फूल गुलाब डोल के पद


फूलन कुञ्ज गुलाब की बनक बनी अति साहै।
फूलन सों बैठीं प्रिया लाल तहाँ छवि जोहै ॥१॥
फूल चॅबेली पीत के भूषन भूषित अंगा।
सीस चन्द्रिका झुकि रही पुहुप मालती संगा॥२॥
वसन अरगजा रंग रंगे तनसुख प्रभा प्रकासी।
महकन सरस सुगंध की लतन-लतन आभा-सी ॥३॥
पान भरे मुख चन्द्रमा मृदु-मृदु हँसन सुहाई।
किरन प्रकासी विपिन में अलि उड़गन मन भाई ॥४॥
राग जमायौ राइसौ साज समाजन लीयें।
सब सखी मन अनुसारनी रिझवत तन मन दीयें।॥५॥
पुहुपांजुलि करि वारने निर्त्तत गुनन प्रबीना।
जै श्रीरूपलाल हित सहचरी निकट सुनावत बीना ॥६॥१॥

राग गौरी-

फूलन फूल झुलावत लालनु ललना फूल फूल अनुरागी।
भूषन फूल वसन तन मन में झलकत अंग अनंग सुहागी ॥
सौरभ सरस परस अलि झुकि-झुकि गान तान सुनि सुर उर पागी।
जै श्रीरूप अनूप त्रिभंगी हित चित छकन छके की चितबन लागी ॥२॥

राग केदारौ –

फूल डोल झूलत बिहारी बिहारिन संग लिये।
फूले फूले वदन निहारत अंसन बाहु दिये ॥१॥
फूलन की सारी प्यारी अंग फूल सिंगार किये।
चहूँ ओर सहचरि गुन गावत निरखि-निरखि जिय जिये ॥२॥
ललित लता फूली रंग रंगन गुञ्जत अलि मधु पिये।
जै श्री रूपलाल हित दंपति सोभा लखि पहिरायौ हार हिये।॥३॥६॥

गो० श्रीकृष्णचन्द्र प्रभु कृत-राग बिहागरौ –

झूलत फूल भई अति भारी।
निर्मित वर हिंडोर बिटपतर वृन्दाविपिन बिहारी॥१॥
सखी सकल अति मुदित भई बहु रंग पहिरे तन सारी।
भृकुटि भंग लावण्य अंग दुति कोटि मदन छबि टारी॥२॥
अतिसै गौर राधे ग्रीवा में श्याम भुजा छबि न्यारी।
दामिनि अचल विराजत मानौं मेघ घटा बिच कारी ॥३॥
बरनन कहा कीजिये प्रेम कौ रुचि दायक जहाँ गारी।
जै श्रीकृष्णदास हित यह सुख देखत प्रान सम्पदा वारी ॥४॥४॥

गोस्वामी श्रीकमलनैंनजी कृत- राग देव गंधार –

फूलन की रचना रचि कीनी।
फूलन मंडल तरें डोल रचि फूलन की बैठक छबि भीनी ॥१॥
फूलन ही की तलप बनाई फूलन के उपबरहन’ दीने।
सिज्या मंदिर फूलन ही के फूलन फूल गवाछ नवीने ॥२॥
फूलन के अभरन अनेक बिध फूल दुकूल लसत तन झीने।
जै श्रीकमलनैन हित विवि मुख फूलत झूलत सरस हिंडोर प्रवीने ॥३॥५॥

गोस्वामी श्रीकिशोरीलालजी कृत- राग बिहागरौ –

फूल डोल झूलत फूल भरेहैं।
फूल भरी सब सखी झुलावत फूल सिंगार करेहैं।
फूले राधा लाल ललित मुख गावत चित्त हरेहैं।
जै श्री किशोरीलाल हित रूप महा मन सुख के सार ढरेहैं।॥ ६॥

श्रीदामोदर स्वामीजी कृत- राग बिहागरौ –

फूल डोल झूलत फूल भई।
फूलन के खम्भ फूलन की पटुली फूलन डाँड़ी नई ॥
फूली फिरत सखिन में श्रीराधा फूलै फूल छई।
दामोदर हित सब ब्रज फूल्यौ है रही फूल मई ॥७॥

