श्री हित स्फुट वाणी अर्थ सहित – Shri Hit Sfut Vaani With Meaning


द्वादश चन्द्र,कृतस्थल मंगल,
बुद्ध विरुद्ध,सुर-गुरु बंक।
यद्दि दसम्म भवन्न भृगू-सुत,

मंद सु केतु जनम्म के अंक।।
अष्टम राहु, चतुर्थ दिवामणि,

तौ हरिवंश करत न संक।
जो पै कृष्ण-चरण मन अर्पित,

तौ करि हैं का नवग्रह रंक।। 1 ।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने नवग्रह की कुण्डली में खराब स्थिती बताते हुए ,श्री जी की शरणागति व कृपा को सबके ऊपर सर्वोपरि बताया है।

व्याख्या :: बारहवें मे चन्द्रमा हो,कार्यक्षेत्र में मंगल हो,बुध्द विपरीत (या छटे भाव में) हो और देवताओ के गुरु ब्रहस्पति वक्री हो।यदि दशमे घर मे भृगु-सुत अर्थात शुक्र,शनि व केतु जन्म के अंक में हो।। राहु आठवा हो,चौथा सूर्य तो भी श्रीहितहरिवंश जी महाराज कहते है शंका का स्थान नही है। क्योंकि जिस का मन श्रीराधवल्लभ लाल जी के चरणानुरागी हो अर्पित हो चुका तौ फिर यह नवग्रह रंक क्या कर सकते है।।1।।

भानु दसम्म,जनम्म निशापति,
मंगल-बुद्ध शिवस्थल लीके।
जो गुरु होंय धरम्म-भवन्न के,

तौ भृगुनन्द सुमंद नवीके।।
तीसरौ केतु समेत बिधु-ग्रस,

तौ हरिवंश मन क्रम फीके।
गोविन्द छाँड़ि भ्रमंत दसौ दिस,

तौ करि हैं कहा नवग्रह नीके।।2।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने नवग्रह की कुण्डली में अच्छी स्थिती बताते हुए, उसे भी तुच्छ बताया है यदि श्री जी की कृपा नही है।

व्याख्या :: सूर्य दशम में,जन्म में निशापति(चन्द्रमा),मंगल-बुद्ध शिवस्थल में हो।यदि गुरु (ब्रहस्पति) स्वयं धर्म के घर में हो तो भृगुनंद (शुक्र) व शनि नोवे में हो।।
तीसरे में केतु व यथा स्थल विधु-ग्रस (राहू) भी हो तो श्रीहितहरिवंश जी के मन मे यह सभी अच्छे से अच्छे स्थल पर भी तुच्छ है क्योंकि यदि श्री राधावल्लभ लाल जी को छोड़कर जीव दशो – दिशाओ में भटकता फिर रहा है तो फिर नवग्रह अच्छे हो कर भी क्या अच्छा कर सकते है।।2।।

ना जानों छिन-अंत कवन,
बुधि घटहि प्रकाशित।
छुटि चेतन जु अचेत तेऊ,
मुनि भये बिस-वासित।।
पारासर सुर इन्द्र कलप,

कामिनी मन फंद्या।
परि व देह दुख-द्वन्द्व कौन,
क्रम-काल निकंन्द्या।।
इहि डरहि डरपि हरिवंश हित,

जिनव भ्रमहि गुण-सलिल पर।
जिहि नामन मंगल लोक तिहु सु
हरि-पद भजु न विलंब कर।।3।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने बताया है कि किस छण में जीवन काल के मुख में हो ,कब शरीर के रोग घेर ले, देवता के राजा इन्द्र भी कल्पो तक सुन्दरी के फन्द में रह कर ,कम समय बताते हुए नाशवान है।अतः इस डर के कारण में कहता हूं बहुत गुणों को रखने वाले भी भृमित हो चक्र में पड़े रहते है ,जो मंगललोको के स्वामी है उन श्री जी के चरणों को भजने में देरी मत करो।

व्याख्या :: ना मालूम किस क्षण में अन्त हो जाये ,कब वह बुद्धि प्रदीप्त होगी। आत्मा छूट जाये और इंद्री सभी चेतना से रहित हो फिर भी शास्त्र ज्ञाता विषय विष में सुगन्धित हो ।। पराशर सुरेन्द्र कल्पो तक सुन्दरी के मन पाश में पड़े व शरीर के दुःख-रोगों का क्रम समय मे कौनसा संहार या नाश का समय हो।।(यही बात भागवत में अल्प आयु में श्री प्रहलाद जी ने विद्यालय में अपने मित्रों से कही, अभी बच्चा हु,अभी जवान हूं, अभी बुढ़ापे में समय है ,व्यर्थ में समय मत जाने दो ,अल्प आयु से ही श्रीहरि का भजन करो।) समय के इस डर से डर कर ही सही ,श्रीहितहरिवंश जी कहते है ; बहुत से गुण होने पर भी जिन्हें भृम है वे इस चक्र में चक्कर लगाते है।अतः जो मंगलकारी लोको के स्वामी है उन्हें नवाओ और उन श्री राधावल्लभ लाल जी के चरणाश्रित हो,इसमे क्षण का भी विलम्ब ना करो।।3।।

तू बालक नहिं भरयौ सयानप,
काहे कृष्ण भजत नहिं नीके।
अतिव सुमिष्ट तजिव सुरभिन-पय,
मन बंधित तंदुल-जल फीके।।
(जै श्री) हित हरिवंश नर्क गति दुरभर,

यम द्वारें कटियत नक छिंके।
भव-अज कठिन, मुनिजन दुर्लभ,
पावत क्यों जु मनुज-तन भीके।।4।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने बताया है कि मनुष्य का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है यह कोई भिक्षा में नही मिला है ,यह बात समझते हुए भी श्री जी को क्यो नही भज रहे हो।

व्याख्या :: तू कोई छोटा बच्चा नही है,सयानापन (ज्ञानता व चतुरता) से भरा हुआ है फिर क्यों नही भलीभाँति श्री कृष्ण चन्द्र जी का भजन करता है।अत्यधिक गाय के सुन्दर मीठे दूध को छोड़कर ,फीके चावल के पानी मे अपना मन बन्धन बना रक्खा है।। जय जय श्रीहितहरिवंश जी कहते है– नर्क की गति (चाल) अत्यधिक दूभर है क्योंकि यम के दरवाजे पर अगर छीक भी आ जाये तो नाक काट ली जाती है (छोटे से अपराध पर गम्भीर सजा का प्रावधान है)जन्म-अजन्म से परे श्री शिव जी व श्री ब्रह्मा जी को भी कठिनाई से प्राप्त होने वाला,मुनियों व सिद्धों को जो दुर्लभ है वो मनुष्य शरीर क्या तुम्हें भीख में मिल जायेगा।।4।।

