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श्री स्फुट वाणी

Shri Hita Sfut Vani- श्री स्फुट वाणी



श्री वृंदावन धाम के रसिक संत श्री हित हरिवंश महाप्रभु द्वारा लिखित दोहे।


श्रीहित स्फुटवाणी – 1

व्दादश चन्द्र , कृतस्थल मंगल , बुद्ध विरुद्ध , सुर – गुरु बंक |

यद्दी दसम्म – भवन्न भृगू – सुत , मंद सुकेतु जनम्म के अंक ||

अष्टम राहु चतुर्थ दिवामणि , तौ हरिवंश करत नहिं संक |

जो पै कृष्ण – चरण मन अर्पित , तौ करि हैं कहा नवग्रह रंक ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 2

भानु दसम्म , जनम्म निसापति , मंगल – बुद्ध सिवस्थल लीके |

जो गुरु होंय धरम्म – भवन्न के , तौ भृगु – नन्द सुमन्द नवीके ||

तीसरौ केतु समेत विधु – ग्रस , तौ हरिवंश मन कर्म फीके |

गोविन्द छाँडि भ्रमंत दशौं दिस , तौ करि हैं कहा नवग्रह नीके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 3

नाजानौं छिन अन्त कवन बुधि घटहि प्रकासित |

छुटि चेतन जु अचेत तेउ मुनि भये विष वासित ||

पारासर सुर इन्द्र कलप कामिनि मन फंघा |

परि व देह दुख व्दन्द कौंन कर्म काल निकंघा ||

यहिं डरहिं डरपि हरिवंश हित , जिनव भ्रमहि गुण सलिल पर |

जिहिं नामन मंगल लोक तिहूँ , सु हरि – पद भजु न विलम्ब कर ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 4

तू बालक नहिं भरच्यौ सयानप , काहैं कृष्ण भजत नहिं नीके ।

अतिव सुमिष्ट तजिव सुरभिन – पय , मन बन्धत तन्दुल जल फीके ||

जै श्रीहित हरिवंश नरकगतिदुरभर , यमव्दारै कटियत नकछीके ।

भव अज कठिन मुनीजन दुर्लभ , पावत क्यों मनुज तन भीके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 5

चकई ! प्रान जु घट रहैं , पिय – बिछुरंत निकज्ज |

सर – अन्तर अरु काल निशि , तरफ तेज घन गज्ज ||

तरफ तेज घन गज्ज , लज्ज तुहि वदन न आवै |

जल – विहून करि नैंन , भोर किहिं भाय बतावै ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारि , वाद अस कौंन जु बकई |

सारस यह सन्देह , प्रान घट रहैं जु चकई ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 6

सारस ! सर बिछुरन्त कौ , जो पल सहै शरीर ।

अगिन अनंग जु तिय भखै , तौ जानै पर पीर ||

तौ जाने पर पीर , धीर धरि सकहि ब्रज तन ।

मरत सारसहिं फुट , पुनि न परचौ जु लहत मन ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारि , प्रेम विरहा बिनु वा रस |

निकट कन्त नित रहत , मरम कह जानैं सारस ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 7

तैं भाजन कृत जटित विमल चन्दन कृत इन्धन |

अमृत पूरि तिहिं मध्य करत सरषप खल रिन्धन ||

अदभुत धर पर करत कष्ट कंचन हल वाहत |

वार करत पाँवार मन्द वोवन विष चाहत ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारिकैं , मनुज देह गुरु चरन गहि ।

सकहि तौ सब परपंच तजि , कृष्ण – कृष्ण गोविन्द कहि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 8

तातें भैया ! मेरी सौंह कृष्ण गुण संचु |

कुत्सित बाद विकारहिं परधन , सुन सिख मंद परतिय वंचु |

मणिगन -पुंज ब्रजपति छाँडत , हित हरिवंश कर गहि कंचु ||

पाये जान जगत में सब जन , कपटी कुटिल कलियुग – टंच |

इहिं परलोक सकल सुख पावत , मेरी सौं कृष्ण गुण संचु ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 9

मानुष कौ तन पाय , भजौ ब्रजनाथ कौं |

दर्वी लैंकै मूढ़ , जरावत हाथ कौं ||

जै श्रीहित हरिवंश प्रपंच , विषय रस मोहके |

हरि हाँ , बिन कंचन क्यौं चलें , पचीसा लोहके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 10

