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गौचारण वन

प्राचीन यमुना तट पर गौचारण वन स्थित है। इस स्थान पर श्रीवाराह देवजी एवं श्रीगौतम मुनि का आश्रम विराजित है। श्रीवाराह देवजी का नामानुसार इस वन का दूसरा नाम वाराह बन भी है। इसी गौचारण वन में श्रीकृष्णजी अपने सखाओं के साथ गौचारण लीला किया करते थे।

ततश्च पौगण्डवयः श्रिती बजे बभूवतुस्ती पशुपालसम्मती । गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैवृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। तन्माधवो वेणुमुदीरयन् वृतो गोपदिनः स्वयशो बलान्वितः। पशुन् पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद् विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ।। तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं महन्मनः प्रख्यपयः सरखता । वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना निरीक्ष्य रन्तुं भगवन् मनो दधे।।

अनुवाद श्रीशुकदेवजी कहते है – महाराज परीक्षित् | अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छटे वर्ष में प्रवेश किया है। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी है। वे अपने सखा ग्वालवालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं के लिये हरी हरी घास से युक्त एवं रंग विरेंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे आगे गौएँ, उनके पीछे पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालवाल इस प्रकार बिहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजन कर रहे थे, कहीं झुण्ड के झुण्ड हिरण चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर सुन्दर पक्षी चहक रहे थे बड़े ही सुन्दर सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था। उनके खिले हुए कमलों के सौरभ से सुभाषित होकर शीतल मन्द सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन ही मन उसमें बिहार करने का संकल्प किया।

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केशी घाट

केशी घाट- भ्रमर घाट के निकट केशी घाट स्थित है। इस स्थान पर भगवान् श्रीकृष्ण ने केशी दैत्य का वध किया था।

श्रीकेशी दैत्य की मुक्ति

केशीदैत्य प्राचीन काल में श्रीइन्द्र के छत्र धारण करने वाला एक अनुचर था। उसका नाम कुमुद था, इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध करने से ब्रह्म हत्या पाप में लिखू हुए इस पाप से मुक्त होने के लिये इन्द्र ने एक अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के शुभ अश्व पर आरोहण के लिए कुमुद को इच्छा हुई। उसने घोड़े पर जब आरोहण करने की चेष्टा की तब दूसरे अनुचरों ने उसे देख लिया। वे कुमुद को पकड़ कर इन्द्र के पास ले गये। इन्द्र ने समस्त विवरण सुन क्रोध में कुमुद को अभिशाप दिया कि- “रे दुष्ट! तु राक्षस बन जा एवं अश्व रूप धारण करके मृत्युलोक में गमन कर। उसी अभिशाप से कुमुद ब्रज क्षेत्र में आगमन कर मयदानव के पुत्र केशी नाम से जन्म लेकर कंस का अनुचर बना कंस ने श्रीकृष्ण को हत्या के लिए केशी को वृन्दावन भेजा। केशीदैत्य ने विशाल अश्व का रूप धारण कर मथुरा से वृन्दावन को आगमन किया। उस दैत्य ने श्रीकृष्ण को देख पीछे के पैरों द्वारा आघात् करने को कोशिश की। तभी श्रीकृष्ण ने क्रोध से उसके दोनों पैरों को पकड़ घुमाया और ४०० हाथ दूर फेंक दिया। केशीदैत्य दोबारा उठकर क्रोध में मुहें फाड़कर श्रीकृष्ण की तरफ बढ़ने लगा। श्रीकृष्ण ने हँसते हँसते उसके मुँह में अपना बायां हाथ घुसा दिया। श्रीकृष्ण के हाथों के अति तप्त लौह सङ्कुश स्पर्श से (बराबर) केशी के सारे दाँत नष्ट हो गये एवं श्रीकृष्ण का हाथ बढ़ने लगा और अन्त में इससे केशीदैत्य का मुँह विदीर्ण हो उसके प्राण पखेरू उड़ गये। केशी के प्राण भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो गये।

तथाहि आदिवाराह वचन गंगा शत गुणं पुण्यं यत्र केशी निपतितः ।

तत्रापि च विशेषोऽस्त केशी तीर्थ वसुन्धरे ।

तस्मिन् पिण्ड प्रदानेन गया-पिण्ड फलं लभेत् ।।

जहाँ केशी दैत्य ने प्राण त्यागे थे वह स्थान गंगा से भी शतगुण श्रेष्ठ है। उस स्थान पर पिण्ड दान करने से गया पिण्ड दान करने का फल प्राप्त होता है। इस घाट के निकट प्राणगौर नित्यानन्द मन्दिर, श्रीमुरारीमोहन कुञ्ज, श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी की दन्त समाधि मन्दिर इत्यादि दर्शनीय है।

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रमणीय टटिया स्थान

श्री कुंज बिहारी श्री हरीदास
रमणीय टटिया स्थान, वृंदावन: (Ramaniy Tatiya Sthan Vrindavan) आइए जानिए हमारे गुरु स्थान के बारे में-

स्थान: श्री रंग जी मंदिर के दाहिने हाथ यमुना जी के जाने वाली पक्की सड़क के आखिर में ही यह रमणीय टटिया स्थान है। विशाल भूखंड पर फैला हुआ है।
किन्तु कोई दीवार, पत्थरो की घेराबंदी नहीं है केवल बांस की खपच्चियाँ या टटियाओ से घिरा हुआ है इसलिए तटिया स्थान के नाम से प्रसिद्ध है। यह संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी महाराज की तपोस्थली है।

यह एक ऐसा स्थल है जहाँ के हर वृक्ष और पत्तों में भक्तो ने राधा कृष्ण की अनुभूति की है, संत कृपा से राधा नाम पत्ती पर उभरा हुआ देखा है।

स्थापना: स्वामी श्री हरिदास जी की शिष्य परंपरा के सातवे आचार्य श्री ललित किशोरी जी ने इस भूमि को अपनी भजन स्थली बनाया था। उनके शिष्य महंत श्री ललितमोहनदास जी ने सं १८२३ में इस स्थान पर ठाकुर श्री मोहिनी बिहारी जी को प्रतिष्ठित किया था।

तभी चारो ओर बांस की तटिया लगायी गई थी तभी से यहाँ के सेवा पुजाधिकारी विरक्त साधू ही चले आ रहे है.उनकी विशेष वेशभूषा भी है।
विग्रह: श्रीमोहिनी बिहारी जी का श्री विग्रह प्रतिष्ठित है।

मंदिर का अनोखा नियम…
ऐसा सुना जाता है कि श्री ललितमोहिनिदास जी के समय इस स्थान का यह नियम था कि जो भी आटा-दाल-घी दूध भेट में आवे उसे उसी दिन ही ठाकुर भोग और साधू सेवा में लगाया जाता है।

संध्या के समय के बाद सबके बर्तन खाली करके धो माज के उलटे करके रख दिए जाते है,कभी भी यहाँ अन्न सामग्री की कमी ना रहती थी।

एक बार दिल्ली के यवन शासक ने जब यह नियम सुना तो परीक्षा के लिए अपने एक हिंदू कर्मचारी के हाथ एक पोटली में सच्चे मोती भर कर सेवा के लिए संध्या के बाद रात को भेजे।

