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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 69

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 69)

!! नन्दीश्वर पर्वत !!


गिरिराज गोवर्धन को दाहिनी ओर करके बृषभान जी के साथ बृजराज श्री नन्द जी , नन्दीश्वर पर्वत की ओर चल दिए थे ………

और पीछे पीछे सारे गोप ग्वाल, गोपी , गौएँ सब ।

क्या दिव्य शोभा थी गिरिराज की ………

अपलक नयनों से कन्हैया गोवर्धन के शिखर को देखते चल रहे थे ।

ये पर्वत भगवान नारायण का स्वरूप है…….महर्षि शाण्डिल्य नें बृजराज को बताया …….ये सुनकर बृजराज की श्रद्धा गिरी गोवर्धन के प्रति ओर बढ़ गयी , और बड़े प्रेम से हाथ जोड़कर प्रणाम किया था बृजराज नें ।

तीनों देव यहीं वृन्दावन में ही वास करते हैं ……..महर्षि प्रसन्नचित्त से ये बात कहते हुए चल रहे थे ।

कैसे भगवन् ! बृजराज नें प्रश्न भी किया ।

बृषभान जी भी बड़ी श्रद्धा से सुन रहे हैं महर्षि की बातें ।

गोवर्धन पर्वत ये नारायण स्वरूप हैं…….और जहाँ बृषभान जी रहते हैं ….जिस पर्वत की तलहटी में ये रहते हैं …….इनका महल है …..उस पर्वत का नाम है “ब्रह्माचल पर्वत” …..वो ब्रह्मा जी का स्वरूप है ।

और नन्दीश्वर पर्वत जो इनके बरसाना के पास ही है ……..वो भगवान शंकर का स्वरूप है ।

महर्षि ! मैं चाहता हूँ कि उसी नन्दीश्वर पर्वत की तलहटी में बृजराज अपना महल बनावें …..और उसके आस पास की जितनी भूमि है …..और मित्र बृजराज को जितना चाहिये – मै दूँगा ………महर्षि को ये बात हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक बृषभान जी बोले थे ।

“आप जैसा उचित समझें” ……….बृजराज मुस्कुराते हुए बोले ।

बैल गाड़ियां चल ही रही थीं …..रथ अपनी गति से दौड़ ही रहे थे ।

गौएँ आनन्दित, और स्वतंत्रता अनुभव कर रही थीं ।

भगवान शंकर अति आनन्दित हैं…….और क्यों न हों स्वयं परब्रह्म श्रीकृष्ण चन्द्र उनके यहाँ रहनें के लिये पधारे थे ।

शनिदेव तो इसी दिन की प्रतीक्षा में ही थे ……….कि कब हमारे यहाँ श्रीकृष्ण चन्द्र जु पधारेंगे …….और आज वो सुदिन आही गया था ।

मणिमाणिक्य सब प्रकट कर दिए थे शनिदेव नें ।

यक्ष लोक में कुबेर के पुत्रों नें जाकर श्रीकृष्ण के बारे में सब बताया था ……”जीवन का लक्ष्य मात्र श्रीकृष्ण प्रेम ही हो सकता है”…………

और भी बहुत कुछ बताया था नलकूबर, मणिग्रीव नें अपनें पिता कुबेर को ………ये सब सुनकर दर्शन के लिये कुबेर अपनें यक्ष लोक से पधारे ……….और बृजरानी के क्रोड में खेलते नन्दनन्दन के दर्शन करके अत्यधिक आनन्द की अनुभूति करनें लगे थे ।

ये है नन्दीश्वर पर्वत ।

……बैल गाड़ियाँ रोक दी गयीं …….रथों को रोक दिया गया ………गौओं को बड़े प्रेम से चारा इत्यादि खिलाया जानें लगा ।

हे मित्र बृजराज ! यही है नन्दीश्वर पर्वत ………बृजराज और ब्रजेश्वरी नें जब देखा…….तो दोनों नें ही झुक कर उस पर्वत को भगवान शंकर का स्वरूप मानकर प्रणाम किया था ।

पर आनन्दित तो भगवान शंकर भी हुए थे…….उन्होंने भी कन्हैया के माता पिता को वन्दन किया ।

यहाँ आप अपना महल बनावें……….बृषभान जी नें कहा ।

महर्षि शाण्डिल्य नें मुस्कुराकर उस स्थान में महल बनानें का अनुमोदन किया – बृजराज से ।

“और इसके आस पास का जितना क्षेत्र है सब आपका……..”

उदारमन से बृषभान जी बोले ।

आप चाहें तो पास में ही वो भूमि जो दिखाई दे रही है ……..वहाँ अपना “कोषागार” बना सकते हैं…….क्यों कि वो दिशा कुबेर की है ।

बृषभान जी के ये सब दिखानें के बाद……….कुबेर उसी स्थान पर जाकर बैठ गए थे ……जहाँ नन्द महाराज कोषागार बनानें वाले थे ।

उपनन्द जी नें नन्दीश्वर स्थान को देखा……हरियाली थी ……पास में ही यमुना बह रही थीं…….वन प्रदेश अत्यन्त मोहक था ……..पक्षियों का कलरव निरन्तर कर्ण रंध्रों को सुख पहुँचा रहा था ।

उपनन्द जी बहुत प्रसन्न हुए ………….ग्वालों को आदेश दिया ……..बैलों को निकाल कर गाड़ियों को एक तरफ पँक्ति बद्ध लगा दो ।

और उनके ऊपर सुन्दर वस्त्र तान दो…….उसे सजा दो…….उसी में आज की रात्रि हम सब रहेंगे ।

उपनन्द जी बोले –

आज की रात्रि इस तरह से बिताई जाए ……….कल देखेंगे कि क्या किया जा सकता है ……………उपनन्द जी नें प्रसन्नता पूर्वक ये बात कही …….और उन समस्त ग्वालों से भी पूछा …….आप लोगों को कुछ कहना हो तो कह सकते हो ………..

हे उपनन्द जी ! हम आपसे प्रार्थना कर रहे हैं कि ……..जहाँ हम आज अपनें छकडे सजाकर रखेंगे…….रहेंगे आज की रात …….वहाँ से हमें कल न हटाया जाए…..हमारा भवन उसी स्थान पर ही बनेगा ।

उपनन्द जी हँसे……ए मेरे भोले बृजवासियों ! हमनें कभी भेद नही किया कि हम राजा हैं और आप लोग हमारी प्रजा हो…..हम सब एक ही हैं…..कोई भेद नही है…………..आप लोगों की जहाँ
इच्छा हो……वहीँ अपनें छकडे लगाइये ……और वहीँ आपका भवन भी कुछ काल बाद बन ही जाएगा ।

बोलो ! वृन्दावन धाम की ….जय !

प्रसन्नता से उछल पड़े थे बृजवासी ।

अब सब अपना अपना स्थान खोजनें लगे ………..नन्द महल के पास ही हम रहेंगे …………कोई कहता है ………हम तो ऐसी जगह रहेंगे जहाँ से नन्दनन्दन दिखाई देते रहें ………कोई कहता है ……हमें वो जगह दे दो …….क्यों की खेलनें के लिये वहाँ आएगा नन्द लाल ।

बृजराज हँसते हैं……..सब हमारे महल में ही आजाना ।

बृषभान जी हँसते हैं………सब आनन्दित हैं ……गोकुल की किसी को याद भी नही आरही…….अपनें अपनें छकडे को सजा कर उसमें अपनी सामग्रियों को रखकर ……….बृजगोपीयाँ मटकी लेकर चलीं यमुना से जल भरनें …..अब भोजन भी तो बनाना है ।…..गोप भी वृन्दावन की शोभा देखना चाहते हैं ……वो भी चले गए ।

कन्हैया कैसे रह जाते ………..बलभद्र, मनसुख, मधुमंगल ,भद्र, तोक इन सबके साथ वन की शोभा देखनें निकल पड़े थे कन्हैया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 68

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 68)

!! गिरी गोवर्धन पर बृषभान जी का आगमन – “वृन्दावन यात्रा” !!


दिव्य है वृन्दावन, अनादि है वृन्दावन , सच कहूँ तो वृन्दावन का नाम स्मरण भी कोई कर ले तो “श्रीकृष्ण कृपा” का भाजन वो प्राणी हो जाता है ।…… ..वृन्दावन , ऐसा कोई पुकारे भी तो श्रीराधा उसे अपनाकर, श्रीकृष्ण प्रदान कर देती हैं ………वृन्दावन तीर्थ नही है तात ! ये पुरी नही है ……ये चार धामों में भी कहाँ आता है …….ये तो नित्य निकुञ्ज है श्रीराधा श्याम सुन्दर का ………यहीं विहार है…..सत्य और प्रेम का ……यहीं विहरते हैं आनन्द और प्रेम …….यह भूमि ही चैतन्य है ………..तात ! यहाँ प्रवेश करते ही आनन्द सिन्धु में अवगाहन करनें लगता है प्राणी……….ये श्रीधाम वृन्दावन है ।

हाँ ……वृन्दावन बृहद है ……….वृन्दावन में ही गिरी गोवर्धन भी है ……बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) भी है ………….यमुना भी हैं ………..ये “बृहद वृन्दावन” हुआ ।……एक वृन्दावन है “गोष्ठ वृन्दावन” ….जो गोचर भूमि है ….जहाँ अब गौचारण करेंगे कन्हैया ……….और एक वृन्दावन है ……. “सरस वृन्दावन” ……जहाँ प्रेम का रस सदैव बहता है ……और अपनी प्रिया श्रीराधारानी से प्रेमालाप में लीन रहते हैं श्याम सुन्दर ।

वृन्दावन , वृन्दावन, वृन्दावन ….

..तीन बार ऊँची साँस लेते हुए उद्धव नें इन नामों का उच्चारण किया ।

विदुर जी गहरे आनन्द सिन्धु में डूब चुके थे ।

ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया है ……सब बृजवासी जाग गए हैं ।

स्नानादि से शुद्ध होकर सन्ध्या इत्यादि में लग चुके थे बृजराज ।

भगवान नारायण की पूजा अर्चना करके अब ध्यान कर रहे हैं ।

कोई गोप स्नान करनें जा रहा है यमुना …….तो कोई स्नान करके आगया है ……बड़े बड़े नाविक खड़े हैं नावों को लेकर ……अब ये सब यमुना पार जायेंगे ………।

देवी ! अभी मत जगाना कन्हैया को ……….क्यों की पहले गौ इत्यादि पार होंगीं उसके बाद नौकाओं का सेतु बनेगा बैल गाड़ियाँ उस सेतु से होकर गुजरेंगी…उसमें अभी समय लगेगा……..बृजराज नें पूजा अर्चना से निवृत्त होकर ब्रजेश्वरी से कहा था ।

पर “कृष्ण बलराम तो जल क्रीड़ा कर रहे हैं”……….इनके जगे हुए तो घड़ी भर से भी ज्यादा हो गया …..बृजरानी नें दिखाया ।

छपाक , छपाक ………कई सखाओं के साथ ……….राम कृष्ण जल में खेल रहे हैं…….जल क्रीड़ा में उनकी शोभा अलग ही बन रही है ।

सारी गोपियाँ भी वहीँ आकर खड़ी हो गयीं …………और अपनें नयनों को शीतल करनें लगीं कन्हैया को देखकर ……….ग्वाले भी अब इधर ही आने लगे थे ………..अपनें प्राण धन कन्हाई को देखनें ……….

पर हँसते हुये उपनन्द जी नें कहा ……….ग्वालों ! इधर आओ …….उधर मत जाओ ……..मुझे पता है ……नन्दनन्दन को देखनें के बाद तुम लोग किसी काम के ही नही रहते ……..इसलिये इधर आओ ….और पहले गौओं और बृषभ – इनको यमुना के पार पहुँचाओ ।

उपनन्द जी की बात सबनें सुनी और …..चलो ! चलो ! गायों को पहुँचाना है परली पार ………चलो ! ये कहते हुए सहस्रों ग्वाले यमुना में उतर गए ………..और गायों को आगे किया ………उनके पीछे उनके बछड़ों को …………गायें निश्चिन्त होकर जा रही हैं …..निर्भर तो गौ के बछड़े हैं ……..क्यों की उनकी माँ उनके आगे ही है ।

“सम्भाल कर …..गौएं यमुना में बहनी नही चाहियें” ……….

मनसुख जल में कन्हैया के साथ खेलते हुए ही चिल्ला उठा था ।

कन्हैया भी मनसुख की नकल करके चिल्लाये ………..गौएँ यमुना में बहनी नही चाहिए …………..बलभद्र भी चिल्लाये ………..सखा सब यही बोल कर चिल्ला रहे हैं ………वो शोभा देखते ही बनती थी ।

कुशल तैराक हैं ……..जो छोटी बछिया है …….उसे कन्धे में रख कर पार कराया जा रहा है ….तैराकों के द्वारा ।

सब ग्वाल सखा और कन्हैया, इस दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न हैं ।

पर गौएँ भी बहुत प्रेम करती हैं अपनें गोपाल से ……….पार जाना चाहिए …… कोई कोई गौएँ तो कन्हैया के पास आरही हैं ।

सम्भाल लेते ग्वारिया गायों को …..और “हियो हियो, हियो, यही ध्वनि करते हुए गायों को पार लगा लिया ।

समय लगा …….पर सारी की सारी गौएँ बछिया बछडे बैल, सब पार हो गए…….तात ! पार लगते ही ये तो पूँछ उठाकर भांगी ।

उनके पीछे बछड़े ……..उन्मत्त होकर कूद रहे हैं इस भूमि में ।

चलो अब ! स्वास्थ बिगड़ जाएगा लाला ! चलो ! निकलो यमुना से ……मैया बृजेश्वरी नें डाँटा उसके बाद भी देरी से ही, यमुना से निकले ये लोग ।

केश सुखाये हैं लाला के और दाऊ के भी मैया नें ।

सुगन्धित तैल लगा दिया है………सुन्दर वस्त्र धारण कराये हैं …….

भगवान नारायण की प्रसादी केशर का चन्दन माथे पर ……….कार्तिक मास बीतनें वाला है …..इसलिये शीतल हवा चल रही है ……मैया नें काली कामरी आज पहली बार लाला को ओढाई ………मोतियों से जड़ी हुयी कामर थी वो ……..जब कन्हैया नें ओढ़ी ……..तात ! अद्भुत शोभा लग रही थी उस समय श्याम की ।

गोपियां देख रही हैं इस काली कामर वाले को ………..और इस रूप माधुरी में सब कुछ लुटानें का मन कर रहा है इन सबका ।

उधर सेतु का निर्माण करने में सब कुशल कारीगर लग गए हैं …….व्यवस्था स्वयं बृजराज और उपनन्द जी देख रहे हैं ।

नावों को पंक्तिबद्ध करके लगाया गया था ……….उन्हें रस्सियों से …..मूँज से ………. कस कर एक दूसरे से बाँधा गया था ।

कुछ ही देर में सेतु बनकर तैयार यमुना के ऊपर ।

अब तो बैल गाड़ियाँ निकलनें लगीं ……….लोग उसमें भी बैठे …..कुछ लोग पैदल ही सेतु से जा रहे हैं …….कुछ ग्वाले हैं जो मल्ल हैं …..वो कूद गए हैं यमुना में …………और तैरते हुए निकल गए हैं ।

इस तरह रविनन्दिनी यमुना को पार किया समस्त बृजवासियों नें ।

चारों ओर जयजयकार हो रही है श्री वृन्दावन धाम की ।

चलते चलते सामनें गिरी गोवर्धन पर्वत के दर्शन हुए सभी बृजवासियों को ……उस पर्वत से झरनें बह रहे थे ……..असंख्य मोर नाच रहे थे ……अद्भुत प्रेम की ऊर्जा से भरा हुआ था ये पर्वत …….।

कन्हैया दौड़े …………..कन्हैया के पीछे दाऊ , फिर तो सारे ग्वाल बाल दौड़ पड़े उस पर्वत की ओर ।

पर कोई इस बात को समझ न पाया …………साष्टांग प्रणाम किया था पाँच वर्ष के कन्हैया नें उस पर्वत को ।

तभी एक रथ आकर रुका वहीँ ……………बृजवासी देख रहे हैं …….सोच रहे हैं …..ये रथ किसका है ? और कौन आया है ?

उस रथ से बृजराज के परम मित्र बृषभान जी उतरे ।

बढ़कर , अतिआनन्द से – दोनों मित्र गले लगे ।

हम कहाँ रहें ? हमें बताओ हे बृषभान ! सूचना तो मैने आपको भिजवा ही दी थी ……….कि कंस का अत्याचार चरम पर है ……..इसलिये हमें गोकुल त्यागना पड़ा ……..आये हैं यहाँ वृन्दावन में ……..अब कहाँ आप हमें बसाओगे वो बताओ ।

मित्र बृजराज ! आपका ही है वृन्दावन …….आपको जहाँ सुखपूर्वक रहनें की इच्छा हो आप वहीँ रहें ………वैसे ? कुछ सोचकर बृषभान जी बोले – यहाँ पास में ही नन्दीश्वर पर्वत है ……….उस पर्वत की तलहटी में ही आपका महल बन जाएगा ……..और सम्पूर्ण क्षेत्र में आप अपनी प्रजा को बसा लीजियेगा …….फिर अति प्रसन्न होते हुये बृषभान जी बोले…….मैं आपके साथ सदैव हूँ बृजराज ।

आपके शरण में आये हैं हम सब ………….विनोद में बृजराज नें कहा और अपनें मित्र को हाथ भी जोड़ा ।

ये विनोद अच्छा नही था .बृजराज ! ……..ये कहते हुए बृषभान जी उन्मुक्त हँसें ।

कीर्ति भाभी कैसी हैं ? बृजरानी नें बृषभान जी से पूछा ।

आप लोगों की प्रतीक्षा में ही है वो भी……..बृषभान जी का उत्तर था ।

और राधा बेटी ?

राधा ! आहा ! ये नाम कन्हैया नें सुना …………….राधा !

ठीक है भाभी जी ! राधा बेटी भी ठीक है ……..चार वर्ष की हुयी है अभी ………..हाँ लाला से एक वर्ष छोटी है ……….बृजरानी नें कहा ।

और आपका लाला ? बृषभान जी नें पूछा ।

ये रहा ………..जैसे ही दिखानें लगीं ………….

लाला ! लाला !

यहीं तो था कहाँ गया ?

एकाएक कहाँ गया ? सब लोग इधर उधर ढूंढनें लगे थे ।

पर कन्हैया तो….गोवर्धन पर्वत के नीचे बैठकर….आँखें बन्दकर के –

राधा ! राधा ! राधा ! राधा !

इन नामों का बड़े प्रेम से उच्चारण कर रहे थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 66

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 66)

!! “प्रेम का अद्भुत उदाहरण” – बृजवासी !!


क्या प्रेमी अज्ञानी होता है ?

ये प्रश्न विदुर जी का था ।

नहीं तात ! सच्चा ज्ञानी तो प्रेमी ही होता है ……बल्कि ज्ञानी से भी बड़ा होता है …….बात ये है कि …….भगवान की भगवत्ता और भक्तवत्सलता देखकर ज्ञानी तो आनन्दित हो उठते हैं ……पर प्रेमी के चित की कुछ और स्थिति हो जाती है ………ज्ञान प्रेम के उत्कर्ष को पाकर अभिभूत हो उठता है । तात ! सामान्य जीवन में भी प्रेम के आगे व्यवहारिकी ज्ञान दव जाता है……ये देखा गया है ! उद्धव जी बोले ।

ज्ञान की ऊँचाई ही प्रेम है…..क्यों की प्रेमी समझ जाता है कि…..मेरा प्रियतम ही मेरा सर्वस्व है…..वही सत्य है ,बाकी सब मिथ्या है झुठ है ।

पर बृजवासियों का प्रेम और अद्भुत है ……..आनन्द रस का दान कर रहे हैं कन्हैया………अभिभूत हैं समस्त बृजवासी……..पर इस आनन्द रस में उन बृजवासियों का जो ज्ञान है वो अगर रस समुद्र में डूब कर अभिभूत हो जाए तो इसमें आश्चर्य क्या ?

तो प्रेम सबसे बड़ा है ? विदुर जी नें पूछा ।

हाँ …….निःसन्देह तात ! उद्धव बोले ।

पर इन बृजवासियों का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है ….. उद्धव बड़े ठसक से बोले ।

कैसे ? कुछ बताओगे उद्धव ?

उद्धव मुस्कुराये और बतानें लगे थे ।

दूसरे दिन ही एक विशाल सभा लगी गोकुल में……….

बृजराज उस सभा के मुखिया थे……….इनके आठों भाई भी वहाँ उपस्थित थे………गोकुल के सब सम्माननीय व्यक्तित्व उस सभा की शोभा बढ़ा रहे थे ……महर्षि शाण्डिल्य पौर्णमासी इन सबका भी उच्च आसन था और ये उस आसन में विराजमान थे ।

सबसे प्रथम उपनन्द जी को बोलनें के लिये कहा गया………..

“मुझे लगता है गोकुल के अधिदेवता चले गए”…..उपनन्द बोल रहे थे ।

आप ये क्या कह रहे हैं ? उपनन्द जी से सभा में ही पूछा ।

हाँ ……..वो अर्जुन नामक वृक्ष ………उसके भीतर अधिदेवता रहते थे ………”तोक बालक” की बातों को हमें विस्मृत नही करना चाहिये ।

तोक बताओ तो ………क्या हुआ था वहाँ ? जब वृक्ष टूटे ?

तोक नें खड़े होकर कहा ……वृक्ष गिरे और उसमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट होकर फिर अंतर्ध्यान हो गए !

बैठो तोक ! उपनन्द जी नें बिठा दिया ।

वो अधिदेवता थे ……….और जिस भवन का, गाँव का, नगर का अधिदेवता ही चला जाए तो वहाँ रहना नही चाहिये ……..

क्या होगा ? एक बूढ़े ग्वाले ने खड़े होकर पूछा ।

अनिष्ट , अज्ञात हिंसा, प्रिय जन की हानि, भय, ये सब बना रहता है ।

उपनन्द जी नें सबको बताया …….और हाथ जोड़कर महर्षि शाण्डिल्य से भी पूछा …….ऋषिवर ! मैं ठीक कह रहा हूँ ना ?

महर्षि नें सिर “हाँ” में हिलाया था ।

देखिये ! राक्षसों का अत्याचार चरम पर है …………कंस नें अपनें यहाँ जमावड़ा लगा रखा है राक्षसों का ……..सम्पूर्ण पृथ्वी के राक्षसों का पालनहार बन बैठा है कंस ………….इसलिये ……….

पर हम अहीर हैं ……वीर हैं ….डरते नही हैं ……….ग्वालों के एक समूह नें अपनी अपनी लाठियां उठाईँ …………….

सुनो ! सुनो ! मुझे पता है हम वीर हैं ……लाठियों से भी हम कंस के राक्षसों का मुकाबला कर जायेंगें…….पर युद्ध प्रत्यक्ष हो तब ना ?

वो तो अप्रत्यक्ष युद्ध कर रहा है …….तुमनें देखा नही ……..पूतना, कागासुर, श्रीधर , शकटासुर ……..ये सब !

“पर हम डर कर भाग नही सकते”…….ग्वालों नें एक साथ हुंकार भरी ।

पर “बृजराज के लाल” को कुछ हो गया तो ?

उपनन्द जी नें ये बात कह दी थी ।

तात ! समस्त ग्वाला समाज काँप गया ……..ओह ! नही ….हमारे प्राण भले ही चले जाएँ …….पर कन्हैया को कुछ नही होना चाहिये ।4

सम्पूर्ण समाज एक स्वर में बोला ।

हम अपनें रक्त का एक एक बून्द बहा देंगें अपनें कन्हैया के लिये …….

पर संकट बना ही रहेगा……..और वृक्षों के गिरनें से इस गाँव का अधिदेवता भी तो चला गया है !

एक बूढी गोपी उठी……..तुम कब तक लाठी लेकर खड़े रहोगे …….पूतना की तरह कोई राक्षसी आई ……..और अपनें कन्हैया को मार कर चली गयी तो ?

ए बुढ़िया ! शुभ शुभ बोल …… सब ग्वाले आक्रोशित हो उठे थे ।

काल से भी भीड़ जायेंगें हम कन्हाई के लिए……..ग्वालों में आक्रोश बढ़ गया था ।

हमारे लाला पे कोई हाथ तो रखकर दिखाये……..काट के फेंक देंगें ।

ग्वाले कन्हैया के बारे में ऐसा वैसा कैसे सुन लेते ?

“हम दूध दही मथुरा भेजना बन्द करते हैं”…….सभा में ग्वालों का एक वर्ग ये भी कहनें लगा ।

शान्त रहो ! सब शान्त रहो………

“हमें इस गोकुल को त्यागना होगा”……….महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ।

ग्वाले एक दूसरे का मुँह देखनें लगे……….

हाँ ………..बृजराज और बृजरानी अपनें लाला को लेकर वृन्दावन जाकर रहें ……..क्यों कि बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) के राजा बृषभान जी बृजराज के मित्र भी हैं………वो स्थान दे देंगे ।

ये गलत है ……ऐसा नही होगा……..सम्पूर्ण सभा चिल्ला उठी ।

क्या गलत है ? क्या बृजराज को न भेजा जाए वृन्दावन ? क्या उनके पुत्र को यहीं कंस के द्वारा ……महर्षि शाण्डिल्य पूरा बोल भी नही पाये थे कि ….सभा उठ गयी …….सब ग्वालों नें अपनी अपनी लाठियां लहराए आकाश में……..

गलत ये है महर्षि ! कि हम नन्दलाल के बिना रह जाएँ ……..इसलिये हम सब जाएंगे………..

क्या ? बृजराज उठ गए सभा में बोलनें के लिये ।

हाँ …….गोकुल गाँव का हर व्यक्ति जाएगा वृन्दावन……..

सबनें यही कहा…………..एक स्वर में ।

“जाकर आजाना वापस गोकुल” ………..बृजराज नें कहा ।

नही ………हम वहीं रहेंगे……..हमारे राजा हैं आप नन्दराय ! ……हमें कैसे छोड़ सकते हैं……..हमारा युवराज कन्हैया है …..वो हमारा प्राण है …….हमारा ही नही समस्त बृज का प्राण है वो……वो जहाँ रहेगा हम सब भी वहीँ रहेगें ।

बृजराज नें हर्षित होते हुए कहा…….फिर चलो ! सब चलो वृन्दावन ………जब तक भवन की व्यवस्था नही होती तब तक हम लोग बैल गाडी को ही सजाकर उसमें रहेंगे ।

समस्त ग्वाल समाज नें आनंदित होकर करतल ध्वनि की …….

हम सब जायेंगे वृन्दावन……..चलो ! अब वृन्दावन ।

सभा को यही विराम दे दिया गया था ।

तात ! ये कैसा अद्भुत प्रेम है …………विलक्षण प्रेम है ।

अपनें गाँव को कोई त्याग सकता है भला ! अपनें पीढ़ीदर पीढ़ी के आवास निवास को कोई त्याग सकता है भला !…..पर कन्हैया के लिये – जो समस्त गोकुल का प्राणप्यारा था ….सबका दुलारा था उसके लिये इन बृजवासियों नें अपना गाँव, अपना आवास सब कुछ छोड़ दिया……..ये प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है तात !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 67

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 67)

!! वृन्दावन – यात्रा !!


कितनें सुन्दर लग रहे हैं सट कर सोते हुए बलराम कृष्ण ……

अपना एक हाथ बलराम नें अनुज कृष्ण के ऊपर रखा है …गहरी नींद में भी ।……..केशराशि बिखरी हुयी हैं ………कन्हाई करवट लेते हुए लिपट जाते हैं बलराम से ……..बलभद्र भी अपनें अनुज को अपनें में पाकर प्रसन्नता से भर उठे हैं …….और एक बार उठकर अपनें छोटे भाई को देखा है ……….फिर गले लगकर सो गए हैं ।

इन दोनों भाइयों के श्रीअंग से कमल की सुगन्ध निकल रही है ……गलती से भौरें गवाक्ष में आजाते हैं…….पर स्वयं को भ्रमित मानकर लौट भी जाते हैं ………।

ब्रह्म मुहूर्त का समय होने को है……पर अभी रात ही है ………..

महर्षि शाण्डिल्य नें ब्रह्म मुहूर्त का समय यात्रा का उचित बताया था ………देवी ! अब हम लोगों को निकलना चाहिये ।

बृजराज नें अपनी भार्या बृजेश्वरी से कहा ।

बाहर देखो देवी ! लक्षाधिक बैल गाड़ियाँ तैयार खड़ी हैं ………..सहस्त्र रथ भी हैं …………

हमारा रथ मध्य में रहेगा ……..ये ग्वालों का ही कहना है …………

ताकि हमारे बालको की रक्षा हो सके……….हमारे आस पास दण्ड चलानें वाले , और विशेष धनुष लिए मल्ल चलेंगे………..

बृजराज अपनी भार्या यशोदा को बता रहे थे वृन्दावन यात्रा के सम्बन्ध में ।

आगे आगे गौ चलेंगीं ……..बृषभ की संख्या अगनित है ………..ये सब हमारे धन हैं ………इनके पीछे हम चलेंगे ।

बृजरानी नें अपनें महल से बाहर देखा …………….अगनित बैल गाड़ियाँ , अगनित रथ और पैदल चलनें वाले भी बहुत थे ……….

सबनें अपनें सामानों को अपनी अपनी गाड़ियों में रख लिया था …….बालक बहुत प्रसन्न थे ………वो अपनी बैल गाड़ियों से उचक उचक कर देख रहे थे महल की ओर …….कि उनका कन्हैया कब आएगा….।

गोकुल त्यागनें का किसी के मन में दुःख नही था ………हर बृजवासी, चाहे वो गोप हो या गोपी , चाहे वो बालक हो या वृद्ध …..सबके मन में एक मात्र कन्हैया की ही चिन्ता थी …….तात ! चिन्ता थी इसलिये चिन्तन भी स्वाभाविक बन रहा था ।

देवी ! जाओ बालकों को उठा दो, देखो महर्षि शाण्डिल्य पधार रहे हैं ………शंख ध्वनि करेंगें वे और तब हमारी यात्रा वृन्दावन के लिए प्रस्थान करेगी ।

ठीक है………इतना कहकर बृजरानी भीतर महल में आगयीं थीं ।

सामान सब रख लिया गया है ……….मार्ग में कलेवा , फिर भोजन ये सारी व्यवस्था हो चुकी है ।

बलभद्र और कन्हाई सो रहे हैं …….गहरी नींद में हैं दोनों ………

पास में बैठ जाती हैं बृजरानी……..और दोनों बालकों को देखनें लग जाती हैं ………मुग्ध हैं………समय का भान कहाँ रहता है जब कन्हैया को कोई देखता है तो ।

जीजी ! क्या कर रही हो ? रोहिणी नें आकर झँकझोरा ।

बृजरानी घबड़ाई हुयी उठीं ………क्या हुआ ?

जीजी ! बाहर सब आपकी ही प्रतीक्षा में हैं ……..गोकुल के ग्वाल गोपी सब आगये हैं…….आप बालकों को लेकर आओ ……..

और हाँ जीजी ! कलेवा और भोजन की सारी व्यवस्था मैने देख ली है ………सब ठीक है ……अब आप शीघ्र पधारो बालकों को लेकर ।

इतना कहकर रोहिणी बाहर चली गयीं ।

मैं भी ना ! हँसते हुए अपनें सिर में एक हाथ मारा बृजरानी नें …….फिर बालकों को उठानें लगीं ……….पर इतनी जल्दी कैसे उठ जाएंगे ये दोनों ।

बोलती हैं, पुकारती हैं ……लाला ! ए लाला ! उठ !

ऊँ ऊँ ऊँ ……..फिर सो गए ।

दाऊ ! तू तो उठ जा ! तू उठेगा तो तेरा भाई भी उठ जाएगा……..

दाऊ को उठानें का प्रयास करती हैं…..पर दाऊ भी तो छोटे ही हैं………वो भी करवट बदलते हुए फिर सो गए ।

जीजी ! शीघ्र करो ………बाहर से फिर आवाज दी रोहिणी नें ।

रोहिणी ! तुम आजाओ एक बार……..बृजरानी नें जोर से कहा …….क्यों की दोनों बालकों को उठाना बृजरानी के लिये सम्भव नही है ……..

रोहिणी आईँ …………दाऊ को बड़े प्रेम से पुचकारते हुए गोद में ले लिया रोहिणी नें ……….

पर यशोदा नन्दन इतना सरल कहाँ है……..उठानें पर रोनें लगा …….बृजरानी नें कहा …….अभी तो दिन भी नही हुआ ………रात ही है …इतनी जल्दी क्या थी ! मन ही मन ये कहते हुये फिर – लाला ! उठ ! लाला ! उठ ! लाला ! “वृन्दावन” जाना है ।

तात ! जैसे ही नन्दनन्दन नें सुना – “वृन्दावन जाना” है ………नींद में भी इस श्रीधाम का नाम सुनते ही उठ गए……दाऊ दादा ! उठो ! चलो वृन्दावन……दाऊ रोहिणी की गोद में थे ……उनको उठानें लगे कन्हैया ।

अनुज के उठानें पर अग्रज दादा उठ गए ……….अपनें अनुज को देखकर मुस्कुराये ……….हाँ ……..चलो ! गोद से उतर कर बाहर भागे दोनों ……….”अरे ! मुँह तो धोलो”……….यमुना में नहा लेंगें मैया ! कन्हैया ही बोले थे ये ।

बाहर सब खड़े हैं ……..सखाओं नें जब देखा अपनें कन्हैया को ……ख़ुशी से झूम उठे ………गोपों नें निहारा कन्हैया को तो निहाल हो गए ….वृद्धों नें मन ही मन आशीष दिया कन्हैया को ………

मनसुख कन्हैया से सटकर चल रहा है ……ताकि उसे सब छू न लें ।

“मैने लाठी को रात भर तेल पिलाया है”………….मधुमंगल नें कान में कहा कन्हैया के ।

अच्छा ! कन्हैया लाठी को देखते हैं मधुमंगल की ।

कंस को देखते ही भाग जाएगा……लाठी को तेल पिलाएगा तू ।

मनसुख मधुमंगल के लिये बोला ।

“कंस की कपाल क्रिया कर दूँगा इसी लाठी से……समझ क्या रखा है तेनें” – मधुमंगल रोष करता है ।

गोपियां बाहर देख रही हैं बैल गाडी में बैठे बैठे…………

कोई कोई पूछ रही हैं ……..बृजरानी का रथ कहाँ है ……….वो किस तरफ बेठेंगीं ? ताकि ये कन्हैया को देख सकें ।

दूध कटोरा में ही लेकर आगयीं बृजरानी ……..सब गोकुल की महिलाएं एक साथ हँसी ……..तुम तो यहीं दूध ले आईँ रानी !

क्या करूँ ? ये लाला है ना ! मानता ही नही है ।

अब तुम इस रथ में बैठ जाओ …….रोहिणी और तुम …….लाला को अपनें साथ रखो ………बलभद्र मनसुख तोक ये सब तुम्हारे साथ में ही रहेंगे……..बृजराज नें ब्रजेश्वरी से कहा ।

और आप का रथ ? बृजेश्वरी नें पूछा ।

मैं तुम्हारे आगे हूँ ……….इस रथ से आगे का रथ मेरा है ।

ठीक है ……..ऐसा कहकर बृजरानी अपनें लाला को लेकर रथ में बैठ गयीं ….और कटोरा का दूध पिलानें लगीं …..बलभद्र भी बैठ गए …..रोहिणी बालकों के लिए, कलेवा की सामग्री लेकर बैठी हैं ….मनसुख रथ में आ तो गया…..पर बैठता नही है, खड़ा है ।

शंख बजाया अब महर्षि शाण्डिल्य नें……

तात ! क्या अद्भुत शोभा बन रही है इस श्रीवृन्दावन यात्रा की …..

जब ठीक ब्रह्ममुहूर्त का समय हुआ था । ………..उपनन्द एक बड़ी शिला पर खड़े हो गए………और ताली बजाकर जोर से बोले – दौड़ो …
दौड़ो ……………ग्वालों नें श्रृंगी नाद् किया ………….बैल गाड़ियाँ धूल उड़ाती हुयी दौड़ पडीं ……..गौ एक तरफ चल रही हैं …..बैल दूसरी तरफ हैं …………मध्य में रथ है ………..बैल गाडी और रथ दोनों दौड़ रहे हैं …….धूल उड़ रही है ।

बैल गाड़ियों के ऊपर सुन्दर सुन्दर रेशमी वस्त्र लगाये हैं ……..ताकि धूप और वायु के झौंको से बचा जा सके ।

वो वस्त्र रंग विरंगें हैं …….लाल, पीले, हरे, गुलाबी ऐसे ऐसे रंगों के वस्त्रों से सजाया है बैल गाड़ियों को और रथों को भी ।

बैल बड़े सुन्दर हैं …….और रथ में लगे अश्व भी बड़े बलिष्ठ हैं ।

बैलों के सींग सुवर्ण से मढे हुए हैं ……..धूप जब पड़ती है उनमें तब एक चौंधा सा प्रकट होता है ….उससे इन सबकी शोभा और बढ़ रही है ।

बैलों के गले में सुन्दर घण्टी बांध दी गयी है …….जब ये एक साथ दौड़ते हैं …..तब जो ध्वनि वातावरण में गुँजित होती है ……वो अद्भुत है ।

उद्धव कहते हैं – तात ! देवों के विमान भी फीके लग रहे हैं इन बैल गाड़ियों की सज्जा के आगे ।

गोकुल को पार करके आगे बढ़े…………

मध्य दिवस हो रहा है ………..भोजन की व्यवस्था की गयी …….सबनें एक साथ बैठकर भोजन किया ………फिर कुछ विश्राम के बाद यात्रा आगे बढ़ी थी ।

सन्ध्या की वेला होनें को है अब ।

पर ये क्या ! अद्भुत शोभा बन गयी है यहाँ वनों की ।

मोरों का झुण्ड, पँक्ति बद्ध होकर खड़े हैं और देख रहे हैं नन्दनन्दन के रथ को …………..

उन मोरों को देखकर कन्हैया खड़े हो जाते हैं ………मैया डर जाती है ……लाला ! बैठ जाओ ! पर कन्हैया इतनी जल्दी कैसे मान जाते ।

“मनसुख भी तो खड़ा है……उसे तो कुछ बोलती नही”

मनसुख ! बैठो ! बृजरानी आदेश देती हैं …..मनसुख बैठ जाता है ।

तो कन्हैया भी बैठ जाते हैं …….मोर मानों स्वागत कर रहे हैं वृन्दावन में प्रवेश का …….कन्हैया मैया की गोद में बैठे बैठे ही हाथ हिलाते हैं मोरों को ।

मैया ! वो खरगोश ………

…..हाँ लाला ! कितना प्यारा है ना !

मुझे चाहिए ! रोनें लगे ………….चुप ! रो मत ……..

नही …..मुझे खरगोश चाहिए ।

मैया नें बड़े प्रेम से कहा ……….देख तू अगर खरगोश को ले जाएगा तो उसकी मैया रोयेगी ………है ना ? बृजरानी नें समझाया ।

कुछ देर सोचनें के बाद कन्हैया उठकर खड़े हो गए ……..

नही नही ……..हम तुम्हारे बच्चे को नही ले जायेगें …….तुम मत रोना !

तभी सामनें मोर, अनगिनत सहस्र मोर एक साथ नाच उठे थे ।

मैया ! देख !

पक्षियों की संख्या कितनी है ये कौन बता सकता है ………..

तोता बोल रहे हैं ………..

ये कौन है ? कन्हैया जानते हुए भी पूछते हैं ।

ये है तोता ……….मैया बताती है ।

उसके साथ ये कौन है ? कन्हैया दूसरे तोता को पूछते हैं ।

मैया हँसते हुए कहती है ……ये तोती है ……….मैया खूब हँसती है ……पर कन्हैया गम्भीर ही बने रहते हैं ………….कुछ सोचते हैं …..फिर कहते हैं ये “तोती” क्या होता है ………तोता की पत्नी है ये तोती ।

कन्हाई फिर तोता को देखते हैं ………फिर सोचते हैं …पूछते हैं…….पत्नी क्या होती है ?

लाला ! पत्नी होती है …………मैया लाला को चूमते हुए कहती हैं ।

तो मेरी पत्नी कहाँ है ? मासूम से कन्हैया पूछते हैं ।

तेरी पत्नी अभी नही है …………

क्यों नही है मैया ? इसके प्रश्न कभी खतम हुए हैं जो आज हो जायेगें !

फिर रोनें लगे इसी बात पर ………मेरी पत्नी कहाँ है ?

पर अब बैल गाड़ियाँ रुक गयीं थीं ………….गौ सब ठहर गए थे …….रथ इत्यादि सब को रोक दिया गया था ।

क्यों की यमुना आगयीं …………यमुना को पार करके ही वृन्दावन आएगा …………….

कन्हैया उतर गए …….बलभद्र मनसुख अन्य सब सखा उतर कर भागे कन्हैया के पीछे ……कन्हैया दौड़ते हुए बृजराज के पास गए …….प्रसन्न होकर बृजराज नें कन्हैया को अपनी गोद में ले लिया था ।

बृजराज ! आज यहीं पर विश्राम किया जाए ………….नौका की व्यवस्था कल होगी ……………बैलगाड़ियों को ही सजा कर उसी में आज रात्रि विश्राम करेंगें ………..बालकों को कुछ खिला दो ……और अन्य लोगों के लिये भोजन बनाया जाए ।

जी महर्षि !

इतना कहकर बृजराज यहाँ से ग्वालों के पास चले गए ….और सबको आदेश दे रहे थे ।

यमुना में स्नान किया सन्ध्या के समय सब नें ……..भोजन बनानें में सब लग गए ।

आहा ! तात ! वृन्दावन की शोभा देखते ही बन रही थी दूर से ………

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 65

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 65)

!! “श्रीराधा मुझे बुला रही है” – अब वृन्दावन की ओर !!


ये गोकुल महावन अब कुछ सूखा सूखा सा लग रहा है ?

यमुना की धार भी पतली हो गयी है…….दाऊ नें कन्हैया की ओर देखा – पूछा……क्या बात है कन्हैया ?

कोई बात नही है दादा ! ……कन्हैया बस मुस्कुराये ।

माखन खिला दिया था मैया यशोदा नें………इन्द्रयज्ञ में आज रात्रि भर जागरण होगा…..कीर्तन करनें वाले आ चुके हैं….ग्वाल बाल सब उत्साहित हैं…….सज धज कर गोपियाँ भी आयी हैं ।

दाऊ दादा ऐसे ही घूमते हुये उस गिरे हुए अर्जुन वृक्ष के पास गए थे…….वृक्ष को अभी उठाया नही गया है…….क्यों की सब बृजवासी इन्द्र यज्ञ की तैयारी में ही थे………

दाऊ दादा गए…….और उस टूटे हुए एक शाख में बैठ गए ।

अब कन्हैया भी वहीँ पहुँचें दाऊ को खोजते हुए…….दाऊ एक डाली में बैठे हुए हैं ….जो टूटी पड़ी थी…….कन्हैया भी उछलते हुए उसी में बैठ गए ।

गोकुल कुछ सूखा नही लग रहा ?

बस मुस्कुरा दिए कन्हैया ।

क्या पृथ्वी को फिर दण्डित करना पड़ेगा ? दाऊ दादा रोष प्रकट कर रहे थे………कन्हैया ! तुम आये हो इस धरा धाम में…….फिर इस धरा की इतनी हिम्मत कि…….शेष स्वरूप दाऊ की आँखें लाल हो गयीं थीं ।

दाऊ दादा ! “गोकुल छोड़कर अब हम सब वृन्दावन चलते हैं”……

कन्हैया नें सहजता में कहा ।

क्या ? दाऊ दादा चौंकें…….फिर बोले – अच्छा ! तो ये तुम्हारी लीला है …….पर क्या गोकुल में तुम्हे अच्छा नही लग रहा ?

दाऊ नें इतना तो पूछ ही लिया ।

“इन्द्र यज्ञ” कर रहे हैं मेरे ये बृजवासी……पर दादा ! “मेरे” होकर, एक देवता की पूजा ! क्यों ?

फिर तुम क्या चाहते हो ? दाऊ दादा नें पूछा ।

मेरे ही स्वरूप गिरिराज – गोवर्धन की पूजा…….मैं ये चाहता हूँ कि देवराज की पूजा छोड़कर गिरिराज गोवर्धन की पूजा की जाए ।

पर यहाँ दादा ! गोवर्धन नही हैं ……..न वो कुँजें हैं …….मुझे वेणु नाद् करना है …….पर वो सब यहाँ नही होगा ।

कन्हैया बोलते गए – दादा ! मुख्य बात तो मैं कहना भूल ही गया …….

“मेरी श्रीराधा मुझे बुला रही है”……वृन्दावन हमारा स्थान नही है …….हमारा स्थान तो ये गोकुल है ……..वृन्दावन तो मेरी प्राणेश्वरी श्री राधा रानी का है ………और वो वृन्दावन , जब मेरे बाबा उनके बाबा से प्रार्थना करेंगें और वो कृपा करके दें “वृन्दावन वास” , तो ही हो सकता है ।

वो पूरा क्षेत्र बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) के अंतर्गत आता है ……….और बरसाना के राजा हैं श्री बृषभान जी………कन्हैया वृन्दावन की चर्चा करते हुये अतिप्रफुल्लित थे ।

बहुत सुन्दर वन है वृन्दावन …………दाऊ दादा ! वहाँ बहुत आनन्द आएगा …………..वहाँ कुञ्ज हैं , वहाँ निकुञ्ज हैं ………मोरों की भरमार है ….पक्षियों का कलरव निरन्तर होता ही रहता है ………यमुना भरी हुयी हैं वहाँ ……दादा ! अद्भुत है वृन्दावन , हम सब अब वहाँ जायेंगे ।

कन्हैया इतना कहकर अपनें दोनों चरण हिलानेँ लगे थे ।

जायेंगे फिर यहाँ आयेंगें ? या वहीँ रहेंगें ? दादा दाऊ नें पूछा ।

“रहेंगे”………कन्हैया मुस्कुराये ।

हम अकेले जाएंगे या ? दाऊ दादा का ये दूसरा प्रश्न था ।

नही दादा ! हम सब जाएंगे ! पूरा गोकुल जाएगा हमारे साथ ।

दाऊ दादा हँसे ……….तुम्हे लगता है लाला ! कि ये सब गोकुल वासी तुम्हारे साथ वृन्दावन चल देंगे ?…….अपना सब कुछ छोड़ कर ……..घर वार सब कुछ छोड़कर चल देंगे ? दाऊ नें पूछा ।

ये बृजवासी प्रेम करते हैं मुझ से ……दादा ! इनके जैसा प्रेम मैने किसी अवतार में और किसी के पास नही देखा ………..

तुम घर बार छोड़नें की कह रहे हो……..दादा ! मेरे लिये ये गोप गोपी प्राण दे देंगे…….ये मुझे ही सब कुछ मानते हैं………मैं ही हूँ इनका सब कुछ……..कन्हैया बोलते गए ।……..दादा ! और हमारे पास कारण भी है ……..हम सबको कारण जब बताएंगे तब ये लोग चल देंगे जहाँ हम कहें ! बृजवासियों की प्रशंसा करते हुए गदगद् हो रहे थे कन्हैया ।

कारण क्या है तुम्हारे पास ?

गोकुल त्यागनें का कारण है ……….कि कंस के राक्षस मेरे प्राणों के पीछे पड़े हैं …….उन्हें जब भी अवसर मिलेगा मुझे मार देंगे ………..

दाऊ दादा क्रोधित हो गए ……….”मैं अभी फूँक से न उड़ा दूँ उस कंस के साम्राज्य को ही” ।

दादा ! आप क्रोध बहुत शीघ्र करते हो ……….कारण हम ये बताएंगे ग्वालों को गोपियों को ……….तब देखना …..इनका जो प्रेम है हृदय में …..वो प्रकट हो जाएगा ……….मेरे लिये ये गोकुल क्या संसार भी त्याग सकते हैं …….ये लोग प्रेम का साकार रूप हैं दादा ! ये बृजवासी लोग मेरे लिये हैं …….सिर्फ मेरे लिये ।

कन्हैया ! कन्हैया ! कन्हैया !

तभी – बृजरानी की पुकार सुनाई दी दोनों भाइयों को ।

उस टूटे हुए वृक्ष की शाखाओं से कूदे दोनों भाई ।

तो अब वृन्दावन चलना है ? दाऊ नें हँसते हुए फिर पूछा ।

हाँ ………..मेरी “सर्वेश्वरी श्रीजी” मुझे याद कर रही हैं ।

कन्हैया नें खिलखिलाते हुए दाऊ से कहा ।

दाऊ ! कन्हैया !

……..बृजरानी मैया नें फिर आवाज दी ।

“आयो मैया” ! ये कहते हुए दोनों भाई दौड़े थे मैया के पास ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 63

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 63 )

!! “यमलार्जुन उद्धार” – जब वृक्ष गिरे !!


हम हैं शापित वृक्ष – यमलार्जुन ।

शापित ? नही शापित कैसे कहें ……..ऐसा अहोभाग्य तो सिद्धों को भी प्राप्त नही हुआ …………..

देवर्षि नें हमें शाप दे दिया ……..पर हम उसे वरदान से भी ज्यादा मानते हैं ………शाप मिलते ही हम पृथ्वी में आ गिरे थे ………..और बीज के रूप में गोकुल में ही पड़े रहे ………अंकुर फूटा तो “अर्जुन” नामके दो वृक्ष बनकर हम खड़े ……..कृपा थी हमारे ऊपर देवर्षि की ……..तभी तो बृज मण्डल में ……और वो भी गोकुल में …….और गोकुल में भी उसी आँगन में जिस आँगन में परब्रह्म प्रकट होने वाले थे ।

बहुत पूजा की हमारी बृजरानी नें ………..तुलसी में जल देनें के साथ साथ हमको भी जल देती थीं ……..बृजराज हमारी प्रदक्षिणा करते थे ……ग्वाल गोपी कलावा बांध कर हमसे मनौती माँगते थे ……….

मनौती ? अजी ! ग्वालों की यही मनौती होती थी कि …..बृजराज के पुत्र हो ……..हम को हँसी आती………हम इनकी कामना पूरी करते ?

क्या हममें इतना सामर्थ्य था ? हम तो स्वयं शापित होकर पड़े थे ।

पर इन गोकुल वासियों का प्रेम ! भाव ! अद्भुत था …….

हुआ बृजराज के पुत्र…….हम बहुत प्रसन्न थे……हमें याद है …..ढोलक मंजीरा लेकर, “नारायण नारायण” का मंगलमय कीर्तन करते हुए, एक सौ आठ परिक्रमा लगाई थी हमारी बृजराज नें ।

समय बीतते भला देर लगती है ……..घुटवन चलते हुए आये थे हमारे पास कन्हैया पहली बार……..हमारी शाखाओं को छूआ था …..उस समय जो आनन्द की अनुभूति हुयी थी …….वो अवर्णनीय है ।

उद्धव विदुर जी को ये प्रसंग सुना रहे हैं ।

उस दिन की बात…..कुबेर के पुत्र कहते हैं – बहुत उपद्रव मचाया था कन्हैया नें…….हम तो बड़े प्रसन्न थे ………ऐसी अद्भुत लीला दर्शन भाग्यों से नही ….कृपा से ही प्राप्त होती है …….और हमारे ऊपर कृपा थी देवर्षि की……..हम बार बार वृक्ष बननें के बाद भी देवर्षि नारद जी का धन्यवाद करना न भूलते थे ।

बाँध दिया था उस परब्रह्म को आज बृजरानी नें………वो कितना रोया था ……..अंजन उसके आँखों से बहकर कपोलों में फैल गया था ……वो लीलाधारी सिसक रहा था …………

हम ये सब लीला देखकर आनन्दित थे ……….अति आनन्दित ।

ऊखल से बाँध दिया था……….और चली गयीं थीं बृजरानी रसोई घर में……….रोहिणी से, बृजरानी को ये कहते सुना था हमनें …….कि …….कुछ देर बन्धनें दो इसे……अभी छोड़ दूंगी तो कहीं भाग जायेगा ।

तात ! अब आगे सुनो …….कैसे ये अर्जुन नामक वृक्ष गिरे ।

उद्धव , विदुर जी को अब आगे की लीला सुनानें लगे थे ।

दाऊ ! भैया ! भैया !

बृजरानी के जानें के बाद , रोते हुए बड़ी जोर से चिल्लाये थे कन्हैया ।

पर दाऊ वहाँ थे नही………बृजरानी नें भगा दिया था वहाँ से ।

कुछ देर दाऊ को पुकारनें के बाद कन्हैया चुप हो गए …..पर सुबुक रहे थे अभी भी ।

हाँ तोक सखा आगया था ……..चुपके से उसनें रस्सी खोलनी चाही ……..पर ये तो 4 वर्ष का है ….कन्हैया से भी एक वर्ष छोटा ……इससे वो रस्सी क्या खुलती !

कन्हैया नें इधर उधर देखा ……गोपियाँ भी नही दीखीं ……….बृजरानी नें उन सबको भी आज भगा दिया था ………..।

तोक सखा तोतली बोली में बोला – मैं देखता हूँ …………वो गया ……..दो तीन अपनी आयु के बालकों को ले आया ……….

इनसे क्या होगा ? कन्हैया अब थोडा हँसे ………..

ये ऊखल को गिरा देंगें……..तोक नें कहा ।

“चलो गिराओ”……….कन्हैया सहज ही बोले थे ।

इन बालकों नें खूब जोर लगाया…………परिणाम स्वरूप वो ऊखल गिर गया ……जैसे ही ऊखल गिरा …….कन्हैया बड़े खुश हुये ………

और ऊखल को खींचते हुए ले चले थे ।

इतनें प्रसन्न थे अब ……रोना धोना सब खतम हो गया था…..ऊखल पीछे पीछे आरहा था ….आगे कन्हैया उसे खींच रहे थे……..

पर अब रुक गया था…….कन्हैया पीछे मुड़े …..रुका कहाँ ? ये कहीं अटका है …..पर कहाँ अटका ? पीछे मुड़कर देखा…….

