गहवर-वन मे जोही आवेगो
जाऐ श्री जी रही बुलाऐ
बृज धाम के कुल मुख्य 12 वनों मे सबसे सुन्दर व आकर्षण, अनौखा वन है गहवर वन, गहवर वन को भिन्न इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ के प्रत्येक पत्ता श्री किशोरी जी के कर कमलो से सिंचित है । इस वन में नित्य प्रतिदिन लीलाऐ होती रहती है। आइये गहवर वन मे प्रवेश करे…..
[panorama id=1834]
श्री गहवर वन : बरसाने के मयूर कुटी और मान मंदिर के बीच का भाग गहवर वन है |
जो नित्य विहार का स्थल है गह्वर वन बरसाना धाम में स्थित है जो उत्तर प्रदेश में मथुरा से 43 किलोमीटर दूर है।
गहवर वन प्रार्थना मन्त्र :- ( वृहन्नारदीये) –
गहवराख्याय रम्याय कृष्णलीला विधायिने
गोपीरमण सोख्याय वनाय च नमो नमः||
हे गहवरवन रम्य श्री कृष्ण लीला विधान के स्थान, आपको नमस्कार | आप गोपी रमण श्री कृष्ण के सुख के लिए हैं |
श्री गहवर वन प्रमाण ( वृषभानुपुरशतक ) –
यत्र गहवरकं नाम वनं द्वन्द्वमनोहरम् |
नित्यकेलि विलासेन निर्मितं राधया स्वयं||
अर्थात जिस बरसाने में गहवर वन है, जिसे श्री राधा ने स्वयं अपने नित्य विलासों से बनाया है| इसी लिए यह स्थल नित्य विहार का माना गया है | नित्य विहार का तात्पर्य जहाँ एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं है | स्वकीया एवं परकीया दोनों से यह भिन्न उपासना पद्धति है | स्वकीय में पितृगृह गमन से वियोग का अनुभव होता है और परकीय में तो संयोग का अवसर भी कम ही मिलता है और वह भी अनेक बाधाओं के बाद | वहां बाधाओं को प्रेम की कसौटी या प्रेम की तीव्रता का मापदण्ड माना जाता है | स्वकीया वाले श्री राधा के मायिक व कल्पित पति के नाम से ही अरुचि रखते हैं | वे परकीयत्व का किंचित मात्र संस्कार भी अपने अनन्यता में स्वीकार नहीं करते | इसीलिए श्री गहवर वन में रसिकों ने वियोग शून्य नित्य मिलन की उपासना स्वानुभव से लिखी है | जिनमें युगल इतने सुकुमार हैं कि एक क्षण का भी वियोग असह्य है किन्तु वियोग के बिना संयोग पुष्ट नहीं होता है | यह भी एक सत्य है | इसलिए यहाँ अति सूक्ष्म विरह भी गाया गया है | वह विरह मिलन की अवस्था में भी निरन्तर पिपासा बढाता रहता है यही प्रेम वैचित्री है |
योगो वियुक्तवन्मानि ललितैकाश्रयं स्वयम् |
करुणाशक्ति सम्पूर्ण गौर नीलं च गहवरे || (“वृषभानु पुर शतक “)
अर्थात जिस गहवर वन में कोटि कोटि युग भी आधे क्षण के समान नित्य संयोग में प्रेम पिपासा में व्यतीत हो जाते हैं जैसे :-
वियोज्यते वियुक्तं वान कदापि वियोक्ष्यते |
क्षणद्धिसत्कोटि युगं युगलं तत्र गहवरे || (“वृषभानुपुरशतक “)
