साधकों ! कल आयीं थीं …दिल्ली की थीं, पंजाबी शरीर था उनका ।
उम्र होगी उनकी करीब 50 या 55 ………गौर वर्ण की थीं…….शरीर मोटा था ………….
“मैं आपको दो वर्षों से पढ़ रही हूँ”……..उन्होंने कहा ।
मैं क्या कहता उनको ………वो मेरी लेखनी की प्रशंसा करती रहीं ……मुझे बड़ा संकोच होता रहा…….मैं सिर झुकाये सुनता रहा ।
उनके हाथों में एक डलिया थी …..वो सुन्दर रेशमी वस्त्र से ढंका हुआ था …..मुझे लगा उसमें प्रसाद होगा ………….
कुछ देर बाद मुझ से वो बोलीं……..आपके दर्शन हो गए ……हमें अब नित्य इन्तजार रहता है कि अब “श्रीकृष्ण चरितामृतम्” आएगा ।
मेरा स्वभाव ही है संकोची……….मेरे सामनें कोई मेरी तारीफ़ करे ……तो मैं भीतर से कुछ असहज सा हो जाता हूँ ………..करता कोई , फिर तारीफ़ मेरी क्यों ?
वो जानें लगीं तो मैने पूछा ……आप कुछ लेंगी ? उन्होंने मना किया ।
फिर मैने कहा ……पूछा ……….जल तो ले लीजिये ।
उन्होंने अपनें हाथ के डलिया में धीरे से पूछा ……….जल पीयोगे ?
तुरन्त उसमें से आवाज आयी………..बच्चे की आवाज …….हाँ ।
मैं सुन रहा हूँ………..स्पष्ट मैनें सुनी ।
“मेरा लाला पीयेगा जल”………मैं कुछ समझ नही पाया था ………कि ये हो क्या रहा है ? मैनें स्वयं ही जल दिया……..डलिया में एक पीतल के लड्डू गोपाल जी थे ……..बड़े ही मनमोहक ।
जल उन माँ नें पिलाया ………..आश्चर्य था ये कि गिलास में दो चार बुँदे ही जल की रह गयीं थीं…यानि पूरा जल उनका लड्डू गोपाल पी गया था…….. अब जो दो चार बुँदे बची थीं …….उन माता जी नें वो स्वयं पी लिया ……..और गिलास मेरे हाथों में ।
ये मेरा लाला है………वो हँसीं ये कहते हुए ।
ये मेरे साथ बोलता है …..खेलता है…….बातें बनाता है ।
मैं क्या कहता…….मैनें केवल उनके लड्डू गोपाल जी के दर्शन किये ……..जी भर के दर्शन किये………उसके बाद उन माता जी नें सौ रुपये का नोट अपनें लड्डू गोपाल के ऊपर घुमाकर हमारे यहाँ काम करनें वाली बाई को दे दिया……..नजर उतारा था उसनें अपनें लाला का ।
वो चली गयीं ……मैं उन्हें देखता रहा……बड़ी ऊँची स्थिति थी उनकी ।
ये घटना मेरे साथ कल घटी ………आपको विश्वास नही हो रहा ? न हो तो न हो ………..पर भक्त आज भी हैं ………..और उनसे अगर गोपाल बातें करता हो …..तो कोई बड़ी बात भी नही है …….क्यों की वात्सल्य भाव है ही इतना ऊँचा ।
चलिये ! आज का प्रसंग प्रारम्भ करें ……………
नाल छेदन करें अब ? सुनन्दा नें अपनें भैया नन्द जी से पूछा ।
नहीं , अभी नही ………सुनन्दा ! नाल छेदन करते ही सूतक लग जाएगा मुझे ………फिर मैं दान पुण्य किसी को छूना ये सब नही कर पाउँगा ……….इसलिये अभी रुक जाओ ।
बृजराज नें रोक दिया सुनन्दा को ।
बृजराज मुड़े अब ऋषि शाण्डिल्य की ओर……..ऋषिवर ! मैने संकल्प किया था कि , बीस लाख गौओं का दान करूँगा ……. अगर आप आज्ञा दें तो ……..बड़े ही विनम्र भाव से नन्द जी नें कहा ।
हाँ …….देना , दान देना ये तो होना ही चाहिये ………
बुलवाओ महामना नन्द जी ! समस्त बृज चौरासी के गोपों को बुलाओ ………ब्राह्मणों को बुलवाओ ……..अपनें सूत मागध बन्दियों को बुलाओ …….अपनें सेवकों को बुलाओ ……और सबको दो ……ऋषि नें नन्द जी को आनन्दित होकर ये बातें कहीं ।
देखो बृजराज ! जो धन समस्त के लिये होता है ……जिस धन का लाभ सभी लोग लेते हैं ……..वही धन सात्विक होता है……..
