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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 50

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 50 )

!! “तेरे लाला नें माटी खाई”- हितप्रेम !!


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प्रेम की नदी चारों ओर बह रही है बृज मण्डल में ………

सबका प्रेम है कन्हैया के प्रति ……..ये जो शिकायत की भावना है …ये भी प्रेम का ही स्वरूप है …….तात ! प्रेम की गति टेढ़ी मेढ़ी होती है ।

“चोर कहना” , चोर कहकर मैया यशोदा से शिकायत करना उसके लाल की …….ये भी प्रेम है ………इसे कहते हैं – दर्शन प्रेम ।

“प्रिय” देखनें को मिलेगा इसलिये शिकायत लेकर आयी हैं …….और कोई उद्देश्य नही है …………..अब दूसरी शिकायत की है यहाँ ग्वाल – सखाओं नें कि …….”.मिट्टी खाई तेरे लाला नें” ।

ये भी प्रेम का एक रूप है ……..इस प्रेम को “हित प्रेम” कहते हैं ……वैसे तो प्रेम का स्वरूप ही “हित” है ……प्रिय के “हित”की भावना ही प्रेम कहलाता है…….पर ग्वाल सखाओं का ये शिकायत लेकर पहुँचना कि ….”तेरे लाला नें माटी खाई”……..इसमें पूर्ण हित ही है …..।

सख्य रस ……अपनें आपमें अद्भुत रस है…….इसमें कहीं छोटे बड़े की भावना नही है……..कहते हैं ना …..सख्य भाव तभी प्रकट होता है …..जब – बड़े छोटे का भेद मिट जाए ।

प्रारम्भ में ही मैने कह दिया है तात ! कि “प्रेम की नदी चारों ओर बह रही है बृज मण्डल में”…….इसलिये – मात्र गोपियों का ही प्रेम नही है ……सखाओ का भी अपना प्रेम है ……मर्कट भी अपना प्रेम प्रकट करते हैं ……वृक्ष भी प्रेम करते हैं अपनें कन्हैया से …..मोर …….इनका तो ऐसा अद्भुत प्रेम है ………कि श्याम सुन्दर मोर मुकुट धारी ही बन गए ।

यमुना का अपना प्रेम है ……….आकाश का अपना प्रेम है …..बादलों का भी अपना प्रेम है …….इस तरह सब अपनें अपनें ढंग से प्रेम प्रकट करते हैं इस नन्दनन्दन के प्रति ……अद्भुत है ये सब ।

और मैया यशोदा ?

आहा ! इनका तो लाला को छड़ी लेकर पीटना भी “हितप्रेम” के अंतर्गत ही आता है ।

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मैया ! मैया ! मैया !

ग्वाल सखा उस दिन दौड़े दौड़े आरहे थे मैया यशोदा के पास ।

दाऊ, मनसुख, मधुमंगल, भद्र , तोक आदि सब दौड़ पड़े थे ।

अरे ! क्या हुआ ? सुबह से ही हल्ला मचाना शुरू तुम लोगों का ……

क्या हुआ ? बृजरानी रसोई से आईँ और पूछा ।

“मिट्टी खाई लाला नें”……साँस लेते हुए बोला मनसुख ।

नही मैया ! मिट्टी ही नही खाई ……..मिट्टी की ढ़ेर में बैठ गया था ….”इत्ती मिट्टी”……….मधुमंगल हाथ को फैलाकर बता रहा है – मैने मना किया उसे ……..पर जिद्दी हो गया है बहुत …….मानता ही नही ।

भद्र आगे आया…….वो कैसे पीछे रहता……मैया ! तू ही तो कहती है ना ….पेट में कीड़े पड़ते हैं मिट्टी खानें से ……..मैने उससे ये भी कहा ……पर नही माना ।

तभी पीछे से आगये थे कन्हैया…….सबकी ओर देखा ……….सबके मुख में देखा ……समझ गए कि मेरी शिकायत कर दी गयी है ।

“इत्ती बड़ी माटी की डली थी…पूरा खा गया” ….मनसुख कन्हैया की ओर देखते हुए फिर बोला मैया से ।

कन्हैया नें सिर झुका लिया ……………पर मनसुख की बात जब खतम हुयी तब एक बार मैया के मुख में देखा था ………मैया का मुख आज लाल हो गया है क्रोध से ……….पता नही क्यों मैया नें आज की बात को गम्भीरता से ले लिया था …………और क्यों न ले ……मिट्टी खानें से उसके लाला का स्वास्थ भी तो बिगड़ सकता है ………और इतनें उपद्रव की छूट मैया दे भी कैसे सकती है जी ।

छड़ी उठा ली आज मैया नें ……..कन्हैया नें सोचा भी नही था कि मेरी मैया मुझे पीटनें के लिये छड़ी उठा लेगी ।

हाँ …..उठा ली थी छड़ी ………ग्वाल सखा थोडा डर गए थे ………कन्हैया ? कन्हैया तो डर में मारे कांपनें लगे थे ……..

ओ ! मर्कट बन्धु ! कन्हैया को छड़ी दिखाती हुयी बोलीं ।

सजल नयन हो गए कन्हैया के ……….पर आज, आज मैया इन सब के बहानों में आनें वाली नही है ।

तेनें मिट्टी खाई ? गम्भीर होकर पूछ रही हैं …….छड़ी दिखाते हुए पूछ रही हैं …….बोल ! मिट्टी खाई ?

कन्हैया रोनें लगे……नही नही…….जोर जोर से रोनें लगे ….ताकि मैया उसे छोड़ दे …….पर आज मैया छोड़नें के मूड में लगती नही है ।

बोल……रो मत ………अब ये तेरा रोना धोना मेरे आगे नही चलेगा …

बोल …..मिट्टी खाई है तेनें ?

सिर हिलाकर मना किया ………..पर रोते हुए ।

मुँह से बोल …………..मिट्टी खाई ? मैया नें फिर पूछा ।

नहीं ……..कन्हैया बोले …….”नही” ।

फिर ये तेरे सखा क्यों कह रहे हैं कि – तेनें मिट्टी खाई ?

झुठ बोल रहे हैं……….ये भी चिल्लाकर बोले थे ………

सब मुझ से चिढ़ते हैं………हाँ ये सब मुझ से चिढ़ते हैं ………इसलिये झुठ बोल रहे हैं …….कन्हैया नें भी बोल दिया ।

हाय ! झूठा कन्हैया ! मनसुख बोला …..मैया ! ये झुठ बोल रहा है ……मैं ब्राह्मण हूँ झुठ नही बोलुँगो……इसनें मिट्टी खाई है ।

अब बोल ? मैया नें फिर छड़ी दिखाई ।

इसको मैने माखन नही दिया था कल ………इसलिये ये झूठ बोल रहा है …..कन्हैया हिलकियों से रो रहे थे ।

क्या होगया है आज यशोदा मैया को ……..इतना क्रोध अपनें लाला के प्रति ……………

दाऊ ! तू बोल ! इसनें मिट्टी खाई ?

क्रोध में भरकर दाऊ से पूछा मैया नें …….तो दाऊ भी डर गए ………उन्हें लगा क्या बोलूँ ? सच बोलूँ तो अपना लाला पिटेगा ……और झुठ बोलूँ तो मैं पिटूँगा ………..

दाऊ सोच में पड़ गए थे ।

तभी कन्हैया नें ही आगे बढ़कर कहा ………….

अपनें पुत्र पर विश्वास नही है ……तो मेरे मुख में ही देख ले मैया !

अगर मिट्टी खाई होगी तो मुँह में लगी तो होगी ना !

अच्छा मुख खोल !

मैया भी आज कठोर बन गयी हैं ………….खोल मुख …….देखूंगी मैं तेरे मुख में ………..मिट्टी खाई है तो लगी तो होगी ।

अब कहाँ लगी होगी ? मनसुख बोला ।

मैया नें लाल लाल आँखों से कन्हैया को देखा ……….फिर बोलीं ….सुना नहीं …….मुख खोल ।

रोते हुए कन्हैया नें मुख खोला – अरे ! ये क्या …………मैया यशोदा तो मुख देखते ही कांपनें लगी थीं………..कन्हैया अभी तक रो रहे थे ……वो चुप हो गए ……..मैया मुख में देख रही है ………माथे पे पसीना आनें लगे मैया के ………..अरे ये क्या ! हाथ जोड़ लिये मैया नें …….

हँस गया कन्हैया ……………कन्हैया हँसता है तो उसकी योग माया को अवसर मिल जाता है ………मिल गया अवसर माया को ।

मैया थोड़ी देर तक देखती रही कन्हैया के मुख में ……..सह्य न हुआ ये सब तो .मूर्छित होकर गिर पड़ी थी मैया यशोदा ।

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श्याम के छोटे से मुख में सब कुछ दिखाई दे गया था बृजरानी को ।

सारी सृष्टि देख ली थी मैया नें …………सब कुछ ……जीव , काल, प्रारब्ध, और उसके संचालक, कारण तत्व, प्रकृति , महत्, अहंकार , मन , इन्द्रियां, त्रिगुण ……….ये सब नाम मैया को पता नही थे …….पर उसनें ये सब देखा …….हाँ मैया ही कहती है – जब वो लाला के मुख में ये सब देख रही थी ….उस समय उस उस तत्व के देवता उसे इनका नाम भी बता रहे थे ………..इसका मतलब देवता भी मैया नें देखे ।

वायु, अग्नि, आकाश, वरुण, इन्द्रादि ……सब दीखे ………महानदी, महासागर, महाद्वीप पर्वत, कानन ……सब देखे मैया नें ……..।

अनन्त ब्रह्माण्ड देखे, उन अनन्त में अपना ब्रह्माण्ड भी देखा ……….अपनें ब्रहमाण्ड में पृथ्वी भी दीखी …पृथ्वी में भारत वर्ष भी देखा …..भारत वर्ष में बृजमण्डल भी ……बृज में भी गोकुल महावन भी मैया को कन्हैया के मुख में ही दिखाइ दिया था ।

इतना ही नही तात ! मुख में मैया नें ये भी देखा कि ………छड़ी लेकर स्वयं ये खड़ी हैं …..और सामनें कन्हैया रो रहा है ……ये भी मुख में ही देखा ……….।

मूर्छित हो गयीं थीं बृजरानी ………………

उद्धव बोलते हैं……..महाभारत में अर्जुन को भी विराट दिखाया था श्री कृष्ण नें ………..पता है तात ! अर्जुन , इतना वीर ……….वो भी डर गया …काँप गया …………पसीने से नहा गया था ।

ये तो बेचारी ममता की मारी ……साक्षात् वात्सल्य रूपा यशोदा मैया हैं ……….मूर्छित हो गयीं …..माधुर्य की उपासिका मैया …..ऐसे भयानक ऐश्वर्य को कैसे सम्भाल पातीं ।

मैया ! मैया ! मैया !

हिला कर देख रहे हैं मैया यशोदा को , कन्हैया ।

उठ मैया ! मैया भूख लगी है, उठ ।

अचेतन मन में भी वात्सल्य छा जाता है माताओं के …………फिर ये तो यशोदा मैया हैं ……….जैसे ही सुना ……….”भूख लगी है मैया” ।

मूर्च्छावस्था से भी उठ गयीं …….लाला ! लाला ! बाबरी की तरह मैया अपनें लाला को छू रही है …….फिर एकाएक – लाला ! मुँह खोल …….मुख खोल ……कन्हैया नें मुँह खोला …………देखती हैं …..पर अब तो कुछ दिखाई नही दे रहा ………..।

तू भगवान है ? मैया पूछती हैं ।

भूख लगी है दूध पीयूँगा ………चिल्लाकर बोले ।

मैया नें तुरन्त अपनी गोद में कन्हैया को लिया …..और मुख चूमते हुए अपनें वक्षःस्थल से लाला को लगा लिया ……..लाला दूध पीनें लगे ।

“कोई सपना देखा होगा”……….मैया सोच रही हैं ……..ये तो मेरा लाला है …..कोई भगवान थोड़े है !

तात विदुर जी ! अद्भुत है ये बृज, माधुर्य ही माधुर्य है जहाँ ।

ऐश्वर्य दिखाई भी दे तो उसकी ओर से मुँह फेर लेते हैं यहाँ ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 49

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 49 )

!! “चोर -चिन्तन” !*


तात ! भगवान को भगवान मानना, जो अखिल विश्व का स्वामी है, उसी को चोर कहना ! कितना असंगत है ।

सही में चोर कौन है ? श्रीकृष्ण या हम जीव ?

उद्धव विदुर जी से पूछते हैं ।

“चोर तो हम हैं” ……..फिर स्वयं उद्धव ही श्रीकृष्ण लीला की भूमिका भी बाँधते चलते हैं………हम हैं चोर तो ………क्यों की उनकी वस्तु को हम अपना कहते हैं……….ये सम्पत्ती उनकी है ………क्यों की लक्ष्मी तो उन्हीं नारायण की ही है ना ? फिर उनकी लक्ष्मी को अगर हम अपना कहें तो चोर कौन हुआ ? ये जगत उनका है …..पर हम अपना मानकर बैठे हैं …….चोर कौन हुआ ?

किन्तु करुणा कितनी है मेरे नन्दनन्दन की ………कि हमें चोर न बनाकर …..बताकर …….स्वयं ही चोर बनकर आजाते हैं …….और सब कुछ लूट लेते हैं……..पर लूटना कैसा ? उन्हीं का तो है सब ।

उद्धव आनन्दित होते हुये इस प्रसंग को आगे बढ़ा रहे हैं ।

तात ! धन्य हैं गोपियाँ ………जो “चोर चोर” कहते हुए उन परब्रह्म का चिन्तन करती हैं……….हँसती हैं , चोरी करते हुए देखकर आनन्दित होती हैं …….फिर उन्हीं का चिन्तन …..अविरल चिन्तन की धारा ।

नही नही ……..इनका नाम “गोपी” है ……….गोपी शब्द का अर्थ होता है …..जो गोपनशील है ……यानि छुपाना इन्हें अच्छे से आता है ।

पता है तात ! कंस कहीं समझ न ले……कि मुझे मारनें वाला यही है ….इसलिये चोर चोर का प्रचार करती हैं …..ताकि कंस को भी ये लगे …..जो माखन चुराए ….मटकी फोड़े….गोपियों को छेड़े वो मेरा काल ?

इन्हें छुपाना आता है ……..अपनी साधना को , अपनें साध्य को, अपनें प्रेम को, अपनें प्रेमास्पद को ……।

उद्धव हँसे …………कुछ देर तक हँसते रहे ……शायद उनके हृदय में वो “चित चोर” प्रकट हो गया था ।

पता है तात विदुर जी ! उद्धव कुछ देर बाद बोले थे ।

एक दिन माखन की चोरी की कन्हैया नें…..हद्द है अपनें ही घर में, ……..गोपी नें देख लिया ….बाहर जा नही सकते ……क्यों की लोग हैं …….अब भीतर मैया यशोदा आगयी हैं ………वो देख लेंगीं ………अन्धेरा खोजनें लगे ….की कहीं अन्धकार मिले तो छुपूं

गोपी नें देख लिया तो हँसी ……….और बडे धीमे स्वर में उसनें कहा ………क्या खोज रहे हो लालन ?

कन्हैया भी धीमे स्वर से ही बोले ……..”अन्धेरा” …..ताकि मेरी मैया मुझे देख न सके ।

गोपी गदगद् होकर बोली …….प्यारे ! मेरे हृदय में छुप जाओ ना …….वहाँ बहुत अन्धेरा है ……………उफ़ !

विदुर जी आनन्दित होते हुए बोले …………..उद्धव ! धन्य हैं ये गोपियाँ ….और धन्य है इनका ये “चोर- चिन्तन” ।

और क्या क्या शिकायतें की बृजरानी से , इन बृजभामाओं नें …….ये तो इनकी साधना ही लगती है …………इनका चिन्तन कितना गहरा है ना…….हर समय, ये श्रीकृष्ण में ही डूबी रहती हैं ।

हमें सुनाओ उद्धव ! बृजरानी को और कितनी शिकायतें सुननी पडीं अपनें लाल की ……….और बृजरानी नें क्या कहा ?

वैसे माताएँ अपनें बालक का ही पक्ष लेती हैं …………..ये कहते हुए विदुर जी हँसे ……….हँसे उद्धव भी …………बोले …….बृजरानी कोई अपवाद नही हैं ………ये भी अपनें लाला की शिकायतें गम्भीरता से नही सुनतीं । उद्धव सुनानें लगे थे अब आगे का प्रसंग ।

सुन सुन गोपी ! ……….अब मेरी बात सुन !……..तू ना अपनी माखन की मटकी को अन्धकार में रख दिया कर ………..मेरा लाल, अन्धकार से डरता है ……..वो कभी अँधेरे में नही जाएगा ।

बृजरानी नें उलाहना दे रही गोपियों को ये समाधान दिया था ।

अरी मेरी भोरी बृजरानी जु ! ये ? ये अन्धकार से डरेगा ?

तो दूसरी बृजभामा आगे आयी ………..और उसनें कहा ………..अन्धकार इसके सामनें टिकता ही नही है ………..ये जहाँ जाता है वहाँ प्रकाश ही प्रकाश कर देता है …………

कैसे ? अपनें लाला को बड़े ध्यान से देख रही हैं यशुमति ।

ये मणि माणिक्य हीरे जो तुमनें अपनें लाला को पहना राखें हैं ना …..बस इसी के कारण अन्धकार में भी प्रकाश हो जाता है ।

तो अभी उतार देती हूँ इसके मणि माणिक्य ……..ऐसा कहते हुए यशोमती लाला के आभूषणों को उतारनें लगीं ………….

पर ये सब गोपियों को असह्य हो गया……..सब का हृदय चीत्कार कर उठा……..नही नहीं बृजरानी जु ! आभूषणों को मत उतारो …….

ये गोपी तो बाबरी है …..इसे कुछ पता नही है………..आभूषणों से मात्र तेज की बात कर रही है……….अरे ! ये कन्हैया है ….इसके तो अंग अंग से तेज प्रकट होता है ………इसका तो अंग ही प्रदीप है ।

ये जहाँ जाता है….इसके साथ ही एक “श्याम ज्योति” चलती रहती है ।

और पता है बृजरानी जु ! उस स्वयं ज्योति के आलोक में कितना भी अन्धकार हो ………वहाँ प्रकाश कर देता है ये …………फिर माखन चुरा लेता है ………….।

पर बृजरानी ये नही समझ पा रहीं कि …………ये गोपियाँ आखिर चाहती क्या हैं ? आभूषणों को उतारनें देती नहीं …………

बृजरानी सोच ही रही थीं ……..कि एक गोपी फिर बोल उठी –

ऊँचें में , ऊँचे छीके में जब माखन की मटकी हम रखती हैं ना ……तब तो ये बड़े विचित्र ढंग से मटकी को निकाल लेता है ………हम भी चकित हो जाती हैं ………हाँ मैया ! हम साँची कह रही हैं ।

बृजरानी के फिर समझ में नही आरहा कि गोपियाँ शिकायत करते करते अब तो प्रशंसा करनें लगीं ………ये आखिर चाहती क्या हैं ?

और ऊँचें छीके में लटकाओ मटकी ……..छोटा ही तो है लाला….पहुँच ही नही पायेगा . ……यशोदा जी बोलीं ।

अरी बृजरानी ! हम क्या बताएं …….एक दिना तो हमनें पीपल के पेड़ में माखन की मटकी बाँध दई ………..हमारे आँगन में, वर्षों पुरानों बड़ो पीपल को पेड़ है ।.

अब कन्हैया आओ …………हम सब छुप कर देख रहीं थीं ……….

बृजरानी भी सुन रही हैं इस लीला को ।

बृजरानी जु ! तुम्हारे छोरा के साथ मण्डली चले ग्वालन की ………और सब ऐसे ही हैं …………

आगे क्या हुआ ? जब पीपल के पेड़ में मटकी लटकाये दियो तुमनें ?

बृजरानी नें फिर पूछा ।

हाँ ……तो ये आओ…….अपनें ग्वालन के साथ आओ ………

बड़े ध्यान से इसनें मटकी को टंगे हुए देखा ……..फिर अपनें सखान ते बोलो …………”भाभी नें तो आज ऊँचे टाँग राखे हैं मटकी ?”

फिर सोचवे लगो …………और कहीं ते बाँस ले आओ ……….बीस फुट को बाँस ……….और मटकी के नीचे लगाय दियो ………..सब सखान ते बोलो ……..”ओप” लगाय के खड़े है जाओ ……….सब नें हाथन ते ओप लगाय लिए …….और सबरो माखन खाय लियो ………नेंक हूँ नाय छोडो ।

ये जब सुना तो यशुमति बोलीं ……….”तुम कुछ कहा मत करो “

अजी ! बृजरानी जु ! कछु नाय कहें , और पतो है …..जब हम कछु नाय कहें हैं ना ! तब तो ये तेरो 4 बरस को छोरा मूंछन में ताव देवे ……….और कहे …..”.नन्द को छोरा चोरी करके जाय रह्यो है …..काहूँ कू रोकनी होय तो रोक लियो ” ।

ये सुनकर बृजरानी हँस दीं………….गोपियों नें कहा ……….ऐसे नही होयगो …………हम अब तो गारी देंगी, तुम्हारे छोरा कूँ ।

बस …….हृदय भर आया …….हाथ जोड़ लिया नन्दरानी नें …..

री गोपियों ! जो करनी होय सो कर ले ……पर मेरे लाला को गारी मत दे ………देख तो – छोटो सो लाला है ……..बड़े बड़े देवता मनाय के मैने याकुं पायो है ……गारी मत दे ……..और सुन ! तेरो जो बिगारो होय, माखन खायो होय, मटकी फोड़ी होय ……मैं दूंगी ….सब मैं दूंगी …..पर गारी मत दे री ।

गोपियाँ बस देख रही हैं कन्हैया को…………

तात ! कन्हैया डर गए हैं………उन्हें डर लग रहा है अब …..कि मैया उन्हें अब पीट न दे ……….

पर उनका डर सही निकला …………कान पकड़ लिए मैया नें ………और पूछनें लगीं ………..क्यों किया तूनें इनके यहाँ ऐसा ? बोल !

छड़ी लेकर आयीं नन्दगेहनी…………

नयनों से अश्रु गिर गए कन्हैया के ……….

रो पड़े …….हिलकियों से रोनें लगे …………..

गोपियों का हृदय भर आया ………मत मारो …….. बृजरानी जु ! मत मारो …….ये कहते हुए स्वयं गोपियाँ रोनें लगीं ………

बृजरानी के समझ में नही आरहा कि…….ये गोपियाँ आखिर चाहती क्या हैं ? मैं पीटूं ये चाहती नही हैं ….मैं डाँटूं ये चाहती नही हैं ……….और मेरा लाला रोये, ये इनको सह्य नही है ।

अजी ! ये गोपियाँ हैं …….सब श्री कृष्ण से प्रेम करती हैं………और ये सब प्रेम का ही एक रूप है ………..अद्भुत रूप !

“चोर” कहकर आनन्दित होना …….ये भी प्रेम की उच्चावस्था है ।

उफ़ ! इनका ये “चोर चिन्तन” ।

चली गयीं सब गोपियाँ……और ये कहती गयीं …..”पीटना नही लाला को बृजरानी जु ” ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 48

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 48 )

!! “अपनों गाँव लेओ नन्दरानी”- गोपियों का उलाहना !!


हमें नही रहना तुम्हारे गाँव में ……….हाँ, रानी हो तुम तो इस गोकुल की …….वाह ! अच्छी शिक्षा दे रही हो अपनें पूत को ……….

ये गोपी तो अन्य से तेज थी ……….बस बोलती गयी ।

बृजरानी सुन रही हैं………वो शान्त हैं ………बगल में उनके कन्हैया खड़े हैं ……हाँ वो अवश्य डर रहे हैं …………

“अभी तो छोटा है ………पर छोटे में ही ये हालत है ………पूरे गोकुल को रुला कर रख दिया है …..उपद्रव तो सीमा पार कर चुकी है इसकी …….नन्दगेहनी ! तनिक विचार तो करो ……..ऐसे ही रहा तो बड़े होनें पर क्या होगा ? “

इतना बोल कर वो पीछे चली गयी …..फिर दूसरी गोपी आगे आयी ।

बृजरानी हँसीं………तू तो कविता सुनाकर चली गयी …….अरी ! ये बता कि तेरे यहाँ किया क्या है मेरे लाला नें ?

ये कहते हुये सिर में हाथ फेरा अपनें कन्हैया के ……..कन्हैया खुश ! चलो मेरी मैया मेरे साथ है ।

मैं बताती हूँ ……..हे बृजरानी ! सुनो अपनें लाला की करतूत ।

आज कल हमें गायों का दूध नही मिलता ……..हमारे घर के बालक बिना दूध के ही रहते हैं ?

क्यों ? तेरी गैया दूध नही देती ? बृजरानी नें पूछा ।

देती है …खूब देती है……..पर तुम्हारा ये जो लाला है ना ….दूध दुहनें से पहले ही बछड़ों को खोल देता है …..बछड़े दूध पी जाते हैं ……..

गोपी ये कहते हुए कन्हैया को ही देख रही है ।

और विचित्र बात उस समय ये होगयी ……कि कन्हैया की ओर देखते हुए ये गोपी हँस पड़ी …………

पर बृजरानी गम्भीर हैं ………बोलीं – अब समझीं मैं ………बालक के सामनें ऐसे ही “खें खें” करती होगी …..हँसती होगी ……..तभी लाला तुम्हे गम्भीरता से लेता नही है……….थोडा गम्भीर रहो ……..आँखें दिखाओ ……क्रोध करो ……..तब ये ऊधम नही मचायेगा ।

एक गोपी फिर आगे आई……….बृजरानी जु ! जब हम क्रोध करती हैं ……इसको आँखें दिखाती हैं …….तो ये हमें देखकर हँसता है ……..और इतना हँसता है कि लोट पोट हो जाता है ……..इसको हँसते हुए देखकर हमारा क्रोध पता नही कहाँ चला जाता है ……..हमें हँसी आजाती है ……..हम क्या करें ।

नन्दरानी नें देखा अपनें लाला की ओर…….लाला नें सिर हिला दिया ये कहते हुए …..झुठ बोल रही है ।

“चोर है तुम्हारा लाला” ……………एक गोपी आगे आकर बोली ।

ये बात बृजरानी को अच्छी नही लगी ……………..चोर क्यों ?

क्या चुराया तेरा, मेरे लाला नें ? हीरे , मोती , क्या ?

“माखन चुराया”…………वही गोपी बोली ।

हे भगवान ! बालक तेरे घर में जाकर कुछ खा लेता है …… उसे तू चोर कह रही है ? ऐसा नही कहते ……….मुझे अच्छा नही लगा ।

बृजरानी नें गम्भीरता में ये बता कही ।

अब हम क्या करें तो ………तुम्हे अच्छा क्यों लगेगा ……….तुम्हारा तो बेटा है ……पर हमसे पूछो कि ये क्या क्या करता है ? माखन ही नही खाता ……..मटकी भी फोड़ता है …………..गोपी बोल रही है ।

बृजरानी नें बीच में टोका ………..तेरे घर में जब ये जाए …..तो माखन दे दिया कर ……….और यहाँ से ले लिया कर ………..छोटा सा है लाला ……छोटा सा पेट है ……कितना खायेगा ! ………….ये कहते हुए बृजरानी नें कन्हैया के पेट में हाथ रखा …..तो कन्हैया हँसे ……मैया ! गुदगुदी लग रही है। ।

हम इनको दे देतीं ………….पर ये लेता कहाँ है माखन …………हठी है तेरो लाला ……..कहता है …..”हमें राजी को माखन नाय ……चोरी के माखन में ही स्वाद आवे”…………ये कहते हुए ये गोपी हँस पड़ी …….गोपी को हँसते देखा तो मैया यशुमति भी हँसीं ……..यशुमति हँसीं तो लाला भी हँसनें लगे ।

“ये बन्दरों को भी माखन लुटाता है”……..एक गोपी फिर बाहर आयी ।

नहीं….नहीं …….बन्दरों को ही नही ………..बर्तन भी फोड़ देता है ……..

और जब हमारे घर में इसे माखन नही मिलता ……तो घर के ऊपर ही अपना क्रोध निकालता है ………..या हमारे पति हैं ……….उनको ही अपनें क्रोध का भाजन बना लेता है ………..सच !

मैं और मेरे पति…….रात्रि में सो रहे थे ….एक दिन की बात ।

ये कन्हैया पता नही कहाँ से आया……….माखन की चोरी करनें …..पर इसे माखन मिला नही………

फिर इधर उधर देखनें लगा……….बृजरानी ! उन दिनों नवरात्रि चल रहे थे ……..मेरे पति अनुष्ठान में थे ………दाढ़ी बाल नख कुछ भी काटे नही थे उन्होंने ………….

मैं बगल में सो रही थी ………..इसनें देखा होगा हमें ………..

हम दोनों तो गहरी नींद में सो रहे थे………..ये आया और मेरे पति की दाढ़ी से मेरी चोटी बांध कर चला गया ।

बृजरानी हँसीं……….उनकी हँसी अब रुक नही रही थी ।

गोपी आगे बोली………..मैं सुबह उठी …….मुझे यमुना जल भरनें जाना था ………….जैसे ही मैं उठी ……….पीछे से मेरे पति चिल्लाये …….मैने कहा……..देखो जी ! अभी नवरात्रि चल रहे हैं ……ऐसा विनोद ठीक नही है …………छोडो मुझे जानें दो ………अजी ! मेरी चोटी छोडो ……….पर मेरे पति मुझ से बोले ……….तेरी चोटी मैनें नही ……..तेरी चोटी नें मेरी दाढ़ी पकड़ रखी है …..देख तो ।

और जैसे ही मैने पीछे मुड़ कर देखा …….तो वो बेचारे रो रहे थे …….वो करते क्या !

फिर क्या हुआ ? बृजरानी नें उत्सुकता वश पूछा ।

फिर क्या होना था ………चोटी और दाढ़ी खोलनें की कोशिश की ……..पर खुली ही नही ।

तात ! कैसे खुलती ……..जिसकी गाँठ स्वयं कन्हैया नें बाँधी हो …उसे भला कौन खोल सकता है ।

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

हमें कैची से काटनी पड़ी उनकी दाढ़ी ……….वो गोपी बोली ।

इस प्रसंग पर तो अन्य गोपियाँ भी हँस पड़ी थीं ।

पर वो गोपी बोली –

“अपनों गाँव लेओ नन्दरानी

बड़े बाप की बेटी पूतहिं, भली पढ़ावती बानी”

वो गोपी अब गम्भीर हो गयी थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 47


(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 47 )

!! “उलाहना है बहाना”- अद्भुत प्रसंग !!


तात ! नन्दमहल में अब तो, उलाहनों देवे वारी गोपियाँ, नित आवें ।

उद्धव नें यमुना के तट चल रही “श्रीकृष्णचरितामृतम्” की कथा को ये कहते हुए आगे बढ़ाया ।

उलाहना ? पर क्यों ? विदुर जी नें पूछा ।

तात ! उलाहना तो बहाना है……इन्हें कन्हैया को निहारना है ।

उद्धव नें बड़े प्रसन्न चित्त से ये बात कही ।

गोपियाँ साधारण नही हैं ………ये प्रेम का शिखर हैं ………इनकी स्थिति में पहुँचना सामान्य बात कहाँ है ?

तात ! चौबीस घन्टे बस श्रीकृष्ण की यादों में डूबे रहना………उनकी लीलाओं का गान करना …..उनके रूप ध्यान में मग्न रहना ………और ये सहज है इनका ………इसके लिये कोई प्रयास नही है ।

विदुर जी मुस्कुराते हैं……….उद्धव ! सुनाओ आगे का प्रसंग …..नन्द नन्दन नें इन्हें अपना बनाया है ……….ये भाग्यशाली तो हैं हीं ।

और सबसे बड़ी बात गृहस्थ में रहते हुये, अपनें बालक, पति परिवार के अन्य सभी की सेवा करते हुए , अपनें चित्त को मुरारी पादपद्म में लगा देना ……..ये सामान्य बात कहाँ है ।

विदुर जी की बातें सुनकर आनन्दित उद्धव अब आगे का प्रसंग सुनानें को तैयार हुए थे ।

गोकुल की शोभा इन दिनों और बढ़ गयी है …………क्यों की नन्दनन्दन की बाल चापल्य लीला और उसपर इन गोपांगनाओं का उनके प्रति आगाध स्नेह ………

एक दिन भी न देखें कन्हैया को, तो इनको चैन न मिले ।

गोकुल की हर गली में बस श्रीकृष्ण चर्चा ………….

पर इन दिनों विवाह का मुहूर्त है …..तो विवाह भी खूब हुए बृज में …..गोकुल में नई नई बहुएँ आगयीं ………….पर खबरदार ! आते ही सासुओं नें इनकी कक्षा ली ………..यमुना जाना तो सीधे जाना …और सीधे आना ……इधर उधर देखना नही …………और सुन ! कदम्ब वृक्ष के नीचे तो देखना ही नही ………और कदम्ब में कभी दृष्टि पड़ भी जाए तो वहाँ बैठे , मुस्कुराते हुए उस काले छलिया को तो देखना ही मत ।

अगर देख लिया तो सासू माँ ? कोई कोई बहु तेज भी थी ।

फिर तो तू काम से गयी बेटा ! …..वही छलिया तुझे अपना बना लेगा ।

श्याम रंग चढ़ जाएगा तेरे ऊपर……..फिर तो तू ……….

बहुएँ सावधान थीं……….क्यों की उनकी सासू उन्हें बाहर ज्यादा घूमनें नही देतीं ………यमुना में भी जाते समय इधर उधर देखनें नही देतीं ……….पर इन्होनें सुनना शुरू कर दिया था ………”.बड़ा सुन्दर है …….बड़ा चंचल है ……….उसकी लटें घुँघराली हैं ………वो जब मुस्कुराता है तब फूल झरते हैं ………..वो जब चलता है तो ऐसा लगता है जैसे कोई गज अपनी मदमाती चाल में चल रहा हो ………..उसकी पीताम्बरी की वो छोर” ………उफ़ !

बहुएँ ये सब सुन सुन कर मुग्ध हो रही थीं…………..

पर देखें कैसे ? हमारी सासू नें हमारे ऊपर हजारों पाबन्दियाँ लगा रखी हैं ……..फिर कैसे उस छलिया को देखें ………..आपस में बातें करतीं और अपनें भाग्य को कोसतीं …….कि गोकुल में आनें के बाद भी “गोकुल चन्द्र” के दर्शन नही किये ।

तात विदुर जी ! आज इन सबको एक उपाय सूझा …………..

उद्धव मुस्कुराते हुये ये लीला सुना रहे हैं ।

और सबनें, जब उनकी सासू घर में नही थीं …….तब घर की सारी मटकियां फोड़ दीं ……माखन स्वयं ही फैला दिया ………..और कपोल में हाथ रखकर बैठ गयीं द्वार पर ही ।

ये सब क्या है ? तेज आवाज में चिल्लाई सासू ………जब उसनें घर में आते ही देखा कि …….सारा माखन फ़ैल गया है चारों ओर ………मटकी फूटी पड़ी हैं …….और बहु गालों में हाथ रख कर शोक मुद्रा में बैठी है ।

ये सब क्या है ? किसनें किया ?

सासू माँ ! वो नन्द का छोरा ………..बस इतना ही बोल सकी गोपी …..ज्यादा बोलती तो हँसी आजाती इन्हें ।

वो आया था यहाँ ? सासू माँ नें पूछा, कड़क आवाज में ।

हाँ …आया था …..और मटकी फोड़ कर चला गया …..माखन कुछ खाया कुछ फैला कर चला गया ……..बहु, सास को बता रही है ।

तू कुछ नही कर सकी ?

मैं क्या करती ? उसनें जो उपद्रव मचाया ……..ओह !

बहु घूँघट करके बोल रही थी ………….इसलिये उसकी थोड़ी बहुत हँसी छुप रही थी ।

लम्बी साँस ली सासू नें ………..माथा पीटा …….ये ऊधम ! ऐसा कोई करता है क्या किसी के घर में ?

हाँ सासू माँ ! बताओ ! मुझे तो बहुत रिस आरही थी ……..अभी भी आरही है …..सासू माँ ! आप अगर कहो तो मैं नन्द महल में जाऊँ ?

सासू माँ ! आप कहो तो बृजरानी जु को उलाहना देके आऊँ ?

तात ! यही तो चाहती थीं ये बहुएँ …………और ये एक घर नही …..हर घर की बहुओं नें ये किया था ………….

जा ! और बृजरानी को अच्छे से कहना …..और ये भी कहना ……

कि – आज के बाद अगर फिर उसके लाला नें ये लिया तो ……..

तो ? बहु नें पूछा ।

“अपनों गाँव लेओ नन्दरानी, हम कहूँ अंत बसेंगी जाय”

बहु खुश……आनन्दित हो गयी बहु……..मैं जाऊँ ?

हाँ हाँ जा ! और अच्छे से कहना…….डरना नही ……जो जो ऊधम मचाया है सब कहना ………जा अब ।

….इस तरह हर घर की सास नें अपनी अपनी बहुओं को भेजा था नन्द महल में …..उस दिन तात ।

आहा ! सब निकलीं घरों से…….आनन्दित हैं ……बीच में जाकर सबका मिलन हुआ……..हँसती खेलती मन में मनमोहन के दर्शन की आस लिये ……..सब नन्द महल की ओर चल रही थीं ।

आज कल तो उलाहना देनें वाली गोपियों का ताँता लगा ही रहता था नन्द भवन में……..बृजरानी पहले तो गम्भीरता से सुनती थीं…….पर आज कल उनको भी आदत पड़ गयी है ………वो मात्र सुनती हैं ……और स्वयं गोपी को ही समझा बुझाकर भेज देती हैं ।

पर आज तो एक साथ दस बीस नई नई गोपियाँ जो अभी अभी ब्याही हैं ………..वो झुण्ड में आगयी थीं ।

“नन्द गेहनी” दधि मंथन कर रही हैं ………..दधि मन्थन करते हुए कंकण, किंकिणि सब बज रहे हैं……वो मुग्ध हैं ……..शायद चिन्तन कर रही हैं अपनें लालन का …….तभी तो इनके नेत्र बन्द हैं ।

मैया ! पाँय लागूं ! गोपियों नें आकर बृजरानी के पैर छूये ।

ओह ! कहाँ से आयी हो ? नई नई लग रही हो ? आओ बैठो ।

बड़े प्रेम से बृजरानी नें उन नई गोपियों का स्वागत किया ……….

फिर बोलीं……नई बहु लग रही हो ? अभी अभी ब्याह हुआ दीखे ?

शरमा कर नजरें झुका लीं ………और सिर “हाँ” में हिलाया ।

अच्छा अच्छा ! बैठो ! जल पियोगी ? बृजरानी जल और कुछ मीठा लेनें को जैसे ही भीतर गयीं ………….

गोपियों नें इधर उधर देखना शुरू कर दिया ……

जिसके लिये यहाँ आयी थीं …….वो कन्हैया कहाँ है ?

पर वो तो दिखाई दे ही नही रहे …………

अच्छा ! लो …..ये लड्डू खाओ …और जल पीयो ……….लड्डू बड़े प्रेम से यशुमति नें उन बहुओं को दिया ……..बहुओं नें हाथ में ही रख लिया …….फिर बोलीं …….आपके लालन ? बड़े संकोच के साथ पूछा ।

मेरा लाला ? वो तो यहीं कहीं होगा ……अभी तो यहीं था ……..बृजरानी नें कहा ……….और फिर पूछनें लगीं ……..तुम लोग आयी क्यों हो ? गोपियों नें एक दूसरे को देखा ………..फिर बोलीं …….पहले आपका लाला आजाये हमारे सामनें ।

क्यों, लाला क्यों ? मुस्कुराईं यशोदा……अब समझ गयीं थीं कि उनके लालन को देखनें ही ये यहाँ आयीं हैं ।

नही ………बात ये है कि मैया ! तेरे लाला नें ऊधम मचाओ है !

क्या ऊधम मचाया ? गम्भीर हो गयीं बृजरानी ……बताओ निस्संकोच होकर बताओ ……क्या बात है ?

पहले लाला को बुलाओ …………गूजरी हैं नई नवेली …….जिद्द पकड़ के ही बैठ गयीं ………लाला कहाँ है ?

मैया यशोदा नें इधर उधर देखा …………दूर से पीताम्बरी दीखी ……..तो चिल्लाईं ………..लाला ! ओ लाला !

हाँ , मैया ! उधर से आवाज आयी ………..

गोपियों नें जैसे ही आवाज सुनी-

….”धक्क” करके रह गया इनका हृदय तो ।

इधर आ ! लाला ! इधर आ !

मैया के बुलानें पर लाला आगये ……….

क्या है मैया ? दौड़ते हुए आये थे तो साँसें चल रही थीं ………

क्या है मैया ? सामनें खड़े हैं…………

नई गूजरी सब देख रही हैं………आहा ! क्या सुन्दर झाँकी है ……साँवरा सलोना, मुस्कुराहट अद्भुत ……घुँघराले काले बाल ………

नयनों की पूतरी गिरनी बन्द हो गयी ………..गोपियाँ बस इस “मोर मुकुटी” को देखे जा रही हैं …………..

उलाहना देनें वाली थीं ना तुम तो ? अब बताओ क्या किया मेरे लाला नें ? बृजरानी नें पूछा ।

उलाहना ?

“भूलि गयी री, उलहानो देवो”

तात विदुर जी ! ये बृज गूजरी सब भूल गयीं ………क्या कहनें आयीं थीं …….उलाहना क्या है ? सब भूल गयीं ये ।

क्यों की सामनें गोकुल चन्द्र खड़े हैं ………उनके रूप सुधा का पान करते ही ये सब भूल गयीं ।

लाला ! तू जानें इन गोपियों को ?

बृजरानी नें लाला से पूछा ।

ना ! ना मैया ! मोय तो जि भी नाय मालूम कि इनको घर कौन से मोहल्ले में पड़े ! लाला भी बड़ी मासूमियत से बोल पड़े थे ।

सुन लो ! मेरो लाला नाय जानें तुम्हे ……..अब बोलो ?

बृजरानी नें उनकी और देखते हुये फिर पूछा ।

झुठो है तेरो लाला ! एक गूजरी बोल पड़ी ।

झुठो ? ऐसे मत बोल …….मेरो लाला झुठो नायँ !

चोर है तेरो लाला ! दूसरी बोल उठी ……..

ओये ! ऐसे बदनाम मत कर …..मेरे लाला को ब्याह नही होयेगो ।

गोपियाँ फिर चुप हो गयीं ………क्यों की इनका ध्यान कन्हैया पर ही है ………और ये कन्हैया को देखते ही सब कुछ भूल जाती हैं ।

फिर भूल गयीं ………….कि कहना क्या है ।

उलाहना तो बहाना है …….इन्हें कन्हैया को ही तो निहारना था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 46


(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 46 )

!! “कोई नींद खरीदो री”- गोपी प्रेम !!


वो गोपियाँ, जो गौओं का दूध दुहते समय, धान कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को सुलाते समय, रोते हुए बालकों को लोरी गाते समय, घर के आँगन में झाड़ू देते समय……ये प्रेमपूर्ण चित्त से, नयनों में अश्रु भरकर गदगद् कण्ठ से श्रीकृष्ण का ही गान करती रहती हैं…….तात विदुर जी ! इनसे बड़ा भाग्यशाली और कौन होगा……इसलिये इस विश्व ब्रह्माण्ड में धन्य अगर कोई हैं तो यही गोपांगनाएं ही हैं ।

तात विदुर जी ! गोकुल की गोपियाँ अब निरन्तर श्रीकृष्ण चिन्तन में ही लगी रहती हैं……..सोते, जागते, खाते, खिलाते हर समय इनके चित्त में वही माखन चोर ही गढ़ गए हैं……….

” री ! चित में माखन चोर गढ़ें”

“मेरे घर चोरी की”……ये कहते हुए गोपी कितनी आनन्दित होती ।

“मुझ से झुठ बोला उसनें”……ये कहते हुए गदगद् हो जाती ।

“मेरी बैयाँ मरोरी”…….उफ़ ये कहते हुए तो आत्म मुग्ध ही हो जाती ।

“मेरी मटकी फोरी”……आहा ! आत्मश्लाघा से भर जाती ।

कन्हैया , कन्हैया बस कन्हैया……..तात इसी यमुना के किनारे सुबह शाम मिलती थीं गोपियाँ……..और चर्चा होती……..पर चर्चा का विषय एक ही होता ……नन्दनन्दन ।

तात ! अब क्या ये गोपियाँ श्रीकृष्ण से अलग हैं ? इनका अन्तःकरण विशुद्ध रूप से श्रीकृष्णमय हो चुका है ।

प्रेम के अनेक रूप हैं ……….सख्य भी प्रेम है ……..वात्सल्य भी प्रेम है …..श्रृंगार तो प्रेम है ही । ये सब प्रेम की धाराएं हैं ………..अद्भुत हैं ………एक मापदण्ड नही होता इन धाराओं का ……….ये किस तरह, किस ओर बहेंगीं आप कह नही सकते तात ।

ज्ञान का एक मापदण्ड है ………योग का एक मापदण्ड है ……पर प्रेम का एक मापदण्ड ? हो ही नही सकता ।

रोना प्रेम, हँसना प्रेम , मनुहार करना प्रेम , गाली देना भी प्रेम , स्वीकार करना प्रेम, अस्वीकार करना प्रेम …….सोना प्रेम, जागना प्रेम ।

उफ़ ! ज्ञान पर बोला जा सकता है …….योग पर और अच्छा बोला जा सकता है …..पर प्रेम पर ?

कैसे बोलें तात ! और फिर इन “बृज गूजरी” का प्रेम ये तो सर्वोत्तम है…….इस प्रेम के लिये तो ब्रह्मा तक तरसते हैं ……..भगवान शंकर इन्हीं का भेष बनाकर बृज में गोपी बन जाते हैं ।

इनकी तुलना किससे तात !

उद्धव कुछ देर शान्त रहे …..फिर बृज की लीलाओं को सुनानें लगे ।

बाबरी हो गयी है क्या ये गोपी !……..सुबह से ही चिल्लाये जा रही है………और गोकुल की गलियों में पुकार मचा रखी है ।

कोई नींद खरीदो…….मेरी कोई नींद खरीदो………

गोकुल के लोग उसे देखते हैं…….पहले तो सोचते हैं कोई वस्तु बेच रही होगी …….फिर जब ध्यान से सुनते हैं …..तब हँस पड़ते हैं ।

नींद खरीदो ?

पर वो गोपी गम्भीर है……..और गम्भीरता में ही पुकार लगा रही है –

कोई नींद खरीदो ।

वो बारबार नन्द महल में भी जाती है ………….नन्द महल के चक्कर लगाती है …….और वही पुकार – कोई नींद खरीदो ।

गोकुल के लोग अपनें अपनें घर से बाहर आगये थे……..उस विचित्र गोपी को सुननें के लिये………..ये गोपी उन्हीं की थी ……..गोकुल की ही थी ………परिचित ग्वाले की पत्नी थी……सब जानते थे ………पर सबको विचित्र लग रहा था कि इसे हो क्या गया है ये ?

सुन सखी ! अपनी नींद मुझे दे दे …………

ये दूसरी बाबरी आगयी थी, और उसनें इस गोपी की नींद माँग ली थी ।

पर तू बेंचना क्यों चाहती है ? क्या तुझे नींद प्रिय नही है ?

हँसते हुए उस नींद बेचनें वाली से पूछ ही लिया था ।

वो तो बैठ गयी…..सिर पकड़ लिया…….नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ।

बता तो ………..क्यों बेच रही है अपनी नींद ? फिर पूछा ……तब उस गोपी नें अपनें हृदय के भाव खोले ।

सखी ! मैं क्या बताऊँ ! मैने कन्हैया को एक दिन देखा ……..उसकी सुन्दरता ……उसकी चपलता , उसकी मोहनी मुस्कान …..वैसे तो मैने उसकी बातें खूब सुनी थी…….घर घर उसकी ही तो बातें हैं………पर सुननें में और देखनें में अंतर तो होता ही है ……

उस दिन मैने उसे देख लिया …….वो माखन चुरा कर गोपी के घर से निकल रहा था…….आहा ! उसका वो मदमाता पन , उसका वो अल्हड़ पन ………उसकी सुन्दरता …….मैं तो बस मुग्ध ही हो गयी ………कुछ देर के लिये जड़वत् हो गयी……….मुझे कुछ सुध न रही अपनी ………तब मैने देखा वो चला गया था आगे ……मैं भागी उसके पीछे………वो रुक गया मुझे देखकर ………

मेरी साँसें फूल रही थी भागते भागते …..और जब उसके पास गयी ……तब और साँस चढ़नें लगी …….

मैने झट् से उसका हाथ पकड़ लिया……..वो मुस्कुराते ही रहा ।

मैनें उस बाल गोपाल को चूम लिया इधर उधर देखकर ……….

वो फिर भी मुस्कुराता रहा …..उफ़ ! उसकी वो मुस्कुराहट ।

मैने उसके आगे हाथ जोड़ते हुए कहा ………मेरे घर आओ ना !

वो कुछ नही बोला………मैने फिर विनती करते हुए कहा ……आओ ना लाला ! कल मेरे घर आओ ना !

ठीक है …..कल रात्रि को आऊँगा…..मेरी प्रतीक्षा करना ।

वो पीताम्बरधारी ये कहते हुए भाग गया……और दूर जाकर रुका फिर बोला ……सोना नही …..प्रतीक्षा करना …..अवश्य आऊँगा ।

वो गोपी अपनी बात बता रही है ……………

फिर आगे क्या हुआ ? दूसरी गोपी नें पूछा ।

आगे ? आगे ……….उस दिन मैने आँगन बुहारा …………फूल फैलाये आँगन में …….शाम को जल का छिड़काव भी किया ………

और जल्दी अपनें परिवार को भोजन कराकर सुला दिया ………..और स्वयं प्रतीक्षा करनें लगी ……… लाला आएगा !

फिर आगे क्या हुआ ?

आगे ? आगे तो जैसे जैसे रात होती गयी ………..ठण्डी वयार चल रही थी ……….मुझे नींद आगयी ।

ओह ! दूसरी गोपी तुरन्त बोली ।

क्या नन्द के लाला आये थे ?

आये थे ………उन्होंने घर में प्रवेश भी किया पर मैं सो गयी थी ।

वो चले गए…….मुझे सोती हुयी देख कर चले गए ……… ..

गोपी रोनें लगी ……आज के बाद मैं कभी सोऊँगी ही नहीं ………..इसलिये मैं अपनी नींद बेचनें निकल पड़ी हूँ ।

अपनी आँसू पोंछे उस गोपी नें ।

दूसरी बोली ………मुझे दे दे अपनी नींद ।

पर, री ! तू क्या करेगी नींद का ? पहली गोपी नें पूछा ।

दूसरी गोपी हँसी ……..मेरे साथ भी एक घटना घटी है …………


रात में मैं थकी थी …………..काम बहुत किया था दिन भर मैने ……..तो ठण्डी हवा में चादर बिछा कर छत में सो गयी ………….

फिर क्या हुआ ? पहली गोपी नें पूछा ।

फिर ? फिर मैने एक सपना देखा ……अद्भुत सपना ।

कन्हाई मेरे घर आये……..मेरे घर के एक एक कक्ष को देखनें लगे ।

मुझे लगा शायद ये माखन खोज रहे हैं………….पर नही …..वो माखन नही खोज रहे थे …….वो तो मुझे ही खोज रहे थे ……….

मैं जैसे ही उसे दीखी ……….वो मुस्कुराये …………मानों फूल झर गए थे मेरे अंगना में …………मैं प्रेम के कारण रोमांचित हो रही थी …..

वो आगे बढ़े ……और दोनों हाथों को उन्होंने उठा दिया मेरी ओर …..

मानों मुझे कह रहे हों ……….मुझे गले लगा ………

आहा ! ऐसा सौभाग्य मेरा ………मैं जैसे ही आगे बढ़ीं और उसे उठानें लगी …….उसी समय धत् ! मेरी नींद खुल गयी सखी ।

इसलिये मैं कह रही हूँ कि मुझे अपनी नींद दे दे ।

तात ! विदुर जी ! ये स्थिति है बृज की ………..यहाँ सब बाबरे हो गए हैं …………कन्हैया के प्रेम में सब, सब भूल गए हैं ।

और ये प्रेम ? प्रेम की धारा कैसे बहेगी…….किस ओर बहेगी…..

इसे कौन जानता है …………ये तो बस प्रेम देवता ही जानें …….।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 45

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 45 )

!! “यह ऊधम सुनी सबहीं रिसाय”- बाल लीला !!


परस्पर जुड़े हुए तारों में से किसी एक पर भी स्वर लहरी का उदय हो जाए तो अन्य तार भी झंकृत हो ही उठते हैं …..ऐसे ही वात्सल्यमयी स्नेह से सनी प्रेमिन गोपियों के हृदय तन्तु पर श्रीकृष्ण, और उनकी लीलाएँ झंकृत हो उठीं हैं । तात ! पहले स्वर मात्र था ……..फिर संगीत प्रकट होनें लगा ……अब तो तालबन्ध में इन गोपियों के आगे कन्हैया नाचता है…….और ये आभीर कन्याएं नचाती हैं……..

“बृज” शब्द आज सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में गूँज रहा है…….विदुर जी ! बृज का अर्थ होता है…….बृ , मानें ब्रह्म और र , मानें रज…….ये ब्रह्म का रज है …….बृज ।

ब्रह्म नाचता है यहाँ ……ब्रह्म उन्मुक्त खेलता है यहाँ…….ब्रह्म चुराता है यहाँ…….ब्रह्म छेड़ता है यहाँ……किसे ? विदुर जी नें हँसते हुए पूछा । उद्धव ! किसी और की वस्तु चुराता है …..किसी और को छेड़ता है ?

नही……..ये लीला स्वयं के लिये है……और स्वयं से है ।

न बृज अलग है ब्रह्म से……..न गोपियाँ अलग हैं …………

ये तो इतनी निर्दोष लीला है ……जैसे – छोटा सा बालक अपने प्रतिबिम्ब से खेलता है……ऐसे ही ये सब ब्रह्म की बिम्ब ही तो हैं ।

लीला है ये …….उस लीला धारी की………और लीला का कोई उद्देश्य नही होता तात ! बस अपनें आनन्द की अभिव्यक्ति ही मात्र है ये ।

वो आनन्द रूप है……..उसका स्वरूप आनन्द है ……..उसके परिकर आनन्द हैं …….वो आनन्द से ही निर्मित है ………..आहा !

उद्धव आगे की लीला सुनानें लगे –

सुबह सुबह उस गोपी के यहाँ नन्दनन्दन पहुँच गए थे……..कई दिनों से इसकी इच्छा थी , इसनें मनोरथ किया था कि ……मेरे घर कन्हैया पधारें …….पर आज ? आज तो अमावस्या है …….और अमवस्या के दिन इसके यहाँ सत्यनारायण की पूजा होती है ।

सुबह ही सुबह इसनें आँगन लीपा था…….और सुन्दर आँगन में एक लकडी का सिंहासन भी रख दिया था सत्यनारायण भगवान के लिये ………भोग – अमनिया बना रही थी ये गोपी ……..

तभी पहुँच गए ये नटखट नन्दकिशोर ।

भाभी ! राम राम ……रसोई में ही पहुँच कर राम राम कर रहे थे ।

गोपी नें पलट कर देखा ……बस – वो तो अतिआनन्द के कारण जड़वत् हो गयी ……….सुन्दर नन्द गोपाल , नीलमणी, घुँघराले बाल …….मुस्कुराता और चंचल नयन ………वो गोपी तो देखती ही रह गयी …..अद्भुत रूप ………..

भाभी ! “राम राम” नाय बोलेगी ?

वो बाबरी तो अपलक निहार रही है……क्या बोलना है ये भी भूल गयी है वो……मुस्कुरा रही है……और बस नन्द लाल को देखे जा रही है ।

ओ भाभी ! राम राम तो बोल दे ! फिर कहा कन्हैया नें ।

उसे सुध आयी अब……..अपनें आपको सम्भाला ……..इधर उधर देखा ….फिर गम्भीर बननें का स्वांग करती हुयी बोली……राम राम ।

क्या कर रही है तू भाभी ! उफ़ ! कलेजा चीर दिया हो, ऐसी मादक बोली……..और उसपर “भाभी” और सम्बोधन ।

मैं ? मैं तो सत्यनारायण भगवान के लिये पंजीरी भून रही हूँ ………

उस गोपी नें जैसे तैसे ये उत्तर दिया ।

सुनो ! लाला ! शाम को सत्यनारायण भगवान की कथा होगी …….अपनी मैया को कह देना ……वैसे मैं कल निमन्त्रण दे आयी हूँ …..इतना कहकर गोपी फिर चुप हो गयी ………उसके कान, कन्हैया आगे क्या कहते हैं ……….ये सुननें के लिये बेचैन से हो रहे थे ।

बैठ गए कन्हैया तो उस गोपी के पास ही……..उफ़ ! हृदय धड़कनें लगा उस गोपी का…….भाभी ! फिर मधुर वाणी कानों में घुल गयी ।

भाभी ! लो कन्धे में हाथ भी रख दिया अपनी भाभी के। ।

देह कांपनें लगा उस गोपी का ……….छू लिया था कन्हैया नें ……….विद्युत तरंगें दौड़ पडीं सम्पूर्ण शरीर पर ………वो कांपनें लगी ……….फिर पलट कर देखा कन्हैया की ओर ………वो तो मुस्कुरा रहे हैं ………..उनकी वो मुस्कुराहट ……….गोपी अपनें आपको सम्भाले हुए है …….पर ऐसे ही ये यहाँ बैठे रहे तो कब तक अपनें आपको सम्भाल पायेगी …..फिर तो इसे लिपट ही जाना पड़ेगा कन्हैया से ।

लाला ! मुझे काम करनें दो ना ! ये बात भी प्रार्थना के स्वर में कह रही थी ये गोपी….हाँ हाँ कर लो काम ……हम कहाँ मना कर रहे हैं भाभी !

मटकते हुये कन्हैया बोले ।

तुम जाओगे तभी तो मैं आगे का काम कर पाऊँगी…….गोपी भी बोली ।

झूठो दोष लगावे ? ऐसा कहते हुये अपना हाथ हटा लिया गोपी के कन्धे से ……………डर गयी गोपी तो …….उसे डर ये लगा कि कहीं लाला रिसाय न जाये ……….तुरन्त पीछे मुड़ कर देखा ……..क्यों की लाला रूठ गया तो जगत ही रूठ जायेगा इन गोपियों का तो ।

मुस्कुरा रहे थे कन्हैया ………..गोपी को तसल्ली हुयी ।

भाभी ! तेरे सत्यनारायण भगवान कहाँ हैं ? इधर उधर देखते हुए कन्हैया नें ऐसे ही पूछ लिया ।

क्यों ? तुम्हे क्यों चाहिए सत्यनारायण भगवान ? गोपी नें पूछा ।

नहीं ………मैया आवेगी ना शाम को कथा सुननें…. .पर मै तो नही आपाऊंगा ….तो मैने सोचा है कि उनके दर्शन नहीं तो कमसे कम उनके सिंहासन के ही दर्शन कर लूँ ।

गोपी मुस्कुराई……..बाहर है सिंहासन…….पर जाना नही …….छूना नही………सत्यनारायण भगवान तो भीतर हैं ………बाहर सिंहासन है कर लो दर्शन । गोपी नें कह दिया ।

जाऊँ ? मुस्कुराते हुए पूछनें लगे……..गोपी का हृदय तो बड़ी तेजी से धड़क रहा है ……उनकी मुस्कुराहट देख देख कर ही ।

कैसे कह दूँ लालन ! कि तुम चले जाओ ।

अब तो उठ ही गए……..और उठकर बाहर चले आये ।

सिंहासन बाहर है…..आँगन लीपा हुआ है गोबर से……कन्हैया नें देखा…….तुरन्त शरारत सूझी……..

भाभी ! भाभी ! भाभी ! जोर जोर से चिल्लाना शुरू किया कन्हैया नें ।

भीतर पंजीरी भून रही थी गोपी, उसनें सुनी आवाज……….अब पंजीरी छोड़कर जाए तो जल जायेगी ये ………….तो इसनें भी भीतर से ही आवाज दी ………क्या है ? क्यों चिल्ला रहे हो ?

देख तेरे सत्यनारायण भगवान ! और हँसते जा रहे हैं….जोर जोर से हँसते जा रहे हैं ……….ताली बजाकर लोट पोट हो रहे हैं ।

गोपी दौड़ कर बाहर आयी ……….और जैसे ही देखा ……….

कुत्ते के दो पिल्ले सिंहासन में बैठा दिए थे …………..और हँसते हुए कहते जा रहे थे……. …..तेरे सत्यनारायण भगवान !

हे भगवान ! गोपी सिर पकड़ कर बैठ गयी थी ……….चंचलता की पराकाष्ठा …………….

” परमानन्द दास को ठाकुर, पिल्ला लाओ घेर “

उद्धव के मुख से ये प्रसंग सुनकर विदुर जी हँसते हुए नेत्रों से अश्रु प्रवाहित करनें लगे थे …..आहा ! क्या लीला है ये ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 44


(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 44 )

!! उफ़! ये ऊधम – बाल लीला !!


मन कहीं और नही जाएगा तात ! मैं मानता हूँ मन ऊधमी है …..पर इस नन्दनन्दन के आगे ये हाँफ जाएगा…..भले ही ये मन बड़े बड़े योगियों को नचाता हो …….पर नन्दनन्दन के आगे इसकी कुछ नही चलती ।

कहते हैं – ये मन भागता बहुत है ……वायु से तेज प्रकाश की गति है ….पर प्रकाश से तेज गति मन की है ……तात विदुर जी ! पर हमारे नन्दनन्दन की गति तो विचित्र है …..ये बड़ा टेडा मेडा चलता है…….मन कहाँ पकड़ पायेगा इस नन्हे से सुकुमार को……..चंचल है मन …..भले ही लाख चंचल हो ……पर ये हमारा कन्हाई मन का बाप है ……..अजी ! फंस जाएगा बुरी तरह ये मन , बंध जाएगा उस नन्दनन्दन की पीली पीताम्बरी में ………कस देगा अपना कन्हैया मन को ।

बताइये तात ! कोई और इतनी सरल साधना है जो मन को बाँध दे ?

