10. !! दिव्य सीमन्तन-संस्कार !!

ये भी संस्कार होता है ……”सीमन्तन – संस्कार”…..जब गर्भ का बालक 6 महिनें का होता है ।

पति , पत्नी को उसके गर्भस्थ शिशु की रक्षा का वचन देता है……..इतना ही नही…….अपनी पत्नी से वो पूछता है कि ……तुम्हे जो चाहिये माँगों मैं दूँगा …….क्यों की तुम मेरे वंश को जीवन प्रदान कर रही हो ।

भरे समाज में पत्नी जो मांगती है ……..वो पति देता है…….देनें का वचन देता है………..विदुर जी को उद्धव श्रीकृष्ण चरित्र सुना रहे हैं ।

सीमन्तन संस्कार के विषय में विदुर जैसे नीतिज्ञ को कुछ बतानें की आवश्यकता नही थी………पर ये संस्कार भी तो किसका हो रहा है …….ब्रह्म की माँ का ………उस यशोदा का………जिसके गर्भ में महाभगवती लक्ष्मी का पति आरहा है……….आदिसृष्टिकर्ता ब्रह्मा के जो पिता हैं……चराचर जगत का जो स्वामी है……….उसको अपनें गर्भ में धारण करके चल रही हैं ये यशोदा जी…….आहा ! विदुर जी सुनकर भाव में भर जाते हैं ।

क्या ब्रह्म भी गर्भ में आता है ?

विदुर जी के मन में ये प्रश्न सहज उठा ।

तात ! क्या गर्भ में ब्रह्म नही हैं ?

उद्धव नें बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया ।

साधू साधू उद्धव !

विदुर जी नें उद्धव को अपनें हृदय से लगा लिया…….तुम्हे क्या दूँ उद्धव ! तुम अमृत का पान करा रहे हो मुझे …..पर इस अमृत के बदले देनें के लिये मेरे पास कुछ भी नही हैं………..

तात ! आपका आशीर्वाद मेरे लिये पर्याप्त है…….उद्धव नें आनन्दित होकर विदुर जी के चरणों में प्रणाम किया…..और आगे की कथा सुनानें लगे थे ।

कालिन्दी के तट पर आज सीमन्तन संस्कार होगा ……….नन्द जी और यशोदा जी दोनों बैठेंगे …………यहाँ बैठेगें …………मध्य में आसन लगाओ उनका ……….ऋषि शाण्डिल्य इतनें आनन्दित हैं कि स्वयं व्यवस्था देखनें लग गए …………।

इस तरफ ब्राह्मण बैठेगें ……………और यहाँ यज्ञ वेदी ………….।

कदली के खम्भे चारों और लगाओ……….ताम्र के कलशों में जल भरकर चारों दिशाओं में रखो………बन्दन वार लगाओ ……..और रंग विरंगी चित्रकारी यहाँ पर काढो ।

भगवन् ! आप बैठ जाइए……..नन्दराय पधारेंगे और आपको यहाँ खड़ा देखेंगें तो हम लोगों को डाँट पड़ेगी………गुरुदेव स्वयं खड़े हैं और तुम लोगों से कुछ नही होता……..नन्द जी के एक प्रमुख ग्वाले नें ऋषि शाण्डिल्य से प्रार्थना की ।

आप बैठ जाइए मामा जी !

मामा जी ? ऋषि शाण्डिल्य चौंके ………..मुझे मामा कहनें वाला कौन है …….जब देखा तो मनसुख खड़ा था ……ये किसी को कुछ भी बोल सकता है…………….और वैसे भी मनसुख की माता पौर्णमासी को अपनी बड़ी बहन की तरह आदर ऋषि शाण्डिल्य देते ही हैं ।

मैं हूँ ना ?

मनसुख को देखकर कितना भी गम्भीर व्यक्ति क्यों न हो हँस ही देगा …..

