
(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 69)
!! नन्दीश्वर पर्वत !!
गिरिराज गोवर्धन को दाहिनी ओर करके बृषभान जी के साथ बृजराज श्री नन्द जी , नन्दीश्वर पर्वत की ओर चल दिए थे ………
और पीछे पीछे सारे गोप ग्वाल, गोपी , गौएँ सब ।
क्या दिव्य शोभा थी गिरिराज की ………
अपलक नयनों से कन्हैया गोवर्धन के शिखर को देखते चल रहे थे ।
ये पर्वत भगवान नारायण का स्वरूप है…….महर्षि शाण्डिल्य नें बृजराज को बताया …….ये सुनकर बृजराज की श्रद्धा गिरी गोवर्धन के प्रति ओर बढ़ गयी , और बड़े प्रेम से हाथ जोड़कर प्रणाम किया था बृजराज नें ।
तीनों देव यहीं वृन्दावन में ही वास करते हैं ……..महर्षि प्रसन्नचित्त से ये बात कहते हुए चल रहे थे ।
कैसे भगवन् ! बृजराज नें प्रश्न भी किया ।
बृषभान जी भी बड़ी श्रद्धा से सुन रहे हैं महर्षि की बातें ।
गोवर्धन पर्वत ये नारायण स्वरूप हैं…….और जहाँ बृषभान जी रहते हैं ….जिस पर्वत की तलहटी में ये रहते हैं …….इनका महल है …..उस पर्वत का नाम है “ब्रह्माचल पर्वत” …..वो ब्रह्मा जी का स्वरूप है ।
और नन्दीश्वर पर्वत जो इनके बरसाना के पास ही है ……..वो भगवान शंकर का स्वरूप है ।
महर्षि ! मैं चाहता हूँ कि उसी नन्दीश्वर पर्वत की तलहटी में बृजराज अपना महल बनावें …..और उसके आस पास की जितनी भूमि है …..और मित्र बृजराज को जितना चाहिये – मै दूँगा ………महर्षि को ये बात हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक बृषभान जी बोले थे ।
“आप जैसा उचित समझें” ……….बृजराज मुस्कुराते हुए बोले ।
बैल गाड़ियां चल ही रही थीं …..रथ अपनी गति से दौड़ ही रहे थे ।
गौएँ आनन्दित, और स्वतंत्रता अनुभव कर रही थीं ।
भगवान शंकर अति आनन्दित हैं…….और क्यों न हों स्वयं परब्रह्म श्रीकृष्ण चन्द्र उनके यहाँ रहनें के लिये पधारे थे ।
शनिदेव तो इसी दिन की प्रतीक्षा में ही थे ……….कि कब हमारे यहाँ श्रीकृष्ण चन्द्र जु पधारेंगे …….और आज वो सुदिन आही गया था ।
मणिमाणिक्य सब प्रकट कर दिए थे शनिदेव नें ।
यक्ष लोक में कुबेर के पुत्रों नें जाकर श्रीकृष्ण के बारे में सब बताया था ……”जीवन का लक्ष्य मात्र श्रीकृष्ण प्रेम ही हो सकता है”…………
और भी बहुत कुछ बताया था नलकूबर, मणिग्रीव नें अपनें पिता कुबेर को ………ये सब सुनकर दर्शन के लिये कुबेर अपनें यक्ष लोक से पधारे ……….और बृजरानी के क्रोड में खेलते नन्दनन्दन के दर्शन करके अत्यधिक आनन्द की अनुभूति करनें लगे थे ।
ये है नन्दीश्वर पर्वत ।
……बैल गाड़ियाँ रोक दी गयीं …….रथों को रोक दिया गया ………गौओं को बड़े प्रेम से चारा इत्यादि खिलाया जानें लगा ।
हे मित्र बृजराज ! यही है नन्दीश्वर पर्वत ………बृजराज और ब्रजेश्वरी नें जब देखा…….तो दोनों नें ही झुक कर उस पर्वत को भगवान शंकर का स्वरूप मानकर प्रणाम किया था ।
पर आनन्दित तो भगवान शंकर भी हुए थे…….उन्होंने भी कन्हैया के माता पिता को वन्दन किया ।
यहाँ आप अपना महल बनावें……….बृषभान जी नें कहा ।
महर्षि शाण्डिल्य नें मुस्कुराकर उस स्थान में महल बनानें का अनुमोदन किया – बृजराज से ।
“और इसके आस पास का जितना क्षेत्र है सब आपका……..”