तो – अर्जुन नामक वो दो वृक्ष जो थे….उनमें ही अटक गया था ऊखल ।

खींच के झटक दिया ऊखल को कन्हैया नें ।

क्षण भी न लगा होगा ………एक भीषण आवाज आयी……..आवाज बड़ी भीषण थी ……पूरे गोकुल गाँव में ये आवाज गूँजी …….सब भयभीत हो उठे थे ।

पर यहाँ तो वो पुराना वृक्ष …….जड़ के सहित ही उखड़ गया था ।

उखाड़ दिया था कन्हैया नें…….एक तीव्र झटका – और यमलार्जुन का उद्धार कर दिया……….आँधी न आयी थी ……न तूफ़ान आया था …..ग्वाल बाल समझ न पाये थे कि इतना बड़ा, पुराना वृक्ष जड़ सहित गिरा कैसे ?

पर – हमारा उद्धार हो गया था………हम अपनें स्वरूप में आगये थे ……..हम हाथ जोड़े उन नन्दनन्दन के सामनें खड़े थे ।

वो मुस्कुराये – कुबेर के पुत्रों नें कहा – आहा ! क्या रूप माधुरी थी वो ……मुस्कुराता मुखमण्डल …..घुँघराली अलकें ……श्याम वर्ण ….पीताम्बरी…..कटि में काँछनी….हमें देखकर वो मन्द मन्द मुस्कुरा रहे थे ।

“जाओ अब अपनें यक्ष लोक”………कमलनयन कन्हाई के मधुर बोल गूंजे हमारे कानों में……….

हमारा “बृजवास” छुड़ा रहे हो ? हमनें हाथ जोड़ कर कहा ।

हाँ तो ? जाओ फिर विलासिता में जीयो …….फिर किसी साधू सन्त का अपराध करो…….व्यंग में भी कितना सुन्दर बोल रहे वे ।

पर अब हम विलासिता को त्याग रहे हैं……..भोगों के प्रति हमारी अब कोई रूचि नही है ।

………फिर मुक्त हो जाओ ? बोलो – मुक्ति दूँ ? नन्दनन्दन नें कहा ।

नही ….नाथ ! मुक्ति नही ………..हमें तो प्रेम दीजिये …..हमें तो भक्ति दीजिये ……..नाथ ! दीजिये हमें कि – हमारी वाणी मात्र आपके ही गुणों का गान करती रहे …….हमारे कान आपकी लीलाओं को ही सुनते रहें ………हाथ आपकी सेवा में ही लगे रहें ……..और ये सिर ! ये सिर अब अहंकार में न उठे ………..ये अब झुके ……..नाथ ! आपके चरणों में झुके ………निरन्तर , सदा सर्वदा ……….ये कहते हुए कुबेर के पुत्रों नें नन्द नन्दन के चरणों में अपना मस्तक रख दिया था ।

तात ! भक्ति का वरदान प्राप्त करके ये कुबेर पुत्र अपनें लोक में चले गए………उद्धव नें विदुर जी को ये कथा सुनाई थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 62

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 62 )

!! कुबेर के पुत्र जब वृक्ष बनें – यमलार्जुन !!


” महत्पुरुषों का श्राप भी मंगलकारी होता है “

उद्धव की इस बात से विदुर जी अति प्रसन्न हुये ………

हाँ उद्धव ! इस बात का तो ये “दासीपुत्र विदुर” प्रमाण है …….माण्डव्य ऋषि का श्राप मुझ यमराज के लिये मंगलकारी हुआ ना !

मुझे श्राप दिया था माण्डव्य ऋषि नें ……..”जाओ ! धर्मराज ! तुम दासी पुत्र बनोगे” ………

उद्धव ! मैं तो दिन भर पापी और पुण्यात्माओं को ही देखता रहता था …..दण्डाधिकारी बना, मेरा यही काम था ……..पर ऋषि के श्राप से मैं विदुर बना ………..और मेरे यहाँ नन्दनन्दन केले के छिलके खानें आये ……आहा ! और इतना ही नही…….आज मैं उन्हीं गोविन्द की मंगलमयी कथा को श्रीधाम वृन्दावन में सुन रहा हूँ …………..

विदुर जी बोले ………सन्तों का वरदान मंगलमय है तो श्राप भी मंगलमय है……….विदुर जी के नेत्र सजल हो उठे थे ।

मैं भी अपनी व्यथा सुनानें लगा……..उद्धव ! छोडो इन बातों को ……अब बताओ ………तुम क्या कह रहे थे ? सन्तों का श्राप भी मंगलमय होता है ? पर यहाँ श्राप किसे दिया …..और किसनें ?

उद्धव ! तुम कह रहे थे ……….ऊखल में बंधे कन्हैया नें सामनें अपनें आँगन में अर्जुन के दो वृक्षों को बड़े ध्यान से देखा …………

क्या ये वृक्ष कोई देवता हैं ? श्राप के कारण ये वृक्ष बने ?

विदुर जी नें उद्धव से आगे कहा……..उद्धव ! क्या अद्भुत लीला सुनाई है तुमनें……..बंध गए ब्रह्म ! फिर कैसे खुले ? किसनें खोला ? मैं आगे की लीला सुनना चाहता हूँ …..सुनाओ ! उद्धव !

कुबेर के दो पुत्र थे ………नल कूबर, मणिग्रीव ।

बड़े अहंकारी थे तात ! और प्रभुता मिलनें पर किसे अहंकार नही आता ……फिर इनकी प्रभुता ? ये तो कुबेर के पुत्र जो ठहरे ।

“मन्दाकिनी गंगा”………हिमालय से बहती हुयी ये निकलती हैं………

बड़ा सुन्दर स्थान था वह हिमक्षेत्र का………..वहीँ कुबेर के ये पुत्र आकर विभिन्न भोगों में रत रहते थे …………..मदिरा पान , पर स्त्री का संग, और द्युत क्रीड़ा ।

वैसे तात ! जहाँ ‘अति धन” आता है ……..वहाँ ये तीन दोष आते ही हैं …..मदिरा, परस्त्री, और जूआ ।

बहुत कम लोग होते हैं जो इनसे बच जाएँ ।

हिमालय साधना की भूमि है ………हिमालय तपस्या की भूमि है ….पर इन क्षेत्रों में भोग विलास करना ……ये तो अपराध है ……….पाप है ।

उद्धव आगे बोले – कुबेर के ये दो पुत्र अपनें साथ आज चार सुन्दरी अप्सराओं को ले आये थे…..और मन्दाकिनी गंगा में पहले तो मदिरा का सेवन किया इन्होनें……..फिर उन अप्सराओं के साथ नग्न स्नान ………………

देवर्षि नारद जी बड़े प्रेम से …… भगवतगुणानुवाद गाते हुए वहाँ भ्रमण कर रहे थे…..उन्हें सर्वत्र अपनें “गोविन्द” ही दिखाई दे रहे थे ……प्रसन्न चित्त से वो वृक्ष, पर्वत, नदी सबको कह रहे थे …….”भगवान का नाम लो….भगवान की लीलाओं का गान करो….भगवान को भूलो मत ।”

नारद जी की बातों को प्रकृति भी सुन रही थी ……और आनन्दित थी ।

पर तभी मन्दाकिनी गंगा में स्नान करते हुए कुबेर के पुत्रों की ओर देवर्षि नारद जी की दृष्टि गयी ………मदिरा के कारण आँखें उनकी लाल हो गयीं थीं …..मत्त , उन्मत्त होकर वे सब नहा रहे थे ।

दया आई देवर्षि को …………कुबेर के पुत्रों की ये दुर्दशा ?

उनके ऊपर करुणा करनी थी इसलिये देवर्षि पास में ही गए ……….

क्या कर रहे हो ? मुस्कुराते हुए देवर्षि नें पूछा था ।

हँसे कुबेर के पुत्र ………….हम ? हम जो कर रहे हैं वो आपको बता नही सकते ! ये कहते हुए वो फिर हँसे ………और अप्सराओं के ऊपर जल का छींटा देनें लगे ……….।

हँसे तो अब देवर्षि…………..तुमनें मुझे प्रणाम नही किया ?

बड़ी सहजता में बोले थे ………”तुम्हे प्रणाम करना चाहिए था” ……..देवर्षि की सहजता देखते ही बन रही थी ।

कुबेर के पुत्र ठहाका लगानें लगे…….हम ? हम आपको प्रणाम करें ?

हम कुबेर के पुत्र हैं…….कुबेर ! धनाध्यक्ष कुबेर …….जानते हो ना ?

पर देवर्षि नें दूसरी ही बात कही …….क्या तुम्हे पता है जिन वृक्षों पर फल लगे होते हैं वो झुकते हैं ……..फलहीन वृक्ष, और गुणहीन व्यक्ति झुकता नही है ……………

हमें कौन सिखाएगा झुकना ? कुबेर के पुत्रों नें अहंकार में भरकर कहा ……..बताइये देवर्षि ! कौन सिखाएगा हमें ?

वृक्ष !

देवर्षि नारद जी के मुखारविन्द से निकला ।

क्या ? चौंक गए कुबेर के ये पुत्र ………….

हाँ …..तुम वृक्ष बनोगे ……जाओ ! फिर तुम उनसे सीखना कि झुकते कैसे हैं ? हँसते हुए नारद जी चल दिए आगे के लिये ।

तात ! सारा नशा उतार दिया था देवर्षि नें……….वो वस्त्र पहन कर भागे नारद जी के पास………और चरणों में साष्टांग गिर गए थे ।

देवर्षि ! क्षमा करें ! हमसे अपराध हो गया …….आगे से ऐसा नही होगा………कुबेर के पुत्र गिड़गिडाते रहे ।

क्या नही होगा ? देवर्षि मुस्कुरा रहे थे…………..देखो ! वृक्ष तो तुम्हे बनना ही पड़ेगा ………….ये बात अटल थी देवर्षि की ।

पर मैं एक बात कह देता हूँ ……..जो तुम्हारे जीवन को धन्य बना देगा ………..नारद जी आँखें मटकाते हुए बोले ।

क्या ? कुबेर के पुत्रों नें पूछा ।

यही कि …….तुम वृक्ष भी बनोगे तो नन्दालय के आँगन में खड़े वृक्ष ।

कन्हैया माखन खाते हुए अपनें हाथ का जूठन तुम्हारे में पोंछेंगे …………धन्य हो जाओगे तुम !

तुम्हारे आस पास ही रहेंगे कन्हैया……..तुम्हे अपनें गले से लगाएंगे …..तुम पर चढ़ेंगे…….तुमसे खेलेंगे …….आहा ! धन्य हो जाओगे ।

इतना कहते हुए देवर्षि आगे बढ़ गए थे ……………

कुबेर के पुत्रों को ये श्राप मिला था………उद्धव नें कहा ।

उद्धव ! ये श्राप कहाँ है ? ये तो वरदान है …….परम वरदान ।

इन कुबेर के पुत्रों की कोई गिनती है……..कि नन्द नन्दन के दर्शन भी कर लेते ये ………पर देवर्षि की कृपा से ………..आहा !

विदुर जी नें उद्धव से कहा ।

तात ! ऊखल में बंधे कन्हैया नें अब उन्हीं अर्जुन नामक दो जुड़वे वृक्षों को देखा था ………और मुस्कुराये थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 61

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 61 )

!!”दामोदर” – यानि बंधा हुआ ब्रह्म !!


पर नन्दरानी मानती नही हैं । कन्हैया भय के कारण रोते जा रहे हैं …….. नन्दरानी का हृदय लगता है आज कुछ कठोर हो गया है ।

कन्हैया अपनें आपको छुडानें की कोशिश कर रहे हैं ………वो कभी आगे आते हैं मैया के………फिर पीछे की ओर चले जाते हैं ……..धरती में गिर जाते हैं ……….पर बृजरानी हाथ छोड़ नही रहीं ।

सच में तात ! आज बुरी बीती कन्हैया पर……सोचा न था कन्हैया नें कि मैया इतना गुस्सा करेगी……एक मटकी फोड़नें पर ।

“अब तो बाँधूंगी मैं तुझे”……….मैया गुस्से में बोलीं ।

ये सुनते ही कन्हैया और जोर से चीखे………पर आज बृजरानी पर कोई असर नही हो रहा रोनें का …..न चिल्लानें का ……..

हाथ पकड़ती हैं……..दूसरे हाथ से पास में रखी गाय को बाँधनें वाली रस्सी लेती हैं …….उस रस्सी से बाँधनें का प्रयास करती हैं ……..पर डोरी कम पड़ गयी ……..दो अंगुल कम पड़ी ।

बृजरानी फिर परेशान हो उठीं …….दूर एक रस्सी और पड़ी थी ……..वहाँ गयीं ……….एक हाथ से कन्हैया का हाथ पकड़ा है ………दूसरे हाथ से वहाँ पड़ी रस्सी उठाई ………फिर बाँधनें लगीं ……पर ये क्या ! रस्सी फिर दो अंगुल कम ।

उद्विग्न हो, चारों ओर देखा बृजरानी नें ………गोपियाँ खड़ी हैं ………हाथ जोड़ रही हैं ……….मत मारो लाला को …..मैया ! मत बाँधों लाला को ।

पर मैया आज इनकी बातों पर क्यों ध्यान देनें लगीं ।

दूर ऊखल है ……….बृजरानी नें तुरन्त विचार किया …….ऊखल से बाँधूंगी इसे ……और वहीँ पास में एक रस्सी भी दीखी बृजरानी को ।

कन्हैया का हाथ पकड़ कर वहाँ लेकर गयीं……….दाऊ वहाँ आगये थे ……..रस्सी के पास ही खड़े थे ………बस स्तब्ध हो – खड़े थे ।

कन्हैया नें अपनें दाऊ भैया को देखा……तो और जोर से रोनें लगे ।

दाऊ से ये सब देखा नही जा रहा……उनका कान्हा आज इतनें जोर से रो रहा है…….कन्हैया के रोनें की आवाज नें दाऊ का हृदय मानों विदीर्ण ही कर दिया था । वो रुदन सुननें की स्थिति में नही थे ।

दाऊ ! रस्सी दे ……..बृजरानी नें आदेश किया ।

दौड़ पड़े दाऊ ……चरणों में गिर गए मैया के ……….मैया ! छोड़ दे लाला को ……….मैया ! तू तो इतनी कठोर न थी ……..फिर आज क्या हो गया है तुझे ……..! एक मटकी ही तो फोड़ी है ……….नीलमणी को देख …….एक मटकी के लिये तू इसे बान्धना चाह रही है …….नही मैया ! मत बाँध इसे …….छोड़ दे मैया ! छोड़ दे ।

दाऊ के नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे थे ……………

तुझे माखन प्यारा हो गया है मैया !…….ये बृज का प्यारा कन्हैया, तुझे प्यारा नही लग रहा ? देख मैया ! कितना कोमल है ये …..और ये रस्सी ? गौ को बाँधनें वाली रस्सी से तू इसे बाँधेंगी ?

मत बांध , मैया ! मत बाँध इसे ! दाऊ प्रार्थना करनें लगे थे……..पर –

तू मुझे समझायेगा ! भाग यहाँ से नही तो मैं तुझे भी बाँध दूंगी ………

दाऊ को भगा दिया था मैया यशोदा नें ।

अब वहाँ पड़ी रस्सी को उठाया ……………दो रस्सी से बांध चुकी हैं ….ये तीसरी रस्सी है ……………इसे लेकर जोडा दूसरी रस्सी से ……..फिर बाँधनें लगीं …………पर नही ……….

उद्धव बोले – तात ! ऐसे कैसे बंध जाएगा ब्रह्म ।

पर ब्रह्म भले हों ……..जब पुत्र बनकर आये हैं तो बंधना पड़ेगा ही ।

विदुर जी बोले ………..फिर पूछ बैठे उद्धव से………..

ये दो अंगुल का रहस्य क्या है ? रस्सी कम क्यों पड़ रही है ?

उद्धव बोले – तात ! “मैं बाँधूंगी”…….यहाँ जो ये “मैं” है ना ……यही बाधक बन रहा है ………….

किसनें कहा वो साधना से मिलता है ……..तात ! वो तो कृपा से मिलता है …………हमारे करनें से मात्र हमारे अहंकार की पूर्ति ही तो होगी …. हमारा अहंकार ही तो पुष्ट होगा ! और इस मार्ग में तो अहंकार ही सबसे बड़ा बाधक है ।

तो कुछ न करें ? साधना बगैर कुछ नही ? विदुर जी नें पूछा ।

कृपा बरस रही है …….निरन्तर बरस रही है तात ! और ये कृपा शक्ति सभी के ऊपर , समान रूप से बरसती है ……….हाँ …….पात्र होना आवश्यक है……बिना पात्र के उस कृपा को कहाँ रखोगे ।

साधना से मात्र पात्रता का निर्माण होता है ।

उद्धव नें समाधान किया था ।

थक गयीं , हार गयीं अब बृजरानी……….रस्सियों पे रस्सियाँ जोड़ती जा रही हैं ………पर बारबार रस्सी कम ही पड़ती है ।

अब बैठ गयीं मैया……..पसीनें आगये………देह शिथिल पड़नें लगा ।

“ये मुझ से बंधेगा नही” ………….ये विचार मन में आया …………

क्या करे मैया अब ? कन्हैया भी अब चुप हो गए …….मैया थक गयी है ये बात जान रहे हैं …….अब कन्हैया को अपनी मैया के ऊपर दया आगयी थी …………..

अब देखा मैया के मुख मण्डल को ध्यान से कन्हैया नें ।

तू बंधेगा नही ? बड़ा दुष्ट है रे तू ? बंधता भी नही है ।

मैया अब दयनीय सी हो गयी थी……..पर अब……….

बृजरानी की चोटी आगे आगयी …….उस चोटी की डोर ढीली पड़ गयी थी भागते भागते ………..तुरन्त मैया उठीं ………और चोटी की डोर को निकालकर रस्सी से जोड़ दिया ……………

आकाश से महामाया नें वन्दन किया यशोदा मैया को …….मैया के वात्सल्य को………महालक्ष्मी नें सुमन बरसाए ऊपर से ……..

देवताओं नें जयजयकार किया ……………

और – तभी ….कमर से रस्सी को लेकर…..ऊखल से बाँध दिया मैया यशोदा नें ।

आकाश से पुष्प गिरे ………बोलो – दामोदर भगवान की – जय ।

बंध गए ब्रह्म ……..दुनिया को बन्धन मुक्त करनें वाला ब्रह्म ……आज स्वयं वात्सल्य के बन्धन में बंध गए थे………और दामोदर बन गए ।

दामोदर का मतलब होता है ……बंधा हुआ ब्रह्म ……….

तात ! अद्भुत नाम है ना ये ! दामोदर…………

मैया बृजरानी लाला को ऊखल से बांध कर चली गयीं रसोई में………क्यों की भूख लगी होगी ना इसे …….दिन भर से कुछ खाया भी तो नही है ……..रसोई में जाकर कुछ बनानें लगीं थीं ।

सामनें वृक्ष हैं….कन्हैया नें उन वृक्षों को देखा……अर्जुन नामके दो वृक्ष खड़े हैं नन्दालय के आँगन में…….कन्हैया नें देखा – और मुस्कुराये ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 85

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 84)


!! ब्रह्मा को जब मोह हुआ….!!

“विधि” , ये नाम है ब्रह्मा जी का…..क्यों की यही तो विधान बनाते हैं ।

शास्त्रीय विधि, श्रोत स्मार्त विधि, हर क्रिया का विचार विवेक ……

ये सब ध्यान में रखते हैं ब्रह्मा जी ।

तात ! नन्दनन्दन की लीला का दर्शन करनें आगये थे यहाँ, सृष्टी का कार्य छोड़कर आये थे ……….

देवता सब “जय हो नन्दनन्दन की”…..कहकर जयघोष कर रहे थे ।

हंस में विराजे ब्रह्मा नें भी देखना चाहा कन्हैया को ……..पर उस समय तो इनका “वन भोज” चल रहा था……..और उस वन भोज में कोई विधि नही थी…….न कोई विधान था ।

कन्हैया खा रहे हैं…….ग्वाल सखा अपनें घरों से लाई हुई वस्तुएँ कन्हैया के मुख में दे रहे हैं…….कन्हैया भी खा रहे हैं……..यहाँ तक ब्रह्मा को कोई दिक्कत नही थी…….कन्हैया अपनी जूठन प्रसादी ग्वाल सखाओं को दे रहे हैं……..या उनके मुख में डाल रहे हैं ।

पर ब्रह्मा को दिक्कत यहाँ हुयी कि ……ग्वाल बालों नें अपनें मुख का जूठा जब कन्हैया को देना आरम्भ किया ।

उद्धव कहते हैं – तात विदुर जी ! ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे हैं ……ये स्वयं कर्म में लिप्त हैं ……..सृष्टि का कार्य कर्म बन्धन ही तो है …..रजोगुण के बिना सृष्टी होगी कैसे ?

पर ये तो त्रिगुणातीत लीला है……..ये तो विधि निषेध से परे की लीला है…….ये प्रेम की लीला है ।

तात ! जब तक आप ईश्वर से विमुख हो ……आपको विधि निषेध की आवश्यकता है ……….पर जो ईश्वर के सदैव सन्मुख है …….जिसका मन बुद्धि चित्त में बस ईश्वर ही समा गया हो …….उसे क्यों पड़ी है विधि निषेध की ? उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

आहा ! ये लड्डू कितना बढ़िया है …………मधुमंगल लड्डू खाते हुये प्रसन्न है ……..फिर उसके मन में आता है ……….धत् ! ये लड्डू तो कन्हैया को खिलाना था ……….मुँह से निकाल कर कन्हैया के मुख में दे देता है मधुमंगल ।

“ये मठरी है”……कोई ग्वाल सखा कह रहा है…..कन्हैया कहते हैं – मुझे दे ……..नही दूँगा पहले मैं चखूंगा ………..कहीं नमक या मिर्च ज्यादा तो नही है ! ये कहते हुए वो सखा मठरी को चखता है ………हाँ ……बढ़िया है ……..वो चखा हुआ फिर कन्हैया के मुख में ।

ये प्रेम लीला है ……..प्रेम का मार्ग अलग ही है …..उसमें न विधि है न निषेध है ………प्रेम – बस प्रेम है ।

ये क्या लीला है ? ब्रह्मा को अपना माथा पीटना ही पड़ा ।

ब्रह्मा की निपुणता सृष्टी के कार्यों में है …..इन प्रेम लीलाओं में नही है ।

आप सदैव बुद्धि से ही काम लेते हो ………पर कोई कोई प्रसंग ऐसे होते हैं ……….जहाँ बुद्धि और तर्क काम नही देते …….वहाँ तो हृदय से देखो …..हृदय से दर्शन करो , न कोई तर्क , न कोई वितर्क ।

कुछ कुछ क्रोध भी आनें लगा अब ब्रह्मा जी को…….तुम इसे ईश्वर मान रहे हो……जो विधि निषेध की धज्जियाँ उड़ा रहा है……..ईश्वर गम्भीर है……..ईश्वर अवतरित होकर वैदिक विधि का ससम्मान स्वयं पालन करता है……क्यों कि उसे हम जीवों से यही करवाना है ।

देवता सब चुप हो गए हैं अब …..ब्रह्मा जी नें आकर इस प्रेम लीला में अपनें तर्क का प्रयोग करना शुरू कर दिया था …….जिससे लीला का रस अब देवों को मिल नही रहा ।

तभी – हरी हरी दूब का लोभ बछड़ों को दूर ले जाता है……..ये सब ब्रह्मा नें तुरन्त किया था……उन्हें अपनें आपको बड़ा साबित करना था ।
ग्वाल सखाओं नें देखा……..कन्हैया ! अपनें बछड़े कहाँ गए ?

कन्हैया उठ कर खड़े हो गए थे एकाएक…….गम्भीर होकर उन्होंने नभ की ओर देखा था …….पर तुरन्त उनके मुख मण्डल पर एक अद्भुत हास्य तैरनें लगा ……मानों कह रहे हों…….”पुत्र ! आज अपने पिता की परीक्षा ले रहे हो ” !

सखाओं ! तुम सब खाते रहो…..मैं देखकर आता हूँ बछड़ों को ।

इतना कहकर अकेले कन्हैया हाथ में दही भात लिये ही उठे …….और बछड़ों को खोजनें चल पड़े थे ।

हँसे ऊपर से विधाता ब्रह्मा …….बछड़ों को चुरा लिया था ब्रह्मा नें ।

बछड़े नही हैं………दूर तक जाकर भी देखा कन्हैया नें ……..पर कहीं नही हैं……..चलो ! आजायेंगे ……ऐसा कहते हुये लौटे कन्हैया जहाँ उनके ग्वाल सखा थे ।

पर ये क्या ! यहाँ अब कोई नही है………ग्वाल सखाओं का भी हरण कर लिया था ब्रह्मा नें ।

ब्रह्मा देख रहे हैं कि – ये करता क्या है अब ?

मानों अब चुनौती दी कन्हैया नें ब्रह्मा को ।

तुम्हे सृष्टी का रहस्य अभी तक समझ में नही आया ब्रह्मा !

अहंकार करते हो कि मैं ही बनाता हूँ सृष्टि !

अरे ! तुम क्या बनाओगे ? बताओ क्या बनाते हो तुम ?

जीव तुम बनाते हो ? जीव तो अनादिकाल से है ।

जीव का अन्तःकरण बनाते हो ? अरे ! जब जीव है तो अन्तःकरण भी उसका है ……..उसमें वासना है , कर्म है , उसके अनुसार ही तो ब्रह्मा एक शरीर दे देते हैं ।…….फिर ब्रह्मदेव ! तुम बनाते क्या हो ?

मैं तुम्हे अब समझाता हूँ – सृष्टि का रहस्य क्या है ?

ये कहते हुए वो नन्हा सा कन्हैया हँसा ………..और देखते ही देखते दूसरी सृष्टि बना दी कन्हैया नें ।

अब यहाँ न अन्तःकरण की आवश्यकता थी ……..न कर्म न वासना …..न जीव ………….पर सब कुछ वैसा ही ……..।

विदुर जी पूछते हैं – ये कैसे किया नन्दनन्दन नें ?

उद्धव उत्तर देते हैं – ये नन्द नन्दन हैं ……सृष्टी के मूल में यही हैं …..ब्रह्मा विष्णु शंकर ये सब नन्दनन्दन की सृष्टि के ही एक हिस्सा हैं ।

स्वयं बन गए तात ! नन्दनन्दन स्वयं बन गए …….बछड़े बन गए , बछिया बन गए ……..ग्वाल बाल सब बन गए ।

ब्रह्मा को सृष्टि का कार्य स्मरण हो आया था …..तो वे हंस में बैठकर चल पड़े अपनें ब्रह्म लोक में ……………

यहाँ लीला चल रही है ………एक वर्ष तक कन्हैया ही बने हैं सब ….ग्वाल बाल बछड़े बछिया , सब ।

क्यों की ब्रह्मा का एक क्षण, ब्रह्म लोक का एक क्षण यहाँ पृथ्वी में एक वर्ष हो जाता है ….और एक वर्ष तक ये लीला चलती रही थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 58

Important

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 58 )

!! जब कन्हैया नें क्रोध में मटकी फोड़ी…!!


कन्हैया अपनी मैया की गोद में बैठकर “स्नेह रस” का पान कर रहे हैं ।

मैया, “दर्शन रस” का पान करते हुए मुग्ध हैं………

देवता तो अमृत का पान करके तृप्त हो गए ……..पर उस अमृत में ये रस कहाँ था…….इस अमृत में तो विशुद्ध वात्सल्य का भरपूर रस मिला हुआ है…..तभी तो ब्रह्म, यशोदा के वक्ष से निकल रहे दूध को पीते हुए भी अघाते नही हैं ।

अब प्रसन्न हैं ………अत्यधिक आनन्दित हैं ……क्यों की मैया का ध्यान अब पूर्णरूप से कन्हैया पर ही है ……..

अभी तक चिड़चिड़े से थे कन्हैया ………कारण ?

कारण यही कि…..मैया का ध्यान लाला पर नही था ….माखन पर था, …माखन निकालनें पर था ।

पर अब ? अब तो पूर्णरूप से लाला में ही ध्यान है …….

दूध पी रहे हैं कन्हैया……..बीच बीच में ……..स्तनाग्र से मुख हटाकर अपनी मैया को देखते हैं ………दूध मुख में भरा हुआ है ……तभी हँसी छूट पड़ती है और मैया के मुखमण्डल में वो दूध फैल जाता है ।

दुष्ट !

बड़े प्यार से कहते हुये कपोल में हल्की चपत लगा देती हैं ।

खिलखिलाकर फिर हँस पड़ते हैं कन्हैया ……….

पीले दूध लाला ! ऐसे हँस मत…….नही तो दूध कण्ठ में अटक जाएगा….मैया को हर तरह से सुरक्षा करनी है अपनें लाला की ।

कन्हैया फिर दूध पीनें लगे………पर बीच बीच में फिर खिलखिला उठते हैं……..जब स्तनाग्र से मुँह हटाकर मैया की ओर देखते हुए …….”नही, ….मारूँगी अब” ……….मैया समझ जाती है कि मुँह में दूध भर लिया है …..और अब मेरे मुँह में फैलायेगा ।

तब लाला हँसते हुए उस मुँह के दूध को वापस निगल लेते हैं …….पर निगलते समय दूध कण्ठ में अटक जाता है ……और कन्हैया खांसनें लग जाते हैं……मैया घबडा जाती है…..उठाकर पीठ में थपथपी देती हैं ।

कन्हैया फिर प्रसन्न हो जाते…….और दूध पीनें लगते हैं ।

पर तभी –

मैया नें एकाएक कन्हैया को धरती पर रख दिया और भागी रसोई की ओर…….उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

पर क्यों ? विदुर जी नें पूछा ।

रसोई में दूध बैठाकर आईँ थीं बृजरानी…….और वो दूध उफ़न गया था …….इसलिये भागीं मैया……..उद्धव नें कहा ।

नही नही तात विदुर जी ! आप ऐसा मत सोचना कि …….कन्हैया से ज्यादा ममता मैया की दूध पर है ……नही ऐसा नही है ।

उद्धव रुके कुछ देर के लिये……..फिर बोले – तात ! प्रेम की गति बड़ी अटपटी है…….टेढ़ी मेढ़ी गैल है ये प्रेम की ।

तात ! कभी कभी प्रियतम की प्रिय वस्तु प्रियतम से भी ज्यादा प्यारी लगनें लगती है…….उसमें भी अगर “प्रिय” के खानें की वस्तु हो …….तब तो उसका प्रियतम से भी ज्यादा ध्यान सम्भाल किया जाता है ……..ये प्रेम का अनूठा प्रसंग है……..उद्धव नें कहा ।

तात ! ये सुरभि गाय का दूध था जो रसोई में आँच पर बृजरानी बिठाकर आईँ थीं…….मैया यशोदा का दूध पीनें के पश्चात्……..अगर किसी गाय का दूध कन्हैया पीते थे…..तो वो सुरभि गाय का दूध ही था……..मैया अगर न जातीं कन्हैया को छोड़कर तो वो दूध उफ़न गया था पूरा फैल जाता…..कन्हैया फिर किसका दूध पीते ? इसलिये कन्हैया के लिये ही कन्हैया को छोड़कर मैया गयीं रसोई में ।

पर – बालक ये सहन नही कर सकता…..बालक सब सह लेगा ….पर अपनी मैया का नजरअंदाज करना, ये उससे सहन नही होता ।

बस – कन्हैया अकेले धरती पर पड़े हैं……बृजरानी चली गयीं हैं दौड़ती हुयी दूध के पास, रसोई में ।

अब तो कन्हैया को क्रोध आया……और क्रोध भी बड़े जोर का आया …….लाल लाल नेत्र हो गए ….. अरुण अधर फड़कनें लगे उनके ।

नेत्रों में भी जल भर आये अब ………..भृकुटी टेढ़ी हो गयी ………

इधर उधर देखनें लगे ……………ये कैसे हो गया ? मैया नें मुझे कैसे पटक दिया और चली गयी दूध के पास ?

“दूध प्यारो है , पूत प्यारो नही है मैया कूँ”………..बस क्रोध और बढ़ा ये सोचकर ………..

इधर उधर दृष्टि घुमाए जा रहे हैं ………..तभी सामनें वही मटकी दीखी ……जिसमें से माखन अब निकलनें ही वाला था …..मैया, अभी मथानी जिसकी चला रही थीं ……….

बस – उसके पास गए कन्हैया ………….मटकी को हिलाया …..पर मटकी हिली नही ………बड़ी कोशिश की ……..कि मटकी को गिरा दिया जाय …और माखन फैला दिया जाए ……पर नही …..कुछ न हो सका ।

क्रोध से भरे हुए हैं कन्हैया ।

कन्हैया को भी क्रोध आता है ? विदुर जी नें सहजता में पूछा ।

उद्धव हँसे ……क्रोध से ही तो ये प्रलय करता है सृष्टी का ।

तात ! उसी समय सामनें एक लोढ़ी ( पत्थर का टुकड़ा ) दीखा ……वो बड़ा था …….कन्हैया उसे जैसे तैसे ले आये …….और ऊपर से मटकी में जोर से मार दिया ……….मटकी फूट गयी ……..माखन फ़ैल गया आँगन में ……………

मटकी फूटी ……..तो डर गए कन्हैया …………मैया की ओर , रसोई घर की ओर देखनें लगे ………..पूरा माखन फ़ैल गया था आँगन में ………

कन्हैया सोचनें लगे …….अब तो पीटेगी मैया !

तो करें क्या ?

उद्धव बोले …………रोनें लगे का कन्हैया …………सच में नही तात ! झूठे अश्रु लगाकर रोनें लगे …………….मृषाश्रु ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 60

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 60 )

!! “जब ब्रह्म डरनें लगा”- वात्सल्य की एक झाँकी !!


तात ! श्रीकृष्णावतार द्वापर के अंत और कलियुग के आगमन पर हुआ था ……….हर युग में भगवतभक्त अनन्त संख्या में मिल जायेगें ……पर कलियुग में ?

उद्धव, विदुर जी को “श्रीकृष्णचरितामृतम्” सुनाते हुए ये बात बोले थे ।

यमुना के तट पर , कालिन्दी के कूल पर …….शीतल वयार चल रही है ……वहीँ बैठे विदुर जी अपनें आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र जु की दिव्य कथा सुन रहे हैं……और बड़े आनन्दित हैं ।

मैया बृजरानी भाग रही हैं अपनें सुत कन्हैया के पीछे ……..उपद्रव भी तो आज सीमा पार कर गयी थी ………उफ़ ! ऐसा भी कोई करता है …….मटकी एक फोड़ी होती तो चलो कोई बात न थी ….पर भण्डार के जितनें मटके थे सब फोड़ दिए !………उसका माखन भी बन्दरों और ग्वालों को लुटा दिया…….और अब भाग रहे हैं कन्हैया ।

पीछे छड़ी लेकर यशोदा दौड़ रही हैं…………

आज तक बृजेश्वरी क्यों दौड़ीं होंगीं ? बृज की महारानी हैं ये …”बृजेश्वरी” सब कहते हैं इन्हें , पर आज – चोटी ढीली हो गयी है ……मुख लाल हो गया है दौड़ते हुए…..अब तो पसीनें भी आने लगे हैं ।

लगभग हाँफनें लगीं थीं बृजरानी ।

आगे कन्हैया दौड़ रहे हैं ……….चपल उनके चरण ………गोल गोल घूमते हैं ……..फिर टेढ़े मेढ़े भाग रहे हैं ……….बेचारी बृजरानी कहाँ तक भागे इसके पीछे …….ये तो अद्भुत कुशल है भागनें में ………।

थक गयीं ………..बुरी तरह से थक गयीं मैया ………….

सुस्तानें के लिये बैठना ही पड़ा मैया को ……….हाँफ रही हैं …….

जो भी देख रहा था इस दृश्य को सब को दया आरही थी बृजरानी के ऊपर ……तो क्या कन्हैया को दया नही आवेगी ?

पकड़ ले मैया ! आ ! पकड़ !

कन्हैया चिढानें लगे थे अपनी मैया को ।

गर्मी के कारण सिर चकरानें लगा था मैया का …………

तभी उस स्थिति में बृजरानी को मिट्टी खानें का प्रसंग स्मरण हो आया ……..और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसके मुँह में मुझे दीखे थे ये भी तत्क्षण स्मृति में आगया ।

सामनें चिढ़ा रहे कन्हैया “नारायण” दिखाई देनें लगे ……….

पर मन में सोच रही हैं बृजरानी ………..तो क्या हुआ अगर ये नारायण है तो ! हो तो हो ……..मेरा पुत्र बनकर आया है तो उपद्रव का दण्ड इसे मिलेगा ही ………हाँ ये पक्का है ।

बृजरानी उठीं ………सामनें देखा, कन्हैया अंगूठा दिखा रहे हैं …….पर डरे हुए भी हैं ………कि जाना तो मैया के पास ही है ……….और जब जायेंगे तो पीटेगी ये …..और अच्छे से पीटेगी ।

बृजरानी बोलीं ………आजा ! आ मेरे पास आ ! लाला ! आ ।

ना ! तू मारेगी ………कन्हैया बोले ।

ना मारूँगी ! सच ! तू आ तो जा ……तेरी पूजा करूंगी …..आरती उतारूंगी …..आ ! आजा ! मैया आगे बढ़ रही हैं ये कहते हुए ।

पर तेरे हाथ में छड़ी है याकुं देख के मोय डर लगे ! कन्हैया बोले ।

लाला ! या छड़ी ते कहा डरनों…….ले ! मैने फेंक दियो …….

ऐसा कहते हुये बृजरानी नें अपनें हाथ की छड़ी फेंक दी ।

उद्धव प्रसन्नता में बोले ………तात ! जीव के हाथ में अहंकार रूपी छड़ी जब तक है ….तब तक परमात्मा कहाँ हाथ आवे ?

उद्धव ! क्या कन्हैया फिर हाथ में आये बृजरानी जु के ?

विदुर जी नें ये प्रश्न किया ।

नही ……..अभी भी भागनें में लगे हुए हैं ……………

भगवत्तत्व का बोध हुआ बृजरानी को ……..वो स्मृति आगयी …….ब्रह्माण्ड मुख में दीखा था ……वो स्मृति ।

“तुझे अपनें सतयुग के भक्तों की सौगन्ध है लाला ! “

मैया आवेश में बोलीं ।

सतयुग में तो मेरे बहुत भक्त हैं………..कन्हैया हँसे ।

तो फिर तुझे त्रेता युग के भक्तों की सौगन्ध है ……तू मेरे हाथ आजा ।

ना ! मैया ! त्रेता युग में भी मेरे भतेरे भक्त हैं……कन्हैया सहज ही रहे ।

द्वापर के समस्त भक्तन की सौगन्ध है तुझे ……….अब तो आजा !

मैया बोलीं, कसम देकर ।

पर कन्हैया नही आये ………कन्हैया नें सोचा द्वापर में भी मेरे बहुत भक्त हैं ।

“तुझे कलियुग के भक्तों की सौगन्ध है”……मैया के ये कहते ही , रुक गए कन्हैया……सजल नेत्र हो गए कन्हैया के…….

कलियुग में तो मेरे बहुत कम भक्त हैं……..भक्तों की संख्या कम है कलियुग में…….फिर उनकी सौगन्ध ? मैं कैसे टालूँ !

खड़े रहे कलियुग के भक्तों का स्मरण करते हुए कन्हैया …..आँखें बन्दकर ली थीं उस समय …………..

फिर उसी समय बृजरानी को………भगवतभाव की विस्मृति भी हो गयी ……सामनें पुत्र ही दीखा …..कोई भगवान नही ……बस ….वो दौड़ीं ………और धम्म् से जाकर पकड़ लिया…………

दो थप्पड़ पहले ही लगा दिए ………रो गए कन्हैया ।

करेगा ऊधम ? मचायेगा उपद्रव ?

कान पकड़ रही हैं ………गाल में थप्पड़ मार रही हैं…….क्रोध से भर गयी थीं बृजरानी आज……..चल ! बताउंगी मैं आज तुझे ।

गोपियां आगयीं नन्दालय के आँगन में……….कन्हैया को पीट रही हैं मैया यशोदा …………और हिलकियों से रो रहे हैं कन्हैया ………छड़ी दिखातीं हैं तो काँप जाते हैं एक अपराधी की तरह …………

मत मार ! बृजरानी ! “तेरो कठिन हियो री माई” ।

कैसा कठोर हृदय पाया है री बृजरानी ! मत मार अपनें लाला को …….

देख कितना कोमल है ये …..मत मार ! देख ! कैसे रो रहा है ……तुझे दया नही आरही ? बूढी गोपियाँ समझा रही हैं ।

हाँ नही आरही मुझे दया ! और तुम कौन होती हो ये बोलनें वाली …..कल तक तुम्ही आकर कहती थीं ना ……….कि तेरा लाला चोर है ….माखन चुराता है ………..फिर आज क्या होगया ? बोलो !

बृजरानी सच में आज बहुत क्रोधित हैं………..

कन्हैया बारबार कह रहे हैं ……..मत मार ! तू मुझे मत मार ! आँखों का काजल बह रहा है कपोलों में……….डर रहे हैं !

तात ! आँखें बन्द करो ……और इस झाँकी का ध्यान करो ………

ब्रह्मा से ये डरता नही है ………महाकाल इससे डरते हैं ………..पर ये एक सामान्य गोप पत्नी से डर रहा है !……..आहा ! कान पकड़े हैं ब्रह्म के इस नन्दगेहनी नें ………….नयन सभीत हैं इसके ।

उद्धव इतना बोलकर स्वयं ध्यान करनें लग गए थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 59

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 59 )

!! अहो ! जब “ब्रह्म” को पीटनें भागीं यशोदा !!


मैं वास्तु देवता !

…….नन्दमहल को पाकर मेरे भाग्य से देवता ही क्यों स्वयं विधाता भी ईर्ष्या करनें लगे हैं ।

उस दिन मैं था ………..मैने दर्शन किये उस लीला के ………..जब क्रोध में आकर नन्दनन्दन नें मटकी फोड़ दी थी ।

मैने सब देखा ……….मैं अपनें आपको बहुत भाग्य शाली मानता हूँ ……मानता नही …….”हूँ” ।

ब्रह्म , शिशु रूप में मेरे सामनें थे…………देवताओं की छोडो बड़े बड़े सिद्धात्मा भी इनकी एक छलक के लिए पागल हैं ……….कन्दराओं में , हिमालयों में हजारों वर्षों से तप कर रहे हैं…………पर ब्रह्म की अनुभूति उन्हें हुयी नही ……….मैं तो एक सामान्य वास्तु देवता हूँ ……मैं तो धन्य हो गया ……..मैं तो कृतकृत्य हो गया ……..मेरे सामनें नीलमणी दीखते हैं ………बाल चापल्य लीला करते हैं ……..और मैं उन्हें देखकर आनन्दित होता हूँ ……..अहो !

विदुर जी को उद्धव ये सब सुना रहे हैं ।

उस दिन वास्तु देवता नें ही कन्हैया के कान में कह दिया था ………

हे यशोदा के नीलमणी ! आपनें बहुत बड़ा अपराध कर दिया ……ये क्या किया ? अब झूठे आँसुओं से कुछ होनें वाला नही है ……..परदादी की मटकी थी ये ……….इस खानदान की सबसे पुरानी मटकी थी ये ………तुमनें तोड़ दी ।

डर गए कन्हैया ………..मैं वास्तुदेवता ………….उस रूप को देखकर मुझे बड़ा आनन्द आया ……काल जिससे डरता है ………..वो नन्दलाल आज यशोदा से डर रहा था ………रोना बन्द कर दिया ।

धरती में देखनें लगे कन्हैया …….मटकी फोड़ दी थी …….उसके टुकड़े चारों ओर बिखरे हुए थे ।

“अब तो मैया पीटेगी”………..आँखों में भय था ।

बचाव तो किया जाए……….पर कैसे ?

स्वयं ही सोच रहे हैं…….कुछ देर खड़े सोचते रहे मोरमुकुटी ।

फिर धीरे धीरे सामनें की ओर बढ़ चले………सामनें भण्डार घर था …….वहाँ कई माखन की मटकियाँ रखी हुयी थीं ……..द्वार खोला ……..पहली बार इस भण्डार में आये थे……..भीतर माखन से भरी मटकियाँ दीखीं ………कन्हैया तो खुश………..

माखन इतना रखा हुआ है यहाँ………….

ऊखल में चढ़ गए……..खिड़कियाँ खोल दीं ………

अब खिड़कियों के खुलते ही वानर समाज सब आगया …..वृक्षों में चढ़ कर खिड़कियों से देख रहे हैं बन्दर………तभी मनसुख इत्यादि ग्वाल सखा भी आगये …….उन्होंने भी देखा कि खिड़कियों में बन्दरों का उत्पात है……..माखन खा रहे हैं……..पर जैसे ही वहाँ गए …….तो मनसुख बोला ……उत्पात तो हमारे सखा नें मचा रखा है ।

खाओ ! खाओ माखन ! खूब खाओ ………भण्डार घर से माखन कि मटकी लेते हैं …..और बन्दरों को खिला रहे हैं कन्हैया ………माखन ही माखन हो गया है भण्डार में ……….

अब तो भण्डार से बाहर बहनें लगा था दही दूध ।

ग्वाल बाल भी कहाँ पीछे रहनें वाले थे………वो सब आगये ……….कन्हैया उन्हें देखकर और खुश हो गए ……..लो खाओ माखन ! खूब खाओ ! कन्हैया प्रसन्नता के कारण उछल रहे हैं आज ………बड़े प्रसन्न हैं आज कन्हैया ।

ये सब उपद्रव देखकर मुझे आनन्द तो आरहा था……अतिआनन्द …….पर अब तो मुझे भी डर लगनें लगा था कि बृजरानी कन्हैया को ताड़ना न दें……मैं कुछ कर भी नही पाउँगा वास्तुदेवता जो ठहरा ।

अब जाकर रसोई का कार्य पूरा हुआ था बृजरानी का ………..

कार्यपुरा करके जब आँगन में आईँ……..तब देखा – मटकी फूटी पड़ी है ……..उस मटकी का माखन आँगन में फ़ैल गया है ।

बृजरानी हँसी ……..मैने लाला को पटक दिया और रसोई में चली गयी इसलिये उसे क्रोध आया होगा…………बृजरानी नें ज्यादा गम्भीरता से इस बात को नही लिया था…….पर बृजरानी नें देखा , इधर उधर देखा ….किन्तु कन्हैया है कहाँ ?

वो थोडा डर भी गयीं ………कि मटकी फोड़कर वो गया कहाँ ?

तभी दूध और दही की धारा आती हुई दिखाई दी बृजरानी को ।

ये तो भण्डार से आरही है ……..तो क्या मेरा लाला भण्डार में पहुँच गया !……..बृजरानी गयीं भण्डार में …………

द्वार खुला है……….भीतर गयीं ……….तो वहाँ का दृश्य देखते ही क्रोध से भर गयीं ।

…….पर कन्हैया को कुछ भी भान नही है …….वो अपनें वानरों को और सखाओ को माखन लुटा रहे हैं ……और चिल्ला रहे हैं …………

भीतर का दृश्य बृजरानी नें देखा ………..माखन की सारी मटकियाँ फोड़ दी हैं कन्हैया नें……चारों ओर बस माखन ही माखन फैला हुआ है ।

क्रोध के कारण पहले बृजरानी बाहर आईँ ………गैया को मारनें वाली एक छड़ी वहीँ पड़ी हुयी थी ……उसे हाथ में उठा लिया ।

तात ! वास्तुदेवता स्वयं थरथर काँप उठे थे जब बृजरानी नें कन्हैया को पीटने के लिये छड़ी उठाई ………काल देवता स्वयं डर गए थे जब कन्हैया को पीटनें के लिये मैया नें छड़ी उठाई ……….

महालक्ष्मी काँप उठी थीं …………जब कन्हैया को पीटनें के लिये मैया नें छड़ी उठाई थी……….ओह ! अब क्या होगा ? क्यों की क्रोध से बृजरानी का मुखमण्डल लाल हो गया था ।

अपनें पीछे छड़ी को छुपाये मैया भण्डार घर में प्रवेश करनें लगी …….दवे पाँव ….ताकि लाला को पकड़ सके ……….

पर मनसुख नें देख लिया था ………वो चिल्लाया ….”.लाला ! देख तेरी मैया आरही है ” ।

कन्हैया नें पीछे मुड़कर देखा ……….दोनों हाथ पीछे हैं मैया के …….और वो चली आरही है ………मुख को देखा कन्हैया नें …….समझ गए कि आज तो “पिटेंगे”…………….खिड़की से कूदे कन्हैया ……और भागे – जोर लगाकर ।

बृजरानी भण्डार घर से बाहर आईँ ………और कन्हैया के पीछे दौड़ीं ।

स्थूल शरीर मैया का ………..और पाँचवर्ष के कन्हैया !

रुक ! मैं तुझे आज छोडूंगी नही ………..भाग के कहाँ जाएगा तू !

हद्द कर दी तेनें आज ………..साँस फूल रही है मैया की …….क्यों की भाग रही हैं लाला के पीछे ………

अब तो पसीनें आगये मैया के ……..बेणी ढीली हो गयी ……उसके फूल गिरनें लगे ………साँस तो रुकी पड़ी है आज सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की …….क्यों की ये पहली घटना है ……..जो ब्रह्म को ताड़ना देनें के लिये बृजरानी दौड़ रही हैं ……अहो ! तात !

उद्धव आज इतना ही बोले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 57

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 57 )

!! “मेरो व्याह कराय दे मैया”- अटपटी लीला !!


तभी –

कन्हैया आँखें मलते हुए, दधिमन्थन करती हुई अपनी मैया बृजरानी के पीछे जाकर खड़े हो गए थे ।

नित्य, बृजेश्वरी ही जगाती थीं कन्हैया को …………पर आज इनका ध्यान माखन निकालनें पर था ……..और माखन निकालनें में इतनी तन्मय हो गयी कि ……..दिन भी निकल आया……..

आज स्वयं ही जगे थे नन्दलाल ………पहले कुछ देर ” ऊँ ऊँ ऊँ” करके रोये …….कुछ देर “मैया मैया” कहकर भी देख लिया …….पर जब देखा कि आज कोई नही है पास में …..न कोई सुन ही रहा है ……….तो उन्होंने रोना छोड़ दिया ………स्वयं ही उतरे पलंग से ……….और धीरे धीरे आँखों को मलते हुये आगये थे मैया के पास ।

पीछे से बृजरानी के गले में अपना एक हाथ रखा था …..और दूसरा हाथ उनकी ठोढ़ी में रखते हुए पूछा ……….”तू तो आजकल मेरी बात भी नही सुनती मैया ! ”

पीछे मुड़कर देखा मैया नें……फिर हँसीं……आगे धीरे से खींचा अपनें लाल को…….फिर बोलीं……बस, एक घड़ी भर रुक जा ……माखन आनें ही वाला है ऊपर…..इतना कहते हुए फिर दधिमन्थन करनें लगीं ।

“पर मुझे भूख लगी है”…….लाला इस बार चिल्लाये ।

पर आज मैया बस मुस्कुराई लाला की ओर देखकर ………हाँ एक बार मुख चूम लिया था ……….फिर मथानी चलानें लगी ।

कन्हैया भी कहाँ माननें वाले थे ……..इस बार तो मथानी को ही पकड़ लिया …………अब कोमल छोटे करों नें जब मथानी को रोक दी …..तब मैया में भी हिम्मत न रही कि मथानी को चला सके ।

लाला ! तुझे क्या चाहिये ? अच्छा बता तुझे क्या दूँ ?

गोद में बिठा लिया लाला को …….और बड़े प्रेम से पूछनें लगीं ।

माखन ! मटकी में हाथ डालते हुए बोले कन्हैया ।

हट्ट ! हाथ मत डाल इसमें…….मैया बृजरानी नें हाथ हटा दिया ।

फिर बोलीं – लाला ! बस …….कुछ देर और मथानी चलानें दे ……….माखन निकल आएगा तब खिलाऊँगी तुझे ………

न हीं …………….फिर जोर से चिल्लाये ।

अभी …….अभी चाहिये माखन ! अभी ………गोद से उठ गए कन्हैया ……..और धरती में उछलने लगे ……..”माखन चाहिये” ।

मटकी में देखा मैया नें ………….माखन ऊपर आनें ही वाला है अब तो ……बस दो तीन बार और चला लुंगी मथानी तो हो ही जाएगा ।

लाला ! ए मेरे लाला ! बस रुक जा ! कुछ देर के लिये रुक जा !

मना रही है मैया अपनें लाला को …………

पर लाला भी हठी है………..ये मानता ही नही जल्दी ।

मन्थन छोड़ दे …….मैया ! ये सब छोड़ दे ……मुझे माखन दे …….

मैया नें गोद में ले लिया……अब क्या करे ऐसे “हठी गोविन्दा” को, ……”लाला ! कल का माखन खा ले”…….मैया नें पुचकारते हुए कहा ।

नही ……..ये माखन ………मटकी की ओर दिखाते हुए बोले ।

हद्द है ………मथानी की रस्सी निकाल कर फेंक दी कन्हैया नें ।

मैया अब क्या करे…..”इतनी जिद्द तो तू कभी करता नही था ! मान ले ना बात को लाला !

“नही ….माखन ……..और इसी में से” ………फिर वही हठ ।

मैया बृजरानी नें लाला के कपोल में थपकी देते हुए कहा ……….ऐसे जिद्दी बनेगा ना, तो तेरा ब्याह भी नही होगा ।

मेरा ब्याह ? कन्हैया सोचनें लगे …………..

मैया ! ब्याह क्या होता है ? मासूम से कन्हैया पूछ रहे हैं ।

मैया क्या बोले ………तभी सामनें मोर और मोरनी दिखाई दिए ……जो आँगन में दाना चुगनें के लिये आगये थे ।

देख ……..ये मोर है ….और ये उसकी मोरनी है ……..ऐसे ही तेरा ब्याह होगा ना …..तो तेरी भी बहु आयेगी ………….

बड़े ध्यान से देखते रहे मोर और मोरनी को कन्हैया ……फिर बोले …..ये इसकी बहु है ?

हाँ …..ये इसकी बहु है ……….फिर कुछ सोचनें लगे ………..और फिर एकाएक गोद से उठकर खड़े हो गए धरती पर ।

मेरी बहु कहाँ है ? फिर दूसरा हठ शुरू ।

मैया हँसी ……..मैया को हँसते हुए देखा तो और गुस्सा आया लाला को ………गेंद की तरह मुँह फुला लिया …….टेढ़ी नजर से देख रहे हैं अपनी मैया को …….गुस्से में देख रहे हैं …….दोनों हाथों को कमर में रख लिया है ………ओ ! ओ मैया ! हँस मत, मुझे बता कि मेरी बहु कहाँ है ?

