गीताप्रेस गोरखपुर में पूज्य श्रीहरि बाबा महाराज की एक डायरी रखी है उसमें बाबा के द्वारा हस्तलिखित लेख है। उसमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव के जीवन की घटना लिखी है वृन्दावन की सेवा कुञ्ज की घटना है–
सेवा कुञ्ज में एक बार बाबा ने रात बिताई कि देखूँ तो सही क्या रास होता भी है ?
एक दिन रातभर रहे कुछ नही दिखा तो मन में यह नही आया की यह सब झूठ है।
दूसरे रात फिर बिताई मन्दिर बन्द होने पर लताओं मेंं छुप कर रात बिताई उस रात कुछ न के बराबर मध्यम-मध्यम सा अनुभव हुआ। एकदम न के बराबर उस दिव्य संगीत को सुना लेकिन उस संगीत की स्वर-लहरियों का ऐसा प्रताप हुआ की बाबा मूर्छित हो गये।
जब सुबह चेतना में आये तो सोचा कि अब दर्शन तो करना ही है ऐसा संकल्प ले लिया। बाबा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक बार और प्रयास किया की देखूँ तो सही रास कैसा होता है ?
तीसरी रात श्रीहरिबाबा के पूज्य गुरुदेव लताओं के बीच कहीं छुप गये आधी रात तक उन्होंने लिखा कि कही कुछ दर्शन नही हुआ। परन्तु प्रतीक्षा में रहे। कहते है मध्य रात्रि होने पर निधिवन (सेवाकुञ्ज) में एक दिव्य सुगन्ध का प्रसार होने लगा ; एक अलौकिक सुगन्ध। अब बाबा सावधान हो गये समझ गये की लीला आरम्भ होने वाली है ; बाबा अब और सावधानी से बैठ गये।
कुछ समय बाद बाबा को कुछ धीरे-धीरे नूपुरों के झन्कार की आवाज आने लगी। छण-छण-छण बाबा को लगा कोई आ रहा है। तब बाबा और सावधान हो गये बाबा ने और मन को संभाला और गौर से देखने का प्रयास जब किया।
बाबा ने देखा की किशोरीजी-लालजी के कण्ठ में गलबहियाँ डालकर धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाकर सेवा कुञ्ज की लताओं के मध्य से आ रही हैं। बाबा तो देखकर आश्चर्यचकित हो गये।
बाबा और सम्भल गये और बाबा ने लिखा आज प्रियाजी को देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा है आज प्रिया जी प्रत्येक लता के पास जाकर कुछ सूंघ रही थी।
लाला ने पूछा–‘हे किशोरीजी आप हर एक लता के पास क्या सूंघ रही हैं ? क्या आपको कोई सुगन्ध आ रही है ?’
श्रीकिशोरीजी ने कहा–‘लालजी आज हमें लगता है की हमारे आज इस निकुञ्ज वन में किसी मानव ने प्रवेश कर लिया है हमें किसी मानव की गन्ध आ रही है।’
इतना सब सुनकर बाबा की आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे। बाबा के मन में भाव आया कि सेवा कुञ्ज में प्रिया-प्रियतम विहार कर रहे है क्यों न जिस मार्ग पे ये जा रहे हैं उस मार्ग को थोड़ा सोहनी लगाकर स्वच्छ कर दूँ।
बाबा ने कल्पना कि नही-नही अरे अगर मार्ग को सोहनी से साफ किया तो मैने क्या सेवा की ? सेवा तो उस सोहनी ने की मैने कहाँ की तो फिर क्या करूँ ?
कल्पना करने लगे क्यों न इन पलकों से झाड़ू लगाने का प्रयास करूँ फिर ध्यान आया अगर इन पलकों से लगाऊँगा तो इन पलकों को श्रय मिलेगा आखिर फिर क्या करूँ ?
आँखों से अश्रु प्रवाह होने लगा कि मैं कैसे सेवा करूँ आज साक्षात प्रिया-प्रियतम का विहार चल रहा है मैं सेवा नही कर पा रहा कैसे सेवा करूँ ?
उसी क्षण प्रिया जी ने कहा–‘लालजी आज हमारे नित्यविहार का दर्शन करने के लिये कोई मानव प्रवेश कर गया है ? किसी मानव की गन्ध आ रही है।’
उधर तो बाबा की आँखों से अश्रु बह रहे थे, और इधर लालजी प्रियाजी के चरणों में बैठ गये लालजी का भी अश्रुपात होने लगा!
प्रियाजी ने पूछा–‘लालजी क्या बात है ? आपके अश्रु कैसे आने लगे ?’
श्रीजी के चरणो में बैठ गये श्यामसुन्दर नतमस्तक हो गये तब कहा–‘श्रीजी आप जैसी करुणामयी सरकार तो केवल आप ही हो सकती है। अरे! आप कहती हो की किसी मानव की गन्ध आ रही है!!
हे! श्रीजी जिस मानव की गन्ध आपने ले ली हो फिर वो मानव रहा कहाँ, उसे तो आपने अपनी सखी रूप में स्वीकार कर लिया।’
श्रीजी ने कहा–‘चलो फिर उस मानव की तरफ।’
बाबा कहते है–‘मैं तो आँख बन्द कर ध्यान समाधी में रो रहा हूँ कि कैसे सेवा करूँ? तभी दोनों युगल सामने प्रकट हो गये और बोले–‘कहे बाबा रास देखने ते आयो है ?’
न बाबा बोल पा रहे ; न कुछ कह पा रहे हो; अपलक निहार रहे हैं।
श्रीजी ने कहा–‘रास देखते के ताय तो सखी स्वरुप धारण करनो पड़ेगो। सखी बनैगो ?’ बाबा कुछ नही बोले।
करुणामयी सरकार ने कृपा करके अपने हाथ से अपनी प्रसादी ‘चन्द्रिका’ उनके मस्तक पर धारण करा दी।
इसके बाद बाबा ने अपने डायरी में लिखा, इसके बाद जो लीला मेंरे साथ हुई न वो वाणी का विषय था न वो कलम का विषय था।
यह सब स्वामीजी की कृपा से निवृत-निकुञ्ज की लीलायें प्राप्त होती है। स्वामीजी के रस प्राप्ति के लिये इन सात को पार करना होता है–
काम्यक वन में ललिता कुण्ड है जिसमें ललिता जी स्नान किया करती थी, और सदा राधा और कृष्ण को मिलन की चेष्टा करती थी। एक दिन ललिता जी बैठे-बैठे हार बनाती है और बनाकर तोड देती, हर बार यही करती फिर बनाती और फिर तोड़ देती। फिर बनाती है फिर तोड़ देती है। नारद जी उपर से ये देखते है, तो आकर ललिता से पूछते है–‘आप ये क्या कर रही हो ?’
ललिता जी कहती है–‘मै कृष्ण के लिए हार बना रही हूँ।’ नारद जी ने कहा–‘हाँ वह तो मै देख ही रहा हूँ परन्तु आप बार बार बनाती है और तोड़ देती है–ऐसा क्यों ?’ ललिता जी कहती है–‘नारद जी ! मुझे लगता है कि ये हार छोटा होगा कृष्ण को, तो मैं तोड कर दूसरा बनाती हूँ, पर फिर लगता है कि ये बडा ना हो, तो उसे भी तोड देती हूँ–इसीलिए में बार-बार बनाकर तोडती हूँ।’ नारद जी कहते है–‘इससे तो अच्छा है कि भगवान को बुला लो और उनके सामने हार बना दो।’ नारदजी भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर कहते हैं–‘आज मुझे ललिता-कृष्ण की लीला देखनी है, कृष्ण और ललिता जी को नायक-नायिका के रूप में देखना है।’ और नारदजी श्रीकृष्ण को ले आते है ललिताजी के पास। ललिता जी उनके नाप का हार बनाकर पहना देती हैं। श्रीकृष्ण ललिता जी से कहते है–‘आओ! मेरे साथ झूले पर बैठो।’ ललिता जी कहती हैं–‘अभी राधा जी आती होगीं–वे ही बैठेगी। श्रीकृष्ण के जिद करने पर ललिता जी बैठ जाती है, क्योंकि गोपियों का उद्देश्य भगवान का सुख है। नारद जी दोनों को झूले में देखकर बडे प्रसन्न होते हुए जाते हैं और वहाँ से सीधे राधा जी के पास आकर उनसे सामने ही गाने लगते है–‘कृष्ण-ललिता की जय हो!, कृष्ण-ललिता की जय हो!’ राधा जी कहती हैं–‘क्या बात है नारद जी ? आज कृष्ण-ललिता जी की जय कर रहे है।’ नारद जी कहते है–‘अहा ! क्या प्यारी जोडी है, झूले में ललिता और कृष्ण की। देखकर आनन्द आ गया।’ और नारद जी वहाँ से चले जाते है। जब राधा रानी ये बात सुनती है तो उन्हें रोष आ जाता है, और वो झट ललिता कुण्ड में आकर देखती है कि कृष्ण ललिता जी के साथ झूला झूल रहे है और सारी सखियाँ झूला झुला रही हैं। वे वहाँ से चुपचाप चली जाती हैं। जब बहुत देर हो जाती है और राधा रानी आती नहीं हैं, तो भगवान सोचते है, कि राधा जी अभी तक क्यों नहीं आई ? वे ढूँढने जाते है, देखते है कि राधा जी अपने निकुञ्ज में मान करते हुए बैठी हैं। श्रीकृष्ण उन्हें मनाकर लाते हैं, और वो आकर माधव के साथ झूला झूलती हैं। ललिता-विशाखा सारी सखियाँ झूलाती हैं। राधाजी की इच्छा होती है कि भगवान मेरे साथ-साथ ललिता जी को भी बिठाए झूले पर, राधा जी का इशारा पाकर भगवान अपनी दूसरी ओर ललिता जी को बिठा लेते हैं। अब एक ओर राधाजी बैठी हैं तो दूसरी ओर ललिताजी हैं। सभी सखियाँ झूला रही हैं। कुछ देर बाद राधारानी की इच्छा होती है–दूसरी ओर श्रीकृष्ण विशाखा को बैठाए और मैं झूला झुलाऊँ। भगवान वैसा ही करते है। एक ओर ललिताजी को ओर दूसरी ओर विशाखाजी को बैठा लेते हैं। राधारानी उन्हें झूला झुलाती हैं। वास्तव में लीला मात्र है। जब भगवान कृष्ण चाहते है, कि राधा जी मान करें तो राधा रानी मान की लीला करती हैं। वरना राधा जी के अन्दर मान, द्वेष का लेशमात्र भी नहीं है, कभी किसी भी सखी के प्रति द्वेष या जलन डाह नहीं है। राधा एक भाव है जो प्रेम कि पराकाष्ठा है।
सात-आठ साल की एक लड़की अपने से दो-तीन साल छोटे एक बच्चे को गोद में उठाकर कहीं जा रही थी। लड़की कमजोर और दुबली-पतली थी जबकि उसकी गोद में जो बच्चा था वह काफी हृष्ट-पुष्ट था। इसके बावजूद लड़की तेजी से चली जा रही थी। एक राहगीर ने जब यह देखा तो उसने उत्सुकतावश लड़की से पूछा, ‘बेटा, इतना बोझ उठा कर भी तुम इतनी तेजी से कैसे चल लेती हो?’ ‘बोझ? नहीं यह तो मेरा भाई है।’, लड़की ने राहगीर को एक झटके में जवाब दिया और बिना रुके वह उसी रफ्तार में अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई। इस घटना से आश्चर्य हो सकता है कि एक कमजोर और दुबली-पतली लड़की कैसे अपने जितना या अपने से ज्यादा बोझ उठा लेती है। कारण स्पष्ट है, लड़की अपने भाई को बहुत प्यार करती है। इसलिए उसका भाई उसके लिए बोझ नहीं लगता है। इस प्रसंग से कई चीजें स्पष्ट होती हैं। जिस व्यक्ति, वस्तु या प्राणी को हम मन से चाहते हैं, जिसे प्यार करते हैं, जिसे अपना मानते हैं वह हमें बोझ नहीं लगता। जब कोई अपने लक्ष्य से प्यार करने लगता है तो उसे अपनी परेशानी नजर नहीं आती है। इसके विपरीत प्यार के अभाव में यह संसार हमारे लिए बोझ बना रहता है और इसी से हमारा जीवन भी कष्टमय हो जाता है। अपनेपन से किया गया हर कार्य हमें प्रसन्नता प्रदान करने में सक्षम होता है। बेगार या भार समझकर काम करने से आसान काम भी मुश्किल लगने लगता है और उसमें उत्कृष्टता नहीं आ पाती। व्यक्ति ही नहीं, कार्य से भी हमें प्रेम करना सीखना चाहिए। हमें जीवनयापन के लिए कोई न कोई नौकरी, कला, व्यवसाय अवश्य अपनाना पड़ता है। अपनी नौकरी, कार्य या व्यवसाय से प्यार करना सीख लीजिए । जीवन में खुश रहने, आनंद पाने के लिए अथवा अपनी अर्जित प्रतिभा का सही इस्तेमाल करने के लिए अपनी पसंद की नौकरी, कार्य या व्यवसाय का चुनाव करना ही श्रेयस्कर होता है, लेकिन यह हमेशा संभव नहीं हो पाता और रुचि के अभाव में हम कार्य में आनंद नहीं ले पाते। ऐसे में किया जाने वाला कार्य ही नहीं, अक्सर पूरा जीवन बोझ लगने लगता है। जीवन से प्रसन्नता दूर होती चली जाती है। जीवन को आनंदमय बनाने के लिए पहले तो यही जरूरी है कि हमें जो भी कार्य करना पड़ रहा है, उस कार्य में दक्षता व कुशलता प्राप्त करने की कोशिश की जाए। जो चीजें हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं उनसे घृणा करना अथवा उनकी उपेक्षा करना छोड़कर उनसे प्यार करना शुरू कर दीजिए। दूसरे, उपरोक्त प्रसंग में लड़की अपने भाई को रोज उठाती है और तब से उठा रही थी जब वह बिल्कुल छोटा और हल्का था। उस लड़की की तरह जब हम किसी क्रिया को बार-बार दोहराते हैं तो वह क्रिया न केवल हमारे लिए अत्यंत सरल हो जाती है बल्कि इससे हमारी कार्य करने की क्षमता में भी वृद्धि होने लगती है। तीसरे यदि कोई कार्य हमें नहीं आता लेकिन उस कार्य में विशेष दक्षता अथवा प्रवीणता हासिल करनी है तो उसे प्रारंभ से ही सीखना शुरू कर दीजिए। काम कितना ही कठिन और बड़ा क्यों न हो निरंतर अभ्यास करते-करते वह सरल व सुगम बन जाता है। अभ्यास के साथ-साथ क्षमता में वृद्धि होने लगेगी और कार्य से प्यार भी होने लगेगा, इसमें संदेह नहीं।
श्री राधा रानी के नाम की महिमा अनंत है। श्री राधा नाम को कोई मन्त्र नही है ये स्वयं में ही महा मन्त्र है। श्री राधारानी के नाम का इतना प्रभाव की सभी देवता और यहाँ तक की भगवान भी राधा जी को भी भजते है, जपते है। आपने कभी किसी भगवान को किसी महाशक्ति के पैर दबाते हुए देखता है। पर साक्षात भगवान श्री कृष्ण जी राधा रानी के चरणो में लोट लगते है। आइये किशोरी जी के नाम की महिमा को जानिए।
श्री राधे रानी बरसाने वाली है। सभी कहते है-
राधे, राधे, राधे , बरसाने वारी राधे। क्योंकि श्री राधारानी साक्षात कृपा करने वाले है। वो गरजने वाली नही है। क्योंकि जो गरजते है वो बरसते नहीं। लेकिन हमारी प्यारी राधारानी बरसाने वारी है। वो बस अपनी कृपा भक्तों पर बरसाती रहती है। ब्रजमंडल की जो अधिष्ठात्री देवी हैं,वो हमारी श्यामा जी श्री राधा रानी हैं! आप जानते हो श्री राधारानी के नाम का जो आश्रय लेते है उसके आगे भगवन विष्णु सुदर्शन चक्र लेके चलते है। और पीछे भगवान शिव जी त्रिशूल लेके चलते है। जिसके दांये स्वयं इंद्र वज्र लेके चलते है और बाएं वरुण देवता छत्र लेके चलते है। ऐसा प्रभाव है हमारी प्यारी श्री राधारानी के नाम का। बस एक बार उनके नाम का आश्रय ले लीजिये। और उन पर सब छोड़ दीजिये। वो जरूर कृपा करेंगी। ___________
राधा रानी कृपा
राधे राधे जपते रहिये दिन और रात। गुरुदेव एक सीधा सा अर्थ बताते है श्री राधा नाम का- राह-दे । जो आपको रास्ता दिखाए वही वो हमारी श्री राधारानी है।
राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है। उनका सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पित है, लेकिन वे बदले में उनसे कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। राधा हमेशा श्रीकृष्ण को आनंद देने के लिए उद्यत रहती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब सर्वस्व-समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन हो जाता है, तभी वह राधा-भाव ग्रहण कर पाता है। इसलिए कृष्णप्रेमरूपीगिरिराज का शिखर है राधाभाव। तभी तो श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने के लिए हर कोई राधारानीका आश्रय लेता है। महाभावस्वरूपात्वंकृष्णप्रियावरीयसी। प्रेमभक्तिप्रदेदेवि राधिकेत्वांनमाम्यहम्॥
जब वृन्दावन की महिमा गाई जाती है सबसे पहले यही बात आती है की राधा रानी के पग पग में प्रयाग बसता है।
श्री राधारानी के पग पग पर प्रयाग जहाँ, केशव की केलि-कुञ्ज, कोटि-कोटि काशी है। यमुना में जगन्नाथ, रेणुका में रामेश्वर, तरु-तरु पे पड़े रहत अयोध्या निवासी हैं। गोपिन के द्वार पर हरिद्वार बसत जहाँ बद्री, केदारनाथ , फिरत दास-दासी हैं। तो स्वर्ग, अपवर्ग हमें लेकर करेंगे क्या, जान लो हमें हम वृन्दावन वासी हैं। _____________
भूमि तत्व जल तत्व अग्नि तत्व पवन तत्व, ब्रह्म तत्व व्योम तत्व विष्णु तत्व भोरी है। सनकादिक सिद्ध तत्व आनंद प्रसिद्ध तत्व, नारद सुरेश तत्व शिव तत्व गोरी है ॥ प्रेमी कहे नाग किन्नरका तत्व देख्यो, शेष और महेश तत्व नेति-नेति जोरी है । तत्वन के तत्व जग जीवन श्रीकृष्ण चन्द्र, कृष्ण हू को तत्व वृषभानु की किशोरी है।
हे राधे करुणामयी शुललिते हे कृष्ण चिंतामणि हे श्री रास रसेश्वरी शुविमले वृन्दावनाधिश्वरि | कान्ते कांति प्रदायनी मधुमयी मोदप्रदे माधवी भक्तानंद समस्तसाख्य सरिते श्री राधिके पातु मां ||
“राधे तू बड़भागिनी , कौन तपस्या कीन्ह । तीन लोक तारन तरन , सो तेरे आधीन ॥ “
ब्रम्हवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने और श्रीराधा के अभेद का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि श्रीराधा के कृपा कटाक्ष के बिना किसी को मेरे प्रेम की उपलब्धि ही नहीं हो सकती। वास्तव में श्रीराधा कृष्ण एक ही देह हैं। श्रीकृष्ण की प्राप्ति और मोक्ष दोनों श्रीराधाजी की कृपा दृष्टि पर ही निभ्रर हैं।
श्री राधा नाम की महिमा का स्वयं श्री कृष्ण ने इस प्रकार गान किया है-“जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’ अक्षर सुन लेता हूँ, उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदान कर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे दौड़(धावति) लगा देता हूँ” ब्रज के रसिक संत श्री किशोरी अली जी ने इस भाव को प्रकट किया है।
आधौ नाम तारिहै राधा।
‘र’ के कहत रोग सब मिटिहैं, ‘ध’ के कहत मिटै सब बाधा॥
स्कंद पुराण के अनुसार राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें ‘राधारमण’ कहकर पुकारते हैं।
पद्म पुराण में ‘परमानंद’ रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है। इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता। यदि श्रीकृष्ण के साथ से राधा को हटा दिया जाए तो श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व माधुर्यहीन हो जाता। राधा के ही कारण श्रीकृष्ण रासेश्वर हैं। भगवान श्री कृष्ण के नाम से पहले हमेशा भगवती राधा का नाम लिया जाता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति राधा का नाम नहीं लेता है सिर्फ कृष्ण-कृष्ण रटता रहता है वह उसी प्रकार अपना समय नष्ट करता है जैसे कोई रेत पर बैठकर मछली पकड़ने का प्रयास करता है। वन्दौं राधा के परम पावन पद अरविन्द। जिनको मृदु मकरन्द नित चाहत स्याम मिलिन्द।।
श्रीमद् देवीभाग्वत् नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि जो भक्त राधा का नाम लेता है भगवान श्री कृष्ण सिर्फ उसी की पुकार सुनते हैं। इसलिए कृष्ण को पुकारना है तो राधा को पहले बुलाओ। जहां श्री भगवती राधा होंगी वहां कृष्ण खुद ही चले आएंगे। __________
भगवान कृष्ण को कौन पसंद है? पुराणों के अनुसार भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि राधा उनकी आत्मा है। वह राधा में और राधा उनमें बसती है। कृष्ण को पसंद है कि लोग भले ही उनका नाम नहीं लें लेकिन राधा का नाम जपते रहें।
जिस दिन कान्हा खडे हुए मैया के सब मनोरथ पूर्ण हुये आज मैया ने गणपति की सवा मनि लगायी है। रात भर बैठ लडडू तैयार किये सुबह कान्हा को ले मन्दिर गयी पूजा करने बैठी और कान्हा को उपदेश देने लगी।
कान्हा! ये जय जय का भोग बनाया है पूजा करने पर ही खाना होगा। सुन कान्हा ने सिर को हिलाया है। ये कह मैया जैसे ही जाने को मुडी इतने मे ही गनेश जी की सूंड उठी उसने एक लडडू उठाया है कान्हा को भोग लगाया है।
कान्हा मूँह चलाने लगे जैसे ही मैया ने मुडकर देखा गुस्से से आग बबूला हुई क्यों रे लाला?
मना करने पर भी क्यों लडडू खाया है इतना सब्र भी ना रख पाया है मैया मैने नही खाया ये तो गनेश जी ने मुझे खिलाया रोते कान्हा बोल उठे।
*सुन मैया डपटने लगी वाह रे! अब तक तो ऐसा हुआ नही इतनी उम्र बीत गयी कभी गनेश जी ने मुझको तो कोई ऐसा फ़ल दिया नही अगर सच मे ऐसा हुआ है तो अपने गनेश से कहो एक लडडू मेरे सामने तुम्हे खिलायें। नही तो लाला आज बहुत मै मारूँगी झूठ भी अब बोलने लगा है । अभी से कहाँ से ये लच्छन लिया है। सुन मैया की बातें कान्हा ने जान लिया मैया सच मे नाराज हुई कन्हैया रोते हुये कहने लगे।
गनेश जी एक लडडू और खिला दो नही तो मैया मुझे मारेगी।* इतना सुनते ही गनेश जी की सूंड ने एक लडडू और उठाया और कान्हा को भोग लगाया। इतना देख मैया गश खाकर गिर गयी और ये तो कान्हा पर बाजी उल्टी पड गयी। झट भगवान ने रूप बदल माता को उठाया मूँह पर पानी छिडका होश मे आ मैया कहने लगी ।
आज बडा अचरज देखा लाला गनेश जी ने तुमको लडडू खिलाया है। सुन कान्हा हँस कर कहने लगे मैया मेरी तू बडी भोली है।
तूने जरूर कोई स्वप्न देखा होगा इतना कह कान्हा ने मूँह खोल दिया अब तो वहां कुछ ना पाया।
भोली यशोदा ने जो कान्हा ने कहा उसे ही सच माना नित्य नयी नयी लीलाएं करते हैं। मैया का मन मोहते हैं मैया का प्रेम पाने को ही तो धरती पर अवतरित होते हैं ।।
गीताप्रेस गोरखपुर में पूज्य श्रीहरि बाबा महाराज की एक डायरी रखी है उसमें बाबा के द्वारा हस्तलिखित लेख है। उसमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव के जीवन की घटना लिखी है वृन्दावन की सेवा कुञ्ज की घटना है– सेवा कुञ्ज में एक बार बाबा ने रात बिताई कि देखूँ तो सही क्या रास होता भी है ? एक दिन रातभर रहे कुछ नही दिखा तो मन में यह नही आया की यह सब झूठ है। दूसरे रात फिर बिताई मन्दिर बन्द होने पर लताओं मेंं छुप कर रात बिताई उस रात कुछ न के बराबर मध्यम-मध्यम सा अनुभव हुआ। एकदम न के बराबर उस दिव्य संगीत को सुना लेकिन उस संगीत की स्वर-लहरियों का ऐसा प्रताप हुआ की बाबा मूर्छित हो गये। जब सुबह चेतना में आये तो सोचा कि अब दर्शन तो करना ही है ऐसा संकल्प ले लिया। बाबा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक बार और प्रयास किया की देखूँ तो सही रास कैसा होता है ? तीसरी रात श्रीहरिबाबा के पूज्य गुरुदेव लताओं के बीच कहीं छुप गये आधी रात तक उन्होंने लिखा कि कही कुछ दर्शन नही हुआ। परन्तु प्रतीक्षा में रहे। कहते है मध्य रात्रि होने पर निधिवन (सेवाकुञ्ज) में एक दिव्य सुगन्ध का प्रसार होने लगा ; एक अलौकिक सुगन्ध। अब बाबा सावधान हो गये समझ गये की लीला आरम्भ होने वाली है ; बाबा अब और सावधानी से बैठ गये। कुछ समय बाद बाबा को कुछ धीरे-धीरे नूपुरों के झन्कार की आवाज आने लगी। छण-छण-छण बाबा को लगा कोई आ रहा है। तब बाबा और सावधान हो गये बाबा ने और मन को संभाला और गौर से देखने का प्रयास जब किया। बाबा ने देखा की किशोरीजी-लालजी के कण्ठ में गलबहियाँ डालकर धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाकर सेवा कुञ्ज की लताओं के मध्य से आ रही हैं। बाबा तो देखकर आश्चर्यचकित हो गये। बाबा और सम्भल गये और बाबा ने लिखा आज प्रियाजी को देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा है आज प्रिया जी प्रत्येक लता के पास जाकर कुछ सूंघ रही थी। लाला ने पूछा–‘हे किशोरीजी आप हर एक लता के पास क्या सूंघ रही हैं ? क्या आपको कोई सुगन्ध आ रही है ?’ श्रीकिशोरीजी ने कहा–‘लालजी आज हमें लगता है की हमारे आज इस निकुञ्ज वन में किसी मानव ने प्रवेश कर लिया है हमें किसी मानव की गन्ध आ रही है।’ इतना सब सुनकर बाबा की आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे। बाबा के मन में भाव आया कि सेवा कुञ्ज में प्रिया-प्रियतम विहार कर रहे है क्यों न जिस मार्ग पे ये जा रहे हैं उस मार्ग को थोड़ा सोहनी लगाकर स्वच्छ कर दूँ। बाबा ने कल्पना कि नही-नही अरे अगर मार्ग को सोहनी से साफ किया तो मैने क्या सेवा की ? सेवा तो उस सोहनी ने की मैने कहाँ की तो फिर क्या करूँ ? कल्पना करने लगे क्यों न इन पलकों से झाड़ू लगाने का प्रयास करूँ फिर ध्यान आया अगर इन पलकों से लगाऊँगा तो इन पलकों को श्रय मिलेगा आखिर फिर क्या करूँ ? आँखों से अश्रु प्रवाह होने लगा कि मैं कैसे सेवा करूँ आज साक्षात प्रिया-प्रियतम का विहार चल रहा है मैं सेवा नही कर पा रहा कैसे सेवा करूँ ? उसी क्षण प्रिया जी ने कहा–‘लालजी आज हमारे नित्यविहार का दर्शन करने के लिये कोई मानव प्रवेश कर गया है ? किसी मानव की गन्ध आ रही है।’ उधर तो बाबा की आँखों से अश्रु बह रहे थे, और इधर लालजी प्रियाजी के चरणों में बैठ गये लालजी का भी अश्रुपात होने लगा! प्रियाजी ने पूछा–‘लालजी क्या बात है ? आपके अश्रु कैसे आने लगे ?’ श्रीजी के चरणो में बैठ गये श्यामसुन्दर नतमस्तक हो गये तब कहा–‘श्रीजी आप जैसी करुणामयी सरकार तो केवल आप ही हो सकती है। अरे! आप कहती हो की किसी मानव की गन्ध आ रही है!! हे! श्रीजी जिस मानव की गन्ध आपने ले ली हो फिर वो मानव रहा कहाँ, उसे तो आपने अपनी सखी रूप में स्वीकार कर लिया।’ श्रीजी ने कहा–‘चलो फिर उस मानव की तरफ।’ बाबा कहते है–‘मैं तो आँख बन्द कर ध्यान समाधी में रो रहा हूँ कि कैसे सेवा करूँ? तभी दोनों युगल सामने प्रकट हो गये और बोले–‘कहे बाबा रास देखने ते आयो है ?’ न बाबा बोल पा रहे ; न कुछ कह पा रहे हो; अपलक निहार रहे हैं। श्रीजी ने कहा–‘रास देखते के ताय तो सखी स्वरुप धारण करनो पड़ेगो। सखी बनैगो ?’ बाबा कुछ नही बोले। करुणामयी सरकार ने कृपा करके अपने हाथ से अपनी प्रसादी ‘चन्द्रिका’ उनके मस्तक पर धारण करा दी। इसके बाद बाबा ने अपने डायरी में लिखा, इसके बाद जो लीला मेंरे साथ हुई न वो वाणी का विषय था न वो कलम का विषय था। यह सब स्वामीजी की कृपा से निवृत-निकुञ्ज की लीलायें प्राप्त होती है। स्वामीजी के रस प्राप्ति के लिये इन सात को पार करना होता है–
प्रथम सुने भागवत, भक्त मुख भगवत वाणी। द्वितीय आराध्य ईश व्यास, नव भाँती बखानी। तृतीय करे गुरु समझ, दक्ष्य सर्वज्ञ रसीलौ। चौथे बने विरक्त, बसे वनराज वसीलौ। पांचे भूले देह सुधि, तब छठे भावना रास की। साते पावें रीति रस, श्री स्वामी हरिदास की॥
आजसे लगभग ५२०४ वर्ष पहले वर्तमान द्वापरयुगके अन्तमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी महाअत्याचारी कंसके कारागारमें पिता श्रीवसुदेवजी एवं माता देवकीजीके पुत्रके रूपमें आविर्भूत हुये थे। उस समय वसुदेव एवं देवकीने चतुर्भुज स्वरूपमें उनका दर्शन किया। चारों हाथोंमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए, वक्षस्थलपर श्रीवत्स चिह्न, गलेमें कौस्तुभ मणि तथा मेघ श्यामल कान्तियुक्त अद्भुत दिव्य बालकको देखकर वे दोनों उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति एवं प्रार्थनासे भगवानने शिशुरूप धारण कर लिया तथा भगवानकी प्रेरणासे ही वसुदेवजी नवजात शिशुको गोदीमें उठाकर गोकुल महावन स्थित नन्दभवनमें रखनेके लिए चल पड़े। कारागारसे निकलते समय उनके हाथोंकी हथकड़ियाँ, पैरोंकी बेड़ियाँ, लोहे के कपाट स्वतः ही खुल गये । प्रहरी सो गये। रिमझिम वर्षा भी होने लगी। सारा मार्ग साफ हो गया। उफनती यमुनाको पारकर वसुदेवजी गोकुल नन्दभवनमें पहुँचे। वहाँ नन्दभवनमें यशोदाजीके गर्भसे द्विभुज श्यामसुन्दर और कुछ क्षण पश्चात् ही एक बालिका भी ( योगमाया) पैदा हुई थी। यशोदा प्रसव पीड़ासे कुछ अचेतन सी थी। वसुदेवजीके गृहमें प्रवेश करते ही द्विभुज कृष्णने वसुदेव पुत्रको आत्मसात् कर लिया। वसुदेवजी इस रहस्यको समझ नहीं पाये। कन्याको गोदमें लेकर चुपकेसे पुनः कंस कारागारमें लौट आये। पहलेकी भाँति कारागारके लौह कपाट बंद हो गये। वसुदेव और देवकीके हाथोंकी हथकड़ियाँ और पैरोंकी बेड़ियाँ पूर्ववत् लग गई। उसी रातमें कंसको पता लगते ही वह पागल सा विक्षिप्त हुआ हाथमें तलवार लेकर कारागारमें उपस्थित हुआ । उसने बहन देवकीके हाथोंसे कन्याको छीन लिया और कन्याके दोनों पैरोंको पकड़कर पृथ्वीपर पटक कर मारना चाहा, किन्तु कन्या अष्टभुजावाली दुर्गाका रूप धारणकर कंसको दुत्कारते हुए आकाश मार्गमें अन्तर्ध्यान हो गई।
श्रीकृष्णकी इस जन्मभूमिपर सर्वप्रथम श्रीकृष्णके प्रपीष श्रीवजनाभजीने एक विशाल मंदिरकी स्थापना की थी। कालान्तरमें उसी स्थानपर भारतके धार्मिक राजाओंने बड़े विशाल- विशाल मंदिरोंका क्रमशः निर्माण कराया। जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु जन्म भूमिमें पधारे थे, उस समय वहाँ एक विशाल मंदिर था । श्रीमन् महाप्रभुके भावपूर्ण मधुर नृत्य और कीर्त्तनको देख सुनकर उस मंदिरमें लाखों लोगोंकी भीड़ एकत्र हो गई। नृत्य-कीर्त्तन करते हुए श्रीमन् महाप्रभुजीके भावोंको देख दर्शकगण भाव विभोर हो गये।
यहीं पर श्रीचैतन्य महाप्रभुजीने बंगालके सुबुद्धिराय नामक राजाको आत्महत्या से बचाकर उन्हें परम भगवद्भक्त बना दिया। सुबुद्धिरायको बंगालके धर्मान्ध मुस्लिम शासकके द्वारा बलपूर्वक जातिभ्रष्ट किया गया था। वह पुनः हिन्दू बनना चाहता था, किन्तु उस समयके कट्टर हिन्दू पुरोहितों एवं व्यवस्थापकोंके निर्देशानुसार मृत्युसे पूर्व हिन्दू धर्ममें पुनः प्रवेश करनेके लिए कोई भी मार्ग शेष नहीं था। परन्तु करुणासागर श्रीचैतन्य महाप्रभुने एक बार श्रीकृष्णनामका उच्चारण करा कर उसे शुद्ध कर दिया तथा जीवन भर हरिनाम सङ्कीर्तन एवं वैष्णवोंकी सेवा करते रहनेका उपदेश प्रदानकर उसे कृतार्थ कर दिया। श्रीमन् महाप्रभुका ब्रज आगमन मुगल सम्राट हुमायूँके राजत्व काल में श्रीमन् महाप्रभुका ब्रज आगमन मुगल सम्राट हुमायूँके राजत्व कालमें हुआ। तत्पश्चात् यवनोंके द्वारा वह मंदिर ध्वंस कर दिये जानेके बाद ओरछाके महाराज वीरसिंह देवने १६१० ई. में तैंतीस लाख रुपया लगाकर आदिकेशवका बहुत विशाल श्रीमंदिर बनवाया। किन्तु, धर्मान्ध औरंगजेबने १६६९ ई. में उसे ध्वंस कर उसके बाहरी स्वरूपमें कुछ परिवर्तनकर उसे मस्जिदके रूपमें परिवर्तित कर दिया श्री आदिकेशवनीके पुजारियोंने प्राचीन विग्रहको जिला कानपुरमें स्थित राजधान नामक ग्राममें वर्तमान ईटावा शहरसे सतरह मील दूर छिपा दिया। आज भी वह विग्रह वहीं छोटेसे मंदिरमें स्थित है। किन्तु इनका विजय विग्रह वर्तमान जन्मस्थानके पीछे मल्लपुरा नामक स्थानमें आदिकेशव मन्दिरमें आज भी सेवित हो रहा है। उस श्रीविग्रहकी विशेषता यह है कि उसमें भगवान्के चौब्बीस अवतारोंकी मूर्त्तियाँ अङ्कित हैं। आदिकेशव कहे जानेसे वैष्णव भक्त लोग इसी मन्दिरमें दर्शन करते हैं। आजकल प्राचीन जन्मस्थानपर श्रीमदनमोहन मालवीय द्वारा संग्रहीत केशव कटरेपर एक विशाल श्रीमंदिरका निर्माण हुआ है। गीताप्रेस गोरखपुरके स्वर्गीय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दारजीकी प्रेरणा और श्रीडालमियाजी आदि सेठोंके प्रयाससे इस मंदिरका निर्माण हुआ। जन्मभूमि मथुराके मल्लपुरा मौहल्लेमें स्थित है। महाराज कंसके चाणूर आदि मल्ल इसी स्थानके निकटमें ही रहते थे। पासमें पोतरा नामक विशाल कुण्ड है। यह पहले कंस कारागारके अंदर ही स्थित था, जिसमें श्रीवसुदेव देवकीजी स्नान करते तथा अपने वस्त्रोंको धोते थे। कहा जाता है कि पुत्रोंके उत्पन्न होनेपर देवकीजीके वस्त्र इसीमें साफ किये जाते थे। पवित्रा कुण्डसे अपभ्रंश रूपमें इसका नाम पोतरा कुण्ड हुआ है।
वृंदावन की एक गोपी रोज दूध दही बेचने मथुरा जाती थी,एक दिन व्रज में एक संत आये,गोपी भी कथा सुनने गई,संत कथा में कह रहे थे,भगवान के नाम की बड़ी महिमा है,नाम से बड़े बड़े संकट भी टल जाते है.नाम तो भव सागर से तारने वाला है,यदि भव सागर से पार होना है तो भगवान का नाम कभी मत छोडना.
कथा समाप्त हुई गोपी अगले दिन फिर दूध दही बेचने चली, बीच में यमुना जी थी. गोपी को संत की बात याद आई,संत ने कहा था भगवान का नाम तो भवसागर से पार लगाने वाला है,जिस भगवान का नाम भवसागर से पार लगा सकता है तो क्या उन्ही भगवान का नाम मुझे इस साधारण सी नदी से पार नहीं लगा सकता? ऐसा सोचकर गोपी ने मन में भगवान के नाम का आश्रय लिया भोली भाली गोपी यमुना जी की ओर आगे बढ़ गई.
अब जैसे ही यमुना जी में पैर रखा तो लगा मानो जमीन पर चल रही है और ऐसे ही सारी नदी पार कर गई,पार पहुँचकर बड़ी प्रसन्न हुई,और मन में सोचने लगी कि संत ने तो ये तो बड़ा अच्छा तरीका बताया पार जाने का,रोज-रोज नाविक को भी पैसे नहीं देने पड़ेगे.
एक दिन गोपी ने सोचा कि संत ने मेरा इतना भला किया मुझे उन्हें खाने पर बुलाना चाहिये,अगले दिन गोपी जब दही बेचने गई,तब संत से घर में भोजन करने को कहा संत तैयार हो गए,अब बीच में फिर यमुना नदी आई.संत नाविक को बुलाने लगा तो गोपी बोली बाबा नाविक को क्यों बुला रहे है.हम ऐसे ही यमुना जी में चलेगे.
संत बोले – गोपी! कैसी बात करती हो,यमुना जी को ऐसे ही कैसे पार करेगे ?
गोपी बोली – बाबा! आप ने ही तो रास्ता बताया था,आपने कथा में कहा था कि भगवान के नाम का आश्रय लेकर भवसागर से पार हो सकते है. तो मैंने सोचा जब भव सागर से पार हो सकते है तो यमुना जी से पार क्यों नहीं हो सकते? और मै ऐसा ही करने लगी,इसलिए मुझे अब नाव की जरुरत नहीं पड़ती.
संत को विश्वास नहीं हुआ बोले – गोपी तू ही पहले चल! मै तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ,गोपी ने भगवान के नाम का आश्रय लिया और जिस प्रकार रोज जाती थी वैसे ही यमुना जी को पार कर गई.
अब जैसे ही संत ने यमुना जी में पैर रखा तो झपाक से पानी में गिर गए,संत को बड़ा आश्चर्य,अब गोपी ने जब देखा तो कि संत तो पानी में गिर गए है तब गोपी वापस आई है और संत का हाथ पकड़कर जब चलि है तो संत भी गोपी की भांति ही ऐसे चले जैसे जमीन पर चल रहे हो.
संत तो गोपी के चरणों में गिर पड़े,और बोले – कि गोपी तू धन्य है! वास्तव में तो सही अर्थो में नाम का आश्रय तो तुमने लिया है और मै जिसने नाम की महिमा बताई तो सही पर स्वयं नाम का आश्रय नहीं लिया.
श्रावण का प्रिय मास है। आकाश में काली घटाएँ छायी हुयी हैं। बिजली कड़क रही है। बादल भी जोर-जोर से गर्जना कर रहे हैं। रिमझिम फुहारों की शीतलता शरीर को आनन्दित कर रही हैं। चम्पा, चमेली, मोगरा, मालती आदि पुष्पों की सुगन्ध हवा में फैली हुयी है। कोयल कुहू कुहू की मीठी तान छेड़ रही हैं। सरोवरों में हंस अठखेलियाँ कर रहे है। दादुर, मोर, पपीहे की आवाजों से सारा ब्रज क्षेत्र आनन्दित हो रहा है। ऐसे सुखद वातावरण में ललिता सखी ने अपनी अन्य सखियों–विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, सुदेवी, चम्पकलता, रंगदेवी और तुंगविद्या आदि को बुला लिया। आज के सुहावने मौसम को और भी अधिक मधुर बनाने के लिये ये सखियाँ अपने वाद्य-यन्त्र भी साथ लायी हैं। वन में जाकर जब सखियों ने देखा कि कृष्ण अकेले ही कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी वादन कर रहे हैं तो वे तुरन्त ही बृषभानु भवन जा पहुँची और श्रीराधाजी को वन में ले जाने के लिये कहने लगीं। सखियों ने श्रीराधाजी को कुसुंभी रंग की साड़ी पहनायी और नख से सिर तक उनका फूलों से श्रृंगार किया और चल पड़ी अपने प्रियतम स्याम सुंदर से मिलने। जैसे कोई नदी सागर में मिलने को आतुर होती है उसी प्रकार श्रीराधा अपने प्रियतम स्याम सुंदर के अंक में समा जाने को आतर हो रही थीं। रिमझिम बरसती फुहारों के बीच इन सखियों ने यमुना तट के पास के कुँज में एक दिव्य झूले का निर्माण किया। सखियों के आमन्त्रण पर श्रीराधा कृष्ण उस झूले पर विराजमान हो गये। ढोल, मृदंग आदि की थाप पर सखियाँ श्रीराधा कृष्ण को झूला झुलाने लगीं। श्रीराधा माधव की इस माधुरी लीला से सारा वन क्षेत्र जीवन्त हो उठा। कोयल कूकने लगीं, मयूर नृत्य करने लगे, हिरन कुलाँचे मारने लगे। जिसने भी इस दिव्य आनन्द का दर्शन किया उसका जीवन धन्य हो गया।
एक समय की बात है, जब किशोरी जी को यह पता चला कि कृष्ण पूरे गोकुल में माखन चोर कहलाता है तो उन्हें बहुत बुरा लगा उन्होंने कृष्ण को चोरी छोड़ देने का बहुत आग्रह किया। पर जब ठाकुर अपनी माँ की नहीं सुनते तो अपनी प्रियतमा की कहाँ से सुनते। उन्होंने माखन चोरी की अपनी लीला को जारी रखा। एक दिन राधा रानी ठाकुर को सबक सिखाने के लिए उनसे रूठ गयीं। अनेक दिन बीत गए पर वो कृष्ण से मिलने नहीं आईं। जब कृष्णा उन्हें मनाने गया तो वहाँ भी उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। तो अपनी राधा को मनाने के लिए इस लीलाधर को एक लीला सूझी। ब्रज में लील्या गोदने वाली स्त्री को लालिहारण कहा जाता है। तो कृष्ण घूंघट ओढ़ कर एक लालिहारण का भेष बनाकर बरसाने की गलियों में पुकार करते हुए घूमने लगे। जब वो बरसाने, राधा रानी की ऊँची अटरिया के नीचे आये तो आवाज देने लगे।
मैं दूर गाँव से आई हूँ, देख तुम्हारी ऊँची अटारी, दीदार की मैं प्यासी, दर्शन दो वृषभानु दुलारी॥ हाथ जोड़ विनंती करूँ, अर्ज मान लो हमारी, आपकी गलिन गुहार करूँ, लील्या गुदवा लो प्यारी॥
जब किशोरी जी ने यह आवाज सुनी तो तुरन्त विशाखा सखी को भेजा और उस लालिहारण को बुलाने के लिए कहा। घूंघट में अपने मुँह को छिपाते हुए कृष्ण किशोरी जी के सामने पहुँचे और उनका हाथ पकड़ कर बोले कि कहो सुकुमारी, तुम्हारे हाथ पे किसका नाम लिखूँ। तो किशोरी जी ने उत्तर दिया कि केवल हाथ पर नहीं मुझे तो पूरे श्री अंग पर लील्या गुदवाना है और क्या लिखवाना है, किशोरी जी बता रही हैं।
माथे पे मदन मोहन, पलकों पे पीताम्बर धारी, नासिका पे नटवर, कपोलों पे कृष्ण मुरारी, अधरों पे अच्युत, गर्दन पे गोवर्धन धारी, कानो में केशव, भृकुटी पे चार भुजा धारी, छाती पे छलिया, और कमर पे कन्हैया, जंघाओं पे जनार्दन, उदर पे ऊखल बंधैया, गालों पर ग्वाल, नाभि पे नाग नथैया, बाहों पे लिख बनवारी, हथेली पे हलधर के भैया, नखों पे लिख नारायण, पैरों पे जग पालनहारी, चरणों में चोर चित का, मन में मोर मुकुट धारी, नैनो में तू गोद दे, नंदनंदन की सूरत प्यारी, और रोम रोम पे लिख दे मेरे, रसिया रास बिहारी॥
जब ठाकुर जी ने सुना कि राधा अपने रोम रोम पर मेरा नाम लिखवाना चाहती है, तो खुशी से बौरा गए प्रभू, उन्हें अपनी सुध न रही, वो भूल गए कि वो एक लालिहारण के वेश में बरसाने के महल में राधा के सामने ही बैठे हैं। वो खड़े होकर जोर-जोर से नाचने लगे। उनके इस व्यवहार से किशोरी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ की इस लालिहारण को क्या हो गया। और तभी उनका घूंघट गिर गया और ललिता सखी को उनकी साँवरी सूरत का दर्शन हो गया और वो जोर से बोल उठी कि “अरे ! ये तो बांके बिहारी ही है।” अपने प्रेम के इजहार पर किशोरी जी बहुत लज्जित हो गयीं और अब उनके पास कन्हैया को क्षमा करने के अलावा कोई रास्ता न था। ठाकुरजी भी किशोरी का अपने प्रति अपार प्रेम जानकर गदगद् और भाव विभोर हो गए। ———-:::×:::———-
एकबार श्यामसुन्दर श्यामांगी कवियित्री का वेश धरकर श्री राधारानी से मिलने पहुँचे। कवियित्री वेश में श्यामसुन्दर बोले– ‘हे गुणनिधे! आप सकल कला पारङ्गत हो आपकी प्रशंसा सुनकर मैं दूर मथुरा से आई हूँ। उज्जयिनी के परम विद्वान से मैंने काव्यशास्त्र का अध्ययन किया है। मेरे श्री गुरुदेव भी मुझसे सदा प्रसन्न रहते हैं, परन्तु मेरे मनमे एक ग्लानि है।’ श्री राधारानी ने कहा– ‘कहो क्या ग्लानि है।’ श्यामांगी कवियित्री बोली– ‘रानी! मुझे केवल एक ही ग्लानि है, मेरे काव्यशात्र को यथार्थ में समझे ऐसा कोई मुझे आजतक मिला नही। मैंने आपकी कीर्ति सुनी है, रस शास्त्र में, भाषा शास्त्र में, आप बेजोड़ हैं। बस अपनी कुछ रचनाएं सुनाना चाहती हूँ।’ राधारानी ने मुस्कुराकर अनुमति दे दी। तब कवियित्री वेश धारी श्यामसुन्दर ने अद्भुत रस सिक्त कविता सरिता से सभी को आप्लुत कर दिया। एक तो कविता की अपूर्व रचना, तिस पर विषय माधुर्य सिंधु श्री राधा श्यामसुन्दर का अपूर्व केली विलास। कविताओं को सुनकर सखियों में सात्विक भाव उदय हो गए। हिरणियाँ अपने पतियों के संग स्तम्भित हो श्यामसुन्दर की वाणी सुधा का पान करने लगीं। यमुना जी की गति स्तम्भित हो गई। कोकिलायें, भ्रमर ऐसे शांत हो गए मानो वे भी श्यामसुन्दर के मुख से केली विलास वर्णन सुन रहे हों। राधारानी भी विलासानन्द के स्मरण से अतिशय आनन्द में डूब गयीं। जब राधारानी को थोड़ा चेत होते ही उन्हें शंका हुई कि ये कवियित्री निकुञ्ज विलास का वर्णन कैसे कर रही है ? ये रहस्य तो केवल श्यामसुन्दर जानते हैं। ललिता भी ये रहस्य नही जानती। रूप रति जानती हैं, पर वो किसी अनजानी स्त्री से कहेंगी नही। फिर इसे कैसे पता ? ध्यान से राधारानी ने उनके श्यामल अंगों को देखा, और देखते ही पहचान गयीं कि ये स्वयं श्यामसुन्दर ही हैं। राधारानी बोली– ‘हे कवियित्री! तुम्हारी कला से हम सब अत्यन्त प्रसन्न हैं। हम तुम्हें एक प्रशस्ति पत्र देना चाहती हैं।’ यह कहकर उन्होंने एक कमल पत्र में अपनी उंगली को कलम बनाकर, अपने मस्तक कुमकुम की स्याही बनाकर लिखा– ‘प्रियतम श्याम! राधा आज आपको कवि अलंकार* की उपाधि देती है। परन्तु साथ में एक नाम भी देती है, ‘छल कला पण्डित’।’ ऐसा लिखकर श्रीराधा ने उस पर अपने लीला कमल की छाप लगा दी, फिर चुपचाप अपनी ही वेणी माला से उस पत्र को बांध दिया। श्रीराधा बोली– ‘हे प्रिय कवियित्री! यह प्रशस्ति पत्र मैंने तुम्हेंं दिया। परन्तु यहाँ नही अपने गृह जाकर खोलना।’ श्यामसुन्दर प्रसन्न हो गए कि प्रिया जी ने कम-से-कम आज तो उन्हें नही ही पहचाना। आनन्द तो तब आएगा जब कल उनसे कहूँगा– ‘वाहः री तुम सबकी चतुराई तुम सब कल मुझे पहचान न पायीं।’ हाय! ललिता का मुँह तो देखते बनेगा। यही सब सोचते हुए श्रीराधा के चरण वन्दन कर श्यामसुन्दर दौड़ते हुए निज गृह लौटे। वचन जो दिया था प्यारी को,घर लौटकर ही पढूंगा। घर आकर प्रशस्ति पत्र खोलकर पढ़ते ही श्यामसुन्दर हँस दिए– ‘वाहः प्यारी सबको छल सकता हूँ परन्तु तुम्हें नही।’
“परमानन्दकन्द लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण ने एक बार देखा कि श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकारानी के हाथ मे एक ताज़ी चोट है , पूछने लगे- “यह चोट कब लगी?” कैसे लगी? कहॉं लगी?
श्रीराधा ने हँसकर कहा:-“यह तो महीनों से है!”
श्रीकृष्ण ने कहा :-“ यह तो ताज़ी है?”
श्रीराधा ने कहा:- “इस पर आने वाली पपड़ी निकाल देती हुँ , इस प्रकार इसे ताज़ी रखती हुँ ।”
श्रीकृष्ण ने कहा:- क्यों?
श्रीराधा ने कहा:- “यह घाव बड़ा सुखद है, यह तुम्हारे नख लगने से हुआ है,तुम्हारा स्मरण दिलाया करता है ,इसलिये मै कभी इसे सुखने नही देती !”
