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श्री हित सेवक वाणी : Shree Hit Sevak Vani

।।श्रीहित राधावल्लभो जयति, श्रीहित हरिवंश चन्द्रो जयति।।


श्रीहित जस – विलास
( प्रथम प्रकरण ) पूर्व परिचय –


रसिक आचार्य श्री हित हरिवंश चन्द्र के पश्चात् इस रस का विशद प्रचार किया, श्री दामोदरदास सेवकजी ने। यह सेवकजी कौन थे और उन्होंने कैसे इसका व्यापक प्रचार किया? यह बात पाठकों को सेवकजी के चरित्र में मिलेगी; जो इसी ग्रन्थ में सम्बद्ध है हम यहाँ केवल सेवकजी के ग्रन्थ ‘सेवक वाणी’ की ही चर्चा करेंगे, जिसके आधार पर गोस्वामी हित हरिवंश चन्द्र द्वारा स्थापित-रस मार्ग ‘नित्य-विहार’ की नींव सुदृढ़ हुई और उसका प्रचार भी हुआ। विक्रम संवत १६०९ में दामोदर दास जी गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र के कृपापात्र शिष्य हुए। उन पर वंशी अवतार श्री हित हरिवंश महाप्रभु की कृपा हुई और उन्हें इष्ट-तत्व नित्य विहार रस का साक्षात्कार हुआ। तदुपरान्त उनके निर्मल हृदय में दिव्य वाणी का प्रादुर्भाव हुआ यही दिव्य वाणी ‘सेवक-वाणी’ के नाम से प्रख्यात हुई।

‘श्री सेवक वाणी’ एक दिव्य प्रसाद ग्रन्थ है। इसका प्राकट्य सेवकजी- दामोदरदास जी की महा प्रेमोन्मत्त दशा में हुआ है, अत: इसकी भाषा जटिल, क्लिष्ट, असम्बद्ध जैसी और ग्रामीण भाषा मिश्रित है फिर भी इसमें परम तत्व प्रेम का बड़ा विशद वर्णन है। सेवकजी के मत से गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र साक्षात् प्रेम तत्व के अवतार हैं। वे नित्य विहारी श्री राधावल्लभ लाल की प्रेम नादमयी एवं विश्व विमोहनी वंशी के स्वरूप हैं। जिस प्रकार प्रेम व्यापक और एक देशीय है, उसी प्रकार श्रीहरिवंशचन्द्र भी व्यापक प्रेम होते हुए भी व्यास मिश्र के कुल-दीपक हैं। वे प्रिया प्रियतम सखी एवं श्रीवन हैं। वे रस हैं. रस के आधार हैं और रसमय केलि के सूत्रधार एवं स्वयं रस केलि हैं। इसके सिवाय वे चराचर व्यापी प्रेम हैं, उनके सिवाय और कुछ नहीं हैं।

‘सेवक वाणी’ में कुल सोलह प्रकरण हैं। इन प्रकरणों में क्रमश: श्री हरिवंश का यश-विस्तार (अर्थात् वैभव ऐश्वर्य रूप) श्री हरिवंश का रसमय स्वरूप, उनके नाम का प्रताप, उनकी रसमयी वाणी (वचनावली) का प्रभाव, प्रताप उनके स्वरूप का विचार, उनके द्वारा प्रकाशित नित्य-विहार के उपासकों का धर्म-कर्तव्य, रस-रति, अनन्यता, श्रीहरिवंश की कृपा एवं कृपा हीनता के लक्षण; भक्तों के प्रति भाव; युगल की केलि का स्वरूप श्रीहरिवंश का नाम प्रभाव-धाम-ध्यान; श्रीहरिवंश मंगल गान, कच्चे एवं पक्के हित धर्मियों का स्वरूप; उनका कर्तव्य, अलभ्य वस्तु (नित्य विहार दाता श्रीहरिवंश) का लाभ और युगल किशोर के पारस्परिक मान के स्वरूप का वर्णन है। इसके सिवाय इस ग्रन्थ में अनेकों युक्तियों, तकों एवं प्रमाणों के द्वारा प्रेम-धर्म (हित-रीति) को ही सर्वोपरि बताया गया है। सेवकजी ने प्रेम जैसे अनिर्वचनीय विषय का बड़ी कुशलता के साथ केवल सोलह प्रकरणों में विस्तीर्ण एवं समुज्ज्वल वर्णन किया है। प्रेम तत्व की प्राप्ति के विविध साधनों (उपायों) का सप्रभाव वर्णन किया है उन्होंने इसमें। इस विचार से यदि इस ग्रन्थ को थोड़े शब्दों में श्रीराधावल्लभीय सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ कह दें तो कोई अत्युक्ति न होगी। जो लोग सेवक वाणी के तत्व एवं सिद्धान्तों से दूर हैं, अनभिज्ञ हैं, श्रीराधावल्लभीय नित्य-विहार रसोपासना मार्ग में ठीक-ठीक रीति से चलने में असमर्थ होंगे, ऐसा विज्ञ रसिक महानुभावों का मत ही नहीं वरं आग्रह है। जो सेवक बानी नहिं जानें। ताकी बात न रसिक प्रमानें ॥ अतएव प्रत्येक रसोपासक के लिये विशेषतया श्रीहित राधावल्लभीय साधक के लिये इस ग्रन्थ का प्रणयन-अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। इसके स्वाध्याय से प्रेम-जिज्ञासु का पथ प्रशस्त होगा।


पद – 1

श्रीहरिवंश – चंद्र सुभ सुभ नाम , सब सुख – सिंधु प्रेम रस धाम ।

जाम घटी बिसरै नहीं ॥

यह जु पस्यौ मोहि सहज सुभाव , श्रीहरिवंश नाम रस चाव ।

नाव सुदृढ़ भव तरन कौं ।

नाम रटत आईं सब सोहि , देहु सुबुद्धि कृपा करि मोहि ।

पोइ सुगुन माला रचौं ।

नित्य सुकंठ जु पहिरौं तासु , जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – ( श्रीहित दामोदर ‘ सेवक जी ‘ कहते हैं ) – अहो ‘ श्रीहरिवंश चन्द्र ‘ यह ऐसा पवित्र नाम है , जो सब सुखों का समुद्र और प्रेम रस का ( एक मात्र ) धाम है , ( इसीलिये मुझे ) यह घड़ी पहर के लिये भी नहीं भूलता । इसका सतत् स्मरण मानों मेरा सहज स्वभाव बन गया है । श्री हरिवंश नाम और श्रीहरिवंश रस के प्रति चाह – चौंप ही सुदृढ़ संसार ( आवागमन ) से पार होने के लिये नौका ( नाव ) है । इस नाम के रटते रहने से वह सब ( नित्य विहार – रस ) हृदय में आ गया किंतु हे श्रीहरिवंश चन्द्र ! अब आप कृपा करके मुझे सुबुद्धि दीजिये , जिससे मैं आपके सद्गुणों की सुन्दर माला पिरोऊँ और उसे सदा अपने कण्ठ में पहिनुँ । हे प्रेमियों ! मैं ( इस प्रकरण में ) श्रीहरिवंश यश का विलास वर्णन करता हूँ और श्रीहरिवंश का ही अंत तक गान करुंगा ।


पद – 2

श्रीवृंदावन वैभव जिती , बरनत बुद्धि प्रमानौं किती ।

तिती सबै हरिवंश की ।

सखी सखा क्यौं कहौं निबेर , तौ मेरे मन की अवसे ।

टेर सकल प्रभुता कहौं ।

हरि हरिवंश भेद नहिं होइ , प्रभु , ईश्वर जानैं सब कोइ ।

दोइ कहैं न अनन्यता ।

विस्वम्भर सब जग आभास , जस बरनौं हरविंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीवृन्दावन का जितना कुछ वैभव ( विस्तार ) है , वह सब श्रीहरिवंश का ही वैभव – विस्तार है जिसका मैं ( इस ग्रन्थ में ) वर्णन कर रहा हूँ । उसके ( समर्थन में ) कितने क्या प्रमाण दूँ ? नहीं दे सकता । ( वृन्दावन विलास में ) सखी और सखा ऐसे ( भेद पूर्वक ) अलग – अलग करके कैसे कहूँ ? यदि कहूँ तो यह मेरे मन की अज्ञता ही होगी । अत : स्पष्टतया पुकार – पुकार कर कह रहा हूँ कि यह सब प्रभुता ( वृन्दावन – लीला ) उन्हीं की है – उन्हीं का रूप है । हरि और हरिवंश में कोई भेद ही नहीं है । जैसे जो प्रभु ( नाम से ) है , वही ईश्वर है यह सभी जानते हैं । यदि [ इन दो नामों वाली एक वस्तु को अलग – अलग करके द्वैत – बुद्धि से ] दो कह दिया जाय तो अनन्यता ( सर्वत्र एक तत्व का दर्शन ) नहीं है । और भी जैसे जो विश्वम्भर ( अर्थात् सम्पूर्ण विश्व का भरण – पोषण करने वाला विष्णु भगवान् सगुण ब्रह्म ) है , वही सारे संसार में आभासित भी है ( अर्थात् निर्गुण निराकार रूप से व्यापक ब्रह्म भी है । इसी प्रकार श्रीहरिवंश ही सगुण निर्गुण सब रूपों में प्रकाशित हैं । ) अतः मैं उन्हीं सर्व रूप श्रीहरिवंश के यश – विस्तार का एवं उनका वर्णन करूँगा – गान करूँगा ।


पद – 3

जन्म कर्म गुन रूप अपार ,

बाढे कथा कहत विस्तार

बार – बार सुमिरन करौं ।

हौं लघुमति जु अंत नहिं लहौं ,

बुद्धि प्रमान कछू कथि कहौं ।

रहौं सरन हरिवंश की ।

सो धौं कहि मोहि केतिक मती ,

जस बरनत हारै सरसुती ।

तिती सबै हरिवंश की ।

देहु कृपा करि बुद्धि प्रकास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ

भावार्थ – ( श्रीहरिवंश के ) जन्म , कर्म , गुण एवं रूप अनन्त हैं – अपार हैं , सबका विस्तार कहते कथा बढ़ जायगी अतः ( मन – मन केवल ) उनका बारम्बार स्मरण ही कर लेता हूँ , क्योंकि मैं मन्द – बुद्धि हूँ । चूँकि उन सबका छोर – पता नहीं पा सकता फिर भी मैं अपनी ( यथा तथा ) बुद्धि के अनुसार कुछ कहूँगा । और उन्हीं श्रीहरिवंश की शरण में हूँ । भला , कहो तो मेरी ऐसी कितनी बुद्धि जो उनके सम्पूर्ण जन्म , कर्म , गुण , और रूपों का वर्णन कर सके ? जिन का यश वर्णन करते स्वयँ सरस्वती ( वाणी ) भी हारं जाती है । अतएव हे श्री हरिवंश ! कृपा करके आप मेरी बुद्धि में ( अपना स्वरूप ) प्रकाश कीजिये जिससे मैं आपके यश – वैभव का विलास वर्णन कर सकूँ । रसिक जनो ! मैं आद्यन्त श्री हरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 4

कलिजुग कठिन वेद विधि रही ,

धर्म कहूँ नहिं दीसत सही ।

कही भली कोउ ना करै ।।

उदबस विश्व भयौ सब देस ,

धर्म रहित मेदिनी नरेस ।

म्लेच्छ सकल पुहुमी बढ़े ।

सब जन करहिं आधुनिक धर्म ,

वेद विहित जानैं नहिं कर्म ।

मर्म भक्ति कौ क्यों लहैं ।

बूड़त भव आवै न उसास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।।

भावार्थ – उस समय ( जब श्रीहिताचार्य का प्राकट्य हुआ ) कलियुग में वेदों की रीति – पद्धतियों का पालन कठिन हो गया था । यथोचित – ठीक – ठीक धर्म ( और उसका आचरण ) तो कहीं देखने में भी नहीं आता था । कहीं कोई कही – समझायी भली बातों को करता – मानता ही नहीं था । संसार के सब देश उत्पथ गामी ( कुमार्ग में चलने वाले ) हो गये थे , सम्पूर्ण पृथ्वी और उस पर के नृपति गण भी धर्म से रहित हो गये थे । समस्त पृथ्वी पर म्लेच्छ ही म्लेच्छ बढ़ गये थे । ( उनके संग एवं प्रभाव से ) प्रायः सभी लोग ( वेद – शास्त्रोक्त धर्म को छोड़कर ) तात्कालिक ( लौकिक , भोग – परक , स्वेच्छाचार पूर्ण ) धर्म का आचरण करने लगे थे । जब कोई वेदोक्त कर्म मार्ग को ही नहीं जानते थे , तब फिर वे अज्ञ लोग भक्ति – मार्ग का ही मर्म कैसे पा लेते ? अतएव उस मर्म को न पा सकने के कारण कर्म , ज्ञान एवं भक्ति से हीन रहकर संसार रूप आवागमन समुद्र में डूब उतरा रहे थे , उनसे साँस भी लेते नहीं बनती थी अर्थात् वे संसार – सागर में पड़े हुए थे और अत्यन्त दुखी थे । अस्तु , मैं श्रीहरिवंश – यश का विलास वर्णन करता हूँ और श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा , ( जिन्होंने प्रकट होकर अपने प्रेम – ध र्म से समस्त अधर्मों का नाश कर दिया । )

पद – 5

धर्म – रहित जानी सब बदइ दुनी ,

म्लेच्छनि भार दुखित मेदिनी ।

धनी और दूजौ नहीं ।

करी कृपा मन कियौ विचार ,

श्रुतिपथ विमुख दुखित संसार ।

सार वेद – विधि उद्धरी ॥

सब अवतार भक्ति विस्तरी ,

पुनि रस – रीति जगत उद्धरी ।

करयौ धर्म अपनौ प्रगट ।

प्रगटे जानि धर्म को नास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जब आप ( श्रीहरिवंशचन्द्र ) ने समस्त संसार को धर्म से हीन जाना और उस पृथ्वी को म्लेच्छों के भार से दुखित देखा , जिसके एक मात्र स्वामी आप ही हैं अन्य नहीं । इसी प्रकार सारे विश्व को वेद – पथ से विमुख होकर दुखी होते देखकर आपने अनुग्रह पूर्वक प्रथम तो ( अनेकानेक वेदाचार्यों के रूप में प्रकट होकर ) वेदों की सार रूप पद्धति का प्रकाश किया ; पश्चात् ( भक्तिमार्ग के अनेक आचार्यों के रूप में अवतरित होकर ) प्राय : सभी भगवदावतारों की नवधा – भक्ति का विस्तार – प्रचार किया और ( सबके अन्त में स्वयं प्रकट होकर ) अपने निज धर्म रस – रीति ( महामधुर प्रेमलक्षणा पूर्ण निकुञ्ज – केलि ) का प्रकाश किया । इस तरह जो धर्म का नाश देखकर अपनी कृपा से परवश होकर इस भूतल पर श्रीहरिवंश चन्द्र नाम से प्रकट हुए हैं मैं उन्हीं के प्रेम – विलास का यशोगान करूँगा – केवल उन्हीं का गान करूँगा ।

पद – 6

मथुरा मंडल भूमि आपनी ,

जहाँ बाद प्रगटे जग धनी ।

भनी अवनि वर आप मुख ।

सुभ बासर सुभ रिक्ष विचार ,

माधव मास ग्यास उजियार ।

नारिनु मंगल गाइयो ।

तच्छिन देव दुंदुभी बाजिये ,

जै – जै शब्द सुरनि मिलि किये ।

हिये सिराने सबनि के ।

तारा जननि जनक रिषि व्यास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – मथुरा मण्डल ( या ब्रज मण्डल की ) भूमि जो आपकी अपनी ( नित्य ) भूमि है उसके अन्तर्गत ‘ बाद ‘ नामक ग्राम में सम्पूर्ण विश्व के स्वामी ये श्री हरिवशं चन्द्र प्रकट हुए । इस ब्रज – मण्डल की श्रेष्ठता का गान आपने स्वयं श्री मुख से अन्यत्र किया है । आपका प्राकट्य शुभ दिन , शुभ नक्षत्र , एवं शुभ लग्न – विचार में वैशाख मास की शुक्ल पक्षीय एकादशी को हुआ । तब जन्म के समय नारियों ने मर्गल गान किया और देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजायीं और जय – जय – जय के शुभ शब्द उच्चारण किये । आपके जन्म से सबके हृदय को शीतलता – शान्ति मिली । जिनकी माता श्री तारा रानी और पिता ऋषि श्रीव्यास मिश्र हैं , मैं उन श्रीहरिवंश के विलास का यशोगान करता हूँ और अन्त तक उन्हीं का गान करूँगा ।

पद – 7

श्रीभागवत जु शुक उच्चरी ,

तैसी विधि जु व्यास * विस्तरी ।

करी नंद जैसी हुती ॥

घर – घर तोरन बंदनवार ,

घर – घर प्रति चित्रहिं दरबार ।

घर – घर पंच शब्द बाजिये ।

घर – घर दान प्रतिग्रह होइ ,

घर – घर प्रति निर्तत सब कोइ ।

घर – घर मंगल गावहीं ॥

घर – घर प्रति अति होत हुलास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीशुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत महापुराण में जैसा कुछ श्रीकृष्ण जन्मोत्सव का वर्णन किया है और भगवान् वेद – व्यास ने उसे ग्रन्थ रूप में विस्तृत किया लिखा है एवं श्री नन्द राय जी ने जिस तरह वर्णित विषय को प्रत्यक्ष करके दिखाया अर्थात् बड़े उत्साह से श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया । तदवत् ‘ बाद ‘ ग्राम में भी घर – घर मंगल स्तम्भ और बन्दनवार – तोरणे सजायी गयीं । घर – घर में प्रत्येक ने अपने द्वार , दीवारों पर चित्र विचित्र रचना कर हृदय का उल्लास प्रकट किया । वहाँ घर – घर में मंगल – सूचक पञ्च शब्द ( दुन्दुभि आदि ) बजने लगे , प्रत्येक घर में दान दिये जाने लगे और घर – घर प्रति नृत्य गान राग रंग का समारोह प्रगट होने लगा । सब लोग व्यास – सुवन के जन्म के आनन्द में भरकर नाचने लगे । इस प्रकार घर – घर में सब लोग मंगल गाने लगे और बाद ग्राम के घर – घर में आनन्द का उल्लास होने लगा । मैं ऐसे मंगलमय श्रीहरिवंश के विलास का यश – गायन करता हूँ और उन्हीं को गाऊँगा भी ।

पद – 8

निर्जल सजल सरोवर भये ,

उखटे वृक्षनि पल्लव नये ।

दये सकल सुख सबनि कौँ ।

असन सैन सुख नित – नित नये ,

अन्न सुकाल चहूँ दिसि भये ।

गये अशुभ सब विश्व के ।

म्लेच्छ सकल हरि जस विस्तरहिं ,

परम ललित बानी उच्चरहिं ।

करहिं प्रजा पालन सबै ॥

अपनी – अपनी रुचि बस वास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ ( आपके प्रकट होते ही ) बहुत काल के सूखे हुए सरोवर भी जल पूर्ण हो गये , उकठे हुए शुष्क वृक्षों में भी नये – नये पल्लव ( पत्ते ) आ गये । इस तरह मानों सम्पूर्ण विश्व में आनन्द छा गया । सबको अब भोजन , शयन आदि के नित्य – नित्य नये – नये सुख मिलने लगे । सब के लिये सर्वत्र सर्वकाल अन्न सुलभ हो गया- कमी न रही । अधिक क्या , सारे विश्व के मानो अमंगल ही नष्ट हो गये । सभी म्लेच्छ लोग ( अपने अधार्मिक आचरणों को छोड़ कर ) श्रीहरि के यश का विस्तार करने लगे और उनका व्यवहार सरस एवं प्रेममय हो गया , ( मानो उन्होंने भी अपनी स्वाभाव जन्य कठोरता त्याग दी ) और ( दया एवं स्नेह पूर्वक पुत्रवत् अपनी ) प्रजा का पालन करने लगे । प्रजा अपनी अपनी रुचि के आवास स्थानों में ( अब निर्भय रूप से ) रहने लगी । ( जिनके जन्म होते ही यह सब आनन्द मंगल हो गया ) मैं ( उन परम प्रभावशाली ) श्रीहरिवंश का यशोगान करता हूँ और श्री हरिवंश का ही सर्वत्र गान करूँगा ।

पद – 9

चलहिं सकल जन अपने धर्म ,

ब्राह्मन सकल करहिं षट् कर्म ।

भर्म सबनि कौ भाजियौ ।

छूटि गई कलिजुग की रीति ,

नित – नित नव – नव होत समीति ।

प्रीति परस्पर अति बढ़ी ॥

प्रगट होत ऐसी विधि भई ,

सब भव जनित आपदा गई ।

नई – नई रुचि अति बढ़ी ।

सब जन करहिं धर्म अभ्यास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – अब सब लोग अपने अपने धर्म के अनुसार चलने लगे । समस्त ब्राह्मण गण अपने षट् कर्मों को यथावत् करने लगे , लोगों के भ्रम – संशय का निवारण हो गया और कलियुग की रीति ( कलह पाखण्ड आदि ) तिरोहित हो गयीं । सब लोगों में पारस्परिक प्रीति में अभिवृद्धि हुई और नित्य नव – नव प्रेम मैत्री के भाव जागृत हो उठे । आपके प्रकट होते ही कुछ ऐसा हुआ कि जन्म – मरण जन्य आपत्तियाँ संसार से नष्ट हो गयीं और लोगों की धर्म के प्रति अधिकाधिक रुचि होने लगी । सब लोग धर्म का पालन करने लगे । अस्तु , जिनके प्राकट्य मात्र से यह सब होने लगा मैं उन परम कृपामय श्रीहरिवंश के यश – विलास का वर्णन करता हूँ और उनके ही नाम , रूप , गुण , लीला , प्रभाव आदि का वर्णन – गान करूँगा ।

पद – 10

बाल विनोद न बरनत बनहि ,

अपनौ सो उपदेसत मनहि ।

गनहि कवन लीला जिती ।

सब हरि सम गुन , रूप अपार ,

महा पुरुष प्रगटे संसार ।

मार विमोहन तन धरयौ ।

छिन न तृपित सुभ दरसन आस ,

दुलरावत बोलत मृदु हास ।

व्यास मिश्र को लाड़िलौ ॥

मुदित सकल नहिं छाँड़त पास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – आपका बाल विनोद वर्णन करते नहीं बनता मैं ( तो केवल अपने ) मन को समझा रहा हूँ । भला उनकी जितनी लीलाएँ हैं उन्हें कौन गिन सकता है ? आपका रूप और सभी गुण श्रीहरि के गुणों के समान अपार हैं , क्योंकि ( स्वयं भगवान् ही ) महापुरुष ( रूप में ) संसार में प्रकट हुए हैं न ! तभी तो आपने कामदेव को भी मोहित कर देने वाला – मदन मोहन रूप धारण किया है । जिसे देखकर क्षण मात्र के लिये भी तृप्ति नहीं होती । उस पवित्र एवं मंगलमय दर्शन की आशा लालसा लगी ही रहती है । कितना सुन्दर है यह व्यास मिश्र का लाडला जो दुलराते , बोलते – बुलाते एक मीठी हँसी का अमृत सा बरसाता रहता है जिससे सब प्रसन्नता से उसे घेरे ही रहते हैं । उसकी समीपता को छोड़ना ही नहीं चाहते । श्री सेवक जी कहते हैं – रसिको ! मैं ऐसे प्रेमानन्दमय श्रीहरिवंश के यश का विलास वर्णन करता हूँ और उन्हीं सर्वोपरि श्रीहरिवंश का गान करता रहूँगा ।

पद – 11

अब उपदेश भक्ति को कह्यौ ,

जैसी विधि जाके चित रह्यो ।

लह्यौ सु मनवांछित सुफल ।।

सब हरि भक्ति कही समुझाइ ,

जैसी – जैसी जाहि सुहाइ ।

आइ चकल चरननि भजे ।

साधन सकल कहे अविरुद्ध ,

वेद – पुरान सु आगम सुद्धा

बुध – विवेकि जे जानहीं ॥

समुझ्यौ सबनि सु भक्ति उजास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ जिस साधक के चित्त में जिस प्रकार की इष्ट भावना थी आपने उसीके अनुरूप भक्ति का उपदेश दिया जिससे उसने अपने मनचाहा सुन्दर फल ( इष्ट सिद्धि ) प्राप्त कर लिया । इसके पश्चात् जिस – जिसको जैसी – जैसी रीति – पद्धति से प्रीति एवं रुचि थी आपने उसी – उसी प्रकार से उन्हें सम्पूर्णतया भगवद्भक्ति के मार्गों एवं लक्षणों का भेद प्रभेद समझा , इस प्रकार प्रायः सभी ( भक्तों ) ने आ- आकर आपके श्रीचरणों का सेवन किया । आपने वेद – पुराण शास्त्रों से प्रतिपादित शुद्ध ( केवल अनन्य भक्ति के ) साधनों का उपदेश भी किया ; जिन्हें ज्ञानी एवं विवेकी – जन ही जान – समझ सकते हैं । इस तरह जिनकी कृपा से समस्त जगत ने भक्ति के उज्ज्वल प्रकाश ( महत्व , प्रभाव आदि ) को समझा मैं उन्हीं श्रीहरिवंश चन्द्र का यश विलास वर्णन करता हूँ और उन्हीं का गान करता रहूँगा ।

पद – 12

अब अवतार भेद तिन कहे ,

सकल उपासक तिन मन रहे ।

कहे भक्ति साधन सबै ॥

मथुरा नित्य कृष्ण को वास ,

निस दिन स्याम न छाँड़त पास ।

तासु सकल लीला कही ।

कही सबनि की एक रीति ,

श्रवन – कथन सुमिरन परतीति ।

बीति काल सब जाइयौ ॥

उपज्यौ सबनि सुदृढ़ विस्वास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशह गाइ हौं ।

भावार्थ – ( पहले सामान्य भगवद्भक्ति का उपदेश करके ) अब ( विशेष रूप से ) भगवदावतारों का भेद उन ( अवतार उपासकों ) के प्रति कहा ( जो जिन अवतारों के प्रति प्रीति एवं निष्ठावान् थे । ) उस उपदेश को सुनकर उन उपासकों ने अपनी – अपनी इष्ट – निष्ठा दृढ़ की । इन्हें भी भक्ति के ( वे ही ) साधन बताये , ( जो नवधा – भक्ति के क्रम में हैं । ) ( समस्त अवतारों के बीज श्रीकृष्ण – अवतार का निरूपण करते हुए आपने बताया कि ) श्रीकृष्ण नित्य – निरन्तर मथुरा में निवास करते हैं । ये मथुरा – वासी श्यामसुन्दर मथुरा का सामीप्य ( निवास ) कभी छोड़ते ही नहीं । इनकी समस्त लीलाओं का भी वर्णन आपने किया । ( उपासना – साधना क्रम में भगवदावतार , भगवत्तत्व , एवं मथुरा वासी श्रीकृष्ण ) सभी भक्तों के लिये विश्वास पूर्वक गुण – लीला श्रवण , कथन , स्मरण आदि यही साधन एक ही रीति से आपने बताया । ( और यह भी कहा कि ) इस प्रकार नवधा भक्ति करते – करते ही ( जीवन का ) सारा समय व्यतीत होना चाहिये । श्रीसेवक जी कहते हैं कि आपकी इन बातों पर सबका सुदृढ़ विश्वास उत्पन्न हो गया , मैं ऐसे हरिवंश चन्द्र का यश विलास वर्णन और गुण – गान करता हूँ और करूँगा ।

पद – 13

अब जु कही सब ब्रज की रीति ,

जैसी सबनि नंद – सुत प्रीति ।

कीर्ति सकल जग विस्तरी ॥

बाल – चरित्र प्रेम की नींव ,

कहत सुनत सब सुख की सींव ।

जीवन ब्रज – वासिनु सफल ॥

ब्रज की रीति सु अगम अपार ,

विस्तरि कही सकल संसार ।

कारज सबहिनु के भये ॥

ब्रज की प्रीति रीति अनियास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जैसी सब ब्रज – वासियों की नन्द – नन्दन श्रीकृष्ण पर प्रीति थी और जैसी जो कुछ ब्रज की प्रीति – रीति है , जिसका सुयश सारे विश्व में अभी भी व्याप्त है , वह आपने कही । श्रीकृष्ण के बाल – चरित्र क्या हैं ? प्रेम की नींव ( मूल , बुनियाद ) जो वर्णन – गान कहते सुनते समस्त सुखों की सीमा रूप हैं । वे ( नन्द – किशोर ) श्रीकृष्ण सब ब्रज – वासियों के जीवन के संचित परम फल हैं । ब्रज की प्रीति जो अगम और अपार है , आपने उसका भी विस्तार पूर्वक वर्णन किया , जिससे सब के मनोरथ पूर्ण हो गये । ( आपने बताया कि यह ब्रज की प्रीति – रीति सहज – स्वाभाविक है साधन सिद्धा किंवा सहैतुकी नहीं । मैं ऐसे सर्वज्ञ , भक्ति विधायक श्रीहरिवंश चन्द्र का यशोगान करता हूँ और उन्हीं का वर्णन – गान करूँगा ।

पद – 14

जेहि विधि सकल भक्ति अनुसार ,

तैसी विधि सब कियौ विचार ।

सारासार विवेक कैं ।

अब निजु धर्म आपुनौं कहत ,

तहाँ नित्य वृंदावन रहत ।

बहत प्रेम – सागर जहाँ ।

साधन सकल भक्ति जात नौं ,

निजु निज वैभव प्रगटत आपुनौं ।

भनौं एक रसना कहा ।

श्रीराधा जुग चरन निवास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अभी तक सार एवं असार के विवेक निर्णय के साथ उसी विधि – विधान साधन का विचार किया या उपदेश दिया जिस प्रकार से लोग भक्ति का आचरण कर सकें किन्तु अब इसके आगे अपना निज धर्म ( सहज धर्म ) कहते हैं- ( वह क्या है ? ) जहाँ नित्य वृन्दावन है और जिसमें नित्य प्रेम का समुद्र निरन्तर प्रवाहित रहता – उमड़ता रहता है । जिस तक पहुँचने का प्राथमिक एवं पूर्णतया साधन है भक्ति जन्य नवधा भेद भक्ति । जिससे आप अपने उसी निज – वैभव ( नित्य – विहार रस ) का प्रकाश करते हैं । मैं उस अवर्णनीय रस का अपनी एक जड़ जिह्वा से कैसे वर्णन कर सकता हूँ ? जिस नित्य विहार वैभव की अन्तिम गति परम आह्लादिनि रस रूपा श्रीराधा के युगल चरणों का निवास है । मैं उन्हीं नित्य – विहार तत्व प्रकाशक श्रीहरिवंश चन्द्र के यश विलास का वर्णन करता हूँ और उन्हीं श्रीहरिवंश चन्द्र के नाम , गुण , लीला , माहात्म्य एवं स्वरूप आदि का गान करता रहूँगा ।


श्रीहित रस – विलास
( द्वितीय प्रकरण )
पूर्व परिचय –

यश विलास नामक प्रथम प्रकरण में श्रीहरिवंश चन्द्र के व्यापक स्वरूप ( हित – तत्व ) का वर्णन किया गया और साथ ही उनके जन्म कर्म गुण एवं रूप की अनिर्वचनीयता कही गयी किन्तु फिर भी शाखा – चन्द्र न्याय से उक्त बातों की ओर संकेत भी किया गया । अन्तिम छन्द के पूर्व तक श्री कृष्ण भक्ति , ब्रज रस एवं उसके साधनों का विचार किया गया और अन्तिम छन्द में ” अब निजु धर्म आपुनो कहत ” कह कर नित्य विहार रस के वर्णन – कथन की प्रतिज्ञा की गयी । वही ‘ निजु धर्म ‘ नित्य विहार यहाँ ‘ रस विलास ‘ के नाम से वर्णन किया जायगा । ‘ यश – विलास ‘ नाम से प्रथम प्रकरण का अर्थ पाठकों ने समझ लिया होगा कि वह श्रीहरिवंश के यश वैभव विस्तार का वाचक है , इसी तरह यह दूसरा प्रकरण ‘ रस – विलास ‘ भी अपने नाम की सार्थकता रखता है । इसमें युगल किशोर के नित्य – विहार रस किंवा वृन्दावन रस – विलास के सूत्रों का संकेत है , इसलिये इसे रस विलास कहा गया है । किन्हीं किन्हीं के मत से इसे ‘ हरिवंश विलास ‘ भी कहा जाता है । ठीक भी है क्योंकि श्रीहरिवंश ही तो रस हैं । इस प्रकरण में क्रमश : केलि – विलास का स्वरूप , रस का स्वरूप , रसिकों का स्वरूप , रस – साधना का स्वरूप , रसोपासना का फल , रस की सर्वश्रेष्ठता , रसिकता एवं रस के समक्ष अन्य साधन एवं फलों की हेयता , रसिक चित्त की दृढ़ता और रसिक उपासक की सर्व निरपेक्ष बुद्धि की प्रशंसा आदि विषयों का वर्णन है ।

पद – 1

श्रीहरिवंश नित्य वर केलि ,

बाढ़त सरस प्रेम रस बेलि ।

मेलि कंठ भुज खेलहीं ।

बनितन गन मन अधिक सिरात ,

निरखि – निरखि लोचन न अघात ।

गात गौर – साँवल बनैं ।।

जूथ जूथ जुवतिनु के घनैं ,

मध्य किशोर – किशोरी बनें ।

गनैं कवन रति अति बढ़ी ।

नित – नित लीला नित – नित रास ,

सुनहु रसिक हरिवंश बिलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।।

भावार्थ – श्रीहरिवंश की यह श्रेष्ठ एवं नित्य रस – केलि ( नित्य विहार क्रीड़ा ) प्रतिक्षण सरस है एवं इसमें प्रेम रस रूपी लता नित्य वर्धमान रहती है । ( इस विहार में दोनों प्रिया – प्रियतम ) गल बहियाँ दिये सदा क्रीड़ा – परायण रहते हैं , जिनका दर्शन कर सहचरि – गणों का मन अधिकाधिक शीतल होता रहता है । वे देखती ही रहती हैं , इस विहार को , किन्तु देखते हुए भी उनके नेत्र अतृप्त बने रहते हैं ।

( नृत्य क्रीड़ा के समय की छटा भी बड़ी अपूर्व है । ) गौर – श्याम – तनु युगल किशोर भली प्रकार सुशोभित हैं और सब सहचरियों के मध्य में शोभा पा रहे हैं । युवती – गणों के अनेकानेक यूथ हैं । उस रास में अत्यधिक बढ़ी प्रीति का वर्णन कौन कर सकता है ? हौं ।

श्री सेवक जी कहते हैं- हे रसिकों ! सुनो , मैं श्रीहरिवंश विलास का जो वर्णन करूँगा , उसमें सदा – सदा ऐसा ही रास और सदा – सदा ऐसी ही लीलाएँ हैं अत : मैं ऐसे ही रसमय श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 2

लता भवन सुख शीतल छहाँ ,

श्रीहरिवंश रहत नित जहाँ ।

तहाँ न वैभव आन की ।

जब – जब होत धर्म की हानि ,

तब – तब तनु धरि प्रगटत आनि ।

जानि और दूजौ नहीं ।

जो रस रीति सबनि तें दूरि ,

सो सब विश्व रही भरपूरि ।

मूरि सजीवनि कहि दई ॥

सब जन मुदित करत मन हास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन के लता – भवन में जहाँ सुखमयी शीतल छाया है वहीं श्री हरिवंश चन्द्र नित्य – निरन्तर निवास करते हैं , वहाँ किसी दूसरे का कोई भी अधिकार या महत्त्व नहीं है , केवल श्री हरिवंश का ही एकमात्र स्वत्व है वहाँ । जब जब इस विश्व में ( रस – रीति रूप आपके निज ) धर्म की हानि – ग्लानि होती है तब – तब यह समझ कर कि ( मेरे सिवाय ) इसका कोई दूसरा रक्षक नहीं है आप मानव शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं ।

( इस सिद्धान्त से इस समय आपने प्रकट होकर ) वह रस रीति जो सारे विश्व में परिपूर्ण व्याप्त रहकर भी सबसे दूर – अलक्षित थी सबकी सञ्जीवनी उस जड़ी को वर्णन द्वारा ( ग्रन्थों में ) प्रकट कर दिया । जिसे पाकर सब रसिक जन मुदित हो गये सबके मन प्रसन्नता से खिल उठे ऐसा है रसिको ! श्रीहरिवंश का विलास , उसे आप सुनिये मैं उसका गान करूँगा ।

