17. नन्द के आँगन में दधिकाँदौं

साधकों ! बात है तीन वर्ष पहले की …..वो महात्मा बड़े अच्छे थे …पंजाबी शरीर था उनका ……मेरे प्रति बड़ा स्नेह रखते थे ।

वात्सल्य भाव अद्भुत था……..सर्दी में उन्होंने कम्बल का एक चोंगा सिलाया था…..उसे ही वे धारण करके रहते ।

एक दिन मुझे सत्संग में वो मिले ……..दाढ़ी बड़ी हुयी थी उनकी …….और कम्बल का चोंगा पहनें हुए …..सर्दी का महीना था ।

मेरे मुँह से ऐसे ही निकल गया ……..”कन्हैया आपकी गोद में बैठेगा तो ये कम्बल उसे चुभेगा नही” ………वो कितना कोमल है ……..और ये कम्बल ! मैं तो कहकर चला आया अपनी कुटिया ।

पर वो महात्मा मुझे दूसरे दिन मिले …….तो रेशमी वस्त्र धारण किये हुए थे………बोले – ये नही चुभेगा मेरे लाला को ……….आहा ! आपनें तो मुझे अंदर से झंकझोर दिया……….कितना कष्ट हुआ होगा उसे….वो रोनें लगे …….. मेरी गोद में बैठता था कन्हैया……..उसको कितना चुभा होगा कम्बल ……उनके नेत्रों से अश्रु बहे जा रहे थे ।

साधकों ! ये वात्सल्य भाव अद्भुत है ……………इसमें अपना कुछ नही है …..सब कुछ अपनें बालक के लिये करना होता है ……और जब अपना आराध्य ही बालक हो ….तो फिर बात ही कुछ अलग हो जाती ….दिव्यता से भर जाती है ।

आइये ! चलिये उस गोकुल में जहाँ आज ब्रह्म बालक बनकर आया है …..मैया यशोदा तो साक्षात् वात्सल्य मूर्ति ही हैं………पर गोकुल की हर बूढी गोपियों के वक्ष से दूध की धार बह चली थी…….सब नन्दनन्दन को देखते ही स्नेहासिक्त हो गयी थीं ……..आहा !

नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की !

हाथी दीन्हे घोडा दीन्हे और दीन्ही पालकी !

रत्न दीन्हें हार दीन्हें, गऊ व्याई हाल की !

कन्ठा दीये कठुला दीये, दीन्हों मुक्तामाल की !

कड़े दीये छड़े दीये , बिंदी दीन्हीं भाल की !

सुरमा दीन्हों, दर्पण दीन्हों, दीन्हीं कंघी बाल की !

बोलो जय , जय बोलो जयजय , जय बोलो गोपाल की !

रोहिणी नन्दन बाल जयजय, जय दाऊ दयाल की !!

नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की !!

हे तात ! विदुर जी ! धूम मची है नन्द जी के आँगन में ।

तभी …..सुन्दर सुन्दर सजी धजी …..सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बरसानें की सखियों नें प्रवेश किया ……….गोकुल के ग्वाल बाल तो बस देखते ही रह गए ……कितनी सुन्दर हैं ये ………अद्भुत रूप माधुरी है इनकी तो …..पर ये कहाँ की हैं ? ग्वालों नें दूसरे से पूछा …….तो तीसरे नें उत्तर दिया ……….बरसानें की गोपियाँ हैं ………..

ये रहे बरसानें के राजा बृषभान जी ….और उनकी रानी कीर्ति ।

अरे ! ये तो हमारे बृजराज नन्द जी के मित्र हैं….एक नें समाधान किया ।

नन्दरानी तो वैसे भी स्थूल देह की हैं……..और फिर बालक भी हुआ है ………ये तो आनन्द से लेटी ही हैं………….कीर्तिरानी बृजरानी के पास गयीं…………बृजरानी नें जैसे ही देखा ……….वो उठनें लगीं……तो कीर्ति रानी नें रोक दिया ……..नही भाभी ! तुम तो सोई रहो ……. थोड़ी मोटी और हो जाओ ।