“ प्रियतम का दिया दु:ख भी सुखदायक होता है,इसीलिये कोई कष्ट,अभाव,चिन्तित नही करती, क्योंकि वह उसे प्रियतम का दिया दिखता है।”
“एक बार श्यामसुन्दर, श्रीराधा के साथ बैठे थे, और वंशी बजा रहे थे , उनके मन मे इच्छा हुई कि प्रिया जी का वंशी वादन सुनना चाहिये ,पर यह बात कहें कैसे? एक उपाय सोच लिया , जान-बूझकर एक तान बजाने मे भूल कर दी , प्रियाजी से नही रहा गया,और उन्होंने उन्हें स्वयं बजाकर बतला दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपने संगीत से अधिक आनन्द श्रीराधिकारानी के संगीत मे आता है।”
“एक बार गोलोक में बडे़- बडे़ देवता , श्रीकृष्ण का दर्शन करने आये।
श्रीकृष्ण सो रहे थे , और उनके रोम रोम से “राधा-राधा” निकल रहा था,
श्रीराधा ने यह देखा तो सोचा- इतना अपार प्रेम है इनका मुझसे!
वे “कृष्ण -कृष्ण” कहती हुई प्रेमावेश मे मूर्छित हो गयीं। श्रीकृष्ण जागे , और उन्होंने देखा कि प्रियाजी के रोम -रोम से कृष्ण नाम निकल रहा है तो उन्हें अङ्क मे ले लिया और “राधे -राधे” बोलते मूर्छित हो गये , प्रेम मे।
यह क्रम देर तक चलता रहा, एक चैतन्य हो,और दूसरे का प्रेम देखे तो मूर्छित हो जाये, दूसरा चैतन्य हो तो उसकी भी वही दशा हो।
जब बहुत देर हुई तो श्रीराधिकारानी की परमसखी ललिता जी निकुञ्ज मे आयी ,उन्होंने यह अवस्था देखी तो चकित रह गयीं –
“अङ्कस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापम्।”
संयोग मे वियोग का यह अद्भुत संवेदन!
तात्पर्य है कि जिसे प्रेम प्राप्त होता है , उसे एकाङ्गी, अथवा वियोगात्मक-संयोगात्मक प्रेम नही मिलता। प्रेम का सामरस्य, सामञ्जस्य,ऐकरस्य, प्रेमी-प्रियतम दोनो के एक हुये बिना नही होता।
एक दिन श्री राधा रानी जी श्यामसुन्दर जी से मिलने निकुञ्ज जा रही थीं। मंजरियों ने श्री राधा रानी जी अनुपम माधुर्य श्रृंगार किया। श्री राधा रानी को सुन्दर मणि मनिकों से सुसज्जित लहँगा धारण कराया। लहँगा इतना अनुपम सुन्दर है कि उसे देख कर सभी सखियाँ हर्षित और पुलकित हो गयीं। सखियाँ सोचती हैं जब श्याम सुन्दर इसे देखेगे तो आनंदित हो जायेंगे।
प्रियाजी श्रृंगार करके निकुञ्ज की ओर चली जा रही हैं, सभी सखियाँ पीछे-पीछे उनके नामों के गुणों का गान करती चल रही हैं। लहँगा को छूकर कभी ब्रजरज अपने को धन्य कर रही है तो कभी निकुञ्ज की लता-पतायें अपने को धन्य कर रही हैं। मानों आज सभी में श्रीजी का स्पर्श पाने की होड़ लगी है।
वृक्ष की ऊँची डाल पर टंगा सूखा पत्ता भी श्री राधा की कृपा पाने के लिये व्याकुल हो रहा है। किस विधि श्रीजी की कृपा पा सके, उनकी राह में होते हुए भी उनकी कृपा से दूर है। यही विचार करते-करते उदास हो रहा है। तभी एक शीतल पवन का झोंका आया और सूखे पत्ते को डाल से अलग करके ले उड़ा। पत्ता उड़कर सीधा राधाजी के लहराते लहँगे पर जा गिरा। राधाजी की कृपा देखिये कि पत्ता लहँगे से टकरा कर नीचे नहीं गिरा अपितु लहँगे ने ही उसे गिरने से थाम लिया, और अपने साथ ही निकुञ्ज में ले चला।
निकुञ्ज का द्वार आया तो सभी सखियाँ द्वार पर रुक गयीं। श्री रूपमंजरी प्रिया जी को निकुञ्ज के अंदर ले गयी साथ में प्रियाजी की कृपा से सूखा पत्ता भी निकुञ्ज में प्रवेश कर गया। जो निकुञ्ज शिवजी, ब्रह्माजी, बड़े-बड़े महा मुनियो को दुर्लभ है उस निकुञ्ज में सूखे पत्ते का प्रवेश मिल गया। जिस निकुञ्ज में केवल सखियों और मंजरियों को ही आने की आज्ञा है उस परम आलौकिक निकुञ्ज के दर्शन आज श्री राधाजी की अहैतुकी कृपा से उसे सुलभ हो गये।
जब प्रियाजी सुकोमल फूलो से बने शय्या पर पर विराजमान हुई तो प्रिया जू ने उस सूखे पत्ते को अपने हाथो में लिया और अपने कपोलो से लगा लिया। प्रिया जी स्पर्श पाते ही वो सूखा पत्ता एक सुबासित कली बन गया और प्रिया जी ने उसे अपने निकुञ्ज में हमेशा के लिए रख लिया।
ऐसी है प्रियाजी की अहैतुकी कृपा जो एक बार उनकी शरण में आ जाये हमेशा-हमेशा के लिये वे उसे अपने आश्रय में ले लेती हैं।
एक बार की बात है महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारिका गये पर इस बार रथ अर्जुन चलाकर के ले गये। द्वारिका पहुँचकर अर्जुन बहुत थक गये इसलिए विश्राम करने के लिए अतिथि भवन में चले गये। शाम के समय रूक्मणी जी ने कृष्ण को भोजन परोसा तो कृष्ण बोले–’घर में अतिथि आये हुए हैं हम उनके बिना भोजन कैसे कर लें ?’ रूक्मणी जी ने कहा–’भगवन आप आरम्भ करिये मैं अर्जुन को बुलाकर लाती हूँ।’ जैसे ही रूक्मणी जी वहाँ पहुँचीं तो उन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनके रोम-रोम से कृष्ण नाम की ध्वनि प्रस्फुटित हो रही है तो ये जगाना तो भूल गयीं और मन्द-मन्द स्वर में ताली बजाने लगीं। इधर नारद जी ने कृष्ण से कहा–’भगवान भोग ठण्डा हो रहा है।’ कृष्ण बोले–’अतिथि के बिना हम नहीं करेंगे।’ नारद जी बोले–’मैं बुलाकर लाता हूँ।’ नारद जी ने वहाँ का नजारा देखा तो ये भी जगाना भूल गये और इन्होंने वीणा बजाना शुरू कर दिया। इधर सत्यभामा जी बोली–’प्रभु भोग ठण्डा हो रहा है आप प्रारम्भ तो करिये।’ भगवान बोले–’हम अतिथि के बिना नहीं कर सकते।’ सत्यभामा जी बोलीं–’मैं बुलाकर लाती हूँ।’ ये वहाँ पहुँची तो इन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनका रोम-रोम कृष्ण नाम का कीर्तन कर रहा है और रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं नारद जी वीणा बजा रहे हैं तो ये भी जगाना भूल गयीं और इन्होंने नाचना शुरू कर दिया। इधर भगवान बोले–’सब बोल के जाते हैं भोग ठण्डा हो रहा है पर हमारी चिन्ता किसी को नहीं है, चलकर देखता हूँ वहाँ ऐसा क्या हो रहा है जो सब हमको ही भूल गये।’ प्रभु ने वहाँ जाकर के देखा तो वहाँ तो स्वर लहरी चल रही है। अर्जुन सोते-सोते कीर्तन कर रहे हैं, रूक्मणी जी ताली बजा रही हैं, नारद जी वीणा बजा रहे हैं, और सत्यभामा जी नृत्य कर रही हैं। ये देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये और प्रभु ने अर्जुन के चरण दबाना शुरू कर दिया। जैसे ही प्रभु के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की बूँदें अर्जुन के चरणों पर पड़ी तो अर्जुन छटपटा के उठे और बोले–’प्रभु ये क्या हो रहा है।’ भगवान बोले–’अर्जुन तुमने मुझे रोम-रोम में बसा रखा है इसीलिए तो तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय हो’ और गोविन्द ने अर्जुन को गले से लगा लिया। ———-:::×:::———
“जय जय श्री राधे” **********************************************
श्रीनाथजी एक दिन भोर में अपने प्यारे कुम्भना के साथ गाँव के चौपाल पर बैठे थे।
कितना अद्भुत दृश्य है – समस्त जगत का पिता एक नन्हें बालक की भांति अपने प्रेमीभक्त कुम्भनदास की गोदी में बैठ क्रीड़ा कर रहा है तभी निकट से बृज की एक भोली ग्वालन निकट से निकली।
श्रीनाथ जी ने गुजरी को आवाज दी – इधर आ!
गुजरी ने कहा – बाबा! आपको प्यास लगी है क्या?
श्रीनाथजी ने कहा – मुझे नहीं, मेरे कुभंना को लगी है।
श्रीनाथजी कुभंनदास को प्यार से कुभंना कहते।
कुभंनदास जी कह रहे हैं – श्रीनाथ जी! मुझे प्यास नही लगी है।
श्रीनाथ जी ने गुजरी से कहा – इसको छाछ पिला!
जैसे ही गुजरी ने कुभंनदास जी को छाछ पिलायी, पीछे से श्रीनाथ जी ने उसकी पोटली मे से एक रोटी निकाली व कुभंनदास जी ने देख लिया।
श्रीनाथ जी ने गुजरी से कहा – अब तू जा!
भोली ग्वालन बाबा को छाछ पिलाकर अपने कार्य को चली गयी।
गुजरी के जाते ही कुंभनदास जी ने श्रीनाथ जी से कहा – श्रीजी आपकी ये चोरी की आदत गई नहीं।
श्रीनाथजी ने आधी रोटी कुभंना को दी और आधी रोटी आप ने ली।
जैसे ही कुभंनदास जी ने ली तो श्रीनाथजी ने कहा – अरे कुभंना! तू चख तो सही।
कुभंनदास जी ने एक निवाला लिया और कहने लगे – बाबा! ये कैसा स्वाद है?
श्रीनाथ जी कह रहे है कि, ये गुजरी जब रोटी बनाती है तो मेरा नाम ले-ले कर बेलती है तो इसमें मेरे नाम की मिठास भरी है।
बाबा अब तू ही बतला इस प्रेमभरी रोटी को आरोगे बिना में कैसे रह सकूँ हूँ। ये भोली गुजरी लज्जावश श्रीमंदिर में मुझे ये सूखी रोटी पवाने तो कभी आयेगी नहीं इसीलिए बाबा मैंने स्वयं ही चुरा ली।
एक दिन श्यामसुंदर श्री राधा रानी की श्रृंगार कक्ष में गए और वहाँ एक पेटी जिसमें राधा रानी के सारे अलंकार आभूषण रखे थे, उस को खोला। एकांत ना मिलने के कारण बहुत दिनों से सोच रहे थे, आज मौका मिला भंडार गृह में कोई नहीं था एकांत था। सबसे पहले श्यामसुंदर जी ने राधा रानी का हरिमोहन नामक कंठ हार निकाला और अपने हृदय से लगाया और सोचने लगे यह हार कितना सौभाग्यशाली है जो हमेशा प्रिया जी के हृदय के समीप रहता है। हमेशा उनकी करुणामयी धड़कन को सुनता है। उनकी हर धड़कन में श्याम-श्याम नाम को प्रतिपल सुनता है। कैसा अद्भुत सौभाग्य है इस हार का जो मेरी किशोरी जी के ह्रदय के समीप रहता है फिर हार को अपनी अधरों से लगा कर और अपने नैनों से लगाकर रख दिया। फिर प्रिया जू की मांग की मोतियों की माला को अपने हृदय से लगाया और कहा- मोतियों की माला ये मेरा जीवन है, इसे प्रिया जी अपनी सिंदूर रेखा भरी मांग पर धारण करती हैं उसी से मेरा जीवन अस्तित्व है इसकी सौभाग्य की कैसे वंदना करो कैसे वंदना करूं ? अपने कपोलो से लगा कर भाव बिभोर हो गए नयन सजल हो गये प्रियतम के। फिर श्याम सुंदर ने प्रिया जी की नथ को अपने हाथों से उठाया और कहने लगे नथ की सौभाग्य की बात कैसे करूं यह नथ प्रेम रीति से प्रिया जी के कोमल कपोलो (गालों) का अखंड सानिध्य प्राप्त है कैसे प्रिया जी के कपोलो की काँति स्पर्श प्राप्त है। कैसे नथ की सुधरता का वर्णन करूँ ?श्री प्रिया जू के नथ में प्रभाकरी नाम का मोती है यही मेरे जीवन का उजाला है। फिर श्यामसुंदर ने विपक्ष मद मांर्दिनी नामक राधा जी की अंगूठियों को अपने हृदय से लगा लिया और कहने लगे- इन की अंगूठियों को पहनकर राधा रानी के हाथ सभी भक्तों को प्रेम और कृपा का दान करते हैं। कैसा अनुपम सौभाग्य है अंगूठियों का जिन्हें प्रिया जू अपने कोमल हाथों में धारण करती हैं तो फिर श्यामसुंदर अंगूठियों को अपनी उंगलियों में पहन लिया। इन अंगूठियों का कैसा अनुपम सौभाग्य है जो प्रिया जी की करुणामयी कृपामयी कोमल हाथों का सानिध्य प्राप्त है। फिर श्यामसुंदर श्री राधा रानी के नूपुर पायलों को अपने हाथों से उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया। श्यामसुंदर भाव विभोर हो गए थे। उनके नैन सजल हो गए नैनों से अश्रु धारा बहने लगी। श्यामसुंदर ने प्रिया जी के नूपुरों को अपने अधरों से लगाया और उन्हें चूमा और कहने लगे कैसे सराहना करूं इन नूपुरों की ? परम करुणा में श्री राधा रानी अपने श्री चरणों में धारण करती हैं। प्रिया के श्री चरणों में मेरी जीवन धन है। कैसा सौभाग्य है इन नूपुरों का जो जिन्हें प्रिया जू श्री चरणों का सानिध्य मिला हुआ है। प्रिया जी के बिछिया और नुपर को देख कर कहने लगे प्रिया जी चाहे कोई योग्य हो या अयोग्य हो हर किसी को अपने उन्मुक्त भाव से आश्रय देती हैं।
राधा रानी की हाथ में अंगूठियां इस बात की साक्षी हैं कि राधा रानी की कर कमलों में जिनको जो वरदान दिया है वह सदा अमोघ है, और यह राधा रानी के कुंडल इस बात के साक्षी है की प्रिया जी सदा सब की सुनती हैं कोई भी सखी हो यह मंजरी हो ऐसी कोई नहीं जिसके कथन पर तो प्रिया ने ध्यान ना दिया हो। पिया जू हर अपने भक्तों की बात का ध्यान देती हैं यह कुंडल इस बात के साक्षी हैं कि प्रिया जी अपने भक्तों की बातें कितनी ध्यान से सुनती हैं। प्रिया जो की नथ इस बात की साक्षी है कि वह अपने हर भक्त की जीवन की सांसो का संचार करती हैं, जीवन प्राण हैं। अपने भक्तों पर प्रिया जी का हार इस बात का साक्षी है कि प्रिया जी अपने भक्तों को अपने हृदय में स्थान देती हैं। सभी आभूषणों को श्यामसुंदर ने अपने हृदय से लगाया श्यामसुंदर के नयन सजल हो गए और
उनके नैनों से अश्रुधारा बहने लगी। फिर श्यामसुंदर ने एक-एक करके सारे अलंकार पहने अपनी उंगलियों में प्रिया जू की अंगूठी पहनी। अपने पैरों में प्रिया जी की पायल पहनी अपने कानों में प्रिया जू का कुंडल पहना अपने गले में प्रिया जू का कंठहार पहना अपने कमर में प्रिया जू की करधनी जू पहनी। सभी अलंकारों को एक-एक करके धारण किया और भावुक होकर इस आनंद का अनुमोदन करने लगे जो प्रिया जी अलंकारों को पहन कर आनंद पाती हैं। उसी समय प्रिया जी रति और रूप मंजरी के साथ श्रृंगार कक्ष में आई और देखा श्यामसुंदर उनके अलंकारों की अपने अंगों पर पहने हुए हैं। श्यामसुंदर के इस छवि को देखकर प्रियाजी परम परमानंद पाया। प्रियाजी पुलकित कायमान हो गई। अपने प्रियतम का अद्भुत प्रेम अपने अलंकारों के प्रति देखकर कभी रूप मंजरी रतिमंजरी से कहने लगीं- कैसा अनुपम सौभाग्य है इन अलंकारों को जो आज श्यामसुंदर अपना प्रेम रस भर रहे हैं इन अलंकारों को। जिससे प्रिया जी जब इन्हें धारण करें श्याम सुंदर की प्रेम से सराबोर हो जाएँ ऐसे अलंकारों के सौभाग्य की जय हो।
एक दिन माता यशोदा दही मथकर माखन निकाल रहीं थीं। अचानक माँ को आनन्द देने के लिए बलराम और श्याम उनके निकट पहुँच गए। कन्हैया ने माँ की चोटी पकड़ ली और बलराम ने मोतियों की माला। दोनों माँ को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करने लगे।
बलराम कहते थे, माँ तुम पहले मेरी सुनो और कन्हैया कहते थे कि नहीं, माँ तुम्हें पहले मेरी सुननी पड़ेगी, मैया! मुझे भूख लगी है। भूख से मेरा बुरा हाल है। चलो ना जल्दी से मुझे माखन रोटी दे दो यशोदा जी ने कहा- बेटा! दूध पी लो या घर में अनेक प्रकार के पकवान बने हैं जो तुम्हारी इच्छा हो खा लो। कन्हैया ने कहा- नहीं, मैं तो केवल माखन रोटी ही खाऊँगा। मेवा पकवान मुझे अच्छे नहीं लगते। जब तक तुम मुझे माखन नहीं दे दोगी तब तक मैं तुम्हारी चोटी खीचता ही रहूँगा। माँ ने कहा- कन्हैया अगर तू माखन खायेगा तो तेरी यह चोटी छोटी रह जाएगी, कभी नहीं बढ़ेगी। कन्हैया ने कहा- माँ, तुम दाऊ भैया को तो कभी मना नहीं करती, वह जब भी माँगते हैं तुम उन्हें माखन रोटी दे देती हो। मुझे क्यों नहीं दे रहीं हो? माँ ने कहा- कान्हा देखो, पहले मैं दाउ को भी माखन रोटी नहीं देती थी, वह भी मेवा पकवान खाता था और दूध पीता था, तभी तो उसकी चोटी लंबी-चौड़ी है। यदि तुम भी दूध पीओगे तो तुम्हारी भी चोटी लंबी हो जाएगी। जाओ मेरे लाल अच्छे बच्चे जिद नहीं करते। कान्हा ने कहा- माँ तुम झूठ बोलती हो, कितनी बार मैने दूध पिया है पर मेरी चोटी अब तक नहीं बढ़ी।। आज तुम्हारा बहाना नहीं चल सकता। तुम्हें मुझे माखन रोटी देनी ही पड़ेगी। मैया ने कहा कान्हा दाउ अब बड़ा हो गया है। इसने तुमसे अधिक दिनों तक दूध पिया है। इसलिए दाउ की चोटी बढ़ गयी, जब तुम भी उतने ही दिनों तक दूध पी लोगे तब तुम्हारी भी चोटी बढ़ जाएगी। कन्हैया ने कहा- मैया मैं यह सब नहीं सुनूँगा तुम साफ-साफ बताओ मुझे माखन रोटी देती हो कि नहीं, यदि तुम मुझे माखन रोटी नहीं दोगी तो, जाओ मैं तुमसे बात नहीं करूँगा। ना ही तुम्हारी गोदी में आऊँगा। अब दाऊ भैया ही तुम्हारे पुत्र हैं, मैं भला तुम्हारा क्या लगता हूँ। माता यशोदा ने कहा- कान्हा तू तो मेरा प्राण है मैं भला तेरे बिना कैसे रह सकती हूँ। मेरे नन्हे लाल मैं तेरी बलैया लेती हूँ। तनिक रूको। मुझे माखन तो निकाल लेने दो, फिर तुम्हे जितना माखन चाहिए ले लेना। इस प्रकार माता यशोदा की आँखों से प्रेमाश्रु छलक पड़े। यशोदा मैया धन्य हैं। त्रिभुवन का भरण पोषण करने वाले प्रभु माखन के लिए बार-बार उनके हाथ फैलाते हैं। यशोदा मैया से बड़ा सौभाग्य भला किसका होगा।
वृन्दावन में एक महात्मा जी का निवास था लोग उन्हें नागा बाबा के नाम से जानते थे जो युगल स्वरुप की उपासना किया करते थे। एक बार वे महात्मा जी संध्या वन्दन के उपरान्त कुंजवन की राह पर जा रहे थे, मार्ग में महात्मा जी जब एक वटवृक्ष के नीचे होकर निकले तो उनकी जटा उस वट-वृक्ष की जटाओं में उलझ गईं, बहुत प्रयास किया सुलझाने का परन्तु जब जटा नहीं सुलझी तो महात्माजी आसन जमा कर बैठ गए, कि जिसने जटा उलझाई है वो सुलझाने आएगा तो ठीक है नही तो मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा और बैठे-बैठे ही प्राण त्याग दूँगा।
तीन दिन बीत गए महात्मा जी को बैठे हुए। एक सांवला सलोना ग्वालिया आया जो पाँच-सात वर्ष का रहा होगा। वो बालक ब्रजभाषा में बड़े दुलार से बोला- “बाबा ! तुम्हारी तो जटा उलझ गईं, अरे मैं सुलझा दऊँ का” और जैसे ही वो बालक जटा सुलझाने आगे बढ़ा महात्मा जी ने डाँट कर कहा “हाथ मत लगाना पीछे हटो कौन हो तुम ?” ग्वालिया बोला “अरे हमारो जे ही गाम है महाराज ! गैया चरा रह्यो तो मैंने देखि महात्माजी की जटा उलझ गईं हैं, तो मैंने सोची ऐसो करूँ मैं जाए के सुलझा दऊँ।” महात्माजी बोले, न न न दूर हट जा। ग्वालिया- चौं ! काह भयो ? महात्माजी बोले, “जिसने जटा उलझाई हैं वो आएगा तो ठीक नहीं तो इधर ही बस गोविन्दाय नमो नमः” ग्वालिया, “अरे महाराज तो जाने उलझाई है वाको नाम बताए देयो वाहे बुला लाऊँगो।” महात्माजी बोले, “न जिसने उलझाई है वो अपने आप आ जायेगा। तू जा नाम नहीं बताते हम।”
कुछ देर तक वो बालक महात्मा जी को समझाता रहा परन्तु जब महात्मा जी नहीं माने तो उसी क्षण ग्वालिया के भेष को छुपा कर ग्वालिया में से साक्षात् मुरली बजाते हुए मुस्कुराते हुए भगवान बाँकेबिहारी प्रकट हो गए। सांवरिया सरकार बोले “महात्मन मैंने जटा उलझाई हैं ? लो आ गया मैं।” जैसे ही सांवरिया जी जटा सुलझाने आगे बढे। महात्मा जी ने कहा- “हाथ मत लगाना, पीछे हटो, पहले बताओ तुम कौन से कृष्ण हो ?” महात्मा जी के वचन सुनकर सांवरिया जी सोच में पड़ गए, अरे कृष्ण भी दस-पाँच होते हैं क्या ? महात्मा जी फिर बोले “बताओ भी तुम कौन से कृष्ण हो ?” सांवरिया जी, “कौन से कृष्ण हो मतलब ?” महात्माजी बोले, “देखो कृष्ण भी कई प्रकार के होते हैं, एक होते हैं देवकीनंदन कृष्ण, एक होते हैं यशोदानंदन कृष्ण, एक होते हैं द्वारकाधीश कृष्ण, एक होते हैं नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण। सांवरिया जी, “आपको कौन-सा चाहिए ?” महात्माजी, “मैं तो नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण का परमोपासक हूँ।” सांवरिया जी बोले, “वही तो मैं हूँ। अब सुलझा दूँ ?” जैसे ही जटा सुलझाने सांवरिया सरकार आगे बढे तो महात्माजी बोल उठे, “हाथ मत लगाना, पीछे हटो, बड़े आये नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण, अरे नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण तो किशोरी जी के बिना मेरी स्वामिनी श्री राधारानी के बिना एक पल भी नहीं रहते। तुम अकेले सौंटा से खड़े हो।”
महात्मा जी के इतना कहते ही सांवरिया जी के कंधे पर श्रीजी का मुख दिखाई दिया, आकाश में बिजली सी चमकी और साक्षात् वृषभानु नंदिनी, वृन्दावनेश्वरी, रासेश्वरी श्री हरिदासेश्वरी स्वामिनी श्री राधिका जी अपने प्रीतम को गल-बहियाँ दिए महात्मा जी के समक्ष प्रकट हो गईं और बोलीं, “बाबा ! मैं अलग हूँ क्या अरे मैं ही तो ये कृष्ण हूँ और ये कृष्ण ही तो राधा हैं, हम दोनों अलग थोड़े न है हम दोनों एक हैं।” अब तो युगल स्वरुप का दर्शन पाकर महात्मा जी आनंदविभोर हो उठे। उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, और जैसे ही किशोरी राधा-कृष्ण जटा सुलझाने आगे बढे़ महात्मा जी चरणों में गिर पड़े और बोले, “अब जटा क्या सुलझाते हो युगल जी अब तो जीवन ही सुलझा दो मुझे नित्य-लीला में प्रवेश देकर इस संसार से मुक्त करो दो।” महात्मा जी ने ऐसी प्रार्थना करी और प्रणाम करते-करते उनका शरीर शांत हो गया स्वामिनी जी ने उनको नित्य लीला में स्थान प्रदान किया। बरसाने से आठ किलोमीटर दूर वह स्थान ‘कदम खण्ड़ी’ गाँव में स्थित है, जहाँ नागा बाबा की समाधि है।
श्री जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्णदास को भक्ति शास्त्र का ज्ञान दिया इसीलिए श्री जीव गोस्वामीजी दुखी कृष्णदास प्रभु के शिक्षा गुरु थे एवं उन्होंने ही इन्हें प्रिया-प्रियतम की नित्य रासलीला के क्षेत्र निधिवन में झाड़ू लगाने की सेवा प्रदान की। दुखी कृष्णदास सदा श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज-लीला के स्मरण में निमग्न रहते थे और प्रतिदिन कुंज की सोहिनी और खुरपे से सेवा करते थे। 12 साल तक दुखी कृष्ण दास इस तरहां ठाकुरजी की सेवा करते रहे और उनकी भक्ति में दिनों दिन डूबते रहे। एक दिन जब कृष्णदास अपनी सोहिनी और खुरपा लेकर कुंज में आए तो उन्हें झाड़ू लगाते समय पहले तो रास लीला के निशान मिलते हैं और फिर अनार के पेड के नीचे वह दुर्लभ अलौकिक नूपुर दिखाई पडा, जिसे देखकर वे विस्मित हो गए उस अति सुन्दर अद्वितीय नुपुर कि चकाचौध से निधिवन प्रकाशमान हो रहा था, वे सोचने लगे यह अलौकिक नुपुर किसका है ? उन्होंने खुशी-खुशी उसे सिर माथे से लगाया, और उसे उठाकर उन्होंने अपने उत्तरीय में रख लिया और फिर वे रासस्थली की सफाई में लग गए। जब ठाकुर जी के साथ राधा रानी रास लीला में नाच गा रहें थे, उसी दौरान राधारानी जब श्रीकृष्ण को अधिक आनंद प्रदान करने के लिए तीव्र गति से नृत्य कर रही थीं। उस समय रासेश्वरी के बाएं चरण से इन्द्रनील मणियों से जडित उनका मंजुघोष नामक नूपुर रासस्थली में गिर गया, किंतु रासलीला में मग्न होने के कारण उन्हें इस बात का पता न चला। नृत्य की समाप्ति पर राधा कृष्ण कुंजों में सजाई हुई शैय्या पर शयन करने चले जाते हैं, और अगली सुबह उठकर वे सब अपने घर चले जाते हैं। इधर प्रात: जब राधा रानी को यह मालूम हुआ कि उनके बाये चरण का मंजुघोषा नाम का नुपुर निधिवन में गिर गया है। थोडी देर पश्चात राधारानी उस खोए हुए नूपुर को ढूंढते हुए अपनी सखियों ललिता, विशाखा आदि के साथ जब वहां पधारीं तो वे लताओं की ओट में खडी हो गयीं, और ललिता जी को ब्रह्माणी के वेश में कृष्ण दास के पास भेजा, तब श्री ललिता सखी दुखी कृष्ण दास के पास पहुँची और उनसे कहा,- बाबा क्या तुम्हें यहाँ पर कोई नूपुर मिला है ? मुझे दे दो, किशोरी जी का है। मंजरी भाव में दुखी कृष्णदास ने डूबे हुए उत्तर दिया, हम अपने हाथों से प्रियाजी को पहनाएँगी। इस पर राधारानी के आदेश से ललिताजी ने कृष्णदास को राधाजी का मंत्र प्रदान करके उन्हें राधाकुंड में स्नान करवाया, इससे कृष्णदास दिव्य मंजरी के स्वरूप को प्राप्त हो गए सखियों ने उन्हें राधारानीजी के समक्ष प्रस्तुत किया…उन्होंने वह नूपुर राधाजी को लौटा दिया। राधारानी ने प्रसन्न होकर नूपुर धारण करा उसके पहले ललिताजी ने उस नूपुर का उनके ललाट से स्पर्श कराया तो उनका तिलक राधारानीजी के चरण की आकृति वाले नूपुर तिलक में परिवर्तित • हो गया। राधारानी ने स्वयं अपने करकमलों द्वारा उस तिलक के मध्य में एक उज्ज्वल बिंदु लगा दिया। इस तिलक को ललिता सखी ने ‘श्याम मोहन तिलक’ का नाम दिया। कहीं काली बिंदी लगाते हैं। विशाखा सखी ने बताया की दुखीकृष्ण दास जी कनक मंजरी के अवतार हैं।
राधारानी ने श्री दुखीकृष्ण दास जी को मृत्युलोक में आयु पूर्ण होने तक रहने का जब आदेश दिया तो वे स्वामिनी जी से विरह की कल्पना करते ही रोने लगे। तब राधारानी ने उनका ढांढस बंधाने के लिए अपने हृदयकमल से अपने प्राण-धन श्रीश्यामसुंदर के दिव्य विग्रह को प्रकट करके ललिता सखी के माध्यम से श्यामानंद को प्रदान किया। यह घटना सन् 1578 ई. की वसंत पंचमी वाले दिन की है। श्यामानंदप्रभु श्यामसुंदरदेव के उस श्रीविग्रह को अपनी भजन कुटीर में विराजमान करके उनकी सेवा-अर्चना में जुट गए। सम्पूर्ण विश्व में श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं।
दुखी कृष्ण दास ने जब यह वृतांत श्री जीव गोस्वामी को सुनाया तो किशोरीजी की ऐसी • विलक्षण कृपा के बारे में सुनकर जीव गोस्वामी जी कृष्ण भक्ति में पागल हो गये और खुश होकर नृत्य करने लगे। कृष्ण प्रेम में रोते हुए जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्ण दास से कहा कि “तुम इकलौते ऐसे व्यक्ति हो इस संसार में जिसपर श्री राधारानी की ऐसी कृपा हुई है, और तुम्हारा स्पर्श पाकर में भी उस कृपा को प्राप्त कर रहा हूँ। आज से वैष्णव भक्त तुम्हें ‘श्यामानंद” नाम से जानेंगे, और तुम्हारे तिलक को “श्यामानन्दी” तिलक और श्री राधा रानी ने जो तुम्हें श्री विग्रह प्रदान किया है वो श्यामसुंदर नाम से प्रसिद्ध होंगे और अपने दर्शनों से अपने भक्तों पर कृपा करेंगे।
मन्दिर के पथ के उस पार एक गृह में श्री श्यामानंद प्रभु का समाधि स्थल है। राधाश्यामसुन्दर जी का मन्दिर वृन्दावन का पहला मन्दिर है जिसने मंगला आरती की शुरुआत की, और जो आज तक सुचारू रूप से हो रही है। कार्तिक मास में इस मन्दिर में प्रतिदिन भव्य झाँकियों के दर्शन होते हैं और अक्षय तृतीया पर दुर्लभ चन्दन श्रृंगार किया जाता है।
राधा में ‘रा’ धातु के बहुत से अर्थ होते हैं। देवी भागवत में इसके बारे में लिखा है कि जिससे समस्त कामनायें, कृष्ण को पाने की कामना तक भी, सिद्ध होती हैं। सामरस उपनिषद में वर्णन आया है कि राधा नाम क्यों पड़ा ?
राधा के एक मात्र शब्द से जाने कितने जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं
र शब्द का अर्थ है = जन्म-जन्मान्तर के पापों का नाश ।
अ वर्ण का अर्थ है = मृत्यु, गर्भावास, आयु, हानि से छुटकारा ।
ध वर्ण का अर्थ है = श्याम से मिलन।
अ वर्ण का अर्थ है = सभी बन्धनों से छुटकारा
भगवान सत्य संकल्प हैं। उनको युद्ध की इच्छा हुई तो उन्होंने जय विजय को श्राप दिला दिया। तपस्या की इच्छा हुई तो नर-नारायण बन गये । उपदेश देने की इच्छा हुई तो भगवान कपिल बन गये। उस सत्य संकल्प के मन में अनेक इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं। भगवान के मन में अब इच्छा हुई कि हम भी आराधना करें। हम भी भजन करें।
अब किसका भजन करें? उनसे बड़ा कौन है? तो श्रुतियाँ कहती हैं कि स्वयं ही उन्होंने अपनी आराधना की। ऐसा क्यों किया? क्योंकि वो अकेले ही तो हैं, तो वो किसकी आराधना करेंगे। तो श्रुति कहती हैं कि कृष्ण के मन में •आराधना की इच्छा प्रगट हुई तो श्री कृष्ण ही राधा रानी के रूप में आराधना से प्रगट हो गये।
आज प्यारी जू गहवर वन में सखियों संग फूल बीनने आई है , फूल बीनते बीनते सभी सखियां प्यारी जू से कहने लगी कि प्यारी यह पीले गुलाब को देखिए कैसे यह आपकी तरफ देखकर खिलखिला रहा है , ऐसा कहना सखियों का एक मनोरथ है क्यो कि पीले गुलाब के रंग से सखियां प्यारी जू को प्रियतम के पीतांबर की तरफ ध्यान आकर्षित करवाना चाहती है जो वही किसी वृक्ष की डाल पर छुपकर बैठे प्यारी जू को निहार रहे है , पीला पीताम्बर थोड़ा नीचे लटके होने के कारण सखियों की दृष्टि में आ गया था ,इसलिए ही प्यारी जू को संकेत करके सावधान रहने के कारण पीले गुलाब की तरफ ध्यान आकर्षित करवाया ,लेकिन हमारी प्यारी जू तो है भोरी ,वो प्रियतम की इस चाल को नहीं समझ पाई, और पीले गुलाब के फूलों की तरफ जाने लगी , जैसे ही प्यारी जू ने पीले गुलाबो को पकड़ने के लिए हाथ ऊपर किया ,प्रियतम तो वैसे ही चतुर शिरोमणि ,वो तो पहले ही इसी तांघ में थे, झट से प्रियतम ने प्यारी जू का हाथ पकड़ लिया ।। प्यारी जू संकुचित हो गई और सखियों के सामने लज्जा से शर्मा गई ।। सखियां भी श्याम सुंदर से उलाहना देते हुए बोली , कि कभी कोई मौका छोड़ भी दिया करो , हर पल श्याम (भँवरे) की तरह ,राधा (फूल) का रसपान करने को लालायित ही रहते हो , हँसी की फुहार से गहवरवन खिल उठा ।।
श्रीकृष्णावतार से पहले जब भगवान ने देवताओं से पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के लिए कहा, तब देवताओं ने कहा -‘भगवन्! हम देवता होकर पृथ्वी पर जन्म लें, यह हमारे लिए बड़ी निंदा की बात है; परन्तु आपकी आज्ञा है, इसलिए हमें वहां जन्म लेना ही पड़ेगा फिर भी इतनी प्रार्थना है कि हमें गोप और स्त्री के रूप में वहां उत्पन्न न करें जिससे आपके अंग-स्पर्श से वंचित रहना पड़ता हो। ऐसा मनुष्य बन कर हममें से कोई भी शरीर धारण नहीं करेगा; हमें सदा आप अपने अंगों के स्पर्श का अवसर दें, तभी हम अवतार ग्रहण करेंगे।’
देवताओं की बात सुनकर भगवान ने कहा – ‘देवताओं! मैं तुम्हारे वचनों को पूरा करने के लिए तुम्हें अपने अंग-स्पर्श का अवसर अवश्य दूंगा।’
यह प्रसंग अथर्ववेद के श्रीकृष्णोपनिषत् से उल्लखित है।
श्रीकृष्ण के परिकर के रूप में किस देवता ने क्या भूमिका निभाई –
▪️ भगवान विष्णु का परमानन्दमय अंश ही नन्दरायजी के रूप में प्रकट हुआ।
▪️ साक्षात् मुक्ति देवी नन्दरानी यशोदा के रूप में अवतरित हुईं।
▪️ भगवान की ब्रह्मविद्यामयी वैष्णवी माया देवकी के रूप में प्रकट हुई हैं और वेद ही वसुदेव बने हैं; इसलिए वे सदैव भगवान नारायण का ही स्तवन करते रहते थे।
▪️ दया का अवतार रोहिणी माता के रूप में हुआ।
▪️ ब्रह्म ही श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ।
▪️ शेषनाग बलरामजी बने।
▪️ वेदों की ब्रह्मरूपा ऋचाएं हैं, वे गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुईं। भगवान महाविष्णु को अत्यन्त सुन्दर श्रीराम के रूप में वन में भ्रमण करते देखकर वनवासी मुनि विस्मित हो गए और उनसे बोले – ‘भगवन्! यद्यपि हम पुनर्जन्म लेना उचित नहीं समझते तथापि हमें आपके आलिंगन की तीव्र इच्छा है।’
श्रीराम ने कहा – ‘आप लोग मेरे कृष्णावतार में गोपिका होकर मेरा आलिंगन प्राप्त करोगे।’
▪️ गोकुल साक्षात् वैकुण्ठ है। वहां स्थित वृक्ष तपस्वी महात्मा हैं।
▪️ गोप रूप में साक्षात् श्रीहरि ही लीला-विग्रह धारण किए हुए हैं।
▪️ ऋचाएं ही श्रीकृष्ण की गौएं हैं।
▪️ ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण की लकुटी का रूप धारण किया।
▪️ रुद्र (भगवान शिव) वंशी बने।
▪️ देवराज इन्द्र सींग (वाद्य-यंत्र) बने।
▪️ कश्यप ऋषि नन्दबाबा के घर में ऊखल बने हैं और माता अदिति रस्सी के रूप में अवतरित हुईं जिससे यशोदाजी ने श्रीकृष्ण को बांधा था। कश्यप और अदिति ही समस्त देवताओं के माता-पिता हैं।
▪️ भगवान श्रीकृष्ण ने दूध-दही के मटके फोड़े हैं और उनसे जो दूध-दही का प्रवाह हुआ, उसके रूप में उन्होंने साक्षात् क्षीरसागर को प्रकट किया है और उस महासागर में वे बालक बनकर पहले की तरह (क्षीरसागर में) क्रीड़ा कर रहे थे।
▪️ भक्ति देवी ने वृन्दा का रूप धारण किया।
▪️ नारद मुनि श्रीदामा नाम के सखा बने।
▪️ शम श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा बने।
▪️ सत्य ने अक्रूर का रूप धारण किया और दम उद्धव हुए।
▪️ पृथ्वी माता सत्यभामा बनी हैं।
▪️ सोलह हजार एक सौ आठ, रुक्मिणी आदि रानियां वेदों की ऋचाएं और उपनिषद् हैं।
▪️ जगत के बीज रूप कमल को भगवान ने अपने हाथ में लीलाकमल के रूप में धारण किया।
▪️ श्रीकृष्ण का जो शंख है वह साक्षात् विष्णु है तथा लक्ष्मी का भाई होने से लक्ष्मीरूप भी है।
▪️ साक्षात् कलि राजा कंस बना है।
▪️ लोभ-क्रोधादि ने दैत्यों का रूप धारण किया है। द्वेष चारुण मल्ल बना; मत्सर मुष्टिक बना, दर्प ने कुवलयापीड़ हाथी का रूप धारण किया और गर्व बकासुर राक्षस के रूप में और महाव्याधि ने अघासुर का रूप धारण किया।
▪️ गरुड़ ने भाण्डीर वट का रूप ग्रहण किया।
▪️ भगवान के हाथ की गदा सारे शत्रुओं का नाश करने वाली साक्षात् कालिका है।
▪️ भगवान के शांर्ग धनुष का रूप स्वयं वैष्णवी माया ने धारण किया है और काल उनका बाण बना है।
▪️ धर्म ने चंवर का रूप लिया, वायुदेव ही वैजयन्ती माला के रूप में प्रकट हुए है, महेश्वर खड्ग बने हैं। भगवान के हाथ में सुशोभित चक्र ब्रह्मस्वरूप ही है।
▪️ सब जीवों को ज्ञान का प्रकाश देने वाली बुद्धि ही भगवान की क्रिया-शक्ति है।
इस प्रकार श्रीकृष्णावतार के समय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वर्गवासियों को तथा सारे वैकुण्ठधाम को ही भूतल पर उतार लिया था ।
इस प्रसंग को पढ़ने का माहात्म्य इस प्रकार है –
▪️ इससे मनुष्य को सभी तीर्थों के सेवन का फल प्राप्त होता है ।
▪️मनुष्य देह के बंधन से मुक्त हो जाता है अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता है।
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लीलाधारी भगवान कृष्ण की लीला अद्भुत है। एक बार तो श्रीराधाजी की प्रेम परीक्षा लेने के लिए नारी बन उनके महल में पहुँच गए। श्रीगर्ग संहिता में सुन्दर कृष्ण की कथा है।
शाम को श्रीराधाजी अपने राजमन्दिर के उपवन में सखियों संग टहल रही थीं, तभी बगीचे के द्वार के पास मणिमण्डप में एक अनजान पर बेहद सुन्दर युवती को खड़े देखा। वह बेहद सुन्दर थी। उसके चेहरे की चमक देख श्रीराधा की सभी सहेलियाँ अचरज से भर गईं। श्रीराधा ने गले लगाकर स्वागत किया और पूछा–
श्रीराधा ने कहा–’सुन्दरी सखी तुम कौन हो, कहाँ रहती हो और यहाँ कैसे आना हुआ ? तुम्हारा रूप तो दिव्य है। तुम्हारे शरीर की आकृति मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण जैसी है। तुम तो मेरे ही यहाँ रह जाओ। मैं तुम्हारा वैसे ही ख्याल रखूँगी जैसे भौजाई, अपनी ननद का रखती है।’
यह सुनकर युवती ने कहा–’मेरा घर गोकुल के नन्दनगर में नन्दभवन के उत्तर में थोड़ी ही दूरी पर है। मेरा नाम गोपदेवी है।
मैंने ललिता सखी से तुम्हारे रूप-गुण के बारे में बहुत सुन रखा था, इसलिए तुम्हें देखने के लोभ से चली आई।’
थोड़ी ही देर में गोपदेवी श्रीराधा और बाकी सखियों से साथ घुल-मिलकर गेंद खेलने और गीत गाने के बाद बोली–मैं दूर रहती हूँ रास्ते में रात न हो जाए इसलिए मैं अब जाती हूँ।’
उसके जाने की बात सुन श्रीराधा की आँखों से आँसू बहने लगे। वह पसीने-पसीने हो वहीं बैठ गईं। सखियों ने तत्काल पंखा झलना शुरू किया और चन्दन के फूलों का इत्र छिड़कने लगी।
यह देख गोपदेवी बोली–’सखी राधा मुझे जाना ही होगा। पर तुम चिन्ता मत करो सुबह मैं फिर आ जाऊँगी अगर ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और भाई की सौगंध है।’ यह कह वह सुन्दरी चली गई।
सुबह थोड़ी देर से गोपदेवी श्रीराधाजी के घर फिर आयी तो वह उसे भीतर ले गयीं और कहा–’मैं तुम्हारे लिए रात भर दुखी रही। अब तुम्हारे आने से जो खुशी हो रही है उसकी तो पूछो नहीं।’
श्रीराधाजी की प्रेम भरी बातें सुनने के बावजूद जब गोपदेवी ने कोई जवाब नहीं दिया और अनमनी बनी रही, तो श्री राधाजी ने गोपदेवी की इस खामोशी की वजह पूछी।
गोपदेवी बोली–’आज मैं दही बेचने निकली। संकरी गलियों के बीच नन्द के श्याम सुन्दर ने मुझे रास्ते में रोक लिया और लाज शर्म ताक पर रख मेरा हाथ पकड़ कर बोला–’मैं कर (टैक्स) लेने वाला हू्ँ। मुझे कर के तौर पर दही का दान दो।’
‘मैंने डपट दिया। चलो हटो, अपने आप ही कर लेने वाला बन कर घूमने वाले लम्पट। मैं तो कतई तुम्हें कोई कर न दूँगी।’
उसने लपक कर मेरी मटकी उतारी और फोड़कर दही पीने के बाद मेरी चुनरी उतार कर गोवर्धन की ओर चल दिया। इसी से मैं क्षुब्ध हूँ।’ श्रीराधाजी इस बात पर हँसने लगीं।
गोपदेवी बोली–’सखी यह हँसने की बात नहीं है। वह काला कलूटा, ग्वाला, न धनवान, न वीर, आचरण भी अच्छे नहीं, मुझे तो वह निर्मोही भी लगता है। सखी ऐसे लड़के से तुम कैसे प्रेम कर बैठी। मेरी मानो तो उसे दिल से निकाल दो।’
श्रीराधा जी बोलीं–’तुम्हारा नाम गोपदेवी किसने रखा ? वह ग्वाला है इसलिए सबसे पवित्र है। सारा दिन पवित्र पशु गाय की चरणों की धूल से नहाता है। तुम उन्हें निर्धन ग्वाला कहती हो ?
जिनको पाने को लक्ष्मी तरस रही हैं। ब्रह्माजी, शिवजी भी श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। उनको काला कलूटा और उसे निर्बल बताती हो। जिसने बकासुर, कालिया नाग, यमलार्जुन, पूतना जैसों का चुटकी में वध कर डाला। जो अपने भक्तों के पीछे-पीछे इसलिए घूमते हैं कि उनकी चरणों की धूल मिल जाये। उसे निर्दयी कहती हो।’
गोपदेवी बोली–’राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और मेरा अलग। किसी अकेली युवती का हाथ पकड जबरन दही छीनकर पी लेना क्या सज्जनों के गुण हैं ?’
श्रीराधाजी ने कहा–’इतनी सुन्दर होकर भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ! बड़ी अभागिन है। यह तो तेरा सौभाग्य था पर तुमने उसको गलत समझ लिया।’
गोपदेवी बोली–’अच्छा तो मैं अपना सौभाग्य समझ के क्या सम्मान भंग कराती ?’ अब तो बात बढ़ गई थी।
आखिर में गोपदेवी बोली–’अगर तुम्हारे बुलाने से श्रीकृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लूँगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वह निर्दयी नहीं है। और यदि नहीं आये तो ?’
इस पर राधा रानी बोलीं–’कि यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन तेरा।’
शर्त लगाकर श्रीराधा आँखें मूँद ध्यान में बैठ श्रीकृष्ण का एक-एक नाम लेकर पुकारने लगीं।
जैसे-जैसे श्रीराधा का ध्यान और दिल से की जाने वाली पुकार बढ़ रही थी सामने बैठी गोपदेवी का शरीर काँपता जा रहा था। श्रीराधा के चेहरे पर अब आँसूओं की झड़ी दिखने लगी।
माया की सहायता से गोपदेवी का रूप लिए भगवान श्रीकृष्ण समझ गये कि प्रेम की ताकत के आगे अब यह माया नहीं चलने वाली, मेरा यह रूप छूटने वाला है।
वे रूप बदलकर श्री राधे-राधे कहते प्रकट हो गए और बोले–’राधारानी आपने बुलाया। मैं भागता चला आ गया।’
श्रीराधाजी चारों ओर देखने लगीं तो श्रीकृष्ण ने पूछा–’अब किसको देख रही हैं ?’
श्रीराधाजी बोली–’गोपदेवी को बुलाओ, वह कहाँ गई ?’
श्रीकृष्ण बोले–’जब मैं आ रहा था तो कोई जा रही थी, कौन थी ?’
