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श्री वृन्दावन सतलीला

“श्री वृन्दावन सतलीला”

श्री राधावल्लभो जयति, श्री हित हरिवंशचन्द्रो जयति



सर्वाद्य रसिक जन वन्दित चरणा, रसिक आचार्य शिरोमणि, वंशीवतार श्री श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु द्वारा प्रवर्तित श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में वाणी साहित्य की प्रचुरता है। रसिक महानुभावों ने निज भाव भावना को सिद्ध कर जिस परम रस का आस्वादन किया, वाणी ग्रन्थ उसी रस का सहज सरल उद्गलन हैं।

इसी परंपरा में रसिक भूषण सन्त श्री ध्रुवदास जी की वाणी श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ है। इस वाणी का सर्वाधिक महत्व यह है कि यह स्वयं श्री रास रसेश्वरी, नित्य निकुञ्जेश्वरी प्रिया श्री राधा द्वारा प्रदत्त प्रीति प्रसाद है। अत: यह रस गिरा स्वतः सिद्ध एवं सर्वरसिक जन पोषिणी तो है ही, अनेकानेक रसिक महानुभाव इस वाणी के अनुशीलन द्वारा ही सैद्धान्तिक मर्म को हृदयङ्गम कर उपासना सिद्ध करते आ रहे हैं। अत: यदि कहा जाए कि हित रस तरु को श्री ध्रुवदास जी ने बयालीस लीला के वर्णन द्वारा सुफलित किया है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

इसी ग्रन्थ रुपी भाव मंजूषा में एक अति प्रिय और महामधुर भाव रत्न”श्री वृंदावन सतलीला” है, जिसका पठन एवं श्रवण मात्र सहज रुप से श्री वृंदावन अधिकारिणी का कृपा पात्र बना देता है, स्वयं श्री हित आचार्य महाप्रभु ने श्रीमद् सुधा निधि में कहा है कि :

“क्वासौ राधा निगम पदवी दूरगा कुत्र चासौ,
कृष्णस्तस्याः कुचकमलयोरन्तरैकान्तवासः।
क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गयकर्मा,
इयत्ता नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य।।

श्री राधा माधव युगल के मधुरातिमधुर नित्य केलि रस का चिंतन तभी हो सकता है जब सर्वप्रथम सम्यक रूप से श्री वृन्दावन का स्वरूप हृदय में आए और यह स्वयं श्री वृन्दावन की कृपा से ही सम्भव है।

यह हित सौरभ सुवासित वाणी पुष्प रसिक समाज को आनन्दित करे यही श्रीहितमहाप्रभु के श्री चरण कमलों में प्रार्थना है। अभिलाषा है।


“श्री वृन्दावन सतलीला”

श्लोक – 1
प्रथम नाम हरिवंश हित, रट रसना दिन रैन।
प्रीति रीति तब पाइयै, अरु वृंदावन ऐन ॥1॥

श्रीहितध्रुवदास जी कहते हैं – हे जिह्वा ! तू सर्वप्रथम प्रेम मूल श्रीहित हरिवंश नाम ही सतत् रट, इसी परम मधुर नाम का ही गान कर। क्योंकि इस नाम की रटन के फलस्वरूप ही श्री हित युगल की अद्भुत प्रीति रीति और श्री वृंदावन रूपी विश्राम प्राप्त होगा।


श्लोक – 2
चरन सरन हरिवंश की, जब लगि आयौ नाहिं।
नव निकुंज निजु माधुरी, क्यौं परसै मन माहिं।।2।।

जब तक प्रकट प्रेम स्वरूप श्री हरिवंश के श्री चरणों की शरण न ली जाए, तब तक नित्य निकुंज की नित्य नवायमान रस माधुरी को मन स्पर्श भी कैसे कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता।


श्लोक – 3
वृंदावन सत करन कौं, कीन्हौं मन उत्साह।
नवल राधिका कृपा बिनु, कैसे होत निबाह ॥3॥

श्री हित ध्रुवदास जी कहते हैं कि मेरे मन ने ” श्री वृंदावन सत”ग्रंथ रूपी श्री वृन्दावन का गुणगान करने का उत्साह तो किया है परन्तु नवल किशोरी श्री राधिका के कृपा कटाक्ष के बिना कैसे ये आशा पूर्ण हो सकती है।


श्लोक – 4
यह आसा धरि चित्त में, कहत जथा मति मोर।
वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर ।।4।।

अत: उन्हीं श्री बनराज रानी की कृपा की आशा अपने चित्त में रखकर यथामति श्री वृंदावन की महिमा वर्णन करता हूँ, क्योंकि श्री वृंदावन की माधुरी अनन्त है जिसका आज तक किसी ने ओर छोर नहीं पाया है।


श्लोक – 5
दुर्लभ दुर्घट सबनि कैं, वृन्दावन निजु भौन।
नवल राधिका कृपा बिनु, कहिधौं पावे कौन ।।5।।

यह परम रसमय काव्य श्री वृंदावन जो श्री राधा माधव युगल का निज धाम है, सबसे दुर्लभ और अगम अगोचर है। नित्य निकुंजेश्वरी श्री राधाकी कृपा बिना कोई कदापि इसे प्राप्त नहीं कर सकता।


श्लोक – 6
सबै अंग गुन हीन हौं, ताको जतन न कोई।
एक किशोरी कृपा तैं, जो कछु होइ सो होई ।।6।।

और मैं तो वैसे ही सब प्रकार से गुणहीन एवं सर्वथा असमर्थ हूँ, करूणा धाम श्री किशोरी जी की कृपा से ही जो होना है सो होगा।


श्लोक – 7
सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताको कौन उपाय ।
चरन सरन हरिवंश की, सहजहिंबन्यौ बनाव ।।7।।

परन्तु उन श्री किशोरी जी की कृपा प्राप्त करने का भी कौन सा उपाय है, क्योंकि वह कृपा भी तो सहज सुलभ नहीं है। पर श्रीहित ध्रुवदास जी कहते हैं कि श्री हरिवंश के श्री चरणों की शरण में जाने से यह दुर्लभ कृपा सहज सुलभ हो गई है।


श्लोक – 8
हरिवंश चरन उर धरनि धरि, मन वच कै विश्वास।
कुँवरि कृपा है है तबहि, अरु वृन्दावन वास ।।8।।

अत: यदि मनसा वाचा कर्मणा श्री हरिवंश के शरणागत होकर, अपनी हृदय भूमि पर भाव से उनके चरण युगल धारण करता हूँ। तभी नित्य किशोरी श्री राधा कृपा करेंगी और श्री वृन्दावन वास सुलभ होगा।


श्लोक – 9
प्रिया चरन बल जानि कै, बाढ़यौ हिये हुलास।
तेई उर में आनि हैं, श्री वृन्दा विपिन प्रकाश ।।9।।

प्रिया श्री राधा के श्री चरणों की कृपा एवं सामर्थ्य जानकर मेरे हृदय में हर्षोल्लास बढ़ रहा है कि इन्हीं की कृपा से मेरे हृदय में श्री वृन्दावन का रस रंग प्रकाशित होगा।


श्लोक – 10
कुवारी किसोरी लाडिली, करुनानिधि सुकुमारि।
वरनौं वृन्दा विपिन कौं, तिनके चरन संभारि ।।10।।

करुणाधाम, कृपालु किशोरी कुँवरि श्री राधा प्यारी के श्री चरणों का सप्रेम स्मरण करते हुए श्री वृन्दावन का वर्णन करता हूँ।


श्लोक – 11
हेममई अवनी सहज, रतन खचित बहु रंग।
चित्रित चित्र विचित्र गति, छबि की उठत तरंग।।11।।

श्री वृंदावन की भूमि सहज स्वरुप से ही स्वर्णमयी है जिसमें नाना रंगों के अद्भुत रत्न जड़े हैं। अद्भुत भांति से विलक्षण चित्र चित्रित हैं जिनमें सौंदर्य की तरंगे सतत उठती रहती है।


श्लोक – 12
वृंदावन झलकनि झमकि, फूले नैन निहारि।
रवि ससि दुतिधर जहाँ लगि, ते सब डारे वारि।।12।।

श्री वृन्दावन की यह अनिर्वचनीय कांति एवं शोभा भावपूर्ण नेत्रों से देखने पर अनुभव होता है कि सूर्य चन्द्रमा जैसे जितने भी ज्योति धारक हैं, सब वृन्दावन पर न्योछावर हैं।


श्लोक – 13
वृन्दावन दुतिपत्र की, उपमा कौं कछु नाहिं।
कोटि-कोटि बैकुण्ठ हूँ, तिहि सम कहेन जाहिं।।13।।

श्री वृंदावन के एक पत्ते की शोभा की समता कोटि-कोटि बैकुण्ठ भी नहीं कर सकते। अर्थात् श्री वन का सौंदर्य अनुपम, अतुल्य है।


श्लोक – 14
लता-लता सब कल्पतरु, पारिजात सब फूल।
सहज एक रस रहत हैं, झलकत यमुना कूल।।14।।

यहाँ की एक-एक लता कल्पवृक्ष है, एक-एक पुष्प पारिजात है जो श्री यमुना जी के किनारे सतत एक रस झिलमिलाते रहते हैं, अर्थात् इनकी शोभा कभी मंद नहीं होती।


श्लोक – 15
कुंज-कुंज अति प्रेम सौं, कोटि-कोटि रति मैन।
दिनहिं सँवारत रहत हैं, श्री वृंदावन ऐन ।15। ।

वृंदावन की एक-एक कुंज को कोटि-कोटि रति एवं कामदेव महा प्रेम में भरकर नित्य निरन्तर सजाते-संवारते रहते हैं।


श्लोक – 16
विपिन राज राजत दिनहि, बरषत आनन्द पुंज।
लुब्ध सुगन्ध पराग रस, मधुप करत मधु गुंज।।16।।

सर्वोत्कृष्ट श्री वृंदावन परमानन्द की वर्षा करता हुआ सर्वोपरि विराजमान है जहाँ दिव्य सुगंध एवं पुष्पों के पराग से आकर्षित भ्रमर मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं।


श्लोक – 17
अरुन नील सित कमल कुल, रहे फूल बहुरंग।
वृन्दावन पहिरे मनौ, बहु विधि वसन सुरंग।।17।।

लाल नीले एवं श्वेत कमलों के समूह एवं नाना प्रकार के पुष्प ऐसे खिले हैं जिन्हें देखकर लगता है मानों श्री वृंदावन ने नाना प्रकार के सुन्दर रंगों के वस्त्र पहन रखे हों।


श्लोक – 18
हित सौं त्रिविध समीर बहै, जैसी रुचि जिहिं काल।
मधुर-मधुर कल कोकिला, कूजत मोर मराल।।18।।

जिस समय श्री प्रिया प्रियतम की जैसी रुचि होती है, वैसी ही शीतल मंद सुगंधित पवन श्री वृंदावन में बहती है। कहीं महा मधुर स्वर में कोयल कूजती है तो कहीं मोर मराल आदि मधुर स्वर करते हैं।


श्लोक – 19
मण्डित जमुना वारि यौं, राजति परम रसाल।
अति सुदेस सोभित मनौं, नील मनिन की माल।।19।।

नील कांति युक्त परम मधुर श्री यमुना जल श्री वृंदावन के चहुँ ओर ऐसे बहता हुआ सुशोभित होता है जैसे नील मणियों की माला।


श्लोक – 20
विपिन धाम आनन्द कौ, चतुरई चित्र ताहि।
मदन केलि सम्पति सदा, तिहि करि पूरन अहि ।।20 ।।

श्री वृंदावन सजाया संवारा है। श्री प्रिया लाल की रस केलि के अनुरुप एवं अनुकूल संपत्ति वहां सदा भरपूर है।


श्लोक – 21
देवी वृन्दाविपिन की, वृन्दा सखी सरूप।
जिहिंविधि रुचि है दुहुँनि की, तिहिं विधि करत अनूप।।21।।

श्री वृंदावन की अधिष्ठात्री वृंदा देवी सखी स्वरूप में होकर जैसी युगल की रुचि होती है वैसी ही वृंदावन कुंजों की रचना करती रहती है।


श्लोक – 22
छिन छिन बन की छवि नई, नवल युगल के हेत।
समुझि बात सब जीय की, सखि वृन्दा सुख देत।।22।।

युगल को प्रसन्न करने के हित प्रशिक्षण वृंदावन का नई-नई भाँति श्रृंगार करती है। उनके हृदय की रुचि भली-भाँति जान सेवा कर वृंदा सखी उन्हें सुख देती है।


श्लोक – 23
गावात वृन्दाविपिन गुन, नवल लाड़ली लाल।
सुखद लता फल फूल दुम, अद्भुत परम रसाल।।23।।

जहां के लता, वृक्ष, पुष्प फल आदि विलक्षण हैं, अद्भुत सुखदायक हैं, सरस हैं, ऐसे वृंदावन के गुणों का स्वयं नवल किशोर लाड़िली लाल भी गाना करते हैं।


श्लोक – 24
उपमा वृंदाविपिन की, कहि धौं दीजै काहि।
अति अभूत अद्भुत सरस, श्री मुख बरनत ताहि।।24।।

स्वयं श्री युगल किशोर जिसकी महिमा का गान कर सुखी होते हैं ऐसे अतुल्य, अनिर्वचनीय, रस स्वरुप श्री वृंदावन की समता किससे की जाए।


श्लोक – 25
आदि अन्त जाकौ नहीं, नित्य सुखद बन आहि ।
माया त्रिगुन प्रपंच की, पवन न परसत ताहि।।25।।

सदा सुख वर्षणकारी अनादि अनंत इस श्री वृंदावन को त्रिगुण का प्रपंच (माया) स्पर्श भी नहीं कर सकता।


श्लोक – 26
वृन्दाविपिन सुहावनौं, रहत एक रस नित्त।
प्रेम सुरंग रँगे तहाँ, एक प्रान द्वै मित्त।।26।।

यह मन भावन श्री वृंदावन अखंड आनंदमय है। जहां अनुराग रंग में रंगे एक प्राण दो मित्र प्रेम क्रीड़ा परायण रहते हैं।


श्लोक – 27
अति सुरूप सुकुवाँर तन, नव किसोर सुखरासी ।
हरत प्रान सब सखिनि के, करत मन्द मृदु हसि। ।27 ।।

जहां परम सुन्दर, अनन्त सुख, रुप, रस की निधि सुकुमार युगल अपनी मृदु मनोहर मुस्कान से सब सखियों को मोहित करते हैं।


श्लोक – 28
न्यारौ है सब लोक तें, वृन्दावन निज गेह।
खेलत लाड़िली लाल जहाँ, भींजे सरस सनेह।।28।।

श्री राधा माधव युगल का निज गृह स्वरुप यह श्री वृंदावन सब लोकों से न्यारा है, सर्वोपरि है, जहां युगल सहज प्रेम में मत्त सतत विहार करते हैं।


श्लोक – 29
गौर-स्याम तन मन रँगे, प्रेम स्वाद रस सार।
निकसत नहिं तिहिं ऐंन ते, अटके सरस बिहार।।29।।

सर्वरसों के सार स्वरुप प्रेम के आस्वादन में ही जिनके तन मन रंग रहे हैं, ऐसे गौर स्याम किसी अद्भुत प्रेम खेल को ही सदा खेलते हुए श्री वृंदावन से बाहर नहीं निकलते।


श्लोक – 30
बन है बाग सुहाग कौ, राख्यौ रस में पागि।
रूप-रंग के फूल दोउ, प्रीति लता रहे लागि।।30।।

परम सौभाग्य स्वरुप इस परम रसमय वृंदावन की माधुरी ने प्रीति लता पर लगे रुप और रंग के दो पुष्पों (श्री श्यामा-श्याम) को भी रस मत्त कर रखा है।


श्लोक – 31
मदन सुधा के रस भरे, फूलि रहे दिन रैन।
चहुँदिसि भ्रमत न तजत छिन, भृंग सखिन के नैंन।।31।।

यह रुप और रंग के मूर्त रुप दो पुष्प (श्री श्यामा-श्याम) प्रेम सुधा रस से भरे दिन रैन प्रफुल्लित ही रहते हैं एवं सखियों के नैन रुपी भ्रमर इन पर सदा मंडराते हुए रुप माधुरी का सतत पान करते हैं।


श्लोक – 32
कानन में रहे झलकि कैं, आनन विवि विधु काँति।
सहज चकोरी सखिनि की, अखियाँ निरखि सिराँति।।32।।

श्री वृंदावन में हित युगल के मुख चन्द्र की कांति झिलमिलाती ही रहती है जिसे सहज स्नेह मूर्ति सखियां चकोर की भांति निरखि कर अपने मन प्राण शीतल करती है।


श्लोक – 33
ऐसे रस में दिन मगन, नहिं जानत निसि भोर।
वृंदावन में प्रेम की, नदी बहै चहुँ ओर।।33।।

इस प्रकार समस्त हित रसिक परिकर इस अद्भुत प्रेमानन्द में मग्न रहता हुआ काल की । सीमा से परे रहता है और ऐसा लगता है मानो श्री वृंदावन में चारों ओर प्रेम सुधा धारा ही प्रवाहित हो रही है।


