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मन प्रिया प्रियतम में कैसे लगे?

प्र०-महाराजजी, मैं बड़ा अशान्त रहता हूँ क्योंकि मेरा चित बढ़ा चंचल है, ये कैसे एकाग्र होकर के श्रीप्रिया-प्रियतम में लगेगा ?

समाधान – हमारी श्रीजी का एक नाम है – ‘चंचलचित्त आकर्षिणी अर्थात् जो लाल जू के चंचल चित्त को आकर्षित करती हैं, फिर हम लोग तो साधारण से जीव हैं । जो लाल जू ‘मदनमोहन, विश्वमनमोहन, मुनिमनमोहन और स्वमनमोहन हैं’ – उनके मन को

मोहनता की राशि किसोरी ।

भी मोहने वाली हमारी प्यारी जू मोहिनी हैं

जे मोहन मोहत सबकी मन, बँधे बंक चितवन की डोरी ॥

श्रीवयालीस लीला

वेणुः करान् निपतितः स्खलितं शिखण्डं भ्रष्टं च पीतवसनं व्रजराजसूनोः यस्याः कटाक्षशरपातविमूर्च्छितस्य तां राधिकां परिचरामि कदा रसेन ॥

(श्रीराधासुधानिधि -३८)

श्रीप्यारीजू ने मन्द मुस्कान से, तिरछी चितवन से कटाक्ष कर दिया तो अखिललोकचूड़ामणि मदनमोहन का मुकुट खिसक गया, वंशी गिर गयी, पीताम्बर गिर गया और सरकार बेसुध हो गए । हम सब लोग उन स्वामिनीजू के शरणागत हैं तो हमारा मन कितनी चंचलता करेगा, उसे आकर्षित होना ही पड़ेगा । सोचो, समष्टि मन के अधिष्ठातृ स्वयं श्रीलालजू महाराज हैं,

उनके मन को आकर्षित करने वाली मनमोहिनी प्यारी जू हैं, यदि हम उनके गोरे चरणारविन्द का आश्रय ले लें तो मन की चंचलता सदा सदा के लिए खत्म हो जायेगी, मन पंगु हो जाएगा अरे, ह आपकी बात जाने दो, श्रीलालजू का मन पंगु हो जाता श्रीहितसजनीजू कह रही हैं.

देखी माई अबला कैं बल रासि । अति गज मत्त निरंकुश मोहन, निरखि बँधे लट पाशि ॥ अब हीं पंगु भई मन की गति, बिनु उद्दिम अनियास । तब की कहा कहौं जब पिय प्रति, चाहत भृकुटि विलास ॥

(श्रीहितचतुरासी ५३)

हमारी प्यारी जू सिंहासन पर विराजमान थीं, श्रीलालजू निकुँज में पधार रहे थे उसी समय एक लट निकलकर प्यारी जू के कपोल पर आ गयी अत्यंत मदमत्त गज के समान निरंकुश मनमोहन अर्थात् जो सर्वेश्वर हैं, अखिललोकचूड़ामणि हैं, वे ऐसे प्रभु इनके सुंदर मुख पर लटकी हुई घुँघराले बालों की एक लट के दर्शन मात्र से उसके फंदे में बँध गये ।

श्री प्रियाजू के दर्शनमात्र से आरम्भ में ही श्रीलालजू के मन की गति बिना किसी उद्यम के ही पंगु हो गई अर्थात् लाल जू प्यारी जू की उस रूप माधरी को देखकर के शिथिल हो गए

हे सखि ! इनकी तो अभी ये हालत हो गयी और हाय! तब क्या होगा, जब प्यारी जू मंद-मंद मुस्कुराते हुए, प्यार भरी दृष्टि से लाल की ओर देखेंगी ?

अतः ऐसी श्रीकिशोरीजू के श्रीचरणों का आश्रय लेने के बाद मन से कह दो कि जा आज तुझे मुक्त करता हूँ, भाग ले जितना भाग पाये अब प्यारी जू अपने कृपा पाश से बाँधकर के सदा-सदा के लिए इस मन को पंगु कर देंगी।

हे प्यारी जू ! मैं बलहीन हूँ या मुझ अबला की आप ही बल हो । बस इतना हृदय में दीनता पूर्वक आ जाय तो जो वस्तु बड़ी बड़ी साधनाओं से प्राप्त नहीं होती, वह इससे प्राप्त हो जायेगी. जय श्रीरूपलाल हित हाथ बिकानी, निधि पाई मनमानी ।

मेरे बल श्रीवृन्दावनरानी ।

चंचल मन को वश में करने का दूसरा उपाय

श्रीहितधुवदासजी बता रहे हैं

मन तो चंचल सबनि तें, कीजै कौन उपाइ

साधन कौं हरि भजन है, कै सतसंग सहाइ ॥

प्रधान साधना है श्रीप्रिया प्रियतम का स्मरण और सहायक है सत्संग । यदि संतों के सत्संग को मनन करते हुए सुनें तो उससे बहुत लाभ होगा। निरंतर नाम जपने का अभ्यास और सत्संग ये निश्चित आपके मन को एकाग्र कर देंगे और प्रियालाल के चरणारविन्द में लगा देंगे।

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वृंदावन रस निरंतर कैसे मिलता रहे ?

प्र० महाराज श्री अभी मैं करीब १० वर्ष से वृन्दावन वास कर रहा हैं लेकिन अब वह आनंद प्राप्त नहीं होता है जो प्रारम्भ में वृन्दावन को देखकर एक नवीन उत्साह और आनंद की अनुभूति होती थी, इसका क्या कारण है ?

समाधान : वह आनंद कम नहीं हुआ है, जैसे कोई नया व्यक्ति भांग खाए तो उस पर ज्यादा रंग चढ़ता है और जब दो-चार महीने बराबर खाता रहे तो फिर उतने डोज (खुराक) से काम नहीं चलता, भांग का डोज बढ़ाना पड़ता है तब रंग चढ़ता है, अब थोड़ी खुराक से काम नहीं चलेगा । ऐसे ही जब कोई संसार का त्रितापदग्ध थका हुआ जीव नया-नया वृन्दावन आता है तो परम रसमय वृन्दावन के संयोग से उसके मन को परम आनंद की अनुभूति होती है। अब जैसे-जैसे हम यहाँ रहने लगे तो अब हमारी यहाँ खुराक बढ़ गयी । अब जब हमारा वृन्दावन के प्रति चिन्दानंदमय भाव बढ़े तब हमें आनंद की अनुभूति होगी । ये न

समझा जाए कि हमारा भाव कम हो गया है, पर अब हमें उतने में तसल्ली होने वाली नहीं है; अब और खुराक बढ़ायी जाए ‘नाम-जप, वाणी-पाठ, सत्संग आदि’ ।

वृन्दावन धाम के वास से आपके हृदय में आनंद को हजम करने की ताकत बढ़ गयी अब थोड़े आनंद से काम नहीं चलेगा और आनंद चाहिए। जैसे नया साधक थोड़े में ही आनन्दित जाता है, पर जब वह भजन करता है तो उसके हृदय में जलन है क्योंकि अब उसका काम उतने आनंद में नहीं चलेगा, अब और आनंद की अनुभूति हो साधक की उत्तरोत्तर हजम करने की ताकत बढ़ती चली जाती है । जब साधक सत्संग के द्वारा ये बात नहीं समझता है तो उसको लगता है कि हमारा भजन घट रहा है, हमारा आनंद कम हो रहा है और वह विकल होकर अपने मार्ग से इधर उधर भटकने लगता है, इसलिए भटकने की जरूरत नहीं है ।

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सबके प्रति भगवद्भाव नही बने तो क्या करें?

प्रo – महाराज जी, आप कहते हैं सबमें भगवान् के दर्शन करो पर व्यवहार में कुछ ऐसे भी लोग मिलते हैं कि जिनके प्रति भगवद्भाव बन ही नहीं पाता है, अतः हम क्या करें ?

समाधान – अनुकूलता में तो सबको भगवद् बुद्धि करने में सहजता होती है लेकिन प्रतिकूलता में भगवद्-बुद्धि हो जाना इसी बात की साधना करनी है । अगर हम प्रतिकूलता में भगवद्भाव कर गए तो पास हो जायेंगे । जब कोई हमसे मधुर व्यवहार करता है तो उसमें भगवान् को देखना सहज है लेकिन जब आकर हमें कोई गाली दे, धक्का मारे तो वहाँ भगवद्भाव करना कठिन होता है, यहीं तो परीक्षा होती है उपासक की इसीलिये हमें प्रत्येक स्थिति में भगवद्भाव करना ही है

ये क्रूरा अपि पापिनो न च सतां सम्भाष्यदृश्याश्च ये ।

सर्वान् वस्तुतया निरीक्ष्य परमस्वाराध्यबुद्धिर्मम ॥

(श्रीराधासुधानिधि २६४)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ ( गीता ५/१८)

‘ज्ञानीजन विद्या और विनम्रता से सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय हाथी कुत्ता चाण्डाल आदि में समदर्शी होते हैं अर्थात सर्वत्र तत्त्व रूप से प्रभु को ही देखते हैं ।’

पर एक बात की सावधानी रखनी है कि उपासक को व्यवहार सबसे नहीं करना है । ‘समदर्शन’ करना है लेकिन समवर्तन नहीं करना है हम गाय कुत्ता चांडाल ब्राह्मण सभी में भगवद्भाव रखें लेकिन समवर्तन अर्थात् व्यवहार एक समान नहीं करें। यदि व्यवहार सबके साथ समान करोगे तो पतन हो जाएगा क्योंकि कोई सिद्ध पुरुष तो अभी हो नहीं । इसलिए भगवान् ने ‘समदर्शिनः’ कहा है ‘समवर्तिनः’ नहीं ।

सबके साथ समान व्यवहार हो भी नहीं सकता है। जैसे चार स्त्रियाँ हैं- ‘माँ-बहन – पत्नी और बेटी’, चारों में समान भगवद्भाव हम कर सकते हैं लेकिन चारों से व्यवहार समान नहीं कर सकते व्यवहार अलग-अलग यथोचित ढंग से ही करना पड़ेगा । इसी तरह शरीर यद्यपि हमारा ही है हमको शरीर के सभी अंग बराबर प्रिय हैं लेकिन जब अधो अंगों का स्पर्श हो जाता है तो हम हाथ धुलते हैं। तो व्यवहार एक जैसा नहीं हो सकता है इसलिए व्यवहार में विषमता होती है अभी कोई दुष्ट आकर के भगवान्, गुरु या भक्तों की निंदा करे तो भगवद्भाव तो हम उसमें भी रखेंगे लेकिन व्यवहार उसके साथ वैसा ही करेंगे । अतः व्यवहार में समदर्शिता नहीं होती है। व्यवहार में भेद होना आवश्यक है, शास्त्राज्ञानुसार ही व्यवहार हो लेकिन तात्त्विक दर्शन अभेद हो । कहीं भी शरीर में अगर चोट लगती है तो हम समान रूप से उसका इलाज कराते हैं, वहाँ भेद नहीं करते हैं। भगवान् स्वयं भी व्यवहार में भेद करते हैं.

समदरसी मोहि कह सब कोऊ सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ (गी. (२९)

‘मैं सब प्राणियों में समभाव से व्यापक हूँ, न ही मेरा कोई अप्रिय है और न ही प्रिय है, किन्तु जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें और मैं उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’

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राधा तत्व का वर्णन शास्त्रो मे क्यों नही है?

प्र० महाराज जी ! जब हम शास्त्रों को पढ़ते हैं तो उसमें भगवत्तत्व, जीव-तत्त्व, माया – तत्त्व, भक्ति-तत्त्व आदि का तो स्पष्ट वर्णन मिलता है, परन्तु जिस राधा-तत्त्व की आप व्याख्या करते हैं, उसका वर्णन स्पष्ट रूप से शास्त्रों में नहीं मिलता, ऐसा क्यों?

समाधान : सबका सार है प्रेम और घनीभूत प्रेम का मूर्तिमान् स्वरुप हैं – ‘श्रीलाड़िलीजू; ‘सान्द्रानन्दामृतरसघनप्रेममूर्तिः किशोरी ।’
जैसे राजा का सारा वैभव (राज-काज आदि ) शास्त्रों में वर्णित होता है, लेकिन महारानी का वैभव ये प्रकट में वर्णित नहीं होता है क्योंकि वह राजा के हृदय की गुप्त बात है राजा जिसे पर्सनल मान लेता है उसे ही महल का रहस्य बताता है ये और यहाँ की अधीश्वरी श्रीराधा हैं, ‘जाके अधीन सदा ही साँवरो या ब्रज को सिरताज’, श्रीहरिवंशमहाप्रभुजी कह रहे हैं – वृन्दावन निजमहल है
जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यो ।
ताको तैं अधरसुधारस चाख्यो ॥
श्रीकिशोरीजू श्रीलाल जू के हृदय का मूर्तिमान आह्लाद, मूर्तिमान प्रेम हैं तो हृदय की बात तो उसी को बताई जाती है जो पर्सनल होता है । इसीलिये आगम निगम अगोचर बात है किशोरी जू की । आगम-निगमादि ने जिसे नहीं देखा ‘नेति-नेति’ कहकर जिसे सम्बोधित किया वो परमतत्त्व वृन्दावन के रसिकाचार्यों ने अनुभव किया । श्रीहरिवंशमहाप्रभु जी लिखते हैं –

यद्वृन्दावनमात्रगोचरमहो यन्न श्रुतीकं शिरो
प्यारोढुं क्षमते न यच्छिवशुकादीनां तु यद्-ध्यानगम् ॥ (रा.सु.नि ७६)

‘जो केवल वृन्दावन में ही गोचर है, जिस तक श्रुति शिरोभाग (वेदान्त) भी पहुँचने में समर्थ नहीं है तथा जो शिव शुकादि के भी ध्यान में नहीं आता वो है ‘राधा-तत्त्व’ ।
‘ अलक्ष्यं राधाख्यं निखिलनिगमैरप्यतितरां
रसाम्भोधेः सारं किमपि सुकुमारं विजयते ॥ (रा.सु.नि. ५१)

‘जो समस्त आगम-निगम समुदाय से भी अलक्षित है, रससागर के सार उस किसी अनिर्वचनीय श्रीराधानामक सुकुमारतत्त्वकी जय हो।’

श्रीराधे श्रुतिभिर्बुधैर्भगवताप्यामृग्य सद्वैभवे (रा.सु.नि. २६९)

‘श्रुतियों, बुधजनों तथा भगवान् के द्वारा भी अन्वेषणीय है – श्रीकिशोरीजू का श्रेष्ठ वैभव ।’

अतः यह वृन्दावन का गूढ़ रहस्य है, ये किसी शास्त्र में लिखा नहीं मिलेगा, ये तो केवल सहचरी भावापत्र रसिकाचार्यों की वाणियों से ही उनके शरणागत होने पर जाना जा सकता है, तभी तो श्रीभगवतरसिकजी को कहना पड़ा
‘भगवत रसिक रसिक की बातें, रसिक बिना कोऊ समुझि सकै न ।

ज्यादा-से-ज्यादा पुराणों ने इतना ही वर्णन किया कि श्रीकृष्ण ‘शक्तिमान’ हैं और श्रीराधा एक ‘शक्ति’ हैं, बस इतना ही शास्त्र समझ पाए, इससे आगे ये नहीं समझ पाए कि वो शक्तिमान श्रीकिशोरीज के प्रति कैसे आसक्त चित्त हैं और पूर्ण रूप से उनके अधीन हैं। ये तो यहाँ के रसिक जन ही देख पाए

जै श्रीहित हरिवंश प्रताप रूप-गुन, वय बल श्याम उजागर
जाकी भ्रूविलास बस पशुरिव, दिन विथकित रस-सागर ॥ (श्रीहितचतुरासी ५२)

श्रीहिताचार्य कह रहे हैं कि जो श्यामसुन्दर प्रताप, रूप, गुण, वय और बल के लिए प्रसिद्ध हैं, वे रससिन्धु श्रीलालजू श्रीराधा के भृकुटि – विलास के वशीभूत होकर पशु की भाँति लाचार बने रहते हैं। इसी तरह से श्रीस्वामीहरिदासजी महाराज केलिमालजी में कहते हैं..

श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी चरन लपटाने दुहूँन री ॥ ४९॥
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रीझि रीझि पग परनि ॥ ५० ॥

ये जो श्यामा-श्याम की एकान्तिक नवनिभृत निकुँज की रसमयी क्रीड़ाएँ हैं, सहचरी भावापन्न महापुरुषजन एकान्त में जिनके चिन्तन में निमग्न रहते हैं – ये लीलाएँ वेदों के द्वारा भी अलक्षित हैं इसी कारण ‘राधा – तत्त्व’ का स्पष्ट वर्णन शास्त्रों में नहीं मिलता है ।

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क्या अयोग्य को गुरु की शरणागति प्राप्त होती है?

प्र०- महाराजश्री, मैं बिलकुल अयोग्य हूँ क्या आप मुझे भी शरणागति प्रदान करेंगे ?

समाधान शरणागति का प्रारम्भ ही यहाँ से होता है, जब तक कोई योग्यता, समझ या ज्ञान होता है तब तक पूर्ण शरणागति नहीं होती है । अर्जुन जब तक अपनी समझ का आश्रय लेते रहे तब तक गीत प्रारंभ नहीं हुई और जब अर्जुन ने कह दिया कि –

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता २/७)

‘कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त वाला मैं आपसे कल्याणकारी साधन के विषय में जानना चाहता हूँ, आप मुझे बताइये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ।’ तब भगवान् ने गीता सुनाना प्रारम्भ की। जब अपने में अयोग्यता नजर आती है, तभी ये भाव उदय होता है कि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हैं; यही सच्ची शरणागति है ।

सुने री मैंने निरबल के बलराम ।

अपबल तपबल और बाहुबल चौथो बल है दाम ।

सूर किशोर कृपा ते सब बल हारे को हरिनाम ॥

जब तक कोई भी बल है तब तक शरणागत होने का नाटक हो सकता है, वास्तविक रूप से शरणागति नहीं हो सकती । जब तक साधक में साधकपना है, कर्तृत्वाभिमान है, तब तक मूढ़ता उसका संग नहीं छोड़ती, ‘अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।” ‘मैं कुछ कर सकता हूँ’, ऐसे अहंकार से जो युक्त है, वह विमूढात्मा है; और जहाँ ये भाव आया कि मैं किसी योग्य नहीं हूँ, में हार गया हे प्रभो ! बस वहीं से शरणागति प्रारम्भ होती है और जहाँ वह शरणागत हुआ तो समस्त दैवी सम्पदा उसके हृदय में प्रकाशित हो जाती है ।

अगर कुछ समझ, ज्ञान या सामर्थ्य है तो पूर्ण समझ, ज्ञान या सामर्थ्य नहीं आने वाली जब कोई सामर्थ्य नहीं रह जाती तो प्रभु बहुत सामर्थ्य दे देते हैं। जब तक द्रौपदी में सामर्थ्य रही तब तक प्रभु नहीं आये और जब कोई सामर्थ्य नहीं रहीं दोनों हाथ उठा दिए तो इतनी बड़ी सामर्थ्य प्रकट हो गयी कि १० हजार हाथियों का भुजाओं में बल रखने वाला दुस्सासन हार गया लेकिन साड़ी नहीं खींच पाया। इसीलिये शरणागति का तो सच्चा अधिकारी ही वही है जो अपने को पूर्ण अयोग्य समझता है।

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क्या श्रीस्वामिनी जू ने मेरी पुकार नहीं सुनी ?

प्र०- महाराज जी ! मेरी वृन्दावन वास करने की दृढ़ इच्छा है, कई वर्षों से वृन्दावन भी आ रहा हूँ लेकिन यहाँ अभी तक वास नहीं हो पाया, मुझे लगता है कि श्रीस्वामिनी जू ने मेरी पुकार नहीं सुनी ?

समाधान : ऐसा हम नहीं मान सकते; इसलिये नहीं मान सकते क्योंकि श्रीकिशोरीजू का बहुत करुणामय स्वभाव है । यदि आपकी अन्यत्र आसक्ति या राग बना हुआ है और फिर आप प्रार्थना कर रहे हैं तो अलग बात है अन्यथा ऐसा हो ही नहीं सकता कि श्रीजी पुकार न सुनें ।

जैसे श्रीरामजी की शरण में विभीषणजी आये और प्रभु को प्रणाम करके अविरल भक्ति की याचना करने लगे तो रामजी ने पहले अविरल भक्ति नहीं दी, पहले समुद्र का जल मँगाकर उनका तिलक किया लंकाधिपति पद का तो विभीषणजी भगवान् की तरफ देखे कि प्रभु मैं तो ये नहीं चाहता, मैं तो आपके चरणारविन्दों की अविरल भक्ति चाहता हूँ । प्रभु बोले ‘नहीं नहीं, ये थी तुम्हारे अन्दर वासना। विभीषण जी ने स्वयं स्वीकार भी किया- ‘उर कछु प्रथम वासना रही ।’ (सुन्दरकाण्ड-५९) अतः आपके अन्दर जो अन्य कामना है, उसके हटने पर जब हृदय में सिर्फ एक माँग रह जाएगी कि मुझे वृन्दावन वास मिल जाए तो हम निश्चित कहते हैं स्वामिनी जू जैसा कृपालु कोई है ही नहीं और वृन्दावन वास के लिए कभी ऐसा हो ही नहीं सकता कि स्वामिनी जू अनसुना कर दें । बात होती है हमारी अन्य आसक्ति, अन्य चाह, अन्य माँग की; इसलिए फिर स्वामिनी जू अन्दर की बात देखती हैं। हम बाहर से कह रहे हैं ‘हा राधे ! – आपके सिवाय मेरा कोई नहीं’ लेकिन अन्दर से जाने कितनों को हम अपना माने बैठे हैं, इसलिए श्रीजी कहती हैं थोड़ा और ये संसार का राग देख ले, फिर जब असलियत में आकर के कहेगा कि आपके सिवाय मेरा कोई नहीं, उसी समय मैं इसे स्वीकार कर लूँगी और धामवास दे दूँगी ।

यदि उनकी अभी कृपा प्राप्त करनी है तो अन्य राग, अन्य आसक्ति का अभी इसी समय से त्याग कर दो । जितने सांसारिक सम्बन्ध हैं ये सब मिथ्या अर्थात् स्वापनिक हैं –

मात- तात – सुत-दार देह में, मति अरुझै मति मंदा ।

हित किशोर कौ है चकोर तू, लखि ‘वृन्दावन चन्दा’ ॥ अभी निश्चय करो कि प्रियालाल के सिवाय हमारा कोई नहीं है फिर आप देखो वृन्दावन वास होता है कि नहीं ।

श्रीलाड़िलीजू जैसा दयालु कोई है ही नहीं, दया की समुद्र हैं, कोई ये कहे कि राधा किशोरी हमारी बात नहीं सुनती हैं तो ये बात – हमारी समझ में नहीं आती है । श्रीहितध्रुवदास जी कहते हैं.

सहज सुभाव पर्यो नवल किसोरी जू की, मृदुता दयालुता कृपालुता की रासि हैं । नॅकहू न रिस कैहूँ भूलेहूँ न होत सखी, रहत प्रसन्न सदा हियै मुख हाँसि हैं ।

श्रीहितजू महाराज भी यही बात श्रीमद् राधासुधानिधि जी में

र्वात्सल्यसिन्धुरतिसान्द्र कृपैकसिन्धुः ।

कहते हैं – वैदग्ध्यसिन्धुरनुराग रसैकसिन्धु

लावण्यसिन्धु रमृतच्छवि रूपसिन्धुः

श्रीराधिका स्फुरतु मे हृदि केलिसिन्धुः ॥ (१७)

श्रीस्वामिनीजू कृपा, दया, वात्सल्य आदि की अगाध समुद्र हैं। अब अगाध समुद्र का हम कैसे भाव समझ पायेंगे । हमारे वात्सल्य सिन्धु प्रभु श्रीकृष्ण के एक अंश से अनंत माताओं का वात्सल्य है और एक माँ में इतना वात्सल्य होता है कि उसका लड़का उसके थप्पड़ मारे, लेकिन अगर बालक को जरूरत पड़ जाए उसके कलेजे की तो वह अपना कलेजा चीरकर उसी बालक को दे देगी, जिसने थप्पड़ मारा है । श्रीशंकराचार्य जी ने लिखा है –

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।

‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।’ श्रीकबीरदास जी भी एक पद में कहते हैं. –

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सुत अपराध करै दिन केते, जननी के चित रहे न तेते ।

कर गहि केस करे जो घाता, तऊ न हेत उतारै माता ॥

ये है वात्सल्य का एक छोटा-सा नमूना । ऐसे हमारे श्रीकृष्ण बात्सल्यसिन्धु हैं और ऐसे श्रीलालजू को भी दुलार जहाँ से मिलता है, ऐसी हमारी महावात्सल्यमयी श्रीप्यारीजू हैं । इसलिए वह हमारी बात सुनती हैं लेकिन जब अन्दर अन्य आसक्तियों होती हैं तो फिर श्रीजी इन्तजार करती हैं कि जब पूर्ण तन्मय होकर के ये मेरी और देखेगा, तब मैं इसे स्वीकार कर लूँगी

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परिवार की ओर से निश्चिन्तता कैसे आये?

प्र० – महाराज जी, परिवार की ओर से निश्चिन्तता कैसे आये, मुझे उनके भरण-पोषण की चिन्ता बनी रहती है ?

समाधान : आप निश्चिन्त रहिये, ‘प्रणत कुटुंब पाल रघुराई ।’ प्रभु अपने शरणागतों के परिवार का पोषण भी बहुत अच्छी तरह करते हैं। वो जगद्भर्ता हैं, विश्वम्भर हैं फिर अपने शरणागतों की, उनके परिवार की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं । आप निश्चिन्त रहिये, वह आपके परिवार का भी पालन-पोषण करेंगे और जो भगवद् शरणागति से भरण-पोषण होगा, वह अपने अहंकार से, अपनी कमाई से, आप नहीं कर सकते हो । प्रभु बहुत कृपालु हैं, बस हम उनके भरोसे हो जाएँ ।

देखो, एक भक्त हुए हैं ‘श्रीसोझाजी’ । वे गृहस्थी थे, स्त्री और एक नवजात शिशु उनके था । एक बार उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि हम कल विरक्त हो जायेंगे, या तो तुम इस बच्चे के साथ यहाँ रहकर के धर्मपूर्वक आचरण करते हुए भजन करो, या विरक्त होकर हमारे साथ चलो । वे बोलीं- ‘स्वामी ! हम तो आपके ही साथ चलेंगे ।” सोझा जी ने कहा लेकिन एक शर्त है न किसी से ममता-आसक्ति करनी है और न कोई भी वस्तु अपने साथ लेनी है, उन्होंने शर्त मान ली । अगले दिन वे दोनों दम्पती रात्रि के अंतिम प्रहर में घर से चल पड़े । रास्ते में सोझा जी ने देखा कि पत्नी बहुत पीछे-पीछे चल रही तो वे उसके लिए रुके, जब वह समीप आई तो वे देखते हैं कि वह गोद में नवजात शिशु को लिए हुए है । सोझा जी बोले – हमने कहा था तुम्हें किसी को अपने पास लेकर नहीं चलना है फिर इस बच्चे को क्यों अपने साथ लाई हो? उनकी स्त्री ने कहा कि वहाँ इसका पालन-पोषण कौन करेगा? उसकी बात सुनकर उन्होंने उसे जमीन पर कुछ चींटी-चींटा दिखाए और बोले कि देखो इनका पालन-पोषण कौन करता है, अनंत जीवों का पालन-पोषण प्रभु करते हैं और वही इस बच्चे का भी करेंगे। अगर तुम इस बच्चे का मोह नहीं छोड़ सकती तो लौट जाओ घर; वे रोने लगीं और बोलीं स्वामी! मैं आपको नहीं छोड़ सकती हूँ । सोझाजी ने कहा – यदि हमारे साथ चलना है तो इस बच्चे को यहीं रास्ते में ही किनारे पर छोड़ दो और चलो हमारे साथ । पति आज्ञा के कारण उन्होंने बच्चे को वहीं रास्ते में ही छोड़ दिया और सोझाजी के साथ चल दीं।

वे दोनों लोग कहीं दूर जंगल में रहने लगे और वहीं भजन करते । भजन करते हुए उन्हें १०-१२ वर्ष बीत गये किन्तु उनकी पत्नी के मन में एक बात रहती थी कि पता नहीं हमारे बच्चे को • कौन-सा जीव खा गया होगा, पता नहीं उसकी क्या दशा हुई होगी, परन्तु सोझा जी को विश्वास था कि भगवान् विश्व का भरण-पोषण करने वाले हैं, बच्चे का अहित नहीं हो सकता । पत्नी के मन की पुष्टता के लिए एक दिन सोझा जी ने उनसे कहा कि चलो हम एकवार जन्मभूमि चलते हैं; पत्नी के साथ वे अपने नगर में पहुँचे कोई उनको पहिचान नहीं पाया । वहाँ उन्होंने नगरवासियों से पूछा कि ‘क्या आप लोग सोझा जी को जानते हैं ?’ लोग बोले – हाँ. जानते हैं । ‘क्या उनके यहाँ एक संतान भी थी ?’ लोग बोले – हाँ. उनका एक नवजात शिशु था, जब वह अपनी पत्नी के साथ घर छोड़कर गए तो उस शिशु को रास्ते में ही छोड़ गए थे । सोझाजी ने पूछा तो फिर ‘उस बच्चे का क्या हुआ?’ लोग बोले- यहाँ का राजा उनमें बड़ी श्रद्धा रखता था, उसने सुना कि वैरागी होकर सोझा जी भजन के लिए चले गए, उसने उनकी खोज कराई किन्तु वे तो नहीं मिले लेकिन रास्ते में पड़ा हुआ उनका बच्चा मिल गया । राजा के कोई संतान नहीं थी अतएव राजा ने उसे गोद ले लिया और अब युवराज पद पर वो लड़का है । सोझा जी ने पत्नी से इशारे में कहा कि समझ गईं, अगर हम जीवन भर कमाते तो भी उसको वो सुख नहीं दे सकते थे जो भगवदाश्रित होने पर उसे प्राप्त हुआ और अब तुम्हारा लड़का युवराज है।

इसलिए यदि हम भगवदाश्रित हैं तो भगवान् क्या नहीं कर सकते हैं, भगवान् कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ हैं ।

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वृंदावन वास कैसे करें?