राधारानी ने उन्हें सारी बातें बतानी शुरू कीं और श्रीकृष्ण सुनने चले गए। मंद-मंद मुस्काते हुए श्रीकृष्ण ने कहा–आप बहुत भोली हैं। ऐसी नागिनों को पास मत आने दिया करें।’
एक बार की बात है। एक संत जंगल में कुटिया बना कर रहते थे और वो भगवान श्री कृष्ण का भजन करते थे। संत को यकींन था कि एक ना एक दिन मेरे भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात् दर्शन जरूर देंगे। उसी जंगल में एक शिकारी आया। उस शिकारी ने संत कि कुटिया देखी। वह कुटिया में गया और उसने संत को प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन हैं और आप यहाँ क्या कर रहे हैं। संत ने सोचा यदि मैं इससे कहूंगा कि भगवान श्री कृष्ण के इंतजार में बैठा हूँ। उनका दर्शन मुझे किसी प्रकार से हो जाये। तो शायद इसको ये बात समझ में नहीं आएगी। संत ने दूसरा उपाय सोचा। संत ने किरात से पूछा- भैया! पहले आप बताओ कि आप कौन हो और यहाँ किसलिए आये हो? उस किरात ( शिकारी ) ने कहा कि मैं एक शिकारी हूँ और यहाँ शिकार के लिए आया हूँ। संत ने तुरंत उसी की भाषा में कहा मैं भी एक शिकारी हूँ और अपने शिकार के लिए यहाँ आया हूँ। शिकार ने पूछा- अच्छा संत जी, आप ये बताइये आपका शिकार कैसा दिखता है? हो सकता है कि मैं आपकी मदद कर दूँ? संत ने सोचा इसे कैसे बताऊ, फिर भी संत कहते हैं- मेरा शिकार दिखने में बहुत ही सुंदर है, सांवरा सलोना है। उसके सिर पर मोर मुकुट है और हाथों में बंसी है। ऐसा कहकर संत जी रोने लगे। किरात बोला: बाबा रोते क्यों हो ? मैं आपके शिकार को जब तक ना पकड़ लूँ, तब तक पानी भी नहीं पियूँगा और आपके पास नहीं आऊंगा। अब वह शिकारी घने जंगल के अंदर गया और जाल बिछा कर एक पेड़ पर बैठ गया। यहाँ पर इंतजार करने लगा। भूखा प्यासा बैठा हुआ है। एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता और फिर तीसरा दिन। भूखे प्यासे किरात को नींद भी आने लगी। बांके बिहारी जी को उस पर दया आ गई। भगवान उसके भाव पर रीझ गए। भगवान मंद मंद स्वर से बांसुरी बजाते आये और उस जाल में खुद फंस गए। जैसे ही किरात को फसे हुए शिकार का अनुभव हुआ हुआ तो तुरंत नींद से उठा और उसने देखा… सांवरे सलोना , सिर पर मोर मुकुट है और हाथों में बंसी है। जैसा संत ने बताया था उनका रूप हूबहू वैसा ही था। वह अब जोर जोर से चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया, शिकार मिल गया। शिकारी ने उस शिकार को जाल समेत कंधे पर बिठा लिया। और शिकारी कहता हुआ जा रहा है आज तीन दिन के बाद मिले हो, खूब भूखा प्यासा रखा। अब तुम्हे मैं छोड़ने वाला नहीं हूँ। शिकारी धीरे धीरे कुटिया की ओर बढ़ रहा था। जैसे ही संत की कुटिया आई तो शिकारी ने आवाज लगाई- बाबा! बाबा ! संत ने तुरंत दरवाजा खोला और देखा उस किरात के कंधे पर भगवान श्री कृष्ण जाल में फसे हुए मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं। किरात ने कहा: आपका शिकार लाया हुँ। मुश्किल से मिले हैं। संत के आज होश उड़ गए। संत किरात के चरणो में गिर पड़े। संत आज फुट फुट कर रोने लगे। संत ने भगवान से पूछा- मैंने आज तक हे प्रभु आपको पाने के लिए अनेक प्रयास किये, लेकिन आज आप मुझे इस किरात के कारण मिले हो। भगवान बोले:- इस शिकारी का प्रेम तुम से ज्यादा है। इसका भाव तुम्हारे भाव से ज्यादा है। इसका विश्वास तुम्हारे विश्वास से ज्यादा है। मैं तो अपने भक्तों के अधीन हूँ। और आपकी भक्ति भी कम नहीं है संत जी। आपके दर्शनों के फल से मैं इस भूखे प्यासे किरात को आज जब तीन दिन बीत गए तो मैं आये बिना नहीं रह पाया। किरात को इसलिए तीन ही दिन में प्राप्त हो गया l जय श्रीकृष्ण, श्री कृष्ण शरणम् , प्रेम से बोलो…. राधे राधे
एक अत्यंत रोचक घटना है, माँ महालक्ष्मी की खोज में भगवान विष्णु जब भूलोक पर आए, तब यह सुंदर घटना घटी। भूलोक में प्रवेश करते ही, उन्हें भूख एवं प्यास मानवीय गुण प्राप्त हुए, भगवान श्रीनिवास ऋषि अगस्त्य के आश्रम में गए और बोले, “मुनिवर मैं एक विशिष्ट कार्य से भूलोक पर (पृथ्वी) पर आया हूँ और कलयुग का अंत होने तक यहीं रहूँगा। मुझे गाय का दूध अत्यंत पसंद है और और मुझे अन्न के रूप में उसकी आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि आपके पास एक बड़ी गौशाला है, उसमें अनेक गाएँ हैं, मुझे आप एक गाय दे सकते हैं क्या ?” ऋषि अगस्त्य हँसे और कहने लगे, “स्वामी मुझे पता है कि आप श्रीनिवास के मानव स्वरूप में, श्रीविष्णु हैं। ऐसी ही अनेकानेक रोचक एवं ज्ञानवर्धक कथाओं को पढ़ने के लिये हमारे फेसबुक पेज–’श्रीजी की चरण सेवा’ के साथ जुड़े रहें। मुझे अत्यंत आनंद है कि इस विश्व के निर्माता और शासक स्वयं मेरे आश्रम में आए हैं, मुझे यह भी पता है की आपने मेरी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए यह मार्ग अपनाया है, फिर भी स्वामी, मेरी एक शर्त है कि मेरी गौशाला की पवित्र गाय केवल ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो उसकी पत्नी संग यहाँ आए, मुझे आप को उपहार स्वरूप गाय देना अच्छा लगेगा, परंतु जब तुम मेरे आश्रम में देवी लक्ष्मी संग आओगे, और गौदान देने के लिए पूछोगे, तभी मैं ऐसा कर पाऊँगा।” भगवान श्रीनिवास हँसे और बोले’ “ठीक है मुनिवर, तुम्हें जो चाहिए वह मैं करूँगा।” ऐसा कहकर वे वापस चले गए।
बाद में भगवान श्रीनिवास ने देवी पद्मावती से विवाह किया। विवाह के कुछ दिन पश्चात भगवान श्रीनिवास, उनकी दिव्य पत्नी पद्मावती के साथ, ऋषि अगस्त्य महामुनि के आश्रम में आए पर उस समय ऋषि आश्रम में नहीं थे। भगवान श्रीनिवासन से उनके शिष्यों ने पूछा, “आप कौन हैं ? और हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ?” प्रभु ने उत्तर दिया, “मेरा नाम श्रीनिवासन है, और यह मेरी पत्नी पद्मावती है। आपके आचार्य को मेरी प्रतिदिन की आवश्यकता के लिए एक गाय दान करने के लिए कहा था, परंतु उन्होंने कहा था कि पत्नी के साथ आकर दान मांगेंगे तभी मैं गाय दान दूँगा। यह तुम्हारे आचार्य की शर्त थी, इसीलिए मैं अब पत्नी संग आया हूँ।” शिष्यों ने विनम्रता से कहा, “हमारे आचार्य आश्रम में नहीं है इसीलिए कृपया आप गाय लेने के लिए बाद में आइये।” श्रीनिवासन हंँसे और कहने लगे, “मैं आपकी बात से सहमत हूंँ, परंतु मैं संपूर्ण जगत का सर्वोच्च शासक हूंँ, इसीलिए तुम सभी शिष्यगण मुझ पर विश्वास रख सकते हैं और मुझे एक गाय दे सकते हैं, मैं फिर से नहीं आ सकता।” शिष्यों ने कहा, “निश्चित रूप से आप धरती के शासक हैं बल्कि यह संपूर्ण विश्व भी आपका ही है, परंतु हमारे दिव्य आचार्य हमारे लिए सर्वोच्च हैं, और उनकी आज्ञा के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते।”
धीरे-धीरे हंसते हुए भगवान कहने लगे, “आपके आचार्य का आदर करता हूँ कृपया वापस आने पर आचार्य को बताइए कि मैं सपत्नीक आया था।” ऐसा कहकर भगवान श्रीनिवासन तिरुमाला की दिशा में जाने लगे। कुछ मिनटों में ऋषि अगस्त्य आश्रम में वापस आए, और जब उन्हें इस बात का पता लगा तो वे अत्यंत निराश हुए। “श्रीमन नारायण स्वयं माँ लक्ष्मी के संग, मेरे आश्रम में आए थे। दुर्भाग्यवश मेैं आश्रम में नहीं था, बड़ा अनर्थ हुआ। फिर भी कोई बात नहीं, प्रभु को जो गाय चाहिए थी, वह तो देना ही चाहिए।” ऋषि तुरंत गौशाला में दाखिल हुए, और एक पवित्र गाय लेकर भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती की दिशा में भागते हुए निकले, थोड़ी दूरी पर श्रीनिवास एवं पत्नी पद्मावती उन्हें नजर आए।
उनके पीछे भागते हुए ऋषि तेलुगु भाषा में पुकारने लगे, स्वामी (देवा) गोवु (गाय) इंदा (ले जाओ) तेलुगु में गोवु अर्थात गाय, और इंदा अर्थात ले जाओ। स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… (स्वामी गाय ले जाइए).. कई बार पुकारने के पश्चात भी भगवान ने नहीं देखा, इधर मुनि ने अपनी गति बढ़ाई, और स्वामी ने पुकारे हुए शब्दों को सुनना शुरू किया। भगवान की लीला, उन शब्दों का रूपांतर क्या हो गया। स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, गोविंदा गोविंदा गोविंदा !! ऋषि के बार बार पुकारने के पश्चात भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर एवं देवी पद्मावती वापिस मुड़े और ऋषि से पवित्र गाय स्वीकार की।
श्रीनिवासन जी ने ऋषि से कहा, “मुनिवर तुमने ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में मेरे सबसे प्रिय नाम गोविंदा को 108 बार बोल दिया है, कलयुग के अंत तक पवित्र सप्त पहाड़ियों पर मूर्ति के रूप में भूलोक पर रहूँगा, मुझे मेरे सभी भक्त “गोविंदा” नाम से पुकारेंगे। इन सात पवित्र पहाड़ियों पर, मेरे लिए एक मंदिर बनाया जाएगा, और हर दिन मुझे देखने के लिए बड़ी संख्या में भक्त आते रहेंगे। भक्त पहाड़ी पर चढ़ते हुए, अथवा मंदिर में मेरे सामने मुझे, गोविंदा नाम से पुकारेंगे।
मुनिराज कृपया ध्यान दीजिए, हर समय मुझे इस नाम से पुकारे जाते वक्त, तुम्हें भी स्मरण किया जाएगा क्योंकि इस प्रेम भरे नाम का कारण तुम हो, यदि किसी भी कारणवश कोई भक्त मंदिर में आने में असमर्थ रहेगा, और मेरे गोविंदा नाम का स्मरण करेगा। तब उसकी सारी आवश्यकता मैं पूरी करूँगा। सात पहाड़ियों पर चढ़ते हुए जो गोविंदा नाम को पुकारेगा, उन सभी श्रद्धालुओं को मैं मोक्ष दूँगा।
एक मैया अपने श्याम सुन्दर की बड़ी सेवा करती थी। वह प्रातः उठकर अपने ठाकुर जी को बड़े प्यार दुलार और मनुहार से उठाती और स्नान श्रृंगार के बाद उनको आइना दिखाती। उसके बाद भोग लगाती थी। एक बार उसको एक मास की लंबी यात्रा पर जाना पड़ा। जाने से पूर्व उसने ठाकुर जी की सेवा अपनी पुत्रवधू को सौंपते हुई समझा रही थी। ठाकुर जी की सेवा में कोई कमी न करना। उनको श्रृंगार के बाद आइना दिखाना इतना अच्छा श्रृंगार करना कि ठाकुर जी मुस्करा दें।
दूसरे दिन बहू ने सास की आज्ञानुसार ठाकुर जी की सेवा की। उनको श्रृंगार के बाद दर्पण दिखाया और उसी दर्पण में धीरे से देखने लगी कि ठाकुर जी मुस्कराए या नहीं। ठाकुर जी को जब मुस्कराता न देखा तो सोचा श्रृंगार में कमी हो गई होगी। पगड़ी बंसी पोशाक सब ठीक करके फिर दर्पण दिखा कर झुक कर देखा ठाकुर जी पहले जैसे खड़े थे। एक बार पुनः पोशाक श्रृंगार ठीक किया, फिर से दर्पण दिखाया ठाकुर जी नहीं मुस्कराए। अब बेचारी डर गई सोचा शायद ठीक से नहीं नहलाया है।
फिर से कपडे उतार कर ठाकुर जी को स्नान कराया, पोशाक और श्रृंगार पधराया। पुनः दर्पण दिखाया, किंतु ठाकुर जी की मुस्कान न देख सकी। एक बार फिर पोशाक उतार कर पूरा क्रम दुहराया। ठाकुर जी की मुस्कान तो नहीं मिली।
इस प्रकार उसने 12 बार यही उपक्रम किया। सुबह से दोपहर हो चुकी थी। घर का सब काम बाकी पड़ा था। न कुछ खाया था न पानी पिया था। बहुत जोर की भूख प्यास लगी थी, किंतु सास के आदेश की अवहेलना करने की उसकी हिम्मत नहीं थी। तेरहवीं बार उसने ठाकुर जी के वस्त्र उतारे। पुनः जल से स्नान कराया। ठाकुर जी सुबह से सर्दी के मौसम में स्नान कर कर के तंग हो चुके थे। उन्हें भी जोर की भूख प्यास लगी थी, इस बार फिर से वस्त्र आभूषण पहन रहे थे, किन्तु उनके मन में भी बड़ी दुविधा थी क्या करूँ ? श्रृंगार होने के बाद आसन पर विराज चुके थे। बहू ने दर्पण उठाया, ठाकुर जी ने निश्चय कर लिया था मुस्कराने का।
जैसे ही उसने दर्पण दिखाया और झुक कर बगल से देखने की चेष्टा की श्याम सुन्दर मुस्करा रहे थे। उनकी भुवन मोहिनी हंसी देख कर बहू विस्मित हो गई। सारी दुनिया को भूल गई। थोड़ी देर में होश में आने के बाद उसको लगा। शायद मेरा भ्रम हो, ठाकुर जी तो हँसे नहीं। उसने पुनः दर्पण दिखाया। ठाकुर जी ने सोचा प्यारे अगर भोजन पाना है तो हँसना पड़ेगा। वे मध्यम-मध्यम हँसने लगे, ऐसी हँसी उसने पहले नहीं देखी थी।
वह मन्द हास उसके ह्रदय में बस गया था। उस छवि को देखने का उसका बार-बार मन हुआ। एक बार फिर उसने दर्पण दिखाया और ठाकुर जी को मुस्कराना पड़ा। अब तो मारे ख़ुशी के वह फूली न समाई बड़े प्रेम से उनको भोग लगाया और आरती की। दिन की शेष सेवाएं भी की और रात्रि को शयन कराया।
अगले दिन पुनः उसने पहली बार ही जैसे ठाकुर जी को स्नान करा के और वस्त्राभूषणों को पहना कर सुन्दर श्रृंगार करके आसन पर विराजमान किया और दर्पण दिखाया ठाकुर जी कल की घटनाओं और भूख को याद किया। ठन्डे जल से 13 बार का स्नान याद करके ठाकुर जी ने मुस्कराने में ही अपनी भलाई समझी। उसने तीन बार ठाकुर जी को दर्पण दिखाया और उनकी मनमोहक हँसी का दर्शन किया। आगे की सेवा भी क्रमानुसार पूरी की। अब तो ठाकुर जी रोज ही यही करने लगे दर्पण देखते ही मुस्करा देते। बहू ने सोचा शायद उसको ठीक से श्रृंगार करना आ गया है, वह इस सेवा में निपुण हो गई है।
एक मास बाद जब मैया यात्रा से वापस आई आते ही उसने बहू से सेवा के बारे में पूछताछ की। बहू बोली मैया मुझे एक दिन तो सेवा मुश्किल लगी, किन्तु अब मैं निपुण हो गई हूँ। अगले दिन मैया ने स्वयं अपने हाथों से सारी सेवा की श्रृंगार कराया अब दर्पण लेने के लिए हाथ उठाया ठाकुर जी स्वयं प्रकट हो गए। मैया का हाथ पकड़ लिया बोले–”मैया ! मैं तेरी सेवा से प्रसन्न तो हूँ, पर दर्पण दिखाने की सेवा तो मैं तेरी बहूरानी से ही करवाऊंगा, तू तो रहने दे।” मैया बोली–”लाला ! क्या मुझसे कोई भूल हुई। ठाकुर जी ने कहा–”नहीं मैया ! भूल तो नहीं हुई, पर मेरा मुस्कराने का मन करता है, और मैं तो तेरी बहूरानी के हाथ से दर्पण देखकर मुस्कराने की आदत डाल चुका हूँ, अब ये सेवा तू उसी को करने दे।”
मैया ने बहूरानी को आवाज लगाई और उससे सारी बात पूँछी, बहू ने बड़े सहज भाव से बता दिया हाँ ऐसा रोज मुस्कराते हैं ये केवल पहले दिन समय लगा था। मैया बहू रानी की श्रद्धा और उसकी लगन और ठाकुर जी दर्शन से अति प्रसन्न हो गई। उसे पता चल गया कि उसकी बहू ने ठाकुर जी को अपने प्रेम से पा लिया है। मैया अपनी बहू रानी को ठाकुर जी की सेवा सौप कर निश्चिन्त हो गई।
एक दिन ठाकुर जी ने ग्वालबालो से कहा की आज तो हम प्रभा काकी के यहाँ माखन चोरी करने चलेंगे।
एक ग्वारिया ने कहा की लाला फिर तो आज हम एकादशी करेंगे, ठाकुर जी बोले क्यों ? ग्वारिया बोला लाला तुझे पता नही है प्रभा गोपी कैसी है। एक हाथ कमर पे पड़ जावे तो पाँच दिन तक गर्म नमक का सेक करना पड़ता है। ठाकुर जी बोले तुझे कैसे पता ? ग्वारिया बोला मैं उसका पति हूँ, भुगत भोगी हूँ।
ठाकुर जी बोले तू उसका पति है तो हमारी मण्डली में क्या कर रहा है ? ग्वारिया बोला मुझे भी खाने को कुछ देती नही तो मुझे भी तुम्हारी मण्डली में आना पड़ा। ठाकुर जी कहते हैं, ‘मैंने तो आज तय कर लिया, में तो प्रभावती गोपी के यहाँ, जाऊँगा, सो जाऊँगा।’
गोपियाँ मैया से शिकायत बहूँत करती थी, तो मैया ने ठाकुर जी के पग में नुपुर पहना दिए, और गोपियाँ से कहा की जब मेरा लाला तुम्हारे यहाँ माखन चोरी करने आवेगा, तो घुघरूँ की छम-छम की आवाज आयेगी, तब तुम लाला को पकड लेना। ठाकुर जी देखा की गोपी के घर के बाहर गोबर पड़ा है, ठाकुरजी उस गोबर में दोनों पैर डाल कर जोर जोर से कूदे तो घुँघुरु में गोबर भर गया, और आवाज आना बन्द हो गयी। अब ठाकुर जी धीरे-धीरे पाँव धरते हूँए, दोनों हाथ मटकी में ड़ाल कर माखन खाने लगे। प्रभा गोपी पीछे ही खड़ी थी, और पीछे से आकर ठाकुर जी को पकड़कर बोली, ‘ऐ धम्म’ ठाकुरजी बोले, ‘रे ये कौन आ गयी’, पीछे मुड़ के देखे तो गोपी ! ठाकुर जी बोले, ‘ओ गोपी तुम।’
गोपी बोली, ‘रे चोर कहीं के, चोरी करने आया।’ ठाकुर जी बोले, ‘मैंने चोरी कहा की, नहीं मैं चोरी करने नही आया, मैं तो मेरे घर आया।’ गोपी बोली, ‘ये तेरा घर है, जरा देख तो ?’ ठाकुरजी ने ऐसी भोली-सी शक्ल बनाई, और इधर उधर देख के बोले, ‘अरे सखी क्या करूँ मुझे तो कुछ खबर ही नही पड़ती, क्या बताऊँ दिन भर गैया चराता हूँ, और श्याम को बाबा के साथ हथाई पे जाता हूँ, इतना थक जाता हूँ की मुझे तो खबर ही नही पड़ती, की मेरा घर कौन-सा, तेरा घर कौन-सा। कोई बात नही गोपी तू भी तो मेरी काकी है, तेरा घर सो मेरा घर, तेरा घर सो मेरा घर।’ गोपी बोली, ‘रे कब से तेरा घर सो मेरा घर बोले जा रहा है, एक बार भी ये नही कहें की मेरा घर सो तेरा घर, बड़ा चतुर है, चोरी करता है ?’ ठाकुरजी बोले सखी, मैंने चोरी नही की।’
गोपी बोली, ‘लाला अगर तूने चोरी नही की तो तेरे हाथों पे माखन कैसे लग गयो ?’ ठाकुर जी बोले, ‘सखी वो तो मैं भीतर आयो तो देखा की मटकी पे चींटियाँ चिपक रही है, तो मैंने सोचा की मेरी मैया को सूजे ना है ! संध्या के समय मैया माखन के संग-संग चींटियाँ परोस देगी ! सो माखन से चींटियाँ निकालीं तो हाथों पर माखन लग गयो। बाकि मैंने खाया तो नही।’
सखी बोली, ‘लाला तू ने खाया नही तो तेरे मुख पे कैसे लग गयो ?’ ठाकुरजी बोले, ‘सखी मैं तो ठहरो सीधो पर एक चींटी तेरे जैसी चंचल थी, वो मेरे जंघा पे चढ़ गयी, मैंने कछु ना कियो, फिर वो मेरे पेट पे चढ़ी, मैंने कछु ना कियो, जब वो मेरे मुख पे चढ़ी तो खुजली होने लगी, तकब खुजली करते हुए माखन मुँह पे लग गयो, बाकि मैंने खाया तो नहीं।’
गोपी बोली, ‘आज में तोहे छोड़ने वाली नही हूँ।’ ठाकुरजी बोले, ‘सखी मोहे जाने दे, सखी मोहे छोड़ दे, सखी अब कभी चोरी नही करूँगा।’ सखी तेरी कसम, सखी तेरे बाबा की कसम, सखी तेरे भैया की कसम, सखी तेरे फूफा की कसम, सखी तेरे फुआ की कसम, सखी तेरे मामा की कसम, सखी तेरे खसम की कसम, अब कभी चोरी नही करूँगा।’
गोपी बोली, ‘रे मेरे रिश्तेदरो को ही मार रहा है, एक, दो, तो तेरे भी नाम ले।’ मन-ही-मन गोपी ठाकुरजी की इस अद्भुत लीला को देखकर आनन्दित हो रही है। सोच रही है, ‘मेरे अहोभाग्य जो आज ठाकुरजी मेरे घर पधारे अपने हाथों से भोग लगाने के लिये।’ ठाकुरजी की कोमल वाणी से गोपी को दया आ गई की छोटो सो लालो है शायद घर भूल गया होगा, और ठाकुर जी बच निकले। ऐसे कौतुक करते हैं ठाकुरजी गोपियाँ को सुख पहुँचाने के लिये।
एक बार एक किसान जंगल में लकड़ी बिनने गया तो उसने एक अद्भुत बात देखी। एक लोमड़ी के दो पैर नहीं थे, फिर भी वह खुशी-खुशी घसीट कर चल रही थी। यह कैसे जीवित रहती है जबकि किसी शिकार को भी नहीं पकड़ सकती, किसान ने सोचा। तभी उसने देखा कि एक शेर अपने दांतो में एक शिकार दबाए उसी तरफ आ रहा है। सभी जानवर भागने लगे, वह किसान भी पेड़ पर चढ़ गया। उसने देखा कि शेर, उस लोमड़ी के पास आया। उसे खाने की जगह, प्यार से शिकार का थोड़ा हिस्सा डालकर चला गया। दूसरे दिन भी उसने देखा कि शेर बड़े प्यार से लोमड़ी को खाना देकर चला गया। किसान ने इस अद्भुत लीला के लिए भगवान का मन में नमन किया। उसे अहसास हो गया कि भगवान जिसे पैदा करते है उसकी रोटी का भी इंतजाम कर देते हैं।
यह जानकर वह भी एक निर्जन स्थान चला गया और वहां पर चुपचाप बैठ कर भोजन का रास्ता देखता। कई दिन व्यतीत हो गए, कोई नहीं आया। वह मरणासन्न होकर वापस लौटने लगा, तभी उसे एक विद्वान महात्मा मिले। उन्होंने उसे भोजन पानी कराया, तो वह किसान उनके चरणों में गिरकर वह लोमड़ी की बात बताते हुए बोला, महाराज, भगवान ने उस अपंग लोमड़ी पर दया दिखाई पर मैं तो मरते-मरते बचा; ऐसा क्यों हुआ कि भगवान् मुझ पर इतने निर्दयी हो गए ?
महात्मा उस किसान के सिर पर हाथ फिराकर मुस्कुराकर बोले, तुम इतने नासमझ हो गए कि तुमने भगवान का इशारा भी नहीं समझा इसीलिए तुम्हें इस तरह की मुसीबत उठानी पड़ी। तुम ये क्यों नहीं समझे कि भगवान् तुम्हे उस शेर की तरह मदद करने वाला बनते देखना चाहते थे, निरीह लोमड़ी की तरह नहीं।
हमारे जीवन में भी ऐसा कई बार होता है कि हमें चीजें जिस तरह समझनी चाहिए उसके विपरीत समझ लेते हैं। ईश्वर ने हम सभी के अंदर कुछ न कुछ ऐसी शक्तियाँ दी हैं जो हमें महान बना सकती हैं। चुनाव हमें करना है, शेर बनना है या लोमड़ी।
राधाजी और श्रीकृष्ण का प्रेम अलौकिक था। राधा कृष्ण के प्रेम को सांसारिक दृष्टि से देखेंगे तो समझ ही नहीं पायेंगे। इसे समझने को तो पहले आपको राधा और कृष्ण दोनों से स्वयं प्रेम करना होगा।
श्रीकृष्ण का हृदय तो व्रज में ही रहता था परन्तु उनकी बहुत सी लीलाएँ शेष थीं। इसलिए उन्हें द्वारका जाना पड़ा। गए तो थे यह कहकर कि कुछ ही दिनों में वापस ब्रजलोक आयेंगे, पर द्वारका के राजकाज में ऐसे उलझे कि मौका ही नहीं मिल पाया। राधा कृष्ण दूर-दूर थे। गोपाल अब राजा बन गए थे। स्वाभाविक है कि राजकाज के लिए समय देना ही पड़ता। स्वयं भगवान ही जिन्हें राजा के रूप में मिल गए हों उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा होगी। द्वारकावासी दिनभर उन्हें घेरे रहते। जो एकबार दर्शन कर लेता वह तो जाने का नाम नहीं लेता। बार-बार आता। प्रभु मना कैसे करें और क्यों करें?
ब्रज से दूर श्रीकृष्ण हमेशा अकेलापन महसूस करते। उन्हें गोकुल और व्रज हमेशा याद आता। जिस भी व्रजवासी के मन में अपने लल्ला से मिलने की तीव्र इच्छा होती श्रीकृष्ण उसे स्वप्न में दर्शन दे देते। स्वप्न में आते तो उलाहना मिलती, इतने दिनों से क्यों नहीं आए। यही सिलसिला था। भक्त और भगवान वैसे तो दूर-दूर थे। फिर भी स्वप्न में ही दर्शन हों जायें, तो ऐसे भाग्य को कोई कैसे न सराहे।
श्रीकृष्ण से विरह से सबसे ज्यादा व्याकुल तो राधाजी थीं। राधा और कृष्ण मिलकर राधेकृष्ण होते थे पर दोनों भौतिक रूप से दूर थे।
एक दिन की बात है। राधाजी सखियों संग कहीं बैठी थीं। अचानक एक सखी की नजर राधाजी के पैर पर चली गई। पैर में एक घाव से खून बह रहा था।
राधा जी कै पैर में चोट लगी है, घाव से खून बह रहा है। सभी चिन्तित हो गए कि उन्हें यह चोट लगी कैसे। लगी भी तो किसी को पता क्यों न चला।
सबने राधा जी से पूछा कि यह चोट कैसे लगी? राधाजी ने बात टालनी चाहा। अब यह तो इंसानी प्रवृति है आप जिस बात को जितना टालेंगे, लोग उसे उतना ही पूछेंगे।
राधा जी ने कहा–एक पुराना घाव है। वैसे कोई खास बात है नहीं। चिंता न करो सूख जाएगा। सखी ने पलटकर पूछ लिया–पुराना कैसे मानें? इससे तो खून बह रहा है। यदि पुराना है, तो अब तक सूखा क्यों नहीं ? यह घाव कैसे लगा, कब लगा? क्या उपचार कर रही हो ? जख्म नहीं भर रहा कहीं कोई दूसरा रोग न हो जाए!
एक के बाद एक राधाजी से सखियों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। उन्हें क्या पता, जिन राधाजी की कृपा से सबके घाव भरते हैं, उन्हें भयंकर रोग भला क्या होगा!
राधाजी समझ गईं कि अगर उत्तर नहीं दिया तो यह प्रश्न प्रतिदिन होगा। इसलिए कुछ न कुछ कहके पीछा छुड़ा लिया जाए, उसी में भला है।
राधा जी बोलीं–एक दिन मैंने खेल-खेल में कन्हैया की बांसुरी छीन ली। वह अपनी बांसुरी लेने मेरे पीछे दौड़े। बांसुरी की छीना-झपटी में अचानक उनके पैर का नाखून मेरे पांव में लग गया। यह घाव उसी चोट से बना है।
राधा जी ने गोपियों को बहलाने का प्रयास तो किया पर सफल नहीं रहीं। किसी ने भी उनकी इस बात का विश्वास न किया। प्रश्नों से भाग रही थीं, अब पलटकर फिर से प्रश्न शुरू हो गए।
सखियों ने पूछा–यदि यह घाव कान्हा के पैरों के नाखून से हुआ तो अबतक सूखा क्यों नहीं? कान्हा को गए तो कई बरस हो गए हैं। इतने में तो कोई भी घाव सूख जाए। देखो कुछ छुपाओ मत। हमसे छुपा न सकोगी। आज नहीं तो कल पता तो चल ही जाएगा। सो अच्छा है कि आज ही बता दो।
राधा जी समझ गईं कि सखियों को आधी बात बताकर बहलाया नहीं जा सकता। वह तो अपने कन्हैया से आज ही रात स्वप्न में पूछ लेंगी। बात तो खुल ही जाएगी इसलिए बता ही देना चाहिए।
राधा जी बोलीं–घाव सूखता तो तब न, जब मैं इसे सूखने देती। मैं रोज इसे कुरेदकर हरा कर देती हूँ।
सखियों की तो आँख फटी रह गई ये सुनकर कि राधा जी घाव को हरा कर रही हैं। यह तो बड़ी विचित्र बात हुई। सबके चेहरे पर एक साथ कई भाव आए। अब राधा जी से फिर से प्रश्नों की झड़ी लगने वाली थी। इससे पहले कि कोई कुछ कहे राधाजी ने ही बात पूरी कर दी। राधाजी थोड़े दुखी स्वर में बोलीं–कान्हा रोज सपने में आकर इस घाव का उपचार कर देते हैं। घाव के उपचार के लिए ही सही, कन्हैया मेरे सपनों में आते तो हैं। अगर यह सूख गया तो क्या पता वह सपने में भी आना छोड़ दें।
प्रभु दूर बैठे सब सुन रहे थे। उनकी आँखों में आँसू भर आए। वहीं पास में उद्धव जी बैठे थे। उन्होंने प्रभु की आँखों से छलकते आँसू देख लिए। उद्धवजी हैरान-परेशान हो गए। सबके आँसू दूर करने वाले श्रीकृष्ण रो रहे हैं। यह क्या हो रहा है। कौन सा अनिष्ट देख लिया। कौन सा अनिष्ट घटित होने वाला है। उद्धवजी चाह तो नहीं रहे कि प्रभु के नितान्त निजी बात में हस्तक्षेप करें पर कौतूहल भी तो है।
उद्धवजी स्वयं को रोक ही न पाए। उन्होंने श्रीकृष्ण से आँसू का कारण पूछ ही लिया। भगवान ने भी अपने सखा उद्धव से कुछ भी न छुपाया। सारी बात साफ-साफ बता दी।
उद्धव को यकीन नहीं हुआ कि ब्रजवासी श्रीकृष्ण से इतना प्रेम करते हैं। भगवान नित्य उन्हें सपने में जाते हैं। उनके उलाहने लेते हैं, उनका उपचार करते हैं। इतनी फुर्सत कहाँ है इन्हें। यह सब भाव उद्धव के मन में आ रहे थे। भगवान उद्धव की शंका ताड़ गए।
उन्होंने उद्धव से कहा–उद्धव आप तो परमज्ञानी हैं। किसी को भी अपने वचन से सन्तुष्ट कर सकते हैं। मेरे जाने से पहले आप एक बार ब्रज हो आइए। ब्रजवासियों को अपनी वाणी से मेरी विवशता के बारे में समझाकर शांत करिए। उसके बाद मैं जाऊँगा।
उद्धव ब्रज गए। उन्हें गर्व था कि वह ज्ञानी हैं और किसी को भी अपनी बातों से समझा लेंगे। चिकनी-चुपड़ी बातों से गोपियों को समझाने की कोशिश की। गोपियों ने इतनी खिंचाई की, कि सारा ज्ञान धरा का धरा रह गया।
गोपियों के मन भगवान के प्रति प्रेम देखकर वह स्तब्ध रह गए। द्वारका में श्रीकृष्ण के आँसू देखकर जो शंका की थी उसके लिए बड़े लज्जित हुए।
गोपियों ने श्रीकृष्ण से अपने प्रेमभाव का जो वर्णन शुरू किया तो उद्धव की आँखें स्वयं झर-झरकर बहने लगीं। वह भाव-विभोर हो गए। राधा और कृष्ण के बीच अलौकिक प्रेम को उद्धव ने तभी समझा।
बरसाने में एक संत किशोरी जी का बहुत भजन करते थे और रोज ऊपर दर्शन करने जाते थे राधा रानी के महल में। बड़ी निष्ठा, बड़ी श्रद्धा थी किशोरी जी के चरणों में उन संत की।
एक बार उन्होंने देखा की भक्त राधा रानी को बरसाने मन्दिर में पोशाक अर्पित कर रहे थे। उन महात्मा जी के मन में भाव आया की मैंने आज तक किशोरी जी को कुछ भी नहीं चढ़ाया, और लोग आ रहे हैं तो कोई फूल चढ़ाता है, कोई भोग लगाता है, कोई पोशाक पहनाता है, और मैंने कुछ भी नही दिया, अरे मैं कैसा भक्त हूँ। तो उन महात्मा जी ने उसी दिन निश्चय कर लिया की मैं अपने हाथों से बनाकर राधा रानी को सुन्दर सी एक पोशाक पहनाऊँगा। ये सोचकर उसी दिन से वो महात्मा जी तैयारी में लग गए और बहुत प्यारी सुंदर सी एक पोशाक बनाई, पोशाक तैयार होने में एक महीना लगा। कपड़ा लेकर आयें, अपने हाथों से गोटा लगाया और बहुत प्यारी पोशाक बना ली। पोशाक जब तैयार हो गई तो वो पोशाक अब लेकर ऊपर किशोरी जी के चरणों में अर्पित करने जा रहा थे।
बरसाने की तो सीढियाँ हैं काफी ऊँची तो वो महात्मा जी उपर चढ़कर जा रहे हैं। अभी महात्मा आधी सीढियों तक ही पहुँचे होंगे की तभी बरसाने की एक छोटी सी लड़की उस महात्मा जी को बोलती है कि बाबा ये कहाँ ले जा रहे हो आप ? आपके हाथ में ये क्या है ? वो महात्मा जी बोले की लाली ये मै किशोरी जी के लिए पोशाक बना के उनको पहनाने के लिए ले जा रहा हूँ। वो लड़की बोली अरे बाबा राधा रानी पे तो बहुत सारी पोशाक हैं, तो ये पोशाक मेरे को दे दो ना ? महात्मा जी बोले की बेटी तुझे मैं दूसरी बाजार से दिलवा दूँगा ये तो मै अपने हाथ से बनाकर राधा रानी के लिये लेकर जा रहा हूँ। लेकिन उस छोटी सी बालिका ने उस महात्मा का दुपट्टा पकड़ लिया। बाबा ये मेरे को दे दे, पर सन्त भी जिद करने लगे की दूसरी दिलवाऊँगा ये नहीं दूँगा लेकिन वो बच्ची भी इतनी तेज थी, की संत के हाथ से छुड़ाकर पोशाक ले भागी।
महात्मा जी बहुत दुखी हो गए, बूढ़े महात्मा जी अब कहाँ ढूंढे उसको तो वही सीढ़ियों पर बैठकर रोने लगे। जब कई संत मंदिर से निकले तो पूछा महाराज क्यों रो रहे हो ? तो सारी बात बताई की जैसे-तैसे तो बुढ़ापे में इतना परिश्रम करके ये पोशाक बनाकर लाया राधा रानी को पहनाता पर उससे पहले ही एक छोटी सी लाली लेकर भाग गई तो क्या करुँ मै अब ? बाकी संत बोले अरे अब गई तो गई कोई बात नहीं अब कब तक रोते रहोगे चलो ऊपर दर्शन कर लो। रोना बन्द हुआ लेकिन मन खराब था क्योंकि कामना पूरी नहीं हुई तो अनमने मन से राधा रानी का दर्शन करने संत जा रहे थे और मन में ये ही सोच रहे है की मुझे लगता है की किशोरी जी की इच्छा नहीं थी , शायद राधा रानी मेरे हाथो से बनी पोशाक पहनना ही नहीं चाहती थी, ऐसा सोचकर बड़े दुःखी होकर जा रहे है।
महात्मा जी अन्दर जाकर खड़े हुए दर्शन खुलने का समय हुआ और जैसे ही श्री जी का दर्शन खुला, पट खुले तो वो महात्मा क्या देख रहें है की जो पोशाक वो बालिका लेकर भागी थी उसी वस्त्र को धारण करके किशोरी जी बैठी हैं। ये देखते ही महात्मा की आँखों से आँसू बहने लगे और महात्मा बोले कि किशोरी जी मैं तो आपको देने ही ला रहा था लेकिन आपसे इतना भी सब्र नहीं हुआ मेरे से छीनकर भागीं आप तो। किशोरी जी ने कहा- ‘बाबा ! ये केवल वस्त्र नहीं, ये केवल पोशाक नहीं है या में तेरो प्रेम छुपो भयो है और प्रेम को पाने के लिए तो दौड़ना ही पड़ता है, भागना ही पड़ता है। हमारी राधा रानी ऐसी प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। प्रेम की अद्भुत परिभाषा हैं श्री किशोरीजी।
श्रीकृष्ण को जिस प्रकार का श्रृंगार धारण कराया जाता था, बाह्य दृष्टिहीन होने के उपरान्त भी, भक्ति के पर्याय श्रीसूरदास जी, श्री ठाकुर जी के श्रृंगार का ज्यों का त्यों वर्णन, उसी समय अपना पद गाते हुये कर देते थे।
गुसाँई जी के शिष्य श्री गिरधरजी से तीनों बालकों (श्री गोविन्दरायजी, श्री बालकृष्णजी और श्री गोकुलनाथजी) ने सूरदास जी के दृष्टि हीन होने के विषय में, संशयवश कहा कि हम श्री नवनीतप्रियजी (श्रीकृष्णजी) को जो भी श्रृंगार धराते हैं, सूरदासजी वैसे का वैसा ही उनके वस्त्र व आभूषणों का वर्णन करते हैं। आज कुछ ऐसा अद्भुत अनोखा श्रृंगार करें कि सूरदासजी पहचान ही नहीं पायें।
श्री गिरधरजी ने समझाते हुये उत्तर दिया कि–’सूरदास जी भगवदीय है और इनके हृदय में स्वरूपानन्द का अनुभव है। तुम जो भी श्रृंगार करोगे वो उसी भाव का वर्णन अपने पदों में ज्यों का त्यों कर देंगें, अतः भगवदीय की परीक्षा नहीं करनी चाहिए।’
तब भी तीनों बालकों ने कहा–’फिर भी हमारा मन है अतः हम अपना संशय दूर करने के लिए कल ठाकुरजी को अद्भुत श्रृंगार धारण करायेगें।’
अगले दिन प्रातः तीनों बालक श्रीठाकुर जी के मन्दिर में पधारे, सर्वप्रथम सेवा में नहाये, तदोपरान्त श्री ठाकुरजी को जगाकर भोग धरे, मंगलभोग धरे, ततपश्चात ठाकुरजी को नहला कर श्रृंगार धारण कराना प्रारम्भ किया।
ज्येष्ठ मास था, ऊष्णकाल के दिन थे और कुछ अलग भी करना था। अतः उन्होनें ठाकुरजी को वस्त्र धारण ही नहीं कराये, श्रृंगार में केवल मोती की दो लड़ श्रीमस्तक पर, मोती के बाजूबन्द, कटि किंकिणी नुपूर, हार आदि सभी मोती के, तिलक, नकवेसर, कर्णफूल ही धारण कराये। ऊपर से नीचे तक वस्त्र हीन….केवल मोतियों व आभूषणों का ही अद्भुत अनोखा श्रृंगार।
श्रीसूरदासजी जगमोहन में बैठे थे अपने आराध्य श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न, उनके हृदय में गहन अनुभूति हुई, अन्तर्मन के मानस-पटल पर आकृति उकरने लगी और उन्होंने अनुभव किया–’आज तो श्री ठाकुर जी ने अद्भुत श्रृंगार धारण किया है जो अभूतपूर्व है, न पहले कभी देखा है न सुना है। आज तो मेरे बाल-गोपाल ने केवल मोती व आभूषण ही धारण किये हैं, वस्त्र तो है ही नहीं। मुझे भी इस अद्भुत श्रृंगार के लिए कुछ अद्भुत अनोखा भावपूर्ण पद गाना चाहिए’
जब श्रृंगार दर्शन खुले और सूरदासजी को पद गायन हेतु बुलाया गया तो अपने अन्तर्मन के चक्षुओं से अपने आराध्य के अद्भुत दर्शन करते हुये उन्होंने राग-बिलावल में यह सुन्दर अद्वितीय अन्तर्मन को स्पर्श कर लेने वाला यह अद्भुत पद गाया–
“देखे री हरि नंगमनंगा। जलसुत भूषन अंग विराजत बसन हीन छबि उठि तरंगा॥ अंग अंग प्रति अमित माधुरी निरखि लज्जित रति कोटि अनंगा। किलकत दधिसुत मुख लेपन करि ‘सूर’ हसत ब्रज युवतिन संगा॥
यह सुनकर श्री गिरधर जी सहित सभी बालक अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले–’सूरदास जी, आज आपने ऐसा पद-गायन क्यों किया है ?’
तब सूरदास जी ने विनम्रता से कहा–’जैसा अद्भुत श्रृंगार आपने किया है वैसा ही अद्भुत पद रचित कर मैनें गाया है।’
सभी बालक सूरदास जी के रोम-रोम में समाहित इस भवदीय भावना पर बहुत ही आश्चर्यचकित हुये। कुछ दिन पश्चात श्री गिरधरजी सूरदासजी को लेकर नाथद्वारा पधारे और श्री गुसांईजी को उस अद्भुत घटना का सविस्तार विवरण दिया।
तब श्री गुसांईजी ने श्री गिरधरजी से कहा–’सूरदासजी पर संशय नहीं करना चाहिए था। ये तो पुष्टिमार्ग के जहाज हैं अतः इन्हें भगवदलीला का अनुभव आठों पहर होता रहता है।’
आज भी, इस प्रसंग के अनुष्ठान में ब्रज में, ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष में किसी भी दिन श्रीजी को बसरा के मोतियों से गूंथा हुआ आड़बंद धारण कराया जाता है और कोई वस्त्र धारण नहीं कराये जाते। आज भी यह भाव-प्रथा निरन्तर चली आ रही है कि केवल आभूषणों का श्रृंगार और केवल मोती-लड़ियों की करधनी-ऊपर से नीचे तक केवल मोती व आभूषण।
गोपाल जी एक कटोरे में मिट्टी लेकर उससे खेल रहे थे।
राधा रानी ने पूछा:- गोपाल जी ये क्या कर रहे हो ?
गोपाल जी कहने लगे:- मूर्ति बना रहा हूँ।
राधा ने पूछा:- किसकी ?
गोपालजी मुस्कुराते हुए उनकी ओर देखा। और कहने लगे:- एक अपनी और एक तुम्हारी।
राधा भी देखने के उद्देश्य से उनके पास बैठ गयी। गोपाल जी ने कुछ ही पल में दोनों मूर्तियाँ तैयार कर दी।और राधा रानी से पूछने लगे:- बताओं कैसी बनी है ?
मूर्ति इतनी सुंदर मानों अभी बोल पड़ेंगी। परन्तु राधा ने कहा:- मजा नहीं आया। इन्हें तोड़ कर दुबारा बनाओ। गोपाल जी अचरज भरी निगाहों से राधा की ओर देखने लगे, और सोचने लगे कि मेरे बनाए में इसे दोष दिखाई दे रहा है। परन्तु उन्होंने कुछ नहीं कहा, और दोबारा उन मूर्तियों को तोड़कर उस कटोरे में डाल दिया और उस मिट्टी को गुथने लगें। उन्होंने फिर से मूर्तियाँ बनानी शुरू की। और हुबहू पहले जैसी मूर्तियाँ तैयार की। अबकी बार प्रश्न चिन्ह वाली दृष्टि से राधे की ओर देखा ?
राधा ने कहा:- ये वाली पहले वाली से अधिक सुंदर है।
गोपाल जी बोले:- तुम्हें कोई कला की समझ वमझ हैं भी के नहीं। इसमें और पहले वाली में मैंने रति भर भी फर्क नहीं किया। फिर ये पहले वाली से सुंदर कैसे हैं ?
राधा ने कहा:- “प्यारे” यहाँ मूर्ति की सुंदरता को कौन देख रहा है। मुझे तो केवल तेरे हाथों से खुद को तुझमें मिलवाना था।
गोपाल जी:- अर्थात ?????
राधा रानी गोपाल जी को समझा रही थी:- देखों मोहन, तुमनें पहले दो मूर्ति बनाई। एक अपनी और एक हमारी।
गोपाल जी:- हाँ बनाई।
राधा:- फिर तुमनें इन्हें तोड़कर वापस कटोरे में डालकर गुथ दिया।
गोपाल जी:- हाँ तो ?
राधा रानी:- बस इस गुथने की प्रक्रिया मे ही मेरा मनोरथ पूरा हो गया। मैं और तुम मिलकर एक हो गए।
मान सरोवर के पास से एक सुन्दर साँवरी सुनारन जा रही थी। कोई बिछिया ले लो, अरे कोई तो ले लो ! ऐसे वैसी नही है ये बिछिया अनमोल रतन जड़े हैं इसमें। अरी ! तू तो ले ले, देख ! इस बिछिया को मन्त्र तन्त्र से बांध दिया है मैंने इसको जो लगाकर चलेगी इसकी ध्वनि जिस पति, प्रियतम के कानों में जायेगी बस वो तो गुलाम बन गया समझो। आहा ! कितना सुन्दर बोलती थी वो साँवरी सब बरसानें की सखियाँ उसकी आवाज सुनकर बाहर आ गयीं। वो साँवरी थी, सब देखनें लगीं सुन्दर थी, नही-नहीं,सुन्दर ही नही बहुत सुन्दर थी ; रँग साँवरा था ज्यादा ही साँवरा था। उसकी आवाज में जादू था साँवरी तो थी, पर गजब की लग रही थी। किसी अच्छे घर की सुनारन लग रही थी।
‘तुम्हारे बरसानें में पानी मिलेगो ?’ थक गयी थी चिल्लाते चिल्लाते–”बिछिया ले लो”–सुबह से ही तो चिल्लाये जा रही थी। ‘तो क्या तुम्हारी बिछिया एक भी नही बिकी ?’ एक गोपी पानी ले आयी थी और पानी पिलाते हुये पूछ रही थी।
‘ना जी ! कछु नाय बिको’–सुनारन बोली ‘अजी ! हम तो ऐसे ही आय गयीं, नही तो हम नहीं जातीं ऐसे वैसे किसी भी गाँव में।’ पानी पी लिया था और वहीं बैठे बैठे बातें बनानें लगी थी वो सुनारन। ‘अब देखो ! हम महलन की सुनारन हैं ऐसे कोई गली कूचे में घूम के बेचवे वारी थोड़े ही हैं। वो तो आग यीं यहाँ।’ ‘तो क्या कहना चाह रही हो ?’–बरसानें की एक गोपी, वो भी तुनक गयी। ‘हाँ तो सही कह रही हूँ, हमारे इतनें कीमती बिछिया या गाँव में कौन लेगा ?’ सुनारन बोली ‘तू हमारे बरसानें के महल में ना गयी ?’ गोपी नें फिर पूछा। ‘देख लियो बरसाना कछु नाय यहाँ हम तो चलीं अब।’ इतना कहकर अपना थैला उठाया सुनारन नें और चल दी। ‘अरी ! रुक तो सुन ! महल में चली जा वहाँ खूब तेरी खातिरदारी होगी और तेरे सारे गहनें भी बिक जायेंगें।’ ‘बीर ! अब ना बेचनो मोय गर्मी में वैसे ही परेशान हो गयी हूँ।’ ‘अच्छा ! रुक तो चल मेरे साथ !’ वो गोपी चल दी उस सुनारन के आगे-आगे। ‘पर कहाँ ले जा रही है तू’–सुनारन भी पूछती जा रही है। ‘बृषभानु जी के महल में’–गोपी इतना ही बोली और चलती रही। ‘ये सुनारन है पास के गांव से आयी है कुछ गहनें लाई है देख लो नही तो ये बातूनी बहुत है यहाँ बरसानें में इसके कुछ भी गहनें नही बिके ना तो ये बदनामी करेगी’–बरसानें की गोपी इतना ललिता सखी को कहकर चली गयी। ‘क्या लाइ हो ? दिखाओ ?’–ललिता सखी बोली। ‘तुमको लेना है ?’–सुनारन सच में ही ज्यादा बोलती है। ‘नही मुझे तो नही लेना पर हाँ हमारी लाडिली को लेना है’–ललिता सखी नें कहा और ये भी कहा कि ‘पहले हमें दिखाओ हमें अच्छा लगेगा तो……’ पर इतना कहते हुए ललिता सखी नजरें गढ़ाकर सुनारन को देखनें लगी थी–तुम्हें कहीं देखा है ?’ ललिता सखी नें कहा। ‘अजी ! नजर न लगाओ अब हम पर’–घूँघट खींच लिया था उस सुनारन नें। ‘अब देखो ! अपनी लाडिली को कहो कि उन्हें लेना है तो रुकूँ मैं नही तो जाऊँ’–सुनारन बोली। ‘हूँ’–ललिता सखी निज महल में गयीं, बड़ी गहरी नींद में सो रही थीं श्रीजी, देखकरलौट आई–’नहीं जाओ अभी लाडिली सो रही हैं। ठीक है सो रही हैं ? तो जगा दो’ ‘सुनारन तू विचित्र है, ऐसे कैसे जगा दें ?’ ललिता सखी नें जबाब दिया। ‘अब हम इतनी दूर से आयी हैं तो क्या तुम्हारी लाडिली उठ भी नही सकतीं ?’–हद है ये सुनारन तो लड़नें पर उतारू हो गयी थी। ‘कौन ! कौन है ललिते !’–श्रीराधा रानी उठ गयीं। ‘अरे ! एक काली सुनारन आयी है’–ललिता नें वहीं से बोला। ‘देखो जी ! नही लेना है तो मत लो, पर ये काली गोरी का भेद न करो यहाँ। अरे ! मैं सब जानती हूँ उस काले कन्हैया नें तुम्हारे बृजमण्डल को घुमा रखा है क्या मुझे काली-काली कहती हो ये काले बादल न बरसें ना तो तुम अन्न न खा सकतीं।’ ‘अरे ! तू तो नाराज हो गयी’–ललिता सखी ने कुछ मनुहार किया। ‘काहे नही हों हम नाराज’ ‘पर तू है बहुत सुन्दर’–ललिता मुस्कुराईं। ‘इतनी सुन्दरता कहाँ से पाई तैनें बता ना ?’–ललिता बोलनें लगीं। ‘मेरा हृदय अब ठीक नही है इसलिये मैं जा रही हूँ’–सुनारन तो जानें लगी। ‘अच्छा ! अच्छा ! रुक जा रुक फिर पूछ के आती हूँ’–ललिता सखी फिर गयी, और इस बार महल के भीतर से वापस आकर सुनारन को भी ले गयी। जब जा रही थी निज महल में साँवरी सुनारन तब उसकी खुशी देखने जैसी थी। वो गदगद् भाव से भरी थी वो बोलती भी जा रही थी–स्वर्ग फेल है, वैकुण्ठ भी तुच्छ है, इस बरसानें की शोभा के आगे तो आहा ! कितना दिव्य है ये बरसाना और बरसानें में भी ये लाडिली का महल’–बातूनी सुनारन बोलती ही गयी श्रीजी के निज महल में। ‘ये रहीं हमारी श्रीराधा रानी’–ललिता सखी नें दिखाया। ‘हे लाडिली ! ये है वो साँवरी सुनारन कह रही है पास के गांव से आयी हूँ आभूषण लेकर आयी है बातें तो बड़ी बड़ी करती है बोलती भी खूब है।’ श्रीराधा रानी नें सुनारन की ओर देखा वो हाथ जोड़े खड़ी थी। ‘सुन्दर है’–श्रीराधा जी के मुख से निकल गया। ‘हम काहे की सुन्दर हैं सुन्दर तो आप हैं !’–साँवरी सुनारन नें अब बोलना शुरू कर दिया था। ‘आप का ही नाम है ना ! श्रीराधा ! आहा ! मैंने आपका नाम बहुत सुना है और जब से सुना है तब से ही आपको देखनें की इच्छा थी’–सुनारन बोली। ‘आहा ! कितना मीठा बोलती है सुनारन ! सच में तू मुझे बहुत अच्छी लगी पर तुझे देख कर मुझे ऐसा लगता है कि तेरा और मेरा परिचय जन्मों जन्मों का है’–श्री राधा रानी बोलीं। ‘अजी ! ये तो आपकी महानता है नही तो हम कहाँ सुनारन’ ‘अच्छा ! बता क्या चाहिये तुझे ?’–श्रीराधा रानी उसके पास गयीं और उसका हाथ पकड़ उठाया–’बोल ! क्या चाहती है तू ?’–ध्यान से देखनें लगीं उस सुनारन को। ‘ये घुँघराले बाल मैने छूए हैं’ ये कपोल जानें पहचानें से लग रहे हैं’ ये हाथ…’श्रीराधा जी को रोमांच होनें लगा। तुरन्त सुनारन नीचे बैठ गयी–’मैं आपको पायल पहनाऊँगीं।’ ‘पर तू मोल क्या लेगी ?’–सुनारन का चिबुक पकड़ कर उठाया। मोल ? मोल मैं जो कहूँ’–सुनारन बोली। ‘नही ऐसे नही होता’ जो मोल भाव हो पहले ही बता’–ललिता नें स्पष्ट कहा। ‘आप बरसानें की राजदुलारी हो, फिर ये मोल भाव ?’ श्रीराधा जी उस सुनारन की एक-एक बात पर गद्गद हुयी जा रही थीं। ‘अच्छा ! ठीक है ठीक है तू जो कहेगी।’ सुनारन खुश हो गयी और उसनें अपनें झोला से आभूषण निकालनें शुरू किये–’ये पायल, हे भानु दुलारी ! ये है पायल। इसमें मेरा हृदय है लो आपके पांवों को मेरा हृदय सौंपती हूँ।’ पायल लगा दिया सुनारन ने–’ये कुण्डल आपको बहुत जंचेंगे’–लगा दिए कुण्डल। ‘ये हार शुद्ध मोतियों का हार है बहुत कीमती है’–आँखें मटकाती हुयी बोली। ‘सुनारन ! अब बता क्या लेगी ?’–श्रीराधा रानी ने अन्त में पूछा। ‘मुझे हिसाब तो आता ही नही इसलिये मैं क्या कहूँ !’–साँवरी सुनारन अब मटक रही थी। ‘पर तूनें तो कहा था कुछ नही लूँगी’–ललिता सखी नें कहा। ‘गलत बात है ! आप अपनी लाडिली से पूछ लो, मैने कहा था ना, आपसे मोल जो मैं कहूँगी। ‘हाँ कहा था कहो क्या चाहिये’–श्रीजी नें मुस्कुरा के पूछा। मौन ही हो गयी थी कुछ देर तक वो साँवरी कुछ बोल ही नही पाई। ‘अरी ! कुछ तो कह क्या दूँ मैं तुझे।’–उठकर खड़ी हो गयी नेत्र सजल हो गए उस सुनारन के। जब नयनों को देखा श्रीराधा रानी ने तब वो चौंक गयीं। ‘मुझे एक बार अपने हृदय से लगा लो नेत्र बरस पड़े थे।’ श्रीराधा रानी बस देखती ही रहीं उनके भी समझ नही आ रहा था कि ये सुनारन तो पहचानी सी लग रही है। ‘प्यारी ! बस एक बार अपनें हृदय से लगा लो फिर’–वही बात दोहराये जा रही थी सुनारन। श्रीराधा रानी से रहा नही गया वो दौड़ीं और उस सुनारन को जैसे ही गले से लगाया–’तुम ? प्यारे श्याम सुन्दर ?’ आनन्दित हो उठीं श्रीजी। ‘ओह ! तो तुम हो, वही मैं कह रही थी कि इस सुनारन को कहीं तो देखा है’–ललिता सखी नें हँसते हुए कहा। ‘प्यारे ! मेरे प्राण ! मेरे सर्वस्व ! क्यों ऐसी लीला करते हो ?’–कपोल को छूते हुये श्रीराधा रानी बोल रही थीं। ‘तुम्हारे बिना एक पल भी चैन नही आता सच प्यारी !’ पर ये क्या ? अन्य समस्त सखियाँ भी वहाँ आ गयीं और ललिता के कहने पर सबने पकड़ लिया। अब श्याम सुन्दर वहाँ से भाग भी तो नही सकते थे।
श्रीराधा जी बस हँस रही थीं आनन्दित थीं क्यों न हों आनन्दित, उनका प्यारा जो उनके सामने था।
एक बार नन्द जी कृष्ण को लेकर गउओं के बाड़े में गए। उन्होंने वहां पर राधा जी को खड़े देखा; नन्द ने राधा को पहचान कर कहा की तुम दोनों मिलकर खेलो पर कहीं दूर मत जाना, मैं गायों की गिनती कर रहा हूँ। तुम आसपास ही रहना। हे वृषभानु की बेटी राधा, तुम अपने साथ कृष्ण को भी खेला लो,
(सूरदास जी कहते हैं) और जरा श्याम का ध्यान भी रखना, कहीं ऐसा न हो की कोई गाय इसे मारने लगे। अब नन्द बाबा जी चले गए हैं। राधा कृष्ण से कहती हैं- कृष्ण! नन्द बाबा की बात ध्यान से सुन लो, मुझे छोड़कर अगर कहीं जाओगे तो मैं तुमको पकड़कर अपने पास ले आउंगी। यह तो अच्छा हुआ की नंदबाबा तुम्हे मेरे हवाले कर गए हैं, अब चाहे जो हो, मैं तो तुम्हे कहीं भी नहीं जाने दूंगी।
तुम्हारी बांह भी नहीं छोडूंगी, अन्यथा महर(नन्द बाबा) हमसे नाराज हो जायेंगे(की मैं कृष्ण को तुम्हे सौंप गया था, तुमने उसे कहीं जाने क्यों दिया?) राधा की इन प्रेम अधिकार बातों परिहास भरी बातों से ऊपरी करोड़ दिखाते हुए कृष्ण कहने लगे- राधा! तू मेरी बांह छोड़ दे, ये बेकार की अनाप शनाप बात ना कर। सूरदास जी कहते हैं इस प्रकार राधा कृष्ण अद्भुत प्रेम लीला कर रहे हैं।
तुम पै कौन दुहावै गैया..…….