श्री महंत जी बोले: वाह खूब समय पर आप भेट लाये है। महंत जी ने तुरंत उन्हें खरल में पिसवाया ओर पान बीडी में भरकर श्री ठाकुर जी को भोग में अर्पण कर दिया कल के लिए कुछ नहीं रखा।

ऐसे संग्रह रहित विरक्त थे श्री महंत जी।
उनका यह भी नियम था कि चाहे कितने मिष्ठान व्यंजन पकवान भोग लगे स्वयं उनमें से प्रसाद रूप में कणिका मात्र ग्रहण करते सब पदार्थ संत सेवा में लगा देते ओर स्वयं मधुकरी करते।
आज भी स्थान पर पुरानी परंपराओं का निर्वाहन किया जाता है जैसे की मिट्टी के दीपकों से उजाला किया जाता है किसी भी प्रकार से मन्दिर की सेवा में विद्युत का प्रयोग नही किया जाता है रागों के द्वार ही मोहिनी बिहारी जू को प्रसाद पवाया जाता है जगाया जाता है शयन कराया जाता है ।

मंदिर में विशेष प्रसाद:
इस स्थान के महंत पदासीन महानुभाव अपने स्थान से बाहर कही भी नहीं जाते स्वामी हरिदास जी के आविर्भाव दिवस श्री राधाष्टमी के दिन यहाँ स्थानीय ओर आगुन्तक भक्तो कि विशाल भीड़ लगती है। आज भी इस स्थान पर प्रतिदिन दर्शन करने हेतु पधारे सभी भक्तों एवं संतो के लिए गौ माता के शुद्ध घी में प्रसाद पवाया जाता है

श्री स्वामी जी के कडुवा ओर दंड के उस दिन सबको दर्शन लाभ होते है।
उस दिन विशेष प्रकार कि स्वादिष्ट अरबी का भोग लगता है ओर बटता है। जो दही ओर घी में विशेष प्रक्रिया से तैयार की जाती है यहाँ का अरबी प्रसाद प्रसिद्ध है। इसे सखी संप्रदाय का प्रमुख स्थान माना जाता है।

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वंशीवट

अमल प्रमाण श्रीमद्भागवतमें वर्णित प्रसिद्ध राधाकृष्णयुगलकी सखियों के साथ रासलीलाको प्रसिद्ध स्थली यही वंशीवट है गोपकुमारियोंकी कात्यायनी पूजाका फल प्रदान करनेके लिए रसिक बिहारी श्रीकृष्णाने जो वरदान दिया था, उसे पूर्ण करनेके लिए उन्होंने अपनी मधुर वेणुपर मधुर तान छेड़ दी। जिसे सुनकर गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर राका रजनीमें यहाँ उपस्थित हुई।” रसिकेन्द्रशेखर श्रीकृष्णने अपने प्रति समर्पित गोपियोंको धर्मव्यतिक्रमके बहानेसे अपने पतियोंकी सेवाके लिए उनके घरोंमें लौटनेकी बहुत-सी युक्तियाँ दीं किन्तु विदग्ध गोपियोंने उनकी सारी युक्तियोंका सहज रूपमें ही खण्डन कर दिया। शतकोटि गोपियोंके साथ यहींपर शारदीय रास आरम्भ हुआ। दो-दो गोपियोंके बीचमें एक कृष्ण अथवा दो कृष्णके बीच में एक गोपी। इस प्रकार विचित्र नृत्य और गीतयुक्त रास हो ही रहा था कि अन्यान्य गोपियोंको सौभाग्यमद और श्रीमती राधिकाजीको मान हो गया। इसे देखकर रसिकशेखर श्रीकृष्ण श्रीमती राधिकाजीका मान प्रसाधन तथा अन्यान्य गोपियोंके सौभाग्यमदको दूर करनेके लिए यहींसे अन्तर्धान हो गये। पुनः विरहिणी गोपियोंने ‘जयतितेऽधिकम्…’ विरह गीतको रोते-रोते उच्च स्वरसे गायन किया, जिसे सुनकर कृष्ण यहींपर प्रकट हुए। यहींपर इन्होंने मधुर शब्दोंसे गोपियोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी कि मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग करनेका तुम्हारा अवदान है। मैं इसके लिए तुम्हारा चिरऋणी हूँ, जिसे मैं कभी भी नहीं चुका सकता। यह रासलीला स्थली सब लीलाओंकी चूड़ामणि स्थली स्वरूप है। श्रीवज्रनाभ महाराजने इस रासस्थलीमें स्मृतिके लिए जिस वृक्षका रोपण किया था, कालान्तरमें वह स्थान यमुनाजीमें आप्लावित हो गया। साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व श्रीगदाधर पण्डितके शिष्य श्रीमधुपण्डितने उसकी एक शाखा लेकर इस स्थानमें गाढ़ दी थी। जिससे वह शाखा प्रकाण्ड वृक्षके रूपमें परिणत हो गई। यहाँपर भजन करते हुए श्रीमधुपण्डितने ठाकुर श्रीगोपीनाचनीको प्राप्त किया था। इस समय वंशीवटके चतुष्कोण परकोटेके चारों कोनोंमें चार छोटे-छोटे मन्दिर हैं। उनमें क्रमशः श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीविष्णुस्वामी एवं श्रीनिम्बार्काचार्यकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। आजकल इन मूर्तियोंके बदले कुछ दूसरी मूर्तियाँ भी यहाँ प्रविष्ट हो गई हैं। पहले इस स्थानमें गौड़ीय वैष्णव सेवा करते थे। बादमें ग्वालियर राजाके गुरु ब्रह्मचारीजीने इस स्थानको क्रय कर लिया। अतः तबसे यह स्थान निम्बार्क सम्प्रदाय के अन्तर्गत हो गया है।

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श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्द देव

यह काम्यवनका सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है। यहाँ वृन्दादेवीका विशेष रूपसे दर्शन है, जो ब्रजमण्डलमें कहीं अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीश्रीराधा-गोविन्ददेव भी यहाँ विराजमान हैं। पासमें ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात् श्रीकृष्णका सिंहासन है। उसके निकट ही चरणकुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगलके श्रीचरणकमल पखारे गये थे। श्रीरूप – सनातन आदि गोस्वामियोंके अप्रकट होनेके पश्चात् धर्मान्ध मुगल सम्राट औरंगजेबके अत्याचारोंसे जिस समय ब्रजमें वृन्दावन, मथुरा आदिके प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुरके परम भक्त महाराजा ब्रजके श्रीगोविन्द श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधमाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहोंको अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्गमें इस काम्यवनमें कुछ दिनोंतक विश्राम किया। श्रीविग्रहोंको रथोंसे यहाँ विभिन्न स्थानोंमें पधराकर उनका विधिवत् स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था। तत्पश्चात् वे जयपुर और अन्य स्थानोंमें पधराये गये । तदनन्तर काम्यवनमें जहाँ-जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन-उन स्थानोंपर विशाल मन्दिरोंका निर्माण कराकर उनमें उन-उन मूल श्रीविग्रहोंकी प्रतिभू-विग्रहोंकी प्रतिष्ठा की गई। श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आईं, किन्तु वे ब्रजको छोड़कर आगे नहीं गई। इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवीका पृथक् रूप दर्शन है।

राधा गोविंद देव जी (जयपुर)
वृंदा देवी मंदिर (काम्यवन)
वृंदा देवी (काम्यवन)
वृंदा देवी (वृंदा कुंड)

