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श्री हित राधा सुधा निधि जी


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 1

यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थमानी।
योगीन्द्रदुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि, तस्याः नमोऽस्तु वृषभानुभुवो दिशेऽपि।।१।।

जिनके दूकूल के उड़ने से खेलन रुचि ले वह धन्य पवन।जो नहीं प्राप्य योगीन्द्रों को, जो है सन्तत पावन कन-कन ॥

मधुसूदन हैं कृतकृत्य कहाँ, वृषभानु नन्दिनी भव्य जहाँ।

हो गति दुरूह का छोर वहाँ, उस ओर हमारा अमित नमन।।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 2

ब्रह्मेश्वरादिसुदुरुहपदारविन्दं, श्रीमत्पराग परमाद्भुत वैभवायाः।
सर्वार्थसाररसवर्षिकृपार्द्रदृष्टेस्तस्या नमोस्तु वृषभानुभुवो महिम्ने।।२।।

जो ब्रह्म शिवादिक से भी बढ़कर अतिशोभादि दुरूह कमलपद।

अद्भुत परम पराग विभव की सारभूत अति कृपा दृष्टि नद ॥

उन श्री श्री वृषभानु नन्दिनी की महिमा जो अकथ कथन।

नमस्कार हो पुनः पुनः अति विनय विनम्रित पुनः नमन ॥


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°3

यो ब्रह्मरुद्रशुकनारदभीष्ममुख्यैरालक्षितो न सहसा पुरुषस्य तस्य।
सद्यो वशीकरण चूर्णमनन्तशक्तिं तं राधिका चरणरेणुमनुस्मरामि।।३।।

जो ब्रह्म रुद्र शुक नारद भीष्म से भी दिये न दिखलाई।

शक्त्यनन्त उस परम पुरुष को वशीकरण वह कर पाई।।

ऐसी उस सम्पन्न शक्ति को सहसा आकर्षित करती जो।

उस राधा पद रज का सुमिरन, सन्तन कर भव दुख हरती जो।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°4

आधाय मूर्द्धनि यदा पुरुदारगोप्यःकाम्यं पदं प्रियगुणैरपि पिच्छ मौलेः।
भावोत्सवेन भजतां रस कामधेनुं तं राधिका चरणरेणुमहं स्मरामि||४||

मनः प्राण से नित उदार ऐसी गोपी गण गोकुल की।

मोर पंख धारी के सब गुण-सहित प्राप्य पद आकुल की।

भाव चाव भावोत्सव हित वे कामधेनु सी नित हुलसी।

भक्तों से ध्यायित नित-नित वह स्वामिनि पदरज मन विलसी।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°5

दिव्यप्रमोद रस सार निजाङ्गसङ्ग , पीयूषवीचि निचयैरभिषेचयन्ती।”
कन्दर्प कोटि शर मूर्च्छित नन्दसूनुसञ्जीवनी जयति कापि निकुञ्जदेवी।।5।।

जो सदा अपने अङ्ग-जो सदा अपने अङ्ग-सङ्ग रूप अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों स मूर्च्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो। अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों से मूच्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°6

तन्नः प्रतिक्षण चमत्कृत चारुलीलालावण्य मोहन महामधुराङ्गभङ्गि।

राधाननं हि मधुराङ्ग कलानिधान- माविर्भविष्यति कदा रससिन्धु सारम् ॥6।।

जिस आनन-कमल से प्रतिक्षण महामोहन माधुर्य के विविध अङ्गों की भङ्गिमा युक्त सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का लावण्य चमत्कृत होता रहता है और जो माधुर्य के अङ्गों की चातुरी का उत्पत्ति स्थान है, वही समस्त रस-सार-सिन्धु श्रीराधानन हमारे सम्मुख कब आविर्भूत होगा ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°7

यत्किङकरीषु बहुशः खलु काकुवाणी नित्यं परस्य पुरुषस्य शिखण्डमौलेः ।

तस्याः कदा रसनिधे- वृषभानुजायास्तत्केलिकुञ्ज भवनाङ्गण मार्जनीस्याम् ॥7।।

निश्चय ही, जिनकी दासियों से परम-पुरुष शिखण्ड-मौलि श्रीश्यामसुन्दर नित्य-निरन्तर कातर-वाणी द्वारा भूरि-भूरि प्रार्थना करते रहते हैं, क्या मैं कभी उन रसनिधि श्रीवृषभानुजा के केलि-कुञ्ज-भवन के प्राङ्गण की सोहनी देने वाली हो सकूँगी ? (जिसमें प्रवेश करने के लिये श्रीलालजी को भी सखियों से प्रार्थना करनी पड़ती है)।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 8

वृन्दानि सर्वमहतामपहायादूराद्वृन्दाटवीमनुसर प्रणयेन चेतः ।

सत्तारणीकृतसुभावसुधारसौघं राधाभिधानमिह दिव्यनिधानमस्ति ।।8।।

हे मेरे मन ! तू समस्त महच्चेष्टाओं ( महत् वृन्दों) को दूर से ही छोड़कर प्रीति-पूर्वक श्रीवृन्दाटवी का अनुसरण कर । जहाँ ‘श्रीराधा’ नामक एक दिव्य निधि विराजमान है । जो सज्जनों को भव से उद्धार करने वाले भाव रूप सुधा-रस का प्रवाह है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°9

केनापि नागरवरेण पदे निपत्य संप्रार्थितैकपरिरम्भरसोत्सवायाः ।

सभ्रूविभङ्गमतिरङ्गनिधेः कदा ते श्रीराधिके नहिनहीतिगिरः श्रृणोमि ॥9।।

हे श्रीराधिके ! कोई चतुर-शिरोमणि किशोर आपके श्रीचरणों में बारम्बार गिरकर आपसे परिरम्भण सुखोत्सव की याचना कर रहे हों और आप अपनी भ्रूलताओं को विभङ्गित कर-करके परम रसमय वचन ‘नहीं

नहीं’ ऐसा कह रही हों । हे अति कौतुक-निधि ! मैं आपके इन शब्दों को कब सुनूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°10

यत्पादपद्मनखचन्द्रमणिच्छटाया विस्फूजितं किमपि गोपवधूष्वदर्शि ।

पूर्णानुरागरससागरसारमूर्तिः सा राधिका मयि कदापि कृपां करोतु ॥10।।

जिनके पाद-पद्म-नख रूप चन्द्रमणि की किसी अनिर्वचनीय छटा का प्रकाश गोप-वधुओं में देखा जाता है, वही परिपूर्ण अनुराग-रस-समुद्र की सार-मूत्ति श्रीराधिका कभी मुझ पर भी कृपा करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°11

उज्जृम्भमाणरसवारिनिधेस्तरङ्गैरंगैरिव प्रणयलोलविलोचनायाः ।

तस्याः कदा नु भविता मयि पुण्यदृष्टिवृन्दाटवीनवनिकुञ्जगृहाधिदेव्याः ॥11।।

जिनके नेत्र प्रणय-रस से चञ्चल हो रहे हैं और जिनके अङ्ग उत्फुल्लमान् रस-सागर की तरङ्गों के समान हैं, उन श्रीवृन्दाटवी नवनिकुन्ज भवन की अधिष्ठात्री देवी की पवित्र दृष्टि मुझ पर कब होगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°12

वृन्दावनेश्वरि तवैव पदारविन्दं

प्रेमामृतैकमकरन्दरसौघपूर्णम् ।

हृद्यपितं मधुपतेः स्मरतापमुग्रं

निर्वापयत्परमशीतलमाश्रयामि ॥12।।

हे वृन्दावनेश्वरि ! आपके चरण-कमल एकमात्र प्रेमामृत-मकरन्द

रस-राशि से परिपूर्ण हैं, जिन्हें हृदय में धारण करते ही मधुपति श्रीलालजी

का तीक्ष्ण स्मरताप (काम-ताप) निर्वारित हो जाता है । मैं आपके उन्हीं

परम शीतल चरणारविन्दों का आश्रय ग्रहण करती हूँ, मेरे लिये उनके

सिबाय और कोई गति नहीं है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°13

राधाकरावचितपल्लववल्लरीके,

राधापदाङ्कविलसन्मधुरस्थलीके ।

राधायशोमुखरमत्तखगावलीके,

राधा-विहारविपिने रमतां मनो मे ॥13।।

हे मेरे मन ! तू श्रीराधा-करों से स्पर्श की हुई पल्लव-वल्लरी से मण्डित, श्रीराधा पदाङ्गों से शोभित, मनोहर स्थल-युक्त एवं श्रीराधा यशोगान से मुखरित मत्त खगावली-सेवित श्रीराधा कुञ्ज-केलि कानन श्री वृन्दावन में रमणकर !

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°14

कृष्णामृतं चलु विगाढुमितीरिताहं

तावत्सहस्व रजनी सखि यावदेति ।

इत्थं विहस्य वृषभानुसुतेह लप्स्ये

मानं कदा रसदकेलि कदम्ब जातम् ॥14।।

जब वे मुझसे कहेंगी-“अरी सखि ! श्रीकृष्णामृत^१’ अवगाहन करने के लिए चल” । तब मैं हँसकर कहूंगी-“हे सखि ! तब तक धैर्य रखो जब तक राशि नहीं  आ जाती।” (क्योंकि कृष्णामृत-अवगाहन तो रात्रि में ही अधिक उपयुक्त है ?) उस समय मेरे हास-मय वचनों से रसदायक केलि-समूह का एक अनुपम आनन्द उत्पन्न होगा । मैं कब श्रीवृषभानुनन्दिनी से इस रसमय सम्मान की अधिकारिणी होऊँगी ?

१-श्रीकृष्णामृत शब्द यहाँ क्लिष्ट है । ‘कृष्णा’ यमुना का एक नाम है । श्रीप्रियाजी ने सभी से यमुना-स्मान की ही बात कही यो; किन्तु सखी ने परिहास से आनन्व-पृद्धि के लिए कृष्णामृत पद का अर्थ किया ‘श्रीकृष्ण का एकान्त मिलनरस’ । जिसकी प्राप्ति रात्रि को ही सम्भव बताई, यही हास विशेष है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°15

पादांगुली निहित दृष्टिमपत्रपिष्णुं

दूरादुदीक्ष्यरसिकेन्द्रमुखेन्दुबिम्बम् ।

वीक्षे चलत्पदगतिं चरिताभिरामां-

झङ्कारनूपुरवतीं बत कहि राधाम् ।।15।।

अपने प्रियतम रसिक-पुरन्दर श्रीलालजी के मुखचन्द्र मण्डल को दूर से ही देखकर जिन्होंने लज्जा से भरकर अपनी दृष्टि को अपने ही चरणों की अंगुलियों में निहित कर दिया है और फिर जो सलज्ज गति से(निकुञ्ज-भवन की ओर) चल पड़ी हैं, जिससे चरण-नूपुर झंकृत हो उठे हैं। हाय ! वे अभिराम-चरिता श्रीराधा क्या कभी मुझे दर्शन देंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°16

उज्जागरं रसिकनागर सङ्ग रङ्गैः

कुंजोदरे कृतवती नु मुदा रजन्याम् ।

सुस्नापिता हि मधुनैव सुभोजिता त्वं

राधे कदा स्वपिषि मकर लालितांघ्रिः ।।16।।

हे श्रीराधे ! तुमने अपने पियतम रसिक नागर श्रीलालजी के साथ कुब्ज-भवन में आनन्द-विहार करते हुए मोद में ही सारी रात्रि जागकर व्यतीत कर दी हो तब प्रात:काल मैं तुम्हें अच्छी तरह से स्नान कराके मधुर-मधुर भोजन कराऊँ और सुखद शय्या पर पौढ़ाकर अपने कोमल करों से तुम्हारे ललित चरणों का संवाहन करू। मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°17

वैदग्ध्यसिन्धुरनुराग रसैकसिन्धुर्वात्सल्यसिन्धुरतिसान्द्रकृपैकसिन्धुः ।

लावण्यसिन्धुरमृतच्छविरूप सिन्धुः

श्रीराधिका स्फुरतु मे हृदि केलि सिन्धुः ॥17।।

जो विदग्धता की सिन्धु, अनुराग रस को एकमात्र सिन्धु, वात्सल्यभाव की सिन्धु अत्यन्त घनीभूत कृपा की एकमात्र सिन्धु, लावण्य की सिन्धु और छवि रूप अमृत की अपार सिन्धु हैं । वे केलि-सिन्धु श्रीराधा मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°18

दृष्ट्वैव चम्पकलतेव चमत्कृताङ्गी,

वेणुध्वनिं क्व च निशम्य च विह्वलाङ्गी।

सा श्यामसुन्दरगुणैरनुगीयमानैः

प्रीता परिष्वजतु मां वृषभानुपुत्री ॥18।।

जो अपने प्रियतम श्रीलालजी को देखते ही चम्पकलता के समान अङ्ग-अङ्ग से चमत्कृत हो उठती हैं, और कभी मन्द-मन्द वेणु-ध्वनि को सुनकर जिनके समस्त अङ्ग विह्वल हो उठते हैं । अहो ! वे श्रीवृषभानुनन्दिनी मेरे द्वारा गाये हुए अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुणों को श्रवणकर क्या कभी मुझे प्रीतिपूर्वक आलिङ्गन करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°19

श्रीराधिके सुरतरङ्गि नितम्ब भागे

काञ्चीकलाप कल हंस कलानुलापैः ।

मञ्जीरसिञ्जित मधुव्रत गुञ्जिताङ्घ्रिः

पङ्केरुहैः शिशिरयस्व रसच्छटाभिः ।।19।।

हे श्रीराधिके ! हे सुरत-केलि-रञ्जित नितम्ब-भागे ! अहा ! आपका यह काञ्ची-कलाप क्या है मानो कल हंसों का कल-कल अनुलाप है, और चरण-कमलों के नूपुरों की मन्द-मन्द झनकार ही मानों मतवाले भ्रमरों का गुञ्जन है । स्वामिनि ! आप अपने इसी मधुर-रस की छटा से

मुझे शीतल कर दीजिए।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°20

श्रीराधिके सुरतरङ्गिणि दिव्यकेलि

कल्लोलमालिनिलसद्वदनारविन्दे ।

श्यामामृताम्बुनिधि सङ्गमतीव्रवेगिन्यावर्त्तनाभि रुचिरे मम सन्निधेहि ॥20।।

हे दिव्यकेलि-तरङ्गमाले! हे शोभमान् वदनारविन्दे ! हे श्रीश्यामसुन्दर-सुधा-सागर-सङ्गमार्थ तीव्र वेगवती ! हे रुचिर नाभिरूप गम्भीर भंवर से शोभायमान् सुरत-सलिते ! ( मन्दाकिनि रूपे ! ) हे श्रीराधिके ! आप मुझे अपना सामीप्य प्रदान कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°21

सत्प्रेम सिन्धु मकरन्द रसौघधारा

सारानजस्रमभितः स्रवदाश्रितेषु ।

श्रीराधिके तव कदा चरणारविन्दं

गोविन्द जीवनधनं शिरसा वहामि ॥

जो अपने आश्रित-जनों पर सत्प्रेम ( महाप्रेम ) समुद्र के मधुर मकरन्द-रस की प्रबल धारा अनवरत रूप से चारों ओर से बरसाते रहते हैं तथा जो गोविन्द के जीवन-धन हैं, हे श्रीराधिके ! आपके उन चरणकमलों को मैं कब अपने सिर पर धारण करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°22

सङ्केत कुञ्जमनुकुञ्जर मन्दगामिन्यादाय दिव्यमृदुचन्दनगन्धमाल्यम् ।

त्वां कामकेलि रभसेन कदा चलन्तीं

राधेनुयामि पदवीमुपदर्शयन्ती ॥22।।

हे राधे ! आप काम-केलि की उत्कण्ठा से भरकर सङ्केत-कुण्ज में.पधार रही हों और मैं शीतलचन्दन, गन्ध, परिमल, पुष्पमाला आदि दिव्य और मृदु सामग्री लेकर आपको सङ्केत कुञ्ज का लक्ष्य कराती हुई मन्दमन्द कुनञ्जर-गति से आपका अनुगमन करूं, ऐसी कृपा कब करोगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°23

गत्वा कलिन्दतनया विजनावतारमुद्वरर्तयन्त्यमृतमङ्गमनङ्गजीवम् ।

श्रीराधिके तव कदा नवनागरेन्द्रं

पश्यामि मग्न नयनं स्थितमुच्चनीपे ।।23।।

हे श्रीराधिके ! आप स्नान करने के लिए कलिन्द-तमया यमुना के किसी निर्जन घाट पर पधारें और मैं आपके अनङ्ग-जीवनदाता श्रीअङ्गों का उद्वर्तन (उबटन) करूँ’, उस समय (तट के) उच्च कदम्ब पर स्थित नवनागर शिरोमणि श्रीलालजी को आपकी ओर निरखते हुए मैं कब देखूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°24

सत्प्रेम राशि सरसो विकसत्सरोजं

स्वानन्द सीधु रससिन्धु विवर्द्धनेन्दुम् ।

तच्छीमुखं कुटिल कुन्तलभृङ्गजुष्टं

श्रीराधिके तव कदा नु विलोकयिष्ये ।।24।।

हे श्रीराधिके ! आपका यह श्रीमुख पवित्र प्रेम-राशि-सरोवर का.विकसित सरोज है अथवा आपके अपने जनों को आनन्द देने वाला अमृत है किंबा रससिंधु का विवर्द्धन करने वाला पूर्णचन्द्र ? अहा ! जिस मुख-कमल के आस-पास काली-काली धुंघराली अलकावली मतवाले भृङ्ग-समूहों के

समान लटक रही है, कब आपके इस

मनोहर मुख-कमल का दर्शन करूँगी।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°25

लावण्य सार रस सार सुखैक सारे

कारुण्य सार मधुरच्छविरूप सारे ।

वैदग्ध्य सार रति केलि विलास सारे

राधाभिधे मम मनोखिल सार सारे ॥25।।

एक सर्व सारातिसार स्वरूप है, जो लावण्य का सार, रस का सार और समस्त सुखों का एक मात्र सार है; वही दयालुता के सार से युक्त मधुर छवि के रूप का भी सार है। जो चातुर्य का सार एवं रति-केलिविलास का भी सार है वही राधा नामक तत्व सम्पूर्ण सारों का सार है, इसी में मेरा मन सदा रमा करे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°26

चिन्तामणिः प्रणमतां व्रजनागरीणां

चूडामणिः कुलमणिर्वृषभानुनाम्नः ।

सा श्याम काम वर शान्ति मणिर्निकुञ्ज

भूषामणिर्हृदय-सम्पुट सन्मणिर्नः ॥26।।

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जो आश्रित जनों के लिए समस्त फल-दाता चिन्तामणि हैं, जो व्रजनव – तरुणियों की चूङ़ामणि और वृषभानु की कुलमणि हैं जो श्रीश्यामसुन्दर के काम को शान्त करने वाली श्रेष्ठ मणि हैं । वही निकुञ्ज-भवन की भूषण-रूपा मणि तथा मेरे हृदय-सम्पुट की भी दिव्य मणि (श्रीराधा) हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°27

मञ्जुस्वभावमधिकल्पलतानिकुञ्ज

व्यञ्जन्तमद्भुतकृपारसपुञ्जमेव ।

प्रेमामृताम्बुधिमगाधमवाधमेतं

राधाभिधं द्रुतमुपाश्रय साधु चेतः ।।27।।

जिनका स्वभाब बड़ा ही कोमल है और जो सङ्कल्पाधिक काम-पूरक

कल्पलता के निभृत-निकुञ्ज में विराजती हुई अद्भुत कृपा-रस-पुक्ष का ही

प्रकाशन करती रहती हैं। हे मेरे साधु मन ! तू उसी राधा नामक प्रेमामृत

के अगाध और अबाध (अमर्यादित) अम्बुधि का शीघ्र आश्रय कर ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°28

श्रीराधिकां निज विटेन सहालपन्तीं

शोणाधर प्रसमरच्छवि-मन्जरीकाम् ।

सिन्दूर सम्वलित मौक्तिक पंक्ति शोभां

यो भावयेद्दशन कुन्दवतीं स धन्यः ।।

श्रीप्रियाजी अपने प्रियतम श्रीलालजी के साथ कुछ मधुर मधुर बातें कर रही हैं, जिससे उनके लाल-लाल ओठों से सौन्दर्य-राशि निकलनिकल कर चारों ओर फैल रही है । अहा ! जिनके विशाल भाल पर सिन्दूर-रञ्जित मोतियों की पंक्ति शोभायमान है और दन्त पंक्ति कुन्द-कलियों

को भी लज्जित कर रही है। वही धन्य हैं जो ऐसी श्रीप्रियाजी के भावनापरायण हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°29

पीतारुणच्छविमनन्ततडिल्लताभां

प्रौढानुराग मदविह्वल चारुमूर्त्तिम्।

प्रेमास्पदां व्रजमहीपति तन्महिष्योगोंविन्दवन्मनसि तां निदधामिराधाम् ।।29।।

जिनकी छवि पीत और अरुणिमा-मिश्रित स्वर्ण के समान है, आभा.अनन्त विद्युन्माला की दीप्ति के समान है । जिनकी सुन्दर मूर्त्ति प्रौढ अनुराग में विह्वल है और जो ब्रजराज एवं ब्रजरानी के लिए गोविन्द के समान प्रेमपात्र हैं। उन श्रीराधा को मैं अपने मन में धारण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°30

निर्मायचारुमुकुटं नव चन्द्रकेण

गुञ्जाभिरारचित हारमुपाहरन्ती।

वृन्दाटवी नवनिकुञ्ज गृहाधिदेव्याः

श्रीराधिके तव कदा भवितास्मि दासी।।30।।

स्वामिनि ! मैं नवीन-नवीन मयूर-चन्द्रिकाओं से निर्मित सुन्दर मुकुट एवं गुञ्जा-रचित हार आपके निकट पहुँचाऊँ। वृन्दावन नव-निकुञ्जगृह की अधिदेवी हे श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी दासी कब होऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°31

सङ्केत कुञ्जमनुपल्लवमास्तरीतुं

तत्तत्प्रसादमभित. खलु संवरीतुम् ।

त्वां श्यामचन्द्रमभिसारयितुं धृताशे

श्रीराधिके मयि विधेहि कृपा कटाक्षम् ॥31।।

स्वामिनि ! मैंने केवल यही आशा धारण कर रखी है कि उन-उन संकेत-कुजों में नवीन-नवीन पल्लवों की सुन्दर शय्या बिछाऊँ और वहाँ पर श्यामचन्द्र (श्रीलालजी) से मिलन कराने के लिए तुम्हें छिपाकर ले जाऊँ। तब आप मेरी इस सेवा से प्रसन्न हो उठें। हे श्रीराधिके ! आप तो मुझ पर अपने इतने ही कृपा-कटाक्ष का विधान कीजिए।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°32

दूरादपास्य स्वजनान्सुखमर्थे कोटि

सर्वेषु साधनवरेषु चिरं निराशः ।

वर्षन्तमेव सहजाद्भुत सौख्य धारां

श्रीराधिका चरणरेणुमहं स्मरामि ॥32।।

मैंने अपने स्वजन-सम्बन्धी वर्ग और कोटि-कोटि सम्पत्तियों के सुख को दूर से ही त्याग दिया है तथा (परमार्थ-सम्बन्धी) समस्त श्रेष्ठ साधनों में भी मेरी चिर निराशा हो चुकी है। अब तो मैं स्वभावतया अद्भुत सुख की धारा का हो वर्षण करने वाले श्रीराधिका-चरण-रेणु का स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°33

वृन्दाटवी प्रकट मन्मथ कोटि मूर्त्ते

कस्यापि गोकुलकिशोर निशाकरस्य ।

सर्वस्व सम्पुटभिव स्तनशातकुम्भ

कुम्भद्वयं स्मर मनो वृषभानुपुत्र्याः ॥33।।

हे मेरे मन ! तू श्रीवृषभानुनन्दिनी के स्वर्ण-कलशों के समान युगल स्तनों का स्मरण कर । जो वृन्दावन में प्रकट रूप से विराजमान कोटि कन्दर्प-मूर्त्ति किन्हीं गोकुल-किशोरचन्द्र के सर्वस्व-सम्पुट के समान हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°34

सान्द्रानुराग रससार सरः सरोजं

किं वा द्विधा मुकुलितं मुखचन्द्र भासा ।

तन्नूतन स्तन युगं वृषभानुजायाः

स्वानन्द सीधु मकरन्द घनं स्मरामि ॥34।।

घनीभूत प्रेम-रस-सार-सरोवर का एक सरोज मानो मुखचन्द्र का

प्रकाश पाकर दो रूपों में मुकुलित हो गया है और जो स्वानन्द-अमृत के

मकरन्द का सघन स्वरूप है, मैं श्रीवृषभानुनन्दिनी के उस नवीन स्तन-युग्म

का स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°35

क्रीडासरः कनक पङ्कज कुड्मलाय

स्वानन्दपूर्ण रसकल्पतरोः फलाय ।

तस्मै नमो भुवनमोहन मोहनाय,

श्रीराधिके तव नवस्तन मण्डलाय ।।35।।

श्रीराधिके ! केलि-सरोवर की कनक-पङ्कज-कली के समान अथवा

आपके अपने ही आनन्द से परिपूर्ण रसकरूपतरु के फल के समान त्रिभुवनमोहन श्रीमोहनलाल का भी मोहन करने वाले आपके नवीन स्तन-मण्डल

कों नमस्कार है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°36

पत्रावलीं रचयितुं कुचयोः कपोले

बद्धुं विचित्र कबरीं नव मल्लिकाभिः ।

अङ्गं च भूषयितुमाभरणैर्धृताशे

श्रीराधिके मयि विधेहि कृपावलोकम् ।।36।।

हे श्रीराधिके ! मैंने तो केवल यही आशा धारण कर रखी है और आप भी मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि का ऐसा ही विधान करें कि मैं आपके युगल-कुच-मण्डल और कपोलों पर  (चित्र-विचित्र) पत्रावली-रचना करू । मल्लिका के नवीन-नवीन पुष्पों को गूंथकर विचित्र रीति से आपका कबरीबन्धन करू’ और आपके सुन्दर सुकोमल अङ्गों में तदनुरूप आभरप आभूषित करूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°37

श्यामेति सुन्दरवरेति मनोहरेति

कन्दर्प-कोटि-ललितेति सुनागरेति ।

सोत्कण्ठमह्वि गृणती मुहुराकुलाक्षी

सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना ।।37।।

जो दिवस-काल में “हे श्याम ! हा सुन्दर वर ! हा मनोहर ! हे

कन्दर्प-कोटि-ललित ! अहो चतुर शिरोमणि !” ऐसे उत्कण्ठा-युक्त शब्दों से

बारम्बार गान करती हैं । वे आकुल-नयनी श्रीराधिका मुझ पर कब

प्रसन्न होंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°38

वेणुः करान्निपतितः स्खलितं शिखण्डं

भ्रष्टं च पीतवसनं व्रजराज सूनोः ।

यस्याः कटाक्ष शरपात विमूर्च्छितस्य

तां राधिका परिचरामि कदा रसेन ॥38।।

जिनके नयन-वाणों की चोट से श्रीव्रजराजकुमार की मुरली हाथ से छूट गिरती है। सिर का मोर-मुकुट खिसक चलता है और पीताम्बर भी स्थान-च्युत हो जाता है; यहाँ तक कि वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। अहा ! क्या मैं कभी ऐसी श्रीराधिका की प्रेम-पूर्वक परिचर्या करूँगी!

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°39

तस्या अपार रस-सार विलास-मूर्तेरानन्द-कन्द परमाद्भुत सौम्य लक्ष्म्याः ।

ब्रह्मादि दुर्गमगतेर्वृषभानुजायाः

कैङ्कय्र्यमेव ममजन्मनि-जन्मनि स्यात् ।।39।।

जो अपार रस – सार की विलास-मूर्त्ति, आनन्द की मूल एवं परमाद्भुत सुख की सम्पत्ति हैं एवं जिनकी गति ब्रह्मादि को भी दुर्गम है। उन श्रीवृषभानुनन्दिनीजू का कैङ्कर्य्य ही मुझे जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त

होता रहे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°40

पूर्णानुराग रसमूर्त्ति तडिल्लताभं

ज्योतिः परं भगवतो रतिमद्रहस्यम् ।

यत्प्रादुरस्ति कृपया वृषभानु गेहे

स्पास्किङ्करी भवितुमेव ममाभिलाषः ॥40।।

एक रहस्यमयी परम ज्योति है । जो परात्पर परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण को भी अपने आप में रमा लेती है। जिसकी कान्ति विद्युल्लता के समान देदीप्यमान् है और जो पूर्णतम अनुराग-रस की मूर्ति है । अहो !