सूरदास जी बता रहे हैं, राधा रानी भगवान श्री कृष्ण से कहती है- मनमोहन ! तुमसे कौन अपनी गाय को दुहावेगा? तुम सोने की दोहनी लिए रहते हो, और आधे पैरों से पृथ्वी पर बैठते हो। तुम मेरी प्रीति को अत्यंत रसमयी जानकर ही गोष्ठ में गायों को दुहने के लिए आते हो तो पर तुम्हे तो दूध दुहना आता ही नही है। तुम इधर मेरी और देखते ही रहते हो, और उधर दूध की धार निकलते रहते हो, क्या तुम्हे तुम्हारी माँ ने यही सिखाया है? हे मोहन! तुम उसी युवती से गुप्त प्रीति करो, जो तुम्हारी प्रिया हो। सूरदास जी कहते हैं की मेरे प्रभु श्री कृष्ण से राधा ने इस प्रकार झगड़ा करना सीख लिया है, जैसे कोई झगड़ालू स्त्री घर के स्वामी अपने खसम से झगड़ती है।
दुहि दीन्ही राधा की गाइ……..
गो दोहन लीला का सूरदास जी वर्णन करते हैं- श्री कृष्ण जी ने राधा जी की गाय का दूध तो निकल दिया, लेकिन वे अपने हाथ से दूध की दोहनी राधा जी को नही दे रहे हैं। जिसे वे हा-हा करती हुई उनके चरणों पर गिर रही हैं। ज्यों-ज्यों राधा प्रिया हा-हा करती हैं, त्यों-त्यों कन्हैया और अधिक हँसते हैं।
भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं- हे प्यारी ! तुम फिर हा-हा करो। मैं अपने पिता नंदजी की सौगंध खाकर कहता हूँ की तब मैं अपनी दोहनी तुम्हे दे दूंगा।’ तब राधा जी से पुनः पुनः हा-हा करवाकर श्रीकृष्णजी ने दोहनी प्रिया जी के हाथों में दे दी। सूरदास जी कहते हैं इस प्रकार श्यामसुंदर ने रसमय हाव-भाव करके कुमारी राधा जी को उनके घर भेज दिया।
वराहपुराण में और पद्मपुराण में ऐसा लिखा है कि पहले ब्रह्मा जी ने 60 हजार वर्ष तक तप किया फिर भी गोपियों की रज नहीं मिली। उसके बाद सतयुग के अन्त में ब्रह्मा जी ने फिर तप किया भगवान ने कहा, कि तुम क्या चाहते हो ? ब्रह्मा जी बोले, कि सब गोपियों की रज मिल जाये व माधुर्यमयी लीलाएँ देखने को मिले। भगवान ने कहा, कि वहाँ पुरुषों का प्रवेश नहीं है। ब्रह्मा जी बोले, फिर ? भगवान ने कहा, कि तुम पर्वत बन जाओ। ब्रह्मा जी बोले, कहाँ ? भगवान ने कहा, कि तुम ब्रज में चले जाओ। ब्रह्मा जी ने कहा, कि ब्रज तो बहुत बड़ा है, कहाँ जायें ? भगवान बोले, कि वृषभानुपुर यानि बरसाना चले जाओ। वहाँ पर्वत बन जाना, अपने आप सब लीला मिल जायेगी व गोपियों की चरण रज भी मिल जायेगी। बरसाना वहाँ नित्य श्री राधा रानी के चरण मिलेंगे। तब ब्रह्मा जी यहाँ आकर पर्वत बन गए।
एक कथा आती है बरसाने के पर्वतों के बारे में कि जब भगवान सती अनुसुइया की परीक्षा लेने गये थे तो वहाँ उसने ब्रह्मा विष्णु शिव को श्राप दिया कि तुमने बड़ा अमर्यादित व्यवहार किया है इसीलिए जाओ पर्वत बन जाओ। तो तीनों देवता पर्वत बन गये और उनका नाम त्रिंग हुआ।
जब श्री राम जी का सेतु बंधन हो रहा था तो पर्वत लाये जा रहे थे। त्रिंग को जब हनुमान जी ला रहे थे तो आकाशवाणी हुई कि अब पर्वत मत लाओ क्योंकि सेतु बंधन हो चुका है। तो जब हनुमान जी ने उसे यहाँ पर रख दिया तो गिरिराज जी बोले कि हनुमान जी हम तुमको श्राप दे देंगे। हे वानर राज तुमने हमारा प्रभु से मिलन नहीं होने दिया। तो हनुमान जी ने प्रभु से प्रार्थना की। तब राम जी ने कहा कि मैं स्वयं श्री कृष्ण के रूप में उनको अपने हाथों से धारण करूँगा जब की औरों को तो सिर्फ चरण स्पर्श ही दूँगा।
एक पुराण में लिखा है कि स्वयं राम जी आये और उन्होंने जो त्रिंग थे, ब्रह्मा विष्णु शिव, इन तीनों को अलग-अलग करके यहाँ स्थापित किया। ‘नन्दगाँव’ में शिव जी को स्थापित किया, ’नन्दीश्वर‘ के रूप में, और ‘गोवर्धन‘ में विष्णु को ‘गिरिराज’ जी के रूप में, ब्रह्मा जी यहाँ ‘बरसाने’ में स्थापित किये ‘ब्रह्मगिरी पर्वत‘ के रूप में। ब्रह्मगिरी के चार शिखर हैं, चार गढ़ है, मानगढ़, दानगढ़, भानुगढ़, विलासगढ़। ये जितने शिखर हैं ये ब्रह्मा जी के मस्तक हैं।
वृंदावन की गली में एक छोटा सा मगर साफ सुथरा, सजा संवरा घर है। एक गोपी माखन निकाल रही है और मन ही मन अभिलाषा करती है कि, आज कन्हैया अपनी टोली के साथ उसके घर माखन चोरी करने पधारे तो कितना ही अच्छा हो। आज “कन्हैया” आये और मैं अपनी आँखों से कान्हा की वो माखन लीला निहार सकूँ।
उसके सांवरे सलोने मुखड़े पर लिपटा सफ़ेद माखन कितना मनोहर दिखाई देगा ? काश आज कान्हा मेरे घर आ जाये। ऐसा करती हूँ, आज माखन में थोड़ा केसर मिला देती हूँ, थोड़ा बादाम, इलायची और किशमिश, मिश्री भी मिलाती हूँ। कान्हा को कितना भायेगा न। माखन की सुवास और स्वाद उसे कितना अच्छा लगेगा। लो, अब तो माखन भी तैयार हो गया। अब ऐसा करती हूँ कि मटकी में थोड़ा शीतल जल डाल कर माखन का पात्र उसमें रख देती हूँ। इससे माखन पिघलेगा नहीं। गोपी सोचती है कि कान्हा को कैसे बुलाऊँ ? कौन सी तरकीब लगाऊँ कि वो आ जाये, क्या करूँ ? और गोपी का विरह बढता जाता है। चलो गली में देखती हूँ, शायद कोई बात बन जाए।
तभी मनसुखा दिखाई देता है। अरे! यह मनसुखा कहाँ भागा जा रहा है ? जरूर कान्हा संग खेलने जा रहा होगा। इसे बुलाती हूँ। मनसुख!! ओ मनसुखा!! तनिक यहाँ तो आ। मेरा एक काम कर दे। तुझे माखन दूँगी आज मैंने बहुत अच्छा माखन निकाला है। तनिक आ तो।
मनसुखा के दिमाग में तुरंत नयी क्रीड़ा आई, दौड़ते दौड़ते बोला मुझे देर हो रही है, और वहाँ कान्हा खेलने के लिए इंतजार कर रहा होगा। अब यह गोपांगना क्या करे ? कैसे बुलाये कान्हा को ? लेकिन आज इस गोपी का बाँवरा मन कह रहा है कि वो छलिया जरूर आएगा। यहाँ से छुप के उसकी लीला देखूँगी। बस अब आ जाये। आ जा न कान्हा… देख अब और सता मत…। गोपी की आँखों से विरह के अश्रु निकलने लगते हैं।
बाँवरी गोपी सोचती है कि जरा देखूँ, बाहर कहीं आया तो नहीं? फिर मन में सोचने लगती है। अरे, वो क्यों आएगा… मैं गरीब जो हूँ… वो तो अच्छे अच्छे घरों में जाता होगा… मेरा माखन भला उसे कहाँ भायेगा ? क्या करूँ, यह तड़प तो बढ़ती ही जाती है … सुन ले न कान्हा मेरी पुकार…।
गोपी तो रुदन करते-करते कान्हा जी के बारे में सोचते-सोचते ही सो गयी। और हमारा लाला कन्हैया भी इसी अवसर की ताक में था। सारी बाल गोपाल मंडली चुपके चुपके आँगन से भोजन शाला की ओर बढने लगी और माखन की खोज शुरू हो गयी। कान्हा जी ने कहा, ‘अरे मनसुखा!! तू तो कह रहा था कि गोपी ने बड़ा अच्छा माखन निकाला है। यहाँ तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा।”
अरे! अरे!! वो देखो, एक सुन्दर सी मटकी पड़ी है उसमें देखो … अरे वाह!! मिल गया मिल गया!! आओ-आओ सभी आओ!! ढक्कन खोलो … अहा कितनी सुन्दर सुवास है। तनिक खा कर तो बताओ कैसा है। अरे! स्वाद का तो कोई जवाब ही नहीं … ऐसा माखन तो मैया ने भी कभी नहीं बनाया …
मित्रों अब कान्हा जी का मनोरथ भी देखिए। कहते हैं, “आज तो मन यह कर रहा है कि यह गोपी अपनी गोद में बिठा कर अपने हाथों से यह माखन खिलाये। जरा कोयल की आवाज तो निकालो या ताली लगाओ ताकि गोपी जाग जाये।”
सखा बोले कि मार पडेगी हम सभी को, जो कोई आवाज भी निकली तो। कान्हा जी ने कहा, “कुछ नहीं होगा। मैं कहता हूँ वैसा करो।” बस फिर क्या? सभी ताली बजाने और कोयल की आवाज निकालने लगे।
बाँवरी गोपी तो पहले ही मंडली की आवाज से ही जागकर यह सब संवाद सुन सुन कर मन ही मन आनंदित हो रही है। और गोपी की आँखों में अब विरह के बदले हर्षाश्रु बह रहे हैं और अपनी सुध-बुध भूलती जा रही है।
कान्हा जी को ज्ञात था कि गोपी अंदर ही है। तो कान्हा जी अंदर गये तो देखा कि एक कक्ष में गोपी अपनी सुध-बुध खोए बैठी है और आँखों से अश्रु बह रहे हैं। कान्हा जी गोपी के पास जाकर कहते हैं, “अब यहाँ छुप के क्यों बैठी हो, आओ न माखन खिलाओ न। आज तो तेरे हाथों से ही माखन खाऊँगा। तेरा मनोरथ था कि आज मैं तेरे घर का माखन खाऊँ। तो मेरा भी यह मनोरथ है कि तेरे हाथों से माखन खाऊँ मैं तेरा मनोरथ पूर्ण करता हूँ तो तू भी मेरा मनोरथ पूर्ण कर।”
बाँवरी गोपी का तो मानों जन्म सफल हो गया। जन्मों की कामना फलीभूत हो गयी। अब गोपी कान्हा को गोद में लेकर माखन खिलाने लगी। आँखों से आँसुओं की धारा निरन्तर बहे जा रही है और कान्हा जी अपने नन्हें नन्हें हाथों से गोपी के आँसू पोंछ रहे है और खुद भी आँसू बहाते हुए कह रहे हैं – “अरी, तू रो क्यों रही है, देख मैं आ गया हूँ न, देख मैं हूँ न, देख मैं हूँ न।” गोपी रोते हुए माखन खिला रही है और कान्हा जी भी रोते हुए माखन खा रहे हैं। कितना अद्भुत और अलौकिक दृश्य है। ऐसे गोपी के भाग्य के क्या कहने।
सती अनुसूईया महर्षि अत्री की पत्नी थीं। जो अपने पतिव्रता धर्म के कारण सुविख्यात थीं। एक दिन देव ऋषि नारद जी बारी-बारी से विष्णुजी, शिव जी और ब्रह्मा जी की अनुपस्थिति में विष्णु लोक, शिवलोक तथा ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने लक्ष्मी जी, पार्वती जी और सावित्री जी के सामने अनुसुइया के पतिव्रत धर्म की बढ़ चढ़ के प्रशंसा की तथा कहा की समस्त सृष्टि में उससे बढ़ कर कोई पतिव्रता नहीं है। नारद जी की बातें सुनकर तीनो देवियाँ सोचने लगीं कि आखिर अनुसुइया के पतिव्रत धर्म में ऐसी क्या बात है जो उसकी चर्चा स्वर्गलोक तक हो रही है ? तीनों देवीयों को अनुसुइया से ईर्ष्या होने लगी। नारद जी के वहाँ से चले जाने के बाद सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती एक जगह इक्ट्ठी हुई तथा अनुसूईया के पतिव्रत धर्म को खंडित कराने के बारे में सोचने लगी। उन्होंने निश्चय किया कि हम अपने पतियों को वहाँ भेज कर अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराएंगे। ब्रह्मा, विष्णु और शिव जब अपने अपने स्थान पर पहुँचे तो तीनों देवियों ने उनसे अनुसूईया का पतिव्रत धर्म खंडित कराने की जिद्द की। तीनों देवों ने बहुत समझाया कि यह पाप हमसे मत करवाओ। परन्तु तीनों देवियों ने उनकी एक ना सुनी और अंत में तीनों देवो को इसके लिए राजी होना पड़ा। तीनों देवों ने साधु वेश धारण किया तथा अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुँचे। उस समय अनुसूईया जी आश्रम पर अकेली थीं। साधुवेश में तीन अतिथियों को द्वार पर देख कर अनुसूईया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपका भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परन्तु एक शर्त पर कि आप हमें निवस्त्र होकर भोजन कराओगी। ‘श्रीजी की चरण सेवा’ की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें। अनुसूईया ने साधुओं के शाप के भय से तथा अतिथि सेवा से वंचित रहने के पाप के भय से परमात्मा से प्रार्थना की कि हे परमेश्वर ! इन तीनों को छः-छः महीनें के बच्चे की आयु के शिशु बनाओ। जिससे मेरा पतिव्रत धर्म भी खण्डित न हो तथा साधुओं को आहार भी प्राप्त हो व अतिथि सेवा न करने का पाप भी न लगे। परमेश्वर की कृपा से तीनों देवता छः-छः महीने के बच्चे बन गए तथा अनुसूईया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियाँ व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहाँ आकर सारी बात बताई की तीनों देवों को तो अनुसुइया ने अपने सतीत्व से बालक बना दिया है। यह सुनकर तीनों देवियों ने अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुँचकर माता अनुसुइया से माफ़ी माँगी और कहा कि हमसे ईर्ष्यावश यह गलती हुई है। इनके लाख मना करने पर भी हमने इन्हें यह घृणित कार्य करने भेजा। कृप्या आप इन्हें पुनः उसी अवस्था में कीजिए। आपकी हम आभारी होंगी। इतना सुनकर अत्री ऋषि की पत्नी अनुसूईया ने तीनों बालक को वापस उनके वास्तविक रूप में ला दिया। अत्री ऋषि व अनुसूईया से तीनों भगवानों ने वर मांगने को कहा। तब अनुसूईया ने कहा कि आप तीनों हमारे घर बालक बन कर पुत्र रूप में आएँ। हम निःसंतान हैं। तीनों भगवानों ने तथास्तु कहा तथा अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अपने-अपने लोक को प्रस्थान कर गए। कालान्तर में दतात्रोय रूप में भगवान विष्णु का, चन्द्रमा के रूप में ब्रह्मा का, तथा दुर्वासा के रूप में भगवान शिव का जन्म अनुसूईया के गर्भ से हुआ।
रणवाड़ी के बाबा कृष्णदास जी बंगवासी थे, संपन्न ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, जब घर में अपने विवाह की बात सुनी तो ग्रहत्याग कर पैदल भागकर श्रीधाम वृंदावन आ गए। जिस समय वृंदावन आये थे उस समय वृंदावन भीषण जंगल था, वहीं अपनी फूस की कुटी बनाकर रहने लगे, केवल एक बार ग्राम से मधुकरी माँग लाते थे। बाबा बाल्यकाल में ही व्रज आ गए थे इसलिए किसी तीर्थ आदि का दर्शन नहीं किया था, प्रायः ५० वर्ष का जीवन बीत गया था।
एक बार मन में विचार आया कि चारधाम यात्रा कर आऊँ, किन्तु प्रिया जी ने स्वपन में आदेश दिया इस धाम को छोड़कर अन्यत्र कही मत जाना, यही रहकर भजन करो, यही तुम्हे सर्वसिद्धि लाभ होगा। किन्तु बाबा ने श्री जी के स्वप्नदेश को अपने मन और बुद्धि की कल्पना मात्र ही समझकर उसकी कोई परवाह न की और तीर्थ भ्रमण को चल पड़े।
भ्रमण करते करते द्वारिका जी में पहुँच गए तो वहाँ तप्तमुद्रा की शरीर पर छाप धारण कर ली। चारो संप्रदायो के वैष्णवगण द्वारिका जाकर तप्तमुद्रा धारण करते है, परन्तु ये श्री वृंदावननीय रागानुगीय वैष्णवों की परंपरा के सम्मत नहीं है। बाबा जी ने व्रज के सदाचार की उपेक्षा की तत्क्षण ही उनका मन खिन्न हो उठा और तीर्थ में अरुचि हो उठी और वे तुरंत वृंदावन लौट आये।
जिस दिन लौटकर आये उसी रात्रि में श्री प्रिया जी ने पुन: स्वप्न दिया और बोली- तुमने द्वारिका की तप्तमुद्रा ग्रहण की है अतः तुम अब सत्यभामा के परिकर में हो गए हो, अब तुम व्रजवास के योग्य नहीं हो, द्वारिका चले जाओ। इस बार बाबा को स्वप्न कल्पित नहीं लगा इन्होने बहुत से बाबा से जिज्ञासा की, सबने श्रीप्रिया जी के ही आदेश का अनुमोदन किया। गोवर्धन में भी एक बाबा कृष्णदास जी नाम के ही थे, वे इन बाबा के घनिष्ठ मित्र थे। (श्रीजी की चरण सेवा” की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) एक बार आप उनके पास गोवर्धन गए तो उन्होंने गाढ़ आलिंगन किया और पूछा इतने दिनों तक कहाँ थे ? तो बाबा ने कहा- कि द्वारिका गया था और अपनी तप्त मुद्रायें भी दिखायीं। यह देखते ही बाबा अचानक ठिठक गए और लंबी श्वास लेते हुए बोले- ओहो ! आज से आपके स्पर्श की मेरी योग्यता भी विनष्ट हो गई, कहाँ तो आप “महाराजेश्वरी की सेविका (सत्यभामा)” और कहाँ मैं “एक ग्वारिनी की दासी (राधारानी)”। इतना सुनते ही बाबा एक दम स्तंभित हो गए और प्रणाम करने वापस लौट आये, और इनको सब वैष्णवों ने कहा – इसका कुछ प्रतिकार नहीं परन्तु श्री प्रिया जी के साक्षात् आदेश के ऊपर भी क्या कोई उपदेश मन बुद्धि के गोचर हो सकता है ? हताश हो कुटिया में प्रवेश कर इन्होने अन्नजल त्याग दिया। अपने किये के अनुताप से और श्रीप्रिया जी के विरह से ह्रदय जलने लगा। कहते है इसी प्रकार ३ महीने तक रहे, अंतत: अन्दर की विरहानल बाहर शरीर पर प्रकट होने लगी। तीन दिन तक चरण से मस्तक पर्यंत क्रमशः अग्नि से जलकर इनकी काया भस्म हो गई, अचानक रात में सिद्ध बाबा जगन्नाथ दास जी जो वहीं पास में ही रहते थे, उन्होंने अपने शिष्य श्री बिहारीदास से कहा- देखो ! तो इस बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है ? उसने अनुसन्धान लगाया तो कहा- रणवाडी के बाबा की देह जल रही है, भीतर जाने का रास्ता नहीं था अंदर से सांकल बंद थी।
सिद्ध बाबा समझ गए और बोले- ओं विरहानल ! इतना कहकर बाबा की कुटिया के किवाड़ तोड़कर अंदर गए, और व्रजवासी लोग भी गए। सबने देखा कंठपर्यंत तक अग्नि आ चुकी थी, बाबा ने रुई मंगवाई और तीन बत्तियाँ बनायीं और ज्यों ही उन्होंने उनके माथे पर रखी कि एकदम अग्नि ने आगे बढ़कर सारे शरीर को भस्मसात कर दिया।
जगन्नाथ बाबा वहाँ के लोगो से बोले- तुम्हारे गाँव में कभी दुःख न आएगा, भले ही चहुँ ओर माहमारी फैले, और आज भी बाबा कि वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा जाता है। इस घटना को १०० वर्ष हो गए, आज भी सिद्ध बाबा की समाधि बनी हुई है और व्रजवासी जाकर प्रार्थना करके जो भी मांगते है मनोकामना पूरी होती है। धन्य है ऐसे राधारानी जी के दास और उनकी व्रजनिष्ठा जो शरीर तो छोड़ सकते है पर श्री धाम वृन्दावन नहीं।
एक बार जब श्री राधारानी ने श्री सेवाकुंज में रास में आने में बहुत देर लगा दी तो श्यामसुंदर उनकी विरह में रोने लगे। जब राधा रानी को बहुत देर हो गयी तब श्यामसुंदर धीरता ना रख सके। थोड़ी ही देर में राधा रानी रासमंडल में पधारी तभी श्याम मान ठान कर बैठ गए। राधा रानी बोली ललिताजी इन महाराज को क्या हुआ मुँह फुलाय काहे बैठे हैं। ललिता जी ने पूरी कथा सुना दी। राधा रानी मुस्कुराते हुए श्याम के चिबुक पर हाथ लगाया। जैसे ही लगाया श्याम के चिबुक पर ” दाल चावल” लग गए श्याम और मान ठान बैठे, बोले “एक तो देर से और अब हमारे मुख पर दाल भात्त लगाय सखियों से मज़ाक़ करवाओगी।”राधा रानी मुस्कुरा के बोली- ” ललिताजी एक बात बताओ, यह सब जो बाबा लोग है जो जितने भी भजनानंदी हैं यह सब अपना घरबार छोड़ ब्रज रज में भजन करने आवे, इन्हें यहाँ लाने वाला कौन है ?” ललिता जी बोलीं- “यही आपके श्यामसुंदर तो।”
इसपर राधाजी बोलीं- “ललिता क्या इनका कर्तव्य नहीं बनता के जो इनके नाम का पान करने घर छोड़ भजन करने वृंदावन आए और इनके नाम कीर्तन करते हैं, तो इन्हें उनका ख्याल रखना चाहिए। अब आज इतनी घनघोर वर्षा हुई के वृंदावन के आज दस महात्मा कहीं मधुकरी करने ना जा सके, तब वो सोचे जैसे ठाकुरजी की इच्छा और वे खाली पेट सोने लगे तभी मैं वहीं से गुजर रही थी रासमंडल के लिए मैंने तभी जल्दी-जल्दी उन दस महात्माओं के लिए दाल भात्त बनायी और अपने हाथो से परोस आयी और कहा- ‘बाबा मोहे मेरी मैया ने भेजा है, आप मधुकरी करने को ना-गए-ना। तभी मोहे देर हो गयी और जल्दी-जल्दी में अपने हाथ ना धो सकी तो हाथ में दालभात्त लगा ही रह गया।”
यह सुन श्याम रोने लगे और चरण में पड़कर बोले- राधे ! “वैराग्य उत्पन्न करा घर बार छुड़ाना यह मेरा काम है। परंतु उन सब को प्रेम, दुलार, सम्मान और उनकी रक्षा करना उन्हें अपनी गोद में लेकर बार-बार कहना कृपा होगी, होगी, होगी, ‘मैं हूँ ना’ यह सब तो आप ही करना जानती हो।” —————::×::————–
एक दिन की बात है, श्रीराधा की दो प्रधान सखियाँ, शुभस्वरूपा ललिता और विशाखा, वृषभानुजी के घर पहुँच कर एकांत में श्रीराधे से मिलीं और बोलीं- “श्रीराधे ! तुम जिनका चिंतन करती हो और स्वतः दिन रात जिनके गुण गाती हो वे भी प्रति दिन ग्वालबालों के साथ वृषभानुपुर में आते हैं। राधे ! रात के पिछले पहर में जब वे गोचारण के लिए निकलते हैं तब तुम्हें उनका दर्शन करना चाहिए।” राधा जी बोलीं- पहले उनका मनोहर चित्र बनाकर तुम मुझे दिखाओ उसके बाद मैं उनके दर्शन करूँगी इसमें संशय नही है। तब दोनों सखियों ने नंदनंदन का सुंदर चित्र बनाया और वह चित्र उन्होंने तुरन्त श्रीराधा के हाथ में दे दिया। वह चित्र देखकर श्रीराधा हर्ष से खिल उठीं और उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा जाग उठी। हाथ में रखे हुए चित्र को निहारती हुई आनंद मग्न होकर सो गईं। स्वप्न में सोती हुई श्री राधा ने देखा यमुना किनारे भांडीरवन में नीलमेघ की सी काँति वाले पीतपट धारी श्यामसुन्दर श्री कृष्ण मेरे निकट ही नृत्य कर रहे हैं। उसी समय श्रीराधा की नींद टूटी गयी और वे शय्या से उठकर परमात्मा श्रीकृष्ण के वियोग में विह्वल हो गयीं, उन्हीं के कमनीय रूप का चिंतन करती हुई त्रिलोकी को तृणवत मानने लगीं। इतने में व्रजेश श्रीनंदनंदन अपने भवन से चलकर वृषभानुपुर की सांकरी गली में आ गए सखी ने तत्काल खिड़की के पास जाकर श्रीराधा को उनका दर्शन कराया। उन्हें देखते ही सुंदरी श्रीराधा मूर्छित हो गईं। लीला से मानव शरीर धारण करने वाले श्रीकृष्ण भी सुन्दर रूप और वैदग्धय से युक्त श्रीवृषभानुनंदनी का दर्शन करके मन ही मन उनसे मिलने की कामना करते हुए अपने भवन को लौट गए। वृषभानु नंदनी श्रीराधा को इस प्रकार श्री-कृष्ण वियोग से विह्वल संतप्त चित्त देख कर श्रीललिता जी ने उनसे इस प्रकार कहा। ललिता ने पूछा श्रीराधे तुम क्यों इतनी विह्वल और व्यथित हो, यदि श्रीहरि को पाना चाहती हो, तो उनके प्रति अपना स्नेह दृढ़ करो। वे इस समय त्रिलोकी के भी सम्पूर्ण सुख पर अधिकार किये बैठें हैं। वे ही इस दुखाग्नि की ज्वाला को बुझा सकते हैं। उनकी उपेक्षा पैरों से ठुकराई हुई कुम्हार के आवें की अग्नि के समान दाहक होगी। ललिता की ये ललित बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधा ने आँखें खोलीं और अपनी प्रिय सखी से वे गदगद वाणी में बोलीं- यदि मुझे वृजभूषन श्रीकृष्ण के चरणारविन्द प्राप्त नही हुए तो मैं कदापि अपने शरीर को धारण नही करूँगी, यह मेरा निश्चय है। श्रीराधा की यह बात सुनकर ललिताजी भय से विह्वल होकर यमुना के मनोहर तटपर श्रीकृष्ण से मिलीं। ललिताजी ने श्रीकृष्ण से कहा- “श्रीश्यामसुन्दर ! जिस दिन से श्रीराधा ने आपके मनोहर रूप को देखा है उसी दिन से वह स्तम्भनरूप सात्विकभाव के अधीन हो गयी हैं। काठ की पुटकी की भाँति किसी से कुछ बोलती नहीं, अलंकार उन्हें अग्नि की ज्वाला की भाँति दाहक प्रतीत होते हैं। सुन्दर वस्त्र तपी हुई बालू के समान लगते हैं। उनके लिए हर प्रकार की सुगंध कड़वी तथा भवन भी निर्जनवन की भाँति हो गया है। हे प्यारे ! तुम ये जान लो कि तुम्हारे विरह में मेरी सखि को फूल बाण सा तथा चंद्रबिम्ब विष्कन्द से प्रतीत होता है। अतः श्रीराधा को तुम शीघ्र ही दर्शन दो तुम्हारा दर्शन ही उनके दुख को दूर कर सकता है।” ललिता जी की बात सुनकर श्रीकृष्ण मेघगर्जन सी गम्भीरवानी में बोले- “भामिनि ! मन का सारा भाव स्वतः ही मुझ परात्पर पुरूषोत्तम की ओर नहीं प्रवाहित होता। अतः सबको अपनी ओर से मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिए। इस भूतल पर प्रेम के समान दूसरा कोई साधन नही है। मैं प्रेम से ही सुलभ होता हूँ। भांडीरवन में श्रीराधा के ह्रदय में जैसे मनोरथ का उदय हुआ था, वह उसी रूप में पूरा होगा। सत्पुरुष निर्हेतुक प्रेम को निश्चय ही निर्गुण मानते हैं। जो मुझ केशव में व श्रीराधिका में थोड़ा सा भी भेद नही देखते बल्कि दूध और उसकी शुक्लता के समान हम दोनों को सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्हीं के अंतःकरण में अहैतुकी भक्ति के लक्षण प्रकट होते हैं तथा वही मेरे ब्रह्मपद(गोलोकधाम) में प्रवेश कर पाते हैं। इस भूतल पर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव और श्रीराधिका में भेदभाव रखते हैं वे जब तक चंद्रमा और सूर्य की सत्ता है, तब तक निश्चय ही कालसूत्र नामक नरक में पढ़कर दुख भोगते हैं।” श्रीकृष्ण की यह सारी बात सुनकर ललिता जी श्रीकृष्ण को प्रणाम कर श्रीराधा के पास गयीं और एकांत में बोलीं बोलते समय उनके मुख पर मधुर हास की छटा छा रही थी ललिता ने कहा- “सखी ! जैसे तुम श्रीकृष्ण को चाहती हो उसी प्रकार मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते हैं। तुम दोनों का तेज भेदभाव से रहित एक है। लोग अज्ञानवश ही उसे दो मानते हैं तथापि सती-साध्वी देवी ! तुम श्रीकृष्ण के लिए निष्काम कर्म करो जिससे पराभक्ति के द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो।” ललिता सखी की ललित बात सुनकर रासेश्वरी श्री राधा ने सम्पूर्ण धर्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ चंद्रनना सखी से कहा- तुम श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये किसी ऐसे देवता की पूजा बताओ जो परम सौभग्यवर्धक, महान पुण्यजनक तथा मनोवांछित फल देने वाली हो। भद्रे महामते ! तुमने आचार्यो के मुख से शास्त्र चर्चा सुनी है। इसलिए तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ। श्री राधा की बात सुनकर सखियों में श्रेष्ठ चंद्रनना ने कुछ क्षण तक अपने मन मे कुछ विचार किया और बोलीं- राधे ! परम सौभग्यदायक, महान पुण्यजनक तथा श्री कृष्ण के प्राप्ति के लिए वरदायक व्रत है- “तुलसी सेवा” मेरी राय में तुलसी सेवन का नियम ही तुम्हे लेना चाहिए क्योंकि तुलसी का यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम, कीर्तन, स्तवन, आरोपण, सेचन, और तुलसीदल से ही नित्य पूजन किया जाए तो वह महान पुण्यप्रद होता है। शुभे ! जो प्रतिदिन तुलसी की नौ प्रकार से भक्ति करते हैं, वे भक्त सहस्त्रयुगों तक अपने उस कृत्य का उत्तम फल भोगते हैं। मनुष्यों द्वारा लगाई हुई तुलसी जब तक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प, और सुंदर दलों (पत्तो) के साथ पृथ्वी पर बढ़ती रहती है तब तक उनके वंश में जो-जो जन्म लेते है, वे सब आरोपण करने वाले मनुष्यों के दो हजार कल्पों तक श्रीहरि के धाम में निवास करते हैं। राधिके ! सम्पूर्ण पत्रों और फूलों को भगवान के श्रीचरणों में चढ़ाने से जो फल मिलता है वह एक मात्र तुलसीदल के अर्पण करने से प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य तुलसीदल से श्रीकृष्ण की पूजा करता है वह जल में पद्म की भाँति पाप से कभी लिप्त नही होता। सौ भार स्वर्ण तथा चार सौ भार रजत के दान का जो फल है वह तुलसी वन के पालन से मनुष्य की प्राप्त हो जाता है। राधे ! जिसके घर मे तुलसी का वन व बगीचा होता है उसका वह घर तीर्थरूप है। वहाँ यमराज के दूत कभी नही जाते। जो मनुष्य तुलसी वन का रोपण करते हैं, वह कभी सूर्यपुत्र यम को नही देखते। रोपण, पालन, और सेचन से तुलसी मनुष्य के मन, वाणी और शरीर द्वारा संचित समस्त पापों को दग्ध कर देती है। जो तुलसी की मंजरी सिर पर रखकर प्राण त्याग करता है वह सैकड़ों पापों से युक्त क्यों न हो, यमराज उसकी ओर देखते भी नही। जो मनुष्य तुलसी काष्ठ का घिसा हुआ चंदन लगाता है, उसके शरीर को यहाँ क्रियमाण पाप नही छूता। सखी ! आदि देव चतुर्भुज ब्रह्मा जी भी शाराङ्गधन्वा श्रीहरि के भाँति तुलसी के महात्म्य को भी कहने में समर्थ नही हैं। इस प्रकार चंद्रनना कि बात सुनकर श्रीराधा में श्रीकृष्ण को संतुष्ट करने वाले तुलसी सेवन का व्रत आरम्भ किया केतकीवन के सौहाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर तुलसी का मंदिर बनवाया अमूल्य रत्नों, मणियों व स्वर्णादि से सुसज्जित वैजयंती पातका से युक्त वेज मंदिर इंद्र भवन से देदीप्यमान था। श्रीराधा ने बढ़े भक्ति भाव से श्रीगर्गाचार्य महामुनि को बुला के उनके द्वारा बताई हुई तुलसी सेवन व्रत की विधि से श्रीकृष्ण को संतुष्ट करने के लिए अश्विन पूर्णिमा से चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी सेवन व्रत का अनुष्ठान किया। व्रत आरम्भ करके उन्होंने पृथक-पृथक रसों से तुलसी को सींचा कार्तिक में दूध से, मार्गशीष में ईख के रस से, पौष में द्राक्षार रस से, माघ में बारहमासी आम के रस से, फाल्गुन में अनेक वस्तुओं से निर्मित मिश्री के रस से और चैत्रमास में मंचामृत से उसका सेचन किया। इस प्रकार व्रत पूरा करके श्रीराधा ने वैशाख कृष्णा प्रतिपदा के दिन उद्यापन का उत्सव किया। उस समय आकाश में देवताओं की दुन्दुमभियाँ बजने लगीं, अप्सराओं का नृत्य होने लगा देवलोक से देवता गण उस तुलसी मंदिर पर पुष्पवर्षा करने लगे। उसी समय स्वर्णमय सिंहासन पर हरिप्रिया श्रीतुलसीदेवी प्रकट हुई उनकी चार भुजाएँ, कमलदल के समान विशाल नेत्र थे। सोलह वर्ष की सी अवस्था एवं श्याम काँति थी। तुलसी जी बोलीं- “कलावती कुमारी श्री राधे ! मैं आपके भक्तिभाव से वशीभूत हो निरन्तर प्रसन्न हूँ। भामिनि ! आपने केवल लोकल्याण की भावना से इस सर्वतोमुखी व्रत का अनुष्ठान किया है। वास्तव में तो आप पूर्ण सर्वेश्वरी हो यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि, और चित्तद्वारा जो जो मनोरथ आपने किया है, वह सब सफल हों आपके प्राणवल्लभ सदैव आपके अनुकूल रहें और इसी प्रकार कीर्तनिय पराम सौभाग्य बना रहे।” यों कहते हुई हरिप्रिया तुलसीदेवी को प्रणाम करके वृषभानु नंदनी राधा ने उनसे कहा- “देवी ! गोविंद के युगल चरणारविन्दो में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।” तब हरिप्रिया टुकसी तथास्तु कहती हुई अंतर्ध्यान हो गयीं। तब से वृषभानु नंदनी राधा अपने नगर में प्रसन्न-चित्त रहने लगीं। इस प्रकार पृथ्वी पर जो मनुष्य भक्ति परायण हो श्री राधा के उस विचित्र उपाख्यान सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुख का अनुभव करके अंत मे श्रीभगवान को प्राप्त हो जाता है। श्रीराधा की प्रीति की परीक्षा लेने के लिये एक दिन भगवान श्रीकृष्ण वृषभानुपुर में गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपांगना का रूप धारण कर लिया था। चलते समय उनके पैरों से नूपुरों की मधुर झनकार हो रही थी। कटि की करधनी में लगी हुई क्षुद्रघण्टिकाओं की भी मधुर खनखनाहट सुनायी पड़ती थी। अंगुलियों में मुद्रिकाओं की अपूर्व शोभा थी, कलाइयों में रत्न जटित कंगन, बाँहों में भुजबन्द तथा कण्ठ एवं वक्ष:स्थल में मोतियों के हार शोभा दे रहे थे। बाल रवि के समान दीप्तिमान शीशफूल से सुशोभित केश-पाशों की वेणी-रचना में अपूर्व कुशलता का परिचय मिलता था। नासिका में मोती की बुलाक हिल रही थी, शरीर की दिव्य आभा स्निग्ध अलकों के समान ही श्याम थी। ऐसा रूप धारण करके श्रीहरि ने वृषभानु के मन्दिर को देखा। खाई और परकोटों से युक्त वह वृषभानु भवन चार दरवाजों से सुशोभित था। बहुत-से गोपाल (ग्वाल) वहाँ वंशी और बेंत धारण किये गीत गा रहे थे। मायामयी युवती का वेष धारण किये श्यामसुन्दर उस प्रांगण से अंत:पुर में प्रविष्ट हुए, जहाँ कोटि सूर्यों के समान काँतिमान कपाटों और खंभों की पंक्तियाँ प्रकाश फैला रही थी। वहाँ के रत्न-मण्डित आँगनों में बहुत-सी रत्नस्वरूपा ललनाएँ सुशोभित हो रही थीं। वीणा, ताल और मृदंग आदि बाजे बजाती हुई वे मनोहारिणी गोप-सुन्दरियाँ फूलों की छड़ी लिये श्रीराधिका के गुण गा रही थीं। उस अंत:पुर में दिव्य एवं विशाल उपवन की छटा छा रही थी। उसके भीतर अनार, कुन्द, मन्दार, नींबू तथा अन्य ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लहलहा रहे थे। केतकी, मालती और माधवी लताएँ उस उपवन को सुशोभित करती थीं। वहीं श्रीराधा का निकुंज था, जिसमें कल्प वृक्ष के पुष्पों की सुगन्ध भरी थी। उस उपवन में शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी सूर्य के समान काँतिमान कुण्डल तथा विचित्र वर्ण वाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दर मुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधा के सेवा-कार्य में अपने कुशलता का परिचय देती थीं। उनके बीच में श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिर में टहल रही थी। वह राजमन्दिर केसरिया रंग के सूक्ष्म वस्त्रों से सजाया गया था। आँगन में करोड़ों चन्द्रों के समान काँतिमती, कोमलांगी एवं कृशांगी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणाविन्दों का संचालन करती हुई घूम रही थी। मणि-मन्दिर के आँगन में आयी हुई उस नवीना गोप-सुन्दरी को वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा ने देखा, उसके तेज से वहाँ की समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमा के उदय होने से ताराओं की काँति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान गौरव का अनुभव करके श्रीराधा ने अभ्युत्थान दिया(अगवानी की)और दोनों बाँहों से उसका गाढ़ आलिंगन करके उसे दिव्य सिंहासन पर बिठाया। श्रीराधा बोलीं:- “सुन्दरी सखी ! तुम्हारा स्वागत है, मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वत: आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान सौभाग्य की बात है। इस भूतल पर तुम्हारे समान दिव्य रूप का कहीं दर्शन नहीं होता, शुभ्र जहाँ तुम-जैसी सुन्दरी निवास करती हैं, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमन का कारण विस्तार पूर्वक बताओ, मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये। तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुस्कान, चाल-ढ़ाल और आकृति से इस समय मुझे श्रीपति के सदृश दिखायी देती हो। शुभे ! तुम प्रतिदिन मुझसे मिलने के लिये आया करो, यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवास स्थान का संकेत प्रदान करो। जिस विधि से हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोग में लानी चाहिये। हे सखी ! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है, क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराज नन्दन की आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मन को हर लिया है। अत: तुम मेरे पास रहो, जैसे भौजाई अपनी ननद को प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी।” यह सुनकर माया से युवती के वेष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने कमलनयनी राधा से इस प्रकार कहा- “रम्भोरू !नन्द नगर गोकुल में नन्द भवन से उत्तर दिशा में मेरा निवास है, मेरा नाम ‘गोपदेवी’ है। मैंने ललिता के मुख से तुम्हारी रूप माधुरी और गुण-माधुरी का वर्णन सुना है, अत: हे चंचल लोचनों वाली सुन्दरी ! मैं तुम्हें देखने के लिये यहाँ तुम्हारे घर में चली आयी हूँ। कमललोचने ! जहाँ ललित लवंगलता की सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है, जहाँ के गुंजा-निकुंज में मधुपों की मधुर ध्वनि से युक्त कंजपुष्प खिल रहे हैं, वह श्रुति पथ में आया हुआ तुम्हारा नित्य-नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों देख लिया, इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं होगी।” इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतम का मिलन हुआ। वे परस्पर प्रीति का परिचय देते हुए वहाँ उपवन में शोभा पाने लगे, पुष्पमय कन्दुक(गेंद)के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे, वन के वृक्षों को देखते हुए वे इधर-उधर विचरने लगे। राजन, कला-कौशल से सम्पन्न कमललोचना राधा को सम्बोधित करके गोपदेवी ने मधुर वाणी से कहा। गोपदेवी बोली:- “व्रजेश्वरी ! नन्द नगर यहाँ से दूर है और संध्या हो गयी है, अत: जाती हूँ, कल प्रात:काल तुम्हारे पास आऊँगी, इसमे संशय नहीं है।’ गोपदेवी की यह बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधा के नयनों से तत्काल आँसुओं की धारा बह चली। वे रोमांच तथा हर्षोद्रम के भाव से आवृत हो कटे हुए कदली वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देख वहाँ सखियाँ सशंक हो गयी और तुरन्त व्यजंन लेकर, पास खड़ी हो, हवा करने लगीं, उनके वस्त्रों पर चन्दन-पुष्पों के इत्र छिड़के गये। उस समय गोपदेवी ने श्रीराधा से कहा:- राधिके ! मैं प्रात:काल अवश्य आऊँगी तुम चिंता न करो, यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और अपने भाई की सौगन्ध है।’ यों कहकर माया से युवती का वेष धारण करने वाले श्रीहरि राधा को धीरज बँधाकर श्रीनन्द गोकुल(नन्द गाँव)में चले गये। तदनंतर रात व्यतीत होने पर माया से नारी का रूप धारण करने वाले श्रीहरि श्रीराधा का दु:ख शांत करने के लिये वृषभानु भवन में गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्ष के साथ भीतर लिवा ले गयीं, और आसन देकर विधि-विधान के साथ उनका पूजन किया। श्रीराधा बोलीं:- “सखी ! तुम्हारे बिना मैं रात भर बहुत दु:खी रही और तुम्हारे आ जाने से मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो। जैसे कुपथ्य-सेवन से पहले तो सुख मालूम होता है, किंतु पीछे दु:ख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्संग से भी पहले सुख होता है और पीछे वियोग का दु:ख उठाना पड़ता है।” श्रीराधा की यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधा से कुछ भी नहीं बोलीं, किसी दु:खिनी की भाँति चुपचाप बैठी रहीं। गोपदेवी को खिन्न जानकर श्रीराधिका ने सखियों के साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा। श्रीराधा बोलीं:-“गोपदेवि ! तुम अनमनी क्यों हो गयीं, कल्याणी ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सास ने कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौत के दोष से या अपने पति के वियोग से अथवा अन्यत्र चित्त लग जाने से तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है महाभागे ! रास्ता चलने की थकावट से या शरीर में कोई रोग हो जाने से तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है, अपने दु:ख का कारण शीघ्र बताओ ? किसी कृष्ण भक्त या ब्राह्मण को छोड़कर दूसरे जिस-किसी ने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी(उसे दण्ड दूँगी)। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकार के रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो।” उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवी के रूप में आये हुए भगवान उन कीर्तिनन्दिनी श्रीराधा से हँसते हुए बोले। गोपदेवी ने कहा:- राधे ! वरसानुगिरि की घाटियों में जो मनोहर सँकरी गली है, उसी से होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतने में नन्द जी के नवतरूण कुमार श्यामसुन्दर ने मुझे मार्ग में रोक लिया। उनके हाथ में वंशी और बेंत की छड़ी थी, उन रसिकशेखर ने लाज को तिलांजलि दे, तुरन्त मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोर से हँसते हुए, उस एकान्त वन में वे इस प्रकार कहने लगे:- ‘सुन्दरी ! मैं कर लेने वाला हूँ, अत: तू मुझे करके रूप में दही का दान दे।’ मैंने कहा:- ‘चलो हटो ! अपने-आप कर लेने वाले बने हुए तुम जैसे गोरस-लम्पट को मैं कदापि दान नहीं दूँगी।’ मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिर पर से दही का मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला। मटका फोड़ कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरि की ईशान कोण वाली दिशा की ओर वे चल दिये, इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ। जात का ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान, न वीर, न सुशील और न सुरूप, सुशीले ! ऐसे पुरुष के प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आज से शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्ण को मन से निकाल दो(उसे सर्वथा त्याग दो)।” इस प्रकार वैर-भाव से युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा को बड़ा विस्मय हुआ, वे वाक्य और पदों के प्रयोग के सम्बन्ध में सरस्वती के चरणों का स्मरण करती हुई उनसे बोलीं। श्रीराधा ने कहा:- “सखी ! जिनकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योग रीति से पंचाग्नि सेवन-पूर्वक तप करते हैं, दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अंगिरा आदि भी जिनके चरणाविन्दों के मकरन्द और पराग का सादर स्पर्श करते हैं, उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतार-धारी, सर्वजन-दु:खहारी, भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याण के लिये यहाँ प्रकट हुए आदि पुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो। तुम तो बड़ी ढ़ीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं, तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला-कलूटा बताती हो, किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की श्याम-विभा से विलसित सुन्दर कला का दर्शन करके उन्हीं में मन लग जाने के कारण भगवान नीलकण्ठ औरों के सुन्दर मुख को छोड़कर जटाजूट, हलाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटे के लिये ही पागलों की भाँति व्रज में दौड़ते फिरते हैं।” श्रीराधा जी गोपदेवी बने श्रीकृष्ण से कहती हैं:-“स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरूद्गणों के पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागों के स्वामी भी निरंतर भक्तिभाव से जिनके चरणाविन्दों में प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्य को पाकर निश्चय ही उन्हें बलि(कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो। वत्सासुर, अघासुर, कालिय नाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदि का वध (सम्भवत: तुम्हारी दृष्टि में उनकी वीरता का परिचायक नहीं है, मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारि के लिये क्या यश देने वाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहों के एक मात्र स्नष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तम के लिये भक्त से बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलराम जी भी उनके लिये भक्तों से अधिक प्रिय नहीं हैं, वे भक्ति से बद्धचित्त होकर भक्तों के पीछे-पीछे चलते हैं। अत: श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकों के सुजन-समुदाय के चूड़ामणि हैं। वे भक्तों के पीछे चलते हुए अपने रोम-रोम में स्थित लोकों को पवित्र करते रहते हैं, वे परमात्मा अपने भक्तजनों के प्रति सदा ही अभिरूचि सूचित करते रहते हैं। अत: अत्यंत भजन करने वालों को भगवान मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्ति के बन्धन में बँधे रहना पड़ता है।” गोपदेवी बोली:- “श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पति का भी उपहास करती है, और वाणी अपने प्रवचन-कौशल से वेदवाणी का अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलाने से यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायँ और तुम्हारी बात का उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है।” श्रीराधा बोलीं:- “शुभ्रु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलाने से यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परन्तु अपनी ओर से इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करने से वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी।” तदनंतर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दन को नमस्कार करके आसन पर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं, उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होने के कारण निश्चल हो गये थे। गोपदेवी बने श्रीहरि ने देखा:- ‘प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शन के लिये उत्कण्ठित हैं। इनके अंग-अंग में स्वेद(पसीना) हो आया है और मुख पर आँसुओं की धारा बह चली है।’ यह देख अपना पुरुष रूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियों के देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जन के समान गम्भीर वाणी में श्रीराधासे बोलें। श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा:- “रम्भोरू ! चन्द्रवदने ! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणी से मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरन्त यहाँ आ गया हूँ, अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने ! ‘प्रियतम कृष्ण ! आओ’ यह वाक्य यहाँ से प्रकट हुआ और मैंने सुना, फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्द को छोड़कर, वंशीवट और यमुना के तट से वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नता के लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ। मेरे आते ही कोई सखी रूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवांगना अथवा किंनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलने के लिये आयी थी, यहाँ से चल दी, अत: तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये।” तदनंतर श्रीराधा श्रीहरि को देखकर उनके चरण-कमलों में प्रणत हो परमानन्द में निमग्न हो गयीं, उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। प्रिया-प्रियतम के ऐसे अद्भुत चरित्रों का जो भक्ति भाव से श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है।
नन्द बाबा चुपचाप रथ पर कान्हा के वस्त्राभूषणों की गठरी रख रहे थे। दूर ओसारे में मूर्ति की तरह शीश झुका कर खड़ी यशोदा को देख कर कहा, “दु:खी क्यों हो यशोदा, दूसरे की वस्तु पर अपना क्या अधिकार ?”
