
सभी को राधे राधे ! श्री राधावल्लभ श्री हरिवंश
इस उत्सव के बारे में काफी लोगो को बहुत कम जानकारी है तो इस ब्लॉग में हम आपके सब प्रश्नों को रखेगे !
वैसे तो राधावल्लभ जी मंदिर में ऐसा कोई दिन नहीं होता जिस दिन कोई उत्चसव नहीं होता हो ! इसमें से एक उत्सव है खिचड़ी उत्सव जो राधावल्लभ सम्प्रदाय में बहुत प्राचीन काल से मनाया जाता है
ये उत्सव इस साल पौष शुक्ला दौज ( 4 जनवरी 2022 से 3 फरवरी 2022 ) एक महीने तक चलेगा !
मंदिर में सुबह 5 बजे से ही ये उत्सव रोज प्रारंभ हो जाता है और समाज गायन होता है ( मतलब की इनके पदों को राधावल्लभ जी को सुनाया जाता है ) आप खिचड़ी उत्सव के पदों को अगर ध्यान से पढेगे तो अपने आप समझ जायेगे ! इसके बाद मंगला आरती होती है ! और राधावल्लभ जी जो भेष धारण करते है उनको बांटा भी जाता है वो धन्य है जिनको उनके वस्त्र परशादी में मिलते है !
एकादशी के दिन श्रीराधावल्लभलाल ‘ श्रीबिहारीजी बनते हैं
आप घर पर कैसे उत्सव मनाये ?
आप घर पर भी खूब अच्छे से उत्सव मना सकते है ! इस ब्लॉग में दिए दिए सभी पदों को आप जैसा आपको समय मिले रोज अपने ठाकुर जी को सुनाये और उनको नए नए भेष में सजाये और भोग में खिचड़ी या अन्य गर्म चीज बना कर भोग लगाये !
और आपको रोज इसी राधे कृष्णा वर्ल्ड एप के हित स्पेशल में खिचड़ी उत्सव स्पेशल दर्शन में जाकर रोज दर्शन कर सकते है !
आप हमारे साथ भी आपके ठाकुरों की छवियो को शेयर कर सकते है जो की एप के खिचड़ी उत्सव स्पेशल में जाकर कर सकते है !
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राधावल्लभ जी के खिचड़ी उत्सव के सभी पदों का हिंदी अनुवाद सहित वाख्या है
सभी हिंदी अनुवाद से समझ पायेगे की पदों का मतलब क्या है
खिचड़ी उत्सव के पद
प्रथम श्री सेवक पद सिर नाऊँ
करहु कृपा श्री दामोदर मोपै. श्री हरिवंश चरण रति पाऊँ ||
गुण गम्भीर व्यास नन्दन जू के तुव परसाद सुयश रस गाऊँ ||
नागरीदास के तुम ही सहायक, रसिक अनन्य नृपति मन भाऊँ ।।1।।
सर्वप्रथम मैं भी सेवक जी के चरणों मे नमस्कार करता हूँ। हे श्री दामोदरजी (सेवकजी का नाम) आप मेरे ऊपर कृपा करिये जिसके फलस्वरूप श्रीहस्विंश चरणाविन्द में मेरी प्रीति हो, प्रेम हो ।
व्यासनन्दन भीडित हस्तिंश प्रभु के सबसे दुर्ज्ञेय, अद्भुत रसमय गुण, ईसता, दीनता, उदारता इत्यादि करके गम्भीर है। आपका कृपा प्रसाद पाकर उनके रस का सुयश मान करूँ। हित नागरीदास जी कहते है कि मुझे केवल आपका ही भरोसा है आप ही मेरे सहायक होतेंगे रसिक अनन्य नृपति-श्रीहित हरिवंश सम्पूर्ण प्रभु के मन को भाने वाला बन जाऊँ ।
जयति जगदीश जस जगमगत जगत गुरु, जगत वंदित सु हरिवंश बानी|
मधुर, कोमल, सुपद, प्रीति-आनंद-रस, प्रेम विस्तरत हरिवंश बानी ॥
रसिक रस मत श्रुति सुनत पीवंत रस, रसन गावन्त हरिवंश बानी ।
कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित जपत हरिवंश हरिवंश बानी ।।2।।
श्री सवेक जी महाराज जयति कहकर वाणी और नाम को नमस्कार करते हैं, क्योंकि नाम और वाणी अभेद है “वानी श्री हस्विंश की, के हरिवंश ही नाम “
भी हरिवंश नाम के अर्थ अक्षर हरि ही का ऐश्वर्य यह सब लीला अवतार और उनके लोक, प्राणी मात्र, पशु पंछी, चराचर सब, सर्व-व्यापक तत्व ‘श्रीहित का भजन करते हैं, सब वेद पुराणादिक हरि से जीव तक, इसके आधीन है, परन्तु इस रहस्य को कोई जान नहीं सका। तव भीहरिवंश हित सम्पूर्ण प्रभु, आचार्य रूप में प्रगटे और श्रीहित का वाणी रूपी भजन देकर सबको अलभ्य लाभ दिया इसलिए तुम हे हरिवंश प्रभु, “जगत के ‘ईश हो और गुरू हो यह वाणी जो केवल रस ही भवित करती है जगत चंदनीय है, इसमें आणित जन भी आ गए।
श्री हरिवंश वाणी, एक रस, विशुद्ध नेह गई, मिलन रूपा, रास विलास, नित्य विहार का निरूपण करने वाली है, जो केवल रस ही भक्ति करती है. इसमें भिन्न-भिन्न और रसों की मिलौली नहीं है ‘अब या में मिलौनी मिलै न कछु जो खेलत यस सदा बन में इसलिए पद-पद प्रति केवल इसी वाणी को माधुर्यता और कोमलता की यथार्थ पढ़ती है, इसलिए यह वाणी प्रीतिरूप आनन्द रस पदती को प्राप्त है, और प्रेम का विस्तार करने वाली है।
‘रसिक – प्रिया-प्रीतम और परिकर, जो इस रस में मस्त है वे श्रवण करके इस वाणी द्वारा भवित रस का पान करते हैं “श्याम श्याम प्रगट-प्रगट अक्षर निकट प्रगट रस भवत अति मधुर वाणी और आगे सेवक जी महाराज कहते हैं “नाम वाली निकट श्याम श्यामा प्रगट रहत निशिदिन परम प्रीति जानी।”
और फिर स्वाद पाकर इसी वाणी को गाने लगते हैं प्रशंसा सूचक कहते हैं “हरिवंश, हरिवंश हरिवंश हित ऐसे प्रशंसा करते एक हरिवंश नाम को ही अथवा वाणी को ही जपते हैं।”
जयति वृषभानुजा कुँवरि यथे।
सच्चिदानन्द घन रसिक सिरमौर वर, सकल वाँछित सदा रहत साथे |
निगम आगम सुमति रहे बहु भाषि जहाँ , कहि नहीं सकत गुण गण अगाथे ।
जै श्री हित रूपलाल पर करहु करुणा प्रिये, देहु वृन्दाविपिन मित अबाथे ।।3।।
तृषभानु कुँवरी वृष शब्द का एक अर्थ काम है सो यहाँ निकुंज रस के अन्तर्गत का अर्थ ‘प्रेम’ “हित, महापुरुषों ने किया है। प्रेम रूपी भानु यानी ‘श्रीहित मूर्तिवंत श्रीहित “कुंवरी राधे की जै हो ।
पीछे पदों में बता आये है कि यहां निकुंज रस में और रसों की मिलौनी नहीं है समाई नहीं है।
ब्रज वृन्दावन जहाँ दास्यरस, वात्सल्य रस, सख्य रस इत्यादि भिन्न-भिन्न रसों की मिलौनी है और जहाँ इन रसों में सक की लहरें है, उसे तो निगम आगम ने गाया ही है, उनकी गम्य यही तक है, परन्तु यह तो ‘श्रीहित’ का नित्य वृन्दावन है, यहां और की तो कौन कहे- हरि की भी गम्य नहीं, दुर्ज्ञेय है। यदि यहाँ व्रज की श्री वृषभानु जी की कुँवरी ऐसा अर्थ करें तो निगम आगम सुमति रहे बहु भाषि जहां, कहीं नही सकत गुण-गण अगाशे यह कहते नहीं बनता। क्योंकि निगम-आगम ने तो ब्रज वृन्दावन गाया। सेवक वाणी प्रमाण है ” निगम आगम अगोवर राधे, सहज माधुरी रूप निधि तहां श्रीजी की वाणी “अलक्ष राधास्त्र्यं निखलनिगमैरप्यतितरां इत्यादि राधासुध्धानिधि