कृपापूर्वक ही वह श्रीवृषभानु-भवन में प्रादुर्भूत हुई है। मेरी तो यही अभिलाषा है कि उसी की दासी हो रहूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°41

प्रेमोल्लसद्रस विलास विकास कन्दं

गोविन्द लोचन वितृप्त चकोर पेयम् ।

सिञ्चन्तमद्भुत रसामृत चन्द्रिकौरघैः

श्रीराधिकावदन-चन्द्रमहं स्मरामि ॥41।।

जो प्रेम से उल्लसित रम-विलास का विकास बीज है एवं गोविन्द के अतृप्त लोचन-चकोरों के लिये पेय स्वरूप है, उसी अद्भुत रसामृतचन्द्रिका-धारा-सिञ्चन कारी श्रीराधिका-मुख-चन्द्र का मैं स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°42

सङ्कत कुञ्ज निलये मृदुपल्लवेन

क्लृप्ते कदापि नव सङ्ग भयत्रपाढयाम् ।

अत्याग्रहेण करवारिरुहे गृहीत्वा

नेष्ये विटेन्द्र-शयने वृषभानुपुत्रीम् ॥42।।

मैं, रहस्य निकुन्ज गृह में कोमल-पल्लव-रचित रसिकेन्द्र-शय्या पर

नवीन सङ्गम के भय एवं लज्जा से भरी हुई श्रीवृषभानु-किशोरी को करकमल पकड़कर अत्यन्त आग्रह के साथ शयन-गृह में कभी ले जाऊँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°43

सद्गन्ध माल्य नवचन्द्र लवङ्ग सङ्ग

ताम्बूल सम्पुटमधीश्वरि मां वहन्तीम् ।

श्यामं तमुन्मद-रसादभि-संसरन्ती

श्रीराधिके कारणयानुचरीं विधेहि ।।43।।

 अधीश्वरि ! जब आप रस से उम्मद होकर श्रीलालजी के समीप पधारने लगें, उस समय मैं सुन्दर सुगन्धित मालाएं और नव-कर्पूर लवङ्गयुक्त ताम्बूल-सम्पुट (डवा) ले कर चलूं । हे श्रीराधिके ! कृपा करके आप.मुझे अपनी ऐसी ही अनुचरी बनाइये ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°44

श्रीराधिके तव नवोद्गम चारुवृत्त

वक्षोजमेव मुकुलद्वय लोभनीयम् ।

श्रीणीं दधद्रस गुणैरुपचीयमानं

कैशोरकं जयति मोहन-चित्त-चोरम् ॥44।।

हे श्रीराधिके ! चारु, वर्तुल, मुकुलित स्तन-द्वय द्वारा लोभनीय, नितम्ब विशिष्ट युक्त रस-स्वरूप श्रीकृष्ण के नित्य सेवनादि गुणों द्वारा बर्द्धमान् एवं मोहन के भी चित्त का हरण करने वाला आपका कैशोर जययुक्त हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°45

संलापमुच्छलदनङ्ग तरङ्गमाला

संक्षोभितेन वपुषा व्रजनागरेण ।

प्रत्यक्षरं क्षरदपार रसामृताब्धिं

श्रीराधिके तव कदा नु श्रृणोम्यदूरात् ।।45।।

अनेकों अनङ्गों की तरङ्गमाला उच्छलित हो-होकर जिनके श्रीवपु को आन्दोलित कर रही है. ऐसे व्रजनागर श्रीलालजी के साथ आप संलाप करती हों । जिस संलाप के अक्षर-अक्षर में अपार रसामृत-सिन्धु झरता

रहता है । हे स्वामिनि ! मैं समीप ही स्थित होकर आपके उस महामधुर संलाप को कब सुनूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°46

अङ्क स्थितेपि दयिते किमपि प्रलापं

हा मोहनेति मधुरं विदधत्यकस्मात् ।

श्यामानुराग मदविह्वल मोहनाङ्गी

श्यामामणिजयति कापि निकुञ्ज सीम्नि ।।46।।

यद्यपि अपने प्रियतम की गोद में स्थित हैं, फिर भी अकस्मात् ‘हा मोहन !’ ऐसा मधुर प्रलाप कर उठती हैं। ऐसी श्याम-सुन्दर के अनुरागमद से विह्वल मोहना ही कोई श्यामामणि निकुञ्ज-प्रान्त में जययुक्त विराजमान हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°47

कुजान्तरे किमपि जात-रसोत्सवायाः

श्रुत्वा तदालपित सिञ्जित मिश्रितानि ।

श्रीराधिके तब रहः परिचारिकाहं

द्वारस्थिता रस-हृदे पतिता कदा स्याम् ।।47।।

हे राधिके ! किसी अभ्यन्तर कुञ्ज-भवन में आप अपने प्रियतम के साथ किसी अनिर्वचनीय रसोत्सव में संलग्न हों, जिससे भूषण ध्वनि मिश्रित आपके मधुर आलाप का स्वर सुनाई दे रहा हो और मैं आपको एकान्त परिचारिका, कुञ्जद्वार में स्थित होकर उसे सुनें । और उसे सुनते ही प्रेम-विह्वल होकर रस के सरोवर में डूब जाऊँ । हे स्वामिनि ! ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°48

वीणां करे मधुमतीं मधुर-स्वरां तामाधाय नागर-शिरोमणि भाव-लीलाम् ।

गायन्त्यहो दिनमपारमिवाश्रु-वर्षैदुःखान्नयन्त्यहह सा हृदि मेऽस्तु राधा ॥48।।

अहो ! जो स्वर-लहरी भरी अपनी मधुमती नाम्नी वीणा को उठाकर कर-कमलों में धारण करके अपने प्रियतम नागर-शिरोमणि श्रीलालजी.की भाव-लीलाओं को गाती रहती हैं और बड़ी कठिनता से अपार सा दिन अश्रुओं को वर्षा द्वारा व्यतीत करती हैं। अहह ! ऐसी प्रेम-विह्वला श्रीराधा मेरे हृदय में निवास करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°49

अन्योन्यहास परिहास विलास केली

वैचित्र्य जृम्भित महारस-वैभवेन ।

वृन्दावने विलसतापहृतं विदग्धद्वन्द्वेन केनचिदहो हृदयं मदीयम् ॥49।।

अहो ! पारस्परिक हास-परिहास युक्त विविध-विलास-केलि की विचित्रता से उच्छलित महा रस-विभव के द्वारा श्रीवृन्दावन में विलास करने वाले किन्हीं विदग्ध युगल ने मेरे हृदय का अपहरण कर लिया है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°50

महाप्रेमोन्मीलन्नव रस सुधा सिन्धु लहरी परीवाहैर्विश्वं स्नपयदिव नेत्रान्त नटनैः ।

तडिन्माला गौरं किमपि नव कैशोर मधुरं पुरन्ध्रीणां चूडाभरण नवरत्नं विजयते ॥50।।

जिनके चपल नेत्रों का नर्तन ही महान्तम प्रेम के विकास का नूतनरस से परिपूर्ण सुधासिन्धु है । जिसकी लहरियों के प्रबाह से मानों विश्व को स्नान करा रही हैं। जो विद्युत-पंक्ति के समान गौर और समस्त ब्रजनव तरुणियों की नव-रत्न हैं- शिरोमणि भूषण हैं, वे कोई नव मधुर किशोरी सर्वोपरिता को प्राप्त है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 51

अमन्द प्रेमाङ्कश्लथ सकल निर्बन्धहृदयं

दयापारं दिव्यच्छवि मधुर लावण्य ललितम् ।

अलक्ष्यं राधाख्यं निखिलनिगमैरप्यतितरां रसाम्भोधेः सारं किमपि सुकुमारं विजयते ।।51।।

तीव्र प्रेम के कारण जिनके हृदय के समस्त बन्धन (आग्रह) शिथिल हो चुके हैं, जो दया की सीमा हैं एवं जिनकी दिव्य-छवि लावण्य-माधुर्य से अति-ललित हो रही है, वे निखिल-निगमों को भी अत्यन्त अलक्षित,

रस-समुद्र की सार-स्वरूपा कोई एक अनिर्वचनीय सुकुमारी है । उन श्रीराधा की जय हो, विजय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 52

दुकूलं विभ्राणामथ कुच तटे कंचुक पटं

प्रसादं स्वामिन्याः स्वकरतल दत्तं प्रणयतः।

स्थितां नित्यं पाश्र्व विविध परिचर्य्यैक चतुरां

किशोरीमात्मानं किमिह सुकुमारीं नु कलये ।।52।।

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अहो! मैं अपनी स्वामिनीजी के निज कर-कमलों के स्नेह-पूर्वक दिए हुए प्रसाद रूप दुकूल और कञ्चुकि-पट को अपनी कुच-तटी में धारण करूंगी और सदा अपनी स्वामिनी के पाव में स्थित रहकर विविध परिचाओं में चतुर सुकुमारी किशोरी के रूप में अपने आपको क्या यहाँ देखूँगी।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 53

विचिन्वन्ती केशान् क्वचन करजैः कंचुक पटं क्व चाप्यामुञ्चन्ती कुच कनक दीव्यत्कलशयोः ।

सुगुल्फे न्यस्यन्ती क्वचन मणि मञ्जीर युगलं कदा स्यां श्रीराधे तव सुपरिचारिण्यहमहो।।53।।

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अहो श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी सुपरिचारिका कब बनूंगी? जो कभी अपने कर-नखों से आपके केशों को सुलझाऊँ ? कभी आपके कनककलशों के समान गोल-गोल देदीप्यमान कुच-कलशों पर कञ्चुकि-पट धारण कराऊँ ? तो कभी आपके दोनों सुहावने गुल्फों में मणि के मञ्जीर युगल (नूपुर) पहनाऊँ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 54

अतिस्नेहादुच्चैरपि च हरिनामानि गृणतस्तथा सौगन्धाद्यैर्बहुभिरुपचारैश्च यजतः।

परानन्दं वृन्दावनमनुचरन्तं च दधतो मनो मे राधायाः पद मृदुल पद्मे निवसतु ॥54।।

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मैं अत्यन्त स्नेह-पूर्वक उच्च स्वर से श्रीहरि के नामों का गान करती रहूँ; सुगन्ध आदि अनेक उपचारों से उनका पूजन करती रहै तथा श्रीवृन्दावन में अनुचरण करती हुई परमानन्द को धारण करती रहूँ, इसके

साथ-साथ मेरा मन निरन्तर श्रीराधिका के मृदुल पाद – पद्मों में बसा रहे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 55

निज प्राणेश्वर्य्या यदपि दयनीयेयमिति मां

मुहुश्चुम्बत्यालिङ्गति सुरत मद माध्चव्या मदयति ।

विचित्रां स्नेहर्द्धि रचयति तथाप्यद्भुत गतेस्तवैव श्रीराधे पद रस विलासे मम मनः।।55।।

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‘मेरी प्राणेश्वरी की यह दया पात्र है’, ऐसा जानकर अद्भुत गतिशोल प्रियतम मेरा बार-बार चुम्बन करते हैं, और सुरत-मदिरा से मुझे उन्मद बना देते हैं । यद्यपि वे इस प्रकार विचित्र स्नेह-वैभव की रचना करते हैं; तथापि हे श्रीराधे ! मेरा मन तो आपके ही श्रीचरणों के रसबिलास में रहता है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 56

प्रीतिं कामपि नाम मात्र जनित प्रोद्दाम रोमोद्गमां राधा माधवयोः सदैव भजतोः कौमार एवोज्वलाम् ।

वृन्दारण्य नव-प्रसून निचयानानीय कुञ्जान्तरे गूढं शैशय खेलनैर्बत कदा कार्यो विवाहोत्सवः ॥56।।

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श्रीराधा – माधव किसी अनिर्वचनीय उज्ज्वल प्रीति – पूर्ण कौमार अवस्था का ही सेवन करते रहते हैं, जिनमें परस्पर के नामोच्चारण-मात्र में ही प्रफुल्लता-पूर्वक समस्त गेम पुलकित हो उठते हैं । अहो ! क्या कभी ऐसा होगा कि मैं श्रीवृन्दावन से नवीन-नवीन पुष्प चयन करवे लाऊँ, तथा

शैशवावस्था के खेल ही खेल में किसी गूढ़ कुञ्ज के भीतर हर्ष के साथ दोनों का विवाहोत्सव करूँ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 57

विपञ्चित सुपञ्चमं रुचिर वेणुना गायता

प्रियेण सहवीणया मधुरगान विद्यानिधिः ।

करीन्द्रवनसम्मिलन्मद करिण्युदारक्रमा कदा नु वृषभानुजा मिलतु भानुजा रोधसि ॥57।।

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जैसे मदमाती करिणी वन में गजराज से मिलन प्राप्त करने के लिये उदार गति से आती हो, ऐसे ही जो मद-गज-माती गति से पाद-विन्यास करती हुई श्रीयमुना के पुलिन पर आ पधारी हैं । तथा अपनी वीणा में सुमधुर गान करती हैं, क्योंकि इस कला की आप निधि हैं। अहा ! आपकी

 वीणा के पञ्चम स्वर में मिलाकर श्रीलालजी ने भी अपने वेणु की तान

छेड़ दी है । ऐसी श्रीवृषभानु-नन्दिनी अपने प्रियतम के साथ मुझे यमुना-तट पर कब मिलेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 58

सहासवर मोहनाद्भुत विलास रासोत्सवे

विचित्रवर ताण्डव श्रमजलाद्री गण्डस्थलौ।

कदा नु वरनागरी रसिक शेखरौ तौ मुदा

भजामि पद लालनाल्ललित जीवनं कुर्वती ।।58।।

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परम मनोहर हास-युक्त अद्भुत विलास-रासोत्सव में विचित्र और

उत्तमोत्तम नृत्य की गतियों के लेने से जिनके युगल गण्डस्थल श्रम-जल (प्रम्वेद) से गीले हो रहे हैं । जन नागरी-मणि श्रीप्रियाजी और रसिकशेखर श्रीलालजी के पद-कमलों के लालन से जीवन को सुन्दर बनाती हुई, कब आनन्द पूर्वक उनका भजन करूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 59

वृन्दारण्य निकुंज मंजुल गृहेष्वात्मेश्वरीं मार्गयन् हा राधे सविदग्ध दर्शित पथं किं यासिनेत्यालपन् ।

कालिन्दो सलिले च तत्कुच तटी कस्तूरिका पङ्किले स्नायं स्नायमहो कुदेहजमलं जह्यां कदा निर्मलः ॥59।।

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“हा राधे ! मैंने चतुर-सङ्गत द्वारा जो पथ आपको दिखलाया है, उस पर न चलोगी क्या ?” मै इस प्रकार विलाप करती और श्रीवृन्दावन के मंजुल निकुञ्ज-गृहों में आपको खोजती हुई फिरूँ तथा आपकी कुच-तटीचर्चित कस्तूरी से पङ्किल कालिन्दी-सलिल में बारम्बार स्नान करके अपने कुदेह-जनित मल को त्यागकर कब निर्मल होऊंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°60

पादस्पर्श रसोत्सवं प्रणतिभिर्गोविन्दमिन्दीवर

श्यामं प्रार्थयितु सुमंजुल रहः कुञ्जाश्च संमार्जितुम् ।

माला चन्दन गन्ध पूर रसवत्ताम्बूल सत्पानकान्यादातु च रसैक दायिनि तव प्रेष्या कदा स्यामहम् ॥60।।

रस की एकमात्र दाता मेरी स्वामिनि ! प्रणति के द्वारा आपके चरणों का स्पर्श ही जिनके लिये रसोत्सव रूप है, ऐसे इन्दीवर श्याम को आपके प्रति प्रार्थित करूं, सुन्दर सुमञ्जुल एकान्त निकुञ्ज-भवन का

मार्जन करूँ, तथा पुष्प-माल, चन्दन, इत्रदान (परिमल पात्र ), रस युक्त

ताम्बूल और अनेक प्रकार के सुस्वादु पेय पदार्थ आपके कुच-भवन में पहुँचाऊं, भला, कभी ऐसी टहल करने वाली दासी रूप में आप मुझे स्वीकार करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°61

लावण्यामृत वार्तया जगदिदं संप्लावयन्ती शरद्राका चन्द्रमनन्तमेव वदनं ज्योत्स्नाभिरातन्वती।

श्री वृन्दावनकुञ्ज मंजु गृहिणी काप्यस्ति तुच्छामहो कुर्वाणाखिल साध्य साधन कयां दत्वा स्वदास्योत्सवम्।।61।।

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जो इस जगत् को अपनी सौन्दर्य-सुधा-वाणी से संप्लावित करती हैं तथा जो अपने श्रीमुख की ज्योत्स्ना से मानो शरत्कालीन अनन्त चन्द्रमाओं का प्रकाश विस्तार करती हैं । अहो ! आश्चर्य है कि श्रीवृन्दावन

मजुल-निकुञ्ज-भवन की उन्हीं अनिर्वचनीय स्वामिनी ने अपनी सेवा का आनन्द देकर समस्त साध्य-साधन कथाओं को मेरे लिये तुच्छ कर दिया है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°62

दृष्ट्या क्वचन विहिता म्त्रेडने नन्दसूनोः

प्रत्याख्यानच्छलत उदितोदार संकेत-देशा।

धूर्तेन्द्र त्वद्भयमुपगता सा रहो नीपवाटयां नैका गच्छेत्कितव कृतमित्यादिशेत्कर्हि राधा ॥62।।

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हे कितव ! हे धूर्त्तशिरोमणि ! आपके दो-तीन-बार प्रार्थना करने पर (उसके उत्तर रूप में) जिन्होंने अपनी दृष्टि के द्वारा उदार संकेत स्थान का निर्देश कर दिया है ऐसी श्रीराधा तुम्हारे वचनों की आशङ्कावश (भयवश) तुमसे मिलने न जा सकेंगी; तब अनुचरी रूप में सङ्ग चलने के लिये मुझे कब आदेश करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°63

सा भ्रूनर्तन चातुरी निरुपमा सा चारुनेत्राञ्चले लीला खेलन चातुरी वरतनोस्तादृग्वचश्चातुरी।

संकेतागम चातुरी नव नव क्रीडाकला चातुरी

राधाय। जयतात्सखीजन परीहासोत्सवे चातुरी ।।63।।

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अहा ! श्रीराधा की निरुपम भृकुटियों की वह नर्तन् चातुरी! सुन्दर-सुन्दर नयन-कोरों का वह लीला-पूर्ण कटाक्ष ! एवं वर-वदनी

श्रीस्वामिनी की मनोहर वचन-चातुरी ! एकान्त में आगमन-निर्गमन की चातुरी के साथ-साथ नवीन केलि-कलाओं की विदग्धता और सखिजनों के हास-परिहास आनन्द की चातुरी ! सभी एक से एक बढ़कर हैं-सभी उत्कृष्ट हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°64

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उन्मीलन मिथुनानुराग गरिमोदार स्फुरन्माधुरी धारा-सार धुरीण दिव्य ललितानङ्गोत्सवः खेलतोः ।

राधा-माधवयोः परं भवतु नः चित्ते चिरार्त्तिस्पृशो कौमारे नव-केलि शिल्प लहरी शिक्षादि दीक्षा रसः ॥64।।

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श्रीराधा-माधव की कौमार-कालीन नवीन-केलि चातुरो-तरङ्गों की परस्पर उपदेश-रूप शिक्षा-दीक्षा का रस परावधि रूप से मेरे चित्त में उदित हो । अहा ! कितने मधुर हैं, ये थीराधा माधव ? दोनों के हृदयों में महानतम उदार अनुराग का विकाश हो रहा है, जिससे माधुर्य-धारा की सारधुरीण का स्फुरण हो रहा है । वह धुरीण क्या है ? दोनों की दिव्यतम ललित अनङ्ग उत्सव की क्रीड़ा, जो कुमार अवस्था में ही चित्त में बड़ी भारी आर्त्ति को उत्पन्न कर रही है, जिससे दोनों परस्पर एक दूसरे के श्रीअङ्गों का बारम्बार स्पर्श कर रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°65

कदा वा खेलन्तौ वजनगर वीथीषु हृदयं

हरन्तौ श्रीराधा व्रजपति कुमारौ सुकृतिनः ।

अकस्मात् कौमारे प्रकट नव कैशोर-विभवौ

प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादि निरतौ ॥65।।

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क्या कभी मैं श्रीराधा और श्रीव्रजपति-कुमार का दर्शन करके पूर्णता

को प्राप्त होऊँगी? जो किसी समय ब्रज-नगर की वीथियों में खेलते-फिरते

एकान्त पाकर अकस्मात् कोमारावस्था को त्याग कर नव किशोरता के वैभव को प्रकट करके दिव्य हास-परिहास में संलग्न हो गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम-केलि से सुकृती-जनों के हृदय का अपहरण कर रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°66

धम्मिल्लं ते नव परिमलैरुल्लसत्फुल्ल मल्लीमालं भालस्थलमपि लसत्सान्द्र सिन्दूर-बिन्दुम् ।

दीर्घापाङ्गच्छविमनुपमां चन्द्रांशु हासं प्रेमोल्लासं तव तु कुचयोर्द्वन्द्वमन्तः स्मरामि ॥66।।

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हे श्रीराधे ! सौरभ – उल्लसित – नूतन फुल्लमल्ली – माल – गुम्फित

आपकी वेणी, ललाट-पटल पर शोभित अत्यन्त लाल सिन्दूर विन्दु, बड़े-बड़े

नयनों की अनुपम कटाक्षच्छवि, प्रेमोल्लास-पूर्ण चाँदनी के समान मनोहर

हास और आपके युगल बक्षोज की रहस्यता का मैं स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°67

लक्ष्मी कोटि विलक्ष्य लक्षण लसल्लीला किशोरीशतैराराध्यं व्रजमण्डलेति मधुरं राधाभिधानं परम् ।

ज्योतिः किञ्चन सिञ्चदुज्ज्वलरस प्राग्भावमाविर्भवद्राधे चेतसि भूरि भाग्य विभवैः कस्याप्यहो जृम्भते ॥67।।

जिन व्रज-सुन्दरियों की लीलाओं में कोटि-कोटि लक्ष्मी-समूहों के विशेष लक्षणीय लक्षण शोभा पाते हैं, उन्हीं शत-शत किशोरियों का जो आराध्य है, एवं उज्ज्वल रस के प्रारम्भिक भाव का सिञ्चन करता हुआ देदीप्यमान (ज्योति-स्वरूप ) अति मधुर, श्रेष्ठ, श्रीराधा नामक तत्व है। वह [श्रीराधा तत्व ] ब्रजमण्डल-स्थित किसी भाग्यवान् ( महापुरुष ) के ध्यान-विभावित चित्त में महाभाग्य वैभव से ही विस्तार को प्राप्त होता है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°68

तज्जीयान्नव यौवनोदय महालावण्य लीलामयं सान्द्रानन्द घनानुराग घटित श्रीमूर्त्ति सम्मोहनम् ।

वृन्दारण्य निकुंज-केलि ललितं काश्मीर गौरच्छवि श्रीगोविन्द इव व्रजेन्द्र गृहिणी प्रेमैक पात्रं महः ॥68।।

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जो अपने नवीन यौवन के उदय-काल में महान्तम सौन्दर्य-लीला से युक्त है तथा जो घनीभूत आनन्द एवं घनानुराग-रचित मूर्त्ति श्रीलालजी का सम्मोहन कर लेता है, जिसकी गौर छवि नवीन केशर के समान है, जो श्रीवृन्दावन-निकुञ्ज-केलि में अति ललित है और जो ब्रजेन्द्र-गृहिणी यशोदा

किंवा कीर्तिदा के लिये श्रीगोविन्द के समान प्रेम का एक ही पात्र है, वह कोई अनिर्वचनीय तेज जय-जयकार को प्राप्त हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°69

प्रेमानन्द-रसैक-वारिधि महा कल्लोलमालाकुला व्यालोलारुण लोचनाञ्चल चमत्कारेण संचिन्वती।

किञ्चित् केलिकला महोत्सवमहो वृन्दाटवी मन्दिरे नन्दत्यद्भुत काम वैभवमयी राधा जगन्मोहिनी ॥69।।

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अहो ! प्रेमानन्द-रस के महान् समुद्र की तरङ्ग-मालाओं से आकुल एवं अपने अरुण और चम्चल नेत्राञ्चलों के चमत्कार (कटाक्ष) से केलिकला-महोत्सव का सिञ्चन करती हुई अद्भुत प्रेम-वैभवमयी जगन्मोहिनी अनिर्वचनीय श्रीराधा वृन्दावन के निकुञ्ज मन्दिर में आनन्द-बिहार

करती हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°70

वृन्दारण्य निकुञ्ज सीमनि नव प्रेमानुभाव भ्रमद्भ्रूभङ्गी लव मोहित व्रज मणिर्भक्तैक चिन्तामणिः ।

सान्द्रानन्द रसामृत स्रवमणिः प्रोद्दाम विद्युल्लता कोटि-ज्योतिरुदेति कापि रमणी चूडामणिर्मोहिनी ॥70।।

जिन्होंने नवीन प्रेमानुभाव-प्रकाशन-पूर्ण चञ्चल भ्र-भङ्गी के लेगमात्र से ही ब्रज-मणि श्रीलालजी को मोहित कर लिया, जो भक्तों के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये एक ही चिन्तामणि हैं, जो घनीभूत आनन्द रसामृत की निर्झरिणी-रूपा मणि हैं और जिनकी अङ्ग-ज्योति अत्यन्त प्रकाशमान कोटि-कोटि विद्युल्लताओं के समान है, वे कोई अनिर्वचनीया महा-मोहिनी रमणी-चूड़ामणि वृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में उदित हो रही हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°71

लीलापाङ्ग तरङ्गतैरुदभवन्नेकैकशः कोटिशः

कन्दर्पाः पुरदर्पटंकृत महाकोदण्ड विस्फारिणः ।

तारुण्य प्रथम प्रवेश समये यस्या महा माधुरीधारानन्त चमत्कृता भवतु नः श्रीराधिका स्वामिनी ॥71।।

जिनके तरुणावस्था के प्रथम प्रवेश-काल में ही हाव-भाव पूर्वक किये गये एक-एक अपाङ्ग-नर्तन से अत्यन्त दर्प-पूर्ण महा कोदण्ड की टङ्कार को शनैः-शनैः विस्फारित करने वाले कोटि-कोटि कन्दर्प उत्पन्न होते हैं, ऐसी महामाधुरी की अनन्त धाराओं से चमत्कृत श्रीराधिका हो मेरी स्वामिनी हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°72

यत्पादाम्बुरुहेक रेणु-कणिकां मूध्र्ना निधातुं न हि प्रापुर्ब्रह्म शिवादयोप्यधिकृतिं गोप्यैक भावाश्रयाः ।

सापि प्रेमसुधा रसाम्बुधिनिधी राधापि साधारणीभूता कालगतिक्रमेण बलिना हे दैव तुभ्यं नमः ॥72।।

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ओ दैव ! तुझे नमस्कार है ! धन्य है तेरी महिमा ! जिससे प्रेरित होकर काल-क्रम के प्रभाव-वश प्रेमात-रस-समुद्र श्रीलालजी की भी निधि.श्रीराधिका साधारण (सुलभ) हो गई हैं ! अहो ! जो गोपियों के भावों को

एक मात्र आश्रय हैं और जिनकी चरण-कमलों की रेणु के कण-मात्र को

ब्रह्मा, शिव आदि भी अपने सिर पर धारण करने की इच्छा रखते हुए भी प्राप्त नहीं कर पाते।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°73

दूरे स्निग्ध परम्परा विजयतां दूरे सुहृन्मण्डली भृत्याः सन्तु विदूरतो ब्रजपतेरन्य प्रसंगः कुतः।

यत्र श्रीवृषभानुजा कृत रतिः कुञ्जोदरे कामिना, द्वारस्था प्रिय किडुरी परमहं श्रोष्यामि कांची ध्वनिम् ॥73।।

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जहाँ कुञ्ज-भवन अभ्यन्तर भाग में परम-प्रेमी श्रीलालजी एवं श्रीवृषभानुनन्दिनीजू को रति-केलि होती रहती है, ब्रजपति श्रीलालजी के स्नेहीजनों की परम्परा वहाँ से दूर ही विराजे, एवं उनके सखा-गण भी दूर ही विराजमान रहें । भृत्य-वर्ग के लोग तो और भी दूर रहें । (इन लोगों के अतिरिक्त) अन्य-जनों का तो वहाँ प्रसङ्ग ही उपस्थित नहीं होता! यहाँ तो केवल उनकी परम-प्रिय किङ्करी ही द्वार पर स्थित रहकर विहारावसर क्वणित काञ्ची-ध्वनि श्रवण करती है या मैं श्रवण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°74

गौराङ्गे म्रदिमा स्मिते मधुरिमा नेत्रांचले द्राघिमा वक्षोजे गरिमा तथैव तनिमा मध्ये गतौ मन्दिमा ।

श्रोण्यां च प्रथिमा भ्रुवोः कुटिलिमा बिम्बाधरे शोणिमा श्रीराधे हृदि ते रसेन जडिमा ध्यानेऽस्तु मे गोचरः ॥74।।

हे श्रीराधे ! आपके गौर-अङ्गों की मृदुलता, मन्द-मुस्कान की माधुरी, नेत्राञ्चलों की दीर्घता, उरोजों की पीनता, कटि-प्रान्त की

क्षीणता, पाद-न्यास की धीरता, नितम्ब-देश की स्थूलता, भ्रूलताओं की कुटिलता अधर-बिम्बों की रक्तिमा (ललाई) एवं आपके हृदय की रसावेशजन्य जड़ता मेरे ध्यान में प्रकट हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°75

