खिचड़ी उत्सव के पद

खिचड़ी राधावल्लभ जू को प्यारी !

खिचड़ी उत्सव राधावल्लभ संप्रदाय का विशेष उत्सव है जो की इस साल 1 जनवरी से 30 जनवरी 2025 तक मनाया जायेगा !
सबसे पहले प्रातः 6 बजे से समाज गायन प्रारंभ होता है जिसमे ये सभी पद गाये जाते है ! करीब सुबह 7.30 पर मंगला आरती होती है !
खिचड़ी उत्सव की पूर्ण जानकारी हेतु खिचड़ी उत्सव वाला ब्लॉग पढ़े !

आप इन पदों को ऑडियो में भी सुन सकते है पहले ऑडियो प्ले करें फिर साथ में पढ़े जिससे आपको अभ्यास होगा


मंगलाचरण
प्रेमानन्दोत्पुलकित गात्रौ, विद्युद्धाराधर सम कान्तिः
राधा कृष्णौ मनसि दधानं, वन्देहं श्रीहित हरिवंशम्



प्रथम श्रीसेवक पद सिर नाऊँ।
करहु कृपा श्रीदामोदर मोपै,
श्रीहरिवंश-चरन-रति पाऊँ।।
गुन गंभीर व्यासनन्दनजू के,
तुव परसाद सु जस-रस गाऊँ।
नागरीदास के तुमहि सहायक,
रसिक अनन्य नृपति मन भाऊँ ।।

जयति जगदीश जस जगमगत जगतगुरु,
जगत वन्दित सु हरिवंश-वानी।
मधुर कोमल सु पद प्रीति आनन्द रस,
प्रेम विस्तरित हरिवंश-वानी ।।
रसिक रस-मत्त श्रुति सुनत पीवन्त रस,
रसनि गावन्त हरिवंश-वानी।
कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित,
जपत हरिवंश हरिवंश-वानी ।।

जयति वृषभानुजा कुँवरि राधे।
सच्चिदानन्द घन रसिक सिरमौर वर,
सकल वाँछित सदा रहत साधे ।।
निगम-आगम-स्मृति रहे बहु भाखि जहाँ,
कहि नहीं सकत गुन गन अगाधे।
जैश्रीहितरूपलाल पर करहु करुना प्रिये,
देहु वृन्दाविपिन नित अबाधे ।।

श्रीव्यासनन्द दीनबन्धु सुनि पुकार मेरी।
मूढ़ मन्द मति लवार, भ्रमी जन्म बार बार,
कष्टातुर होय नाथ, सरन गही तेरी ॥
भजन भाव बनत नाहिं, मनुज देह वृथा जाहि,
करहु कृपा वेगि प्रभू, बहुत भई देरी।
त्रिगुन जनित सृष्टि माँझ, दरसत नहिं दिवा साँझ,
हृदय तिमिर छाय रह्यौ, झुकि सघन अँधेरी ॥
कृपा दृष्टि वृष्टि करी, राजत फुलवारी हरी,
आतुर पर श्रवौ बूँद, शुष्क होत जेरी।
ललित हित किशोरी नाम, राखत प्रभु तुमसौं काम,
याम जात जुगन तुल्य, करौ नाथ चेरी ॥

जय जय जय राधिके, पद सन्तत आराधिके,
साधिके शुक सनक शेष, नारदादि सेवी।
वृन्दावन विपुल धाम, रानी नव नृपति श्याम,
अखिल लोकपाल आदि, ललितादिक नेवी ॥
लीला करि विविध भाय, वरषत रस अमित चाय,
कमल पाय गुन पराग, लालन अलि खेवी।
युग वर पद कंज आस, वाँछित हित कृष्णदास,
कुल उदार स्वामिनी, मम सुन्दर गुरु देवी ॥

राधिका सम नागरी, प्रवीन को नवीन सखी,
रूप-गुन-सुहाग-भाग, आगरी न नारि।
वरुन-ओक नाग-भूमि, देव-लोक की कुमारी,
प्यारी जू के रोम ऊपर, डारौं सब वारि॥
आनंदकंद नन्दनंदन, जाके रस रंग रच्यौ,
अंग भरि सुधंग नच्यों, मानत हँसि हारि।
जाके बल गर्व भरे, रसिक व्यास से न डरे,
कर्म-धर्म-लोक-वेद, छाँड़ि मुक्ति चारि ॥

राधा प्यारी के चरनारविन्द, शीतल सुखदाई।
कोटि चन्द मन्द करत, नख-विधु जुन्हाई॥
ताप-शाप-रोग-दोष, दारुन दुख हारी।
लाल इष्ट दुष्ट दवन, कुंज भवन चारी ॥
श्याम हृदय भूषन जित, दूषन हित संगी।
श्रीवृन्दावन धूर धूसर, रास रसिक रंगी॥
सरनागत अभय विरद, पतित पावन वाने।
व्यास से अति अधम आतुर, को-को न समाने॥