चकई प्रान जु घट रहैं,
पिय बिछुरन्त निकज्ज।
सर-अंतर अरु काल-निशि,
तरफ तेज घन गज्ज।।
तरफ तेज घन गज्ज लज्ज,

तुहि वदन न आवै।
जल-विहून करि नैन भोर,
किहि भाइ बतावै।।
(जै श्री) हित हरिवंश विचारि,

बाद अस कौन जु बकई।
सारस यह संदेह प्राण घट रहै जु चकई।।5।।

श्रंगार रस दो प्रकार से जाना जाता है-संयोग और विरह।कुछ लोग विरह को अधिक महत्व देते हुए गोपियों को परकीया नायिका मानकर श्री कृष्ण से वियोग का गान करके सुखित होते है। इसके विपरीत कुछ लोग संयोग में ही श्रंगार रस की पूर्णता मानते है ,वे गोपियों को स्वकीया नायिका मानकर उनके श्रीकृष्ण से मिलन गान करते है। श्रीहिताचार्य जी ने इन दो कुण्डलियो में चकई और सारस के उदाहरण से संयोग और वियोग की अपने आप मे अपूर्णता सिद्ध की है।
हित सिद्धान्त में श्रीराधवल्लभ लाल जी की नित्य सँयुक्त स्थिति मानी जाती है,किन्तु यह दोनों अपने नित्य संयोग का उपभोग विरह की सम्पूर्ण व्याकुलता एवं तृषा लेकर करते है अतः संयोग व विरह एक ही काल मे ही अनुभव होता रहता है।
आज यह उन दो पदों में से पहला पद है।

व्याख्या :: सारस ,चकई के प्रेम को तुच्छ मानते हुए कहता है– हे चकई,अपने प्रियतम से बिछुड़ कर भी बिना किसी अर्थ के प्राण शरीर मे क्यों है? तेरे मध्य में सरोवर का अन्तर, काल की सी रात्रि और बिजली के साथ बादलों की गर्जना।। यह सब अन्तर सहने के बाद सवेरे आंसुओ को पोंछकर तू अपने प्रियतम से मिलन पर किस प्रकार के प्रेम का प्रदर्शन करती है?क्या यह व्यवहार लज्जाप्रद नही है?।। जय जय श्री हित हरिवंश जी कहते है–इस सब विचार कर कौन व्यर्थ में बकवास करे।नित्य संयोगी सारस के मन मे यह प्रश्न निरन्तर है कि विरह पर भी चकई के प्राण उसके शरीर मे कैसे है?।।5।।

सारस सर बिछुरन्त,
कौ जो पल सहय शरीर।
अगिन अनंग जु तिय भखै,

तौ जानें पर-पीर।।
तौ जानें पर-पीर धीर,

धरि सकहि बज्र तन।
मरत सारसहि फूटि पुनि न,

परचौ जु लहत मन।।
( जै श्री) हित हरिवंश विचारि,

प्रेम विरहा बिनु वा रस।
निकट कंत नित रहत मरम,

कह जानें सारस।।6।।

चकई ,सारस के आपेक्ष पर विचार कर कहती है यह सरोवर को त्याग कही जाये तो इसकी स्त्री को जो पीड़ा होगी तब इसे पराये दर्द का पता चले परन्तु वह तो बिछुड़ते ही मर जाता है तो इसे पीड़ा का अनुभव कब हो।इस पर श्रीहिताचार्य जी कहते है प्रेम-विरह के बिना श्रंगार रस सन्देहास्पद है।

व्याख्या :: चकई ,सारस के सापेक्ष पर विचार कर मन मे सोचती है; यदि सारस का शरीर सरोवर के अन्तर को एक क्षण को भी सहन करे और उसकी पत्नी वियोग में काम की पीड़ा का अनुभव करे तो कही जाकर इसे दूसरे की पीड़ा समझ आयेगी।इस पीड़ा को सहने के लिए तो कोई धीर धारण करने वाला बज्र के शरीर का ही हो सकता है,सारस तो बिछुड़ते ही मर जाता है तो उसे विरह का अनुभव कभी होइ नही पाता है। जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है– प्रेम-विरह के बिना श्रंगार रस का पूर्ण होना सन्देहास्पद है,अपने प्रिय के नित्य निकट रहने वाला सारस इस मर्म को कभी नही समझ सकता है।।6।।

तें भाजन कृत जटित विमल,
चंदन कृत इन्धन।
अमृत पूरि तिहि मध्य करत,

सर्षप-खल रिंधन।।
अदभुत धर पर करत कष्ट,

कंचन हल वाहत।
बार करत पांवार मंद,

बोबन विष चाहत।।
(जै श्री ) हित हरिवंश विचारि कै,

मनुज देह गुरु-चरण गहि।
सकहि तौ सब परपंच तजि,

कृष्ण-कृष्ण-गोविन्द कहि।।7।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने दो उदाहरण के साथ मनुष्य की इस दुर्लभ देह का दुरूपयोग स्पष्ट किया है तथा बताया है कि श्री गुरु के चरणों का आश्रय लेकर श्री जी का भजन करो।

व्याख्या :: तू निर्मल रत्नों से जड़ें बर्तन को चन्दन की लकड़ी के ईंधन द्वारा कार्य करता है और उसमें पूरी तरह अमृत भरा है परन्तु बीच मे ही तू उसमे सरसो के तेल निकली खली को रौंद रहा है। इस अदभुत धरती पर कष्ट करके सोने का हल चलाता है और मूंगे की बाड़ लगाता है परन्तु उसमे मन्द बुद्धि विष बोना चाहता है। जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है–मन मे विचार कर दुर्लभ मनुष्य के शरीर में गुरु मिले है उनके चरण पकड़ और हो सके तो सभी संसार के प्रपंचो को त्यागकर श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण श्रीगोविन्द कह।।7।।

तातै भैया मेरी सौ कृष्ण-गुण सन्चु।
कुत्सित वाद विकारहि परधन,
सुनि सिख मंद परतिय बन्चु।
मनि गण पुंज ब्रजपति छाँड़त,
” हित हरिवंश ” कर गहि कंचु।।
पाये जान जगत में सब जन,

कपटी कुटिल कलिजुग-टन्चु।
इहि-पर लोक सकल सुख पावत,
मेरी सौ कृष्ण गुण सन्चु।।8।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने संसार झूठे नाते रिश्तों को त्याग कर श्री जी के गुणों का नाम संग्रह को कहा है।

