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संकेत वन : राधाकृष्ण का मिलन स्थली


नन्दगाँव और बरसाना दोनोंके बीच में संकेत वन स्थित है।

श्रीमती राधिका एवं श्रीकृष्ण इन युगलके पूर्व रागके पश्चात् सर्वप्रथम मिलन यहींपर हुआ था।

श्रीमती राधिका अपनी ससुराल जावटसे और श्रीकृष्ण नन्दगाँवसे परस्पर इस स्थानपर मिलते थे। वृन्दादेवी, वीरादेवी और सुबलसखा ये दूत और दूतीका कार्यकर संकेत के द्वारा प्रिया प्रियतम दोनोंका मिलन कराते थे। इसलिए इस स्थानका नाम संकेत है। कभी-कभी श्रीमती राधिकाजी और कभी-कभी कृष्ण इस स्थानपर परस्पर मिलनेके लिए अभिसार करते थे। कृष्णदास कविराज द्वारा रचित गोविन्दलीलामृत तथा श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा रचित कृष्णभावनामृत ग्रन्थमें नैश एवं निशान्त लीलाका इस संकेत स्थलमें राधाकृष्णके मिलन एवं विलासका अद्भुत सरस रूपमें वर्णन किया गया है। योगमायाकी अभिलाषाके अनुसार श्रीवीरा एवं वृन्दादेवी ये दोनों प्रधान दूतियाँ श्रीराधाकृष्ण युगलका परस्पर मिलन कराती हैं। श्रीवृन्दादेवी निशान्तके समय युगलके मधुर जागरणकी व्यवस्था करती हैं। शुक-सारी अपने सुमधुर वचनोंसे उनका प्रबोधन कराते हैं। कोकिल अपने मधुर काकलि और कुहु कुहु स्वरोंसे, मयूर मयूरी अपने के का शब्दों से उनको जगानेमें सहायक होते हैं। ललिता, विशाखादि सखियाँ उनकी आरती उतारती हैं। कक्खटी (बूढ़ी मरकटी या वानरी) के ‘जटिला’ शब्दके उच्चारणसे संकुचित हो श्रीराधा एवं श्रीकृष्ण अपने-अपने भवनमें पधारकर शयन करते हैं।

यहाँ संकेत विहाराजीका मन्दिर, रासमण्डलका चबूतरा और झूलामण्डप – ये स्थान दर्शनीय हैं। रास चबूतराके सामने पूर्व दिशामें श्रीगोपालभट्ट गोस्वामीकी भजन कुटी है। यहींपर श्रीचैतन्य महाप्रभुने द्वादश वन भ्रमणके समय बैठकर विश्राम किया था। रासमण्डल चबूतराके पास ही संकेत देवी (श्रीवीरादेवी) का दर्शन है। पास ही विह्वलादेवी, विह्वलकुण्ड, रंगमहल, शय्यामन्दिर तथागाँवके पश्चिममें कृष्णकुण्ड दर्शनीय हैं। कृष्णकुण्डकेट श्रीवल्लभाचार्यजीकी बैठक है ।

कोई-कोई संकेत गाँव से नन्दगाँव की यात्रा करते हैं। कोई-कोई आसपासकी लीलास्थलियाँ रिठौर, भाण्डोखोर, श्रीमेहेरान, साँतोया, पाई, तिलोयार, शृंगारवट, बिछोर, अन्धोप, सोन्द, वनचारी, होडल, दईगाँव, लालपुर, हारोयान गाँव, साञ्चुली, गेण्डो गाँव आदिका दर्शन और परिक्रमाकर नन्दगाँवका दर्शन करते हैं।


संकेत देवी मंदिर

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥

सूरसागर से उद्धृत यह पद राग तोड़ी में बद्ध है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लड़का माखन की चोरी करता फिरता है। तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।


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राधाकृष्ण विवाह स्थली

क्या श्रीकृष्ण का श्री राधा से विवाह हुआ था?
यह प्रश्न हर किसी के जहन मे होता है, परन्तु बहुत कम लोगो को ही इसके बारे मे पता है, क्योंकि यह एक गुप्त रस है जिसको केवल अधिकारी जन ही जान पाए है। आज हम इसी रहस्य के बारे मे इस ब्लॉग मे पढ़ेंगे।

भांडीर वन ब्रज के 137 प्राचीन वनो मे से एक है, मथुरा से करीब तीस किलोमीटर दूर मांट के गांव छांहरी के समीप यमुना किनारे भांडीरवन है। करीब छह एकड़ परिधि में फैले इस वन में कदंब, खंडिहार, हींस आदि के प्राचीन वृक्ष हैं। जंगली जीवन में मोर, कौआ, कबूतर और क्षेत्र के अन्य छोटे पक्षी शामिल हैं।

भांडीर वन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ श्री राधा कृष्ण की एक अनुपम मूर्ति विराजमान है, यह मूर्ति खास इसलिए है क्योंकि पूरे विश्व मे केवल यही एक मात्र मूर्ति है जिसमे श्री कृष्ण श्रीराधा के मांग मे सिंदूर लगाते हुए देखें जाते है। इसके अलावा यहाँ श्रीराधाकृष्ण एक दूसरे को वरमाला पहनाते हुए भी देखे जाते है एवम् श्री गर्ग संहिता के कथानुसार ब्रम्हा जी जिन्होंने श्रीराधाकृष्ण का विवाह करवाया था, पुरोहित रूप मे विराजमान है।

श्री कृष्ण श्री राधा जी की मांग भरते हुए
(राधा रानी का कद लंबा होने के कारण ठाकुर जी अपनी पैरों के उंगलियों पर खड़े होकर राधा रानी की मांग भरे थे।)

ये विशाल वन अब 7.5 एकड़ मे फैला हुआ है। मथुरा से अलग थलग इस वन मे सेवावितो के परिवार रहते है। इस वन के बारे मे अधीक लोग नही जानते इसलिए यहाँ ज्यादा भीड़ भी नहीं होती, किन्तु किसी भी रसिक के लिए ये स्थान अति रमणीय है क्योंकि ये श्री कृष्ण के किशोरावस्था के अनेक लीलाओ का साक्षी है।
यहाँ के दर्शनीय स्थान कुछ इस प्रकार है —


छाहेरी गाँव

छाहेरी गाँव भांडीरवट एवं वंशीवट के बीच में बसा हुआ है। यह गाँव श्रीकृष्ण की लीला स्थलियों में से एक है।
श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ इस वन में विविध प्रकार की क्रीड़ाओं के पश्चात् पेड़ों की छाया में बैठकर नाना प्रकार की भोजन-सामग्री क्रीड़ा-कौतुक के साथ ग्रहण करते थे।
‘छाया’ शब्द से ही छाहेरी नाम बना है। इस गाँव का नामान्तर बिजौली भी है। भांडीरवट के पास ही बिजौली ग्राम है।



श्याम तलैया

श्याम तलैया वंशीवट के निकट ही स्थित है।
रासलीला के समय गोपियों को प्यास लगने पर श्रीश्यामसुन्दर ने अपनी बाँसुरी से इस तलैया को प्रकट कर उसके सुस्वादु जल से उन सब को तृप्त किया था।
आजकल यह तलैया टूटी-फूटी खण्डहर के रूप में विद्यमान है। परंतु आज भी उसके पानी मे वही मिठास है, अब इसमें थोड़ा-सा ही जल रह गया है जिसे लोग श्रद्धा से यहाँ आचमन करते हैं।

वेणुकूप

वेणुकूप भांडीरवन में भांडीरवट के पास ही है। यहाँ श्रीकृष्ण ने अपने वेणु से एक कूप को प्रकट किया था।
वत्सासुर का वध करने के पश्चात श्रीकृष्ण अपने बल की डींग हाँकते हुए भांडीरवन के पास गोपियों से मिले, किन्तु गोपियों ने श्रीकृष्ण के ऊपर गोवध का आरोप लगाकर स्पर्श करने से मना कर दिया। श्री कृष्ण ने कहा कि- “मैंने गोवध नहीं किया, बल्कि बछड़े के रूप में एक असुर का वध किया है।” किन्तु गोपियाँ कृष्ण के तर्क से सहमत नहीं हुईं।

तब कृष्ण ने उनसे पवित्र होने का उपाय पूछा। गोपियों ने कहा- “यदि तुम पृथ्वी के सारे तीर्थों में स्नान करोगे, तब पवित्र होओगे, तभी हमें स्पर्श कर सकते हो।”
गोपियों की बात सुनकर कृष्ण ने अपने वेणु से एक सुन्दर कूप का निर्माण कर उसमें पृथ्वी के सारे तीर्थों का आह्वान किया। फिर उस कूप के जल में स्नानकर गोपियों से मिले। यहाँ भांडीरवन के निकट ही यह वेणुकूप है। उसमें स्नान करने से सब तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है।
आज भी व्रज की महिलाएँ किसी विशेष योग में इस कूप का पूजन करती हैं

वंशीवट

भांडीरवट से लगभग 15 मिनट की दूरी पर अवस्थित है। यह श्रीकृष्ण की रासस्थली है। यह वंशीवट वृन्दावन वाले वंशीवट से पृथक है।
श्रीकृष्ण जब यहाँ गोचारण कराते, तब वे इसी वट वृक्ष के ऊपर चढ़कर अपनी वंशी से गायों का नाम पुकार कर उन्हें एकत्र करते और उन सबको एकसाथ लेकर अपने गोष्ठ में लौटते।
बेणुवादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने का साक्षी रहा इस वट का नाम वंशीवट इसलिये पड़ा कि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्री कृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे। वंशीवट नामक इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर सुनें तो ढोल मृदंग, “राधे-राधे” की आवाज सुनायी देती है।

भांडीरवट

भांडीरवन मे स्थित यह एक प्रसिद्ध लीलास्थली है। यहाँ श्रीराधा-कृष्ण युगल की विविध लीलाएँ सम्पन्न होती हैं। यहाँ पर दो बहुत बृहत वट का वृक्ष है। उसकी अनेकों लम्बी शाखाएँ ऊपर-नीचे चारों ओर बहुत दूर-दूर तक फैली हुई है और ये दोनो वृक्ष की शाखाए एक दूसरे से ऐसे जुड़ी हुई है जिससे दो होते हुए भी एक वृक्ष ही लगता है।

भांडीरवट पर श्रीकृष्ण, बलदेव सखाओं के साथ विविध-प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए डालियों के ऊपर-ही-ऊपर यमुना को पार कर जाते थे। इस वट वृक्ष की विस्तृत शाखाओं पर शुक-सारी, मयूर-मयूरी, कोयलें, पपीहे सदा-सर्वदा चहकते रहते थे तथा इसके फलों से तृप्त रहते थे। इसकी स्निग्ध एवं सुशीतल छाया में हिरण-हिरणियाँ तथा वन के अन्य प्राणी यमुना का मधुर जलपान कर विश्राम करते थे।
माता यशोदा आदि ग्वालवालों की माताएँ अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर का ‘छाछ’ गोपों के माध्यम से अधिकांश इसी निर्दिष्ट भांडीरवट पर भेज दिया करती थीं। वे स्वयं यमुना के शीतल जल में स्नान एवं जलक्रीड़ा कर इस वट की सुशीतल छाया में बैठकर माताओं के द्वारा प्रेरित विविध प्रकार के सुस्वादु अन्न व्यंजन का सेवन करते थे। श्रीकृष्ण सब के मध्य में बैठते। सखा लोग चारों ओर से घेर कर हज़ारों पंक्तियों में अगल-बगल एवं आगे-पीछे बैठ जाते। ये सभी सखा पीछे या दूर रहने पर भी अपने को श्रीकृष्ण के सबसे निकट सामने देखते थे। ये परस्पर सब को हँसते-हँसाते हुए विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए भोजन सम्पन्न करते थे। आकाश से ब्रह्मा आदि देवगण उनके भोजन क्रीड़ा-कौतुक देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे।
इसी वट वृक्ष के नीचे श्रीराधा-कृष्ण युगल का ब्रह्मा जी द्वारा गान्धर्व विवाह सम्पन्न हुआ था।

भांडीरवन मे स्थित ये स्थान श्री गर्ग संहिता मे उल्लेखित श्रीराधाकृष्ण के विवाह के कथा का प्रमाण और साक्षी है।

श्री गर्ग संहिता के गोलोक खंड के अध्याय 16 मे यह कथा इस प्रकार है

गोलोक खण्ड : अध्याय 16

भाण्डीर वन में नन्दजी के द्वारा श्री राधाजी की स्तुति: श्री राधा और श्रीकृष्ण का ब्रह्माजी के द्वारा विवाह; ब्रह्माजी के द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन तथा नवदम्पति की मधुर लीलाएँ

श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक दिन नन्द जी अपने नन्दन को अंक में लेकर लाड़ लड़ाते और गौएँ चराते हुए खिरक के पास से बहुत दूर निकल गये। धीरे-धीरे भाण्डीर वन जा पहुँचे, जो कालिन्दी-नीर का स्पर्श करके बहने वाले तीरवर्ती शीतल समीर के झोंके से कम्पित हो रहा था। थोड़ी ही देर में श्रीकृष्ण की इच्छा से वायु का वेग अत्यंत प्रखर हो उठा। आकाश मेघों की घटा से आच्छादित हो गया। तमाल और कदम्ब वृक्षों के पल्लव टूट-टूटकर गिरने, उड़ने और अत्यंत भय का उत्पादन करने लगे। उस समय महान अन्धकार छा गया। नन्द नन्दन रोने लगे। वे पिता की गोद में बहुत भयभीत दिखायी देने लगे। नन्द को भी भय हो गया। वे शिशु को गोद में लिये परमेश्वर श्री हरि की शरण में गये।

उसी क्षण करोड़ों सूर्यों के समूह की सी दिव्य दीप्ति उदित हुई, जो सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त थी; वह क्रमश: निकट आती-सी जान पड़ी उस दीप्ति राशि के भीतर नौ नन्दों के राजा ने वृषभानु नन्दनी श्रीराधा को देखा। वे करोड़ों चन्द्र मण्डलों की कांति धारण किये हुए थी। उनके श्री अंगों पर आदिवर्ण नील रंग के सुन्दर वस्त्र शोभा पा रहे थे। चरण प्रांत में मंजीरों की धीर-ध्वनि से युक्त नूपुरों का अत्यंत मधुर शब्द हो रहा था। उस शब्द में कांचीकलाप और कंकणों की झनकार भी मिली थी। रत्नमय हार, मुद्रिका और बाजूबन्दों की प्रभा से वे और भी उद्भासित हो रही थी। नाक में मोती की बुलाक और नकबेसर की अपूर्व शोभा हो रही थी। कण्ठ में कंठा, सीमंत पर चूड़ामणि और कानों में कुण्डल झलमला रहे थे। श्री राधा के दिव्य तेज अभिभूत हो नन्द ने तत्काल उनके सामने मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘राधे ! ये साक्षात पुरुषोत्तम हैं और तुम इनकी मुख्य प्राणवल्लभा हो, यह गुप्त रहस्य मैं गर्गजी के मुख से सुनकर जानता हूँ। राधे ! अपने प्राणनाथ को मेरे अंक से ले लो। ये बादलों की गर्जना से डर गये हैं। इन्होंने लीलावश यहाँ प्रकृति के गुणों को स्वीकार किया है।

इसीलिये इनके विषय में इस प्रकार भयभीत होने की बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतल पर मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तव में तो तुम सब लोगों के लिये दुर्लभ हो’।[1] श्री राधा ने कहा- नन्द जी ! तुम ठीक कहते हो। मेरा दर्शन दुर्लभ ही है। आज तुम्हारे भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। श्री नन्द बोले- देवि ! यदि वास्तव में तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो तुम दोनों प्रिया-प्रियतम के चरणारविन्दों में मेरी सुदृढ भक्ति बनी रहे। साथ ही तुम्हारी भक्ति से भरपूर साधु-संतों का संग मुझे सदा मिलता रहे। प्रत्येक युग में उन संत-महात्माओं के चरणों में मेरा प्रेम बना रहे। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रीराधा ने नन्द जी को गोद से अपने प्राणनाथ को दोनों हाथों में ले लिया। फिर जब नन्दराय जी उन्हें प्रणाम करके वहाँ से चले गये, तब श्री राधिका जी भाण्डीर वन में गयीं। पहले गोलोकधाम से जो ‘पृथ्वी देवी’ इस भूतल पर उतरी थी, वे उस समय अपना दिव्य रूप धारण करके प्रकट हुई। उक्त धाम में जिस तरह पद्भराग मणि से जटित सुवर्णमयी भूमि शोभा पाती है, उसी तरह इस भूतल पर भी व्रजमण्डल में उस दिव्य भूमिका तत्क्षण अपने सम्पूर्ण रूप से आविर्भाव हो गया। वृन्दावन काम पूरक दिव्य वृक्षों के साथ अपन दिव्य रूप धारण करके शोभा पाने लगा। कलिन्दनन्दिनी यमुना भी तट पर सुवर्णनिर्मित प्रासादी तथा सुन्दर रत्नमय सोपानों से सम्पन्न हो गयी। गोवर्धन पर्वत रत्नमयी शिलाओं से परिपूर्ण हो गया। उसके स्वर्णमय शिखर सब ओर से उद्भासित होने लगे। राजन ! मतवाले भ्रमरों तथा झरनों से सुशोभित कन्दराओं द्वारा वह पर्वतराज अत्यंत ऊँचे अंग वाले गजराज की भाँति सुशोभित हो रहा था। उस समय वृन्दावन के निकुंज ने भी अपना दिव्य रूप प्रकट किया। उसमें सभाभवन, प्रांगण तथा दिव्य मण्डप शोभा पाने लगे। वसंत ऋतु की सारी मधुरिमा वहाँ अभिवयक्त हो गयी। मधुपों, मयूरों, कपोतों तथा कोकिलों के कलरव सुनायी देने लगे।

निकुंजवर्ती दिव्य मण्डपों के शिखर सुवर्ण-रत्नादि से खचित कलशों से अलंकृत थे। सब ओर फहराती हुई पताकाएँ उनकी शोभा बढ़ाती थी। वहाँ एक सुन्दर सरोवर प्रकट हुआ, जहाँ सुवर्णमय सुन्दर सरोज खिले हुए थे और उन सरोजों पर बैठी हुई मधुपावलियाँ उनके मधुर मकरन्द का पान कर रही थी। दिव्यधाम की शोभा का अवतरण होते ही साक्षात पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान श्रीकृष्ण किशोरावस्था के अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्री राधा के सम्मुख खड़े हो गये। उनके श्री अंगों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। कौस्तुभ मणि से विभूषित हो, हाथ में वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि-राशि मन्मथों (कामदेवों) को मोहित करने लगे। उन्होंने हँसते हुए प्रियतमा का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और उनके साथ विवाह-मण्डप में प्रविष्ट हुए। उस मण्ड़प में विवाह की सब सामग्री संग्रह करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका और जल से भरे कलश आदि उस मण्ड़प की शोभा बढ़ा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिस पर वे दोनों प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे से सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभा का प्रसार करने लगे। वे दोनों एक-दूसरे से मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विधुत की भाँति अपनी प्रभा से उद्दीप्त हो रहे थे। उसी समय देवताओं में श्रेष्ठ विधाता-भगवान ब्रह्मा आकाश से उतर कर परमात्मा श्रीकृष्ण के सम्मुख आये और उन दोनों के चरणों में प्रणाम करके, हाथ जोड़ कमनीय वाणी द्वारा चारों मुखों से मनोहर स्तुति करने लगे। श्री ब्रह्मा जी बोले- प्रभो ! आप सबके आदि कारण हैं, किंतु आपका कोई आदि-अंत नहीं है। आप समस्त पुरुषोत्तमों में उत्तम हैं। अपने भक्तों पर सदा वात्सल्य भाव रखने वाले और ‘श्रीकृष्ण’ नाम से विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्ड के पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्णचन्द्र की मैं शरण लेता हूँ। आप गोलोकधाम के अधिनाथ है, आपकी लीलाओं का कहीं अंत नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ किया करती हैं।

जब आप ही ‘वैकुण्ठनाथ’ के रूप में विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानु नन्दिनी ही ‘लक्ष्मी’ रूप से आपके साथ सुशोभित होती हैं। जब आप ‘श्रीरामचन्द्र’ के रूप में भूतल पर अवतीर्ण होते हैं, तब ये जनक नन्दिनी ‘सीता’ के रूप में आपका सेवन करती हैं। आप ‘श्रीविष्णु’ हैं और ये कमलवन वासिनी ‘कमला’ हैं; जब आप ‘यज्ञ-पुरुष’ का अवतार धारण करते हैं, तब ये श्रीजी आपके साथ ‘दक्षिणा’ रूप में निवास करती हैं। आप पति शिरोमणी हैं तो ये पत्नियों में प्रधान हैं। आप ‘नृसिंह’ हैं तो ये आपके ह्र्दय में ‘रमा’ रूप से निवास करती हैं। आप ही ‘नर-नारायण’ रूप से रहकर तपस्या करते हैं, उस समय आपके साथ ये ‘परम शांति’ के रूप में विराजमान होती हैं। आप जहाँ जिस रूप में रहते हैं, वहाँ तदनुरूप देह धारण करके ये छाया की भाँति आपके साथ रहती हैं। आप ‘ब्रह्म’ हैं और ये ‘तटस्था प्रकृति’। आप जब ‘काल’ रूप से स्थित होते हैं, तब इन्हें ‘प्रधान’ (प्रकृति) के रूप में जाना जाता है। जब आप जगत के अंकुर ‘महान’ (महत्तत्त्व) रूप में स्थित होते हैं। तब ये श्रीराधा ‘सगुण माया’ रूप से स्थित होती हैं। जब आप मन, बुद्धि, चित्त और अन्हकार-इन चारों अंत:करणों के साथ ‘अंतरात्मा’ रूप से स्थित होते हैं, तब ये श्रीराधा ‘लक्षणावृत्ति’ के रूप में विराजमान होती हैं। जब आप ‘विराट’ रूप धारण करते हैं, तब ये अखिल भूमण्डल में ‘धारणा’ कहलाती हैं। पुरुषोत्तमोत्तम ! आपका ही श्याम और गौर-द्विविध तेज सर्वत्र विदित है। आप गोलोकधाम के अधिपति परात्पर परमेश्वर हैं। मैं आपकी शरण लेता हूँ। जो इस युगलरूप की उत्तम स्तुति का सदा पाठ करता है, वह समस्त धामों में श्रेष्ठ गोलोकधाम में जाता है और इस लोक में भी उसे स्वभावत: सौन्दर्य, समृद्धि और सिद्धियों की प्राप्ति होती है। यद्यपि आप दोनों नित्य-दम्पत्ति हैं और परस्पर प्रीति से परिपूर्ण रहते हैं, परात्पर होते हुए भी एक-दूसरे के अनुरूप रूप धारण करके लीला-विलास करते हैं; तथापि मैं लोक-व्यवहार की सिद्धि या लोकसंग्रह के लिये आप दोनों की वैवाहिक विधि सम्पन्न कराऊँगा।

श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्माजी ने उठकर कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित की और अग्निदेव के सम्मुख बैठे हुए उन दोनों प्रिया-प्रियतम के वैदिक विधान से पाणिग्रहण-संस्कार की विधि पूरी की। यह सब करके ब्रह्माजी ने खड़े होकर श्री हरि और राधिकाजी से अग्निदेव की सात परिक्रमाएँ करवायीं। तदनंतर उन दोनों को प्रणाम करके वेदवेत्ता विधाता ने उन दोनों से सात मंत्र पढ़्वाये। उसके बाद श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर श्रीराधिका का हाथ रखवाकर और श्रीकृष्णल का हाथ श्रीराधिका के पृष्ठ।देश में स्थाापित करके विधाता ने उनसे मंत्रों का उच्चंस्व्र से पाठ करवाया। उन्हों्ने राधा के हाथों से श्रीकृष्णप के कण्ठम में एक केसरयुक्त माला पहनायी, जिस पर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। इसी तरह श्रीकृष्णो के हाथों से भी वृषभानु नन्दिनी के गले में माला पहनवाकर वेदज्ञ ब्रह्माजी ने उन दोनों से अग्निदेव को प्रणाम करवाया और सुन्दार सिंहासन पर इन अभिनव दम्प्ति को बैठाया। वे दोनों हाथ जोड़े मौन रहे। पितामह ने उन दोनों से पांच मंत्र पढ़वाये और जैसे पिता अपनी पुत्री का सुयोग्यम वर के हाथ में दान करता है, उसी प्रकार उन्होंंने श्रीराधा को श्रीकृष्णा के हाथ में सौंप दिया।

राजन ! उस समय देवताओं ने फूल बरसाये और विद्याधरियों के साथ देवताओं ने फूल बरसाये और विद्याधरियों के साथ देवांगनाओं ने नृत्यत किया। गन्ध र्वों, विद्याधरों, चारणों और किंनरों ने मधुर स्वरर से श्रीकृष्ण के लिए सुमंगल गान किया। मृदंग, वीण, मुरचंग, वेणु, शंख, नगारे, दुन्दुसभि तथा करताल आदि बाजे बजनेलगे तथा आकाश में खडे़ हुए श्रेष्ठय देवताओं ने मंगल शब्दर का उच्चे स्व र से उच्चाणरण करते हुए बारम्बाुर जय जयकार किया। उस अवसर पर श्रीहरि ने विधाता से कहा- ब्रह्मन् ! आप अपनी इच्छास के अनुसार दक्षिणा बताइये। तब ब्रह्माजी ने श्रीहरि से इस प्रकार कहा- प्रभो ! मुझे अपने युगलचरणों की भक्ति ही दक्षिणा के रूप में प्रदान कीजिये। श्रीहरि ने ‘तथास्तुइ’ कहकर उन्हेंे अभीष्टझ वरदान दे दिया।तब ब्रह्माजी ने श्रीराधिका के मंगलमय युगल चरणारविन्दोंा को दोनों हाथों और मस्तरक से बारम्बाेर प्रणाम करके अपने धाम को प्रस्थाबन किया। उस समय प्रणाम करके जाते हुए ब्रह्माजी के मन में अत्यंयत हर्षोल्लामस छा रहा था।

तदन्तखर निकुञ्जभवन में प्रियतमा द्वारा अर्पित दिव्यी मनोरम चतुर्विध[1]अन्ने परमात्मा श्रीहरि ने हंसते-हंसते ग्रहण किया और श्रीराधा ने भी श्रीकृष्णर के हाथों से चतुर्विध अन्नन ग्रहण करके उनकीदी हुई पान-सुपारी भी खायी। इसके बाद श्री‍हरि अपने हाथ से प्रिया का हाथ पकड़कर कुञ्ज की ओर चले। वे दोनों मधुर आलाप करते तथा वृंदावन, यमुना तथा वन की लताओं को देखते हुए आगे बढ़ने लगे। सुन्दञर लता कुञ्जों और निकुञ्जों में हंसते और छिपते श्रीकृष्ण को शाखा की ओट में देखकर पीछे से आती हुई श्रीराधा ने उनके पीताम्बञर का छोर पकड़ लिया।

