हित हरिवंश महाप्रभु जी के माता पिता का नाम व जन्म स्थान ?
माता का नाम – श्रीमती तारा रानी
पिता का नाम – पं. व्यास मिश्र जी
निवास : सहारनपुर ज़िले के देववन्द गाव के कश्यप गौत्र के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे .

श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी के जन्म की कथा
सबसे पहले जानते है हितहरिवंश जी के पिता जी के बारे में :
श्री व्यास जी विद्वानों के प्रकांड विद्वान थे |ये ज्योतिषाचार्य भी थे |इन्हें बहुत सारे वेदों का भी ज्ञान था ,जिससे इनकी ख्याति दिनों दिन फ़ैल गयी |इस कारण देववृन्द का और भी महत्व बढ़ गया |इनकी ख्याति तत्कालीन बादशाह तक पहुची तो बादशाह ने आदर सहित इनको अपने दरबार बुला लिया |राजा इनके सत्संग से बहुत प्रसन्न हुए और इनको अपने दरबार में रख लिया तथा इन्हें चार हजारी मनसब भी प्रदान की |कुछ समय राजदरबार में रहने के बाद व्यास जी अपने निज स्थान देववृन्द आ गए | श्री व्यास जी धन धान्य से भरपूर सब शास्त्रों के ज्ञाता रहे| धर्म शीलता तो मानो इनमे कूट कूट कर भरी थी | उनके पास सब कुछ था ! बस सिर्फ एक ही चीज की कमी थी वो था संतान का सुख , व्यास जी तारा रानी अपनी किस्मत को इसका कारण समझते थे पर ताराजी का मानना था की व्यास जी लोगो की किस्मत पढ़ते है किस्मत बदलते है, तो फिर हमारा भाग्य क्यों ऐसा है, वो हर दिन ऐसा ही सोचते रहते थे
एक दिन एक संत वहाँ से गुजर रहे थे व्यास जी तारा रानी जी ने संत को सादर से मखमली आसन पर विठाया पखारे सेवा की भोजन कराया उसके बाद वो संत के पास बैठे ताकि कुछ वचनों का आनद ले सके वो ताराजी जी देख कर बोले की आपके पास इतना सब कुछ तो है फिर अब किस बात की कमी है आपके इस उदासी का क्या कारण है तो व्यास जी बताते है की किस्मत में बस संतान की कमी है गोद सूनी है तो संत बोलते है ये तो भाग्य की बात है !
तभी तारा रानी बोल उठी ‘ जब सब भाग्य किस्मत पर ही निर्भर है तो फिर संतो की क्या महिमा और फिर तो सर्वोपरि भाग्य को ही होना चाहिए भगवान को नहीं’ ये बात तारा रानी की ममता उससे बुलवा रही थी ! तभी संत ने उपदेश दे दिया की आपकी कोख से साधारण बच्चे का जन्म नहीं उनका जन्म होगा जो तीनो लोको के स्वामी है वो श्री राधे कृष्णा के बंसी के अवतार होगे ! इस बात से व्संयास जी तारा जी बहुत ही प्रफुलित हो गये और वहाँ से चले गये पर संत की बात कभी भी झूठी नहीं हो सकती थे तो उन्होंने उनका वचन स्वीकार किया ! ये उनका कितने जन्मो का फल था ! उन्होंने बहुत भक्तो की सेवा कप्रभु के आगमन की प्रतीक्षा का आनंद लेने लगे उनकी कृपा से ही ये संबभ हो पाया.
( इन संत के बारे में : व्यास जी 9 भाई थे उनमे से सबसे बड़े भाई थे नर्सिंआश्राम जी ये नरशिंह भगवान के परम भक्जित थे उन्होंने कुछ समय पहले ही सन्यास लिया था ये वही थे )
तारारानी का पूर्ण समय भजन पूजा में ही बीतता था अचानक से उनके मन में पता नहीं कहा से पर वृन्दावन जाने की लालसा होने लगती है वो इस बारे में व्यास जी के बात करती है उन्होंने समझाया की इस समय जाना उचित नहीं है पर वो इच्छा के आगे व्यास जी की भी नहीं चली और वैद लोगो ने भी बोला की इस समय तो जो इच्छा हो वो तो पूरी करनी ही पड़ेगी !