श्लोक – 34
महिमा वृन्दा विपिन की, कैसे कै कहि जाय।
ऐसे रसिक किशोर दोऊ, जामें रहे लुभाय।।34।

परम रसिक शिरमौर श्री राधा माधव युगल भी जिसकी माधुरी के लोभी है , ऐसे विलक्षण वृंदावन की महिमा कहना कैसे संभव है ।


श्लोक – 35
विपिन अलौकिक लोक में, अति अभुत रसकंद।
नव किसोर इक वैस दुम, फूले रहत सुछंद ।।35।।

इस लोक में प्रकट होते हुए भी वृंदावन अलौकिक है, परमाद्भुत है, सरस है, जिसमें नवल किशोर दो ऐसे समवयस वृक्षों की भांति सुफलित है, जिनकी फलन सतत वर्द्धमान है।


श्लोक – 36
पत्र-फूल-फल-लता प्रति, रहत रसिक पिय चाहि।
नवल कुँवरि देख छटा जल, तिहिं करिसींचे आहि।।36।।

वृंदावन के पत्र-पुष्प, फल, लता आदि को रसिक सिरमौर प्रियतम निहारते ही रहते हैं क्योंकि इन्हें किशोरी राधिका ने अपने स्नेह जल पूरित दृष्टिपात से सींचा है।


श्लोक – 37
कुँवरि चरन अंकित धरनि, देखत जिहि-जिहिं ठौर।
प्रिया चरन रज जानि कै, लुठत रसिक सिरमौर।।37।।

जहाँ – जहाँ धरती पर प्रिया श्री राधा के श्री चरणों के चिन्ह प्रियतम देखते हैं , वहीं प्राण प्रिया की चरण धूलि जान भाव विह्वल होकर लोटने लगते हैं।


श्लोक – 38
वृंदावन प्यारौ अधिक, यातें प्रेम अपार।
जामें खेलति लाडिली, सर्वस्व प्रान अधार।।38।।

प्रियतम का श्री वृंदावन में अपार प्रेम है, यह प्रीतम को प्राणाधिक प्रिय है क्योंकि इसमें उनकी प्राणाधार, जीवन धन प्रिया श्री राधा सदा क्रीड़ा करती है ।


श्लोक – 39
सबै सखी सब सौंज लै, रँगी जुगल ध्रुव रंग।
समै – समै की जानि रुचि, लियै रहति हैं संग।।39।।

युगल के अविचल प्रेम रंग में रंगी सखियां समय-समय की रूचिनुसार सेवा की सब सामग्री लिये निरन्तर युगल के संग बनी, रहती है।


श्लोक – 40
श्री वृंदावन सतलीला वृंदावन वैभव जितौ, तितौ कह्यौ नहिं जात।
देखत सम्पति विपिन की, कमला हू ललचात।।40।।

श्री वृंदावन की संपत्ति, रस वैभव, जिसे देखकर लक्ष्मी भी ललचा जाती है, वाणी द्वारा उसे कहना असम्भव है।


श्लोक – 41
वृंदावन की लता सम, कोटि कल्पतरु नाहिं।
रज की तुल बैकुंठ नहिं, और लोक किहि माहिं।।41।।

करोड़ों कल्पवृश्च वृंदावन की एक लता की प्रमता नहीं कर सकते। अरे, जहाँ की रज के तुल्य बैकुण्ठ भी नहीं हैं तो अन्य लोकों की चर्चा ही क्या करना?


श्लोक – 42
श्रीपति श्रीमुख कमल कह्मौ, नारद सौं समुझाई।
वृन्दावन रस सबनि तें, राख्यौ दूरि दुराइ।।42।।

रमाकांत भगवान नारायण ने श्री नारद जी से स्वयं कहा है कि मैंने श्री वृंदावन रस सबसे छिपाकर रखा है। यह रस परम रहस्य है।


श्लोक – 43
अंस – कला औतार जे, ते सेवत हैं ताहि।
ऐसे वृन्दाविपिन कौं , मन – वच कै अवगाहि।।43।।

प्रभु के जितने अंश कला अवतार हैं , सब श्री वृंदावन धाम का ही इष्ट भाव से सेवन भजन करते हैं। ऐसे अनन्त महिमावंत श्री वृंदावन का ही सर्वतोभावेन सेवन करना चाहिए।


श्लोक – 44
सिव – विधि – उद्धव सबनि कै, यह आसा रहै चित्त।
गुल्म लता है सिर धरै, वृंदावन रज नित्त।।44।।

शिव, ब्रह्मा, उद्धव आदि के मन में यही आशा रहती है कि हम श्री वृंदावन की कोई लता या वृक्ष होकर श्री वृंदावन रज को नित्य शिरोधार्य कर सकें


श्लोक – 45
चतुरानन देख्यौ कछुक, वृंदाविपिन प्रभाव।
दुम – दुम प्रति अरु लता प्रति, औरे बन्यौ बनाव।।45।।

ब्रह्मा जी ने किंचित श्री वृंदावन के अद्भुत प्रभाव का अनुभव किया और पाया कि यहां तो तरु लता की रचना किसी और ही भाँति की है।


श्लोक – 46
आप सहित सब चतुर्भुज , सब ठाँ रह्यौ निहारि।
प्रभुता अपनी भूलि गयौ , तन मन के रह्यौ हारि।।46।।

ब्रह्मा ने स्वयं सहित, सब ओर जब श्री वृंदावन को निहारा तो सबको ही चतुर्भुज रुप पाया। यहां का वैभव देखकर अपनी प्रभुता तो सर्वथा भूल ही गया, गति मति भी थकित हो गई।


श्लोक – 47
लोक चतुर्दश ठकुरई, सम्पति सकल समेत
सब तजि बसि वृन्दाविपिन, रसिकनि कौ रस खेत।।47।।

अत: यदि एक ओर चौदह भुवनों का वैभव, संपत्ति आदि प्राप्त होता हो तो भी उसे त्याग रसिकों के रस क्षेत्र श्री वृंदावन में ही बसना चाहिए।


श्लोक – 48
सकहि तौ वृंदापिपिन बसि, छिन-छिन आयु बिहात।
ऐसौ समै न पाइहै, भली बनी है बात।।48।।

प्रति क्षण आयु क्षीण हो रही है, अब तो सुंदर सुयोग बना है। अत: कर सको तो श्री वृंदावन वास करो, फिर ऐसा संयोग नहीं बनेगा।


श्लोक – 49
छाँड़ि स्वाद सुख देह के, और जगत की लाज।
मनहिं मारि तन हारि कै, वृंदावन में गाज।।49।।

अत: लोक लाज, देह के सुख स्वादादि का त्याग कर और तन मन से दीन हो वृंदावन में निर्भय होकर रह।


श्लोक – 50
वृन्दावन के बसत ही, अन्तर जो करै आनि।
तिहि सम सत्रु न और कोऊ, मन बच कै यह जानि।।50 ।।

दृढ़तापूर्वक यह जान लो, मान लो कि वृंदावन वास में जो आकर बाधा डाले उसके समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है।


श्लोक – 51
वृंदावन के वास कौ, जिनकै नाहिं हुलास।
माता-मित्र-सुतादि-तिय, तजि ध्रुव तिनके पास।।51।।

श्री वृंदावन वास के लिए जिनके मन में उत्साह उल्लास नही है वे चाहे माता-पिता, पुत्र-पत्नी आदि परम स्नेही क्यों न हो, उनका सामीप्य त्याग दो


श्लोक – 52
और देस के बसत ही, अधिक भजन जो होय।
इहि सम नहिं पूजत तऊ, वृन्दावन रहै सोय।।52।।

अन्य देशों में निवास करते हुए चाहे विशाल भजन होता हो परन्तु वह वृंदावन में सोते रहने के समान भी नहीं है।


श्लोक – 53
वृन्दावन में जो कबहूँ, भजन कछू नहिं होय।
रज तौ उड़ि लागै तनहिं, पीवै जमुना तोय।।53।।

श्री वृंदावन में वास करते हुए यदि कुछ भी भजन नहीं होगा तो भी देव मुनि दुर्लभ श्री वृंदावन रज तो उड़कर देह को लगेगी पीने को परम पावन श्री यमुना जल तो मिलेगा ही।


श्लोक – 54
वृन्दाविपिन प्रभाव सुनि, अपनौ ही गुन देत।
जैसे बालक मलिन कौं, मात गोद भर लेत।।54।।

इस वृंदावन का अद्भुत प्रभाव सुनो। यह मलिन जीव को भी युगल प्रेम स्वरुप अपना गुण बिना विचारे प्रदान करता है। जैसे मैले-कुचैले बालक को भी वात्सल्यमयी माता स्नेहवश गोद में भर लेती है।


श्लोक – 55
और ठौर जो जतन करै, होत भजन तऊ नाहिं।
ह्याँ फिरै स्वारथ आपने, भजन गहे फिरै बाँहि।।55।।

श्री वृंदावन से अन्यत्र बहुत प्रयत्न करने पर भी भजन नहीं होता। पर यहां कोई निज स्वार्थ वश भी विचरण करे तो भजन स्वयं उसे पकड़े रहता है।


श्लोक – 56
और देस के बसत ही, घटत भजन की बात।
वृन्दावन में स्वारथौ, उलटि भजन है जात।।56।।

अन्यत्र कहीं बसते ही भजन का उत्साह उल्लास घट जाता है और वृन्दावन की महिमा देखो कि यहां स्वार्थ से की गई क्रिया भी भजन स्वरुप हो जाती है।


श्लोक – 57
यद्यपि सब औगुन भरयौ, तदपि करत तुव ईठ।
हितमय वृन्दाविपिन कौं, कैसे दीजै पीठ।।57।।

यद्यपि मैं सब अवगुणों का भण्डार हूँ, फिर भी हे हितस्वरुप वृंदावन! आपकी इच्छा करता हूँ। आपके स्वभाव को देखते हुए कैसे आपका त्याग कर दूँ।


श्लोक – 58
वृंदावन तें अनत ही, जेतिक द्यौस बिहात।
ते दिन लेखे जिनि लिखौ, वृथा अकारथ जात।।58।।

वृंदावन से अन्यत्र जितने भी दिन बीतें उन्हें गिनना ही नहीं चाहिए क्योंकि वह तो सर्वथा निष्फल ही है।


श्लोक – 59
भजन रसमई विपिन धर, समुझि बसै जो कोई।
प्रेम-बीज तिहिं खेत तें, तब ही अंकुर होई।।59।।

श्री वृंदावन की भूमि भजन रस युक्त है, ऐसा समझ कर जो यहाँ बसता है उसके हृदय में प्रेम बीज निश्चित रुप से अंकुरित होता है।


श्लोक – 60
यद्यपि धावत विषै कौं, भजन गहत बिच पानि।
ऐसे वृन्दाविपिन की, सरन गही ध्रुव आनि।।60।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं कि मैंने ऐसे वृंदावन की शरण ली है जहां चंचल मन यदि विषयों की ओर दौड़ता भी है तो भी भजन बीच में ही हाथ पकड़ सँभाल लेता है अर्थात् रक्षा करता है।


श्लोक – 61
बसिबौ वृन्दाविपिन कौ, जिहि तिहि विधि दृढ़ होई।
नहिं चूकै ऐसौ समौ, जतन कीजिए सोई।।61।।

अत: श्री वृंदावन वास जैसे-तैसे भी दृढ़ हो, निश्चित हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। यह अवसर खोना नहीं चाहिए।


श्लोक – 62
कहँ तू कहँ वृन्दाविपिन, आनि बन्यौ भल बान।
यहै बात जिय समुझि कै, आपनौ छोड़ सयान।।62।।

हे मन, कहाँ विषय वासित तू और कहाँ परम सच्चिदानन्दघन वृंदावन। हित कृपा से ऐसा सुन्दर सुयोग बना है। यह बात अच्छी तरह समझ कर अपनी चतुराई छोड़ दे और वृंदावन का सेवन कर।


श्लोक – 63
छिन भंगुर तन जात है, छाँड़हि विषै अलोल।
कौड़ी बदले लेहि तू, अद्भुत रतन अमोल।63।।

क्षण भंगुर यह देह काल के गाल में पड़ी है। अत: विषयों का लोभ त्याग और विषय सुख रुपी कौड़ी को छोड़, और श्री वृंदावन रस रुपी अनमोल रत्न प्राप्त कर।


श्लोक – 64
कोटि-कोटि हीरा रतन, अरु मनि विविध अनेक।
मिथ्या लालच छाँड़ि कै, गहि वृन्दावन एक।।64।।

करोड़ों रत्नादिक, विविध मणि रुप जड़ सम्पत्ति का झूठा लोभ त्याग एक श्री वृंदावन को ग्रहण कर।


श्लोक – 65
नहिं सो माता पिता नहिं, मित्र पुत्र कोउ नाहीं।
इनमें जो अन्तर करै, बसत वृन्दावन माँहि।।65।।

वह माता-पिता, मित्र-पुत्र स्वप्न में भी अपने नहीं हैं जो वृंदावन के वास में व्यवधान डालते हैं।


श्लोक – 66
नाते नाते जगत के, ते सब मिथ्या मान।
सत्य नित्य आनन्द मय, वृंदावन पहिचान।।66।।

जगत के जितने भी सम्बन्ध हैं, सबको मिथ्या मान और सच्चिदानन्दमय श्री वृंदावन को ही निज सर्वस्व स्वरुप पहिचान।


श्लोक – 67
बसिकै वृन्दाविपिन में, ऐसी मन में राख।
प्रान तजौं बन ना जौ, कहौ बात कोऊ लाख।।67।।

श्री वृंदावन में वास कर यह धारणा मन में दृढ़ कर लो कि चाहे कोई लाख प्रलोभन दे, मैं प्राण तो त्यागूंगा पर श्री वृंदावन को नहीं।


श्लोक – 68
चलत फिरत सुनियत यहै, (श्री) राधावल्लभ लाल।
ऐसे वृन्दाविपिन में, बसत रहौ सब काल।।68।।

जहां श्री राधावल्लभलाल का नामामृत सहज ही चलते-फिरते श्रवण पुटों में पड़ता रहता है। ऐसे मधुर वृंदावन में सदा वास करना चाहिए।


श्लोक – 69
बसिबौ वृंदाविपिन कौ, यह मन में धरि लेहु।
कीजै ऐसौ नेम दृढ़, या रज में परै देह।।69 ।।

वृंदावन वास की आशा मन में दृढ़ करके धारण कर लो। ऐसा सुदृढ़ व्रत लो कि श्री वृंदावन की रज में ही देह पात हो।


श्लोक – 70
खण्ड-खण्ड है जाइ तन, अंग-अंग सत टूक।
वृंदावन नहिं छाँड़िये, छाँड़िबौ है बड़ चूक ।।70।।

चाहे यह शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाए। एक-एक अंग के सौ-सौ टुकड़े हो जाएं। पर वृंदावन मत छोड़ना। क्योंकि वृंदावन का त्याग ही सबसे बड़ी भूल होगी।


श्लोक – 71
पटतर वृंदाविपिन की, कहिं धौं दीजै काहि।
जेहि बन की ध्रुव रैनु में, मरिबौउ मंगल आहि।।71।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं, वृंदावन की समता किससे की जाए जिसकी रज में मृत्यु भी मंगलमयी है


श्लोक – 72
वृंदावन के गुनन सुनि, हित सों रज में लोट।
जेहि सुख के पूजत नहीं, मुक्ति आदि सत कोट।।72।।

श्री वृंदावन के गुण श्रवण कर, प्रेम भाव पूर्वक यहां की रज में लोटो। इस सुख की बराबरी अनंत मुक्ति सुख भी नहीं कर सकते।


श्लोक – 73
सुरपति-पसुपति-प्रजापति, रहे भूल तेहि ठौर।
वृंदावन वैभव कहौ, कौन जानिहै और।।73।।

स्वयं ब्रह्मा, शिव इन्द्रादिक भी जहां का वैभव देख बौरा जाते हैं उस वृंदावन की महिमा, वहां का रस विभु और कौन जान सकता है।


श्लोक – 74
यद्यपि राजत अवनि पर, सबते ऊँचौ आहि।
ताकी सम कहिये कहा, श्रीप्रीति बंदत ताहि।।74।।

धरा धाम पर विराजमान होते हुए भी श्री वृंदावन सर्वोपरि है, जिसकी वंदना स्वयं लक्ष्मी पति करते हैं, उसके समान और कौन हो सकता है।


श्लोक – 75
वृंदावन वृंदाविपिन, वृंदा कानन ऐन।,
छिन-छिन रसना रटौ कर, वृंदावन सुख दैन।।75।।

हे जिह्वे तू हर क्षण “वृंदावन, वृंदाविपिन, वृंदाकानन, सुखद श्री धाम, श्री वन” इन्हीं परम मधुर नामों को रट।


श्लोक – 76
वृंदावन आनन्द घन, तो तन नश्वर आहि।
पशु ज्यों खोवत विषै रस, काहि न चिंतत ताहि।।76।।