प्र० – महाराज जी, वृन्दावन में मैं वास तो करना चाहता हूँ लेकिन मेरा यहाँ स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है इसीलिये मुझे धाम से बाहर रहना पड़ता है तो क्या ये ठीक है बाहर रहना ?

समाधान – श्रीनारायणस्वामीजी एक दोहे में कहते हैं कि इस भागवतिक मार्ग पर चलना बड़ा कठिन है, इस मार्ग पर कौन चल सकता है, तो कहते हैं.

नारायन अति कठिन है हरि मिलन की बाट । यामें पग पीछे धरे, प्रथम शीश दै काट ॥ इस मार्ग पर वही चल सकता है जो अपने आपको मिटा दे क्योंकि प्रेम गली अति साँकरी तामें दो न समाय ।

शरीर अस्वस्थ हुआ तो हम सोचते हैं कि हम दिल्ली कलकत्ता आदि किसी महानगर में चले जायेंगे । अरे, हम पूछते हैं। कि क्या वहाँ नहीं मरोगे या वहाँ अस्वस्थ नहीं होओगे? अगर यहाँ अस्वस्थ होगे तो श्रीजी की याद आयेगी, यहाँ अस्वस्थ होगे तो संतजन पूछेंगे कैसे हो? वहाँ अस्वस्थ होगे तो सखियाँ पूछेंगी । यहाँ वृन्दावन में वृंदा सखी का राज्य है, वह प्रत्येक जीव का निरीक्षण करती हैं । जैसे कोई भारतवासी है तो चाहे भले ही वह किसी भी गाँव में रहता हो लेकिन भारत सरकार के रजिस्टर में उसकी सारी जानकारी अंकित होती है

अब विचार करो, जब एक छोटी सी सत्ता अपनी प्रजा का इतना निरीक्षण करती है तो जो अखिललोकों की सत्ता है क्या वह आपका निरीक्षण नहीं करेगी कि आप वृन्दावन में कैसे हो, आपको क्या आवश्यकता है, कितने कष्ट में हो? क्या हमारी लाड़िली जू जो जू करुणासिन्धु हैं आपको तड़पते देख सकती हैं, पर हमें भरोसा लाड़िली जू का नहीं है, भरोसा तो हमें संसारियों का है । अगर हमें श्रीजी पर भरोसा है तो हमें प्रतिपल श्रीजी देख रही हैं । हमें अगले क्षण किस चीज की आवश्यकता है ये हमारी श्रीजी जानती हैं और बिना चाहे वह अपने आप दे देती हैं, लेकिन हमें तो भरोसा है पत्नी पुत्र का, बैंकबैलेंस और डॉक्टरों का, तो हमें अपने कर्मों को भोगना पड़ेगा, और अगर श्रीजी का भरोसा है तो आप निश्चित मानो सब यहीं बिना दवा के ठीक हो जाएगा क्योंकि हमारे प्रभु ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं सर्वसमर्थ हैं’ – जिनके संकल्प मात्र से सृष्टि की रचना, पालन और संहार होता है ‘भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई ।’ ऐसे सर्वसामर्थ्यशाली प्रभु जिन प्यारी जू के प्रेम के अधीन रहते हैं, हम ऐसी लाड़िलीजू के राज्य में रह रहे हैं और हमें तड़पकर कहीं और जाना पड़े कि वृन्दावन का वातावरण हमारे अनुकूल नहीं पड़ रहा है, तो फिर हमें अन्यत्र माया के वायुमंडल में ही प्राण त्यागने पड़ेंगे । इसमें दृढ़ता की आवश्यकता है कि अब जो होना हो सो होवे, मरूँ या जियूँ श्रीजी के धाम को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाउँगा

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राधावल्लभ सम्प्रदाय में एकादशी व्रत क्यों नहीं किया जाता है?

प्र०- महाराजजी ! शास्त्रों में एकादशी व्रत की बड़ी महिमा वर्णित है, अन्य समस्त वैष्णव सम्प्रदाय भी उसे स्वीकार करते हैं किन्तु राधावल्लभ सम्प्रदाय में एकादशी व्रत क्यों नहीं किया जाता है?

समाधान – हमारे यहाँ श्रीराधा- दास्य प्रधान निकुँज ( सहचरी -भाव ) की उपासना है । श्रीभगवतरसिकजी कहते हैं

नित्य किशोर उपासना, जुगल मन्त्र को जाप ।
जुगल मन्त्र को जाप, वेद रसिकन की बानी ।
श्रीवृन्दावन धाम, इष्ट श्यामा महारानी ॥

हम कोई भक्त संत या वैष्णव नहीं हैं । संत और भक्तों पर वैष्णव- शास्त्रों का पूर्ण शासन होता है । श्रीजी की दासी होने के कारण हमारे ऊपर शासन वृन्दावनेश्वरी श्रीस्वामिनी जू का एवं सहचरीभावापत्र रसिकाचार्यों की वाणियों का है ‘वेद रसिकन की बानी’, न कि किसी वेद-शास्र का ।

हम श्रीस्वामिनीजू की दासी हैं और आठों प्रहर उनकी सेवकाई में रहते हैं, उनको प्रतिपल लाड़ लड़ाते हैं, श्रीस्वामिनी जू को भोग लगाते हैं, अब लाड़िलीजू जो भोग पाती हैं, हम उनका उच्छिष्ट ही तो पायेंगे । श्रीहितध्रुवदासजी महाराज कहते हैं

श्रीराधावल्लभ लाल कौं, रुचि सौं जेवाबहु नित्त । सो जूँठन लै पाइयै, और न आनहु चित्त ॥ सुनि ‘ध्रुव’ धर्मी आन सौँ, कबहुँ न कीजै वाद । सब ते दिनहि निशंक है, लीजै महा प्रसाद ॥

श्रीप्यारीजू के एक कण सीथ प्रसादी पाने में कोटि-कोटि एकादशी व्रत का फल प्राप्त हो जाता है। श्रीराधावल्लभताल का भोग लगा और उसमें अगर हमने कह दिया कि आज हमारा एकादशी व्रत है और ये अन्न है, हम इसे नहीं पायेंगे, (ऐसा कहकर ) हमने उस महाप्रसाद का तिरस्कार कर दिया तो वृन्दावन के रसिकों ने लिखा है. –

करै व्रत एकादशी महाप्रसाद ते दूर । जमपुर बाँधे जायेंगे मुख में परिहै धूर ॥

श्रीवृन्दावनरस के रसिकों के लिए श्रीश्यामा-श्याम का भजन ही सारतत्त्व है । श्रीजी के महाप्रसाद के आगे करोड़ों-करोड़ों एकादशी व्रत भी व्यर्थ हैं । श्रीविशाखासखी के अवतार श्रीहरिरामव्यासजी कह रहे हैं –

कोटि-कोटि एकादशी महाप्रसाद को अंश ।
व्यासहि यह परतीत है जिनके गरु श्रीहरिवंश ।।

वैसे भी एकादशी की उत्पत्ति कैसे हुई ? पद्मपुराणानुसार में एक मुर नामक दैत्य हुआ है, उसको मारने के लिए सत्ययुग भगवान् की शक्ति (तेज के अंश) से एक कन्या प्रकट हुई, जिसका नाम एकादशी हुआ । भगवान् विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे द्वारा ये लोकमंगल कृत्य सम्पन्न हुआ अगर कोई तुम्हारी उपासना करेगा, तुम्हारा व्रत करेगा तो वह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष और हमारे चरणों की भक्ति प्राप्त करेगा ।

अब देखिये, पुरुषार्थचतुष्टय और श्रीहरि के चरणों की भक्ति की प्राप्ति से एकादशी उपासना की सिद्धावस्था मानी जाती है और यहाँ इस रसोपासना में, श्रीहिताचार्यचरण कहते हैं-

धर्माधर्थचतुष्टये विजयतां किं तद् वृथावार्तया सैकान्तेश्वरभक्तियोगपदवी त्वारोपिता मूर्धनि ।

यो वृन्दावनसीति कश्चन घनाश्चर्या किशोरीमणिः तकैङ्गर्यरसामृतादिह परं चित्ते न मे रोचते ॥

(श्रीराधासुधानिधि-)

‘अरे! ये पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष), किसी के लिए आदरणीय होंगे तो बने रहें, हमारे लिए तो इनकी वार्ता व्यर्थ है; इसी तरह श्रीहरि का वह अनन्यभक्तियोग, उसको भी हम दूर से ही नमस्कार करते हैं, अर्थात् हमें उसकी भी चाह नहीं है; मुझे तो श्रीकिशोरीजू की दासता के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।’

इसलिए ये हमारी रसमयी उपासना है। यहाँ धर्म-अर्थ-काम मोक्ष और यहाँ तक कि ईश्वरभक्ति की भी वार्ता बेकार है ।

जहाँ अनन्त महामहिमामय श्रीस्वामिनीजू के चरणारविन्दों की अराधना है, जिन श्रीचरणों को अखिललोकचूड़ामणि स्वयं श्रीलालजू अपने हृदय पर धारण करते हैं, हम उनकी दासी हैं, अब हमें एकादशी की आराधना करने की जरूरत नहीं है । श्रीभक्तमालजी के रचयिता श्रीनाभाजी ने भी श्रीहरिवंशमहाप्रभु जी के चरित्र में भक्तमाल जी में लिखा है.

सर्वसु महाप्रसाद प्रसिधि ताके अधिकारी ।

विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी ॥

‘श्रीहितजू महाराज महाप्रसाद को ही सर्वस्व मानते थे और वे उसके अधिकारी थे । वे विधि-निषेध के दास नहीं थे, उन्होंने तो अनन्य उत्कट व्रत धारण किया था ।” इसलिए हमारे यहाँ तो एक ही व्रत है; श्रीसेवकजीमहाराज कहते हैं –

ज्ञान-ध्यान- व्रत-कर्म जिते सब, काहू में नहिं मोहि प्रतीति ।

रसिक अनन्य निशान बजायी, एक श्याम-श्यामा पद-प्रीति

‘ज्ञान, ध्यान, व्रत, धर्म-कर्म आदि जितने भी साधन हैं, मुझे इनमें किसी पर भी विश्वास नहीं है । श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी ने जो श्रीश्यामा-श्याम के चरणाश्रय का डंका बजाया है, मैं तो अनन्य भाव से उसी के आश्रित हूँ ।” ।

अतः हम जो श्रीजी को भोग लगायेंगे, वही पायेंगे । अगर कोई कहे कि एकादशी के दिन श्रीजी को फल का ही भोग लगादो इससे व्रत भी हो जायेगा और महाप्रसाद की निष्ठा में भी बाधा नहीं पड़ेगी । इसका उत्तर ये है कि जब श्रीजी को हम रोज पकवान (रोटी-सब्जी- कड़ी आदि) का भोग लगाते हैं तो आज हम फल का भोग क्यों लगाएँ? क्या श्रीजी को भी कोई व्रत करना अनिवार्य है? और जब हम श्रीजी को अन्न का भोग लगाते हैं तो हम फल क्यों पायें ? हम तो जो उनका उच्छिष्ट है, उसी को पायेंगे । इसीलिये हमारे यहाँ किसी भी व्रत की महिमा नहीं है केवल अनन्य व्रत की महिमा है ।

श्री हरिवंश चरन निजु सेवक, विचलै नहीं छाँड़ि रसरीति । ये धर्म सर्वश्रेष्ठ महाप्रेमरसस्वरुप है और ये उपासना महाप्रेमरसमयी सर्वोपरि उपासना है । नारदजीमहाराज कहते हैं (यो) वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छित्रानुरागं लभते ।

(नारदभक्तिसूत्र-४९)

‘जो वेदों द्वारा निर्दिष्ट कर्मों का भी भलीभाँति त्याग कर देता वह अविच्छिन्न अनुराग को प्राप्त करता है।”

वेदों का भी त्याग करने पर जिस अनुराग का अनुभव होता है, उस अनुराग का भी सार अनुरागरस वृन्दावन का नित्यविहार है । इसी तरह श्रीस्वामीहरिदासजी महाराज की उपसना में देख लीजिये न कोई ग्रह, न कोई नक्षत्र, न कोई व्रत-उपवास केवल आठों प्रहर श्रीश्यामा-श्याम को लाड़ लड़ाना । इधर ग्रहण पड़ रहा है और उधर पंगत लग रही होती है ।

निसबासर, तिथि- मास- रितु, जे जग के त्यौहार ।

ते सब देखौ भाव में, छाँड़ि जगत ब्यौहार ॥

(श्रीभगवतरसिकजी) ये वृन्दावन नित्य विहार रस है, ये कोई सनातन धर्म या वैष्णव-धर्म की उपासना नहीं है । ये महाप्रेमरस की उपासना है । इस प्रेमरस की प्रारम्भिक अवस्था में ही कैसी स्थिति आ जाती है, श्रीसुन्दरदासजी वर्णन कर रहे हैं –

न लाज तीन लोक की, न वेद को कह्यो करै ।
न संक भूत-प्रेत की, न देव जच्छ ते डरै ॥
सुनै न कान और की, दृशै न और इच्छना ।
कहै न मुख और बात, भक्ति प्रेम लच्छना ॥

ये प्रेमलक्षणा भक्ति का स्वरूप है । यहाँ से वृन्दावन रस की शुरुआत होती है । इसलिए महाप्रेमस्वरूप श्रीजी की सहचरी के भाव में हम केवल स्वामिनी जू की जूठन के अधीन हैं न कि किसी व्रत के। ये हमारा अनन्य व्रत है ।

आप जिस स्थिति पर हैं, जिस सम्प्रदाय से दीक्षित हैं और उस सम्प्रदाय की उपासना पद्धति के अनुसार जो कर रहे हैं वह आपके लिए बिल्कुल ठीक है, उसका निषेध नहीं है लेकिन वह हमारे ऊपर थोपा नहीं जा सकता और न ही हम आपके ऊपर अपनी उपासना-पद्धति थोप सकते हैं । अपनी-अपनी भावना के अनुसार उपासना पद्धति आचार्य कृपा से हृदय में उतरती है । जो हमारे ऊपर उतरी वह हमारे लिए ठीक है, जो आपके ऊपर आचार्य कृपा से उतरी, वह आपके लिए ठीक है । इसीलिये हमारे बहुत-से शास्त्र हैं और बहुत-से आचार्य स्वरुप भगवान् ने धारण किए, बहुत-सी उपासना पद्धतियाँ बताईं, अब इसमें जो जैसी भावना से है, वह वहाँ जुड़ जाता है । युक्त होता

जैसे किसी को खस, किसी को केवड़ा या किसी को चन्दन की सुगंध पसंद होती है, इसीलिये विविध प्रकार की सुगंध है, यद्यपि सुगन्ध तो एक ही है लेकिन स्वभाव के अनुसार विविध रूप धारण किये हुए है ।

ऐसे ही भगवान् तो एक ही हैं किन्तु उन्होंने विविध आचार्यों के रूप में, विविध स्वभाव वाले जीवों की विविध स्थितियों का पोषण करने के लिए विविध ग्रंथों-पंथों का निर्माण किया और विविध रूपों से आकर के उसको समझा रहे हैं । इसलिए कहीं किसी का निषेध नहीं है लेकिन एक से दूसरे का खंडन-मंडन नहीं किया जा सकता है । अगर किसी की भी उपासना पद्धति के प्रति हेय भाव किया गया तो ये अपराध है क्योंकि सभी उपासना पद्धतियाँ भगवत्स्वरुप आचार्यों द्वारा ही बनाई हुई हैं । सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं । जो जहाँ जिस पद्धति का आश्रय लिए हुए है, वह तदनुसार चलता रहे पर दूसरे में हेय भाव न करे

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भजन के जगह जब मन संसार मे लगे तो क्या करें?


प्रश्न


महाराजजी, मेरा मन भजन में नहीं लगता है, जब भी भजन करने बैठती हूँ मन बार-बार संसार में ही जाता है तो मैं क्या करूँ ?


समाधान


मन तो भजन में किसी का भी स्वतः नहीं लगता, अगर भजन में मन लग जाए तो सभी सिद्ध पुरुष न हो जाएँ; मन लगाने से लगता है। आप बार-बार उसे संसार से हटाकर भजन में लगाईये जरूर एक दिन सहज रूप से लगने लगेगा। श्रीगीताजी में भगवान् ने कहा है –

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ (६/२६)

‘जहाँ-जहाँ जिस-जिस विषय में यह अस्थिर और चंचल मन जाये, उस उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे अन्तर्मुख करो अर्थात् मेरे (प्रभु के) चिंतन में लगाओ ।’

यदि सतत् अभ्यास के द्वारा भजन में मन नहीं लगता होता तो फिर अपने लोग इस मार्ग के पथिक न बनते । सबका मन प्रारम्भ में संसार में ही भागता है क्योंकि अनादिकाल का अभ्यास है। जैसे जल को कहीं से भी छोड़ो वह नीचे की ओर ही बहता है, लेकिन अगर हमें उसे ऊपर चढ़ाना है तो किसी यंत्र का सहारा लेना पड़ता है, ऐसे ही मन को कहीं भी छोड़ो विषयों में ही जाएगा, उसको विषयों से ऊपर उठाने के लिए मन्त्र की आवश्यकता होती है। यही प्रश्न भगवान् श्रीकृष्ण से अर्जुन ने पूछा था कि हे प्रभो ! मन तो बड़ा चंचल है, इस (चंचल चित्त) को वश में करने का उपाय क्या है ?

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् ।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ (६/३४)

द्वारा इस चलायमान दुर्निग्रह मन को वश में किया जा सकता है

तब भगवान् बोले- हे अर्जुन ! सतत् अभ्यास और वैराग्य के

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (६/३५)

सतत् अभ्यास से सब कुछ संभव है । यदि अभ्यास के द्वारा भगवान् में मन लगता न होता तो प्रभु ऐसा क्यों कहते कि मेरे में मन लगाओ, मेरे में बुद्धि को लगाओ

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।’ (गी. १२/८)

अभ्यास के द्वारा निश्चित मन लगता है, तभी तो ऐसा प्रभु कह रहे हैं ।

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क्या अपने हिसाब से भजन-साधन करना सही है?

प्रश्न :


मैं अपने हिसाब से भजन-साधन करता हूँ, क्या यह ठीक है?


समाधान :

अपने हिसाब से चलने पर जीव का पतन सुनिश्चित है; –

जब हम शास्त्र – सद्गुरु या आचार्य के हिसाब से अर्थात् उनके द्वारा बताई हुयी उपासना पद्धति के अनुसार चलते हैं तभी ठीक ढंग से चल पाते हैं क्योंकि मार्ग में आने वाली बाधाओं से उनकी कृपा रूपी कवच हमारी रक्षा करता है।

जब हम मनमुखी होकर चलते हैं तो हमारा हिसाब तो ये है कि दो मिनिट में वैराग्य और दो मिनिट में राग यानी विषयों का चिंतन ।

एक क्षण तो दिखाई पड़ता है कि बात बन गयी लेकिन दूसरे ही क्षण ये मन इतनी गंदी जगह लाकर के खड़ा कर देता है, जो किसी को बताया भी नहीं जा सकता ।

हम सबके मन की जो दशा है वह बड़ी विचित्र है । मन थोड़ी देर तो प्रभु के प्रेम में रुला देगा – हा नाथ! और अगले ही क्षण उसी मन में गंदे-गंदे विचार आने लगते हैं।

ये मन अंकुश में रहता है तो केवल गुरु-कृपा से । अतः शास्त्र और सद्गुरु की आज्ञानुसार ही चलो, मनमुखी होकर नहीं ।

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मन मे विकार होने के बाद भी क्या प्रभु की शरण मिलेगी?

प्रश्न


महाराज जी, मेरे अन्दर बहुत से विकार हैं तो मुझे भय लगता है कि क्या मुझे भी प्रभु की शरण में आने का अवसर मिलेगा ।


समाधन


अगर नीरोग होकर के अस्पताल जाने की कोई सोचे तो फिर उसे अस्पताल जाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ेगी। यदि अस्पताल के बाहर लिख दिया जाए कि जिसको ‘खाँसी, जुखाम या बुखार न हो’ वह आये हमारे यहाँ; तो बोलो वह फिर अस्पताल किस बात का, अस्पताल तो होता ही है बीमारियों को दूर करने के लिए । हम धोबी के पास कपड़ा धुलने केl लिए तभी देते हैं जब कपड़ा गंदा होता है, अगर गंदा नहीं है तो देने की जरूरत ही नहीं है । इसी तरह हम जन्म-जन्मान्तर से गंदे हैं, हरि और गुरु के चरणों में हम समर्पित ही इसीलिये होते हैं कि आप धोओ । बच्चे को फिकर नहीं होती है कि हम मल लगाए हुए हैं, ये तो माँ की चिंता का विषय होता है । बच्चा तो मल से लिपटा होने पर भी दौड़कर माँ की गोद में चढ़ता है, माँ को भी उसका मल नहीं दिखाई पड़ता, माँ को तो सिर्फ बच्चा ही दिखाई पड़ता है; ऐसे ही प्रभु भी देखते है कि ये जैसा भी है लेकिन मेरे शरणागत है तो –

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

इसलिए हमें कुछ सोच-विचार करने की जरूरत नहीं है, मैं जैसा हूँ प्रभु का हूँ, ऐसा मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए ।
( श्रीमद्भगवद्गीता ९ / ३०)

जो हम भले बुरे सो तेरे ।
सब तजि तब सरनागत आयौ, दृढ़ गहि चरन गहेरे ॥

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भक्ति पर कुसंग का क्या प्रभाव पड़ता है?


प्र०-महाराज जी, यदि कुसंग समीप में है तो उससे हमारी भक्ति की गति अवरुद्ध हो सकती है क्या ?


समाधान


भगवान् श्रीरामने विभीषणजी से कहा था

बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥

(श्रीरामचरितमानस ५/४६)

नरक मिल जाना अच्छा है लेकिन भगवद्विमुखों का संग अच्छा नहीं । जो दुष्ट प्रवृत्ति के लोग हैं, गन्दे आचरण करने वाले हैं, हमें कभी भी उनका संग नहीं करना चाहिए, अगर संग करेंगे तो – काजर की कोठरी में कैसोहू सयानो जाय, काजर की एक लीक लागि है पै लागि है ।



जैसे सुसंग (सत्संग) का रंग चढ़ता है, ऐसे ही कुसंग का भी रंग चढ़ता है । सुसंग का रंग तो धीरे-धीरे चढ़ता है लेकिन कुसंग का बहुत शीघ्र चढ़ता है; जबकि सुसंग प्रबल है, कुसंग में प्रबलता नहीं है पर जल्दी कुसंग का रंग इसलिए चढ़ता है क्योंकि बहुत काल से अर्थात् जब से सृष्टि रची गई तब से हम कुसंग में ही रहे हैं, हमें सत्संग नहीं मिला; अगर सत्संग मिला होता तो –

‘सतसंगति संसृति कर अंता ।”

अब तक हम संसृति चक्र से मुक्त हो गये होते, लेकिन अभी भी जन्म-मरण के चक्र में पड़े हुए हैं तो इसका मतलब हमें सत्संग नहीं मिला, हमें कुसंग ही मिलता रहा। अतः कुसंग का हमारा पुरातन अभ्यास है, जैसे ही कुसंग मिलता है तत्काल हमारा मन उसमें राजी हो जाता है और जब सत्संग मिलता है तो बड़े सोच विचार और मुश्किल से सत्संग की तरफ मन बढ़ता है। इसलिए हमें चाहिए कि हर स्थिति में हम कुसंग से बचें, यदि हम कुसंग करेंगे तो निश्चित भगवन्मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकते हैं । कुसंग से बड़ा हानिकारक और कोई जहर नहीं है। एक बार जहर खा लो तो वह एक ही शरीर नष्ट करेगा लेकिन कुसंग ऐसे संस्कार डाल देगा जो कई जन्मों तक चलते रहेंगे । अतः कुसंग का त्याग अत्यावश्यक है । यदि कुसंग को हम नहीं त्याग पा रहे तो बात नहीं बनेगी । जैसे काला सर्प धोखे से हमारी गोद में आकर के गिर जाए तो हम बिना कुछ सोचे-समझे एकदम डरकर के उसे दूर फेंक देंगे, इससे ज्यादा खतरनाक विषयी (भगवद्विमुख) जन हैं, इसलिए बिना कुछ सोच विचार किये उनका संग त्याग देना चाहिए । अब काले सर्प को दुलार करोगे तो वो तो काट लेगा ही। विषयी पुरुषों का संग करोगे नो बुद्धि भ्रष्ट होगी ही, बड़ों-बड़ों की हो जाती है

को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मतें चतुराई ॥

(श्रीरामचरितमानस २/२४)

जो नीच पुरुषों का संग करेगा, उसकी बुद्धि निश्चित मलिन हो जायेगी । कुछ आंतरिक वृत्तियाँ भी हैं वे भी कुसंग देती हैं तो पहले हम बाहरी कुसंग से बचें फिर आंतरिक वृत्तियों से संघर्ष करें, कुमति द्वारा आसुरी प्रवृत्तियों का जो प्रादुर्भाव होता है, उनसे हम अपने-आप को बचायें; तभी हम आगे इस मार्ग में बढ़ सकते हैं । यदि हम इतना नहीं कर सकते हैं तो फिर हम साधक या उपासक किस बात के हैं ।

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जीवन की प्रतिकूलता से निवृत्ति का क्या उपाय है?


प्र०- मेरे जीवन में पग-पग पर प्रतिकूलतायें आती हैं, मैं उनसे बड़ा दुःखी हूँ । महाराज जी, उनकी निवृत्ति का कोई उपाय बताइये ?


समाधान


जो भी अच्छी-बुरी परिस्थिति सामने आये उसमें राजी – (प्रसन्न) होना सीखो;

‘जोई जोई प्यारो करै सोई मोहि भावै,

क्योंकि प्रभु मंगलभवन हैं, वह सदैव वही करते हैं जिसमें हमारा परममंगल छिपा होता है, वह चाहें भी तो भी हमारा अमंगल नहीं कर सकते हैं; जैसे सूर्य चाहकर भी अँधेरा नहीं कर सकता है, जब तक रहेगा प्रकाश ही देता रहेगा । यहाँ तक कि प्रभु ने जिनको मारा उनको भी उस परमपद की प्राप्ति हुई जो बड़े-बड़े मुनियों के लिए भी दुर्लभ है। जिन शिशुपाल आदि ने प्रभु को गालियाँ दीं उनको भी परमपद मिला, जिन्होंने प्रभु से बैर किया, प्रभु से द्रोह किया, प्रभु को कष्ट पहुँचाना चाहा उनको परमपद मिला । जो पूतना अपने स्तनों में जहर लगाकर ठाकुरजी को मारने के लिए आयी थी, उन्होंने उसको भी वह गति दी जो यशोदा जी को प्राप्त हुई ।

गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई । मातु की गति दई ताहि कृपालु जादवराई ॥



फिर जो प्रभु से प्यार करते हैं, उनकी शरण में हैं, उनका अमंगल कैसे हो सकता है;

‘कं वा दयालुं शरणं व्रजेम् ।’

इसीलये जो भगवान् के स्वभाव को जानते हैं वे हर परिस्थिति में प्रसन्न रहते हैं कि मेरे प्रभु के द्वारा किया गया हर विधान मंगलमय है। जरूर इस विधान में मेरा परममंगल छिपा हुआ है, इसीलिये प्रभु सर्वसमर्थ होते हुए भी मुझे ऐसी परिस्थिति दे रहे हैं । अतः सच्चा भक्त हर स्थिति में राजी (प्रसन्न) रहता है, कभी प्रभु से कोई शिकायत नहीं करता है ।

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पूर्व के पापो से कैसे झुटकारा मिले ?