यशोदा ने शीश उठा कर देखा नन्द बाबा की ओर, उनकी आँखों में जल भर आया था। नन्द निकट चले आये। यशोदा ने भारी स्वर से कहा, “तो क्या कान्हा पर हमारा कोई अधिकार नहीं ? ग्यारह वर्षों तक हम असत्य से ही लिपट कर जीते रहे ?” नन्द ने कहा, “अधिकार क्यों नहीं, कन्हैया कहीं भी रहे, पर रहेगा तो हमारा ही लल्ला न ! पर उसपर हमसे ज्यादा देवकी वसुदेव का अधिकार है, और उन्हें अभी कन्हैया की आवश्यकता भी है।”
यशोदा ने फिर कहा, “तो क्या मेरे ममत्व का कोई मोल नहीं ?” नन्द बाबा ने थके हुए स्वर में कहा, “ममत्व का तो सचमुच कोई मोल नहीं होता यशोदा। पर देखो तो, कान्हा ने इन ग्यारह वर्षों में हमें क्या नहीं दिया है। उम्र के उत्तरार्ध में जब हमने संतान की आशा छोड़ दी थी, तब वह हमारे आंगन में आया। तुम्हें नहीं लगता कि इन ग्यारह वर्षों में हमने जैसा सुखी जीवन जिया है, वैसा कभी नहीं जी सके थे। दूसरे की वस्तु से और कितनी आशा करती हो यशोदा, एक न एक दिन तो वह अपनी वस्तु माँगेगा ही न ! कान्हा को जाने दो यशोदा।”
यशोदा से अब खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, वे वहीं धरती पर बैठ गयी, कहा, “आप मुझसे क्या त्यागने के लिए कह रहे हैं, यह आप नहीं समझ रहे।” नन्द बाबा की आँखें भी भीग गयी थीं। उन्होंने हारे हुए स्वर में कहा, “तुम देवकी को क्या दे रही हो यह मुझसे अधिक कौन समझ सकता है यशोदा ! आने वाले असंख्य युगों में किसी के पास तुम्हारे जैसा दूसरा उदाहरण नहीं होगा। यह जगत सदैव तुम्हारे त्याग के आगे नतमस्तक रहेगा।” यशोदा आँचल से मुँह ढाँप कर घर मे जानें लगीं तो नन्द बाबा ने कहा, “अब कन्हैया को भेज दो यशोदा, देर हो रही है।” यशोदा ने आँचल को मुँह पर और तेजी से दबा लिया, और अस्पस्ट स्वर में कहा, “एक बार उसे खिला तो लेने दीजिये, अब तो जा रहा है। कौन जाने फिर !” नन्द चुप हो गए।
यशोदा माखन की पूरी मटकी ले कर ही बैठी थीं, और भावावेश में कन्हैया की ओर एकटक देखते हुए उसी से निकाल निकाल कर खिला रही थी। कन्हैया ने कहा, “एक बात पूछूँ मईया ?” यशोदा ने जैसे आवेश में ही कहा, पूछो लल्ला !
तुम तो रोज मुझे माखन खाने पर डांटती थी मइया, फिर आज अपने ही हाथों क्यों खिला रही हो ? यशोदा ने उत्तर देना चाहा पर मुँह से स्वर न निकल सके। वह चुपचाप खिलाती रही। कान्हा ने पूछा, “क्या सोच रही हो मईया ?” यशोदा ने अपने अश्रुओं को रोक कर कहा, “सोच रही हूँ कि तुम चले जाओगे तो मेरी गैया कौन चरायेगा ?”
कान्हा ने कहा, “तनिक मेरी सोचो मईया, वहाँ मुझे इस तरह माखन कौन खिलायेगा ? मुझसे तो माखन छिन ही जाएगा मईया।” यशोदा ने कान्हा को चूम कर कहा, “नहीं लल्ला ! वहाँ
तुम्हे देवकी रोज माखन खिलाएगी। कन्हैया ने फिर कहा, “पर तुम्हारी तरह प्रेम कौन करेगा मईया ?” अब तो यशोदा कृष्ण को स्वयं से लिपटा कर फफक पड़ी। मन ही मन कहा, “यशोदा की तरह प्रेम तो सचमुच कोई नहीं कर सकेगा लल्ला, पर शायद इस प्रेम की आयु इतनी ही थी।”
कृष्ण को रथ पर बैठा कर अक्रूर के संग नन्द बाबा चले तो यशोदा ने कहा, “तनिक सुनिए न, आपसे देवकी तो मिलेगी न ? उससे कह दीजियेगा, लल्ला तनिक नटखट है पर कभी मारेगी नहीं।” नन्द बाबा ने मुँह घुमा लिया।
यशोदा ने फिर कहा, “कहियेगा कि मैंने लल्ला को कभी दूभ से भी नहीं छुआ, हमेशा हृदय से ही लगा कर रखा है।” नन्द बाबा ने रथ को हांक दिया। यशोदा ने पीछे से कहा, “कह दीजियेगा कि लल्ला को माखन प्रिय है। उसको ताजा माखन खिलाती रहेगी। बासी माखन में कीड़े पड़ जाते हैं।” नन्द बाबा की आँखें फिर भर रही थीं, उन्होंने घोड़े को तेज किया।
यशोदा ने तनिक तेज स्वर में फिर कहा, कहियेगा कि बड़े कौर उसके गले मे अटक जाते हैं, उसे छोटे छोटे कौर ही खिलाएगी। नन्द बाबा ने घोड़े को जोर से हांक लगाई, रथ धूल उड़ाते हुए बढ़ चला। यशोदा वहीं जमीन पर बैठ गयी और फफक कर कहा, “कान्हा से भी कहियेगा कि मुझे स्मरण रखेगा।” रथ में बैठे कृष्ण ने मन ही मन कहा, “तुम्हें यह जगत सदैव स्मरण रखेगा मईया। तुम्हारे बाद मेरे जीवन मे जीवन बचता कहाँ हैं।
किरात को संत दर्शन का फल . एक बार की बात है। एक संत जंगल में कुटिया बना कर रहते थे और भगवान श्री कृष्ण का भजन करते थे। . संत को यकीं था कि एक ना एक दिन मेरे भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात् दर्शन जरूर देंगे। . उसी जंगल में एक शिकारी आया। उस शिकारी ने संत कि कुटिया देखी। . वह कुटिया में गया और उसने संत को प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन हैं और आप यहाँ क्या कर रहे हैं। . संत ने सोचा यदि मैं इससे कहूंगा कि भगवान श्री कृष्ण के इंतजार में बैठा हूँ। उनका दर्शन मुझे किसी प्रकार से हो जाये। तो शायद इसको ये बात समझ में नहीं आएगी। . संत ने दूसरा उपाय सोचा। संत ने किरात (शिकारी) से पूछा: भैया! पहले आप बताओ कि आप कौन हो और यहाँ किस लिए आते हो? . उस किरात ने कहा कि मैं एक शिकारी हूँ और यहाँ शिकार के लिए आया हूँ। . संत ने तुरंत उसी की भाषा में कहा मैं भी एक शिकारी हूँ और अपने शिकार के लिए यहाँ आया हूँ। . शिकारी ने पूछा: अच्छा संत जी, आप ये बताइये आपका शिकार दिखता कैसे है? आपके शिकार का नाम क्या है? हो सकता है कि मैं आपकी मदद कर दूँ? . संत ने सोचा इसे कैसे बताऊ, फिर भी संत कहते हैं: मेरे शिकार का नाम श्रीकृष्ण है। वो दिखने में बहुत ही सुंदर है। सांवरा सलोना है। . उसके सिर पर मोर मुकुट है। हाथों में बंसी है। ऐसा कहकर संत जी रोने लगे। . किरात बोला: बाबा रोते क्यों हो? मैं आपके शिकार को जब तक ना पकड़ लूँ, तब तक पानी भी नहीं पियूँगा और आपके पास नहीं आऊंगा। . अब वह शिकारी घने जंगल के अंदर गया और जाल बिछा कर एक पेड़ पर बैठ गया। यहाँ पर इंतजार करने लगा। . भूखा प्यासा बैठा हुआ है। एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता और फिर तीसरा दिन। भूखे प्यासे किरात को नींद भी आने लगी। . बांके बिहारी को उन पर दया आ गई। भगवान उसके भाव पर रीझ गए। . भगवान मंद मंद स्वर से बांसुरी बजाते आये और उस जाल में खुद फंस गए। . जैसे ही किरात को फसे हुए शिकार का अनुभव हुआ हुआ तो तुरंत नींद से उठा और उस सांवरे भगवान को देखा। . जैसा संत ने बताया था उनका रूप हूबहू वैसा ही था। वह अब जोर जोर से चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया, शिकार मिल गया। . शिकारी ने उसे शिकार को जाल समेत कंधे पर बिठा लिया। और शिकारी कहता हुआ जा रहा है आज तीन दिन के बाद मिले हो, खूब भूखा प्यासा रखा। अब तुम्हे मैं छोड़ने वाला नहीं हूँ। . शिकारी धीरे-धीरे कुटिया की ओर बढ़ रहा था। जैसे ही संत की कुटिया आई तो शिकारी ने आवाज लगाई- बाबा! बाबा! . संत ने तुरंत दरवाजा खोला। और संत उस किरात के कंधे पर भगवान श्री कृष्ण को जाल में फंसा देख रहे हैं। . भगवान श्री कृष्ण जाल में फसे हुए मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। . किरात ने कहा: आपका शिकार लाया हुँ। मुश्किल से मिले हैं। . संत के आज होश उड़ गए। संत किरात के चरणों में गिर पड़े। . संत आज फूट-फूट कर रोने लगे। संत कहते हैं: मैंने आज तक आपको पाने के लिए अनेक प्रयास किये प्रभु.. लेकिन आज आप मुझे इस किरात के कारण मिले हो . भगवान बोले: इस शिकारी का प्रेम तुमसे ज्यादा है। इसका भाव तुम्हारे भाव से ज्यादा है। इसका विश्वास तुम्हारे विश्वास से ज्यादा है। . इसलिए आज जब तीन दिन बीत गए तो मैं आये बिना नहीं रह पाया। मैं तो अपने भक्तों के अधीन हूँ। . और आपकी भक्ति भी कम नहीं है संत जी। आपके दर्शनों के फल से मैं इसे तीन ही दिन में प्राप्त हो गया। . इस तरह से भगवान ने खूब दर्शन दिया और फिर वहाँ से भगवान चले गए। ((((((( जय जय श्री राधे )))))))
एक बार राधाजी के मन में कृष्ण दर्शन की बड़ी लालसा थी, ये सोचकर महलन की अटारी पर चढ़ गईं और खिडकी से बाहर देखने लगीं कि शायद श्यामसुन्दर यहीं से आज गईया लेकर निकलें। (अब हमारी प्यारी जू के ह्रदय में कोई बात आये और लाला उसे पूरा न करें ऐसा तो हो ही नहीं सकता।)
जब राधा रानी जी के मन के भाव श्याम सुन्दर ने जाने तो आज उन्होंने सोचा क्या क्यों न साकरीखोर से (जो कि लाडली जी के महलन से होकर जाता है) होते हुए जाएँ, अब यहाँ महलन की अटारी पे लाडली जी खड़ी थीं। तब उनकी मईया कीर्ति रानी उनके पास आईं और बोली- “अरी राधा बेटी ! देख अब तू बड़ी है गई है, कल को दूसरे घर ब्याह के जायेगी, तो सासरे वारे काह कहेंगे, जा लाली से तो कछु नाय बने है, बेटी कुछ नहीं तो दही बिलोना तो सीख ले।” अब लाडली जी ने जब सुना तो अब अटारी से उतरकर दही बिलोने बैठ गईं, पर चित्त तो प्यारे में लगा है। लाडली जी खाली मथानी चला रही हैं, घड़े में दही नहीं है इस बात का उन्हें ध्यान ही नहीं है, बस बिलोती जा रही हैं। उधर श्याम सुन्दर नख से शिख तक राधारानी के इस रूप का दर्शन कर रहे हैं, बिल्वमंगल जी ने इस झाँकी का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है।
लाला गईया चराके लौट तो आये हैं पर लाला भी प्यारी जू के ध्यान में खोये हुए हैं, और उनका मुखकमल पके हुए बेर के समान पीला हो गया है। पीला इसलिए हो गया है, क्योंकि राधा रानी गोरी हैं और उनके श्रीअंग की काँति सुवर्ण के समान है, इसलिए उनका ध्यान करते-करते लाला का मुख भी उनके ही समान पीला हो गया है।
इधर जब एक सखी ने देखा कि राधा जी ऐसे दही बिलो रही हैं, तो वह झट कीर्ति मईया के पास गई और बोली मईया जरा देखो, राधा बिना दही के माखन निकाल रही है, अब कीर्ति जी ने जैसे ही देखा तो क्या देखती हैं, श्रीजी का वैभव देखो, मटकी के ऊपर माखन प्रकट है। सच है लाडली जी क्या नहीं कर सकतीं, उनके के लिए फिर बिना दही के माखन निकलना कौन सी बड़ी बात है।
इधर लाला भी खोये हुए है नन्द बाबा बोले लाला- जाकर गईया को दुह लो। अब लाला पैर बाँधने की रस्सी लेकर गौ शाला की ओर चले है, गईया के पास तो नहीं गए वृषभ (सांड) के पास जाकर उसके पैर बाँध दिए और दोहनी लगाकर दूध दुहने लगे।
अब बाबा ने जब देखा तो बाबा का तो वात्सल्य भाव है बाबा बोले- देखो मेरो लाला कितनो भोरो है, इत्ते दिना गईया चराते है गए, पर जा कू इत्तो भी नाय पता है, कि गौ को दुहो जात है कि वृषभ को, मेरो लाल बडो भोरो है। और जब बाबा ने पास आकर देखा तो दोहनी दूध से लबालब भरी है, बाबा देखते ही रह गए, सच है हमारे लाला क्या नहीं कर सकते, वे चाहे गईया तो गईया, वृषभ को भी दुह सकते हैं।
“जय जय श्री राधे” ***********************************************
आज ब्रज में बहुत बड़ा उत्सव सा हो रहा है। जहाँ देखो तहाँ ब्रजवासी गीत गाने में मगन है। सब अपने अपने घरों में मिठाई बना मंदिरो में भोग लगा रहे हैं। जहाँ देखो तहाँ ब्रजवासी अच्छे अच्छे वस्त्र पहन नाच रहे है। ब्रज में तो उत्सव है परंतु कन्हैया को कुछ समझ नहि आता वो अपनी मैया से जा पूछते हैं, मैया जे ब्रज में का हो रह्यो है, काहे को उत्सव है यह ? मैया लाला पर वारी जाती है और बोलती है, ‘लाला तू अब बड़ों ह्य गयो है। हर वर्ष तुझे नाँय मालूम कैसा उत्सव होते हैं।’ मैया लाल के मुख पर स्नेहभारी चपत लगाती हुई बोलीं, ‘अरे लाला आज जानकी को जनम है। श्रीरामचंद्र की शक्ति सीता माता का।’
सीता माता का नाम सुन कन्हैया बोले, ‘मैया अब समझ आयो यह वो ही है ना जिसको दुष्ट रावण लै गयों था, और रामजी ने उसे मार दिया था।’ मैया बोली, ‘हाँ हाँ वही।’ बस फिर क्या था, कन्हैया को एक रसमय लीला सूझी। सोचा आज वो यह लीला करेंगे, और सीता होंगी मेरी राधारानी।
कन्हैया पहुँच गए सखामंडल में और बोले, ‘देखो रे मधुमंगल, श्रीदामा आदि आज मेरो रामजी की लीला करिवै को मन ह्य रह्यो है। आप सब मेरो संग दोगे ?’
मधुमंगल टेढ़ों सा मुख बनाय के बोला, ‘राम जी की लीला” अरे कन्हैया हमने तो कहीं नाँय रामलीला पड़ी ना सुनी हम कैसे करेंगे ?’
कन्हैया कूदकर गर्दन हिला बोले, ‘अरे मेरे प्राण प्रिय सखा मैं लीला करूँगा। जैसा कहूँ वैसा करना।’
मधुमंगल डंडा बजाय के बोला, ‘अब जब संग गोपाल है, तो काहे का डर। करेंगे कन्हैया करेंगे, बहुत आनंद आएगो ना ?’ कन्हैया बोला, ‘देखो मैं राम बनूँगा, श्रीदामा लक्ष्मण और मधुमंगल आप ब्राह्मण हो तो पंडित बनोगे शादी कराने वाले।’
मधुमंगल ठहाका मार हंस कर बोले, ‘शादी को पंडित, अरे लाला यहाँ जंगल में शादी कौन ते कारेगो। वृक्ष से लता पता से या अपनी गईया से।’ और सब हँसने लगे। कन्हैया मुख से जीभ निकाल बोले, ‘ब्राह्मण तू केवल दान दक्षिणा ते मतलब रख और मेरो विवाह करा।’ सखा बोले, ‘पर कन्हैया हमने तो सुना था राम की पत्नी भी थी, सीता माता। तो तेरी पत्नी कौन होवेगी ? ऐसा बोला सब सखा एक दूसरे को आँख मार देखने लगे। कन्हैया बोले, ‘देखो आज जानकी दिवस है। ब्रज में और मैंने सुबह-सुबह मैया संग मंदिर में जानकी जी से विनय करी के मोको भी आप जैसी पत्नी देना। तभी अचानक मंदिर में आकाशवाणी हुई
‘ओह कान्हा! तेरी विनय मैंने सुन ली तेरी पत्नी, (श्याम कुछ शर्माते हुए बोले) तेरी पत्नी वृषभानु की पुत्री राधा होवेगी।’ सखा भोला-सा मुख बनाकर बोले, ‘हैं लाला! ऐसा बोला जानकी मैया ने। कन्हैया बोले, ‘हाँ हाँ तुम्हारे धोती लंगोटन डंडा की क़सम।’ मधुमंगल बोले, ‘तो लाला तू राम बनेगो, तो सीता कौन होवेगी ?’ कन्हैया सर पर हाथ मार बोले, ‘अरे भोले ब्राह्मण सीता बनेगी वृषभान की पुत्री। ‘राधारानी। बस सब सखामंडल डंडा बजान लग गए। कन्हैया बोले, ‘अब राधारानी को यहाँ कौन लावेगो मेरी दुल्हन बनाने को ?’ कन्हैया टेडी हँसी हँसते हुए बोले, ‘मैं तो राम हूँ ना।’ सखा बोले, ‘कन्हैया तू ही बता कौन जा लेकर आवेगों राधारानी को ?’ कन्हैया बोले, ‘हमने सुना है राम अवतार में हनुमान ने मदद करी थी राम को सीता से मिलाने में। तो यहाँ हनुमान होगा हमारा सबसे प्रिय मित्र सुबल।’ सुबल राधारानी के चाचा का लड़का है, और उसका रूप रंग सब राधारानी से मिलता जुलता है। तो कन्हैया ने सुबल को बोला और सुबल तैयार हो गया। अब सुबल चला बरसाने की और वहाँ स्वामिनीजी अपने निज महलन में अपनी मैया मंजरीगण आदि से घिरी हो जानकी जी की उपासना कर रही थीं। सुबल बरसाना पहुँच राधारानी के निज महल में पहुँचकर बोला, ‘ओह कीर्तिकुमारी कुल उज़ियारी आपको श्यामसुंदर ने भांडीर वन में बुलाया है।’ जब स्वामिनीजी ने यह सुना श्याम बुला रहे है तब उनका रोम रोम आनंद से प्रफुलित हो गया, गला रूँध गया। राधा बोलीं, ‘कहाँ कहाँ है मेरे श्यामसुंदर ?’ सुबल बोला, ‘जल्दी चलो, आज जानकी दिवस पर वो कुछ लीला रस का अस्वादन आपको कराना चाहते हैं।’ स्वामिनीजी मंजरी आदि को देख भोए उठा बोलीं, ‘लीला रस! चलो-चलो भांडीरवन, पर सुबल मैया को क्या बोलूँ ?’ सुबल मुस्कुराकर बोला, ‘अरे राधाजी आपका और मेरा रूप रंग एक समान है, मैं यहाँ आपकी चोली वस्त्रदी पहन बैठता हूँ मैया को कुछ पता नहीं चलेगा। आप जाओ जल्दी, कन्हैया आधीर है आपके लिए।’ जैसे-तैसे स्वामिनीजी बरसाने से निकलीं। संग तीन चार मंजरी और ललिता आदि सखियों को संग लिए कन्हैया से मिलने भाण्डीरवन को चल दीं। वहाँ कन्हैया राम स्वरूप में तैयार हो रहे थे। कन्हैया बोला, ‘अरे मधुमंगल मैंने तो सुना था राम के हाथ में धनुष भी होता है। मेरो धनुष ?’ मधुमंगल हँसता हुआ बोला, ‘अरे लाला देख तेरे लिए मैंने लकड़ी तोड़ अपने जनेऊ से डोरी बाँध कर तेरा धनुष बना दिया है।’ स्वामिनी लीला रस को देखने को उत्सुक हो रही हैं। रास्ते में कभी सखी से पूछती हैं, ‘सखी क्या लीला कर रहे होगा मेरा गोपाल ?’ फिर मंजरी से (अपनी भोए चढ़ा बोलती है) सब लीला आवे है मेरे श्याम को।’ कभी आधीर हुए बोलती हैं, ‘सखी आज यह रास्ता लंबा कैसो लग रह्यो है। मोय श्याम से मिलन को है, कोई छोटा कर दो इस रास्ते को।’ मंजरियाँ स्वामिनीजी के आगे-आगे चल काँटे-पत्थर आदि चुनती हुई जा रही है, और उन्हें तसल्ली भी देती हैं कि, ‘आ गए स्वामिनीजी, बस आ गए, पहुँच गए। देखो-देखो आवाज सुनाई दे रही है श्याम की।’ स्वामिनीजी कहती हैं, ‘अरी कींकरी जे रास्ता खत्म नाहिं ह्य रह्यो, वो मेरी बाँट देख रह्ये होंगे। लीला कैसे करेंगे मेरे बिन। कींकरी तू कुछ कर। अरे शुक, अरे सारिका, अरे कोयल, आज मोहे अपने पीठ पर बैठाय के उड़ाय ले चलो।’ मोहे श्याम मिलन की आस है।’ स्वामीनीजी अधीर हो रही हैं। उन्हें अधीर देख मंजरी भी विचलित हो रोने लगी है। मंजरी सोचती हैं, ‘स्वामिनी की अधीरता बढ़ती जा रही है। मैं इन्हें यहीं रोक कहतीं हूँ के पहुँच गए, और फिर चुपके से श्यामसुंदर को ले आती हूँ।’ विचार कर मंजरी ने ऐसा ही किया मंजरी पहुँची श्यामसुन्दर के पास। वहाँ श्यामसुंदर रामचंद्र बन चुके थे मधुमंगल ब्राह्मण पंडित के वेश में था। श्यामसुन्दर मंजरी के मुख को देख समझ गए कि स्वामिनी अधीर हैं। श्यामसुन्दर बिना कुछ विचारे मंजरी की ओर दौड़ते हुए बोले, ‘कहाँ हैं, कहाँ हैं, ले चल मोहे।’ मंजरी आगे और श्यामसुंदर मंजरी के पीछे पुकारते हुए दौड़ रहे हैं, कहाँ है मेरी स्वामिनी।’ ऐसा लगा जैसे, त्रेतायुग में राम दौड़ रहे है वनवास में सीता से मिलन के लिए। ऐसा लगता है मानो, त्रेतायुग में जैसे राम आधीर हुए सीता के मिलन के लिए जब वो रावण की लंका में थी। मंजरी आगे-आगे, श्यामसुन्दर उसके पीछे-पीछे, सखामंडल उनके पीछे और ब्रज के सारे पशु पक्षी भी उनके पीछे दौड़ रहे हैं। जैसे त्रेतायुग में वानरो ने राम सीता के मिलन की सुन्दर लीला के रस का आस्वादन किया था, बैसे ही उसी रसास्वादन के लिये यह सब भी दौड़ रहे हैं। सारा ब्रज आनंद में मगन है। पशु पक्षी में मुख से मधुर गीत गा रहे है, ‘सीताराम राधेश्याम, सीताराम, राधेश्याम।’ जैसे-तैसे मंजरी वहाँ पहुँची। श्यामसुन्दर ने जब स्वामिनी को दुखी देखा तो उनके चरणों में गिर गए। स्वामिनी उस समय नैन बन्द किए अश्रु बहाय श्याम ध्यान में मगन थीं। जैसे ही स्वामिनीजी ने श्यामसुन्दर का और श्यामसुन्दर ने स्वामीनीजी का स्पर्श पाया तभी प्रेम के अनन्तभाव दोनों को जकड़ लिया और दोनो प्रेम की महासमाधि में एक पल के लिए चले गए। जैसे तैसे जब बाहर आए उस महाप्रेमभाव लहरों से तब स्वामिनी ने पूछा, ‘अरे श्यामसुन्दर यह कैसा भेष है आपकी वंशी कहाँ है, आपका मोरपंख कहाँ है ? वही तो मेरे प्राण हैं,बोलो.., बोलो ना प्राणप्रिय।’ श्यामसुंदर मुस्कुराते हुए बोले, ‘स्वामिनीजी आज जानकी दिवस पर हम रामरूप धरे हैं, श्रीदामा लक्ष्मण, और यह मधुमंगल पंडित बना है, विवाह कराने वाला।’ इससे पहले श्यामसुन्दर आगे कुछ कहते स्वामिनी ताली मारती हुई बोल पड़ीं, और हम सीता महारानी बनेंगे।: श्यामसुन्दर बोले, ‘तभी तो आपको यहाँ बुलाया है।’ पण्डित बना हुआ मधुमंगल बोला, ‘ओह रामचंद्र लगन का मुहुर्त निकला जा रहा है आप अपनी शक्ति सीतामाता को संग लिए बैठिए तब मैं विवाह के मंत्र पड़ देता हूँ।’ राधारानी बोली, ‘कन्हैया हमें श्रृंगार तो करने दें। जैसे दुल्हन सजती है।’ सारे वन में सब पशु पक्षी उस विवाह के साक्षी बन खड़े हो गए। राधारानी को ललिताजी सीतामाता का श्रृंगार करा रही हैं। कितनी मोतियों की माला जूड़े में लगायी, कितनी गले में पहनायी। कितना सुंदर चंदन से मकरी आदि का मुख पर निर्माण किया। देवियों को भी लज्जित करने वाले सुन्दर कंगन पहनाये। ललिताजी ऐसे श्रृंगार कर रही है जैसे सीता माँ की माता ने सीता माँ के विवाह के समय किया था। अब सीता माँ तैयार थी और वहाँ राम तो कब से तैयार थे। दोनो बीच में बैठ गए। ललिताजी ने अग्नि प्रज्वलित की’ मधुमंगल पंडित बन मंत्र गाने लगे। ललिताजी सीतामाता की माता का अभिनय करने लगी और माता की तरह सीतामाता के पास बैठ गयी और विशाखा सखी को पिता जनक बना कर सीतामाता के दूसरी तरफ़ बिठा दिया। सारे ब्रज के पशु पक्षी ऐसे लगे जैसे जनक के आँगन में राजारानी आदि विवाह समारोह में आए हैं। सखियाँ सीतामाता (राधा) के संग खड़ी गीत गाने लगीं। मधुमंगल ने जनकजी (विशाखा सखी) से कहा, ‘महाराज आप अब अपनी पुत्री का हाथ रामचंद्र के हाथ में दे कन्यादान करें।’ महाराज जनक (विशाखा सखी) ने कन्यादान कर विवाह की रस्म को पूरा किया। रस्मों के पूर्ण होते ही श्रीसीताराम रूपी प्रेमीयुगल श्रीराधा और श्यामसुन्दर प्रेमभावलीला में लीन हो गये।
श्रीकिशोरी जु का एक एक मधुर मधुर नाम, जिसकी मधुरता में गुँथित उनका प्रेम, उनका माधुर्य, उनकी नवलता, उनकी कोमलता, उनकी प्रेममयता, उनकी उज्जवलता, उनकी स्निग्धता…..न बरणो जावै री… साँची कहूँ न बरणो जावै। जे तो लोभ होय री जाकी मधुरता के पान कौ , याकी कृपा सौं मधुर मधुर नामावली कौ पान करूँ री अपने श्रवण पुट सौं ।कोटि कोटि माधुर्यमई नाम धारण करने वाली मेरी स्वामिनी श्रीराधिके …..आह री ! कैसी शीतलता उतरे है री एक बार पुनः पुकार लेऊँ री मेरी स्वामिनी श्रीराधिके …..
साँची कहूँ री , जिव्हा स्थिर ही होई जावै री , कछु और कहते ही न बने री …कहूँ भी क्यों री …जेई की मधुर मधुर नामावली में डूबी रहूँ री …कभी डबड़बाते नेत्रों से रुन्धती हुई वाणी से पुकारूँ तो कभी लाड में भर भर पुकारूँ, कभी याचक बन स्वामिनी की एक कृपा कटाक्ष की याचना करूँ री …..हा किशोरी कौन भाँति तुमको रिझाऊँ, कौन सौं नाम से तुम्हें पुकारूँ । आपकी चरण रज का एक एक अणु अनन्त कोटि माधुर्य समेटे हुए है किशोरी जु …हा स्वामिनी …और कछु कहते ही न बने मेरी स्वामिनी श्रीराधिके मेरी स्वामिनी श्रीराधिके…..
सखी ! तू भी पुकारेगी न मेरे सँग स्वामिनी जु के ये मधुर मई नाम, अपने कर्णपुटों मे इस अमृत को भर ले , हृदय की गहराइयों से बस एक ही नाम पुकार बन बन उठे मेरी स्वामिनी श्रीराधिके ….
हे स्वामिनी ! हे बिहारिणी ! हे किशोरी ! हे प्रफुल्लै ! हे नववय ! हे निहारिणी ! हे नवयौवनी ! हे विस्मृते ! हे सुखगामिनी ! हे मनहरचातिकी ! हे बसंते ! हे नवक्रीडे ! हे मनोरमे ! हे नवसाजिनी ! हे रसकामिनी ! हे विपुले ! हे उत्सवे ! हे उन्मादिते ! हे सौभाग्य ! हे नवपोषिते ! हे स्वामिनी ! हे रसाम्रते ! हे निहारिणी ! हे निभृते ! हे मदनमदनी ! हे केलिकामिनी ! हे अभिरामिनी ! हे धवले ! हे कौमार्या ! हे स्फुरणे ! हे वनमालिके ! हे नवसाजिनी ! हे विपुले ! हे उन्मादिते !……..
ऐसा माना जाता है, कि सभी तीर्थों का राजा “प्रयागराज” है।
एक बार “प्रयागराज” के मन में ऐसा विचार आया, कि सभी तीर्थ मेरे पास आते है, केवल वृन्दावन मेरे पास नही आता….
प्रयागराज वैकुण्ठ में गए और प्रभु से पूछा….
प्रभु, आपने मुझे तीर्थों का राजा बनाया, लेकिन वृंदावन मुझे टैक्स देने नहीं आते ??
भगवान बहुत हंसे और हंसकर बोले…. हे “प्रयाग” मैंने तुझे केवल तीर्थो का राजा बनाया, मेरे घर का राजा नहीं बनाया। ब्रज वृन्दावन कोई तीर्थ नही है,वो मेरा घर है…. और घर का कोई मालिक नही होता…. घर की मालकिन होती है !!!!
वृन्दावन की अधीश्वरी श्रीमती राधारानी है और राधारानी की कृपा के बिना ब्रज में प्रवेश नहीं हो सकता….
कर्म के कारण हम शरीर से ब्रज में नहीं जा सकते, लेकिन मन ही मन में हम सब ब्रज वृन्दावन में वास कर सकते है….
भगवान कहते है…. शरीर से ब्रज में जाना…. इससे वह करोड़ों गुना बेहतर है, कि मन से ब्रज वृन्दावन में वास करना
इसीलिए भगवान कहते है….
राधे मेरी स्वामनी, मै राधे को दास जन्म जन्म मोहे दीजियो श्री बृंदावन वास, श्री चरणो में वास
सुदामा ने एक बार श्रीकृष्ण ने पूछा कान्हा, मैं आपकी माया के दर्शन करना चाहता हूं… कैसी होती है?” श्री कृष्ण ने टालना चाहा, लेकिन सुदामा की जिद पर श्री कृष्ण ने कहा,
“अच्छा, कभी वक्त आएगा तो बताऊंगा” और फिर एक दिन कहने लगे… सुदामा, आओ, गोमती में स्नानकरने चलें। दोनों गोमती के तट पर गए। वस्त्र उतारे। दोनों नदी में उतरे… श्रीकृष्ण स्नान करके तट पर लौट आए।
पीतांबर पहनने लगे… सुदामा ने देखा, कृष्ण तो तट पर चला गया है, मैं एक डुबकी और लगा लेता हूं… और जैसे ही सुदामा ने डुबकी लगाई… भगवान ने उसे अपनी माया का दर्शन कर दिया।
सुदामा को लगा, गोमती में बाढ़ आ गई है, वह बहे जा रहे हैं, सुदामा जैसे-तैसे तक घाट के किनारे रुके। घाट पर चढ़े। घूमने लगे। घूमते-घूमते गांव के पास आए। वहां एक हथिनी ने उनके गले में फूल माला पहनाई।
ऐसे दिखाई थी श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपनी माया सुदामा हैरान हुए। लोग इकट्ठे हो गए। लोगों ने कहा, “हमारे देश के राजा की मृत्यु हो गई है। हमारा नियम है, राजा की मृत्यु के बाद हथिनी, जिस भी व्यक्ति के गले में माला पहना दे, वही हमारा राजा होता है।
हथिनी ने आपके गले में माला पहनाई है, इसलिए अब आप हमारे राजा हैं। “सुदामा हैरान हुआ। राजा बन गया। एक राजकन्या के साथ उसका विवाह भी हो गया। दो पुत्र भी पैदा हो गए।
एक दिन सुदामा की पत्नी बीमार पड़ गई… आखिर मर गई… सुदामा दुख से रोने लगा… उसकी पत्नी जो मर गई थी, जिसे वह बहुत चाहता था, सुंदर थी, सुशील थी… लोग इकट्ठे हो गए… उन्होंने सुदामा को कहा, आप रोएं नहीं, आप हमारे राजा हैं… लेकिन रानी जहां गई है, वहीं आप को भी जाना है, यह मायापुरी का नियम है।
आपकी पत्नी को चिता में अग्नि दी जाएगी… आपको भी अपनी पत्नी की चिता में प्रवेश करना होगा… आपको भी अपनी पत्नी के साथ जाना होगा। सुना, तो सुदामा की सांस रुक गई… हाथ-पांव फुल गए… अब
मुझे भी मरना होगा… मेरी पत्नी की मौत हुई है, मेरी तो नहीं… भला मैं क्यों मरूं… यह कैसा नियम है? सुदामा अपनी पत्नी की मृत्यु को भूल गया… उसका रोना भी बंद हो गया।
ऐसे डूबे गए चिंता में अब वह स्वयं की चिंता में डूब गया… कहा भी, ‘भई, मैं तो मायापुरी का वासी नहीं हूं… मुझ पर आपकी नगरी का कानून लागू नहीं होता… मुझे क्यों जलना होगा।’ लोग नहीं माने, कहा, ‘अपनी पत्नी के साथ आपको भी चिता में जलना होगा… मरना होगा… यह यहां का नियम है।’
आखिर सुदामा ने कहा, ‘अच्छा भई, चिता में जलने से पहले मुझे स्नान तो कर लेने दो…’ लोग माने नहीं… फिर उन्होंने हथियारबंद लोगों की ड्यूटी लगा दी… सुदामा को स्नान करने दो… देखना कहीं भाग न जाए… रह-रह कर सुदामा रो उठता।
सुदामा इतना डर गया कि उसके हाथ-पैर कांपने लगे… वह नदी में उतरा… डुबकी लगाई… और फिर जैसे ही बाहर निकला… उसने देखा, मायानगरी कहीं भी नहीं, किनारे पर तो कृष्ण अभी अपना पीतांबर ही पहन रहे थे… और वह एक दुनिया घूम आया है।
मौत के मुंह से बचकर निकला है…सुदामा नदी से बाहर आया… सुदामा रोए जा रहा था। श्रीकृष्ण हैरान हुए… सबकुछ जानते थे… फिर भी अनजान बनते हुए पूछा, “सुदामा तुम रो क्यों रो रहे हो? ” सुदामा ने कहा, “कृष्ण मैंने जो देखा है, वह सच था या यह जो मैं देख रहा हूं।”
श्रीकृष्ण मुस्कराए, कहा, “जो देखा, भोगा वह सच नहीं था। भ्रम था… स्वप्न था… माया थी मेरी और जो तुम अब मुझे देख रहे हो… यही सच है… मैं ही सच हूं…मेरे से भिन्न, जो भी है, वह मेरी माया ही है।
और जो मुझे ही सर्वत्र देखता है, महसूस करता है, उसे मेरी माया स्पर्श नहीं करती। माया स्वयं का विस्मरण है…माया अज्ञान है, माया परमात्मा से भिन्न… माया नर्तकी है… नाचती है… नचाती है…
लेकिन जो श्रीकृष्ण से जुड़ा है, वह नाचता नहीं… भ्रमित नहीं होता… माया से निर्लेप रहता है, वह जान जाता है, सुदामा भी जान गया था… जो जान गया वह श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है!!!
दिव्य अलौकिक, अनन्य, अनन्त, आत्मा और परमात्मा का मिलन है। श्री श्यामा श्याम आठों पहर एक दुसरे को मिलने को व्याकुल रहते हैं। इसी प्रेम से सृष्टि का कण-कण स्पंदित और रोमांचित है। राधा कृष्ण प्रेम के प्रतीक हैं। श्रीकृष्ण की समस्त चेष्टा राधा जी की प्रसन्नता हेतु और श्रीराधा जी की अपूर्व निष्ठां श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्राण है।
श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़ मथुरा को जा रहे हैं, गोप गोपिकाओं से विदा ले अक्रूर जी संग मथुरा के रास्ते पर निकल पड़े हैं। दूर एक पेड़ के नीचे बैठ श्रीराधा जी श्रीकृष्ण को निहार रहीं हैं। मौन, आँखें भरी पर आँसू नहीं गिरने दिए।
राधा पर दृष्टि जाते ही श्रीकृष्ण बोले- “काका रथ रोको” श्रीकृष्ण राधा जी की ओर भागे। उनके पास पहुँच कर बोले- “राधे ! मैं जा रहा हूँ, मुझे रोकोगी नहीं” श्रीराधा जी मौन रहीं तो कृष्ण फिर बोले “राधे मुझे रोकोगी नहीं”। राधाजी रूंधे गले से धीरे से बोल उठी-“कान्हा जब आप ने जाने का निश्चय कर ही लिया है तो अब आप को कौन रोक सकता है।”
कृष्ण बोले- नहीं, राधे ! तुम एक बार मुझे कहो तो मैं नहीं जाऊँगा” श्रीराधा कहती हैं “कान्हा ! अगर आप सब से पहले मेरे पास आते तो मैं आप को रोक लेती, और तब आप कहाँ जाते, पर अब नहीं क्या राधा इतनी स्वार्थी हो गई राधा की ख़ुशी तो अपने कान्हा की ख़ुशी में ही है।” कृष्ण ने कहा- “मुझ से एक वादा करो प्रिये कभी आँख न छलके और वृज न छूटे, गोप-गोपिकाएँ सब तुम्हारी शरण में हैं अब।” श्रीकृष्ण का मन भर आया झट से बांसुरी राधाजी के चरणों में रख और रथ की ओर भागे।
“काका ! जल्दी चलो” कान्हा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा “जल्दी रथ हाँको जल्दी” अक्रूर जी परेशान हो गए। कान्हा बोले-“काका, अगर मेरी आँख छलक गई तो राधा के आँसुओं से पूरा ब्रह्माण्ड डूब जाएगा।”
संत कहते हैं श्री राधा जी ने पूरी लीला के दौरान एक भी आंसू नहीं गिरने दिया। और न ही वृज से कभी बाहर गई कोई गोप गोपी भी वृज से बाहर नहीं गया। जब तक गोविन्द ने उन्हें 100 वर्ष बाद मिलने को बुलाया नहीं। अपने प्रेमास्पद की प्रसन्नता के लिए अपने आँसुओं को विरह रुपी अग्नि में जला दिया।
यही तो है “प्रेम की प्रकाष्ठा”। ———-:::×:::——— “जय जय श्री राधे”
परी रहौं वृषभानु के द्वारैं, जहाँ मेरी लाड़िली राधा। खेलत आवै सुख उपजावै, प्राणन की ये साधा॥ कीरति कुल उजियारी प्यारी, हिय की चैन अगाधा। ठौर नहीं ‘वंशीअलि’ हिय में, और लगै सब बाधा॥
श्री वंशी अली जी 1821 ई को अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को श्रीमती कृष्णावती जी के गर्भ से श्री प्रद्युम्न गोस्वामी जी के सुपुत्र प्रगट हुए।
माता पिता ने इनका नाम वंशीधर रखा। आगे यही आचार्य के रूप में वंशी अली के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जन्म के पश्चात बालक वंशीधर ने माताजी के बहुत प्रयास करने के बाद भी स्तनपान नहीं किया, सभी परिवार के लोग चिंतित हो गए। सब विचार करने लगे की यदि बालक दूध नहीं पिएगा तो जीवित कैसे रहेगा। उसी समय एक ब्रजवासी बरसाने से आया और बालक के पास आकर राधा राधा रटते हुए बालक को खिलाने लगा। राधा नाम सुनते ही बालक ने स्तनपान करना आरंभ कर दिया। सभी परिवार के लोग प्रसन्न हुए और बृजवासी को भेंट प्रदान की।
अब वंशीधर जी की आयु धीरे- धीरे बढ़ने लगी। 5 वर्ष की अवस्था में उनके आसाधारण राधा प्रेम की अभिव्यक्ति खेल के माध्यम से प्रकट होने लगी। खेल में यह राधा राधा नाम का कीर्तन करते और राधा संबंधी भजन गाया करते। उनको सभी बहुत स्नेह करते। वंशीधर जी नित्य ही यमुना स्नान को जाते और लौटकर भागवत की कथा करते।
जन्म से ही श्रीवंशी अली जी दिव्य प्रतिभा संपन्न थे। इन्होंने बाल्य अवस्था में ही सम्पूर्ण वेद-शास्त्र व अनेकों संस्कृत ग्रन्थों को हृदयङ्गम कर लिया था, तर्कशास्त्र के अद्वितीय विद्वान थे, श्रीमद्भागवत के गूढ़ श्लोकों का इस प्रकार व्याख्यान करते की बड़े-बड़े प्रकाण्ड पण्डित भी आश्चर्य चकित हो जाते।
बालक वंशीधर का विवाह 15 वर्ष की अवस्था में संपन्न हुआ। जब वे बीस वर्ष के हुए तो उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुयी जिसका नाम पुण्डरीकाक्ष रखा गया।
जब श्री वंशी अली 28 वर्ष के हुए तो पिता जी का धाम गमन हो गया। पिताजी के धाम गमन के एक वर्ष पश्चात राधा प्रेम में सहसा बाढ़ सी आ गई। जब राधा कुंड के एक पंडित राधाकृष्ण ने दिल्ली के मंदिर में राधा अष्टमी के उत्सव में बधाई गाई –
“रस बरसे री हेली कीरत महल में।”
उस समय श्री वंशी अली ऐसे प्रेम मगन हुए की प्रेमाश्रुओं की झड़ी लग गई। डेढ़ घंटे तक मूर्छित होकर भूमि पर पड़े रहे। चेतना आने पर हृदय में इतना प्रेम उल्लास भर गया कि उस वर्ष राधाष्टमी के उत्सव में तीन हजार रुपए खर्च कर बहुत धूमधाम से उत्सव मनाया। दूसरे वर्ष भी राधाष्टमी के उत्सव में दो हजार रूपए खर्च किए। माताजी अधिक धन खर्च करने से नाराज होकर बोली – भविष्य में इतना खर्च नहीं करना। वंशीधर को बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने कहा “धन किस लिए है ? ठाकुर जी की सेवा के लिए ही न।”
वंशीधर जी रुष्ट हो कर अकेले वृंदावन आ गए। कुछ दिन बाद ही नादिरशाह का दिल्ली में लूट और कत्लेआम का दौर चला। उसी में मंदिर का सारा धन चले गया जिसे माता ने राधा अष्टमी के उत्सव में खर्च करने को मना किया था। वृंदावन में रास मंडल के पास ललित कुंज में वंशीधर जी तन्मयता पूर्वक भजन करने लगे।
ललित कुञ्ज में श्रीराधारानी की आज्ञा से महासखी श्री ललिता जी ने श्री वंशीधर जी को मन्त्र-दीक्षा प्रदान किया
मन्त्र दीक्षा उपरांत श्री ललिता जी ने वंशीधर को बरसाने जाकर भजन करने की आज्ञा दी। साथ ही साथ यह आशीर्वाद भी दिया कि बरसाने में श्रीजी के दर्शन होंगे।
वंशीधर जी बरसाने आ गए। अब सभी लोग वंशी अली के नाम से पुकारने लगे। बरसाने में रंगीली गली में आसन जमा कर भजन करने लगे।
वंशीअली जी परम वैराग्यमय एवं निरंतर लीलाओं के चिंतन में जीवन यापन करते। बहुत से धनवान सेवक के होते हुए भी अपने पास तुम्बी और अंगोछे के सिवा और कुछ भी नहीं रखते। लेकिन राधा अष्टमी का उत्सव जब आता तो बीस पचीस हजार रुपए खर्च करके बहुत धूमधाम से उत्सव मनाते। श्रीमद् भागवत की कथा कहते-कहते भाव विह्वल हो जाते। भागवत जी के श्लोकों का अनेक बार अनेक प्रकार से अलौकिक नविन अर्थ करते।
वृन्दावन स्थित ललित कुंज में ही श्री किशोरी जी का नाम रटते हुए वंशी अली जी 1879 ई में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को नित्य निकुंज में अपनी दिव्य सखी स्वरुप में अवस्थित हो गए।
एक बार गोपियों ने श्री कृष्ण से कहा- “हे कृष्ण ! हमें अगस्त्य ऋषि को भोग लगाने को जाना है, और ये यमुना जी बीच में पड़ती हैं। अब तुम बताओ हम कैसे जायें ?” भगवान श्री कृष्ण ने कहा – “जब तुम यमुना जी के पास जाओ तो उनसे कहना कि, हे यमुनाजी, अगर श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हैं तो हमें रास्ता दो।” गोपियाँ हँसने लगी कि, लो ये कृष्ण भी अपने आप को ब्रह्मचारी समझते है, सारा दिन तो हमारे पीछे-पीछे घूमता है, कभी हमारे वस्त्र चुराता है कभी मटकियाँ फोड़ता है।
खैर फिर भी हम बोल देंगी। गोपियाँ यमुना जी के पास जाकर कहती हैं, “हे यमुनाजी ! अगर श्री कृष्ण ब्रह्मचारी हैं तो हमें रास्ता दें।” और गोपियों के कहते ही यमुनाजी ने रास्ता दे दिया। गोपियाँ तो सन्न रह गई ये क्या हुआ ? कृष्ण और ब्रह्मचारी ? अब गोपियाँ अगस्त्य ऋषि को भोजन करवा कर वापस आने लगीं तो उन्होंने अगस्त्य ऋषि से कहा- “मुनिवर ! अब हम घर कैसे जायें ? यमुनाजी बीच में हैं।” अगस्त्य ऋषि ने कहा कि तुम यमुना जी को कहना- “अगर अगस्त्यजी निराहार हैं तो हमें रास्ता दें।” गोपियाँ मन में सोचने लगी कि अभी हम इतना सारा भोजन लाई सो सब गटक गये और अब अपने आप को निराहार बता रहे हैं ? गोपियाँ यमुना जी के पास जाकर बोली, “हे यमुनाजी ! अगर अगस्त्य ऋषि निराहार हैं तो हमे रास्ता दें।
” यमुनाजी ने उन्हें तुरन्त रास्ता दे दिया। गोपियाँ आश्चर्य करने लगीं कि जो खाता है वो निराहार कैसे हो सकता है ? और जो दिन रात हमारे पीछे-पीछे फिरता है वो कृष्ण ब्रह्मचारी कैसे हो सकता है ? इसी उधेड़बुन में गोपियों ने कृष्ण के पास आकर फिर से वही प्रश्न किया। भगवान श्री कृष्ण ने कहा- “गोपियों मुझे तुमारी देह से कोई लेना देना नहीं है, मैं तो तुम्हारे प्रेम के भाव को देख कर तुम्हारे पीछे आता हूँ। मैंने कभी वासना के तहत संसार नहीं भोगा मैं तो निर्मोही हूँ। इसीलिए यमुना ने आप को मार्ग दिया।” तब गोपियाँ बोली – “भगवन् ! मुनिराज ने तो हमारे सामने भोजन ग्रहण किया फिर भी वो बोले कि अगत्स्य आजन्म उपवासी हो तो हे यमुना मैया मार्ग दें, और बड़े आश्चर्य की बात है कि यमुना ने मार्ग दे दिया ? श्री कृष्ण हँसने लगे और बोले- “अगत्स्य आजन्म उपवासी हैं। अगत्स्य मुनि भोजन ग्रहण करने से पहले मुझे भोग लगाते हैं। उनका भोजन में कोई मोह नहीं होता उनको कतई मन में नहीं होता कि मैं भोजन करूँ या भोजन कर रहा हूँ। वो तो अपने अन्दर रह रहे मुझे भोजन करा रहे होते हैं, इसलिए वो आजन्म उपवासी हैं
जब हम अपनी छोटी कुटिया में थे २४ घंटे में थोडा सा मिश्री का भोग लगाते थे, जिस दिन मनोकरी मांगने नहीं गए श्री जी को ज़रा सा मिश्री भोग लगा दिया और वही पा लिया , भावना भाव से कढ़ी, चावल, फुल्का सब भावना से कर दिया थोड़ी मिश्री रखदी भोग लगाया और पा लिया पानी पि लिया बस , मनोकरी मांगने गए तो रोटी मिली जो मिली वो श्री जी को सामने दिखा दिया, श्री जी को बाहरी भोग नहीं चाहिए वो तो है अपनी दिनचर्या चलानी है बस इसलिए, श्री जी को आप से प्यार है उनको आप चाहिए , आप अपने को समर्पित कर दीजिये, अब देह पोषण के लिए मुझे जल चाहिए , मुझे भोजन चाहिए वही भोजन और जल जो श्री जी ने ही हमको दिया है श्री जी को अर्पित कर देते है और पा लेते है I श्री जी की प्रशंसता का विषय इतर , मिठाई, फल, भोग नहीं है अगर ऐसा हो तो इसी से प्रशंस हो जाये पर ऐसा कही नहीं पाया गया है श्री जी की प्रशंसता का हित है श्री जी के प्रति आत्मसमर्पण कर देना I हे राधे शरीर से मन से वाणी से मैं आपके आश्रित हो गया , श्री जी का स्मरण करना खास बाते है प्रभु की प्रशंसता प्रभु के मिलने का उपाय सहज भाव से प्रभु का मनन चिंतन एवं उनके प्रति समर्पित हो जाना यही सबसे बड़ी प्रभु की प्रशंसता का विषय है हाँ अगर अप सक्षम है तो आप करिए कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अगर नहीं है तो कोई आवश्यकता है ही नहीं जो स्वाभाविक आपके पास हो प्रिय प्रीतम को अर्पित करके ग्रहण करो, बाहरी प्रसाद से शरीर का पोषण होता है और भाव से स्वरुप पोषण होता भजन रुपी प्रसाद से स्वरुप पोषित होता है श्री जी को भोग नहीं चाहिए श्री जी को सिर्फ आप का भाव चाहिए
एक बार एक व्यक्ति श्रीधाम वृंदावन में दर्शन करने गया। दर्शन करके लौट रहा था तभी एक संत अपनी कुटिया के बाहर बैठे बड़ा अच्छा पद गा रहे थे कि “हो नयन हमारे अटके श्री बिहारी जी के चरण कमल में” बार-बार यही गाये जा रहे था तभी उस व्यक्ति ने जब इतना मीठा पद सुना तो वह आगे न बढ़ सका और संत के पास बैठकर ही पद सुनने लगा और संत के साथ-साथ गाने लगा। कुछ देर बाद वह इस पद को गाता-गाता अपने घर गया और सोचता जा रहा था कि वाह! संत ने बड़ा प्यारा पद गाया। जब घर पहुँचा तो पद भूल गया अब याद करने लगा कि संत क्या गा रहे थे? बहुत देर याद करने पर भी उसे याद नहीं आ रहा था फिर कुछ देर बाद उसने गाया “हो नयन बिहारी जी के अटके, हमारे चरण कमल में” उलटा गाने लगा। उसे गाना था “नयन हमारे अटके बिहारी जी के चरण कमल में” अर्थात बिहारी जी के चरण कमल इतने प्यारे हैं कि नजर उनके चरणों से हटती ही नहीं हैं। नयन मानो वही अटक के रह गए हैं पर वो गा रहा था कि बिहारी जी के नयन हमारे चरणों में अटक गए। अब ये पंक्ति उसे इतनी अच्छी लगी कि वह बार-बार बस यही गाये जाता। आँखे बंद है बिहारी के चरण हृदय में है और बड़े भाव से गाये जा रहा है। जब बहुत समय तक गाता रहा तो अचानक क्या देखता है सामने साक्षात् बिहारी जी खड़े हैं। झट चरणों में गिर पड़ा। बिहारी जी बोले,”भईया! एक से बढ़कर एक भक्त हुए पर तुम जैसा भक्त मिलना बड़ा कठिन है। लोगो के नयन तो हमारे चरणों में अटक जाते हैं पर तुमने तो हमारे ही नयन अपने चरणों में अटका दिए और जब नयन अटक गए तो फिर दर्शन देने कैसे नहीं आता।” भगवान बड़े प्रसन्न हो गए। वास्तव में बिहारी जी ने उसके शब्दों की भाषा सुनी ही नहीं क्योंकि बिहारी जी शब्दों की भाषा जानते ही नहीं हैं। वे तो एक ही भाषा जानते है, वह है भाव की भाषा! भले ही उस भक्त ने उलटा गाया पर बिहारी जी ने उसके भाव देखे कि वास्तव में ये गाना तो सही चाहता है। शब्द उलटे हो गए तो क्या! भाव तो कितना उच्च है! सही अर्थो में भगवान तो भक्त के हृदय का भाव ही देखते हैं।
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श्री कुंज बिहारी श्री हरिदास
जय श्री कुंजबिहारी श्री हरिदास जी। जय श्री राधेस्नेहबिहारी जी। जय श्री राधे राधे।
एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गए और प्रणाम करते हुए बोले, “भगवान मुझे स त्संग की महिमा सुनाइये।” भगवान मुस्कराते हुए बोले, नारद! तुम यहां से आगे जाओ, वहां इमली के पेड़ पर एक रंगीन प्राणी मिलेगा। वह सत्संग की महिमा जानता है, वही तुम्हें समझाएगा भी। नारद जी खुशी-खुशी इमली के पेड़ के पास गए और गिरगिट से बातें करने लगे। उन्होंने गिरगिट से सत्संग की महिमा के बारे में पूछा। सवाल सुनते ही वह गिरगिट पेड़ से नीचे गिर गया और छटपटाते हुए प्राण छोड़ दिए। नारदजी आश्चर्यचकित होकर लौट आए और भगवान को सारा वृत्तांत सुनाया।
भगवान ने मुस्कराते हुए कहा, इस बार तुम नगर के उस धनवान के घर जाओ और वहां जो तोता पिंजरे में दिखेगा, उसी से सत्संग की महिमा पूछ लेना। नारदजी क्षण भर में वहां पहुंच गए और तोते से सत्संग का महत्व पूछा। थोड़ी देर बाद ही तोते की आंखें बंद हो गईं और उसके भी प्राणपखेरू उड़ गए। इस बार तो नारद जी भी घबरा गए और दौड़े-दौड़े भगवान कृष्ण के पास पहुंचे।
नारद जी कहा, भगवान यह क्या लीला है। क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है?” भगवान हंसते हुए बोले, यह बात भी तुमको जल्द ही समझ आ जाएगी। इस बार तुम नगर के राजा के महल में जाओ और उसके नवजात पुत्र से अपना प्रश्न पूछो।”
नारदजी तो थरथर कांपने लगे और बोले, अभी तक तो पक्षी ही अपने प्राण छोड़ रहे थे। इस बार अगर वह नवजात राजपुत्र मर गया तो राजा मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।” भगवान ने नारदजी को अभयदान दिया। नारदजी दिल मुट्ठी में रखकर राजमहल में आए। वहां उनका बड़ा सत्कार किया गया। अब तक राजा को कोई संतान नहीं थी। अतः पुत्र के जन्म पर बड़े आनन्दोल्लास से उत्सव मनाया जा रहा था।
नारदजी ने डरते-डरते राजा से पुत्र के बारे में पूछा। नारदजी को राजपुत्र के पास ले जाया गया। पसीने से तर होते हुए, मन-ही-मन श्रीहरि का नाम लेते हुए नारदजी ने राजपुत्र से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया तो वह नवजात शिशु हंस पड़ा और बोलाः “महाराज! चंदन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता नहीं होता। ऐसे ही आप अपनी महिमा नहीं जानते, इसलिए मुझसे पूछ रहे हैं।
वास्तव में आप ही के क्षणमात्र के संग से मैं गिरगिट की योनि से मुक्त हो गया और आप ही के दर्शनमात्र से तोते की क्षुद्र योनि से मुक्त होकर इस मनुष्य जन्म को पा सका। आपके सान्निध्यमात्र से मेरी कितनी सारी योनियां कट गईं और मैं सीधे मानव-तन में ही नहीं पहुंचा अपीतू राजपुत्र भी बना। यह सत्संग का ही अदभुत प्रभाव है। बालक बोला- हे ऋषिवर, अब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य को पा लूं।
नारदजी ने खुशी-खुशी आशीर्वाद दिया और भगवान श्री हरि के पास जाकर सब कुछ बता दिया। भगवान ने कहा, सचमुच, सत्संग की बड़ी महिमा है। संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त! इस लिए जब कभी मौका मिले। सत्संग का लाभ जरूर ले लेना चाहिए। क्या पता किस संत या भक्त के मुख से निकली बात जीवन सफल कर दें।
आज सहजो अपनी कुटिया के द्वार पर बैठी है, उसकी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर परमात्मा उसके सामने प्रकट हुए हैं । लेकिन सहजो के अन्दर कोई उत्साह नहीं है
परमात्मा ने कहा – सहजो हम स्वयं चलकर आऐ हैं क्या तुम्हे हर्ष नही हो रहा ?