तू रति रंगभरी देखियत है री राधे , तें रहसि रमी मोहन सौं व रैन |

गति अति सिथिल प्रगट पलटे पट , गौर अंग पर राजत ऐंन ||

जलज कपोल ललित लटकत लट , भृकुटि कुटिल ज्यौं धनुषधृतमैंन |

सुन्दरि रहव कँहव कंचुकि कत , कनक – कलस कुच बिचनखदैन ||

अधर विम्ब दलमलित आरसयुत , अरु आनन्द सूचत सखि नैंन |

जै श्रीहित हरिवंशदुरत नहिंनागरि , नागर – मधुप मथित सुखसैंन ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 11

आनँद आजु नन्द मैं व्दार |

दास अनन्य भजन रस कारन , प्रगटे लाल मनोहर ग्वार ||

चन्दन सकल धेनु तन मंडित , कुसुम – दास – सोभित आगार |

पूरन कुम्भ बने तोरन पर , बीच रुचिर पीपर की डार ||

युवति – युथ मिल गोप विराजत , बाजत पणव – मृदंग सुतार |

जै श्रीहित हरिवंश अजिर वर वीथिनु , दधि – मधि – दुग्ध – हरद के खार ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 12

मोहनलाल कैं रँग राँची |

मेरे ख्याल परौ जिन कोऊ , बात दशौं दिस माँची ||

कंत अनन्त करौ जो कोऊ , बात कहौं सुनि साँची |

यह जिय जाहु भलैं सिर ऊपर , हौ व प्रगट दै नाची ||

जाग्रत – सयन रहत उर ऊपर , मणि कंचन ज्यौं पाची |

जै श्रीहित हरिवंश डरौं काके डर , हौं नाहिंन मति काची ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 13

मैं जु मोहन सुन्यौ नु गोपाल कौ |

व्योम मुनियान सुर – नारि विथकित भई , कहत नहिं बनत कछु भेद यति ताल कौ ||

श्रवन कुण्डल छुरित रूरत कुन्तल ललित , रुचिर कस्तूरि चन्दन तिलक भाल कौ |

चन्द गति मन्द भई निरखि छबि काम गई , देखि हरिवंश हित बेष नंदलाल कौ ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 14

आजु तू ग्वाल गोपाल सौं खेलिरी |

छाँड़ि अति मान , वन चपल चलि भामिनी , तरु तमाल सौं अरुझ कनक की बेलिरी ||

सुभट सुन्दर ललन , ताप परबल दमन , तू व ललना रसिक काम की केलि री |

वैंनु कानन कुनित , श्रवन सुन्दरि सुनत , मुक्ति सम सकल सुख पाय पग पेलिरी ||

विरह – व्याकुल नाथ , गान गुन युवति तव , निरखि मुख , काम को कदन अवहेलि री |

सुनत हरिवंश हित , मिलत राधारबन , कंठ भुज मेलि , सुख – सिन्धु में झेलिरी ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 15

वृषभानु नन्दिनी राजत हैं |

सुरत – रंग – रस भरी भामिनी , सकल नारि सिर गाजत हैं ||

इत उत चलत परत दोऊ पग , मद गयंद गति लाजत हैं |

अधर निरंग , रंग गंडन पर , कटक काम कौ साजत हैं ||

उर पर लटक रही लट कारी , कटिव किंकिनी बाजत हैं |

जै श्रीहित हरिवंश पलटी प्रीतम पट , जुवति जुगति सब छाजत हैं ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 16

चलौ वृषभानु गोप के व्दार |

जनम लियौ मोहन हित श्यामा , आनंद – निधि सुकुमार ||

गावत जुवति मुदित मिलि मंगल , उच्च मधुर धुनि धार |

विविध कुसुम किसलय कोमल -दल , शोभित वन्दनवार ||

विदित वेद – विधि विहित विप्रवर , करि स्वस्तिनु उच्चार |

मृदुल मृदंग , मुरज , भेरी , डफ , दिवि दुन्दुभि रवकार ||

मागध सूत बंदी चारन जस , कहत पुकारि – पुकारि |

हाटक , हीर , चीर , पाटम्बर , देत सम्हारि – सम्हारि ||

चंदन सकल धेनु – तन मंडित , चले जु ग्वाल सिंगार |

जै श्रीहित हरिवंश दुग्ध – दधि छिरकत , मध्य हरिद्रा गारि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 17

तेरौई ध्यान राधिका प्यारी , गोवर्द्धन धर लालहिं |

कनक लता सी क्यौं न विराजति , अरुझी श्यामं तमालहीं ||

गौरी गान सु तान – ताल गहि , रिझवति क्यौं न गुपालहीं ||

यह जोवन कंचन – तन ग्वालिन , सफल होत इहीं कालहिं ||

मेरै कहे विलम्व न करि सखि , भूरि भाग अति भालहीं ||

जै श्रीहित हरिवंश उचित हौं चाहति , श्याम कंठ की मालहि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 18