व्याख्या :: इसलिए मेरे भाई तुम्हे मेरी सौगन्ध है ,श्रीकृष्ण के गुणों का संग्रह कर।घ्रणित वाद-विवाद,विकारों से भरे पराय-धन और पराय-स्त्री से बच ,यह शिक्षा मान मंदबुद्धि।जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है– तू मणियों के पुन्ज श्री ब्रजपति को छोड़ कर क्यो कांच के संग्रह कर रहा है।। जो भी संसार के लोग तुझे प्राप्त हुए है वह सभी कलियुग से प्रभावित कपटी व कुटिल है।इस लोक-परलोक में सुख प्रदान करने वाले ,मेरी सौगन्ध है उन श्रीकृष्ण के गुणों का संग्रह कर।।8।।

मानुष कौ तन पाइ भजौ ब्रजनाथ कौ।
दर्बी लेकै मूढ़ जरावत हाथ कौ।।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रपंच विषय-रस मोह के।
(हरि हां) बिनु कंचन क्यों चलें पचीसा लोह के।।9।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी कहते है कि मनुष्य के इस दुर्लभ शरीर से सद्पयोग कर माया के वशीभूत संसार के विषयों से बच और श्री जी कौ भजन कर।

व्याख्या :: दुर्लभ मनुष्य का शरीर पा लेने के बाद श्री ब्रजनाथ का भजन कर,इस संसार की विषय रूपी अग्नि में तेरे पास दुर्लभ मनुष्य तन रूपी कलछी है फिर भी इसका सदुपयोग न कर क्यो अग्नि में अपने हाथों को जला रहा है। जय जय श्री हित हरिवंश जी कहते है–संसार के जितने भी प्रपंच है वे सब विषय-रस है जोकि मोह से जनित है।यह सब लोहे के सिक्के के समान है और श्री राधावल्लभ लाल जी का भजन स्वर्ण समान है ,तो फिर वहां यह लोहे के सिक्के कैसे चलेंगे,यह विचार कर।।

तू रति-रंग भरी देखियत है री राधे,
रहसि रमी मोहन सौंव रैन।
गति अति सिथिल प्रगट पलटे पट,

गौर अंग पर राजत अऐन।।
जलज कपोल ललित लटकत लट,

भृकुटि कुटिल ज्योँ धनुष धृत मैन।
सुंदरि रहव, कँहव कंचुकि,

कत कनक कलस कुच बिच नख दैन।।
अधर-बिंब-दल मलित आरस जुत,

अरु आंनद सूचत सखि नैन।
(जै श्री ) हित हरिवंश दुरत नहिं नागरि,

नागर मधुप मथित सुख सैन।।10।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी , श्री राधा जी को रति विलास के चिन्ह बताते हुए उन्हें उस विलास का आनन्द सूचित करा रहे है। श्री राधा जी शिथिल चाल से गमन करते हुए छुपाने की चेष्टा करती है परन्तु श्री हित सजनी जी उन्हें अदभुत आनन्द चिन्हों को इंगित कर सुखित करती है व स्वयं भी उस सुख से लाभान्वित होती है।

व्याख्या :: हे स्वामिनी श्री राधा जी ,आप रति-रंग से भरी हुई दिखाई दे रही है अर्थात आपने श्री मोहन लाल जी के साथ एकान्त रात्रि रमण किया है।यह आपकी अत्यधिक सावधानी पूर्ण शिथिल गति व प्रगट में दिखाई दे रहे आपके बदले हुए वस्त्र अर्थात नीलाम्बर की जगह पीताम्बर आपके गौर अंग पर अत्यंत शोभा दे रहा है।।
आपके कमल रूपी कपोलों पर ललित लटे लटकती हुई अविस्मरणीय शोभा दे रही है और आपकी बंक होती हुई भृकुटि ऐसी लग रही है जैसे कामदेव के धनुष को धारण कर रक्खा हो।हे सुन्दरी! कृपया ठहरो और बताओ आपकी कंचुकी कहां है और सुवर्ण-कलश के सदृश्य आपके कुचों पर नखरेख दिख रही है।।
आपके आभा मण्डल वाले अधर दल ,मलित हो रहे है और आलस्य से भरे ,आपके नेत्र सखि ,आनन्द की सूचना दे रहे है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है –हे नागरी श्री प्रिया ,यह छुपाने पर भी छुप नही रहा की नागर श्री प्रियतम ने भवँर की तरह मधु का मंथन सुख शैय्या पर किया है।।10।।

आंनद आजु नंद के द्वार।
दास अनन्य भजन-रस कारन,
प्रगटे लाल मनोहर ग्वार।।
चंदन सकल धेनु तन मंडित कुसुम दाम रंजित आगार।

पूरन कुंभ बने तोरन पर बीच रुचिर पीपर की डार।।
युवति-यूथ मिलि गोप विराजत,बाजत पणव मृदङ्ग सुतार।

(जै श्री ) हित हरिवंश अजिर वन वीथिनु,
दधि मधि दूध हरद के खार।।11।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने नन्द नन्दन के जन्म का कारण व जन्मोत्सव रस का वर्णन किया है।

व्याख्या :: आज संसार का सम्पूर्ण आनन्द चल कर श्री नन्दराय जी के दरवाजे पर पहुंच गया है।अपने अनन्य दासों के भजन – रस से प्रसन्न हो श्री लाल जी मनोहर ग्वाल के रूप में प्रगट हुए है।। इस जन्मोत्सव पर ,नन्दगाँव की सभी गायों के शरीर पर चन्दन का लेप किया गया है और गांव के सभी मन्दिर -घरों को फूलों की बन्दनवार से सजाया गया है। जल से पूर्ण भरे कलश और उनके बीच मे पीपल की डाल को प्रत्येक घर के द्वार पर सजाया गया है।।
नन्दगाँव के लोग-लुगाई व गोपगण सभी मिलकर इक्कठे बैठे है और वे सभी ढोल,मृदङ्ग सुन्दर ताल के साथ बजा रहे है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है — गांव के आंगन व गलियों में हल्दी मिला दूध इस बह रहा है कि वहां सभी गड्ढे भर गये है।।11।।

मोहन लाल के रंग राँची।
मेरे ख्याल परौ जिनि कोऊ,बात दसौ दिसि मांची।।
कंत अनन्त करौ जो कोऊ,बात कहौ सुनि सांची।।
यह जिय जाहु भलै सिर ऊपर होंव प्रगट ह्वै नाँची।।
जागत शयन रहत उर ऊपर मणि कंचन ज्यों पांची।।
(जै श्री ) हित हरिवंश डरौ काके डर हौं नाहिन मति काँची।।12।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने श्रीमोहन लाल जी के चरणों मे वैसी ही सुदृढ निष्ठा प्रगट की है जैसी वह अपने सभी पदों में श्री राधा जी के लिये व्यक्त करते ,इससे उनके श्री युगल को क्षण मात्र को भी अलग न समझने की भक्ति प्रगट होती है साथ ही यह उनका ब्रज भाषा मे एक मात्र पद है जिसमे उन्होंने अपने लिए स्त्रीलिंग की क्रियाओं का प्रयोग किया है यह उनका श्रीराधा किंकरी रूप को दर्शाता है क्योंकि श्रीराधा जी के चरणों मे उनकी प्रधान रति है।