श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरोंने ब्रजमण्डलकी लुप्त लीलास्थलियोंको प्रकाश किया है। इनके ब्रजमें आनेसे पूर्व काम्यवनको वृन्दावन माना जाता था किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभुने ही मथुराके सन्निकट श्रीधाम वृन्दावनको प्रकाशित किया। क्योंकि काम्यवनमें यमुनाजी चीरघाट, निधुवन, कालीयदह, केशीघाट, सेवाकुञ्ज, रास स्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेवकी स्थिति असम्भव है। इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरण पहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावनसे पृथक् काम्यवन है। वृन्दादेवीका स्थान वृन्दावनमें ही है। वे वृन्दावनके कुञ्जोंकी तथा उन कुज्जोंमें श्रीराधाकृष्ण युगलकी क्रीड़ाओंकी अधिष्ठात्री देवी हैं। अतः अब वे श्रीधाम वृन्दावनके श्रीरूप सनातन गौड़ीय मठमें विराजमान हैं। यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है।

श्रीगोविन्द मन्दिरके निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं।

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श्रीवृन्दावन के प्रसिद्ध घाट



वृन्दावनमें श्रीयमुनाके तटपर अनेक घाट हैं। उनमें से प्रसिद्ध प्रसिद्ध घाटोंका उल्लेख किया जा रहा है

(1) श्रीवराहघाट – वृन्दावनके दक्षिण-पश्चिम दिशामें प्राचीन यमुनाजीके तटपर श्रीवराहघाट अवस्थित है। तटके ऊपर भी श्रीवराहदेव विराजमान हैं। पास ही श्रीगौतम मुनिका आश्रम है।




(2) कालीयदमनघाट – इसका नामान्तर कालीयदह है। यह वराहघाट से लगभग आधे मील उत्तरमें प्राचीन यमुनाके तटपर अवस्थित है। यहाँके प्रसङ्गके सम्बन्धमें पहले उल्लेख किया जा चुका है। कालीयको दमनकर तट भूमिमें पहुँचनेपर श्रीकृष्णको ब्रजराज नन्द और ब्रजेश्वरी श्रीयशोदाने अपने आसुँओंसे तर बतरकर दिया तथा उनके सारे अङ्गोंमें इस प्रकार देखने लगे कि मेरे लालाको कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची है।’ महाराज नन्दने कृष्णकी मङ्गल कामनासे ब्राह्मणोंको अनेकानेक गायोंका यहींपर दान किया था।


(3) सूर्यघाट – इसका नामान्तर आदित्यघाट भी है। गोपालघाटके उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। घाटके ऊपरवाले टीलेको आदित्य टीला कहते हैं। इसी टीलेके ऊपर श्रीसनातन गोस्वामीके प्राणदेवता श्रीमदनमोहनजीका मन्दिर है। यहींपर प्रस्कन्दन तीर्थ भी है।


(4) युगलघाट – सूर्य घाटके उत्तरमें युगलघाट अवस्थित है। इस घाटके ऊपर श्रीयुगलबिहारीका प्राचीन मन्दिर शिखरविहीन अवस्थामें पड़ा हुआ है। केशी घाटके निकट एक और भी युगलकिशोरका मन्दिर है। वह भी इसी प्रकार शिखरविहीन अवस्थामें पड़ा हुआ है।


(5) श्रीबिहारघाट – युगलघाटके उत्तरमें श्रीबिहारघाट अवस्थित है। इस घाटपर श्रीराधाकृष्ण युगल स्नान, जल विहार आदि क्रीड़ाएँ करते थे।



(6) श्री आंधेरघाट – युगलघाटके उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। इस घाटके उपवन में कृष्ण और गोपियाँ आँखमुदौवलकी लीला करते थे। अर्थात् गोपियोंके अपने करपल्लवोंसे अपने नेत्रोंको ढक लेनेपर श्रीकृष्ण आस-पास कहीं छिप जाते और गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ती थीं। कभी श्रीकिशोरीजी इसी प्रकार छिप जातीं और सभी उनको ढूँढ़ते थे।


(7) इमलीतलाघाट- आंधेरघाटके उत्तरमें इमलीघाट अवस्थित है। यहींपर श्रीकृष्णके समसामयिक इमली वृक्षके नीचे महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव अपने वृन्दावनवास कालमें प्रेमाविष्ट होकर हरिनाम करते थे। इसलिए इसको गौराङ्गघाट भी कहते हैं।


(8) शृंगारघाट – इमलीतला घाटसे कुछ पूर्व दिशामें यमुना तटपर शृंगारघाट अवस्थित है। यहीं बैठकर श्रीकृष्णने मानिनी श्रीराधिकाका शृंगार किया था । वृन्दावन भ्रमणके समय श्रीनित्यानन्द प्रभुने इस घाटमें स्नान किया था तथा कुछ दिनों तक इसी घाटके ऊपर शृंगारवटपर निवास किया था।


(9) श्रीगोविन्दघाट – शृंगारघाटके पास ही उत्तरमें यह घाट अवस्थित है। श्रीरासमण्डलसे अन्तर्धान होनेपर श्रीकृष्ण पुनः यहींपर गोपियोंके सामने आविर्भूत हुये थे।


(10) चीरघाट – कौतुकी श्रीकृष्ण स्नान करती हुई गोपिकुमारियों के वस्त्रों को लेकर यहीं कदम्ब वृक्षके ऊपर चढ़ गये थे। चीरका तात्पर्य वस्त्रसे है। पास ही कृष्णने केशी दैत्यका वध करनेके पश्चात् यहीं पर बैठकर विश्राम किया था। इसलिए इस घाटका दूसरा नाम चैन या चयनघाट भी है। इसके निकट ही झाडूमण्डल दर्शनीय है।


(11) श्रीभ्रमरघाट – चीरघाटके उत्तरमें यह घाट स्थित है। जब किशोर किशोरी यहाँ क्रीड़ा विलास करते थे, उस समय दोनोंके अङ्ग सौरभसे भँवरे उन्मत्त होकर गुञ्जार करने लगते थे। भ्रमरोंके कारण इस घाटका नाम भ्रमरघाट है।


(12) श्रीकेशीघाट – श्रीवृन्दावनके उत्तर-पश्चिम दिशामें तथा भ्रमरघाटके उत्तरमें यह प्रसिद्ध घाट विराजमान है। यहाँ कृष्ण ने केशी दैत्या वध किया था।


(13) धीरसमीरघाट – श्रीवृन्दावनकी उत्तर दिशामें केशीघाटसे पूर्व दिशामें पास ही धीरसमीरघाट है । श्रीराधाकृष्ण युगलका विहार देखकर उनकी सेवाके लिए समीर भी सुशीतल होकर धीरे-धीरे प्रवाहित होने लगा था।


(14) श्रीराधाबागघाट – वृन्दावनके पूर्वमें यह घाट अवस्थित है।


(15) श्रीपानीघाट – इसी घाटसे गोपियोंने यमुनाको पैदल पारकर महर्षि दुर्वासाको सुस्वादु अन्न भोजन कराया था।


(16) आदिबद्रीघाट- पानीघाट से कुछ दक्षिणमें यह घाट अवस्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों को आदिबद्री नारायणका दर्शन कराया था।