नही , बस यही एक साधना है……”उस नटखट कन्हैया का चिन्तन” ।

उस चंचल का चिन्तन करो ………उस चंचल कन्हैया के लीला रस में डूब जाओ …….मन अपनें आप बंध जायेगा .।

दौड़ेगा मन ? इधर उधर भागेगा मन ? नही तात ।

उद्धव बोल रहे हैं – कन्हैया बराबर ये दौड़ पायेगा ?

विदुर जी बहुत प्रसन्न हैं उद्धव से …….तुम्हे क्या दूँ मैं ? उद्धव ! तुम मुझे अमृत का दान दे रहे हो ……..ये लीलामृत है ………इसके बदले मैं तुम्हे कुछ दे भी नही सकता ……..क्यों की मणि के बदले काँच नही दी जाती उद्धव !

तुम सुनाओ ……….नही नही ….तुम सुना नही रहे ……तुम तो दर्शन करा रहे हो उन लीलाओं का …………धन्य हो उद्धव ! तुम धन्य हो ।

.साधू ! साधू साधू !

विदुर जी नें आगे कन्हैया की लीला सुननी चाही ।

उद्धव भाव में भींगें लीला रस का गान करनें लगे थे ।

ईर्श्या , जलन, – वो “भागवान” तो मैं क्यों नही ?

हँसे उद्धव ………..ये ईर्श्या ज्ञान में बाधक है ………पर प्रेम की नगरी में आते ही ये ईर्श्या भी काम की बन जाती है .।

“प्यार में जलन भी मधुर है”

अब गोपियों के मन में ईर्श्या जागनें लगी ……..क्यों की –

“बृज घर-घर यह प्रकटी बात !

दधि माखन चोरी करि लै, हरि ग्वाल सखा संग खात ।”

प्रभावती के यहाँ माखन खाया यशोदा के लाल नें………फिर दूसरी गोपी के यहाँ भी…….और ये सब अन्य गोपियों को बता रही हैं …….गोकुल में बात फ़ैल रही है ……….अन्य गोपियाँ मन में सोच रही हैं ………भागवान हैं ये गोपी तो, जिनके यहाँ कन्हैया नें माखन खाया ……वो नीलमणी …..वो साँवरा नन्हा सा सुकुमार ……..उफ़ !

ऐसा विचार करतीं अन्य गोपियां ………और उन गोपी से जलतीं जिनके यहाँ कन्हैया माखन खानें गए …….”मेरे यहाँ कब आओगे !

आह भरकर गोपियाँ विधाता को मनातीं…………”मेरे भाग जगा दो …..मेरे यहाँ नन्द लाल को बुला दो” ………उनकी यही प्रार्थना होती ….ये सुबह तुलसी में जल चढातीं ……तो यही मांगती कि …..मेरे यहाँ कन्हैया आज आये …………सूर्य को जल देतीं तो यही कहतीं ……..मेरे घर आज कन्हैया को भेज दो ……….फिर कल मैं भी यमुना किनारे चटखारे ले लेकर कन्हैया के बारे में सब को बताउंगी ……..अपनें कुल देवता को मनातीं तब भी यही कहतीं ……..कन्हैया मेरे घर आजाये ।

एक गोपी है ……….”सुबला”…….ये अन्य गोपियों से थोड़ी तेज है ……मैं तो पिटाई करूंगी ……..मेरे यहाँ आया तो कन्हैया ।

हाय ! तू उस फूल से कोमल कन्हैया को मारेगी ?

हाँ ………ये कहते हुए वो मन ही मन प्रसन्न होती……उसे पता था कि उसके यहाँ कन्हैया आएगा ही नही……क्यों की झगड़ालू ये सब गोपियों में ज्यादा थी ……..छोटी छोटी सी बातों में बस झगड़ा करती …….इसलिये गोपियाँ भी इससे दूर ही रहतीं ।

मन ही मन सुबला कहती – मेरे यहाँ तो कन्हैया कभी नही आयेगें…….पर आगये तो ? पता नही क्यों उसके मन में ये विचार उठते ही गुदगुदी सी होनें लगती …….वो आनन्दित हो उठती …….पर ये भाव किसी के सामनें व्यक्त न करती………बस मन ही मन मुस्कुराती कन्हैया के बारे में सुनकर ।

एक दिन सुबला –

प्रभात की वेला होनें जा रही थी …….यमुना से जल भर कर ये लाई थी

गोष्ठ में गोप चले गए थे……और गोष्ठ से ही यमुना स्नान के लिये ।

घर में उस समय कोई नही था………

सुबला घर में आयी …….”कन्हैया कान्हा रे , कन्हैया कान्हा रे” ……गुनगुनाती हुयी मटकी में जल भर कर ले आयी थी ……..रसोई में जल रख दिया ……….जल रखनें के बाद भी गुनगुना ही रही थी …….पर वो एकाएक चुप हो गयी …….उसे लगा की गोरस वाले कक्ष में कोई है …..पहले तो उसे लगा कि बिल्ली होगी ………पर कक्ष से जो सुगन्ध आरही थी …..वो मन मोहनें वाली थी……गवाक्ष् से उसनें झाँका ………..उफ़ ! पहले तो उसे अपनें नेत्रों पर भरोसा ही नही हुआ …..पर आँखों को मलकर जब देखा तो चकित थी ।

नीलसुन्दर श्याम , पीताम्बरी ओढ़े हुए ………नीचे काछनी बाँधे ..मोर का पंख सिर में ……….अधर गुलाबी ……….श्रीअंग से ही सुगन्ध की वयार चल रही है ………और ये सुगन्ध ऐसी कि किसी को भी मदहोश कर दे …………..

उफ़ ! वो सुबला देखती रही …….अतिआनन्द कारण जड़ जैसी हो रही थी वो……उसे कुछ समझ नही आरहा था….वो बस देखती जा रही थी ।

नीलमणी आगे बढ़ रहे थे ………दीप के उज्वल प्रकाश को अपनी फूँक से बुझा रहे थे ………..कई दीये थे बारी बारी से सबको बुझा दिए ……उनकी सुरभित श्वास, उफ़ ! सुबला देख रही है ।

सारे दीये बुझ गए थे …….अब निश्चिन्त हो गए लाला ……….कि उन्हें कोई देख नही रहा ………माखन मटकी के पास बैठकर प्रसन्न मन से माखन खानें लगे थे अब ।

सुबला ठगी सी देख रही है ……….उसके देह में रोमांच हो रहा है ……प्रेम के कारण वो काँप भी रही है ……..मन्द मन्द मुस्कुरा रही है …….नेत्रों से उसके अश्रु बह रहे हैं……..आहा !

कब तक नन्दनन्दन का ये भोग चलता रहा …..उसे कुछ पता ही नही …….उसके लिये तो क्षण भर का ही था ।

मटकी खाली हो गयी थी माखन से…….अब बड़े प्रेम से वे निकले बाहर ……और जैसे ही बाहर निकले…….सामनें खड़ी है सुबला ….

ये चाहते तो भाग सकते थे ………..पर नही भागे ……सुबला के सामनें ही खड़े रहे……मुस्कुरा और दिए ……..सुबला थोड़ी देर तो देखती रही …….अपलक निहारती रही…….मुग्ध हो गयी थी ये ।

पर एकाएक फिर होश में आगयी……”छोडूंगी नही तुम्हे”…..और कन्हैया का हाथ पकड़ लिया…..पर कोमल है हाथ तो …अत्यन्त कोमल …….पकड़ ढीली कर दी……और बोली – चलो मैं छोडूंगी नही …….तो कहाँ ले जायेगी तू ? मधुर वाणी कानों में अमृत रस घोल रही थी ।

बृजरानी के पास……वो तेरी पिटाई करेंगी ।

चल …………कन्हैया की और ज्यादा देखनें की भी हिम्मत नही है इस सुबला में …….ये देखती रही तो सबकुछ भूल जायेगी ……इसलिये कन्हैया का हाथ पकड़ा और ले चली नन्द महल की ओर ।

“हाय ! तेरे ससुर जी” ………..कन्हैया नें धीरे से कहा …………

कहाँ हैं ? शरमा कर घूँघट कर लिया सुबला नें ।

कन्हैया हँसे …….खूब हँसें…….सुबला आनन्दित हो रही है मन ही मन …….पर बाहर से कहती हैं………तुम्हारी मैया, आज पीटेगी तुम्हे ।

मेरी मैया को अपनें पुत्र पर भरोसा है……..खिलखिलाते हुए कह रहे हैं …..अच्छा ! चल तो बताउंगी कि – “मेरे घर तेरे लाला नें चोरी की है” ।

तुझे दया न आएगी ? कन्हैया फिर मासूमियत से बोले ।

तू तो मेरी है ना सुबला ! फिर ?

हाय ! सुबला तो बस प्रेम सिन्धु में डूब ही गयी थी ये सब सुनकर ।

मार्ग में ग्वाल बाल सब मिल रहे हैं कन्हैया को …………सब इशारे में पूछ रहे हैं ……..क्या हुआ ? पकड़े गए साहब आज ?

पर तभी कन्हैया नें इशारे से सुबला के देवर को बुलाया ……..वो जा रहा था उधर से ही ………सुबला के देखनें का प्रश्न नही …..क्यों की घूँघट जो काढ़ा है उसनें ।

सुबला ! ओ सुबला ! कन्हैया बोले ।

हाँ ……….क्या बात है, सुबला नें पूछा ।

मेरा ये हाथ दूख रहा है ……..दूसरा पकड़ ले ………कन्हैया बोले ।

सुबला का हृदय कराहनें लगा ……..ओह ! इनके कितनें कोमल हाथ हैं और मेरे हाथ कठोर हैं ………..लाओ ! दूसरा हाथ ।

सुबला के देवर को पास में ही खड़ा कर रखा था……..”ले दूसरा हाथ”……देवर का हाथ पकड़वा कर कन्हैया भागे अपनें महल की और……..ग्वाल बाल सब हँसते हुए उछलते हुए कन्हैया के पीछे चल दिए ।

सुबला देवर को पकड़ कर चली जा रही है नन्द महल ।

कौन है ये ? हँसती हुयी गोपियाँ मार्ग में सुबला से पूछ रही हैं…….

कन्हैया ! देखो कन्हैया ! आज मेरे घर में चोरी की है इसनें ।

सब गोपियां कहतीं ………बाबरी हो गयी है ये सुबला ……..देवर को पकड़ के कहती है कन्हैया को पकड़ा है ।

इस तरह नन्द महल में पहुँच तो गयी सुबला ……अब आगे ?

बृजरानी !

निकलो बाहर ! देखो ! तुम्हारे लाला को पकड़ कर लाई हूँ ..........

कन्हैया बृजेश्वरी की गोद में बैठे हैं………और हँस रहे हैं …….खूब हँस रहे हैं ताली बजा बजाकर हँस रहे हैं …..और इशारे से अपनी मैया को कह रहे हैं ……….देख मैया ! पीछे, किसे पकड़ कर लाइ है ।

अब तो बृजरानी भी हँसनें लगीं……….सुबला बोली ……….पिटाई नही करोगी बृजरानी अपनें लाला की !

बृजरानी नें अपनी हँसी रोकी और बोली …….यहाँ बृजराज नही हैं …….न तेरे ससुर हैं ….घूँघट खोल और देख !

सुबला नें जैसे ही घूँघट खोला …………..नमस्कार ! हाथ जोड़कर कन्हैया बोल पड़े जो बृजरानी की गोद में थे ।

तुम ? तो मेरे पीछे कौन है ? सुबला नें जैसे ही पीछे देखा …….उसका देवर रो रहा था ……और कह रहा था ……..भाभी ! आज तो भैया से शिकायत करूँगा ………सुबला के कुछ समझ में नही आरहा कि ये हुआ कैसे ?

सुबला नें सिर झुका लिया ………उसे बड़ी शर्म आरही थी ।

फिर धीरे धीरे कन्हैया को एक नजर देखती हुयी वो चल पड़ी ….नन्दालय से …….बृजरानी उसे बुलाती रहीं पर वो चली गयी ।

सुबला ! ओ सुबला ! मधुर आवाज फिर कानों में गूँजी ।

वो रुकी ………..कन्हैया पीछे भागे हुए आरहे थे …………..

क्या है ? जब मुखचन्द्र देखा कन्हैया का ………सुबला फिर सहज हो गयी …….मुग्ध होकर देखनें लगी ।

सुन ! आजके बाद मुझे पकड़ना मत …..सुबला ! आज तूनें मुझे पकड़ा तो मैं तेरा देवर बन गया ……..फिर कभी पकड़ा ना ….तो मैं तेरा “खसम” बन जाऊँगा ………….ये कहते हुए कन्हैया भागे …………..पर सुबला तो बाबरी सी उस रूप माधुरी में डूब गयी थी ………..वो खड़ी रही वो देखती रही ……..फिर हँसनें लगी ……….देवर जा रहा था …..उसे बुलाकर पीटनें लगी ……..और खूब हँसती जा रही है ।

उद्धव हँस रहे हैं …….विदुर जी हँसते हुए लोटपोट हो रहे हैं यमुना की बालुका में ………उफ़ ! ये कन्हैया का ऊधम ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 43


(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 31 )

!! “तस्कराणां पतये नमः”- बाल लीला !!


तात विदुर जी ! वेद कहते हैं…..तस्कराणां पतये नमः……

वेद भी हाथ जोड़कर कन्हैया को नमन करते हुये कहते हैं ……..हे चोरों के सरदार ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।

ये चोर है ……पर ये चोरी उसी के यहाँ करता है ……जो अपनें द्वार खुला रखे …….मन के द्वार……..मन इस चोर के स्वागत के लिये आतुर हो …….ये उसी के यहाँ चोरी करता है…….फिर तात ! सब कुछ चुरा लेता है ……माखन तो बहाना है…….अजी ! ये आपके दुःख शोक सन्ताप दरिद्रता, इतना ही नहीं तुम्हे भी चुरा लेता है ।

पर उद्धव ! श्रीकृष्ण चोर हैं ? विदुर जी नें बीच में टोका ।

मैने कब कहा वे चोर हैं…….वे चोर नही ….चोरों के राजा हैं तात !

उद्धव नें हँसते हुए उत्तर दिया ।

पर चोर ? विदुर जी नें फिर टोका । चोर कहना अच्छा नही लग रहा मुझे ………..विदुर जी बार बार कह रहे हैं ।

तात ! इस जगत में कौन चोर नही है……..उद्धव हँसते हुए बता रहे हैं ……….सब चोर हैं ………क्या इस जगत में राजा चोर नही है ? वो प्रजा के धन की चोरी नही करता ? और प्रजा भी तो चोर है ……..जो राजा की चोरी करती है……..उद्धव बोले ……….वैसे तात ! आप जानते ही हैं ……….पाँच चोर सबके ही भीतर हैं …..चाहे पुरुष हों या नारी …….काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर ……….ये सबके अंदर हैं ।

हँसे उद्धव ……. मनुष्य ही क्यों देवता भी चोर हैं……..देवराज इंद्र ही सबसे बड़ा चोर है …..अहिल्या प्रकरण किसी से छूपा नही है ….सृष्टिकर्ता ब्रह्मा चोर हैं तात ! वृन्दावन में आकर ग्वालों की और गायों की चोरी की….आगे प्रसंग आएगा ।…….हँसते हुए आगे उद्धव बोले …..और सबसे बड़े चोर तो महादेव भगवान शंकर हैं…….जो भी “शिव शिव” बोलता है उसके पाप अवगुण सबकी चोरी कर लेते हैं ।

और इन सबकी बातें हम छोड़ भी दें तो चोर तो ये निश्छल हृदय वाले सन्त भी हैं ……जो किसी और की चोरी नही ….स्वयं श्री हरि के हृदय की चोरी कर लेते हैं …..क्या ये बात सही नही है तात ?

फिर क्यों कन्हाई को ही दोष दिया जाता है …..ये तो सिर्फ माखन की ही चोरी करते हैं ना ?

विदुर जी आनन्दित हो उठे उद्धव की बातें सुनकर …………बोले – मैं तुम्हारे मुख से ये सब सुनना चाहता था ……..आहा ! ये चोर है ये चोरों का सरदार है ….मेरे मन को भी इसनें ही चुराया है ।

अब सुनाओ इस प्यारे चोर की कथा……..सुनाओ उद्धव ।

विदुर जी नें अत्यधिक भावोन्माद में भरकर उद्धव को कहा था ।


गोपी प्रभावती सबको बता रही है ……..और बताते हुए स्वयं आनन्द सागर में डूबती भी जा रही है ……..गोपियाँ पूछती हैं – क्या हुआ तुझे ऐसा, कि तू हर समय हँसती है आजकल ……….और अकारण हँसती है …….बता क्या हुआ प्रभावती ?

तब प्रभावती सबको बताती है – आहा ! वो नीलमणी मेरे घर आया ……मैं छुप गयी थी ………मैं उसे देखती रही छुप कर ……उफ़ ! क्या बताऊँ, मैं आगे बता नही पाऊँगी …………प्रभावती की बातें सुनकर सब गोपियाँ भी मुग्ध हो जाती ……….तू झुठ तो नही कह रही ? अपनी कसम , अपनें खानदान की कसम ……..मैं क्यों झुठ बोलनें लगी ….प्रभावती कहती जाती है ……..वो आजकल चलती नही है उड़ती है …..उसके पैर धरती पर कहाँ पड़ते हैं ………..उसके यहाँ नन्दनन्दन जो आगये ।

ये दूसरी ग्वालिन है …………प्रभावती की बातों का इसपर ज्यादा असर हो गया है ………..और इसनें भी देखा है मुँह बनाते हुये नन्दनन्दन को ……….उसका मुँह बनाना इसके भी जिया में छप चुका है ।

ये अब जा रही है नन्द के महल की ओर……..कोई कारण नही है …….बस प्रभावती की बातों का असर ।

बृजरानी ! कहाँ है कन्हैया ? ये क्या प्रश्न हुआ ?

पर बृजरानी भी किसी कार्य में व्यस्त थीं इसलिये कह दिया उन्होंने वो पास में कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठा है ।……..”ठीक है” कह कर वो गोपी वहाँ से चली गयी …….पर पीछे से बृजरानी नें आवाज दी ……..”अरी ! लेती आना कन्हैया को” …….ठीक है …..उसनें भी कह दिया ।


दो घड़ी पहले ही खूब वर्षा हुयी है………बारिश घनघोर हुयी थी ……अब तो बादल छंट गए हैं……..अब तो मानों वर्षा रानी नें आकाश में बन्दनवार टाँग दिया…….इंद्र धनुष आकाश में फ़ैल गया है ।

कदम्ब वृक्ष के नीचे………..मनसुख की गोद में सिर रखकर आकाश के उसी इंद्रधनुष को बड़े ध्यान से देख रहे हैं कन्हैया ।

और आकाश के उस धनुष के रंगों को गिन भी रहे हैं …………मनसुख गिननें में सहायता कर रहा है ……….घुँघराले बाल आज रह रहकर कन्हैया को परेशान किये जा रहे हैं …..बारबार आँखों में आजाते हैं …..इन केशों को बाँधना शायद आज भूल गयीं बृजरानी ………नही नही ……भूली नही ………उछलते खेलते हुये ये बिखर गए हैं …..पर बहुत सुन्दर लग रहे हैं…….ऐसा लग रहा है कि बादलों में चन्द्र छुप गया हो …………

गोपी दर्शन कर रही है दूर से ।

उफ़ ! क्या रूप माधुरी है ……..लाल लाल अधर ………..मुँह मटका के बोलनें की प्यारी अदा…….तिरछी चितवन…. ……ऐसा लग रहा है कलेजे में बरछी मार रहा है ये ।

गोपी तुरन्त दुःखी हो गयी …….उस गोपी के हृदय में विषाद नें जगह बना ली ……..”प्रभावती का घर तो पास था इसलिये ये चले गए ……पर मेरा घर तो….ये कहाँ आएंगे मेरे घर ! “

मन उदासी से भर गया था उस गोपी का ……वो अपलक देखे जा रही है ……….पर दुःखी हो रही है ये सोचकर की ……..मेरे घर तो नही ही आएंगे ।

वो चल पड़ी धीरे धीरे अपनें घर की ओर ……बाबरी, बृजरानी नें कन्हैया को बुलानें को कहा था ये भी भूल गयी ……….ये सब कुछ भूल गयी है …….ये तो अपनें आपको ही भूल गयी है आज ।

घर में पहुँची ………….कुछ समझ नही आरहा इसके ………..

दोपहर का समय है ………..परिवार के लोग काम पर गए हैं ……..अकेली है ये घर में ………पर ये क्या ! इसे तो चारों ओर कन्हैया ही कन्हैया दिखाई देनें लगे ………….ये बाबरी ही हो गयी थी ।

मटकी ली …….और मन्थन करनें लगी ……करे क्या ?


मनसुख ! कन्हैया नें नाम लेकर कहा ।

हाँ …….मनसुख नें भी पूछा ।

यार ! तू इतना दुबला पतला क्यों है ?

मेरी मैया खानें नही देती……मुँह फट है मनसुख कुछ भी बोल देता है ।

तो तू स्वयं लेकर खाया कर ………..कन्हैया बोले ।

घर में कुछ होता ही नही , तो खाऊँ क्या ? मनसुख बोला ।

पड़ोस में तो होता है ……..किसी गोपी के यहाँ जाकर खा …..।

गोपी माखन देगी ? मनसुख नें कन्हैया से ही पूछा ।

अच्छा …..नही देती है क्या ?

ना जी ! मथुरा में बेच देती हैं माखन …..पर यहाँ नही देगी ।

हूँ ………..कन्हाई कुछ सोचनें लगे ………….फिर एकाएक सामनें एक सखा जा रहा था ………..कन्हैया का ही भाई था ये …….भद्र …..उपनन्द जी का बेटा ……….।

भद्र ! भद्र !

कन्हैया से छोटा है ……ज्यादा छोटा नही है ……कुछेक महिनें का अंतर है ……….कन्हैया नें आवाज देकर बुलाया ।

भद्र आगया ……….उछलते कूदते हुये आगया ।

क्या है ! बताओ क्या है ?

सुन चोरी करेगा ? बड़े गम्भीर होकर कन्हैया नें पूछा था ।

ना ! मैं तो नही करूँगा ……मनसुख नें पहले ही बोल दिया ।

हट् ……..आज कह रहा है चोरी कर …..कल कहेगा डाका डाल ………तू बड़ा विचित्र है रे नन्द के । मनसुख बोले जा रहा है ।

देख यार ! माखन की चोरी ……….कोई सोना चाँदी की नही …….कन्हैया नें मनसुख के पीठ में एक थप्पड़ मारा ……….माखन की चोरी ……….और ये चोरी नही है ।

माखन की चोरी ? खुश हो गया मनसुख …………

भद्र ! तू चलेगा ? भद्र सीधा सादा है ……….ज्यादा बोलता नही है ……कन्हैया की हर बातें आँखें बन्दकर के मान लेता है ……….

मधुमंगल ! ओ मधुमंगल !

ये भी सखा है …….इसको भी आवाज देकर कन्हैया नें बुला लिया ।

हट् दारिके ! चोरी ? और हम ? ना ये काम हम से नही होगा ।

मधुमंगल नें साफ़ मना कर दिया ।

और सुन ! तू भी मत कर …..तेरो बड़ो नाम है ……..नाम खराब है जायगो तेरो………मधुमंगल बोले जा रहा है ।

अच्छा ! खराब है जायगो तो कहा होयगो ? कन्हैया नें पूछा ।

तेरो व्याह नही होयगो ……….मधुमंगल बोला ……तो कन्हैया हँसे ……बोले ……तू चलेगो या नही ? हम तो जा रहे हैं ……

कन्हैया जानें लगे तो सब पीछे पीछे चल दिए…….और मार्ग में जो जो सखा मिल रहे थे ….उनको भी लेते चले कन्हैया ।

उद्धव आनन्दित होते हुए बोले – उसी गोपी के यहाँ गए कन्हाई ।


वो गोपी माखन निकाल रही थी ……..मन्थन हो चुका था ………और माखन निकालनें के लिये वो बर्तन लेने गयी ………….

देख लिया कन्हैया नें …………बस उसी समय मटकी के पास कोई नही है ऐसा देखकर सब ग्वाल बाल घुस गए ………..आगे आगे सरदार कन्हैया ।

समझा दिया था सबको कि विलम्ब नही करना……..माखन निकाल कर खा लेना…….और कुछ ले लेना ………भाग जाना उसी समय ……भैया ! पकड़े मत जाना बस ।

ग्वालों नें माखन लिया …….और खाना शुरू ………..कन्हैया नें माखन का एक लौंदा लेकर मुख में डाल लिया …….दूसरा लौंदा हाथ में …..

तभी गोपी आगयी बर्तन लेकर……जिसमें माखन निकालना था उसे ।

बस ….उसी समय सब ग्वाल बाल भागे ……….

कन्हैया भागनें वाले थे……पर गोपी उनके सामनें ही आकर खड़ी हो गयी ……….अब वो भागे नही …..खड़े रहे ….और मुस्कुरानें लगे ।

उफ़ ! गोपी नें देखा ……..गालों में माखन लगा है …….हाथ में माखन लगा है ……..पेट में माखन लगा है ………और इस पर मुस्कुरा भी रहे हैं ……..गोपी की बुद्धि काम नही कर रही ……..गोपी का मन मयूर तो नृत्य कर रहा था …….उसनें ये सोचा भी नही था कि आज ही मनोरथ की थी और आज ही पूरी भी हो जायेगी ।

सामनें कन्हैया खड़े हैं ……..गोपी अपनें आपको नोचती है ………कहीं मैं सपना तो नही देख रही ……पर नही ….ये सपना नही था कन्हाई सामनें खड़े थे…..पर कुछ तो कहना पड़ेगा ……..

क्यों आये यहाँ ? बेचारी जैसे तैसे इतना ही बोल पाई ।

कन्हैया नें मुस्कुराते हुये इशारा किया ……..नीचे झुक ……..गोपी नीचे झुकी……तो बड़े प्यार से कन्हैया नें उसके कान में कहा ……..”.तूनें तो बुलाया था”………..ओह ! गोपी तो वहीँ गिर गयी भावोन्माद के कारण …..देह सुध नही है उसे …….वो बस गिरकर भी मुस्कुरा रही है ।

कन्हैया नें जब देखा ये गिर गयी ……..अत्यधिक भाव के कारण गिर गयी है ……तब मुस्कुराते हुये उसको लांघ कर निकल गए बाहर ।

वो बाबरी गोपी कब तक इस अवस्था में रही……..कहते हैं – एक मास तक वो गोपी कभी हँसती, कभी भावातिरेक के कारण रोती
कभी नन्दालय में जानें की जिद्द करती ।

तात विदुर जी ! ये माखन की चोरी कहाँ है …..ये तो मन की चोरी है ।

है ना ?

शेष चरित्र कल –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 42

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 42 )

!! “गए श्याम तिहिं ग्वालन के घर”- बाल लीला !!


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कन्हैया को कोई बुलाये….हृदय से बुलाये….तो ये क्यों नही जाएगा ?

इसे कोई और भाषा समझ में ही कहाँ आती है…..इसे तो बस हृदय की भाषा यानि प्रेम की भाषा ही समझ आती है ।

जी ! ये नन्दनन्दन है ……प्रेम के बन्धन को ही ये स्वीकार करता है ….बाकी तो – ये खम्भे को भी फाड़ दे……समुद्र को रोक दे ……काल को पटकनी दे दे…….पर प्रेम की डोरी…..जो झीनी है …….बहुत झीनी है …..उसे ये नही तोड़ पाता……अजी ! ये प्रेम के हाथों बिक जाता है ।

तात !

उद्धव, विदुर जी को सम्बोधन कर रहे हैं ।

प्रसन्न हैं उद्धव ……..और प्रसन्न हों क्यों नहीं…….उनके “प्रिय” की चर्चा जो हो रही है…….और चर्चा ही नही …..उनके बाल लीला का गान हो रहा है……उद्धव प्रसन्न हैं ।

विदुर जी के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं………उद्धव ! कितनी विचित्र बात है ………मणि स्तम्भ में अपनें प्रतिबिम्ब को देखकर वो मोहित हो जाते हैं………सुखद आश्चर्य ! ओह ! जिनके द्वारा इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि हो रही है ……पालन हो रहा है और संहार भी हो रहा है ……और जगत का संहार होनें के बाद भी वो अखण्ड अबाध हैं …..ज्ञान स्वरूप हैं…….और स्वयं प्रकाशमान हैं………इनके द्वारा ही ब्रह्मा की उत्तपत्ति है …….पद्मयोनि ब्रह्मा को भी ये सृष्टि के प्रारम्भ में ही ज्ञान प्रदान करनें वाले हैं………..उद्धव ! वो मणि के खम्भों में अपना प्रतिबिम्ब देखकर स्वयं मोहित हो जाते हैं………उफ़ ! क्या लीला है ।

विदुर जी भाव में डूब गए हैं……….

उद्धव ! सुनाओ…..उन नन्दनन्दन की लीलाओं को सुनाओ…….उद्धव ! तुम जितना मुझे सुनाते जा रहे हो ना श्रीकृष्ण लीला ……मेरी प्यास और बढ़ती ही जा रही है…….आहा !

घड़ी भर के लिये विदुर जी कुछ बोल न सके…….उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी……..उनके हृदय में बालकृष्ण खेलनें लगे थे ।

उद्धव ! क्या उस बड़भागन ग्वालिनि प्रभावती के यहाँ कन्हैया गए ?

गए होंगें, अवश्य गए होंगे …..वे तो भाव के भूखे हैं …….मेरे जैसे अपात्र दासी पुत्र विदुर के यहाँ आकर केले के छिलके खा सकते हैं ………तो ये प्रभावती तो प्रेमिन है ……..अद्भुत प्रेम से लवालव है इसका हृदय तो …..और इसका ही क्यों ……बृज के हर जीव का हृदय प्रेम से भरा है और जब ये कन्हैया को देखते हैं तो उबाल आजाता है ……….वो प्रेम छलकनें लगता है …….आहा ! उद्धव ! सुनाओ मुझे …….आगे क्या हुआ उस प्रभावती का ? विदुर जी नें भाव में भरकर ये बात पूछी थी ।

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प्रभावती चल दी थी अपनें घर की ओर…..नन्दमहल के पास में ही इसका घर था…….सबकुछ भूली हुयी है ये……इसे अपनें देह का कुछ भान नही है……..पैर कहाँ पड़ रहे हैं इसके, इसे कुछ पता नही है ।

गुनगुना रही है …………….

” आज मोरे अंगना में आओ नन्द लाल , दर्शन की प्यासी गुजरिया रे “

माखन प्रिय है ना तुम्हे ……..मिठाई कुछ भी नही खाते तुम ………

आज मैं तुम्हे खिलाऊँगी जी भर के माखन……..मेरे घर आओ ना !

वो अकेले हँस रही है…….वो अकेले कभी अश्रु विसर्जन करते हुए चल रही है…….जैसे तैसे अपनें घर में पहुँच गयी थी ।

जाते ही सबसे पहले उसनें……..दही को मथना शुरू किया ।

मथती जा रही है …………और बाहर की ओर देख रही है ……..आया क्या ? मेरा कन्हैया आया ?

बाबरी हो गई है ये प्रभावती………हवा का झौंका भी आये तो ये खुश हो जाती …….मेरे श्याम आये……..जब नही आते तब दुःखी हो जाती ………वो बस, दधि मन्थन किये जा रही है ………..उसको विश्वास है कि आज उसके यहाँ कन्हैया अवश्य आयेंगें ।

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नही खाऊँगा मिठाई………मैने कहा ना ! मुझे प्रिय नही है ये सब ।

कन्हैया झगड़ रहे हैं अपनी मैया से…….बृजरानी भी समझा समझा के हार गयीं…….अच्छा ! ले माखन ही खा……ऐसा कहकर एक लौंदा माखन का मुँह में डाल दिया और स्वयं चली गयीं रसोई घर में ।

इधर कन्हैया अकेले ही निकल गए आज बाहर……..छुपते हुये जा रहे हैं कोई देख न ले ……..प्रभावती का घर ढूंढनें में समय लगा…….जब ढूंढ लिया तब बहुत प्रसन्न हुए……द्वार पर जाकर खड़े हो गए ………

प्रभावती नें देखा ……..अद्भुत सुगन्ध का झौंका उसके घर में आरहा है …….वो उठी …….दधि मन्थन से वो उठी ……और जैसे ही देखा ………द्वार पर कन्हैया खड़े हैं……..प्रभावती की साँसें रुक गयीं ……ओह ! लाला आगया मेरे यहाँ ! आनन्द की बाढ़ में वो डूबनें लगी थी ।

प्रभावती को देखा तो छुप गए कन्हैया…….प्रभावती नें देखा ……मुझे देखकर ये छुप गये……..इसलिये अब प्रभावती छुप गयी ।

कन्हैया नें देखा………प्रभावती नही है ………तो धीरे धीरे वो आगे बढ़े………..पीताम्बरी का एक छोर धरती में गिर रहा है ……..मोर का पच्छ बाँधे हैं सिर में……..छोटे से हैं, नन्हे से कन्हैया ।

मणियों का खम्भ है……..उसी मणि खम्भ में छुप गयी है प्रभावती ……और छुप कर देख रही है नन्दनन्दन को ……..

भाल पर केशर का तिलक है ……घुँघराले केश ……..नीलावर्ण …….प्रभावती देख रही है……..मटकी के पास जाकर बैठ गए हैं कन्हैया…….सौन्दर्य सागर कन्हाई……..ग्वालिन मन्त्रमुग्ध है ।

पर ये क्या ! कन्हैया चारों ओर देख रहे हैं …..कोई आतो नही गया ?

कोई आतो नही जाएगा ? फिर नजरें बचाकर मटकी में से एक माखन का लौंदा निकाला …….और जैसे ही मुख में डालनें लगे ………

सामनें मणि का खम्भ …उसमें प्रतिविम्ब दिखाई दिया कन्हाई को ।

रुक गए खाते खाते ……. ये कौन है ? मन ही मन सोचनें लगे ।

फिर डर गए…….मुझ से पहले ये आकर यहाँ चोरी कर रहा था ।

मन में विचार कर रहे हैं ……..पर बालकों का “मन विचार” भी बाहर सुनाई दे जाता है……ग्वालिन प्रभावती को सब सुनाई दे रहा है ।

तू कौन है ? कन्हैया पूछ रहे हैं अपनें ही प्रतिबिम्ब को देखकर ।

तू तो मेरी ही नकल कर रहा है …….अच्छा सुन !……..देख ! मैया को जाकर मत कहना कि मैने यहाँ चोरी की……ठीक है ?

फिर कुछ देर में कन्हैया बोले – सुन ! ले माखन खा ………इस मटकी में जितना माखन है ……आधा आधा खाते हैं …..ठीक है ? अब ले …..ये तू खा……….माखन लेकर अपनें ही प्रतिबिम्ब को खिलानें लगे ………पर माखन गिर गया ………

“न ई”….सिर हिलाकर बोले……ऐसे अपमान नही करना चाहिये …..माखन को क्यों फेंका तुमनें……जाओ मैं तुम्हे माखन नही देता ।

हद्द है तात ! ……स्वयं से रूठ गए लालन ।

प्रभावती की हँसी छूट गयी ………उसनें कोशिश की ……..कि हँसी न निकले …….पर ये स्वयं में थी कहाँ……ये तो हँस दी ……..

और जैसे ही हँसी की आवाज सुनी ………मुख में माखन भर कर बाहर भागे कन्हैया……..क्या रूप था उस समय कन्हाई का …….मुख में माखन लगा हुआ है ………..और नन्हें चरणों से ठुमुक ठुमुक भाग रहे हैं……प्रभावती तो हँसते हुए लोट पोट हो गयी है ……….पर आगे जाकर कन्हैया भी रुक गए ……….उन्होंने देखा रुक कर ……….प्रभावती खड़ी है मुग्ध सी …………देख रही है ………..

तभी – अंगूठा दिखा कर हँसे कन्हैया……मुख में माखन लगा है …….चिढ़ा रहे हैं कन्हैया प्रभावती को……और मानों ऐसे प्रसन्न हो रहे हैं जैसे इन्होनें महाभारत का युद्ध अभी जीत ही लिया हो ।

विदुर जी हँसते जा रहे हैं इन लीलाओं को सुनकर…….उनके आनन्द का ठिकाना नही है……तात ! ये प्रथम माखन की चोरी थी नन्दनन्दन की ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 41

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 41 )

!! “वो बाबरी प्रभावती” – बाललीला !!



उस ग्वालिन का नाम था “प्रभावती” ।

समस्त गोकुल की गोपियों में इसका प्रभाव अच्छा था ।

ये अपनें को सबसे बुद्धिमान और चतुर् समझती……सुन्दर थी ….किन्तु जितनी सुन्दर थी उससे ज्यादा अपनें को मानती ।

पर – तात ! एक दिन नन्दनन्दन को इसनें देख लिया ……….”मुँह में माखन लगा है ……..और अंगूठा दिखाते हुए चिढ़ा रहे हैं “…….उफ़ ! वो झाँकी ……बस इसी झाँकी नें इसे बाबरी बना दिया था ।

इसकी बुद्धि अब कन्हैया के पास है ……….ये कुछ भी सोचती है – कन्हैया के बारे में ही सोचती है……….”मुँह में माखन लगा है और अंगूठा दिखा रहे हैं”…….इसके कलेजे में गढ़ गयी थी ये छबि ।

सब को पता है प्रभावती में कितनी अकड़ है ……पर ये “लगन” ऐसी है कि अच्छे अच्छों की अकड़ निकाल दे ………फिर इसकी लगन तो कन्हैया से लगी थी ।

बेचारी अपनें स्वाभिमान को ताक में रखकर आगयी आज तो ……..नन्द महल में ……द्वार पर खड़ी है ………..पर कोई दिखाई नही दे रहा इसे ……इसनें धीरे से महल के भीतर झाँका …….

ओह ! बृजरानी की गोद में कन्हैया बैठे हैं………..इसनें देख लिया …….श्याम घन ………नीलमणी …….केश घुँघराले …….काले ………उनको ही बांध दिया है बृजरानी नें ……..और ऊपर एक मयूर का पच्छ लगा दिया है ………..अधर लाल हैं और पतले हैं ……..

प्रभावती छुप के देख रही है ………………..

बृजरानी इधर उधर देखती हैं………दही मथना है ……….और ये कन्हैया अब दूध पीनें के लिये मचल रहा है ………….क्या करूँ ?

दधि मन्थन न करूँ तो दही बिगड़ जाएगा ….और दूध न पिलाऊं कन्हैया को तो, ये जिद्दी है ………..क्या करूँ ?

बृजरानी इधर उधर देख रही हैं………कोई गोपी भी आज दिखाई नही दे रही …………..

तभी बृजरानी नें प्रभावती को देख लिया ………..और बड़े प्रेम से बोलीं ………अरे ! प्रभावती ! तू ? सुन तो ………मेरा एक काम कर दे ।

प्रभावती यही तो चाहती थी कि इसको नन्द महल में कुछ काम मिले …..ताकि ये कन्हैया को जी भर के देख सके ।

सुन ना ……..दधिमन्थन कर दे ……! प्रार्थना के स्वर में बोलीं थीं बृजरानी । देख ! मैं तब तक इसको दूध पिला देती हूँ ……….

प्रभावती नें सिर “हाँ” में हिलाया ……….उसनें अपनी प्रसन्नता प्रकट न होनें दी ……..उसका तो मनमयुर नाच रहा था ……वो यही तो चाहती थी ।…….इधर कन्हैया को गोद में लेकर दूध पिलानें लगीं बृजरानी …..प्रभावती बृजरानी की गोद में देखते हुए दधि मटकी की ओर बढ़ी ………यशोदा तो दूध पिलानें में व्यस्त हो गयीं……….प्रभावती का ध्यान कन्हैया की ओर ही था…….चलते हुये …..दही की मटकी गिर गयी ……..दही फ़ैल गया ।

बाबरी प्रभावती को कुछ भान नही है ………मटकी को सीधा करके “रई” चलानें लगी ……………मटकी खाली है ……..दही तो फ़ैल चुका है आँगन में ………..खाली मटकी को चला रही है प्रभावती ।

उसे कुछ भान नही है …….उसे बस नन्दनन्दन की छबि का ध्यान है ……..फिर मन में सोचती है …..क्या भाग्य पाया है इस बृजरानी नें ……आहा ! ऐसा सुन्दर गोपाल गोद में है और दूध पी रहा है ।

“अरी ! अपनें को सम्भाल”……..बृजरानी नें पीछे से आवाज दी ।

प्रभावती को अब होश आया …….. उसनें जब देखा आँगन में दही फैला हुआ है ……और वो खाली मटकी में रई चलाये जा रही है …… अब तो प्रभावती संकोच और लज्जा के मारे धरती में गढ़ी जा रही थी।

पर बृजरानी नें भी प्रभावती को कुछ नही कहा ………….बेचारी नें एक बार फिर यशोदा जी के गोद में देखा …………दूध, मुँह में फैला हुआ था कन्हैया के……..और वो मुस्कुरा के प्रभावती की ओर ही देख रहे थे ।

इस मुस्कुराहट नें – अग्नि में घी का काम किया था ………

प्रभावती चली गयी अपनें घर …..किन्तु दूसरे दिन फिर –


आज फिर आगयी………..और द्वार से खड़ी होकर महल के भीतर देख रही है ये प्रभावती ।

बृजेश्वरी दूध पिला रही हैं…….पर कन्हैया मान नही रहे……..

दाऊ भी खड़े हैं बगल में…….उन्होंने तो पी लिया ……….

देख ! तेरा भाई दूध पी लेता है ……तू नही पीता …….तू गन्दा है ।

“मैं गन्दा नही हूँ”………….चिल्लाये कन्हैया …………प्रभावती मुग्ध हो गयी ……..उसे यही तो चाहिए था ………….आहा ! उसका हृदय गदगद् हो उठा …….”कन्हैया” …..भीतर से चीत्कार उठी वो ।

देख ! देख लाला ! गोद में बिठा लिया बृजरानी नें…….तू तो राजा बेटा है…..तू तो सबसे अच्छा है…..मुख चूम रही हैं अपनें लाल का …

“दूध पी लाला”………बृजरानी नें फिर दूध पिलाना चाहा ।

नही …….मैं दूध नही पीयूँगा…………. फिर मना ।

प्रभावती देख रही है ………….देह भान भूल गयी है ये ।

अच्छा देख ! तुझे चोटी बड़ी करनी है ना ? मैया नें ये भी पूछ लिया । फिर बोलीं ……..दाऊ भैया की चोटी कितनी बड़ी है …..और तेरी चोटी तो नेक सी है ……इत्ती सी …………

“मुझे भी चोटी बड़ी करनी है” ………कन्हैया फिर मचले …….

प्रभावती हँस पड़ी …………वो आनन्दित हो उठी ।

तू दूध पी ……दूध पीयेगा तो चोटी बड़ी होगी …….नही तो ।

दूध पीनें से चोटी बड़ी होती है ? भोलेपन से पूछा ।

और क्या ! ले पी ……..दूध का कटोरा मुँह में लगा दिया ………

प्रभावती छुप छुप कर देख रही है………एक घूँट पीया ………फिर चोटी नापनें लगे ……..चोटी तो बड़ी हुयी नहीं ? कन्हैया नें पूछा ।

पूरा दूध पीयेगा तब बड़ी होगी……..दूध पी ………

प्रभावती देख रही है ……नापते जा रहे हैं चोटी …..और दूध पीते जा रहे हैं…………

अपनें को भूली सी वो प्रभावती अपलक देख रही है कन्हैया को …….रोष में आगये लालन ……….मुँह फुला लिया गेंद की तरह …..कमर में हाथ रख लिया …….झूठी है तू मैया ! चोटी तो बड़ी हुयी नही ?

हँसी फूट पड़ी यशोदा की …………पकड़ कर अपनें हिय से लगा लिया था अपनें प्यारे बाल गोपाल को ।

उफ़ ! प्रभावती की दशा देखनें जैसी थी ।


तीसरे दिन फिर आयी प्रभावती नन्द महल में…….इसका मन नही लगता अब घर में ……….ये तो बस घर का काम किसी तरह कर लेती है ……..चिर अभ्यास वश ……..बाकी इसका मन तो नन्दनन्दन में ही अटक गया है ।

बृजरानी नें आज नाना प्रकार के मिष्ठान्न बनाये हैं…………और उन्हें सजाकर एक बड़ी सी थाल में रख दिया है ।

मनुहार कर रही हैं……..लला ! खाओ मिठाई ………

“मुझे नही खाना”…………जिद्दी है ये बाल गोपाल ।

मिठाई खाना तो अलग बात है ……ये तो उस तरफ देख भी नही रहे ।

प्रभावती विचार करती है ………….और मन ही मन पूछती है ……फिर क्या खाना है लालन तुम्हे ?

“मुझे माखन खाना है” ………..खींज कर बोले ।

प्रभावती आनन्द सिन्धु में डूब गयी ………..आहा ! माखन प्रिय है मेरे कन्हैया को ………..कन्हैया के अमृतमय वचनों को बड़े ध्यान से सुन रही है ये ग्वालन ………उन अमृत वचनों के श्रवण से उसमें मत्तता छाती जा रही है ……..और उसी मत्तता के कारण प्रभावती में एक भावना जाग्रत हुयी ……..और ये भावना सच्चे हृदय की थी ।

क्या कभी कन्हैया मेरे घर भी आयेंगें ? क्या कभी कन्हैया मेरे घर आकर माखन भी खायेगें ?

पर – प्रभावती फिर शान्त हो गयी………नही आयेगें…….मेरे घर ये नही आयेंगें…….क्यों की मुझे देख लेंगे तो इन्हें संकोच होगा ……

फिर तुरन्त प्रभावती सोचती है……….नही नही …….जब ये मेरे घर आकर माखन खायेगें तब मैं इनके सामनें नही आऊँगी ………छुप कर इन्हें देखती रहूँगी…….ओह ! कितना आनन्द आएगा मुझे ये सब देखकर ……..मैं तो निहाल हो जाऊँगी ………

फिर उदास हो गयी ………..मेरी कामना पूरी होगी ?

नही होगी , मेरी ये साध पूरी……….प्रभावती अब धीरे धीरे अपनें घर की ओर चली………….

तात विदुर जी ! ये कन्हैया है ………..सबकी सुनता है ……..और सच्चे हृदय से कोई कामना करे …….तो ये अवश्य पूरी करता है ।

“सूरदास प्रभु अन्तर्यामी, ग्वालिन मन की जानी”

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 40

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 40 )

!! “नाचे नन्दलाल” – दिव्य बाल लीला !!


हे बृजराज दुलारे ! अपनी बाल लीलाओं से विमोहित करनें वाले !

हम तेरी बलिहारी जाती हैं…..तू नाच ना ! नाच दे ! हे दाऊ के अनुज !

ये ले – थेई थेई थेई तत् थेई । इस प्रकार मनुहार करती हुयी बृजगोपियाँ ताल देनें लगीं और छोटे से कन्हैया नाचनें लगे ।

तात ! ये अद्भुत लीला है नन्दनन्दन की ……भगवान रूद्र भी इन अन्तरंग लीलाओं को देख नही पाते हैं ……..ब्रह्मा तरसते हैं कि हमें वो मेघश्याम की सुन्दर झाँकी के दर्शन हो जाएँ ……देवराज की पहुँच नही है नन्दमहल तक……..ऋषि मुनि प्रयासरत हैं कि एक झलक तो मिल जाए ………पर नहीं !

उद्धव बोले – रूप भार से दबी स्वर्ग की अप्सरायें भी जो आज तक ऐसे सुन्दर बाल गोपाल को देख नही पाई हैं …….पायल की झंकार से बृह्माण्ड सुन्दर पुरुषों को आकर्षित करनें वाली गन्धर्व बालाएं, कभी सोच भी नही सकतीं कि सुन्दरता ऐसी भी होती है ………जिसे देखते रहें देखते रहें ……तो क्षण क्षण में सुन्दरता कम नही अपितु बढ़ती ही जाती है ………….और ये बढ़ना कम नही होता …..चाहे आप घड़ी भर देख लो ……या वषों तक देखते रहो ……ये हर क्षण में नव नवायमान ही लगता है ।………….तात विदुर जी ! उन्हीं नन्दलाल को ये गोबर थापनें वाली आभीर कन्याएं नचा रही हैं ……..और वो ज्ञानी का ब्रह्म, योगी का परमात्मा, भक्त का भगवान ……ओह ! नाच रहा है ।

ये गोपियाँ !

देख ! देख ! लाला ! वो मोर ! गोपियाँ मोर दिखाती हैं ।

अब नाचना बन्द ……..मुग्ध होकर ये मोर को देखते हैं ……..मोर, पंख फैलाकर नाच रहा है……..लाला ! तू भी नाच ऐसे ही …….गोपियाँ कहती हैं……कितनें प्रसन्न हो जाते हैं ये ……और अपनी छोटी छोटी दोनों भुजाओं को पीठ में लेजाकर फैला देते हैं ……..और नाचनें लगते हैं ।

तुलसी में जल चढ़ा रही हैं बृजरानी ……..ये दृष्य देख लिया ……..वो तो जल चढ़ाना ही भूल गयीं……..

उसी समय बृजराज गोष्ठ से आये महल में……जब देखा कि अपना लाला मोर की तरह नाच रहा है…….वो मुग्ध होकर बस देखनें लग गए……वो ये भी भूल गए कि मैं गौशाला से यहाँ क्यों आया !

हये मेरे प्राण ! अपनें बाबा को देख लिया लाला नें ……बस संकोच करके नाचना रोक दिया …….मैया बृजरानी दूर खड़ी हैं……….लाला उनको देखकर दौड़ पड़े …..और गोद में चढ़ गए ।

तात ! धन्य हैं ये यशुमति ………आहा ! माताओं का हृदय वैसे भी वात्सल्यरस से ओतप्रोत होता है …….फिर उसमें बृजरानी !

स्नेह का कैसा अद्भुत विस्तार है ! किन स्वर्गीय उपादानों से निर्मित किया है विधाता नें इस श्रीकृष्ण जननी का हृदय ……..वात्सल्य का कैसा विस्तीर्ण पयोनिधि है आहा ! और हाँ इस वात्सल्य सिन्धु में कितनें अमूल्य भाव – रत्न पड़े हैं कह नही सकते ।

तात विदुर जी ! यशोमती का हृदय वैसे भी स्निग्ध और कोमल है …प्यारा कन्हैया कहाँ गया ? वो कब से खेल रहा है थक गया होगा ।

ग्वाले थका देते हैं भगा भगा कर……. बहुत देर से उसनें दूध नही पीया ………दाऊ भी तो उसके पक्ष में नही खड़ा होता ……..वो भी अन्य ग्वालों की बातें सुनता है…….अन्तःकरण ही कन्हैया बन गया है बृजरानी का…….उफ़ ! ये यशोदा है……..कोई साधारण नही ।

सबसे छोटी है…….हाँ सबसे छोटी है मैया यशोदा……कहते हैं नन्दबाबा से दस वर्ष छोटी है …………इसकी सब जेठानी हैं ……..क्यों की सबसे छोटी यही हैं ……..पर यशोदा मैया छोटी कहाँ है …..ये तो सबसे बड़ी है…….हाँ सबसे ……इससे बड़ा कोई नही है ……तात ! आप ही बताइये परब्रह्म को जो अपनी गोद में खिला रही हो …….उससे बड़ा कोई होगा ? भाव में पूरी तरह डूब गए हैं आज उद्धव ।

आज, लो , आज दाऊ की कुशल नही है ………….क्यों की कन्हैया नें शिकायत जो कर दी अपनी मैया से , दाऊ की ………..

और रोते हुए शिकायत की ……..रो रहे हैं ……….दोनों हाथों से आँसू पोंछ रहे हैं………….साँस लेते हुए भी बोल रहे हैं और साँस छोड़ते हुए भी ………..अद्भुत झाँकी हैं इनकी तो ।

कन्हैया छोटा है तो क्या हुआ ……पर लगनें वाली बात तो सबको लगती ही है …….चाहे छोटा हो चाहे कोई बड़ा हो ।

अच्छा बता ! बात क्या है ? बृजरानी नें भी पुचकारते हुए पूछा ।

दाऊ नें कहा मुझे – तू मैया यशोदा का जाया नही है ……तुझे तो मोल से खरीदा गया है……लाला आँसू पोंछते हुए बोल रहे हैं ।

जब मैने कहा …….नही मेरी मैया तो यशोदा ही है ………तब बोलते हैं दाऊ …….कि “तू काला , और मैया गोरी ….और बाबा भी गोरे ………..इसलिये तू मैया यशोदा और बाबा नन्द का जाया नही है ।

कोई बात नही लाला ! दाऊ से कुट्टी कर दे ……….मत बोलना अब दाऊ से ……..मैया नें अपनें लाल को पुचकारा ।

मैया ! दाऊ ही कहे तो कोई बात नही …..पर दाऊ नें अन्य सभी सखाओं को भी ये सिखा दिया है कि ……मैं तेरा बेटा नही हूँ …….मुझे तूनें खरीदा है……….फिर रोना शुरू ।

तू मार उसे ……तू पीट दाऊ को……कन्हैया रोते जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं …….मैया ! .दाऊ के कहनें से …..चुटकी दे देकर मेरी हँसी करते हैं मेरे सखा…..मेरे सखाओं को भी दाऊ नें अपनी तरफ कर लिया है ।

अच्छा ! छोड़ दाऊ को …….छोड़ दे ………मैया नें इस बात को सरलता से कहा… ……पर बालक की बात को माँ सरलता से ले कैसे सकती है ?

दहाड़ मारकर रोनें लगे कन्हैया ………..धरती में गिर गए ……दोनों चरणों को पटकनें लगे ……………और हिलकियों से रोते हुये बोले – तू दाऊ को क्यों मारेगी ! तू तो मुझे ही मारेगी …………मारना पीटना तो मुझे ही है ……….।

बस इतना सुनते ही बृजरानी का हृदय भर आया ……..उठाकर लाला को, मुख चूम लिया …….और बोलीं……..बेकार है दाऊ ………मैं उसे जन्म से ही जानती हूँ………लाला ! तू दाऊ की बातों पर क्यों विश्चास करता है ……..वो झूठा है ………वो कुछ भी बोलता है ।

अच्छा तुझे विश्वास नही है मेरी बात का ……….तो सुन ……….

गायों की सौगन्ध खा कर कहती हूँ…….अपनें सम्पूर्ण गौ धन की सौगन्ध खा कर कहती हूँ ……तू ही मेरा पुत्र है ….और मैं ही तेरी मैया हूँ ।

ये कहते हुये मैया यशोदा के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ………पता नही क्या हुआ था इस ममता की मारी को ………..अपनी मैया को रोते हुये जब कन्हैया नें देखा …..तो पुचकारते हुये मैया को चुप करानें लगे ।

मैया भाव में भर गयी थी ……….वो अपनें लाला की लीलाओं में खो गयी थी……..वात्सल्य का ज्वार उमड़ उमड़ आया था ।

तभी – सामनें एक पोखर था ……… पोखर में कमल खिले थे ……उन कमलों में अनगिनत भौरें थे …….वो गुनगुना रहे थे ।

मैया ! मैया ! गूँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ……..भौरें की नकल करनें लगे लाला ।

तो मैया हँसी ……….मैया को हँसते हुये देखकर लाला प्रसन्न हुए ।

नाच !

यशोदा मैया मुग्ध हो गयीं और अपनी गोद से उतार दिया …..

लाला ! नाच !

मैया के कहनें पर लाला नाचनें लगे……….आहा !

ताली बजा रही हैं बृजरानी …….और उनके लाला नाच रहे हैं ।

ध्यान में डूब गए थे उद्धव, इन लीलाओं का गान करते हुए ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 39

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 39 )

!!”चन्द्र खिलौना लैहों”- अद्भुत बाल लीला !!


तात विदुर जी ! हमें एक ही बात से बचना चाहिये …….और सबको बचना चाहिये ……..कि “नन्दनन्दन न रूठे” ।

जगत रूठे, कोई बात नही ….क्या फ़र्क पड़ता है जी ! पर “श्याम” न रूठे …..क्यों की वो रूठता है ना तो लगता है हृदय फट जाएगा ….फिर लगता है सारा संसार ही असार हो गया….क्यों की “श्याम” रूठ गया ।

देखो ना ! आज श्याम रूठ गया है …….तात ! दर्शन कीजिये ….रूठ गया है श्याम ……….भूमि पर लोटनें लगा है ……….नन्दगेहनी गोद में लेना चाहती हैं…….पर वो मुँह नोच रहा है अपनी मैया का…….

जीजी ! छोड़ दो उसे……नही तो और खीजेगा…..रोहिणी नें कहा ।

मैया यशोदा नें उसे फिर धरती में रख दिया……अरे ! ये क्या, ये तो और जोर से रो रहा है…..और जोर से ……काजल फैल गया है उन सुन्दर कपोलों में…..कमलदल से लोचन लाल हो गए हैं रो रोकर ।

हिचकियाँ लेकर रो रहा है…….और इतना तेज़ रो रहा है ……कि जिस जिस घर में ये आवाज जा रही है ……..वही गोपी अपना काम धन्धा छोड़कर भाग रही है नन्दालय की ओर ।

आँगन में भीड़ लग गयी …..गोपियाँ खड़ी हैं……देख रही हैं…..ये तो रोते हुए भी सुन्दर लगता है…..तात ! ज्यादा सुन्दर लगता है ।

मुँह बनाकर रो रहा है …….हये ! कितनी सुन्दर झाँकी है…….गोपियाँ मन्त्रमुग्ध सी बस देखे जा रही हैं ।

पर ये क्या, गोपियाँ अपनें घर से जब आयीं नन्दालय में ……..तब उनके पीछे पीछे उनके बालक भी चले आये ………….

यहाँ जब देखा नन्दलाल रो रहा है …………तो सारे बालक भी रोनें लगे …………रोहिणी माथा पकड़ कर बैठ गयीं ………….

अब तो ये चुप होनें से रहा ……………हाँ एक उपाय था …..दाऊ आगे बढ़कर अगर आँसू पोंछ देते हैं कन्हैया का …..तब कन्हैया चुप हो जाता है ………पर आज तो दाऊ भी रो रहे हैं ।

क्यों रो रहे हैं दाऊ ? ये प्रश्न बालकों के सम्बन्ध में व्यर्थ है ।

बालक एक दूसरे को देखकर रोते हैं ………कारण में न जाइए तात !

उद्धव नें कहा ।

विदुर जी इस प्रसंग को सुनते हुए ध्यानमग्न हो जाते हैं ।

समय बीतता जा रहा है ………दोपहर से साँझ होनें लगी है अब …….पर कन्हैया का रोना कम ही नही हो रहा ।

बालकों की भीड़ जमा हो रही है नन्द आँगन में…….गोपियाँ उपाय बताती हुयी बृजरानी को अब थक चुकी हैं ।

“जाओ ! तुम सब बालक जाओ यहाँ से”……..बृजरानी नें अन्य समस्त बालकों को उनके घर भेजना चाहा ……बृजरानी को लगा कि ये बालक चले जाएंगे तो मेरा लाला शान्त हो जाएगा ……..पर ।

बालक जैसे ही जानें लगे …….कन्हैया ये देख कर तो और रोये……बृजरानी नें बालकों को वापस बुला लिया ।

धूल ही धूल में सनें बैठे हैं……..मुँह सूख गया होगा……जल पिला दो…..कण्ठ देखो ! …….बृजरानी को गोपियों नें कहा ।

अब तो बृजरानी आगे बढ़ीं……..और जबरदस्ती गोद में लेकर बोलीं -“लाला ! जल पी ले……..देख ! जल पी ले”…..जिद्द नही करते ।

आँसुओं की धार कपोलों में काजल के चिन्ह बना रहे हैं …. …अभी भी सुबुक रहे हैं लाला……नहीं……जल को हटा दिया अपनें सामनें से ।

और अपनें दोनों नन्हें नन्हें करों से बृजरानी के केश खींच रहे हैं………..

फिर जब केशों को छुड़ा लेती हैं…..तो मुँह को नोचनें का प्रयास करते हैं………..

अच्छा ! अच्छा ! मेरे लाला को आज एक खिलौना दिखाऊँ ?

गोद में लेकर गयीं बृजरानी……..नन्दनन्दन नें सुना नही ……तो फिर बोलीं लाला ! एक खिलौना लेगा ?

कहाँ है ? रोना थोडा कम हुआ……..आँसुओं को दोनों हाथों से पौंछते हुये कन्हैया बोले ……कहाँ है खिलौना ?

देख ! ये है…..देख ! आकाश में चन्द्रमा दिखाई दे रहे थे……सूर्य ढल चुके थे…….चन्द्रमा को देखकर ही बृजरानी नें कहा …..देख ! तेरा खिलौना ।

कन्हैया चुप हो गए ……..बड़े ध्यान से देखनें लगे चन्दा को…….मैया खुश हो गयी ……..चलो ! ये युक्ति काम कर गयी ।

पर धीरे से कन्हैया बोले……खिलौना दे ।

अब कहाँ से दे बृजरानी उस चन्द्र खिलौना को……………

पर बालक की जिद्द है……उसमें कोई तर्क तो है नही …….न तर्क का कोई काम है यहाँ ।

अब लाला को चन्द्रमा चाहिये…………”मैया चन्दा ” ।

फिर रोना शुरू …….फिर अँसुवन की धार शुरू ……..धरती में बैठ गए फिर से ……दोनों चरणों को पटक रहे हैं……..और जोर से रो रहे हैं ।

हे भगवान ! ये कैसो हठी मेरो बाल मुकुन्दा !

भीतर से रोहिणी नाना प्रकार के खिलौना ले आयीं ………और सब रख दिया …….पर इन सबसे आज ये नही खेलेंगें …..इन्हें चन्द्रमा से ही खेलना है ……..अद्भुत !

तू पकड़ कर ला ! तू ला ! चिल्ला रहे हैं अपनी मैया पर ।

हृदय में बड़ा कष्ट हो रहा है बृजरानी के …………कोमल सा मेरा लाला …….आज दोपहर से ही रो रहा है ………….रूठ गया है ये …….अब कैसे मानेगा ! बृजरानी को कोई उपाय नही सूझ रहा ।

गोपियों के भी कुछ समझ में नही आरहा ……….क्या करें ?

तभी हँसी बृजरानी …………लाला ! तुझे चन्दा चाहिए ना ?

हाँ ….वो , छोटी सी ऊँगली से आकाश की ओर दिखाते हुए कहा ।

बृजरानी भीतर गयीं……और एक बड़ी सी चाँदी की थाल ले आयीं …….उसमें पानी भरकर लाईं थीं…….लाला के बीच में रख दिया …….चन्द्र का प्रतिविम्ब दिखाती हुयी बोलीं……..