पद – 3

ललितादिक स्यामा अरु स्याम ,

श्रीहरिवंश प्रेम रस धामा ।

नाम प्रगट जग जानिये ॥

श्रीहरिवंश – जनित जहाँ प्रेम ,

तहाँ कहाँ व्रत – संयम – नेम ।

छम सकल सुख संपदा ॥

तहाँ जाति कुल नहीं विचार ,

कौन सु उत्तम कौन गँवार ।

सार भजन हरिवंश कौ ॥

या रस मगन मिटै भव – त्रास ,

सुनहु रसिक हरिवंश – विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ॥

भावार्थ – ललिता , विशाखा आदि सखियाँ , श्यामा – श्रीराधा , श्याम – श्रीकृष्ण और श्रीहरिवंश ये सब प्रेम रस के धाम हैं ( अथवा श्रीहरिवंश प्रेम रस धाम के ललिता विशाखादि , श्यामा और श्याम ये अनेक रूप हैं । ) विश्व में इनके नाम प्रगट हैं । जहाँ श्रीहरिवंश जनित ( अर्थात् श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकाशित ) प्रेम प्रकट हो रहा है वहाँ बेचारे व्रत , संयम और नियम कहाँ रह सकते हैं ? अपने आप भाग जाते हैं । वहाँ पूर्ण सुरक्षा ( क्षेम ) है , सम्पूर्ण सुख हैं और सब सम्पत्ति है । वहाँ न जाति विचार है और न कुल का ही । इसी तरह उत्तम कौन है और कौन गँवार है ? यह भी विचार – भेद नहीं ( वरं उस प्रेम राज्य में सब एक ही दृष्टि से केवल प्रेम – दृष्टि से देखे जाते हैं ) क्योंकि यह श्रीहरिवंश के द्वारा प्रकटित भजन सार रूप है ; ( द्वैत बुद्धि से उठा हुआ अद्वैतमय है । ) जो इस रस में मग्न हो जाता है , उसका सांसारिक क्लेश तत्काल मिट जाता है । ( अर्थात् प्रेमी के सामने जन्म – मरण को स्मृति ही कहाँ रह पाती है वह तो प्रेम – प्रवाह में बह जाती है । ) हे रसिक जनो ! आप श्रीहरिवंश – विलास का स्वरूप सुनिये , मैं ऐसे ( रसमय , भव – भीति विस्मारक ) श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुजस गाईयो ,

सो रस सब रसिकनि पाईयौ ।

कियौ सुकृत सबको फल्यौ ।

या रस में विधि नहीं निषेध ,

तहाँ न लगन ग्रहन के बेध ।

तहाँ कुदिन दिन कछु नहीं ।

नहिं सुभ – असुभ मान – अपमान ,

नहीं अनृत भ्रम कपट सयान ।

स्नान क्रिया जप – तप नहीं ।

ग्यान ध्यान तहाँ सकल प्रयास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने ( प्रिया प्रियतम का रस – विलास रूप ) जो सुयश गान किया है उस रस को समस्त रसिक जनों ने प्राप्त किया , मानो उन सबके सुकृतों ( किंवा प्रभु कृपा ) का उन्हें यही फल मिला । इस प्रेम रस में ( वेद – विहित ) विधि और निषेध नहीं है । यहाँ लग्न ( राशि नक्षत्र के योग ) और ग्रहण के वेध आदि के भी दोष नहीं हैं और दिन – कुदिन का भी कोई विचार नहीं है । यहाँ शुभ अशुभ , मान – अपमान , असत्य , भ्रम , कपट चतुराई आदि कुछ नहीं है । और तो क्या इस रस ( उपासना ) में स्नान , क्रिया ( कर्म काण्ड , सन्ध्या – तर्पण आदि ) जप , तप आदि किसी विषय की न तो महत्ता है और न आवश्यकता ही । यहाँ ज्ञान ( वेदान्त ज्ञान ) और ध्यान ( अष्टाङ्ग योग ध्यान धारणा ) केवल श्रम हैं – अतः व्यर्थ हैं ।

हे रसिको ! आप श्री हरिवंश विलास का श्रवण करें मैं इन्हीं प्रेम रस प्रकाशक विधि निषेधातीत श्रीहरिवंश का गान करूँगा ।

पद – 5

जहाँ श्रीहरिवंश प्रेम – उन्माद ,

तहाँ कहाँ स्वारथ निस्वाद ।

वाद – विवाद तहाँ नहीं ।

जे श्रीहरिवंश – नाद मोहिये ,

तिन फिर बहुरि न कुल – क्रम किये ।

जिये काल बस ना परे ।।

कुल बिनु कहौ कौन सौ चाक ,

सहज प्रेम रस साँचे पाक ।

रंक – ईश समुझत नहीं ।।

विप्र न शूद्र कौन कुल कास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जहाँ ( जिस हृदय में ) श्रीहरिवंश – चन्द्र की कृपा से उदय हुआ प्रेमोन्माद है , वहाँ स्वादहीन – नीरस स्वार्थ कैसे रह सकता है ? वहाँ वाद – विवाद भी नहीं रह सकता है । जो लोग श्री हरिवंश ( श्री हरि की वंशी ) के मधुर स्वर में मोहित हुए फिर उन्होंने कभी कुल कर्म ( लोक वेद धर्म ) तो किये ही नहीं । वास्तव में वे ही जीवित रहे ( जीवन युक्त हैं शेष मृतवत् हैं । ) वे कभी काल के वश में नहीं हुए , ( काल पर भी विजय पा गये । ) जो लोग सहज प्रेम रस में सच्चे एवं परिपक्व हैं वे ईश्वर को भी तो कुछ नहीं समझते फिर कुल ( कर्म ) के बिना उनका बिगड़ता ही क्या है । बेचारा कुल कर्म का चक्र है ही क्या उनके लिये ? ऐसे प्रेमी रसिकों के लिये ने कोई विप्र है न शूद्र । ( उनकी दृष्टि एक रसमयी हो चुकी है । ) उनके लिये कौन किस कुल का ? इस बात का विचार ही नहीं । ( सब एक सा है ) हे रसिको ! सुनिये ; मैं ( ऐसे प्रेम – स्वरूप ) श्री हरिवंश का विलास गा रहा हूँ और उसे ही गाता रहूँगा ।

पद – 6

या रस विमुख करत आचार ,

प्रेम बिना जु सबै कृत आर ।

भार धरत कत विप्र कौ ॥

श्रीहरिवंश किसोर अहीर ,

अरु तिन संग बनितन की भीर ।

तीर जमुन नित खेलहीं ॥

तिनकी दई जु जूठन खात ,

आचारी निज कहत खिस्यात ।

बात यहै साँची सदा ॥

श्रीहरिवंश कहत नित जास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति इस प्रेम रस से विमुख हो कर आचार ( बहुत सी पवित्रताएँ ) भी करता है , तो उसके सभी कार्य प्रेम से रहित होने के कारण ‘ आर ‘ ( लोहे की वह नोंक जो बैलों के चूतड़ों में कोंची जाती है ) के समान हैं और वह केवल आचारी पुरुष व्यर्थ ही ब्राह्मणत्व के भार को ढो रहा है । श्रीहरिवंश किशोर ( अर्थात् आपके आराध्य तत्व श्रीराधावल्लभ लाल ) तो अहीर ( किशोर ) हैं जिनके साथ नित्य – निरन्तर कोटि – कोटि वनिताओं की अपार भीड़ रही आती है और ये सब यमुना के पुलिन पर सदा क्रीड़ा परायण रहते हैं ।

प्रेमीगण इन्हीं अहीर किशोर की प्राप्त गूंठन प्रसादी पाते हैं ( और जात्याभिमान से दूर रहते हैं । ) यदि उन्हें कोई आचारी कह दे ( तो उसे अपना अपमान समझकर ) खिसया उठते हैं और है भी यही बात सच्ची- त्रिकाल सच्ची । ( प्रश्न होता है कि ये लोग ऐसा क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि ) श्री हरिवंश चन्द्र ही तो इस बात को सदा कहते हैं ।

अतएव हे रसिक जनो ! आप श्री हरिवंश का विलास – रस सुनें ; मैं ऐसे अनुपम मार्ग – प्रदर्शक श्रीहित हरिवंश चन्द्र का गान करूँगा ।

पद – 7

निसि – दिन कहत पुकारि – पुकारि ,

स्तुति करहु देहु कोउ गारि ।

हार न अपनी मानिहौं ।

श्रीहरिवंश – चरन नहिं तजौं ,

अरु तिनके भजतिन कौं भजौं ।

लजौं नहीं अति निडर है ।

श्रीहरिवंश नाम बल लहौं ,

अपने मन भाई सब कहौं ।

रहौं शरन हरिवंश की ।

कहत न बनत प्रेम उज्जास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – ( श्री सेवकजी कहते हैं- ) मैं तो रात दिन पुकार – पुकार कर कहता हूँ और कहूँगा , फिर चाहे कोई मेरी स्तुति करे या गाली ही क्यों न दे पर मैं अपनी हार किसी प्रकार नहीं मानूँगा । श्रीहरिवंश के चरणों को नहीं छोडूंगा और उनका भजन करने वाले भक्तों ( किंवा उनके भजनीय श्री राधावल्लभलाल ) का ही मैं भजन ( सेवन ) करूँगा । मैं इसमें न तो लजाता हूँ और न डरता ही वरं पूर्ण निडर हूँ । मैं श्री हरिवंश नाम का बल प्राप्त करके यह सब अपनी मन भायी बातें कह रहा हूँ और रहता भी हूँ सदैव उन्हीं की शरण में । इन चरणों की शरण में मुझे जो प्राप्त है , उस प्रेम की उज्वलता कहते नहीं बनती । हे रसिको ! श्री हरिवंश का विलास सुनो , मैं ऐसे ( निर्भयकारी ) श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 8

जे हरिवंश प्रेम – रस झिले ,

क्यौं सोहैं लोगनि में मिले ।

गिल्यौ काल जग देखिये ॥

कर्म सकाम न कबहूँ करें ,

स्वर्ग न इच्छै नर्क न डरें ।

धरै धर्म हरिवंश कौ ॥

श्रीहरिवंश धर्म निर्बहैं ,

श्रीहरिवंश प्रेम लहैं ।

ते सब श्रीहरिवंश के ।

‘ सेवक ‘ तिन दासनि कौ दास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जो कृपापात्र जन श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकाशित प्रेम रस से परिपूर्ण हो चुके हैं , वे भला जन साधारण में मिले हुए कैसे शोभा पा सकते हैं ? वे विश्व को काल कवलित देखा करते हैं ।

[ यहाँ तक प्रेम धर्म का वर्णन करके अब संक्षेपतः प्रेमियों के लिये साधन रूप से कुछ आवश्यक सूत्र बताते हैं कि- ] वह कभी भी सकाम कर्म न करे । न तो स्वर्ग की इच्छा करे और न नरकों से डरे ही । श्रीहरिवंश – धर्म को ही सदा धारण किये रहे और इसी का निवाह करे तो अवश्य श्रीहरिवंश रस ( प्रेम ) को प्राप्त कर लेगा । ( जो इस प्रकार से श्रीहरिवंश धर्म को धारण करते हैं ) वे निश्चित ही श्रीहरिवंश के निज जन हैं । ‘ सेवक ‘ ऐसे श्री हरिवंश – दासों का दास है । कितना महान् है यह धर्म ? अतः हे रसिको ! आप श्री हरिवंश का रस – विलास सुनें – आदर और प्रेम पूर्वक सुनें । मैं ऐसे लोक – विलक्षण प्रेमावतार श्रीहित हरिवंश का ही गान करूँगा ।


श्रीहित नाम प्रताप
( तृतीय प्रकरण )
पूर्व परिचय –

पहले एवं दूसरे प्रकरण में क्रमश : श्रीहरिवंश यश ( व्यापकत्व ) और रस – विलास का वर्णन किया गया । अब तीसरे प्रकरण में प्रथम श्रीहरिवंश नाम के स्मरण पूर्वक मंगलानुशासन करके रस – मार्ग की साधना का उपदेश करते हैं कि यदि कोई महाभाग्यवान् जीव उस दिव्य प्रेम रस का पान करने की अभिलाषा करता हो तो उसका क्या धर्म है ? उसे अपने साधन काल में किस क्रम से अपनी उपासना – साधना प्रारम्भ करनी चाहिये ? कोई पूछ सकता है कि प्रेम तो साधन – साध्य नहीं बल्कि कृपा – साध्य है ; फिर उसके लिये श्रीसेवक जी कैसे साधनों का विधान कर सकते हैं ? तो संक्षेप में इतना ही कथन पर्याप्त होगा कि वे प्रेम – प्राप्ति के साधनों के जो स्वरूप बता रहे हैं वे साधन भी प्रेम रूप हैं और प्रेम प्राप्ति के पूर्व , नियमों का पालन आवश्यक है क्योंकि प्रेम का महल नियमों की खाई के भीतर है किन्तु वे नियम भी प्रेम रूप हैं । नियमों के पालन के उपरान्त ही कोई उसे समझ सकता है । स्वेच्छाचारी व्यक्ति उस प्रेम के स्वरूप को कभी नहीं समझ सकता । खेत , बोने के पहले जोत कर साफ किया जाता है , तब उसमें बीज डाला जाता है तो वह ऊगता भी है । झाड़ – झंखाड़ युक्त खेत में बिना जोते ही बो देने से बीज तो व्यर्थ जाता ही है श्रम भी व्यर्थ जाता है ।

इसी प्रकार यहाँ श्रीसेवक जी ने साधन प्रेम के नियमों का विधान करके मानो चित्त भूमि को जोत कर तैयार किया है ।

पद – 1

श्रीहरिवंश नाम नित कहौं ,

नाम प्रताप नाम फल लहौं ।

नाम हमारी गति सदा ॥

जे सेवै हरिवंश सु नाम ,

पावै तिन चरननि विश्राम ।

नाम रटन संतत करें ॥

नाम प्रसंग कहत उपदेस ,

जहाँ यह धर्म धन्य सो देस ।

धन्य सु कुल जिहि जन्म भयौ ॥

धन्य सु तात धन्य सो माइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – ( श्रीसेवक जी कहते हैं कि मैं ) सदा सर्वदा श्रीहरिवंश कहा करूँ और इस नाम के प्रताप से नाम ही फल प्राप्त करूँ क्योंकि नाम ही सदा हमारी गति है । जो लोग श्रीहरिवंश इस सुन्दर नाम का सेवन करते हैं , वे उन्हीं ( श्रीहरिवंश ) के चरणों में विश्राम ( स्थान ) पाते हैं और निरन्तर इसी नाम को रटा करते हैं ।

यहाँ नाम प्रसंगवश ही यह बात विशेष कह रहा हूँ कि जहाँ यह ( श्रीहरिवंश ) धर्म है , वह देश धन्य है । जिस कुल में इस धर्म के पालन करने वाले का जन्म हुआ वह कुल भी धन्य है । वह पिता , वह माता धन्य है , ( जिन्होंने उसे जन्म दिया । )

भाइयो ! सब लोग चित्त देकर सदा ही श्रीहरिवंश – प्रताप – यश का श्रवण करो ।

पद – 2

प्रथम हृदै श्रद्धा श्रद्धा जो करै ,

आचारजनि* जाइ अनुसरै ।

जहाँ – जहाँ हरिवंश के ॥

रसिकनि की सेवा जब होइ ,

प्रीति सहित बूझहु सब कोइ ।

कौन धर्म हरिवंश कौ ॥

कौन सु रीति कौन आचरन ,

कौन सुकृत जिहिं पावै शरन ।

क्यौं हरिवंश कृपा करें ॥

तब सब धर्म कह्यौ समुझाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – ( यदि प्रभु कृपा से किसी के ) हृदय में ( इस धर्म के प्रति ) श्रद्धा का प्राथमिक उदय हो , तो वह जाकर श्रीआचार्य चरणों का अनुसरण करे । कौन से आचार्य ? श्रीहरिवंशचन्द्र के ( धर्मधारक एवं गोत्रज ) ; कहाँ पावे उन्हें ? जहाँ कहीं भी मिलें वे ; उन्हीं की शरण ले । जब उन आचार्यों – रसिकों की सेवा से उन्हें पूर्ण प्रसन्न करले तब उनसे प्रीति – पूर्वक पूछे कि श्रीहरिवंश का धर्म क्या है ? उस धर्म की रीतियाँ हैं क्या ? उनका आचरण कैसे किया जाय ? वह कौन – सा सत्कार्य है जिससे श्रीहरिवंश की चरण – शरण मिलती है ? और हम पर श्रीहरिवंश कैसे कृपा करेंगे ?

श्रद्धालु के इतना पूछने पर वे कृपालु रसिक आचार्य गण धर्म का पूर्ण स्वरूप समझा कर कहेंगे , उसे आप सब लोग भी चित्त लगाकर श्रवण कीजिये वह श्रीहरिवंश का प्रताप – यश ही तो है ।

पद – 3

प्रथमहिं सेवहु गुरु के चरन ,

जिन यह धर्म कह्यौ सब करन ।

नाम – प्रताप बताइयो ।।

जो श्री हरिवंश नाम अनुसरहु ,

निशिदिन गुरु को सेवन करहु ।

सकल समर्पन प्रान – धन ।।

गुरु – सेवा तजि करहिं जे बानि ,

यहै अधर्म यहै सब हानि ।

कानि न रसिकनि में रहै ।।

गुरु – गोविन्द न भेद कराइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश – प्रताप जस ।।

भावार्थ – ( इस प्रकार पूर्व कथित रीति से ) सर्व प्रथम श्रीगुरु चरणों का सेवन करो जिन्होंने इस ( हित ) धर्म के पालन करने के लिये आज्ञा दी और जिन्होंने नाम का प्रताप बताया है । यदि तुम वास्तव में श्रीहरिवंश नाम का अनुसरण ( आश्रय ) कर रहे हो तो तुम्हें चाहिये कि अपने प्राण , धन और सर्वस्व के समर्पण पूर्वक दिन रात श्रीगुरुदेव का ही सेवन करो । जो लोग श्री गुरु – सेवा को छोड़कर अन्य साधनों में मन लगाते हैं , यही उनका अधर्म और बड़ी भारी हानि है । ऐसे हठशील अधर्मी की रसिकों में कोई प्रतिष्ठा या मर्यादा मान नहीं रह पाता । अतएव सच्चे उपासक का धर्म है कि वह श्री गुरुदेव एवं गोविन्द में कोई भेद न देखे न करे ।

श्रीसेवक जी कहते हैं- रसिको । आप निरन्तर चित्त लगाकर श्रीहरिवंश का प्रताप – यश सुनिये ।

पद – 4

गुरु – उपदेश सुनहु सब धर्म ,

श्रीहरिवंश – नाम फल-मर्म ।

भर्म भग्यौ बचननि सुनत ॥

सुक मुख – वचन जु श्रवन सुनावहु ,

तब श्रीहरिवंश सु नाम कहावहु ।

मन सुमिरन बिसरै नहीं ॥

हरि , गुरु , चरन , सेवा अनुसरहु,

अर्चन – बंदन संतत करहु ।

दासंतनि करि सुख लहौ ॥

सख्य समर्पन भक्ति बढ़ाइ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – श्रीगुरुदेव के उपदेश से सम्पूर्ण धर्म का श्रवण करो , जिसका मर्म अर्थात् रहस्य श्रीहरिवंश नाम ही है । श्रीगुरु के प्रकाशमय वचनों को सुनते ही तुम्हारा भ्रमरूपी अज्ञान – अन्धकार भाग जायगा ।

पहले जब श्रीशुकदेव जी के श्रीमुख – वचन ( श्रीमद्भागवत पुराण ) तुम्हारे द्वारा सुने जायेंगे , तब तुम्हें ( सारासार विवेक होकर ) श्रीहरिवंश नाम में निष्ठा होगी तुम उस नाम को कह सकोगे । ( यदि इस प्रकार क्रम से तुम चल सके तो फिर तुम्हारा ) मन ( उन श्रीहरिवंश के ) स्मरण को कभी भूलेगा ही नहीं । फिर भी तुम साथ – साथ श्रीहरि ( राधावल्लभ लाल ) और श्रीगुरु के चरणों की सेवा का अनुसरण ही निरन्तर उनके प्रति अर्चन और वन्दन करते रहना एवं उनकी सेवा आदि करके दास्य सुख प्राप्त करना । पश्चात् नवधा क्रम से सख्य और अन्तिम आत्म – समर्पण पूर्वक सेवन करने से भक्ति अभिवृद्धि को प्राप्त होती है । श्रीहरिवंश प्रताप – यश की प्राप्ति का यही पथ है , उसे सब लोग चित्त लगाकर सुनिये ।

पद – 5

गुरु-उपदेश चलहु एहिं चाल ,

ऐसी भक्ति करै बहु काल ।

ये नव लच्छन भक्ति के ॥

यह हरि-भक्ति करै जब कोई ,

तब श्री हरिवंश नाम रति होइ ।

यह जो बहुत हरि की कृपा ॥

हरि-हरिवंश भेद नहिं करै ,

श्री हरिवंश नाम उच्च ।

छिन-छिन प्रति बिसरै नाहीं ॥

प्रीति सहित यह नाम कहाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश-प्रताप जस ॥

भावार्थ – श्रीगुरुदेव द्वारा उपदेश की गयी पद्धति का अनुसरण करते हुए बहुत काल तक भक्ति करता रहे। यदि कोई ऐसी नवधा भक्ति करता रहेगा, तो अवश्य उसकी श्री हरिवंश नाम में निष्ठा हो जायगी, यह श्रीहरि की बहुत बड़ी कृपा है। साधक को चाहिये कि वह हरि और हरिवंश में भेद बुद्धि न करके प्रतिक्षण हरिवंश नाम का ही उच्चारण करता रहे; इसका विस्मरण न करे- इसे भूले नहीं वरं प्रीति पूर्वक इस नाम को लिया ही करे। रसिको ! श्री हरिवंश का यह प्रताप यश चित्त लगाकर सुनो।

पद – 6

गुरु-उपदेश चलहु एहि रीति ,

श्री हरिवंश-नाम-पद-प्रीति ।

प्रेम मूल यह नाम है ॥

प्रेमी रसिक जपत यह नाम ,

प्रेम मगन निजु बन विश्राम ।

श्री हरिवंश जहाँ रहैं ॥

प्रेम प्रवाह परै जन सोइ ,

तब क्यौं लोक-वेद-सुधि होइ ।

जब श्रीहरिवंश कृपा करी ॥

व्रत-संयम तब कौन कराइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – यदि श्रीगुरुदेव के उपदेश के अनुसार इस (पर कही गयी नवधा-भक्ति एवं हरिवंश नाम-स्मरण की) रीति से चलोगे तो श्रीहरिवंश नाम और चरणों में प्रीति हो जायगी, क्योंकि यह (हरिवंश) नाम प्रेम का उद्गम स्थल है। प्रेमी रसिक जन इस नाम को जपते हैं और इस नाम के प्रताप से प्रेम मग्न हुए श्रीहरिवंश के निज-वन (ऐकान्तिक केलि भूमि श्रीवृन्दावन) में अचल विश्राम पा रहे हैं जहाँ निरन्तर श्रीहरिवंश रहते हैं। इस नाम का जाप जब प्रेम के प्रवाह में पड़ जायगा तो भला उसे लोक एवं वेद की मर्यादाओं की सुधि कैसे हो सकती है? जबकि उस पर स्वयं प्रेम रूप श्री हरिवंश ने कृपा की है, तब व्रत और संयम कौन कर सकता है? (अर्थात् प्रेमी तो केवल अपने प्रभु के रूप में तल्लीन हो जाता है, उसे फिर बाह्य आचारों और मर्यादाओं की खबर तक नहीं रह जाती।) हे रसिया! यह है श्रीहरिवंश का प्रताप-यश, आप चित्त देकर इसका श्रवण करें।

पद – 7

जब यह नाम हृदै आइ है ,

तब सब सुख-संपति पाइ है ।

श्रीहरिवंश सुजस कहै ।।

अरु अपनी प्रभुता नहिं सहै ,

तृन ते नीच अपनपौ कहै ।

सुभ अरु असुभ न जानही ।।

समुझै नहीं कछू कुल-कर्म ,

सूधौ चलै आपने धर्म ।

रसिकनि सौं प्रीतम कहै ।।

कबहुँ काल वृथा नहिं जाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ।।

भावार्थ – जब यह (श्री हरिवंश) नाम (साधक के) हृदय में आवेगा, तभी वह सब सुख और सम्पत्ति (प्रेमरूपी धन) प्राप्त करेगा और हरिवंश के पवित्र यश का गान करेगा। वह अपने आपको तृण से तुच्छ मानेगा अर्थात् उसका स्वाभिमान् होगी ‘लघुता’। वह अपने बड़प्पन का भार नहीं सह सकेगा; उसे शुभ एवं अशुभ दोनों से उपरामता हो जायगी। वह (प्रेम की इस उन्मत्त दशा में) कुलोचित आचार-विचार रूप कर्मों को भी नहीं समझना चाहेगा, वह तो सीधे सरल ढंग से अपने (अनन्य हित) धर्म का पालन करेगा। वह रसिकजनों को प्रिय-तम (इष्टवत् परम प्रिय) भाव से देखेगा, यही समझेगा और कहेगा ऐसे रस मग्न प्रेमी हित-धर्मी का एक क्षण भी कभी व्यर्थ नहीं जाता, क्योंकि वह सदा अपने भाव में विभोर है।सेवकजी कहते हैं- भाइयो ! चित्त लगाकर ऐसे महिमाशाली श्रीहरिवंश के प्रताप यश का श्रवण करो।

पद – 8

जब हरिवंश नाम जानि है ,

तब सब ही तें लघु मानि है ।

हँसी बोलै बहु मान दै ॥

तरु सम सहन शीलता होइ ,

परम उदार कहें सब कोइ ।

सोच न मन कबहूँ करै ॥

श्रीहरिवंश सुजस मन रहै ,

कोमल बचन चरन मुख कहै ।

परम सुखद सबकौं सदा ॥

दुखद बचन कबहूँ न कहाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जब उपासक श्री हरिवंश नाम (की यथार्थता) जानेगा तब वह अपने आपको सबसे छोटा (दीन) मान लेगा और सबको सम्मान देता हुआ ही उनसे हँसकर प्रसन्नता पूर्वक बोलेगा उसमें वृक्ष के समान सहनशीलता होगी और उसे सभी लोग परम उदार कहेंगे, उसे चिन्ता तो कभी किसी बात की न हो उसका मन श्रीहरिवंश के सुयश में ही रमेगा, उसकी वचन रचना (सम्भाषण-शैली) बड़ी कोमल होगी और वह सबके लिये सदा सर्वदा सुखद ही होगी वह दुःखद वचन तो कभी बोलेगा ही नहीं। आप लोग सब ऐसे श्रीहरिवंश प्रताप यश का गान सुनिये।

पद – 9

प्रगट धर्म जैसे जानियें ,

श्री हरिवंश नाम जा हिये ।

नाम सिद्धि पहिचानियें ॥

श्री हरिवंश नाम सब सिद्धि ,

सबै रसिक बिलसे नव निद्धि ।

भुगते दैहिं न जाँचहीं ॥

पोषन भरन न चिंता कराहिं ,

श्री हरिवंश विभव विलसाहिं ।

श्री बृंदावन की माधुरी ॥

गुन गावत जु रसिक सचु पाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जिसके हृदय में श्री हरिवंश नाम है, और उसे नाम की सिद्धि प्राप्त है इसके प्रकट लक्षण जैसे जाने पहचाने जायँ उनका वर्णन (ऊपर के छन्दों में किया गया ) है श्री हरिवंश नाम ही समस्त सिद्धियों की मूल सिद्धि है। समस्त प्रेमी रसिक जन इसी हरिवंश नाम रूप नव-निधि का विलास-सुख भोगते रहते हैं। इस नाम सिद्धि एवं नव-निधि के समक्ष वे अणिमा महिमा लघिमा..आदि सिद्धि निधियों को न तो भोगते न किसी को देते और न इनकी किसी से याचना ही करते हैं। वे प्रेम मतवाले रसिक इन्हें स्वयं तो माँगे और भोगेंगे ही क्यों? यहाँ तक कि वे अपने भोजन-भरण पोषण तक की चिन्ता नहीं करते और एक मात्र श्रीहरिवंश के रस वैभव का ही विलास करते हुए अपनी भजन-भावना में डूबे रहते हैं। वह वैभव है श्रीवृन्दावन की रस माधुरी। वे रसिक जन उसी वृन्दावन माधुरी रूप श्री हरिवंश की गुण-माला पिरोते और सुखी रहते हैं अत: आप सब भी उस प्रताप यश का श्रवण कीजिये।

पद – 10

श्री हरिवंश धर्म जे धरहिं ,

श्री हरिवंश नाम उच्चरहिं ।

ते सब श्री हरिवंश के ॥

श्रवन सुनहिं जे श्रीहरिवंश ,

मुख बरनत बानी हरिवंश ।

मन सुमिरन हरिवंश को ॥

ऐसे रसिक कृपा जो करहिं ,

तौ हमसे सेवक निस्तरहिं ।

जूठनि ले पावै सदा ॥

सेवक सरन रहे गुन गाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जो लोग श्री हरिवंश धर्म को धारण करते और जो श्री हरिवंश नाम का उच्चारण ही करते हैं वे सभी श्री हरिवंश के ( निज-जन) हैं जो केवल अपने कानों से श्रीहरिवंश-नाम सुनते, जो मुख से उनकी वाणी (श्रीहरिवंश-रचित रस ग्रंथावली) का गान करते और जो मन-मन उन श्री हरिवंश का स्मरण ही करते हैं, (वे सभी श्री हरिवंश के निज-जन हैं।) यदि ऐसे रसिक जन कृपा कर दें तो हमारे जैसे (अयोग्य) ‘सेवक’ (दास) भी अपना निर्वाह पा सकते उद्धार पा सकते हैं, अन्यथा नहीं। हमारा धर्म है कि हम उनकी सदा जूठन प्रसादी पाया करें और उनके गुण गाते हुए उन्हीं की शरण में बने रहें।

श्री सेवक जी कहते हैं कि जिनके नाम का यह माहात्म्य है उन्हीं श्री हरिवंश का प्रताप यश यह गया जा रहा है इसे आप सब चित्त लगा कर सुनिये।


श्रीहित बानी – प्रताप
( चतुर्थ प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु की श्रीमुख – वाणी श्री राधा सुधा – निधि , हित चौरासी आदि काव्य ग्रन्थों का प्रताप परिचय दिया गया है कि उनमें क्या है ? उन वाणियों में वृन्दावन – वर्णन , नव -निकुञ्ज वर्णन , शरद – प्रावृट् वर्णन , हिंडोला , सुरत – विहार एवं सुरतान्त आदि का ही वर्णन है ।

यह श्रीहरिवंश वाणी रस से ओत – प्रोत है इसमें जिस मधुर शैली से वृन्दावन नित्य – विहार का वर्णन किया है ; वैसा कहीं किसी और वाणी – ग्रन्थों में नहीं किया गया । जो लोग इसे छोड़ कर अन्यत्र रस खोजते फिरते हैं , वे मानों ज्येष्ठ की लू – धधक में मृग की तरह जल खोजते फिरने का विफल प्रयास करते हैं ।

श्री हरिवंश – वाणी का श्रवण करते ही श्रीश्यामा और श्याम वश में हो जाते हैं , बस इससे अधिक इस हरिवंश वाणी के सम्बन्ध में और क्या परिचय दिया जाए ? इस प्रकरण में जो कुछ कहा गया है , वह अक्षरशः सत्य है । पाठक गण इस प्रकरण में उस वाणी की महिमा पढ़कर उस वाणी की माधुरी भी चखें , तब उन्हें इस प्रकरण की सत्यता का पता लगेगा । यदि वे सच्चे जौहरी हैं , तो परख सकेंगे कि ‘ सेवक जी ‘ जैसे रसज्ञ – रस – जौहरी ने कितने मूल्यावान् मणि परखे हैं।

पद – 1

समुझौ श्रीहरिवंश सु बानी । रसद मनोहर सब जग जानी ॥

कोमल ललित मधुर पद श्रैंनी । रसिकनि कौं जु परम सुख दैंनी ॥

श्रीहरिवंश नाम उच्चारा । नित बिहार रस कह्यौ अपारा ॥

श्रीबृंदावन भूमि बखानौं । श्रीहरिवंश कहे ते जानौं ॥

श्रीहरिवंश – गिरा रस सूधी । कछु नहिं कहौं आपनी बूधी ॥

श्री हरिवंश – कृपा मति पाऊँ । तब रसिकनि कौं गाइ सुनाऊँ ॥

भावार्थ – ( सेवक जी कहते हैं ) रसिक – जनो ! श्री हरिवंश की सुन्दर वाणी ( रचना ) को समझिये कि वह कितनी कोमल , मधुर ललित पदावली से युक्त है । इस वाणी की रस दान – शीलता और मनोहरता विश्व विख्यात है किन्तु यह प्रेमी रसिकों को तो परम सुख की दाता है । मैंने ( पूर्व तीन प्रकरणों में ) श्रीहरिवंश नाम उच्चारण पूर्वक अपरिमित नित्य – विहार रस का वर्णन किया है । अब श्रीवृन्दावन – भूमि का वर्णन करता हूँ जिसे मैंने श्री हरिवंश हूँ जिसे मैंने श्री हरिवंश के कथन ( वचन ) से ही जाना है । श्रीहरिवंश की वाणी सरल रस रूपा है । मैं ( उसे ही यहाँ ज्यों की त्यों कह दूंगा ) कुछ अपनी बुद्धि से नहीं कहूँगा । यदि श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से मैं सुबुद्धि प्राप्त करूँ तभी तो कुछ ( उस वाणी का वैभव ) रसिक जनों को सुना सकता हूँ , ( अन्यथा यह मेरी शक्ति के परे है । )

पद – 2

श्रीहरिवंश जु श्रीमुख भाखी । सो बन – भूमि चित्त में राखी ॥

हौं लघु मति नहिं लहौं प्रमाना । जानत श्रीहरिवंश सुजाना ॥

नव पल्लव फल – फूल अनंता । सदा रहत रितु सरद – बसंता ॥

श्री बृंदावन सुंदरताई । श्रीहरिवंश नित्य प्रति गाई ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशजी ने श्रीवृन्दावन का जो कुछ वर्णन किया है , मैंने उसी श्रीवन भूमि वर्णन को अपने चित्त में रख लिया है । यों तो मैं अत्यन्त अल्प मति हूँ ( वृन्दावन वर्णन और उसकी सौन्दर्य सिद्धि के ) कोई प्रमाण आदि जानता भी नहीं और न कहीं ( शास्त्रादि में ) खोजे ही पाता ; इस ( भूमि के यथार्थ रूप और वैभव ) को तो केवल सुजान ( परम चतुर ) श्रीहरिवंश ही जानते हैं ।

( ऐसा सब भाँति अगम्य एवं अगोचर श्रीवृन्दावन ) नवीन – नवीन पल्लव , फल और अनन्त फूलों से शोभित है , वहाँ नित्य शरद एवं वसन्त ऋतुएँ छायी रहती हैं । श्रीवृन्दावन की इस सुन्दरता का गान श्रीहरिवंशचन्द्र ने नित्य नव – नवायमान् रूप में किया है ।

पद – 3

श्रीवृंदावन नव – नव कुंजा । श्री हरिवंश प्रेम रस पुंजा ॥

श्रीहरिवंश करत नित केली । छिन – छिन प्रति नव – नव रस झेली ।

कबहुँक निर्मित तरल हिंडोला । झूलत – फूलत करत कलोला ॥

कबहुँक नव दल सेज रचावहिं । श्रीहरिवंश सुरत रति गावहिं ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन की नवीन – नवीन कुजें ही मानो श्रीहरिवंश के प्रेम की पुञ्ज ( समूह ) हैं । उन्हीं कुञ्जों में प्रतिक्षण नित्य नूतन रस का पान करते हुए श्रीहरिवंश ही युगल रूप से मानों निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं । कभी तरल ( चंचल ) हिण्डोल की रचना करते हैं , तो कभी उसमें युगल किशोर को झुलाते – झूलते , प्रसन्न होते और किलोल करते हैं । फिर कभी नवीन – नवीन कोमल पल्लवों की शैय्या रचते और ( उसमें युगल किशोर की रति केलि सम्पन्न कराके ) आप सुरत रति का गान करते हैं । श्रीवृन्दावन की नव निकुञ्जों में युगल की प्रेम – केलि के वर्णन पदों एवं श्लोकों में मिलेंगे ।

पद – 4

सुरत अंत छबि बरनि न जाई । छिन – छिन प्रति हरिवंश जु गाई ॥

आजु सँभारत नाहिंन गोरी । अंग – अंग छबि कहौं सु थोरी ॥

नैंन – बैंन – भूषन जिहिं भाँती । यह छबि मोपै बरनि न जाती ॥

प्रेम – प्रीति रस – रीति बढ़ाई । श्रीहरिवंश बचन सुखदाई ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश जी ने अपनी वाणी में श्रीप्रियालाल की जिस सुरतान्त ( सुरत विहार के उपरान्त की ) छवि का प्रतिक्षण गान किया है , उसका वर्णन करना अति कठिन है । ( श्रीहरिवंश जी ने कहा है- ) ‘ आजु गोरी श्रीराधा अपने आपको सम्हाल नहीं पा रही हैं ; ” ( उसकी ऐसी सुरतालस छवि के विषय में जो कुछ कहूँ सो कम है । ( सुरतान्त समय में गोरी ) राधा के नयन , वचन , भूषण जैसे कुछ ( शिथिल , लज्जा , भय जागर एवं अस्त व्यस्त ) हैं , वह छवि मुझ से तो वर्णन करते ही नहीं बनती । ऐसी परम सुखदायी और प्रेम प्रीति रस रीति को बढ़ाने वाली है , श्रीहरिवंश की रस – पगी वचनावली !