व्याख्या :: में तो श्री मोहनलाल जी के रंग में रची हुई हूँ।जो कोई भी मेरा चिन्तन करता हो उसे यह बात अब समझ लेनी चाहिए की दसो दिशाओ अर्थात संसार के प्रत्येक भाग में बात फैल चुकी है।। अपने पति या स्वामी (ईश्वर) जो कोई भी अनन्त करता हो करें परन्तु में सच्ची बात कह रही हूं इसे सुनो।।
यह प्राण भी निकल जाये (में दूसरा पति करने को तैयार नही हूँ) फिर भी संसार मे प्रगट रूप से नाच-नाच के में यह बात कहती हूँ।।
जागते हुए या सोते हुए भी ,सारे समय श्री मोहनलाल मेरे ह्रदय में इस प्रकार रहते है जैसे कंचन में नीलमणि जड़ी हुई है।।
जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है– में कैसे डरूँ किसी के डराये क्योंकि यह बात में कच्ची बुद्धि से नही कह रही हूँ।।12।।

मैं जु मोहन सुन्यौ वेणु गोपाल कौ।
व्योम मुनि यानि सुर नारि विथकित भई,
कहत नहि बनत कछु भेद यति ताल कौ।।
स्रवन कुंडल छुरित रूरत कुंतल ललित,

रुचिर कस्तूरि-चंदन-तिलक भाल कौ।
चंद गति मंद भई निरखि छबि काम गई,

देखि “हरिवंश हित ” वेष नन्दलाल कौ।।13।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने स्वयं का अनुभव व्यक्त करते हुए श्रीनन्दनन्दन जी का वेणु (वंशी) नाद प्रभाव व स्वरूप वर्णित किया है।

व्याख्या :: श्रीहित हरिवंश जी कहते है — मैंने स्वयं जो मन का हरण कर लेने वाले श्री गोपाल जी के वेणु (वंशी) का नाद सुना है।इस परम् अदभुत नाद को सुनकर आकाश में विमानों पर चल रहे मुनि व देवताओं की स्त्रियाँ भी चकित हो थकी सी शिथिल हो गई।यह असम्भव है कि कोई उस नाद की यति (लय का विश्राम) व ताल( (संगीत के सँस्कृत गर्न्थो में ताल के प्रकार माने है– मार्ग और देशी, भरतमुनि के मत से मार्ग(60) और देशी(120) ताल है।))में भेद कर विवेचित कर सके।
श्री वेणु वादक गोपाल जी के कानों में कुण्डल जड़ित हुए शोभयनमान है,लुढ़कते हुए केश मनोरम अंग-चेष्टा प्रगट कर रहे है।रुचिकर सुन्दर कस्तूरि का तिलक उनकी ललाट पर सुशोभित है। जय जय श्री हित हरिवंश जी कहते है– श्री वेणुवादक नन्दलाल का यह रूप वेश देखने के बाद तो चन्द्रमा की गति धीमी पड़ हई अर्थात मन स्थिर हो गया व काम की छवि चली गयी अर्थात काम का आकर्षण समाप्त हो गया।।13।।

आज तू ग्वाल,गोपाल सौ खेलि री।
छाँड़ि अति मान वन चपल चलि भामिनी,
तरु तमाल सौ अरुझ कनक की बेलि री।।
सुभट सुन्दर ललन ताप परबल दमन,

तूब ललना रसिक काम की केलि री।
वेणु कानन कुनित श्रवन सुंदरि सुनत,

मुक्ति सम सकल सुख पाइ पग पेलि री।।
विरह व्याकुल नाथ गान गुन युवति तव,

निरखि मुख काम कौ कदन अवहेलि री।
सुनत ” हरिवंश हित ” मिलत राधारवन,

कंठ भुज मेलि सुख-सिंधु में झेलि री।।14।।

इस पद में श्री हिताचार्य जी ,मानवती श्री राधा जी को मान छोड़ श्री ललन श्यामसुन्दर से मिलन को कह रही है।

व्याख्या :: हे स्वामिनी! आप आज गोपकुमार श्री गोपाल जी के साथ क्रीड़ा करें।हे सुकमारी! इस अत्यधिक मान को त्यागकर चपलता के साथ वन की ओर प्रस्थान करें और वहां श्री श्यामसुन्दर तरु तमाल के साथ स्वयं स्वर्ण बेलि की तरह उलझ जाये।।
महायोद्धा सुन्दर ललन काम की सेना का प्रबल रूप से दमन करने वाले है और हे ललना! आप रसिकता लिये हुए काम- केलि हो।
श्री श्यामसुन्दर जी की वेणु व्रन्दाकानन में गुंजार कर रही है,हे सुन्दरी उसको सुनने के बाद तो मुक्ति के समान सुख को भी पैरों से ठोकर मार कर ,प्रियतम से मिलना चाहिए।।
हे युवति! विरह में व्याकुल स्वामी आपका ही गुण गान कर रहे है ,हे स्वामिनी उनके मुख को निहार कर विरह वेदना को दूर करो।
जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है– यह सुनते ही श्री राधा जी अपने श्री प्रियतम श्यामसुन्दर से मिल गई और श्रीयुगल कंठ व भुजा इस प्रकार मिले की सुख का समुद्र उमड़ पड़ा हो।।14।।

व्रषभान नन्दिनी राजत है।
सुरत-रंग-रस भरी भामिनी,
सकल नारि सिर गाजत है।।
इत-उत चलत,परत दोऊ पग,

मद गयंद गति लाजत हैं।
अधर निरंग रंग गंडन पर,
कटक काम कौ साजत है।।
उर पर लटकि रही लट कारी,

कटिव किंकिनी बाजत हैं।
(जै श्री ) “हित हरिवंश ” पलटि प्रीतम पट,
जुवति जुगति सब छाजत हैं।।15।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने श्री स्वामिनी प्रिया जी की सुरत में डूबी हुई छवि का वर्णन करते हुए रस समुद्र का वर्णन किया है।

