
(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 100)
!! धेनुक राक्षस का वध !!
तालवन को देखते देखते शून्य में पहुँच गए थे कन्हैया ।
“ओह ! तो ये”……..गम्भीर ही बने रहे नन्दनन्दन ।
भक्तराज प्रह्लाद के पुत्र हुए विरोचन, विरोचन के बलि ….और बलि का पुत्र था “साहसिक” ।
महाप्रतापी ……महाबली ………देवता तक काँपते थे इससे ।
एक दिन……….चला गया ये बदरी खण्ड में …….जहाँ नरनारायण तपस्या में लीन थे ………..ये क्षेत्र इस राक्षस को प्रिय लगा ।
पर उसी समय उस “साहसिक असुर” की भेंट हुई……एक अद्भुत सुन्दरी स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा से …..दोनों ही एक दूसरे पर मुग्ध हो गए ।
साहसिक का बलिष्ठ देह तिलोत्तमा को आकर्षित कर रहा था ।
हाथ पकड़ लिया साहसिक नें ……….निकट आया तिलोत्तमा के …..शरमा गयी थी वो ………….साहसिक मुस्कुराते हुए अप्सरा को लेकर गया एक गुफा में …………….।
तात ! ये बदरी क्षेत्र है …….ये तपस्थली है ……कोई भोग विलासिता की भूमि नही ………….उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
उसी गुफा में तप कर रहे थे …..ऋषि दुर्वासा ।
भोगरत प्राणी के परमाणु निम्न कोटि के होते हैं ……….जो आपके मन में भी विकार उत्पन्न कर देते हैं ………….वैसे ऋषि दुर्वासा के मन में कौन विकार उतपन्न कर सका है …….पर उनकी तपस्या टूट गयी ।
ऋषि नें देखा…….कहाँ ये गुफा शुद्ध सात्विकता के परमाणुओं से भरी हुयी थी …..वहीं भोग विलास करके इन दोनों नें ………छि !
क्रोध उठा ऋषि के मन में …….और उन्होंने श्राप दे डाला ……….
हे असुर ! जा ! तू गधा हो जा !
तिलोत्तमा सिर झुकाकर अपनें स्वर्ग में चली गयी ।
..पर वो साहसिक असुर …….पश्चाताप में जलनें लगा …………सच कहा है इन्होनें ……….ये केदार खण्ड बदरी क्षेत्र कोई विलासिता की भूमि नही है……….चरण पकड़ लिये ऋषि दुर्वासा के साहसिक नें …….अश्रु गिरनें लगे उसके नेत्रों से ……पर ऋषि दुर्वासा तो वहाँ से जा चुके थे ।
नन्दनन्दन शून्य में देखते हुए सब समझ गए……अब मुस्कुराये थे ये ।
कन्हैया ! काहे कूँ मुस्कुरा रह्यो है ? दाऊ नें आकर पूछी ।
नहीं दादा ! बस जा तालवन कूँ देख रह्यो हो …………।
तभी –
आज तो जे कन्हैया हमें भूखो ही मारगो……देखो ! दोपहरी है रही है …पेट में मूसा कूदते भये मर हू गए……मनसुख आपस में बोल रहा है ।
कहा भैया ! भूल लगी है ?
हाँ …….भूख तो लगी है …..पर तोहे तो राक्षसन कूँ मारनौ है ………श्रीदामा नें उलाहना के स्वर में जे बात कही ही ।
अरे ! बीर तो वाते कहें …..जो जा भूख नामक राक्षस कूँ मार देय …कन्हैया ! पहले तू लाला ! जा भूख असुर कूँ मार ….सबरौ झंझट ही खतम है जायगो ……….मनसुख नें भी अपनी बात कह दई ।
कन्हैया अब हँसे ………पर घर ते आज कछु नाँय आयो ।
अरे ! घर की छोड़ …..सामनें देख ! …..तालवन ……क्या सुन्दर पके भये ताल के फल हैं …..देख ! और क्या बढ़िया सुगन्ध आय रही है ।
भद्र सखा नें कन्हैया ते कही ।
पर ………मनसुख चुप है गयो ।
पर वर छोडो ………..जाओ ! फल है तो खावे के लिये ही तो हैं ।
जाओ फल खाओ ……..कन्हैया नें बड़ी सहजता में कह दियो ।
वहाँ असुर रहे है …………….श्रीदामा बोल्यो ।
अरे ! तो दाऊ दादा तुम्हारे साथ है …………..कन्हैया नें अपनें दाऊ कूँ उकसाये दियो ……..चौं दाऊ दादा ! जाओ ………रक्षा करो इन सबकी !
