श्री राधावल्लभ लाल जी की मंगला से शयन तक सभी आरतियाँ
▐ मंगला आरती
प्रातहिं मंगल आरति कीजै।
जुगलकिसोर रूप-रस-माते, अद्भुत छबि नैंननि भरि लीजै।।
ललिता ललित बजावति वीना, गुन गावति सोइ जीवन जीजै।।
जै श्रीरूपलाल हित मंगल जोरी, निरखि प्रान न्यौछावर कीजै ।।
निरखि आरती मंगल भोर। मंगल श्यामा-श्याम किसोर।
मंगल श्रीवृन्दावन धाम । मंगल कुंज महल अभिराम ।।
मंगल घंटा नाद सु होत। मंगल थार मणिनु की जोत।
मंगल दुंदुभि-धुनि छबि छाई। मंगल सहचरि दर्शन आईं ।।
मंगल बीन मृदंग बजावैं। मंगल ताल झाँझ झर लावें ।।
मंगल सखी जूथ कर जोरें। मंगल चॅवर लियें चहुँ ओरैं ।।
मंगल पुष्पावलि वरषाई। मंगल जोति सकल वन छाई।।
जैश्रीरूपलाल हित हृदय प्रकाश। मंगल अद्भुत जुगल विलास ।।
▐ धूप आरती
आज नीकी बनी श्रीराधिका नागरी।
ब्रज युवति यूथ में रूप अरु चतुरई,
शील श्रंगार गुण सवन ते आगरी।।
कमल दक्षिण भुजा बाम भुज अंश सखि,
गावति सरस् मिलि मधुर स्वर रागरी।
सकल विद्या विदित रहसि श्रीहरिवंश हित,
मिलत नव कुंज वर श्याम बड़भागी।।
▐ श्रृंगार आरती
बनी श्रीराधा मोहन की जोरी।
इन्द्र नील मणि श्याम मनोहर,सातकुंभ तन गोरी।।
भाल विशाल तिलक हरि कामिनि, चिकुर चन्द्र बिच रोरी।
गज नायक प्रभु चाल गयंदनि, गति व्रषभान किशोरी।।
नील निचोल जुवति मोहन पट, पीत अरुण सिर खोरी।
(जय श्री) हित हरिवंश रसिक राधा पति सुरत रंग में बोरी।।
▐ राजभोग आरती
नवल घनश्याम नवल वर राधिका,
नवल नव कुञ्ज नव केलि ठानी।
नवल कुसुमावलि नवल सिज्या रचित,
नवल कोकिल कीर भृंग गानी ॥
नवल सहचरि वृन्द नवल वीणा मृदंग,
नवल स्वर तान नव राग बानी।
जय श्रीनवल गोपीनाथ हित नवल रस रीति सों,
नवल हरिवंश अनुराग दानी ॥
▐ संध्या आरती
आरती कीजै श्याम सुन्दर की, नन्द के नन्दन राधिकावरकी।
भक्ति कर दीप प्रेम कर बाती, साधु संगति करि अनुदिनराती।।
आरति ब्रजयुवति यूथ मनभावै,श्यामलीला श्रीहरिवंश हितगावै।
आरति राधावल्लभलालकी कीजै, निरखि नयनछवि लाहौलीजै।।
सखि चहूँओर चँवर कर लीये, अनुरागन सों भीने हीये।
सनमुख वीणा मृदङ्ग बजावै, सहचरि नाना राग सुनावै।।
कंचनथार जटित मणि सोहै, मध्य बर्तिका त्रिभुवन मोहै।
घण्टा नाद कह्यौ नहि जाई, आनन्द मंगल की निधि माई।।
जयति-जयति यह जोरी सुखरासी, जय श्री रूपलाल हितचरण निवासी।
आरति राधावल्लभलालकी कीजै, निरखि नयनछवि लाहौलीजै।।
▐ शयन आरती
नागरी निकुन्ज ऐन किसलय दल रचित सेन,
कोककला कुशल कुमरि अति उदाररी।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटी भंग,
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।।
मुखर नुपुरनि स्वाभाव किंकिणी विचित्र राव,
विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नैन सुरस सार री।।
श्री राधावल्लभ श्री हरिवंश

