम सुना है और चित्रा सखी के द्वारा बने “कृष्ण” के मनोहारी चित्र के दर्शन किये हैं बस कृष्ण के बारे में ही सुनना चाहती हैंऔर सुनानें वाली हैं ललिता सखी ये अष्ट सखियों में प्रमुख हैं ये कभी श्रीराधा को अकेली छोड़ती नही हैं ये वीणा बहुत सुन्दर बजाती हैं और संगीत के रागों में इन्हें भैरव राग बड़ा ही प्रिय लगता है ये “कृष्ण लीला” वीणा में गाकर सुनाती रहती हैं श्रीराधा को ।
बरसानें क्षेत्र अंतर्गत ही गोवर्धन वृन्दावन , नन्दगाँव इत्यादि आते हैं इनके अधिपति बृषभान जी ही हैं ।
वृन्दावन विशुद्ध वन था गोचर भूमि थीवहाँ न कोई महल था न वहाँ कोई लोग रहते थे प्रकृति नें अपनी सम्पूर्ण सुन्दरता इसी वन को दे दी थीबरसानें से नौका लेकर अपनी सखियों के साथ श्रीराधा रानी अब नित्य वृन्दावन आनें लगीं ।
और यहाँ खेलतीं फूल बीनतीं मोर का नृत्य देखतीं फिर उन्हीं मोर की नकल करते हुए नाचतीं कोयल से गायन में स्पर्धा करतींपर कहाँ श्रीराधा और कहाँ ये कोयली चुप कोयली को ही होना पड़ता तोता को अनार के दानें खिलातीं ।
पर जब “कृष्ण” नाम याद आते ही
“तुम सब सखियों फूल बीनों मैं थोडा नौका में बैठती हूँ – एकान्त मेंऐसा कहते हुये नौका में बैठनें के लिये चली जातींपर जाते जाते नीलकमल का एक पुष्प तोड़ते हुये ले जातींऔर उस पुष्प को अपनें कपोल में छूवाते हुये कृष्ण की भावना में खो जातीं ।
राधे राधे श्रीजी लाडिली
दूर से ही एक सुन्दर से हंस को पकड़ कर ले आयी थी ललिता सखी और पुकारते हुयी आरही थी ।
आजा यहीं आ श्रीराधा नें भी बुला लिया ।
हंस को श्रीराधा रानी की गोद में देकर बैठ गयी ललिता सखी ।
ललिते मन उदास है श्रीराधारानी नें कहा ।
पर क्यों ? क्या हुआ देखो प्यारी कितना सुन्दर वन है ये वृन्दावन और आपको तो प्रिय है ना ये वन ।
हाँ प्रिय तो है पर इस वन में एक कमी है इसलिये कुछ अधूरा सा लगता है ललिते कितना अच्छा होता ना कि वे गोकुल से यहाँ वृन्दावन आजाते और हम हंस को चूम लिया श्रीराधा रानी नें ये कहते हुए ।
ललिता हँसी पर कुछ बोली नही ।
सुन तू वीणा नही लाई आज ?
लाई हूँ ना यहीं नौका में है सुनाऊँ मैं आपको कुछ ?
नही रहनें दे श्रीराधा रानी नें मना कर दिया ।
आपनें अभी तक देखा नही है कृष्ण को तब ये दशा है आपकी अगर आप देख लेंगी तब ? ललिता बोली ।
मैं नही देख पाऊँगी उन्हें मेरी धड़कनें रुक जायेंगी ।
कुछ देर तक कोई नही बोला न श्रीराधा रानी न ललिता सखी ।
पर घड़ी भर बाद ही ललिते सुन ना “तू मुझे गोकुल में अभी क्या हो रहा है ये बता दे” ।
मैं कैसे बता सकती हूँ ? हो आऊँ प्यारी ? आप कहो तो ?