फि‍र श्रीराधा भी माधव के कमलोपम हाथों से छूटकर भागीं और युगल-चरणों के नूपुरों की झनकार प्रकट करती हुई यमुना निकुञ्ज में छिप गयीं। जब श्रीहरि से एक हाथ की दूरी पर रह गयीं, तब पुन: उठकर भाग चलीं। जैसे तमाल सुनहरी लता से और मेघ चपला से सुशोभित होता है तथा जैसे नीलम का महान पर्वत स्वरर्णांकित कसौटी से शोभा पाता है, उसी प्रकार रमणी श्रीराधा से नन्दनन्दन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे। रास-रंगस्थली निर्जन प्रदेश में पहुँचकर श्रीहरि ने श्रीराधा के साथ रास का रस लेते हुए लीला-रमण किया। भ्रमरों और मयूरों कल-कूजन से मुखरित लताओं वाले वृन्दावन में वे दूसरे कामदेव की भाँति विचर रहे थे। परमात्मा श्रीकृष्ण हरि ने, जहाँ मतवाले भ्रमर गुञ्जारव करते थे, बहुत-से झरने तथा सरोवर जिनकी शोभा बढ़ाते थे और जिनमें दीप्तिमती लता-वल्लरियाँ प्रकाश फैलाती थीं, गोवर्धन की उन कन्दराओं में श्रीराधा के साथ नृत्य किया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण ने यमुना में प्रवेश करके वृषभानु नन्दिनी के साथ विहार किया। वे यमुना जल में खिले हुए लक्षदल कमल को राधा के हाथ से छीनकर भाग चले। तब श्रीराधा ने भी हंसते-हंसते उनका पीछा किया और उनका पीताम्बर, वंशी तथा बेंत की छड़ी अपने अधिकार में कर लीं। श्रीहरि कहने लगे- ‘मेरी बांसुरी दे दो’ तब राधा ने उत्तर दिया- ‘मेरा कमल लौटा दो’ तब देवेश्वेर श्रीकृष्ण ने उन्हें कमल दे दिया। फिर राधा ने भी पीताम्बर, वंशी और बेंत श्रीहरि के हाथ में लौटा दिये। इसके बाद फि‍र यमुना के किनारे उनकी मनोहर लीलाएँ होने लगीं। तदन्तर भाण्डीर-वन में जाकर व्रज गोप रत्न श्रीनन्दनन्दन ने अपने हाथों से प्रिया का मनोहर श्रृंगार किया- उनके मुख पर पत्र-रचना की, दोनों पैरों में महावर लगाया, नेत्रों में काजल की पतली रेखा खींच दी तथा उत्तमोत्तम रत्नों और फूलों से भी उनका श्रृंगार किया। इसके बाद जब श्रीराधा भी श्रीहरि को श्रृंगार धारण कराने के लिए उद्यत हुई, उसी समय श्रीकृष्ण अपने किशोर रूप को त्यागकर छोटे-से बालक बन गये। नन्द ने जिस शिशु को जिस रूप में राधा के हाथों में दिया था, उसी रूप में वे धरती पर लौटने और भय से रोने लगे।

श्रीहरि को इस रूप में देखकर श्रीराधिका भी तत्काल विलाप करने लगीं और बोलीं- ‘हरे ! मुझ पर माया क्यों फैलाते हो ?’ इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई श्रीराधा से सहसा आकाशवाणी ने कहा- ‘राधे ! इस प्रकार सोच न करो। तुम्हा रा मनोरथ कुछ काल के पश्चात् पूर्ण होगा’। यह सुनकर श्रीराधा शिशुरूपधारी श्रीकृष्ण को लेकर तुरंत व्रजराज की धर्मपत्नी। यशोदाजी के घर गयीं और उनके हाथ में बालक को देकर बोलीं- आपने पतिदेव ने मार्ग में इस बालक को मुझे दे दिया था। इसी समय नन्दय गृहिणी ने श्रीराधा से कहा- ‘वृषभानुनन्दिनी राधे ! तुम धन्य हो, क्योंकि तुमने इस समय जबकि आकाश मेघों की घटा से आच्छ्न्न है, वन के भीतर भयभीत हुए मेरे नन्हें से लाला की पूर्णतया रक्षा की है। यों कहकर नन्दरानी ने श्रीराधा का भली-भाँति सत्कार किया और उनके सद्गुणों की प्रशंसा की। इससे वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा को बड़ी प्रसन्नता हुई। यशोदाजी की आज्ञा ले धीरे-धीरे अपने घर चली गयीं। राजन इस प्रकार श्रीराधा के विवाह की मंगलमयी गुप्त कथा का यहाँ वर्णन किया गया। जो लोग इसे सुनते-पढ़ते अथवा सुनाते हैं, उन्हें कभी पापों का स्पर्श नहीं प्राप्त होता।

———–जय जय श्री राधे———-

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गौचारण वन

प्राचीन यमुना तट पर गौचारण वन स्थित है। इस स्थान पर श्रीवाराह देवजी एवं श्रीगौतम मुनि का आश्रम विराजित है। श्रीवाराह देवजी का नामानुसार इस वन का दूसरा नाम वाराह बन भी है। इसी गौचारण वन में श्रीकृष्णजी अपने सखाओं के साथ गौचारण लीला किया करते थे।

ततश्च पौगण्डवयः श्रिती बजे बभूवतुस्ती पशुपालसम्मती । गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैवृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। तन्माधवो वेणुमुदीरयन् वृतो गोपदिनः स्वयशो बलान्वितः। पशुन् पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद् विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ।। तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं महन्मनः प्रख्यपयः सरखता । वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना निरीक्ष्य रन्तुं भगवन् मनो दधे।।

अनुवाद श्रीशुकदेवजी कहते है – महाराज परीक्षित् | अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छटे वर्ष में प्रवेश किया है। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी है। वे अपने सखा ग्वालवालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं के लिये हरी हरी घास से युक्त एवं रंग विरेंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे आगे गौएँ, उनके पीछे पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालवाल इस प्रकार बिहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजन कर रहे थे, कहीं झुण्ड के झुण्ड हिरण चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर सुन्दर पक्षी चहक रहे थे बड़े ही सुन्दर सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था। उनके खिले हुए कमलों के सौरभ से सुभाषित होकर शीतल मन्द सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन ही मन उसमें बिहार करने का संकल्प किया।

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केशी घाट

केशी घाट- भ्रमर घाट के निकट केशी घाट स्थित है। इस स्थान पर भगवान् श्रीकृष्ण ने केशी दैत्य का वध किया था।

श्रीकेशी दैत्य की मुक्ति

केशीदैत्य प्राचीन काल में श्रीइन्द्र के छत्र धारण करने वाला एक अनुचर था। उसका नाम कुमुद था, इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध करने से ब्रह्म हत्या पाप में लिखू हुए इस पाप से मुक्त होने के लिये इन्द्र ने एक अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के शुभ अश्व पर आरोहण के लिए कुमुद को इच्छा हुई। उसने घोड़े पर जब आरोहण करने की चेष्टा की तब दूसरे अनुचरों ने उसे देख लिया। वे कुमुद को पकड़ कर इन्द्र के पास ले गये। इन्द्र ने समस्त विवरण सुन क्रोध में कुमुद को अभिशाप दिया कि- “रे दुष्ट! तु राक्षस बन जा एवं अश्व रूप धारण करके मृत्युलोक में गमन कर। उसी अभिशाप से कुमुद ब्रज क्षेत्र में आगमन कर मयदानव के पुत्र केशी नाम से जन्म लेकर कंस का अनुचर बना कंस ने श्रीकृष्ण को हत्या के लिए केशी को वृन्दावन भेजा। केशीदैत्य ने विशाल अश्व का रूप धारण कर मथुरा से वृन्दावन को आगमन किया। उस दैत्य ने श्रीकृष्ण को देख पीछे के पैरों द्वारा आघात् करने को कोशिश की। तभी श्रीकृष्ण ने क्रोध से उसके दोनों पैरों को पकड़ घुमाया और ४०० हाथ दूर फेंक दिया। केशीदैत्य दोबारा उठकर क्रोध में मुहें फाड़कर श्रीकृष्ण की तरफ बढ़ने लगा। श्रीकृष्ण ने हँसते हँसते उसके मुँह में अपना बायां हाथ घुसा दिया। श्रीकृष्ण के हाथों के अति तप्त लौह सङ्कुश स्पर्श से (बराबर) केशी के सारे दाँत नष्ट हो गये एवं श्रीकृष्ण का हाथ बढ़ने लगा और अन्त में इससे केशीदैत्य का मुँह विदीर्ण हो उसके प्राण पखेरू उड़ गये। केशी के प्राण भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो गये।

तथाहि आदिवाराह वचन गंगा शत गुणं पुण्यं यत्र केशी निपतितः ।

तत्रापि च विशेषोऽस्त केशी तीर्थ वसुन्धरे ।

तस्मिन् पिण्ड प्रदानेन गया-पिण्ड फलं लभेत् ।।

जहाँ केशी दैत्य ने प्राण त्यागे थे वह स्थान गंगा से भी शतगुण श्रेष्ठ है। उस स्थान पर पिण्ड दान करने से गया पिण्ड दान करने का फल प्राप्त होता है। इस घाट के निकट प्राणगौर नित्यानन्द मन्दिर, श्रीमुरारीमोहन कुञ्ज, श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी की दन्त समाधि मन्दिर इत्यादि दर्शनीय है।

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रावल ग्राम

भाद्रपदमास की कृष्णपक्ष की अष्टमी ‘श्रीकृष्णजन्माष्टमी’ और भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष की अष्टमी ’श्रीराधाष्टमी’ के नाम से जानी जाती है।

कृष्ण के ह्रदय में निवास करने वाली राधारानी बरसाना में पली-बढ़ी थीं,लेकिन उनका जन्‍म यहां से कुछ किमी दूर # रावल गांव में हुआ था जहां आज भी राधा-कृष्ण पेड़ के रूप में मौजूद हैं।
श्रीराधा का ननिहाल रावलग्राम में था। रक्षाबंधन के पर्व पर श्रीराधा की गर्भवती मां कीर्तिरानी अपने भाई को राखी बांधने आईं। राधाष्टमी के एक दिन पहले बरसाने के राजा वृषभानुजी अपनी पत्नी को लिवाने आए। प्रात: यमुनास्नान करते समय भगवान की लीला से कीर्तिरानी के गर्भ का तेज निकलकर यमुना किनारे बढ़ने लगा और यमुनाजी के जल में नवविकसित कमल के केसर के मध्य एक परम सुन्दरी बालिका में परिणत हो गया।

वही पर आज रावल मंदिर का गर्भ गृह है पूरे ब्रज मंडल में ये एक ही मंदिर है जहां घुटुरूनी चलत बाल्य राधारानी के दर्शन मिलते है

हर साल श्री राधाष्टमी यहां बहुत बड़े पैमाने पर मनाया जाता है

रावल गांव में स्थापित राधारानी के मंदिर के ठीक सामने एक प्राचीन बगीचा है यहां पर एक साथ दो पेड़ उसी मुद्रा में हैं जैसे राधा कृष्ण साथ खड़े होते हैं एक पेड़ श्‍वेत है तो दूसरा श्‍याम रंग का। राधा और कृष्‍ण पेड़ स्‍वरूप में आज भी यहां से यमुना जी को निहारते हैं।

वृषभानुजी उस बालिका को अपने साथ ले आए और अपनी पत्नी को लेकर बरसाना आ गए।

बरसाने में खबर फैल गई कि कीर्तिदा ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया है। वृषभानुभवन में वेदपाठ आरम्भ हो गया, राजद्वार पर मंगल-कलश सजाए गए। शहनाई, नौबत, भेरी, नगाड़े बजने लगे।
श्रीराधा के जन्म का समाचार सुनकर व्रजवासी, जामा, पीताम्बरी, पटका पहनकर सिरपर दूध, दही और माखन से भरी मटकियाँ लेकर गाते-बजाते वृषभानुभवन पहुँच गए और राजा वृषभानु को बधाइयाँ देने लगे। तान भर-भर कर सोहिले गायी जाने लगीं। राजा वृषभानु के ऊंचे पर्वत पर बने महल के जगमोहन में श्रीराधा के पालने के दर्शन हो रहे थे। आँगन में बैठे गोप और बारहद्वारी में बैठी महिलाएँ सुरीले गीत गा रहीं थीं।
राजा वृषभानु ने श्रीराधा के झूलने के लिए चंदन की लकड़ी का पालना बनवाया जिसमें सोने-चांदी के पत्र और जवाहरात लगे थे। पालने में श्रीजी के झूलने के स्थान को नीलमणि से बने मोरों की बेलों से सजाया गया था।
नवजात बालिका श्रीराधा का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ अत: मूलशान्ति के लिए दिव्य औषधियों, वन की औषधियों, सर्वोषधि आदि से स्नान कराकर गाय के दूध, दही, घी, इत्र व सुगन्धित जल से अभिषेक किया गया और फिर सुन्दर श्रृंगार धारण कराकर दुग्धपान कराया गया।
गोपियाँ दही बरसा रही हैं और गोप दही-दूध-घी, नवनीत, हरिद्राचूर्ण, केसर तथा इत्र-फुलेल का घोल (दधिकांदा) बनाकर व्रजवासियों के ऊपर उड़ेल रहे हैं। प्रेममग्न व्रजवासियों के हृदय में जो राधारस भरा था वह मूर्तिमान होकर सबके मुख से निकल रहा है–

राधा रानी ने जन्म लियौ है।
सब सुखदानी ने जनम लियौ है॥
भानु दुलारी ने जनम लियौ है।
कीर्ति कुमारी ने जनम लियौ है॥
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फुलवारी कुण्ड और साहसी कुण्ड

फुलवारी कुण्ड – मुक्ता कुण्डके पास ही फुलवारी कुण्ड घने कदम्बके वृक्षोंके बीचमें स्थित है।

प्रसंग – कभी श्रीराधाजी सखियोंके साथ यहाँ पुष्प चयन कर रही थीं। अकस्मात् कृष्णने आकर कहा- तुम कौन हो? प्रतिदिन मेरे बगीचे के पुष्पोंकी चोरी करती हो। इतना सुनते ही श्रीमती राधिकाजीने डपटते हुए उत्तर दिया मुझे नहीं जानते, मैं कौन हूँ? यह सुनते ही कृष्ण अपने अधरॉपर मुरली रखकर बजाते हुए अपने मधुर कटाक्षोंसे राधाजीकी तरफ देखकर चलते बने। कृष्णको जाते देखकर राधिकाजी विरहमें कातर होकर मूर्च्छित हो गई। ललिताजीने सोचा इसे किसी काले भुजंगने से लिया है। बहुत कुछ प्रयत्न करनेपर भी जब वे चैतन्य नहीं हुईं, तो सभी सखियाँ बहुत चिन्तित हो गई। इतनेमें कृष्णने ही सपेरेके देशमें अपने मन्त्र तन्त्रके द्वारा उन्हें झाड़ा तथा श्रीमतीजीके कानमें बोले- मैं आय गयो, देखो तो सही ।’ यह सुनना था कि श्रीमती राधिकाजी तुरन्त उठकर बैठ गयीं तथा कृष्णको पास ही देखकर मुस्कराने लगीं। फिर तो सखियोंमें आनन्दका समुद्र उमड़ पड़ा। यह लीला यहीं हुई थी।


साहसी कुण्ड – फुलवारी कुण्डसे थोड़ी ही दूर पूर्व दिशामें विलास वट और उसके पूर्व में साहसी कुण्ड है। यहाँ सखियों राधिकाजीको ढाढ़स बंधाती हुई उनका कृष्णसे मिलन कराती थीं पास ही वटवृक्षपर सुन्दर झूला डालकर सखियाँ श्रीराधा और कृष्णको मल्हार आदि रागोंमें गायन करती हुई झुलाती थीं। कभी-कभी कृष्ण वहीं राधिकाके साथ मिलनेके लिए अभिसारकर उनके साथ विलास भी करते थे।

इस साहसी कुण्डका नामान्तर सारसी कुण्ड भी है। कृष्ण और बलदेव सदैव एक साथ रहते, एक साथ खाते, एक साथ खेलते और एक साथ सोते भी थे। एक समय यहाँपर दोनों भाई खेल रहे थे। यशोदा मैया दोनोंको झूलती हुई यहाँ आई और बड़े प्यारसे उन दोनोंको सारसका जोड़ा कहकर सम्बोधन किया। तबसे इस कुण्डका नाम सारस कुण्ड हो गया।

इसके पास ही अगल बगलमें श्यामपीपरी कुण्ड, बट कदम्ब और क्यारी

बट कुण्ड आदि बहुतसे कुण्ड हैं। यहाँ वट वृक्षोंकी क्यारी थी।

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रमणीय टटिया स्थान

श्री कुंज बिहारी श्री हरीदास
रमणीय टटिया स्थान, वृंदावन: (Ramaniy Tatiya Sthan Vrindavan) आइए जानिए हमारे गुरु स्थान के बारे में-

स्थान: श्री रंग जी मंदिर के दाहिने हाथ यमुना जी के जाने वाली पक्की सड़क के आखिर में ही यह रमणीय टटिया स्थान है। विशाल भूखंड पर फैला हुआ है।
किन्तु कोई दीवार, पत्थरो की घेराबंदी नहीं है केवल बांस की खपच्चियाँ या टटियाओ से घिरा हुआ है इसलिए तटिया स्थान के नाम से प्रसिद्ध है। यह संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी महाराज की तपोस्थली है।

यह एक ऐसा स्थल है जहाँ के हर वृक्ष और पत्तों में भक्तो ने राधा कृष्ण की अनुभूति की है, संत कृपा से राधा नाम पत्ती पर उभरा हुआ देखा है।

स्थापना: स्वामी श्री हरिदास जी की शिष्य परंपरा के सातवे आचार्य श्री ललित किशोरी जी ने इस भूमि को अपनी भजन स्थली बनाया था। उनके शिष्य महंत श्री ललितमोहनदास जी ने सं १८२३ में इस स्थान पर ठाकुर श्री मोहिनी बिहारी जी को प्रतिष्ठित किया था।

तभी चारो ओर बांस की तटिया लगायी गई थी तभी से यहाँ के सेवा पुजाधिकारी विरक्त साधू ही चले आ रहे है.उनकी विशेष वेशभूषा भी है।
विग्रह: श्रीमोहिनी बिहारी जी का श्री विग्रह प्रतिष्ठित है।

मंदिर का अनोखा नियम…
ऐसा सुना जाता है कि श्री ललितमोहिनिदास जी के समय इस स्थान का यह नियम था कि जो भी आटा-दाल-घी दूध भेट में आवे उसे उसी दिन ही ठाकुर भोग और साधू सेवा में लगाया जाता है।

संध्या के समय के बाद सबके बर्तन खाली करके धो माज के उलटे करके रख दिए जाते है,कभी भी यहाँ अन्न सामग्री की कमी ना रहती थी।

एक बार दिल्ली के यवन शासक ने जब यह नियम सुना तो परीक्षा के लिए अपने एक हिंदू कर्मचारी के हाथ एक पोटली में सच्चे मोती भर कर सेवा के लिए संध्या के बाद रात को भेजे।

श्री महंत जी बोले: वाह खूब समय पर आप भेट लाये है। महंत जी ने तुरंत उन्हें खरल में पिसवाया ओर पान बीडी में भरकर श्री ठाकुर जी को भोग में अर्पण कर दिया कल के लिए कुछ नहीं रखा।

ऐसे संग्रह रहित विरक्त थे श्री महंत जी।
उनका यह भी नियम था कि चाहे कितने मिष्ठान व्यंजन पकवान भोग लगे स्वयं उनमें से प्रसाद रूप में कणिका मात्र ग्रहण करते सब पदार्थ संत सेवा में लगा देते ओर स्वयं मधुकरी करते।
आज भी स्थान पर पुरानी परंपराओं का निर्वाहन किया जाता है जैसे की मिट्टी के दीपकों से उजाला किया जाता है किसी भी प्रकार से मन्दिर की सेवा में विद्युत का प्रयोग नही किया जाता है रागों के द्वार ही मोहिनी बिहारी जू को प्रसाद पवाया जाता है जगाया जाता है शयन कराया जाता है ।

मंदिर में विशेष प्रसाद:
इस स्थान के महंत पदासीन महानुभाव अपने स्थान से बाहर कही भी नहीं जाते स्वामी हरिदास जी के आविर्भाव दिवस श्री राधाष्टमी के दिन यहाँ स्थानीय ओर आगुन्तक भक्तो कि विशाल भीड़ लगती है। आज भी इस स्थान पर प्रतिदिन दर्शन करने हेतु पधारे सभी भक्तों एवं संतो के लिए गौ माता के शुद्ध घी में प्रसाद पवाया जाता है

श्री स्वामी जी के कडुवा ओर दंड के उस दिन सबको दर्शन लाभ होते है।
उस दिन विशेष प्रकार कि स्वादिष्ट अरबी का भोग लगता है ओर बटता है। जो दही ओर घी में विशेष प्रक्रिया से तैयार की जाती है यहाँ का अरबी प्रसाद प्रसिद्ध है। इसे सखी संप्रदाय का प्रमुख स्थान माना जाता है।

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वंशीवट

अमल प्रमाण श्रीमद्भागवतमें वर्णित प्रसिद्ध राधाकृष्णयुगलकी सखियों के साथ रासलीलाको प्रसिद्ध स्थली यही वंशीवट है गोपकुमारियोंकी कात्यायनी पूजाका फल प्रदान करनेके लिए रसिक बिहारी श्रीकृष्णाने जो वरदान दिया था, उसे पूर्ण करनेके लिए उन्होंने अपनी मधुर वेणुपर मधुर तान छेड़ दी। जिसे सुनकर गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर राका रजनीमें यहाँ उपस्थित हुई।” रसिकेन्द्रशेखर श्रीकृष्णने अपने प्रति समर्पित गोपियोंको धर्मव्यतिक्रमके बहानेसे अपने पतियोंकी सेवाके लिए उनके घरोंमें लौटनेकी बहुत-सी युक्तियाँ दीं किन्तु विदग्ध गोपियोंने उनकी सारी युक्तियोंका सहज रूपमें ही खण्डन कर दिया। शतकोटि गोपियोंके साथ यहींपर शारदीय रास आरम्भ हुआ। दो-दो गोपियोंके बीचमें एक कृष्ण अथवा दो कृष्णके बीच में एक गोपी। इस प्रकार विचित्र नृत्य और गीतयुक्त रास हो ही रहा था कि अन्यान्य गोपियोंको सौभाग्यमद और श्रीमती राधिकाजीको मान हो गया। इसे देखकर रसिकशेखर श्रीकृष्ण श्रीमती राधिकाजीका मान प्रसाधन तथा अन्यान्य गोपियोंके सौभाग्यमदको दूर करनेके लिए यहींसे अन्तर्धान हो गये। पुनः विरहिणी गोपियोंने ‘जयतितेऽधिकम्…’ विरह गीतको रोते-रोते उच्च स्वरसे गायन किया, जिसे सुनकर कृष्ण यहींपर प्रकट हुए। यहींपर इन्होंने मधुर शब्दोंसे गोपियोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी कि मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग करनेका तुम्हारा अवदान है। मैं इसके लिए तुम्हारा चिरऋणी हूँ, जिसे मैं कभी भी नहीं चुका सकता। यह रासलीला स्थली सब लीलाओंकी चूड़ामणि स्थली स्वरूप है। श्रीवज्रनाभ महाराजने इस रासस्थलीमें स्मृतिके लिए जिस वृक्षका रोपण किया था, कालान्तरमें वह स्थान यमुनाजीमें आप्लावित हो गया। साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व श्रीगदाधर पण्डितके शिष्य श्रीमधुपण्डितने उसकी एक शाखा लेकर इस स्थानमें गाढ़ दी थी। जिससे वह शाखा प्रकाण्ड वृक्षके रूपमें परिणत हो गई। यहाँपर भजन करते हुए श्रीमधुपण्डितने ठाकुर श्रीगोपीनाचनीको प्राप्त किया था। इस समय वंशीवटके चतुष्कोण परकोटेके चारों कोनोंमें चार छोटे-छोटे मन्दिर हैं। उनमें क्रमशः श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीविष्णुस्वामी एवं श्रीनिम्बार्काचार्यकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। आजकल इन मूर्तियोंके बदले कुछ दूसरी मूर्तियाँ भी यहाँ प्रविष्ट हो गई हैं। पहले इस स्थानमें गौड़ीय वैष्णव सेवा करते थे। बादमें ग्वालियर राजाके गुरु ब्रह्मचारीजीने इस स्थानको क्रय कर लिया। अतः तबसे यह स्थान निम्बार्क सम्प्रदाय के अन्तर्गत हो गया है।

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मोती या मुक्ता कुण्ड

नन्दीश्वर तड़ागके उत्तरमें लगभग एक मीलपर मुक्ता कुण्ड अवस्थित है। करील और पीलूके वृक्षोंसे परिवेष्टित बहुत ही रमणीय स्थान है। कृष्ण गोचारणके समय सखाओंके साथ इस कुण्डमें गायोंको जल पिलाकर स्वयं भी जलपानकर विविध प्रकारकी क्रीड़ाएँ करते थे। किसी समय कृष्णने यहाँपर मुक्ताओंकी खेतीकर प्रचुर रूपमें मुक्ताएँ पैदा की थीं।

प्रसंग –

जब कृष्णने पौगण्ड अवस्थाको पारकर किशोर अवस्थामें प्रवेश किया, उस समय यशोदा मैया कृष्णकी सगाईके लिए चिन्ता करने लगीं। उनको वृषभानु महाराजकी कन्या सर्वगुणसम्पन्ना किशोरी राधिका बड़ी पसन्द थी। यह बात कीर्तिकाजीको मालूम हुई। उन्होंने अपने पति वृषभानुजीसे कहकर विविध प्रकारके कपड़े-लत्ते, अलंकार, प्रचुर मुक्ताओंको एक डलियामें भरकर नन्दभवनमें सगाईके लिए भेजा। ब्रजराजनन्द एवं ब्रजरानी यशोदा इसे देखकर बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु सिरपर हाथ रखकर यह सोचने लगे कि हमें भी बरसानामें इसके बदले सगाईके लिए इससे भी अधिक मुक्ताएँ भेजनी पड़ेगीं। किन्तु घरमें उतनी मुक्ताएँ नहीं हैं। इस प्रकार बहुत चिन्तित हो रहे थे। इतनेमें कृष्णने कहींसे घरमें प्रवेशकर माता-पिताको चिन्तित देख चिन्ताका कारण पूछा। मैयाने अपनी चिन्ताका कारण बतलाया। कृष्णने कहा कोई चिन्ताकी बात नहीं। मैं शीघ्र ही इसकी व्यवस्था करता हूँ। इसके पश्चात् कृष्णने अवसर पाकर उन मुक्ताओंको चुरा लिया और इसी कुण्डपर मिट्टी खोदकर उनको बो दिया। गायोंके दूधसे प्रतिदिन उन्हें सींचने लगे। इधर नन्दबाबा और मैया यशोदा मुक्ताओंको न देखकर और भी चिन्तित हो गयीं। उन्होंने कृष्णसे मुक्ताओंके सम्बन्धमें पूछा। कृष्णने

कहा- हाँ! मैंने उन मुक्ताओंकी खेती की है और उससे प्रचुर मुक्ताएँ निकलेंगी। ऐसा सुनकर बाबा और मैयाने कहा- अरे लाला! कहीं मुक्ताओंकी भी खेती होती है। कृष्णने मुस्कराकर कहा- हाँ, जब मेरी मुक्ताएँ फलेगीं तो तुम लोग देखना। बड़े आश्चर्यकी बात हुई। कुछ ही दिनोंमें मुक्ताएँ अंकुरित हुईं और उनसे हरे-भरे पौधे निकल आये। देखते-ही-देखते कुछ ही दिनों में उन पौधोंमें फल लग गये। अनन्तर उन फलोंके पुष्ट और पक जानेपर उनमेंसे अलौकिक प्रभा सम्पन्न उज्ज्वल दिव्य लावण्ययुक्त मुक्ताएँ निकलने लगीं। अब तो मुक्ताओंके ढेर लग गये। कृष्णने प्रचुर मुक्ताएँ मैयाको दीं। फिर तो मैयाने बड़ी-बड़ी सुन्दर ३-४ डलियाँ भरकर मुक्ता, स्वर्णालंकार और वस्त्र बरसाने में राधाजीकी सगाईके उपलक्ष्यमें भेज दिये।

इधर श्रीमती राधिकाजी एवं उनकी सखियोंको यह पता चला कि श्रीकृष्णने मुक्ताओंकी खेती की है और उससे प्रचुर मुक्ताएँ पैदा हो रही हैं। तो उन्होंने कृष्णसे कुछ मुक्ताएँ माँगीं। किन्तु कृष्णने कोरा उत्तर दिया कि जब मै मुक्ताओंको सींचनेके लिए तुमसे दूध माँगता था, तब तो तुम दूध देनेसे मना कर देती थीं। मैं अपनी गऊओंको इन मुक्ताओंके अलंकारसे सजाऊँगा, किन्तु तुम्हें मुक्ताएँ नहीं दूंगा। इसपर गोपियोंने चिढ़कर एक दूसरी जगह अपने-अपने घरोंसे मुक्ताओंकी चोरीकर जमीन खोदकर उन मुक्ताओंको बीजके रूपमें बो दिया। फिर बहुत दिनोंतक गऊओंके दूधसे उन्हें सींचा। वे अंकुरित तो हुई, किन्तु उनसे मुक्ता वृक्ष न होकर बिना फलवाले काटोंसे भरे हुए पौधे निकले।

गोपियोंने निराश होकर पुनः कृष्णके पास जाकर सारा वृत्तान्त सुनाया। कृष्णने मुस्कराकर कहा- चलो ! मैं स्वयं जाकर तुम्हारे मुक्तावाले खेतको देखूँगा। कृष्णने वहाँ आकर पुनः सारे मुक्ताके पौधोंको उखाड़कर उसमें पुनः अपने पुष्ट मुक्ताओंको बो दिया और उसे गायोंके दूधसे सींचा। कुछ ही दिनोंमें उनमें भी मुक्ताएँ लगने लगीं। यह देखकर गोपियाँ भी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं।

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दानघाटी

गोवर्धन पर्वतक बीच में जहाँ से आजकल मथुरा- काम्यवन का राजमार्ग जाता है उसे दानघाटी कहते हैं। यहाँ अभी भी इसपार से उसपार या उसपार से इसपार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक-झोंक के साथ दानलीला की है।

दानकेलि – कौमुदी तथा दानकेलि- चिन्तामणि

आदि गौड़ीय गोस्वामियों के ग्रन्थोंमें इस लीलाका सरस वर्णन है ।

प्रसंग –

किसी समय श्रीभागुरी ऋषि गोविन्द – कुण्ड के तट पर भगवत् प्रीति के लिए यज्ञ कर रहे थे, दूर-दूर से गोप-गोपियाँ यज्ञके लिए द्रव्य ला रही थीं। श्रीमती राधिका एवं उनकी सखियाँ भी दानघाटी के उसपार से दधि, दुग्ध, मक्खन तथा दूध से बने हुए विविध प्रकार के रबड़ी आदि द्रव्य ला रही थीं। इसी स्थान पर सुबल, मधुमंगल आदि सखाओं के साथ श्रीकृष्ण अपने लाठियों को अड़ाकर बलपूर्वक दान (टोलटैक्स) माँग रहे थे। गोपियोंके साथ उन लोगों की बहुत नोक-झोंक हुई। कृष्ण ने त्रिभंग ललित रूप में खड़े होकर भंगि से कहा क्या ले जा रही हो ?