देख ! चन्दा ! लाला ! देख चन्दा !

अब तो लाला का रोना धोना सब बन्द………बड़े कौतुहल से झुककर थाल में देखनें लगे थे चन्द्रमा को ।

बृजरानी बड़ी प्रसन्न हो गयीं ……. रोहिणी नें कहा ….जीजी ! ये उपाय पहले क्यों नही सूझा आपको…….वाह बृजरानी ! बूढी गोपियाँ भी बोल रही थीं, ” ये अच्छी बुद्धि लगाई तुमनें ” । बृजरानी बहुत प्रसन्न हैं ।

तभी लाला नें थाल में हाथ रख दिया ……..क्यों कि उसे पकड़ना हैं खिलौना को …..बिना पकड़े खेलेगा कैसे खिलौना से ।

थाल में हाथ को घुमाते हैं ………थाल का जल घूमता है तो चन्द्रमा भी घूमता है……….

फिर रोना शुरू – मैया ! ये चन्द्रमा घूमता है ! इसे पकड़ कर मुझे दे ।

अब कैसे पकड़े चन्द्रमा को बृजरानी……….जैसे तैसे तो ये उपाय निकाला था पर अब क्या करे ?

तभी बृजराज आगये ………लाला नें बृजराज को देखा तो और रोनें लगे ……जोर से रोनें लगे ……….

बृजराज को समझते हुये देर न लगी कि, यहाँ हुआ क्या है !

बाबा ! मुझे चन्दा ! कन्हैया नें सुबुकते हुए कहा ।

अरे ! ये भी रो रहा है ……चन्दा भी रो रहा है …..देख लाला !

बाबा बृजराज नें अपनें कुँवर को पुचकारते हुए कहा ।

चुप हो गए कन्हैया ।

….अब देख ! चुप हो गया ना चन्दा भी……..तू रोयेगा तो ये रोयेगा ……तू हँसेगा तो ये भी हँसेगा ………अब हँस …….कन्हैया हँसे ……….बृजराज उछलते हुए बोले ……देखा ! ये भी हँस रहा है ……कन्हैया प्रसन्न हो गए ……मैया ! चन्द्रमा हँस रहा है कन्हैया नें अपनी मैया को बताया ।……… तभी बृजराज नें हँसते हुए कन्हैया को गोद में उठा लिया था …..और चूमते हुये महल के भीतर ले गए ………….

सारी गोपियाँ लौट गयीं अपनें अपनें घरों की ओर …..पर दुःखी हैं लौटते हुए ………नन्दलाल के दर्शन जो हो रहे थे ……….पर अब रात, बिना नन्दनन्दन को देखे बीतेगी ।

तात विदुर जी ! ये लीला, समाधि के लिये है ………ये लीला न उपदेश है ….न इसका कोई सामाजिक सन्देश है …….न कोई आध्यात्मिक आदेश है………आप तो बस इन लीलाओं का ध्यान कीजिये ……..अपनें हृदय में कन्हैया को खेलनें दीजिये ………और आप उसे बस देखते जाइए…….ये आनन्द है यही आल्हाद है । और यही साधना की पूर्णता है । बस उसे रूठनें मत देना …..रूठ भी जाए तो मना लेना …..जैसे भी हो ।

उद्धव बताते हैं विदुर जी को ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 38

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 38 )

!! आनन्द की आल्हादिनी का जन्म महोत्सव !!


तात विदुर जी ! श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरा है ……….

दोनों एक ही हैं तात ! जैसे – जल और तरंग ।

इसलिये मैं आपको श्रीराधा रानी के चरित्र को भी सुना रहा हूँ ……..श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण कुछ नही हैं………हँसे उद्धव ! वो प्रेमिन श्रीकृष्ण की……नही नही श्री कृष्ण का प्रेम ही तो श्रीराधा है……प्रेम नें ही मानों आकार ले लिया हो तात !

उद्धव के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे श्रीराधा का स्मरण करते ही ।

उद्धव ! क्या तुमनें दर्शन किये हैं श्रीराधा के ?

विदुर जी नें प्रश्न किया ।

हाँ …..हाँ तात विदुर जी ! श्रीकृष्ण कृपा से ये सम्भव हो सका ।

श्रीकृष्ण का मेरे प्रति बड़ा स्नेह था ………वो मुझे अपना बनाना चाहते थे ……..पर मुझ में तो “मैं” था …….ज्ञान, बोध का अहं………मैं देव गुरु का शिष्य……….कितना अहं ओढ़े बैठा था मैं ……..और श्रीकृष्ण इस बात को समझते थे कि वो मेरे इन अहंकारों की सम्पूर्ण श्रृंखला को नही तोड़ पाएंगे………इसलिये मुझे उन्होंने अपनी प्रिया के पास भेजा था …..ओह ! उनका दर्शन ……..मानों प्रेम ही विराजमान हो ………….मुझे तराशा श्रीराधा नें ……….मेरे भीतर जो भी अहं था उसे धीरे धीरे तोड़ कर मिटा ही दिया ……..विशुद्ध प्रेम का उदय कर दिया मेरे हृदय में ……….मेरी गुरु हैं श्रीराधा ।

उद्धव इतना ही बोले ……और कुछ देर के लिये चुप हो गए थे ……वो भाव सिन्धु में डूब रहे थे ……..राधा ! राधा ! राधा ! राधा ! उनके रोम रोम से यही नाम प्रकट हो रहा था ।

उद्धव ! उद्धव !

तुम अगर ठीक हो तो मुझे आगे का प्रसंग सुनना है ………सुनाओ ना उद्धव ! विदुर जी नें भाव में भरकर कहा ।

रावल में श्री राधा रानी के अवतरण के बाद ? उद्धव आगे बताओ !

विदुर जी नें कहा……कौन ऐसा शुष्क हृदय होगा जो नन्दनन्दन के रसमय चरित्रों को छोड़कर व्यर्थ और नीरस सांसारिक वार्ता में अपनें मन को लगायेगा …..उद्धव ! सुनाओ, आगे बरसानें की कुछ बातें…..मेरे नन्दनन्दन की, अल्हादिनी की कुछ आल्हादकारी चर्चाएं ।

उद्धव बतानें लगे – तात ! रावल गाँव से अपनें बरसाना आगये थे बृषभान जी उनकी अर्धांगिनी कीर्तिरानी उनके कुँवर श्रीदामा और भानु दुलारी ….लाली …….जिनका जन्म अभी हुआ ही था ।

मेरी कभी पटी नही, मेरे पिता जी से ……… …..मैं शनिश्चर ।

मेरे पिता भास्कर, सूर्य, भानु……..हम दोनों पिता पुत्र हैं……पर शत्रु की तरह हम दोनों का व्यवहार है …….मुझे स्मरण नही है कि कभी हम दोनों की कोई बातें भी हुयी हों ……..मुझे काला कहकर …..मुझे कुरूप कह कर मेरे पिता नें मेरा अपमान किया था……तब मेरी माँ ही थी जिसनें मुझे कहा……काला ? पुत्र शनि ! काले तो श्रीकृष्ण भी हैं ।

आहा ! तभी मेरे मन में श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा जाग्रत हो गयी ………कहूँ तो मैं उसी दिन से श्रीकृष्ण का भक्त बन गया था ।

एक दिन मेरे पिता नें मुझे देखा और कहा ……जाओ ! बरसाना जाओ …….वहीँ जाकर रहो ………क्यों की वहाँ श्रीकृष्ण प्रिया श्रीराधा का अवतार होगा ……….वो भानु नन्दिनी हैं ………..जाओ !

मेरे पिता सूर्य नें मुझ से पहली बार बात की थी………मैं उसी समय चल दिया था बरसानें की ओर …….मेरे श्रीकृष्ण की, प्रिया की स्थली है ये …….मेरे मन में अगाध श्रद्धा का उदय होनें लगा था इस क्षेत्र के प्रति………मणियों की खदानें मैने प्रकट कर दी थी बरसानें में……….मैं ? मैं क्या प्रकट करता ! ग्रह ही तो हूँ मैं ……..एक क्रूर ग्रह …बरसाना तो स्वयं में समृद्ध था ……..और क्यों न हो ब्रह्म की अल्हादिनी यहीं पर आनें वाली थीं ………पर मेरे ऊपर कृपा हुयी श्रीराधा रानी की……तभी मुझे श्रीकृष्ण नें स्वीकार किया ।

धन्यवाद करता हूँ मैं आज अपनें पिता सूर्य का…….जिन्होनें मुझे इस स्थान में आने को कहा………और प्रसन्नता मुझे इस बात की हुयी कि ……..बाद में मेरे स्वामी , मेरे आराध्य श्रीकृष्ण भी यहीं पर आगये थे ……और उन्होंने यहाँ “नन्द गाँव” बसाया ।

यानि मेरे आराध्य भी श्रीजी की कृपा छायाँ में ही रहनें लगे थे….ओह !

आज छटी है ………..बहुत रुष्ट होंगें मित्र बृषभान तो !

कहेंगें – छ दिन हो गए लाली जन्में हुए …..और अब आरहे हो ? जाओ ! बृजराज ! हम तुमसे बात ही नही करेंगें ।

बृजरानी ! सोच लो ………कीर्ति भाभी भी बहुत कुछ सुनाएंगी ।

रोहिणी कहती हैं…………पर बृषभान भाई जी आपसे बड़ा प्रेम रखते हैं………….शिकायत करनें का अधिकार तो उनका है ही ।

पर ये क्या ! उत्सव तो ऐसा मन रहा था वहाँ कि नन्द राय भी चकित हो गए …….मणियों का अम्बार लग गया था लुटाते लुटाते ……लूटनें वाले थक गए थे ……….माणिक्य, जिधर देखो उधर चमकते हुये दिखाई दे जायेंगें …….हीरों से तो बरसानें के बालक खेल रहे थे …….जैसे उनके लिये ये एक चमकता पत्थर हो ।

बन्दनवार हर घर में लगाया है……रंगोली से हर घर को सजाया है ….दूध दही हल्दी की कीच मची हुयी है ……….”भानु दुलारी नें जन्म लियो है”….”कीरत प्यारी नें जन्म लियो है”………….सब यही गा रहे हैं ……….सब इस आनन्द में डूबे हुए हैं ।

सुन्दर बैल गाडी बृषभान के आँगन में आकर रुकी ………पीछे पचासों गाड़ियाँ आरही थीं……उनमें नाना उपहार भरे पड़े थे ।

बृषभान नें बृजराज को अपनें हृदय से लगाया ………….मुझे क्षमा करना मित्र ! मुझे तो जन्म समाचार मिलते ही आना था …….पर मैं आ न सका ।

लाली हुयी है बधाई हो……..बृजरानी नें बड़े उत्साह से बधाई दी ।

मुस्कुराये बृषभान जी……और भीतर ले गए इन सब गोकुल वालों को ।

बधाई हो कीर्तिरानी ! बृजरानी ये कहते हुए दौड़ीं ।

कीर्ति रानी नें भी बड़े उत्साह के साथ बृजरानी को अपनें हृदय से लगाया ……..नन्हे कन्हैया भी साथ में ही है ……दाऊ भी साथ में हैं ।

लाली कहाँ है ? बृजरानी नें आनन्दित होते हुए पूछा ।

चलिये ! मैं दिखाती हूँ लाली को ……..कीर्तिरानी यशोदा को लेकर चलीं …………..

हाथ पकड़ा यशुमति नें……..क्या बात है ? उदास हो ? कीर्ति रानी से पूछा – और बृषभान जी भी उदास से लग रहे थे ….वो ख़ुशी नही दिखाई दी ……..लाली ही तो आप चाहती थीं ना ? फिर क्या बात हो गयी ? बृजरानी नें हाथ पकड़ कर पूछा ।

कीर्तिरानी नें कहा……..बृजरानी ! आज छ दिन हो गए हैं …….पर लाली नें अपनें नेत्र नही खोले…..कहीं मेरी लाली ? रो पडीं कीर्ति ।

चिन्ता मत करो कीर्तिरानी ! सब ठीक हो जाएगा ……..सांत्वना देकर लाली के पास सब गए ………….

बृजरानी तो देखती ही रहीं ……आहा ! कितनी सुन्दर है ये लाली… ….तपते सुवर्ण की तरह गौरवर्णी ……….नन्हें नन्हें चरण ………छोटे छोटे हाथ ……..पर नेत्र बन्द हैं …………..बृजरानी ये देखकर दुःखी हो जाती हैं …..पर कीर्तिरानी ! – ये सब ठीक हो जायेगा ……….

कीर्तिरानी भी समझती हैं कि………ये मेरे लिये सांत्वना है ।

मुखरा माँ हैं कीर्तिरानी की ………वो देख रही हैं लाली को …….वहीँ सम्भाल करती हैं ……………

मैया ! मैया ! ये कौन है ? कन्हैया नें अपनी मैया से पूछा ।

छेड़ना नही ……..छूना नही ….लाला ! ये लाली है ……..बृजरानी नें कन्हैया को समझाया फिर बातें करनें लगीं कीर्तिरानी से ।

ये आँखें क्यों नही खोलती ? खोलो !…….. राधे ! .मैं आगया हूँ …..मैं आपहुँचा हूँ तुम्हारे पास…..फिर तुम आँखें क्यों नही खोलतीं …….

किसी को पता नही क्या बातें कर रहे हैं कन्हैया ………….पर वो ये सब कहते हुए श्रीजी को छूनें लगे …..और जैसे ही छूआ ……..श्रीजी को कम्पन सा हुआ …………….और ………….

मैया ! मैया ! मैया ! देख ! लाली नें आँखें खोल लीं ………..

कन्हैया चिल्लाकर बोले थे ……बृजरानी नें सुना ……..वो आयीं पालनें के पास में ………जैसे ही देखा …….भानु दुलारी नें अपनें नेत्रों को खोल लिए थे ….कमल की तरह थे उनके नेत्र ……बड़े बड़े ……कमल के सिवा और कोई उपमा ही नही है, तात ! इसलिए कमल ।

कीर्तिरानी ! देखो……..कीर्तिरानी दौड़ीं ……..क्या हुआ ?

हँसते हुए मुस्कुराते हुए बृजरानी बोलीं……….क्या सुन्दर लाली जाई है तुमनें कीर्ति ! देखो ! इसके नेत्र ……….

कीर्तिरानी नें जैसे ही देखा …………..नेत्रों को खोलकर टुकुर टुकुर कन्हैया को ही देख रही हैं कीर्तिकिशोरी ……….आनन्द के अश्रु बहनें लगे कीर्ति के ……..वो बृजरानी का हाथ पकड़ कर उछलनें लगीं ……..बृषभान को ये खबर दी …..वो बृजराज के साथ बैठे थे …..जैसे ही सुना ………वे भी महल के भीतर दौड़े…….सबनें देखा भानु नन्दिनी देख रही हैं…….पर सबको नही ……..मात्र अपनें “प्रिय” को ।

बृजरानी इतनी आनन्दित हुयीं …………..हाय ! कितनी सुन्दर है तेरी लाली, कीर्ति ! क्या दूँ इसे ………मोतियों का हार उतार कर दे दिया …….फिर भी जी नही भरा …….कहाँ ये अनन्त रूप राशि की कन्या और कहाँ ये तुच्छ मोतियों का हार …………क्या दूँ ? क्या करूँ ?

बृजरानी परेशान हो उठती हैं…………

तभी अपनें लाला कन्हैया को देखती हैं……..बस उन्हीं को उठाकर, भानु दुलारी के चारों और घुमाकर, वार देती हैं ।

सब आनन्दित हो उठते हैं………….अभी तक जो ये उदासी थी कि लाली नें नेत्र नही खोले ……..वो सबकी उदासी दूर हो गयी थी …..सब उन्मत्त होकर नाच गा रहे थे ।

तात विदुर जी ! ये श्रीराधा रानी की प्रतिज्ञा थी कि ……मैं अवतार तो लुंगी …..पर प्रियतम ! पहले तुम्हे ही देखूंगी ……तुम नही दीखोगे तो मैं नेत्र ही नही खोलूंगी……..ये दोनों सनातन प्रेमी हैं तात !

उद्धव नें ये प्रसंग भावसिन्धु में डूब कर सुनाया था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 37

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 37 )

!! श्रीराधा जन्म !!


तात विदुर जी ! यमुना के किनारे बसा एक गाँव है …….जिसका नाम है “रावल” । ये गोकुल के निकट ही है…….

बृजराज और बृषभान दोनों बाल्यावस्था के मित्र हैं ……..जब दोनों का विवाह भी नही हुआ था तभी से इनकी मित्रता थी …….कहें तो – गोप सम्राट पर्जन्य और महिभान इन दोनों की प्रगाढ़ मैत्री ……पर्जन्य के “नन्दराय” हुये और महिभान के “बृषभान” ।

मित्रता इनकी दृढ़ थी……अपनें रावल गाँव के ही एक समृद्ध गोप की सुन्दर सुशील कन्या “कीर्ति” से बृषभान का विवाह करवाया था बृजराज नें ।

उद्धव आज का प्रसंग बड़े भाव से सुना रहे हैं…….

बृषभान बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) के राजा हैं …….इनका क्षेत्र बृजराज के क्षेत्र से भी बड़ा है……ये बड़े सरल हैं सहज हैं…….करुणा से ओत प्रोत इनका हृदय है……इनको अर्धांगिनी भी बहुत पतिपरायणा मिलीं ।

हे तात विदुर जी ! इनके प्रथम पुत्र हुये थे “श्रीदामा”……दाऊ के जन्म साथ ही , बरसानें में इनका भी जन्म हुआ था ……ये स्वर्ण समान तेजवान थे …..अत्यन्त सुन्दर इनका रूप था…….पर इनकी माता कीर्तिरानी को पुत्री की कामना थी……ये श्रीदामा को भी देखतीं तो भगवान से यही प्रार्थना करतीं ……अब एक “लाली” देना ।

काल अपनी गति से चलता है……..उसे कोई मतलब नही है ।

श्रीदामा बड़े हो गए हैं…….दो वर्ष की आयु हो गयी है इनकी अब ।

इतनी ही दाऊ भैया की भी है …………पर “बृजराज कुँवर” अभी छोटे हैं ………एक वर्ष से कुछ दिन ही बड़े हैं ये ।

प्रातः की वेला थी……..एक सुन्दर सुसज्जित बैल गाडी आकर रुकी बृजराज के सामनें……..मुस्कुराते हुए उठे बृजराज……..”बृषभान पधारे हैं” – बृजरानी को बताया……..वो भी अंदर से दौड़ी हुयी आयीं ।

उस बैल गाडी के पीछे ……चार गाड़ियाँ और थीं ……उनमें उपहार भरे थे ……नाना प्रकार के उपहार ।

बृषभान और बृजराज दोनों गले मिले ………..कीर्ति और बृजरानी गले मिलीं ………रोहिणी नें आगे बढ़कर कीर्ति रानी का आदर किया ।

श्रीदामां का हाथ पकड़ कर दाऊ भीतर चले गए ………..दाऊ नें अपनें छोटे भाई को दिखाया ……श्री दामा को देखकर “लाला” बहुत खुश हुए ……वो किलकते ही जा रहे थे ।

कीर्ति रानी ! मैं तुमसे रूठी हूँ….बृजरानी नें आत्मीयता के साथ कहा ।

मैं समझती हूँ ……..पर क्या करूँ ? इनका कार्य ही इतना रहता है कि बरसाना ये छोड़ ही नही पाते …..अब देखो ना ! आपके लाला की वर्ष गाँठ में उपस्थित होनें की बड़ी इच्छा थी ………पर इनको काम था ।

कीर्तिरानी और बृजरानी दोनों बातें कर रही हैं ।

वो तो मैं इस बार आगयी……..मुझे पीहर में भी कुछ दिन रहना था ।

क्या कुछ खुश खबरी है ? बृजरानी नें छेड़ा कीर्तिरानी को ।

हाँ ……..पर मैने तो भगवान से प्रार्थना की है कि ……अब मुझे लाली ही देना ………मुझे बहुत इच्छा है मेरे अपनें लाली हो ………

मेरे अंगना में डोले लाली ………रुनझुन करती खेले ………सुन्दर लंहगा पहन कर नाचे, कितनी प्यारी लगती हैं ।

” लाली ही होगी “………..क्यों की पेट देखकर लग नही रहा कि लाला होगा …….8 महिनें का पेट इतना छोटा नही होता ……लाली ही है ।

“त्वन् मुखे घृत शर्करा”………..कीर्ति ये कहती हुयीं हँसी ।

चलो ! अपनें लाला को तो दिखाओ ………कहाँ है लाला ?

कीर्तिरानी की बातें सुनकर बृजेश्वरी उन्हें ले गयीं अपनें लाला के पास …….श्रीदामा के साथ खेल रहे थे लाला……….मुग्ध हो गयीं कीर्ति …….तुम्हे पता तो है ना नन्दरानी ! हम लोगों की क्या बात हुयी थी …..हँसते हुये बृजरानी के हाथ में थपड़ी मारते हुये कीर्तिरानी नें कहा था । हाँ हाँ …पता है …….”तुम्हारी लाली और हमारे लाला को व्याह होयगो”……..पक्की बात है ये ।

दोनों यही बातें करती हुयी, खूब हँसती रहीं, देर तक ।

भोजन किया सबनें मिलकर……..फिर बातें………..

इस तरह शाम हो गयी ।

अब हम चलते हैं ? कीर्तिरानी नें उठते हुए कहा ।

बृषभान ! यहीं रुक जाओ न आज ! कितनें दिनों में तो आये हो ।

नही …..बृजरानी ! मेरी मैया भी रावल में बाट देख रही हैं……..

अरे ! पास में ही तो है रावल …….चले जाना……बड़ी जल्दी पड़ रही है ससुराल में जानें की ……..छेड़ते हुए बृजराज नें कहा ।

अब आप आना बृजेश ! बरसाना……….

हाँ अब तो आना ही पड़ेगा………नन्द जी सहज में बोलते हैं ।

वैसे आप भी प्रार्थना करो कि हमारे अब लाली हो ………बृषभान नें अपनें मित्र को कहा ……और श्रीदामा को लेकर कीर्तिरानी के साथ बृषभान जी रावल गाँव में आगये थे …..जो पीहर है कीर्ति का ।

मैं बहुत प्रसन्न हूँ ……..तुम मेरे हो वृषभान ! ………शशि के नही हो ……वैसे मेरी शशि से कोई प्रतिस्पर्धा नही है ….शशि से क्या स्पर्धा होगी मेरी ……..मुझ भास्कर की ……..मुझे पता है ……वो मुझ से बदला लेना चाहता है …….रामावतार में मैने 1 महिनें का दिन जो बना लिया था इस बात से वो मुझ से चिढ़ता है …………..भगवान श्रीकृष्ण नें भी उसका मन तो रख ही दिया ………उसके चन्द्र वंश में अवतरित हुये …….और रात्रि में ही अवतार लिया ………….इस बात से वो बड़ा प्रसन्न है …….पर मैं आज प्रसन्न हूँ ……..मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ ……….हे बृषभान ! तुम मेरे हो……बृष राशि के सूर्य हो तुम …….बृषभान !

तुम्हारी लाली आने वाली है……….आल्हादिनी हैं वो श्रीकृष्ण की ।

श्रीकृष्ण के हृदय का जो प्रेम है वह प्रेम ही आकार लेकर प्रकट होनें वाला है …….स्वामिनी हैं वो ब्रह्म की ……….सर्वेश्वरी हैं वो परब्रह्म की ……..आल्हाद की भी आल्हादिनी हैं वो ……….और मेरे “भानु कुल” में वो आरही हैं ………….मेरी शशि क्या होड़ करेगा ! उसका नन्दनन्दन तो हमारी भानु नन्दिनी के चरणों में ही पड़ा रहेगा ।

“भानु नन्दिनी” ………आहा ! ये कहने में भी कितना आनन्द आता है मुझे …….मुझे गौरव का भान होता है ………जब श्रीकृष्ण प्रिया का एक नाम मुझ से जुड़ा होगा …..भानु नन्दिनी ।

और हाँ …….प्रातः के समय उनका जन्म है …..जब मैं उपस्थित होऊंगा नभ में ………….शशि से मेरी क्या स्पर्धा !

वो लाली ……..तपते हुये कुन्तल की तरह उसका रूप रंग होगा …….वो प्रेम की देवी ……वो प्रेम की आराधिका ………..राधा !

अब उठो ………..आज ही होगा जन्म उन ब्रह्मशक्ति का ……..उठो बृषभान ! उठो ।

सूर्य ही स्वप्न में आकर बृषभान को ये सब बता रहे थे ।

बृषभान उठे ………ओह ! सपना था ये ।

पर आज देर तक सोते रह गए थे बृषभान…….उठे और चल दिए यमुना स्नान के लिये ।

रावल गाँव………यमुना के किनारे बसा हुआ गाँव है ये ।

सूर्योदय अभी हुआ नही है…….पर होनें वाला है ।

किन्तु मन आज प्रसन्न है ………..अति प्रसन्न है……….पक्षियों का कलरव चल रहा है …..हँसों का जोड़ा खेल रहे हैं यमुना में ……।

कमल खिले हैं नाना प्रकार के……..उनमें से सुगन्ध की वयार चल रही है …….हवा शीतल है …….स्वच्छ निर्मल पवित्र यमुना जी में गोता लगाया बृषभान जी नें ………पर आनन्द ! जैसे ही गोता लगाकर बाहर आये …….सामनें देखा यमुना के मध्य भाग में एक कमल खिला हुआ है ………बड़ा सुन्दर कमल है ………उस कमल में हलचल हो रही है……..कौतुक वश देखनें गए बृषभान जी …….पर ये क्या ! पास में जाकर जैसे ही देखा …….प्रकाश निकल रहा था उसमें से ………..प्रकाश पुञ्ज प्रकट हो रहा था ……….बृषभान और पास गए उस कमल के …..आहा ! ……..उसमें एक लाली सोई हुयी थी नन्हीं सी लाली …………उस लाली में तेज़ इतना था कि अपनें नेत्रों से पहली बार में तो देख भी न सके थे बृषभान जी । ओह ! स्वप्न याद आनें लगा बृषभान जी को …………

जो उन्होंने सपना देखा था ……..भानु नन्दिनी………सूर्य यानि भानु कितनें प्रसन्न थे सपनें में……..तो यही है मेरी लाली !

ख़ुशी से उछल पड़े थे बृषभान जी ………गोद में उठा लिया उस लाली को ……..कमल की सुगन्ध आरही है लाली के श्री अंगों से ………उसके नेत्र बन्द थे …….वो इतनी सुन्दर हैं…..जिसका वर्णन कठिन है ।

गोद में लेकर चल पड़े महल की ओर ……रावल गाँव की अपनी ही सुन्दरता है पर आज ये तो दिव्यातिदिव्य लग रहा है ।

जब गए महल में …….तब बृषभान नें देखा कि ………कीर्तिरानी के बगल में एक दिव्य प्रकाश है ……….बृषभानु के कुछ समझ नही आया ……….गोद की लाली को बगल में सुलाया बृषभान नें…..

…. आनन्द में डूब गए हैं………वो आनन्द मनाना चाहते हैं…….वो नाचना चाहते हैं …….वो सब कुछ लुटा देना चाहते हैं आज ।

तात विदुर जी ! पूरी प्रकृति झूम उठी है …….अस्तित्व आनन्द मना रहा है आज ………भास्कर के आनन्द का तो ठिकाना ही नही है ।

भादौं शुक्ल अष्टमी के प्रातः श्रीराधारानी का अवतार “रावल” में हुआ ।

! बृषभान गोप के कन्या जाई …….रावल में बजत बधाई !

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 36

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 36 )

!! बरष गाँठ मोहन की सजनी …!!


वो प्रलय था ….महाप्रलय …….मेरे आराध्य नें मुझे महाप्रलय के दर्शन कराये थे ……..कामना तो मैने ही की थी कि मुझे प्रलय का दर्शन करना है ………बस …..साधक की सच्ची कामना को साध्य कैसे मना कर दे ………..

सातों समुद्र उमड़ पड़े थे …………उन समुद्रों की लहरें आकाश छू रही थीं …………बड़ी बड़ी मछलियाँ समुद्री जीव मुझे खानें के लिये दौड़ रहे थे ……….मैं कितना घबड़ाया हुआ था …..मैं तेज़ और तेज़ तैरता हुआ भाग रहा था …….पर कितना भागता ………….सामनें से एक लहर और आयी …………वो मुझे ले गयी ………….एक शान्त स्थान में …….समुद्र भी इतना शान्त , कैसे ? मेरे मन में यही आरहा था ।

तभी मैने एक वट का विशाल वृक्ष देखा था …………मैं उस वृक्ष की ओर ही बढ़ा इसलिये बढ़ा ताकि उस वृक्ष में चढ़ कर इस महाप्रलय से बच जाऊँ ………..पर जैसे ही मैं चढ़नें को हुआ ……….वट पत्र है ………बड़ा ही पत्ता है …..उसमें एक बालक सोया हुआ – मैने देखा ………..वो बालक बड़ा ही सुन्दर था ………सुन्दर कहना भी कम है ………सुन्दरतम था ……….उसकी मुस्कुराहट ………….मैं उसको देखकर सब भूल गया ………..वो अपनें चरण के अँगूठे को मुख में डाल कर चूस रहा था……..ओह ! क्या छबि थी वो ।

इस घटना के घटे कई युग बीत चुके हैं………………युगों के कई चक्र घूम चुके हैं……….मैं कल्पान्त जीवी हूँ ……….ये आशीर्वाद मुझे स्वयं भगवान शंकर से मिला है ……………मैं ऋषि मार्कण्डेय हूँ ।

पर वत्स ! वो बाल मुकुन्द अब कुछ बड़े हो गए हैं ……………

मेरे ही आराध्य भगवान शिव नें मुझे ध्यान की अवस्था में बताया था ।

मैं भी वहीँ हूँ जहाँ बाल कृष्ण का अवतार हुआ है ………..भगवान शिव नें मेरे ऊपर परम कृपा कर दी थी ये बात बता कर ………

ओह ! मैं तो कल्पना भी नही कर सकता था कि ………..उनका अवतार भी होगा और मुझ जैसे तपश्वी को दर्शन भी होंगें ……..क्यों की मेरे ही आराध्य नें मुझे कहा था कि……इन नन्द लाल के दर्शन तपस्या से नही ……….प्रेम से होते हैं ………पर मेरे अंदर कहाँ प्रेम ?

तप करना हो तो युग बिता दूँ …….पर प्रेम मेरे शुष्क हृदय में कहाँ ।

मैं उठा ………और गोकुल के लिये प्रस्थान किया ………..क्यों की मुझे दर्शन करनें ही थे अपनें बालमुकुन्द के ।

हजारों गोपी और गोपों का झुण्ड नन्दमहल की ओर बढ़ रहा था……

सब सुन्दर थे और उनके परिधान भी ।

सबके हाथों में थाल थी, चाँदी की थाल ……..उस थाल में उपहार था …….जो वो नन्द नन्दन के लिये लाईं थीं ।

पीले पीले वस्त्रों से सुसज्जित स्वर्णादि आभूषणों से लदी हुयीं गोपियाँ जब चल रही थीं , उनके चोटी के पुष्प गिर रहे थे……….

आज बरष गाँठ है कन्हैया का…….आकाश से ऋषि मार्कण्डेय देख रहे हैं और गद् गद् हैं ।

हरे हरे केले के खम्भे जगह जगह पर लगाये गए हैं …….

हर द्वार द्वार पर धुजा पताका बन्दनवार इत्यादि लगाया गया है ……

गोपियाँ नन्दरानी से मिलती हैं……बधाई हो …..कहते हुये गले लगती हैं ……..बृजरानी आनन्दित हैं और क्यों न हों उनके लाल का आज बरष गाँठ है ……साल भर के हो गए हैं कन्हैया आज ।

तात विदुर जी ! उद्धव विदुर जी को बोले……….

आकाश से ऋषि मार्कण्डेय नें देखा……..बाल मुकुन्द – वही श्याम अंग, पर सौन्दर्य, माधुर्य, मृदिमा सौ सौ गुना अधिक हो गया है ।

ऋषि मार्कण्डेय देखते हैं………अब ये चलनें लगे हैं……..बोलनें लगे हैं…..काली घुँघराली अलकों से घिरे मुखचन्द्र से जब ये बोलनें लगते हैं तब जो अमृत का वर्षण होता है …….उफ़ ! उसे कैसे बताऊँ !

आये हैं बाहर आँगन में कन्हैया……..अपनी मैया की ऊँगली पकड़े ….

नेत्रों में काजल , कण्ठ में मुक्ता माल , वक्ष पर श्री वत्स चिन्ह …….नील वर्ण ………..रोक कर मैया नें पीली छोटी सी पोटरी में कुछ डालकर ……..नीम, गुग्गल, सरसों , दूर्वा इन सबको रखकर एक पोटरी बनाई है …….उसी को बाहु में बाँध दिया है ।

पर अजीब लग रहा है इन्हें ………बारबार टटोल रहे हैं बाहु को …….बाहु में बन्धे उस पोटरी को ।

लाला ! मत छू उसे……..और इसे खोलना नही ……तेरा आज जन्म दिन है ना ! मैया समझा रही है ।

“दाऊ को भी बाँध”………कन्हैया बोल उठे ।

दाऊ को नही बाँध सकती……..उसका जन्म दिन थोड़े ही है ……..बृजरानी समझा रही है ।

“तो मनसुख के बाँध”………कन्हैया को अब कैसे समझायें ।

पर मनसुख का बरष गाँठ नही है ना ! बृजरानी फिर समझाती हैं ।

क्यों नही है……..मेरा ही क्यों है ? अब इसका क्या जबाब है ।

क्यों की तू बड़ा है …..बड़े का बरष गाँठ आज है … छोटों का कल है ।

तो दाऊ का कल है ? कन्हैया नें पूछा ………हाँ …कल है …मैया को कहना पड़ा …..और मनसुख का ? मैया नें कहा उसका भी कल है ।

खींज जाएँ सुबह सुबह कन्हैया, ये बृजरानी नही चहाती ।

तभी महर्षि शाण्डिल्य मन्त्रोच्चार करते हुये वहाँ आगये ।

बृजपति नें चरणों में वन्दन किया ………….पूजन की सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं………….बस महर्षि बैठे और – गणेश पूजन, मातृका पूजन, वरुण पूजन, नवग्रह पूजन, ………..ऋषि मार्कण्डेय नें देखा ये सब देवता, ग्रह इत्यादि , स्वयं उपस्थित हो पूजन स्वीकार कर रहे थे और अपनें को धन्य धन्य मान रहे थे ।

महर्षि नें मन्त्रोच्चार किया ……भगवान विष्णु का ध्यान मन्त्र पढ़ा …….

पर किसी के भी ध्यान में भगवान विष्णु नही आरहे हैं ……..वही यशोदा के गोद में खेलता कन्हैया ही आरहा था ।

मेरा भी पूजन होता है …………क्यों की मैं दीर्घजीवी हूँ ……..मेरा नाम लेकर बालक को आशीर्वाद दिया जाता है …..”मार्कण्डेय की तरह तुम भी जीते रहो”………..

मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ ………….मेरा नाम लिया गया बालमुकुन्द के सामनें ………..वो हँसे …………उन्होंने आकाश की ओर देखा …….मैने उन्हें दोनों हाथों से प्रणाम किया ……..वो मुस्कुराये ।

उनकी मुस्कुराहट ही तो माया है ……..मैं तुरन्त उतर गया नभ से …….और मैने उनके नन्हे चरणों में अपना प्रणाम निवेदित किया ।

बृजराज उठ खड़े हुये …………आप कौन हैं ? आप सप्तऋषियों में कोई एक हैं क्या ?

महर्षि शाण्डिल्य मेरा परिचय देंने जा रहे थे ……..पर मैने ही मना कर दिया ……वो बस मुस्कुराते रहे ।

आप हमारा आतिथ्य तो स्वीकार करें ……….आप हमारी सुरभि गाय का दूध स्वीकार करें …..इसका पान करें …….बृजराज कितनें सरल हैं …..मैं ऋषि मार्कण्डेय ब्रह्म के पिता को कैसे मना करता ……….

मैने दूध का पात्र अपनें हाथो में लिया ………..फिर एक लोभ मेरे मन आगया था …..उस लोभ से मैं बच न सका ………..

मैने तुरन्त दूध के पात्र को लेकर कन्हैया के मुख से लगा दिया ……..बृजराज बोले ……अरे ! ये क्या कर रहे हैं आप ?

पर मैने कहा …….जन्म दिन तो इनका है आज …….मैं अपनें हाथों से बृजराज कुमार को कुछ तो ……..ऐसा कहते हुए दूध को मैने प्रसादी बना दिया था …………..बस …..मुझे यही चाहिये था …….मैने तुरन्त उस पात्र का दूध ले, पी गया सब ………….बृजराज नें क्या सोचा होगा …….कि उनके बालक का जूठा दूध मैने क्यों पीया !

पर सोचें तो सोचें …………..मुझे जो आनन्द आया …….वो अवर्णनीय था ……….मैं तो बस प्रसादी दूध का पान करके वहाँ से चल ही दिया था यमुना के किनारे …………..क्यों की मुझे अब कुछ दिन बृज वास करना था …………आहा ! मेरा कन्हैया ।

तात ! विदुर जी ! इस तरह गोकुल में आनन्द रस की धारा प्रवाहित हो रही है ……..गोपियाँ नाच रही है …….दूध दही की कीच मची है ……गोपों का उत्साह तो देखनें जैसा ही है ।

“बरष गाँठ मोहन की सजनी, सब मिल मंगल गावो !
रंग महल के राय आँगन में , मोतिन चौक पुरावो !!”

गोपियाँ गा रही हैं……नृत्य उनका जो चल रहा है वो अद्भुत है ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 35

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 35 )

!! गोकुल में जब पहुँचे कागभुसुन्डी !!


कागासुर श्रीकृष्ण कथा सुना रहा है ………सबसे ऊँचा पर्वत है नीलगिरि …….वहीँ पर रहते हैं श्रीरघुनाथ जी के परमभक्त कागभुसुंडि ….कागासुर श्रीकृष्ण भक्त हैं…………ये श्रीकृष्ण कथा सुनाता है …….आज ये श्रीकृष्ण के रूप का दर्शन करा रहा है ……..सब काग शान्त चित्त से कथा सुन रहे हैं…….कागभुसुंडी भी सुन रहे हैं ।

श्रीकृष्ण ………क्या छबि है उनकी ……पीली झगुलिया पहनें …….पांवों में पैजनियाँ ………करधनी कमर में ………….सिर के बालों को सुगन्धित तैल लगाकर बांध दिया है मैया नें ………नील वर्ण ……….नेत्रों में चंचलता ……..कागासुर तन्मय हो जाता है रूप का वर्णन करते हुये ।

मैं भी दर्शन करके आऊँ……….मन में इच्छा जागी इन महाभागवत कागभुसुंडी के ।

सीधे उड़ चले कैलाश की ओर……..माता पार्वती को प्रणाम करके…..प्रश्न किया – महादेव कहाँ हैं ?

वो तो गोकुल गए हैं………….

माता पार्वती को इससे ज्यादा बोलनें की अभी इच्छा भी नही है ।

प्रणाम करके कागभुसुंडी , उड़ चले कैलाश से गोकुल की ओर ।

प्रभात वेला थी………सूर्योदय होनें में अभी समय बाकी था ।

नीलसुन्दर श्याम को बृजरानी अपनें अंक में रखकर दूध पिला रही थीं ।

आनन्द में मग्न, अधखुले कज्जल रंजित विशाल लोचन ……..माता के एक स्तन से मुख हटा कर दूसरे में लगा लिया है ।

दूध फैल रहा है……..क्यों की वात्सल्य की अधिकता हो गयी है बृजरानी में…….एक स्तन से पीते समय दूसरे से दूध बहता रहता है ……..एक प्रकार से कन्हैया दूध पीते भी हैं और नहाते भी हैं…..बड़ा दिव्य और अद्भुत रूप हो उठा है कन्हैया का ।

कागभुसुंडी आनन्दित हैं……..वो बस चक्कर लगा रहे हैं……….परिक्रमा कर रहे हैं ……मैया और लाला की , दोनों की ।

अरे ! लीला रच दी कन्हैया नें तभी…….कागभुसुंडी विचार करते हैं ।

हुआ ये कि ………बाल कृष्ण नें तभी जम्हाई ली ……………जम्भाई लेते हुये जब यशुमति नें देखा ……तो चुटकी बजानें के लिये जैसे ही उनके हाथ उठे ………..मुँह में कुछ और देख लिया मैया नें …….सागर, नदी, समुद्र, तारे, चन्द्रमा, सूर्य पृथ्वी वृक्ष…….और इतना ही नही ….इनकी संख्या भी सैकड़ों में …..भोली बृजरानी के तो नेत्र आश्चर्य से फैल गए……..ओह ! ये क्या ! वो कांपनें लगीं …….कन्हैया हँसनें लगे ……सबसे पहला काम तो ये किया मैया नें कि – लाला के मुख से दूध हटाया पहले……..उन्हें लगा अपच हो गया मेरे लाल को ।

कागभुसुंडी आनन्दित हैं …….ये हँस नही सकते क्यों की काग के देह में हैं………पर आनन्द प्रकट करनें के लिये ये बस घूम रहे हैं ……..और प्रसन्न हो रहे हैं ।

ये क्या हो गया मेरे लाला को ? मेरे लाला को अपच हो गया ……….इसनें कहीं मिट्टी खाई होगी ……..तो इसके मुँह में मिट्टी है ……पत्ते खाये होंगें पेड़ ही खड़ा है इसके मुँह में ……..इसे कुछ नही पच रहा ………ओह ! अब ? मैया इधर उधर देख रही है ।

काग भुसुंडी हँसे ……….खूब हँसे मन ही मन में ……….

मैं भगवान शंकर का स्नेहभाजन योगसिद्ध , किन्तु कितना व्याकुल हो उठा जब यही सब मैने रामावतार में बाल रूप श्रीराम के मुखारविन्द में देखा था ………मैं तो माया के प्रभाव से मूर्छित ही हो गया था …..मुझे तो ज्ञान दिया था उन राघव नें …………पर ये मैया ! माया तो सिर पीटती होगी इन मैया के वात्सल्य को देखकर ………सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देख लिया मुख में , पर मैया माननें को राजी ही नही है कि ये कोई भगवान या ब्रह्म है ………….हँसते हैं कागभुसुंडी – कह रही है मैया …..कि “लाला को अपच हो गया है “……

कागभुसुंडी खूब हँसे ……..और नन्दलाला के पास में आकर धीरे से बोले ………ये सब ऐश्वर्य मत दिखाओ यहाँ …………आपको ये मैया भगवान माननें से रही ………..हाँ ……आप अगर ये सब दिखाते रहे …….तो यहाँ कोई नही है अयोध्या की तरह राजवैद्य ………यहाँ तो गौ मूत्र पिलाएगी मैया …..पीना है तो ये सब करो ……..गौ मूत्र कड़वा होता है …….कोई मिश्री नही है……..ये कहते हुये कागभुसुंडी चरणों में प्रणाम करते हुये उड़ गए थे अपने नीलगिरि पर्वत की ओर ……..पर जाते जाते ……..”चिन्ताहरण महादेव” के दर्शन भी कर लिए …….जो यहीं पर हैं …..और तब तक यही रहेंगें जब तक लाला यहाँ रहेगा ……

कागभुसुंडि ! दर्शन कर लिए कन्हैया के ?

भगवान शंकर नें आनन्दित होते हुये पूछा था ।

हाँ …….बाबा ! दर्शन करि आये ।

उतर कर कागभुसुंडी नें चिन्ताहरण महादेव को प्रणाम किया ……..और अपनें स्थान की ओर उड़ चले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 34

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 34 )

!! “क्या तू सुअर भी बना था” – जब मैया नें पूछा !!


मुझ से कल एक साधक नें पूछा…..तनाव मुक्त होनें के लिये क्या करें ?

उन्होंने ये प्रश्न किया था इन दिनों चल रहे रोग “कोरोना” को लेकर ।

मैने उनको कहा – घर में ही रहें , घर में अगर नन्हे बालक हों तो उनके साथ खेलें ………..बन जाएँ बालक ……..करें उनकी तरह शरारतें …..उनकी तरह मुँह बनाएं …….हँसें …….खिलखिलाएं ।

सन्तों का संग करनें को नही कहेंगें ? आप तो यही कहते थे…….

उन्होंने फिर मुझ से पूछ लिया ।

मैने कहा ….सन्तों से बड़े होते हैं परमहंस …….और मेरी दृष्टि में बालकों से बड़ा परमहंस और कौन होगा ?

अभी रो रहा था ………..अभी फिर हँसनें लगा ……..सुख दुःख से परे है बालक ………..अभी अच्छा बोल रहा था अभी गाली देनें लग गया …..अच्छाई बुराई से परे है बालक ………..

वह जब चाहता है स्त्रियों में दौड़ जाता है …….जब चाहता है पुरुषों में बैठ जाता है …..स्त्री और पुरुषों के भेद से परे है बालक ……….

अभी कपड़े पहना था ……..अभी कपडों को फेकते हुये नंगा होकर शरीर में मिट्टी लगा लेता है ………..सामाजिक मान्यताओं को धता बतानें का साहस बालक ही करता है ………..

अद्भुत है बालक ……….इसलिये मैं कहता हूँ …….सन्त न मिलें …..तो कोई बात नहीं …….घर में बालक हैं ना ………..वो परम हँस हैं …….उनके साथ गाओ, उनके साथ खेलो …..उनके साथ नाचो ……उनके साथ खिलखिलाओ………..

मैने उन साधक को कहा……..महाप्रभु श्री बल्लभ अपनें पुत्रों में कन्हैया का दर्शन करते थे……उनको वो कन्हैया के रूप में ही देखते थे ।

…..ये भी एक सरल और उत्तम साधना है ।

यमुना का पुलिन है ……….शीतल वयार चल रही है ……किनारे में कमल खिले हैं , अगनित कमल खिले हैं ।

बालुका में कौरव त्राता विदुर जी बैठे हैं……..श्रोता के रूप में ……और वक्ता के रूप में बैठे हैं उद्धव …….जो श्रीकृष्ण लीला का श्रवण करा रहे हैं…….क्यों कि श्रीकृष्ण को इन्होनें जाना है ….जीया है …..इसलिये ये इस “श्रीकृष्णचरितामृतम्” के प्रामाणिक वक्ता हैं ।

तात विदुर जी ! अब कन्हैया चलनें लगे ……….

…..उद्धव नें नेत्रों को बन्दकर, प्रसंग आगे बढ़ाते हुये कहा ।

जहाँ गोबर , जहाँ गायों का गोष्ठ है ………ये नन्द नन्दन वहीँ जाते हैं ।

आज सुबह उठ गए थे कन्हैया ………….रोनें लगे ……..मैया बृजरानी नें गोद में लिया और पयपान करानें लगीं…………कन्हैया पयपान करते हुये अपनी मैया को देख रहे हैं………..मैया अपनें लाला को देख रही है…………..दोनों एक दूसरे को देखते हुये आनन्दित हैं ।

मैया नें अब हटाया लाला को अपनें वक्ष से …………..मैया को ये भी लगता है कि ज्यादा दूध पी लिया तो कहीं अपच न हो जाए ।

हटाया अपनें बालक को………बस कन्हैया तो फिर रोनें लगे …….नन्हें नन्हें हाथों से अपनी मैया को मारनें लगे………मैया को बड़ा सुख मिल रहा है ……….नन्हीं उँगलियों में मैया के केश उलझ जाते हैं ………कन्हैया गुस्से से खींच रहे हैं……………मैया हँस रही है …….खूब हँस रही है ।

जीजी ! थोडा रसोई में आओ तो ! रोहिणी नें आवाज दी ।

कन्हैया को धरती में रख दिया मैया नें , और रसोई में घर में गयीं ।

इधर कन्हैया रो रहे हैं…..अपनें नन्हें नन्हें पाँव पटक रहे हैं……….

गोपियाँ रोते हुये बाल गोपाल को देख रही हैं……पर ये रोते हुए इतनें सुन्दर लगते हैं….कि देखनें वाला चुप कराना भी भूल जाता है …..बस देखता रहता है ….यहाँ गोपियाँ मन्त्र मुग्ध सी देख रही हैं कन्हैया को ।

धरती में लोट पोट हो गए हैं कन्हैया ……………गोबर इनके शरीर में लग गया है …………मिट्टी ही मिट्टी से सन गए हैं ये ………पर सुन्दर बहुत लग रहे हैं ।

…..धूल धूसरित ब्रह्म…आहा ! उद्धव को ये लीला दीख रही है ।

हे भगवान ! मैं क्षण भर के लिये क्या गयी ……इसनें अपनी क्या हालत बना ली है……….बृजरानी नें आकर लाला को अपनी गोद में उठा लिया था ।

नन्दरानी ! पैजनियाँ बाँध दो लाला के पाँव में …….

हाथों में भी बजनी ………..इससे क्या होगा ना ……बालक जब चलता है ……तब अलग कुछ बजे तो उसे चलनें में और आनन्द आता है …………और हम लोगों को भी सुननें में आनन्द आएगा !

कुछ बूढी गोपियाँ थीं ………उन्होंने मैया को सलाह दे दी ।

पहले तो लाला को नहलाया मैया नें ……..क्यों की गोबर पूरे शरीर में लगा लिया था …..बालों को भी धोना पड़ा …….क्यों की धूल से भर गए थे उनके घुँघराले केश…….मुख में मिट्टी लगी थी …….मैया नें बड़ी तसल्ली से नहलाया …………मुख धोया ………..फिर सुन्दर वस्त्र से उनके शरीर को पोंछा………..वस्त्र पहनाये …… सुगन्धित .तैल लगा दिया बालों में……….काजल आँखों में …….फिर टीका काजल का ………..ताकि नजर न लगे ।

अपने वक्ष से सटाकर फिर मैया दूध पिलानें लगी ……..दूध पेट भर कर पीया लाला नें …………..फिर बड़े प्रेम से पालनें में सुलानें लगीं ……तो रोये लाला …………अच्छा ठीक है ……रेशमी वस्त्र धरती में बिछा दिया और उसी में खेलनें के लिये कहा ………।

तभी उधर से दाऊ आये …………चलते हुए …………

तू कहाँ घूमता है ……देख ! तेरा लाला अकेला है यहाँ ……इसका ध्यान रखना चाहिये ना ? तू कहाँ गया था………अब कहीं मत जा ठीक है ? मैया की बात पर दाऊ नें भी सिर हिलाकर कहा ….ठीक है ।

हाँ ….अपनें भैया का ख्याल रखना ………..मैं अभी आती हूँ …..बृजरानी दाऊ को लाला के पास छोड़कर फिर रसोई में गयीं ।

इधर दोनों खेल रहे हैं……………बड़ी मस्ती में खेल रहे हैं ……….किलकारियाँ मार रहे हैं……………भैया ! भैया ! ये शब्द अब स्पष्ट बोलते हैं कन्हैया …….मैया और बाबा भी बोलते हैं………”गैया” भी बोलना सीख गए हैं ये ।

भैया ! तलो ….तलो वहाँ …..अभी हर शब्द स्पष्ट नही है इनका ।

दाऊ नें देखा ……किस और दिखा रहा है लाला ………..

गैया …..गैया पास तलो …………..

दाऊ नें कहा ………नहीं ……वहाँ बैल है ……..वो मारता है ।

दाऊ नें देख लिया था एक बैल था नन्द जी के गोष्ठ में ……..जो विशाल था …..बड़ी बड़ी नुकीली सींगें थीं उसकी …….एक अकेला ग्वाला वहाँ नही जा सकता था ।

आज कन्हैया उसी के पास चलनें के लिये कह रहे थे ।

नही ……..लाला ! वहाँ नही …….मारेगा वह बैल ।

दाऊ नें समझाना चाहा……पर लाला कहाँ मानता ।

भैया ! त लो…….त लो…….उठ गए थे लाला .जिद्द करनें लगे थे …….इसलिए अब दाऊ नें हाथ पकड़ा कन्हैया का ……और दोनों चल दिए उसी बैल की ओर ।

दोपहर का समय होनें जा रहा था ………..कोई आस पास था नही ……मैया भी गृहकार्य में व्यस्त थीं ….रोहिणी हाथ बंटा रही थीं ।

दोनों बालक धीरे धीरे चलते हुए गए थे उस विशाल बैल के पास ………

वो भी बैठा था ………….

पर अब कन्हैया नें दाऊ का हाथ छोड़ स्वयं ही दौड़ पड़े उस बैल के पास ……….और जाकर एक सींग उस बैल की पकड़ ली ।

उस सींग में झूलनें लगे और किलकिलानें लगे…..भैया ! भैया ! आओ !

अपनें प्रिय दाऊ भैया को बुलानें लगे …….वो भी खुश होते हुये आगये और बैल की दूसरी सींग दाऊ नें पकड़ ली ।

झूलनें लगे थे दोनों ……..बैल आलस में था आज ………दोपहर का समय “उसे क्रोध दिखाना है” इसमें भी वो आलस कर रहा था ।

किलकिलाते हुए दोनों झूले जा रहे हैं बैल की सींग पर ……..

कुछ देर तक तो बैल सहता रहा ……..पर कुछ देर बाद ही वो उठ गया ……और जैसे ही वो विशाल बैल उठा ………….मैया ! मैया ! मैया ! दोनों बालक चिल्लाये ………..पर इनकी आवाज वहाँ तक कैसे जाती ……बस चिल्लाये जा रहे हैं दोनों ।

तभी मैया ऐसे ही बाहर आगयी थी ……देखनें के लिये कि कहाँ हैं ? क्या कर रहे हैं दोनों बालक ।

जैसे ही आयीं , वहाँ तो हैं नहीं …….वो डर गयीं , वो भागीं …….

पर , मैया ! मैया ! मैया ! की आवाज सुनी बृजरानी नें ।

वो जैसे ही उस आवाज के पीछे दौड़ीं………..हाथ छूट गया इन दोनों का ….गोबर का ढ़ेर पड़ा हुआ था उसमें धम्म् से गिर पड़े ।

मैया नें आकर देखा ………….गोबर का ढ़ेर है …..उसमें ये दोनों पड़े हैं ….मुख में गोबर, हाथ में गोबर , सम्पूर्ण शरीर में गोबर ।

माथा पकड़ के बैठ गयीं बृजरानी …………..

क्यों रे ! तू क्या , पिछले जनम में सुअर था ?

मैया नें गुस्से में कह दिया ।

तू इसी गन्दगी में खेलता है …..मुझे लगता है तू पक्का सुअर ही होगा ।

विदुर जी हँसते हुये बोले ……उद्धव ! सच तो कह रहीं हैं बृजरानी ……वराह का रूप धारण तो किया था कन्हैया नें ।

उद्धव हँसते हुये बोले……कन्हैया की मैया है झुठ कैसे बोल सकती हैं !

मैया माथे में हाथ रखकर अपनें लाला को देख रही है ……….लाला गोबर की ढ़ेर में पड़ा हुआ है और मुस्कुरा रहा है ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 33

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 33 )

!! नन्द देहरी में अटका ब्रह्म – एक अद्भुत लीला !!


एक दिन रुद्रांश ऋषि दुर्वासा पधारे गोकुल में ।

ऋषि ! आप ? झुक कर भगवती पौर्णमासी नें प्रणाम किया ।

आप यहाँ भगवती ? परम शैव हैं आप……और शैवों को तो शिव धाम में ही वास करना चाहिये…..आप यहाँ कैसे ?

दुर्वासा ऋषि नें पौर्णमासी से चकित हो, प्रश्न किया था ………और भगवती ! मुझे स्मरण होता है जब आप काशी में समाधिस्थ होती थीं ……..निराकार के ध्यान में आपका लीन हो जाना मुझे आनन्दित करता था ………आपके भाई ऋषि सान्दीपनि से मैं मिला था महाकाल के मन्दिर में …….वो हैं अनन्य शैव ……….काशी छोड़कर गए भी तो शिव धाम अवन्तिका में ………पर आप यहाँ क्यों ?

प्रणाम मामा जी ! पीछे से आकर मनसुख नें प्रणाम किया ऋषि को ।

मनसुख मामा ही कहता है जो भी ऋषि इसे मिलें ।

और ये तो तुम्हारा पुत्र है ? दुर्वासा नें जब मनसुख को देखा तो पूछा ।

जी ! ऋषि ये मेरा ही पुत्र है………पौर्णमासी नें इतना ही कहा ।

इसे ब्रह्मनिष्ठ बनातीं ……..ब्रह्म वेत्ता बनाना था इसे ………ब्रह्म कुल का ये बालक है………कहाँ ले आयी हो तुम इसे ….और स्वयं भी ।

दुर्वासा को अच्छा नही लग रहा है पौर्णमासी और मनसुख का गोकुल में रहना …………

आप “गौ रस” कुछ तो स्वीकार करें मेरी कुटिया में चलकर ?

पौर्णमासी नें आग्रह किया ।

दुर्वासा भगवती पौर्णमासी कि बात मानकर उनकी कुटिया में चल तो दिये और कुछ गौ दुग्ध का पान भी किया पर ………

वत्स ! ब्रह्म को जब तक नही जाना सब जानना व्यर्थ है ……….मनसुख के सिर में हाथ रखते हुये दुर्वासा नें कहा ।

तात विदुर जी ! भगवती पौर्णमासी के प्रति विशेष श्रद्धा रखते थे ऋषि दुर्वासा ……..क्यों कि उस समय शायद ही कोई हो ……जो पूर्ण शिवानुरागिनी अगर कोई थीं तो पौर्णमासी ही थीं ।

समाधि लग जाती इनकी तो वर्षों यूँ ही बीत जाते ………..इसलिये तो दुर्वासा आज पौर्णमासी के यहाँ पहुँच गए थे ।

मनसुख ! तुमनें काल को जीत लिया है ……सनकादिकों कि तरह तुम भी हो……..एक ही वय तुम्हारी है ……..तुम सिद्ध योगियों में से एक हो…….फिर क्यों उस ब्रह्मानुभूति को त्याग कर तुम यहाँ ?

मामा जी ! ब्रह्म तो मेरा यहीं है ………कल ही उसनें चलना सीखा है …..नही नही , घुटवन चलना सीखा है……..निराकार ही यहाँ नराकार हो गया है मामा जी ! खूब किलकारियाँ मारता है ……नन्हें नन्हें पाँव पटकता है ……..जब इन आँखों से ही दिखाई पड़ रहा है तो कौन ध्यान करे …….और कौन आँखें बन्द करे ?

हँसते हुये मनसुख नें ये सारी बातें कह दी थीं……….

तो ब्रह्म को हमें नही दिखाओगे ?

ऋषि नें भी मनसुख से कह दिया ।

क्यों नही मामा जी ! ……सबको सुलभ है वो यहाँ ? ज्ञानियों के ब्रह्म कि तरह दुर्लभता नही है उसकी यहाँ ………न आँखें बन्द करनी है आपको …..न “अहंब्रह्मास्मि” का अनुसन्धान.. …….बस देखना है …….उस नन्द के आँगन में…….वहीँ खेलता है आपका ब्रह्म ।

पौर्णमासी हँस रही हैं………दुर्वासा ऋषि नें उठते हुये कहा ……अब तो चलो ……नन्द के आँगन में ही चलो ….देखते हैं तुम्हारे ब्रह्म को ……….ऐसा कहकर दुर्वासा ऋषि चल पड़े …..आगे आगे मनसुख बड़े उत्साह से चल रहा था ।

लाला ! लाला !

उधर से दाऊ आगये थे ….और कन्हैया को पकड़ के कुछ कह रहे थे ।

अभी बोलना नही आता कन्हैया को……ना, हाँ, हत्…. बस ऐसे ही कुछ शब्द हैं जो कन्हाई बोल लेता है ।

चलो ! उधर ! ऊँगली के इशारे से बताया दाऊ नें ।

दाऊ भी तो छोटे ही हैं………पर हाँ ये बोल लेते हैं ।

नन्द महल के बाहर जानें के लिये दाऊ कह रहे हैं कन्हैया को ।

खुश हो गए कन्हैया…….किलकारियाँ मारनें लगे…….तो दाऊ नें हाथ पकड़ लिया कन्हैया का……और लेकर चले …….पर अपनें को न सम्भाल पानें के कारण कन्हैया गिर गए …….गिर गए तो रोनें लगे …..दाऊ नें चुप कराया……..फिर धीरे से बोले ….लाला ! चल ! उधर ……कन्हैया लगी चोट को फिर भूल गए ……और घुटवन – घुटवन आगे बढ़ने लगे ……..चाल तेज है दोनों कि …….आज दोनों नें ही ये संकल्प कर लिया है कि …..देहरी पार करनी ही है……….

जैसे तैसे घुटनों को छिल छिला के पहुँच ही गए थे ये देहरी में ।

अब देहरी से नीचे उतरना है…….दाऊ नें देखा……..पर चंचलता कि पराकाष्ठा कन्हैया ………वो तो नीचे उतर भी गए …….पर नीचे गहरा है बहुत…….दो फुट भी तो इनके लिए गहरा है ….देहरी को पकड़ लिया है ऊपर …..अब हाथ छोड़ें तो गिर पड़ेंगें……गिर पड़ेंगें तो बुरी लगेगी……..

अब तो आ, ऊँ , जोर से चिल्लाना शुरू किया कन्हैया नें ……… कन्हैया के चिल्लानें से डर गए दाऊ ……..क्यों कि यहाँ वही तो लाये थे कन्हैया को…….वो कहें – चुप ! मैं खींचता हूँ तुझे , पर तू चुप रह ……….समझ गए कन्हैया भी ………वो चुप भी हो गए …दाऊ नें खींचना भी चाहा पर……फिर लटक गए कन्हैया देहरी में ।

वत्स ! ब्रह्म को जानना ही ब्राम्हणत्व है……

…..दुर्वासा समझाते हुए चल रहे थे ।

हँसा मनसुख ……..और हँसते हुए रुक गया ………….वो देखिये आपका ब्रह्म …….नन्द कि पौरी में अटका हुआ है ……..

दुर्वासा नें देखा……वो स्तब्ध हो गए….उनके नेत्र खुले के खुले रह गए ।

दिव्य नीलमणी के समान चमकता हुआ एक बालक है……सूर्य चन्द्र जिसके प्रकाश के आगे कुछ नही है ……प्रकाश हजारों सूर्यों के समान है ……पर शीतलता इतनी जितनी चन्द्रमा में भी नही है……….

अधर लाल …………घुँघराले केश ………ऐसा लग रहा है जैसे मुख रूपी कमल में सैकड़ों भौरें घूम रहे हों………….