ललिता सखी हँसते हुये बोली नौका है मेरे पास और मैं घड़ी भर में ही पहुँच जाऊँगी गोकुल ।
नही जा मत मुझे यहीं से बता कि गोकुल में कृष्ण क्या कर रहे हैं श्रीराधा रानी नें जिद्द की ।
पर मैं ? ललिता नें असमर्थता प्रकट की ।
पगली तू आँखें बन्द तो कर और गोकुल को याद कर सब प्रत्यक्ष हो जाएगादेख आँखें बन्दकर के एकाग्र कर मन को गोकुल में श्रीराधा रानी नें ललिता को समझाया ।
हे वज्रनाभ ये तो छोटे मोटे सिद्धि वाले लोग भी कर सकते हैं तो ये ललिता इत्यादि तो सिद्धि दात्री हैं सब को सिद्धि प्रदान करनें वाली हैं और वैसे भी प्रेमी अपनें आप में महासिद्ध होता है ।
महर्षि शाण्डिल्य नें वज्रनाभ को समझाया और कहनें लगे
ललिता सखी नें अपनी आँखें बन्द कीं और तभी गोकुल गाँव हृदय में प्रकट हो गया ललिता अन्तश्चक्षु से गोकुल की लीला देखकर श्रीराधा रानी को बतानें लगी थीं ।
कृष्ण घूम जाते हैं बृजेश्वरी यशोदा पीछे भाग रही हैं
कृष्ण गोल गोल घूमते जाते हैं टेढ़े मेढ़े भागते हैंअब चपल कृष्ण के पद जितनी तेज़ी से दौड़ सकते हैं उनकी तुलना में बृजेश्वरी यशोदा वो तो थोड़ी स्थूलकाय भी हैं थक गयीं ।
पसीनें पसीनें हो गयीं साँसें चलनें लगी जोर जोर से ।
पीछे मुड़कर देखा अपनी मैया यशोदा को ओह दया आगयी नन्दनन्दन को “मेरी मैया थक गयी है” ।
खड़े हो गए कृष्ण ब्रजेश्वरी यशोदा नें देखा धीरे धीरे पकड़नें के लिये चलीं उन्हें लग रहा था कि ये मुझे छल कर फिर भागेगा पर नही पकड़ लिया कृष्ण को ।
श्रीराधा सुन रही हैं हे वज्रनाभ ललिता सखी सुना रही हैं जो देख रही हैं वही बता रही हैं ।
इधर देखा न उधरएक जोर से थप्पड़ जड़ दिया गाल में कृष्ण के ।
रो गएआँसू बह चले उन कमल नयन केपर बृजरानी ऐसे कैसे मानतीं आज उपद्रव भी तो कम नही मचाया था कृष्ण नें
हाथ पकड़कर ले गयीं भीतरऊखल के पास खड़ा किया ।
“पिटाई कर तो दी अब तो छोड़ दो बृजरानी कृष्ण को”
गोपियों नें कहना शुरू कर दिया था क्यों की रोते हुये कृष्ण देखें नही जा रहे थे उन गोकुल की गोपियों से ।
जाओ यहाँ से और रस्सी लेकर आओ क्रोध में हैं आज यशोदा रानी ।
गोपियाँ दौड़ींरस्सी लाईंबाँधनें का प्रयास करनें लगीं कृष्ण को यशोदा पर ये क्या ? रस्सी दो अंगुल कम पड़ गयी ।
बड़ी रस्सी लाओ ना बृजरानी का क्रोध कम नही हो रहा ।
और रस्सियाँ लाई गयीं पर कृष्ण नही बंध रहे ।
आँखें बन्दकर के श्रीराधारानी ये प्रसंग सुन रही हैं जो अभी घट रही है गोकुल में ।
और रस्सियाँ लाओ ये जादू दिखा रहा है मुझे अपनी मैया को जादू दिखायेगा रोष में ही हैं यशोदा रानी गोपियों नें ढ़ेर लगा दी रस्सियों की बृजरानी बाँधनें का प्रयास फिर करनें लगीं पर नही ।
इन सब रस्सियों को जोड़ दोगोपियों अब देखती हूँ कि ये कैसे नही बंधेगा बृजरानी नें कहा और सब गोपियाँ गोकुल गांव की, रस्सियों को जोड़नें लगीं ।
नही बंधेगा ये हँसी श्रीराधा रानी ।
नेत्र बन्द हैं श्रीराधा के और हँस रही हैं ये नही बंधेगा ललिते दुनिया की कोई पाश इसे नही बाँध सकती ये गोकुल की रस्सी क्या इसे तो नाग पाश, वरुण पाश , ब्रह्म पाश तक नही बांध सकती ।
फिर ये कैसे बंधेगा ? ललिता सखी नें पूछा ।
ये कैसे बंधेगा ? ललिते देख इतना कहते हुये अपनें केशों को खोल दिया श्रीराधा रानी नें बिखर गए केश बेणी की डोरी निकाली और उस डोरी को ललिता के हाथों में देते हुये बोलीं ललिते तू जा इस नौका को ले और जा गोकुल बृजरानी को प्रणाम करके कहना श्रीराधा नें भेजी है ये डोरी इसी से बाँधों इसे ।
इतना कहकर वो बेणी की डोरी ललिता के हाथों में देती हुयी श्रीराधा नौका से उतर गयीं जल्दी आना ललिते
