तात विदुर ! आपकी जंघा में मकराकृत कुण्डल के चिन्ह ?
आहा ! ये कुण्डल तो मेरे नाथ श्रीकृष्ण के हैं ……फिर ये आपकी जंघा पर कैसे लगे ?
श्री कृष्ण सखा उद्धव को पाकर विदुर जी सब कुछ भूल गए थे ……..और भूल तो उद्धव जी भी गए थे सब कुछ ।
तात ! आपकी जंघा में मकराकृति कुण्डल के चिन्ह कैसे ?
उफ़ ! रह रह कर उद्धव जी को श्री कृष्ण की याद आरही थी……..वे जिधर दृष्टि डालते श्री कृष्ण की यादें हीं तो बिखरी पड़ी थीं इस वृन्दावन में…….
पर विदुर जी के जंघा पर श्रीकृष्ण कुण्डल के चिन्ह ?
विदुर जी रो पड़े ………..वे करुणामय ! वे दया सिन्धु !
उन्होंने प्रेम के सिवाय और कुछ चखा कहाँ है ।
मैं कुछ समझा नही तात विदुर ! उद्धव जी नें पूछा ।
यमुना पुलिन पर संवाद चल पड़ा …..श्री कृष्ण लीला पर ।
काका ! ओ काका !
अमृत से भी मधुर आवाज थी वो…..मैने दौड़कर कुटिया का द्वार खोला ।……उद्धव ! उन दिनों मैने त्याग दिया था हस्तिनापुर …..और त्याग दिया था राजअन्न……गंगा के किनारे मैं अपनी अर्धांगिनी के साथ रह रहा था…….तब हस्तिनापुर से पाण्डव कौरव सन्धि की असफल वार्ता करते हुए श्री कृष्ण मेरी कुटिया में पधारे थे ।
….उद्धव ! छप्पन भोग को अस्वीकार कर दिया था मेरे गोविन्द नें …..दुर्योधन का वो दम्भपूर्ण निमन्त्रण कृष्ण कैसे स्वीकार करते भला ।
मेरी पत्नी तो भावातिरेक में नाच उठी थी…….गोविन्द को अपनी कुटिया में देखते ही । ……मैं सन्ध्या कर रहा था…….मेरी सन्ध्या और गायत्री के जप का फल तो मेरे सामनें था ……..वो पीताम्बर धारी ……..मन्द मुस्कुराता हुआ …………..मैं भी स्तब्ध रह गया ………अपनें भाग्य पर मुझे भरोसा नही हो रहा था ……पर ये मेरे भाग्य का फल कहाँ था …….
ये तो कृपा थी उस मोर मुकुट धारी की ……….
काका ! फिर उन्होंने मुझे सम्बोधन किया …………
मैं उनके चरणों में गिरता कि पहले ही मुझे उन्होंने अपनें हृदय से लगा लिया ………..मेरा रोम रोम पुलकित हो गया था ……..आनन्दाश्रु से मैं स्वयं तो भींगा ही …….अपनें नन्दनन्दन को भी भिगो दिया ।
काकी !
मेरी अर्धांगिनी को अब सम्बोधन किया था ।
वो तो बेचारी कुछ समझ ही नही पा रही थी कि इस मोरमुकुटी का स्वागत कैसे करूँ ?
काकी ! भूख लगी है कुछ खिलाओगी नही ?
उफ़ ! उन प्रेमावतार नें हम से इतनी आत्मीयता दिखाई ये उनका प्रेम ही तो था ।
मेरी पत्नी नें केले के पत्ते लगा दिए……. ….कुशा के आसन में बिठाया उनको ……..फिर बथुआ का साग परोस दिया……बिना नमक के ।
पर बड़ा स्वाद लेकर गोविन्द नें उस साग को भी आरोगा ।
हम दम्पति के नेत्रों से बस अश्रु धार बहे जा रहे थे……….आनन्द के अश्रु ……….सच में तुम प्रेमावतार हो ………….मेरे मुख से बार बार यही निकलता ………..मैं कुछ और कह ही नही पा रहा था ।
काका ! कल फिर जाना है हस्तिनापुर ………
थक गए थे गोविन्द ……………और मुझ से अपनें हृदय की बात बता रहे थे । पर वार्ता तो असफल हो गयी ……फिर अब क्यों जाना ?
हे गोविन्द ! कलियुग नें ही दुर्योधन के रूप में जन्म लिया है…….आप सब जानते हैं…..कि दुर्योधन आपकी बात मानेगा नही …..फिर कल क्यों जाना ?
नही काका ! इतिहास कल को ये न कहे कि कृष्ण नें महाभारत क्यों नही रोका ? काका ! युद्ध से लाभ नही है………हानि ही है ।
तो क्या युद्ध नही होगा गोविन्द ! …………लम्बी साँस लेते हुए कृष्ण बोले ……..होगा ….युद्ध तो होगा काका !
काका ! अब कुछ मत बोलो……..मुझे सोनें दो…….तुम्हारी इस कुटिया में सोनें से मुझे सुख मिलेगा काका ।
हाँ …..चलिये………आपके लिये मैं विस्तर लगा देता हूँ………
नही काका ! मैं तो तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ ।
उद्धव ! विदुर जी इतना कहते हुए रो पड़े …………
इस दासी पुत्र विदुर की गोद में सिर रखकर वे सोये थे …………..मेरे लिये वो रात्रि दिव्य और अद्भुत थी…….मैं कुछ कह नही पा रहा ।
विदुर जी हिलकियों से रो पड़े ये कहते हुए ……….
उद्धव नें छूआ विदुर जी के जंघा में बनें उन मकराकृत कुण्डल के चिन्ह को ………….गोविन्द सोये थे अपनें काका विदुर की गोद में ……तब ये चिन्ह बने थे ।
श्री धाम वृन्दावन की भूमि में ये उद्धव और विदुर का संवाद चल पड़ा था …..दोनों ही परमभागवत थे ………..दोनों ही श्रीकृष्ण के परमप्रिय थे …………..बहनें लगी थी श्रीकृष्णचरितामृतम् की धारा ।
जय हो ! जय हो !