व्यासनंदन व्यासनंदन, व्यासनंदन गाइये।
जिनकौ हित नाम लेत, दंपति रति पाइये॥
रास मध्य ललितादिक, प्रार्थना जु कीनी।
कर तें सुकुमारि प्यारी, वंशी तब दीनी॥
सोई कलि प्रगट रूप, वंशी वपु धारयौ।
कुंज भवन रास रवन, त्रिभुवन विस्तारस्यौं।
गोकुल रावल सु ठाँम, निकट बाद राजै।
विदित प्रेम रासि जन्म, रसिकन हित काजै ॥
तिनकौं पिय नाम सहित, मन्त्र दियौ श्रीराधे।
सत चित आनन्द रूप, निगम आगम साधे ॥
श्रीवृन्दावन धाम तरनिजा, सु तीर वासी।
श्रीराधापति रति अनन्य, करत नित खवासी ॥
अद्भुत हरि युक्त वंश, भनित नाम श्यामा।
जैश्रीरूपलाल हित चित दै, पायौ विश्रामा ।।

प्रथमहिं भावुक भाव विचारै।
बनि तन नव किशोर सहचरि वपु, हित गुरु कृपा निहारै॥
भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी, पुलकि-पुलकि अँग धारै।
जैश्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी, रंगी रस विस्तारै ।।

सखी लखि कुंज धाम अभिराम।
मनिनु प्रकास हुलास जुगल वर, राजत श्यामा-श्याम ॥
हास विलास विनोद मोद मद, होत न पूरन काम।
जैश्रीरूपलाल हित अलि दंपति रस, सेवत आठौं याम ॥

लाड़िली लालहिं भावत है सखि,
आनंदमय हिम की ऋतु आई।
ऐसे रहे लपटाइ दोऊ जन,
चाहत अंग में अंग समाई॥
हार उतार धरे धरनी पर,
स्वादी महा रस के अधिकाई।
महा सुख कौ ध्रुव सार विहार है,
श्री हरिवंश जू केलि लड़ाई॥

प्रात समै नव कुंज द्वार है,
ललिता जू ललित बजाई वीना ।
पौढ़े सुनत श्याम श्रीश्यामा,
दम्पति चतुर प्रवीन प्रवीना ।।
अति अनुराग सुहाग परस्पर,
कोक कला गुन निपुन नवीना।
श्रीबिहारिनदास बलि-बलि बंदिस पर,
मुदित प्रान न्यौछावर कीना ।।

जगाय री भई बेर बड़ी री।
अलबेली खेली पिय के सँग,
अलकलड़े के लाड़ लड़ी री॥
तरनि किरन रन्ध्रनि है आई, लगी है निवाई,
जानि सुकर वर, हौं तहाँ हूँ है रही अड़ी री।
श्रीविहारिनदास रति को कवि वरनैं,
जो छबि मो मन माँझ गड़ी री ॥

जागौ मोहन प्यारी श्रीराधा।
ठाढ़ीं सखी दरस के काजैं,
दीजे कुँवरि जु होय न बाधा॥
हँसत-हँसत दोउ उठे हैं जुगलवर,
मरगजे बागे फबि रहे दुहुँ तन।
वारत तन-मन लेत बलैया,
निरखि-निरखि फूलत मन ही मन ॥
रंग भरे आनन्द जम्हावत,
अंस-अंस धरि बाहु रहे गसि।
जैश्रीकमलनयन हित या छबि ऊपर,
वारौं कोटिक भानु मधुर ससि ॥

अबहिं निसि बीती नाहिंन बाम।
तुव मुख इन्दु किरन छबि व्यापी,
कहत प्रिया सौं श्याम ॥
अंग-अंग अरसान वाम छबि,
मानि लेहु अभिराम ।
रहसि माधुरी रूप हित चित में,
होत न पूरन काम ॥

आजु देखि ब्रजसुंदरी-मोहन बनी केलि।
अंस-अंस बाँहु दै, किशोर जोर रूप-रासि,
मनु तमाल अरुझि रही, सरस कनक बेलि॥
नव निकुंज भँवर-गुंज, मंजु घोष प्रेम-पुंज,
गान करत मोर-पिकनि, अपने सुर सौं मेलि।
मदन-मुदित अंग-अंग, बीच-बीच सुरत-रंग,
पलु-पलु हरिवंश पिवत, नैंन-चषक झेलि॥