गोपियाँ – भागुरी ऋषि के यज्ञके लिए दूध, दही, मक्खन ले जा रही हैं।

मक्खन का नाम सुनते ही मधुमंगल के मुखमें पानी भर आया। वह जल्दी से बोल उठा शीघ्र ही यहाँका दान देकर आगे बढ़ो। ललिता – तेवर भरकर बोली- कैसा दान? हमने कभी दान नहीं दिया।

श्रीकृष्ण – यहाँका दान चुकाकर ही जाना होगा।

श्रीमतीजी – आप यहाँ दानी कबसे बने? क्या यह आपका बपौती राज्य है?

श्रीकृष्ण – टेड़ी बातें मत करो ? मैं वृन्दावन राज्य का राजा वृन्दावनेश्वर हूँ।

श्रीमतीजी – सो, कैसे ?

श्रीकृष्ण – वृन्दा मेरी विवाहिता पत्नी है। पत्नीकी सम्पत्ति भी पतिकी होती है। वृन्दावन वृन्दादेवी का राज्य है, अतः यह मेरा ही राज्य है।

ललिता–अच्छा, हमने कभी भी ऐसा नहीं सुना। अभी वृन्दाजीसे पूछ लेते हैं।

तुरन्त ही सखीने वृन्दा की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए पूछा- वृन्दे ! क्या यह ‘काला’ तुम्हारा पति है?

वृन्दा – (तुनककर) कदापि नहीं। इस झूठे लम्पट से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। हाँ यह राज्य मेरा था, किन्तु मैंने इसे वृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधिकाजी को अर्पण कर दिया है। सभी सखियाँ ठहाका मारकर हँसने लगी। श्रीकृष्ण कुछ झेंप से गये, किन्तु फिर भी दान लेनेके लिए डटे रहे। फिर गोपियोंने प्रेमकलह के पश्चात् कुछ दूर भीतर दान- निवर्तन कुण्डपर प्रेमका दान दिया और लिया भी

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गोवर्धन मानसी गंगा लीला

मानसी गंगा गोवर्धन गाँव के बीच में है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी बायीं और इसके दर्शन होते हैं।

एक बार श्री नन्द-यशोदा एंव सभी ब्रजवासी गंगा स्नान का विचार बनाकर गंगा जी की ओर चलने लगे। चलते-चलते जब वे गोवर्धन पहुँचे तो वहाँ सन्ध्या हो गयी। अत: रात्रि व्यतीत करने हेतु श्री नन्द महाराज ने श्री गोवर्धन में एक मनोरम स्थान सुनिश्चित किया। यहाँ पर श्री कृष्ण के मन में विचार आया कि ब्रजधाम में ही सभी-तीर्थों का वास है, परन्तु ब्रजवासी गण इसकी महान महिमा से अनभिज्ञ हैं इसलिये मुझे ही इसका कोई समाधान निकालना होगा।

श्रीकृष्ण जी के मन में ऐसा विचार आते ही श्री गंगा जी मानसी रूप में गिरिराज जी की तलहटी में प्रकट हुई। प्रात:काल जब समस्त ब्रजवासियों ने गिरिराज तलहटी में श्री गंगा जी को देखा तो वे विस्मित होकर एक दूसरे से वार्तालाप करने लगे।

सभी को विस्मित देख अन्तर्यामी श्रीकृष्ण बोले कि इस पावन ब्रजभूमि की सेवा हेतु तो तीनों लोकों के सभी तीर्थ यहाँ आकर विराजते हैं परन्तु फिर भी आप लोग ब्रज छोड़कर गंगा स्नान हेतु जा रहे हैं। इसी कारण माता गंगा आपके सम्मुख आविर्भूत हुई हैं अत: आप लोग शीघ्र ही इस पवित्र गंगा जल में स्नानादि कार्य सम्पन्न करें।

श्री नन्द बाबा ने श्रीकृष्ण की इस बात को सुनकर सब गोपों के साथ इसमें स्नान किया। रात्रि को सब ने दीपावली का दान दिया तभी से आज तक भी दीपावली के दिन यहाँ असंख्य दीपों की रोशनी की जाती है।

श्रीकृष्ण के मन से आविर्भूत होने के कारण यहाँ गंगा जी का नाम मानसी गंगा पड़ा।

कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को श्री गंगा जी यहाँ प्रकट हुईं थीं। आज भी इस तिथि को स्मरण करते हुए हज़ारों भक्तगण यहाँ स्नान-पूजा-अर्चना-दीप दानादि करते हैं। भाग्यवान भक्तों को कभी-कभी इसमें दूध की धारा का दर्शन होता है।

मानसी गंगा लीला

एक बार राधा रानी जी अपनी सखियों के साथ माखन लेकर मानसी गंगा के तट पर आईं। मानसी गंगा में बहुत पानी है। सोचने लगीं कैसे पार करेंगी मानसी गंगा को।

तभी कृष्ण नाविक का भेष बदलकर आ गए और बोले – नाव से पार करा देता हूँ।

गोपियो ने कहा, बहुत भला नाविक है सभी सखियाँ और राधा रानी नाव में बैठ गये।

कृष्ण मन ही मन सोचने लगे आज आनन्द आएगा।

कृष्ण ने नाव चलाना आरम्भ किया। थोड़ी देर बाद कृष्ण बोले – मुझ भूख लग रही है, कुछ खिलाओ नहीं तो मैं नाव नहीं चला पाऊँगा, सब डूब जाओगी।

सखियों ने अपना सब माखन कृष्ण को दे दिया, कृष्ण सब खा गये फिर नाव चलानी आरंभ की, थोड़ी देर बाद बोले मैं थक गया हूँ, मेरे पैर दबाओ तभी नाव चला पाऊँगा।


सखियाँ पैर दबाने लगीं बहुत सेवा की। जब नाव बीच में पहुँची, तो कृष्ण ने नाव जोर से हिला दी। सब डर गयीं।

कृष्ण बोले – मेरी नाव पुरानी है, वजन अधिक है, डूब जायेगी, अपनी मटकी मानसी गंगा में फेंक दो।

जल्दी-जल्दी, गोपियों ने अपनी मटकियाँ मानसी गंगा में डाल दीं।

कृष्ण फिर बोले अभी भी नाव हिल रही है, डूब जायेगी, अपने गहने भी फेंक दो नहीं तो डूब जाओगी।

सबने अपने बहुमूल्य गहने भी मानसी गंगा में फेंक दिए फिर ठाकुर जी ने नाव चलायी।

ललिता जी को उनके वस्त्रों में मुरली दिख गयी।

ललिता जी बोलीं – अच्छा, श्यामसुन्दर है ये नाविक! अभी बताते हैं इस नाविक को। जैसे ही किनारा आया सभी सखियाँ उतर गयीं।

सब ने कहा, “ऐ नाविक! अपनी उतराई तो लेते जाओ और सबने पकड़कर श्याम सुंदर को मानसी गंगा में फेंक दिया और बोलीं, बहुत हमारे गहने, माखन मटकी, मानसी गंगा में डलवा कर खुश हो रहे थे। अब ये लो उसका प्रसाद।”

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श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्द देव

यह काम्यवनका सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है। यहाँ वृन्दादेवीका विशेष रूपसे दर्शन है, जो ब्रजमण्डलमें कहीं अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीश्रीराधा-गोविन्ददेव भी यहाँ विराजमान हैं। पासमें ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात् श्रीकृष्णका सिंहासन है। उसके निकट ही चरणकुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगलके श्रीचरणकमल पखारे गये थे। श्रीरूप – सनातन आदि गोस्वामियोंके अप्रकट होनेके पश्चात् धर्मान्ध मुगल सम्राट औरंगजेबके अत्याचारोंसे जिस समय ब्रजमें वृन्दावन, मथुरा आदिके प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुरके परम भक्त महाराजा ब्रजके श्रीगोविन्द श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधमाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहोंको अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्गमें इस काम्यवनमें कुछ दिनोंतक विश्राम किया। श्रीविग्रहोंको रथोंसे यहाँ विभिन्न स्थानोंमें पधराकर उनका विधिवत् स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था। तत्पश्चात् वे जयपुर और अन्य स्थानोंमें पधराये गये । तदनन्तर काम्यवनमें जहाँ-जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन-उन स्थानोंपर विशाल मन्दिरोंका निर्माण कराकर उनमें उन-उन मूल श्रीविग्रहोंकी प्रतिभू-विग्रहोंकी प्रतिष्ठा की गई। श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आईं, किन्तु वे ब्रजको छोड़कर आगे नहीं गई। इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवीका पृथक् रूप दर्शन है।

राधा गोविंद देव जी (जयपुर)
वृंदा देवी मंदिर (काम्यवन)
वृंदा देवी (काम्यवन)
वृंदा देवी (वृंदा कुंड)

श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरोंने ब्रजमण्डलकी लुप्त लीलास्थलियोंको प्रकाश किया है। इनके ब्रजमें आनेसे पूर्व काम्यवनको वृन्दावन माना जाता था किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभुने ही मथुराके सन्निकट श्रीधाम वृन्दावनको प्रकाशित किया। क्योंकि काम्यवनमें यमुनाजी चीरघाट, निधुवन, कालीयदह, केशीघाट, सेवाकुञ्ज, रास स्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेवकी स्थिति असम्भव है। इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरण पहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावनसे पृथक् काम्यवन है। वृन्दादेवीका स्थान वृन्दावनमें ही है। वे वृन्दावनके कुञ्जोंकी तथा उन कुज्जोंमें श्रीराधाकृष्ण युगलकी क्रीड़ाओंकी अधिष्ठात्री देवी हैं। अतः अब वे श्रीधाम वृन्दावनके श्रीरूप सनातन गौड़ीय मठमें विराजमान हैं। यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है।

श्रीगोविन्द मन्दिरके निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं।

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श्रीवृन्दावन के प्रसिद्ध घाट



वृन्दावनमें श्रीयमुनाके तटपर अनेक घाट हैं। उनमें से प्रसिद्ध प्रसिद्ध घाटोंका उल्लेख किया जा रहा है

(1) श्रीवराहघाट – वृन्दावनके दक्षिण-पश्चिम दिशामें प्राचीन यमुनाजीके तटपर श्रीवराहघाट अवस्थित है। तटके ऊपर भी श्रीवराहदेव विराजमान हैं। पास ही श्रीगौतम मुनिका आश्रम है।




(2) कालीयदमनघाट – इसका नामान्तर कालीयदह है। यह वराहघाट से लगभग आधे मील उत्तरमें प्राचीन यमुनाके तटपर अवस्थित है। यहाँके प्रसङ्गके सम्बन्धमें पहले उल्लेख किया जा चुका है। कालीयको दमनकर तट भूमिमें पहुँचनेपर श्रीकृष्णको ब्रजराज नन्द और ब्रजेश्वरी श्रीयशोदाने अपने आसुँओंसे तर बतरकर दिया तथा उनके सारे अङ्गोंमें इस प्रकार देखने लगे कि मेरे लालाको कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची है।’ महाराज नन्दने कृष्णकी मङ्गल कामनासे ब्राह्मणोंको अनेकानेक गायोंका यहींपर दान किया था।


(3) सूर्यघाट – इसका नामान्तर आदित्यघाट भी है। गोपालघाटके उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। घाटके ऊपरवाले टीलेको आदित्य टीला कहते हैं। इसी टीलेके ऊपर श्रीसनातन गोस्वामीके प्राणदेवता श्रीमदनमोहनजीका मन्दिर है। यहींपर प्रस्कन्दन तीर्थ भी है।


(4) युगलघाट – सूर्य घाटके उत्तरमें युगलघाट अवस्थित है। इस घाटके ऊपर श्रीयुगलबिहारीका प्राचीन मन्दिर शिखरविहीन अवस्थामें पड़ा हुआ है। केशी घाटके निकट एक और भी युगलकिशोरका मन्दिर है। वह भी इसी प्रकार शिखरविहीन अवस्थामें पड़ा हुआ है।


(5) श्रीबिहारघाट – युगलघाटके उत्तरमें श्रीबिहारघाट अवस्थित है। इस घाटपर श्रीराधाकृष्ण युगल स्नान, जल विहार आदि क्रीड़ाएँ करते थे।



(6) श्री आंधेरघाट – युगलघाटके उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। इस घाटके उपवन में कृष्ण और गोपियाँ आँखमुदौवलकी लीला करते थे। अर्थात् गोपियोंके अपने करपल्लवोंसे अपने नेत्रोंको ढक लेनेपर श्रीकृष्ण आस-पास कहीं छिप जाते और गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ती थीं। कभी श्रीकिशोरीजी इसी प्रकार छिप जातीं और सभी उनको ढूँढ़ते थे।


(7) इमलीतलाघाट- आंधेरघाटके उत्तरमें इमलीघाट अवस्थित है। यहींपर श्रीकृष्णके समसामयिक इमली वृक्षके नीचे महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव अपने वृन्दावनवास कालमें प्रेमाविष्ट होकर हरिनाम करते थे। इसलिए इसको गौराङ्गघाट भी कहते हैं।


(8) शृंगारघाट – इमलीतला घाटसे कुछ पूर्व दिशामें यमुना तटपर शृंगारघाट अवस्थित है। यहीं बैठकर श्रीकृष्णने मानिनी श्रीराधिकाका शृंगार किया था । वृन्दावन भ्रमणके समय श्रीनित्यानन्द प्रभुने इस घाटमें स्नान किया था तथा कुछ दिनों तक इसी घाटके ऊपर शृंगारवटपर निवास किया था।


(9) श्रीगोविन्दघाट – शृंगारघाटके पास ही उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। श्रीरासमण्डलसे अन्तर्धान होनेपर श्रीकृष्ण पुनः यहींपर गोपियोंके सामने आविर्भूत हुये थे।


(10) चीरघाट – कौतुकी श्रीकृष्ण स्नान करती हुई गोपिकुमारियों के वस्त्रों को लेकर यहीं कदम्ब वृक्षके ऊपर चढ़ गये थे। चीरका तात्पर्य वस्त्रसे है। पास ही कृष्णने केशी दैत्यका वध करनेके पश्चात् यहीं पर बैठकर विश्राम किया था। इसलिए इस घाटका दूसरा नाम चैन या चयनघाट भी है। इसके निकट ही झाडूमण्डल दर्शनीय है।


(11) श्रीभ्रमरघाट – चीरघाटके उत्तरमें यह घाट स्थित है। जब किशोर किशोरी यहाँ क्रीड़ा विलास करते थे, उस समय दोनोंके अङ्ग सौरभसे भँवरे उन्मत्त होकर गुञ्जार करने लगते थे। भ्रमरोंके कारण इस घाटका नाम भ्रमरघाट है।


(12) श्रीकेशीघाट – श्रीवृन्दावनके उत्तर-पश्चिम दिशामें तथा भ्रमरघाटके उत्तरमें यह प्रसिद्ध घाट विराजमान है। यहाँ कृष्ण ने केशी दैत्या वध किया था।


(13) धीरसमीरघाट – श्रीवृन्दावनकी उत्तर दिशामें केशीघाटसे पूर्व दिशामें पास ही धीरसमीरघाट है । श्रीराधाकृष्ण युगलका विहार देखकर उनकी सेवाके लिए समीर भी सुशीतल होकर धीरे-धीरे प्रवाहित होने लगा था।


(14) श्रीराधाबागघाट – वृन्दावनके पूर्वमें यह घाट अवस्थित है।


(15) श्रीपानीघाट – इसी घाटसे गोपियोंने यमुनाको पैदल पारकर महर्षि दुर्वासाको सुस्वादु अन्न भोजन कराया था।


(16) आदिबद्रीघाट- पानीघाट से कुछ दक्षिणमें यह घाट अवस्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों को आदिबद्री नारायणका दर्शन कराया था।


(17) श्रीराजघाट – आदि बद्रीघाट के दक्षिण में तथा वृन्दावन की दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राचीन यमुना के तटपर राजघाट है। यहाँ कृष्ण नाविक बनकर सखियों के साथ श्रीमती राधिका को यमुना पार कराते थे । यमुना के बीचमें कौतुकी कृष्ण नाना प्रकार के बहाने बनाकर जब विलम्ब करने लगते, उस समय गोपियाँ महाराजा कंस का भय दिखलाकर उन्हें शीघ्र यमुना पार करने के लिए कहती थीं। इसलिए इसका नाम राजघाट प्रसिद्ध है।

इन घाटोंके अतिरिक्त वृन्दावन – कथा नामक पुस्तकमें और भी 14 घाटोंका उल्लेख है
(1) महान्तजी घाट, (2) नामाओवाला घाट, (3) प्रस्कन्दन घाट, (4) कडिया घाट, (5) धूसर घाट, (6) नया घाट, (7) श्रीजी घाट, (8) विहारीजी घाट, (9) धरोयार घाट, (10) नागरी घाट, (11) भीम घाट, (12) हिम्मत बहादुर घाट, (13) चीर या चैन घाट, (14) हनुमान घाट ।

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मोर कुटी

बरसाने के पास एक छोटा सा स्थान है मोर-कुटी। एक समय की बात है जब लीला करते हुए राधाजी प्रभु से रूठ गयी और वो रूठ के मोर-कुटी पर जा के बैठ गयी और वहां एक मोर से लाड करने लगीं। जब हमारे ठाकुर जी उन्हें मनाने के लिए मोर-कुटी पर पधारे तो देखा कि राधे जू हमसे तो रूठ गयी और उस मोर से प्यार कर रही है। ठाकुर जी को उस मोर से ईर्ष्या होने लगी। वो राधारानी को मनाने लगे तो किशोरी जी ने ये शर्त रख दी कि हे! बांके बिहारी मेरी नाराजगी तब दूर होगी जब तुम इस मोर को नृत्य प्रतियोगिता में हरा कर दिखाओगे। ठाकुर जी इस बात पर तैयार हो गए क्योंकि उस नन्द के छोरे को तो नाचने का बहाना चाहिए। जब राधारानी के सामने नाचने कि बात हो तो कौन पीछे हटे।

प्रतियोगिता प्रारंभ हुई, एक तरफ मोर जो पूरे विश्व में अपने नृत्य के लिए विख्यात है, और दूसरी ओर हमारे नटवर नागर नन्द किशोर। प्रभु उस मयूर से बहुत अच्छा नाचने लगे पर फिर किशोरी जी को लगा कि यदि बांके बिहारी जीत गए तो बरसाने के मोर किसी को मुँह नहीं दिखा पाएंगे। स्वयं राधा के गांव के मोर एक ग्वाले से न जीत सके। इसलिए किशोरी जी ने अपनी कृपामयी दृष्टि उस मोर पर डाल दी और फिर वो मोर ऐसा नाचा कि उसने ठाकुर जी को थका दिया। सच है जिस पर राधे जू कृपा दृष्टि डाल दे, वो तो प्रभु को भी हरा सकता है।

जिसने राधारानी के प्यार को जीत लिया समझो उसने कृष्ण जी को भी जीत लिया क्योंकि ठाकुर जी तो हमारी किशोरी जी के चरणों के सेवक हैं। हम यदि अपनी जिह्वा से राधा नाम गाते हैं, तो उसमे हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है, वो तो उनकी कृपा ही है जो हमारे मुख पर उनका नाम आया। पूरा राधा कहने कि भी आवश्यकता नहीं है, आप अपनी वाणी कहो सिर्फ “रा”, ये रा सुनते ही बांके बिहारी के कान खड़े हो जाते हैं, और जब आप आगे बोलते हो “धा” मतलब आप बोलते हो “राधा”, तो बांके बिहारी के कान नहीं फिर तो बांके बिहारी ही खड़े हो जाते हैं। उस भक्त के साथ चलने के लिए।

तो कहिये:-
“जय जय श्री राधे”

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धीर – समीर




श्रीयमुनाजीके तटपर रासलीला स्थली वंशीवटके समीप ही यह स्थान वर्तमान है। यह श्रीराधाकृष्ण युगलके नित्य निकुञ्ज केलिविलासका स्थान है। युगल केलिविलासका दर्शनकर समीर भी धीर स्थिर हो जाता था। वह एक कदम भी आगे बढ़नेमें असमर्थ हो जाता था। इसलिए इस स्थानका

नाम धीर-समीर पड़ा है। धीर-समीरका कुञ्ज और देवालय नित्यानन्द प्रभुके ससुर, जाहवा एवं वसुधाके पिता सूर्यदास सरखेलके छोटे भ्राता श्रीगौरीदास पण्डितके द्वारा स्थापित हैं। श्रीगौरीदास पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रधान परिकरोंमेंसे एक हैं। उन्होंने अपने जीवनके अंतिम समयमें वृन्दावन आकर धीर-समीर कुञ्जकी स्थापना की और वहीं पर अपने आराध्यदेव श्रीश्यामरायकी सेवा पूजा आरंभकी। यहींपर उनकी भजन एवं समाधिस्थली भी विद्यमान है। प्रसिद्ध वैष्णव पदकर्ता श्रीजयदेव गोस्वामीने अपने प्रसिद्ध पदमें


धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली ।

गोपीपीन पयोधरमर्दन चञ्चलकरयुगशाली ||

(श्रीगीतगोविन्द)


जिस कुञ्जका उल्लेख किया है, वह यही केलिवट धीर समीर कुञ्ज है। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रसिद्ध परिकरोंमेंसे एक हैं। वे अपने अंतिम समयमें कृष्णविरहमें इतने व्याकुल हो गये कि लौकिक लोगोंके लिए उनका पार्थिव शरीर छूट गया। कुछ दिनोंके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीगोपालगुरु भी अप्रकट लीलामें प्रविष्ट हो गये।

गोपालगुरुके प्रियशिष्य ध्यानचन्द गोस्वामी भी परम रसिक एवं विद्वान भक्त हुए हैं। उनके समयमें राजकर्मचारी राधाकान्त मठ तथा उसके अन्तर्गत हरिदास ठाकुरकी भजन कुटीमें कुछ अत्याचार करने लगे। इससे वे बड़े मर्माहत हुए। उसी समय उन्हें वृन्दावनके किसी वैष्णवने यह समाचार दिया कि अरे! तुम इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो? तुम्हारे परमगुरु श्रीवक्रेश्वर गोस्वामीको हमने धीर-समीरमें भजन करते हुए देखा है। तुम उनके पास चले जाओ। वे सारी व्यवस्था ठीक कर देंगे। ऐसा सुनकर वे बड़े आह्लादित हुए और उन्होंने तत्क्षणात् पैदल ही वृन्दावनके लिए यात्रा की।

कुछ दिनोंमें वे श्रीवृन्दावनमें पहुँचे। धीर समीरमें प्रवेश करते ही वे आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने देखा कि श्रीवक्रेश्वर पण्डित हाथमें नामकी माला लिये हुए भाव विभोर होकर नाम सङ्कीर्तन कर रहे थे। लीला स्मृतिके कारण उनके नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुप्रवाह विगलित हो रहा था। श्रीध्यानचन्दजी लकुटिकी भाँति उनके चरणों में गिरकर रोने लगे और उनसे पुरी धाममें लौट चलनेका आग्रह करने लगे। वक्रेश्वर पण्डितने साक्षात् रूपसे जानेके लिए मना तो किया, किन्तु बोले- तुम निश्चिन्त मनसे पुरी लौट जाओ।

राजकर्मचारियोंका उपद्रव सदाके लिए बंद हो जायेगा। उनके आदेशसे ध्यानचन्द गोस्वामी पुरीमें राधाकान्त मठमें लौटे। राजकर्मचारियोंने अपने कृत्यके लिए उनसे पुनः पुनः क्षमा मांगी। यह वही धीर समीर है, जहाँ श्रीध्यानचन्द गोस्वामीने अप्रकट हुए श्रीवक्रेश्वर पण्डितका साक्षात् दर्शन किया था। इन सब लीलाओंको अपने हृदयमें संजोये हुए भक्तोंको आनन्दित करने वाला धीर समीर आज भी विराजमान है।

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प्रेमसरोवर


बरसाना से नन्दगाँव जाने के रास्ते में एक मील की दूरी पर यह कुण्ड विराजमान है। कुण्ड का आकार नौका की भाँति है। चारों ओर हरे-भरे कदम्ब वृक्षों से ऐसे सुसज्जित हैं मानो प्रेम ही मूर्तिमान होकर कुण्ड के रूपमें विराजमान हो। यह स्थान परम मनोहर तथा भक्तों के चित्त को आकर्षित करने वाला है। यह श्रीमती राधिका और श्रीकृष्ण के क्रीड़ा-विनोद का स्थल है। विशेषतः यह श्रीमती राधिका के प्रेमवैचित्र्य भावोदय का स्थान है।