ललिता सखी नें पतवार चला दी हवा नौका के अनुकूल ही चल पड़ी ललिता को देरी न लगी थी गोकुल पहुंचनें में ।
नाव को किनारे से लगाकर ललिता नन्द भवन की और भागी ।
परेशान थीं नंदरानीललिता सखी गयी और प्रणाम करती हुयी बोली ये श्रीराधा नें डोरी भेजी है बरसानें से आप अपनें लाडले को इससे बाँधे ।
किसनें भेजी है ये डोरी ? श्रीराधा नें ललिता नें फिर कहा ।
कृष्ण मुस्कुराये ललिता की ओर देखा ललिता देख रही है यशोदामैया आगे बढ़ींश्रीराधा के बेणी की डोरी लेकर , कृष्ण को सुगन्ध आयीश्रीराधा के केशों की उस डोरी में सब कुछ भूल गए कृष्ण अरे अपनी ईश्वरता भी भूल गए और बंध गए ।
ललिता सखी ताली बजाकर नाच उठी प्रेम की जय हो ।
ये कहते हुए वो भागी अपनें नाव की ओर नाव को चलाना भी नही पड़ा श्रीराधा के पास में कुछ ही क्षण में पहुँच गयी थी ।
ललिते क्या हुआ ? बंधे मेरे प्यारे
ललिता नें प्रेम भरे हृदय से कहा प्रेम सबसे बड़ा है आज मैने दर्शन कर लिए ईश्वर को भी अगर बाँधनें की ताकत किसी में है तो वह प्रेम है और हे राधे आप उसी प्रेम का साकार रूप हो ।
सन्ध्या हो चुकी थी वज्रनाभ अन्य सखियाँ भी नाव पर आगयीं और नाव अब बरसानें की ओर चल पड़ी ।
परश्रीराधा का मन गोकुल में ही थावो बार बार मुस्कुरा रही थीं ।
हे वज्रनाभ ये प्रेम लीला हैइसे बुद्धि से नही समझा जा सकता ये हृदय का आल्हाद है इतना ही बोल पाये महर्षि शाण्डिल्य ।
प्रेम नदिया की सदा उलटी बहे धार
श्रीराधाचरितामृतम् -भाग 14
( गोकुलवासी चले, वृन्दावन की ओर )
श्रीराधारानी का संकल्प कैसे व्यर्थ जाता हे वज्रनाभ वृन्दावन की कुञ्जों में भ्रमण करते हुये श्रीराधा यहीं विचार करतीं “कृष्ण वृन्दावन आजाते ” कृष्ण को अब वृन्दावन आना ही चाहिये ।
आज ये मनोरथ श्रीराधारानी का पूर्ण हो रहा था ।
महर्षि शाण्डिल्य आज “श्रीराधाचरित्र” को गति दे रहे थे ।
बाबा आप कहाँ जा रहे हो ? प्रातः ही तैयार होकर शकट में बैठकर जा रहे थे बृषभान जी तब उनकी लाड़ली नें पूछा था ।
मेरी लाली बृजपति नन्द नें बुलाया है , गोकुल में सुना है बहुत उपद्रव मचा रखा हैकंस नें वहाँ परबेचारे सब गोकुल वासी दुःखी हैं वहाँ अब उनका रहना दूभर हो रहा है अगर होगा तो मैं आज सन्ध्या तक आजाऊंगाऔर सुनो राधा आज तुम कहीं जाना मत ठीक है ? माथे को चूम लिया बृषभान जी नें अपनी पुत्री का और चल दिए ।
“बाबा जल्दी आना” जोर से बोलीं थीं श्रीराधारानी ।
उस दिन गोकुल में सभा लगी थी नव नन्द वहाँ उपस्थित थे अन्य गोकुल के प्रबुद्ध वर्ग भी थे बृजपति नन्द नें मुझे पहले ही बुलवाया था तो मैं पुरोहित के रूप में वहाँ उपस्थित था ।
पूतना, फिर शकटासुर, तृणावर्त कागासुर और इतना ही नही कल तो हम लोग डर ही गए “अर्जुन वृक्ष” जड़ सहित उखड़ गए थे हमारी बेटी बहुएँ नित्य पूजन करती थीं उस वृक्ष का वर्षो पुराना वृक्ष था वो तभी दूसरा ग्वाला बोल उठा अजी हमारे गोकुल का देवता था वो
और न आँधी आयी न तूफ़ान आयाजड़ सहित उखड़ गए दो दो एक साथ खड़े अर्जुन के वृक्ष अजी छोडो छोटे से कन्हैया को बांध दोगे और उसनें उखाड़ दिया कोई विश्वास भी करेगा ?
पर मुझे तो लगता है कि गोकुल का अधिदेवता ही इस गोकुल को छोड़ कर चला गया है हाँ वो वृक्ष देवता ही था इस गाँव का ।
गुरुदेव आप कुछ बोलते क्यों नही हैं ?
बृजपति नन्द नें मुझ से कहा ।
मैं कुछ सोच रहा था हे वज्रनाभ मैं तो उन आल्हादिनी शक्ति की मनोरथ को जान रहा थाअब प्रेम लीला वृन्दावन में ही होनें वाली थी आल्हादिनी अपनी ओर खींचनें की तैयारी में थीं ।
“हमें ये गोकुल छोड़ देना चाहिये“
मुझे गोलमोल बातों को घुमानें की आदत नही है मैने स्पष्टतः कह दिया ।
“पर हम लोग जायेंगें कहाँ” ?
