श्री यमुनाष्टक अर्थ सहित

मंगलाचरण

प्रेमानन्दोत्पुलकित गात्रौ,
विद्युद्धाराधर सम कान्तिः
राधा कृष्णौ मनसि दधानं,
वन्देहं श्रीहित हरिवंशम्


॥1॥
ब्रजाधिराज – नन्दनाम्बुदाभ गात्र चंदना-
नुलेप गंध वाहिनीं भवाब्धि बीज दाहिनीम् ।
जगत्त्रये यशस्विनीं लसत्सुधा पयस्विनीं-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥1॥

व्याख्या – जो नवीन मेघ के समान कान्ति वाले ब्रजराज-नन्दन श्रीकृष्ण के शरीर में अनुलेपित चन्दन गंध का वहन करती हैं, जो आवागमन रूप भवसागर के बीज को जला देती हैं, जिनका सुयश तीनों लोकों में विख्यात है, जिनका जल अमृत के समान उज्ज्वल है एवं जो दुरंत मोह (जिसका अन्तिम परिणाम बड़ा कष्टमय है) को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥2॥
रसैकसीम राधिका पदाब्जभक्ति साधिकां
तदंग-राग पिंजर प्रभाति पुंज मंजुलाम् ।
स्वरोचिषाति शोभितां कृतां जनाधिगंजनां-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥2॥

व्याख्या जो रस की एकमात्र सीमा श्रीराधिकाजी के चरण-कमल की भक्ति को प्राप्त कराने वाली हैं और उन्हीं श्रीराधिकाजी के अंग राग का वहन करने के कारण जो अत्यन्त मंजुल प्रकाश से युक्त हैं, जो स्वयं अपनी प्रभा से अत्यन्त शोभित हैं, जो अपने जनों के पूर्व-कृत पापों को समूल नष्ट करने में बहुत ही कुशल हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥3॥
ब्रजेन्द्र सूनु राधिका हृदि प्रपूर्यमाणयो-
र्महा रसाब्धि पूरयो रिवाति तीव्र वेगतः ।
बहिः समुच्छलन्नव प्रवाह रूपिणीमहं-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥3॥

व्याख्या – श्रीनन्दनन्दन और श्रीराधिका के हृदय में पूर्ण रूप से भरा हुआ महा रस-सागर का उल्लास ही मानों तीव्र वेग से बाहर उछल कर जिनका नित्य नवीन प्रवाह बन गया है एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥4॥
विचित्र रत्न बद्ध सत्तटद्वय श्रियोज्जवलां-
विचित्र हंस सारसाद्यनन्त पक्षि संकुलाम् ।
विचित्र मीन मेखलां कृताति दीन पालितां-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥4॥

व्याख्या – जिनके दोनों तट उज्ज्वल कान्ति फैलाने वाले रत्नों से आबद्ध हैं तथा विचित्र प्रकार के हंस-सारसादिक पंक्षि-समूह से पूरिपूर्ण हैं, जल में बिहार करती हुई विचित्र-विचित्र मछलियाँ ही मानों जिनकी मेखला (करधनी) की शोभा को प्राप्त हो रही हैं, जो अधम से अधम दीनजनों का पालन करने वाली हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥5॥
वहंतिकां श्रियां हरेर्मुदा कृपा स्वरूपिणीं-
विशुद्ध भक्तिमुज्ज्वलां परे रसात्मिकां विदुः
सुधा श्रुतित्वलौकिकीं परेश वर्ण रूपिणीं-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥5॥

व्याख्या – जो श्रीहरि की श्याम कांति का मोद पूर्वक वहन करती हैं, जो साक्षात् कृपा स्वरूपिणी हैं, जो परम रसमयी उज्ज्वल एवं विशुद्ध भक्ति स्वरूपा हैं, जो अमृत की अलौकिक धारा स्वरूप हैं, जिनका वर्ण परम प्रभु श्रीकृष्ण के श्याम रंग के समान है एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥6॥
सुरेन्द्र वृन्द वन्दितां रसादधिष्ठिते वने-
सदोपलब्ध माधवाद्भुतैक सदृशोन्मदाम् ।
अतीव विह्वलामिव च्चलत्तरंग दोर्लतां-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥6॥

व्याख्या – जो सुरेन्द्रों के समूहों द्वारा वन्दित हैं, जो उन श्रीमाधव के समान रसोन्मत्त हैं, जिन्होंने रसभूमि श्रीवृन्दावन में किसी अद्भुत रस की प्राप्ति की है, जिनकी तरंग रूपी भुजायें प्रेम विह्वलता के कारण अत्यंत चंचल बनी हुई हैं एवं जो दुरंत मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥7॥
प्रफुल्ल पंकजाननां लसन्नवोत्पलेक्षणां-
रथांगनाम युग्म कस्तनीमुदार हंसिकाम् ।
नितंब चारु रोधसां हरेः प्रिया रसोज्ज्वलां-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥7॥

व्याख्या – श्रीयमुनाजी में खिले हुए लाल कमल ही मानों उनका मुख है और शोभाशाली नीलकमल ही उनके नेत्र हैं, चकवे की जोड़ी ही उनके स्तन हैं, जिनमें अनेक हंस क्रीड़ा कर रहे हैं, जिनके दोनों तट ही उनके नितम्ब हैं, जो श्रीहरि की प्रिया श्रीराधा के रस से उज्ज्वल बनी हुई हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥8॥
समस्त वेद मस्तकैरगम्य वैभवां सदा-
महा मुनीन्द्र नारदादिभिः सदैव भाविताम् ।
अतुल्य पामरैरपि श्रितां पुमर्थ शारदां-
भजे कलिन्द नन्दिनीं दुरंत मोह भंजनीम् ॥8॥

व्याख्या – जिनका वैभव समस्त उपनिषदों के लिए अगम्य है, नारदादिक महा मुनीन्द्र जिनका ध्यान करते हैं, आपका आश्रय लेने वाले सर्वश्रेष्ट पामरों को भी जो प्रेम प्रदान करती हैं एवं जो दुरन्त मोह को नष्ट करने वाली हैं, मैं उन कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी का भजन करता हूँ।

॥9॥
य एतदष्टकं बुध स्त्रिकाल मादृतः पठेत्-
कलिन्द नन्दिनीं हृदा विचिंत्य विश्व वंदिताम् ।
इहैव राधिकापतेः पदाब्ज भक्ति मुत्तमा-
मवाप्य स ध्रुवं भवेत्परत्र तत्प्रियानुगः ॥9॥

व्याख्या – जो विवेकीजन विश्ववन्दित श्रीयमुनाजी का हृदय में ध्यान करते हुए इस अष्टक का तीनों कालों में अर्थात् प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे राधिकापति श्रीकृष्ण की प्रेमलक्षणा भक्ति को इसी लोक में प्राप्त करेंगे और शरीर त्याग के पश्चात् निश्चय ही सहचरि भाव से श्रीराधिका के अनुगत हो जायेंगे।

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