नागरीदास जी ने सर्वप्रथम पद मे ही कहा है “गुण गम्भीर व्यासनन्दन जू के व्यासनन्दन कौ ? ‘श्रीहित ही तो हैं जो व्यास मिश्र जी के यहाँ प्रगटे “कृपा रूप जो वपु धरयों और श्री राधा कौन ? जो राह य श्रीहित ही तो हैं तहां नागरीदास को अष्टक “रसिक हरिवंश सरवंश श्रीराधिका, राधिका सरवंश, हरिवंश वंशी “पूरा अष्टक देख लेनो इति ।
इसलिये है ‘श्रीहित की मूर्तिवंत कुंवरी श्रीराधे तुम्हारी जय हो तुम सच्चिदानन्द घन स्वरूप हो और रसिकों की सिरमौर हो, जो आपके चरण कमलों की रति प्राप्त करने की वांछ करते हैं। आपके अपार गुण के गणों को वेद पुराण और बहुत भांति के ‘सुमति कहिये विद्वान और वेद आदि पर भाष्य लिखने वाले भाषी, वर्णन नहीं कर सकते।
श्रीहित रूपलाल जी महाराज कहते हैं ऐसी जो श्रीहित राधे है वह मुझ पर करुणा करके मुझे वृन्दावन में बाधा रहित बास प्रदान करें- अर्थात् मुझे अपना सहवारी स्वरूप प्रदान करके ‘नित्य वृन्दावन की कुंजो में स्थान दें।
श्री व्यानन्दन दीनबन्धु सुनि पुकार मेरी मूढ़ मन्द मति लबार भ्रमी जन्म बार-बार, कष्टातुर होरु नाथ शरण गही तरी ।
भजन-भाव बनत नाहिं मनुज देह वृथा जाय, करौ कृपा बेगि प्रभु बहुत भई देरी ।
त्रिगुण जनित सृष्टि मांझ दरसत महिं दिवा साँझ, हृदय तिमिरछाय रह्यो झुक सघन अंधेरी ।
कृपा दृष्टि वृष्टि करी राजत फूलवारी हरी, आतुर पर श्रवौ बूंद शुष्क होत जेरी|
ललित हित किशोरी नाम राखत प्रभु तुमसों काम, याम जात युगन तुल्य करौ नाथ चेरी ।।4।।
हे दीनबन्धु श्रीहरिवंश प्रभु, आप मेरी वन्दना सुनें। मैं मूद मन्द मति, लबार-बक करती रहने वाली, बार बार जन्म लेकर हर जन्म में भटकती रही हूँ। अर्थात् कहीं विश्राम नहीं मिला, और अब कष्टों से आतुर हे नाथ, आप की शरण में आई हूँ। मुझ से भजन-भाव बनता नहीं, यह मनुष्य देह वृशा ही बीत रही है । बहुत काल बीत चुका है, हे प्रभु अब आप मेरे ऊपर शीघ्र कृपा करें। इस त्रिभुणत्मक सृष्टि अर्थात् संसार में चारों ओर त्रिगुणात्मक विषयों की सघन अंधेरी सी मंडराती रहती है और मेरे हृदय में अन्धकार छाया हुआ है जिसके कारण मुझे सुबह-शाम का बोध नहीं होता यानी ओपेड़वन में पता ही नहीं पड़ता कब सुबह हो गई और कब शाम ढल गई।
आप मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि की वर्षा करें, मुझ आतुर पर कृपा की बूँदें भवित होने पर मेरी हृदय रूपी फुलवाड़ी जो सूख रही है फिर से हरी हो जाएगी। मैं हित ललित किशोरी नाम वाली, हे प्रभु केवल आप ही से संबन्ध रखती हूँ, मेरा प्रत्येक प्रहर युगों के समान व्यतीत हो रहा हे नाथ मुझे अपनी दासी बना लें।
जय जय जय राधिके पद सन्तत आराधिके, साधिके शुक, सनक, शेष नारदादि सेवी ।
वृन्दावन विपुल धाम रानी नव नृपति श्याम, अखिल लोकपालदादि ललितादिक नेवी ।
लीला करि विविध भाय बरसत रस अमित चाय, कमल प्राय गुण पराग लालन अलि खेवी।
युग वर पद कंज आस वांछत हित कृष्णदास कुल उदार स्वामिनि मम सुन्दर गुरु देवी ।।5।।
श्रीहित कृष्णदास जी महाराज अपने ही निज स्वरूप हितानन्द में डूबकर कहते हैं, ‘हे श्रीराधे- आपकी जय हो, जय हो, जय हो। वे श्री राधा कैसी है ? जिनके पद कमलों की मै निरन्तर आराधना करता हूँ, और परम भागवत शुक्र, सनक, शेष नारदादि के लिए भी सेव्य रूपा है, क्योंकि उनकी भी वहां गति नहीं है रानी नव नृपति श्याम नवल वृन्दावन नाथ की पद्महिषी, सव धामों के धाम सर्वोच्च धाम नित्य वृन्दावन में ललित आदि सखियों सहित विराजती है और वह वृन्दावन सम्पूर्ण लोकों के लोकपालों द्वारा वंदनीय है। उसी वृन्दावन में रास-विलास की लीला करती हुई, श्रीराधा विविध भावों को दरशाती हुई अनन्त चाव भरे चीजों से रस की वर्षा करती है। प्रियाजी अनन्त चोज भरे हाव-भाव दरशाने के गुणों में निपुण हैं, ऐसे हाव-भाव जब दरशाती है तब श्री मुस्ख कमल से जो मकरन्द निस्झरित होता है उसे लाल जी भंवर की वृत्ति लेकर पान करते हैं।
श्रीहित गोस्वामी कृष्णदास जी महाराज कहते हैं कि श्री राधा के युगल चरण कमलों में मेरी लालसा सदा लगी रहे, भीहित कुल की गुरु-देवी मेरी उदार स्वामिनान से मेरी यही आकांक्षा है।
राधिका सम नागरी प्रवीन को नबीन सखी, रूप गुण सुहाग भाग आगरी न नारी ।
वरून लोक, नाग भूमि, देवलोक की कुमारि, प्यारी जू के रोम ऊपर डारौ सब वारि ।
आनन्दकंद नन्दनन्दन जाके रस रंग रच्यौ, अंग भरि सुधंग नच्यौ मानत हँसि हारि ।
जाके बल गर्व भरे रसिक व्यास से न डरे, कर्म-धर्म-लोक- वेद छौंडि मुक्ति चारि ॥6॥
निकुंज बिलासिनी श्रीराधा के समान हे सखी, कोई भी अन्य नारी नहीं है, क्योंकि यह नागरी है-तहां श्रीजी की वाणी ‘नागरता की रासि किशोरी और ऐसी नागरी है कि चतुरों के समूह के मुकुटमणि सांवरों जो प्रीतम, उनको वितै के, नेक मुख की मोरन मात्र में निवेश कर देती है। और फिर प्रवीन है-गान में कठिन ताल सुर विकटताने सहज में लेती है, नृत्य की विविध गतियों को लेने में, लालजी भी इनसे हारे है। नवीन है-इनका नेह, रंग रस सदा नवीन ही बना रहता है। रूप की सहज माधुरी लाल जी के मन को हरण कर लेती है, तहां श्रीजी की वाणी “रोमालीमिहिरात्मजा सुललिते बन्धूकबन्धु प्रभा” राधासुधानिधि | कोक कलान इत्यादि के विशेष गुणों में निपुन है। इसलिए, हे सखी जो यह श्री हित राधे हैं, इनके भाग की क्या कहिये जिनका सुहाग, सकल लोक चूडामणि रसिक शिरोमणि श्यामसुन्दर भी सदा इनको जपते हैं इन ही का भजन करते रहते हैं। तहां श्रीजी की वाणी “ज्योतिश्यांनपरः सदा जपति या प्रेमापूर्णो हरि” राधासुध निधि |
श्रीजी के इन गुणों का अनन्त विस्तार है। तहां श्रीजी की वाणी ‘वृषभानुनन्दिनी मधुर कला पद संख्या ८१ इत्यादि ऐसे बहुत कही है। वाणी जी में रत्ति भर सोना दिखा के सुमेरु का ध्यान करने के से संकेत है। प्रियाजी की रूप माधुरी, गुणों का वर्णन करने में आज तक कोई पार नहीं पा सका और न ही कभी कोई पा सकेगा जितनों कहो, सो थोड़ा सारांश में इतनो समझ लेनो- अनिर्वचनीय है।
वरून लोक, नागलोक, भूलोक, देलोक की कुमारियों के रूप गुण इत्यादि प्यारी जू के एक रोम पर न्यौजवर है। तहां श्रीजी की वाणी देक्लोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि कुल मति डरियो, सहज माथ चुरी अंग अंग की कहि कासों पटतरिये ” देलोक के कवि शुक्रचार्य जी, श्लोक के व्यास जी, रसातल के शेषनाम जी, इन सब कवियों को अपने-अपने लोकों की कुमारियों के रूप गुण का ज्ञान है, परन्तु इनकी भी मति भयभीत है कि इनकी बराबरी किससे करें। इसलिये इनकी उपमा यह स्वयं ही है, इनकी उपमा नहीं