पद – 5

बंशि बजाइ विमोहित नारी । बोली संग सु नित्यबिहारी ॥

परिरंभन चुंबन रस केली । बिहरत कुँवरि कंठ भुज मेली । ॥

सुंदर रास रच्यौ बन माँही । जमुना पुलिन कलपतरु छाँहीं ॥

रास – रंग – रति बरनि न जाई । नित – नित श्रीहरिवंश जु गाई ॥

भावार्थ – श्रीनित्यविहारी लाल ने वंशी बजाकर नारियों को मोहित कर लिया और अपने समीप बुला लिया , तत्पश्चात् आलिङ्गन एवं चुम्बन पूर्वक रस केलि होती है और कँवरि श्रीराधा , श्रीनित्यविहारी लाल से गलबहियाँ देकर विहार करती हैं । युगल – किशोर ने यमुना के तट पर विमल कल्पतरु की छाया तले श्रीवन में सुन्दर रास की रचना की ।

जिस रास रंग और प्रीति – रति का वर्णन असम्भव है , श्रीहरिवंश चन्द्र ने नित्य निरन्तर उसीका गान किया है ।

पद – 6

श्रीहरिवंश प्रेम रस गाना । रसिक बिमोहित परम सुजाना ॥

अंसनि पर भुज दिये बिलोकत । त्रिपित न सुंदर मुख अवलोकत ।।

इंदु बदन दीखत विवि ओरा । चारु सुलोचन तृषित चकोरा ॥

करत पान रस मत्त सदाई । श्री हरिवंश प्रेम रति गाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश के इस प्रेम रस गान पर परम सुजान रसिकगण किंवा परम रसिक युगल किशोर मोहित हैं । ( अपनी इस प्रेम रस वाणी में श्रीहरिवंश ने कहा है- ) युगल किशोर अपने कन्धों पर एक दूसरे की भुज लताओं को रखे हुए एक दूसरे की ओर देख रहे हैं किन्तु सुन्दर मुख माधुरी का पान करके तृप्त नहीं हो पाते हैं । दोनों दोनों की ओर ऐसे देख रहे हैं जैसे दोनों के चारु लोचन क्या हैं मानों प्यासे चार चकोर , जो सदा रस का पान कर – करके रस में मतवाले हो रहे हैं ।

श्रीहरिवंश ने उक्त प्रकार से युगल किशोर की पारस्परिक प्रेम रति का गान किया है ( ऐसा श्री सेवकजी कहते हैं । )

पद – 7

श्रीहरिवंश सुरीति सुनाऊँ । स्यामा – स्याम एक सँग गाऊँ ।।

छिन इक कबहुँ न अंतर होई । प्रान सु एक देह हैं दोई ।।

राधा संग बिना नहिं स्याम । स्याम बिना नहिं राधा नाम ।।

छिन – छिन प्रति आराधत रहहीं । राधा नाम स्याम तब कहहीं ।।

ललितादिकनि संग सचु पावै । श्रीहरिवंश सुरत – रति गावै ।।

भावार्थ – मैं हरिवंश की सुन्दर रीति ( प्रेम रीति को सुनाता हूँ जहाँ श्रीश्यामा – श्याम का एक साथ ( एकीभाव से ) गान किया गया है । ये दोनों कभी एक क्षण भर के लिये भी विलग नहीं होते- सदा एक साथ , मिले ही रहते हैं । ये श्यामा – श्याम प्राणों से तो एक और देह से दो विलग – विलग जान पड़ते हैं । श्यामसुन्दर श्रीराधा के सङ्ग बिना कहीं , कभी रह ही नहीं सकते , इसी प्रकार श्यामसुन्दर के बिना श्रीराधा का [ वहाँ दर्शन तो दूर ] नाम भी नहीं [ सुना जा सकता ] । श्यामसुन्दर क्षण – क्षण प्रति श्रीराधा की आराधना करते रहते हैं और इसी प्रकार श्रीराधा भी श्रीश्याम नाम कहती या रटती रहती हैं ।

इनकी ऐसी पारस्परिक आसक्ति से ललिता विशाखा आदि सहचरियाँ प्रेम सुख प्राप्त करती हैं और श्रीहरिवंश युगल की इस रस – विभोर सुरत रति का गान करते हैं ।

पद – 8

श्रीहरिवंश गिरा – जस गायें । श्रीहरिवंश रहत सचु पाय ॥

श्रीहरिवंश – नाम परसंगा । श्रीहरिवंश गान इक संगा ॥

मन – क्रम – बचन कहौं नित टेरें । श्रीहरिवंश प्राण – धन मेरैं ॥

सेवक श्रीहरिवंशहि गावै । श्रीहरिवंश – नाम रति पावै ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश की वाणी का यशोगान करने से श्रीहरिवंश प्रसन्नता प्राप्त करते हैं ; ( या श्रीहरिवंश की वाणी का गान करने से श्री ह – रि – वंश रूप चतुर्दूहात्मक परिकर युगल , वन और अलि सभी सुख प्राप्त करते हैं । ) श्रीहरिवंश का नाम और श्रीहरिवंश की वाणी एक ही संङ्ग रहती हैं- दोनों में अभेद है ।

मैं मन , वचन एवं कर्म से टेर – टेर कर स्पष्ट कहता हूँ कि मेरे प्राणधन श्रीहरिवंश ही हैं । यह सेवक श्रीहरिवंश का ही गान करता और उसके फलस्वरूप श्रीहरिवंश के नाम में रति हो , यह चाहता है अन्य कुछ नहीं ।

पद – 9

जयति जगदीस – जस जगमगत जगत – गुरु ,

जगत बंदित सु हरिवंश बानी ।

मधुर कोमल सुपद प्रीति आनंद – रस ,

प्रेम बिस्तरित हरिवंश बानी ॥

रसिक रस – मत्त श्रुति सुनत पीवंत रस ,

रसनि गावंत हरिवंश बानी ।

कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित ,

जपत हरिवंश हरिवंश बानी ॥

भावार्थ – जगत् के एकमात्र स्वामी ( नित्य विहारी श्रीराधावल्लभलाल ) के यशोगान से जगमगाती हुई , जगत् की गुरु रूपा – सर्वश्रेष्ठ , जगत् – वन्दनीय श्रीहरिवंश – वाणी ही उत्कर्ष को प्राप्त है । यह हरिवंश वाणी मधुर , कोमल सुन्दर पदों से युक्त एवं प्रीति आनन्द , रस तथा प्रेम – केलि का विस्तार करने वाली है । जिसे रसिक जन अपने कानों से सुनते ही रस से मत्त हो जाते और फिर जिसका पान करते ही रहते हैं , वे अपनी रसना से जिसका गान किया करते हैं , वह श्रीहरिवंश वाणी ही है । वे इसका गान करते , श्रवण करते इतने मतवाले हो जाते हैं कि ‘ श्रीहरिवंश ! हरिवंश ! ‘ ही जोर से कहते , ‘ हरिवंश ! हित – हरिवंश ! ‘ ही जपते और फिर श्रीहरिवंश नाम और हरिवंश – वाणी में एक हो जाते हैं ।

पद – 10

कही नित केलि रस – खेल बृंदाविपिन ,

कुंज तें कुंज डोलनि बखानी ।

पट न परसंत निकसंत बीथिनु सघन ,

प्रेम – विह्वल नहिं देह मानी ॥

मगन जित – जित चलत , छिन सुडगमग मिलत ,

पंथ बन देत अति हेत जानी ।

रसिक हित परम आनंद अवलोकतन ,

सरस विस्तरित हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – [ श्रीहरिवंश ने अपनी वाणी में ] नित्य – केलि रस – क्रीड़ा – कौतुक का गान किया है और कुञ्ज से कुञ्ज में डोलने – विहार करने का भी वर्णन किया है । युगल किशोर प्रेम से विह्वल हुए अपनी देह – दशा को भुलाकर एक दूसरे से लिपटे गलबहियाँ दिये हुए अत्यन्त सकरी [ लतामण्डित ] गलियों से होकर निकलते हैं , फिर भी उनके वस्त्र – लताओं में उलझते नहीं , लताओं का स्पर्श तक नहीं करते , इतने एकमेक हो जाते हैं दोनों । इस प्रकार प्रेम मग्न दशा में एक दूसरे से मिले – लिपटे जिधर – जिधर डगमगाते हुए चले जाते हैं , श्रीवन युगल का अत्यन्त स्नेह जानकर अपने आप उन्हें मार्ग दे देते हैं ।

इस रसकेलि का हितमय रसिक ललिता आदि अवलोकन करती और परमानन्द से पूर्ण हो जाती हैं ।

इस सुन्दर रस का विस्तार करती है श्रीहित हरिवंश की वाणी । [ ऐसा श्रीसेवकजी कहते हैं । ]

पद – 11

वंश रस नाद मोहित सकल सुंदरी ;

आनि रति मानि कुल छाँड़ि कानी ।

बाहु परिरंभ , नीवी उरज परस , हँसि ;

उमगि रति पति रमत रीति जानी ।

जूथ जुवतिनु खचित , रासमंडल रचित ,

गान गुन निर्त , आनंद दानी ।

तत्त थेइ थेइ करत , गतिव नौतन धरत ,

रास – रस रचित , हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – वंशी के रस – गान से मोहित समस्त सुन्दरियाँ अपनी कुल – मर्यादा त्याग कर प्रीति पूर्वक श्रीश्यामसुन्दर के समीप आईं और वहाँ आने पर श्रीलाल जी ने उनकी बाहुओं का आलिङ्गन , नीवी और उरोजों का स्पर्श एवं हास – परिहास के द्वारा उनमें रति – पति – मदन की उमङ्ग जगाकर उनसे रमण – विहार किया । पश्चात् युवती – यूथ में सुव्यवस्थित रास – मंडल की रचना की गयी और बड़ा ही आनन्द – दायक गान और कला पूर्ण नृत्य हुआ । वे सब नृत्य में ” ता थेई तत्ता थेई ” कहते और नवीन – नवीन गतियों को धारण करते हुए शोभा को प्राप्त हुए ।

उक्त प्रकार से रास – रस का वर्णन करने वाली है श्रीहरिवंश की वाणी ।

पद – 12

रास रस रचित बानी जु प्रगटित जगत ,

सुद्ध अविरुद्ध परसिद्ध जानी ।

स्याम – स्यामा प्रगट प्रगट अक्षर निकट ,

प्रगट रस श्रवत अति मधुर बानी ॥

सो बानी रसिक नित्य निसि – दिन रटत ,

कहत अरु सुनत रस – रीति जानी ।

ताहि तजि और गाऊँ न कबहूँ कछु ,

प्रान रमि रही हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने रास रस रचना – वर्णन से पूर्ण वाणी को जगत् में प्रकट किया जो शुद्ध , अविरुद्ध ( अनुकूल ) और प्रसिद्ध है । जिस वाणी के प्रत्येक अक्षर के निकट श्रीश्यामा – श्याम प्रकट हैं , जो अत्यन्त मधुर और प्रकट रूप से रस की धारा प्रवाहित वाली है । जिस वाणी का रसिक जन नित्य – निशिदिन गान करते रहते हैं और जिसका कथन – श्रवण करने से रस – रीति ज्ञात होती है । श्रीसेवकजी कहते हैं- मैं उस वाणी को छोड़कर कभी और कुछ गाऊँगा , कहूँगा ही नहीं ; क्योंकि मेरे प्राणों में तो केवल वही श्रीहरिवंश – वाणी ही रम रही है ।

पद – 13

भाग – अनभाग जानत जु नहिं आपनौं ,

कौन धौं लाभ अरु कौन हानी ।

प्रगट – निधि छाँड़ि कत फिरत रूँका * करत ,

भरम भटकत सु नहिं भूल जानी ।।

प्रीति बिनु रीति रूखी जु लागति सकल ,

जुगत करि होत कत कवित – मानी ।

रसिक जो सद्य चाहत जु रस – रीति फल ,

तौ कहौ अरु सुनौ हरिवंश – बानी ।।

भावार्थ – कितने ही लोग अपना भाग्य – दुर्भाग्य नहीं जानते और न यही जानते हैं कि क्या लाभ है और क्या हानि है ? यदि वे यह जान ही लेते तो क्यों प्रकट निधि ( भण्डार ) को छोड़कर जहाँ – तहाँ टुकड़ खोरी करते फिरते ? दुख है कि वे भ्रम में ही भटक रहे हैं उन्हें अपनी भूल का भी पता नहीं है ।

[ ऐसे भटके हुए लोगों से सेवकजी कहते हैं- ] अरे भाईयों ! तब फिर तुम व्यर्थ ही क्यों युक्तियों के द्वारा काव्यादि रचना करके कविताई का केवल स्वाभिमान लाद रहे हो ? अर्थात् केवल सुछन्द – रचना कर देने से कोई प्रेमी नहीं बन सकता । यदि तुम रसिक बनना चाहते हो ? अभी सद्य रस रीति का फल ( सुखास्वादन ) चाहते हो ? तो [ मेरी राय मान कर ] श्रीहरिवंश – वाणी को ही कहो और सुनो !

पद – 14

यहै नित केलि येई जु नाइक निपुन ,

यहै बन भूमि नित नित बखानी ।

बहुत रचना करत राग – रागिनी धरत ,

तान बंधान सब ठाँनि आनी ॥

ज्यौं मूंद नहिं मिलत टकसार रौं बाहिरी ,

लाख में गैर मुहरी जु जानी ।

यौं जु रस – रीति बरनत न ठाँई मिलत ,

जो न उच्चरत हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – श्रीसेवक जी कहते हैं- यह हरिवंश वाणी ही नित्य केलि है , यही निपुण नायक श्रीलाल एवं श्रीप्रिया जी है और यही श्रीवृन्दावन भूमि है , जिसका बखान ‘ नित्य – नित्य ‘ कहकर किया गया है , ( अर्थात् दम्पति , वन और अलिगणों से सम्पन्न चतुर्दूहात्मक नित्य विहार यह वाणी ही है । ) फिर क्यों लोग व्यर्थ ही बहुत सी रचना करते , राग – रागिनियों को धारण करते और अन्य – अन्य प्रकार के तान बन्धान ठानते हैं ? [ इसी श्रीहरिवंश वाणी में क्यों नहीं रमते ? यह तो निश्चित है कि ] जो सिक्का टकसाल से बाहर ढाला गया है उसकी बनावट ( ढाल ) टकसाली सिक्के से नहीं मिल सकती ; वह टकसाली मोहर छाप से हीन सिक्का तो लाखों में पहचान लिया जायगा । इसी प्रकार जो श्रीहरिवंश वाणी उच्चारण – गान नहीं करते उन्हें रस – रीति का वर्णन करते हुए भी रसिकों में ठाँव ठिकाना नहीं मिल सकता । [ चाहे भले ही वे अपने आपको रसिक कहा करें । जैसे बाहरी सिक्का , सिक्का होने पर भी टकसाली सिक्का नहीं कहा सकता इसी प्रकार श्रीहरिवंश – वाणी से दूर रहने वाला व्यक्ति रसिक कहलाकर भी टकसाली – पक्का मोहरी रसिक नहीं है ।

पद – 15

रसिक बिनु कहे सब ही जु मानत बुरौ ,

रसिकई कहौ कैसे जु जानी ।

आपनी आपनी ठौर जेही तहाँ ,

आपनी बुद्धि के होत मानी ॥

निपट करि रसिक जौ होहु तैसी कहौ ,

अब जु यह सुनौं मेरी कहानी ।

जौरु तुम रसिक रस रीति के चाडिले ,

तौरु मन देहु हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – ‘ रसिक ‘ न कहने पर तो सभी [ उपासक – गण ] बुरा मान लेते हैं ; [ कि हम रसिक क्यों नहीं , तुम्हीं क्यों ? ] किन्तु यदि उनसे पूछा जाय कि तुमने रसिकता कैसे जानी ? [ तो शायद बोल न आवेगा । तात्पर्य यह कि वे रसिक – फसिक तो कुछ हैं नहीं पर उनमें रसिक पने का मिथ्या अभिमान अवश्य है । ] वे रहते तो हैं अपनी उसी पुरानी ठौर ( स्थिति ) में , पर बुद्धि के मानी अवश्य बन जाते हैं [ कि हम भी रसिक हैं । ]

सेवक जी कहते हैं कि भाइयों ! यदि तुम सचमुच भीने सुलझे और पक्के रसिक हो तो वैसा स्पष्ट कहो ; अथवा अब यह मेरी कथा – चर्चा ही चित्त देकर सुनो । वह क्या ? तुम सचमुच रसिक तो हो नहीं पर हाँ ; यदि रसिक बनना चाहते हो , तुममें रस रीति पाने की चाह चाड़ -उसके तुम इच्छुक हो तो [ विश्वासपूर्वक ] श्रीहरिवंश – वाणी में मन दो । [ वही एकमात्र रसदात्री है । ]

पद – 16

वेद – विद्या * पढ़त कर्म धर्मनि करत ,

जलप तन – कलप की अवधि आनी ।

चारु गति छाँड़ि संसार भटकत भ्रमत ,

आस की पासि नहिं तोरि जानी ।।

सकल स्वारथ करत रहत जनमत – मरत ,

दुःख अरु सुक्ख के होत मानी ।

छाँड़ि जंजार कैसे न निश्चय धरत ,

एक किन रमत हरिवंश – बानी ।।

भावार्थ – अरे मूढ़ ! वेद – विद्याओं को पढ़ते , कर्म – धर्मों को करते और व्यर्थ जल्पना ( बकवास ) करते तो तेरे मरने की अवधि आ गयी । तू सुन्दर मार्ग और गति को छोड़कर संसार में भ्रमता भटकता है ; तू आशा की फाँसी भी तोड़ न पाया अर्थात् आशापाश से बँधा ही रहा । तू स्वार्थ के सब कार्यों को करते हुए बार – बार जन्मता और मरता ही रहा । दु : ख और सुखों का मिथ्या भोक्ता ( मानी ) बना रहा । अरे ! अब भी [ समय है ] इस माया – जंजाल को त्यागकर क्यों नहीं एक निश्चय धारण कर लेता [ कि श्रीहरिवंश – वाणी ही सर्वोपरि है ? ] और तब फिर क्यों इस हरिवंश – वाणी में नहीं रमता ? [ जहाँ तहाँ क्यों भटकता फिरता है ? इससे शान्ति कैसे पा सकेगा , अभागे ? ]

पद – 17

बृथा बलगन करत द्यौस खोवत सकल ,

सोवतन राति नहिं जाति जानी ।

ऐसैं भाँति समुझ्यौ न कबहूँ कछु ,

कौन सुख – दुःख को लाभ – हानी ॥

तब सुक्ख हरिवंश गुन नाम रसना रटत ,

और बहु वचन अति दुःख दानी ।

हानि हरिवंश के नाम अंतर परे ,

लाभ हरिवंश उच्चरत बानी ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू व्यर्थ बकबाद करता हुआ अपने सारे जीवन के दिन खो रहा है और सोते – सोते रातें जा रहीं हैं उन्हें भी बीतते नहीं जान पा रहा है । इसी प्रकार तूने यह भी कभी कुछ न समझा कि क्या सुख है , क्या दु : ख है , क्या लाभ है और क्या हानि है ? [ तू तो पूरा अनजान रहा पर ले मैं तुझे बताता हूँ कि ] सुख वही है , जो तेरी वाणी श्रीहरिवंश के गुण और नामों को रटती रहे और इसके सिवाय बाकी सब बहुत सा बोलना – कहना ही अत्यन्त दुःखप्रद है । श्रीहरिवंश – नाम स्मरण में अन्तराय पड़ना ही सबसे बड़ी हानि है और लाभ है- श्रीहरिवंश वाणी का उच्चारण करते रहना ।

पद – 18

नाम – बानी निकट स्याम – स्यामा प्रगट ,

रहत निसि – दिन परम प्रीति जानी ।

नाम – बानी सुनत स्याम – स्यामा सुबस ,

रसद माधुर्य अति प्रेम दानी ॥

नाम – बानी जहाँ स्याम – स्यामा तहाँ ,

सुनत गावंत मो मन मन जु मानी ।

बलित सुभ नाम बलि विसद कीरति जगत ,

हौं जु बलि बलि जाउँ हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] श्रीहरिवंश के नाम और वाणी के निकट श्रीश्यामा – श्याम उसे परम प्रेममयी जानकर दिन – रात प्रकट रूप से विद्यमान् रहते हैं । श्रीहरिवंश – नाम और वाणी को सुनते ही श्रीश्यामा – श्याम उस नाम – वाणी गायक के वशीभूत होकर उसके लिये माधुर्य – रस के दाता और महान् प्रेम के दाता बन जाते अर्थात् उसे प्रेम रस प्रदान कर देते हैं इस नाम और वाणी के प्रताप से । किं बहुना ? जहाँ नाम और वाणी हैं , श्रीश्याम और श्यामा भी वहीं हैं , [ अन्यत्र नहीं ; ] इस नाम और वाणी को सुनते और गाते रहने पर ही मेरा मन मानता है अर्थात् मुग्ध रहता है । मैं इस शुभ नाम [ श्रीहरिवंश ] की बलिहारी जाऊँ ; नाम की विश्वव्यापी कीर्ति की बलिहारी जाऊँ और बलिहारी जाऊँ इस श्रीहरिवंश – वाणी की ।

पद – 19

बलि बलि श्रीहरिवंश नाम बलि बलित विमल जस ।

बलि बलि श्रीहरिवंश कर्म – व्रत कृत सु नाम बस ॥

बलि बलि श्रीहरिवंश बरन धर्मनि गति जानत ।

बलि बलि श्रीहरिवंश नाम कलि प्रगट प्रमानत ॥

हरिवंश नाम सु प्रताप बलि , बलित जगत कीरति विसद ।

हरिवंश विमल बानी सु बलि , मृदु कमनीय सुमधुर पद ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] मैं हरिवंश नाम की बलि – बलि जाऊँ और उनके विमल यश की बलि – बलि जाऊँ और बारम्बार बलि जाऊँ उन श्रीहरिवंश की , जिन्होंने समस्त कर्म और व्रत आदि को नाम का ( अनुगत ) वशवर्ती बना दिया है । अहो ! श्रीहरिवंश वर्णाश्रम धर्म की भी गति ( शक्ति सामर्थ्य ) जानते हैं [ कि ये क्या कितनी शक्ति रखते हैं इस प्रेम राज्य में ? ] कलियुग में तो केवल नाम को ही प्रमाणित किया है श्रीहरिवंश ने , मैं इनकी बलिहारी , बलिहारी , बारम्बार बलिहारी जाता हूँ । मैं श्रीहरिवंश नाम की बलि हूँ और बलि हूँ उस नाम की विश्वव्यापी पवित्र कीत्ति की ! मैं श्रीहरिवंश की विमल वाणी की बलि हूँ और उस वाणी की कोमल मधुर और कमनीय पदावलि की बलि हूँ ।


श्रीहित स्वरूप सार संचयन
( पंचम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु साक्षात् प्रेम-तत्व के ही अवतार हैं। यह प्रेम व्यापक और एक देशीय भी है। प्रेम स्वयं ब्रह्म है। इस प्रकरण में श्रीहरिवंश के व्यापक हित स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि श्रीहरिवंश ही विश्व की उत्पत्ति पालन और प्रलय के कारण हैं एवं विश्वरूप कार्य भी वही हैं, वे प्रकृति, ब्रह्म और ब्रह्म विद्या भी हैं। श्रीहरिवंश सगुण रूप में व्यासनन्दन हैं। रूप, गुण और प्रेम की खानि हैं। वे प्रेम रस रूप, रसमय तत्व और कृपा के धाम हैं। वे सबकी आत्मा और मन हैं। श्रीहरिवंश ही सबके जीवन और प्राण हैं। किमधिकं श्रीहरिवंश ही सात्विक राजस तामस भाव, लोभ, शुभ कृत्य, शुद्ध विचार, पूजा, परमार्थ, विवेक, तृष्णा, वीर्य (बल) मंगलकारी, धीरता, यश, सुयश रस-लोलुपता आदि अनेक रूपों में हैं। और इसीलिये वे प्रेमी साधकों के लिये कुलदेव, जाति, ऋद्धि, सिद्धि, वेद-विधि, अद्वय तत्व, योग, सुखभोग, प्रतीति, प्रमाण, प्रियतम, प्रियता, श्रवण दर्शन और मनन करने के योग्य, संगीत सार तत्व और सर्वस्व हैं। उक्त बातों का विस्तार श्री सेवक जी के वचनों में इस प्रकार है

पद – 1

प्रथम प्रनम्य सुरम्य मति, मन-बुधि-चित्त प्रश्न।

चरन शरन सेवक सदा, जै जै श्री हरिवंश।

श्रीहरिवंश विपुल गुन मिष्टं, श्रीहरिवंश उपासक इष्टं।

श्रीहरिवंश कृपा मति पाऊँ, श्री हरिवंश विमल गुन गाऊँ।

गाऊँ हरिवंश नाम जस निर्मल, श्रीहरिवंश रमित प्रानं।

कारज हरिवंश प्रताप उद्दित, करन श्री हरिवंश भजन।

विद्या हरिवंश मंत्र चतुरक्षर, जपत सिद्धि भव उद्धरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरणं॥१॥

भावार्थ – [श्री सेवक जी कहते हैं-] मैं सर्वप्रथम अपनी सुरम्य मति (सन्मति) से श्रीहरिवंश को प्रणाम करके फिर अपने मन, बुद्धि और चित्त से उनकी प्रशंसा करता हूँ। यह सेवक सदा श्रीहरिवंश की ही चरण-शरण में है। इन श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश के विपुल (बहुत-से) गुण हैं और सब गुण मधुर हैं। श्रीहरिवंश ही उपासकों के इष्ट तत्व हैं अथवा उपासक भी हैं और इष्ट भी, यदि मैं श्री हरिवंश चन्द्र की कृपा से सन्मति प्राप्त करूँ तो ही उनके निर्मल गुणों का गान कर सकता हूँ; अन्यथा नहीं। मैं श्रीहरिवंश के विमल यश और गुणों का गान करता हूँ; श्रीहरिवंश ही मेरे प्राणों में रम रहे हैं। ये हरिवंश विश्वरूप कार्य बनकर अपने प्रताप का उदय किये हुए हैं और यही हरिवंश विश्व के कारण भी कहे जाते हैं, (अर्थात् सृष्टि के कार्य और कारण दोनों ही आप हैं।) श्रीहरिवंश ही ब्रह्म – विद्या हैं और हरिवंश नाम के चार अक्षर ही वह महामंत्र है, जिसके जप करने से तत्काल सिद्धि मिल जाती है और संसार से उद्धार हो जाता है। ऐसे जगत-मंगल परायण किंवा विश्व के परम मंगल रूप श्री हरिवंश की जय हो, जय हो मैं उन्हें श्री हरिवंश की चरण-शरण में हूँ।

पद – 2

हरिरिति अक्षर बीज रिषि वंशी शक्ति सु अंस।

नख सिख सुंदर ध्यान धरि जै जै श्री हरिवंश।

श्री हरिवंश जी सुंदर ध्यानं, श्रीहरिवंश विसद विज्ञानं।

श्रीहरिवंश नाम-गुन-श्रूपं, श्रीहरिवंश प्रेम-रस रूपं॥

रसमय हरिवंश परम परमाक्षर, श्रीहरिवंश कृपा सदन।

आतम हरिवंश प्रगट परमानंद श्री हरिवंश पुराण में॥

जीवन हरिवंश विपुल सुख संपति, श्रीहरिवंश बलित बरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन सरन ॥२॥

भावार्थ – [इस सम्पूर्ण ग्रन्थ-सेवक वाणी में] ‘हरिवंश’ ये चार अक्षर बीज हैं और इसके [उपदेष्टा-प्रकाशक] ऋषि हैं वंशी। इस मंत्र की शक्ति है अंश (अर्थात् अपने लक्ष्य सखी स्वरूप जो श्रीराधा की अंश-किरण है, उसकी प्राप्ति।) [ इस हरिवंश मंत्र का छन्द चतुरक्षर ‘हरिवंश’ ही है और इसके देवता भी श्रीहरिवंश हैं;] जिनका नख-शिख सुन्दर ध्यान धारण करना कर्तव्य है ऐसे श्री हरिवंश की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश ही सुन्दर ध्यान हैं और श्रीहरिवंश ही पवित्र रहस्यात्मक ज्ञान हैं। श्री हरिवंश नाम ही उनके अपने गुण ( प्रेम) का स्वरूप है और श्रीहरिवंश ही प्रेम रस रूप हैं। रसमय श्रीहरिवंश ही परात्पर एवं सर्वश्रेष्ठ अक्षर (अविनाशी) तत्व हैं और श्रीहरिवंश ही कृपा के धाम हैं। प्रगट रूप से विराजमान् परमानंद जय श्री हरिवंश ही [प्रत्येक प्राणी की] आत्मा हैं तथा वस्तु-सिद्धि के प्रमाण-रूप मन भी वही हैं। श्रीहरिवंश ही जीवन, अनन्त सुख एवं अतुल सम्पत्ति हैं। मैं ‘हरिवंश’ इन वर्णों की बलिहारी जाता हूँ। जगत के कल्याण-परायण श्रीहरिवंश की जय हो। मैं इनकी ही चरण-शरण में हूँ।

पद – 3

सरन निरापक पद रमित, सकल असुभ-सुभ नंस।

देत सहज निस्चल भगति, जै जै श्री हरिवंश।

श्रीहरिवंश मुदित मन लोभं, श्रीहरिवंश वचन वर शोभा ।

श्री हरिवंश राय कृत कारं, श्रीहरिवंश त्रिसुद्ध विचारं॥

पूजा हरिवंश नाम परमारथ, श्री हरिवंश विवेक परं।

धीरज हरिवंश विरद बल धीरज, श्री हरिवंश अभद्र हैं ॥

तृस्ना हरिवंश सुजस रस लंपट, श्रीहरिवंश कर्म करना।

जै जै हरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन शरन॥३॥

भावार्थ – जो [श्रीराम के] रमणीय चरणों की शरण का निरूपण करने वाले हैं, जो समस्त पाप-पुण्यों का नाश करने वाले एवं सहज और अविचल भक्ति का दान करने वाले हैं, उन श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश प्रसन्न मन के लोभ और श्रीहरिवंश ही श्रेष्ठ एवं शोभापूर्ण वचन हैं; (अर्थात् रस प्राप्ति के लोभ और रसमय मधुर वचन रचना रूप हैं।) श्रीहरिवंश ही शरीर धारण करने की कृत कार्यता (सफलता) हैं; [भाव यह कि शरीर-धारण करके जिसने श्रीहरिवंश को पा लिया उसने अपनी काया सफल कर ली।] श्रीहरिवंश ही मन, वचन, कर्म की पवित्रता पूर्ण त्रि शुद्ध विचार हैं। श्रीहरिवंश ही पूजा की पूजा हैं, इनका नाम ही परमार्थियों का परमार्थ है और श्रीहरिवंश ही परात्पर विवेक स्वरूप हैं। श्रीहरिवंश ही साधकों के धैर्य, बल, शक्ति और कीर्त्ति हैं और यही श्रीहरिवंश ही समस्त अमंगलों का हरण करने वाले हैं। वे ही रस की प्यास हैं, रस के सुयश रूप हैं, रस के लोलुप हैं और श्रीहरिवंश ही समस्त कर्मों के कर्ता किंवा करण (कारण, हेतु) हैं। इन जगत-मंगल परायण श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो, मैं इन्हीं श्रीहरिवंश की चरण-शरण में हूँ।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुगोत कुल, देव जाति हरिवंश।

श्रीहरिवंश स्वरूप हित, रिद्धि सिद्धि हरिवंश।।

श्रीहरिवंश विदित विधि वेदं, श्रीहरिवंश जु तत्व अभेदं।

श्रीहरिवंश प्रकासित जोगं,श्री हरिवंश सुकृत सुख भोग॥

प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमाणित, प्रीतम श्रीहरिवंश प्रियं।

गाथा हरिवंश गीत गुन गोचर, गुपत गुनत हरिवंश गीत।।

सेवक हरिवंश राय संचित सब, श्रीहरिवंश धरम धरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन शरन॥४॥

भावार्थ – [प्रत्येक हित-धर्मी के] श्रीहरिवंश ही उत्तम गोत्र, कुल, देव हैं और जाति भी श्रीहरिवंश ही हैं। श्रीहरिवंश ही स्वयं हित (प्रेम) स्वरूप हैं और श्रीहरिवंश ही ऋद्धि-सिद्धि हैं। श्रीहरिवंश ही विख्यात वेद-विधि हैं। श्रीहरिवंश ही अभेद (सर्वव्यापक अद्वय ब्रह्म) तत्व हैं। प्रसिद्ध योग (अष्टांग योग) भी श्रीहरिवंश हैं और समस्त सुकृतों (पुण्यों) का सुख-भोग फल भी वही श्रीहरिवंश हैं। श्रीहरिवंश ही शुद्ध-बुद्धि, विश्वास एवं प्रमाणों से प्रमाणित प्रियतम हैं, (अर्थात् इष्ट रूप हैं) और वही श्रीहरिवंश प्रियता (प्रीति) भी हैं । श्रीहरिवंश गाथा (गान का विषय), गीत, गुण, गुप्त विषय, (गोपनीय) गोचर (प्रकट रूप), तत्व हैं और श्रीहरिवंश ही सबके सार रूप मननीय तत्व एवं जानने योग्य ज्ञेय-तत्व भी हैं। इस प्रकार सेवक जी ने सारतिसार तत्व का संचय किया है। सब तत्वों का सार तत्व श्रीहरिवंश ही है। और मैं उन्हीं श्रीहरिवंश के धर्म को धारण करता हूँ। ऐसे परम-मंगल रूप जगत के लिये कल्याण परायण श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो; मैं इन्हीं श्रीहरिवंश की चरण-शरण में हूँ, यही मेरे सर्वस्व हैं।


श्रीहित धार्मिक-कृत्य
( षष्ठ प्रकरण )
पूर्व परिचय

श्री हित हरिवंश चन्द्र के प्रेम-मार्ग पर चलने वाले भक्तजन हित धर्मी कहे गये हैं क्योंकि वे हित धर्म का पालन करते हैं। इन धर्मियों के कर्त्तव्य कर्म क्या हैं? इसका ही इस प्रकरण में संक्षेप वर्णन है। यहाँ कर्तव्य-कर्मों की क्रियात्मक व्याख्या न होकर भावनात्मक व्याख्या है। क्योंकि भावना की शुद्धि और पुष्टि हो जाने पर क्रियाएँ अपने आप शुद्ध हो जाती हैं। अस्तु इस प्रकरण में क्रमशः हित धर्मियों का सङ्ग, श्रीहरिवंश-नाम स्मरण-गान, अनन्यता, निर्भरता और श्री हरिवंश के प्रति सर्वस्व-समर्पण के वर्णन के साथ अन्त में फल की प्राप्ति के निर्देश में बताया गया है कि

जब राधिका स्याम प्रसन्न भये।

तब नित्य समीप सो खैचि लिये।।

यह नित्य-विहार की प्राप्ति ही हित-धर्मी का अन्तिम लक्ष्य और फल है। प्रत्येक कर्त्तव्य, कर्म, धर्म, साधना उपासना का लक्ष्य अनन्त सुख की प्राप्ति है। वह अनन्त सुखों का मूल-श्रीसेवकजी के वर्णनानुसार श्रीहरिवंशचन्द्र द्वारा प्रकटित श्री वृन्दावन-विहार है, जिसकी प्राप्ति के लिये यथोचित विधानों का ही इस प्रकरण में सङ्केत है।

पद – 1

पहिले हरिवंश सुनाम कहाँ।

हरिवंश सधर्मिन संग लैहै।।

हरिवंश सु नाम सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥१॥

भावार्थ – सर्वप्रथम ‘ श्री हरिवंश’ यह सुन्दर नाम कहो, [तब उस नाम की कृपा से] श्रीहरिवंश के सुधर्मियों का सङ्ग प्राप्त होगा। सुखों की सम्पत्ति रूप श्री युगल किशोर जिनके हैं उन्हीं का यह श्री हरिवंश सुन्दर नाम सदा का अपना है-उनकी निज सम्पत्ति है।

पद – 2

हरिवंश सु नाम कौं नित कैं।

मिलि ही कहौ कृत्य सु धर्मिनु क॓॥

हरिवंश उपासना हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके ॥

भावार्थ – नित्य-निरंतर ‘ श्री हरिवंश’ इस नाम को ही रटते ( कहते ) रहो और मन मिलाकर [प्रीतिपूर्वक] सुधर्मियों के लीला चरित्रों (कृत्यों) का गान करो। [जो ऐसा करते हैं, और जिनकी सुखमयी सम्पत्ति केवल युगल सरकार हैं, [वही सच्चे धर्मी हैं, वास्तव में ] उन्हीं के श्रीहरिवंश उपासना है, [अन्य के नहीं।]

पद – 3

हरिवंश गिरा रस-रीति कहैं।

सुकृती जन संगठन नित्य रहैं ॥

कछु धर्म विरुद्ध नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो हरिवंश की वाणी और उनके द्वारा प्रकाशित राजनीति का कथन-वर्णन करता हो और सदा पुण्यात्मा (हित धर्मी-जनों) के सत्सङ्ग में रहता तथा सुख की संपत्ति युगल-दम्पत्ति ही जिनके अपने हों ऐसे धर्मियों के लिये [उनका यह कर्त्तव्य] कुछ भी धर्म विपरीत नहीं है।

पद – 4

हरिवंश प्रसंसत नित्य रहैं।

रस रीति विवर्धित कार्य कहै।

जु कछू कुल कर्म नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके।

भावार्थ – जो जन नित्य निरन्तर श्रीहरिवंश की ही प्रशंसा करते, (अर्थात् उनके लीला-गुण प्रभाव आदि का गान करते रहते हैं), [नित्य-विहार उपासना सम्बन्धी] रस-रीति के बढ़ाने वाले लीला-चरित्र, सेवा-भावना क्रिया आदि का कथन-श्रवण करते हैं एवं श्रीयुगल किशोर रूप सुख-सम्पदा जिनकी अपनी है वे सब तरह से कृतकृत्य हैं। उनके लिये अब कुछ भी व्यवहार आदि कर्म शेष नहीं हैं। [यदि वे कुल व्यवहारादि कृत्यों को न भी करें, तो उनको उससे कोई हानि नहीं हैं।]