प्र०-महाराज जी, जाने-अनजाने में हमसे जो पूर्व में दुष्कर्म हुए हैं, मुझे बार-बार वही याद आते हैं और उनको याद कर-करके मैं बड़ा दुःखी होता हूँ, अतः इस स्थिति में मैं क्या करूँ ?

समाधान – हमारा प्रत्येक क्षण श्रीप्रियाप्रियतम के चिंतन में जाना – चाहिए, जो हो चुका है हमें न उसका चिंतन करके शोक करना है ‘गतं न शोचामि’, और भविष्य में क्या होगा, दुर्गात होगी कि सद्गति होगी, प्रभु मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे – न उसकी चिंता करनी है ।

हमें वर्तमान सम्भालना है। हमारा जो वर्तमान है उसका हर क्षण प्रियालाल के चिंतन में बीते, फिर चाहे जब शरीर छूट जाए समझलो आपका काम हो गय । श्रीगीताजी में लिखा है – अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुत्तवा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ (८/५)

हम हर क्षण प्रभु का चिंतन करते रहें, पता नहीं कौन-सा क्षण हमारा अंतिम है; यदि प्रभु का चिंतन करते हुए शरीर छूटेगा तो निश्चित भगवत्प्राप्ति होगी । हम भविष्य में भजन कर लेंगे ये आशा नहीं रखनी है, जो समय बीत चुका न उसके विषय में सोचना है । बस, वर्तमान का एक क्षण भी हमारा चिंतन से रहित न जाय; समझ लो आज ही हम मुक्त हो गए । श्रीमद्भागवत में कपिल भगवान् ने भी कहा –

चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।

गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥ (३/२५/१५)

‘मन का सतत् भगवच्चिन्तन करना यही मोक्ष का स्वरूप है और शरीर-संसार का चिंतन करना यही बंधन का स्वरूप है।’

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । (ब्रह्मविन्दुपनिषद्)

‘मनुष्यों का मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है ।”

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क्या सब शास्त्रों को पढ़ना आवश्यक है ?

प्र०-महाराज जी, ज्ञान-प्राप्ति के लिए क्या सब शास्त्रों को पढ़ना आवश्यक है ?

समाधान – सतत् नामजप और प्रभु की शरणागति से ज्ञान-विज्ञान स्वतः (अपने-आप ) हृदय में स्फुरित हो जाता है; जैसे- महर्षि वाल्मीकि जी को ‘मरा-मरा जपने से ऐसा ज्ञान प्रकट हुआ कि उन्हें रामोपासना का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ ‘वाल्मीकि रामायण’ की रचना की योग्यता प्राप्त हो गयी ।

इसी तरह अर्जुन को पूर्ण शरणागति

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’

से सर्वोपनिषद् सार गीता के दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवन्नाम में इतनी सामर्थ्य है कि कभी कोई ‘क-ख-ग’ भी न पढ़ा हो, जिसने कभी स्कूल न देखा हो, अगर ऐसा व्यक्ति भी निरंतर अभ्यास से नामाकार वृत्ति कर ले तो चारों वेद बोलने की सामर्थ्य उसके अन्दर आ जायेगी; सारे वेद उसके अन्तःकरण में स्फुरित हो जायँगे ये लौकिक पढ़ाई उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि ‘नामजप’ । श्रीकबीरदासजी ने एक पद में कहा है.

“तू तो राम सुमिर जग लड़वा दे।”
“कोरा कागज काली स्याही जगत पढ़त वाको पढ़वा दे।”

सतत् नामजप से विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, विशुद्ध ज्ञान का फल है – शरीर-संसार से पूर्ण वैराग्य हो जाना और श्यामा श्याम में प्रेम हो जाना । गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं

संयम नियम फूल फल ग्याना ।

हरिपद रति रस वेद बखाना ॥

(श्रीरामचरितमानस १/५)

‘संयम और नियम ये फूल हैं, उन फूलों का फल है ज्ञान और प्रभु के चरणों में प्रेम हो जाना यह ज्ञानरूपी फल का रस है ।”

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क्या इस युग में भी प्रभु के दर्शन संभव है ?

प्रश्न हम सबके उत्तर श्री हनुमानप्रसाद पोद्दारजी के

प्रश्न- भगवदर्शन का सर्वोत्तम उपाय क्या है?

उत्तर- भगवदर्शन का सरल और सर्वोत्तम उपाय उनकी कृपा पर अपने को छोड़ देना है और दिन-रात उनके नाम का प्रेमपूर्ण हृदय से चिन्तन करना है। इससे दूसरे नम्बर का उपाय दर्शन के लिये व्याकुल होकर उनसे दर्शन की प्रार्थना करना है। यह दूसरा उपाय पहले की अपेक्षा अधिक सरल है परन्तु जल्दी दर्शन पहले उपाय से होते हैं।

प्रश्न – क्या इस युग में भगवान् के दर्शन हो सकते हैं?

उत्तर- मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस युग में भगवान् के दर्शन अवश्य हो सकते हैं, बल्कि अन्यान्य युगों की अपेक्षा थोड़े समय में और थोड़े प्रयास से ही हो सकते हैं।

प्रश्न- भगवान् के दर्शन कैसे हो?

उत्तर- जप, तप, साधन सब अच्छे हैं, करने चाहिये पर मुख्य साधन है आत्यन्तिक व्याकुलता, हृदय का जलने लगना, बिना मिले शान्त न हो।

प्रश्न- क्या साधक अपने साधन-बल से भगवान् से मिल सकता है?

उत्तर- भगवान् के साथ मिलने के लिये कोई साधन यदि है तो भगवान् की एकमात्र कृपा ही है। कोई साधक यह चाहे कि भगवान् की कृपा को बाँधकर अपनी शक्ति से भगवान् से हम मिल लेंगे तो यह संभव नहीं है। कितना ही साधन किया जाए और किसी भी योग का आश्रय लिया जाए परन्तु भगवद्दर्शन, भगवत्-मिलन बिना भगवान् की कृपा के संभव नहीं है।

प्रश्न- क्या दो मित्रों की तरह भगवान् से वार्तालाप हो सकता है?

उत्तर- यदि भक्त चाहे तो वह दो मित्रों की तरह एक स्थान पर मिलकर भगवान् से परस्पर वार्तालाप कर सकता है।

प्रश्न- जब एकान्त में भक्त और भगवान् बातें कर रहे हैं तो क्या कोई व्यक्ति बाहर से भगवान् के दर्शन कर सकता है या उनकी बातें सुन सकता है?

उत्तर- वास्तव में इस विषय में कोई खास नियम देखने में नहीं आता। भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं, वे चाहें तो सबके सामने प्रकट हो सकते हैं। वे चाहें तो बहुत से लोगों के सामने भक्त से चुपचाप बातचीत करके जा सकते हैं। वे चाहें तो दूसरों को पता लगने पर भी उनको अपना दर्शन नहीं देते या अपनी वाणी नहीं सुनाते।

प्रश्न- भगवदर्शन के पूर्व की क्या स्थिति होती है ?

उत्तर- श्रीभगवान् के दिव्य स्वरूप के साक्षात्कार के पहले प्रकाश के दर्शन प्रायः हुआ करते हैं। उस प्रकाश के दर्शन के समय यदि दर्शन करने वाले का शरीर अस्थायी रूप से दर्शन-योग्य दिव्यता को नहीं प्राप्त हुआ रहता है तो वह तेज सहन नहीं हो सकता और उसका एक ऐसा धक्का लगता है, जिसको समझाने के लिये बिजली के करेंट-सा कह सकते हैं- होता तो वह है और ही तरह का।

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आखिर ऐसा क्यों होता हैं कि श्री धाम में बस जाने को हर पल जी चाहता है?

अनन्त सृष्टि में कितने ऐसे है जिनको वृन्दावन का नाम सुनने को मिलता है, कितने ऐसे है जिनको वृन्दावन का महत्व सुनने को मिलता है, उनमें से कितने ऐसे है जिनके हृदय में उल्लास होता है वृन्दावन आने का, वृन्दावन दर्शन करने का और कोई ही विरलय ऐसे है जिनके हृदय में छट पताहट, व्याकुलता होने लगती है कि अब मुझे वृन्दावन वास करना है, कुछ बने बिगड़े उसकी परवाह नहीं अब जैसे भी है हम राधा रमण के धाम श्री वृन्दावन धाम का निरंतर वास स्वीकार करेंगे यह कोई बहुत विरलय महा भाग्यशाली है

सभी धामों से ऊपर है ब्रज धाम और सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है श्री वृन्दावन। इसकी महिमा का बखान करता एक प्रसंग—भगवान नारायण ने प्रयाग को तीर्थों का राजा बना दिया। अतः सभी तीर्थ प्रयागराज को कर देने आते थे। एक बार नारद जी ने प्रयागराज से पूँछा-“क्या वृन्दावन भी आपको कर देने आता है?” तीर्थराज ने नकारात्मक उत्तर दिया। तो नारद जी बोले-“फ़िर आप तीर्थराज कैसे हुए।” इस बात से दुखी होकर तीर्थराज भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने प्रयागराज के आने का कारण पूँछा। तीर्थराज बोले-“प्रभु! आपने मुझे सभी तीर्थों का राजा बनाया है। सभी तीर्थ मुझे कर देने आते हैं, लेकिन श्री वृन्दावन कभी कर देने नहीं आये। अतः मेरा तीर्थराज होना अनुचित है।”भगवान ने प्रयागराज से कहा-“तीर्थराज! मैंने तुम्हें सभी तीर्थों का राजा बनाया है। अपने निज गृह का नहीं। वृन्दावन मेरा घर है। यह मेरी प्रिया श्री किशोरी जी की विहार स्थली है। वहाँ की अधिपति तो वे ही हैं। मैं भी सदा वहीं निवास करता हूँ। वह तो आप से भी ऊपर है।

एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रिनाथ घूम आओगे॥कोटि बार काशी, केदारनाथ रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥

वृन्दावन की छवि प्रतिक्षण नवीन है। आज भी चारों ओर आराध्य की आराधना और इष्ट की उपासना के स्वर हर क्षण सुनाई देते हैं। कोई भी अनुभव कर सकता है कि वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही एक अदृश्य भाव, एक अदृश्य शक्ति हृदय स्थल के अन्दर प्रवेश करती है और वृन्दावन की परिधि छोड़ते ही यह दूर हो जाती है।

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खिचड़ी उत्सव स्पेशल

सभी को राधे राधे ! श्री राधावल्लभ श्री हरिवंश

इस उत्सव के बारे में काफी लोगो को बहुत कम जानकारी है तो इस ब्लॉग में हम आपके सब प्रश्नों को रखेगे !

वैसे तो राधावल्लभ जी मंदिर में ऐसा कोई दिन नहीं होता जिस दिन कोई उत्चसव नहीं होता हो ! इसमें से एक उत्सव है खिचड़ी उत्सव जो राधावल्लभ  सम्प्रदाय में बहुत प्राचीन काल से मनाया जाता है

ये उत्सव इस साल पौष शुक्ला दौज ( 4 जनवरी 2022 से 3 फरवरी 2022 ) एक महीने तक चलेगा !

मंदिर में सुबह 5 बजे से ही ये उत्सव रोज प्रारंभ हो जाता है और समाज गायन होता है ( मतलब की इनके पदों को राधावल्लभ जी को सुनाया जाता है ) आप खिचड़ी उत्सव के  पदों को अगर ध्यान से पढेगे तो अपने आप समझ जायेगे ! इसके बाद मंगला आरती होती है ! और राधावल्लभ जी जो भेष धारण करते है उनको बांटा भी जाता है वो धन्य है जिनको उनके वस्त्र परशादी में मिलते है !

एकादशी के दिन श्रीराधावल्लभलाल ‘ श्रीबिहारीजी बनते हैं


आप घर पर कैसे उत्सव मनाये ?

आप घर पर भी खूब अच्छे से उत्सव मना सकते है ! इस ब्लॉग में दिए दिए  सभी पदों को आप जैसा आपको समय मिले रोज अपने ठाकुर जी को सुनाये और उनको नए नए भेष में सजाये और भोग में खिचड़ी या अन्य गर्म चीज बना कर भोग लगाये !
और आपको रोज इसी राधे कृष्णा वर्ल्ड एप के हित स्पेशल में खिचड़ी उत्सव स्पेशल दर्शन में जाकर रोज दर्शन कर सकते है !


आप हमारे साथ भी आपके ठाकुरों की छवियो को शेयर कर सकते है जो की एप के खिचड़ी उत्सव स्पेशल में जाकर कर सकते है !

( If Anyone Want To Donate For This Seva : You May Click On Sant Seva Icon For Donation )


राधावल्लभ जी के खिचड़ी उत्सव के सभी पदों का हिंदी अनुवाद सहित वाख्या है
सभी हिंदी अनुवाद से समझ पायेगे की पदों का मतलब क्या है


खिचड़ी उत्सव के पद


प्रथम श्री सेवक पद सिर नाऊँ
करहु कृपा श्री दामोदर मोपै. श्री हरिवंश चरण रति पाऊँ ||
गुण गम्भीर व्यास नन्दन जू के तुव परसाद सुयश रस गाऊँ ||
नागरीदास के तुम ही सहायक, रसिक अनन्य नृपति मन भाऊँ ।।1।।

सर्वप्रथम मैं भी सेवक जी के चरणों मे नमस्कार करता हूँ। हे श्री दामोदरजी (सेवकजी का नाम) आप मेरे ऊपर कृपा करिये जिसके फलस्वरूप श्रीहस्विंश चरणाविन्द में मेरी प्रीति हो, प्रेम हो ।

व्यासनन्दन भीडित हस्तिंश प्रभु के सबसे दुर्ज्ञेय, अद्भुत रसमय गुण, ईसता, दीनता, उदारता इत्यादि करके गम्भीर है। आपका कृपा प्रसाद पाकर उनके रस का सुयश मान करूँ। हित नागरीदास जी कहते है कि मुझे केवल आपका ही भरोसा है आप ही मेरे सहायक होतेंगे रसिक अनन्य नृपति-श्रीहित हरिवंश सम्पूर्ण प्रभु के मन को भाने वाला बन जाऊँ ।


जयति जगदीश जस जगमगत जगत गुरु, जगत वंदित सु हरिवंश बानी|
मधुर, कोमल, सुपद, प्रीति-आनंद-रस, प्रेम विस्तरत हरिवंश बानी ॥
रसिक रस मत श्रुति सुनत पीवंत रस, रसन गावन्त हरिवंश बानी ।
कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित जपत हरिवंश हरिवंश बानी ।।2।।

श्री सवेक जी महाराज जयति कहकर वाणी और नाम को नमस्कार करते हैं, क्योंकि नाम और वाणी अभेद है “वानी श्री हस्विंश की, के हरिवंश ही नाम “

भी हरिवंश नाम के अर्थ अक्षर हरि ही का ऐश्वर्य यह सब लीला अवतार और उनके लोक, प्राणी मात्र, पशु पंछी, चराचर सब, सर्व-व्यापक तत्व ‘श्रीहित का भजन करते हैं, सब वेद पुराणादिक हरि से जीव तक, इसके आधीन है, परन्तु इस रहस्य को कोई जान नहीं सका। तव भीहरिवंश हित सम्पूर्ण प्रभु, आचार्य रूप में प्रगटे और श्रीहित का वाणी रूपी भजन देकर सबको अलभ्य लाभ दिया इसलिए तुम हे हरिवंश प्रभु, “जगत के ‘ईश हो और गुरू हो यह वाणी जो केवल रस ही भवित करती है जगत चंदनीय है, इसमें आणित जन भी आ गए।

श्री हरिवंश वाणी, एक रस, विशुद्ध नेह गई, मिलन रूपा, रास विलास, नित्य विहार का निरूपण करने वाली है, जो केवल रस ही भक्ति करती है. इसमें भिन्न-भिन्न और रसों की मिलौली नहीं है ‘अब या में मिलौनी मिलै न कछु जो खेलत यस सदा बन में इसलिए पद-पद प्रति केवल इसी वाणी को माधुर्यता और कोमलता की यथार्थ पढ़ती है, इसलिए यह वाणी प्रीतिरूप आनन्द रस पदती को प्राप्त है, और प्रेम का विस्तार करने वाली है।

‘रसिक – प्रिया-प्रीतम और परिकर, जो इस रस में मस्त है वे श्रवण करके इस वाणी द्वारा भवित रस का पान करते हैं “श्याम श्याम प्रगट-प्रगट अक्षर निकट प्रगट रस भवत अति मधुर वाणी और आगे सेवक जी महाराज कहते हैं “नाम वाली निकट श्याम श्यामा प्रगट रहत निशिदिन परम प्रीति जानी।”

और फिर स्वाद पाकर इसी वाणी को गाने लगते हैं प्रशंसा सूचक कहते हैं “हरिवंश, हरिवंश हरिवंश हित ऐसे प्रशंसा करते एक हरिवंश नाम को ही अथवा वाणी को ही जपते हैं।”


जयति वृषभानुजा कुँवरि यथे।
सच्चिदानन्द घन रसिक सिरमौर वर, सकल वाँछित सदा रहत साथे |
निगम आगम सुमति रहे बहु भाषि जहाँ , कहि नहीं सकत गुण गण अगाथे ।
जै श्री हित रूपलाल पर करहु करुणा प्रिये, देहु वृन्दाविपिन मित अबाथे ।।3।

तृषभानु कुँवरी वृष शब्द का एक अर्थ काम है सो यहाँ निकुंज रस के अन्तर्गत का अर्थ ‘प्रेम’ “हित, महापुरुषों ने किया है। प्रेम रूपी भानु यानी ‘श्रीहित मूर्तिवंत श्रीहित “कुंवरी राधे की जै हो ।

पीछे पदों में बता आये है कि यहां निकुंज रस में और रसों की मिलौनी नहीं है समाई नहीं है।

ब्रज वृन्दावन जहाँ दास्यरस, वात्सल्य रस, सख्य रस इत्यादि भिन्न-भिन्न रसों की मिलौनी है और जहाँ इन रसों में सक की लहरें है, उसे तो निगम आगम ने गाया ही है, उनकी गम्य यही तक है, परन्तु यह तो ‘श्रीहित’ का नित्य वृन्दावन है, यहां और की तो कौन कहे- हरि की भी गम्य नहीं, दुर्ज्ञेय है। यदि यहाँ व्रज की श्री वृषभानु जी की कुँवरी ऐसा अर्थ करें तो निगम आगम सुमति रहे बहु भाषि जहां, कहीं नही सकत गुण-गण अगाशे यह कहते नहीं बनता। क्योंकि निगम-आगम ने तो ब्रज वृन्दावन गाया। सेवक वाणी प्रमाण है ” निगम आगम अगोवर राधे, सहज माधुरी रूप निधि तहां श्रीजी की वाणी “अलक्ष राधास्त्र्यं निखलनिगमैरप्यतितरां इत्यादि राधासुध्धानिधि

नागरीदास जी ने सर्वप्रथम पद मे ही कहा है “गुण गम्भीर व्यासनन्दन जू के व्यासनन्दन कौ ? ‘श्रीहित ही तो हैं जो व्यास मिश्र जी के यहाँ प्रगटे “कृपा रूप जो वपु धरयों और श्री राधा कौन ? जो राह य श्रीहित ही तो हैं तहां नागरीदास को अष्टक “रसिक हरिवंश सरवंश श्रीराधिका, राधिका सरवंश, हरिवंश वंशी “पूरा अष्टक देख लेनो इति ।

इसलिये है ‘श्रीहित की मूर्तिवंत कुंवरी श्रीराधे तुम्हारी जय हो तुम सच्चिदानन्द घन स्वरूप हो और रसिकों की सिरमौर हो, जो आपके चरण कमलों की रति प्राप्त करने की वांछ करते हैं। आपके अपार गुण के गणों को वेद पुराण और बहुत भांति के ‘सुमति कहिये विद्वान और वेद आदि पर भाष्य लिखने वाले भाषी, वर्णन नहीं कर सकते।

श्रीहित रूपलाल जी महाराज कहते हैं ऐसी जो श्रीहित राधे है वह मुझ पर करुणा करके मुझे वृन्दावन में बाधा रहित बास प्रदान करें- अर्थात् मुझे अपना सहवारी स्वरूप प्रदान करके ‘नित्य वृन्दावन की कुंजो में स्थान दें।


श्री व्यानन्दन दीनबन्धु सुनि पुकार मेरी मूढ़ मन्द मति लबार भ्रमी जन्म बार-बार, कष्टातुर होरु नाथ शरण गही तरी ।
भजन-भाव बनत नाहिं मनुज देह वृथा जाय, करौ कृपा बेगि प्रभु बहुत भई देरी ।
त्रिगुण जनित सृष्टि मांझ दरसत महिं दिवा साँझ, हृदय तिमिरछाय रह्यो झुक सघन अंधेरी ।
कृपा दृष्टि वृष्टि करी राजत फूलवारी हरी, आतुर पर श्रवौ बूंद शुष्क होत जेरी|
ललित हित किशोरी नाम राखत प्रभु तुमसों काम, याम जात युगन तुल्य करौ नाथ चेरी ।।4।।

हे दीनबन्धु श्रीहरिवंश प्रभु, आप मेरी वन्दना सुनें। मैं मूद मन्द मति, लबार-बक करती रहने वाली, बार बार जन्म लेकर हर जन्म में भटकती रही हूँ। अर्थात् कहीं विश्राम नहीं मिला, और अब कष्टों से आतुर हे नाथ, आप की शरण में आई हूँ। मुझ से भजन-भाव बनता नहीं, यह मनुष्य देह वृशा ही बीत रही है । बहुत काल बीत चुका है, हे प्रभु अब आप मेरे ऊपर शीघ्र कृपा करें। इस त्रिभुणत्मक सृष्टि अर्थात् संसार में चारों ओर त्रिगुणात्मक विषयों की सघन अंधेरी सी मंडराती रहती है और मेरे हृदय में अन्धकार छाया हुआ है जिसके कारण मुझे सुबह-शाम का बोध नहीं होता यानी ओपेड़वन में पता ही नहीं पड़ता कब सुबह हो गई और कब शाम ढल गई।

आप मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि की वर्षा करें, मुझ आतुर पर कृपा की बूँदें भवित होने पर मेरी हृदय रूपी फुलवाड़ी जो सूख रही है फिर से हरी हो जाएगी। मैं हित ललित किशोरी नाम वाली, हे प्रभु केवल आप ही से संबन्ध रखती हूँ, मेरा प्रत्येक प्रहर युगों के समान व्यतीत हो रहा हे नाथ मुझे अपनी दासी बना लें।


जय जय जय राधिके पद सन्तत आराधिके, साधिके शुक, सनक, शेष नारदादि सेवी ।
वृन्दावन विपुल धाम रानी नव नृपति श्याम, अखिल लोकपालदादि ललितादिक नेवी ।
लीला करि विविध भाय बरसत रस अमित चाय, कमल प्राय गुण पराग लालन अलि खेवी।
युग वर पद कंज आस वांछत हित कृष्णदास कुल उदार स्वामिनि मम सुन्दर गुरु देवी ।।5।।

श्रीहित कृष्णदास जी महाराज अपने ही निज स्वरूप हितानन्द में डूबकर कहते हैं, ‘हे श्रीराधे- आपकी जय हो, जय हो, जय हो। वे श्री राधा कैसी है ? जिनके पद कमलों की मै निरन्तर आराधना करता हूँ, और परम भागवत शुक्र, सनक, शेष नारदादि के लिए भी सेव्य रूपा है, क्योंकि उनकी भी वहां गति नहीं है रानी नव नृपति श्याम नवल वृन्दावन नाथ की पद्महिषी, सव धामों के धाम सर्वोच्च धाम नित्य वृन्दावन में ललित आदि सखियों सहित विराजती है और वह वृन्दावन सम्पूर्ण लोकों के लोकपालों द्वारा वंदनीय है। उसी वृन्दावन में रास-विलास की लीला करती हुई, श्रीराधा विविध भावों को दरशाती हुई अनन्त चाव भरे चीजों से रस की वर्षा करती है। प्रियाजी अनन्त चोज भरे हाव-भाव दरशाने के गुणों में निपुण हैं, ऐसे हाव-भाव जब दरशाती है तब श्री मुस्ख कमल से जो मकरन्द निस्झरित होता है उसे लाल जी भंवर की वृत्ति लेकर पान करते हैं।

श्रीहित गोस्वामी कृष्णदास जी महाराज कहते हैं कि श्री राधा के युगल चरण कमलों में मेरी लालसा सदा लगी रहे, भीहित कुल की गुरु-देवी मेरी उदार स्वामिनान से मेरी यही आकांक्षा है।


राधिका सम नागरी प्रवीन को नबीन सखी, रूप गुण सुहाग भाग आगरी न नारी ।
वरून लोक, नाग भूमि, देवलोक की कुमारि, प्यारी जू के रोम ऊपर डारौ सब वारि ।
आनन्दकंद नन्दनन्दन जाके रस रंग रच्यौ, अंग भरि सुधंग नच्यौ मानत हँसि हारि ।
जाके बल गर्व भरे रसिक व्यास से न डरे, कर्म-धर्म-लोक- वेद छौंडि मुक्ति चारि ॥6॥

निकुंज बिलासिनी श्रीराधा के समान हे सखी, कोई भी अन्य नारी नहीं है, क्योंकि यह नागरी है-तहां श्रीजी की वाणी ‘नागरता की रासि किशोरी और ऐसी नागरी है कि चतुरों के समूह के मुकुटमणि सांवरों जो प्रीतम, उनको वितै के, नेक मुख की मोरन मात्र में निवेश कर देती है। और फिर प्रवीन है-गान में कठिन ताल सुर विकटताने सहज में लेती है, नृत्य की विविध गतियों को लेने में, लालजी भी इनसे हारे है। नवीन है-इनका नेह, रंग रस सदा नवीन ही बना रहता है। रूप की सहज माधुरी लाल जी के मन को हरण कर लेती है, तहां श्रीजी की वाणी “रोमालीमिहिरात्मजा सुललिते बन्धूकबन्धु प्रभा” राधासुधानिधि | कोक कलान इत्यादि के विशेष गुणों में निपुन है। इसलिए, हे सखी जो यह श्री हित राधे हैं, इनके भाग की क्या कहिये जिनका सुहाग, सकल लोक चूडामणि रसिक शिरोमणि श्यामसुन्दर भी सदा इनको जपते हैं इन ही का भजन करते रहते हैं। तहां श्रीजी की वाणी “ज्योतिश्यांनपरः सदा जपति या प्रेमापूर्णो हरि” राधासुध निधि |

श्रीजी के इन गुणों का अनन्त विस्तार है। तहां श्रीजी की वाणी ‘वृषभानुनन्दिनी मधुर कला पद संख्या ८१ इत्यादि ऐसे बहुत कही है। वाणी जी में रत्ति भर सोना दिखा के सुमेरु का ध्यान करने के से संकेत है। प्रियाजी की रूप माधुरी, गुणों का वर्णन करने में आज तक कोई पार नहीं पा सका और न ही कभी कोई पा सकेगा जितनों कहो, सो थोड़ा सारांश में इतनो समझ लेनो- अनिर्वचनीय है।

वरून लोक, नागलोक, भूलोक, देलोक की कुमारियों के रूप गुण इत्यादि प्यारी जू के एक रोम पर न्यौजवर है। तहां श्रीजी की वाणी देक्लोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि कुल मति डरियो, सहज माथ चुरी अंग अंग की कहि कासों पटतरिये ” देलोक के कवि शुक्रचार्य जी, श्लोक के व्यास जी, रसातल के शेषनाम जी, इन सब कवियों को अपने-अपने लोकों की कुमारियों के रूप गुण का ज्ञान है, परन्तु इनकी भी मति भयभीत है कि इनकी बराबरी किससे करें। इसलिये इनकी उपमा यह स्वयं ही है, इनकी उपमा नहीं

आनंद कंद आनन्द के मूल, नंद-नन्दन, आनन्द को भी आनन्दित करने वाले, इनके रस रंग में डूबे है। महा हर्ष में अंग में भर कर सुगंध नृत्य करते हैं, परन्तु जब प्रियाजी नृत्य की गतिविधियों लेती है- तो हँसते-हँसते अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। इस हार के ऐसे प्यार भरे दोज है कि कहते नहीं बनता, व्यास जी को पढ़ “पिय को नाचन सिखावत प्यारी ” मान-भुमान लकुट लीए ठाढ़ी डस्पत कुंजबिहारी व्यास स्वामिनी की ठवि निरखत, हँसि-हँसि दे दे करतारी सुहृदयों के हृदयगम्य है।

श्री ‘व्यास जी महाराज कहते हैं, ऐसी स्वामिनी का कृपा रूपी बल प्राप्त करने का मुझे गर्व है और इसी बल के प्रताप से कर्म, धर्म, लोक, वेद यह चारों प्रकार की मुक्तियों को त्यागते मुझे डर नहीं लगा।

नित्य वृन्दावन निकुंज विलासिनी, श्रीहित राधा की कृपा प्राप्त कर व्यास जी मुक्तियों को त्याग दें तो कोई आश्चर्य बात नहीं है। निकुंज की बात तो दूर रही यहाँ तो भूतल पर प्रकट वृन्दावन में सोहनी लगाने वाली की ऐसी स्थिति है कि विहारिनिदास जी बोल उठे “वृन्दावन की हरी चली मुक्ति दुवराड, बिहारिनिदास अवरज कहा. श्यामा महल कमाए। औरों की क्या कहिये ? राधे-राधे !! इति ।


प्यारी जे के चरणारविनद शीतल सुखदाई।
कोटि चन्द मन्द करत नख-विधु जुन्हाई ॥
ताप-शाप-रोग-दोष दारुण दुख हारी लाल इष्ट दुष्ट दवन कुंज भजन चारी ।
श्याम हृदय भूषण जित दूषण हित संगी।
वृन्दावन धूर धूसर यस रसिक रंगी।
शरणागत अभय विरद पतित पावन बानै ।
व्यास से अति अधम आतुर को-को न समानै ।।7।।

श्रीहित राधा प्यारी के चरणकमल शीतल और सुख देने वाले हैं। कैसे है यह चरणारविन्द और इनकी शतलता ? ऐसे अद्भुत चरण है कि जब रसिक शिरोमणि श्रीश्यामसुन्दर इनको अपने अपने वक्षस्थल पर रते है तो इन चरणों की शीतलता प्रेम-काम के ताप को शान्त कर देती है। तहाँ श्रीजी की वाणी –

“वृन्दावनेश्वरी तवैव पदारविन्दम् प्रेमामृतकमकरन्दरसौघपूर्णम् ।
हृदयर्पितं मधुपतेः स्मरताप मुझे निर्वापयत्परमशीतलमाभयामि ||

अतः लालजी को सुख देने वाले हैं। इन चरणारविन्द की शोभा कैसी है ? नखचन्द्र से छिटकने वाली छटा कोटि-कोटि चन्द्रमा की चाँदनी को मन्द करती है, ऐसी है।

ताप, शाप, रोग-दोष दारुन दुखहारी- (भुमिका) इनकी कोक-कलान को देखकर कोटि-कोटि कामदेव लज्जित हो जायें है। क्योंकि वह देखें कि क्रियायें तो सब हमारी है, परन्तु हम इनमें है नहीं। रतिपति ने विचार कियौ- ठीक है, लज्जित तो हम है ही शाप देते हैं- ‘काम-रोग से ग्रसित रहोगे। लालजी से कहा, “तुम्हारी बड़ी कृपा है नहीं तो मिलन में स्वाद कहाँ से आता, परन्तु यह तो बताओ इस रोग का उपचार क्या? “

उत्तर मिला

“रोग हरन निज चरन सरोरुह नैननि धरि कर पंकज चारु ।”

प्रियाजी के चरणारविन्द का आश्रय लेना रोग नास हो जायेगा। लालजी ने सोची इससे तो नित्य हर समय काम पड़ता है। “काम सौ स्याम ही काम पस्यो इस काम के बिना तो विलसन का सारा मजा ही किरकिरा हो जायेगा, ‘शाप स्वीकार कर लिया, चुप्पी साध ली।

प्रियाजी मानवती हुई और तो और लालजी पर दोष मड़ने लभी सखी ने प्रम भरी डाँट लगाई

साँची झूठ बात सुनत तू, करत नहीं निरजोष ।
कवन भवन तें सुन्दर देख्यौ, जाहि लगावत दोषा

श्यामसुन्दर को कौन से भवन में देख लिया जो ‘दोष’ लगा रही हो। लालजी को विरह व्याप गया। दारुन दुःख लालजी को हो गया। क्या करें ?