आनंद कंद आनन्द के मूल, नंद-नन्दन, आनन्द को भी आनन्दित करने वाले, इनके रस रंग में डूबे है। महा हर्ष में अंग में भर कर सुगंध नृत्य करते हैं, परन्तु जब प्रियाजी नृत्य की गतिविधियों लेती है- तो हँसते-हँसते अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। इस हार के ऐसे प्यार भरे दोज है कि कहते नहीं बनता, व्यास जी को पढ़ “पिय को नाचन सिखावत प्यारी ” मान-भुमान लकुट लीए ठाढ़ी डस्पत कुंजबिहारी व्यास स्वामिनी की ठवि निरखत, हँसि-हँसि दे दे करतारी सुहृदयों के हृदयगम्य है।
श्री ‘व्यास जी महाराज कहते हैं, ऐसी स्वामिनी का कृपा रूपी बल प्राप्त करने का मुझे गर्व है और इसी बल के प्रताप से कर्म, धर्म, लोक, वेद यह चारों प्रकार की मुक्तियों को त्यागते मुझे डर नहीं लगा।
नित्य वृन्दावन निकुंज विलासिनी, श्रीहित राधा की कृपा प्राप्त कर व्यास जी मुक्तियों को त्याग दें तो कोई आश्चर्य बात नहीं है। निकुंज की बात तो दूर रही यहाँ तो भूतल पर प्रकट वृन्दावन में सोहनी लगाने वाली की ऐसी स्थिति है कि विहारिनिदास जी बोल उठे “वृन्दावन की हरी चली मुक्ति दुवराड, बिहारिनिदास अवरज कहा. श्यामा महल कमाए। औरों की क्या कहिये ? राधे-राधे !! इति ।
प्यारी जे के चरणारविनद शीतल सुखदाई।
कोटि चन्द मन्द करत नख-विधु जुन्हाई ॥
ताप-शाप-रोग-दोष दारुण दुख हारी लाल इष्ट दुष्ट दवन कुंज भजन चारी ।
श्याम हृदय भूषण जित दूषण हित संगी।
वृन्दावन धूर धूसर यस रसिक रंगी।
शरणागत अभय विरद पतित पावन बानै ।
व्यास से अति अधम आतुर को-को न समानै ।।7।।
श्रीहित राधा प्यारी के चरणकमल शीतल और सुख देने वाले हैं। कैसे है यह चरणारविन्द और इनकी शतलता ? ऐसे अद्भुत चरण है कि जब रसिक शिरोमणि श्रीश्यामसुन्दर इनको अपने अपने वक्षस्थल पर रते है तो इन चरणों की शीतलता प्रेम-काम के ताप को शान्त कर देती है। तहाँ श्रीजी की वाणी –
“वृन्दावनेश्वरी तवैव पदारविन्दम् प्रेमामृतकमकरन्दरसौघपूर्णम् ।
हृदयर्पितं मधुपतेः स्मरताप मुझे निर्वापयत्परमशीतलमाभयामि ||
अतः लालजी को सुख देने वाले हैं। इन चरणारविन्द की शोभा कैसी है ? नखचन्द्र से छिटकने वाली छटा कोटि-कोटि चन्द्रमा की चाँदनी को मन्द करती है, ऐसी है।
ताप, शाप, रोग-दोष दारुन दुखहारी- (भुमिका) इनकी कोक-कलान को देखकर कोटि-कोटि कामदेव लज्जित हो जायें है। क्योंकि वह देखें कि क्रियायें तो सब हमारी है, परन्तु हम इनमें है नहीं। रतिपति ने विचार कियौ- ठीक है, लज्जित तो हम है ही शाप देते हैं- ‘काम-रोग से ग्रसित रहोगे। लालजी से कहा, “तुम्हारी बड़ी कृपा है नहीं तो मिलन में स्वाद कहाँ से आता, परन्तु यह तो बताओ इस रोग का उपचार क्या? “
उत्तर मिला
“रोग हरन निज चरन सरोरुह नैननि धरि कर पंकज चारु ।”
प्रियाजी के चरणारविन्द का आश्रय लेना रोग नास हो जायेगा। लालजी ने सोची इससे तो नित्य हर समय काम पड़ता है। “काम सौ स्याम ही काम पस्यो इस काम के बिना तो विलसन का सारा मजा ही किरकिरा हो जायेगा, ‘शाप स्वीकार कर लिया, चुप्पी साध ली।
प्रियाजी मानवती हुई और तो और लालजी पर दोष मड़ने लभी सखी ने प्रम भरी डाँट लगाई
साँची झूठ बात सुनत तू, करत नहीं निरजोष ।
कवन भवन तें सुन्दर देख्यौ, जाहि लगावत दोषा
श्यामसुन्दर को कौन से भवन में देख लिया जो ‘दोष’ लगा रही हो। लालजी को विरह व्याप गया। दारुन दुःख लालजी को हो गया। क्या करें ?
तेरे विरह भय दारुन दुःख, के ले जाल बखान्यौ ।
तेरे चरन सरन हो सुन्दरी, ‘व्यास’ सखी गढी आन्यौ ।
हो गया उपचार | इति (भूमिका)
कहने का अर्थ है कि प्रेम के चोज, रसास्वादन के हेतु की गई प्रिया-प्रीतम की निज नई हितमई केली का कोई चारापार नहीं है, उसको समझना, अथाह अगाध समुद्र की तह से मोती चुनने के समान है। शब्दकोष में शबद नहीं है जो प्रिया- प्रियतम की केली का यथार्थ वर्णन कर सकें। जो कुछ इन टूटेफुटे शब्दों का सहारा लेकर कहा जाता है वह संकेत मात्र है, उस भाव स्थिति को उर में जाने का, जिसे रसिकजन हित की विलसन कहते हैं।
प्रियाजी की मन्द-मन्द मुस्कान, कटाक्ष भरी चितवन से लेकर ‘अबोलनों तक केवल प्रेम ही का स्वाद लेने को है, ‘काम’ जब-जब, जो जो गजब लालजी पर ढाता है, यह शब्द “ताप, शाप, रोग, दोष, दुष्ट दवा इत्यादि उसी गजब की पराकाष्ठा को सूचित करने का तुच्छ प्रयास करते हैं।
‘कौन-कौन दुख बरनौ प्रिय को, जो दुख करनी कस्यौ । ‘व्यास’ स्वामिनी करुणा करि, हरि को सब ताप हस्यौ ।। “
लोकवत् शब्दार्थ की यहाँ समाई नहीं जहाँ कुंज भवन है, प्रियाजी के चरणारविनंद की बात चली है, वहाँ निकुंज रस है, और सब अर्थ उस रस के अन्तर्गत ही होगा और यदि नहीं तो ऊपर कहे गये शब्दों का अर्थ लोक दृष्टि से तो स्पष्ट है ही, व्याख्या की आवश्यकता नहीं ।
कुंज भवन में विचरण करने वाले यह चरण “गोविन्द जीवन धनम्” तालजी के इष्ट है। इनके हृदय के भूषण है. श्रीहित के सभी है। वहाँ श्रीजी की वाणी “पद अम्बुज जावक जुत भूषण प्रियतम उर अवनी । यह श्रीवरण, रास में रंगे, वृन्दावन की घर में ‘धूसरित हो रहे हैं कैसी है यह वृन्दावन की ‘पूर ? तहाँ श्रीजी की वाणी “घुसरित हो रहे विविध निर्मित घर, नव कपूर पराग न थोरी महापुरुषों ने ठौर-ठौर कहा है ‘क्युखत् है बल्कि ‘नव कपूखद् है। यदि शब्दार्थ की सांकल में बधा रहना है, जो कहिये इस घरको जिसमें प्यारी जू के चरणारविन्द ‘धूसरित हो रहे हैं, कैसी मानेंगे ? नेक संभालियेगा अपने भाव को, शब्द कोष में छूर रेत को, मिट्टी को कहते हैं ‘कपूखत् रेत के लिए कोई शब्द नहीं है।
व्यास जी महाराज कहते हैं कैसी ही पतित क्यों न हो, उसके लिए इन चरणारविन्द की शारण पावन बाना है, जो अभय का दान देने वाले हैं। व्यास जी कहते हैं इन चरणों की शरण ग्रहण करके मेरे जैसे अ म आतुर को को अर्थत्, कौन-कौन, ‘न समाने यानि नहीं तर भए अर्थात् सब तर गए ।