प्रातः पीतपटं कदा व्यपनयाम्यन्यांशु कस्यार्पणात् कुञ्जे विस्मृत कञ्चुकीमपि समानेतुं प्रधावामि वा।

बध्नीयां कवरों युनज्मि गलितां मुक्तावलीमञ्जये नेत्रे नागरि रङ्गकैश्चपि दधाम्यङ्गं व्रर्ं वा कदा ॥75।।

हे नागरि! किसी समय प्रातःकाल आपने किसी का पीत-पट भ्रम में बदलकर पहिन लिया होगा, तब मैं उसे बदलकर नीलाम्बर धारण कराऊँगी । इसी प्रकार निकुञ्ज-भवन में आप अपनी कञ्चुकि भूल आई होगी, मैं दौड़कर उसे शीघ्रता पूर्वक लाऊँगी । विहार में आपकी कबरी

शिथिल हो गई होगी, उसे मैं पुनः बाँधकर संवार दूंगी। आपकी मुक्तामाल टूट गई होगी, उसे पिरो दूंगी और आपके नेत्रों में फिर से अञ्जन लगाकर, कस्तूरी, कुंकुम, मलय आदि के द्वारा अङ्गों के नख-क्षतों को लेपित कर दूंगी। स्वामिनि ! क्या कभी ऐसा होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°76

यद्वृन्दावन – मात्र गोचरमहो यन्नश्रुतीकं शिरोप्यारोढुं क्षमते न यच्छिव शुकादीनां तु यद्ध्यानगम् ।

यत्प्रेमामृत – माधुरी रसमयं यन्नित्य कैशोरकं तद्रूपं परिवेष्टुमेव नयनं लोलायमानं मम ।।76।।

अहो ! जो केवल श्रीवृन्दावन में ही दृष्टिगोचर होता है, अन्यत्र.नहीं। जिसका वर्णन करने में श्रुति-शिरोभाग उपनिषद् भी समर्थ नहीं हैं। जो शिव और शुक आदि के भी ध्यान में नहीं आता। जो प्रेमामृत-माधुरी

से परिपूर्ण है और जो नित्य किशोर है । उस रूप को देखने के लिये मेरे नेत्र खोजते फिरते हैं-चञ्चल हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°77

धर्माद्यर्थ चतुष्टयं विजयतां किं तद्वृथा वार्तया सैकान्तेश्वर – भक्तियोग पदवी त्वारोपिता मूर्द्धनि ।

यो वृन्दावन सोम्नि कञ्चन घनाश्चर्य्यः किशोरीमणिस्तत्कैङ्कयै रसामृतादिह परं चित्ते न मे रोचते ॥77।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये उत्तम चार फल यदि विश्व में उत्कृष्टता को प्राप्त हैं तो भले ही रहें, हमें इनकी व्यर्थ चर्चा से क्या ? और ईश्वर की उस एकान्त भक्ति-योग-पदवी को भी हम सिर-माथे चढ़ाते है, अर्थात् भक्ति-योग का आदर तो करते हैं पर उससे भी क्या लेना-देना

है ? हमारे चित्त को तो श्रीवृन्दावन की सीमा में विराजमान किसी घनीभूत आश्चर्यरूपा किशोरी-मणि के कैङ्कर्य रसामृत के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°78

प्रेम्णः सन्मधुरोज्ज्वलस्य हृदयं श्रृंगारलीलाकला वैचित्री परमावधिर्भगवतः पूज्यैव कापीशता ।

ईशानी च शची महासुख तनुः शक्तिः स्वतन्त्रा परा श्रीवृन्दावन नाथ पट्टमहिषी राधैव सेव्या मम ॥78।।

जो मधुर और उज्ज्वल प्रेम की प्राण-स्वरूपा, श्रृङ्गार-लीला की विचित्र कलाओं की परम अवधि, भगवान् श्रीकृष्ण की आराधनीया कोई अनिर्वचनीया शासन-की हैं। जो ईश्वर-रूप श्रीकृष्ण की शची हैं तथा परम सुखमय वपु-धारिणी परा और स्वतंत्रा शक्ति हैं । वे श्रीवृन्दावननाथ-श्रीलालजी की पटरानी श्रीराधा ही मेरी सेव्या-आराधनीया हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°79

राधा दास्यमपास्य यः प्रयतते गोविन्द सङ्गाशया सोयं पूर्ण सुधारुचेः परिचयं राकां विना कांक्षति ।

किञ्च श्याम रति-प्रवाह’ लहरी बीजं न ये तां विदुस्ते प्राप्यापि महामृताम्बुधिमहो बिन्दु परं प्राप्नुयुः ॥

जो लोग श्रीराधा के चरणों का सेवन छोड़कर गोविन्द के सङ्गलाभ की चेष्टा करते है, वे तो मानों पूणिमा-तिथि के बिना ही पूर्ण सुधाकर का परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। वे अज्ञ यह नहीं जानते कि

श्याम-सुन्दर के रति-प्रवाह की लहरियों का बीज यही श्रीराधा हैं। आश्चर्य है कि ऐसा न जानने से ही वे अमृत का महान् समुद्र पाकर भी उसमें से केवल एक बूंद मात्र ही ग्रहण कर पाते हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°80

कैशोराद्भुत माधुरी-भर धुरीणाङ्गच्छविं राधिका प्रेमोल्लास भराधिका निरवधि ध्यायन्ति ये तद्धियः ।

त्यक्ताः कर्मभिरात्मनैव भगवद्धर्मेप्यहो निर्ममाः सर्वाश्चर्य गतिं गता रसमयीं तेभ्यो महद्भ्यो नमः॥80।।

किशोरावस्था के अद्भुत माधुरी-प्रवाह से जिनके अङ्ग अङ्ग की छबि सर्वाग्रगण्य हो रही है, तथा जो प्रेमोल्लास-प्रवाह के द्वारा सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त हैं, ऐसी श्रीराधिका का जो महापुरुष तद्गत-चित्त से निरन्तर

ध्यान करते हैं, उन्होंने कमों को नहीं छोड़ा, वरन् कर्मों ने ही उन्हें छोड़ दिया है और वे परम श्रेष्ठ भगवद्धर्म की ममता से भी मुक्त होकर सर्वाश्चर्य पूर्ण परम रस-मयी गति को प्राप्त हो चुके हैं। उन महान पुरुषों

के लिये बारम्बार नमस्कार है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°81

लिखन्ति भुजमूलतो न खलु

शंख-चक्रादिकं विचित्र हरिमन्दिरं न रचयन्ति भालस्थले।

लसत्तुलसि मालिकां दधति कण्ठपीठे न वा

गुरोर्भजन विक्रमात्क इह ते महाबुद्धयः ॥81।।

श्रीगुरु के भजन रूप पराक्रम-युक्त वे कोई महाबुद्धिमान् पुरुष-गण इस पृथ्वी पर विरले ही हैं, जो न तो अपने बाहु-मूल में कभी शङ्ख-चक्रादि (वैष्णव-चिह्न) धारण करते और न कभी ललाट-पटल पर विचित्र हरिमन्दिर (तिलक) ही रचते हैं और न उनके कण्ठ-भाग में सुहावनी तुलसी की मालिका ही धारण होती है । (उन्हें तो इन सब बाह्य लक्षणों की सुधि ही नहीं, वे किसी अन्तरङ्ग रस में डूब रहे हैं।)

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°82

कर्माणि श्रुति बोधितानि नितरां कुर्वन्तु कुर्वन्तु मा गूढाश्चर्य्य रसाः स्त्रगादि विषयान्गृह्लन्तु मुञ्चन्तु वा।

कर्वा भाव-रहस्य पारग-मतिः श्रीराधिका प्रेयसः किञ्चिज्ज्ञैरनुयुज्यतां वहिरहो भ्राम्यद्भिरन्यैरपि ॥82।।

गूढाश्चर्य रूप उज्ज्वल रसाश्रित रसिक-गण वेदोक्त कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करें या न करें, माला,चन्दन आदि विषय-समूह अर्थात् भोगविलास के उपकरण गृहण करें या न करें। इससे उनको न कोई हानि है और

न लाभ ही । अहो ! श्रीराधाकान्त के भाव में पारङ्गत-मति ऐसे रसिक क्या.कभी अल्पज्ञ, वहिर्मुख अथवा अन्य सकाम पुरुषों में से किसी के साथ मिल सकते हैं ? क्या कभी इस प्रकार के लोगों के साथ उनका मेल खा सकता है ? नहीं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°83

अलं विषय वार्तया नरक कोटि वीभत्सया,

वृथा श्रुति कथाश्रमो वत विभेमि कैवल्यतः।

परेश-भजनोन्मदा यदि शुकादयः किं ततः,

परं तु मम राधिका पदरसे मनो मज्जतु ॥83।।

विषय-चर्चा बहुत हो चुकी, इसे बन्द करो; क्योंकि यह कोटि-कोटि नरकों के समान घृणित है । श्रुति-कथा भी व्यर्थ श्रम ही है । अहो ! हमें तो कैवल्य से भय प्रतीत होता है (क्योंकि वह नाम-रूप रहित है) । परम पुरुष भगवान् के भजन में उन्मत्त यदि कोई शुक आदि हैं, तो रहने दो; हमें उनसे क्या प्रयोजन ? हमारा मन तो केवल श्रीराधा के पद रस में ही डूबा रहे, (यह अभिलाषा है।)

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°84

तत्सौन्दय्र्य स च नववयो यौवनश्री प्रवेशः

सा दृग्भङ्गी स च रसघनाश्चर्य वक्षोज कुम्भः।

सोयं विम्बाधर मधुरिमा तत्स्मितं सा च वाणी सेयं लोला गतिरपि न विस्मर्यते राधिकायाः ॥84।।

अहा ! स्वामिनी श्रीराधिका का वह सौन्दर्य ! वह नवीन वय में यौवन-श्री का प्रवेश ! वह नेत्रों को भङ्गिमा ! घनीभूत रस और आश्चर्य से परिपूर्ण वे युगल स्तन-कलश ! इसी प्रकार लाल विम्बाफलों के समान अधरों की बह मधुरिमा, साथ ही मन्द-मन्द मुसकान और रसमयी वाणी ! एवं वह सोलापूर्ण पाद-न्यास (मन्द-मन्द चलना) तो भूलता ही नहीं !!

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°85

यल्लक्ष्मी शुक नारदादि परमाश्चय्र्यानुरागोत्सवैः प्राप्तं त्वत्कृपयैव हि व्रजभृतां तत्तत्किशोरी-गणैः ।

तत्कैङ्कर्य्यमनुक्षणाद्भुत रसं प्राप्तुं धृताशे मयि श्रीराधे नवकुञ्ज नागरि कृपा-दृष्टिं कदा दास्यसि ॥85।।

हे नव- कुञ्ज नागरि ! मैं आपके उस कैङ्गय्र्य-प्राप्ति की आशा को धारण किये हुए हैं। जिससे क्षण-क्षण में अद्भुत रस की प्राप्ति होती है और जिसे उन अनुराग-उत्सव मयी ब्रज-किशोरी गणों ने प्राप्त किया था, जिन गोपी-जनों के अनुराग-उत्सव की लालसा लक्ष्मी, शुक, नारद आदि को भी रहती है। हे श्रीराधे ! मेरे लिये आप अपनी उस कृपा-दृष्टि का दान क्या कभी करोगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°86

लब्ध्वादास्यं तदति कृपया मोहन स्वादितेन,

सौन्दर्यश्री पदकमलयोर्लालनैः स्वापितायाः ।

श्रीराधाया मधुर-मधुरोच्छिष्ट पीयूष सारं,

भोजं-भोजं नव-नव रसानन्द मग्नः कदा स्याम् ॥86।।

श्रीस्वामिनीजी के युग-पद-कमल सौन्दर्यश्री की राशि हैं। उन चरणों को अच्छी तरह से पलोट कर प्यारे ने आपको शयन करा दिया है और श्री लालजी ने आपके मधुर-मधुर अमृत-सार रूप उच्छिष्ट प्रसाद को आपकी अत्यन्त कृपा से प्राप्त करके स्वाद लिया है, मैं उसी प्रसाद को प्राप्त करूं। इस प्रकार मैं आपका दास्य प्राप्त करके कब नव रसानन्द में मग्न होऊँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°87

यदि स्नेहाद्राधे दिशसि रति-लाम्पटय पदवीं

गतं ते स्वप्रेष्ठं तदपि मम निष्ठं शृणु यथा।

कटाक्षैरालोके स्मित सहचरैर्जात पुलकं

समाश्लिष्याम्युरचैरथ च रसये त्वत्पद रसम् ॥87।।

हे राधे ! रति-लाम्पटय-पदवी-प्राप्त अपने प्रियतम के प्रति जब आप स्नेहवश मुझे सौंप देंगी तब भी मेरी निष्ठा क्या होगी, उसे सुनिये-“मैं मन्द-मन्द मुसकान के साथ तिरछे नेत्रों से प्यारे की ओर देखूँगी बस

इतने मात्र से ही उनका शरीर रोमाञ्चित हो जायगा । पश्चात् मैं उन्हें.पुनः एक गाढ़-आलिङ्गन भी करूंगी, जिससे और भी वे प्रेम-विह्वल हो जावेंगे किन्तु इतना सब होते हुए भी मुझे आपके रस-मय चरण-कमलों का ही रसानुभव होगा”।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°88

कृष्णः पक्षो नवकुवलयं कृष्ण सारस्तमालो,

नीलाम्भोदस्तव रुचिपदं नाम रूपैश्च कृष्णा ।

कृष्णे कस्मात्तव विमुखता मोहन-श्याम मूर्ता,

वित्युक्त्वा त्वां प्रहसित मुखीं किन्नु पश्यामि राधे ॥88।।

“हे श्रीराधे ! कृष्ण-पक्ष अथवा श्रीकृष्ण के पक्ष वाले, नवीन नीलकमल, कृष्ण-सार मृग, श्याम-तमाल, नोल सजल मेघ एवं कृष्णा नाम रूप वाली कृष्णा (यमुना) ये सब के सब आपको प्रिय हैं, फिर क्या कारण है कि आपने श्याम-मूर्ति मनमोहन श्रीकृष्ण से ही विमुखता धारण कर

रखी है”? स्वामिनि ! इस प्रकार कहने के पश्चात् क्या मैं आपको प्रहसितमुखी (विगत-माना) न देख सकूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°89

लीलापाङ्गतरङ्गितैरिव दिशो नीलोत्पल श्यामला, दोलायत्कनकाद्रि मण्डलमिव व्योमस्तनैस्तन्वतीम् ।

उत्फुल्लस्थल पङ्कजामिव भुवं रासे पदन्यासतः श्रीराधामनुधावतीं व्रज-किशोरीणां घटां भावये ॥89।।

जिनके लीला-पूर्ण कटाक्षों की तरंगें मानों समस्त दिशाओं को नील-कमल की श्यामलता प्रदान करती हैं एवं जिनके स्तन-मण्डल आकाश में दोलायमान् कनक-गिरि का विस्तार करते हैं। जिनके द्वारा रास-मण्डल में किया गया.पाद-विन्यास पृथ्वी को प्रफुल्लित स्थल-कमल (गुलाब) की तरह सुशोभित करता है। श्रीराधा की अनुगामिनि उन व्रज-किशोरी-गणों की मैं भावना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°90

दृशौ त्वयि रसाम्बुधौ मधुर मीनवद्भ्राम्यतः,

स्तनौ त्वयि सुधा-सरस्यहह चक्रवाकाविव ।

मुखं सुरतरङ्गिणि त्वयि विकासि हेमाम्बुजं,

मिलन्तु मयि राधिके तव कृपा तरङ्गच्छटाम् ॥90।।

अहो राधिके ! आपका सम्पूर्ण श्रीवपु ही मानो एक विशाल रससमुद्र है। उस रस-सागर में आपके युगल-नयन ही मानों मीन की तरह भ्रमण करते फिरते हैं , एवं सुधा-सरिता में विहार करने वाले युगल

चक्रवाक आपके ये स्तन-द्वय ही हैं । हे सुरतरङ्गिणि ! आपका यह गौरमुख ही मानों विकसित स्वर्ण-कमल है । स्वामिनि ! मुझे आपके कृपातरङ्ग की छटा प्राप्त हो।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°91

कान्ताढ्याश्चय्र्य कान्ता कुलमणि कमला कोटि काम्यैक पादाम्भोजभ्राजन्नखेन्दुच्छवि लव विभवा काप्यगम्याकिशोरी।

उन्मर्याद प्रवृद्ध प्रणय-रस महाम्भोधि गम्भीर-लीला, माधुय्र्योज्जृम्भिताङ्गी मयि किमपि कृपा-रङ्गमङ्गी करोतु ॥91।।

जो अपने कान्त-धन से धनी हैं, जो आश्चर्यमयी कान्ताओं की कुलमणि हैं। जिनके पद-कमल-शोभी नख-चन्द्र का कान्ति-कण कोटि-कोटि कमलाओं का एक मात्र इच्छित वैभव है, एवं जिनका श्रीअङ्ग अमर्यादित प्रवृद्धमान् प्रणय-रस रूप महासिन्धु के गम्भीर लीला-माधुर्य से उल्लसित है। वे कोई सबसे अगम्य किशोरी अपने कृपा-रस से रञ्जित करके क्या मुझे

अङ्गीकार करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°92

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी-पुलिन मालती-मन्दिरे,

प्रविष्ट वनमालिनाललित-केलि लोली-कृते।

प्रतिक्षण चमत्कृताद्भुतरसैक-लीलानिधे,

विधेहि मयि राधिके तव कृपा-तरङ्गच्छटाम् ॥92।।

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी यमुना के पुलिनवर्ती मालती-मन्दिर में प्रवेश करके वनमाली श्रीलालजी ने अपनी ललित-केलि से जिनको चञ्चल कर दिया है, तथा प्रतिक्षण जिनसे अद्भुत लीला-रस का समुद्र चमत्कृत होता रहता है, ऐसी हे राधिके ! आप अपनी कृपा-तरङ्ग-छटा का मुझ पर

विस्तार कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°93

यस्यास्ते बत किङ्करीषु बहुशश्चाटूनि वृन्दाटवी, कन्दर्पः कुरुते तवैव किमपि प्रेप्सुः प्रसादोत्सवम् ।

सान्द्रानन्द घनानुराग-लहरी निस्यंदि पादाम्बुज, द्वन्द्वे श्रीवृषभानुनन्दिनि सदा वन्दे तव श्रीपदम् ॥93।।

वृन्दाटवी-कन्दर्प श्रीलालजी आपके प्रसादोत्सव की वाञ्छा से आपकी किङ्करियों की अत्यन्त हर्ष-पूर्वक अधिकाधिक चाटुकारी करते हैं तथा आपके जिन युगल चरण-कमलों से सदा ही घनीभूत आनन्द एवं अनुराग की लहरी प्रवाहित होती रहती है; हे वृषभानुनन्दिनि ! मैं आपके उन्हीं श्रीचरणों की सदा वन्दना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°94

यज्जापः सकृदेव गोकुलपतेराकर्षकस्तत्क्षणा

द्यत्र प्रेमवतां समस्त पुरुषार्थेषु स्फुरेत्तुच्छता।

यन्नामाङ्कित मन्त्र जापनपरः प्रीत्या स्वयं माधवः श्रीकृष्णोऽपि तदद्भुतं स्फुरतु मे राधेति वर्णद्वयम् ॥94।।

जिसका एक-बार मात्र उच्चारण गोकुल-पति श्रीकृष्ण को तत्क्षण आकर्षित करने वाला है, जिससे प्रेमियों के लिये अर्थ, धर्मादि समस्त पुरुषार्थों में तुच्छता का स्फुरण होने लगता है, एवं जिस नाम से अङ्कित

मन्त्रराज ( द्वादशाक्षर-मन्त्र ) के जपने में माधव श्रीकृष्ण भी सदा-सर्वदा प्रीति-पूर्वक संलग्न रहते हैं । वही अत्यद्भुत दो वर्ण ‘राधा’ मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°95

कालिन्दी-तट कुञ्ज-मंदिरगतो योगीन्द्र वद्यत्पदज्योतिर्ध्यान परः सदा जपति यां प्रेमाश्रुपूर्णो हरिः।

केनाप्यद्भुतमुल्लसद्गतिरसानन्देन सम्मोहिता,

सा राधेति सदा हृदि स्फुरतु मे विद्यापरा द्वयक्षरा ॥95।।

योगीन्द्रों के समान जिनकी चरण-ज्योति के ध्यान-परायण होकर प्रेमाश्रु-पूर्ण नेत्र तथा गद्-गद् वाणी से कालिन्दी-तट के किसी निकुञ्जमन्दिर में विराजमान् श्रीहरि भी स्वयं जिस नाम का जप करते हैं । वही

अनिर्वचनीय अद्भुत उल्लासमय एवं रति-रसानन्द से सम्मोहित ‘राधा’ इन दो अक्षरों को पराविद्या मेरे हृदय में सदा स्फुरित रहे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°96

देवानामथ भक्त मुक्त सुहृदामत्यन्त दूरं च यत्,

प्रेमानन्द रसं महा सुखकरं चोच्चारितं प्रेमतः ।

प्रेम्णाकर्णयते जपत्यथ मुदा गायत्यथालिष्वयं, जल्पत्यश्रुमुखो हरिस्तदमृतं राधेति मे जीवनम् ॥96।।

जो देवताओं, भक्तों, मुक्तों और स्वयं श्रीलालजी के सुहृद्-वर्गों से भी अत्यन्त दूर है, जो प्रेमानन्द-रस स्वरूप है, जो प्रेम-पूर्वक उच्चरित होने पर महा सुखकर है। श्रीलालजो स्वयं जिसको श्रवण करते एवं जप करते हैं अथवा सखी-गणों के मध्य में प्रीति-पूर्वक गान भी करते हैं और कभी प्रेमाश्रु-पूर्ण मुख से जिसका बारम्बार उच्चारण करते हैं, वही ‘श्रीराधा’ नामामृत मेरा जीवन है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°97

या वाराधयति प्रियं व्रजमणिं प्रौढानुरागोत्सवैः,

संसिद्धयन्ति यदाश्रयेण हि परं गोविन्द सख्युत्सुकाः ।

यत्सिद्धिः परमापदैक रसवत्याराधनाते नु सा

श्रीराधा श्रुतिमौलि-शेखर-लता नाम्नी मम प्रीयताम् ॥97।।

जिस प्रकार ब्रजमणि प्रियतम उनका आराधन करते हैं, उसी प्रकार वे भी प्रकृष्ट अनुराग के उल्लास से परिपूर्ण होकर अपने प्रियतम का आराधन करती हैं। गोविंद के साथ सख्य-भाव-प्राप्ति के लिये उत्सुक-जन

भी जिनके आश्रय से परम-सिद्धि को प्राप्त होते हैं, जिनके आराधन से परम पद रूपा कोई रसवती सिद्धि प्राप्त होती है, वही श्रीराधा नाम्नी श्रुति-मौलि-शेखर-लता मुझ पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°98

गात्रे कोटि तडिच्छवि प्रविततानन्दच्छवि श्रीमुखे,

विम्बोष्ठे नव विद्रुमच्छवि करे सत्पल्लवैकच्छवि।

हेमाम्भोरुह कुड्मलच्छवि कुच-द्वन्द्वेऽरविन्देक्षणं,

वन्दे तन्नव कुञ्ज-केलि-मधुरं राधाभिधानं महः ॥98।।

जिसके गात्र में कोटि-कोटि दामिनियों की छवि है, जिसके मुख से मानो आनन्द-रूप छवि का ही विस्तार हो रहा है। विम्बोष्ठ में नव-विद्रुम की छवि तथा करों में सुन्दर नवीन पल्लवों की छवि जगमगा रही है।

जिसके युगल कुचों में स्वर्ण-कमल की कलियों की छवि है, उसी अरविन्दनेत्रा, नव-कुश-केलि-मधुरा राधा-नामक ज्योति की मैं वन्दना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°99

मुक्ता-पंक्ति प्रतिमदशना चारुविम्बाधरोष्ठी,

मध्येक्षामा नव-नव रसावर्त गम्भीर नाभिः।

पीन-श्रोणिस्तरुणि मसमुन्मेष लावण्यसिन्धुर्वैदग्धीनां किमपि हृदयं नागरी पातु राधा ।।99।।

जिनकी मनोहर दन्तावली मुक्तापंक्ति के तुल्य है, चारु अधरोष्ठ बिम्बा-फल के समान हैं; कटि अत्यन्त क्षीण है और गम्भीर नाभि में नवनव रसों की भंवरें पड़ रही हैं। जिनका नितम्ब-देश विशेष पीन (पृथुल)

है, तथा नव-यौवन के विकास के कारण जो लावण्य की सिन्धु बन रही हैं। किन्हीं परम विदग्धाओं (चतुराओं) में भी कोई अनिर्वचनीय मणि रूपा नागरी श्रीराधा मेरी रक्षा करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°100

स्निग्धा कुञ्चित नील केशि विदलद्विम्बोष्ठि चन्द्रानने, खेलत्खञ्जन गञ्जनाक्षि रुचिमन्नासाग्र मुक्ताफले ।

पीन-श्रोणि तनूदरि स्तन तटी वृत्तच्छटात्यद्भुते, राधे श्रीभुजवल्लि चार वलये स्वं रूपमाविष्कुरु ॥100।।

हे सचिक्कन नील-कुञ्चित केशिनि ! हे पक्व-विम्बाधरे ! हे चन्द्रानने ! हे चञ्चल बजन-मान-मर्दन नयने ! हे रुचिर नासान-भागशोभित-मुक्ताफले ! हे पृथु-नितम्बे ! हे कृशोदरि ! स्तन तटी स्थित अद्भुत वर्तुल छटा युक्त हे श्रीराधे !

