कालिन्दी के तट पर , श्रीधाम वृन्दावन में यह कथा चल रही है ।
आपको मैं विस्तार से सम्पूर्ण श्रीकृष्ण चरित्र सुनाऊंगा …….तात ! ये मेरा भी सौभाग्य है …….या कहूँ उन नन्दनन्दन की कृपा ……..कि मेरी वाणी उनके गुणों का गान कर रही है ………वो नन्द नन्दन …….जो शिवादि के ध्यान में भी नही आते ….उन मधुर मूर्ति नन्द नन्दन का गान ……..उनके चारु चरित का गान…….और कहाँ ? उद्धव आनन्दित हैं आज….उनका मुख मण्डल जो श्रीकृष्ण वियोग में कल तक कुम्हलाया हुआ था आज खिल गया है …..मानों, कमल खिल जाए ऐसे ।
ये स्वाभाविक भी तो है ………..नन्द नन्दन का आज जन्म होनें वाला है ………..बृजेन्द्र नन्दन आज गोकुल में अवतरित होंगें ………बधाई होगी ……….पूरा ब्रह्माण्ड आज आल्हादित है ………
तात विदुर जी ! आज का “चारु चरित” आल्हाद को भी पूर्ण आल्हादित कर दे ऐसा चरित है ……दिव्य अद्भुत आल्हादकारी ।
उद्धव आनन्दित होकर कुछ देर मौन हुए ……फिर बोलना शुरू ।
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रात्रि के नौ बज रहे हैं…….बाहर मन्द मन्द बारिश हो रही है …….साथ में सुगन्धित वयार भी चल रही है ……..नन्दरानी नेत्रों को बन्दकर के लेटी हुयी हैं…..”मुखरा दाई” पैरों के तलवे में तैल मल रही है ।
सूतिका गृह का वातावरण भी आज चिन्मय लग रहा है………
रानी ! अंगों में कुछ ऐंठन हो रही है ? दाई नें यशोदा जी से पूछा ।
एक बार में यशोदा जी नें नही सुना ……क्यों की वो आनन्द सिन्धु में अवगाहन कर रही थीं……..उनकी समस्त वृत्तियों में आनन्द रस ही प्रवाहित हो रहा था ………….
रोहिणी भी ऑंखें बन्दकर बैठी थीं………नन्दा सुनन्दा ये नन्द जी की बहनें, कभी कभी उठ जातीं नही तो ये भी शान्त बैठी थीं ।
सुनन्द , उपनन्द, धरानन्द शतानन्द आदि की पत्नियाँ भी सूतिका गृह में उपस्थित थीं ………सुगन्धित धूम्र से वह कक्ष महक रहा था ……..पाँच दीये, घी के दीये उसमें सुगन्धित तैल भी डाला गया था ……जिसके कारण वह सूतिका गृह भी अब मन्दिर की सी ऊर्जा से भर गया था ।
क्या ऐसा लग रहा है कि वक्षःस्थल के बन्धन खुल रहे हैं ?
नन्दरानी ! क्या ऐसा लग रहा है कि वमन होगा …….या जी मिचला रहा है ? दाई यशोदा जी से फिर पूछ रही है ।
नही………..यशोदा जी नें संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
यहाँ ? ………नाभि के नीचे भाग में तैल मलते हुए दाई नें पूछा ।
यहाँ भारीपन तो नही है ?
यशोदा जी नें फिर सिर “ना” में ही हिलाया ।
कुछ घबराहट सी तो नही लग रही ?
यशोदा जी नें झुँझलाकर कहा ……”कुछ नही हो रहा है मुझे तो ।”
तभी दाई की आँखों में चमक आगयी …………”ये ……ये रहा”…….तैल मलते हुए पेट में दाई बोल पड़ी थी ।
क्या हुआ ? क्या हुआ दाई ? सब जितनी ऊँघ रही थीं उठ गयीं ……सुनन्दा, नन्दा, रोहिणी अन्य यशोदा जी की जेठानियाँ ।
क्या हुआ दाई ? सबनें पूछा ।
नन्द रानी ! क्या कभी तुमनें जुड़ेला केला खाया था ?
यशोदा हँसी ……दाई ! ये जुड़ेला केला क्या होता है ?
