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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 51

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 51 )

!! “सुखिया मालिन”- एक दिव्य कथा !!


मेरा नाम सुखिया है , सुखिया मालिन…..

मैं रहती हूँ मथुरा में…..मेरे पतिदेव तो स्वर्ग सिधार गए …..पर एक पुत्र दे गए मुझे…..”सुदामा” । हाँ ……मैं स्नेह के दाम में बंध गयी इसलिये मैने ही अपनें सुत का नाम रख दिया था “सुदामा”।

“रहती हो तुम मथुरा में……और फल बेचनें आयी हो गोकुल , क्यों ? प्रभावती गोपी आज पूछ रही थी इस वृद्धा सुखिया से । अपनी फलों की टोकरी को सम्भाल कर एक तरफ रख दिया…..प्रभावती गोपी से बोली……थक गयी हूँ जल पिलाओगी ? हाँ हाँ…….ये कहते हुये गोपी भीतर गयी और घड़े का शीतल जल ले आई……वृद्धा मालिन नें जल पीया……पसीना पोंछा…….जल का झींटा आँखों में दिया ।

अब क्या बताऊँ ! मैं तो मथुरा की ही हूँ……..मेरा मायका भी मथुरा और ससुराल भी मथुरा……..वो दिन कितने अच्छे थे …….जब मथुरा के राजा उग्रसेन थे …..आहा ! महाराज उग्रसेन । सुन प्रभावती ! उन दिनों भी मैं फल बेचती थी ………..यदुवंशी लोग बड़े भले थे ………फल खाते ………फिर फलों का दाम भी मैं जितना बताती उससे ज्यादा ही देते ……..और हाँ पता है तुझे ! ……महाराज उग्रसेन भी मेरे फलों को चखते थे ……मेरे ही फल प्रिय थे उन्हें । सुखिया अपनें बारे में बताये जा रही थी …………. पर अब ?

अब तो क्रूर कंस आगया है………..हे भगवान ! जब से ये आया है …मथुरा में शान्ति नही है ……….विश्व के जितनें राक्षस हैं सब को एकत्रित कर लिया है उसनें ……..हाँ , और आये दिन प्रजाओं को दुःख देना ………कष्ट देना, बस यही काम रह गया है । सुखिया नें जब कंस की बात छेड़ी तो झुर्रियों से भरे उस चेहरे में दुःख के भाव स्पष्ट दिखाई देंने लगे थे ……………

मेरा बेटा सुदामा तो कंस के यहाँ ही जाकर माला दे आता है ……. करे क्या ……उसे अपनें बाल बच्चे भी तो पालनें हैं ……..पर मुझ से गलत देखा नही जाता…….इसलिये मैं बोल देती हूँ । अब कुछ महीनों से तो अत्याचार चरम पर है कंस का ………… मेरे ही साथ ……….उसके राक्षसों नें मेरे फल खा लिए …..जब मैने उनसे मोल माँगा ……….तो मेरी टोकरी ही फेंक दी ………..कुछ भी हो मेरा भी स्वाभिमान है ……..मालिन हूँ तो क्या हुआ …..गरीब हूँ तो क्या हुआ ………तुम किसी का भी अपमान करोगे । छि ! मैने तभी विचार कर लिया …..मैं नही बेचूंगी अब फल मथुरा में । फिर कहाँ जाओगी माँ ?

मेरे पुत्र नें पूछा । सुना है गोकुल महावन में बड़ा अच्छा है …….वहाँ के मुखिया भी अच्छे हैं ………वहाँ के लोग भी समृद्ध हैं …….इसलिये यहाँ आगयी थी । तो क्या फल बिके ? किसी नें खरीदा ? प्रभावती नें पूछा । जितना सोचा था उतना तो नही …….देखो ना ! आधे से ज्यादा फल तो अभी बाकी ही हैं …….शाम होनें आरही है ………अब तो मुझे जाना ही पड़ेगा मथुरा ………पर सच बताऊँ ! गोकुल बड़ा अच्छा है ………यहाँ के लोग भी बूढ़े बड़ों का आदर करते हैं ………….आपस में प्रेम भाव बहुत है । ………..सुखिया मालिन इतना कहते हुए उठी ……डलिया को सिर में रखा और वापस चल दी मथुरा की ओर । प्रभावती भी अपनें घर के भीतर आगयी थी …………पर पता नही उसे क्या सूझा …….वो फिर बाहर आयी……… ओ मालिन ! मालिन ! आवाज लगाई……….. हाँ ……सुखिया बुढ़िया नें मुड़कर देखा …………क्या बात है ? जाते जाते नन्दालय तो होती जाओ ……….प्रभावती बोल दी । अब कहीं ना जाय रही वीर ! रहनें दे……थक गयी हूँ …….जितना सोचा था उतना बिका भी नही ……कोई बात नही…….मालिन चल दी । अरी ! मेरी बात मान ले , एक बार हो तो आ, । प्रभावती की बात उसे लगी……मान ही लूँ । इतना समय हो ही गया ………..चलो नन्दालय भी देखती चलूँ । ठीक है , जा रही हूँ नन्दालय …..सुखिया बोलती हुयी, मुड गई ….नन्दमहल की ओर ।