पद – 5

हरिवंश सु नाम जु नित्य रटैं।

छिन जाम समान न नैंकु घंटे॥

विधि और निषेध नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो नित्य श्री हरिवंश नाम ही रटते हैं। जिनके नाम-स्मरण में घड़ी-प्रहर सब एक से ही बीतते हैं जो कभी जरा भी अपनी अविच्छिन्न धारा से हटते नहीं और न घटते ही हैं और जो सुख की सम्पदा दम्पत्तिजू (किशोर-किशोरी) से आत्मीयता रखते हैं, उनके लिये [शास्त्रीय] विधि-निषेध क्या? कुछ भी नहीं है, (अर्थात् वे विधि-निषेध के बन्धनों से ऊपर हो चुके हैं।)

पद – 6

हरिवंश सुधर्म जु नित्य करें।

हरिवंश कही सु नहीं बिसरे ॥

हरिवंश सदा निधि हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके।

भावार्थ – जो सदा श्रीहरिवंश के सुन्द धर्म का पालन करते हैं और श्रीहरिवंश ने जो कहा है, उसे नहीं भूलते। युगल सरकार से जिनका ऐकान्तिक प्रेम है, ऐसे प्रेमियों के लिये तो श्रीहरिवंश उनकी सदा की निधि हैं- वे उन प्रेमियों से विलग होना ही नहीं जानते।

पद – 7

हरिवंश प्रतापहिं जानत हैं।

हरिवंश प्रबोध प्रमानत हैं।

हरिवंश सु सर्वस्व हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो श्री हरिवंश के प्रताप (महत्व, स्वरूप) को ठीक-ठीक जानते हैं, जो श्री हरिवंश के द्वारा कहे गये वचनों को ही अपने लिये उत्तम बोध (विवेक, समझ) मानते हैं एवं सुख सम्पत्ति दम्पति ही जिनके अपने हैं उनके तो श्री हरिवंश ही सर्वस्व हैं।

पद – 8

हरिवंश विचार परे जु रहैं।

हरिवंश धरम्म बुरा निगाहें ॥

हरिवंश निबाहक हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनकैं॥

भावार्थ – जो श्री हरिवंश (विचारों के ही) परायण हैं उनके धर्म की धुरी को धारण करके उसे निभाना चाहते हैं, ऐसे अनन्य उपासकों के धर्म का निर्वाह श्री हरिवंश ही करते हैं, क्योंकि सुखमय सम्पत्ति दम्पत्ति के वे उपासक हैं।

पद – 9

हरिवंश रसायन पीवत हैं।

हरिवंश कहैं सुख जीवत हैं ॥

हरिवंश हृदय व्रत हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – अब जिनके श्रीयुगल किशोर ही सुख सम्पत्ति हैं वे श्रीहरिवंश-वाणी और श्रीहरिवंश-रसरीति को ही कहते [सुनते] हैं एवं श्री हरिवंश नाम को ही कहते और श्री हरिवंश नाम को ही सुनते हैं, (अर्थात् उनके लिये श्री हरिवंश नाम-वाणी के सिवाय और कहीं कुछ नहीं है।) ऐसे हित ध र्मियों के हृदय में तो श्री हरिवंश का ही एक दृढ़तम व्रत है।

पद – 10

हरिवंश कृपा हरिवंश कहै।

हरिवंश कहैं हरिवंश लहैं।

हरिवंश सु लाभ सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – कोई भाग्यवान् ही श्रीहरिवंश-कृपा से ‘श्री हरिवंश’ यह नाम कह पाता है और जो ‘श्री हरिवंश’ कहता है वह श्री हरिवंश को पाता भी है। सुखमय दम्पति (श्रीराम वल्लभ लाल) ही जिनकी सम्पत्ति है; उनके लिये तो श्रीहरिवंश ही परम लाभ हैं।

पद – 11

हरिवंश परायन प्रेम भरे।

हरिवंश सा मंत्र जपें सुधरे ॥

हरिवंश सु ध्यान सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश के रसमय प्रेमसे परिपूर्ण हैं जो भली प्रकार श्री हरिवंश’ इस सुन्दर मन्त्र का ही जप करते हैं और सुख-सम्पत्ति दम्पति ही जिनके सर्वस्व हैं, उन प्रेमियों के लिये श्रीहरिवंश ही सुन्दर ध्यान हैं।

पद – 12

नित श्रीहरिवंश सु नाम कहैं।

नित राधिका स्याम प्रसन्न रहें।

नित साधन और नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो नित्य निरन्तर श्री हरिवंश’ यही सुन्दर नाम कहता रहता है उस पर श्री राधिका एवं श्री श्याम सुंदर भी नित्य प्रसन्न रहते हैं । जिसके लिये सुख सम्पत्ति दम्पति जू सर्वस्व हैं, फिर उनके लिये और-और साधनों की क्या आवश्यकता है? अर्थात् उनके लिए तो और साधनों का महत्व ही नहीं है।

पद – 13

जब राधिका स्याम प्रसन्न भये।

तब नित्य समीप सु खैचि लये॥

हरिवंश समीप सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके ॥

भावार्थ – जब [श्री हरिवंश-कृपा से] श्री राम एवं श्रीश्याम प्रसन्न हुए तो उन्होंने [उस कृपापात्र अधिकारी जीव को अपने समीप सदा के लिये खींच लिया, जहाँ पर श्रीहरिवंश श्रीयुगल किशोर के समीप नित्य विराजते हैं, फिर तो ऐसे कृपापात्र के लिये सुख की सम्पत्ति श्री युगल किशोर श्रीराम वल्लभ लाल तो उनके अपने ही हैं।

पद – 14

नित नित श्रीहरिवंश-नाम, छिन-छिन जु रटत नर।

नित नित रहत प्रसन्न, जहाँ दंपति किशोर वर॥

जहाँ हरि तहाँ हरिवंश, जहाँ हरिवंश तहाँ हरि।

एक शब्द हरिवंश नाम, राख्यौ समीप करि॥

हरिवंश नाम सु प्रसन्न हरि, हरि प्रसन्न हरिवंश रति।

हरिवंश चरण सेवक जिते, सुनहु रसिक रसरीति गति॥१५॥

भावार्थ – जो जन सदा-सर्वदा प्रतिक्षण ‘श्रीहरिवंश’ नाम ही रटते रहते हैं, उन पर नव-किशोर वर दम्पति श्रीराधावल्लभलाल सदा-सदा प्रसन्न रहते हैं। यह सिद्धान्त है कि जहाँ पर श्री हरि हैं, वहाँ श्रीहरिवंश भी हैं और इसी प्रकार जहाँ श्रीहरिवंश’ हैं, वहाँ श्रीहरि भी अवश्य होंगे। यह दोनों की अभेद स्थिति तो ‘हरिवंश’ नाम से ही सिद्ध है कि इस ‘हरिवंश’ नाम ने एक ही शब्द से दोनों को समीप (एकीभाव) कर रखा है। श्री हरिवंश नाम (स्मरण भजन) से श्रीहरि प्रसन्न होते हैं और श्रीहरि की प्रसन्नता प्राप्त होने पर श्रीहरिवंश के चरणों की प्रीति प्राप्त होती है।

श्री सेवक कहते है-हे रसिकों! आप जो जन श्रीहरिवंश-चरणों के सेवक हैं, दास हैं अब रस रीति की गति (मार्ग, रहस्य का वर्णन) सुनिये।


श्रीहित-रस-रीति
( सप्तम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

छठे प्रकरण में ग्रन्थकार ने – “सुनहु रसिक रस रीति गति” कहकर इस प्रकरण के विषय का सङ्केत किया है। भाव यह कि यों तो सम्पूर्ण ग्रन्थ ही रसोपासना के सिद्धान्त का पोषक और प्रकाशक है किन्तु इस प्रकरण में विशेष रीति से रस विलास की ओर सङ्केत किया जायेगा ऐसा ग्रन्थकार का लक्ष्य प्रतीत होता है।

अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार श्री सेवक का सर्वप्रथम रस के प्रकाशक का वर्णन प्रथम छन्द में करके दूसरे में रस प्रवाहमयी यमुना का वर्णन करते हैं जिसके निकट (साक्षित्व में) यह रस-लीला होती है। चौथे छन्द में रस भूमि अधिष्ठान श्री वृन्दावन का वर्णन करके क्रमश पाँचवें और छठे में श्रीराधा और श्रीकृष्ण के किशोर रसिक स्वरूप का वर्णन करते हैं। सातवें छन्द में श्रीवन की बाह्य केलि रासादि का वर्णन करके आठवें में रति-विहार विषयक हास-परिहास का वर्णन करते हैं और अन्तिम नवम छन्द में श्रीहित-हरिवंश के इष्ट तत्व तल्प-विहार का वर्णन कर देते हैं।

इस वर्णन क्रम का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलेगा कि विहार-रस वर्णन का उद्गम और पर्यवसान किस सुन्दर क्रम से हुआ है कि अवतार-क्रम से लेकर नित्य-विहार तक स्थूल से सूक्ष्म तक एक लड़ी बँध गयी है।

सम्पूर्ण ग्रन्थ में केवल इसी प्रकरण के छठे छन्द में ‘वृषभान नन्दिनी’ पद देकर आप ब्रज रसिया अवतार लीला से नित्य विहार तक की एक श्रृंखला स्थापित कर देते हैं।

पद – 1

अब प्रथम छन्द में रस रीति प्रकाशक रसिक आचार्य श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु पाद के तात्विक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं

व्यास नंदन जगत आधार।

जगमगात जस, सब जग बंदनीय, जगभय विहंडन।

जग सोभा, जग संपदा, जग जीवन, सब जग मंडन।

जग मंगल, जग-उद्धरण, जग निधि, जगत प्रसंस।

चरन शरन सेवक सदा, सु जै जै श्री हरिवंश॥१॥

भावार्थ – व्यास नन्दन श्रीहरिवंशचन्द्र ही समस्त जगत् के आधार हैं, जिनका यश सारे विश्व में जगमगा रहा है। जो समस्त जगत् के वन्दनीय हैं, जो संसार के भय को नष्ट कर देने वाले हैं जो विश्व की शोभा, विश्व की एकमात्र सम्पत्ति, विश्व के जीवन और विश्व-भूषण हैं। ये जगत् का मंगल करने वाले, जगत का उद्धार करने वाले, विश्व की निधि और संसार से प्रशंसनीय हैं। ‘सेवक’ सदा-सदा इन्हीं की चरण-शरण में है, इन श्रीहरिवंशचन्द्र की जय-जय हो।

पद – 2

इस दूसरे छन्द में क्रीड़ा स्थली श्रीवन में स्थित श्रीयमुना जी का स्वरूप और उनके तटवर्ती लता- कुंज का वर्णन करते हैं क्योंकि ये लतागृह ही रस-क्रीड़ा के केन्द्र हैं

जयति जमुना विमल वर वारि।

सीतल तरल तरंगिनी, रत्न बद्ध विवि तटी विराजत।

प्रफुलित बिबिध सरोजगन, चक्रवादि कल हंस राज॥

कूल बिसद वन द्रुम सघन, लता भवन अति रम्य।

नित्य केलि हरिवंश हितसु ब्रह्मादिकनि अगम्य॥२॥

भावार्थ – निर्मल और श्रेष्ठ जल से युक्त श्रीयमुना जय-जयकार को प्राप्त हैं जो शीतल और चञ्चल तरंगों से पूर्ण हैं और जिनके दोनों तट रत्नादिकों से सुबद्ध सुशोभित हैं। जल में जहाँ अनेकों प्रकार के कमल खिल रहे हैं एवं चक्रवाक आदि पक्षियों और सुन्दर हंसों के समूह के समूह शोभित हैं। परम पावन पुलिन पर शोभित श्रीवन सघन द्रुमों से पूर्ण है एवं जहाँ पर अत्यन्त रमणीय लता-भवन विराज रहे हैं । यमुना के इसी तट पर श्री हित हरिवंश चन्द्र की नित्य केलि होती रहती है जो ब्रह्मा आदि के लिये अगम्य है।

पद – 3

श्री हित हरिवंश चन्द्र की प्रकाशित की हुई रस क्रीड़ा में युगल-किशोर का स्वरूप

मूल-सुघर सुंदर सुमति सर्वज्ञ।

संतत सहज सदा सदन, सघन कुंज सुख पुंज बरषत।

सौरभ सरस सुमन चैंन अजित सेन सुरंग हरषत॥

केलि बिसद आनंद रसद, बेलि बढ़त नित जाम।

ठेलि निगम-मग पग सुभग, खेलि कुँवर वर बाम॥

भावार्थ – श्री प्रिया लाल की यह जोड़ी नित्य और स्वाभाविक होने के साथ-साथ सुघर, सुन्दर, परम चतुर एवं सर्वज्ञ भी है। सदा-सर्वदा सघन कुञ्ज-सदन में सुख समूह की वर्षा करती रहती है। [उस सघन कुंज सदन में] सरस सुगन्ध युक्त कोमल पुष्पों से सज्जित शय्या पर विराजमान् होकर युगल-किशोर आनन्द-सुख प्राप्त करके हर्षित होते हैं। युगल-किशोर की केलि पवित्र एवं रसदायक है और जहाँ आनन्द रूपी लता नित्य ही उदित होती और बढ़ती रहती है। जहाँ युवती-शिरोमणि सुन्दरी श्री राम एवं कुँवर वर श्रीलाल जी वेद-मार्ग की मर्यादा को चरणोंसे ठेल अर्थात् तिरस्कृत कर निरन्तर क्रीड़ा परायण रहते हैं।

पद – 4

इस छन्द में युगल-किशोर की रस-रूपता का निर्देश किया जा रहा है

रसिक रमनी रसद रस राशि।

रस-सीवाँ, रस-सागरी, रस निकुंज, रसपुंज बरषत।

रसनिधि,सुविधा रसज्ञ, रस रेख रीति-रस, प्रीति हरषत॥

रस मूरति, सूरति सरस, रस बिलसनि रस रंग।

रस प्रवाह सरिता सरस, रति-रस लहरि तरंग।।४॥

भावार्थ – रसिक श्री लालजी एवं रमणी श्रीराधा दोनों ही रस के दाता और रस की राशि हैं। प्रियतम रस की सीमा और प्रिया रस की समुद्र रूपा हैं दोनों रसमय निकुंज भवन में रस समूह की वृष्टि करते रहते हैं। दोनों रस के भण्डार और भली प्रकार रसज्ञ हैं। दोनों रस की मर्यादा रेखा हैं, और रस रीति की प्रीति से ही प्रसन्न रहते हैं। युगल-किशोर रस की मूर्ति हैं जिनकी छवि बड़ी ही सरस है। आपका सुख विलास भी रसमय है और आनन्द क्रीड़ा भी रसमय। युगल-किशोर रस-धारामय रस सरिता भी हैं और उसमें उठने वाली रति रस की लहरें-तरङ्ग भी ये ही हैं।

पद – 5

इस छन्द में श्रीलाल जी के स्वरूप का वर्णन करते हैं

स्याम सुंदर उरसि बनमाल।

उरगभोग भुजदंड वर, कंबु कंठ मनिगन बिराजत।

कुंचितकच, मुख तामरस, मधु लंपट जनु मधुप राजत॥

सीस मुकुट, कुंडल श्रवण मुरली अधर त्रिभंगा।

कनक कपिस पट सोभिअत, (अति )जनु घन दामिनि संग॥

भावार्थ – श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के हृदय देश पर बनमाला शोभित है। श्रेष्ठ भुज-दण्ड उरग-भोगी मयूर के श्यामवर्ण के समान हैं और शंख सी ग्रीवा में मणि-समूहों की मालाएँ शोभित हैं । कमल से मुख के चारों ओर घुंघराले लगे इस प्रकार फबी हैं जैसे मधु के लोभी भ्रमर कमल का रस पान करने के लिये जुटे हों। आपके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और अधरों पर मुरली है। आप ललित त्रिभङ्गी गतिसे खड़े हैं। श्याम घन से दिव्य वपु पर पीले-पीले रेशमी वस्त्र ऐसे शोभा पा रहे हैं जैसे मेघों के साथ दामिनि।

पद – 6

पाँचवें छन्द में विशुद्ध रूप से रसमूर्ति श्री लालजी का वर्णन करके अब और प्रिया जी का वर्णन करते हैं

सुभग सुंदरी सहज सिंगार।

सहज सोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभानु नंदिनी।

सहजानंद कदंबिनी, सहज विपिन वर उदित चंदिनी॥

सहज केलि नित नित नवल, सहज रंग सुख चैन।

सहज माधुरी अंग प्रति, सु मोपै कहत बनै न ६ ॥

भावार्थ – परम सुन्दरों में भी सुन्दर, स्वाभाविक शृङ्गार, स्वाभाविक शोभा एवं सर्वांग प्रति सहज रूप लावण्यमयी श्री वृषभान नंदनी ही हैं। आप सहज (स्वाभाविक) आनन्द की समूह एवं विपिन राज श्री वृन्दावन में नित्य उदित स्वाभाविक चन्द्रिका हैं अनन्त ज्योति हैं। आपकी केलि (क्रीडा विलासादि) सहज स्वाभाविक,नित्य नित्य नवीन,सहजानन्द-समूह मई, सहज सुखमयी और सहज शान्तिमयी है। आपके अङ्ग-अङ्गों में सहज माधुर्य है, जो मुझसे कहते नहीं बनता अर्थात् अनिर्वचनीय है।

पद – 7

युगल सरकार के स्वरूप का परिचय देकर अब उनकी रस क्रीड़ा का वर्णन करते हैं

विपिन निर्यात रसिक रस राशि।

दंपति अति आनंद बस, प्रेम मंत्र निस्संक क्रीड़त।

चंचल कुंडल कर चरन, नैन लोल रति रंग ब्रीड़ा॥

झटकत पट चुटकी चटक, लटकत लट मृदु हास।

पटकत पद उघटत सबद, मटकत भृकुटि विलास॥

भावार्थ – रस की राशि युगल-किशोर रसिक-वर श्रीवृन्दावन में नृत्य कर रहे हैं- अत्यन्त आनन्द के वश में हुए प्रेम-मत्त दम्पति (युगल-किशोर) नि:शंक भाव से क्रीड़ा परायण हैं। क्रीड़ा के समय आपके कुण्डल चंचल हो उठते हैं। आप हाथों, चरणों एवं नेत्रों की चपलता से साक्षात् रति के आनन्द-विनोद को भी लजा देते हैं। कभी परस्पर में एक दूसरे के वस्त्रों को झटक देते हैं, तो कभी उँगलियों से चुटकियाँ चटकाते हैं। नृत्य में लटें लटक-लटक पड़ती हैं और आप मन्द और मधुर हास करते जाते हैं। साथ ही चरणों को ताल स्वर पूर्वक पटकते, [तदनुसार ता ता थेई आदि] शब्दों का उच्चारण करते और लीला पूर्वक अपनी भृकुटियों को भी मटकाते-नचाते हैं।

पद – 8

नवल नागरि नवल जुवराज।

नव नव वन घन क्रीड़ा, नव निकुंज वसंत सर्वस्व।

नव नव रति नित नित बढ़त, नयौ नेह नव रंग नयौ रसु॥

नव विलास कल हास नव, मधुर सरस मृदु बैन।

नव किशोर हरिवंश हित, सु नवल नवल सुख चैन॥

भावार्थ – नवल नागरी श्रीराधा एवं नव-युवराज श्रीकृष्ण इस नित्य नव-वन श्रीवृन्दावन में जो अत्यन्त सघन है, अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं और नव-निकुञ्ज में परस्पर के सर्वस्व दान पूर्वक सुख विलास करते हैं। दोनों में नित्य- नित्य नई नई रति-प्रीति की वृद्धि होती, नया स्नेह, नया ही आनन्द रङ्ग और नया ही विलास, नव-नव हास्यादि का माधुर्य, और सरस वचनावली का प्रकाश होता रहता है। श्रीहित हरिवंश के ये नव युगल किशोर नित्य ही नये-नये सुख एवं आनन्द का आस्वादन करते रहते हैं।

पद – 9

इस अन्तिम छन्द में रस विहार की सर्वोपरिता के साथ माधुर्य एवं रसानन्द का वर्णन करते हैं

नवल-नवल सुख चैन, न अपने आप बस।

निगम लोक मर्जाद, भंजि क्रीड़ा रंग रस॥

सुरत प्रसंग निसंक, करत जोई-जोई भावत मन।

ललित अंग चल भंगि, भाइ लज्जित सु कोक गन।

अद्भुत विचार हरिवंश हित, निरखि दासि सेवक जियत।

विस्तरत सुनत गावत रसिक, सु नित नित लीला-रस पियत॥९॥

भावार्थ – नवल युगल-किशोर नित्य नव-नव सुख एवं आनन्द के भण्डार हैं। वे केवल अपने आपके आधीन हैं, उन पर किसी और (वेद-शास्त्र-मर्यादा आदि) का कोई अधिकार या शासन नहीं है अत: ये युगलकिशोर समस्त वेद एवं लोक की मर्यादाओं को तोड़ताड़ कर अपने स्वच्छन्द आनन्द बिहार की क्रीड़ा करते रहते हैं। क्रीड़ा के अवसर पर सुरत-प्रसङ्ग आदि जो-जो कुछ इनके मन आता है-इन्हें अच्छा लगता है, नि:संकोच भाव से वही वही करते हैं। आपके अंगों के लालित्य चाञ्चल्य, भङ्गिमा एवं हाव-भावों को देखकर लोक-कलाओं के समूह भी लजाते हैं।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि यह निःशङ्क एवं लोक-वेदातीत, अद्भुत विहार श्रीहित- हरिवंश का ही है, अर्थात् उनके द्वारा प्रकटित है या उनका ही अपना रूप है; जिसका दर्शन करके दासियाँ (सखियाँ, सहचरियाँ, सहेलियाँ एवं सेविकाएँ सभी) अपना जीवन धारण करती हैं। सखियां इसी रस का विस्तार करती, गान करती, श्रवण करती और इसी लीला रस का निरन्तर पान करती हैं।


श्रीहित अनन्य टेक
( अष्टम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

प्रेम अपनी प्रथम अवस्था में किसी नाम रूप विशेष के आश्रयत्व में प्रकट होकर फिर अन्तिम अवस्था में व्यापक हो जाता है। उसे प्राथमिक अवस्था में एकान्तिक स्थिरता के लिये अनन्यता की आवश्यकता है। आवश्यकता क्यों है? यह एकान्तिक अनन्यता तो उसका सहज स्वभाव होता है। प्रेमी को अपने प्रेमास्पद की ही बातें प्रिय लगतीं हैं, वह उसे ही देखना चाहता और केवल उसी से सम्बन्ध रखना चाहता है। उस प्रेमी के लिये अपने प्रियतम के सिवाय सारा संसार (कुछ नहीं है) शून्य के बराबर है।

अस्तु, इस प्रकरण में सेवकजी ने ऐसी ही अनन्य निष्ठा का प्रकाशन किया है। आपने पूर्व प्रकरणों में श्रीहरिवंश तत्व का स्पष्टीकरण करके यह बता दिया कि श्रीहरिवंशचन्द्र केवल आचार्य नहीं; अपितु परात्पर प्रेम तत्व हैं जो सर्वव्यापक के साथ एकदेशीय, चर, अचर, स्थूल, सूक्ष्म और कारण से भी परे हैं। यही श्रीप्रिया हैं, यही प्रियतम श्रीकृष्ण, यही वृन्दावन हैं और यही सहचरिगण; अर्थात् नित्य विहार के दिव्य परिकर के मूल कारण आप ही हैं। इन प्रेम रूप श्रीहरिवंशचन्द्र की ही आराधना की आवश्यकता भी उन्होंने प्रकट की। साथ-साथ उस उपासना की शैली आदि का भी निरूपण किया। उसी शैली निरूपण के क्रम में अनन्यता भी एक विषय है।

प्रेम रस का साधक अपने इष्ट तत्व के प्रति अनन्य हो जाय, केवल उसी में डूब जाय, अपनी बुद्धि को बहुमुखी न बनाकर एकमुखी बनावे। यह किस प्रकार होगा? इसके लिये उन्होंने स्वयं अपनी निष्ठा का प्रकार और फल वर्णन करके उपासकों में एक विश्वास की लहर पैदा कर दी है। सेवक जी की अनुभव पूर्ण छाप के साथ-साथ उनकी “हरिवंश दुहाई” शपथ, इस प्रकरण की ही क्या इस सम्पूर्ण ग्रन्थ की आत्मा है। इस विश्वास और अनुभव के सम्बल के ही सहारे साधक का पथ पूर्ण होगा।

इस सम्पूर्ण प्रकरण में अनन्यता सम्बन्धी प्रायः आठ बातों पर विचार किया गया है वे बातें इस प्रकार हैं-समस्त कर्म-धर्म देवोपासना आदि के त्यागपूर्वक श्रीहरिवंश उपासना, इस उपासना में जाति-पाँति, कुल धर्म, विधि निषेध आदि को महत्व न देना, श्रीहरिवंश नाम की अनन्य निष्ठा, अनन्य भावेन रस मूर्त्ति श्रीराधावल्लभलाल के कैशोर रस में ही निष्ठा; मान-अपमानादि में समभाव; श्रीहरिवंशचन्द्र द्वारा वर्णित केलि रस में ही निष्ठा; अवतारों से उठकर अवतारी तत्व श्रीराधावल्लभ में ही स्थिरता, और सबके मूल श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम और रस में प्रीति ।

इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रकरण साधक के चित्त को सब ओर से समेट कर एकान्तिक बना देने का आदेश देता है। अब प्रथम छन्द में श्रीसेवकजी अपनी निष्ठा के विचार से सर्वस्व के तिरस्कार पूर्वक अपनी इष्ट उपासना का लक्ष्य प्रकाशित करते हैं

पद – 1

मूल कोउ बहुविधि देवतनि उपासी ।

कर्म धर्म कोउ करहु वेद विधि,

कोउ तीरथ तप ज्ञान ध्यान व्रत,

अरु कोड निर्गुन ब्रह्म उपासी ॥

कोउ जम नेम करत अपनी रुचि,

कोड अवतार कदंब उपासी।

मन क्रम वचन त्रिशुद्ध सकल मत,

हम श्रीहित हरिवंश उपासी ॥

भावार्थ – कोई वेदों की विधि (नियम) के अनुसार कर्म-धर्मों का पालन करते हो तो करो; यदि कोई बहुत प्रकार से देवताओं के ही उपासक हैं, कोई तीर्थाटन, तपस्या, ज्ञान-लाभ, ध्यान एवं व्रत उपवास आदि करते हैं और कोई निर्गुण ब्रह्म के ही उपासक हैं, इसी प्रकार कितने ही अपनी-अपनी रूचि के अनुसार यम-नियमादि का पालन करते हैं तो करें, यदि और कितने एक अवतार-समूह के उपासक हैं तो रहें तु हम तो मन, वचन और कर्म इन तीनों की शुद्धि पूर्वक समस्त मतों के भी सार रूप श्रीहित हरिवंश के ही उपासक हैं, अन्य किसी के नहीं।

पद – 2

जाति पाँति कुल कर्म धर्म व्रत, संसृति हेतु अविद्या नासी ।

सेवक रीति प्रतीति प्रीति हित, विधि निषेध श्रृंखला बिनासी ॥

अब जोई कही करैं हम सोई,आयुस लियें चलैं निज दासी ।

मन क्रम वचन त्रिसुद्ध सकल मत,हम श्रीहित हरिवंश उपासी ॥

भावार्थ – हमने श्रीहित हरिवंश उपासना को स्वीकार करके अपनी जाति, पाँति, कुलोचित कर्म, धर्म, व्रत और आवागमन के मूल कारण अविद्या का विनाश कर दिया है। सेवक की (मेरी) अपनी प्रतीति और प्रीति तो हित में है और इसीसे हमने वेदोक्त विधि और निषेधों की श्रृंखला का भञ्जन कर दिया है। श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने जो कुछ कहा है, हम वही वही करते और उन निजदासी की ही आज्ञाओं का पालन करते हैं। हम मन, वचन एवं कर्म से त्रिशुद्ध होकर समस्त मतों के सार श्रीहित हरिवंशचन्द्र की उपासना करते हैं उनके उपासक हैं।

पद – 3

जो हरिवंश कौ नाम सुनावै,तन-मन- प्रान तासु बलिहारी।

जो हरिवंश- उपासक सेवै सदा सेॐ ताके चरन विचारी ॥

जो हरिवंश-गिरा जस गावै, सर्वस दैऊँ तासु पर बारी।

जो हरिवंश कौ धर्म सिखावै, सोई तौ मेरे प्रभु तैं प्रभु भारी॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं-] जो कोई मुझे श्रीहरिवंश का नाम सुनाता है, उस पर मेरे तन, मन, प्राण सब न्यौछावर हैं। जो कोई श्रीहरिवंश के उपासक जनों का सेवन करता है मैं उसके चरणों का सदा सविचार (सतर्कता पूर्वक) सेवन करता हूँ। जो श्रीहरिवंश की वाणी (ग्रन्थ) का यशोगान करता है मैं उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँ और जो श्रीहरिवंश के धर्म (अनन्य हित धर्म) को सिखाता है वह तो मेरे प्रभु ( श्रीहरिवंशचन्द्र) से भी महान् प्रभु है, अर्थात् वह मेरे सर्वाधार प्रभु के तुल्य है।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, सुनि धुनि नित्य तहाँ मन दैहौं ।

श्रीहरिवंश सुनंत चलीं संग, हौं तिन संग नित्य प्रति जैहौं ।

श्रीहरिवंश विलास रास रस, श्रीहरिवंश संग अनुभहौं ।

जो हरि नाम जगत्त सिरोमनि, वंश बिना कबहूँ नहिं लैहौं ॥

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश ( श्रीकृष्ण की वंशी) की मधुर तान से विमोहित हो गयीं मैं भी उन्हीं (सखियों) की तरह सदा अपने मन को वहीं उसी रस में लगाऊँगा । जो श्रीहरिवंश (श्रीहरि की वंशी) सुनते ही [ श्रीकृष्ण से मिलने के लिये ] एक साथ होकर चल पड़ीं, मैं उन्हीं के साथ सदा-सदा [ सखि रूप से] चलूँगा। मैं श्रीहरिवंश के विलास और रास रस का अनुभव श्रीहरिवंश के ही साथ करूँगा और जो ‘हरि’ नाम त्रिलोकी में शिरोमणि है उसे भी मैं ‘वंश’ से रहित न लूँगा यदि लूँगा तो उसे ‘वंश’ के सहित ‘हरिवंश’ इस रूप में।

पद – 5

प्रेमी अनन्य भजंन न होइ, जो अंतरयामी भजैं मन में।

जौ भजि देख्यौ जशोदा कौ नंदन, ( तौ) विश्व दिखाई सबै तन में ॥

श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, ते शुद्ध समीप मिलीं छिन में।

अब यामें मिलौनी मिलै न कछू, जब खेलत रास सदा बन में।।

भावार्थ – यदि अन्तर्यामी भगवान् का मन-मन में भजन किया जाय तो वह अनन्य प्रेमियों का भजन नहीं कहा जायेगा, यदि यशोदानन्दन बालकृष्ण के लिये कहें [कि यह अनन्य प्रेमियों का भजनीय स्वरूप है तो यह भी कहते नहीं बनता क्योंकि बालकृष्ण ] यशोदानन्दन ने अपने श्रीमुख में ही सारा विश्व दिखा दिया है (अर्थात् यह भी ऐश्वर्य भावों से पूर्ण बाल रूप है।) किन्तु जिन सखियों ने श्रीहरिवंश ( श्रीकृष्ण की वंशी) की सुमधुर ध्वनि सुनी और जो मोहित हुईं, वे समस्त प्रकार से शुद्ध होकर (अर्थात् ऐश्वर्य, ज्ञान, माहात्म्य आदि से रहित होकर) एक क्षण में ही प्रियतम नव किशोर से जा मिलीं। अतः स्पष्ट है कि इस रास रस में- [ रसोपासना में] और कुछ ज्ञान, ऐश्वर्य आदि की मिलावट तो हो ही नहीं सकती जबकि नवल किशोर सदा सर्वदा श्रीवन में रास- केलि करते रहते हैं (अर्थात् विशुद्ध रस की उपासना कैशोर भाव एवं विहार क्रीड़ा में ही है; अन्यत्र नहीं ।)

पद – 6

जौं बहु मान करै कोउ मेरौ, किये बहु मानत नाहिं बड़ाई।

जौं अपमान करै कोउ कैहूँ, किये अपमान नहीं लघुताई ॥

श्रीहरिवंश गिरा रस सागर, माँझ मगन्न सबै निधि पाई।

जौं हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – यदि कोई मेरा अत्याधिक मान-सम्मान करे तो भी मैं उसके द्वारा किये अपने इस अति सम्मान को अपनी कुछ बड़ाई (प्रभुता) नहीं मानता और यदि कोई मेरा किसी प्रकार का अपमान भी करे तो उसके ऐसा करने (अपमान करने ) पर अपनी लघुता (छोटापन) नहीं मानता क्योंकि मैंने तो श्रीहरिवंश वाणी रूपी रस समुद्र में मग्न होकर सम्पूर्ण आनन्द निधि पा ली है; इसलिये [मुझे इन द्वन्द्वों का कोई ध्यान ही नहीं है और जिनकी कृपा से यह स्थिति प्राप्त हुई है उन] श्रीहरिवंश को छोड़ कर मैं किसी और का भजन करूँ तो मुझे उन्हीं श्रीहरिवंश की ही दुहाई ( शपथ) है। (अर्थात् मैं श्रीहरिवंश को ही सर्वसार जानकर अनन्य भाव से उनका ही भजन करता हूँ।)

पद – 7

कही बन केलि निकुंज निकुंजनि, नव दल नूतन सेज रचाई।

नाथ बिरंमि-बिरंमि कही तब, सो रति तैसी धौं कैसे भुलाई ॥

सत्वर उठे महा मधु पीवत, माधुरी बानी मेरे मन भाई ।

जौं हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अपनी वाणी में वर्णन किया है श्रीवृन्दावन की प्रेम क्रीड़ा का। उस क्रीड़ा में आपने कुञ्ज निकुञ्जों में नवीन किशलय दलों से नूतन शय्या रचना का वर्णन किया है। विहार के प्रवाह में प्रियतम ने ‘विरमि विरमि’ ये जो शब्द कहे हैं वे जिस प्रीति से कहे हैं, वह रति भला कैसे भुलाई जा सकती है? इसी प्रकार आपके द्वारा वर्णित भाव कि ” श्रीलालजी, प्रियाजी का महा मधुर अधरामृत पीकर जागृत हो उठे”, इसकी मधुरता मेरे मन को अत्याधिक प्रिय लगी।

श्रीसेवक कहते हैं कि श्रीहरिवंश-वाणी के इस महा मधुर रस का आस्वादन करके भी यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़कर अन्य किसी का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है।

पद – 8

भुज अंसन दीनें बिलोकि रहे, मुख चंद उभै मधु पान कराई।

आपु विलोकि हृदै कियौ मान, चिबुक्क सुचारु प्रलोइ मनाई ॥

श्रीहरिवंश बिना यह हेत, को जानैं कहा को कहै समुझाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई।।

भावार्थ – युगल सरकार परस्पर एक दूसरे के कन्धों पर भुजाएँ अर्पित किये मुखकमल का दर्शन करते हुए मुख-माधुरी का पान कर रहे हैं। ऐसा हरिवंश वाणी, श्रीहित चौरासी पद संख्या ३२ में वर्णित है। जब [ प्रियतम के ] हृदय में स्वयं की छवि का दर्शन करके श्रीप्रियाजी ने मान कर लिया तो प्रियतम ने आपका सुन्दर चिबुक सहलाकर आपको मना लिया। श्रीहरिवंशचन्द्र के बिना भला कौन इस हित प्रीति को जान सकेगा और समझाकर कह सकेगा?

[ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] ऐसे सर्वज्ञ, रसज्ञ एवं मर्मज्ञ श्रीहरिवंश को छोड़कर यदि मैं किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है अर्थात् मैं कभी भी उनका परित्याग नहीं कर सकता; वही मेरे सर्वस्व हैं।

पद – 9

श्रीहरिवंश सु नाद सुरीति, सुगान मिलैं बन माधुरी गाई ।

श्रीहरिवंश वचन्न रचन्न सु, नित्य किसोर किसोरी लड़ाई |

श्रीहरिवंश गिरा रस रीति सु, चित्त प्रतीति न आन सुहाई।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश-दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र ने अपनी सु वाणी में सुनाद ( सुन्दर वंशीनाद), सुरीति (रस-रीति) और सुगान (प्रेम रस गान) द्वारा वृन्दावन-माधुरी का गान किया है। श्री हरिवंश जी ने अपनी वचन-रचना (वाणी) के द्वारा नित्य किशोर एवं नित्य किशोरी का लाड़-दुलार किया है। श्रीसेवकजी कहते हैं मेरे चित्त को तो बस श्रीहरिवंशचन्द्र की वाणी में वर्णित रस-रीति का ही एकमात्र विश्वास है। मुझे इसके सिवाय और कुछ अच्छा ही नहीं लगता; अतएव यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़ किसी और का भजन करूँ, तो मुझे श्रीहरिवंश की ही शपथ है।

पद – 10

श्रीहरिवंश कौ नाम सु सर्वसु, जानि सु राख्यौ मैं चित्त समाई ।

श्रीहरिवंश के नाम प्रताप कौ, लाभ लह्यौ सो कह्यौ नहिं जाई ॥

श्रीहरिवंश कृपा तैं त्रिशुद्ध कै साँची यहै जु मेरे मन भाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – मैंने श्रीहरिवंश के इस सुन्दर नाम को ही अपना सु सर्वस्व समझकर चित्त में धारण कर रखा है और मैंने श्रीहरिवंश नाम प्रताप का जो लाभ पाया है वह तो मेरी वाणी द्वारा कहा भी नहीं जा सकता (अनिर्वचनीय है।) श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से मन-वचन, कर्म की त्रिशुद्धि के पश्चात् सत्य रूप से मेरे मन में यही बात अच्छी लगी कि यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़ किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही शपथ है।

पद – 11

देखे जु मैं अवतार सबै भजि, तहाँ-तहाँ मन तैसौ न जाई ।

गोकुलनाथ महा ब्रज वैभव, लीला अनेक न चित्त खटाई ॥

एक ही रीति प्रतीति बँध्यौ मन, मोहीं सबै हरिवंश बजाई।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – मैंने सब अवतारों को भजकर देख लिया [ उनमें कोई ऐसा आकर्षण विशेष नहीं है ] जिससे उनमें मन अपने आप यानि सहज रूप से नहीं लगता | गोकुलनाथ बालकृष्ण की वैभवपूर्ण ब्रज लीलाएँ भी अनेक हैं; तथापि उनमें भी मेरा चित्त रुचि नहीं मानता या वे लीलायें मेरे चित्त में नहीं खटातीं अपितु मेरा मन तो एक ही रीति की प्रतीति ( विश्वास) में बँध चुका है; वह क्या? जो श्रीहरिवंश ने डंके की चोट में अपनी रसरीति से सबको मोहित कर लिया है, किंवा श्रीहरि ने वंशी बजाकर जिस रीति से सबको मोहित कर लिया; बस उसी रस रीति की प्रतीति मेरे मन में है अन्य की नहीं; अतएव ऐसे रस रूप श्रीहरिवंश को छोड़कर यदि मैं किसी और का भजन करूँ तो करूँ कैसे ? यदि करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की दुहाई है अर्थात् मैं ऐसा त्रिकाल में नहीं कर सकता।

पद – 12

नाम अरद्ध हरै अघ पुंज, जगत्त करै हरि नाम बड़ाई।

सो हरि वंश समेत संपूरन, प्रेमी अनन्यनि कौं सुखदाई ॥

श्री हरिवंश कहंत सुनंत, छिन छिन काल वृथा नहिं जाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश’ नाम का केवल आधा ‘हरि’ ही समस्त पाप-समूहों का नाश करने में समर्थ है इसलिये विश्व इस ‘हरि’ नाम का यशोगान करता है। किन्तु वही ‘हरि’ नाम वंश के साथ मिलकर ‘हरिवंश’ इस सम्पूर्ण रूप में अनन्य प्रेमियों के लिये सुखदायक बनता है केवल ‘हरि’ आधे रूप में नहीं। इस श्रीहरिवंश नाम का कथन-श्रवण करते कराते क्षण भर समय भी वृथा नहीं जाता, सब सार्थक होता है; अतएव मैं निरन्तर केवल इसी का भजन करता हूँ, यदि इस श्रीहरिवंश नाम को छोड़कर किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है।

पद – 13

श्रीहरिवंश सु प्रान, सु मन हरिवंश गनिज्जै ।

श्रीहरिवंश सु चित्त, मित्त हरिवंश भनिज्जै ॥

श्रीहरिवंश सु बुद्धि, बरन हरिवंश नाम जस।

श्रीहरिवंश प्रकाश, बचन हरिवंश गिरा रस ।

हरिवंश नाम बिसरै न छिन, श्रीहरिवंश सहाय भल।

हरिवंश चरन सेवक सदा, सपथ करी हरिवंश बल ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश मेरे सुन्दर प्राण हैं, श्रीहरिवंश ही सुन्दर मन हैं, ऐसा जानिये। श्रीहरिवंश ही सुन्दर चित्त और श्रीहरिवंश ही मित्र कहे जाते हैं। श्रीहरिवंश सुन्दर बुद्धि और श्रीहरिवंश के चार वर्ण ही सुयश हैं। श्रीहरिवंश के वचन ( प्रबोध, उपदेश) ही प्रकाश (दिव्य ज्ञान) और श्रीहरिवंश की वाणी रस रूपा है।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं सदा सर्वदा श्रीहरिवंश चरणों का ही सेवक हूँ। मुझे श्रीहरिवंश नाम एक क्षण के लिये भी नहीं भूलता और श्रीहरिवंश ही मेरे परम सहायक हैं; अतः मैंने उन्हीं के बल पर उन्हीं (श्रीहरिवंश) की शपथ ली है।


श्रीहित अकृपा-कृपा लक्षण
( नवम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

यों तो सब प्राणियों पर प्रभु की कृपा समान रूप से है ही; क्योंकि सब जीव उनके ही अंश हैं, किन्तु यहाँ पर ‘कृपा और अकृपा’ नाम से जिस कृपा का वर्णन किया गया है, इस का अभिप्राय विशेष कृपा से है। प्रभु कृपा से सम्पन्न जीव वही कहा जायगा जो प्रभु प्रेम से सम्पन्न होगा। श्रीहरिवंश-चरणाश्रित होकर युगल किशोर के दिव्य प्रेम रस का जिन किन्हीं बड़भागी जनों ने पान किया है, वे सब भी प्रभु कृपा से सम्पन्न हैं। जिन्होंने उसका आस्वादन नहीं किया, फिर वे कितने ही बड़े क्यों न कहलाते हों, कृपा से रीते कृपा रहित ही हैं। श्रीसेवकजी का यही मत है।

इस प्रकरण में श्रीहरिवंश कृपा से रहित जीवों का परिचय और श्रीहरिवंश कृपा सम्पन्न जीवों का परिचय दो खण्डों में अलग-अलग सोरठों में दिया गया है। प्रथम अकृपा के दस सोरठे इस प्रकार हैं

अकृपा लक्षण

पद – 1

सब जग देख्यौ चाहि, काहि कहौं हरि-भक्ति बिनु ।

प्रीति कहूँ नहिं आहि, श्रीहरिवंश-कृपा बिना ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं-] मैंने सब संसार को अच्छी प्रकार (छान बीनकर) देख लिया है। तब किसके लिये कह दूँ कि ये “हरि-भक्ति-विहीन” हैं अर्थात् ‘हरि-भक्ति’ तो सबमें है परन्तु श्रीहरिवंश कृपा के बिना प्रीति अवश्य कहीं नहीं हैं; [ क्योंकि श्रीहरिवंश कृपा में ही प्रीति का उदय है।]

पद – 2

गुप्त प्रीति कौ भंग संग प्रचुर अति देखियत ।

नाहिंन उपजत रंग, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – प्राय: देखा जाता है कि सङ्ग (आसक्ति) की प्रचुरता (अधिकता) से गुप्त प्रीति का विनाश (भंग) हो ही जाता है। अतएव श्रीहरिवंश कृपा के अभाव में [ यह विनाश होने पर ] आनन्द (रंग) की उत्पत्ति नहीं हो पाती।

पद – 3

मुख बरनत रस रीति, प्रीति चित्त नहिं आवई।

चाहत सब जग कीर्ति, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश – कृपा से विहीन लोग प्रेम से शून्य होने पर भी सारे संसार में अपनी कीर्ति फैलने की आशा लगाये रखते हैं। यद्यपि वे अपने मुख से प्रेम तत्व रस रीति का वर्णन भी करते हैं किन्तु उनके चित्त में प्रीति का उदय नहीं होता।

पद – 4

गावत गीत रसाल, भाल तिलक सोभित घना |

बिनु प्रीतिहिं बेहाल, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – चाहे कोई भले ही बड़े सरस गीत गाता हो और उसके ललाट पर अत्यन्त सुन्दर तिलक भी क्यों न हो ? किन्तु [इन बाह्य चिह्नों से क्या होता है?] वह तो श्रीहरिवंश कृपा रूप प्रेम प्राप्ति के बिना विह्वल ही देखा जायगा।

पद – 5

नाचत अतिहिं रसाल, ताल न सोभित प्रीति बिनु ।

जनु बींधे जंजाल, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – कुछ लोग अत्यन्त रसीले नृत्य करते और ताल भी देते हैं किन्तु प्रीति के बिना उनका नृत्य-ताल शोभा नहीं पाता। वे बेचारे श्रीहरिवंश कृपा के बिना तो नृत्य-ताल के जञ्जाल में ही बिंधे (उलझे) हैं।

पद – 6

मानत अपनौ भाग, राग करत अनुराग बिनु ।

दीसत सकल अभाग, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – कितने एक लोग हृदय में अनुराग के न रहने पर भी रागी ( प्रेमी) की सी क्रिया करके प्रेम दिखाते और अपने भाग्य की स्वयं सराहना करते हैं, [किन्तु यह सब उनका भ्रम है। ] उनका दुर्भाग्य तो स्पष्ट दीख रहा है कि वे श्रीहरिवंश कृपा से विहीन है; [ तब वहाँ अनुराग और सौभाग्य कहाँ ? ]

पद – 7

पढ़त जु वेद पुरान, दान न सोभित प्रीति बिनु ।

बींधे अति अभिमान, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – भले ही कोई वेद एवं पुराणों का पाठ कर रहा है एवं दान भी देता है किन्तु उसके दान और वेद-पाठ प्रेम के बिना शोभा नहीं पाते। वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना अभिमान का ही शिकार है। वेद पाठ और दान के अभिमान से बिद्ध है।

पद – 8

दरसन भक्त अनूप, रूप न सोभित प्रीति बिनु ।

भरम भटक्कत भूप, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – कुछ लोग दर्शनीय भक्त होते हैं [ अर्थात् रूप, रंग, अवस्था और शरीर की गठन आदि उनकी प्रत्येक स्थिति मनोहर होती है और तिस पर वे तिलक मुद्रा, छाप, कण्ठी, माला आदि से अपने आपको और भी सुसज्जित कर लेते हैं । ] इनका रूप भी अनूप (उपमा न दे सकने योग्य) होता है, किन्तु केवल एक प्रीति के बिना यह सब रूप-स्वाँग शोभा नहीं देता। ये भी अपने आपको ‘भक्तराज’ मानकर भ्रम (भ्रान्ति) में ही भटकते रहते हैं, क्योंकि इतना सब होने पर भी यदि श्रीहरिवंश कृपा नहीं है, तो प्रेम मिल नहीं सकता और प्रेम के बिना और सब कुछ नट के स्वांग से अधिक क्या है?

पद – 9

सुंदर परम प्रवीन, लीन न सोभित प्रीति बिनु ।

ते सब दीखत दीन, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – कोई सुन्दर है, परम चतुर है और प्रत्येक गुण में लीन है (अर्थात् उन-उन गुणों में पूरी तरह से उसका प्रवेश है) किन्तु यदि उसके प्रीति नहीं है, तो ये सारे गुण शोभा नहीं पाते। वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना दीन ही दीखता है और उसके सब गुण भी दीन दीखते हैं।

पद – 10

गुन मानी संसार, और सकल गुन प्रीति बिनु ।

बहुत धरत सिर भार, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – संसार गुण मानी है (अर्थात गुणों का ही आदर करना जानता है) यदि किसी के पास एक प्रीति के सिवाय अन्य सारे गुण हैं, तो क्या हुआ? वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना प्रीति को न पाकर सारे गुणों का केवल बोझ अपने सिर पर रखे बैठा है। प्रेम के बिना उन गुणों की क्या महत्ता है ?

कृपा – लक्षण

श्रीहरिवंश कृपा से रहित जीवों की दशाओं का वर्णन करके अब कृपा सम्पन्न बड़भागी जनों का स्वरूप परिचय कराते हैं कि उनमें कौन-कौनसी विशेषताएँ प्रकट हो जाती हैं।

पद – 1

मुख बरनत हरिवंश, चित्त नाम हरिवंश रति ।

मन सुमिरन हरिवंश, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश की कृपा का यही प्रकट लक्षण है कि जिस पर इस कृपा का स्रोत बहता है, वह मुख से श्रीहरिवंश के गुण एवं लीलाओं का वर्णन करता, चित्त में श्रीहरिवंश-नाम से रति करता और मन में श्रीहरिवंश का ही स्मरण करता है।

पद – 2

सब जीवन सौं प्रीति, रीति निबाहत आपनी ।

श्रवण कथन परतीति, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – जो अपनी रीति (श्रीयुगल किशोर के नित्य विहार रस श्रीवन विहार में अनन्य निष्ठा) का निर्वाह करते हुए विश्व के सब जीवों से प्रीति (सम भाव) रखता और अपने इष्टदेव के गुण, लीला-चरित्र आदि के श्रवण कथन में विश्वास रखता हो, मानो वह श्रीहरिवंश की कृपा का पात्र है अथवा यही श्रीहरिवंश की कृपा का फल है कि उक्त गुणों का अपने में प्रकाश हो ।

पद – 3

शत्रु मित्र सम जानि, मानि मान अपमान।

सम दुख सुख लाभ न हानि, जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश कृपा का यह स्वरूप है कि कृपा पात्र शत्रु और मित्र में समभाव वाला हो जाय और मान एवं अपमान में भी सम हो जाय। उसके लिये न कुछ सुख रह जाय न दुख; न लाभ न हानि ही भाव यह कि उसके लिये सुख-दुःख एवं लाभ-हानि के द्वन्द्व चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले न हों अथवा श्रीहरिवंश- -कृपा पात्र जन की शत्रु मित्र, मान-अपमान, सुख-दुःख, लाभ और हानि में सम बुद्धि हो जाती है।

पद – 4

नित इक धर्मिन संग, रंग बढ़त नित नित सरस।

नित नित प्रेम अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – नित्य निरन्तर ऐकान्तिक (अनन्य ) धर्मियों का संग मिलना, नित्य नित्य सरस आनन्द की वृद्धि होना और नित्य प्रति अखण्ड अनुराग की प्राप्ति होना ही श्रीहरिवंश की कृपा है, क्योंकि बिना कृपा के ये सभी बातें सम्भव नहीं हैं।

पद – 5

निरखत नित्यबिहार, पुलकित तन रोमावली ।

आनंद नैन सुढार, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – नित्यविहार का दर्शन हो रहा हो, सम्पूर्ण शरीर आनन्द से पुलकित हो- रोमाञ्चित हो, नेत्रों से आनन्द के आँसुओं का प्रवाह ढल रहा हो, यह सब श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है।

पद – 6

छिन छिन रुदन करंत, छिन गावत आनंद भरि ।

छिन छिन हहर हसंत, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – जिस पर श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है, वह प्रेम में उन्मत्त होने के कारण क्षण-क्षण में रोदन करता; क्षण-क्षण में आनन्द से भरकर गाने लगता और फिर क्षण-क्षण में हँसने लगता है।

पद – 7

छिन छिन बिहरत संग, छिन छिन निरखत प्रेम भरि ।

छिन जस कहत अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा प्राप्त हो जाने पर प्रेमी प्रत्येक क्षण युगल सरकार के साथ श्रीवन में विहार करता, क्षण-क्षण में प्रेम से परिपूरित नेत्रों से उनकी महामधुर छबि का दर्शन करता और क्षण-क्षण में उनके शाश्वत यश का मस्ती के साथ गान करता है।

पद – 8

निरखत नित्य किसोर, नित्य नित्य नव नव सुरति ।

नित निरखत छबि भोर, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से पूर्ण प्रेमी नित्य किशोर की नित्य नूतन प्रेम क्रीड़ा (सुरत विलास) का दर्शन करता और फिर प्रातः काल युगल किशोर की (सुरतालस पूर्ण ) छबि का भी दर्शन करता है (अर्थात् वह प्रेमी प्रभु कृपा से उस वस्तु को प्राप्त करता है, जो औरों के लिये अगम्य है। )

पद – 9

त्रिपित न मानत नैंन, कुंज रंध्र अवलोकतन।

यह सुख कहत बनैं न, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – युगल किशोर के ऐकान्तिक विहार को कुञ्ज रन्ध्रों (छिद्रों) से अवलोकन करते रहने पर भी मेरे नेत्र तृप्ति नहीं मानते। यह सुख कुछ कहते नहीं बनता [ इस दिव्य सुख में सराबोर करा देना ] यह श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है।

पद – 10

कहा कहौं बड़भाग, नित नित रति हरिवंश हित ।

नित बर्धित अनुराग, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – मैं अपने महान्तम भाग्य की क्या प्रशंसा करूँ; क्योंकि मेरे हृदय में नित्य नित्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र की रति का उदय हो रहा है और यह अनुराग नित्य प्रति बढ़ता ही जा रहा है। यह श्रीहरिवंशचन्द्र की ही कृपा है।

सेवकजी प्रकरण की समाप्ति करते हैं

पद – 11

नित बर्धित अनुराग भाग अपनौ करि मानत ।

नित्य नित्य नव केलि निरखि नैंननि सचु मानत ॥

नित नित श्रीहरिवंश नाम नव नव रति मानत।

नित नित श्रीहरिवंश कहत सोई सिर मानत ॥

आपुनौ भाग आपुन प्रगट कहत जु श्रीहरिवंश बल।

हरिवंश भरोसे भये निडर सु नित गर्जत हरिवंश बल ॥

भावार्थ – अनुराग के नित्य बढ़ने में ही मैं अपना अहो भाग्य मानता हूँ और नित्य नव नवायमान् केलि का अवलोकन कर परम सुख का अनुभव करता हूँ। श्रीहरिवंश नाम के प्रति ( जो विहार का भी मूल है) नित्य नयी प्रीति करता और श्रीहरिवंशचन्द्र ने जो कुछ कहा है उसे सदा सर्वश्रेष्ठ (शिरोमणि रूप) मानता हूँ।

श्रीसेवक जी कहते हैं कि मैं स्वयं अपना भाग्योदय श्रीहरिवंश बल से प्रकट कह रहा हूँ, क्योंकि मैं श्रीहरिवंश – विश्वास से सब प्रकार से निर्भय हो चुका हूँ। इसीलिये अपने विजय और भाग्योदय की गर्जना करता रहता हूँ।


श्रीहित भक्त – भजन
( दशम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में भक्तों (उपासकों) के एकमात्र भजनीय तत्व का निरूपण किया गया है। यों तो युगल किशोर प्राणिमात्र के भजनीय हैं। किन्तु युगल किशोर के चरणों में प्रीति उत्पन्न करा देने वाले साधक रसिक-भक्तजनों (उपासकों) के लिये युगलकिशोर से पहले रसिक जन ही भजनीय हैं। यह बात सिद्ध है कि भक्तों की कृपा के बिना भक्ति या प्रेम नहीं मिल सकता, अतएव मन, वचन, कर्म सर्वप्रकार से भजनीय केवल भक्तजन ही हैं। श्रीसेवकजी ने इस भजन के प्रकरण को दो विभागों में बाँट दिया है- एक भक्त भजन सिद्धान्त और दूसरा रस सिद्धान्त।

पहले भक्त भजन सिद्धान्त में भक्तों का स्वरूप, उनके प्रति अनन्य और पूज्य भाव, उनकी आराधना से लाभ आदि बातों का स्पष्टीकरण किया गया है और दूसरे रस सिद्धान्त में युगलकिशोर जो समस्त रसिक जनों के सर्वस्व हैं, उनके ऐकान्तिक विहार का स्वरूप प्रकट किया गया है। युगल किशोर का यह ऐकान्तिक-विहार हित तत्व से किस प्रकार ओतप्रोत है, यह भी प्रकट किया गया है। इस रसमय तत्व की उपलब्धि के लिये साधक क्या करे ? किस भावना से यह रस अनुभव में आ सकेगा, इस प्रकरण का अन्तिम विषय है।

अब प्रथम छन्द में आप यह बताते हैं कि भक्त कौन हैं और उनके प्रति किस प्रकार की पूज्य बुद्धि रखनी चाहिये ।

भक्त भजन-सिद्धान्त

पद – 1

श्रीहरिवंश सुधर्म दृढ़, अरु समुझत निजु रीति ।

तिनकौ हौं सेवक सदा (सु) मन क्रम वचन प्रतीति ॥

मन क्रम वचन प्रतीति प्रीति दिन चरन सँभारौं ।

नित प्रति जूठनि खाऊँ बरन भेदहिं न विचारौं ॥

तिनकी संगति रहत जाति कुल मद सब नसहिं ।

संतत ‘सेवक’ सदा भजत जे श्रीहरिवंशहिं ।

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश धर्म में पक्के (दृढ़) हैं और अपनी रीति ( रसोपासना ) को भली प्रकार से समझते हैं, मैं उनका मन, वचन, कर्म एवं विश्वास पूर्वक सदा सर्वदा सेवक हूँ। मन, वचन, कर्म, विश्वास एवं प्रीति के साथ नित्य प्रति उनके चरणों को ही (सर्वस्व की तरह) सँभालता रहता हूँ। मैं उनके प्रति वर्ण भेद (जाति विचार) न मानकर सदा उनका जूँठन ही खाता हूँ या खाऊँ। उन (रस भीनें हरिवंश-धर्मी जनों) की संगति में रहते जाति, कुल आदि के सारे अहंकार नष्ट हो जाते हैं, अतएव मैं श्रीहरिवंश का भजन करने वाले जनों का सदा सर्वदा का सेवक हूँ, (ऐसा श्रीसेवक जी कहते हैं । )

पद – 2

सब अनन्य साँचे सुविधि, सबकौ हौं निजु दास।

सुमिरन नाम पवित्र अति, दरस परस अघ नास॥

दरस परस अघ नास, बास निजु संग करौं दिन।

तिन मुख हरि जस सुनत, श्रवन मानौं न त्रिपित छिन।

कलि अभद्र बरनत सहस, कलि कामादिक द्वंद्व तब। सेवक सरन सदा रहै, साँचे सुविधि अनन्य सब ॥

भावार्थ – जो भली प्रकार से सच्चे अनन्य रसिक हैं, मैं उन सबका निज दास हूँ। उन का नाम स्मरण अत्यन्त पवित्र होता है तथा उनका दर्शन-स्पर्श अघ नाशक है। जिनके दर्शन और स्पर्श से पापों का नाश हो जाता है मैं ऐसे रसिक अनन्यों का निरन्तर सहवास और ऐकान्तिक सहज संग करूँ, उनके मुख से श्रीहरि का सुयश सुनते हुए कभी मेरे कर्ण पुट (कान) एक क्षण भर को भी तृप्ति न माने। (उन रसिकों के द्वारा श्री हरि के सुयश) वर्णन किये जाने पर कलियुग के हजारों हजारों अमंगल, कलह, काम, क्रोध लोभ, मोहादि, द्वन्द्व वहाँ (सेवक के पास ) कैसे रह सकते हैं ? इसलिये जो सच्चे और भली प्रकार से अनन्य हैं, ‘सेवक’ उन सबकी चरण-शरण में सदा रहा आवे, यही अभिलाषा है, (अथवा सदा उनकी चरण शरण में रहता है । )

पद – 3

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ ।

रसिक अनन्य सजाति भजि, भली भली सब होइ ॥

भली भली सब होइ, जबहिं हरिवंश चरन रति ।

भली भली तब होइ, रचित रस रीति सदा मति ॥

भली भली सब होइ, भक्ति गुरु-रीति अगाधा।

भली भली सब होइ, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू श्रीराधावल्लभ का भजन करने वालों का भजन कर ( अर्थात् अनन्य रसिकों की सेवा कर) इसमें तो तेरा सब प्रकार मंगल लाभ होगा। तू रसिक अनन्यों के सजातीय (रसिक अनन्यों) का भजन कर, सब भला ही भला होगा। विशेष लाभ सुख तू तब पावेगा जब तू श्रीहरिवंश चरणों में रति करेगा और सब प्रकार भला ही भला तब होगा, जब तेरी मति (बुद्धि) श्रीहरिवंश-रचित रस-रीति में सदा के लिये लग जायगी। सब भला ही भला हुआ, ऐसा तो तब कहा जा सकेगा, जब श्रीगुरुदेव द्वारा बतायी गयी रीति ( रसमय हित भजन प्रणाली) में तेरी अगाध भक्ति हो जायगी और मूल बात तो यह है कि जब तू श्रीहरि राधा के भजनानन्दी रसिकों का भजन करने लग जायगा, तभी तेरा भला है- कल्याण ही कल्याण है।

पद – 4

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ ।

असुभ अनर्भल संग जन, विमुख तजौ सब कोइ ॥

विमुख तजौ सब कोइ, झूठ बोलत सच मानत।

दोष करत निरसंक, रंक करि संतन जानत॥

अभिमानी गर्विष्ठ, लोभ मद मत्त अगाधा।

दुष्ट परिहरौ दूर, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – हे भाई! तू श्रीराधावल्लभ का भजन करने वाले भक्तों का भजन सेवन कर, इससे तेरा सर्वविध मंगल होगा और तू अशुभ एवं बुरा सङ्ग त्याग दे, तथा जितने भी भगवद् विमुख जन उन सब को भी त्याग दे। इन विमुखों को इसलिये त्याग कि ये लोग झूठ बोलने में तो सुख मानते, निडर और निःशंक होकर दोष (अपराध) करते और सन्त-महात्माओं को (जो विरक्त और अकिञ्चन होते हैं, उन्हें) गरीब (भिखारी) मानते हैं। इन अभिमानी, गर्व से भरे हुए, लोभ और मद से अत्यन्त मतवाले दुष्टों को तू दूर से ही त्याग दे और श्रीहरि राधा के भजन करने वाले भक्तों का ही भजन सेवन कर।

पद – 5

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

जिते विनायक सुभ-असुभ, बिघ्न करैं नहिं कोई ॥

बिघ्न करै नहिं कोई, डरैं कलि काल कष्ट भय।

हरैं सकल संताप, हरषि हरि नाम जपत जय ॥

श्रीवृंदावन नित्य केलि, कल करत अगाधा।

हित हरिवंश किसोर, भजत भजि श्रीहरिराधा ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू श्रीराधावल्लभ के भक्तों का ही भजन सेवन कर इससे तेरा सब भला ही भला होगा और जितने भी विनायक, शुभ और अशुभ आदि हैं वे कोई भी तुझे विघ्न नहीं पहुँचा सकते। ये विनायक आदि बिघ्न तो पहुँचावेंगे नहीं और साथ-साथ तुझसे कलियुग के धर्म कलह, कष्ट, काल आदि भय मानेंगे। भक्तजन तेरे समस्त सन्तापों का हरण कर लेंगे। हर्ष पूर्वक श्रीहरि का नाम जपते-गाते तेरी सर्वत्र जय ही होगी। जो श्रीवृन्दावन में नित्य निरन्तर अगाध एवं परम सुन्दर केलि करते रहते हैं, उन श्रीहित हरिवंश किशोर श्रीहरि राधा का भजन करने वाले भक्तों का तू भजन कर।

पद – 6

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

त्रिविध ताप नारौं सकल, सब सुख संपति होइ ॥

सब सुख संपति होइ, होइ हरिवंश चरन रति ।

होइ विषय विष नास होइ वृंदावन बसि गति ॥

होइ सुदृढ़ सतसंग, होइ रस रीति अगाधा।

होइ सुजस जग प्रगट होइ पद प्रीति सु राधा ॥

भावार्थ – अरे भैय्या ! श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन करने से तेरा तो सब प्रकार से भला होगा तथा तेरे तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक) ताप ही क्या और भी सब प्रकार के शोक नाश को प्राप्त होकर तुझे समस्त सुख एवं सम्पत्ति भी प्राप्त होगी। सब सम्पत्ति प्राप्त होकर भी तुझे श्रीहरिवंश चरणों की प्रीति प्राप्त होगी, विषय भोग रूप विषों का नाश होगा और श्रीवृन्दावन का निवास प्राप्त होकर तेरी उत्तम गति (नित्य-विहार में प्राप्ति) भी होगी। तुझे सुदृढ़ सत्संग की प्राप्ति होगी और उसके फल स्वरूप युगल- सरकार की अगाध रस-रीति भी अनुभव होगी। तेरा सुयश संसार में फैल जायगा और श्रीराधा के सुन्दर-चरणों में तेरी अपार प्रीति हो जायगी। ( यह है, श्रीराधावल्लभ के भक्तों के भजन का फल ! )

पद – 7

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली-भली सब होइ ।

भीर मिटै भट जमन की, भय भंजन हरि सोइ ॥

भय भंजन हरि सोइ, भरम भूल्यौ भटकत कति ।

भगवत-भक्ति बिचारि, वेद भागौत प्रीति रति ॥

भक्त चरन धरि भाव, तरत भव सिंधु अगाधा।

हित हरिवंश प्रसंस, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन-सेवन करते सब भला ही भला होगा, यमराज के योद्धा दूतों का भय मिट जायगा; क्योंकि वे श्रीहरि (राधा वल्लभ) भय का नाश करने वाले हैं (तू जिनके भक्तों का सेवन करता है । ) जब तू यह जान गया कि वे श्रीहरि भय-भञ्जन हैं, तब भ्रम में भूला हुआ कहाँ भटकता फिरता है? भगवद्भक्ति का विचार मनन कर, वेद एवं श्रीमद्भागवत में वर्णित प्रीति में रति कर अर्थात् श्रीमद्भागवत में कही गई नवधा या प्रेम लक्षणा की रीति से श्रीराधा वल्लभ एवं उनके रसिक अनन्य भक्तों से प्रेम कर, और भक्तों के चरणों में भाव रख करके इस अगाध संसार-सागर को क्यों नहीं पार कर जाता? अरे! जिन भक्तों की प्रशंसा श्रीहरिवंश चन्द्र ने भी की है, तू राधावल्लभ के उन भक्तों का ही सेवन कर।

पद – 8

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

अन्य देव सेवी सकल, चलत पुँजी सी खोइ ॥

चलत पुँजी सी खोइ रोइ झखि द्यौस गँवावहिं।

सोइ छपत सब रैन, जोइ कपि सम जु नचावहिं॥

भोइ विषम विष विषय, कोई सतगुरु नहिं लाधा।

धोड़ सकल कलि कलुष, दोइ भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – अरे भाई! श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन करने से तेरा सर्वविध मंगल ही होगा। अन्य देवताओं का सेवन करने वाले अन्त में इस संसार से अपनी पूँजी खोकर चले जाते हैं। उनके साथ में कुछ नहीं जाता; क्योंकि उन्होंने सकाम भाव से लौकिक भोग ही देवताओं से प्राप्त किये थे, सो भोग कर ज्यों के त्यों रीते-भक्ति रहित चले जाते हैं।) वे अन्त काल में पूँजी खोकर तो जाते ही हैं, वरं जीवन में भी रो-झींख कर अपने दिन गमाते हैं, सारी रात सोकर नींद में व्यतीत करते हैं और उन्हें स्त्रियाँ अपना वशवर्ती बनाकर बन्दर की तरह नचाती हैं। उनका चित्त विषम (भीषण) विषय रूपी विष से व्याप्त हो जाता है और अन्त तक वे किसी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं कर पाते। अतएव हे भाई! तू अन्य देव सेवी लोगों की दशा देख सुनकर सचेत हो जा। श्री हरि राधा केवल इन दोनों का भजन कर और समस्त कलि कल्मषों ( कलियुग के पापों) को धो डाल ।

पद – 9

राधावल्लभलाल बिनु, जीवन जनम अकत्थ।

बाधा सब कुल कर्म कृत, तुच्छ न लागै हत्था ॥

तुच्छ न लागै हत्थ, सत्य समरथ न वियौ तब।

माथ धुनत हरि विमुख, संग जम-पथ चलत जब ॥

गाथ विमल गुन गान, कत्थ जस भवन अगाधा।

नाथ अनाथनि हित, समर्थ मोहन श्रीराधा ॥

भावार्थ – श्रीराधावल्लभलाल के बिना जीवन और जन्म दोनों अकृतकार्य (व्यर्थ) हैं। सारे कुलोचित कर्म और अन्य कर्म भी बाधा स्वरूप और तुच्छ हैं; अन्त में सहायक सिद्ध नहीं होते। अरे भाई! ये जब तुच्छ हैं, यहीं छूट जाते हैं और फिर कोई ऐसा दूसरा नहीं रहता जो समर्थ हो, तेरा साथी हो और तुझे (या उन हरि-विमुख जनों को) अपना सिर पीटते हुए, यमदूतों के साथ संयमनी पुरी के मार्ग में चलना ही पड़ता है तब तू [ इन कुल कर्मों को छोड़कर] श्रीराधामोहन के निर्मल चरित्रों एवं गुणों की गाथा के गीत क्यों नहीं गाता। अरे! उन्हीं का कथन कर, उन्हीं का श्रवण कर क्योंकि वे समर्थ श्रीराधामोहन ही समस्त अनाथों के नाथ हैं !!