मैया इस छबि पर मुग्ध है…वारी जाऊँ लालन ! क्या छबि है तेरी….

पर कन्हैया गुस्से में हैं ……..”मेरी बहु कहाँ है ये बता ? “

“अभी तेरो ब्याह थोड़े ही भयो है” ……मैया नें कहा ।

तो मेरो ब्याह कराय दे ……..कन्हैया बोले ।

लाला की बातों को सुनकर, मैया हँस हँस के लोट पोट है रही है ।

अच्छा बता ! तुझे कैसी बहु चहिये ?

फिर लाला को खीचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मैया नें पूछा ।

मुझे ? सोचनें लगे कन्हैया ……….फिर बोले …….छोटी सी ……छोटी सी बहु , मैया ! ।

कितनी छोटी सी ? मैया हँसते हुए पूछ रही हैं ।

पर कन्हैया गम्भीर होकर उत्तर दे रहे हैं –

इतनी छोटी सी की जब हम गैया चरावें जायो करें तब जेब में धरके ले जावें …….और वहाँ वा ते बतियामें …….।

मैया बोली ……….अरे ! तोय गुड़िया चहिये ?

नाय बहु चहिये ! कन्हाई फिर मचले ।

मैया बृजरानी समझ गयीं कि…..इसे भूख लगी है इसलिये ये चिड़चिड़ा हो गया है…..अपनी गोद में लेकर लाला को दूध पिलानें लगीं थीं ।

शेष चरित्र कल

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 100

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 100)

!! धेनुक राक्षस का वध !!

तालवन को देखते देखते शून्य में पहुँच गए थे कन्हैया ।

“ओह ! तो ये”……..गम्भीर ही बने रहे नन्दनन्दन ।

भक्तराज प्रह्लाद के पुत्र हुए विरोचन, विरोचन के बलि ….और बलि का पुत्र था “साहसिक” ।

महाप्रतापी ……महाबली ………देवता तक काँपते थे इससे ।

एक दिन……….चला गया ये बदरी खण्ड में …….जहाँ नरनारायण तपस्या में लीन थे ………..ये क्षेत्र इस राक्षस को प्रिय लगा ।

पर उसी समय उस “साहसिक असुर” की भेंट हुई……एक अद्भुत सुन्दरी स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा से …..दोनों ही एक दूसरे पर मुग्ध हो गए ।

साहसिक का बलिष्ठ देह तिलोत्तमा को आकर्षित कर रहा था ।

हाथ पकड़ लिया साहसिक नें ……….निकट आया तिलोत्तमा के …..शरमा गयी थी वो ………….साहसिक मुस्कुराते हुए अप्सरा को लेकर गया एक गुफा में …………….।

तात ! ये बदरी क्षेत्र है …….ये तपस्थली है ……कोई भोग विलासिता की भूमि नही ………….उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

उसी गुफा में तप कर रहे थे …..ऋषि दुर्वासा ।

भोगरत प्राणी के परमाणु निम्न कोटि के होते हैं ……….जो आपके मन में भी विकार उत्पन्न कर देते हैं ………….वैसे ऋषि दुर्वासा के मन में कौन विकार उतपन्न कर सका है …….पर उनकी तपस्या टूट गयी ।

ऋषि नें देखा…….कहाँ ये गुफा शुद्ध सात्विकता के परमाणुओं से भरी हुयी थी …..वहीं भोग विलास करके इन दोनों नें ………छि !

क्रोध उठा ऋषि के मन में …….और उन्होंने श्राप दे डाला ……….

हे असुर ! जा ! तू गधा हो जा !

तिलोत्तमा सिर झुकाकर अपनें स्वर्ग में चली गयी ।

..पर वो साहसिक असुर …….पश्चाताप में जलनें लगा …………सच कहा है इन्होनें ……….ये केदार खण्ड बदरी क्षेत्र कोई विलासिता की भूमि नही है……….चरण पकड़ लिये ऋषि दुर्वासा के साहसिक नें …….अश्रु गिरनें लगे उसके नेत्रों से ……पर ऋषि दुर्वासा तो वहाँ से जा चुके थे ।

नन्दनन्दन शून्य में देखते हुए सब समझ गए……अब मुस्कुराये थे ये ।

कन्हैया ! काहे कूँ मुस्कुरा रह्यो है ? दाऊ नें आकर पूछी ।

नहीं दादा ! बस जा तालवन कूँ देख रह्यो हो …………।

तभी –

आज तो जे कन्हैया हमें भूखो ही मारगो……देखो ! दोपहरी है रही है …पेट में मूसा कूदते भये मर हू गए……मनसुख आपस में बोल रहा है ।

कहा भैया ! भूल लगी है ?

हाँ …….भूख तो लगी है …..पर तोहे तो राक्षसन कूँ मारनौ है ………श्रीदामा नें उलाहना के स्वर में जे बात कही ही ।

अरे ! बीर तो वाते कहें …..जो जा भूख नामक राक्षस कूँ मार देय …कन्हैया ! पहले तू लाला ! जा भूख असुर कूँ मार ….सबरौ झंझट ही खतम है जायगो ……….मनसुख नें भी अपनी बात कह दई ।

कन्हैया अब हँसे ………पर घर ते आज कछु नाँय आयो ।

अरे ! घर की छोड़ …..सामनें देख ! …..तालवन ……क्या सुन्दर पके भये ताल के फल हैं …..देख ! और क्या बढ़िया सुगन्ध आय रही है ।

भद्र सखा नें कन्हैया ते कही ।

पर ………मनसुख चुप है गयो ।

पर वर छोडो ………..जाओ ! फल है तो खावे के लिये ही तो हैं ।

जाओ फल खाओ ……..कन्हैया नें बड़ी सहजता में कह दियो ।

वहाँ असुर रहे है …………….श्रीदामा बोल्यो ।

अरे ! तो दाऊ दादा तुम्हारे साथ है …………..कन्हैया नें अपनें दाऊ कूँ उकसाये दियो ……..चौं दाऊ दादा ! जाओ ………रक्षा करो इन सबकी !

दाऊ चल दिए …….आओ मेरे पीछे पीछे ……कोई असुर कछु न कर पावेगो………दाऊ चल पड़े आगे और पीछे सब ग्वाल बाल ।

मैं भी आऊँ दादा ? कन्हैया चिल्लाये जोर ते ।

नायँ रहन दे ………मैं अकेलो ही पर्याप्त हूँ ………दाऊ चले गए थे ।

खाओ ! खाओ ! ताल वृक्ष के मीठे फल !

शेषावतार दाऊ नें सब ग्वालों से तालवन पहुँचते ही कह दिया था ।

खानें लगे फल ……….सब निश्चिन्त होकर खानें लगे थे ।

कन्हैया नें भी विचार किया ….अकेले यहाँ क्या रहूँ …..चलूँ मैं भी ।

कन्हैया भी आगये ……….और कन्हैया को देखकर तो सब और प्रसन्नता से उछल पड़े ………खूब खानें लगे थे फल ।

पर –

ये भयानक आवाज कहाँ से आरही है ! ग्वालों का फल खाना एकाएक रुक गया था ………क्यों की “ढेंचू ढेंचू” की ये आवाज इतनी भयानक थी कि चारों दिशाएँ कम्पित हो रहीं थीं ।

सामनें से एक विशाल गधा ………..धूल उड़ाता हुआ ………और धूल इतनी उड़ रही थी …..कि कोई किसी को देख नही पा रहा था ।

कन्हैया जोर से चिल्लाये – दादा !

सावधान हुए शेषावतार दाऊ……….सामनें आकर खड़ा हो गया था वो असुर ………जो गधे के रूप में था ।

दाऊ विद्युत गति से मुड़े ……..उस धेनुक नामक गधे के पैरों को जोर से पकड़ा ………….और संकर्षण बलभद्र नें चारों दिशाओं में उसे घुमाकर फेंक दिया.।

……….कन्हैया नें ताली बजाई ……..

क्यों की बलराम जी नें उसका एक ही बार में वध कर दिया था ।

पर कन्हैया अब अतिप्रसन्न हैं …………और ये देखकर तो और प्रसन्न हुये …….कि देवताओं नें उनके दाऊ भैया के ऊपर पुष्प बरसाए थे ।

ग्वाल सखाओं नें आनन्दित होकर खूब फल खाये …….पेट भरकर फल खाये …….अब ये वन असुर से मुक्त हो चुका था …इस बात की सबको प्रसन्नता थी ……विशेष प्रसन्नता तो हमारे नन्दनन्दन को हुयी ।

“बहुत बडौ काम कियो दाऊ दादा नें”………..वापस लौट रहे हैं वृन्दावन ते अपनें घर की ओर कन्हैया ………….क्या सुन्दर रूप है या समय कन्हैया कौ ………….मुस्कुरा रहे हैं …….कानन में कुण्डल नही हैं …….पर कुण्डल के स्थान पर कदम्ब के पुष्प हैं …………बैजयन्ति की अद्भुत सुगन्धित माला है …..जो उनके घोंटुन तक झूल रही है ।

फेंट में बाँसुरी है ………पीताम्बरी हवा के झौंकन ते हिल रही है ।

वाह ! वाह ! क्या बडौ काम कियो है आज हमारे दाऊ दादा नें ।

कन्हैया हँसते भये सबकूँ बताय रहे हैं ……………..दाऊ दादा फूल के कुप्पा है गए …………..

पतो है दाऊ दादा नें कितनौ बडौ काम कियो ?

फिर हँसते हुये उस बात कौ दोहराते हैं .कन्हैया ।

कहा कियो ? हमैं भी तो बताओ ? मनसुख आनन्द ले रह्यो है ।

“एक गधा कूँ मार दियो “

जे कहते भये जोर जोर ते हँस रहे हैं कन्हैया ……………सब हंसवे लगे……..मनसुखादि तो लोट पोट है गए धरती में ।

“वो कोई साधारण गधा नही था” ……….दाऊ दादा को इस तरह इन सबका हँसना अच्छा नही लग रहा ।

पर दादा ! गधा तो गधा ही था ……और तुमनें एक गधा कूँ मार दियो ……बहुत बडौ काम कियो है ……….ये कहते हुए फिर सब हँसनें लगे ।

तू चल ! मैं बताऊँ तोहे ………..मोहे छेड़ रह्यो है ?

दाऊ गुस्सा है रहे हैं ………………

तात ! ये सब इस तरह आनन्द लेते हुए …….हँसी विनोद करते हुए नन्दभवन में लौट आये थे ।

उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 98

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 98)

!! “वु टोटका वारी” – कन्हैया की नटखट झाँकी !!

वाकौ नाम कहा है पतो नहीं…….पर सब बृज में वाते “टोटका वारी” ही कहे हैं……बाल बच्चन के नजर टोटका उतारनौ, यामे सिद्ध है जे बूढी गोपी……या लिये याकौ नाम “टोटका वारी” ही पड़ गयो है ।

वैसे कहीं आवै जावै नही है …..पर आज सबेरे ही सबेरे पहुँच गयी नन्द भवन में…….याकुं कारी गैया कौ गोबर चहिये…….और वाके कछु बाल……टोटका करै तो आगयी गोबर और बाल लेवै कूँ ।

नैक ठहरो !

मैया बृजरानी नें उन्हें बिठायो फिर जल दैकें बृजरानी चली गयीं …….गोबर और कारी गैया के बाल लायवे कूँ गोष्ठ में ।

थोड़ी देर में आईँ बृजरानी……उनके हाथ में गोबर और कारी गैया के बाल है ।

पर जे कहा ?

“दारी !

कन्हैया नें मुँह फुलाए लियो हो …….और क्रोध में वा बुढ़िया कुँ देखकर कह रहे हैं ……..दारी !

हाँ जे गारी है ……..बृज की बड़ी प्रसिद्ध गारी है ……..आप कह सकते हो …….अश्लील गारी है जे तो ………हाँ पर जे गारी बृज में सब के मुँह में रहे है ……..”सारे” ” दारी” या “दारिके”……..अब गारी तो गारी है …….चाहे कुछ भी हो ……।

छोटा सो कन्हैया……सुबह सुबह उठते ही याकुं रोष आय गयो ……

बृजरानी नें देख्यो समझ नही पाईँ ………कहा भयो मेरे लाला कूँ ?

और आश्चर्य जे कि ………..वु टोटका वारी कन्हैया के चरनन में गिरी भई है …………..दुनिया कूँ आशिष देवै वारी …….अरे ! हाँ ……वा दिना कन्हैया कूँ भी तो लैं के गयीं हति बृजरानी ……..तब तो खूब आशीष दै रहीं ………पर आज कहा भयो !

आहा हा ! हे महादेव ! आप पधारे हो हमारे महलन में ……आओ ! मेरी दाहिनी और विराजमान है जाओ !

आहा हा ! हे भगवान विष्णु ! आज आप हूँ पधारे हो ……..महादेव के साथ ! आओ ! आप हूँ आसन ग्रहण करो !

ओहो ! गणपति गणेश ! पेट बडौ नाँय है गयो आपकौ ? लड्डुन कुँ खानौ कम करो …………पर आप आय गये हो तो आप हूँ आसन ग्रहण करो ……..बैठो !

अरे ! सप्त ऋषि ! आप सब एक साथ पधारे हो ……….आओ ! आप सबनकौ स्वागत है……..विराजमान है जाओ !

अब नींद में हैं कन्हैया ………..और नींद में ही बोले जा रहे हैं ।

बाहर बैठी है वु “टोटका वारी” ……..वाने सब सुन लियो है ……..”जे आवाज कहाँ ते आय रही है”………बस – वु तो महल में ही भीतर चली आयी ……..जब वानें देख्यो ……..आहा ! नीलमणी सोय रह्यो है ……..नेत्र बन्द हैं वाके ………..अद्भुत रूप माधुरी है ………लाल वर्ण के ओष्ठ हिल रहे हैं………आओ ! हे महादेव ! आओ हे भगवान विष्णु ! …………..

चकित ! वु टोटका वारी तो आश्चर्य में पड़ गयी ………..याके सामनें भगवान शंकर पधार रहे हैं ? और याकौ तेज तो देखो ? नायँ नायँ जे साधारण बालक नही है ……जे तो देवता है ………फिर विचार करे …..नहीं नहीं …..जे देवता भी नही ………महादेवता है ………भगवान है ………….

बस तुरन्त ही टोटका वारी नें लम्बी ढोग लगाई सोते भये कन्हैया के आगे……पर कोमल चरनन के स्पर्श करवे कौ लोभ त्याग न सकी ………छू लिये वाने कन्हैया के चरणारविन्द !

बस …….नींद खुल गयी कन्हैया की …………वु टोटका वारी के नेत्रन ते टप्प टप्प आँसू गिर रहे ……..वाने अपनें हाथ जोड़ लिए है …. ।

कन्हैया तुरन्त उठ के खड़े है गए …………रोष मुखमण्डल में स्पष्ट दिखाई दे रह्यो है ………नींद में विघ्न डाल लियो पाँव छू के या बुढ़िया नें ….।

बस – “दारी”…..अपनें मोती जैसे दाँतन ते वो गुलाबी अधर दवाय के ।

बृजरानी नें देख लियो और सब समझ भी लियो ………..।

कन्हैया अटपटो है ……याकुं ब्रह्मा भी नाँय समझ पामैं …..तो साधारण की बात ही कहा है !

तू गारी दे रह्यो है ?

बृजरानी कन्हैया के इस रूप पर तो मुग्ध हैं …..पर गारी देना ये तो अच्छे संस्कार नही है ।

तू या बुढ़िया मैया कुँ गारी दे रह्यो है ? बृजरानी नें फिर डाँट्यो ।

हाँ …..दई गारी ! ढिठाई से बोले कन्हैया ………” जे बुढ़िया मेरे सामनें सिर चौं पटक रही है ? मैं कोई पत्थर कौ देवता हूँ ?

मोय देवता कोई बनावै ना तो मैया ! मोय रिस आवै ……

मैं देवता नही ……मैं तो तुम्हारौ हूँ ……अपनौ हूँ ……….मोहे देवता बनाए के कोई परायो करे तो मैया ! मोहे बहुत रिस आवै ।

कन्हैया बोल दिए…….पर वु टोटका वारी ……….कन्हैया की जे बात पर भी …..”जय हो – जय हो”…….करवे लगी ………

कन्हैया नें फिर ……..”दारी ! गारी कूँ फिर दोहराय दियो ।

मैया भागी कन्हैया के पीछे ……..गारी दे रह्यो है …..मानें नही हैं ।

कन्हैया भागे ……….पर भागते हुए…….उस बुढ़िया टोटका वारी को जीभ दिखाते हुए …..सिगट्टा दिखाये के……”दारी दारी दारी” ।

पर वु टोटका वारी गदगद् है आज ……….पूर्णब्रह्म की ये छबि उसनें जो देखी है ……..वो समझ गयी कि हम जैसे सामान्य लोगों के बीच में प्रेम का सन्देश लेकर , वो पूर्णब्रह्म उतरा है ।

आहा ! विदुर जी के हृदय में ये झाँकी प्रकट हो गयी थी ………….

“दारी” – ये विदुर जी नें कहा ……और उद्धव और विदुर जी खूब हँसे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 99

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 99)

!! कन्हैया की प्रतिज्ञा !!

आज अपनें दोनों नन्हे हाथन कूँ उठाय के खडो है गयो कन्हैया ।

“दाऊ भैया ! मैं या पृथ्वी ते राक्षसन कूँ खतम कर दूँगा”

लाल मुखमण्डल है गयो हो वा समय कन्हैया को ………नेत्रन में जल भर आये ……..वु छोटो सो, अत्यन्त कोमल देह काँपवे लग्यो ।

बहुत बुरे होमें जे राक्षस …….सच में दाऊ भैया !

कन्हैया कुँ इतनौ गम्भीर काहूँ नें आज तक देख्यो नही है……”.इतनी चिन्ता मेरे अनुज कन्हैया कुँ !”……अब दाऊ भैया भी गम्भीर है गए…..

कन्हैया ! कहा भयो ? बोल ! काहूँ कूँ मारनों है ? काहूँ नें मेरे लाला को कछु अहित कियो है का ? बता ! वात्सल्य ते भर गए दाऊ ………और वैसे भी दाऊ जे कैसे सहन कर सकैं कि उनके प्रानन ते प्यारो कन्हैया आज चिंतित है ? दाऊ के रहते चिंतित ?

बता कन्हैया ! बता कहा भयो ?

दाऊ पूछ रहे हैं अपनें अनुज ते ।

कल कन्हैया , गैया चराय के जब अपने गोष्ठ में लौटे, तब –

झुकी कमर, काँपतों भयो अंग, पके केश झुर्रीयन ते भरो भयो शरीर ….हाथ में लठिया लेके वु बुढ़िया आय गयी ही……….वा के नेत्रन ते अश्रु बह रहे ……..वु बार बार अश्रुन कूँ पोंछ रही ।

कहा भयो ? बृजराज बाबा नें आय के पूछ्यो ……।

हे बृजराज ! मैं तालवन मैं रहूँ हूँ ……….वहाँ ताल के बड़े सुन्दर सुन्दर वन हैं ………और आस पास सरोवर भी हैं ……वहाँ ताल के बड़े मीठे फल लगें हैं ……..मै फलन कूँ तोड़ के ……..आस पास की गुफान में …..सन्त महात्मा की सेवा करती ……..और अपनी फूस की झोपडी में शान्ति ते रहती …भजन करती । पर ……..वा बुढ़िया नें अब अपनें आँसू पोंछे ………हिलकियाँ शुरू है गयीं हीं वाकी ………।

कहा भयो ! मो कूँ सब बताओ ?…..और धैर्य ते बताओ मैया ।

बड़े प्रेम ते बृजराज नें उन बुढ़िया मैया ते पूछी ही ।

दो वर्ष ते एक राक्षस आय गयो है तालवन में …….गधा है ……..नहीं नहीं मैं गारी नाय दे रही वा राक्षस कूँ ………वु सच में गधा ही है ………

गधा ? बृजराज के कुछ समझ में नही आया …….क्यों कि गधा कभी फल नही खाता ………….हाँ ……..बृजराज ! हाँ …..आप सच सोच रहे हो …….गधा फल नही खाता …..न खानें देता है ।

उसे मात्र नष्ट करनें में ही सुख मिलता है ……..हे बृजराज ! उसनें वनों के फलों में अपना आधिपत्य जमा लिया है …….बृजराज ! इतनौ ही नही ……..मेरी कुटिया उजाड़ दियो वानें…….सन्त ऋषिन की गुफान कूँ बन्द कर दियो …..बेचारे सन्त ऋषि मार दिए वाने, बुढ़िया के अश्रु अब ज्यादा बह रहे हैं ।

पर जे है कौन ? बृजराज नें सचिन्त हो पूछा ।

मैनें सुनी है ………..राजा कंस को राक्षस है जे ।

लम्बी साँस लई बृजराज नें कंस कौ नाम सुनके………..और अपनें सेवकन कूँ आज्ञा भी दे दियो ………….एक सुन्दर कुटिया या मैया की हमारे महलन के निकट बनाय दो ।

वु बुढ़िया तो अति प्रसन्न है गयी ….नंदमहलन के निकट वाकौ निवास बन गयो……..पर या घटना ते कन्हैया बड़े दुःखी है गये ।

दाऊ भैया ! वा बूढी मैया के मन में अब राक्षसन के प्रति कोई रोष नही है ……….पर मेरे मन में है ……….

सब ग्वाल सखा वहीं आगये अब ……. आँखिन के इशारे ते, दाऊ ते पूछ रहे हैं ………कहा भयो ?

कन्हैया कौ आज मन नही लग रह्यो है खेलवे में ……..उदास है गयो है कन्हैया ।

सब शान्त हैं आज ……न मनसुख कछु बोल रह्यो है ………न श्रीदामा …न मधुमंगल ………दाऊ भैया तो बस सोच रहे हैं ………..ये सोचेंगे क्या ! ये अब अपनें लाड़ले कन्हैया को देख रहे हैं ……..कैसे मैं इसे सहज बनाऊँ , हाँ ये सोच रहे हैं ।

थोड़ी देर में अपनें छोटे भाई ते सटके बैठ गए दाऊ भैया ………..फिर कन्हैया के अलकन में हाथ फेरते हुए बोले………”हम सब राक्षसन कूँ मार देंगे” सच ! कन्हैया ये सुनते ही प्रसन्नता से उछल पड़े थे ।

हाँ हाँ ………मैं तो जा लाठी ते खोपड़ी फाड़ दुंगो राक्षस की…….मनसुख आनन्द ते उछल के बोल्यो …………क्यों की कन्हैया खुश है गयो है …….और इन सब सखान कौ एक ही लक्ष्य है ……..”अपनौ कन्हैया खुश रहनौ चहिये – बाकी तौ भाड़ में जाय” ….

मैं एक मुक्का ते मार दुंगो राक्षस कूँ ………..अब सब कहवे लगे …….चौं की कन्हैया आज ऐसी बातन ते बड़े खुश है रहे हैं………….

“पर बेचारे ऋषि मुनि …..गुफान में बन्द करके मार दियो”……….कन्हैया अभी भी उस बात को स्मरण करके दुःखी हैं…………

मेरे साथ कुश्ती लड़के तो देखे वो राक्षस ! चटनी बनाय दुंगो ।

तोक सखा बोल रहा है ।

पर कन्हैया नें गम्भीर हो, अब उस तालवन की ओर देखा ……….

फिर बोले……दादा ! दूर जो दीख रह्यो है वही है ना तालवन ?

हाँ ……दाऊ नें कही ।

उस दिशा में कन्हैया देखते रहे थे ………….बहुत देर तक ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 97

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 97)

!! “जार शिखामणि” – एक निर्दोष लीला !!

अहाहा ! कैसो अद्भुत प्रेम है या बृज कौ ! सच , अगर या बृज की धूर बनवे की कामना ब्रह्मादि देवता करे हैं तो यामें आश्चर्य कहा ?

विशुद्ध प्रेम है या बृज कौ , और अपनौ कन्हैया ? वु तो प्रेमिन को चाकर है चाकर !

चोरन कौ सरदार तो है ही ……पर जितनें “जार” हैं ना या संसार में उनकौ हूँ जे सरदार है……वैसे देखि जाय तो पुरुष एक मात्र या विश्व ब्रह्माण्ड कौ अपनौ कन्हैया ही है ……बाकी सब “वाही” की हैं । ………इन गोपिन के जो पति हैं….या जगत की जितनी स्त्रियां हैं उनके जो पति हैं उन पतियन को भी जो पति है बु हमारो कन्हैया ही तो है ।

गलत मत समझियों या लीला कुँ…….क्यों की जा समय कन्हैया की अवस्था मात्र “छ वर्ष” की है ।…….उद्धव लीला कौ गान करके सुनाय रहे हैं विदुर जी कुं ।

कन्हैया ! ओ लाला ! तैनें भाभी कुँ छेड़ो है ?

मैया बृजरानी नें घर में आते भये अपनें लाडले कुँ आज डाँट लगाई ।

बृजरानी कुँ रिस आनौ स्वाभाविक है……..ये बेचारी नई बहु …..”चमेली वन” ते ब्याह के आई है …..सात दिना ही तो भये हैं याके ।

झूठो बहानों बनाएगी जे कहनौ सही नही है……..क्यों की नई आई है या नन्दगाँव में …….भोली छोरी है बेचारी…….अवई ब्याह भयो ही है ।

आज मैया बृजरानी के पास चली आई……..बृजरानी कुँ भी लग रह्यो है कि मेरी ही बहु है ।

वैसे या बहु नें कन्हैया की शिकायत अपनी सास ते हूँ करी …….पर सास कछु बोली नही …………बोली भी तो यही – “तू जा बृजरानी के पास और जाय के उलाहनौ देके आ …….जा ! “

बेचारी बहु …….जाते ही बृजरानी के चरण छूए यानें ……..मैया आशीर्वाद देंती कि जे तो रोयवे लगी …….फफक फफक के ।

अपनें आँचल ते यशुमति नें या के आँसू पोंछे ………..बड़ो ही प्यार कियो …….फिर पूछवे लगीं – कहा भयो ? काही कुँ रोवै है ?

अजी ! नई बहु नें जो सुनायो ……….सुनके तो बृजरानी क्रोधित हैं गयीं ……..रिस के मारे मुखमण्डल लाल है गयो ……।

बस, वाही समय कन्हैया खेलते भये आय गए …………

कन्हैया ! तैनें भाभी कुँ छेड़ो है ?

मैने ? भाभी कुँ ?

कन्हैया कछु समझ ही नाँय पाये ……क्यों की मैया नें एकाएक पूछ लियो हो ।

फिर ध्यान ते भाभी कुं देख्यो कन्हैया नें……..घूँघट लम्बी खेंच रखी ही …….झुक के मुँह में देखवे लगे…..देखवे जे लगे की, नई भाभी ही है या कोई और ?

जब पक्को है गयो …..भाभी है ! नई भाभी ही है …..

तब बड़े प्रसन्न है गए ………मैया ! मैया ! जे भाभी ते ही मैं कहतो …..”दूध पिवाय दे” । ……हद्द है …मैया को बतानें लगे थे ।

दूध ? मैया चौंक गयी ………पर कन्हैया तो कन्हैया है ………आँचल खींचवे लगे वा नई बहु के ।

हट्ट ! छोड़ ! छोड़ ! मैया समझ गयी कि ऊधमी है कन्हैया ……अब जे ऊधम मचायगो ।

कहा चहिये तोय ! चौं परेशान कर रह्यो है बेचारीये !

मैया नें फटकार लगाई ……..”दूध पिवावे नायँ भाभी ……….बोल मैया ! याते, मोकूँ दूध ….”

शरमा के धरती में गढ़ी जा रही है बेचारी नई बहु ………….

दूध कहाँ है याके ? मैया समझानों चाहे ।

“है तो” ………कन्हैया भी बोले ।

“पर आवै नाय “……………मैया कुँ भी हँसी आगयी ।

चौं ? चौं ना आवै ? अब मैया याकौ कहाँ उत्तर दे ।

“चौं कि …….बेटा नाय भयो याके ……जा लिये दूध नही आवे”……..मैया भी ज्यादा बोल नही पा रहीं ।

अरे अरे ! धरती में बैठ गयो जे कन्हैया तो ……और रोयवे लग्यो …………”तो या भाभी ते कह , बेटा दे दे …….जल्दी बेटा दे ………..

अब तो शरमाय के नई बहु भागी अपनें घर ………..और इधर अब मैया बृजरानी का हँस हँस के बुरा हाल हो गया था ।

पर कन्हैया अभी भी रो रहे हैं …….और अपनें नन्हे चरणों को पटक रहे हैं …….दूध पीनों है नई भाभी के ………….हद्द है !

“चौर जार शिखामणि”……….उद्धव भी हँसते हुए बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 96

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 96)

!! कुश्ती दंगल – “गौचारण प्रसंग” !!

अनन्त कि लीलाएँ भी अनन्त हैं …….मैं कहाँ तक गाऊँ ?

तात ! ये लीलाएँ रुकी नही हैं…….आज भी चल रही हैं ……..उद्धव कहते हैं – हाँ उस समय अधिकारी अनधिकारी सबको लीलाओं का सुख मिल जाता था, अवतार काल था वो ……पर अब मात्र अधिकारी के सन्मुख ही वो लीलाएँ प्रकट होती हैं ।

तात ! ब्रह्म कि लीलाएं हैं ये ….और मैं पूर्व में ही कह चुका हूँ – लीला का कोई उद्देश्य नही होता …….बस एक ही उद्देश्य है – अपनें आनन्द कि अभिव्यक्ति ……….तो हम लोगों का भी यही उद्देश्य होना चाहिये कि हृदय का आनन्द छलकनें लगे ………कन्हैया कि लीलाओं को सुनते गाते हुये हम अपनें भीतर के आनन्द को प्रकट होनें दें ……क्यों कि लीला का यही लक्ष्य है – अपनें आनन्द को चारों ओर फैलाना ।

विदुर जी आनन्दित हो उठते हैं…….सच कहा उद्धव ! क्यों कि ये कन्हैया आनन्द रूप ही हैं …….देखो उद्धव ! नभ में देखो ! बड़े बड़े तपश्वी बड़े बड़े सिद्ध योगिन्द्र तुम्हारे द्वारा गाई जा रही इन लीलाओं को सुनकर अपनें हृदय के सूखे आनन्द के सर को पुनः भर रहे हैं……….

क्यों बेकार में ज्ञान के शुष्क अरण्य में भटकें ? क्यों बेकार में नाक कान दवा कर योगी होनें का भ्रम फैलाएं …………..ये देखो ! आओ वृन्दावन ……….यहाँ वो ज्ञान का परमतत्व कन्हैया नृत्य कर रहा हैं ………योग का लक्ष्य वो आत्म तत्व यहाँ ग्वालों के साथ क्रीड़ा में मग्न है ………इसे देखो ! यही है जीवन का सार !

विदुर जी नें उद्धव से कहा – आप अब सुनाइये उन आनन्द पूर्ण गोपाल कि लीला………मैं जितना सुनता जा रहा हूँ मेरी प्यास और बढ़ रही है ……….उद्धव ! मुझे पिलाओ “श्रीकृष्णचरितामृतम्” ।

उद्धव सुनानें लगे –

कन्हैया ! तुझे किसनें मारा ?

दाऊ नें अपनें पास बुलाया आज वन में ………..और कन्हैया कि पीठ देखनें लगे थे ………ओह ! नेत्र सजल हो उठे दाऊ के ……..कन्हैया के सुकुमार पीठ में एक नन्हीं सी खरोंच आगयी थी ।

रक्त तो नही आया …….पर खरोंच अच्छे से ही लगी थी ।

नेत्र के जल छलछला आये थे दाऊ के……..तुझे ये चोट किसनें दी ?

कन्हैया को तो पता भी नही है कि उसके चोट भी लगी है ……..कहाँ ? कहाँ है चोट ?

यह क्या है ? दाऊ नें चोट को हल्के से छूते हुए कहा ।

अच्छा ये ? ये तो उस लता से है ………….कन्हैया नें सामनें कि एक लता बता दी ………….

तू उस लता के पुष्प लेनें गया था ? दाऊ अपनें छोटे भाई कि खरोंच भी कैसे देख लेते …….यह तो प्राणों से प्यारा है दाऊ भैया का ।

नही …..नही दाऊ भैया ! ……….मैं पुष्प लेनें गया था उधर ………….फिर दूसरी ओर दिखा दिया ।

तू उधर गया था पुष्प लेनें ? किधर ? दाऊ पूरी छान बीन करनें की सोच रहे हैं और क्यों न करें ……सुकुमार पीठ में खरोंच ?

मैं कदम्ब के पुष्प लेनें उधर गया था ….कन्हैया अब डर रहे हैं दाऊ से ।

क्यों की इनके मूड का कोई भरोसा नही है ………..कहो तो बड़ी बड़ी बातों को भी हँस कर टाल देते हैं ……….और कहो तो छोटी बातों को भी बड़ा बनाकर हंगामा कर देते हैं …………वैसे ये छोटी बात हो कैसे सकती है ….कन्हैया के खरोंच ? कठोर हृदय भी पिघल जाए ।

कितना सुकुमार तो है हमारा लाला ।

झूठ बोल रहा है तू ! लता उधर है और कदम्ब इधर है ……..पुष्प तोड़े तेनें कदम्ब से और खरोंच आयी लता से …….हैं ? दाऊ भैया को समझते देर न लगी कि ये साफ़ साफ़ झुठ बोल रहा है ।

पर ये क्या –

दूर खड़ा श्रीदामा रो रहा है ………….हिलकियों से रो रहा है ।

कन्हैया नें देख लिया है ……….वो दौड़ा श्रीदामा के पास …………

मत रो ….मत रो ….मैं नही कहूँगा दाऊ भैया से ……..मत डर मैं हूँ ना ?

पर तुझे चोट लगी उसका क्या ? इन नख नें तुझे खरोंचा है ………उफ़ ! कितना कष्ट हो रहा होगा तुझे ………….श्रीदामा बस रोये जा रहा है ।

क्या हुआ ? श्रीदामा क्यों रो रहा है ? दाऊ भैया वहीं आगये थे ।

नही नही …इसनें कुछ नही किया ! श्रीदामा नें कुछ नही किया …….इसका दोष नही है ………….कन्हैया को लग रहा है कि अब दाऊ कहीं श्रीदामा को पीट न दें ………..इसलिये ये अपनें सखा का बचाव कर रहा है ।

पर ये दाऊ हैं ………….श्रीदामा को शान्त कराया फिर पूछा ………

तब रोते रोते सच्ची बात बतानें लगा था श्रीदामा दाऊ भैया को ।

श्रीदामा ! आज मैं तुझ से लड़ूंगा …..कुश्ती !

कन्हैया नें ताल ठोकी थी ।

अरे जा ! एक ऐसी पटखनी दूँगा चित्त हो जाएगा तू !

श्रीदामा भी बोल उठा ।

ये कन्हैया हारता ही है अपनें सखाओं से ………..पर पता नही क्यों इसे हारनें में भी सुख मिलता है ………..कहाँ चली जाती है इसकी शक्ति सखाओं से लड़ते समय, पता नही ! वैसे तो बड़े बड़े दैत्यों को उठाकर पटक देता है ये …..पर अपनें सखाओं से हारता ही है .

अच्छा ! तो आ ना ! तू बोलता ज्यादा है श्रीदामा ! आज मैं ऐसा दांव सीख कर आया हूँ कि तू तो गया ! हये ! वो छ वर्ष का कन्हैया कैसे मुँह मटका मटका के बोल रहा था …….पर श्रीदामा भी तो छ वर्ष का ही है ……एक दो महीना आगे पीछे होगा ।

श्रीदामा नें पटके उतार कर रख दिए ……..अपनी माला , श्रृंग, लकुट सब रख दिया……..काँछनी ऊँची की ……….कमर कसा ।

फिर ताल ठोका इधर कन्हैया नें ………यमुना की सुकोमल बालुका है …..उसी पर ये कुश्ती दंगल आज हो रही है ।

फुदकता है कन्हैया ……उछलता ज्यादा है ये ……श्रीदामा गम्भीरता के साथ लड़ रहा है कुश्ती ……पर कन्हैया ? ये तो कुश्ती के नियम कानून सब को धता बताते हुये खेल रहा है ………..कुछ नही तो गुलगुली कर देता है श्रीदामा के पेट में …………चिड़िया की भाँति फुदकता है कन्हैया ………श्रीदामा के पैरों के नीचे से होकर निकल जाता है ……..इतनें में ही अपनी जीत समझ कर हँसता है ………..हाथ हिलाता है दर्शक बने अपनें सखाओं को ………….।

पर अब तो गुथ्थम गुत्था हो गयी श्रीदामा और कन्हैया में …….दोनों का मुख मण्डल लाल हो उठा है………श्रीदामा नें गिरा दिया कन्हैया को……….श्रीदामा खुश हो गया ……….”हार गया” …..वो जैसे अपनें दोनों हाथों को ऊपर करके चिल्लाया…….कन्हैया नें तुरन्त उठाकर उसे वापस गिरा दिया था……….पर मैने तुझे पहले गिराया है ……श्रीदामा बोल रहा है । ……पर .कन्हैया बोल रहा है – गिरानें से क्या होता है …….चित्त करना पड़ता है कुश्ती में ……….इसे कुछ पता ही नही ………….सब सखा ताली बजा रहे हैं……….श्रीदामा नें आज अपनी हार स्वीकार कर ली है ……..श्रीदामा अभी भी लेटा हुआ है बालू में ……..कन्हैया उसके पास है ………….और यमुना की बालू श्रीदामा के पेट और छाती में गिरा रहा है कन्हैया

तो तुम लोगों नें कुश्ती लड़ी आज ? दाऊ भैया बोल रहे हैं ।

श्रीदामा रो रहा है …………..पर इसमें इसका दोष नही है …….. कन्हैया नें कहा है ………….इसनें जान बूझ कर खरोंच नही लगाई है ।

मनसुख पारिजात का पत्ता तोड़कर ले आया था …..उस पत्ते के रस को खरोंच में लगा दिया दाऊ भैया नें ।

तुझे दर्द हो रहा होगा ना ! श्रीदामा को और रोना आरहा है ।

वो ये सोच सोचकर रो रहा है कि ……..अपना सखा कितना कोमल है उसको मेरी खरोंच लग गयी ……….।

अच्छा ! अब रोओ मत ……..दाऊ भैया नें इतना ही कहा ….और वहाँ से चले गए ……।

तू हार गया इसलिये रो रहा है ? कन्हैया नें फिर छेड़ा श्रीदामा को ।

तू हारा है ! श्रीदामा नें अपनें आँसू पोंछते हुए कहा ।

झूठे ! तुम बरसानें वाले सब झूठे हो……कन्हैया नें स्पष्ट कह दिया ।

झूठे चोर तो तुम नन्दगाँव वाले हो …….श्रीदामा कम थोड़े ही है ।

तो लड़, आ कुश्ती फिर हो जाए …………..इस छोटे से कन्हैया नें फिर ताल ठोकी ………….पर श्रीदामा के नेत्रों से फिर जल बहनें लगा ……..तेरे चोट लगेगी ! तू बहुत कोमल है …………..

कन्हैया कैसे अपनें सखा को इस तरह रोनें देता ……..श्रीदामा को हृदय से लगा लिया था ……….और बड़ी देर तक दोनों गले लगे रहे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 95

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 95)

!! ज्ञान घास है – “गौचारण प्रसंग” !!

तात ! राजमार्ग वही है जो प्यारे के महल तक पहुँचा दे ……और प्रेम ही वह राजमार्ग है….हाँ….मैं अपनें अनुभव से ये सब कह रहा हूँ ।

इन्ही ग्वाल सखाओं सखियों नें ही मुझे मूंडा था …..इसी बृज कि भूमि से मुझे प्रेम कि दीक्षा मिली थी …….हाँ तात !, उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं …….मैं तो ज्ञान कि ऊँचाई पर स्थित था ….देव गुरु बृहस्पति का परमशिष्य था ………ज्ञान विज्ञान में ही मेरा शोध था …..पर इस भूमि नें मुझे बताया कि प्रेम ही सबकुछ है ।

इस संसार सागर से पार लगानें वाला कुशल कर्णधार अगर कोई है तो वह है प्रेम ! तात ! प्रेम ही यहाँ नैया है और प्रेम ही खिवैया है ।

उद्धव कुछ देर के लिये मौन हो गए थे………फिर उन्होंने अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ………और मानसिक रूप से चले गए उसी स्थान पर जहाँ गौचारण करनें के लिये कन्हैया आये हैं ……उनके साथ उनके प्रिय ग्वाल सखा सब हैं ……….।

मध्य में कन्हैया में बैठे हैं ……………चारों ओर ग्वाल सखा घेरकर बैठे हुये हैं ……..मोरों कि पँक्ति अलग ही शोभायमान लग रही है ……कोयल कि कुहुक उस वातावरण को और संगीतमय बना रही है ।

पास में यमुना बह रही हैं ……उसके किनारे पर कमल के पुष्प खिले हुये है…….अनन्त कमल खिले हैं……..कमल नीले पीले हर रंग के हैं …….उनसे सुगन्ध बह रही है ।

कन्हैया अब थोडा लेट रहे हैं ………..अपनी कमर उन्होंने अच्छे से टिका ली है कदम्ब वृक्ष में …………चारों ओर सखा कुछ न कुछ बोल रहे हैं …………..मनसुख तो गुंजा कि माला बनाकर लाया है …….और बड़े प्रेम से कन्हैया को पहना रहा है …………..हाँ पहनाया नही है …पहना रहा है ……..धीरे धीरे पहना रहा है ।

“मनसुख ! जल्दी पहना” , मधुमंगल टोकता है ………क्यों कि ये कन्हैया के देखनें में विध्न डाल रहा है …………अरे ! इतनें परिश्रम से माला बनाई है …….अच्छे से पहनानें तो दे !

मनसुख नें पहना दी है अब माला ।

“अब अच्छा लग रहा है”……….मनसुख कहता है ।

हाँ तेरे ही माला से कन्हैया अच्छा लग रहा होगा ? मधुमंगल को चिढ हो रही है मनसुख से……….क्यों कि वो अभी भी हट नही रहा …..खड़ा है बीचों बीच ………अब तो हट जा भैया ! मधुमंगल को कन्हैया दीख नही रहे , दीख तो किसी को नही रहे अब ……क्यों कि बीचों बीच खड़ा हो गया है मनसुख ……..वो स्वयं ही निहारे जा रहा है कन्हैया को ।

कन्हैया ! कन्हैया !

सामनें से श्रीदामा आरहा है दौड़ता हुआ ।

लो ! अब ये आगये बरसानें के युवराज !

श्रीदामा को देखकर मनसुख हँसते हुए कहता है ………और स्वयं हट जाता है ।

कन्हैया ! कन्हैया !

श्रीदामा हाँफ रहा है ………और सीधे उसनें अपनें सखा कन्हैया का हाथ पकड़ लिया है ।

हाँ श्रीदामा ! क्या हुआ ? बता ! क्या बात है ?

सस्नेह कन्हैया नें अपनें सखा को पास में बिठाया और पूछा ।

ज्ञान किसे कहते हैं ? श्रीदामा नें बैठते ही पूछा था ।

पता है मैं अभी यहाँ आरहा था ना ! तो मैने देखा ……..एक कोई बाबा जी ….लम्बी दाढ़ी उसकी थी ………उसनें हमारे महल का द्वार खटखटाया ………..तो मैने ही खोला ।

फिर ? कन्हैया नें श्रीदामा से पूछा ।

लाली है ? श्रीराधा लाली ! मुझे लाली से काम है ……….

मुझे अजीब लग रहा था वो बाबा जी ……..मुझे दाढ़ी से चिढ है ……पता नही ये बाबा जी लोग दाढ़ी क्यों रखते हैं ! कन्हैया ! तुझे दाढ़ी अच्छी लगती है ? श्रीदामा नें कन्हैया से ही पूछा था ।

सिर “नही” में हिलाया कन्हैया नें ……..

हाँ मुझे भी पसन्द नही है …………

दढ़ियल बाबा जी ………श्रीदामा बोला ।

आगे तो बता , आगे क्या हुआ ?

कन्हैया नें पूछा ।

मैने उससे कहा ……लाली क्यों चाहिये ! मुझे बोलो …….मैं युवराज हूँ इस बरसानें का …………मनसुख नें हँसते हुये श्रीदामा कि पीठ ठोकी ….वाह ! बहुत सुन्दर कहा तेने श्रीदामा ! मनसुख के पीठ ठोकनें पर श्रीदामा और फूल गया …….और बतानें लगा ।

उद्धव बोले – तात ! कन्हैया कि आयु इस समय 6 वर्ष कि तो है ……और सखाओं कि भी इतनी ही है……..लगभग ।

आगे क्या हुआ ? कन्हैया नें आगे कि बात जाननी चाही ।

पर वो बाबा जी तो माना ही नही ……..जिद्द पकड़ के ही बैठ गया ……लाली को बुला दो …..उन्हीं के चरणों में विनती करूँगा ।

अब तुझे तो पता है मेरी बहन राधा कितनी भोली और संकोची है ………फिर भी वो आही गयी …..ललिता उसके साथ में थी ।

बहन राधा को देखते ही वो तो धरती में लोटनें लगा ………गिड़गिड़ानें लगा ………….”मुझे ज्ञान का दान दो”……….

ललिता हँसी और बोली ……ये किसकी छाँछ माँग रहा है ….बकरिया या भैंसिया कि ?

मैं उस समय समझ गया कि मेरी बहन को भी पता नही है “ज्ञान” किसे कहते हैं …..क्यों कि वो सिर झुकाये खड़ी रही …………

और ललिता को तो पता ही क्या होगा ?
वो ज्ञान को छाँछ समझ रही थी ।

विदुर जी ये प्रसंग सुनकर खूब हँसे ……………

उद्धव नें अब नेत्र खोले अपनें……और बोले …..तात ! अल्हादिनी से भला कोई ज्ञान माँगता है…..उनसे तो प्रेम या भक्ति, या फिर कन्हैया….

उसे ज्ञान चाहिए तो वो बरसानें क्यों गया ? खीज उठा था कन्हैया ।

श्रीदामा नें कहा ……वही तो …………..

अच्छा तुझे पता है कन्हैया ! “ज्ञान” किसे कहते हैं ?

मनसुख नें ये बात सबके बीच में कन्हैया से पूछी ।

हाँ ….तुझे पता है तो हम सबको बता …….हम भी जानें कि ज्ञान किसे कहते हैं ? सब सखा एक स्वर में बोले ।

तुम लोग इतना भी नही जानते !

आश्चर्य से सबको देखते हुए कन्हैया बोले …………..

अरे ! अपनें बाबा कि गोठ है ना ………..उसके पीछे जहाँ कूड़ा डाला जाता है ……….वहाँ एक झाड़ उग आया है ……देख लेना …….उसे ही “ज्ञान” कहते हैं……..कन्हैया नें बताया ।

ओह ! सब सखाओं नें तालियाँ बजाईं …….और कहा ……हमें तो पता ही नही था उस कूड़े कि जगह में उग आने वाले झाड़ को कहते हैं “ज्ञान”……..सब सखा अब सन्तुष्ट हो गए थे ….श्रीदामा सोचनें लगा था बरसानें के महल में आने के बाद भी वो बाबा जी कूड़े में उगे घास कि याचना कर रहा था !………अबुझ होते हैं ये बाबा लोग भी …..श्रीदामा मन ही मन कह रहा है ।

बुद्दू था वो बाबा जी ….बेकार में अपनी लाली को कष्ट दे रहा था ……..हमारे यहाँ आजाता ……हजारों ज्ञान उसकी झोली में तोड़ तोड़ कर हम सब डाल देते……..ये कहते हुए कोई सखा हँस रहा था तो कोई झुंझला रहा था ।

आज विदुर जी बहुत हँस रहे हैं …..अपना उत्तरीय मुख में रख कर हँस रहे हैं……उद्धव नें प्रसन्नता पूर्वक विदुर जी को देखा ….और बोले …तात ! आप विवेकवान व्यक्ति हैं क्या आप भी इस बात को झुठला सकते हैं की…..नन्द गोठ के कूड़े की ढ़ेर में उगा घास “ज्ञान” नही है ?

ये प्रेम कि भूमि है ……यहाँ ज्ञान को पूछता कौन है …….हाँ, इधर उधर उगा हुआ , घास ही तो ज्ञान है ……….प्रेम तो पुष्प है ….जिसमें से सुगन्ध निकलती है ।

अतएव प्रेम ही सर्वोपरि है ………उद्धव बोले ।

विदुर जी अभी भी हँसे जा रहे हैं ……..सच है उद्धव ! नन्द गोष्ठ के पीछे कूड़े कि ढ़ेर में उगा घास ही ज्ञान है …….जहाँ परमात्मा इतना सरल होकर सर्व साधारण के लिये उपलब्ध है ……….वहाँ ज्ञान अगर घास के रूप में उग गया हो …….तो आश्चर्य क्या !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 94

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 94)

!! सखाओ का अद्भुत प्रेम – “गौचारण प्रसंग” !!

“हम कन्हैया के हैं और कन्हैया हमारा”

तात ! यही सत्य है….कन्हैया को आप अपनें से अलग कर सकते हैं ?

फिर उद्धव स्वयं ही उत्तर देते हुए कहते हैं – नही ….अपनी आत्मा के सम्बन्ध में आपका जो विचार है …..वही तो कन्हैया है …….आत्मा ही है कन्हैया , और वही सत्य है …बाकी सब मिथ्या है झुठ है ………कैसे टुकुर टुकुर हमारे हृदय में बैठा वह देख रहा है …………हमारी गो यानि इन्द्रियों का पालक बन बैठा है …….”गोपाल” नाम ऐसे ही नही है ।

कन्हैया आपसे अलग हो गया …या आपको ऐसा लगे कि कन्हैया हम से अलग है……..तो आप या तो सपना देख रहे हैं ……या भ्रम कि स्थिति में हैं ……..तात ! जीव जब अपनें को कन्हैया से अलग मानता है ……तभी वह भय, शोक इत्यादि का सामना करता है ।

आज उद्धव नें विदुर जी को अपनी बात, अपनें हृदय कि बात बताई थी।

तात ! क्या अद्भुत प्रेम है बृजवासियों का…….

….उद्धव आनन्दित होकर ये प्रसंग सुनानें लगे थे ।

साँझ हो रही है…….लौट रहे हैं गौओं के साथ कन्हैया ……..ग्वाल सखाओं में लौटते समय उत्साह नही होता ……हाँ वन में, गौचारण में जाते हुए उत्साह चरम पर दिखाई देता है…….क्यों कि मिलन है अपनें सखा से , क्रीड़ा होगी वृन्दावन में……..साथ में खाएंगे ….खेलेंगे …..लड़ेंगे ……..हारेंगे जीतेंगे……….आहा ! पर लौटते समय …….अब वियोग होगा ………बिछुड़ना होगा ।

बस रात कि बात तो है ……सुबह तो फिर मिलना ही है ………..

तात ! एक रात ? कितनें पल होते हैं एक रात में ? हाँ पल पल गिनते रहते हैं ये सखा ……..करवट बदल बदल के पूरी रात इनकी गुजरती है……..उद्धव विदुर जी को आज उन सखाओं के प्रेम का वर्णन करके बताने वाले है ……….कि ये लोग कैसे रहते हैं ? इनकी कैसी स्थिति होती है बिना कन्हैया के रात्रि में ।

उदास से हैं ……..धूल उड़ रही है गौ के खुर से ……..सबका मुख धूल धूसरित हो गया है……….केश बिखरे हुए हैं ……………

कन्हैया तो कन्हैया ही है ………..गोपियाँ देख रही हैं अपनी अपनी अट्टालिकाओं में चढ़ चढ़कर ………कन्हैया के ऊपर पुष्प बरसा रही हैं ……कन्हैया किसी को हाथ हिला रहे हैं ……तो किसी को बस मुस्कुरा कर अपनें प्रेम का परिचय दे रहे हैं ………।

उदास हैं अब ये सब ग्वाल सखा………

सुन ना ! कन्हैया ! आज तो तुझे तेरे घर तक छोड़कर आएंगे ………सखाओं नें पीताम्बरी खेंची ये कहते हुए ।

नही ……….तुम लोग यहीं से चले जाओ ना ! कन्हैया वहीं से भेजना चाहते हैं …….पर – नही….हम तो तुझे तेरे घर पर ही छोड़कर आएंगे …………….सखा नही माननें वाले, कन्हैया को पता है इसलिये ये भी नही बोलते ज्यादा ।

पर नन्दमहल भी तो आगया……….

एक दो तीन ……सब बोले ……………फिर –

“यशोदा मैया खोल किबरिया लाला आयो गाय चराय”

सब एक स्वर गाते हैं ………सब गाते हैं …………हँसती हुयी बृजरानी आई हैं …………..सब बालकों को लड्डू दिया है ………..लड्डू लेकर जाना चाहिये अपनें अपनें घर ……..पर नही …….वहीं बैठ गए हैं ग्वाल सखा …..और कन्हैया से बतिया रहे हैं ।

अब जाओ तुम लोग ! मैया हाथ जोड़ती है ………छोटे छोटे बच्चों को हाथ जोड़ती है ? अजी ! अब अपनें घर पधारो ……इसलिये हाथ जोड़ती है ………….”दिन भर रहे हो कन्हैया के साथ पेट नही भरा” ……..इसलिये हाथ जोड़ती है ………..।

सुन ! कल हम कालीदह में जाएंगे ………..मधुमंगल कान में जाकर कन्हैया के कहता है ……………ना ! नही जाएंगे कालीदह में …..वहाँ तो काली नाग रहता है ……खा जायेगा ……….मनसुख स्पष्ट कहता है …….इतना ही नही ……………मैया बृजरानी को भी बता देता है …….देखो ! कालीदह में कन्हैया को चलनें कि कह रहा है मधुमंगल !

मारूँगी मैं तुम सबको………खबरदार ! जो कालीदह का नाम भी लिया तो…….वहाँ कालिय नाग है ……….खा जाएगा तुम सबको ।

मधुमंगल कि और देखकर आँखें मटकाता है मनसुख ……।

अब जाओ तुम लोग ….जाओ यहाँ से ………….कन्हैया थक गया है ……उसे अब विश्राम तो करनें दो ………..बृजरानी जब तक क्रोध नही दिखातीं , ये सब कन्हैया को छोड़ते ही कहाँ हैं ?

