भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से सांझी उत्सव प्रारंभ होता है जो कि भाद्रपद कृष्ण अमावस्या तक 15 दिन चलता है। जो की इस साल 7 सितंबर से 21 सितंबर 2025 तक है ! मन्दिरों में इन दिनों ब्रज की लोक कला सांझी सजाई जाती है। गांवों की बालिकायें सांझी का खेल खेलती हैं। इसमें अनेक रंग बिरंगे पुष्पों के द्वारा सांझी की रचना की जाती है एवं एकादशी से रंगों की सांझी बनाई जाती है। सांझी कई प्रकार की होती है जैसे – फूलों की सांझी, रंगों की सांझी, गाय के गोबर की सांझी, पानी पर तैरती सांझी। यह उत्सव श्री प्रिया जू से सम्बंधित है इसलिए रसिकों का इस उत्सव पर अधिक ममत्व है। राधारानी अपने पिता वृषभानु जी के आंगन में सांझी सजाती थी । सांझी के रूप में श्री राधेरानी संध्या देवी का पूजन करती हैं।

ब्रज की मन्दिर परम्परा मेंः साँझी की लोक कला परम्परा को मध्यकाल में ब्रज में द्वैत वादी सन्तों ने अपना कर भक्ति आन्दोलन में एक नया रूप प्रदान किया द्वैत की परम्परा में रामानुज, निम्बार्क, विष्णुस्वामी, माध्वगौड़ीय सम्प्रदाय ने ब्राह्मा की मानस पुत्री संध्या को सूर्य की पत्नि स्वीकार कर इसकी पूजा को सोलह दिन श्राद्धपक्ष में राधाजी की पूजा से जोड़ दिया क्योंकि राधाजी सूर्य वंशी वृषभानु की पुत्री थीं, सूर्य उनके पूर्वज थे। इस ब्रज में रामानुज सम्प्रदाय व दक्षिण भारत में रंगोली के रूप में स्वीकार किया परन्तु अन्य सम्प्रदाय के आचार्यों ने मिट्टी से ज्यामितीय बेस बना कर (जैसे अष्टभुजा, चतुर्भुज, त्रिकोण, पंचभुज, षठभुज) मध्य में राधा कृष्ण की लीलाओं का अंकन किया। कलात्मक रूप से चारों ओर बेल बूटा बनाए गये, विभिन्न प्रकार के रंगों का उपयोग किया।
पहले केवल विशुद्ध प्राकृतिक रंग उपयोग में लाये जाते थे परन्तु बाद में कृत्रिम रंग भी उपयोग में आने लगे साथ ही वल्लभ कुल में केले के तने से साँझी की झांकी भी बनने लगी। इनमें रंगों के साथ रंगीन चमकने वाले कागज भी उपयोग होने लगे। साँझी का नियम है- प्रत्येक दिन संध्या के समय आरती के उपरान्त भोग लगाकर शयन आरती के उपरान्त रात्री में मिटा दी जाती है अगले दिन पुनः नवीन साँझी का निर्माण होता है। इस साँझी कला ने ब्रज में महत्वपूर्ण लोक कला का स्थान ले लिया।
समय के साथ यह कला साँझी का खेल अति महंगा होने के कारण मन्दिरों से विलुप्त होने लगा। अब तो केवल कुछ मन्दिरों में ही साँझी श्राद्धपक्ष में मनायी जाती है। जैसे द्वारिकाधीश, बरसाना में श्रीजी महल, गोकुल में गोकुल नाथ जी, वृन्दावन में गदाधर भट्ट जी की समाधि मदन मोहनजी, राधावल्लभ मन्दिर, शाहजहांपुर मन्दिर, राधारमण मन्दिर में कभी मन्दिर के सामने डोल पर भी साँझी की कला-फूल, रंग, गोबर से बनायी जाती व प्रसिद्ध थी, अब यह परम्परा लुप्त होने को है।
मनवांछित फल पाइये जो यह नित्य सेव।
अहो बृषभानु की लाड़ली यह साँझी साँचो देव
लोक परम्परा में साँझी के गीत सम्पूर्ण देश में विभिन्न भाषाओं के प्रचलित व लोकप्रिय हैं, जिसमें परिवार की समृद्धि सदस्यों की कुशलता, सम्पन्नता, वंश बढोत्तरी की मनोकामना है। मन्दिर की परम्परा में साँझी उत्सव के पद कवियों (वाणीकारों) ने बहुतायत से लिखे, मन्दिर में गर्भगृह के सन्मुख तिवारी आंगन या बरामदे में साँझी बनायी जाती है व साँझी के सन्मुख परम्परा के अनुसार समाज गायन होता है। निम्नलिखित पदों में राधा जी ने कालीदास के मेघदूत व रूप गोस्वामी के हंसदूत के सामान सूवटा व कीर (तोता) पक्षी को दूत बना कर विरह का सन्देश श्रीकृष्ण को भेजती हैं।
सांझी के पद
व्यास वाणी पद – उत्तरार्द्ध – 340 – 343
प्यारी, तुम कौन हो री बन में फुलवा बीनन हारी।
नेह लगन को बन्यौ बगीचा फूल रही फुलवारी।
मदनमोहन पिय यों बूझत हैं तू को हे सुकुमारी।।
ललिता बोली लालसों यह बृषभान दुलारी।।
या बन में हम सदा बसत हैं हम ही करत रखवारी।।
बिन बूझे तुम फुलवा बीनत जोबन मद मतवारी।
ललित बचन सुन लालकें सब रीझ रही वृजनारी।।