दाई बोली ………केले की जो फली होती है ना …..कोई कोई फली एक साथ दो जुडी हुयी होती है ………उसे ही कहते हैं जुड़ेला केला ।
नही …मुझे प्रिय नही है केला …….यशोदा जी नें मना कर दिया ।
पर दाई ! हुआ क्या ? पेट में हल्के हाथों से तेल मलते हुए दाई बोल रही थी………”नन्द रानी भूल गयी होगी ……..जुड़ेला केला अवश्य खाया है ………..तभी तो इसके पेट में दो बच्चे हैं ” ।
ये सुनकर यशोदा जी खूब हँसीं …………..फिर बोलीं ……एक ही पर्याप्त है दाई ! दो ना चाहिए ।
पर दो हैं…………..तुम कहो तो मैं बता भी दूंगी …………फिर अपना सगुन देखकर …….आँखें बन्दकर के …..दाई ने कुछ बुदबुदाकर …..कहा ……एक छोरा है और एक छोरी है ।
हट्ट ! तू कुछ भी कहती है…सुनन्दा बोली । …….देख लेना छोरी ! मैने हजारों बच्चे जनवाये हैं………..मेरी वाणी मिथ्या नही होती ।
दाई की अपनी जिद्द थी ।
उद्धव ! क्या यशोदा जी नें दो शिशु को जन्म दिया था ?
विदुर जी नें प्रश्न किया ।
हाँ …..एक कन्या ……जिसे, वसुदेव जी मथुरा से गोकुल आये और ले गए ……और एक पुत्र को भी जन्म दिया यशोदा जी नें ……..वो नन्दनन्दन थे ……….वसुदेव नें अपनें बालक वसुदेवनन्दन को यहाँ छोड़ा ……तो .वो वसुदेवनन्दन नन्दनन्दन में समा गए थे…..वसुदेव नन्दन तो चुतुर्भुज थे …..पर ये नन्दनन्दन द्विभुज ………।
उद्धव नें विदुर जी को बताया ।
तो क्या दो कृष्ण हैं ? विदुर जी नें आश्चर्य से पूछा ।
नही तात ! दो नही, तीन कृष्ण हैं………हँसे उद्धव ये कहते हुये ।
एक नन्द नन्दन …..जो यशोदा जी के कोख से प्रकटे …..दूसरे वसुदेव नन्दन जो कंस के कारागार में प्रकट हुए और गोकुल में आकर नन्दनन्दन में समा गए …….और एक हैं द्वारकेश …..द्वारिकाधीश …..।
उद्धव नें बताया ।
पर तीन क्यों ? वे तो एक ही हैं ना ?
विदुर जी नें फिर प्रश्न किया ।
जी तात ! एक ही हैं श्रीकृष्ण …..पर भाव जगत में ……अपनें अपनें भाव अनुसार भक्तों नें तीन कृष्ण को माना है …………
और तात ! आपको मैं क्या कहूँ ….आप सब समझते हैं…….श्री कृष्ण एक हैं …..और अनेक भी हैं………..भक्तों के भाव की उच्चता अनुसार वे बनते हैं..एक से अनेक बनते हैं फिर अनेक से एक हो जाते हैं ………ये विशुद्ध भाव जगत की बात है ।
आहा ! इन दिव्य भावों की बातें सुनकर गदगद् हो गए थे विदुर जी ………कुछ देर बाद बोले……कथा सुनाइये नन्दनन्दन के जन्म की ।
उद्धव आनंदातिरेक में डूबे – कथा सुनानें लगे थे ।
हाँ ……बचपन में एक बार, मेरे घर के पास केले का बगीचा था …..मैने वहाँ ऐसा एक केला खाया था ………कुछ देर बाद यशोदा जी बोलीं ।
बस इतना सुनते ही …..दाई नें सबकी ओर ऐसे देखा जैसे वो अन्तर्यामी हो ……..अपनी सर्वज्ञता पर उसे गर्व होनें लगा था ।
देखा ! मैने सही बात कही ना ………इसलिये कभी भी किसी कन्या को जुड़ेला केला नही खानें चाहिये । खायेगी तो जुड़वाँ बालक होगा ।
भाभी ! तुम बात न करो ज्यादा दाई से ………ये बोलती बहुत है ………..दाई ! तू अपना पंडितानीपना मत छांटा कर ……….सही सही बता कि अब देरी कितनी है बालक होनें में ।