तेरा यह तन क्षण भंगुर है। पशु की भांति विषय भोग में इसे खो रहा है। आनन्द घन श्री वृन्दावन का चिंतन क्यों नहीं करता।


श्लोक – 77
वृन्दावन वृन्दा कहत, दुरित वृन्द दुरि जाहिं।
नेह बेलि रस भजन की, तब उपजै मन माहिं।।77।।

वृन्दावन। अरे आधा नाम वृन्दा कहते ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और निर्मल चित्त में रस भजन की प्रेम लता उत्पन्न हो जाती है।


श्लोक – 78
वृन्दावन श्रवनन सुनहि, वृन्दावन कौ गान।
मन वच कै अति हेत सौं, वृन्दावन उर आन।।78।।

अत: कानों से श्री वृन्दावन की महिमा सुन। जिह्वा से श्री वृन्दावन की महिमा का गान कर और प्रीति पूर्वक श्री वृन्दावन को हृदय में धारण कर।


श्लोक – 79
वृन्दावन कौ नाम रट, वृन्दावन कौं देखी ।
वृन्दावन से प्रीत कर, वृन्दावन उर लेखी।।79।।

श्री वृन्दावन का नाम रट, श्री वृन्दावन का दर्शन कर, इसी वन्दावन से स्नेह कर और हृदय में श्री वृन्दावन को ही बसा।


श्लोक – 80
वृन्दाविपिन प्रनाम करि, वृन्दावन सुख खान।
जो चाहत विश्राम ध्रुव, वृन्दावन पहचान।।80।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं सर्व सुखों की खान श्री वृन्दावन की शरण पकड़ इसी की वंदना कर। श्री वृन्दावन को पहचान तभी विश्राम पाएगा।


श्लोक – 81
तजि कै वृन्दाविपिन कौं, और तीर्थ जे जात।
छाँड़ि विमल चिंतामणी, कौड़ी कौं ललचात।।81।।

जो श्री वृन्दावन को छोड़ स्वार्थ सिद्धि के लिए अन्यान्य तीर्थों में भटकते हैं वह मृढ़ मानो निर्मल चिंतामणि को त्याग कौड़ी के लिए ललचाते हैं।


श्लोक – 82
पाइ रतन चीन्हौं नहीं, दीन्हों कर तें डार।
यह माया श्री कृष्ण की, मौह्यौ सब संसार।।82।।

मनुष्य देह जैसा रत्न पाकर भी तू इसे व्यर्थ खो रहा है, अपने ही हाथ से फेंक रहा है। अरे श्री कृष्ण की इसी माया ने तो सारे संसार को मोहित कर रखा है।


श्लोक – 83
प्रगट जगत में जगमगै, वृन्दाविपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं, यह माया कौ रूप।।83।।

संसार में प्रकट रुप से अनुपम वृन्दावन झिलमिला रहा है, सुशोभित हो रहा है। फिर भी जीव उस रस स्वरुप का अनुभव नहीं कर पाता यह भी माया का ही रुप है।


श्लोक – 84
वृन्दावन को जस अमल, जिहि पुरान में नाहिं।
ताकी बानी परौ जिनि, कबहूँ श्रवनन माहिं।।84।।

श्री वृन्दावन का त्रिभुवन पावन यश जिस पुराण में नहीं है, उसकी बात कभी मेरे कानों में न पड़े।


श्लोक – 85
वृन्दावन कौ जस सुनत, जिनकै नाहिं हुलास।
तिनके पर न कीजिये, तजि ध्रुव तिनकौ पास।।85।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं, श्री वृन्दावन की महिमा सुन कर के जिन्हें उत्साह नहीं होता, हृदय हर्षित नहीं होता, उनका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। उनका संग त्याग ही देना चाहिये।


श्लोक – 86
भुवन चतुर्दश आदि दै, द्वै है सबकौ नास।
इक छत वृन्दाविपिन घन, सुख कौ सहज निवास।।86।।

चौदह भुवन पर्यन्त सब नाशवान है परन्तु यह एक मात्र श्री वृन्दावन धाम सहज सुख धाम है, अविनाशी है।


श्लोक – 87
वृन्दावन इह विधि बसै, तजि कै सब अभिमान।
तृण ते नीचौ आप कौं, जानै सोई जान।।87।।

जो स्वयं को तिनके से भी नीचा मान, सब प्रकार के अहंकार का त्याग कर श्री वृन्दावन में बसता है वही परम लाभ प्राप्त कर पाता है।


श्लोक – 88
कोमल चित्त सब सौं मिलै, कबहूँ कठोर न होइ।
निस्प्रेही निर्वैरता, ताकौ शत्रु न कोइ।।88।।

जो सब प्रकार की इच्छा एवं राग द्वेष से रहित है उसका कहीं कोई शत्रु नहीं है। इसी भाव से वृन्दावन में वास करे, सबसे विनीत हो कर मिले। चित्त में कठोरता न लावे।


श्लोक – 89
दूजे – तीजे जो जुरै, साख-पत्र कछु आय।
ताही सों संतोष करि, रहै अधिक सुख पाय।।89।।

दूसरे तीसरे दिन अनुमति भाव से जो शाक पत्र प्राप्त हो जाए उसी में संतोष मान, निश्चित हो कर सुख से रहे।


श्लोक – 90
देह स्वाद छुटि जाहिं सब, कछु होइ छीन शरीर ।
प्रेम रंग उर में बढ़े, बिहरै जमुना तीर।।90।

देह के सुख स्वाद विस्मृत हो जाएँ, तन कुछ क्षीण हो जाए, परन्तु हृदय में प्रेम रंग प्रवृद्धमान हो, ऐसी अवस्था में यमुना तट पर विचरण करता रहे।


श्लोक – 91
जुगल रूप की झलक उर, नैननि रहै झलकाइ।
ऐसे सुख के रंग में, राखै मनहिं रँगाइ।।91।।

श्री श्यामा श्याम के दिव्यातिमधुर रूप की झलक नैनों में हो और इसी सुख के रंग में मन भी रंगा रहे।


श्लोक – 92
आवै छबि की झलक उर, झलकै नैनन वारि।
चिंतन स्यामल-गौर तन, सकहि न तनहिं संभारि।।92।।

हृदय में गौर स्याम बसते हों, नैनों से प्रेमाश्रु छलकते हों, परम प्रेमास्पद श्री राधावल्लभलाल का स्मरण करते-करते तन की भी सुधि ना रहे।


श्लोक – 93
जीरन पट अति दीन लट, हिये सरस अनुराग।
विवस सघन बन में फिरै, गावत युगल सुहाग।।93।।

चाहे तन पर फटे पुराने वस्त्र हो, देह क्षीण हो, सर्व विधि दीन हो परन्तु हृदय युगल प्रेम रस से सरोबार हो और इसी प्रेमाधिक्य वश वृन्दावन की करील कुंजों में युगल यश गान करता हुआ विचरण करे।


श्लोक – 94
रसमय देखत फिरै बन, नैनन बन रहै आई।
कहुँ-कहुँ आनँद रंग भरी, परै धरनि थहराइ।।94।।

रसिक उपासक श्री वृन्दावन को रस रुप देखते हुए विचरण करे, नैनों में बन की छवि बसी हो और कभी-कभी प्रेमावेशवश पृथ्वी पर गिरे पड़े ।


श्लोक – 95
ऐसी गति ह्वै है कबहुँ, मुख निसरत नहिं बैन।
देखि-देखि वृन्दाविपिन, भरि-भरि ढ़ारै नैन।।95।।

श्री वृन्दावन की शोभा देख-देख नैनों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो रहे हों, प्रेमाधिक्य के कारण मुख से स्वर न निकले। ऐसी अद्भुत दशा मेरी कब होगी?


श्लोक – 96
वृन्दावन तरु-तरु तरे, ढरै नैन सुख नीर।
चिंतत फिरै आबेस बस, स्यामल-गौर सरीर।।96।।


श्री वृन्दावन के वृक्षों की छाँह तले प्राण धन जीवन सर्वस्व गौर स्याम का चिंतन करता फिरे और नैनों से प्रेमाश्रु डरते हों।

श्लोक – 97
परम सच्चिदानंद घन, वृन्दाविपिन सुदेश ।
जामें कबहूँ होत नहिं, माया काल प्रवेस।।97।।

यह सुन्दरता की सीव वृन्दावन परम सच्चिदानन्दघन स्वरुप हैं। जिसमें कभी माया काल का प्रवेश नहीं होता


श्लोक – 98
सारद जो सत कोटि मिलि, कलपन करें विचार।
वृन्दावन सुख रंग कौ, कबहुँ न पावै पार।।98।।

यदि कोटि-कोटि सरस्वती कल्पों तक विचार करें तब भी श्री वृन्दावन की सुख संपत्ति का पार नहीं पा सकती।


श्लोक – 99
वृन्दावन आनन्द घन, सब तें उत्तम आहि।
मोते नीच न और कोऊ, कैसे पैहों ताहि ।।99।।

यह श्री वृन्दावन परमानन्द स्वरुप, सर्वोपरि, सर्वोत्कृष्ट है और इधर मैं पतितों का सिरमौर कैसे इसे प्राप्त कर सकता हूँ।


श्लोक – 100
इत बौना आकाश फल, चाहत है मन माहिं।
ताको एक कृपा बिना, और जतन कछु नाहिं।।100।।

यह तो ऐसा ही है जैसे एक बौना व्यक्ति आकाश में लगे फल की आशा करे। अत: एक मात्र कुंवरि श्री राधा की कृपा के बिना और कोई भी उपाय नहीं है।

श्लोक – 101
कुँवरि किशोरी नाम सौं, उपज्यौ दृढ़ विस्वास।
करुणानिधि मृदु चित्त अति, तातें बढ़ी जिय आस।।101।।

परम उदार श्री राधा के नाम का सुदृढ़ विश्वास मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ है और उनकी करुणा एवं हृदय की कोमलता का विचार करके हृदय में आशा बढ़ चली है।


श्लोक – 102
जिनको वृन्दाविपिन है, कृपा तिनहि की होइ।
वृन्दावन में तबहि तौ, रहन पाइ है सोइ।।102।।

श्री वृन्दावन जिनका धाम है उन्हीं की कृपा बल से कोई यहाँ वास कर सकता है अन्यथा नहीं।


श्लोक – 103
वृन्दावन सत रतन की, माला गुही बनाइ।
भाग भाग जाके लिखी, सोई पहिरै आइ।।103।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं कि मैंने श्री वृन्दावन यशरुपी सौ रत्नों की माला गूंथ कर बनाई है। जिसके मस्तक पर इसे धारण करने का सौभाग्य संयोग लिखा होगा सोई इसे धारण करेगा।


श्लोक – 104
वृन्दावन सुख रंग की, आशा जो चित्त होइ।
निसि दिन कंठ धरे रहै, छिन नहिं टारै सोइ।।104।।

अत: जिसे श्री वृन्दावन के सुख रंग की इच्छा हो वह इस माला को सदा धारण किये रहे (अर्थात् सदा इसका गान करता रहे) एक क्षण के लिए भी इस रस का चिंतन न छोड़े।


श्लोक – 105
वृन्दावन सत जो कहै, सुनि है नीकी भाँति।
निसिदिन तेहि उर जगमगै, वृन्दावन की काँति।।105।।

जो कोई इस वृन्दावन शत लीला को भाव से कहेगा अथवा सुनेगा उसके हृदय वृन्दावन का प्रकाश सदा झिलमिलाता रहेगा।


श्लोक – 106
वृन्दावन कौ चितवन, यहै दीप उर बार।
कोटि जन्म के तम अगहि, काटि करै उजियार।।106।।

हृदय में श्री वृन्दावन के चिंतन रुपी दीपक को प्रज्ज्वलित कर। यह कोटि जन्मों की अघ राशि रुप अंधकार का नाश कर प्रेम का प्रकाश करेगा।


श्लोक – 107
बसिकै वृन्दाविपिन में, इतनौ बड़ौ सयान।
जुगल चरण के भजन बिन, निमिष न दीजै जान।।107 ।।

श्री वृन्दावन में वास करके सबसे बड़ी चतुराई यही है कि श्री युगल के चरण कमलों के सुमिरन के बिना एक क्षण भी न जाने पाये।


श्लोक – 108
सहज विराजत एक रस, वृन्दावन निज धाम।
ललितादिक सखियन सहित, क्रीड़त स्यामास्याम।।108।।

श्रीराधावल्लभलाल का निज धाम श्री वृन्दावन अनादि काल से सहज शोभा सहित नित्य विद्यमान है जहाँ अपनी ललितादिक सखियों सहित युगल सदैव केलि परायण हैं।


श्लोक – 109
प्रेमसिंधु वृन्दाविपिन, जाकौ आदि न अन्त ।
जहाँ कलोलत रहत नित, युगल किशोर अनादि।।109 ।।

वृन्दावन दिव्यप्रेम का अगाध अबाध सिंधु है जहाँ अनादि काल से श्री राधावल्लभ युगल किशोर कल्लोल मान है।


श्लोक – 110
न्यारौ चौदह लोक तें, वृन्दावन निज भौन।
तहाँ न कबहूँ लगत है, महा प्रलय की पौन।।110।।

युगल का निज धाम यह श्री वृन्दावन चौदह लोकों से विलक्षण है जिसे महाप्रलय की पवन स्पर्श करने में भी असमर्थ है।


श्लोक – 111
महिमा वृन्दाविपिन की, कहि न सकत मम जीह।
जाके रसना द्वै सहस, तिनहूँ काढ़ी लीह।।111।।

मेरी जिह्वा तो श्री वृन्दावन की महिमा कहने में सर्वथा असमर्थ है। अरे दो सहस्र जिह्वाओं वाले शेष भी जिसे कहते कहते थकित हो जाते हैं, हार ही जाते हैं।


श्लोक – 112
एती मति मोपै कहा, सोभा निधि बनराज।
ढीठौ कै कछु कहत हौं, आवत नहिं जिय लाज।।112।।

शोभा की सींवा श्री वृन्दावन की बात कहने के लिए मुझमें मति कहाँ से आयी? फिर भी निर्लज्ज होकर, धृष्टतापूर्वक ही कुछ कहता हूँ।


श्लोक – 113
मति प्रमान चाहत कह्यौ, सोऊ कहत लजात।
सिन्धु अगम जिहिं पार नहिं, कैसे सीप समात।।113।।

यथामति जो कुछ भी कहा, कहते-कहते संकुचित और लज्जित हो रहा हूँ। जिसका कोई परिवार नहीं ऐसा सिंधु भला सीप में कैसे समा जाए।


श्लोक – 114
या मन के अवलंब हित, कीन्हौं आहि उपाय।
वृन्दावन रस कहन में, मति कबहूँ उरझाय।।114।।

मैंने तो अपने मन को कुछ आधार देने के लिए यह उपाय किया है जिससे श्री वृन्दावन रस का वर्णन करते हुए मन बुद्धि कभी इसमें लग जाएँ।


श्लोक – 115
सोलह सै ध्रुव छयासिया, पून्यौ अगहन मास।
यह प्रबन्ध पूरन भयौ, सुनत होत अघ नास।।115।।

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं संवत सौलह सौ छयासी की मार्गशीर्ष पूर्णिमा को यह “वृन्दावन सत” नामक ग्रंथ पूर्ण हुआ जिसके श्रवण मात्र से समस्त पापों का नाश हो जाता है।


श्लोक – 116
दोहा वृन्दाविपिन के, इकसत षोड़श आहि।
जो चाहत रस रीति फल, छिन-छिन ध्रुव अवगाहि।।116।।

श्री वृन्दावन यश के यह एक सौ सोलह दोहे हैं। यदि आप रस रीति का फल चाहते हैं तो प्रतिक्षण इस वृन्दावन महिमा सुधा धारा में अवगाहन करते रहो।


।। इति श्री वृन्दावन सत लीला की जै जै श्री हित हरिवंश।।

“जा पर श्री हरिवंश कृपाला।
ता की बाँह गहे दोऊ लाला।।”

जय जय श्री वृंदावन
जय जय श्री राधे

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श्रीप्रिया जी की 101 नामावली

श्री कृष्ण की अति प्रिय “श्रीप्रिया” जी की 101 नामावली

इस ‘प्रिया नामावली’ ग्रन्थ में नित्य-विहारिणी सर्वराध्य स्वामिनी के विहार परक नामों का ही रसात्मक तात्पर्य निहित है। इस नामावली के में श्री ध्रुवदास जी का यह भी मन्तव्य अनुमानित होता है कि नित्य-विहार के उपासक रसिक जन श्री प्रिया जी के इन्हीं नामों का गान-स्मरण करे