सब गोकुल वासियों नें साश्चर्य मेरी ओर ही देखा ।
गुरुदेव इस गोकुल को हम छोड़ देंगे आतंक के साये में हम अपनी सन्तति नही रख सकते हम आपकी बात मानते हैंपर गुरुदेव गोकुल गाँव को छोड़कर हम जाएँ कहाँ ?
हे वज्रनाभ मैने शान्त भाव से सभी गोकुल वासियों के सामनें ये नाम लिया वृन्दावन आपलोगों नें नाम सुना होगा इस वन का बहुत सुन्दर वन है प्रकृति नें मानों अपनें आपको न्यौछावर ही कर दिया है इस वन में ।
वृन्दावन ? सब गोकुलवासी एक दूसरे का मुँह देखनें लगे ।
ये वन तो बरसानें के पास में पड़ता है ना ?
बृजपति नन्द नें मुझ से पूछा था ।
हाँ और आपके मित्र बृषभान की देख रेख में ही हैयाद रहे बृजपति सूर्यवंशी हैंबृषभान इसलिये उनसे ज्यादा उलझनें की कंस भी नही सोच सकता आप ज्यादा न सोचें संकट की इस घड़ी मेंआप अपनें मित्र बृषभान को ही यहाँ बुलवा लें ।
मैने सारी बातें वहाँ समझा दी थीं हे वज्रनाभ उस दिन की सभा वहीँ रोक दी गयी और एक दूत भेज दिया गया बरसानें बृषभान जी को गोकुल आनें का सन्देश देने के लिये ।
आइये आइये बृषभान जी
अपनें हृदय से लगाया बृजपति नें , बृषभान को ।
गोकुल के सभी लोग दूसरे दिन की सभा में उपस्थित थे
बरसानें के अधिपति आज पधारें हैंये हमारे मित्र हैं घनिष्ट मित्र इनसे क्या छुपाना बृजपति नें सबके सामनें, अपने मित्र बृषभान को अपनें गोकुल की समस्या बताई
कंस का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा है इस गोकुल में
हमारे बालक हैंउन्हें कभी कुछ हो गया तो ?
अभी तक तो नारायण भगवान की कृपा से हम सब बचते रहे पर अब बड़ा मुश्किल है बृजपति नन्द नें अपनी बात रखी ।
तो बृजपति नन्द जी
आप लोग इस गोकुल गांव को छोड़ क्यों नही देते
बृषभान जी नें सबके सामनें कहा ।
पर कहाँ जाएँ हम ? बृजपति नें प्रश्न किया ।
क्यों क्या आप हमें अपना मित्र नही मानते ?
हमारा बरसाना आप सबके लिए खुला हैआप आइयेआप गोकुल वासी और हम बरसाना वासी मिलकर साथ साथ आनन्द से रहेंगे ।
उदारमना बृषभान जी की बातें सुनकर बृजपति नन्द नें प्रसन्नता व्यक्त की आपका हम सब के प्रति अपार प्रेम है पर हमारी भी बात आप सुन लें नन्द नें बृषभान से कहा ।
देखिये बृषभान जी आप मित्र हैं बृजपति के और अभिन्न मित्रइस बात का गौरव है हम गोकुल वासियों के मन में पर हम लोग चाहते हैं कि हमवृन्दावन में रहेंऔर वृन्दावन आपके क्षेत्र में आता हैइसलिये ही आपको यहाँ आमन्त्रित किया था हमनें ।
हे वज्रनाभ मैने बृषभान जी से ये बातें कहीं ।
पर आप लोग वन में क्यों रहेंगें ?