व्याख्या :: श्री व्रषभान जी की लाड़िली पुत्री प्रेम रस में सराबोर है।सुरत के रंग में रस से भरी हुई यह भामिनी (उत्तम प्रेममयी सुन्दर नार) सभी स्त्रियों के ऊपर शोभायमान हो रही है।। इधर-उधर चलने में इनके दो कदम पटल पर ऐसे प्रतीत हो रहे है जैसे मन्द गति की चाल में मदमस्त गजेन्द्र को भी लज्जित कर रही हो।इनके अधर का रंग उड़ा हुआ है और कपोलो पर रंग चढ़ा हुआ है जिससे वह अपने श्रीप्रियतम के ह्रदय में कामदेव की सेना को सजा कर तैयार कर रही हो।।
उनके उर पर काले केशो की लट लटक रही है और कमर पर किंकिनी की झंकार बज रही है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है–इस अवस्था मे ओढ़ना श्री प्रीतम जी के ओढ़ने से बदल गया है(अतः पीताम्बर ओढ़ रक्खा है)परन्तु इन श्री सुकमारी युवती पर तो कोई भी युक्ति को सभी शोभा देती है।।15।।

चलौ व्रषभान गोप के द्वार।
जनम लियौ मोहन हित स्यामा,
आंनद- निधि सुकुमार।।
गावत जुवति मुदित मिलि मंगल उच्च मधुर धुनि धार।

विविध कुसुम कोमल किसलय दल सोभित-बंदनबार।।
विदित वेद विधि विहित विप्रवर करि स्वस्तिनु उच्चार।

मृदुल मृदङ्ग मुरज भेरी डफ दिवि दुंदुभि रवकार।।
मागध सूत वंदी चारन जस कहत पुकारि-पुकारि।

हाटक हीर चीर पटाम्बर देत सम्हारि-सम्हारि।।
चंदन सकल धेनु तन मंडित चले जु ग्वार सिंगारि।

(जै श्री )”हित हरिवंश ” दुग्ध दधि छिरकत मध्य हरिद्रा गारि।।16।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने श्री राधा जी के जन्म का आनन्द उल्लास का वर्णन करते हुए श्री व्रषभान जी के घर पर चलकर वहां हो रहे पुनीत कार्यो का भी वर्णन किया है।

व्याख्या :: श्री व्रषभान जी गोप के द्वार पर चलो ,जहां आनन्द की निधि सुकमारी श्री राधा जी ने श्री मोहन लाल जी के हित हेतु जन्म लिया है।
वहाँ उनके यहां आनन्द में डूबी हुई युवतियां मंगल गान उच्च व मधुर सुर में धारा प्रवाह कर रही है।विभिन्न प्रकार के फूलों व कोमल नव पत्तो से बनी हुई बनन्दबार सजी हुई है।।
श्रेष्ठ ब्राह्मणों का दल वेद विधि से ज्ञात हुए क्रम अनुसार आशीर्वाद वाले मन्त्रो का उच्चारण कर रहे है।मृदङ्ग,मुरज(पखावज) ,भेरी (नफेरी) और डफ बहुत की मृदुलता के साथ बज रहे है और जहां आकाश में दुंदभी का शब्द हो रहा है।
मागध, सूत, बन्दी और चारण सभी उच्च स्वर में पुकार-पुकार कर यश का गुणगान कर रहे है।जहां श्री व्रषभान जी सभी को मुहरे, हीरे व रेशमी वस्त्र सम्भाल-सम्भाल के प्रदान कर रहे है।
जहां पर सभी ग्वाल-बाल अपनी – अपनी गायों को चन्दन का लेप किये है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी वहां दूध-दही में हल्दी मिलाकर सभी लोगो पर छिड़क रहे है।।16।।

तरौई ध्यान राधिका प्यारी गोवर्द्धन धर लालहि।
कनक लता-सी क्योँ न विराजत अरुझी श्याम तमालहि।।
गौरी गान सु तान ताल गहि रिझवत क्यों न गुपालहि।

यह जोवन कंचन तन ग्वालिन सफल होत इहि कालहि।।
मेरे कहे बिलंब न करि सखि भूरि भाग अति भालहि।

(जै श्री )”हित हरिवंश” उचित हौ चाहत श्याम कंठ की मालहि।।17।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी श्री राधा जी को श्री श्यामसुन्दर जी से मिल मान छोड़ने को कह रहे है।

व्याख्या :: यद्यपि श्री लाल जी ने गोवर्द्धन पर्वत उठाया हो अर्थात संसार के कष्ट का निवारण करते हो परन्तु उनके ध्यान में सदा आप ही हो।आप स्वर्ण-लता के समान और श्री श्याम सुन्दर जी तमाल रूप में तो दोनों साथ उलझ कर एक साथ विराजमान हो जाओ।।
आप गौरी राग का सुमधुर तान व ताल का प्रयोग कर श्री गोपाल जी को क्यों नही रिझाती हो।हे गोपकुमारी ! आपका यह स्वर्णिम तन को धारण करना व यह जोवन रूप श्री श्यामसुन्दर जी से मिलते ही इसी समय मे सफल हो जायेगा।।
मेरे कथन अनुसार आप देरी न करे ,हे प्राणप्रिय सखी ! आपका उच्च ललाट विपुल भाग से युक्त है।जय जय श्री हित हरिवंश जी कहते है–मेरी चाहना तो केवल इतनी है कि आप श्री श्यामसुन्दर जी के गले की माला बन जाओ।।17।।

आरती मदन- गोपाल की कीजियै।
देव रिषि व्यास शुक दास कहत निज,
क्यों न बिनु कष्ट रस सिंधु कौ पीजियै।।
अगर करि धूप कुंकुम मलय रंजित,

नव वर्तिका घृत सौ पूरि राखों।।
कुसुम कृत माल नँदलाल के भाल पर,

तिलक करि प्रगट यस क्यों न भाखो।।
भोग प्रभु योग भरि थार धरि कृष्ण पै,

मुदित भुज दंड वर चँवर ढारौ।।
आचमन पान हित मिलित कर्पूर जल,

सुभग मुख वास, कुल ताप जारौ।।
शंख दुंदुभि पणव घन्ट कल वेणु रव,

झल्लरी सहित सुर सप्त नाचौ।।
मनुज तन पाइ यह दाय ब्रजराज भज,

सुखद हरिवंश प्रभु क्यों न यांचौ।।18।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ने श्री मदन गोपाल जी की आरती का वर्णन किया है व सेवा पद्दति पर भी प्रकाश डाला है और साथ ही श्रीकृष्ण जी से प्राप्त सुख को अविचल बनाने की क्रिया कही है।