नोट- पद की व्याख्या प्रचलित पाट के आधार पर की गई है। पाठान्तर भेद बहुत है वासुदेव गोस्वमी जी द्वारा रचित, प्रभुदयाल जी मित्तल द्वारा “भक्त कवि व्यास जी के नाम से प्रकाशित व्यास वाणी में यह पद इस प्रकार है
श्रीराधा प्यारी के चरणारविन्द शीतल सुखदाई । कोटि चन्द मन्द करत नख विद्यु जुम्हाई ||
ताप साप रोग सोग दारुण दुख हारी। कालकूट-दुष्ट-दवन, कुंज भवन चारी ॥
स्थाम हृदय भूषण जुत, द्वेषन जित संगी।
श्रीवृन्दावन धूलि धूसर, यस रसिक रंगी ||
सरनामत अभय विरद पतित पावन बाने ।
व्यास से अति अथम आतुर को, कौन समानौ।।
व्यासनन्दन, व्यासनन्दन, व्यासनन्दन गाईये
जिनको हित नाम लेत दम्पति रति पाईये ||
रास मध्य ललितादिक प्रार्थना जु कीनी
कर तें सुकुंवारि प्यारी वंशी तब दीनी ।।
सोई कलि प्रगट रूप वंशी वपु धारयौ
कुंज भवन रास रवन त्रिभुवन विस्तारयौ |
गोकुल रावल सु ठॉम निकट बाद राजै ।
विदित प्रेम राशि जनम रसिकन हित काजै ॥
तिनकों पिय नाम सहित मंत्र दियौ (श्री) राधे ।
सत चित आनन्द रूप निगम अगम साधे ||
(श्री) वृन्दावन धाम तरणिजा सुतीर वासी
श्रीराधा पति रति अनन्य करत नित खवासी ॥
अद्भुत हरि युक्त वंश भनत नाम श्यामा ।
जै श्री रूपलाल हित चित दै पायौ विश्रामा ॥ 8॥
श्रीहितहरिवंश के नाम अथवा वाणी का नाम यानि सुमिरन सदा करना चाहिये। कैसे ? जाम घटी बिसरे नहीं” ऐसे इन श्रीहिस्वंश का नाम जपने से दम्पति प्रिया-प्रियतम में रति होती है। सेवक जी कहते है। “हरिवंश सु नाम सदा तिनके, सुख-सम्पति, दम्पति जु जिनकै ।
श्रीहरिवंशचन्द्र, सम्पूर्ण प्रभु के प्राकट्य की भूमिका खोजते हैं। यस के मध्य में किसी समय | ललितादिक सस्तियों ने प्रार्थना करी हे प्यारी जू अब आगे तो कलयुग में ऐसा समय आने वाला है जब | वेद-विधि को जानने वाले बहुत ही कम रह जाएँगे, भक्ति के मर्म को समझने वाले नहीं होंगे, आप कृपा कीजिए जिससे जीवों को प्रेम लक्षणा भक्ति मिले तब प्रियाजी ने अपने हाथों से वंशी लेकर सखियों को प्रदान कर दी रस की मूल तो वंशी ही है “बाजत रस मूल मुर्तिका आनन्दिनी वही ‘वंशी कलियुग में श्रीहरिवंश आचार्य रूप में व्यास मिश्रजी के यहां अवतारित हुए अथवा वही कलि रूपी वंशी हरिवंश आचार्य रूप में तय मिश्रजी के यहाँ मुकलित हुई। और कुंज भवन के रास रंग को त्रिभुवन में विस्तार कियौ । गोकुल और रावल गातों के निकट “बाद ग्राम है। (बड़ों के मुख से सुना है कि बाद का प्राचीन नाम याच ग्राम था और जब हरिवंश महाप्रभु का प्राकट्य हुआ तो घर-घर पंच शब्द सुनाई देने लगे- “घर-घर पंच शब्द बाजिये सेवक वाणी 11)
यह तो विदित ही है कि प्रेमराशी, श्रीहित हरिवंश, सम्पूर्ण प्रभु का जन्म (अवतार) रसिकों के हित के लिए ही हुआ था। श्रीहित हरिवंश प्रभु को स्वयं श्रीराधा ने अपने प्रियतम के नाम से संयुक्त मन्त्र प्रदान किया। इससे यह समझना चाहिए कि महाप्रभु श्रीहित हरिवंश जी द्वारा स्थापित श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय है जिसकी प्रवर्तक आचार्य मनत्रदाता गुरु स्वयं श्रीराधा है। तहाँ हरिलाल व्यासजी का कथन:
यथैवेष्टं सम्प्रदायकै कर्ताऽऽचार्यो यथा मंत्रदः सद्गुरुश्च ।
मंत्री राधा यस्य सर्वात्मजैव वंदे राधा-पाद-पद्म प्रधानम् ||
पर भीहित राधा कैसी है! सतूचित आनन्द रूप है और वेदों द्वारा आलक्षित हैं। श्रीहितहस्विंश महाप्रभु जी ने यमुना के तीर श्रीधाम वृन्दावन में निवास कियौ श्रीहित राधा और उनके पति श्रीहित लालजी, जो दोऊ मन मिलि एक भए. राधावल्लभलाल, में अनन्य प्रेम रखकर उनकी सेवा में नियुक्त रहते थे।
“हर में वंश जुड़कर यह अद्भुत नाम सम्पूर्ण प्रभु हरिवंश बना है, तहाँ सेवक वाणी -नाम अरद्ध हरै अघ पुंज, जगत्र करे हरि नाम बड़ाई सो हरि वंश समेत सम्पूर्ण प्रेमी अनन्यानि को सुखदाई।” इस सम्पूर्ण नाम का प्रियाजी प्रेम से उच्चारण करती है। “प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमानत प्रीतम श्री हरिवंश प्रियम् । माथा (श्री) हरिवंश गीत गुन गोचर, मुफ्ति मुनत हस्विंश मियं ॥” श्रीरूपलाल जी महाराज कहते हैं कि इन श्रीहित हरिवंश प्रभु के चरणों में वित्त लगाने से मुझको विश्राम मिला है।
प्रथमहिं भावुक भाव विचारै |
बनी तनु-मन नवकिशोर सहचरि वपु हितत गुरु कृपा निहारै ||
भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी पुलकि-पुलकि अंग धारै।
भूषन वसन प्रसाद स्वामिनी पुलकि-पुलकि अंग धारै ।
जे श्री रूपलाल हित ललित त्रिभंगी रंग रस विस्तारै ||9||
सर्वप्रथम भजन के आरम्भ में, भजनी को भाव से, अपने सखी स्वरूप का विचार करना चाहिये । श्रीहित गुरु की कृपा का मनन करते हुए तन मन से नवकिशोर सहवरी रूप अपने आपको देखना चाहिये, अपने स्वामिनी द्वारा दिये गए भूषणों और वस्त्रों को रोमांचित होकर धारण करना चाहिये (मानसी में)।
तहाँ श्रीजी की वाणी (श्रीराधासुधानिधि)
“दूकूलं विभ्राणामथ कुचतरे कंधुकपट प्रसादम् स्वामिन्याः स्वकरतलदत्तं प्रणयतः स्थितां नित्यं पायें विविध परिचयैक चतु किशोरीमात्मानम् किमिठ सुकुमारी मुकलये 1॥”
महात्मा भीरतनदासी इस स्तोत्र की टीका कहते है:-(भाषा रूपान्तर) “अब इस श्लोक के भाव में भीहित प्रभुजी, अपना जो सुन्दर सखी स्वरूप, यद्यपि महल में नित्य श्रीहित अली और वंशी रूप है, तहाँ दोहा :
हित स्वरूप विवि हिय में वंशी विवि फरमाहि ।
सखी स्वरूप सखीन में, यो हित निकट रहांहि ॥
फिर भी स्वामिनी जू की दासी भाव की उत्कंठा करते हैं। मेरी श्रीस्वामिनी जु मेरे पर अति कृपा करके अपनी प्रसादी सारी (साड़ी) और कंचुकी अपने कर कमल से जो दी उसको पहर कर “स्थितां नित्य पार्श्वे” नित पास बैठी रहूँ अथवा खड़ी रहूं। वहां क्या करूं? “विविध परिचयैक चतुरा” नाना प्रकार की समयानुर सेवा में चतुर जैसी “किशोरीमात्मानं” किशोरी अवस्था बुवाई परै ” किमहि सुकुमारी नु कलये जैसी सुकुमार सखी स्वरूप अपने में कब देखूं। इति ।
श्रीरूपलाल जी महाराज हिते हैं कि इस सहवरी भाव में स्थित होने से श्रीश्यामा श्याम की कृपा से रंग-रस हृदय में प्रकाशित होने लगता है।
सखी, लखी कुंजधाम अभिराम ।
