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Shri Banke Bihari Ji

आपने वृंदावन के बांके बिहारी जी की मान्यता के बारे में खूब सुना होगा। मथुरा के वृंदावन में बांके बिहारी जी का विशाल मंदिर है, जिसके प्रांगण मे हर दिन देश-विदेश से आए हुए भक्तों का तांता लगा रहता है।



यहाँ लाल जी के एक झलक के लिए उनके प्रेमी लालायित रहते है केवल वो ही नही बिहारी जी भी अपने भक्तों से मिलने के लिए हर दिन नये श्रृंगार का अपनी बांकी अदाओं से उनके मन मे अपनी प्रेम का संचार करते रहते है


मंदिर का इतिहास


श्री राधा वल्लभ मंदिर के पास स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1864 में हुआ था तथा यह राजस्थानी वास्तुकला का एक नमूना है। इस मंदिर के मेहराब का मुख तथा यहाँ स्थित स्तंभ इस तीन मंजिला इमारत को अनोखी आकृति प्रदान करते हैं।

कहा जाता है कि इस मन्दिर को स्वामी श्री हरिदास जी के अनुयायियों के द्वारा 1921 मे पुनर्निर्माण कराया गया था, मंदिर के निर्माण के प्रारंभ मे किसी का धन नही लगाया गया था। । यह नई संरचना एक वास्तुशिल्प चमत्कार है और अपनी भव्यता और भव्यता के साथ प्रभु की महिमा को श्रद्धांजलि देता है। कहा जाता है कि गोस्वामियों ने इस मंदिर के निर्माण में आर्थिक योगदान दिया था।

मंदिर वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है, जिसे समकालीन राजस्थानी शैली में बनाया गया है। इस दिव्य संरचना की विशाल सुंदरता शिल्पकारों और बिल्डरों के कौशल के लिए बोलती है। यह उस कठिन परिश्रम और प्रयास को भी दर्शाता है जो इसके निर्माण में चला गया। परिसर के भीतर प्रचलित वातावरण इतना पवित्र है, कि मंदिर के धार्मिक और आध्यात्मिक उत्साह से मंत्रमुग्ध कर देता है।


बिहारी जी का श्री विग्रह


इस मंदिर में बांके बिहारी की काले रंग की प्रतिमा है। इस प्रतिमा में श्री श्यामा-श्याम का मिलाजुला रूप समाया हुआ है। यह वृंदावन के लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। बनठन कर रहनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में बांका कहा जाता है। अर्थात बांका जो भी होगा वह सजीला भी होगा या बनाव-श्रृंगार से सजीला बनता है।

जब सजीले सलोनेपन की बात आती है तो कृष्ण की छवि ही मन में उभरती है। कृष्ण जी का एक नाम बांकेबिहारी है । श्री कृष्ण हर मुद्रा में बांकेबिहारी नहीं कहे जाते बल्कि “होठों पर बांसुरी लगाए”, “कदम्ब के वृक्ष से कमर टिकाए” हुए,”एक पैर में दूसरे को फंसाए हुए” तीन कोण पर झुकी हुई मुद्रा में ही उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है.भगवान तीन जगह से टेढ़े है.होठ,कमर और पैर. इसलिए उन्हें त्रिभंगी भी कहा जाता है। यही त्रिभंगी रूप मे ही बांके बिहारी जी मंदिर मे विराजमान है जिनके वाम भाग मे राधा जी गादी पर विराजित होकर हमें अपने सेवा और दर्शन का सौभाग्य दे रहे है।


विग्रह के बारे मे


आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह वृंदावन से स्थानान्तरित हुए, परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं।

  • श्रीबाँकेबिहारी जी केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं।
  • केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं
  • जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं। जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं।
  • चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है। इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है।

इनके दर्शन की भी बड़ी निराली पद्धति है अन्य मंदिरों की भाँति इनके सामने सर झुकाया नही जाता बल्कि संतो का कहना है की इनके मोटे मोटे आँखों से अपनी आँखे मिला कर अपना सारा प्रेम उड़ेल देना चाहिए।

एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी ने देखा कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय। इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें लाल जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं।