(17) श्रीराजघाट – आदि बद्रीघाट के दक्षिण में तथा वृन्दावन की दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राचीन यमुना के तटपर राजघाट है। यहाँ कृष्ण नाविक बनकर सखियों के साथ श्रीमती राधिका को यमुना पार कराते थे । यमुना के बीचमें कौतुकी कृष्ण नाना प्रकार के बहाने बनाकर जब विलम्ब करने लगते, उस समय गोपियाँ महाराजा कंस का भय दिखलाकर उन्हें शीघ्र यमुना पार करने के लिए कहती थीं। इसलिए इसका नाम राजघाट प्रसिद्ध है।

इन घाटोंके अतिरिक्त वृन्दावन – कथा नामक पुस्तकमें और भी 14 घाटोंका उल्लेख है
(1) महान्तजी घाट, (2) नामाओवाला घाट, (3) प्रस्कन्दन घाट, (4) कडिया घाट, (5) धूसर घाट, (6) नया घाट, (7) श्रीजी घाट, (8) विहारीजी घाट, (9) धरोयार घाट, (10) नागरी घाट, (11) भीम घाट, (12) हिम्मत बहादुर घाट, (13) चीर या चैन घाट, (14) हनुमान घाट ।

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धीर – समीर




श्रीयमुनाजीके तटपर रासलीला स्थली वंशीवटके समीप ही यह स्थान वर्तमान है। यह श्रीराधाकृष्ण युगलके नित्य निकुञ्ज केलिविलासका स्थान है। युगल केलिविलासका दर्शनकर समीर भी धीर स्थिर हो जाता था। वह एक कदम भी आगे बढ़नेमें असमर्थ हो जाता था। इसलिए इस स्थानका

नाम धीर-समीर पड़ा है। धीर-समीरका कुञ्ज और देवालय नित्यानन्द प्रभुके ससुर, जाहवा एवं वसुधाके पिता सूर्यदास सरखेलके छोटे भ्राता श्रीगौरीदास पण्डितके द्वारा स्थापित हैं। श्रीगौरीदास पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रधान परिकरोंमेंसे एक हैं। उन्होंने अपने जीवनके अंतिम समयमें वृन्दावन आकर धीर-समीर कुञ्जकी स्थापना की और वहीं पर अपने आराध्यदेव श्रीश्यामरायकी सेवा पूजा आरंभकी। यहींपर उनकी भजन एवं समाधिस्थली भी विद्यमान है। प्रसिद्ध वैष्णव पदकर्ता श्रीजयदेव गोस्वामीने अपने प्रसिद्ध पदमें


धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली ।

गोपीपीन पयोधरमर्दन चञ्चलकरयुगशाली ||

(श्रीगीतगोविन्द)


जिस कुञ्जका उल्लेख किया है, वह यही केलिवट धीर समीर कुञ्ज है। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रसिद्ध परिकरोंमेंसे एक हैं। वे अपने अंतिम समयमें कृष्णविरहमें इतने व्याकुल हो गये कि लौकिक लोगोंके लिए उनका पार्थिव शरीर छूट गया। कुछ दिनोंके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीगोपालगुरु भी अप्रकट लीलामें प्रविष्ट हो गये।

गोपालगुरुके प्रियशिष्य ध्यानचन्द गोस्वामी भी परम रसिक एवं विद्वान भक्त हुए हैं। उनके समयमें राजकर्मचारी राधाकान्त मठ तथा उसके अन्तर्गत हरिदास ठाकुरकी भजन कुटीमें कुछ अत्याचार करने लगे। इससे वे बड़े मर्माहत हुए। उसी समय उन्हें वृन्दावनके किसी वैष्णवने यह समाचार दिया कि अरे! तुम इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो? तुम्हारे परमगुरु श्रीवक्रेश्वर गोस्वामीको हमने धीर-समीरमें भजन करते हुए देखा है। तुम उनके पास चले जाओ। वे सारी व्यवस्था ठीक कर देंगे। ऐसा सुनकर वे बड़े आह्लादित हुए और उन्होंने तत्क्षणात् पैदल ही वृन्दावनके लिए यात्रा की।

कुछ दिनोंमें वे श्रीवृन्दावनमें पहुँचे। धीर समीरमें प्रवेश करते ही वे आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने देखा कि श्रीवक्रेश्वर पण्डित हाथमें नामकी माला लिये हुए भाव विभोर होकर नाम सङ्कीर्तन कर रहे थे। लीला स्मृतिके कारण उनके नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुप्रवाह विगलित हो रहा था। श्रीध्यानचन्दजी लकुटिकी भाँति उनके चरणों में गिरकर रोने लगे और उनसे पुरी धाममें लौट चलनेका आग्रह करने लगे। वक्रेश्वर पण्डितने साक्षात् रूपसे जानेके लिए मना तो किया, किन्तु बोले- तुम निश्चिन्त मनसे पुरी लौट जाओ।

राजकर्मचारियोंका उपद्रव सदाके लिए बंद हो जायेगा। उनके आदेशसे ध्यानचन्द गोस्वामी पुरीमें राधाकान्त मठमें लौटे। राजकर्मचारियोंने अपने कृत्यके लिए उनसे पुनः पुनः क्षमा मांगी। यह वही धीर समीर है, जहाँ श्रीध्यानचन्द गोस्वामीने अप्रकट हुए श्रीवक्रेश्वर पण्डितका साक्षात् दर्शन किया था। इन सब लीलाओंको अपने हृदयमें संजोये हुए भक्तोंको आनन्दित करने वाला धीर समीर आज भी विराजमान है।

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“मथुरामण्डल की महिमा”

पूर्व काल में नैमित्तिक प्रलय के समय एक महान दैत्य प्रकट हुआ, जो शंखासुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शंखासुर देवताओ को जीतकर ब्रह्लोक गया वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओ का सारा बल चला गया। तब पूर्ण भगवान यज्ञेश्वर श्री हरि ने मतस्य रूप धारण करके उस दैत्य के साथ युद्ध किया, और और अंत में चक्र से उसका मस्तक काट डाला।

इसके बाद देवताओ के साथ भगवान श्री हरि प्रयाग में आये, और वे चारों वेद ब्रह्मा जी को दे दिए। फिर यज्ञ अनुष्ठान किया और प्रयाग तीर्थ के अधिष्ठाता देवताओ को बुलाकर उसे ”तीर्थराज” पद पर अभिषिक्त किया। मुनि कन्या गंगा और सूर्यसुता यमुना अपनी तरंगरुपी चामरो से से उनकी सेवा करने लगीं।

उसी समय सारे तीर्थ भेट लेकर बुद्धिमान तीर्थ रज के पास आये और उनकी पूजा और वंदना करने लगे। फिर अपने अपने स्थानो को चले गए। जब सब चले गए तो देवर्षि नारद जी वहाँ आये और सिंहासन पर विराजमान तीर्थ राज से बोले।

नारद जी ने कहा, “महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चित ही तुम सभी तीर्थो द्वारा विशेष रूप से पूजित हुए हो सभी ने तुम्हे भेंटे दी है। परन्तु व्रज के वृंदावन आदि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये तुम तीर्थो के राजाधिराज हो व्रज के प्रमादी तीर्थो ने यहाँ न आकर तुम्हारा तिरस्कार किया है।”