सूरदास प्रभु रस बस कीनी विरह वेदना टारी।
श्री हित हरिवंश महाप्रभु , श्री हित चौरासी (47)
वन की लीला लालहि भावै।
पत्र–प्रसून बीच प्रतिविंबहि नख सिख प्रियहि जनावै।।
सकुचि न सकत प्रगट परिरंभन अलि लम्पट दुरि धावै।
संभृम देत कुलकि कल कामिनि रति रन कलह मचावै।।
उलटी सवै समझि नैनन में अञ्जन रेख बनावै।
जय श्री हित हरिवंश प्रीति रीति वस सजनी स्याम कहावै।।1।।
अर्थ : वन की लीला श्री श्याम को बहुत पसन्द है।फूल-पत्तियों के मध्य में नख (नाख़ून) से शिखा (चोटी) तक का प्रतिविम्ब श्री प्यारी श्यामा जू को बता रहै है।। संकोच के कारण प्रगट रूप से आलिंगन नही कर सकते ,यह सखी चतुराई से दूर हो जाते है।मधुरता से श्री श्यामा के बार-बार चक्कर करते हुए ,मन में रात्रि का कलह उतपन्न हो रहा है।उलटे श्री श्यामा जी सभी बात को नेत्रो से ही समझ गयी और नेत्रो की अंजन रेखा को बना कर ही श्री श्याम को संकेत दे दिया। श्री हित हरिवंश जी कहते है — जो प्रीति की रीति के आधीन है ,वही श्री सजनी श्यामा जू और श्री श्याम कहलाते है।।
श्री नागरिया जी कृत – राग गौरी
फूलन बीनन हों गई जहाँ जमुना कूल द्रुमन की भीर।
अरुझि गयौ अरूनी की डरिया तेहि छिन मेरौ अंचल चीर।।
तब कोऊ निकस अचानक आयौ मालती सघन लता निरवारि।
बिन ही कहै मेरो पट सुरझायौ इक टक मो दिसि रह्यो री निहारि।।
हों सकुचन झुकि दबी जात इत उत वह नैनन हा-हा खात।
मन उरझाय वसन सुरझायौ कहा कहौ और लाज की बात।।
नाम न जानों श्याम अंग हों पियारे रँग वाको हुतौ री दुकूल।
अब वही वन लै चल नागरि सखि फिर साँझी बीनन कौ फूल।।
अर्थ : श्री राधा जी साँझी बनाने हेतु फूल बीनने के लिए यमुना किनारे गयी जहाँ पर व्रक्ष बहुत है। वह बताती है उसी क्षण में मेरा आँचल का चीर लाल डालियो में उलझ गया।। तभी कोई अचानक से निकल कर आया और मालती की घनी लता से छुड़ाया। बिना कहे मेरे वस्त्र को सुलझाया और एक सी दृष्टि से देखते हुए मुझे निहार रहा था। में संकोच के कारण झुक कर दबी जा रही थी और वह नेत्रो से देखे जा रहा था। वस्त्र तो सुलझ गये पर मन उलझ गया और क्या कहूँ लाज की बात।। नाम का तो पता नही, अंग वर्ण श्याम था और पीले रँग के उसके वस्त्र थे। श्री नागरिया जी कहते है– श्री राधा जी सखी से कहती है ,अब उसी वन में साँझी के फूल बीनने ले चल।।
श्री हरिराम व्यास कृत :
श्याम स्नेही गाईये तातें श्रीवृन्दावन रज पाइये हो।।ध्रुव।।
राधा जिनकी भांमती कुंजन-कुंजन केलि।
तरु तमाल ढिंग अरुझी मानों लसत कनक की बेलि।।
महा मोहिनी मन हरयो रसवस कीने लाल।
कुच कमलन कर मन मिल्यो लट बांध्यो मैंन मराल।।
नैन सैन दै तन बेधयो कल गान।
अंजन फंदन कुंवर कुरंगन चले दोउ भोंह कमान।।
नक वेसर बरछी लगी चित चंचल मन मीन।
अधर सुधा दै बेधियों चकित किये आधीन।।
अंग-अंग रस रँग में मगन भये हरि नाह।
व्यास स्वामिनी सुख दियौ पिय संग हिंधु प्रवाह।।
अर्थ : श्री श्याम को स्नेह से गान करो ,उससे ही श्री वृन्दावन की रज प्राप्त होगी।।यह ध्रुव सत्य है।। श्रीकुञ्ज -कुञ्ज के खेल है और श्री राधा जी जिनकी जादूगरी है। वह तमाल के व्रक्ष के पास इस प्रकार उलझी है मानो श्री श्याम तमाल को सोने की बेल ने आलिङ्गित कर रक्खा हो। वह महा मोहिनी है और श्री लाल जी का मन हरण करते हुए उन्हें रस से वशीभूत कर रक्खा है। उनके कुच कमलो पर श्री लाल जी लट्टू है और वह उनकी घुंघराली लटाओं को बांध रहें है जैसे मदन हंस हो।। नेत्रो से नेत्र मिलाकर शरीर बेसुध हो गया है और कल-कल गान सुनाई दे रहा है। नाक में सुन्दर बेसर ,बरछी के समान चित्त को चलायमान बना रही है जैसे मन मछली की तरह व्याकुल हो इधर-उधर भाग रहा हो।अधरामित देकर तीर कमान से निकल लक्ष्य बेध चूका है और लाल जी को आश्चर्य में डाल कर आधीन ही कर लिया है। श्री हरि नाथ अंग-अंग से रस-रँग में डूब चुके है। श्री हरिराम व्यास जी कहते है– श्री लाडिली श्री प्रियतम के साथ सुख समुद्र के प्रवाह को प्रदान करती है।।