अब कितना मोटी और बनाओगी ……वैसे भी मोटी हो गयी हूँ ……..बृजरानी नें हँसते हुए कहा ।

क्यों, अब तो लाला आगया है ………मोटी बनोगी तो लाला को खिला पिला पाओगी …….और भाग दौड़ कितनी करनी पड़ेगी अब ………

कीर्तिरानी हँसती ही जा रही हैं ।

बाहर नन्द जी अपनें मित्र बृषभान जी से मिल रहे हैं…………

फिर कुछ देर में ही अपनें महल में ले आए…………

यशोदा जी बृषभान जी को देख घूँघट करके उठना चाहती हैं……पर कीर्तिरानी उन्हें उठनें नही देंती ।

“ये है गोकुल का राजा”……..ऐसा कहते हुए बृषभान जी नें नन्दनन्दन की ओर देखा……नन्दनन्दन तो मुस्कुरा उठे …….किलकारियाँ मारनें लगे…..कीर्तिरानी बोलीं….ये तो ऐसे हँस रहा है जैसे हमें पहले से जानता हो….कितना सुन्दर है तुम्हारा बेटा बृजरानी ! बहुत सुन्दर है !

मुग्ध हो रहे हैं बरसानें के ये लोग ………….

तो फिर पक्का समझें तुम्हारी लाली और हमारा लाला ……….बृजरानी नें हाथ पकड़ा कीर्ति रानी का ……और हँसी ।

बिल्कुल पक्का …………..हम तो “टीका” करनें ए हैं…………

कीर्तिरानी उन्मुक्त हँसते हुए बोलीं ।

तो क्या अच्छी खबर आनें वाली है कीर्ति जी ?

हाँ….समझो ! पर इस बार लाली ही होगी……सब कह रहे हैं …..कीर्ति रानी का मुखमण्डल लाल हो गया था……वो बड़ा शरमा रही थीं अब ।

सोनें का पालना बरसानें से आया है ………………..

सुनन्दा पालना लेकर आयीं……………..

क्या आवश्यकता थी वैसे भी पालना यहाँ बहुत आचुके हैं …..यशोदा जी नें कहा ।

अरे बृजरानी ! सुनो तो हम बस तैयारी कर रहे थे रात में कि सुबह गोकुल चलेंगें ………..बस प्रातः की वेला हुयी तो महाराज यमुना स्नान के लिये गए ……वहाँ उन्हें एक दिव्य पुरुष मिल गया ……उसनें कहा ……..मेरी ओर से ये पालना गोकुल में दे आना …….फिर बोला वो – कि अपनी तरफ से दे देना …….।

इन्होनें देखा तो बड़ा दिव्य था वो पालना ………..

सच भाभी ! ऐसा पालना हमनें भी नही देखा है ……….देखो ! और जैसे ही दिखाया सुवर्ण की जो पच्चीकारी हो रही थी उसमें …….वो अद्भुत थी ……नाना प्रकार के रत्न उसमें लगे थे ………..अवर्णनीय था वो पालना ………।

एक रहस्य की बात बताऊँ ? कीर्तिरानी नें कहा ।

हाँ …..बताओ ?

बृजरानी भाभी ! ये तो कह रहे थे कि वो दिव्य पुरुष कोई और नही विश्वकर्मा ही थे ……..देवशिल्पी विश्वकर्मा……..क्यों की वो कुछ ही देर में अंतर्ध्यान हो गए ।

यशोदा जी बारबार पालनें को देखती हैं……….और आनन्दित हो रही हैं………..लाला ! सोयेगा ? इसमें सोयेगा ? लाला की और देखकर कह रही हैं……..

कीर्तिरानी नें उस पालनें में सुन्दर कोमल गद्दे बिछाए ………और लाला को सुला दिया…….बस सोते ही लाला किलकारियाँ मारकर हँसनें लगा ………हाथ पैर फेकनें लगा……..सब इस लीला को देखकर आनन्दित हो उठे थे ।

बधाई हो ! बाबा बधाई हो !