तारारानी व्यास जी के साथ काफिला वृन्दावन की और निकल पड़ा ! काफी समय चलते चलते वो मथुरा में प्रवेश करते है दशमी का दिन था रात्री हो गयी थी तारारानी ने अपने मस्तक पर रज लगाई मथुरा में एक स्थान का नाम है ‘ वाद ‘ गाव. उनका काफिला वहा रुकता है ! वहाँ पर उनके आगमन भर से प्रकति जैसे खिल उठी हो मोर नाचने लगे प्रकति जैसे उनके ही स्वागत में हो ! फिर व्यास जी चिंचित होने लगे क्योकि प्रसव का समय निकट था ! वहाँ के लोग बोलते है बड़ा ही आश्चर्य की बात है पहली बार वातावरण ऐसा हो गया जैसे की आनद ही आनंद हो गया नाचने का मन होने लगा ! व्यास जी उनसे सहयोग मांगते है की प्रसव का समय है !
श्री हरिवंश जी का जन्म विक्रम संवत् 1559 में वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार को प्रातः सूर्योदयकाल में हुआ था
उस दिन मोहिनी एकादशी है जिनका जन्म व्रज भूमि पर होता है ( केवल यही एक ऐसे आचार्य है जिनका जन्म व्रज धाम पर हुआ ) जो की ठाकुर जी के बंसी का प्राकट्य है !
सभी व्रज वासी ऐसे झूमे नाचे की अपने बच्चे के जन्म पर भी नहीं नाचे ! पुरे व्रज के लोग कितना आनंद लुटने में व्यस्त थे बच्चे बुठे सब बधाई गाने लगे ! बहुत ही अध्बुध दर्शय होता है ! वो फिर अपने गाव देववन्द आ जाते है ! और वहाँ भी बहुत बड़ा उत्सव करते है !
5 दिन हो जाते है, वहाँ नर्शिंग जी आ जाते है वो सबसे पहले हरिवश जी की 7 परिकर्मा करते है व्यास जी उनसे अनुरोध करते है की इनका नामकरण भी आप ही करे व्यास जी द्वारा जन्म कुंडली बना तो लेते है पर वो पूरी तरह कृष्ण जी की थी
फिर नरशी जी उनका नाम हरिवंश रखते है ( हरि के वंश है वो इसलिए उनका नाम रखा गया )
कोई हरिवंश जी के सामने राधा नाम लेता है तो वो किलकारी मारने लगता है !
हित हरिवंश महाप्रभु जी के बचपन के पल
प्रसंग 1
हितहरिवंश महाप्रभु जी 4-5 साल के थे तब का एक प्रसंग बताते है , एक दिन वो जल्दी उठ गये और उस समय उनकी मैया ने ठाकुर सेवा भी नहीं की थी और मंदिर के पट भी बंद थे वो उठे और बोलते है मुझे चरणामृत दो तो वो रोने लग गये माने ही नहीं तो उनकी माँ ने उनको पानी में ही चन्दन डाल कर दे दिया बोली रो मत ये लो चरणामृत है वो बोले चरणामृत नहीं है, और दिन तो इनमे राधा माधव के चरणों की सुघंद आती थी पर इसमें नहीं आ रही है !
तब उनके माता पिता चकित रह जाते है हम पुरे जीवन में ये बात नहीं जान पाए और ये अभी इस उम्र में इस अवस्था में है इसे ही बोलते है अनन्य भक्त !