सुनन्दा तेज़ है ……..बोल दी ।
ये छोरी तो बड़ी गुस्सेल है …………कितना गुस्सा करती है ……..अरे ! तुम लोग समझती नही हो मैं बातें इसलिये कर रही हूँ ताकि प्रसव के समय नन्दरानी को कोई कष्ट न हो ……और बालक सहज में हो जाए ।
दाई नें इतना कहा ….फिर तैल लेकर माथे में मलनें लगी यशोदा जी के ।
मुझे तो नींद आरही है ………..यशोदा जी नें फिर वही बात कही ।
सो जाओ फिर तुम …………दाई क्या बोले ।
पर ऋषि शाण्डिल्य की बात आज तक झूठी तो हुयी नही है ……..उन्होंने कहा है अष्टमी को, तो अष्टमी को ही बच्चा होना चाहिए……..दाई बोलती रही……पर सब सो गए …..क्यों की रात्रि के 11 बज चुके थे ।
दाई भी नन्दरानी के पैरों में ही नींद के कारण लुढ़क गयी थी ।
दरवाजा खुला है सूतिका गृह का ……..बाहर बारिश हो रही है……..हवा भी चल रही है……..किसी को पता नही कि अब क्या होनें वाला है ।
दिव्य वातावरण हो गया प्रकृति का…….नदियों का जल निर्मल हो उठा …….कमल खिल गए रात्रि में ही……….सूतिका गृह का एक एक अणु चिन्मय रस से भर गया था ………यशोदा जी तो सो गयी हैं…….सभी सो गए हैं……..धीरे धीरे मध्य रात्रि हुयी……12 बजे ठीक ……एकाएक दिव्य प्रकाश से सम्पूर्ण सूतिका गृह ही भर गया ………..
रोनें लगा बालक …………..
रोनें की आवाज सुनते ही सबसे पहले दाई उठी……उसकी बूढी आँखों में वो ताकत कहाँ कि उस तेज़ को देख सकती ……….
आँखों को मलती रही……..देखनें की कोशिश करती रही…….पर ।
उठी बाबरी की तरह ……..अरे ! उठो ! देखो लाला हो गया !
उठो ! वो सुनन्दा के ऊपर गिरते गिरते बची …………सुनन्दा उठी ……रोनें की आवाज सुनी ………पास में गयी सुनन्दा …….देखा ……ख़ुशी से नाच उठी ……….नन्दा ! उठ ! भाभी ! देखो ! तुंम्हारे लाला हुआ है ………यशोदा उठीं ………तो देखा एक नीलमणी सा बालक खेल रहा है……….किलकारीयाँ मार कर सबको जगा रहा है ।
ये सब देखते ही यशोदा जी के आनन्द का कोई ठिकाना नही रहा …….
सुनन्दा बाबरी सी हो गयी ………वो भागी बाहर ………….भैया नन्द जी के पास जाऊँगी ………जानें लगी……फिर वापस लौट आयी ……….काँस की थाल तो बजाऊं …………फिर काँस की थाल लेकर, बजाती हुयी वो भागी अपनें भैया नन्द जी के पास ।
भैया ! भैया !
रात के दो बज गए हैं……….बारिश हो रही है…..पर ये सुनन्दा दौड़ रही है गौशाला में …………..
बैठे हैं नन्दराय जी …….शान्त भाव से…….माला चल रही है उनकी ।
तभी…….भैया ! भैया ! जोर से चिल्लाती हुयी सुनन्दा पहुँची ।
क्या हुआ ? नन्द जी भी उठ गए …….सुनन्दा ! सब ठीक तो है ना ?
भैया ! पहले ये बताओ क्या दोगे ?
हाथ पकड़ कर नाचनें लगी सुनन्दा ………….नन्द जी नें कहा ….बहन ! जो मांगोगी दे देंगे …..पहले बता तो क्या हुआ ?
भैया ! लाला भयो है…………भैया ! आपके लाला भयो है ।
जैसे ही इतना सुना ….नन्द जी के नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले थे ।
वो बाबरी सुनन्दा नाचती हुयी गोकुल गाँव को जगा रही है …..”लाला भयो है”…….”लाला भयो है”…….और काँसे की थाल बजा रही है ।