प्रसंग


एक समय श्रीराधाकृष्ण-युगल ललिता आदि सखियों से परिवेष्टित – होकर विविध प्रकार के प्रेमलीला विलास में मग्न थे। उसी समय एक भ्रमर श्रीमती राधिका जी के मुखकमल के पास इधर-उधर उड़ता हुआ उनके मुखमण्डल पर बैठना चाहता था। वह उनके मुख को कमल समझकर उसका मकरन्द पान करना चाहता था। इसलिए वह बार-बार मुख के चारों ओर मँडरा रहा था । श्रीमतीजी भयभीत होकर अपने मुखमण्डल को अपनी दोनों हथेलियों से ढककर उसे भगाने की चेष्टा कर रही थीं, किन्तु वह भाग नहीं रहा था। श्रीमती राधिका जी को उद्विग्न देखकर मधुमंगल जी ने आकर अपनी लठिया से उसे बहुत दूर भगा दिया तथा वह लौटकर इस प्रकार कहने लगा कि मैंने मधुसूदन को यहाँ से बहुत दूर भगा दिया है। वह यहाँ से चला गया, अब नहीं लौटेगा। मधुमंगल की बात सुनकर कृष्णकी गोदी में बैठकर भी श्रीमती राधिका जी ने ऐसा समझा कि मधुसूदन (कृष्ण) मुझे यहाँ छोड़कर चले गये। वे हाय-हाय करती हुई विरह से कातर हो गई । उस समय वे यह समझ नहीं पायीं कि भ्रमर का भी एक नाम मधुसूदन है। वे बारम्बार हा प्राणनाथ ! कहाँ चले गये। हा प्राणनाथ ! कहाँ चले गये – इस प्रकार रोदन करने लगीं। राधिका जी के इस अद्भुत प्रेमवैचित्र्य भाव को देखकर कृष्ण भी यह भूल गये कि मेरी प्रियतमा राधिका मेरी गोद में ही है। वे भी हा प्रिये कहकर रोदन करने लगे। दोनों के नेत्रों से अश्रुजल और शरीर से पसीने का जल इस प्रकार निकलकर बहने लगा कि उससे यह सरोवर पूर्ण हो गया तथा दोनों मूर्छित हो गये। उनकी ऐसी दशाको देखकर सखियाँ भी अचेतन हो गईं। उस समय श्रीमती जी की सारिका श्रीराधा नाम और शुक श्रीकृष्ण नाम का जोर-जोर से उच्चारण करने लगे। वाणीकार श्रीमाधुरी जीने इस लीला का बहुत ही सरसता के साथ वर्णन किया है। इस प्रकार दोनों का नाम एक दूसरे के कानों में प्रवेश किया। दोनों बाह्य ज्ञान प्राप्तकर वे परस्पर एक दूसरे को सतृष्ण नयनों से देखने लगे। क्रमशः सखियाँ भी चेतन होकर जय-जय शब्द करने लगीं। फिर तो आनन्द की सीमा ही नहीं रही।


यहीं पर श्रीकृष्णने विचार किया- मैं निकट रहकर भी अपनी प्रियतमा श्रीमती राधिका जी की विरह वेदना शान्त करने में असमर्थ रहता हूँ। भावी विरह के ताप से वे सदा झुलसती रहती हैं। इन्हें समझाने का कोई उपाय नहीं देखता। जब मैं इनसे दूर होता हूँ, तो वे विप्रलम्भ अवस्था में मेरा चिन्तन करते-करते भाव में विभोर हो जाती हैं तथा तमाल वृक्ष से हँसकर आलाप करती हैं, सखियों के साथ विनोद करती हैं और कभी मान भी करती हैं। इसके विपरीत मेरे अत्यन्त समीप रहने पर भी विप्रलम्भ की स्फूर्ति होने से मेरे लिए विरह में कातर होकर रोदन करती हैं। अतः निकट रहकर भी मैं इन्हें सांत्वना नहीं दे पाता हूँ। (यही श्रीमती राधिका का सर्वोत्तम मादनभाव है, जो केवल श्रीमती राधिका में ही देखा जाता है। ललिता इत्यादि सखियों में भी इसका प्रकाश नहीं देखा जाता। इस मादनभावमें आश्चर्यजनक रूपसे संभोग और विप्रलम्भ आदि परस्पर विरोधी सभी प्रकारके भावों का भी समावेश देखा जाता है।)

अतः मेरा इनसे दूर रहना ही इनकी सांत्वना का एकमात्र विषय हो सकता है, क्योंकि उस विप्रलम्भ अवस्थामें मेरी स्फूर्ति होने से अथवा मेरी कान्ति जैसे तमाल वृक्षादि वस्तुओं को देखने से ‘ये मेरे प्रियतम हैं’ ऐसा मानकर उनका विरह-ताप कुछ प्रशमित हो सकता है। ऐसा सोचकर कृष्णने मन-ही-मन कहीं दूर प्रवास का निश्चय किया। यही उनके वृन्दावन से मथुरा या द्वारका जाने का प्रधान कारण हुआ।


प्रेम सरोवर प्रेमकी भरी रहे दिन रैन ।
जँह जँह प्यारी पग धरत श्याम धरत तँह नैन ।।


इस सरोवर में स्नान करने से राधाकृष्ण युगल के प्रेम की प्राप्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं है। यहाँ ललिता मोहन जी, रासमण्डल, झूला-स्थल, प्रेमविहारी जी का मन्दिर, श्रीवल्लभाचार्य और श्रीविट्ठलनाथ जी की बैठकें तथा पूर्व दिशा में गाजीपुर गाँव है। भाद्र शुक्ला द्वादशी को यहाँ बूढ़ी लीला होती है।

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“मथुरामण्डल की महिमा”

पूर्व काल में नैमित्तिक प्रलय के समय एक महान दैत्य प्रकट हुआ, जो शंखासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शंखासुर देवताओ को जीतकर ब्रह्लोक गया वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओ का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान यज्ञेश्वर श्री हरि ने मतस्य रूप धारण करके उस दैत्य के साथ युद्ध किया, और और अंत में चक्र से उसका मस्तक काट डाला।

इसके बाद देवताओ के साथ भगवान श्री हरि प्रयाग में आये, और वे चारों वेद ब्रह्मा जी को दे दिए। फिर यज्ञ अनुष्ठान किया और प्रयाग तीर्थ के अधिष्ठाता देवताओ को बुलाकर उसे ”तीर्थराज” पद पर अभिषिक्त किया। मुनि कन्या गंगा और सूर्यसुता यमुना अपनी तरंगरुपी चामरो से से उनकी सेवा करने लगीं।

उसी समय सारे तीर्थ भेट लेकर बुद्धिमान तीर्थ रज के पास आये और उनकी पूजा और वंदना करने लगे। फिर अपने अपने स्थानो को चले गए। जब सब चले गए तो देवर्षि नारद जी वहाँ आये और सिंहासन पर विराजमान तीर्थ राज से बोले।

नारद जी ने कहा, “महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चित ही तुम सभी तीर्थो द्वारा विशेष रूप से पूजित हुए हो सभी ने तुम्हे भेंटे दी है। परन्तु व्रज के वृंदावन आदि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये तुम तीर्थो के राजाधिराज हो व्रज के प्रमादी तीर्थो ने यहाँ न आकर तुम्हारा तिरस्कार किया है।”

यह कहकर देवर्षि नारद चले गए। तीर्थराज को मन में क्रोध हुआ और तुरन्त श्री हरि के लोक में गए। तीर्थराज ने हाथ जोड़कर भगवान से कहा, “हे देव ! मैंं आपकी सेवा में इसलिए आया हूँ, कि आपने तो मुझे तीर्थराज बनाया है और समस्त तीर्थ मेरे पास आये परन्तु मथुरामंडल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये। उन प्रमादी व्रजतीर्थ ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात मैं आपसे कहने के लिए आया हूँ।”

भगवान ने कहा, “मैंंने तुम्हे तीर्थो का राजा तीर्थराज अवश्य बनाया है किन्तु अपने घर का राजा तुम्हे नहीं बनाया है। फिर भी तुम मेरे गृह पर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुष के समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज तुम अपने घर जाओ और मेरा यह शुभ वचन सुनो ! मथुरामंडल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है त्रिलोकी से परे है उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता।”

भगवान की बात सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए और उनका सारा अभिमान टूट गया फिर वहाँ से आकर उन्होंने मथुरामंडल के व्रज मंडल का पूजन किया और प्रतिवर्ष आने लगे।

इसी प्रकार वारह कल्प में श्री हरि ने जब वारह रूप में अपनी दाढ पर पृथ्वी को उठाकर रसातल से बाहर लाकर उसका उद्धार किया, तब पृथ्वी ने पूछा कि, “प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताईये आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ?”

भगवान ने कहा, “जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जल में उद्वेग का भाव प्रकट हो तब उसी स्थान पर स्थापना करूँगा।” पृथ्वी ने कहा, “भगवान ! स्थावर वस्तुओ कि रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है क्या कोई दूसरी भी धरणी है ? धारणामई धरणी तो केवल मैं हूँ।”

तभी पृथ्वी ने जल में वृक्ष देखे उन्हें देखकर पृथ्वी का अभिमान दूर हो गया और बोली, “देव ! किस स्थल पर ये वृक्ष है ? इसका क्या रहस्य है ? मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है ?”

भगवान ने कहा, “यह दिव्य ”मथुरा मंडल” दिखायी देता है, जो गोलोक कि धरती से जुड़ा हुआ है प्रलय काल में भी इसका संहार नहीं होता। इस प्रकार इस व्रज मंडल की महिमा प्रयाग से भी उत्कृष्ट है। ये पृथ्वी का हिस्सा नहीं है।”

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विह्वल कुण्ड

यह कुण्ड संकेतके पास दक्षिण पूर्व कोणमें है। यहाँ श्रीकृष्ण श्रीराधानाम सुनकर परम विह्वल हो गये थे।


प्रसंग


एक दिन श्रीकृष्ण सुबलसखाके साथ इस मनोहर कुण्डके निकट एक रमणीय कुञ्जमें बैठे हुए रसालाप कर रहे थे। उसी समय एक सारिका पास ही एक वृक्षकी डालीपर बैठकर श्रीराधिकाजीके गुणोंका गान करने लगी। राधिकाजीके नाम और गुणोंका श्रवणकर कृष्णके हृदयमें नाना प्रकारके भावोंका उदय हुआ। उन्हें इधर-उधर सर्वत्र राधिकाकी स्फूर्ति होने लगी। उत्कण्ठित होकर वे उनको पकड़नेके लिए इधर-उधर भागने लगे। श्रीकृष्णक अङ्गोंमें महाभावके अत्यन्त उन्नत अष्टसात्त्विक भावोंका दर्शनकर सुबल सखा, कृष्णकी भाव-शान्तिके लिए विचार करने लगे। उन्होंने सोचा श्रीमती राधिकासे मिलन हुए बिना कृष्णके इन भावोंकी शान्ति नहीं हो सकती ।

ऐसा सोचकर उन्होंने किसी प्रकार विशाखा सखी द्वारा कृष्णकी इस अद्भुत विह्वलताका संवाद भेजकर वहाँपर श्रीमती राधिकाको लानेकी प्रार्थना की। जिस समय विशाखादि सखियोंके साथ श्रीराधिकाका आगमन हुआ, उस समय सुबलने उन्हें दूरसे विरहातुर श्रीकृष्णको दिखलाया। उत्कण्ठित हो दोनों एकदूसरेको दर्शनकर परमानन्दित हुए। श्रीराधिकाके श्री अंगका स्पर्श पाकर कृष्ण कृतकृतार्थ हो गये। जो साधक प्रीतिपूर्वक यहाँ भजन करता है, वह राधाकृष्णक प्रेममें अवश्य ही विह्वल होगा।

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ललिता कुण्ड

सूर्यकुण्डसे पूर्व दिशामें हरे-भरे वनोंके भीतर एक बड़ा ही रमणीय सरोवर है। यह ललिताजीके स्नान करनेका स्थान है। कभी-कभी ललिताजी किसी छल-बहानेसे राधिकाको यहाँ लाकर उनका कृष्णके साथ मिलन कराती थीं। यह कुण्ड नन्दगाँवके पूर्व दिशामें है।

प्रसंग – एक समय कृष्णने श्रीमती राधिकाको देवर्षि नारदसे सावधान रहनेके लिए कहा। उन्होंने कहा- देवर्षि बड़े अटपटे स्वभावके ऋषि हैं। कभी-कभी ये बाप-बेटे, माता-पिता या पति-पत्नीमें विवाद भी करा देते हैं। अतः इनसे सावधान रहना ही उचित है। किन्तु श्रीमतीजीने इस बातको हँसकर टाल दिया।

एक दिन ललिताजी वनसे बेली, चमेली आदि पुष्पोंका चयनकर कृष्णके लिए एक सुन्दर फूलोंका हार बना रहीं थीं। हार पूर्ण हो जानेपर वह उसे बिखेर देतीं और फिरसे नया हार गूंथने लगतीं। वे ऐसा बार-बार कर रही थीं। कहीं वृक्षोंकी ओटसे नारदजी ललिताजीके हार गूंथनका दृश्य देख रहे थे। उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे ललिताजीके पास पहुँचे और उनसे पुनः पुनः हारको गूंथने और बिखेरनेका कारण पूछा। ललिताजीने कहा कि मैं हार गूंथना पूर्णकर लेती हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह हार कृष्णके लिए या तो छोटा है, या बड़ा है। इसलिए मैं ऐसा कर रही हूँ। कौतुकी नारदजीने कहा-कृष्ण तो पास ही में खेल रहे हैं। अतः क्यों न उन्हें पास ही बिठाकर उनके गलेका माप लेकर हार बनाओ ? ऐसा सुनकर ललिताजीने कृष्णको बुलाकर कृष्णके अनुरूप सुन्दर हार गूंथकर कृष्णको पहनाया। अब कृष्ण ललिताजीके साथ राधाजीकी प्रतीक्षा करने लगे। क्योंकि श्रीमती राधिकाने ललितासे पहले ही ऐसा कहा था कि तुम हार बनाओ, मैं तुरन्त आ रही हूँ। किन्तु उनके आनेमें कुछ विलम्ब हो गया। सखियाँ उनका शृंगार कर रही थीं।

नारदजीने पहलेसे ही श्रीकृष्णसे यह वचन ले लिया था कि वे श्रीललिता और श्रीकृष्ण युगलको एक साथ झूले पर झूलते हुए दर्शन करना चाहते हैं। अतः आज अवसर पाकर उन्होंने श्रीकृष्णको वचनका स्मरण करा कर ललिताजीके साथ झूलेपर झूलनेके लिए पुनः पुनः अनुरोध करने लगे। नारदजीके पुनः पुनः अनुरोधसे राधिकाकी प्रतीक्षा करते हुए दोनों झूलेमें एकसाथ बैठकर झूलने लगे। इधर देवर्षि, ललिता-कृष्णकी जय हो, ललिता-कृष्णकी जय हो’, कीर्तन करते हुए श्रीमती राधिकाके निकट उपस्थित हुए। श्रीमती राधिकाने देवर्षि नारदजीको प्रणाम कर पूछा- देवर्षि! आज आप बड़े प्रसन्न होकर ललिता-कृष्णका जयगान कर रहे हैं। कुछ आश्चर्यकी बात अवश्य है। आखिर बात क्या है? नारदजी मुस्कुराते हुए बोले- ‘अहा ! क्या सुन्दर दृश्य है। कृष्ण सुन्दर वनमाला धारणकर ललिताजीके साथ झूल रहे हैं। आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं वहाँ पधारकर देखें। परन्तु श्रीमतीजीको नारदजीके वचनोंपर विश्वास नहीं हुआ। मेरी अनुपस्थितिमें ललिताजीके साथ झूला कैसे सम्भव है? वे स्वयं उठकर आई और दूरसे उन्हें झूलते हुए देखा। अब तो उन्हें बड़ा रोष हुआ। वे लौट आई और अपने कुञ्जमें मान करके बैठ गईं। इधर कृष्ण राधाजीके आनेमें विलम्ब देखकर स्वयं उनके निकट आये। उन्होंने नारदजीकी सारी करतूतें बतलाकर किसी प्रकार उनका मान शान्त किया तथा उन्हें साथ लेकर झूलेपर झूलने लगे। ललिता और विशाखा उन्हें झुलाने लगीं। यह मधुर लीला यहीं पर सम्पन्न हुई थी। कुण्डके निकट ही झूला झूलनेका स्थान तथा नारद कुण्ड है।

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धीर- समीर

श्रीयमुनाजीके तटपर रासलीला स्थली वंशीवटके समीप ही यह स्थान वर्तमान है। यह श्रीराधाकृष्ण युगलके नित्य निकुञ्ज केलिविलासका स्थान है। युगल केलिविलासका दर्शनकर समीर भी धीर स्थिर हो जाता था। वह एक कदम भी आगे बढ़नेमें असमर्थ हो जाता था। इसलिए इस स्थानका

नाम धीर-समीर पड़ा है। धीर- समीरका कुञ्ज और देवालय नित्यानन्द प्रभुके ससुर, जाहवा एवं वसुधाके पिता सूर्यदास सरखेलके छोटे भ्राता श्रीगौरीदास पण्डितके द्वारा स्थापित हैं। श्रीगौरीदास पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रधान परिकरोंमेंसे एक हैं। उन्होंने अपने जीवनके अंतिम समयमें वृन्दावन आकर धीर-समीर कुञ्जकी स्थापना की और वहीं पर अपने आराध्यदेव श्रीश्यामरायकी सेवा पूजा आरंभकी। यहींपर उनकी भजन एवं समाधिस्थली भी विद्यमान है। प्रसिद्ध वैष्णव पदकर्ता श्रीजयदेव गोस्वामीने अपने प्रसिद्ध पदमें

धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीन पयोधरमर्दन चञ्चलकरयुगशाली ।।

(श्रीगीतगोविन्द)

जिस कुञ्जका उल्लेख किया है, वह यही केलिवट धीर समीर
कुञ्ज है। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रसिद्ध परिकरोंमेंसे एक हैं। वे अपने अंतिम समयमें कृष्णविरहमें इतने व्याकुल हो गये कि लौकिक लोगोंके लिए उनका पार्थिव शरीर छूट गया। कुछ दिनोंके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीगोपालगुरु भी अप्रकट लीलामें प्रविष्ट हो गये। गोपालगुरुके प्रियशिष्य ध्यानचन्द गोस्वामी भी परम रसिक एवं विद्वान भक्त हुए हैं। उनके समयमें राजकर्मचारी राधाकान्त मठ तथा उसके अन्तर्गत हरिदास ठाकुरकी भजन कुटीमें कुछ अत्याचार करने लगे। इससे वे बड़े मर्माहत हुए। उसी समय उन्हें वृन्दावनके किसी वैष्णवने यह समाचार दिया कि अरे! तुम इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो? तुम्हारे परमगुरु श्रीवक्रेश्वर गोस्वामीको हमने धीर-समीरमें भजन करते हुए देखा है। तुम उनके पास चले जाओ। वे सारी व्यवस्था ठीक कर देंगे। ऐसा सुनकर वे बड़े आह्लादित हुए और उन्होंने तत्क्षणात् पैदल ही वृन्दावनके लिए यात्रा की। कुछ दिनोंमें वे श्रीवृन्दावनमें पहुँचे। धीर समीरमें प्रवेश करते ही वे आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने देखा कि श्रीवक्रेश्वर पण्डित हाथमें नामकी माला लिये हुए भाव विभोर होकर नाम सङ्कीर्तन कर रहे थे। लीला स्मृतिके कारण उनके नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुप्रवाह विगलित हो रहा था। श्रीध्यानचन्दजी लकुटिकी भाँति उनके चरणों में गिरकर रोने लगे और उनसे पुरी धाममें लौट चलनेका आग्रह करने लगे। वक्रेश्वर पण्डितने साक्षात् रूपसे जानेके लिए मना तो किया, किन्तु बोले- तुम निश्चिन्त मनसे पुरी लौट जाओ। राजकर्मचारियोंका उपद्रव सदाके लिए बंद हो जायेगा। उनके आदेशसे ध्यानचन्द गोस्वामी पुरीमें राधाकान्त मठमें लौटे। राजकर्मचारियोंने अपने कृत्यके लिए उनसे पुनः पुनः क्षमा मांगी। यह वही धीर समीर है, जहाँ श्रीध्यानचन्द गोस्वामीने अप्रकट हुए श्रीवक्रेश्वर पण्डितका साक्षात् दर्शन किया था। इन सब लीलाओंको अपने हृदयमें संजोये हुए भक्तोंको आनन्दित करने वाला धीर समीर आज भी विराजमान है।

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गोपीश्वर महादेव

देवो के देव महादेव शंकर को श्रीमद्भागवत में एक प्रधान वैष्णव बतलाया गया है। वे सदैव भगवती पार्वती के साथ कृष्ण की अष्टकालीय लीलाओं के चिन्तनमें विभोर रहते हैं। श्रीकृष्ण की प्रकट लीलामें एक समय अपने नेत्रों से कृष्ण की मनमोहक रासलीला के दर्शनों की अभिलाषासे वे कैलाश से सीधे वृन्दावनमें बड़े उत्कण्ठित होकर पधारे। किन्तु वृन्दावनके बाहरी द्वारपर ही गोप-परिचारिकाओं ने उन्हें रोक दिया। क्योंकि इसमें श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसी पुरुष का प्रवेश निषेध है। किन्तु शंकर जी कब मानने वाले थे। वे परिचारिका गोपियों से प्रवेशका उपाय पूछने लगे । गोपियों ने भगवती योगमाया पौर्णमासीजी की आराधना करनेके लिए कहा। तत्पश्चात् योगमाया पौर्णमासीजी की कठोर आराधना से शंकर जी को योगमायाजी के दर्शन हुए। उन्होंने शंकर जी की अभिलाषा जानकर उनके हाथों को पकड़कर पास ही ब्रह्मकुण्ड में डुबो दिया। उस कुण्ड से निकलते ही शङ्कर जी एक परम सुन्दरी किशोरी गोपीके रूपमें परिवर्तित हो गये।

पौर्णमासी जी ने गोपी बने शंकर को रासस्थली के निकट ईशान कोण में एक कुञ्ज के भीतर बैठा दिया और वहीं से रासलीला दर्शनके लिए कहकर स्वयं अन्तर्धान हो गईं। कुछ देर बाद ही रासलीला आरम्भ हुई। गोपियों ने सोचा न जाने क्यों आज नृत्य, गीतमें उल्लास नहीं हो रहा है। वे समझ गई कि किसी विजातीय व्यक्ति का यहाँ प्रवेश हुआ है।

सभी गोपियाँ उस विजातीय व्यक्ति को ढूंढने लगीं ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब वे इस स्थानपर पहुँचीं तो उन्होंने एक नवेली अपरिचित गोपी को बैठी हुई देखा। फिर तो उन्होंने उस नवेली गोपी को पकड़ लिया और पूछने लगीं- तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गाँव कौन-सा है ? तुम्हारा पति कौन है? तुम्हारा ससुर कौन है ? किन्तु नवेली गोपी रोने के अतिरिक्त कोई उत्तर नहीं दे सकी। क्योंकि योगमाया ने इसे गोपी गर्भ से न तो जन्म ही दिलवाया था, न इसे कोई नाम दिया था, न इसका विवाह किसी गोपसे हुआ था। इसलिए क्या उत्तर देती? कोई उत्तर न पाकर गोपियोंने इसके गालोंमें गुल्चे मार-मारकर गाल फुला दिये। पौर्णमासी जी महादेव की दुर्दशा देखकर द्रवित हो गईं। उन्होंने वहाँ पहुँचकर गोपियों से अनुरोध किया कि ये मेरी कृपापात्री गोपी है। आप लोग श्रीकृष्ण के साथ इसपर कृपा करें। पौर्णमासीजीकी आन्तरिक अभिलाषा जानकर कृष्णने उसका गोपीश्वर नामकरण किया तथा यह वरदान दिया कि बिना तुम्हारी कृपाके कोई भी साधक इस वृन्दावनमें विशेषकर मेरी मधुर लीलाओंमें प्रवेश नहीं कर सकेगा।

गोस्वामी ग्रन्थोंमें भी ऐसा वर्णन पाया जाता है कि प्रकट कष्णलीला के समय कृष्ण सेवा प्राप्ति की कामना से गोपियाँ भी इनकी आराधना करती थीं। इनके प्रणाम मंत्र से भी यह स्पष्ट है कि ये विशुद्ध कृष्णप्रेम देने वाले है

मुदा गोपेन्द्रस्यात्मज- भुज-परिष्वंग-निधये स्फुरद – गोपी- वृन्दैर्यमइह भगवन्तं प्रणयिभिः ।

भजद्भिस तैर् भक्त्या स्वम भिलष्तिं प्राप्तुम चिराद् यमी-तीरे गोपीश्वरमनुदिनं तं किल भजे ॥

(श्रीब्रजविलास स्तव-८७)

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श्रीगोवर्धन परिक्रमा

श्रीराधाकुण्ड और श्रीश्यामकुण्ड गिरिराज श्रीगोवर्धनके दो नेत्र हैं। अतः श्रीगिरिराजजीके ही ये सर्वश्रेष्ठ अङ्ग हैं। यहींसे गिरिराजजीकी परिक्रमा आरम्भ करनेपर जो-जो कृष्णलीला स्थलियाँ दर्शनीय हैं, उनका नीचे उल्लेख किया जा रहा है

(१) मुखराई – राधाकुण्डके दक्षिणमें एक मीलकी दूरीपर यह स्थान है। यह राधिकाजीकी मातामही वृद्धा मुखराजीका वासस्थान है। यशोदाजीको बाल्यावस्थामें इन्होंने दूध पिलाया था। मातामही मुखरा कौतुकवश श्रीराधाकृष्ण युगलकिशोर-किशोरीका अलक्षित रूपमें मिलन कराकर बड़ी प्रसन्न होती थीं। ये महाराज वृषभानुकी सास और कृतिका मैयाकी माता हैं। ब्रजवासी इनको “बढ़ाई” नामसे पुकारते थे प्रति प्रातःकाल बड़ी उत्कंठा से श्रीमती राधिका एवं कृष्णका दर्शन करने जाती थीं। यहाँ मुखरा देवीका दर्शन है।

(२) रत्न सिंहासन – यह श्रीराधाकुण्डसे गोवर्धनकी ओर परिक्रमा मार्गमें एक मील दूरीपर कुसुमसरोवरके दक्षिणमें स्थित है। यहाँका लीला-प्रसङ्ग इस प्रकार है- शिवचतुर्दशीके उपरान्त पूर्णिमाके दिन श्रीकृष्ण एवं श्रीबलराम गोपरमणियोंके साथ विचित्र रंगोंकी पिचकारियोंके साथ परस्पर होली खेल रहे थे। मृदंग-मञ्जीरे, वीणादि वाद्य-यन्त्रोंके साथ वासंती आदि रागोंसे मधुर सङ्गीत भी चल रहा था। श्रीमती राधिकाजी पास ही रत्न सिंहासनपर बैठ गईं। उसी समय कुबेरका अनचर शंखचूड़ भगवान् श्रीकृष्णको मनुष्य समझकर परम सुन्दरी इन गोप ललनाओंको हरण करनेके लिए चेष्टा करने लगा। गोपियाँ राम और कृष्णको पुकारती हुई आर्त्तनाद करने लगीं। कृष्णने बड़े वेगसे दौड़कर शंखचूड़का बध किया और उसके मस्तककी मणि निकालकर श्रीबलरामजीको प्रदान की। बलरामजीने उस मणिको धनिष्ठाके हाथों श्रीमती राधिकाको प्रदान किया। यह उसी रत्न सिंहासनका स्थान है जहाँ राधिकाजी बैठी थीं।