कितनें उदार मन के हैं बृषभानउन्हें अच्छा नही लग रहा कि बरसानें में इतनें बड़े महल के होते और रातों ही रात में सुन्दर सुन्दर मकान भी बन जायेंगे ये कहना है बृषभान जी का ।
नही आप हमें वृन्दावन में रहनें की आज्ञा दें हमारे लिये यही बहुत है हम लोग हैं ही वन में रहनें के आदी फिर धीरे धीरे बना लेंगें आवास शकट ( बैल गाडी) है ना सबके पास उसी को सजा कर रह लेंगें बृजपति नें बृषभान से कहा बृषभान जी को अच्छा नही लग रहा कि वृन्दावन के पास है बरसाना , फिर भी ऐसे रहेंगें गोकुल वासी
आप चिन्ता न करें बस हमें आज्ञा दें बृजपति नें हाथ जोड़ लिये बृषभान जी के
अरे ये आप क्या कर रहे हैं ऐसे न करेंहृदय से लगा लिया बृजपति नन्द को बृषभान नें ।
सब प्रसन्न हो गए है“गोकुल से चलो वृन्दावन की ओर” सबके सामनें घोषणा हुयी बृजपति के द्वारा ।
युवकों में उत्साह होता ही है नये के प्रति
जाना था बरसानें बृषभान जी को पर एक दिन और रुकना पड़ा ।
क्यों की अब साथ में ही चलेंगे वृन्दावन वहाँ सबको व्यवस्थित करके फिर बृषभान जी जायेंगें बरसानें ।
हजारों शकट सजाई गयीं हजारों नौकाएं भी सजाई गयीं जो यमुना जी से होकर जाएंगेउनके लिये नौका भी तैयार हो गए
साथ में गौओं को भी तो ले जाना था ना ।
मैया हम कहाँ जा रहे हैं ? कृष्ण पूछते हैं बार बार ।
यशोदा के साथ कृष्ण हैं रोहिणी के साथ बलराम हैं ।
हम लोग अब वृन्दावन रहेंगें वहीँ जा रहे हैं ।
बालकों को का क्या उन्हें तो आनन्द ही आरहा है ।
पर ये क्या ?
मथुरा से होकर गुजरे ये गोकुल वासी बृषभान जी नें कहा “यहाँ से सब शीघ्र चलेंकहीं कंस के सैनिक न आजायें” ।
भयभीत से ग्वाले चले जा रहे हैं पर कंस के राक्षसों से बच पाना इतना सरल तो नही था
कंस का मामाउसनें देख लिया वो चिल्लाया “गोकुल वासी गोकुल छोड़ रहे हैं और भाग रहे हैं पकड़ो इन्हें मार दो यमुना में फेंक दो” ।
कंस के सैनिक दौड़ पड़े नौका के पास कुछ कुछ शकट के पास उनके हाथों में नंगी तलवारें थींमारों काटो चिल्लानें लगे थे वे सब ।
बेचारे गोकुल वासी मैं भी साथ में ही चल रहा था गोकुल छोड़कर वृन्दावन की ओरहे वज्रनाभ तभी मैने देखा
एकाएक हजारों भेड़िये न जानें कहाँ से आगये वो सब टूट पड़े कंस के उन राक्षसों के ऊपर फाड़ दिया उन्हें खा गए उन सबकोपता नही कहाँ से आये थे ये और चले भी गए ।
हे नारायण आपनें बचा लियाबृजपति नन्द नें राहत की साँस ली बृजरानी यशोदा नें तो कन्हैया को छुपा लिया था अपनें आँचल में“मैया गए वो लोग ” छुपा हुआ कृष्ण बोल उठाहाँ गए पर अभी तू छुपा रह कहीं फिर आगये तो बृजरानी डर रही हैं ।
अब डरनें की जरूरत नही है ये हमारा क्षेत्र है हम आगये बरसानें के पासऔर वो रहा वृन्दावन बृषभान जी नें सबको बताया।
सब गोकुल वासी उछल पड़े आनन्द से झूम उठे
वो देखो मैया वो देखो मोर नाच रहा है कृष्ण खुश हो गए फिर बोले उसके साथ वो कौन है ?
“लाला वो मोरनी है“
बृजरानी नें अपनें लाल के कपोलों को चूमते हुये कहा ।
ये मोरनी कौन होती है ? सोच में पड़ गए कृष्ण ।
मोरनी होती है मोर की पत्नी हँसते हुए मैया नें उत्तर दिया ।
फिर मेरी पत्नी कहाँ है ?
अब इसका क्या जबाब दे यशोदा ।
मैया बाबा क्यों नही आये दो दिन हो गए हैं ?
श्रीराधा नें अपनी माँ कीर्तिरानी से पूछा ।
गोकुल वासियों को वृन्दावन ले आये हैं तुम्हारे बाबा राधा अब तुम वृन्दावन जाओगी तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी क्यों की सब अपनें हैं वहाँ
और कौन कौन आया है गोकुल से ?