मनिनु प्रकाश हुलास युगल वर, राजत श्यामा श्याम || हास विलास मोद मद होत न पूरण काम ।
जै श्रीरूपलाल हित अली दंपति रस सेवत आठौ याम ||10||
हे सखी, देख तो सही जो प्रिया प्रियतम का निज धाम उसमें जो कुंज है, कितनी सुन्दर है।
“स्याम सुभग तन विपिन घन थाम विचित्र बनाई सेवकवाणी ||
मनियों के प्रकाश में श्रीश्यामा-श्याम उल्लासपूर्वक सुशोभित है, हास विलास, विनोद मोद विहार में होता रहता है, विहार में चाव बढ़त ही रहता है, कभी घटता नहीं, इसलिए कभी भ्क्षी पूरण काम, तृप्त नहीं होते ।
कामकेलि सतु पाइ दाइ-छल प्रिय ही रिझावत ।
थाइ धरत उर अंक भाइ मन कोक लजावत ॥
चाय चवम्गुन चतुर राइ रसरति संग्रामहि ।
छाड़ सुजस जम प्रकट गाड़ मुन जीवत श्यामहि ।
-सेवक वाणी
श्रीरूपलाल जी महाराज अपने ही हित स्वरूप को नमस्कार करके कहते हैं कि सखी युगल सरकार के लीला रस का सेवन आठों प्रहर करती है –
चोर चित्त ललितादि कोर स्न्यनि निजु निरखतिं ।
थोर प्रीति अन्तर न भोर दंपति छवि परखतिं ॥
-सेवक वाणी
तहाँ श्रीजी की वाणी:
अनुपम सुख भर भरित क्विस असु आनन्द-वारि कण्ठ दम रोकत ।
लाड़िली लालहि भावत है सखि, आनन्दमय हिम की ऋतु आई।
ऐसे रहे लपटाय दोऊ जन चाहत अंग में अंग समाई || हार उतार धरे सब भूषन स्वादी महारज की निधि पाई।
महासुख को ध्रुव सार विहार है, श्रीहरिवंशजू केलि लड़ाई ||11||
हे सखी, प्रिया- प्रियतम के मन भावती आनन्द प्रदान करने वाली सदी की ऋतु आई है। ऐसे गाढ़ आलिंगन में दोनों आबद्ध है, फिर भी यह इच्छ बनी हुई है कि एक दूसरे के अंगों में समा जायें। विहार के सूख का अतिशय करके भोग करने के हेतु दोनों ने अपनी माला एवं भूषण इत्यादि उतार दिये हैं, रसरूपी “निधि का स्वाद पाकर दोनों मत्त है। ध्रुवदासजी महाराज कहते हैं- परम सुस्त जो कोई वस्तु है, उसका सार केवल ‘हित’ का यह विचार है, जिसे श्रीहस्विंश महाप्रभु जी ने अपनी वाणी में गायौ है।
प्रात समै नव कुंज द्वार है ललिताजू ललित बजाई बीना पौढ़े सुनत श्याम श्रीश्यामा, दम्पति चतुर
प्रवीन प्रवीना ॥
अति अनुराग सुहास परस्पर कोक कला गुण निपुण नवीना |
श्रीबिहारिदास बलि बलि पंदसि यह मुदित प्राण न्यौछावर कीना ||12||
वृन्दावन की नवीन कुंज में जहाँ प्रिया प्रियतम ने सिज्जा पर सारी रात व्यतीत करी, तहाँ भोर होने पर, कुंज द्वार पर ललिता जी ने बहुत ही सरस, वीणा पर अलाप छेड़ी अलसाये दोनों सिज्जा पर सोये सोये ही मधुराको रहे हैं। ललिताजी वाणी तो बजाई कि अब उठिये सखियाँ दर्शन को खड़ी हैं, परन्तु वीणा के मधुर सुरों को सुनकर इनकी तो चाह और बढ़ी, दोनों कोक कलाओं में प्रवीन, चतुराई से पौढ़े ही है। एक दूसरे से परस्पर सुहाग है, अति अनुराग है, और कोक-कला के नतीन गुणों से दोनों निपुण है।
श्रीविहारिनदास जी यह इस छवि का अनुभव करते हुए अति प्रसन्न होकर वन्दना को हुए
बलिहार- बलिहार करते प्राण न्यौछावर करते हैं।
जगाय री भई बेर बड़ी ।
अलबेली खेली पिय के संग अलकलड़े के लाड़ लड़ी ।।
तरलि किरन रन्धन है आई, लगी निवाई जानि सुकर वर तहाँ हहौ ही है रही अड़ी।
श्रीविहारिनिदासि रति को कवि वरनै जो छवि मो मन मांझ गड़ी ||13||
सखी के बोल-सखी के प्रति बहुत देर हो गई है, अरी (प्रेम का सम्बोधन है), अब तो जगा सारी रात, अपने अलक लड़े प्रीतम के संग लाडिली जी ने विहार कियौ है (अभी भी पूर्ण ज भए क्या ?) देखो सूर्य की किरणें कुंज लताओं के झरोखों में से छिटक रही है, यह जानकर कि किरणें प्रिया-प्रियतम पर पड़ेगी तो उन्हें गरमी लगने लगेगी, मैं ही लताओं के छिद्रों पर अड़ी खड़ी रही।
श्रीविहारिनि दास जी कहते हैं कि प्रेम की सुरतांत छति का यह दृश्य जो मेरे मन में गड़ा है, इसे कौन कवि वर्णन कर सकता है ? अर्थात् अनिर्वचनीय है।
जागो मोहन प्यारी राधा ।
ठाड़ी सखी दरस के कारण, दीजै कुंवरि जु होइ न बाधा |
हँसत-हँसत दोऊ उठे हैं युगल वर मरगजे बामे फबि रहे दुहुँ तन ।
चारत तन मन लेत बलैयाँ देखि देखि फूलत मन है ही मन ||
रंग भरे आनंद जम्हावत अंस अंस धरि बाहु रहे कसि।
जय श्री कमलनैन हित या छवि ऊपर वारों कोटिक भानु मधुर शशि ||14||
सखियाँ कहती है प्यारेलाल जी, प्रियाजी, अब जानिये आपके दर्शन को सखियों द्वार पर खड़ी है, प्यारी जू यदि आपको किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पड़ती हो तो, इन्हें (सुस्तांत) छवि का दर्शन देकर कृतार्थ करें बाधा का शब्द सुनते ही दोनों हंस दिये बड़ी चतुर है यह सखियाँ, हमारे रात्रि के विहार का सारा हाल, हमारी छवि का दर्शन देखकर ही जान लेंगी, हम दुरायो चाहें पर सम्भलने का समय ही नहीं दे रही है- द्वार पर खड़ी उतावली हो रही हैं, ऊपर से व्यंग और कस रही है- यदि बाधा नहीं पड़ती हो तो !! दर्शन दीजिये। क्या करते ? उठ बैठे-सस्चियों के मनोरथ पूर्ण करने को दोनों के श्री अंग में सुशोभित हैं। (सुरतांत छवि की शोभा तो मरगजी बागों से ही है जो समस्त विहार के सार को सूचित कर दें।) रतनदास जी लिखते हैं: “सुरतांत के समय अष्टयाम का जो विलास है, इसके सब सुखों का निचोर है। इस समय प्रिया- प्रियतम जू का हृदय और समस्त अंग सर्व सुख करके पूरन महा आनन्दित रसमय होता है ऐसे अद्भुत दर्शन पाकर सखियाँ तन-मन से बलिहार है, मन ही मन फूली नहीं समात है। प्रेम-रंग में सने, आनन्द में प्रिया-प्रीतम जमाई लेते हैं, दोनों के बाहु एक दूसरे में कसे हैं, जैसे कह रहे हों-सखियों हम तो तो रात भर गहरी नींद सो रहे थे-तुम तो यो ही हर बात का बतंगड़ बनाप देती हो। श्रीकमतलजैन जी महाराज अपने श्रीहित वरूप को नमस्कार करते हुए कहते हैं इस अद्भुत छवि पर कोटि-कोटि भानु की उज्ज्वलता और कोटि-कोटि चन्द्रमा की मधुर शीतलता न्यौछवर है “चंदन मयंक जगमगत अतिसे रवि-ससि ही को तेज छियावे ।”
अवहि निसि बीती नाहिंन वाम।
तुम मुख इन्दु किरण छवि व्यापी, कहत प्रिया सों श्याम।।
अंग-अंग अरसान वाम छबि मानि लेढु अभिराम
रहसि माधुरी रूप हित चित्त में होत न पूरन काम ||15||
यह सम्पूर्ण पद अभिवचनीय हितानन्द की लहरों से ऐसा गर्शित है कि इसपद की उपमा को कोई और पद ही दिखाई नही देता । और यदि किसी महात्मा में इस भाव को इतनी ही सुन्दरता से व्यक्त कियौ है तो उन्हें मेरी दण्डवत् स्वीकार हो । भीरूपलाल जी महाराज की कृपा मनाऊँ, जो मुझे बुद्धि प्रकाश दें तो पद के भाव को तनिक खोल सहूँ। जै जै श्रीहरिवंश