  1. श्री राधे
    नित्य विहारमय वृन्दावन-निभृत-निकुञ्ज की सर्वोपरि स्वामिनी, श्री कृष्ण की भी आराध्या।
  2. नित्य किशोरी
    वाल, पौगण्ड एवं कौमार अवस्थाओं से अतीत, नित्य किशोरावस्था सम्पन्न, सौन्दर्य-माधुर्य की एकमात्र निधि।
  3. वृन्दावन विहारिनी
    नित्य धाम श्री वृन्दावन में ही विहार करने वाली, नित्य एकरस प्रियतम-संयोगिनी।
  4. वनराज रानी
    नित्य धाम वृन्दावन की एकमात्र परम स्वतन्त्र अधिकारिणी स्वामिनी।
  5. निकुंजेश्वरी
    श्री वृन्दावन के निभृत निकुञ्ज में, जहाँ प्रिया-प्रियतम की कैशोर-लीला सम्पन्न होती है, उस निकुञ्ज धाम की सर्वोपरि एवं स्वतन्त्र साम्राज्ञी।
  6. रूप रंगीली
    रूप एवं रङ्ग (आनन्द) में रँगी हुई।
  7. छबीली
    छवि अथवा शोभा से युक्त।
  8. रसीली
    रसयुक्त अथवा रस-प्रदात्री।
  9. रस नागरी
    रस एवं रसिकता की मर्मज्ञ, रस-विलास-चतुरा।
  10. लाडिली
    प्रियतम एवं समस्त परिवार की लाड़-भाजन एवं अत्यन्त दुलारी।
  11. प्यारी
    प्रियतम की प्रेम-पात्र, प्रेमास्पदा।
  12. सुकुँवारी
    कोमल अंगों वाली।
  13. रसिकनी
    रासादि रस-क्रीड़ाओं में आनन्द लेने वाली, रसमर्मज्ञा।
  14. मोहिनी
    जिनकी रूप-छटा प्रियतम को मोहित करती रहती है।
  15. लाल मुखजोहिनी
    प्रियतम के मनोहर मुख-चन्द की चकोरि ।
  16. मोहन-मन-मोहिनी
    अन्य सबके मन को मोहित करने वाले प्रियतम श्री कृष्ण का भी विमोहन करने वाली।
  17. रति-विलास-विनोदिनी
    अपने प्रियतम के साथ दाम्पत्य -केलि में आनंदानुभव करने वाली।
  18. लाल-लाड़-लड़ावनी
    प्रियतम श्री लालजी को उनके मनोनुकूल सुखों का दान करके, तत्सुख रीति से उन्हें प्रसन्न रखने वाली।
  19. रंग-केलि बढ़ावनी
    निकुञ्ज भवन में प्रियतम के सुख के लिए कोक-केलि का विस्तार करने वाली।
  20. सुरत-चंदन-चर्चिनी
    एकान्तिक विहार काल में प्रियतम के प्रस्वेट पङ्किल चन्दन से लिप्त अङ्गों वाली।
  21. कोटि-कोटि दामिनी-दमकनी
    कोटि-कोटि असंख्य विद्युल्लताओं की चमक-दमक को भी जाज्ज्वल्यता प्रदान करने वाली अथवा कोटि-कोटि विद्युल्लता जैसी छबिमयी।
  22. लाल पर लटकनी
    प्रियतम की लाड़-भाजन होने के कारण लड़कान पूर्वक अपने ललित तनु को प्रियतम की देहयष्टि से विलम्बित करने वाली।
  23. नवल नासा-चटकनी
    प्रियतम श्री लाल को, रसलीन दशा से सचेत करने लिये उनकी नासिका के समीप अपनी कराड् गुलियों से मीठी सी चुटकी चटका देने वाली।
  24. रहसि पुंजे
    ऐकान्तिक आनन्द की निधि।
  25. वृंदावन प्रकाशिनि
    श्री वृन्दावन के गोप्य रसमय स्वरूप को अपनी रसमयी लीलाओं के द्वारा प्रकाशित करने वाली अथवा श्री वृन्दावन मात्र में अपने स्वरूप को प्रकाशित रखने वाली।
  26. रंग-विहार-विलासिनी
    श्री वृन्दावन के प्रेमानन्दमय विलास मे विलसने एवं प्रियतम को विलसाने वाली।
  27. सखी-सुख-निवासिनी
    जिनके स्वरूप में अपनी दासियों, सखियों किंवा सहचरियों का सम्पूर्ण सुख निहित है।
  28. सौंदर्य रासिनी
    अखिल एवं अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य तथा लावण्य-राशि को सर्वदा धारण करने वाली।
  29. दुलहिनि
    नित्य नव-वधू।
  30. मृदु हासिनी
    जिसके मुखमण्डल पर निरन्तर मन्द मधुर एवं मृदु मुस्कान स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है।
  31. प्रीतम-नैन-निवासिनी
    सदा-सर्वदा प्रियतम के नेत्रों में बसी रहने वाली।
  32. नित्यानन्द-दर्शिनी
    जिसके स्वरूप में सदा नव-नव आनन्द का दर्शन होता रहता हो अथवा जो नित्य नये आनन्द का दर्शन कराती रहती है।
  33. उरजनि पिय-परसिनी
    जो अपने उरोजों के द्वारा प्रियतम के सुभग अङ्गों को स्पर्श दान करने में सहज उदार हो ।
  34. अधर-सुधारस बरसनी
    जो प्रेम विवश भाव से प्रियतम को सुखदान करने के लिये अपने अधरामृत रस का सदैव वर्षण करती है।
  35. प्राननिं रस-सरसिनी
    निरन्तर प्रियतम के प्राणों को रस से सिक्त रखने वाली।
  36. रंग-विहारिनि
    आनन्द रूपी विहार में रमण करने वाली अथवा विहार में रसरङ्ग की वृद्धि करने वाली।
  37. नेह-निहारनि
    जिनकी सहज दृष्टि में सदा प्रेम-स्नेह की ही वृष्टि होती है।
  38. पिय-हित-सिंगार-सिंगारिनी
    जो अपने प्रियतम के लिए वस्त्राभूषण आदि शृङ्गारों से अपने श्री अङ्गों को सुसज्जित करती हो, स्व-सुख के लिए नहीं, अपितु तत्सुखिता ही जिसके शृङ्गार का मूल हो ।
  39. प्यार सौं प्यारे कौं लै उर धारिनि
    जो अपने प्रियतम को हृदय पर धारण कर रस-दान करने में कुशल है ।
  40. मोहन-मैंने-विथा-निरवारनि
    सदैव अकाम रहने वाले मोहन श्याम के प्रेम-सकाम होने पर उनके हृदय की अनिवार्य प्रेम-व्यथा को अपने उदार रस-दान द्वारा निर्वारित करने में सदा सक्षम एवं समर्थ।
  41. जानि प्रवीन उदार सँभारनी
    जो परम निपुण प्रेमास्पद है, उदार शिरोमणि हैं। जो अपने जनो की सदा सर्वदा स्नेहपूर्वक ध्यान में रखने में समर्थ हैं।
  42. अनुराग सिंध
    प्रेम की अगाध समुद्ररूपा।
  43. स्यामा
    षोडश वर्षीया नव नव रूप, गुण, सौन्दर्य, लावण्य-निधि, रसनिथि नागरी ।
  44. भामा
    प्रियतम-प्रेम की प्रकाशिका।
  45. बामा
    प्रतिकूलता का रस-विधा में भी रसास्वादन करने कराने वाली प्रिया।
  46. भाँवती
    प्रियतम की अतिशय प्रिय लगने वाली।
  47. जुरवतिन-जूथ-तिलका
    परम सुन्दरी एवं नवयौवना सखियों के विशाल समूह की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी प्रिया।
  48. वृंदावन-चंद चंद्रिका
    वृन्दावन – विलासी श्री कृष्ण चंद्रमा रूपी की ज्यौत्ना रूपी प्रिया।
  49. हास-परिहास-रसिका
    हास्य विनोद की क्रीड़ा में आनन्द अनुभव करने वाली।
  50. नवरंगिनी
    सदैव नये-नये प्रकार के आनन्द विलास को प्रकट करने वाली।
  51. अलकावलि-छवि-फंदिनी
    जिसकी चुँघराले केश-राशि सौंदर्य छवि के पाश किंवा फंदे की भाँति है, जो सदैव लाल के मन का फँसाती है।
  52. मोहनी मुसिकिनि मंदिनी
    मन्द-मन्द मधुर मुसकान के द्वारा प्रियतम के मन को भी मोहित करने वाली।
  53. सहज आनन्द-कंदिनी
    सहज रूप से आनन्द की सार स्वरूपिणी।
  54. नेह कुरंगिनी
    बहेलिये के कर्ण-मधर नाट पर मोहित होकर अपने सर्वस्व देने वाली हरिणी की भाँति जो प्रियतम के प्रेम पर मोहित होकर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दे, ऐसी रिझर्वार प्रिया।
  55. नैन विसाला
    जिसके कर्णायत नेत्र सुन्टर एवं सुदीर्घ हैं।
  56. महामधुर रस-कंदिनी
    उज्ज्वल शृङ्गार मूलक नित्य विहारमय दम्पति विलास रस की आधार स्वरूपा।
  57. चंचल चिंत-आकर्षिनी
    व्रज के बहु नायकत्त्व रस में लिप्त व्रज रस रसिक श्री कृष्ण को कान्त भाव से विरत करके, अपने रूप, प्रेम, आकर्षण के द्वारा नित्य-विहारमय ऐकान्तिक राधा-कान्त भाव में स्थिर कर देने वाली।
  58. मदन-मान-खंडिनी
    अपने निष्काम एवं उज्ज्वल प्रेम के द्वारा नेम-प्रधान काम के कामना-मूलक अभिमान का तिरस्कार एवं मान मर्दन कर देने वाली सहज सर्वोपरि प्रेम-मूर्ति ।
  59. प्रेम-रंग-रंगिनी
    कामादि भावों से विवर्जित विशुद्ध तत्सुखमय प्रेम के आनन्द में निरन्तर रँगी हुई।
  60. बंक-कटाक्षिनी
    जिनके नेत्रों की सहज चितवन भी रसदायक, पैनी एवं बाँकी है।
  61. सकल विद्या-विचक्षनी
    दाम्पत्य प्रेम की विलास कलाओं किंवा कोक-विद्या की समस्त कलाओं में सहज निपुणा।
  62. कुँवर अंक-विराजनी
    रसिक-किशोर प्रियतम की क्रोड़ में विराजमान होनेवाली, उनके प्रेम-सम्मान की एकमात्र अधिकारिणी।
  63. प्यार-पट-निवाजिनी
    प्रेम के पदाधिकार का आद्यन्त नि्वाह करने वाली।
  64. सुरत-समर-दल-साजिनी
    निकुञ्ज विहारवसर पर प्रियतम के साथ दाम्पत्य क्रीड़ा में हाव-भाव रूपी सैन्य को सुसज्जित रखने वाली।
  65. मृगनैनी
    हरिणी जैसे सुन्दर एवं विशाल डहडहे नेत्रों की शोभा से संपन्न।
  66. पिकबैंनी
    कोयल जैसी कर्ण-मधुर वाणी एवं स्वर से युक्त।
  67. सलज्ज अंचला
    जो पदे-पदे लज्जा से युक्त होकर दुकूल अञ्चल से मुख को ढँक लेती है।
  68. सहज चंचला
    नारी स्वभाव सुलभ चाञ्चल्य जिसके अङ्ग-अङ्ग में अधिकाधिक रूप से विराजमान् है।
  69. कोक कलानी-कुशला
    दम्पति विलास की केलि-कलाओं में जो सहज निपुण हैं।
  70. हाव-भाव चपला
    अन्तर स्थित प्रेम को प्रकट करने वाले इङ्गितो अर्थात हाव-भावों की व्यंजना में कुशल एवं उनके प्रदर्शन में सहज चञ्चला।
  71. चतुर्य चतुरा
    मूर्तिमान् चातुरी को भी अपनी चातुरी से पनि करने वाली।
  72. माधुर्य मधुर
    मूर्तिमान् माधुर्य को अपने प्रेम, रूप, लावण्य आदि विलज्जित कर देने वाली सहज माधुर्य-मूर्ति श्री राधा।
  73. बिनु भूषन भूषिता
    जिसका प्रत्येक अङ्ग सहज सौन्दर्य, माधुर्यमय है जो सौन्दर्य के लिए अलङ्कार किंवा आभूषणों की अपेक्षा न रखती हो अपितु जिसके सौन्दर्य से आभूषणादि भी सौन्दर्य-मण्डित हो जाते, ऐसी सहज शृङ्गारमयी नवल किशोरी।
  74. अवधि सौन्दर्यता
    सौन्दर्य की चरमसीमा, जिसके सौन्दर्य के समकक्ष कोई हो ही नहीं, तब अधिक कैसे होगा। अर्थात् असमोध्द्र रूप लावण्यमयी।
  75. प्राण-वल्लभा
    प्रियतम के प्राणों को उनके अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय अर्थात् जिस पर प्रियतम के प्राण न्यौछावर हों।
  76. रसिक-रवनी
    रसिक प्रियतम को भी अपने रूप मे रमा लेने वाली किंवा रसिक प्रियतम के प्रेम एवं रूप मे सदैव एक रस रमने वाली।
  77. कामिनी
    जिसके हृदय में प्रेम सुखार्थ प्रेम-कामनाओं का विस्तार होता रहता है।
  78. भामिनी
    प्रियतम के मन पर सहज रूप से अधिकार रखने वाली।
  79. हंस कल-गामिनी
    राजहंस पक्षी की भाँति मद-मन्थर गति से गतिशील प्रिया।
  80. घनश्याम अभिमान
    सघन जल-परित मेघों की भाँति परम सुन्दर श्याम वर्ण श्रीकृष्ण को भी अपने परम रमणीय रूप में रमा लन वाली, दामिनी द्युति-विनिन्दक गौरांगी, परम सुन्दरी।
  81. चंद-विपनी
    श्री वन्दाविपिन के स्वरूप प्रभाव को अपने ने सौन्दर्य एवं महामधुर विलास से प्रकाशित करने वाले चन्द्रमा रूपा शीतल प्रभा पुंज।
  82. मदन-दवनी
    अपने परमोज्ज्वल प्रेम प्रभाव से समस्त काम प्रवृत्तियों का सर्वथा दमन एवं विनाश कर देने वाली।
  83. रसिक-रवनी
    रसिक शिरोमणि प्रीतम श्री लाल जी को रमण सुख प्रदान करने वाली किवा रसिक प्रियतम के साथ रमण करने वाली।
  84. केलि-कमनी
    निकुञ्ज गीत दाम्पत्य क्रीड़ा को कमनीय स्वरूप प्रदान करने वाली रस-विदग्धा नागरी।
  85. चित्तहरनी
    अपने सहज सौन्दर्य एवं लावण्य से प्रियतम श्याम के चञ्चल चित्त को चुराने वाली।
  86. ललन-उर पर चरनधरनी
    तीव्र प्रेमताप से संतप्त प्रियतम के हृदय देश पर अपने शीतल सुभग चरण कमलों को स्थापित करके उन्हें शान्ति प्रदान करने वाली।
  87. छवि कंज-वदनी
    जिनकी श्री मुखछवि कमल के समान शोभा सम्पन्न है।
  88. रसिक नंदिनी
    आनन्द स्वरूप रसिक प्रीतम को भी अपने रसानन्द से आन्दोलित करने वाली अथवा रसिक प्रियतम से मिलकर आन्दानुभूति करने वाली।
  89. रूप-मंजरी
    नित्य विकास को प्राप्त होने वाली, रूप-कलिका-पुञ्ज।
  90. सौभाग्य-रसभरी
    प्रियतम का नित्य साहचर्य सुख-विलास प्राप्त, रसवती नित्य किशोरी प्रिया।
  91. सर्वांग सुन्दरी
    जो नख-शिख पर्यन्त समस्त अङ्ग-प्रत्यङ्गों में रूप, सान्दय, माधुर्य, सुकुमारता, लावण्या, हाव-भाव भङ्गिमा आदि की सौन्दर्य सीमा हैं।
  92. गौरांगी
    तप्त कञ्चनवत गौर वर्ण के सौन्दर्य-लावण्य से परिपूरित सुकुमार अंगों वाली गौरवर्णा मुग्धा प्रिया।
  93. रतिरस रंगी
    प्रियतम समागम से उद्भूत रति-रस से रँगी हुई अथवा दाम्पत्य-रति के रस से प्रियतम को रँग देने वाली।
  94. विचित्र कोक कला अंगी
    शास्त्र वर्णित कोक-कलाओं से भी विलक्षण अथवा अनुपम कोक अंगों में प्रवीण किंवा विचित्र कोक-कलाएँ भी जिनकी एक अंश कला के प्रतिमान् हो।
  95. छवि-चंद-वदनी
    शोभा रूपी चन्द्रमा के समान सुभग सीतल।
  96. रसिक लाल बंदिनी
    जिनकी अनुपम रसिकता के समक्ष शेखर श्री लाल जी भी नतमस्तक नक होकर चरण वन्दना करते हैं, ऐसी रसिक मौलि , नवल किशोरी, रस-विदग्धा प्रिया।
  97. रसिक रस-रंगनी
    रसिक प्रीतम के रस में रँगी हुई अथवा रसिक-प्रियतम को अपने रस में रंग देने वाली।
  98. सखिनु सभामंडिनी
    नित्य विहार जय श्री वृन्दावन की नित्य-किशोरी सखियों की सभा में सर्वोपरि सुन्दर होने से सबको भूषण-स्वरूपा।
  99. आनंद-नंदिनी
    आनन्द की मूल स्वरूपा अर्थात् आनन्द रूप प्रियतम को भी आह्लादित करने वाली।
  100. चतुर अरु भोरी
    चातुर्य की अवधि होकर भी हृदय की सरलता के कारण भोलेपन की भी जो प्रतिमूर्ति है।
  101. सकल सुख-रासि-सदने
    आश्रित जनों को, सखियों को एवं प्रेमास्पद प्रियतम को भी वांछित समस्त सुखों का दान करने में सदा-सर्वदा समर्थ एवं उदारता की परमावधि।