आजु सखि अद्भुत भाँति निहारि।
प्रेम सुदृढ़ की ग्रन्थि जु परि गई, गौर श्याम भुज चारि॥
अबहीं प्रात पलक लागी है, मुख पर श्रमकन वारि।
नागरीदासि निकट रस पीवहु, अपने वचन विचारि ॥

अबहिं नेकु सोये हैं अलसाय।
काम केलि अनुराग रंग भरे, जागे हैं रैंन विहाय ॥
बार-बार सपनेहुँ में सूचत, सुरत रंग के भाय।
यह सुख निरखि सखीजन प्रमुदित, नागरीदासि बलि जाय॥

सिटपिटात किरननि के लागे।
उठि न सकत लोचन चकचौंधत,
ऐंचि ऐंचि ओढ़त वसन दोऊ जागे॥
हिय सौं हिय मुख सौं मुख मिलवत,
रति-लम्पट सुरत रस पागे।
नागरीदासि निरखि अँखियन सुख,
मति कोऊ बोलौ जाहु जिन आगे।॥
भोर भये सहचरिं सब आईं।
यह सुख देखत करत बधाई॥
कोउ वीना सारंगी बजावै।
कोउ इक राग विभासहि गावै ॥
एक चरन हित सौं सहरावै।
एक वचन परिहास सुनावै ॥
उठि बैठे दोउ लाल रँगीले।
बिथुरी अलक सबै अँग ढीले ॥
घूमत अरुन नैन अनियारे।
भूषन-वसन न जात सम्हारे ॥
कहुँ अंजन कहूँ पीक रही फबि।
केसैं कही जात है सो छबि ।
हार बार मिलिकै अरुझाने।
निसि के चिन्ह निरखि मुसिकाने ॥

निरखि-निरखि निसि के चिन्हनि, रोमांचित है जाहिं।
मानौं अंकुर मैंन के, फिर निपजे तन माहिं ॥

श्रीराधाप्यारी तेरे नैंन सलोल।
तैं निज भजन कनक तन जोवन, लियौ मनोहर मोल।
अधर निरंग अलक लट छूटी, रंजित पीक कपोल।
तू रस मगन भई नहिं जानत, ऊपर पीत निचोल॥
कुच जुग पर नख रेख प्रगट मानौं, संकर-सिर ससि टोल।
जैश्रीहित हरिवंश कहत कछु भामिनि, अति आलस सौं बोल ॥

मंगल समय खिचरी जैवत हैं,
श्रीराधाबल्लभ कुंज महल में।
रति रसमसे गसे गुन तन-मन,
नाहिंन सँम्हारत प्रेम गहल में।
चुटकी देत सखी सँम्हरावत,
हँसत-हँसावत चहल-पहल में।
जैश्रीकुंजलाल हित इहिं विधि सेवत,
समैं-समैं सब रहत टहल में।॥

खिचरी जैवत हैं पिय-प्यारी।
सीत समैं रुचि जानि सुगंधनि, मेलि सखीन सँवारी ॥
पहिलै प्रियहिं जिवाँवति जैवत, रसिक नरेस महा री।
जैश्रीकुंजलाल पिय की बातन की, घातनि जाननिहारी॥

खिचरी राधाबल्लभ जू कौं प्यारी।
किसमिस दाख चिरौंजी पिस्ता, अदरक सौं रुचिकारी॥
दही कचरी वर सँधाने, बरा पापर बहु तरकारी।
जायफल जावित्री मिरचा, घृत सौं सींचि सँवारी ॥

खिचरी जैवत जुगल किशोर ।
निसि जागे अनुरागे दम्पति, उठे उनींदे भोर ॥
अंग-अंग की छबि अवलोकत, ग्रास लेत मुख सुखहिं निहोर।
जैश्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी, विवि मुख चन्द्र चकोर॥

अधिक हेत सौं पावैं पिय प्यारी।
थार सँजोय धरै कर आवत, सीत समैं रुचिकारी।
बहु मेवा तिलवरी अचारी, बासौंधी लीयें सब ठाढ़ी।
यह सेवा हित नित्त कृपा प्रिय, सो राधालाल सँवारी॥

रूप रसासव माते दोऊ, श्रीराधाबल्लभ जैवत खिचरी ।
अरस परस मुसिकात जात, बतरात बात बोलत बिच-बिच री॥
खाटे सरस सँधाने नव-नव, पापर कचरी लेत रुचि रुचि री।
नेह निहोर जिवाँवत हित सखी, कोमल मधुर ग्रास घृत निचुरी ॥
फरगुल सुरंग रजाई ओढ़ें, कनक अँगीठी अगरसत सचरी ।