आरती मदन गोपाल की कीजियें |

देव ऋषि , व्यास , शुकदास सब कहत निजु , क्यौं न बिनु कष्ट रस – सिन्धु कौं पीजियें ||

अगर करि धूप कुमकुम मलय रंजित नव , वर्तिका घृत सौं पूरि राखौ ||

कुसुम कृत माल नंदलाल के भाल पर , तिलक करि प्रगट यश क्यौं न भाखौ ||

भोग प्रभु योग भरि थार धरि कृष्ण पै , मुदित भुज – दण्डवर चमर ढारौ ||

आचमन पान हित , मिलत कर्पूर – जल , सुभग मुख वास , कुल – ताप जारौ ||

शंख दुन्दुभि , पणव , घंट , कल नु रव , झल्लरी सहित स्वर सप्त नाचौ ||

मनुज – तन पाय यह दाय ब्रजराज भज , सुखद हरिवंश प्रभु क्यौं न याँचौ ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 19

आरति कीजै श्याम सुन्दर की |

नन्द के नन्दन राधिका वर की ||

भक्ति करि दीप प्रेम करि वाती |

साधु – संगति करि अनुदिन राती ||

आरति जुवति – युथ मन भावै |

श्याम लीला श्रीहरिवंश हित गावै ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 20

रहौ कोऊ काहू मनहिं दियें |

मेरै प्राणनाथ श्रीश्यामा , सपथ करौं तृण छिौं |

जे अवतार कदम्ब भजत हैं , धरि दृढ़ व्रत जु हिथें |

तेऊ उमगि तजत मर्यादा , वन बिहार रस पियें ||

खोये रतन फिरत जे घर – घर , कौंन काज ऐसे जिमैं |

जै श्रीहित हरिवंश अनत सचु नाहीं , बिन या रजहिं लियें ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 21

हरि रसना राधा – राधा रट |

अति अधीन आतुर यद्दपि पिय , कहियत हैं नागर नट ||

संभ्रम द्रुम , परिरंभन कुंजन , ढूँढ़त कालिन्दी – तट |

विलपत , हँसत , विषीदत , स्वेदत , सतु सींचत अँसुवनि वंशीवट ||

अंगराग परिधान वसन , लागत ताते जु पीतपट |

जै श्रीहित हरिवंश प्रसंषित श्यामा , प्यारी कंचन – घट ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 22

लाल की रूप माधुरी नैंनन निरख नैंक सखी |

मनसिज – मनहरन हास , साँवरौ सुकुमार रासि , नख – सिख अंग – अंगनि उमगि , सौभग – सींव नखी ||

रँगमँगी सिर सुरंग पाग , लटकि रही वाम भाग , चंपकली कुटिल अलक बीच – बीच रखी |

आयत दृग अरुन लोल , कुंडल मंडित कपोल , अधर दसन दीपति की छबि , क्यौं हूँ न जात लखी ||

अभयद भुज – दंड मूल , पीन अंश सानुकूल , कनक – निकष लसि दुकूल , दामिनी धरखी |

उर पर मंदार – हार , मुक्ता – लर वर सुढार , मत दुरद – गति , तियन की देह – दसा करखी ||

मुकुलित वय नव किसोर , वचन – रचन चित के चोर , मधुरितु पिक – शाव नूत – मंजूरी चखी |

जै श्री नटवत हरिवंश गान , रागिनी कल्याण तान , सप्त स्वरन कल इते पर , मुरलिका वरखी ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 23

दोउ जन भींजत अटके बातन |

सघन कुंज के व्दारै ठाढ़े , अम्बर लपटे गातन ||

ललिता ललित रूप – रस भीजी , बूंद बचावत पातन |

जै श्रीहित हरिवंश परस्पर प्रीतम , मिलवत रति रस घातन ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 24

सबसौं हित निष्काम मति , वृन्दावन विश्राम |

श्रीराधाबल्लभलाल कौ , ह्रदय ध्यान मुख नाम ||

तनहिं राखि सतसंग में , मनहिं प्रेम रस भेव |

सुख चाहत हरिवंश हित , कृष्ण – कल्पतरु सेव ||

निकसि कुंज ठाढ़े भये , भुजा परस्पर अंस |

श्रीराधाबल्लभ – मुख – कमल , निरख नैंन हरिवंश ||

रसना कटौ जु अन रटौ , निरखि अनफूटौ नैंन |

श्रवण फूटौ जो अन सुनौं , बिनु राधा – जस बैंन ||

|| इति श्रीहित स्फुटवाणी संपूर्ण ||

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