गोपी गीत – जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

‘श्रीमद् भगवत महापुराण जो कि योगेश्वर श्रीकृष्ण का साक्षात् वाङ्मय स्वरुप है, के दशम स्कन्ध को भगवत का हृदय माना जाता है और उसके इन श्लोकों को श्रीमद् भगवत का प्राण माना जाता है॥


॥ 1 ॥
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

भवार्थ – हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है.

॥ 2 ॥
शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥

भवार्थ – हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी है तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो. हे प्रिय !अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मरना हमारा वध करना नहीं है.

॥ 3 ॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-

द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥

भवार्थ – हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाला अधासुर, इंद्र की वर्षा आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयो से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है.

॥ 4 ॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥

भवार्थ – हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.

॥ 5 ॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥

भवार्थ – हे वृषिणधूर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो जो लोग जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते है उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हो सबकी लालसा अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकडा है प्रिये, उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें.

॥ 6 ॥
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥

भवार्थ – हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुखो को दूर करने वाले हो तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तो के सारे मान मद को चूर चूर करती है. हे मित्र ! हम से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी है तुम्हारे चरणों में निछावर है, हम अबलाओ को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ.

॥ 7 ॥
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥

भवार्थ – आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे-पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो.

॥ 8 ॥
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥

भवार्थ – हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते है उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रही है, हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधररस पिलाकर हमें जीवन दान दो.

॥ 9 ॥
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

भवार्थ – आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत मेंकष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं. ज्ञानियों महात्माओ भक्तो कवियों ने तुम्हारी लीलाओ का गुणगान किया है जो सारे पाप ताप को मिटाने वाली है जिसके सुनने मात्र से परम मंगल एवम परम कल्याण का दान देने वाली है तुम्हारी लीला कथा परम सुन्दर मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है जो तुम्हारी लीला का गान करते है वह लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी है.

॥ 10 ॥
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥

भवार्थ – आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम- भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ट लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है.और ये हमारे ह्दयों को स्पर्श करती है उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मनों को अतीव क्षुब्ध भी करती है.

॥ 11 ॥
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥

भवार्थ – हे स्वामी, हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर है जब आप गौवें चराने के लिए गाँव छोडकर जाते है तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते है कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार तिनके तथा घास- फूस एंव पौधे चुभ जाऐंगे. ये सोचकर ही हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है.

॥ 12 ॥
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥

भवार्थ – हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलके लटक रही है, और गौओ के खुर से उड़ उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो.

॥ 13 ॥
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शन्तमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥

भवार्थ – हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तो की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली है, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी व्याधि शांत हो जाती है. हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण कमल हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो.

॥ 14 ॥
सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥

भवार्थ – हे वीर ! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो माधुर्य हर्ष को बढाने वाला और शोक को मिटाने वाला है उसी अमृत का आस्वादन, आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियां भुलवा देती है.

॥ 15 ॥
अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥

भवार्थ – हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती है उस समय हमारी पलको का गिरना हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी होता है तब ऐसा महसूस होता है कि इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है.

॥ 16 ॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥

भवार्थ – हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई, बंधू, और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई है. हम तुम्हारी हर चाल को जानती, हर संकेत को समझती है. और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आई है हे कपटी इस प्रकार रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड सकता है.

॥ 17 ॥
रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥

भवार्थ – हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बाते किया करते थे हँसी मजाक करके हम छेड़ते थे तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे तुम्हारा वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हे प्रिये! तब से अब तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है ओर हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है.

॥ 18 ॥
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥

भवार्थ – हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली ओर विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त्जनो के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दे.

॥ 19 ॥
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥

भवार्थ – हे कृष्णा ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल है उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है जिससे आपके कोमल चरणों में कही चोट न लग जाये उन्ही चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही है. हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए ही जी रही है हम सिर्फ तुम्हारी ही है.

इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां!!
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः!!

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