चलौ चलौ चलौ सखी देखें दोउ जैवैं।
भरे थार खिचरी घृत निचुरी के आगैं, हँसि-हँसि सुकुमार प्यारे केसैं दोउ जैवें ॥
प्रिय के मुख पीय देत, पिय के मुख प्यारी, बीच-बीच अधर पान प्रानन सौं हेरौं।

प्यारे दोउ जैवत हैं सुकुमार।
सरस सुगंध उठत उदगारैं, भरि खिचरी के थार ॥
पापर कचरी तलप कटाक्षन, भृकुटी मुरनि कौ अचार।
जुरे परस्पर मैंन दुहुँन के, प्रेम रूप कौ अहार ॥
पहिलैं प्रियहिं जिवाँवत जैवत, रहत हैं वदन निहार।
ऐसी विधि सौं जैवत प्यारे, हित सुख की ज्यौनार ॥

भोर मिलि जैवें दोऊ, बनी-बनरा खिचरी।
झमकि सेज मैं उठे हैं उनींदे, ब्रजजीवन घृत सौं निचुरी ॥
मंगल रूप समय मंगल में, रुचि सौं खिचरी पावैं।
ओढ़ें फरगुल रंग सहानी, छबि लखि-लखि बलि जावैं॥
बाह-बाहु कर कंठ लगावैं, आनंद जीव जिवावैं।
झुकि-झुकि परत मैंन अलसौहैं, हित सजनी सम्हरावें ॥
माखन मिश्री मगद मलाई, पाक मुरब्बा पावैं।
ताजी फैनी अरु बासौंधी, ब्रजजीवन मन भावैं॥
अदरक कूचा बन्यौ चटपटौ, कर पल्लव दोउ चाटें।
ये उनके वे इनके मुख सौं, हँसि-हँसि हित सौं लावें ॥
नथ उठाय बेला पय पीवैं, कौतुक रंग मचावैं।
ब्रजजीवन हित कहँ लगि वरनौं, कुंज महल के ठाटैं।

खिचरी जुगल रुचि सौं खात।
पौष शुक्ला दोज तैं लै, मास एक प्रभात।
दही कचरी वर सैंधाने, बरा पापर घीय।
डिंग अँगीठी धरी मीठी, लगत प्यारी-पीय।।
जल पिवाय धुवाय हाथ, अँगौंछ वीरी देत।
सखीजन बाँटत तहाँ, ब्रजलाल जूँठन लेत ॥

अँचवन बीरी दै, मंगल आरती सजि, बाढ्यौ सखिन मन मोद।
जैश्रीकुंजलाल हित असीसत, ऐसैहिं करौ विनोद ॥
जैश्रीकिशोरीलाल हित रूप अलि बाँटत,
देत-लेत सब सखी सहचरी,
कृष्णदास आस-पास, निरखत हित कौ विलास,
दौरि-दौरि आवैं सखीं, जूठन कौं लैंन कौं,
चलौ चलौ चलौ सखी, देखें दोऊ जैं चुके,
मैं चुके, मैं चुके, जैं चुके, मैं चुके, मैं चुके, जैं चुके॥

निरखि आरती मंगल भोर। मंगल श्यामा-श्याम किशोर ।।
मंगल श्री वृन्दावन धाम। मंगल कुंज महल अभिराम ॥
मंगल घंटा नाद सु होति। मंगल थार मनिनु की जोति ॥
मंगल दुंदुभि धुनि छबि छाई। मंगल सहचरिं दरसन आईं।॥
मंगल वीन मृदंग बजावैं। मंगल ताल झाँझ झर लावैं॥
मंगल सखी जूथ कर जोरें।मंगल चॅवर लिये चहुँ ओरें।
मंगल पुष्पावलि बरसाई। मंगल जोति सकल वन छाई॥
जैश्रीरूपलाल हित हृदय प्रकास। मंगल अद्भुत जुगल विलास ।।

प्रातहिं मंगल आरति कीजै।
जुगलकिसोर रूप-रस-माते,
अद्भुत छबि मैंननि भरि गीजै ॥
ललिता ललित बजावति वीना,
गुन गावति सोइ जीवः जीजै ॥
जैश्री रूपलाल हित मंगल जोरी,
निरखि प्रान न्यौछावर कीजै ।।

यह विधि मंगल आरती करी।
निज मन्दिर आगैं चिक परी ॥
ललितादिक भीतर अनुसरी।
जैश्रीकमलनयन हित सेवा करी ॥
॥ जय राधे, किशोरी राधे,
लड़ैती राधे, श्यामा प्यारी राधे ॥
॥ जै जै राधाबल्लभ श्री हरिवंश।
जै जै श्री सेवक रसिकन अवतंश ॥
॥ जै जै राधाबल्लभ श्री हरिवंश।
जै जै श्री वृन्दावन श्री वनचन्द।।


Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top