जो लोग भक्ति और भगवद्धर्म की महत्ता समझ कर भी उसे ग्रहण नहीं कर पाते उन कर्मठ और सशल्य लोगों का परिचय कराते है

पद – 10

कर्मठ कठिन ससल्य नित सोचत सीस धुनंत।

श्रीहरिवंश जु उद्धरी सोई रसरीति सुनंत ॥

सोइ रसरीति सुनंत अंत अनसहन करत सब।

जब जब जियनि विचारि सार मानत मन मन तब ॥

छिन छिन लोलुप चित्त, समुझि छाँड़त तातैं सठ।

करत न संत समाज, जिते अभिमानी कर्मठ ॥

भावार्थ – जब कठोर कर्मकाण्डी और सशल्य (बहुत देवी देवताओं के पूजने वाले) लोग श्रीहित हरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकट की गयी उस रीति का श्रवण करते हैं, तो अपनी कर्मठता और भटकन के लिये पश्चात्ताप करते हुए सिर पीटने लगते हैं। फिर कभी (अहंकार वश) उस रस रीति (की उत्तमता) को सुन समझकर भी उसके प्रति असहनीय भाव (विद्वेष) ले आते और अन्ततः विपरीत सा करने लगते हैं। किन्तु जब कभी सुस्थिर चित्त से विचार करते हैं तो मन ही मन रस रीति को ही सार मान कर उसकी बड़ाई भी करते हैं। ऐसा करने पर भी वे हैं तो वास्तव में लोलुप चित्त कर्मठ ही, अतः समझ-बूझ कर भी इस दिव्य रस रीति का त्याग कर देते हैं और अपनी कर्मठता में फँसे रहते हैं। इस प्रकार जितने भी अभिमानी कर्मठ (कर्म काण्ड में घोर निष्ठा वाले) हैं, वे (प्रेम भक्ति सम्पन्न) सन्तों का सङ्ग नहीं करते।

दसवें छन्द में अभक्त कर्मठों का स्वरूप बताया गया अब इसमें भावुक भक्तों की रहनी, भावना और उपासना आदि का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है

पद – 11

हित हरिवंश प्रसंस मन, नित सेवन विश्राम।

चित निषेध विधि सुधि नहीं, वितु संचित निधि नाम ॥

वितु संचित निधि नाम, काम सुमिरन दासंतन।

जाम घटी न विलंब, बाम-कृत करत निकट जन ।।

ग्राम पंथ आरन्य, दाम दृढ़ प्रेम ग्रथित नित।

ता मत रत सुख रासि, बाम दृश नव किसोर हित ॥

भावार्थ – अनन्य रसिक जन सदा अपने मन ही मन श्रीहरिवंश के रूप एवं गुणों की प्रसंसा और निरन्तर उनकी सेवन भक्ति में ही विश्राम करते अर्थात् स्थित रहते हैं। उनके चित्त में न तो विधि मार्ग की सुधि है और न निषेध की ही वे तो नाम निधि रूप परम धन का ही सञ्चय करते रहते हैं। उनका कार्य है भगवद् स्मरण और भगवद् सेवा वे इस सेवा कार्य में कभी घड़ी पहर का भी विलम्ब न करके अत्यन्त निकट जन (दासी) के भाव के समस्त दासी कृत्य (सेवायें ) करते रहते हैं। चे ग्राम में, मार्ग में, वन पर्वत में सर्वत्र एक प्रेम की ही दृढ़ डोरी से सर्वदा बँधे रहते हैं। इस प्रकार सुख शिवाम दृशा श्रीप्रिया जी एवं नव किशोर हित श्री लाल जी के सुख-चिन्तन के विचार में ही ये रसिक जन सदा रत रहते हैं, (अर्थात् सदा सेवा के ही विचार में मग्न रहते हैं।)

इस छन्द में सेवक जी श्रीराधा-परत्व पूर्वक श्रीवृन्दावन के अविचल विहार की प्रारंभिक रूप रेखा का दिग्दर्शन कराते हैं कि युगल सरकार किस प्रकार स्वच्छन्द भाव से अपनी क्रीड़ा सम्पन्न करते हैं

पद – 12

श्रीराधा आनन कमल, हरि अलि नित सेवंत।

नव नव रति हरिवंश हित, वृंदाविपिन बसंत ॥

वृंदाविपिन बसंत, परस्पर बाहु दंड धरि ।

चलत चरन गति मत्त, करिनि गजराज गर्व भरि ॥

कुंज भवन नित केलि, करत नव नवल अगाधा।

नाना काम प्रसंग करत मिलि हरि श्रीराध ॥

भावार्थ – श्रीहरि रूपी भ्रमर श्रीराधा-मुख कमल का निरन्तर सेवन करता रहता है, जहाँ दोनों के बीच में नित्य प्रति नव-नवायमान् रति ( प्रीति) के रूप में स्वयं श्रीहित हरिवंश ही हैं। यह क्रीड़ा नित्य वृन्दावन में होती है, जहाँ सदा ही वसन्त छाया रहता है। इस वासन्तिक श्रीवृन्दावन में युगल किशोर परस्पर में गलबहियाँ दिये मतवाली गति से पादविन्यास करते हुए समर्थ गजराज एवं मत्त करिणि (हथिनी) की भाँति झूमते चलते हैं। इसी प्रकार निरन्तर नव निकुञ्ज भवन में श्रीहरि और श्रीराधा दोनों मिलकर नाना प्रकार के काम-क्रीड़ा प्रसङ्ग (संयोग) और नित्य नूतन गंभीर क्रीड़ाएँ करते है।

इस छन्द में ‘नाना काम प्रसङ्ग’ के स्पष्ट रूप शय्या-विहार का संकेत करते हैं

पद – 13

मुख विहँस हरिवंश हित, रुख रस रासि प्रवीन।

सुख सागर नागर गुरू, पुहुप सैन आसीन ॥

पुहुप सैंन आसीन, कीन निजु प्रेम केलि बस।

पीन उरज वर परसि, भीन नव सुरत रंग रस ॥

खीन निरखि मद मदन दीन, पावत जु विलखि दुख।

मीनकेतु निर्जित सु लीन, प्रिय निरखि विहँसि मुख ॥

भावार्थ – रस राशि प्रवीण युगल किशोर को देखकर श्रीहित हरिवंश हँस पड़े। श्रीहित हरिवंश * ने देखा कि सुख-सागर स्वरूप चतुर शिरोमणि युगल किशोर पुष्प- शय्या पर विराजमान हैं। और वे अपनी स्वयं की प्रेम-क्रीड़ा के वशीभूत हो रहे हैं। प्रियतम ने प्रिया के पुष्ट एवं श्रेष्ठ उरोजों का स्पर्श किया और दोनों नव-सुरत-आनन्द के रस में सराबोर हो गये। दोनों की यह सुरतानन्दमयी दशा देखकर स्वयं कामदेव का अहंकार भी क्षीण हो गया और वह दीन होकर बहुत प्रकार से व्याकुल हो दुःख पाने लगा। अपने युगल प्रियतम की कामदेव को विजय करने की स्थिति किंवा काम के विलखने (दीन होने की दशा) का दर्शन करके श्रीहित हरिवंश चन्द्र हँस उठे।

श्रीहित हरिवंशचन्द्र युगल किशोर की रसमयी सुरत केलि के अवसर पर भी अपने ‘सजनि’ स्वरूप से उनके समीप निकुञ्ज भवन में शोभित रहते हैं और ‘हित’ स्वरूप से दोनों के हृदय में व्याप्त होकर रस क्रीड़ा सम्पन्न कराते हैं। अब इस विषय का परिचय दे रहे हैं

पद – 14

रस सागर हरिवंश हित लसत सरित वर तीर।

जस जग बिसद सुबिस्तरित बसत जु कुंज कुटीर ॥

बसत जु कुंज कुटीर भीर नव रँग भामिनि भर ।

चीर नील गौरांग सरस घन तन पीतांबर ॥

धीर बहत दक्षिन समीर कल केलि करत अस।

नीरज सैंन सु रचित वीर वर सुरत रंग रस ॥

भावार्थ – रस के सागर श्रीहित हरिवंशचन्द्र [ अपने निज स्वरूप सजनि भाव से ] निरन्तर सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी के तीर पर कुञ्ज कुटीर में निवास करते हुए शोभित रहते हैं; आपके पवित्र यश संसार में अच्छी तरह से व्याप्त हैं। आप उस कुञ्ज-कुटीर में निवास करते हैं, जहाँ नवरंग भामिनियों की भीड़ का प्रवाह सा रहा आता है। उन सबके मध्य में नील दुकूल धारिणि गौरांगी श्रीप्रियाजी एवं सरस घन की सी कांति से पूर्ण, पीताम्बरधारी श्रीलालजी शोभा पाते हैं। उस समय श्रीवन में दक्षिण दिशा का शीतल एवं सुगन्धित पवन धीरे-धीरे बह रहा है और युगल किशोर कुछ ऐसी सुन्दर केलि करते हैं कि कमल दलों से सुखद शय्या रचकर उस पर सुरत आनन्द रस के दोनों महान् योद्धा केलि मग्न हो जाते हैं।

अब वृन्दावन विहार के एक दूसरे अंग रास-क्रीड़ा एवं जल विहार की झाँकी कराते हैं कि वह भी वंशी रूप आचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र द्वारा पूर्ण होती है

पद – 15

पिय बिचित्र बन हरषि मन जिय जस बैंनु कुनंत ।

तिय तरुन्नि सुनि तुष्ट धुनि कियौ तहाँ गवन तुरंत ॥

कियौ तहाँ गवन तुरंत कंत मिलि बिलसत सर्वस।

तंतु रास मंडल जुरंत रस निर्त्त रंग रस ॥

संतत सुर दुंदुभि बजंत, बरषंत सुमन लिया।

अंत केलि जल जनुकि मत्त, इभराट करिनि पिय ॥

भावार्थ – प्रियतम श्रीलालजी ने श्रीवृन्दावन की विचित्र शोभा देखकर प्रसन्न मन हो अपने हृदय स्थित प्रिया यश का वेणु के द्वारा गान किया; तरुणी नारियों सखियों ने उस सुखमय ध्वनि का श्रवण किया और उन्होंने तुरन्त ही वहाँ (लालजी के समीप) गमन किया। वे प्रियतम से मिलकर अपने सर्वस्व दान पूर्वक विलास करने लगीं। श्रीवन में उस समय रसमय रासमण्डल एकत्र हुआ और रस पूर्ण नृत्य का आनन्द बरसने लगा। देवतागण निरन्तर दुन्दुभि बजाने लगे और मुग्ध होकर पुष्पों की वृष्टि करने लगे।

रास क्रीड़ा के पश्चात् अन्त में सब जल क्रीड़ा के लिये जल में प्रवेश कर ऐसे क्रीड़ा करने लगे जैसे मतवाला हाथी अपनी प्रियतमा करिणियों से क्रीड़ा करता है।

अब एक छन्द में शय्या विहार का वर्णन करते हैं-

पद – 16

हरि बिहरत बन जुगल जनु, तड़ित सु बपु घन संग ।

करि किसलय दल सैन भल, भरि अनुराग अभंग ॥

भरि अनुराग अभंग, रंग अपने सचु पावत।

अंग-अंग सजि सुभट, जंग मनसिजहिं लजावत ॥

पंगु दृष्टि ललितादि, तंक निरखत रंध्रनि करि।

मंग आदि रचि सिथिल, सजित उच्छंग धरत हरि ॥

भावार्थ – श्रीहरि श्रीवृन्दावन में विहार कर रहे हैं। उस समय युगल [ श्रीराधावल्लभ लाल] ऐसे शोभा पा रहे हैं, जैसे दामिनि अपने सुन्दर वपु से मेघ के सङ्ग फब रही हो। दोनों अभङ्ग अनुराग से भरे हुए किशलय दलों की सुन्दर शय्या रचकर अपने ही में सुख और आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। वे दोनों सुरत-रण के सुयोद्धा अपने अङ्ग अङ्गों से सजकर युद्ध में कामदेव को भी लजा रहे हैं। इस रस युद्ध को ललितादि सखियाँ | एकटक दृष्टि (थकित दृष्टि) से कुञ्ज भवन के छिद्रों से लगी हुई देख रही हैं और निकुंज भवन में श्रीलालजी प्रियतमा श्रीराधा की माँग रचकर शिथिल वेणी सजाते और उन्हें अपनी गोद में ले लेते हैं।

पुनः एक छन्द के द्वारा रति विहार का ही वर्णन करते हैं-

पद – 17

स्याम सुभग तन बिपिन घन, धाम बिचित्र बनाइ ।

तामैं संगम जुगल जन, काम केलि सचु पाइ ॥

काम केलि सचु पाइ, दाइ छल प्रियहिं रिझावत।

धाइ धरत उर अंक, भाइ गन कोक लजावत ॥

चाइ चवग्गुन चतुर, राइ रस रति संग्रामहिं ।

छाइ सुजस जग प्रगट, गाइ गुन जीवत स्यामहिं॥

भावार्थ – परम सुन्दर वपु श्रीश्याम सुन्दर ने श्रीवृन्दावन की सघन स्थली में विचित्र निकुञ्ज धाम की रचना की। उसमें युगल श्रीप्रिया लाल का मिलन होकर दोनों ही काम केलि का सुख प्राप्त कर रहे हैं। श्रीलालजी अपने छल और दावों से श्रीप्रियाजी को रिझा लेते हैं और लपक कर उन्हें अपनी गोद में लेकर हृदय से लगा लेते हैं। इस क्रीड़ा से मानों वे कोक-समूह को भी लज्जित कर रहे हैं। इस प्रकार चतुर शिरोमणि श्रीलालजी रति रस के संग्राम में चौगुना चाव प्राप्त कर रहे हैं, श्रीश्यामा का सुयश संसार में प्रगट है और आपकी इस गुणावली का गानकर करके ही श्यामसुन्दर अपना जीवन धारण करते हैं।

मानवती श्रीप्रियाजी को रासमण्डल में ले जाने के लिये सखी उद्दीपन विभाव- श्रीवृन्दावन का वर्णन कर रही है; जिसे सुनकर सम्भ्रम मानमयी श्रीप्रियाजी चल पड़ती हैं; जिससे उनका मान-जनित विरहज दुःख मिट जाता है। फिर माधव मास के सुहावने वासन्ती वन में समस्त नव-तरुणियों के साथ विहार सम्पन्न होता है।

पद – 18

सरिता तट सुर द्रुम निकट, अलिता सुमन सुबास ।

ललितादिक रसननि बिबस, चलि ता कुंज निवास ॥

चलि ता कुंज निवास, आस तव हित मग परषत।

रास स्थल उत्तम विलास, सचि मिलि मन हरषत ॥

तासु बचन सुनि चित हुलास, विरहज दुख गलिता।

दासंतन कुल जुवति, मास माधव सुख सलिता ॥

भावार्थ – [ मानवती श्रीप्रियाजी से हित सखी ने कहा- श्रीराधे! देखो; कितना सुन्दर सरित श्रेष्ठ ] यमुना जी का तट है और उसी तट के निकट कल्प वृक्ष है; जिसके सुमनों की सुगंध से भ्रमरगण थकित हो रहे हैं। रास में ललिता आदि सखियाँ रस से विवश हो रही हैं, अतः आप भी उस कुञ्ज निवास की ओर चलो चलो! प्रियतम भी उस निकुञ्ज निवास में आपकी ही आशा लगाये, उत्तम रासस्थल और उसके विलासों की रचना करके आपका मार्ग देख रहे हैं अतः आप भी प्रसन्न मन से चलकर उनसे मिलो।

[ श्रीसेवकजी कहते हैं-] कि उस सखी के वचन सुन कर श्रीप्रियाजी के चित्त में उल्लास हो आया और विरह-जनित सारे दुःख मिट गये। समस्त दासीगणों में श्रेष्ठ युवति श्रीराधा, माधव (रूप वसन्त) मास में सुखमयी सलिता (नदी) की तरह हैं।

इस छन्द में निकुञ्ज गत शय्या पर होती हुई ऐकान्तिक सुरत क्रीड़ा का वर्णन किया गया है जिसका दर्शन प्रातःकाल ललितादिक सखीगण कर रही हैं, सो भी चोरी-चोरी लता-भवन के रन्ध्रों से लगकर-

पद – 19

परषत पुलिन सुलिन गिरा, करवत चित सुर घोर ।

हरवत हित नित नवल रस, बरषत जुगल किसोर ॥

बरषत जुगल किसोर जोर नव कुंज सुरत रन ।

मोर चंद्र चय चलत, डोर कच सिथिल सुभग तन ॥

चोर चित्त ललितादि, कोर रंधनि निजु निरषत।

थोर प्रीति अंतर न, भोर दम्पति छबि परषत ॥

भावार्थ – युगल किशोर की रसमयी वाणी जो यमुना पुलिन का स्पर्श कर रही है अर्थात् पुलिन पर गूँज रही है और युगल किशोर का घो स्वर सखिजनों के चित्त का आकर्षण कर रहा है। युगल किशोर की रति क्रीड़ा को देखकर श्रीहित हर्षित हैं इस प्रकार युगल किशोर नित्य निरन्तर ही इस नूतन रस की वर्षा किया करते हैं। यह नव किशोर जुगल जोड़ी नव निकुञ्ज भवन में निरन्तर सुरत-केलि (रण) किया करती है। केलि अवसर में श्रीलालजी की मोर चन्द्रिका खिसक पड़ती, श्रीप्रियाजी के केशों की डोर शिथिल हो जाती तथा युगल के सुन्दर वपु भी शिथिल हो जाते हैं। युगल की निज सखी ललिता आदि कुंज छिद्रों से चित्र की भाँति अविचल भाव से लगी हुई चोरी-चोरी (छिपकर) इस क्रीड़ा का दर्शन (अवलोकन) करती हैं; क्योंकि उनके हृदय में थोड़ी नहीं वरं अपार प्रीति है; इसीलिये [ मत्सर रहित होकर] वे [ तत्सुख भाव से] प्रातःकाल दम्पति की छवि देखकर रही हैं और मुग्ध हो रही हैं।

अब बसंत केलि के रूपक से शय्या-गत सुरत विहार का वर्णन करते हैं

पद – 20

रितु बसंत बन फल सुमन, चित प्रसंन नव कुंज।

हित दंपति रति कुसल मति, बितु संचित सुख-पुंज ।

बितु संचित सुख-पुंज, गुंज मधुकर सुनाद धुनि ।

रुंज मृदंग उपंग धुंज, डफ झंझि ताल सुनि ॥

मंजु जुवति रस गान, लुंज इव खग तहाँ बिथकितु ।

भुंजत रास विलास कुंज नव, सचि बसंत रितु ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन के नव निकुञ्जों में फूल एवं फलों से परिपूर्ण बसन्त ऋतु छा रही है; जो चित्त को प्रसन्न करती है। ऐसे समय नव निकुञ्जों में हितमय दम्पति श्रीराधावल्लभलाल जो रति कला में परम चतुर है सुख-पुंज सम्पत्ति (रति विहार) का एकत्रीकरण (संचयन) कर रहे हैं; जिसमें मधुकर की गुञ्जार-ध्वनि के साथ अन्यान्य सुन्दर नाद भी सुन रहे हैं। तरह-तरह के वाद्य यथा रुँझा (रुंज), मृदङ्ग, उपङ्ग, डफ, झाँझें और धुंज आदि ताल पूर्वक बज रहे हैं। साथ ही सुन्दरी युवती जनों का रसमय गान हो रहा है, जिसे सुनकर पक्षीगण विशेष शिथिल होकर अचेतन से हो रहे हैं। इस प्रकार वसन्त ऋतु में नव-निकुञ्ज भवन की रचना करके युगल किशोर रास-विलास का सुख भोग भोगते हैं।

श्रीवृन्दावन विहार अनादि एवं अनन्त है अतः अब इस छन्द में उसकी अनिर्वचनीयता प्रकट करते हैं-

पद – 21

कहत कहत न कही परै, रहत जु मनहिं विचारि ।

सहत सहत बाढ़ भगति, गृह तन गुरु हित गारि ॥

गृह तन गुरु हित गारि, हार अपनी करि मानत।

चार वेद सुंमृति बिचारि, क्रम कर्म न जानत॥

डारि अविद्या करि बिचार, चित हित हरिवंशहि ।

नारि रसिक हृद बन बिहार, महिमा न परै कहि ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन विहार का वर्णन कथन में नहीं आता, केवल मन ही मन में विचार कर रह जाते हैं। भाव यह कि यह अनुभव गम्य विषय है जो वर्णन में नहीं आ सकता। इस रस विहार के प्रति क्रमशः सहते सहते (धैर्य से) ही भक्ति बढ़ती है, अतएव इसके लिये साधक अपने घर कुटुम्ब, शरीर आदि को श्रीगुरु के चरणों में उनकी ही सेवा में गार दे – लगा दे। जो अपने आपको सम्पूर्ण रूप से सेवा में लगा देता है वह सदा अपनी हार ही मानता है अर्थात् चित्त में दीनता, सरलता, नम्रता आदि सद्भाव रखता है। [ ऐसा अनन्य शरणागत रसिक भक्त ] वेद (ऋक्, यजु, साम और अथर्व), सुन्दर स्मृतियाँ के विचार, वर्णाश्रम कर्म-धर्म आदि कुछ भी नहीं समझता अर्थात् समझकर भी उनकी ओर से बेपरवाह रहता है।

[ श्रीसेवकजी कहते हैं- भाई! तू ] अविद्या रूप महा मोह का परित्याग करके, विचारपूर्वक श्रीहरिवंश के चरणों में अपने चित्त को लगा- उन्हीं से प्रीति कर [ तभी इस विहार का अनुभव होगा।] अस्तु; यह नारि ( श्रीप्रिया एवं सखिजन) और रसिक (श्रीलालजी) के रसमय सरोवर श्रीवृन्दावन का विहार अनन्त महिमामय है, वाणी द्वारा कहने में सर्वथा अशक्य है।

प्रकरण के उपसंहार में ग्रन्थ के प्रतिपाद्य तत्व श्रीहित हरिवंशचन्द्र की महत्ता प्रदर्शित करते हुए स्वयं अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं

पद – 22

सेवक श्रीहरिवंश के जग भ्राजत गुन गाइ।

निसिदिन श्रीहरिवंश हित हरषि चरन चित लाइ ॥

हरषि चरन चित लाइ जपत हरिवंश गिरा-जस ।

मनसि बचसि चित लाइ जपत हरिवंश नाम-जस ॥

श्री हरिवंश प्रताप नाम नौका निजु खेवक ।

भवसागर सुख तरत निकट हरिवंश जु सेवक ॥

भावार्थ – भाइयों! यह सेवक तो श्रीहित हरिवंशचन्द्र के विश्व शोभित गुणों को ही गाता रहता है और दिन रात हर्षपूर्वक श्रीहित हरिवंशचन्द्र के चरणों में ही चित्त लगाये रखता है। वह हर्षपूर्वक चरणों में चित्त लगाकर श्रीहरिवंश की वाणी का ही सुयश गाता रहता है, तथा चित्त लगाकर मन एवं वाणी के द्वारा श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम का सुयश जपा करता

श्रीसेवकजी कहते हैं कि यह सेवक अपनी जीवन-नौका श्रीहित हरिवंश के नाम प्रताप से ही पार कर रहा है और श्रीहरिवंश की निकटता प्राप्त करके इतने महान् संसार सागर को सुखपूर्वक पार कर गया है।


श्रीहित नाम, प्रभाव धाम – ध्यान
(एकादश प्रकरण)
पूर्व परिचय

दशम प्रकरण की अन्तिम कुण्डलियों में जो रस सिद्धान्त कहा गया है, उस रस की प्राप्ति किनके चरणाश्रय से होगी, उस रस के अधिष्ठान, मूल किंवा विस्तारक कौन हैं? और उनका स्वरूप क्या है? यही सब इस एकादश प्रकरण के विषय हैं। प्रकरण के इस प्रथम छन्द में श्रीवृन्दावन – विलास का स्वरूप प्रकाशित किया गया है, जो हित का ही रूपान्तर मात्र है। दूसरे छन्द में स्पष्टतया आचार्य श्रीहित हरिवंश के कृपा वपु का वर्णन किया गया है, साथ ही उनके शील स्वभाव एवं गुणों का भी। तीसरे छन्द में नवधा भक्ति से भी परे प्रेम-लक्षणा का परिचय देकर चौथे छन्द में उस प्रेम-लक्षणा की प्राप्ति जिन श्रीहितचन्द्र की कृपा से होगी, उनका वर्णन है । पाँचवें छन्द में प्रकरण की फलस्तुति के रूप में नित्य विहार एवं श्रीहित हरिवंशचन्द्र की एकता, समीपता और नित्यता सूचित की गयी है-

पद – 1

सजयति हरिवंशचन्द्र नामोच्चारण बर्द्धित सदा सुबुद्धि,

रसिक अनन्य प्रधान सतु साधु मंडली मंडनो जयति ॥

जै जै श्रीहरिवंश हित प्रथम प्रणउँ सिर नाइ ।

परम रसद निर्विघ्न है जैसे कवित सिराइ ॥

सुकवित सुछंद गनिज्जै समय प्रबंध वन।

सुकवि विचित्र भनिज्जै हरि जस लीन मन ॥

श्रोता सोइ परम सुजान सुनत चित रति करै ।

सेवक सोइ रसिक अनन्य विमल जस विस्तरै ॥

सुजस सुनत बरनत सुख पायौ । कीर भृंग नारद सुक गायौ ।

श्रीवृंदावन सब सुखदानी। रतन जटित वर भूमि रवाँनी ॥

वर भूमि रवाँनि सुखद द्रुम बल्ली, प्रफुलित फलित बिबिध बरनं।

वर भूमि रवाँनि सुखद द्रुम बल्ली, प्रफुलित फलित बिबिध बरनं ।

नित सरद बसंत मत्त मधुकर कुल, बहु पतत्र नादहि करनं ।।

नाना द्रुम कुंज मंजु बर बीथी, बन बिहार राधा रमनं।

तहाँ संतत रहत स्याम स्यामा सँग, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – उन श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो, जिनके नाम उच्चारण मात्र से ही सदा सुबुद्धि बढ़ती रहती है। जो रसिक अनन्यों में प्रधान और साधु-मण्डली के भूषण हैं, ऐसे श्रीहरिवंशचन्द्र की सदा जय हो। श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम श्रीहित हरिवंशचन्द्र के चरणों में सिर झुकाकर (नम्रतापूर्वक) प्रणाम करता हूँ, जिससे [वर्णन रूप] यह कविता परम रसदायक बने और बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो जाय। सुन्दर कविता एवं सुछन्द उसी को गिनना चाहिये, जिसमें श्रीवृन्दावन के समय प्रबन्ध (श्रीयुगल किशोर की अष्ट प्रहर लीला, विहार, सेवा भावना) का वर्णन हो और विचित्र (विशेष, उत्तम) कवि भी उसी को गिनना कहना चाहिये, जिसका मन श्रीहरि के यशोगान में ही तल्लीन हो । परम सुजान श्रोता वही है, जो श्रीहरि के यश का श्रवण करते ही उनके प्रति प्रीति करने लग जाय; वही सेवक रसिक अनन्य सेवक (दास) है, जो युगल सरकार के पवित्र यश का प्रचार (विस्तार) करे जिस सुयश को सुनकर एवं वर्णन करके सभीने सुख प्राप्त किया है और जिसका गान कीर-भृंगराज एवं नारद-शुक ने किया है।

[ उन्होंने कहा है ] श्रीवृन्दावन ही समस्त सुखों के दाता हैं। यहाँ की भूमि परम श्रेष्ठ, रमणीय एवं रत्नों से जटित है। इस श्रेष्ठ भूमि श्रीवृन्दावन में रमणीय एवं सुखमय द्रुम (वृक्ष) और लताएँ हैं, जो नाना प्रकार के रखों [के फूल एवं फलों] से फूली फली हैं; जहाँ निरन्तर शरद एवं बसन्त ऋतुएँ छायी ही रहती हैं और लता-वृक्षों के पल्लवों पर बहुत से मधु मत्त भ्रमर मधुर निनाद (शब्द) करते रहते हैं। वृन्दावन में नाना प्रकार की द्रुमलता-कुञ्जे हैं, जो बड़ी ही सुहावनी हैं। जिस श्रीवृन्दावन की श्रेष्ठ गलियों में श्रीराधारमण सदैव विहार करते रहते हैं; मैं उसी वृन्दावन में निरन्तर श्रीश्यामा श्याम के समीप और साथ निवास करने वाले श्रीहरिवंशचन्द्र की चरण-शरण में हूँ।

अब श्रीहिताचार्य पाद का स्वरूप ध्यान वर्णन करते हैं-

पद – 2

रहत सदा सखि संगम रास रंग रस रसाल उल्लास।

लीला ललित रसालं सम सुर तालं वरषत सुख पुंजं ॥

अतुलित रस वरषत सदा सुख निधान बन बासि ।

अद्भुत महिमा महि प्रगट सुंदरता की रासि ॥

सुंदरता की रासि कनक द्रत देह दुति ।

बारिज बदन प्रसन्न हासि मृदु रंग रुचि ॥

सुभ्रू सुष्ठु ललाट पट सुंदर करनं।

नैंन कृपा अबलोकि प्रनत आरति हरनं ॥

सुंदर ग्रीव उरसि बनमालं।

चारु अंस वर बाहु बिसालं ॥

उदर सु नाभि चारु कटि देस।

चारु जानु सुभ चरन सुबेसं ॥

सुभ चरन सुबेस मत्त गजवर गति, पर उपकार देह धरन।

निज गुन विस्तार अधार अवनि पर, बानी बिसद सु बिस्तरनं ।।

करुनामय परम पुनीत कृपानिधि, रसिक अनन्य सभाऽभरनं।

जै जग उद्दोत व्यासकुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन शरनं ।।

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशचन्द्र सदा सखियों के संग में [ सखि रूप से ] रहते हुए रस के आनन्द-रंग और रसमय रास-उल्लास में डूबे रहते हैं । आपकी लीलाएँ बड़ी ही ललित और रसमयी हैं। रासोत्सव में तो मानो आप ताल – स्वर के समक्रम में सुख-समूह की ही वर्षा करते रहते हैं।

आप सुख निधान श्रीवृन्दावन में निरन्तर निवास करते हुए अतुलित रस की वर्षा करते रहते हैं। आपकी अद्भुत महिमा भूतल पर प्रकट है और आप सुन्दरता की राशि हैं। आपकी देह प्रभा सौन्दर्य राशि- पूर्ण एवं पिघले हुए स्वर्ण के जैसी है। विकसित कमल की तरह प्रसन्न मुख, मदु मुसकान, रूचिमय कान्ति, सुन्दर भृकुटियें, विशाल और देदीप्यमान् ललाट पटल, मनोहर युगल कर्ण एवं कृपा से भरी हुई आँखें जो एक दृष्टिपात से ही अपने प्रणत जनों के समस्त दुःखों का हरण कर लेती हैं। इसी प्रकार सुन्दर ग्रीवा (कण्ठ) हृदय-स्थल पर विराजमान् वनमाला, सुन्दर कन्धे और श्रेष्ठ एवं विशाल भुजाएँ, सुचारु उदर, नाभि और कटि देश हैं। ऐसी ही सुन्दर जंघाएँ और पवित्र सुन्दर चरण हैं।

इन पवित्र और सुहावन चरणों में मत्त गजराज की सी श्रेष्ठ गति है। जिन्होंने केवल पर उपकार के ही लिये देह धारण की है और अपने गुणों का विस्तार किया है। श्रीहिताचार्य ने रसिकों के आधार स्वरूप अपनी पावन और महान वाणी को भूतल पर प्रकट किया और उसका विस्तार किया है। जो करुणामय हैं, परम पावन हैं, कृपानिधि हैं एवं रसिक अनन्यों की सभा (समाज) के आभरण हैं, उन जगत को प्रकाशित करने वाले, व्यास मिश्र के कुल- दीपक परम दुलारे श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो; मैं इन्हीं के चरणों की शरण में हूँ।

रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने जिस सर्वोपरि रस भक्ति का प्राकट्य किया, अब उसका परिचय देते हैं –

पद – 3

सारासार विवेकी प्रेम पुंज अद्भुत अनुरागं।

हरि जस रस मधु मत्त सर्व त्यक्त्वा दुस्तज कुल कर्म॥

कर्म छाँड़ि कर्मठ भजै ग्यानी ग्यान विहाय ।

व्रतधारी व्रत तजि भजै श्रवनादिक चित लाय॥

श्रवनादिक चित लाय जोग जप तप तजे।

और कर्म सकाम सकल तजि सब भजे ॥

साधन बिबिध प्रयास ते सकल विहाबहीं।

श्रवन कथन सुमिरन सेवन चित लावहीं ॥

अर्चन बंदन अरु दासंतन सख्य और आत्मा समर्पन।

ये नव लच्छन भक्ति बढ़ाई तब तिन प्रेम लच्छना पाई ॥

पाई रस भक्ति गूढ़ जुग जुग जग, दुर्लभ भव इंद्रादि विधि।

आगम अरु निगम पुरान अगोचर, सहज माधुरी रूप निधिं ॥

अनभय आनंद कंद निजु संपति, गुपित सुरीति प्रगट करन।

जै जग उद्दोत व्यास कुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशचन्द्र सार असार तत्व के परम विवेकी (क्षीर-नीर निर्णयकारी), प्रेम-पुञ्ज और अद्भुत अनुरागमय हैं। ये श्रीहरि का यश रूपी रसमय मधु पान करके मतवाले हो रहे हैं, और इसीलिये इन्होंने प्रायः अन्य सबके लिये दुस्त्यज कुल कर्मों का भी सर्वतः पूर्णरूपेण परित्याग कर दिया है।

[ आपके इस सुयश से आकर्षित होकर] कर्मठों ने कर्म त्यागकर और ज्ञानियों ने ज्ञान (वेदान्त- विचार) छोड़कर इनके उपदेशानुसार श्रीहरि का भक्ति-भाव से भजन ही किया। इसी तरह व्रत धारियों ने व्रतों का परित्याग करके चित्त लगाकर श्रवण [कीर्तन, स्मरण] आदि नवधा भक्ति के द्वारा भजन किया। अन्य योगी, जपी तपी आदि ने भी श्रवण आदि भक्ति में चित्त लगाकर योग, जप और तप आदि का त्याग कर दिया तथा और भी जो सकामी जन थे, उन सबने भी सकाम कर्मों के त्याग पूर्वक भक्ति ही की।

[ इस प्रकार जो लोग भक्ति की श्रेष्ठता समझकर] जितने भी प्रयासपूर्ण साधन हैं, उन्हें छोड़कर श्रवण-कथन, स्मरण, सेवन भक्ति में ही चित्त लगाते हैं और फिर अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण आदि नवधा भक्ति की ही वृद्धि करते रहते हैं, वही प्रेम-लक्षणा भक्ति प्राप्त करते हैं। अथवा उक्त कर्मठ, ज्ञानी, जपी, तपी और व्रतधारियों को अपने-अपने धर्मों का त्याग करके नवधा भक्ति के आश्रित होना चाहिए।

तब वे लोग उस गूढ़ रसमयी भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं जो जगत् में युग-युग तक दुर्लभ तो है ही अपितु इन्द्रादि देवगण, भगवान् शंकर एवं ब्रह्मा के लिये भी दुर्लभ है। यह प्रेम लक्षणा भक्ति वेद, शास्त्र एवं पुराणों के लिये भी अगोचर है और जो स्वाभाविक ही माधुर्य एवं रूप की भण्डार है। यह प्रेमाभक्ति भय रहित, आनन्द की मूल और श्रीहित की निज सम्पत्ति है, क्योंकि इन्होंने ही इस गुप्त एवं सुन्दर रस-रीति भजन को प्रकट किया है। अतः जगत् को इस प्रेम-लक्षणा का प्रकाश देने वाले व्यास कुल दीपक श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो।

इस छन्द में श्रीहित चन्द्र का स्वरूप और उनकी शरणागति का फल प्रकाशित करते हैं –

पद – 4

प्रगटित प्रेम प्रकासं सकल जंतु सिसरी कृत चित्तं ।

गत कलि तिमिर समूहं निर्मल अकलंक उदित जग चंद्रं ॥

विसद चंद्र तारातनय सीतल किरन प्रकासि ।

अमृत सींचत मम हृदै सुखमय आनंद रासि ॥

सुखमय आनंद रासि सकल जन सोक हर ।

समुझि जे आये सरन ते डरत न काल डर ॥

दियौ दान तिन अभय द्वन्द दुख सब घटे ।

नित नित नव नव प्रेम कर्म बंधन कटे ॥

कटे कर्म बंधन संसारी सुख सागर पूरित अति भारी ।

विधि निषेध श्रृंखला छुड़ावै ।

निज आलय बन आनि बसावै ॥

आलय बन बसत संग पारस के, आयस कनक समान भयं।

माँगौं मन मनसि दासि अपनी करि, पूरन काम सदा हृदयं ॥

सेवक गुन-नाम आस करि बरनै, अब निजु दासि कृपा करनं।

जै जग उद्दोत व्यासकुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – [ श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने] प्रेम के प्रकाश को प्रकट करके समस्त जीवों के चित्त को शीतल कर दिया। जगत में प्रेम रूपी इस निर्मल, निष्कलंक हरिवंश चन्द्र के उदय से कलि के अन्धकार (पाप) समूह) विनष्ट हो गये। ये पवित्र चन्द्र श्रीतारानन्दन (श्रीहरिवंश) अपनी शीतल किरणों को प्रकाशित करके मेरे हृदय में सुख पूर्ण आनन्दामृत राशि का सिंचन कर रहे हैं।

श्रीहरिवंशचन्द्र सुखमय हैं और आनंद की राशि हैं ये समस्त शरणागत जनों के शोकों का नाश करने वाले भी हैं; ऐसा समझकर जो जन इनकी शरण में आते हैं, वे फिर काल (मृत्यु) के डर से नहीं डरते। श्रीहरिवंशचन्द्र उन्हें अभय-दान दे देते हैं और उनके सभी द्वन्द्व (जन्म-मरण आदि) दुःख कट कर हृदय में नित्य प्रति नूतन प्रेम बढ़ता है।

श्रीहरिवंश की शरण आने वाले शरणागत के सांसारिक कर्म बन्धन कट कर हृदय में सुख का अत्यन्त विशाल सागर पूर्ण हो लहरा जाता है। श्रीहित चन्द्र उस शरणागत को वेदोक्त विधि निषेधों की साँकलों से छुड़ाकर अपने निज धाम श्रीवृन्दावन में ला बसाते हैं। निज-धाम श्रीवृन्दावन में बसते ही [ उस जीव का स्वरूप बदल जाता है अर्थात् वह ] पारस [ रूप श्रीहरिवंश ] का संग पाकर लोहे से स्वर्ण बन जाता है।

श्रीसेवक जी कहते हैं- हे श्रीहरिवंशचन्द्र! मैं अपने सच्चे मन से आपसे यही माँगता हूँ कि आप भी मुझे अपने मन में दासी स्वीकार कीजिये; क्योंकि आप सदा ही पूर्ण काम हृदय हैं। हे निज दासि! (अर्थात श्रीप्रियाजी के केलि कुञ्ज की विशेष अधिकारिणि और उनकी परम प्रिय सहचरि!) अब आप मुझ पर कृपा कीजिये। ‘सेवक’ इसी कृपा की आशा से तुम्हारे गुण और नामों का वर्णन करता है। [जिनकी कृपा से श्रीप्रियाजी के महलों की खास खबासी मिल सकती है, उन] जगत् प्रकाशक, व्यास कुल दीपक श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो, मैं इन्हीं की चरण-शरण में हूँ।

इस अन्तिम छंद में फलस्तुति वर्णन करते हैं –

पद – 5

पढ़त गुनत गुन नाम, सदा सतसंगति पावै ।

अरु बाढ़ रस रीति, विमल बानी गुन गावै ॥

प्रेम-लक्षना भक्ति, सदा आनँद हितकारी।

श्रीराधा जुग चरन, प्रीति उपजै अति भारी॥

निजु महल टहल नव-कुंज में, नित सेवक सेवा करन।

निसिदिन समीप संतत रहै, सु श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – जो कोई श्रीहित हरिवंशचन्द्र के गुण एवं नामों को पढ़ेगा और मनन करेगा, वह सदा सत्संग संत रसिकों का सङ्ग प्राप्त करेगा। श्रीहित हरिवंशचन्द्र की विमल वाणी का गान करने से रस-रीति बढ़ेगी और सदा आनन्दमय एवं हितकारी प्रेम लक्षणा भक्ति का [ उसके हृदय में ] उदय होगा। श्रीराधा के युगल चरणों में अत्यन्त प्रीति उत्पन्न होगी।

श्रीसेवकजी कहते हैं वह श्रीराधा के निज-महल (ऐकान्तिक निकुञ्ज भवन) में सेवक रूप से सदा सेवा-टहल करेगा और अहर्निश श्रीहित हरिवंशचन्द्र का सामीप्य प्राप्त करेगा। ऐसे [ परम प्रतापमय ] श्रीहित हरिवंशचन्द्र की मैं चरण शरण में हूँ-वही मेरे एकमात्र सर्वाश्रय हैं।


श्रीहित मंगल – गान
( द्वादश प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में मंगलमय श्रीहरिवंशचन्द्र के मंगलमय नाम , रूप , गुण , प्रभाव एवं रहस्यादि का गान किया गया है , अत : इस प्रकरण का नाम ‘ मंगल – गान ‘ है । इसके पृथक् – पृथक् चार छन्दों में से प्रथम में वृन्दावन विहार का स्वरूप , द्वितीय में श्रीहरिवंश की महान् गुणावली , तृतीय में इनके द्वारा प्रकाशित प्रेम धर्म की महत्ता और चतुर्थ में इनके नाम – गुण आदि गान करने का फल बताया गया है । चारों छन्दों में श्रीहरिवंश का स्वरूप – वर्णन ही पिरोया सा है । यह प्रकरण गम्भीर , विचारणीय और नित्य पठनीय है ।

पद – 1

जै जै श्रीहरिवंश व्यास कुल मंगना ।

रसिक अनन्यनि मुख्य गुरु जन भय खंडना ।

श्री बृंदावन बास रास रस भूमि जहाँ ।

क्रीड़त स्यामा स्याम पुलिन मंजुल तहाँ ।

पुलिन मंजुल परम पावन त्रिविध तहाँ मारुत बहै ।

कुंज भवन विचित्र सोभा मदन नित सेवत रहै ।

तहाँ संतत व्यासनंदन रहत कलुष बिहंडना ।

जै जै श्री हरिवंश व्यास कुल मंडना ।

भावार्थ – व्यास मिश्र के वंश के भूषण श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो । रसिक अनन्यों में मुख्य गुरुवर्य एवं अपने [ आश्रित ] जनों के भय का खण्डन करने वाले [ श्रीहित हरिवंशचन्द्र ] की सदा जय हो , जय हो । यमुना के सुन्दर तट पर जहाँ श्रीश्यामा – श्याम क्रीड़ा करते रहते और जो रास – क्रीड़ा की रसमय भूमि है , उसी वृन्दावन में इनका नित्य निवास है । जिस परम – पवित्र पुलिन ( यमुना – तट ) पर सदा [ शीतल , मंद एवं सुगन्ध युक्त ] त्रिविध वायु बहता रहता है और जहाँ कुञ्ज भवनों की विचित्र शोभा है , कामदेव जिन कुञ्जों का निरन्तर सेवन करता है । ऐसे श्रीवृन्दावन में पापों को विनष्ट करने वाले व्यासनन्दन ( श्रीहरिवंशचन्द्र ) सदा – सर्वदा निवास करते रहते हैं । ऐसे व्यासकुल – भूषण श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो , जय हो ।

पद – 2

जय जय श्रीहरिवंश चंद्र उद्दित सदा ।

द्विज कुल कुमुद प्रकाश विपुल सुख संपदा ।

पर उपकार बिचार सुमति जग विस्तरी ।

करुणा सिंधु कृपाल काल भय सब हरी ॥

हरी सब कलिकाल की भय कृपा रूप जुबपुधरयौ ।

करत जे अनसहन निंदक तिनहुँपै अनुग्रह करयौ ।

निरभिमान निर्वैर निरुपम निष्कलंक जु सर्वदा ।

जै जै श्रीहरिवंश चंद्र उद्दित सदा ॥

भावार्थ – सदा – सर्वदा उदित रहने वाले श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । जो [ प्रेम रूपी ] अनन्त सम्पत्ति से पूर्ण एवं द्विज समूह रूप कुमुदनी के प्रकाशक ( विकसित करने वाले ) हैं ; जिन्होंने परोपकार के विचार से ही अपनी भक्ति रूपी सुन्दर मति ( सबुद्धि ) का जगत् में विस्तार किया और जिससे उन कृपालु करुणा सिन्धु [ श्रीहरिवंश ] ने काल व्याल के समस्त भय का हरण कर लिया ।

जिन्होंने कलिकाल के समस्त भय का हरण कर लिया उन्हीं ने कृपा रूप दिव्य वपु को धारण किया है । जो लोग आपकी असहनीय निन्दा करने वाले थे , आपने उन पर भी अपना अनुग्रह किया । जो अभिमान से रहित , वैर भाव से रहित , अनुपमेय एवं कलंक से रहित हैं , उन सर्वदा उदय रहने वाले चन्द्र श्रीहरिवंश की जय हो , जय हो ।

पद – 3

श्री हरिवंश प्रसंसित सब दुनी ,

सारासार विवेकित कोबिद बहुगुनी ।

गुप्त रीति आचरन , प्रगट सब जग दिये ,

ज्ञान – धर्म – व्रत – कर्म , भक्ति किंकर किये ।

भक्ति ‘ हित जे सरन आये , द्वंद दोष जु सब घटे ,

कमल कर जिन अभय दीने , कर्म बंधन सब कटे ।

परम सुखद सुसील सुंदर , पाहि स्वामिनि मम धनी ,

जै श्री हरिवंश प्रसंसित सब दुनी ॥

भावार्थ – सम्पूर्ण विश्व के द्वारा प्रशंसित श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । ये परम कोविद , अत्यन्त गुणवान और परमार्थ तत्व के सार और असार रहस्य के परम विवेकी हैं । आपने गुप्त रीति के आचरणों ( अर्थात् नित्य – विहार केलि की ऐकान्तिक रहनी और उपासना शैली ) का प्रकाश करके सारे विश्व को दान कर दिया और इसी नित्य – विहार प्रकाश के द्वारा आपने ज्ञान , कर्म , धर्म और व्रत आदि को भक्ति का दास बना दिया ।

जो लोग भक्ति की चाह से आपकी शरण में आये , उनके सारे द्वन्द्व – दु : ख क्षीण हो गये और जिसे इन्होंने अपना अभय कर – कमल प्रदान कर दिया उसके सारे कर्म – बन्धन कट गये ।

श्रीसेवकजी कहते हैं , हे परम सुखदाता , सुशील , एवं सुन्दर स्वामिन् ! हे मेरे समर्थ धनी ! ( प्रभु ) मैं आपकी शरण में हूँ , आप मेरी रक्षा कीजिये । हे समस्त विश्व से प्रशंसित श्रीहरिवंश । आपकी जय हो , विजय हो !

