3. श्री छबीलेदास जी

श्रीछबीलेदासजी का जन्म देववन निवासी एक तमोरी परिवार में हुआ था। ये मो. श्रीहितहरिवंशजी के बचपन के मित्र थे। हरिवंशजी जब सात वर्ष के थे, तब उन्होंने एक कुएँ से श्रीरंगीलालजी का प्राकट्य कर एवं उनके बगल में श्रीराधाजी की गद्दी स्थापित कर उनकी अष्टयाम सेवा का शुभारम्भ किया था। छबीलेदासजी इन श्रीरंगीलालजी महाराज के लिए पानों की सेवा प्रतिदिन हार्दिक अनुराग के साथ किया करते थे।

वि. सं. 1590 में श्रीहितप्रभु देववन से वृन्दावन आ गये थे। उनके श्रीवन आने के कुछ समय पश्चात् तक ती छबीलेदासजी यद्यपि श्रीरंगीलालजी महाराज के लिए पानों की सेवा पूर्ववत करते रहे, किन्तु श्रीहिताचार्य का अदर्शन इबके लिये असहनीय होता जा रहा था। अन्ततः एक दिन ये चल पड़े वृन्दावन के लिये। यहाँ आकर एवं अपने बाल सखा हरिवंशजी के दर्शन प्राप्तकर छबीलेदास जी ने हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव किया तथा हरिवंशजी वे भी इनका यथोचित सम्मान किया। दोनों के मध्य हुई वार्ता में जब छबीलेदासजी को यह मालूम पड़ा कि श्रीहिताचार्य ने वृन्दावन में एक रासमण्डल की स्थापना कर, वहाँ

पर नित्य रासलीला का व्रजवासी बालकों द्वारा अनुकरण कराया जाना प्रारम्भ किया है, तब छबीलेदासजी के मन में उसे अपनी आँखों से देखने की तीव्र इच्छा हुई। श्रीहिताचार्य ने भी इनकी हार्दिक उत्कंठा जानकर, इन्हें अपने एक सेवक के साथ उस रासलीलावुकरण को दिखाकर लाने के लिये भेज दिया। छबीलेदासजी अभी रासमण्डल पर पहुँचे भी नहीं थे कि इन्हें दूर से ही रासमण्डल पर आयोजित रास में बज रहे मुरली-मृदंग आदि वायों की ध्वनि सुनायी पड़ने लगी और वहाँ पहुंचकर इन्होंने सखियों सहित त्यामा स्याम के दर्शव भी किये। प्रत्यक्ष हो रहे रास-विलास का दर्शन करके छबीलेदासजी आनन्द में छककर मूर्छित होकर गिर पड़े और इस अवस्था में न जाने कितनी देर तक अपनी अन्तरंग आँखों से ही जुगल की शोभा देखते रहे। जब लोगों की निगाह इन पर पड़ी तथ अनेक लोग इनके चारों ओर इकट्ठे हो गये और जैसे तैसे इन्हें उठाकर श्रीहितप्रभु के पास ले आये। महाप्रभु जी ने इनसे पूछा कि आप अभी और कुछ दिन इस संसार में ही रहना चाहते हो अथवा नित्य विकुंज विलासी श्रीश्यामा श्याम की सेवा में प्रवेश करके परम सुख प्राप्त करना चाहोगे। इस प्रश्न के उत्तर में छबीलेदासजी ने अपना मस्तक उनके चरणों में रख दिया और इनके प्राण इस नश्वर शरीर की छोड़कर युगल की नित्यलीला में प्रवेश कर गये। महत्जनों से कोई किसी प्रकार से भी प्रेम करे, किन्तु वे एक क्षण में उसको प्रभु चरणों की प्राप्ति करा देते हैं और उसके प्राकृत शरीर को अप्राकृत बना देते हैं।

Scroll to Top