तेरे विरह भय दारुन दुःख, के ले जाल बखान्यौ ।
तेरे चरन सरन हो सुन्दरी, ‘व्यास’ सखी गढी आन्यौ ।

हो गया उपचार | इति (भूमिका)

कहने का अर्थ है कि प्रेम के चोज, रसास्वादन के हेतु की गई प्रिया-प्रीतम की निज नई हितमई केली का कोई चारापार नहीं है, उसको समझना, अथाह अगाध समुद्र की तह से मोती चुनने के समान है। शब्दकोष में शबद नहीं है जो प्रिया- प्रियतम की केली का यथार्थ वर्णन कर सकें। जो कुछ इन टूटेफुटे शब्दों का सहारा लेकर कहा जाता है वह संकेत मात्र है, उस भाव स्थिति को उर में जाने का, जिसे रसिकजन हित की विलसन कहते हैं।

प्रियाजी की मन्द-मन्द मुस्कान, कटाक्ष भरी चितवन से लेकर ‘अबोलनों तक केवल प्रेम ही का स्वाद लेने को है, ‘काम’ जब-जब, जो जो गजब लालजी पर ढाता है, यह शब्द “ताप, शाप, रोग, दोष, दुष्ट दवा इत्यादि उसी गजब की पराकाष्ठा को सूचित करने का तुच्छ प्रयास करते हैं।

‘कौन-कौन दुख बरनौ प्रिय को, जो दुख करनी कस्यौ । ‘व्यास’ स्वामिनी करुणा करि, हरि को सब ताप हस्यौ ।। “

लोकवत् शब्दार्थ की यहाँ समाई नहीं जहाँ कुंज भवन है, प्रियाजी के चरणारविनंद की बात चली है, वहाँ निकुंज रस है, और सब अर्थ उस रस के अन्तर्गत ही होगा और यदि नहीं तो ऊपर कहे गये शब्दों का अर्थ लोक दृष्टि से तो स्पष्ट है ही, व्याख्या की आवश्यकता नहीं ।

कुंज भवन में विचरण करने वाले यह चरण “गोविन्द जीवन धनम्” तालजी के इष्ट है। इनके हृदय के भूषण है. श्रीहित के सभी है। वहाँ श्रीजी की वाणी “पद अम्बुज जावक जुत भूषण प्रियतम उर अवनी । यह श्रीवरण, रास में रंगे, वृन्दावन की घर में ‘धूसरित हो रहे हैं कैसी है यह वृन्दावन की ‘पूर ? तहाँ श्रीजी की वाणी “घुसरित हो रहे विविध निर्मित घर, नव कपूर पराग न थोरी महापुरुषों ने ठौर-ठौर कहा है ‘क्युखत् है बल्कि ‘नव कपूखद् है। यदि शब्दार्थ की सांकल में बधा रहना है, जो कहिये इस घरको जिसमें प्यारी जू के चरणारविन्द ‘धूसरित हो रहे हैं, कैसी मानेंगे ? नेक संभालियेगा अपने भाव को, शब्द कोष में छूर रेत को, मिट्टी को कहते हैं ‘कपूखत् रेत के लिए कोई शब्द नहीं है।

व्यास जी महाराज कहते हैं कैसी ही पतित क्यों न हो, उसके लिए इन चरणारविन्द की शारण पावन बाना है, जो अभय का दान देने वाले हैं। व्यास जी कहते हैं इन चरणों की शरण ग्रहण करके मेरे जैसे अ म आतुर को को अर्थत्, कौन-कौन, ‘न समाने यानि नहीं तर भए अर्थात् सब तर गए ।

नोट- पद की व्याख्या प्रचलित पाट के आधार पर की गई है। पाठान्तर भेद बहुत है वासुदेव गोस्वमी जी द्वारा रचित, प्रभुदयाल जी मित्तल द्वारा “भक्त कवि व्यास जी के नाम से प्रकाशित व्यास वाणी में यह पद इस प्रकार है

श्रीराधा प्यारी के चरणारविन्द शीतल सुखदाई । कोटि चन्द मन्द करत नख विद्यु जुम्हाई ||
ताप साप रोग सोग दारुण दुख हारी। कालकूट-दुष्ट-दवन, कुंज भवन चारी ॥
स्थाम हृदय भूषण जुत, द्वेषन जित संगी।
श्रीवृन्दावन धूलि धूसर, यस रसिक रंगी ||
सरनामत अभय विरद पतित पावन बाने ।
व्यास से अति अथम आतुर को, कौन समानौ।।


व्यासनन्दन, व्यासनन्दन, व्यासनन्दन गाईये
जिनको हित नाम लेत दम्पति रति पाईये ||
रास मध्य ललितादिक प्रार्थना जु कीनी
कर तें सुकुंवारि प्यारी वंशी तब दीनी ।।
सोई कलि प्रगट रूप वंशी वपु धारयौ
कुंज भवन रास रवन त्रिभुवन विस्तारयौ |
गोकुल रावल सु ठॉम निकट बाद राजै ।
विदित प्रेम राशि जनम रसिकन हित काजै ॥
तिनकों पिय नाम सहित मंत्र दियौ (श्री) राधे ।
सत चित आनन्द रूप निगम अगम साधे ||
(श्री) वृन्दावन धाम तरणिजा सुतीर वासी
श्रीराधा पति रति अनन्य करत नित खवासी ॥
अद्भुत हरि युक्त वंश भनत नाम श्यामा ।
जै श्री रूपलाल हित चित दै पायौ विश्रामा ॥ 8॥

श्रीहितहरिवंश के नाम अथवा वाणी का नाम यानि सुमिरन सदा करना चाहिये। कैसे ? जाम घटी बिसरे नहीं” ऐसे इन श्रीहिस्वंश का नाम जपने से दम्पति प्रिया-प्रियतम में रति होती है। सेवक जी कहते है। “हरिवंश सु नाम सदा तिनके, सुख-सम्पति, दम्पति जु जिनकै ।

श्रीहरिवंशचन्द्र, सम्पूर्ण प्रभु के प्राकट्य की भूमिका खोजते हैं। यस के मध्य में किसी समय | ललितादिक सस्तियों ने प्रार्थना करी हे प्यारी जू अब आगे तो कलयुग में ऐसा समय आने वाला है जब | वेद-विधि को जानने वाले बहुत ही कम रह जाएँगे, भक्ति के मर्म को समझने वाले नहीं होंगे, आप कृपा कीजिए जिससे जीवों को प्रेम लक्षणा भक्ति मिले तब प्रियाजी ने अपने हाथों से वंशी लेकर सखियों को प्रदान कर दी रस की मूल तो वंशी ही है “बाजत रस मूल मुर्तिका आनन्दिनी वही ‘वंशी कलियुग में श्रीहरिवंश आचार्य रूप में व्यास मिश्रजी के यहां अवतारित हुए अथवा वही कलि रूपी वंशी हरिवंश आचार्य रूप में तय मिश्रजी के यहाँ मुकलित हुई। और कुंज भवन के रास रंग को त्रिभुवन में विस्तार कियौ । गोकुल और रावल गातों के निकट “बाद ग्राम है। (बड़ों के मुख से सुना है कि बाद का प्राचीन नाम याच ग्राम था और जब हरिवंश महाप्रभु का प्राकट्य हुआ तो घर-घर पंच शब्द सुनाई देने लगे- “घर-घर पंच शब्द बाजिये सेवक वाणी 11)

यह तो विदित ही है कि प्रेमराशी, श्रीहित हरिवंश, सम्पूर्ण प्रभु का जन्म (अवतार) रसिकों के हित के लिए ही हुआ था। श्रीहित हरिवंश प्रभु को स्वयं श्रीराधा ने अपने प्रियतम के नाम से संयुक्त मन्त्र प्रदान किया। इससे यह समझना चाहिए कि महाप्रभु श्रीहित हरिवंश जी द्वारा स्थापित श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय है जिसकी प्रवर्तक आचार्य मनत्रदाता गुरु स्वयं श्रीराधा है। तहाँ हरिलाल व्यासजी का कथन:

यथैवेष्टं सम्प्रदायकै कर्ताऽऽचार्यो यथा मंत्रदः सद्गुरुश्च ।
मंत्री राधा यस्य सर्वात्मजैव वंदे राधा-पाद-पद्म प्रधानम् ||

पर भीहित राधा कैसी है! सतूचित आनन्द रूप है और वेदों द्वारा आलक्षित हैं। श्रीहितहस्विंश महाप्रभु जी ने यमुना के तीर श्रीधाम वृन्दावन में निवास कियौ श्रीहित राधा और उनके पति श्रीहित लालजी, जो दोऊ मन मिलि एक भए. राधावल्लभलाल, में अनन्य प्रेम रखकर उनकी सेवा में नियुक्त रहते थे।

“हर में वंश जुड़कर यह अद्भुत नाम सम्पूर्ण प्रभु हरिवंश बना है, तहाँ सेवक वाणी -नाम अरद्ध हरै अघ पुंज, जगत्र करे हरि नाम बड़ाई सो हरि वंश समेत सम्पूर्ण प्रेमी अनन्यानि को सुखदाई।” इस सम्पूर्ण नाम का प्रियाजी प्रेम से उच्चारण करती है। “प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमानत प्रीतम श्री हरिवंश प्रियम् । माथा (श्री) हरिवंश गीत गुन गोचर, मुफ्ति मुनत हस्विंश मियं ॥” श्रीरूपलाल जी महाराज कहते हैं कि इन श्रीहित हरिवंश प्रभु के चरणों में वित्त लगाने से मुझको विश्राम मिला है।



प्रथमहिं भावुक भाव विचारै |
बनी तनु-मन नवकिशोर सहचरि वपु हितत गुरु कृपा निहारै ||
भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी पुलकि-पुलकि अंग धारै।
भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी पुलकि-पुलकि अंग धारै ।
जे श्री रूपलाल हित ललित त्रिभंगी रंग रस विस्तारै ||9||

सर्वप्रथम भजन के आरम्भ में, भजनी को भाव से, अपने सखी स्वरूप का विचार करना चाहिये । श्रीहित गुरु की कृपा का मनन करते हुए तन मन से नवकिशोर सहवरी रूप अपने आपको देखना चाहिये, अपने स्वामिनी द्वारा दिये गए भूषणों और वस्त्रों को रोमांचित होकर धारण करना चाहिये (मानसी में)।

तहाँ श्रीजी की वाणी (श्रीराधासुधानिधि)

“दूकूलं विभ्राणामथ कुचतरे कंधुकपट प्रसादम् स्वामिन्याः स्वकरतलदत्तं प्रणयतः स्थितां नित्यं पायें विविध परिचयैक चतु किशोरीमात्मानम् किमिठ सुकुमारी मुकलये 1॥”

महात्मा भीरतनदासी इस स्तोत्र की टीका कहते है:-(भाषा रूपान्तर) “अब इस श्लोक के भाव में भीहित प्रभुजी, अपना जो सुन्दर सखी स्वरूप, यद्यपि महल में नित्य श्रीहित अली और वंशी रूप है, तहाँ दोहा :
हित स्वरूप विवि हिय में वंशी विवि फरमाहि ।
सखी स्वरूप सखीन में, यो हित निकट रहांहि ॥

फिर भी स्वामिनी जू की दासी भाव की उत्कंठा करते हैं। मेरी श्रीस्वामिनी जु मेरे पर अति कृपा करके अपनी प्रसादी सारी (साड़ी) और कंचुकी अपने कर कमल से जो दी उसको पहर कर “स्थितां नित्य पार्श्वे” नित पास बैठी रहूँ अथवा खड़ी रहूं। वहां क्या करूं? “विविध परिचयैक चतुरा” नाना प्रकार की समयानुर सेवा में चतुर जैसी “किशोरीमात्मानं” किशोरी अवस्था बुवाई परै ” किमहि सुकुमारी नु कलये जैसी सुकुमार सखी स्वरूप अपने में कब देखूं। इति ।

श्रीरूपलाल जी महाराज हिते हैं कि इस सहवरी भाव में स्थित होने से श्रीश्यामा श्याम की कृपा से रंग-रस हृदय में प्रकाशित होने लगता है।


सखी, लखी कुंजधाम अभिराम ।
मनिनु प्रकाश हुलास युगल वर, राजत श्यामा श्याम || हास विलास मोद मद होत न पूरण काम ।
जै श्रीरूपलाल हित अली दंपति रस सेवत आठौ याम ||10||

हे सखी, देख तो सही जो प्रिया प्रियतम का निज धाम उसमें जो कुंज है, कितनी सुन्दर है।
“स्याम सुभग तन विपिन घन थाम विचित्र बनाई सेवकवाणी ||

मनियों के प्रकाश में श्रीश्यामा-श्याम उल्लासपूर्वक सुशोभित है, हास विलास, विनोद मोद विहार में होता रहता है, विहार में चाव बढ़त ही रहता है, कभी घटता नहीं, इसलिए कभी भ्क्षी पूरण काम, तृप्त नहीं होते ।

कामकेलि सतु पाइ दाइ-छल प्रिय ही रिझावत ।
थाइ धरत उर अंक भाइ मन कोक लजावत ॥
चाय चवम्गुन चतुर राइ रसरति संग्रामहि ।
छाड़ सुजस जम प्रकट गाड़ मुन जीवत श्यामहि ।

-सेवक वाणी

श्रीरूपलाल जी महाराज अपने ही हित स्वरूप को नमस्कार करके कहते हैं कि सखी युगल सरकार के लीला रस का सेवन आठों प्रहर करती है –

चोर चित्त ललितादि कोर स्न्यनि निजु निरखतिं ।
थोर प्रीति अन्तर न भोर दंपति छवि परखतिं ॥

-सेवक वाणी

तहाँ श्रीजी की वाणी:
अनुपम सुख भर भरित क्विस असु आनन्द-वारि कण्ठ दम रोकत ।


लाड़िली लालहि भावत है सखि, आनन्दमय हिम की ऋतु आई।
ऐसे रहे लपटाय दोऊ जन चाहत अंग में अंग समाई || हार उतार धरे सब भूषन स्वादी महारज की निधि पाई।
महासुख को ध्रुव सार विहार है, श्रीहरिवंशजू केलि लड़ाई ||11||

हे सखी, प्रिया- प्रियतम के मन भावती आनन्द प्रदान करने वाली सदी की ऋतु आई है। ऐसे गाढ़ आलिंगन में दोनों आबद्ध है, फिर भी यह इच्छ बनी हुई है कि एक दूसरे के अंगों में समा जायें। विहार के सूख का अतिशय करके भोग करने के हेतु दोनों ने अपनी माला एवं भूषण इत्यादि उतार दिये हैं, रसरूपी “निधि का स्वाद पाकर दोनों मत्त है। ध्रुवदासजी महाराज कहते हैं- परम सुस्त जो कोई वस्तु है, उसका सार केवल ‘हित’ का यह विचार है, जिसे श्रीहस्विंश महाप्रभु जी ने अपनी वाणी में गायौ है।


प्रात समै नव कुंज द्वार है ललिताजू ललित बजाई बीना पौढ़े सुनत श्याम श्रीश्यामा, दम्पति चतुर
प्रवीन प्रवीना ॥
अति अनुराग सुहास परस्पर कोक कला गुण निपुण नवीना |
श्रीबिहारिदास बलि बलि पंदसि यह मुदित प्राण न्यौछावर कीना ||12||

वृन्दावन की नवीन कुंज में जहाँ प्रिया प्रियतम ने सिज्जा पर सारी रात व्यतीत करी, तहाँ भोर होने पर, कुंज द्वार पर ललिता जी ने बहुत ही सरस, वीणा पर अलाप छेड़ी अलसाये दोनों सिज्जा पर सोये सोये ही मधुराको रहे हैं। ललिताजी वाणी तो बजाई कि अब उठिये सखियाँ दर्शन को खड़ी हैं, परन्तु वीणा के मधुर सुरों को सुनकर इनकी तो चाह और बढ़ी, दोनों कोक कलाओं में प्रवीन, चतुराई से पौढ़े ही है। एक दूसरे से परस्पर सुहाग है, अति अनुराग है, और कोक-कला के नतीन गुणों से दोनों निपुण है।

श्रीविहारिनदास जी यह इस छवि का अनुभव करते हुए अति प्रसन्न होकर वन्दना को हुए

बलिहार- बलिहार करते प्राण न्यौछावर करते हैं।


जगाय री भई बेर बड़ी ।
अलबेली खेली पिय के संग अलकलड़े के लाड़ लड़ी ।।
तरलि किरन रन्धन है आई, लगी निवाई जानि सुकर वर तहाँ हहौ ही है रही अड़ी।
श्रीविहारिनिदासि रति को कवि वरनै जो छवि मो मन मांझ गड़ी ||13||

सखी के बोल-सखी के प्रति बहुत देर हो गई है, अरी (प्रेम का सम्बोधन है), अब तो जगा सारी रात, अपने अलक लड़े प्रीतम के संग लाडिली जी ने विहार कियौ है (अभी भी पूर्ण ज भए क्या ?) देखो सूर्य की किरणें कुंज लताओं के झरोखों में से छिटक रही है, यह जानकर कि किरणें प्रिया-प्रियतम पर पड़ेगी तो उन्हें गरमी लगने लगेगी, मैं ही लताओं के छिद्रों पर अड़ी खड़ी रही।

श्रीविहारिनि दास जी कहते हैं कि प्रेम की सुरतांत छति का यह दृश्य जो मेरे मन में गड़ा है, इसे कौन कवि वर्णन कर सकता है ? अर्थात् अनिर्वचनीय है।


जागो मोहन प्यारी राधा ।
ठाड़ी सखी दरस के कारण, दीजै कुंवरि जु होइ न बाधा |
हँसत-हँसत दोऊ उठे हैं युगल वर मरगजे बामे फबि रहे दुहुँ तन ।
चारत तन मन लेत बलैयाँ देखि देखि फूलत मन है ही मन ||
रंग भरे आनंद जम्हावत अंस अंस धरि बाहु रहे कसि।
जय श्री कमलनैन हित या छवि ऊपर वारों कोटिक भानु मधुर शशि ||14||

सखियाँ कहती है प्यारेलाल जी, प्रियाजी, अब जानिये आपके दर्शन को सखियों द्वार पर खड़ी है, प्यारी जू यदि आपको किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पड़ती हो तो, इन्हें (सुस्तांत) छवि का दर्शन देकर कृतार्थ करें बाधा का शब्द सुनते ही दोनों हंस दिये बड़ी चतुर है यह सखियाँ, हमारे रात्रि के विहार का सारा हाल, हमारी छवि का दर्शन देखकर ही जान लेंगी, हम दुरायो चाहें पर सम्भलने का समय ही नहीं दे रही है- द्वार पर खड़ी उतावली हो रही हैं, ऊपर से व्यंग और कस रही है- यदि बाधा नहीं पड़ती हो तो !! दर्शन दीजिये। क्या करते ? उठ बैठे-सस्चियों के मनोरथ पूर्ण करने को दोनों के श्री अंग में सुशोभित हैं। (सुरतांत छवि की शोभा तो मरगजी बागों से ही है जो समस्त विहार के सार को सूचित कर दें।) रतनदास जी लिखते हैं: “सुरतांत के समय अष्टयाम का जो विलास है, इसके सब सुखों का निचोर है। इस समय प्रिया- प्रियतम जू का हृदय और समस्त अंग सर्व सुख करके पूरन महा आनन्दित रसमय होता है ऐसे अद्भुत दर्शन पाकर सखियाँ तन-मन से बलिहार है, मन ही मन फूली नहीं समात है। प्रेम-रंग में सने, आनन्द में प्रिया-प्रीतम जमाई लेते हैं, दोनों के बाहु एक दूसरे में कसे हैं, जैसे कह रहे हों-सखियों हम तो तो रात भर गहरी नींद सो रहे थे-तुम तो यो ही हर बात का बतंगड़ बनाप देती हो। श्रीकमतलजैन जी महाराज अपने श्रीहित वरूप को नमस्कार करते हुए कहते हैं इस अद्भुत छवि पर कोटि-कोटि भानु की उज्ज्वलता और कोटि-कोटि चन्द्रमा की मधुर शीतलता न्यौछवर है “चंदन मयंक जगमगत अतिसे रवि-ससि ही को तेज छियावे ।”


अवहि निसि बीती नाहिंन वाम।
तुम मुख इन्दु किरण छवि व्यापी, कहत प्रिया सों श्याम।।
अंग-अंग अरसान वाम छबि मानि लेढु अभिराम
रहसि माधुरी रूप हित चित्त में होत न पूरन काम ||15||

यह सम्पूर्ण पद अभिवचनीय हितानन्द की लहरों से ऐसा गर्शित है कि इसपद की उपमा को कोई और पद ही दिखाई नही देता । और यदि किसी महात्मा में इस भाव को इतनी ही सुन्दरता से व्यक्त कियौ है तो उन्हें मेरी दण्डवत् स्वीकार हो । भीरूपलाल जी महाराज की कृपा मनाऊँ, जो मुझे बुद्धि प्रकाश दें तो पद के भाव को तनिक खोल सहूँ। जै जै श्रीहरिवंश

वह चैन’ जब थोड़ा-सा अपने स्थान से सरका, तो विपरीत रति के वैम ने प्रियाजी को तनिक झकझोरा-डड़ बैठी। लालजी ने देखा पहले से ही अमित है अब फिर विहार में रत हायेंगी तो और भमित हो जायेंगी, लगे बतराने-प्यारी प्रिया, अभी से क्यों उठ बैठी है- अभी तो रात्रि बीती नहीं है, यह जो ऊपाकालीन प्रकाश आप देख रही है यह तो आपके चन्द्रमुखी मुखारविन्द की कान्ति की किरणें है जिनसे सारा कुंज मन्द-मन्द प्रकाशित हो रहा है और आपके अंग-अंग की अरसान से जो छवि की तरंने उठ रही है, देखिये ना वह कितनी सुन्दर है। प्रियाजी तो भोरी है ही आगे क्या हुआ ? यह तो रहसि माधुरी “एकान्त में माध् पुरी की तरंगे है जो वित्त में उठती रहती है तो प्रिया प्रीतम कभी तृप्त नही होते श्रीरूपलाल जी महाराज कहते है। इति। जै श्रीराधे ।


आजु देख ब्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि
अंस-अंस बाहु दै किशोर जोर रूप राशि,
मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि पिकनि अपने सुर सो मेलि
मदन मुदित अंग-अंग बीच-बीच सुरत रंग, पल-पल हरिवंश पिवत जैन चषक झेलि ॥16॥

यह श्रीहित चतुरासी जी का पद है। अनेक टीकारों हो चुकी है। प्रेमदासजी महाराज, श्रीलोकनाथ जी महाराज, महात्मा श्रीस्तनदास जी, सुखलाल जी महाराज इत्यादि की प्राचीन टीकाएँ बड़ी भावपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आधुनिक टीकाएँ भी है।

प्राचीन टीकाओं से ऊपर उठकर कुछ कहने की मेरी क्षमता नहीं है। इसलिए इस पद का अर्थ प्राचीन टीकाओं के आधार पर ही कर रहा हूँ।

आजु देखी व्रज सुन्दरी मोहन बनी केली: प्रिया- प्रियतम नित नवीन बने रहे हैं और इनके विहार का आदि-अन्त नहीं। इसलिए यहाँ एकरस सदा ‘आज’ भी है। ब्रज-यानि समूह सो सखियों के समूह में जो महासुन्दर प्रियाजी है उनकी और मोहनलाल की केलि बनी है बनी है, यानि जैसी होनी चाहिये वेसी ही, जिसने तुम दोनों को मोहित कर रखा है।

अंस अंबा दें किशोर जोर रूप राशी, मनी तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि:

दोनों के बाहु परस्पर एक दूसरे के भौर – श्याम अंसों पर विराजे है और तुम दोनों किशोर हो , केलि की चाह सदा बनी रहती है । तुम दोनों रूप की राशि हो सो मानों सरस रूप रसमय कनक की बेलि लपट रही है । प्रिया प्रियतम के महा कोमल अंग हैं , जो विहार के समय बेलि और वृक्ष की तरह लपटे रहते हैं ।

नव निकुंज भ्रमर गुंज मंजु घोष प्रेम पुंज , गान करत मोर विकानि अपने सुर सो मेलि :

इन दोनों की जो लपटान है सोई नव निकुंज है । इस नव निकुंज में इन दोनों के अमर रूपी मन मधुर गंजार करते हैं सो प्रेम कौ पुंज है । विलास ही में रास की रचना हो रही है , मनोहर मोर जो श्रीमोहन और कलित कोकिला जो कंतरी जू की परस्पर की रस भरी गोलन है वही गान है जिसे सुर से मिलाकर कर रहे हैं । यह दोनों एक दूसरे को पोषने में तदाकार है , प्रेम के मिले सुर से गा रहे है ।

मदन मुछित अंग – अंग बीच बीच सुरत रंग पल पल श्रीहरिवंश पीवत नैने चाषक झेलि :

तुम्हारे अंग – अंग प्रेममय मदन के आनन्द से भरे है और बीच – बीच में प्रेम के वोज , चुम्बन परिरंभन आदि हो रहे है । श्रीहित सखी जी कहती है तुम्हारा यह प्रेममयी रसासब मैं पल – पल जैन रूपी पात्रों से पान करके जीती है इति ।।


आजु सखी, अद्भुत भाँति निहारि।
प्रेम सुदृढ़ की ग्रंथि जु परि गई, गौर स्याम भुज चारि॥
अबहीं प्रातः पलक लागी है मुख पर श्रमकन वारि।
नागरीदास निकट रस पीवहु अपने वचन विचारि॥17॥