पद – 4

जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइ है ।

प्रेम लक्षणा भक्ति सुदृढ़ करि पाइ है ।

अरु बाढै रसरीति प्रीति चित चित ना टरै ।

जीति विषम संसार कीरति जग बिस्तरै ।।

बिस्तरै सब जग बिमल कीरति साधु संगति ना टरै ।

बास बंदाविपिन पावै श्रीराधिका जू कृपा करें ।

चतुर जुगल किसोर सेवक दिन प्रसादहिं पाई है ।

जै जै श्री हरिवंश नाम गुन जो नर गाइ है ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । जो मनुष्य श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम एवं गुणों का गान करेगा , वह प्रेम – लक्षणा भक्ति को सुदृढ़ता पूर्वक प्राप्त करेगा , उसके चित्त में रस – रीति बढ़ेगी और प्रीति टाले नहीं टलेगी । वह भीषण संसार रूप आवागमन को जीतकर जगत् में अपनी कीर्ति विस्तृत करेगा ।

सारे संसार में अपनी निर्मल कीर्ति का विस्तार करके वह अविचल साधु – संगति को प्राप्त करेगा । वह श्रीवृन्दावन का निवास प्राप्त करेगा और श्रीराधा उस पर कृपा करेंगी अथवा वह वृन्दाविपिनेश्वरी किशोरी जू की कृपा से वृन्दावन – वास प्राप्त करेगा ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि युगल – किशोर का वह चतुर सेवक अपने प्रभु श्रीराधावल्लभलाल के कृपा प्रसाद को दिन – दिन ( नित्य प्रति ) प्राप्त करेगा , जो श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम एवं गुणों का नित्य प्रति गान करेगा । अस्तु ; ऐसे महिमाशाली श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो ।


श्रीहित धर्मी धर्म विधान
( त्रयोदश प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में राधावल्लभीय हितधर्मियों के परम – धर्म का उल्लेख किया गया है । इसमें प्रधानतया रसिक अनन्यता की दृढ़ता , ध म के स्वरूप को समझने का आग्रह , रसिक अनन्यों के प्रति पूज्य और श्रेष्ठ भावना का आग्रह , मानव देह की महत्ता , सत्संग महिमा , सत्संग करने का आदेश , सत्संग विहीनता में जीवन की व्यर्थता , सत्संग किसका करे ? सत्संग से क्या होगा ? धर्मियों का स्वरूप एवं हित धर्मियों की कृपा की याचना – वाञ्च्छा ; बस इन्हीं विषयों का एक – एक छन्द में वर्णन है ।

इस प्रकरण में बड़ी सच्चाई और स्पष्टता से धर्म के स्वरूप का निरूपण किया गया है जिसका पालन करने से प्रत्येक हित – साध क सच्चा और पक्का धर्मी बन सकता है ।

अस्तु ; अब प्रथम छन्द में अन्यान्य साधनों का हेयत्व और हित धर्म- श्यामा श्याम पद प्रीति – की सर्वोपरिता का प्रकाश करते हुए हित धर्म को ही परम श्रेष्ठ धर्म बताते हैं ; जो शास्त्र एवं संत – सम्मत है ।

पद – 1

साधन विविध सकाम मत , सब स्वारथ सकल सबै जु अनीति ।

ज्ञान ध्यान ब्रत कर्म जिते सब , काहू में नहिं मोहि प्रतीति ॥

रसिक अनन्य निसान बजायौ , एक स्याम स्यामा पद प्रीति ।

श्रीहरिवंश चरन निज सेवक , विचलै नहीं छाँड़ि रसरीति ।।

भावार्थ – नाना प्रकार के साधन और सकाम उपासनाओं के मत , ये सब स्वार्थ – लाभ के लिये किये जाते हैं , इनमें शुद्ध स्वार्थ – रहित प्रेम का सर्वथा अभाव होता है अत : अनीति है । [ इस प्रकार के जितने भी ज्ञान , ध्यान , व्रत एवं कर्म हैं , मुझे इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं है । रसिक अनन्य [ नृपति श्रीहित हरिवंश ] ने जो केवल श्यामा – श्याम के चरणों के अनन्य प्रेम का डंका बजाया है ; उस रसरीति को छोड़कर श्रीहरिवंश – चरणों का निज सेवक [ मैं अथवा अन्य हितधर्मी कोई भी ] विचलित नहीं हो सकता अर्थात् अनन्य भाव से उसी रसरीति में स्थिर रहेगा ।

पद – 2

श्री हरिवंश धरम प्रगट्ट , निपट्ट कै ताकी उपमा कौं नाहिन ।

साधन ताकौ सबै नव लच्छन , तच्छिन बेग बिचारत जाहि न ॥

जो रसरीति सदा अबिरुद्ध , प्रसिद्ध बिरुद्ध तजत्त क्यौं ताहि न ।

जो पै धरमी कहावत हौ , तौ धरंमी धरम समुज्झत काहि न ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र के द्वारा प्रकट किया गया धर्म अच्छी तरह से उजागर है और सर्वश्रेष्ठ है , जिसकी उपमा के लिये कोई दूसरा है ही नहीं । इस धर्म के साधन हैं- वही नौ लक्षणों से युक्त नवधा भक्ति ; अत : हे भाई ! तू अभी इसी क्षण से शीघ्र जिसका विचार नहीं कर रहा है उसका विचार कर !

यह रसरीति सदैव साधक के अनुकूल है । जो इसके प्रसिद्ध विरोधी हैं , तू उनका त्याग क्यों नहीं करता ? यदि तुम ‘ धर्मी ‘ कहलाते हो तो [ हित ] धर्मियों के वास्तविक धर्म को क्यों नहीं समझते ? अर्थात् समझने का प्रयास करो , समझो ।

पद – 3

जौ पै धरंमिनि सौं नहिं प्रीति , प्रतीति प्रमानत आन न आनिबौ ।

एकहिं रीति सबनि सौं हेत , समीति समेत समान न मानिबौ ।

बात सौं बात मिलै न प्रमान , प्रकृत्ति बिरुद्ध जुगत्ति को ठानिबौ ।

श्री हरिवंश के नाम न प्रेम , धरंमी धरंम समुझ्यौ क्यौं जानिबौ ।

भावार्थ – यदि [ श्रीहरिवंश ] धर्मियों से प्रीति और प्रतीति नहीं है और दूसरों को प्रमाण मानकर उन पर विश्वास करता है किन्तु धर्मियों के प्रति [ अपने हृदय में ] प्रीति एवं प्रतीति नहीं लाता है , यदि सभी मतावलम्बियों से एक ही रीति से हित करता है , हित – धर्मियों के प्रति विशेष समीति ( प्रीति , स्नेह , मित्रता आदि ) और सम्मान नहीं मानता ; यदि श्रीहरिवंश – धर्मियों की बातों से अपनी बातें नहीं मिलाता और अपनी हठधर्मी ही प्रमाणित करता है । यदि प्रकृति के विरुद्ध युक्तियाँ ठानता है और यदि श्रीहरिवंश के नाम से प्रेम नहीं है तो उस धर्मी ने धर्म के स्वरूप को क्या समझा है ? कुछ नहीं ऐसा जानना चाहिये ।

पद – 4

श्रीहरिवंश बचन्न प्रमानिकैं , साकत संग सबै जु बिसारत ।

संसृति माँझ बरियाइ कै पायौ , जु मानुष देह वृथा कत डारत ।

क्यौं न करत्त धरंमिनि कौ संग , जानि बूझि कत आन बिचारत ।

जौ पै धरंमी मरंमी हौ तौ , धरंमिनि सौं कत अंतर पारत ।

भावार्थ – [ एक बार ] श्रीहरिवंश के वचनों को प्रमाण मानकर [ फिर दूसरी बार प्रमाद वश ] शाक्त – उपासकों के संग में लगकर वे सब [ श्रीहरिवंश वचनों की बातें भुला देता है [ और शाक्तों के जैसा ही हो जाता है । ] अरे ! तूने इस जन्म – मरण रूप संसृति के बीच में जाने कैसे किस कठिनाई से मानव – देह पा ली है ; भला , उसे क्यों व्यर्थ किये डाल रहा है ? तू धर्मियों का सङ्ग क्यों नहीं करता ? क्यों जान बूझकर उन्हें अन्य ( पराया ) समझ रहा है ? यदि तू धर्म का मर्मी ( रहस्य जानने वाला या जानने की इच्छा वाला है ) तो फिर क्यों धर्मी जनों से अन्तर कर रहा है ? शीघ्र उनसे एकता , मिलन एवं सत्सङ्ग कर ।

पद – 5

धरंमी – धरम कह्यौ जु करौ , तौ धरंमिनि संग बड़ौ सब तैं ।

अपुनर्भव स्वर्ग जु नाहिं बराबर , तौ सुख मर्त्य कहौ कब तैं ।

कहौ काहे प्रमान बचन विसारत , प्रेमी अनन्य भये जब तैं ।

तब श्रीहरिवंश कही जु कृपा करि , साँचौ प्रबोध सुन्यौ अब तैं ॥

भावार्थ – धर्मीजनों ने जो धर्म का स्वरूप कहा है यदि उसे यदि उसे तुम करने लगो तो [ तुम्हें ज्ञात हो जायेगा कि ] धर्मियों का सङ्ग ही सबसे बड़ा ( उत्तम ) है । अरे ! जब उस [ सत्सङ्ग ] के बराबर अपुनर्भव ( मोक्ष ) एवं स्वर्ग भी नहीं हैं तो फिर भला मृत्युलोक के सुख कैसे बराबर हो सकते हैं ? यदि कोई पूछे कि कहो जी , किन [ वचनों ] के प्रमाण से तुम [ अन्य साधनों के समर्थक ] वचनों को भुला रहे हो तो कहना होगा कि जब से हम [ श्रीहरिवंश – वचनों के आधार से ] अनन्य प्रेमी हो गये हैं और श्रीहरिवंशचन्द्र ने कृपा करके जो कुछ कहा है , हमने जबसे प्रबोध रूप उन सत्य वाक्यों को सुना है ।

पद – 6

श्रीहरिवंश जु कही ‘ स्याम स्यामा ‘ पद कमल संगी सिर नायौ ।

ते न बचन मानत गुरु द्रोही , निसिदिन करत आपनौ भायौ ।

इत ब्यौहार न उत परमारथ , बीच ही बीच जु जनम गमायौ ।

जौ धरंमिनि सौं प्रीति करत नहिं , कहा भयौ धर्मी जु कहायौ ॥

भावार्थ – [ श्रीहरिवंश चन्द्र ने जो कुछ कहा है , उसे यहाँ उपरोक्त छन्द ” कहौ काहे प्रमान …………. प्रेमी अनन्य भये जब तें ” , के प्रमाण में उपस्थित करते हैं । ] श्रीहरिवंश चन्द्र ने कहा है कि ” मैंने श्रीश्यामा – श्याम के चरण – कमल प्रेमियों , भक्तों , रसिकों को अपना सिर झुका दिया है , पर गुरुद्रोही इन वचनों को मानते नहीं , दिन – रात अपनी मनमानी करते रहते हैं । ( इसका परिणाम यह होता है कि ) कि इधर ( संसार में ) उनका न तो व्यवहार बन पाता और न उधर परमार्थ ही बनता है । बस वे बीच में पड़े अपना जन्म खो देते हैं ।

इस प्रकार यदि कोई धर्मी सच्चे हित धर्मियों से प्रीति और सङ्ग नहीं करता , तो उसके धर्मी कहला जाने मात्र से क्या हो गया ? व्यर्थ है ।

पद – 7

करौ श्रीहरिवंश उपासिक संग , जु प्रीति तरंग सुरंग बह्यौ ।

करौ श्रीहरिवंश की रीति सबै , कुल – लोक – बिरुद्ध जु जाइ सह्यौ ।

करौ श्रीहरिवंश के नाम सौं प्रीति , जा नाम प्रताप धरम लह्यौ ।

जु धरमी धरम सरूप कह्यौ , बिसरौ जिन श्रीहरिवंश कह्यौ ॥

भावार्थ – तुम श्री हरिवंश के उस उपासक का सङ्ग करो जो प्रेम – तरा के सुन्दर आनन्द – ज में बह गया हो – सराबोर हो । तुम श्रीहरिवंश की ( अनन्य धर्म सम्बन्धी ) सभी रीतियों का पालन करो । यदि तुमसे अपने कुल एवं लोक का विरोध सहा जा सके तो । श्रीहरिवंश के नाम से प्रेम करो , जिस नाम के प्रताप से तुमने धर्म को प्राप्त किया है और धर्मियों के धर्म का स्वरूप जो कुछ श्रीहरिवंश ने कहा है , उस ( श्रीहरिवंश कथन- “ स्याम – स्यामा पद कमल संगी सिर नायौ ” ) को मत भूलो ।

पद – 8

श्रीहरिवंश धरमजे जानत , प्रीति की ग्रंथि तहीं मिलिखोलत ।

श्रीहरिवंश धरंमिनि माँझ , धरमी सुहात धरंम लै बोलत ॥

श्रीहरिवंश धरमी कृपा करें , तासु कृपा रस मादिक डोलत ।

श्रीहरिवंश की बानी समुद्र कौ , मीन भयौ जु अगाधकलोलत ॥

भावार्थ – जो रसिकजन श्रीहरिवंश धर्म को जानते हैं , वही विज्ञ रसिकजन मिलकर प्रीति की ग्रन्थियों ( गाँठों , उलझनों ) को सुलझा सकते हैं , अन्य नहीं । वही लोग श्रीहरिवंश धार्मियों के बीच में धर्मियों को सुहाती हुई धर्म – युक्त बातें बोल भी सकते हैं । यदि ऐसे हरिवंश धर्मी कृपा करें , तो उनकी कृपा से प्रायः सभी उपासक रस से उन्मत्त होकर विचरण कर सकते हैं । फिर जो कृपा – प्राप्त कर लेगा , ऐसा प्रेमी श्रीहरिवंश की वाणी रूप समुद्र की मछली बनकर उस अगाध रस – सागर में किलोल ( आनन्द – क्रीड़ा ) करता रहेगा ।

पद – 9

व्रत संजम कर्म जुधर्म जिते , सब सुद्ध – बिरुद्ध पिछानत हैं ।

अपनी अपनी करतूत करें , रस मादिक संक न आनत हैं ।

हरिवंश – गिरा रस रीति प्रसिद्ध , प्रतीति प्रगट्ट प्रमानत हैं ।

बलि जाउँ आपनैं धरंमिनि की , जे धरमी धरमहिं जानत हैं ॥

भावार्थ – जितने भी व्रत , संयम , कर्म आदि सुन्दर – सुन्दर धर्म हैं , वे सब इस शुद्ध धर्म ( श्रीहित धर्म ) के विरोधी ( विपरीत रूप ) हैं , ऐसा वे धर्मी गण समझते हैं और चूँकि ये उक्त अपनी – अपनी करतूत ( कर्त्तव्य ) करते भी हैं किन्तु रस से उन्मत्त धर्मी गण उनकी जरा भी परवाह नहीं करते वरं वे तो श्रीहरिवंश की वाणियों में वर्णन की गयी रस – रीति को ही विश्वास पूर्वक प्रकट रूप से प्रमाणित करते और मानते हैं ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं अपने इन धर्मियों की बलिहारी जाता हूँ , जो धर्मी एवं धर्म के तत्व को जानते पहचानते हैं ।

पद – 10

श्रीहरिवंश धरंम सुनंत जु छाती सिरात धरंमिनि की ।

धरम सुनंत पुलक्कित रोमनि हौं बलि प्रेम धरंमिनि की ।

धरम सुनंत प्रसन्न कै बोलत , बोलनि मीठी धरंमिनि की ।

( जु ) धरम सुनाइ धरमहि जाचत , चाहौं कृपा जु धरंमिनि की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश धर्म का वर्णन सुनते ही सच्चे धर्मी का हृदय शीतल हो जाता है । जो इस धर्म को सुनकर रोम – रोम से पुलकित हो उठता है , मैं ऐसे प्रेमी – धर्मी की बलिहार हूँ । ऐसा प्रेमी निज धर्म का नाम सुनते ही प्रसन्न होकर बोलता है और उसकी बोली ( वाणी ) भी बड़ी मधुर होती है । जो धर्मी गण धर्म का श्रवण कराके फिर धर्म ( की प्रीति , रुचि आदि ) की ही याचना करते हैं मैं ऐसे ही धर्मियों की कृपा चाहता हूँ ।

पद – 11

श्रीहरिवंश प्रसिद्ध धर्म समुझै न अलप तप ।

समुझौ श्रीहरिवंश कृपा सेवहु धर्मिनि जप ॥

धर्मी बिनु नहिं धर्म नाहिं बिनु धर्म जु धर्मी ।

श्री हरिवंश प्रताप मरम जानहिं जे मर्मी ॥

श्री हरिवंश नाम धर्मी जु रति तिन सरन्य संतत रहै ।

सेवक निसिदिन धर्मिनि मिलैं श्रीहरिवंश सुजस कहै ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र का प्रसिद्ध धर्म अल्प तपस्या से कोई नहीं समझ सकता , हाँ जब धर्मी जनों का सेवन ( रूप महातप ) करोगे , तभी श्रीहरिवंश कृपा का स्वरूप समझौगे । क्योंकि सच्चे धर्मी के बिना धर्म की प्राप्ति नहीं होती और जहाँ ( जिसके हृदय में ) धर्म नहीं है वह धर्मी नहीं , श्रीहरिवंश के प्रताप से ही कोई मर्मी इस रहस्य ( मर्म ) को जान पाते हैं अथवा धर्म और धर्मी के इस मर्म को जो जानते हैं वही मर्मी हैं ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि प्रत्येक सेवक का धर्म है कि श्रीहरिवंश नाम के मानने वाले धर्मियों के प्रति जो रति ( प्रीति ) करता है उन्हीं की शरण में वह सदा रहा आवे और दिन रात धर्मियों से मिलकर ( उनका सत्संग करते हुए ) श्रीहरिवंश के सुयश का गान करता रहे ।


श्रीहित काचे धर्मी धर्म विधान
( चतुर्दश प्रकरण )
पूर्व परिचय

तेरहवें प्रकरण में हित – धर्मियों के लिये उनके परम धर्म – सत्सङ्ग का आदेश किया गया । अब इस प्रकरण में कच्चे धर्मियों के स्वभाव , गुण , रहन – सहन , व्यवहार , आचरण , उपासना शैली , निष्ठा , धार्मिक रुचि , छल , द्वेष , घृणा , निन्दा , स्वार्थ आदि की ओर संकेत किया जा रहा है , क्योंकि बुराइयों और बुरों का परिचय होने पर ही उनका त्याग किया जाना सम्भव है ।

कच्चे धर्मी वे हैं , जो गुरु दीक्षा , कण्ठी , तिलक आदि के द्वारा बाह्य आचरणों से वैष्णव तो बन चुके हैं – वैष्णव या राधावल्लभीय तो कहे जाने लगे हैं किन्तु उनके चित्त में न तो भक्ति भावना ही आयी और न इष्ट – निष्ठा ( वैष्णवता ) ही बन पायी , अत : ऐसे लोग जो केवल नाम मात्र को ‘ हित धर्मी ‘ हैं ‘ काचे ‘ धर्मी हैं । इस प्रकरण के पूर्व प्रसंग में काचे धर्मियों के लक्षणों का वर्णन है और अन्त में उनके लिये उचित उपदेश है , इसीलिये इस प्रकरण का सम्पूर्ण नाम “ काचे धर्मी धर्म विधान ” है । प्रकरण के प्रारम्भिक तेरह छन्दों में काचे धर्मियों के लक्षण और शेष अन्त के पाँच छन्दों में ‘ काचे ‘ धर्मियों के लिये उपदेश है – यही उनके लिये ‘ विधान ‘ है ।

अस्तु अब प्रथम छन्द में ‘ काचे धर्मी ‘ की अहंमन्यता रूप छल छन्द का वर्णन करते हैं

पद – 1

श्रीहरिवंश धरंमिनि के सँग ,

आमैं ही आरौं जु रीति बखानत ।

आपुने जान कहैं जु मिलैं मन ,

उत्तर फेरि चवग्गुन ठानत ॥

बैठत जाय बिधर्मिनि में तब ,

बात धरम की एकौ न आनत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – श्रीहरिवंश – धर्म का स्वरूप यथार्थ रूप से न जानने पर भी सच्चे श्रीहरिवंश – धर्मियों के सङ्ग में बैठकर उन सबके समक्ष आगे ही आगे ( पूर्ण जानकार की तरह ) रस – रीति का बखान करता है । धर्मियों को अपना जानकर उनसे प्रथम तो अपनी मनमिल बातें करता है किन्तु पश्चात् ( बातों में सिद्धान्त भेद हो जाने पर ) उन्हीं से चौगुने उत्तर ठानता है । धर्मियों से तो बहुत विवाद करता है किन्तु जब विधर्मियों में जा बैठता है , तब धर्म – सम्बन्धी एक बात भी नहीं कह आती ।

( श्रीसेवकजी कहते हैं भाइयो ! ) इन कच्चे धर्मीजनों के ( छल ) छन्द सुनो । ये लोग सच्चे धर्मी जनों के धर्म का मर्म ( रहस्य ) नहीं जानते ।

पद – 2

बातनि जूठनि खान कहैं ,

मुख देत प्रसाद अनूठौड़ ही छाँड़त ।

ग्रंथ प्रमानिकै जो समुझाइये ,

तौ तब क्रोध रारि फिर माँड़त ॥

तच्छिन छाँड़ि प्रेम की बातहिं

फेरि जाति कुल रीति प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी धरंम मरंम न जानत ॥

भावार्थ – वह कच्चा धर्मी केवल बातों बातों ( वचनों ) में ( धर्मियों ) का उच्छिष्ठ ( गूंठा ) खाने की बात कहता है ( कि मैं तो आप धर्मी – जनों का गूंठा भी खा सकता हूँ , ) किन्तु अनूठा ( सर्वोत्तम , आश्चर्य महिमा मय ) प्रसाद देने पर भी त्याग देता है । यदि ग्रन्थों के प्रमाण द्वारा उसे ( प्रसाद का महत्त्व ) समझाया भी जाय , तो फिर वह उसके बदले में क्रोध पूर्वक झगड़ा ठान देता है । ( फिर कभी क्रोध आ जाने पर ) प्रेम की सब बातें भुलाकर अपनी जाति , कुल – रीति आदि की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने लगता है अर्थात् भगवत्प्रासाद की अपेक्षा जाति , कुल – रीति आदि अधिक महत्त्वशील हैं , ऐसा सिद्ध करने लगता है । )

यही सब कच्चे धर्मियों के छल छन्द हैं । ये लोग सच्चे धर्मियों के वास्तविक धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 3

धरंमिनि माँझ प्रसंन है बैठत ,

जाय बिधर्मिन माँझ उपासत ।

लालच लागि जहाँ जैसे तहाँ तैसे ,

सोई सोई तिन मध्य प्रकासत ।।

बादहिं होत कुम्हार को कूकर ,

खाली हृदै गुरु रीति न मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ॥

भावार्थ – ( वह कच्चा धर्मी ) इधर तो हित धर्मियों में प्रसत्र होकर बैठता अर्थात् इनकी सी बातें करता है और उधर विधर्मियों में जाकर उनकी सी उपासना करता है । लालच के लिये उन विधर्मी – जनों का सङ्ग करता है और उन जैसी बातें करने लगता है । प्रकाशित करने और न करने योग्य सभी विषयों को एकसा समझ कर अविचार पूर्वक प्रकाशित कर देता है । वह शून्य – हृदय ( धर्म के यथार्थ ज्ञान से हीन कच्चा धर्मी ) श्रीगुरु की रीति तो मानता नहीं ( और दूसरों की उपासना भी नहीं करता ) इस तरह व्यर्थ ही कुम्हार का कुत्ता बनता है । ये हैं कच्चे धर्मियों के छल – छन्द । सुनो , ये लोग धर्मियों के धर्म के मर्म को नहीं जानते और व्यर्थ जीवन खो देते हैं ।

पद – 4

नाना तरंग करत छिन ही छिन ,

रोवत रैंट न लार सँभारत ।

तच्छिन प्रेम जनाइ कहंत जु ,

मेरी सी रीति काहे न अनुसारत ॥

तच्छिन झगरि रिसाइ कहंत जु ,

मेरी बराबर औरनि मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ।

भावार्थ – वे कच्चे धर्मी क्षण – क्षण में नाना प्रकार की लीलायें करते हैं । ऐसा रोते हैं कि रोते हुए जोर से दहाड़ सी मारते और मुँह से गिरती हुई लार को भी नहीं सम्हालते , ( क्योंकि इसीसे तो उनकी प्रेम – विह्वलता प्रकट होती है न ! ) फिर उसी क्षण दूसरों से अपना प्रेम प्रकट करते हैं कि तुम भी मेरी ही जैसी रीति का अनुसरण क्यों नहीं करते ? ( अर्थात् करो , क्योंकि यही वास्तविक प्रेम है ) फिर उसी क्षण उन्हीं लोगों से क्रोध में भरकर कहने लगता है कि तुम लोग मेरे बराबर औरों को मानते हो ? ( अर्थात् मैं ही सर्वश्रेष्ठ प्रेमी हूँ , मेरे बराबर प्रेमी और हो ही कौन सकता है ? )

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) कि इन कच्चे धर्मियों के छल – छन्द सुन लो , ये लोग धर्मियों के धर्म का मर्म नहीं जानते वरं विचित्र पाषण्ड करते हैं ।

पद – 5

मेरौ सौ प्रेम मेरौ सौ कीरंतन ,

मेरी सी रीति काहे अनुसारत ।

मेरौ सौ गान मेरौ सौ बजाइबौ ,

मेरौ सौ कृत्य सबै जु बिसारत ॥

छाँड़ि मर्जाद गुरून सौं बोलत ,

कंचन काँच बराबर मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( कितने एक कच्चे धर्मी अपने प्रेमीपने का ढोंग दिखा कर दूसरों से कहते हैं कि- ) ” मेरे जैसा प्रेम – भाव , मेरे जैसा कीर्तन – भजन और मेरे ही जैसी सभी रीतियों का तुम लोग अनुसरण क्यों नहीं करते ? क्योंकि मेरे जैसा गान , मेरे जैसे वाद्य बजाना और मेरे जैसे सारे कृत्य ऐसे हैं कि जो ( तुमको प्रेम में तन्मय करके ) अन्य अब ( संसार ) को भुला देते हैं ।

ऐसे कहने वाले कच्चे धर्मी लोग अपने को श्रेष्ठ समझ कर शास्त्रीय मर्यादा का भी त्याग करके गुरु जनों से ( बेतुकी अमर्यादित ) बातें करते हैं । वे मूर्ख स्वर्ण और काँच को एक सा समझते हैं भाव यह कि – श्री गुरु चरणों का महत्त्व न जानकर उन्हें साधारण मनुष्य मान कर उन्हीं से अहंकार पूर्वक बातें करते हैं । यही सब कच्चे धर्मियों के छल – छन्द है , सुनो ! ये लोग सच्चे धर्मियों के धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 6

देखे जु देखे भले जु भले तुम ,

आपनौ और परायौ न जानत ।

हौं जु सदा रसरीति बखानत

मेरी बराबर ठागनि मानत ।।

कैसे धौं पाऊँ तिहारे हृदै कौं ,

आन द्वार के मोहि न जानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( कुछ कच्चे धर्मी अपने को किसी का श्रेष्ठ हितैषी प्रकट करते हुए कहते हैं- ) “ अजी ! देख लिया , खूब देख लिया , तुम बड़े भले हो , बड़े सीधे हो । इतने सीधे कि तुम्हें अभी अपने और पराये का भी बोध नहीं है , कि तुम्हारा अपना कौन है और पराया कौन ? अर्थात् मुझको भी पराया मान रहे हो , जो एक दम तुम्हारा अपना हूँ । मैं जो सदा रस – रीति का बखान करता रहता हूँ , मेरी बराबरी में उन ठगों को ( जो तुम्हें लूटते रहते हैं ) मानते हो । ( अर्थात् वे मेरे तुल्य तुम्हारे हितैषी नहीं हैं । ) मैं ( तो तुम्हारा इतना हितैषी हूँ और तुम मुझे अपना समझते ही नहीं ) अब तुम्हारे हृदय ( के प्रेम ) को कैसे पाऊँ ? ( क्योंकि तुम तो मुझे अपना समझते ही नहीं और मैं तुम्हारा इतना अनन्य मित्र हूँ कि केवल तुम्हीं से मेरा परिचय है ) अन्य द्वार ( सम्प्रदाय ) के लोग तो तुझे जानते पहचानते तक नहीं ।

( ऐसी कपट पूर्ण बातें करने वाले ) ये कच्चे धर्मी – गणों के छल – छन्द हैं , इन्हें सुनो ! ये धर्मियों के धर्म का मर्म ( रहस्य ) नहीं जानते ( और ऐसी बनावटी बातें करते हैं । )

पद – 7

और तरंग सुनौ अति मीठी ,

सखीन के नाम परस्पर बोलत ।

तच्छिन केस गहंत मुष्टि हनि ,

साकत सुद्ध बचावत डोलत ।।

तच्छिन बोलैं तू प्रेत तू राक्षस ,

फेरि परस्पर जाति प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौं छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं – इन कच्चे धर्मियाँ की ) एक अत्यन्त मीठी ( परिहास पूर्ण ) तरंग और भी सुनो , वे लोग पहले तो आपस में एक दूसरे को सखियों के नाम ले लेकर बुलाते हैं ; ( कहते हैं – अजी चम्पक लता जी ! अजी प्रेम लता जी ! इत्यादि ) किन्तु फिर दूसरे ही क्षण ( लड़ – झगड़ कर ) एक – दूसरे के केशों को पकड़ खींच – खींच कर चूंसे मारते हैं , ( सारा प्रेम – भाव और सखी भाव भुलाकर मार – पीट करने लगते हैं । ) इस प्रकार ये ( हित धर्मी तो ) लड़ते हैं और उनको बचाते फिरते हैं शुद्ध शाक्त – गण , ( क्योंकि वही तो इनके सच्चे हितैषी थे ) लड़ते – लड़ते क्रोध में आकर उस क्षण एक दूसरे को “ तू प्रेत ” ” तू राक्षस !! ” ऐसा कहकर परस्पर में एक दूसरे की जाति प्रमाणित करने लगते हैं ? ( अर्थात् जाति की नीचता साबित करने लगते हैं । )

ये सब कच्चे धर्मियों के छल – छन्द हैं , इन्हें सुनकर इनका त्याग करो , ये लोग सच्चे धर्मी के धर्म – रहस्य भेद को बिलकुल भी नहीं जानते ।

पद – 8

जान्यौ धरम देखी रसरीति जु ,

निष्ठुर बोलत बदन प्रकासित ।

ऐसे न वैसे रहे मँझरैंडव ,

पाछिलियौ जु करी निरभासित ॥

है हैं फेरि जैसे के तैसे हम ,

बारे ते आये संन्यासिनि मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ॥

भावार्थ – ( जो पहले शैव संन्यासी थे किन्तु खाने पीने के लोभ से पीछे हित – धर्मी वैष्णव बन बैठे ) वे कच्चे धर्मी ( क्रोध के आवेश में अपने अनन्य धर्म की उपेक्षा करते हुए ) निष्ठुरता पूर्वक अपने मुख से ऐसा बकने लगते हैं कि- ” हमने तुम्हारे ( अनन्य ) धर्म को जान लिया और रस रीति को खूब देख लिया । ” इस प्रकार वे न तो इधर ( वैष्णव हित स्वामी धर्मी जनों ) के रहे और न उधर ( संन्यासी शैवो ) के ही , बेचारे बीच में ही लटक गये । अन्त में उन्होंने यह प्रकट किया कि अब हम तो फिर जैसे के तैसे हो जायँगे , क्योंकि हम तो बचपन से ही संन्यासी – शैवों को मानते आये हैं ; ( उनमें ही हमारी प्रीति और निष्ठा है , अत : संन्यासी हो जायँगे । वैष्णवता त्याग देंगे । )

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) -सुन लो । यही सब कच्चे धर्मी पाखण्डी धर्म ध्वजी लोगों के छल – छन्द हैं । ये सच्चे हित धर्मियों के धर्म का रहस्य क्या जानें ? क्योंकि ये तो पेटू स्वार्थी हैं । )