दाऊ चल दिए …….आओ मेरे पीछे पीछे ……कोई असुर कछु न कर पावेगो………दाऊ चल पड़े आगे और पीछे सब ग्वाल बाल ।
मैं भी आऊँ दादा ? कन्हैया चिल्लाये जोर ते ।
नायँ रहन दे ………मैं अकेलो ही पर्याप्त हूँ ………दाऊ चले गए थे ।
खाओ ! खाओ ! ताल वृक्ष के मीठे फल !
शेषावतार दाऊ नें सब ग्वालों से तालवन पहुँचते ही कह दिया था ।
खानें लगे फल ……….सब निश्चिन्त होकर खानें लगे थे ।
कन्हैया नें भी विचार किया ….अकेले यहाँ क्या रहूँ …..चलूँ मैं भी ।
कन्हैया भी आगये ……….और कन्हैया को देखकर तो सब और प्रसन्नता से उछल पड़े ………खूब खानें लगे थे फल ।
पर –
ये भयानक आवाज कहाँ से आरही है ! ग्वालों का फल खाना एकाएक रुक गया था ………क्यों की “ढेंचू ढेंचू” की ये आवाज इतनी भयानक थी कि चारों दिशाएँ कम्पित हो रहीं थीं ।
सामनें से एक विशाल गधा ………..धूल उड़ाता हुआ ………और धूल इतनी उड़ रही थी …..कि कोई किसी को देख नही पा रहा था ।
कन्हैया जोर से चिल्लाये – दादा !
सावधान हुए शेषावतार दाऊ……….सामनें आकर खड़ा हो गया था वो असुर ………जो गधे के रूप में था ।
दाऊ विद्युत गति से मुड़े ……..उस धेनुक नामक गधे के पैरों को जोर से पकड़ा ………….और संकर्षण बलभद्र नें चारों दिशाओं में उसे घुमाकर फेंक दिया.।
……….कन्हैया नें ताली बजाई ……..
क्यों की बलराम जी नें उसका एक ही बार में वध कर दिया था ।
पर कन्हैया अब अतिप्रसन्न हैं …………और ये देखकर तो और प्रसन्न हुये …….कि देवताओं नें उनके दाऊ भैया के ऊपर पुष्प बरसाए थे ।
ग्वाल सखाओं नें आनन्दित होकर खूब फल खाये …….पेट भरकर फल खाये …….अब ये वन असुर से मुक्त हो चुका था …इस बात की सबको प्रसन्नता थी ……विशेष प्रसन्नता तो हमारे नन्दनन्दन को हुयी ।
“बहुत बडौ काम कियो दाऊ दादा नें”………..वापस लौट रहे हैं वृन्दावन ते अपनें घर की ओर कन्हैया ………….क्या सुन्दर रूप है या समय कन्हैया कौ ………….मुस्कुरा रहे हैं …….कानन में कुण्डल नही हैं …….पर कुण्डल के स्थान पर कदम्ब के पुष्प हैं …………बैजयन्ति की अद्भुत सुगन्धित माला है …..जो उनके घोंटुन तक झूल रही है ।
फेंट में बाँसुरी है ………पीताम्बरी हवा के झौंकन ते हिल रही है ।
वाह ! वाह ! क्या बडौ काम कियो है आज हमारे दाऊ दादा नें ।
कन्हैया हँसते भये सबकूँ बताय रहे हैं ……………..दाऊ दादा फूल के कुप्पा है गए …………..
पतो है दाऊ दादा नें कितनौ बडौ काम कियो ?
फिर हँसते हुये उस बात कौ दोहराते हैं .कन्हैया ।
कहा कियो ? हमैं भी तो बताओ ? मनसुख आनन्द ले रह्यो है ।
“एक गधा कूँ मार दियो “
जे कहते भये जोर जोर ते हँस रहे हैं कन्हैया ……………सब हंसवे लगे……..मनसुखादि तो लोट पोट है गए धरती में ।
“वो कोई साधारण गधा नही था” ……….दाऊ दादा को इस तरह इन सबका हँसना अच्छा नही लग रहा ।
पर दादा ! गधा तो गधा ही था ……और तुमनें एक गधा कूँ मार दियो ……बहुत बडौ काम कियो है ……….ये कहते हुए फिर सब हँसनें लगे ।
तू चल ! मैं बताऊँ तोहे ………..मोहे छेड़ रह्यो है ?
दाऊ गुस्सा है रहे हैं ………………
तात ! ये सब इस तरह आनन्द लेते हुए …….हँसी विनोद करते हुए नन्दभवन में लौट आये थे ।
उद्धव नें विदुर जी को बताया ।