(३) श्यामकुटी – यह स्थान रत्न सिंहासनके पास ही सघन वृक्षावलीके मध्यमें स्थित है। यहाँ श्रीश्यामसुन्दरने श्यामरंगकी कस्तूरीका अङ्गोंमें अनुलेपनकर श्याम रङ्गके अलंकार तथा श्याम रङ्गके ही वस्त्र धारणकर श्याम रङ्गके निकुञ्जमें प्रवेश किया तो गोपियाँ भी उनको पहचान न सकीं।
तत्पश्चात् पहचाननेपर उनकी बड़ी मनोहारी लीलाएँ सम्पन्न हुई। पास ही बाजनी शिला है, जिसे बजानेसे मधुरनाद उत्पन्न होता है।

(४) ग्वाल पोखर- श्यामकुटीके पास ही सघन सुन्दर वृक्ष और लताओंसे परिवेष्टित मनोहर लीला स्थली है। गोचारणके समय श्रीकृष्ण मध्याह्न कालमें यहाँ विश्राम करते हैं। बाल सखाओंके द्वारा कृष्णकी प्रेममयी सख्य रसकी सेवा तथा ग्वाल बालोंकी छीना-झपटी आदि मनोहारी लीलाओंके कारण बाल पोखरा अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँका एक प्रसङ्ग इस प्रकार है – श्रीकृष्ण पुरोहित बालकका वेश धारणकर बटु मधुमङ्गलके साथ सूर्यकुण्डमें श्रीमती राधिकाका सूर्यपूजन सम्पन्न कराकर यहाँ सखाओंके साथ बैठ गये। मधुमङ्गलके पास दक्षिणासे मिले हुए मनोहर लड्डू और एक स्वर्ण मुद्रिका थी। मधुमङ्गलने अपने वस्त्रों में उन्हें विशेष सावधानीके साथ बाँध रखा था। कौतुकी बलरामने मधुमङ्गलसे पूछा- भैया मधुमङ्गल ! तुम्हारी इस पोटलीमें क्या है? मधुमङ्गलने झिझकते हुए उत्तर दिया- कुछ नहीं। इतनेमें बलदेवजीने सखाओंकी ओर इशारा किया। उसमेंसे कुछ सखाओंने मधुमङ्गलके दोनों हाथोंको पकड़ लिया। एक सखाने अपनी हथेलियोंसे उसके नेत्र बंदकर दिये। कुछ सखाओंने बलपूर्वक मधुमङ्गलके हाथोंसे वह पोटली छीन ली। फिर ठहाके लगाते हुए मधुमङ्गलके सामने ही उन लड्डुओंको परस्पर बाँटकर खाने लगे। छीना-झपटीमें मधुमङ्गलका वस्त्र भी खुल गया । वह बड़े जोरसे बिगड़ा और हाथमें यज्ञोपवीत धारणकर बलराम तथा श्रीदामादि सखाओंको अभिशाप देनेके लिए प्रस्तुत हो गया। तब कृष्णने उसे किसी प्रकार शान्त किया । तब मधुमङ्गल भी हँसता हुआ उन सखाओंसे लड्डुके कुछ अवशिष्ट चूर्णको मांगने लगा। यह ग्वाल पोखरा इन लीला स्मृतियोंको संजोए हुए आज भी विद्यमान है। श्रीचैतन्य महाप्रभुने गिरिराज गोवर्धनकी परिक्रमा के समय इन लीलाओंका स्मरण करते हुए यहाँ पर कुछ क्षण विश्राम किया था। इसके पास में ही दक्षिणकी ओर किल्लोल कुण्ड है।

(५) किल्लोल कुण्ड – अपने नामके अनुरूप ही यह कुण्ड श्रीराधाकृष्ण युगलकी जलकेलि तथा कृष्णका सखाओंके साथ जल क्रीड़ाका स्थल है।

(६) कुसुम सरोवर – यह श्रीराधाकुण्डसे डेढ़ मील दक्षिण-पश्चिममें परिक्रमा मार्गके दाहिनी ओर स्थित है। यहाँ बेली- चमेली, जूही, यूथी, मल्लिका, चम्पक आदि विविध प्रकारके पुष्पोंकी लताओं और तरुओंसे परिपूर्ण कुसुमवन था। यहाँ श्रीकृष्णसे मिलनेके बहाने श्रीमती राधिका सहेलियोंके साथ पुष्प चयन करने आती थीं तथा उनका रसिक कृष्णके साथ रसपूर्ण केलि कलह एवं नोक-झोंक हुआ करता था।

प्रसङ्ग (१) – कृष्णभावनामृतमें प्रसङ्गके अनुसार एक दिन श्रीमती राधाजी सहेलियोंके साथ यहाँ पुष्प-चयन कर रही थीं। इतनेमें कृष्ण वहाँ उपस्थित हुए।

कृष्णने पूछा- कौन है ?

राधाजी- कोई नहीं !

कृष्ण- ठीकसे बताओ, तुम कौन हो?

राधाजी- कोई नहीं।

कृष्ण-बड़ी टेड़ी-मेढ़ी बातें कर रही हो।

राधाजी- तुम बड़ी सीधी साधी बातें करते हो ।

कृष्ण-मैं पूछ रहा हूँ, तुम कौन हो?

राधाजी- क्या तुम नहीं जानते ?

कृष्ण- क्या कर रही हो?

राधाजी – सूर्य पूजाके लिए पुष्प चयन कर रही हूँ।

कृष्ण – क्या किसीसे आदेश लिया ?

राधाजी- किसीसे आदेशकी आवश्यकता नहीं।

कृष्ण- अहो ! आज चोर पकड़ी गई। मैं सोचता था कि प्रतिदिन कौन हमारी इस पुष्पवाटिकासे पुष्पोंकी चोरी करता है तथा इस पुष्पोद्यानको सम्पूर्ण रूपसे उजाड़ देता है। आज तुम्हें पकड़ लिया है। अभी इसका दण्ड देता हूँ।

राधाजी – तुम इस पुष्पवाटिकाके स्वामी कबसे बने? क्या यहाँ एक पौधा भी कभी लगाया है ? अथवा किसी एक पौधेका सिञ्चन भी किया है ? उल्टे तुम तो लाखों गऊओं तथा उद्धत सखाओंके साथ इस कुसुमवनको उजाड़नेवाले हो । भला रक्षक कबसे बने ?

कृष्ण- मुझ धर्मात्माके ऊपर आक्षेप मत करो। मैं अभी इसके उचित शिक्षा दे रहा हूँ।

राधाजी – अहा हा ! (मुस्कराते हुए) बड़े भारी धर्मात्मा हैं। पैदा होते ही एक नारीका बध किया, बचपनमें मैयासे भी झूठ बोलते, पास-पड़ोसकी गोपियोंके घरोंमें मक्खन चुराते, कुछ बड़े होनेपर गोप कुमारियोंके वस्त्रोंका हरण करते, अभी कुछ ही दिन पूर्व एक गायके बछड़ेका बध किया। यह तो तुम्हारे धर्माचरणकी हद हो गई ।

उत्तर सुनकर कृष्ण सिर खुजलाते हुए मधुमङ्गलकी ओर देखने लगे। चतुर मधुमङ्गलने समझाया- चुप रहनेमें ही भलाई है। इतनेमें सभी सखियोंने तालियाँ बजाते हुए श्यामसुन्दरको घेर लिया।

दूसरा प्रसङ्ग – एक दिन प्रातःकाल श्रीमती राधिकाजी अपनी सहेलियोंके साथ पुष्प चयन करनेके लिए कुसुम सरोवरके तटपर उपस्थित हुई। कुसुम सरोवरके तटपर बेली, चमेली, जूही, कनेर, चंपक आदि विविध प्रकारके पुष्प खिल रहे थे। श्रीमतीजी एक वृक्षकी टहनीमें प्रचुर पुष्पोंको देखकर उस टहनीको हाथसे पकड़कर दूसरे हाथसे पुष्पोंका चयन करने लगीं। इधर कौतुकी श्रीकृष्णने, श्रीमती राधिकाको यहाँ पुष्प चयन करनेके लिए आती हुई जानकर, पहले से ही उस वृक्षकी डाल पर चढ़कर अपने भारसे उसे नीचे झुका दिया और स्वयं डाल पर पत्तोंकी आढ़में छिप गये, जिससे श्रीमतीजी उन्हें देख न सकें। श्रीमतीजी पुष्प चयनमें विभोर थीं। उसी समय कृष्ण दूसरी डाल पर चले गये, जिससे वृक्षकी वह डाल काफी ऊपर उठ गई, राधिकाजी भी उस डालको पकड़ी हुए ऊपर उठ गई। फिर तो वे बचाने के लिए चिल्लाने लगीं। उसी समय श्रीकृष्णने पेड़की डालीसे कूदकर डालीमें टंगी हुई श्रीमतीजीको गोदीमें पकड़ कर उतारा। इधर सखियाँ यह दृश्य देखकर बड़े जोरसे ताली बजाकर हँसने लगीं। श्रीमती राधिकाजी श्रीकृष्णके आलिङ्गन पाशसे मुक्त होकर श्रीकृष्णकी भर्त्सना करने लगीं।
वर्तमान समयमें यहाँका कुसुमवन सम्पूर्ण रूपसे उजड़ गया है। भरतपुरके महाराजा जवाहरसिंहने १७६७ ई. में दिल्लीका खजाना लूटकर उस धनसे कुसुम सरोवरमें सुन्दर सोपानों सहित पक्के घाट बनाये थे। सरोवरके पश्चिममें राजा सूरजमलकी छत्री तथा उसके दोनों ओर दोनों रानियोंकी छत्रियाँ और पास ही दाऊजीका मन्दिर है।

(७) नारद कुण्ड- कुसुम सरोवरसे दक्षिण-पूर्व दो फर्लांग दूर नारदजीकी तपस्या स्थली नारद-कुण्ड है। वृन्दावनकी अधिष्ठात्री देवी वृन्दादेवीके मुख से उच्चतम गोपीभावकी महिमा सुनकर गोपी- देहसे श्रीराधाकृष्ण युगलकी प्रेममयी उन्नत उज्ज्वलसेवा प्राप्त करनेके लिए नारदजीके हृदयमें तीव्र लालसा उत्पन्न हुई। उन्होंने लोकपितामह ब्रह्मासे गोपाल – मंत्र प्राप्तकर इसी स्थानपर गोपियोंके आनुगत्यमें रागमार्गसे साधन भजन करना आरम्भ किया। बहुत युगोंतक आराधनाके पश्चात् योगमाया पौर्णमासीने नारदजीको कुसुमसरोवरमें स्नान कराया, जिससे साथ ही साथ उन्हें गोपी देहकी प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् उन्हें रागमार्गके एकादश भाव प्रदानकर युगलसेवामें अधिकार प्रदान किया। यहाँ नारद-कुण्ड दर्शनीय है।

(८) पालेई – नारदकुण्डसे डेढ़ मील पूर्व मथुरामार्गके पास ही यह गाँव स्थित है। कभी यमुनाजी यहाँ बहती थीं। मिट्टी खोदनेपर अभी भी यमुनाकी रेत निकलती है। कृष्णने सखाओंके साथ यहाँ गोचारण किया था तथा सखियोंके साथ नाना प्रकारके लीला-विलास किये थे। अष्टछापके कवि कुम्भनदासजीका यहाँ निवास स्थल था । यहाँपर उनके नामका सरोवर और खिड़क प्रसिद्ध है।

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भगवती यमुना


श्रीराधाकृष्ण युगलके केलि-विलासमें सब प्रकारसे सहायिका श्रीकृष्ण स्वरूपिणी भगवती कृष्णा या महारानी यमुनाजीने वृन्दावनको तीन ओर घेर रखा है। ये अपने सुरम्य तटपर दोनों ओर नाना प्रकारके पुष्पों और फलोंसे लदे हुए सघन वृक्षों और लताओंसे असंख्य रमणीय निकुञ्जोंका सृजनकर प्रिया प्रियतमके रस-विलासमें सम्पूर्ण रूपसे अपना सहयोग प्रदान करती हैं।

दिव्य मणिमय घाटोंसे सुसज्जित कदम्ब, तमाल, आम्र, बकुल आदि वृक्षों और उनसे निर्मित विविध कुञ्जोंसे परिमण्डित, सप्तदल-कमलोंसे सर्वदा सुशोभित श्रीयमुनाकी प्रेममय वारिमें सखियोंके साथ श्रीराधाकृष्ण युगल जलकेलि और नौकाविहार करते हैं। ऐसी भगवती यमुना सदैव युगल किशोरकी सेवाकर परम वन्दनीय हैं

चिदानन्दभानोः सदा नन्दसूनोः परप्रेमपात्री द्रवब्रह्मगात्री ।
अघानां लवित्री जगत्क्षेमधात्री पवित्री क्रियान्नो वपुमिंत्र पुत्री ।।

चिदानन्द-सूर्य-स्वरूप नन्दनन्दन श्रीकृष्णके उन्नत उज्ज्वल प्रेमको प्रदान करने वाली साक्षात् परब्रह्मकी द्रवितविग्रह-स्वरूपा, अपने स्मरण मात्रसे सम्पूर्ण प्रकारके अघों, महापापोंको दूरकर हृदयको पवित्र बनाने वाली, जगत् मङ्गलकारिणी, मरु हृदयमें भी ब्रज-रसका सञ्चार करनेवाली सूर्यपुत्री श्रीयमुनाजीकी पुनः पुनः वन्दना करता हूँ। वे हमें पवित्र करें।

गङ्गादि- तीर्थ – परिषेवित-पादपद्मा गोलोक-सौख्यरस-पूरमहिं महिम्ना ।
आप्लाविताखिल-सुधासु- जलां सुखाब्धी राधामुकुन्द-मुदितां यमुनां नमामि ॥

गंगा, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु आदि तीर्थोंके द्वारा जिनके श्रीचरणकमल सर्वदा परिसेवित होते हैं, जो गोलोक-वृन्दावनके श्रीश्रीराधाकृष्ण युगलकी रसपरिपाटी युक्त सेवाको प्रदान करनेवाली महिमासे युक्त हैं जो अपने अमृतपूर्ण जल प्रवाहके द्वारा श्रीराधा-मुकुन्दको सुख-समुद्रमें निमग्न रखती हैं, उन कृष्ण प्रिया श्रीयमुनाजीको पुनः पुनः प्रणाम है।

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राधा टीला

ये वृन्दावन परिक्रमा मार्ग में ठाकुर जी का लीला स्थान है l अगर आप विशुद्ध भाव के साथ यहां आते हैं तो आप भी अपने रोम-रोम में दिव्याता को पाएंगे। साधना करते विरक्त संतों के अनुभवों को आत्मसात करने में जरा भी संकोच न होगा जो कहते हैं, “यहां राधा रहती है।” शांति के इस धाम में बिहारी विहारिणी का सरस वृंदावन बसता है। संतों ने इस स्थान की पावनता, रमणीयता और दिव्या को भीड़-भाड़ और प्रचार-प्रसार से बचाए रखा है। राधा टीला हरिदासी संप्रदाय की छोटी गद्दी है।

वृंदावन में रोज 4:00 बजे राधा टीला में दाना डाला जाता है और …यहाँ आप हजारो की संख्या में कई सारे तोते, मोर, और बहुत ही अद्भुत पक्षियों के दर्शन कर सकते हैं, और वो कोई साधारण पक्षी नही होते हैं वो सभी श्यामा जू के भक्त होते हैं।

कहते है राधाटीला में आज भी यहाँ श्यामा श्याम जूँ लीला करने पधारते है l इसलिये निधीवन और सेवा कुँज की तरह संध्या के बाद यहाँ के दर्शन भी बंद कर दिये जाते है l कहते है दिन के समय श्यामा श्याम जी पेड का रूप धारण कर लेते है और संध्या में पुनः अपने स्वरूप में प्रकट होते है l आज भी हम ये दर्शन राधाटीला में कर सकते है.. वहाँ एक ही जड से निकले हुए है दो पेड है, एक जड में से निकले हुये होने के बावजुद भी एक पेड सफेद और एक पेड श्याम वर्ण का है l……… जो स्वयं श्यामा श्याम जी है l
कहते है एक लीला यहाँ यह हुई थी कि एक समय जब श्यामा श्याम जी जब रास कर रहे थे तो ठाकुर जी के भक्त गोपीयों को भुख लगने लगी l तब वहाँ खीर का भोग तो था पंरतु सभी खीर खाये कैसे.??

तब कान्हा जी ने एक पेड के पत्ते को लिया और उसे दोने का आकार दिया ( दोने:- वो जो पत्ते का होता है और प्रसाद वितरण के लिये उपयोग किया जाता है…) फिर सभी ने मिलकर ठाकुर जी के द्वारा बनाये हुये दोनो में खीर ग्रहण कर अपनी भुख शांत की l ठाकुर जी की लीला वश आज भी उस पेड में दोने के आकार में पत्ते आते है l ये दर्शन हम राधाटीला श्री वृन्दावन धाम में कर सकते है l

प्रेम से बोलो राधे राधे

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विश्राम घाट

विश्राम घाट मथुराका सर्वप्रधान एवं प्रसिद्ध घाट है।

सौर पुराणके अनुसार विश्रान्ति तीर्थ नामकरणका कारण बतलाया गया है

ततो विश्रान्ति तीर्थाख्यं तीर्थमहो विनाशनम् ।

संसारमरु संचार क्लेश विश्रान्तिदं नृणाम ।

संसाररूपी मरुभूमिमें भटकते हुए, त्रितापोंसे प्रपीड़ित, सब प्रकारसे निराश्रित, नाना प्रकारके क्लेशोंसे क्लान्त होकर जीव श्रीकृष्णके पादपद्म धौत इस महातीर्थमें स्नान कर विश्राम अनुभव करते हैं। इसलिए इस महातीर्थका नाम विश्रान्ति या विश्राम घाट है। कहा जाता है कि भगवान् श्रीकृष्णने महाबलशाली कंसको मारकर ध्रुव घाटपर उसकी अन्त्येष्टि संस्कार करवाकर बन्धु-बान्धवोंके साथ यमुनाके इस पवित्र घाटपर स्नान कर विश्राम किया था। श्रीकृष्णकी नरलीलामें ऐसा सम्भव है; परन्तु षडैश्वर्यपूर्ण अघटन घटन पटीयसी सर्वशक्तियोंसे सम्पन्न सच्चिदानन्द स्वयं भगवान् श्रीकृष्णको विश्रामकी आवश्यकता नहीं होती है। किन्तु भगवानसे भूले भटके जन्म मृत्युके अनन्त, अथाह सागरमें डूबते-उतराते हुए क्लान्त जीवोंके लिए यह अवश्य ही विश्रामका स्थान है।

इस महातीर्थमें स्नान एवं आचमनके पश्चात् प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु लोग ब्रजमण्डलकी परिक्रमाका संकल्प लेते हैं और पुनः यहींपर परिक्रमाका समापन करते हैं।

कार्तिक माहकी यमद्वितीयाके दिन बहुत दूर दूर प्रदेशोंके श्रद्धालुजन यहाँ स्नान करते हैं। पुराणोंके अनुसार यम (धर्मराज) एवं यमुना (यमी) ये दोनों जुड़वा भाई-बहन हैं। यमुनाजीका हृदय बड़ा कोमल है। जीवोंके नाना प्रकारके कष्टोंको वे सह न सकीं। उन्होंने अपने जन्म दिनपर भैया यमको निमन्त्रण दिया। उन्हें तरह-तरहके सुस्वादु व्यज्जन और मिठाईयाँ खिलाकर सन्तुष्ट किया। भैया यमने प्रसन्न होकर कुछ माँगनेके लिए कहा। यमुनाजीने कहा- भैया ! जो लोग श्रद्धापूर्वक आजके दिन इस स्थानपर मुझमें स्नान करेंगे, आप उन्हें जन्म-मृत्यु एवं नाना प्रकारके त्रितापोंसे मुक्त कर दें। ऐसा सुनकर यम महाराजने कहा- ‘ऐसा ही हो। यूँ तो कहीं भी श्रीयमुनामें स्नान करनेका प्रचुर माहात्म्य है, फिर भी ब्रजमें और विशेषकर विश्राम घाटपर भैयादूजके दिन स्नान करनेका विशेष महत्व है। विशेषकर लाखों भाई-बहन उस दिन यमुनामें इस स्थलपर स्नान करते हैं।

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गुलाब सखी का चबूतरा

बरसाने की पीली पोखर से प्रेम सरोवर जाने वाले रास्ते से कुछ हटकर वन प्रांत में एक पुराना चबूतरा है। लोग उसे गुलाब सखी का चबूतरा कहते हैं और आते-जाते उस पर माथा टेकते हैं।
आइये जानते है क्या है इस चबूतरे की कथा।

गुलाब एक एक निर्धन व्यक्ति का नाम था । बरसाने की पवित्र धरती पर उसका जन्म हुआ । ब्रह्मा आदि जिस रज की कामना करते हैं उसका उसे जन्म से ही स्पर्श हुआ था। पढ़ा लिखा कुछ नहीं था पर सांरगी अच्छी बजा लेता था। श्री राधा रानी के मंदिर के प्रांगण में जब भी पदगान हुआ करता था उसमें वह सांरगी बजाया करता था। यही उसकी अजीविका थी। मंदिर से जो प्रशाद और दान दक्षिणा प्राप्त होती उसी से वो अपना जीवन र्निवाह करता था ।
उसकी एक छोटी लड़की थी । जब गुलाब मंदिर में सारंगी बजाता तो लड़की नृत्य करती थी । उस लड़की के नृत्य में एक आकर्षण था, एक प्रकार का खिंचाव था।उसका नृत्य देखने के लिए लोग स्तंभ की भांति खड़े हो जाते। गुलाब अपनी बेटी से वह बहुत प्यार करता था, उसने बड़े प्रेम से उसका नाम रखा राधा।
वह दिन आते देर न लगी जब लोग उससे कहने लगे, “गुलाब लड़की बड़ी हो गई है। अब उसका विवाह कर दे।”
राधा केवल गुलाब की बेटी न थी वह पूरे बरसाने की बेटी थी। सभी उससे प्यार करते और उसके प्रति भरपूर स्नेह रखते। जब भी कोई गुलाब से उसकी शादी करवाने को कहता उसका एक ही उत्तर होता,” शादी करूं कैसे? शादी के लिए तो पैसे चाहिए न? “
एक दिन श्री जी के मंदिर के कुछ गोस्वामियों ने कहा, ” गुलाब तू पैसों की क्यों चिन्ता करता है? उसकी व्यवस्था श्री जी करेंगी। तू लड़का तो देख? “
जल्दी ही अच्छा लड़का मिल गया। श्री जी ने कृपा करी पूरे बरसाने ने गुलाब को उसकी बेटी के विवाह में सहायता करी, धन की कोई कमी न रही, गुलाब का भण्डार भर गया, राधा का विवाह बहुत धूम-धाम से हुआ। राधा प्रसन्नता पूर्वक अपनी ससुराल विदा हो गई।
क्योंकि गुलाब अपनी बेटी से बहुत प्रेम करता था और उसके जीवन का वह एक मात्र सहारा थी, अतः राधा की विदाई से उसका जीवन पूरी तरहा से सूना हो गया। राधा के विदा होते ही गुलाब गुमसुम सा हो गया। तीन दिन और तीन रात तक श्री जी के मंदिर में सिंहद्वार पर गुमसुम बैठा रहा। लोगो ने उसको समझने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह सुध-बुध खोय ऐसे ही बैठा रहा, न कुछ खाता था, ना पीता था बस हर पल राधा-राधा ही रटता रहता था। चौथे दिन जब वह श्री जी के मंदिर में सिंहद्वार पर गुमसुम बैठा था तो सहसा उसके कानों में एक आवाज आई, ” बाबा ! बाबा ! मैं आ गई। सारंगी नहीं बजाओगे मैं नाचूंगी।”
उस समय वह सो रहा था या जाग रहा था कहना कठिन था। मुंदी हुई आंखों से वह सांरगी बजाने लगा और राधा नाचने लगी मगर आज उसकी पायलों में मन प्राणों को हर लेने वाला आकर्षण था। इस झंकार ने उसकी अन्तरात्मा तक को झकझोर दिया था। उसके तन और मन की आंखे खुल गई। उसने देखा उसकी बेटी राधा नहीं बल्कि स्वयं राधारानी हैं, जो नृत्य कर रही हैं।
सजल और विस्फरित नेत्रों से बोला, बेटी! बेटी! और जैसे ही कुछ कहने की चेष्टा करते हुए स्नेह से कांपते और डगमगाते हुए वह उनकी अग्रसर ओर हुआ राधा रानी मंदिर की और भागीं। गुलाब उनके पीछे-पीछे भागा ।
इस घटना के पश्चात गुलाब को कभी किसी ने नहीं देखा। उसके अदृश्य होने की बात एक पहेली बन कर रह गई। कई दिनों तक जब गुलाब का कोई पता नहीं चला तो सभी ने उसको मृत मान लिया। सभी लोग बहुत दुखी थे, गोसाइयों ने उसकी स्मृति में एक चबूतरे का निर्माण करवाया।
कुछ दिनों के पश्चात मंदिर के गोस्वामी जी शयन आरती कर अपने घर लौट रहे थे। तभी झुरमुट से आवाज आई,” गोसाई जी! गोसाई जी! “
गोसाई जी ने पूछा, ” कौन?”
गुलाब झुरमुट से निकलते हुए बोला, ” मैं आपका गुलाब। “
गोसाई जी बोले, “तू तो मर गया था। “
गुलाब बोला, ” मुझे श्री जी ने अपने परिकर में ले लिया है। अभी राधा रानी को सांरगी सुना कर आ रहा हूं। देखिए राधा रानी ने प्रशाद के रूप में मुझे पान की बीड़ी दी है। गोस्वामी जी उसके हाथ में पान की बीड़ी देखकर चकित रह गए क्योंकि यह बीड़ी वही थी जो वह राधा रानी के लिए अभी-अभी भोग में रखकर आ रहे थे। “
गोसाई जी ने पूछा,”तो तू अब रहता कहां है?”
उसने उस चबूतरे की तरफ इशारा किया जो वहां के गोसाइयों ने उसकी स्मृति में बनवाया था।
तभी से वह चबूतरा “गुलाब सखी का चबूतरा” के नाम से प्रसिद्द हो गया और लोगो की श्रद्धा का केंद्र बन गया।
राधा राधा रटते ही भव बाधा मिट जाए।
कोटि जन्म की आपदा श्रीराधे नाम से जाए।।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय ।
जय जय श्री राधे।
श्री राधा- कृष्ण की कृपा सब की ऊपर बरसता रहे ।
श्री राधाकृष्ण शरणम ममः