 हे भुजल्लि चारु बलये !! आप अपने (इस) रूप का (मेरे लिये) प्रकाश कीजिये-प्रत्यक्ष कीजिये ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°101

लज्जान्तः पटमारचय्य रचितस्मायं प्रसूनाञ्जलौ, राधाङ्गे नवरङ्ग धाम्नि ललित प्रस्तावने यौवने ।

श्रोणी-हेम-वरासने स्मरनृपेणाध्यासिते मोहने, लीलापाङ्ग विचित्र ताण्डव-कला पाण्डित्यमुन्मीलति ।।101।।

लज्जा-यवनिका डालकर मुसकान पुष्पाञ्जलि की रचना द्वारा ललित यौवन की प्रस्तावना की गई है। जहाँ कन्दर्प-नृपति द्वारा अधिष्ठित श्रोणी ही स्वर्ण-सिंहासन है। उस नव-रङ्ग-भूमि रूप श्रीराधाङ्ग में लीलापूर्ण कटाक्षों का विचित्र ताण्डव-कला-पाण्डित्य प्रकाशित हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°102

सा लावण्य चमत्कृतिर्नव वयो रूपं च तन्मोहनं, तत्तत्केलि कला-विलास-लहरी-चातुर्यमाश्चर्य भूः ।

नो किञ्चित् कृतमेव यत्र न नुतिर्नागो न वा सम्भ्रमो,.राधा-माधवयोः स कोपि सहजः प्रेमोत्सवः पातु वः ।।102।।

अहा ! जिसमें लावण्य का वह चमत्कार ! वह नवीन वय और महा मोहन रूप ! वह केलि-कला-विलास की तरङ्गों की चातुरी विद्यमान है। जिस सर्वाश्चर्य की भूमि में। जहाँ किञ्चित् मात्र सोद्देश्य कर्म भी नहीं

है। जहाँ न तो स्तुति है, न अपराध और न सम्भ्रम ही। श्रीराधा-माधव का ऐसा कोई अनिर्वचनीय और स्वाभाविक प्रेमोत्सव तुम्हारी (रसिकजनों की) रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°103

येषां प्रेक्षां वितरति नवोदार गाढानुरागान्,

मेघश्यामो मधुर-मधुरानन्द मूर्तिर्मुकुन्दः ।

वृन्दाटव्यां सुमहिम चमत्कार कारीण्यहो किं,

तानि प्रेक्षेद्भुत रस निधानानि राधा पदानि ॥103।।

जिन चरणारविन्दों की महिमा श्रीवृन्दा कानन में चमत्कृत हो रही है। जो रस के अद्भुत निधान हैं एवं नवीन और उदार अनुराग-पूर्ण मधुर-मधुरानन्द-मूर्ति घनश्याम मुकुन्द भी जिनके दर्शन की अभिलाषा का

विस्तार करते रहते हैं; वे श्रीराधा-पद-कमल क्या मेरे नयन-गोचर होंगे?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°104

वलान्नीत्वा तल्पं किमपिपरिरभ्याधर-सुधां,

निपीय प्रोल्लिख्य प्रखर-नखरेण स्तनभरम् ।

ततो नीवीं न्यस्ते रसिक-मणिना त्वत्कर-धृते,

कदा कुञ्जच्छिद्रे भवतु मम राधेनुनयनम् ॥104।।

राधे ! रसिक-शिरोमणि प्रियतम ने आपको आग्रह पूर्वक केलिशय्या पर ले जाकर किसी अनिर्वचनीय प्रकार से परिरम्भण करके अधरसुधा का पान किया हो और उन्होंने अपने प्रखर नखों से आपके स्तनमण्डल को रेखाड़ित किया हो, तत्पश्चात् आपके दोनों कर-कमलों को

पकड़ कर नीबी-बन्धन का मोचन कर दिया हो; मैं निकुञ्ज भवन में रन्ध्र से लगी यह सब कब देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°105

करं ते पत्रालि किमपि कुचयोः

कर्तुमुचितं, पदं ते कुञ्जेषु प्रियमभिसरन्त्या अभिसृतौ।

दृषौ कुञ्जच्छिद्रैस्तव निभृत-केलिं

कलयितुं, यदा वीक्षे राधे तदपि भविता किं शुभ दिनम् ॥105।।

हे श्रीराधे ! मेरा ऐसा शुभ-दिन कब होगा, जब मैं आपके कुच-तटों पर अनिर्वचनीय पत्र-रचना करने के योग्य अपने हाथों को, कुञ्जो में प्रियतम के प्रति अभिसरण करती हुई आपका अनुगमन करने योग्य अपने

पदों को, एवं कुञ्ज-छिद्रों से आपकी रहस्य-केलि दर्शन-योग्य अपने दोनों

नयनों को देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°106

रहो गोष्ठी श्रोतुं तव निज विटेन्द्रेण ललितां,

करे धृत्वा त्वां वा नव-रमण-तल्पे घटयितुम् ।

रतामर्दस्त्रस्तं कचभरमथो संयमयितुं,

विदध्याः श्रीराधे मम किमधिकारोत्सव-रसम् ॥106।।

हे श्रीराधे ! आपके अति लम्पट प्रियतम के साथ आपका अपना मधुर रहस्यालाप श्रवण करने का, अथवा हाथ पकड़कर आपको नव-रमण शय्या तक पहुँचाने का, एवं केलि-सम्मद-विगलित आपके केश-पाश को संयत करने का अधिकारोत्सव-रस, क्या आप मुझे प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°107

वृन्दाटव्यां नव-नव रसानन्द पुञ्जे निकुञ्जे,

गुञ्जभृङ्गी-कुल मुखरिते मञ्जु- मञ्जु प्रहासै ।

अन्योन्य क्षेपण निचयन प्राप्त सङ्गोपनाद्यैः

क्रीडज्जीयासिक मिथुनं क्लृप्त केली-कदम्बम् ॥107।।

श्रीवृन्दावन-स्थित नव-नव रसानन्द-पुञ्ज-निकुञ्ज जो गुञ्जन-शील

भृङ्गी-कुल द्वारा मुखरित है, वहाँ मधुर-मधुर परिहास-पूर्वक परस्पर (गेंद) फेंकने, संग्रह करने और प्राप्त करके छुपा लेने, इत्यादि क्रीड़ाओं में रत केलि-समूह-सुसज्जित रसिक-मिथुन जय का प्राप्त हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°108

रूपं शारद-चन्द्र-कोटि-वदने धम्मिल्लमल्लीस्रजामामोदैर्विकली कृतालि-पटले राधे कदा तेऽद्भुतम् ।

ग्रैवेयोज्वल कम्बु-कण्ठि मृदुदोर्वल्ली चलत्कङ्कणे, वीक्षे पट्ट-दुकूल-बासिनि रणन्मञ्जीर पादाम्बुजे ॥108।।

हे शरत्कालीन कोटि चन्द्रवदने ! हे केश-पाश-गुम्फित-मल्लीमालआमोद-द्वारा भ्रमरावलि-विकल-कारिणे ! हे उज्ज्वल कण्ठाभरण – युक्त कम्बु-ग्रीवे ! हे मृदुल – वाहुवल्लरि – संचलत्कङ्कणे ! हे कौशेय दुकलधारिणि ! हे शब्दित नूपुर पादाम्बुजे ! हे श्रीराधे ! क्या मैं कभी आपके इस अद्भुत रूप को देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°109

इतोभयमितस्त्रपा कुलमितो यशः

श्रीरितोहिनस्त्यखिल शृङ्खलामपि सखीनिवासस्त्वया।

सगद्गद्मुदीरितं सुबहु मोहना काङ्क्षया,

कथं कथमयीश्वरि प्रहसितैः कदा म्त्रेडयसे ।।109।।

“अयि स्वामिनि ! सखी-निवास श्रीलालजी ने आपकी सुवहुल मोहन आकाङ्क्षा से एक ओर भय, दूसरी ओर लज्जा, इधर कुल तो उधर यश और श्री इत्यादि अखिल शृंखलाओं को तुम्हारे लिये ही नष्ट कर

दिया है”। मेरी इस सगद्गद् वचनावली को सुनकर आप ‘क्या-क्या’ कहकर हंसती हुई पूंछेगी, ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°110

श्यामेचाटुरुतानि कुर्वति सहालापान्प्रणेत्री मया, गृह्लाने च दुकूल पल्लवमहो हुङ्कृत्य मां द्रक्ष्यसि ।

विभ्राणे भुजवल्लिमुल्लसितया रोमस्रजालङ्कृतां, दृष्ट्वा त्वां रसलीन मूर्तिमथ किं पश्यामि हास्यं ततः ॥110।।

हे प्रणयिनि ! श्याम-सुन्दर तो आपकी चाटुकारी कर रहे हों, किन्तु आप मुझसे वार्तालाप कर रही हों और जब श्याम-सुन्दर आपके दुकूलपल्लव को पकड़ लें तब भी आप हुङ्कार-पूर्वक मेरी ओर ही (किञ्चित् रोषयुक्त) दृष्टि से देखें। जब प्रियतम आपकी भुजलता को पकड़ लें, तब आप उल्लसित होकर रोमावली से अलङ्कृत हो उठे । क्या आपकी ऐसी रसलीन मूर्ति को देखकर पश्चात् आपके हास्य को देखूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°111

अहो रसिक शेखरः स्फुरति कोपि वृन्दावने,

निकुञ्ज-नव-नागरी कुच-किशोर-केलि-प्रियः ।

करोतु स कृपां सखी प्रकट पूर्ण नत्युत्सवो,

निज प्रियतमा-पदे रसमये ददातु स्थितिम् ॥111।।

अहो ! नव-निकुञ्ज में नव-नागरी के कुचों के साथ किशोर-केलि जिन्हें प्रिय है एवं जो सखियों के प्रति निःसंकोच एवं पूर्ण विनय में ही हर्ष प्राप्त करते हैं, वे कोई रसिक-शेखर श्रीवृन्दावन में स्फुरित हो रहे हैं। ये मुझ पर कृपा करें और अपनी प्रियतमा के रसमय पद-कमलों में मुझे अविचल स्थान दें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°112

विचित्र वर भूषणोज्ज्वल-दुकूल-सत्कञ्चुकैः,

सखीभिरतिभूषिता तिलक-गन्ध-माल्यैरपि ।

स्वयं च सकला-कलाषु कुशली कृता नः कदा, सुरास-मधुरोत्सवे किमपि वेशयेत्स्वामिनी ॥112।।

जो सखि-गणों के द्वारा विचित्र एवं श्रेष्ठ आभूषण, उज्ज्वल दुकूल, उत्कृष्ट कन्चुकि, तिलक और गन्ध माल्यादि से विभूषित की गई हैं, एवं जिन्होंने समस्त विद्याओं एवं कलाओं में स्वयं ही हमें सुशिक्षित किया है वे स्वामिनी श्रीराधा सुरास-मधुरोत्सव में हमें कब प्रवेश देंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°113

कदा सुमणि किङ्किणी वलय

नूपुर प्रोल्लसन्, महामधुर मण्डलाद्भुत-विलास-रासोत्सवे।

अपि प्रणयिनो वृहद्भुज गृहीत कण्ठयो वयं,

परं निज रसेश्वरी-चरण-लक्ष्म बीक्षामहे ॥113।।

उत्कृष्ट मणिमय किङ्किणि, वलय, नूपुर-शोभित महा-मधुर मण्डल

के अद्भुत विलास-रासोत्सव में प्रियतम श्रीलालजी के द्वारा गृहीत-कण्ठ

होने पर भी हम कब केवल निज रसेश्वरी श्रीराधा के चरण-चिह्नों का ही

दर्शन करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°114

यद्गोविन्द-कथा-सुधा-रस-हृवे चेतो मया जृम्भितम्, यद्वा तद्गुण कीर्तनार्चन विभूषाद्यैर्दिनं प्रापितम् ।

यद्यत्प्रीतिरकारि तत्प्रिय-जनेष्वात्यन्तिकी तेन मे, गोपेन्द्रात्मज-जीवन-प्रणयिनी श्रीराधिका तुष्यतु ॥114।।

जो कुछ भी मैंने गोविन्द के कथा-सुधा-रस-सरोवर में अपने चित्त

को डुबाया है अथवा उनके गुण-कीर्तन, चरणार्चन, विभूषणादि-विभूषित करने में दिन लगाये हैं किंवा उनके प्रिय-जनों के प्रति जिस-जिस आत्यतिकी प्रीति का विधान किया है [या मेरे द्वारा हुआ है.] उस सबके द्वारा (फल स्वरूप) गोपेन्द्र-नन्दन श्रीकृष्ण की जीवन-प्रणयिनी  मुझ पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°115

रहो दास्य तस्या किमपि वृषभानोर्व्रजवरीयसः पुत्र्याः पूर्ण प्रणय-रस मूर्तेर्यदि लभे।

तदा नः किं धर्मैः किमु सुरगणैः किंच विधिना, किमीशेन श्याम प्रियमिलन-यत्नैरपि च किम् ॥115।।

यदि ब्रज-वरीयान् वृषभानुराय की पूर्ण-प्रेम-रस-मूर्ति पुत्री (दुलारी)

का हमें एकांत दास्य-लाभ हो जाय, तो फिर हमें धर्म से, देवता-गणों से,

ब्रह्मा और शङ्कर से, और अरे ! श्याम-सुन्दर के प्रिय-मिलन-यत्न से भी

क्या प्रयोजन है?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°116

नन्द्रास्ये हरिणाक्षि देवि सुनसे शोणाधरे सुस्मिते, चिल्लक्ष्मी भुजवल्लि कम्बु रुचिर ग्रीवे गिरीन्द्र-स्तनि ।

भञ्जन्मध्य वृहन्नितम्ब कदली खण्डोरु पादाम्बुजे, प्रोन्मीलन्नख-चन्द्र-मण्डलि कदा राधे मयाराध्यसे ।।116।।

हे चन्द्रवदनि ! हे मृग लोचनि ! हे देवि ! हे सुनासिके ! हे अरुण अधरे ! हे सुस्मिते ! हे सजीव शोभाशाली भुजवल्लि-युक्ते ! हे रुचिर शङ्खग्रीवे ! हे कनक-गिरि स्तन-मण्डले ! हे क्षीण-मध्ये ! हे पृथु नितम्बे ! हे कदली-खण्डोपम जानु-शालिनी ! हे चरण-कमलोद्भासित नख-चन्द्रमण्डल-भूषिते । हे श्रीराधे ! मैं आपकी आराधना कब करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°117

राधा-पाद-सरोजभक्तिमचलामुद्वीक्ष्य निष्कैतवां, प्रीतः स्वं भजतोपि निर्भर महा प्रेम्णाधिकं सर्वशः ।

आलिङ्गत्यथ चुम्बति स्ववदनात्ताम्बूलमास्येर्पयेत्, कण्ठे स्वां वनमालिकामपि मम न्यस्येत्कदा मोहनः ।।117।।

श्रीराधा-चरण-कमलों में मेरी नियपट एवं अचला प्रीति ( भक्ति).देखकर श्रीप्रियाजी के अद्वितीय भक्त (प्रेमी) श्रीमोहनलाल महाप्रेमाधिक्यपूरित निर्भर प्रीति-पूर्वक मेरा आलिङ्गन करके चुम्बन-दान करेंगे एवं अपना चर्षित-ताम्बूल मेरे मुख में देकर अपनी बनगाला भी मेरे कण्ठ में पहना देगे। ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°118

लावण्यं परमाद्भुतं रति-कला-चातुर्य्यमत्यद्भुतं, कान्तिः कापि महाद्भुता वरतनोर्लीलागतिश्चाद्भुता।

दृग्भङ्गी पुनरद्भुताद्भुततमा यस्याः स्मितं चाद्भुतं, सा राधाद्भुत मूर्त्तिरद्भुत रसं दास्यं कदा दास्यति ॥118।।

जिनका लावण्य परमाद्भुत है, जिनकी रति-कला-चातुरी अति अद्भुत है, जिन श्रेष्ठ-वपु की कोई अवर्णनीय कान्ति भी महा अद्भुत है, एवं जिनकी लीला-पूर्ण गति भी अति अद्भुत है । अहा ! जिनकी नेत्रभङ्गिमा अद्भुत से भी अद्भुततम है और जिनकी मन्द मुस्कान भी अद्भुत है, वे अद्भुत-मूर्त्ति श्रीराधा अपना अद्भुत रस-स्वरूप-दास्य मुझे कब प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°119

भ्रमद्भृकुटि सुन्दरं स्फुरित चारु विम्बाधरं,

गृहे मधुर हुङ्कृतं प्रणय-केलि-कोपाकुलम् ।

महारसिक मौलिना सभय कौतुकं बीक्षितं स्मरामि तव राधिके रतिकला सुखं श्रीमुखम् ॥119।।

हे श्रीराधिके ! मैं आपके रति-कला-सुख-पूर्ण श्रीमुख का स्मरण

करती हूँ । अहा ! जिसमें भृकुटियों का सुन्दर नर्तन हो रहा है, चारु विम्बाधर कुछ-कुछ फड़क रहे हैं। प्रियतम श्याम-सुन्दर के द्वारा भुज-लता के पकड़े जाने से मधुर हुङ्कार-स्वर निकल रहा है एवं जिसे महा-रसिकमौलि श्रीलालजी अत्यन्त भय एवं कौतुक-मय दृष्टि से देखते ही रहते हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°120

उन्मीलन्मुकुटच्छटा परिलसद्दिक्चक्रवालं स्फुरत्केयूराङ्गदहार-कङ्कणघटा निर्धूत रत्नच्छवि।

श्रोणी-मण्डल किङ्कणी कलरवं मञ्जीर-मञ्जुध्वनिं, श्रीमत्पादसरोरुहं भज मनो राधाभिधानं महः ॥120।।

हे मेरे मन ! तू तो श्रीराधा नामक ज्योति का ही भजन कर ! जिनके देदीप्यमान् मुकुट की छटा से दिशा-मण्डल विलसित हो रहा है। जो केयूर, अङ्गद, हार और कङ्कणों की छटा से रत्नों की शोभा को परास्त कर रही है। जिसमें नितम्ब-मण्डल की किङ्किणियों का कलरव हो रहा है

एवं चरण-कमलों के नपुरों की मधुर ध्वनि शब्दित हो रही है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°121

श्यामा-मण्डल-मौलि-मण्डन-मणिः श्यामानुरागस्फुरद्रोमोद्भेद विभाविता कृतिरहो काश्मीर गौरच्छविः ।

सातीवोन्मद कामकेलि तरला मां पातु मन्दस्मिता, मन्दार-द्रुम-कुंज-मन्दिर-गता गोविन्द-पट्टेश्वरी॥121।।

अहो ! जो समस्त नव-तरुणि-मौलि ललितादि सहचरियों की भी भूषण – मणि रूपा हैं, जिनकी आकृति श्यामानुराग – जन्य देदीप्यमान् रोमोद्गम से चिह्नित है, जिनकी गौर छवि केशर-तुल्य है एवं जो अतीव उन्मद काम केलि से तरल (चञ्चल ) हो रही हैं। वे कोई मन्दस्मिता,

मन्दार-द्रुम-कुञ्ज-मन्दिर-स्थिता, गोविन्द-पट्टेश्वरी मेरी रक्षा करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°122

उपास्य चरणाम्बुजे व्रज-भ्रता किशोरीगणैर्महद्भिरपि पूरुषैरपरिभाव्य

भावोत्सवे।

अगाध रस धामनि स्वपद-पद्य सेवा विधौ,

विधेहि मधुरोज्ज्वलामिव-कृतिं ममाधीश्वरि ॥122।।

हे व्रज – श्रेष्ठ किशोरी – गणाराध्य चरणाम्बुजे ! हे नारदादि महत्पुरुषों से भी अचिन्त्य भावोत्सवे ! हे स्वामिनि ! आप अगाध रस-धाम अपने चरण-कमलों की सेवा-विधि में मेरे लिये मधुर एवं उज्ज्वल कर्त्तव्य का ही विधान कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°123

आनम्राननचन्द्रमीरित दृगापाङ्गच्छटा मन्थरं,

किञ्चिद्दर्शिशिरोवगुण्ठनपटं लीला-विलासावधिम् ।

उन्नीयालक-मंजरी कररुहैरालक्ष्य सन्नागरस्याङ्गेङ्गं तव राधिके सचकितालोकं कदा लोकये ॥123।।

हे श्रीराधिके ! क्या मैं कभी आपके लीला-बिलास-अवधि सचकित

अवलोकन का विलोकन करूंगी? कब? जब नागर-शिरोमणि श्रीलालजी के अङ्गों से आपके अङ्ग परस्पर आलिङ्गन-बद्ध होंगे, मैं अपने नखों से  आपकी अलक-मारी को ऊपर उठाकर देखूँगी कि आप अपने आनम्र मुखचन्द्र से कटाक्षों की छटा का प्रसरण कर रही हैं-वक्र अवलोकन कर रहीं

हैं; और उस छटा का दर्शन शिरोवगुण्ठन-पट से किञ्चित्-किञ्चित् ही

हो रहा होगा।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°124

राकाचन्द्रो वराको यदनुपम रसानन्द कन्दाननेन्दोस्तत्ताद्यक चंद्रिकाया अपि किमपि कलामात्र कस्याणुतोपि ।

यस्याः शोणाधर श्रीविधृत नव-सुधा-माधुरी-सार-सिन्धुः, सा राधा काम-बाधा विधुर मधुपति-प्राणदा प्रीयतां नः ॥124।।

जिनके अनुपम रसानन्द-कन्द मुख-चन्द्र को चन्द्रिका की कला के अणु से भी पूर्णिमा का चन्द्रमा तुच्छ है और जिनके गुलाबी अधरों ने सौन्दर्य-श्री की नव-सुधा-माधुरी के सार-रूप सिन्धु को धारण कर रखा है,

वे काम-बाधा-दुखित (विधुर) मधुपति श्रीलालजी की जीवन-दायिनि श्रीराधा हम पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°125

राकानेक विचित्र चन्द्र उदितः प्रेमामृत-ज्योतिषां, वीचीभिः परिपूरयेदगणित ब्रह्माण्ड कोटिं यदि ।

वृन्दारण्य-निकुञ्ज-सीमनि तदाभासः परं लक्ष्यसे*, भावेनैव यदा तदैव तुलये राधे तव श्रीमुखम् ॥125।।

यदि अनेक-अनेक विचित्र राका-शशि उदित होकर अपनी प्रेमामृतज्योतिर्मयी तरङ्गों से अगणित कोटि ब्रह्माण्डों को आपूरित कर दें। तत्पश्चात् श्रीवृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में (स्थित) आप उसके आभास को

भाव-पूर्ण दृष्टि से देखें, तभी हे श्रीराधे ! मैं उस चन्द्र के साथ आपके श्रीमुख की तुलना किसी प्रकार कर सकती हूँ।

*पाठान्तर-लक्ष्यते।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°126

कालिन्दी-कूल-कल्प-द्रुम-तल निलय प्रोल्लसत्केलिकन्दा, वृन्दाटव्यां सदैव प्रकटतररहो बल्लवी भाव भव्या ।

भक्तानां हृत्सरोजे मधुर रस-सुधा-स्यन्दि-पादारविन्दा,

सान्द्रानन्दाकृतिर्नः स्फुरतु नव-नव-प्रेमलक्ष्मीरमन्दा ।।126।।

जो कालिन्दी-कूल-वर्ती कल्पद्रुम तल-स्थित भवन में उल्लसित केलि-विलास की मूल स्वरूपा हैं, जो श्रीवृन्दावन में सदा-सर्वदा प्रकटतर.रूप से विराजमान्, एकान्त सहचरी ललितादिकों के भावों से भव्य

(सुन्दर) है अर्थात् परम सुन्दरी हैं एवं जो भक्तों के हृदय-कमल में अपने चरणारविन्दों का स्थापन करके मधुर-रस-सुधा का निर्झरण करती हैं, वे घनीभूत आनन्द-मूर्ति नित्य अभिनव-पूर्ण प्रेमलक्ष्मी (श्रीराधा) मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°127

शुद्ध प्रेमैकलीलानिधिरहह महातमङ्कस्थिते च, प्रेष्ठे विभ्रत्पबभ्रस्फुरदतुल कृपा स्नेह माधुर्य मूर्त्तिः ।

प्राणाली कोटि नीराजित पद सुषमा माधुरी माधवेन, श्रीराधा मामगाधामृतरस भरिते कहि दास्येभिषिञ्चेत् ॥127।।

जो पवित्र-प्रेम-लीला की एक मात्र उत्पत्ति स्थान हैं; कैसा आश्चर्य है कि अपने प्रियतम की गोद में रहते हुए भी जो (विच्छेद) भय को धारण किये हुए हैं तथा जिनकी चरण-सुषमा-माधुरी का नीराजन माधव श्रीकृष्ण ने अपनी कोटि-कोटि प्राण-पंक्तियों से किया है, वे अत्यधिक देदीप्यमान्

अतुल कृपा-स्नेह-माधुर्य-मूर्ति श्रीराधा क्या कभी अपने अगाध अमृत-भरित दास्य-रस से मुझे अभिषिञ्चित करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°128

वृन्दारण्य निकुञ्जसीमसु सदा स्वानङ्ग रङ्गोत्सवैर्माद्यत्यद्भुत माधवाधर-सुधा माध्वीक संस्वादनैः ।

गोविन्द-प्रिय-वर्ग-दुर्गम सखी-वृन्दैरनालक्षिता,

दास्यं दास्यति मे कदा नु कृपया वृन्दावनाधीश्वरी ॥128।।

जो सर्वदा श्रीवृन्दावन निकुञ्ज-सीमा में अपने अनङ्ग-रङ्गोत्सव के द्वारा माधव की अत्यद्भुत अधर-सुधा का आस्वादन करके उन्मत्त हो रही हैं तथा जो गोविन्द के प्रियजनों को भी दुर्गम, सखी-समुदाय के लिये अलक्षित हैं, वे श्रीवृन्दावनाधीश्वरी कभी मुझे कृपा-पूर्वक अपना दास्य

प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°129

मल्लीदाम निबद्ध चारु कबरं सिन्दूर रेखोल्लसत्सीमन्तं नवरत्न चित्र तिलकं गण्डोल्लसत्कुण्डलम् ।

निष्कग्रीवमुदार हारमरुणं विभ्रद्दुकूलं नवं,

विद्युत्कोटिनिभं ‘ स्मरोत्सवमयं राधाख्यमीक्षेमहः ।।129।।

जिसकी सुन्दर कबरी नवीन-मल्लिका-दाम से निबद्ध है। सीमन्त सिन्दूर-रेखा से शोभित है। ( विशाल भाल ) नव-रत्नों के द्वारा विचित्र तिलक से युक्त है । गण्ड-मण्डल कुण्डलों से उल्लसित हैं । ग्रीवा में हेमजटित पदिक है और उदार हार (हृदय देश में ) शोभित हो रहा है।

जिसने अरुण-वर्ण का नव-दुकूल धारण कर रखा है, और कोटि दामिनियों के समान जिसको प्रभा है; ऐसे नित्य स्मर-उत्सवमय श्रीराधा नामक तेज का मैं दर्शन करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°130

प्रेमोल्लासैकसीमा परम रसचमत्कार वैचित्र्य सीमा, सौन्दर्यस्यैक-सीमा किमपि नव-वयो-रूप-लावण्य सीमा।

लीला-माधुय्र्य सीमा निजजन परमोदार वात्सल्य सीमा, सा राधा सौख्य-सीमा जयति रतिकला-केलि-माधुर्य-सीमा ॥130।।

प्रेमोल्लास की चरम सीमा, परम रस (प्रेम ) चमत्कार विचित्रता को सीमा, सौन्दर्य को अंतिम सीमा, अनिर्वचनीय नवीन वय, रूप एवं लावण्य की सीमा; निजजनों के प्रति परम उदारता एवं वात्सल्यता की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, रति-कला-केलि-माधुरी की सीमा एवं

सुख की परम सीमा श्रीराधा ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°131

यस्यास्तत्सुकुमार सुन्दर पदोन्मीलन्नखेन्दुच्छटा, लावण्यैक लवोपजीवि सकल श्यामा मणी मण्डलम् ।

शुद्ध प्रेम-विलास मूर्तिरधिकोन्मीलन्महा माधुरी, धारा-सार-धुरीण-केलि-विभवा सा राधिका मे गतिः ॥131।।

जिनके उन सुकुमार एवं सुन्दर चरणों के प्रफुल्लित नवेन्दु की छटा के लावण्य का लव-मात्र ही समस्त श्यामा-रमणी मणियों के पूर्ण मण्डल का जीवन है। जो शुद्ध प्रेम-विलास की मूर्ति हैं एवं जो अधिकाधिक रूप में उन्मीलित महा माधुरी-धारा के सम्पतन को धारण करने में समर्थ हैं; वे केलि-विभव स्वरूपा श्रीराधिका ही मेरी गति हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°132

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी सलिल-बिन्दु सन्दोहभृन्, मृदूद्गति रतिश्रमं मिथुनमद्भुत क्रीडया।

अमंद रस तुन्दिल भ्रमर-वृन्द वृन्दाटवी,

निकुञ्ज वर-मन्दिरे किमपि सुन्दरं नन्दति ॥132।।

श्रीकलिन्दगिरि-नन्दिनी यमुना के जल-सीकरों को धारण किये हुए

एवं मृदुगतिशील वृद्धि-प्राप्त रतिश्रम से युक्त, कोई अनिर्वचनीय नागरीनागर (युगल) अमन्द रस से जड़ीभूत हो रहे हैं और भ्रमर-समूहाकीर्ण वृन्दावनस्थ वर निकुञ्ज-मंदिर में अद्भुत क्रीड़ा द्वारा आनन्दित हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°133

व्याकोशेन्दीवर विकसिता मन्द हेमारविन्द,

श्रीमन्निस्यंदन रतिरसांदोलि कन्दर्प-केलि।

वृन्दारण्ये नव रस-सुधास्यन्दि पादारविन्दं,

ज्योतिर्द्वन्द्वं किमपि परमानन्द कन्दं चकास्ति ।।133।।

जो प्रफुल्लित नील-कमल और पूर्ण विकसित स्वर्ण-कमल की शोभा से युक्त है, जो स्रवित रतिरस की आन्दोलन-शील काम-केलि से समन्वित है। जिसके चरण-कमल, नव रस-सुधा को प्रवाहित करते रहते हैं एवं जो अनिर्वचनीय परमानन्द की उत्पत्ति-स्थान है, ऐसी कोई अनिर्वचनीय युगल-ज्योति श्रीवृन्दावन में चमत्कृत हो रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°134

ताम्बूलं क्वचदर्पयामिचरणौ संवाहयामि क्वचिन्मालाद्यैः  परिमण्डये क्वचिदहो संवीजयामि क्वचित् ।

कर्पूरादि सुवासितं क्वच पुनः सुस्वादु चाम्भोमृतं, पायाम्येव गृहे कदा खलु भजे श्रीराधिका-माधवौ ।।134।।

अहा ! कभी ताम्बूल-वीटिका अर्पित करूंगी, कभी चरणों का संवाहन करूंगी, कभी माला, आभूषणादि से उन्हें आभूषित करूंगी, तो कभी व्यजन ही डुलाऊंगी और कभी कर्पूरादि-सुवासित सुस्वाद अमृतोपम

जल-पान भी कराऊंगी। इस प्रकार निकुञ्ज-भवन में कब निश्चय रूप से मैं

श्रीराधा-माधव युगल-किशोर की सेवा करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°135

प्रत्यङ्गोच्छलदुज्ज्वलामृत – रस – प्रेमैक – पूर्णाम्बुधि र्लावण्यैक सुधानिधिः पुरु कृपा वात्सल्य साराम्बुधिः ।

तारुण्य-प्रथम-प्रवेश विलसन्माधुय्र्य साम्राज्य भूर्गुप्तः कोपि महानिधिर्विजयते राधा रसैकावधिः ।।135।।

प्रेम का एक अनुपम परिपूर्णतम सागर है। जिसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों से नित्य-प्रति उज्ज्वल अमृत-रस उच्छलित होता रहता है । वह (प्रेममहानिधि ) लावण्य का भी अनुपम समुद्र है और अत्यधिक कृपामय

वात्सल्य-सार का भी अम्बुधि है वह तारुण्य के प्रथम-प्रवेश से विलसित माधुर्य-साम्राज्य को भूमि है, और रस की एकमात्र सीमा है । वही ‘राधा’ नामक कोई परम-गुप्त महानिधि सर्वोत्कर्ष-पूर्वक विराजमान है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°136

यस्याः स्फूर्जत्पवनखमणि ज्योतिरेकच्छटायाः

सान्द्र प्रेमामृतरस महासिन्धु कोटिर्विलासः ।

सा चेद्राधा रचयति कृपा दृष्टिपातं कदाचिन्,

मुक्तिस्तुच्छी भवति बहुशः प्राकृता प्राकृतश्रीः ॥136।।

जिनकी प्रकाशमान पद-नख-मणि-ज्योति की एक छटा का विलास सघन प्रेमामृत-रस के कोटि-कोटि सिन्धुओं के समान है; वे श्रीराधा यदि कदाचित् कृपा दृष्टि-पात कर दें तो अनेक प्राकृत-अप्राकृत शोभायें और

मुक्ति भी मेरे लिये तुच्छ हो जायें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°137

कदा वृन्दारण्ये मधुर मधुरानन्द रसदे , प्रियेश्वर्याः केलीभवन नव कुञ्जानि मृगये ।

कदा श्रीराधायाः पद – कमल माध्वीक लहरी , परीवाहेश्चेतो मधुकरमधीरं मदयिता ।।137।।

 मैं मधुर से भी मधुर आनन्द – रस – प्रद श्रीवृन्दावन में प्रियेश्वरी श्रीराधा के केलि – भवन नव – कुञ्ज – पुओं का कब अन्वेषण करूंगी ? और श्रीराधा – पद – कमल – मकरन्द – लहरी के अनवरत वर्षण से मेरा मन – मधुकर कब अधीर और मद – मत्त हो जायगा ?

