तात विदुर जी ! गोकुल में नन्दनन्दन के अवतरित होते ही….प्रकृति झूम उठी थी…..अपनी समस्त सम्पदाओं को उघाड़ दिया था प्रकृति नें ।
कालिन्दी के तट पर रंग बिरंगे रत्न स्वयमेव प्रकट होनें लगे थे ।
ग्वाले जहाँ भी धरित्री खोदते, उन्हें मणि माणिक्य के खदान मिल रहे थे …….ये बेचारे क्या करते उनका……….इनके लिये तो ये सब रंगीन पत्थर से ज्यादा कुछ नही थे ……पर हाँ इनमें से कुछ अच्छे से धातु ये रख भी रहे थे …………पर इन भोले भाले अहीरों को क्या पता कि ये तो धरती का आनन्द प्रकट हो रहा था …………..
पशु पक्षी प्रसन्न थे ………अति प्रसन्न थे …….फलदार वृक्ष फलों से लद गए थे……..वो गिर रहे थे……….लताएँ फूलों के अति होनें के कारण झुक गयीं थीं………उनमें से सुगन्ध की एक वयार चल रही थी जिससे भौरें भी मदमत्त हो गुनगुना रहे थे……….नदियाँ स्वच्छ और निर्मल हो गयी थीं……..नदियों के किनारे कमल के फूल खिल गए थे ………..कमल भी हर रंग के थे …….उनमें से भी जो सुगन्ध प्रकट हो रहा था वो सम्पूर्ण महावन को अपनें गन्ध से सरावोर कर रहा था ।
ओह ! तात विदुर जी ! मैं आपको इस आनन्द का वर्णन करके क्या बताऊँ ! नन्दनन्दन स्वयं आनन्द हैं……..जब आनन्द ही आकार लेकर प्रकट हो गया हो ………फिर उस वातावरण का वर्णन कर पाना सम्भव नही है……….सब कुछ आनन्द की धारा में बह रहा है ……….मानों आनन्द के समुद्र में बाढ़ आगयी हो……..और उस बाढ़ में भँवर और पड गया हो ……..अब बताइये तात विदुर जी ! क्या कोई उस भँवर से निकल पायेगा ? उफ़ ! कुछ देर के लिये उद्धव चुप हो गए ….उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।
नन्दराय नाच उठे थे…….उन्हें कुछ सूझ नही रहा था कि क्या करें ।
नही बहन ! मैने कभी संकल्प नही किया कि “मेरे पुत्र हो” …..हाँ मेरे भाइयों नें , मेरे गुरुदेव ऋषि शाण्डिल्य नें मुझे अनुष्ठान में बैठा तो दिया था ……पर मैनें कभी संकल्प नही किया कि मेरे पुत्र हो …….
मैने अपनें आराध्य भगवान नारायण के चरणों में सारी बातें छोड़ दी थीं……..वो जैसा करें……वो जिसमें राजी हों………अपनी बहन सुनन्दा को बताते हुये बृजराज आनन्द के अश्रु प्रवाहित कर रहे थे ।
भैया ! अब चलो …….एक बार देख लो ………..सुनन्दा नें हाथ पकड़ा अपनें भैया नन्द का ……..और जिद्द करनें लगी ।
कैसा है ? आनन्द के भँवर में फंसें नन्द जी नें पूछा ।
मैं कुछ बता नही सकती ………मेरी वाणी में आज सामर्थ्य नही है …….मैं जितना भी कहूँगी वो सब कम ही होगा ……………
फिर भी कुछ तो बता ………..बहन ! कुछ तो बोल !
नन्द जी पूछ रहे हैं अपनी बहन से ।
भैया ! ऐसा है वो नवजात शिशु जैसे – कोई “नील कमल”……….पर ये “कमल” ऐसा प्रकट हुआ है ………जिसे आज तक किसी भौरें नें सूँघा नही है ……..जिसकी सुगन्ध को उड़ाकर लेजानें का सौभाग्य पवन को भी आज तक नही प्राप्त हुआ है……….जल में भी वो सामर्थ्य नही जो ऐसे कमल को पैदा कर सके ………जल के वक्षःस्थल पर खेलनें वाली तरंगें भी कमल को कम्पित करनें का गर्वं नही कर सकीं हैं …….ये कहते हुए सुनन्दा हँसी……और बोली ….सच ये है कि इस “नील कमल’ को आज तक किसी नें देखा ही नही था ।
ओह ! नन्द जी नें अपनें गले का हार उतार कर अपनी बहन सुनन्दा को दे दिया ………….पर बहन नें उस हार को लेकर अपनें नेत्रों से लगाते हुए गौशाला में सेवा कर रहे किसी ग्वाले को दे दिया …………ग्वाले नें अपनी पत्नी को दे दिया ……..पत्नी आनन्दित हो अपनी सास को दे देती है ……उस ग्वाले की माँ वापस प्रसन्नता से भरकर नन्द जी को ही देते हुए कहती है ……बृजराज ! बधाई हो ।
सुनन्दा हाथ पकड़ती है अपनें भाई नन्द जी का ………और कहती है ….अब चलिये ……….देखिये अपनें पुत्र को ……जो अद्भुत है ……दिव्यातिदिव्य है ……….चलिये !