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मोती कुंड

।।राधे राधे।।
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मोती कुंड नंदगांव-ब्रज का कण-कण कान्‍हां की लीलाओं से भरा है आपको बताने जा रहा है ऐसे खास पेड़ों के बारे में जिनसे फल नहीं, बल्कि मोती झड़ते हैं। आज भी ब्रज आने वाले भक्‍त इन मोतियों को बटोरकर घर ले जाते हैं। माना जाता है कि इनसे घर में सुख समृद्धि और शांति का वास होता है।
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मथुरा में बरसाना और नंदगांव के बीच में मोती कुंड मौजूद है। यह कुंड तीन तरफ से पीलू के पेड़ों से घिरा हुआ है। इस पेड़ में मोती जैसे फूल होते हैं। ऐसी मान्‍यता है कि इन पेड़ों को कान्‍हा ने नंदबाबा के दिए कीमती मोतियों को बोकर उगाया था।
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बरसाना के विरक्‍त संत रमेश बाबा बताते हैं कि गर्ग संहिता, गौतमी तंत्र समेत कई ग्रंथों में इस महान कुंड और राधा-कृष्‍ण की सगाई का वर्णन है। गोवर्धन पर्वत उठाने की लीला के बाद दोनों की सगाई हुई थी। सगाई के दौरान राधा के पिता वृषभानु ने नंदबाबा को उपहार में मोती दिए। तब नंद बाबा चिंता में पड़ गए कि इतने कीमती मोती कैसे रखें।
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श्रीकृष्‍ण चिंता समझ गए। उन्‍होंने मां यशोदा से लड़कर मोती ले लिए। घर से बाहर निकलकर कुंड के पास जमीन में मोती बो दिए। जब यशोदा ने कृष्‍ण ने पूछा कि मोती कहां है। तब उन्‍होंने इसके बारे में बताया।
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नंद बाबा भगवान कृष्‍ण के कार्य से नाराज हुए और मोती जमीन से निकालकर लाने को लोगों को भेजा। जब लोग यहां पहुंचे तो देखा कि यहां पेड़ उग आए हैं और पेड़ों पर मोती लटके हुए हैं। तब बैलगाड़ी भरकर मोती घर भेजे गए। तभी से कुंड का नाम मोती कुंड पड़ गया। माना जाता है कि श्रीकृष्‍ण और राधा के बीच सांसारिक रिश्‍ते नहीं थे, लेकिन नंदगाव का यह मोती कुंड आज भी दोनों की सगाई की गवाही देता है। आज भी ब्रज 84 कोस यात्रा के दौरान यहां लोग यहां पर मोती जैसे फल बटोरने आते हैं। यह डोगर (पीलू) का पेड़ है।पूरे ब्रज में कुछ ही जगह ये पेड़ हैं, लेकिन मोती जैसे फल सिर्फ मोती कुंड के पास मौजूद पेड़ में ही मिलते हैं।।
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मथुरा में बरसाना और नंदगांव के बीच में मोती कुंड मौजूद है। यह कुंड तीन तरफ से पीलू (डोगर) के पेड़ों से घिरा हुआ है। इस पेड़ में मोती जैसे फूल होते हैं। ऐसी मान्‍यता है कि इन पेड़ों को कान्‍हा ने नंदबाबा के दिए कीमती मोतियों को बोकर उगाया था।
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जय जय श्री राधे

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दोहनी कुण्ड

दोहनी कुण्ड (Dohini Kund)

एक बार गोदोहन के समय किशोरी श्रीराधाजी खड़ी-खड़ी गोदोहन होते देख रही थीं। देखते-देखते उनकी स्वयं भी गोदोहन करने की इच्छा हुई।

वे भी एक मटकी लेकर एक गइया का दूध दुहने लगीं।

उसी समय कौतुकी कृष्ण भी वहाँ आ पहुँचे और बोले-‘सखी ! तोपे दूध काढ़वो भी नहीं आवे है, ला मैं बताऊँ।’

यह कहकर पास ही बैठ गये। श्रीराधाजी ने उनसे कहा-‘अरे मोहन मोए सिखा।’

यह कहकर सामने बैठ गयी।

कृष्ण ने कहा-‘अच्छौ दो थन आप दुहो और दो मैं दुहों, आप मेरी ओर निगाह राखो।’

कृष्ण ठिठोली करते हुए दूध की धारा निकालने लगे।

उन्होंने हठात् एक धारा राधाजी के मुखमण्डल में ऐसी मारी कि राधाजी का मुखमण्डल दूध से आच्छादित हो गया।

इस प्रकार लीला करते हुए दोनों आनन्दित होकर हँसने लगे।

यह लीला जिस स्थान पर हुई थी, वह आज भी ‘दोहनी-कुण्ड’ नाम से प्रसिद्ध है। दोहनी कुण्ड बरसाना, मथुरा से लगभग 50 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान बरसाना के पास ही है। गहवर वन की पश्चिम दिशा के समीप ही चिकसौली ग्राम के दक्षिण में यह स्थित है। यहाँ प्राकट्य लीला के समय गोदोहन सम्पन्न होता था। यह स्थान महाराज वृषभानु की लाखों गायों के रहने का खिड़क था।

प्रस्तुत दोहे इस लीला को जीवंत करते है

आमें सामें बैठ दोऊ दोहत करत ठठोर।
दूध धार मुख पर पड़त दृग भये चन्द्र चकोर॥

वारसाना की परिक्रमा करते हुए, अगर गहवरवन जाने के लिए आप बाएं मुड़ते हैं, तो आपको दोहनी कुंड मिलता है।
बहुत से भक्त इस स्थान पर नहीं आते हैं और वास्तव में मैंने देखा कि बहुत से लोग इस कुंड के अस्तित्व के बारे में नहीं जानते थे।
यह तालाब गहवरवन के दक्षिण और सिसौली गाँव के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

श्री बरसाने के परिक्रमा के दौरान कुछ और लीला स्थली आते है जिनमे –

डभरारो (Dabhararo)

कहते है यहाँ श्री राधिका के दर्शन से कृष्ण की दोनों आँखों में आँसू भर आये। डभरारो शब्द का अर्थ आँसुओं का डब–डबाना है। अब इस गाँव का नाम डभरारो है। यह स्थान बरसाना से दो मील दक्षिण में हैं।

रसोली (Rasoli)

डभरारो से डेढ़ मील दूर नैऋत कोण में रसोली स्थान है यहाँ राधा-कृष्ण का गोपियों के साथ सर्वप्रथम रासलीला सम्पन्न हुआ था। इस स्थान को तुंग विद्या सखी की जन्मस्थली भी कहते है। तुंग विद्या के पिता का नाम पुष्कर गोप, माता का नाम मेधा गोपी तथा पति का नाम वालिश है। तुंग विद्या जी अष्टसखियों में से एक हैं। वे नृत्य–गीत–वाद्य, ज्योतिष, पद्य-रचना, पाक क्रिया, पशु–पक्षियों की भाषाविद राधा-कृष्ण का परस्पर मिलन कराने आदि विविध कलाओं में पूर्ण रूप से निपुण हैं।

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“जय जय श्री राधे”

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गहवर वन

गहवर- वन मे जोही आवेगो जाऐ श्री जी रही बुलाऐ
बृज धाम के कुल मुख्य 12 वनों मे सबसे सुन्दर व आकर्षण, अनौखा वन है गहवर वन, गहवर वन को भिन्न इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ के प्रत्येक पत्ता श्री किशोरी जी के कर कमलो से सिंचित है । इस वन में नित्य प्रतिदिन लीलाऐ होती रहती है। आइये गहवर वन मे प्रवेश करे…..


“श्री गहवर वन”
बरसाने के मयूर कुटी और मान मंदिर के बीच का भाग गहवर वन है | जो नित्य विहार का स्थल है गह्वर वन बरसाना धाम में स्थित है जो उत्तर प्रदेश में मथुरा से 43 किलोमीटर दूर है।

गहवर वन प्रार्थना मन्त्र :- ( वृहन्नारदीये) –
गहवराख्याय रम्याय कृष्णलीला विधायिने
गोपीरमण सोख्याय वनाय च नमो नमः||

हे गहवरवन रम्य श्री कृष्ण लीला विधान के स्थान, आपको नमस्कार | आप गोपी रमण श्री कृष्ण के सुख के लिए हैं |

श्री गहवर वन प्रमाण ( वृषभानुपुरशतक ) –
यत्र गहवरकं नाम वनं द्वन्द्वमनोहरम् |
नित्यकेलि विलासेन निर्मितं राधया स्वयं||

अर्थात जिस बरसाने में गहवर वन है, जिसे श्री राधा ने स्वयं अपने नित्य विलासों से बनाया है| इसी लिए यह स्थल नित्य विहार का माना गया है |

नित्य विहार का तात्पर्य जहाँ एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं है | स्वकीया एवं परकीया दोनों से यह भिन्न उपासना पद्धति है | स्वकीय में पितृगृह गमन से वियोग का अनुभव होता है और परकीय में तो संयोग का अवसर भी कम ही मिलता है और वह भी अनेक बाधाओं के बाद | वहां बाधाओं को प्रेम की कसौटी या प्रेम की तीव्रता का मापदण्ड माना जाता है |

स्वकीया वाले श्री राधा के मायिक व कल्पित पति के नाम से ही अरुचि रखते हैं | वे परकीयत्व का किंचित मात्र संस्कार भी अपने अनन्यता में स्वीकार नहीं करते | इसीलिए श्री गहवर वन में रसिकों ने वियोग शून्य नित्य मिलन की उपासना स्वानुभव से लिखी है | जिनमें युगल इतने सुकुमार हैं कि एक क्षण का भी वियोग असह्य है किन्तु वियोग के बिना संयोग पुष्ट नहीं होता है | यह भी एक सत्य है | इसलिए यहाँ अति सूक्ष्म विरह भी गाया गया है | वह विरह मिलन की अवस्था में भी निरन्तर पिपासा बढाता रहता है यही प्रेम वैचित्री है |

योगो वियुक्तवन्मानि ललितैकाश्रयं स्वयम् |
करुणाशक्ति सम्पूर्ण गौर नीलं च गहवरे || (“वृषभानु पुर शतक “)

अर्थात जिस गहवर वन में कोटि कोटि युग भी आधे क्षण के समान नित्य संयोग में प्रेम पिपासा में व्यतीत हो जाते हैं जैसे :-
वियोज्यते वियुक्तं वान कदापि वियोक्ष्यते |
क्षणद्धिसत्कोटि युगं युगलं तत्र गहवरे || (“वृषभानुपुरशतक “)

श्री मद् राधासुधा निधि जो श्री राधा की अनेक लीलाओं का है | जिसमें उनकी विविध छवियाँ स्वकीया परकीया की प्रस्तुत की गयी है |

वहां पर भी गहवर वन की मिलन पद्धति की छवि का वर्णन आता है (श्री राधा सुधानिधि२५३श्लोक) अर्थात् वियोग तो दूर रहा वियोगाभास से ही कोटि- कोटि प्रलयाग्नि की जवाला युगल को बाहर व भीतर अनुभव होने लग जाती है | ऐसा गाढ़ प्रेम है | जहाँ अति सूक्ष्म विरह की कल्पना भी इतनी तीव्रतम पिपासा जगाती रहती है | इसीलिए अंक में स्थिति मिलित अवस्था में विरहानुभूति होने लग जाती है (रा.सु.नि. १४६,१२६) | इसलिए वृन्दारण्य से तात्पर्य पंच योजनात्मक वृंदावन से है | जिसमें श्री गहवर वन भी आता है | जिस विषय को वृंदावन में संक्षेप में कहा जायेगा | दोनों पक्ष के टीका कारों ने (रा.सु.नि. ७८) में, ईशता, ईशानि, शचि आदि की व्याख्या में लक्ष्मी, पार्वती, इन्द्राणी आदि को ग्रहण किया है , कहीं इन सबको ‘श्री जी’ का अंश, और कहीं इनसे स्वतंत्र स्वामिनी के रूप में अर्थ किया है | इस प्रकार श्री राधिका से ये सब सम्बद्वा होती हैं | चाहे अंश रूप से या आधीनस्थतया से अंश अंशिनी में कोई भेद नहीं है | जब हम इनको राधिकांश रूप में मान्यता देते हैं तो फिर राधा लीला में उनके विभिन्न स्वरूपों से ही द्वेष क्यों है | जबकि श्री मद्भागवत में डंके की चोट पर कहा गया है | भा. १०/३३/२६ “सर्वाः शरत् काव्यकथारसाश्रयाः” अर्थात् युगल सरकार ने सभी रसों का आस्वादन किया | वहां स्वकीया (अपनी विवाहिता) या परकीया (दुसरे की विवाहिता) या नित्यदाम्पत्य (नित्य वधु ) रस हो |



बरसाने के वन – उपवन के सरोवरों में निशंक भाव से ‘श्री जी’ क्रीड़ा करती हैं | श्री राधा सरोवर वन के भीतर का सरोवर उनकी बाल व श्रृंगार लीला का एक स्थल है | (ब्रज प्रेमानन्द सागर नवम लहरी )

श्री राधा अति मिठ बोलनी, पुर उपबन बन खेलन डोलनि |
कबहूँ सखिन संग लै भीर, खेलन जांइ सरोवर तीर ||
अति सुन्दर जु मृत्तिका लाइ, सुहथ खिलौना रचती बनाइ |
सदन बनावैं न्यारे न्यारे, तिन में घरैं खिलौना प्यारे ||
ग्रह के सब कारज करैं, खेल मगन कौतिक विस्तरैं |
सब कौं सब जु बांइनौं देंहिं, सब पै तें सब सादर लेंहि ||
टोलनि टोलनि मंगल गावैं, कुंवरिहिं नाना खेल खिलावैं |
कबहूं झूलहिं गहि- गहि तरवर, कबहूँ केलि करैं जल सरवर ||
कबहूं लै जु मीन गति तरैं, जल में महा कुलाहल करैं |
कबहूं जल मुख पर लै सीचैं, कबहूं पाछें रहि दृग मीचैं ||
कबहूँ तोरि जु कमल बगेलैं, तकि तकि तन मारैं यौं खेलैं |
बुडकी लैं जल हीं जलधावैं, भरैं चुहुंटियां अंक लगावैं ||
पुनि जल पैठैं उछरैं ऐसें, मीन करत कौतूहल जैसें |
तन अंगोछि पहिरैं जु निचोल, मिलैं जु अपने अपने टोल ||

श्री ब्रज प्रेमानन्द सागर दशम लहरी, चौ० ७२
कबहूं राधा चम्पक बरनी | गहवर झूलैं कौतिक करनी ||
श्री गहवर वन की लीलाओं का गान सभी रसिकों ने किया है |

जैसे-
“प्यारी जु आगे चल-आगे चल गहवर वन भीतर” (केलिमाल ४६)
देखि सखी राधा पिय केलि |
ये दोउ खोरि,खिरक,गिरि गहवर
विहरत कुंवर कंठ भुज मेलि ||

(श्री हित चतुरासी ४९)
“भूलि परी गहवर वन में जहाँ सखी न कोउ साथ |”

“श्री महावाणी सहेली, उत्साह सुख ४१/६४ तथा सोहिलो ३९ में )-
” सोहिलो सुखं गहर गहवर भरयौ भाव अनन्त | ”

श्री व्यास वाणी – वृंदावन महिमा – ४२ पद –
” सदा वृंदावन सबकी आदि |
गिरि गहवर वीथी रत रन में, कालिन्दी सलिलादि || ”


एक भक्त श्री किशोरी अली जी अपनी स्त्री किशोरी की याद में किशोरी-किशोरी कहते गहवरवन में व्याकुल घूम रहे थे | इधर से प्रिया जी अपनी सखियों के सहित आ रहीं थीं |
उनकी आवाज सुन वो बोलीं कि यह कौन है जो मेरा नाम लेकर इतनी व्याकुलता से मुझे पुकार रहा है ? सखियाँ बोलीं कि किशोरी जी यह तो अपनी स्त्री को पुकार रहा है | यह आप को नहीं बुला रहा | अकारण करुणा की राशि श्री राधा ने कहा कि हे सखी इस गहवरवन में यह व्यक्ति मेरा ही नाम ले – लेकर पुकार रहा है | इसे मेरे पास लाओ | श्री राधा रानी ने अकारण ही उन पर दया कर दिया |
एक दिन राधिका रानी गहवरवन में खेल रही थीं और श्री कृष्ण उनको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते नन्दगाँव से चले |
जब यहाँ पहुँचते हैं तो ललिता जी कहती हैं “हे नन्द लाल! तुम यहां कैसे आये?”
श्याम सुंदर कहते हैं “ललिता जी हम श्री राधा रानी के दर्शन के लिये आये हैं|” ललिता जी कहती हैं “अभी तुमको दर्शन तो नहीं मिलेंगे क्योंकि किशोरी जी अभी महल से चली नहीं हैं |” जबकि वो चल चुकी थीं| ये हैं लाड़ली जी की सखियाँ | ये टेढ़े ठाकुर जी से टेढ़ेपन से ही बात किया करती हैं | रसिकों ने ऐसा लिखा है-

“हम हैं राधे जू के बल अभिमानी,
टेड़े रहे मोहन रसिया सौं बोलत अटपट बाणी|


तो ललिता जी बोलीं कि किशोरी जी तो अभी नहीं आ रही हैं | तो श्याम सुंदर जी कहते हैं “आप लोगों ने हमारा नाम चोर रखा है तो चोर से चोरी नहीं चलती है और ललिता जी तुम समझ रही हो कि हम तुम्हारी चोरी समझ नहीं रहे |”
ललिता जी पूछती हैं “हमारी चोरी क्या है ?
श्री कृष्ण बोले “देख सखी राधा जू आवत!”
श्री कृष्ण बोले “अरे लाड़ली जी तो आ रही हैं !”
ललिता जी बोलीं “कैसे पता ?”


कृष्ण बोले “किशोरी जी जब आती हैं तो उनके शरीर की महक चारों ओर फैल जाती है | ये सुगन्ध बता देती है कि वो आ रही हैं | तुम नहीं छिपा सकती हो राधिका रानी को | अरे चाँद को कोई क्या हाथ से ढक सकता है ? हम तुम्हारी चोरी जानते हैं |”
वहाँ कहा गया है कि श्री जी खेलती आ रही हैं अपनी सखियों के साथ | ये गहवरवन की वही कुंजें हैं, वही लतायें हैं, वही स्वरूप है | गहवरवन में राधा रानी जब कुंजों से होती हुई आ रही हैं तो उनके आँचल को हवा छूती हुई श्री जी के अंग की सुगन्ध को लेकर के श्री कृष्ण जहाँ हैं वहाँ पहुंचती है | श्री जी के अंग की सुगन्ध पाकर श्री कृष्ण धन्य हो जाते हैं | सिर्फ किशोरी जी के अंग की सुगन्ध पाकर ही श्री कृष्ण धन्य हो जाते हैं | बोले धन्य ही नहीं, धन्य – धन्य हो जाते हैं | धन्य – धन्य ही नहीं, अति धन्य हो जाते हैं श्री कृष्ण | श्री कृष्ण बोले अति से भी अधिक धन्य यानि कृतार्थ धन्य हो जाते हैं | मतलब कि सब कुछ मिल गया, पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति हो गयी | जो पूर्ण ब्रह्म है वो बरसाने में जाकर ही पूर्ण होता है |

ये गहवरवन बहुत ही महत्वपूर्ण वन है क्योंकि ऐसा सौभाग्य किसी भी और ब्रज के वन को नहीं मिला जो गहवरवन को मिला |
राधा रानी ने इसे अपने हाथों से सजाया है और इसमें दोनों राधा कृष्ण नित्य लीला करते हैं |


श्री गहवर वन में श्री राधा सरोवर है |

श्री राधासरस्नानाचमन मन्त्र –
देवकृतार्थरुपायै श्री राधासरसे नमः|
त्रैलोक्यपदमोक्षाय रम्यतीर्थाय ते नमः||

जिस सरोवर पर यात्रा संकल्प लेती है उसका नाम राधा सरोवर या राधासर है | यहाँ श्री राधा रानी अपनी सखियों के साथ जल में खेला करती थीं जिससे इसका नाम राधा सरोवर हो गया | इस सरोवर के प्रार्थना मन्त्र का भाव है कि बड़े बड़े देवता भी राधा सरोवर आने पर कृतार्थ हो जाते हैं | यह त्रिलोकी को भी मुक्त करने की शक्ति रखता है | ऐसे रमणीय तीर्थ को हम नमस्कार करते हैं |


श्री रास मण्डल प्रार्थन मन्त्र :-
विलास रास क्रीडाय कृष्णाय रमणाय च |
दशवर्ष स्वरूपाय नमो भानुपुरे हरे ||

अर्थात दस वर्षिय रास – विलास लीला रत्न कृष्ण रमन को भानुपुर में नमस्कार है |
श्री गहवर वन में ही श्री बल्ल भाचार्य जी की बैठक एवं शंख शिला स्थल है |


श्री गहवर वन परिक्रमा मार्ग :-
ब्रज के सभी धर्म स्थलों पर परिक्रमा का महत्व होता है। गोवर्धन जी की गिरिराज परिक्रमा तो विश्व प्रसिद्ध है। मथुरा, वृंदावन और बृज के अन्य स्थानों पर भी परिक्रमा होती है। बरसाना की जो परिक्रमा है वह गहवरवन परिक्रमा कहलाती है। कहतें हैं कि बरसानौ जान्यौं नहीं, जान्यौ न राधा नाम, तौ तेने जानौ कहा बृज को तत्व महान।

बरसाना के परिक्रमा करीब एक कोस की है, बरसाना जी की परिक्रमा में यहां के अधिकांश मंदिरों के दर्शन होते हैं। जैसा की आप सभी भक्त परिक्रमा के बारे में जानते ही है कि परिक्रमा जहाँ से शुरु होती हैं वही पर ही परिक्रमा को समाप्त किया जाता है। अधिकांश भक्त यह परिक्रमा मुख्य बाजार से शुरू करते हैं।

शीतला माता का मन्दिर, सांकरी खोर ( यही पर भगवान श्रीकृष्ण ने मटकी फोड़ लीला की थी ), गहवर वन, राधा रस मन्दिर, मान मन्दिर, मोरकुटी, राधा सरोवर ( गहवर कुंड ), महाप्रभु जी की बैठक, जयपुर मन्दिर ( दानगढ़ मन्दिर ), कुशल बिहारी जी मंदिर, स्वामीजी के दर्शन ( स्वामी जी लाड़लीजी मन्दिर के गोस्वामीजनों के पूर्वज हैं ), लाड़लीजी मन्दिर ( यहां विराजती हैं वृषभानु की दुलारी ), गोमाता का मन्दिर, श्री राधाजी के चरण चिन्ह के दर्शन, ब्रह्मा जी का भी मन्दिर, राधाजी के दादी बाबा का मन्दिर, सुदामा चौक, साक्षी गोपाल मंदिर, दाऊजी मन्दिर, सुदामा जी का मन्दिर, पथवारी देवी का मन्दिर, वृषभानु जी मन्दिर, अष्टसखी मन्दिर, लड़ैती लाल मन्दिर, रंगीली गली चौक, गंगा मन्दिर, गोपाल जी मन्दिर और श्यामा श्याम मन्दिर के दर्शन करते हुए श्रद्धालु मुख्य बाजार में पहुंचते हैं। यह वही स्थान है जहां से परिक्रमा शुरू की थी।

राधा कृष्ण गह्वर वन में श्री रसखान को दिखाई दिए, जहां श्री कृष्ण श्री राधा रानी के चरणों को धीरे-धीरे दबा रहे थे और उनकी सेवा कर रहे थे। यहाँ बहुत पुरानी रास लीला स्थला हैं। प्रिया जी अपनी साखियों के साथ आज भी यहाँ विहार में व्यस्त हैं। भाग्यशाली भक्तों के गवाह के रूप में अनुभव हैं। नागरी दास, किशोरी अली, स्वामी परिमल दास कुछ रसिक संत हैं जो यहाँ रहते थे।


श्री बरसाने का गहवर वन की महिमा

पवनदेव स्वयं को बड़भागी समझते हैं क्योंकि दो [एक ही] दिव्य-देहधारियों की सुवास को वह माध्यम रुप से बरसाने और नन्दगाँव के मध्य वितरित कर पाते हैं।

राजकुँवरी श्रीवृषभानु-नन्दिनी संध्या समय अपनी दोनों अनन्य सखियों श्रीललिताजू और विशाखाजू के साथ अपने प्रिय गहवर-वन में विहार हेतु महल से निकल रही हैं।
श्रीजू की शोभा का वर्णन तो दिव्य नेत्रों द्वारा निहारकर भी नहीं किया जा सकता। अनुपम दिव्य श्रृंगार है। बड़े घेर का लहँगा है जिसमें सोने के तारों से हीरे-मोती और पन्ने जड़े हुए हैं। संध्या समय के सूर्य की लालिमा की किरणें पड़ने से उसमें से ऐसी दिव्य आभा निकल रही है कि उस आभा के कारण भी श्रीजू के मुख की ओर देखना संभव नहीं हो पाता।

संभव है नन्दनन्दन स्वयं भी न चाहते हों ! गहवर-वन को श्रीप्रियाजू ने स्वयं अपने हाथों से लगाया है, सींचा है; वहाँ के प्रत्येक लता-गुल्मों को उनके श्रीकर-पल्लव का स्पर्श मिला है सो वे हर ऋतु में फ़ल-फ़ूल और सुवास से भरे रहते हैं। खग-मृगों और शुक-सारिकाओं को भी श्रीगहवर वन में वास का सौभाग्य मिला है। मंद-मंद समीर बहता रहता है और शुक-सारिकाओं का कलरव एक अदभुत संगीत की सृष्टि करता रहता है। महल से एक सुन्दर पगडंडी गहवर वन को जाती है जिस पर समीप के लता-गुल्म पुष्पों की वर्षा करते रहते हैं। न जाने स्वामिनी कब पधारें और उनके श्रीचरणों में पर्वत- श्रृंखला की कठोर भूमि पर पग रखने से व्यथा न हो जाये !
सो वह पगडंडी सब समय पुष्पों से आच्छादित रहती है। पुष्पों की दिव्य सुगंध, वन की हरीतिमा और पक्षियों का कलरव एक दिव्य-लोक की सृष्टि करते हैं। हाँ, दिव्य ही तो ! जागतिक हो भी कैसे सकता है? परम तत्व कृपा कर प्रकट हुआ है।
उस पगडंडी पर दिव्य-लता के पीछे एक “चोर” प्रतीक्षारत है। दर्शन की अभिलाषा लिये ! महल से प्रतिक्षण समीप आती सुवास संकेत दे रही है कि आराध्या निरन्तर समीप आ रही हैं। नेत्रों की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही है;

बार-बार वे उझककर देखते हैं कि कहीं दिख जायें और फ़िर छिप जाते हैं कि कहीं वे देख न लें !

श्रीजू महल की बारादरी से निकल अब पगडंडी पर अपना प्रथम पग रखने वाली हैं कि चोर का धैर्य छूट गया और वे दोनों घुटनों के बल पगडंडी पर बैठ गये और अपने दोनों कर-पल्लवों को आगे बढ़ा दिया है ताकि श्रीजू अपने श्रीचरणों का भूमि पर स्पर्श करने से पहले उनके कर-कमल को सेवा का अवसर दें। हे देव ! यह क्या? अचकचा गयीं श्रीप्रियाजू ! एक पग बारादरी में है और एक पग भूमि से ऊपर ! न रखते बनता है और न पीछे हटते !

“ललिते ! देख इन्हें ! यह न मानेंगे !” श्रीप्रियाजू ने ललिताजू के काँधे का आश्रय ले लिया है और लजाकर आँचल की ओट कर ली है। अपने प्राण-प्रियतम की इस लीला पर लजा भी रही हैं और गर्वित भी ! ऐसा कौन? परम तत्व ही ऐसा कर सकता है और कौन? श्रीललिताजू और श्रीविशाखाजू मुस्करा रही हैं; दिव्य लीलाओं के दर्शन का सौभाग्य जो मिला है !

नन्दनन्दन अधीर हो उठे हैं और अब वे साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं अपनी आराध्या को। विनय कर रहे हैं कि श्रीजू के श्रीचरणों के स्पर्श का सौभाग्य उनके कर-पल्लव और मस्तक को मिले ! श्रीजू अभी भी एक पग पर ही ललिताजू के काँधे का अवलम्बन लिये खड़ी हैं और सम्पूर्ण गहवर-वन गूँज रहा है – “….स्मर गरल खण्डनम मम शिरसि मण्ड्नम। देहि पदपल्लवमुदारम।”

श्री राधा रानी कि जय….
जय श्री राधे राधे जी …..