पर तू माखन खा जाएगा ……दूध पी जाएगा …….ये भी नही सोचेगा कि भगवान को भोग लगाना है ………ऋषि शाण्डिल्य हँसते हुए बोले ।

नही…….अब नही खाऊंगा माखन ………अब खानें की इच्छा ही नही होती ………अब तो मेरा सखा आएगा तब खाऊंगा ।

मनसुख नें सच में दो दिन से माखन खाना छोड़ दिया है ।

अच्छा ! चलो ! सब तैयारी हो गयी ? ऋषि शाण्डिल्य नें गोपों से और अपनें ब्राह्मणों से पूछा ।

हाँ ………सब तैयारी हो गयी ………सब नें एक स्वर में कहा ।

चारों और ध्वजा पताके भी लग गए थे ……………..

अब – अपनें पुरोहित के आसन पर ऋषि शाण्डिल्य विराजमान हुये और प्रसन्न चित्त से चारों ओर देख रहे थे

जीजी ! चलो…….ऋषि शाण्डिल्य नें बुलवाया है आप दोनों को ……. मुहूर्त भी बीता जा रहा है ।

रोहिणी नें आकर ही यशोदा जी को कहा था…….उनकी गोद में उनका बालक दाऊ था ।

दाऊ को देखते ही यशोदा जी दुःखी हो जाती हैं……….आठ महिनें होनें को आये इस बालक के जन्मे ……पर ये बालक बोलता ही नही है ……कुछ नही तो माँ, मैया, बाबा, अरे ! बालक कुछ तो बोलता है ……हे भगवान ! कब बोलेगा ये ?

जीजी ! बस आकाश की ओर ही देखता रहता है…………..चलो ! कुछ बोले नही …….पर कमसे कम रोना तो चाहिये …..ये तो रोता भी नही है ……..हाँ खिलखिलाता है, जब जीजी ! आप इसे अपनी गोद में लेती हो……..और दूसरा मनसुख जब इसे “दाऊ दादा” कहता है ।

बाकी समय में तो बस ऊपर की ओर ही देखता रहता है ………….

दे, मुझे दे रोहिणी ! मैं लेती हूँ तेरे लाला को …………और यशोदा जी नें जैसे ही अपनी गोद में लिया ………..खिलखिलाए दाऊ ।

चलो ! ऋषि शाण्डिल्य नें बुलवाया है …….कह रहे थे कि मुहूर्त बीता जा रहा है…….नन्द जी सज धज कर तैयार होकर आगये थे ।

यशोदा जी को देखा तो बोले ……क्या बात है ! तुम्हारे मुखारविन्द से तो जब देखो तब प्रकाश ही निकलता रहता है……..दिव्य लग रही हो यशोदा ! तुम तो ।

अजी ! आपको भी ना …….इस बुढ़ापे में भी रसिकता सूझ रही है….

यशोदा जी शरमाते हुए कहती हैं, अपनें पति नन्द जी से कहती हैं ।

अब चलिये …….वहाँ देरी हो रही है !

रोहिणी के साथ अन्य यशोदा जी की जेठानियाँ भी आगयी थीं……………..

भाभी ! दूर से ही चिल्लाते हुए आयीं ये……….

लो ! नन्दा जीजी ! और सुनन्दा जीजी भी आगयीं ।

भैया !

पहले तो अपनें भैया नन्द जी के गले लगीं………..फिर भाभी के ………….अब यहीं रहना बस दो तीन महिनें की बात है ……….नन्द जी नें अपनी बहनों से कहा ……..भैया ! अब तो नौ लखा को हार लेकर ही जाऊँगी……………..ये कहते हुए दोनों बहनें हँसी ………नन्द जी और यशोदा जी भी खूब हँसे ।

अब चलिये ! वहाँ देरी हो रही है……..एक ग्वाले नें आकर फिर कहा ……तो सब लोग सज धज कर यमुना के किनारे चल दिए थे ।