नन्द जी और बहन सुनन्दा नन्द महल की ओर जाते हैं ।
यशोदा जी की गोद में वो नन्हा सा नीलमणी है…..अभी भी बाह्य ज्ञान शून्य हैं यशोदा जी……उनकी ऐसी स्थिति है जैसे योगियों की समाधि लग गयी हो ……बृजरानी के वक्ष से दूध की धारा बह रही है ….वो वात्सल्य सिन्धु में डूब गयीं हैं……और ये सिन्धु इतना गहरा है कि इसका थाह आज तक किसी नें पाया भी नही है ।
चंचल नयन हैं इस नवजात शिशु के…….पर अपनी मैया को जब चेतना शून्य देखा तब ये बालक रोनें लगा …………बालक के रोनें की आवाज सुनते ही बृजरानी उठीं…..रोहिणी भी उठीं………अन्य सब उठकर इधर उधर भागनें लगीं………दाई को कुछ समझ नही आरहा …..उसे लग रहा है मुझ से अपराध हुआ …..मैं स्वयं सो गयी ….! अब ऋषि शाण्डिल्य मुझ से पूछेंगें कि समय बताओ ….बालक कितनें बजे जन्मा था ……हे भगवान ! अब मैं क्या बताउंगी !
बृजरानी उठीं…………उन्होंने देखा ………….नीलमणी सा बालक….. सुन्दरता तो इतनी कि कोई उपमा ही नही है ………..पर यशोदा जी चौंक गयीं ….डर से कांपनें लगीं……….आकाश की ओर देखनें लगीं…..कोई चुड़ैल तो नही ?
क्यों की बृजरानी को नवजात शिशु के अंग में अपना प्रतिविम्ब दिखाई देंने लगा था ……………बस ! मैया डर गयीं ………कहीं कोई चुड़ैल मेरे लाला के शरीर में तो नही आगयी …………
हे नृसिंह देव ! हे नृसिंह भगवान ! रक्षा करो ……मेरे बालक की रक्षा करो……आँखें बन्दकर के प्रार्थना कर रही हैं ।
तभी नन्हे नन्हे करों नें मैया को छूआ …………बस छूते ही बृजरानी नें जब देखा ………..अब प्रतिविम्ब नही दिखाई दे रहा था ।
मैया नें नृसिंह देव को प्रणाम किया ……….
और अपनें नीलमणी को गोद में ले लिया ।
बृजराज आँगन में आकर खड़े हो गए ………प्रसूतिका गृह फूलों से भर गया है…..सुगन्ध से सब मत्त हो रहे हैं……………रात्रि भर देवों नें पुष्पों का वर्षण जो किया था ……..
नन्द जी खड़े हैं आँगन में …………..आनन्दाश्रु बहते जा रहे हैं बृजपति के ……….क्या कहें ? इस अपूर्व आनन्द के क्षण में क्या बोलें ?
तभी ऋषि शाण्डिल्य पधारे ………….और पीछे से ब्रजपति के कन्धे में हाथ रखा ……….नन्द जी नें पीछे मुड़कर देखा …..तो ऋषि !
तुरन्त चरणों में गिर गए ………भगवन् ! आपका अनुष्ठान सफल हो गया ……..मेरे पुत्र हुआ है ………..आपकी कृपा से मेरे यहाँ पुत्र हुआ है ।
नन्द जी के पीछे अब सब उनके भाई भी आगये …..सुन्दन , धरानन्द, शतानन्द, उपनन्द सब आगये …………..और सब बधाई देंने लगे नन्द राय को …….नन्द जी आनन्दित हो रहे हैं ।
तभी प्रसूतिका गृह से डाँटनें की आवाज आयी……रोहिणी नें दासियों को प्रेमपूर्ण डाँट लगाई थी ……तुम लोग यहाँ बालक का मुँह ही देखती रहोगी या गाँव में जाकर सब को खबर भी करोगी !
सब भागीं ……कोई सहनाई बजानें वाले के पास गयी और उसको तुरन्त चलनें की बात कहनें लगी…….कोई “बधाई हो …बधाई हो” …..चिल्लाती हुयी घूम रही है…………कोई इतनी आनन्दित है कि कहाँ जाना है काम क्या करना है ये भी भूल गयी ।
कोई बन्दनवार लगानें वाले के पास गयी ……..कोई खिलौनें वाली के पास गयी …………सब आनन्दित हैं……..।
इधर …………..
गुरु महाराज ! मैं बीस लाख गौ दान करूँगा ।
ऋषि शाण्डिल्य से बृजराज नें कहा ।
इसका कोई उत्तर नही दिया ऋषि नें ।
भगवन् ! मैं एक कोटी सुवर्ण मुद्राएं लुटाऊंगा ………….
पर बृजराज ! ये सब लूटेगा कौन ? पृथ्वी चारों ओर से सुवर्ण और मणि माणिक्य प्रदान कर रही है ……ब्रजपति ! गौ पहले से ही सबके पास हैं…….इतनें गौ को कौन रखेगा ?
हँसे ये कहते हुये ऋषि शाण्डिल्य ।
जाओ अब ! जाओ ! यमुना स्नान करके आओ फिर आगे की विधि बताऊंगा …….ऋषि शाण्डिल्य नें बृजराज से कहा ।
नन्द जी आनन्दित होकर जा रहे थे …….कि बाबरी सुनन्दा नवजात नीलमणी को ले आयी बाहर ही……..भैया ! गोद में तो ले लो !
जैसे ही बृजराज नें गोद में लिया नीलमणी को …………..
बृजराज के शरीर में रोमांच होनें लगा……….वो अपनें आपको भूल गए ……देहातीत हो गए ……उन्हें कुछ भान न रहा ………..
तभी पीछे से ग्वालों की मण्डली आयी……..जो हल्ला मचाती हुयी आयी थी……….”नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की” ।