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राधा कुंड

महारानी श्री राधिका अष्ट सखिन के झुण्ड
डगर बुहारत सांवरो जय जय राधा कुण्ड

श्री चैतन्य चरितामृत में राधा कुण्ड :: श्री राधा विजयते नमः

सेई कुण्डे जेइ एक बार करे स्नान
तारे राधा सम प्रेम कृष्ण करे दान

– जो उस कुण्ड में एक बार स्नान कर लेता है, उसे श्री कृष्ण राधा के समान प्रेम दान करते हैं !!
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ऐसौ ही कुछ नजारौ ब्रज क्षेत्र के प्रमुख धाम राधाकुंड कौ। मथुरा नगरी से 26 किलोमीटर दूर राधाकुंड का अलग ही धार्मिक महत्व है। मन में पुत्र रत्न की आस, ऊपर से राधा जी पर अटूट विश्वास, कि अबकी बार राधा कुंड में स्नान करने से मेरी गोद जरूर भरेगी। इसी आस्था के साथ कार्तिक मास की अष्टमी (अहोई अष्टमी) को राधा कुंड में हजारों दंपति स्नान कर पुत्र रत्न प्राप्ति की कामना करेंगे।

जो राधा कुंड नहाई पुत्र रतन जन जाई।

ऐसा ही इतिहास रहा है अहोई अष्टमी पर होने वाले महा स्नान का। कार्तिक मास की अष्टमी के दिन राधा कुंड में स्नान करने वाली सुहागिनों को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इसके चलते रात (सप्तमी की अर्ध रात्रि) से स्नान किया जाएगा। इसलिए राधाकुंड पर देश से नहीं अपितु विदेश भी श्रद्धालु आते हैं।

मान्यता है कि कार्तिक मास की अष्टमी को वे दंपति जिन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं हुई है वे निर्जला व्रत रखते हैं और सप्तमी की रात्रि को पुष्य नक्षत्र में रात्रि 12 बजे से राधा कुंड में स्नान करते हैं। इसके बाद सुहागिनें अपने केश खोलकर रखती हैं और श्रीराधा की भक्ति कर आशीर्वाद प्राप्त कर पुत्र रत्न प्राप्ति की भागीदार बनती हैं। मान्यता है कि आज भी पुण्य नक्षत्र में राधा जी और कृष्ण रात्रि 12 बजे तक राधाकुंड में अष्ट सखियों संग महारास करते हैं। इसके बाद पुण्य नक्षत्र शुरू होते ही वहां स्नान कर भक्ति करने वालों को दोनों आशीर्वाद देते हैं और पुत्र की प्राप्ति होती है। पौराणिक मान्यता है कि राधा जी ने उक्त कुंड को अपने कंगन से खोदा था इसलिए इसे कंगन कुंड भी कहा जाता है।


श्रीकृष्ण ने राधा जी को दिया था वरदान
कथानकों के अनुसार श्रीकृष्ण गोवर्धन में गौचारण लीला करते थे। इसी दौरान अरिष्टासुर ने गाय के बछड़े का रूप धरके श्रीकृष्ण पर हमला किया। इस पर श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। तब राधारानी ने श्रीकृष्ण को बताया कि उन्होंने अरिष्टासुर का वध तब किया जब वह गौवंश के रूप में था इसलिए उन्हें गौवंश हत्या का पाप लगा है। इस पाप से मुक्ति के उपाय के रूप मेंश्रीकृष्ण अपनी बांसुुरी से एक कुंड (श्याम कुंड) खोदा और उसमें स्नान किया। इस पर राधा जी ने श्याम कुंड के बगल में अपने कंगन से एक और कुंड (राधा कुंड) खोदा और उसमें स्नान किया।

स्नान करने के बाद राधा जी और श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। महारास में दोनों कई दिन रात तक लगातार रास रचाते सुधबुध खो बैठे। महारास से प्रसन्न होकर राधा जी से कृष्ण ने वरदान मांगने को कहा। इस पर राधा जी ने कहा कि हम अभी गौवंश वध के पाप से मुक्त हुए हैं। वे चाहती हैं कि जो भी इस तिथि में राधा कुंड में स्नान करे उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो। इस पर श्री कृष्ण ने राधा जी को यह वरदान दे दिया। इसका उल्लेख ब्रह्म पुराण व गर्ग संहिता के गिर्राज खंड में मिलता है। उल्लेख है कि महारास वाले दिन कार्तिक मास की अष्टमी (अहोई अष्टमी) थी। तभी से इस विशेष तिथि पर पुत्र प्राप्ति को लेकर दंपति राधाकुंड में स्नान कर राधा जी से आशीर्वाद मांगते हैं।


पूर्व में अरीध वन था राधाकुंड का नाम

राधा कुंड नगरी कृष्ण से पूर्व राक्षस अरिष्टासुर की नगरी अरीध वन थी। बताया जाता है कि अरिष्टासुर अति बलवान व तेज दहाड़ वाला था। उसकी दहाड़ से आसपास के नगरों में गर्भवती महिलाओं के गर्भ गिर जाते थे। इससे ब्रजवासी खासे परेशान थे। इस कारण श्री कृष्ण ने उसका वध करने को लीला रची थी।


“राधा कुंड की कथा”


जिस समय कंस ने भगवान श्री कृष्ण का वध करने के लिए अरिष्टासुर नामक दैत्य को भेजा था उस समय अरिष्टासुर गाय के बछड़े का रूप लेकर श्री कृष्ण की गायों के बीच में शामिल हो गया और उन्हें मारने के लिए आया। भगवान श्री कृष्ण ने उस दैत्य को पहचान लिया। इसके बाद श्री कृष्ण ने उस दैत्य को पकड़कर जमीन पर फैंक दिया और उसका वध कर दिया।

यह देखकर राधा जी ने श्री कृष्ण से कहा कि उन्हें गौ हत्या का पाप लग गया है। इस पाप से मुक्ति के लिए उन्हें सभी तीर्थों के दर्शन करने चाहिएं। राधा जी की बात सुनकर श्री कृष्ण ने नारद जी से इस समस्या के समाधान के लिए उपाय मांगा। देवर्षि नारद ने उन्हें उपाय बताया कि सभी तीर्थों का आह्वाहन करके उन्हें जल रूप में बुलाएं और उन सभी तीर्थों के जल को एक साथ मिलाकर स्नान करें जिससे उन्हें गौ हत्या के पाप से मुक्ति मिल जाएगी।

नारद जी के कहने पर श्री कृष्ण ने एक कुंड में सभी तीर्थों के जल को आमंत्रित किया और कुंड में स्नान करके पाप मुक्त हो गए। इस कुंड को कृष्णकुंड कहा जाता है जिसमें स्नान करके श्री कृष्ण गौ हत्या के पाप से मुक्त हुए थे। माना जाता है कि इस कुंड का निर्माण श्री कृष्ण ने अपनी बांसुरी से किया था। नारद जी के कहने पर ही श्री कृष्ण ने यह कुंड अपनी बांसुरी से खोदा था और सभी तीर्थों से उस कुंड में आने की प्रार्थना की जिसके बाद सभी तीर्थ उस कुंड में आ गए।

इसके बाद श्री कृष्ण के कुंड को देखकर राधा जी ने भी अपने कंगन से एक कुंड खोदा । जब श्री कृष्ण ने उस कुंड को देखा तो उसमें प्रतिदिन स्नान करने और उनके द्वारा बनाए गए कुंड से भी अधिक प्रसिद्ध होने का वरदान दिया जिसके बाद यह कुंड राधाकुंड के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

पुराणों के अनुसार अहोई अष्टमी तिथि के दिन ही इन कुंडो का निर्माण हुआ था जिसके कारण अहोई अष्टमी पर इस कुंड में स्नान करने का विशेष महत्व है। कृष्णकुंड और राधाकुंड की अपनी-अपनी विशेषता है। कृष्णकुंड का जल दूर से देखने पर काला और राधाकुंड का जल दूर से देखने पर सफेद दिखता है।


कण्डेर ‘माधुरी’-येन राधाट ‘मधुरिमा।
कुण्डेर ‘महिमा’-येन राधार ‘महिमा।।

“राधाकुण्ड का माधुर्य श्रीमती राधिका की मधुरिमा के समान है । उसी प्रकार, उनके कुण्ड की महिमा श्रीमती राधिका के समान ही महिमावान है ।”

कलियुग में यह श्री राधाकुंड श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा प्रकाशित हुआ।



राधा कुंड के 6 रहस्

मथुरा नगरी से लगभग 26 किलोमीटर दूर गोवर्धन परिक्रमा में राधा कुंड नाम एक स्थान आता है जो कि परिक्रमा का प्रमुख पड़वा है। आओ जानते हैं इस स्थान के बारे में महत्वपूर्ण 6 जानकारी।


1. पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण गोवर्धन में गौचारण करते थे। इसी दौरान अरिष्टासुर ने गाय के बछड़े का रूप धरके श्रीकृष्ण पर हमला करना चाहा लेकिन श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। राधा कुंड क्षेत्र श्रीकृष्ण से पूर्व राक्षस अरिष्टासुर की नगरी अरीध वन थी। अरिष्टासुर से ब्रजवासी खासे तंग आ चुके थे। इस कारण श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया था।

2. वध करने के बाद राधाजी ने बताया कि आपने गौवंश के रूप में उसका वध किया है अत: आपको गौवंश हत्या का पाप लगेगा। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण ने अपनी बांसुरी से एक कुंड खोदा और उसमें स्नान किया। इस पर राधाजी ने भी बगल में अपने कंगन से एक दूसरा कुंड खोदा और उसमें स्नान किया। श्रीकृष्ण के खोदे गए कुंड को श्‍याम कुंड और राधाजी के कुंड को राधा कुंड कहते हैं।


3. ब्रह्म पुराण व गर्ग संहिता के गिर्राज खंड के अनुसार महारास के बाद श्रीकृष्ण ने राधाजी की इच्‍छानुसार उन्हें वरदान दिया था कि जो भी दंपत्ति राधा कुंड में इस विशेष दिन स्नान करेगा उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।

4. श्रीकृष्‍ण और राधा ने स्नान करने के बाद महारास रचाया था। ऐसा माना जाता है कि आज भी कार्तिक मास के पुष्य नक्षत्र में भगवान श्रीकृष्ण रात्रि बारह बजे तक राधाजी के साथ राधाकुंड में अष्ट सखियों संग महारास करते हैं।

5. उपरोक्त पौराणिक कथा के आधार पर कार्तिक मास की अष्टमी जिसे अहोई अष्टमी भी कहते हैं इस दिन राधा कुंड में हजारों दंपति स्नान कर पुत्र रत्न प्राप्ति की कामना करते हैं। राधा कुंड में स्नान करने हेतु देश से ही नहीं अपितु विदेश भी श्रद्धालु आते हैं।


6. मान्यता है कि सप्तमी की रात्रि को पुष्य नक्षत्र में रात्रि 12 बजे राधा कुंड में स्नान करते हैं। इसके बाद सुहागिनें अपने केश खोलकर राधा की भक्ति कर आशीर्वाद प्राप्त कर पुत्र रत्न प्राप्ति की प्रार्थना करती हैं। कार्तिक मास की अष्टमी को वे पति-पत्नी जिन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं हुई है, निर्जला व्रत रखते हैं।

जय जय श्री राधे कृष्णा

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निधिवन

रहस्यमयी और अलौकिक निधिवन – यहाँ आज भी राधा संग रास रचाते है श्री कृष्ण, जो भी देखता है हो जाता है पागल

भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्थित निधि वन जिसके बारे में मान्यता है की यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है की सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोड़कर चले जाते है।

वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाक़या करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। ऐसे अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति थे पागल बाबा जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है की उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लीला देखने की कोशिश की थी। जिससे की वो पागल हो गए थे। चुकी वो कृष्ण के अनन्य भक्त थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात मंदिर कमेटी ने निधि वन में ही उनकी समाधि बनवा दी।


रंगमहल में सज़ती है सेज़ :
निधि वन के अंदर ही है ‘रंग महल’ जिसके बारे में मान्यता है की रोज़ रात यहाँ पर राधा और कन्हैया आते है। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले सजा दिया जाता है। पलंग के बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग पान रख दिया जाता है। सुबह पांच बजे जब ‘रंग महल’ का पट खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त, लोटे का पानी खाली, दातुन कुची हुई और पान खाया हुआ मिलता है। रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।


पेड़ बढ़ते है जमीन की ओर :
निधि वन के पेड़ भी बड़े अजीब है जहाँ हर पेड़ की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती है वही निधि वन के पेड़ो की शाखाएं नीचे की और बढ़ती है। हालात यह है की रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को डंडों के सहारे रोक गया है।


तुलसी के पेड़ बनते है गोपियाँ :
निधि वन की एक अन्य खासियत यहाँ के तुलसी के पेड़ है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं कि‍ जो लोग भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता।

वन के आसपास बने मकानों में नहीं हैं खिड़कियां :
वन के आसपास बने मकानों में खिड़कियां नहीं हैं। यहां के निवासी बताते हैं कि शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता। जिन लोगों ने देखने का प्रयास किया या तो अंधे हो गए या फिर उनके ऊपर दैवी आपदा आ गई। जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, उनके घर के लोग शाम सात बजे मंदिर की आरती का घंटा बजते ही बंद कर लेते हैं। कुछ लोगों ने तो अपनी खिड़कियों को ईंटों से बंद भी करा दिया है।


वंशी चोर राधा रानी का भी है मंदिर :
निधि वन में ही वंशी चोर राधा रानी का भी मंदिर है। यहां के महंत बताते हैं कि जब राधा जी को लगने लगा कि कन्हैया हर समय वंशी ही बजाते रहते हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं देते, तो उन्होंने उनकी वंशी चुरा ली। इस मंदिर में कृष्ण जी की सबसे प्रिय गोपी ललिता जी की भी मूर्ति राधा जी के साथ है।


विशाखा कुंड :
निधिवन में स्थित विशाखा कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण सखियों के साथ रास रचा रहे थे, तभी एक सखी विशाखा को प्यास लगी। कोई व्यवस्था न देख कृष्ण ने अपनी वंशी से इस कुंड की खुदाई कर दी, जिसमें से निकले पानी को पीकर विशाखा सखी ने अपनी प्यास बुझायी। इस कुंड का नाम तभी से विशाखा कुंड पड़ गया।


एक बार कलकत्ता का एक भक्त अपने गुरु की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हरसमय वृन्दावन आने की सोचने लगा उसके गुरु उसे निधिवन के बारे में बताया करते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था
और एक बार उसने निश्चय किया कि वृन्दावन जाऊंगा और ऐसा ही हुआ श्री राधा रानी की कृपा हुई और आ गया वृन्दावन उसने जी भर कर बिहारी जीका राधा रानी का दर्शन किया लेकिन अब भी उसे इसबात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते है उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हू इसलिए वो वही पर रूक गयाऔर देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया
-जब शाम के वक़्त वहा के पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी और उसे वहा से जाने को कहा तब तो वो भक्त वहा से चला गया लेकिन अगले दिन फिर से वहा जाकर छिपगया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया और आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहा उसे कोई न ढूंढ़ सकता थाऔर वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जबसेविकाए निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुह से झाग निकल रहा है

तब उन सेविकाओ ने सभी कोबताया तो लोगो कि भीड़ वहा पर जमा हो गयी सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वो कुछ भी नहीं बोल रहा था लोगो ने उसे खाने के लिएमिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और ऐसे ही वो ३ दिन तक बिना कुछ खाएपीये ऐसे ही बेसुध पड़ा रहा और ५ दिन बाद उसके गुरु जो कि गोवर्धन में रहते थे बताया गया तब उसके गुरूजी वहा पहुचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये आश्रम में भी वो ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा गुरूजी ने ऐसा ही किया और उसे वो कलम और कागज़ देकर मानसी गंगा में स्नान करने चले गए जब गुरूजी स्नान करके आश्रममें आये
तो पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया थाऔर उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था उस पर लिखा था

“गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है,पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हू ,आप कहतेथे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर यकीन नहीं करता था, लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात बांके बिहारी का राधा रानी के साथ गोपियों के
साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोई भी इच्छा नहीं है ,इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या?

श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालो की सुन्दरता कुछ भी नहीं है,इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये”

वो पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था आज भी मथुरा के सरकारी संघ्रालय में रखा हुआ है और बंगाली भाषा में लिखा हुआ है

कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जीके साथ रास लीला करती हैतो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है, और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतुबंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की “परम दिव्यातिदिव्य लीला” है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.


जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि मेंशयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते… है तो जल पीया मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है.राधे……….राधे…

वृन्दावन धाम या बरसाना कोई घूमने फिरने या पिकनिक मनाने की जगह नहीं है ये आपके इष्ट की जन्मभूमि लीलाभूमि व् तपोभूमि है सबसे ख़ास बात ये प्रेमभूमि है जब भी आओ इसको तपोभूमि समझ कर मानसिक व् शारीरिक तप किया करो शरीर से सेवा व् वाणी से राधा नाम गाया जाए तब ही धाम मे आना सार्थक है

एक अद्भुत मस्ती ताकत व् आनंद ले कर वापिस जाया करो .आप की धाम निष्ठां मे वृद्धि हो इसी कामना से…………….राधे…………राधे……………….जी

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सेवा कुंज रास स्थली

“सेवा कुंज या निकुंज वन “
रासलीला के श्रम से व्यथित राधाजी की भगवान् द्वारा यह सेवा किए जाने के कारण इस स्थान का नाम सेवाकुंज पडा. सेवाकुंज वृंदावन के प्राचीन दर्शनीय स्थलों में से एक है. राधादामोदर जी मन्दिर के निकट ही कुछ पूर्व-दक्षिण कोण में यह स्थान स्थित है.

स्थापना – गोस्वामी श्रीहितहरिवंश जी ने सन 1590 में अन्य अनेक लीला स्थलों के साथ इसे भी प्रकट किया था.

श्री विग्रह – यहाँ एक छोटे-से मन्दिर में राधा जी के चित्रपट की पूजा होती है. लता दु्रमों से आच्छादित सेवाकुंज के मध्य में एक भव्य मंदिर है, जिसमें श्रीकृष्ण राधाजी के चरण दबाते हुए अति सुंदर रूप में विराजमान है. राधाजी की ललितादि सखियों के भी चित्रपट मंदिर की शोभा बढा रहे हैं.साथ में ललिता विशाखा जी भी दर्शन है.

सेवा कुंज में ललिता-कुण्ड है. जहाँ रास के समय ललिताजी को प्यास लगने पर कृष्ण ने अपनी वेणु(वंशी) से खोदकर एक सुन्दर कुण्ड को प्रकट किया. जिसके सुशीतल मीठे जल से सखियों के साथ ललिता जी ने जलपान किया था.सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, जनश्रुति है कि यहाँ आज भी नित्य रात्रि को रासलीला होती है.

सेवाकुंज का इतिहास :
वृंदावन श्यामा जू और श्रीकुंजविहारीका निज धाम है. यहां राधा-कृष्ण की प्रेमरस-धाराबहती रहती है. मान्यता है कि चिरयुवाप्रिय-प्रियतम श्रीधामवृंदावन में सदैव विहार में संलग्न रहते हैं.

भक्त रसखान ब्रज में सर्वत्र कृष्ण को खोज खोज कर हार गये, अन्त में यहीं पर रसिक कृष्ण का उन्हें दर्शन हुआ। उन्होंने अपने पद में उस झाँकी का वर्णन इस प्रकार किया है –

देख्यो दुर्यों वह कुंज कुटीर में।
बैठ्यो पलोटत राधिका पायन ॥

मन्दिर में एक शय्या शयन के लिए है, जिसके विषय में कहा जाता है की रात्रि में प्रिया प्रितम साक्षात् रूप में आज भी इसपर विश्राम करते हैं । साथ ही सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, ब्रजवासियों का कहना है कि आज भी प्रत्येक रात्रि में श्री राधाकृष्ण-युगल साक्षात् रूप से यहाँ विहार करते हैं.

इस विहार लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु सेवा कुंज में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता.

यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की “परम दिव्यातिदिव्य लीला” है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें सेवा कुंज से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.

जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी यहाँ शय्या शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते है तो जल पिया हुआ मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है

बोलो सेवा कुंज वारी की जय

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कुसुम सरोवर

भगवान श्री राधाकृष्ण की लीलास्थली
श्री कुसुम सरोवर, गोवर्धन

मथुरा जिले के गोवर्धन धाम में श्री गिरिराज महाराज की सप्तकोसीय परिक्रमा में कुसुम वन क्षेत्र में स्थित कुसुम सरोवर, ब्रज के अति प्राचीन पांच प्रमुख सरोवरों में से एक है। कुसुम सरोवर के प्राचीन कच्चे कुंड को ओरछा (मध्य प्रदेश) के राजा बीर सिंह जू देव ने 1619 में पक्का कराया था। सन 1723 में भरतपुर (राजस्थान) के महाराजा सूरजमल ने इसे कलात्मक स्वरूप प्रदान किया। महारजा सूरजमल के पुत्र महाराजा जवाहर सिंह ने 1768 में यहां अपने पिता और अपनी तीनों माताओं की याद में एक ऊंचे चबूतरे पर अत्यंत कलात्मक छतरियों का निर्माण कराया। जो कि स्थापत्यकला कला की एक बेजोड़ मिसाल है।


उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर में 20 किलोमीटर दूर गोवर्धन कस्बे से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुंड परिक्रमा मार्ग पर स्थित है ऐतिहासिक कुसुम सरोवर। जो 450 × 450 फीट लंबा और 60 फीट गहरा है।
पौराणिक महत्व के अनुसार कुसुम सरोवर से जुड़ी कई पौराणिक उल्लेख मिलते हैं। इसमें सबसे अहम है श्रीराधा रानी और श्री कृष्ण जी मधुर लीला । ऐसी मान्यता है कि भगवान कृष्ण, राधा जी से छिप-छिप कर कुसुम सरोवर पर ही मिला करते थे। एक समय राधा रानी और सारी सखियां भगवान कृष्ण के लिए फूल चुनने कुसुम सरोवर गोवेर्धन ही जाया करतीं थीं। कुसुम सरोवर गोवर्धन के परिक्रमा मार्ग में स्थित एक रमणीक स्थल है जो अब सरकार के संरक्षण में है। यहां पर श्री कुसुमवन बिहारी जी का प्राचीन मंदिर भी है।


सरोवर की खासियत
इस सरोवर के चारों तरफ सैंकड़ों सीढ़ियां हैं। इस सरोवर के ईर्द-गिर्द ढेरों कदम्ब के पेड़ हैं और कहा जाता है कि कदम्ब का पेड़ भगवान कृष्ण को बेहद पसंद है और यही वजह है कि सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर से मथुरा-वृंदावन आने वाले श्रद्धालु कुसुम सरोवर जाना नहीं भूलते। इस सरोवर का पानी तैरने के लिहाज से बेहतर माना जाता है और यहां आने वाले पर्यटक बेहतरीन समय बिता सकते हैं। कुसुम सरोवर के आसपास कई आश्रम और मंदिर भी हैं। साथ ही यहां की शाम की आरती भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है।
मथुरा से टैक्सी, ऑटो रिक्शा या प्राइवेट कार के जरिए आसानी से कुसुम सरोवर पहुंचा जा सकता है।


कुसुम सरोवर ब्रज की एक अनूठी धरोहर है, मगर सरकार द्वारा समुचित रख रखाव नही किया जा रहा है।


कुसुम सरोवर का एक सुंदर प्रसंग

एक समय राधा रानी और सारी सखियाँ फूल चुनने कुसुम सरोवर गोवर्धन में पहुँची, राधा रानी और सारी सखियाँ फुल चुनने लगी और राधा रानी से बिछड़ गयी और राधा रानी की साड़ी कांटो में उलझ गई।

इधर कृष्ण को पता चला के राधा जी और सारी सखियाँ कुसुम सरोवर पे है। कृष्ण माली का भेष बना कर सरोवर पे पहुँच गये और राधा रानी की साड़ी काँटो से निकाली और बोले हम वन माली है इतने में सब सखियाँ आ गई।


माली रूप धारी कृष्ण बोले हमारी अनुपस्थिति मे तुम सब ने ये बन ऊजाड़ दिया इसी नोक झोक मे सारे पुष्प पृथ्वी पे गिर गये। राधा रानी को इतने मे माली बने कृष्ण की वंशी दिख गई और राधा रानी बोली ये वन माली नही वनविहारी है। राधा रानी बोली ये सारे पुष्प पृथ्वी पे गिर गये और इनपे मिट्टी लग गई कृष्ण बोले मे इन्हें यमुना जल में धो के लाता हूँ। राधा रानी बोली तब तक बहुत समय हो जायेगा हमे बरसाना भी जाना है। तब कृष्ण ने अपनी वंशी से एक सरोवर का निर्माण किया जिसे आज कुसुम सरोवर कहते हैं

“पुष्प धोये और राधा रानी की चोटी का फुलों से श्रृंगार किया। राधा रानी हाथ में दर्पण लेकर माली बने कृष्ण का दर्शन करने लगी। आज भी कुसुम सरोवर पर प्रिया-प्रियतम जी का पुष्पो से श्रृंगार करते है पर हम साधारण दृष्टी बाले उस लिला को देख नहीं पाते !