सहजो ने कहा — प्रभु ! ये तो आपने अहेतुक कृपा की है, पर मुझे तोआपके दर्शन की भी कामना नही थी।
परमात्मा को झटका लगा। सहजो तेरे पास ऐसा क्या है ?, जो तू मेरा आतिथ्य भी नही करती है !
सहजो ने कहा- मेरे पास मेरा सद्गुरु पूर्ण समर्थ है। भगवन ! मैने आपको अपने सद्गुरु मे पा लिया है, मैं परमात्म तत्व का दर्शन भी करना चाहती हूँ तो केवल अपने सद्गुरु के ही रूप मे। मुझे आपके दर्शनो की कोई अभिलाषा नही है
यदि मै गुरुदेव को कहती तो वह कभी का आपको उठाकर मेरी झोली मे डाल देते।
ये भाव देखकर आज परमात्मा पिघल गया। कहते है – सहजो मुझे अदंर आने के लिए नही कहोगी ?
सहजो कहती है- प्रभु मेरी कुटिया के भीतर एक ही आसन है और उस पर भी मेरे सद्गुरु विराजते हैं, क्या आप भूमि पर बैठकर मेरा आतिथ्य स्वीकार करेंगें ?
भगवान् कहे तुम जहाँ कहोगी हम वहाँ बैठेंगें, भीतर तो आने दो।
भगवान् देखते हैं सचमुच एक ही आसन है, वे भूमि पर ही बैठ गए।
कहा — सहजो ! मैं जहाँ जाता हूँ कुछ न कुछ देता हूँ ऐसा मेरा नियम है । कुछ माँग ही लो। सहजो कहती है — प्रभु! मेरे जीवन मे कोई कामना नही है। प्रभु ने कहा फिर भी कुछ तो माँग लो । सहजो ने कहा प्रभु ! आप मुझे क्या दोगे ?
आप तो स्वयं एक दान हो, जिसे मेरा दाता सद्गुरु अपने अनन्य भक्त को जब चाहे दान कर देता है। अब बताओ प्रभु ! दान बड़ा या दाता ?
आपने तो प्राणी को जन्म मरण, रोग भोग, सुख दुख मे उलझाया, ये तो मेरे सदगुरु दीनदयाल ने कृपा कर हर प्राणी को विधि बताकर, राह पकड़ा कर, शरण में आये हुए को सहारा देकर उसे निर्भय बनाकर उस द्वन्द से छुड़ाया।
प्रभु मुस्कराते हुए कहते हैं, सहजो ! आज मेरी मर्यादा रख ले, कुछ सेवा ही दे दे। सहजो ने कहा – प्रभु एक सेवा है, मेरे सद्गुरु आने वाले हैं, जब मैं उन्हे भोजन कराऊँ तो क्या आप उनके पीछे खड़े होकर चमर डुला सकते हो ?
कथा कहती है कि प्रभु ने सहजो के गुरु चरणदास पर चमर डुलाया। यही है सद्गुरु के प्रति सच्ची समर्पण! , साधक के अंदर अगर स्वर्ग तक की कामना जागृत हो जाय
उसे दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि मुझे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है, यह तो मेरे सच्चे बादशाह यूं ही दे देंगे, लेकिन कब ? जब उसमे मेरा कल्याण होगा
एक बार एक राजा था, वह जब भी मंदिर जाता, तो 2 भिखारी उसके दाएं और बाएं बैठा करते.. दाईं तरफ़ वाला कहता: “हे ईश्वर, तूने राजा को बहुत कुछ दिया है, मुझे भी दे दे.!” बाईं तरफ़ वाला कहता: “ऐ राजा.! ईश्वर ने तुझे बहुत कुछ दिया है, मुझे भी कुछ दे दे.!” दाईं तरफ़ वाला भिखारी बाईं तरफ़ वाले से कहता: ईश्वर से माँग वह सबकी सुनने वाला है.. बाईं तरफ़ वाला जवाब देता: “चुप कर मुर्ख..” एक बार राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा कि मंदिर में दाईं तरफ जो भिखारी बैठता है वह हमेशा ईश्वर से मांगता है तो अवश्य ईश्वर उसकी ज़रूर सुनेगा.. लेकिन जो बाईं तरफ बैठता है वह हमेशा मुझसे फ़रियाद करता रहता है, तो तुम ऐसा करो कि एक बड़े से बर्तन में खीर भर के उसमें स्वर्ण मुद्रा डाल दो और वह उसको दे आओ.! मंत्री ने ऐसा ही किया.. अब वह भिखारी मज़े से खीर खाते-खाते दूसरे भिखारी को चिड़ाता हुआ बोला: “हुह… बड़ा आया ईश्वर देगा..’, यह देख राजा से माँगा, मिल गया ना.?” खाते खाते जब इसका पेट भर गया तो इसने बची हुई खीर का बर्तन उस दूसरे भिखारी को दे दिया और कहा: “ले पकड़… तू भी खाले, मुर्ख..” अगले दिन जब राजा आया तो देखा कि बाईं तरफ वाला भिखारी तो आज भी वैसे ही बैठा है लेकिन दाईं तरफ वाला ग़ायब है.. राजा नें चौंक कर उससे पूछा: “क्या तुझे खीर से भरा बर्तन नहीं मिला.?” भिखारी: “जी मिला था राजा जी, क्या स्वादिस्ट खीर थी, मैंने ख़ूब पेट भर कर खायी.!” राजा: फिर..? भिखारी: “फ़िर जब मेरा पेट भर गया तो वह जो दूसरा भिखारी यहाँ बैठता है मैंने उसको दे दी, मुर्ख हमेशा कहता रहता है: ‘ ईश्वर देगा, ईश्वर देगा.!’ ले खा ले ! राजा मुस्कुरा कर बोला: “अवश्य ही, ईश्वर ने उसे दे ही दिया.!” ईश्वर पर भरोसा रखें.. जय जय श्री राधे
एक बार की बात है वीणा बजाते हुए नारद मुनि भगवान श्रीराम के द्वार पर पहुँचे। नारायण नारायण !!
नारदजी ने देखा कि द्वार पर हनुमान जी पहरा दे रहे है।
हनुमान जी ने पूछा: नारद मुनि ! कहाँ जा रहे हो?
नारदजी बोले: मैं प्रभु से मिलने आया हूँ। नारदजी ने हनुमानजी से पूछा प्रभु इस समय क्या कर रहे है?
हनुमानजी बोले: पता नहीं पर कुछ बही खाते का काम कर रहे है, प्रभु बही खाते में कुछ लिख रहे है।
नारदजी: अच्छा?? क्या लिखा पढ़ी कर रहे है?
हनुमानजी बोले: मुझे पता नहीं मुनिवर आप खुद ही देख आना।
नारद मुनि गए प्रभु के पास और देखा कि प्रभु कुछ लिख रहे है।
नारद जी बोले: प्रभु आप बही खाते का काम कर रहे है? ये काम तो किसी मुनीम को दे दीजिए।
प्रभु बोले: नहीं नारद, मेरा काम मुझे ही करना पड़ता है। ये काम मैं किसी और को नही सौंप सकता।
नारद जी: अच्छा प्रभु ऐसा क्या काम है? ऐसा आप इस बही खाते में क्या लिख रहे हो?
प्रभु बोले: तुम क्या करोगे देखकर, जाने दो।
नारद जी बोले: नही प्रभु बताईये ऐसा आप इस बही खाते में क्या लिखते हैं?
प्रभु बोले: नारद इस बही खाते में उन भक्तों के नाम है जो मुझे हर पल भजते हैं। मैं उनकी नित्य हाजिरी लगाता हूँ।
नारद जी: अच्छा प्रभु जरा बताईये तो मेरा नाम कहाँ पर है? नारदमुनि ने बही खाते को खोल कर देखा तो उनका नाम सबसे ऊपर था। नारद जी को गर्व हो गया कि देखो मुझे मेरे प्रभु सबसे ज्यादा भक्त मानते है। पर नारद जी ने देखा कि हनुमान जी का नाम उस बही खाते में कहीं नही है? नारद जी सोचने लगे कि हनुमान जी तो प्रभु श्रीराम जी के खास भक्त है फिर उनका नाम, इस बही खाते में क्यों नही है? क्या प्रभु उनको भूल गए है?
नारद मुनि आये हनुमान जी के पास बोले: हनुमान ! प्रभु के बही खाते में उन सब भक्तों के नाम हैं जो नित्य प्रभु को भजते हैं पर आप का नाम उस में कहीं नहीं है?
हनुमानजी ने कहा कि: मुनिवर,! होगा, आप ने शायद ठीक से नहीं देखा होगा?
नारदजी बोले: नहीं नहीं मैंने ध्यान से देखा पर आप का नाम कहीं नही था।
हनुमानजी ने कहा: अच्छा कोई बात नहीं। शायद प्रभु ने मुझे इस लायक नही समझा होगा जो मेरा नाम उस बही खाते में लिखा जाये। पर नारद जी प्रभु एक अन्य दैनंदिनी भी रखते है उसमें भी वे नित्य कुछ लिखते हैं।
नारदजी बोले:अच्छा?
हनुमानजी ने कहा: हाँ!
नारदमुनि फिर गये प्रभु श्रीराम के पास और बोले प्रभु ! सुना है कि आप अपनी अलग से दैनंदिनी भी रखते है! उसमें आप क्या लिखते हैं?
प्रभु श्रीराम बोले: हाँ! पर वो तुम्हारे काम की नहीं है।
नारदजी: ”प्रभु ! बताईये ना, मैं देखना चाहता हूँ कि आप उसमें क्या लिखते हैं?
प्रभु मुस्कुराये और बोले मुनिवर मैं इनमें उन भक्तों के नाम लिखता हूँ जिन को मैं नित्य भजता हूँ।
नारदजी ने डायरी खोल कर देखा तो उसमें सबसे ऊपर हनुमान जी का नाम था। ये देख कर नारदजी का अभिमान टूट गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो भगवान को सिर्फ जिह्वा से भजते है उनको प्रभु अपना भक्त मानते हैं और जो हृदय से भजते हैं उन भक्तों के वे स्वयं भक्त हो जाते हैं। ऐसे भक्तों को प्रभु अपनी हृदय रूपी विशेष सूची में रखते है
एक बार की बात है, एक परिवार में पति पत्नी एवं बहू बेटा याने चार प्राणी रहते थे। समय आराम से बीत रहा था। . चंद वर्षो बाद सास ने गंगा स्नान करने का मन बनाया। वो भी अकेले पति पत्नी। बहू बेटा को भी साथ ले जाने का मन नहीं बनाया। . उधर बहू मन में सोच विचार करती है कि भगवान मेंने ऐसा कौन सा पाप किया है जो में गंगा स्नान करने से वंचित रह रही हूँ। . सास ससुर गंगा स्नान हेतु काशी के लिए रवाना होने की तैयारी करने लगे तो बहू ने सास से कहा कि माँसा आप अच्छी तरह गंगा स्नान एवं यात्रा करिएगा। . इधर घर की चिंता मत करिएगा। मेरा तो अभी अशुभ कर्म का उदय है वरना में भी आपके साथ चलती। . सारी तैयारी करके दोनों काशी के लिए रवाना हुए। मन ही मन बहू अपने कर्मों को कोस रही थी, कि आज मेरा भी पुण्य कर्म होता तो में भी गंगा स्नान को जाती। खेर मन को ढाढस बंधाकर घर में रही। . उधर सास जब गंगाजी में स्नान कर रही थी। स्नान करते करते घर में रखी अलमारी की तरफ ध्यान गया और मन ही मन सोचने लगी कि अरे अलमारी खुली छोडकर आ गई, कैसी बेवकूफ औरत हूँ बंद करके नहीं आई। . पीछे से बहू सारा गहना निकाल लेगी। यही विचार करते करते स्नान कर रही थी कि अचानक हाथ में पहनी हुई अँगूठी हाथ से निकल कर गंगा में गिर गई। . अब और चिंता बढ़ गई की मेरी अँगूठी गिर गई। उसका ध्यान गंगा स्नान में न होकर सिर्फ घर की अलमारी में था। . उधर बहू ने विचार किया कि देखो मेरा शुभ कर्म होता तो में भी गंगा जी जाती। सासु माँ कितनी पुण्यवान है जो आज गंगा स्नान कर रही है। . ये विचार करते करते एक कठौती लेकर आई और उसको पानी से भर दिया, और सोचने लगी सासु माँ वहाँ गंगा स्नान कर रही है और में यहाँ कठौती में ही गंगा स्नान कर लूँ। . यह विचार करके ज्योंही कठौती में बैठी तो उसके हाथ में सासु माँ के हाथ की अँगूठी आ गई और विचार करने लगी ये अँगूठी यहाँ कैसे आई ये तो सासु माँ पहन कर गई थी। . इतना सब करने के बाद उसने उस अँगूठी को अपनी अलमारी में सुरक्षित रख दी और कहा कि सासु माँ आने पर उनको दे दूँगी। . उधर सारी यात्रा एवं गंगा स्नान करके सास लौटी तब बहू ने उनकी कुशल यात्रा एवं गंगा स्नान के बारे में पूछा.. . तो सास ने कहा कि बहू सारी यात्रा एवं गंगा स्नान तो की पर मन नहीं लगा। . बहू ने कहा कि क्यों माँ ? मेंने तो आपको यह कह कर भेजा था कि आप इधर की चिंता मत करना में अपने आप संभाल लूँगी। . सास ने कहा कि बहू गंगा स्नान करते करते पहले तो मेरा ध्यान घर में रखी अलमारी की तरफ गया और ज्योंही स्नान कर रही थी कि मेरे हाथ से अँगूठी निकल कर गंगाजी में गिर गई। अब तूँ ही बता बाकी यात्रा में मन कैसे लगता। . इतनी बात बता ही रही थी कि बहू उठकर अपनी अलमारी में से वह अँगूठी निकाल सास के हाथ में रख कर कहा की माँ इस अँगूठी की बात कर रही है क्या ? . सास ने कहा, हाँ ! यह तेरे पास कहाँ से आई इसको तो में पहन कर गई थी। और मेरी अंगुली से निकल कर गंगाजी मे गिरी थी। . बहू ने जबाब देते हुई कहा कि, माँ जब गंगा स्नान कर रही थी तो मेरे मन में आया कि देखो माँ कितनी पुण्यवान है जो आज गंगा स्नान हेतु गई। . मेरा कैसा अशुभ कर्म आड़े आ रहा था जो में नहीं जा सकी। इतना सब सोचने के बाद मेंने विचार किया कि क्यों में यही पर कठौती में पानी डाल कर उसको ही गंगा समझकर गंगा स्नान कर लूँ। . जैसे मेंने ऐसा किया और कठौती में स्नान करने लगी कि मेरे हाथ में यह अँगूठी आई। में देखा यह तो आपकी है और यह यहाँ कैसे आई। . इसको तो आप पहन कर गई थी। फिर भी में आगे ज्यादा न सोचते हुई इसे सुरक्षित मेरी अलमारी में रख दी। . सास ने बहू से कहा, बहू में बताती हूँ कि यह तुम्हारी कठौती में कैसे आई। . बहू ने कहा, माँ कैसे ? . सास ने बताया, बहू देखो “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। मेरा मन वहाँ पर चंगा नहीं था। में वहाँ गई जरूर थी परंतु मेरा ध्यान घर की आलमारी में अटका हुआ था.. . और मन ही मन विचार कर रही थी की अलमारी खुली छोडकर आई हूँ कहीं बहू ने आलमारी से मेरे सारे गहने निकाल लिए तो। . तो बता ऐसे बुरे विचार मन में आए तो मन कहाँ से लगनेवाला और अँगूठी जो मेरे हाथ से निकल कर गिरी वह तेरे शुद्ध भाव होने के कारण तेरी कठौती में निकली। . इस कथा का सार यह ही है कि जीवन में पवित्रता निहायत जरूरी है। वर्तमान में हर प्राणी का मन अपवित्र है, हर व्यक्ति का चित्त अपवित्र है। . चित्त और चेतन में काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसे विकार इस तरह हावी है कि हम उन्हें समझ नहीं पा रहे हैं। उस विकृति के कारण हमारा जीना बहुत दुर्भर हो रहा है। . बाहर की गंदगी को हम पसंद नहीं करते, वह दिखती है, तत्क्षण हम उसे दूर करने के प्रयास में लग जाते हैं। हमारे भीतर में जो गंदगी भरी पड़ी है उस और हमारा ध्यान नहीं जाता है। आज जिस पवित्रता की बात की जानी है, उस पवित्रता का सम्बद्ध बाहर से नहीं है, भीतर की पवित्रता से है
वृंदावन में करह आश्रम नामक श्री रामानंदी संतो का एक स्थान है। वहाँ पर एक सिद्ध संत रहते थे, जिनका नाम था श्री रामरतनदास बाबाजी महाराज। . जहां वे अपनी साधना करते थे वहाँ एक पहाड़ है और ऊपर नीचे दो गुफाएं हैं। . नीचे वाली गुफा में महाराज जी अपनी साधना करते थे और ऊपर वाली गुफा में एक बड़ा भारी बब्बर शेर रहता था। . उस शेर का वहाँ बड़ा आतंक था, अच्छे अच्छे लोग वहाँ भटकने नहीं आते थे। . कभी कभी वे शेर नीचे वाली गुफा में महाराज जी की पीठ के पीछे आकर चुपचाप बैठ जाता.. . और जब महाराज जी की आँख खोलकर देखते थे तब कहते थे, बच्चा ! तू जानता है की महाराज जी बहुत समय से नाम जप में बैठे है.. . उनकी पीठ के पीछे कोई सहारा नहीं है इसीलिए आकर तकिये का काम देता है, हमें आराम देता है। . वैसे तो वहाँ उस स्थान पर कोई नहीं आता था परंतु कुछ भक्त लोग महाराज जी के दर्शन के लिए आया करते थे और उनके लिए फल अन्न आदि लाकर देते थे। . जब वे लोग महाराज जी के पास आते थे तब वह शेर जोरदार दहाड़ लगाता। . शेर को दहाड़ता देखकर महाराज जी कहते, देखो तुम्हारे दहाड़ने से भक्त लोग डर रहे है, तुम जब तक बैठे रहोगे तब तक भक्त लोग यहां हमारे पास नहीं आएंगे। . तुम ऐसा करो, तुम अभी ऊपर वाली गुफा में चले जाओ। . महाराज जी की बात सुनकर वह शेर चुपचार ऊपर गुफा में चला जाता और जब कोई नहीं होता तब पुनः महाराज जी की पीठ से लगकर संत के मुख से बैठकर नाम जप सुनता रहता। . साभार :- भक्तमाल कथा
~~~~~~~~~~~~~~~~~ ((((((( जय जय श्री राधे ))))))) ~~~~~~~~~~~~~~~~~
श्रीराधा रानी, उनकी सखियां, गोपियां सब कृष्ण प्रेम में खो गई थीं। हर जगह, हर समय श्रीकृष्ण ही उन्हें दिखाई देते थे, मुरली की ध्वनि कानों में गुंजायमान रहती थी। प्रभु भी भली प्रकार से जानते थे कि गोपियां मुझसे बहुत प्यार करती हैं। Se lllá बार उन्होंने गोपियों के साथ महारासलीला करने का विचार किया। बांके बिहारी सताते तो सभी को हैं। गोपियों को पहले ही अपने प्रेम जाल में फंसा रखा था। अब उन्होंने गोपियों को और सताने की ठान ली। प्रात: यमुना किनारे पहुंचकर बंशी बजाने लगे। गोपियां बंशी की ध्वनि सुनते ही उन्हें ढूंढने लगीं। लेकिन कृष्ण ने आज मन बना लिया था, आज वे यह देखना चाहते थे कि गोपियां अपने प्रेम को किस प्रकार उजागर करती हैं। तो प्रभु अंतर्ध्यान हो गए। बंशी की आवाज तो गोपियों के कानों में आ रही थी, लेकिन कृष्ण के दर्शन नहीं हो पा रहे थे। बंशी के स्वर जिस ओर से आएं उसी ओर गोपियां चल पड़तीं।
सुध-बुध तो पहले खो ही बैठी थीं। प्रभु के दर्शन के लिए व्याकुल हो रही थीं। प्रात: से दोपहर हो गई चलते-चलते। भूख-प्यास से गोपियां व्याकुल हो रही थीं, लेकिन प्रभु के दर्शन नहीं हो रहे। अब गोपियां धीर न बांध पा रही थीं। प्रभु से विनती करने लगीं कि हे कान्हा तुम कहां हो, आज हमें अपनी झलक नहीं दिखाओगे। तुम कहां छिप गए हो, सामने आ जाओ। तुम्हारी याद में हम तड़प रहे हैं। दर्शन दो प्रभु, दर्शन दो। कहती हुई गोपियां ढूंढ रही हैं कान्हा को। लेकिन प्रभु सामने नहीं आए। ढूंढते-ढूंढते शाम हो गई, रात हो गई। सुबह से गोपियों न कुछ खाया न पीया, बेसुध होकर बस कान्हा-कान्हा कह रही हैं, बुला रही हैं प्रभु को।
आकाश में चंद्र देव छा गए। गोपियां वन में पेड़ों, जीवों से गुहार लगा रही हैं कि किसी ने मेरे कान्हा को देखा है, कोई मुझे बता दे कि कान्हा कहां है? लेकिन कान्हा नहीं मिले। अब गोपियों की दशा अत्यंत हीन हो गई। आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। अधीर हो रही थीं। चिंता में डूब गर्इं कि कहीं कान्हा को कुछ हो तो नहीं गया। सवेरा होने को है। रो रो कर गोपियों की दुर्दशा हो गई है। गोपियां कहती हैं कि
गोपियां कहती हैं कि प्रभु आप बिना बताए हमको छोड़कर चले गए। कम से कम बोल तो देते कि हमसे गलती क्या हो गई। एक बार बता तो देते। आप तो कुछ बोले भी नहीं और चले गए। सोचो कितनी वेदना होगी गोपियों को।
ये तो उसी तरह से हो गया जैसे किसी को अनमोल हीरा मिले और वो गलती से उसे गंवा दे। ये तो लौकिक उदाहरण है, और जब साक्षात परमात्मा मिलने के बाद बिछड़े होंगे तो कितनी पीड़ा होगी। सोचो गोपियों की दशा कैसी होगी। गोपियां यही कह रही हैं
सन्तों की एक सभा चल रही थी। किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहाँ रखवा दिया ताकि सन्त जनों को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।
सन्तों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था। उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है। एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। सन्तों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है।
घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बन्धु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा सिर्फ मिट्टी का ढेर था। किसी काम का नहीं था। कभी ऐसा नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया।उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर गधे पर लादकर अपने घर ले गया।
वहाँ ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आँवे के आग में झोंक दिया जलने को।
इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में बेचने के लिए लाया गया। वहाँ भी लोग मुझे ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं ? ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या, बस 20 से 30 रुपये।
मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था। रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो। मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है। लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और ही थी, किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी प्रभु ही कृपा थी। उसका मुझे वह गूंथना भी प्रभु की कृपा थी। मुझे आग में जलाना भी प्रभु की मर्जी थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भी प्रभु ही इच्छा थी। अब मालूम पड़ा कि मुझ पर सब परमात्मा की कृपा ही थी।
बुरी परिस्थितियाँ हमें इतनी विचलित कर देती हैं कि हम परमात्मा के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं और खुद को कोसने लगते हैं, क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती उनकी लीला समझने की। कई बार हमारे साथ भी ऐसा ही होता है हम खुद को कोसने के साथ परमात्मा पर अंगुली उठा कर कहते हैं कि उसने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया, क्या मैं इतना बुरा हूँ ? भगवान ने सारे दुःख दर्द मुझे ही क्यों दिए। लेकिन सच तो ये है कि भगवान ने उन तमाम पत्थरों की भीड़ में से तराशने के लिए एक आप को चुना है। अब तराशने में तो थोड़ी तकलीफ तो झेलनी ही पड़ती है।
एक बार श्यामसुंदर सुंदर श्रृंगार करके, सुन्दर पीताम्बर पहनकर, रंगीन धातुओ से भांति-भांति के श्रीअंग पर आकृतियाँ बनाकर, खूब सजधज कर निकुज में गए। . तभी एक “किंकरी सखी” उस निकुंज में विराजमान थी… . राधा रानी जी की सेवा में अनेक प्रकार की सखियाँ है “किंकरी”, “मंजरी”, और “सहचरी” ये सब सखियों के यूथ है. . तो जैसे ही कृष्ण ने उस गोपी को देखा तो उसके पास आये… . भगवान का अभिप्राय यही था कि मैंने इतना सुन्दर श्रृंगार किया, गोपी मेरे इस रूप को देखे. . जैसे ही पास गए तो गोपी श्री कृष्ण को देखकर एक हाथ का घूँघट निकाल लेती है, और कहती है… . खबरदार! श्यामसुंदर! जो मेरे पास आये मेरे धर्म को भ्रष्ट मत करो. . भगवान को बड़ा आश्चर्य हुआ, बोले… . गोपी! ये तुम क्या कह रही हो? सभी धर्मो का, कर्मो का, फल, सार मेरा दर्शन है… . योगी यति हजारों वर्ष तप, ध्यान करते है, फिर भी मै उनको दर्शन तो क्या, ध्यान में भी नहीं आता… . और मै तुम्हे स्वयं चलकर दर्शन कराने आ गया, तो तुम कहती हो कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो? . गोपी बोली.. देखो श्यामसुंदर! तुम हमारे आराध्य नहीं हो, हमारी आराध्या राधारानी जी हैं… . और जब तक किसी भी चीज का भोग उन्हें नहीं लगता तब तक वह वस्तु हम स्वीकार नहीं कर सकते, क्योकि हम “अमनिया” नहीं खाते… . इसलिए पहले आप राधारानी के पास जाओ, जब वे आपके इस रूपामृत का पान कर लेगी… . तब आप प्रसाद स्वरुप हो जायेगे, तब हम आपके रूप अमृत के दर्शन के अधिकारी हो जायेगे. . अभी राधा रानी जी ने आपके रूप के दर्शन किये नहीं, फिर हम कैसे कर सकते है. . सेवक तो प्रसाद ही पाता है.
गोवर्धन बड़ा सुन्दर गाँव है। गाँव के बीच में एक मन्दिर है, जिसमें श्रीनाथजी महाराज की बड़ी सुन्दर मूर्ति विराजमान है।
उनके चरणों में नूपुर, गले में मनोहर वनमाला और मस्तक पर मोरमुकुट शोभित हो रहा है।
घुँघराले बाल हैं, नेत्रों की बनावट मनोहारिणी है और पीताम्बर पहने हुए हैं।
मूर्ति में इतनी सुन्दरता है कि देखने वालों का मन ही नहीं भरता।
मन्दिर के पास ही एक गरीब ब्राह्मण का घर था। ब्राह्मण था गरीब, परन्तु उसका हृदय भगवद्भक्ति के रंग में रँगा हुआ था।
ब्राह्मणी भी अपने पति और पति के परमात्मा के प्रेम में रत थी। उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और मिलनसार था।
कभी किसी ने उसके मुख से कड़ा शब्द नहीं सुना। पिता-माता के अनुसार ही प्राय: पुत्र का स्वभाव हुआ करता है।
इसी न्याय से ब्राह्मण- दम्पत्ति का पुत्र गोविन्द भी बड़े सुन्दर स्वभाव का बालक था।
उसकी उम्र दस वर्ष की थी। गोविन्द के शरीर की बनावट इतनी सुन्दर थी कि लोग उसे कामदेव का अवतार कहने में भी नहीं सकुचाते थे।
गोविन्द गाँव के बाहर अपने साथी सदानन्द और रामदास के साथ खेला करता था।
एक दिन खेलते- खेलते संध्या हो गयी। गोविन्द घर लौट रहा था तो उसने मन्दिर में आरती का शब्द सुना।
शंख, घण्टा, घड़ियाल और झाँझ की आवाज सुनकर गोविन्द की भी मन्दिर में जाकर तमाशा देखने की इच्छा हुई और उसी क्षण वह दौड़कर नाथजी की आरती देखने के लिये मन्दिर में चला गया।
नाथजी के दर्शन कर बालक का मन उन्हीं में रम गया। गोविन्द इस बात को नहीं समझ सका कि यह कोई पाषाण की मूर्ति है।
उसने प्रत्यक्ष देखा कि एक जीता-जागता मनोहर बालक खड़ा हँस रहा है।
गोविन्द नाथ जी की मधुर मुस्कान पर मोहित हो गया। उसने सोचा, ‘यदि यह बालक मेरा मित्र बन जाय और मेरे साथ खेले तो बड़ा आनन्द हो।’
इतने में आरती समाप्त हो गयी। लोग अपने-अपने घर चले गये।
एक गोविन्द रह गया, जो मन्दिर के बाहर अँधेरे में खड़ा नाथजी की बाट देखता था।
गोविन्द ने जब चारों और देखकर यह जान लिया कि कहीं कोई नहीं है, तब उसने किवाड़ों के छेद से अंदर की ओर झाँककर अकेले खड़े हुए श्रीनाथजी को हृदय की बड़ी गहरी आवाज से गद्गद्- कण्ठ हो प्रेमपूर्वक पुकारकर कहा-
‘नाथजी ! भैया ! क्या तुम मेरे साथ नहीं खेलोगे ? मेरा मन तुम्हारे साथ खेलने के लिये बहुत छटपटा रहा है।
भाई ! आओ, देखो, कैसी चाँदनी रात है, चलो, दोनों मिलकर मैदान में गुल्ली- डंडा खेलें।
मैं सच कहता हूँ, भाई ! तुमसे कभी झगड़ा या मारपीट नहीं करूँगा।’
सरल हृदय बालक के अन्त:करण पर आरती के समय जो भाव पड़ा, उससे वह उन्मत्त हो गया।
परमात्मा के मधुर और अनन्त प्रेम की अमृतमयी मलयवायु से गोविन्द प्रेममग्न होकर मन्दिर के अंदर खड़े हुए उस भक्त-प्राण-धन गोविन्द को रो-रोकर पुकारने लगा।
बालक के अश्रुसिक्त शब्दों ने बड़ा काम किया। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता4/11) की प्रतिज्ञा के अनुसार नाथजी नहीं ठहर सके।
भक्त के प्रेमावेश ने भगवान् को खींच लिया। गोविन्द ने सुना, मानो अंदर से आवाज आती है- ‘भाई ! चलो ! चलो आता हूँ, हम दोनों खेलेंगे !’
सरल बालक का मधुर प्रेम भगवान् को बहुत शीघ्र खींचता है।
बालक ध्रुव के लिये चतुर्भुज धारी होकर वन में जाना पड़ा।
भक्त प्रह्लाद के लिये अनोखा नरसिंह वेषधारण किया और व्रज- बालकों के साथ तो आप गौ चराते हुए वन-वन घूमे।
आज गोविन्द की मतवाली पुकार सुनकर उसके साथ खेलने के लिये मन्दिर से बाहर चले आये !
धन्य प्रभु ! न मालुम तुम माया के साथ रमकर कितने खेल खेलते हो तुम्हारा मर्म कौन जान सकता है ?
मामूली मायावी के खेल से लोग भ्रम में पड़ जाते हैं, फिर तुम तो मायावियों के सरदार ठहरे !
बेचारी माया तो तुम्हारे भक्त चंचरीकसेवित चरण- कमलों की चेरी है, अतएव तुम्हारे खेल के रहस्य को कौन समझ सकता है ?
इतना अवश्य कहा जा सकता है कि तुम्हें अपने भक्तों के साथ गायें दुहते फिरे थे और इसीलिये आज बालक गोविन्द के पुकारते ही उसके साथ खेलने को तैयार हो गये !
गोविन्द ने बड़े प्रेम से उनका हाथ पकड़ लिया। आज गोविन्द के आनन्द का ठिकाना नहीं है, वह कभी उनके कर- कमलों का स्पर्श कर अपने को धन्य मानता है।
कभी उनके नुकीले नेत्रों को निहार कर मोहित होता है, तो कभी उनके सुरीले शब्दों को सुनकर फिर सुनना चाहता है।
गोविन्द के हृदय में आनन्द समाता नहीं। बात भी ऐसी है। जगत् का समस्त सौन्दर्य जिसकी सौन्दर्य- राशि का एक तुच्छ अंश है,
उस अनन्त और असीम रूपराशि को प्रत्यक्ष प्राप्त कर ऐसा कौन है जो मुग्ध न हो !
नये मित्र को साथ लेकर गोविन्द गाँव के बाहर आया। चन्द्रमा की चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी, प्रियतम की प्राप्ति से सरोवरों में कुमुदिनी हँस रही थी,
पुष्पों की अर्धविकसित कलियों ने अपनी मन्द-मन्द सुगन्ध से समस्त वन को मधुमय बना रखा था।
मानो प्रकृति अपने नाथ की अभ्यर्थना करने के लिये सब तरह से सज-धजकर भक्ति पूरित पुष्पांजलि अर्पण करने के लिये पहले से तैयार थी।
ऐसी मनोहर रात्रि में गोविन्द नाथजी को पाकर अपने घर-बार, पिता-माता और नींद-भूख को सर्वथा भूल गया।
दोनों मित्र बड़े प्रेम से तरह-तरह के खेल खेलने लगे।
गोविन्द ने कहा था कि मैं झगड़ा या मारपीट नहीं करूँगा; परन्तु विनोद प्रिय नाथजी की माया से मोहित होकर वह इस बात को भूल गया।
खेलते-खेलते किसी बात को लेकर दोनों मित्र लड़ पड़े।
गोविन्द ने क्रोध में आकर नाथ जी के गाल पर एक थप्पड़ जमा दिया और बोला कि ‘फिर मुझे कभी रिझाया तो याद रखना मारते-मारते पीठ लाल कर दूँगा।’
सूर्य-चन्द्र और अनल-अनिल जिसके भय से अपने-अपने काम में लग रहे हैं, स्वयं देवराज इन्द्र जिसके भय से समय पर वृष्टि करने के लिये बाध्य होते हैं और भयाधिपति यमराज जिसके भय से पापियों को भय पहुँचाने में व्यस्त हैं,
वही त्रिभुवननाथ आज नन्हें-से बालक भक्त के साथ खेलते हुए उसकी थप्पड़ खाकर भी कुछ नहीं बोलते। धन्य है ! गोवर्धनधारी धन्य है !
सांवरी जात की धोबन थी। उसका पति हमेशा बीमार रहता था पति की देखभाल बच्चों का पालन पोषण और धोबन होने के कारण उसको कपड़े धोने का काम भी करना पड़ता था। अत्यधिक काम होने के कारण सांवरी के पास शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा ही था लेकिन सांवरी बहुत हिम्मत वाली और सदा प्रसन्न रहने वाली बड़ी खुशमिजाज स्वभाव वाली औरत थी । अत्यंत गरीबी,पति की देखभाल , बच्चों का ध्यान घर का सारा काम वह हंसते हंसते करती ।किसी को उससे कोई शिकायत नहीं थी गांव में भी वह सबकी प्यारी थी अगर किसी को किसी मदद की जरूरत होती तो वह झट से उसकी मदद कर देती ।
बच्चों और पति के उठने से पहले ही सांवरी सुबह-सुबह ही जाकर नदी में सारे कपड़े धो आया करती थी। 1 दिन सांवरी को कपड़े धोने में थोड़ा सा विलंब हो गया तो गांव की सारी औरतें अब धीरे-धीरे वहां आने लगी सब मिलकर वहां बैठकर कुछ देर के लिए बातें करती थी आज उन्होंने सांवरी को वहां देखा तो उन्होंने उसको भी बिठा लिया और कहा कि कभी हमारे पास भी बैठ जाया करो । सांवरी को घर बैठे बीमार पति और की बच्चे फिक्र थी लेकिन अपनी सखियों के आग्रह को वो टाल न सकी और वही कुछ देर के लिए बैठ गई। तभी अचानक उन औरतें ने कान्हा के बारे में उसकी शरारतों के बारे में उसकी सुंदरता के बारे में उसकी चतुराई के बारे में बातें करना शुरू कर दी। सावंरी को कान्हा की बातें सुनकर बहुत ही आनंद आया उस की सब सखियों ने उसको बताया कि कान्हा नदी के उस पार वाले गांव में रहता है क्योंकि उस से पहले उसने कभी भी कान्हा की बातों को नहीं सुना था कान्हा के बारे में मीठी मीठी बातों को सुनकर सांवरी उन बातों में इतना खो गई कि उसको वक्त का पता ही ना चला ।
कान्हा की बातें सुनते सुनते अब तो जैसे उसे कान्हा से प्यार हो गया अब तो वह हर रोज कान्हा की बातों को सुनने के लिए वह वहां नदी किनारे बैठी रहती। यहां नदी पर सखियों की बातें सुनकर फिर घर जाकर उन बातों को सोचती रहती धीरे-धीरे कान्हा की छवि उसके उसके हृदय में ऐसे घर कर गई कि अब तो हर समय कान्हा की याद ही उसका जीवन बन गई धीरे धीरे कान्हा की बातों को सोच और सुने बिना उसको तो अब सांस भी नहीं आती थी ।हमेशा उसकी आंखों के सामने कान्हा की ही छवि रहती थी । अब सांवरी जब भी नदी में कपड़े धोने जाती तो कान्हा की याद में अपने आप ही उसके आंसू बहने लगते गरीब होने के कारण उसकी साड़ी का पल्लू इतना छोटा था कि वह उस पल्लू से अपने आंसू भी न पौंछ पाती और सारे आंसू उसके नदी में गिरते रहते।
सांवरी ने कान्हा की अपने मन में एक ऐसी छवि अंकित कर ली थी कि कान्हा टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलता है उसके पितांबर पर बांसुरी लटकी हुई है सर पर मोर मुकुट कानों में कुंडल गले में वैजयंती माला पांव में प्यारे प्यारे से छम छम करके घुंघरू और कोमल कोमल से पांव से कान्हा इधर उधर भाग रहा है इसी को याद करते करते सांवरी तड़पती और उसके आंखों में झर झर आंसू बहने लगते ।सांवरी हमेशा यह सोचती की सारे गांव के मैं कपड़े धोती हूं कितना अच्छा होता अगर कान्हा के वस्त्रों को भी मैं धोती उसको अच्छे से स्त्री करती ऐसा सोचते सोचते उसका मन व्याकुल हो उठता अश्रुओं की जलधार उसके आंखों से बह कर उसके वक्ष स्थलों को भिगोती हुई नदी की जलधार में मिल जाती ।एक दिन ऐसे ही सावंरी नदी पर वस्त्रों को धो रही थी और नदी के उस पार कान्हा राधा संग एक उपवन में सखियों द्वारा सजाए हुए सावन के झूले पर बड़े आनंद से झूला झूल रहा था सावन अपने पूरे यौवन पर था चारों ओर प्रकृति ने अपनी अत्यंत अलौकिक और अद्भुत छटा बिखेरी हुई थी हरे हरे वृक्ष के पत्तों पर पक्षी ऐसे विराजमान थे जैसे कि अभी-अभी वह सब नहा धोकर आए हैं चारों ओर का वातावरण आनंदित और मन को पुलकित करने वाला था । राधा संग झूला झूलते हुए बीच में राधा की अत्यंत सुंदर छवि को देखकर कान्हा बीच-बीच में मुस्कुराते और राधा रानी सर को लज्जा से झुका लेती। दोनों की प्रसन्नता से भरे चित को देखकर सखियां और जोर से झूला झुलाने लगती ।
आज तो आकाश में बादल अठखेलियां खेल रहे थे। कभी तो अचानक श्याम सुंदर की तरह काले बादल आ जाते हैं और कभी-कभी गोरी राधा की तरह आसमान बिल्कुल साफ हो जाता ऐसे ही बादलों की आंख में मिचोली चल रही थी तभी अचानक से ऐसी बदली आई कि कान्हा एकदम से झूले से उठकर उपवन के बीच में जाकर खड़े हो गए राधा ने कान्हा के पल्लू को एकदम से खींचकर कहां हे शामसुंदर थोड़ी देर और झूला झूलो लेकिन कान्हा तो किसी और ही सोच में डूबा हुआ था तभी अचानक से उस बदली ने बरखा करनी शुरू कर दी और कान्हा उस बरखा में आंखें बंद करके भीगने लगे जब राधा ने भी कान्हा संग उस बारिश का आनंद लेना चाहा तो कान्हा ने हाथ के इशारे से राधा को झूले पर बैठने के लिए कहा राधा रानी असमंजस में पड़ गई और एकदम से हैरान हो गई आज कान्हा अकेले ही बारिश का आनंद क्यों ले रहे हैं कान्हा बारिश के पानी से पूरी तरह से भीग चुका था और अचानक से बारिश बंद हो गई राधा झूले से उठकर जब कान्हा के पास आई और उसने कान्हा को छुआ और उसकी आंखों में देखा तो कान्हा एकदम से तप रहा था और उसकी आंखों एकदम से लाल हुई थी जब राधा रानी ने आश्चर्य से कान्हा की तरफ देखा तो कान्हा ने राधा को कंधे से पकड़ते हुए कहा प्रिये कुछ देर के लिए हुई यह जो बारिश थी यह बारिश ना होकर यह सांवरी के वो आंसू थे जो हर रोज मुझे याद करके मुझसे मिलने की तड़प में मेरे विरह में से उसकी आंखों से झर झर बह कर नदी की जलधारा में मिल जाया करते थे और आज यह बदली उन आंसुओं को खींच लाई और सांवरी की बरसों से अधूरी इच्छा को पूर्ण किया कि सांवरी कैसे हरपल सोचती और तड़पती थी कि वह भी मेरे वस्त्रों को धोए और देखो प्रिया कैसे आज उस के गरम गरमआंसुओं में भीग कर मेरे सारे वस्त्र धूल गए । मेरा शरीर सांवरी के गरम आंसुओं से भीग कर तभी तप रहा है आज सांवरी की इच्छा पूरी हो गई ।
आज सांवरी के प्रेम के आंसुओं में उसका सांवरा भीग कर अत्यंत आनन्दित हो रहा है किशोरी जू सांवरी के प्रेम भाव और कान्हा के भक्तों के प्रति भाव को देख कर कान्हा की और एक टक देखती हुई म़ंद मंद मुस्कुरा उठी और सोचने लगी भगत के वश में है भगवान। “पाना है यदि प्रभु को तो प्यार से मिलेगा। प्रेम अश्रुओं में नहाता जलधार में मिलेगा”। बोलो भगत वत्सल भगवान की जय हो।
वैसे तो प्रिया प्रीतम की हर लीला अद्भुत होती है । पर उसमें झूलन लीला बड़ी ही दिव्य है अपने नेत्र बंद करके इस लीला का दिव्य दर्शन कीजिए । कितना सुंदर प्रेम है जिसमें निज प्रेमी के लिए समर्पण है।
झूलनलीला
सावन मास का महीना था।प्रिया प्रीतम के मन में झूलन की उमंग जागी बस सखियों ने सोचा प्रिया प्रीतम के साथ आज झूलन लीला की जाय।ललिता जी ने पूछा प्रिया प्रीतम से जैसा आपका मन हो वैसी ही व्यवस्था की जाए श्यामसुंदर ने कहा एक साथ दो झूले होंगे एक कदम्ब की डाल पर और दूसरा उसके पास तमाल वृक्ष पर। यह दोनों झूले आस पास होंगे। एक पर प्रिया जी झूलेंगे और एक पर मैं झुलूंगा और दोनों में आज प्रतियोगिता होगी देखें कौन जीतता है। ललिता बोली जीत तो हमारी स्वामिनी की ही होगी।प्रियतम बोले थे तुम अभी से कैसे भविष्यवाणी कर सकती हो ललिता जी बोली हमारी प्रिया जी दुबली-पतली हैं उनकी कमर की लचक बहुत गहरी है तो प्रिया जी ही जीतेगी। लीला के अनुसार दो वृक्षों पर अलग-अलग झूले डाल दिए गए कदम्ब वृक्ष पर प्रिया जी झूल रही हैं और तमाल वृक्ष पर प्रियतम झूल रहे हैं।ललिता विशाखा चित्रा जी इंदु लेखा श्री प्रिया जी को झुला रही हैं।चंपक लता रंग देवी तुंग विद्या और सुदेवी प्रियतम को झुला रही हैं। अब प्रिया जी ने झूला झूलना आरंभ कर दिया झूला हवा से बातें करने लगा ललता जी ने आज बहुत जोर से झूला रही है।प्रिया जी की कमर बहुत सुंदर लचक ले रही थी प्रिया जी कभी सामने वृक्ष की ऊंची डाल को छू आती और जब पीछे जाती तो उनकी बेणी ऊची डाल को छू लेती उनका नीलांबर उन्मुक्त रूप से लहरा रहा है।प्रिया जी के कंठ में सुमन हार स्वर्ण हार हीरों का हार मुक्ता हार आदि प्रिया जी के साथ लहरा रहे हैं, जब प्रिया जी सामने की ओर जाती तो यह प्रिया जी के लिए हृदय से लग जाते और जब पीछे आती यह हार कंठ से झूले लगते।हारो के चिपकने और झूले की शोभा अनुभव सुंदर है।प्रिया जी के कुंडल भी लहरा रहे थे उनकी शोभा अद्भुत सुंदर सी है। प्रिया जी के नूपुर झूले के साथ मधुर नृत्य कर रहे हैं। मानों सरगम बज रही हो अनुपम शोभा प्रिया जी के झूलने की। तुंगविद्या जी ने कहा प्रियतम तुम क्यों नहीं झूलते हम तुम्हें झुला देंगी विश्वास करो तुम्हारी झूलन में विजय होगी।प्रियतम बोले मैं अभी थोड़ी देर से झुलुगा प्रियतम धीमे धीमे झूल रहे हैं। चार पग आगे आते चार पग पीछे जाते आते बस इतना ही झूल रहे थे तुंगविद्या जी ने कहा ऐसे तो आप हार जाओगे।प्रियतम ने कहा यह मेरे झूलन का आनंद आज महान है।प्रीतम ने कहा मे झूलन का आनंद आज अत्यधिक है मेरे मन के भीतर देखो- आज मेरा मन प्रिया जू के नीलाम्बर के साथ झूल रहा है। मैं प्रिया जू के बेणी के साथ झूल रहा हूँ। मैं प्रिया जू के हार के साथ झूल रहा हूँ और ह्रदय से लग जाता हूँ झूलते झूलते। मैं प्रिया जी कमर की साथ झूल रहा हूँ। प्रिया जू करधनी को पकड़ कर जब प्रिया जी एक डाल को छु कर मुस्कुराती हैं तो उनकी मुस्कान के साथ झूलता हूँ। मैं प्रिया जी के कुंडल के साथ झूल रहा हूँ। अद्भुत झूलन है। मैं प्रिया जू के नुपुर की मधुर ध्वनि के साथ झूल रहा हूँ। ललिता जी पूछो जीत किसकी हुई मेरी या प्रिया जी की।भले जीत प्रिया जी हुए पर महा आनंद मुझे मिला।ललिता जी निर्णय करे किसका झूलन श्रेष्ठ है। चम्पकलता जी बोली आपकी प्रिया जी में प्रेम अतुलनीय है।आपको प्रिया जी के प्रति प्रेम पर बलिहार।प्रियतम बोले में हमेशा प्रिया जू से हारता हूँ।प्रिया जू की जीत में मेरी ही जीत है।जब जीत कर प्रिया जी आनंद पाती है तब मैं महाआनंद पाता हूँ उनके आनंद पर बलिहार जाता हूँ।
भगवान को लगाए जाने वाले भोग की बड़ी महिमा है। इनके लिए 56 प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं, जिसे छप्पन भोग कहा जाता है। . यह भोग रसगुल्ले से शुरू होकर दही, चावल, पूरी, पापड़ आदि से होते हुए इलायची पर जाकर खत्म होता है। . अष्ट पहर भोजन करने वाले बालकृष्ण भगवान को अर्पित किए जाने वाले छप्पन भोग के पीछे कई रोचक कथाएं हैं। . ऐसा कहा जाता है कि यशोदा जी बालकृष्ण को एक दिन में अष्ट पहर भोजन कराती थी। अर्थात् श्री बालकृष्ण लाल आठ बार भोजन करते थे। . जब इंद्र के प्रकोप से सारे व्रज को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था, तब लगातार सात दिन तक भगवान ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया। . आठवे दिन जब भगवान ने देखा कि अब इंद्र की वर्षा बंद हो गई है, सभी व्रजवासियो को गोवर्धन पर्वत से बाहर निकल जाने को कहा.. . तब दिन में आठ प्रहर भोजन करने वाले व्रज के नंदलाल कन्हैया का लगातार सात दिन तक भूखा रहना उनके व्रज वासियों और मैया यशोदा के लिए बड़ा कष्टप्रद हुआ। . भगवान के प्रति अपनी अन्न्य श्रद्धा भक्ति दिखाते हुए सभी व्रजवासियो सहित यशोदा जी ने 7 दिन और अष्ट पहर के हिसाब से 7X8= 56 व्यंजनो का भोग बाल कृष्ण को लगाया। . गोपिकाओं ने भेंट किए छप्पन भोग… . श्रीमद्भागवत के अनुसार, गोपिकाओं ने एक माह तक यमुना में भोर में ही न केवल स्नान किया, अपितु कात्यायनी मां की अर्चना भी इस मनोकामना से की, कि उन्हें नंदकुमार ही पति रूप में प्राप्त हों। . श्रीकृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति की सहमति दे दी। . व्रत समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के उपलक्ष्य में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन भोग का आयोजन किया। . छप्पन भोग हैं छप्पन सखियां… . ऐसा भी कहा जाता है कि गौलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं। . उस कमल की तीन परतें होती हैं। प्रथम परत में “आठ”, दूसरी में “सोलह” और तीसरी में “बत्तीस पंखुड़िया” होती हैं। . प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में श्री भगवान विराजते हैं। . इस तरह कुल पंखुड़ियों संख्या छप्पन होती है। 56 संख्या का यही अर्थ है। .
