यमुना के किनारे जो विशाल अनुष्ठान चल रहा था …….ऋषि शाण्डिल्य के सान्निध्य में ……..”नन्दराय को पुत्र प्राप्ति हो” इसी कामना से ये आयोजित था ……..पर वहाँ एक आश्चर्यजनित घटना घट गयी ……
सब चकित होकर पूर्वदिशा की ओर देखनें लगे थे ।
श्वेत केश, श्वेत वस्त्रों में ……..वो अत्यन्त तेजस्विनी थीं………हे तात विदुर जी ! उन माता को देखते ही स्वयं महर्षि शाण्डिल्य नें भी प्रणाम किया था ………नन्द राय उठ गए थे अपनें आसन से ……..नन्दराय नें अत्यन्त विनम्र भाव से नमन किया ……..और आसन भी दिया ।
यशोदा जी नें चरण छूए उन माता के ………माता नें यशोदा जी के सिर में हाथ रखा …….और आशीष दिया ।
हे तात विदुर जी ! उन माता के साथ एक बालक भी था ……..जो उनके समान ही तेज़वन्त था…….गौर वर्ण ……मस्तक में ऊर्ध्वपुण्ड्र ……ये ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया नही था ………जन्म जात ही था ।
हमारा अहोभाग्य कि आप यहाँ पधारीं माते !
महर्षि शाण्डिल्य नें स्वागत किया ।
हे नन्दराय ! ये हैं महान तपश्विनी “माता पौर्णमासी” ……..भगवान विश्वनाथ की पवित्र भूमि काशी में इनका जन्म हुआ है ……..महान विद्वान ऋषि सान्दीपनि इनके छोटे भाई हैं……..जो काशी छोड़कर महाकाल की छत्रछायाँ उज्जैन में वास कर रहे हैं ।
ऋषि शाण्डिल्य नें संक्षिप्त सा परिचय दिया माता पौर्णमासी का ।
सिर झुकाकर नन्दराय नें कहा ……….हम गोप कुमारों का ये सौभाग्य है कि आप का यहाँ पदार्पण हुआ ।
ये आपका बालक बहुत सुन्दर है…….यशोदाजी ने, माता पौर्णमासी के साथ आये बालक के बारे में कहा , …ये आपका पुत्र है माते ? पूछा ।
हँसी पौर्णमासी ……….हे नन्दगेहनी ! ये मेरा बालक है …..पर मेरा जाया नही है………..फिर पौर्णमासी नें अपनी बात भी बता दी ……मेरे पिता नें, जब मैं अबोध थी तभी मेरा विवाह किसी विद्वान ऋषि के साथ तय कर दिया था ……..वचन दे दिया उस ऋषि को ……पर कुछ ही समय बाद उन ऋषि का देहान्त हो गया ………पर जाते जाते उनकी पूर्व पत्नी से जो बालक था वो पालनें में ही मुझे मिला ……ये वही बालक है………….मैं इसे ले आई थी …..पौर्णमासी नें अपनी बात कहनी जारी रखी ……।
हे नन्दगेहनी ! इस बालक का नाम “मनसुख” है……..मैने ही रखा है ……ये सबके मन को सुख पहुँचाता है…….हर समय मुस्कुराता रहता है……….वेद का कभी अध्ययन नही किया इसनें …….किन्तु सम्पूर्ण वेद इसे कण्ठस्थ हैं …………विद्याध्यन में इसका कभी मन नही लगा ……पर काशी के विद्वानों को ये जब देखो तब हरा देता था ……मैं चकित थी ।
एक दिन ये मुझ से कहनें लगा……..”मेरा सखा आरहा है’ ………”मेरे सखा के पास मुझे ले चलो”……..मैने पहले तो इसकी बातों में विश्वास ही नही किया …….पर ये सपनें भी ऐसे ही देखनें लगा था ……ये बार बार सपनें में कहता…….’कन्हैया ! मैं आरहा हूँ’
“मैं आरहा हूँ…….मैं कुछ ही दिनों में तेरे पास पहुँच रहा हूँ ‘
हे बृजेश्वरी ! मैं ये सब देखकर चौंक जाती थीं ………..ये मुझे शुरू से ही कुछ विचित्र सा तो लगता था ……….क्यों की काशी में त्रिपुण्ड्र सब धारण करते हैं……..पर ये “ऊर्ध्वपुण्ड्र” जन्म जात ही इसके मस्तक में विराजमान था ………रुद्राक्ष इसको कभी प्रिय नही रहा …….वैसे देखा जाए तो मैं विशुद्ध शैव हूँ………मेरे पिता शैव थे ……..इसके पिता भी शैव थे ……….मेरे भाई सान्दीपनि भी शुद्ध रूप से शैव ही हैं………….किन्तु ये ?……तुलसी की माला इसे प्रिय लगे ।
एक दिन भगवान विश्वनाथ नें मुझे ध्यानावस्था में कहा ……….