वैदिक मन्त्रों से पूरा मण्डप गूँज उठा था ………पवित्र धूम्र से महक उठा था वो यमुना का पुलिन ……..महर्षि नें स्वयं स्वस्ति – पाठ किया ।

सविधि समस्त देवताओं का पूजन कराया……..उस वेला में माता पौर्णमासी भी आयीं ……..और नाचनें लगीं ……….मनसुख ये सब देखकर बहुत प्रसन्न था …….सभी ग्वाले आज आनन्द की अतिरेकता में डूबे हुए थे……..गोपियाँ सुन्दर सुन्दर गीत गा रही थीं ।

मणिमाणिक्य से भरे थाल नन्द जी नें मंगवाए …….समस्त ब्राह्मणों को दान दिया ……..गौ दान ……..गौ के सींग को सुवर्ण में मण कर खुर को चाँदी से मण कर ब्राह्मणों को हजारों की संख्या में गौ दान किया ।

ब्राह्मण मना कर रहे हैं………हे नन्दराय ! आपनें बहुत दिया है……….बहुत हो गया ……पर नन्द जी मानते नही हैं…………देते जा जा रहे हैं ……..दान, महामना बनकर कर रहे हैं ।

तभी ……….नन्द जी नें जब ऋषि शाण्डिल्य के चरण छुये ….तब एक प्रश्न किया …………हे भगवन् ! पुत्र या पुत्री ?

नेत्र बन्द हो गए ऋषि शाण्डिल्य के ये प्रश्न सुनते ही ………….

कुछ देर में ऋषि की वाणी गूँजी ……..

“शक्ति और शक्तिमान अभिन्न होते हैं……परात्पर परमपुरुष अपनी शक्ति से कभी अलग रह ही नही सकता”……….ऐसी रहस्य पूर्ण बातें नन्द जी कहाँ समझते ………….हाँ उस समय माता पौर्णमासी हँसी थीं ऋषि की ये बातें सुनकर………हाँ, मनसुख भी ताली बजाकर हँसा था ।

उसी समय बरसानें के मुखिया बृषभान जी पधारे………..

नंदजी नें उठकर उनका स्वागत किया…….दोनों गले मिले ।

उनकी पत्नी कीर्तिरानी यशोदा जी से मिलीं ……….।

हे नन्द राय ! अब आप सीमन्तन संस्कार के अनुसार अपनी अर्धांगिनी यशोदा से पूछिये कि उनकी कोई कामना है ?

यशोदा जी की ओर नन्द जी नें देखा……….

यशोदा जी शरमा गयीं…….बगल में कीर्ति रानी बैठी हैं………..

उन्होंने कहा …..नंदरानी ! आप की जो इच्छा हो बोलिये ।

हँसी यशोदा जी ……..और कीर्तिरानी के कान में कहा ……….क्या इच्छा बताऊँ ? मेरी तो इच्छा होती है ……कि मिट्टी खाऊँ ……..मेरी तो इच्छा होती है …..जब सहस्र गौएँ चरनें के लिये जाती हैं….और साँझ को लौटकर आती हैं……तब मैं उनका दर्शन करूँ……और उनके चरणों में अपना मस्तक रख दूँ………

माखन जब निकला होता है……तब मेरे मन में आता है कि ……..इस माखन को चुरा कर खा जाऊँ …………..ये कहते हुए यशोदा जी बहुत हँस रही थीं………….कभी कभी मेरी इच्छा होती है ……..मटकी जो खाली है उसे फोड़ दूँ ………..नाचूँ ……..उछलूँ …….गाऊँ ………

यशोदा जी कीर्तिरानी के कान में ये सब कह रही थीं ……और खूब हँस रही थीं ………….सब देख रहे हैं………और इन माताओं की प्रसन्नता का सब सुख लुट रहे हैं ।

मैया ! और जगह मैया के गुण लाला में आवें……..पर यहाँ तो लाला के गुण तोमें आ रहे हैं…….तेरे पेट में माखन चोर आय गयो है ।

मनसुख ये कहते हुए खूब हँसा था ।

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