एक बार कन्हैया को जिद्द चढ़ गई कि मैं अपना चित्र बनवाऊँगा ये बात कान्हा ने मईया ते कही, मईया मै अपना चित्र बनवाऊँगो, मईया बोली चित्र बनवाय के का करेगो, कन्हैया बोले, मोय कछू ना पतो मैं तो बनवाऊँगो, मईया कन्हैया को एक औरत के पास ले गई जिसका नाम था चित्रा,
वो ऐसा चित्र बनाती थी कि कोई पहचान भी ना पावे था कि असली कौन है… मईया कान्हा को चित्रा के पास ले कर गई और कहा कि कान्हा का चित्र बना दो, चित्रा ने कान्हा को कभी देखा नही था चित्रा ने जैसे ही कान्हा को देखा वो देखती ही रह गयी और मन मे सोचने लगी इतना प्यारा लल्ला और बहुत ही प्रेम मे खो गयी
जब मैया ने चिकोटी काटी तब कही जाकर उसकी तन्द्रा भंग हुई , चित्रा ने कान्हा को सीधे खडे होने या बैठ जाने को कहा – लेकिन कान्हा टेढे होने के कारण , बार-बार टेढे खडे हो जाते या बैठ जाते,
!कान्हा बोले चित्र बनाना है तो ऐसे ही बनाओ. मे तो एसो ही हूँ टेडो मेडो सो,
लेकिन जब चित्रा ने कान्हा की सूरत देखती तो उनकी शरारत आँखों मैं बस गयी चित्रा का चित कान्हा मे ही कहीं खो गया
मईया कान्हा को ले कर चली गई और चित्रा से बोली चित्र बना कर कल हमारे घर दे जाना लेकिन चित्रा जब भी कान्हा का चित्र बनाती तो रोने लग जाती और सारा चित्र खराब हो जाता
किसी तरह उसने चित्र बनाया और मईया के घर गई. जब मईया ने चित्र देखा तो ,ख़ुशी के मारे झूम उठी और
चित्रा को वचन दिया की इस चित्र के बदले तू जो माँगेगी मैं दुँगी चित्रा बोली सच मईया.. मईया बोली हाँ जो माँगेगी मैं दुँगी.. चित्रा बोली तो जिसका चित्र बनायो है वाको ही दे दिओ
मईया ये बात सुन रोने लगी और बोली तू चाहे मेरे प्राण मांग ले पर कान्हा को नही….
चित्रा बोली मईया तू अपना वचन तोड़ रही है मईया रोते हुए बोली तू कान्हा के समान कुछ भी माँग ले मैं दूँगी चित्रा बोली तो कान्हा के समान जो भी वस्तु हो तुम मुझे दे दो…
मईया ने घर और बाहर बहुत देखा पर कान्हा के समान कुछ ना मिला..
इतने मे कान्हा चित्रा को थोङा कौने मे ले जा कर बोले देख तू मुझे ले जायेगी तो मेरी माँ मर जायेगी
चित्रा बोली अगर तू मुझे ना मिलो तो मै मर जाउँगी. तब कान्हा ने चित्रा को समझाया की मे तो बृज मे आया ही इस ही लिए हूँ
तू क्या जो भी मुझ को एक बार दिल से याद करेगा मैं खुद ही उसके सामने आ जाऊँगा मे सब गोपियों का लाला हूँ और मेरी तो बहुत सारी मैया हैं तू भी तो मेरी मैया है ,और मैं अपनी मैया कू रोते नाय देख सकू कान्हा की भोली भोली बातो मे चित्रा रीझ गयी
और बोली जब बुलाऊगी तब आयेगो न तब कान्हा बोले तेरी सो आऊंगा तब चित्रा खुश हो कर मईया से बोली अरी मईया मैं तो मजाक कर रही थी,
मुझे तेरा लाला नही चाहिये..ये सुन कर मईया की जान मे जान आई
यहाँ गोपी का कृष्ण के प्रति अनुराग और मैया के कृष्ण प्रेम की लीला का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है,
हे कृष्ण
भक्त्ति से अधिक आनंदित करने वाली सृस्टि में कोई वस्तु नहीं है जिसने एक बार इस सुख को पा लिया वह सदा सदा केे लिए प्यासा हो गया…….
एक बार कृष्ण और राधा जू निधिवन में रात्रि में सभी गोपियों के साथ हास परिहास कर रहे थे। राधा जू ने कृष्ण से कहा, 'आप मुझे कोई कहानी सुनाइए या फिर ये बताइये कि भक्त कष्ट क्यों पाते हैं ?' कृष्ण बोले, 'राधे! सुनो, एक भक्त थे, वो ह्रदय से मेरी भक्ति करते थे। उन्हें लगता था की भगवान की भक्ति करने से उनके जीवन में सुख ही सुख रहेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्हें भक्ति करते कई साल बीत गए और वो निर्धन होते चले गए। यही नहीं उनके समकालीन लोग उनसे बहुत धनी हो गए और वे सब उन भक्तजन का बड़ा परिहास उड़ाते। भक्त को लगता, 'उनसे अच्छा तो ये लोग ही जीवन जी रहे हैं इन्हे तो भगवान की भक्ति भी नहीं करनी पड़ती। मैंने भी इतना समय लगा कर देख लिया न तो प्रभु मिले और ना ही जीवन में कुछ सुख आया। अब तो मैं भक्ति भी नहीं छोड़ सकता वरना लोग मुझे और भटका हुआ समझेंगे।' ऐसा विचार करते-करते उन्होंने ये अनुभव किया कि लगता है मुझे प्रभु कृष्ण की प्रतीति ही नहीं है, मुझे ये कैसे विश्वास हो कि वो सचमुच हैं या नहीं । उस भक्त ने सुन रखा था कि, 'भगवान श्रीकृष्ण निधिवन में प्रतिदिन आते हैं और कोई छुप के देख ले तो उसका अहित हो जाता है।' उसने सोचा अब मेरा क्या अहित होगा ये विचारकर वो साँझ को सबसे आँख बचाकर निधिवन में छुप गया और रात्रि कि बाट जोहने लगा। अब बताओ राधा मैं उन संत जन को कैसे बताऊँ कि यदि सांसारिक इच्छा उनकी शेष रहेगी तो उन्हें जाने कितने जन्म और कितनी योनियों में भटकना पड़ेगा। इसीलिए मैं उन्हें सांसारिक सुख नहीं दे रहा, और अगर वो संसार की आसक्ति हटा दें तो उन्हें सब कुछ मिल जाएगा। इसके लिए उन्हें मुझमे ही मन लगाना पड़ेगा। इन भक्त जन को ये लगता है कि भगवान निधिवन में आते नहीं हम उन्हें कैसे बताएं हम आते भी हैं और अपने भक्त जनो की बात भी चलाते हैं।' ऐसा कहकर कृष्ण मुस्कुरा दिए। तभी वो भक्त जो वहां छुपे बैठे थे भगवान कि अद्भुत दिव्य लीला देखकर चमत्कृत रह गए। वे दौड़ के आये और प्रभु के चरणो में गिर गए। वे राधा रानी का भी बहुत आभार करना चाहते थे जो उन्होंने ऐसा प्रश्न किया लेकिन वो कुछ कह ही न पाये। प्रभु कि अनुकम्पा से जब वे कुछ बोल सके और जब उनसे वर मांगने का कहा गया तो बार-बार आग्रह करने लगे कि उनके इस दिव्य स्वरुप को ही वो नित्य देखना चाहते हैं। प्रभु ने कहा ठीक है तुम यहीं निधिवन में लता बनकर रहो अबसे तुम भी हमारे साथ नित्य रात्रि में रहोगे, और प्रभु ने उस भक्त-गोपी को जो कई जन्मों से प्रभु से बिछड़ी हुई थी कृतार्थ कर दिया ।
श्री रूप गोस्वामी जी पर राधाकृष्ण की कृपा की वृष्टि जब निरन्तर होने लगी. . उन्हें प्राय: हर समय उनकी मधुर लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती. . पहले तो जो कोई उनके पास आता अपनी कुछ शंकाए लेकर या भजन-साधन में अपनी कुछ समस्याएं लेकर, . वे बड़े ध्यान से उसकी बात सुनते, मृदु वचनों से उसकी शंकाओं का समाधान करते, आवश्यक निर्देश देकर साधन-संबंधी उसकी समस्याओं को हल करते. . जो भी उनके पास आता म्लान मुख लेकर उनसे विदा होता एक अकथनीय आनन्द लहरी से व्याप्त मन और प्राण लेकर. . पर अब अक्सर उन्हें किसी के आने-जाने का पता भी न चलता. . लोग आते उनके पास, उनके वचनामृत से तृप्त होने. पर कुछ देर उनके पास बैठकर प्यासे ही लौट आते. . एक बार कृष्णदास नाम के एक विशिष्ट वैष्णव-भक्त, जो पैर से लंगड़े थे, उनके पास आये कुछ सत्संग के लिए. . उस समय वे राधा कृष्ण की एक दिव्य लीला के दर्शन कर रहे थे. . राधा एक वृक्ष की डाल से पुष्प तोड़ने की चेष्टा कर रही थीं. डाल कुछ ऊँची थी. . वे उचक-उचक कर उसे पकड़ना चाह रही थीं, पर वह हाथ में नहीं आ रही थी. . श्यामसुन्दर दूर से देख रहे थे. वे आये चुपके से और राधारानी के पीछे से डाल को पकड़कर धीरे-धीरे इतना नीचा कर दिया कि वह उनकी पकड़ में आ जाय. . उन्होंने जैसे ही डाल पकड़ी श्यामसुन्दर ने उसे छोड़ दिया. . राधारानी वृक्ष से लटक कर रह गयीं. यह देख रूप गोस्वामी को हंसी आ गयी. . कृष्णदास समझे कि वे उनका लंगड़ापन देखकर हंस दिये. . क्रुद्ध हो वे तत्काल वहाँ से गये. रूप गोस्वामी को इसका कुछ भी पता नहीं. . अकस्मात उनकी लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी. . वे बहुत चेष्टा करते तो भी लीला-दर्शन बिना उनके प्राण छट-पट करने लगे. . पर इसका कारण वे न समझ सके. सनातन गोस्वामी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन किया और इसका कारण जानना चाहा. . उन्होंने कहा, तुम से जाने या अनजाने कोई वैष्णव-अपराध हुआ हैं, जिसके कारण लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी हैं. . जिनके प्रति अपराध हुआ है, उनसे क्षमा मांगने से ही इसका निराकरण हो सकता है. . रूप गोस्वामी ने पूछा- जान-बूझकर तो मैंने कोई अपराध किया नहीं. यदि अनजाने किसी प्रति कोई अपराध हो गया हैं, तो उसका अनुसन्धान कैसे हो ? . सनातन गोस्वामी ने परामर्श दिया, तुम वैष्णव-सेवा का आयोजन कर स्थानीय सब वैष्णवों को निमन्त्रण दो. . यदि कोई वैष्णव निमन्त्रण स्वीकार न कर सका, तो जानना कि उसी के प्रति अपराध हुआ है . रूप गोस्वामी ने ऐसा ही किया. . खंज कृष्णदास बाबा ने निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया. . जो व्यक्ति निमन्त्रण देने भेजा गया था, उससे उन्होंने रूप गोस्वामी के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए उस दिन की घटना का वर्णन किया. . रूप गोस्वामी ने जाकर उनसे क्षमा माँगी और उस दिन की अपनी हंसी का कारण बताया. . तब बाबा संतुष्ट हुए और रूप गोस्वामी की लीला-स्फूर्ति फिर से होने लगी. . साधकों के लिए इस घटना का विशेष महत्व है.
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बरसाना सदा से ही राधारानी का प्रिय धाम रहा है पहले यह वृषभानपुर था परंतु जब स्वामिनिजी प्रकट भायी तब से बरसाना कर दिया क्यूँकि ” बरसाना का अर्थ है ” वर्षाना” स्वामिनीजी बोली श्याम हमारे बरसाने में अगर कोई वर्ष में एक बार भी आ जाए तो उस पर कृपा हो जाए क्यूँकि यह मेरे बरसानाहको
श्यामसुंदर बोले “स्वामिनीजी इस सारे जगत के तीर्थ मेरे चरणो से निकले है …गंगा मैया मेरे चरण से प्रकट भायी है ।यह सब तीर्थ मेरे अंशमात्र से प्रकट हुए है वृंदावन मेरा देह और ह्रदय है पाँच कोस में ( नारद पंचरात) परंतु आपका बरसाना मेरी ह्रदय की धड़कन है बिना धड़कन के ह्रदय किस काम का स्वामिनीजी ( कूद कर ताली मार हँसती हुई बोली) तो मेरा बरसाना सबसे बड़ा श्याम मुस्कुराकर बोले” हाँ,सबसे बड़ा, श्यामसुंदर बोले आपके इस बरसाने में हमें जगह मिलेगी स्वामिनिजी , स्वामिनी कुछ मुँह बिचकाकर बोली हाँ हाँ ज़रूर और अपनी चुनरी श्याम मुख पर देकर बोली परंतु आपको यहाँ ” सखी ” रूप में आना होगा बरसाना मेरी सखीयो का स्थान है और आप मेरी सबसे प्रिय सखी श्याम सुंदर बोले दोनो हाथ फैला कर बोले ” सखी” वो भी मैं अरी स्वामिनिजी ” मैं बालपन से ही सखीयो से डरता आया हूँ
जब छोटों था तो मैया से सखियाँ ख़ूब शिकायत लगाती थी पिटवाने के लिए जब बड़ों हुओ तो गोपियाँ नाम लगाती वस्त्र चुराए स्वामिनीजी अपने सिंघाँसन पर जा बैठी और हाथ में नीलकमल का फूल लिए बोली अच्छा श्याम सुंदर आप तो भोले थे श्यामसुंदर बोले ही जा रहे थे के ललिता विशाखा आदि आ गयी और सब स्वामिनिजी के निकट खड़ी हो गयी और स्वामिनिजी को पान भेंट किया श्यामसुंदर कुछ झेप से गए ललिताजी बोली क्या हुआ श्याम सुंदर स्वामिनिजी मुख में पान दिए पूरा मुख खोले बिना आधे मुख से अधररस टपकाए बोली ललिताजी कुछ बता रहे है श्यामसुंदर कहते है सखी तंग करती है ललिता बोली सखी तंग करती है हाय हाय ललिताजी मुस्कुराकर स्वामिनिजी की तरफ़ इशारा कर बोली सखियाँ आप को तंग करती है या आप सखीयो को स्वामिनीजी बोली बस श्याम आपको बरसाने में प्रवेश केवल सखी भेष में मिलेगा ठीक है श्यामसुंदर बोले आपकी आज्ञा है तो सखी भी बन जाएँगे
अब श्यामसुंदर नंदगाओं गए पूरी रात सोचने लगे मैंने कितनो रूप बनाए है कछुआ, नरसिंह, बारह परंतु सखी रूप तो बनायो ना कैसे बनू सखी??? श्यामसुंदर रात्रि के समय अपने कक्ष में सोच रहे है अब स्वामिनिजी ने कहा है तो सखी बनना ही पड़ेगा वैसे भी सब ” बरसाने वारी ही करती है” है के नहि?? अब श्यामसुंदर अपना पीताम्बर अपनी सर पर चुनरी रूप में ले लिया मैया यशोदा का सिंदूर आदि शिंगार ले आए और आइने के सामने लग गए सखी बनने अब अपने केश को जूड़ा बनाना शुरू किया केश इतना मुलायम के बार बार जूड़ा खुल जाता थक गए जैसे तैसे जूड़ा बना लिया सुबह बरसाना भी जाना है सखी प्रवेश में अब बिंदी माथे पर लगाएँ तो गिर जाए बार बार क्यूँकि श्यामसुंदर का माथा इतना चिकना है मैया दूध दही से जो नहलवाती है जैसे तैसे बिंदी भी लगा ली अब नैन में काजल लाग़ावे अब बरसाने के सखी तो काजल लम्बा सा लाग़ावे श्याम जब काजल लम्बा लगाए तो सारा काजल गालों पर गिर जावे बोले ” दारी के काजल तोको भी आज अपनो रंग दीखानो थे काला कहीं को यह बोल काजल भी लगाय लियो अब पीताम्बर को धोती सी बना लपेटने लगे अब ज्यूँ लपेटेते तभी गिर जातो कन्हैया खीजीया गया बोले दारी के पीताम्बर सारों दिन मोसे लिपटे रहेगो आज धोती बनाय रहू हूँ तो बाँध नाहे रहा यहाँ समय बीता जा रहा है प्रभात होने को है बरसाना जाना है सखी बन और सब के सब मेरे वैरी बने हुए है
कन्हैया ने जैसे तैसे पीताम्बर को धोती बना लपेट लियो अब जैसो चलने लगो गिरते गिरते बचो अब सोचने लगो ” यह बरसाने की नारियाँ ठीक कहवे है जे हम नंदगाओं के गवालान ते ज़्यादा मज़बूत है कैसो कैसो शिंगार करे और धोती पहन चल भी ले चलो श्यामसुंदर त्यार तो हो गए जैसे तैसे प्रभात हुई मैया से बोले मैया आजु हमें बरसाने जानो है मधुमंगल की लकड़ी जिस से गैया चरावे है वो खोय गयी वहाँ मैया बोले लाला इतनो सवेरा कन्हैया बोला मैया तू जाने है मधुमंगल मेरो मित्र है और ब्राह्मण तो आशीर्वाद ही देगा तेरे लाला को और तू ही तो कहवे ब्राह्मण की सेवा कर मैया ने हाँ भर दी अब चले कन्हैया ” सखी बनकर” छम छम छम छम चटकते मटकते बरसाने के और पहला शिंगार किया क्यूँ ना स्वामिनी को दिखाए मन ही मन बहुत ख़ुश है के आज स्वामिनी मेरा सखी शिंगार देख कितनी ख़ुश होगी नथ नाक से निकले तो प्रार्थना करे ” अभी मत निकल स्वामिनी को दिखा दूँ तब निकल जाना वहाँ जूड़ा खुला प्रार्थना करे अभी मत खुल स्वामिनी को दिखा दूँ
जैसे तैसे सम्भाल के पहुँच गए बरसाना सखी भेष में बरसाने की नारियाँ सब आश्चर्यचकित कौन सी सखी है यह ” कोई कहे कोई नयी ब्याय कर आयी है कोई कहे नहि नयी ऐसे ही किसी से मिलने आयी है कोई कह हो ना हो इतनी ज़ेवर लाद लियो तो वृषभानुबाबा के महल जा रही होंगी राधारानी के सखी होगी कोई श्यामसुंदर घबरा गए बोले राधा रे राधा तेरो बरसाना और यहाँ की नारियाँ डर लग रहो है जैसो भी पहुँच गए रंगीली गली वहीं तो खेलती है स्वामिनी अब सोचे कहीं ते आयना मिले जावे तो देख लूँ सब ठीक ठाक है ना
वहाँ ललिता विशाखा आदि की हँसी ठिठोलि सुनी और स्वामिनी को आता देख बोले ओह ” विधाता शंकर जी कृपा करना आप भी रास में सखी बन आए थे तो मैंने आपसे रास किया था अब आज मेरा शिंगार की लाज रखना स्वामिनीजी ने दूर से देखा ललिता जी देखो देखो कितनी सुंदर सखी बरसाने आयी है श्यामसुंदर ने घूँघट किया था ललिता जी बोली महारानी मुख तो देखा नहि आपने सुंदर कैसी अब स्वामिनी तो अपने श्याम को पहचानन्ति है बोली नहि ललिता जी देखो देखो कितना प्यार शिंगार किया है श्यामसुंदर रंगीली गली में घूँघट काड़े खड़े है और चारो तरफ़ सखियाँ और राधारानी स्वामिनीजी कूद कर ताली मारती बोली ललिता जी हमें इनके साथ खेलना है हम नहि जानतीं इन्हें देख हमें कुछ आनंद सा हो रहा है श्यामसुंदर राधारानी की बात सुनकर घूँघट खोलने वाले थे के डर गए के कहीं शिंगार धोखा ना दे जावे तभी राधारानी ने स्वयं कहा ” अरी गज़गामी आपकी चाल मधुर है हाथ चरण अति आनंद प्रदान कर रहे है मुझे मैं आपका घूँघट खोलना चाहती हूँ खोल सकती हूँ अंदर श्यामसुंदर में आनंद प्रगाढ़ हो गया राधारानी के वचन सुन बोले खोल लो खोल लो स्वामिनीजी ने अपने छोटे छोटे कोमल हाथो से घूँघट खोला ललिताजी विशाखा जी सब नैन लगा के देख रही है तभी श्यामसुंदर का मुख देखा तो क्या दिखा ” सारा काजल नीले नीले गालों पर फ़ेल गया जैसे नीले आसमान में काले काले बादल नथ नाक से निकल लटकने लगी जैसे किसी वृक्ष पर कोई फल केश मानो ऐसे लगे जैसे कोई तपस्वी के केश हो खुले खुले बिंदी माथे से सरक कर नासिका पर आ गयी जैसे नासिका सामान पर्वत पर लाल लाल बिंदी सूरज की लालिमा
स्वामिनीजी ने ललिताजी को देखा और फिर विशाखा जी को अब सब जगह शांति हो गयी कन्हैया बोला ” मुँह लटकाए” मेरी प्राणप्यारी मेरा शिंगार अच्छा नहि लगा मैं पुरीं रात्रि नहि सोया सखी बनने के लिए अब जैसा मुझे आता वैसा बना लिया
कभी सखी बना नहि ना और बरसाने के तो बाबा रे बाबा कितनो मुश्किल है सखी बनना वो भी बरसाने की स्वामिनीजी जो ठाहका मार हँसीं के पूरी रंगीली गली में आनंद सो आय गयी बोली मेरे कन्हैया प्राणप्रिय तेरा शिंगार सबसे सुंदर है रे तेरा यह शिंगार सखी बनने का था पर तेरे रूप स्वरूप पर तो कितनी सखियाँ प्राण दे देती है आ मेरे प्यारे आज मैं तुझे सखी बनाती हूँ बरसाने की
स्वामिनिजी ने बीचों बीच रंगीली गली में एक सुंदर सोने की चोकी मंगवायी और कितने बहुमूल्य अपने आभूषण अपने गले से निकाल लिए
अब श्यामसुंदर को सखी बनाने लग गयी सुंदर सा जूड़ा बांधा उस पर कई तरह के माला डाली हर माला पर श्याम श्याम बोलती जा रही थीं
वहाँ सखियाँ गीत गाने लगी रंगीली गली में ” आज श्याम श्यामा सखी बने”
स्वामिनिजी ने बिंदी लगायी श्याम बोले नहीं लगेगी राधा मेरा माथा चिकना है ना
राधारानी बोली लगेगी इस चिकने माथे पर बरसाना रज नहि लगी अभी स्वामिनी ने रज उठा माथे पर लगायी बिंदी लग गई
अब नाथ पहनायी गिर गयी स्वामिनी बोली इतनी भारी नथ कालिया नाग को नाथ दिया पर नथ लगाने नहीं आया
श्याम मूह छिपाकर हसने लगे श्याम बोले वो कालिया नाग भी आपकी कृपा से नाथा था तो नथ भी आप ही लगा दो कृपा कर के
भगवान श्रीकृष्ण की तमाम लीलाओं के बारे में हम सब जानते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि लीलाधर श्रीकृष्ण का नाम कान्हा और कन्हैया कैसे पड़ा। दरअसल इसके पीछे भी पौराणिक कहानी है। और आज पौराणिक कहानी में हम इसी कथा के बारे में बताने जा रहे हैं…
एक दिन वासुदेव प्रेरणा से कुल पुरोहित गर्गाचार्य गोकुल पधारे। नन्द यशोदा ने आदर सत्कार किया और वासुदेव देवकी का हाल लिया। जब उन्होंने गर्गाचार्य से जब आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया, ‘पास के गांव में बालक ने जन्म लिया है। वही नामकरण के लिए जा हूं बस रास्ते में तुम्हारा घर पड़ता था इसलिए मिलने आ गया।’ यह सुन कर नन्द और यशोदा ने गुरु से विनती कि, ‘बाबा हमारे यहां भी दो बालकों ने जन्म लिया है उनका भी नामकरण कर दो।’
गर्गाचार्य ने मना करते हुए कहा, ‘तुम्हें हर काम जोर शोर से करने की आदत है। कंस को पता चला तो मेरा जीना दुषभर करेगा।’ लेकिन नन्द बाबा कहां मानने वाले थे कहने लगे, ‘भगवन गौशाला में चुपचाप नामकरण कर देना हम किसी को नहीं बताएंगे।’ यह सुनकर गुरु गर्गाचार्य तैयार हो गए। दूसरी ओर जब रोहिणी ने सुना कुल पुरोहित गर्गाचार्य आए हैं तो गुणगान बखान करने लगी। तब यशोदा बोलीं ‘गर्ग इतने बड़े पुरोहित हैं तो ऐसा करो अपने बच्चे हम बदल लेते हैं तुम मेरे लाला को और मैं तुम्हारे पुत्र को लेकर जाऊंगी देखती हूं कैसे तुम्हारे कुल पुरोहित सच्चाई जानते हैं।’
इस तरह से शर्त के अनुसरा रोहिणी और यशोदा परीक्षा पर उतर आईं। और अपने-अपने बच्चे बदलकर नामकरण के लिए गौशाला में पहुंच गईं। यशोदा के हाथ में बच्चे को देख गर्गाचार्य कहने लगे ये रोहिणी का पुत्र है इसलिए एक नाम रौहणेय होगा। अपने गुणों से सबको आनंदित करेगा तो एक नाम राम होगा और बल में इसके समान कोई ना होगा तो एक नाम बल भी होगा मगर सबसे ज्यादा लिया जाने वाला नाम बलराम होगा। यह किसी में कोई भेद नहीं करेगा। सबको अपनी तरफ आकर्षित करेगा तो एक नाम संकर्षण भी होगा।
अब जैसे ही रोहिणी की गोद के बालक को देखा तो गर्गाचार्य मोहिनी सूरत में खो गए। और अपनी सारी सुधि भूल गए। इस तरह से खुली आंखों से ही गर्गाचार्य प्रेम समाधि में लीन हो गए। गर्गाचार्य ना तो बोलते थे ना ही हिलते थे। न जाने इसी तरह कितने पल निकल गए यह देख नन्द बाबा और यशोदा मैया घबरा गईं। और उन्हें हिलाकर पूछने लगे, ‘बाबा क्या हुआ ? आप तो बालक का नामकरण करने आए हैं, क्या यह भूल गए?’
यह सुन गर्गाचार्य को होश आया है और एकदम बोल पड़े नन्द तुम्हारा बालक कोई साधारण इंसान नहीं यह तो… यह कहते हुए जैसे ही उन्होंने अंगुली उठाई तभी कान्हा ने आंखें दिखाई। गर्गाचार्य कहने वाले थे कि यह तो साक्षात् भगवान हैं। तभी कान्हा ने आंखों ही आंखों में गर्गाचार्य को धमकाया और कहा ‘बाबा मेरा भेद नहीं खोलना। मैं जानता हूं बाबा कि यह दुनिया भगवान का क्या करती है, उसे पूज कर अलमारी में बंद कर देती है और मैं अलमारी में बंद होने नहीं आया हूं, मैं तो माखन मिश्री खाने आया हूं, मां की ममता में खुद को भिगोने आया हूं। इसलिए अगर आपने मेरा यह भेद सबके सामने खोल दिया तो मेरा क्या हाल होगा?’
दरअसल गर्गाचार्य नामकरण करने आए थे और किसी भी परिस्थिति में उन्हें नामकरण करना था इसलिए उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की बातों को मानने से इनकार कर दिया और फिर से कहने ही वाले थे कि, ‘आपका बालक तो साक्षात्….’। तभी श्रीकृष्ण ने उन्हें फिर से समझाते हुए कहा कि ‘बाबा मान जाओ, नहीं तो मुंह खुला का खुला रह जाएगा और उंगली उठी की उठी रह जाएगी।’
यह सभी खेल आंखों ही आंखों में चल रहा था इसलिए पास में बैठे ना तो नन्द बाबा कुछ समझ पा कहे थे और ना ही यशोदा मैया कुछ समझ पा रही थीं। लेकिन बीच का रास्ता निकालते हुए गर्गाचार्य ने कहा, ‘आपके इस बेटे के अनेक नाम होंगे। जैसे-जैसे कर्म करता जाएगा वैसे-वैसे नए नाम होते जाएंगे। लेकिन क्योंकि इस बालक ने इस बार काला रंग पाया है, इसलिए इसका एक नाम कृष्ण होगा। यह बालक इससे पहले यह कई रंगों में आया है।’
मैया बोली बाबा यह कैसा नाम बताया है इसे बोलने में तो मेरी जीभ ने चक्कर खाया है। कोई आसान नाम बतला देना तब गर्गाचार्य कहने लगे, ‘मैया तुम इसे कन्हैया, कान्हा, किशन या किसना कह लेना।’ यह सुन मैया मुस्कुरा उठीं और तब से सारी उम्र इस बालक को कान्हा कहकर बुलाती रहीं। पौराणिक मान्यता है कि तभी से भगवान श्रीकृष्ण को कान्हा, कन्हैया, किशन या किसना कहते हैं !
जगतगुरु वल्लभाचार्य जी हमारे श्रीनाथ जी की सेवा करते थे। उन दोनों में पिता पुत्र का अद्भुत प्रेम था। एक बार की बात है जब वल्लभाचार्य जी एक दिन अपने लाला को सुला रहे थे तो उन्होंने लाला के लिए सुन्दर सा बिछोना बिछाया किन्तु लाला ने सोने से मना कर दिया। वल्लभाचार्य जी ने पूछा की लाला क्या हुआ सोता क्यों नहीं तो लाला बोले कि "जय जय, देखो ना ये बिछोना चुभता है नींद नहीं आती हमको इसपर।" तब गोसाई जी दूसरा बिछोना लगाते है अच्छे से किन्तु लाला कन्हैया उसपे भी सोने से मना कर देते हैं। ऐसा करके गोसाई जी ने कई बार अलग-अलग तरीके से बिछोना बिछाया फिर भी कन्हैया नहीं सोये। तब गोसाई जी ने डांट के बोला "क्यों रे लाला कैसे सोयेगा"? तब लाला ने गोसाई जी को हाथ पकड़ के अपने बिस्तर पर लिटाया और उनके पेट पर सो गए और बोले "जय जय, ऐसे सोयेंगे हम"। वल्लभाचार्य जी ने लाड़ लड़ा-लड़ा के लाला को इतना बिगाड़ रखा था कि लाला का जब जी करता किसी को भी पीट के आ जाता था। एक दिन की बात है लाला ब्रजवासी लडके का रूप धरके दूसरे बच्चों के साथ खेल रहे थे। तभी एक श्रीनाथ जी का जलघडिया वहाँ से निकल रहा था सब बच्चे बोले की भैया सब आगे से हट जाओ श्रीनाथ जी का जलघडिया आ रहा है। कोई छु ना देना अपरस में है ये। लाला कहा मानने वाले थे भीड़ गए जान बुझ के जलघडिये से। जलघडिये को गुस्सा आ गया की मुर्ख बालक अब दुबारा नहाना पड़ेगा और लाला के गाल पे खीच के चाँटा मार दिया, लाला अपनी गाल पे हाथ फेरते रह गए। और सोचने लगे की बेटा इसका बदला तो ये नन्द का लड़का बड़े अच्छे से लेगा, और चले गए। एक दिन क्या हुआ गर्मियों का समय था गोसाई जी ने उसी जलघडिये को बुलाया और कहा कि लाला को गर्मी न लगे इसलिए तुमको श्रीनाथ जी को पंखा झलना है। जलघडिये ने हाँ कर दी और गोसाई जी अपने कमरे में चले गए। जलघडिया सेवा तो ठीक करता था किन्तु ठाकुर जी में प्रेम नहीं था। जैसे ही वो श्रीनाथ जी के पास पंखा झलने बैठा तभी उसको नींद आ गई। और पंखा छुटके ठाकुर जी को लग गया। लाला को गुस्सा तो आया किन्तु सोचा शिशुपाल के 100 अपराध क्षमा किये थे इसका एक तो करना बनता है। ठाकुर जी चुपचाप खड़े हो गए। किन्तु जलघडिये की फिर से आँख लगी और पंखा फिर छुटके ठाकुर जी के मुख पे लगा। अबकी बार लाला को आया गुस्सा और अपने गाल पे लगे चाँटे को याद किया। फिर तो लाला ने भी जलघडिये को ऐसा खीचकर चाँटा मारा की सीधा मंदिर के प्रांगण से बाहर जा कर गिरा। चिल्लाने की आवाज सुनी तो गोसाई जी भागे-भागे आये और देखा तो जलघडिया अपनी गाल पे हाथ लगाए कोने में बैठा है। गोसाई जी ने पूछा तो उसने बताया की मैं तो पंखा झल रहा था तभी अचानक किसी ने थप्पड़ मारा मुझे। गोसाई जी सीधे ठाकुर जी के पास गए और पूछा "क्यों रे लाला, तूने मारा उसको"? तब लाला बोले "जय जय, मारता नहीं तो क्या करता मेरी सेवा करते-करते सोता है और दो बार पंखा मेरे मुँह पे मार दिया। मैंने भी ऐसा मारा है की अब कभी सेवा में नहीं सोएगा।" ऐसा नही है की ठाकुर जी केवल जगत गुरु या पीठाधीश्वरों के साथ ही ऐसी प्रेम लीला करते हैं। उनको तो सुन्दर कोमल ह्रदय वाले भक्त ही पसंद हैं। जब राजा राम जी मिथिला गए तो वहाँ की गोपिकाओं ने पुरुषो ने बच्चो ने सुमन वर्षा की थी, और जब कन्हैया मथुरा गए थे कंस को मारने तब भी मथुरा वासियों ने सुमन वर्षा की सुमन का अर्थ केवल पुष्प नहीं होता सुन्दर मन भी होता है उसी से ठाकुर इतने प्रसन्न हुए थे। इसलिए मेरे वन्दनीय भक्तों बाहरी आड़म्बरों को त्यागकर केवल सुन्दर हृदय से ठाकुर जी से प्रेम करो।
बरसाने में एक सेठ रहते थे, उनकी तीन-चार दुकाने थीं, अच्छी तरह चलती थीं। तीन बेटे, तीन बहुएं थी, सब आज्ञाकारी पर सेठ के मन मे एक इच्छा थी। उनके बेटी नही थी। संतो के दर्शन से चिन्ता कम हुई, संत बोले मन में अभाव हो, उस पर भगवान का भाव स्थापित कर लो.! सुनो सेठ तुमको मिल्यो बरसाने का वास। यदि मानो नाते राधे सुता, काहे रहत उदास॥ सेठ जी ने राधा रानी का एक चित्र मंगवाया और अपने कमरे मे लगा कर पुत्री भाव से रहते। रोज सुबह राधे-राधे कहते, भोग लगाते और दुकान से लौटकर राधे-राधे कहकर सोते। तीन बहु बेटे हैं घर में, सुख सुविधा है पूरी। संपति भरि भवन रहती, नहीं कोई मजबूरी॥ कृष्ण कृपा से जीवन पथ पे, आती न कोई बाधा। मैं बहुत बड़भागी पिता हुँ, मेरी बेटी है राधा॥ एक दिन एक मनिहारी चूड़ी पहनाने सेठ के हाते मे दरवाजे के पास आ गयी, चूड़ी पहनने की गुहार लगाई। तीनो बहुऐं बारी-बारी से चूड़ी पहन कर चली गयी। फिर एक हाथ और बढ़ा तो मनिहारीन सोची कि कोई रिश्तेदार आया होगा उसने उसे भी चूड़ी पहनाया और चली गयी। सेठ के दुकान पर पहुच कर पैसे मांगे और कहा कि इस बार पैसे पहले से ज्यादा चाहिए। सेठजी बोले कि क्या चूड़ी मंहगी हो गयी है.? तो मनिहारीन बोली नहीं सेठजी, आज मैं चार लोगों को चूड़ी पहना कर आ रही हूँ। सेठ जी ने कहा कि तीन बहुओं के अलावा चौथा कौन है, झूठ मत बोल, यह ले तीन का पैसा, मैं घर पर पूछूँगा, तब एक का पैसा और दूँगा। अच्छा कहकर, मनिहारीन तीन का पैसा ले कर चली गयी।सेठजी ने घर पर पूछा कि चौथा कौन था जो चूड़ी पहना है.? बहुऐं बोली – कि हम तीन के अलावा तो कोई भी नहीं था। रात को सोने से पहले सुता राधारानी को स्मरण करके सो गये। नींद में राधा जी प्रगट हुईं। सेठजी बोले “बेटी बहुत उदास हो क्या बात है.?” बृषभानु दुलारी बोली – “तनया बनायो तात, नात ना निभायो, चूड़ी पहनि लिनी मैं, जानि पितु गेह, आप मनिहारीन को मोल ना चुकायो, तीन बहु याद, किन्तु बेटी नही याद रही, कहत श्रीराधिका को नीर भरि आयो है, कैसी भई दूरी कहो, कौन मजबूरी हाय, आज चार चूड़ी काज मोहि बिसरायो है। सेठजी की नींद टूट गयी, पर नीर नहीं टूटी। रोते रहे सुबेरा हुआ। स्नान-ध्यान करके मनिहारीन के घर सुबह-सुबह पहुँच गये। मनिहारीन देखकर चकित हुई। सेठ जी आंखो में आंसू लिये बोले – धन धन भाग तेरो मनिहारीन तोरे से बड़भागी नहीं कोई, संत महंत पुजारी, धन-धन भाग तेरो मनिहारीन। मनिहारीन बोली- क्या हुआ.? सेठ आगे बोले – “मैने मानी सुता (पुत्री), किन्तु निज नैनन नहीं निहारिन, चूड़ी पहन गयी तव कर ते, श्रीबृषभानु दुलारी, धन-धन भाग तेरो मनिहारीन, बेटी की चूड़ी पहिराई लेहु जाहू तौ बलिहारी, जन जोड़ि कर करियो चूक हमारी, जुगल नयन जलते भरि मुख ते कहे न बोल, मनिहारीन के पांय पड़ि लगे चुकावन मोल।” मनिहारीन सोची – जब तोहि मिलो अमोल धन, अब काहे मांगत मोल, ऐ मन मेरो प्रेम से, श्रीराधे राधे बोल। श्रीराधे राधे बोल, श्रीराधे राधे बोल॥
अच्छा तुम बताओ…अगर मै कृष्ण ना होकर कोई वृक्ष होता तो???….तब तुम क्या करतीं???”“तब मै….लता बनकर तुम्हारे चारो और लिपटी रहती….” श्री राधे ने अपने गुस्से को ठंडा करते हुए कहा…“और अगर मै यमुना नदी होता तो???” कृष्णा ने राधे को मनाने वाली बच्चो की मुस्कान देकर कहा…“हम्म्म्म…..तब मै… लहर बनकर तुम्हारे साथ साथ बहती रहती…..श्यामसुंदर !!!”
श्री राधे ने उत्तर दिया… उनका गुलाबी रंग वापिस लौट आया था… वे ठुड्डी के नीचे अपना हाथ रखकर अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करने लगीं…..“अच्छा!!!!!…..उम्म्म….अगर मै उसकी तरह गौ होता तो???….तो तुम क्या करती??हहहहाहा…..मै गौ….हहहा”……..कृष्ण निकट घास चरती एक गौ की तरफ इशारा करके बोले…“हाहाहाहा……तो मै घंटी बनकर आपके गले में झूमती रहती…प्राणनाथ…..परन्तु आपका पीछा नहीं छोडती….हहाहहाहा……प्राणनाथ….हहाहा….”
श्री राधे कान्हा जी के गाल खींचती हुई बोलीं…फिर अगले कुछ पलों तक वहां शान्ति छाई रही….केवल यमुना की लहरें और मोर की आवाज़ ही सुनाई देती थी…श्री राधे ने चुप्पी तोड़ते हुए कान्हा जी से पूंछा… “आप हमें कितना प्रेम करते हैं…कान्हा जी???….मेरा मतलब अगर …हमारे प्रेम को अमर करने के लिए कोई वचन देना हो…तो आप क्या वचन देंगे…???”कृष्णा ने राधे के कर-कमल चूमते हुए कहा… “मै तुम्हे इतना प्रेम करता हूँ राधे… की जो भी भक्त तुम्हे स्मरण करके ‘रा…’ शब्द बोलेगा… उसी पल मै उसे अपनी अविरल भक्ति प्रदान कर दूंगा….और पूरा ‘राधे’ बोलते ही मै स्वयं उसके पीछे पीछे चल दूंगा…..”
“और मै आज वचन देती हूँ कान्हा जी!!!….की मेरे भक्त को तो कुछ बोलने की भी ज़रुरत नहीं पड़ेगी… जहाँ भी जिस किसी के ह्रदय में तुम्हारे नाम सच्चा प्रेम होगा… मै स्वयं ज़बरन तुम्हे लेकर उसके पीछे पीछे चल दूँगी….” श्री राधे ने अपने नैनो में प्रेम के अश्रु भरकर कहा…
एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता तो भगवान के पास भागा भागा आता और उन्हे अपनी अपनी परेशानियां बताता। उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। अंततः उन्होंने इस समस्या के निवारण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई। और बोले-” देवताओं, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं, कोई न कोई मनुष्य हर समय मुझसे शिकायत ही करता रहता है। कभी भी संतुष्ट नहीं रहता, जबकि मैं उन्हें समय व कर्म अनुसार सब कुछ दे रहा हूं। फिर भी थोड़े से कष्ट आते ही वह मेरे पास भागा भागा आ जाता है। जिससे ना तो मैं कहीं शांतिपूर्वक रह सकता हूं, और न ही कुछ कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके। प्रभु के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने अपने विचार प्रकट किए। किसी ने कोई जगह बताई, किसी ने कोई जगह। भगवान ने कहा “यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में हैं। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा। तब इंद्रदेव ने सलाह दी कि वह किसी महासागर में चले जाएं, बरुण देव बोले कि आप अंतरिक्ष में चले जाए। भगवान ने कहा “एक न एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा। भगवान निराश होने लगे वह मन ही मन सोचने लगे क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है ? जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूँ। अंत में सूर्य देव बोले “कि प्रभु आप ऐसा करें मनुष्य के ह्दय में हीं बैठ जाएं”। मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा पर वह यहां आपको तलाश नहीं कर सकेगा। ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई उन्होंने ऐसा ही किया, और वह मनुष्य के ह्दय में जाकर बैठ गए। उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मंदिरों आकाश जमीन पाताल में ढूंढ रहा है। पर वह नहीं मिल रहे हैं। परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर ह्दयरूपी मंदिर में विराजमान ईश्वर को नहीं देख पाता। मोको कहां ढूंढे रे बंदे मै तो तेरे पास में । ना मैं मंदिर, ना मै मस्जिद, ना काबे कैलाश में।
फिर भी संत महात्माओं ने दया करके हमें भगवान का पता तो दे ही दिया है। अब जिम्मेदारी भी हमारी ही है, कि उसको पाने के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करेंगे, उसको कातर भाव पुकारेंगे, तो ही वह मिलेगा और जब भी जिसको मिला है, अपने अंदर ही मिला है।। ……….. श्रीराधे श्रीराधे श्रीराधे
कान्हा ने एक गोपी के यहाँ खिड़की से झाँक कर देखा। भोली भाली गोपी अति तन्मयता से दधि मथने में मग्न है। जब माखन ऊपर तैरने लगा तो उसने मथानी निकाल कर एक ओर रख दी और स्वयं मटकी लेने दूसरे कक्ष में गई। कान्हा और उनके सखाओ के लिये इतना ही अवसर बहुत है।
जब गोपी मटकी लेकर वापस लौटी तो किकर्तव्यविमूढ सी खड़ी रह गई- “कहाँ गया माखन? मैं तो ऊपर तैरता हुआ छोड़ करपल भर के लिये मटकी लेने ही तो गई हूँ। इतनी ही देर में?”
भ्रमित सी हो गई गोपी- “कहीं मैने अन्यत्र तो नहीं रख दिया?” चकित सी गोपी घर मे स्थान स्थान पर माखन खोज रही है- “मन तो पहले ही कान्हा ने हर लिया है, अब मेरी बुद्धी भी भ्रमित कर रहा है” घर के अन्य बर्तनों में माखन ढूढँती-ढूँढती गोपी सोचती जा रही है – “वही नटखट अपने ग्वाल बालो के साथ आकर खा गया होगा” – और ठगी सी बेसुध सी हो रही है, कान्हा का माखन खाता हुआ लावण्यमय बालरूप स्मरण करके।
एक दूसरी गोपी यमुना स्नान के लिये घर से निकली। कान्हा ने ताक लिया, माखन मथ कर छीके पर रख कर आई है। गुस गये अपने ग्वाल बालों के साथ उस गोपी के घर में। घर भें उस गोपी के दो शिशु हैं, इतने सारे बालको को घर में घुसता देख कर डर गये और बुक्का फाड़ कर रोने लगे। कान्हा ने अति लाड़ प्यार से उन्हें चुप कराया और साथ ही ऊपर से नीचे तक दोनों को माखन से पोत दिया। अबोधसे दोनों शिशु चुप हो गये और अपने ऊपर लगा ही माखन खाने लगे।
कान्हा ने अपने साथियों के साथ अत्यधिक उत्पात मचाया,भाखन खाया,खूब खिराया,छीके मटकी फोड़े। जब देखाकि गोपी के लौटने का समय हो रहा है तो अपने सखाओ को चलने का संकेत किया। इसी समय दूर से आती गोपी दिखाई दे गई। कान्हा ने उसके दोनों शिशुओं को पुनः माखन से खूब पोता और उन दोनों को सबसे आगे करके सारे सखा उनके पीछे पीछे द्वार से बाहर निकलने लगे।
गोपी ने जब अपने दोनों शिशुओं को माखन से लथपथ द्वार से बाहर निकलते देखा तो हतप्रभ रह गई। जितनी देर में वह घर तक पहुँचती,सारे बालोंसहित गायब हो चुके थे। द्वार पर केवल गोपी के दोनो शिशु ही खड़े है। क्षण भर में गोपी की समझ में सारी बात आ गई।
गोपी ने उसी क्षण यशोदा जी के पास जाकर कान्हा की सारी करतूत कह सुनाई। मुख पर कृत्रिम रोष है, नयन कान्हा के लावण्य को निहारते नहीं थकते। यशोदा जी के समक्ष कान्हा पर दोषारोपण कर रही है, किन्तु अपनी ही सुधि भूली हुई है।
कान्हा कहाँ स्वीकार करने वाले हैं,तुरंत गोपी पर ही दोष लगाते हुये बोले- “नही मैया, इस गोपी के दही माखन को तो मैं हाथ भी न लगाँऊ। कितना खराब दही रखती है यह अपने यहाँ। मैनें तो इसके दोनों शिशुओं का भला किया है। तुझे क्या ज्ञात है मैया ? इसके दही भाखन में चोटियों पड़ी थीं इसके दोनो शिशु उसे वैसा ही खा लेते।”
और फिर आँखो में आँसू भर बड़े ही भोलेपन से मैया से बोले- ” मैया मैं तो इसके दही माखन मे से चीटियाँ निकाल रहा था, उसे स्वच्छ करके इसके शिशुओ को खिला रहा था। अब तू ही बता मैया माखन खिलाने में कुछ माखन तो कपड़ों पर गिरेगा ही।”
नटखट कान्हा की चातुर्य भरी बातें सुन कर गोपी चकित सी विस्मित रह गई। मैया वात्सल्य के वशीभूत हो गई। मैयाने दौड़ कर लला को ह्रदय से लगा लिया-” मेरा यह नन्हा सा लला कितना भला सोचे है औरो का ?” मैया के ह्रदय से चिपके कान्हा कनखियों से गोपी की ओर देख देख कर मुस्करा रहे हैं।
यह कुछ ही साल पुरानी कथा है । एक सज्जन बरसाना के गहवर वन में घूम रहे थे । बहुत घबराए हुए अपनी मृत पत्नी को ‘किशोरी किशोरी’ बुलाते हुए जा रहे थे, इतने में राधा रानी अपनी सखीयाँ सहित आ गयी, वो यह नाम सुनकर आचम्भित हुई और ललिता सखी को पूछने लगी, यह कौन है जो मेरा नाम इतनी करुण क्रंदन युक्त ले रहा है।
सखी उनको समझाने लगी, हे राधा रानी, यह आपको नहीं बुला रहा है, ये अपनी पत्नी किशोरी की मृत्यु से बेचैन है। अकारण करुण श्री राधा प्यारी बोली, हे सखी! यह गहवर वन में ये मेरा ही नाम ले रहा है। उसको मेरे पास बुलाओ। राधा रानी ने उन पर कृपा दृष्टि डाल उनपर कृपा कर दी। यह दिव्य लीला उस सज्जन के साथ ही हुई। और इस लीला को देखते देखते वो मूर्छित हो गए । इसके बाद वो “किशोरी अली” नाम से राधा रानी के भक्त बन गए । राधा रानी की अपार कृपा और प्रेम पाकर वो दिव्य शरीर प्राप्त किये और दिव्य लीला में प्रवेश किए । वे गहवर वन में वास किए। किशोरी अली जी की समाधि श्रीकृष्ण कुण्ड [श्री राधा सरोवर]के पास लता- पत्तों के बीच स्थित है । यह भक्तों के लिए एक प्रेरणास्रोत है।
श्री किशोरी अलि जी का एक प्रसिद्ध पद जिन्हें ब्रज में सभी गाते हैं वह इस प्रकार है:
आधौ नाम तारिहै राधा | 'रा' के कहत रोग सब मिटिहैं, 'धा' के कहत मिटै सब बाधा || राधा राधा नाम की महिमा, गावत वेद पुराण अगाधा | अलि किशोरी रटौ निरंतर, वेगहि लग जाय भाव समाधा ||श्री अली किशोरी
श्री अली किशोरी
राधा नाम का अर्धांश अर्थात ‘रा’ का रूपध्यान युक्त उच्चारण करते समस्त मानस रोग मिट जाते हैं, ‘धा’ कहते ही जीव की समस्त बाधाएं मिट जाती हैं। वेदो और पुरानो में राधा नाम का ही महिमा मंडन है किन्तु वो भी ‘नेती नेती’ कहकर हार मान जाते है। रसिक संत अलि किशोरी जी कहते हैं राधा नाम का रूप ध्यान युक्त निरंतर रटन करने से जल्द ही भाव समाधि में प्रवेश मिल जाता है।
एक किरात (शिकारी), जब भी वहाँ से निकलता संत को प्रणाम ज़रूर करता था। एक दिन किरात संत से बोला की बाबा मैं तो मृग का शिकार करता हूँ, आप किसका शिकार करने जंगल में बैठे हैं.? संत बोले – श्री कृष्ण का, और फूट फूट कर रोने लगे। किरात बोला अरे, बाबा रोते क्यों हो ? मुझे बताओ वो दिखता कैसा है ? मैं पकड़ के लाऊंगा उसको। संत ने भगवान का वह मनोहारी स्वरुप वर्णन कर दिया….कि वो सांवला सलोना है, मोर पंख लगाता है, बांसुरी बजाता है। किरात बोला: बाबा जब तक आपका शिकार पकड़ नहीं लाता, पानी भी नही पियूँगा। फिर वो एक जगह जाल बिछा कर बैठ गया…
3 दिन बीत गए प्रतीक्षा करते करते, दयालू ठाकुर को दया आ गयी, वो भला दूर कहाँ है, बांसुरी बजाते आ गए और खुद ही जाल में फंस गए। किरात तो उनकी भुवन मोहिनी छवि के जाल में खुद फंस गया और एक टक शयाम सुंदर को निहारते हुए अश्रु बहाने लगा, जब कुछ चेतना हुयी तो बाबा का स्मरण आया और जोर जोर से चिल्लाने लगा शिकार मिल गया, शिकार मिल गया, शिकार मिल गया,और ठाकुरजी की ओर देख कर बोला, अच्छा बच्चु .. 3 दिन भूखा प्यासा रखा, अब मिले हो, और मुझ पर जादू कर रहे हो।
कृष्ण उसके भोले पन पर रीझे जा रहे थे एवं मंद मंद मुस्कान लिए उसे देखे जा रहे थे। किरात, कृष्ण को शिकार की भांति अपने कंधे पे डाल कर और संत के पास ले आया। बाबा, आपका शिकार लाया हुँ… बाबा ने जब ये दृश्य देखा तो क्या देखते हैं किरात के कंधे पे श्री कृष्ण हैं और जाल में से मुस्कुरा रहे हैं। संत के तो होश उड़ गए, किरात के चरणों में गिर पड़े, फिर ठाकुर जी से कातर वाणी में बोले – हे नाथ मैंने बचपन से अब तक इतने प्रयत्न किये, आप को अपना बनाने के लिए घर बार छोडा, इतना भजन किया आप नही मिले और इसे 3 दिन में ही मिल गए…!! भगवान बोले – इसका तुम्हारे प्रति निश्छल प्रेम व कहे हुए वचनों पर दृढ़ विश्वास से मैं रीझ गया और मुझ से इसके समीप आये बिना रहा नहीं गया भगवान तो भक्तों के,संतों के आधीन ही होतें हैं
जिस पर संतों की कृपा दृष्टि हो जाय उसे तत्काल अपनी सुखद शरण प्रदान करतें हैं। किरात तो जानता भी नहीं था की भगवान कौन हैं, पर संत को रोज़ प्रणाम करता था संत प्रणाम और दर्शन का फल ये है कि 3 दिन में ही ठाकुर मिल गए यह होता है संत की संगति का परिणाम!!,
एक दिन श्रीकृष्ण ने एक सखी के मुख पर सुन्दर पत्रावली का निर्माण किया। प्राचीन काल में मुख पर श्रृंगार किया जाता था, पत्रावली निर्मित की जाती थी। जब गोपी के मुख पर पत्रावली बन गयी, तो उसे बड़ा गर्व हुआ कि श्रीकृष्ण मेरे सौन्दर्य के प्रति इतने आकृष्ट हैं कि उन्होंने मेरे मुख पर इतना सुन्दर चित्र बनाया। उसने सोचा कि इसे राधा को दिखाऊँ। श्रीराधा के पास जाकर बोली, “देखो, मेरे मुख पर कितनी सुन्दर पत्रावली बनी है।”
राधाजी ने देख कर कहा, हाँ, बड़ी सुन्दर हुई है।” और यह कह कर वे चुप हो गयीं। सखी ने सोचा था कि राधाजी उससे अवश्य पूछेंगी कि यह किसने बनायी। पर उन्हें कुछ न पूछते देख स्वयं बोल पड़ी –” जानती हो, इसे किसने बनाया है ?”