हित नागरीदासजी अपने सखी स्वरूप में स्थित निकटवर्ती सखी से कहते है ।

‘ हे सखी , प्रिया प्रियतम विहार से अमित , अलसाय कर , अभी – अभी नेक सोए है । तुम जगा मत देना ) ।


अबही नेंकु सोए है अलसाय ।
काम केलि अनुराग रंग भरे जागे रैन विहाय ।।
बार – बार सपनेहूँ सूचत रंग के भाय ।
यह सुख निरखि सखीजन प्रमुदित नागरीदास बलि जाय।।18 ।।


परस्पर अनुराग के रंग में भरे प्रेम विहार करते सारी रात बीत गई प्रेम के भर में स्वप्न में भी बार – बार उसी प्रेम के भावों को प्रकट कर रह है

सिज्जा महल में सुख को देखकर सखियाँ आनन्दित हो रही है , नागरीदास जी स्वयं संबोधन करके कहते हैं , ‘ बलिहार जाऊँ । इति ।


सिटपिटात किरनन के लागे ।
उठि न सकत लोचन चकचौधत , ऐचि ऐचि ओढ़त बसन जागे ।
हिय सौ हिय मुख सौ मुख मिलवत रस लम्पट सुरत रस पागे ।
नागरीदास निरखि नैनन सुख मति कोऊ बोलौ जिन आगे ।।19 ।।

सिज्जा महल में , ऊषाकालीन , कुंज के सन्ध्रों में से सुनहरी किरणें सुबह होने का संदेश देती छिटको लगी प्रिया प्रियतम पर पड़ी तो नेक बेवैन से होने लगे । कोमल नेत्र अचानक किरणों का स्पर्श पाकर टि या गए । आनसवलित , जैसे तैजे नेक जागे , और अपने अपने वसन धीरे धीरे खींचातानी करते ओळने लगे , ” देखि संभार पीतपट ऊपर कहाँ चुनरी राती । ” इसी खींचातानी में प्रेम का भर हो आया हिय से हिय , मुख से मुख मिल गए . अधयमृत का आदान – प्रदान होने लगा । दोनों रस – लम्पट सुरत रस में पगे हैं ।

हित नागरीदास जी कहते हैं , हे सखियो अपने नैनों के पुट से इसको झेलो , चुप रहो , और सामने मत जाना , क्योंकि तुम्हे आया देखकर संकुचा जाएंगे तो विहार का सुख जाता रहेगा । तहाँ ध्रुवदास जी का मार्मिक दोहा – “

नाइक तहां न नाइका , रस करवावत केलि । सखी उभै संगम सरस , पियत नैन पुट झेलि ॥


भोर भये सहचरि अब आई ।
यह सुख देखत करत बधाई ।।
कोऊ बीना सारंगी बजावै ।
कोऊ इक राग विभासहिं गावै ।।
एक चरण हित सों सहरावै ।
एक बचन परिहास सुनावें ।
उठि बैठे दोऊलाल रंगीले ।
विधुरी अलक सबै अंग ढीले ।
घूमत अरुण नैन अनियारे ।
भूषण बसन न जात संभारे ।।
हार बार मिलि के उरुझानि । निशि के चिन्ह निरखि मुसिकाने ।।
निरखि निरखि निसि के चिह्न रोमांचित है जाहिं ।
मानौ अंकुर मैन के फिर उपजे तन माहिं।।
20 ।।

प्रातः हुई और सखियाँ सुरतांत छवि का दर्शन करने सेवा में आ पहुँची । दर्शन का सुख पाकर और एक दूसरे को बधाई देती है ।

कोई वीणा तो कोई सारंगी बजा रही है तो कोई राग विभास ही गा रही है । आनुसंगिक अर्थ है कि गाना बजाना एक ही राग में सुर से सुर मिलकर हो रहा है । एक चरण पलोटत है तो हास परिहास कर रही है । सखियों के मनोरथ पूर्ण करने हेतु दोनों उठ बैठे है । प्रियाजी की अलकें बिथुरी है और सभी अंग अंग में अरसान छाई है । प्रेम के भर में मैन अरुण है और गोलाक धूम रहें है । ” अरुण जैन धूमत आलस जुत कुसुम गलित लट पाँती । “

भूषण तसन सब अस्त व्यस्त हो रहे है । प्रियाजी का अंजन लाल जी पर और लालजी की पीक प्यारी के कपोलों पर लगी है । कपोलों की शोभा ऐसी बढ़ी मानों पीक कपोल कमल पर झोरी । ” ऐसी सुन्दर छवि भला कैसे वर्णन की जा सकती है । विहार के समय दोनों के हार और बाल जो परस्पर उलझ गए थे सुरझा रहे है । जैसे – जैसे सुरझाते हैं , और उलझते जाते है । ‘ नख सिखलों दोऊ उरझि रहे , नेकहूँ सुरझत नाहि । ज्यों – ज्यौ रूचि बाढ़ अधिक , त्यौ – त्यौ अधिक उरझाहिं ” ध्रुवदासजी ।

प्रेम बिहार में , श्री अंगों पर रात्रि में लगे चिह्नों को देखकर मुस्करा रहे हैं । ” फूले अधर पयोधर लोचन , उर नख भुज अभिरामिनी । गंडनि पीक मषि न दुरावति , ‘ व्यास ‘ लाज नहीं कामिनी । “

रात्रि के चिन्हों को देख – देखकर फिर दोनों को रोमांच हो रहा है , मानों प्रेम के अंकुर फिर से तन में अंकुरित हो उठे हैं । चाचा श्रीवृन्दावन दास जी अपने एक पद में कहते हैं

सकुचत सुरतांत चिन्ह देवि देखि समुझि – समुझि सुखहि लियें मनहि दिये हितु बढ़ायौ । लसत मरगजे सुवीर , भवन भई शोभा भीर , दुहुन को सुहाग भाग छकि छकि दुलरायो । ” सुहृदयों के हृदयगम्य है ।


राधा प्यारी मेरे नैने सलोल ।
तै निज भजन कनक तन जौवन , लियौ मनोहर मोल ।।
अधर निरंग अलिक लट छूट , रंजित पीक कपोल ।
तू रस मगन भई नहिं जानत , ऊपर पीत निचोल ।।
कुच युग पर नख रेख प्रगट मानौ , शंकर शिर शशि टोल ।
जय श्रीहित हरिवंश कहति कछु भामिनी अति आलस सों बोल ।।21 ।।

यह भी श्रीहित चतुरासी जी का पद है । प्राचीन टीकाओं के आधार पर अर्थ प्रस्तुत है ।

मूल : – राधाप्यारी तेरे नैन सलोल ।
राधाप्यारी तेरे नैन अतिशय करके ललिता सों भरे चंचल है ।
अपार गुण है इन नैनों के । ऐसे रंग भरे कटाक्ष चलते है कि लाल जी के प्राण अपने वश में करते हैं , अति बाँके है , किसी के बस नहीं , अति रिझावर है , नेक चोज की बात देखि , तुरन्त रीझ जाते है ।

मूल : – तै निज भवन कनक तन जीवन लियों मनोहर मोल :
भजन शब्द के दो अर्थ है । एक तो सेवा दूसरा अंगीकार करना । तै निज भजन – भक्ति रति विपरीत सों , कनक तन- जिस श्री अंग में ओटे हुए कनक की सी आभा है , जीवन करके प्यारे को मोल लीयो है । कहने का अभिप्राय यह है कि प्यारो आप पर न्यौछावर हो गयो है ।

मूल : – अधर निरंग अलिक लट छूटी रंजित पीक कपोल :
तुम्हारे अधरों में रस रंग का भर रहा , जो प्रीतम को महा विलास में परमान्द दियौ , जिससे बेनी के बन्ध ढीले हो गए है और चिकुर चन्द्रिका से लटें छूटकर भालस्थली पर राजे है , कपोलों पर पीक लगी है । ।

मूल : – तू रस मगन भई नहीं जानति ऊपर पीत निचोल :
तू रस में ऐसी मगन भई कि तुम्हे पता नहीं पड़ा कि प्रीतम का पीताम्बर तुम्हारे ऊपर कब आ गया । श्रीअंगों की अद्भुत शोभा बढ़ी है ।

मूल : – कुच युग पर नख – रेख प्रगट मानों , शंकर शिर शाशि टोल :
दोनों कुतों पर विहार में प्रीतम के नखों की रेखा सी बन गई है । सो ऐसा प्रतीत होता है , शंकरजी के सिर पर जैसे अर्ध चन्द्रमा विराजे है , वैसे नव रूपी चन्द्रमा के समूह की अबली बन गई है ।
कुच नखरेख धनुष की आकृति मनो शिव शिर शाशि राजै ।
सुनत ‘ सूर ‘ प्रिय वचन सखी मुख , नागरी हँसि मन लाजै ।।

मूल : – जै श्रीहित हरिवंश कहत कछु भामिनी अति आलस सों बोल :
जब प्रियाजी ने ऐसे रंग भरे वचन सुने तब अन्तर में तो अति आनन्दित हुई पर ऊपर से सकुच के आलसवंत भइ बोली ” हित सखे तुम तो ऐसी बातें बनाती ही कि आशचर्य को भी आश्चर्य होता है । इसी प्रकार आनन्द की अलसान में प्रियाजी कुछ कहती रही . ” हित सखी जू कहती है । इति ।


मंगल समय खिचरी जेंवत है श्रीराधावल्लभ कुंजमहल में ।
रति रसमसे गसे गुण तन मन नाहिन संभारत प्रेम गहल में ||
चुटकी देत सखी संभरावत हंसत हंसावत चहल पहल में ।
जै श्रीकुंजलाल हित यह विधि सेवत समै समै सब रहत टहल में ||22||

श्रीवृन्दावन कुंज महल में प्रिया प्रियातम खिचरी आरोग रहे हैं ।
प्रेम रस में भीजे , दोनों के तन मन परस्पर एक दूसरे से जुड़े है , प्रेम की उन्मत्तता के कारण अपने को संभाल नहीं पा रहे हैं ।

प्रेम की गहर में से यह निकलें तो सखियों के मनोरथ पूर्ण हों अत : सखी चुटकी बजाकर सावधान करती है , चहल पहल है हास परिहास कर रही है ।

श्रीकुंजलाल जी महाराज कहते है कि इसी प्रकार सखियाँ हर समय , समय के अनुसार सेवा में रहती है ।


खिचरी जेवत है पिय प्यारी ।
सीत समै रुचि जानि सुगंधन मेलि सखीनु सँवारी || पहले प्रियह जिवावह जेंवत रसिक नरेस महा री
जै श्रीकुंजलाल पिय की बातन की घातन जानन हारी ||23||

प्रिया प्रियतम खिचड़ी आरोग रहे है । शीत समय जानकर सखियों ने सुगन्धित पदार्थ डालकर खिचड़ी को संवार दिया है । रसिक नरेश पहिले प्रियाजी को जिमाते हें फिर स्वयं पाते है । श्रीकुंजलाल जी महाराज कहते हैं । कि प्रीतम बातों में जो खुशामद कर रहे हैं , इन घातों को , प्रियाजी खूब जानती है ।


खिचड़ी राधाबल्लभ जू कौ प्यारौ ।
किसमिस दाख चिरौजी पिस्ता अद्रक सौ रुचिकारी ||
दही कचरिया वर सैधाने बरा पापर बहु तरकारी ।
जायफल जावित्री मिरचा घृत सों सीच संवारी ||24||

अर्थ स्पष्ट है ।


खिचरी जेंवत जुगल किशोर ।
निसि अनुरागे दम्पति उठे उनीदे भोर |
अंग अंग की छवि अवलोकत ग्रास लेत मुख सुखहि निहोर ।
जै श्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी बिबि मुखचन्द्र चकोर ।।25।।

श्री श्यामा श्याम खिचड़ी आरोग रहे है । सम्पूर्ण रात्रि विहार करने के बाद , अति अनुराग का भर लिए दोनों उनीदे उठे है ।

एक दूसरे के अंग की छवि देख – देखकर सुख का अनुभव करते , बड़े – बड़े निहोरे से खिचड़ी का ग्रास मुख में लेते उजाते हैं ।

श्रीरूपलाल जी महाराज कहते है कि प्रिया – प्रीतम एक दूसरे के मुख को चन्द्र और चकोर की भाँति निहारते रहते हैं ।


अधिक हेत सों पावें पिय प्यारी ।
थार सैंजोये धरें कर आवति , सीत समै रुचिकारकी ।।
बहुत मेवा मिलबारी अचारी , बासौधी लीये सब ठाड़ी ।
यह सेवा हित नित्त कृपा प्रिय सों राधालाल संवारी ।।26।।

प्रिया प्रीतम बड़े प्रेम से खिचरी पा रहे हैं । खिचड़ी के थार संजोकर हाथों में लिए सखियाँ लिए आ रही है , सदी में रुचिकारी है । बहुत प्रकार का मेवा , मिलबरी , अचार बासौधी ( एक प्रकार की बड़ी ) लिए सखियाँ खड़ी है । श्रीराधालाल जी ने यह सेवा श्रीप्रिया प्रीतम की कृपा से संवारी नोट – बड़ों से सुना है कि श्रीराधालाल जी महाराज बड़े अनुराग आ पाए । जब दूसरे सहयोगी बनाने बैठे तो कहते हैं मनो – मन लकड़ी फुक गई परन्तु खिचड़ी सिद्ध नहीं हुई । आखिर उन्हें जैसे तैसे बुलाया गया उन्होंने आकर खिचड़ी को संवारा तो भोग लगा ।


रूप रसासव माते दोऊ श्रीराधाबल्लभ जेंवत खिचरी ।
अरस परस मुसिकात जात बतरात बात बात बोलत बिच बिचरी ।।
खाटे सरस सँधाने नव – नव पापर कचरी लेत रुचि – रुचि री ।
नेह निहोर जिवाँवत हित सखी कोमल मधुर ग्रास घृत निचुरी ।।
फरगुल सुरंग रजाई कनक अंगीठी अगरसत सचरी ।।27।।

रूप रसासब में दोनो मत्त , प्रिया प्रीतम खिचरी पा रहे हैं ।
दानों मुस्कराते जाते है और पाते समय परस्पर बीच – बीच में बतबताते जाते हैं । कई प्रकार के खाटे और सरस आचार , पापर , कचरी बड़े प्रेम से आरोग रहे हैं ।

श्रीहित सखी जू घृत से निवुड़ि खिचरी के कोमल मधुर ग्रास बड़े नेह और निहोरा कर करके प्रियालाल को जिमा रही है ।
श्रीयुगल ने सुरंग ( लाल ) रजाई , फरगुल ओढ़ रखी है और पास में सोने की अंगीठी ‘ अगरसत ‘ डाली हुई रखी है ।
नोट : – अगर मगर एक विशेष प्रकार के वृक्षों को कहते है जिसकी छाल का इत्र भी बनता है जो बहुत कीमती होता है ।


चलौ चलौ सखी देखें दोऊ जैवै ।
भरे थार खिचरी घृत निचुरी के आगे , हँसि हँसि सुकुमार प्यारे कैसे दोऊ जैवें ।।
प्रिया के मुख पीये देत पिय के मुख प्यारी ।
बीच – बीच अधर पान प्रानन सो हेरै ||28||

अर्थ स्पष्ट है ।


प्यारे जैवत है सुकुंवार ।
सरस सुगंध उठत उछगारें भरि खिचरी के थार ।।
पापर कचरी तलप कटाक्षन भृकुटी मुरन को अचार ।
जुरे परस्पर नैन दुहुन के प्रेम रूप को अहार ।।
पहिलै प्रियहिं जिवाँवत जैवत रहत है वदन निहार ।
ऐसी विधि सों जेंवत प्यारे हित सुख की ज्यौनार ।।29।।

दोनों सुकुमार लाड़िली लाल खिचरी आरोग रहे है ।
अब आरोगने की रीति कहते हैं । सिज्जा महल में खिचरी के भरे थाल रखे है , पापर , कचरी भृकुटि मुरन कौ आचार ( सेम का आचार है ) सरस सुगन्ध की उगारें उठ रही है ।

सिज्जा पर परस्पर दोनों के मैने जुड़े है , कटाक्ष चल रहे हैं , लालजी प्रियाजी की प्रेम रूप माधुरी का आहार करते जाते है और संग – संग प्रिया जी को जिमाते हैं और स्वयं जैमते जाते हैं हैं । ऐसी विधि से यह हित रूपी सुख की ज्यौनार परस्पर हो रही है ।


भोर मिलि जैबै दोऊ बनी – बनरा खिचरी ।
झमक सेज तें उठे उनींदे ब्रजजीवन घृत सों निवुरी ।।
मंगल रूप समै मंगल में रूचि सौ खिचरी पावै ।
ओढ़े फरगुल रंग सहानी छवि जीव जिबावै ।
झुकि – झुकि परत नैन अलसोहें हित सजनी फैनी अरु बासौदी ब्रजजीवन मन भावै ।
अदरक कूचा बन्यौ चटपटौ कर पल्लव दोऊ चाटें ।
वे उनके वे उनके मुख सों हँसि – हँसि सों लावै ।।
नथ उठाय बेला पय पीवैं कौतुक रंग मचावै ।
ब्रजजीवन हित कहाँ लगि बरनौ कुंज महल के ठाठै ||30||

प्रिया प्रीतम प्रातः दोनों मिलकर घृत से निचुरी खिचरी आरोग रहे हैं ; बनी बनरा- कहा , सो श्रृंगार सहित विराजे है- ऐसे जानिए । बड़ी छवि सों सिज्जा पर से उनीदें उठे हैं । बड़ी रूचि सों , ये दोनों मंगल रूप , सबेरे के मंगलमय समय में , खिचड़ी आरोग रहे है । सहानी रंग की फर्मुल ओढ़ रखी है , सुन्दर छवि को देखकर सखियां बलिहार है । युगल एक झुकने लगते है तब हित सजनी सम्हार करती है । माखन , मिश्री मगढ़ के लड्डू , पाक , मुरब्बा पाते है ।

अदरक कूचा चटपटा बना है जिसे पल्लू की ओट में दोनों चाट रहे हैं । दोनों हँसते जाते है और एक दूसरे को पवाते जाते है । प्रियाजी नथ उठाकर बेला में से दूध पी रही है । ( बेला एक विशेष प्रकार का चपटा गोल पात्र होता है जिसके किनारे थोड़े ऊपर की ओर उठे हुए होते हैं । और ऊपर से किनारे भीतर की ओर मुड़े रहते हैं । यह ब्रज का बहुत मांगलिक पात्र माना जाता है । घर में पुत्र जन्म होने पर बेला बजाते हैं , शादी व्याह में इसका प्रयोग तरह – तरह के मांगलिक कार्यों में होता है ।

ब्रजजीवन जी महाराज कहते हैं कुंज महल के इस ठाठ का कहाँ तक वर्णन करूँ ।

खिचरी युगल रुचि सों खात ।
पौष शुक्ला दोज तें लै मास एक प्रभात ||
दही कचरी वर संधाने बरा पापर घीय ।
ढिग अंगीठी धरी मीठी लगत प्यारी पीय जल पिवाय धुवाह हाथ अगौछ बीरी देत ||
सखीजन बाँटति तहाँ हित ब्रजलाल जूठन लेत ||31||

अर्थ स्पष्ट है ।


अचवन बीरी दै मंगल आरती सजि बाढ़यौ सखिन मन मोद ।
जै श्रीकुंजलाल हित असीसत एसै ही करौ विनोद ।।
जै श्रीकिशोरलाल हित रूप अलि बाँटत देति लेति सब सखी सहचरि कृष्णदास आसपास निरखत हित को विलास , दौरि – दौरि आवें सखी जूठन कौ लेवै । चलौ चलौ सखी देखै दौऊ जै चुके , जै चुके , जै चुके ||32||

अर्थ स्पष्ट है । 


निरखि आरती मंगल भोर |
मंगल स्यामा स्यामा किशोर ।।
मंगल श्रीवृन्दावन धाम ।
मंगल कुंज महल अभिराम ।।
मंगल घंटा नाद मु होत ।
मंगल थार मणिनु की जोति ।।
मंगल दुंदुभी धुनि छबि छाई ।
मंगल सहचरी दरसन आई ।
मंगल वीणा मृदंग बजावै ।
मंगल ताल झाँझ झरलावै ।।
मंगल सखी यूथ कर जोरै ।
मंगल चंवर लिये चहुँ ओरै ।।
मंगल पुष्पावलि बरसाई ।
मंगल जोति सकल बन छाई ।।
जै श्रीरूपलाल हित हृदय प्रकाश ।
मंगल अद्भुत युगल विलास ||33 ||


यहि विधि मंगल आरती करी ।
निज मंदिर आगै चिक परी ।।
ललितादिक भीतर अनुसरी ।
जै श्रीकमलनेंन हित सेवा भई ।
श्रीराधे , किशोरी राधे , लड़ैती राधे ।
श्यामा प्यारी जय राधे || 34 ||

अर्थ स्पष्ट है ।


इति खिचरी उत्सव श्रृंखला की जै जै श्रीहरिवंश

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“सखी सम्प्रदाय” क्या होता है ?

अक्सर हम वृंदावन में स्त्रियों की तरह सोलह-श्रृंगार किये हुये पुरुषों को देखते हैं, जो कि बहुत मस्त भाव से श्रीकृष्ण को रिझाते हुये उनके आगे नृत्य करते हैं। जो लोग उनके इस भाव को नहीं जानते हैं उनके मन में उन्हें देख कई तरह के विचार आते हैं। ये कौन हैं, क्या रूप बना रखा है, स्त्रीवेश में क्यों घुमते हैं, इत्यादि।

ये लोग सखी सम्प्रदाय के होते हैं, जिसे सखीभाव सम्प्रदाय भी कहा जाता है। सखी सम्प्रदाय, निम्बार्क मत की एक शाखा है जिसकी स्थापना स्वामी हरिदास (जन्म सं० १४४१ वि०) ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी सम्प्रदाय के ये साधु अधिकतर ब्रजभूमि में ही निवास करते हैं।

स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।

यह सम्प्रदाय “जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी” के आधार पर अपना समस्त जीवन “राधा-कृष्ण सरकार” को न्यौछावर कर देती है। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को “सोलह सिंगार” नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी सम्प्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं, यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानते हैं।

ऐसे ही कोई भी व्यक्ति सखी नहीं बन जाता, इसके लिए भी एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। तथा इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं। निर्मोही अखाड़े से जुड़े सखी सम्प्रदाय के साधु अथवा सखियाँ कान्हा जी के सामने नाच कर तथा गाकर मोहिनी सूरत बना उन्हें रिझाते हैं।

सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी सम्प्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी सम्प्रदाय के साधु सफेद तिलक, जो की राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं।

सखी सम्प्रदाय से जुडी एक और बात बहुत दिलचस्प है की इस सम्प्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी सम्प्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस सम्प्रदाय को दर्शनीय बनाता है।
“जय जय श्री राधे”

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संसारी-प्रेम और दिव्य प्रेम में क्या अन्तर है ?

प्र०-महाराजजी, प्रेम का स्वरूप क्या है, संसारी-प्रेम और दिव्य प्रेम में क्या अन्तर है ?

समाधान : विशुद्ध दिव्य-प्रेम का स्वरूप उज्जवलता, निर्मलता,
सरसता, स्निग्धता एवं मृदुता की सीमाओं के मिलने से बनता है । यह नित्य नूतन, एक रस एवं नित्य नई रुचि उत्पन्न करने वाला होता है। वास्तव में अद्भुत और सरस प्रेम वह है जिसके उदय होने के साथ मन को सम्पूर्ण एकाग्रता प्राप्त हो जाती है। जिसके दुःख (वियोगजन्य दुःख) की समानता संसार का कोई सुख नहीं कर सकता फिर उसके सुख की गति का वर्णन कौन कर सकता है ?

ब्रह्मादिक के भोग सुख विष सम लागत ताहि ।
नारायन ब्रज-चन्द्र की लगन लगी है जाहि ॥
नारायन हरि लगन में यह पाँचों न सुहात ।
बिषय भोग निद्रा हँसी जगत प्रीति बहु बात ॥
नहीं खान-पान तेहि भावै है, नहीं कोमल वसन सुहावै है ।

सब विषय लगै तेहि खारा है, हरि आशिक का मग न्यारा है ॥ रसिक संतों ने प्रेम के विशुद्ध रूप को प्रकाशित करने वाली उसकी मुख्य वृत्ति को बताया है, वह है- तत्सुख-सुखित्व भाव । प्रियतम के सुख में सुखानुभव करना शुद्ध प्रेम का सहज स्वभाव है। प्रेम में जहाँ तक अपने सुख की कामना है, वहाँ तक वह काम वासना से अधिक ऊँचा नहीं उठता । अपने सुख की मृग मरीचिका नष्ट हो जाने पर ही दिव्य-प्रेम की प्राप्ति होती है ।

श्रीहित चतुरासी जी की पहली दो पंक्तियों से श्रीप्रियाजू इस तत्सुख प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शा रहीं हैं –

जोई जोई प्यारी करै, सोई मोहि भावै,
भावै मोहि जोई, सोई सोई करें प्यारे । (हितचतुरासी १)

अपने सुख के लिए प्रेम करता है अतः वह स्वार्थी होता है, कामी इसके विपरीत जो संसारी-प्रेमी होता है वह प्रेमास्पद होता है, भोगी होता है, उसे प्रेम थोड़े ही कहते हैं। प्रेम तो विशुद्ध होता है, सुख देने की भावना प्रेम में होती है सुख लेने की नहीं; और ये प्रेम सिर्फ सच्चिदानन्द प्रभु से होता है ।

नाशवान देह को लेकर के, नाशवान रूपों को लेकर के जो प्रेम होता है उसमें मोह होता है, आसक्ति होती है, राग होता है, काम होता है ।

अभी सच पूछो तो हम अपने शरीर और परिवारवालों से प्रेम करते हैं प्रभु से नहीं; जिस दिन प्रभु से वास्तविक हृदय से प्रेम हो जायेगा, फिर भजन-साधन करना थोड़े ही पड़ता है बल्कि स्वाभाविक होने लगता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रभ से वरदान माँगा –

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ (श्रीरामचरितमानस ७ / १३०)

हे मेरे राम ! आप हमें ऐसे प्यारे लगो जैसे कामी पुरुष कामिनी से प्यार करता है, वह कभी कामिनी के ध्यान का प्रयत्न थोड़े ही करता है लेकिन बिना ध्यान किये उसके हृदय में हर समय कामिनी वसी रहती है; इसी तरह लोभी पुरुष धन के चिंतन का प्रयत्न थोड़े ही करता है, स्वाभाविक उसे धन का चिंतन होता है, ऐसे ही हे मेरे राम ! हे मेरे प्रियतम ! हे मेरे प्रभो ! मैं आपकी यादमें मतवाला रहूँ, आपके सिवाय कुछ भी मुझे अच्छा न लगे ।

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कथा सुनने के क्या लाभ है ?

भागवत की कथा अर्थात भगवान की कथा तो है ही पर भगवान की कथा बिना भक्तो की कथा के अधूरी है.
इसलिए हर शास्त्र में पुराण में भगवान की कथा के साथ साथ भक्तो की कथा भी आती है.नवधा भक्ति में सबसे पहली भक्ति श्रवण ही है.

जो हम कानो से सुनते है वही हमारे ह्रदय में प्रवेश करता है,और फिर वही हम बोलते है.यदि हम कथा सुनते है तो मुख से कथा ही निकलेगी.

“जिन्ह हरि कथा सुनी नहीं काना, श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना”

संतजन कथा सुनने के चार लाभ बताते है-

1. – तृष्णा रहित वृति
2. – अन्तः करण की शुद्धि
3. – अनन्य भक्ति
4. – भक्तो से प्रीति

1. तृष्णा रहित वृति – यदि कथा ईमानदारी से कही और सुनी जाए तो दोनों कहने और सुनने वाले को पाने की अभिलाषा नहीं रह जाती.

इसलिए सुनने वह ये निश्चय करके कथा में बैठे कि कथा मनोरजन नहीं है,मनो मंथन है.कथा एक आईना है,

जिसमे हम स्वयं को देखने आये है,सामान्य आईना सिर्फ बाहरी रूप रंग दिखाता है और कथा आतंरिक भावों को दिखाती है,कि हम वास्तव में क्या है.

और सुनानेवाले अर्थात वक्ता कथा को व्यापार या रोजी रोटी का साधन न समझे.सुनने वाला तो एक ही काम कर रहा है

केवल सुन ही रहा है पर वक्ता दो काम एक साथ कर रहा है एक तो सुना रहा है साथ साथ सुन भी रहा है.जब ऐसी ईमानदारी रखेगे तो फिर तृष्णा रहित वृति हो जाती है

2. अन्तःकरण की शुद्धि – सत्संग कथा झाड़ू है जैसे खुला मैदान है दो तीन बार झाड़ू लगा दो सब साफ़ हो जाता है,इसलिए अपने अतः करण में सत्संग की झाड़ू लगाते रहो, जैसे यदि हम कुछ दिनों के लिए कही बाहर जाते है और लौट कर आने पर हम देखते है कि जब हम गए थे तब सब खिडकी दरवाजे बंद करके गए थे फिर भी धूल कैसे आ गई.