नन्हें नन्हें हाथ ………..वक्ष में भृगु चरण चिन्ह ……….छोटा सा उदर ……गम्भीर नाभि…….चरण छोटे छोटे जो लटके हैं………

चरणों में चिन्ह हैं …..चक्र ,शंख, गदा पदम् यव, मछली, षट्कोण ।

आहा ! दुर्वासा ऋषि कि आँखें खुली की खुली रह गयीं……..हाँ …..यही तो है ब्रह्म ……..जो निराकार था आज साकार होकर प्रकटा है…..पर दुर्वासा उस समय चौंक गए …….जब यह ब्रह्म रोनें लगा …….और रोते हुये दाऊ से इशारे में कहनें लगा – “मुझे ऊपर खींच” ।

दाऊ भी तो बालक ही हैं………पूरी ताकत लगाकर कन्हैया को दाऊ नें खींचा ……..जैसे तैसे खींच लिया ऊपर ।

ऋषि दुर्वासा को अब देह भान नही है…..वो सब कुछ भूल चुके… ……बस उनके हृदय में यही “बाल कृष्ण” अच्छे से बस गए हैं अब ।

ऋषि आनन्द में डूब कर यही गा रहे थे……..

श्रुति जिसे पढ़नी हो, पढ़े , जिसे उपनिषद् पढ़ना हो वो भी पढ़े …….जिसे निराकार ब्रह्म ज्योति में अपना ध्यान लगाना हो लगाये …..पर मैं तो इस “नन्द देहरी” को प्रणाम करता हूँ …जिसमें ब्रह्म अटक गया था …….दुनिया को उबारनें वाला स्वयं उबरनें के लिये याचना कर रहा था ……आहा ! ये कहते हुये ऋषि दुर्वासा आनन्दित हो नाचते रहे ……बृज रज को अपनें शरीर में लगाते रहे ………

मनसुख ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 32

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 32 )

!! कान्हा चलनें लगे…!!


आहा ! कभी सोचा भी नही था कि विधाता हमें इतना सुख देगा ।

मेरी तो आस ही टूट चुकी थी कि मेरे भी लाला होगा ……..बृजराज तो सच में गृहस्थ के भेष में एक महात्मा हैं………उच्चकोटि के महात्मा ।

पुत्र नही था तब भी चिन्तातुर इनको मैने कभी नही देखा ……..”गोकुल के समस्त बालक क्या हमारे ही बालक नही हैं ? ये कहना था बृजराज का…….सकाम अनुष्ठान से इन्हें चिढ थी………पर बड़ों का आदर करना इन्हें आता था……..और इन्होनें किया भी …..फलस्वरूप आज हमारे यहाँ नीलमणी सा लाला हुआ है ।

नामकरण भी सम्पन्न हो गया ……..आचार्य गर्ग तो क्या क्या कह रहे थे ……….मुझे लगता है वो भावुक ज्यादा हैं………..कह रहे थे “भगवान नारायण” के समान है तुम्हारा बालक ……..रोहिणी ठीक कह रही थी …साधू पुरुष समस्त बालकों में भगवान का ही रूप देखते हैं …।

सुबह ही सुबह स्नानादि से पवित्र होकर पूजन इत्यादि करके ……..कुछ कलेवा बनाकर अपनें लाला के पालनें के पास बैठ गयी हैं बृजरानी ……….सोते हुये अपनें लाला को निहार रही हैं……….और लाला के विषय में ही सोच रही हैं ।

“कितना सुन्दर है मेरा लाला”……ये कहते हुये फिर डर जाती हैं……मेरी नजर भी तो खराब है……अपनें ही लाला को लग जाती है ….ये कहते हुए बृजरानी आँखों का काजल निकाल कर लाला के माथे में लगा देती हैं ।

अरे ! तुम ऐसे ही बैठी हो गाल में हाथ रखे ……बृजरानी! उठो ……उत्सव है आज ……..द्वार सजाओ ! …….गोबर से लीपो आँगन ………..रंगोली काढो ……….उपनन्द जी की पत्नी नें आकर बृजरानी को ये सब करनें को कहा ।

पर आज उत्सव क्या है ? मेरे तो कुछ ध्यान में नही आ रहा !

यशोमती नें पूछा ।

लाला के मुख से ध्यान हटे तब ना उत्सव का ध्यान हो…..उपनन्द जी की पत्नी सहजता में बोलीं ये सब ।

अरे बृजरानी ! बाहर देखो ! पूरे गोकुल की धरती को लीप दिया है गोप और गोपियों नें …..फिर हँसीं उपनन्द जी की पत्नी…..मानों उनके आँगन में भी आज ही लाला घुटवन चलते हुए पहुँच जाएगा ।

पगला गए हैं सब गोकुल वारे……….उत्सव नन्दालय में है सजा रहे हैं पूरे गोकुल को…………

ओह ! मैं तो भूल ही गयी ….बृजरानी भीतर भागीं………मुझे कहा था महर्षि शाण्डिल्य नें……..कि आज मेरा लाला भूमि पर बैठेगा …..खेलेगा……घुटवन चलेगा ……..इसी का उत्सव है आज ।

बृजरानी भीतर गयीं………सज धज कर कुछ ही देर में बाहर आगयीं थीं…..रोहिणी भी आगयीं …….नन्दालय में सुबह से ही माखन निकलना शुरू हो जाता है…….सैकड़ों गोपियाँ तो माखन ही निकालती रहती हैं……….ये माखन मथुरा और आस पास के क्षेत्रों में जाता है ।

बाहर आकर बृजरानी नें अपनें लाला को गोद में लिया ………नींद खुलनें के कारण कन्हैया जब रोनें लगे ……..तब दूध पिलानें लगीं बृजरानी ……दूध से पेट भर गया ……तब आँखें खोलकर इधर उधर देखनें लगे थे कान्हा……..बृजरानी नें हल्के ऊष्ण जल से स्नान कराया……चोटी बना दी…….काजल लगा दिया……काजल का टीका भी लगा दिया लाला के…….फिर सुला दिया पालनें में ।

अब बृजरानी उत्सव के कार्यों को देखनें लगीं थीं ।

************************************************

हे तात विदुर जी !

पृथ्वी में भगवान नें अवतार किया…….पर पृथ्वी को अभी तक उनका स्पर्श नही मिला……..इसलिये पृथ्वी दुःखी थीं ।

पर आज पृथ्वी एकाएक प्रसन्न हो उठी …………क्यों कि आज से नन्दनन्दन पृथ्वी में बैठेंगे ……चलेंगें ……।

ये भी संस्कार है ………..”भुम्यूपवेश संस्कार” ।

पूरा गोकुल ही आज प्रसन्न है ……….वैसे तो उत्सवों कि कोई कमी नही है यहाँ ……….जब से लाला हुआ है बृजरानी के ……तब से उत्सव ही उत्सव हो रहे हैं ……पर आज कुछ ख़ास है ………..क्यों कि गोकुल वासियों को लग रहा है …..आज से लाला चलेगा ……..पैंयां पैंयाँ नही चलेगा तो क्या हुआ ……घुटवन तो चलेगा …..और क्या पता घुटवन चलते हुये हमारे यहाँ तक आजाये……..”सच में बाबरे है गए हैं सबरे गोकुल वारे” ।

हल्दी, कुंकुंम, अबीर से जगह जगह रंगोली बनाई जा रही है………शुद्ध गौ के ताजे गोबर से सम्पूर्ण गोकुल को ही लीप दिया गया है ………बन्दनवार, रंगीन ध्वजा पताके , सर्वत्र लगाये गए हैं……….गुलाब जल का छिड़काव किया गया है जिससे पूरा गोकुल ही महक रहा है ………

तभी महर्षि शाण्डिल्य अपनें ब्राह्मणों को साथ में लेकर स्वस्तिवाचन करते हुए नन्दालय के आँगन में पहुँच गए थे ।

महर्षि के चरण स्वयं नन्द दम्पति नें धोये …….आसन दिया ……समस्त ब्राह्मणों को सुन्दर आसन में बैठाया ।

मन्त्रोच्चार के कारण वातावरण और दिव्य बन रहा था……..तभी पीपल आम इत्यादि कि सूखी लकड़ियों में अग्नि का आव्हान किया……एक वेदिका में इन सब लकड़ियों को रखा गया था…..ऊपर से घृत कि धार छोड़ते हुये अग्नि का जब अव्हान किया गया …..बस देखते ही देखते अग्नि देवता भी शुद्ध सत्व रूप से प्रकट हो गए………

कुछ देर तक मन्त्रोच्चार होता रहा ……आहुति भी बृजराज और बृजरानी देते रहे……….पौर्णमासी नें अब आकर कहा ……..बृजरानी ! आप उठो ………और लाला के पास चलो ………बृजरानी उठकर लाला के पास आयीं …………..

हजारों गोप गोपियाँ खड़े हैं………और लोक गीत गाकर सब आनन्दित हो रहे हैं……..बीच बीच में गोप “बृजराज कि जय”…”बृजराज के लाला कि जय” जयकार लगा रहे हैं ।

पालनें से उठाया बृजरानी नें ………..

महर्षि शाण्डिल्य नें बृजराज के द्वारा पृथ्वी कि पूजा कराई …..जल, फिर चन्दन रोरी, फिर अक्षत मोली इत्यादि से पृथ्वी कि पूजा की ।

इशारा किया महर्षि नें …….तो पौर्णमासी नें बृजरानी से कहा …….लाला को पृथ्वी में रख दो अब ………….

रुक गयीं बृजरानी ………कठोर है, कठोर है पृथ्वी …….और मेरा लाला बहुत कोमल है ………..हे भगवती पौर्णमासी ! आप कहें तो नीचे कुछ वस्त्रों को बिछाकर लाला को बैठा दूँ ?

हँसते हुये पौर्णमासी बोलीं ………नही बृजरानी ! कुछ नही होगा ……और लाला को तो सीखना ही पड़ेगा ना चलना ….बैठना ।

बृजरानी कि दशा देखकर सब हँसनें लगे ………..क्यों कि उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा था ………

पर लाला को पृथ्वी में रखना ही पड़ेगा …………डरते हुए उन्होंने जैसे ही लाला को पृथ्वी में रखा ……….लाला तो बैठ गया ……….अपनें आपको साध लिया ………..सब गोप गोपी प्रसन्न हो उठे ………

लाला सबको देखकर किलकारियाँ भरनें लगा …….. ताली बजानें लगा ………पर कुछ ही देर में अपनें आपको न सम्भाल पानें के कारण वो गिर गया ……..जब गिरा ……….तब पौर्णमासी नें बृजरानी को रोक दिया ………उसे खेलनें दो रानी !

लाला जब गिरा ……तब थोड़ा ही रोया होगा ………फिर देखते ही देखते वो पलट गया …………फिर कोशिश करते हुये सिर उठाया ………..सब लोग देख रहे हैं………ये आनन्द देवों को भी दुर्लभ था ……..जो इस समय गोकुल वासी ले रहे थे ………..हाँ तात ! दुनिया को चलानें वाला आज चलना सीख रहा था …….ये अद्भुत लीला थी ब्रह्म की ।

अपनें दोनों नन्हें नन्हे घुटनों को उठाया और चल पड़े कन्हैया घुटवन घुटवन ……..नेत्रों से आनन्द के अश्रु छलक पड़े थे नन्द दम्पति के ।

आगे कहाँ जाएगा ……..भीड़ तक गया लाला ……जब भीड़ देखी सामनें तो मुँह बनाकर रोनें लगा …..गोप गोपियों की भीड़ .रोते कन्हैया को देखकर भी आनन्दित है …..क्यों कि इसका रोना भी अद्भुत है ….ये और सुन्दर लगता है , मुँह बनाकर रोते हुए ……..पीछे से मैया नें आवाज दी ….लाला ! लाला ! लाला ! आवाज सुनते ही मुड़ा कन्हैया ………..अपनी मैया को देखा तो ख़ुशी से उस तरफ ही चल पड़ा …………बृजरानी दौड़ पडीं …….और अपनें लाला को गोद में ले ही लिया ………..लाला के मुख को चूमती रहीं यशोदा मैया ………… इस दृश्य को देखकर सब मुग्ध थे ….मुग्ध गोकुल वासी ही नही ……….देवता भी मन्त्र मुग्ध हो रहे थे ।

“कान्हा चलनें लगे , कान्हा चलनें लगे”

गोपियाँ नृत्य कर रही हैं………

उनको देखकर स्वर्ग कि अप्सरायें भी नाच रही थीं……….

“रुनझुन झनके पैजनियाँ कान्हा चलनें लगे , कान्हा चलनें लगे”

तात विदुर जी ! इस रूप सुधा का पान कीजिये ……….

उद्धव स्वयं डूब गए थे ……..वही बाल कृष्ण कि छबि उनके हिय में प्रकट हो गयी थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 31

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 31 )

!! अनाम ब्रह्म का नामकरण संस्कार !!


बृजरानी और रोहिणी दोनों नें पृथ्वी में मस्तक रखकर आचार्य गर्ग और महर्षि शाण्डिल्य को प्रणाम किया था ।

सौभाग्यवती भवः ……दोनों नें आशीर्वाद दिया ।

बृजरानी आसन में बैठ गयीं …….रोहिणी बैठते हुये बोलीं …..जीजी ! ये तो हमारे पुरोहित हैं……..आचार्य गर्ग इनका नाम है …….त्रिकालदर्शी हैं ऐसा आर्यपुत्र कहते थे ।

तो देखते हैं ……ये त्रिकालदर्शी हैं या नहीं !

बृजरानी परीक्षा लेनें चलीं, भूतभावन के शिष्य आचार्य गर्ग की ।

देखते ही देखते ………..दोनों माताओं नें अपनें अपनें बालकों को बदल लिया ……..यानि यशुमति नें दाऊ को ले लिया और रोहिणी नें कन्हैया को ……और सहज ही बैठी रहीं ……..रोहिणी ! तुम्हारे पुरोहित जी की आज परीक्षा होगी !

धूप, दीप, पुष्प माला , रोली, मोली पान, सुपारी ये सब लाकर ग्वालों नें रख दिया था……..”अपवित्र पवित्रो वा”……..यहीं से पूजन आरम्भ किया आचार्य नें…….फिर संकल्प…….अन्य देवी देवताओं को मनानें के बाद ……अब नाम करण की बारी आयी थी ………

इतनी देर तक यशुमति की गोद में गर्ग जी नें देखा ही नही……..क्यों की वे डर रहे थे……अगर उन्होंने देख लिया तो समाधिस्थ हो जायेगे यहीं ……..फिर ये नाम करण का सौभाग्य उनके हाथों से निकल जाएगा ।

हाँ …….बृजराज ! अब नाम करण……आचार्य नें अब देखा बृजरानी की गोद में……..पर गोद में तो कन्हैया नही हैं……..गर्ग चकित हो गए ……फिर उन्होंने रोहिणी की गोद में देखा ……तो वहाँ कन्हैया अपनें नन्हे नन्हे चरण पटक रहे थे ………वसुदेव के इन पुरोहित को समझते देर न लगी …….कि ये माताएँ मेरी परीक्षा लेना चाहती हैं …….हँसे आचार्य , ये ब्रह्म की माता हैं…….तो इनके आगे मैं क्या ?

सबसे पहले मन ही मन यशुमति को नमन किया………फिर मुस्कुरा कर बोले गर्ग जी ………नामकरण की बारी आयी है अब ………..

मैं ……..आचार्य के चरणों में, मैं नन्द भार्या यशुमति प्रणाम करती हूँ…..आचार्य ! मैं बड़ी हूँ…..रोहिणी मुझ से छोटी है ….इसलिये मेरे पुत्र का नाम पहले रखिये……मन्द स्मित हास्य के साथ बृजरानी नें कहा ।

ये तो रोहिणी का पुत्र है !

……यशोदा की गोद में देखते ही आचार्य बोल उठे थे ।

वसुदेव का सुत है ये……..”राम” नाम रखता हूँ मैं इसका …..सारे गुण इस बालक में रमण करते हैं……इसलिये इस बालक नाम होगा राम !

बल अधिक होनें के कारण इसको “बलराम” कहेंगें ।

संकर्षण ……….ये किसी गर्भ से खींचा गया है ……..इसलिये इस बालक नाम होगा “संकर्षण”……हे वसुदेव भार्या रोहिणी ! तुम ध्यान से सुनो ……….ये बालक बड़ा ही अद्भुत है ……..बल , पराक्रम इसके रोम रोम में है……..पर मात्र बल , पराक्रम आपसे आपकी भद्रता छीन लेता है ……….पर इस बालक में बल भी है और भद्रता भी है …..इसलिये इसका नाम “बलभद्र” भी होगा ।

ये शेष स्वरूप है …….इसी में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड टिका हुआ है…….

और यही बालक यदुवंशियों में भी एकता बनाकर रखेगा ।

ये कहकर आचार्य चुप हो गए थे ।

यशुमति नें रोहिणी की और देखा……फिर धीरे से बोलीं …….तुम्हारे आर्यपुत्र सत्य कहते थे ……ये तो त्रिकालदर्शी हैं ।

भगवन् ! क्षमा करें ……..मेरा बालक ये है ………ये तो रोहिणी का पुत्र है ……..बृजरानी नें ये कहते हुये दाऊ को दे दिया रोहिणी की गोद में ….और अपनें कन्हैया को अपनी गोद में ले लिया ।

अब मेरे बालक का नामकरण करें प्रभु !

बृजरानी और बृजराज नें प्रार्थना की आचार्य गर्ग से ।

देखा कन्हैया को गर्ग जी नें……….आहा ! नीलमणी सा अद्भुत सुन्दर बालक खेल रहा है यशोदा की गोद में ……….बस उसी क्षण आचार्य गर्ग समाधिस्थ हो गए……जड़वत् हो गए……आँखें खुली की खुली रह गयीं…..साँसें रुक गयीं………….

ये क्या हुआ ! नन्दराय काँप गए थे…..बृजरानी डर गयीं………

स्वाभाविक था तात विदुर जी ! भोले भाले ये ग्वाला समाज क्या समझे कि उनकी गोद में जो क्रीड़ा कर रहा है …..वो ब्रह्मादिकों को भी दुर्लभ परब्रह्म है ……..जो आज आकार लेकर प्रकट हुआ है यहाँ ।

पौर्णमासी उसी समय गोष्ठ में आगयी थीं………उन्होंने जब यहाँ की स्थिति देखी तो समझ गयीं…….कि यशोदा के लाल को देखकर आचार्य गर्ग समाधि में चले गए हैं…….तब आगे बढ़कर पौर्णमासी नें आचार्य गर्ग को झँकझोरा…..और कहा …..आचार्य ! नामकरण कीजिये !

देहभान हुआ गर्ग को ……….फिर उन्होंने बड़े प्रेम से नामकरण करना आरम्भ किया ……….पर माताओं का विनोद याद था आचार्य गर्ग को …..मेरी परीक्षा लेनें चली थीं ये ……..चलो ! मैं भी एक विनोद करता हूँ……..ऐसा विचार करते हुये गर्ग जी बोले ………….

भगवन् !

बृजरानी नें गर्ग जी को बीच में रोकते हुये कहा…….

बढ़िया सा नाम रखना……आचार्य ! अच्छा सा नाम रखना ।

हँसते हुए आचार्य बोले – इस बालक का नाम है “रंग पलटू” ।

क्या ? बृजरानी नें फिर पूछा ……..”रंगपलटू” गर्ग जी फिर बोले ।

बड़ी दुःखी हो गयीं बृजरानी ………..ऐसा भी कहीं नाम होता है ।

पर आचार्य गर्ग बोलते गए …………ये बालक हर युग में रंग बदलता है ……जैसे – सतयुग में इसका रंग होता है सफेद , त्रेता युग में इसका रंग होता है लाल, और द्वापर में इसका रंग है पीला …..और कलियुग में इसका रंग है काला …….यानि कृष्ण !

इसका नाम क्या हुआ ? यशोदा जी नें फिर पूछा ।

खूब हँसते हुए गर्ग जी बोले ……….कृष्ण ……श्री कृष्ण चन्द्र ।

हाँ …..ये नाम ठीक है …..अब बृजरानी बहुत प्रसन्न हुयीं…….

रोहिणी ! मैं तो डर ही गयी थी ….हाय ! कैसा नाम है “रंगपलटू”……बृज के लोग क्या कहते ……कि यशोदा के छोरा का नाम “रंगपलटू” है ।

पर ये नाम ठीक है………किसन, यशोदा जी बोलीं ।

फिर हँसे गर्ग जी ……..बोले ….किसन नही …. कृष्ण …..

तात विदुर जी ! ये मैया यशोदा हैं…..पढ़ी लिखी हैं नहीं………भोली भाली हैं……बड़ी सीधी सरल हैं……उच्चारण नही हो रहा इनको कृष्ण नाम का ………….

पौर्णमासी नें भी कोशिश की…….बृजरानी ! कृष्ण बोलो …कृष्ण ।

पर यशोदा जी से बोला ही नही जा रहा……बेचारी बड़ी शरमा रही हैं ।

फिर महर्षि शाण्डिल्य नें बड़े प्रेम से कहा ……….आप माता हो ….आप कुछ भी कह सकती हो अपनें लाल को ।

फिर धीरे से रोहिणी के कान में बृजरानी नें कहा……मैं तो “कनुआ” कहूँगी……”कन्हैया” बोलूंगी ………..मुझे नही आता ये “किसन” नाम !

बृजरानी के भोलेपन पर सब रीझ गए थे ………………..

अब आगे गर्ग जी फिर कहनें लगे……..हे बृजराज ! इस बालक के नाम अनन्त हैं गुण अनन्त हैं….मैं उन सबका गान नही कर सकता…

गौ का पालक है इसलिये इसका नाम ………गोपाल है ।

गौओं का ये राजा है इसलिये इसका नाम ….गोविन्द भी होगा ।

मैं कहाँ तक कहूँ…………इस बालक के सारे गुण भगवान नारायण से मिलते हैं…………इसलिये भगवान नारायण के समान गुण वाला इसे कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ।

ये कहते हुए अपनें नेत्रों को बन्दकर गर्ग जी नें श्रीकृष्ण चरणों का ध्यान किया था ……………..

कुछ ही देर उन्हें फिर आवेश आगया…….. हे बृजवासियों ! इस बालक के जन्म लेने से आप समस्त बृज का मंगल ही मंगल हो गया है ।

देवता लोग स्पृहा करनें लगे हैं इस बृज मण्डल से……धन्य हो गया है आपका जन्म लेना ……..और बृजराज ! धन्यातिधन्य तो आप दोनों दम्पति हो ………जिनके गोद में ये ब्रह्मस्वरूप बालक खेल रहा है ।

गर्ग जी आज जितनें आनन्दित हो रहे हैं ….उतनें आज तक नही हुये थे ।

व्याह होगा ?

मैया को क्या लेना देना ………कि देवता स्पृहा क्यों कर रहे हैं ? या ये ब्रह्म क्या होता है ? इसे तो सीधी सादी बात जाननी है …….व्याह होगा मेरे लाला का ?

बहुत होगा …………हँसे ये कहते हुए गर्ग जी ।

फिर ग्रह नक्षत्र मिलाये…हिसाब किया..फिर बोले….व्याह बहुत होंगें ।

दो करेगा ? मैया पूछ रही है ।

ज्यादा ! और ज्यादा …………चार करेगा ? मैया नें फिर पूछा ।

गर्ग जी हँसते जा रहे हैं ……..और कहते जा रहे हैं………ज्यादा और ज्यादा …………..फिर बाद में बोले ………तू पचास में रुक रही है …..बृजरानी ! ये तो हजारन बहुएँ ले के आयेगा ।

अब बृजरानी बहुत हँसने लगीं ………….रोहिणी से कहती हैं……”.बड़ो रसिया है छोरा”

तात विदुर जी ! देवताओं नें पुष्प वृष्टि की ……….जयजयकार किया …..नभ से दुन्दुभि भी बज उठे थे ।

“अनाम” का आज “नाम” रखा गया था ……..यही तो लीला है ।

उद्धव नें विदुर जी को कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 30

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 30 )

!! आचार्य गर्ग नें जब कन्हैया को देखा !!


“आचार्य गर्ग”

ज्योतिष विद्या के अद्भुत ज्ञाता….महान विद्वान….तपस्वी…..।

भगवान चन्द्रशेखर से इन्होनें विद्या ग्रहण की थी ……….इनके गुरुदेव भगवान शंकर ही थे ।

“तुम वसुदेव के पुरोहित बनो”……ये आज्ञा भी भूतभावन से ही मिली ।

लाभ क्या होगा उससे ? ये प्रश्न किया तो नही गर्ग नें ……पर उत्तर दे दिया था भगवान चन्द्र मौली नें ……………

भगवान श्रीकृष्ण का अवतार होगा इनके यहाँ ।

भगवान शंकर की आज्ञा और भगवतदर्शन की लालसा ………….तो आचार्य गर्ग नें वसुदेव का पौरोहित्य कर्म करना स्वीकार किया ।

पर भगवान अवतरित भी हो गए …….और गोकुल भी जा चुके थे ।

आचार्य आज वसुदेव की ही प्रेरणा से गोकुल की और प्रस्थान कर गए …….यमुना के किनारे किनारे चलते हुये गोकुल में पधारे थे ।

आचार्य ! दौड़ पड़े थे महर्षि शाण्डिल्य...........प्रातः का समय था यमुना किनारे सन्ध्या वन्दन कर रहे थे महर्षि, तभी सामनें दिखाई दिए आचार्य गर्ग ......तो दौड़ते हुए गए उनके पास........अपनें हृदय से लगा लिया था आचार्य को ।

भाग्यशाली तो तुम हो महर्षि ! जो नन्दनन्दन की समस्त बाल लीलाओं का आस्वादन करोगे……विधाता नें सच में तुम्हे भाग्यशाली बनाकर भेजा है…….मैं तो दर्शन भी न कर सका उन परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण चन्द्र का ……कारागार में प्रकट हुये ……और यजमान तुरन्त ही गोकुल में उन्हें छोड़ गए !…….आचार्य गर्ग नें अपनें हृदय की बात महर्षि शाण्डिल्य के सामनें रखी ।

हाँ ……..मैं सौभाग्यशाली तो हूँ………आचार्य ! मैं नित्य नन्दनन्दन के दर्शन करता हूँ……….फिर कुछ विचार करते हुये महर्षि बोले …….

आचार्य ! मैं तो ज्योतिष का ज्ञाता नही हूँ………इसलिये मैं सोच भी रहा था कि नन्दनन्दन का नाम करण अगर आप कर दें तो ?

महर्षि नें विनम्रता से ये बात कही थी आचार्य गर्ग से ।

मैं इस आते हुये सौभाग्य को कैसे रोक दूँ महर्षि !

अत्यधिक प्रसन्नता में बोल पड़े थे आचार्य ।

तो फिर देरी क्यों, चलें बृजराज के गोष्ठ की ओर !

……महर्षि उठ गए …….और दोनों महत्पुरुष चल पड़े थे ।

गोष्ठ में विराजें हैं नन्दराय…….गौर वर्ण…….विशाल भाल……मस्तक में पीला चन्दन …..कण्ठ में तुलसी की माला ……..सुन्दर रेशमी पीताम्बरी……दिव्य मुस्कुराता हुआ मुखमण्डल ।

उठ गए एकाएक अपनी गद्दी से बृजराज ……..साष्टांग प्रणाम किया दोनों को…….और दोनों ऋषियों नें आशीर्वाद भी दिया ।

हे बृजेश ! ये हैं भगवान शंकर के कृपापात्र आचार्य गर्ग. ….ज्योतिष विद्या के उद्भट विद्वान्……और वसुदेव के पुरोहित !

महर्षि शाण्डिल्य की बातें सुनकर हाथ जोड़कर बोले नन्द जी ……..

भगवन् ! मैने भाई वसुदेव के यहाँ आपके दर्शन किये हैं…….और मेरा ये परम सौभाग्य है कि मेरे गोकुल में भी आप के चरण पड़े …….अब सब शान्ति बनी रहेगी मेरे यहाँ ।

पर बृजराज ! मैं कुछ और कह रहा हूँ ………….

महर्षि ! आज्ञा कीजिये ! ऋषि शाण्डिल्य से नन्द जी नें कहा ।

हमारे दो बालक हैं……उनमें से रोहिणी नन्दन का नाम करण तो इनके द्वारा ही होगा…….क्यों की वसुदेव नन्दन हैं वो तो …और ये वसुदेव के पुरोहित हैं………..किन्तु मेरी ये इच्छा है कि …..आपके लाला का नाम करण भी इन्हीं के द्वारा हो …..तो उत्तम कार्य हो जाता ।

महर्षि की बातें सुनकर बृजराज प्रसन्न चित्त होकर बोले ……..महर्षि ! आप जैसा कहेंगें हम सदैव वही मानेंगें ………क्यों की हमें विश्वास है कि ……..हमारा कल्याण आपके आज्ञा पालन करनें में ही है ।

तो फिर ठीक है …….मुहूर्त कब का है ? आप देखिये आचार्य गर्ग ?

महर्षि नें गर्ग से पूछा ।

आज का ही मुहूर्त श्रेष्ठ है ! गर्ग नें तुरन्त उत्तर दिया ।

आज ? नाम करण संस्कार होगा हमारे लाला का, और आज ?

इतनी जल्दी तो तैयारी भी नही हो पायेगी ……….आचार्य ! कुछ समय और दे देते !

उपनन्द जी नें जब सुना तो उन्होंने कह दी अपनी बात ।

हे बृजराज ! ……. ज्यादा हल्ला करना ये उचित नही है आपके लिये ………….आचार्य गर्ग ने समझाया ।

हाँ …….पूतना, श्रीधर ब्राह्मण , कागासुर , शकटासुर ……..इनकी घटनाओं को हमें भूलना नही चाहिये ………..बृजराज नें गर्ग की बातों का ही समर्थन किया ……..और अपनें भाई उपनन्द जी को कहा ………नजर लग जाती है…….इसलिये नाम करण संस्कार को गुप्त रीत से ही किया जाए ………ये उचित भी होगा ।

पर कहाँ ? किस स्थान पर किया जाए नाम करण संस्कार ?

बृजराज नें आचार्य और महर्षि से पूछा ।

गर्ग नें इधर उधर देखा …….फिर बोले ………गौशाला से सुन्दर और पवित्र स्थान दूसरा हो ही नही सकता ……….

हे बृजराज ! बन्दनवार यहीं लगा दो ……….रंगोली यहीं बनवा दो ……सुन्दर सुन्दर रंगीन पताके यहीं बंधवा दो ………..

चन्दन लड़की का धूआँ जलाकर इस स्थान को महकाओ …….

बृजराज नें देखते ही देखते ग्वालों को आदेश देकर तुरन्त सब सजा दिया ……….सारा कार्य हो गया …..पुष्प, फल, पान , सुपाड़ी ….यज्ञ सामग्री ……रोली मोली ………सब कुछ आगया ………..

उपनन्द जी की पत्नी को भेज दिया बृजरानी और रोहिणी को लानें के लिए ………..अब नाम करण होगा ये सूचना देकर बालको को भी संग लाएं , ये भी सूचना दी गयी ।

प्रातः का समय है ……..

सुबह की वेला थी………..लाला द्वय को भी स्नान करा दिया था माताओं नें ।

गृह कार्यों में व्यस्त थीं दोनों माताएँ …………

तभी उपनन्द जी की पत्नी पहुँची …………बृजरानी ! आज हमारे बालकों का नाम करण होगा ……इसलिये जल्दी चलो गौशाला में ।

काहे विनोद कर रही हो……हमारे बालकों का नाम करण जब होगा …..3 महिनें पहले से निमन्त्रण पूरे बृज में देना पड़ेगा…..अरे ! सम्पूर्ण बृज मण्डल इसी आस में तो है कि बृजराज कुँवर का जब नाम करण होगा तब हम सब जायेंगे……बृजरानी अपनी बात बता रही थीं ।

पर ये सम्भव नही है…………क्यों की कंस का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा है ……और हमसे चिढ़नें भी लगा है कंस ……….उपनन्द जी की पत्नी नें इतना ही कहा ……….तब बृजरानी चुप हो गयीं ………मन में विचार करके बोलीं ………….पूतना ! हाँ …….सही विचार किया है उन्होंने ……….पूतना कैसे आगयी थी ……और हमारे लाला को ।

नही …..ठीक है ……….बृजराज जैसा उचित समझें ……..बृजरानी नें स्वीकार किया ।

तो फिर तैयार हो जाओ…….उपनन्द जी की पत्नी नें तैयारी में लगा दिया दोनों को …..रोहिणी और यशोदा को……दोनों तैयार हुयीं ….अपनें अपनें बालकों को तैयार किया…….और गोष्ठ की और चल पडीं थीं ।

एक गोपी दौड़ी दौड़ी आती है …..धूप , दीप, गन्ध जल पात्र इत्यादि लेकर ………..

तभी बृजराज सामनें देखते हुए मुस्कुराये ……………

भगवन् ! मेरी भार्या और वसुदेव पत्नी बहू रोहिणी आरही हैं ।

बृजराज की बातें सुनकर दृष्टि आचार्य नें थोड़ी सी उठाई ………

सामनें से आरही थीं…….गौरवर्णा , सोलह श्रृंगार से सजी ……लंहगा पहली हुयी …….अत्यन्त सुन्दर…..यशुमति और रोहिणी ……..

दृष्टि झुकाकर फिर अपनें पूजन कार्यों में लग रहे थे गर्ग कि तभी उनका ध्यान इन दोनों माताओं की गोदी में गया ………..

गोद में शिशु……बृजरानी आरही थीं…….उनके गोद में…….ओह !

उस सुन्दर शिशु को देखकर एक क्षण के लिये तो गर्ग को ऐसा लगा कि …….मैं देहातीत हो जाऊँगा …………..ऐसा अद्भुत बालक !

नील मणि जैसा बालक…..केश घुँघराले……..नेत्र चंचल …….

आचार्य को रोमांच होनें लगा ……उनके नेत्रों से आनन्दाश्रु बहनें लगे ….

वो अपनें को बारबार सम्भालनें की कोशिश करते हैं……पर सम्भाल नहीं पा रहे हैं…………..ब्रह्म वेत्ता ज्ञानी शिरोमणि आचार्य गर्ग के हृदय में एक दिव्य प्रकाश फैलनें लगा ……….उनका शान्त मन नन्दनन्दन को देखते हुये आज उल्लसित हो उठा था ।

ओह ! ये क्या देख रहा हूँ मैं ……..क्या यही अनादि मोहान्ध को नष्ट कर देनें वाला विशुद्ध ब्रह्मरूप रत्नप्रदीप का अंकुर तो नही है ? अथवा समस्त उपनिषदों नें ही ब्रह्म को साकार प्रकट कर दिया है…..अथवा आनन्द सागर का यह मूर्त स्वरूप है ? या जिसे ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं….या जिसे योगी परमात्मा कहते हैं….भक्त जिसे भगवान कहकर प्रसन्न होता है……ओह ! क्या वही आज बृजरानी के गोद में खेल रहा है ?

फिर एकाएक आनन्दित होकर आचार्य गर्ग कहनें लगते हैं……….

आज मेरा जन्म धारण करना सफल हो गया ……..मेरे नेत्र सफल हो गए ……मेरी विद्या सफल हो गयी …….मेरा तप , मेरा कुल ……सब कुछ सफल हो गया ……..मुझे कृतार्थ किया मेरे गुरु भगवान शंकर नें …..जिन्होनें मुझे वसुदेव का पुरोहित बनाया ………आज मुझे सौभाग्य मिल रहा है कि ….जो अनाम है उसका नामकरण मैं करूँ ! ओह !

आचार्य गर्ग हँसते हैं……प्रसन्नता अतिरेकता को पार कर रही है ।

जड़वत् होनें लगे थे आचार्य गर्ग……समाधि कह सकते हो आप इसे ।

आरही हैं सामनें से बृजरानी और रोहिणी ……………

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 29

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 29 )

!! “मनसुख” – जब इसे खीर न मिली !!


पञ्च रस हैं भक्ति के ……शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर ।

बृज में इन दिनों पञ्च रसों की नदी बह चली है……और जिसे अवगाहन करना हो वो आजाये……डूबनें वालों को इसका आनन्द है ।

कल मैने एक सपना देखा …………मैं दिव्य गोलोक धाम में हूँ……….मैने आदत अनुसार अपनी आँखें बन्द कर लीं ……और ध्यान करनें लगा ।

गोलोक में ऐसे ध्यान कौन करता है ?

एक प्यारी सी हँसी गूँजी मेरे कानों में ………..

मैनें आँखें खोलीं तो सामनें एक बृजवासी बालक खड़ा है ……..माथे में चन्दन ………चन्दन भी बस पोत लिया है माथे में ।

गले में माला है तुलसी की ………..कितनी लरें हैं माला की कहना मुश्किल है …………..पीली बगलबन्दी है ……….और नीचे धोती ….धोती भी शायद पीली ही थी ।

गौर वर्ण …………सुन्दर उन्नत भाल ……….मुस्कुराता मुखमण्डल …….निर्भय खड़ा था वो बृजवासी बालक ।

क्यों ऐसे ध्यान करनें में तुम्हे कोई दिक्कत ? मैने भी पूछ लिया ।

नही ……मुझे क्या दिक्कत है …………मैं तो इसलिये कह रहा था कि जब प्रत्यक्ष इस गोलोक में अपना कन्हैया जहाँ तहाँ डोले है ………वहाँ खुली आँखों से न देखकर आँखें बन्दकरनें का औचित्य क्या ?

वो ये कहकर फिर हँसा ……………..

पर तुम ? मैने उससे पूछा ।

मैं ? मैं तो कन्हैया का सखा हूँ मनसुख !

ये कहकर वो तो जानें लगा …….मैं उसके पीछे ……..

ये हैं मनसुख …….सख्यरस के आचार्य !

इनकी चरण धूल तो ले लूँ ……………मैं जैसे ही आगे बढ़ता कि मेरी नींद खुल गयी थी ………..सुबह के 4 बज रहे थे ।

मैं सोचता रहा ……”मनसुख सखा” के बारे में ………….हाँ मेरे मन में उनकी छबि भी गहरे बस गयी है …………..वो मनसुख !

एक अल्हड़ सखा ……………

ये महल गिर जाए और सब दव जाएँ ………….

ये महल की छत गिर जाए ….और सब इसके नीचे दव जाएँ ……..

मनसुख आज यही कह रहा है …………..और सबको सुना सुनाकर कह रहा है …………वो कह ही इसलिये रहा है कि लोग उसकी सुनें ।

हट्ट ! कैसा ब्राह्मण बालक है तू ! ऐसे कोई बोलता है क्या ?

बृजरानी नें डाँटा मनसुख को …………..

मैं ऐसा ब्राह्मण हूँ………..चोटी दिखाई मनसुख नें ।

बेटा ! ऐसे अमंगल शब्दों का उच्चारण नही करते…….अन्नप्राशन संस्कार हुआ है ना तेरे सखा का……….फिर तू तो हमारा पूज्य भी है …….ब्राह्मण है तू……इसलिये मनसुख लाला ! ऐसे नही बोलते ।

मनसुख को समझाया यशोदा जी नें …….फिर पूछा …..पूड़ी लेगा ? कचौड़ी लेगा ? बोल !

मनसुख को नमकीन वस्तु से प्रेम नही है …………मीठे का ये प्रेमी है …..पर आज ………….।

चलो अब …..ब्राह्मण भोज होगा ……….पहले ब्राह्मण देवता भोजन करेंगें………सब व्यवस्था करो ।

तुरन्त सब ग्वालों नें आसन बिछाये ……..महर्षि शाण्डिल्य विराजे हैं………अन्य ब्राह्मण सब पँक्तिबद्ध होकर बैठ गए हैं ………….

मनसुख ! तू क्या कर रहा है …….चल आ ………भूख लग रही होगी तुझे भी …….आ बेटा ! भोजन कर ले ।

मनसुख को यशोदा जी नें बुलाया ………..वो तो बस उछलते हुए आगया ………मैं कहाँ बैठूँ ! सोचनें लगा …..फिर बोला ……मामा ! मैं तुम्हारे पास बैठ जाऊँ ? महर्षि शाण्डिल्य हँसें …….हाँ हाँ …..मेरे पास ही बैठो ।

हाँ …मैं तो अपनें मामा के पास बैठूंगा …………..सबको प्रिय लगता है ये मनसुख ……शायद ही सृष्टि में कोई ऐसा हो ………जिसे ये अल्हड़ कृष्ण सखा प्रिय न हो ………।

पत्तल दी गयी …………मनसुख आज बहुत आनन्दित है …………

मेरे सखा का अन्नप्राशन हुआ है ………..मैं भी उसकी तरह आज खीर खाऊँगा …………..सबसे कह रहा है वो ।

पत्तल में पूड़ी दी गयी …………पूड़ी को देखकर मनसुख कोई ख़ास प्रसन्न नही हुआ था …….कचौड़ी ………ये तो इसे प्रिय है ही नही ।

सब्जी दी गयी ……..पर ये कोई ख़ास वस्तु थी नही ………पूड़ी के साथ खाना है इसे ………..बेसन के लड्डू दिए ………….हाँ ये प्रिय तो है ….पर आज बेसन के लड्डू नही …………मन्त्र शुरू किया ब्राह्मणों नें ………तो मनसुख बोला ……बड़ी जल्दी है तुम लोगों को ……अरे रुको ….अभी खीर आएगी ……..फिर मन्त्र पढ़ना ।

पर सब हँसते रहे ब्राह्मण और मन्त्र पढ़ते रहे ………….

खीर नही आई …………………..

उधर ग्वाले हाथ में लेकर खीर खा रहे हैं…………….मनसुख देख रहा है ………..और हद्द ये हो गयी कि कई ग्वाल बाल तो मनसुख को दिखा दिखाकर खीर खा रहे थे …..और नाच रहे थे ।

मनसुख ! शुरू करो ………सब खा रहे हैं देखो !

बृजरानी नें कहा ।

मनसुख नें नाक भौं सिकोड़ कर इधर उधर अपनें ब्राह्मणों को देखा….

ये लोग पूड़ी ही खाये जा रहे हैं ……..कचौड़ी भी ………

अरे ! खीर तो माँगों …………..खीर के बिना क्या खा रहे हो ?

मनसुख नें धीरे से कहा था ………..पर बृजरानी नें सुन लिया …..और बोलीं ……खीर तो कच्चे में आता है ………हम गोपों के हाथ का कच्चा भोजन तुम ब्राह्मण कैसे करोगे ?

अब मनसुख के सब समझ में आयी थी कि खीर उसे क्यों नही दी गयी है ……………..

सब तो खा रहे हैं खीर ! झुंझला उठा था मनसुख ।

वो सब ग्वाले हैं…………..पर तुम तो ब्राह्मण हो !

बृजरानी नें फिर कह दिया ।

खाओ ! खाओ ! ज्यादा नही बोलते खाते समय …..महर्षि शाण्डिल्य नें भी टोक दिया …….।

बिना कुछ बोले मनसुख नें धरती में देखना शुरू किया…….फिर महल के छत की ओर देखते हुए बोला …………महल की छत गिर जाए ।

महल गिर जाए ……………..महल की छत गिर जाये ।

ये क्या बोल रहा है तू ! राम राम बोल मनसुख ! ऐसे वाक्य नही बोलते । बृजरानी नें समझाया ।

तभी हँसते हुये बृजराज आगये ………..मनसुख ! एक बात बता अगर छत गिर गयी तो तू बच जायेगा ?

मनसुख नें तुरन्त जबाब दिया ……..हाँ, मैं बच जाऊँगा …….

कैसे ? बृजराज नें मुस्कुराते हुए पूछा ।

“जैसे मैं खीर से बच गया”…………….मनसुख का उत्तर था ।

बृजराज बहुत हँसे ……..बृजरानी भी हँस रही थीं ……….गोप वृंद सब ठहाके लगानें लगे थे ।

देखो मनसुख ! तुम ब्राह्मण हो ……..और खीर कच्ची रसोई में आती है …..ब्राह्मण को हम अपनें हाथों की कच्ची रसोई नही दे सकते ना !

मनसुख नें तुरन्त अपनें कन्धे में हाथ रखा और जनेऊ को दिखाते हुए कहा ………..मैं इसे निकाल दूँ तब तो मैं ब्राह्मण नही रहूँगा ?

महर्षि हँसते हुए बोले ………..नही नही ……..मनसुख ! जनेऊ मत निकालो ………तुम को खीर दे देंगे …………हे बृजराज ! ये वर्ण व्यवस्था से ऊँचा योग सिद्ध महापुरुष है …….इसे खीर क्या ये तुम्हारे लाला का झूठा भी मांगे तो दे देना ……..ये अनादिकाल से ही तुम्हारे लाला का सखा है ………गोलोक से आया है ……इसलिये ।

कहते हैं ………मनसुख को खीर बृजरानी नें स्वयं अपनें हाथो से दी …..मनसुख आनन्दित होते हुए खीर खाता रहा ………और लाला की जयकारा मनाता रहा ………..।

बाबा !
अब तेरो महल नायँ गिरेगो ….ये कहते हुए मनसुख खूब हँस रहा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 28

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 28 )

!! जब अन्नप्राशन संस्कार में बैलगाडी पलटी !!


सच में कंस जैसा दुष्ट राजा शायद ही कोई पृथ्वी में हुआ हो …….

तात ! समस्त लोकों के राक्षसों से परिचय बढ़ा रखा था कंस नें ।

कंस से सभी राक्षस प्रेम करते थे…..राक्षस, सतयुग से लेकर वर्तमान द्वापर के अन्त्य तक के समस्त राक्षसों का कंस के यहाँ आना जाना था ……..या कहें कंस इन सब को पाल के रखता था ।

वाणासुर से राक्षस राज रावण भी कभी भिड़ा नही ……….पर कंस नें वाणासुर को भी छटी का दूध याद दिला दिया था ।

तब से वाणासुर भी बड़ा आदर करता कंस का ।

दैत्यराज हिरण्याक्ष का एक पुत्र था ……जिसका नाम था “उत्कच” ।

महर्षि लोमश नें इसे श्राप दे दिया …..कि “तू देह रहित हो जा !”

तात ! लोमश ऋषि के आश्रम में जाकर उत्कच, उनके सुन्दर सुन्दर वनों को उजाड़नें लगा था …….इसके देह में खुजली शुरू हो गयी थी ……तो ऋषि के वनों में अपनें देह को रगड़नें लगा ……..ये रगड़ता ……वृक्ष गिर जाते ……..वनौषधि का बड़ा नुकसान होनें लगा ……..उनकी कुटिया भी गिर गयी थी ।

तब श्राप दे दिया ……जा दुष्ट ! तू देह से रहित हो जा !

ओह ! राक्षसों का देह से रहित रहना…..कितना कठिन है….ये देह से ही तो चिपके रहते हैं…………….

चरणों में गिर गया वो राक्षस उत्कच ….महर्षि लोमश से प्रार्थना करनें लगा ………….मेरा क्या होगा ? मैं ऐसे कैसे रहूंगा !

करुणावान ऋषि नें करुणा करते हुये कह दिया …….”द्वापर युग के अंत में श्रीकृष्ण चन्द्र जु का स्पर्श पाकर तू मुक्त हो जाएगा “

ओह ! सतयुग से द्वापर तक…….द्वापर के भी अन्त्य तक ……….

पर उत्कच करता क्या…….श्राप तो दे दिया था ऋषि नें………

सतयुग बीता, त्रेता बीता द्वापर भी जब बीतनें में आया……….तब कंस से इसका परिचय हुआ ……….इसको अच्छा लगता था कंस …….इसका मनोरंजन मथुरा में कंस अच्छे से कर देता ………मल्लयुद्ध का प्रदर्शन विश्व में कंस के दरवार में ही होता था………और जो हार जाता ……उसे कुबलियापीढ़ हाथी के नीचे फेंक दिया जाता ……..राक्षसों के लिये ये मनोरंजन था ।

मैं जाऊँगा और तुम्हारे कष्ट को मैं दूर करूँगा………उत्कच बोला ।

पर अब कंस टूट चुका है………पूरी तरह से टूट गया है ।

पूतना गयी …श्री धर गया …..कागासुर गया………उत्कच ! तुम भी क्या कर लोगे ? रहनें दो ……कंस नें साफ़ मना कर दिया था ।

वो सब देह सहित थे ….पर मैं देह रहित हूँ……….मुझे कोई देख नही सकता ……….मैं किसी दिशा से भी घात कर सकता हूँ ……….और मथुराधीश कंस ! मैं जड़ वस्तु में भी प्रवेश करके उस बालक को मार सकता हूँ……….बोलो ! मुझे जानें दो ! तुम्हारे संकट को मैं आज ही समाप्त कर दूँगा ।………..उत्कच आक्रामक था ।

बात तो सही कर रहा है ये …….कंस विचार करनें लगा….पूतना दिखी थी ……..श्रीधर भी दिखाई दे रहा था ……कागासुर भी …..पर ये तो दिखाई नही देगा …………तब ये कुछ भी कर सकता है ।

हाँ ……..तुम जाओ उत्कच ! तुम जाओ …….

गोकुल में बृजराज के महल में उस बालक का जन्म हुआ है ……..जाओ तुम ! और मुझे विश्वास है कि …….तुम अपनें कार्य में सफल रहोगे ।

उत्कच मथुरा से चल दिया ………….बस उसकी हँसी गूँजी थी उस सभा में …………और इतना सबको सुनाई दिया …….कि मैने वराह नारायण को देखा है ………..उनके जैसा रूप ……विशाल रूप ……आज तक किसी का नही है ………..मैने उनसे टक्कर लेते हुए अपनें पिता जी को देखा था ………….तुम एक शिशु के लिये ?

उत्कच चला गया ……..और कंस अपनें विचारों में खो गया था ।

अब अन्नप्राशन संस्कार होगा मेरे सखा का !

कितना खुश है ये मनसुख…………आज इसी नें सबको निमन्त्रण दिया है …..पूरे गोकुल में यही न्यौता देकर आया है ………..

मेरे सखा का अन्नप्राशन संस्कार होगा ………..सब आना ।

माता जी ! आप सुन्दर लंहगा पहन कर आना …………..मनसुख हर स्त्री को माता ही कहता है …………जिससे इसनें अभी माता कहा है ……वो 15 वर्ष की युवा गोपी है ।

पर इसका कोई बुरा नही मानता ……………

मनसुख ! अन्नप्राशन संस्कार तू ही करा दे ………….ऋषि शाण्डिल्य जानते हैं ….ये परम सिद्ध है ………..ये श्रीकृष्ण का अनादि सखा है ……….और ब्राह्मण है …………इसलिये कह दिया ।

नही, मामा जी ! संस्कार तो आप ही कराओ …..पर हाँ ……..मन्त्र मैं भी पढूंगा …….दक्षिणा हम दोनों बाँट लेंगें ……………बहन मानते हैं ऋषि शाण्डिल्य मनसुख की माता पौर्णमासी को ……इसलिये मनसुख ऋषि शाण्डिल्य को “मामा” कहता है ।

तू क्यों आया मनसुख ! बृजराज नही आये ? ऋषि नें पूछा ।

पीछे खड़े थे बृजराज ……….धीरे से बोले ……..मुझे मनसुख ने मना किया था ….कह रहा था इस अन्नप्राशन संस्कार की जिम्मेवारी सब मेरी है ………..मेरा सखा आज से अन्न खायेगा ……..तब मैं भी खाऊंगा ………इसलिये सब को मैं ही निमन्त्रण देकर आता हूँ ।

आप क्यों आये बाबा ! मनसुख बृजराज को “बाबा” कहता है ।

ठीक है मैं अवश्य आऊँगा ………ऋषि शाण्डिल्य मुस्कुराये ।

पर मुहूर्त ? कौन सा मुहूर्त ठीक रहेगा ? बृजराज नें पूछा ।

आँखें बन्दकर के ऋषि नें विचार किया …….फिर बोले …..मुहूर्त तो आज का ही ठीक है ।

“तो आज ही हो जाए”…….मनसुख ख़ुशी से उछल पड़ा ।

बृजराज नें भी कहा……शुभ कर्म शुभ मुहूर्त में ही सम्पन्न हो गुरुदेव !

तो जाओ …..बस एक घड़ी शेष है …..एक घड़ी में ही समस्त तैयारियाँ हो जाएँ ।

हो जायेंगी ….मामा जी ! सब हो जायेंगीं ………..मनसुख आनन्द में भरकर बोला ।

पर क्या क्या सामग्रियाँ चाहियें आप बता देते ? नन्द जी ने पूछा ।

अरे बाबा ! मैं किस दिन काम आऊँगा ………मुझे सब पता है ……रोली, मोली, पान पत्ता सुपाड़ी, बाबा को लेकर चल दिया मनसुख और रास्ते भर पूजन सामग्रियाँ बता रहा था ।

लाला ! आज तेरा अन्न खानें का दिन है ………..मैं भी तेरे साथ आज अन्न खाऊंगा …………..पालनें के पास जाकर मनसुख कन्हैया से कह रहा है ……..कन्हैया किलकारियाँ मार रहे हैं………….हँस रहे हैं..अपनें नन्हे नन्हे चरण फेंक रहे हैं………….मनसुख नीचे झुक गया है …….मनसुख के मुख में नन्हीं उँगलियाँ डाल रहे हैं लाला ।

ग्वाले वन्दनवार टाँग रहे हैं………रंगोली गोपियां बना रही हैं ।

ब्राह्मणों की मण्डली लेकर ऋषि शाण्डिल्य आगये ………मनसुख नें देखा वो ख़ुशी से नाच उठा ………….

मनसुख की माता पौर्णमासी नें बृजरानी से कहा…….लाला का अब स्नान होगा …………

बृजरानी नें लाला को उठाया वस्त्र उतारे…..और सुन्दर से चाँदी के बड़े से परात में लाला को रख दिया ।

मनसुख – मैं स्नान कराऊंगा……कलश में दूध भर कर लाया है वह ।

ब्राह्मणों नें स्वस्तिवाचन शुरू कर दिया ……….”.सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्ष, सहस्रपातः”…….मनसुख आनन्दित हो दूध डाल रहा है कन्हैया के ऊपर ………

तभी ” बधाई हो ” कहते हुये समस्त गोकुल वासी आगये गोप गोपी आगये …..और नाचनें गानें लगे ………सब आनंदित हैं ।

अब चन्दन का लेप किया है कन्हैया के अंगों में बृजरानी नें …………

फिर गौ मूत्र से स्नान करानें लगा मनसुख …………..

बृजरानी मना करती हैं मनसुख को ….धीरे जल डाल ………शिशु है उसे घबराहट होगी ……..पर मनसुख हँस रहा है ……..उसके आनन्द का ठिकाना नही है ।

देवता आकाश से दर्शन कर रहे हैं इस दिव्य स्नान के ……….

अब अंतिम में सुगन्धित गर्म जल औषधियुक्त ……..वो कन्हैया के ऊपर डाला गया था ……….दाऊ रोनें लगे ………मैं भी जल डालूँगा लाला के ऊपर ………अच्छा ! अच्छा ! तू भी डाल ……मनसुख नें दाऊ को भी जल दे दिया ।

बृजरानी नें सुन्दर वस्त्र धारण कराये ………लाला के केशों को सम्भार दिया …………….काजल का टीका लगा दिया …….सुन्दरता भी लज्जित हो जाए ऐसे सुन्दर लग रहे थे ये कन्हैया ।

पालनें में सुला दिया ……दूध की खीर बनाई थी ……….वही मनसुख नें चटा दी लाला के मुख में ……..महर्षि नें अपनें हाथों से चटाई …….फिर मैया नें ….बाबा नें …..सुनन्दा भूआ नें …….इस तरह .अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न हो गया ।

पर बृजरानी को चिन्ता हुयी…….कि लाला को मैने यहाँ रखा तो कोई न कोई गोपी आएगी ……….लाला के गालों को पकड़ेगी ……लाला को अपलक देखती रहेगी …और नजर लगा देगी ……..फिर पूतना जैसी कोई आगयी तो ………..बृजरानी नें देखा …..भीड़ कितनी बढ़ती जा रही है …………गोपी गोपों का झुण्ड न जानें कहाँ से आरहा है ……….फिर किसी को मना भी तो नही कर सकते ।

सामनें देखा बृजरानी नें ……..एक बड़ी सी बैल गाडी है ……….बैल नही है उसमें ……पर माखन की मटकियां , दूध दही की मटकियां सब भरी पड़ी हैं……..बृजरानी नें इधर उधर देखा ……बस गयीं बैलगाड़ी के पास ……….एक रेशमी वस्त्र लिया…..झूला बनाया…….उसमें सुला दिया लाला को ।

यशोदा जी तो चलीं गयीं , ब्राह्मणों को दान देना है ….फिर अतिथि भी तो बहुत आये हैं……….बृजरानी गयीं ।

इधर मनसुख खड़ा है पालनें के पास ……..दाऊ खड़े हैं………छोटे छोटे बालक सब खड़े हैं……हँसते हुए चरण फेंक रहे हैं लाला ……बालक हँसते हैं……..”.फिर कर लाला ” लाला फिर करते हैं ………

अपनें चरणों के अँगूठे को मुँह में डालते हैं…….चूसते हैं………..फिर जब उनका चरण छूट जाता है ……तब रोते हैं……..पर रोते भी इतना सुन्दर हैं कि देखनें वाले को लगता है …….बस देखते रहें ……..कितनी सुन्दर झाँकी है ये ………..।

हा हा हा हा हा हा हा ……….

उत्कच ………..ये राक्षस आगया है ………..ये किसी को नही दीखता ……पर ये सबको देख लेता है ।

ये शिशु है ? कंस का काल ये है ? बहुत हँसता रहा उत्कच ।

क्यों न मैं इस बैलगाड़ी में ही प्रवेश करूँ …….और इसको इसी के नीचे दवा दूँ …..मर जाएगा………..बस – देखते ही देखते वो उत्कच बैल गाडी में प्रवेश कर गया…….कन्हैया नें देखा……..अब रोना बन्द उनका ……..अपनें चरणों को फेंकना शुरू किया……..पर ये क्या ! ..बैल गाडी चर्र चर्र करती हुयी बीच में से टूट गयी ………केवल इतना ही नही ……बैल गाडी के पहिये ……..बैल गाडी के टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गए थे कुछ ही क्षणों में………ये देखा सब बालकों नें …………

उस भीड़ में हाहाकार मच गया ………राक्षसी आई ! राक्षसी आई ! किसी नें ये हल्ला और मचा दिया ……..ग्वाले लाठी लेकर दौड़ पड़े ……….पकड़ो ! मारो !

मैया यशोदा नें जैसे ही सुना ………बैल गाडी पलट गयी ……….कोई राक्षसी आगयी है……….इतना सुनते ही यशोदा जी तो मूर्छित ही हो गयीं ………सब इधर यशोदा को भी सम्भालनें में लग गए थे ।

रोहिणी आगे गयीं……….बैल गाडी टूट गयी है …………बैल गाडी में रखे माखन दूध दही सब फैल चुका है ………..इधर उधर देखा तो मनसुख नें कहा ……….माता ! लाला को कुछ नही हुआ …….वो तो मजे से उधर पालनें में पड़ा है ………..

रोहिणी नें देखा ……..पालना दूर है …….पर पालनें को कुछ नही हुआ था ….वो दौड़ीं पालनें की ओर ……कन्हैया अभी भी किलकारियाँ मार रहे हैं……………

ये कैसे हुआ ? रोहिणी नें घबडा कर पूछा ।

रोते हुये लाला नें चरण पटके……..तो बैल गाडी पलट गयी !

ग्वालों नें रोहिणी माँ को बताया ………..पर इस बात को रोहिणी माता नें महत्व नही दिया ……..बालक कुछ भी बोलते हैं ऐसा विचार करके ।

उत्कच का उद्धार कर दिया था श्री कृष्ण नें……….वो अब जाकर मुक्त हुआ…….कहते हैं तात ! कि देवताओं नें उस समय पुष्प वृष्टि की थी …..जयजयकार किया था ।

पर अब मनसुख की बारी थी खानें की …….उसे खीर खाना था …..जैसे कन्हैया नें खाया था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 27

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 27 )

!! कागासुर और कागभुसुंडी !!


तात ! उसे असुर कैसे कहूँ ? जिसे नन्दनन्दन नें छूआ हो !

उसका असुरत्व तो तभी समाप्त हो गया …..जब उसनें “नन्दतनय” के दर्शन किये ।

वो कागासुर गया सीधे महर्षि लोमश के पास ………….

महर्षि ! मुझे उन “नन्दकिशोर” के दर्शन हुये ……….उन्होंने मुझे देखा ……फिर मारनें का प्रयास भी किया ……..कागासुर बोल रहा था ।

नही ….मारनें का प्रयास नही…….तुम्हे क्या लगता है कागासुर ! ….बृजराज तनय अगर चाहते तो तुम आज बच जाते !

महर्षि लोमश के नेत्र बन्द हो गए थे…….तुम्हारे ऊपर कृपा हुयी है ……..कृपा करना उस नन्द कुमार का स्वभाव है …..और वो स्वभाव के वश में हैं ……..कृपा उन्होंने किस पर नही की ! अधिकारी अनधिकारी ये कृपा शक्ति देखती कहाँ है कागासुर !

पर कागासुर , ऐसा क्या हुआ ? बताओ ? तुम गए क्यों थे गोकुल में ? क्या तुम्हे पता नही था कि बृजराज के लाल स्वयं पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं !

अहंकार जब चरम पर होता है …….तब जीव ईश्वर को भी ईश्वर कहाँ मानता है महर्षि !

अच्छा बताओ ! हुआ क्या था ? तुम्हे राजा कंस नें भेजा था ना ?

महर्षि लोमश नें कागासुर से पूछा ।


राजा कंस !

श्रीधर ब्राह्मण के एक माँस का टुकड़ा कल मैने खाया…..

क्या ! कंस अपनी सभा में चिल्ला उठा था ।

कागासुर ! क्या श्रीधर को भी मार दिया उस नन्द के शिशु नें !

काँप रहा था कंस का शरीर………पर तुमनें उसके देह को कहाँ देखा ?

यमुना जी में ……कालिय नाग नें निगल लिया था श्रीधर को ……..पर जब वमन किया तो श्रीधर के अर्ध देह का ही वमन किया कालिय ने ।

मुझे उस समय भूख लग रही थी कंस ! तो आकाश में उड़ते हुये मैने उस माँस के लोथरे को चबा गया ………पर मैं समझ गया था ये तो श्रीधर के देह का माँस है ।

कागासुर ! मेरी सत्ता को भी वो एक दिन निगल जाएगा………..कंस डर ही रहा था ।

कौन ! कौन निगलेगा ? कंस नें कहा – बृजराज का लाला ………वो पता नही क्या है ? देवताओं की कुटिल चाल लग रही है मुझे तो ।

कागासुर …….