“नहीं तो ?”
“अच्छा, मैं ही बता देते हूँ। यह कृष्ण ने बनायी है।”
गोपी को विश्वास था कि यह सुनकर राधिका के अन्तःकरण में थोड़ी ईर्ष्या की भावना अवश्य जाग्रत होगी। पर राधा ने केवल यह कहा —
मा गर्वमुद्वह कपोलतले चकास्ति। कान्तस्वहस्तरचिता मम मंजरीभिः।।
— सखी, इस बात का गर्व मत करो कि प्रियतम ने तुम्हारे मुख पर पत्रावली का निर्माण किया।”
—” क्यों ना करूँ ?” कृष्ण ने और किसी के मुख पर तो बनायी नहीं। मुझे सर्वश्रेष्ठ माना तभी तो इसे बनाया।”
इस पर राधा बोलीं, “नहीं, ऐसी बात नहीं। ऐसा श्रृंगार उन्होंने किसी और के मुख पर करने का भी प्रयास किया था” —
अन्यापि कापि सखि भाजनमीदृशानाम्।
” किसके ?” “बस, इतना ही जान लो कि किसी के मुख पर करने की कोशिश की थी, पर वह हो नहीं पाया।”
वास्तव में श्री कृष्ण ने राधाजी के ही मुख पर श्रृंगार करने की चेष्टा की थी। जब वे रंग ले राधाजी के मुख पर पत्रावली बनाने चले, तो उनके दिव्य सौन्दर्य को देखकर इतने भावविह्वल हो गये कि उनके हाथ से तूलिका गिर पड़ी, रंग बिखर गया और अंततः पत्रावली नहीं बन पायी। अब वास्तव में भाग्यशाली कौन है ? — वह, जिसके मुख पर पत्रावली बनी अथवा वह, जिसके मुख पर नहीं बन पायी ? जहाँ नहीं बन पायी, वहाँ प्रेम इतना था कि मन, बुद्धि और प्राण सब प्रेम में एकाकार हो चुके थे। एकाकार कि उस दिव्य स्थिति में बाह्य क्रिया का लोप हो गया था। जहाँ पत्रावली बनी, वहाँ तो बुद्धि स्थित और जाग्रत थी।
यमुना पुलिन से कुछ ही दूरी पर एक विशाल,छायादार वृक्ष के नीचे श्री प्रिया प्रियतम परस्पर मुख सुधा नयनो से पीते हुए मौन बैठे है। इसी समय श्री प्रिया जु की दृष्टि श्री प्रियतम के वक्ष पर सजे कंठहार मे जडित एक बडी सी मणी मे प्रतिबिम्बित स्वयं के ही मुख कमल पर पडती है।श्री प्रिया जु अत्यंत चकित सी होकर इस प्रतिबिम्ब को निहार रही है।यू ही आश्चर्यमयी उत्सुकता मे श्री प्रियतम से कहती है—-प्रियतम!यह तुम्हारे हार मे तुमने किस बडभागिनी का चित्र जडवाया है?(श्री प्रिया जु को लग रहा की यह किसी स्त्री का चित्र श्री प्रियतम ने अपने हार मे जडित कराया है) प्रियतम!ऐसा प्रतीत होता है,यह तुम्हारी अत्यंत प्रिय है।इसी कारण से तुमने इसे अपनी मणी मे जडित कर अपने वक्ष पर धारण किया हुआ है। श्री प्रियतम कुछ मुस्कुराकर बोले—-हाँ प्रिये!तुम सत्य कहती हो।यह मुझे प्राणो से भी अधिक प्रिय है। श्री प्रिया बोली—-अहा!प्राणेश्वर यह सुंदरी निश्चित ही तुम्हे परम सुख प्रदान करती होगी।(अब तक श्री प्रिया जु के नयन भर आए) श्री प्रियतम बोले—-हाँ प्रिये!यह रमणी मुझे परम सुख प्रदान करती है।यह तो प्रतिपल मेरे सुख के लिए बाँवरी रहती है।इसने अपना प्रेम मेरे रोम रोम मे इस प्रकार भर दिया है की मेरे रेम कूपो मे इसकी ही छबी दिखती है,देखो….मेरे नयनो मे देखो तो प्रिये!(कहकर प्रियतम अपने पितांबर से प्यारी जु के भर आए नयन पौछते है)श्री प्रिया जु श्यामसुंदर की दोनो पुतलियो मे स्वयं को ही देख नयन झुका लेती है। प्रियतम पुनः प्रिया जु की चिबुक पकड इनका मुख किंचित उठाते हुए बोले—-इसका मुझमे इतना अधिक अनुराग है की स्वयं को तो यह विस्मृत ही कर चुकी है,कभी दर्पण मे स्वयं को देख यह पहचान नही पाती।और कभी कभी तो…..(प्रियतम के नयन छलक उठे) श्री प्रिया—और कभी कभी क्या? श्री प्रियतम—और कभी कभी तो मेरे प्रेम मे ऐसी बाँवरी हो जाती है की वृक्षो,मयूरो,दर्पण मे मुझे देख उन संग ही बतियाने लगती है। श्री प्रिया—-आह! और तुम इस रमणी को तजकर मेरे समीप आए हो।मै,जो तुम्हे कोई सुख न दे सकती। कुछ क्षण रूककर बोली—-प्रियतम श्यामसुंदर!मै नित्य ही तुमसे नई अभिलाषा करती हू न….किंतु अभी मेरे ह्रदय मे इस बडभागिनी के दर्शनो की अभिलाषा है।संभवतः इसकी रज अपने शीश पर धारण कर ही मै तुम्हारे सुख हेतू कुछ कर सकू।श्यामसुंदर!तुम मुझे इसके समीप ले चलो न। श्री प्रियतम—-प्रिये!तुम क्यू…मै इसको यही बुलाय लेता हू। श्री प्रिया— नही नही श्यामसुंदर!मै पहले ही तुम्हे कोई सुख न दे पाती हू,उस पर से तुम्हारी प्राणेश्वरी को यहा बुलाकर श्रमित करू….नही नही…मै ही चलूगी।तुम ले चलो न। श्री प्रियतम श्री प्रिया जु को लेकर यमुना पुलिन की ओर बढे। प्रिया जु को जल मे उनका प्रतिबिंब दिखाते हुए बोले….देखो प्रिया जु,यह है मेरी प्राण प्रिया। श्री यमुना जु स्थिर होकर किसी दर्पण की भाँति प्रिया जु का प्रतिबिंब दिखाती है। श्री प्रिया जु जल मे देख फिर श्री प्रियतम की ओर देखती है।प्रियतम मुस्कुराते हुए बोले—-हाँ,यही है मेरी प्राणप्रिया।कहते कहते प्रियतम के नयन बहने लगे—-आज मेरा परम सौभाग्य हुआ की मै किंचित अपनी प्राण प्रिया के गुणो का वर्णन कर सका…. यह सुनकर प्रिया जु पिताबंर की ओट मे मुख करके श्री प्रियतम के ह्रदय मे सिमट जाती है।
जब श्री जू श्यामसुंदर को अपने आभूषण पहने देखती हैं तो अत्यंत प्रसन्न हो उठती हैं । उनके मन में ये विलक्षण आनंद है कि प्रियतम इन आभूषणों से सुख पा रहे हैं । उनके मन में श्यामसुन्दर जैसा श्रृंगार करने की लालसा हो जाती है।
श्री जू सबसे पहले श्यामसुन्दर की वैजयंती माला धारण करती हैं । फिर उनकी बांसुरी उठा लेती हैँ । मोर पिच्छ शीश पर धारण करती और मन्द मन्द मुस्कुराती हैं । जब प्यारी जू पीताम्बर ओढ़ती हैं और बांसुरी को देखती हैं तो स्वयम् को कृष्ण मान बैठती हैं । त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी हो बांसुरी बजाना शुरू कर देती हैँ। आहा हर और उन्माद होने लगता ।
आज ये बांसुरी की ध्वनि तो अत्यधिक उन्माद दे रही सबको। कुछ क्षण बाद एकदम बाहर की और दौड़ पड़ती हैं । सखियाँ सहसा दौड़ते देख पीछे भागती हैं । श्री जू कहने लगती हैं राधा राधा राधा ….। राधा कहाँ है अब तक नहीं आई। मुझसे मिले बिना वो कितनी व्याकुल होंगी। हाय !राधा मैं तुमको ढूंढ नहीं पा रहा । तुम कहाँ हो राधा । प्रत्येक सखी से राधा का पता पूछने लगती ।
अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। सहसा श्यामसुन्दर उनके सामने आ जाते। उनसे भी राधा का पता पूछने लगती । श्यामसुन्दर अपनी प्यारी जू की इस भाव दशा से अत्यंत प्रसन्न होते हैँ । उनको स्पर्श कर कहते तुम ही तो हो मेरी राधा और उनका आलिंगन करते । श्यामसुन्दर के आलिंगन में भी वो राधा राधा ही पुकार रहीं । भीतर यही दशा की प्रियतम को राधा नाम अति प्रिय है । स्वयम् मोहन बन राधा राधा नाम सुना प्रियतम को आनन्दित कर रहीं ।
एक बार एक निकुंज में श्यामा-श्याम हमारे श्री युगल प्राण प्यारे प्रिया-प्रियतम एक दूसरे के सन्मुख बैठे हैँ। एक दूसरे को परस्पर तृषित नेत्रों से निहार रहे हैँ।
उनकी ये चितवन उनके हृदय की रस लालसा को और बढा देती है। जैसे एक दूसरे को अपने नेत्रों से ही पी जाने को आतुर हों । एक दूसरे को ऐसे निहार रहे कि उनकी पलकों ने हिलना बन्द कर दिया है। वाणी की मूकता पर नैनों द्वारा हृदय के भाव एक दूसरे का स्पर्श कर रहे हैँ। बस, एक दूसरे में समा जाने को आतुर हो चले। फिर युगल गाढ़ आलिंगन में बँध जाते हैँ। श्री स्वामीनीजी श्यामसुन्दर के आलिंगन में होते हुए भी उनमें सहसा तीव्र विरह उत्पन हो जाता है। नैन मूंदे हुए हैं, प्रियतम के आलिंगन में हैँ, परंतु अत्यधिक व्याकुल हैँ और पुनः पुनः श्यामसुन्दर को पुकारने लगती है।
श्यामसुन्दर कब आयेंगें ? मुझसे उनके बिना रहा नहीं जा रहा। हाय रे ! मेरी देह प्राण क्यों धारण की हुई है ? शायद मेरे प्रियतम को मुझसे कोई सुख नहीं है । तभी वो मेरा त्याग कर गए हैँ।
हाय रे ! मैं अभागिन, कोई सुख नहीं दे पाई उन्हें । इस प्रकार प्रियतम के सानिध्य में होते हुए भी प्रलाप कर रही हैँ। उनकी विरह वेदना इतनी तीव्र हो जाती है और फिर सहसा जोर से चीखती है :- श्यामसुन्दर…. और वह मूर्छित हो जाती है। श्यामसुन्दर के आलिंगन में ही उनके विरह की मूर्छा हुइ। श्यामसुन्दर उन्हें देख व्याकुल हो उठते हैँ और श्री श्रीस्वामिनी जी की चेतना लौटाने को हर चेष्ठा करने लगते हैँ। इस विरहणी की हृदय वेदना तो प्रियतम के प्रेम सुधा के वर्षण से ही समाप्त होगी , उन्हीं से चेतना लौटेगी। फिर श्यामसुन्दर श्रीस्वामिनी जी का अधरामृत पान करने लगते हैँ। उनके रसमयी स्पर्श से श्रीस्वामिनी जी के अंगो में चेतना का संचार होने लगा। प्रेम विरहणी की इस दशा प्रेम वृष्टि द्वारा ही बदल सकती है। श्रीस्वामिनी जी अपने नैन खोलती हैँ और कान्हा की ओर देखने लगती हैँ। अपने आपको उनके संग पाकर एक बार तो उनसे लिपट जाती हैँ और फिर उनसे रूठने का अभिनय करने लगती हैँ। श्यामसुन्दर कितना विलम्ब किया आपने ? कितनी प्रतीक्षा करवाई ? क्या आपका हृदय इतना वियोग सहन कर सकता है ? मैं आपसे रूठ गयी हूँ अब। मुझे आपके संग कोई बात ही नहीं करनी । आप अभी के अभी लौट जाइये। श्रीस्वामिनी जी को मानवती देख श्यामसुन्दर बहुत अधीर हो जाते हैँ , श्यामा ! मैने कब विलम्ब किया। प्रिये : हम तो सदा ही संग हैँ , तुम्हारे हृदय से पूछो – क्या एक क्षण भी मेरा वियोग हुआ है ? श्रीस्वामिनी जी का मान धारण करना प्रियतम जू में रस लालसा को और बढा देता है।
ना बोलूँ रे, पिया तोसे ना बोलूँ रे…….. काहे ऐसो नेहा लगाया, सुधि बुधि खोई बाँवरी बनाया, व्याकुल हुई इत उत डोलूँ रे
ना बोलूँ रे, पिया तोसे ना बोलूँ रे……. बड़ो निष्ठुर कारो कन्हाई, काहे मैं तोसे प्रीत लगाई, कैसे पट हिय की खोलूँ रे
ना बोलूँ रे, पिया तोसे, ना बोलूँ रे……. सावन आया छाई बदरिया, तेरे बिन बीत चली उमरिया, कैसे अकेली झूले झूलूँ रे, ना बोलूँ रे पिया तोसे ना बोलूँ रे……
श्रीस्वामिनी जी प्रेम में ऐसी बाँवरी हो गयी हैँ कि उनको ये भी स्मृति न रही कि प्रियतम तो कबसे उनके संग ही हैँ। श्यामसुन्दर एक बार तो बैठे बैठे अश्रु वर्षण करने लगते ।
कान्हा जी श्रीस्वामिनी जी के चरणों को छूकर कहते हैँ : अच्छा श्यामा ! तुम्हारे चरणों की सौगन्ध! अब विलम्ब न करूँगा , सदा तुम्हारे संग रहूंगा। श्रीस्वामिनी जी का कोमल हृदय प्रियतम के एक भी अश्रु को सहन नहीं कर सकता और पुनः युगल गाढ आलिंगन में बध जाते है। श्रीस्वामिनी जी का मान भी छुट जाता है ।
एक दिन लीला मै लाडली जू शयन कर रही है अभी अभी महारानी करवट लै धीरे धीरे श्यामसुंदर के विचारों मै मग्न अपनी आखै बन्द किये मन्द मन्द मुसकुरा रही है..आज ललिता जू के मन मै श्यामसुंदर की प्रैरणा से चरण सेवा विचार आया, दासीगण ओर मन्जरीयो को विश्राम दै ललिता जू स्वयं किशोरी जू के चरण दबा रही है।
लीला कौतुक मै श्याम सुंदर वहाँ पधारै..श्यामसुंदर को वहाँ देख ललिता जू एक दम से परैशान हो श्यामसुंदर की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती हैं। श्यामसुंदर हाथ जोड विनय की मुद्रा मै इशारे से ललिता जू को मौन रहने की प्रार्थना करते है तो ललिता जू इशारे मै ही पूछती है..
क्या चाहते हो..?
श्यामसुंदर ने इशारे मे ही उत्तर दिया.. थोडी देर चरण सेवा।
ललिता जू कोतुक मै थोडी आखे तरेर के इशारे मै कहती है.. नहीं मिलेगी….
श्यामसुंदर बिलकुल गिडगिडाने वाली स्थिति मै आ जाते है…
लीला मै ज्यादा सताती नहीं ललिता जू और इशारे से श्यामसुंदर को बुलाती है और इस तरह चरण सेवा सौपती है कि प्रिया जू को पता ना चलै कि कब ललिता जू हटी ओर श्यामसुंदर आये…..पर प्रिया जू तो प्राण वल्लभ प्रियतम के स्पर्श को हाथ लगते ही पहचान जाती है…..!
अब लीला शुरू होती है…प्रैम की, आनन्द की, प्रैम मै प्रैमी के सुख के लिये अपने पर कितने भी अपराध आये उसे भी प्रैमी के सुख के लिये स्वीकार करने की….
अहो श्यामसुंदर मेरे चरण दबा रहै है, क्या करूँ. .चरण दबाने से जो सुख श्यामसुंदर को मिल रहा है उसे मै कैसे मना कर सकती हूँ पर श्यामसुंदर मेरे चरण दबायै ये मेरे लिये बिलकुल असहनीय है…किशोरी जू इस समय बहुत असमंजस मै…प्रिया जू के नेत्रो से अविरल धारा बह निकलती है…
श्यामसुंदर को सुख मिल रहा है चरण सेवा से तो रोक भी नहीं सकती ओर श्यामसुंदर चरण दबा रहै है ये मन मै पीडा भी है उनकी सेवा मुझे करनी चाहिये है , देव वो मेरी सेवा कर रहै है।इसकी पीडा भी मन मै है….ये है प्रैम ओर प्रैम मै केवल प्रैमास्पद के सुख के लिये हर पीडा हर अपराध सहने का भाव…किशोरी भाव भी यहीं से शुरू होता है….प्रियतम के सुख के लिये भलै कोटि जन्म भंयकर नरक मै क्यौ ना बिताने पडे…हम तौ केवल एक प्राण वल्लभ का सुख चाहते है….!
नन्हे कान्हा ने ब्याह करने की हठ पकड़ ली है। अब उन्हें संसार की अन्य कोई वस्तु नहीं चाहिये, उनकी तो बस अब बहुरिया(दुल्हन) की ही माँग है। “मैया मोहि बहुरिया ला दे, तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं ब्याहन जैहौं”
मैया यशोदा के मुख पर लावण्यमयी मुस्कराहट के साथ साथ झुंझलाहट का भाव भी है। नंदराय जी, रोहिणी जी, बलराम जी सब हँस हँस कर यशोदा जी से कह रहे हैं– “नंद रानी, तुम्हीं ने तो प्रस्ताव रखा है इसके समक्ष, अब लाओ इसके लिये इक नन्ही सी बहुरिया”। यशोदा जी अवाक ! किंकर्तव्यविमूढ़-सी बैठी हैं अपने प्राण-धन लाड़ले की बाल-हठ सुन कर।
कुछ क्षण पूर्व मैया को अपना लाडला लला सम्भालना दूभर हो रहा था, एक दूसरी हठ के कारण। जब से नन्हे कान्हा ने आकाश मंडल में चंद्रमा को उदित होते देखा, चंद्र-खिलौना लेने की हठ पकड़ ली। जमीन पर लोट लोट कर-
“चंद्र खिलौना लैहौं, मैं तो चंद्र खिलौना लैहौं”
सारा घर आसमान पर उठा रखा था। किसी के भी बहलाने से न मानें, हठ अधिक अधिक और अधिक बढ़ती ही जा रही थी-
“चंद्र खिलौना नहीं दोगी तो सुरभि गैया का पय पान न करिहौं, तेरी गोद न ऐहौं, बेनी सिर न गुथैहौं, तेरौ और नंदबाबा का सुत न कहेहौं”
ऐसी-ऐसी प्रतिज्ञाऐं मैया यशोदा तो चकरा ही गईं, कैसे मनाऊँ अपने लाडले को ? सैकड़ों लालच दिये, किन्तु बाल हठ न छुटी। जब किसी भी प्रकार मैया का लाडला प्राण-धन न माना, तब अंततः मैया यशोदा ने एक उपाय किया। मैया ने लला के कान में हँस कर धीरे से फुसफुसाते हुये कहा- “मेरे लाडले, यदि तुम चंद्र खिलौना लेने की अपनी हठ छोड़ दोगे तो मैं तुम्हारा ब्याह करा दूँगी, यह बात अभी मैंने बस तुम्हें ही बताई है और किसी को नहीं, क्योंकि मैं केवल तुम्हारा ही ब्याह कराऊँगी बलराम का नहीं।”
मैया की बात सुन कर,अब नन्हे कान्हा को चंद्र खिलौने का स्मरण ही न रहा, अब तो उन्हें बस ब्याह करने की धुन लग गई है– “तेरी सौगंध मैया, अभी इसी समय ब्याहने चल दूँगा, चल मैया चल, मैं तो अभी बहुरिया लाऊँगौ” मैया हतप्रभ एक हठ छूटी तो दूसरी पकड़ ली। क्या करे मैया, कहाँ से लाकर दे हठीले को इसी समय बहुरिया।
अतुल अप्रतिम सौंदर्ययुक्त दुर्लभ अविस्मरणीय दृश्य है, नन्हे कान्हा पूर्णत बाल हठ पकड़े हुये हैं- “चल मैया ब्याहने चल” घर के सब छोटे बड़े स्नेही जन हँस-हँस कर दोहरे हुये जा रहे हैं, और मैया यशोदा की तो मति ही चकरा रही है कि कैसे मनाऊँ अपने इस लाडले प्राण धन को ?
एक दिन प्रियतम कृष्ण श्री ललिता जी से विनम्र हो से कहा- मेरी एक विनती है मैं आज प्रिया जी के चरणों में महावर लगाने की सेवा करना चाहता हूंl मुझे श्री चरणो मैं महावर लगाने का अवसर दिया जाए।
प्रियतम की बात सुनकर ललिता जी बोली – क्या आप महावर लगा पाऐंगे? तो प्रियतम ने कहा – मुझे अवसर तो देकर देखो, मैं रंगदेवी से भी सुंदर उत्तम रीति से महावर लगा दूंगा ।
श्री ललिता जी ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया रंग देवी से कहा – कि आज श्री चरणो मैं महावर लगाने की सेवा प्रियतम करेंगे। प्रिया जी के स्नान के बाद सुदेवी जी ने कलात्मक ढंग से प्रिया जी की वेणी गूँथ दी। विशाखा जी ने प्रियाजी के कपोलों पर सुंदर पत्रावली की रचना कर दी। अब प्रिया जी के चरणों में महावर लगाना था। रंगदेवी जी को ललिता जी ने कहा – आज महावर की सेवा प्रियतम करेगे। प्रियतम पास में ही महावर का पात्र लेकर खड़े थे और विनती करने लगे आज महावर की सेवा में करू ऐसी अभिलाषा हैl
प्रिया जू ने कहा – लगा पाएंगे? उस दिन वेणी तो गूँथ नहीं पाये आज महावर लगा पाएंगे? प्रियतम ने अनुरोध किया – अवसर तो दे के देखें। प्रिया जू ने नयनों के संकेत से स्वीकृति दे दी और मन ही मन सोचने लगीं की प्रेम भाव में लगा नहीं पाएंगे, स्वीकृति मिलते ही प्रियतम ने प्रिया जी चरण जैसे ही हाथ में लिए, श्री चरणो की अनुपम सुंदरता कोमलता देखकर श्याम सुंदर के हृदय में भावनाओं की लहर आने लगीं।
प्रियतम सोचने लगे, कितने सुकोमल हैं श्रीचरण, प्यारी जी कैसे भूमि पर चलती होंगी? कंकड़ की बात तो दूर, भय इस बात का है ककि धूल के मृदुल कण भी संभवतः श्री चरणों में चुभ जाते होंगे। तब श्याम सुंदर ने वृंदावन की धूलि कण से प्रार्थना की कि जब प्रिया जी बिहार को निकलें तो अति सुकोमल मखमली धूलि बिछा दिया करो और कठिन कठोर कण को छुपा लिया करो। प्रियतम भाव बिभोर सोचने लगे कि श्री चरण कितने सुंदर, सुधर, अरुणाभ, कितने गौर, कितने सुकोमल हैं, मुझे श्री चरणों को स्पर्श का अवसर मिला।
प्रियतम ने बहुत चाहा पर महावर नहीं लगा पाये, चाहकर भी असफल रहे। ऐसी असफलता पर विश्व की सारी सफलता न्योछावर, अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक शिरोमणि जिनके बस में सब कुछ है। हर कार्य करने में अति निपुण हैं उनकी ऐसी असफलताओं पर बलिहार जाऊं.
एक बार भगवान के मन में आया कि आज गोपियों को अपना ऐश्वर्य दिखाना चाहिये ये सोचकर जब भगवान निकुंज में बैठे थे.
और गोपियाँ उनसे मिलने आ रही थी तब भगवान कृष्ण विष्णु के रूप चार भुजाएँ प्रकट करके बैठ गए,जिनके चारो हांथो में शंख, चक्र, गदा, पद्म, था
गोपियाँ भगवान को ढूँढती हुई एक निकुंज से दूसरे निकुंज में जा रही थी तभी उस निकुंज में आयी जहाँ भगवान बैठे हुए थे,दूर से गोपियों ने भगवान को देखा और बोली हम कब से ढूँढ रही है.
और कृष्ण यहाँ बैठे हुए है,जब धीरे धीरे पास आई तो और ध्यान से देखा तो कहने लगी अरे ! ये हमारे कृष्ण नहीं है इनकी सूरत तो कृष्ण की ही तरह है परन्तु इनकी तो चार भुजाएँ है ये तो वैकुंठ वासी विष्णु है.
सभी गोपियों ने दूर से ही प्रणाम किया और आगे बढ़ गई,और बोली चलो सखियों कृष्ण तो इस कुंज में भी नहीं है कही दूसरी जगह देखते है .
ये प्रेम है जहाँ साक्षात् भगवान विष्णु भी बैठे है तो ये जानकर के ये तो विष्णु है कृष्ण नहीं गोपियाँ पास भी नहीं गई,
भगवान कृष्ण ने सोचा गोपियों ने तो कुछ कहा ही नहीं,अब राधा रानी जी के पास जाना चाहिये,ये सोचकर भगवान कृष्णा वैसे ही विष्णु के रूप में उस निकुंज में जाने लगे जहाँ राधा रानी बैठी हुई थी,
दूर से ही भगवान ने देखा राधा रानी जी अकेले बैठी हुई है,तो सोचने लगे राधा को अपना ये ऐश्वर्य देखाता हूँ,और धीरे धीरे उस ओर जाने लगे,परन्तु ये क्या जैसे जैसे कृष्ण राधा रानी जी के पास जा रहे है
वैसे वैसे उनकी एक के करके चारो भुजाये गायब होने लगी और विष्णु के स्वरुप से कृष्ण रूप में आ गए,जबकी भगवान ने ऐशवर्य को जाने के लिए कहा ही नहीं वह तो स्वतः ही चला गया,
और जब राधा रानी जी के पास पहुँचे तो पूरी तरह कृष्ण रूप में आ गए.
अर्थात वृंदावन में यदि कृष्ण चाहे भी तो अपना ऐश्वर्य नहीं दिखा सकते,
क्योकि उनके ऐश्वर्य रूप को वहाँ कोई नहीं पूँछता,यहाँ तक की राधा रानी के सामने तो ठहरता ही नहीं,राधा रानी जी के सामने तो ऐश्वर्य बिना कृष्ण की अनुमति के ही चला जाता है.
किशोरी जू अपनी सभी सखियों के यहाँ बारी-बारी खेलने जाती थी। तुंगविधा ने अपने गाँव मैं गुड्डे-गुड़िया का विवाह कराया। राधा रानी और ललिता जू अपने अपने गुड्डा और गुड़िया को लेकर डवारा गाँव, जो कि तुंगविधा जी का गाँव है, वहाँ पहुँची। कीरत मैया भी लाडली जू के संग गयी। : किशोरी जू ने बारात के लिये मिट्टी के पकवान बनाये और फिर सब विवाह की रस्मे कराने लगी। इतने मैं वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे, इनके संग इनके दस हजार शिष्यों की मण्डली भी साथ चलती थी। छोटी-छोटी ब्रजगोपीयो को खेलता देख बाबा बोले: लाली, हमें बरसाने को मार्ग बताओगी। : ललिता जू बोली बाबा जी बरसाने जायके काह करेगो, दुर्वाषा जी बोले हमें बृषभानू जी के यहां जानो है। हमारो पूरो शिष्य परिकर हमारे संग है, भूख लगी है बहुत जोर की.. ललिता जू घबरा गयी, सीधी कीरत मैया के पास पहुँची! मैया, ओ मैया.. एक बाबा जी आयो है, अपने दस हजार शिष्यन के संग.. और बरसाने को मार्ग पूछ रह्यो है, बाबा सौ मिलनो है.. सबकू भोजन करनो है। कीरत मैया समझ गयी की ये जरूर दुर्वासा ऋषि है, आज तो यह निश्चित श्राप दे देंगे, क्योंकि मैं यहाँ हूँ और बाबा भी बरसाने ते बाहर हैं..!! : मैया बोली मोये दिखाय के ला कौन सो बाबा जी है। मैया नोवारी चोवारी पर पहुँची, जहाँ किशोरी जू सब सखियों के संग मिलके खेल रही थी। मैया ने देखा कि लाडली जू दुर्वासा ऋषि से बात कर रही हैं।
बाबा तुम्हे हमारे बाबा सौ मिलनो है का..!! बेटी तू बृषभानू जी की पुत्री है क्या.. हाँ बाबा, मैं बृषभानू जू की बेटी राधा हूँ। : दुर्वासा किशोरी जू के दर्शन कर जड़ हो गये लाडली जू ने हिलाया बाबा सो गयो का हमारे बाबा सौ का काम है आपकू.. : दुर्वाषा जी बोले बेटी मोये और मेरे शिष्यों को भूख लगी है, राजा बृषभानू ही हमें भोजन करा सकते हैं। अच्छो इतनी सी बात है, बाबा तू नहाय के आ प्रसाद तैयार मिलेगो, बाबा नहाने चले गये कीरत मैया ओट से निकली, अरी.. राधा तेने जे का व्यथा बोय दयी। लाली ई तो बडो क्रोधी बाबा जी है, नेक-नेक बात पे क्रोधित हे जाय और श्राप दे दे, अब तू इतने लोगन कू भोजन कैसे तैयार करेगी..!! : किशोरी जू सब सखियों से बोली चलो री सब माटी इकट्टी करो ओर माटी गुलाय के मोये दो, सब सखियाँ मिट्टी गलाने लगी। किशोरी जू ने मिट्टी की पूडी, मिट्टी की सब्जी, मिट्टी की मिठाई तैयार कर दी। दुर्वासा आये मिट्टी की वस्तु देख बड़े ही क्रोधित हुऐ। : अरी छोरी, तू हमसे मजाक कर रही है, ये क्या मिट्टी की सामग्री बनाई है.. प्रिया जू बोली बाबा जी कायकू हल्ला कर रह्यो है, काह खावेगो ईमरती.. ले मिट्टी की इमरती रख दी सामने दुर्वासा ने जैसे ही मुँह मे मिट्टी की इमरती डाली, दुनिया के स्वाद भूल गये और काह खावेगो रसगुल्ला ले आह हा उस मिट्टी के रसगुल्ला के स्वाद के आगे सब रस फीके बाबा और सभी शिष्यों ने ऐसा भोजन जीवन मैं पहली बार किया और आशीर्वाद दिया, किशोरी जू को कि जो बृषभानू नन्दनी के हाथ की रसोई पायेगा, वो त्रिलोक विजयी हो जायेगा..!! : यशोदा मैया को जब यह बात पता चली तो यशोदा मैया ने ठाकुर जी के लिये किशोरी जू के हाथो से रसोई बनवाई तो महाराज ये ठाकुर तो बल भी हमारी किशोरी जू की कृपा का ही लिये फिरते हैं और नाम अपना करते हैं..!!
एक बार राधा रानी जी अपनी सखियों के साथ माखन लेकर मानसी गंगा के तट पर आईं। मानसी गंगा में बहुत पानी है। सोचने लगीं कैसे पार करेंगी मानसी गंगा को।
तभी कृष्ण नाविक का भेष बदलकर आ गए और बोले नाव से पार करा देता हूँ। गोपियो ने कहा, बहुत भला नाविक है सभी सखियाँ और राधा रानी नाव में बैठ गये। कृष्ण मन ही मन सोचने लगे आज आनन्द आएगा।
कृष्ण ने नाव चलना आरम्भ किया। थोड़ी देर बाद कृष्ण बोले मुझ भूख लग रही कुछ खिलाओ नहीं तो मैं नाव नहीं चला पाऊँगा, सब डूब जाओगी।
सखियों ने अपना सब माखन कृष्ण को दे दिया, कृष्ण सब खा गये। फिर नाव चलना शुरू किया, थोड़ी देर बाद बोले मैं थक गया हूँ, मेरे पैर दबाओ तभी नाव चला पाऊँगा।
सखियाँ पैर दबाने लगीं बहुत सेवा की, जब नाव बीच में पहुँची, तो कृष्ण ने नाव जोर से हिला दी। सब डर गयीं, कृष्ण बोले मेरी नाव पुरानी है बजन ज्यादा है, डूब जायेगी, अपनी मटकी मानसी गंगा में फेंक दो जल्दी-जल्दी, गोपियों ने अपनी मटकियाँ मानसी गंगा में डाल दीं।
कृष्ण फिर बोले अभी भी नाव हिल रही है, डूब जायेगी, अपने गहने भी फेंक दो,नहीं तो डूब जाओगी। सबने अपने बहुमूल्य गहने भी मानसी गंगा में फेंक दिए। फिर ठाकुर जी ने नाव चलायी।
ललिता जी को उनके वस्त्रों में मुरली दिख गयी, ललिता जी बोलीं अच्छा श्यामसुन्दर है ये नाविक ! अभी बताते हैं इस नाविक को। जैसे ही किनारा आया सभी सखियाँ उतार गयीं।
सब ने कहा, “ऐ नाविक ! अपनी उतराई तो लेते जाओ।” और सबने पकड़ कर श्याम सुंदर को मानसी गंगा में फेक दिया और बोलीं, “बहुत हमारे गहने, माखन मटकी, मानसी गंगा में डलवा कर खुश हो रहे थे। अब ये लो उसका प्रसाद।”
वो गोपियाँ, जो गौओं का दूध दुहते समय,धान कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को सुलाते समय, रोते हुए बालकों को लोरी गाते समय, घर के आँगन में झाड़ू देते समय……ये प्रेमपूर्ण चित्त से, नयनों में अश्रु भरकर गदगद् कण्ठ से श्रीकृष्ण का ही गान करती रहती हैं…….तात विदुर जी ! इनसे बड़ा भाग्यशाली और कौन होगा……इसलिये इस विश्व ब्रह्माण्ड में धन्य अगर कोई हैं तो यही गोपांगनाएं ही हैं ।
तात विदुर जी ! गोकुल की गोपियाँ अब निरन्तर श्रीकृष्ण चिन्तन में ही लगी रहती हैं……..सोते, जागते, खाते, खिलाते हर समय इनके चित्त में वही माखन चोर ही गढ़ गए हैं……….
” री ! चित में माखन चोर गढ़ें”
“मेरे घर चोरी की”……ये कहते हुए गोपी कितनी आनन्दित होती ।
“मुझ से झुठ बोला उसनें”……ये कहते हुए गदगद् हो जाती ।
“मेरी बैयाँ मरोरी”…….उफ़ ये कहते हुए तो आत्म मुग्ध ही हो जाती ।
“मेरी मटकी फोरी”……आहा ! आत्मश्लाघा से भर जाती ।
कन्हैया , कन्हैया बस कन्हैया……..तात इसी यमुना के किनारे सुबह शाम मिलती थीं गोपियाँ……..और चर्चा होती……..पर चर्चा का विषय एक ही होता ……नन्दनन्दन ।
तात ! अब क्या ये गोपियाँ श्रीकृष्ण से अलग हैं ? इनका अन्तःकरण विशुद्ध रूप से श्रीकृष्णमय हो चुका है ।
प्रेम के अनेक रूप हैं ……….सख्य भी प्रेम है ……..वात्सल्य भी प्रेम है …..श्रृंगार तो प्रेम है ही । ये सब प्रेम की धाराएं हैं ………..अद्भुत हैं ………एक मापदण्ड नही होता इन धाराओं का ……….ये किस तरह, किस ओर बहेंगीं आप कह नही सकते तात ।
ज्ञान का एक मापदण्ड है ………योग का एक मापदण्ड है ……पर प्रेम का एक मापदण्ड ? हो ही नही सकता ।
रोना प्रेम, हँसना प्रेम , मनुहार करना प्रेम , गाली देना भी प्रेम , स्वीकार करना प्रेम, अस्वीकार करना प्रेम …….सोना प्रेम, जागना प्रेम ।
उफ़ ! ज्ञान पर बोला जा सकता है …….योग पर और अच्छा बोला जा सकता है …..पर प्रेम पर ?
कैसे बोलें तात ! और फिर इन “बृज गूजरी” का प्रेम ये तो सर्वोत्तम है…….इस प्रेम के लिये तो ब्रह्मा तक तरसते हैं ……..भगवान शंकर इन्हीं का भेष बनाकर बृज में गोपी बन जाते हैं ।
एक दिन गोपी ने कहा की आज तो कन्हैया को रंगे हाँथो पकड़ कर यशोदा के पास लेकर ही जावूँगी । कन्हैया जेसे ही माखन चुरा कर खाने लगे गोपी ने झट हाँथ पकड़ लिया। अब कन्हैया को यसोदा के पास ले जा रही है, और पीछे पीछे ग्वाल बाल चल रहे है, उस ग्वाल बालो के साथ गोपी का पति भी था। गोपी कुछ दुर गयी और देखा की कुछ बुजुर्ग खड़े है, तो गोपी ने घुंघट निकाल दिया। अब कृष्ण ने सोचा की गोपि से हाँथ छुड़ाने का ये मोका अच्छा है वर्ना आज तो मैया से मार पड़ेगी
कृष्ण गोपी को बोले- “प्रभा काकी मेरे इस हाँथ मे दर्द होने लगा है दूसरा हाँथ पकड़ लो। गोपी को दया आ गयी की छोटो सो लाला है हाथ दर्द कर रहा होगा , “गोपी बोली ठीक है दूसरा हाँथ पकड़ा लो । कृष्ण ने पीछे चल रहे गोपी के पति को हाँथ से गोल गोल इशारा किया की आजा लड्डू दूंगा। गोपी ने जेसे ही कृष्ण का दूसरा हाँथ पकड़ा तो कृष्ण ने उनके हाँथ में पति का हाँथ पकड़ा दिया ,और खुद भाग निकले। अब गोपी नन्द बाबा के घर के बाहर से ही जोर जोर से चिलाने लगी की:-
‘अरी ओओओओ…………
यसोदा मैया देख आज तेरे लाला को रंगे हाँथो पकड़ कर लायी हु , रोज रोज कहती है मेरा छोरा बड़ा सीधा है आज तोरे लाला को माखन चोरी करते हुए मेने रंगे हाँथो पकड़ है.! और मैया समझ गयी की ये सब घुंघट का काम है, मैया बोली:- ‘अरि सखी जरा घुंघट हटा कर पीछे तो देख माजा लाला है या तुमचा घरवाला’! गोपी घुंघट हटा के पीछे देखती है तो पति का हाँथ गोपी के हाँथ में.! “गोपी बोली तूम यहाँ केसे आ गये? अब वो तो सब भूल गया ,और कहा की कन्हैया ने कहा की लड्डू दूंगा….गोपी बोली ‘कन्हैया ने कहा लड्डू दूंगा और तुम आ गये ,मेरे पीछे पीछे आने की क्या जरूरत थी ,कन्हैया कहा है ? पति बोला, ‘कन्हैया तो कब का भाग चूका.’ गोपी बोली ,’कन्हैया को भगा दिया और तुम आ गये घर चलो तुम्हे में लड्डू देती हु.’ अब गोपी का पति तो घबराने लगा .. उतने में कन्हैया आख मलते मलते अन्दर से आये, और बोले ‘कोंन है मैया ,कोंन गोपी चिला रही है ‘?..
ओहोहोहोहो प्रभा काकी आप.!
गोपी बोली ‘प्रभा काकी के इथर आ तू रुक अब. कन्हैया आगे आगे और गोपी पीछे पीछे, कन्हैया ठेंगा दिखाते हुए बोले ‘ले पकड़ पकड़ पकड़ पकड़.! कन्हैया बोले ‘गोपी अब की पकड़वे की कोसिस की सो पति का हाँथ पकड़ा दिओ, आगे से पकड़वे की कोसिस की तो ससुर का हाँथ पकड़वा दुगा… मेरा नाम भी कन्हेया है, ,कन्हेया’.
ऐसे है हमारे ठाकुर जी माखन चोर ,ये माखन चोरी नही ये तो मनकी चोरि है , श्री कृष्ण तो गोपियाँ के मन चुराते है…
वृन्दावन का एक भक्त ठाकुर जी को बहुत प्रेम करता था, भाव विभोर हो कर नित्य प्रतिदिन उनका श्रृंगार करता था
. आनंदमय हो कर कभी रोता तो कभी नाचता . एक दिन श्रृंगार करते हुए जैसे ही मुकट लगाने लगा, तभी मुकट ठाकुर गिरा देते . एक बार दो बार कितनी बार लगाया पर छलिया तो आज लीला करने में लगे थे . अब भक्त को गुस्सा आ गया, वो ठाकुर से कहने लगा तोह को तेरे बाबा की कसम मुकट लगाई ले . पर ठाकुर तो ठाकुर है, वो किसी की कसम माने ही नही . जब नही लगाया तो भक्त बोला तो को तेरी मइया की कसम। ठाकुर जी माने नही। अब भक्त का गुस्सा और बढ़ गया . उसने सबकी कसम दे दी। तोहे मेरी कसम.. तोरी गायिओ की कसम.. तोरे सखाँ की कसम.. तोरी गोपियों की कसम.. तोरे ग्वालों की कसम.. सबकी कसम दे दी, . पर ठाकुर तो टस से मस ना हुए . अब भक्त बहुत परेशान हो गया और दुखी भी। फिर खीज गया और गुस्से में बोला- . ऐ गोपियन के रसिया.. ऐ छलिया, गोपियन के दीवाने, तो को तोरी राधा की कसम है, अब तो मुकुट लगाले . बस फिर क्या था.. ठाकुर जी ने झट से मुकट धारण कर लिया। . अब भक्त भी चिढ़ गया। अपनी कसम दी, गोप-गोपियों की, माँ, बाबा, ग्वालन की दी। किसी की नही सुनी लेकिन राधा की दी तो मान गये . अगले दिन फिर जब भक्त श्रंगार करने लगा तो इस बार ठाकुर ने बाँसुरी गिरा दी . भक्त हल्के से मुस्कराया और बोला- इस बार तोह को अपनी नही मेरी राधा की कसम। तो भी ठाकुर ने झट से बांसुरी लगा ली . अब भक्त आनंद में आकर कर झर-झर रोने लगा . भक्त कहता है- मै समझ गया मेरे ठाकुर, तो को राधा भाव समान निश्चल निर्मल प्रेम ही पसंद है। समर्पण पसंद है
इसलिये राधा से प्रेम करते है
अपने भाव को राधा भाव समान निर्मल बना कर रखे अपने प्रेम को पूर्ण-समर्पण रखे सरलता में ही प्रभु है . हे मेरी राधे जू, सारी रौनक देख ली ज़माने की मगर, जो सुकून तेरे चरणों में है, वो कहीं नहीं
तुम जप लो राधे राधे भक्ति करो सच्चे मन से ये जीवन तो एक दिन जाना है लौट कर फिर नही आना है
एक दिन माता ने माखन चोरी करने पर श्यामसुन्दर को धमकाया, डांटा-फटकारा। बस, दोनों नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। कर-कमल से आँखें मलने लगे। ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे। गला रूँध गया। मुँह से बोला नहीं जाता था। बस, माता यशोदा का धैर्य टूट गया। अपने आँचल से अपने लाला कन्हैया का मुँह पोंछा और बड़े प्यार से गले लगाकर बोलीं- ‘लाला! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है।’
एक दिन की बात है- पूर्ण चन्द्र की चाँदनी से मणिमय आँगन धुल गया था। यशोदा मैया के साथ गोपियों की गोष्ठी जुड़ रही थी। वहीं खेलते-खेलते कृष्ण चन्द्र की दृष्टि चन्द्रमा पर पड़ी। उन्होंने पीछे से आकर यशोदा मैया का घूँघट उतार लिया। और अपने कोमल करों से उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे। ‘मैं लूँगा, मैं लूँगा’- तोतली बोली से इतना ही कहते। जब मैया की समझ में बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहार्द्र दृष्टि से पास बैठी ग्वालिनों की ओर देखा। अब वे विनय से, प्यार से फुसलाकर श्रीकृष्ण को अपने पास ले आयीं और बोलीं- ‘लालन! तुम क्या चाहते हो, दूध!’ श्रीकृष्ण ‘ना’। ‘क्या बढ़िया दही?’ ‘ना’। क्या खुरचन?’ ‘ना’। ‘मलाई?’ ‘ना’। ‘ताजा माखन?’ ‘ना’ ग्वालिनों ने कहा- ‘बेटा! रूठो मत, रोओ मत। जो माँगोगे सो देंगी।’ श्रीकृष्ण ने धीरे से कहा- ‘घर की वस्तु नहीं चाहिये’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमा की संकेत कर दिया। गोपियाँ बोलीं- ‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखन का लौंदा थोड़े ही है? हाय! हाय! हम यह कैसे देंगी? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाश के सरोवर में तैर रहा है।’ श्रीकृष्ण ने कहा- ‘मैं भी तो खेलने के लिये इस हँस को माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो। पार जाने के पूर्व ही मुझे ला दो।’
अब और भी मचल गये। धरती पर पाँव पीट-पीट कर और हाथों से गला पकड़-पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहले से भी अधिक रोने लगे। दूसरी गोपियों ने कहा- ‘बेटा! राम-राम। इन्होंने तुमको बहला दिया है। यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाश में ही रहने वाला चन्द्रमा है।’ श्रीकृष्ण हठ का बैठे- ‘मुझे तो यही दो; मेरे मन में इसके साथ खेलने की बड़ी लालसा है। अभी, अभी दो। ‘जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माता ने उन्हें गोद में उठा लिया और प्यार करके बोलीं- ‘मेरे प्राण! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा। है यह माखन ही, परन्तु तुमने देने योग्य नहीं है। देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है। इससे बढ़िया होने पर भी इसे कोई नहीं खाता है।’ श्रीकृष्ण ने कहा- ‘मैया! मैया! इसमें विष कैसे लग गया।’ बात बदल गयी। मैया ने लेकर मधुर-मधुर स्वर से कथा सुनाना प्रारम्भ किया। माँ-बेटे में प्रश्नोत्तर होने लगे।
यशोदा- ‘लाला! एक क्षीरसागर है।’ श्रीकृष्ण- मैया! यह कैसा है।’ यशोदा- ‘बेटा! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसी का एक समुद्र है।’ श्रीकृष्ण- ‘मैया! कितनी गायों ने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा। यशोदा- ‘कन्हैया! यह गाय का दूध नहीं है। श्रीकृष्ण- ‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बिना गाय के दूध कैसे ?’ यशोदा- ‘वत्स! जिसने गायों में दूध बनाया है, वह गाय के बिना भी दूध बना सकता है।’ श्रीकृष्ण- मैया! वह कौन है ?’ यशोदा- वह भगवान है; परन्तु अग (उसके पास कोई जा नहीं सकता। अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’ श्रीकृष्ण- ‘अच्छा ठीक है, आगे कहो।’ यशोदा- ‘एक बार देवता और दैत्यों में लड़ाई हुई। असुरों को मोहित करने के लिये भगवान ने क्षीरसागर को मथा। मंदराचल की रई बनी। वासुकि नाग की रस्सी। एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव।’ श्रीकृष्ण- ‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया ?’ यशोदा- ‘हाँ बेटा! उसी से कालकूट नाम का विष पैदा हुआ।’ श्रीकृष्ण- ‘मैया! विष तो साँपों में होता है, दूध में कैसे निकला ?’ यशोदा- ‘बेटा! जब शंकर भगवान ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरती पर गिर पड़ी, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये। सो बेटा! भगवान की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूध में से विष निकला।’ श्रीकृष्ण- ‘अच्छा मैया! यह तो ठीक है।’ यशोदा- ‘बेटा! (चन्द्रमा की ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसी से निकला है। इसलिये थोडा-सा विष इसमें भी लग गया। देखो, देखो, इसी को लोग कलंक कहते हैं। सो मेरे प्राण! तुम घर का ही मक्खन खाओ।’
कथा सुनते-सुनते श्यामसुंदर की आँखों में नींद आ गयी और मैया ने उन्हें पलंग पर सुला दिया। ———-:::×:::———-