श्री मद् राधासुधा निधि जो श्री राधा की अनेक लीलाओं का है | जिसमें उनकी विविध छवियाँ स्वकीया परकीया की प्रस्तुत की गयी है | वहां पर भी गहवर वन की मिलन पद्धति की छवि का वर्णन आता है (श्री राधा सुधानिधि२५३श्लोक) अर्थात् वियोग तो दूर रहा वियोगाभास से ही कोटि- कोटि प्रलयाग्नि की जवाला युगल को बाहर व भीतर अनुभव होने लग जाती है | ऐसा गाढ़ प्रेम है | जहाँ अति सूक्ष्म विरह की कल्पना भी इतनी तीव्रतम पिपासा जगाती रहती है | इसीलिए अंक में स्थिति मिलित अवस्था में विरहानुभूति होने लग जाती है (रा.सु.नि. १४६,१२६) | इसलिए वृन्दारण्य से तात्पर्य पंच योजनात्मक वृंदावन से है | जिसमें श्री गहवर वन भी आता है | जिस विषय को वृंदावन में संक्षेप में कहा जायेगा | दोनों पक्ष के टीका कारों ने (रा.सु.नि. ७८) में, ईशता, ईशानि, शचि आदि की व्याख्या में लक्ष्मी, पार्वती, इन्द्राणी आदि को ग्रहण किया है , कहीं इन सबको ‘श्री जी’ का अंश, और कहीं इनसे स्वतंत्र स्वामिनी के रूप में अर्थ किया है | इस प्रकार श्री राधिका से ये सब सम्बद्वा होती हैं | चाहे अंश रूप से या आधीनस्थतया से अंश अंशिनी में कोई भेद नहीं है | जब हम इनको राधिकांश रूप में मान्यता देते हैं तो फिर राधा लीला में उनके विभिन्न स्वरूपों से ही द्वेष क्यों है | जबकि श्री मद्भागवत में डंके की चोट पर कहा गया है | भा. १०/३३/२६ “सर्वाः शरत् काव्यकथारसाश्रयाः” अर्थात् युगल सरकार ने सभी रसों का आस्वादन किया | वहां स्वकीया (अपनी विवाहिता) या परकीया (दुसरे की विवाहिता) या नित्यदाम्पत्य (नित्य वधु ) रस हो |
बरसाने के वन – उपवन के सरोवरों में निशंक भाव से ‘श्री जी’ क्रीड़ा करती हैं |
श्री राधा सरोवर वन के भीतर का सरोवर उनकी बाल व श्रृंगार लीला का एक स्थल है | (ब्रज प्रेमानन्द सागर नवम लहरी )
श्री गहवर वन की लीलाओं का गान सभी रसिकों ने किया है |जैसे
“प्यारी जु आगे चल-आगे चल गहवर वन भीतर” (केलिमाल ४६)
देखि सखी राधा पिय केलि |
ये दोउ खोरि,खिरक, गिरि गहवर
विहरत कुंवर कंठ भुज मेलि (श्री हित चतुरासी ४९)
“भूलि परी गहवर वन में जहाँ सखी न कोउ साथ ”
( श्री महावाणी सहेली, उत्साह सुख ४१/६४ तथा सोहिलो ३९ में )
” सोहिलो सुखं गहर गहवर भरयौ भाव अनन्त | ” श्री व्यास वाणी – वृंदावन महिमा – ४२ पद
” सदा वृंदावन सबकी आदि
गिरि गहवर वीथी रत रन में, कालिन्दी सलिलादि “
एक भक्त श्री किशोरी अली जी अपनी स्त्री किशोरी की याद में किशोरी-किशोरी कहते गहवरवन में व्याकुल घूम रहे थे | इधर से प्रिया जी अपनी सखियों के सहित आ रहीं थीं | उनकी आवाज सुन वो बोलीं कि यह कौन है जो मेरा नाम लेकर इतनी व्याकुलता से मुझे पुकार रहा है ? सखियाँ बोलीं कि किशोरी जी यह तो अपनी स्त्री को पुकार रहा है | यह आप को नहीं बुला रहा | अकारण करुणा की राशि श्री राधा ने कहा कि हे सखी इस गहवरवन में यह व्यक्ति मेरा ही नाम ले – लेकर पुकार रहा है | इसे मेरे पास लाओ | श्री राधा रानी ने अकारण ही उन पर दया कर दिया |
एक दिन राधिका रानी गहवरवन में खेल रही थीं और श्री कृष्ण उनको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते नन्दगाँव से चले |
जब यहाँ पहुँचते हैं तो ललिता जी कहती हैं “हे नन्द लाल! तुम यहां कैसे आये?”