उपसंहार
दोहा- प्रेम-सिंधु के रतन ये, अद्भुत कुँवरि के नाम।
जाकी रसना रटै ‘ध्रुव’, सो पावै विश्राम ॥१॥

श्री ध्रुवदास जी कहते हैं कि कुँवरि किशोरी श्री राधा के ये नाम प्रेम रूपा श्री समुद्र के अद्भुत रत्न हैं। जिस भाग्यशाली भक्त की जिह्वा इन नामो का गान करेगी, वह निश्चित ही परम-शांति को प्राप्त करेगा॥१॥

ललित नाम नामावली, जाके उर झलकंत ।
ताके हिय में बसत रहैं, स्यामा-स्यामल कंत ॥२॥

ललित नामों की यह नामावली जिसके हृदय में झलकेगी, वही उस नाम क साथ उसके हृदय में प्रिया श्यामा एवं उनके कान्त प्रियतम श्याम सुन्नर सदैव निवास करेंगे॥२॥

|| • जय जय श्री राधे • ||

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गोपीगीत

Gopi Geet – गोपीगीत

भगवान कृष्ण ने अधिष्ठात्री देवी श्री राधा रानी और वृन्दावन की गोपियों के साथ रास रचाया, भगवान् ने रास में जितनी गोपियां थी उतनी ही संख्या में अपने प्रति रूप प्रकट किये। रास में सभी गोपियों को ये अनुभव हो रहा था की भगवान सिर्फ मेरे साथ है। गोपियों को ये अनुभव उनके अभिमान में परिवर्तित हो गया। गोपियों के ये लगने लगा कि भगवान् कृष्ण मात्र हम से प्रेम करते है।
भगवान् कृष्ण गोपियों के अभिमान को देख कर स्वयं को गोपियों के मध्य से अन्तर्ध्यान कर लेते है , और किशोरी जी के साथ रास-स्थल से आगे चले जाते है, कुछ समय पश्चात् किशोरी जू को भी अभिमान हो जाता है , तब ठाकुर जी राधा रानी को छोड़ कर लुप्त हो जाते है।

गोपियां और किशोरी जी भगवान के विरह में व्याकुल हो तड़पने लगती है।

हम लोग भौतिक जगत की वस्तु के लिए तड़पने लगते है कहीं हमारी कोई प्रिय वस्तु खो जाए तो घण्टो तक तडपते है लेकिन यहां तो जीव और शिव अर्थात भगत और भगवान् का मिलन और विरह हो रहा है, जिसने जन्मो जन्मो तक केवल गोबिंद मिलन की आस में ही जीवन बिताये हो उसे किसी और भौतिक वस्तु की चाह नही होती और गोपिया तो स्वयं गोबिंद मिलन की प्यास में गोपी रूप में प्रगट भई है फिर उनके विरह का क्या वर्णन हो सकता है? जब कृष्ण विरह की वेदना अनंतगुना हृदय में लावा की नाइ (भांति)प्रचंड वेग से प्रवाहित होने लगे और ज्वारभाटा के रूप में प्रस्फुरित होकर एक विस्फोट के रूप में बहने लगे तो वह भाव गोपीगीत बन जाता है.. इसीलिए स्वयं गोपियन ने इस गोपीगीत को गाया है है और अपनी वेदना का अविरल प्रवाह किया है,गोपिया कहती है,


श्लोक – 1
Shlok – 1

जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:
श्रयत इन्द्रिरा शश्व दत्र हि!
द्यति द्दश्यतां दिक्षु तावका
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते!!
jayati te ‘dhikaṁ janmanā vrajaḥ
śrayata indirā śaśvad atra hi
dayita dṛśyatāṁ dikṣu tāvakās
tvayi dhṛtāsavas tvāṁ vicinvate

O beloved, Your birth in the land of Vraja has made it exceedingly glorious, and thus Indirā, the goddess of fortune, always resides here. It is only for Your sake that we, Your devoted servants, maintain our lives. We have been searching everywhere for You, so please show Yourself to us.

” हे प्रिय ! यह जो बृज है यह ऐसे ही बृज नही बन गया है,आपके जनम लेने के कारण इस स्थान का महत्व इतना अधिक है,अर्थात गोबिंद यह बृज क्षेत्र जहाँ अनेकानेक जीव मुक्ति प्राप्त कर रहे है यह सब आपकी कृपा और यहां आपके जन्म लेने के कारण ही है, आप बैकुंठ, गोलोक, क्षीरसागर और अन्यान्य लोको में बिलकुल भी सुलभ नही हो अर्थात आपका दर्शन व् मिलन सम्भव नही है, यह तो आपकी अनुकंपा है की

आप केवल बृज में ही इतने सहज रूप से मिल जाते है,

जिनके चरण श्री लक्ष्मी जी अपने आँचल में वक्षस्थल के पास छिपा कर रखती है वही कमल चरण यहां ब्रजभूमि की ऱज़ में डोलते फिरते है,यह सब आपके यहा जन्म लेने के कारण और हम जैसे अधमीयो पर उपकार करने के लिए ही तो हुआ है, यहां श्री लक्ष्मी जी भी सेवा हेतु नित प्रतिदिन आने लगी है,जो श्री लक्ष्मी जी क्षीर सागर में नित आपके कमलाचरण पलोटति रहती है और किसी अन्य को इनके दर्शन का अधिकार भी नही देती इस बृज में आपकी सेवा के लिए घूमती रहती है यह आपके यहा जन्म लेने के कारण हुआ है,

आपने ही इस बृज को बैकुंठ गोलोक स्वर्ग और,
अन्य उच्च लोकों से भी उच्च बना दिया है.

लोकन कौ लोक मैंने एक ब्रज लोक देख्यौ,
ब्रजहूँ कौ तत्व श्री वृन्दावन धाम है,
वृन्दावन धाम हूँ कौ तत्व साधू-संतजन,
साधून कौ तत्व गोपी-ग्वालिनी कौ नाम है,
ग्वालिनी कौ तत्व प्यारो कृष्ण घनश्याम जहाँ,
यहाँ कृष्ण हूँ कौ तत्व श्री राधारानी जू को नाम है.

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते
आपकी कृपा से बहुत से राक्षस योनि के जीव जैसे अघासुर,बकासुर,कालिया नाग और पूतना जैसे राक्षस भव से पार हो गए है, जो गति बड़े बड़े महात्माओं को नही मिलती वह इस ब्रज क्षेत्र में सभी को प्राप्त हो रही है,आप यहां जो लीलाये कर रहे है वह युगों युगों तक जीवमात्र को आनंद देने वाली है,

हम गोपिया जो अपना सर्वश्व लूटा कर, घर बार छोड़ कर ही नही अपितु अपने पति बच्चो सभी को भूलकर यहां वन में भटक रही है, केवल और केवल हे मनमोहन आपके दर्शनों के लिए ही,

हमने युगों युगों तक आपको पाने के लिए अनेकानेक तप किये,कष्ट सहन किये है विरहवेदना में अपने हृदय को तप्त किया है और आज हम आपको पाकर भी नही पा रही है, इस अर्धरात्रि में गहन वन में आपको ढूंढती हुयी यहां वहां भटक रही है, आपको हम पर करुणा नही होती क्या? आपने अपनी करुणा से अनेक अधमीयो को भी उच्च गतियां प्रदान की है फिर हमारे लिए इतने निष्ठुर क्यों बन गए हो,हमने केवल और केवल तुमसे स्नेह किया और कोई भाव किसी के प्रति कभी अपने हृदय में नही लाया यहां तक की अपने गृहस्थ जीवन को भी भूल गयी है,इतना सब त्याग कर हम आज यहाँ आपके निकट है फिर भी आप हम से छिप रहे है न जाने कहां अंतर्ध्यान हो गए है,

जैसे एक बछड़ा अपनी माता से बिछुड़ जाने पर तड़प उठता है और वन वन माँ माआ करता हुआ भटकने लगता है अश्रुधारा उसके नेत्रों से अविरल बहने लगती है और कभी वह मूर्छित हो जाता है ऐसी ही दशा हमारी हो रही है, हमे अपने तन की कोई सुध नही है न ही भूख प्यास की परवाह है हमे केवल और केवल आपसे मिलना है, हे माधव ! आप कहाँ हो? हम आपको पाने के लिए भटक रही है,
रे निरमोही, छबि दरसाय जा।कान चातकी स्याम बिरह घन, मुरली मधुर सुनाय जा।ललितकिसोरी नैन चकोरन, दुति मुखचंद दिखाय जा॥भयौ चहत यह प्रान बटोही, रुसे पथिक मनाय जा॥


श्लोक – 2
Shlok – 2

शरदुदाशये साधुजातस
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा!
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः!!
śarad-udāśaye sādhu-jāta-sat-
sarasijodara-śrī-muṣā dṛśā
surata-nātha te ‘śulka-dāsikā
vara-da nighnato neha kiṁ vadhaḥ

O Lord of love, in beauty Your glance excels the whorl of the finest, most perfectly formed lotus within the autumn pond. O bestower of benedictions, You are killing the maidservants who have given themselves to You freely, without any price. Isn’t this murder?

हे हृदयेश्वर हमारे प्राणधन ! हमारे हृदय में केवल आप ही निवास करते है,आप हमारे हृदय के स्वामी है, आप ही ने अपने नेत्र कटाक्षो से हमारा वध किया है,आपके नेत्र इतने नुकीले और घायल करने वाले है की हमारा हृदय इसकी पैनी धार से विदीर्ण अर्थात चिर गया है एक तो आपके विरह की वेदना ऊपर से इन नेत्रो द्वारा हृदय के विदीर्ण होने की पीड़ा हम तो मर ही जाएंगी केशव,केवल अश्त्रों शस्त्रो से मारना ही मारना नही होता है नेत्रो का मारण भी मृत्यु की पीड़ा देता है,

यह जो आपके नेत्र है जैसे शरद ऋतू के चंदमा की मनोहारी चांदनी की शोभा जैसे किसी सूंदर सरोवर पर दृश्यमान होकर उर सरोवर को अति आलोकिक बना देती है अर्थात बहुत दिव्य बना देती है ऐसेही यह आपके नेत्रो की सोभा की चांदनी से हमारा वक्ष स्थल विदीर्ण हो गया है, हम आपके बिना तड़प रही है कहि हमारे प्राणपखेरु उड़ नही जाए,हम आपके नेत्रो को जोकि अपनी सुंदरता से किसी को भी घायल कर देते है उन नेत्रों के दर्शन चाहती है,

हम सब आपके चरणों की दासी है और कोई शुल्क भी नही लेती अर्थात हम बिन मोल बिकानी है आपकी सेवा के लिए, हमे कोई उपहार या पारितोषिक नही चाहिए हम तो केवल आपके दर्शनों की प्यासी है, हम आपके नेत्रो की सुंदरता का आनंद लेना चाहती है हमे और कुछ भी प्रलोभन नही है,

प्यारे दरसन दीज्यो आय, तुम बिन रह्यो न जाय॥
जल बिन कमल, चंद बिन रजनी।
ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी॥
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन,
बिरह कलेजो खाय॥
दिवस न भूख, नींद नहिं रैना,
मुख सूं कथत न आवै बैना॥
कहा कहूं कछु कहत न आवै,
मिलकर तपत बुझाय॥
क्यूं तरसावो अंतरजामी,
आय मिलो किरपाकर स्वामी॥
मीरां दासी जनम जनम की,
पड़ी तुम्हारे पाय॥


श्लोक – 3
Shlok – 3

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्!
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः!!
viṣa-jalāpyayād vyāla-rākṣasād
varṣa-mārutād vaidyutānalāt
vṛṣa-mayātmajād viśvato bhayād
ṛṣabha te vayaṁ rakṣitā muhuḥ

O greatest of personalities, You have repeatedly saved us from all kinds of danger —from poisoned water, from the terrible man-eater Agha, from the great rains, from the wind demon, from the fiery thunderbolt of Indra, from the bull demon and from the son of Maya Dānava.

गोपियाँ कहती है, हे चैतन्य स्वरुप माधव आप अपने नेत्रों के कृपा कटाक्ष से जड़ जीवों को भी सजीव करने वाले है फिर हम गोपियाँ जो जड़मति हो गयी है तुम्हारे विरह में हम पत्थर हो गयी है तुम अपने इन कमलनयनों से क्यों नही अपनी करुणा का अमृत वर्षण कर रहे क्यों नही अपने रूप का दर्शन हमे प्रदान कर रहे हो,

मेरे साँवरिया….
“जल्व़ा-ऐ-हुस्न दिखा जाओ, तो कोई बात बने,
मेरी नज़रों में समा जाओ, तो कोई बात बने,
आपकी सूरत नज़र आती है. धुँधली धुँधली,
पर्दा नज़रों से हटा जाओ, तो कोई बात बने.”

आपने अनेकानेक बार हम सब का रक्षण किया है, जब कालिया नाग के विष से सारी यमुना का जल विषाक्त हो गया तब आपने ही अपनी कृपा से हम सब ब्रिजवासिन की रक्षा की है, जब अघासुर अजगर बनकर सकल गोकुल वासियों को निगलना चाहता था तब भी आपने ही हमारी रक्षा की है, अनेक राक्षशों व्योमासुर,बकासुर इत्यादि से बचाया है और यही नही जब इंद्र कुपित हो गया और सकल बृजमंडल को डूबना चाहता था, भारी वर्षण,आंधी का प्रचंड वेग और विद्युत् की असहनीय गडगडाहट से हम सब को बचाया हे! गिरिधर यह सब आपकी कृपा का ही फल था हम सब आपके ऋणी है आपने कोई भी अवसर हमारी रक्षा का नही छोड़ा सदैव हम सब की रक्षा के लिए तत्पर रहे हो

हे मधुसूदन ! हम जीव आज इस घोर कलियुग में अनेकानेक वासनाओ के शिकार है, मोह,लोभ दम्भ,पापाचार, स्वार्थ,विषय, काम लोलुपता से ग्रसित अनंत दुर्गुणों से पीड़ित है,यही नही इन सब से ग्रसित न जाने कितने कुकृत्य में संलिप्त है, हे माधव! भाव सागर में डूबता हुए हम सब के तारणहार आप कहा छुप गए हो? ना केवल उस युग में आपने गोकुलवासियों की रक्षा की है आज भी हमे आपकी करुणादृष्टि और वरद हस्त का आशीर्वाद चाहिए आप का संग चाहिए, हे प्रभो ! हमारी रक्षा कीजिये


श्लोक – 4
Shlok – 4

न खलु गोपिकानन्दनो भवा
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्!
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान्सात्वतां कुले!!
na khalu gopīkā-nandano bhavān
akhila-dehinām antarātma-dṛk
vikhanasārthito viśva-guptaye
sakha udeyivān sātvatāṁ kule

You are not actually the son of the gopī Yaśodā, O friend, but rather the indwelling witness in the hearts of all embodied souls. Because Lord Brahmā prayed for You to come and protect the universe, You have now appeared in the Sātvata dynasty.

हे परम सखा! यहां परम सखा कहने का अर्थ मित्र भी है और सखा का अर्थ सुख प्रदान करने वाला भी है अतः गोपियाँ कहती है, हे कृष्ण आप केवल यशोदा के पुत्र बन कर आये हो और केवल उन्ही को आनंद देने वाले हो ऐसा नही है, आप नन्द बाबा के घर जन्मे तो केवल उन्ही के सुख और आनंद के लिए नही बल्कि आप सभी बृजवासियों को सुख प्रदान करने के लिए आये है ऐसा भी नही है सच तो यह है की आप सकल ब्रह्मांड के जीवमात्र के कल्याण और सुख के लिए यह अवतरित हुए है, आप सभी प्राणियों के हृदय में निवास करने वाले हो,आप सभी जीवमात्र के अंतर्यामी है, उनके मन हृदय में निवास करने वाले है, आपने यह जन्म ब्रह्मा जी के कहने पर और जीवमात्र के कल्याण के लिए इस यदुकुल और बृज में जन्म लिया है, सबका अधिकार आप पर समान रूप से है आप किसी वर्ग विशेष के लिए नही है अर्थात आपको सभी से प्रेम का अधिकार है और सभी को आपसे प्रेम करने का समान अधिकार है


श्लोक – 5
Shlok – 5

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्!
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्!!
viracitābhayaṁ vṛṣṇi-dhūrya te
caraṇam īyuṣāṁ saṁsṛter bhayāt
kara-saroruhaṁ kānta kāma-daṁ
śirasi dhehi naḥ śrī-kara-graham

O best of the Vṛṣṇis, Your lotuslike hand, which holds the hand of the goddess of fortune, grants fearlessness to those who approach Your feet out of fear of material existence. O lover, please place that wish-fulfilling lotus hand on our heads.