वह चैन’ जब थोड़ा-सा अपने स्थान से सरका, तो विपरीत रति के वैम ने प्रियाजी को तनिक झकझोरा-डड़ बैठी। लालजी ने देखा पहले से ही अमित है अब फिर विहार में रत हायेंगी तो और भमित हो जायेंगी, लगे बतराने-प्यारी प्रिया, अभी से क्यों उठ बैठी है- अभी तो रात्रि बीती नहीं है, यह जो ऊपाकालीन प्रकाश आप देख रही है यह तो आपके चन्द्रमुखी मुखारविन्द की कान्ति की किरणें है जिनसे सारा कुंज मन्द-मन्द प्रकाशित हो रहा है और आपके अंग-अंग की अरसान से जो छवि की तरंने उठ रही है, देखिये ना वह कितनी सुन्दर है। प्रियाजी तो भोरी है ही आगे क्या हुआ ? यह तो रहसि माधुरी “एकान्त में माध् पुरी की तरंगे है जो वित्त में उठती रहती है तो प्रिया प्रीतम कभी तृप्त नही होते श्रीरूपलाल जी महाराज कहते है। इति। जै श्रीराधे ।
आजु देख ब्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि
अंस-अंस बाहु दै किशोर जोर रूप राशि,
मनौ तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि पिकनि अपने सुर सो मेलि
मदन मुदित अंग-अंग बीच-बीच सुरत रंग, पल-पल हरिवंश पिवत जैन चषक झेलि ॥16॥
यह श्रीहित चतुरासी जी का पद है। अनेक टीकारों हो चुकी है। प्रेमदासजी महाराज, श्रीलोकनाथ जी महाराज, महात्मा श्रीस्तनदास जी, सुखलाल जी महाराज इत्यादि की प्राचीन टीकाएँ बड़ी भावपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आधुनिक टीकाएँ भी है।
प्राचीन टीकाओं से ऊपर उठकर कुछ कहने की मेरी क्षमता नहीं है। इसलिए इस पद का अर्थ प्राचीन टीकाओं के आधार पर ही कर रहा हूँ।
आजु देखी व्रज सुन्दरी मोहन बनी केली: प्रिया- प्रियतम नित नवीन बने रहे हैं और इनके विहार का आदि-अन्त नहीं। इसलिए यहाँ एकरस सदा ‘आज’ भी है। ब्रज-यानि समूह सो सखियों के समूह में जो महासुन्दर प्रियाजी है उनकी और मोहनलाल की केलि बनी है बनी है, यानि जैसी होनी चाहिये वेसी ही, जिसने तुम दोनों को मोहित कर रखा है।
अंस अंबा दें किशोर जोर रूप राशी, मनी तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि:
दोनों के बाहु परस्पर एक दूसरे के भौर – श्याम अंसों पर विराजे है और तुम दोनों किशोर हो , केलि की चाह सदा बनी रहती है । तुम दोनों रूप की राशि हो सो मानों सरस रूप रसमय कनक की बेलि लपट रही है । प्रिया प्रियतम के महा कोमल अंग हैं , जो विहार के समय बेलि और वृक्ष की तरह लपटे रहते हैं ।
नव निकुंज भ्रमर गुंज मंजु घोष प्रेम पुंज , गान करत मोर विकानि अपने सुर सो मेलि :
इन दोनों की जो लपटान है सोई नव निकुंज है । इस नव निकुंज में इन दोनों के अमर रूपी मन मधुर गंजार करते हैं सो प्रेम कौ पुंज है । विलास ही में रास की रचना हो रही है , मनोहर मोर जो श्रीमोहन और कलित कोकिला जो कंतरी जू की परस्पर की रस भरी गोलन है वही गान है जिसे सुर से मिलाकर कर रहे हैं । यह दोनों एक दूसरे को पोषने में तदाकार है , प्रेम के मिले सुर से गा रहे है ।
मदन मुछित अंग – अंग बीच बीच सुरत रंग पल पल श्रीहरिवंश पीवत नैने चाषक झेलि :
तुम्हारे अंग – अंग प्रेममय मदन के आनन्द से भरे है और बीच – बीच में प्रेम के वोज , चुम्बन परिरंभन आदि हो रहे है । श्रीहित सखी जी कहती है तुम्हारा यह प्रेममयी रसासब मैं पल – पल जैन रूपी पात्रों से पान करके जीती है इति ।।
आजु सखी, अद्भुत भाँति निहारि।
प्रेम सुदृढ़ की ग्रंथि जु परि गई, गौर स्याम भुज चारि॥
अबहीं प्रातः पलक लागी है मुख पर श्रमकन वारि।
नागरीदास निकट रस पीवहु अपने वचन विचारि॥17॥
हित नागरीदासजी अपने सखी स्वरूप में स्थित निकटवर्ती सखी से कहते है ।
‘ हे सखी , प्रिया प्रियतम विहार से अमित , अलसाय कर , अभी – अभी नेक सोए है । तुम जगा मत देना ) ।
अबही नेंकु सोए है अलसाय ।
काम केलि अनुराग रंग भरे जागे रैन विहाय ।।
बार – बार सपनेहूँ सूचत रंग के भाय ।
यह सुख निरखि सखीजन प्रमुदित नागरीदास बलि जाय।।18 ।।
परस्पर अनुराग के रंग में भरे प्रेम विहार करते सारी रात बीत गई प्रेम के भर में स्वप्न में भी बार – बार उसी प्रेम के भावों को प्रकट कर रह है
सिज्जा महल में सुख को देखकर सखियाँ आनन्दित हो रही है , नागरीदास जी स्वयं संबोधन करके कहते हैं , ‘ बलिहार जाऊँ । इति ।
सिटपिटात किरनन के लागे ।
उठि न सकत लोचन चकचौधत , ऐचि ऐचि ओढ़त बसन जागे ।
हिय सौ हिय मुख सौ मुख मिलवत रस लम्पट सुरत रस पागे ।
नागरीदास निरखि नैनन सुख मति कोऊ बोलौ जिन आगे ।।19 ।।
सिज्जा महल में , ऊषाकालीन , कुंज के सन्ध्रों में से सुनहरी किरणें सुबह होने का संदेश देती छिटको लगी प्रिया प्रियतम पर पड़ी तो नेक बेवैन से होने लगे । कोमल नेत्र अचानक किरणों का स्पर्श पाकर टि या गए । आनसवलित , जैसे तैजे नेक जागे , और अपने अपने वसन धीरे धीरे खींचातानी करते ओळने लगे , ” देखि संभार पीतपट ऊपर कहाँ चुनरी राती । ” इसी खींचातानी में प्रेम का भर हो आया हिय से हिय , मुख से मुख मिल गए . अधयमृत का आदान – प्रदान होने लगा । दोनों रस – लम्पट सुरत रस में पगे हैं ।
हित नागरीदास जी कहते हैं , हे सखियो अपने नैनों के पुट से इसको झेलो , चुप रहो , और सामने मत जाना , क्योंकि तुम्हे आया देखकर संकुचा जाएंगे तो विहार का सुख जाता रहेगा । तहाँ ध्रुवदास जी का मार्मिक दोहा – “
नाइक तहां न नाइका , रस करवावत केलि । सखी उभै संगम सरस , पियत नैन पुट झेलि ॥
भोर भये सहचरि अब आई ।
यह सुख देखत करत बधाई ।।
कोऊ बीना सारंगी बजावै ।
कोऊ इक राग विभासहिं गावै ।।
एक चरण हित सों सहरावै ।
एक बचन परिहास सुनावें ।
उठि बैठे दोऊलाल रंगीले ।
विधुरी अलक सबै अंग ढीले ।
घूमत अरुण नैन अनियारे ।
भूषण बसन न जात संभारे ।।
हार बार मिलि के उरुझानि । निशि के चिन्ह निरखि मुसिकाने ।।
निरखि निरखि निसि के चिह्न रोमांचित है जाहिं ।
मानौ अंकुर मैन के फिर उपजे तन माहिं।। 20 ।।
प्रातः हुई और सखियाँ सुरतांत छवि का दर्शन करने सेवा में आ पहुँची । दर्शन का सुख पाकर और एक दूसरे को बधाई देती है ।