बेचारे दुःखी मन से उठते हैं …………गले लगते हैं ……कोई हाथ मिलाता है ………कोई कन्धे में हाथ रखते हुए कहता है ……कल मिलेंगे ……..कोई, अपना ध्यान रखना ………..कोई सखा ……कल गेंद लेकर चलेंगे …….खूब खेलेंगे ……………बृजरानी भीतर से फिर आती हैं ……..अब जाओगे या नही ? बेचारे ग्वाल सखा बेमन से निकल पड़ते हैं अपनें अपनें घरों कि ओर ।

पता है कन्हैया आज मेरे पीठ पर चढ़ गया ………….ये कहते हुए वो सखा खूब हँस रहा है …….माँ ! पता है ……….मैं जीत जाता पर बस जीतते जीतते रह गया …………अगर मैं जीत जाता तो कन्हैया कि पीठ में मैं बैठता …………वो ग्वाला रात्रि का भोजन करते हुये अपनी माँ को बड़े उत्साह से बता रहा है ।

अब खा भी ले ……..बोलता ही रहता है ………उसकी माँ उसे खानें को कहती है …………पर – नही माँ ! कन्हैया तो कोमल है ……….बहुत कोमल मैं उसके ऊपर कैसे चढूंगा ………..उसे कष्ट होगा ……….अगर वो हार भी गया ना ……तब भी मैं मना कर दूँगा ।

पागल हो गया है तू ……..अकेले अकेले बोले जा रहा है ……जल्दी खा और जा सोनें ………..उस ग्वाले कि माँ नें फिर डाँटते हुए कहा ।

मैं आज बाबा के साथ सोऊंगा……….माँ को कह चुका है ये बालक ।

क्यों ? क्यों सोयेगा अपनें बाबा के साथ ? माँ भी पूछती है ।

वो रात भर मेरी बात सुनते हैं ……….तू सो जाती है ।

अच्छा ! अच्छा ! सो जाना बाबा के साथ ……………

माँ नें इतना कहा……….वो तो उठ गया और भागा सोनें के लिये ………रात्रि हो रही थी ।

बाबा ! कोई कहानी सुनाओ ना ! अपनें दादा से पूछ रहा है वो ग्वाला ।

अब सो जा…….कहानी सुनाओ !……कितनी रात हो गयी है पता है !

दादा नें डाँटा ।

ये रात क्यों होती है ? वो बालक फिर कुछ देर में ही बोल पड़ा ।

पर उसके दादा नें इसका कोई उत्तर नही दिया ।

कन्हैया ! कन्हैया ! कन्हैया !

गा रहा है वो बालक……….फिर एकाएक उठ जाता है ……..बाबा ! सुबह हो गयी ? चुप ! सो जा इतनी जल्दी कैसे सुबह होगी …….सो जा ……अब बोलेगा ना तो पिटेगा तू । बूढ़े बड़े बाबा नें डाँट दिया इसे ……….वो फिर सोनें का स्वांग करनें लगा ।

मुश्किल से आधी घड़ी ही बीती होगी ……….बाबा ! सुबह हो गयी ?

नही हुयी मेरे लाल ! सो जा….

……इस बार बड़े प्रेम से कहा था दादा जी नें ।

बालक को इस बार डाँट नही पड़ी तो फिर बोला वो ……

“बाबा ! पता है …….कन्हैया बहुत हाँसी करता है ……सबको हँसाता है ……..हम सब तो हँसते हँसते लोट पोट हो जाते हैं” …………..विचित्र है ये ग्वाला ………..हँस रहा है ये कहते हुए ।

मटकी फोड़ दी बरसानेंवारी कि………चार मटकी थी उसके सिर में ……..वो चारों मटकी फोड़ दी ……….एक ही कंकड़ में …….।

बाबा सुनो ना ! आप फोड़ सकते हो ? बालक का प्रश्न है ।

ना …..मैं नही फोड़ सकता ……..दादा भी हाथ जोड लेते हैं …….तू अब सो जा …………और मुझे भी सोनें दे ।

हाँ ………कोई नही कर सकता मेरे कन्हैया कि बराबरी …………कोई नही ……….भगवान भी नही………..फिर दादा से बोलनें लग जाता है……….बाबा ! कन्हैया भगवान है ?

झुंझला उठते हैं उसके दादा ………..

हाँ हाँ ….सारे भगवान यहीं बृज में पैदा हो गए हैं…….अब तो सो जा !

दादा नें इस बार कर्रा डाँटा है ………….इसलिये वो बालक चुप हो गया ……………..कुछ देर में उसे झपकी भी आयी ……….पर फिर उठ गया ……इधर उधर देखा ………..सोते हुए अपनें दादा को जगाया …….बाबा ! सुबह हो गयी उठो ……………

अरे ! …….उसके दादा नें ऊपर देखा …..आकाश में देखा ………हे भगवान ! अभी कहाँ सुबह होगी ………..अभी तो बहुत समय है ।

बहुत समय है ? बाबा ! कितना समय और है ?

बाबा ! आज सुबह क्यों नही हो रही ?

बाबा ! कहीं ऐसा तो नही होगा ना …..कि सूर्य उदित ही न हों ?

बालक के अनेक प्रश्न उठ खड़े हो जाते हैं रात्रि में ।

तू बता ! क्या करना है सुबह तुझे ? सुबह होनें कि इतनी प्रतीक्षा क्यों है तुझे ? दादा उठ कर बैठ गए थे अब ……….

बाबा ! सुबह होते ही मैं जाऊँगा अपनें कन्हैया के साथ गौ चरानें …..

बाबा ! कन्हैया के बिना मन नही लगता ……….रात नही कटती …….मन को शान्ति नही मिलती …………..कुछ अच्छा नही लगता बाबा ! ये कहते हुए वो ग्वाला रोनें लगा ………।

दादा नें उसे चुप कराया ………….फिर कहानी सुनानें लगे ……..सुनाते सुनाते वो स्वयं सो गए ………पर वो कृष्ण सखा देखता रहा आकाश में ……..तारों को …..फिर चन्द्रमा को ………..ये चन्द्रमा मेरा कन्हैया है …और हम सब तारे …….कबड्डी खेल रहे हैं हम सब …………

फिर हँस पड़ता है ………………

जैसे तैसे सुबह हो गयी ………..वो उठा …………….नाचा उठते ही ……..स्नान किया जल्दी …………और फिर अपनी गैयाओं को लेकर चल पड़ा नन्द भवन कि ओर ।

उद्धव कहते हैं ये स्थिति सबकी है ……..प्रत्येक ग्वाल बालों कि ऐसी ही स्थिति है ……कन्हैया के सिवा इनका मन लगता ही नही है ।

उद्धव गदगद् हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 93

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 93)

!! गोप गोपी कौ सम्वाद – “गौचारण प्रसंग” !!

गौचारण करते करते थक गए आज कन्हैया ……..तो कदम्ब वृक्ष के नीचे सो गए …….. सखाओं नें देखा कि आज अपना लाला थक गया है ……तो उसे बिना जगाये गौओं को देखनें के लिये निकल गए थे ।

पास में था मनसुख ………सखाओं नें उसे वहीं कन्हैया के पास ही छोड़ दिया था ……ताकि उसकी नींद में कोई विघ्न न डाल सके ।

पर उसी समय कोई गोपी गा रही थी……….यमुना पास में ही थीं …..जल भरनें आगयी थी ये …….मनसुख नें जब ध्यान से देखा तो समझ गए, बरसानें की है …..और श्रीराधा की प्रिय सखी ललिता है ।

“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्रीराधे”

ललिता यही गाये जा रही है …………मनसुख नें सुना …….एक बार , दो बार पर बारबार यही – जय राधे जय राधे राधे …………

“जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्रीकृष्ण”

मनसुख ललिता के पास में चला गया……और चिल्लाकर गानें लगा ।

झुंझला गयी ललिता सखी …………..

ललिता – अरे मनसुख ! तू क्यों बेकार में हल्ला करे है ?

वा कारे कनुवाँ कौ नाम मत ले, अगर तोहे भजन ही करनौ है तो हमारी राजदुलारी बृषभान की प्यारी राजराजेश्वरी श्रीराधारानी को नाम ले ।

मनसुख – अरी बरसानें वारी ! साक्षात् श्रीकृष्ण परमात्मा हैं …..अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं ……जा बृज में लीला करबे के ताईं अवतार लियो है , वाकूँ तू “कारो” कहे है …….मोहे तो लगे तेरी मति बौराय गयी है ।

ललिता – तू तो ग्वारिया है ……सुन ! तू हमारी प्यारी किशोरी जू के स्वरूप कुँ कहा जान सके ? बस माखन खानों और तान दुपट्टा सो जानों याके सिवाय तोहे आवे कहा है ? अपनें परमात्मा ते पूछ के देखियो …….हमारी किशोरी जू के पीछे पीछे डोले …..चाहें तेरो सखा पूरन ब्रह्म ही चौं न होय ……पर हमारी श्रीराधा रानी कुँ देखे बिना वाहे चैन नाँय परे ।

और कहा कह रो मनसुख ! कारो काहे कुँ कहें हैं हम ? अरे ! कारे ते कारो ही कहिंगी ……….गोरी तो हमारी किशोरी जू हैं ………और हाँ सुन ! कारे रंग कुँ देख के सब डरप ही जावें ।

( ललिता खूब जोर से हँसती हैं और कहती हैं )

कारो रंग अशुभ सूचक भी है ………..पर उज्वल रंग तो हमारी श्रीजी को है …..या लिये “भोजन भट्ट”! तू हमारी श्रीराधारानी को ही नाम लियो कर …..समझे ?

मनसुख – अरी गाम की गूजरी ! तू पढ़ी लिखी तो है नाँय, तोहे कहा पतो कि रंग तो कारो ही श्रेष्ठ होय है …….तोहे पतो है हमारे कन्हैया कुँ कारो ही रंग प्रिय क्यों है ? सुन –

( मनसुख आनन्दित होकर बता रहा है )

कारे रंग में कोई और रंग चढ़े नही है…..हाँ कारो रंग सब रंगन पे चढ़ जाए ….पर कारे में कोई रंग नही……( मनसुख हँस रहा है ये कहते हुए )

कारे रंग में सखी ! कोई जादू टोना मन्त्र तन्त्र को प्रभाव नायँ पड़े ….याते कारो रंग ही श्रेष्ठ है ……….और सुन ….गोरे रंग पे कारो तिल अगर लग जाए तो सुन्दरता बढ़ जावे……..पर काले रंग पे सफेद तिल अगर आजावे तो वाकुं सफेद रोग कहें हैं ……..समझीं ! याते मैं कहूँ कि सर्वश्रेष्ठ तो कारो ही रंग है ।

ललिता – अरे मनसुख ! तू काही कुँ जिद्द करे ……….चाहे तूं कछु कह ले ………पर गोरो रंग ही सबनपे भारी है ……और हमारी श्रीराधा रानी गोरी हैं ……..गौरांगी हैं ।

सूर्य के किरण ते प्रकाशित विश्व ही सबकुं प्रिय लगे है ……अँधेरी रात कौन कुँ अच्छी लगे ? हाँ ….तुम्हारे जैसे चोर उठाईगीर कुँ छोड़के ।

( ललिता हँसती हैं )

चमक तो सूर्य के प्रकाश में है ………….रात में कहा धरो है ।

याही ते मैं कहूँ कि हमारी रासेश्वरी श्रीजी गौर हैं सूर्य के समान आभा प्रभा है उनकी …..पर तुम्हारो कन्हैया तो कारो है ……….न आभा है ….न प्रभा ……….बस कारो ही कारो है ……..( ये कहते हुए ललिता सखी फिर खूब हँसी ) ।

मनसुख – अरी बाबरी ! कारो नही है मेरो सखा ……श्याम है श्याम !

( ये सुनकर फिर ठहाका लगाई ललिता सखी ने…….और बोली – अब लाईन में आरहे हो मनसुख लाल ! )

मनसुख – अरी हँसे मत …..मेरी सुन पहले ……….मेरे कन्हैया कुँ तू रात्रि बताय रही है ………तो बाबरी ! दिन भर को हारयौ थक्यो मनुष्य वाही रात्रि में विश्राम कुँ प्राप्त करे है ……और बिना विश्राम के न सुख मिल सके न आनन्द ………और सुन ! रात्रि के कारण ही दिन को महत्व है ……..कारे के कारण ही गौर वर्ण को महत्व है ………नही तो ।

ललिता – अब तू बेकार की बातन्ने करे…….कोई प्रणाम है तो बता ……नही जा, रस्ता नाप !

मनसुख – सुन अब, मैं भी पण्डित हूँ ……सखी ! बता, आँखिन में कारो काजल क्यों आँजैं हैं ? याते गौर वर्ण की शोभा बढ़ जाए है ……अब देख ! तेरे गोरे रंग में ये कारे केश कितनें सुन्दर लग रहे हैं…….ऐसे ही कारी भौं, कारो तिल, कारी आँखिन की पुतरी, ये तो प्रमाण हैं……बता ?

( मनसुख अब हँस पड़ता है जब उसे लगता है कि उसकी बात ऊँची जा रही है और अब ललिता उत्तर नही दे पायेगीं )

बता ! मेरी बात अगर प्रामाणिक नही है तो कटवाये दे अपनें कारे बाल, कटवाये दे अपनें भौं, निकलवाये दे अपनी आँखिन की पुतरी ……….और हाँ …..सुन ! सुन ! जो तू अन्न इत्यादि खावे है …….वृक्षन की छाँया लेय है …..वाकुं सींचवे वारे कारे कारे बादर ही होमें हैं ………और सुन ! कारो रंग युवावस्था को प्रतीक है………और सफेद रंग बुढ़ापे को ……..नायँ समझ आय रही तो सुन – कारे बाल युवावस्था हैं …….और सफेद ? बुढापो ………….अब समझी ?

ललिता – बस , इतनी बातन ते ही श्रेष्ठ है गयो तेरो कन्हैया ?

तेनें कही ……कारे रंग पे कोई और रंग चढ़े नही है ………अरे भोजन भट्ट ! कसौटी कारी होय है , है ना ? पर वा कसौटी में चाँदी या सुवर्ण को रंग चढ़े है की नायँ ?

परन्तु उन सोना और चाँदी में कसौटी को रंग नही चढ़े ……ऐसे ही हमारी किशोरी जू को रंग तुम्हारे कन्हैया पे चढ़ जावेगो ………पर तेरे कन्हैया को रंग हमारी श्रीजी पे नही चढ़े ……..समझे ?

( ललिता सखी के तर्क के आगे पण्डित मनसुख लाल चुप हो गए )

मनसुख – अच्छा ! अच्छा सखी रहनें दे ……..गोरे रंग की भी अपनी विशेषता है और कारे रंग की भी ……….श्रीराधारानी के बिना हमारे कन्हैया कुँ चैन नायँ पड़े ……..और कन्हैया के बिना राधा रानी कुँ …….सखी ! दोनों बराबर हैं कोई बड़ो नही है ।

ललिता – वाह ! अब समानता की बात कर रहे हो मनसुख लाल !

नायँ, कोई समानता नही है तेरे कारे कन्हैया ते हमारी श्रीजी की ……..और हाँ ….कहा कह रहे हते तुम !……….कि कारे बाल युवावस्था को प्रतीक है .? …….अरे जान दो ……… …कारे केश सफेद होते भये तो सबनें देखे हैं ……पर सफेद केश कारे होते भये काहूँ नें देखे हैं ?

बस यही है सबते बड़ो प्रमाण …….कि सफेद रंग कारे में अपनों प्रभुत्व जमाय लेय ……..फिर हटे नहीं है ।

यासौ मेरी बात मान ले …………सफेद श्वेत रंग ही श्रेष्ठ है ……और आदि अनादि है ……..अब तो समझ में आयी ?

मनसुख – नायँ आयी ।

तभी – मनसुख ! ओ मनसुख ! पीछे से कन्हैया नें आवाज लगाई ….ले आय गयो तेरो कारो कन्हैया ! ये कहते हुए ललिता सखी हँसी ।

मनसुख ! साँझ है रही है….चल गैया घेर के लामें……कन्हैया बोले ।

अरे ठहर जा …….मोय या सखी ते शास्त्रार्थ करलैन दै …….मनसुख बोला । कन्हैया भी वहीँ आगये…….जब दोनों की बातें सुनी तो हँसे ……और मन्द मुस्कुराते हुये बोले – मनसुख ! जिद्द छोड़ दे …….रंग तो श्रीराधा रानी को ही श्रेष्ठ है …….मैं तो उनको दास हूँ …….दासता के कारण ही तो मैं कारो है गयो ……श्याम सुन्दर प्रसन्नता में बोले थे ।

मनसुख – वाह भैया ! हम यहाँ तोकूँ लेकर शास्त्रार्थ कर रहे हैं …..और तेनें आते ही कह दियो “मैं तो दास हूँ ” ।

मैं तो तेरी बढ़ाई कर रह्यो हो ……..मेरी जीत है रही ही ……पर तेनें आयके ……”मैं तो दास हूँ” कहकर मेरी हार करवाय दई ।

मनसुख को गुस्सा आरहा था अब ।

कन्हैया मुस्कुराये …….गुस्सा काहे कुँ …..मनसुख ! मेरे सखा ! सुन ……गौर तेज के बिना श्याम तेज की कही शोभा है ? हम दोनों दो नही हैं, एक ही हैं ………..कन्धे में हाथ रखते हुये मनसुख के कन्हैया नें कहा था ।

मनसुख – तू चुप रह ! हमैं तो तेरी बढ़ाई करवे वारो ही अच्छो लगे…..

तेरी कोई भी बुराई करे ना….वो हमें प्रिय नही ….हमें रिस आवे ।

ये कहते हुए मनसुख के नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे ……….फिर आँसू पोंछते हुए मनसुख नें कहा …………चाहे तू चोर है , चाहे तू छलिया है …नटखट है……बहरूपिया , लंगर, ढीट , कारो कलूटा कैसो भी होय ….पर तू मेरो सखा है ….प्राणन ते प्यारो सखा …….ये कहते हुए मनसुख कन्हैया के हृदय से लग गया था ।

मनसुख ! मेरे भैया ! तू बड़ो भोरो है …….श्रीराधा और मैं ……हम दोनों अलग कहाँ हैं ……एक ही तो हैं ।

वे मेरी अल्हादिनी शक्ति हैं ………….अच्छा एक बात बता मनसुख ! शक्ति और शक्तिमान दो हैं या एक ? मनसुख बहुत भोला है ……..सोचनें लग गया ……..ललिता हँसती हुयी बोलीं ……..मनसुख ! शक्ति है तभी तो शक्तिमान है ….शक्ति ही नही होगी तो शक्तिमान कैसे कहलायेगा ?

“धत्” …….अपनें सिर में मारा मनसुख ने …….इत्ती सी बात मेरी समझ में नही आयी …………….

ललिता हँसते हुयी अब बोली …………बोलो अब –

“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्री राधे “

पर मनसुख पक्का है ……….वो तो “जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्री कृष्ण”……..यही बोलते हुये अपनें सखा को लेकर चल पड़ा ………..भैया कन्हैया ! मैं तो तेरो सखा हूँ ……….मनसुख हँसते हुए बोला…….पर कुछ ही देर में ……”कन्हैया ! ये श्रीराधा नाम तुझे प्रिय है ना तो फिर तेरी प्रसन्नता के लिये मैं भी बोलूंगा”……..”जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्री राधे “

ललिता सखी नें सुन लिया – वो हँसती हुयी बोली …….

मनसुख लाल ! अब आये हो लाईन में ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 92

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 92)

!! “चन्द्रावली” – एक प्रेम कथा !!

प्रेम अद्भुत तत्व है तात ! प्रेम क्या है इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता …….जैसे ब्रह्म अवर्णनीय है ऐसे ही प्रेम है ।

उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला का गान सुना रहे हैं…….तात ! वैसे तो बृज प्रेम की ही भूमि है ……यहाँ प्रेम ही प्रेम है ……प्रेम तत्व से ही इस बृज का आन्तरिक निर्माण हुआ है…….बात गोप या गोपी की नही है…….बृज के कण कण में ही प्रेम व्याप्त है……उद्धव कह रहे हैं ।

“चन्द्रावली”

ये गोपी है ………श्रीराधारानी की बड़ी बहन लगती हैं ……..ताऊ जी की बेटी है ……..श्रीराधारानी शान्त हैं ……तो ये चंचल ……….श्रीराधारानी भोली हैं तो ये चतुर ….अत्यन्त चतुर , पर श्रीराधारानी से कम सुन्दर नही हैं ।

श्रीराधारानी बोलती नही हैं ………बहुत कम बोलती हैं …..पर ये चुप होती नही………उद्धव नें कहा ……..पर प्रेम तत्व अच्छे अच्छों को बदलनें की ताकत रखता है ।

चन्द्रावली इन प्रेम व्रेम के चक्कर में कभी पड़ी नही ……न इसके स्वभाव में है ये सब ………..पर बृज में कन्हैया से कोई बचा है ?

तात ! ये विचित्र है कन्हैया ………..अब इसनें दान ( कर ) माँगना भी शुरू कर दिया था ……….माखन बेचनें जिसे जाना हो …….वो दान दे …….नही तो मटकी फोड़ देंगे ।

बताइये ये भी कोई बात है ……….पर देना तो पड़ेगा ही ……नही तो मटकी फूटेगी ……….और वैसे भी ग्वालिन ग्वालों को माखन से ज्यादा मटकी से प्रेम होता है ………और जितनी पुरानी मटकी हो मोह उतना ही ज्यादा ।

लकुट लगा दी उस साँकरी गली में …………….पहली बार ये सुन्दरी निकली थी माखन लेकर -.चन्द्रावली ।

दान दे ! अकड़ थी आवाज में ………….

नही दूँ तो ? चन्द्रावली तेज गोपी है ………….

फिर तो मटकी से हाथ धोना पड़ेगा……कन्हैया नें मटकते हुए कहा ।

कुछ सोचकर चन्द्रावली बोली …….दान में क्या दूँ ? बोलो !

कुछ नही ………….”माखन खिला दे”…………..बोलनें में भी मधु टपक रहा था कन्हैया के ……..चन्द्रावली मुग्ध थी ।

लो ……..खाओ माखन ! बड़ी आसानी से खिलानें को तैयार हो गयी चन्द्रावली ……………..कन्हैया नें सोचा नही था कि ये सुन्दरी इतनी जल्दी मान जायेगी ।

पर – चन्द्रावली चतुर् है ………वो तुरन्त बोली ………पर तुम खाओगे कैसे माखन ?

“सखी ! हाथ में” ………कन्हैया नें हँसते हुए कहा ।

नही नही …………एक काम करो ना ………..वो रहे वट के पेड़ उसके पत्ता तोड़ लाओ ………मैं बढ़िया दोना बना दूंगी तुम खा लेना उसमें माखन ।

ठीक है ……….तू बैठ ! मैं अभी आया…………..कन्हैया दौड़े वट वृक्ष के पास और पत्ता तोड़नें लगे …….उस दिन कोई ग्वाल सखा साथ में थे नही ………गौ चरानें के लिये उन सबको छोड़कर ये इधर चले आये थे ।

चन्द्रावली नें अवसर देखा……..उसनें मन ही मन में कहा ……”मुझ चन्द्रावली से दान लेगा…….अरे ! जा तेरे जैसे बहुत देखे हैं” ………चन्द्रावली तो चली गयी …………..।

कन्हैया आये पत्ता तोड़कर ………..पर चन्द्रावली तो है ही नही ।

समझ गए कन्हैया……….मुझ को छल गयी ……….पर वो भी जानती नही है मुझे ………मैं छलूँगा ना …….तो फिर वो कहीं की नही रहेगी ।

और सच तात ! कन्हैया नें जब उसे छला तो वो कहीं की नही रही …..उसे प्रेम रोग नें ऐसा पकड़ा ……..उद्धव बता रहे हैं ।

चन्द्रावली ! ओ चन्द्रावली !

एक कोई सखी घूँघट करके ………..साड़ी गहनों से लदकर चन्द्रावली के पास पहुँची थी ।

हाँ ! कौन है ? चन्द्रावली नें भीतर से ही पूछा ।

मैं तेरी बहन ! बाहर से उस सखी नें कहा ।

पर मेरी बहन ? चन्द्रावली सोच में पड़ गयी ……..

सोचे मत …..मैं मामा की तू फूफी की ……..उस सखी नें कहा ।

अच्छा ! अच्छा ! आजा …….चन्द्रावली नें उसे भीतर बुला लिया ।

गले लगे दोनों……चन्द्रावली नें पूछा ….”तेरी छाती सूख कैसे गयी है” ?

“तेरी याद में…….तुझे याद करते करते मेरी छाती ही सूख गयी” ।

पर तेरे पाँव भी तो कठोर हैं ?

जब पाँव देखे और छूए तब वो कठोर थे …..चन्द्रावली नें पूछा ।

बहन ! तुझे खोजनें कहाँ कहाँ नही भटकी ……उस सखी नें उत्तर दिया ।

कन्हैया गले लगे रहे ……….तात ! कन्हैया के हृदय से जो लग जाए अब वो किसी और के काम का रहा ? रोमांच हो गया चन्द्रावली को ……..आनन्द अपनी सीमा पार कर गया …………आनन्दातिरेक के कारण उसके नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ………..चन्द्रावली अब उस सखी को छोड़ नही रही है ।

उस सखी को अब छटपटाहट हुयी …………अपनें आपको छुड़ाकर वो भागी और जब भागी …….तब चन्द्रावली नें देख लिया ………..तुम कन्हैया !

कन्हैया खिलखिलाकर हँस पड़े …….अंगूठा दिखाते हुए बोले ………मुझे छलेगी ? ले छल ।

अब तो लम्बी साँस लेते हुये चन्द्रावली गिर गयी ………..ओह ! कन्हैया का स्पर्श ! वो उनका आलिंगन ! कैसे भूल जाए ये चन्द्रावली ।

हो गया इसे प्रेम ……पक्का प्रेम……बाबरी ही हो गयी ये तो ।

मिलनें लगी कन्हैया से ………..नही मिलते ……तो नन्दमहल के चक्कर काटनें लगी । ……..प्रेम जो कराये कम ही है ।

कन्हैया भी रसिक शेखर हैं …………ये भी मिल लेते ……..गले लगते ……कुछ मीठी बतियाँ बनाते ……..चन्द्रावली अपनें आपको भूलनें लगी थी …………इसके जीवन में बस – कन्हैया …कन्हैया ….सिर्फ कन्हैया ही रह गया था ………।

नित्य मिलते थे चन्द्रावली से कन्हैया ………….ये भी नित्य वृन्दावन में आजाती थी ……..जल भरती ……ये सब तो बहाना था …..मुख्य तो कन्हैया को देखना ही था ।

उस दिन – श्रीराधा आगयीं कन्हैया से मिलनें …………चन्द्रावली के साथ कन्हैया थे ………अभी अभी तो आये ही थे ……….वो बैठी थी ……..बहुत देर से बैठी थी बेचारी …..कन्हैया आये तो वो बाबरी की तरह दौड़ी और कन्हैया को अपने हृदय से लगा लिया ।

पर तभी श्रीराधा आनें वाली हैं ……ये सूचना मिली कन्हैया को ……

चन्द्रावली को हटाया अपनें हृदय से …………क्या बात है प्यारे !

चन्द्रावली नें कन्हैया की ओर देखते हुए पूछा ।

बस ! चन्द्रावली ! तू यहाँ बैठ मैं आता हूँ ।

कन्हैया आज भागे चन्द्रावली के पास से ………..वो बेचारी चिल्लाई ……आओगे ना ? हां , आऊँगा ….यहीं बैठी रहना !

उफ़ ! ये प्रेम रोग सब रोगों से बुरा है…….उद्धव कहते हैं ।

कन्हैया को श्रीराधा मिल जाएँ तो और क्या चाहिये ……….साँझ तक श्रीराधा के साथ विहार करते रहे कन्हैया …………..भूल गए बेचारी चन्द्रावली को ………..वो बैठी है …….वो पल पल इधर उधर देख रही है ………..एक एक क्षण उसका युगों के समान बीत रहा है ।

पर कन्हाई उस दिन नही आये ………..उस दिन नही आये तो ये भूल ही गए थे चन्द्रावली को कि वो वहाँ बैठी हुयी है ।

एक दिन बीत गए …दो बीत गए ….तीन दिन…….ऐसे पूरे पाँच दिन ।

आज श्रीदामा नें कह दिया ……..चन्द्रावली जीजी तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठीं हैं ……..आज पाँच दिन हो गए हैं ।

क्या ! चौंक गए कन्हैया ………..वो अभी तक बैठी है !

हाँ …..शायद तुमनें उससे कहा था ……यहीं बैठना मैं आऊँगा ।

श्रीदामा की बात सुनकर कन्हैया भागे चन्द्रावली के पास ………..

पर वो तो प्रेममयी हो गयी थी…….प्रेम में पग गयी थी ………

कन्हैया उसके पास पहुँचे …………..पाँच दिन से वो यहीं है ………न कुछ खाया है न पीया है ………..बस ….कन्हैया नें कहा ……यहीं बैठे रहना ……मैं आऊँगा …..तो बैठी रही ।

कन्हैया नें जाकर चन्द्रावली को अपनें हृदय से लगा लिया …………चन्द्रावली रो पड़ी …………

पगली ! तू क्यों नही गयी अपनें घर ? कन्हैया पूछ रहे हैं उससे ।

तुमनें ही तो कहा था बैठे रहना……मैं आऊँगा……..तुम आ तो गए !

चूम लिया कन्हैया नें उस बाबरी चन्द्रावली को ।

तुम राधा से प्रेम करते हो ना ? मुझे सब पता है ……….वो मुझ से सुन्दर है ? कन्हैया के सामनें वो बहुत कुछ बोलती रही …….पर कन्हैया कुछ नही बोले …………उसका बड़े प्रेम से हाथ पकड़ा ……और उसे घर तक छोड़कर आये थे ।

तात ! ये भी श्रीकृष्ण की अद्भुत प्रेयसि थी ………….इसका प्रेम भी अद्भुत था ………हाँ …..श्रीकृष्ण प्रेम में इसनें भी अपनें आपको मिटा डाला था ……….चन्द्रावली ! उद्धव नें इसका नाम लेते हुये अपनें आँसू पोंछे थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 91

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 91)

!! गौचारण प्रसंग – “गोपी प्रेम” !!

वो “रजनी” आज प्रातः से ही छटपटा रही थी ……पास के गाँव से ब्याही थी ……..बहु थी नन्दगाँव की ।

कन्हैया की बातें खूब सुनती रहती………”प्रातः गौचारण करनें जाते हैं ………अब तो जा चुके………कोई बात नही सायंकाल तो आएंगे” ….प्रतीक्षा में बैठी है……..पर साँझ होनें में भी तो देर हो रही है ।

चलिये साँझ भी हो गयी………..छज्जे में सब चढ़ गए हैं …….पूरा नन्दगाँव देख रहा है नन्दनन्दन को ।

वो रजनी भी दौड़ी दौड़ी गयी छज्जे पर …………आनन्दित होकर- अपनें आपको सम्भाल कर ……हृदय की धड़कनों को काबू में रखकर देख रही है नीचे ……….आहा ! आगये वे गौचारण करके ………श्याम रंग धूल से धूसरित हो गया है ……….पर ये तो और सुन्दर लग रहे हैं …..केश, वो घुँघराले केश बिखरे हुए हैं …….मुखमण्डल पर मुस्कान है …..फेंट में बाँसुरी……….वो बाँसुरी रजनी को देखकर फेंट से निकाल ली है …….उफ़ ! छुप जाती है रजनी ………..उसके हिय की धड़कन बढ़ गयी है………वो फिर हिम्मत करके नीचे देखती है ……पर ये क्या ! कन्हैया तो सबको छोड़कर रजनी की ओर ही बढ़ रहे हैं…….और मुस्कुराते हुए बढ़ रहे हैं ………रजनी का हृदय धक्क करके रुक रहा है………उसकी घबराहट और आनन्द बढ़ता ही जा रहा है ।

ओह ! ये क्या दोनों बाहों को फैला दिया है नीचे कन्हैया नें ……..और इशारा करके बोले ……”.कूदो, मैं बाहों में लेता हूँ”……रजनी कूद भी जाती ……रजनी कूदनें के लिए तैयार ही थी कि ………”सत्यनाश हो तेरा” ……..पीछे से सास आगयी थी और चोटी पकड़ कर खींच लिया था भीतर ।

बेचारी रजनी ………नींद खुल गयी उसकी …..सुबह के 4 बज गए हैं ।

ओह ! सपना था ये …….और सपना उसे कहते हैं जो सच्चाई से बहुत दूर हो ……..ये सोचकर कुछ देर आह भरती रही बिस्तर में ही रजनी ……..फिर क्या करे ! स्नान किया…….तैयार हुयी …….कलेवा सबके लिये बनाया ……पर सास तो सोलह श्रृंगार करके बाहर छज्जे में बैठ गयी है ।

रजनी का पति तो गाय चरानें के लिये जाता ही था साथ में कन्हैया के ।

समय हुआ ………..प्रातः की वेला ……..कन्हैया अब गौचारण करनें के लिये वृन्दावन जा रहे हैं ……….कमरे में बन्द कर दिया था सास नें रजनी को ………और स्वयं सज धज के ………..

देखती रही सास …….उस रूप सुधा को अपनें नयनों के दोनों में भर कर पीती रही…….जब चले गए तब आह भरती हुयी आई आँगन में ।

क्या सुन्दर रूप धारण किया था नटखट नें …………सास आगे कुछ कहती कि ….रजनी बोल पड़ी ……”कल तो पीताम्बरी पहनी थी ….और मोर का पंख भी टेढ़ा ……और मुझे कह रहे थे ….कूदो ….मैं तुझे बाहों में भर लूँगा “……..रजनी ये कहते हुये भूल गयी कि ….सास के सामनें ऐसी बातें ।

हाय हाय ! मैने कितना सम्भालना चाहा इसे …..पर ये आखिर बिगड़ ही गयी ….देख लिया उस नटखट को इसनें ……..खानदान का भी असर होता है ………परपुरुष को देखकर कैसे खुश हो रही है……..देखो !

अजीब बिडम्बना है …….स्वयं देखो, तो कुछ नही ….और बहु नें देख लिया तो बिगड़ गयी ………हँसे उद्धव ये कहते हुए ।

रजनी को अब आदत पड़ गयी है ये सब सुननें की ……उसे कोई फरक नही पड़ता …….सास कुछ भी बोलती रहती है ……ये उसे पता है ।

शाम होनें को आयी………..अब गौचारण से लौटेंगे कन्हैया ……….

सास स्वयं तो कन्हैया को निहारना चाहती है ………पर बहु रजनी को निहारनें का अधिकार उसनें नही दिया है ।

आज घबराहट बढ़ रही है सास की ………..उसे लग रहा है ……मैं तो देखूंगी कन्हैया को …..पर रजनी को देखनें नही दूंगी ।

इसे कहाँ बैठाऊँ ………कमरे में ? सास फिर कहती है नही ….खिड़की से देख लेंगी कन्हैया को …………कहाँ छूपाउँ इसे …….

सोचते सोचते कन्हैया आगये………….सास बाहर खड़ी है ……….उसके पास रजनी है ……….आज इतनी जल्दी कैसे आगया नटखट !……..अब क्या करे वो सास ……….उसनें तुरन्त बहु रजनी का मुँह अपनी और मोड़ा ……और स्वयं निहारनें लगी कन्हैया को ……।

रजनी नें भी कोशिश नही की मुड़कर नन्दनन्दन को देखनें की ……..क्यों की उसे दिखाई दे रहे थे ……….सास कन्हैया को देख रही थी …..और सास की आँखों में रजनी अपनें प्रियतम को निहार रही थी ।

पर प्रेम में स्व का भान कहाँ रहता है ………..बोल पड़ी एकाएक रजनी ……माँ ! आपकी आँखों में तो कन्हैया और सुन्दर लग रहा है ………

योजना असफल हो गयी थी सास की………अपलक वो रजनी अपनी सास की आँखों में देखती रही ………..सास नें एक बार सोचा कि अपनें पलकों को बन्द कर लूँ .ताकि उसकी बहु कन्हैया को देख न सके……..पर ये वो कर न सकी …..क्यों की सामनें से वो अद्भुत सौन्दर्य सागर नन्दनन्दन आरहे थे ।

रजनी के नेत्रों में अब मात्र नन्दनन्दन ही थे …………वो प्रेम में डूब गयी थी …….उसे अब कुछ भी होश नही था ………इतना भी होश नही – वो अब अपनी सास को ही आलिंगन करनें लग गयी थी ।

उफ़ ! ये गोपियों का प्रेम ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 55

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 55 )

!! “आओ प्यारे” – गोकुल की एक कहानी !!


प्रभावती की बहु आरही थी……व्याह हुए तो वर्षों हो गए थे ……पर गौना कल ही हुआ था ………बड़ी धूमधाम से गौना करवा लाया था ये प्रभावती का बेटा……….

पर पता नही क्यों बड़ी डरी हुयी थी प्रभावती …………

किससे ?

अजी ! यह गोकुल है …..यहाँ कन्हैया के सिवा और कोई किससे डरता है ? उसकी नजर जिस पर पड़ी ……वो तो गया काम से ।

“तू कुछ मत करियो! सब मैं करूंगी” …….सास प्रभावती नें अपनी बहु को घर में आते ही समझाया था ।

बहु सोचती रही कि मेरी माँ नें मुझे कहा था – ससुराल में काम करना ……सास की सेवा करना ……..सास का हाथ बटाना …….पर यहाँ सासू जी तो कुछ और ही कह रही हैं………ठीक है …जैसा सासू माँ कहें ।

“सुन बहु ! चाहे कुछ भी हो जाए ………..साँझ के समय दरवाजा मत खोलियो”………..ये बात मुख्य कही थी सास नें ।

क्यों की साँझ के समय ही वो नन्दनन्दन अपनें सखाओं के साथ गोकुल में निकलता था ………..इसलिये सास बोली …….शाम के समय द्वार मत खोलना ।

क्यों ? बहु नें इतना तो पूछ ही लिया ।

बस बहु ! इतना समझ ले कि हवा खराब है या गोकुल की ……

और मैं नही चाहती कि वो हवा तुझे लगे ।

प्रभावती नें अच्छे से समझा दिया था अपनी बहु को ।

शाम के समय सब गोष्ठ में ही रहते थे…गोप वृन्द सब ……….प्रभावती भी इधर उधर जाती थी……..घर के भीतर बहु …….वो भोजन बनाती……..पर शाम होते ही खिड़कियाँ दरवाजा सब बन्द…….ताकि गोकुल की हवा न घुसे घर में ।

तात ! ये वो हवा है …..जिसे बड़े बड़े योगिन्द्र मुनींद्र चाहते हैं ……पर मिलती नही है…..किन्तु देखो यहाँ …..इन महाभागा गोपियों को ।

आज पाँच महिनें हो गए इस नई बहु के गोकुल आये हुए ।

शाम होते ही ये द्वार झरोखे सब बन्द कर लेती थी ………

आज शाम हुई……..झरोखे तो बन्द कर लिए………पर जैसे ही द्वार बन्द करनें के लिये गयी ………….

रुक गयी ………मन में आया कौन सी हवा है जिसके छूते ही “कुछ” हो जाता है …….ऐसा क्या होता है ? बहु सोच ही रही थी …..द्वार पर खड़ी ही थी अकेली….कि ……..तभी –

मोर मुकुट धारी …….पीताम्बर पहनें …घुँघराले बाल…….नीलवर्ण ………..काँछनी बान्धे ……..सखाओं के साथ हँसते , खिलखिलाते सामनें से आरहे थे ……….सच में हवा पागल करनें वाली थी ……बहू तो सब कुछ भूल गयी …….द्वार तो पूरा खुल गया ………..वो अपलक देखती ……..देह भान ही भूला बैठी …………कन्हैया को छूती हुयी हवा जब चली …..और उसी हवा नें बहु को छू लिया ………….

फिर क्या था …….बहु के केश उड़नें लगे उसी हवा में ……..वो अपनी बाँहों को फैलाये – मुस्कुराती हुयी …….उन्मत्त सी कन्हैया को आलिंगन करनें के लिये दौड़ी – बोल उठी – “आओ प्यारे “

कन्हैया नें हवा के साथ बिजुरी और गिरा दी…….उफ़ ! मुस्कुरा दिए ।

कन्हैया तो इतना करके चल दिए…..पर इस बहु को “हवा” लग गयी ।

ये हँस रही है ……….ये मुस्कुरा रही है …..अकेले ……….द्वार पर खड़ी है ……..और बड़े प्रेम से अकेले ही बोले जा रही है …..आओ प्यारे ।

इसे सर्वत्र कन्हैया ही दिखाई दे रहा है………..इसे सर्वत्र वही मोरमुकुट धारी ही दिखाई दे रहा है ।

सारे भेद खतम हो गए हैं इस की दृष्टि के …….स्त्री हो या पुरुष सबमें ये कन्हैया को ही देख रही है …..अजी ! इसके आँखों की पुतरी ही बदल चुकी है ।

कुछ देर बाद प्रभावती घर में आयी ……….अंदर नृत्य कर रही है बहु ………द्वार खुला है ………..प्रभावती नें सोचा ……आज बहु नें द्वार बन्द क्यों नही किया …….भीतर गयी ……तो जैसे ही प्रभावती को आते हुए बहु ने देखा …….लजा गयी …….शरमा गयी ……..और दोनों बाँहों को फैलाकर बोल पड़ी………आओ प्यारे !

ये क्या कह रही है ! डर गयी प्रभावती ……..वो समझ गयी कि मैं जिस बात से डरती थी वही हुआ है …………..

वह भागी गोष्ठ की ओर ……….अपनें पति को लेनें ………..यानि उस बहु के ससुर जी को बुलानें………..

ससुर जी उठे और घर की ओर भागे…..कि बहु को “हवा” लग गयी ….

द्वार खोला ……..तो बहु भीतर बैठी थी ……….द्वार के खुलते ही वो उठ गयी ……और दौड़ पड़ी ……..ससुर जी आये घर में ……जैसे ही ससुर जी को देखा ……….बहु को तो ससुर में भी कन्हैया दिखाई देंने लगे ….

दोनों बाँहों को फैलाये ससुर जी को बड़े प्रेम से बोली………..

आओ प्यारे !

ससुर नें कहा ……मेरी बहु की तबियत खराब हो गयी है …….अब क्या करूँ ?

तभी देवर आया घर में………बहु फिर उठी…….उसे लगा मेरा कन्हैया आया है…….फिर दोनों बाँहों को फैलाये………

आओ प्यारे !

प्रभावती आँगन में बैठ कर रो रही है………मैने कहा था द्वार मत खोल ……इसनें मानी नही …… अब देखो इसकी हालत ।

कोई उपाय है क्या माँ ? उस बहु के पति नें पूछा ।

हाँ …….अब तो एक ही उपाय है ! ……ये कहते हुए प्रभावती नन्दालय की ओर चल पड़ी थी ।

मिल गए नन्दालय के आँगन में ही ………..ग्वाल सखाओं के साथ बैठे थे …..हँस रहे थे ठिठोली कर रहे थे कन्हैया ।

लालन ! चलो ना मेरे घर !

प्रभावती पहुँची कन्हैया के पास , और प्रार्थना करनें लगी ।

नहीं …..लाला ! मत जइयो या के घर ……..ये गोकुल में सबको कहती है …शाम को द्वार बन्द रखना…..क्यों की कन्हैया निकलता है ।

इसलिये मत जाना इसके यहाँ ।

लालन ! मेरी बहु नें तुमको देख लिया है …..वो उन्मादिनी हो उठी है …..मैं जानती हूँ इसकी दवा तुम ही हो ………..मेरे ऊपर कृपा करो और मेरे घर चलो ।

नही ………..मैं नही जाउंगो तेरी बहु के पास …………तू तो दरवज्जो बन्द करवा वे , है ना ? कन्हैया रिसाय के बोले थे ।

अब चलो ना ! मेरी प्रार्थना कूँ मान लेओ लालन !

अच्छा ! ठीक है – चल प्रभावती ।

इतना कहते हुए छोटे से कन्हैया चल पड़े उस प्रभावती के साथ ।

यहाँ तो भीड़ लगी है प्रभावती के आँगन में ………क्यों कि –

सबरे गोकुल में हल्ला मच गयो कि …..प्रभावती की बहु पागल है गयी ।

प्रभावती कन्हैया को लेकर आई ………..चलो कन्हैया ।

द्वार बन्द था …….भीतर बहु बैठी है …..अब किसी की हिम्मत नही है जो भीतर जाये ……..पर वो आनन्दित है ……वो बहु गा रही है कभी पैर थिरकनें लगते हैं उसके ………..

कन्हाई नें द्वार खोला……..वही सुगन्ध , वही हवा का झौंका……

बहु दौड़ी द्वार की ओर…….इधर कन्हैया दौड़े बहु की ओर ।

बहु दोनों बाहों को फैलाये दौड़ रही है……और बोल रही है –

आओ प्यारे !

कन्हैया भी दोनो भुजाओं को फैला कर दौड़ रहे हैं……और बोल रहे हैं –

आगयो प्यारी !

आहा ! जन्मों जन्मों की इस गुजरिया की प्यास आज बुझी थी…….

क्यों की उस कन्हैया नें अपनें बाहों में इसे भर लिया था ।

चौर जार शिखामणि………

ये चोरों के और जारों के शिरोमणि हैं……….

मैं नही…भगवान शंकर ऐसा कहते हैं….उद्धव नें हँसते हुए कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 54

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 54 )

!! अहो भाग्यम् ! अहो भाग्यम् !!


तात ! भगवत्लीला का प्रयोजन मात्र इतना ही है कि ………जगत के प्रपञ्च का विस्मरण, और भगवान का निरन्तर स्मरण ।

उद्धव बोले ।

तात ! जहाँ भगवान ही स्वयं लीलानायक हों …..उस लीला की पूर्णता में भी भला कोई सन्देह है ।

लीला के प्रतीकार्थ निकाले जाते हैं ……..पर लीला का क्या प्रतीक ?

निराकार का साकार प्रतीक है……परोक्ष का प्रत्यक्ष प्रतीक है ….अज्ञात का ज्ञात प्रतीक होता है …….परन्तु जो सर्वात्मा है …..सर्वरूप है …..वही यहाँ लीलाधारी है ……..और मात्र लीलाधारी नही ……वह लीला भी है ………जैसे ज्ञानी लोग कहते हैं ना तात ! कि सुनार भी वही और सुवर्ण भी वही …….बनानें वाला भी वही और बननें वाला भी वही ………ऐसे ही यहाँ है ……..लीलाधारी भी कन्हैया ……और लीला भी कन्हैया ………आहा !

सब कुछ भुला दे वह है भगवत्लीला ……..संसार की विस्मृति करवा दे …..संसार के दुःखों को भुला दे ……उसे कहते हैं लीला ।

फिर कुछ सोच कर उद्धव बोले – तात ! इतना ही नही ……..लीला तो वह है जो भगवान के ऐश्वर्य को भी भुलाकर अपनत्व जगा दे भगवान से ।

ऐसा अपनत्व कि लगे …..ये तो यशोदा जी का ही नही …..मेरा भी लाला है…..ये मनसुख का ही नही ….मेरा भी सखा है ……..ये गोपियों का ही नही ..मेरा भी प्रियतम है …………भगवत्ता की भी जहाँ विस्मृति होनें लग जाए……हृदय में मात्र उसके प्रति प्रेम जागे……विशुद्ध प्रेम ।

उल्लसित रस का नाम होता है – लीला ……….इसे साधारण मत समझना तात ! ये तो भगवन्मय भगवद् – विलास है …….भगवत्सत्ता का आल्हाद है ………..उल्लास है …..उमंग है ………छलकता रस है ……..जिसे रसिक लोग पीते हैं……..और उन्मत्त रहते हैं ।

उद्धव आज आनन्दित हैं ………..कुछ ज्यादा ही आनन्दित हैं ।

तात ! चलिये मेरे साथ मानसिक रूप से गोकुल …और दर्शन कीजिये …..गोकुलचन्द्र जु का । गोकुल – जहाँ गौ रूपी इन्द्रियाँ विचरण करती हैं………पर जन्म जन्मों के स्वभाव वश …….ये गौ यानि इन्द्रियाँ घूम फिर कर उसी विषयों को ही भोगना चाहती हैं ………..

वहीँ – इन्हीं के मध्य …….उन्हीं विषयों में ……..निराकार नही साकार ….अचल नही…….क्यों की ये इन्द्रियाँ चंचल हैं ………..इसलिये ये अचल नही ….यहाँ चंचल बने हैं ……..क्यों की हाँकना है इन इन्द्रियां रूपी गायों को ……….।

विराट ब्रह्म नही है यहाँ ……यहाँ तो शिशु ब्रह्म है………मैया की गोद में छिपा बैठा है…….स्नेह की जहाँ धारा बह रही है …….वहीँ ये गोपाल भी बैठा है …तुम्हारे स्नेह दुग्ध को पीनें के लिये ।

वो भूखा है …वो प्यासा है ……प्रेम और भाव का भूखा प्यासा है……इसलिये तो ये सब लीलाएँ रचता है …….शिशु बनकर रोते हुए यशोदा के वक्ष से गिरते स्नेह दूध को पीनें के लिये मचल उठता है ………..जिसकी एक भृकुटी के भय से सातों समुद्र उछलनें लगते हैं ……..वही ब्रह्म यहाँ यशोदा के आगे रोता है ……..

जिसका भोजन ही सम्पूर्ण सृष्टी है …….जो कालों का भी महाकाल है …..मृत्यु जिसकी चटनी है ……..जो मौत को भी चाट जाता है ……वह ब्रह्म …..यहाँ माखन के लिये मचलता हुआ दिखाई देता है ।

जो एक फूँक मार दे तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रलय आजाये ……..वही यहाँ ग्वालों के साथ गेंद लेकर उछलता रहता है…..पर हार जाता है ।

वो जो मौत की भी मौत है………वह यहाँ इन साधारण सखाओं से हारता हुआ , रोता है………ग्वाल सखा इसे घोड़ा बनाते हैं …….और इसके ऊपर चढ़ जाते हैं ।

जिसके एक इशारे पर देव ग्रह नक्षत्र तारे सब नाचते हैं ……..वही इन अहीर की छोरियों के आगे माखन के लिये नाचता डोलता है ।

बृजरानी इसे थप्पड़ मार देती है……..ये रोनें के सिवा और कुछ कर नही सकता……फिर उठाकर पुचकारती है ……तो ये ब्रह्म ख़ुशी से झूम उठता है ……ये लीला है…….इसे कहते हैं लीला ।

मैने इसलिये कहा…..वो ब्रह्म भी तरसता है……..प्रेम के लिये ।

वो ब्रह्म भी तड़फता है प्रेम पानें के लिये ।

उफ़ ! ये लीला………..

बृजरानी जु ! गोबर चाहिये……..गोपी नें कहा ।

“ले जा”….बृजरानी नें भी कह दिया……और अन्य कामों में लग गयीं ।

गोबर का तो बहाना है …….गोपाल को देखनें आयी है ये गोपी ।

गोबर परात में भर लिया ……..और इधर उधर देखनें लगी ।

किसे देख रही है ? विदुर जी नें पूछा ।

किसे देखेगी ? अपनें गोपाल के सिवा ये लोग देखते ही किसे हैं ?

ये गोपाल है भी ऐसा कि …..जो दिल से इसे चाहे ये तुरन्त उसके सामनें हाजिर हो जाता है …….हो गए हाजिर !

गोपी ! का कर रही है तू ? वही मधुर बोली …….आहा ! कुछ देर तक तो देखती ही रही अपनें गोपाल को ………..

पर कन्हैया नें फिर पूछा ……”.का कर रही है बता तो दे भाभी ! “

उसे अब होश आया था………हाँ …..लालन ! एक काम करो …….

कि ये मेरी गोबर की परात उठा दो ।

इधर उधर देखकर कन्हैया भी बोल उठे………का देगी ?

एक परात उठा दो उसके बदले माखन को एक लौंदा दूंगी …….गोपी नें भी कह दिया ।

पर मैं तो भूल जाऊँ ! गिनती मोकूँ याद नही रहे है ।

तो लालन ! एक परात उठा दो …….तुम्हारे कपोल में गोबर का एक टीका लगा दूंगी……….तो तुमको याद भी रहेगा ।

हाँ …..ये ठीक है………कुछ देर सोचकर कन्हैया बोले ।

एक परात गोबर उठा दी कन्हैया नें ……….

आहा ! गोबर का एक टीका नन्दनन्दन के कपोल में ……….

दूसरी परात गोबर की… ….दूसरा टीका ………….

आवश्यकता नही है गोपी को गोबर की ……..पर कन्हैया के प्रति उसका अगाध स्नेह ………वह बारबार आरही है और गोबर ले जा रही है ……..कन्हैया के कपोल में गोबर ही गोबर हो गया है ………..

इतना ही नही ………जब गोपी गोबर लेकर अपनें घर जाती …..तब छुप कर दो तीन गोबर के टीका स्वयं अपनें कपोल में कन्हैया लगा लेते ।

अब हो गया ! गोपी बोली ।

तो दे माखन को लौंदा …………….कन्हैया बोले ।

पर पहले गिनती तो हो कि …….कितनें परात है गए ?

हाँ तो कर गिनती सखी !………..कन्हैया को क्या आपत्ति ।

एक, दो, तीन, चार, पाँच, दस , बीस , पच्चीस …………..सखी बोली – पच्चीस ……….कन्हैया बोले – तीस ……..नही – पच्चीस …….नही – तीस …..।

तात विदुर जी ! कन्हैया को ही हारना पड़ा ……..चल दे पच्चीस ….माखन के लौंदा………..।

ना , ऐसे नही दूंगी………..गोपी मुकर गयी ।

फिर कैसे देगी ? मासूम से कन्हैया बोले ।

पहले नाचो ………..तब दूंगी ।

कन्हैया नें पीताम्बरी अपनी कमर में कसी और ठुमुक ठुमुक नाचनें लगे…………..

गोपी मुग्ध होकर देख रही है …………….

आकाश से देवता पुष्प बरसानें लगे ………जयजय हो ….की ध्वनि आकाश में गूंजनें लगी ……………..

ब्रह्मा शंकर ये सब यही कह रहे थे ……….