यह कथा प्रमाण देता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं। यही कारण है कि प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। रात्रि भर रास करके यहां बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं


बिहारी जी का प्राक्ट्य


स्वामी हरिदास से प्रसन्न होकर बांके बिहारी प्रकट हुए।
संगीत सम्राट तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण को अपना आराध्य मानते थे। उन्होंने अपना संगीत कन्हैया को ही समर्पित कर रखा था। वे अक्सर वृंदावन स्थित श्री कृष्ण की रास लीला स्थली निधिवन में बैठकर संगीत से अपने प्यारे कन्हैया लाल को रिझाया करते थे। जब भी स्वामी हरिदास श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होते तो श्रीकृष्ण उन्हें दर्शन देते थे। एक दिन स्वामी हरिदास के शिष्य ने कहा कि बाकी लोग भी युगल सरकार (श्रीराधेकृष्ण की जोड़ी) के दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें दुलार करना चाहते हैं। उनकी भावनाओं का ध्यान रखकर स्वामी हरिदास भजन गाने लगे।
जब श्री श्यामा-श्यामा ने उन्हें दर्शन दिए तो उन्होंने भक्तों की इच्छा उनसे जाहिर की। तब राधा कृष्ण ने उसी रूप में उनके पास ठहरने की बात कही। इस पर हरिदास ने कहा कि “प्यारे जू मैं तो संत हूं, तुम्हें तो कैसे भी रख लूंगा, लेकिन राधा रानी के लिए रोज नए आभूषण और वस्त्र कहां से लाउंगा।” भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराए और इसके बाद राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे।कृष्ण राधा के इस रूप को स्वामी हरिदास ने बांके बिहारी नाम दिया। आज भी बांके बिहारी मंदिर मे भक्तो को नित्य अनुपम लीलाओ के दर्शन होते है, जो भी श्री वृंदावन धाम मे स्वच्छ मन से जाता है वह बिहारी जी के प्रेम वर्षा मे भीगे बिना रह नही सकता। श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो जाने के पश्चात्, उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया।

बिहारी जी के दर्शन की एक विशेष व्यवस्था गोस्वामियो द्वारा की गई है जिसे झांकी दर्शन कहते है। इसमे श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं।

एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। बिहारी जी पर आस्था इतनी है कि दर्शनार्थ आये भक्तों में से एक जिन्हें आँखों से कुछ नहीं दिखता था,जिज्ञासा बस पूछा बाबा आप देखने में असमर्थ है, फिर भी बिहारी जी के दर्शन हेतु पधारे हैं। उन्होंने उत्तर दिया लाला मुझे नहीं दिखता है,पर बिहारी जी मुझे देख रहे हैं।


स्वामी श्री हरिदास जी


भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक ‘सखी संप्रदाय’ के प्रवर्तक थे, जिसे ‘हरिदासी संप्रदाय’ भी कहते हैं। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। इनकी छाप रसिक है। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं।

स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम आशुधीर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है।

हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। युवा होने पर माता-पिता ने हरिदास का विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु हरिदास की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज हरिदास के चरणों में लीन हो गया।

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुँचे। वहाँ उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने श्री प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं।

श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था।

स्वामी हरिदास के शरीरान्त की तिथि मात्र संवत 1665 विक्रमी ठहरती है। उनकी रचनाएँ शैली में तुलसीदास की कविता से अधिक पूर्ववर्ती नहीं हैं, जिनका देहावसान संवत 1680 में हुआ था। अत: प्रत्येक दशा में निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में ईसवी की सोलहवीं शती के अन्त और सत्रहवीं शती के आरम्भ में विद्यमान रहे।


मंदिर कि आरतियाँ


श्री बांके बिहारी जी अति सुकुमार और विलासी ठाकुर माने गए अतः इस बात को ध्यान मे रखते हुए उनके भोग विलास मे कोई खलल ना पड़े, यहाँ केवल 3 आरतियाँ ही की जाती है,
वह इस प्रकार है :-

  • श्रृंगार आरती :- 07:45AM
  • राजभोग आरती :- 11:55PM
  • शयन आरती :- 09:30PM

❑ रोज दर्शन करने के लिए व्हाट्सएप करे : 9460500125 ❑

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