यह कहकर देवर्षि नारद चले गए। तीर्थराज को मन में क्रोध हुआ और तुरन्त श्री हरि के लोक में गए। तीर्थराज ने हाथ जोड़कर भगवान से कहा, “हे देव ! मैंं आपकी सेवा में इसलिए आया हूँ, कि आपने तो मुझे तीर्थराज बनाया है और समस्त तीर्थ मेरे पास आये परन्तु मथुरामंडल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये। उन प्रमादी व्रजतीर्थ ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात मैं आपसे कहने के लिए आया हूँ।”

भगवान ने कहा, “मैंंने तुम्हे तीर्थो का राजा तीर्थराज अवश्य बनाया है किन्तु अपने घर का राजा तुम्हे नहीं बनाया है। फिर भी तुम मेरे गृह पर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुष के समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज तुम अपने घर जाओ और मेरा यह शुभ वचन सुनो ! मथुरामंडल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है त्रिलोकी से परे है उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता।”

भगवान की बात सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए और उनका सारा अभिमान टूट गया फिर वहाँ से आकर उन्होंने मथुरामंडल के व्रज मंडल का पूजन किया और प्रतिवर्ष आने लगे।

इसी प्रकार वारह कल्प में श्री हरि ने जब वारह रूप में अपनी दाढ पर पृथ्वी को उठाकर रसातल से बाहर लाकर उसका उद्धार किया, तब पृथ्वी ने पूछा कि, “प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताईये आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ?”

भगवान ने कहा, “जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जल में उद्वेग का भाव प्रकट हो तब उसी स्थान पर स्थापना करूँगा।” पृथ्वी ने कहा, “भगवान ! स्थावर वस्तुओ कि रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है क्या कोई दूसरी भी धरणी है ? धारणामई धरणी तो केवल मैं हूँ।”

तभी पृथ्वी ने जल में वृक्ष देखे उन्हें देखकर पृथ्वी का अभिमान दूर हो गया और बोली, “देव ! किस स्थल पर ये वृक्ष है ? इसका क्या रहस्य है ? मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है ?”

भगवान ने कहा, “यह दिव्य ”मथुरा मंडल” दिखायी देता है, जो गोलोक कि धरती से जुड़ा हुआ है प्रलय काल में भी इसका संहार नहीं होता। इस प्रकार इस व्रज मंडल की महिमा प्रयाग से भी उत्कृष्ट है। ये पृथ्वी का हिस्सा नहीं है।”

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धीर- समीर

श्रीयमुनाजीके तटपर रासलीला स्थली वंशीवटके समीप ही यह स्थान वर्तमान है। यह श्रीराधाकृष्ण युगलके नित्य निकुञ्ज केलिविलासका स्थान है। युगल केलिविलासका दर्शनकर समीर भी धीर स्थिर हो जाता था। वह एक कदम भी आगे बढ़नेमें असमर्थ हो जाता था। इसलिए इस स्थानका

नाम धीर-समीर पड़ा है। धीर- समीरका कुञ्ज और देवालय नित्यानन्द प्रभुके ससुर, जाहवा एवं वसुधाके पिता सूर्यदास सरखेलके छोटे भ्राता श्रीगौरीदास पण्डितके द्वारा स्थापित हैं। श्रीगौरीदास पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रधान परिकरोंमेंसे एक हैं। उन्होंने अपने जीवनके अंतिम समयमें वृन्दावन आकर धीर-समीर कुञ्जकी स्थापना की और वहीं पर अपने आराध्यदेव श्रीश्यामरायकी सेवा पूजा आरंभकी। यहींपर उनकी भजन एवं समाधिस्थली भी विद्यमान है। प्रसिद्ध वैष्णव पदकर्ता श्रीजयदेव गोस्वामीने अपने प्रसिद्ध पदमें

धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीन पयोधरमर्दन चञ्चलकरयुगशाली ।।

(श्रीगीतगोविन्द)

जिस कुञ्जका उल्लेख किया है, वह यही केलिवट धीर समीर
कुञ्ज है। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीमन् महाप्रभुजीके प्रसिद्ध परिकरोंमेंसे एक हैं। वे अपने अंतिम समयमें कृष्णविरहमें इतने व्याकुल हो गये कि लौकिक लोगोंके लिए उनका पार्थिव शरीर छूट गया। कुछ दिनोंके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीगोपालगुरु भी अप्रकट लीलामें प्रविष्ट हो गये। गोपालगुरुके प्रियशिष्य ध्यानचन्द गोस्वामी भी परम रसिक एवं विद्वान भक्त हुए हैं। उनके समयमें राजकर्मचारी राधाकान्त मठ तथा उसके अन्तर्गत हरिदास ठाकुरकी भजन कुटीमें कुछ अत्याचार करने लगे। इससे वे बड़े मर्माहत हुए। उसी समय उन्हें वृन्दावनके किसी वैष्णवने यह समाचार दिया कि अरे! तुम इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो? तुम्हारे परमगुरु श्रीवक्रेश्वर गोस्वामीको हमने धीर-समीरमें भजन करते हुए देखा है। तुम उनके पास चले जाओ। वे सारी व्यवस्था ठीक कर देंगे। ऐसा सुनकर वे बड़े आह्लादित हुए और उन्होंने तत्क्षणात् पैदल ही वृन्दावनके लिए यात्रा की। कुछ दिनोंमें वे श्रीवृन्दावनमें पहुँचे। धीर समीरमें प्रवेश करते ही वे आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने देखा कि श्रीवक्रेश्वर पण्डित हाथमें नामकी माला लिये हुए भाव विभोर होकर नाम सङ्कीर्तन कर रहे थे। लीला स्मृतिके कारण उनके नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुप्रवाह विगलित हो रहा था। श्रीध्यानचन्दजी लकुटिकी भाँति उनके चरणों में गिरकर रोने लगे और उनसे पुरी धाममें लौट चलनेका आग्रह करने लगे। वक्रेश्वर पण्डितने साक्षात् रूपसे जानेके लिए मना तो किया, किन्तु बोले- तुम निश्चिन्त मनसे पुरी लौट जाओ। राजकर्मचारियोंका उपद्रव सदाके लिए बंद हो जायेगा। उनके आदेशसे ध्यानचन्द गोस्वामी पुरीमें राधाकान्त मठमें लौटे। राजकर्मचारियोंने अपने कृत्यके लिए उनसे पुनः पुनः क्षमा मांगी। यह वही धीर समीर है, जहाँ श्रीध्यानचन्द गोस्वामीने अप्रकट हुए श्रीवक्रेश्वर पण्डितका साक्षात् दर्शन किया था। इन सब लीलाओंको अपने हृदयमें संजोये हुए भक्तोंको आनन्दित करने वाला धीर समीर आज भी विराजमान है।

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गोपीश्वर महादेव

देवो के देव महादेव शंकर को श्रीमद्भागवत में एक प्रधान वैष्णव बतलाया गया है। वे सदैव भगवती पार्वती के साथ कृष्ण की अष्टकालीय लीलाओं के चिन्तनमें विभोर रहते हैं। श्रीकृष्ण की प्रकट लीलामें एक समय अपने नेत्रों से कृष्ण की मनमोहक रासलीला के दर्शनों की अभिलाषासे वे कैलाश से सीधे वृन्दावनमें बड़े उत्कण्ठित होकर पधारे। किन्तु वृन्दावनके बाहरी द्वारपर ही गोप-परिचारिकाओं ने उन्हें रोक दिया। क्योंकि इसमें श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसी पुरुष का प्रवेश निषेध है। किन्तु शंकर जी कब मानने वाले थे। वे परिचारिका गोपियों से प्रवेशका उपाय पूछने लगे । गोपियों ने भगवती योगमाया पौर्णमासीजी की आराधना करनेके लिए कहा। तत्पश्चात् योगमाया पौर्णमासीजी की कठोर आराधना से शंकर जी को योगमायाजी के दर्शन हुए। उन्होंने शंकर जी की अभिलाषा जानकर उनके हाथों को पकड़कर पास ही ब्रह्मकुण्ड में डुबो दिया। उस कुण्ड से निकलते ही शङ्कर जी एक परम सुन्दरी किशोरी गोपीके रूपमें परिवर्तित हो गये।