इसी तरह यदि कोई संत ही क्यों न हो यदि उसने सत्संग के दरवाजे बंद कर दिए तो उनके अंदर भी मैल ,धूल जमा हो जाती है.

इसलिए जैसे घर को साफ रखने के लिए बार बार झाड़ू लगाते है वैसे ही अंत करण को शुद्ध रखने के लिए कथा रूपी,सत्संग रूपी झाड़ू लगाते रहिये.

3. अनन्य भक्ति – जब किसी के बारे में सुनते रहते है जिसे हमने कभी नहीं देखा तो बार बार उसके बारे में सुनते रहने से स्वतः ही हमारे अंदर उसके लिए प्रेम जाग्रत हो जाता है.

इसी तरह जब हम बार बार कथा सुनते है तो ठाकुर जी के चरणों में हमारी स्वतः ही भक्ति जाग्रत हो जाती है.जैसे लोभी को धन कामी को स्त्री ऐसे ही हमें श्यामा श्याम प्यारे लगने लगते है.

4. भक्तो से प्रीति – भक्त तो भगवान से सदा ही प्रार्थना करता है कि हे नाथ ऐसे विषयी पुरुष जो केवल स्त्री धन पुत्र आदि में लगे हुए है

का संग भी स्वप्न में भी न हो हमारा कोई अपराध को तो सूली पर चढा दो ,हलाहल विष पिला दो ,हाथी के नीचे कुचलवा दो, सिह को खिला दो, इतना होने पर भी दुःख नहीं मिलेगा पर जो संत से विमुख है,हरि से विमुख है ,गुरु से विमुख है जो भगवान और भक्तो से प्रेम न करता हो, उनसे हमारा कोई सम्बन्ध ना हो।

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गोपी प्रेम क्या है ?

शरीरों से परे भी एक दुनिया होती है जहाँ प्रभु से प्रेम ही प्रेम है, वासना का प्रवेश नहीं है। जहाँ सिर्फ देना ही देना है बदले में कुछ माँगना नहीं, कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं, प्रियतम प्रभु की खुशी में खुश रहना। यहाँ हार ही जीत है, दर्द ही दवा है, वियोग में ही नित्य संयोग है।
लोग गोपिओं की बात करते हैं और कहते है जी गोपिओं ने तो मर्यादाओं का हनन किया है। श्रीमद भगवत महापुराण में एक भी प्रसंग बता दीजिये गोपिओं ने जहाँ मर्यादाओं का हनन किया है? गोपिओं को भगवन जिस जगह पर छोड़ कर गए थे वहाँ से एक इंच भी आगे नहीं गयीं। मथुरा दूर नहीं थी भाव भी कम नहीं थे। वृन्दावन से केवल एक घंटे मे पहुँच जातीं वहाँ पर, पर कभी नहीं गयीं क्योंकि श्यामसुंदर ने कहा था यहीं रहना मै वापिस आउँगा लौट कर। गोपिओं का प्रेम कम नहीं था, बल्कि उमड़ता हुआ छलकता हुआ प्रेम था भाव भी कम नहीं थे। दशम स्कन्द को देखने से पता चलता है गोपियाँ अपने घर का काम करती हैं, सब को खुश रखती हैं, सेवा भाव कूट-कूट कर भरा है। गोपियाँ गाती हैं, श्यामसुंदर की निकुंज लीलाओं को याद करती हैं, इन्तजार है कि हमारे श्यामसुंदर आयेंगे कोई उत्साह कम नहीं हुआ प्रेम में देरी दूरी कहाँ मायने रखती है। उधर भगवन का ऐश्वर्य भी कम नहीं है द्वारिका में अगर चाहते तो बुला लेते बृजवासियों को। एक गोपिमहल या नया व्रज बना लेते रख लेते सब गोप-गोपिओं को द्वारिका मे परन्तु नहीं बनवाया। गोपिओं ने कभी कोई शिकायत नहीं भेजी। प्रेम ने गोपिओं को जीना सिखाया हर काले रंग की चीज में उनको श्यामसुंदर ही दीखते हैं। उमड़ती काली घटाओं में, काली कोयल में, उनको श्यामसुंदर ही दीखते हैं, ये है प्रेम की धन्यता।

राधा और मोहन ने, जग को, प्रीत की रीत सिखाई।
झूठे हैं सारे बंधन, सच्ची बस एक, प्रेम सगाई॥

आज कल के प्रेम से तुलना मत किया करो गोपिओं के प्रेम की

प्रेम वो नहीं जो मरना सिखा दे,
प्रेम तो वो है जो जीना सिखा दे।

आज कल लोग प्रेम में असफल होने पर आत्महत्या कर लेते हैं, फंदा लगा लिया, नस काट ली। ये प्रेम नहीं है ये शरीरों के प्रति आसक्ति व भोग भोगने कि आकांक्षा है। पूरी श्रीमद् भागवत में कहीं नहीं लिखा कि गोपियाँ कोई श्रृंगार नहीं करती, घर का काम काज नहीं करती, रोती रहती हैं, कोई वर्णन नहीं है कि जिम्मेदारियों से भाग गयी या किसी एक भी गोपी ने आत्महत्या कर ली। ये जो मोहब्बत के रिश्ते हैं, यहाँ बहुत सोच समझ के चलना क्योंकि, यहाँ दीये नही दिल जलाए जाते हैं। सूफी लिखते हैं

जे तू जीतना ते प्यार विच देख हार के,
तुझे देखना इबादत पर तेरी याद बंदगी है।
खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा भाव से पार॥

“जय जय श्री राधे”

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क्रोध से कैसे बचे ?

महाराज जी मुझे क्रोध बहुत आता है, उससे हम कैसे बचें ?

समाधान : क्रोध तब आता है जब हमारे प्रतिकूल कोई आचरण करता है ‘कामत् क्रोधभिजायते’ कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध आता है, क्रोध की स्वयं सत्ता नहीं है, वह काम से प्रकट होता है क्रोध करने से स्वये का ही नुकसान होता है, क्रोध तभी आता है जब हमे दूसरा नजर जाता है। यदि हम सबको भगवद्भाव से देखने लगे तो जड़मूल से क्रोध नष्ट हो जाएगा.

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥

यदि जड़मूल से बिल्कुल क्रोध को मिटाना है तो पत्नी, पुत्र, सेवक सभी में भगवद्भावना करने का अभ्यास करो: यद्यपि आवश्यकतानुसार उचित डाट-फटकार भी लगादो लेकिन अन्दर से कोध नहीं करो । डाटते समय हमारे अन्दर जलन पैदा न हो । अन्दर से हमारा हृदय बिल्कुल शीतल बना रहना चाहिए। केवल उनके सुधार के लिए ऊपर से क्रोध का अभिनय मात्र करना है । गुस्सा करना ठीक नहीं है; क्रोध से पतन और नाश के अलावा आज तक कुछ नहीं हुआ । भगवान् ने गीताजी में काम, क्रोध और लोभ को साक्षात् नरक का द्वार बताया है

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ (१६/२१)

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (२/६३)

‘क्रोध से सम्मोह पैदा होता है, सम्मोह से स्मृति में भ्रम पैदा हो जाता है, फिर उससे बुद्धि यानी ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धिनाश होना ही सबसे बड़ा पतन है ।’

इसलिए उचित तो यह है कि अगर किसी को समझाना भी है (उन्हें ठीक से भगवत-मार्ग में चलाने हेतु) तो प्यार से समझा दो लेकिन क्रोध नहीं करो, उससे बहुत दिनों का भजन नष्ट हो जाता है, श्रीमद्भागवत के एकादशवें स्कंध में योगेश्वर द्रुमिल ने कहा है –

त्रिकालगुणमारुत जैह्वशैश्या
नस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित् ।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गो
र्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ (११/४/११)

“कुछ विरले लोग भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी-वर्षा-आँधी, रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के वेग को, जो अपार समुद्र के समान है, उसे भी पार कर लेते हैं किन्तु गाय के खुर से बने गड्ढे के समान

‘क्रोध के वश में होकर अपनी कठिन तपस्या यानी भजन को खो बैठते हैं ।’

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घर-परिवार के मध्य रहकर कैसे भजन करें ?

प्र०- महाराज श्री, हम गृहस्थ में (घर-परिवार के मध्य) रहकर कैसे भजन करें ?

समाधान : गृहस्थी में रहकर यदि आप ‘माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि’ की – सेवा भी करें तो उनमें भगवद्भावना करके करें । व्यापार-नौकरी जो भी करें प्रभु की पुष्टता के लिए करें कि ये सम्पूर्ण सृष्टि प्रभु की ही है और प्रभु ने हमें आज्ञा की है ‘माता-पिता, भाई-बन्धु’ आदि की सेवा करने की । महाराष्ट्र में एक भक्त हुए हैं श्रीपुण्डरीकजी, उन्होंने भगवद्भाव से केवल माता-पिता की सेवा की तो श्रीठाकुरजी आज भी पंडरपुर में उनका यश प्रकट करते हुए खड़े हैं । विट्ठल भगवान् उन्हीं की सेवा से रीझकर के आये थे । इसलिए यदि कोई माँ-बाप की सेवा करे तो भगवद्भावना से युक्त होकर के, नौकरी-व्यापार जो कुछ भी करे वह भगवद् पुष्टता के लिए कि हम भगवत्-स्वरुप माँ बाप या स्त्री-पुत्रादि के पालन-पोषण और अतिथि- संत-भक्त आदि की सेवा के लिए ये व्यापार कर रहे हैं । भगवत् सम्बन्ध जुड़ जाने के कारण वह सब गृहस्थी के कार्य भजन ही हैं । कुछ बातों की सावधानी रखें- ‘खान-पान सात्विक हो; ऐसे लोगों का संग न हो जो बहिर्मुखी प्रवृत्ति वाले हों, धर्म विरुद्ध आचरण करने वाले हों ।’

इस तरह से कोई गृहस्थ में रहकर के चले तो वह गार्हस्थ्य जीवन भजनमय ही है । श्रीमद्भागवत में लिखा है

गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद्वार्तायातयामानां न बंधाय गृहा मताः ॥ (४/३०/१९)

‘जो गृहस्थाश्रम में रहकर कुशल कर्म करते हुए प्रभु की मंगलमयी कथा-वार्ता में समय बिताते हैं, उनके लिए गृहस्थ जीवन बंधनकारी नहीं होता है ।”

अरे, जब एक चक्रवर्ती सम्राट गृहस्थी में रहकर भजन कर सकता है तो एक साधारण से गृहस्थ के पास कितनी जिम्मेदारियाँ होती हैं । जब युद्धभूमि में भजन हो सकता है, अर्जुन को भगवान् कह रहे हैं – ‘मामनुस्मर युद्ध च ।’ गी. ८/७ (मेरा स्मरण करते हुए, युद्धरूपी कर्तव्य कर्म कर 1) फिर नौकरी (व्यापार) आदि तो बहुत साधारण सी बात है, उसमें तो भजन हो ही सकता है । हम अन्दर से कृष्ण-कृष्ण सुमिरन करते हुए व्यापार या नौकरी करें। जितने भी व्यवहार हैं सब भगवान् के ही स्वरूप हैं, एक क्षण भी हम कहीं भी प्रभु से अलग नहीं हैं । जैसे हम कहीं भी रहें जीने के लिए स्वाँस लेते हैं, ऐसे ही हमारे जीवन का आधार प्रभु बन जाएँ । हम उनको भूल जाते हैं बस यही गलती हो जाती हैं । हमने नानात्व को स्वीकार कर लिया, इसको सत्य मान लिया प्रभु को भूल गए । प्रभु से अलग जो सत्ता मान ली वही बंधनकारक है, यदि हम समस्त क्रियाएँ, सारे सम्बन्ध प्रभु से जोड़ दें तो गृहस्थी में रहकर के भी सिद्ध हो गए ।

अगर हम एकान्त जंगल में बैठकर विषय-चिंतन करते हैं तो वह वनवास नहीं है और अगर हम घर गृहस्थी में रहकर व्यापार नौकरी आदि व्यवहारिक कार्य करते हुए प्रभु चिंतन करें, प्रभु के लिए उसे मानलें तो हम निवृत्ति परायण ही हैं, प्रवृत्ति परायण नहीं हैं। प्रभु ने श्रीगीताजी में अपनी प्राप्ति का जो सुदृढ़-भाव बताया है वहाँ विरक्त या गृहस्थ कुछ नहीं कहा, प्रभु बोले

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (१/२)
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (८/१४)

‘ये जनाः’ – ‘गृहस्थ-विरक्त, ब्राह्मण-शूद्र, स्त्री-पुरुष’ – चाहे जो भी हो, यदि वह मेरा अनन्य चिंतन करता है तो वह निश्चित मुझे ही प्राप्त होगा क्योंकि अनन्यचित्त से स्मरण करने वाले के लिए मैं बहुत सुलभ हूँ ।”

अतः केवल अखण्ड-चिंतन से भगवत्प्राप्ति होती है;

भगवच्चिन्तन में न गृहस्थी बाधक है और न विरक्ति सहायक ।

गोपियाँ कोई सन्यासिनी या वैरागिन नहीं थीं लेकिन कौन ऐसा सन्यासी या विरक्त है जो गोपियों की चरणधूलि में नहीं लोटा ।

श्रीशुकदेवजी से बड़ा कोई परमहंस-वैरागी नहीं है, वे भी सादर गोपियों के चरित्रों का गान कर रहे हैं, उनकी प्रसंसा कर रहे हैं.

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप प्रेवेशनार्भरुदितोक्षण मार्जनादी ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥


‘व्रज-गोपियाँ धन्य हैं क्योंकि इनकी चित्तवृत्ति अखण्ड रूप से श्रीकृष्ण में लगी हुयी है । ये दूध दुहते हुए, दधि मथते हुए, धान । कूटते हुए, घर लीपते हुए, रोते हुए बालकों को चुप कराते हुए, उन्हें झूला झुलाते हुए, घरों को झाड़ते-बुहारते हुए अर्थात् सारे काम-काज करते हुए भी अश्रुपूरित नेत्रों से युक्त होकर के गद्गद कंठ से श्रीकृष्ण के निरन्तर गुणगान करती रहती हैं ।’

श्रीउद्धव जी जैसा कौन ज्ञानी होगा, साक्षात् बृहस्पतिजी के शिष्य हैं लेकिन वे भी गोपियों की चरणधूलि की याचना कर रहे हैं –

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः ।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥ (भा. १०/४७/६३)

जगत्सृष्टा श्रीब्रह्माजी ने स्वयं ६० हजार वर्ष तक तप किया ब्रजगोपियों की चरणरज प्राप्ति के लिए किन्तु फिर भी गोपियों की चरणधूलि ब्रह्माजी को नहीं मिली –

षष्टिवर्ष सहस्त्राणि पुरा तप्तं मया तपः ।
भक्त्या नन्द ब्रजस्त्रीणां पादरेणूपलब्धये ।
तथापि न मया प्राप्ता तासां वै पादरेणवः ॥

(वृहद् वामन पुराण)

यह प्रसंग श्रीध्रुवदासजी महाराज ने ‘श्रीबयालीस-लीला’ में भी लिखा है –

एक समै भृगु पिता सौं, प्रश्न करी यह आनि ।
करि प्रनाम ठाढ़ौ भयौ, आगेँ जोरे पानि ॥
एक असंका उर बढ़ी, चित्त रह्यौ विस्माइ
सर्वोपरि सर्वज्ञ तुम, हमहिं देहु समझाइ ॥
नारदादि शुक से जिते, किये भक्त सब गौन ।
जाची रज ब्रज तियन की, यह थीं कारन कौन ॥
सुनहु पुत्र समझी न तैं, रह्यौ भूलि ब्रह्म-ग्यान ।
सर्वोपरि ये हरि-प्रिया इनकी कौन समान ॥
बहुत बरष हम तप कियौ, इनकी पद-रज हेत।
सो रज दुर्लभ सबनि की, हम हूँ बनी न लेत ॥

अब बताओ, कब भरम लगाई शरीर में गोपियों ने कब माला लेकर जप किया। केवल ‘मुरारि पादार्पित-चित्त-वृत्तिः’ हर क्रिया (चेष्टा) करते हुए कृष्ण-चिंतन में मग्न हैं, कृष्ण चिंतन ही उनका जीवन है। ये सार बात है। उसका परिणाम क्या है? बेचना चाहती हैं दही और कह रही हैं ‘गोविन्द ले ले !! माधव ले ले !! गोपाल ले ले !! क्योंकि वहीं मन लगा हुआ है –

कोई माई लै लेहु री गोपालहि ।
दधि को नाम श्यामसुन्दर रस, बिसरि गयो ब्रजबालहि ॥

अतः हमें ये चाहिए कि हम ‘गृहस्थ या विरक्त’ भाव पर दृष्टि न रखते हुए प्रभु के सतत् चिंतन पर दृष्टि रखें । नौकरी- चाकरी आदि में भजन करना कोई बहुत कठिन काम नहीं है । श्री अम्बरीषजी सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट थे लेकिन कितने बड़े भक्त माने गए क्योंकि उनकी दिनचर्या कितनी सुन्दर थी –

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोर्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करी हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥
पादौ हरे: क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने ।

(श्रीमद्भागवत ९/४/१८-२०१)

मन प्रभु के चरण-कमलों के चिंतन में निमग्न है, वाणी भगवद्-यश के वर्णन में, हाथ प्रभु के मंदिर को बुहारने आदि की सेवा में और कान प्रभु की मंगलमयी कथाओं के सुनने में लगे हुए हैं। उनके नेत्र प्रभु के श्रीविग्रह के एवं प्रभु के भक्तों के दर्शन करने में शरीर भक्तों की सेवा में नासिका प्रभु के चरणारविन्दों पर समर्पित तुलसीदल की सुगंधि में और जिह्वा प्रभु के उच्छिष्ट प्रसादी मैं लगी रहती थी । उनके पैर प्रभु के क्षेत्र (धाम) की पैदल यात्रा करने में, मस्तक प्रभु के चरणों की वन्दना करने में लगा रहता है ।”

इसलिए कोई भी सांसारिक क्रिया या प्रपंच का कार्य भी यदि प्रभु के चिंतन से युक्त होकर के, हरि या गुरु की सेवा के लिए किया जाए तो वह भी उपासना ही है। श्रीहरिपालजी ‘भक्त-सेवार्थ’ लूट पाट करते थे, यद्यपि ऊपर से तो क्रिया प्रपंचात्मक दिखाई पड़ रही है लेकिन उनका उस क्रिया के पीछे भागवतिक उद्देश्य था तो लूट पाट करने से ही उन्हें भगवान् मिल गए । इसके विपरीत वेष-भूषा और क्रिया सम्यक् होने पर भी उद्देश्य भागवतिक न होने पर, श्रीभगवतरसिक जी ने कहा है –

वेषधारी हरि के उर सालै ।
लोभी, दंभी, कपटी नट से, सिस्रोदर कौं पालै ॥
गुरु भयो घर-घर में डोलै नाम धनी कौं बेचै ।
परमारथ स्वप्ने नहिं जानै पैसन ही कौँ खँचै ॥
कबहुँक वक्ता है बनि बैठे कथा भागवत गावै ।
अर्थ अनर्थ कछू नहिं भासै पैसन ही को धावै ।
कबहुँक हरि मंदिर को सेवै करै निरन्तर बासा ।
भाव भगति को लेस न जानै पैसन ही की आसा ॥

मंदिर में भी निवास कर रहे हैं, ठाकुर-सेवा भी कर रहे हैं लेकिन मन में पैसों की आशा बनी हुई है तो उद्देश्य ठीक न होने के कारण उसे भगवदानन्द का अनुभव नहीं होगा । उद्देश्य ठीक है तो श्रीसदनकसाईजी अपना कार्य (माँस-विक्रय) करते हुए महान भक्त हैं, उद्देश्य ठीक है तो श्रीरैदासजी अपना कार्य (चर्मकारी) करते हुए महान भक्त हैं । यदि हमारा उद्देश्य ठीक है तो हम गृहस्थी में रहकर भी परम भागवत हैं और यदि हमारा उद्देश्य गलत है तो विरक्ति में रहकर के भी सबसे बड़े प्रपंची हैं । भगवान् बाहरी चीज नहीं देख हैं, आंतरिक चीज पर उनकी दृष्टि रहती है – ‘मानउँ एक भगति कर नाता ।” भक्ति का सही स्वरूप यही है कि सदा हम अपने प्रियतम का मधुर मधुर स्मरण करते रहें; जो भी हमारी चेष्टा हो अपने प्रियतम के लिए ही हो । ये भागवतिक-मार्ग क्रिया प्रधान नहीं है, भाव यानी उद्देश्य प्रधान है ।

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प्रभु मिलन को लालसा कैसे बढ़े ?

प्र०-गुरुदेव, हृदय में प्रभु से मिलने की व्याकुलता कैसे बढ़े ?

समाधान – जो श्रीप्रिया- प्रियतम से मिलन के लिए व्याकुल है, ऐसे किसी भगवत्प्रेमी रसिक संत का संग करना प्रारम्भ कर दो, ये छुआछूत का रोग है उनके संग से तुम्हारे अन्दर भी आ जाएगा । भगवत्प्रेमियों के संग के बिना व्याकुलता आ ही नहीं सकती –

रे मन रसिकनि संग बिनु, रंच न उपजै प्रेम ।
या रस कौ साधन यहै, और करी जिनि नेम ॥
दंपति-छबि में मत्त जे, चाहत दिन इक रंग ।
हित सौं चित चाहत रहौ, निशि- दिन तिनकौ संग ॥

(श्रीबयालीसलीला)

‘अर्थात् चाहे जितना नियम साधन कर लो लेकिन रसिकों का संग किये बिना प्रेम छटा का लेश भी प्राप्त नहीं हो सकता है, प्रेम प्राप्ति का एकमात्र साधन रसिक संतों का सत्संग ही है । अतः जो श्रीश्यामा-श्याम की रूप-माधुरी में मग्न हैं या जो श्रीश्यामा श्याम की रूप माधुरी में मग्न होना चाहते हैं रात-दिन ऐसे ही रसिकों के संग की चाह करो ।”

श्रीनारदजी महाराज ने भी ‘भक्तिसूत्र’ में यही कहा

‘तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥’

उस ( महत्संग) की ही साधना करो, अर्थात् भगवत्प्रेम की प्राप्ति के लिए भगवत्प्रेमी महापुरुषों के संग की ही प्रबल चाह करो ।

यहाँ तक कि प्रभु के संग से भी व्याकुलता नहीं प्राप्त होती है, श्रीउद्धवजी श्रीकृष्ण के साथ ही हर समय रहते हैं लेकिन अभी ज्ञानी उद्धव हैं, प्रेमी उद्धव नहीं; जब प्रेम-स्वरूपा ब्रजगोपियों का संग मिला, वे उनकी चरणरज में लोटे, तब वे प्रेमी उद्धव बने ।

सुनि ऊषो प्रेम मगन भयो ।
लोटत घर पर ज्ञान गरब गयो ॥ (श्रीसूरदासजी)

इसलिए भगवद्दर्शन प्राप्त हो जाने से भी बड़ी चीज है भगवत्प्रेमी महात्माओं का संग प्राप्त हो जाना । कितने ऐसे भक्त हुए हैं जिन्होंने भगवत् साक्षात्कार करने के बाद भी प्रभु से यही माँगा कि हमें अपने प्रेमी-भक्तों का संग दे दो । भगवान् शंकर स्वयं प्रभु से याचना करते हैं

बार-बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥

(श्रीरामचरितमानस ७/१४)

हिताचार्य श्रीहरिवंश महाप्रभु जी कहते हैं

जैश्रीहित हरिवंश प्रपंच बंच सब, काल-व्याल की खायी ।
यह जिय जानि श्याम-श्यामा-पद-कमल-संगी सिर नायौ ।

श्रीहितध्रुवदासजी ने भी कहा –

जहँ जहँ पिय की बात सुनें, खोजत तिन गैननिं ।
छिन छिन प्रति ‘ध्रुव’ लेत, प्रेम-जल भरि-भरि नैननिं ॥

(श्रीबयालीसलीला)

जो भगवत्प्रेमी महात्माजन श्रीप्रिया प्रियतम की चर्चा कर रहे हैं, उस चर्चा को सुनने का अगर चाव बढ़ जाए तो हमारे अन्दर प्रिया- प्रियतम से मिलने की निश्चित व्याकुलता आ जायेगी ।

बार-बार हम जिसकी चर्चा सुनते हैं तो उससे मिलने की आकाँक्षा हृदय में स्वतः आ ही जाती । जैसे रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण को देखा नहीं था केवल उनके गुणों को ही सुना था, इतने से ही उन्हें श्रीश्यामसुन्दर से प्रेम हो गया था ।

ऐसे ही जब हम भगवत्प्रेमी महात्माओं के द्वारा प्रियालाल के स्वभाव, रूप- माधुरी, गुण- माधुरी आदि की चर्चा निरन्तर सुनेंगे तो उनसे मिलने की मन में स्वयमेव तीव्र चाह पैदा हो जायेगी ।

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घर के ठाकुर की सेवा कैसे करें ?

क्या आपके घर के ठाकुर आपकी सेवा से प्रसन्न है?

लोगो को अक्सर देखा है कि कोई अपने लालन को खाटू श्याम बना देता है तो कोई महादेव बना देता है तो कोई तो वो क्या बोलते है उसे टोपी वाला इंग्लिश में शायद अजीब सा नाम सेंटाक्लोज ऐसा कुछ नाम है तो लोग अपने लालां को वो भी बना देते है , कभी लोग चॉकलेट रख देते है भोग में तो कभी चश्मा लगा देते है

आप इतने लंबे समय से ग्रुप से जुड़े हो फिर भी आप लोग अभी तक ये नही समझे की सेवा क्या है पुष्टिमार्ग क्या है ,,हमारे घर में बिराजित ठाकुर जी कोन हे क्या है

पुनः निवेदन है कि आप के घर में जो ठाकुर जी हे वे साक्षात् बिराजते हे हर वक्त वे वही हे तो आप सेवा करते हो तब होते हे

लालन को हम अपनी खुशी के लिए सेंटाक्लोज बना देते है फूलों से ढक कर खाटू श्याम बना देते है, तो कभी बजरंग बली बना देते है क्या है| ये सब आप अपने मन में जो आये वो कर देते है पर ठाकुर जी के सुख का विचार नही करते है, हद हे भाई सेवा के लिए ठाकुर जी हे की अपने मन के मनोरंजन के लिये जो मर्जी पड़े सो कर दिया और कह देते है भगवान तो प्रेम देखते है|
अरे भाई तो आप भी उनको प्रेम दो ना उनको माखन का भोग लगाओ अपने हाथों से स्नान कराकर सुन्दर श्रृंगार धराओ आरती उतारो समय समय पर उत्सव मनोरथ करो जो प्रभु को सुख दे ऐसे सेवा करो

गर्मी इतनी है और आपका जन्मदिन आया की ठाकुर जी को भारी वस्त्र पहना दिया ,, ये क्या है, ठाकुर जी के सुख का बिलकुल विचार नही किया |

जब मर्जी पड़ी हाथ में उठा लिया सेल्फी ले ली वापस रख दिए जब मर्जी पड़ी टोकरी में बिठा दिया और ले गए इधर उधर जब मर्जी किया हर कुछ जो हमको अच्छा लगा वो भोग रखा और खा लिया|

अरे भाई वो ठाकुर जी हे आपके घर के लालां है तो उनको सुख मिले वो काम करो ना

उनको मौसम के हिसाब से भोग रखों देखो की बालक है कैसे खायेगा कैसा इसको पसन्द होगा खाने में
कहा बैठके खायेगा जहा बैठे बैठे खायेगा वहां पर हवा हे की नही पर्दा लगा हुआ हो तो लालां निश्चिन्त होकर भोग अरोगे ,
पास में जल की जारीजी हो भोग में तुलसी हो
फिर एक मुख वस्त्र(रुमाल) रखा पास में ताकि लालां अपना मुख पोछ सके
फिर पर्दा हटाने से पहले ताली बजाकर कुछ क्षण रुक कर आज्ञा मांगे की लालां आउ
फिर भोग के बाद बीड़ा हो
ऐसा कुछ क्रम हो प्रेम से तो आनन्द आएगा धीरे धीरे प्रेम होगा तो अपने आप मन में प्रभु के लिए सुख दिखेगा


सिंहासन पर लालां बैठे ही रहते है

कभी कुर्सी पर लंबे समय तक बैठ के देखो क्या हालत होगी तो सोचो प्रभु को कितना श्रम होता होगा दिन भर सिंहासन पर बैठे बैठे ,,
इस से बढ़िया तो एक अच्छी सी गद्दीदाद गादी हो उस के ऊपर कोमल वस्त्र बिछा हो पास में तकिया हो पीछे भी तकिया हो और प्रभु को मौसम और उनके सुख के अनुसार श्रृंगार हो शाम के बाद लालां लो शयन करा दिया श्रृंगार उतार कर नर्म वस्त्र में शयन करे और सुबह हम उनको जगाए और भोग रखे तो सोचो कितना आनन्द होता होगा लालां को |

रोज अच्छा सा भोग रोटी सब्जी दाल चावल दूध जो भी आपसे हो सके वो प्रेम से भोग लगाएं तो लालां प्रेम से अरोगेगे फ़ालतू वस्तु लालां को क्यों धराये ना खुद खाये जो उत्तम सामग्री हो प्रभु को सुख देवे और उचित हो वो भोग धरे समय का पूरा ध्यान रख के भोग श्रृंगार हो टाइम से टाइम तो सोचो हम भी उनमे व्यस्त रहेंगे और मस्त रहेंगे धीरे धीरे हम उनको जानने लगेंगे की प्रभु को सुख कैसे मिले क्या क्या करे

आप सभी से निवेदन है कि आप सभी खूब तन मन से सेवा करे और जो स्वरूप है उसका ज्यादा ध्यान देवे की जो मर्जी पड़े वो ना कर दे उनके संग ना गर से प्रभु को बिना उनके सुख को जाने ले जाए

कुछ लोग रात में भूख लगी तो बनाया और ठाकुर जी को उठाकर भोग रख देते है कभी कोई आइस्क्रिम लाया तो भोग रख दिया पर ये नही सोचते की उस वस्तु में क्या क्या होगा कैसे बनी होगी

और हम हमारे हिसाब से ठाकुर जी को उठा देते है अभी शयन कराये और अभी मर्जी हुई तो फिर उठा दिया कभी पास वाले के घर भजन संध्या हे तो उठाकर ले गए वहा और बिठा दिया
अरे भाई उनकी इच्छा तो जानो उनका खाने का समय हे की शयन का वो तो देखो

सेवा अगर प्रेम से प्रभु के सुख के विचार के लिए नियमित हो प्रभु प्रेम में व्यस्त हो तो हो गया भजन

आप सबको फिर कहूंगा जितना हो सके उतना ही करो पर प्रेम से करो अपने मन से मर्जी पड़े जो मत करो प्रभु का सुख पहले विचारों वो बाल स्वरूप हे तो बालक को रखे वैसे सेवा करो आभूषण धराओ तो ध्यान से देखो कहि चुभ ना जाए कहि कोई वस्त्र प्रभु को श्रम ना दे दे ऐसा सब विचारिये

कभी कोई व्रत किया कभी किसी देवता के मंदिर गये कभी कहि पूछने चले गए कभी कहि मन्नत मांगी कभी कहि धागा बाँध लिया कभी किसी को गर बुला लिया कभी किसी का इष्ट किया तो कभी किसी का व्रत

अरे क्यों भटक रहे हो सब के ठाकुर सब देवन के देव् श्रीराधाजी है
आप के घर के लालां ही सब कुछ है जो करो उनके लिए करो उनको ही लाड लड़ाओ कहीं और क्यों जाना और क्या मांगना सेवा लालां की करते रहे सब कुछ वे ही तो है

पोस्ट को ध्यान से पढ़ो समझो और एकान्त में बैठकर चिंतन करो

जय जय श्री राधे

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बिना प्रयास के प्रभु का चिन्तन (स्मरण) कैसे हो ?