उदारमन से बृषभान जी बोले ।
आप चाहें तो पास में ही वो भूमि जो दिखाई दे रही है ……..वहाँ अपना “कोषागार” बना सकते हैं…….क्यों कि वो दिशा कुबेर की है ।
बृषभान जी के ये सब दिखानें के बाद……….कुबेर उसी स्थान पर जाकर बैठ गए थे ……जहाँ नन्द महाराज कोषागार बनानें वाले थे ।
उपनन्द जी नें नन्दीश्वर स्थान को देखा……हरियाली थी ……पास में ही यमुना बह रही थीं…….वन प्रदेश अत्यन्त मोहक था ……..पक्षियों का कलरव निरन्तर कर्ण रंध्रों को सुख पहुँचा रहा था ।
उपनन्द जी बहुत प्रसन्न हुए ………….ग्वालों को आदेश दिया ……..बैलों को निकाल कर गाड़ियों को एक तरफ पँक्ति बद्ध लगा दो ।
और उनके ऊपर सुन्दर वस्त्र तान दो…….उसे सजा दो…….उसी में आज की रात्रि हम सब रहेंगे ।
उपनन्द जी बोले –
आज की रात्रि इस तरह से बिताई जाए ……….कल देखेंगे कि क्या किया जा सकता है ……………उपनन्द जी नें प्रसन्नता पूर्वक ये बात कही …….और उन समस्त ग्वालों से भी पूछा …….आप लोगों को कुछ कहना हो तो कह सकते हो ………..
हे उपनन्द जी ! हम आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि ……..जहाँ हम आज अपनें छकडे सजाकर रखेंगे…….रहेंगे आज की रात …….वहाँ से हमें कल न हटाया जाए…..हमारा भवन उसी स्थान पर ही बनेगा ।
उपनन्द जी हँसे……ए मेरे भोले बृजवासियों ! हमनें कभी भेद नही किया कि हम राजा हैं और आप लोग हमारी प्रजा हो…..हम सब एक ही हैं…..कोई भेद नही है…………..आप लोगों की जहाँ
इच्छा हो……वहीँ अपनें छकडे लगाइये ……और वहीँ आपका भवन भी कुछ काल बाद बन ही जाएगा ।
बोलो ! वृन्दावन धाम की ….जय !
प्रसन्नता से उछल पड़े थे बृजवासी ।
अब सब अपना अपना स्थान खोजनें लगे ………..नन्द महल के पास ही हम रहेंगे …………कोई कहता है ………हम तो ऐसी जगह रहेंगे जहाँ से नन्दनन्दन दिखाई देते रहें ………कोई कहता है ……हमें वो जगह दे दो …….क्यों की खेलनें के लिये वहाँ आएगा नन्द लाल ।
बृजराज हँसते हैं……..सब हमारे महल में ही आजाना ।
बृषभान जी हँसते हैं………सब आनन्दित हैं ……गोकुल की किसी को याद भी नही आरही…….अपनें अपनें छकडे को सजा कर उसमें अपनी सामग्रियों को रखकर ……….बृजगोपीयाँ मटकी लेकर चलीं यमुना से जल भरनें …..अब भोजन भी तो बनाना है ।…..गोप भी वृन्दावन की शोभा देखना चाहते हैं ……वो भी चले गए ।
कन्हैया कैसे रह जाते ………..बलभद्र, मनसुख, मधुमंगल ,भद्र, तोक इन सबके साथ वन की शोभा देखनें निकल पड़े थे कन्हैया ।