श्याम सुंदर कहते हैं “ललिता जी हम श्री राधा रानी के दर्शन के लिये आये हैं|” ललिता जी कहती हैं “अभी तुमको दर्शन तो नहीं मिलेंगे क्योंकि किशोरी जी अभी महल से चली नहीं हैं |” जबकि वो चल चुकी थीं| ये हैं लाड़ली जी की सखियाँ | ये टेढ़े ठाकुर जी से टेढ़ेपन से ही बात किया करती हैं |
रसिकों ने ऐसा लिखा है-
“हम हैं राधे जू के बल अभिमानी,
टेड़े रहे मोहन रसिया सौं बोलत अटपट बाणी|
तो ललिता जी बोलीं कि किशोरी जी तो अभी नहीं आ रही हैं | तो श्याम सुंदर जी कहते हैं “आप लोगों ने हमारा नाम चोर रखा है तो चोर से चोरी नहीं चलती है और ललिता जी तुम समझ रही हो कि हम तुम्हारी चोरी समझ नहीं रहे |”
ललिता जी पूछती हैं “हमारी चोरी क्या है ?
श्री कृष्ण बोले “देख सखी राधा जू आवत!”
श्री कृष्ण बोले “अरे लाड़ली जी तो आ रही हैं !”
ललिता जी बोलीं “कैसे पता ?”
कृष्ण बोले “किशोरी जी जब आती हैं तो उनके शरीर की महक चारों ओर फैल जाती है | ये सुगन्ध बता देती है कि वो आ रही हैं | तुम नहीं छिपा सकती हो राधिका रानी को | अरे चाँद को कोई क्या हाथ से ढक सकता है ? हम तुम्हारी चोरी जानते हैं |”
वहाँ कहा गया है कि श्री जी खेलती आ रही हैं अपनी सखियों के साथ | ये गहवरवन की वही कुंजें हैं, वही लतायें हैं, वही स्वरूप है | गहवरवन में राधा रानी जब कुंजों से होती हुई आ रही हैं तो उनके आँचल को हवा छूती हुई श्री जी के अंग की सुगन्ध को लेकर के श्री कृष्ण जहाँ हैं वहाँ पहुंचती है | श्री जी के अंग की सुगन्ध पाकर श्री कृष्ण धन्य हो जाते हैं | सिर्फ किशोरी जी के अंग की सुगन्ध पाकर ही श्री कृष्ण धन्य हो जाते हैं | बोले धन्य ही नहीं, धन्य – धन्य हो जाते हैं | धन्य – धन्य ही नहीं, अति धन्य हो जाते हैं श्री कृष्ण | श्री कृष्ण बोले अति से भी अधिक धन्य यानि कृतार्थ धन्य हो जाते हैं | मतलब कि सब कुछ मिल गया, पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति हो गयी | जो पूर्ण ब्रह्म है वो बरसाने में जाकर ही पूर्ण होता है |
ये गहवरवन बहुत ही महत्वपूर्ण वन है क्योंकि ऐसा सौभाग्य किसी भी और ब्रज के वन को नहीं मिला जो गहवरवन को मिला |
राधा रानी ने इसे अपने हाथों से सजाया है और इसमें दोनों राधा कृष्ण नित्य लीला करते हैं |
श्री गहवर वन में श्री राधा सरोवर है |
श्री राधासरस्नानाचमन मन्त्र –
देवकृतार्थरुपायै श्री राधासरसे नमः|
त्रैलोक्यपदमोक्षाय रम्यतीर्थाय ते नमः||
जिस सरोवर पर यात्रा संकल्प लेती है उसका नाम राधा सरोवर या राधासर है | यहाँ श्री राधा रानी अपनी सखियों के साथ जल में खेला करती थीं जिससे इसका नाम राधा सरोवर हो गया | इस सरोवर के प्रार्थना मन्त्र का भाव है कि बड़े बड़े देवता भी राधा सरोवर आने पर कृतार्थ हो जाते हैं | यह त्रिलोकी को भी मुक्त करने की शक्ति रखता है | ऐसे रमणीय तीर्थ को हम नमस्कार करते हैं |
श्री रास मण्डल प्रार्थन मन्त्र :-
विलास रास क्रीडाय कृष्णाय रमणाय च |