प्रसंग 2
एक बार श्रीहित उन्होंने दो बालकों का राधा और मोहन के रूप में श्रृंगार किया फिर कुछ देर बाद श्रृंगार बदल कर राधा को मोहन और मोहन को राधा का श्रृंगार धारण करा दिया । अंदर घर में इनके पिता व्यासजी अपने आराध्य श्रीराधाकान्त का श्रृंगार कर उनकी छवि निहार रहे थे। तभी अचानक वे चौंक पड़े। उन्होंने श्रीराधा को श्रीकृष्ण वृद्धावस्था के कारण उन्हें भ्रम हुआ होगा परन्तु तुरन्त ही वह श्रृंगार अपने-आप बदलने लगा।
वह घबराकर बाहर आए तो देखते है कि बगीचे में श्री हित हरिवंश अपने सखाओं के साथ राधा और कृष्ण का श्रृंगार बदलने का खेल खेल रहा है उनको आभास हो गया कि निश्चय ही कोई असाधारण महापुरुष उनके घर प्रकट हुआ है।
प्रसंग 3
एक दिन इनके पिता व्यासजी ने ठाकुरजी के सामने लड्डुओं का भोग रखा और आँखें बंद कर भोग मन्त्र बोलने लगे। जब उन्होंने आंखे खोली तो देखते हैं कि भोग के थाल में फलों के दोने रखे हैं। उन्हें पुरानी घटना याद आ गयी । उन्होंने बाहर आकर देखा कि बालक श्रीहित हरिवंश ने बगीचे में दो वृक्षों को नीली-पीली पुष्पमाला पहनाकर राधा कृष्ण का स्वरूप बनाया है ओर उनके सामने फलों का भाग रखा है
प्रसंग 4
एक बार उनके मन मे विचार आता है कि ये ठाकुर जी तो मेरे माता पिता के है वो अपनी मर्जी से सृंगार भोग सेवा करते है हमारे भी अपने ठाकुर होने चाहिए तो एक दिन पांच वर्ष की आयु में श्रीहित हित हरिवंश जी को ठाकुर जी ने सूचना दी कि हमारे विग्रह बगीचे के सूखे कुएं में है इतना जाना और वो तो कुँए में कूद गए ।
यह देखकर माता-पिता और कुटुम्बीजन अत्यन्त व्याकुल हो उठे। तभी लोगों ने देखा कि कुएं में एक दिव्य प्रकाश फेल गया है और बालक श्री हित हरिवंश श्याम सुंदर की एक सुन्दर मूर्ति को अपने कर कमलों में सम्हाले हुए अपने-आप कुएं से ऊपर उठते चले आ रहा है। उनके ऊपर पहुंचते ही कुंआ मीठे जल से भर गया ।
ठाकुर जी को लाकर राजमहल में पधराया गया और श्रीहित हरिवंशजी के पिता जी ने उनका नाम रखा- श्रीनवरंगीलाल ( क्योकि वो रोज नई नई लीला करते है ) और उनकी पूजा सेवा बड़े प्रेम से करने लगे। आज भी देववन्द में श्रीराधनावरंगी लाल जी के दर्शन कर सकते है बिल्कुल राधावल्लभजी जैसे है बस उनसे थोड़े छोटे है पर बहुत ही अधबुद्ध है ।
हित हरिवंश महाप्रभु जी 16 वर्ष में
अब व्यास जी को विवाह की चिंता हुई तो महाप्रभु जी का विवाह रुक्मणी जी से हुआ । उन्होंने उनकी भक्ति को आगे ही बढ़ाया । उनकी माता तरारानी और उनके पिता जी व्यास जी की इच्छा थी कि वो राधामाधव जी का दर्शन करें तो जीवन धन्य हो जाये तो उनको भी हरिवंशजी ने ठाकुर जी के प्रत्यक्ष दर्शन कराए !! फिर पहले माता का फिर पिता का शरीर पूरा हो जाता है ! श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का निकुंजगमन संवत् 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र संवत् 1590 में हुआ !
श्रीमती रुकिमणी देवी से इनके एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए !
ज्येष्ठ पुत्र श्रीवनचन्द्रजी संवत् 1585
द्वितीय पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र संवत् 1587
तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी संवत् 1588
पुत्री साहिब दे संवत् 1589
माता पिता की मृत्यु के उपरांत श्री हरिवंशजी को श्री जी ने सपने में आकर आदेश दिया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्तिपद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें | उन्होंने साथ चलने के लिए बोला पर उनकी पत्नी ने बोला भी वो वहाँ कैसे रहेगी वहाँ तो खतरनाक जंगल है और बच्चे भी छोटे थे और उनके 4 सखा थे जो उनके अलावा किसी के साथ जीवन की नहीं सोच सकते थे महाप्रभु जी ने उनको साथ आने से काफी मना किया पर वो नहीं माने तो फिर वो भी साथ में उनके चल पड़ते है
वो भजन करते करते पैदल निकल जाते है । रास्ते मे प्रेम बाँटते जाते है रास्ते मे एक शेर लेता होता है पर हरिवंशजी को सुध नही होती है उनका पैर उस के उप्पर पड़ गया था तो शेर खड़ा हो गया तब हरिवंशजी उनकी ठोड़ी ( Chin ) पकड़ कर बोलते है भाई हरि बोल हरि बोल । उतने में शेर में भी कृष्ण प्रेम का संचार हो जाता है। शेर के साथ हरिवंशजी खूब नाचे ।
उनके एक चरण को शेर चाट रहे है एक हो हिरण ।। वहाँ के वातावरण में बस हरि बोल हरि बोल गूँजता है । थोड़ी दूर जाकर वो एक सरोवर में जाकर स्नान करते है और उसी में जंगली हाथी भी स्नान कर रहे होते है हरिवंशजी ने कुछ छीटे उन पर भी डाले और बोले हरि बोल । पूरे जंगल मे आनंद हो गया ।
चरथावल में आत्मदेव नामक ब्राह्मण के यहां ठाकुर श्रीराधाबल्लभजी विराजमान थे। आत्मदेव को श्री राधा जी ने स्वप्न में आज्ञा दी कि अपनी दोनों पुत्रियों ( कृष्णदासी एवं मनोहरी ) का विवाह श्रीहित हरिवंशजी से कर दो और दहेज में मुझे दे देना । यही सपना श्री जी का हरिवंश जी को भी आया । आत्मदेव ने श्री राधा जी की आज्ञा बताकर श्रीहित हरिवंशजी को ठाकुर श्री राम बल्लभ जी दे दिए और अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे कर दिया। चथड़ावल गांव में ही उनकी शादी हुई ।
राधावल्लभ जी रस मूर्ति आत्मदेव को कहा से मिली ??
राधावल्लभ जी शिव शंकर जी द्वारा दिये गये जो कि आत्मदेव द्वारा भक्ति से एवं श्री जी की आज्ञा से राधावल्लभजी आत्म देव जी को दिए । आत्मदेव जी के सामने जब शिव जी प्रकट हुए तब उन्होंने कुछ मांगने को बोला तो आत्मदेव जी ने बस इतना ही बोला की जो आपको सबसे प्रिय है वो ही देदो तो उन्होंने स्मरण किया की सबसे ज्यादा तो हम राधावल्लभ जी को ही प्रेम करते है तो ठाकुर जी की आज्ञा से वो रस मूर्ति आत्मदेव जी को दे दी एवम् काफी साल आत्मदेव जी ने उनकी पूजा की प्रेम किया और निश्चय किया की हम इनको उसी को देगे जो हमारी पुत्रियों से विवाह करेगे ! वही राधावल्लभ जी हरिवंश को मिले और जिस गांव से वो गुजरते थे उसी गांव में उत्सव होता है । 2 महीने में जाकर वो वृंदावन पहुचते है और सबसे पहले यमुना जी का दर्शन करते है ।
मदनटेर नाम की जगह पर वो रुके और विराजमान हुये वहाँ व्रजवासी आये और पहले तीर छोड़ा जाता था जहाँ तीर गिरता था वही तक उनको जमीन दे दी गयी थी जहां तीर गिरता है पहले इस जगह का नाम तीर घाट था फिर बाद में चीर घाट हुआ वो सारी जमीन हरिवंशजी को दे दी गयी थी । फिर सेवा कुँज में ठाकुर जी विराजमान हुये । श्री हरिवंश जी पहले आचार्य थे जो परिवार के साथ आये और रहे ।
“ हम श्री राधा महारानी जू के बल अभिमानी, किशोरी अली निवास हमारो, श्री वृन्दावन रजधानी ” – श्री अली किशोरी
हम सदा ही श्री किशोरी जी के बल के अभिमानी हैं। हमारा मन सदैव प्रिय प्रियतम के निज महल वृन्दावन में रहता है, जो कि रसिक संतों और युगल सरकार की राजधानी है।