व्याख्या :: श्री मदन-गोपाल जी की आरती कीजिए क्योंकि श्री देवऋषि नारद जी,श्री वेदव्यासजी, श्रीशुकदेव जी आदि सभी भक्त अपनी निजता व विस्वास से इस बात को कहते है फिर बिना कष्ट को प्राप्त हुए रस समुद्र को क्यों नही पान करते हो।।
आरती की बत्तियां अगर की धूप और केशर एवं चन्दन से रंजित घृत में सनी हुई होनी चाहिए।। श्री नन्दलाल जी को फूलों की माला पहना कर उनके ललाट पर तिलक सजना चाहिए फिर उनका यशोगान क्यों नही चखते हो।।
इसके उपरान्त विविध पकवानों से भर कर थाल में श्री कृष्ण जी को भोग रखना चाहिए और फिर प्रसन्नता के साथ अपने हाथों से चवँर से हवा करनी चाहिए।।
इसके पश्चात कपूर मिला हुआ जल ले कर श्रीकृष्ण जी को आचमन पान कराना चाहिए और सुन्दर मुख शुद्धि के द्रव्य अर्पण कर अपने संस्कार जनित पापों को नष्ट करना चाहिये।।
शंख,दुंदभी,पणव, घन्ट,वेणु,झल्लरी आदि के द्वारा सप्त सुर को ताल पूर्वक बजाते हुए नाचते क्यो नही।।
मानव देह प्राप्त कर के यह दाव लगा कि कैसे श्री ब्रजराज जी का भजन होए ,जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है–सुख प्रदान करने वाले श्रीकृष्ण जी से अविचल सुख की याचना क्यो नही करता है।।18।।

आरति कीजै श्याम-सुन्दर की।
नंद के नन्दन राधिका-वर की।।
भक्ति करि दीप प्रेम कर बाती।

साधु संगति करि अनुदिन राती।।
आरती ब्रज जुवति जूथ मन भावै।

श्याम लीला(श्री) “हरिवंश हित ” गावै।।19।।

इस पद में भी श्रीहिताचार्य जी ने आरती के माध्यम से श्री जी प्रेम पूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर भजन व सत्संग से आरती प्रज्वलित करने को कहा है।

व्याख्या :: आरती करिये श्री श्यामसुन्दर जी की जो कि श्री नन्दराय जी के पुत्र है और श्री राधिका जी के वर है।
भक्ति के दिपक को प्रेम की बत्तियां लगाकर उससे साधुओं की संगति कर नित्य दिन- रात्र को प्रज्वलित करो।
यह आरती ब्रज के सखी समूह के मन को अत्यधिक रुचिकर है ,जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है –सदा श्री श्यामसुन्दर जी की लीला का गायन करो।।19।।

रहौ कोऊ काहू मनहि दिये।
मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा, सपथ करौ तृण छिये।।
जे अवतार कदंब भजत है धरि दृढ़ व्रत जु हिये।
तेऊ उमगि तजत मर्जादा बन बिहार रस पिये।।
खोये रतन फिरत जे घर-घर कौन काज ऐसे जिये।
(जै श्री) हित हरिवंश अनत सचु नाही बिनु या रजहि लिये।।20।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी ,श्रीराधा जी के सुकोमल चरणों मे अपनी अनन्य निष्ठा का घोष करते है।अनेक अवतारों के भजन करने वालो से श्रेष्ठ श्री जी की वन विहार अर्थात वृन्दावन लीला को बताते है और उसमें भी इस वृन्दावन की रज को परम सुख प्राप्ति का द्वार बताते है।

व्याख्या :: कोई भी अपना मन किसी मे भी लगाए परन्तु मैं तो तृण को स्पर्श कर शपथ के साथ कहता हूं कि मेरे प्राणनाथ केवल एक श्रीश्यामा जी ही है।। जो लोग दृढ़ या कठिन व्रत को लेकर अनेक अवतारों के समूह का भजन करते है ,वे भी श्रीहित वृन्दावन धांम की प्रेम व रस भरी बिहार लीला का पान करते ही उमंग व उत्साह के साथ अपनी मर्यादाओं का त्याग कर देते है।। रत्न को खो कर फिर जो लोग द्वार-द्वार चक्कर लगाते रहते है उनके जीवन का व्यर्थ होना तय है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है कि– श्रीहित वृन्दावन धाम की रज प्राप्ति हुए बिना अन्य किसी स्थान पर शान्ति नही है।।

हरि रसना राधा-राधा रट।
अति अधीन आतुर यद्दपि पिय, कहियत है नागर नट।।
संभ्रम द्रुम, परिरंभन कुंजन, ढूढंत कालिंदी तट।
बिलपत,हंसत,विषीदत,स्वेदत सतु सींचत अंसुअन वंसीवट।।
अंगराग परिधान बसन लागत ताते जु पीत-पट।(जै श्री) “हित हरिवंश ” प्रसंसत श्यामा दै प्यारी कंचन घट।।21।।

इस पद में श्रीहिताचार्य जी कहते है कि श्री श्यामसुन्दर जी विरह में श्री राधा जी का रटन करते हुए हंसते रोते श्री यमुना जी के किनारे भटक रहे है।श्रीहिताचार्य जी ने निकुन्ज स्वरूप में ब्रज लीला के उलट श्री श्यामसुन्दर जी के क्षण के विरह का ही वर्णन किया है।

व्याख्या :: श्री श्यामसुन्दर जी की रसना श्री राधा -श्री राधा का ही रटन कर रही है।वे श्री प्रिया जी से मिलन को सदैव अधीर व आतुर बने रहते है यद्द्पि वे नागर और नट कहलाते है।।
वे श्री वृन्दावन के व्रक्ष को देखकर भृम में हुए जा रहे है और वह कुंजो को श्री प्रिया जी समझ आलिंगन कर रहे है फिर वह श्रीयमुना जी के तट पर श्री प्रिया जी को ढूढते फिर रहे है।वे श्री प्रिया जी के विरह में विलाप करते है,निराशा से दुखी होते है,श्रमजल युक्त (पसीने में) आते है और अपने आंसुओ से वंशीवट को सींचते है।।
श्रीश्यामसुन्दर जी को अंग भूषण, परिधान व वस्त्र ,विरह की अग्नि में गरम जान पड़ते है।जय जय श्रीहित हरिवंश जी श्री प्रिया जी की उदारता पूर्ण प्रसंसा करते है और श्रीश्यामसुन्दर को स्वर्ण घट से इस विरह ताप पर जल छिड़कने को कहते है।।21।।

लाल की रूप माधुरी नैननि निरखि नेकु सखी।मनसिज मन हरन-हास, साँवरो सुकुमार रासि,नखसिख अंग-अंगनि उमंगि सौभग सींव नखी।।
रँगमगी सिर सुरँग पाग लटकि रही वाम भाग,चंपकली कुटिल अलक बीच-बिच रखी।आयत दृग अरुण लोल कुंडल मंडित कपोल,अधर दसन दीपति की छवि क्यों हूँ न जात लखी।।
अभयद भुज दंड मूल पीन अंस सानुकूल,कनक निकष लसि दुकूल दामिनी धरखी।उर पर मंदार हार मुक्ता लर वर सुढार,मत्त दुरद गति तियनि की देह दसा करखी।।
मुकुलित वय नव किसोर,वचन रचन चित के चोर, मधु रितु पिक साव नूत मंजरी चखी।।
(जै श्री) नटवत “हरिवंश “गान, रागिनी कल्यान तान, सप्त स्वरन कल,इते पर मुरलिका बरखी।।22।।