पौर्णमासी जी ने गोपी बने शंकर को रासस्थली के निकट ईशान कोण में एक कुञ्ज के भीतर बैठा दिया और वहीं से रासलीला दर्शनके लिए कहकर स्वयं अन्तर्धान हो गईं। कुछ देर बाद ही रासलीला आरम्भ हुई। गोपियों ने सोचा न जाने क्यों आज नृत्य, गीतमें उल्लास नहीं हो रहा है। वे समझ गई कि किसी विजातीय व्यक्ति का यहाँ प्रवेश हुआ है।

सभी गोपियाँ उस विजातीय व्यक्ति को ढूंढने लगीं ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब वे इस स्थानपर पहुँचीं तो उन्होंने एक नवेली अपरिचित गोपी को बैठी हुई देखा। फिर तो उन्होंने उस नवेली गोपी को पकड़ लिया और पूछने लगीं- तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गाँव कौन-सा है ? तुम्हारा पति कौन है? तुम्हारा ससुर कौन है ? किन्तु नवेली गोपी रोने के अतिरिक्त कोई उत्तर नहीं दे सकी। क्योंकि योगमाया ने इसे गोपी गर्भ से न तो जन्म ही दिलवाया था, न इसे कोई नाम दिया था, न इसका विवाह किसी गोपसे हुआ था। इसलिए क्या उत्तर देती? कोई उत्तर न पाकर गोपियोंने इसके गालोंमें गुल्चे मार-मारकर गाल फुला दिये। पौर्णमासी जी महादेव की दुर्दशा देखकर द्रवित हो गईं। उन्होंने वहाँ पहुँचकर गोपियों से अनुरोध किया कि ये मेरी कृपापात्री गोपी है। आप लोग श्रीकृष्ण के साथ इसपर कृपा करें। पौर्णमासीजीकी आन्तरिक अभिलाषा जानकर कृष्णने उसका गोपीश्वर नामकरण किया तथा यह वरदान दिया कि बिना तुम्हारी कृपाके कोई भी साधक इस वृन्दावनमें विशेषकर मेरी मधुर लीलाओंमें प्रवेश नहीं कर सकेगा।

गोस्वामी ग्रन्थोंमें भी ऐसा वर्णन पाया जाता है कि प्रकट कष्णलीला के समय कृष्ण सेवा प्राप्ति की कामना से गोपियाँ भी इनकी आराधना करती थीं। इनके प्रणाम मंत्र से भी यह स्पष्ट है कि ये विशुद्ध कृष्णप्रेम देने वाले है

मुदा गोपेन्द्रस्यात्मज- भुज-परिष्वंग-निधये स्फुरद – गोपी- वृन्दैर्यमइह भगवन्तं प्रणयिभिः ।

भजद्भिस तैर् भक्त्या स्वम भिलष्तिं प्राप्तुम चिराद् यमी-तीरे गोपीश्वरमनुदिनं तं किल भजे ॥

(श्रीब्रजविलास स्तव-८७)

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भगवती यमुना


श्रीराधाकृष्ण युगलके केलि-विलासमें सब प्रकारसे सहायिका श्रीकृष्ण स्वरूपिणी भगवती कृष्णा या महारानी यमुनाजीने वृन्दावनको तीन ओर घेर रखा है। ये अपने सुरम्य तटपर दोनों ओर नाना प्रकारके पुष्पों और फलोंसे लदे हुए सघन वृक्षों और लताओंसे असंख्य रमणीय निकुञ्जोंका सृजनकर प्रिया प्रियतमके रस-विलासमें सम्पूर्ण रूपसे अपना सहयोग प्रदान करती हैं।

दिव्य मणिमय घाटोंसे सुसज्जित कदम्ब, तमाल, आम्र, बकुल आदि वृक्षों और उनसे निर्मित विविध कुञ्जोंसे परिमण्डित, सप्तदल-कमलोंसे सर्वदा सुशोभित श्रीयमुनाकी प्रेममय वारिमें सखियोंके साथ श्रीराधाकृष्ण युगल जलकेलि और नौकाविहार करते हैं। ऐसी भगवती यमुना सदैव युगल किशोरकी सेवाकर परम वन्दनीय हैं

चिदानन्दभानोः सदा नन्दसूनोः परप्रेमपात्री द्रवब्रह्मगात्री ।
अघानां लवित्री जगत्क्षेमधात्री पवित्री क्रियान्नो वपुमिंत्र पुत्री ।।

चिदानन्द-सूर्य-स्वरूप नन्दनन्दन श्रीकृष्णके उन्नत उज्ज्वल प्रेमको प्रदान करने वाली साक्षात् परब्रह्मकी द्रवितविग्रह-स्वरूपा, अपने स्मरण मात्रसे सम्पूर्ण प्रकारके अघों, महापापोंको दूरकर हृदयको पवित्र बनाने वाली, जगत् मङ्गलकारिणी, मरु हृदयमें भी ब्रज-रसका सञ्चार करनेवाली सूर्यपुत्री श्रीयमुनाजीकी पुनः पुनः वन्दना करता हूँ। वे हमें पवित्र करें।

गङ्गादि- तीर्थ – परिषेवित-पादपद्मा गोलोक-सौख्यरस-पूरमहिं महिम्ना ।
आप्लाविताखिल-सुधासु- जलां सुखाब्धी राधामुकुन्द-मुदितां यमुनां नमामि ॥

गंगा, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु आदि तीर्थोंके द्वारा जिनके श्रीचरणकमल सर्वदा परिसेवित होते हैं, जो गोलोक-वृन्दावनके श्रीश्रीराधाकृष्ण युगलकी रसपरिपाटी युक्त सेवाको प्रदान करनेवाली महिमासे युक्त हैं जो अपने अमृतपूर्ण जल प्रवाहके द्वारा श्रीराधा-मुकुन्दको सुख-समुद्रमें निमग्न रखती हैं, उन कृष्ण प्रिया श्रीयमुनाजीको पुनः पुनः प्रणाम है।

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राधा टीला

ये वृन्दावन परिक्रमा मार्ग में ठाकुर जी का लीला स्थान है l अगर आप विशुद्ध भाव के साथ यहां आते हैं तो आप भी अपने रोम-रोम में दिव्याता को पाएंगे। साधना करते विरक्त संतों के अनुभवों को आत्मसात करने में जरा भी संकोच न होगा जो कहते हैं, “यहां राधा रहती है।” शांति के इस धाम में बिहारी विहारिणी का सरस वृंदावन बसता है। संतों ने इस स्थान की पावनता, रमणीयता और दिव्या को भीड़-भाड़ और प्रचार-प्रसार से बचाए रखा है। राधा टीला हरिदासी संप्रदाय की छोटी गद्दी है।