!! अहो भाग्यम् , अहो भाग्यम् !!

ये मधुर ब्रह्म है ……प्यारा ब्रह्म है ………ये प्रेम के मोल मिलता है ।

तात ! खरीदना है ? उद्धव हँसते हुए बोले ।

मेरे जैसे शुष्क हृदय में प्रेम कहाँ ? ये सौभाग्य तो इन बृज ललनाओं का ही है ………जय हो जय हो ……..विदुर जी भी आनन्दित हो गए थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 53

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 53 )

!! जब कन्हैया नें रामकथा सुनी…!!


बृजरानी दौड़ीं दौड़ीं आयीं ………बृजराज संकीर्तन में मग्न हैं …….बड़े प्रेम से – श्रीमन्नारायन नारायण नारायण , का उच्चस्वर से गान करते हुये पूर्ण भक्ति से ओतप्रोत थे ।साथ में ग्वाल मण्डली थी …..जो मंजीरा, ढोलक करताल के साथ संकीर्तन में सहयोग कर रही थी ।एकादशी की रात्रि में शयन कहाँ किया जाता है ……….उस समय तो जागरण होता है ….भक्तिभाव से इष्ट का स्मरण होता है ………आज एकादशी थी ……….बृजरानी भी बैठीं थीं संकीर्तन में …….गोपियाँ भी थीं ……….कन्हैया ऊँघ रहे हैं मैया की गोद में बैठे बैठे ।आहा ! कितनें सुन्दर लग रहे थे ऊँघते हुए भी ।बार बार गिर रहे थे ………बृजरानी उन्हें सम्भाल रही थीं ……..अर्धरात्रि भी तो हो चली है ………………वो उठ ही गयीं ………क्यों की लाला अब बैठ नही सकता था ……..बालक भी तो है …………कुछ देर तक तो उछलता रहा ……..ताली बजाकर नाचता रहा …….पर कब तक ? अब उसे नींद आरही थी …….तो बृजरानी लेकर चलीं गयीं भीतर महल में …………दो घड़ी ही बीती होगी …………कि बृजरानी बाहर आयीं …………घबड़ाई हुयी थीं ………..पसीनें आरहे थे माथे में ।बृजराज के कान में कुछ कहा …………….क्या ? बृजराज चौंक गए …………ग्वालों से इशारे में कहा …..संकीर्तन करते रहो …….मैं अभी आया …….ये कहते हुये महल की ओर बृजराज दौड़ पड़े थे ……पीछे बृजरानी ।कन्हैया सो गया है ………..गहरी नींद आगयी है अब उसे ।ये तो सो गया ? बृजराज नें यशुमति से कहा ।हाँ ……..ये सो गया…….पर मैं क्या बताऊँ आपको ? देखिये ना अभी भी मुझे डर लग रहा है …….कि कहीं कुछ अलाय बलाय न लगी हो इसे । पर हुआ क्या था ? कुछ बताओगी ?”लक्ष्मण ! मैं रावण को छोड़ूँगा नही ……रावण ! मैं तुझे मारूँगा !”सुनिये ! सुनिये ! अभी भी , नींद में ये वही बोल रहा है ।नन्दराय सुनते रहे …………कन्हैया नींद में भी बड़बड़ा रहे थे ।रावण ! मैं तुझे छोड़ूँगा नही …………….पर तुमनें ऐसा क्या सुनाया था इसे ? बृजराज नें यशोदा से पूछा ।मैने ? नन्दगेहनी बतानें लगीं थीं ।***************************************************मैं संकीर्तन से उठ गयी थी ……….क्यों की लाला ऊँघने लगा था ।मैनें उसे आकर सुला दिया ………और थपथपी देते हुए ……..”नारायण, नारायण नारायण” गुनगुना रही थी ।तभी – मैया ! ये नारायण कौन हैं ? उठ गया था लाला तो ।तू सोया नही ? वहाँ तो ऊँघ रहा था …………नही , मुझे नींद नही आरही …………..उठकर बैठ गया था ।फिर ? बृजराज नें पूछा ।फिर वही प्रश्न था उसका ……..ये नारायण कौन हैं ? बाबा नारायण नारायण क्यों करते रहते हैं ? ये नारायण कहाँ रहते हैं ? इसके प्रश्न कभी खतम हुए हैं जो आज हो जाते ?भगवान हैं ………..मैने इसे बताया ।फिर ऊँघने लगा …….तो मैं गोद में लेकर सुलानें लगी …………मैया ! कोई कहानी सुना ना ? धीमी आवाज में बोला था ……..मैने सोचा हाँ भगवान की कोई कथा सुना देती हूँ ……..मेरी वाणी भी पवित्र हो जायेगी ……..और एकादशी है ……..मेरे लाला के कान भी पवित्र हो जाएंगे ।मैया ! कोई कहानी सुना ना ? फिर बोला ।तो मैने इसे रामकथा सुनानी शुरू की …………..मुझे क्या पता था ये तो इस कथा को सुनते ही उठकर बैठ गया ।हाँ ……….अब सुना ……….आलती पालथी मारकर बोला ……अब सुना मैया !मैं हँसी …….और बड़े प्रेम से बोली …..श्रीराम चन्द्र भगवान की …..छोटे छोटे हाथों को उठाकर लाला नें जोर से कहा …….जय !एक राजा थे उनका नाम था – दशरथ ! अच्छा मैया ! कन्हैया बोले ।वो राजा थे अयोध्या के …..सबसे बड़े राजा ………….इत्ते बड़े राजा ? अपनें हाथों को फैलाकर पूछ रहे हैं कन्हैया ।हाँ…..इससे बड़े राजा …..चक्रवर्ती सम्राट ……….कन्हैया से चक्रवर्ती नही बोला गया ……पर “सम्राट” बोल दिया ।अच्छा मैया ! फिर ? फिर ………उनकी तीन रानियाँ थीं लाला ! बृजरानी नें केश की लटें लाला के मुख से हटाते हुये कहा । …..तीन रानियां ……कौशल्या, कैकेई और सुमित्रा ।अच्छा मैया ! आगे क्या हुआ ?आगे ! लाला ! इनके चार पुत्र हुए ………….चार कहते ही …ऊँगली में गिननें लगे कन्हैया……एक , दो , तीन, चार ।फिर चार ऊँगली मैया को दिखाते हुये बोले ………मैया ! ये चार ।हाँ ……लाला ! चार पुत्र थे दशरथ के ……….बड़े का नाम था – राम, फिर लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ……..ये इनके नाम हैं ।अच्छा मैया !

जनकपुर में इनका विवाह हुआ……..बृजरानी नें अपनें लाला को चूमते हुए कहा ।मेरा विवाह कब होगा ? ये क्या प्रश्न था लाला का ……पर बालक के प्रश्न तो ऐसे ही होते हैं …………..होगा , होगा तेरा भी व्याह होगा …….मैया हँसी ।राम का विवाह हुआ सीता के साथ , लाला ! भरत का विवाह हुआ माण्डवी के साथ, लक्ष्मण का विवाह हुआ उर्मिला के साथ और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति के साथ ……………लाला ! विवाह करके ये सब अयोध्या लौट आये …………….अच्छा मैया ! फिर क्या हुआ ? आँखों को मलते हुए कन्हैया पूछ रहे हैं ।लाला ! अयोध्या में कुछ दिन के बाद राम को वनवास मिल गया ।क्यों ? क्यों वनवास मिला मैया ! वचन माँग लिये थे कैकई नें राजा दशरथ से …………उसी बात को लेकर राम को वनवास जाना पड़ा …………..इसके बाद कन्हैया गम्भीर ही बना रहा………पता नही उसे क्या हो गया था ……बृजराज सुन रहे हैं यशोदा मैया की बातें ।मैं सुनाती रही रामकथा लाला को ……वो सुनता रहा …….मैं उसकी आँखों में देख रही थी ………..नींद तो थी ही नही…….अजीब सी गम्भीरता आगयी थी उसके नयनों में ।एक राक्षसी आई लाला ! उस वन में ……………ये राक्षसी क्या होती है मैया ? ये प्रश्न भी गम्भीर होकर ही पूछा था ।बड़े बड़े दाँत, ….लाल लाल आँख……..सिर में सींग ………..पर मेरे ये सब कहनें का लाला के ऊपर कोई प्रभाव नही पड़ा ………वो डरा नही …..मैं तो ऐसे ही लाला को कुछ डरानें के लिये बोल रही थी ।आगे बता मैया ! आगे क्या हुआ ?उस राक्षसी के नाक कान काट दिए लक्ष्मण नें ……….ताली बजाई कन्हैया नें …….मैया ! अच्छा हुआ ………बढ़िया किया लक्ष्मण नें ………फिर क्या हुआ मैया !फिर ? फिर तो वो राक्षसी गयी अपनें भाई के पास ……..उसका भाई सबसे बड़ा राक्षस था……….वो उसको लेकर आई ।लाला ! उस राक्षस नें आकर सीता का हरण कर लिया ।सुनिये ! मैने इतना क्या कहा…….कन्हैया का मुख तो लाल हो गया उसकी आँखें लाल हो गयीं … क्रोध में आगया ……..देह कांपनें लगा ।इतना ही नहीं ………उठकर खड़ा हो गया ……और चिल्लाकर बोला -लक्ष्मण ! मेरा धनुष बाण लेकर आ ……मैं अभी रावण को मारूँगा ।सुनिये ना ! रावण नाम मैने बताया नही था ………..मैने तो मात्र राक्षस कहा था ……………….आप कुछ कहिये ना ! मैने उसी समय लाला को अपनी छाती से चिपका लिया ………..और थपथपी देती रही …………फिर ये सो गया था …….तब मैं आपके पास गयी ।मुझे डर लग रहा है ……….कहीं कुछ अलाय बलाय तो नही है ये …….कहीं कोई भूत प्रेत तो नही है ……….ये क्या हो गया ?बृजराज देख रहे हैं कन्हैया को …………….फिर सोते कन्हैया बड़बड़ाये …………लक्ष्मण ! मैं छोड़ूँगा नही रावण को …….मेरी सीता को वो कैसे ले गया ।बृजरानी रो पडीं ……बृजराज के गले लग कर रोईं ………..कुछ नही होगा …..सब नारायण भगवान ठीक करेंगें ……….ऐसा कहते हुये बृजराज बाहर गए …….बाहर संकीर्तन चल रहा है …..नारायण , नारायण नारायण ।मन्दिर में जाकर शालग्राम जी का जल लेकर आये …..और लाला के मुख में डाल दिया था …………..अब कुछ नही होगा लाला को ……..बृजरानी ! तुम अब यहीं रहो ……और सो जाओ तुम भी ……..इतना कहकर बृजराज चले गए थे संकीर्तन में ………….हाँ ………….इसके बाद कन्हैया एक बार नींद में मुस्कुराये ………अच्छा ! रावण मर गया लक्ष्मण ! अब सीता को ले आओ ।बस इतना बोले कन्हैया ।बृजरानी सो न सकीं थी पूरी रात ।तात ! रामावतार का आवेश था कन्हैया को ये ………..बस इतना ही बोले उद्धव…….आज उद्धव भी शान्त हैं …….श्रोता विदुर जी भी …………कन्हैया इनके हृदय में छा चुका है ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 52

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 52 )

!! “उपद्रवी कन्हैया”- एक सहज लीला !!


अच्छा उपद्रव किया आज तो इस नन्द के लाल नें …. उद्धव हँस रहे हैं । ऐसा क्या हुआ ? क्या किया नन्दनन्दन नें ऐसा कि तुम अकेले ही हँस रहे हो उद्धव ! विदुर जी नें प्रश्न किया था । तात ! एक प्रसंग स्मरण हो आया…..ओह ! उद्धव फिर हँसनें लगे । यमुना के तट पर बादल घुमड़ आये थे ………कपि आनन्दित हो उठे थे ….मोर नाच रहे थे …..कोयल, पपीहा , शुक सब अपनें अपनें राग अलाप रहे थे………..श्रीकृष्ण स्मृति नें सब को आनन्द से भर दिया था ………और क्यों न आनन्द आये ? ये स्वयं आनन्द के ही तो साकार रूप हैं……..कन्हैया । उद्धव उस लीला को सुनानें लगे थे ……….पर लीला को सुनानें से पहले उद्धव बहुत हँसे ………..तन पर ओढ़े हुए चादर को मुँह पर रखते हुये हँस रहे थे ……..हँसी संक्रामक होती है ……..हाँ ये फैलती है । तो विदुर जी भी हँस पड़े थे । ************************************************* उदासी छाई है आज ग्वाल मण्डली में ………….सब सुस्त हैं ………मध्य में कन्हैया बैठे हैं और सब को देख रहे हैं ……….चारों ओर सखा बैठे हैं ………..गोलाकार । मनसुख, मधुमंगल, तोक, भद्र सब थे ……..पर उदास से थे । अब यमुना के जल में कंकड़ फेंक रहे हैं कन्हैया ……………सब ग्वाल उसी को देख रहे हैं …………..क्या करें । कपि भी आकर बैठ गए ……..मोर आये तो हैं ……पर अपनें “घनश्याम” को गम्भीर देखकर ये भी चुप्प बैठ गए । चल कन्हैया ! चल ! यहाँ बैठ के कहा करेगो ? मनसुख नें कन्हैया को झँकझोरा । कहाँ जायगो दारिके ! मधुमंगल नें व्यंग किया । गोपियन के यहाँ ……….चल ! माखन खायेगें ……मनसुख नें फिर हाथ पकड़ा, और कन्हैया को उठाना चाहा । डण्डा ते अपनी पूजा करवाय लीयो………समझे नायँ का ? अब सब सावधान है गयीं हैं गोपियाँ……अपनें घरन में घुसवे हूँ नायँ देंगी …..खायेगो माखन ! मधुमंगल नें समझाया । अरे ! कितनों हूँ सावधान है जाएँ …………पर कन्हैया के सामनें उनकी कछु नाय चलेगी ………चौं लाला कन्हैया ? मनसुख , कन्हैया के पीठ में हाथ मारते भये बोलो । सुनो सुनो ! एक उपाय है …….कन्हैया उछलते हुए बोले । हाँ का उपाय है ? मनसुख के साथ साथ सबनें पूछा । चलो ! पीताम्बरी सम्भालते हुए कन्हैया उठे । उनके साथ सब ग्वाल बाल उठ गए ………….. पर ………..तुम लोग छिप जाना ……….मैं जब दो बार ताली बजाऊं तब तुम आना …………अभी चलो मेरे साथ ……..ये कहकर कन्हैया ग्वालों के साथ चल दिए ।……..किसके यहाँ जाऊँ ! किसके जाऊँ ! ……..विचार करते रहे ……..सामनें एक गोपी दीखी ………ग्वालों को छुपनें के लिये कह दिया और स्वयं चले उसी गोपी के यहाँ । गोपी तो प्रसन्न हो गयी ………देख रही है ….शान्त भाव से चले आरहे हैं कन्हैया ……मुखचन्द्र आज गम्भीर है …………गोपी देख रही है …….मुख में कोई भाव भी नही दिखाई दे रहे ………बस शान्त से चले आये गोपी के पास ………….. भाभी, राम राम ! उसी गम्भीर मुद्रा में ही कहा । गोपी हँसी …………कैसे आये आज यहाँ ? “हम अपनी इच्छा से अब कहीं जाते आते नही हैं आज कल” …………बड़ों की तरह बतिया रहे हैं कन्हैया । गोपी तुरन्त बैठ गयी द्वार पर ही……..कपोल में हाथ रख लिया मुग्ध सी हो कर बस कन्हैया को देखती जा रही है । अच्छा ! तो बता दो फिर किसकी इच्छा से हमारे यहाँ पधारे हो ? मैया नें भेजा है हमें……….कन्हैया नें उत्तर दिया । क्यू ? क्यू भेजा है मैया नें ? गोपी नें पूछा । वो इसलिये कि……..”.हमारे यहाँ बड़े बड़े सन्त महात्मा आये हैं” …..कन्हैया अपनी हँसी छुपा रहे हैं……..”.बड़े बड़े सन्त महात्मा ……जोगी, सन्यासी, बैरागी, सब आये हैं” ………. तो ? गोपी नें पूछा । सिर खुजलाते हुये कन्हैया बोले ……..तो ! मेरी मैया नें मुझ से कहा है ………इन सन्तों की सेवा के लिये प्रत्येक गोपी के यहाँ से माखन की एक एक मटकी ले आ । क्यों ? कपोल में हाथ रखे रखे ही गोपी पूछ रही है । इसलिये कि ……….तुम सबन कूँ पुण्य मिलेगो । गोपी प्रसन्न हुयी……….ओह ! ये तो बढ़िया काम है ………और आज अमावस्या भी है………दान को पुण्य मिलेगो ………. भाभी ! ज्यादा मिलेगो …..कन्हैया खुश होते हुए बोले । दो मटकी ले जाओ माखन की ………गोपी नें कहा । अब ये तो तुम्हारी श्रद्धा है ………दो, दो या चार दो ……….वैसे मैया नें एक ही मंगायो है । ले के कौन जावेगो ? गोपी नें प्रश्न किया । अरे ! सब व्यवस्था है भाभी ! तू दे दे माखन की मटकी ……. ये कहते हुए कन्हैया नें ताली बजाई……दो ताली बजाई …….. सोई ग्वाल सखा सब आगये…………. इनके मूड में धर दो , भाभी ! कन्हैया नें हँसते हुए कहा । अरी ! जि कहा दे रही है तू ? पड़ोस की गोपी नें पूछा ……… पहली गोपी नें सारी बात बता दी …..सन्तों और महात्माओं के लिये माखन जा रहा है मेरे यहाँ से ……गोपी प्रसन्नता में बोली । तो मेरे यहाँ से भी ले लो , लालन ! …………उस गोपी नें भी अपनें यहाँ से माखन की भरी मटकी दे दी …………. हँसते हुए उद्धव बोले – इस तरह से दस प्रमुख घरों से मटकी उठा ली इन लोगों नें………अब कन्हैया से पूछनें लगे कहाँ चलें ? कन्हैया बोले ……..चिन्ताहरण महादेव के पास …………..वहीँ चलो …..वहीँ बैठेंगे ……..और वहीँ माखन खाएंगे ………… तात ! सब ग्वाल बाल माखन की मटकी लेकर यमुना के किनारे आगये थे ……..और सब बैठ गए ……….मध्य में कन्हैया ………चारों ओर ग्वाल बाल ……….सब हंस रहे हैं ………कन्हैया हँसा रहे हैं । ************************************************** सुन वीर ! कन्हैया माखन ले गयो है ……आज मावस भी है ………सन्त महात्मा बृजरानी जु के यहाँ आये हैं ……..क्यों न हम भी चलें उन सबके दर्शन करवे कूँ ? दूसरी बोली ……….विचार तो उत्तम हैं तेरे ………..तीसरी गोपी बोली ……हमारे यहाँ ते माखन गयो है ….तो हमें जानो ही चहिए ………. सब तैयार होनें लगी ……..सुन्दर सुन्दर लंहगा पहनें, फरिया……..सुन्दर चोली …….पूरा सोलह श्रृंगार किया …….और अपनें अपनें घरन ते निकसीँ ………..खिलखिलाती भयी ……….आनन्द और उमंग मन में धारण करके ……..नन्द महल में पहुँची । नन्द महल में आज अकेली बृजरानी ही थीं ………….. पाँय लागूं बृजरानी जु ! गोपिन नें प्रणाम कियो …….पाँव छूए । जीती रहो …..खुश रहो …………और बताओ कैसे आई हो ? बृजरानी नें पूछ लिया । कहाँ हैं ? गोपियाँ पूछनें लगीं । कौन ? बृजरानी नें भी प्रतिप्रश्न किया । सन्त महात्मा कहाँ हैं ? गोपियों नें अब स्पष्ट किया । मेरे पास कहा धरे हैं सन्त महात्मा ? बृजरानी को अजीब लगा । री गोपी ! मेरे पास कहाँ हैं सन्त महात्मा ? तो, दो दो माखन की मटकी ले के गयो है तेरो छोरा …….और कह रो कि – सन्त महात्मा आये हैं घर में ….बेचारी गोपी समझ तो गयी कि कन्हैया नें आज फिर हमें बनाय दियो…….. देखो गोपियो ! मेरे पास तो सन्त महात्मा हैं नायँ ……आये नायँ ……अब लाला के पास आये हों तो मोय पतो नायँ ………..ये कहते हुए बृजरानी भी भीतर चली गयीं । अब सजी धजी गोपियाँ अपनें आपको ठगी अनुभव करनें लगीं थी…. एक गोपी नें दूसरी ते कही ……….तुम चलो मेरे साथ ……आज हम उसे छोड़ेंगी नही……….सब गोपिन नें हाथ में एक एक डण्डा ले लियो …….और खोजती भई वहीँ पहुँच गयीं ……..यमुना किनारे । ********************************************* चारों ओर ग्वाल सखा बैठे हैं …………सबके पीले वस्त्र हैं …….पगड़ी बंधी है पीली ………..मस्त – अलमस्त स्थिति है सबकी । मध्य में विराजे हैं कन्हैया…………. मैने कही …..सन्त आये हैं मेरे घर ……….तो कहवे लगी वो गोपी ……..दो दो मटकी माखन ले जाओ ….एक क्यों ? मैने भी कही ………..मनसुख ! सुन ! मोय हँसी आरही ………पर मैने हँसी कूँ रोक लियो…….मैने कही – मैया नें एक ही मटकी की कही है …..ज्यादा श्रद्धा होय तो दो मटकी दे दे ।…..ये कहते हुए कन्हैया हँसे…..खूब हँसे……सखा सब लोट पोट हो रहे हैं यमुना की बारू में । भैया लाला ! वाह ! आनन्द आगो …………..माखन खाते हुए मनसुख बोल रहा है ……और बड़ा प्रसन्न हो रहा है । देख भैया ! तेनें ब्राह्मण देवता की आत्मा तृप्त कर दई ……पर तोय पतो है …..ब्राह्मण कूँ जिमायवे के बाद दक्षिणा देनी पड़े…….दे दक्षिणा । मनसुख के मुख से जैसे ही कन्हैया नें ये सुनी ………….तभी मनसुख के पीछे एक गोपी आके ठाड़ी है गयी …….वा के हाथ में डण्डा । कन्हैया हँसे ………खूब हँसे ……और बोले ……..मनसुख ! चिन्ता मत करे ….दक्षिणा देवे वारी तेरे पीछे ही खड़ी है । अब वो गोपी सामनें आयी …………कन्हैया ! लाल जी !, बताओ कहाँ हैं सन्त ? कहाँ हैं तुम्हारे महन्त ! पीछे से अन्य गोपियाँ भी आगयी थीं ।……………कन्हैया उठकर खड़े है गए ………. गोपियों ! मैं झुठ नही बोलूँ हूँ ………..कन्हैया चंचल निगाह से इधर उधर देखते हुए बोले । हाँ हाँ ………तो बताओ ! कहाँ हैं सन्त ?

कन्हैया नें कहा ………गोपियों ! ये सब हैं सन्त ……..ग्वाल बाल, इनसे बड़ा कौन सन्त होगा……..ये सबसे बड़े सन्त हैं …….और मैं हूँ इनको महन्त……कन्हैया की बात सुनकर गोपियाँ हंस पडीं ………ग्वाल सखा हँसते हुए भागे ……कन्हैया नें भागते हुए कहा ……….हमारी पूजा करो ……….इनकी पूजा करो ……जो भी सन्त महन्त हैं हम ही हैं …..इधर उधर मत भटको ……………हँसते हुए सब भाग गए थे ……गोपियाँ भी कुछ दूर भागीं ……पर फिर वहीँ यमुना के कूल में बैठ कर खूब हँसती रहीं ……….खूब हँसती रहीं ।विदुर जी के तो हंस हंसकर अब आँसू भी बहनें लगे थे ।उत्तमा सहजावस्था – यही है सहज अवस्था …..सहज रहो तात !उद्धव आनन्दित हैं ये कहते हुए ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 90

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 90)


!! आज कन्हैया बनें हैं “गोपाल” !!

उद्धव, कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण की दिव्यातिदिव्य लीलाओं को गा रहे हैं ………और गाते गाते ये देहातीत हो उठते हैं ……..श्रोता विदुर जी हैं जो मन्त्रमुग्ध होकर अपनें आराध्य की लीलाओं को सुन रहे हैं ।

तात ! कैलाश में गणपति गणेश आज बहुत प्रसन्न हैं ……..प्रसन्नता चरम पर है उनकी ……..वो नाच भी रहे हैं ……..उनका वो बड़ा उदर हिल रहा है ……….जिससे उनकी शोभा ही विलक्षण हो उठी है ।

वत्स ! तुम आज बड़े प्रसन्न हो ……? भगवती उमा नें अपनें लाडले पुत्र गणेश से पूछा था ।

माँ ! हाँ आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ ……….क्यों की श्रीकृष्णचन्द्र जू का कल गौचारण होनें जा रहा है ……….वो गोपाल बनेगे माँ !

मेरे पिता का नाम और श्रीकृष्णचन्द्र जू का नाम फिर एक ही हो जाएगा ………खिलखिलाते हुये गणेश नें अपनी माँ से कहा था ।

कैसे ? भगवती उमा नें पूछा ।

पशुपति और गोपाल , इन दो नामों में माँ ! आपको समानता नही दिखती ? गणेश नें अब गम्भीरता से कहा ।

पशुपति यानि जो पशुओं का पति है ….और गोपाल यानि गो का पालक …..रक्षक ……..दोनों का अर्थ एक ही है ना !

गणेश नें अपनी माँ को आगे ये भी बताया ……….

मेरे पिता जी तो जब से श्रीकृष्ण चन्द्र जू का प्राकट्य हुआ है बृज में तब से वहीँ हैं …………..पर माँ ! मैं ?

हाँ …….मेरा एक अंश श्रीकृष्णचन्द्र जू की मण्डली में है ………वो मनसुख मेरा ही अंश है …………उसका पेट इसलिये मेरी तरह ही है ……वो भी मोदक खूब खाता है ………..और हँसता रहता है मेरी तरह ……ये कहकर गणेश खूब हँसें ।

उनकी माँ मेरे पिता जी की ही परम भक्ता थीं ……….और उनका जो पुत्र हुआ मनसुख ……….मैने अपना अंश उस मनसुख में स्थापित कर दिया था …………..क्यों की मैं भी श्रीकृष्ण चन्द्र जू का सान्निध्य पाना चाहता था …………अब सुना है मैने कि श्रीकृष्ण जू की बाँसुरी भी मेरे पिता जी ही बन रहे हैं ……………….

पर माँ! मैं उस समय दुःखी हो जाता हूँ……….मैं सबके संकट हरने वाला , मैं सबके विघ्नों को दूर करनें वाला ……किन्तु मैया बृजरानी और बाबा बृजराज जब दुःखी हो जाते हैं ………..तब मैं उनका संकट दूर नही कर पाता ……..क्यों की उनका संकट तो श्रीकृष्ण चन्द्र जू की अपनी मोहनी मुस्कान के द्वारा ही दूर होगी ……वहाँ मेरी नही चलती ।

चलती तो मेरी पूरे बृज में ही नही है ……………वहाँ मेरी चलेगी ?

वहाँ तो केवल केवल श्रीकृष्ण चन्द्र जू की कृपा की वयार ही चलती है …वाकी हम जैसे देवताओं की वहाँ क्या चले ?

फिर एकाएक खिलखिलाकर गणेश हँसे …………..विधाता ब्रह्मा जी की क्या दशा की है ये मुझ सब पता है माँ ! वो श्रीकृष्ण हैं ………समस्त तेज उन्हीं से प्रकट है ………हम सबमें भी जो तेज शक्ति है वो भी उन्हीं की देन है …………….वही सबकुछ हैं …..ये कहते हुए गणपति आनन्दित हो रहे थे ।

माँ ! कल श्रीकृष्ण जू गौचरण करनें वाले हैं …………….और उसमें प्रथम पूजन मेरा ही होगा …….और वो पूजन श्रीकृष्ण चन्द्र अपनें कोमल करों से करेंगें …………आहा ! मैं धन्य हो जाऊँगा !

माँ !

और एकाएक आनन्दित होकर उछलते हुए अपनी माँ उमा भगवती के गोद में बैठ गए थे गणपति गणेश ।

जिद्द की ……..बहुत जिद्द की कन्हैया नें ………..कि अब हम गौचारण करनें जायेंगे ……….बाबा नन्द जी नें मना किया ……पर ये कहाँ माननें वाले थे ।………गौएँ मेरी बात मानती हैं ……..बाबा ! बृषभों को अगर मैं कह दूँ तो लड़ाई भी नही करते …….और मेरे पास बाँसुरी भी तो है ना ! उसको बजाते ही सारी गौएँ दौडी चली आती हैं ……..।

कन्हैया नें अपनें बाबा से ये बातें कही थीं ………….बाबा को ये सब पता है ………..वो अब कोई और बहाना बना नही सकते ………।

बृजराज ! तभी आचार्य गर्ग वहाँ पर पधारे , साथ में महर्षि शाण्डिल्य को भी लेकर आये थे ।

आचार्य ! चरणों में साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे बृजराज ।

चलो प्रणाम करो !

यही हैं वे पूज्य जिन्होनें तुम्हारा नामकरण किया था !

कन्हैया गए और चरणों में जैसे ही झुके…….आचार्य गर्ग नें उठालिया ……….ऋषि हैं ……..पर कन्हैया को देखकर सब अपनी मर्यादा भूल जाते हैं ………कपोल में चूम लिया था ।

अजीब है कन्हैया ……….पोंछ लिया कपोल …….फिर आचार्य गर्ग को झुकनें को कहा ……मुस्कुराते हुए गर्ग ऋषि झुके ……….तो कानों में कहा ……मुझे गौचारण में जाना है …….कल ही जाना है …….आप कह दीजिये ना मेरे बाबा से !

कानों में अमृत घोल दिया था मानों कन्हैया नें ।

बृजराज ! इन्हें भेज दीजिये गौचारण करनें……प्रसन्नता पूर्वक आचार्य नें बृजराज को कहा ।

मुहूर्त ? हे आचार्य गर्ग ! आप मुहूर्त भी निकाल दीजिये ।

हँसते हुए आचार्य फिर झुके ……कन्हैया से पूछा – मुहूर्त ?

कन्हैया नें कहा – कल का ।

महर्षि शाण्डिल्य नें पत्रा देखा ……… कार्तिक शुक्ल अष्टमी थी ।

मुहूर्त तो बहुत बढ़िया है कल का…….आचार्य गर्ग नें बृजराज को कहा ।

चौं रे ! तू महूर्त भी देख वे लग गयो !

दाऊ जी नें कन्हैया को देखते हुए कहा ।

मेरो संगत है …..मेरे संगत को प्रभाव है………..मनसुख नें गम्भीरता से दाऊ को कहा ।

आचार्य गर्ग नें प्रसन्नता पूर्वक कह दिया …….मैं आज महर्षि की कुटिया में ही ठहरनें वाला हूँ ………कल मैं भी उपस्थित रहूँगा ………..ये बात सुनते ही बृजराज के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ।

गोप वृन्द उछल रहे हैं …….गोपों की प्रसन्नता चरम पर पहुँच गयी है ।

हर मार्ग सजानें में लग गए हैं गोप, …….बन्दनवार बाँधनें में गोपियाँ आगे आगयी हैं ………..ध्वजा पताका तोरण ये सब लगाये जा रहे हैं ।

रंगोली काढनें की तैयारियाँ गोपियों की शुरू कर दी है ।

वाद्य वृन्द सब बजनें को उत्सुक हैं ………..पृथ्वी में भी और नभ में भी ………वृन्दावन की प्रकृति झूम उठी है ………….जो पुष्प नही खिलनें थे वे भी खिलनें लगे हैं ………….सुगन्धित वयार चल पड़ी है ।

तात ! आनन्द ही आनन्द छा रहा है वृन्दावन में ।

उद्धव नें कहा ।

प्रातः स्नानादि से निवृत्त हुए समस्त गोप बालक ……कन्हैया को भी उठाया मैया नें ……….माथे को चूमा …….आज मेरा लाला गोपाल बनेगा …..गौओ को चरानें जाएगा ………अपलक देखती रहीं ……..फिर स्नान कराया ………सुन्दर पीताम्बरी धारण कराई …………..मोतिन की माला गले में ………घुँघराले केशों को संवार दिया …..छोटी सी लकुट हाथ में दे दी ………मोर पंख सिर में लगा दिया ,

बाहर भीड़ खड़ी है ………….गोप बालक सब आगये हैं ……..आचार्य गर्ग भी महर्षि शाण्डिल्य के साथ पधारे हैं ……कुछ विप्र वृन्द भी साथ हैं ………..बृजराज सुन्दर रेशमी धोती पहनें हुए हैं …….ऊपर से रेशमी वस्त्र का ही उत्तरीय धारण किया हुआ है ……रत्नों और मोतियों की माला पहनें हैं ……..पगड़ी है सिर में ।

गोपियाँ सब खड़ी हैं सज धज कर…….अब प्रतीक्षा है नन्दनन्दन के बाहर आने की ।

मैया बृजरानी सुन्दर साड़ी पहन कर….अपनें छ वर्ष के पुत्र कन्हैया को गोद में लेकर आईँ मैया ।

पर उतर गए कन्हैया मैया की गोद से …………..और स्वयं ही चल पड़े …..उनकी चाल ………अद्भुत थी ….लकुट हाथ में लिये ।

विप्रों नें तैयारी कर रखी थी ……….हाथ में थाली लेकर छोटे से कन्हाई पूजन करनें लगे……प्रथम गणपति गणेश का …….आचार्य गर्ग नें कहा ।

कन्हैया नें हँसते हुए ऊपर नभ में देखा ……..गणपति गणेश पधारे ……पर इन्हें किसी नें देखा नही …….बस कन्हैया नें देखा ।

अपनें हाथों से गणेश का पूजन किया ………गणेश गणपति के आनन्द का आज पारावार नही है …..आहा !

फिर गायों का पूजन …………बड़े ही प्रेम से गौ का पूजन किया कन्हैया नें ………..आनन्द का क्षण था वो …….सारी गायों में होड़ मच गयी थी ….कि हमें भी पूजे कन्हैया ………….भद्र ! तू भी पूज …….तोक ! तू भी चन्दन लगा दे गायों के …………दाऊ भैया ! तुम भी ……..

सब कर रहे हैं पूजन …………।

“अब बृषभ का पूजन होगा” ……….आचार्य गर्ग नें कहा ।

उसी समय एक विशाल बृषभ वहाँ दौड़ता हुआ आया ………..

तात ! ये स्वयं धर्म थे ………..कन्हैया का कृपा सान्निध्य पानें के लिये ये आगये थे यहाँ ………..कन्हैया नें इनका भी पूजन किया ।

अब ? भोले पन से आचार्य गर्ग और महर्षि शाण्डिल्य की ओर देखकर पूछा कन्हैया नें ।

अब सबका आशीर्वाद लो ………आचार्य नें हँसते हुये कहा ।

कन्हैया नें प्रथम अपनी मैया यशोदा के चरण छूए ……..सजल नेत्रों से आशीष दिया मैया नें ….और अपनें हृदय से लगा लिया ।

फिर बाबा नन्द जी के चरण छूए …….पर पहले ही उठा लिया बाबा नें और चूम लिया कपोलों को ।

फिर रोहिणी मैया के .. …………इसके बाद आचार्य गर्ग महर्षि शाण्डिल्य समस्त विप्र वर्ग के ……।

विप्रों नें स्वस्तिवाचन द्वारा आशीर्वाद दिया नन्दनन्दन को ।

गोपियों नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए ………….नही नही ……पुष्प बरसानें तो देवों नें भी शुरू किये थे …..मंगल गान …..वाद्य……..सब बजनें लग गए ………आगे आगे गौओं को किया और पीछे चल दिए कन्हैया ………चारों ओर से जयजयकार हो रही है ।

तभी – “गोपाल बाल की ……जय जय जय !

“बाल गोपाल की ……जय जय जय !

ये ध्वनि, ये उदघोष गणपति गणेश नें किया था …….और नभ में वही आनन्दित होकर नृत्य कर रहे थे आज ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 89

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 89)


!! ब्रह्मा द्वारा नन्दनन्दन की स्तुति – “ब्रह्मस्तुति” !!

हंस में बैठे ब्रह्मा की इतनी भी हिम्मत नही हो रही कि वे कन्हैया से आँखें मिला सकें…….वो आँखें बन्द ही किये रहे कुछ देर…….फिर संम्भलकर हंस से उतरे……और साष्टांग कन्हैया के चरणों में प्रणाम किया उन्होंने…..प्रणाम मात्र नही किया , चरणों में लोट पोट हो गए थे ।

उस समय नन्दनन्दन के पास कोई नही था ………ग्वाल सखाओं को बछड़ों के साथ भेज दिया था ……वे मुरली मनोहर अकेले थे …….कदम्ब के वृक्ष में खड़े थे……..पर ब्रह्मा की ओर एक बार भी नही देखा कन्हैया नें ……..वे वृन्दावन की शोभा देखते रहे …..या कभी मोरों का नृत्य …………पर भूलकर भी ब्रह्मा की ओर तो देखा ही नही ।

ब्रह्मा को कुछ नही सूझ रहा …….वे डर रहे हैं ………..विधाता किससे डर रहा है …..एक 6 वर्ष के कन्हैया से ………..ब्रह्मा को अब कुछ दिखाई नही दे रहा …….बस दिखाई दे रहा है तो वो कन्हैया जो पीताम्बर धारण किये हुए है …..मुरली निनाद कर रहे हैं….और बीच बीच में खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं………….

नौमी ! हे नन्दनन्दन आपके चरणों में मेरा नमस्कार है ।

ब्रह्मा स्तुति कर रहे हैं……..

हे बाल कृष्ण प्रभु ! आप कितने अद्भुत रूप सौन्दर्य से भरे हुए हैं …..आपके हृदय में ये जो गुंजा की माला है कितनी शोभायमान लग रही है………और ये जो पीताम्बरी है ….जो वायु के कारण फहर रही है …….उससे तो हे शोभा सिन्धु ! आपका रूप दिव्यातिदिव्य हो गया है…….और हाँ …..ये आपके द्वारा बज रही बाँसुरी तो समस्त जीवों के ह्रद ताप को दूर करनें में समर्थ लग रही है …..हे पशुपांगज ! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम !

ब्रह्मा स्तुति कर रहे हैं……..”.ये आपका प्रेमावतार है ……..प्रेम में भला क्या विधि और क्या निषेध ? मैं भी मूढ़ हूँ……..इस बात के लिये मैं आपकी ही परीक्षा लेनें चल पड़ा…….ऐसे ही जैसे कोई बालक अपनें पिता की परीक्षा लेता हो ।

पर आपको मुझे क्षमा करना ही पड़ेगा ।

क्यों क्षमा करना पड़ेगा ?

गुस्से से मुँह गेंद की तरह फूला हुआ है नन्हे कन्हैया का ।

क्यों की नाथ ! बालक जब अपनी माँ के गर्भ में होता है …..तब वो भी तो अपराध करता है ……अपनी माँ को पैरों से मारता है …….पर माँ कभी इन अपराधो पर ध्यान नही देती……ऐसे ही आप भी मेरे द्वारा किये गए अपराधों को क्षमा करें ।

इन लीलाओं का मुझे दिखाना ये भी आपकी कृपा ही है मेरे प्रति ।

नाथ ! आपकी कृपा तो निरन्तर बरस ही रही है…….इसलिये कृपा की प्रतीक्षा नही करनी …..समीक्षा करनी है ……क्यों की सब कृपा है ।

मूर्ख है ये जीव ………ये सुख को तो कृपा समझता है …पर दुःख को कृपा नही मानता …….. वो ये नही सोचता कि …….दुःख तो परमकृपा है आपकी ……इस दुःख से ही तो जन्मांतरों के पाप ताप हमारे नष्ट होते हैं …….तब प्रेम के पुष्प खिलते हैं…….ब्रह्मा जी स्तुति कर रहे है ।

जाओ हम तुमसे नही बोल रहे ……..नन्दनन्दन नें मुँह फुला कर कहा ।

ब्रह्मा फिर उन ग्वाल सखाओं द्वारा सेवित चरणों में अपना मुकुट झुकानें लगे ………….

नाथ ! एक बात हम पूछ रहे हैं आप उत्तर दीजिये !

ब्रह्मा नें प्रश्न किया ।

हाँ पूछो …………मुँह मोड़ते हुए कन्हैया नें कहा ।

ये बृजवासी आपके सखा आपसे इतना प्रेम करते हैं ………आप इनको क्या दोगे इसके बदले में ?

तुमसे मतलब ब्रह्मा ! नन्हे से सुकुमार नें टका सा जबाब दिया ।

नहीं , फिर भी ……बताइये तो ! क्या देंगे इनके प्रेम के बदले में ?

कन्हैया बोले………मुक्ति दे देंगे !

मुक्ति देंगे ? हँसे ब्रह्मा ।

मुक्ति तो आपनें मारनें के लिये आई पूतना को भी दी…….उसके पूरे खानदान को दी ……..फिर वही मुक्ति इनको भी ?

प्रेम करनें वालों को भी मुक्ति ….और द्वेष रखनें वालों को भी ?

ब्रह्मा नें व्यंग किया ।

फिर ?

आहा ! अपनें प्रिय ग्वाल सखाओं की बातें सुनकर ये कितनें प्रसन्न हो गये थे ।

फिर हम क्या दें ब्रह्मा ? मासूमियत से पूछ रहे थे ब्रह्मा से ही ।

बस, भगवन् ! प्रेम के बदले देंने के लिये आपके पास कुछ नही है ………आपको तो इन बृजवासियों का ऋणी होकर ही रहना पड़ेगा ।

फिर ब्रह्मा भाव विभोर हो गए ………और कहनें लगे –

इन ग्वाल बालों की बातें मैं कहाँ तक करूँ ……….इनके भाग्यों को देखकर तो मैं ही ईर्ष्या से भर उठा था …….आहा ! पूर्णब्रह्म को इन्होंनें अपना सखा बना लिया ………..ये सौभाग्य किसे मिला है ।

ब्रह्मा रोते रहे ….चरणों में गिड़गिडाते रहे …..पर कन्हैया का हृदय पसीजा नही …………….

तात ! ब्रह्मा नें अब देखा कन्हैया तो मुझे देखकर और क्रोध से भर रहे हैं ……..कहीं ऐसा न हो कि मुझ से कह दें ……विधाता ! अब तुम ब्रह्मा की गद्दी के लायक नही रहे ……छोड़ दो ये ब्रह्मा पद ।

डरके मारे उठे ब्रह्मा ………और तीन परिक्रमा की नन्दनन्दन की ।

पर तीन परिक्रमा क्यों ? विष्णु, राम, कृष्ण इन की तो चार परिक्रमा होती है ना ! प्रश्न किया विदुर जी नें ।

“डर से”……..उद्धव नें उत्तर दिया ।

डर गए थे अंदर से ब्रह्मा……..उन्हें लगा – कहीं मुझे ब्रह्मा पद से ही न हाथ धोना पड़े …….इसलिये मात्र तीन परिक्रमा ही देकर भागे ।

हँसे विदुर जी……और बोल उठे – नन्दनन्दन आपकी सदा हीं जय हो ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 88

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 88)


!! जब ब्रह्मा का मोह भंग हुआ !!

कन्हैया अपनें से भी ज्यादा , प्रिय जनों का ध्यान रखता है ।

वो प्रिय जन, जो सबकुछ मानते हैं कन्हैया को ही ….कैसे ध्यान न रखें उनका अजी ! भक्त प्रिय हैं कन्हैया को ……….तात ! मुझ से स्वयं कन्हैया नें कहा था एक बार ……….मुझे ब्रह्मा इतनें प्रिय नही हैं …..न रूद्र, न मेरी अंगसंगा लक्ष्मी और न स्वयं मैं ……….मुझे तो मेरे प्रेमी जन सबसे ज्यादा प्रिय हैं ………और प्रेमी वह है …..जो स्वर्ग न चाहे ….न वैभव …..यहाँ तक की मुक्ति को भी ठुकरा दे……..वो चाहता है केवल मुझे ।

तात ! ब्रह्मा का अपराध अक्ष्म्य है ………..क्यों की एक वर्ष तक उनके प्रिय ग्वाल सखाओं को ब्रह्मा नें दूर रखा ।

पर आज बुद्धि काम नही कर रही विधाता की ……..उनकी बुद्धि मानों जबाब दे गयी है अब…….गगन से नीचे वृन्दावन की ओर देखा ब्रह्मा नें……….चारों सिर झुकाकर देख रहे थे……….

.ये क्या ?

ग्वाल सखा तो मेरे पास हैं ……..गुफा में छुपाकर आया हूँ उन्हें , फिर यहाँ कैसे ?

ब्रह्मा नें सोचा कहीं ग्वाल बाल गुफा से बाहर तो नही आगये ………..पर ऐसे कैसे आजायेंगे ? हंस को उड़ाया ब्रह्मा नें और गए उसी गुहा में ।

देखा …………पर वहाँ तो सब ग्वाल बाल गहरी नींद में सो रहे हैं …..माया का प्रभाव पूरा है उनके ऊपर ।

ब्रह्मा का चारों मस्तक चकराया ……..यहाँ हैं तो वहाँ कौन है ?

ब्रह्मा फिर चले वृन्दावन की ओर ……..तो मार्ग में क्या देखते हैं …….अनन्त विष्णु चले आरहे हैं सामनें से …………एक दो विष्णु नही हैं अनन्त हैं …….ब्रह्मा के कुछ समझ में नही आरहा ।

तभी सामनें से भगवान रूद्र चले आरहे हैं ……..एक दो रूद्र नही, ब्रह्मा नें देखा अनन्त रूद्र , ब्रह्मा असमंजस में हैं. ………वो सिर पकड़ कर बैठ गए हंस में ही …….पर ये क्या अब सामनें से ब्रह्मा चले आरहे हैं ………..पर ब्रह्मा अब चिंतित होनें लगे थे …..क्यों की ब्रह्मा भी एक नही थे ……अनन्त थे ……….किसी के चार मुख थे तो किसी के आठ …..कोई बत्तीस मुख वाला ब्रह्मा था ……।

ब्रह्माण्ड कितनें ? तात ! ये कोई बता सकता है क्या ?

अनन्त हैं ………कोई संख्या नही है ………..जब ब्रह्माण्ड अनन्त हैं …..तो उन ब्रह्माण्डों के विष्णु भी अनन्त ही होनें चाहियें ……फिर रूद्र भी ….और ब्रह्मा भी ।

उद्धव कहते हैं – घबराहट होनें लगी ब्रह्मा को……ये सब क्या है ?

हंस में फिर उड़े वृन्दावन के लिये ……….वो वृन्दावन में पहुँचे ही थे कि – ग्वाल सखा अब कोई नही दिखाई दे रहा ब्रह्मा को ….सबके सब कन्हैया ही दिखाई दे रहे हैं …..ग्वाल बाल कन्हैया ……..बछड़े कन्हैया ……..सब कन्हैया ।

ब्रह्मा समझ गए कि ये परमसत्ता हैं …..हम ब्रह्मा विष्णु महेश को भी जो उत्पन्न करनें वाले हैं ये वो परम आस्तित्व हैं ………..यही हैं वो ।

नेत्रों से विधाता के झरझर अश्रु बहनें लगे ………….मुझ से अपराध हो गया ……….मैं अनन्त की परीक्षा लेनें चला था ! डर रहे हैं ब्रह्मा उस नन्हे से कन्हैया से ………पर वो मुस्कुरा रहा है …………उफ़ ! उसकी हँसी ………..ब्रह्मा देह सुध भूल गए थे ।

कुछ ही देर में उनको होश आया ……तो वे फिर चले गुफा में ………जहाँ ग्वाल सखाओं और बछड़ों को कैद कर दिया था ब्रह्मा नें ।

उनको लेकर वृन्दावन आये………..वृन्दावन में आते ही ग्वाल बाल सब आनन्द से दौड़ पड़े थे कन्हैया की ओर ……..पर माया के द्वारा इनको पता ही नही चला कि एक वर्ष तक का वियोग इनका हो गया है ।

ये तो दौड़कर अपनें प्राण सखा कन्हैया से मिले ………..पर कन्हैया ज्यादा उत्साह से मिला …..कन्हैया के नेत्रों से तो अश्रु भी गिर रहे थे ।

ये सब देखकर ब्रह्मा कांपनें लगे …..उन्हें डर लगनें लगा …….कहीं कन्हैया मुझे ब्रह्मा के पद से ही न हटा दें………….वो हंस में ही बैठे नीचे वृन्दावन में उतरे………..अपनें हाथों को जोड़ रखा था विधाता नें …………उनके आठों नेत्र बन्द थे ……….वो मुरली मनोहर का ही ध्यान कर रहे थे………आहा !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 87

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 87)


!! उन दिनों बृज की हर कन्या ब्याही गयी थी… !!

ब्रह्मा नें कन्हैया की परीक्षा लेनी चाही ! कन्हैया की ?

जिनसे स्वयं ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं ..नही नही एक ब्रह्मा नही ….अनन्त अनन्त ब्रह्मा…..तात ! प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अलग अलग त्रिदेव हैं ये सब कन्हैया से ही प्रकट होते हैं …….ऐसे कन्हैया की परीक्षा !

नन्दनन्दन के प्राणप्रिय सखाओं को गुफा में छुपा दिया ..मात्र सखाओं को ही क्यों बछड़ों को भी ….और योगमाया से सुला कर छोड़ दिया ।

उस समय स्वयं ही कन्हैया को सब बनना पड़ा ……एक वर्ष तक के लिये ………ग्वाल बाल कन्हैया बनें , बछड़े कन्हैया बनें …….।

अकेला रह गया था उस एक वर्ष के लिये हमारा कन्हैया ……..बिल्कुल अकेला…….क्यों की उन एक वर्ष में कोई नही था कन्हैया के पास ……न उसके सखा , उसके बछड़े न बछिया ……..क्यों की सब स्वयं ही तो बन गए थे ।

एक दिन राधिका नें अपनें भाई श्रीदामा को देखा ……तो वो चौंक गयीं………बिना कुछ बोले चली गयीं थीं अपनें महल में ।

राधे ! ओ राधे ! पहली बार श्रीदामा नें अपनी बहन का नाम लिया था ………पर ये श्रीदामा था कहाँ ……ये तो कन्हैया ही बना था ।

रो गयी थीं उस दिन राधिका ……………कुछ नही बोलीं ।

ललिता सखी नें बहुत पूछनें की कोशिश की ……..पर श्रीजी नें कोई उत्तर नही दिया था ………….।

हाँ…….एक दिन वृन्दावन में कन्हैया के कर पकडे थे राधिका नें ….

उस समय वहाँ सब सखा थे ……….पर इस रहस्य को राधिका नही समझेंगी ?

ये क्या लीला है ? आँखों में आँखें डाल कर पूछ रही थीं ।

सजल नेत्र हो गए थे कन्हैया के उस दिन …………मैं कभी क्षमा नही कर पाउँगा विधाता को हे राधे ! मेरे सखाओं से उसनें मुझे दूर किया है ।

मैं बिल्कुल अकेला अनुभव कर रहा हूँ इस समय ……………मैं ही सब बना हूँ …………मैं ही हूँ ये सब ग्वाल सखा …बछड़े सब ।

समझ गयीं श्रीराधा रानी ………..प्यारे ! अपनें हृदय से लगा लिया था उस लीलाधारी को श्री जी नें ।

विचित्र हैं वो तपस्विनी पौर्णमासी भी ………..आज ढिढ़ोरा पीट दिया पूरे वृन्दावन में …………….आनें वाले 12 वर्षों तक विवाह का कोई मुहूर्त नही है ………है भी तो ऐसा सुन्दर नही है ……………

इन दिनों कुछ ज्यादा ही प्रसन्न हैं ये पौर्णमासी …………ये परमतपस्विनी हैं ………..ये सब कुछ समझती हैं …………

जिधर इनकी दृष्टि जाती है ……सब तरफ कन्हैया ही कन्हैया ।

ग्वाल सखा कन्हैया …..बछड़े कन्हैया ………ग्वाल सखाओं की पीताम्बरी कन्हैया ……उनकी लकुट कन्हैया ………..बछडों के गले में लटकी घण्टी कन्हैया ।

पौर्णमासी आनन्दित है इन दिनों ……..उसनें ढ़िढोरा और पीट दिया है……वो चाहती है …….सबका ब्याह कन्हैया से ही हो जाए ।

आहा ! इससे बढ़िया संयोग और कहाँ मिलेगा ?

अच्छा ! क्या ये बात सच है ! सब बृजवासी आकर पूछनें लगे पौर्णमासी से …………….

हाँ …….बारह वर्षों तक एक भी मुहूर्त नही है ………..ये अद्भुत मुर्हूत है ……..अपनी अपनी पुत्रियों का ब्याह करा दो ……कुछ दिनों में ही ।

बृजवासी फिर पूछते महर्षि शाण्डिल्य से ……..क्या ये सच है ?

इस रहस्य से ये भी तो अवगत थे ………..तो ऋषि मुस्कुरा जाते …….वो समझ गए हैं ……पौर्णमासी प्रत्येक गोपियों का ब्याह कन्हैया के साथ में ही करवाना चाहती हैं ………..ये आनन्द का प्रसंग था …….जीवन की सफलता थी इन गोपियों के लिये ……..कन्हैया ही वास्तव में इनके भर्ता बन रहे थे ।

हाँ …….पौर्णमासी भला झुठ कह सकती हैं …………..करवा दो ब्याह इसी समय जो जो ग्वाला तुम्हे प्रिय लगे ……..उसके साथ में …….

पर ऋषि ! हमारी बेटी तो अभी छोटी है …………कोई कहता …..