श्रीराधा रानी का मन झूम उठा था ये सुनते ही ।
सब आरहे हैं अरे हाँ राधा तुम अब कृष्ण से खेलना तुम दोनों बहुत अच्छे लगोगे मुस्कुराई कीर्तिरानी ।
पर ये क्या श्रीराधा शरमा गयीं कुछ नही बोलीं और वहाँ से चलीं भी गयीं ।
पर बच के रहना वो चोर है ललिता सखी नें जोर से कहा ।
मत खेलना उसके साथ कहीं तुम्हारे हार मुँदरी ये सब चुरा लिया तो
हट्ट मुस्कुराती हुयी अपनें कक्ष् की ओर भागीं श्रीराधा ।
देखती रही थीं उस रातचन्द्रमा को श्रीराधा रानी ।
कल मैं जाऊँगी वृन्दावन तो मुझे कृष्ण मिलेगें सोचती रहीं ।
श्रीराधाचरितामृतम् – भाग 15
( चिन्मय श्रीधाम वृन्दावन )
किसकी वाणी में सामर्थ्य है जो इस “प्रेमभूमि” की महिमा गा सके ।
धन्य है धन्य है ये भूमि जहाँ भक्ति नाचती है
भाव की भूमि अन्य भी हैं पर वृन्दावन की बात ही अलग है अन्य भाव भूमि में भक्ति वास करती है पर हे वज्रनाभ इस वृन्दावन में भक्ति वास नही करती नाचती है उन्मुक्त भाव से नृत्य करती है ।
ये दिव्य चिन्मय वृन्दावन धाम है इस धाम को अपनी प्रिया श्रीराधारानी के लिये ही इस पृथ्वी में श्रीकृष्ण नें उतारा है यहाँ की भूमि चिन्मय है यहाँ के अणु परमाणु सब चिन्मय हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य आज श्रीधाम वृन्दावन की महिमा गा रहे थे और बड़े भाव में गा रहे थे ।
नाम, रूप, लीला, और धाम ये चार भक्ति के तत्व हैं पर हे वज्रनाभ इन चारों में से एक का भी आश्रय जीव ले ले तो उसका कल्याण है ।
नाम का जाप करे निरन्तर नाम का जाप करता रहेया अपनें इष्ट के रूप का चिन्तन करेये भी नही तो अपनें इष्ट की लीलाओं का गान करते हुये तन्मय हो जाएये भी नही तो धाम वास करेधाम वास करनें मात्र से धामी ( इष्ट) हमारे हृदय में प्रकट हो जाता है हे वज्रनाभ जैसे नाम और नामी में कोई अंतर नही है ऐसे ही धाम और धामी में भी कोई भेद नही है ।
ये श्रीधाम वृन्दावन तो प्रेम की पवित्र भूमि है मुक्ति भी अपनें आपको मुक्त करनें के लिये यहाँ लोटती रहती है ब्रह्म स्वयं इस श्रीधाम वृन्दावन की शोभा को देखकर मुग्ध होता रहता है क्यों की ये स्थल उनकी आराधिका की विहारस्थली है ।
मैं बारम्बार तुमसे कहता रहा हूँ श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैंऔर उनकी जो आत्मा है वो श्रीराधा हैंइसलिये तो वेदों नें ब्रह्म को “आत्माराम” कहा है क्यों की वो अपनी आत्मा में ही रमण करता है और ब्रह्म की आत्मा नें ही आकार लेकर श्रीराधा का रूप धारण किया है ।
जब कृष्ण रूपी ब्रह्म राधा के रूप में परिणत होकर विहार करनें की इच्छा को प्रकट करता है तो विहार कहाँ हो ? हे वज्रनाभ तब स्वयं ब्रह्म ही श्रीधाम वृन्दावन के रूप में प्रकट होता है ।
ये सब ब्रह्म का विलास है ब्रह्म का रास है इस रहस्य को समझो हे वज्रनाभ वृन्दावन में यमुना हैं वो भी ब्रह्म ही हैं स्वयं कृष्ण ही जल के रूप में बह रहा है यमुना बनकर ।
गिरिराज गोवर्धन कृष्ण हैहाँ गोपियाँ कृष्ण हैं
सब कुछ यहाँ कृष्ण ही है पर वही कृष्ण अपनें आपसे मिलनें के लिये जब बैचेन हो उठता है तब राधा प्रकट होती हैं सखियाँ प्रकट होती हैं यमुना प्रकट होती हैं श्रीधाम वृन्दावन प्रकट होता है ।
गोवर्धन गिरिराज स्वयं शालिग्राम हैं और ये सब वृक्ष वनस्पति गण्डकी हैं गण्डकी ही स्वयं वृक्ष और लता बनकर अपनें प्रिय शालिग्राम की सेवा में उपस्थित हुयी हैं यहाँ के कण कण में ब्रह्म है ऐसा है ये दिव्य श्रीधाम वृन्दावन ।