वृंदावन में रोज 4:00 बजे राधा टीला में दाना डाला जाता है और …यहाँ आप हजारो की संख्या में कई सारे तोते, मोर, और बहुत ही अद्भुत पक्षियों के दर्शन कर सकते हैं, और वो कोई साधारण पक्षी नही होते हैं वो सभी श्यामा जू के भक्त होते हैं।

कहते है राधाटीला में आज भी यहाँ श्यामा श्याम जूँ लीला करने पधारते है l इसलिये निधीवन और सेवा कुँज की तरह संध्या के बाद यहाँ के दर्शन भी बंद कर दिये जाते है l कहते है दिन के समय श्यामा श्याम जी पेड का रूप धारण कर लेते है और संध्या में पुनः अपने स्वरूप में प्रकट होते है l आज भी हम ये दर्शन राधाटीला में कर सकते है.. वहाँ एक ही जड से निकले हुए है दो पेड है, एक जड में से निकले हुये होने के बावजुद भी एक पेड सफेद और एक पेड श्याम वर्ण का है l……… जो स्वयं श्यामा श्याम जी है l
कहते है एक लीला यहाँ यह हुई थी कि एक समय जब श्यामा श्याम जी जब रास कर रहे थे तो ठाकुर जी के भक्त गोपीयों को भुख लगने लगी l तब वहाँ खीर का भोग तो था पंरतु सभी खीर खाये कैसे.??

तब कान्हा जी ने एक पेड के पत्ते को लिया और उसे दोने का आकार दिया ( दोने:- वो जो पत्ते का होता है और प्रसाद वितरण के लिये उपयोग किया जाता है…) फिर सभी ने मिलकर ठाकुर जी के द्वारा बनाये हुये दोनो में खीर ग्रहण कर अपनी भुख शांत की l ठाकुर जी की लीला वश आज भी उस पेड में दोने के आकार में पत्ते आते है l ये दर्शन हम राधाटीला श्री वृन्दावन धाम में कर सकते है l

प्रेम से बोलो राधे राधे

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विश्राम घाट

विश्राम घाट मथुराका सर्वप्रधान एवं प्रसिद्ध घाट है।

सौर पुराणके अनुसार विश्रान्ति तीर्थ नामकरणका कारण बतलाया गया है

ततो विश्रान्ति तीर्थाख्यं तीर्थमहो विनाशनम् ।

संसारमरु संचार क्लेश विश्रान्तिदं नृणाम ।

संसाररूपी मरुभूमिमें भटकते हुए, त्रितापोंसे प्रपीड़ित, सब प्रकारसे निराश्रित, नाना प्रकारके क्लेशोंसे क्लान्त होकर जीव श्रीकृष्णके पादपद्म धौत इस महातीर्थमें स्नान कर विश्राम अनुभव करते हैं। इसलिए इस महातीर्थका नाम विश्रान्ति या विश्राम घाट है। कहा जाता है कि भगवान् श्रीकृष्णने महाबलशाली कंसको मारकर ध्रुव घाटपर उसकी अन्त्येष्टि संस्कार करवाकर बन्धु-बान्धवोंके साथ यमुनाके इस पवित्र घाटपर स्नान कर विश्राम किया था। श्रीकृष्णकी नरलीलामें ऐसा सम्भव है; परन्तु षडैश्वर्यपूर्ण अघटन घटन पटीयसी सर्वशक्तियोंसे सम्पन्न सच्चिदानन्द स्वयं भगवान् श्रीकृष्णको विश्रामकी आवश्यकता नहीं होती है। किन्तु भगवानसे भूले भटके जन्म मृत्युके अनन्त, अथाह सागरमें डूबते-उतराते हुए क्लान्त जीवोंके लिए यह अवश्य ही विश्रामका स्थान है।

इस महातीर्थमें स्नान एवं आचमनके पश्चात् प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु लोग ब्रजमण्डलकी परिक्रमाका संकल्प लेते हैं और पुनः यहींपर परिक्रमाका समापन करते हैं।

कार्तिक माहकी यमद्वितीयाके दिन बहुत दूर दूर प्रदेशोंके श्रद्धालुजन यहाँ स्नान करते हैं। पुराणोंके अनुसार यम (धर्मराज) एवं यमुना (यमी) ये दोनों जुड़वा भाई-बहन हैं। यमुनाजीका हृदय बड़ा कोमल है। जीवोंके नाना प्रकारके कष्टोंको वे सह न सकीं। उन्होंने अपने जन्म दिनपर भैया यमको निमन्त्रण दिया। उन्हें तरह-तरहके सुस्वादु व्यज्जन और मिठाईयाँ खिलाकर सन्तुष्ट किया। भैया यमने प्रसन्न होकर कुछ माँगनेके लिए कहा। यमुनाजीने कहा- भैया ! जो लोग श्रद्धापूर्वक आजके दिन इस स्थानपर मुझमें स्नान करेंगे, आप उन्हें जन्म-मृत्यु एवं नाना प्रकारके त्रितापोंसे मुक्त कर दें। ऐसा सुनकर यम महाराजने कहा- ‘ऐसा ही हो। यूँ तो कहीं भी श्रीयमुनामें स्नान करनेका प्रचुर माहात्म्य है, फिर भी ब्रजमें और विशेषकर विश्राम घाटपर भैयादूजके दिन स्नान करनेका विशेष महत्व है। विशेषकर लाखों भाई-बहन उस दिन यमुनामें इस स्थलपर स्नान करते हैं।

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निधिवन

रहस्यमयी और अलौकिक निधिवन – यहाँ आज भी राधा संग रास रचाते है श्री कृष्ण, जो भी देखता है हो जाता है पागल

भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्थित निधि वन जिसके बारे में मान्यता है की यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है की सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोड़कर चले जाते है।

वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाक़या करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। ऐसे अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक अन्य व्यक्ति थे पागल बाबा जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है की उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लीला देखने की कोशिश की थी। जिससे की वो पागल हो गए थे। चुकी वो कृष्ण के अनन्य भक्त थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात मंदिर कमेटी ने निधि वन में ही उनकी समाधि बनवा दी।


रंगमहल में सज़ती है सेज़ :
निधि वन के अंदर ही है ‘रंग महल’ जिसके बारे में मान्यता है की रोज़ रात यहाँ पर राधा और कन्हैया आते है। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले सजा दिया जाता है। पलंग के बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग पान रख दिया जाता है। सुबह पांच बजे जब ‘रंग महल’ का पट खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त, लोटे का पानी खाली, दातुन कुची हुई और पान खाया हुआ मिलता है। रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।


पेड़ बढ़ते है जमीन की ओर :
निधि वन के पेड़ भी बड़े अजीब है जहाँ हर पेड़ की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती है वही निधि वन के पेड़ो की शाखाएं नीचे की और बढ़ती है। हालात यह है की रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को डंडों के सहारे रोक गया है।


तुलसी के पेड़ बनते है गोपियाँ :
निधि वन की एक अन्य खासियत यहाँ के तुलसी के पेड़ है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं कि‍ जो लोग भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता।

वन के आसपास बने मकानों में नहीं हैं खिड़कियां :
वन के आसपास बने मकानों में खिड़कियां नहीं हैं। यहां के निवासी बताते हैं कि शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता। जिन लोगों ने देखने का प्रयास किया या तो अंधे हो गए या फिर उनके ऊपर दैवी आपदा आ गई। जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, उनके घर के लोग शाम सात बजे मंदिर की आरती का घंटा बजते ही बंद कर लेते हैं। कुछ लोगों ने तो अपनी खिड़कियों को ईंटों से बंद भी करा दिया है।