इस पद में श्री हिताचार्य जी ने श्री श्यामसुन्दर जी के अंग व स्वरूप का अदभुत वर्णन किया है।

व्याख्या :: हे सखी! श्री लाल जी की रूप माधुरी को अपने नेत्रो से थोड़ा देख तो सही,श्री साँवरे जी तो सुकुमार की राशी है,उनकी हंसी तो कामदेव का भी मन हरले,उनके नख से शिखा तक की सुंदरता तो सुंदरता की सीमा का भी उल्लंघन कर रही है।।
रंग से परिपूर्ण सर पर लाल पगड़ी उनके वाम भाग (श्री प्रिया जी) की ओर झुक रही है,चंपा के फूल की कली उनके घुघराले बालो के बीच -बीच मे सजी हुई है,उनके बड़े – बड़े नेत्र अतिही अरुण व चंचल है,उनके कपोलो पर कुण्डल मण्डलीय शोभा दे रहे है और उनके होठ व दन्त कान्ति की शोभा पर नेत्र किसी भी प्रकार से एकाग्र नही हो पा रहे है।।
उनकी भुजाएं अभय प्रदान करती है ,वैसे ही पुष्ट कंधे है,उनके तन पर पीताम्बर वैसे ही शोभायमान है जैसे कसौटी पर स्वर्ण रेखाए और उस पीताम्बर की चमक में बिजली की चमक भी दब गई है।उनके वक्षस्थल पर मंदार पुष्पो का हार है साथही सुडौल मोतियों की माला है।उनकी मद मत्त गजराज जैसी चाल देखकर युवतियों को देह दशा का ध्यान नही रह गया है।।
उनकी खिल -खिलाती हुई नवकिशोर अवस्था है,उनकी वाणी चित्त को चुराने वाली है जैसे मानो बसन्त ऋतु में आम की नई मंजरी को चख कर कोयल का बच्चा बोल रहा हो।
जय जय श्रीहित हरिवंश जी कहते है– सुन्दरतम सप्त स्वरों का आश्रय लेकर वे ताने लेते हुए भाव प्रदर्शन पूर्वक कल्याण रागिनी का गान कर रहे है।इतने पर भी वे वंशी के द्वारा अमृत स्वरों की वर्षा कर रहे है।।22।।

दोऊ जन भींजत अटके बातन। सघन कुंज के द्वारे ठाड़े अम्बर लपटे गातन।।
ललिता ललित रूप रस भींजी बूंद बचावत पातन।।
(जै श्री )”हित हरिवंश ” परस्पर प्रीतम मिलवत रति रस-घातन।।23।।

इस पद में श्री हिताचार्य जी ने वर्षा ऋतु में विहार करते श्री श्यामाश्याम जी के रस रूप का वर्णन किया है ,साथ ही श्री ललिता जी आदि सखियों द्वारा श्री युगल की रस वर्षा का सुन्दर पान व सेवा भाव भी दर्शाया है।

व्याख्या :: श्री युगल वर्षा में भीगते हुए अपनी बातों में व्यस्त है।वह दोनों सघन कुंज के द्वार पर खड़े हुए है और उनके श्रीअंगो से वर्षा में भीगे वस्त्र लिपट रहे है।
श्री ललिता जी व आदि सभी सखियां तो उनके इस रूप दर्शन के सुख रस में भीग रही है तथा सेवा को शिरोधार्य करी यह सखियां उनके ऊपर पत्तो की छाया कर बूंदों को बचाने का प्रयास कर रही है।
जय जय श्री हित हरिवंश जी कहते है– श्री युगल तो परस्पर एक-दूसरे पर श्रंगार केलि के दांव पेच लगाने में व्यस्त है।।

श्रीहिताचार्य जी फुटकल तेईस छंदों के अतिरिक्त चार दोहे भी रचे है। जो श्रीहितस्फुटवाणी जी मे ही सँकलित है।
चार पद श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय की मूल उपासना पद्दति के सम्बन्ध में है उनका संक्षिप्त परिचय में लेख प्रदान है।

प्रथम पद
सबसों हित निष्काम मत,श्री वृन्दावन विश्राम।
श्री राधावल्लभ लाल कौ,ह्रदय ध्यान मुख नाम।।1।।

व्याख्या :: निकुञ्ज में श्री ललिताजी,विशाखाजी,चित्रलेखाजी,इंदुलेखाजी आदि सखियों का सर्वोपरि हित श्री श्यामाश्याम में ही है।उनका यह प्रेम निष्काम है, यह हमें निष्काम भाव को लक्ष्य बताता है,अतः हमे भी धरती पर निवास करते हुए अपनी मति में सबका हित निष्काम भाव से अभ्यास करना चाहिए । तथा श्री वृन्दावन धाम में निवास की यदि चाहत रखते है तो ,हमेशा ह्रदय में श्री राधावल्लभ का निरन्तर ध्यान रहे साथ ही मुख (वाणी) से भी पहला शब्द श्री राधावल्लभ लाल हो।
यह करने से हम श्री वृन्दावन धाम में रहते हुए निकुंज सेवा का अभ्यास कर लेंगे ,जो की आगामी भविष्य में काम आने वाली है।

द्वितीय पद
तनहि राख सत्संग मै,मनहि प्रेम रस भेव।
सुख चाहत हरिवंश हित ,श्री कृष्ण कल्पतरु सेव।।2।।

व्याख्या :: इस धरा पर या श्री धाम वृन्दावन में निवास करते हुए शरीर को सत्संग में लगाना चाहिये नाकी प्रपंच में, यह सभी आचार्य महानुभावो का प्रयास व् अनुभव रहा है कि भटके हुए जीव को रस सिन्धु के समीप लाने का सत्संग सरल उपाय है तथा मन शुद्ध करने के लिए ,प्रण के साथ मन में “सभी से प्रेम”का भाव होना चाहिए अर्थात सभी के अन्दर उस परमात्मा का अंश आत्मा विराजमान है,ऐसा विचार रखना चाहिए।व्यक्ति बुरा हो या अच्छा ,छोटा हो या बड़ा अंश तो परमात्मा का है,उसे मन से प्रणाम करना चाहिये।अपने से छोटे को भी आदर देने से कोई छोटा नही होता वरन मन में आनन्द प्रकाशित होता है। मन वस्तुतः शुद्ध होता है।
जब शरीर को सत्संग और मन को प्रेम मिलेगा तो निश्चय ही श्री हित हरिवंश जी द्वारा बताये निकुञ्ज मार्ग का सुख प्रशस्त होगा और अगर यह सुख की चाहत जीव को है तो श्री कृष्ण कल्पतरु के समान कृपा करने वाले है। (कल्पतरु वह व्रक्ष है जिसके नीचे खड़े हो कर जो मांगो वह तुरन्त प्राप्त होता है)
अतः हमे तन को सत्संग में और मन को प्रेम में डुबा कर ये अभ्यास करना चाहिए ।यह अभ्यास तो निकुञ्ज प्रवेश के लिए भी कृपा पात्र बना सकते है,ऐसा श्री जी की कृपा से अटल विस्वास है।