प्र० महाराज जी, अभी प्रभु का स्मरण करने में प्रयास करना पड़ता है, ऐसी स्थिति कब और कैसे आयेगी जब बिना प्रयास के सहज स्वभाविक रूप से प्रभु का चिन्तन (स्मरण) होने लगेगा ?

समाधान – सच्चा भजन-चिन्तन स्वाभाविक रूप से तब होता है जब हम प्रभु से अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं कि ‘हम प्रभु के हैं । जैसे हम अपने शरीर से तन्मयता किये हुए हैं कि ‘मैं पुरुष हूँ या मैं स्त्री हूँ तो क्या हमें कभी याद करना पड़ता है कि मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ; ब्राह्मण हूँ या क्षत्रिय हूँ; अर्थात् नहीं याद करना पड़ता अपितु स्वाभाविक ये स्मरण बना रहता है; हम ये कभी भूलते नहीं हैं हर समय स्मृति में बना रहता है क्योंकि हमने शरीर या वर्ण (जाति) ये से सम्बन्ध बना लिया है। इसी तरह से प्रभु से सम्बन्ध बना लेने से उनका चिंतन (स्मरण) स्वाभाविक रूप से होने लगता है । भले ही कोई भजन-साधन नहीं बन पा रहा है, परन्तु यदि सम्बन्ध दृढ़ हो गया कि मैं प्रियालाल का हूँ, मैं वृन्दावन का हूँ, मैं गुरुदेव का हूँ, बस यही चीज तुम्हारा कल्याण कर देगी ।

जब मरणकाल सन्त्रिकट होता है उस समय समस्त इन्द्रियाँ शिथिल (निश्चेष्ट) हो जाती हैं लेकिन उस समय सम्बन्ध ही याद रहता है, जहाँ आपने सम्बन्ध जोड़ा है; स्त्री से जोड़ा तो स्त्री की याद आयेगी, पुत्र से जोड़ा तो उसकी याद आयेगी, अर्थात् जीवन में जो प्रधान सम्बन्ध रहा वही अंतिम में बिना चेष्टा के याद आता है; इसीलिये प्रभु से सम्बन्ध जोड़ लेने वाले भक्त को निश्चित भगवत्प्राप्ति होती है क्योंकि अंतिम में उसे प्रभु की ही याद आयेगी ।

प्रभु की अनन्य शरणागति और उनसे सम्बन्ध स्वीकृत कर लो तो भजन करना नहीं पड़ेगा, स्वाभाविक भजन होगा। सम्बन्ध जोड़ने से तात्पर्य प्रभु से अपनापन कर लेना । भले हमारी समस्त क्रियाएँ (चेष्टाएँ) भागवतिक हो रही हैं लेकिन यदि सम्बन्ध संसार से बना हुआ है तो वह सच्चा भजन नहीं माना जाएगा। इसके विपरीत भले ही क्रियाएँ सांसारिक हो रही हैं लेकिन अगर सम्बन्ध प्रभु से जोड़ लिया है तो बात बन जायेगी । श्रीब्रह्माजी ने श्रीमद्भागवत में कहा है –
तावद् रागादयः स्तेनास्तावत् कारागृहं गृहम् । तावन्मोहोऽङ्घ्रिनिगडो यावत् कृष्ण न ते जनाः ॥

‘हे श्यामसुन्दर ! तभी तक राग-द्वेष आदि दोष चोरों की भाँति सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और उसके सम्बन्धी कैदी की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में बाँधे रखते हैं और तभी तक मोह पैरों में बेड़ियों के समान रहता है जब तक जीव आपका – नहीं हो जाता ।’

इसीलिये बड़े-बड़े ऐसे सिद्ध भक्त भी गृहस्थाश्रम में हुए जिनके दर्शन करने के लिए बड़े-बड़े विरक्त महापुरूष जाते थे ।

श्रीअर्जुनजी ने सम्पूर्ण गीता का उपदेश सुनने के बाद कोई साधन नहीं किया, श्रीकृष्ण कहते जा रहे हैं और अर्जुन एकाग्रचित से सुन रहे हैं, उसका परिणाम क्या हुआ ? स्वयं अर्जुन कह रहे हैं

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । (गीता. १८/७३)

हमारे मोह का नाश हो गया, अब हमें अपने सम्बन्ध की स्मृति (याद) आ गयी कि ‘मैं कौन हूँ, किनका हूँ ‘ ये बात समझ आ गयी ।

जैसे कोई राजकुमार अपने राज्य से बिछुड़कर जंगली कोल भीलों के बीच पहुँच जाए और फिर वहीं उनके संग में रहने लगे तो कुछ ही दिनों में उसकी प्रकृति (स्वभाव), उसकी चेष्टाएँ उन्हीं लोगों की तरह हो जायेंगी; लेकिन जब कोई बिचौलिया (मध्यस्थ) मिले जो राजा से भी परिचित हो और कोल-भीलों से भी; वह उस राजकुमार को जाकर के समझाए कि देख तू इन कोल-भीलों के बीच बैठा है लेकिन तू तो अमुक राजा का लड़का है, चल हम तुझे तेरे पिता से मिलवाते हैं, फिर जब उसे पक्का विश्वास हो जायेगा और वह अपने परिवारवालों से मिलेगा, तब उसे अपने यथार्थ स्वरूप की स्फूर्ति होगी कि मैं राजकुमार होकर, कहाँ जंगली लोगों के बीच में भटक गया था ।

इसी तरह से हमारे माता-पिता हैं ‘प्रभु’ । प्रभु ने गीता जी में स्वयं कहा- ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । (१५/७) ‘तू मेरा ही अंश है’ किन्तु हम प्रभु को भूलकर फँस गए हैं कोल-भीलों में अर्थात् नानात्व में । अब कोई सद्गुरु रूपी बिचौलिया (मध्यस्थ) आकर के हमें समझावे कि देख, तेरा स्वरूप क्या है – ईश्वर अंश जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ (उत्तरकाण्ड-११७) और तेरा जो अंशी है वह कैसा है ? ‘जो आनंद सिंधु सुखरासी ।’ देख, अंश अंशी दोनों सुखरासी हैं न, इसलिए सुखरासी का बच्चा सुखरासी हुआ; कहाँ तू दुःखों में फँसा हुआ है, अर्थात् शरीर-संसार ये दुःखमय हैं, सुखरासी प्रभु हैं चल उनकी तरफ । फिर वह चल देता है ।

अतः हम सबको इसलिए फँसाए हुए हैं क्योंकि हम अपने ये स्वरूप को भूल गए हैं किन्तु जब सद्गुरु आकर के बताते हैं अरे तू तो सच्चिदानन्द का अंश है, तब उसको स्वरूप बोध होता है, ओहो ‘नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।’ बस सभी साधनाओं का फल इतना ही है कि हमें याद आ जाए कि हम प्रभु के हैं, भजन का भी यही फल है मोह का नाश होकर इष्ट के चरणों में अपनापन हो जाना ।

जो प्रश्न था कि बिना प्रयास के अखण्ड स्मरण कैसे हो तो उसका यही उत्तर है- ‘सतत चिंतन होता है अपनेपन से ।’ जब किसी से अपनापन हो जाता है फिर उसका चिंतन करना नहीं पड़ता है, वह श्वासों में बस जाता है, यादों में बस जाता है, हृदय में बस जाता है । हम निकालना भी चाहें, भूलना भी चाहें तो भी नहीं भूल सकते । ऐसी स्थिति हो जाती है कि हम कुछ कार्य करना चाहते हैं, व्यवहार करना चाहते हैं लेकिन बार-बार स्मृतिपटल पर वही याद आता है; यही है सच्चे प्यार का स्वरूप, यही है सच्चे अपनेपन का स्वरूप । प्रभु से सहज प्रेम हो जाना अर्थात् उन्हें अपना मान लेना, ये जन्म-जन्म की साधना पूर्ण हो गयी। अभी हम ईमानदारी से अपने हृदय को टटोलकर देखें कि क्या हम वास्तविक प्रभु को प्यार करते हैं, जिससे हम प्यार करते हैं यदि उसकी जरा-सी दूरी आने की बात आ जाय तो तुरंत एक विकलता होने लगती है कि मैं इनके बिना कैसे जी पाउँगा; अभी क्या प्रभु के लिये ऐसा प्यार आया, जिस दिन ऐसा प्यार प्रभु से हो जाएगा उस दिन अलग ही दशा हो जायेंगी, उनके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा।

जो पै चॉप मिलन की होइ ।
तौ कत रह्यौ परै सुनि सजनी ! लाख करै जो कोइ ॥
जो पै बिरह परस्पर व्यापै तौ इह बात बनैं ।
डरु अरु लोक-लाज अपकीरति एकौ चित न गर्ने ॥
‘कुंभनदास’ जो मन मानै तौ कत जिय और सुहाइ ।
गिरिधर लाल रसिक बिनु देखें पल भर कलप विहाइ ||

जैसे जिन महापुरुषों को वृन्दावन धाम से प्यार हुआ वह कहते हैं कि हमारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएँ फिर भी मैं वृन्दावन के बाहर जाना नहीं पसंद करूंगा –

खंड खंड है जाइ तन, अंग अंग सत टूक ।
वृंदावन नहिं छाँड़ियै, छाँड़िबौ है बड़ी चूक |
बसि कै वृंदाविपिन में, ऐसी मन में राख ।
प्रान तजौं बन ना तजौं कहौ बात कोउ लाख ॥

इसी तरह से जिन महापुरुषों को नाम से प्रेम हुआ उन्होंने यही कहा, नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं

खण्ड-खण्ड हइ देह जाय यदि प्राण ।
तबु आमि वदने ना छाड़ि हरिनाम ॥

ये है वास्तविक प्यार का स्वरूप |

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तुलसी जी के बारे में जानकारी

तुलसी का पौधा भगवान विष्णु को अति प्रिय है। भगवान विष्णु की पूजा में किसी भी तरह से तामसिक चीजों का प्रयोग वर्जित माना गया है। इसलिए जहां पर भी तुलसी का पौधा लगा हो वहां पर कभी मांस मदिरा का सेवन भूलकर भी नहीं करना चाहिए। जो लोग अपने गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, उन्हें भी तामसिक चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।



तुलसी दल और मंजरी चयन समय कुछ बातों का ख्याल रखें


  • तुलसी की मंजरी सब फूलों से बढ़कर मानी जाती है। मंजरी तोड़ते समय उसमें पत्तियों का रहना भी आवश्यक माना गया है। तुलसी का एक-एक पत्ता तोड़ने के बजाय पत्तियों के साथ अग्रभाग को तोड़ना चाहिए. यही शास्त्रसम्मत भी है.प्राय: पूजन में बासी फूल और पानी चढ़ाना निषेध है, पर तुलसीदल और गंगाजल कभी बासी नहीं होते। तीर्थों का जल भी बासी नहीं होता।
  • ब्रह्म वैवर्त पुराण में श्री भगवान तुलसी के प्रति कहते है –
    पूर्णिमा, अमावस्या , द्वादशी, सूर्यसंक्राति , मध्यकाल रात्रि दोनों संध्याए अशौच के समय रात में सोने के पश्चात उठकर,स्नान किए बिना,शरीर के किसी भाग में तेल लगाकर जो मनुष्य तुलसी दल चयन करता है वह मानो श्रीहरि के मस्तक का छेदन करता है.
  • द्वादशी तिथि को तुलसी चयन कभी ना करे, क्योकि तुलसी भगवान कि प्रेयसी होने के कारण हरि के दिन -एकादशी को निर्जल व्रत करती है.अतः द्वादशी को शैथिल्य,दौबल्य के कारण तोडने पर तुलसी को कष्ट होता है.
  • तुलसी चयन करके हाथ में रखकर पूजा के लिए नहीं ले जाना चाहिये शुद्ध पात्र में रखकर अथवा किसी पत्ते पर या टोकरी में रखकर ले जाना चाहिये.
  • इतने निषिद्ध दिवसों में तुलसी चयन नहीं कर सकते,और बिना तुलसी के भगवत पूजा अपूर्ण मानी जाती है अतः वारह पुराण में इसकी व्यवस्था के रूप में निर्दिष्ट है कि निषिद्ध काल में स्वतः झडकर गिरे हुए तुलसी पत्रों से पूजन करे.और अपवाद स्वरुप शास्त्र का ऐसा निर्देश है कि शालग्राम कि नित्य पूजा के लिए निषिद्ध तिथियों में भी तुलसी दल का चयन किया जा सकता है.

साधकों के कुछ प्रश्न है जो इस प्रकार है और उनके हम उत्तर देने का प्रयाश करते है


प्रश्न : किस उम्र के व्यक्ति इसे पहने ?

उत्तर : तुलसी कंठी माला पहनने के लिए न किसी उम्र की सीमा है, और न ही ऐसा है कि सिर्फ पुरूष ही पहने , तुलसी कंठी माला किसी भी उम्र के और कोई भी बच्चा, वृद्ध, शादीशुदा, विवाहित, अविवाहित, तलाकसुद कोई भी हो सब पहन सकते है ।


प्रश्न : किस समय माला को उतारे ?

उत्तर : सबसे पहले बता देते है कि स्त्रियों के मासिक धर्म के समय इसे बिल्कुल नही उतारे बस उस समय इसे ढक कर रखे और गंदे हाथों से न छुये

एवं घर मे सूतक ( बच्चा होना, किसी का निधन हो जाना आदि ) होने पर भी ऐसा ही करें ।


प्रश्न : वेबसाइट से माला मंगाने के बाद क्या करें ?

उत्तर : कृपया इसे सीधा मिलते ही नही पहने, सबसे पहले माला को देशी घी में, या सरसों के तेल में कम से कम 48 घंटे डुबो के रखें इससे माला मजबूत होगी और लंबे समय तक चलेगी । और यहाँ से माला कच्ची भेजी जाती है इसे घी में रखना ही उसे पकाना होता है ।


प्रश्न : माला पहनने के क्या नियम है ?

उत्तर : वैसे हम इतने नियमों में विश्वास नही रखते पर जो महत्वपूर्ण नियम हर संतो द्वारा बताये गए है वो निम्न है :
माला अगर पहने तो माँस, मदिरा अंडे, और लहसुन, प्याज नहीं सेवन करें ।
माला पहनने के साथ राधा नाम का जाप जरूरी है ।
बाकी इसे उतारने की या नई लेने की जरूरत पड़े तो पहले गुरुजनों की आज्ञा ले ।
धन्यवाद ।


तुलसी जी की आरती

तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।

धन तुलसी पूरण तप कीनो,
शालिग्राम बनी पटरानी ।
जाके पत्र मंजरी कोमल,
श्रीपति कमल चरण लपटानी ॥

धूप-दीप-नवैद्य आरती,
पुष्पन की वर्षा बरसानी ।
छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन,
बिन तुलसी हरि एक ना मानी ॥

सभी सखी मैया तेरो यश गावें,
भक्तिदान दीजै महारानी ।
नमो-नमो तुलसी महारानी,
तुलसी महारानी नमो-नमो ॥

तुलसी महारानी नमो-नमो,
हरि की पटरानी नमो-नमो ।

तुलसी विवाह

कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है, आज के पावन पर्व पर शालिग्राम और तुलसी जी का विवाह कराकर पुण्यात्मा लोग कन्या दान का फल प्राप्त करते है,

पदम पुराण में कहा गया है की तुलसी जी के दर्शन मात्र से सम्पूर्ण पापों की राशि नष्ट हो जाती है,उनके स्पर्श से शरीर पवित्र हो जाता है,उन्हे प्रणाम करने से रोग नष्ट हो जाते है,सींचने से मृत्यु दूर भाग जाती है,तुलसी जी का वृक्ष लगाने से भगवान की सन्निधि प्राप्त होती है,और उन्हे भगवान के चरणो में चढाने से मोक्ष रूप महान फल की प्राप्ति होती है.अंत काल के समय ,तुलसीदल या आमलकी को मस्तक या देह पर रखने से नरक का द्वार बंद हो जाता है

धात्री फलानी तुलसी ही अन्तकाले भवेद यदिमुखे चैव सिरास्य अंगे पातकं नास्ति तस्य वाई

श्रीमद्भगवत पुराण के अनुसार प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, ‘जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।’ यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।

एक अन्य प्रसंग के अनुसार वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। विष्णु बोले, ‘हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।’

बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है। शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी के विवाह का प्रतीकात्मक विवाह है।


तुलसी जी के नामो के अर्थ 

  1. वृंदा :- सभी वनस्पति व वृक्षों की आधि देवी 
  2. वृन्दावनी :- जिनका उदभव व्रज में हुआ 
  3. विश्वपूजिता :- समस्त जगत द्वारा पूजित
  4. विश्व -पावनी :- त्रिलोकी को पावन करनेवाली 
  5. पुष्पसारा :- हर पुष्प का सार 
  6. नंदिनी :- ऋषि मुनियों को आनंद प्रदान करनेवाली 
  7. कृष्ण-जीवनी :- श्री कृष्ण की प्राण जीवनी 
  8. तुलसी :- अद्वितीय
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कलियुग के दोषों से कैसे बचे ?

प्र० : महाराजजी, कलिकृत विघ्नों का हम पर कोई प्रभाव न पड़े, ये कैसे हो, यानी कलयुग के दोषों से कैसे बचा जाए ?

समाधान : आगे मनुष्यों के लिए बड़ा अहितकारी समय आने वाला है क्योंकि धीरे धीरे महापुरुषजन लीला संवरण कर रहे हैं और जब संत नहीं रहेंगे तो दम्भ पाखण्ड का बोलबाला होगा, जीव छले जायेंगे लेकिन उस समय भी जो सच्चे सन्तों के सानिध्य में रहेंगे तो कलिकृत विघ्न आदि उस उपासक के ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकते। श्रीसेवकजू महाराज कहते हैं

कलि अभद्र वरनत सहस, कलि कामादिक द्वंद तब । सेवक शरण सदा रहै, सुविधि साँचे अनन्य सब ॥
(श्रीसेवकवाणी)

राधावल्लभ-भजत भजि भली भली सब होइ ।
जिते विनायक शुभ-अशुभ विन करैं नहिं कोई ॥
विघ्न करैं नहिं कोई डरैं कलि-काल कष्ट भय ॥
हरें सकल संताप हरषि हरिनाम जपत जय ।
(श्रीसेवकवाणी)

जब तक श्रीराधावल्लभ का भजन करने वालों का भजन अर्थात् उनका सान्निध्य, उनकी सेवा, उनका कृपा प्रसाद मिलता रहेगा तब तक कलियुग के जो अभद्र हैं वो सब डरते हैं, उस साधक को कहीं बाधा नहीं पहुँचा सकते हैं ।
चाहे जितनी आँधी आ जाए जो गाँव किसी पहाड़ की ओट में है तो वह सारा का सारा गाँव उस भयंकर आँधी-तूफान से बच जाता है; ऐसे ही एक भगवत्प्राप्त महापुरुष जहाँ होता है, वह बहुत बड़े वायुमंडल को विघ्नों से बचाता है। जो दीनता पूर्वक सदैव भजन परायण महापुरुष हैं वो महापुरुष इस संसार को नाना प्रकार की विपत्तियों से बचाने के लिए पहाड़ जैसे हैं। उन्हीं की छत्रछाया में हम जैसे लोग अधर्माचरण करते हुए भी आनंद से रह रहे हैं । आज के समय में अर्थ प्राप्ति, कामना पूर्ति, भोग-विलासिता यही हमारा उद्देश्य रह गया है। हमारा खूब यश हो जाए, हम खूब धनी मानी बन जाएँ और मनचाही भोग-सामाग्री हमें मिलती रहे बस यही हमारा जीवन का उद्देश्य बन गया है । जबकि भगवत-मार्ग के पथिक के लिए ये सब चीजें बाधक हैं

सुख सम्पति परिवार बड़ाई ।
सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ।
ये सब रामभक्ति के बाधक ।
कहहिं संत तव पद अवराधक ॥
(श्रीरामचरितमानस ४/७)

लेकिन यही सब चीजें हमारा लक्ष्य बन गयीं, अब दुर्दशा नहीं होगी तो और क्या होगा । धीरे-धीरे सच्चे संतों का अंतर्ध्यान होना हम लोगों के लिए अहित सूचक है; इसलिए शीघ्रातिशीघ्र ऐसी स्थिति बना लें कि इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति हो जाए। अगर दूसरा जन्म भी हो तो कर्मबंधन के अधीन न हो, भगवद् अनुराग से युक्त हो।

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भगवान को कैसे पहचाने ?



प्र० महाराजजी, संतजन कहते हैं कि भगवान् किसी भी रूप में आ जाते हैं तो हम उन्हें पहचानें कैसे ?

समाधान – जो भी रूप सामने आये, सबको प्रणाम करने की आदत डाल लो –

तुलसी या संसार में सबसों मिलिए धाय ।
न जाने केहि वेश में नारायण मिलि जाएँ ॥

सही पूछो तो भगवान् किसी भी रूप में नहीं आते बल्कि भगवान् तो सभी रूपों में हैं ही; सबकुछ प्रभु ही बने हुए हैं.

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । (गीताजी ७/१९)

जब सृष्टि नहीं थी तब केवल भगवान् श्रीकृष्ण थे, जब सृष्टि नहीं रहेगी तब भी केवल भगवान् श्रीकृष्ण रहेंगे तो बीच में जो कुछ बने हुए हैं वो प्रभु ही तो बने हुए हैं, दूसरा कोई है ही नहीं । जब तक अज्ञान की दृष्टि है तब तक दूसरा दिखाई पड़ता है

वासनात् वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ (विष्णुसहस्त्रनामस्तोत्र)

‘त्रिभुवन जिनकी सत्ता भाव से सुवासित है, सभी प्राणियों के हृदयस्य ऐसे वासुदेव श्रीकृष्ण को नमस्कार है ।”

इसीलिये जो भी सामने आए हमारे प्रभु ही इस रूप में हैं ऐसा मानकर उसको प्रणाम करोगे वो धीरे-धीरे दृष्टि बदलेगी और आपको सही मायने में दिखाई देने लगेगा कि प्रभु ही सब रूपों में है । जैसे गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कह रहे हैं

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥

( श्रीरामचरित. १७) समस्त जड़-चेतनात्मक जगत् प्रभु का ही स्वरुप है, ऐसा जानकर मैं सबको हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ । गोपीजन कहती हैं – “जित देखूँ तित श्याममयी है, सारा जगत् श्यामसुन्दर ही है, ऐसा गोपीजनों को अनुभव हुआ । अगर आप भी अभ्यास करेंगे तो आपको भी अनुभव होने लगेगा क्योंकि भगवान् ही सब रूपों में हैं । श्रीनामदेवजी का चरित्र पढ़कर के देखो – ‘कुत्ता, प्रेत, मुगल सिपाही’ उन्होंने सभी में भगवद्भाव किया तो वहीं वहीं उन्हें प्रभु के दर्शन हुए ।

अपवित्र मन ये बात नहीं समझ सकता कि ‘प्रभु कहीं कुत्ते प्रेत में भी हो सकते हैं, ये दुष्ट कहीं प्रभु हो सकता है ये बातें मन में आती रहेंगी । जब तक हमें प्रभु के अलावा कुछ और दिखाई दे रहा है तो समझो अभी हमारा अन्तःकरण अशुद्ध है । दे अन्तःकरण में ये बात समझ में नहीं आती है कि सब रूपों में प्रभु हैं ; इसलिए पहले साधन (नामजप, कथा-कीर्तन) आदि के द्वारा अन्तःकरण को पवित्र करो, ज्यों ही अन्तःकरण पवित्र हुआ तो दिखाई देने लगेगा कि चराचार जगत् के रूप में वही एकमात्र सच्चिदानंद प्रभु है ।

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साधक का व्यवहार कैसा होना चाहिए ?


प्र० पहले मैं किसी से बात नहीं करती थी, बहुत एकान्तिक रहती थी, अब गुरुदेव ! मेरा व्यवहार सबसे बढ़ने लगा है ?