कोई वीणा तो कोई सारंगी बजा रही है तो कोई राग विभास ही गा रही है । आनुसंगिक अर्थ है कि गाना बजाना एक ही राग में सुर से सुर मिलकर हो रहा है । एक चरण पलोटत है तो हास परिहास कर रही है । सखियों के मनोरथ पूर्ण करने हेतु दोनों उठ बैठे है । प्रियाजी की अलकें बिथुरी है और सभी अंग अंग में अरसान छाई है । प्रेम के भर में मैन अरुण है और गोलाक धूम रहें है । ” अरुण जैन धूमत आलस जुत कुसुम गलित लट पाँती । “
भूषण तसन सब अस्त व्यस्त हो रहे है । प्रियाजी का अंजन लाल जी पर और लालजी की पीक प्यारी के कपोलों पर लगी है । कपोलों की शोभा ऐसी बढ़ी मानों पीक कपोल कमल पर झोरी । ” ऐसी सुन्दर छवि भला कैसे वर्णन की जा सकती है । विहार के समय दोनों के हार और बाल जो परस्पर उलझ गए थे सुरझा रहे है । जैसे – जैसे सुरझाते हैं , और उलझते जाते है । ‘ नख सिखलों दोऊ उरझि रहे , नेकहूँ सुरझत नाहि । ज्यों – ज्यौ रूचि बाढ़ अधिक , त्यौ – त्यौ अधिक उरझाहिं ” ध्रुवदासजी ।
प्रेम बिहार में , श्री अंगों पर रात्रि में लगे चिह्नों को देखकर मुस्करा रहे हैं । ” फूले अधर पयोधर लोचन , उर नख भुज अभिरामिनी । गंडनि पीक मषि न दुरावति , ‘ व्यास ‘ लाज नहीं कामिनी । “
रात्रि के चिन्हों को देख – देखकर फिर दोनों को रोमांच हो रहा है , मानों प्रेम के अंकुर फिर से तन में अंकुरित हो उठे हैं । चाचा श्रीवृन्दावन दास जी अपने एक पद में कहते हैं
सकुचत सुरतांत चिन्ह देवि देखि समुझि – समुझि सुखहि लियें मनहि दिये हितु बढ़ायौ । लसत मरगजे सुवीर , भवन भई शोभा भीर , दुहुन को सुहाग भाग छकि छकि दुलरायो । ” सुहृदयों के हृदयगम्य है ।
राधा प्यारी मेरे नैने सलोल ।
तै निज भजन कनक तन जौवन , लियौ मनोहर मोल ।।
अधर निरंग अलिक लट छूट , रंजित पीक कपोल ।
तू रस मगन भई नहिं जानत , ऊपर पीत निचोल ।।
कुच युग पर नख रेख प्रगट मानौ , शंकर शिर शशि टोल ।
जय श्रीहित हरिवंश कहति कछु भामिनी अति आलस सों बोल ।।21 ।।
यह भी श्रीहित चतुरासी जी का पद है । प्राचीन टीकाओं के आधार पर अर्थ प्रस्तुत है ।
मूल : – राधाप्यारी तेरे नैन सलोल ।
राधाप्यारी तेरे नैन अतिशय करके ललिता सों भरे चंचल है ।
अपार गुण है इन नैनों के । ऐसे रंग भरे कटाक्ष चलते है कि लाल जी के प्राण अपने वश में करते हैं , अति बाँके है , किसी के बस नहीं , अति रिझावर है , नेक चोज की बात देखि , तुरन्त रीझ जाते है ।
मूल : – तै निज भवन कनक तन जीवन लियों मनोहर मोल :
भजन शब्द के दो अर्थ है । एक तो सेवा दूसरा अंगीकार करना । तै निज भजन – भक्ति रति विपरीत सों , कनक तन- जिस श्री अंग में ओटे हुए कनक की सी आभा है , जीवन करके प्यारे को मोल लीयो है । कहने का अभिप्राय यह है कि प्यारो आप पर न्यौछावर हो गयो है ।
मूल : – अधर निरंग अलिक लट छूटी रंजित पीक कपोल :
तुम्हारे अधरों में रस रंग का भर रहा , जो प्रीतम को महा विलास में परमान्द दियौ , जिससे बेनी के बन्ध ढीले हो गए है और चिकुर चन्द्रिका से लटें छूटकर भालस्थली पर राजे है , कपोलों पर पीक लगी है । ।
मूल : – तू रस मगन भई नहीं जानति ऊपर पीत निचोल :
तू रस में ऐसी मगन भई कि तुम्हे पता नहीं पड़ा कि प्रीतम का पीताम्बर तुम्हारे ऊपर कब आ गया । श्रीअंगों की अद्भुत शोभा बढ़ी है ।
मूल : – कुच युग पर नख – रेख प्रगट मानों , शंकर शिर शाशि टोल :
दोनों कुतों पर विहार में प्रीतम के नखों की रेखा सी बन गई है । सो ऐसा प्रतीत होता है , शंकरजी के सिर पर जैसे अर्ध चन्द्रमा विराजे है , वैसे नव रूपी चन्द्रमा के समूह की अबली बन गई है ।
कुच नखरेख धनुष की आकृति मनो शिव शिर शाशि राजै ।
सुनत ‘ सूर ‘ प्रिय वचन सखी मुख , नागरी हँसि मन लाजै ।।
मूल : – जै श्रीहित हरिवंश कहत कछु भामिनी अति आलस सों बोल :
जब प्रियाजी ने ऐसे रंग भरे वचन सुने तब अन्तर में तो अति आनन्दित हुई पर ऊपर से सकुच के आलसवंत भइ बोली ” हित सखे तुम तो ऐसी बातें बनाती ही कि आशचर्य को भी आश्चर्य होता है । इसी प्रकार आनन्द की अलसान में प्रियाजी कुछ कहती रही . ” हित सखी जू कहती है । इति ।
मंगल समय खिचरी जेंवत है श्रीराधावल्लभ कुंजमहल में ।
रति रसमसे गसे गुण तन मन नाहिन संभारत प्रेम गहल में ||
चुटकी देत सखी संभरावत हंसत हंसावत चहल पहल में ।
जै श्रीकुंजलाल हित यह विधि सेवत समै समै सब रहत टहल में ||22||
श्रीवृन्दावन कुंज महल में प्रिया प्रियातम खिचरी आरोग रहे हैं ।
प्रेम रस में भीजे , दोनों के तन मन परस्पर एक दूसरे से जुड़े है , प्रेम की उन्मत्तता के कारण अपने को संभाल नहीं पा रहे हैं ।
प्रेम की गहर में से यह निकलें तो सखियों के मनोरथ पूर्ण हों अत : सखी चुटकी बजाकर सावधान करती है , चहल पहल है हास परिहास कर रही है ।
श्रीकुंजलाल जी महाराज कहते है कि इसी प्रकार सखियाँ हर समय , समय के अनुसार सेवा में रहती है ।
खिचरी जेवत है पिय प्यारी ।
सीत समै रुचि जानि सुगंधन मेलि सखीनु सँवारी || पहले प्रियह जिवावह जेंवत रसिक नरेस महा री
जै श्रीकुंजलाल पिय की बातन की घातन जानन हारी ||23||
प्रिया प्रियतम खिचड़ी आरोग रहे है । शीत समय जानकर सखियों ने सुगन्धित पदार्थ डालकर खिचड़ी को संवार दिया है । रसिक नरेश पहिले प्रियाजी को जिमाते हें फिर स्वयं पाते है । श्रीकुंजलाल जी महाराज कहते हैं । कि प्रीतम बातों में जो खुशामद कर रहे हैं , इन घातों को , प्रियाजी खूब जानती है ।
खिचड़ी राधाबल्लभ जू कौ प्यारौ ।
किसमिस दाख चिरौजी पिस्ता अद्रक सौ रुचिकारी ||
दही कचरिया वर सैधाने बरा पापर बहु तरकारी ।
जायफल जावित्री मिरचा घृत सों सीच संवारी ||24||
अर्थ स्पष्ट है ।
खिचरी जेंवत जुगल किशोर ।
निसि अनुरागे दम्पति उठे उनीदे भोर |
अंग अंग की छवि अवलोकत ग्रास लेत मुख सुखहि निहोर ।
जै श्रीरूपलाल हित ललित त्रिभंगी बिबि मुखचन्द्र चकोर ।।25।।
श्री श्यामा श्याम खिचड़ी आरोग रहे है । सम्पूर्ण रात्रि विहार करने के बाद , अति अनुराग का भर लिए दोनों उनीदे उठे है ।
एक दूसरे के अंग की छवि देख – देखकर सुख का अनुभव करते , बड़े – बड़े निहोरे से खिचड़ी का ग्रास मुख में लेते उजाते हैं ।