पद – 9

एक रिसाने से रूखे से दीखत ,

पूछत रीति भभूकत धावत ।

एक रँगमगे बोलत चालत ,

मामिलैंहु बपुरे जु जनावत ॥

एक बदन कै साँची साँची कहैं ,

चित्त सचाई की एकौ न आनत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – कोई तो क्रोध से भरे हुए से और रूखे नीरस से दीखते हैं पर अनन्य रसिक धर्मी अवश्य कहलाते हैं । यदि उनसे रीति ( कायदे ) से भी कोई बात पूछो , तो आग सी उगलते हुए दौड़ते हैं , ( मानो खा जायँगे । ) कुछ एक बड़ी रङ्गमगी ( रसीली ) बातें करते हैं और साधारण स्थिति में भी दीनता का प्रदर्शन करते हैं , ( पर वास्तव में उनके हृदय में न तो रसिकता रहती और न दीनता ही । वे तो केवल शब्दाडम्बर मात्र करते हैं । ) कुछ एक लोग मुख से तो ‘ सत्य सत्य ‘ ( अर्थात् हम सत्य ही कहते हैं , झूठ सम्भाषण नहीं करते ) कहते हैं पर उनके चित्त में सच्चाई की एक भी बात नहीं आती और न रहती ।

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) ये सब कच्चे धर्मियों के छल फरेब हैं इन्हें सुनो । ये लोग धर्मियों के धर्म का मर्म तो जानते नहीं छल का मर्म अवश्य जानते हैं ।

पद – 10

एक धरंम समुज्झे बिनाऽव ,

गुसाईं के है जु जगत्त पुजावत ।

मूल न मंत्र टटोरा की रीति ,

धरंमिनि पूछत बदन दुरावत ।।

एक मुलंमा ‘ सौ देत उघारि ,

जु बल्लभ सौं बल्लभ परमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ॥

भावार्थ – कोई एक कच्चे धर्मी , धर्म का स्वरूप समझे बिना ही केवल ( श्रीहरिवंश ) गोस्वामी के कहला कर जगत में अपने आपको पुजाते फिरते हैं । इनके पास न तो धर्म का मूल ( अर्थात् धर्म विषयक ज्ञान , धारणा , प्रीति आदि ) ही है और न मन्त्र ( रहस्य ) ही । केवल टटोरे ( अर्थात् अन्धे की भाँति टटोल कर किसी वस्तु का अनुमान करने ) की रीति से ये लोग अपना काम चलाते हैं । सच्चे धर्मियों के समक्ष मुँह छिपाने लगते हैं , जब इनसे धर्म – विषयक बातें पूछी जाती हैं ; ( क्योंकि धर्म से सर्वथा कोरे हैं । ) यदि कोई कच्चे धर्मी धर्म का स्वरूप बताने ही लगे तो मुलम्मा सा उघार देते हैं और वल्लभ शब्द से वल्लभ ( प्रियतम अर्थात् राधावल्लभ शब्द का अर्थ राधा के वल्लभ श्रीकृष्ण ) को प्रमाणित करने लगते हैं । सुनो , ये कच्चे धर्मियों के छल – छन्द हैं , ये लोग धर्मी गणों के धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 11

एक गुरून सौं वाद करंत ,

जु पंडित मानी है जीभहि ऐंठत ।

एक दरब्य के जोर बरब्बट ,

आसन चाँपि सभा मधि बैठत ॥

एक जु फेरि रीति उपदेसत ,

एक बड़े बै न बात प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौं छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।

भावार्थ – कोई एक ( कच्चे धर्मी ) गुरु – जनों से ही वाद – विवाद करते हैं । बड़े मानी पण्डित कहाकर जीभ ऐंठते- पाण्डित्य प्रकाशित करते हैं । कोई एक केवल द्रव्य के जोर से गुरु – जनों की बराबरी करते हुए सभा समाज में उनके आसन को दबाकर – समानता का अपना भाव प्रकट करते बैठते हैं । फिर कोई एक उन्हीं गुरुजी को वहीं रस – रीति का उपदेश करने लग जाते हैं । कोई एक बड़े बनकर अभिमान – वश दूसरों की बातों को ( सत्य होने पर भी ) प्रमाण ही नहीं मानते , ( अपनी ही अपनी धौंकते चले जाते हैं । ) ये हैं नकली धर्मी लोगों के छल छन्द । सुनो , ये धर्मी , धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 12

एक धरंमी अनन्य कहाइ ,

बड़ाई को न्यारी कै बाजी सी माँड़त ।

और के बाप सौं बाप कहंत ,

दरब्य के काज धरंमहिं छाँड़त ॥

बोलत बोल बटाऊ से लागत ,

है गुरुमानी न बात प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।

भावार्थ – तो सजातीय ( तुम्हारे सम उपासक अनन्य हित – धर्मी ) बन जाते और खर्च करने के समय विजातीय ( अन्य ) बन जाते हैं ( अर्थात् खीर में एक और महेरी में न्यारे हैं । )

पद – 13

लै उपदेश कहाय अनन्य ,

अन्हाइ अनर्पित जाइ गटक्कत ।

आस करें विषईनि के आगैं ,

जु देखे मैं जोरत हाथ लटक्कत ॥

केतिक आयु कितेक सौ जीवन ,

काहे बिनासत काज हटक्कत ।

श्रीहरिवंश धरंमिहिं छाँड़ि ,

घर घर काहे फिरत्त भटक्कत ॥

भावार्थ – कुछ कच्चे धर्मी श्रीगुरु उपदेश लेकर और अनन्य धर्मी कहला कर भी , स्नान मात्र करके प्रभु अर्पित किये बिना ही वस्तुओं को भोगने लगते हैं । इन लोगों को मैंने विषयी लोगों के सामने आशा पूर्वक हाथ जोड़ते और भीख के लिए हाथ लटकाते देखा है ।

( ऐसे लोलुप और अधर्मी लोगों के लिये श्री सेवकजी महाराज उपदेश करते हैं – कि ) अरे ! कितनी तो तुम्हारी आयु है और कितना थोड़ा तो तुम्हारा यह जीवन है फिर क्यों ( जबरदस्ती ) हटकते – बरजते हुए भी अपने काम बिगाड़ रहे हो ? ( भाव यह कि सच्चे धर्मी बन कर अपना जीवन सफल क्यों नहीं कर लेते ? ) भाई ! श्रीहरिवंश – धर्म को छोड़ कर क्यों घर – घर ( यहाँ – वहाँ दूसरी – दूसरी उपासनाओं में ) भटकते फिरते हो ?

पद – 14

साकत संग अगिन्न लपट्ट ,

लपट्ट जरत्त क्यौं संगति कीजै ।

साधु सुबुद्धि समान सु संतनि ,

जानिक सीतल संगति कीजै ॥

एक जु काचे प्रकृत्ति बिरुद्ध ,

प्रकृत्ति बिरुद्ध करें तौ का कीजै ।

जे आगि के दाझे गये भजि पानी में ,

पानी में आग लगै तौ का कीजै ।।

भावार्थ – ( श्रीसेवक जी कहते हैं- ) भाई ! शाक्तों का सङ्ग अग्नि की तीखी लपट है । लपट का स्वाभाविक धर्म है कि वह सब कुछ जला देती है । तब तू क्यों उस अग्नि लपट रूप शाक्त का सङ्ग करता है ? साधु जन सुन्दर बुद्धि से युक्त और सम – भाव पूर्ण सन्त हैं ऐसा जानकर उन सन्तों का ही शीतल ( शान्तिदायक ) संग कर । एक तो तू ( अपने धर्म में ही ) कच्चा है और वे ( शाक्त गण ) तेरे प्रकृति विरोधी ( अर्थात् तेरी सात्विक उपासना के विपरीत तमोगुण प्रधान उपासना युक्त ) है , फिर यदि वे तेरे लिये प्रकृति के विरुद्ध करते भी हैं , तो तू क्या कर सकेगा ? ( अर्थात् तू उनके उस विपरीत धर्म के प्रवाह में बह जायगा और दिनों दिन तेरा अपने धर्म से अन्तर पड़ता जायगा ) अन्ततोगत्वा तेरा यह हाल होगा कि जैसे कोई आग का जला – भुना शीतलता के लिये पानी में जाय किन्तु उस पानी में ही आग लग जाय तो वह क्या करे ? अर्थात् धर्म के कच्चे पन की आग के जले हुए शाक्त – सङ्ग रूप पानी में शान्ति के लिये गये पर वहाँ भी प्रकृति – विरोध की आग लग जाय तब तो कही शान्ति नहीं होगी । अत : शाक्त सङ्ग को छोड़कर सन्तों का शान्ति दायक सङ्ग करे । )

पद – 15

प्रीति भंग बरनत रस रीतिहि ,

श्रीहरिवंश बचन बिसरावहु ।

आप आपनी ठौर जहाँ तहाँ ,

करि विरुद्ध सब पै निदराबहु ।।

एक संसार दुष्ट की संगति ,

ताहू पै तुम पुष्ट करावहु ।

विनती करहुँ सकल धर्मिनि सौं ,

धर्मी है जिन नाम धरावहु ॥

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं- ) हे कच्चे धर्मी भाइयों ! वास्तव में तुम प्रीति से रहित ( प्रीति भङ्ग ) होने पर भी रस रीति का वर्णन करते हो और श्रीहरिवंशचन्द्र के वचनों को भुला रहे हो ( जो उन्होंने कहा है- “ साधुसँगति करि अनुदिन राती ” और ” स्याम – स्यामा – पद – कमल संगी सिर नायौ । ” साधु सङ्ग से प्रीति प्राप्त करके फिर प्रीति – रस – रीति का वर्णन शोभा देता है , केवल वाचिक नहीं । उपदेशक उपदेश देने मात्र से महान् नहीं कहा जा सकता न रसिक ही । भाई तुम अपनी – अपनी जगह पर ( स्थिति में ) ही रहते हो किन्तु ( श्रीहरिवंश वचन के विरुद्ध – आचरण ; शाक्त – सङ्ग , मनमुखी पन आदि ) कर कर के जगत में अपनी निन्दा अवश्य करा लेते हो । एक तो यह संसार ही दुष्ट – सङ्ग है , उस पर भी तुम उसी संसार की पुष्टि करा रहे हो ! ( अर्थात् शाक्तादि लोगों के सङ्ग से आवागमन ही तो बढ़ेगा ? ) अतएव मैं समस्त धर्मियों से विनय करता हूँ कि तुम धर्मी ( हित रस के अनन्य रसिक ) कहलाकर अब ऐसा ( बुरा ) नाम मत पैदा करो ! ( कि ये कच्चे धर्मी किंवा शाक्त – सङ्गी हैं । )

पद – 16

स्वारथ सकल तजि गुरु चरननि भजि ,

गुप्त नाम सुन कधि संतन सौं संग करि

काल – व्याल मुख परयौ कफ बात पित्त भरयौ ,

भ्रम्यौ कत अनन्य कहाय की जिय लाजधरि ॥

सेवक निकट रस रीति प्रीति मन धरि ,

हित हरिवंश कुल कानि सब परिहरि ।

काचे रसिकनि सौं बिनती करत ऐसी ,

गोबिंद दुहाई भाई जो न सेवहु स्यामा हरि ॥

भावार्थ – हे भाई ! तू अपने सारे स्वार्थों का त्याग कर , श्रीगुरु चरणों का भजन कर , अपने इष्ट देव श्रीराधावल्लभलाल के गुण एवं नामों का श्रवण – कथन कर और प्रेमी सन्तों का सत्सङ्ग कर । ( विचार करके देख ! ) तू काल रूपी सर्प के मुख में पड़ा है और तेरा नाशवान् शरीर कफ , वात एवं पित्त से भरा हुआ है । फिर तू किसलिये भ्रम में हो ? अरे , अपने अनन्य कहे जाने की लाज तो ( कम से काम ) अपने चित्त में धारण कर ।

श्रीसेवकजी कहते हैं – कि श्रीहरिवंश के सेवकों के निकट ( निवास करके या उनकी समीपता प्राप्त करके ) रस – रीति एवं प्रीति को अपने मन में धारण कर और श्रीहरिवंश के लिये ( उनकी प्राप्ति , प्रीति के लिये ) अपने कुल की मर्यादा , प्रतिष्ठा आदि सब ( बन्धनों ) का परित्याग कर दे । मैं कच्चे रसिकों से विनती करता हूँ कि हे भाइयो ! यदि तुम श्रीश्यामा – श्याम सेवन नहीं करते हो तो तुम्हें मेरी ओर से श्रीगेविन्द की दुहाई है जो ऐसा न करो । अर्थात् शपथ है , अत : श्रीश्यामा – श्याम का सेवन अवश्य करो ।

पद – 17

परखे सुनहु सुजान और कछु जहाँ कचाई ।

भक्त कहैं परसन्न न तरुता कहैं बुरबाई ॥

दियैं सराहैं सुख हैं दुख दिन राती ।

खैबैं कौं जु सजाति खरच कौं होत बिजाती ।

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं- ) हे सज्जनो ! सुनो , उनमें और जो कुछ एवं जहाँ कहीं कच्चापन है , उसका भी वर्णन करता हूँ , मैंने जिसे परख लिया है । ये कच्चे लोग ‘ भक्त ‘ कहने पर प्रसन्न तो होते हैं किन्तु उनकी बुराई ( निन्दा ) कही जाने पर उनमें तरुता ( वृक्ष जैसी सहन – शीलता ) नहीं रहती । वे कुछ देने पर और सराहना किये जाने पर सुखी होते अन्यथा सब समय दिन रात दु : खी ही रहते हैं । आश्चर्य है कि ये खाने के लिये

पद – 18

प्रगटित श्री हरिवंश सूर दुंदुभि बजाइ बल ।

मदन मोह मद मलित निदरि निर्दलित दंभ दल ।।

भरम भाग्य भय भीत गर्व दुर्जन रज खंडन ।

लोभ क्रोध कलि कपट प्रबल पाखंड विहंडन ।।

तृष्णा – प्रपंच – मत्सर – बिसन सर्व दंड निर्बल करे ।

सुभ – असुभ दुर्ग बिध्वंसि बल तब जैति – जैति जग उच्चरे ॥

भावार्थ – श्रीश्यामा – श्याम का सेवन करने या श्रीहरिवंश धर्म का अनन्य भाव से पालन करने से उस साधक के हृदय में श्रीहरिवंश चन्द्र शूर – वीर दुन्दुभि बजाकर ( डंके की चोट से ) बल – पूर्वक प्रकट हो जाते हैं और काम , मोह , अभिमान , दम्भ , पाषण्ड आदि के दल को निरादरित करके मसल डालते हैं । ( उस उपासक के ) भ्रम , भाग्य ( कर्म – संस्कार , परिणाम ) , भय , भीति ( भय से उत्पन्न भाव ) गर्व आदि दुर्जनों के अभिमान ( रजोगुण – धर्म ) का खण्डन करके लोभ , क्रोध , कलह कपट आदि प्रबल पाषण्ड समूह को तहस नहस कर डालते हैं । इसी प्रकार तृष्णा प्रपञ्च , मत्सर ( डाह ) आदि सारे दोषों ( व्यसनों ) को भी अपने दण्ड बल से निर्बल कर देते हैं , पश्चात् पुण्य और पाप रूपी किलों को भी नष्ट – भ्रष्ट कर डालते हैं । तब सम्पूर्ण जगत् जय – जयकार का उच्चारण कर उठता है ।


श्रीहित अलभ्य – लाभ
( पंचदश प्रकरण )
पूर्व परिचय

अलभ्य उस वस्तु को कहते हैं जो कभी किसी को प्राप्त न हुई हो । ऐसी अलभ्य वस्तु है- श्रीहरिवंश नाम । यह पहले किन्हीं साधनों से भी किसी को प्राप्त नहीं था , श्रीहरिवंशचन्द्र ने कृपा पूर्वक जगतीतल पर प्रकट होकर अपने रूप का प्रकाश किया , जिससे कृपा पात्र जनों ने उन्हें जाना और उनके नाम के द्वारा उस अलभ्य वस्तु का लाभ किया , जो अभी तक किसी को प्राप्त न थी ; इसलिये इस प्रकरण में उस अलभ्य लाभ का वर्णन होने से इसका नाम अलभ्य – लाभ ‘ रखा गया है ।

इस अलभ्य लाभ के दृष्टि – गोचर होते हुए भी जो लोग इसका लाभ नहीं लेते मानो वे महा अभागे हैं ।

अस्तु यहाँ चार छन्दों में उस “ अलभ्य लाभ ” श्रीहरिवंश – नाम की महिमा , प्रभाव , गुण – माहात्म्य , नाम को ग्रहण न करने वाले का स्वरूप एवं दशा आदि का संक्षेपत : वर्णन किया गया है ।

पद – 1

श्री हरिवंश नाम है जहाँ तहाँ तहाँ उदारता ,

सकामता तहाँ नहीं कृपालुता विशेषिये ।

हरिवंश नाम लीन जे अजातसत्रु ते सदा ,

प्रपंच दंभ आदि दै तहाँ कछू न पेखिये ॥

हरिवंश नाम जे कहैं अनंत सुक्ख ते लहैं ,

दुराप प्रेम की दसा तहाँ प्रतच्छ देखिये ।

सोई अनन्य साधु सो जगत्र पूजिये सदा ,

सु धन्य धन्य विश्व में जनम सत्य लेखिये ॥

भावार्थ – जहाँ – जहाँ श्रीहरिवंश नाम है , वहाँ – वहाँ उदारता है । वहाँ सकामता ( फल की इच्छा ) नहीं है और कृपालुता तो विशेष रूप से है , ऐसा जानना चाहिये । जो उपासक श्रीहरिवंश – नाम में तल्लीन हैं , वे सदा ही अजात शत्रु ( अर्थात् जिनका शत्रु पृथ्वी क्या त्रिलोकी में उत्पन्न ही नहीं हुआ ऐसे ) हैं । उनके पास प्रपञ्च दम्भ से लेकर और भी बहुत से दोष पाखण्ड आदि कुछ भी नहीं देखे जाते । जो लोग ‘ श्रीहरिवंश ‘ नाम कहते रहते हैं , वे अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं और अत्यन्त गोपनीय प्रेम की दशा भी उनमें प्रत्यक्ष देखी जाती है ( अर्थात् श्रीहरिवंश नाम के प्रताप से वह अलभ्य प्रेम दशा भी प्रकट हो जाती है ) जो ऐसा ( उक्त गुणों से सम्पन्न ) है वही अनन्य साधु है , वही सदा – सर्वदा त्रिलोक पूज्य है । वही धन्य – धन्य है और विश्व में जन्म लेना उसी का सचमुच सार्थक है ।

पद – 2

श्रीव्यासनंदन नाम कौ अलभ्य लाभ जानिये ।

हरिवंशचंद्र जो कही सुचित्त है सबै लही ,

बचंन चारु माधुरी सु प्रेम सौं पिछानिये ।

सुनै प्रपंन जे भये अभद्र सर्व के गये ,

तिन्हें मिलैं प्रसंन है न जाति भेद मानियै ॥

सुभाग लाग पाइ हौ प्रसंसि कंठ लाइ हौ ,

सिराइ नैंन देखिकै अभेद बुद्धि आनियै ।

कृपालु कै सु भाखि हैं धरम पुष्ट राखि हैं ,

श्रीव्यासनंदन नाम कौ अलभ्य लाभ जानियै ॥

भावार्थ – निश्चय जानिये कि श्रीव्यासनन्दन नाम का लाभ ही वास्तव में अलभ्य लाभ है ।

श्रीहरिवंश चन्द्र ने जो कुछ कहा है , उसे सभी ( उनके शरणागतों ) ने सुचित्त भाव से प्राप्त किया है । हृदय में प्रेम होने से ही उस वाणी का माधुर्य समझ में आता है ( क्योंकि वह अन्य प्रकार पहचानी ही नहीं जा सकती । ) उस ( वचन माधुरी ) को सनुकर जो लोग ( श्रीहित हरिवंशचन्द्र के ) शरणागत ( भक्त ) हो गये , उनके समस्त अभद्र ( अमंगल , पाप ) विदा हो गये । ऐसे उन भक्तों से प्रसन्नता – पूर्वक मिलना चाहिये , उनसे जाति आदि का भेद ( अर्थात् जाति की उच्चता और हेयता ) नहीं माननी चाहिये । ऐसे प्रेमी मानो हमारे सौभाग्य को उदय करने के ही लिये मिलते हैं – अथवा उनसे सौभाग्य और लाग ( लगन ) प्राप्त हो सकेगी , वे तुमसे प्रसंशा – पूर्वक मिलेंगे और तुम्हें गले लगा लेंगे । तुम उनका दर्शन करके अपने नेत्र शीतल करो और उनके प्रति अभेद बुद्धि ( अर्थात् इष्टदेव श्रीराधावल्लभलाल और रसिक- -महानुभाव दो तत्व नहीं अपितु एक ही वस्तु – तत्व के दो रूप हैं ऐसी बुद्धि ) लाओ । वे भी तब कृपालु होकर तुम्हारे प्रति सुन्दर और मधुर वचनों का भाषण करेंगे , ( सदुपदेश देंगे ) और तुम्हारे धर्म को पुष्ट करके उसकी रक्षा करेंगे ।

( यह समस्त गुण श्रीहरिवंश नाम के ही हैं अत श्रीव्यासनन्दन श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम को ही अलभ्य लाभ जानिये । इसके समान कोई अन्य लाभ तो है ही नहीं ।

पद – 3

हरिवंश नाम सर्व सार छाँड़ि लेत बहुत भार ,

राज बिभौ देखिकै विषै विषम भोवहीं ।

जोरु होत साधु संग ऑन करत प्रीति भंग ,

मान काज राजसीन के जु मुक्ख जोवहीं ॥

जहाँ तहाँ अन्न खात सखी कहत आप गात ,

सकल द्यौस द्वंद्व जात रात सर्व सोवहीं ।

प्रसिद्ध व्यासनंदन नाम जानि बूझि छोड़हीं ,

प्रमाद तें लिये बिना जनम बाद खोवहीं ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश नाम ही सबका सार है । कच्चे और अश्रृद्धालु धर्मी लोग उसे छोड़ कर अन्य – अन्य ( उपासना और धर्मों का ) व्यर्थ भार अपने सिर पर लेते हैं और किसी का राज्य – वैभव आदि देख करके विषम विषय – रस में लिप्त हो जाते हैं । यदि कदाचित् सौभाग्य से साधुजनों का सङ्ग प्राप्त हो भी गया तो उन साधुओं से भी और – और प्रकार की खटपट कर करके उनसे प्रीति तोड़ लेते हैं और सम्मान पाने के लिये राजसी लोगों का मुख देखते रहते हैं ।

ये लोग अनन्य तो बनते हैं पर जहाँ – तहाँ अन्न ( विना भोग लगी हुई वस्तु ) खाते फिरते और अपने आपको ( गुरु दीक्षा , कण्ठी , तिलक आदि होने से ) सखी – स्वरूप कहते हैं । उनके सारे दिन द्वन्द्व ( राग – द्वेष , इर्ष्या , असूया , झूठ – कपट आदि ) में ही चले जाते हैं और वे सारी रात सोया करते हैं , केवल कहने के सखी – स्वरूप हैं , भजन – भाव , सेवा , जप , पाठ आदि कुछ नहीं अपितु खाना – पीना और सोना यही सारे विपरीत आचरण हैं । खेद है कि प्रसिद्ध व्यास नन्दन ( श्रीहरिवंश ) नाम को जान बूझ कर छोड़ देते हैं और प्रमाद – वश उस महान् नाम के बिना ही अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ खो देते हैं ।

पद – 4

हरिवंश नाम हीन खीन दीन देखियै सदा ,

कहा भयौ बहुज्ञ द्वै पुरान वेद पढ्ढहीं ।

कहा भयौ भये प्रबीन जानि मानियै जगत्र ,

लोक रीझ सोभ कौं बनाइ बात गढ्ढहीं ॥

कहा भयौ किये करम जज्ञ दान देत – देत

फलनि पाइ उच्च – उच्च देवलोक चढ्ढहीं ।

परयौ प्रवाह काल के कदापि छूटि है नहीं ,

श्रीव्यासनंदन नाम जो प्रतीति सौं न रहीं ॥

भावार्थ – जो लोग श्रीहरिवंश नाम से हीन हैं – रहित हैं , वे सदैव दीन एवं ( धर्म से ) क्षीण देखे जाते हैं । क्या हुआ जो वे लोग बड़े भरी सुज्ञाता होकर पुराण एवं वेद पढ़ते रहते हैं ? यदि वे बड़े प्रवीण ( कुशल ) भी हो गये और उन्हें सारा जगत् जानने और मानने भी लगा । वे संसार को रिझाने के लिये गढ़ – गढ़ कर शोभामयी ( मीठी – मीठी ) बातें भी कहना सीख गये तो भी क्या ? यदि उन्होंने बहुत से कर्म किये , यज्ञ किये और दान दिये तो क्या ? अरे ! दान दे – देकर भोगों के उच्च फल पा गये और ऊँचे – ऊँचे लोकों ( स्वर्ग आदि ) में भी चले गये , तो इससे भी क्या हुआ ?

इतना सब होने पर भी वह व्यक्ति जो श्रीव्यासनंदन नाम को विश्वास पूर्वक नहीं रटता है , सदा ही भव ( आवागमन ) के प्रवाह में पड़ा रहेगा । वह कभी भी उस भव – प्रवाह से नहीं छूट सकता जब तक कि प्रतीति ( विश्वास ) और प्रीति ( प्रेम ) से श्रीव्यासनन्दन नाम को नहीं रटेगा ।


श्रीहित अबोलनौं
( षोडश प्रकरण )
पूर्व परिचय

‘ अबोलनौं ‘ का अर्थ है ‘ न बोलना ‘ इस न बोलने की स्थिति का सङ्केत मान से है । कभी – कभी क्रीड़ा – विलास में युगल किशोर के बीच में ऐसी स्थिति आ प्राप्त होती है , जहाँ श्रीप्रियाजी सब कुछ भूल कर चुप हो रहती हैं , किन्तु प्रेम – आशंका वश श्रीलालजी उसे ‘ मान ‘ समझ बैठते हैं । सेवक जी के मत से यह ‘ मान”प्रकट प्रेम रस सार ‘ है । यह प्रेम रससार कुञ्जान्तर मान नहीं , रूठना नहीं , क्रोध नहीं , घृणा नहीं और न सौतिया डाह जैसी कोई स्थिति ही है । यह है प्रेमाधिक्य का विलास । जब श्रीप्रियाजी अपने प्रियतम श्रीलाल जी के प्रेमाधिक्य से अपनी सुधि – बुधि खो बैठती , मौन हो जाती हैं तब श्रीलाल जी उनकी इस स्थिति को अपनी प्रेम – सम्भ्रम बुद्धि से ‘ मान ‘ समझ बैठते हैं , क्योंकि वे भी तो प्रेम – परवश होने के कारण अपनी बुद्धि खो बैठते हैं , अतएव वे श्रीप्रियाजी को मनाने लगते हैं ।

इस रहस्य को सर्वज्ञ हित सखी खूब समझती हैं , इसलिये श्रीप्रियाजी को वस्तु स्थिति समझाने की कोशिश करती हैं , ताकि मान जैसी स्थिति छूट जाय और दोनों पक्षों में रस की धारा बह चले ।

अन्तत : ऐसा ही होता है । इस अबोलनौ के नित्य – मिलन प्रसंग में प्रेम – विलास की अनिर्वचनीयता की जो अन्तिम – स्थिति दिखायी गयी है , उससे महाप्रभु श्रीहित हरिवंशचन्द्र के प्रेममय नित्य – विहार रस का कुछ अनुमान हो जाता है । अब प्रथम दोहे में यह बताना चाहते हैं कि महाप्रभु पाद की वाणी में किस प्रकार मान सम्भव हो सका ?

पद – 1

बानी श्रीहरिवंश की , सुनहु रसिक चित लाइ ।

जेहि विधि भयौ अबोलनौं , सो सब कहौं समुझाइ ॥

भावार्थ – हे रसिकों ! श्रीहरिवंश की वाणी ( श्रीहित चौरासी , राधा – सुधा निधि आदि ) में ‘ अबोलनौं ‘ ( मौन या मान ) जिस प्रकार से हुआ मैं वह सब समझा कर कहता हूँ , उसे चित्त लगाकर सुनो ।

पद – 2

श्री हरिवंश जु कथि कही , सोरु सुनाऊँ गाइ ।

बानी श्रीहरिवंश की , नित मन रही समाइ ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अपने कथन में ( अपने शब्दों में ) जो कुछ कहा है , वही ( मानादि ) वर्णन करके मैं आपको सुनाऊँगा , क्योंकि श्रीहरिवंश की वाणी निरन्तर मेरे मन में समाई हुई है ।

पद – 3

श्रीहरिवंश अबोलनौं , प्रगट प्रेम – रस – सार ।

अपनी बुद्धि न कछु कहौं , सो बानी उच्चार ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा वर्णन किया गया अबोलनौं ( मौन ) प्रकट रूप से प्रेम रस का सार है , मैं उस विषय में अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहता वरं जैसा कुछ श्रीहरिवंश की वाणी में कहा गया है उनका उच्चारण है , ( मैं उन्हीं के शब्दों में कहता हूँ । )

पद – 4

श्रीहरिवंश जु क्रीडहीं , दंपति रस समतूल ।

सहज समीप अबोलनौं , करत जु आनँद मूल ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंश चन्द्र स्वयमेव प्रेम रस समतुल्य दंपति के रूप में क्रीड़ा करते हैं और उस क्रीड़ा के मध्य सहज रूप से जो अबोलनौं ( मौन की स्थिति ) आ उपस्थित होती है वह आनन्द का मूल है । अर्थात उससे रसानन्द की निष्पत्ति होती है ।

पद – 5

काहे कौं डारति भामिनी , हौं जु कहत इक बात ।

नैंक बदन सनमुख करौ , छिन छिन कलप सिरात ॥

भावार्थ – सखी ने कहा – हे भामिनि ! मैं जो एक बात तुमसे कह रही हूँ , उसे क्यों टाल रही हो ? तनिक तो अपना श्रीमुख इनके सम्मुख करो । देखो , ( श्रीलालजी का ) एक – एक क्षण कल्प की भाँति बीत रहा है ।

पद – 6

वे चितवत तुव बदन बिधु , तू निज चरन निहारति ।

वे मृदु चिबुक प्रलोवहीं , तू कर सौं कर टारति ॥

भावार्थ – वे तो तुम्हारे मुख – चन्द्र को ही ( चकोर वत् ) देख रहे हैं और तुम अपने चरणों की ओर ( दृष्टि नीची किये ) निहार रही हो । वे तुम्हारे कोमल चिबुक को प्रेम पूर्वक सहलाते हैं और तुम ( अनादर पूर्वक ) उनके हाथ को अपने हाथों से टाल देती – झटक देती हो ।

पद – 7

बचन अधीन सदा रहै , रूप समुद्र अगाध ।

प्रान – रवन सौं कत करति , बिनु आगस अपराध ।।

भावार्थ – रूप के अगाध – समुद्र ये श्रीलाल जी सदा ही तुम्हारे वचनों के अधीन रहे आते हैं । इस प्रकार सदा अपने ही अनुकूल रहने वाले प्राण – रमण से तुम अकारण ( बिना किसी अपराध के ) ही क्रोध या मान क्यों करती हो ? ( एक दृष्टि से तो यह तुम्हारा मान भी उनके प्रति अपराध ही है । )

पद – 8

चितयौ कृपा करि भामिनी , लीने कंठ लगाइ ।

सुख सागर पूरित भये , देखत हियौ सिराइ ॥

भावार्थ – ( श्रीहित सखी के वचनों को सुनकर ) भामिनि ( श्रीप्रियाजी ) ने मान का त्याग करके ( श्रीलालजी की ओर प्रेम पूर्ण दृष्टि से देखा और ) उन्होंने अपने प्रियतम को गले लगा लिया , जिससे ( दोनों के मिलते ही मानो ) दो सुख – समुद्र पूर्ण होकर छलक उठे , जिसे देखकर ( श्रीहित अलि का ) हृदय शीतल हो गया ।

पद – 9

सेवक सरन सदा रहै , अनत नहीं विश्राम ।

बानी श्री हरिवंश की , कै हरिवंशहिं नाम ॥

भावार्थ – सेवकजी कहते हैं कि ‘ यह ‘ सेवक तो सदैव इन्हीं श्रीहरिवंश की शरण में रहता है , उसे तो अब अन्यत्र कहीं शान्ति ( विश्राम ) ही नहीं है । एक तो श्रीहरिवंश की वाणी अथवा दूसरे श्रीहरिवंश का नाम , इसके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं शान्ति ( विश्राम ) नहीं है ।

॥ जै जै श्री हरिवंश ॥


फल स्तुति

जयति जयति हरिवंश नाम रति सेवक बानी ।

परम प्रीति रस रीति रहसि कलि प्रगट बखानी॥

प्रेम संपती धाम सुखद विश्राम धरंमिनि ।

भनत गुनत गुन गूढ़ भक्त भ्रम भजत करंमिनि ॥

श्रीव्यासनंद अरबिंद चरन मद तासु रंग रस राचहीं।

‘श्रीकृष्णदास’ हित हेत सौं जे सेवक बानी बाँचहीं ॥

श्रीकृष्णचन्द्र महाप्रभु पाद

सेवक दरसायौ प्रगट हित मग सब सुख सार।

चलैं तिहीं अनुकूल जे पावैं नित्य विहार ॥

सेवै श्रीहरिवंश पद सेवक सो ही मान।

और कहै औरहि भजै सो विभिचारी जानि ॥

सेवक गिरा प्रमान करि सेवै व्यास कुमार।

सेवक सो ही जानिये और सकल विभिचार ॥

सेवक कही सो ही करै परसै नहिं कछु आन।

सेवक सो ही जानिये रसिक अनन्य सुजान ॥

एक महानुभाव

कै हरिवंसहि नाम धाम वृंदावन बस गति।

बानी श्रीहरिवंश सार संच्यौ सेवक मति ॥

पठन श्रवन जे करै प्रीति सौं सेवक बानी।

भव निधि दुस्तर जदपि होइ तिहिं गोपद पानी ॥

( श्री ) व्यासनंद परसाद लहि जुगल रहस दरसै जु उर।

धनि वृंदावन हित रूप बलि सुख विलसैं भावुक धाम धुर ॥

ग्रंथ सिंधु तें सोधि रंग कलि माँहि बढ़ायौ ।

यह हित कृपा प्रसाद अमी भाजन भरि पायौ ॥

रसिक मनौं सुर सभा आनि तिनकौं दरसायौ ।

श्री सेवक निज गिरा मोहिनी बाँटि पिवायौ ॥

पठन श्रवण निसि दिन करै दंपति सुधाम सुख लहै अलि |

बानी स्वरूप हरिवंश तन भनि वृंदावन हित रूप बलि।

॥ जै जै श्रीहरिवंश ।।

श्री सेवकवाणी-टीका ( पंचदश प्रकरण )

(७) पढ़त गुनत गुन नाम सदा सत संगति पावै ।

अरु बाढ़ रस रीति विमल बानी गुन गावै ॥

प्रेम लक्षणा भक्ति सदा आनँद हितकारी ।

श्रीराधा जुग चरन प्रीति उपजै अति भारी॥

निजु महल टहल नव कुंज में नित सेवक सेवा करन। निसिदिन समीप संतत रहै श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

(८) जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइहै।

प्रेम लक्षणा भक्ति सुदृढ़ करि पाइहै ॥

अरु बाढ़ रस रीति प्रीति चित ना टरै ।

जीति विषम संसार कीरति जग बिस्तरै ॥

बिस्तरै सब जग विमल कीरति साधु संगति ना टरै ।

बास वृंदा विपिन पावै श्रीराधिकाजू कृपा करै ।

चतुर जुगल किसोर सेवक दिन प्रसादहि पाई है।

जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइहै ।।

(९) हरिवंश नाम जे कहैं अनंत सुक्ख ते लहैं।

दुरापि प्रेम की दसा तहाँ प्रतच्छ देखिये।

इत्यादि वाक्यों से सिद्ध है कि श्रीहित हरिवंश चन्द्र का नाम मोक्ष-सुख से भी परे दिव्य प्रेममय नित्य विहार को प्रदान करने वाला है। जो ऐसा जानकर इस नाम की शरण लेते और फिर आराधन करते हैं; वही सुदृढ़ भव (अर्थात् लोक एवँ लोकान्तरों के आवागमन, जन्म-मरण आदि) से छूट कर नित्य किशोर श्रीराधावल्लभलाल के अत्यन्त निकट होकर श्रीवृन्दावन धाम में प्रेम केलि का सुख आस्वादन करते हैं। इनके सिवाय शेष सभी काल प्रवाह में पड़े हैं, जैसा कि श्रीध्रुवदास जी ने कहा है

हित ध्रुव और सुख देखियत जहाँ लगि,

सुनियत तहाँ लगि सबै दुख पासि हैं।

श्रीरसखानजी के मत से तो प्रेमी ही मरकर सच्चा जीवन पाता है और शेष सब जीते हुए भी मरे से हैं

प्रेम फाँसि में फँसि मरै सोई जियै सदाहि ।

प्रेम मरम जानै बिना मरि कोऊ जीवत नाहिं ॥

अतएव नित्य जीवन पाने के लिये प्रेम नाम श्रीहरिवंश का आश्रय लेना चाहिये।

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