……..एक भीड़ , ग्वालों की भीड़ चली आरही है ……….सब ग्वाल बाल पीले वस्त्रों में थे…..पगड़ी बाँधे हुए थे……और आनन्द में झूम रहे थे ।

हे बृजराज जी ! ऐसे नही होगा …….चलो हमारे साथ !

बृजराज का हाथ पकड़ लिया था ग्वालों नें……और दूसरी मण्डली वाले ग्वालों नें – बृषभान जी का …….

हँसते हुए नन्द जी बोले …..पर कहाँ ले जा रहे हो ?

नाचना पड़ेगा बृजराज जी ! आज तुम्हारे घर छोरा हुआ है नाचोगे नही ?

बाबा नन्द नाचनें के लिये तैयार हुये …बृषभान जी भी तैयार हुए ……..

दोनों महापुरुष नाच रहे हैं……….दिव्य छटा हो गयी है चारों ओर ।

“नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की”

बस यही धूम है …..सब यही गा रहे हैं……..आनन्द में डूब गए हैं ।

तभी …..एक ग्वाले नें आकर दही की मटकी बाबा के ऊपर डाल दी ……दूध की मटकी बृषभान जी के ऊपर डाल दी ……..

अब तो नन्द के आँगन में आनन्द फैल गया था ………चारों और आनन्द ही आनन्द …………

दही , नन्दालय में घुस घुस कर मटकियां ग्वाले लानें लगे ……….

दही से नही हुआ ….तो उसमें हल्दी डाल दी ………ताकि पीला रंग हो जाए …………बस …एक दूसरे के ऊपर डालना शुरू कर दिया ……..कीच मच गयी……पर अब तो उसी कीच को उठाकर ग्वाले एक दूसरे में फेंकनें लगे …….बृजराज हँसते हुए बृषभान जी से बोले ….अब ये लोग बाबरे हो रहे हैं……..चलो ! दूर से इनकी ये लीला देखते हैं…….बृजराज और बृषभान अट्टालिका में चले गए ……..और वहाँ से आनन्द ले रहे हैं इस उत्सव का ।

अब तो ग्वालों नें माखन के गोला बनाये ……और एक दूसरे के मुख में मारनें लगे………सबका मुँह माखन सा सफेद हो जाए ……..ये देखकर सब हँसें ……….हँसते हुए वहीं दही की कीच में लोट पोट हो जाते ।

एक बुढ़िया आगयी तभी……..उस बुढ़िया के मुख में दाँत नही थे पोपली थी वो…….गोकुल की नही थी……पास के गाँव से आयी थी ।

उसको कुछ समझ में नही आरहा था कि ये सब क्यों ?

क्या हो रहा है ?

उसनें दूर से ही पूछा …….का भयो है ?

बस …जैसे ही मुँह फाड़ के बोली …..का भयो है !

एक ग्वाले नें बुढ़िया के मुख में माखन को गोला ऐसे तक के मार्यो की माखन तो सीधे मुँह ते पेट में ही चलो गयो………

आहा ! बुढ़िया बड़ी खुश है गयी……..फिर बोली …..का भयो ?

ग्वाला बोल्यो ……..तेरो मुँह मीठो नाय भयो ?

बुढ़िया बोली …..मुँह तो मीठो है गयो ……पर यहाँ कहाँ भयो ?

लाला भयो है…….बृजराज के लाला भयो है …..ग्वाला नें उत्तर दियो ।

बुढ़िया तो नाचवे लगी ……ऐसे लाला रोज ही होयो करें ……जाते रोजहीं माखन खायेवे कुँ मिले …………

इस दृश्य को देखकर सब आनन्दित हो रहे हैं……सबको ऐसा लग रहा है ……कि लाला नन्द जी के यहाँ नहीं …..हमारे यहाँ ही आयो है ।

पर हे तात विदुर जी ! वो बुढ़िया कोई साधारण नही थी ….साक्षात् “ब्रह्म विद्या” थी ……..वो तो उन्मत्त हो कर नाचनें लगी ।

“यशोदा जायो ललना मैं वेदन में सुनी आई”

सब नाच रहे हैं……..गारहे हैं ………

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