हे पौर्णमासी ! ये बालक जिसका नाम मनसुख है …….ये गोलोक से आया है……अनादिकाल से ये श्रीकृष्ण का ही सखा है……….इसे तुम साधारण मत समझो ………..गोकुल में श्री कृष्ण अवतार ले रहे हैं……….वहीं जाओ ………और इस बालक के साथ तुम भी वहीं रहो ।
ये आदेश मिला मुझे भगवान विश्वनाथ से ………..
बस उसी समय से मनसुख जिद्द पकड़नें लगा ………..कि मेरा सखा प्रकट होनें वाला है गोकुल में ……..मुझे जानें दो ………मेरा सखा मुझे कह रहा है………तू पहुँच गोकुल में ………..।
माँ ! चलो गोकुल !
ये माँ सबको कहता है ……….हँसी पौर्णमासी ये कहते हुए…………हर नारी जात को ये माँ कहता है ………लड़की होनी चाहिये ……..चाहे वो इससे छोटी भी क्यों न हो………माँ ही कहेगा ये ।
पर मैं आपको “मैया” कहूँगा …………..बालक मनसुख चिपक गया था यशोदाजी के आँचल से ।
क्यों ? क्यों कहेगा तू इन्हें मैया ? पौर्णमासी नें छेड़ा ।
क्यों की मेरा सखा इन्हें मैया कहता है ना ! कहेगा ना ।
बस मैं ले आई हूँ इसे……..पौर्णमासी नें कहा यशोदा जी से ।
आपके लिये अतिथि गृह में व्यवस्था कर देती हूँ….यशोदा जी बोलीं ।
ना ! मैं अतिथि बनकर नही आयी हूँ ………….मैं तो अब अपनें पुत्र के साथ यहीं रहूँगी ……….जीवन पर्यन्त मैं बृजवास करनें आयी हूँ ।
हमारे अहोभाग्य .!
..साष्टांग लेट गए थे नन्दराय जी माता पौर्णमासी के चरणों में ।
एक झोपडी हमारे लिये बनवा दो ………मैं मात्र गौ दुग्ध पीयूँगी ……..
पर मेरा ये पुत्र मनसुख !
“मैया भूख लगी है”………मनसुख नें तुरन्त कह दिया यशोदा जी से ।
इसको भूख बहुत लगती है……….इसलिये ।
नन्दराय आनन्दित हो उठे मनसुख को देखकर ………..ये हमारे साथ ही रहेगा …………..
“जब कन्हैया आएगा तब भी रहूंगा”
………मनसुख नें पहले से ही कह दिया ।
चलो ! नन्दराय जी ! अब तो पक्का हो गया …………कि आपकी सन्तान होगी ही……….और कोई दिव्य चेतना अवतरित होनें वाली है ।
ऋषि शाण्डिल्य नें प्रसन्न होकर कहा ।
दिव्य चेतना नही भैया शाण्डिल्य ! पूर्ण ब्रह्म ही अवतरित हो रहे हैं ।
पौर्णमासी नें नेत्रों को बन्दकर के गदगद् कण्ठ से ये बात कही ।
अब तो प्रकृति झूम उठी थी……..गोकुल ही क्यों सम्पूर्ण बृजमण्डल आनन्द की धारा में बह रहा था ……अकारण सबको प्रसन्नता होनें लगी थी……….अकारण सब आनन्दित हो उठे थे ………..जब देखो तब मोर नृत्य करते थे ……….पक्षियों का कलरव कभी भी शुरू हो जाता था ।
हे विदुर जी ! योगियों के हृदय में जब ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति होती है………..तब जैसा योगी का हृदय हो जाता है ….वैसा ही आज बाहर प्रकृति का हो रहा है ……….दिव्य अद्भुत ।
मौन हो गए थे उद्धव ये कहते हुये ।