तो पौर्णमासी बीच में ही बोल पड़तीं …..कुछ नही होगा ………बड़ी हो जायेगी तब गौना करवा देना …………अभी ब्याह करवा ही दो ।

उद्धव आनन्दित होकर कह रहे हैं …..तपश्विनी पौर्णमासी इस बात को भी समझ गयीं थीं कि … आनें वाले समय में रास लीला होनें वाली है …..तब क्यों न इन सबको कन्हैया की ही बहुरिया बना दिया जाए ।

और आनन्द का क्षण था वो ………..जब हर वृन्दावन की कन्या ब्याही ………उस समय जिन जिन गोपों के साथ गोपियों का ब्याह हुआ वो सब तो कन्हाई ही थे……….आनन्द छा गया वृन्दावन में ।

पर ऊपर से विधाता ब्रह्मा देख रहे हैं …………उनकी बुद्धि अब काम नही कर रही …….क्यों की कन्हैया नें दूसरी सृष्टि प्रकट कर दी थी ।

तात ! इसे हारना नही आता ….कन्हैया जिद्दी है ………..चाहे कुछ भी हो जाए जीतेगा …..ये कन्हैया है ………भले ही रोकर जीतेगा पर जीतेगा । ……..यहाँ तो साल भर तक इसे अकेले रहना पड़ा …………किन्तु ब्रह्मा को हरा कर ही माना …………ये अपना कन्हैया है …….अपनों का पक्ष पहले लेता है ……….इसे मतलब नही है देवताओं से ….इसे मतलब है अपनें जन से …….अपनें लोगों से ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 86

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 86)


!! “सर्वरूप कन्हैया”- विधि मोह !!

कन्हैया नें मन ही मन कहा – ब्रह्मदेव ! देखो मेरी सृष्टि !

इसमें जीव नही है …..पंचभूतादि का कारण नही है ….कोई कर्म नही है …..न संस्कार हैं …..न प्रारब्ध ……फिर भी देखो ! मेरी सृष्टि !

तुम्हे ये सब चाहिये तब तुम्हारी सृष्टी बनती है ……..पर मुझे ! मात्र मेरे एक संकल्प की आवश्यकता है ।……अहंकार किस बात का ब्रह्मदेव !

तुम्हारी सृष्टि सामग्री मूलक है …..पर मेरी सृष्टि मात्र मेरे संकल्प से तैयार हो जाती है …………देखो !

उद्धव कहते हैं – तात ! देखो ब्रह्मा जब ग्वाल बछड़ों को चुराकर ले गए ………तब हँसते हुए कन्हैया अपनें संकल्प से स्वयं ही ग्वाल बन गए …….बछड़े बन गए ……..जितनी संख्या थी ग्वालों की उतनें ही बनें …….जैसा उनका स्वभाव था वो सब कन्हैया ही बन गए थे ।

इस रहस्य को अभी ब्रह्मा नें नही समझा ………..वो तो लौटकर अपनें ब्रह्म लोक में चले गए………..

पर इधर कन्हैया नें देखा ……ब्रह्मा ब्रह्मलोक जा रहे हैं ……..अगर ये ब्रह्म लोक के भीतर चले गए …….तो पृथ्वी में हजारों वर्ष तुरन्त बीत जाएंगे ………..एक क्षण ब्रह्म लोक का ………पृथ्वी का एक वर्ष होता है …….कन्हैया विचार करते हैं …….ब्रह्मा को रोकना होगा ब्रह्म लोक जानें से …..ऐसा विचार करके एक लीला और करनें की ठानी कन्हैया नें ।

वो ग्वाला कहीं भगवान है ? ये देवता लोग किसी को भी भगवान बना देते हैं ……ब्रह्मा क्रोधित हैं ………..पर उनका क्रोध ज्यादा देर तक ठहरा नही ………..क्यों कि अपनें लोक में वो जैसे ही प्रवेश करनें लगे …..द्वारपालों नें उन्हें रोक दिया ……….”आप नही जा सकते” ।

क्यों ? ब्रह्मा चौंके ……..मेरा लोक और मैं नही जा सकता , क्यों ?

द्वारपालों नें कहा ………नकली हो आप …..ये मुखौटा , चार मुख का मुखौटा लगानें से कोई ब्रह्मा नही हो जाता ……..जाओ जाओ , आप नकली ब्रह्मा हो ……….।

ब्रह्मा चकित हैं ………ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे हैं कि ये हो क्या रहा है ! मेरे ही लोक में ये मेरे ही द्वारपाल मुझे रोक रहे हैं ।

अपनें आपको शान्त किया ब्रह्मा नें ……फिर द्वारपालों से बोले …….हम अगर नकली ब्रह्मा हैं तो असली ब्रह्मा कहाँ हैं तुम्हारे ?

द्वारपालों नें कहा ……भीतर हैं ……..उनकी ही आज्ञा है कि ……..नकली ब्रह्मा आएंगे तो उन्हे धक्के मारकर निकाल देना ………इसके बाद द्वारपाल ये भी बोले ………..हमें धन्यवाद करो कि हम धक्का नही दे रहे हैं …….नही तो ।

ब्रह्मा कुछ समझ नही पा रहे …..उनकी बुद्धि चकरा रही है ……….

वो वापस लौटे वृन्दावन में …..उन्हें अब लग रहा था कि …..कहीं कन्हैया की ही सब लीला तो नही है ।

हंस में बैठे चल रहे हैं ब्रह्मा वृन्दावन की ओर …………

तो सामनें दिखाई देते हैं कन्हैया , नन्हे कन्हैया …….हँस रहे हैं ……..ब्रह्मा को देखकर ठहाके लगा रहे हैं ………….

रुक गए ब्रह्मदेव……क्यों की कहाँ जाएँ अब….उन्हें तो सर्वत्र वही कन्हैया ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं…..ब्रह्मदेव के पसीनें आ गए थे माथे में ।

साँझ हो रही है ……..वृन्दावन से लौट रहे हैं कन्हैया ग्वाल सखाओं के साथ…..बछड़ों को प्रेम से हाँकते हुये आरहे हैं ।

सर्वरूप हैं कन्हैया…….बछड़े भी वही बनें हैं ग्वाल सखा भी वही बनें हैं………घर पर लौटे सब ……उन ग्वालों की माताओं नें हृदय से लगाया अपनें बालकों को …..पर ये क्या उन्हें आज जितना आनन्द आरहा है ……उतना आज तक नही आया था ।

बछड़े गोष्ठ में लौटे हैं ………आज तक गायों को देखकर बछड़े दौड़ पड़ते थे ….दूध पीनें के लिये ……पर आज कुछ अद्भुत हो रहा था ।

बछड़ों को देखते ही गौएं दौड़ पडीं थीं…….उनके थनों से दूध अपनें आप बहनें लगा था…..इतनें प्रेम से चाट रही हैं अपनें वत्सो को गौएँ …. ये कोई एक दिन की बात नही थी……ये एक वर्ष तक चला था ………।

बलराम जी को कुछ सन्देह होनें लगा ………..एक दिन एकान्त में कन्हैया का हाथ पकड़कर दाऊ नें पूछा भी …….क्या लीला चल रही है कन्हैया ? कन्हैया हँसे ……..दाऊ ! बेटा अपनें बाप को बनानें चला था ……….वो ब्रह्मा ये भी समझते नहीं कि …….मैं उनका पिता हूँ ……तो मैं उनसे ज्यादा ही जानता हूँ ………ये कहते हुए हँसे थे कन्हैया ।

दाऊ भी अब प्रसन्न हुए ………मैं सोच ही रहा था कि ……..बछडों को गौएँ इतना प्यार क्यों कर रही हैं ……….अपनें बालकों को माताएँ इतना दुलार क्यों कर रही हैं ?

कुछ सोचकर फिर बोले बलभद्र – असली ग्वाल बाल कहाँ हैं ?

मेरी परीक्षा लेनें के लिये ब्रह्मा नें चुरा लिया है…….ग्वाल बालों को और मेरे बछड़ो को भी……कन्हैया नें गम्भीर होकर कहा ।

अच्छा ! अब सारी बातें दाऊ के समझ में आगयी थीं ।

तात ! ये लीला ऐसे ही नही रची कन्हैया नें ………….

उद्धव नें विदुर जी से कहा ।

वृन्दावन की हर माता जब यशोदा की गोद में कन्हैया को देखतीं तो अपनें भाग्य को कोसती……भाग्यशाली तो ये बृजरानी है ……जो कन्हैया को लाड लड़ाती है ………गोद में खिलाती है ………हे भगवान ! हमें ये सौभाग्य क्यों नही दिया !

तात ! कन्हैया सबकी सुनता है …..फिर इन परमप्रेमी बृजवासियों की नही सुनेगा ? सुनी ….और सब के बालक स्वयं ही कन्हैया बनकर एक वर्ष तक रहे ……ये सौभाग्य सबको प्रदान किया कन्हैया नें ।

सर्वरूप कन्हैया …………ब्रह्मा अब नभ से देख रहे हैं नीचे ……….वो अब शान्त नही हैं उनका हृदय अशान्त हो उठा है …………उनका अहंकार चूर्ण चूर्ण कर दिया है कन्हैया नें ……..ब्रह्मा चकित हैं …..ग्वाल बाल तो मेरे पास हैं ………पर नीचे वृन्दावन में ये कौन हैं …..बछड़े तो मैने चुरा लिए हैं …..फिर ये बछड़े कहाँ से आये ।

ब्रह्मा चकरा गये ………वो कुछ समझ नही पा रहे हैं ।

उद्धव अब आगे बताते हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 84

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 84)

!! “जे तो जूठो खावे” – भक्तिवश्य भगवान् !!

मनसुख ! ओ रे मनसुख ! तू नाय लाओ अपनें घर ते कछु खायवे कुँ ?

वनभोज में सब ग्वाल सखा कुछ न कुछ अपनें घर से लाये थे ……पर मनसुख कुछ नही लाया था …….लाता भी कहाँ से ……इसकी माँ “तपश्विनी पौर्णमासी” वो स्वयं फलाहार करती हैं……वो भी सप्ताह में एक बार…..मनसुख नन्द भवन में ही खाता है ……ये कहाँ से लाये !

इतना सब है तो ! कितना खायेगा तू ?

मनसुख नें सामनें रखे भोज्य पदार्थों को दिखाते हुए कहा ।

“पर हम तो तेरे घर का खाएंगे”………….प्यारा सखा है मनसुख ……..कन्हैया इसे बहुत प्रेम करते हैं ।

कुछ भी खिला दे अपनें घर का यार ! अजीब जिद्द है सखा की ।

मैं ? मनसुख कुछ सोचनें लगा ………….

अरे भाई ! इतना क्यों सोचते हो………जो भी हो ले आओ !

भद्र नें भी कहा ।

मनसुख कुछ सोच रहा है…….माता की कुटिया में मैने गुड़ देखा था ।

गुड़ खायेगा ? मनसुख नें एकाएक पूछा कन्हैया से…….

सारे सखा हँसनें लगे…….गुड़ खिलायेगा कन्हैया को !

ऐसा वैसा गुड़ नही है………बहुत स्वादिष्ट गुड़ है …….तुम लोगों नें खाया नही होगा…….मनसुख बोल रहा है ।

अब बोलता ही रहेगा या ला कर खिलायेगा भी ?

कन्हैया नें मनसुख को “शीघ्र जा” कहकर धक्का दिया ।

अच्छा ! अच्छा ! अभी गया ……बस गया और गुड़ लेकर आता हूँ । मनसुख अपनें घर की ओर दौड़ा ।

कुटिया में गया ……मनसुख की माता पौर्णमासी ध्यान में लीन थीं ।

मनसुख खोजनें लगा गुड़ …………पूरी कुटिया इधर उधर कर दी ……सारा सामान अस्त व्यस्त कर दिया ……..पर गुड़ नही मिला ।

विध्न हुआ ध्यान में तो पौर्णमासी का ध्यान टूटा ……..उनका पुत्र मनसुख कुछ खोज रहा है …………….

मौन हैं इस समय मनसुख की माता ……..इशारे में पूछा ……क्या चाहिये ? मनसुख चिल्लाके बोला ……गुड़ कहाँ है माँ ? मैने दो दिन पहले यहाँ गुड़ देखा था …………मनसुख चरणों में बैठ गया अपनी मैया के ………माँ ! कन्हैया नें आज पहली बार मुझ से कुछ खानें के लिये माँगा है……..बड़े प्रेम से माँगा है माँ ! गुड़ कहा ?

पौर्णमासी नें इशारे में ही कहा – उस थैले में गुड़ है ……..गुड़ पुराना है …..पुराना गुड़ फायदे मन्द होता है ।

मनसुख उछलता हुआ थैले को देखनें लगा …..एक काली सी गुड़ की ढेली थी ….ये गुड़ ! …..बड़े अनमनें ढंग से गुड़ को लेकर चल पड़ा मनसुख ।

पर गुड़ को पाने में जितनी शीघ्रता थी मनसुख को ….अब लेकर कन्हैया के पास जानें में नही है ।

पद मनसुख के बढ़ नही रहे कन्हैया की ओर ……गुड़ हाथ में ही है …..वो तोड़नें की कोशिश करता है …….पर नही टूट रहा ।

इतना कठोर गुड़…..हाय ! कोमल मेरा कन्हैया है …….वो इस गुड़ को खायेगा ?

मन दुःखी हो गया मनसुख का ………पहली बार कन्हैया नें मुझ से कुछ खानें को माँगा है …….और मैं ये गुड़ खिला रहा हूँ उसे !

मनसुख ये सब सोचते हुए जा रहा है ।

पहुँच गया कन्हैया के पास में ।

“ये रबड़ी तो खा ! बस ! इतनी ही खायेगा ?

एक सखा मनुहार कर रहा था ……कन्हैया मना कर रहे थे ।

मनसुख वहीँ रुक गया …..उसके पद आगे बढ़ नही रहे अब ।

वो रबड़ी खा रहा है ……उसके सखा उसे खीर खिला रहे हैं ….और मैं ?

टप् टप् आँसू बहनें लगे मनसुख के …….”.रहनें दे …….इस गुड़ को तू कन्हैया को मत खिला” ……….मन ने ही मनसुख को रोका ।

सब सखाओं नें देखा मनसुख आगया है ………..पर दूर खड़ा है …..पता नही क्यों ?

अब कन्हैया नें भी मनसुख को देखा ……..वो दौड़े उसके पास ।

मनसुख देख रहा है ………..ये जिद्दी है ………ये गुड़ तो अवश्य खायेगा …पर उसके कोमल जबड़ों को कितना कष्ट होगा ………..

कन्हैया दौड़ रहे हैं ……..पास में पहुंचनें ही वाले है ।

इसे मैं ही खा लेता हूँ ………कह दूँगा – कल ले आऊँगा गुड़ !

इतना कहकर मनसुख नें उस गुड़ को अपनें मुँह में डाल लिया ।

ये क्या किया मनसुख ! तू कुछ खा रहा है ……..कन्हैया मनसुख के पास पहुँच गए थे……और पूछ रहे थे मनसुख से ।

लड्डू है……मेरी मैया नें बनाये थे…..काजू, बादाम पिस्ता सब है इसमें….मनसुख जोर लगा रहा है जबड़ों में…..पर गुड़ टूटता ही नही ।

कन्हैया नें गम्भीर होकर कहा ……….हम तो आज तेरे घर का ही खाएंगे …….अब तू कुछ भी कर ……कन्हैया भी अड़ गए ।

देख ! कन्हैया ! जिद्द नही करते ………कल ले आऊँगा तेरे लिये लड्डू ….पक्का ………आज रहनें दे ।

मनसुख से मुँह फुला लिया कन्हैया नें………जा कुट्टी ! नही बोलता मैं तुझ से ।

मुँह फेर कर बैठ गए ।

मनसुख का हृदय तो काँप गया ……उसका सखा उससे रूठ गया है !

पास में आया …………वहीँ बैठ गया मनसुख भी ।

लाला !

ये कहते हुये नेत्रों से मनसुख के झरझर अश्रु बहनें लगे थे ।

लाला ! तेरा ये सखा बहुत गरीब है ……उसके पास कुछ नही है ……

कन्हैया ! ये कोई लड्डू नही …गुड़ है गुड़ ! तू क्या खायेगा इसे ।

क्यों , तू खा सकता है मैं क्यों नही खा सकता ? अब इस कान्हा के प्रश्न का क्या उत्तर दे मनसुख ।

देख ! तू कोमल है ……..और ये गुड़ बहुत कठोर है ……तुझ से टूटेगी भी नही …..फिर तेरे जबड़ों में कष्ट भी होगा ना ! मनसुख नें समझाना चाहा । पर ये जिद्दी मानें तब ना !

“मैं गुड़ को तोड़ दूँगा”…….ऐसा कहते हुए मनसुख का मुँह पकड़ा कन्हैया नें …………और उसके मुँह से वो गुड़ निकाल लिया ……देरी नही की …….अपनें मुख में उस गुड़ को तुरन्त डाल भी लिया था ।

नेत्र बरस रहे हैं मनसुख के ………जब जब कन्हैया कहता है ……तेरे गुड़ जैसा स्वाद आज तक नही आया……..ये कहते हुए अपनें नेत्र बन्द कर रहा है कन्हैया……उसे स्वाद आरहा है ……वो स्वयं आनन्दित है ।

इस लीला का दर्शन नभ से सभी देवी देवता कर रहे हैं ………इन प्रेमावतार की दिव्य लीलाओं से सब मुग्ध हैं ।

पर – नाक मुँह सिकोड़कर अपनें वाहन हंस को वापस चलनें के लिए कह रहे हैं विधाता ब्रह्मा ।

क्या हुआ ब्रह्मदेव ? ये लीला आपको प्रिय नही लगी क्या ?

महादेव नें पूछा ।

ये क्या लीला है ! किसी का जूठा खाना ? ये मर्यादा कहाँ की है ?

महादेव हँसे ……….”ये प्रेमावतार हैं…….इनकी लीलाओं को बुद्धि से मत आंको ……हे ब्रह्मदेव ! इस लीला में विशुद्ध प्रेम तत्व है और कुछ नही……..आहा !

तात ! पर पता नही क्यों भगवान महादेव के मना करनें पर भी आज ब्रह्मा बुद्धि से मापनें चले थे श्रीकृष्ण को …………..

ये बुद्धि से पकड़ में आया है आज तक !……….जो आज आजाता ।

उद्धव नें ये बात कही थी विदुर जी से ।

“भक्तिवश्य भगवान”……लम्बी आह भरते हुये विदुर जी भी बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 83

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 83)

!! “वन भोज” – एक झाँकी !!

नभ आज देवताओं से फिर भर गया है ………..देवराज इन्द्र अपनी पत्नी शची के साथ पहले ही आगये हैं ……….देवता गण अपनें अपनें विमान में बैठे हैं ……….अकेले नही हैं आज ….उनकी अपनी अप्सरायें भी हैं …..जिद्द करके आगयी हैं …..इन्हें आज कन्हैया का “वन भोज” दर्शन करना है …….कल ही कह दिया था कन्हैया नें ………” कल का हमारा भोज वन में ही होगा” , “जय हो”, उछल पड़े थे सब ग्वाल बाल ।

सब अपनें अपनें घरों से कुछ न कुछ लेकर आना ………..हम कल वृन्दावन में ही आनन्द से भोज करेंगे ।

कन्हैया की बात ! सब ग्वाल सखाओं नें अपनें अपनें घरों में कहना शुरू कर दिया था शाम को वन से लौटते ही ।

“तू कल रबड़ी बनाना” एक सखा नें अपनी मैया को कहा ……….कल वन भोज है कन्हैया का ……..तू रबड़ी अच्छा बनाती है कन्हैया को एक बार तेरी बनाई रबड़ी मैने खिलाई थी तो उसे बहुत अच्छा लगा था ।

“मैया ! तू मठरी बनाना” कन्हैया को प्रिय लगती है मठरी …….कुछ तो नमकीन भी होना चाहिये ना ! मेरी बनाई मठरी कन्हैया को अच्छी लगेगी ? उस सखा की माँ ये पूछती है ……..मैया ! बहुत अच्छी लगेगी कन्हैया को ……तू मठरी बना ।

“तू बढ़िया खुटी हुयी खीर”………एक नें ये भी कहा ।

“तू दही भात बनाना” एक सखा नें अपनी माँ से दही भात बनवाई ।

आज इनको नींद आएगी ? उद्धव आनन्दित होकर बोल रहे हैं ।

ये सब आज सोयेंगे ही नही ………..इनका चिन्तन, मनन सब कुछ कन्हैया है……..ये जागते समय भी कन्हैया का चिन्तन करते हैं …..और सोते हुए भी कन्हैया ही इन्हें दीखता है ………..ये बड़े बड़े योगियों से भी महान हैं…….इनका चित्त ही बन चुका है कन्हैया ।

सुबह हुयी , सब आनन्दित होकर उठे …………उनकी माताओं नें वन भोज के लिये जो बनाया था……सब लिया …….स्नान इत्यादि जल्दी जल्दी में किया …..तैयार हुए और चल पड़े नन्द भवन की ओर ।

नन्दनन्दन तो पहले से तैयार हैं ……………आहा ! मोर पंख है सिर में ……..लकुट है हाथ में ………बाँसुरी है फेंट में …….एक तरफ बाँसुरी फेंट में खोस ली है…….और दूसरी तरफ श्रृंगी …………..पीताम्बरी धारण किये हुये हैं………मोतिन की माला ………माथे में गोरोचन का तिलक……..चरण अत्यन्त कोमल हैं ……पर कुछ लगाना नही है इन चरणों में ……….क्यों की इनकी “भूरी” कहाँ लगाती है पादुका ।

सब चल पड़े आज अतिउत्साह से………..बछिया बछड़े लेकर …आगे आगे ये सब हैं इनके पीछे हैं कन्हैया बलराम, फिर सब सखा हैं ………….क्या रूप है क्या सौन्दर्य है …..क्या छटा है ! देवता गण आनन्दित हैं ऊपर नभ में , ये रूप माधुरी कहाँ मिलेगी ?

वृन्दावन में पहुँचते ही बछिया बछड़े कोमल कोमल दूब चरनें लग गए थे …………इधर ग्वाल सखाओं नें कन्हैया को बिठाया ………सुन्दर पीताम्बरी श्रीदामा नें अपनी उतार कर बिछा दी थी ।

गन्दी हो जायेगी तेरी पीताम्बरी ! कन्हैया नें श्रीदामा को कहा ।

हो जानें दे ना ………कोई बात नही ……तू बैठ इसमें ।

कन्हैया को सखाओं की बात माननी ही पड़ती है …..बैठ गए ।

मनसुख आया हँसता हुआ……….वनों के फूलों की माला इसनें अभी अभी बनाई है ………एक माला में वृन्दावन के सारे पुष्प थे ।

कदम्ब के भी , मोरछली के भी , गुलाब कमल, जूही, सब सब ।

हँसते हुए मनसुख नें ये माला कन्हैया को पहनाई …….

सब सखाओं नें आनन्द से करतल ध्वनि की ।

अब सब सखा कन्हैया को घेर कर बैठ गए हैं………..चारों ओर सखा हैं …मध्य में कन्हैया हैं ।

हँस रहे हैं ………..हँसा रहे हैं सब को ।

अपनी पूँछ तो सम्भाल मनसुख !

सब सखा खूब हँसे …….पेट पकड़ पकड़ कर हँस रहे हैं ।

“मुझे भूख लगी है”…….कन्हैया के कहनें की तो देरी थी …………

सब सखाओं नें अपनी अपनी सामग्रियाँ निकालीं ……..

“ये दही भात”……….पहले दही भात ही निकाला एक सखा नें ।

इसे कहाँ रखूँ ? सखा सोच ही रहा था कि कन्हैया नें अपनें छोटे छोटे हाथ आगे कर दिए …………

हथेली में दही भात रख दिया …………..लड्डू है ये , दूसरे सखा नें …….उसी के ऊपर लड्डू डाल दिया ………….कन्हैया नें कहा ……ये तो खट्टा मीठा हो जायेगा ………..तभी तो वन भोज है ये ……तू समझता नही है कन्हैया ……….भद्र झुंझला गया है ।

हाँ …हाँ भद्र ठीक कहता है ………..खट्टा मीठा अच्छा लगेगा ।

कन्हैया को तो उसके सखा जो दें , वही अच्छा लगता है ।

“ये रबड़ी है”……….मनसुख दोंना बनाकर लाया है वन से …..वनों के पत्तों का क्या सुन्दर दोना बना दिया ।

रबड़ी रख दी उसमें ………..

“ये मठरी है”………..मठरी को हाथ में ही ले लिया …………

आहा ! दोनें की संख्या ही पचास से भी ज्यादा हो गए हैं ………..

तुम सब खाओ ……आओ ! कन्हैया नें कहा ।

मनसुख मुँह बनाकर बोला ……तू खा ले …….तेरे खानें से हमारा पेट भर जाएगा………मनसुख कुछ भी कहता है ।

कन्हैया नें भी लिया दही भात और आरोगनें लगे …..हँस रहे हैं ……..दही भात मुँह में लग गया है……….बीच बीच में लड्डू भी खा लेते हैं ……..ओह ! ये क्या …..खाँसी कैसे हुयी कन्हैया को ।

रुक रुक …..अभी मत खाना………ये कहते हुए यमुना जल एक दोनें में भर कर ले आया मनसुख ………यमुना जल पिलाया उसनें ………विचित्र है ये तो ……कन्हैया के पीठ में दो थप्पड़ भी मारा …….फिर बोला …..कन्हैया अब खा …..तुझे खाँसी नही होगी ।

कन्हैया फिर खाने लगे………”नजर मत लगाओ मेरे कन्हैया को”…….

नभ में देखते हुए बोला था मनसुख ….. किसी ओर को नही ……सीधे विधाता ब्रह्मा को देखते हुये बोला था ।

ब्रह्मा तो थोडा सकपका गए थे …..ये पृथ्वी का ग्वाला हमें कैसे देख पारहा है …….पर ये सखा तो अनादि है………..ये रहस्य ब्रह्मा नही समझ पा रहे अभी ।

यज्ञभुग् इन की बाल केलि देखकर मुग्ध हैं ।

…… जय जय हो नन्दनन्दन की ।

यही बार बार कह रहे है सब ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 82

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 82)

!! “जब सब सखा कन्हैया बनें” – बकासुर उद्धार !!

प्रेम तो इन बृजवासियों का है……सब कन्हैया से प्रेम करते हैं ।

तात ! गोकुल त्याग कर वृन्दावन आना ये अपनें आप में प्रेम का प्रमाण था इन बृजवासियों का ।

प्रत्येक बृजवासी , चाहे वो बालक हो या वृद्ध , चाहे पशु हों या पक्षी ……..यहाँ तक की बहती हुयी यमुना की धारा भी कन्हैया से प्रेम करती थी ………प्रेम अद्भुत है इस बृज का …..इसीलिये तो नन्दनन्दन यहाँ अवतरित हुये हैं ।

पर आज रात हो गयी है ……….किन्तु बरसानें का ये युवराज अभी तक सोया नही है ………क्यों ?

श्रीदामा भैया ! तुम सोते क्यों नही हो ?

श्रीजी नें बाहर घूमते अपनें भाई श्रीदामा से पूछा था ।

राधा ! क्या बताऊँ ! आज मैनें अपनी आँखों के सामनें जो देखा उससे मैं विचलित हूँ ……..बहुत विचलित ।

पर आज ऐसा हुआ क्या भैया !

बरसानें की वो लाडिली बात जानना चाहती है ।

वो दैत्य था……बछड़ा बनकर आगया था………हम सबनें उसे देखा………काला बछड़ा ।

ओह ! तो डर रहा है बरसानें का युवराज ! अपनें भाई को छेड़ा श्रीजी नें ।

नही …….लाली ! नही …….हमें डर नही लगता………पर झुठ नही बोलूंगा…….हाँ अपनें सखा कन्हैया को लेकर डर अवश्य लगता है ।

काँप गयीं थीं श्रीजी ।

क्या “उनको” कुछ हुआ ?

नहीं, हुआ नही, कन्हैया नें उस दैत्य को घुमाकर मार भी दिया ……..पर अन्य सखा कह रहे थे ………..गोकुल में तो आये दिन आते रहते थे अपनें कन्हैया को मारने के लिये दैत्य ……..जैसे – पूतना आयी थी …..शकटासुर कागासुर ………..और इन सबको राजा कंस ही भेजता है ………..ये लोग कन्हैया को मारना चाहते हैं ………श्रीदामा नें अपनी बहन राधिका को ये सारी बातें बता दीं थीं ।

कुछ होगा तो नही “उनको”………राधिका का हृदय काँप रहा है ।

सोच रहा हूँ क्या किया जाए……..जो भी हो हमारा कन्हैया बचा रहे ………बाकी तो हम रहें या न रहें…….अद्भुत प्रेम से भरे थे ये लोग ।

कुछ देर सोचनें के बाद ……श्रीदामा के मुखमण्डल में एक चमक आगयी थी ………………..हाँ …….ख़ुशी से उछल पड़े थे श्रीदामा ।

क्या हुआ श्रीदामा भैया ? राधिका नें पूछा ।

राजा कंस नें कन्हैया को तो देखा नही है …………वो अपनें दैत्यों को क्या बताता होगा ……….कि पीताम्बरी धारण करता है कन्हैया ……..बाँसुरी खोंस लेता है अपनी फेंट में …………वनमाला गले में रहती है उसके ……और मोर पंख सिर में लगाता है ।

श्रीदामा प्रसन्नता से बोला ……..अगर यही रूप हम सब सखा धारण कर लें ……तो कन्हैया तक राजा कंस के दैत्य पहुँच ही नही पाएंगे ।

छ वर्ष के हैं श्रीदामा …………..सब छोटे छोटे ही तो हैं ……..पर बालक मन को ये उपाय सूझा अपनें सखा की रक्षा के लिये ।

बस ……..”अब नींद आरही है ……..कल सुबह ही मैं सब सखाओं का यही श्रृंगार कराऊंगा …….जो कन्हैया करता है ……फिर तो किसी को कन्हैया तक पहुंचनें ही नही देंगे …………पहले हम से मिलो …..फिर हमारे कन्हैया से …………..ये कहते हुए हँसा श्रीदामा ……….और अपनें महल में चला गया ……..श्रीजी भी अपनें “प्रिय” का स्मरण करती हुयी अपनें महल में जाकर सो गयी थीं ।

क्या छटा है आज के वत्स चारण की…….एक कन्हैया कहाँ हैं आज …..सब सखा कन्हैया ही बन गए हैं …..सबके सिर में मोर पंख है ……सबकी फेंट में बाँसुरी है ……वनमाला है गले में झूलती हुयी ।

नन्दगाँव का हर व्यक्ति इन सबको देखकर हँस रहा है………

पर तात ! ये छोटे छोटे बालक लोग कन्हैया के प्रेम के चलते …….ओह ! उद्धव आनन्दित होते हैं……विचार करो तात विदुर जी !

जगत का रक्षक , परब्रह्म श्रीकृष्ण , उनकी रक्षा करनें के लिये ये सब सखा……. उन्हीं का रूप धारण करके चल रहे हैं ।

वृन्दावन में पहुँचकर सब खेलनें लगे……और बछिया बछड़े चरनें लगे ।

तभी – बकासुर दैत्य आगया ……..बगुला का रूप धारण करके आया था ये ………और बगुला भी साधारण नही ……….विशाल ।

जाजलि ऋषि , बड़े साधन निष्ठ तपस्वी थे ।

सागर और गंगा जहाँ मिलते हैं ……..भगवान कपिल ऋषि का जहाँ निवास है ऐसे गंगा सागर में बैठ कर भगवान कपिल का सत्संग सुन रहे थे ………….भगवान कपिल बड़े ही प्रेम से अध्यात्म के गूढ़ तत्व का विवेचन करते ……उसी का बाद में ऋषि जाजलि मनन करते ……अपनें में ही शान्त चित्त रहनें वाले ये ऋषि ……पर उस दिन इनको क्रोध आगया था तात ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

वो असुर सागर से मछलियाँ पकड़ पकड़ कर खानें लगा था ।

मैं कहाँ अध्यात्म के चिन्तन में लीन……..पर उसी समय मछलियों का कोलाहल ….रुदन …….चीत्कार……..मैं इन सबको सुन सकता हूँ ।

ऋषि जाजलि की साधना में विघ्न हुआ……..वो वहाँ से उठकर दूसरे तट में चल गए थे ……ये तट इस बार सागर का नही …..गंगा जी का था ………पर ये क्या बात हुयी …….वो दैत्य यहाँ पर भी आ धमका ।

मेरा चित्त कभी अशान्त नही हुआ था ………….मैने उस दैत्य से कहा भी कि …….तुम कहीं और जाओ ……..मैं यहाँ साधना में लीन हूँ ।

पर वो मेरे जैसे ऋषि की बातों को क्यों सुननें लगा …………

बस मछलियों को ताक रहा था …….और एक साथ अपनी विशाल मुट्ठियों में भर लेता मछलियों को ……..और खा जाता ।

ऋषि नें उसे बहुत बार समझाया ……पर वो माना नही ………

“जा बगुला हो जा”……….श्राप दे दिया ऋषि नें ।

वो देखते ही देखते बगुला बन गया ……विशाल बगुला ।

उद्धव कहते हैं ……………..ऋषि जाजलि के श्राप से ही वो दैत्य बगुला बना मथुरा में एक दिन आगया था ………….पूतना को इसनें बहन बना लिया ………..पूतना भी इसे भाई मानती थी ।

आज बकासुर नें अपनी बहन पूतना के बारे में जब सुना ………..कि एक ग्वाले नें उसकी बहन को मार दिया …..तो .वो क्रोधित हो उठा ….और कंस से बोलकर वो वृन्दावन में चला आया था ।

वो बगुला ! सब सखा उस बगुले के पास में चले गए थे ।

बकासुर देख रहा है ……….ये तो सब कृष्ण हैं ……….वो कुछ समझ नही पा रहा था ………हाँ शान्त भाव से खड़ा रहा ………..और सबको देख रहा था ।

कितना सुन्दर है ना ये बगुला …………सुबल सखा नें कहा ।

हाँ …..विशाल भी है ……..मैं बैठूँ इसके पीठ में ? मनसुख बोला ।

बकासुर देख रहा है …….वो समझ नही पा रहा कि इनमें से कौन है कृष्ण ……क्यों की सभी पीले वस्त्र पहनें हैं …..मोर मुकुट सबके है ।

मनसुख विनोद करते हुए बकासुर के पीठ में बैठ गया ।

बकासुर को लगा यही है कृष्ण ……….तो वो उड़ा ………..मनसुख नें देखा ……इतनी ऊँचाई तक तो कोई बगुला उड़ नही सकता ।

अब मनसुख चिल्लाया ………….अरे ! कन्हैया ! कन्हैया ! ये तो दैत्य है भाई ! बकासुर नें सुना ………..ये कृष्ण नही है ?

मनसुख चिल्लाये जा रहा है …………….कन्हैया कन्हैया !

बकासुर नीचे उतरा ………और यमुना में फेंक दिया मनसुख को ।

कन्हैया दौड़े ………तेज गति से दौड़े ……उनके सखाओं को कोई छेड़ दे ये इस नन्दनन्दन को स्वीकार कहाँ है ।

खानें के लिये दौड़ा बकासुर ………..चोंच अपनी खोल दी बकासुर नें …..

कन्हैया उसके चोंच में जाकर बैठ गए …………वो चोंच बन्द करना चाहता था ………पर कन्हैया खड़े हो गए चोंच में ही ।

और अपनें हाथों से उस बगुले की चोंच को ऊपर उठाते चले गए …..नीचे की चोंच पैर से दवा रखी है …..और ऊपर की चोंच को और ऊपर , ऊपर , और ऊपर…….चीर दिया बकासुर को कन्हैया नें ।

जय हो नन्दनन्दन की ………….जय हो यशोदा नन्दन की ।

मनसुख चिल्ला रहा है …………..श्रीदामा को बोला ………ऐसे उपाय मत बताया करो ……….कन्हैया सबसे भिड़ लेगा ………पर हमसे कुछ नही होगा …….बेकार में मैं आज मर जाता ! मनसुख बोला ……तो सब हँसे …………श्रीदामा नें कहा ……..ये मोर मुकुट तुझे ही शोभा देती है ……हमें नहीं ……….तू कुछ और है …….तू क्या है हमारी समझ में नही आता ! श्रीदामा के नेत्र सजल हो गए थे ।

अरे ! कुछ नही ………माखन खाता है खूब ये अपना कन्हैया …….इसलिये इसमें ज्यादा शक्ति है …….मनसुख का ये कहना है ।

सखाओं नें कन्हैया को बैठाया …….उसे माखन खिलानें लगे …….

अच्छा ! अच्छा बहुत हो गयी इसकी सेवा ……अब कुछ मेरी भी करो ……मुझे भी वो दैत्य ले गया था आकाश में ……..मर जाता मैं तो ?

सब सखा मनसुख की बातों पर हँसे …….कन्हैया तो मनसुख से हर समय प्रसन्न हैं ………ये कन्हैया को आनन्द देता रहता है ।

श्रीदामा को अपनें हृदय से लगाते हुए कन्हैया नें कहा था ………..मैं तुम सबसे बहुत प्रेम करता हूँ ……….सौगन्ध खाता हूँ अपनें बाबा की ।

कितना भोला है ना ! अपना कन्हैया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 81

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 81)

!! वत्सासुर का उद्धार !!

कन्हैया खेल रहे हैं वृन्दावन में ……….”वत्सपाल” बनकर आये हैं आज …..बछड़े बछियों को चरानें के लिये लाये हैं ।

अब वृन्दावन में बछड़े चर रहे हैं ……….उनके गले में माला अभी भी है ……न तो इन्होनें उसे तोड़ी है ……..न पुष्पों का खानें का प्रयास ही किया है …….कन्हैया नें पहनाई है क्यों हटायें ।

उधर कन्हैया खेल रहे हैं ………आँख मिचौली खेल रहे हैं ।

अब कन्हैया को छुपना है ………….पर ये छुप सकता है क्या ?

इसका तेज इसे किसी से भी छुपनें देगा ?

ये जिधर छिपते हैं …….उधर ही पक्षी बोलना शुरू कर देते हैं ……कपि सब उधर ही प्रसन्नता से दौड़ पड़ते हैं……झेंप कर बाहर आना ही पड़ता है कन्हैया को ।

मनसुख नें कहा था……”मैं लाठी चलाना सिखाऊंगा”…….ये बात एकाएक स्मरण हो आती है कन्हैया को ।

मनसुख ! लाठी चलाना सिखा ! कन्हैया को भी विविध खेल चाहियें …….एक से ये बहुत जल्दी बोर भी हो जाता है ।

“ठीक है…ये ले लाठी”……मनसुख नें अपनी लाठी कन्हैया को दी ।

अब ? लाठी पकड़कर कन्हाई नें पूछा ।

मुझें मार ! मनसुख बोला …………..

लाठी देखी कन्हैया नें ……फिर अपनें प्रिय सखा मनसुख को देखा ……..

अरे अरे ! ये तो रोनें लगा …………मैं तुझे क्यों मारू ? तू तो मेरा सखा है ! हये ! कितना प्यार करता है ये अपनें लोगों से ।

तुझे सीखनी है या नही ? मनसुख को गुस्सा आरहा है अब ।

पर मैं तुझे लाठी नही मार सकता ।

आँसुओं को पोंछते हुये कन्हैया नें कह दिया ।

कन्हैया ! कन्हैया। ! उधर जोर से चिल्लाया सुबल सखा ।

हाँ ……..सब सखाओं के साथ कन्हैया सुबल के पास पहुँचे। ।

देख तो ये बछड़ा ! कितना सुन्दर है ना ? सुबल नें उस बछड़े की पीठ में हाथ फेरते हुए कहा ।

पर सुबल ! ये हमारा बछड़ा नही है…….ये तो किसी और का है !

मनसुख नें आगे बढ़कर बछड़े को देखा ………हाँ ….इसके गले में कन्हैया की पहनाई माला भी नही है……..ये आया कहाँ से ?

सब सखा सोच रहे हैं ………….

तभी कन्हैया नें देखा……..उस बछड़े की आँखों में देखा……सब समझ गए.।…….ये नही समझेंगें तो कौन समझेगा ।

तात ! बात है त्रेता युग की …………..मुर नामक राक्षस का बेटा था प्रमिल, वशिष्ठ जी की गाय नन्दिनी को माँगनें चला था ये …….

उद्धव कहते हैं ……..तात ! विश्वामित्र कहते रह गए “नन्दिनी गाय” मुझे दे दो ……पर वशिष्ठ जी नें दी नही ……..क्यों की ये समस्त कामनाओं की दात्री है , और वशिष्ठ जी को लगा था कि सृष्टी में ब्रह्मा को ललकारनें वाले विश्वामित्र कहीं नन्दिनी गाय का दुरूपयोग न करें । ……..फिर इस असुर को अपनी गाय वशिष्ठ जी कैसे दे देते ।

छल किया इसनें ……….ब्राह्मण का रूप धारण करके माँगनें चला गया वशिष्ठ जी की कुटिया में …………

मुझे नन्दिनी गाय दे दें………इससे मेरा परिवार पल जाएगा और मैं तप साधना निश्चिन्त होकर कर सकूँगा !

वशिष्ठ जी कुछ बोलते उससे पहले ही नन्दिनी गाय बोल पडीं ………तात ! बोलीं नहीं ….सीधे श्राप ही दे दिया ……..

दुष्ट ! तू असुर होकर भी ब्राह्मण का भेष धारण कर रहा है …छल कर रहा है …..तू जा बछड़ा हो जा ।

नन्दिनी गाय के श्राप देते ही , वो तो उसी समय काला बछड़ा हो गया ।

ऋषि वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम किया ……नेत्रों से अश्रु टप् टप् बह रहे थे…..नन्दिनी गाय को भी प्रणाम किया उस बछड़ा बनें असुर नें ।

जाओ ! गोपाल ही तेरा उद्धार करेंगें ……….वशिष्ठ जी के मुख से निकल गया ………गोपाल ? नन्दिनी नें वशिष्ठ जी की ओर देखा ।

हाँ …..मेरे राघव गोपाल बनकर आयेंगें द्वापर में ….वही इसका उद्धार करेंगे ।

उद्धव कहते हैं ……..तात विदुर जी ! वही बछड़ा बना असुर पृथ्वी में घूमता रहा …….पर द्वापर में इस वत्सासुर को कंस मथुरा में ले आया था……और आज कन्हैया को मारने के लिये कंस नें इसे भेज दिया वृन्दावन. …….इस बात को कन्हैया समझ गए थे ।

कन्हैया उस बछड़े को देख रहे हैं ……….पर ये क्या ! उसनें अपनी लात से कन्हैया को मारने का प्रयास किया …… कन्हैया नें तुरन्त पूँछ समेत उसके पैरों को पकड़ा …….और जोर से घुमानें लगे …….स्वयं भी घूमनें लगे तीव्रता से ।

“ये तो दैत्य है” ……..सब बालक चिल्लाये ।

पर कन्हैया उसे घुमा रहे हैं………….और स्वयं भी विद्युत गति से घूम रहे हैं ।………पर ऐसे कब तक घुमाएगा हमारा कन्हैया ?

सखाओं को कष्ट होनें लगा ……”छोटा है हमारा कन्हैया ” ।

किन्तु कन्हैया नें भी कुछ समय बाद ही उसे घुमाकर दूर फेंक दिया था ………एक विशाल बरगद के पेड़ से वो असुर टकराया और वर्षों पुराना वो पेड़ टूटकर गिर गया – और……….

तात ! वत्सासुर का ये शरीर शान्त हो गया…..उसका उद्धार हो गया ।

वशिष्ठ जी स्वयं आकाश में उपस्थित थे उस समय ..अपनी नन्दिनी गाय के साथ……..उन्होंने नन्दनन्दन के ऊपर पुष्प बरसाते हुये आनन्द से यही कहा था ……

नन्दनन्दन ! आपकी जय हो ! जय हो !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 80

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 80)

!! वत्सपाल कन्हैया !!

हे भगवन् ! कन्हैया के “वत्स चारण” का मुहूर्त निकाल दीजिये ।

प्रातः ही महर्षि शाण्डिल्य की कुटिया में बृजराज पधारे थे ।

कौन चरायेगा वत्स ? क्या कन्हैया ? महर्षि नें चकित होकर पूछा ।

जी ! कल से हठ पकड़ कर बैठ गया है ……..कुछ खाता पीता भी नही है ……माखन फेंक देता है ……आप जानते ही हैं वो कितना हठी है ।

ऋषि मुस्कुराये……ठीक है …..ये कहते हुये ऊँगली में कुछ गणित बैठानें लगे ……..कल , कल का मुहूर्त उत्तम है ………ऋषि नें कहा ।

पर हुआ क्या ? ऋषि नें बृजराज से रूचि लेकर पूछा ।

तात ! ऋषि शाण्डिल्य भी सुनना चाहते हैं कि नन्दनन्दन नें क्या लीला की अब । उद्धव विदुर जी से बोले ।

बृजराज नें सुनाना आरम्भ किया ऋषि शाण्डिल्य को ।

“भद्र नें ही चढाया है कन्हैया को” …….बृजरानी आज क्रोधित हैं ।

सुबह से ही रट लगा रहा है गौ चारण करनें जाऊँगा ।

सुनो ! तुम लोग क्या क्या सिखाते रहते हो कन्हैया को !

सखाओं को डाँट रही हैं बृजरानी ।

नही ….मैने नही ! …..फिर मनसुख भद्र की ओर इशारा करके बताता है ।

मैं जानती हूँ तुम सब मिले हुए हो ………..

“मुझे जाना है गौ चरानें”

कन्हैया बस यही कह कह कर रो रहे हैं…..अपनें नन्हे नन्हे चरण पटक रहे हैं ।

सुन ! मेरे लाल ! गैया चरानें बड़े बड़े जाते हैं ।

मैया समझा रही है ………पर ऐसे कैसे मान जाएंगे !

“मैं भी तो बड़ा हो गया हूँ” , फिर अपनी लम्बाई नापनें लगे ।

तू समझता क्यों नही है ……….नुकीली सींगें हैं गैयाओं की ………..उसके खुर कितनें कठोर हैं……..और तू कितना माखन की तरह कोमल ……

ये कहते हुए मैया नें गोद में उठा लिया कन्हैया को ……….और माखन खिलानें लगीं ……क्यों कि अभी तक इसनें कुछ भी नही खाया ।

मैं नही खाऊँगा ! फेंक दिया माखन ……..हटा दिया मैया का हाथ ।

“मैं पिटूँगी तुझे”…….बस इतना ही बोलीं थीं मैया, कि जोर से रोना शुरू ……गोपियाँ सब इकट्ठी हो गयीं थीं ……क्या हुआ , क्या हुआ ?

हमारा कलेजा ही फट जाएगा ऐसा लगा इसका रुदन सुनकर ……….क्या कह रहा है ये बृजरानी ? गोपियों नें पूछना आरम्भ कर दिया था ।

अब इसकी हर जिद्द थोड़े ही मानी जायेगी ………….अरे ! गैया सींग मार दे …….उनके खुर, इसके कोमल पाँव में लग जाये …….गिर जाए ………कुछ भी हो सकता है …………मैं कैसे भेज दूँ इसे ।

गोपियों को भी कोई समाधान नही मिल रहा …………बृजरानी भी दुःखी हैं ……..गोप ग्वाल भी देख रहे हैं ।

मैया ! हम हैं ना ! हम सब सम्भाल लेंगे !

मनसुख नें आगे बढ़कर मैया को समझाते हुए कहा ।

सम्भालोगे तुम ! तुम भी तो छोटे छोटे हो …………हाँ ……..मैया बोली ……….लाला ! तुम भी जाओ और तुम्हारे साथ जो गैया चरानें जाते हैं वो भी जाएंगे…….कन्हैया नें मैया की बात सुनी सुननें तक रोये नही……….फिर रोना शुरू ……..नही ….बड़े नही जाएंगे …….हम छोटे छोटे ग्वाल ही जायेंगे ……..कन्हैया नें अपनी बात जोर देकर कही ।

दाऊ भैया तो हैं ना ! वो सब को बचा लेंगें ।

छोटा सखा भद्र बोला । ………इन सबको लगता है बलराम हैं तो डर किस बात का ………..वो सब देख लेंगें ।

चुप करो ! तुम्हीं लोगों नें इसे बिगाड़ा है ………दाऊ भी तो बालक ही है ……..बृजरानी नें सबको चुप करा दिया ………पर कन्हैया की बात का समाधान न निकला…….तो कन्हैया का रोना शुरू ही था ।

हे भगवन् ! मैं सन्ध्या को अपना कार्य इत्यादि देखकर जब महल में गया …..तो वहाँ कन्हैया का रुदन !………ओह ! मैं तो काँप गया ।

क्या हुआ ! क्या तुमनें फिर इसे दण्डित किया ?

मैने बृजरानी से पूछा था भगवन् !

कन्हैया मेरे सामनें आगया था रोते हुए ……………और मेरी गोद में बैठ गया ……………क्या चाहिये मेरे लाला को ? बोलो !

मैने उसके आँसू पोंछे ………….तो वो मुझ से बोला ……….

बाबा ! गैया चरानें जाऊँगा !

पर ! तुम छोटे हो !

नहीं …..मुझ से छोटे भी जाते हैं …….मैं बड़ा हो गया हूँ ।

मैं उसकी बातें सुनकर असमंजस में पड़ गया था ………….मुझे बृजरानी नें सारी बातें बता दीं थीं ………….मैं क्या करता !

मेरा प्राण है कन्हैया तो…………मैं तुरन्त बोला ………तुम बछड़े चरानें जा सकते हो ।

ठीक है………..मेरी गोद से उछल कर वो भागा बाहर ……..और सब ग्वाल सखाओं को इकठ्ठा करके बतानें लगा ………..मैं बछिया बछड़े चराऊँगा……छोटे छोटे बछड़े ………मेरी “भूरी” भी जायेगी ।

बछिया बछड़े ये दूर तक नही जाएंगे भगवन् ! ……….पास से ही उछलते हुए वापस गोष्ठ में ही आजायेगें…….मैं क्या करता ?

नही बृजराज ! तुम्हारे यहाँ सच में भगवान नारायण ही कोई लीला कर रहे हैं…….इसलिये तुम निश्चिन्त हो जाओ …..कल “वत्स पाल” हो जाएगा तुम्हारा युवराज । ऋषि शाण्डिल्य नें बड़ी प्रसन्नता से कहा ।

सोया कहाँ कन्हैया ! कल मुझे बछड़े चरानें जाना है ………..नही नही ……..पूरा नन्दगाँव ही नही सोया ………क्यों की उनका युवराज वत्सपाल बननें जा रहा था ।

उठ गए जल्दी ही ………….स्नान करानें की जिद्द करनें लगे मैया से ।

मैया नें स्नान करा दिया ……..घुँघराले बालों में तैल लगाकर उन्हें सम्भाल दिया …….काजल आँखों में ……..मोतियों की माला गले में ……..पीली पीताम्बरी ……….क्या दिव्य रूप हो गया था ।

तभी महर्षि शाण्डिल्य भी विप्रों के साथ पधारे ।

बछड़ों बछियाओं को सामनें लाया गया ……..आहा ! कोई दूध की तरह सफेद बछिया है कोई सफेद और काली …..भूरी तो है ही है ।

सुन्दर पूजन की थाली लेकर चलीं बृजरानी …….पर ये क्या ! वो थाली मैया के हाथों से लेकर स्वयं ही चल पड़े थे कन्हैया ।

बाबा नें गोद में लेना चाहा , पर नही ….चलकर ही गए ……आहा ! नन्हे से कन्हैया …….उनके हाथों में पूजन सामग्री ………….

ऋषि शांडिल्य नें मुस्कुराते हुए मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किया था ……कन्हैया नें अपनें नन्हे करों से तिलक किया ।…..अरे ! पहला तिलक तुझे करूँ ?

उछलती हुयी आगयी थी आगे “भूरी” ………मानों कह रही थी पहला तिलक मेरा ………कन्हैया नें उसका तिलक किया ……फिर सबका किया………लकुट ली ………तभी बृजरानी भीतर गयीं और एक काली कमरिया कन्धे में डाल दी कन्हाई के……..ताकि नजर न लगे ।

सब लोग देख रहे हैं ……..निहार रहे हैं कन्हैया के इस रूप को ।

गोपियाँ पुष्प चढ़ा रही हैं…..गोप लोग अपनें बृज के युवराज को ऐसे देख कर गदगद् हैं आहा !…….सच में नेत्र इन्हीं नें सफल किये हैं तात !

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 79

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 79)

!! “वो भूरी बछिया” – अद्भुत भाग्य पाया इसनें !!

आकाश देवों के विमान से भरा हुआ है आज……..सब दर्शन करनें के इच्छुक हैं कि कब नन्हे नन्दलाल गोदोहन करेंगें ।

स्वर्ग की कामधेनु गाय आज तरस रही है ……..मैं क्यों गोपाल के गोष्ठ की गाय न बनी ……..आहा ! नन्दनन्दन स्वयं दुह रहे हैं , अपनें नन्हे नन्हे करों से …………..

नही कामधेनु ! दुह मात्र नही रहे ………पी रहे हैं ………एक थन को मुँह में लगा लिया है नन्दनन्दन नें ……….कामधेनु इस दृश्य को देखकर दुःखी हो रही है ……..”मैं क्यों नही बनी गोपाल की गाय” ।

ये मैने दुही है ………ये मेरा दुहा हुआ दूध है …………..

सखा भद्र आज सुबह से ही खूब हल्ला मचा रहा है ……….छोटे से लोटे में दूध क्या दुह लिया …..इसे तो लग रहा है …….मैने बहुत बड़ा काम कर लिया ।

“कन्हैया दुह के दिखाये”……….मनसुख को बोल दिया भद्र नें ।

सो रहे थे कन्हैया ………..सुन लिया ।

उठ गए….आँखों को मला…बिखरी हुयी अलकें, कपोलों पर फैला काला काजल, कछनी का कोई पता नही…डगमग करते हुये बाहर आ गए थे ।

दिखा तो ! तू गाय का दूध दुह लेता है ?

भद्र सखा छोटा है कन्हैया से ।

हाँ ! मैं तो दुह लेता हूँ ……….पर तुम नही दुह पाओगे ।

क्यों ? मैं अभी दुहता हूँ ……..और तुझ से ज्यादा दुह के लाऊँगा ।

गैया पैर मार देगी तो ? भद्र नें डरानें दिया ।

मुझे नही मारती गैया……….चल ! अब ………ऐसा कहते हुये एक बार भीतर गए और सुवर्ण का एक छोटा सा लोटा ले आये ।

चल ………..अब चल ……भद्र भी साथ है …….और मनसुख भी साथ ही है ……………..

गए गोष्ठ में …………..पर वहाँ तो गाय है नही ……………

गाय कहाँ गयी ? इधर उधर देखा कन्हैया नें ।

तुम्हारे लिए गाय बैठी थोड़े ही रहेगी ! वो तो गयी चरनें ।

“पर मुझे तो गाय दुहनी है”……अजीब जिद्द पकड़ के बैठ गए हैं आज ये ।

भूरी कहाँ है ? कन्हैया नें इधर उधर देखा …………

मनसुख हँसा ……..वो दूध नही देगी …..तेरी भूरी दूध नही देगी ।

क्यू ? बड़ी मासूमियत से बोले थे कन्हैया ।

क्यू की ……….उसनें कोई बच्चा जना नही है ……और दूध तब आता है गाय के थन में ……..जब उसका बच्चा उसके थन में मुँह लगाये ……..