 श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°138

राधाकेलि – निकुञ्ज – वीथीषु चरनराधाभिधामुच्चरन् राराधा अनुरूपमेवपरमं धम्म रसेनाचरन् ।

राधायाश्चरणाम्बुजं परिचरन्नानोपचारमदा , कहि स्यां श्रुति शेखरोपरिचरन्नाश्चर्यचर्याचरन् ।।138।।

 श्रीराधा – केलि – निकुञ्ज – वोथियों में विचरण करते हुए , श्रीराधा – नाम का उच्चारण करते हुए , श्रीराधा के अनुरूप अपने परम धर्म ( अपने किङ्करी – स्वरूप ) का रस – पूर्वक आचरण करते हुए श्रीराधा – चरणाम्बुजों को विविध उपचारों के द्वारा मोद – पूर्वक परिचा करते हुए , एव आश्चर्य – रूप उपरोक्त चर्या का आचरण करती हुई मैं कच वेदातीत ( वेदोपरि ) आचरण करने के योग्य हो जाऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°139

यातायातशतेन सङ्गमितयोरन्योन्यवक्रोल्लस च्चन्द्रालोकन सम्प्रभूत बहुलानङ्गाम्बुधिक्षोभयोः ।

अन्तः कुञ्ज – कुटीर तल्पगतयोदिव्याद्भुत क्रीडयो , राधा – माधवयोः कदा नु शृणुयां मंजीर कांचीध्वनिम् ॥139।।

( श्रीराधा – माधव युगल – किशोर अपने किसी अत्यन्त गुप्त अनिर्वचनीय सङ्गम – विहार में संलग्न हैं । ) पारस्परिक वक्र नेत्र – क्षेपण रूप चन्द्र – दर्शन से दोनों ओर विस्तीर्ण अनङ्गाम्बुधि प्रकट हो रहे हैं । अहा ! और वे दोनों किसी परम एकान्त कुञ्ज – कुटीर – गत दिव्य तल्प पर विराजमान होकर किसी दिव्य एवं अद्भुत क्रीड़ा में रत हैं । जिससे श्रीराधा के चरण – मञ्जीर एवं माधव की कटि – किङ्किणि की सम्मिलित रूप से बड़ी ही मधुर ध्वनि यातायात ( विहार ) के कारण हो रही है । मैं उसे कब सुनंगी ? 

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°140

अहो भुवन – मोहनं मधुर माधवी- मण्डपे , मधूत्सव – समुत्सुकं किमपि नील – पीतच्छविः ।

विदग्ध मिथुनं मिथो दृढ़तरानुरागोल्लसन् , मदं मदयते कदा चिरतरं मदीयं मनः ॥140।।

अनिर्वचनीय मधूत्सव – समुत्सुक , पारस्परिक दृढ़तर अनुराग के उल्लास से उन्मद हुए अनुपम नील – पीत – छविमान् भुवन – मोहन विदग्ध युगल मेरे मन को कब सर्वदा मद – युक्त कर देंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°141

राधानाम सुधारसं रसयितुं जिह्वास्तु मे विह्वला , पादी तत्पदकाङ्कितासुचरतां वृन्दाटवी – वीथिषु ।

तत्कमव करः करोतु हृदयं तस्याः पदं ध्यायता तद्भावोत्सवतः परं भवतु मे तत्प्राणनाथे रतिः ।।141।

मेरी जिह्वा श्रीराधा – नामामृत – रस के आस्वादनार्थ सदा विह्वल ( लालचवती ) रही आवे । चरण श्रीराधा – पादाङ्कित वृन्दावन – वीथियों में ही विचरण करते रहें । दोनों हाथ उनके सेवा कार्यों में ही लगे रहें । हृदय सदा उनके मन्जुल चरण – कमलों का ही ध्यान करता रहे एवं उन्हीं श्रीराधा के रस – भावोत्सव – सहित श्रीराधा – प्राणनाथ लालजी में मेरी परम प्रीति हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°142

मन्दीकृत्य मुकुन्द सुन्दर पदद्वन्द्वारविन्दामल , प्रेमानन्दममन्दमिन्दु – तिलकाद्युन्माद कन्दं परम् ।

राधा – केलि – कथा – रसाम्बुधि चलद्वीचीभिरान्दोलितं , वृन्दारण्य निकुञ्ज मन्दिर वरालिन्दे मनो नन्दतु ॥142।।

श्रीमुकुन्द के युगल सुन्दर पदारविन्द का अमल अमन्द प्रेमानन्द चन्द्र – चूड़ शिवजी आदि के लिये भी परम उन्मादक मूल है , किन्तु मेरा मन उसको भी शिथिल करके श्रीराधा – केलि – कथा – रस – समुद्र की चञ्चल लहरियों से आन्दोलित वृन्दावनस्थ निकुंज – मन्दिर के श्रेष्ठ – प्राङ्गण में आनन्द को प्राप्त हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°143

राधानामैव कार्य  ानुदिन मिलितं साधनाधीश कोटि स्त्याज्यो नीराज्य राधापद – कमल – सुधा सत्पुमर्थाग्र कोटिः ।

राधा पादाब्ज लीला – भुवि जयति सदा मन्द मन्दार कोटिः , श्रीराधा – किङ्करीणां लुठति चरणयोरभुता सिद्धि कोटिः ॥143।।

अनुदिन श्रीराधा – नाम के श्रवण – कीर्तनादि के प्राप्त होने पर कोटि कोटि श्रेष्ठ साधन भी परित्याज्य हो जाते हैं । श्रीराधा – पद – कमल – सुधा पर कोटि – कोटि मोक्षादि पुरुषार्थ न्यौछावर हैं । [ तभी तो ] श्रीराधा – पादाब्ज लीला – भूमि श्रीवृन्दावन में अमन्द ( वैभव – शाली ) कोटि – कोटि कल्पतरु सदा विद्यमान रहते हैं और श्रीराधा – किङ्करी – गणों के चरणों में अद्भुत कोटि कोटि सिद्धियाँ लोटती रहती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°144

मिथो भड्गि कोटि प्रवहदनुरागामृत – रसो तरङ्ग भ्रूभङ्ग क्षुभित वहिरभ्यंतरमहो । मदाघूर्णन्नेत्रं रचयति विचित्रं रतिकला , विलासं तत्कुञ्ज जयति नव – कैशोर – मिथुनम् ॥144।।

परस्पर में हाव – भाव – समूह के विस्तार से अनुरागामृत रस बह चला है । जिससे गुगल किशोर भीतर और बाहर भी प्रेम क्षुब्ध हो रहे हैं । जिसमें धूनर्तन ही तरङ्ग हैं । इस रस से युगल के नेत्र मद – धूणित हो रहे हैं ; वे नव – किशोर मिथुन निकुञ्ज – भवन के मध्य में रति – विलास – कला की रचना करके सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°145

काचिद्वृन्दावन नवलता – मन्दिरे नन्दसूनो  र्दप्यदोष्कन्दल परीरम्भ निस्पन्द गात्री ।

दिव्यानन्ताद्भुत रसकलाः कल्पयन्त्याविरास्ते , सान्द्रानन्दामृत रस – घन प्रेम – मूत्तिः किशोरी ।।145।।

नन्द – नन्दन श्रीलालजी की दर्प – युक्त वाहु – लताओं के गाढ़ आलिङ्गन से जिनके समस्त अङ्ग शिथिल हो रहे हैं तथा जो अद्भुत एवं अनन्त रस कलाओं का विस्तार करती हैं । वे घनीभूत आनन्दामृत – रस एवं प्रेम – धन मुत्ति ( अनिर्वचनीय ) कोई किशोरी श्रीवृन्दावन के नव – लता – मंदिर में नित्य विराजमान हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°146

न जानीते लोकं न च निगमजातं कुल – परं परां वा नो जानत्यहह न सतां चापि चरितम् ।

रसं राधायामाभजति किल भावं व्रजमणी , रहस्ये तद्यस्य स्थितिरपि न साधारण गतिः ।।146।।

जो महानुभाव इस एकान्त देश में ब्रज – मणि श्रीकृष्ण और श्रीराधा के भाव और रस का निश्चय रूप से भजन करते हैं ; अहो ! वे न तो लोक को जानना चाहते हैं , न निगम समूह को ; न कुल परम्परा को जानने की इच्छा रखते हैं और न साधु – आचरण को ही । ऐसे रसिकों की स्थिति साधारण नहीं वरन् असाधारण है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°147

ब्रह्मानन्दैकवादाः कतिचन भगवद्वन्दनानन्द – मत्ताः , केचिद्गोविन्द – सख्याद्यनुपम परमानन्द मन्ये स्वदन्ते ।

श्रीराधा – किङ्करीणां त्वखिल सुख – चमत्कार – सारैक – सीमा , तत्पादाम्भोज राजन्नख – मणिविलसज्ज्योतिरेकच्छटापि।।147।।

कोई ब्रह्मानन्द वादी हैं , तो कोई भगवद्वन्दना ( दास्य – भाव ) में ही उन्मत्त हैं । कुछ लोग गोविन्द के सख्यादि ( मैत्री – भाव ) को ही परमानन्द मानकर उसके आस्वादन में लग रहे हैं किन्तु श्रीराधा – चरण – कमलों की शोभायमान् नख – मणि ज्योति की एक किरण मात्र ही श्रीराधा – किङ्करियों के लिये अखिल सुख – चमत्कार – सार की सीमा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°148

न देवब्रह्माद्यन खलु हरिभक्तर्न सुहृदा दिभिर्यद्वै राधा – मधुपति – रहस्य सुविदितम् ।

तयोर्दासीभूत्वा तदुपचित केली – रस – मये , दुरन्ताः प्रत्याशा दृशोर्गोचरयितुम्।।148।।

श्रीराधा – मधुसूदन का रहस्य न तो ब्रह्मादि देवताओं को ही विदित है न हरि – भक्तों को ही । और तो और श्यामसुन्दर के सखा आदिकों को भी वह सुविदित नहीं है किन्तु हरि । हरि !! मैंने उनको दासी होकर [ युगल की ] सम्बर्द्धमान् केलि को असमय में भी अपने नेत्रों से देखने की दुर्गम आशा कर रखी है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°149

त्वयि श्यामे नित्ये प्रणयिनि विदग्धे रसनिधौ , प्रिये भूयोभूयः सुदृढमति रागो भवतु मे ।

इति प्रेष्ठेनोक्ता रमण मम चित्ते तव वचो , वदन्तीति स्मेरा मम मनसि राधा विलसतु।।149।।

प्रियतम ने कहा- ” हे श्यामे ! हे नित्य प्रणयिनी ! हे विदग्धे ! हे प्रिये ! आप रस – निधि में बारम्बार मेरा सुदृढ़ अनुराग हो ” । इस प्रकार प्रिययम श्रीकृष्ण के द्वारा कहे जाने पर ” हे रमण ! मेरे हृदय में आपके ( यही ) वचन है ” यह कहती हुई मन्द हास – युक्ता श्रीराधा मेरे हृदय में सदा – सर्वदा विलास करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°150

सदानन्द वृन्दावन – नवलता – मन्दिर वरे ध्वमन्दैः कन्दर्पोन्मदरति – कला – कौतुक रसम् ।

किशोरं तज्ज्योतिर्युगलमतिघोरं मम भव , ज्वलज्ज्वालं शीतः स्वपद – मकरन्दैः शमयतु ॥150।।

श्रीवृन्दावन के नवलता – वर मन्दिर में तीव्र कामोन्मद – रति – के लि कला – कौतुक – रस स्वरूप एवं सदा आनन्द – मय किशोराकृति वह युगल ज्योति अपने चरण – कमलों के शीतल मकरन्द से मेरे अति – घोर ज्वलित ज्वाल – भव ( संसार ) को शान्त करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°151

उन्मीलन्नव मल्लिदाम विलसद्धम्मिल्लभारे वृह च्छोणी मण्डल मेखला कलरवे शिञ्जान ‘ मंजीरिणी ।

केयूराङ्गद कङ्कणावलिलसद्दोवल्लि दीप्तिच्छटे , हेमाम्भोरुह कुड्मलस्तनि कदा राधे दृशा पोयसे ।।151।

हे प्रफुल्लित नव मल्ली – माल – शोभामाना – कबरि – भारे ! हे पृथु नितम्ब – मण्डल – मेखला – कलरवे ! हे शब्दायमान भूपुर – धारिणि ! हे केयूर अङ्गद कङ्कणावलि – विलसित भुजलता – दीप्तिच्छटे । हे स्वर्ण – कमल – कलिका स्तनि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके इस रूप – रस को कब अपने नेत्रों से पान करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°152

अमर्यादोन्मीलत्सुरत रस पीयूष जलधेः , सुधाङ्गैरुत्तुङ्गैरिव किमपि दोलायित तनुः ।

स्फुरन्ती प्रेयोङ्के स्फुट कनक – पङ्केह मुखी , सखीनां नो राधे नयनसुखमाधास्यसि कदा।।152।।

प्रफुल्ल कनक – कमल – मुखी हे श्रीराधे ! मर्यादा का अतिक्रमण करके सुरत – रस का जो सुधा – समुद्र उद्भूत हुआ है , उसके अत्युच्च सुधा – स्वरूप अङ्गों के द्वारा आपका श्रीवपु अनिर्वचनीय रूप – यौवन से आन्दोलित सा हो रहा है । आप प्रियतम के अङ्क में चञ्चल हो रही हैं , हे स्वामिनि ! आप हम सखियों के नेत्र – सुख का विधान कब करोगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°153

क्षरन्तीव प्रत्यक्षरमनुपम प्रेम – जलधि , सुधाधारा वृष्टीरिव विदधती श्रोत्रपुटयोः ।

रसाद्री सन्मृद्वी परम सुखदा शीतलतरा , भवित्री कि राधे तव सह मया कापि सुकथा।।153।।

अहा ! जिसके अक्षर – अक्षर से अनुपम प्रेम – जलधि निर्धारित हो रहा है । जो कर्ण – पुटों में मानों अमृत – धारा – वृष्टि विधान करता है , एवं जो रस से सिक्त , परम कोमल , परम सुखद तथा परम शीतल है । हे श्रीराधे ! मेरे साथ कभी आपका वह रसमय सम्भाषण होगा जो सब प्रकार से अनिर्वचनीय है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°154

अनुल्लिख्यानन्तानपि सदपराधान्मधुपति महाप्रेमाविष्टस्तव परमदेयं विमृशति ।

तवैकं श्रीराधे गृणत इह नामामृत रसं , महिम्नः कः सीमां स्पृशति तब दास्यकैमनसाम् ।।154।।

हे श्रीराधे ! जो कोई आपके ‘ श्रीराधा ‘ इस एक ही अमृत – रूप नाम का गान अथवा स्मरण कर लेता है उसके अनन्त – अनन्त महत् अपराधों की आपके महाप्रेमाविष्ट प्रियतम मधुपति गणना न करके यह विचारने लगते हैं कि इसको ( इस नामोच्चार के बदले में ) क्या देना चाहिये ? अतएव जिन्होंने अपने मन में आपका एक – मात्र दास्य ही स्वीकार कर रखा है । उनकी महिमा – सीमा का स्पर्श कौन कर सकता है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°155

लुलित नव लवङ्गोदार कर्पूरपूर प्रियतम – मुख – चन्द्रोद्गीर्ण ताम्बूल – खण्डम् ।

घनपुलक कपोला स्वादयन्ती मदास्ये र्पयतु किमपि दासी – वत्सला कहि राधा।।155।।

कपूर की शीतलता के कारण जिनके कपोलों पर पुलक का उदय हो रहा है और जो अनियंचनीय रूप से दासी – वत्सला है । ऐसी श्रीराधा प्रिय तम श्रीकृष्ण के मुख – चन्द्र द्वारा चर्वित , नव – लयङ्ग – चूर्ण एवं प्रचुर कर्पर समन्वित ताम्बूल – खण्ड का आस्वादन करते – करते कब उस चवित ताम्बूल को मेरे मुख में अर्पण करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°156

सौन्दर्यामृत – राशिरद्भुत महालावण्य – लीला – कला , कालिन्दीवर – वोचि – डम्बर परिस्फूर्जत्कटाक्षच्छवि ।

सा कापि स्मरकेलि – कोमल – कला – वैचित्र्य – कोटि स्फुरत्प्रेमानन्द घनाकृतिदिशतु मे दास्यं किशोरो – मणिः।।156।।

काम – कलि – कोमल – कलाओं की कोटि – कोटि विचित्रताओं का विकास करने वाली , प्रेमानन्द – धन – मूति एवं सौन्दर्यामृत – राशि कोई अवर्णनीय किशोरी – मणि हैं । जिनकी नेत्र – कटाक्षच्छवि कालिन्दी के मनोहर बीचि बिलास की विशाल छवि की अपेक्षा अधिक चमत्कृत है । और अन्यान्य अद्भुत एवं महानतम लावण्य – लीलाएं भी जिनकी एक कला – अंश मात्र हैं , [ अथवा जो लीलाओं को निधान हैं । ये दिव्य किशोरी – मणि मुझे अपना दास्याधिकार प्रदान कर दासी रूप से स्वीकार करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°157

दुकूलमति कोमलं कलयदेव कौसुम्भकं , निबद्ध मधु – मल्लिका ललित माल्य – धम्मिल्लकम् ।

वृहत्कटितट स्फुरन्मुखर मेखलालंकृतं , कदा नु कलयामि तत्कनक – चम्पकाभं महः।।157।।

जिसने कसूभे रंग का अत्यन्त कोमल दुकूल धारण किया है , जिसकी कबरी बासन्ती – मल्लिका की ललित मालावली से निबद्ध है एवं जिसके विशाल कटि – तट ( नितम्ब भाग ) में देदीप्यमान् एवं मुखरित मेखला अलंकृत हो रही है । उस कनक – चम्पकमयी ज्योति को मैं कब देखूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°158

कदा रासे प्रेमोन्मद रस – विलासेद्भुतमये , दिशोर्मध्ये भ्राजन्मधुपति सखी – वृन्द – वलये ।

मुदान्तः कान्तेन स्वरचित महालास्य – कलया , निषेवे नृत्यन्ती व्यजन नव ताम्बूल – सकलैः।।158।।

प्रेमोन्मद रस – विलास पूरित अत्यन्त अद्भुत रास , जिसमें मधुपति श्रीलालजी के चारों ओर सखियां ऐसी शोभित हो रही हैं जैसे कङ्कण । इस रास में वे अपने प्रफुल्लित – चित्त कान्त – श्रीलालजी के साथ स्वरचित लास्य – कला – पूर्वक नृत्य कर रही हैं । मैं कब व्यजन एवं नव – ताम्बूल , शकल ( सुपारी ) आदि से उनकी सेवा करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°159

प्रसृमर पटवासे प्रेम – सीमा – विकासे , मधुर – मधुर हासे दिव्य भूषा – बिलासे ।

पुलकित दयितांसे सम्बलद्वाहु – पाशे , तदतिललित रासे कहि राधामुपासे।।159।।

 जिस रास में विस्तार – प्राप्त – पटवास , प्रेम – सीमा का विकास , मधुर मधुर हास , दिव्य आभूषणों का विलास , एवं श्रीप्रियाजी के पुलकित अंश पर सुवलित वाहू पास है ; उस रास में श्रीराधा की मैं कब उपासना ( अभ्यर्चना ) करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°160

यदि कनक – सरोज कोटि – चन्द्रांशु – पूर्ण , नव – नव मकरन्द – स्यन्दि सौन्दर्य – धाम ।

भवति लसित चञ्चत्खञ्जन द्वन्द्वमास्य , तदपि मधुर हास्यं दत्त दास्यं न तस्याः ।।160।।

यदि कोई सौन्दर्य – धाम स्वर्ण – कमल कोटि – कोटि चन्द्रों की किरणों से पूर्ण हो और जिससे नवीन – नवीन मकरन्द झरता ही रहता हो , वह कमल , सौन्दर्य का तो मानो धाम ही हो ; जिसमें दो खञ्जन खेल रहे हों ऐसा अनुपम कमल भी श्रीप्रियाजी के मुख – कमल के मधुर हास के दास्य को प्राप्त नहीं करता ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°161

सुधाकरमुधाकरं प्रतिपदस्फुरन्माधुरी , धुरोण नव चन्द्रिका जलधि तुन्दिलं राधिके ।

अतृप्त हरि – लोचन – द्वय चकोर – पेयं कदा , रसाम्बुधि समुन्नतं बदन – चन्द्रमीक्षे तव ।।161।।

जो सुधाकर ( चन्द्र ) को भी असत् कर दिखाने वाला है , जो पद – पद पर देदीप्यमान् माधुरी के श्रेष्ठतम् सार – रूप नवीन किरणों के समुद्र से पूरित है , जो श्रीहरि अतृप्त के युगल – लोचन – चकोरों का पेय है और जो रस – समुद्र द्वारा प्रकर्ष को प्राप्त है । हे श्रीराधे ! मैं आपके उस वदन – चन्द्र को कब देखूंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°162

अङ्ग – प्रत्यङ्ग रिङ्गन्मधुरतर महा कीत्ति – पीयूष सिन्धो रिन्दोः कोटिविनिदद्वदनमति मदालोल नेत्रं दधत्याः ।

राधाया सौकुमार्याद्भुत ललित तनोः केलि – कल्लोलिनीना मानन्दस्यन्दिनीनां प्रणय – रसमयान् कि विगाहे प्रवाहान।।162।।

जिनके मङ्ग – प्रत्यङ्ग से मधुरातिमधुर महा – कीति पीयूष – सिन्धु प्रवाहित होता रहता है , जिनका कोटि – कोटि चन्द्र – विनिन्दक शोभाशाली थोमुख अति मद – चञ्चल नेत्रों से युक्त है : अहो ! जो अत्यद्भुत सौकुमार्य से अति – ललित तनु हैं । क्या मैं ऐसी श्रीराधा की प्रणय – रसमयी आनन्द निझरिणी केलि – सरिता – प्रवाह में कभी अवगाहन करूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°163

मत्कण्ठे कि नखरशिखया दैत्यराजोडिस्म नाहं , मैवं पीडा कुरु कुच – तटे पूतना नाहमस्मि ।

इत्थं कीरैरनुकृत – वचः प्रेयसा – सङ्गतायाः , प्रातः श्रोष्ये तव सखि कदा केलि – कुजे मृजन्ती ।।163।।

” मेरे कण्ठ में नवाग्र – धात क्यों करते हो मैं कोई देत्यराज ( तृणावर्त ) तो है नहीं ? अरे ! मेरी कुष – तटी में पीड़ा मत दो मैं पूतना नहीं हूँ ” हे सखी ! प्रियतम – सङ्गम के समय तुम्हारे इन शुक – अनुकृत वचनों को प्रातः काल के लि – कुन का मार्जन करती हुई मैं कब सुनेगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°164

जाग्रत्स्वप्न सुषुप्तिषु स्फुरतु मे राधापदाब्जच्छटा , वैकुण्ठे नरकेथ वा मम गतिर्नान्यास्तु राधां विना ।

राधा – केलि – कथा – सुधाम्बुधि महावीचोभिरान्दोलितं , कालिन्दी – तट – कुञ्ज – मन्दिर – बरालिन्दे मनो विन्दतु ।।164।।

श्रीराधा – केलि – कथा – सुधा – समुद्र की महान लहरियों से आन्दोलित मेरा मन कालिन्दी – फलवर्ती श्रेष्ठ लता मन्दिर के प्राङ्गण में ही आनन्द पाता रहे और जागृत , स्वप्न एवं सुपुप्ति में भी श्रीराधा – पद – कमलो की छटा ही मेरे मन में स्फुरित होती रहे , कि वहुना , बैकुण्ठ अथवा नरक में भी धीराधा का अतिरिक्त मेरे लिये कोई अन्य गति न हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°165

अलिन्दे कालिन्दी – तट नवलता – मन्दिरवरे रतामर्दोभूतश्रमजल भरापूर्णवपुषोः ।

सुखस्पर्शनामोलितनयनयोः शीतमतुलं , कदा कुय्र्या सम्बीजनमहह राधा मुरभिदोः ।।165।।

अहा ! कालिन्दी – कूलवर्ती नव – लता – मन्दिर – गत – प्राङ्गण में रति केलि – मर्दन से उद्भूत ( प्रकट हुए ) श्रम – जल – प्रवाह से परिपूरित शरीर और सुख – स्पर्श से आमीलित ( मदे हुए ) नयन धीराधा – मधुसूदन को में कब अतुल शीतल सम्वीजन ( द्वारा ) बयार करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°166

क्षणं मधुर गानतः क्षणममन्द हिन्दोलतः , क्षणं कुसुम वायुतः सुरत – केलि – शिल्पः क्षणम् ।

अहो मधुरसदस प्रणय – केलि वृन्दावने , विदग्धवरनागरी – रसिक -शेखरौ – खेलतः ।।166।।

अहो ! मधुर एवं श्रेष्ठ रस – केलिमय श्रीवृन्दावन में विदग्ध श्रेष्ठ , नागरी – मणि ( श्री प्रियाजी ) एवं रसिक – शेखर ( श्रीलालजी ) कभी तो मधुर मधुर गान से , कभी अगन्द ( वेगवान् ) हिण्डोल से , ( झूलकर ) कभी कुसुम सुरभित बायु के सेवन से , तो कभी सुरत – केलि – चातुरी का प्रकाश करके क्रीड़ा करते रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°167

अद्यश्याम किशोर मौलिरहह प्राप्तो रजन्या – मुखे , नीत्वा तां करयोः प्रगृह्य सहसा नीपाटवों प्राविशत् ।

श्रोष्ये तल्प मिलन्महा रतिभरे प्राप्तेपि शीत्कारितं , तद्वोची – सुख – तर्जनं किमु हरेः स्वश्रोत्र रन्ध्राधितम् ।।167।।

अहह ! आज सहसा सन्ध्या- समय श्याम – किशोर – मौलि उन ( श्रीराधा ) के दोनों हाथ पकड़कर एकान्त कदम्ब – अटवी में प्रवेश कर गये ; वहाँ केलि – तल्प – मिनित महा – रति प्रवाह को प्राप्त हुए श्रीलालजी के श्रवण रन्ध्रों के आधय – रूप ( श्रीराधा ) सुख – तरङ्ग के तर्जन – शीत्कार को क्या मैं श्रवण करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°168

श्रीमद्राधे त्वमथ मधुरं श्रीयशोदाकुमारे , प्राप्ते कैशोरकमतिरसाद्वल्गसे साधु – योगम् ।

इत्थं बाले महसि कथया नित्यलीला – वयःश्री , जातावेशा प्रकट सहजा किन्नु दृश्या किशोरी।।168।।

अहो ! यशोदानन्दन श्रीकृष्ण जो किशोरावस्था को प्राप्त हो ही चुके हैं , और श्रीमती राधे ! तुम भी प्रेमाधिनय के वश होकर उसी मधुर साधु योग को प्राप्त हो गई हो ; इस प्रकार कहते ही जिनका नित्य लीलानुकूल वयःश्री में प्रवेश हुआ है . ऐसी [ प्राकटब के साथ ही ] किशोरावस्था को प्राप्त किशोरी क्या हमारे दृष्टिगोचर होगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°169

एक काञ्चन चम्पकच्छवि परं नीलाम्बुद श्यामलं , कन्दप्पोत्तरल तथैकमपरं नैवानुकूल वहिः

किञ्चक बहुमान – भङ्गि रसवच्चाटूनि कुर्वत्परं , बीक्षे क्रीडति कुञ्जसोम्नि तदहो द्वन्द्वमहा मोहनम् ।।169।।

एक कनक – चम्पक – छविमान है , तो दूसरा सजन – सपन – नील – मेघवत् श्याम । एक कन्दर्प – ज्वर से चञ्चल हो रहा है , तो दूसरा अन्तर से अनुकूल होकर भी बाहर से प्रतिकूल है । ऐसे ही एक मान की अनेक भङ्गिमाओं से पूर्ण है तो दूसरा रस – पूर्ण वचनों के द्वारा चाटुकारी – परायण । अहो ! क्या मैं कलि – निकुञ्ज की सीमा में इन महा मोहन युगल को देख सकूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°170