तो गुरुदेव ! मेरी इच्छा है कि मैं सब कुछ लुटा दूँ……..आनन्दित होकर महामना नन्द जी का हृदय उछालें मार रहा था ।
गौशाला खोल दिया…………बीस लाख गौएँ उस गौशाला में थीं…….
ऐसी महावन में पचासों गौशाला हैं……….
बीस लाख गौ के साथ सहस्र गोप खड़े कर दिए ……सुन्दर सुन्दर पीली पगड़ी बांध कर वो सब गोप खड़े हैं………
गौएँ – सुन्दर हैं……पुष्ट हैं……दूध देंने वाली हैं …..सुलक्षणा हैं ।
जो जो ब्राह्मण या गोप गौ को चुनता है………तुरन्त बैठे हुए गोप उन गौ के खुर को चाँदी से मढ़ देते हैं ……सींग सोनें से मढ़ दिया जाता है …….सोनें की सुन्दर घण्टी गौ के गले में बांध दी जाती है ।
जिसको जितनी गौएँ चाहिए वो ले जाए……….
गौशाला के बाहर ही नन्दराय जी बैठे हैं….और जो जो गौओं को लेकर जा रहे हैं…..उनको भर भर के हीरे मोती जवाहरात देते जा रहे हैं ।
पर आनन्द अभी भी नही आया बृजराज को…….”मेरा वश चले तो मैं रत्नों से भर कर सुमेरु पर्वत का दान करूँ”……बृजराज बोल रहे हैं ।
इसका भी नियम है बृजराज ! ब्राह्मणों नें बताया …………तिल के पर्वत बनाओ ………..और इतनें बड़े पर्वत बनाओ जिससे सामनें वाला व्यक्ति दूसरी और खड़े व्यक्ति को न देख सके……….फिर उनको रत्नों से भर दो ………उसके ऊपर रेशमी वस्त्र डालकर दान दे दो …..हे बृजराज ! ऐसा करनें से सुमेरु के दान का फल मिलता है ।
बृजराज आनन्द से उछल पड़े…….लाओ तिल के बोरे ……..तिल के पर्वत बनाये जानें लगे……..एक पर्वत नही ….सात सात पर्वत ……फिर उनमें रत्नों को भरा गया ………..हीरे मोती पन्ना ये सब खचे गए उसमें ………रेशमी वस्त्रों से ढँककर दान कर दिया नन्द जी नें ।
आहा ! आनन्द आगया सबको …………..
ग्वालों नें अब बृजराज को पकड़ा ……………
अरे ! अरे ! क्या कर रहे हो ? हँसते हुए बोले बृजराज ।
कछु नाँय बाबा ! आज तो आपकूँ नाचनों ही पडेगो……….
ये कहते हुए फेंट पकड़ कर बाबा को सब ग्वालों नें खींचा ………….
और मध्य में बिठा दिया …………..
पहले अभिषेक करते हैं बृजराज का ग्वाले मिल कर …..दूध के कलस बृजराज के ऊपर डाल रहे हैं …..फिर दही …..फिर घी ….शहद ….यमुना जल…….ये सब जब हो रहा था तब आकाश से देवों नें पुष्प वृष्टि की ……जयजयकार किया……..और समस्त गोप तो बस नाचते ही जा रहे हैं….कीच मच गयी है, माखन, दूध दही की कीच बन गयी है ।
“नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की”
….सब आनन्द में मत्त हैं ।
गुरुदेव ! अब तो नालछेदन संस्कार किया जाए ?
ऋषि शाण्डिल्य से लाला की भूआ सुनन्दा नें आकर पूछा ।
ऋषि स्वयं नन्दालय के आँगन में मचे इस नन्दोत्सव का रस ले रहे थे ।
क्या ? ऋषि नें फिर पूछा ।
समय बीता जा रहा है …..क्या बालक का नाल छेदन करा दें ?