मनसुख नें समझा तो दिया कन्हैया को , पर ……….

मैं उसके थन में मुँह लगाकर पीयूं तो ?

क्यों ? मैं उसका बच्चा नही बन सकता ? ये हमें दूध पिलाती हैं …..उस दूध से दही, फिर माखन खाते हैं हम …………

कुछ सोचकर कन्हैया बोले …………..मैं पीयूँगा भूरी का दूध …….और देखता हूँ कैसे दूध नही देती वो भूरी ।

भूरी तो सूँघती है कन्हैया को …………आगयी, सुगन्ध से ही समझ गयी थी वो कि उसका कन्हैया आगया है ।

कन्हैया नें उसे देखा बोले – ……..देखो ! मेरी भूरी आगयी ……कन्हैया बड़े खुश हुए …….भूरी भी आकर कन्हैया को सूँघनें लगी थी ।

सहलाते रहे भूरी को कन्हैया ……….फिर धीरे से बोले …….”दूध देना हैं , इस भद्र नें जितना दुहा है उससे ज्यादा देना”……..कान में बोले थे ।

फिर बैठ गए भूरी के पैरों के पास ………………सब देख रहे हैं कन्हैया को कि ये करेगें क्या ? गोपियाँ आगयीं सब ………..आज कन्हैया गोदोहन करेंगें ………..देवों नें आकाश भर दिया है विमानों से ।

आहा ! तीन थन में से एक थन में अपना अधर लगा लिया कन्हैया नें ……वो भूरी तो आनन्द के कारण नेत्रों से अश्रु बहानें लगी ………..कोमल अधर भूरी के थन में जैसे ही लगे………उस भूरी नें पेट पिचकाए , मूत्र विसर्जन किया ……थन एकाएक मोटे हो गए……….

बस ……….उसी समय बाकी तीन थनों से दूध की धारा बह चली थी ।

एक थन भूरी का कन्हैया के मुख में है ……….

मुँह में दूध भर गया है कन्हैया के ………पी रहे हैं ……….कुछ फ़ैल रहा है ……..भद्र नें तुरन्त कहा ……..दूध फ़ैल रहा है ….लोटा तो लगा ।

कन्हाई नें तुरन्त वो सुवर्ण का लोटा लगा दिया था ……….लोटा तो क्षण में ही भर गया………अब तो फ़ैल रहा है ………….

कन्हैया बड़े खुश हैं……….गोपियाँ कन्हैया की इस लीला को देखकर गदगद् हैं ……..देवताओं नें फूल बरसानें का काम किया ।

कामधेनु अब उस भूरी से ईर्ष्या करनें लगी है ……..मैं भूरी ही बन जाती ….कामधेनु क्यों बनी !

देखा ! मैने दुहा है ये दूध !……..अब कन्हैया सबको दिखा रहे हैं अपनें द्वारा दुहा हुआ दूध ……अभी और दे रही है भूरी दूध ….कन्हैया ये भी कह रहे हैं ……….।

भूरी नें दूध दिया ? उस बछिया नें ? बृजराज को भी आश्चर्य हुआ ……..बृजरानी नें तो जाकर देखा ।

क्यों नही देगी भूरी दूध …………सच में भूरी का भाग्य है ही ऐसा कि कामधेनु भी ईष्या करे……….भूरी ! वो बछिया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 78

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 78)

!! पनघट पे छेड़ गयो री….!!

मेरे आनन्द का ठिकाना नही है……मैं शनिदेव…..धन्य हो गया नन्दगाँव के निकट आकर , अब लगता है ।….मेरे आराध्य श्रीकृष्णचन्द्र जु की अद्भुत दिव्यातिदिव्य लीलाओं का रसास्वादन हो रहा है …..आहा ! मुझे अब शिकायत नही अपनें पिता सूर्यदेव से …..मेरी बहन यमुना उसी , उसी का तट…..अद्भुत लीला रचते हैं मेरे आराध्य नन्दनन्दन जु …………..

नन्दगाँव का वो पनघट, मैं तो उसी का दर्शन करता रहता हूँ ……वहीँ होती है मेरे सरकार की लीलाएँ ।

शनिदेव इन दिनों धन्य हैं ……….हों भी क्यों नही तात ! इन लीलाओं के आस्वादन के लिये ब्रह्मादि तरसते हैं ……….वो लीलाओं के ये प्रत्यक्ष दर्शी बने ……….उद्धव नें विदुर को कहा ।

वो पनघट, …….आज कल नन्दगाँव के हर घर से गोपियाँ निकलती हैं जल भरनें……जल तो आवश्यक है……पर पाँच पाँच बरस की बालिकाओं नें भी घर वालों से लड़ झगड़कर अपनें लिये छोटी छोटी मटकी मंगा ली हैं ।

क्यों की इन्हें जल भरनें पनघट जाना है ………अजी ! वहाँ कन्हाई मिलेगा इसलिये जाना है…….वो मिलेगा ही, क्यों की सुबह से लेकर शाम तक वो वहीँ खेलता है …….दिन भर ।

अकेले नही ………सखाओं के साथ , सखा भी वैसे ही उपद्रवी ……मनसुख, भद्र, मधुमंगल, श्रीदामा , सब ।

अरे ! देखो मटकी फोड़ दी उस गोपी की …….सखा सब ताली बजाकर हँसे………वो गोपी रुक गयी …..भींग गयी है …….पूरी भींग गयी और मटकी भी फूट गयी उसकी……..पर ये क्या ! वो आनन्दित हो रही है ……..वो खड़ी है और मुस्कुरा रही है …..पर अपनें आनन्द को दिखाना नही चाहती ।

मेरी मटकी क्यों फोड़ी ? बो बालिका बोल भी नही पा रही है ।

पर ये क्या दूसरे ग्वाले नें उसकी चूनरी भी खींच दी पीछे जाकर ।

सखा सब देख रहे हैं …..कोई वृक्ष पर चढे हैं कोई दूर ……पर इस समय सब खेल के मूड में हैं …………….

क्या तू मेरी बहन की मटकी भी फोड़ेगा ?

श्रीदामा नें छेड़ और दिया ।

कहाँ हैं ? आनन्दित होकर मुड़े नन्दनन्दन ।

सामनें से आरही हैं …….बृषभान नन्दिनी साथ में सखियाँ है ।

हट् श्रीदामा ! वो कूदे कदम्ब वृक्ष से ……………आगे आगये ……और अपनी लकुट अड़ा दी ……….”.कर” देनों पड़ेगो ?

गम्भीर मुद्रा में बोले थे नन्दनन्दन ।

ये पनघट तुम्हारा कब से हुआ ? ललिता अकड़कर बोली ।

क्यों की यहाँ बरसानें वारिन को प्रवेश वर्जित है ……..मात्र नन्दगाँव, ……कन्हाई भी अड़ गए ।

बरसानें में भी तो पनघट हैं वहीँ जाओ ……ये केवल नन्दगाँव के, हम “कृष्ण कन्हैया” , और “दाऊ जी के भैया” का पनघट है ……ये पीछे से ग्वाल सखा सब बोले थे ।

“कर देनो ही पड़ेगो” ……फिर वही बात कन्हाई ठसक से कह रहे हैं ।

“हए ! बृजरानी की बहु बन जाएँ ये बृषभान की लली”……

यही “कर” माँग ले लाला !

पीछे से वो प्रभावती सखी बोली …..श्रीराधा जी तो शरमा कर वहाँ से चली गयीं ।

पर ललिता – अरे सोच विचार के बोलो ……..ये कहाँ माखन चोर ! और वो कहाँ बरसानें की राजदुलारी ………कोई तुलना ही नही है ।

“तेरो कहा चुराय लियो” ……..ये कहते हुए कन्हाई नें ललिता की मटकी में एक कंकड़ मारा ……….निशानें पर लगा था फूट ही गया …..नहा गयी ललिता सखी…….उधर सखियाँ भी हँस पडीं ।

“चार दिना है गए हैं तेनें मेरी मटकी फोड़ी नही है “….पीछे, पनघट से जल ले जा रही थी ….. ……..बेचारी प्रभावती !

अब मैं बूढी है गयी हूँ ? पूछती है कन्हाई से ।

“ले आज तेरी मटकी भी गयी”………एक कंकड़ उठा कर तक कर मारी प्रभावती की मटकी में भी कन्हैया ने …….इसको यही तो करना है………बाबरी नाच उठती है जब उसकी मटकी फूटती है उफ़ ! चार दिन से ये दुःखी थी ।

ये सब लीलाओं का दर्शन जब तात ! अपनें हृदय में करोगे ना …..तब रस उछलेगा ……दिव्य !

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

एक गोपी तो नित्य चार चार चार घड़े लाती है …….और उसे पता है फूटेंगे…….पर ये गोपियाँ भी तो यही चाहती हैं……..मेरे बड़े भैया यमराज कहते हैं……कि उसे तुम जो दोगे , देते हो…..वह तुम्हे वापस दुगुना करके देता है ।…..मैं धन्य हूँ इन लीलाओं का दर्शन करते हुए ।

मैं अब कहीं नही जाऊँगा ……….बृजराज भी जब जब अपनें कोषागार की ओर जाते हैं तब मैं भी पीछे से उनकी चरण धूलि को माथे से लगा लेता हूँ…….मैं शनिदेव बृज का वास पाकर धन्य हो गया हूँ ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 77

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 77)


!!”पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग 4 !!


ये लीला है , इसमें लीलायित स्वयं ब्रह्म हो रहा है …..ब्रह्म स्वयं लीला रचता है …..और फिर लीला ही बन जाता है …….वो रस लेता है …..रस स्वयं है …..फिर भी वह रस का रसिक है ।

तात ! लीला का कोई उद्देश्य नही होता….लीला का एक ही उद्देश्य है – आनन्द , रसानुभूति । उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

श्याम सुन्दर की बंशी चुरा ली श्रीराधारानी की सखियों नें…….क्यों की पूर्व में मुद्रिका श्याम नें राधा की चुराई थी……किन्तु तात ! कन्हाई भी कहकर गए कि……..मैं भी कृष्ण नही …….जो तुम्हे चोर बनाकर अपनी बाँसुरी वापस न ली तो………..

उद्धव कहते हैं – राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ……..राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं……फिर दोनों में चोरी कैसी ? और सखियाँ भी इनसे भिन्न कहाँ हैं ? वृन्दावन भी ब्रह्मस्वरूप ही है ……यानि धाम भी वही है ……तात ! यहाँ सब कुछ अद्वैत है …..किन्तु वह अद्वैत फिर रसानुभूति के लिये द्वैत बन जाता है …..यही तो अनादि लीला है ।

हूँ ………विदुर जी मुस्कुराते हैं ………..फिर कहते हैं – आगे सुनाओ उद्धव ! आगे कन्हाई नें कैसे अपनी बाँसुरी श्रीराधा रानी से ले ली ……..क्या लीला प्रकट हुयी……….सच में ! लीला चिन्तन एक अद्भुत साधना है …………और लीला तो अनन्त की लीला है ……इसलिये इसका तो कोई अंत ही नही है …….पर उद्धव ! कितनी लीला- कथा सुन लो …अघाते नही हैं ……….क्यों की रस है इसमें ……और रस ही तो कन्हाई है ।

विदुर जी ये कहते हुए मौन हो गए ……अब उन्हे आगे की लीला सुननी है । अब उद्धव उत्साहित होकर आगे सुनानें लगे थे ।

हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! हा कन्हाई !

कुञ्ज में ये आवाज धीमी धीमी आरही थी ।

हा नन्दनन्दन ! हा श्याम सुन्दर !

कोई पुकार रही है ……ललिते ! देख तो पुकार में करुणा भरी हुयी है ………..और हिलकियों से रो भी रही है………देख !

कुञ्ज में विराजीं श्रीराधा रानी नें अपनी सखी ललिता से कहा ।

हाँ ………हे स्वामिनी ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है……..मैं बाहर जाकर देखती हूँ………ऐसा कहते हुए ललिता सखी कुञ्ज से बाहर आगयीं थीं ।

हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन !

ललिता नें देखा ……सच में वह सखी तो बिलख रही थी ।

सुन अरी ! तू इतनी ब्याकुल क्यों हे रही है ……….क्या हुआ ?

और तू जिसका नाम ले रही है ना ! वो तो किसी काम का ही नही है ।

बस ऐसे ही मीठी मीठी बातें करता है ….और सबको फंसा लेता है ।

तू भी लगती है उस छलिया के जाल में फंस ही गयी …………सखी ! मेरी बात मान ………छोड़ दे उसे ……..वो तेरे लायक नही है ………तू कहाँ कोमलांगी , सुन्दर , कोमल देह तेरा …………क्यों इतनें सुन्दर देह में रोग लगा रही है …….मत कर प्रेम उस छलिया से ।

सखी !

हिलकियों से रो रही है वो सखी और ललिता को सम्बोधित करती हुयी कह रही है …………..सखी ! ये तो प्रेम है ………अब वे कैसे हैं ….कैसे नही हैं ……ये सब प्रेम कहाँ देखता है ………तो मैनें भी नही देखा ……..बस प्रेम हो गया ……….मेरे यहाँ आये थे खिलखिलाते हुये मुझे देखकर हँसनें लगे …….बस उसी समय मुझे उनसे प्रेम हो गया ……..और ये प्रेम की आग ऐसी जली कि आज मैं ही जल रही हूँ ।

ललिता नें उस सखी की बात सुनी …….फिर उसे पुचकाते हुए बोलीं …….अच्छा रो मत ……रो मत ……..मैं तुझे बताती हूँ ………कन्हाई मन का कपटी है…….हाँ मुख से मीठा मीठा बोलता है…….और तू ही नही है अकेली इस बृज में सबको पागल बनाया है उसनें …….मैं तो तेरे भले के लिये ही कह रही थी बाकी तेरी मर्जी !

ललिता सखी नें समझाया ……….कितनी सुन्दर है तू …साँवरी सखी ……मत लगा , ये रोग ………..बेकार हो जायेगी तू !

पर ये क्या ! ललिता की बातें सुनते ही वो सखी तो धरती में गिर गयी ……हां श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! …..

ललिता सखी घबडा गयी ……..उसे उठाया …….जल पिलाया ।

अच्छा तू कैसे ठीक होगी ? तुझे अभी कैसे शान्त करूँ मैं ?

हा श्याम सुन्दर ! बस एक बार दर्शन दे दो …..बस एक बार ।

वो फिर गिर गयी…….वो रोती ही जा रही है ।

ललिता के समझ में नही आरहा कि, क्या किया जाए………..

वो वापस कुञ्ज में गयी…….और श्रीराधारानी से प्रार्थना करनें लगीं ।

नही ….नही ………ललिते ! मैं कैसे श्यामसुन्दर बन जाऊँ ?

श्रीराधारानी नें साफ़ मना कर दिया ललिता सखी को ।

पर प्यारी जु ! आप अगर श्याम सुन्दर बन जाएँगी तो उस सखी के प्राण बच जायेगें …….नही तो उसका तो रो रोकर बुरा हाल है ।

हाँ ……वो श्याम सुन्दर के प्रेम में पागल हो गयी है……उसे श्यामसुन्दर के दर्शन हो जाएँ बस , …..हे कृपामयी ! आप श्याम सुन्दर का रूप धारण कर लो ……..और उसको दर्शन दे दो …..वो चली जायेगी …………ललिता सखी नें हाथ जोड़े श्रीजी के ।

पर मेरा श्रृंगार करेगा कौन ?

बिशाखा सखी आगे आयी ………….मैं कर दूंगी ।

ललिता नें कहा …..बिशाखा ! तुम शीघ्र श्रृंगार कर दो श्रीजी का ….श्याम सुन्दर बना दो…..मैं दूर से ही कराऊंगी और भेज दूंगी उसे ।

तात ! इधर बिशाखा श्रृंगार कर रही हैं राधा रानी का ………श्याम सुन्दर बना रही हैं राधा रानी को ……….

और उधर –

सखी ! तुझे श्याम सुन्दर के दर्शन करा दूँ तो ?

ललिता के मुख से ऐसा सुनते ही ……..वो सखी तो नाचनें लगी …….मैं तुम्हारा उपकार कभी नही भूलूंगी ………कृपा करो मेरे ऊपर …….नही तो मैं अपनें प्राण इसी यमुनाजी त्याग रही हूँ ।

ना ! ना ! ना ! ऐसा मत कर ..
……बस कुञ्ज में विराजे हैं श्याम सुन्दर !

अच्छा ! कहाँ हैं ? वो आनन्दित होती हुयी कुञ्ज की ओर भागी …..

अभी रूक …….मैं देखकर पूछकर आती हूँ ………..फिर तुझको लेकर चलूंगी ………ललिता कुञ्ज में जानें लगी ………तो सामनें बिशाखा आगयी …..इशारे में बोली ……..”श्रीजी तैयार हैं” ।

ललिता नें उस सखी को कहा …….ले सखी ! तेरे भाग्य ही खुल गए ……श्याम सुन्दर अब तुझे दर्शन देंगे ………….

नाचनें लगी वह सखी तो ……….मैं तुम्हारा उपकार भूल नही सकती ……..सखियों ! धन्य हो तुम धन्य हो ………।

ये रहे श्याम सुन्दर …….दर्शन कर सखी !

ललिता कुञ्ज में लेकर गयी उस सखी को, लताओं के मध्य राधा रानी श्याम सुन्दर का रूप धारण करके खड़ी हैं ।

ललिता नें दिखाया …………ये रहे श्याम सुन्दर !

वो सखी तो दौड़ी ……हा श्याम सुन्दर ! चरणों में गिर पड़ी ….हिलकियों से रो रही है …..कहाँ थे आप !

कुछ देर बाद वो सखी श्याम सुन्दर बनें श्रीराधा को देखनें लगी ।

हाँ ……मेरे श्याम सुन्दर आप ही हो …….लकुट, पीताम्बरी वही है …..मुकुट भी वही है ………..वनमाला भी वही है …….आहा !

और ? हँसी जोर से वो सखी ……..और “बाँसुरी भी वही है” !

ये कहते हुए सखी बनें श्याम सुन्दर नें राधारानी के हाथों से बाँसुरी छीन ली …………..

चोर हो तुम लोग……..ये कहते हुए कन्हैया हँसे जोर से हँसे ।

ललिता सखी तो देखती रह गयी…….राधा रानी भी अब हँस पड़ी थीं ।

मैने कहा था ना सखी ! कि मैं तुम्हे चोर बनाऊँगा ……..आज देखो ! चोर कौन है बताओ ? मेरी बाँसुरी चुराई …………..

ललिता सखी कुछ नही बोली ………क्या बोलतीं ।

राधारानी नें ही आगे बढ़कर कहा ……….पर गुरु तो आप ही हो …….ये मेरी सखियाँ हैं ……इन्हें कहा आवे चोरी करनो ………आपसे ही सीखीं हैं चोरी …………ये सुनते ही श्याम सुन्दर आगे बढ़े और अपनी प्रिया को आलिंगन में भर लिया था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 76

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 76)



!! “पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग 3 !!



दुःखी हो गए थे श्यामसुन्दर …….मुदरिया मिल गयी थी इनके पास …..”.चोर” नाम अब तो पूरा ही सार्थक हो गया था इनका ।

ज्यादा सोच विचार ठीक नही है ………इधर उधर देखा कन्हाई नें कमरिया ओढ़ कर सो गए ………..क्या सोचना ………..तान दुपट्टा सो गए ……….उदासी तो घनी थी ……..जिससे अभी अभी परिचय हुआ था उसी के सामनें चोर बन गए थे …..उनकी ही मुदरिया चुरा ली थी ।

पर कन्हाई इतना सोचते कहाँ हैं ………पनघट में आज हवा अत्यन्त शीतल चल रही थी …….नींद आगयी कन्हाई को ।

प्यारी रुको !

ललिता सखी नें श्रीराधारानी को रोका ।

क्या हुआ सखी ! क्यों रुको ? अब तो बरसानें चल !

नही राधिका जु ! एक बार चलो , देखें तो श्याम सुन्दर को , कि वो कर क्या रहे हैं ? ललिता सखी नें राधारानी से कहा ।

सखी ! देख उनको बहुत अपमान कर दियो है हमनें …….वे दुःखी हैं बहुत ………इसलिये अब चल बरसानें ।

अजी ! वाह ! चोरी करें वो …………और अपमान कियो हमनें !

स्वामिनी जु ! चोरी करि है उन्होंने आपकी ………..ललिता फिर मुखर हो चली थी ।

फिर कुछ सोचकर ललिता नें कहा ……….किशोरी जु ! चलें एक बार उनको देखें तो ……….कि वे कर क्या रहे हैं ?

उद्धव की भावातिरेक स्थिति है आज …………..वो जिस प्रेम लीला का बखान कर रहे हैं …….वो उच्चतम लीला है ।

श्याम सुन्दर किसका मन नही मोहता ……..इसका नाम “मनमोहन” ऐसे ही तो नही पड़ा…….जो इसे देख ले उसका मन ये अपनी ओर खींच ही लेता है ।

चलो !

राधिका जी को लेकर ललिता सखी फिर उसी पनघट में आयी ………तो क्या देखती हैं …………काली कमरिया ओढ़ कर सो रहे हैं कन्हाई …………गहरी नींद आगई थी उन्हें ।

स्वामिनी जु ! ये तो सो गए हैं …………..

राधा जी देख रही हैं ………ये सोते हुये भी कितनें अच्छे लग रहे हैं ……केश राशि बिखरकर मुख मण्डल में आगये थे………

श्याम की सुन्दरता को देखती रहीं राधा रानी ……….देह भान भूल गयी थीं ………अपनें आपको भूल गयी थीं ।

स्वामिनी जु ! एक काम करें …………अति उत्साहित होती हुयी ललिता सखी बोली …………..इन्होनें हमारी मुद्रिका चुराई हम इनकी बाँसुरी चुरा लेती हैं ……….ये ठीक रहेगा ………..हँसी ललिता ये कहते हुए – हिसाब बराबर ।

नही ललिता ! ये काम ठीक नही है ………….ये मत करो ………राधारानी नें रोका…….पर ललिता सखी आज मान नही रही …….चुपके से उसनें श्याम सुन्दर के फेंट में से बाँसुरी निकाल ही ली ।

स्वामिनी जु ! अब इनकूँ पतो चलेगी कि बरसानें वारिन ते उलझनों कितनों टेढ़ो काम है ।

आप रखो इसे …….ललिता सखी नें वो बाँसुरी राधा जी को दे दी ।

वे आएंगे माँगनें, तो मैं दे दूंगी ………….

नही ………..ऐसे नही देना है ………..नही तो उलटे हम चोर कहलाएंगी स्वामिनी जु ! आप इस बाँसुरी को छुपा कर रख लो ।

राधा रानी कुछ नही बोलीं…..बस बाँसुरी को रख लिया अपनें पास ।

सन्ध्या होनें को आरही है …….सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं ।

कन्हाई उठे …………अंगड़ाई ली ………….इधर उधर देखा ……..जम्हाई लेते हुये चुटकी बजाई ।

मन ही मन कहनें लगे ………..आज तो मैं बहुत सोय गयो ………देखो तो साँझ है वे वारी है …………..चलो अब घर चलूँ ।

अरे ! मेरी बाँसुरी कहाँ है ? कन्हाई नें जब देखा इधर उधर तो बाँसुरी गायब थी …………

‘चरोरन घर चोरी है गयी”………….हँसें कन्हाई ………..या बृज को सबते बड़ो चोर मैं हूँ ………पर मेरो भी चोर कौन है !

सोचनें लगे ………तभी , श्याम सुन्दर सब समझ गए ।

ओह ! तो राधारानी नें मेरी बाँसुरी चुराई है …….ललिता नें उकसाये के मेरी बाँसुरी चुराय लिनी है ………वो बाँसुरी तो राधा रानी के पास है अब ………….

नींद नही आवे बिना बाँसुरी के ………चैन नही पड़े बिना बाँसुरी के ।

कन्हाई उठे ………….और चल दिए श्रीराधारानी के पास ।

दिव्य कुञ्ज है …………..तमाल का कुञ्ज घना है ……….सामनें ही एक सरोवर भी है ……….कमल खिल रहे हैं उसमें ………….लताओं का झुकाव अलग ही कुञ्ज की शोभा को और दिव्य बना रहा है ।

कुञ्ज के मध्य में श्रीराधा रानी विराजमान हैं ……….अष्ट सखियाँ चारों ओर खड़ी हैं ……………….

श्याम सुन्दर गए उस दरबार में ।

ललिता सखी नें देखा तो आगे आकर खड़ी हो गयी ।

क्यों आये हो श्याम सुन्दर ! ललितासखी अकड़ कर बोली ।

कहाँ है ? कन्हाई बोले ।

हम पे नही है …..ललिता सखी नें कहा ।

का नही है ? हँसे कन्हाई ।

तुमनें कही , “कहाँ है “……..तो हमनें भी कही ……”हम पे नायँ” ……

प्यारे ! हम नें तो तुक मिलाई है……….ललिता अब हँसी ।

सखी ! तुक बाद में मिलइयो ……..पहले हमारी बाँसुरी दे दो ।

जाओ कन्हाई ! जाओ ! ये राधारानी को दरबार है ………यहाँ चोरन को काम नही है …….जाओ ।

कन्हाई नें राधारानी से हाथ जोड़कर कहा …………

मैं बाँसुरी के बिना रह नही सकता………मोकूँ नींद नही आवे है ………हे राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो !

ललिता सखी फिर आगे आयी ………..

हमारे पास में नही है ..श्याम सुन्दर !

……अगर मैने तुम्हारे पास ते बाँसुरी निकाल दियो तो ?

अब जाओ तुम यहाँ ते ……..ललिता नें छेड़ते हुए श्याम को कहा ।

मैं भी नन्द को छोरा नही …..जो मैने तुमते बाँसुरी नही लई तो !

मैं भी नन्द गाँव को हूँ ………मैं तुम बरसानें वारिन कुँ चोर बनाय के ही मानुंगो ………….और अपनी बाँसुरी कुँ ले जाउंगो ।

कन्हाई भी बोल कर चल दिए ………ललिता जोर से बोली ……..चोर तो तुम हो …………हमारी प्यारी जु चोरी नायँ करें ……..।

ये सुनकर कन्हैया भी गुस्से में चरण पटकते हुए चले गए थे ।

ये क्या है ? हँसे विदुर जी ।

आत्माराम की लीला …………अपनी ही आत्मा राधारानी से लीला करते हैं श्याम सुन्दर ……….यही तो सुन्दरता है इस लीला की ………उद्धव नें कहा ………..तात ! अब आगे सुनिये –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 75

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 75)



!! “पनघट पे”- एक प्रेम प्रसंग 2 !!



अरी सुन तो ! वे ऐसे नही हैं …….वे मेरी मुदरिया क्यों चुरानें लगे !

बृजराज कुँवर हैं वे ……..उनके पास क्या कमी , जो मेरी मुदरिया के पीछे पड़ेंगें ! ललिते ! रहनें दे उनको अगर पता चलेगा ना कि हमारे मन ये भाव है उनके प्रति …….तो सोच कितनें दुःखी होंगें ।

राधिका जी ललिता सखी को समझा रही हैं ………..पर ललिता ऐसे कैसे मान जाये ….!

आप बहुत भोरी हो ……..और वे चोरों के सरदार ……अँधेरी रात में भी चोरी करते फिरे थे ये गोकुल में ……….मुझे सब पता है ……

और आप अपनें ऊपर क्यों ले रही हो ………मेरे ऊपर डाल दो ना ……..हे राधिका जु ! कह देना कि ललिता कह रही है ………बस !

ठीक है …….जैसी तेरी इच्छा …..पर ललिते ! उन्होंने मुझे नृत्य सिखाया और मैं उनपर चोरी का आरोप लगाऊँ ?

आप कहाँ लगा रही हो …….मैं लगा रही हूँ ……….आप कह देना इस ललिता को अपनी तलाशी दो ……..ये आपकी तलाशी लेगी ।

ओह ! तू अब उन नन्दनन्दन की तलाशी भी लेगी ?

और क्या ? चोरों की तो तलाशी ही ली जाती है ……….ललिता बड़े ठसक से बोले जा रही थी ………और अपनी स्वामिनी को उसी पनघट में लेकर गयी जहाँ श्याम सुन्दर बैठे थे ।

ये प्रेमपूर्ण लीला है तात ! इसका दर्शन करो ! उद्धव नें कहा ।

“कन्हाई बैठे हुए हैं…….बड़े प्रसन्न हैं…..राधिका जु की मुद्रिका को बारबार चूम रहे हैं…….और बड़े आनन्दित हो रहे हैं ।

तभी सामनें से आती हुई देखीं राधिका जु और साथ में कई सखियाँ उनकी ………

तुरन्त फेंट में मुद्रिका छुपा ली ………….और खड़े हो गए ।

कहाँ है श्याम सुन्दर ?

ललिता सखी नें पास में पहुँचते ही पूछ लिया था ।

मेरे पास नाँय सखी ! कन्हाई भी बोल दिए ।

ललिता हँसी……खूब हँसी ……क्या नही है तुम्हारे पास ?

मोय का पतो, तेनें कही, कहाँ है ?

तो मैने भी तुक मिलाय दियो कि – मेरे पास नाँय ।

तुक मत मिलाओ ……अब तो मुद्रिका सीधे सीधे दे दो ।

मेरे पास में कहाँ तिहारी मुद्रिका सखी !

कन्हाई हँसनें लगे ।

मेरी नहीं मेरी स्वामिनी जु की मुद्रिका ………..दे दो ।

मेरे पास में नही है ……..बाकी तोय जो करनी होय कर ले ।

अब तो राधिका जु को आगे आना ही पड़ा ………हे प्यारे ! अगर आपकुँ हमारी मुद्रिका मिली होय तो दे दो ……नही तो हम जा रही हैं ।

बड़ी विनम्रता से राधिका जु नें कहा था ।

ललिता ताली बजाकर हँसी …………हे मेरी भोरी स्वामिनी ! चोरन ते ऐसे बात नही कियो जाय !

हम चोर हैं ? कन्हाई थोड़े क्रोधित से हुए ।

नही ….आप चोर नही ….चोरन के सरदार हो …….अब बातन कुँ मत बनाओ चुपचाप मुद्रिका दे दो ।

मेरे पास नही ……….दो टूक बोले ।

राजा से शिकायत कर देंगी …………कन्हाई बोले वो तो हमारे पिता जी हैं ………….ललिता बोली – नहीं कंस राजा से …….कन्हाई हँसते हुए बोले वो तो मेरे मामा हैं …………।

तलाशी दो अपनी……….कन्हाई से फिर ललिता बोली ।

अब रहनें दे ललिता ! इन के पास नही है मेरी मुद्रिका ……चल !

राधिका जु नें ललिता का हाथ पकड़ा और चलनें का आग्रह करनें लगीं ।

मुद्रिका तो लेकर जाऊँगी मैं …………….

चलो ! अपनें हाथ दिखाओ ………….कन्हाई नें जान बूझकर मुट्ठी बांध ली………..मुठ्ठी खोलो …….ललिता बोली ।

ले खोल दिया ………कन्हाई की मुठ्ठी में कुछ था ही नही ……

दूसरी मुठ्ठी खोलो ……….दूसरी मुठ्ठी में भी कुछ नही था ।

ललिते ! ज्यादा अपमान मत कर उनका ……..तू चल अब घर ।

राधारानी फिर बोलीं ।

रुको अभी स्वामिनी जु !

कुछ सोचकर ललिता बोली…….हे कन्हाई ! अब ये फेंट तो निकालो !

ना ! सखी ! ये फेंट नही दिखा सकूँ मैं…….कन्हाई डर गए ।

ललिता अब समझ गयी कि इसी में है मुद्रिका ……….छुपा रखी है मुद्रिका कन्हाई नें ।

फेंट कूँ खोलो प्यारे ! ललिता जिद्द करनें लगी ।

क्या करते कन्हाई भी आज इन बरसानें वारिन के चक्कर में जो पड़ गए थे………खोलो फेंट ! ललिता बोले जा रही है ।

कन्हाई नें फेंट खोली ………और मुद्रिका को दबा कर फेंट को झाड़नें लगे …………..देख सखी ! मुद्रिका नही है इसमें ।

मुझे तो दो …….अपनी फेंट मुझे दो मैं देखूंगी ……ललिता सखी फेंट माँगनें लगी कन्हाई से ।

ऐसे कैसे दे दूँ ? तू लेकर भग गयी तो ? कन्हाई बोले ।

हम तुम्हारी तरह चोर नही हैं कन्हाई ………..दे दो फेंट ।

अब तो देनी पड़ी ……क्या करते नही देते तो !

जब फेंट ललिता नें ली …….और उसे झाड़ा …………..बस श्यामा जु की मुदरिया गिर गयी ……………सब सखियाँ हँसीं ………..जय हो चोरन के सरदार की ……….ललिता सखी नें गुलचा मार दिया गालों में ……श्याम सुन्दर सिर झुकाये खड़े हैं ………..अब तो ऊपर भी नही देख रहे ……..बड़े ही शर्मिंदा हो रहे हैं ……..।

ये देखो मुद्रिका , हे स्वामिनी जु ! हम आपको कह तो रही थीं यही हैं चोर ………..अब कर लो चोर के दर्शन ।

देखा श्याम सुन्दर को राधा रानी नें…….उन्हें बड़ा दुःख हुआ ……कि श्याम सुन्दर कुछ नही बोल रहे ……बेचारे ! दुःखी हो गए हैं ।

जो हो गया सो हो गया सखी ! ………अब तुम कन्हाई से कुछ मत कहो …..और चलो अब ……इनको ज्यादा कहना इनको दुःखी करना ही है ।

पर जाते जाते एक दो गुलचा ललिता कन्हाई के गालों में मार कर ही गयी ……………और फेंट डाल दी कन्हाई के ऊपर ही ।

बहुत उदास हो गए थे इस घटना से कन्हाई …………..उनकी उदासी में मोर पक्षी ये सब भी उदास हो चले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 74

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 74)



!! “पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग !!


क्यों सब इसी पनघट पर आती हैं ………यमुना जी के घाट तो अन्य भी हैं …….पर सम्पूर्ण नन्दगाँव को इसी पनघट पर आना है …….और इतना ही नही अब तो बरसानें की सखियाँ भी यहीं आनें लगी हैं ………फिर स्वयं की असावधानी से मटकी फूट जाए तो दोष कन्हाई पर ……….

हँसे उद्धव ………..कोई कोई गोपी तो स्वयं ही मटकी फोड़ देती …….फिर झगड़ती बेचारे नन्दनन्दन से ………गुलचा मारती ……कपोल छूनें के बहाने हैं ये सब ………..पीताम्बरी खींच कर भागती ……..जब कन्हाई उसके पीछे लगते ……..तो वह अत्यन्त आनन्दित हो उठती ….और सबको बताती …..दिखाती कि …..कैसे मेरे पीछे पड़ा रहता है ये नन्द का छोरा……..एकान्त में गले लग जाती ……..फिर तो कहना ही क्या …….क्या क्या करती ।

एक दिन – अभी अभी तो वर्षा होकर थमी है ………आकाश में इंद्र धनुष भी निकल आया है ……वृक्ष जैसे नहा धोकर तैयार हो गए हैं….पक्षियों का कलरव फिर शुरू हो चुका है ……….धरती से रज की भीनीं भीनी सुगन्ध आरही है ………..यमुना जी का जल भी बढ़ ही गया था ।

इधर उधर देखा कन्हाई नें …………कोई नही है ……..सखा भी आज नही आये ………क्यों की बारिश ही बड़ी घनघोर हो रही थी ……..और उन्हें पता भी नही था कि कन्हाई आजायेगा ……..ये पता होता तो वो लोग घर में बैठते ?

कन्हाई नें एकान्त देखा ……….आज पनघट में कोई नही आया है ।

तुरन्त अपनी फेंट से बाँसुरी निकाली……….अधरों पर रखी …….थोडा झुके और जैसे ही उसमें फूँक मारी…….उफ़ ! पाषाण को भी पिघला दे ऐसा स्वर …………मोरों का झुण्ड तभी वहाँ आगया …………उनको देखकर कन्हाई और आनन्दित हो उठे ।

मोर नाचनें लगे ………….उनके संग, संग संग कन्हाई भी नाच रहे हैं ……..थोडा झुकते हैं ………..फिर अपनी ग्रीवा को मटकाते हैं ……..चरणों का हल्का प्रहार करते हैं फिर घूमते हैं ……..

मोर यही सब देखकर मुग्ध हैं…….वो सब रूक गए हैं ………कन्हाई को बड़े ध्यान से देखते हैं ……….फिर कन्हैया उनको कहते हैं ….ऐसे नाचों ………अजी ! बडी अद्भुत प्रेम सरिता बह चली थी ……….मोर नाचनें लगे थे ……एक दो नही …….सहस्रों मोर थे …….वे सब पंख फैलाकर नाच रहे थे ………कन्हाई , अब फिर बाँसुरी बजा रहे हैं ।

दूर से देख रही हैं ……बृषभान दुलारी ।

कदम्ब की ओट से …………अपलक देखकर देह सुध भूल जाती हैं ।

करतल ध्वनि करनें लगती हैं…….कदम्ब की ओट को छोड़कर बाहर आजाती हैं …….अद्भुत ! वाह !

वो छोटी सी किशोरी ………….कैसे वाह वाह किये जा रही हैं ।

कन्हाई नें जैसे ही देखा बृषभान दुलारी को…….उनकी तो “मन की भई” हो गयी थी ।

दौड़ पड़े फेंट में बाँसुरी को रखकर कन्हाई ।

आप ? यहाँ कैसे ? वो भी तो बोल नही पा रहे हैं अपनी प्रिया से ।

मैं ………….शरमा गयीं किशोरी ।

मुझे सिखा दोगे नृत्य ? हये ! कितनी मधुर आवाज ।

मैं आपको सिखाऊंगा ? हँसे कन्हाई ।

आप तो स्वयं सर्वगुण सम्पन्न हैं …….मैं आपको क्या सिखाऊँ ?

कन्हाई विनम्र हो रहे थे अपनी किशोरी के आगे ।

नही नही ……आप बहुत सुन्दर नृत्य करते हैं ………..कृपा नही करेंगें हमारे ऊपर ? श्रीजी भी जिद्द पर ही उतर आईँ ।

हा हा हा हा हा ………कृपा मेरी ? या आपकी ?

प्रेमस्वरूप हैं ……प्रेम ही प्रेम से तो इनका ये विग्रह बना है ।

चलिये – आपको सिखा ही देता हूँ……..वैसे मुझे आता नही हैं ।

ये कहकर किशोरी जु के पास गए ……..हाथों को पकड़ा ………और संकेत में बोले………इन हाथों को ऐसे रखना है ……..बोल नही रहे क्यों की अति प्रेम के कारण शब्द रूक गए हैं ।

एक हाथ ऐसे घुमाते हुए वापस यहीं लाना है …………और प्यारी !

ये प्यारी शब्द मुँह से सहज निकल गया ……..फिर रुककर बोले …..मैं “प्यारी” कह सकता हूँ ना ? शरमा गयीं राधा रानी ।

सुनिये अब – आपके हाथ जैसे चलें अपनें इन चरणों को भी उसी लय से चलाना है ………..और ये ग्रीवा इसको ऐसे मटकाइये ……….ओह ! कन्हाई की नकल करते हुए श्री जी नें ऐसे ग्रीवा मटकाई कि कन्हाई को भी कहना पड़ा ………..जय हो ……..मुझे बेकार में आप गुरु बना रही हैं ……गुरु तो मेरी आप हैं ।

श्रीजी कन्हाई की हर बात पर हँसती हैं ………..उनकी हर बात ध्यान से सुनती हैं ………….कटि प्रदेश को भी थोडा कष्ट दीजिये ………

हाथों को छूते हैं …….ग्रीवा का स्पर्श करते हैं …….अपनें कपोल से श्री जी के कपोल को मिलाते हैं ……………..।

और तात ! पता है इनके दर्शक कौन हैं……वही सहस्रों मोर ……वृक्ष में बैठे पक्षी …….बहती हुई यमुना …….और यमुना का पनघट ।

प्रियतम साथ हों …..प्रेमास्पद साथ हों ……तो काल की गति का किसको भान रहता है …………

“समय बहुत हो गया है …….अब मैं जाती हूँ ……मेरी सखियाँ मेरी वाट देख रही होंगी……..आपनें मुझे नृत्य सिखाया……आपका आभार ।

किशोरी जु नें धन्यवाद किया……फिर बोलीं ……..मैं अब जा रही हूँ ।

प्रेमावतार ऐसे ही तो नही कहा जाता इन कन्हाई को …….झट् से आलिंगन में भर लिया “कर कंज” में अपनें “कर” फंसा दिए ।

और चिन्हारी के रूप में किशोरी जु की मुद्रिका उतार ली ।

उद्धव विदुर जी को ये प्रसंग सुना रहे हैं ……।

क्या श्रीजी को पता नही चला ? विदुर जी नें पूछा ।

उद्धव हँसते हुए बोले…ये ऐसे चोर हैं …..जो सामनें वाले के आँखों से काजल चुरा लें……और उसे पता भी न चले ….मुद्रिका की क्या बात है !

अच्छा ! नयनों में अपार प्रेम भरकर कन्हाई को देखा किशोरी जु नें …….फिर चली गयीं ………

मोर बोलनें लगे….पक्षी कोलाहल करनें लगे किशोरी जु के जाते ही ।

चुप ! चुप ………….देखो ! ये है मेरी प्यारी की मुद्रिका …………सब मोरों को दिखाया ……….मोर आनन्दित हो उठे ।

उस मुद्रिका को चूम कर श्याम नें अपनी फेंट में रख ली थी ।

उद्धव भी आज प्रेम सिन्धु में डूबकर ये सब सुना रहे हैं ।

आप कहाँ थीं किशोरी जु ! दूर से आती हुयी राधिका को देखा तो सब सखियों नें दौड़कर पूछ लिया ………………

पहले तो शरमा गयीं ………..फिर बता ही दिया ………वो कन्हाई यमुना के किनारे नृत्य कर रहे थे ……….मैं मुग्ध होकर देखती रही …….सखी ! मैने उनसे बाद में प्रार्थना करी …….कि मुझे भी सिखा दो ………सखी ! उन्होंने मेरी बात मान कर मुझे सिखा भी दिया …..

ये बातें किशोरी जी मन्त्र मुग्ध होकर बोल रही थीं ।

नृत्य भी सिखाया और दक्षिणा भी दे दी ? ललिता सखी नें आगे बढ़कर कहा ।

नही सखी ! वो ऐसे नही हैं……..उन्होंने मुझ से कुछ नही माँगा ।

माँगा नही ….चुरा लिया ना ! ललिता सखी नें श्रीजी के हाथों को देखा ……….यहाँ की मुद्रिका कहाँ गयी ?

श्रीजी ने देखा ……….नृत्य में खो गयी होगी ! पर उन्हें दोष मत दो ….वो ऐसे नही हैं ………..श्रीजी कह रही हैं ।

अजी ! रहनें दो ……….उन्हीं नें चुराया है ………….हम सब जानती हैं …..गोकुल में बड़ा नाम कमाकर आये हैं वो ……..चोर हैं ।

ललिता सखी बोले जा रही हैं ।

नही ……ललिता ! ऐसे मत बोल ………..उन्होंने हमें नृत्य सिखाया और हम उन्हें चोर कहें…….ये गलत है । राधिका जु मानती ही नही ।

आप चलो ! आप मत बोलना ……हम बोलेंगी …….और हम साँची कहती हैं …………मुद्रिका उन्हीं के पास है ……हम लेकर ही रहेंगी …….

ये कहकर श्रीजी को ले सखियाँ उसी पनघट पर पहुँच गयीं थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 73

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 73)



!! श्यामाश्याम का प्रथम मिलन !!


एक दिन –

श्याम सुन्दर कदम्ब वृक्ष के नीचे खड़े होकर वेणुनाद कर रहे थे ।

अद्भुत , नाद का स्पर्श पाते ही पर्वतश्रेणियों के शिखर समूह द्रवित हो गये……..पक्षी तो आज नाद के कारण मौन व्रती मुनि के समान बस श्याम सुन्दर के रूप में ही त्राटक कर रहे थे ।

उफ़ ! जड़ कैसे चेतन बन, और चेतन में कैसी जड़ता छा रही थी ।

अपनें रस में ही भींग उठे थे श्याम सुन्दर…..”आत्माराम” अपनें इसी नाम को सार्थक बना रहे थे आज ।

तभी एक मोर नाचनें लगा……..उन्मत्त होकर नाचनें लगा ……वो रिझाना चाहता था श्याम सुन्दर को…….अपनें पीछे लगा कर वो कहीं ले जाना चाह रहा था…….उसके नृत्य पर रीझ उठे थे श्याम सुन्दर भी ……..चल पड़े मोर के पीछे पीछे………..

आगे आगे मोर था और पीछे उसके श्याम सुन्दर ।

वो मोर ले गया बरसानें में……..प्रथम बार बरसानें में पधारे थे ……उन्हें बड़ा आनन्द आया …….वहाँ की हवा अलग ही थी ………सुरभित प्रेम पूर्ण हवा………जो श्याम के अंगों को जब छू रही थी …..तब रोमांच हो रहा था उन्हें ।

एक सरोवर है ……..जिसे प्रेम सरोवर के नाम से जाना जाता है ……..वहाँ आईँ हैं श्रीराधा रानी ।

मोर नें अपनें पंख समेट लिए थे……इशारा करके बोला…..वो देखो –

श्याम सुन्दर नें देखा…….सुवर्ण के समान रूप था…….नाक के अग्रभाग पर छोटा काला तिल ………इसको देखकर ही तो आचार्य गर्ग नें कहा था – ये तो जगत की ईश्वरी हैं…….जगत जिसकी आराधना करता है ….वो इसकी आराधना करेगा ……इसलिये इसका नाम है – राधा ।

सिर की माँग अपनें आप निकली हुयी है……..इनकी माँ कीर्तिरानी नें कितना प्रयास किया कि ……इन रेशमी केशों को बिखेरकर इस माँग को छुपाया जाए ……….पर ये सम्भव न हो सका ।

छुपाना इसलिये चाहा था कि ………..माँग में ही लाल बिन्दु ये भी जन्मजात ही था …………दूर से देखो तो लगे माँग भरी हुयी है सिन्दूर से ………आहा ! ये किसी ओर की हो ही नही सकती …….ये तो अनादि दम्पति हैं राधा कृष्ण हाँ, कृष्ण की ही हैं ये श्रीराधा ।

अपलक देखती रहीं अपनें श्याम को………..श्याम तो सबकुछ भूल गए थे ……..सब कुछ……….दोनों के नयन मिले …..जुरे …..।

पास में गए, अपनी प्रिया के पास में…..

…हे गोरी ! तुम कौन हो ?

बड़े प्रेम से पूछा था श्याम नें ।

क्या नाम है तुम्हारा ? किसकी बेटी हो ? हँसते हुए फिर – मैने कभी तुम्हे बृज में देखा नही ………कौन हो तुम ?

मैं राधा !

वो अमृत वाणी श्याम सुन्दर के कानों में घुरी ।

वैसे मैं कहीं आती जाती नही हूँ……….अपनें ही बाबा के आँगन में खेलती हूँ ………पर तुम कौन हो ? बड़े प्रेम से पूछा ।

मैं ? मैं तो कन्हैया………गोकुल का कन्हैया !

मेरा नाम सब जानते हैं ……..बृज का कोई ऐसा व्यक्ति नही होगा जो मेरे नाम को न जानता हो ………मुझे न जानता हो …………तुम तो जानती ही होंगी गोरी ! मैं कन्हैया । …….बड़े ठसक से बोले थे कन्हाई ।

नही ……..मैं नही जानती ,……साफ मना कर दिया श्रीराधा रानी नें …….मैं नही जानती तुम्हे ।

दुःखी हो गए श्याम …….मुँह लटक गया …….उदास हो चले थे ।

सुनो सुनो ………क्या तुम ही हो वो नन्द के ढोटा ? जो चोरी करता फिरता है ! बताओ ? हँसी ये कहते हुये श्रीराधा रानी ।

गम्भीर हो गए श्याम सुन्दर…….हे राधे ! तुम्हारो कहा चुराय लियो हमनें …….हमें चोर मत कहो……सुनो ! चलोगी हमारे साथ हमारे गाँव नन्द गाँव में ? नटखट कन्हाई बोल उठे थे ।

दूर है ? पूछा श्याम से ।

नहीं पास में ही है…….मैं छोड़ दूँगा…….चलो ।

तात ! श्याम सुन्दर के साथ चल दीं श्रीराधा रानी…….और धीरे धीरे बतियाते हुए पहुँची नन्द गाँव ।

भरी दोपहरी का समय हो गया है ………..लाल मुख मण्डल सूर्य के ताप से दोनों का हो चला था …………..देखा बृजरानी नें ………….कन्हाई आज अपनें साथ ये किसे लाया है ………..बाहर आईँ बृजरानी ।

सुन्दर कन्या है …….सुन्दर कहना भी कम है ………..शुक के जैसी नासिका है……..अधर लाल है …….मानों कोई लाली लगाई हो ………….अनार के दानें की तरह दन्तपँक्ति हैं ………..मुस्कुराहट तो ऐसी है मानों फूल झर रहे हों……..हो क्यों नहीं , ये श्रीराधा जो हैं ।

लाली ! तू बरसानें की है ? बृजरानी नें गोद में ले गया श्रीराधा को ।

मैया ! मुझे भी ले अपनी गोद में” ……….कन्हैया भी तो बालक ही हैं …….बृजरानी नें दोनों को गोद में ले लिया ।

कीर्तिरानी की लाली है ना तू ?……….संकोच करते हुए उत्तर दे रही हैं…….”हाँ” मेरी मैया का नाम कीर्ति ही है ।

“राधा नाम है मेरा”…….अपना नाम भी बता दिया श्रीराधा रानी नें ।

बेटी ! कुछ खा ले……….उठकर माखन लेकर आईँ बृजरानी ।

मैया ! मैं भी” …….कन्हाई भी मांग रहे हैं माखन ……और राधा को भी देखते जा रहे हैं ……. बहुत प्रसन्न हैं आज ये ।

बेटी ! दोपहर है ……..अभी कहाँ जाओगी थोडा सो जाओ ………

बृजरानी महल में ले गयीं ………और राधा को सोने के लिए कहनें लगीं थीं ………….मैं भी …………कन्हाई को भी सोना है ।

अच्छा तू भी सो …………हँसते हुए बृजरानी नें दोनों को सुला दिया ।

पर ये क्या तुरन्त ही उठ गयीं राधा ……..और बोलीं ……मैं इसके साथ नही सोऊँगी ………..

पर क्यों ? क्यों बेटी ? बृजरानी ने लाली राधा से पूछा ।

मैं काली हो जाऊँगी ……….क्यों की ये काला है ।

खूब हँसी बृजरानी ………….बेटी ! कसौटी का रंग सोना में नही चढ़ता ……….सोनें का रंग कसौटी पर चढ़ता है ।

मेरी राधा ! तू सोना है …..तेरा रंग चढ़ेगा मेरे लाल पर ……पर मेरा लाल तो कसौटी है ………..ये कहते हुए राधा को चूम लिया था बृजरानी नें ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 72

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 72)

!! “श्रीदामा” – कन्हैया का नया सखा !!


श्रीदामा का मिलन हुआ कन्हैया से ……..दोनों के आनन्द का कोई ठिकाना नही था ……..ये नया सखा मिला था ….वैसे श्रीदामा कोई नया नही है …….ये पुराना है ……अनादि सखा है ……..गोलोक में निज परिकर है कन्हैया का ये………श्रीदामा ।

पर –

अवतार काल में पृथ्वी में ये पहली बार मिल रहा था अपनें कन्हैया से ।

कल सन्ध्या को आये थे बृषभान जी नन्दगाँव………अकेले नही आये …….आज अपनें पुत्र को भी ले आये थे …….गौर वर्ण का वह बालक ……..पीली छोटी पाग सिर में बाँधे हुए था…….मुस्कुराता मुखमण्डल …..अद्भुत तेजयुक्त था वो ।

कन्हैया तो खिसकते हुए पहुँच गए बृषभान जी के पास में …..फिर बगल में शान्त बैठे श्रीदामा के पास ।

तुम्हे खेलना है ? जाओ ! थोड़ी देर खेल लो …….बृषभान जी बोले थे अपनें पुत्र श्रीदामा से ।

कन्हैया चंचल बहुत है …….तुरन्त ही श्रीदामा का हाथ पकड़ कर बोला ……..चलो ! तुम्हारे बाबा नें आज्ञा दे दी है ……अब चलो ।

श्रीदामा संकोची है……….पर कन्हैया इसके संकोच को निकाल फेंकेगा ……..देखते जाना ।

कन्हैया श्रीदामा का हाथ पकड़ कर ले गए और अपनी सखा मण्डली में ले आये थे ………..

नाम क्या है तुम्हारा ? कन्हैया नें पूछा था ।

संकोची है श्रीदामा….दो चार बार पूछनें पर ही बताया था अपना नाम – श्रीदामा ।

तुम कहाँ रहते हो ? बरसाना !……पास में ही है ।

बड़े सुन्दर हो तुम तो ? श्रीदामा के कपोल को छूते हुए कन्हैया बोले ।

मुझ से भी ज्यादा सुन्दर तो मेरी बहन है ………बालक.श्रीदामा नें कहा……

” बहन और मुझे साथ में कोई देख ले ……तो कोई ये बता नही सकता कि कौन भाई है और कौन मेरी बहन है ।

कन्हैया नें पीठ में हाथ मारी श्रीदामा के ………..यहाँ लेकर आओ अपनी बहन को ……..मैं तो बता दूँगा कि कौन तुम हो ..और कौन तुम्हारी बहन है । कन्हैया ही बोले थे ।

रुके कन्हैया…..कुछ सोचकर बोले…….तुम्हारी बहन का नाम क्या है ?

