उद्धव ! मेरे गोविन्द कैसे हैं द्वारिका में ?
भाव में डूबे पाण्डव परित्राता, कौरव कुल महामणि परमभागवत विदुर नें उद्धव से प्रश्न किया था ।
इस प्रश्न को सुनते ही उद्धव की हिलकियाँ फूट पडीं ………कालिन्दी के तट पर उद्धव का रुदन स्पष्ट सुनाई दे रहा था ।
क्या हुआ ? उद्धव ! आप का इस तरह रुदन ? क्यों ?
गोविन्द नें अपनी लीला समेट ली विदुर जी ! ……और गोलोक धाम चले गए ……इस धरा को त्याग दिया ……..हम सबको अनाथ बना गए !
उद्धव बस रोते जा रहे हैं…..श्री कृष्ण का वियोग उन्हें असह्य हो रहा है ।
विदुर जी नें जैसे ही ये सुना ………उनके हृदय में मानों वज्राघात हुआ ………..मूर्छित ही हो जाते विदुर जी ……पर जैसे तैसे अपनें को सम्भाला …………क्या ? ओह !
दोनों के ही अश्रु अब बराबर बह रहे थे …………विदुर जी तो समझ नही पा रहे थे कि ये सब हुआ कैसे ?
उद्धव नें समझाया ……..इस जगत में अगर कोई हत भाग्य है तो वह हैं हम यदुवंशी ……..आस्तित्व ही स्वयं आकार लेकर आये उनके वंश में ….फिर भी पहचान न पाये हम लोग !
उद्धव बोलते जा रहे हैं…………विदुर जी कालिन्दी को देखते हैं……….कालिन्दी बहती जा रही हैं………..श्री वृन्दावन में गोविन्द की सुगन्ध चारों ओर है ।
क्या मेरे गोविन्द नें कुछ कहा ? विदुर जी का कण्ठ भर आया था ।
आपको स्मरण किया था तात ! अश्रुओं को पोंछते हुए उद्धव बोले थे ।
ओह ! मेरा परम सौभाग्य ! विदुर जी नें लंबी साँस ली ।
कुछ उपदेश उद्धव ! परमधाम गोलोक जाते हुए कुछ उपदेश किया था क्या मेरे श्री कृष्ण नें ?
हूँ …………
……किया था ……….उस समय मैं था वहाँ और वेदव्यास जी के मित्र मैत्रेय ऋषि भी थे ।
उद्धव जी नें बताया ।
कुछ देर रुक कर विदुर जी नें फिर कहा…….उद्धव ! ज्ञान, उपदेश तो मैं ऋषि मैत्रेय से ग्रहण कर लूँगा……..पर मेरे प्राण अब तड़फनें लगे हैं……मुझे डर लग रहा है कि कहीं मेरे प्राण न निकल जाएँ ।
तात ! अपनें आप को संभालिये……उद्धव व्यथित हो उठे ।
ये देह छूट जाए क्या परवाह ? पर अच्छा तो तब लगता ……जब “श्री कृष्ण चरितामृतम्” इन कर्णरंध्रों से होते हुये हृदय में पहुँचती …….और श्री कृष्ण का प्राकट्य मेरे अन्तःकरण में हो जाता ।
उद्धव ! तुम सुनाओ ना ! उन मनोहारी मुरली मनोहर के प्रेमपूर्ण चरित्रों का गान करके सुनाओ ना………मेरे प्राण पुकार रहे हैं………वो मुस्कुरा रहा है……….मेरे सामनें ………..ये यमुना इतनी नीली लग रही है………लग रहा है…..श्याम सुन्दर नें अपना रंग इन कालिन्दी को ही दे दिया है ……..उन श्याम सुन्दर का अलौकिक सौन्दर्य …….. सुनाओ ना उद्धव ! सुनाओ ! ।
नेत्र बन्द कर लिए उद्धव नें…….अश्रु बिन्दु गिर रहे हैं कपोल से होते हुये…….यमुना की बालुका को गीला कर रहे है ।
विदुर जी नें भी अपनी आँखें बन्द कर लीं ।
वक्ता उद्धव बोल उठे……………..
तात विदुर जी ! देखो उन नन्द कुमार का रूप सौन्दर्य !
बड़े बड़े योगी अपना योग भूल जाते थे ……जब वो मुस्कुराता ……बड़े बड़े ज्ञानी अपना ज्ञान बिसर जाते थे …….जब वो ठुमकता हुआ चलता था ………उसकी पीताम्बरी की छोर में मुक्त पुरुष भी बन्धन स्वीकार कर मुक्ति को तिरस्कृत कर उठते थे…….अरे ! वे स्वर्णादि के आभुषण उन नन्द कुमार के अंगों को सुन्दरता प्रदान नही करते ……अपितु नन्द कुमार के अंगों को पाकर आभुषण इतरानें लग जाते थे ।
वो बृज……वो बृज मण्डल…….मथुरा की महिमा तो न्यारी है ही …..पर मथुरा “नगरी” है…..और नगर में रजोगुण की मात्रा होती ही है ।
पर बृज ? बृज तो त्रिगुणातीत है …..बृज प्रेम से ओतप्रोत है … बृज दिव्य प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर है……….गौएँ जहाँ निश्चिन्त हो रंभाती रहती हैं………..अनेक वन हैं इस बृज में ………उन वनों में एक वन है मथुरा पुरी के पास में ही …….महावन !
उद्धव नें “वसुदेवनन्दन” की चर्चा न करते हुये …..सीधे “नन्दनन्दन” की चर्चा छेड दी थी…….वैसे स्वयं विदुर जी भी नन्दनन्दन को ही सुनना चाहते थे ……..विदुर जी को रूचि नही थी…….मथुराधीश में ……न द्वारकाधीश में ……सिर्फ नन्दनन्दन में ………..क्यों की माधुर्य रस सार तो इन्हीं में प्रकट हुआ है ।
पुकार उठे थे विदुर जी ………….
“कं वा दयालुं शरणम् बृजेम”