विचित्र रति विक्रम दधदनुक्रमादाकुलं , महा मदन – वेगतो निभृत मञ्जु कुञ्जोदरे ।

अहो विनिमयन्नवं किमपि नील – पीतं पर्ट , मिथो मिलितमद्भुतं जयति पीत – नीलं महः ।।170।।

अहो । महा – मदन – वेग से आकुल होकर दोनों कभी तो अनुक्रब से विचित्र रति – पराक्रम को धारण करते हैं और कभी अनिर्वचनीय अभिनव नील – पीत पट का आपस में विनिमय करते हैं । इस प्रकार मञ्जुल निभृत निकुञ्ज – मन्दिर में भलौकिक अद्भुत गप से मिलित कोई दो अनिर्वचनीय नील – पीत ज्योति सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°171

करे कमलमद्भुतं भ्रमयतोमिथोंसापित , स्फुरत्पुलक दोर्लता युगलयोः स्मरोन्मत्तयोः ।

सहास – रस – पेशलं मद करीन्द्र – भङ्गीशत गति रसिकयोर्द्वयोः स्मरत चार वृन्दावने ।।171।

अद्भुत कमल को हाथों में घुमाते हए , एवं परस्पर स्कन्धों पर पुलकित भुजलता अर्पित किये हुए , कामोन्मत्त , वृन्दावन – विहारी , ररिक युगल की सहास – रस – सुन्दर , प्रात आत मदपूर्ण करीन्द्र – गतिमान भनिमाओं के समान गति का ( हे मेरे मन ! ) तू स्मरण कर ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°172

खेलन्मुग्धाक्षि मीन स्फुरदधरमणोविद्रुम – श्रोणि – भार , द्वीपायामोत्तरङ्ग स्मरकलभ – कटाटोप वक्षोरुहायाः ।

गम्भीरावर्तनाभेर्बहलहरि महा प्रेम – पीयूषसिन्धोः , श्रीराधाया पदाम्भोरुह परिचरणे योग्यतामेव मृग्ये ।।172।।

जिनके मुग्ध नयन ही चञ्चल – मीन हैं , देदीप्यमान अधर ही विदम मणि हैं , जिनके पृथु नितम्ब ही द्वीप हैं उस द्वीर – विस्तार के तरङ्गायित प्रदेश में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के समान युगल – कुच हैं , जिनकी नाभि गम्भीर आवत्तं के समान है । मैं ऐसो श्रीकृष्ण – प्रेमामृत – महासिन्धु – रूपा श्रीराधा के युगल – चरणारविन्दों की परिचर्या करने की योग्यता का अन्वेषण करती हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°173

विच्छेदाभास मानादहह निमिषतो गात्रविस्त्रसनादौ , चञ्चत्कल्पाग्नि – कोटि ज्वलितमिव भवेद्वाहभभ्यन्तरं च ।

गाढ स्नेहानुबन्ध – प्रथितमिव तयोरद्भुत प्रेम – मूत्तर्योः , श्रीराधा – माधवाख्यं परमिह मधुरं तद् द्वयं धाम जाने ।।173।।

कैसा आश्चर्य है कि केवल शरीर से ही विलग होने में निमेष – मात्र का वियोगाभास ही जिनके मन और देह के लिये प्रकाशमान कोटि प्रलयाग्नि – ज्वाला के समान प्रतीत होता है । बस . उन्हीं गाड़ – स्नेहानुबन्ध से ग्रथित ( गंथे हुए से ) अद्भुत प्रेम – मूर्ति श्रीराधा – भाधव – नामकः युगल को ही मैं इस संसार में ( अपना ) परम – मधुर आथय जानती हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°174

कदा रत्युन्मुक्तं कचभरमहं संयमयिता , कदा वा संधास्ये त्रुटित नव – मुक्तावलिमपि ।

कला वा कस्तूर्य्योस्तिलकमपि भूयो रचयिता , निकुञ्जान्तवृत्ते नव रति – रणे यौवन मणेः ।।174।।

नव – निकुञ्ज में नित्याभिनव रतिरण के उपरान्त , यौवन – मणि श्रीराधा के विगलित ( उन्मुक्त ) केश – पाश का मैं कब बन्धन करूंगी ? उनको टूटी मुक्ता – माला को कब पिरोऊँगी अथवा परदूरी – पङ्क के द्वारा तिलक को पुनः रचना कब करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°175

कि ब्रुमोन्यत्र कुण्ठोकृतकजनपदे धाम्न्यपि श्रीविकुण्ठे , राधा माधुर्य्य वेत्तापधुपतिरथ तन्माधुरी वेत्ति राधा ।

वृन्दारण्य – स्थलीयं परम – रस – सुधा – माधुरीणां धुरीणां , तद्वन्द्वं स्वादनीयं सकलमपि ददौ राधिका – किङ्करीभ्यः ।।175।।

अन्यत्र का तो बात ही क्या श्रीविकुण्ठ – धाम भी ( श्रीराधा – माधुर्य के अभाव से ) कृष्ठित – प्रदेश बन गया है , क्योंकि श्रीराधा के माधुर्य को केवल श्रीमाधव ही जानते हैं और श्रीमाधव के माधुर्यं को केवल श्रीराधा जानती हैं और इन आस्वादनीय युगल को परम रस – सुधा – माधुरी अग्रगण्य श्रीवृन्दारण्य – स्थली ने श्रीराधा – किरी – गणों को सम्पूर्ण रूप से प्रदान कर दिया है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°176

लसद्वदन – पङ्कजा नव गभीर नाभि- भ्रमा , नितम्ब – पुलिनोल्लसन्मुखर काञ्चि – कादम्बिनी ।

विशुद्ध रस – वाहिनी रसिक – सिन्धु – सङ्गोन्मदा , सदा सुर – तरङ्गिणी जयति कापि वृन्दावने ।।176।।

जिसमें प्रफुल्ल मुख ही कमल है । नव – गम्भीर नाभि ही भंवर है । नितम्ब ही पुलिन है । उस नितम्ब देश ( पुलिन ) में मुखरित काञ्ची ही मानो मेक – माला है । जिसमें केवल विशुद्ध रस ही प्रवाहित होता रहता है और जो रसिक – सिन्धु ( श्रीलालजी ) से सङ्गम करने के लिये उन्मद हो रही है । उस श्रीवृन्दावनस्थ अनिर्वचनीय मुर – तरङ्गिणी की सदा जय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°177

अनङ्ग नव रङ्गिणी रस – तरङ्गिणी सङ्गतां , दधत्सुख – सुधामये स्वतनु – नीरधौ – राधिकाम् ।

अहो मधुप – काकली मधुर – माधवी मण्डपे , स्परक्षुभितमेधते सुरत सीधुमत्त महः ।।177।।

अहो ! आश्चर्य तो देखो ! मधुप – मन्द – गुज्जन – पूरित मधुर माधवी मण्डप में कोई सुरतामृत – मत्त दिव्य ( नील ) ज्योति स्मर – पीड़ा से क्षुभित होकर भी वृद्धि को प्राप्त हो रही है । और उस दिव्य ज्योति ने अपने सुख सुधामय शरीर – समुद्र ही नव – नव अनङ्गों को भी अनुरञ्जित करने वाली रस – तरङ्गिणी श्रीराधिका को धारण कर रखा है !

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°178

रोमालीमिहिरात्मजा सुललिते बन्धूक – बन्धु प्रभा , सर्वाङ्गस्फुटचम्पकच्छबिरहो नाभी – सरः शोभना ।

वक्षोजस्तवका लसद्भुजलता शिजापतञ्च कृतिः , श्रीराधा हरते मनोमधुपतेरन्येव वृन्दाटवी ।।178।।

अहो ! जिनकी रोमावली यमुना के समान है । अङ्ग – प्रभा , बन्धूक बन्धु ( पुष्प – विशेष ) के समान है । जिनके सुललित सर्वाङ्ग में चम्पक की छवि प्रकट हो रही है । जो नाभि – सरोवर के कारण दर्शनीय ( शोभना ) बन रही हैं । जिनके वक्षोज ही पुष्प – गुच्छ हैं । भुजा ही लता – रूप में शोभित हैं और जिनके आभूषणों का शब्द ही मधुर झङ्कार है । ऐसो श्रीराधा दूसरी वृन्दाटवी के समान माधव के मन का हरण कर रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°179

राधामाधवयोविचित्र सुरतारम्भे निकुञ्जोदर स्त्रस्त प्रस्तर सङ्गतैर्वपुरलं कुर्वेङ्ग रागः कदा ।

तत्रैव त्रुटिताः स्रजो निपतिताः संधायभूयः कदा , कण्ठे धारयितास्मि मार्जन कृते प्रातः प्रविष्टास्म्यहम् ।।179।।

मैं प्रात : काल निकुञ्ज – मन्दिर के मध्य भाग के सम्मार्जन के लिये प्रविष्ट होकर श्रीराधा – माधव के विचित्र सुरत – केलि के आरम्भ में अस्त ब्यस्त शस्या में लगे हुए पङ्कलि अङ्गराग के द्वारा कब अपने शरीर को भूषित करूगी ? एवं वहीं टूटकर गिरी हुई उनको पुप्प – माला का पुनः संधान करके उसे कब कण्ठ में धारण करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°180

श्लोकान्प्रेष्ठ यशोङ्कितान् गृहशुकानध्यापयेत्कहिचिद् , गुञ्जा – मञ्जुलहार वर्हमुकुटं निर्माति काले क्यचित् ।

आलिख्य प्रियमूर्त्तिमाकुल कुचौ सङ्घट्टयेद्वा कदा प्येवं व्यापृतिभिर्दिन नयति मे राधा प्रिय स्वामिनी ।।180।।

कभी घर के तोतों को अपने प्रियतम के यश से अङ्कित श्लोकों का अध्यापन कराती हैं . तो कभी मंजुल गु

आ – हार और मोर – मुकुट का निर्माण करती हैं । कभी प्रियतम की प्रिय – मूर्त्ति का चित्रण करके उसे अपने आकुल युगल – कुचों से चिपका ही लेती हैं । इस प्रकार के व्यापारों द्वारा मेरी प्रिय स्वामिनी श्रीराधा अपना वियोग – पूर्ण दिन व्यतीत करती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°181

प्रेयः सङ्ग – सुधा सदानुभवनी भूयो भवद्भाविनी , लीला – पञ्चम रागिणी रति – कला – भङ्गी – शतोद्भाविनी ।

कारुण्य – द्रव – भाविनी कटि – तटे काञ्चोकलाराविणी , श्रीराधैव गतिर्ममास्तु पदयोः प्रेमामृत – श्राविणी ।।181।।

जो सदैव प्रियतम – सङ्ग सुधास्वादन का ही अनुभव करती हैं , जो नित्य नवीन भाविनी , ( कामिनी ) हैं , जो लीला – काल में पञ्चम – राग की अनुरागवती हैं , जो रतिकला की शत – शत भङ्गिमाओं का उद्भावन करने वाली हैं , जो करुण रस की सृष्टि की हैं , जो काटि – तट में काञ्ची – कला शब्द – कारिणी हैं , तथा जिनके पद – युगल से प्रेमामृत झरता ही रहता है , वे श्रीराधा ही मेरी एकमात्र गति है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°182

कोटीन्दुच्छवि हासिनी नव – सुधा – सम्भार सम्भाषिणी , वक्षोज द्वितयेन हेम – कलश श्रीगर्व – निर्वासिनी ।

चित्र – ग्राम – निवासिनो नव – नव प्रेमोत्सवोल्लासिनी , वृन्दारण्य – विलासिनो किमुरहो भूयाङ्दुल्लासिनी ।।182।।

जो कोटि – चन्द्रों की छवि का उपहास करने वाली हैं , जिनका सम्भाषण नवीनतम् सुधा – समूह से पूर्ण है । जो अपने युगल – वक्षोज से स्वर्ण कुम्भ के श्रीगर्व का निर्वासन करती हैं । ये प्रेगोत्सव – उल्लासमयी चित्र – ग्राम ( बृहत्सानु , बरसाना ) निवासिनी श्रीवृन्दारण्य – विलासिनी ( श्रीराधा ) क्या मेरे लिये एकान्त – हृदयोल्लास की दाता होंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°183

कदा गोविन्दाराधन ललित ताम्बूल शकलं , मुदा स्वादं स्वादं पुलकित तनुर्मे प्रिय सखो ।

दुकूलेनोन्मीलन्नव कमल किञ्जल्क रुचिना , गिपोताङ्गी सङ्गीतक निजकला : शिक्षयति माम् ।।183।।

गोविन्द की प्रसन्नता से प्राप्त हुए ललित ताम्बूल – खण्ड का बारम्बार स्वाद लेते – लेते जिनका शरीर पुलकित हो रहा है एवं जिन्होंने देदीप्यमान् नव – कमल – किञ्जल्क के रङ्ग का सुन्दर दुकूल अपने श्रीअङ्ग में धारण कर रखा है , वह मेरी प्रिय सखी श्रीराधा क्या कभी मुझे सङ्गीत – नाट्य में अपनी निपुणता की शिक्षा देंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°184

लसद्दशन – मौक्तिक प्रवर – कान्ति – पूरस्फुरन , मनोज्ञ नव पल्लवाधर – मणिच्छटा – सुन्दरम् ।

चरन्मकर – कुण्डलं चकित चारु नेत्राञ्चलं , स्मरामि तव राधिके बदनमण्डलं निर्मलम् ।।184।।

हे श्रीराधिके ! मैं आपके निर्मल बदन – मण्डल का स्मरण करती हैं । अहा ! जिसमें शोभायमान् दन्तावली मानों मोतियों की उज्ज्वल कान्ति मे पूर्ण है एवं अधर – पल्लव बड़े ही मनोज्ञ , देदीप्यमान और विद्रुम – मणि की छटा से भी अधिक सुन्दर हैं । कपोलों पर चञ्चल मकराकार कुण्डल और मुख – मण्डल पर चकित चारु नेत्राञ्चलों की अपूर्व शोभा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°185

चलत्कुटिल कुन्तलं तिलक – शोभि – भालस्थलं , तिल – प्रसव नासिका – पुट – विराजि मुक्ता – फलम् ।

कलङ्करहितामृतच्छवि समुज्ज्वलं राधिके , तवाति रति – पेशलं वदन – मण्डलं भावये ।।185।।

हे श्रीराधिके ! आपके जिस बदन – मण्डल में कुटिल अलकाबली चञ्चल हो रही है , भाल – स्थल तिलक से शोभित है , नासा पुट में तिल – पुष्प की भांति मुक्ताफल जगमगा रहा है और जो कलङ्क – रहित सजीव छवि से समुज्ज्वल है , आपके उस अति रस – पेशल ( रसाधिक्य सुन्दर ) बदन – मण्डल की मैं भावना करती है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°186

पूर्ण प्रेमामृत – रस समुल्लास सौभाग्यसारं , कुञ्जे – कुञ्जे नव रति – कला – कौतुकेनात्तकेलि ।

उत्फुलेन्दीवर कनकयोः कान्ति – चौरं किशोरं , ज्योतिर्द्वन्द्वं किमपि परमानन्द कन्दं चकास्ति ।।186।।

जो पूर्ण प्रेमामृत – रस के समुल्लास – सौन्दर्य के भी सार रूप हैं । जिन्होंने नवीन रति – कला के कोतुक से कुञ्जो – कुञ्जो में केलि करना अङ्गीकार किया है एवं जो विकसित – नील – कमल और कनक – कमल की कान्ति को भी हरण करने वाले हैं , वही किशोराकृति – ज्योति युगल किसी अनिर्वचनीय परमानन्द – कन्द स्वरूप में शोभा को प्राप्त हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°187

ययोन्मीलत्केली – विलसित कटाक्षैक कलया , कृतो वन्दी वृन्दाविपिन कलभेन्द्रो मदकलः ।

जडीभूतः क्रीडामृग – इव यदाज्ञा – लव कृते , कृती नः सा राधा शिथिलयतु साधारण – गतिम् ।।187।।

जिन्होंने किञ्चित् विकसित केलि – बिलास जन्य कटाक्षों की एक ही कला ये श्रीवृन्दावन के मदोन्मत्त गजराज किशोर ( श्रीलालजी ) को बन्दी बना लिया है । और ऐसा बन्दी कि पूर्ण चतुर होते हुए भी ये उनकी लेश मात्र आज्ञा के वशवर्ती बने क्रिड़ा – मृग की तरह जड़ हो रहे हैं । वही श्रीराधा मेरी साधारण गति ( संसार – गति ) को शिथिल करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°188

श्रीगोपेन्द्र – कुमार – मोहन – महाविद्ये स्फुरन्माधुरी , सारस्फार रसाम्बुराशि सहज प्रस्यन्दि – नेत्राञ्चले ।

कारुण्यार्द्र कटाक्ष – भङ्गि मधुरस्मेराननांभोरुहे , हा हा स्वामिनि राधिके मयिकृपा – दृष्टि मनाङ् निक्षिप ।।188।।

हे गोपेन्द्र – कुमार – मोहन – कारिणि महाविद्ये ! देदीप्यमान् माधुरी सार विस्तारक रस – समुंद्र का सहज प्रवाह करने वाले नेत्र – प्रान्त बाली प्रिये ! हे कारुण – स्निग्ध कटाक्ष – भङ्गिमासहिते ! हे मधुर मन्द हास्यमय वदन – कमले ! हे स्वामिनि ! हे श्री राधिके ! हा ! हा !! आप मुझ पर अपनी थोड़ी – सी ही तो कृपा – दृष्टि का विक्षेप कीजिये ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°189

ओष्ठ प्रान्तोच्छलित दयितोद्गीर्ण ताम्बूल रागा रागानुच्चैर्निज – रचितया – चित्र भङ्गयोन्नयन्ती ।

तिर्यग्ग्रीवा रुचिर रुचिरोदञ्चदाकुञ्चितधूः , प्रेयः पाश्वें विपुल पुलकैर्मण्डिता भाति राधा ।।189।।

जिन्होंने प्रियतम को अपना चर्वित ताम्बूल देने के लिये उसे अधरों तक लाया है , जिससे ओष्ठ – प्रान्त में लालिमा उच्छलित हो रही है । जो विचित्र भङ्गिमाओं के सहित स्वरचित विभिन्न रागिनियों का उच्च स्वर में गान कर रही हैं . इस कारण ग्रीवा कुछ तिरछी सी हो रही है और युगल रुचिर भू – रलताएँ कुछ – कुछ कुञ्चित ऊपर की और चढ़ रही हैं । मान – सिद्धि के आनन्द से विपुल – पुलकावलि – मण्डित वे श्रीराधा अपने प्रियतम के पार्श्व में शोभा पा रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°190

किं रे धुर्त्त – प्रवर निकटं यासि नः प्राण – सख्या , नूनंवाला कुच – तट – कर – स्पर्श मात्राद्विमुह्येत् ।

इत्थं राधे पथि – पथि रसान्नागरं तेनुलग्नं , क्षिप्त्वा भङ्गया हृदयमुभयोः कहि सम्मोयिष्ये ।।190।।

 ” क्यों रे धुर्त्त श्रेष्ठ | हमारी प्राण – प्यारी सखी के निकट क्यों चला आता है ? दूर ही रह । तू नहीं जानता कि सुकुमारी बाला को कुच – तटी का स्पर्श करने मात्र से हो तू विमुग्ध हो जायगा ! ” ” हे श्रीराधे ! इस प्रकार वाणी – चातुर्य्य के द्वारा में भाव तुम्हारे अनुगमन – शील रसिक – नागर को दूर हटाकर तुम दोनों के हृदय को विमुग्ध करूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°191

कदा वा राधायाः पदकमलमायोज्य हृदये दयेशं निःशेष नियतमिह जह्यामुपविधिम् ।

कदा वा गोविन्दः सकल सुखदः प्रेम करणा दनन्ये धन्ये ये स्वयमुपनयेत स्मरकलाम् ।।191।।

मैं कब श्रीराधा के करुणा – पूर्ण पद – कमलों को हृदय में धारण करके इस संसार में नित्य – आगत वेद – विधियों का अशेष रूप से त्याग कर दूंगी और कब सर्व – मुखद गोविन्द मुझे सेवाधिकार प्रदान करने के निमित्त मुझ अनन्य – धन्य को स्मर – कला ( निफुलान्तर सेवा – योग्य काम – कला ) का शिक्षण  करेंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°192

कवा चा प्रोद्दाम स्मर – समर – संरम्भ – रभस , स्वेदाम्भः प्लुत लुलित चित्राखिलतन्नू ।

गतो कुञ्ज – द्वारे सुख मरुति – संवीज्य परया , मुबाहं श्रीराधा – रसिक – तिलको स्यां सुकृतिनी ।।192।।

प्रकर्य काम – सङ्ग्राम के आवेश – युक्त वेग के कारण उत्पन्न हुए प्रस्वेद जल से जिनके युगल – वपु आर्द्र , ( गीले ) शिथिल और चित्रित हो रहे हैं , वे श्रीराधा और रसिक – शेखर दोनों कुलद्वार में समासीन हैं । मैं कब परम – हर्ष के साथ उन दोनों को बयार करके पुण्य – शालिनि बनुगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°193

मिथः प्रेमावेशाद्धन पुलक दोर्वल्लि रचित , प्रगाढ़ा श्लेवेणोत्सव रसभरोन्मीलित दृशौ ।

निकुञ्जक्लुप्तेवै नव कुसुम – तल्पेधि – शयितौ , कदा पत्सम्बाहादिभिरहमधोशौ नु सुखये ।।193।।

निकुञ्ज – भवनान्तर – स्थित नव – नव – पुष्प – रचित शय्या पर शयन करते हुए , एवं परस्पर प्रेमावेश – जनित घन पुलकाङ्कित भुजलताओं से आवेष्टित , गाड़ आलिङ्गन के उत्सव – रस से परिपूर्ण अर्थ निमोलित दृष्टि – युक्त युगल अधीश्वरों को मैं कब पादसम्बाहनादि सेवाओं के द्वारा सुख पहुँचाऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°194

मदारुण विलोचनं कनक – दपंकामोचनं , महा प्रणयमाधुरी रस – विलास नित्योत्सुकम् ।

लसन्नववयः थिया ललित भङ्गि – लीलामयं , हृदा तदहमुद्वहे किमपि हेमगौरं महः।।194।।

 जिनके युगल विलोचन मद से अरुण वर्ण के हो रहे हैं । जो ( अपनी गौरता से ) कुन्दन के भी मद का मोचन करती हैं । जो महा प्रणय – माधुरी के रस – विलास में नित्य उत्साह – पूर्ण हैं एवं जिनकी उल्लसित नवीन वयः श्री अत्यन्त ललित भङ्गि – लीलामयी है । में उन अनिर्वचनीय हेम – गोर ज्योति को अपने हृदय में धारण करती हूं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°195

 मदापूर्णन्नेत्रं नव रति – रसावेश – विवशो ल्लसद्गात्रं प्राण – प्रणय – परिपाटयां परतरम् ।

गिथो गाढाश्लेषादलयमिव – जातं मरकत , द्रुत स्वर्णच्छार्य स्फुरतु मिथुनं तन्मम हृदि ।।195।।

 मद – पूणित बिलोचन , नवीन रति रसावेश विवशता से उल्लासित वपु और प्राण – सहित प्रणय – परिपाटी में परतर , ( परम श्रेष्ठ ) पारस्परिक आलिङ्गन से वलयाकार – भूत , इन्द्र – नील मणि ( श्याम ) और बीभूत स्वर्ण छविमान ( गौर ) श्यामल गौर युगल मेरे हृदय में स्फूरित हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°196

परस्परं प्रेम – रसे – निमग्न मशेष सम्मोहन रूप – केलि ।

वृन्दावनान्तर्नवकुञ्जगेहे , तन्नीलपोतं मिथुन चकास्ति ।।196।।

 जो परस्पर प्रेम रस में निमग्न हैं और जिनकी केलि सम्पूर्ण चराचर के लिये सम्मोहन रूप है । ये कोई नील – पीत युगल श्रीवृन्दावनान्तर्गत नव कुञ्ज – भवन में शोभा पा रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°197

आशास्य – दास्यं – वृषभानुजाया स्तीरे समध्यास्य च भानुजायाः ।

कदा नु वृन्दावन – कुञ्ज – बीथी ध्वहं नु राधे ह्यतिथिर्भवेयम् ।।197।।

भानु – नन्दिनी श्रीयमुना के तट में अविचल भाव से स्थिर रहकर एवं वृषभानु – नन्दिनी के दास्य – भाव को मन में धारण करके मैं वृन्दावन की कुञ्ज – वीथियों में क्या कभी अतिथि ( अभ्यागत ) होऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°198

कालिन्दी – तट – कुञ्जे , पुञ्जीभूतं रसामृतं किमपि ।

अद्भुत केलि – निधानं , निरवधि राधाभिधानमुल्लसति।।198।।

कालिन्दी – तट के कुञ्ज में कोई अनिर्वचनीय पुञ्जीभूत रसामृत एवं निरवधि जद्भुत केलि – निधान श्रीराधा नामक स्वरूप उल्लसित हो रहा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°199

 प्रीतिरिव मूर्ति – मती रस – सिन्धोः सार सम्पदिव विमला ।

 वैदग्धीनां हृदयं – काचन वृन्दावनाधिकारिणी जयति ।।199।।

 मूर्तिमती प्रीति – स्वरूपा , रस – सिन्धु की विमल सार सम्पत्ति एवं चतुर – शिरोमणि सखियों की भी हृदय – रूपा कोई अनिर्वचनीय श्रीवृन्दा बनाधिकारिणी ( स्वामिनी ) सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°200

 रसघन मोहन मूत्ति , विचित्रकेलि – महोत्सवोल्लसितम् ।

 राधा – चरण विलोडित , रुचिर शिखण्डं – हरि वन्दे ।।200।।

 जिनका रुचिर मयुर – पिच्छ श्रीराधा चरणों में यत्र – तत्र विलोडित होता रहता है तथा जो विचित्र के केलि – महोत्सव से उल्लसित हैं , मैं उन रस धन – मोहन – मूर्ति हरि ( धीकरण ) की बन्दना करती है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°201

कदा गायं गायं मधुर – मधुरोत्या मधुभिद श्चरित्राणि स्फारामृत – रस विचित्राणि बहुशः ।

मृजन्ती तत्केली – भवनमभिरामं मलयजच्छटाभिः सिञ्चन्ती रसहृद निमग्नास्मि भविता।।201।।

मैं कब मधुसूदन के घनीभूत अमृत – रस – पूर्ण विचित्र एवं अनन्त चरित्रों का मधुर मधुर रीति से गायन करती हुई और उनके अभिराम केलि – भवन का सम्मार्जन तथा मलयज मकरन्द से सिञ्चन करती हुई रस समुद्र में निमग्न होऊंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°202

उदञ्चरोमाञ्च – प्रचय – खचितां वेपथुमतों , दधानां श्रीराधामतिमधुर लीलामय तनुम् ।

कदा वा कस्तूर्या किमपि रचयन्त्येव कुचयो विचित्रां पत्रालीमहमहह वीक्षे सुकृतिनी ॥202।।

अहो ! कस्तुरी द्वारा अपने युगल कुचों पर अनिर्वचनीय विचित्र पावली की रचना कर पुण्यवती होकर , मैं कब उन पुलकित रोमावली से शोभित , कम्पायमाद , अति मधुर लीला – मय तनु – धारिणी श्रीराधा का दर्शन करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°203

क्षणं सोत्कुर्वन्ती क्षणमथ महावेपथुमती , क्षणं श्याम श्यामेत्यमुमभिलपन्ती पुलकिता ।

महा प्रेमा कापि प्रमद मदनोद्दाम – रसदा , सदानन्दा मूर्तिर्जयति वृषभानोः कुलमणिः ।।203।।

कोई अनिर्वचनीय वृषभानु – कुल – मणि किशोरी ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं । जो सदा आनन्द की मूर्ति , महा प्रेम – स्वरूपा एवं प्रमद मदन के लिये भी श्रेष्ठतम् रस की प्रदाता हैं । ( अत्यन्त प्रेम – वैचित्य के कारण ) जो किसी क्षण सीत्कार करने लगती हैं , तो दूसरे ही क्षण अत्यन्त कम्पित होने लगती हैं फिर किसी क्षण ” हे श्याम ! हे श्याम !! ऐसा प्रलाप करने लगती हैं , और पुलकित होने लगती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°204

यस्याः प्रेमघनाकृतेः पद – नख – ज्योत्स्ना भरस्नापित स्वान्तानां समुदेति कापि सरसा भक्तिश्चमत्कारिणी ।

सा मे गोकुल भूप – नन्दनमनश्चोरी किशोरी कदा , दास्यं दास्यति सर्व वेद – शिरसां यत्तब्रहस्यं परम् ।।204।।

जिन प्रेम – घनाकृति किशोरी के पद – नव – ज्योत्स्ना – प्रवाह में स्नान करके ( भक्त ) हृदयों में कोई अनिर्वचनीय सरस चमत्कारिणी भक्ति सम्यक रूप से उदय हा जाती है । वे गोकुल – भूप – नन्दन ( श्रीलालजी ) के भी मन का हरण करने वालो किशोरी मुझे अपना सर्व वेद – शिरोमणि ( उपनिषद् का भी परम रहस्य – रूप ) दास्य कब प्रदान करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°205