………काग के रूप में एक राक्षस था ……….और राक्षस भी साधारण नही …..महाभयानक ………..ये आकाश में जब उड़ता तो समस्त दैवीय शक्ति इससे काँपती थी ……… बालक और नारियों के अंगों को खाना इसे प्रिय था ………।

तुम डरते क्यों हो कंस ? वीरों के माथे में ये चिन्ता की लकीरें शोभा नही देतीं……एक साधारण शिशु ? देवताओं से भिड़नें की बात हो तो कहो ……… ..एक मनुज का शिशु ? हँसा कागासुर ।

कंस नें गम्भीरता के साथ कहा …..पूतना भी यही कहती थी …….वो श्रीधर ब्राह्मण भी यही कहता था ……..तुम कुछ अलग नही कह रहे …………कागासुर ! मैं तुम्हारी शक्ति पर विश्वास करता हूँ……..पर वो बालक ………वो कुछ और ही है ।

मेरे ऊपर विश्वास है ना युवराज कंस ? कागासुर नें पूछा ।

हाँ …..विश्वास है….पूरा विश्वास है…..कंस क्या कहे…..अपनें सहायकों को हतोत्साहित करना ये तो कोई राजा का कर्तव्य नही है !

जाओ ! कंस नें उसे भी भेज दिया गोकुल में ।

साँय साँय साँय – करता हुआ ……..एक विशाल कौआ आकाश में उठ रहा था …….और क्षणों में ही वो गोकुल पहुँच गया ।


बृजरानी …….पालनें को अपनें आस पास ही रखती हैं ………कभी कभी तो पालनें की डोरी लम्बी कर देती है …….और रसोई से भी झुलाती रहती है……….दुनिया को झुलानें वाला ये है ………उसे मैया यशोदा झूला रही है ।

सूप रख देती है खड़ा करके…पालनें के सामनें…….ताकि सीधे नन्द भवन में आनें वाला उसके लाला को देख न सके …..नही तो नजर लग जायेगी ना !

और क्या पता किसकी नजर कैसी हो !

ये सुनते हुये विदुर जी की हँसी छूट गयी थी…………

जगत का रक्षक………जगत का ईश…..ब्रह्माण्ड जिसके इशारे पर चलता है ….सूर्य जिसके कारण उगता और ढलता है …..समुद्र अपनी मर्यादा नही छोड़ता ।……ऐसे को नजर न लगे कहकर पालनें के पास सूप को खडा कर देती है यशोदा । विदुर जी की बातें सुनकर उद्धव भी आनन्दित हो उठे थे ।

तात ! यही है लीला……इसी को कहते हैं लीला ।

आज यशोदा जी नें – लाला को स्नान कराके…….भरपेट दूध पिलाके …….काजल का टीका लगाके ……पालनें में सुला दिया था ।

तभी ……..आकाश से कागासुर आया ……और मुँडेर पर बैठ गया ।

यही है ? पालनें में झूल रहे नन्हे से शिशु को बड़े ध्यान से देखा कागासुर नें ………”अपनी चोंच से इसका गला दवा दूँगा”……यही विचार कर ही रहा था कि ………..नन्हे से कर उठे ऊपर की और ……..कागासुर देख रहा है ………वो पालनें के पास आया ………

पर किलकारियाँ भरते हुये ……कन्हैया नें अपनें छोटे छोटे करों को फिर उठाया आकाश की और ……अरे ! ये क्या ! कागासुर तो , जैसे लौह चुम्बक में खिंच जाता है ………ऐसे ही नन्द नन्दन नें उसे खींच लिया था ……….वो लाला की हाथों में आगया……..कागासुर को पहले तो लगा ये सपना है क्या ? पर असुर पर तो बीत रही थी …..सपना कैसे कह दें ।

कागासुर का गर्दन पकड़ लिया उन नन्हे हाथों नें ……….और देखते ही देखते ……फेंक दिया उसे मथुरा की सभा में ही ………….

सभा लगी हुयी थी ……….कंस सभासदों से वार्ता कर रहा था कि ………कौआ आकर गिरा …..एक विशाल कौआ ।

ओह ! तू जिन्दा है ? कंस नें कागासुर से व्यंग में पूछा ।

बड़ी बड़ी बातें बना रहा था……….अब क्या हुआ ?

कंस का ये व्यंग उसे अच्छा नही लगा ………और दूसरी तरफ उसके हृदय में अब यशोदानन्दन की छवि बस गयी थी ।

बिना बोले …….वो उड़ गया था महर्षि लोमश के पास ……..क्यों की कागभुसुंडी इन्हीं के शिष्य थे ……….एक बार मिला भी था ये काग भुसुंडी से ……उन्होंने इसे भक्ति की शिक्षा भी देनी चाही ……..पर ये तब अहंकार में था ………..और अहंकार भी चरम पर था ।


तुम धन्य होगए !….. कृतकृत्य हो गए !

…..अरे ! तुम्हे छू लिया नन्द नन्दन नें …….और क्या चाहते हो ? महर्षि लोमश नें कागासुर से कहा ।

आप से दीक्षा ! सिर झुकाकर महर्षि से बोला ।

कुछ देर विचार करते रहे महर्षि ……फिर बोले ………तुम नीलगिरि पर्वत में जाओ ……..मेरा शिष्य काग भुसुंडी है वहाँ ………तुम उनके शिष्य बनो ….वो परम भागवत है …..वो परम भक्त है ……….और तुम भी पक्षी हो …और वो भी पक्षी हैं ।

तात विदुर जी !

कागासुर महर्षि लोमश को प्रणाम करके नीलगिरि पर्वत की और उड़ा…….जहाँ मुक्ति को भी त्याग कर सत्संग के लिये आदिकाल से ही कागभुसुंडि जी विराजमान हैं ।

भगवन् ! मुझे शरण में लीजिये !

सत्संग चल रहा था वहाँ ……..श्री राम कथा का गान कर रहे थे काग भुसुंडी जी ……कागासुर नें जाकर वहाँ साष्टांग प्रणाम किया ।

तुरन्त उठकर खड़े हो गए थे कागभुसुंडी……..”तुम बड़े भक्त हो कागासुर”……….अपनें हृदय से लगा लिया था ।

पर मैं भक्त कहाँ ? मैं तो राक्षस हूँ भगवन् !

भक्त तो कोई भी हो सकता है …………ये देखो ! मेरे पास ये पक्षी हैं …….सब बड़े बड़े भक्त हैं………भक्त तो पक्षी भी हो सकता है …..पशु भी ….सुर भी और असुर भी ………कोई भी ।

और तुमनें तो नन्दनन्दन के दर्शन कर अपनें को धन्य बना लिया है कागासुर !

मैने भी दर्शन किये हैं नन्द कुमार के…….कागभुसुंडी बता रहे थे……हाँ ….ये बात दूसरे कल्प की है …….उस कल्प में भी अवतार हुआ था – कृष्णावतार ।

आनन्द रस में डूब गए थे कागभुसुंडी……..श्रीकृष्ण लीला रस में उनकी समाधि ही लग गयी थी

“लाला की सुन्दर चोटी मैया यशोदा नें बना दी थी …………हाथ में रोटी और माखन था ………चरणों में पैजनियाँ थी जो बज रही थी जब वो चलते …….या जब हिलते थे ।

उस समय वो हाथ में माखन रोटी लेकर नाच रहे थे ……..मैया यशोदा गीत गा रही थीं…….नन्हे से नन्द लाला ………..छोटे छोटे उनके चरण …….उनके छोटे छोटे हाथ ………..उनकी वो चपलता से भरी आँखें ……..मैं मुग्ध हो गया था ……….कागासुर ! तब मेरे मन में एक विनोद सूझा ……..मैं उड़ते हुये “नंदलाल” के हाथो की रोटी लेकर चला गया ……….

मैं तो चला गया ……पर जब घूमकर देखा तो वो धरती पर रोते हुए लोटनें लगे थे …..अपनें चरणों को पटक रहे थे …..मेरी ओर बारबार अपनी मैया को दिखा रहे थे ……..उफ़ ! वो झाँकी ! क्या दिव्य थी ……..कागभुसुंडी नें जब ये कहते हुये अपनें नेत्रों को खोला तो सामनें कागासुर भी उच्च भावस्थिती में पहुँच गया था………….

कागभुसुंडी नें उसको दीक्षा दी………तब से वो कागासुर नीलगिरि पर्वत में ही रहता है …..और सुना है राम कथा काग भुसुंडी सुनाते हैं …तो कृष्ण कथा ये कागासुर सुनाता है ।

सच ! भक्ति के मार्ग में कोई भी आ सकता है……….ये मार्ग सबके लिये है तात !………उद्धव नें कहा ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 26



(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 26 )

!! कंस का पुरोहित – वो श्रीधर ब्राह्मण !!

मैं मथुरा के युवराज कंस का पुरोहित बननें जा रहा हूँ………गुरुदेव ! मुझे आशीर्वाद दीजिये !

श्रीधर ब्राह्मण नें अपनें दैत्य गुरु शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा था ।

कौन कंस ? आचार्य शुक्र नें अपनें शिष्य की ओर देखा ।

गुरुदेव ! मथुरा के युवराज कंस !…..श्रीधर नें डरते हुए कहा ।

ओह ! कंस ? जिसनें परशुराम जी से शिव धनुष प्राप्त किया है ……महाप्रतापी जरासन्ध का जामाता ! शुक्राचार्य नें आश्चर्य से पूछा ।

हाँ …गुरुदेव ! हाँ………श्रीधर नें सिर झुकाकर ही उत्तर दिया ।

“वीरता मुझे प्रिय है……वीर होना ही मेरे लिये प्रयाप्त है”…..कंस मुझे प्रिय है …..जाओ ! जाओ श्रीधर ! कंस का पौरोहित्य कर्म तुम ही सम्भालो…….जाओ !

आचार्य शुक़्र की आज्ञा पाकर श्रीधर ब्राह्मण मथुरा में आगया था ….कंस नें अपना पुरोहित इसी को बनाया ।

हे तात विदुर जी ! बाहर से ही ब्राह्मण था ये श्रीधर….इसके भीतर तो दैत्यों का अन्न ही पच रहा था …..वही अन्न तो इसका मन बन गया ।

राजा उग्रसेन को गद्दी से उतारकर युवराज कंस को गद्दी में बैठानें का श्रेय श्रीधर को भी जाता है …….ऐसे तन्त्र का प्रयोग कंस के कहनें पर इसनें किया था कि…….राजा उग्रसेन को कारागार का वास ही मिला …..और गद्दी पर अपनें यजमान कंस को बिठाया था इसनें ।

ब्राह्मण – सत्य, तप के तेज से सम्पन्न होना चाहिये……..यजमान को आज्ञा दे…….यजमान की आज्ञा माननें वाला ब्राह्मण भी भला कहीं ब्राह्मण कहलानें योग्य है ?

तात विदुर जी ! ब्राह्मण सत्य का नाम है ….ब्राह्मण तप का नाम है ….ब्राह्मण तेज का नाम है…..ओज का नाम है ब्राह्मण ।

पर ये श्रीधर ब्राह्मण, ब्राह्मण के नाम पर कलंक ही था ….क्रूर, पाखण्डी, दम्भी ।

एक दिन…………


कई दिनों से देख रहा हूँ तुम्हे मथुरेश कंस ! तुम चिंतित हो ?

क्या हुआ ? अरे ! देवकी का अष्टम गर्भ अभी तक मर भी चुका होगा ……..श्रीधर नें कंस को चिंतित देखा तो आज कह ही दिया ।

नही ……..ब्राह्मण ! नही ……..मेरे साथ छल हुआ है ……….देवकी का अष्टम गर्भ यशोदा के यहाँ पल रहा है………कंस नें कहा ।

कौन यशोदा ? श्री धर नें पूछा था ।

नन्दराय ……..क्या तुम परिचित नही हो ? बृजराज नन्द से ।

हूँ ……….सोचनें लगा था श्री धर…..फिर बोला …….हम क्षत्रियों से परिचय रखते हैं ग्वालों से नही…..अहंकार चरम पर है श्रीधर का ।

मेरी बात सुनो पहले ………नन्द के यहाँ जो शिशु है ………वही देवकी का अष्टम गर्भ है ……….क्या तुम्हे पता नही ……..पूतना मर गयी !

क्या ! श्रीधर भी चौंका……..कैसे ? कब ?

उसी नन्द के शिशु नें मार दिया………कंस नें बताया ।

क्या होगया तुम्हे आज कल युवराज कंस ? इतनें हताश निराश तुम कभी न थे ………तुम तो वीर थे ……….फिर आज ये कैसी बातें कर रहे हो ? एक शिशु नें मार दिया पूतना को ! श्रीधर हँसा ……….पर कंस की गम्भीरता देखकर फिर चुप हो गया ।

तो तुम मार दो ब्राह्मण ! उस शिशु को । …….जो कहोगे मैं तुम्हारे लिये वही करूँगा ………कंस नें श्रीधर ब्राह्मण को उकसाया ।

ठीक है ………..ये ब्राह्मण तुम्हे वचन देता है ………कि कल मारा जाएगा तुम्हारा वो शत्रु ……..शिशु ………ग्वालों का वह बालक ……..कल काल के गाल में समा जाएगा……..ये कहते हुए श्री धर हँसा…….हा हा हा हा हा ……. और उसी समय गोकुल की ओर चल दिया था ।


आइये आइये ! ब्राह्मण देवता ! आइये !

बृजराज नें देखा ….श्रीधर ब्राह्मण को ………….मस्तक के त्रिपुण्ड्र , शाक्त है ये …..पर लोगों को बताता है कि मैं परम शिव भक्त हूँ …..गले में रुद्राक्ष की माला ……..काला वस्त्र ……….लाल लाल नेत्र …….।

और ये गोकुल वाले परम वैष्णव !…………पर भगवान शिव तो इनके परम गुरु हैं……..महादेव को अपना गुरु मानते हैं ये गोकुल वाले ……इष्ट हैं भगवान नारायण इनके ………पर भगवान शंकर इनके जगद्गुरु हैं……….पूरी श्रद्धा है इनकी ।

सुबह का समय था ………..नन्दराय जा रहे थे गौशाला की ओर …….तभी सामनें से आगया श्रीधर ब्राह्मण ।

ब्राह्मणों के प्रति अपार श्रद्धा है, नन्द जी की ही नही ….सम्पूर्ण गोकुल वासियों की ।

आइये ! आइये ! ब्राह्मण देवता ! ……..आइये ।

देखो यशोदा !………प्रातः के समय ब्राह्मण पधारे हैं ……हमारे अहो भाग्य ! ………..नन्द राय नें यशोदा जी को कहा ।

यशोदा आयीं …….हे ब्राह्मणदेवता ! आज का प्रसाद हमारे यहाँ ग्रहण करें ! झुक कर प्रणाम करती हुयी यशोदा जी बोलीं ।

रोहिणी नें भी प्रणाम किया ।

ठीक है .. ……पर मैं तो स्वयं पाकी ब्राह्मण हूँ…….अपनें हाथों से ही बनाकर खाता हूँ ……..दुष्ट श्री धर नें अपनी चाल चली ।

तो क्या हुआ ……सीधा सामान में रख देती हूँ……और गोबर से स्थान लीप देती हूँ……..ये कहकर बृजरानी स्वयं सेवा में लग गयीं ।

मैं गौशाला होकर आऊँ ब्राह्मण देवता ! आवश्यक कार्य है …….आप को जो आवश्यकता हो माँग लीजियेगा ……..मैं अभी तुरन्त आया !

श्रीधर यही तो चाहते थे………हाँ हाँ …..नन्दराय ! आप जाओ !

बृजराज चले गए ।

…………. श्री धर नें अब चारों ओर देखा ……..।

यशोदा जी नें, पालनें में सुलाया है अपनें लाला को …….बगल में दाऊ सो रहे हैं………..श्री धर नें कुटिल दृष्टि डाली ……….ओह ! ये बालक है मेरे यजमान का शत्रु ! कंस को भी आज कल …..हँसा श्रीधर ।

देवी ! तुम ही हमारे लिये जल, यमुना से भर कर लाओगी ………..

यशोदा जी बहुत प्रसन्न हुयीं………..उन्हें लगा मुझे सेवा का अवसर दिया है ब्राह्मण देवता नें ……भोली हैं ये ।

रोहिणी ! मैं अभी आयी यमुना जल भरकर …….बृजरानी नें कहा ।

……..पर आप क्यों जीजी ! अन्य दासियाँ हैं ना ! या मैं ले आऊँ ?

रोहिणी नें मना किया कि……..जीजी ! आप न जाओ ।

पर मानी नहीं यशोदा ….धीरे से बोलीं ………सेवा करूंगी ब्राह्मण देवता की तो मेरे लाला को ये आशीष देंगे ………फिर देखना मेरा लाला कभी बीमार नही पड़ेगा ।………….बेचारी भोली यशोदा …….. कलश लेकर चल पडीं थीं यमुना की ओर ।

रोहिणी भीतर आयीं…….पालनें में सो रहे हैं बालक ……….उठाकर महल में ले जानें लगीं ……तो श्रीधर नें कहा …..शिशु को यहीं रखो ……….मैं मन्त्र पढूंगा तो इनका भी कल्याण ही होगा ।

रोहिणी भी कुछ नही बोलीं…….ठीक है……..वो चली गयीं भीतर ……रसोई में ……..पर .जाते जाते एक नजर पालनें में डाला…..सो रहे हैं बालक ।

श्रीधर के मन में आया ………अब कोई नही है ………बृजराज भी गए …….बृजरानी भी गयीं ……….रोहिणी भी रसोई में हैं ……..बहुत खुश हुआ श्रीधर ……..पर उसे देखते ही दाऊ की नींद खुल गयी थी ………..

पर श्रीधर कन्हैया के पालनें के पास आया था ……..उसनें सोचा मैं शिशु का गर्दन दवा दूँगा …..बस ये खतम ……….हँसा श्रीधर ……….इस शिशु के लिये कंस इतना परेशान !

वो झुका …पालनें में ………..और झुका ………..जब वो कन्हैया के बिलकुल पास में झुका…………..तभी कन्हैया हँसे ……..वो चौंका ………वो कुछ समझ पाता कि ………नन्हे हाथ कन्हैया के कब उठे ………और पलक झपकते भी शायद देर हो ……..पर यहाँ तो ……..मुख में हाथ डाल दिया कन्हैया नें ब्राह्मण के…….और भीतर तक पहुंचाकर ……बोलनें की शक्ति वाली नस ही मसल दी ।

बेचारा चीख भी न सका……….वो धड़ाम से गिरा धरती पर …….दाऊ ताली बजानें लगे……..और बजाते ही जा रहे थे ताली ।

पर श्रीधर ? वो अब बोल नही सकता ………..वो घबराहट से जब धरती में गिरा तो उसकी रीढ़ भी टूट गयी थी ………

वो दर्द के मारे चिल्लाना चाहता है …पर उसकी वाणी अवरुद्ध हो गयी ।

वो भागा …………लंगड़ाता हुआ भागा ……………पागलों की तरह भागा ……”उसके साथ क्या हुआ”…… ये अब वो किसी को बता भी नही सकता ……..क्यों की उसकी वाणी ही खतम हो चुकी थी ।

बृजराज नें देखा ……….. ब्राह्मण जा रहा है ………गोपों नें देखा , ब्राह्मण जा रहा है ……जा नही रहा भागता हुआ जा रहा है ।

तो सब लोग उसके पीछे भागे ….श्री धर को लगा कि, अब ये सब मुझे मारेंगें ………..श्रीधर डर गया ……..और कहते हैं …..डर इतना गया ये कि …….यमुना में ही कूद गया था ………. और कालिय नाग इसे एक ही बार में निगल लिया था ।

हे तात विदुर जी ! बृजराज बहुत दुःखी हुए ……..एक ब्राह्मण का हमारे यहाँ अपमान हुआ …….वो ब्राह्मण भागा…………..हमारा आतिथ्य भी स्वीकार नही किया …..ये तो शुभ नही है ।

पर ऋषि शाण्डिल्य नें समझाया – हे बृजराज ! तुम्हारे लाला का दर्शन कर वो ब्राह्मण धन्य हो गया ……देहातीत हो चला था………ऐसे सिद्धों के देह त्याग पर शोक नही ……आनन्द मनाते हैं…………..

विदुर जी बहुत हँसें ये सुनकर ……….

तो उद्धव नें कहा…….क्या कहते ऋषि शाण्डिल्य भी……बृजराज की ब्राह्मणों पर श्रद्धा ही इतनी थी ।

पर तात ! मुक्त हो गया वो श्रीधर……….होगा ही, कन्हैया जिसे छू लें ………वो तो परम मुक्त हो ही जाएगा ना !

तात ! कहते हैं …..श्रीधर के ऊपर उसके गुरु शुक्राचार्य नें फूल बरसाए थे …….जब वह दिव्य रूप धारण करके गोलोक धाम जा रहा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 25

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 25 )

!! वात्सल्य भाव का उत्सव !!


जीवन को उत्सव के रूप में अगर किसी मार्ग नें देखा है तो वह है – “भक्ति” ।

भक्ति के भी पञ्च रसों में वात्सल्य अद्भुत है ……..माँ के हृदय का एक भाग होता है उसकी – सन्तान ।

माँ सन्तान के लिये ही सबकुछ करती है…..उसका उठना , खाना, सोना चलना बैठना ……अजी ! माँ का सर्वश्व जीवन ही उसकी सन्तान है ।

उसके बालक का मुख ही उसके लिए उत्सव है ……उस मुख में आयी प्रसन्नता ही उसका उमंग है …….वही उमंग उत्साह तो माँ के वक्ष में दूध उतपन्न कर देता है ……….विज्ञान चकित है …….माँ का उत्साह- उत्सव रक्त को दूध में परिवर्तित करके बालक के पोषण का कारण बनता है ।

माँ की महिमा ऐसे ही नही है ।

मुझे याद आती हैं वो महाराष्ट्र की माता जी ………..मैने दर्शन किये उनके ……..लड्डू गोपाल की एक मूर्ति उन्होंने रखी थी …….मुझे अपनें घर में उन्होंने बुलाया ……….इधर उधर की बातें हुयीं ……फिर मुझ से कहा ……मेरे लाल जी से नही मिलोगे ? वो “लाल जी” कहती थीं लड्डू गोपाल को …….उनके पति पधार गए थे ……….उनका एक ही बेटा था वो भी एक्सीडेंट में चल बसा था ……….उनके गुरु जी नें उनको कहा …..बाल कृष्ण को ही अपना पुत्र मानों ……….ये बात उनको जँच गयी ……..उन्होंने यही किया ……….लड्डू गोपाल की मूर्ति उनके गुरु जी ही दे गए थे ……तब से वो वात्सल्य भाव की मूर्ति स्वयं बन गयीं ।

मुझे उन्होंने कहा ………..एक दिन गलती से जल रखना भूल गयी ……तो मुझे इसनें कहा ……..मैया ! प्यास लगी है ।

बस उस दिन से ये मेरा सब कुछ हो गया ……….कभी कभी मैं भोग लगाकर , पर्दा करके चली जाती थी ……उस दिन ये खाता ही नही था ।

ये सब बातें बताते हुये वो भाव में डूब गयीं थीं……….मेरा बेटा ! मेरा लाल जी …..मेरा कानुडा …………..

उन्होंने एकाएक अपनी आँखें खोलीं ……….साडी को सम्भाला ……..संकोच करती हुयी वो वहाँ से गयीं………..

मैं स्तब्ध हो गया था ……..क्यों की उनके वक्ष से दूध झरनें लगा था ।

उन्होंने तो नही कहा ……पर मैं कहता हूँ …….उसका गोपाल दूध पीता होगा अपनी इस यशोदा का …………

साधकों ! ये सत्य घटना है , वो माता जी अभी भी हैं ।

वात्सल्य भाव अद्भुत भाव है ……मैं फिर कहता हूँ ……..

क्यों की इसमें अपनें आराध्य को पुत्र मानना है ………….उसका ख्याल रखना है ………….।

अब थोडा विचार कीजिये …….यशोदा जी के बारे में ……….

चिन्ता कन्हैया की है यशोदा जी को ………..वो सब कुछ करती हैं ….पर कन्हैया के लिये ……..जप , तप , पूजा , पाठ व्रत …..और कोई निष्कामता का दम्भ भी नही करती ………कामना से करती हैं……..और कामना ये है कि ….मेरा लाला प्रसन्न रहे ………इसके लिये जिसे मानना हो ये मनाती हैं……शनि देव , राहू केतु सबको मनाती हैं……..भूत प्रेत को भी मानना पड़े तो भी इस “नन्द गेहनी” को कोई आपत्ति नही है ।

लाला की ख़ुशी ही इसकी ख़ुशी है……….लाला का दुःख इसके लिये महादुख है ………..होगा ब्रह्म कृष्ण ……..पर इसका तो ये लाला है …….होगा परमात्मा कृष्ण पर ये तो इसकी नजर उतारेगी ।

क्या इस ब्रह्माण्ड में “यशोदा” से बड़ा कोई भगवान है ?

मैं तो कहूँगा …………नही ।


जीजी ! जीजी ! जीजी !

रोहिणी आज पहली बार इतनी खुश हुयी थीं ।

वो आनन्द से यशोदा जी को पुकारती हुयी रसोई में गयीं ।

अभी अभी पालनें में लाला को सुलाकर कर आयीं थी यशोदा ।

लोरी गाती रहीं …….कुछ कुछ गुनगुनाती रहीं ………दूध पिला चुकी थीं……..थपथपी देती रहीं…………थोड़ी देर में लाला नें आँखें बन्दकर लीं ……..यशोदा जी नें देखा तो पालनें में सुलाकर रसोई घर में आगयीं थीं …………कुछ देर बाद ही रोहिणी पुकारती हुयी आयीं……

जीजी ! जीजी ! जीजी !

जब से लाला हुआ है और पूतना की घटना के बाद से यशोदा जी छोटी छोटी बातों से डर जल्दी जाती हैं………….अज्ञात भय, अपनें लाला के प्रति यशोदा जी के मन में बना ही रहता है ……।

क्या हुआ रोहिणी ? वो सहम गयीं …….पर हँसते हुये जब रोहिणी को देखा तब उन्हें कुछ शान्ति मिली थी ।

मेरे तो प्राण ही निकल जाते ……..क्या हुआ ? लाला ठीक तो है ?

जीजी ! चलो तो …….यशोदा जी का हाथ पकड़ कर रोहिणी बोलीं ।

पर रोहिणी ! आज तुम बड़ी प्रसन्न हो ? क्या हुआ ?

चलो तो जीजी !

रोहिणी नें वहाँ बताना उचित नही समझा ……वो नन्दरानी को कुछ दिखाना चाहती थीं ।


दाऊ ….रोहिणी नन्दन !

……..एक वर्ष से भी ज्यादा के हो गए थे दाऊ…….पर अभी तक इनकी आवाज नही खुली थी ………कुछ बोले ही नही थे ….इसलिये रोहिणी भी दुःखी थीं……….कहीं पिता वसुदेव का दुःख तो बालक में नही आगया ………..

पर आज ! …….पालनें के पास घुटवन चलते हुए दाऊ गए ……..गौर वर्ण के दाऊ……..कन्हैया के पालनें के पास जैसे ही गए ………

लाला ! लाला ! लाला !

स्पष्ट आवाज में बोलनें लगे ……. सोते हुए लाला को छूनें लगे……..

रोहिणी आगयी थीं वहाँ…और जैसे ही देखा…..उनका दाऊ “लाला” कह रहा है ………बस उनके आनन्द का कोई ठिकाना न रहा ……..नेत्रों से ख़ुशी से अश्रु झरने लगे ……..वो दौड़ीं …….जीजी ! जीजी !


देखो ! जीजी ! यशोदा जी देखनें लगीं………..रोहिणी भी देख रही हैं………..दोनों माताएँ मन्त्रमुग्ध हैं……..पर ये क्या !

अपनें दाऊ को जब “लाला” कहते हुए सुना………छूते हुए देखा …..तो किलकारियाँ छोड़ते हुये कन्हैया नें तुरन्त करवट बदल ली ।

रोहिणी ! लाला नें करवट बदली है ……….

यशोदा जी नें आनन्द की अतिरेकता में रोहिणी को अपनें हृदय से लगा लिया ……..लाला नें करवट बदल ली ।

तो भाभी ! अब तो उत्सव होना चाहिये !

सुनन्दा नें पीछे से आकर कहा ।

……..सुनन्दा ! तुम आगयीं ?

भाभी ! यहाँ से जानें के बाद मेरा तो घर में मन ही नही लगा ……….

बारबार मुझे लाला ही याद आती रही…….मैं खोई खोई रहती थी ……मेरे पति बोले ……..तू कुछ दिन और रह आ गोकुल में ….

भाभी ! मैं तो बस भागी वहाँ से …………

यशोदा जी नें कहा ……अच्छा किया …………..

पर भाभी ! अब तो करवट बदलनें का उत्सव होना चाहिये …….

सुनन्दा कितनी खुश है ……रोहिणी को आज आनन्द आरहा है …..यशोदा जी के तो आनन्द का पारावार ही नही है ।

सुनन्दा दौड़ी …………..वो सीधे ऋषि शाण्डिल्य के पास गई ……..चार सुवर्ण के मोहर उनके चरणों में रखते हुए बोली …….लाला नें करवट बदली है …..उत्सव तो होना ही चाहिये !

हँसे ऋषि शाण्डिल्य ………तुम लोगों को तो बस उत्सव मनानें का बहाना ही चाहिये …………..चलो ! देखता हूँ रुको ……..ये कहकर ऋषि शाण्डिल्य नें आँखें बन्द की ……….फिर बोले ……..लाला के पास क्या कोई “नाग” था क्या आज ?

डर गयी सुनन्दा…….ऋषिवर ! ऐसे मत बोलो ….कोई नाग नही था ।

ऋषि शाण्डिल्य नें कहा …….पर मेरा अनुमान गलत नही होता …..लाला तभी करवट बदलेगा जब उसके पास कोई नाग होगा ……….

सुनन्दा नें कहा ……..कोई नाग नही था ।

ऋषि शाण्डिल्य भी कुछ समझ न पाये…….नाग होना ही चाहिये ।

चलो ! तुम तो उत्सव मनाओ………..ये कहकर सुनन्दा को ऋषि नें भेज दिया ।

फिर नन्दालय के आँगन में धूम मची …….बड़े बड़े गवैये आये ………नन्दराय आज फिर नाचे ……..अरे हाँ …..आज तो रोहिणी भी नाचीं …..और सुनन्दा नें यशोदा जी को पकड़ा और …….ना ! भाभी ! आज तो तुम्हे भी नाचना ही पड़ेगा …………बड़ी शरमा रही हैं यशोदा जी ……….पर जब नाचीं तो उन्मुक्त होकर नाचीं ……..अपनें लाला के करवट बदलनें के उत्सव में ।

उद्धव ! ये “नाग” वाली बात, क्या बोले थे ऋषि शाण्डिल्य ?

विदुर जी नें बीच में प्रश्न किया था ।

हाँ ……….वो “शेष नाग” के लिए कह रहे थे ……दाऊ जी, शेष नाग के ही तो अवतार हैं ना तात !

हाँ ………विदुर जी मुस्कुराये ………अच्छा ! इसलिये कह रहे थे ऋषि कि लाला के पास कोई “नाग” होना चाहिये !

विदुर जी को अब समाधान मिला था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 24

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 24 )

!! जगत रक्षक  की गोपियों द्वारा रक्षा !!
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आहा ! “जगत रक्षक” की रक्षा करनें चली हैं अब ये गोपियाँ ।

जिनका नाम लेनें से जगत का अमंगल नष्ट होता है ……उसी का अमंगल दूर करनें चली हैं ये गोपियाँ ………क्या अद्भुत बात है …है ना तात !

विदुर जी से उद्धव नें कहा ।

ये वात्सल्य भाव है ….वात्सल्य भाव की नदी ही बह चली है अब यहाँ ।

पूतना के देह से कन्हैया को लेकर बृजरानी की गोद में दे दिया था ।

गोपियों नें घेर लिया यशुमति को …..कन्हैया को लेकर सब चिंताएं करनें लगी थीं……यह तो चुड़ैल थी , चुड़ैल……कोई भूतनी बता रही थी ।

डाकिनी है ये …….एक गोपी नें कहा …………….कहीं लाला के ऊपर इसकी छायाँ ……….दूसरी गोपी ये भी कह रही थी ।

अरे ! बातें ही बनाती रहोगी ………मोरपंख लाओ ….और उससे झाड़ो ……..दूर से एक गोपी दौड़ती हुयी आयी …….”नीम के पत्तों का झाड़ा दो” …….कहती हुयी आयी थी ।

मैं जानती हूँ एक ओझा को …….भूत प्रेत उतारती है वो ……….मैं उसे बुलाती हूँ………ये कहनें लगी एक गोपी ।

हट्ट ! यहाँ भूत प्रेत कहाँ ? ये नन्दालय वैष्णवों का है ……यहाँ सब वैष्णव हैं ….भगवान नारायण की सेवा होती है यहाँ ………एक बूढी गोपी लाठी टेकती हुयी आयी ….और सबको हटाती हुयी बोली थी ।

पर यशोदा जी, सबकी बातें सुनकर रोनें लगीं………….वो लाला को लेकर धरती में ही बैठ गयीं………..तभी दाई आयी ……..बूढी दाई ……सबको चिल्लाकर बोली ……मेरे होते हुये सब क्यों बकरबकर कर रही हो …….हटटो यहाँ से …………..

हाँ बृजरानी ! तुम रोओ मत ……लाला को कुछ नही होगा ……

दाई के आते ही ……बृजरानी दीन हीन सी , हाथ जोड़कर बोलीं – …….दाई ! तुम इस बृज की सबसे बूढी गोपी हो……..तुम बताओ ना ! मैं क्या करूँ ?

तुम तो झाड़ फूँक सब जानती हो न ! …….करो ……बस मेरे लाला को कुछ नही होना चाहिये…….ये स्वस्थ रहे ……….भले ही मुझे कुछ हो जाए ….पर इस को कुछ न हो ………बृजरानी आँसू बहाती जा रही थीं ।

तू क्यों रो रही है …….मैं हूँ ना यशोदा ! चलो ….सब चलो ……..गौशाला चलो ……..मैं ऐसा उपाय करूंगी कि लाला अभी ठीक हो जाएगा ………..इतना कहकर लाठी टेकते हुए दाई आगे आगे चल दी …..पीछे यशुमति अपनें लाला को लेकर चल रही थीं……..और उनके पीछे सभी गोपियाँ ।

लाला टुकुर टुकुर देख रहे हैं……….”कि ये हो क्या रहा है” ।

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अद्भुत ! दिव्य !

विदुर जी गदगद् हो उठे थे ये सब सुनकर ।

उद्धव हँसते हुए बोले ………”मंगल भवन” का अमंगल नष्ट करनें के लिये ये सब गोपियाँ चल रही हैं……जिनका नाम लेंने से समस्त ब्रह्माण्ड का अमंगल नष्ट होता है ……..उनका अमंगल नष्ट करनें की कामना लेकर आज ये सब गौशाला आयी हैं ।

यशोदा तू बैठ ! …….दाई नें कहा……..यशोदा जी बेचारी जो कहो वही कर रही हैं …….क्यों की लाला का प्रश्न है …..कहीं लाला को कुछ हो न जाए……बारबार हृदय काँप रहा है यशोदा का……उस राक्षसी नें पता नही क्या किया हो मरते मरते । यशोदा जी बैठ गयी हैं ।

दाई, श्यामा गौ को लेकर आयी……….और लाला के सिर में मन्त्र पढ़ते हुये गौ की पूँछ घुमानें लगी ।

फिर उसी गौ के गोबर का टीका मस्तक में लगा दिया लाला के ……..उसके बाद गौ मूत्र का छींटा भी देंने लगीं ।

दाई और अन्य गोपियाँ मन्त्र पढ़नें लगीं………….

उद्धव हँसते हुये बोले ………इनका मन्त्र !

हे ऋषिकेश भगवान ! लाला के इन्द्रियों की रक्षा करना ।

हे नारायण भगवान ! यशोदा और नन्दराय आपकी बहुत आराधना करते हैं……इसलिये आप लाला के प्राणों की रक्षा करना !

हे योगेश्वर भगवान ! लाला के मन की रक्षा आप करना ……….

हे विष्णु भगवान ! आप मेरे लाला के आगे आगे अपना चक्र लेकर रक्षा करते हुए चलना …………

हे गोविन्द भगवान ! लाला जब खेले तब आप रक्षा करना ………

और जब लाला सो जाए तब, हे माधव भगवान ! आप रक्षा करना ।

हे बैकुण्ठ नाथ ! आप मेरे लाला की चलते हुए रक्षा करना ……..बैठते हुए लाला की रक्षा श्री पति भगवान करना ।

हे यज्ञ पति भगवान ! जब लाला भोजन करे तब रक्षा करना ।

“अब सब बड़े मन से “विष्णु विष्णु विष्णु” नाम का उच्चारण करो” …..दाई नें गोपियों को आदेश दिया ………..

बृजरानी ! तुम भी मन ही मन में “विष्णु” नाम का उच्चारण करो ।

दाई की बातें सुनते ही यशोदा जी नें बड़े मनोयोग से “भगवान विष्णु” का नामोच्चारण प्रारम्भ कर दिया था ।

हजारों गोपियों नें एक साथ “विष्णु विष्णु विष्णु” नाम को बोलना जब शुरू किया…..तब दाई सबसे तेज़ आवाज में कहनें लगी …..

जितनें भूत ,प्रेत , डाकिनी , साकिनी , यातुधानी, कूष्माण्डा , बाल घातिनी , पिशाच, यक्ष, राक्षस , जो भी लाला के देह से चिपक गए हैं वो सब हट जाएँ …….नही तो भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र उन्हें जलाकर भस्म कर देगा ……….हट् हट् हट् हट्ट ………..बूढी दाई आँखें बन्दकर के जोर से चिल्लाई…………..

पर ये क्या ……दाई के चिल्लानें से …….यशोदा की गोद में लेटे कन्हैया हँसे ……खिलखिलाकर हँसे …………….

ये जब देखा…..तो दाई खुश हो गयी, बोली -……..देखा ……..सब भूत प्रेत भाग गए…..देख यशोदा ! तेरा लाला अब हँस रहा है……….

यशोदा जी नें देखा……..लाला सच में हँस रहा है……यशोदा जी ख़ुशी से झूम उठीं…….गोपियाँ आनन्दित हो गयीं……..हाँ …दाई ! सच में तू तो बहुत बड़ी मन्त्र तन्त्र की ज्ञाता है , गोपियों नें कहा । ……और क्या ! क्या समझती हो तुम लोग …..ऐसे भूत प्रेत मैने कितनें भगाए हैं ।

पर कन्हैया हँसे क्यों ? विदुर जी नें पूछा था ।

उद्धव नें कहा…….तात ! इसलिये कन्हैया हँसे …….कि ये सब इनके ही नाम तो हैं…….और इनके ही नाम और इनके ऊपर ही झाड़ा ।

तात विदुर जी ! ये वात्सल्य मयी हैं गोपियाँ …………स्नेह रस से सिक्त हैं………..ये नही मानती कन्हैया को परब्रह्म ……इनके लिये तो ये बालक है …..निरा बालक ।

शेष चरित्र कल

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 23

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 23 )

!! मातु की गति दई ताहि !!


लाला कहाँ है ? एकाएक चीखीं बृजरानी ।

रोहिणी भी दौड़ीं………..

पर लाला पालनें में नही है लाला……..वह ब्राह्मणी भी नही है ……रोहणी ! कहाँ गयी वो ? यशुमति की आवाज सुनते ही दास दासियाँ दौड़ीं ……….गोपियाँ और गोप सब दौड़ पड़े थे ।

पागलों की तरह सब दौड़ रहे थे इधर उधर…….लाला कहाँ है ? सबके मुख में यही प्रश्न था………

गोपियाँ बृजरानी को सांत्वना दे रही थीं…….आप शान्त होइये पहले …….बताइये ! कौन आया था आपके महल में ?

“पण्डितानी” कह रही थी वो अपनें आपको…….मथुरा से आयी हूँ….. बता रही थी…..दूध लेनें रोहिणी गयी ……फिर मुझे कहा उसनें कि “मैं छाँछ लुंगी”…….मुझे क्या पता था कि ऐसा हो जाएगा……..मैं क्यों गयी ! हे भगवान ! घबराहट बढ़ती ही जा रही थी बृजरानी की ।

नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे थे …………………

आप ऐसे किसी पर भी कैसे विश्वास कर सकती हैं……….

कहनें के लिये गोपियाँ ये भी कह रही थीं ।

अरे ! मुझे क्या पता था ……………सुनो ! उधर देखो तो ………..शायद उधर मेरा लाला हो ……..सब दासियाँ यशुमति जिधर कह रही थीं उधर देखनें लगीं थीं ।


उद्धव ! हुआ क्या था ? पूतना नें क्या किया कन्हैया के साथ ?

वो कहाँ ले गई कन्हैया को ? क्या मथुरा ले गयी ?

विदुर जी नें उद्धव से प्रश्न किया ।

नही तात विदुर जी ! मथुरा कहाँ से ले जाती वो ……..वो तो अच्छे से चंगुल में फंस चुकी थी कन्हैया के ……..और मैने आपको कहा ही है ….जिसे ये पकड़ लेता है छोड़ता कहाँ है ।

तात विदुर जी ! बृजरानी के जानें के बाद …….पूतना पालनें के पास आयी थी……उसनें ध्यान से देखा ……..आलस से भरे हुए थे कन्हैया………क्यों की दूध अभी पिला कर ही गयीं थीं यशोदा मैया …….इसलिये आलस आरहा था उन्हें ।

पूतना नें इधर उधर देखा……और झट् से उठा लिया था कन्हैया को ।

अस्फुटित दो कमल कली के समान उनके गोल गोल से रसीले ओठ बन्द थे …….वो कुछ देर तो उन अधरों को देखती रही……..पर फिर उसनें सोचा समय को इस तरह बिताना उचित नही है………….कोई आगया तो ? यशोदा ही आगयी तो ?

तुरन्त उसनें अपना वक्ष खोला …….और स्तन कन्हैया के मुख में दिया …………मुख बन्द थे …….कन्हैया खोल नही रहे थे ………क्यों की उनका पेट भरा हुआ था ………..पर जबरदस्ती पूतना नें अपना स्तन कन्हाई के मुख में दिया ……अब दे दिया …… इस पर कन्हैया को गुस्सा आया ………….दाँत अभी निकले नही हैं……….ओठ से ही पान करनें लगे स्तन को ……..पूतना हँस पड़ी ….उसे अच्छा लगनें लगा ……पर ये क्या ? वो कुछ ही देर में चिल्लानें लगी ………..वो भागी ……….वो इधर उधर दौड़नें लगी ……….वो कन्हैया को अपनें वक्ष से हटानें का प्रयास करनें लगी ………पर ये तो चिपक गए थे उसकी छाती से …………

उद्धव बोले …तात ! पिलानें आयी थी दूध ……..पर ये तो परम उदार हैं………तुम थोड़ा दो ये पूरा लेते हैं………….हँसे उद्धव ।

विष मिश्रित दूध पिलानें आयी थी ……पिला रही थी …..पर कन्हैया नें कहा ……इतनें से अब काम नही चलनें वाला ………हम तो अब तुम्हारे प्राणों को ही पीएंगें………….

वो भागनें लगी , वो छटपटानें लगी ……….उसका वो सौन्दर्य सब खतम हो रहा था ……..वो राक्षसी रूप में आने लगी थी ।

हाँ तात विदुर जी ! पूतना नें एक बार सोचा कि ……इस बालक को ऐसे ही लेकर मथुरा जाऊँ………वो भागी मथुरा की ओर ……..पर भागते हुये वो गिरी……..जब गिरी ……..तो जंगल के जंगल उसके देह के नीचे आकर दव गए थे……..उसका भयानक रूप वापस आगया था ……….पर कन्हैया बड़े प्रेम से स्तन पान करते ही रहे अभी भी…..वो हटा रही है ……..वो चीख रही है ……वो छटपटा रही है ।


मैया ! ओ बृजरानी मैया !

दो ग्वाले दौड़े हुए आये ।

बृजरानी उठीं………मेरे लाला को देखा क्या ? बृजरानी नें पूछा ।

हाँ …..हाँ …….उधर उधर ………..ग्वाले भी घबराये हुये थे ।

अरे क्या हुआ ? बता तो ? रोहिणी नें पूछा ।

एक विशाल देह है …………राक्षसी का देह है …………उसके ऊपर हमारा लाला खेल रहा है ।

बस ये सुनते ही बृजरानी तो धड़ाम से धरती में गिर गयीं……और मूर्छित ही हो गयीं ।

नन्द राय जी आगये थे …….उनके साथ चार पाँच ग्वाले थे ……….वो सब दौड़े …….कहाँ है राक्षसी ? अब तो पूरा गोकुल ही आगया था …..ग्वाल बाल लाठी फरसा सब ले आये थे ………

यशोदा जी कुछ देर में उठीं………..वो फिर रोहिणी को लेकर दौड़ीं उस राक्षसी की ओर ।

ग्वाल बाल नें देखा विशाल देह है …… पड़ा हुआ है …………उसके ऊपर लाला खेल रहा है ……….

सबसे पहले तो ग्वालों नें देखा पूतना मर चुकी थी………

फिर उसके देह में चढ़कर लाला को उठा लाये ……………

यशोदा की गोद में लाकर दिया…….यशोदा जी नें देखा ……सबसे पहले लाला के नाक में हाथ रखा……साँस चल रही है लाला की……

पर ये रो क्यों नही रहा ? मैया घबरा गयीं ।

रोहिणी ! ये रो नही रहा ? देख ना ? यशुमति की घबराहट बढ़ती जा रही थी………तभी कन्हैया नें रोना शुरू किया ……..बस रोनें की आवाज सुनते ही………प्रसन्नता से भर गयीं यशोदा जी …….नेत्रों से सुख के अश्रु बहनें लगे थे……….चूमनें लगीं लाला का मुख ।

पर उसी समय क्रोध से भर गए थे ग्वाले ………फरसा लिया और पूतना के अंगों को काटनें5 लगे …….हाथ काट दिए …….पैर काट दिए …….और सब नें मिलकर सूखी लकड़ियां पूतना के ऊपर डाल, आग लगा दी ।

पर तात विदुर जी ! सब आश्चर्य से देख रहे थे उस दृश्य को ……..

कि पूतना के देह से एक सुगन्ध प्रकट हुआ……दिव्य सुगन्ध……पूरे वातावरण को सुगन्ध से भर दिया उसनें …….किसी को कुछ समझ में नही आरहा था कि ये दिव्य गन्ध इस राक्षसी के देह से क्यों ?

हाँ ….ऐसा क्यों ? उद्धव ! विदुर जी नें भी प्रश्न किया ।

तात ! चन्दन वृक्ष को काटनें वाली जो कुल्हाड़ी होती है ना ……..चन्दन के प्रभाव से कुल्हाडी में भी सुगन्ध आजाता है ।

तात ! कन्हैया के दिव्य देह का इस राक्षसी ने स्पर्श किया था…..ये साधारण बात नही थी ।

इसे तो अपनी माता की गति दे दी थी…….गोलोक भेज दिया कन्हैया नें इसे …….अपनी धाय माँ बनाकर सदा के लिए ।

धन्य है कन्हैया की करुणा ……आहा !

गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई ,
मातु की गति दई ताहि, कृपालु जादव राई !!

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 22

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 22 )

!! कन्हैया ने जब पूतना को देखा !!


बधाई हो ! बधाई हो !

नाचती गाती गोपियाँ लौट रही थीं नन्दालय से ।

पूतना देख रही है ।

“धन्य हो गया ये गोकुल ……….आज छ दिन हो गए हैं यशोदा के लाला हुये ……….पर उत्सव अभी भी चल ही रहा है ………कितनी उदार हैं हमारी बृजरानी……….अरी ! लाला कितना सुन्दर है ! दूसरी गोपी तुरन्त कह रही थी………..पूतना इन सबकी बातें सुन रही है ।

पता है ……..बृजरानी नें मुझे मोतियों का हार दिया है ….देख !

दे तो मुझे भी रही थीं पर मैने नही लिया ! दूसरी गोपी नें कहा ।

क्यों ? फिर बधाई में तेनें क्या माँगा ? पहली गोपी नें पूछा ।

मैने तो कह दिया ……..मुझे ये सब नही …….मुझे तो अपनें लाला का मुख दिखा दो ! पहले तो मना किया बृजरानी नें ……पर बाद में मुझे लेकर गयीं पालनें के पास ……………आहा ! सखी !

क्या सुन्दरता ! माखन में मानों नीला रँग मिला हो ……ऐसा देह है बृजरानी के लाला का……..चंचल नयन………उसनें मुझे देखा……अपनें नन्हे पाँव पटके …….मैं तो मन्त्र मुग्ध हो गयी ….सबकुछ भूल गयी थी , सच ! अद्भुत बालक जाया है बृजरानी नें ।

पूतना सुन रही है गोपियों की बातें ।

सुनिये !

पूतना नें गोपियों को रोका ।

हाँ ………..गोपियाँ रुकीं ।

ये नन्दालय कहाँ है ? पूतना नें पूछा ।

क्यों ? नयी आई हो ? क्या गोकुल की नही हो ?

गोपियों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी ।

कहाँ की हो ? बड़ी सुन्दर हो ? यशोदा की बहन लगती हो ?

ओह ! उसके लाला हुआ है इसलिये आयी हो………कुछ लाई हो ? खिलौनें ? अच्छा दिखाओगी, क्या लाई हो ?

प्रश्न इतनें कर दिए कि पूतना तो घबडा गयी …………..

तुम भी ना !

एक गोपी, बूढी बड़ी थी. उसनें पहले तो गोपियों को टोक कर चुप कराया……फिर आगे बढ़कर कहा , पूतना से बोली ……जाओ ! सीधे जाओ……..दूध दही की कीच मची है …..हल्ला हो रहा है ….लोग लुगाई सब नाच रहे हैं………..जाओ ! बस वही है नन्दालय ।

पूतना गयी ………………

भीड़ थी लोग नाच गा रहे थे वहाँ…….धूम मची थी उत्सव की ।

आज छठी उत्सव मनाया जा रहा था ……..बृजरानी का लाला आज छ दिन का जो हो गया था ।

पूतना नें देखा …….भीड़ बहुत है ………..और मुझे जाना है यशोदा के अन्तःपुर में………वहाँ तक कैसे जाऊँ ।

पर जाना तो है ……..पूतना चली भीड़ के पास ……….

पर पूतना को देखते ही भीड़ छंटनें लगी……….क्यों की ये इतनी बन ठन के जो आई थी ………..सुन्दर- अतिसुन्दर रूप जो इसनें बनाया था ……..गोपों नें रास्ता दे दिया पूतना को ………..

नाचना गाना सब रुक गया ग्वालों का …………

“बड़ी सुन्दर है ये” ………एक नें दूसरे के कान में कहा ।

बृजरानी के पीहर की लग रही है…………देखो तो !

ग्वाले सब देख रहे हैं पूतना को………..पर पूतना सीधे गयी ।

यशोदा जी रोहिणी ये दोनों ही बैठी थीं पालनें के पास में ।

पूतना को जैसे ही यशोदा जी नें देखा …….उठ गयीं ।

कौन हो ? उठते हुए पूछा …….रोहिणी भी उठीं ।

मैं ? मैं मथुरा से आयी हूँ………..पण्डितानी हूँ……….पूतना इतना बोलकर चुप हो गयी ।

क्यों आयी हो ? बृजरानी नें पूछा ।

क्यों आयी हो ? क्या तुम्हारे लाला नही हुआ ? मैने सुना कि तुमनें एक लाला को जन्म दिया है …….और वो बहुत सुन्दर है ।

हाँ ……..लाला हुआ है ………..यशोदा जी नें कहा ।

तो दिखाओगी नही ? ब्राह्मणी हूँ , क्या मेरा आशीष नही लोगी ?

वैसे – मेरा आशीष फलता बहुत है ……..पूतना आँखें मटका रही थी ।

हाँ हाँ…..क्यों नही ……..मेरे बालक को तुम पण्डित- पण्डितानियों के ही आशीष की जरूरत है ………..खूब दो मेरे लाल को आशीष ।

ये रहा मेरा लाला ………ये कहते हुये पालनें की ओर बृजरानी नें पूतना को दिखाया ………….मैं तुम्हारे लिये दूध मंगाती हूँ………रोहिणी ! पण्डितानी के लिये दूध ला दो ।

जीजी ! अभी लाई ……..रोहिणी गयी दूध लेनें ।

ओह ! ये है तुम्हारा लाला ! पालनें में देखा पूतना नें कन्हैया को ।

कन्हैया नें टेढ़ी नजर से पूतना को देखा ……………

फिर तुरन्त अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ।

मैं दूध नही पीऊँगी ……..क्या छाँछ ला सकती हो ?

पूतना नें यशोदा जी को कहा ।

हाँ …हाँ ………मैं लेकर आती हूँ छाँछ ……………यशोदा जी इस बार स्वयं गयीं पूतना के लिये छाँछ लेनें ………….

पर इसे छाँछ पीना कहाँ था …….ये तो एकान्त चाहती थी ……ताकि अपना स्तन कन्हैया के मुख में दे सके ……उद्धव बोले ।


पर उद्धव ! कन्हैया नें नेत्र बन्द क्यों किये ?

पूतना को देखकर नेत्रों को बन्द करनें का कारण क्या था ?

चपलता ! बालक की अपनी एक चपलता होती है …….उद्धव नें कहा ।

पर तात ! महत्पुरुषों नें इसपर बहुत कुछ कहा है …………

किसी नें कहा………..कन्हैया के नेत्रों में सूर्य चन्द्र का वास है …….तो सूर्य चन्द्र नें इस पापात्मा पूतना को देखना न चाहा ….और पलकों से स्वयं को ढँक लिया ।

तात ! किसी नें कहा ……..कन्हैया के पास बिना पुण्य के कौन आएगा ……पर पूतना का पुण्य तो शून्य है …..है ही नही ……..किन्तु पूर्वजन्मों में कोई पुण्य हो ………ऐसा विचार कर कन्हैया उसके पूर्व जन्मों को देख रहे हों ……….नेत्रों को बन्द करके ।

हँसे उद्धव …………कन्हैया नें सोचा ………..विष तो हम पीयेंगे नही …….क्यों न महादेव को कहा जाए ……….क्यों की उनको विष का अभ्यास है ………..ऐसा विचार कर आँखें बन्दकर के महादेव का ध्यान कर रहे हैं कन्हैया ……..और उन्हें बुला रहे हैं…….कि आओ ……विष आप पीयो दूध हम पीयेंगे ………..तात ! विदुर जी ! इसलिये कन्हैया नें अपनें नेत्रों को बन्द किया ।

ये सुनकर विदुर जी बहुत हँसे …………साथ में उद्धव भी हँसे जा रहे थे …………इसलिये कन्हैया नें अपनें नेत्रों को बन्द किया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 21



(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 21 )

!! आई मारन पूतना !!

भैया ! चिन्ता क्यों करते हो तुम्हारी बहन किस दिन काम आएगी !

बृज में जन्म लिया है तुम्हारे काल नें ? मैं मार दूंगी उसे …..मैं भी तो राक्षसी हूँ……समस्त राक्षस विद्याओं की ज्ञाता ।

कंस नें अपनी बहन को बुलवाया था मथुरा में ।

ये सगी बहन नही है ………पर इसमें जो राक्षसी शक्तियाँ थीं उससे प्रभावित होकर ही कंस नें इसे अपनी बहन बना लिया था ।

एक तीर से कई निशानें साधे थे कंस नें………पूतना को मथुरा में क्या लाया कंस ………इसके साथ, इसके अन्य राक्षस भाई भी आगये थे …..वकासुर, अघासुर तृणावर्त………ये सब पूतना के भाई थे ……और सबके सब आसुरी शक्तियों से सम्पन्न थे……..इसलिये तो पूतना को कंस अपनी बहन बनाकर मथुरा में ले आया था ।

तुम मेरे काल को मारोगी कैसे ? कंस नें पूतना की ओर देखकर पूछा ।

भैया ! मैं अपनें स्तनों में काल कूट विष लगाकर जाऊँगी……..और बृज के गाँवों में जहाँ जहाँ बालकों नें अभी जन्म लिया है …..उन सब बालकों को दूध पिलाऊंगी और बालक मर जाएगा……अट्टहास करनें लगी पूतना……भैया ! इस बहन के होते हुये तुम्हे चिन्ता क्यों ?

तो कैसे जाओगी ? किसी यान से ? या आकाश में उड़ते हुए ?

कंस नें पूछा ।

भैया ! बड़े भोले हो तुम ……..मैं कह चुकी हूँ ना ……मैं राक्षसी हूँ……..और राक्षसी विद्याओं में पारंगत हूँ………मैं जल में चल सकती हूँ……..अग्नि में खेल सकती हूँ……..नभ चारिणी हूँ मैं ।

पर ……कंस रुक गया बोलते हुये………पर पूतना ! तुम इतनी भयानक हो……..कि तुम्हे अपनें घर में कोई प्रवेश करनें ही नही देगा …….और प्रवेश मिल भी जाए ……..तो उसके शिशु को तुम दूध पिलाओ ये कौन माँ चाहेगी………तुम तो महाभयानक हो ।

पूतना हँसी…….उसकी हँसी भी सामान्य को भयभीत करनें वाली थी ।

कुछ ही क्षण में पूतना वहाँ से चली गयी…..ये सब एकाएक हुआ था ।

निरपराध शिशु बहुत मारे गए होंगें ना ? उद्धव ! पूतना नें बृज के बहुत शिशु मारे …….ओह ! इन सद्योजातः शिशु का अपराध क्या था ?

बेचारे वे शिशु ! विदुर जी नें उद्धव से कहा ।

उद्धव, विदुर जी के मुखमण्डल की ओर चकित भाव से देखनें लगे थे ।

तात ! ये प्रश्न आपका है ?

विदुर जी बोले …….नही …..ये प्रश्न मेरा नही है ….पर सामान्य जन तो यही सोचेगा ना ?

तात ! यह प्रश्न उन्हीं के मन में उठेगा …..जो जन्म को तो श्रेष्ठ, उत्तम, और आवश्यक मानते हैं……पर मृत्यु को निम्न , निकृष्ट और अनावश्यक समझते हैं……….तात ! क्या जन्म और मृत्यु एक लीला मात्र नही है उस लीलाधारी की……फिर इस बात को इतनी गम्भीरता से क्या लेना ?

माली जानें कि उसे अपना बगीचा कैसे सजाना है !

किस पौधे को रखना है ……..और पौधे के पास में उगे व्यर्थ के घास को उखाड़कर फेंकना है ………..ये माली पर छोड़ दो ना ।

ये संसार हमनें नही बनाना ….ये कन्हैया नें ही बनाया है …….वही इस संसार रूपी वन का माली है……….”वनमाली” जानें ………..

उद्धव नें कहा ।

तुम कौन हो ?

कंस नें उस सुन्दरी को देख, चौंक कर पूछा था ।

एक हाथ लम्बे घूँघट से उसका मुख ऐसा दीख रहा था ….जैसे चन्द्रमा ।

उसकी बेणी कमर तक लटक रही थी……बेणी में फूल लगे थे …..मालती, जूही, माधवी, मल्लिका आदि के फूलों की मालायें गुँथी थीं ।

रेशमी वस्त्र झीना था ….जिसमें से उसका यौवन छन छनकर गिर रहा था…….कमर इतनी पतली थी कि वह लताओं की तरह हिलती दिखाई देती….नितम्ब स्थूल थे…..वह उसके सौन्दर्य को और निखार रहा था ।

तुम कौन हो ? कंस पहचान नही पाया ।

मैं पूतना ! भैया ! आप भी धोखा खा गए तो मुझे कौन पहचानेंगा ।

पूतना ! तू ? इतनी सुन्दर बन गयी ?

अब तुझे कौन रोक सकता है ……..अच्छे घर की लग रही है………तू जिस घर में जायेगी वो अपनें आपको धन्य मानेगा ……तेरा सौन्दर्य ही ऐसा है ………

कंस की बातें सुनकर पूतना बहुत प्रसन्न हुयी थी ………..

वो उड़ चली …….कंस देखता रहा ………कंस को विश्वास हो गया था कि अब उसका ‘काल” बचेगा नही ……जहाँ भी छुपा होगा ये पूतना उसे खोज निकालेगी ।

पूतना इधर उधर जानें की सोच रही थी कि …….गोकुल की धूम उसे दिखाई दी …..नाचते गाते लोग दिखाई दिए ….”बधाई हो …बधाई हो”…… के शब्द गूँज रहे थे नभ में ………

ये कोई विशेष बालक है ……क्यों न इसे ही देखा जाये ……ऐसा विचार कर पूतना गोकुल में ही उतर गयी….और चारों ओर देखने लगी थी ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 20



(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 20 )

!! “तथास्तु” – कन्हैया को यही बोलना आता है !!

हा हा हा हा……कन्हैया को यही कहना आता है ……तथास्तु ।

हाँ आप कुछ भी कहिये …..वो मात्र यही कहेगा ……तथास्तु ।

आप कहिये …मैं सुखी हूँ………वो तुरन्त कह देगा…….तथास्तु ।

आप कहिये…….मैं प्रसन्न हूँ……….वो कह देगा…. तथास्तु ।

क्या कहा ? कैसे सुनेगा वो ?

अरे ! वो तुम्हारे हृदय में ही तो बैठा है ………तुम जो कहते हो …..उस बात पर ये बृज किशोर, बस इतना ही कहता है ……तथास्तु ।

बालक है ……….ये अनादिकाल का बालक है………..ये बड़ा हुआ ही नही…….इसकी मैया यशोदा नें इसे बड़ा होनें ही नही दिया …….इसे एक ही बात दोहराना आता है…..”तुम जो कहो वही ठीक है”……वही होगा ।

पर एक खतरा है इस नन्हे गोपाल के साथ……..गलती से भी आप ये मत कह देना कि…… मैं दुःखी हूँ………मेरे जीवन में बहुत कष्ट हैं……..सावधान ! ये बालक है …इसनें अगर कह दिया – तथास्तु….हो जाओ दुःखी… ….तब भारी पड़ जाएगा………..इसलिये कभी मत कहना – मैं दुःखी हूँ…..मैं परेशान हूँ ।

तात विदुर जी ! वामन बनकर गया था ये कन्हैया …………..राजा बलि के पास ………….छोटा सा वामन …..वामन अंगुल का …………

राजा बलि बहुत प्रसन्न हुए थे …………..साष्टांग लेट कर वामन को प्रणाम किया था ।

तब राजा बलि की बेटी …..”रत्नमाला”……वो मुग्ध हो गयी थी वामन को देखकर …………वात्सल्य भाव उमड़ पड़ा था उसके मन में ……..