समाधान : ये बहुत बड़ी हानि की बात है, यदि अपनी उपासना पद्धति में लगना है तो

न काहू सॉ बोलिबो, न काहू सो व्यवहार । अपनी कुँवार किशोरी को जियत निहार-निहार ॥

व्यवहार हर उपासना में बाधक है । ये माया (प्रपंच) है, ये आता जाएगा बढ़ता जाएगा, इसलिए सम्बन्ध रहित उदासीन रहना चाहिए । ये प्रेमियों का मार्ग है, कोई आए तो एक बार हृदय में चुभना चाहिए की हमारा एकांत चला जाएगा

सुनत न काहूकी कही कहै न अपनी बात ।
नारायण वा रुप में मगन रहे दिन-रात ॥

श्रीपादप्रबोधानन्द जी ने भी वृन्दावनमहिमामृत में कहा है

कुरु न वद किञ्चद् विस्मराशेषदृश्यं स्मर मिथुनमहस्तद् गौरनीलं स्मरार्त्तम् ।
बहुजन समवायाद् दूरमुद्विज्य याहि
प्रिय निवसतु दिव्य श्रीलवृन्दावनान्तः ॥ (१/३२)

‘न तुम्हारे लिए कोई कर्त्तव्य है और न किसी से बोलो, दृश्यमान (दिखाई पड़ने वाले) सारे संसार को भूल जाओ, केवल तुम्हारा एक ही कर्तव्य है- प्रेमातुर उस गौर-नील जोड़ी का निरंतर चिंतन करना । जिस स्थान में बहुत लोग हों, उस स्थान से उद्विग्न चित्त होकर दूर एकांत में चले जाओ । इस तरह से दिव्य वृन्दावनधाम में वास करना चाहिए ।

प्रेमी को एकांत प्रिय होने लगता है, वार्ता तो उसे सुहाती ही नहीं । रात-दिन हमसे कोई न मिले, हम प्रियालाल के चिंतन में डूबे रहें, यही हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन जाए। हम एक-एक क्षण श्रीप्रिया प्रियतम के चिंतन में लगावें, इससे बढ़कर कुछ नहीं है। ज्यादा लोगों के साथ सम्बन्ध बनाने से अच्छे-अच्छों का पतन हो जाता है।

किसी से द्वेष मत करो लेकिन श्रीजी के अलावा न किसी से कोई व्यवहार करो और न परिचय जोड़ो । किसी से भी मिलो तो उदासीन भाव से । सम्बन्ध केवल श्रीजी से । ये बहुत फिसलन वाला मार्ग है, प्रभु की माया शक्ति बड़ी प्रबल है

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । (गी. ७/१४)
‘सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।’ (मानस. ७/६२)
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति ॥ (दुर्गासप्तसती)

‘बड़े-बड़े ज्ञानियों के चित्त को भी महामाया बलात् आकृष्ट करके मोह में डाल देती है ।’ बहुत विचित्र माया है – अनेकों रूप धारण करके आ जाती है; इसीलिये बहुत सावधानी से उदासीन भाव से रहते हुए, निरन्तर भजन परायण रहो । साधक को व्यवहार नहीं रखना चाहिए, व्यवहार शून्य जीवन होना चाहिए। अगर संग करना भी है तो

इष्ट मिलै अरु मन मिलै, मिलै भजन रस रीति ।
मिलियै तहाँ निसंक है, कीजै तिनसौं प्रीति ॥ (श्रीबयालीसलीसा)

जिनसे अपना आराध्यदेव, अपनी उपासना, अपना मन मिल रहा है, उन भक्तों से मिलते हैं और मिलने का तात्पर्य है- ‘अगर हमें कोई भगवद्वार्ता सुननी है तो अन्यथा सबको मानसिक प्रणाम कर लो, सम्बन्ध किसी से नहीं रखना है, क्योंकि आज उसमें गुण दिखाई पड़ रहे है कल दोष भी दिखाई पड़ेगा और अगर दोष देख लिया तो भक्ति की हानि होगी ।

ज्यादा व्यवहार करना उपासक के लिए बहुत हानिकारक है, अपनी कुटिया में कोई आये तो भगवद्भाव से उसे प्राणाम कर लो ‘हँसि बोलै बहु मान दै’, मृदु वचन से उसका सम्मान किया, जो रूखा सूखा है पवा दिया, प्रियालाल की बातें की, हमें किसी से अपना पर्सनल (निजी) सम्बन्ध नहीं बनाना है ।

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भगवत मार्ग में क्या सगे संबंधियों की परवाह करनी चाहिए ?


प्र० : महाराजजी कोई हमारा प्रिय सगा-सम्बन्धी है, अगर इस मार्ग में स्वयं नहीं चलना चाहता है किन्तु हमारी लालसा है चलने की, तो क्या हमें उसकी परवाह करनी चाहिए या नहीं ?

समाधान : श्रीतुलसीदास जी ने विनयपत्रिका में लिखा है –

‘जाके प्रिय न राम-बैदेही
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥

हमारा संसार में कोई सगा-संबंधी नहीं है, सब नाटक चल रहा है माया का । हमारे सगे-संबंधी केवल श्रीप्रिया प्रियतम हैं, बाकी यहाँ सब केवल स्वार्थ का सम्बन्ध है । जिसको हमसे जिस तरह से सुख मिल रहा है वह वैसा ही प्यार कर रहा है, जिस दिन सुख मिलना बंद हो जाएगा कोई हमसे प्यार नहीं करेगा । वेदों में लिखा है

न या अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति ।
न या अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ।
न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति ।

(बृहदारण्यकोपनिषद् २/४/५)

कोई स्त्री पति से प्रेम करती है तो पति के सुख के लिए नहीं बल्कि अपने सुख के लिए: कोई पुरुष अपनी स्त्री से प्रेम करता है। उसके सुख के लिए नहीं अपितु अपने सुख के लिए; इसी तरह से पिता या पुत्र परस्पर एक दूसरे से जो प्रेम करते हैं वे स्वसुखवाँछा के लिए करते हैं तत्सुख के लिए नहीं । ये है संसारी प्रेम का स्वरूप । श्रीमद्भागवत में भी श्रीकृष्ण ने गोपियों से कहा है

मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थीकान्तोद्यमा हि ते ।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥ (१०/३२/१७)

‘हे ब्रजदेवियो! संसार में जो लोग एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, उनका सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है क्योंकि वहाँ लेन-देन का व्यापार है, ‘हम तुमसे प्रेम करेंगे तुम हमसे करो’ ये एकमात्र स्वार्थ है, प्रेम नहीं । न वहाँ सौहार्द है और न ही धर्म ” आप खूब घुसकर संसार में देख लो सर्वत्र एकमात्र स्वार्थ – ही स्वार्थ दृष्टिगोचर होगा, तभी तो महापुरुषों ने लिखा है –

सुर नर मुनि सब कै यह रीति ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति ॥ (मानस ४/१२)

एक हमारे परिचित व्यक्ति थे, उनको लकवा मार गया था, उनकी एक बड़ी-सी बाजार में दुकान थी, बहुत चलती थी रहने के लिए कई मंजिल मकान उन्होंने बनवाया था । अब लकवा मार गया था तो उन्होंने हमें स्वयं अपनी स्थिति रोते हुए बताई । वे बोले कि देखो बेटा ! ये सब मेरा कमाया हुआ है । पत्नी की तरफ इशारा करके बोले कि मैं इसका पति हूँ और आज
यही स्त्री हमें भरपेट रोटी भी नहीं देती है, कहती है कि बार-बार शौच करोगे तो कौन फेकेगा। मेरे ही सामने दूसरे पुरुष से बात करती है और जब में डाटता हूँ तो मुझे थप्पड़ मारती है। बेटा मुझ कोई जहर लाकर के दे दे मैं मर जाऊं तो अच्छा है। मैं यहीं पड़े पड़े सब देखता रहता हूँ लेकिन कुछ बोल नहीं सकता । अब बताओ कैसा स्वार्थी संसार है । वह ये बता रहा था कि जब तक मैं कमा रहा था तो मैं जब घर में आता था तब यही हमारे पैरों से जूते-मोजे उतार कर रखती थी और बहुत प्यार दिखाती थी और आज जब मैं असमर्थ अवस्था में हैं तो वही मुझे गाली देती है, मारती है, भर पेट भोजन भी नहीं देती हैं।

अतः संसार में सब स्वार्थ का व्यापार है, एक मात्र प्रभु ही हमें सच्चा प्यार करने वाले हैं दूसरा कोई नहीं । वे बड़े भाग्यशाली जन हैं जो प्रभु प्राप्ति के इस मार्ग पर चल पड़ते हैं बिना किसी की परवाह किये । श्रीकृष्णचन्द्रजू महाराज ने स्वयं गीता जी में कहा

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (१८/६६)

न किसी कर्तव्य की परवाह करो और किसी धर्म की, एकमात्र मेरी शरण में आओ, अगर स्वधर्म त्याग से तुम्हें पाप भी लगेगा तो उससे मैं तुम्हें पावन करूँगा, तुम तो केवल मेरी शरण में आ जाओ । इसलिए हमें प्रभु के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखते उनकी शरण ग्रहण करनी है और उसमें जो भी बाधक बने, उसकी तरफ ध्यान नहीं देना है अर्थात उनकी परवाह नही करनी है

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घर वाले ठाकुर सेवा नही करने देते ?


प्र० : महाराजजी, जब मैं घर में प्रभु की सेवा करती हूँ या भजन करती हूँ तो मेरे पति एवं घरवाले मुझे डाटते रहते हैं, मैं क्या करूँ ?

समाधान : ये तुम्हें सहना पड़ेगा, ‘गाली मिलना, निंदा होना, अपमान मिलना’ ये हमारे मार्ग के पुरस्कार हैं। जब ये मिलने लगें तो समझिये कि आपकी भक्ति में मोहर लग गयी, अब भक्ति चमकने वाली है । जितना लोग तुम्हारी निंदा करेंगे उतना ही तुम आगे बढ़ती चली जाओगी। श्रीरत्नावतीजी ने जब भगवत मार्ग में आगे बढ़ना चाहा तो उनका पति ही उनका कट्टर विरोधी हो श्रीमीराजी का राणा विक्रम विरोधी हो गया, सास विरोधी हो गयी ‘सास कहे कुल नासी रे’, ऐसे कितने चरित्र हैं भक्तों के, जब हम भक्तिमार्ग में आगे बढ़ते हैं तो ये सब बाधाएँ आती रहती हैं, हमें इनको सहना पड़ेगा । नामाचार्य श्रीहरिदासठाकुरजी का क्या दोष था लेकिन २२ बाजारों में उनको पीटा गया; ये इनाम है इस मार्ग का । हमारे प्रियतम से प्यार करने का ये इनाम है । जिसे इस मार्ग में चलना है तो फूल माला भी मिलेंगी और कोड़े भी मिलेंगे। प्रशंसा यानी जय जयकार भी होगी तो निंदा भी होगी, गालियाँ भी मिलेंगी। जब दोनों को समान भाव से स्वीकार करने की शक्ति आ जाएगी तब श्रीप्रियाप्रियतम मिल जायेंगे । इसलिए विरोध होगा ही होगा, अगर अभी नहीं हो रहा है तो इन्तजार करो आगे होना प्रारम्भ होगा। अरे, आपके परिवारीजनों की बुद्धि में बैठकर देवता उन्हें आपके खिलाफ कर देंगे; किसी भी भक्त के जीवन में देख लो, सबका विरोध हुआ। गया।

श्रीसखूबाईजी के चरित्र में आता है इन्होने बचपन से अपने घर से ही भक्ति प्रारंभ की थी, अब उनका विवाह जिस घर में हुआ तो पति और सास-ससुर तीनों दुष्ट प्रवृत्ति के थे । जब भी वे ठाकुर जी की सेवा पूजा करतीं या भजन-कीर्तन करतीं तो वे लोग उन्हें पीटते थे लेकिन वे सब सहती रहतीं तो इसका फल ये हुआ कि उनको साक्षात् प्रभु के एक सहेली के रूप में दर्शन हुए । अतः सहने की आदत डाल लेनी चाहिए ।

ओरछा में रानी भागमती जी हुई हैं, ये श्रीराधारानी की भक्त थीं । जब वो भजन करती थीं तो उनका पति (राजाओं की कई रानियाँ होती थीं) उनके ऊपर विस्तर (पलंग) बिछाता और उनका उपहास करने के लिए उसके ऊपर दूसरी रानी के साथ शयन करता और भागमती जी को मारता कोड़ों से, लेकिन भागमती रानी श्रीराधारानी के चरणों के चिन्तन में मगन रहतीं ।

“तो देखो सभी भक्तों के जीवन में कितने कष्ट आये, क्यों? ये भगवान् दिखाते हैं कि देखो, हमारे भक्त की सहनशीलता; तब वो भगवद्-रस का अधिकारी बनता है। अगर गाली मिलने लगे तो हर्षित हो जाओ कि ठाकुर के मिलने की सूचना आ गयी और अगर सम्मान मिलने लगे तो भयभीत हो जाओ कि कहीं फँस न जाएँ । सम्मान फँसा लेता है बड़े बड़ों को । इसीलिये भर्तृहरिजी ने महादेव जी की आराधना करके माँगा था की मैं जिस घर में भिक्षा के लिए जाऊं वहीं हमारा अपमान हो । मुझे अनादरपूर्वक भिक्षा मिले । श्रीनागरीदासजी महाराज ने एक पद में लिखा है

बड़ौई कठिन है भजन ढिंग ढरिबौ ।

तमक सिंदूर मेलि माथे पर, साहस सिद्ध सती कौ सौ जरिबौ ॥

रण के चार घायल ज्यौं घूमै, मुरै न गरूर सूर कौ सौ लरिबौ । नागरीदास सुगम जिन जानों, श्रीहरिवंश पंथ पग धरिबौ ॥ भजन करना कोई खेल नहीं है, भजन के लिए शूरवीर बनना पड़ता है; शूर वह होता है युद्ध में सिर कटने पर भी जिसका धड़ आगे बढ़ता जाता है –

सूर सोई रन भूमि कौं, तजै न जब लगि प्रान ।
धर्मी ऐसी चाहिये, उर नहिं आनै आन ॥ (श्रीबयालीसलीला)

वह युद्ध ही क्या जिसमें घाव न हों, वह योद्धा ही क्या जिसके खरोंच न लगी हो,अगर भगवत-मार्ग में चले और इसलिए किसी भी बाधा से घबड़ाना नहीं चाहिए, उसका डटकर सामना करना चाहिए ।

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क्या वृन्दावनधाम कृष्णावतारकाल के पूर्व भी था ?


प्र० महाराजजी, क्या वृन्दावनधाम कृष्णावतारकाल के पूर्व भी था ?

समाधान : वृन्दावन श्रीकृष्णावतारकाल द्वापरान्त के समय ही प्रकट नहीं हुआ अपितु वृन्दावन नित्य है, सनातन है, कालातीत है ।

श्रीहरिरामव्यास जी ने लिखा है

फनि पर रवि तर नहिं विराट महँ नहिं संध्या नहीं प्रात ।
माया काल रहित नित नूतन सदा फूल फल पात ॥

महाप्रलय में भी इसका नाश नहीं होता है क्योंकि यह ब्रह्माजी द्वारा रचित सृष्टि में नहीं है, उससे अलग है । शेष जी के फण के ऊपर नहीं है । यह सूर्य-चन्द्र से प्रकाशित नहीं है अपितु तेजोमय है और स्वयंप्रकाशित है; गीताजी में भी भगवान् ने कहा है

‘न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्कको न पावकः । (१५/६)

जब अवतार होता है तो यही चिदानंद स्वरूप धारण कर लेता है । ऐसा नहीं कि ये वृन्दावन द्वापर में प्रकट हुआ, इसके पहले वृन्दावन नहीं था; श्यामा श्याम की रसमयी लीलाएँ नहीं थीं । प्रियालाल के ‘नाम-रूप-लीला और धाम ये सब अनादि तत्त्व हैं । युगलकिशोर श्रीलाड़िली-लाल अनादिकाल से अनन्तकाल तक नवनिभृत निकुँज श्रीवृन्दावनधाम में अद्भुत रसमयी केलि करते रहते में हैं। श्रीध्रुवदासजी ने कहा है- ‘न आदि न अन्त विहार करें दोउ’ ये हमारी जोरी अनादि और अनन्त है । अवतार काल के समय इसी सदा सनातन एकरस जोरी निकुँज बिहारी-बिहारिनजू के अंश से नन्दनन्दन और वृषभानुनन्दिनी का प्राकट्य होता है ।

जिस वृन्दावन धाम में हम सब बैठे हैं, यह अनादि धाम हैं । अवतार काल में व्रज वृन्दावन का जो स्वरूप प्रकट होता है, जिसका वर्णन श्रीमद्भागवतादि पुराणों एवं गर्गसंहिता में मिलता है, वह इसी नवनिभृत निकुँज वृन्दावनधाम से ही प्रकट होता है । गोलोकधाम का संचालन भी इसी वृन्दावनधाम से होता है । यद्यपि जो महापुरुषजन गोलोकधाम की प्रधानता का भाव रखने वाले हैं वे ऐसा मानते हैं कि गोलोक से वृन्दावन इस भूलोक पर उतरा है –

वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥ (गर्गसंहिता)

वह जैसा भी मानें ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ जो जिस प्रकार का भाव करेंगे वैसे ही अनुभव में आयेगा; पर हमारे रसिकजन मानते हैं कि इसी धामी-धाम से अन्य धाम एवं धामी प्रकाशित हुए हैं। मूल महल यह वृन्दावनधाम है ।

यही है यही है भूलि भरमौ न कोऊ
भूलि भरमें ते भव भटक मरिहौ ॥ (श्रीमहावाणीजी)

इस धाम में जो जोरी रास-विलास परायण है, वह भी निर्गुण और सगुण दोनों से परे है और उसी से निर्गुण-सगुण की सत्ता है –

नहिं निर्गुन, सर्गुन नहीं, नहीं नेरे नहिं दूरि ।
भगवत रसिक अनन्य की, अद्भुत जीवन मूरि ॥
(श्रीभगवतरसिकजी)

श्रीहरिराम व्यासजी भी कहते हैं- ‘निर्गुण सगुण ब्रह्म ते न्यारी’, यह जोरी निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों से न्यारी है लेकिन यह बात वृन्दावन की रज और रसिकों की कृपा से ही समझ में आयेगी। जिनको रजरानी का सेवन करने को और रसिकों का संग मिला, उनके लिये यह जोरी बहुत नजदीक है; क्योंकि जहाँ हम सब बैठे हैं, यह जोरी इसी धाम में क्रीड़ा परायण है

यद्वृन्दावनमात्रगोचरमहो यन्त्र श्रुतीकं शिरो
प्यारोढुं क्षमते न यच्छिवशुकादीनां तु यद्-ध्यानगम् ॥ (रा.सु.नि ७६)

महाप्रेमरस स्वरूप हमारी नवकिशोर किशोरी युगलजोरी, वह एकमात्र नवनिभृत निकुँज वृन्दावन में ही गोचर है । यह जोरी न तो वेदों के अनुसार साधना करने पर मिल सकती है और न बड़े-बड़े महापुरुषों के ध्यान में आती है यह तो केवल वृन्दावन रजरानी की कृपा से जो सहचरीभावापन्न रसिकाचार्यों की शरण लिए हुए हैं एवं उनके द्वारा उपदिष्ट उपासना पद्धति के अनुसार उपासना परायण हैं, तथा अपने मन व प्राण सब कुछ समर्पित किये हुए हैं, उनके हृदय में ये जोरी सहज रूप में प्रकाशित हो जाती है अन्यथा अति दुर्लभ और अति दूर है यह जोरी ।

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कृष्ण का साक्षात्कार कैसे हो?


महाराज श्री, श्रीकृष्ण साक्षात्कार कैसे और कब होता है ?

समाधान – बिना श्रीकृष्ण बने श्रीकृष्ण का साक्षात्कार नहीं होता है, जब हमारा अन्तःकरणचतुष्टय ‘मन, बुद्धि, चित्त, अहं’ सब श्रीकृष्ण बन जाए यानी सम्पूर्ण अन्तःकरण कृष्णमय हो जाए तो जिधर दृष्टि डालो वहीं कृष्ण ही दिखाई पड़ेंगे । पहले अन्तःकरण की वृत्तियों को निरंतर कृष्ण सुमिरन से कृष्णमय बनाओ । जब हमारे रोम-रोम, श्वाँस-श्वाँस से नाम निकलेगा तब नामी अपने आप आ जाएगा । खूब नामजप करते हुए भजन परायण रहो, इसी से प्रभु से प्रेम और प्रेम होने पर उनका साक्षात्कार हो जाएगा। अब इसमें सावधानी ये रखनी है कि हर समय दीनता का भाव बना रहे कि मैं नामजप कर नहीं रहा हूँ, प्रभु कृपा करके करा रहे हैं । मैं तो इतना नीच हूँ कि एक ‘राधा नाम या कृष्ण नाम भी नहीं बोल सकता हूँ श्रीहितहरिवंश महाप्रभु जी ने एक स्थान पर श्रीराधासुधानिधि में कहा है

क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गर्ह्यकर्मा
यत्तन्नाम स्फ़ुरति महिमा एष वृन्दावनस्य || (२६०)

‘कहाँ तो मैं तुच्छ, परम अधम और निंदनीय कर्म करने वा साधारण प्राणी और कहाँ श्रीप्यारीजू का महामहिमामय नाम; इसलिए मैं जो ‘राधा’ नाम ले रहा हूँ ये इस वृन्दावन धाम की कृपा है अन्यथा वृन्दावन की कृपा के बिना कोई ‘राधा’ नाम ले ही नहीं सकता ।’ अतः हमसे जो नामजप हो रहा है, वह प्रभु करुणा करके करा रहे हैं, मुझे अपनी तरफ घसीट रहे हैं ऐसी दीनता से युक्त साधक बहुत जल्दी आगे बढ़ जाता है। अगर ये भाव रहा कि मैं इतना भजन कर रहा हूँ तो लड़खड़ाना पड़ता है, गिरना पड़ता है। क्योंकि अहंकार की धुलाई आवश्यक है

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न राखर्हि काऊ || संसृति मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥ ताते करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥

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प्रभु को कैसे पहचाने ?




महाराजजी, संतजन कहते हैं कि भगवान् किसी भी रूप में आ जाते हैं तो हम उन्हें पहचानें कैसे ?

समाधान- जो भी रूप सामने आये, सबको प्रणाम करने की आदत डाल लो

तुलसी या संसार में सबसों मिलिए धाय ।
न जाने केहि वेश में नारायण मिलि जाएँ ॥

भगवान् सही पूछो तो भगवान् किसी भी रूप में नहीं आते बल्कि तो सभी रूपों में हैं ही; सबकुछ प्रभु ही बने हुए हैं. वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । (गीताजी ७/१९)

जब सृष्टि नहीं थी तब केवल भगवान् श्रीकृष्ण थे, जब सृष्टि नहीं रहेगी तब भी केवल भगवान् श्रीकृष्ण रहेंगे तो बीच में जो बने हुए हैं वो प्रभु ही तो बने हुए हैं, दूसरा कोई है ही नहीं जब तक अज्ञान की दृष्टि है तब तक दूसरा दिखाई पड़ता है।

वासनात् वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ (विष्णुसहस्त्रनामस्तोत्र)

‘त्रिभुवन जिनकी सत्ता भाव से सुवासित है, सभी प्राणियों के हृदयस्थ ऐसे वासुदेव श्रीकृष्ण को नमस्कार है ।’ इसीलिये जो भी सामने आए हमारे प्रभु ही इस रूप में हैं। ऐसा मानकर उसको प्रणाम करोगे तो धीरे-धीरे दृष्टि बदलेगी और आपको सही मायने में दिखाई देने लगेगा कि प्रभु ही सब रूपों में हैं। जैसे गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कह रहे हैं

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥
( श्रीरामचरित १ ७ )

समस्त जड़-चेतनात्मक जगत् प्रभु का ही स्वरुप है, ऐसा जानकर मैं सबको हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ । गोपीजन कहती हैं – “जित देखूँ तित श्याममयी है’, सारा जगत् श्यामसुन्दर ही है, ऐसा गोपीजनों को अनुभव हुआ । अगर आप भी अभ्यास करेंगे तो आपको भी अनुभव होने लगेगा क्योंकि भगवान् ही सब रूपों में हैं । श्रीनामदेवजी का चरित्र पढ़कर के देखो ‘कुत्ता, प्रेत, मुगल सिपाही’ उन्होंने सभी में भगवद्भाव किया तो वहीं वहीं उन्हें प्रभु के दर्शन हुए ।

अपवित्र मन ये बात नहीं समझ सकता कि ‘प्रभु कहीं कुत्ते प्रेत में भी हो सकते हैं, ये दुष्ट कहीं प्रभु हो सकता है ये बातें मन में आती रहेंगी । जब तक हमें प्रभु के अलावा कुछ और दिखाई दे रहा है तो समझो अभी हमारा अन्तःकरण अशुद्ध है । गन्दे अन्तःकरण में ये बात समझ में नहीं आती है कि सब रूपों में प्रभु हैं; इसलिए पहले साधन (नामजप, कथा-कीर्तन) आदि के द्वारा अन्तःकरण को पवित्र करो, ज्यों ही अन्तःकरण पवित्र हुआ तो दिखाई देने लगेगा कि चराचार जगत् के रूप में वही एकमात्र सच्चिदानंद प्रभु है ।

जय जय श्री राधे

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गोपी भाव और सखी (सहचरी ) भाव में क्या अन्तर है ?




दोनों ही भाव श्रृंगाररस के अन्तर्गत हैं गोपी (कांता) – भाव माने माधुर्य रस और सहचरी भाव माने महामाधुर्य रस ।

गोपी (कांता) भाव में श्रीकृष्ण की प्रधानता है, श्रीकृष्ण हमें मिलें आलिंगन आदि करें; जैसे रासपंचाध्यायी में गोपीगीत में गोपियों ने श्रीकृष्ण से याचना की ‘प्रेम वीक्षणम्’ या ‘नस्तेऽधरामृतम्’; हे कृष्ण! आप प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखो, हमें अपने अधरामृत का पान कराओ ।

सहचरी भाव में श्रीराधाचरणारविन्द की प्रधानता है । सहचरियाँ श्रीकिशोरीजू की निज दासी हैं; और श्रीप्रिया प्रियतम की बड़े दुलार से आठों प्रहर सेवा करती है; पर गोपियों की भाँति दासी के मन में यह कामना नहीं होती कि कृष्ण हमें आलिंगन आदि देकर आनंद प्रदान करें; सहचरी की तो एकमात्र यही इच्छा रहती है कि श्रीप्रिया प्रियतम आपस में मिलें, हम उनकी सेवा में मगन रहें, उनको सुख पहुँचाते रहें, उनको आशीर्वाद देते रहें –

‘जैश्रीहित हरिवंश लाल-ललना मिलि, हियौ सिरावत मोर ।
‘दै असीस हरिवंश प्रसंसत, करि अंचल की छोर ।’
‘जैश्रीहितहरिवंश असीस देत मुख, चिरजीवौ भूतल यह जोरी ॥
‘दै असीस हरिवंश प्रसंसत, करि अंचल की छोर ।’
देत असीस निरखि जुवतीजन, जिनकै प्रीति न थोरी ।
जै श्रीहित हरिवंश विपिन भूतल पर, संतत अविचल जोरी ॥

श्रीप्रियालाल की सुख सामाग्री सँजोना, दोनों को सुख प्रदान करना, दोनों को दुलार करना, दोनों को आशीर्वाद देना यही सहचरी भाव है; मतलब उनसे सुख लेने की कोई भावना नहीं; क्योंकि दोनों ही सहचरियों के प्रीतम हैं ‘विहरत दोऊ प्रीतम कुञ्ज । अगर श्रीकृष्ण किसी सहचरी को आलिंगन आदि प्रदान करते भी हैं (सहचरियों को श्रीलालजू की अयाचित कृपा प्राप्त होने पर ) तब भी उनका मन, श्रीस्वामिनी जू के श्रीचरणों के रस विलास में मग्न रहता


निजप्राणैश्वर्या यद् अपि दयनीयेन्यमिति मां मुहशुम्बत्यालिङ्गतिसुरतमाध्व्या मदयति ।
विचित्रां स्नेहर्धिं रचयति तथाप्यद्भुतगतेस्
तवैव श्रीराधे पदरसविलासे मम मनः ॥ (रा.सु.नि. ५५)

महाराज जी दास्य भाव और दासी भाव में क्या अन्तर है ?

दास्य-भाव में ऐश्वर्य रहता है, ये हमारे भगवान् अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी, अनन्त महिमा वाले हैं । श्रीरूपगोस्वामी जी दास का लक्षण भक्तिरसामृतसिन्धु में लिखते हैं

दासास्तु प्रश्रितास्तस्य निदेशवशवर्तिनः ।
विश्वस्ताः प्रभुता ज्ञान विनम्रतधियश्च ते ॥

आज्ञाकारी, विश्वासी, स्वामी की महिमा का ज्ञान रखने वाले और विनम्र मति वाले होते हैं ।’ ऐश्वर्य रहने के कारण दास संकोच में रहता है वो कुछ कह नहीं सकता, अपनी मन की सेवा नहीं कर सकता; जैसी आज्ञा हुई वैसा करता है और यहाँ दासी (किंकरी, सहचरी) भाव में भगवद् ऐश्वर्य का विस्मरण होकर उन्हें आठों प्रहर दुलार देना, आशीर्वाद देना –

ऐसें ही रंग करौ निशि-बासर, वृन्दाविपिन कुटी अभिराम ( श्रीहितचतुरासी ५६ )

बिलकुल लाड़ भरी सेवा, प्यार भरी सेवा; यह हमारे भगवान् नही हमारे प्रिया प्रियतम, हमारे लाड़िली लाल । देखो वृन्दावन में ‘राधावल्लभ लाल, राधारमणलाल, बाँके विहारीलाल; वहाँ दास्य भाव में ऐश्वर्य की प्रधानता है और ऐश्वर्य में खुलकर के सेवा नहीं हो पाती हैं । दास हर समय स्वामी के समक्ष ग्रीवा झुकाए खड़ा रहेगा और जो आज्ञा होगी, वही करेगा । यहाँ ऐसा नहीं है यहाँ हमारे ही मन के अनुसार सेवा होगी; क्योंकि हमारा (सहचरी का) मन श्री जी का मन, श्री जी का मन हमारा मन –

‘मन-मन की रुचि जानि नेह-विधि अनुसरैं ।’

श्रीप्यारीजू और श्रीप्यारेजू दोनों हमारे प्राण प्यारे हैं; यहाँ ये स्मरण नहीं रहता कि ये भगवान् हैं । बहुत प्यार भरी सेवा है निकुँज की उपासना में ।