दशवर्ष स्वरूपाय नमो भानुपुरे हरे ||
अर्थात दस वर्षिय रास – विलास लीला रत्न कृष्ण रमन को भानुपुर में नमस्कार है |
श्री गहवर वन में ही श्री बल्ल भाचार्य जी की बैठक एवं शंख शिला स्थल है |
श्री गहवर वन परिक्रमा मार्ग :-
ब्रज के सभी धर्म स्थलों पर परिक्रमा का महत्व होता है। गोवर्धन जी की गिरिराज परिक्रमा तो विश्व प्रसिद्ध है। मथुरा, वृंदावन और बृज के अन्य स्थानों पर भी परिक्रमा होती है। बरसाना की जो परिक्रमा है वह गहवरवन परिक्रमा कहलाती है।
कहतें हैं कि बरसानौ जान्यौं नहीं, जान्यौ न राधा नाम, तौ तेने जानौ कहा बृज को तत्व महान।
बरसाना के परिक्रमा करीब एक कोस की है, बरसाना जी की परिक्रमा में यहां के अधिकांश मंदिरों के दर्शन होते हैं। जैसा की आप सभी भक्त परिक्रमा के बारे में जानते ही है कि परिक्रमा जहाँ से शुरु होती हैं वही पर ही परिक्रमा को समाप्त किया जाता है। अधिकांश भक्त यह परिक्रमा मुख्य बाजार से शुरू करते हैं।
शीतला माता का मन्दिर, सांकरी खोर ( यही पर भगवान श्रीकृष्ण ने मटकी फोड़ लीला की थी ), गहवर वन, राधा रस मन्दिर, मान मन्दिर, मोरकुटी, राधा सरोवर ( गहवर कुंड ), महाप्रभु जी की बैठक, जयपुर मन्दिर ( दानगढ़ मन्दिर ), कुशल बिहारी जी मंदिर, स्वामीजी के दर्शन ( स्वामी जी लाड़लीजी मन्दिर के गोस्वामीजनों के पूर्वज हैं ), लाड़लीजी मन्दिर ( यहां विराजती हैं वृषभानु की दुलारी ), गोमाता का मन्दिर, श्री राधाजी के चरण चिन्ह के दर्शन, ब्रह्मा जी का भी मन्दिर, राधाजी के दादी बाबा का मन्दिर, सुदामा चौक, साक्षी गोपाल मंदिर, दाऊजी मन्दिर, सुदामा जी का मन्दिर, पथवारी देवी का मन्दिर, वृषभानु जी मन्दिर, अष्टसखी मन्दिर, लड़ैती लाल मन्दिर, रंगीली गली चौक, गंगा मन्दिर, गोपाल जी मन्दिर और श्यामा श्याम मन्दिर के दर्शन करते हुए श्रद्धालु मुख्य बाजार में पहुंचते हैं। यह वही स्थान है जहां से परिक्रमा शुरू की थी।
राधा कृष्ण गह्वर वन में श्री रसखान को दिखाई दिए, जहां श्री कृष्ण श्री राधा रानी के चरणों को धीरे-धीरे दबा रहे थे और उनकी सेवा कर रहे थे। यहाँ बहुत पुरानी रास लीला स्थला हैं। प्रिया जी अपनी साखियों के साथ आज भी यहाँ विहार में व्यस्त हैं। भाग्यशाली भक्तों के गवाह के रूप में अनुभव हैं। नागरी दास, किशोरी अली, स्वामी परिमल दास कुछ रसिक संत हैं जो यहाँ रहते थे।
श्री बरसाने का गहवर वन की महिमा
पवनदेव स्वयं को बड़भागी समझते हैं क्योंकि दो [एक ही] दिव्य-देहधारियों की सुवास को वह माध्यम रुप से बरसाने और नन्दगाँव के मध्य वितरित कर पाते हैं। राजकुँवरी श्रीवृषभानु-नन्दिनी संध्या समय अपनी दोनों अनन्य सखियों श्रीललिताजू और विशाखाजू के साथ अपने प्रिय गहवर-वन में विहार हेतु महल से निकल रही हैं। श्रीजू की शोभा का वर्णन तो दिव्य नेत्रों द्वारा निहारकर भी नहीं किया जा सकता। अनुपम दिव्य श्रृंगार है। बड़े घेर का लहँगा है जिसमें सोने के तारों से हीरे-मोती और पन्ने जड़े हुए हैं। संध्या समय के सूर्य की लालिमा की किरणें पड़ने से उसमें से ऐसी दिव्य आभा निकल रही है कि उस आभा के कारण भी श्रीजू के मुख की ओर देखना संभव नहीं हो पाता।