ये बरसानें के पास है पर बरसाना क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है ।
वृन्दावन में गोवर्धन , यमुना ।नन्दीश्वर शैल ( नन्दगाँव ) ये सब बरसानें के भाग हैं ।
हे वज्रनाभ मात्र एक रात्रि भी इस श्रीधाम वृन्दावन में कोई वास करे तो उसे आल्हादिनी श्रीराधा रानी अपना लेती हैं ।
इतना कहकर “श्रीराधाचरित्र” को महर्षि शाण्डिल्य गति देने लगे ।
आहा सम्पूर्ण वृन्दावन कितनी हरीतिमा लिए हुए है
यहाँ असंख्य मोर हैं अनेक रँग बिरंगें पक्षियों का एक अलग ही समूह है देखो बृषभान जी वो गिरिराज पर्वत उसमें से झरनें बह रहे हैं यमुना थी तो गोकुल में भी पर यहाँ की यमुना कुछ अलग ही छटा लिए हुए हैं यहाँ के वृक्ष कितनें घनें और दिव्य हैं फलों से इन वृक्षों की कितनी शोभा हो रही है और फलों के भार से ये झुक भी गए हैं ।
हिरण और हिरणियाँआपस में कितनें स्वच्छन्द विहार कर रहे हैं ।
कन्धे में हाथ रखा बृषभान जी नें अपनें मित्र बृजपति नन्द के
वो देखिये उस पर्वत को आप देख रहे हैं हे मित्र बृजपति
उस शैल का नाम है “नन्दीश्वर शैल” कहते हैं कि भगवान आशुतोष यहाँ आकर निवास करनें लगे थे ।
यहाँ क्यों आये होंगें महादेव नन्द नें बृषभान को पूछा ।
अब ये बात तो गुरुदेव ही बतायेंगें
हे वज्रनाभ मैं उस समय दोनों महान व्यक्तियों की चर्चा सुननें का लोभ त्याग न सका इसलिये उनके पास चला गया था ।
सन्ध्या का समय हो रहा है शकट को रँग विरंगें वस्त्रों से सजा करउसी में रहनें की व्यवस्था बना ली थी समस्त गोकुल वासियों नेंभूख लगी थी सभी को तो भोजन सबनें मिलकर बनाया और सब भोजन ग्रहण कर लिए थे ।
बालक दूर खेल रहे थे ।
क्या कह रहे थे आप बृषभान जी ? मैने पूछा ।
गुरुदेव मैं ये कह रहा था कि इस पर्वत को नन्दीश्वर पर्वत कहा जाता है अब हमनें तो आप जैसे ऋषि मुनियों के मुख से ही सुना है और ये भी सुना है कि अभी भी यहीं निवास करते हैं भगवान शंकर ।
हे वज्रनाभ
मैने उस पर्वत को ध्यान से देखातो मुझे साक्षात् श्रीभूतभावन महादेव ध्यानस्थ दिखाई दिए मैने उन्हें प्रणाम किया तो मेरे साथ भोले भाले नन्द और बृषभान नें भी हाथ जोड़ लिए थे ।
आप एक दो दिन यहाँ रहिये वृन्दावन मेंपर आवास, निवास, महल आप सबका उस पर्वत पर रहे तो कैसा रहेगा ?
बृषभान जी नें इतना ही कहा थाकि मैं तो प्रसन्न हो गयाहे बृजपति नन्द इस स्थान से उत्तम रहनें के लिये और कोई जगह नही है जहाँ हम अभी हैं वृन्दावन में इसे गोचर भूमि और वन ही रहनें दिया जाये यहाँ गौ चारण करनें के लिये ग्वाले आएं यहाँ की हरीतिमा का आनन्द लें इस श्रीधाम का दर्शन करें पर आवास गोकुलवासियों का हम सबका हे बृजपति नन्दीश्वर पर्वत पर ही रखा जाए ।
मेरी बातों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए बृषभान जी और बृजपति ।
कुछ देर बाद बृषभान जी नें आज्ञा माँगी बरसानें जानें कि और दो तीन दिन में “नन्दीश्वर पर्वत” में ही सब लोग रहेंगें ये निश्चित हुआ था ।
मैं प्रणाम करता हूँ महर्षि
मैं ध्यान मग्न था श्रीधाम वृन्दावन कि भूमि में रात्रि कि वेला थी तभी मेरे सामनें एक ज्योतिर्देह वाले दिव्य पुरुष प्रकट हुए ।
आप कौन हैं ? आपतो कोई देव पुरुष लग रहे हैं ?
मैने प्रश्न किया उन देव पुरुष से ।
हाँ महर्षि शाण्डिल्य आपनें ठीक पहचाना मैं देवताओं का शिल्पी विश्वकर्मा हूँ अपना परिचय दिया उन्होंने ।
अच्छा मुझे कोई आश्चर्य नही हुआ की मेरे सामनें शिल्पी विश्वकर्मा खड़े थे ।
कहिये कैसे आना हुआ ?
