1. नन्दगाँव से- “श्रीकृष्ण चरितामृतम्”

कल नन्दगाँव की होरी थी…….नन्दलाल के आँगन में हम भी गए …खूब होरी खेले…….रंग और रस से सरावोर हो गए थे ।

आप श्रीकृष्णचरितामृतम् क्यों नही लिखते ?

जब हम प्रेम सरोवर में हाथ मुँह धो रहे थे……..तभी गौरांगी नें मुझ से कहा ……..मैं भूल गया मुँह धोना……और मैं स्तब्ध हो विचार करनें लगा ……श्री कृष्ण चरितामृतम् ?

हाँ ……यही नाम ठीक रहेगा……..क्यों की आपकी एक कृति श्रीराधाचरितामृतम् तो अब प्रकाशित भी हो रही है………….

नन्दलाल को क्यों छोड़ते हो ?

मैं मुस्कुराया…….पर कुछ बोला नही…….मन ही मन विचार कर रहा था ………..श्री कृष्ण चरितामृतम् !

श्री जी को भी अच्छा लगेगा……..जब उनके ‘पिया” के चरित्र को आप लिखोगे ………गौरांगी बोल रही थी ।

मैं अभी भी कुछ नही बोला ……………

गौरांगी नें मुझ से पूछा ……..क्या हुआ ? हरि जी ! आप कुछ बोल नही रहे ?

क्या बोलूँ ? मैं लिख सकता हूँ भला ! वही लिखाये तो अलग बात है……….वैसे मैने पहले भी सोचा था श्रीकृष्ण पर लिखनें का …..पर हिम्मत नही हुयी ……श्री राधा चरितामृतम् तो स्वयं श्रीजी नें लिखा लिया……पर नन्दलाल क्या चाहता है ……..वही जानें …….वह चाहे तो क्या नही करवा सकता ।

मैं इससे ज्यादा क्या कहता !

प्रेम सरोवर में हाथ मुँह धोया …….गौरांगी नें भी धोया ………….

कल का रंग तो छूट गया था …….पर आज का रंग छूट नही रहा …….गौरांगी छुड़ाना चाहती है रंग को ………

ये नन्दलाल का रंग है छूटेगा कैसे ?

मैने कहा ।

……….और उसकी चूनरी से ही उसका मुँह पोंछ दिया …….मत रगड़ो ज्यादा तुम्हारी कोमल त्वचा है ….होरी है…क्या फ़र्क पड़ता है…..और रंग भी तो नन्द के लाला का है ।

वो बस मुस्कुराई , मैं उसे देखता रहा पर मेरा ध्यान अब पूरी तरह से श्री कृष्ण चरितामृतम् में लग चुका था ।

हाँ बस यही – इतना ही तो मैं चाहता हूँ……….तुमसे नही चाहता नन्दलाल ! तुम्हे चाहता हूँ………..ये जीवन तुम्हारा है……….इस जीवन के मालिक तुम हो……….यन्त्र हूँ मैं तो यन्त्री तुम हो यार !

बस ऐसे ही मुझ से बतिया लिया करो ना…..मेरे जीवन में आनें वाली पीड़ा भी आल्हाद बन जायेगी………..मेरे जीवन में कोई नही है जिसे मैं अपना कहूँ………..सिर्फ तुम ही हो मेरे …..सिर्फ तुम ।

सखे ! मुझे भी अपनी लगन कि मज़बूत डोरी से कस कर बाँध लो ना ….

पकड़ कर अपनी और ही खींच लो ……..ओ नन्द के लाला ! मुझे भी प्रेम गूजरी के मटकी का माखन चखा दो ………सुना दो ना वो प्रेम की बाँसुरी ………प्यारे कृष्ण ! तुम तो आकर्षण हो ना ! क्यों कि बचपन से ही मैने सुना है…….कि तुम्हारे कृष्ण नाम का अर्थ ही यही है …..जो अपनी और सबको आकर्षित करता है………..तो मेरे अहंकार को अपनी और आकर्षित कर लो ना !

अरे हाँ ! मैने सुना है तुम्हारा एक नाम “लीलामय” भी है ……तो एक लीला रच दो ! जो मुझ जैसे अधम का भी उद्धार कर दे ।

हे मन मोहन ! मेरे मन को अपनें चरणों में लगा दो ……..मुझ से ये काम न होगा …….बड़े बड़े योगी ये नही कर पाते ………फिर मैं तो साधारण व्यक्ति हूँ……अदना सा आदमी हूँ ………न साधन , न भजन, हाँ एक ठसक अवश्य है……….कि मैं तुम्हारा हूँ…………सिर्फ तुम्हारा ।

मुझे गीता नही सुननी ………मुझे बाँसुरी सुननी है……..

मुझे द्वारिका नही देखनी …….मुझे तो वृन्दावन से ही प्यार है ।

मुझे रुक्मणी सत्यभामा से क्या प्रयोजन ?

मुझे तो अपनी ठकुरानी श्रीराधारानी से ही मतलब है ।

तुम मेरे हो……..नही नही…………मैं तुम्हारा हूँ ……….

अब तो कह दो …….तू हमारा है………।

अश्रु गिरनें लगे थे मेरे उस बरसानें और नन्दगाँव के मध्य बसे “प्रेम सरोवर” में ।

हरि जी ! क्या हुआ ? गौरांगी नें मुझसे पूछा ।

नही…………..”हरि हिय कृष्ण चरित सब आये”……….गदगद् भाव से मैने इतना ही कहा …………मेरा हृदय भर आया था ……….

मैं लिखूंगा……..जो वो नन्द का लाला लिखायेगा वही लिखूँगा ।

मैं इतना ही बोल सका ………इसके आगे मेरे शब्द निकले भी नही ।

हरि जी ! मुझे इंतज़ार है अब………श्री कृष्ण चरितामृतम् का ।

मैने नन्दगाँव की ओर देखा ………….वहाँ तो अबीर उड़ रही थी …आकाश के बादल भी लाल लाल से दीख रहे थे ।

“जो तुझको हो पसन्द वही बात करेंगें”

मैने अपनें यार से यही कहा……..सच में आनन्द आएगा अब ।

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