हे यदुवंशी! आप अपने प्रेमियों की सकल अभिलाषाएं पूर्ण करने वाले हो अर्थात जो आपकी शरण आ जाता है वह आपकी छत्रछाया पा लेता है फिर उसकी रक्षा और पालन आपका उत्तरदायित्व हो जाता है, जो व्यक्ति संसार के संताप का सताया हुआ है और आपकी शरण ले लेता है आप उसकी रक्षा करते है, अनेकानेक उद्धiरण है जहां आपने अपनी इस प्रवृति को सिद्ध किया है, फिर चाहे उदाहरणस्वरूप भक्त प्रह्लाद को लेलो या ध्रुव या गजेंद्र गज या कुब्जा शबरी और अहिल्या का दृष्टान्त ले लीजिये, ऐसा कोण सा जिव है जिस पर आपने उपकार नही किया जो भी जीव किसी भी भाव से आपकी शरण आया हो आपने अपनी शरणागति प्रदान कर अपने अभय दान से उन भक्तो का मान बढ़ाया है, बिभीषन जैसे रावण के भाई को आपने शरणागति दी है,आप इतने करुणामयी है की अपनी किरपा से कुपात्र को भी कृपापात्र बना देते हो,

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।।

अर्थात हे प्रभु आप शरणागतवत्सल है और कोई भी पात्र या कुपात्र आपकी शरण हो जाता है तो वह आपका उत्तरदायित्व बन जाता है अर्थात आप उसके सब कुछ बन जाते है, जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।। आपने इतना कुछ किया इतने अधमियों को भी अपनी किरपा से भाव पार किया है फिर हमारी बारी इतनी देर क्यों लगा रहे हो, हम आपकी शरण है और आपके कर कमलो की छत्रछाया की अभिलाषी है, किरपा कर के अपने यह सुकोमल हस्त हमारे सर पर रख दीजिये, हम आपकी शरणागति चाहती है,


श्लोक – 6
Shlok – 6

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित!
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय!!
vraja-janārti-han vīra yoṣitāṁ
nija-jana-smaya-dhvaṁsana-smita
bhaja sakhe bhavat-kińkarīḥ sma no
jalaruhānanaṁ cāru darśaya

O You who destroy the suffering of Vraja’s people, O hero of all women, Your smile shatters the false pride of Your devotees. Please, dear friend, accept us as Your maidservants and show us Your beautiful lotus face.

हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर ! तुम सभी व्रजवासियों का दुःख दूर करने वाले हो । आपका मुखचन्द्र इतना सोभायमान है जिसके दर्शन भर से ही सभी संताप दूर हो जाते है, पहले नेत्रो से वार किया, फिर करुणiहस्त की मांग है और अब मुखकमल की अर्थात गोपिया इतनी तृषित है की किसी भी प्रकार से प्रभु को पाना चाहती है वह एक झलक पाने को अति आतुर हो रही है मर रही है तड़प रही है अतिविह्वल हो रही है, विह्वल का अर्थ है प्रेम की तड़प में अत्यधिक रुदन अवस्था में, आपका मुख इतना सूंदर है की यदि एकपल के लिए आप हमे अपना दर्शन करवा दो तो हम अति सुख पाएंगी,

श्री हरिवंश किशोर लाडिले विनती कबहुँ विचारोगे
दीन दुखी भुज गहन कृपानिधि कोमल बाहं पसारोगे
निज मुख सत्य करौगे नातो सूल हिये का टारोगे
सब विधि पामर नीच निबल अति पोच पतित प्रतिपiरोगे
उमगत सहज कृपा कौ सागर लै लै नाम पुकारोगे
भोरी बिलपत द्वार दुखी तन करुणा कौर निहारऔगे

तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक एक झलक ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त हैं। आपकी मधुर मुस्कान से कोण सा ऐसा जीव है जो मोहित नही होता, सागरमंथन से निकले अमृत के बटवारे हेतु आपने जब मोहिनी रूप लिया तो आपकी मुस्कान से सभी राक्षसगण ही मोहित हो गए तो आपके इस रूप और इसकी मुस्कान हमारा हृदय चिर देती है इसमें हमारा क्या दोष है? हम तो आपकी मुस्कान की आपके अधरों से झरने वाले अमृत की एक एक बूँद के लिए तड़प रही है, जैसा की हमने आपको पहले भी कहा है की आप हमसे दूर न जाओ, हम आपकी वह दासी है जिसे कोई सांसारिक सम्पदा की लालसा नही है, हम तो बिन मोल की आपकी दासी है जो केवल और केवल आपकी मुस्कान मात्र का दर्शन चाहती है

मेरी पलकों को तेरे दीदार का
मेरे मोहन इंतज़ार रहता है
दिल के हर कोने में मेरे बस तुम्हारा ही प्यार रहता है
गुजर रहे है मेरे रात और दिन बस तुम्हारी याद में
हमें तो मनमोहन बस तुम्हारा ही प्यार याद रहता है

आपके मुख को निहारने के लिए आपकी सेवा में खड़ी है, हे हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । जैसे भीलनी वर्षो तक आपकी प्रतीक्षा में तड़पती रही और बिन मोल सेवा भाव में लगी रही और आपने उन्हें अपने प्रेम से उन्हें तृप्त किया, उसी विरह पीड़ा को हम भी सहन कर रही है, जैसे अहिल्या वर्षो तक अपने उद्धार के लिए जड़वत पत्थर बनकर आपको पाने का इन्तजार करती रही हम सब भी आपके विरह में पत्थर हो गयी है, हमारा भी कल्याण करो, हम अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।

तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे
बलिहार जाऊ रे , बलिहार सांवरे ॥ तेरी मंद..॥
तेरे नैन गजब कजरारे, मटके हैं कारे कारे
तेरी तिरछी से चितवनीया पे
बलिहार जाऊ रे , बलिहार सांवरे ॥ तेरी मंद..॥

तेरे केश बड़े घुंघराले, ज्यों बादल कारे कारे
तेरी कुंडल की झलकनिया पे
बलिहार जाऊ रे , बलिहार सांवरे ॥ तेरी मंद..॥

तेरी चाल अजब मतवाली, ज्यों लगाती प्यारी प्यारी
तेरी मधुर मधुर पैजनिया पे
बलिहार जाऊ रे , बलिहार सांवरे ॥ तेरी मंद..॥


श्लोक – 7
Shlok – 7

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्!
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्!!
praṇata-dehināṁ pāpa-karṣaṇaṁ
tṛṇa-carānugaṁ śrī-niketanam
phaṇi-phaṇārpitaṁ te padāmbujaṁ
kṛṇu kuceṣu naḥ kṛndhi hṛc-chayam

Your lotus feet destroy the past sins of all embodied souls who surrender to them. Those feet follow after the cows in the pastures and are the eternal abode of the goddess of fortune. Since You once put those feet on the hoods of the great serpent Kāliya, please place them upon our breasts and tear away the lust in our hearts.

इस श्लोक में गोपी प्रभु के चरणों की बात करती है,कहती है हे नंदलाल! आपके यह चरण जिनके दर्शन मात्र से जिनकी ऱज़ मात्र से पापियों का उद्धार हो जाता है, हम उन चरणों के दर्शन चाहती है, तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं।जैसे अहिल्या को जैसे ही आपके चरणों की ऱज़ उड़कर लगी जोकि वर्षो से शिला बनी आपकी किरपा चाहती थी पल में सजीव हो गयी, उसका पाप ताप सब मिट गया, आपके कमलाचरण अद्भुत है, वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । जो लक्ष्मी जी इन चरणों पर किसी भी बाह्य जीव की दृष्टि भी इन पर नही पड़ने देती है तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो अर्थात जो लीलाये आप बृज में कर रहे है ,यह असाधारण है, और हमारे लिए उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया ।

आपने हम सब गोकुलवासियों के हित के लिए यमुना के विषाक्त जल में कूदकर कालिया नाग के मस्तक पर फण पर इन कोमल चरणों से नृत्य किया, आपने हम सब पर इतनी किरपा की है अर्थात कभी भी और कोई भी अवसर पर अपनी करुणा की कमी नही रहने दी है. तो फिर आप अब कहाँ छुप गए हो? हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो, हम सब आपसे विनती कर रही है की हमारा ये हृदय विरहाग्नि से तप्त हो रहा है, वेदना इतनी गंभीर हो गयी है की हमारी छाती फटने को तैयार है अब यह अग्नि हम सब को भस्म करने को आतुर है हम आपसे विनती कर रही है की आप अपने चंदन जैसे चरणों को हमारे वक्षस्थल पर रख कर हमारी वेदना शीतल कर दीजिये,


श्लोक – 8
Shlok – 8

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण!
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः!!
madhurayā girā valgu-vākyayā
budha-manojshayā puṣkarekṣaṇa
vidhi-karīr imā vīra muhyatīr
adhara-sīdhunāpyāyayasva naḥ

O lotus-eyed one, Your sweet voice and charming words, which attract the minds of the intelligent, are bewildering us more and more. Our dear hero, please revive Your maidservants with the nectar of Your lips.

हे कमल नयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । तुम्हारा एक एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है । बड़े बड़े विद्वान उसमे रम जाते हैं। जैसे ही आपकी मधुर वाणी का श्रवण होता है तो कोई भी आप पर मोहित हो जाता है, जैसे वामनावतार में आपकी मधुर वाणी और वेश देखकर राजा बलि मोहित हो गया और बिना कुछ सोचे आपको वचन दे दिया, उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । आपकी वाणी इतनी मोहिनी है की किसी को भी अपने वश में कर लेती है तो फिर हमारा क्या दोष जो हम आपकी वाणी को सुनकर आप पर मोहित हो गयी है? तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं ।

हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो।अर्थात आपका अधरामृत जिसे की वंशी नित्य प्रति पान करती है और मधुर मधुर स्वर उत्तपन करती है जिसकी स्वरनाद से त्रिलोकी मोहित हो जाती है हम सब उस अधरामृत को पाने के लिए मरी जा रही है, हम आपसे विनती कर रही है आप हमारे जीवन की रक्षा कीजिये,


श्लोक – 9
Shlok – 9

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्!
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः!!
tava kathāmṛtaṁ tapta-jīvanaṁ
kavibhir īḍitaṁ kalmaṣāpaham
śravaṇa-mańgalaṁ śrīmad ātataṁ
bhuvi gṛṇanti ye bhūri-dā janāḥ

The nectar of Your words and the descriptions of Your activities are the life and soul of those suffering in this material world. These narrations, transmitted by learned sages, eradicate one’s sinful reactions and bestow good fortune upon whoever hears them. These narrations are broadcast all over the world and are filled with spiritual power. Certainly those who spread the message of Godhead are most munificent.

हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है ।जैसे आपका स्वरूप आपका मुख मुस्कान वाणी कमलहस्त चरण सुख देने वाले है उसी तरह आपकी लीलाओं का चिंतन दर्शन व् श्रवण मंगल कारक है अर्थात विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। कथा के माध्यम से भी शब्दरूप माधव आपके दर्शन हो जाते है,ऐसे समय जब आप हमारे समक्ष उपस्थित नही है किन्तु कथाओ के माध्यम से उपस्थित हो जाते है तो यह सब भी हमारे विरह को शांत करता है, बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं – भक्तकवियों ने उसका गान किया है,

वह सारे पाप – ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल – परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो भी जीव आपकी कथा अमृत का दान करते है अर्थात उन कथाओं का श्रवण गायन और पठान करते है वः धन्य है क्योंकि वः आपके शब्दरूप से दर्शन करवाने में समर्थ है,जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।

नारद संहिता में स्वयम भगवान् ने यह कहा है,

“नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।”

हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। यहां भगवान् का कहने का तातपर्य यही है की में भजन,नाम सुमिरन और कथा के माध्यम से अति सुलभ हूँ और जहां यह सब होता है में वही रहता हु अन्यत्र कहि जाता ही नही अतः मुझे कथा में पाया जा सकता है,

जैसे संतजन भगवान् की महिमा का गुणगान करते है वैसे ही भगवान् भी उन्ही के आश्रय में सुगम रूप से मिल जाते है,श्रीमद तुलसी रामायण में जब श्री राम वन में विचरण करते हुए बाल्मीकि आश्रम में होते है तो वः पूछते है हे मुनिवर मुझे अब कहाँ रहना चाहिए? तब इन्ही भूरिदजन अर्थात संत ने वह स्थान या वह सूत्र बताये जहां प्रभु निवास करते है,


श्लोक – 10
Shlok – 10

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम्!
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि!!
prahasitaṁ priya-prema-vīkṣaṇaṁ
viharaṇaṁ ca te dhyāna-mańgalam
rahasi saṁvido yā hṛdi spṛśaḥ
kuhaka no manaḥ kṣobhayanti hi

Your smiles, Your sweet, loving glances, the intimate pastimes and confidential talks we enjoyed with You — all these are auspicious to meditate upon, and they touch our hearts. But at the same time, O deceiver, they very much agitate our minds.

हे हमारे प्यारे ! एक दिन वह था, तुम्हारी प्रेम हँसी और चितवन तथा तुम्हारी विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करतीं थी। हे हमारे कपटी मित्र ! उन सब का ध्यान करना भी मंगलदायक है, उसके बाद तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ की और प्रेम की बातें की, अब वह सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर रही हैं।


श्लोक – 11
Shlok – 11

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्!
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति!!
calasi yad vrajāc cārayan paśūn
nalina-sundaraṁ nātha te padam
śila-tṛṇāńkuraiḥ sīdatīti naḥ
kalilatāṁ manaḥ kānta gacchati

Dear master, dear lover, when You leave the cowherd village to herd the cows, our minds are disturbed with the thought that Your feet, more beautiful than a lotus, will be pricked by the spiked husks of grain and the rough grass and plants.

हे हमारे प्यारे स्वामी ! हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके, कुश एंव कांटे चुभ जाने से कष्ट पाते होंगे; हमारा मन बेचैन होजाता है । हमें बड़ा दुःख होता है।


श्लोक – 12
Shlok – 12

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्!
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि!!
dina-parikṣaye nīla-kuntalair
vanaruhānanaṁ bibhrad āvṛtam
ghana-rajasvalaṁ darśayan muhur
manasi naḥ smaraṁ vīra yacchasi

At the end of the day You repeatedly show us Your lotus face, covered with dark blue locks ofhair and thickly powdered with dust. Thus, O hero, You arouse lusty desires in our minds.

हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं, कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रहीं है और गौओं के खुर से उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है। तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखाकर हमारे हृदय को प्रेम-पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो।


श्लोक – 13
Shlok – 13

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि!
चरणपङ्कजं शंतमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्!!
praṇata-kāma-daṁ padmajārcitaṁ
dharaṇi-maṇḍanaṁ dhyeyam āpadi
caraṇa-pańkajaṁ śantamaṁ ca te
ramaṇa naḥ staneṣv arpayādhi-han

Your lotus feet, which are worshiped by Lord Brahmā, fulfill the desires of all who bow down to them. They are the ornament of the earth, they give the highest satisfaction, and in times of danger they are the appropriate object of meditation. O lover, O destroyer of anxiety, please put those lotus feet upon our breasts.

भावार्थ:- हे प्रियतम ! तुम ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली हैं, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी ब्याधायें शान्त हो जाती हैं। हे प्यारे ! तुम अपने उन परम-कल्याण स्वरूप चरणकमल हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदय की व्यथा को शान्त कर दो।


श्लोक – 14
Shlok – 14

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्!
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्!!
surata-vardhanaṁ śoka-nāśanaṁ
svarita-veṇunā suṣṭhu cumbitam
itara-rāga-vismāraṇaṁ nṛṇāṁ
vitara vīra nas te ‘dharāmṛtam

O hero, kindly distribute to us the nectar of Your lips, which enhances conjugal pleasure and vanquishes grief. That nectar is thoroughly relished by Your vibrating flute and makes people forget any other attachment.

हे वीर शिरोमणि ! आपका अधरामृत तुम्हारे स्मरण को बढ़ाने वाला है, सभी शोक-सन्ताप को नष्ट करने वाला है, यह बाँसुरी तुम्हारे होठों से चुम्बित होकर तुम्हारा गुणगान करने लगती है। जिन्होने इस अधरामृत को एक बार भी पी लिया तो उन लोगों को अन्य किसी से आसक्तियों का स्मरण नहीं रहता है, तुम अपना वही अधरामृत हम सभी को वितरित कर दो।


श्लोक – 15
Shlok – 15

अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्!
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम्!!
aṭati yad bhavān ahni kānanaṁ
truṭi yugāyate tvām apaśyatām
kuṭila-kuntalaṁ śrī-mukhaṁ ca te
jaḍa udīkṣatāṁ pakṣma-kṛd dṛśām

When You go off to the forest during the day, a tiny fraction of a second becomes like a millennium for us because we cannot see You. And even when we can eagerly look upon Your beautiful face, so lovely with its adornment of curly locks, our pleasure is hindered by our eyelids, which were fashioned by the foolish creator.

हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है, और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती हैं, उस समय हमारी पलकों का गिरना हमारे लिये अत्यन्त कष्टकारी होता है, तब ऎसा महसूस होता है कि इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।


श्लोक – 16
Shlok – 16

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः!
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि!!
pati-sutānvaya-bhrātṛ-bāndhavān
ativilańghya te ‘nty acyutāgatāḥ
gati-vidas tavodgīta-mohitāḥ
kitava yoṣitaḥ kas tyajen niśi

Dear Acyuta, You know very well why we have come here. Who but a cheater like You would abandon young women who come to see Him in the middle of the night, enchanted by the loud song of His flute? Just to see You, we have completely rejected our husbands, children, ancestors, brothers and other relatives.

हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई-बन्धु और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर संकेत को समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं। हे कपटी ! इसप्रकार रात्रि को आयी हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड़ सकता है।


श्लोक – 17
Shlok – 17

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्!
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः!!
rahasi saṁvidaṁ hṛc-chayodayaṁ
prahasitānanaṁ prema-vīkṣaṇam
bṛhad-uraḥ śriyo vīkṣya dhāma te
muhur ati-spṛhā muhyate manaḥ

Our minds are repeatedly bewildered as we think of the intimate conversations we had with You in secret, feel the rise of lust in our hearts and remember Your smiling face, Your loving glances and Your broad chest, the resting place of the goddess of fortune. Thus we experience the most severe hankering for You.

हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं । हे प्रिये ! तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।


श्लोक – 18
Shlok – 18

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम्!
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्!!
vraja-vanaukasāṁ vyaktir ańga te
vṛjina-hantry alaṁ viśva-mańgalam
tyaja manāk ca nas tvat-spṛhātmanāṁ
sva-jana-hṛd-rujāṁ yan niṣūdanam

O beloved, Your all-auspicious appearance vanquishes the distress of those living in Vraja’s forests. Our minds long for Your association. Please give to us just a bit of that medicine, which counteracts the disease in Your devotees’ hearts.

हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो, जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।


श्लोक – 19
Shlok – 19

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु!
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः!!
yat te sujāta-caraṇāmburuhaṁ staneṣu
bhītāḥ śanaiḥ priya dadhīmahi karkaśeṣu
tenāṭavīm aṭasi tad vyathate na kiṁ svit
kūrpādibhir bhramati dhīr bhavad-āyuṣāṁ naḥ

O dearly beloved! Your lotus feet are so soft that we place them gently on our breasts, fearing that Your feet will be hurt. Our life rests only in You. Our minds, therefore, are filled with anxiety that Your tender feet might be wounded by pebbles as You roam about on the forest path.

हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण, कमल से भी कोमल हैं । उन्हें हम अपने कठोर हृदय पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं


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श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष – Shri Krishan Kripa Kataksh

श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष स्तोत्र स्वयं भगवान शंकराचार्य द्वारा रचित है इसमे कुल 9 श्लोक है। ये श्लोक संस्कृत मे लिखे गए एवम् इनका गायन अति मधुर और मन को शांति देने वाला है।

वैसे तो श्री कृष्ण योगेश्वर है परंतु इनका माधुर्य रूप किसी भी जप, तप, यज्ञ या पूजा पद्धति के वश मे नही अतः ये सर्व स्वतंत्र है। केवल निश्वर्थ प्रेम भावना से ही इनके चरणों की प्रीति प्राप्त की जा सकती है।

ऐसे मे भगवान शंकराचार्य ने इस स्त्रोत की रचना कर जन साधारण के लिए श्री कृष्ण के भक्ति मार्ग सुगम और सरल बना दिया। यदि कोई भक्त किसी पूजा पद्धति से ना भी जुड़े केवल इस स्त्रोत का नित्य पढ़ करे तो जल्दी ही श्री कृष्ण उसे अपनी प्रेम-भक्ति दान देते है और उस भवसागर से पार लगाते है।

एक बार यदि इस स्त्रोत के शब्द हमारे कंठ को अपना घर बना लिए तो उस भक्त को श्री कृष्ण की कृपा सहज ही प्राप्त होती है तो आइये रोज इस स्त्रोत पाठ आज से ही शुरू करे

सर्वप्रथम भगवान शंकराचार्य ने श्री कृष्ण की स्तुति इन श्लोको से की है –

मूकं करोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्।।

अर्थात्-जिनकी कृपा से गूंगे बहुत बोलने लगते हैं; पंगु पहाड़ को लांघ जाते हैं, उन परमानंद स्वरूप माधव की में वन्दना करता हूँ।

भगवान स्वयं नारदजी से कहत –

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।

अर्थात्-भगवान तो केवल वहीं विराजते हैं, जहां उनके भक्त उनका गुणगान करते हैं। ‘कलौ केशव कीर्तनात्’-कलिकाल मे भगवान केशव का कीर्तन ही भवसागर से पर होने का एकमात्र साधन है।


(श्लोक – 1)
व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं, स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम्।
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं, अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम्॥१॥

Bhaje vrajaika mandanam, samastha papa khandanam,
Swabhaktha chitha ranjanam, sadaiva nanda nandanam,
Supincha gucha masthakam, sunada venu hasthakam,
Ananga raga sagaram, Namami Krishna sagaram., 1

भावार्थ–व्रजभूमि के एकमात्र आभूषण, समस्त पापों को नष्ट करने वाले तथा अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाले नन्दनन्दन को सदैव भजता हूँ, जिनके मस्तक पर मोरमुकुट है, हाथों में सुरीली बांसुरी है तथा जो प्रेम-तरंगों के सागर हैं, उन नटनागर श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।

I pray Him, who is the ornament to the land of Vraja, Who cuts off entire sins, Who pleases the mind of his devotees, And who is the godly son of Nanda Gopa. Salutations to the sea like Lord Krishna, Who decorates his head with peacock feathers,Who has the sweet sounding flute in his hand, And who is the music of the ocean of love.


(श्लोक – 2)
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं, विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम्।
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं, महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम्॥२॥

Manoja garva mochanam vishala lola lochanam,
Vidhootha gopa sochanam namami padma lochanam,
Kararavindha bhoodaram smithavaloka sundraram,
Mahendra mana daranam, Namami Krishna varanam., 2

भावार्थ–कामदेव का मान मर्दन करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर चंचल नेत्रों वाले तथा व्रजगोपों का शोक हरने वाले कमलनयन भगवान को मेरा नमस्कार है, जिन्होंने अपने करकमलों पर गिरिराज को धारण किया था तथा जिनकी मुसकान और चितवन अति मनोहर है, देवराज इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।

Salutations to Him who has lotus like eyes, Who wins over the pride of the god of love,Who has broad and ever shifting eyes, And who consoled the gopas of the worry over the emissary. Salutations to the elephant like Lord Krishna,Who lifted the mountain by his lotus soft hands, Who has a pretty gaze and smile,And who killed the pride of the great Indra.


(श्लोक – 3)
कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं, व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम्।
यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया, युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम्॥३॥

Kadhambha soonu kundalam sucharu ganda mandalam,
Vrajanganaika vallabham namami Krishna durlabham.
Yasodhata samodhaya sagopaya sananandaya,
Yutham sukhaika dayakam namami gopa nayakam., 3

भावार्थ–जिनके कानों में कदम्बपुष्पों के कुंडल हैं, जिनके अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं तथा व्रजबालाओं के जो एकमात्र प्राणाधार हैं, उन दुर्लभ भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ; जो गोपगण और नन्दजी के सहित अति प्रसन्न यशोदाजी से युक्त हैं और एकमात्र आनन्ददायक हैं, उन गोपनायक गोपाल को नमस्कार करता हूँ।

Salutations to the Lord Krishna, Who is not easy to get, Who wears the ear rings of Kadambha flowers, Who has very pretty smooth cheeks, And who is the lord of the women of Vrija. Salutations to the chief of Gopas,
Who grants supreme bliss, To Yasodha, gopas and Nanda, And who is the giver of pleasures.


(श्लोक – 4)
सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं, दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम्।
समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं, समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम्॥४॥

Sadhaiva pada pankajam madheeya manase nijam,
Dadanamuthamalakam , namami Nanda balakam,
Samastha dosha soshanam, samastha loka poshanam,
Samastha gopa manasam, Namami nanda lalasam., 4

भावार्थ–जिन्होंने मेरे मनरूपी सरोवर में अपने चरणकमलों को स्थापित कर रखा है, उन अति सुन्दर अलकों वाले नन्दकुमार को नमस्कार करता हूँ तथा समस्त दोषों को दूर करने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले और समस्त व्रजगोपों के हृदय तथा नन्दजी की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।

Salutations to the Nanda lad, Whose lotus like feet is drowned,
Ever truly in my mind, And who has curls of hair falling on his face. Salutations to Him who enthralls Nanda, Who diminishes bad effects of all sins, Who takes care of the entire world., And who is in the mind of every cow herd.


(श्लोक – 5)
भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं, यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम्।
दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं, दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम्॥५॥

Bhoovo bharavatharakam bhavabdi karma dharakam,
Yasomathee kisorakam, namami chitha chorakam.
Drugantha kantha banginam, sada sadala sanginam,
Dine dine navam navam namami nanda sambhavam., 5

भावार्थ–भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण सर्वदा दिव्य सखियोंसे सेवित, नित्य नए-नए प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है।

I bow to him who is the stealer of hearts,Who incarnated to reduce the weight of the world,Who helps us cross the miserable ocean of life,And who is young baby of mother Yasoda.I bow to the son of King Nanda,Who has a pair of pretty shining eyes,Who is followed by bees wherever he goes,And who is new and newer to his devotees,Today and everyday.


(श्लोक – 6)
गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं, सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं।
नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं, नमामि मेघसुन्दरं तडित्प्रभालसत्पटम्।।६।।

Gunakaram sukhakaram krupakaram krupaparam,
Suradwihannikarthanam, namami gopa nandanam.
Naveenagopa naagaram naveena keli lampatam,
Namami megha sundram thathith prabhalasathpatam., 6

भावार्थ–गुणों की खान और आनन्द के निधान कृपा करने वाले तथा कृपा पर कृपा करने के लिए तत्पर देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनन्दन को मेरा नमस्कार है। नवीन-गोप सखा नटवर नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली सदृश सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

I salute the kid of all gopas, who is the treasure house, Of good qualities, pleasure and mercy, Who is above the needs of mercy, And who removed all the problems of devas. I salute the handsome one who is the colour of the cloud, Who wears yellow coloured silk resembling lightning, Who appears as a new Gopa every time he is seen,And who is interested in new antics every time.


(श्लोक – 7)
समस्त गोप मोहनं, हृदम्बुजैक मोदनं, नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम्।
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं, रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम्।।७।।

Samastha gopa nandanam, hrudambujaika modhanam,
Namami kunja madhyagam, prasanna bhanu shobhanam.
Nikamakamadhayakam drugantha charu sayakam,
Rasalavenu gayakam, namami kunja nayakam., 7

भावार्थ–समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुंज के बीच में विराजमान, प्रसन्नमन सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण अभिलिषित कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली में गीत गाने वाले, निकुंजनायक को मेरा नमस्कार है।

I salute Krishna, the lad amidst the vrija land, Who is pleased and shines like the good sun, Who is the son of all gopas, And who is the pleasure of all their hearts. I salute Krishna, who is the leader of lads of vrija, Who plays soulful music using his flute, Who grants pleasures even though he does not want them, And whose glances are like defenseless arrows.


(श्लोक – 8)
विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं, नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम्।
किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं, गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम्।।८।।

Vidagdha gopikaa mano manogna thalpasayinam,
Namami kunja kanane pravrudha vahni payinam.
Kisorakanthi ranchitham, druganjanam sushobitham,
Gajendra moksa karinam,Namami sri viharinam., 8

भावार्थ–चतुरगोपिकाओं की मनोज्ञ तल्प पर शयन करने वाले, कुंजवन में बढ़ी हुई विरह अग्नि को पान करने वाले, किशोरावस्था की कान्ति से सुशोभित अंग वाले, अंजन लगे सुन्दर नेत्रों वाले, गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त करने वाले, श्रीजी के साथ विहार करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।

I salute Him who swallowed the fire, In the gardens and forests of Vraja land, Who was sleeping in the dreams of the very able gopis. I salute Him who is with the goddess of wealth, Who was the cause of salvation of Gajendra, Who is surrounded by divine glow of youth, And who shines in all directions.


(श्लोक – 9)
स्तोत्र पाठ का फल
दा तदा यथा तथा तथैव कृष्ण सत्य कथा, मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम्।
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्, भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान॥(९)

Yadha thadha yadha thadha thadiva krushna sathkadha,
Maya sadaiva geeyathaam thadha krupa vidheeyathaam.
Pramanikashtakadwayam japathyadheethya ya pumaan,
Bhaveth sa nanda nandane bhave bhave subhakthiman., 9

प्रभो! मेरे ऊपर ऐसी कृपा हो कि जहां-कहीं जैसी भी परिस्थिति में रहूँ, सदा आपकी सत्कथाओं का गान के। जो पुरुष इन दोनों-राधा कृपा कटाक्ष व श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष अष्टकों का पाठ या जप करेगा, वह जन्म-जन्म में नन्दनन्दन श्याम सुंदर की भक्ति से युक्त होगा और उसको साक्षात् श्रीकृष्ण मिलते हैं।

Where I live, wherever I exist,Let me be immersed in your stories, For always without break, So that I am blessed with your grace. l his births.

8 मिनट की ये वीडियो आप नित्य सुने ताकि आपका मन संसारिक चिंतन से हट कर श्री कृष्ण के चरण कमलो मे लगे…,

॥ श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥


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श्री राधा कृपा कटाक्ष – Shri Radha Kripa Kataksh

श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र का गायन वृन्दावन के विभिन्न मन्दिरों में नित्य किया जाता है। इस स्तोत्र के पाठ से साधक नित्यनिकुंजेश्वरि श्रीराधा और उनके प्राणवल्लभ नित्यनिकुंजेश्वर ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की सुर-मुनि दुर्लभ कृपाप्रसाद अनायास ही प्राप्त कर लेता है।
श्री राधा कृपा कटाक्ष को नित्य पढ़ने और सुनने से श्री राधे के चरणों मे शरण मिलती है और उनके चरणो मे मन लगता है।

“राधा साध्यम साधनं यस्य राधा, मंत्रो राधा मन्त्र दात्री च राधाl
सर्वं राधा जीवनम् यस्य राधा, राधा राधा वाचि किम तस्य शेषम ll”


“भावार्थ”: “राधा” साध्य है उनको पाने का साधन भी राधा नाम ही है। मन्त्र भी राधा है और मन्त्र देने वाली गुरु भी स्वयं राधा जी ही है सब कुछ राधा नाम में ही समाया हुआ है और सबका जीवन प्राण भी राधा ही है राधा नाम के अतिरिक्त ब्रम्हांड में शेष बचता क्या है?

तो आइये श्री राधा नाम की महिमा की धारा जिसे स्वयं महादेव ने बहाया हो और जो सदा समाधि के दौरान राधा नाम को रटते रहते रहते है उनके कृपा से इस नाम की धारा मे हम भी बहते रहे….