मैं बात को ज्यादा बढ़ानें के पक्ष में नही था मुझे तो ध्यान में ही इतना रस आरहा था कि विश्वकर्मा मुझे विघ्न लग रहे थे ।
एक प्रार्थना करनें आया हूँ महर्षि वो प्रार्थना की मुद्रा में ही थे ।
हाँ शीघ्र कहो विश्वकर्मा
मुझे झुंझलाहट हो रही थी ।
बस एक प्रार्थना है कि इस वृन्दावन में और जहाँ नन्दनन्दन अपना आवास बनायेंगें नन्दीश्वर पर्वत में मैं अपनी सेवा देना चाहता हूँ मैं दिव्य महल और समस्त गोकुलवासियों के लिये भवन बना देना चाहता हूँ आप कृपा करें ।
विश्वकर्मा की बातें सुनकर मुझे हँसी आयी
उन्होंने मुझ से पूछा भी – आप हंस क्यों रहे हैं महर्षि
हे देव शिल्पी विश्वकर्मा देखो सामनें मैने श्रीधाम वृन्दावन का दर्शन कराया देखो
महादेव शंकर गोपी बने प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उस दिव्य रास की वेला कब आएगी चौंक गए विश्वकर्मा ।
उधर देखो गिरिराज पर्वत की ओर स्वयं नारायण पर्वत बनकर खड़े हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब श्याम सुन्दर मेरे ऊपर अपनी गायों को लेकर चलेंगें
उधर देखो वो पर्वत है ब्रह्माचल पर्वत उसी पर्वत में बरसाना स्थित है देखो उस पर्वत को
ओह स्वयं ब्रह्मा पर्वत के रूप में खड़े हैं “लाडिली श्रीजी” की सेवा में और तुम्हे पता है विश्वकर्मा “श्रीजी” कौन हैं ?
देखो
इतना कहते ही बरसानें में दिव्य प्रकाश छा गया निकुञ्ज प्रकट हो गया एक सिंहासन है उस सिंहासन में तपते हुए सुवर्ण की तरह जिनका गौर वर्ण है उनके आगे पीछे रमा, उमा ब्रह्माणी सब हाथ जोड़े खड़ी हैं अरे स्वयं श्याम सुन्दर दूर खड़े अपनी प्रिया का मुख चन्द्र देखकर मुग्ध हुए जा रहे हैं
पर मुझे मात्र प्रकाश दिखाई दे रहा है मुझे कुछ दिखाई नही दे रहा ।
विश्वकर्मा नें कहा ।
तब हँसे महर्षि शाण्डिल्य ।
ये सब दिव्य हैये सब धाम हैं जो नित्य हैं ये गोलोक निकुञ्ज से ही आये हैं तुम्हारी यहाँ गति नही है विश्वकर्मा ।
पर मैं देवशिल्पी हूँ विश्वकर्मा नें कहा ।
अरे जहाँ स्वयं नारायण पर्वत के रूप में खड़े हैं महादेव और ब्रह्मा भी पर्वत के रूप में हैं वहाँ तुम क्या हो ?
देखो उस नन्दीश्वर पर्वत को महर्षि नें दिखाया ।
हजारों वर्षों से तप कर रहे हैं महादेव पता है क्यों ?
क्यों की श्याम सुन्दर और उनकी आल्हादिनी शक्ति इस स्थल पर कभी विहरेंगें और मैं तब उनके दर्शन करूँगा ।
तुम आगये इस भूमि में विश्वकर्मा तुम आगये इस प्रेमभूमि में यही तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है तुम मात्र दर्शन करोतुम मात्र इस भूमि को प्रणाम करोपर जो भी महल यहाँ होगा कलवह प्रकट होगा उसे कोई बनाएगा नही ।
तो फिर ?
दुःखी हो गए थे विश्वकर्मा उनका देवशिल्पी होनें का अहंकार चूर चूर हो गया था ।
पर दुःखी क्यों होते होद्वारिका बनानें की सेवा तुम्हे ही देंगें श्रीकृष्ण ।
और भैया विश्वकर्मा ये प्रेमनगरी हैयहाँ तो सब चिन्मय ही है ।
इतना कहकर हे वज्रनाभ मैं मौन हो गया था ।
द्वारिका बनानें की सेवा मुझे मिलेगी ये भी सौभाग्य माना विश्वकर्मा नें और सौभाग्य था ये भी ।
विश्वकर्मा प्रणाम करके चले गए वहाँ से ।
पर एक दिन की बात हे वज्रनाभ रात्रि में ही एक दिव्य महल प्रकट हुआ ग्वाल वालों के लिये सुन्दर सुन्दर भवन गायों के लिये सुन्दर शालाएं सुबह उठकर देखा तो नन्दीश्वर पर्वत में दिव्य “नन्दगाँव” उतर आया था ।
हँसे महर्षि शाण्डिल्य सब कुछ यहाँ चिन्मय है
हर कण यहाँ राधा कृष्ण हैं इतना कहते हुये उठे महर्षि शाण्डिल्य और यमुना की बालुका हाथों में ली ये देखो वज्रनाभ
एक कण काला है और एक कण गौर है काला कृष्ण है और गौर श्रीराधा हैं इतना कहते ही भाव समाधि में चले गए थे महर्षि ।
वृन्दावन सों वन नही, नन्दगाँव सों गाँव, बंशीवट सों वट नही, श्रीराधा नाम सों नाम