वो अपलक देखती रही थी……..आहा ! कितना सुन्दर बालक है …..कितना अच्छा होता इसे मैं अपनी गोद में लेती…….तात विदुर !

कन्हैया को तो बस यही कहना आता है ….तथास्तु ………..कह दिया उस बलि की बेटी को भी …………।

कितना अच्छा होता मैं इसे गोद में लेकर दूध पिलाती ……….

रत्नमाला नें ये भी अपनी कामना प्रकट की .मन ही मन में…………पर कन्हैया तो यही कहना जानता है ……..इस बार विदुर जी बोले ……तथास्तु ।

हाँ ……………….हँसे उद्धव ……………

फिर तात ! राजा बलि नें वामन भगवान से कहा….आप को मैं क्या दूँ ?

आप जो मांगेंगे वही मैं दूँगा …….. वामन भगवान नें पहले तो मना ही किया ……… पर राजा बलि की बेटी मुग्ध हो …स्नेहासिक्त हो, वामन को देखती ही रही …………..

“तीन पग भूमि”………….अंत में वामन भगवान नें राजा बलि के विशेष आग्रह करनें पर माँगा ।

बस , तीन पग भूमि ? हँसा राजा बलि ।

ज्यादा क्या करूँगा मैं लेकर …..मेरा तो कोई नही है …..अकेला हूँ मैं ।

रत्नमाला बस वामन को ही देखे जा रही है ……………..वो उसके पिता से बात कर रहे थे …………पर क्या बातें हो रही हैं रत्नमाला को कोई मतलब नही था …..वो बस वामन को देख रही थी ……….उसका वक्ष गीला भी हो गया था, अत्यधिक स्नेह के कारण ।

राजा बलि नें अंत में कहा …………ठीक है ले लो तीन पग भूमि ही ।

पर ये क्या ? विराट बन गए थे अब तो वामन ……….उनके केश आकाश को छू रहे थे ………….

रत्नमाला कुछ समझ नही पाईँ …..ये क्या हो गया ?

ये तो बालक था ….और एकाएक विराट कैसे बना ?

तात विदुर जी ! इतना ही नही वामन भगवान नें बांध दिया राजा बलि को …..और कहा …….बता ! तीसरा पग कहाँ रखूँ ?

उद्धव बोले ………..कोई भी कन्या सब कुछ सह सकती है पर अपनें पिता का अपमान नही सह सकती ।

क्रोध से भर गयी थी रत्नमाला उस समय………..तुरन्त उसनें कहा …….ऐसा मेरा बालक होता तो स्तन में विष लगाकर पिलाती ।

कन्हैया बोले …………तथास्तु ।

क्यों की इसे यही बोलना आता है ……….दूध पिलानें की कामना करो या विष पिलानें की …..इसे कोई फ़र्क नही पड़ता ….ये दोनों में राजी है ।

उद्धव नें कहा ……….बस – तात ! यही राजा बलि की कन्या रत्नमाला ही “पूतना” बनकर आयी थी……इसकी इच्छा थी विष लगाकर स्तन पान कराऊँ ………और ठाकुर जी नें कह दिया था – तथास्तु ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 19



(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 19 )

!! कन्हैया को पकड़ना आता है, छोड़ना नही !!

मैने बचपन सुना था , और बनी घटना है ये ….कि एक नवजात शिशु नें विषैले सर्प को पकड़ कर मार दिया ।

ऐसी घटना आपनें भी सुनी होगी………कभी आपनें शिशु की और हाथ या ऊँगली समीप में की है ? बड़ी मजबूत होती है शिशु की पकड़ …………वो एक बार पकड़ ले तो छोड़ता कहाँ है ।

कन्हैया शिशु ही तो है……याद रहे इसे सिर्फ सिर्फ पकड़ना आता है …..और जिसे पकड़ लेता है उसे छोड़ता नही है ।

कभी कीजिये अपना हाथ कन्हैया की ओर….बस बढ़ा कर देखिये तो !

कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण चरितामृतम् की कथा चल रही है …….वक्ता हैं उद्धव जी और श्रोता हैं विदुर जी ।

उद्धव कहते हैं……….तात ! ये कन्हैया है………बस इसने आज तक पकड़ा ही है……..ना ना ! हम कैसे हैं ! हम मन से अपवित्र हैं…हमारा अन्तःकरण गन्दा है ……..ये सब मत सोचिये ……….ये हमारा कन्हैया है ना……..ये सबको पकड़ता है ……बस इसकी और हम अपना हाथ तो बढ़ावें ………चाहे महापापी हो …….चाहे विश्व द्रोही हो ……..इस नन्द कुमार को इससे क्या मतलब ……..इसे तो बस कोई अपना कहे ………….इसकी और बढ़े तो कोई …….अपनी ऊँगली इसकी और बढ़ावें तो ………..ये नही छोड़ेगा ……….इसकी पकड़ कितनी मजबूत है ये कहनें की कोई आवश्यकता ही नही है ।

राक्षसों को भी इसनें दिव्य गति प्रदान की है ।

पूतना , ये राक्षसी तो थी…….इसे क्या पता था कि कन्हैया पकड़ता है तो छोड़ता नही ……..इसकी पकड़ से कौन बचा है …..जो ये पूतना बच जाती …………सृष्टी कर्ता में भी तो वो सामर्थ्य नही ……..जो पूतना को कन्हैया के चंगुल से छुड़ा ले ….धाई माँ …….आहा ! धाई माँ की गति दे डाली इस पूतना को …….उद्धव ये कहते हुये भाव विभोर हो गए थे ।

क्या ? धाई माँ के समान गति दी ? विदुर जी चौंके ।

यशोदा माँ के समान गति दी थी पूतना को कन्हैया नें ….उद्धव बोले ।

क्यों ? ऐसी क्या विशेषता थी इस पूतना में …………उद्धव ! बताओ ………ऐसे क्या गुण थे इसमें ……..क्या उपवास करती थी ? व्रत करती थी ? फलाहार या निराहार रहती थी ? विदुर जी पूछ रहे हैं ।

गम्भीर थे उद्धव …………तात ! बालकों का रक्त पीती थी ……….कपट से भरी थी ………बालकों को मारना उसे अच्छा लगता था ………ऐसी को भी माँ के समान गति दी कन्हैया नें ………..ओह ।

पर ऐसा क्या किया उद्धव ! जिसके कारण उसे माँ के समान कन्हैया नें माना ……….क्या किया ?

तात ! अपना स्तन कन्हैया के मुख में दिया इसनें ………अपना कोमल मुख कन्हैया नें लगाया ………हो गयी ना वो माँ ……….ये तो कन्हैया है …इसे कौन सा संविधान मानना है तात ! ये सब कुछ स्वयं है …..इसे किसी की सम्मति तो लेनी नही है …………..पूतना नें अपना स्तन कन्हैया के मुख में दिया ……..अब ये कन्हैया है ………छोड़ना तो इसे आता ही नही ……पकड़ा तो पकड़ ही लिया …………माँ बना लिया उस राक्षसी को भी इस दयालु नें …………सदा के लिये ।

उद्धव की ये बातें सुनकर भाव विभोर हो उठे थे विदुर जी …….उनके नेत्रों से अश्रु टप् टप् गिरनें लगे थे यमुना की बालुका में ।

कं वा दयालुं शरणम् ब्रजेम ?

भाव की उच्च स्थिति में बैठे विदुर जी उद्धव से पूछते हैं…….इस कन्हैया से दयालु और कोई होगा ? मारनें वाली को भी माँ के समान गति दे दी !

उद्धव ! सुनाओ इस प्रसंग को …..उद्धव ! सुनाओ ये कथा ।

विदुर जी नें आग्रह किया उद्धव से ………और उद्धव इस कथा को विस्तार से सुनानें लगे थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 18

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 18 )

!! मैया यशोदा के “चिंताहरण महादेव” !!******************

मैया यशोदा नें ही रखा था ये नाम महादेव का…”चिन्ता हरण महादेव”।

क्यों की मैया की चिन्ता इन्हीं नें दूर कर दी थी…….और इतना ही नही महादेव वहीं गोकुल में ही रहे थे ……..जब जब उनका लाला रोता था तब महादेव को बुला लेती थीं मैया …..और महादेव को देखते ही ये हँसनें लगते …….उनके साँपों से खेलनें लगते …….वैसे उस समय डर जाती मैया …….पर महादेव कहते …….ये तो शेषनाग पर शयन करनें वाला है …….ये साधारण साँप इसका क्या बिगाड़ेंगे ……..पर ये बात बेचारी मैया क्या समझे…….उसके लिये तो ये लाला ….बस लाला है ।

उद्धव के मुख से ये प्रसंग सुनकर विदुर जी अत्यन्त प्रसन्न हुए ……बोले …..उद्धव ! ये हरि और हर का मिलन कैसे हुआ ?

क्या अद्भुत लीला होगी वो ………सुनाओ ना उद्धव ! मुझे सुननी है वो दिव्य लीला ।

उद्धव हँसे ……तात ! ये प्रसंग सच में अद्भुत है …………मैं भी उत्सुक हूँ आप जैसे परम भागवत को सुनाने के लिये ………

इतना कहकर उद्धव कुछ देर के लिये मौन हो गए ………..जब वो लीला उद्धव के हृदय में प्रकट हुयी ……तब वे आनन्द से सुनानें लगे थे ।

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कैलाश पर्वत है ………ध्यानस्थ थे महादेव तो वहाँ ।

पर एकाएक उन्होंने घबरा कर अपनें नेत्रों को खोला……..उन्हें घबराहट इसलिये हुयी थी…….कि वे जिस निराकार ब्रह्म के ध्यान में लीन थे …….वो निराकार – तरंगें आकार लेनें लगीं थीं……और आकार लेते ही एक सुन्दर सा बालक नीलमणी सा बालक ……….जो अपनी मैया की गोद में खेल रहा था …..और किलकारियाँ मार रहा था ।

ओह ! महादेव आनन्दित हो गए थे ………तो निराकार नें आकार ले लिया है ……..नराकार हो गया है ……….महादेव उठे ……..अपनी फैली हुयी जटाओं को सम्भाला……और सीधे गोकुल की ओर चल दिए थे ….पार्वती जी को भी नही बताया……बस चल दिए गोकुल की ओर ।

उत्सव तो चल ही रहा था …….आनन्द मचा हुआ था ………..धूम थी नन्दोत्सव की गोकुल में………पर यशोदा जी के महल में अब कोलाहल कुछ शान्त कर दिया गया था ……….क्यों की बालक को कहीं कष्ट न हो ………लोगों को भी उस तरफ जानें से रोक दिया गया था ।

पर महात्मा को कौन रोके ?

महादेव चल दिए………और महल में ही जाके रुके ……….

अलख निरन्जन !

आवाज लगाई ………मैया यशोदा अपनें लाला को खिला रही थीं…….वात्सल्य रस में डूबी थीं………

रोहिणी , सुनन्दा इत्यादि अतिथि सत्कार में व्यस्त थीं………

“अलख निरन्जन” की पुकार मात्र यशोदा जी नें ही सुनी ……..

तो वो बाहर आगयीं………….

बाबा ! आपको क्या चाहिये ?

हाथ जोड़कर झुकीं चरणों की ओर यशोदा जी ।

पर महादेव स्वयं ही झुक गए मैया के चरणों की ओर ।

बाबा ! क्या चाहिये ? फिर पूछा बृजरानी नें ।

लाला, लाला के दर्शन ! महादेव नें इतना ही कहा था ।

पर मैया ने इस बात को सुनकर भी अनसूना कर दिया ।

बाबा ! भिक्षा दूँ ? या कुछ और सोना चाँदी ? मैया नें विनती की ।

पर महादेव फिर बोले …….लाला का दर्शन करा दे मैया !

इस बार विनती के स्वर थे महादेव के ।

बृजरानी कुछ देर में लिये चुप हो गयीं……मन में आया मना कैसे करूँ !

फिर बोलीं……बाबा ! क्षमा करना ………तुम्हारे गले में ये सर्प है …….नाग ……देखो तो……..बृजरानी नें गम्भीरता में ये बात कही थी ।

महादेव नें तुरन्त नाग को निकाला गले से …….और मैया को दिखाते हुए बोले …….ये काटता नही है ……..सच मैया ! ये काटता नही है ।

काटता नही है तो गले में क्यों रखा है ? मैया नें पूछा ।

देखो मैया ! बात ऐसी है कि …..मैं कहीं भी ध्यान करनें बैठ जाता था ना ……..तो लोग मुझे परेशान करते थे …….. मेरे गुरु नें मुझ से कहा ……..ये नाग रख ले ……..लोग डर जाएंगे और तेरे ध्यान भजन में विघ्न भी नही डालेंगे ………..तब से, मैं मैया ! ये नाग अपनें गले में डालता हूँ……..और हाँ …..इसके विष के दाँत मेरे गुरु नें ही तोड़ दिए थे …….इसलिये तू डर मत …..मैया ! लाला को दिखा दे ।

महादेव अब तो हाथ भी जोड़नें लगे थे ।

तू कहाँ का है ? तू कहाँ से आया है ? बृजरानी पूछ रही हैं ।

कैलाश से आया हूँ………….महादेव नें कहा ………

कैलाश ? ये कहाँ है ? बेचारी बृजरानी, ये बृज से बाहर कभी गयी नही……..तो क्या जानें कैलाश कहाँ है ?

अच्छा ! बाबा ! तेरो नाम कहा है ?

“शंकर”….मैया मेरो नाम है शंकर ।

महादेव नें अपना परिचय भी दिया ।

पर मैया अब बोली ………..भिक्षा ले जा ………..पर ये हठ मत कर कि लाला को देखूंगा …..मैं तुझे दिखाऊंगी नही …………

अब बृजरानी नें स्पष्ट कह दिया था ……….नही तो नही ।

दर्शन बगैर किये हम जायेंगें तो नही ……….ऐसा कहते हुये महादेव वहीं आँगन में बैठ गए ……….और त्रिशूल भी धरती में ।

अरे ! जा बाबा ! जा ……..ऐसे हठ मत कर ……जा तू !

मैया नें फिर भेजना चाहा ……..पर महादेव मानें ही नहीं ।

देख बाबा ! मेरी बात सुन …………तू चाहे कुछ भी कर ले दर्शन तो मैं कराऊंगी नही ………..बृजरानी नें अब रोष व्यक्त किया ।

मैं यहीं रहूंगा मैया !…..मैं यहीं तपस्या करूँगा…..कभी तो दर्शन होंगें ।

कभी नही होंगें ……मैया भी अपनें हठ में आगयी ।

महादेव हँस रहे हैं……उन्हें आनन्द आरहा है …….ब्रह्म की मैया से बहस करनें में, महादेव का आनन्द देखनें जैसा था ।

यही नाली है ना ?…..लाला नहायेगा तो जल इसी से बहेगा ना…….

मैया मैं यहीं बैठ जाऊँगा ……….उसके नहाये जल से मै नहाऊंगा …..

अरे ! तू पागल है बाबा ! मैं बाँस कर दूंगी नाली में ……….

ये सुनकर महादेव खूब हँसें ………….अरे ! मेरी भोरी मैया ! लाला कभी तो आँगन में खेलेगा …..तब देख लूँगा …..पर मैं जाऊँगा नही ।

मैं तुझे लाला दिखाऊंगी नही ……….मैया नें स्पष्ट कह दिया था ।

मैं भी यहीं हूँ……मैं भी जाऊँगा नही ……….महादेव भी वहीं बैठ गए ।

“त्रिया हठ है” ….देख ले …..मैया बोली ………….

हाँ तो मेरा भी “जोग हठ” है …..महादेव बोले ।

तभी भीतर कन्हैया रोनें लगे …………जोर जोर से रोनें लगे ……..

मैया भागी भीतर…….पालनें से गोद में लिया लाला को ……..पुचकारनें लगीं ……पर लाला चुप ही नही हो रहे ………..रोते ही जा रहे हैं…….।

तात विदुर जी ! हरि, हर से मिलनें के लिए मचल उठे थे आज ।

जब मैया नें देखा ……….ये तो चुप हो ही नही रहा …….क्या करूँ ?

तब मैया के मन में आया ……बाहर के बाबा नें कुछ जादू तो नही किया ।

लाला को पालनें में छोड़ वो बाहर भागी ………..

बाबा ! ओ बाबा ! तुझे मन्त्र तन्त्र आते हैं ?

महादेव हँसे …….हमनें बहुत भूत प्रेत भगाए हैं………लाला रो रहा है ना …..मैया ! ले आओ उसे …….अभी ठीक हो जाएगा तेरा लाला ।

और हाँ …..मेरी गोद में आते ही हँसनें न लगे ….तो झूठा जोगी ।

मैया भीतर गयी …..लाला रो रहा है …….परेशान मैया …..कुछ सोचा फिर बाहर आयी ……….ए बाबा ! सुन तो ……कुछ ले ले और यहीं से मेरे लाला को ठीक कर दे …..मैया गिड़गिड़ानें लगी ।

ना ! लेकर आ…..मेरा मन्त्र दूर तक काम नही करता…..यहीं लाना पड़ेगा लाला को…महादेव अब प्रसन्न हैं….कुछ आस बनी है दर्शन की ।

मैया भीतर गयी……सोचनें लगी…..ले जाऊँ…..पर बाबा के गले में सर्प हैं……कहीं काट लिया तो !

फिर बाहर आयीं ……….बाबा ! सोना चाँदी ले ले ……….पर यहीं से मेरे लाला को ठीक कर दे मैं हाथ जोड़ती हूँ……..।

मैया ! कुछ नही होगा ……तू लाला को लेकर तो आ ………..तुरन्त ठीक हो जाएगा तेरा लाला ।………..थोडा भरोसा जागा मैया का ।

डरती हुयी लेकर आयी लाला को ………….

और दूर बैठ गयी………बाबा ! पढ़ मन्त्र ! मैया बोली ।

इतनी दूर ? इतनी दूर मेरा मन्त्र काम नही करेगा …..पास आ !

महादेव पास बुलानें लगे ………डरती हुयी पास आयी मैया ….।

“अब दे मेरी गोद में” ………..महादेव ख़ुशी से उछलते हुए बोले ।

ना ! तेरा साँप ! मेरे लाला को काट जाएगा …………

नही काटेगा मैया ! तू दे तो ……….महादेव की जिद्द ….और लाला रोता ही जा रहा था ना …………

मैया नें डरते हुये महादेव की गोद में जैसे ही लाला को दिया ……..

लाला तो हँसनें लगा…….खिलखिलानें लगा ……….

मैया खुश ! मैया बहुत खुश ………………

बाबा ! ओ बाबा ! तू यहीं रह जा ……….मैं तेरे लिये एक कुटिया बना दूंगी……….तू यहीं रह ……और जब जब मेरा लाला रोयेगा तू आजाना ………..बाबा ! यहीं रह …………

महादेव बहुत आनन्दित हो गए …………लाला को निहारकर वो ध्यानस्थ होनें जा रहे थे …..पर रुक गए …….मैया सामनें थी ।

बाबा ! तेरा नाम आज से होगा “चिन्ताहरण”…..तेनें मेरी चिन्ता दूर की है …………..ये कहते हुए मैया नें महादेव के चरण छूनें चाहे…..पर लाला की मैया से भला महादेव अपनें चरण छुवाते ?

अरे ! मैया जब गयी महल में अपनें लाला को लेकर……..तब मैया की चरण धूलि महादेव नें अपनें अंग में लगाई थी ।

तात विदुर जी ! चिंताहरण महादेव ………महादेव वहीं रहे गोकुल में…….लाला की सारी लीलाओं का आस्वाद करते रहे ।

उद्धव इस लीला का वर्णन करते हुये भाव विभोर हो गए थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 17

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 17 )

!! नन्दोत्सव में लक्ष्मी का उन्मुक्त नृत्य !!
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कहाँ हैं मेरे नाथ ? वैकुण्ठ सूना हो गया है ! किस भक्त के पास अब चले गए ! भगवती लक्ष्मी आज परेशान हो उठीं थीं ।

तात विदुर जी ! स्वाभाविक है ………पतिव्रता के लिए पति ही सब कुछ है …..जहाँ पति है, पत्नी उसके साथ साथ है ।

हँसे उद्धव ये कहते हुए…………लक्ष्मी अपनें नारायण को खोजती हुयी गोकुल में आयीं थीं…………

पर यहाँ जब देखा ………..चारों और आनन्द का ज्वार उठ रहा है ……गोकुल वासी ही आनन्दित नही हैं………….प्रकृति ही झूम रही है………प्रकृति स्वयं में उत्सव मना रही है………..कौन देखने वाला है जंगल में …….पर पूरा जंगल फूलों से भर गया है ……..न खिलनें वाले फूल भी खिल गए हैं…………और ये इनका आनन्द है ………

लक्ष्मी देख रही हैं……………ये क्या ? ऐसी स्थिति मैने आज तक नही देखी थी ……आनन्द का ऐसा दिव्य स्वरूप !

उद्धव हँसे ……..कुछ देर तक हँसते ही रहे ……………

विदुर जी नें पूछा …..उद्धव ! क्यों हँस रहे हो …….क्या हुआ ?

तात विदुर जी ! एक सामान्य व्यक्ति के यहाँ भी वर्षों की प्रतीक्षा के बाद अगर पुत्र हो …….तो वो भी कितनी प्रसन्नता व्यक्त करता है ……..अरे तात ! किसी भूपति के यहाँ अगर पुत्र हो तो उसके राज्य में कितनी प्रसन्नता मनाई जाती है ……….उद्धव रुके ये कहते हुए …..फिर बोले …..अगर जगतपति स्वयं बालक बनकर आजाये …..तो जगत कितनी प्रसन्नता व्यक्त करेगा ……ये हम कल्पना ही कर सकते हैं………तात ! हम यही कह सकते हैं……बहुत आनन्द हुआ ……ये हमारा अनुमान है ………पर उस उत्सव का सही सही वर्णन कौन कर सकता है…….जहाँ “जगत” ही महोत्सव में लीन है ….और जगत महोत्सव में लीन क्यों न हो……जगतपति स्वयं बाल रूप में प्रकट जो हो गया है ……अवर्णनीय है वो आनन्द ………आहा !

अब लक्ष्मी देखनें लगीं ……मेरे पति यहीं प्रकटे हैं…………पर एक आश्चर्य और देखा लक्ष्मी नें ………रो रहे हैं उसके पति यहाँ ……..पालनें में झूल रहे हैं……अपनें नन्हे नन्हें चरण फेंक रहे हैं ।

ये देखकर लक्ष्मी को बहुत आनन्द आया ………..बाहर आयीं तो क्या देखती हैं………..कि नन्दोत्सव की धूम मची है…….सब नाच रहे हैं……..गा रहे हैं……नाना प्रकार के वाद्य बजाए जा रहे हैं……….वाद्य नही मिल रहे तो कोई थाली ही बजा रहा है……….कोई कोई तो पेट ही बजा कर नाच उठा है । लक्ष्मी को ये सब देखकर अत्यधिक प्रसन्नता हो रही थी…………..अब लक्ष्मी भी छटपटानें लगीं …….कि मैं क्या करूँ ? इस दिव्य आनन्दोत्सव में मेरी भी कुछ तो सेवा हो ……..

तो लक्ष्मी नाचनें लगीं……….उन्मुक्त नृत्य करनें लगीं लक्ष्मी ……..चारों ओर फैल गयीं लक्ष्मी …………….गोकुल में जिधर देखो लक्ष्मी ही लक्ष्मी दिखाई देंने लगीं……..आहा ।

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महामना नन्द जी !

वो आज इतनें प्रसन्न हैं कि उसकी कोई सीमा नही है ……….

उन्हें लग रहा है ….सब कुछ लुटा दूँ …….सबकुछ ।

आदेश दिया अपनें खजांची को……….जाओ ! किस दिन के लिये वो चाँदी भण्डार में भर कर रखा है……खोल दो ……और ग्वालों को बोलो ……कि भण्डार का चाँदी जितना ले जा सको ले जाओ ।

नन्द राय की आज्ञा …..खजांची नें आदेश का पालन किया………

हे गोकुल के ग्वालों !……आओ …..चाँदी का भण्डार खोल दिया है बृजपति नें……जितना चाहिये ले जाओ ।

बस फिर क्या था ……..गोकुल के ग्वाले सब दौड़ पड़े चाँदी के भण्डार की और……..और जितना ले सकते थे लेनें लगे ……कुछ नही मिला तो वस्त्रों की पोटरी बनाई और उसमें भर लिया…..

और लेकर चल दिए अपनें अपनें घरों की ओर ।

ये सब देखकर बृजपति को बड़ा आनन्द आया …………उन्होंने अपनें खजांची को फिर कहा ………….मोतियों का जो भण्डार है उसे किस दिन के लिये बन्द रखा है ……जाओ ! उसे भी खोल दो ………

सोचो मत भाई ! मेरा मन कर रहा है – सब कुछ लुटा दूँ ………….खोल दो खजाना मोतियों के ।

खजांची नें मोतियों का भण्डार भी खोल दिया ………..अब तो ग्वाले सब चाँदी को फेंक कर मोतियों के भण्डार में चले गए ………..और मोतियों को भरनें लगे …….

बृजराज नें कहा ………..पूरा आनन्द अभी भी नही आया …….सुवर्ण का खजाना भी खोल दो …….और सब लुटा दो ………

खजांची कुछ देर के लिये रुक गया ………

पर बृजराज नें फिर कहा ……..मत सोचो …………आनन्द आरहा है …….लुटा दो सुवर्ण …………..

खजांची नें फिर सुवर्ण का भण्डार और खोल दिया ….. मोतियों को लेकर जा रहे ग्वालों नें जब सुना सुवर्ण का भण्डार खोल दिया गया है ….तो उन लोगों नें मोतियों को फेंक दिया …..और सुवर्ण का लेनें दौड़ पड़े………..और भर लिया सुवर्ण ही सुवर्ण ग्वालों नें ।

पर तभी महामना नन्द जी नें एक और घोषणा कर दी …….कि हीरों का भण्डार भी खोल दिया गया है ………..जिसे हीरे चाहियें वो ले जाएँ …….बस फिर क्या था ….लोगों नें सुवर्ण को फेंक दिया और हीरे लेनें के लिये दौड़ पड़े……….चारों ओर चाँदी , मोती , सुवर्ण और हीरे बिखरे पड़े हैं……….इन्हें लेनें वाला कोई नही है………जिधर देखो उधर मणि माणिक्य अद्भुत धातु फैले हुए हैं ।

उद्धव बोले …..तात ! लक्ष्मी चारों और फैल गयीं हैं……..

ये लक्ष्मी का उन्मुक्त नृत्य है…….अपनें पति के जन्म पर लक्ष्मी का ये नृत्य देखनें जैसा है ।…..उद्धव अत्यधिक आनन्द में डूब गए हैं आज ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 16

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 16 )

!! रानी  तेरो चिरजीवो गोपाल  ************************

आप श्रीकृष्ण को अपना बालक मानतें हैं ?…..तो भूल जाइए कि वो आपकी रक्षा करेगा…..आपको उसकी रक्षा करनी है…..साधकों ! सावधान ! भाव पक्ष ईमानदारी से निभाना पड़ता है ।

बात है करीब दो वर्ष पहले की……गुजराती परिवार था वो ….और वैष्णव भी …….वहाँ एक मैया रहती थीं………हम रात्रि में पहुँचे थे उनके घर …….महाराष्ट्र के सांगली जिला की बात है ये ।

हमें देखकर वो बहुत भावुक हो गयीं………”मेरे लाला के गाँव से आये हैं आप”……”मेरा लाला आपको देखेगा उसे बहुत अच्छा लगेगा” …….वो बार बार कह रही थीं………पहले तो हमें लगा इनका कोई बालक होगा ……पर वो अपनें मन्दिर में हमें ले गयीं ..और अपनें “लड्डू गोपाल जी” को दिखानें लगीं……..और मुझ से बोलीं ……जगा दूँ ? मैने कहा …….रात्रि के 11 बज रहे हैं………सोनें दीजिये ……….

पर उनका हृदय नही माना ………वो बोलीं आप लोग बृजभूमि से आये हैं………आहा ! कितना खुश होगा मेरा लाला ……….जगा देती हूँ !

फिर उन्होंने जगा ही दिया ……….साधकों ! मैं सच कहता हूँ…….मेरे साथ जितनें लोग थे सबको लगा कि हाँ …..कोई सो रहा था, उसे जगा दिया गया है ।

हमनें साष्टांग दण्डवत किया ……..तो वो मैया हँसनें लगीं ……कहनें लगीं…..ये क्या कर रहें हैं आप ? आप लोग तो मेरे लाला को आशीष दीजिये …..इनके सिर में हाथ रखके कहिये कि ….”जीता रहे”।

वो गुजराती मैया अद्भुत थीं ………..मुझे उन्होंने ही बाद में बताया था कि ………उनके पाँच बेटे हैं…….और सबको बराबर सम्पत्ती का बंटवारा कर दिया है……….पर मुझे बाद में पता चला कि उनके तो बेटे चार थे…… पाँचवा ये श्रीकृष्ण को मानती थीं……और आश्चर्य ये कि ….अपनी सम्पत्ती का बंटवारा भी इन्होनें बराबर किया था ।

हम सब का हाथ उन्होंने अपनें कन्हैया के सिर में रखवाया था ……और कहा था आप आशीर्वाद दें ………ये जुग जुग जीता रहे ।

अब बताइये इस साधना से बड़ी कोई साधना और है ?

जप, तप, तीर्थवास, इस साधना के आगे कुछ नही है ………..

मान लो ना गोपाल को अपना ! ……फिर देखो ……वो तुम्हे कितना प्यार करता है ।

चलिये….उसी “गोपाल” की भूमि में…..जहाँ उसका प्राकट्य हुआ है ……और फिर जो उत्सव चल रहा है…..उसका वर्णन हम क्या कर सकते हैं…….न हमारे हजारों हाथ हैं…….न हजारों मुख ।

बस वही जो लिखाये , हम लिखते जा रहे हैं ।

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हे तात विदुर जी !

गोकुल आजकल एक अद्भुत आनन्द सिन्धु में डूब गया है ।

ये श्रीकृष्ण का अवतार थोड़े ही है ये तो “आनन्द” का अवतार है ।

किसी को पता नही कि कब दिन हो रहा है और कब रात !

किसी को खानें पीनें की सुध नही है……….बस आनन्द ही आनन्द छाया हुआ है उनके मानस पटल में ………….

उद्धव इस प्रसंग को कुछ आगे बढ़ाते हैं ।

सुनन्दा भूआ लाला को लेकर खड़ी हो जातीं हैं……..क्यों की गोकुल की बूढी बूढी गोपियाँ अब आरही हैं……और इन सबको लाला का मुख देखना है……..तो सुनन्दा लाला को पालनें से उठा लेती हैं……और गोद में लेकर यशोदा जी के बगल में खड़ी हो जाती हैं ।

आहा यशोदा ! ये है तेरो लाला ! बड़ो ही सुन्दर है …………फिर उसके सिर में हाथ रखती हैं……….जीतो रहे ……..हजारन वर्ष तक गोकुल में राज करतो रहे…….और हम सबकी रक्षा करे ……..

फिर दूसरी गोपी आगे आजाती …………..

ब्याह है जाए तेरे लाला को ………हजारन बहुएँ आएं ………और यशोदा तेरी खूब सेवा करें ………….गोपी के मुख से ये सुनकर सब हँसनें लग जातीं …..यशोदा जी खूब हँसतीं ………पर सुनन्दा कहतीं ………नाय ! हजारन बहुएँ नाय चहिएँ हमें ………..तुम्हहिं रखो हजारन बहु …….सुनन्दा बोल देतीं ……..ऐसो कोई आशीर्वाद होयो करे !

लाला के सिर में हाथ रखकर एक गोपी कहती ………..बड़ो है जाए तो कंस से हमारी रक्षा करियो………

एक गोपी कहती…..अद्भुत लाला जायो है यशोदा तेनें……

तब यशोदा जी के नेत्रों से अश्रु गिरनें लगते……..वो भाव विभोर हो उठतीं……..और कहतीं …तुम सबके आशीर्वाद के कारण ही ये लाला हुआ है……….मेरा ही नही है ये तो सम्पूर्ण गोकुल का लाला है ……तुम सबका लाला है ।

ये कहते हुए यशोदा जी सुनन्दा की गोद में देखतीं अपनें नीलमणी को, …….उन्हें रोमांच हो रहा था बार बार ।

अच्छा अब मेरी गोदी में दे लाला को……..दाई उधर से आई ….और सुनन्दा से झगड़ते हुए बोली……मेरी आमदानी क्यों छुड़ाय रही है तू …….दाई नें आकर लाला को अपनी गोद में लेना चाहा ।

तेरी आमदानी ? सुनन्दा बोली ।

और का ! अभी तक मैं कितनो कमाय लेती ……लाला कुँ जितनो मिलतो मोय भी तो उतनो ही……..

अरी बुढ़िया ! तेरो पेट नाय भरे ….!

…….सुनन्दा लाला को दाई की गोद में देती हुयी चली गयी ।

दाई वहीं बैठ गयी……..पतला सा वस्त्र ऊपर डाल दिया, लाला के ऊपर……..और जो भी आवे……उससे कहे ……..लाला को मुँह देखनो है तो कछु दे…….वो गोपी टोपी देती ……..खिलौना देती …….पर दाई कहती……अब मेरे लिये भी तो कुछ दे …………तब दो मोहर सुवर्ण के निकाल के देती …………दाई तब लाला को मुख दिखाती ।

यशोदा जी ये सब देख रही हैं………..पर वो आनन्दित हैं …..दाई की इन क्रियाकलापों का भी वो आनन्द ले रही हैं…………..

रानी ! तेरो लाला जल्दी बड़ो है जाय……तेरो लाला ये बृज की रक्षा करे ……तेरो लाला स्वस्थ हो …..तेरे लाला के शरीर में कोई रोग न लगें ।

यशोदा जी इन सबकी ये आशीष सुनकर गदगद् हो जातीं ।

पर पता नही …..क्या हुआ, हृदय में वात्सल्य सिन्धु एकाएक उमड़ पड़ा यशोदा जी के……और दाई की गोद से लेकर लाला को दूध पिलानें लगीं …….दूध भर गया था वक्ष में………नेत्र बन्द कर के अपना स्तन जैसे ही लाला के मुख में दिया…….लाला नें दूध पीना शुरू किया…….बस यशोदा जी की तो समाधि ही लग गयी उस समय…….नेत्रों से आनन्द के अश्रु रुके नही रुक रहे………शरीर में रोमांच हो रहा है ।

लाला नें एक स्तन को मुख में रखा है और दूसरे स्तन को हाथ में लिया है ……पर दोनों ही स्तनों से दूध बहता ही जा रहा है ।

ये सब बहुत देर तक चलता रहा ……दाई की गोद से लाला को कब लिया यशोदा जी नें ये दाई को पता भी नही चला ……वो भी तो आनन्द सिन्धु के भँवर में फंसी पड़ी थी ……..उसको बहुत देर बाद जब पता चला कि – लाला को किसनें लिया ? उठी जब देखा यशोदा जी लेटी हुयी हैं …..उनके बगल में उनका लाला है ….और बड़े प्रेम से दूध पी रहा है ………..यशोदा जी को तो कुछ सुध बुध ही नही है ।

दाई चिल्लाई……..अरी बृजरानी ! ये क्या किया तूनें ?

यशोदा जी चौंक गयीं……उठ गयीं ……दाई ! क्या हुआ ?

अरे ! इस तरह से नही पिलाया जाता बालक को दूध ……….

गोद में लेकर…….अच्छे से सम्भालकर……..एक हाथ सिर में रखकर दूसरा हाथ पीठ में रखकर तब पिलाया जाता है ………..

अब तेरा लाला टेढ़ा हो जाएगा……..दाई नें कह दिया ।

यशोदा जी घबडा गयीं ।

उद्धव हँसे ……..और बोले ………इसलिये विदुर जी ! श्रीकृष्ण तीन जगह से टेढ़े हो गए ……….”त्रिभंगी” ऐसे नही कहा गया पुराणों में श्री कृष्ण को……विदुर जी उद्धव की बातें सुनकर खूब हँसें ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 15


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 15 )

( नन्द के आँगन में दधिकाँदौं )


साधकों ! बात है तीन वर्ष पहले की …..वो महात्मा बड़े अच्छे थे …पंजाबी शरीर था उनका ……मेरे प्रति बड़ा स्नेह रखते थे ।

वात्सल्य भाव अद्भुत था……..सर्दी में उन्होंने कम्बल का एक चोंगा सिलाया था…..उसे ही वे धारण करके रहते ।

एक दिन मुझे सत्संग में वो मिले ……..दाढ़ी बड़ी हुयी थी उनकी …….और कम्बल का चोंगा पहनें हुए …..सर्दी का महीना था ।

मेरे मुँह से ऐसे ही निकल गया ……..”कन्हैया आपकी गोद में बैठेगा तो ये कम्बल उसे चुभेगा नही” ………वो कितना कोमल है ……..और ये कम्बल ! मैं तो कहकर चला आया अपनी कुटिया ।

पर वो महात्मा मुझे दूसरे दिन मिले …….तो रेशमी वस्त्र धारण किये हुए थे………बोले – ये नही चुभेगा मेरे लाला को ……….आहा ! आपनें तो मुझे अंदर से झंकझोर दिया……….कितना कष्ट हुआ होगा उसे….वो रोनें लगे …….. मेरी गोद में बैठता था कन्हैया……..उसको कितना चुभा होगा कम्बल ……उनके नेत्रों से अश्रु बहे जा रहे थे ।

साधकों ! ये वात्सल्य भाव अद्भुत है ……………इसमें अपना कुछ नही है …..सब कुछ अपनें बालक के लिये करना होता है ……और जब अपना आराध्य ही बालक हो ….तो फिर बात ही कुछ अलग हो जाती ….दिव्यता से भर जाती है ।

आइये ! चलिये उस गोकुल में जहाँ आज ब्रह्म बालक बनकर आया है …..मैया यशोदा तो साक्षात् वात्सल्य मूर्ति ही हैं………पर गोकुल की हर बूढी गोपियों के वक्ष से दूध की धार बह चली थी…….सब नन्दनन्दन को देखते ही स्नेहासिक्त हो गयी थीं ……..आहा !

नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की !

हाथी दीन्हे घोडा दीन्हे और दीन्ही पालकी !

रत्न दीन्हें हार दीन्हें, गऊ व्याई हाल की !

कन्ठा दीये कठुला दीये, दीन्हों मुक्तामाल की !

कड़े दीये छड़े दीये , बिंदी दीन्हीं भाल की !

सुरमा दीन्हों, दर्पण दीन्हों, दीन्हीं कंघी बाल की !

बोलो जय , जय बोलो जयजय , जय बोलो गोपाल की !

रोहिणी नन्दन बाल जयजय, जय दाऊ दयाल की !!

नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की !!

हे तात ! विदुर जी ! धूम मची है नन्द जी के आँगन में ।

तभी …..सुन्दर सुन्दर सजी धजी …..सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बरसानें की सखियों नें प्रवेश किया ……….गोकुल के ग्वाल बाल तो बस देखते ही रह गए ……कितनी सुन्दर हैं ये ………अद्भुत रूप माधुरी है इनकी तो …..पर ये कहाँ की हैं ? ग्वालों नें दूसरे से पूछा …….तो तीसरे नें उत्तर दिया ……….बरसानें की गोपियाँ हैं ………..

ये रहे बरसानें के राजा बृषभान जी ….और उनकी रानी कीर्ति ।

अरे ! ये तो हमारे बृजराज नन्द जी के मित्र हैं….एक नें समाधान किया ।

नन्दरानी तो वैसे भी स्थूल देह की हैं……..और फिर बालक भी हुआ है ………ये तो आनन्द से लेटी ही हैं………….कीर्तिरानी बृजरानी के पास गयीं…………बृजरानी नें जैसे ही देखा ……….वो उठनें लगीं……तो कीर्ति रानी नें रोक दिया ……..नही भाभी ! तुम तो सोई रहो ……. थोड़ी मोटी और हो जाओ ।

अब कितना मोटी और बनाओगी ……वैसे भी मोटी हो गयी हूँ ……..बृजरानी नें हँसते हुए कहा ।

क्यों, अब तो लाला आगया है ………मोटी बनोगी तो लाला को खिला पिला पाओगी …….और भाग दौड़ कितनी करनी पड़ेगी अब ………

कीर्तिरानी हँसती ही जा रही हैं ।

बाहर नन्द जी अपनें मित्र बृषभान जी से मिल रहे हैं…………

फिर कुछ देर में ही अपनें महल में ले आए…………

यशोदा जी बृषभान जी को देख घूँघट करके उठना चाहती हैं……पर कीर्तिरानी उन्हें उठनें नही देंती ।

“ये है गोकुल का राजा”……..ऐसा कहते हुए बृषभान जी नें नन्दनन्दन की ओर देखा……नन्दनन्दन तो मुस्कुरा उठे …….किलकारियाँ मारनें लगे…..कीर्तिरानी बोलीं….ये तो ऐसे हँस रहा है जैसे हमें पहले से जानता हो….कितना सुन्दर है तुम्हारा बेटा बृजरानी ! बहुत सुन्दर है !

मुग्ध हो रहे हैं बरसानें के ये लोग ………….

तो फिर पक्का समझें तुम्हारी लाली और हमारा लाला ……….बृजरानी नें हाथ पकड़ा कीर्ति रानी का ……और हँसी ।

बिल्कुल पक्का …………..हम तो “टीका” करनें ए हैं…………

कीर्तिरानी उन्मुक्त हँसते हुए बोलीं ।

तो क्या अच्छी खबर आनें वाली है कीर्ति जी ?

हाँ….समझो ! पर इस बार लाली ही होगी……सब कह रहे हैं …..कीर्ति रानी का मुखमण्डल लाल हो गया था……वो बड़ा शरमा रही थीं अब ।

सोनें का पालना बरसानें से आया है ………………..

सुनन्दा पालना लेकर आयीं……………..

क्या आवश्यकता थी वैसे भी पालना यहाँ बहुत आचुके हैं …..यशोदा जी नें कहा ।

अरे बृजरानी ! सुनो तो हम बस तैयारी कर रहे थे रात में कि सुबह गोकुल चलेंगें ………..बस प्रातः की वेला हुयी तो महाराज यमुना स्नान के लिये गए ……वहाँ उन्हें एक दिव्य पुरुष मिल गया ……उसनें कहा ……..मेरी ओर से ये पालना गोकुल में दे आना …….फिर बोला वो – कि अपनी तरफ से दे देना …….।

इन्होनें देखा तो बड़ा दिव्य था वो पालना ………..

सच भाभी ! ऐसा पालना हमनें भी नही देखा है ……….देखो ! और जैसे ही दिखाया सुवर्ण की जो पच्चीकारी हो रही थी उसमें …….वो अद्भुत थी ……नाना प्रकार के रत्न उसमें लगे थे ………..अवर्णनीय था वो पालना ………।

एक रहस्य की बात बताऊँ ? कीर्तिरानी नें कहा ।

हाँ …..बताओ ?

बृजरानी भाभी ! ये तो कह रहे थे कि वो दिव्य पुरुष कोई और नही विश्वकर्मा ही थे ……..देवशिल्पी विश्वकर्मा……..क्यों की वो कुछ ही देर में अंतर्ध्यान हो गए ।

यशोदा जी बारबार पालनें को देखती हैं……….और आनन्दित हो रही हैं………..लाला ! सोयेगा ? इसमें सोयेगा ? लाला की और देखकर कह रही हैं……..

कीर्तिरानी नें उस पालनें में सुन्दर कोमल गद्दे बिछाए ………और लाला को सुला दिया…….बस सोते ही लाला किलकारियाँ मारकर हँसनें लगा ………हाथ पैर फेकनें लगा……..सब इस लीला को देखकर आनन्दित हो उठे थे ।

बधाई हो ! बाबा बधाई हो !

……..एक भीड़ , ग्वालों की भीड़ चली आरही है ……….सब ग्वाल बाल पीले वस्त्रों में थे…..पगड़ी बाँधे हुए थे……और आनन्द में झूम रहे थे ।

हे बृजराज जी ! ऐसे नही होगा …….चलो हमारे साथ !

बृजराज का हाथ पकड़ लिया था ग्वालों नें……और दूसरी मण्डली वाले ग्वालों नें – बृषभान जी का …….

हँसते हुए नन्द जी बोले …..पर कहाँ ले जा रहे हो ?

नाचना पड़ेगा बृजराज जी ! आज तुम्हारे घर छोरा हुआ है नाचोगे नही ?

बाबा नन्द नाचनें के लिये तैयार हुये …बृषभान जी भी तैयार हुए ……..

दोनों महापुरुष नाच रहे हैं……….दिव्य छटा हो गयी है चारों ओर ।

“नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की”

बस यही धूम है …..सब यही गा रहे हैं……..आनन्द में डूब गए हैं ।

तभी …..एक ग्वाले नें आकर दही की मटकी बाबा के ऊपर डाल दी ……दूध की मटकी बृषभान जी के ऊपर डाल दी ……..

अब तो नन्द के आँगन में आनन्द फैल गया था ………चारों और आनन्द ही आनन्द …………

दही , नन्दालय में घुस घुस कर मटकियां ग्वाले लानें लगे ……….

दही से नही हुआ ….तो उसमें हल्दी डाल दी ………ताकि पीला रंग हो जाए …………बस …एक दूसरे के ऊपर डालना शुरू कर दिया ……..कीच मच गयी……पर अब तो उसी कीच को उठाकर ग्वाले एक दूसरे में फेंकनें लगे …….बृजराज हँसते हुए बृषभान जी से बोले ….अब ये लोग बाबरे हो रहे हैं……..चलो ! दूर से इनकी ये लीला देखते हैं…….बृजराज और बृषभान अट्टालिका में चले गए ……..और वहाँ से आनन्द ले रहे हैं इस उत्सव का ।

अब तो ग्वालों नें माखन के गोला बनाये ……और एक दूसरे के मुख में मारनें लगे………सबका मुँह माखन सा सफेद हो जाए ……..ये देखकर सब हँसें ……….हँसते हुए वहीं दही की कीच में लोट पोट हो जाते ।

एक बुढ़िया आगयी तभी……..उस बुढ़िया के मुख में दाँत नही थे पोपली थी वो…….गोकुल की नही थी……पास के गाँव से आयी थी ।

उसको कुछ समझ में नही आरहा था कि ये सब क्यों ?

क्या हो रहा है ?

उसनें दूर से ही पूछा …….का भयो है ?

बस …जैसे ही मुँह फाड़ के बोली …..का भयो है !

एक ग्वाले नें बुढ़िया के मुख में माखन को गोला ऐसे तक के मार्यो की माखन तो सीधे मुँह ते पेट में ही चलो गयो………

आहा ! बुढ़िया बड़ी खुश है गयी……..फिर बोली …..का भयो ?

ग्वाला बोल्यो ……..तेरो मुँह मीठो नाय भयो ?

बुढ़िया बोली …..मुँह तो मीठो है गयो ……पर यहाँ कहाँ भयो ?

लाला भयो है…….बृजराज के लाला भयो है …..ग्वाला नें उत्तर दियो ।

बुढ़िया तो नाचवे लगी ……ऐसे लाला रोज ही होयो करें ……जाते रोजहीं माखन खायेवे कुँ मिले …………

इस दृश्य को देखकर सब आनन्दित हो रहे हैं……सबको ऐसा लग रहा है ……कि लाला नन्द जी के यहाँ नहीं …..हमारे यहाँ ही आयो है ।

पर हे तात विदुर जी ! वो बुढ़िया कोई साधारण नही थी ….साक्षात् “ब्रह्म विद्या” थी ……..वो तो उन्मत्त हो कर नाचनें लगी ।

“यशोदा जायो ललना मैं वेदन में सुनी आई”

सब नाच रहे हैं……..गारहे हैं ………

शेष चर्चा कल

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 14


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 14 )

!! बरसानें की सखियाँ गोकुल में !!


अरी सखी ! ये हल्ला कहाँ हो रहा है ?

हाँ सखी ! मैं प्रातः 4 बजे से ही सुन रही हूँ कभी सहनाई बजती है तो कभी गायन की ध्वनि कानों में पड़ जाती है …पता नही क्या है ?

अरी मैं बताती हूँ…….हमारे गोकुल के राजा हैं ना बृजराज, उनके यहाँ लाला हुआ है !

साँची कह रही है तू ? सभी सखियाँ चौंक गयीं ।

हाँ हाँ ….साँची कह रही हूँ……..बृजरानी यशोदा नें रात में ही लाला जाओ है ।

सब सखियों उठकर खड़ी हो गयीं…….आनन्दित हो उठीं……..वही तो मैं भी सोच रही कि ये मधुर मधुर संगीत कहाँ बज रह्यो है ……….और गवैया कितनों सुन्दर गाय रहे हैं ।

तुम कूँ कछु पतो नायँ ……..मैं बताऊँ……….फिर वो बूढी बड़ी गोपी सबको बतानें लगी …………

मैं तो वहीं थी ……….रात ते ही वहीं हूँ ….सवेरे ही आई हूँ ……..वहाँ बधाई चल रही है……बृज चौरासी कोस के सभी गोप गोपी जा रहे हैं वहाँ…….सही बात ये है कि समस्त “सुखन को मूल” नन्द भवन में प्रकट भयो है…….सखियों ! सुनो मेरी बात……..नन्द भवन में स्वयं भगवती लक्ष्मी बन्दनवार लगाती हुयी चल रही हैं………आठों सिद्धियाँ नन्दालय के आँगन में झाड़ू लगा रही हैं……….नौ निधियाँ द्वार की भित्तियों पर स्वस्तिक का चिन्ह काढती हुयी चल रही है ………….पर इनकी कोई शोभा नही है ….शोभा तो उन गोकुल के सखियन की है जो, जब नन्द जु के आँगन में भीर के साथ जावें तब तो ऐसो लगे की “प्रेम की नदी बहती भई जा रही है” ………या लिये मेरी बातन कूँ सुनो…….चलो नन्द भवन में ……..गोकुल में ………..वहाँ सुख के निधान प्रकटे हैं ।

ये सब बरसानें की सखियाँ हैं……………बरसानें तक हल्ला भयो ……तो वहाँ की सखियाँ भी आनन्दित हो तैयार होनें लगीं ।

हे तात विदुर जी ! बरसाना के राजा हैं श्री बृषभान जी ……उनकी पत्नी हैं कीर्ति रानी जी ।

ये मित्र हैं नन्द राय के ……….तो ये भी बरसानें से चलनें की तैयारी कर रहे थे ……और बरसानें की सखियाँ भी अब तैयार होनें लगीं ।

उद्धव नें विदुर जी को बड़े प्रेम से ये प्रसंग सुनाया ……और ये भी कहा कि …….श्रृंगार किया इन गोपियों नें ………..पर तात ! आप ये मत सोचना कि किसी स्त्री के श्रंगार का वर्णन क्यों सुनें हम ?

उद्धव बोले – तात ! ये लौकिक श्रृंगार नही है ……..ये अलौकिक श्रृंगार है…….हम प्रथम भी जाकर नन्दनन्दन के दर्शन कर सकते हैं……पर नही …..नन्दनन्दन के जो वास्तविक दर्शन हैं वो हमारे इन नेत्रों से नही होंगें …….उनके दर्शन के लिये तो प्रेम की दृष्टि चाहिये और वो दृष्टि मात्र इन गोपियों के ही पास है ……..हम क्यों न इनके पीछे पीछे चलें ।

उद्धव की बातें सुनकर विदुर जी अतिप्रसन्न हुये ……….और बोले ……मै समझता हूँ उद्धव ! ये गोपियाँ लौकिक स्त्रियाँ नही हैं……ये तो वेद की ऋचाएँ हैं…….साक्षात् प्रेममयी हैं…..ब्रह्मविद्या हैं ।

आप वर्णन कीजिये उद्धव ! ……..हम इन गोपियों के नेत्रों से ही नन्द नन्दन को निहारेंगे …..विदुर जी नें कहा ……और उद्धव अब उन गोपियों के श्रृंगार का वर्णन करनें लगे थे ।

सुगन्धित तैल का अपनें देह में मर्दन कर ……फिर उबटन लगाया इन गोपियों नें …….बादाम पिस्ता केशर को पीस कर उबटन, उसमें दही की मलाई भी मिलाई ……फिर उसे अपनें देह में लगाया…….कुछ देर के बाद शुद्ध गुलाब जल को मिलाकर स्नान किया ………दमक उठा था उनका वो दिव्य देह ………..स्वच्छ वस्त्र से देह को पोंछा ……….फिर चन्दन का चूरा दहकते कोयले में डालकर उसका धुँआ अपनें सुन्दर केशों को दिया ……जिससे उनके केश महक उठे थे ………..

आ ! मैं बेणी गूँथ दूँ ……घर की बूढी माताओं नें कहा ।

बैठ गयीं वो गोपियां ………और उनकी बूढी माताओं नें कंघी करके फिर बेणी गुँथी ………..उस बेणी में सुन्दर सुन्दर फूल लगा दिए ……..गजरा सजा दिया ………..अब तो जब ये उठीं तब स्वयं ही डर गयीं “साँप” कहकर ……उनकी चोटी अब सर्प के समान लग रही थी………….उद्धव गदगद् होकर वर्णन कर रहे हैं इस प्रसंग का ।

सबको जल्दी है …….सब गोपियों को जल्दी है गोकुल में पहुंचनें की …..आहा ! धन्य हैं ये गोपियाँ जिनके मन में मात्र नन्दनन्दन को निहारनें की ही एक मात्र कामना है …………

ये सज भी रही हैं तो नन्दोत्सव के लिये …..इनका “सजना भी साधना” बन गया है आज !

भाल पर केशर……मध्य में सुवर्ण की बिन्दी…….माँग में सिन्दूर…..

नयनों में काजल …………भौहों को थोडा कुटिल बनाया ………अधरों को गुलाब के प्राकृतिक रस से रंग दिया ……….गौर वर्ण की गोपियाँ सुन्दर लग रही हैं……पर साँवरे रंग की गोपियाँ तो और भी ज्यादा सुन्दर लग रही हैं ……क्यों की श्रृंगार साँवरे रंग पर ही ज्यादा खिलता है ………पैरों में महावर लगाया..जो और सुन्दरता प्रदान कर रहा था ।

अब वस्त्रों की बारी थी………..चोली पहनी ……मोतियों की कढ़ाई वाली सुन्दर चोली पहनी……लहँगा निकाला ……बड़ा घेर वाला था ये लंहगा …….80 गज का लंहगा था …. तो किसी का 100 गज का ……..उन लहंगों में भी मोतियों का बड़ा काम था ………किनारी में छोटे छोटे शीशे भी जड़े हुये थे । ………विदुर जी ! नीले रंग का लंहगा …..उसमें छोटे छोटे शीशे ऐसे लग रहे थे ……जैसे नीले आकाश में तारे प्रकट हो गए हों ………….गाढ़े पीले रंग की चोली ………..हरा रंग भी उसमें मिला हुआ था ………..उसके ऊपर ओढ़नी – फरिया रंग बिरंगी थी …….उसे ओढ़कर तो इन गोपियों की ऐसी शोभा बन गयी कि स्वर्ग की अप्सरायें क्या , रमा उमा ब्रह्माणी भी लज्जित हो रही थीं ।

अब आभुषण की बारी थी…….गोकुल के नन्दोत्सव में जानें के लिये इन गोपियों नें अपनें शीश पर चूड़ामणि लगाई……सुवर्ण की ।

कानों में कुण्डल……लटकते हुए कुण्डल……आहा ! तात विदुर जी ! जब ये गोपियाँ चलती थीं और इनके कुण्डल हिलते और इनके गोरे गोरे कपोलों को छूते तब जो इनकी शोभा बनती वो अद्भुत और अनुपम थी ।

नासिका में नथ बेसर ……….कण्ठ में कण्ठहार …….इक लरी दुलरी तिलरी ……..ऐसे दिव्य दिव्य हार कण्ठ में धारण किये ।
भुजाओं में बाजूबन्द ………हाथों में कड़े ……कमर में करधनी …….पैरों में बिछुआ ………….आहा ! तात विदुर जी ! ये लौकिक शोभा नही अलौकिक शोभा थी …….दिव्याति दिव्य ……….ये सब प्रेम रस में पगी हुयी हैं…….नन्दनन्दन को देखनें की चाह मात्र है इनके मन में ………ये चलनें लगीं …तो बृषभान जी और कीर्ति रानी जी की सजी हुयी बैल गाडी भी आगयी …….एक नही ………सैकड़ों थीं ……..

उन सबमें ये गोपियां बैठ गयीं……….हँसती खिलखिलाती स्नेहासिक्त ये गोपियाँ कीर्ति रानी से पूछनें लगीं …….इन थालों में क्या है ?

कीर्तिरानी हँसी …..और बोलीं ………महाराज के परममित्र हैं बृजराज नन्द जी ………और मेरी अच्छी सखी हैं बृजरानी यशोदा …………बचपन में ही महाराज और बृजराज का ये संकल्प था कि उनके पुत्र होगा और हमारी पुत्री तो दोनों का सम्बन्ध करेंगें ……..मुझे पक्का है कि अब हमारी लाली ही होगी …….तो ये टीका है …….सगाई है ………..ये सुनते ही सब सखियाँ हँसनें लगीं ………..और वहीं बैठी बैठी झूम उठीं ।

कितनी सुन्दर लग रही थीं ये गोपियाँ, उन्मुक्त हँसते हुए नाचते हुए ।

पहुँच गयीं गोकुल……….बरसानें से गोकुल ………….

“चलो री सखी देख आवें, बाजत बधाई ……..

सब गा रही थीं …..और नाच रही थीं ।

शेष चर्चा कल –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 13


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 13 )

!! गोकुल में नन्दोत्सव !!


साधकों ! कल आयीं थीं …दिल्ली की थीं, पंजाबी शरीर था उनका ।

उम्र होगी उनकी करीब 50 या 55 ………गौर वर्ण की थीं…….शरीर मोटा था ………….

“मैं आपको दो वर्षों से पढ़ रही हूँ”……..उन्होंने कहा ।

मैं क्या कहता उनको ………वो मेरी लेखनी की प्रशंसा करती रहीं ……मुझे बड़ा संकोच होता रहा…….मैं सिर झुकाये सुनता रहा ।

उनके हाथों में एक डलिया थी …..वो सुन्दर रेशमी वस्त्र से ढंका हुआ था …..मुझे लगा उसमें प्रसाद होगा ………….

कुछ देर बाद मुझ से वो बोलीं……..आपके दर्शन हो गए ……हमें अब नित्य इन्तजार रहता है कि अब “श्रीकृष्ण चरितामृतम्” आएगा ।

मेरा स्वभाव ही है संकोची……….मेरे सामनें कोई मेरी तारीफ़ करे ……तो मैं भीतर से कुछ असहज सा हो जाता हूँ ………..करता कोई , फिर तारीफ़ मेरी क्यों ?

वो जानें लगीं तो मैने पूछा ……आप कुछ लेंगी ? उन्होंने मना किया ।

फिर मैने कहा ……पूछा ……….जल तो ले लीजिये ।

उन्होंने अपनें हाथ के डलिया में धीरे से पूछा ……….जल पीयोगे ?

तुरन्त उसमें से आवाज आयी………..बच्चे की आवाज …….हाँ ।

मैं सुन रहा हूँ………..स्पष्ट मैनें सुनी ।

“मेरा लाला पीयेगा जल”………मैं कुछ समझ नही पाया था ………कि ये हो क्या रहा है ? मैनें स्वयं ही जल दिया……..डलिया में एक पीतल के लड्डू गोपाल जी थे ……..बड़े ही मनमोहक ।

जल उन माँ नें पिलाया ………..आश्चर्य था ये कि गिलास में दो चार बुँदे ही जल की रह गयीं थीं…यानि पूरा जल उनका लड्डू गोपाल पी गया था…….. अब जो दो चार बुँदे बची थीं …….उन माता जी नें वो स्वयं पी लिया ……..और गिलास मेरे हाथों में ।

ये मेरा लाला है………वो हँसीं ये कहते हुए ।

ये मेरे साथ बोलता है …..खेलता है…….बातें बनाता है ।

मैं क्या कहता…….मैनें केवल उनके लड्डू गोपाल जी के दर्शन किये ……..जी भर के दर्शन किये………उसके बाद उन माता जी नें सौ रुपये का नोट अपनें लड्डू गोपाल के ऊपर घुमाकर हमारे यहाँ काम करनें वाली बाई को दे दिया……..नजर उतारा था उसनें अपनें लाला का ।

वो चली गयीं ……मैं उन्हें देखता रहा……बड़ी ऊँची स्थिति थी उनकी ।

ये घटना मेरे साथ कल घटी ………आपको विश्वास नही हो रहा ? न हो तो न हो ………..पर भक्त आज भी हैं ………..और उनसे अगर गोपाल बातें करता हो …..तो कोई बड़ी बात भी नही है …….क्यों की वात्सल्य भाव है ही इतना ऊँचा ।

चलिये ! आज का प्रसंग प्रारम्भ करें ……………

नाल छेदन करें अब ? सुनन्दा नें अपनें भैया नन्द जी से पूछा ।

नहीं , अभी नही ………सुनन्दा ! नाल छेदन करते ही सूतक लग जाएगा मुझे ………फिर मैं दान पुण्य किसी को छूना ये सब नही कर पाउँगा ……….इसलिये अभी रुक जाओ ।

बृजराज नें रोक दिया सुनन्दा को ।

बृजराज मुड़े अब ऋषि शाण्डिल्य की ओर……..ऋषिवर ! मैने संकल्प किया था कि , बीस लाख गौओं का दान करूँगा ……. अगर आप आज्ञा दें तो ……..बड़े ही विनम्र भाव से नन्द जी नें कहा ।

हाँ …….देना , दान देना ये तो होना ही चाहिये ………

बुलवाओ महामना नन्द जी ! समस्त बृज चौरासी के गोपों को बुलाओ ………ब्राह्मणों को बुलवाओ ……..अपनें सूत मागध बन्दियों को बुलाओ …….अपनें सेवकों को बुलाओ ……और सबको दो ……ऋषि नें नन्द जी को आनन्दित होकर ये बातें कहीं ।

देखो बृजराज ! जो धन समस्त के लिये होता है ……जिस धन का लाभ सभी लोग लेते हैं ……..वही धन सात्विक होता है……..