कामं तूलिकया करेण हरिणा यालक्तकैरङ्किता , नानाकेलि – विदग्ध गोप – रमणी – वृन्दे तथा वन्दिता ।

या संगुप्ततया तथोपनिषदां हृद्येव विद्योतते , सा राधा – चरण – द्वयी मम गतिर्लास्यैक- लीलामयी ।।205।।

श्रीहरि के करकमलों द्वारा तूलिका से जिसमें यथेच्छ चित्रों की रचना की गई है । जो अनेक – अनेक केलि – चतुर गोप – रमणी – वृन्दो से बन्दित है एवं जो वेद – शिरोभाग ( उपनिषदों ) के हृदय में संगुप्त भाव से विद्यमान है , वही नृत्य – लीलामयो श्रीराधा – चरण – द्वयी मेरी गति है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°206

सान्द्र प्रेम – रसौध – वर्षिणि नवोन्मीलन्महामाधुरी , साम्राज्यैक – धुरीण केलि – विभवत्कारुण्य कल्लोलिनि ।

श्रीवृन्दावनचन्द्र – चित्त – हरिणी – बन्धु स्फुरद्वागुरे , श्रीराधे नव – कुञ्ज – नागरि तव क्रीतास्मि दास्योत्सवैः ।।206।।

हे घनीभूत प्रेम रस – प्रवाह – वषिणि ! हे नवीन विकसित महामाधुरी साम्राज्य की सर्वश्रेष्ठ केलि – विभव – युक्त करुणा – कल्लोलिनि ! ( सरिते ! ) है श्रीवृन्दावन – चन्द्र के चित्त रूप मृगी – बन्धु ( हरिन ) के लिये प्रकाशमान बन्धन – रूपे ! हे नवकुञ्ज – नागरि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके दास्योत्सव में बिक चुकी हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°207

स्वेदापूरः कुसुम चयनैर्दूरतः कण्टकाङ्को , वक्षोजेऽस्यास्तिलक विलयो हंत घर्माम्भसैव ।

ओष्ठः सख्या हिम – पवनतः सव्रणो राधिके ते , क्रूरास्वेवं स्वघटितमहो गोपये प्रेष्ठसङ्गम् ।।207।।

अहो । श्रीराधिके !! आपने स्वमेव प्रियतम के सङ्गम – विहार की जो रचना की है । मैं उसे क्रूर ( हास – परायण ) सखियों से यह कहकर छिपाऊंगी , कि ” दूर प्रदेश से पुष्प – चयन करने के कारण ही प्रिय – सखी के शरीर में स्वेद – प्रवाह है , आपके वक्षोजों को भी कण्टको ने क्षत – विक्षत किया है और ओष्ठ पर जो व्रण हैं वह भी हिम – वायु के स्पर्श से ही उद्भुत हैं । “

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°208

पातं – पातं पद कमलयोः कृष्णभृङ्गेण तस्या , स्मेरास्येन्दोर्मुकुलित कुच द्वन्द्व हेमारविन्दम् ।

पीत्वा वक्त्राम्बुजमतिरसान्नूनमंतः प्रवेष्टु मत्यावेशान्नखरशिखया पाटचमानं किमीक्षे ।।208।।

क्या मैं कभी ऐसा देखूंगी कि श्री प्रिया – मुख – कमल का मधुपान करके अत्यन्त प्रेमावेश में भरे हुए श्रीकृष्ण – मधुकर निकुञ्ज – भवन के भीतर फिर प्रवेश पा लेने के लिये बार – बार श्रीराधा – चरण – कमलों में गिरकर प्रार्थना कर रहे होंगे ? और [ जब निकुञ्ज – प्रवेश हो जायगा , तब ] उन मधुर हास्य – मयी चन्द्र – मुखी ( श्रीराधा ) के मुकुलित युगल – कुच रूप कनक – कमलों को अपनी नखर – शिवाओं से विदीर्ण करते होंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°209

अहो तेमी कुञ्जास्तदनुपम रासस्थलमिदं , गिरिद्रोणो सैव स्फुरति रति – रङ्गे – प्रणयिनी ।

न बोक्षे श्रीराधां हर – हर कुतोपीति शतधा विदीर्येन्त प्राणेश्वरि मम कदा हन्त हृदयम् ।।209।।

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! यह सब वही कुंजे ! वही अनुपम रासस्थल तथा रति – रङ्ग – प्रणयिनी गिरि ( गोवर्द्धन ) गुहाएं है !! किन्तु हाय ! हाय !! बड़ा खेद है कि श्रीराधा कहीं नहीं दीखती ! हे प्राणेश्वरि । ऐसा होने पर मेरा हृदय कब शतधा ( शत खण्ड ) होकर विदीर्ण हो जायगा ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°210

इहैवाभूत्कुञ्जे नव – रति – कला मोहन तनोरहोऽत्रैवानृत्यद्दयित सहिता सा रसनिधिः ।

इति स्मारं – स्मारं तव चरित – पीयूष – लहरी , कदा स्यां श्रीराधे चकित इह वृन्दावन – भुबि ।।210।।

 अहो ! मोहन – तनु थीप्रियाजी की नव – रति – कला इसी कुक्ष में अनुष्ठित हुई थी और उन रस – निधि ने अपने प्राण – प्यारे के साथ इसी स्थल पर नृत्य किया था । ” हे श्रीराध ! इस प्रकार आपकी चरितामृत लहरी का स्मरण कर – करके में कब इस वृन्दावन में चकित हो रहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°211

श्रीमद्विम्बाधरे ते स्फुरति नव सुधा – माधुरी – सिन्धु कोटिर्नैत्रान्तस्ते विकोर्णाद्भुत कुसुम धनुश्चण्ड सत्काण्डकोटिः ।

श्रीवक्षोजे तवाति प्रमद रस – कला – सार – सर्वस्व कोटिः , श्रीराधे त्वत्पदाब्जास्रवति निरवधि प्रेम – पीयूष कोटिः ।।211।।

हे श्रीराधे । आपके श्रीसम्पन्न अधर – बिम्बों से नवीन अमृत – माधुरी के कोटि – कोटि सिन्धु स्फुरित होते रहते हैं । आपके नेत्र – कोणों से पुष्प – धन्या कामदेव के कोटि – कोटि प्रचण्ड शर बिखरते रहते हैं । आपके उरोजों में अति प्रमत्त रति – कला का सार – सर्वस्व कोटि – कोटि प्रकार से शोभा पाता है और आपके श्रीचरण – कमलों से प्रेम – पीयूष – कोटि निरवधि रूप से प्रवाहित होता रहता है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°212

सान्द्रानन्दोन्मदरसघन प्रेम – पीयूष मूर्तैः , श्रीराधाया अथ मधुपतेः सुप्तयोः कुञ्ज – तल्पे ।

कुर्वाणाह मृदु – मृदु पदाम्भोज – सम्बाहनानि , शय्यान्ते कि किमपि पतिता प्राप्त तन्द्रा भवेयम् ।।212।।

निविड़ आनन्दोन्मद – रस के घनत्व से प्रकट प्रेमामृत – मूति श्रीराधा और मधुपति श्रीलालजी के कुज – शय्या पर निद्रित हो जाने पर उनके अति कोमल पद – कमलों का सम्बाहन करते – करते मैं तन्द्रा प्राप्त होने पर शय्या के समीप ही क्या लूड़क रहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°213

राधा पादारविन्दोच्छलित नव रस प्रेम – पीयूष पुञ्जे , कालिन्दी – कूल – कुञ्जे हृदि कलित महोदार माधुर्य – भावः ।

श्रीवृन्दारण्य – वीथी ललित रतिकला – नागरी तां गरीयो , गम्भीरकानुरागान्मनसि परिचरन विस्मृतान्यः कदा स्याम् ।।213।।

कितना सुन्दर यमुना तट ! श्रीराधा – चरण – कमलाङ्कीत एवं नव रस – प्रेमामृत पुञ्ज !! और उस कूल पर विराजमाना मैं ? परम सुन्दर , अत्यन्त उदार एवं मधुर भावना से भावित मेरा हृदय । कौनसी मेरी भावना ? श्रीवृन्दावन – बीथी – ललित – कला – चतुरा में और अतुल तथा गम्भीर अनुराग को एकमात्र मूर्ति श्रीस्वामिनीजी को वह मानसी सेवा परिचर्या । तो क्या होगा इससे ? क्या होगा | मैं कब इस भावना से पूर्ण होकर अन्य सब कुछ भूल जाऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°214

अदृष्ट्वा राधांके निमिषमपि तं नागर – मणि , तया वा खेलन्तं ललित ललितानङ्ग कलया ।

कदाहं दुःखाब्धौ सपदि पतिता मूर्च्छितवती , न तामास्वास्यार्त्ता ” सुचिरमनुशोचे निज दशाम् ।।214।।

श्रीराधा के साथ अति ललित कन्दर्प – कला – केलि करते हुए नागरमणि श्रीकृष्ण को श्रीराधा के अङ्क में निमिय – मात्र के लिये भी न देशकर मूर्छित – वती मैं दुःख सागर में एकदम पतित होकर उसी वियोगार्ता ( श्रीप्रियाजी ) को आश्वासन न दे सकने के कारण अपनी उस ( विह्वल ) दशा की कब चिर अनुशोचना करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°215

भूयोभूयः कमलनयने कि मुधावार्यतेऽसौ , वाङ्मात्रेअ्पि स्वदनुगमनं न त्यजत्येव धूर्तः ।

किश्चिद्राधे कुच – तटी – प्रान्तमस्य प्रदीयं श्चक्षुर्द्वारा तमनुपतितं चूर्णतामेतु चेतः ।।215।।

हे कमल नयने ! आप बार – बार केवल वाणी से ही इनका निवारण कर रही हैं और ये धूर्तराज आपका अनुगमन किसी प्रकार भी छोड़ते ही नहीं ; अतएव आप कुछ ऐसा कीजिये , जिससे इनका मृदुल चित्त इनके ही चक्षु – मार्ग से आपके कुच – तटी – प्रान्त में अनुपतित होकर चूर्ण – चूर्ण हो जाय ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°216

किंवा नस्तैः सुशास्त्रैः किमथ तदितैर्वर्त्मभिः सद्गृहीतै यंत्रास्ति प्रेम – मूतैर्नहि महिम – सुधा नापि भावस्तदीयः ।

किं वा वैकुण्ठ लदम्याप्यहह परमया यत्र मे नास्ति राधा , किन्त्वाशाप्यस्तु वृन्दावन भुवि मधुरा कोटि जन्मान्तरेअ्पि ।।216।।

जिनमें प्रेम – मूर्ति श्रीराधा की महिमा – सुधा किवा उनके भाव का वर्णन नहीं है उन सुशास्त्र समूहों से अथवा उन शास्त्र – विहित , साधुजन गृहीत मार्ग – समूहों से भी हमको क्या प्रयोजन है ? अहा ! जहाँ हमारी श्रीराधा नहीं है उस बैकुण्ठ – शोमा से ही हमको क्या ? किन्तु कोटि जन्मान्तरों में भी श्रीवृन्दावन – भूमि के प्रति हमारी मधुर आशा बनी रहे , यही बाञ्चछा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°217

श्याम – श्यामेत्यनुपम रसापूर्ण वर्णैर्जपन्ती , स्थित्वा – स्थित्वा मधुर – मधुरोत्तारमुच्चारयन्ती ।

मुक्तास्थलान्नयन गलितानश्रु विन्दून्वहन्ती , हृष्यद्रोमा प्रति – पदि चमत्कुर्वती पातु राधा ।।217।।

श्रीकृष्ण – प्रेम से विह्वल होकर जो ” श्याम श्याम ! ” इन अनुपम वर्णो का जाप करती हैं । कभी अपने बड़े – बड़े नयनों से स्थूल मुक्ता – माला के समान अश्रु – बिन्दुओं का वर्षण ( पतन ) करती हैं तथा कभी प्रियतम आगमन के सम्भ्रम से पद – पद पर चमत्कृत हो उठती हैं , वे हर्ष – पूर्ण पुलकित – रोम्नि श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°218

ताद्दङ्मृर्तिर्व्रजपति – सुतः पादयोर्में पतित्वा , दन्ताग्रेणाथ धृत्वा तृणकममलान्काकुवादान्व्रवीति ।

नित्यं चानुव्रजति कुरुते सङ्गमायोद्यमं चे त्युद्वेगं मे प्रणयिनि किमावेदयेयं नु राधे।।218।।

 हे प्रणयिनि ! हे श्रीराधे ! मोहन – मूर्ति श्रीब्रजपति – कुमार ( लालजी ) मेरे चरणों में गिरकर एवं दन्ताग्र – भाग में तृण दबा कर निष्कपट चाटुकारी की वचनावली कहते हैं और निरन्तर ही मेरा अनुगमन भी करते हैं । उद्देश्य यह है कि मैं उनका आपके साथ सङ्गम करा दूं किन्तु मैं ( श्रीलालजी के इस प्रकार मेरे साथ व्यवहार – जन्य ) अपने उद्वेग का आपसे क्या निवेदन करूं ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°219

चलल्लीलागत्या कचिदनुचल्लद्धंस मिथुनं, क्वचित्केकिन्यग्रेकृत नटन चन्द्रक्यनुकृति ।

लताश्लिष्टं शाखि प्रवरमनुकुर्वत् क्वचिदहो , विदग्ध – द्वन्द्वं तद्रमत इह वृन्दावन – भुवि ।।219।।

अहो ! वे चतुर युगल इस वृन्दावन – भूमि में कहीं लीला – पूर्ण गति द्वारा हंस – मिथुन का अनुसरण करके , कहीं मयूरी के आगे मयूर की नटन भङ्गी की अनुकृति करके एवं कहीं लता – श्लिष्ट तश्बर का अनुकरण करके क्रीड़ा कर रहे है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°220

‘ व्याकोशेन्दीवराष्टा पद – कमल रुचा हारि कान्त्या स्वयायत् कालिन्दीयं  शीतलं सेवमानम् ।

सान्द्रानंदं नव – नव रसं प्रोल्लसत्केलि – वृन्दं , ज्योतिर्द्वन्द्वं मधुर – मधुरं प्रेम – कन्दं चकास्ति ।।220।।

जिन्होंने अपनी कान्ति से विकसित इन्दीवर ( नील – कमल ) एवं स्वर्ण – कमल की शोभा को भी हरण कर लिया है और जो कालिन्दी के सुरभित एवं शीतल बायु का सेवन करते रहते हैं वह सधन आनन्द – मय , मधुराति – मधुर एवं प्रेम की उत्पत्ति – स्थान युगल – ज्योति श्रीवृन्दावन में विराजमान हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°221

कदा मधुर सारिकाः स्वरस पद्यमध्यापयत्प्रदाय कर तालिकाः क्वचन नर्तयत्केकिनम् ।

क्वचित् कनक वल्लरीवृत तमाल लीलाधनं , विदग्ध मिथुनं तदद्भुतमुदेति वृन्दावने ।।221।।

कभी मधुर – स्वरा सारिकाओं को निज रस सम्बन्धी पद्यों का अध्यापन कराते हुए , कभी ताली बजा – बजाकर मयूरों को नचाते हुए , तो कहीं कनक – लता से आवृत तमाल के लीला – धन से धनी चतुर युगल श्रीवृन्दावन में जगमगा रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°222

पत्राली ललितां कपोल – फलके नेत्राम्बुजे कज्जलं , रङ्ग बिम्बफलाधरे च कुचयोः काश्मीरजा – लेपनम् ।

श्रीराधे नव – सङ्गमाय – तरले पादांगुली – पंक्तिषु , न्यस्यन्ती प्रणयादलक्तक – रसं पूर्णा कदा स्यामहम् ।।222।।

हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थलों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अघरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन कम तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्गलाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके मैं कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°223

श्रीगोबर्द्धनं एक एव भवता पाणौ प्रयत्नाद्धृतो , राधावर्ष्मणि हेम – शैल युगले दृष्टेपि ते स्याद्भयम् ।

तद्गोपेन्द्रकुमार मा कुरु वृथा गर्व परीहासतः , कार्ह्येवं वृषभानुनन्दिनि तव प्रेयांसमाभाषये ।।223।।

” हे गोपेन्द्र कुमार ! तुम व्यर्थ गर्व क्यों करते हो ! तुमने तो केवल एक ही गोवर्धन पर्वत को प्रयत्न – पूर्वक धारण किया था , किन्तु श्रीराधा तो अपने सुन्दर शरीर पर [ एक नहीं दो- दो] हेम – शैल धारण कर रही हैं । जिन्हें देखकर ही तुम्हें भय लगता है । ” हे वृषभानु नन्दिनि ! मैं कब परिहास – पूर्वक इस प्रकार आपके प्रियतम से कहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°224

अनङ्ग जय मङ्गल ध्वनित किङ्किणी डिण्डिम , स्तनादि वर ताडनैर्नखर – दन्त – धातैर्युतः ।

अहो चतुर नागरी नव – किशोरयोर्मञ्जुले , निकुञ्ज – निलयाजिरे रतिरणोत्सवो जृम्भते ।।224।।

अहो ! मञ्जुल निज – भवनाङ्गण में चतुर मागरी और नव किशोर का अनङ्ग – जय – मन – ध्वनित किङ्कणी का शब्द , स्तनादि का वर ताडन और नखर – दन्ताघात से मुक्त रति – रणोत्सव प्रकाशित हो रहा है । हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थानों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अधरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन करू तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पंक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्ग लाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके में कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°225

यूनोर्वीक्ष्य दरत्रपा नट – कलामादीशक्ष्ययन्ती दृशोवृण्याना चकितेन सञ्चित महा रत्नस्तनं चाप्युरः ।

सा काचिद्वेवृषभानुवेश्मनि सखी मालासु बालावली , मौलिः खेलति विश्व – मोहन महा सारुप्यमाचिन्वती ।।225।।

 किन्हीं दो युवक – युवती की किञ्चित् लज्जा युक्त नटकला को देखकर जिन्होंने अपने नवांकुरित सञ्चित महा रत्न – स्तनों को चकित – भाव से ढाँप लिया । ढाँप क्या लिया ? मानो , जिन्होंने यौवन की पाठशाला में नेत्रों द्वारा यह प्रथम दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार विश्व के मोहन करने वाले महा – रूप – लावण्य का सञ्चयन करती हुई कोई अनिर्वचनीय ललनावृन्द – मौलि अपने सखी – वृन्द के साथ श्रीवृषभानु – भवन में खेल रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°226

ज्योतिः पुञ्जद्वयमिदमहो मण्डलाकारमस्या , वक्षस्युन्मादयति हृदयं किं फलत्यन्यदग्रे ।

भ्रू कोदण्डं नकृतघटनं सत्कटाक्षौघ वाणैः , प्राणान्हन्यात्किमु परमतो भावि भूयो न जाने ।।226।।

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! इस ( अज्ञात – यौवना वाला ) के वक्ष पर शोभित मण्डलाकार ये दो ज्योति – पुञ्ज [ जब अभी ही ] हृदय को उन्मत्त बना रहे हैं , फिर आगे चलकर उन्माद से भी अधिक क्या फल देंगे , यह देखना है और ये सत्कटाक्ष – प्रवाह – रूप बाण – समूह भ्रू – कोदण्ड का संयोग हुए बिना ही प्राणों का हनन करते हैं तो संयोग होने पर क्या होगा , यह नहीं कहा जा सकता ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°227

भोः श्रीदामन्सुबल वृषभस्तोक कृष्णार्जुनाद्याः , किंवो दृष्टं मम नु चकिता दृग्गता नैव कुञ्ज ।

काचिद्देवी सकल भुवनाप्लाविलावण्यपूरा दूरादेवाखिलमहरत प्रेयसो वस्तु सख्युः ॥227।।

 [ श्यामसुन्दर ने कहा- ” हे श्रीदाम , सुबल , वृषभ , स्तोक – कृष्ण , अर्जुन आदि सखाओ ! तुमने क्या देखा ? मेरी चकित दृष्टि ने कुञ्ज में प्रवेश न करने पर भी जो देखा है , उसे सुनो – अपने सौन्दर्य – प्रवाह से निखिल – भुवन को डुबा देने वाली एक अवर्णनीय देवी दूर से ही अपने प्रिय सखा मुझ श्रीकृष्ण की अखिल वस्तुओं का अपहरण कर लिया है । “

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°228

गता दूरे गावो दिनमपि तुरीयांशमभजद्वयं दातुं क्षांतास्तव च जननी बत्र्मनयना ।

अकस्मात्तूष्णीके सजल नयने दीन वदने , लुठत्यस्यां भूमौ त्वयि नहि वयं प्राणिणिषवः ।।228।।

 [ सखाओं ने कहा – हे श्याम सुन्दर ! ] हमारी गाय दूर निकल गयी हैं , दिन भी समाप्त हो आया है , हम लोग भी थकित से हो चुके हैं । उधर तुम्हारी जननी मार्ग पर दृष्टि लगाये बैठी हैं इधर अकस्मात् तुम्हारे पृथ्वी पर मूच्छित हो गिरने , चुप हो जाने एवं सजल नयन , दीन बदन हो जाने के कारण हम लोग भी निश्चय है कि अब प्राण नहीं धारण करना चाहते ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°229

नासाग्रे नव मौक्तिकं सुरुचिरं स्वर्णोज्ज्वलं विभ्रती , नानाभङ्गिरनगरङ्ग विलसल्लीला तरङ्गावलिः ।

राधे त्वं प्रविलोभय ब्रज – मणि रत्नच्छटा – मञ्जरी , चित्रोदञ्चित् कञ्चुकस्थि गत्योर्वक्षोजयोः शोभया ।।229।।

है राधे ! आपने अपनी नासिका के अग्रभाग में स्वर्णोज्ज्वल रुचिर नव – मौक्तिक धारण कर रखा है और आप / स्वयं | नाना – भङ्गि – विशिष्ट अनङ्ग – रङ्ग – बिलास – युक्त लीलान्तरङ्गों की अवलि आपके मुगल वक्षोज रत्नच्छटा – पुक्त चित्र – विचित्र कञ्चुकि से रुद्ध हैं – ढ़के हैं । अब आप इनकी अनुपम शोभा से ब्रज – मणि श्रीलालजी को सम्यक् प्रकार से प्रलुब्ध करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°230

अप्रेक्षे कृत निश्चयापि सुचिरं वीक्षेत दृक्कोणतो , मौने दाढर्चमुपाश्रितापि निगदेत्तामेव याहीत्यहो ।

अस्पर्शे सुधृताशयापि करयोर्धूत्वा वहिर्यापये द्राधाया इति मानदस्थितिमहं प्रेक्षे हसन्ती कदा ।।230।।

यद्यपि [ श्रीप्रियाजी ने प्रियतम की ओर ] न देखने का निश्चय कर लिया है , फिर भी नेत्र – कोणों से उनकी ओर देर तक देखती ही रहती हैं । अहो ! [ आश्चर्य है । मौन का दृढ़ता – पूर्वक आश्रय लेकर भी ” वहीं चले जाओ ” इस प्रकार कह ही देती हैं एवं स्पर्श न करने का निश्चय करके भी उन्हें दोनों हाथ पकड़कर बाहर निकालती हैं । मैं हंसते – हंसते श्रीराधा के मान की इस दुःस्थिति को कब देखंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°231

रसागाधे राधा हृदि – सरसि हंसः करतले, लसद्वंशस्रोतस्यमृत – गुण – सङ्गः , प्रति – पदम् ।

चलत्पिच्छोत्तंसः सुरचितवतंसः प्रमदया, स्फुरद्गुञ्जा – गुच्छः स हि रसिक – मौलिर्मिलतु माम् ।।231।।

अहा ! जो श्रीराधा हृदय – रूप अगाध सरोवर के हंस हैं , जिनके करतल में मुरली शोभित है , जिस मुरली के छिद्रों से सदा अमृत – गुण ( आनन्द ) पद – पद पर झरता ही रहता है । जिनके सिर पर चञ्चल मयूर चन्द्रिका तथा कानों में प्रमदाओं द्वारा सुरचित सुन्दर कर्ण – भूपण जगमगा रहे हैं एवं जिनके गले में प्रकाशमान गुञ्जा – गुच्छ ( माला ) योभित है वे रसिक – मोलि मुझे निश्चय ही मिलें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°232

अकस्मात्कस्याश्चिन्नव – वसनमाकर्षति परां , मुरल्या धमिल्ले स्पृशति कुरुतेन्या कर धृतिम् ।

पतन्नित्यं राधा – पद – कमल – मूले प्रज – पुरे , तदित्थं वीथोषु भ्रमति स महा लम्पट – मणिः ।।232।।

अहो ! वे सहसा किसी ( गोपी ) के नव – वसन को खींचने लगते हैं , तो दूसरी के केश – पाश को मुरली से स्पर्श करते हैं और किसी का हाथ ही पकड़ लेते हैं परन्तु वही श्रीराधा – पद – कमल – मूल में सदैव लोटते ही रहते हैं । इस प्रकार ब्रज – पुर की गलियों में ये महा लम्पट – मणि ( श्रीकृष्ण ) भ्रमण करते रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°233

एकस्या रतिचौर एव चकितं चान्यास्तनान्ते करं , कृत्वा कर्षति वेणुनान्य सदृशो धम्मिल्ल – मल्ली – स्रजम् ।

धत्तेन्या भुज – बल्लिमुत्पुलकितां संकेतयत्यन्यया , राधायाः पदयोर्लुंठत्यलममुं , जाने महा लम्पटम् ।।233।।

सखी ने कहा- मैं इस महा लम्पट को खूब जानती है । यह किसी एक सखी का तो रति – चोर है और किसी अन्य के स्तन पर चकित होकर कर – स्पर्श करता है । किसी अन्य सुनयनी की कबरी – स्थित मल्ली – माल को वेणु से खोंचता है , किसी की पुलकित भुज – लता को पकड़ लेता – धारण करता है , तो किसी अन्य के सहित कुञान्तर – प्रवेश का संकेत करता है । किन्तु श्रीराधा के चरणों में सम्पूर्ण रूप से लोटता ही रहता है , ( इसकी यहाँ एक नहीं चलती ” ) ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°234

प्रियांसे निक्षिप्तोत्पुलक भुज – दण्डः क्वचिदपि , भ्रमन्वृन्दारण्ये मद – कल करीन्द्राद्भुत – गतिः ।

निजा व्यंजन्नत्यद्भुत सुरत – शिक्षां क्वचिदहो , रहः कुञ्जे गुजा ध्वनित मधुपे कोडति हरिः ।।234।।

अहो ! वे श्रीलालजी कभी तो अपनी प्रियतमा के स्कन्ध पर पुलकित भुजदण्ड स्थापित करके मदोन्मत्त करीन्द्र की भांति अद्भुत गति से श्रीवृन्दावन में विचरण करते हैं और कभी मधुप – गुञ्जन मुखरित एकान्त कुञ्ज में स्वकीय अत्यभुत सुरत – शिक्षा की अभिव्यञ्जना करते हुए क्रीड़ा करते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°235

दूरे सृष्टचादि वार्ता न कलयति मनाङ् नारदादीन्स्वभक्ता ञ्र्छीदामाद्यैः सुहृद्भिर्न मिलति हरति स्नेह वृद्धिं स्वपित्रोः ।

किंतु प्रेमैक सीमां परम रस – सुधा – सिन्धु – सारैरगाधां , श्रीराधामेव जानन्मधुपतिरनिशं कुञ्ज – वीथीमुपास्ते ।।235।।

श्रीश्यामसुन्दर ने सृष्टि आदि की चर्चा ही दूर कर दी है । वे नारदादि निज भक्तों का बिलकुल विचार भी नहीं करते । श्रीदामा आदि मित्र वर्ग के साथ भी नहीं मिलते और पिता – माता की स्नेह – वृद्धि भी नहीं चाहते । किन्तु वही मधुपति ( श्रीकृष्ण ) मधुर – रस – सुधा – सिन्धु की सारभूता अगाध प्रेम की एकमात्र सीमा श्रीराधा को ही जानकर अहर्निश कुञ्ज – वीथी में ही स्थित रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°236

सुस्वादु सुरस तुन्दिलमिन्दीवर वृन्द सुन्दरं किमपि ।

अधिवृन्दाटवि नन्दति राधा – वक्षोज भूषण – ज्योतिः ।।236।।

अहो ! सुस्वादनीय सुरस से पुष्ट अनिर्वचनीय नील – कमल – समूह के समान सुन्दर एवं श्रीराधा के वक्षोज की भूषण रूप कोई ज्योति श्रीवृन्दावन में आनन्दित हो रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°237

कान्तिः कापि परोज्ज्वला नव मिलञ्छ्रीचन्द्रिकोद्भासिनी , रामाद्यद्भुत वर्ण काञ्चित् रुचिर्नित्याधिकाङ्गच्छविः ।

लज्जा – नम्रतनुः स्मयेन – मधुरा प्रीणाति केलिच्छटा , सन्मुक्ता फल चारु हार सुरुचिः स्वात्मार्पणेनाच्युतम् ।।237।।