हाँ हाँ ….करा दो …..ऋषि नें आज्ञा दे दी ।
सुनन्दा आयीं……….सोनें की छुरी लेकर आयीं……..रेशम की डोरी ……..कटोरी में घी ……….
और ये सब लाकर दाई के हाथों में दे दिया ।
दाई नें जब नीलमणी बालक को देखा तो सुध बुध सब भूल गयी वो ।
उसके हाथ जड़वत् हो गए …..उनके पलक झपकनें बन्द हो गए …….
दाई ! ए दाई ! नाल तो काट ……..तू तो बाबरी सी हो गयी है ।
ये सुनते ही …….दाई को होश आया ………..
नाल को देखा उसनें ध्यान से ……आहा ! वह नाल भी , कमल नाल की तरह अत्यन्त अद्भुत था……..रेशमी डोरी से नाल के मूल में बाँधा ………फिर सोनें की छूरी उठाई ……..और नाल काट दिया ……….
सब आनन्दित हो गए …..सब गानें लगे ….नाचनें लगे ….शनाइयाँ बन उठीं ….सुनन्दा नें यहाँ भी थाल बजाई है । इसके बाद नाल को लेकर नन्दालय के आँगन में ही, धरती में गड्डा खोद कर डाल दिया गया था ।
अब नाल काटनें का नेग चाहिये ? मटकती हुयी दाई बोली ।
एक थाल भरकर मोती और माणिक्य ले आओ ……और इस दाई को दे दो …..सुनन्दा बोली ।
हट्ट ! मैं नही लुंगी ये मोती और माणिक्य …………..
तो क्या चाहिये तुझे ? सुनन्दा बोली ।
“नौ लखा को हार…जो या समय बृजरानी नें पहन रखो है” ……..दाई बोली ।
क्यों ! या बुढ़ापे में नौ लखा पहन के का फिर व्याह करेगी ?
सुनन्दा को बड़ा गुस्सा आया ।
ले ….हीरे मोती ले ले …..और जा……सुनन्दा फिर बोली ।
तू ले हीरे मोती ……मैं तो नौ लखा से कम नही लुंगी …….और तू क्यों चपर चपर कर रही है ………….मैं भी दाई हूँ दाई …………ये रानी है ..तो मैं भी दाई कहलाती हूँ……….ये लाला, बृजरानी को मैया कहेगा ….तो मुझे भी मैया ही बोलेगा ……….सुन ! ऐसे नही आई हूँ …………बुलावे पे आई हूँ………झगड़नें लगी दाई तो ।
तभी – भीतर हल्ला सुनकर बृजराज आगये ………….
क्या हुआ ? क्यों झगड़ा कर रही हो ? सहजता में पूछा नन्द जी नें ।
देखो बृजराज ! ऐसी घड़ी बारबार तो आवे नही है ……..या लिये मोकूँ नेग चहिये ………..और नेग में, मैं नौ लखा को हार लुंगी ।
बृजराज नन्द जी सब समझ गए …………..उनके नेत्रों से अश्रु बहनें लगे …..आहा ! ऐसे झगड़ा कौन करता है .? जो अपना अधिकार समझता है ………..धन्य हैं मेरे भाग्य कि सब मेरे यहाँ अपना अधिकार समझ रहे हैं……..धन्य हैं ।
तुरन्त अपनें गले में पड़े नौ लखा का हार उतार कर बृजराज नें दाई को दे दिया …..दाई गदगद् हो गयी …………हार लेकर माथा चूमनें के लिये जैसे ही झुकी नन्द नन्दन की ओर ……बस नन्दनन्दन मुस्कुरा दिए ……….ये क्या मुस्कुराये ! ….दाई तो सुधबुध खो बैठी ……..बृजराज के द्वारा दिया गया नौ लखा हार ….वापस , नवजात गोपाल को न्यौछावर के रूप में, उन्हीं के गले में वो हार डाल दिया …….
और वो बाबरी दाई नाचती रही…..सब कुछ भूल कर नाचती रही ।
हे तात विदुर जी ! ये आनन्द के क्षण हैं………ये अद्भुत काल है ….क्यों कि काल भी इस उत्सव में सुन्दर होगया था ।
तात ! उन महामना नन्द जी के आनन्द का मैं कहाँ तक वर्णन करूँ ।
उद्धव नें इतना ही कहा……और स्वयं उसी भाव जगत में डूब गए थे ।