श्रीसहचरिसुखजी कृत-

झूलत फूल डोल मिलि दम्पति फूल फूलि कुञ्जन जमुना तट।
रितु बसंत फूल्यौ वृन्दावन अनूठौ रंग फूल्यौ वंसीवट ॥१॥
फूल्यौ रूप सुभग सारी में उज्ज्वल रस फूल्यौ पियरे पट।
फूली प्रीत नवल नैनन में फूल्यौ मैन चैन रँगीले घट॥२॥
हिय फूले वपु चरन बदन दुति जिय फूले अभिलाषन के ठट।
फूली रति तन मिलत उरज उर मुख फूले अरुझन कुण्डल लट ॥३॥
फूली हुलसि अली रसना रचि गान तान संगीतन गत नट।
सहचरि सुख फूले मोहन छकि मुरली में राधा-राधा रट ।।४।।८।।

राग ईमन –

झूलत डोल झलक अंग अंगन राधा मोहन श्रीवंशीवट।
रूप बसंत खिले वर वैसन ज्यौं बसंत फूल्यौ जमुना तट ॥१॥
तकत सकत लाजन भीजत तन पुलकत परसत नील पीतपट।
सरस्यौ चहत हियन अरुझत ज्यौं अरझत हार अरुझि कुंडल लट॥२॥
झोटा देत ललित ललितादिक गौर स्याम जिन रंग जुगल घट।
सहचरि सुख झलकत मुकुरन में पिय नागरि हैव तिय नागर नट ॥३॥९॥

श्रीसूरदास मदनमोहनजी कृत-

झूलत फूल डोल पिय प्यारी।
अति सुकुमार फूल दोऊ बैठे, नवल कुँवरि गिरधारी ॥१॥
बरन-बरन फूलन की रचना, बंपक बेलि निवारी।
फूली सखी झुलावत गावत, रंग रह्यौ अति भारी ॥२॥
बरषत कुसुम देव मुनि हरषत, फूलन की वर्षा री।
मदन मोहन की यह छबि निरखत सूरदास बलिहारी ॥३॥१०॥

श्रीबिहारिनदासजी कृत-

डोल झुलावत कुञ्ज बिहारी।
रमकि धरत पग नव जोवन भर, अति आनन्द दुलारी ॥१॥
सारंग राग अलापत लाल रसाल दै-दै कर तारी।
कबहुँक हँसत हँसावत रीझ रिझावत प्रीतम प्यारी ॥२॥
तब कर गहि लेत किशोर किशोरी पुलकि भरत अँकवारी।
श्रीविहारीदासि दंपति नव-नव छवि पर छिन छिन बलिहारी ॥३॥११॥

श्रीप्रेमदासजी कृत – राग धनाश्री –

माई री झूलत डोल लाड़िली लाल।
झलकत अंग अनंग विशाल ॥ टेक ॥
चितवत दृग कोरन नव बाल। झलमलात मुसकान रसाल ॥१॥
रुरकत अलक झलक वर भाल। रुरकत उर पर मंजुल माल ॥२॥
आनन पानन भरे अनूप। चंचल नैन ऐन रस रूप॥३॥
मानौ फूले उभै सरोज। तिनमें खेलत खंजन मनोज॥४॥
झूमक सारी पहिरें भाम। खुभी कंचुकी उर अति स्याम॥५॥
हेम बरन अतरौटा चारु। निरख हरखि फूलत सुकुवार॥६॥
क्वणित किंकिनी कंकण खरें। नूपुर मधुर-मधुर धुनि करें ॥७॥
भरें अंक तजि संक उदार। लचकत कटि सोभा के भार ॥८॥
बैनी गुही जुही के फूल। पृथु नितंब पर विमली झूल॥९॥
चंचल कुण्डल मंडित गंड। कलँगी हलत चंद्रिका अखंड ॥१०॥
करत अधर मधु पान सलोल प्रफुलित तन मन उठत कलोल ॥११॥
प्रेमदासि हित जुत सुख पुंज। सदा बसौ मम नैन निकुञ्ज ॥१२॥१२॥