जो नवीन प्राप्त हुई शोभामयी चन्द्रिका का प्रकाश करने वाली हैं एवं अद्भुत वर्ण की सहचरियों में जटित मणि – सदृश हैं । जिनकी अङ्गच्छबि प्रतिक्षण अधिक – अधिक बढ़ती ही रहती है और जो उज्ज्वल मुक्ताफल के सुन्दर हारों से दीप्तिमान हैं । वे कोई लज्जा – नम्र – तनु एवं मन्द मुस्कान से मधुर के लिच्छटा – रूप परम उज्ज्वल अनिर्वचनीय कान्ति [ श्रीराधा ] अपने सर्वस्व – समर्पण के द्वारा अच्युत [ श्रीलाल जी ] को सन्तुष्ट कर रही है अथवा आप स्वयं सन्तुष्ट हो रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°238

यन्नारदाजेश शुकैरगम्यं वृन्दावने वञ्जुल मञ्जुकुञ्जे ।

तत्कृष्ण – चेतो हरणैक विज्ञमत्रास्ति किञ्चित्परमं रहस्यम् ।।238।।

यहीं श्रीवृन्दावन में मनोहर वेतम् – कुञ्ज में नारद , अज , ईश और शुकदेव के द्वारा भी सर्वथा अगम्य , श्रीकृष्ण के चित्त का हरण करने में एकमात्र विज्ञ कोई परम रहस्य विद्यमान है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°239

लक्ष्म्या यश्च न गोचरो भवति यन्नापुः सखायः प्रभोः , सम्भाव्योपि विरञ्चि नारद शिव स्वायंभुवाद्यैर्नयः ।

यो वृन्दावननागरी पशुपति स्त्रीभाव कथं , राधामाधवयोर्ममास्तु स रहो दास्थाधिकारोत्सवः ।।239।।

अहा ! जो लक्ष्मी के भी गोचर हैं जो प्रभु श्रीकृष्ण अपने सखाओं को भी प्राप्त नहीं हैं और जो ब्रह्मा , नारद , शिव , स्वायम्भुव आदि के लिये भी गम्य नहीं हैं , किन्तु वही वृन्दावन – नागरी गोपाङ्गनाओं के भावसे ही येन – केन प्रकार से लभ्य है । मुझ वही श्रीराधा – माधव का रहस्य दास्याधि कारोत्सव प्राप्त हो ; ( ऐसी वाञ्छा है । )

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°240

उच्छिष्टामृत भुक्तवैव चरितं श्रृण्वंस्तवैव स्मरन , पादाम्भोज रजस्तवैव विचरन्कुञ्जास्तवैवालयान् ।

गायन्दिव्य गुणांस्तवैव रसदे पश्यंस्तवैवाकृतिं , श्रीराधे तनुवाङ्गमनोभिरमलै सोहं तवैवाश्रितः ।।240।।

हे श्रीराधे ! हे रसदे !! तुम्हारी ही उच्छिष्ट अमृत – भोजी मैं तुम्हारे ही चरित्रों का श्रवण करती हुई , तुम्हारे ही कुञ्जालय में विचरण करती हुई , तुम्हारे ही दिव्य गुण – गणों का गान करती हुई एवं तुम्हारी ही रसमयी आकृति ( छबि ) का दर्शन करती हुई , शुद्ध काय , मन और वचन – द्वारा केवल तुम्हारी ही आश्रिता हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°241

क्रीडन्मीनद्वयाक्ष्याः स्फुरदधरमणी – विद्रुम श्रोणि – भार , द्वीपायामोन्तराल स्मर – कलभ – कटाटोप बक्षोरुहायाः ।

गम्भीरावर्तनाभेर्वहुलहरि – महा प्रेम – पीयूष सिन्धोः , श्रीराधायाः पदाम्भोरुहपरिचरणे योग्यतामेव चिन्वे ।।241।।

जिनके युगल – नेत्र मानो क्रीड़ा करते हुए मीन हैं । देदीप्यमान अधर ही विद्रुम मणि हैं । पृथुल नितम्ब – द्वय ही दो द्वीप – विस्तार हैं । जिनके अन्तराल में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के आडम्बर ( घेरे ) के सदृश स्तन – द्वय हैं । जिनकी नाभि मानो गम्भीर भंवर और जो श्रीहरि के विपुल – प्रेमामृत की सिन्धु स्वरूपा हैं । मैं उन श्रीराधा के युगल चरणार- बिन्दों की परिचर्य्या की केवल योग्यता का ही अन्वेषण करती है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°242

मालाग्रन्थन – शिक्षया मृदु – मृदु श्रीखण्ड – निर्घर्षणादेशेनाद्भुत मोदकादि विधिभिः कुञ्जान्त सम्मार्जनैः ।

वृन्दारण्य रहः स्थलीषु विवशा प्रेमार्त्ति भारोद्गमात प्राणेशं परिचारिकैः खलु कदा दास्या मयाधीश्वरी ।।242।।

श्रीवृन्दावन के निभृत – निकुञ्ज में विराजमान और अपने प्रियतम के प्रति प्रेमार्त्तिभार के उदय से विवश , अधीश्वरी श्रीराधा पुष्प – माला गुथने को शिक्षा देकर , मृदु – मृदु चन्दन पिसने का आदेश देकर , अद्भुत मोदकादि की रचना का विधान करके एवं कुल – प्रान्त – पर्यन्त – सम्मान की आज्ञा देकर परिचर्य्या- सम्बन्धी विस्तार – कार्य में मुझे कब दासी स्वीकार करेंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°243

प्रेमाम्भोधिरसोल्लसत्तरुणिमारम्भेण गम्भीर द्दग्भेदाभङ्गि मुदुस्मितामृत नव ज्योत्स्नाचित श्रीमुखी ।

श्रीराधा सुखधामनि प्रविलसद्वृन्दाटवी – सीमनि , प्रेयोङ्के रति – कौतुकानि कुरुते कन्दर्प – लीला – निधिः ।।243।।

प्रेम – समुद्र – रस के उल्लास को तरुणिमा के आरम्भ के कारण जिनकी इष्टि – भङ्गिमा गम्भीर बन रही है । भङ्गिमा – सहित मृदु मुस्कान – अमृत की नव ज्योत्स्ना से जिनका श्रीमुख शोभित हो रहा है वही कन्दर्प – लीला – निधि स्वरूपा प्रीति श्रीराधा शोभायमान वृन्दावन की सुख – धाम कुञ्ज में प्रियतम के अङ्क में रति – कौतुक कर रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°244

शुद्ध प्रेम – विलास – वैभव – निधिः कैशोर शोभानिधिर्वैदग्धी मधुराङ्ग भङ्गिम – निधिलविण्य – सम्पन्निधिः ।

श्रीराधा जयतान्महारसनिधिः कन्दर्प – लीला – निधिः , सौन्दर्य्यैक सुधा निधिर्मधुपतेः सर्वस्वभूतो निधिः ।।244।।

अप्राकृत प्रेम – विलास वैभव की निधि , कैशोर – शोभा की निधि , विदग्धता – पूर्ण मधुर अङ्ग – भङ्गिमा को निधि , लावण्य – सम्पत्ति की निधि , महारास की निधि , काम – लीला की निधि , सौन्दर्य की एकमात्र सुधा – निधि एवं मधुपति श्रीलालजी को सर्वस्वभूत निधि श्रीराधा की जय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°245

नीलेन्दीवरवृन्दकान्ति लहरी – चौरं किशोर – द्वयं त्वय्यै तत्कुचयोश्चकास्ति किमिदं रुपेण सम्मोहनम् ।

तम्मामात्म सखीं कुरु द्वितरुणीयं नौ दृढं श्लिष्यति , स्वच्छायामभिवीक्ष्य मुह्यति हरौ राधा – स्मितं पातु नः ।।245।।

श्रीप्रियाजी के युगल कुचों में अपनी परछाईयाँ देखकर श्रीलालजी ने कहा – ‘ प्रिये ! तुम्हारे इन युगल कुचों में नील – कमल समूह की कान्ति लहरी को भी चुराने वाले दो किशोर शोभा पा रहे हैं और उनके इस अनिर्वचनीय रूप से मेरा सम्मोहन हो रहा है । अतएव अब आप मुझको अपनी सखी बना ले जिससे यह दोनों युवा हम दोनों तरुणियों का दृढ आलिङ्गन करेंगे । इस प्रकार श्रीहरि के मोह को देखकर प्रकट हुआ श्रीराधा का मृदु हास्य हमारी रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°246

सङ्गत्यापि महोत्सवेन मधुराकारां हृदि प्रेयसः , स्वच्छायामभिवीक्ष्य कौस्तुभ मणौ सम्भूत शोका – क्रुधा ।

” उत्क्षिव्य प्रिय पाणिमेव विनयेत्युषत्वा गताया बहिः , सख्यै सास्त्र निवेदतानि किमहं श्रोष्यामि ते राधिके ।।246।।

है श्रीराधे ! सुख – सङ्ग महोत्सव में सम्मिलित होने पर भी प्रियतम के हृदय – स्थित कौस्तुभ – मणि में अपना मधुराकार प्रतिबिम्ब देखकर उत्पन्न क्रोध और शोक के कारण प्रियतम के हाथ को दूर हटाकर एवं ” अविनय ‘ ऐसा कहकर बाहर गयी हुई आपका अर्थ – पूर्ण निवेदन क्या मैं सुंनुगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°247

महामणि वरस्त्रजं कुसुम सञ्चयैरञ्चितं , महा मरकत प्रभा ग्रथित मोहित श्यामलम् ।

महारस महीपतेरिव विचित्र सिद्धासनं ,कदा नु तव राधिके कबर – भारमालोकये ।।247।।

हे श्रीराधिके ! जो महामणियों की श्रेष्ठ माला एवं कुसुम – कलाप से शोभित है , जिसने महा मरकत मणि की प्रमा से ग्रथित होकर श्यामलता को भी मोहित कर रखा है और जो रसराज शृङ्गार का भी सिंहासन है , उस आपके कबरी – भार को मैं कब देखूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°248

मध्ये – मध्ये कुसुम – खचितं रत्न – दाम्ना निबद्धं , मल्लीमाल्यैर्घन परिमलर्भूषितं लम्बमानैः ।

पश्चाद्राजन्मणिवर कृतोदार माणिक्य – गुच्छं , धम्मिल्लं ते हरि – कर – धृतं कहिं पश्यामि राधे ।।248।।

हे श्रीराधे ! बीच – बीच में पुष्पों द्वारा खचित ; रत्नों की माला से बंधी हुई ; सघन परिमल युक्तः मालती – माल – भूषित , लम्बमान ; पीछे के भाग में महामणि माणिक्य – गुच्छ से शोभित एवं श्रीहरि के हाथों द्वारा रचित आपकी वेणी को मैं कब देखूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°249

विचित्राभिर्भङ्गी विततिभिरहो चेतसि परं , चमत्कारं यच्छंल्ललित मणि – मुक्तादि ललितः ।

रसावेशाद्वित्तः स्मर मधुर वृत्ताखिलमहोद्भुतस्ते सीमन्ते नव – कनक – पट्टो विजयते ।।249।।

अहो श्रीराधे ! आपका सीमन्त – स्थित अद्भुत कनक – पट्ट ही सर्वतः जय जयकार को प्राप्त है । वह सुन्दर कनक – पट्ट ; ललित मणि – मुक्ताओं से जटित , रसावेश सम्पत्ति एवं समस्त काम – चरित्रों से पूर्ण है । स्वामिनि ! वह कनक – पट्ट आपकी विविध भङ्गिमाओं के द्वारा मानो हमारे चित्त को परम विस्मय और आनन्द प्रदान करता है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°250

अहोद्वैधीकर्तुं कृतिभिरनुरागामृत – रस प्रवाहैः सुस्निग्धैः कुटिल रुचिर श्याम उचितः ।

इतीयं सीमन्ते नव रुचिर सिन्दूर – रचिता , सुरेखा नः प्रख्यापयितुमिव राधे विजयते।।250।।

 हे श्रीराधे ! आपके सीमन्त में यह नव – रुचिर सिन्दूर – रचित सुरेखा हमको मानो यह विज्ञापित करने के लिये ही विजय को प्राप्त हो रही है कि अनुरागामृत – रस के सुस्निग्ध प्रवाह रूप क्रिया – विशेष के द्वारा कुटिल एवं रुचिर श्याम को द्विधा करना ही उचित है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°251

 चकोरस्ते वक्त्रामृत किरण विम्बे मधुकरस्तव श्रीपादाब्जे जघन पुलिने खजनवरः ।

 स्फुरन्मीनो जातस्त्वयि रस – सरस्यां मधुपतेः , सुखाटव्यां राधे त्वयि च हरिणस्तस्य नयनम् ।।251।।

 हे श्रीराधे ! उन मधुपति श्रीलालजी के नयन तुम्हारे मुख – चन्द्र के चकोर , ( तुम्हारे ) श्रीचरण – कमल के मधुकर जघन – पुलिन के श्रेष्ठ खञ्जन , अहो ! आपकी रस सरसो ( कुण्डिका ) के चञ्चल मीन और [ आपके ] मुख अटवी रूपी श्रीवपु के हरिण हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°252

स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा मृदु – करतलेनाङ्गमङ्ग सुशीतं , सान्द्रानन्दामृत रस – हृदे मज्जतो मधावस्य।

 अङ्के पङ्केह सुनयना प्रेम – मूर्त्तिः स्फुरन्ती , गाढ़ाश्लेषोन्नमित चिबुका चुम्बिता पातु राधा ।।252।।

 जिनके सुशीतल अङ्ग प्रत्यङ्गों को बारम्बार अपने करतलों से स्पर्श करके माधव घनीभूत आनन्दामृत – रस – समुद्र में मग्न हो

 जाते हैं , जो अपने प्रियतम के अङ्क ( गोद ) में विराजमान है , गाढ़ालिङ्गन के कारण जिनका सुन्दर चिबुक कुछ ऊपर उठ रहा है , प्रियतम ने जिसका चुम्बन भी कर लिया है , इस कारण जो और भी चञ्चल हो उठी में बह कमल – दल सुलोचना प्रेम – मूर्त्ति श्रीराधा हमारी रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°253

सदा गायं – गायं मधुरतर राधा – प्रिय – यशः , सदा सान्द्रानन्दा नव रसद राधापति – कथाः ।

सदा स्थायं – स्थायं नव निभृत राधा – रति – वने , सदा ध्यायं – ध्यायं विवश हृदि राधा – पद – सुधाः ।।253।।

मैं श्रीराधा के नव – निभृत केलि – कुञ्ज – कानन में स्थित रहती हुई , सदा मधुरतर श्रीराधा के प्रिय यशों का तथा धनीभूत नव – नव आनन्द रस – दायी श्रीराधापति की कथाओं का बारम्बार गान करती हुई एवं श्रीराधा – पद – सुधा का सवंदा ध्यान करती हुई कब विवश हृदय होऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°254

श्याम – श्यामेत्यमृत – रस संस्त्रावि वर्णाञ्जपन्ती , प्रेमौत्कण्ठयात्क्षणमपि रोमाञ्चमुचैर्लपन्ती ।

सर्वत्रोच्चाटनमिव गता दुःख – दुःखेन पारं  काङ्क्षत्यह्नो दिनकरमलं क्रुधयती पातु राधा ।।254।।

[ प्रियतम – वियोग के भ्रम से कभी तो ] अनुपम रस स्त्रावी शब्द ” हे श्याम ! हे श्याम !! ” ऐसे जपती हैं , तो दूसरे ही क्षण प्रेमोत्कष्ठा मे रोमाञ्च सहित हो जाती हैं और उच्च – स्वर से आलाप करने लगती है । चित्तं सब ओर से उच्चाटन को प्राप्त है और बहुत दु : ख के साथ दिन के व्यतीत हो जाने की बाञ्च्छा करती हैं एवं जो [कभी – कभी] सूर्य के प्रति अत्यधिक क्रोधित हो उठती हैं । ऐसी [ विह्वला ] श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°255

कदाचिद्गायन्ती प्रियरतिकला वैभवगतिं , कदाचिद्धचायन्तीप्रिय सह भविष्यद्विलसितम् ।

अलं मुञ्चामुञ्चेत्यति मधुर मुग्ध प्रलपितैर्नयन्ती श्रीराधा दिनमिह कदा नन्दयतु नः ।।255।।

कभी प्रियतम की रति – कला – वैभव – गति ( लीला – बिलास ) का गान करती हैं , तो कभी प्रियतम के सङ्ग होने वाले भावी विलास का ध्यान करती हैं । फिर कभी ” छोड़ो ! मुझे छोड़ो ? अरे बस : हो गया ?? ” इस प्रकार मधुर एवं मुग्ध प्रलाप करती हुई दिन व्यतीत करती हैं । ये श्रीराधा हमें कब आनन्दित करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°256

श्रीगोविन्द ब्रज – वर – वधू – वृन्द – चूडामणिस्ते , कोटि प्राणाभ्यधिक परम प्रेष्ठ पादाजलक्ष्मीः ।

कैङ्कर्य्यैणाद्भुत नव रसेनैव मां स्वीकरोतु , भूयोभूयः प्रति मुधुरधिस्वामि सम्प्रार्थयेहम् ।।256।।

हे सर्वश्रेष्ठ स्वामिन् ! हे श्रीगोविन्द ! मैं आपसे बारम्बार यही प्रार्थना करती हूँ कि व्रज – वर – वधू – वृन्द – चूड़ामणि [श्रीप्रियाजी ] जिनकी पादाब्ज – लक्ष्मी आपको अपने कोटि – कोटि प्राणों से भी अधिक प्रिय है , मुझे अपने अद्भुत नित्य – नवीन कैङ्कर्य्य में स्वीकार करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°257

अनेन प्रीता मे दिशतु निज कैङ्कर्य्य – पदवी , दवीयो दृष्टीनां पदमहह राधा सुखमयी ।

निधायैवं चित्ते कुवलय – रुचि वर्ह – मुकुटं , किशोरं ध्यायामि द्रुत कनकपीतच्छवि पटम् ।।257।।

अहो ! यह जो मैं तरल – सुवर्ण – सदृश पीतच्छवि वसन एवं मयूर पिच्छ – रचित मुकुट – धारी नीलेन्दीवर – कान्ति किशोर श्रीकृष्ण को अपने हृदय में धारण करके उनका ध्यान करती है । इससे सुखमयी श्रीराधा प्रसन्न होकर दूर – दर्शी लोगों के पद – स्वरूप अपनी कैङ्कर्य्य – पदवी मुझे प्रदान करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°258

ध्यायंस्तंशिखिपिच्छमौलिमनिशं तन्नाम – सङ्कीर्तय न्नित्यं तच्चरणाम्बुजं परिचरन्तन्मन्त्रवर्य्य जपन् ।

श्रीराधा – पद – दास्यमेव परमाभीष्टं हृदा धारयन , कर्हि स्यां तदनुग्रहेण परमोद्भूतानुरागोत्सवः ।।258।।

उन शिखि – पिच्छ – मौलिधारी श्रीकृष्ण का ध्यान करती हुई , उनके नामों का कीर्तन करती हुई , उनके चरण – कमलों की नित्य – परिचर्या करती हुई , उनके मन्त्रराज का जप करती हुई एवं अपना परम अभीष्ट – श्रीराधा पद – दास्य अपने हृदय में धारण करती हुई , मैं कब उनके अनुग्रह से परम अद्भुत अनुरागोत्सव – शाली होऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°259

श्रीराधा – रसिकेन्द्र रूप गुणवद्गीतानि संश्रावयन , गुजा मञ्जुल हार – वर्ह – मुकुटाद्यावेदयंश्चाग्रतः ।

श्याम – प्रेषित पूग – माल्य नव गन्धाद्यैश्च संप्रीणयंस्त्वत्पादाब्ज नखच्छटा रस हृदे मग्नः कदा स्यामहम् ।।259।।

श्रीराधा और रसिकेन्द्र के रूप गुणादि समन्वित गीत – समूह का श्रवण करती हुई , उन [ श्रीलालजी के आगे सुन्दर गुञ्जाहार और मोर मुकुटादि समर्पण करती हुई एवं श्याम – सुन्दर द्वारा प्रेषित सुपारी , माला , नवीन – गन्ध ( वादि ) के द्वारा आपको प्रसन्न करती हुई , मैं कब आपके चरण – कमल की नखच्छटा रूप रस – सरसी में मग्न होऊंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°260

क्वासौ राधा निगमपदवी दूरगा कुत्र चासौ , कृष्णस्तस्याः कुच – कमलयोरन्तरैकान्त वासः ।
क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गर्ह्य कर्मा , यत्तन्नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य ।।260।।

कहाँ तो निगम पदवी से सुदूर वर्तमान श्रीराधा और कहाँ उनके युगल – कुच – कमलों के मध्य में एकान्त भाव से निवास करने वाले श्रीकृष्ण ? अहो ! और कहाँ मैं अति अधम गर्हित – कर्मा , तुच्छ प्राणी ? इतने पर भी जो उनके नाम का स्फुरण होता है , वह निश्चय ही श्रीवृन्दावन की ही महिमा है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°261

वृन्दारण्ये नव रस – कला – कोमल प्रेम – मूर्तै , श्रीराधायाश्चरण – कमलामोद – माधुर्य्य – सीमा ।
राधा ध्यायन रसिक – तिलकेनात्त केली – विलासां , तामेवाहं कथमिह तनुं न्यस्य दासी भवेयम् ।।261।।

जिन्होंने रसिक – तिलक श्रीलालजी के साथ केलि – विलास करना स्वीकार किया है , उन नव – रस – कला – कोमल – मूर्त्ति श्रीराधा का ध्यान करती हुई क्या में किसी प्रकार इस वृन्दावन में अपने शरीर को त्याग कर उनके चरण – कमल के आमोद – माधुर्य की अवधि – स्वरूपा दासी होऊंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°262

 हा कालिन्दि त्वयि मम निधिः प्रेयसा क्षालितोद्भूत , भो भो दिव्याद्भुत तरुलतास्त्वत्कर – स्पर्श भाजः ।
 हे राधायाः रति – गृह – शुकाः हे मृगाः हे मयूराः , भूयो भूयः प्रणतिभिरहं प्रार्थये बोनुकम्पाम् ।।262।।

हा कालिन्दि ! आप मेरी निधि – स्वसपा स्वामिनि तथा प्रियतम से क्षालित हुई है । अर्थात् आप में ही उन्होंने जल – विहार किया है । अहा ! दिव्य एवं अद्भुत तरुलता गण ! तुम उनके सुकोमल कर – स्पर्श – भाजन हो । श्रीराधा – रति – गृह – निवासी हे शुको ! हे मृगी ! हे मयूरो !! बारम्बार आपकी अनुकम्पा – प्राप्ति के लिये प्रणति पूर्वक प्रार्थना करती है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°263

वहन्ती राधायाः कुच – कलश – काश्मीरजमहो , जलक्रीडा वेशाद्गलितमतुल प्रेम – रसदम् ।
इयं सा कालिन्दी विकसित नवेन्दीवर रुचि स्सदा ‘ मन्दीभूतं हृदयमिह सन्दीपयतु मे ।।263।।

अहो ! जो जल – क्रीड़ा के आवेश से प्रक्षालित एवं अनुपम कुच कलशों में लगी हुई प्रेम – रस – प्रदायिनि केशर को वहन ( प्रवाहित ) करती रहती हैं । वही यह प्रफुल्लित नील – कमल की शोभा वाली कलिन्द – नन्दिनी यमुना मेरे इस मन्दीभूत हृदय को सदा सन्दीपित ( प्रकाशित ) करें ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°264

सद्योगीन्द्र सुदृश्य सान्द्र रसदानन्दैक सन्मूर्तयः , सर्वेप्यद्भुत सन्महिम्नि मधुरे वृन्दावने सङ्गताः ।
ये क्रूरा अपि पापिनो न च सतां सम्भाष्य दृण्याश्चये , सर्वान्वस्तुतया निरीक्ष्य परम स्वाराध्य बुद्धिर्मम ।।264।।

अद्भुत महिमा – पूर्ण मधुर वृन्दावन से जिनका सङ्ग है , वे भले ही क्रुर , पापी और सज्जनों के दर्शन – सम्भाषण के अयोग्य व्यक्ति हों किन्तु वे भी योगीन्द्र – गणों के सुन्दर दर्शनीय , सघन रसदायी और एकमात्र आनन्द की मूर्ति हैं । उनको वस्तुतया – उनके वास्तविक रूप में देखकर उनके प्रति मेरी परम आराध्य बुद्धि है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°265

यद्राधा – पद – किङ्करी – कृत सम्यम्भवेद्गोचरं , ध्येयं नैव कदापि यध्द्दि विना तस्याः कृपा – स्पर्शतः ।
यत्प्रेमामृत – सिन्धु – सार रसदं पापैकभाजामपि , तद्वृन्दावन दुष्प्रवेश महिमाश्चर्य्य हृदिस्फूर्जतु ।।265।।

जो श्रीराधा – चरणों में किङ्करी – भाव – पूर्ण हृदय वालो के लिये ही सम्यक् प्रकार से द्दष्टि – गत हो सकता है , जो उन [ श्रीराधा ] की कृपा के स्पर्श बिना कदापि हृदय में नहीं आता एवं जो एकमात्र पाप – भाजनों महापापियों – को भी प्रेमामृत – सिन्धु – सार – रस का दान करता है ! उस वृन्दावन को आश्चर्य्यगयी दुष्प्रवेश – महिमा मेरे हृदय में स्फुरित हो ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°266

राधाकेलि कलासु साक्षिणि कदा वृन्दावने पावने , वत्स्यामि स्फुटमुज्वलाद्भुत रसे ‘ प्रेमक – मत्ताकृतिः ।
तेजो – रूप निकुञ्ज एव कलबन्नेत्रादि पिण्डस्वितं , तादृक्ंस्वोचित दिव्य कोमल वपुः स्वीयं समालोकये ।।266।।

मैं कब प्रेम – विवशाकृति होकर श्रीराधा – केलि के साक्षी प्रकट उज्ज्वल – अद्भुत – रस – पूर्ण एवं पवित्र वृन्दावन में निवास बसँगी ? तथा नेत्र – पिण्टों में स्थित तेजोमय निकुञ्ज की भावना करती हुई उसी के अनुसार उपयोगी अपने कोमल वपु का कब अवलोकन करूंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°267

यत्र – यत्र मम जन्म कर्मभिर्नारकेऽथ परमे पदेऽथवा ।
राधिका – रति – निकुञ्ज – मण्डली तत्र – तत्र हृदि मे विराजताम् ।।267।।

कर्मवशतः नरक में अथवा स्वर्ग में जहाँ – जहाँ मेरा जन्म हो अथवा परम पद में ही क्यों न चला जाऊं किन्तु वहाँ – वहाँ श्रीराधा – केलि कुञ्ज – मण्डली [ श्रीप्रिया , प्रियतम , सहचरि और वृन्दावन ] मेरे हृदय में विराजमान रहे ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°268

क्वाहं मूढमतिः क्व नाम परमानन्दैक सारं रसः ‘ , श्रीराधा – चरणानुभावकथया निस्यन्दमाना गिरः ।
लग्नाः कोमल कुञ्ज पुञ्ज विलसद्वन्दाटवी – मण्डले , क्रीडच्छीवृषभानुजा – पद – नख – ज्योतिच्छटा प्रायशः ।।268।।

कहाँ तो मूढ – मति मैं ? और कहाँ परमानन्द का भी सार और रस रूप उनका श्रीनाम ? तथापि श्रीराधा के चरणानुभाव – कथन – द्वारा दोलाय- मान् मेरा वाक्य – समूह , कोमल कुञ्ज – पुञ्ज विलसित श्रीवृन्दावन में संलग्न और प्रायशः ( अधिकतर ) क्रीड़ा – परायण श्रीवृषभानु – नन्दिनी को पद – नख ज्योति की छटा से युक्त है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°269

श्रीराधे श्रुतिभिर्बुधैर्भगवताप्यामृग्यसद्वैभवे , स्वस्तोत्र स्वकृपात्र एव सहजो योग्योप्यहं कारितः ।
पद्येनैव सदापराधिनि महन्मार्ग विरुद्धयत्वदे काशेस्नेह जलाकुलाक्षि किमपि प्रीतिं प्रसादी कुरु ।।269

हे श्रीराधे ! आपका वैभव श्रुतियों , बुधजनों एवं स्वयं भगवान के लिये भी अन्वेषणीय है किन्तु फिर भी आपकी कृपा के द्वारा आपका स्तोत्र पद्य रूप करने के लिये मैं सहज योग्य बना दिया गया हूँ , अतएव हे स्नेह – जल – पूर्ण आकुल – नयनि ! सदापराधी एवं महत् मार्गों का भी विरोध करके एक मात्र तुम्हारी ही आशा रखने वाले मुझ पर अपनी अनिर्वचनीय कृपा – प्रीति का प्रसाद दीजिये ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°270

 अद्भुतानन्द लोभश्चेन्नाम्ना ‘रस-सुधा-निधि’ ।
स्तबीयं कर्ण – कलशैर्गृहीत्वा पीयतां बुधाः ।।270।।

 हे बुधजनो ! यदि आपको अद्भुत आनन्दोपभोग का लोभ हो तो इस ” रस – सुधा – निधि ” नामक स्तव को प्राप्त करके – [ ग्रहण करके ] कर्ण – कलशों से पान कीजिये ।

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