संभव है नन्दनन्दन स्वयं भी न चाहते हों ! गहवर-वन को श्रीप्रियाजू ने स्वयं अपने हाथों से लगाया है, सींचा है; वहाँ के प्रत्येक लता-गुल्मों को उनके श्रीकर-पल्लव का स्पर्श मिला है सो वे हर ऋतु में फ़ल-फ़ूल और सुवास से भरे रहते हैं। खग-मृगों और शुक-सारिकाओं को भी श्रीगहवर वन में वास का सौभाग्य मिला है। मंद-मंद समीर बहता रहता है और शुक-सारिकाओं का कलरव एक अदभुत संगीत की सृष्टि करता रहता है। महल से एक सुन्दर पगडंडी गहवर वन को जाती है जिस पर समीप के लता-गुल्म पुष्पों की वर्षा करते रहते हैं। न जाने स्वामिनी कब पधारें और उनके श्रीचरणों में पर्वत- श्रृंखला की कठोर भूमि पर पग रखने से व्यथा न हो जाये ! सो वह पगडंडी सब समय पुष्पों से आच्छादित रहती है। पुष्पों की दिव्य सुगंध, वन की हरीतिमा और पक्षियों का कलरव एक दिव्य-लोक की सृष्टि करते हैं। हाँ, दिव्य ही तो ! जागतिक हो भी कैसे सकता है? परम तत्व कृपा कर प्रकट हुआ है।
उस पगडंडी पर दिव्य-लता के पीछे एक “चोर” प्रतीक्षारत है। दर्शन की अभिलाषा लिये ! महल से प्रतिक्षण समीप आती सुवास संकेत दे रही है कि आराध्या निरन्तर समीप आ रही हैं। नेत्रों की व्याकुलता बढ़ती ही जा रही है; बार-बार वे उझककर देखते हैं कि कहीं दिख जायें और फ़िर छिप जाते हैं कि कहीं वे देख न लें !
श्रीजू महल की बारादरी से निकल अब पगडंडी पर अपना प्रथम पग रखने वाली हैं कि चोर का धैर्य छूट गया और वे दोनों घुटनों के बल पगडंडी पर बैठ गये और अपने दोनों कर-पल्लवों को आगे बढ़ा दिया है ताकि श्रीजू अपने श्रीचरणों का भूमि पर स्पर्श करने से पहले उनके कर-कमल को सेवा का अवसर दें। हे देव ! यह क्या? अचकचा गयीं श्रीप्रियाजू ! एक पग बारादरी में है और एक पग भूमि से ऊपर ! न रखते बनता है और न पीछे हटते !
“ललिते ! देख इन्हें ! यह न मानेंगे !” श्रीप्रियाजू ने ललिताजू के काँधे का आश्रय ले लिया है और लजाकर आँचल की ओट कर ली है। अपने प्राण-प्रियतम की इस लीला पर लजा भी रही हैं और गर्वित भी ! ऐसा कौन? परम तत्व ही ऐसा कर सकता है और कौन? श्रीललिताजू और श्रीविशाखाजू मुस्करा रही हैं; दिव्य लीलाओं के दर्शन का सौभाग्य जो मिला है !
नन्दनन्दन अधीर हो उठे हैं और अब वे साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं अपनी आराध्या को। विनय कर रहे हैं कि श्रीजू के श्रीचरणों के स्पर्श का सौभाग्य उनके कर-पल्लव और मस्तक को मिले ! श्रीजू अभी भी एक पग पर ही ललिताजू के काँधे का अवलम्बन लिये खड़ी हैं और सम्पूर्ण गहवर-वन गूँज रहा है – “….स्मर गरल खण्डनम मम शिरसि मण्ड्नम। देहि पदपल्लवमुदारम।”
श्री राधा रानी कि जय….
जय श्री राधे राधे जी …..