कोई फल लो ! कोई फल लो री ! कोई फल लो ! ये बुढ़िया सुखिया आवाज लगाते हुए चल रही है । इधर नन्दमहल के आँगन में…..नन्दलाल बैठे हैं अपनी मैया की गोद में । सुन्दर से गोपाल , घुँघराले उनके बाल, मुस्कुराता हुआ उनका मुखमण्डल ……..पीताम्बरी धारण किये हुए……. मैया ! मैया ! कोई आया है ! मैया की ठोढ़ी पकड़ कर हिलाते हुए पूछ रहे हैं । हाँ ……कोई फल बेचनें वाली आयी है । मैया ! मैया ! मैं फल लूँगा……….. जा ले ले ………मैया नें कह दिया । गोद से उतरे नन्दनन्दन …….और भागे हुए गए सुखिया के पास । “मुझे फल दे दो” हाथ पसारे माँगनें लगे कन्हैया ……… सुखिया मालिन देखती रह गयी…….ओह ! क्या सौन्दर्य है ……क्या दिव्य रूप है…….क्या छटा है रूप की , चितवन बाँकी है इसकी …..मुस्कान मादक है । सुखिया मालिन नें जीवन में कितनें बसन्त देखे थे …….मथुरा के राज महल में भी इसनें कितनें बालकों को देखा था……..पर ऐसा सौन्दर्य ! दिव्य अद्भुत ….आज तक नही देखा । फल चाहियें ? मुस्कुराकर पूछा सुखिया नें । हाँ ………बड़े भोलेपन से सिर “हाँ” में हिलाया कन्हैया नें । पर मोल तो दो ………बिना मोल के लोगे फल ? सहजता में बोली थी सुखिया………… मोल ? सोचनें लगे कन्हैया………..फिर भागे अपनें मैया की तरफ ………..मैया ! मैया ! मोल चाहिए फल के लिये ! बृजरानी नें अपनें लाला को चूमते हुए कहा – अनाज ले आओ ….और फल उसके बदले मिल जाएंगे तुम्हे । कन्हैया “भण्डार” की ओर गए …………. तात विदुर जी ! छोटे से हाथ कन्हैया के ……..उसमें वैसे ही कुछ दानें ही आये थे अनाज के ………….वो भी दौड़ते हुए सब गिर गए ……..जब तक सुखिया मालिन के पास आये ……..मात्र चार दानें थे हाथों में । लो …..मोल ……….अब तो दो । मुग्ध हो गयी सुखिया…………इसका तो जीवन धन्य हो गया …….कन्हैया को ये फल दे रही है …………… पर – गोद में बिठा लिया था उस वृद्धा मालिन नें ……….इधर उधर देखकर मुख चूम लिया …………. नयनों से अश्रु गिरनें लगे ………….एक बार मुझे “मैया” कहो ना ! क्या ? कन्हैया नें मुस्कुराते हुए मुख की ओर देखा सुखिया के । हाँ …..एक बार ……..मैया कहो ….लालन !…..सारे फल दे दूंगी । मैया ! कन्हैया नें हँसते हुए कहा । आनन्द के हिलोरें चल पड़े ……..अपनें हृदय से लगाकर बारबार चूमनें लगी कन्हैया को । सारे फल दे दिए …….काँछनी में बांध दिए थे फल । ये ………कन्हैया नें अपनें हाथ दिखाये । ये क्या है ? सुखिया नें पूछा । मोल ! तेरे फलों का मोल । हँसी सुखिया………..मोल तो मुझे मिल गया । नही …..ये तुम्हारे लिये है ………कन्हैया फिर बोले । अच्छा ! दे दो …….चार दानें अनाज के ……टोकरी में डाल दिए कन्हैया नें ।………….सुखिया नें एक बार फिर निहारा लाला को ………. फिर टोकरी उठाकर चल दी । गोकुल गाँव पार किया ……….आनन्द में डूबी , हर्षोन्मत्त है ये ……… जीवन में पता नही कितना फल बेचा था इसनें ……पर आज ? आज की बात ही अलग थी ………. पर टोकरी क्यों भारी हो गयी ? मथुरा में पहुँची तो उसकी टोकरी और भारी होती जा रही थी ……उसके समझ में कुछ नही आरहा था ……वो बारबार सोचती ……….फल तो मैने सारे दे दिए थे ……टोकरी तो रीती थी ……………फिर रीते टोकरी में इतना भार कैसे ? घर के द्वार पर आकर उसनें टोकरी उतारी ……………. ओह ! चकित हो गयी सुखिया मालिन ……….उसकी टोकरी तो रत्नों से, मणियों से, हीरे और मोतियों से भर गए थे । ये सब देखकर सुखिया के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ………….मैने कब माँगा था तुमसे ये सब ………बताओ कन्हैया ! कब माँगा था ! मोल ………….ये मोल दिया है फलों का …………मानों कन्हैया बोल रहे हों …………… हँसी अब सुखिया ………..खूब हँसी ………….तेरे जैसा दयालु और कौन है …..चार फल के लिए इतना मोल ? हँसते हुए वो फिर रोनें लगी………..वो “कन्हैया कन्हैया” कहती रही । तात विदुर जी ! – कहते हैं ……….फिर वो पलटकर गोकुल नही गयी ………क्यों की गोकुल में ये बात फैल गयी थी कि अन्नपूर्णा भगवती ही आईँ और कन्हैया को फल देकर चली गयीं ……….. सुखिया हँसती है ……..मैं भगवती ? हाँ ….कन्हैया चाहे तो किसी को भी कुछ भी बना सकता है …………… अपनी माँ सुखिया की बात मानकर ही सुदामा ……मथुरा में नित्य माला बनाता है ………..बनाता तो पहले भी था ……पर अब कन्हैया के लिये एक माला नित्य बनाकर रखता ही है ।