तृतिय पद
निकस कुञ्ज ठाड़े भये,भुजा परस्पर अंश।
श्री राधावल्लभ मुख कमल,निरख नैन हरिवंश।।3।।

व्याख्या :: श्री धरा पर या श्रीधाम वृन्दावन में रहते हुए ,अनन्य रसिको के बताये मार्ग (प्रथम व् द्वितीय पद) पर चलते हुए श्री राधावल्लभ लाल के मुख कमल के दर्शन नित्य इस प्रकार करे की घनी कुञ्जो के मध्य गलबहियाँ दीये अत्यंत मनोरम रूप में वह वन विहार कर रहे हो इस कार्य को सार्थक करने के लिए श्री हित हरिवंश जी की वाणी को नैन या कहे वाणी जी को चश्मे की तरह बना कर करने से सम्भव है।

जो वाणी जी को नही समझते कृपया ध्यान दे।

श्री राधवल्लभी सम्प्रदाय में रसिको की ग्रन्थ रचना को वाणी जी कहा गया है।

श्री सेवक जी ने प्रकट-अप्रकट सम्बन्धी राधावल्लभीय सिद्धान्त का परिचय यह कहकर दिया है——–

*नाम वाणी निकट,श्याम श्यामा प्रकट ,रहत निशिदिन परम् प्रीति जानी।*

भक्त की परम् प्रीति देखकर श्री श्याम-श्यामा नाम और वाणी के निकट नित्य प्रकट रहते है।जिस प्रकार श्रीमदभागवत को निगम कल्पतरु का फल माना जाता है—-

*”निगम कल्पतरोगर्लित फलं “*

उसी प्रकार श्री हित हरिवंश की वाणी को निगमो का सार सिद्धांत माना गया है——

*” निगम सार सिद्धांत संत विश्राम मधुरवर।”*

धर्म रहित जानी सब दुनी-मलेच्छनि भार दुखित मेदनी। धनी और दूजौ नही।।

करी कृपा मन कियौ विचार-श्रुति पथ विमुख दुखित संसार। सार वेद विधि उद्धरी।।

पृथ्वी को म्लेच्छो के भार से पीड़ित एवं संसार को श्रुति-पथ से विमुख देखकर श्री हित हरिवंश जी ने वेदों की सार-विधि का उद्धार किया।

इस प्रकार,वाणी के प्रामाण्य के स्वीकार में, वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। वेद परम्-तत्व को *”रस”* कहकर विरत हो जाता है।

” वाणी ” उस रस को रसिको के आस्वादन के लिये प्रत्यक्ष करती है।

वेद में जिस तथ्य का संकेत मात्र है, वही ” वाणी” में *पल्लवित और पुष्पित* हुआ है।

” वाणी ” वेद के अनुकूल है,अनुरूप नही और इसलिये ” वाणी” में प्रत्यक्ष किये गये, रस-स्वरूप के लिए ” वाणी ” ही अन्तिम प्रमाण मानी जाती है।

*चतुर्थं पद*~~~~~~~

*रसना कटौ जो अनरटो, निरिख अनफुटो नैन।*

*श्रवण फुटौ जो अनसुनो, बिन राधा यश बैन।।*

*व्याख्या ::*इस श्री धरा पर या श्री धाम वृन्दावन में वास करते हुए अगर श्री राधा के यश का गान किये बिना समय निकले तो वह व्यर्थ है,अगर श्रवण (कानों) में श्रीराधा नाम सुनने में ना आये और नेत्रो से श्री राधा जी के दर्शन ना हो तो उनका फूट (टूट) जाना ही उचित है।उस बोली का भी ना होना उचित है जिसने श्री राधा नाम का रटन(भजन) नही किया।

*श्री ब्रजलाल गोस्वामी*कहते है।——-

*वेदस्तन्त्रे: पुराणेर्जगति बहु विधा कृष्ण सेवा पर्दिष्टा:*,

*नाना मंत्रात्मिका सा तदधिकर्त जनेसर्वदास्तांप्रकामं।*

*अस्माकं तु स्वभाव स्वकुल *समुचिता प्रेमपूर्णा पुरोक्ता*,

*श्रीराधाकृष्ण सेवा समुदयतु ह्रदि श्री गुरो: सत्कृपात: ।।*

वेदों में,तन्त्रों में और पुराणों में अनेक प्रकार की श्री कृष्ण-सेवा बतलाई गई है। वह सब मन्त्रात्मिका है, विभिन्न मन्त्रो से निष्पन्न होने वाली है। हमारे यहाँ तो श्री गुरु की कृपा से अपने भाव एवं अपनी कुल-परिपाटी के अनुकूल *प्रेमपूर्ण सेवा*ही प्रकाशित हो रही है।

इसके साथ यह व्यवस्था भी दी हुई है ——–

*न ध्यायेन्नेत्र युग्मं प्रभुवर पुरत: सन्निमील्य स्वकीयं,*

*प्राणाद्यामांग हस्तन्यसन जपमुखं कर्म नेवाचरेत।*

*ध्यानादे: सेव्य भाव: सपदि* *विरमति ब्रह्मबुद्धिश्च नश्ये- च्छुद्ध प्रेमणाप्रकाशं रचयति सततं कृष्ण सेवैव नान्या।।*

अपने सेव्य स्वरूप के सामने न तो आँख बन्द करके ध्यान करना चाहिये और न प्राणायाम, अंगन्यास आदि कर्म ही करने चाहिए,क्योंकि प्रभु के समक्ष ध्यानादिक करने से उनमें सेव्य भाव तत्काळ ही शिथिल हो जाता है और उनके प्रति ब्रह्म बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। *शुद्ध प्रेम* का प्रकाश केवल श्री कृष्ण की परिचर्या से ही होता है,अन्य किसी साधन से नही।

इति श्री हित स्फुटवाणी जी समाप्त , सभी को जय जय श्रीहित हरिवंश।।

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