श्रीरूपलाल जी महाराज कहते है कि प्रिया – प्रीतम एक दूसरे के मुख को चन्द्र और चकोर की भाँति निहारते रहते हैं ।
अधिक हेत सों पावें पिय प्यारी ।
थार सैंजोये धरें कर आवति , सीत समै रुचिकारकी ।।
बहुत मेवा मिलबारी अचारी , बासौधी लीये सब ठाड़ी ।
यह सेवा हित नित्त कृपा प्रिय सों राधालाल संवारी ।।26।।
प्रिया प्रीतम बड़े प्रेम से खिचरी पा रहे हैं । खिचड़ी के थार संजोकर हाथों में लिए सखियाँ लिए आ रही है , सदी में रुचिकारी है । बहुत प्रकार का मेवा , मिलबरी , अचार बासौधी ( एक प्रकार की बड़ी ) लिए सखियाँ खड़ी है । श्रीराधालाल जी ने यह सेवा श्रीप्रिया प्रीतम की कृपा से संवारी नोट – बड़ों से सुना है कि श्रीराधालाल जी महाराज बड़े अनुराग आ पाए । जब दूसरे सहयोगी बनाने बैठे तो कहते हैं मनो – मन लकड़ी फुक गई परन्तु खिचड़ी सिद्ध नहीं हुई । आखिर उन्हें जैसे तैसे बुलाया गया उन्होंने आकर खिचड़ी को संवारा तो भोग लगा ।
रूप रसासव माते दोऊ श्रीराधाबल्लभ जेंवत खिचरी ।
अरस परस मुसिकात जात बतरात बात बात बोलत बिच बिचरी ।।
खाटे सरस सँधाने नव – नव पापर कचरी लेत रुचि – रुचि री ।
नेह निहोर जिवाँवत हित सखी कोमल मधुर ग्रास घृत निचुरी ।।
फरगुल सुरंग रजाई कनक अंगीठी अगरसत सचरी ।।27।।
रूप रसासब में दोनो मत्त , प्रिया प्रीतम खिचरी पा रहे हैं ।
दानों मुस्कराते जाते है और पाते समय परस्पर बीच – बीच में बतबताते जाते हैं । कई प्रकार के खाटे और सरस आचार , पापर , कचरी बड़े प्रेम से आरोग रहे हैं ।
श्रीहित सखी जू घृत से निवुड़ि खिचरी के कोमल मधुर ग्रास बड़े नेह और निहोरा कर करके प्रियालाल को जिमा रही है ।
श्रीयुगल ने सुरंग ( लाल ) रजाई , फरगुल ओढ़ रखी है और पास में सोने की अंगीठी ‘ अगरसत ‘ डाली हुई रखी है ।
नोट : – अगर मगर एक विशेष प्रकार के वृक्षों को कहते है जिसकी छाल का इत्र भी बनता है जो बहुत कीमती होता है ।
चलौ चलौ सखी देखें दोऊ जैवै ।
भरे थार खिचरी घृत निचुरी के आगे , हँसि हँसि सुकुमार प्यारे कैसे दोऊ जैवें ।।
प्रिया के मुख पीये देत पिय के मुख प्यारी ।
बीच – बीच अधर पान प्रानन सो हेरै ||28||
अर्थ स्पष्ट है ।
प्यारे जैवत है सुकुंवार ।
सरस सुगंध उठत उछगारें भरि खिचरी के थार ।।
पापर कचरी तलप कटाक्षन भृकुटी मुरन को अचार ।
जुरे परस्पर नैन दुहुन के प्रेम रूप को अहार ।।
पहिलै प्रियहिं जिवाँवत जैवत रहत है वदन निहार ।
ऐसी विधि सों जेंवत प्यारे हित सुख की ज्यौनार ।।29।।
दोनों सुकुमार लाड़िली लाल खिचरी आरोग रहे है ।
अब आरोगने की रीति कहते हैं । सिज्जा महल में खिचरी के भरे थाल रखे है , पापर , कचरी भृकुटि मुरन कौ आचार ( सेम का आचार है ) सरस सुगन्ध की उगारें उठ रही है ।
सिज्जा पर परस्पर दोनों के मैने जुड़े है , कटाक्ष चल रहे हैं , लालजी प्रियाजी की प्रेम रूप माधुरी का आहार करते जाते है और संग – संग प्रिया जी को जिमाते हैं और स्वयं जैमते जाते हैं हैं । ऐसी विधि से यह हित रूपी सुख की ज्यौनार परस्पर हो रही है ।
भोर मिलि जैबै दोऊ बनी – बनरा खिचरी ।
झमक सेज तें उठे उनींदे ब्रजजीवन घृत सों निवुरी ।।
मंगल रूप समै मंगल में रूचि सौ खिचरी पावै ।
ओढ़े फरगुल रंग सहानी छवि जीव जिबावै ।
झुकि – झुकि परत नैन अलसोहें हित सजनी फैनी अरु बासौदी ब्रजजीवन मन भावै ।
अदरक कूचा बन्यौ चटपटौ कर पल्लव दोऊ चाटें ।
वे उनके वे उनके मुख सों हँसि – हँसि सों लावै ।।
नथ उठाय बेला पय पीवैं कौतुक रंग मचावै ।
ब्रजजीवन हित कहाँ लगि बरनौ कुंज महल के ठाठै ||30||
प्रिया प्रीतम प्रातः दोनों मिलकर घृत से निचुरी खिचरी आरोग रहे हैं ; बनी बनरा- कहा , सो श्रृंगार सहित विराजे है- ऐसे जानिए । बड़ी छवि सों सिज्जा पर से उनीदें उठे हैं । बड़ी रूचि सों , ये दोनों मंगल रूप , सबेरे के मंगलमय समय में , खिचड़ी आरोग रहे है । सहानी रंग की फर्मुल ओढ़ रखी है , सुन्दर छवि को देखकर सखियां बलिहार है । युगल एक झुकने लगते है तब हित सजनी सम्हार करती है । माखन , मिश्री मगढ़ के लड्डू , पाक , मुरब्बा पाते है ।
अदरक कूचा चटपटा बना है जिसे पल्लू की ओट में दोनों चाट रहे हैं । दोनों हँसते जाते है और एक दूसरे को पवाते जाते है । प्रियाजी नथ उठाकर बेला में से दूध पी रही है । ( बेला एक विशेष प्रकार का चपटा गोल पात्र होता है जिसके किनारे थोड़े ऊपर की ओर उठे हुए होते हैं । और ऊपर से किनारे भीतर की ओर मुड़े रहते हैं । यह ब्रज का बहुत मांगलिक पात्र माना जाता है । घर में पुत्र जन्म होने पर बेला बजाते हैं , शादी व्याह में इसका प्रयोग तरह – तरह के मांगलिक कार्यों में होता है ।
ब्रजजीवन जी महाराज कहते हैं कुंज महल के इस ठाठ का कहाँ तक वर्णन करूँ ।
खिचरी युगल रुचि सों खात ।
पौष शुक्ला दोज तें लै मास एक प्रभात ||
दही कचरी वर संधाने बरा पापर घीय ।
ढिग अंगीठी धरी मीठी लगत प्यारी पीय जल पिवाय धुवाह हाथ अगौछ बीरी देत ||
सखीजन बाँटति तहाँ हित ब्रजलाल जूठन लेत ||31||
अर्थ स्पष्ट है ।
अचवन बीरी दै मंगल आरती सजि बाढ़यौ सखिन मन मोद ।
जै श्रीकुंजलाल हित असीसत एसै ही करौ विनोद ।।
जै श्रीकिशोरलाल हित रूप अलि बाँटत देति लेति सब सखी सहचरि कृष्णदास आसपास निरखत हित को विलास , दौरि – दौरि आवें सखी जूठन कौ लेवै । चलौ चलौ सखी देखै दौऊ जै चुके , जै चुके , जै चुके ||32||
अर्थ स्पष्ट है ।
निरखि आरती मंगल भोर |
मंगल स्यामा स्यामा किशोर ।।
मंगल श्रीवृन्दावन धाम ।
मंगल कुंज महल अभिराम ।।
मंगल घंटा नाद मु होत ।
मंगल थार मणिनु की जोति ।।
मंगल दुंदुभी धुनि छबि छाई ।
मंगल सहचरी दरसन आई ।
मंगल वीणा मृदंग बजावै ।
मंगल ताल झाँझ झरलावै ।।
मंगल सखी यूथ कर जोरै ।
मंगल चंवर लिये चहुँ ओरै ।।
मंगल पुष्पावलि बरसाई ।
मंगल जोति सकल बन छाई ।।
जै श्रीरूपलाल हित हृदय प्रकाश ।
मंगल अद्भुत युगल विलास ||33 ||
यहि विधि मंगल आरती करी ।
निज मंदिर आगै चिक परी ।।
ललितादिक भीतर अनुसरी ।
जै श्रीकमलनेंन हित सेवा भई ।
श्रीराधे , किशोरी राधे , लड़ैती राधे ।
श्यामा प्यारी जय राधे || 34 ||
अर्थ स्पष्ट है ।
इति खिचरी उत्सव श्रृंखला की जै जै श्रीहरिवंश