राग पूर्वी-

झूलत फूल डोल पिय प्यारी फूलन सौं सहचरी झुलावत।
फूलन के आभरन बसन सजि फूल फूल दम्पति कल गावत ।।
फूलन की नव कुंज मंजु में फूले शुक पिक बोल सुनावत।
प्रेमदास हित स्यामा स्याम सुफूले चखकी कोर चलावत ॥१३॥

राग कवित्त-

झूलत रंगीले दोऊ फूलत छबीली भाँति मंद मुसिकात झरें फूल सुखदाई हैं।
फूले फिरैं चख चारु फूलन के हलैं हार फूलन की चंद्रिका सुकलंगी बनाई है।
फूलि रहे हाव भाव फूली सखी चढें चाव फूलन के अंबर में सब छबि छाई है।
प्रेमदास हित वारी भरैं अंक पिय प्यारी फूल डोल पै कलोल आज बन आई है॥१४॥

चाचा श्री वृन्दावनदासजी कृत- राग सारंग –

बन्यौं फूलन डोल सुहावनौं।
झूलत हैं श्री राधा मोहन मिलि मधुरे सुर गाबनौं।॥१॥
जहाँ तरु बेलिन कौ बन्यौं मंडप रवि की किरन न आवनौं।
झूमत हैं कुसुमन के झूमक अलि कुल कलह मचावनौं ॥२॥
अवनी अति कमनी रविजा तट चूर कपूर बिछावनौं।
जूथ अनंत फिरत हैं अलि जहाँ फूल सिंगार बनावनौं ।॥३॥
बिनु मित फूल भरी जिन तन मन दम्पति रति दुलरावनौं।
चित चौंपन सौं झोटा दै-दै कहैं भयौ मन भावनौं ।॥४॥
बिधु विमान चढ़ि उतरत मनु यह उपमा लघु जु दिखावनौं।
यह बन्यौ डोल अलौकिक ताके सम छबि कहा बतावनौं ।॥५॥
कै सोभा के डबा रासि नग गौर श्याम दरसावनौं।
बिबि सुकुँवार फूल तन धरिकैं सखी दृग करन उचावनौं ।॥६॥
कै छबि भार उतारत झोटन सुनि सखी यह मन लावनौं।
कै प्रानन की थाती यातें फूलन माहिं छिपावनौं।॥ ७॥
भूषन फूल डोल फूलन के बैठे छबि जु बढ़ावनौं।
वृन्दावन हित रूप जलद कै रमकन में बरसावनौं ।॥८ ॥१५॥

राग आसावरी-

सहेली फूली डोल झुलावैं॥
फूलीं पिय संग झूलत राधा रमकन फूल बढ़ावैं ॥१॥
फूलन डोल बन्यौं अति कमनी फूल बितान तनावैं॥
फूलन मुकुट काछनी पिय तन पटुका फूल बनावैं॥२॥
फूलन की सारी अरु चोली फूल प्रिये पहिरावैं।
फूल चंद्रिका झुकी छकन सौं फूल बदन दरसावैं॥३॥
फूलन के भूषन नाना बिधि अंग-अंग छबि पावैं।
फूले अमल कमल पद कर वर हिय फूलन सरसावैं॥४॥
फूल बने तरु बेलि उर ऊपर अवनी फूल बिछावैं।
वृन्दावन हित रूप फूल सों शुक पिक मंगल गावैं ॥५॥१६॥

राग बिहागरौ ताल रूपक-

झूल-झूल री डोल सभागिन जहाँ विविध रंग फूलन की रचना।
रसिक कंत संग अस छबि बाढ़ी तुव ध्रुव भंग मदन गन नचना ॥१॥
नील बसन घूँघट मुख ढ़पि गयौ बिनु देखें रंचक पिय सचना।
अपने कर निरवारन लपटे मनु मर्कत मणि कंचन खचना ॥२॥
सोभा सदन कपाट खुले मनौं उपमा और लगी सब लचना।
वृन्दावन हित रूप बलि गई रमक निसंक डार तरु बचना ॥३॥१७॥

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