वंशी चोर राधा रानी का भी है मंदिर :
निधि वन में ही वंशी चोर राधा रानी का भी मंदिर है। यहां के महंत बताते हैं कि जब राधा जी को लगने लगा कि कन्हैया हर समय वंशी ही बजाते रहते हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं देते, तो उन्होंने उनकी वंशी चुरा ली। इस मंदिर में कृष्ण जी की सबसे प्रिय गोपी ललिता जी की भी मूर्ति राधा जी के साथ है।


विशाखा कुंड :
निधिवन में स्थित विशाखा कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण सखियों के साथ रास रचा रहे थे, तभी एक सखी विशाखा को प्यास लगी। कोई व्यवस्था न देख कृष्ण ने अपनी वंशी से इस कुंड की खुदाई कर दी, जिसमें से निकले पानी को पीकर विशाखा सखी ने अपनी प्यास बुझायी। इस कुंड का नाम तभी से विशाखा कुंड पड़ गया।


एक बार कलकत्ता का एक भक्त अपने गुरु की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हरसमय वृन्दावन आने की सोचने लगा उसके गुरु उसे निधिवन के बारे में बताया करते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ रात्रि को रास रचाने आते है उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था
और एक बार उसने निश्चय किया कि वृन्दावन जाऊंगा और ऐसा ही हुआ श्री राधा रानी की कृपा हुई और आ गया वृन्दावन उसने जी भर कर बिहारी जीका राधा रानी का दर्शन किया लेकिन अब भी उसे इसबात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते है उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हू इसलिए वो वही पर रूक गयाऔर देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया
-जब शाम के वक़्त वहा के पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी और उसे वहा से जाने को कहा तब तो वो भक्त वहा से चला गया लेकिन अगले दिन फिर से वहा जाकर छिपगया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया और आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहा उसे कोई न ढूंढ़ सकता थाऔर वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जबसेविकाए निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुह से झाग निकल रहा है

तब उन सेविकाओ ने सभी कोबताया तो लोगो कि भीड़ वहा पर जमा हो गयी सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वो कुछ भी नहीं बोल रहा था लोगो ने उसे खाने के लिएमिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और ऐसे ही वो ३ दिन तक बिना कुछ खाएपीये ऐसे ही बेसुध पड़ा रहा और ५ दिन बाद उसके गुरु जो कि गोवर्धन में रहते थे बताया गया तब उसके गुरूजी वहा पहुचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये आश्रम में भी वो ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा गुरूजी ने ऐसा ही किया और उसे वो कलम और कागज़ देकर मानसी गंगा में स्नान करने चले गए जब गुरूजी स्नान करके आश्रममें आये
तो पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया थाऔर उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था उस पर लिखा था

“गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है,पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हू ,आप कहतेथे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर यकीन नहीं करता था, लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात बांके बिहारी का राधा रानी के साथ गोपियों के
साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोई भी इच्छा नहीं है ,इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या?

श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालो की सुन्दरता कुछ भी नहीं है,इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये”

वो पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था आज भी मथुरा के सरकारी संघ्रालय में रखा हुआ है और बंगाली भाषा में लिखा हुआ है

कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जीके साथ रास लीला करती हैतो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है, और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतुबंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की “परम दिव्यातिदिव्य लीला” है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.


जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि मेंशयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते… है तो जल पीया मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है.राधे……….राधे…

वृन्दावन धाम या बरसाना कोई घूमने फिरने या पिकनिक मनाने की जगह नहीं है ये आपके इष्ट की जन्मभूमि लीलाभूमि व् तपोभूमि है सबसे ख़ास बात ये प्रेमभूमि है जब भी आओ इसको तपोभूमि समझ कर मानसिक व् शारीरिक तप किया करो शरीर से सेवा व् वाणी से राधा नाम गाया जाए तब ही धाम मे आना सार्थक है

एक अद्भुत मस्ती ताकत व् आनंद ले कर वापिस जाया करो .आप की धाम निष्ठां मे वृद्धि हो इसी कामना से…………….राधे…………राधे……………….जी

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सेवा कुंज रास स्थली

“सेवा कुंज या निकुंज वन “
रासलीला के श्रम से व्यथित राधाजी की भगवान् द्वारा यह सेवा किए जाने के कारण इस स्थान का नाम सेवाकुंज पडा. सेवाकुंज वृंदावन के प्राचीन दर्शनीय स्थलों में से एक है. राधादामोदर जी मन्दिर के निकट ही कुछ पूर्व-दक्षिण कोण में यह स्थान स्थित है.

स्थापना – गोस्वामी श्रीहितहरिवंश जी ने सन 1590 में अन्य अनेक लीला स्थलों के साथ इसे भी प्रकट किया था.

श्री विग्रह – यहाँ एक छोटे-से मन्दिर में राधा जी के चित्रपट की पूजा होती है. लता दु्रमों से आच्छादित सेवाकुंज के मध्य में एक भव्य मंदिर है, जिसमें श्रीकृष्ण राधाजी के चरण दबाते हुए अति सुंदर रूप में विराजमान है. राधाजी की ललितादि सखियों के भी चित्रपट मंदिर की शोभा बढा रहे हैं.साथ में ललिता विशाखा जी भी दर्शन है.

सेवा कुंज में ललिता-कुण्ड है. जहाँ रास के समय ललिताजी को प्यास लगने पर कृष्ण ने अपनी वेणु(वंशी) से खोदकर एक सुन्दर कुण्ड को प्रकट किया. जिसके सुशीतल मीठे जल से सखियों के साथ ललिता जी ने जलपान किया था.सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, जनश्रुति है कि यहाँ आज भी नित्य रात्रि को रासलीला होती है.

सेवाकुंज का इतिहास :
वृंदावन श्यामा जू और श्रीकुंजविहारीका निज धाम है. यहां राधा-कृष्ण की प्रेमरस-धाराबहती रहती है. मान्यता है कि चिरयुवाप्रिय-प्रियतम श्रीधामवृंदावन में सदैव विहार में संलग्न रहते हैं.

भक्त रसखान ब्रज में सर्वत्र कृष्ण को खोज खोज कर हार गये, अन्त में यहीं पर रसिक कृष्ण का उन्हें दर्शन हुआ। उन्होंने अपने पद में उस झाँकी का वर्णन इस प्रकार किया है –

देख्यो दुर्यों वह कुंज कुटीर में।
बैठ्यो पलोटत राधिका पायन ॥

मन्दिर में एक शय्या शयन के लिए है, जिसके विषय में कहा जाता है की रात्रि में प्रिया प्रितम साक्षात् रूप में आज भी इसपर विश्राम करते हैं । साथ ही सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, ब्रजवासियों का कहना है कि आज भी प्रत्येक रात्रि में श्री राधाकृष्ण-युगल साक्षात् रूप से यहाँ विहार करते हैं.

इस विहार लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु सेवा कुंज में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता.

यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की “परम दिव्यातिदिव्य लीला” है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें सेवा कुंज से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.

जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी यहाँ शय्या शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते है तो जल पिया हुआ मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है

बोलो सेवा कुंज वारी की जय