तो गुरुदेव ! मेरी इच्छा है कि मैं सब कुछ लुटा दूँ……..आनन्दित होकर महामना नन्द जी का हृदय उछालें मार रहा था ।

गौशाला खोल दिया…………बीस लाख गौएँ उस गौशाला में थीं…….

ऐसी महावन में पचासों गौशाला हैं……….

बीस लाख गौ के साथ सहस्र गोप खड़े कर दिए ……सुन्दर सुन्दर पीली पगड़ी बांध कर वो सब गोप खड़े हैं………

गौएँ – सुन्दर हैं……पुष्ट हैं……दूध देंने वाली हैं …..सुलक्षणा हैं ।

जो जो ब्राह्मण या गोप गौ को चुनता है………तुरन्त बैठे हुए गोप उन गौ के खुर को चाँदी से मढ़ देते हैं ……सींग सोनें से मढ़ दिया जाता है …….सोनें की सुन्दर घण्टी गौ के गले में बांध दी जाती है ।

जिसको जितनी गौएँ चाहिए वो ले जाए……….

गौशाला के बाहर ही नन्दराय जी बैठे हैं….और जो जो गौओं को लेकर जा रहे हैं…..उनको भर भर के हीरे मोती जवाहरात देते जा रहे हैं ।

पर आनन्द अभी भी नही आया बृजराज को…….”मेरा वश चले तो मैं रत्नों से भर कर सुमेरु पर्वत का दान करूँ”……बृजराज बोल रहे हैं ।

इसका भी नियम है बृजराज ! ब्राह्मणों नें बताया …………तिल के पर्वत बनाओ ………..और इतनें बड़े पर्वत बनाओ जिससे सामनें वाला व्यक्ति दूसरी और खड़े व्यक्ति को न देख सके……….फिर उनको रत्नों से भर दो ………उसके ऊपर रेशमी वस्त्र डालकर दान दे दो …..हे बृजराज ! ऐसा करनें से सुमेरु के दान का फल मिलता है ।

बृजराज आनन्द से उछल पड़े…….लाओ तिल के बोरे ……..तिल के पर्वत बनाये जानें लगे……..एक पर्वत नही ….सात सात पर्वत ……फिर उनमें रत्नों को भरा गया ………..हीरे मोती पन्ना ये सब खचे गए उसमें ………रेशमी वस्त्रों से ढँककर दान कर दिया नन्द जी नें ।

आहा ! आनन्द आगया सबको …………..

ग्वालों नें अब बृजराज को पकड़ा ……………

अरे ! अरे ! क्या कर रहे हो ? हँसते हुए बोले बृजराज ।

कछु नाँय बाबा ! आज तो आपकूँ नाचनों ही पडेगो……….

ये कहते हुए फेंट पकड़ कर बाबा को सब ग्वालों नें खींचा ………….

और मध्य में बिठा दिया …………..

पहले अभिषेक करते हैं बृजराज का ग्वाले मिल कर …..दूध के कलस बृजराज के ऊपर डाल रहे हैं …..फिर दही …..फिर घी ….शहद ….यमुना जल…….ये सब जब हो रहा था तब आकाश से देवों नें पुष्प वृष्टि की ……जयजयकार किया……..और समस्त गोप तो बस नाचते ही जा रहे हैं….कीच मच गयी है, माखन, दूध दही की कीच बन गयी है ।

“नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की”

….सब आनन्द में मत्त हैं ।

गुरुदेव ! अब तो नालछेदन संस्कार किया जाए ?

ऋषि शाण्डिल्य से लाला की भूआ सुनन्दा नें आकर पूछा ।

ऋषि स्वयं नन्दालय के आँगन में मचे इस नन्दोत्सव का रस ले रहे थे ।

क्या ? ऋषि नें फिर पूछा ।

समय बीता जा रहा है …..क्या बालक का नाल छेदन करा दें ?

हाँ हाँ ….करा दो …..ऋषि नें आज्ञा दे दी ।

सुनन्दा आयीं……….सोनें की छुरी लेकर आयीं……..रेशम की डोरी ……..कटोरी में घी ……….

और ये सब लाकर दाई के हाथों में दे दिया ।

दाई नें जब नीलमणी बालक को देखा तो सुध बुध सब भूल गयी वो ।

उसके हाथ जड़वत् हो गए …..उनके पलक झपकनें बन्द हो गए …….

दाई ! ए दाई ! नाल तो काट ……..तू तो बाबरी सी हो गयी है ।

ये सुनते ही …….दाई को होश आया ………..

नाल को देखा उसनें ध्यान से ……आहा ! वह नाल भी , कमल नाल की तरह अत्यन्त अद्भुत था……..रेशमी डोरी से नाल के मूल में बाँधा ………फिर सोनें की छूरी उठाई ……..और नाल काट दिया ……….

सब आनन्दित हो गए …..सब गानें लगे ….नाचनें लगे ….शनाइयाँ बन उठीं ….सुनन्दा नें यहाँ भी थाल बजाई है । इसके बाद नाल को लेकर नन्दालय के आँगन में ही, धरती में गड्डा खोद कर डाल दिया गया था ।

अब नाल काटनें का नेग चाहिये ? मटकती हुयी दाई बोली ।

एक थाल भरकर मोती और माणिक्य ले आओ ……और इस दाई को दे दो …..सुनन्दा बोली ।

हट्ट ! मैं नही लुंगी ये मोती और माणिक्य …………..

तो क्या चाहिये तुझे ? सुनन्दा बोली ।

“नौ लखा को हार…जो या समय बृजरानी नें पहन रखो है” ……..दाई बोली ।

क्यों ! या बुढ़ापे में नौ लखा पहन के का फिर व्याह करेगी ?

सुनन्दा को बड़ा गुस्सा आया ।

ले ….हीरे मोती ले ले …..और जा……सुनन्दा फिर बोली ।

तू ले हीरे मोती ……मैं तो नौ लखा से कम नही लुंगी …….और तू क्यों चपर चपर कर रही है ………….मैं भी दाई हूँ दाई …………ये रानी है ..तो मैं भी दाई कहलाती हूँ……….ये लाला, बृजरानी को मैया कहेगा ….तो मुझे भी मैया ही बोलेगा ……….सुन ! ऐसे नही आई हूँ …………बुलावे पे आई हूँ………झगड़नें लगी दाई तो ।

तभी – भीतर हल्ला सुनकर बृजराज आगये ………….

क्या हुआ ? क्यों झगड़ा कर रही हो ? सहजता में पूछा नन्द जी नें ।

देखो बृजराज ! ऐसी घड़ी बारबार तो आवे नही है ……..या लिये मोकूँ नेग चहिये ………..और नेग में, मैं नौ लखा को हार लुंगी ।

बृजराज नन्द जी सब समझ गए …………..उनके नेत्रों से अश्रु बहनें लगे …..आहा ! ऐसे झगड़ा कौन करता है .? जो अपना अधिकार समझता है ………..धन्य हैं मेरे भाग्य कि सब मेरे यहाँ अपना अधिकार समझ रहे हैं……..धन्य हैं ।

तुरन्त अपनें गले में पड़े नौ लखा का हार उतार कर बृजराज नें दाई को दे दिया …..दाई गदगद् हो गयी …………हार लेकर माथा चूमनें के लिये जैसे ही झुकी नन्द नन्दन की ओर ……बस नन्दनन्दन मुस्कुरा दिए ……….ये क्या मुस्कुराये ! ….दाई तो सुधबुध खो बैठी ……..बृजराज के द्वारा दिया गया नौ लखा हार ….वापस , नवजात गोपाल को न्यौछावर के रूप में, उन्हीं के गले में वो हार डाल दिया …….

और वो बाबरी दाई नाचती रही…..सब कुछ भूल कर नाचती रही ।

हे तात विदुर जी ! ये आनन्द के क्षण हैं………ये अद्भुत काल है ….क्यों कि काल भी इस उत्सव में सुन्दर होगया था ।

तात ! उन महामना नन्द जी के आनन्द का मैं कहाँ तक वर्णन करूँ ।

उद्धव नें इतना ही कहा……और स्वयं उसी भाव जगत में डूब गए थे ।

शेष चर्चा कल –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 12


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 12 )

!! नन्दात्मज का जातकर्म संस्कार !!


तात विदुर जी ! ये आनन्द की कथा है …ये आनन्द का चारु चरित है ।

जो भी इसे सुनेगा गायेगा उसके जीवन में आनन्द की वृद्धि ही होगी ।

उद्धव “श्रीकृष्ण चरित्र” सुनाते हुए भाव विभोर हैं ।

पता है तात ! नन्द जी के जो पुत्र हुआ उसका नाम क्या था ?

विदुर जी मुस्कुराये………और बोले – उद्धव ! तुम सच में श्री कृष्ण के परम प्रिय हो…….तुम्हारे हृदय के उल्लास को देखकर मैं आनन्दित हूँ ।

तात ! नन्द जी के जो पुत्र हुआ ना ……उसका नाम था आल्हाद ।

अनन्त ब्रह्माण्ड का जो आल्हाद है ……वही आज आकार लेकर “नन्दात्मज” के रूप में प्रकट हो गया है ।

उद्धव इतनें आनन्दित हैं कि उसका शब्दों में वर्णन नही किया जा सकता ।

नन्दात्मज ? क्या ये नन्द के आत्मज हैं ? पर उद्धव ! ये तो ब्रह्म हैं…..और ब्रह्म किसी का आत्मज यानि पुत्र कैसे हो सकता है ?

विदुर जी इस प्रश्न को करते हैं…….और इसलिये करते हैं……ताकि उद्धव इस दिव्य कथा की धारा को और प्रवाहित करें …… श्रोता उसमें डूब जाये……कौन होगा ऐसा नीरस जो इन सरस कथाओं को छोड़कर कुछ और सुनना चाहे ।

तात ! ये ब्रह्म हैं ……परब्रह्म हैं ……..किसी का ये बेटा बेटी क्यों बनेगा ………ये आपकी बात बिलकुल सत्य है ……..पर तात विदुर जी ! ब्रह्म को जो पूर्णता से अपना मान लेता है …..जो मानें ………ये ब्रह्म उसका ही बन जाता है ।

किसी नें इसे शत्रु माना तो इसनें शत्रुता निभाई, किसी नें मित्र माना तो इसनें मित्रता निभाई , किसी नें पिता माना तो इसनें पिता का कर्तव्य निभाया ………पर नन्द नें यशोदा नें इसे अपना बालक माना तो ये बालक ही बना ………और वात्सल्यभाव का रस इसनें यहीं चखा ।

उद्धव नें विदुर जी को ये बातें समझाई थी ।

ये निभाना अच्छे से जानता है …….सम्बन्ध इसी से बनाओ तात !

“काका”

आहा ! कितनें प्रेम से मुझे काका कहते थे …….विदुर जी के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे……उद्धव ! मुझे बताओ गोकुल में आगे क्या हुआ ?

उद्धव ! जन्म के बाद जातकर्म संस्कार भी होते हैं……क्या ये सब संस्कार भी हुए ? …..नाल क्षेदन संस्कार भी होता है नवजात शिशु का …….अगर ये सब भी नन्दनन्दन का हुआ है ……तो उन दिव्यातिदिव्य लीलाओं को मैं सुनना चाहता हूँ ……….उद्धव ! तुम सुनाओ ।

विदुर जी नें आग्रह किया …..तो उद्धव नें कुछ देर बाद विदुर जी को सुनाना प्रारम्भ किया था ।

बृजराज ! आप यहीं ऊष्ण जल से स्नान कर लें………अभी समय भी तो नही है …………फिर जातकर्म संस्कार भी होना है ।

उपनन्द नें नन्द जी से तब कहा …..जब वो स्नान करनें के लिये यमुना जी जा रहे थे …………..

नही , बृजराज को यमुना स्नान करके ही आना चाहिए…..और हाँ बृजेश ! आप आते जाते ब्राह्मणों को बोलते हुए जाएँ…..ताकि वो शीघ्र आकर यहाँ के होनें वाले “संस्कार” की व्यवस्था को सम्भाले ।

बृजराज स्वयं आनन्द में इतनें डूबे हुये हैं….कि वो सबकुछ भूल रहे हैं ।

सुनन्दा ! देख गुरुदेव क्या कह रहे हैं ? और गुरुदेव ! जो भी कुछ कहना हो सुनन्दा को कहिये …..ये सब व्यवस्था कर देगी ।

हाँ ……..मैं हूँ भैया ! आप जाओ …..स्नान करके आओ ………सुनन्दा नें नन्द जी को भेज दिया स्नान के लिये ।

पर मेरे वस्त्र ? नन्द जी फिर लौटे वापस ।

दो ग्वालों को भेज दिया सुनन्दा नें ………उनके हाथों में वस्त्राभूषण सब दिए ………..और कहा ….भैया को शीघ्र ले जाना और शीघ्र ले आना ।

और हाँ गुरुदेव शाण्डिल्य ! यहाँ क्या व्यवस्था होगी ?

सुनन्दा नें ऋषि शाण्डिल्य से पूछा ।

यहाँ गोबर से लिपवाओ पहले …….सुनन्दा चिल्लाई ………इधर आओ …….पहले यहाँ गोबर से लीपो ……….सेवकों को सुनन्दा नें कहा ।

और मैं रंगोली बना दूँ ………..एक बूढी गोपी नें आकर पूछा ।

हाँ हाँ बना दो ………सुनन्दा नें उसको भी काम में लगा दिया ।

तभी सहनाई वाले आगये थे ……बृजराज जा रहे हैं यमुना स्नान करनें के लिये ……सहनाई वालों नें बृजराज को देखते ही सहनाई बनाना शुरू किया ……..नन्द जी इतनें प्रमुदित हैं आज कि नाचनें लग गए वहीं पर……ग्वालों नें उन्हें रोका …….आप इनको कुछ बधाई दीजिये …..और चलिये स्नान करना है …..नही तो देरी हो जायेगी ।

नन्द जी नें अपनें गले का हार उतार कर सहनाई वालों को दे दिया ……वो लोग प्रसन्न होकर चले नन्दालय की ओर ।

बृजराज को देखते ही जो गोपियाँ घूँघट कर लेती थीं …..पर आज इनको भी इतना आनन्द आरहा है कि घूँघट की मर्यादा ही भूल गयीं ।

“बाबा ! बधाई हो”…….कहती हैं और हँसती हुयी नाचनें लगती हैं ।

बूढी गोपियाँ तो बाबा का हाथ पकड़ कर अपनी और खींचती हैं ……

बधाई तो दे ! ……..नन्द जी अपनें हाथों से सोनें का कडुवा उतार कर दे देते हैं……और स्वयं बहुत हँसते हैं ।

यमुना जी में जैसे जैसे पहुँच गए………क्यों की मार्ग में भीड़ ही इतनी थी………और जो भी मिलता सब बधाई माँग रहे हैं………..

यमुना जी में पहुँचते ही नन्द जी नें डुबकी लगाई ………….

एक अपनें आराध्य की ……दूसरे अपनें देवताओं की …..तीसरी अपनें पितरों की ……चौथी अपनें गोकुल की …….पांचवी अपनें गोकुल के समस्त ग्वालों की ……छटी अपनें गोकुल के गोपियों की ….सातवीं डुबकी गौओं की …………..आठवीं अपनें वनौषधि की …….नौवीं अपने परिवार की ……दसवी अपनी अर्धांगिनी यशोदा की ………ग्यारहवी अपनें लाला की …………फिर तो बस ….लाला स्वस्थ रहे ……लाला चिरजीबी रहे …….कोई अलाय बलाय मेरे लाला के पास न आवें …….

इस तरह 108 डुबकी लगाई नन्द जी नें …..और हाँ तात विदुर जी ! बिना रुके 108 डुबकी लगाई थी ।

यमुना जी से बाहर आये बृजराज ………साथ के ग्वालों नें अँगोछा दिया, नन्द जी नें अंगोछे से अपना शरीर पोंछा ……..फिर रेशमी शुद्ध पीली पीताम्बरी पहनी……ऊपर रेशमी चादर ओढ़ा ………..केशों में सुगन्धित तैल लगाया …….आँखों में काजल लगाया ….. मस्तक में चन्दन ………उर्ध्व पुण्ड्र धारण किया ….शरीर के द्वादश स्थान में तिलक धारण किया …….माथे में सुन्दर पीली पगड़ी पहनी …….

ग्वालों नें हाथों में चाँदी की छड़ी पकड़ाई ……..गले में मोतियों की माला ………स्फटिक की माला ….कमल की माला धारण की ।

पैरों में और हाथों में सोनें के हीरों से जड़े कडुवे पहनें………..

प्रसन्न मुख से अपनें ग्वालों को देखा……ग्वाले खुश……..

“बाबा ! दुल्हा लग रह्यो है तू तो”

बाबा हँसते हुये वापस अपनें महल की ओर चल दिए थे ।

सहनाई बज रही है …………माताएँ गीत गा रही हैं………

प्रातः की वेला है ……..हजारों ब्राह्मण बैठे हैं…..दूसरी और ग्वाले खड़े हैं…….गोपियाँ सब सज धज में आगयीं हैं …….इतनी सुन्दर लग रही हैं ये सब कि, स्वर्ग की देवियां भी इनके आगे कुछ नही हैं ……..मध्य में आसन लगाया गया है……..बृजराज का ……….उसके ऊपर रंगीन चँदोवा टांगा गया है ……….बृजराज आगये हैं…………उनको देखते ही ब्राह्मणों नें स्वस्तिवाचन करना प्रारम्भ कर दिया ………..

आहा ! क्या दिव्य अद्भुत वातावरण हो गया था ।

गुरुदेव ! मैं सब ले आयी हूँ…….सारी पूजा सामग्री मैने रख दी है ……रोली मोली सुपाड़ी जनेऊ कलावा और ये फल और ये फूलों की टोकरी ….ये घी ये शहद ……….

..
पान कहाँ हैं सुनन्दा ? ऋषि शाण्डिल्य नें पूछा ।

ओह ! देखो …….मैं पान के पत्ते ही भूल गयी …….सुनन्दा पान के लिये जैसे ही महल की ओर गयी …….

पान मेरे पास है छोरी, ले !……..जितनो चहिये ले ले ।

दाई आगयी थी लाठी टेकती हुयी ……….

पर दाई ! तेरो पान जुठो है …..पूजा के काम को नही है …….सुनन्दा नें दाई को ऐसे बोल दिया ……..

अरी जा ! जुठो होयगो ! पण्डितानी हूँ……तोते ज्यादा जानूँ …….

लो शाण्डिल्य बाबा ! ये शुद्ध पान के पत्ता हैं……….ऋषि शाण्डिल्य को दे दिया दाई नें ।

दाई की बात पर पूरा समाज हँसा………..और हाथ जोड़कर दाई का आदर भी किया सबनें …….ये गोकुल की सबसे बूढी दाई है ।

सब तैयारी हो गयी …….स्वस्तिवाचन भी हो गया ।

अब पूजन शुरू किया जाए …………ऋषि नें ब्राह्मणों को आज्ञा दी ।

पहले गठ जोड़ तो करो …….बूढी दाई बोली ।

ये काम तो नवजात की भूआ का होता है ….ऋषि नें हँसते हुए कहा ।

चूनरी की एक छोर बृजराज के दुपट्टे से बाँधा सुनन्दा नें …..दूसरी छोर लेकर भीतर भाभी के पास गयी……भाभी ! कछु दे…..नेग दे…..

यशोदा जी हँसी ……….हँसे मत ….नेग दे भाभी ! ……….तुरन्तं अपनें गले का हार उतार कर सुनन्दा को दे दिया यशोदा जी नें ।

भीतर से लाला को लेकर आयी सुनन्दा………….और नन्द जी के गोद में रख दिया …………बस नन्द जी तो ब्रह्मानन्द में डूब गए ………

देहातीत हो गए …….उन्हें कुछ खबर नही ………

“गणेश जी का पूजन करो”…….विप्रों नें कहा …..पर नन्द जी कुछ नही सुन रहे ……….उनका अन्तःकरण अपनें लाला में ही लगा हुआ है ।

रोरी छोडो ……..अक्षत चढ़ाओ…….सब गड़बड़ कर रहे हैं नन्द जी आज ……ब्राह्मण कुछ बोल रहे हैं ……नन्द जी कुछ चढ़ा रहे हैं ।

ऋषि वर ! आप तो समझाइये ……….ब्राह्मणों नें ऋषि शाण्डिल्य से कहा …..ऋषि भी हँसते हुये बोले ….इस बालक को देखकर तो मैं भी कर्मकाण्ड को भूल गया ………आहा ! आनन्द बरस रहा है यहाँ ।

जैसे तैसे ये दिव्य अद्भुत जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ था ।

शेष चर्चा कल –

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 11

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 11 )

!! नन्द के आनन्द भयो…!!


तात विदुर जी ! गोकुल में नन्दनन्दन के अवतरित होते ही….प्रकृति झूम उठी थी…..अपनी समस्त सम्पदाओं को उघाड़ दिया था प्रकृति नें ।

कालिन्दी के तट पर रंग बिरंगे रत्न स्वयमेव प्रकट होनें लगे थे ।

ग्वाले जहाँ भी धरित्री खोदते, उन्हें मणि माणिक्य के खदान मिल रहे थे …….ये बेचारे क्या करते उनका……….इनके लिये तो ये सब रंगीन पत्थर से ज्यादा कुछ नही थे ……पर हाँ इनमें से कुछ अच्छे से धातु ये रख भी रहे थे …………पर इन भोले भाले अहीरों को क्या पता कि ये तो धरती का आनन्द प्रकट हो रहा था …………..

पशु पक्षी प्रसन्न थे ………अति प्रसन्न थे …….फलदार वृक्ष फलों से लद गए थे……..वो गिर रहे थे……….लताएँ फूलों के अति होनें के कारण झुक गयीं थीं………उनमें से सुगन्ध की एक वयार चल रही थी जिससे भौरें भी मदमत्त हो गुनगुना रहे थे……….नदियाँ स्वच्छ और निर्मल हो गयी थीं……..नदियों के किनारे कमल के फूल खिल गए थे ………..कमल भी हर रंग के थे …….उनमें से भी जो सुगन्ध प्रकट हो रहा था वो सम्पूर्ण महावन को अपनें गन्ध से सरावोर कर रहा था ।

ओह ! तात विदुर जी ! मैं आपको इस आनन्द का वर्णन करके क्या बताऊँ ! नन्दनन्दन स्वयं आनन्द हैं……..जब आनन्द ही आकार लेकर प्रकट हो गया हो ………फिर उस वातावरण का वर्णन कर पाना सम्भव नही है……….सब कुछ आनन्द की धारा में बह रहा है ……….मानों आनन्द के समुद्र में बाढ़ आगयी हो……..और उस बाढ़ में भँवर और पड गया हो ……..अब बताइये तात विदुर जी ! क्या कोई उस भँवर से निकल पायेगा ? उफ़ ! कुछ देर के लिये उद्धव चुप हो गए ….उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।

नन्दराय नाच उठे थे…….उन्हें कुछ सूझ नही रहा था कि क्या करें ।

नही बहन ! मैने कभी संकल्प नही किया कि “मेरे पुत्र हो” …..हाँ मेरे भाइयों नें , मेरे गुरुदेव ऋषि शाण्डिल्य नें मुझे अनुष्ठान में बैठा तो दिया था ……पर मैनें कभी संकल्प नही किया कि मेरे पुत्र हो …….

मैने अपनें आराध्य भगवान नारायण के चरणों में सारी बातें छोड़ दी थीं……..वो जैसा करें……वो जिसमें राजी हों………अपनी बहन सुनन्दा को बताते हुये बृजराज आनन्द के अश्रु प्रवाहित कर रहे थे ।

भैया ! अब चलो …….एक बार देख लो ………..सुनन्दा नें हाथ पकड़ा अपनें भैया नन्द का ……..और जिद्द करनें लगी ।

कैसा है ? आनन्द के भँवर में फंसें नन्द जी नें पूछा ।

मैं कुछ बता नही सकती ………मेरी वाणी में आज सामर्थ्य नही है …….मैं जितना भी कहूँगी वो सब कम ही होगा ……………

फिर भी कुछ तो बता ………..बहन ! कुछ तो बोल !

नन्द जी पूछ रहे हैं अपनी बहन से ।

भैया ! ऐसा है वो नवजात शिशु जैसे – कोई “नील कमल”……….पर ये “कमल” ऐसा प्रकट हुआ है ………जिसे आज तक किसी भौरें नें सूँघा नही है ……..जिसकी सुगन्ध को उड़ाकर लेजानें का सौभाग्य पवन को भी आज तक नही प्राप्त हुआ है……….जल में भी वो सामर्थ्य नही जो ऐसे कमल को पैदा कर सके ………जल के वक्षःस्थल पर खेलनें वाली तरंगें भी कमल को कम्पित करनें का गर्वं नही कर सकीं हैं …….ये कहते हुए सुनन्दा हँसी……और बोली ….सच ये है कि इस “नील कमल’ को आज तक किसी नें देखा ही नही था ।

ओह ! नन्द जी नें अपनें गले का हार उतार कर अपनी बहन सुनन्दा को दे दिया ………….पर बहन नें उस हार को लेकर अपनें नेत्रों से लगाते हुए गौशाला में सेवा कर रहे किसी ग्वाले को दे दिया …………ग्वाले नें अपनी पत्नी को दे दिया ……..पत्नी आनन्दित हो अपनी सास को दे देती है ……उस ग्वाले की माँ वापस प्रसन्नता से भरकर नन्द जी को ही देते हुए कहती है ……बृजराज ! बधाई हो ।

सुनन्दा हाथ पकड़ती है अपनें भाई नन्द जी का ………और कहती है ….अब चलिये ……….देखिये अपनें पुत्र को ……जो अद्भुत है ……दिव्यातिदिव्य है ……….चलिये !

नन्द जी और बहन सुनन्दा नन्द महल की ओर जाते हैं ।

यशोदा जी की गोद में वो नन्हा सा नीलमणी है…..अभी भी बाह्य ज्ञान शून्य हैं यशोदा जी……उनकी ऐसी स्थिति है जैसे योगियों की समाधि लग गयी हो ……बृजरानी के वक्ष से दूध की धारा बह रही है ….वो वात्सल्य सिन्धु में डूब गयीं हैं……और ये सिन्धु इतना गहरा है कि इसका थाह आज तक किसी नें पाया भी नही है ।

चंचल नयन हैं इस नवजात शिशु के…….पर अपनी मैया को जब चेतना शून्य देखा तब ये बालक रोनें लगा …………बालक के रोनें की आवाज सुनते ही बृजरानी उठीं…..रोहिणी भी उठीं………अन्य सब उठकर इधर उधर भागनें लगीं………दाई को कुछ समझ नही आरहा …..उसे लग रहा है मुझ से अपराध हुआ …..मैं स्वयं सो गयी ….! अब ऋषि शाण्डिल्य मुझ से पूछेंगें कि समय बताओ ….बालक कितनें बजे जन्मा था ……हे भगवान ! अब मैं क्या बताउंगी !

बृजरानी उठीं…………उन्होंने देखा ………….नीलमणी सा बालक….. सुन्दरता तो इतनी कि कोई उपमा ही नही है ………..पर यशोदा जी चौंक गयीं ….डर से कांपनें लगीं……….आकाश की ओर देखनें लगीं…..कोई चुड़ैल तो नही ?

क्यों की बृजरानी को नवजात शिशु के अंग में अपना प्रतिविम्ब दिखाई देंने लगा था ……………बस ! मैया डर गयीं ………कहीं कोई चुड़ैल मेरे लाला के शरीर में तो नही आगयी …………

हे नृसिंह देव ! हे नृसिंह भगवान ! रक्षा करो ……मेरे बालक की रक्षा करो……आँखें बन्दकर के प्रार्थना कर रही हैं ।

तभी नन्हे नन्हे करों नें मैया को छूआ …………बस छूते ही बृजरानी नें जब देखा ………..अब प्रतिविम्ब नही दिखाई दे रहा था ।

मैया नें नृसिंह देव को प्रणाम किया ……….

और अपनें नीलमणी को गोद में ले लिया ।

बृजराज आँगन में आकर खड़े हो गए ………प्रसूतिका गृह फूलों से भर गया है…..सुगन्ध से सब मत्त हो रहे हैं……………रात्रि भर देवों नें पुष्पों का वर्षण जो किया था ……..

नन्द जी खड़े हैं आँगन में …………..आनन्दाश्रु बहते जा रहे हैं बृजपति के ……….क्या कहें ? इस अपूर्व आनन्द के क्षण में क्या बोलें ?

तभी ऋषि शाण्डिल्य पधारे ………….और पीछे से ब्रजपति के कन्धे में हाथ रखा ……….नन्द जी नें पीछे मुड़कर देखा …..तो ऋषि !

तुरन्त चरणों में गिर गए ………भगवन् ! आपका अनुष्ठान सफल हो गया ……..मेरे पुत्र हुआ है ………..आपकी कृपा से मेरे यहाँ पुत्र हुआ है ।

नन्द जी के पीछे अब सब उनके भाई भी आगये …..सुन्दन , धरानन्द, शतानन्द, उपनन्द सब आगये …………..और सब बधाई देंने लगे नन्द राय को …….नन्द जी आनन्दित हो रहे हैं ।

तभी प्रसूतिका गृह से डाँटनें की आवाज आयी……रोहिणी नें दासियों को प्रेमपूर्ण डाँट लगाई थी ……तुम लोग यहाँ बालक का मुँह ही देखती रहोगी या गाँव में जाकर सब को खबर भी करोगी !

सब भागीं ……कोई सहनाई बजानें वाले के पास गयी और उसको तुरन्त चलनें की बात कहनें लगी…….कोई “बधाई हो …बधाई हो” …..चिल्लाती हुयी घूम रही है…………कोई इतनी आनन्दित है कि कहाँ जाना है काम क्या करना है ये भी भूल गयी ।

कोई बन्दनवार लगानें वाले के पास गयी ……..कोई खिलौनें वाली के पास गयी …………सब आनन्दित हैं……..।

इधर …………..

गुरु महाराज ! मैं बीस लाख गौ दान करूँगा ।

ऋषि शाण्डिल्य से बृजराज नें कहा ।

इसका कोई उत्तर नही दिया ऋषि नें ।

भगवन् ! मैं एक कोटी सुवर्ण मुद्राएं लुटाऊंगा ………….

पर बृजराज ! ये सब लूटेगा कौन ? पृथ्वी चारों ओर से सुवर्ण और मणि माणिक्य प्रदान कर रही है ……ब्रजपति ! गौ पहले से ही सबके पास हैं…….इतनें गौ को कौन रखेगा ?

हँसे ये कहते हुये ऋषि शाण्डिल्य ।

जाओ अब ! जाओ ! यमुना स्नान करके आओ फिर आगे की विधि बताऊंगा …….ऋषि शाण्डिल्य नें बृजराज से कहा ।

नन्द जी आनन्दित होकर जा रहे थे …….कि बाबरी सुनन्दा नवजात नीलमणी को ले आयी बाहर ही……..भैया ! गोद में तो ले लो !

जैसे ही बृजराज नें गोद में लिया नीलमणी को …………..

बृजराज के शरीर में रोमांच होनें लगा……….वो अपनें आपको भूल गए ……देहातीत हो गए ……उन्हें कुछ भान न रहा ………..

तभी पीछे से ग्वालों की मण्डली आयी……..जो हल्ला मचाती हुयी आयी थी……….”नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की” ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 10


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 10 )

!! लाला भयो है …!!



कालिन्दी के तट पर , श्रीधाम वृन्दावन में यह कथा चल रही है ।

आपको मैं विस्तार से सम्पूर्ण श्रीकृष्ण चरित्र सुनाऊंगा …….तात ! ये मेरा भी सौभाग्य है …….या कहूँ उन नन्दनन्दन की कृपा ……..कि मेरी वाणी उनके गुणों का गान कर रही है ………वो नन्द नन्दन …….जो शिवादि के ध्यान में भी नही आते ….उन मधुर मूर्ति नन्द नन्दन का गान ……..उनके चारु चरित का गान…….और कहाँ ? उद्धव आनन्दित हैं आज….उनका मुख मण्डल जो श्रीकृष्ण वियोग में कल तक कुम्हलाया हुआ था आज खिल गया है …..मानों, कमल खिल जाए ऐसे ।

ये स्वाभाविक भी तो है ………..नन्द नन्दन का आज जन्म होनें वाला है ………..बृजेन्द्र नन्दन आज गोकुल में अवतरित होंगें ………बधाई होगी ……….पूरा ब्रह्माण्ड आज आल्हादित है ………

तात विदुर जी ! आज का “चारु चरित” आल्हाद को भी पूर्ण आल्हादित कर दे ऐसा चरित है ……दिव्य अद्भुत आल्हादकारी ।

उद्धव आनन्दित होकर कुछ देर मौन हुए ……फिर बोलना शुरू ।

रात्रि के नौ बज रहे हैं…….बाहर मन्द मन्द बारिश हो रही है …….साथ में सुगन्धित वयार भी चल रही है ……..नन्दरानी नेत्रों को बन्दकर के लेटी हुयी हैं…..”मुखरा दाई” पैरों के तलवे में तैल मल रही है ।

सूतिका गृह का वातावरण भी आज चिन्मय लग रहा है………

रानी ! अंगों में कुछ ऐंठन हो रही है ? दाई नें यशोदा जी से पूछा ।

एक बार में यशोदा जी नें नही सुना ……क्यों की वो आनन्द सिन्धु में अवगाहन कर रही थीं……..उनकी समस्त वृत्तियों में आनन्द रस ही प्रवाहित हो रहा था ………….

रोहिणी भी ऑंखें बन्दकर बैठी थीं………नन्दा सुनन्दा ये नन्द जी की बहनें, कभी कभी उठ जातीं नही तो ये भी शान्त बैठी थीं ।

सुनन्द , उपनन्द, धरानन्द शतानन्द आदि की पत्नियाँ भी सूतिका गृह में उपस्थित थीं ………सुगन्धित धूम्र से वह कक्ष महक रहा था ……..पाँच दीये, घी के दीये उसमें सुगन्धित तैल भी डाला गया था ……जिसके कारण वह सूतिका गृह भी अब मन्दिर की सी ऊर्जा से भर गया था ।

क्या ऐसा लग रहा है कि वक्षःस्थल के बन्धन खुल रहे हैं ?

नन्दरानी ! क्या ऐसा लग रहा है कि वमन होगा …….या जी मिचला रहा है ? दाई यशोदा जी से फिर पूछ रही है ।

नही………..यशोदा जी नें संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।

यहाँ ? ………नाभि के नीचे भाग में तैल मलते हुए दाई नें पूछा ।

यहाँ भारीपन तो नही है ?

यशोदा जी नें फिर सिर “ना” में ही हिलाया ।

कुछ घबराहट सी तो नही लग रही ?

यशोदा जी नें झुँझलाकर कहा ……”कुछ नही हो रहा है मुझे तो ।”

तभी दाई की आँखों में चमक आगयी …………”ये ……ये रहा”…….तैल मलते हुए पेट में दाई बोल पड़ी थी ।

क्या हुआ ? क्या हुआ दाई ? सब जितनी ऊँघ रही थीं उठ गयीं ……सुनन्दा, नन्दा, रोहिणी अन्य यशोदा जी की जेठानियाँ ।

क्या हुआ दाई ? सबनें पूछा ।

नन्द रानी ! क्या कभी तुमनें जुड़ेला केला खाया था ?

यशोदा हँसी ……दाई ! ये जुड़ेला केला क्या होता है ?

दाई बोली ………केले की जो फली होती है ना …..कोई कोई फली एक साथ दो जुडी हुयी होती है ………उसे ही कहते हैं जुड़ेला केला ।

नही …मुझे प्रिय नही है केला …….यशोदा जी नें मना कर दिया ।

पर दाई ! हुआ क्या ? पेट में हल्के हाथों से तेल मलते हुए दाई बोल रही थी………”नन्द रानी भूल गयी होगी ……..जुड़ेला केला अवश्य खाया है ………..तभी तो इसके पेट में दो बच्चे हैं ” ।

ये सुनकर यशोदा जी खूब हँसीं …………..फिर बोलीं ……एक ही पर्याप्त है दाई ! दो ना चाहिए ।

पर दो हैं…………..तुम कहो तो मैं बता भी दूंगी …………फिर अपना सगुन देखकर …….आँखें बन्दकर के …..दाई ने कुछ बुदबुदाकर …..कहा ……एक छोरा है और एक छोरी है ।

हट्ट ! तू कुछ भी कहती है…सुनन्दा बोली । …….देख लेना छोरी ! मैने हजारों बच्चे जनवाये हैं………..मेरी वाणी मिथ्या नही होती ।

दाई की अपनी जिद्द थी ।

उद्धव ! क्या यशोदा जी नें दो शिशु को जन्म दिया था ?

विदुर जी नें प्रश्न किया ।

हाँ …..एक कन्या ……जिसे, वसुदेव जी मथुरा से गोकुल आये और ले गए ……और एक पुत्र को भी जन्म दिया यशोदा जी नें ……..वो नन्दनन्दन थे ……….वसुदेव नें अपनें बालक वसुदेवनन्दन को यहाँ छोड़ा ……तो .वो वसुदेवनन्दन नन्दनन्दन में समा गए थे…..वसुदेव नन्दन तो चुतुर्भुज थे …..पर ये नन्दनन्दन द्विभुज ………।

उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

तो क्या दो कृष्ण हैं ? विदुर जी नें आश्चर्य से पूछा ।

नही तात ! दो नही, तीन कृष्ण हैं………हँसे उद्धव ये कहते हुये ।

एक नन्द नन्दन …..जो यशोदा जी के कोख से प्रकटे …..दूसरे वसुदेव नन्दन जो कंस के कारागार में प्रकट हुए और गोकुल में आकर नन्दनन्दन में समा गए …….और एक हैं द्वारकेश …..द्वारिकाधीश …..।

उद्धव नें बताया ।

पर तीन क्यों ? वे तो एक ही हैं ना ?

विदुर जी नें फिर प्रश्न किया ।

जी तात ! एक ही हैं श्रीकृष्ण …..पर भाव जगत में ……अपनें अपनें भाव अनुसार भक्तों नें तीन कृष्ण को माना है …………

और तात ! आपको मैं क्या कहूँ ….आप सब समझते हैं…….श्री कृष्ण एक हैं …..और अनेक भी हैं………..भक्तों के भाव की उच्चता अनुसार वे बनते हैं..एक से अनेक बनते हैं फिर अनेक से एक हो जाते हैं ………ये विशुद्ध भाव जगत की बात है ।

आहा ! इन दिव्य भावों की बातें सुनकर गदगद् हो गए थे विदुर जी ………कुछ देर बाद बोले……कथा सुनाइये नन्दनन्दन के जन्म की ।

उद्धव आनंदातिरेक में डूबे – कथा सुनानें लगे थे ।

हाँ ……बचपन में एक बार, मेरे घर के पास केले का बगीचा था …..मैने वहाँ ऐसा एक केला खाया था ………कुछ देर बाद यशोदा जी बोलीं ।

बस इतना सुनते ही …..दाई नें सबकी ओर ऐसे देखा जैसे वो अन्तर्यामी हो ……..अपनी सर्वज्ञता पर उसे गर्व होनें लगा था ।

देखा ! मैने सही बात कही ना ………इसलिये कभी भी किसी कन्या को जुड़ेला केला नही खानें चाहिये । खायेगी तो जुड़वाँ बालक होगा ।

भाभी ! तुम बात न करो ज्यादा दाई से ………ये बोलती बहुत है ………..दाई ! तू अपना पंडितानीपना मत छांटा कर ……….सही सही बता कि अब देरी कितनी है बालक होनें में ।

सुनन्दा तेज़ है ……..बोल दी ।

ये छोरी तो बड़ी गुस्सेल है …………कितना गुस्सा करती है ……..अरे ! तुम लोग समझती नही हो मैं बातें इसलिये कर रही हूँ ताकि प्रसव के समय नन्दरानी को कोई कष्ट न हो ……और बालक सहज में हो जाए ।

दाई नें इतना कहा ….फिर तैल लेकर माथे में मलनें लगी यशोदा जी के ।

मुझे तो नींद आरही है ………..यशोदा जी नें फिर वही बात कही ।

सो जाओ फिर तुम …………दाई क्या बोले ।

पर ऋषि शाण्डिल्य की बात आज तक झूठी तो हुयी नही है ……..उन्होंने कहा है अष्टमी को, तो अष्टमी को ही बच्चा होना चाहिए……..दाई बोलती रही……पर सब सो गए …..क्यों की रात्रि के 11 बज चुके थे ।

दाई भी नन्दरानी के पैरों में ही नींद के कारण लुढ़क गयी थी ।

दरवाजा खुला है सूतिका गृह का ……..बाहर बारिश हो रही है……..हवा भी चल रही है……..किसी को पता नही कि अब क्या होनें वाला है ।

दिव्य वातावरण हो गया प्रकृति का…….नदियों का जल निर्मल हो उठा …….कमल खिल गए रात्रि में ही……….सूतिका गृह का एक एक अणु चिन्मय रस से भर गया था ………यशोदा जी तो सो गयी हैं…….सभी सो गए हैं……..धीरे धीरे मध्य रात्रि हुयी……12 बजे ठीक ……एकाएक दिव्य प्रकाश से सम्पूर्ण सूतिका गृह ही भर गया ………..

रोनें लगा बालक …………..

रोनें की आवाज सुनते ही सबसे पहले दाई उठी……उसकी बूढी आँखों में वो ताकत कहाँ कि उस तेज़ को देख सकती ……….

आँखों को मलती रही……..देखनें की कोशिश करती रही…….पर ।

उठी बाबरी की तरह ……..अरे ! उठो ! देखो लाला हो गया !

उठो ! वो सुनन्दा के ऊपर गिरते गिरते बची …………सुनन्दा उठी ……रोनें की आवाज सुनी ………पास में गयी सुनन्दा …….देखा ……ख़ुशी से नाच उठी ……….नन्दा ! उठ ! भाभी ! देखो ! तुंम्हारे लाला हुआ है ………यशोदा उठीं ………तो देखा एक नीलमणी सा बालक खेल रहा है……….किलकारीयाँ मार कर सबको जगा रहा है ।

ये सब देखते ही यशोदा जी के आनन्द का कोई ठिकाना नही रहा …….

सुनन्दा बाबरी सी हो गयी ………वो भागी बाहर ………….भैया नन्द जी के पास जाऊँगी ………जानें लगी……फिर वापस लौट आयी ……….काँस की थाल तो बजाऊं …………फिर काँस की थाल लेकर, बजाती हुयी वो भागी अपनें भैया नन्द जी के पास ।

भैया ! भैया !

रात के दो बज गए हैं……….बारिश हो रही है…..पर ये सुनन्दा दौड़ रही है गौशाला में …………..

बैठे हैं नन्दराय जी …….शान्त भाव से…….माला चल रही है उनकी ।

तभी…….भैया ! भैया ! जोर से चिल्लाती हुयी सुनन्दा पहुँची ।

क्या हुआ ? नन्द जी भी उठ गए …….सुनन्दा ! सब ठीक तो है ना ?

भैया ! पहले ये बताओ क्या दोगे ?

हाथ पकड़ कर नाचनें लगी सुनन्दा ………….नन्द जी नें कहा ….बहन ! जो मांगोगी दे देंगे …..पहले बता तो क्या हुआ ?

भैया ! लाला भयो है…………भैया ! आपके लाला भयो है ।

जैसे ही इतना सुना ….नन्द जी के नेत्रों से आनन्दाश्रु बह चले थे ।

वो बाबरी सुनन्दा नाचती हुयी गोकुल गाँव को जगा रही है …..”लाला भयो है”…….”लाला भयो है”…….और काँसे की थाल बजा रही है ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 9



!! नन्दरानी के प्रसव !!

विदुर जी साधारण नही हैं…….ये धर्मराज के अवतार हैं………

और उद्धव भी साधारण कहाँ हैं …परम ज्ञानी ….परम भक्त …..और बृहस्पति के परम शिष्य ………..

विचार कीजिये …….ऐसे महापुरुष भला प्रसूति गृह, किसी गर्भवती के प्रसव की चर्चा करेंगें ? पर ये प्रसव कोई साधारण प्रसव नही है ……….अद्भुत प्रसव हुआ है…….अजी ! धन्य है वो प्रसूतिका गृह जिसमें परब्रह्म का प्रथम रुदन हुआ ……और गर्भ से वो बाहर आया ।

ये बात निर्रथक है कि ब्रह्म गर्भ में नही आता ……या उसका जन्म नही होता ……..अरे ! भक्त की भावना जैसी हो …..भगवान वैसा ही करता है……सूगर, सिंह, घोडा इत्यादि ब्रह्म जब बन सकता है …….तो गर्भ में अगर आकर वो नौ महिनें बैठ गया …….तो उसकी भगवत्ता में कौन सा दाग लग जायेगा…….और ब्रह्म तो सर्वत्र है ही ……गर्भ में भी है ……ये बात पूर्व में उद्धव विदुर जी को बता ही चुके हैं ।

साधकों ! श्रीराधाचरितामृतम् लिखते हुए मैं जहाँ “मधुर रस” में डूबा हुआ था ……….पर जब से मेरा कन्हैया मुझ से ये श्रीकृष्णचरितामृतम् लिखवा रहा है……तब से पता नही क्यों मुझे “वात्सल्य रस” अद्भुत लगनें लगा है………मैया यशोदा अपनी मैया लगनें लगीं हैं …….उसके लाला को छोड़ कभी कभी तो मैया की पद रेणु को माथे से लगानें की इच्छा हो जाती है……………

मैं चिन्तन में खो जाता हूँ………मैया कैसी होंगीं …….तो मैया की जो छबि मेरे सामनें बनती है…………गोरी……..सुन्दर ……..लम्बी बेणी ……….माथे में लाल टीका ………माँग भरी हुयी……….बड़ी बड़ी आँखें …..जिन आँखों में बस वात्सल्य….स्नेह ………हाँ .थोड़ी मोटी हैं ।

कल की एक सत्य घटना ………मैं सायंकाल के समय यमुना के किनारे बैठा हुआ था……..और यही चिन्तन मेरा चल रहा था …….मैया यशोदा का चिन्तन………तभी मेरे सामनें ……एक सभ्य – सम्पन्न परिवार की महिला…..यमुना स्नान करनें को आयीं ………सुन्दर थीं……….करीब होंगीं 40 वर्ष के लगभग ……..

उनकी ओर मेरा ध्यान गया तब, जब मैने उनकी गोद में देखा एक सुन्दर लड्डू गोपाल थे……..जिनके एक हाथ में लड्डू था और दूसरा हाथ धरती में रखे हुए थे ……….बहुत सुन्दर छबि थी उनकी ।

मुझे समझते देर न लगी ……..कि उन महिला के कोई सन्तान नही थे ….और उन्होंने लड्डू गोपाल को ही अपना बालक मान लिया था ।

यह बात सही निकली ।

वो स्नान करनें लगीं…….स्नान करते हुए उन्होंने अपनें लड्डू गोपाल को भी पकड़ा हुआ था ……और उन्हें भी स्नान करा रही थीं ।

मेरे हाथ में एक गुलाब का फूल था ……….जब वो महिला यमुना स्नान करके बाहर आयीं ………तब मैं बड़े संकोचवश उनके पास गया ……पहले तो जाना अच्छा नही लग रहा था ……कि एक युवती के पास मैं कैसे जाऊँ ……और वो भींगें कपड़ों में और थीं ……..पर मैनें सोचा मैं तो उसके बालक को पुचकारनें जा रहा हूँ…………और मुझे पक्का पता है कि किसी भी माँ को ये बहुत अच्छा लगता है जब उसके बालक को कोई पुचकारता है और कुछ देता है …………मैं यही सोचते हुये गया ……और जाकर बिना कुछ बोले ……..लड्डू गोपाल के पास ही गुलाब का वह फूल मैनें रख दिया ………गदगद् हो गयीं थीं उनकी माँ ……..पर उनकी माँ को आनन्द तब और आया जब मैने लड्डू गोपाल के गालों को पकड़ते हुये कहा ……..क्यूट है माँ ! तुम्हारा गोपाल ।

मैं बता नही सकता …..उन माँ को कितनी ख़ुशी हुयी थी …..।

अब मेरे मन मष्तिष्क से वो गोपाल जी जा ही नही रहे ………..और हाँ ……आप मानों या न मानों ……पर मैने जब गुलाब का फूल वहाँ रख दिया था ……..तब गोपाल जी का विग्रह मुस्कुराया था ।

साधकों ! एक सामान्य माँ में इतना वात्सल्य होता है कि उस वात्सल्य के कारण विग्रह भी मुस्कुरानें लग जाती है……..फिर विचार करो ……..साक्षात् मैया यशोदा जी में कितना वात्सल्य होगा !

चलिये ………..कथा की धारा में बहते हैं………….गोकुल चलते हैं……

जहाँ पूर्णब्रह्म परमात्मा यशोदा जी के गर्भ से जन्म लेनें वाला है……

अजन्मा का जन्म ? जी ! यही तो है इस कथा की विशेषता ।

यशोदा ! तेरा पेट तो दीखता ही नही है ?

सात महिनें होनें को आगये …….अब तो पेट बड़ा होना चाहिये ।

आज “मुखरा दाई” आगयी थी……..बूढी है …….पर पूरे गोकुल में यही तो बड़ी है…………पान खाती रहती है…….पान तो ऐसे खाती है …..जैसे बकरी घास खाये ।

अच्छा ! एक बात बता यशोदा ! ….जी मिचलाता है ? पूछती है दाई ।

हाँ ……दाई ! मिचलाता तो है ………..यशोदा जी नें कहा ।

बड़ी खुश हो गयी दाई ……………चारों ओर देखनें लगी ………..आँखें मटकाते हुए ……और पान की पीक थूकते हुए ।

नन्दा सुनन्दा दोनों नन्द जी की बहन हैं …………..

अच्छा ! तुम पहले ही आगयीं ? नन्दा और सुनंदा को देखकर दाई बोली ……………

क्यों नही आसकती क्या ? मेरी भाभी के बच्चा होनें वाला है ………मैं क्यों न आऊँ ? सुंनदा भी बोल पड़ी ।

नौ लखा को हार मैं ही लुंगी …………देख बता देती हूँ ……दाई तुनक कर बोली ………..सुनन्दा कुछ बोलतीं ……..कि यशोदा जी ही बोल पडीं ………..ठीक है ……..तुम भी ले लेना नौ लखा का हार ।

अच्छा ! कुछ खानें की इच्छा होती है ? दाई फिर पूछ रही है ।

यशोदा जी कहती हैं……….मिट्टी , खपरैल के टुकड़े , खट्टा , ये सब बहुत खानें का मन करता है ……..।

दाई खुश है …………..बहुत खुश है ।

कुछ देर बैठकर चली जाती है दाई ……….और सब अपनें अपनें कामों में फिर लग जाते हैं ।


पगड़ी बाँधे नन्द जी के बड़े भाई सुनन्द आज सुबह ही सुबह ऋषि शाण्डिल्य की कुटिया में पहुँच गए थे ……………….

प्रणाम किया ……….फिर शान्त भाव से बैठ गए ।

“नन्द की बहु के छोरा होगा या छोरी ?” सुनन्द सहज हैं ........वैसे गोप जाति ही सहज होती है............सहज और सरल ।

ऋषि शाण्डिल्य नें जब ये प्रश्न सुना तो हँसे …………

पर यजमान नें पूछा है …..तो पुरोहित का कर्तव्य है बताना ।

ऊँगली में कुछ गिनती की……ग्रह नक्षत्र सब बिठाए ……….

फिर हँसते हुए बोले ……….छोरा !

सुनन्द के आनन्द का ठिकाना नही ………….

कब ? दूसरा प्रश्न फिर किया ।

अष्टमी को ………..यानि कल ……….ऋषि नें ये भी बता दिया ।

सुनन्द अपनी प्रसन्नता छुपाना चाह रहे हैं…………….

हे गुरुदेव ! अष्टमी तो कल है ……..अष्टमी में कितनें बजे ?

ऋषि शाण्डिल्य नें हँसते कहा….अब मैं इससे ज्यादा नही बताऊंगा ।

गोप सुनन्द नें जिद्द भी नही की ………प्रणाम करके ……….108 सुवर्ण के मोहर ऋषि के चरणों में रखते हुये चले गए ।

सप्तमी बीत गयी…..नाचते गाते….अब आयी अष्टमी …..भाद्र पद कृष्ण पक्ष अष्टमी ।

यशोदा जी को सुला दिया है ………पर ये मानती कहाँ हैं ।

रोहिणी नें जबरदस्ती की ……………..जीजी ! आज आप कोई काम नही करोगी ……..हम सब हैं ना !

सुनन्दा नन्दा ये दोनों भी बैठ गयीं …..भाभी ! अब आप आराम करो ………..हम सब हैं ना ! सुनन्द की पत्नियाँ आगयीं …..”बहू यशोदा ! तू आराम कर …..हम सब तो हैं ना ।

यशोदा जी लेटी हुयी हैं …………

अरे ! अभी तक तुम लोगों नें सूतिका गृह तैयार नही किया ?

आगयीं लाठी टेकते हुए सफेद बालों वाली दाई ……….पान मुँह में लगा हुआ है …………….सबको चिल्लाती हुयी आयी ।

तुम लोग बस बातें ही बनाती रहती हो ………..

चलो ! सूतिका गृह तैयार करो …………खेऱ , पीपल, कपूर इन सबका धुँआ दो उस में …………ताकि वो शुद्ध हो जाए …..और हाँ ………सरसों के दानें बिखेर देना उसमें ……..भूत प्रेत की बाधा नही लगेगी ………….पान की पीक थूक दी जगह देखकर ।

अच्छा ! अब बता यशोदा ! तू ठीक है ना ?

हाँ दाई ! मैं ठीक हूँ …………यशोदा जी नें मुस्कुराते हुए कहा ।

ठीक है तू ? तुझे दर्द नही हो रहा .? दाई को फिर बेकार की चिन्ता लग गयी ।

अरी सुनो ! मैं तो तुम लोगों का नाम भी भूल जाती हूँ…….सुनन्दा ! तू आ ………बेटा ! देख …..सरसों का तेल, तिल का तेल, लौंग का तेल , नारियल का तेल ये सब मिलाकर गर्म कर ………फिर उसे मेरे पास में ले आ …………..सुनन्दा – ठीक है दाई ……कहती हुयी जैसे जानें लगी ……..अरे ! बात तो सुन ले ……..बिना बात समझे भग रही है ……सुन पहले …….और तुम सब भी सुनो…….दाई अपनी सुनानें लगी –

देखो ! ये सब तेल है ना ……इसकी मालिश हल्के हाथों करनें से प्रसव की पीड़ा गर्भवती को होती नही है…..और बालक गर्भ से आसानी से निकल आता है …….समझी ? सुनन्दा को दाई बोली ।

मुझे क्या कह रही हो दाई ! मेरे तो चार छोरा हैं …………..

और ये सब करनें की आवश्यकता नही है……मेरी बहन नन्दा तो मथुरा के मेला में गयी थी वही बच्चा हो गया…और स्वयं ही लेकर आगयी ।

मेरा एक बालक तो खेत में हुआ है ………गयी थी गौ को घास काटनें दर्द उठा और बालक हो गया …….तुम बेकार में सुबह से कीच कीच लगा रखी हो …….सुनन्दा नें भी सुना दिया ।

अब क्या बताऊँ यशोदा ! ये आज कल की छोरियाँ हम बूढ़े बड़ेन की बातें तो सुनती ही नही हैं…………….

सुन छोरी ! यशोदा रानी हैं………..कोमल हैं……..कोई तू जैसी होती तो कह देती कि चक्की चलाओ……..दौड़ों ……..आँगन लीपो ……..पर ये यशुमति हैं………बृजरानी हैं……अब इनको कहूँ कि आँगन लीपो ! चक्की चलाओ ! मैं तो समझ के कह रही हूँ …..तुझे मेरी बात बुरी लगे तो दो रोटी ज्यादा खाय लीयो ………

ये कहते हुए फिर पान की पीक थूकी दाई नें ……..सुनन्दा हँसती हुयी तेल लेनें चली गयी……..वातावरण बड़ा ही आनन्दपूर्ण हो गया है ।

समय बीतता ही जा रहा है । सुबह से अब दोपहर भी बीत गयी …..शाम होनें का आया है ।

अरे ! सुनन्द जी ! समय क्या बताया है ऋषि शाण्डिल्य नें ?

दाई को उत्तर दिया सुनन्द नें …………..समय नही बताया, बस अष्टमी बोले थे ………।

शाम के छ तो बज गए हैं….अब ? दाई नें देखा छ बज गए थे ।

प्रसूतिका गृह में यशोदा जी लेट गयी हैं …………सुन – सुनन्द की बहू ! कुछ कपड़े भी रख देना …….साफ़ सुथरे होनें चाहिये कपड़े ।

और चार पाँच कलसे में पानी भरवा के रख देना ……आवश्यकता पड़ेगी …….दाई तेज़ है ……….सब कुछ सम्भाल रही है ।

यशोदा ! अब बता ……पेट में पीड़ा हो रही है ? पूछा दाई नें ।

नही…….दाई ! कुछ नही हो रहा ………मुझे तो नींद आरही है …..यशोदा जी नें ये और कह दिया ।

हँसी दाई…………नींद आरही है ? दर्द नही उठ रहा ?

नही…….कोई दर्द नही उठ रहा …………बस नींद आरही है …..यशोदा जी नें फिर कहा ।

दाई के भी समझ में नही आरहा कि ये हो क्या रहा है ।

हल्की हल्की बारिश शुरू हो गयी थी……..शीतल पवन बहनें लगे थे ।

रात्रि के आठ बज गए हैं………….दाई बैठी है यशोदा जी के पास ……..तलवों में तेल मल रही है …………..

जा नन्द राय को कह दे ………..

……वो परेशान हो रहे होंगें कि बालक हुआ या नही ?

सुनन्दा बाहर आयी ……चिल्लाई …….भैया ! अभी कुछ नही हुआ ।

नन्द जी के साथ उनके भाई भी थे ….उनके मित्र भी थे …………..

सब मन में सोचनें लगे ……..अष्टमी तो आज ही है ………..फिर अभी तक यशोदा को बालक क्यों नही हुआ !

नन्द जी नें कहा ……….मैं गौशाला में जाकर बैठता हूँ ……….आप लोग विश्राम करो ……….जब बालक होगा सबको सूचना मिल ही जायेगी ।

थके हारे सब थे ………सब अपनें अपनें घरों में चले गए ………

नन्द जी गौशाला में जाकर बैठ गए ………..आज उनका ध्यान नही लग रहा …………..बहुत कोशिश की ….पर नही लग रहा ………उन्होंने माला निकाली ……और जपना शुरू कर दिया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 8


(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 8 )

!! दिव्य सीमन्तन-संस्कार !!


ये भी संस्कार होता है ……”सीमन्तन – संस्कार”…..जब गर्भ का बालक 6 महिनें का होता है ।

पति , पत्नी को उसके गर्भस्थ शिशु की रक्षा का वचन देता है……..इतना ही नही…….अपनी पत्नी से वो पूछता है कि ……तुम्हे जो चाहिये माँगों मैं दूँगा …….क्यों की तुम मेरे वंश को जीवन प्रदान कर रही हो ।

भरे समाज में पत्नी जो मांगती है ……..वो पति देता है…….देनें का वचन देता है………..विदुर जी को उद्धव श्रीकृष्ण चरित्र सुना रहे हैं ।

सीमन्तन संस्कार के विषय में विदुर जैसे नीतिज्ञ को कुछ बतानें की आवश्यकता नही थी………पर ये संस्कार भी तो किसका हो रहा है …….ब्रह्म की माँ का ………उस यशोदा का………जिसके गर्भ में महाभगवती लक्ष्मी का पति आरहा है……….आदिसृष्टिकर्ता ब्रह्मा के जो पिता हैं……चराचर जगत का जो स्वामी है……….उसको अपनें गर्भ में धारण करके चल रही हैं ये यशोदा जी…….आहा ! विदुर जी सुनकर भाव में भर जाते हैं ।

क्या ब्रह्म भी गर्भ में आता है ?

विदुर जी के मन में ये प्रश्न सहज उठा ।

तात ! क्या गर्भ में ब्रह्म नही हैं ?

उद्धव नें बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया ।

साधू साधू उद्धव !

विदुर जी नें उद्धव को अपनें हृदय से लगा लिया…….तुम्हे क्या दूँ उद्धव ! तुम अमृत का पान करा रहे हो मुझे …..पर इस अमृत के बदले देनें के लिये मेरे पास कुछ भी नही हैं………..

तात ! आपका आशीर्वाद मेरे लिये पर्याप्त है…….उद्धव नें आनन्दित होकर विदुर जी के चरणों में प्रणाम किया…..और आगे की कथा सुनानें लगे थे ।

कालिन्दी के तट पर आज सीमन्तन संस्कार होगा ……….नन्द जी और यशोदा जी दोनों बैठेंगे …………यहाँ बैठेगें …………मध्य में आसन लगाओ उनका ……….ऋषि शाण्डिल्य इतनें आनन्दित हैं कि स्वयं व्यवस्था देखनें लग गए …………।

इस तरफ ब्राह्मण बैठेगें ……………और यहाँ यज्ञ वेदी ………….।

कदली के खम्भे चारों और लगाओ……….ताम्र के कलशों में जल भरकर चारों दिशाओं में रखो………बन्दन वार लगाओ ……..और रंग विरंगी चित्रकारी यहाँ पर काढो ।

भगवन् ! आप बैठ जाइए……..नन्दराय पधारेंगे और आपको यहाँ खड़ा देखेंगें तो हम लोगों को डाँट पड़ेगी………गुरुदेव स्वयं खड़े हैं और तुम लोगों से कुछ नही होता……..नन्द जी के एक प्रमुख ग्वाले नें ऋषि शाण्डिल्य से प्रार्थना की ।

आप बैठ जाइए मामा जी !

मामा जी ? ऋषि शाण्डिल्य चौंके ………..मुझे मामा कहनें वाला कौन है …….जब देखा तो मनसुख खड़ा था ……ये किसी को कुछ भी बोल सकता है…………….और वैसे भी मनसुख की माता पौर्णमासी को अपनी बड़ी बहन की तरह आदर ऋषि शाण्डिल्य देते ही हैं ।

मैं हूँ ना ? मनसुख को देखकर कितना भी गम्भीर व्यक्ति क्यों न हो हँस ही देगा .....