“श्रीराधा”………….श्रीदामा नें उत्तर दिया ।

कुछ देर के लिये आँखें बन्द हो गयीं थीं कन्हैया की …………ये नाम ऐसा अद्भुत है कि श्री कृष्ण को भी अंतर्मुखी बना देता है ये नाम ।

हमारे साथ मित्रता करोगे ? हँसते हुए कन्हैया नें अपना हाथ बढ़ाया ।

श्रीदामा नें तुरन्त सिर हाँ में ही हिलाया था………और फिर हाथ मिले और गले भी मिले ।

तुम नित्य आओगे हमारे पास ? कन्हैया नें श्रीदामा को पूछा ।

हाँ …..मेरा ग्राम बरसाना, पास में ही है ………वो देखो ! उस ऊँची पहाड़ी में महल दिखाई दे रहा है ना….वही है…..श्रीदामा नें दिखाया ।

तभी उस दिशा से हवा चली ……..और उस हवा के झोंके नें कन्हैया को छूआ ……..बस उसी समय कन्हैया रोमांचित हो उठे थे ।

( साधकों ! प्राचीन वृन्दावन में – नन्दगाँव बरसाना गोवर्धन यमुना जी ये सब आते थे….वर्तमान का वृन्दावन पंचकोशी है …..ये “सरस वृन्दावन” है….जहाँ मात्र श्रीराधा रानी से श्री कृष्ण का प्रेमालाप होता था )

बृषभान जी और बृजराज दोनों होकर अपनें बालकों को ढूंढनें निकल गए थे ……क्यों की रात्रि हो रही थी ।

नन्दजी को देखते ही कन्हैया दौड़ पड़े…..बृषभान जी के पास श्रीदामा ।

ये है मेरा बालक……..बृषभान जी नें दिखाया बृजराज को ।

श्रीदामा…….आपनें जब देखा था बृजराज ! तब ये बहुत छोटा था …….आप को स्मरण है क्या ? बृषभान जी नें पूछा ।

हाँ ……..मुझे स्मरण है ।

और ये है मेरा पुत्र कृष्ण …………नन्दबाबा नें परिचय दिया ।

लाला ! आओ …इधर आओ ………….बृषभान जी नें बुलाया कन्हैया को …..तो कन्हैया चले गए ।

और ये सब मेरे पुत्र के सखा हैं ………….नन्द बाबा के कहनें पर …..सब नें बृषभान जी के चरण छूए …………पर –

तू भी छू ………..कन्हैया हँसते हुये मनसुख से बोले ।

मैं तो ब्राह्मण हूँ ……….मैं कैसे छू सकता हूँ…………..मनसुख नें बृषभान जी की ओर देखते हुए ही कहा था ।

ओह ! ब्राह्मण हो आप ……फिर तो आपके चरण हमारे धाम में भी रखिये….पवित्र हो जायेगें….बृषभान जी नें हाथ जोड़कर मनसुख से कहा ।

पता नही ऐसा क्यों कहा …….गौ के खुर से स्थान पवित्र होता है …….पर मनसुख कोई गौ तो नही …..फिर इसके पाँव पड़नें से कोई भी स्थान पवित्र कैसे हो सकता है…….मेरे तो कुछ समझ में ही नही आया ।

कन्हैया सोच रहे थे ………….कि तभी मनसुख नें ऐसी बात कह दी …..कन्हैया तो शरमा गया और मैया की गोद में जाकर छुप गया था ।

आपकी बेटी है ? सुना है बड़ी सुन्दर है…..हमारे कन्हैया से उसकी सगाई करा दो ….फिर आऊँगा आपके यहाँ और खूब दावत उड़ाऊँगा ।

कुछ भी बोल देता है मनसुख…….अरे ! कुछ तो शरम करो ………..पर मनसुख को कौन समझाये ।

लग रहा था कन्हैया को कि बृषभान जी क्रोधित हो उठेंगे ऐसी बातें सुनकर ……..पर बृषभान जी तो बहुत अच्छे हैं …………..कन्हैया नें अब सोचा ……कितनें अच्छे हैं !

मनसुख के सामनें हाथ जोड़कर बोले ……..आप ही करवा दो मेरी बेटी और नन्दनन्दन के साथ सगाई ……………

कैसी है आपकी बेटी ? बोर कर रहा था अब मनसुख ।

फिर उत्तर की प्रतीक्षा बिना किये बोला …….आपके पुत्र .श्रीदामा जैसी ही लगती हैं क्या ? मनसुख पूछ रहा है ।

हाँ बृजराज ! मेरी राधा बेटी बिल्कुल श्रीदामा की तरह ही लगती है ।

कोई पहचान ही नही पाता दोनों को ……कभी श्रीदामा को राधा कह देते हैं …..कोई राधा को श्रीदामा……ये कहते हुए हँस रहे थे बृषभान जी ।

पर श्रीदामा से शर्त लगाई है अपनें कन्हैया नें……कि कल राधा को ले आना…..अपना कन्हैया तो पहचान लेगा – श्रीदामा है कि राधा हैं ?

मनसुख की बातों का कोई बुरा नही मानता ……….ये परम तपश्विनी पौर्णमासी का पुत्र है ………बृजराज नें बृषभान जी को कहा ।

नही ……….बड़ा अद्भुत बालक है ये ………..दिव्य प्रेम मयी ऊर्जा से ओतप्रोत ……..बृषभान जी नें मनसुख के लिये कहा था ।

पर सुन्दर तो आपका पुत्र है………कन्हैया काला है ….पर आपका पुत्र गौर वर्ण का है……….श्रीदामा के लिये कहा मनसुख नें ……और श्रीदामा के गोरे कपोलों को छूकर भागा ।

मनसुख की हर छोटी बड़ी हरकतों पर कन्हैया खूब हँसता है ………आज भी खूब हँसा…………..बृषभान जी मन्त्रमुग्ध होकर नन्दनन्दन को देखते ही रहे थे ।

श्रीदामा अब कन्हैया के सखाओं में प्रमुख बन गया था ………….नित्य बरसानें से नन्दगाँव आना……कभी कभी तो नन्दगाँव में ही सो जाना ।

एक दिन –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 71

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 71)

!! “वृन्दावन में प्रथम वेणु नाद” – एक अलौकिक नाद !!


कब सीखा बंशी बजाना श्याम नें – पता नही ।

पर आज श्याम आनन्दित हो अकेले ही निकल पड़े थे श्रीधाम वृन्दावन की शोभा को देखते हुए ………..

पीताम्बर धारी , मोर मुकुट सिर पर …….घुँघराले केश ……गले में लम्बी पुष्पों की झूलती हुयी माला ,

वृक्षों को छू रहे हैं ……….लताओं को आलिंगन कर रहे हैं …….पक्षियों से बतिया रहे हैं …..नभ के मेघों से अपनें वर्ण की तुलना कर रहे हैं ।

आगे मोरों का झुण्ड देखा ………श्याम को देखकर उन्हें भी अपनें प्रियतम मेघों की याद आगयी ………वो सब पंख फैलाये नाचनें लगे ।

पक्षियों का झुण्ड वृक्षों पर आगया था ………उन्होंने अपना सुर छेड़ दिया ……..उनकी बोली ……उनका अपना संगीत था ।

श्याम सुन्दर आज ये सब वृन्दावन में देख कर झूम उठे थे ।

इधर उधर देखा …………फेंट में बाँसुरी थी ……कब रखी थी पता नही ………कब सीखी ? किससे सीखी बजानी , पता नही ।

आज निकाल लिया …………..वृन्दावन सच में झूम उठा था ……..पक्षियों की बात कौन कर रहा है ……..पूरा का पूरा वन प्रान्त ही उन्मत्त हो गया था – जब अपनें कोमल पतले गुलाबी अधरों पर श्याम नें बंशी को रखा ………..झुके थोडा ……..अपनी सुरभित साँसों को खींचा और उन बंशी के रंध्रों में फूँक मार दी ।

उफ़ ! स्वर लहरी चल पड़ी……वृन्दावन झुमनें लगा……..वृक्ष , लता पक्षियों की कौन कहे……यमुना का प्रवाह स्थिर हो गया ।

उफ़ ! हिरणियाँ खड़ी हो गयीं सामनें आकर ……….और अपलक नेत्रों से श्याम को निहारने लगीं ।

तात ! ये स्थिति पृथ्वी की थी …….पर ये वेणु नाद रुकनें वाला था क्या ? ये तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रेम रस से भरना चाहता था ………….और ये किया इस वेणु रव नें ।

ये श्याम के द्वारा बजाई गयी थी ………..ब्रह्माण्ड का भेदन करते हुए ये सिद्ध लोक पहुँची – वेणु नाद…..सिद्ध अपनें ध्यान में लीन थे ….शान्त स्थिति में वो सब रहते थे ………पर ये क्या किया इस वेणु नाद नें …….बेचारे शान्त स्थिति वाले सिद्धात्माओं को अशान्त कर दिया था ।

ये प्रेम का नाद है ……….ये है ही ऐसा ।

शान्त को अशान्त कर दे और अशान्त को शान्त बना दे ……..ये बड़ा विचित्र है – प्रेम ।

अब उन सिद्ध लोक में रहनें वाले सिद्धों को समझ में नही आरहा कि ये हो क्या गया ? कोई सुमधुर सा स्वर गुंजा और ……ध्यान से उठा दिया …….अब प्रणायाम कर रहे हैं ……….ध्यान लगे इसका प्रयास कर रहे हैं …..पर सारे प्रयास निष्फल .।

तात ! ये वेणु नाद अब और आगे बढ़ा ………….नारद जी अपनें शिष्य तुम्बुरु के साथ कैलाश जा रहे थे ………..श्याम की वेणु नाद यहाँ तक पहुँची …..उफ़ ! पगला गए महान संगीतकार तुम्बुरु ।…..गुरुदेव ! ये कौन सा स्वर लग रहा है …….ये किस अद्भुत राग में बज रहा है …….तुम्बुरु जब तक सोचते हैं …..तब तक तो श्याम दूसरे से तीसरे राग रागिनियों में विचरकर वापस वहीँ आजाते हैं ।

उद्धव आनन्दित होकर बोले – तात ! आनन्दातिरेक में मूर्छित होनें के सिवा कोई और उपाय था नही तुम्बुरु के पास …….उन्हें मूर्छित होना ही पड़ा ।

वत्स ! श्याम की बजाई गयी बंशी है ………..राग रागिनियों के फेर में तुम मत पड़ो ……..बस तुम तो दोनों कर्णरंध्रों को खुला रखो …….और पीयो कानों से इस अद्भुत नाद को …….रस को ………..क्यों की ये बुद्धि से बहुत परे की वस्तु है ……..बुद्धि को त्यागों तुम्बुरु ! देवर्षि नें उठाया अपनें शिष्य को ।

उद्धव कहते हैं ………तात ! अब ये वेणु नाद कैलाश में पहुँची …….भगवान शंकर ध्यान कर रहे थे ……….

तभी श्याम की वेणु नाद कैलाश में ……….कैलाश में ओंकार नाद सदैव गुँजित रहता है …….पर इस वेणु नाद नें उस ओंकार नाद को भी फीका कर दिया था………..भगवान शंकर के हृदय में पहुँच कर खलबली मचा दी ………नेत्र खोल लिये महादेव नें ……..और नाचनें लगे …….पार्वती जी दौड़ी हुयी आईँ ……..भगवन् ! क्या हुआ ?

पार्वती जी से बोले – देवी ! नाद मेरे नन्दनन्दन का है ……….प्रेम से भरा अद्भुत नाद छेड़ दिया है वृन्दावन में…..सुनो ! महादेव पार्वती को कह रहे हैं ।

तात ! वेणु नाद, अब कैलाश से होते हुए ब्रह्म लोक में पहुँचा था …..ब्रह्म लोक में सृष्टी कर्ता कर्म का हिसाब किताब देख रहे थे …….नये सृष्टि को कैसे प्रारम्भ करना है आगे ………इस पर सोच रहे थे …….

पर वेणु नाद नें सारा हिसाब किताब गड़बड़ कर दिया ब्रह्मा जी का…

उनकी बुद्धि अब काम नही कर रही ………वो सब कुछ छोड़कर नाचना चाहते हैं…..वो अब सब कुछ त्याग कर कुछ गुनगुनाना चाहते हैं ।

कुछ समझ में नही आया तो वे चल पड़े देखनें के लिये वृन्दावन ।

पर ये क्या आकाश छा गया है विमानों से ………………..देव देवियां, यक्ष किन्नर नाग सिद्ध भगवान शंकर सृष्टि कर्ता ब्रह्मा सब खड़े हैं देख रहे हैं कि ये अद्भुत वेणु नाद कहाँ हो रहा है …………

और जब देखा ……….वो नन्हा सा पीताम्बर धारण किया हुआ …….सिर में मोर मुकुट , कानों में कनेर के पुष्प , फूलों की अद्भुत माला ……..नीचे धोती ऊँची बंधी हुयी है ……काँछनी और बांध ली है …..कोमल चरण हैं …….लाल लाल चरण ……..उफ़ ! सब न्योछाबर हो गए थे “श्यामसुन्दर मुरलीधर” पे ।

तात ! उद्धव विदुर जी को सुना रहे हैं …………

ये तो हुई ऊपर वालों की स्थिति वेणु नाद सुनकर ।

पर नन्द गाँव से पास ही है बरसाना ………….

बरसानें की सखियाँ यमुना जल भरनें आईँ हुयी थीं …………ललिता, बिशाखा, इन्दु , चित्रा , रंगदेवी सुदेवी सब आईँ थीं ।

जल भरते हुए इनके कानों में भी बाँसुरी की ध्वनि गयी ………..

मटकी बह गयी यमुना में …………अपनें गालों में हाथों को रख कर बस बाबरी की तरह बैठीं हैं .।………इनको कुछ पता नही है …….. ये देह भान भूल चुकी हैं ………..हाँ …..कुछ देर बाद ये उठीं ………..और दौड़ पडीं उस ओर जिधर से ये नाद आरहा था ।

सुन्दर सा छोरा है …साँवला सलोना छोरा ……अधर पतले हैं …..गुलाबी हैं ……..अभी अभी ही छोड़ा होगा मैया का स्तन पीना इन अधरों नें ……और सीधे अब वेणु को धर लिया था !

“हमारी श्रीराधा रानी भी देख लेतीं इन्हें” ……ललिता नें कहा ।

हाँ ……सखी ! कितना सुन्दर है ये छैला ! है ना ?

विशाखा सखी नें कहा ।

हूँ …………..सखियों नें बस हुंकारी दी ।

तभी – कन्हैया ! कन्हैया !

बृजरानी खोजती हुयी आगयीं थीं …………और उनके पीछे बलराम भद्र मनसुख सब सखा थे ……मैया को देखते ही बाँसुरी को फेंट में छुपा ली नन्द नन्दन नें …….और दौड़ पड़े अपनी मैया के पास ।

उफ़ ! ये वेणुनाद ! उद्धव जी बोले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 70

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 70)

!! नन्द ग्राम !!


ब्रह्ममुहूर्त में बृजराज जागे ………हाथ जोड़कर अपनें इष्ट भगवान श्रीमन्नारायण का स्मरण किया……..फिर जब उन्होंने अपनें नेत्र खोले, खोल नही सके ……चुंधियाँ गयीं थीं उनकी आँखें ।

मणिमाणिक्य का अद्भुत नगर खड़ा था वहाँ तो !

बृजराज दौड़े बाहर …….चारों ओर देखनें लगे …….बैल गाड़ियों को सजा कर बृजवासी जहाँ जहाँ सोये थे रात्रि में …….वहाँ अब उनके भवन बन गए थे ……भवन भी वैभवशाली !

पथ मणियों से खचित थे ……..चारों ओर अचम्भित होकर बृजराज अपनें इस अद्भुत नगर को देख रहे हैं ।

आगे और बढ़े बृजराज…….तो वहाँ देखा कोषागार बनकर तैयार है ……..दूसरी ओर वन वाटिका दिव्य है…….जिसमें अनेकानेक पुष्प खिले हैं ……उन पुष्पों की सुगन्ध बड़ी मादक है ।

चारों ओर देख रहे हैं घूम घूम कर नन्द जी ।

ये क्या हो गया था ? कल की रात ही तो आये थे यहाँ पर ……….भोजन किया और यात्रा में श्रमित होनें के कारण सब सो गए थे .और बैल गाड़ियों को सजाकर ही सोये थे ……….फिर एक रात में ही ये नगर खड़ा हो गया !

भक्त किसी को क्यों श्रेय दे ………उनका तो सब कुछ इष्ट ही है …….तो नन्दमहाराज नें भी भगवान मन्नारायण को ही प्रणाम किया ……..नेत्रों से झरझर अश्रु बह चले थे नन्द महाराज के …………….

किसी के हाथों नें बृजराज के आँसुओं को पोंछा …………

मुड़कर जब देखा तो पीछे महर्षि शाण्डिल्य थे ।

तुरन्त चरणों में प्रणाम किया नन्द महाराज नें …..ये सब क्या है ?

“नन्द ग्राम”………हाँ …..इसका नाम यही ठीक है ।

महर्षि नें नन्द महाराज को क्षेत्र का नामकरण करके भी बता दिया था ।

वृन्दावन की राजधानी होगी ये नंदग्राम ।

नम्रता की मूर्ति नन्द महाराज नें हाथ जोड़कर पूछा……..महर्षि ! पर एक रात्रि में इतनें सुन्दर और अद्भुत नगर का निर्माण किसनें किया होगा ?

“देवशिल्पी विश्वकर्मा नें”………महर्षि नें नन्दमहाराज को बताया ।

समस्त देव, समस्त तीर्थ, समस्त सिद्धात्माओं नें अब वृन्दावन में अपना डेरा डाल लिया था ………और क्यों न डालें ……….साक्षात् परब्रह्म श्रीकृष्ण चन्द्र जु नें इस स्थान का चयन जो किया अपनें आवास के लिये ।……..देव, यक्ष, किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व सब वृन्दावन में ही आगये थे ……..।

देवशिल्पी विश्वकर्मा को सूर्यदेव नें आज्ञा दी थी कि ………आपको तुरन्त जाकर वृन्दावन में एक नगर का निर्माण करना है ।

मुझे क्या मिलेगा ? शिल्पी अपना पारिश्रमिक तो लेंगे ही ।

हँसे थे भगवान भास्कर ……….हे विश्वकर्मा ! साकार परब्रह्म के महल का निर्माण करना है तुम्हे …….और उनके निज परिकरों का भवन निर्माण ……….ये सौभाग्य तुमको प्राप्त हो रहा है ……..धन्यता आजायेगी तुम्हारे जीवन में ………कृतकृत्य हो जाओगे श्रीकृष्ण चन्द्र जु के नगर को बनाकर ……….और क्या पारिश्रमिक चाहिये तुम्हे विश्वकर्मा ?

सिर झुकाकर प्रणाम किया था विश्वकर्मा नें , भगवान भास्कर को ।

ये तो मेरे ऊपर विशेष कृपा हुयी है ……….आपनें मुझे स्मरण किया मैं धन्य हो गया ……….

हे भगवान भास्कर ! अब मैं जा रहा हूँ ……….और ब्रह्म मुहूर्त तक में वो नगर बनकर तैयार हो जाएगा ……..बस श्रीकृष्ण चन्द्र जु की कृपा मेरे पर बनी रहे…….इतना कहकर भगवान भास्कर को प्रणाम करके विश्वकर्मा चले आये थे वृन्दावन ।

बृजवासी सो गए थे शीघ्र ही रात्रि में……..थके भी तो थे ………यहाँ तक की रक्षक, द्वारपाल तक सो गए थे……..किसी को कोई सुध नही थी …….वृन्दावन में निश्चिन्त हो गए ये लोग ।

अकेले कहाँ आये थे विश्वकर्मा, साथ में शताधिक शिल्पियों को भी ले आये थे……..सबके पास मणि माणिक्य थे …..और अपार थे ।

बस देखते ही देखते शिल्पियों नें अपनें काम करनें शुरू कर दिए …….

महल बनाये …….महल नन्दनन्दन के लिये था ………..इसलिये अपनी सारी कारीगरी निचोड़ दी विश्वकर्मा नें नन्द महल में ।

महल के आस पास सरोवर होनें ही चाहियें …………कुबेर नें अपनें यक्षों को आदेश दिया था कि सुन्दर सुन्दर सरोवरों का निर्माण कर दो ।

यक्ष सरोवरों के निर्माण में लग गए थे ।

नगर का निर्माण हुआ ……मार्ग बनाये गये ….चौराहों के मध्य में नाचते हुए मोर , शुक के जोड़े….कूदते कपि, …… ये सब बना दिए थे ……दूर से देखनें में ये सब वास्तविक जैसे लगते थे ।

भवन बृजवासियों का अतिसुन्दर बनाया गया था …………

यमुना के घाट मणिमाणिक्य से भर दिए थे ……अवनी में मणि खचित करके रख दिए थे……..गौओं के लिये गौशाला अद्भुत बना दी गयी थी ………..

क्या वर्णन करूँ मैं उस नन्दग्राम का तात !

विश्वकर्मा नें जिस श्रद्धा से , और पूरी निष्ठा से इस नगर का निर्माण किया था …….वह अद्वितीय रचना थी ।

उद्धव नें विदुर जी से कहा ।

नन्द महाराज ! महाराज बृजराज ! आपकी जय हो , जय हो !

महर्षि शाण्डिल्य नन्द महाराज से चर्चा कर ही रहे थे कि रात्रि में कैसे देव शिल्पी विश्वकर्मा नें इस नगर को बनाया …………

तब तक समस्त बृजवासी समाज उठ गया था ………उन्होंनें जब देखा ……दिव्य भवन , ऐसा भवन उनका बना हुआ है ……..जो बड़े बड़े राजा महाराजाओं को भी दुर्लभ है ………तो वो सब नाच उठे थे ……बाहर आये , बाहर की शोभा और अद्भुत थी …………बड़े बड़े राज पथ का निर्माण भी हो चुका था …….नन्द महल की तो बात ही क्या करें ।

ये सब देखकर दौड़ पड़े थे नन्दमहाराज की ओर समस्त बृजवासी ।

हे नन्द महाराज ! हे महाराज बृजराज ! आपकी जय हो …जय हो ।

देवशिल्पी तो एक सामान्य पुन्यजीवी देवता हैं………कृपा तो ये सब मेरे परम इष्ट नारायण भगवान की ही है …..बृजराज नें दृढ़ता से कहा ।

इस बात को सुनकर गदगद् हो गए थे महर्षि ………..सत्य है यही …….परम सत्य है ……..मूल में नारायण ही हैं ….महर्षि बोले ।

“पर नारायण तुम्हारे यहाँ बालक बनकर आये हैं”…..किन्तु ये बात मन ही मन बोले थे महर्षि ।

ग्वालों नें भी महर्षि की बातों को सुना……और भोले बृजवासियों नें भगवान श्री मन्नारायण को सहृदय धन्यवाद दिया ……और वन्दन किया नन्दीश्वर पर्वत के रूप में विराजमान भगवान शंकर जी को ।

इसका नाम आज से होगा ….नन्द ग्राम……महर्षि नें सबको बताया ।

ये वृन्दावन की राजधानी बनी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 64

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 64)

!! जब परब्रह्म को मुक्ति मिली – अद्भुत लीला !!


दुनिया को मुक्ति प्रदान करनें वाला परब्रह्म…..अखिल कोटि ब्रह्माण्ड नायक परब्रह्म , वो परब्रह्म जिससे चर चराचर सम्पूर्ण सृष्टि मुक्ति की कामना करती है , वो परब्रह्म ! अद्भुत लीला है ये तात !

वो परब्रह्म जिससे हर बद्ध जीव याचना करता है कि हमें मुक्त कर दो ।

पर आज वही परब्रह्म , स्वयं बन्धन में है …..और अन्य से याचना कर रहा है कि ….मुझे बन्धन से मुक्त करो ।

“ये प्रेम नदी की उल्टी धार है”……उद्धव मुस्कुराये ।

बस एक प्रेम में ही ये ताकत है कि …परब्रह्म को भी बाँध दे……और अद्भुत ! कि परब्रह्म बंध कर भी आनन्दित है ।

..यही तो लीला है !

….उद्धव विदुर जी को अब आगे का प्रसंग सुनानें लगे थे ।

क्या हुआ ? कौन सा राक्षस कूदा ?

यज्ञ में सब लगे हुए थे ………कार्तिक अमावस्या के बाद सब बृजवासी इंद्र देवता की पूजा में तन्मयता से लग जाते थे ……सब कृषक थे ……इसलिये इन्द्र देव को ही ये विशेष पूजते ……..आज भी पूजा की तैयारी में ही सब ग्वाल बाल , और स्वयं बृजराज लगे थे ।

तभी भीषण आवाज हुई …………..सब डर गए ………बृजराज भी डर गए ……..नही नही ……ये बृजवासी भीरु नही हैं …….पर इन्हें अपना डर नही …..डर है तो केवल नन्दनन्दन का …………इन्हें डर है कि पूतना कागासुर की तरह कोई राक्षस उनके कन्हैया का अहित न करे ।

क्या हुआ ? कौन सा राक्षस कूदा ?

उस भीषण आवाज को सुनते ही सब काँप गए ।

बृजराज जु ! आपके आँगन में कुछ अनहोनी हुयी है ।

एक ग्वाले नें कहा ।

क्या ? सब चौंकें…….बृजराज तो तुरन्त उठकर खड़े हो गए थे ।

दाऊ , मनसुख, मधुमंगल इत्यादि सब यहीं थे …………वे सब भागे नन्दालय की ओर ………..

बृजराज भी अपनें साथ के ग्वालों को लेकर अपनें भवन की ओर तेज चाल से चल दिए थे ।

बृजराज आये, पहले दाऊ इत्यादि सब पहुँच गए थे वहाँ ।

“ओह ! “अर्जुन के वृक्ष गिर गए” ………..सब लोगों नें कहा ।

देखा सब लोगों नें……..दो वृक्ष गिर गए थे……उनके मध्य में फंसे हुए थे कन्हैया……..पर कोई चोट नही आयी थी लाला को ……वो बस हँस रहे थे……नन्द बाबा दौड़े…….उठाया अपनें पुत्र को गोद में……और लेकर आगये थे इस तरफ ।

दाऊ देख रहे हैं……..उनके नेत्र क्रोध से लाल हो गए हैं…….कन्हैया के उदर में बंधी रस्सी तोड़ कर फेंक दी दाऊ नें ।

पर रस्सी के निशान उदर पर बन गए…….नेत्र बह चले दाऊ के ।

ये किसनें किया ? ये काम किसका है ? बृजराज को क्रोध आगया ।

तभी बृजरानी आगयीं………रसोई में ये पाक बनानें में तल्लीन थीं ………और लाला के लिये ही बना रही थीं…..इसलिये तल्लीनता इतनी थी कि वृक्ष के गिरनें की आवाज भी नही सुनीं ।

ये अब इसलिये आईँ थीं कि …लाला के हाथ दूख रहे होंगें ……खोल देती हूँ ।

पर यहाँ का दृश्य जब देखा ……तो…….चीख निकल गयी मुँह से मैया के…….वो दौड़ीं ………और कन्हैया को अपनें हृदय से लगा लिया ……….पेट में पड़े रस्सी के निशान देख रही हैं …….भीतर से ही हिलकियाँ फूट पड़ी थीं …….मैया यशोदा की ।

ये किसनें किया है ? बताओ ये किसका काम है ?

अरे ! तनिक भी दया नही आई उसे…….इतनें फूल से कोमल लाला को बाँध दिया रस्सी से……..बृजराज बहुत क्रोधित हैं ।

दाऊ नें भी मैया का नाम नही लिया ……..न कन्हैया नें नाम लिया …….मनसुख चुप ही रहा ……..भद्र मधुमंगल नें मौन ले लिया ।

मैया रोती हुयी भण्डार में गयीं ……….माखन लेंने के लिये …..पेट में बने रस्सी के निशान में ये माखन लगा देगी ।

उपनन्द जी नें वृक्षों को ध्यान से देखा ………..ये गिरनें जैसे थे तो नही ………गिरे कैसे ? और कोई ऐसी आँधी भी तो चली नही है ………फिर ये गिरे कैसे ?

ये अर्जुन वृक्ष हैं ….इनकी जड़ें बहुत गहरी जाती हैं धरती पर …..ये तनिक से झटके में गिरनें वाले नही थे …….और देखो ! इनकी जड़ें स्वस्थ हैं …….न कोई कीड़े लगे हैं ……फिर ये गिरे कैसे ?

उपनन्द जी सबके सामनें अपनी बात रख रहे हैं ।

मुझे पता है ……चार वर्ष के “तोक” नें आगे बढ़कर कहना शुरू किया ।

“इस कन्हैया नें गिराया”……..तोतली बोली में बोला ।

हाँ …..सच ! ये देखो …….ऊँखल को घसीटते हुए कन्हैया नें वृक्षों के बीचों बीच फँसा दिया ……..फिर झटका दिया ………।

बड़े बड़े लोगों नें तोक की बात सुनी तो……..पर विचार नही किया …….अब भला ! पाँच वर्ष का कन्हैया पेड़ को उखाड़ देगा ? बृजराज कैसे मानें ।

पर मेरे प्रश्न का किसी नें उत्तर नही दिया ……..कन्हैया को ऊँखल से बाँधा किसनें ? बृजराज फिर सबसे पूछनें लगे ।

“मैने बाँधा था”……………..बृजरानी रो पडीं ये कहते हुए ……ये हाथ ही अपराधी हैं ……..जिन्होनें इस कोमल लाला को बाँधा ।

दया नही आयी तुमको बृजरानी ? बृजराज रोष में थे ।

अपराधी हूँ मैं ………..सिर झुकाकर रोते हुए बोल रही थीं ।

कुछ हो जाता तो लाला को ? ये वृक्ष लाला के ऊपर ही गिर जाते तो ?

इन सारी बातों को सुनते हुए बस हिलकियों से रो रही हैं मैया ।

चल लाला ! उत्सव में चल ……..वहीँ खेलना कूदना ……चल !

कन्हैया को गोद में लिया नन्द बाबा नें और चलनें लगे ……..

दाऊ पीछे पीछे ……..सखा सब पीछे चल दिए ।

मैया अकेली खड़ी है आँगन में …..और अपनें लाला को जाते हुए देखकर रो रही है ……………

चार कदम ही आगे बढ़े थे नन्दबाबा की ……..कन्हैया नें मुड़कर अपनी मैया को देखा……….मैया रो रही है ………..

ये देख कर विकल हो उठे कन्हैया……..बृजराज से बोले …..”.बाबा ! मैया के पास जाऊँगा” ।

नही ….मैया गन्दी है…….मारती है मेरे लाला को…..नन्दबाबा नें कहा ।

बाबा की सफेद दाढ़ी पकड़ते हुए कन्हैया बोले…..”अच्छी है मैया” ।

सुनो ! बृजराज ! बालकों को अभी यज्ञ में मत ले चलो ……बालकों नें कुछ खाया भी नही है सुबह से ……इसलिये इनको यहीं रहनें दो ……ये शाम को आजायेंगे ।

उपनन्द जी की बातें सुनकर नन्द राय नें कन्हैया को गोद से उतार दिया ………और सब बालकों से कहा …..कुछ खा के आजाना ।

बृजराज अपनें ग्वालों के साथ यज्ञ मण्डप में चले गए थे ।

दाऊ ! ले माखन खा ……….माखन पहले दाऊ को खिलानें लगीं मैया यशोदा……..क्यों की दाऊ से विशेष प्रेम है कन्हैया का …….वो खाता है तभी ये खाता है ।

पर दाऊ भी रुष्ट हैं आज मैया यशोदा से ……….मुँह फेर लिया मैया की ओर से……….दुःखी हो गयीं मैया ………मनसुख नें भी मना कर दिया ………ऐसे भी कोई बान्धता है ……..कोई पशु है लाला ! मनसुख भी बोल उठा ………मधुमंगल नें तो दूर से ही ……..

बृजरानी बहुत दुःखी हो गयीं…….क्या करें ………गयीं अपनें लाला के पास ………..और मनुहार करते हुए लाला को माखन खिलानें लगीं ……पर नही ….लाला नें मैया के हाथ से माखन का गोला लिया……..

बृजरानी तो अब टूट गयीं थीं……उन्हें लगा अब लाला भी मेरे हाथ से माखन नही खायेगा ! ओह !

पर ऐसा नही था ………….लाला नें माखन लिया मैया के हाथों से …..और खिलानें लगे दाऊ को ……….मैया की नही दाऊ ! गलती मेरी थी……..मैया को दोष कोई मत दो ………..

दाऊ नें मैया की ओर देखा ………रो पडीं मैया फिर ।

लाला इस तरह सबको मना रहे थे …….अपनी मैया के लिये …….

मैया रो रही हैं, हिलकियों से रो रही हैं ……….कन्हैया नें मुस्कुराकर कहा ……मैया ! रो मत ………क्यों रो रही है ? गलती मेरी थी माँ !

ये कहते हुए कान पकड़े कन्हैया नें ……और जैसे ही उठक बैठक लगानें लगे ……….मैया दौड़ पड़ी ……….और अपनें लाला को हृदय से लगा लिया ।

तात ! ये अद्भुत वात्सल्य की लीला है ….परब्रह्म , जो जगत को मुक्ति देता है ……..उसे अब मुक्ति मिली थी ……..दामोदर – मुक्ति ।

अपनें आँसू पोंछते हुए उद्धव नें कहा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 56

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 56 )

!! आज – “मैया यशोदा के दर्शन कीजिये” !!


“विदुर उद्धव संवाद” के माध्यम से श्रीकृष्ण लीला का प्राकट्य यमुना पुलिन श्रीधाम वृन्दावन में हो रहा है …….दोनों ही परमभागवत हैं ….लीला रसिक हैं ……और जिनकी लीला ये सुन, सुना रहे हैं वो इनके सर्वस्व हैं ……यमुना का पुलिन भी आज आनन्दित है ………

जब उद्धव श्रीकृष्ण लीला का वर्णन करके सुनाते हैं…….तब अनगिनत पक्षी आकर उद्धव को घेर लेते हैं ……..कपि तो इधर उधर से फल तोड़कर ले आते, और इन दोनों महापुरुषों के सामनें रख देते हैं ।

मोर नृत्य करते हैं…….गर्मी ज्यादा हो जाए तो बादल ही छत्र बन जाते हैं, और बरस भी जाते हैं ।

आज प्रातः से ही उद्धव ध्यान मग्न हैं……. कन्हैया की लीला आज चल पड़ी है इनके हृदय में…….विदुर जी नें इस ध्यान से उद्धव को उठाया …….और बड़े प्रेम से बोले – उद्धव ! हमें भी उस लीलासिन्धु में अवगाहन करना है ……अकेले मत जाओ……..हम भी प्रतीक्षा में हैं ।

उद्धव नें नेत्र खोले…..प्रातः की वेला है…..सूर्योदय होनें वाला है ……विदुर जी को प्रणाम किया ……….कुछ समय लगा इन्हें बहिर्मुख होनें में ………जब सहज हुये तब इन्होनें कहना प्रारम्भ किया था ।

तात ! दर्शन करो मैया यशोदा के ……….क्यों की दर्शन करनें योग्य यही हैं …….ये सबसे बड़ी हैं ……इनसे बड़ा कौन होगा ?

उद्धव परमशान्त हैं आज ।

मैं पूर्व में भी कह चुका हूँ कि …..ब्रह्म की जो माँ हैं ………..उनसे बड़ा कौन होगा ।

सच कह रहे हो उद्धव ! अहो ! ऐसा अलभ्य लाभ बृजरानी को प्राप्त हो रहा है ! ब्रह्माण्ड का दर्शन मुख में…… ब्रह्म की एक झलक के लिए अनन्त काल से ऋषि मुनि तप कर रहे हैं …….उस ब्रह्म को गोद में बिठाकर खिला रही हैं ये ब्रजेश्वरी ………उसे पुचकार रही हैं …..उसे चूम रही हैं ………उसकी मनुहार कर रही हैं ………इतना ही नही ताड़ना भी दे रही हैं ……..आहा ! विदुर जी आनन्दित हो उठते हैं ।

उद्धव मुस्कुराये – बस, इतनें में ही आश्चर्यचकित हो गए तात ?

गौ को बाँधनें वाली रस्सी से बाँधा है यशोदा नें , अपनें लाला को ।

ये सुनकर विदुर जी के नेत्रों से आनन्दाश्रु बहनें लगे ……

.क्या ब्रह्म बंध गया ?

हँसे उद्धव …..”ये प्रेम की रज्जु से बन्धनें ही तो आया है इस गोकुल में ।”

ओह ! ……मुझे ले चलो गोकुल उद्धव ! मैं उसी नन्दालय में जाना चाहता हूँ …….और ब्रजेश्वरी के सामनें ठुमक ठुमक चलते हुए उस “शिशु ब्रह्म” को देखना चाहता हूँ ………जो प्रेम रस का प्यासा है ……हाँ उद्धव ! वो प्रेम को पीनें ही आया है ………इसलिये अवतार लिया है इसनें ……..नही तो, और कोई कारण मुझे तो समझ में नही आता ।

विदुर जी की बातें सुनकर उद्धव बहुत प्रसन्न हुए ………..

चलिये – तात ! उन नन्दनन्दन की मैया यशोदा के दर्शन कीजिये –

गोकुल है ये ……….बृज क्षेत्र का गोकुल गाँव ।

यहाँ सब ब्रह्म हैं …….कन्हैया ही ब्रह्म है ऐसा नही ……..ये बृज भी ब्रह्म है ……क्यों की बृज शब्द का अर्थ ही होता है …..जो व्यापक है …….जो बृज का अर्थ है वही ब्रह्म का भी अर्थ है ……जो व्यापक है वो ब्रह्म, जो व्यापक है वो बृज ……….तो ये स्थान भी ब्रह्म है …….स्वयं खेल रहे ….लीला कर रहे कन्हैया परब्रह्म हैं …….ये कार्तिक का महीना चल रहा है …….ये जो लीला मैं आपको सुनानें जा रहा हूँ ये कार्तिक मास की लीला है …इस कार्तिक मास को “दामोदर मास” भी कहते हैं …….उद्धव बोलते हुए कुछ देर के लिए रुके ……..फिर बोले …..लीला स्वयं ब्रह्म है ………..इसलिये जैसे ब्रह्म का अवतार विशेष समय में होता है …….ऐसे ही लीला का अवतरण भी विशेष काल में ही होता है तात ! ।

स्थान ब्रह्म, काल ब्रह्म, लीला ब्रह्म, लीलायित होनें वाले कन्हैया परब्रह्म ………यहाँ सब वही हैं……सब वही ……।

उद्धव के हृदय में अब आनन्द प्रवाहित होंने लगा था ।

यशोदा मैया में ऐसी क्या विशेषता है ?

तो पहले दर्शन कीजिये…….आज केवल मैया के ही दर्शन करनें हैं …….इधर उधर मत देखना तात ! कन्हैया को आज मत खोजना…..केवल ध्यान करना मैया यशोदा का ।

आज कुछ जल्दी ही उठ गयीं हैं………कई दिनों से परेशान थीं ……चिन्तन करते करते ……..चिन्ता करनें लगीं थीं ………

इनका एक नाम है “नन्दगेहनी”….”आनन्दगेहनी”……. जो आनन्दित है …..सदैव आनन्द में ही रहता है ……आनन्द, जिसके घर की बात है ….वो आज चिन्ता कर उठीं……..कि – मेरा बालक मेरे घर माखन क्यों नही खाता ! गोपियों के यहाँ जाकर क्यों खाता है ?

जहाँ प्रेम होता है ……वहाँ चिन्ता होती ही है…….और जहाँ चिन्ता होती है ……मन भी वहीँ होता है……..उद्धव बोले ।

ओह ! अब समझीं मैं …….मेरे घर का माखन तो दास दासियाँ निकालती हैं……….पर गोपियाँ तो अपनें घर में बड़े प्रेम से स्वयं ही माखन निकालती हैं…….तो मेरे लाल को …….

बृजरानी समझ गयीं …….सब समझ गयीं ………..कि लाला के लिये अब स्वयं ही माखन निकालना होगा ।

इसलिये आज कुछ जल्दी ही उठ गयीं हैं ये ।

स्नान किया है …….श्रृंगार किया है …….इत्र फुलेल लगाया है ……वेणी बनाई है ……उसमें गजरा लगाया है …………

इतना श्रृंगार क्यों ? विदुर जी नें पूछा ।

ये श्रृंगार अपनें लिये नही ……….अपनें लाला के लिये ……..शरीर से सुगन्ध आये …….क्यों की लाला बैठेगा गोद में ………इत्र फुलेल इसीलिये लगाया है ।

बेणी बनाई ……….उसमें गजरा लगाया है ……..

इसलिये कि कन्हैया जब कुछ रोष प्रकट करता है तो सबसे पहले मैया की चोटी ही खींचता है……..चोटी में फूल लगे हों तो इसे और अच्छा लगता है……….

अपनें आपको आईने में देखती हैं………कुछ मोटी हो गयी हैं आज कल ……हो नही गयी हैं ……ये मोटी बनी हैं……..उद्धव बोले ।

क्यों ? विदुर जी नें पूछा ।

इसलिये कि……..लाला जब दौड़ता आएगा …….गले लगनें के लिये …..तब मेरी हड्डियाँ लाला को चुभें नहीं……..

नितम्ब बढ़ा किया है यशोदा मैया नें……..तात ! इसलिये कि …..मैया के पीछे गले में दोनों हाथ डालकर कन्हैया झूलता है…….उस समय लाल अपनें चरण कहाँ रखे ……तो नितम्ब बड़ा कर लिया ।

सज धज कर अब तैयार हो गयीं …………

बाहर आयीं …….तो देखा दास दासी सब लगे हैं ……….

सबसे पहले तो इन सब को हटाया ……और अन्य कामों में लगा दिया ……फिर माखन की मटकी में दही भरकर बैठ गयीं ……….

आराम से बैठीं हैं …….और रईं चलानें लगीं ।

अपनें हाथों से पद्मगन्धा नामक गाय का दूध ये बृजरानी स्वयं दुहति हैं ………उसी को रात में जमा देतीं…….उसी जमें हुए दही का ये अभी मन्थन कर रही हैं ।

रईं तेज चलानें के कारण अब बेणी में लगे फूल गिरनें लगे थे …….और गिर रहे थे नन्दरानी के चरणों में ……..

पता है तात ! पुष्प भी सोचनें लगे …….अहो ! ब्रह्म की माँ हैं ये …….हम इनके सिर में रहनें लायक कहाँ ?

रईं को तेज चलानें के कारण उनके हाथों में जो चूड़ियाँ थीं …..वो बजनें लगी थीं ………उससे मधुर मधुर ध्वनि वातावरण में फैलनें लगी ।

कृष्ण कृष्ण कृष्ण ! कृष्ण कृष्ण कृष्ण !

ऐसा मधुर मधुर स्वर में गान कर रही हैं यशोदा मैया………।

तात ! “कृष्ण” कहते ही मैया के हृदय से वात्सल्य फूट पड़ा था ……वक्ष से दूध की धार बह चली थी ………..पर मैया को सुध नही है कुछ भी …..वो बस लगातार रईं को चलाये जा रही हैं ।

बृजरानी की दोनों भुजाएँ कमलनाल के समान सुन्दर लग रही थीं …….

वो कभी मुस्कुरातीं तो कभी गम्भीर हो जाती थीं ………

मुस्कुराती तो तब थीं ……जब कन्हैया के बाल चापल्य लीलाओं का स्मरण करतीं ……..उस समय खो जातीं ……..दधि मन्थन करना भी भूल जातीं…….फिर जब देह भान होता ………तब गम्भीर हो, फिर रईं चलानें लगतीं ………..कहीं मेरा लाला जग न जाए ………और जगेगा तो माखन मागेगा …….जगते ही माखन चाहिये उसे …..इसलिये अब ये शीघ्र कर रही हैं…………परिश्रम ज्यादा हो गया …….स्थूल शरीर भी हैं इनका………इसलिये पसीनें बह रहे हैं ।

तभी –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 51

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 51 )

!! “सुखिया मालिन”- एक दिव्य कथा !!


मेरा नाम सुखिया है , सुखिया मालिन…..

मैं रहती हूँ मथुरा में…..मेरे पतिदेव तो स्वर्ग सिधार गए …..पर एक पुत्र दे गए मुझे…..”सुदामा” । हाँ ……मैं स्नेह के दाम में बंध गयी इसलिये मैने ही अपनें सुत का नाम रख दिया था “सुदामा”।

“रहती हो तुम मथुरा में……और फल बेचनें आयी हो गोकुल , क्यों ? प्रभावती गोपी आज पूछ रही थी इस वृद्धा सुखिया से । अपनी फलों की टोकरी को सम्भाल कर एक तरफ रख दिया…..प्रभावती गोपी से बोली……थक गयी हूँ जल पिलाओगी ? हाँ हाँ…….ये कहते हुये गोपी भीतर गयी और घड़े का शीतल जल ले आई……वृद्धा मालिन नें जल पीया……पसीना पोंछा…….जल का झींटा आँखों में दिया ।

अब क्या बताऊँ ! मैं तो मथुरा की ही हूँ……..मेरा मायका भी मथुरा और ससुराल भी मथुरा……..वो दिन कितने अच्छे थे …….जब मथुरा के राजा उग्रसेन थे …..आहा ! महाराज उग्रसेन । सुन प्रभावती ! उन दिनों भी मैं फल बेचती थी ………..यदुवंशी लोग बड़े भले थे ………फल खाते ………फिर फलों का दाम भी मैं जितना बताती उससे ज्यादा ही देते ……..और हाँ पता है तुझे ! ……महाराज उग्रसेन भी मेरे फलों को चखते थे ……मेरे ही फल प्रिय थे उन्हें । सुखिया अपनें बारे में बताये जा रही थी …………. पर अब ?

अब तो क्रूर कंस आगया है………..हे भगवान ! जब से ये आया है …मथुरा में शान्ति नही है ……….विश्व के जितनें राक्षस हैं सब को एकत्रित कर लिया है उसनें ……..हाँ , और आये दिन प्रजाओं को दुःख देना ………कष्ट देना, बस यही काम रह गया है । सुखिया नें जब कंस की बात छेड़ी तो झुर्रियों से भरे उस चेहरे में दुःख के भाव स्पष्ट दिखाई देंने लगे थे ……………

मेरा बेटा सुदामा तो कंस के यहाँ ही जाकर माला दे आता है ……. करे क्या ……उसे अपनें बाल बच्चे भी तो पालनें हैं ……..पर मुझ से गलत देखा नही जाता…….इसलिये मैं बोल देती हूँ । अब कुछ महीनों से तो अत्याचार चरम पर है कंस का ………… मेरे ही साथ ……….उसके राक्षसों नें मेरे फल खा लिए …..जब मैने उनसे मोल माँगा ……….तो मेरी टोकरी ही फेंक दी ………..कुछ भी हो मेरा भी स्वाभिमान है ……..मालिन हूँ तो क्या हुआ …..गरीब हूँ तो क्या हुआ ………तुम किसी का भी अपमान करोगे । छि ! मैने तभी विचार कर लिया …..मैं नही बेचूंगी अब फल मथुरा में । फिर कहाँ जाओगी माँ ?

मेरे पुत्र नें पूछा । सुना है गोकुल महावन में बड़ा अच्छा है …….वहाँ के मुखिया भी अच्छे हैं ………वहाँ के लोग भी समृद्ध हैं …….इसलिये यहाँ आगयी थी । तो क्या फल बिके ? किसी नें खरीदा ? प्रभावती नें पूछा । जितना सोचा था उतना तो नही …….देखो ना ! आधे से ज्यादा फल तो अभी बाकी ही हैं …….शाम होनें आरही है ………अब तो मुझे जाना ही पड़ेगा मथुरा ………पर सच बताऊँ ! गोकुल बड़ा अच्छा है ………यहाँ के लोग भी बूढ़े बड़ों का आदर करते हैं ………….आपस में प्रेम भाव बहुत है । ………..सुखिया मालिन इतना कहते हुए उठी ……डलिया को सिर में रखा और वापस चल दी मथुरा की ओर । प्रभावती भी अपनें घर के भीतर आगयी थी …………पर पता नही उसे क्या सूझा …….वो फिर बाहर आयी……… ओ मालिन ! मालिन ! आवाज लगाई……….. हाँ ……सुखिया बुढ़िया नें मुड़कर देखा …………क्या बात है ? जाते जाते नन्दालय तो होती जाओ ……….प्रभावती बोल दी । अब कहीं ना जाय रही वीर ! रहनें दे……थक गयी हूँ …….जितना सोचा था उतना बिका भी नही ……कोई बात नही…….मालिन चल दी । अरी ! मेरी बात मान ले , एक बार हो तो आ, । प्रभावती की बात उसे लगी……मान ही लूँ । इतना समय हो ही गया ………..चलो नन्दालय भी देखती चलूँ । ठीक है , जा रही हूँ नन्दालय …..सुखिया बोलती हुयी, मुड गई ….नन्दमहल की ओर ।

कोई फल लो ! कोई फल लो री ! कोई फल लो ! ये बुढ़िया सुखिया आवाज लगाते हुए चल रही है । इधर नन्दमहल के आँगन में…..नन्दलाल बैठे हैं अपनी मैया की गोद में । सुन्दर से गोपाल , घुँघराले उनके बाल, मुस्कुराता हुआ उनका मुखमण्डल ……..पीताम्बरी धारण किये हुए……. मैया ! मैया ! कोई आया है ! मैया की ठोढ़ी पकड़ कर हिलाते हुए पूछ रहे हैं । हाँ ……कोई फल बेचनें वाली आयी है । मैया ! मैया ! मैं फल लूँगा……….. जा ले ले ………मैया नें कह दिया । गोद से उतरे नन्दनन्दन …….और भागे हुए गए सुखिया के पास । “मुझे फल दे दो” हाथ पसारे माँगनें लगे कन्हैया ……… सुखिया मालिन देखती रह गयी…….ओह ! क्या सौन्दर्य है ……क्या दिव्य रूप है…….क्या छटा है रूप की , चितवन बाँकी है इसकी …..मुस्कान मादक है । सुखिया मालिन नें जीवन में कितनें बसन्त देखे थे …….मथुरा के राज महल में भी इसनें कितनें बालकों को देखा था……..पर ऐसा सौन्दर्य ! दिव्य अद्भुत ….आज तक नही देखा । फल चाहियें ? मुस्कुराकर पूछा सुखिया नें । हाँ ………बड़े भोलेपन से सिर “हाँ” में हिलाया कन्हैया नें । पर मोल तो दो ………बिना मोल के लोगे फल ? सहजता में बोली थी सुखिया………… मोल ? सोचनें लगे कन्हैया………..फिर भागे अपनें मैया की तरफ ………..मैया ! मैया ! मोल चाहिए फल के लिये ! बृजरानी नें अपनें लाला को चूमते हुए कहा – अनाज ले आओ ….और फल उसके बदले मिल जाएंगे तुम्हे । कन्हैया “भण्डार” की ओर गए …………. तात विदुर जी ! छोटे से हाथ कन्हैया के ……..उसमें वैसे ही कुछ दानें ही आये थे अनाज के ………….वो भी दौड़ते हुए सब गिर गए ……..जब तक सुखिया मालिन के पास आये ……..मात्र चार दानें थे हाथों में । लो …..मोल ……….अब तो दो । मुग्ध हो गयी सुखिया…………इसका तो जीवन धन्य हो गया …….कन्हैया को ये फल दे रही है …………… पर – गोद में बिठा लिया था उस वृद्धा मालिन नें ……….इधर उधर देखकर मुख चूम लिया …………. नयनों से अश्रु गिरनें लगे ………….एक बार मुझे “मैया” कहो ना ! क्या ? कन्हैया नें मुस्कुराते हुए मुख की ओर देखा सुखिया के । हाँ …..एक बार ……..मैया कहो ….लालन !…..सारे फल दे दूंगी । मैया ! कन्हैया नें हँसते हुए कहा । आनन्द के हिलोरें चल पड़े ……..अपनें हृदय से लगाकर बारबार चूमनें लगी कन्हैया को । सारे फल दे दिए …….काँछनी में बांध दिए थे फल । ये ………कन्हैया नें अपनें हाथ दिखाये । ये क्या है ? सुखिया नें पूछा । मोल ! तेरे फलों का मोल । हँसी सुखिया………..मोल तो मुझे मिल गया । नही …..ये तुम्हारे लिये है ………कन्हैया फिर बोले । अच्छा ! दे दो …….चार दानें अनाज के ……टोकरी में डाल दिए कन्हैया नें ।………….सुखिया नें एक बार फिर निहारा लाला को ………. फिर टोकरी उठाकर चल दी । गोकुल गाँव पार किया ……….आनन्द में डूबी , हर्षोन्मत्त है ये ……… जीवन में पता नही कितना फल बेचा था इसनें ……पर आज ? आज की बात ही अलग थी ………. पर टोकरी क्यों भारी हो गयी ? मथुरा में पहुँची तो उसकी टोकरी और भारी होती जा रही थी ……उसके समझ में कुछ नही आरहा था ……वो बारबार सोचती ……….फल तो मैने सारे दे दिए थे ……टोकरी तो रीती थी ……………फिर रीते टोकरी में इतना भार कैसे ? घर के द्वार पर आकर उसनें टोकरी उतारी ……………. ओह ! चकित हो गयी सुखिया मालिन ……….उसकी टोकरी तो रत्नों से, मणियों से, हीरे और मोतियों से भर गए थे । ये सब देखकर सुखिया के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ………….मैने कब माँगा था तुमसे ये सब ………बताओ कन्हैया ! कब माँगा था ! मोल ………….ये मोल दिया है फलों का …………मानों कन्हैया बोल रहे हों …………… हँसी अब सुखिया ………..खूब हँसी ………….तेरे जैसा दयालु और कौन है …..चार फल के लिए इतना मोल ? हँसते हुए वो फिर रोनें लगी………..वो “कन्हैया कन्हैया” कहती रही । तात विदुर जी ! – कहते हैं ……….फिर वो पलटकर गोकुल नही गयी ………क्यों की गोकुल में ये बात फैल गयी थी कि अन्नपूर्णा भगवती ही आईँ और कन्हैया को फल देकर चली गयीं ……….. सुखिया हँसती है ……..मैं भगवती ? हाँ ….कन्हैया चाहे तो किसी को भी कुछ भी बना सकता है …………… अपनी माँ सुखिया की बात मानकर ही सुदामा ……मथुरा में नित्य माला बनाता है ………..बनाता तो पहले भी था ……पर अब कन्हैया के लिये एक माला नित्य बनाकर रखता ही है ।