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“सांकरी खोर”


सांकरी गली एक ऐसी गली है जिससे एक – एक गोपी ही निकल सकती है और उस समय उनसे श्याम सुंदर दान लेते हैं | सांकरी खोर पर सामूहिक दान होता है | श्याम सुन्दर के साथ ग्वाल बाल भी आते हैं | कभी तो वे दही लूटते हैं, कभी वे दही मांगते हैं, और कभी वे दही के लिए प्रार्थना करते हैं |


साँकरी खोर प्रार्थन मन्त्र


दधि भाजन शीष्रा स्ताः गोपिकाः कृष्ण रुन्धिताः|
तासां गमागम स्थानौ ताभ्यां नित्यं नमश्चरेत ||


इस मन्त्र का भाव है कि गोपियाँ अपने शीश पर दही का मटका लेकर चली आ रही हैं और श्री कृष्ण ने उनको रोक रखा है | उस स्थान को नित्य प्रणाम करना चाहिए, जहाँ से गोपियाँ आ-जा रही हैं |


यहाँ जो ये राधा रानी का पहाड़ है वो गोरा है | सामने वाला पहाड़ श्याम सुंदर का है और वो शिला कुछ काली है | काले के बैठने से पहाड़ काला हो गया और गोरी के बैठने से कुछ गोरा हो गया | पहले राधा रानी की छतरी है फिर श्याम सुंदर की छतरी है और नीचे मन्सुखा की छतरी है | यहाँ दान लीला होती है | यहाँ नन्दगाँव वाले दही लेने आये थे एकादशी में तो सखियों ने पकड़कर उनकी चोटी बांध दी थी | श्याम सुंदर की चोटी ऊपर बाँध देती हैं और मन्सुखा की चोटी नीचे बांध देती हैं |


मन्सुखा चिल्लाता है कि हे कन्हैया इन बरसाने की सखियों ने हमारी चोटी बांध दी हैं |जल्दी से आकर के छुड़ा भई , तो श्याम सुंदर बोलते हैं कि अरे ससुर मैं कहाँ से छुड़ाऊं | मेरी भी चोटी बंधी पड़ी है | सखियाँ दोनों के साथ-साथ सब की चोटी बाँध देती हैं | और फिर सखियाँ कहती हैं कि चोटी ऐसे नहीं खुलेगी | राधा रानी की शरण में जाओ तब तुम्हारी चोटी खुलेगी | सब श्री जी की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं | तब श्री जी की आज्ञा से सब की चोटी खुलती हैं | श्री जी कहती हैं कि इनकी चोटी खोल दो | श्याम सुंदर प्यारे को इतना कष्ट क्यों दे रही हो ? गोपी बोली कि ये चोटी बंधने के ही लायक हैं |
ये लीला यहाँ राधाष्टमी के तीन दिन बाद होती है | उस दिन यहाँ श्याम सुंदर मटकी फोड़ते हैं और नन्दगाँव के सब ग्वाल बाल आते हैं | श्री जी और सखियाँ मटकी लेकर चलती हैं तो श्याम सुन्दर कहते हैं कि तुम दही लेकर कहाँ जा रही हो ? तो सखियाँ कहती हैं कि ऐ दही क्या तेरे बाप का है ? ऐसो पूछ रहे हो जैसे तेरे नन्द बाबा का है | दही तो हमारा है | वहाँ से श्याम सुंदर बातें करते हुए चिकसौली की ओर आते हैं और यहाँ छतरी के पास उनकी दही कि मटकी तोड़ देते हैं | जहाँ मटकी गिरी है वो जगह आज भी चिकनी है वो सब लोग अभी देख सकते हैं |


यहाँ बीच में (सांकरी खोर में) ठाकुर जी के हथेली व लाठी के चिन्ह भी हैं | ये सब ५००० वर्ष पुराने चिन्ह हैं | ये सांकरी गली दान के लिये पूरे ब्रज में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है | वैसे तो श्याम सुंदर हर जगह दान लेते थे पर दान की ३-४ स्थलियाँ प्रसिद्ध हैं | ये हैं बरसाने में सांकरी खोर, गोवर्धन में दान घाटी व वृन्दावन में बंसी वट , पर इन सब में सबसे प्रसिद्ध सांखरी खोर है क्योंकि एक तो यहाँ पर चिन्ह मिलते हैं और दूसरा यहाँ आज भी मटकी लीला चल रही है | राधाष्टमी के पांच दिन के बाद नन्दगाँव के गोसाईं बरसाने में आते हैं |
यहाँ आकर बैठते हैं उस दिन पद गान होता है |


(बरसानो असल ससुराल हमारो न्यारो नातो — भजन) मतलब बरसाना तो हमारी असली ससुराल है ! आज तक नन्दगाँव और बरसाने का सम्बन्ध चल रहा है जो रंगीली के दिन दिखाई पड़ता है | सुसराल में होली खेलने आते हैं नन्दलाल और गोपियाँ लट्ठ मारती हैं| वो लट्ठ की मार को ढाल से रोकते हैं और बरसाने की गाली खाते हैं | यहाँ मंदिर में हर साल नन्दगाँव के गोसाईं आते हैं और बरसाने की नारियाँ सब को गाली देती हैं | इस पर नन्दगाँव के सब कहते हैं “वाह वाह वाह !”
इसका मतलब कि और गाली दो | ऐसी यहाँ की प्रेम की लीला है | बरसाने की लाठी बड़ी खुशी से खाते हैं , उछल – उछल के और बोलते हैं कि जो इस पिटने में स्वाद आता है वो किसी में भी नहीं आता है | बरसाने की गाली और बरसाने की पिटाई से नन्दगाँव वाले बड़े प्रसन्न होते हैं | ऐसा सम्बन्ध है बरसाना और नन्दगाँव में |


साँकरी खोर में दान लीला भी सुना देते हैं | साँकरी खोर की लीला सुना रहे हैं | इसे मन से व भाव से सुनो | ध्यान लगाकर सुनोगे तो लीला दिखाई देगी | साँकरी खोर में गोपियाँ जा रही हैं | दही की मटकी है सर पर | वहाँ श्री कृष्ण मिले | कृष्ण के मिलने के बाद वो कृष्ण के रूप से मोहित हो जाती हैं और लौट के कहती हैं कि वो नील कमल सा नील चाँद सा मुख वाला कहाँ गया ? अपनी सखी से कहती हैं कि मैं साँकरी खोर गयी थी |
सखी हों जो गयी दही बेचन ब्रज में , उलटी आप बिकाई |
बिन ग्रथ मोल लई नंदनंदन सरबस लिख दै आई री
श्यामल वरण कमल दल लोचन पीताम्बर कटि फेंट री
जबते आवत सांकरी खोरी भई है अचानक भेंट री
कौन की है कौन कुलबधू मधुर हंस बोले री
सकुच रही मोहि उतर न आवत बलकर घूंघट खोले री
सास ननद उपचार पचि हारी काहू मरम न पायो री
कर गहि बैद ठडो रहे मोहि चिंता रोग बतायो री
जा दिन ते मैं सुरत सम्भारी गृह अंगना विष लागै री
चितवत चलत सोवत और जागत यह ध्यान मेरे आगे री
नीलमणि मुक्ताहल देहूँ जो मोहि श्याम मिलाये री
कहै माधो चिंता क्यों विसरै बिन चिंतामणि पाये री ||

तो एक पूछती है कि तू बिक गई ? तुझे किसने खरीदा ? कितने दाम में खरीदा ? बोली मुझे नन्द नन्दन ने खरीद लिया | मुफ्त में खरीद लिया | मेरी रजिस्ट्री भी हो गई | मैं सब लिखकर दे आयी कि मेरा तन, मन, धन सब तेरा है | मैं आज लिख आयी कि मैं सदा के लिए तेरी हो गई | मैं वहाँ गई तो सांवला सा, नीला सा कोई खड़ा था | नील कमल की तरह उसके नेत्र थे, पीताम्बर उसकी कटि में बंधा हुआ था | मैं जब आ रही थी तो अचानक मेरे सामने आ गया | मैं घूँघट में शरमा रही थी |
उसने आकर मेरा घूँघट खोल दिया और मुझसे बोला है कि तू किसकी वधु है ? किस गाँव की बेटी है ? वो मेरा अता पता पूछने लग गया |
ये वही ब्रज है,
यहाँ चलते – चलते अचानक कृष्ण सामने आ जाते हैं,
इसीलिए तो लोग ब्रज में आते हैं |
ये वही ब्रज है,
लोग भगवान को ढूँढते हैं और भगवान यहाँ स्वयं ढूंढ रहे हैं और
गोपियों का अता पता पूछ रहे हैं |
ये वही ब्रज है,

गोपी बोल नहीं रही है लज्जा के कारण और
श्याम उसका घूँघट खोल रहे हैं |
गोपी आगे कहती है कि जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है मुझे सारा संसार जहर सा लगता है | कहाँ जाऊं क्या करूं ? बस एक ही बात है दिन रात मेरे सामने आती रहती हैं | सोती हूँ तो, जागती हूँ तो उसकी ही छवि रहती है मेरे सामने | कौन सी बात ? किसकी छवि ?
गोपाल की !
घर में मेरी सास नन्द कहती हैं कि हमारी बहु को क्या हो गया है ?
वैद्य बुलाया गया कि मुझे क्या रोग है ? वैद्य ने नबज देखी और देखकर कहा सब ठीक है | कोई रोग नहीं है | केवल एक ही रोग है – चिंता ! कोई जो मुझे श्याम का रूप दिखा दे तो मैं उसको नील मणि दूंगी | जो मुझे श्याम से मिला दे, मुझे मेरे प्यारे से मिला दे | उसे मैं सब कुछ दे दूंगी |


बरसाना (१५संहिता अध्याय श्री गर्ग)
पृष्ठ ७८-७९


एक साँकरी खोर की बहुत मीठी लीला है |
एक दिन की बात है कि राधा रानी अपने वृषभान भवन में बैठी थीं | श्री ललिता जी व श्री विशाखा जी गईं और बोलीं कि हे लाड़ली तुम जिनका चिन्तन करती हो वो श्री कृष्ण – श्री नंदनंदन नित्य यहाँ वृषभानुपुर में आते हैं | वे बड़े ही सुन्दर हैं !
श्री राधा रानी बोलीं तुम्हें कैसे पता कि मैं किसका चिंतन करती हूँ ? प्रेम तो छिपाया जाता है |
ललिता जी व विशाखा जी बोलीं हमें मालूम है तुम किनका चिन्तन करती हो | श्रीजी बोलीं कि बताओ किसका चिन्तन करती हूँ ?
देखो ! कहकर उन्होंने बड़ा सुंदर चित्र बनाया श्री कृष्ण का | चित्र देखकर श्री लाड़ली जी प्रसन्न हो गयीं और फिर बोलीं कि तुम हमारी सखी हो | हम तुमसे क्या कहें ?


चित्र को लेकर के वो अपने भवन में लेट जाती हैं और उस चित्र को देखते – देखते उनको नींद आ जाती है | स्वप्न में उनको यमुना का सुन्दर किनारा दिखाई पड़ा | वहाँ भांडीरवन के समीप श्री कृष्ण आये और नृत्य करने लग गये | बड़ा सुंदर नृत्य कर रहे थे की अचानक श्री लाड़ली जी की नींद टूट गई और वो व्याकुल हो गयीं | उसी समय श्री ललिता जी आती हैं और कहती हैं कि अपनी खिड़की खोलकर देखो | सांकरी गली में श्री कृष्ण जा रहे हैं | श्री कृष्ण नित्य बरसाने में आते हैं | एक बरसाने वाली कहती है कि ये कौन आता है नील वर्ण का अदभुत युवक नव किशोर अवस्था वाला , वंशी बजाता हुआ निकल जाता है |


आवत प्रात बजावत भैरवी मोर पखा पट पीत संवारो |
मैं सुन आली री छुहरी बरसाने गैलन मांहि निहारो
नाचत गायन तानन में बिकाय गई री सखि जु उधारो
काको है ढोटा कहा घर है और कौन सो नाम है बाँसुरी वालो
श्री कृष्ण आ रहे हैं | कभी-कभी वंशी बजाते-बजाते नाचने लग जाते हैं | इसीलिए उन्हें श्री मद्भागवत में नटवर कहा गया है | नटवर उनको कहते हैं जो सदा नाचता ही रहता है | सखी ये कैसी विवश्ता है कि मैं अधर में खो गई और मिला कुछ नहीं | कौन है ? कहाँ रहता है ? बड़ा प्यारा है ! किसका लड़का है ? इस बांसुरी वाले का कोई नाम है क्या ?
ललिता जी कहती हैं कि देखो तो सही, श्री कृष्ण आ रहे हैं | आप अपनी खिड़की से देखो तो सही | वृषभानु भवन से खिड़की से श्री जी झांकती हैं तो सांकरी गली में श्री कृष्ण अपनी छतरी के नीचे खड़े दिखते हैं | उन्हें देखते ही उनको प्रेम मूर्छा आ जाती है | कुछ देर बाद जब सावधान होती हैं तो ललिता जी से कहती हैं कि तूने क्या दिखाया ? मैं अपने प्राणों को कैसे धारण करू ?
ललिता जी श्री कृष्ण जी के पास जाती हैं और उनसे श्री जी के पास चलने का अनुग्रह करती हैं |


ये राधिकायाँ मयि केशवे मनागभेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौवल्यवत् |
त एव में ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद्धयहैतुकस्फुर्जितभक्ति लक्षणाः ||३२||
वहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि हे ललिते, भांडीरवन में जो श्री जी के प्रति प्रेम पैदा हुआ था वो अद्भुत प्रेम था | मुझमें और श्री जी में कोई भेद नहीं है | दूध और दूध की सफेदी में कोई भेद नहीं होता है | जो दोनों को एक समझते हैं वो ही रसिक हैं | थोड़ी सी भी भिन्नता आने पर वो नारकीय हो जाते हैं |
ये बात शंकर जी ने भी कहा था गोपाल सहस्रनाम में |


गौर तेजो बिना यस्तु श्यामं तेजः समर्चयेत् |
जपेद् व ध्यायते वापि स भवेत् पातकी शिवे ||
हे पार्वती ! बिना राधा रानी के जो श्याम की अर्चना करता है वो तो पातकी है |
श्री कृष्ण बोले कि हम चलेंगे | उनकी बात सुनकर ललिता जी आती हैं और चन्द्रानना सखी से पूछती हैं कि कोई ऐसा उपाए बताओ जिससे श्री कृष्ण शीध्र ही वश में हो जाँय |

“गर्ग संहिता” वृन्दावन खंड अध्याय १६

तुलसी का माहात्म्य, श्री राधा द्वारा तुलसी सेवन – व्रत का अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसी देवी का प्रत्यक्ष प्रकट हो श्री राधा को वरदान
गर्ग संहिता वृंदावन खंड अध्याय १७
चन्द्रानना बोलती हैं कि हमने गर्ग ऋषि से तुलसी पूजा की महिमा सुना था | राधा रानी यहाँ पर तुलसी की आराधना करती हैं और गर्ग जी को बुलाकर आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक व्रत का अनुष्ठान करती हैं |
उसी समय तुलसी जी प्रगट होती हैं और श्री राधा रानी को अपनी भुजाओं में लपेट लेती हैं और कहती हैं कि हे राधे बहुत शीध्र श्री कृष्ण से तुम्हारा मिलन होगा |


उसी समय श्री कृष्ण एक विचित्र गोपी बनकर के आते हैं | अदभुत गोपी ! ऐसी सुन्दरता जिसका वर्णन नहीं हो सकता | गर्ग ऋषि ने उनकी सुन्दरता का वर्णन किया है कि उंगलियों में अंगूठियाँ , कौंधनी, नथ और बड़ी सुंदर बेनी सजाकर बरसाने में आते हैं और वृषभान के भवन में पहुंचते हैं | चार दीवार हैं उस भवन में और वहाँ पर बहुत पहरा है | उन पहरों में नारी रूप में पहुँच जाते हैं |
तो वहाँ क्या देखते हैं कि बड़ा सुंदर भवन है और सखियाँ अद्भुत सुन्दर वीणा मृदंग श्री राधा रानी को सुना रही हैं | उनको रिझा रही हैं | दिव्य पुष्प हैं, लताएं हैं, पक्षी हैं, जो श्री राधा नाम का उच्चारण कर रहे हैं | राधा रानी उस समय टहल रही थीं | श्री राधा रानी ने देखा कि एक बहुत सुंदर गोपी आयी है | उस गोपी को देखकर वे मोहित हो जाती हैं और उनको अपने पास बैठा लेती हैं | राधा रानी गोपी को आलिंगन करती हैं और कहती हैं कि अरे तुम ब्रज में कब आई ? हमने ऐसी सुन्दरी आज तक ब्रज में नहीं देखी है | तू जहाँ रहती है वो गाँव धन्य है | तुम हमारे पास नित्य आया करो | तुम्हारी आकृति तो श्री कृष्ण से मिलती जुलती है |


पर श्री जी पहचान नहीं पायीं | ये विचित्र लीला है | भगवान की लीला शक्ति है | श्री जी बोलीं कि जाने क्यों मेरा मोह तुम में बढ़ रहा है ?
तू मेरे पास बैठ जा | वो जब राधा रानी के पास बैठी तो बोली कि मेरा उत्तर की ओर निवास है (उत्तर में नन्दगाँव है) और हे राधे मेरा नाम है गोप देवी | हे राधे मैंने तेरे रूप की बड़ी प्रशंसा सुनी है कि तुम बड़ी सुंदर हो | इसीलिए मैं तुम्हें देखने आ गयी | तुम्हारा ये वृषभान भवन बड़ा सुंदर है जिससे लवन लताओं की अद्भुत सुगंधी आती है | फिर दोनों वहाँ बैठकर गेंद खेलती हैं |
संध्या होने पर गोप देवी कहती है कि अब मैं जाऊंगी और प्रातः काल आऊंगी | जब जाने का नाम लेती है तो श्री राधा रानी की आँखों में आंसू बहने लगते हैं | बोलती हैं कि सुन्दरी तू क्यों जा रही है ? पर गोप देवी यह कह कर चली जाती है कि कल प्रात: काल आऊंगी | रात भर श्री जी प्रतीक्षा करती रहीं |
उधर नन्द नंदन भी रात भर व्याकुल रहे | प्रातः काल फिर वे गोप देवी का रूप बना कर आते हैं तो श्री राधा रानी बहुत प्रेम से मिलती हैं |
राधा रानी बोलीं कि हे गोप देवी तू आज उदास लग रही है | क्या कष्ट है ? गोप देवी बोली कि हाँ राधे रानी हमें बहुत कष्ट है और उस कष्ट को दूर करने वाला दुनिया में कोई नहीं है | राधा रानी बोलीं कि नहीं गोप देवी तुम बताओ इस ब्रह्माण्ड में भी अगर कोई तुमको कष्ट दे रहा होगा तो मैं अपनी शक्ति से उसको दंड दूंगी |


गोप देवी नें कहा कि राधे तुम मुझे सताने वाले को दंड नहीं दे सकती | बोलीं क्यों ? बोले मुझे मालूम है तुम उसे दंड नहीं दे सकती हो | श्री जी बोलीं बताओ तो सही वो कौन है ? बोले अच्छा तो सुनो |
मैं एक दिन सांकरी गली में आ रही थी | एक नन्द का लड़का है | उसकी पहचान बताती हूँ | उसके हाथ में एक वंशी और एक लकुटी रहती है | उसने मेरी कलाई को पकड़ लिया और मुझसे बोला कि मैं यहाँ का राजा हूँ , कर लेने वाला हूँ | जो भी यहाँ से निकलता है मुझे दान देता है | तुम मुझे दही का दान दे जाओ | मैंने कहा कि लम्पट हट जा मेरे सामने से | मैं दान नहीं देती ऐसा कहने पर उस लम्पट ने मेरी मटकी उतार ली और मेरे देखते – देखते उस मटकी को फोड़ दिया | दही सब पी गया, मेरी चुनरी उतार ली और हँसता – हँसता चला गया |
यहाँ पर गोप देवी ने कृष्ण की बड़ी निंदा की है कि वो जात का ग्वाला है | काला कलूटा है | न रंग है न रूप है | न धनवान है न वीर है | हे राधे तुम मुझसे छुपाती क्यों हो ? तुमने ऐसे पुरुष से प्रेम किया है ! ये ठीक नहीं किया | यदि तुम कल्याण चाहती हो तो उस धूर्त को, उस निर्मोही को अपने मन से निकाल दो |
इतना सुनने के बाद श्री राधा रानी बोलीं अरी गोप देवी तेरा नाम गोप देवी किसने रखा ? तू जानती नहीं ब्रह्मा, शिव जी भी श्री कृष्ण की आराधना करते हैं |


यहाँ पर श्री कृष्ण की भगवत्ता का राधा रानी ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है !
राधा रानी बोलीं कि जितने भी अवतार हैं – दत्तात्रैय जी, शुकदेव जी, कपिल भगवान्, आसुरि और आदि ये सब भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते हैं | और तू उनको काला कलूटा ग्वाला कहती है ! उनके सामान पवित्र कौन हो सकता है | गौ रज की गंगा में जो नित्य नहाते हैं | उनसे पवित्र क्या कोई हो सक ता है ? क्या गौ से अधिक पवित्र करने वाली कोई वस्तु है संसार में |
राधा रानी बहुत बड़ी गौ भक्त थीं | यहाँ तक कि जब श्री कृष्ण ने वृषासुर को मारा था तो राधा रानी और सब गोपियों ने कहा था कि श्री कृष्ण हम तुम्हारा स्पर्श नहीं करेंगी | तुम को गौ हत्या लग गई है | हम तुम्हें छू नहीं सकती | ऐसी गौ भक्त थीं राधा रानी |


आगे राधा रानी कहती हैं कि तू उनकी बुराई कर रही है ? वो नित्य गायों का नाम जपते हैं | दिन रात गायों का दर्शन करते हैं | मेरी समझे में जितनी भी जातियाँ होगीं उनमें से सबसे बड़ी गोप जाति है | क्यों ? क्योंकि ये गाय की सेवा करते हैं | इसलिए गोप वंश से अधिक बड़े कोई देवता भी नहीं हो सकते | गोप देवी तू श्याम को काला कलूटा बताती है ? तो बता उस श्याम से भी कहीं अधिक सुंदर वस्तु है | स्वयं भगवान नीलकंठ शिव भी उनके पीछे दिन रात दौड़ते रहते हैं | राधा रानी बोलीं कि वे जटाजूट धारी, हलाहल विष को भी पीने वाले शक्तिधारी, सर्पों का आभूषण पहनने वाले उस काले कलूटे के लिए ब्रज में दौड़ते रहते हैं | तू उसे काला कलूटा कहती है ? सारा ब्रह्माण्ड जिस लक्ष्मी जी के लिये तरसता है वे लक्ष्मी जी उनके चरणों में जाने के लिये तपस्या करती हैं |


तू उन्हें निर्धन कहती है ? निर्धन ग्वाला कहती है ? जिनके चरणों को लक्ष्मी तरस रही हैं, तू कहती है कि उनमें न बल है और न तेज है | बता वकासुर, कालिया नाग, यमुलार्जुन, पूतना, आदि का वध करने वाला क्या निर्बल है ? कोटि – कोटि ब्रह्माण्ड का एक मात्र सृष्टा और उनको तू बलहीन कहती है ? सब जिनकी आराधना करते हैं तू उन्हें निर्दय कहती है ? वो अपने भक्तों के पीछे – पीछे घूमा करते हैं और कहते हैं कि भक्तों की चरण रज हमको मिल जाये और तू उनको तू निर्दय कहती है ?
जब ऐसी बातें सुनी तो गोप देवी बोली राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और हमारा अनुभव अलग है | ठीक है कालिया नाग को मारा होगा इन्होंने लेकिन ये कौन सी सुशीलता थी कि मैं अकेली जा रही थी और मुझ अकेली की उन्होंने कलाई पकड़ ली | ये भी क्या कोई गुण हो सकता है ?
गोप देवी की बात सुनकर राधा रानी बोलीं कि तू इतनी सुंदर होकर के भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ? बड़ी अभागिन है | तेरा सौभाग्य था पर अभागिन तुमने उसको अनुचित समझ लिया | तुमसे अभागिन संसार में कोई नहीं होगा |


गोप देवी बोली तो मैं क्या करती ? अपना सौभाग्य समझ के क्या अपना शील भंग करवाती ? श्री राधा रानी बोलीं अरी सभी शीलों का सार, सभी धर्मो का सार तो श्री कृष्ण ही हैं | तू उसे शील भंग समझती है?
बात बढ़ गई | तो गोप देवी बोली कि अगर तुम्हारे बुलाने से श्री कृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लुंगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वो निर्दय नहीं है | और यदि नहीं आये तो ? तो राधा रानी बोलीं कि देख मैं बुलाती हूँ और यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन, शरीर तेरा है |
शर्त लग गई प्रेम की | इसके बाद श्री जी बैठ जाती हैं आसन लगाकर और मन में श्री कृष्ण का आह्वान करने लग जाती हैं | बड़े प्रेम से बुलाती हैं | श्री कृष्ण का एक – एक नाम लेकर बुलाती हैं |

श्यामेति सुंदरवरेति मनोहरेति कंदर्पकोटिललितेति सुनागरेति |
सोत्कंठमह्नि गृणती मुहुराकुलाक्षी सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना||
(श्री राधासुधानिधी ३७)


इस श्लोक का मतलब मुझे एक बार पंडित हरिश्चंद्र जी ने समझाया था |
पहले तो राधा रानी ने ‘श्याम’ कहा और उसके बाद तुरंत बोलीं ‘सुंदर’ ताकि कहीं कोई ऐसा नहीं समझ ले कि श्याम तो काला होता है , तो तुरंत उसको सम्भाल लिया | अच्छा फिर सोचा सुंदर भी बहुत से होते हैं लेकिन सौत को सौत की सुन्दरता बुरी लगती है | अगर चित्त नहीं लुटा, अगर मन नहीं लुटा तो सुन्दरता किस काम की तो उन्होंने तुरंत कहा कि मन को हरण कर लेते हैं |
तो बोले कि मन तो गोद का एक बच्चा भी हर लेता है | बोलीं मन हरण करने का ढंग दूसरा है | बड़ा चतुर है | फिर सोचने लगी सुंदर हो पर चतुर नहीं हुआ तो किस काम का ? प्रेम में चतुरता तो चाहिये , नहीं तो भाव ही नहीं समझ पायेंगे | श्री जी बोलीं भाव समझने वाला है !


इस तरह से श्री कृष्ण का आह्वान कर रही थीं | गोप देवी जो बैठी हुई थी उसका शरीर कुछ कांपने लगा | जैसे ही प्रेम का आकर्षण बढ़ा तो श्री कृष्ण समझ गये कि अब ये हमारा रूप छूटने वाला है | प्रेम में अद्भुत शक्ति होती है | श्री कृष्ण के शरीर में रोमांच होने लग गया और बोले कि अब मैं संभाल नहीं सकता अपने आपको |
उन्होंने देखा कि राधा रानी के नेत्रों में आंसू थे और वे मुख से श्री कृष्ण का नाम ले रही थीं |तुरंत श्री कृष्ण अपना रूप बदलकर श्री राधे राधे कहते आये | राधा रानी ने देखा कि श्री कृष्ण खड़े हैं | श्याम सुंदर ने कहा कि हे लाड़ली जी आपने हमें बुलाया इसलिये मैं आ गया | आप आज्ञा दीजिये | श्री जी चारों ओर देखने लगीं |
श्री कृष्ण बोले आप किसको देख रही हैं | मैं तो सामने खड़ा हूँ | बोली मैं तुम्हें नहीं उस गोप देवी को देख रही हूँ | कहाँ गई ? श्री कृष्ण बोले कौन थी ? कोई जा तो रही थी जब मैं आ रहा था | राधा रानी ने सारी बात बताई तो बोले कि आप बहुत भोली हैं | अपने महल में ऐसी नागिनों को मत आने दिया करो |
(ये है सांकरी खोर की लीला)


ब्रज भक्ति विलास के मत में – बरसाने में ब्रह्मा एवं विष्णु दो पर्वत हैं | विष्णु पर्वत विलास गढ़ है शेष ब्रह्मा पर्वत है | दोनों के मध्य सांकरी गली है | जहाँ दधि दान लीला सम्पन्न होती है |
सांकरी – संकीर्ण एवं खोर – गली | सभी आचार्यों ने यहाँ की लीला गाई है |

श्री हित चतुरासी – ४९
ये दोउ खोरि, खिरक, गिरि गहवर
विरहत कुंवर कंठ भुज मेलि |
अष्टछाप में परमानंद जी ने भी सांकरी खोर की लीला गाई है |


परमानन्द सागर २७३
आवत ही माई सांकरी खोरि |


हित चतुरासी – ५१
दान दै री नवल किशोरी |
मांगत लाल लाडिलौ नागर
प्रगत भई दिन- दिन चोरी ||
महावाणी सोहिली से
सोहिली रंग भरी रसीली सुखद सांकरी खोरि ||


केलिमाल – पद संख्या ६२
हमारौ दान मारयौ इनि | रातिन बेचि बेचि जात ||
घेरौ सखा जान ज्यौं न पावैं छियौ जिनि ||
देखौ हरि के ऊज उठाइवे की बात राति बिराति
बहु बेटी काहू की निकसती है पुनि |
श्री हरिदास के स्वामी की प्रकृति न फिरि छिया छाँड़ौ किनि ||


सांकरी खोर में दधि मटकी फूटने का चिन्ह व श्री कृष्ण की हथेली का चिन्ह भी है | विलासगढ़ की ओर का पर्वत कृष्ण पक्ष का होने से कुछ श्याम है, जिस पर ऊपर श्री कृष्ण की छतरी और नीचे मधु मंगल की छतरी है | दधिदान के अतिरिक्त यहाँ चोटी बन्धन लीला भी हुई थी जिसमें सखियों ने नटखट कृष्ण और मधु मंगल आदि की अलग अलग चोटी बाँधी थी | पीछे ‘श्री जी’ ने कृपा वश छुड़ाया | यह लीला इस गली में प्रति वर्ष भाद्र शुकल एकादशी को होती है , तथा दधिदान लीला त्रयोदशी में होती है |