पर तू माखन खा जाएगा ……दूध पी जाएगा …….ये भी नही सोचेगा कि भगवान को भोग लगाना है ………ऋषि शाण्डिल्य हँसते हुए बोले ।

नही…….अब नही खाऊंगा माखन ………अब खानें की इच्छा ही नही होती ………अब तो मेरा सखा आएगा तब खाऊंगा ।

मनसुख नें सच में दो दिन से माखन खाना छोड़ दिया है ।

अच्छा ! चलो ! सब तैयारी हो गयी ? ऋषि शाण्डिल्य नें गोपों से और अपनें ब्राह्मणों से पूछा ।

हाँ ………सब तैयारी हो गयी ………सब नें एक स्वर में कहा ।

चारों और ध्वजा पताके भी लग गए थे ……………..

अब – अपनें पुरोहित के आसन पर ऋषि शाण्डिल्य विराजमान हुये और प्रसन्न चित्त से चारों ओर देख रहे थे ।

जीजी ! चलो…….ऋषि शाण्डिल्य नें बुलवाया है आप दोनों को ……. मुहूर्त भी बीता जा रहा है ।

रोहिणी नें आकर ही यशोदा जी को कहा था…….उनकी गोद में उनका बालक दाऊ था ।

दाऊ को देखते ही यशोदा जी दुःखी हो जाती हैं……….आठ महिनें होनें को आये इस बालक के जन्मे ……पर ये बालक बोलता ही नही है ……कुछ नही तो माँ, मैया, बाबा, अरे ! बालक कुछ तो बोलता है ……हे भगवान ! कब बोलेगा ये ?

जीजी ! बस आकाश की ओर ही देखता रहता है…………..चलो ! कुछ बोले नही …….पर कमसे कम रोना तो चाहिये …..ये तो रोता भी नही है ……..हाँ खिलखिलाता है, जब जीजी ! आप इसे अपनी गोद में लेती हो……..और दूसरा मनसुख जब इसे “दाऊ दादा” कहता है ।

बाकी समय में तो बस ऊपर की ओर ही देखता रहता है ………….

दे, मुझे दे रोहिणी ! मैं लेती हूँ तेरे लाला को …………और यशोदा जी नें जैसे ही अपनी गोद में लिया ………..खिलखिलाए दाऊ ।

चलो ! ऋषि शाण्डिल्य नें बुलवाया है …….कह रहे थे कि मुहूर्त बीता जा रहा है…….नन्द जी सज धज कर तैयार होकर आगये थे ।

यशोदा जी को देखा तो बोले ……क्या बात है ! तुम्हारे मुखारविन्द से तो जब देखो तब प्रकाश ही निकलता रहता है……..दिव्य लग रही हो यशोदा ! तुम तो ।

अजी ! आपको भी ना …….इस बुढ़ापे में भी रसिकता सूझ रही है….

यशोदा जी शरमाते हुए कहती हैं, अपनें पति नन्द जी से कहती हैं ।

अब चलिये …….वहाँ देरी हो रही है !

रोहिणी के साथ अन्य यशोदा जी की जेठानियाँ भी आगयी थीं……………..

भाभी ! दूर से ही चिल्लाते हुए आयीं ये……….

लो ! नन्दा जीजी ! और सुनन्दा जीजी भी आगयीं ।

भैया !

पहले तो अपनें भैया नन्द जी के गले लगीं………..फिर भाभी के ………….अब यहीं रहना बस दो तीन महिनें की बात है ……….नन्द जी नें अपनी बहनों से कहा ……..भैया ! अब तो नौ लखा को हार लेकर ही जाऊँगी……………..ये कहते हुए दोनों बहनें हँसी ………नन्द जी और यशोदा जी भी खूब हँसे ।

अब चलिये ! वहाँ देरी हो रही है……..एक ग्वाले नें आकर फिर कहा ……तो सब लोग सज धज कर यमुना के किनारे चल दिए थे ।

वैदिक मन्त्रों से पूरा मण्डप गूँज उठा था ………पवित्र धूम्र से महक उठा था वो यमुना का पुलिन ……..महर्षि नें स्वयं स्वस्ति – पाठ किया ।

सविधि समस्त देवताओं का पूजन कराया……..उस वेला में माता पौर्णमासी भी आयीं ……..और नाचनें लगीं ……….मनसुख ये सब देखकर बहुत प्रसन्न था …….सभी ग्वाले आज आनन्द की अतिरेकता में डूबे हुए थे……..गोपियाँ सुन्दर सुन्दर गीत गा रही थीं ।

मणिमाणिक्य से भरे थाल नन्द जी नें मंगवाए …….समस्त ब्राह्मणों को दान दिया ……..गौ दान ……..गौ के सींग को सुवर्ण में मण कर खुर को चाँदी से मण कर ब्राह्मणों को हजारों की संख्या में गौ दान किया ।

ब्राह्मण मना कर रहे हैं………हे नन्दराय ! आपनें बहुत दिया है……….बहुत हो गया ……पर नन्द जी मानते नही हैं…………देते जा जा रहे हैं ……..दान, महामना बनकर कर रहे हैं ।

तभी ……….नन्द जी नें जब ऋषि शाण्डिल्य के चरण छुये ….तब एक प्रश्न किया …………हे भगवन् ! पुत्र या पुत्री ?

नेत्र बन्द हो गए ऋषि शाण्डिल्य के ये प्रश्न सुनते ही ………….

कुछ देर में ऋषि की वाणी गूँजी ……..

“शक्ति और शक्तिमान अभिन्न होते हैं……परात्पर परमपुरुष अपनी शक्ति से कभी अलग रह ही नही सकता”……….ऐसी रहस्य पूर्ण बातें नन्द जी कहाँ समझते ………….हाँ उस समय माता पौर्णमासी हँसी थीं ऋषि की ये बातें सुनकर………हाँ, मनसुख भी ताली बजाकर हँसा था ।

उसी समय बरसानें के मुखिया बृषभान जी पधारे………..

नंदजी नें उठकर उनका स्वागत किया…….दोनों गले मिले ।

उनकी पत्नी कीर्तिरानी यशोदा जी से मिलीं ……….।

हे नन्द राय ! अब आप सीमन्तन संस्कार के अनुसार अपनी अर्धांगिनी यशोदा से पूछिये कि उनकी कोई कामना है ?

यशोदा जी की ओर नन्द जी नें देखा……….

यशोदा जी शरमा गयीं…….बगल में कीर्ति रानी बैठी हैं………..

उन्होंने कहा …..नंदरानी ! आप की जो इच्छा हो बोलिये ।

हँसी यशोदा जी ……..और कीर्तिरानी के कान में कहा ……….क्या इच्छा बताऊँ ? मेरी तो इच्छा होती है ……कि मिट्टी खाऊँ ……..मेरी तो इच्छा होती है …..जब सहस्र गौएँ चरनें के लिये जाती हैं….और साँझ को लौटकर आती हैं……तब मैं उनका दर्शन करूँ……और उनके चरणों में अपना मस्तक रख दूँ………

माखन जब निकला होता है……तब मेरे मन में आता है कि ……..इस माखन को चुरा कर खा जाऊँ …………..ये कहते हुए यशोदा जी बहुत हँस रही थीं………….कभी कभी मेरी इच्छा होती है ……..मटकी जो खाली है उसे फोड़ दूँ ………..नाचूँ ……..उछलूँ …….गाऊँ ………

यशोदा जी कीर्तिरानी के कान में ये सब कह रही थीं ……और खूब हँस रही थीं ………….सब देख रहे हैं………और इन माताओं की प्रसन्नता का सब सुख लुट रहे हैं ।

मैया ! और जगह मैया के गुण लाला में आवें……..पर यहाँ तो लाला के गुण तोमें आ रहे हैं…….तेरे पेट में माखन चोर आय गयो है ।

मनसुख ये कहते हुए खूब हँसा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 7


“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 7

देवताओं द्वारा गर्भस्तुति !


आइये देवराज ! आप कैसे पधारे ?

ओह ! गणेश जी ! मेरा परमसौभाग्य की आपका आगमन हुआ ।

मुझे तो विश्चास ही नही हो रहा…..आप कार्तिकेय जी हैं ना !

मैं तो चकित हूँ आपके चार मुख ? आप ब्रह्मा जी लग रहे हैं ……..

हे भूत भावन ! आप नें भी हमें कृतार्थ किया ! धन्य हो गए हम ।

यशोदा जी गदगद् हैं……समस्त देवी देवताओं से उनका आँगन भर गया है………..इतना ही नही……….

ओह !

आराध्य मेरे…….आप भी पधारे ! ……..चतुर्भुज श्री नारायण भगवान को देखकर यशोदा जी तो गदगद् हो गयीं ।

पर ये क्या ………यशोदा जी का गर्भ तेज़ से भर गया है ……ऐसा लग रहा है कि – चन्द्रमा ही मानों यशोदा जी के गर्भ में प्रवेश कर गए हैं ।

यशोदा जी कुछ बोलतीं उससे पहले ही देवताओं नें सस्वर स्तुति प्रारम्भ कर दी थी……..बेचारी भोली यशोदा जी को क्या समझ आये वो वैदिक भाषा की स्तुति ………..देवता, महादेव, भगवान सब स्तुति कर रहे हैं…..सबके हाथों में पुष्प हैं…..और वे सब प्रसन्न चित्त से दिव्य शब्दों का उच्चारण करते हुये पुष्प यशोदा जी के गर्भ में चढ़ा रहे थे ।

यशोदा जी के कुछ समझ नही आरहा ।

उद्धव विदुर जी को ये प्रसंग सुनाते हुये गदगद् भाव से भर गए ……..

हे तात विदुर जी ! वो जो स्तुति की थी देवों नें वो “गर्भ की स्तुति” थी……गर्भ ? हँसे स्वयं भाव में उद्धव ……फिर बोले ….गर्भ वास का दुःख , कष्ट अपार है………..और गर्भ वास को आध्यात्मिक व्यक्तियों नें निन्दनीय भी बताया है………..पर धन्य है ये यशोदा जी का गर्भ……जिसमें आज स्वयं अजन्मा जन्म ले रहे हैं ।

हे प्रभु ! आप सत्य स्वरूप हैं……….देवों नें स्तुति शुरू कर दी थी ।

आप सत्य व्रत हैं……आप सत्य संकल्प हैं…..आप ही सत्य हैं…. आपको हम सबका बारम्बार नमस्कार है…देवताओं नें पुष्प चढ़ाये ……वे पुष्प यशोदा जी के उदर में आकर गिरे ……यशोदा जी कुछ समझ नही पा रही हैं………वो कुछ घबड़ाई हुयी सी हैं ।

हे प्रभु ! आप से ही सृष्टि होती है ……पालन आपसे ही होता है……और सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करनें वाले भी आप ही हो ………..आप समस्त के आधार हो……आपके चरणों में हम समस्त देवों का बारम्बार नमन है ।

देवताओं नें फिर पुष्प छोड़े यशोदा जी के गर्भ में ……..यशोदा जी फिर घबड़ाई …………..

हे आदिपुरुष ! आपसे ही ब्रह्मा की उतपत्ति होती है…..आपसे ही उत्पन्न नारायण सृष्टि का पालन करते हैं……और संहार करनें वाले रूद्र भी आपसे ही शक्ति प्राप्त करके संहार करते हैं………..ऐसे समस्त आदि शक्तियों के भी मूल, आपके चरणों में हमारा प्रणाम है ……….

देवताओं नें फिर पुष्प बरसाए ………..यशोदा जी के कुछ समझ में नही आरहा …….कि ये हो क्या रहा है ?

पर मंगल हो रहा है……….सब उत्सवपूर्ण हो रहा है……..इतना तो समझ ही रही हैं ये भोली यशोदा जी ।

चारों ओर पुष्प ही पुष्प …….सुगन्ध से भर गया है यशोमति का वो महल …………आहा ! दिव्य अद्भुत छटा बन गयी है नन्दगेहनी के महल की ……।

यशोदा ! उठो ! देखो ! ब्रह्ममुहूर्त का समय भी बीता जा रहा है ।

यशोदा जी को पौर्णमासी नें आकर जगा दिया था ।

ओह ! यशोदा जी घबड़ाई हुयी उठीं………….चारों ओर देखा ।

ये पुष्प ? ये पुष्प कहाँ से आये ?

पौर्णमासी नें यशोदा जी से पूछा ।

यशोदा जी कुछ कहतीं उससे पहले ही पौर्णमासी नें कह दिया …….ये पुष्प पृथ्वी के नही हैं….ये पुष्प किसी दिव्य लोक के हैं………..ये दिव्य सुगन्ध ! ……..पौर्णमासी आनन्दित हो उठीं ……….हे बृजेन्द्र गेहनी ! तुमको क्या बताऊँ मैं …….यमुना के किनारे नन्द राय बैठे हैं………उनको देखकर तो मुझे ऐसा लगा कि वो अब मनुष्य नही है देवता बन गए हैं ।

क्या !

यशोदा जी नें जैसे ही ये सुना “नन्द जी देवता बन गए”……..घबड़ाई यशोदा जी …….दौड़ीं ……यमुना जी के किनारे …………….

अरे ! यशोदा ! तू कहाँ भग रही है अब …….मेरे कहनें का वो मतलब नही था ….पौर्णमासी चिल्लाती रहीं………..पर यशोदा जी घबड़ाई हुयी हैं………..उन्हें डर लग गया कि कहीं मेरे पति चार मुख वाले ब्रह्मा न बन जाएँ ………..ये कहते हुये उद्धव हँसे ……….विदुर जी की भी सहज में हँसी छूट गयी ……….फिर ? आगे क्या हुआ उद्धव ?

विदुर जी नें पूछा ………तो उद्धव उन्हें आगे की बात बतानें लगे ।



सुनिये ! सुनिये !

यमुना के किनारे नन्द जी जहाँ बैठे थे वहीं पहुँच गयीं यशोदा जी ।

ध्यान में मग्न हैं नन्द जी …….उनका मुख मण्डल अत्यन्त तेजपूर्ण हो गया है …….परम शान्त हैं इस समय नन्द जी ।

यशोदा जी नें झट् से जाकर उनका हाथ पकड़ लिया ………..

अरे ! क्या हुआ ? बड़ी घबड़ाई हुयी हो ?

नन्द जी नें मुस्कुराते हुए यशोदा जी से पूछा ।

अजी ! देखो ना ! मेरा मन आजकल बहुत घबडा रहा है………..मैने अभी एक सपना देखा ……….कि बड़े बड़े देवता भगवान सब मेरे आँगन में खड़े हैं…….और हाथ जोड़कर कुछ बोल रहे हैं……..फिर मेरे पेट में फूल चढ़ा रहे हैं………और इसे मैं मात्र सपना कैसे कहूँ ………क्यों की पुष्प अभी भी हैं मेरे महल में ।

मैं तो घबडा गयी ……………

पर मैया ! आप घबड़ाई क्यों ?

मनसुख आगया था ……..वो अपनी हँसी रोक नही पाया …….हँसते हुये पूछ लिया ।

क्यों की मनसुख लाला ! ………देवता भी चार मुख के …..पाँच मुख के …..छ मुख के ……….और वो लोग कुछ बुदबुदा भी रहे थे ……मेरी तो कुछ समझ में भी नही आया ।

और फिर ऊपर से तुम्हारी पौर्णमासी माता आगयीं उन्होंने कह दिया कि ……”‘तुम्हारा पति तो देवता बन गया”……..मैं और डर गयी ……कि ले , मेरे पति अगर देवता बन गए तो मेरा क्या होगा ?

मैया ! तू भी देवी बन जाना ……..हँसा ये कहते हुए मनसुख ।

“मेरी ओर से ये कमल पुष्प “बृजेन्द्र गेहनी” के गर्भस्थ शिशु के लिये”

ध्यान से उठ गए थे ऋषि शाण्डिल्य उन्होंने भी ध्यान में कई चमत्कार देखे थे …….तो यमुना से एक कमल पुष्प तोड़ लाये ………

चढ़ा दिया, मुस्कुराये, बड़े प्रेम से नमन किया यशोदा के गर्भ को ।

पर यशोदा जी के कुछ समझ में नही आरहा कि ये हो क्या रहा है !

नन्द जी आजकल आनन्द में ही डूबे रहते हैं……..अकारण आनन्द छाया रहता है नन्द जी के हृदय में ।

पर यशोदा जी ? ये तो मैया है कन्हैया की ……बाबरी मैया ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 6

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 6 )

!! नन्द यशोदा का दिव्य स्वप्न !!


यशोदा !

नन्द राय अर्ध रात्रि को उठ गए थे ……….

यशोदा !

उठकर, सोती हुयीं यशोदा जी को बड़े प्रेम से उन्होंने देखा था ।

अरे ! क्या हुआ ?

यशोदा जी भी उठ गयीं ………..प्रसन्नता दोनों के मुखमण्डल से झलक रही थी………पास – घी का दीया टिमटिमा रहा है ……उसी के प्रकाश में यशोदा जी का मुख दमक रहा था ।

ओह ! क्या सपना था यशोदा ! नन्द जी बैठ गए थे …..यशोदा को अभी भी देख रहे थे ……………

आप क्या देख रहे हैं ? हँसी थीं यशोदा जी ।

कुछ नही…….सपना भी भला कहीं सच होता है । नन्द जी नें स्वयं ही कह दिया ।

पर स्वप्न के भी फल होते हैं……..ऐसा हमारी “पौर्णमासी” कहती हैं ।

यशोदा जी नें कहा ।

पर मैने जैसा सपना देखा …….वो तो असम्भव ही है यशोदा !

हँसे नन्द जी ……………फिर उठकर जल पीया ।

पर आपनें क्या सपना देखा ? यशोदा जी नें जिद्द की ।

अब भला बताओ ……भगवान नारायण क्या मेरे पुत्र बनकर आयेंगें ?

मैं भी ना ? नन्द जी इतना कहकर फिर इधर उधर देखनें लगे ।

चलो सो जा ओ …………अर्ध रात्रि है अभी तो ।

पर मैने भी एक सपना देखा है……………और मैने भी कुछ कुछ ऐसा ही देखा है कि मेरे आँगन में भगवान शंकर पधारे ……..वे अकेले नही थे पार्वती जी भी थीं……….फिर आकाश से देवियां उतरीं पर बृज भूमि में उतरते ही वे सब गोपियां हो गयीं थीं ।

हमारा ये गोकुल देवी देवताओं से भर गया है……….मैं सबसे पूछ रही हूँ ……कि आप लोग क्यों आये हो यहाँ …….तो सब एक स्वर में बोल रहे हैं…….”मैया ! अपनें लाला को दर्शन करा”………..मैं मना कर देती हूँ …….पर वे सब मानते नही हैं………….चारों और बिखेर दिया है मोती ……गोकुल की अवनी में फैला दिया है मणि माणिक्य ………….चारों ओर बस जयजयकार हो रहे हैं……….मैं डर जाती हूँ……..फिर पालनें में जाती हूँ ……तो पालनें में एक नन्हा सा शिशु खेल रहा है……..उसे देखते ही मैं आनन्दित हो उठती हूँ …………..फिर डर जाती हूँ……….इतनें बड़े बड़े देवता इस सुकुमार शिशु को देखेंगें तो उनकी आँखों के ताप से ही ये तो झुलस जायेगा ……..मैं उसे छुपा लेती हूँ……..अपनें आँचल में छुपा लेती हूँ…………पर बाहर तो हजारों आँखें देखनें के लिये लालायित हैं………तभी मेरी नींद खुल जाती है ।

यशोदा जी नें बताया …….फिर कहा …..आपनें क्या देखा सपना ?

यशोदा जी का हाथ पकड़ा नन्द जी नें ………..फिर कहा ……….

आहा ! मेरा सपना तो अद्भुत था …………

पता है यशोदा ! हमारे जो आराध्य हैं ना भगवान नारायण …….बिल्कुल वैसा ही रूप उस बालक का ……….वो बालक मुस्कुरा रहा था ………..और मैने देखा वो तुम्हारी गोद में था ……….तुम आनंदातिरेक में आँखें बन्दकर के बैठी थीं ………….वो भींगा हुआ था…..तुम्हारे स्तन से दूध की धारा बह रही थी……एक स्तन को उस नन्हे शिशु नें अपनें मुख में ले लिया …….दूसरे स्तन को उसनें मात्र पकड़ा था ….. …..वो मुख हटाकर कभी किलकारी मार कर भी हँस रहा था …………नील मणि सा वो बालक ……..उसके नेत्र चंचल थे …उसनें मेरी ओर भी देखा …….फिर हँसता हुआ दूध पीनें लगा ।

हे यशोदा ! मैं कुछ समझ नही पा रहा था कि ये हो क्या रहा है …….

तभी मेरे सामनें साक्षात् श्री नारायण भगवान प्रकट हो गए ………मैने उनके चरणों में प्रणाम किया ……..तो उनकी वाणी मेरे हृदयाकाश में गूँजी ………….हे नन्द राय ! ये अनादि सिद्ध तुम्हारा ही पुत्र है……..तुम्हारा संकल्प अनुष्ठान पूरा हुआ ………..बस इतना ही मैने सुना ……..फिर भगवान नारायण भी अंतर्ध्यान हो गए ।

मैने फिर देखा तुम्हारी गोद में ……..वो बालक अभी भी खेल रहा था ……..तुम्हे कुछ सुध नही थी…………तुम आनन्द में पूरी तरह से भींगी हुयी थीं………मैं तुम्हारे पास आया ………..बड़े निकट से मैं उस शिशु को देखनें लगा ……….वो कभी मुझें देखता कभी तुम्हे …….फिर दूध पीनें लग जाता …………….उसके देह से दिव्य प्रकाश निकल रहा था ……उनकी घुँघराली अलकें …….मेरा मन जबरन मोह रहीं थीं ।

हे यशुमति ! मैं क्या कहूँ ………मैं उस बालक को स्पर्श करना चाह रहा था ………कि मेरी नींद खुल गयी ……..पर मैं सच कहता हूँ …..नींद खुल तो गयी थी किन्तु अभी भी मैं समझ नही पा रहा हूँ कि जो मैने देखा वो सपना था या जाग्रत……..मैं उसी सपनें में खो ना चाहता हूँ ।

.क्या हमारे पुत्र होगा ? तुम्हे क्या लगता है यशोदा !

कुछ देर चुप रहनें के बाद नन्द जी नें…..यशोदा जी से सहज पूछा ।

हाँ , होगा……मुझे अब विश्वास हो रहा है कि हमारे पुत्र होगा ।

नन्द जी नें यशोदा जी को ये सुनते ही अपनें हृदय से लगा लिया था ।

तभी, हे तात विदुर जी ! नन्द जी के हृदय से वो दिव्य चैतन्य प्रकट हुआ और यशोदा जी के हृदय में जाकर विराजमान हो गया था ।

शेष चर्चा कल

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 5


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 5 )

!! दाऊ दादा का जन्म !!


हे अनन्त ! हे भगवान शेष ! हे संकर्षण…….आपकी जय हो !

मध्यान्ह की वेला थी……..एकाएक आकाश से पुष्प बरसनें लगे …..चारों ओर मंगल वातावरण हो उठा था ……..लग रहा था बृजवासियों को कि कोई गा रहा है ……..कोई नृत्य , कोई दिव्य वाद्य बन रहा है ……..प्रकृति कैसे झूम उठी थी …..जय जय हो ……चारों दिशाओं से यही आवाज आरही थी ।

भादौं का महीना था ……शुक्ल पक्ष…….षष्ठी तिथि थी ।

उस समय एक प्रकाश, तीव्र प्रकाश रोहिणी माँ के गर्भ में छा गया था ……माँ रोहिणी का मुख उस समय ऐसा लग रहा था कि मानों चन्द्रमा का गोला हो…..दिव्य तेज़ से युक्त था मुखमण्डल रोहिणी माँ का ।

बालक को जन्म दे दिया था रोहिणी माँ नें ………….यशोदा जी और नन्द जी अनुष्ठान में बैठे थे ………..सुना ……….तो ये नन्द दम्पति आनन्द के उत्साह में भागे…….”मित्र वसुदेव के पुत्र हो गया”……आनन्द में चिल्लाये हुये भागे ।

बहन ! रोहिणी !

यशोदा जी नें आकर रोहिणी माँ को देखा ………और मुस्कुराईं बोलीं – “बधाई हो महारानी रोहिणी” ।

वसुदेव और देवकी नें सच में बहुत दुःख पाया है………….अच्छा होता विवाह ही न करते वसुदेव देवकी से ……..पहले से ही छ रानियाँ तो थीं ना वसुदेव की …………क्यों किया विवाह देवकी के साथ ।

समाज है बोलेगा ………आप उनका मुख तो बन्द कर नही सकते ।

बृजवासी , जो लगता है इन्हें सही, वो बोल देते हैं……बिना लाग लपेट के बोलते हैं………निडर हैं ये लोग ……ग्वाले हैं …….कंस से भी नही डरते ………अरे ! कंस से क्या डर ? वो डरे हमसे ……….हम अगर दूध दही माखन न दें कंस को तो उसके मुस्तण्डे खायेगें क्या ?

कारागार में बन्द कर दिया है मथुरा में, कंस नें, अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को …………वो विवाह के समय ही आकाश वाणी हो गयी थी ना….कि “देवकी का आठवाँ बालक कंस ! तेरी मृत्यु का कारण होगा”……..बस उसी दिन से देवकी और वसुदेव को कंस नें बन्दी बनाकर कारागार में बन्द कर दिया ।

अन्य पत्नियाँ भी थीं ……सब इधर उधर चली गयीं कोई अपनें पिता के यहाँ गयीं तो कोई अरण्य में ……तब तक के लिये, जब तक ये दुःख का समय बीत न जाए ।

रोहिणी कहीं जाना नही चाहतीं ……..वो अपनें पति के पास ही रहना चाहती हैं ……..पर ये कैसे सम्भव है ।

रोहिणी !

मेरे मित्र नन्द और भाभी यशोदा के यहाँ गोकुल में तुम वहाँ जाकर रहो ……और जब ये दुःख के बादल छंट जायेंगें तब आ जाना ।

वसुदेव नें समझाया………..देवकी नें भी समझाया………

अक्रूर रथ में बिठाकर रोहिणी को गोकुल में ले आये थे ।

यशोदा जी आनन्दित हो गयी थीं उस दिन जब रोहिणी को देखा था ………बहन ! ये तेरा ही घर है………….भैया वसुदेव के जीवन में कितना दुःख आ पड़ा है ….ओह ! ।

इसे अपना ही घर मानों और प्रेम से रहो …

…..नन्द जी ने भी रोहिणी को यही कहा था ।

जीजी ! रोते हुए यशोदा जी के गले लग गयी थीं रोहिणी ।

मेरे आर्यपुत्र बहुत कष्ट में हैं……..मैं क्या करूँ ?

सब ठीक करेंगें भगवान नारायण ………ये दुःख ज्यादा नही टिकेगा रोहिणी ! देखना बहुत शीघ्र ही सुख के दिन आयेंगें ।

यशोदा जी नें समझाया …..उनको पुचकारा ……..और रोहिणी माँ तब से यहीं रहनें लगी थीं ।

हे तात विदुर जी ! भगवान संकर्षण देवकी के सप्तम् गर्भ थे …….पर भगवान नारायण नें देवकी के गर्भ से उन्हें खींच कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचा दिया था ……….वैसे तात ! ये किया था भगवान की माया नें …….पर संकल्प तो सब भगवान का ही होता है ना !

उद्धव विदुर जी को अद्भुत श्रीकृष्ण चरित सुना रहे हैं ।

रोहिणी ! तुम ?

एक दिन रोहिणी को जब देखा यशोदा जी नें, तो मुस्कुराईं ।

हाँ जीजी ! क्या हुआ ? रोहिणी माँ नें पूछा ।

तुम गर्भवती हो ? यशोदा जी नें भी पूछ लिया ।

शरमा गयीं रोहिणी…..हाँ जीजी !

वाह ! रोहिणी को पकड़ कर नाचनें लगीं थीं यशोदा जी ……..

ये तो तुमनें अद्भुत बात बताई…………

यशोदा जी नें सबको ये सूचना दे दी………दूसरे के सुख में भी सुखी होना ये इन नन्द दम्पति से कोई सीखे …….तात विदुर जी ! दूसरे के दुःख में कोई भी दुःखी हो सकता है……….कोई बड़ी बात नही है क्यों की दूसरे के दुःख में दुःखी होनें पर हमारे दुष्ट मन को प्रसन्नता होती है…….पर बड़ी बात है दूसरे के सुख में सुखी होना……..दूसरे का सुख हो और हम उसमें आनन्दित हों ….।

समय बीतता जा रहा है………….इधर ऋषि शाण्डिल्य नें सन्तान गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान भी बिठा दिया है । उद्धव सुना रहे हैं ।

जय हो ………भगवान संकर्षण की जय हो ………जय हो …भगवान अनन्त की ……जय हो …भगवान शेष प्रभु की …..जय हो जय हो ।

देवताओं नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए थे ………..जय जयकार होनें लगे थे ………….भादौं शुक्ल छठ ……..के मध्यान्ह में …………

बधाई हो ….बधाई हो …..रोहिणी माँ नें एक बालक को जन्म दे दिया ।

बस इतना सुनते ही सब भागे …………महर्षि शाण्डिल्य के आनन्द का ठिकाना नही ……..आहा ! भगवान शेष प्रभु नें अवतार लिया है ……

चारों और आनन्द ही आनन्द छा गया है………

पौर्णमासी अपनें बालक मनसुख के साथ नन्दालय में आयीं ……..

नन्द जी यशोदा जी खड़े हैं……गोद में ले लिया है यशोदा जी नें उस बालक को ….बालक गौर वर्ण का है……लालिमा लिये हुए है …..अत्यन्त तेज़ पूर्ण हैं…..उसके भाल में से प्रकाश प्रकट हो रहा है ।

दादा ! दादा ! तुम आगये……अब कन्हैया कब आएगा ?

यशोदा जी नें देखा……पौर्णमासी का बालक मनसुख रोहिणी पुत्र के नन्हे हाथों को पकड़ कर हिला रहा है और पूछ रहा था ।

दादा ! कब आएगा कन्हैया ?

नन्हें से रोहिणी नन्दन मनसुख को देखकर हँसें….खिलखिलाकर हँसे।

सब चकित थे……..मनसुख ये सब देखकर आनन्दित हो उठा ……

नाचते हुए उछला…….बोलो – “दाऊ दादा की” …………सब लोग बोले …..जय…जय.. …जय जय ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 4


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 4 )

!! श्रीकृष्णसखा मनसुख !!


यमुना के किनारे जो विशाल अनुष्ठान चल रहा था …….ऋषि शाण्डिल्य के सान्निध्य में ……..”नन्दराय को पुत्र प्राप्ति हो” इसी कामना से ये आयोजित था ……..पर वहाँ एक आश्चर्यजनित घटना घट गयी ……

सब चकित होकर पूर्वदिशा की ओर देखनें लगे थे ।

श्वेत केश, श्वेत वस्त्रों में ……..वो अत्यन्त तेजस्विनी थीं………हे तात विदुर जी ! उन माता को देखते ही स्वयं महर्षि शाण्डिल्य नें भी प्रणाम किया था ………नन्द राय उठ गए थे अपनें आसन से ……..नन्दराय नें अत्यन्त विनम्र भाव से नमन किया ……..और आसन भी दिया ।

यशोदा जी नें चरण छूए उन माता के ………माता नें यशोदा जी के सिर में हाथ रखा …….और आशीष दिया ।

हे तात विदुर जी ! उन माता के साथ एक बालक भी था ……..जो उनके समान ही तेज़वन्त था…….गौर वर्ण ……मस्तक में ऊर्ध्वपुण्ड्र ……ये ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया नही था ………जन्म जात ही था ।

हमारा अहोभाग्य कि आप यहाँ पधारीं माते !

महर्षि शाण्डिल्य नें स्वागत किया ।

हे नन्दराय ! ये हैं महान तपश्विनी “माता पौर्णमासी” ……..भगवान विश्वनाथ की पवित्र भूमि काशी में इनका जन्म हुआ है ……..महान विद्वान ऋषि सान्दीपनि इनके छोटे भाई हैं……..जो काशी छोड़कर महाकाल की छत्रछायाँ उज्जैन में वास कर रहे हैं ।

ऋषि शाण्डिल्य नें संक्षिप्त सा परिचय दिया माता पौर्णमासी का ।

सिर झुकाकर नन्दराय नें कहा ……….हम गोप कुमारों का ये सौभाग्य है कि आप का यहाँ पदार्पण हुआ ।

ये आपका बालक बहुत सुन्दर है…….यशोदाजी ने, माता पौर्णमासी के साथ आये बालक के बारे में कहा , …ये आपका पुत्र है माते ? पूछा ।

हँसी पौर्णमासी ……….हे नन्दगेहनी ! ये मेरा बालक है …..पर मेरा जाया नही है………..फिर पौर्णमासी नें अपनी बात भी बता दी ……मेरे पिता नें, जब मैं अबोध थी तभी मेरा विवाह किसी विद्वान ऋषि के साथ तय कर दिया था ……..वचन दे दिया उस ऋषि को ……पर कुछ ही समय बाद उन ऋषि का देहान्त हो गया ………पर जाते जाते उनकी पूर्व पत्नी से जो बालक था वो पालनें में ही मुझे मिला ……ये वही बालक है………….मैं इसे ले आई थी …..पौर्णमासी नें अपनी बात कहनी जारी रखी ……।

हे नन्दगेहनी ! इस बालक का नाम “मनसुख” है……..मैने ही रखा है ……ये सबके मन को सुख पहुँचाता है…….हर समय मुस्कुराता रहता है……….वेद का कभी अध्ययन नही किया इसनें …….किन्तु सम्पूर्ण वेद इसे कण्ठस्थ हैं …………विद्याध्यन में इसका कभी मन नही लगा ……पर काशी के विद्वानों को ये जब देखो तब हरा देता था ……मैं चकित थी ।

एक दिन ये मुझ से कहनें लगा……..”मेरा सखा आरहा है’ ………”मेरे सखा के पास मुझे ले चलो”……..मैने पहले तो इसकी बातों में विश्वास ही नही किया …….पर ये सपनें भी ऐसे ही देखनें लगा था ……ये बार बार सपनें में कहता…….’कन्हैया ! मैं आरहा हूँ’

“मैं आरहा हूँ…….मैं कुछ ही दिनों में तेरे पास पहुँच रहा हूँ ‘

हे बृजेश्वरी ! मैं ये सब देखकर चौंक जाती थीं ………..ये मुझे शुरू से ही कुछ विचित्र सा तो लगता था ……….क्यों की काशी में त्रिपुण्ड्र सब धारण करते हैं……..पर ये “ऊर्ध्वपुण्ड्र” जन्म जात ही इसके मस्तक में विराजमान था ………रुद्राक्ष इसको कभी प्रिय नही रहा …….वैसे देखा जाए तो मैं विशुद्ध शैव हूँ………मेरे पिता शैव थे ……..इसके पिता भी शैव थे ……….मेरे भाई सान्दीपनि भी शुद्ध रूप से शैव ही हैं………….किन्तु ये ?……तुलसी की माला इसे प्रिय लगे ।

एक दिन भगवान विश्वनाथ नें मुझे ध्यानावस्था में कहा ……….

हे पौर्णमासी ! ये बालक जिसका नाम मनसुख है …….ये गोलोक से आया है……अनादिकाल से ये श्रीकृष्ण का ही सखा है……….इसे तुम साधारण मत समझो ………..गोकुल में श्री कृष्ण अवतार ले रहे हैं……….वहीं जाओ ………और इस बालक के साथ तुम भी वहीं रहो ।

ये आदेश मिला मुझे भगवान विश्वनाथ से ………..

बस उसी समय से मनसुख जिद्द पकड़नें लगा ………..कि मेरा सखा प्रकट होनें वाला है गोकुल में ……..मुझे जानें दो ………मेरा सखा मुझे कह रहा है………तू पहुँच गोकुल में ………..।

माँ ! चलो गोकुल !

ये माँ सबको कहता है ……….हँसी पौर्णमासी ये कहते हुए…………हर नारी जात को ये माँ कहता है ………लड़की होनी चाहिये ……..चाहे वो इससे छोटी भी क्यों न हो………माँ ही कहेगा ये ।

पर मैं आपको “मैया” कहूँगा …………..बालक मनसुख चिपक गया था यशोदाजी के आँचल से ।

क्यों ? क्यों कहेगा तू इन्हें मैया ? पौर्णमासी नें छेड़ा ।

क्यों की मेरा सखा इन्हें मैया कहता है ना ! कहेगा ना ।

बस मैं ले आई हूँ इसे……..पौर्णमासी नें कहा यशोदा जी से ।

आपके लिये अतिथि गृह में व्यवस्था कर देती हूँ….यशोदा जी बोलीं ।

ना ! मैं अतिथि बनकर नही आयी हूँ ………….मैं तो अब अपनें पुत्र के साथ यहीं रहूँगी ……….जीवन पर्यन्त मैं बृजवास करनें आयी हूँ ।

हमारे अहोभाग्य .!

..साष्टांग लेट गए थे नन्दराय जी माता पौर्णमासी के चरणों में ।

एक झोपडी हमारे लिये बनवा दो ………मैं मात्र गौ दुग्ध पीयूँगी ……..

पर मेरा ये पुत्र मनसुख !

“मैया भूख लगी है”………मनसुख नें तुरन्त कह दिया यशोदा जी से ।

इसको भूख बहुत लगती है……….इसलिये ।

नन्दराय आनन्दित हो उठे मनसुख को देखकर ………..ये हमारे साथ ही रहेगा …………..

“जब कन्हैया आएगा तब भी रहूंगा”

………मनसुख नें पहले से ही कह दिया ।

चलो ! नन्दराय जी ! अब तो पक्का हो गया …………कि आपकी सन्तान होगी ही……….और कोई दिव्य चेतना अवतरित होनें वाली है ।

ऋषि शाण्डिल्य नें प्रसन्न होकर कहा ।

दिव्य चेतना नही भैया शाण्डिल्य ! पूर्ण ब्रह्म ही अवतरित हो रहे हैं ।

पौर्णमासी नें नेत्रों को बन्दकर के गदगद् कण्ठ से ये बात कही ।

अब तो प्रकृति झूम उठी थी……..गोकुल ही क्यों सम्पूर्ण बृजमण्डल आनन्द की धारा में बह रहा था ……अकारण सबको प्रसन्नता होनें लगी थी……….अकारण सब आनन्दित हो उठे थे ………..जब देखो तब मोर नृत्य करते थे ……….पक्षियों का कलरव कभी भी शुरू हो जाता था ।

हे विदुर जी ! योगियों के हृदय में जब ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति होती है………..तब जैसा योगी का हृदय हो जाता है ….वैसा ही आज बाहर प्रकृति का हो रहा है ……….दिव्य अद्भुत ।

मौन हो गए थे उद्धव ये कहते हुये ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 3


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 3 )

!! आनन्द के अवतार की वेला !!


कौन जानता था कि नन्द जी युवा से प्रौढ़ और प्रौढ़ावस्था से वृद्धत्व की और बढ़ चले थे…….पर सन्तान सुख इनके जीवन में अभी तक नही आया……..भगवान श्री नारायण से प्रार्थना करकरके बृजवासी भी अब थक चुके थे …….किन्तु इन नन्द दम्पति को कोई चिन्ता नही थी कि हमारे सन्तान नही हैं ।

हे तात विदुर जी ! निष्काम थे ये दोनों……नन्द जी और उनकी भार्या यशोदा जी…….दान पुण्य, अतिथि सेवा , गौ पालन, समस्त बृज को सुख देंने का प्रयास करते ही रहना…..पर अपनें लिये कुछ नही चाहिये।

“आपको भगवान सन्तान दे”

कोई वृद्ध बृजवासी हृदय से कह देता ।

तो नन्द जी हँसते ……और कहते …….भगवान जो करते हैं मंगल के लिये ही करते हैं……..मुझे सन्तान नही दीं ये भी उनका कोई मंगल विधान ही होगा ।…….फिर हँसते हुए बृजेश्वरी कहतीं – भगवन् ! क्या बृज के गोप बालक हमारे बालक नही हैं ? मैं तो सबको अपना ही बालक मानती हूँ ।

ये मात्र कहना नही था यशोदा जी का ……….उनके हृदय से वात्सल्य निरन्तर झरता रहता था समस्त बालकों के लिये ।

पर बृजवासी दुःखी थे …….कि उनके मुखिया के कोई सन्तान नही है ।

मैं आपका कुलपुरोहित शाण्डिल्य हूँ ……….किन्तु ! मेरा श्रेष्ठ ज्योतिर्विद होना भी आपके किसी काम नही आरहा इस बात का हे ब्रजेश ! मुझे दुःख है ………….

आज महर्षि शाण्डिल्य पधारे थे नन्दालय में ।

महर्षि के चरणों में अपना शीश रख दिया था नन्द जी नें ……….और यही कहा ……..आप मेरे पुरोहित नही हैं …..आप मेरे पिता हैं ……..आप मेरे सर्वस्व हैं महर्षि ! क्षमा करें ! मेरे नारायण भगवान नें मुझे जो दिया है मैं उस पर सन्तुष्ट हूँ…….पूर्ण सन्तुष्ट हूँ ।

क्या श्रेष्ठ, निष्काम हो जाना नही है ? महर्षि के मुखारविन्द की ओर देखकर ये प्रश्न किया था नन्द जी नें ।

आहा ! आनन्द से भर गए थे महर्षि शाण्डिल्य । कितनी ऊँची स्थिति को पा चुके हैं ये ब्रजपति ……….

आप मेरे कहनें से एक अनुष्ठान क्यों नही करते !

कैसा अनुष्ठान गुरुदेव ! नन्द जी नें पूछा ।

सन्तान गोपाल मन्त्र का अनुष्ठान …………

हँसे नन्दराय…….”आप की जो आज्ञा हो ……दास को स्वीकार है” ।

विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं नन्द राय तो ।

तो मैं समस्त बृज के ब्राह्मणों को निमन्त्रण भेजूँ ?

जी ! मुस्कुराते हुये ब्रजपति नें महर्षि से कहा ।

गणना की महर्षी नें ……………..फिर आँखें बन्द करके कुछ बुदबुदानें लगे थे ………..कुछ देर में नेत्रों को खोल लिया था ……..”पता नही मेरी ग्रह गणना किसी काम में नही आरही…….न मेरी भविष्य दृष्टि ही कुछ देख पा रही है …….ये क्या हो रहा है ……..कुछ समझ नही आरहा ।

हे तात विदुर जी ! ग्रह गणना क्या बता पायेंगें इस अद्भुत जन्म के बारे में ………..न भविष्य दृष्टि ही ……….क्यों की ये तो “अजन्मा के जन्म” की अद्भुत घटना है ………..इसको कोई नही समझ पायेगा ।

उद्धव नें विदुर जी को ये बात बताई ।

ब्राह्मणों का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया गया था …………….

बड़े बड़े ब्राह्मण आये थे …………..यमुना जी के पावन तट पर ये अनुष्ठान प्रारम्भ करवा दिया था महर्षि नें …………

मध्य में सजे धजे, स्वर्णाभूषण धारण कर यजमान की गद्दी में नन्द जी विराजमान होते …….और दाहिनें भाग में उनकी अर्धांगिनी यशोदा जी बैठतीं ।

बस…..नन्द यशोदा बैठते थे ……..ब्राह्मणों के प्रति उनकी पूरी श्रद्धा थी ……..पर संकल्प के समय वे “पुत्र प्रापत्यर्थम्” कभी नही बोलते ………वे अपनें समस्त अनुष्ठानादि कर्मों को भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर देते ।

किन्तु बृज के गोपों की यही कामना थी कि हमारे मुखिया के बालक होना चाहिये ……..ये अनुष्ठान छ मास का था ।

अनुष्ठान से दम्पति अत्यन्त प्रसन्न………यज्ञ हो रहा है……..दान पुण्य किया जा रहा है ….. बड़े बड़े ब्रह्मर्षि पधारे हैं हमारे यज्ञ में ….नन्द दम्पति के आल्हाद का कोई ठिकाना नही ।

पर महर्षि का कहना ये था कि यजमान जब तक अपनी कामना का मन में संकल्प न करे तब तक कामना पूरी कैसे होगी ?

नन्द राय का कहना था…….जीवन में क्या कमी है ये बात क्या मेरे भगवान नारायण नही जानते ? वे तो अन्तर्यामी हैं भगवन् !

अब इसका उत्तर क्या देते महर्षि शाण्डिल्य ….और शाण्डिल्य स्वयं भी तो निष्काम भक्ति के आचार्य हैं…………उन्होंने दुनिया को यही तो सिखाया है अपनें “शाण्डिल्य भक्ति सूत्र” में ।

अब जो करेंगें भगवान नारायण ही करेंगें …………..

तात विदुर जी ! छ मास के लिये समस्त बृज के गोपों नें भी अनुष्ठान शुरू कर दिया था ………..वे जप करते …….और उसका फल अपनें मुखिया नन्द जी को अर्पण कर देते …….पर साथ में ये भी कहते कि हमारे मुखिया जी को लाला हो ……….दान करते …..तो “मुखिया के लाला हो”………अतिथि सत्कार भी करते तो कहते ……..अतिथि से कहते ……..हमारे बृज के राजा नन्द जी के लाला हो …हे अतिथि देवता ! ये आशीर्वाद दो ……….यमुना स्नान भी करते तो यही मांगते ।

गोपियाँ व्रत करनें लगी थीं ……”हमारी बृजेश्वरी के लाला हो”………

प्रार्थना हर गोकुल के घर से यही निकल रहा था ……….हमारे नन्द राय को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो ।

सज धज करके प्रातः ही बैठ जाते नन्द जी यशोदा जी के साथ ……नित्य गौ दान करते ……….सुवर्ण दान करते ……भूमि दान करते ….विप्रों को भोजन कराते ………….और उनके चरणों की धूल माथे से लगाते ……पर नही माँगा नन्द राय नें कि हमारे पुत्र हो ।

पर आस्तित्व में कुछ घटनाएँ घटनें लगी थीं………जो अद्भुत थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 2


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 2 )

!! नन्द यशोदा !!


तात विदुर जी ! ऐसा नही हैं कि द्रोण नामके वसु और उनकी अंर्धांगिनी धरा देवी ही यशोदा और नन्दराय हुए …….ये तो अनादि काल के माता पिता हैं कन्हैया के …….गोलोक से ही उतरे हैं ये ……और वापस गोलोक में ही जायेंगें ……..पर द्रोण वसु और धरा देवी का अंश भी समाहित हो गया था नन्द और यशोदा में ।

कालिन्दी के किनारे विदुर उद्धव सम्वाद चल रहा है ……जिसमें श्री कृष्ण चन्द्र के प्रियतम सखा उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्णचरितामृत का गान करके सुना रहे हैं ।

यहाँ समय का कोई बन्धन नही है……ये कथा कब तक चलेगी कोई पता नही है……दोनों ही श्रीकृष्ण के प्रिय हैं…….इनको मात्र श्रीकृष्ण ही प्रिय हैं…….दोनों भाव रस में डूबे देहातीत हो उठे थे ।

मथुरा मण्डल के एक राजा और थे …….राजा देवमीढ़ ।

वृष्णिवंशीय हैं ये …….बड़े प्रतापी राजा हैं ।

इन्होनें दो विवाह किये….एक क्षत्रिय कन्या से और एक गोप कन्या से ।

क्षत्रिय कन्या से इनके पुत्र हुए शूरसेन……जिनके पुत्र थे वसुदेव जी ….और वसुदेव जी के यहाँ ही भगवान वासुदेव का अवतार हुआ था ।

इधर गोप कन्या से जो बालक जन्में उनका नाम हुआ पर्जन्य …….पर्जन्य युवावस्था को प्राप्त हुए तो उन्होंने “वरीयसी” नामक अत्यन्त सुन्दर एक गोप कन्या थी उनके साथ विवाह किया ……..राजा देवमीढ़ नें तभी ……मथुरा , यमुना के उस पार महावन में सम्पूर्ण गौ धन के साथ महावन की अपार भू सम्पदा पर्जन्य को दे दी थी ।

तब से ये लोग मथुरा छोड़कर “महावन” आकर रहनें लगे……यहीं गोकुल है ।

विवाह हो जानें के बाद पर्जन्य जी के ग्यारह सन्तान हुए……..नौ पुत्र थे और दो कन्याएं ……इनके नौ पुत्रों में सबसे छोटे थे “नन्द जी” ।

नन्दा और सुनन्दा, ये दो पुत्री भी जन्मीं थीं इनकी ।

हे तात ! आस्तित्व की लीला को कौन समझ पाता है………जब सबसे छोटे पर्जन्य नन्दन “नन्द जी” का जन्म हुआ था – उस समय प्रकृति आनन्दित हो उठी थी……..भूमि नें मानों अपनें रत्नागार खोल दिए थे ………गोप कुमार जब जब जहाँ भी बृज में भूमि खोदते …..उन्हें नाना प्रकार के रत्न ही प्राप्त होते ……..वृक्षों में फल लदे रहते…….अन्न की उपज कई गुना बढ़ गयी थी…….ये चमत्कार सबसे छोटे पुत्र नन्द जी के जन्म से ही प्रारम्भ हो गया था ।

आनन्दमयी मूर्ति थे नन्द जी………धीरे धीरे बड़े होनें लगे ……..हर समय इनके मुखमण्डल में प्रसन्नता ही सबनें देखी थी ।

इन्हीं के समय में ही महर्षि शाण्डिल्य नें आकर स्वयं कहा था कि मैं आपका कुल पुरोहित बनना चाहता हूँ………सहर्ष आनन्द से पर्जन्य जी नें स्वीकार कर लिया …..और अपनें समस्त पुत्रों को महर्षि के चरणों में रख दिया था ।

शान्त गम्भीर थे नन्द जी……छोटा बालक कुछ चंचल होता है…….पर इनमें गम्भीरता के और आनन्द के अद्भुत गुण थे ।

बड़े बड़े गोप कुमारों की समस्याएं ये चुटकी में ही समाधान कर देते थे ……इस बात से पर्जन्य जी बड़े प्रसन्न रहने लगे अपनें छोटे पुत्र नन्द जी से ।

“महराना” ……..बृज का ही एक गाँव ……….इस गाँव के मुखिया थे …..सुमुख नामक गोप …….इनकी पत्नी बड़ी धर्मशीला थीं……पाटला नाम था उनका…….भगवान श्री विष्णु की आराधना करके उन्होंने पुत्री की कामना की थी……….क्यों की पुत्र थे उनके ।

हे तात विदुर जी ! स्वप्न में सुमुख गोप से भगवान नें पूछा था कि आप पुत्री की कामना क्यों करते हैं ? आपके दो पुत्र तो हैं हीं ।

तब सजल नेत्रों से सुमुख गोप नें कहा था …………पुत्री का जन्म प्रकृति में उल्लास लाता है……..दो कुलों को जोड़ता है……..स्नेह को प्रकृति में फैलाता है …….और पुत्री के पिता का कितना बड़ा सौभाग्य होता है कि …..वो मात्र देता है….. देता है……..सब कुछ देता है…….लेना नही मात्र देना है पुत्रीगृह को ……इस सौभाग्य से मैं क्यों वंचित रहूँ !

हे तात विदुर जी ! भगवान नारायण भी बड़े प्रसन्न हुए थे..सुमुख गोप की बातें सुनकर… ….और कहते हैं…….उसके कुछ दिनों बाद ही पाटला देवी के कुक्षी में “यशोदा” आगयीं……..और वो समय भी सन्निकट आया…..फागुन का महीना था जब यशोदा जी नें जन्म लिया ।

उनके समान कौन सुन्दर था बृज मण्डल में ……….तीखे नयन ……गौर वर्ण ……..इतनी सुन्दर थीं कि अप्सरा भी लजा जाती थीं यशोदा जी को देखकर ………..

और तात ! क्यों न सुन्दर हों………….कन्हैया की मैया हैं ये …….कन्हैया इतना सुन्दर तो उनकी मैया में तो अपूर्व सुन्दरता होगी ही ना ………….उद्धव की बातें सुनकर मुस्कुराये विदुर जी ।

नन्दीश्वर पर्वत के पास अपनें गोप कुमारों के साथ नन्द जी गए थे …..तब सखियों के मध्य वहाँ यशोदा जी भी आयी हुयीं थीं ।

नन्द जी नें एक बार देखा था यशोदा को ………..हाँ यशोदा जी नें भी सकुचाकर एक नजर भर देख लिया था ।

पर्जन्य जी कन्या खोज ही रहे थे अपनें छोटे पुत्र नन्द जी के लिये…..महर्षि शाण्डिल्य जो .त्रिकालज्ञ हैं…….उन्होनें मुस्कुराते हुए सुमुख गोप की कन्या के बारे में सब कुछ बताया ……और ये भी कहा …..कि सुमुख की कन्या नन्द के लिये ही इस पृथ्वी में आयी हैं ।

पर्जन्य जी महर्षि की इन गूढ़ बातों को समझते हैं ………क्यों की उन्हें भी आभास हो गया था कि उनका छोटा पुत्र नन्द कोई साधारण बालक नही है ……..कोई विशेष ही है ।

उस दिन प्रकृति कितनी प्रसन्न थी तात ! पृथ्वी नें उस दिन भी रत्नों को प्रकट किया था अपनें गर्भ से ………..जब नन्द जी और यशोदा जी एक परिणय सूत्र में बंध गए थे ……….देवों नें आकाश से पुष्प बरसाए थे ……..गन्धर्वों नें नाच गान भी किया था …………सब प्रसन्न थे …….प्रसन्नता चारों और अनुभव में आरही थी ।

बड़े बड़े ऋषि मुनियों नें हिमालय की कन्दराओं को त्याग कर बृज भूमि की शरण ले ली थी……..अब तो यशोदा नन्दन का अवतार होगा …..अब तो नन्दनन्दन आवेंगें……आस्तित्व प्रतीक्षा करनें लगा था ।

और उसी समय पर्जन्य जी नें अपनें छोटे पुत्र नन्द जी को अपना मुखिया घोषित कर दिया …..यशोदा जी को सब बड़े आदर से “बृजरानी” कहनें लगे थे ……कोई कोई “ब्रजेश्वरी” कहते । …..”ब्रजेश्वर”…..”बृजेश”……नन्द जी के लिये सम्बोधन हो गया था ।

जब कोई ये सब सम्बोधन करता तो ये दम्पति संकोच से धरती की ओर ही देखते रहते ।

अपनी गद्दी देकर पर्जन्य जी चले गए भजन करनें बद्रीनाथ ।

तात विदुर जी ! अब सबको इंतज़ार था……कि कन्हैया आवेंगें ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 1


( “श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 1 )

!! गोकुल गाँव, महावन !!


कालिन्दी कल कल करती हुयी बह रही हैं……..मथुरा के उस पार एक वन है जिसका नाम है महावन…..उसी में एक गाँव भी है…..गोकुल ।

गायों का समूह यहीं रहता है……गौ कितनी हैं …..संख्या सही सही बता पाना जरा कठिन है……बीस लाख से भी ज्यादा हैं यहाँ गौ ।

बड़ा दिव्य स्थल है ये……यहाँ की माटी परमपावन है…..और हो क्यों नहीं…..गौएँ जहाँ स्च्छन्द हो विचरती हैं….अपनी मस्ती में रंभाती हों ।………गोप कुमार, जिनका हृदय पवित्रतम है…..ऐसी भूमि की महिमा कौन गा सकता है ।

नाना जाति के वृक्ष हैं यहाँ …………आम, मोरछली, कदम्ब, पीपल, पाकर, ये घनें हैं…………बाकी सुन्दर सुन्दर लताएँ हैं ……..जो कल्प वृक्ष को भी लज्जित कर दें ऐसी शोभा है इनकी ।

गोकुल में फूल खिलते हैं……..तो इनकी सुगन्ध की वयार चलती है………जो पूरे महावन को सुगन्धित कर देती है ।

अहीर कुमार बड़े भोले हैं यहाँ के ……….गौ चारण, कृषि यही मुख्य कार्य है इनका ।

गुलाब, जूही, केतकी, वेला, मोगरा, और कमल के फूलों की भरमार है चारों और ………भौरों का गुँजार एक अलग ही संगीत का अनुभव करा जाता है महावन में ………….

कुञ्ज बनें हैं छोटे छोटे ………ये बनें हैं …..बनाये नही हैं ………..इन कुञ्जों में गोप कुमार जब गौ चारण करते हुए थक जाते हैं तब बैठ जाते हैं………..चंचल तो होते ही हैं ये ………..फिर कूद पड़ते हैं कालिन्दी में जल क्रीड़ा करनें के लिये ………….

भूख लगती है तो माखन खाते हैं……बड़े सीधे भोले लोग हैं यहाँ के … कपट तो इन्होनें कभी जाना ही नही…..जो कहना है कह देना है ।

महावन दिव्य है , अद्भुत है ………….गोकुल नाम इसका इसलिये पड़ा क्यों की गौओं का समूह यहाँ सबसे ज्यादा है ।

हे तात विदुर जी ! आप ही बताइये ऐसी पवित्रतम और प्रेम की स्थली में अगर गोविन्द न अवतरित हों तो कहाँ होंगें ?

उद्धव जी सुना रहे हैं भाव में डूब कर श्रीकृष्ण चरितामृत ।

अष्ट वसु हैं…….हे तात विदुर जी ! आप इस रहस्य को जानते ही हैं……विभावसु, जो आठ वसुओं में सबसे छोटे थे …..वे ही भीष्म पितामह के रूप में आये हैं ।

विदुर जी नें “हाँ” में सिर हिलाया ।

अष्ट वसु में सबसे बड़े हैं द्रोण, फिर प्राण, ध्रुव, अर्क, दोष, वसु और विभावसु ……….तात ! विभावसु से अपराध हो गया ………उन्होंने अपनी पत्नी की बात मान कर ऋषि वशिष्ठ की गाय “नन्दिनी” का अपहरण कर लिया ………..बहुत क्रोधित हुये थे उस समय वसिष्ठ ……और उन्होंने आठों के आठ वसुओं को श्राप दे डाला कि जाओ और पृथ्वी में जन्म लो ।

उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं……………

तात ! राजा शान्तनु नें गंगा जी से विवाह किया ……..और समस्त वसुओं का जन्म होता रहा …..गंगा उन सबको अपनी धारा में बहाती रहीं ……….अंतिम में विभावसु भीष्म के रूप में बच गए इस पृथ्वी में ।

उद्धव जी कह रहे हैं………पर वसुओं में सबसे बड़े वसु …….”द्रोण” थे …….वे श्री हरि के परम भक्त थे ………और उनकी पत्नी “धरा देवी” वो भी पतिपरायणा थीं……….पर द्रोण वसु को अपनें छोटे भाई विभावसु के कृत्य से बहुत कष्ट हुआ था ……ऋषि वशिष्ठ की गाय नन्दिनी का अपहरण ………..उन्हें वैराग्य सा हो गया ………वसिष्ठ जी के चरणों में जाकर उन्होंने “श्री हरि भक्ति” की कामना की ………….

श्री हरि !

वशिष्ठ जी, द्रोण की श्रद्धा और उनका सरल हृदय देखकर गदगद् थे ।

जाओ ! तप करो……….श्री हरि की आराधना करो ………वे प्रसन्न होंगें …..और द्रोण ! तुम तो सहज हो……सरल हो ….श्री हरि सरल और सहज को ही मिलते हैं……जाओ !

पृथ्वी में आये द्रोण अपनी पत्नी धरा के साथ……..और मनुष्य देह से उन्होंने तप किया……..सतयुग से तप करना प्रारम्भ किया था ………युगों बीतते चले गए …….पर इन दम्पति नें तप नही छोड़ा ।

वरं ब्रूहि ! वरं ब्रूहि !

ये आवाज आकाश में गूँजी……………

नेत्र खोले दम्पति नें……..चारों और देखा …..पर वहाँ कोई नही है ।

फिर “वरं ब्रूहि”……वर माँगों ……….वही आकाशवाणी ।

भगवन् ! आप पहले हमारे सामनें तो प्रकट होइये ……हमनें आपको देखा भी नही है ………फिर ऐसे कैसे माँग लें आपसे वर !

बड़ी सरल हृदया धरा देवी नें ये बात कही …….उनके पति द्रोण नें भी यही बात दोहराई थी ।

पर आप लोग किस भाव से भावित हैं……….मेरा अपना कोई रूप नही है…….भक्त जैसी भावना करता है मैं वैसा ही बन जाता हूँ ।

भगवान की यह दिव्य वाणी फिर गूँजी थी आकाश में ।

कितनी मधुर वाणी है…………बालक की तरह …….धरा देवी का वात्सल्य उमड़ पड़ा …….”परम भागवत द्रोण” के हृदय में भी स्नेह की धारा बह चली थी………

मैं आपको वात्सल्य भाव से देखती हूँ……….स्नेह उमड़ रहा है मेरे भीतर आपके प्रति ।……अपराध हो तो क्षमा प्रभो ! द्रोण नें ये बात भी कह दी थी ।

तभी……..देखते ही देखते…….एक नन्हा सा गोपाल……सांवला सलोना ………..मोर मुकुट धारण किया हुआ …………प्रकट हो गया ।

उस बालक को देखते ही……देवी धरा के वक्ष से दूध की धारा बह चली ………..भक्त राज द्रोण देह सुध भूल गए ………..वे बस देख रहे हैं उस नन्हें से बालक को ………….

नाथ ! आप हमारे पुत्र बनिये ………हम आप पर अपना स्नेह लुटाना चाहते हैं………….फिर कुछ देर बाद हँसे द्रोण ……..बोले – स्नेह-वात्सल्य के मूल तो आप ही हैं………..पर भक्त की कामना है तो आपको पूरी करनी ही चाहिये ………….ये कहते हुए साष्टांग नतमस्तक हो गए थे द्रोण ……पर धरा देवी तो वात्सल्य सिन्धु में डूब गयी थीं ।

आप यशोदा मैया हैं मेरी ……….और आप मेरे नन्द बाबा !

बस उस बालक नें इतना ही कहा ……और मुस्कुरा दिया वो मोर मुकुट धारी ……….और देखते ही देखते सारी सृष्टि ही बदल गयी थी ।

उद्धव नें विदुर जी से कहा ……तात ! यही दोनों परम भागवत दम्पति ही गोकुल के मुखिया नन्द बाबा और यशोदा के रूप के प्रकटे थे ।