(श्लोक – 1)
मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

munīndra-vṛnda-vandite triloka-śoka-hāriṇi
prasanna-vaktra-paṇkaje nikuñja-bhū-vilāsini
vrajendra-bhānu-nandini vrajendra-sūnu-saṅgate
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||1||

भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

O goddess worshiped by the kings of sages, O goddess who remove the sufferings of the three worlds, O goddess whose face is a blossoming lotus, O goddess who enjoy pastimes in the forest, O daughter of Vrishhabhanu, O companion of Vraja’s prince, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 2)
अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

aśoka-vṛkṣa-vallarī-vitāna-maṇḍapa-sthite
pravāla-vāla-pallava prabhā ’ruṇāṅghri-komale
varābhaya-sphurat-kare prabhūta-sampadālaye
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||2||

भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

O goddess staying in a vine-cottage by an ashoka tree, O goddess whose delicate feet are as splendid as red blossoms, O goddess whose hand grants fearlessness, O abode of transcendental opulence’s, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 3)
अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

anaṅga-raṅga-maṅgala-prasaṅga-bhaṅgura-bhruvāṁ
sa-vibhramaṁ sa-sambhramaṁ dṛganta-bāṇa-pātanaiḥ
nirantaraṁ vaśī-kṛta-pratīti-nanda-nandane
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||3||

भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

O goddess who, playfully shooting the arrows of Your glances from the curved bows of Your auspicious, amorous eyebrows, have completely subdued Nanda’s son [Krishna], when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 4)
तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

taḍit-suvarṇa-campaka-pradīpta-gaura-vigrahe
mukha-prabhā-parāsta-koṭi-śāradendu-maṇḍale
vicitra-citra-sañcarac-cakora-śāva-locane
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||4||

भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

O goddess whose form is as splendid as champaka flowers, gold, and lightning, O goddess whose face eclipses millions of autumn moons, O goddess whose eyes are wonderful, restless young chakora birds, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 5)
मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

madonmadāti-yauvane pramoda-māna-maṇḍite
priyānurāga-rañjite kalā-vilāsa-paṇḍite
ananya-dhanya-kuñja-rājya-kāma keli-kovide
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||5||

भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

O young girl intoxicated with passion, O goddess decorated with cheerful jealous anger, O goddess who passionately love Your beloved Krishna, O goddess learned in playful arts, O goddess expert at enjoying amorous pastimes in the kingdom of the peerlessly opulent forest groves of Vrindavana, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 6)
अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

aśeṣa-hāva-bhāva-dhīra-hīra-hāra-bhūṣite
prabhūta-śāta-kumbha-kumbha-kumbhi kumbha-sustani
praśasta-manda-hāsya-cūrṇa-pūrṇa-saukhya-sāgare
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||6|

भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

O goddess decorated with a pearl necklace of bold amorous hints, O goddess as fair as gold, O goddess whose breasts are great golden waterpots, O ocean of happiness filled with the scented powders of gentle smiles, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 7)
मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

mṛṇāla-vāla-vallarī taraṅga-raṅga-dor-late
latāgra-lāsya-lola-nīla-locanāvalokane
lalal-lulan-milan-manojña mugdha-mohanāśrite
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||7||

भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

O goddess whose arms are lotus stalks dancing on the waves, O goddess whose dark eyes are dancing vines, O playful, beautiful, charming goddess, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 8)
सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

suvarṇa-mālikāñcita-trirekha-kambu-kaṇṭhage
tri-sūtra-maṅgalī-guṇa-tri-ratna-dīpti-dīdhiti
salola-nīla-kuntala prasūna-guccha-gumphite
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||8||

भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

O goddess who wear a golden necklace on the three-lined conchshell of Your neck, O goddess splendid with three jasmine garlands and three jewelled necklaces, O goddess whose moving locks of dark hair are decorated with bunches of flowers, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 9)
नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

nitamba-bimba-lambamāna-puṣpa-mekhalā-guṇe
praśasta-ratna-kiṅkiṇī-kalāpa-madhya mañjule
karīndra-śuṇḍa-daṇḍikā-varoha-saubhagoruke
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||9||

भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

O goddess who wear a sash of flowers on Your curved hips, O goddess charming with a sash of tinkling jewelled bells, O goddess whose beautiful thighs punish the regal elephant’s trunk, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 10)
अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

aneka-mantra-nāda-mañju-nūpurā-rava-skhalat
samāja-rāja-haṁsa-vaṁśa-nikvaṇāti-gaurave
vilola-hema-vallarī-viḍambi-cāru-caṅkrame
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||10||

भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

O goddess whose anklets’ tinkling is more beautiful than the sounds of many mantras and the cooing of many regal swans, O goddess whose graceful motions mock the moving golden vines, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 11)
अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

ananta-koṭi-viṣṇu-loka-namra-padmajārcite
himādrijā-pulomajā-viriñcajā-vara-prade
apāra-siddhi-ṛddhi-digdha-sat-padāṅgulī-nakhe
kadā kariṣyasīha māṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam ||11||

भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

O goddess worshiped by Brahma, O goddess to whom countless millions of Vaishnavas bow down, O goddess who give blessings to Parvati, shaci, and Sarasvati, O goddess whose toenails are anointed with limitless opulence’s and mystic perfections, when will You cast Your merciful sidelong glance upon me?


(श्लोक – 12)
मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

makheśvari kriyeśvari svadheśvari sureśvari
triveda-bhāratīśvari pramāṇa-śāsaneśvari
rameśvari kṣameśvari pramoda kānaneśvari
vrajeśvari vrajādhipe śrī rādhike namo ’stu te ||12||

भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

O queen of Vedic sacrifices, O queen of pious activities, O queen of the material world, O queen of the demigods, O queen of Vedic scholarship, O queen of knowledge, O queen of the goddesses of fortune, O queen of patience, O queen of Vrindavana, the forest of happiness, O queen of Vraja, O empress of Vraja, O Sri Radhika, obeisance’s to You!


(श्लोक – 13)
इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

itī mam adbhutaṁ-stavaṁ niśamya bhānu-nandinī
karotu santataṁ janaṁ kṛpā-kaṭākṣa-bhājanam
bhavet tadaiva-sañcita-tri-rūpa-karma-nāśanaṁ
bhavet tadā-vrajendra-sūnu-maṇḍala-praveśanam ||13||

भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

Upon hearing this most astonishing prayer of mine being recited by a devotee, may Sri Vrishhabhanu-nandini constantly make him the object of Her most merciful sidelong glance. At that time all his karmic reactions – whether mature, fructifying, or lying in seed – will be completely destroyed, and then he will gain entrance into the assembly of Nandanandana’s eternal loving associates.

॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥


इस पाठ को  भी नित्य समय निकाल कर जरुर रोज पढ़ा करे : श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष

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श्री राधा चालीसा

॥ श्री राधा चालीसा ॥

वैसे तो परम करुणामयी श्री राधारानी का श्री नाम ही इस संसार के भाव से न केवल पार लगाने वाला है बल्कि परम आनंद प्रदान कर नित्य लीला मे प्रवेश भी देने वाला है। किंतु किशोरी जी के भक्तो का तो जीवन आधार ही उनका नाम, रूप, लीला और धाम का स्मरण करना स्तुति करना।



पहले भी हमने श्री राधा कृपा कटाक्ष और श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष जैसे स्तुतियों को पोस्ट किया है अतः इसी श्रृंखला मे श्री किशोरी जी की कृपा से “श्री राधा चालीसा“ का पाठ करेंगे।

सुर-मुनि-देवता भी जिस ब्रज धाम के रज रूप मे निवास करने को भी लालायित रहते है, वहाँ मानव तन लेकर वास तो केवल श्री किशोरी जी के श्री चरणो की कृपा से ही मिल सकती है। श्री राधा चालीसा का पाठ करने से श्री प्रिय-प्रियतम के निज धाम वृंदावन मे वास करने का फल प्राप्त होता है और उनके चरणो के छावँ मे प्राणी मात्र स्वयं को इस भयावह संसार से दूर रख सकता है


।।दोहा।।

श्री राधे वुषभानुजा , भक्तनि प्राणाधार ।
वृन्दाविपिन विहारिणी , प्रानावौ बारम्बार ।।
जैसो तैसो रावरौ, कृष्ण प्रिय सुखधाम ।
चरण शरण निज दीजिये सुन्दर सुखद ललाम ।।

SHRIRADHE VRISHABHANUJA, BHAKTANI PRANAADHAR |
VRINDAVIPIN VIHARINNI, PRANNAVOM BARAMBAR ||
JAISO TAISO RAVAROU, KRISHNA-PRIYA SUKHADHAM |
CHARAN SHARAN NIJ DIJIYE, SUNDAR SUKHAD LALAM ||


।।चौपाई।।

जय वृषभानु कुँवरी श्री श्यामा,
कीरति नंदिनी शोभा धामा ।।
नित्य बिहारिनी श्याम आधारा,
अमित मोद मंगल दातारा ।।1।।

JAI VRISHABHAN KUNVARI SHRI SHYAMA ,
KIRATI NANDINI SHOBHA DHAMA ||
NITYA VIHARINI SHYAM ADHARA ,
AMIT BODH MANGAL DATARA ||1||


।।चौपाई।।

रास विलासिनी रस विस्तारिणी,
सहचरी सुभग यूथ मन भावनी ।।
नित्य किशोरी राधा गोरी ,
श्याम प्राणधन अति जिय भोरी ।।
करुणा सागर हिय उमंगिनी,
ललितादिक सखियन की संगिनी ।।2।।

RAAS VILASINI RAS VISTARINI ,
SAHACHARI SUBHAG YUTH MAN BHAVNI ||
NITYA KISHORI RADHA GORI |
SHYAM PRANNADHAN ATI JIYA BHORI ||
KARUNA SAGARI HIYA UMANGINI ,
LALITADIK SAKHIYAN KI SANGANI ||2||


।।चौपाई।।

दिनकर कन्या कुल विहारिनी,
कृष्ण प्राण प्रिय हिय हुलसावनी ।।
नित्य श्याम तुमररौ गुण गावै,
राधा राधा कही हरशावै ।।3।।

DINKAR KANYA KUUL VIHARINI ,
KRISHNA PRANA PRIY HIY HULSAVANI ||
NITYA SHYAM TUMHARO GUN GAVEN ,
SHRI RADHA RADHA KAHI HARSHAVAHIN ||3||


।।चौपाई।।

मुरली में नित नाम उचारें,
तुम कारण लीला वपु धारें ।।
प्रेम स्वरूपिणी अति सुकुमारी,
श्याम प्रिया वृषभानु दुलारी ।।4।।

MURALI MEIN NIT NAAM UCHAREIN ,
TUM KARANN LILA VAPU DHAREIN ||
PREMA SVAROOPINI ATI SUKUMARI ,
SHYAM PRIYA VRASHABHANU DULARI ||4||


।।चौपाई।।

नवल किशोरी अति छवि धामा,
द्दुति लधु लगै कोटि रति कामा ।।
गोरांगी शशि निंदक वंदना,
सुभग चपल अनियारे नयना ।।5।।

NAVALA KISHORI ATI CHABI DHAMA ,
DHYUTI LAGHU LAAG KOTI RATI KAAMA ||
GOURANGI SHASHI NINDAK VADANA ,
SUBHAG CHAPAL ANIYARE NAINA ||5||


।।चौपाई।।

जावक युत पद पंकज चरना,
नुपुर ध्वनि प्रीतम मन हरना ।।
संतत सहचरी सेवा करहिं,
महा मोद मंगल मन भरहीं ।।6।।

JAVAK YUTH PAD PANKAJ CHARANA ,
NOOPUR DHVANI PRITAM MAN HARNA ||
SANTATA SAHACHARI SEVA KARHIN ,
MAHA MOD MANGAL MAN BHARAHIN ||6||


।।चौपाई।।

रसिकन जीवन प्राण अधारा,
राधा नाम सकल सुख सारा ।।
अगम अगोचर नित्य स्वरूपा,
ध्यान धरत निशिदिन ब्रज भूपा ।।7।।

RASIKAN JEEVAN PRANA ADHARA ,
RADHA NAAM SAKAL SUKH SAARA ||
AGAM AGOCHAR NITYA SVAROOPA ,
DHYAN DHARAT NISHIDIN BRAJABHOOPA ||7||


।।चौपाई।।

उपजेउ जासु अंश गुण खानी,
कोटिन उमा राम ब्रह्मिनी ।।
नित्य धाम गोलोक विहारिन ,
जन रक्षक दुःख दोष नसावनि ।।8।।

UPJEOO JASU ANSH GUN KHANI ,
KOTIN UMA RAMA BRAHMANI ||
NITYA DHAM GOLOK BIHARINI ,
JAN RAKSHAK DUKH DOSH NASAVANI ||8||


।।चौपाई।।

शिव अज मुनि सनकादिक नारद,
पार न पाँई शेष अरू शारद ।।
राधा शुभ गुण रूप उजारी,
निरखि प्रसन होत बनवारी ।।9।।

SHIV AJ MUNI SANAKADIK NAARAD ,
PAAR NA PAAYN SESH ARU SHARAD ||
RADHA SHUBH GUN ROOPA UJARI ,
NIRAKHI PRASANNA HOT BANVARI ||9||


।।चौपाई।।

ब्रज जीवन धन राधा रानी,
महिमा अमित न जाय बखानी ।।
प्रीतम संग दे ई गलबाँही ,
बिहरत नित वृन्दावन माँहि ।।10।।

BRAJ JEEVAN DHAN RADHA RANI ,
MAHIMA AMIT NA JAY BAKHANI ||
PREETAM SANG DIYE GAL BAAHIN,
BIHARATA NIT VRINDAVAN MAAHIN ||10||


।।चौपाई।।

राधा कृष्ण कृष्ण कहैं राधा,
एक रूप दोउ प्रीति अगाधा ।।
श्री राधा मोहन मन हरनी,
जन सुख दायक प्रफुलित बदनी ।।11।।

RADHA KRISHNA KRISHNA HAI RADHA ,
EK ROOP DOUU-PREETI AGAADHA ||
SHRI RADHA MOHAN MAN HARNI ,
JAN SUKH PRADA PRAFULLIT BADANI ||11||


।।चौपाई।।

कोटिक रूप धरे नंद नंदा,
दर्श करन हित गोकुल चंदा ।।
रास केलि करी तुहे रिझावें,
मान करो जब अति दुःख पावें ।।12।।

KOTIK ROOP DHARE NAND NANDA ,
DARASH KARAN HITH GOKUL CHANDA ||
RAAS KELI KAR TUMHEN RIJHAVEN ,
MAAN KARO JAB ATI DUKH PAAVEN ||12||


।।चौपाई।।

प्रफुलित होत दर्श जब पावें,
विविध भांति नित विनय सुनावे ।।
वृन्दारण्य विहारिनी श्यामा,
नाम लेत पूरण सब कामा ।।13।।

PRAFFULLIT HOTH DARASH JAB PAAVEN ,
VIVIDH BHANTI NIT VINAY SUNAVEN||
VRINDARANNYA VIHARINNI SHYAM ,
NAAM LETH PURAN SAB KAMA ||13||


।।चौपाई।।

कोटिन यज्ञ तपस्या करहु,
विविध नेम व्रतहिय में धरहु ।।
तऊ न श्याम भक्तहिं अपनावें,
जब लगी राधा नाम न गावें ।।14।।

KOTIN YAGYA TAPASYA KARUHU ,
VIVIDH NEM VRAT HIY MEN DHARHU||
TAUU NA SHYAM BHAKTAHI APNAVEN ,
JAB LAGI NAAM RADHA NA GAAVEN ||14||


।।चौपाई।।

व्रिन्दाविपिन स्वामिनी राधा,
लीला वपु तब अमित अगाधा ।।
स्वयं कृष्ण पावै नहीं पारा,
और तुम्हैं को जानन हारा ।।15।।

VRINDA VIPIN SVAMINI RADHA ,
LEELA VAPU TUVA AMIT AGADHA ||
SVAYAM KRISHNA PAVAHIN NAHIN PAARA ,
AUR TUMHEN KO JANANI HAARA ||15||


।।चौपाई।।

श्री राधा रस प्रीति अभेदा,
सादर गान करत नित वेदा ।।
राधा त्यागी कृष्ण को भाजिहैं,
ते सपनेहूं जग जलधि न तरिहैं ।।16।।

SHRIRADHA RAS PREETI ABHEDA ,
SAADAR GAAN KARAT NIT VEDA||
RADHA TYAGI KRISHNA JO BHAJIHAI ,
TE SAPNEHUN JAG JALADHI NA TARIHAI||16||


।।चौपाई।।

कीरति कुँवारी लाडली राधा,
सुमिरत सकल मिटहिं भव बाधा ।।
नाम अमंगल मूल नसावन,
त्रिविध ताप हर हरी मनभावना ।।17।।

KIRATI KUMARI LAADALI RADHA ,
SUMIRAT SAKAL MITAHIN BHAV BADA ||
NAAM AMANGAL MOOL NASAVAN ,
VIVIDH TAAP HAR HARI MAN BHAVAN ||17||


।।चौपाई।।

राधा नाम लेइ जो कोई ,
सहजहि दामोदर बस होई ।।
राधा नाम परम सुखदाई,
भजतहीं कृपा करहिं यदुराई ।।
यशुमति नंदन पीछे फिरेहै,
जी कोऊ राधा नाम सुमिरिहै ।।18।।

RADHA NAAM LEI JO KOI,
SAHAJ HI DAMODAR BAS HOI ।।
RADHA NAAM PARAM SUKHDAYI ,
BHAJATAHIN KRIPA KAREN YADURAI ||
YADUPATI NANDAN PEECHE PHIRIHAIN ,
JO KOUU RADHA NAAM SUMIRIHAIN||18||


।।चौपाई।।

रास विहारिनी श्यामा प्यारी,
करहु कृपा बरसाने वारी ।।
वृन्दावन है शरण तिहारी,
जय जय जय वृषभानु दुलारी ।।19।।

RAAS VIHARINI SHYAMA PYARI ,
KARUHU KRIPA BARSANE VAARI ||
VRINDAVAN HAI SHARAN TUMHARI ,
JAI JAI JAI VRSHABHANU DULARI ||19||


।।दोहा।।

श्री राधा सर्वेश्वरी ,
रसिकेश्वर धनश्याम ।
करहूँ निरंतर बास मै,
श्री वृन्दावन धाम ।।

SHRI RADHA SARVESHWARI ,
RASIKESHVAR GHANSHYAM|
KARUHUN NIRANTAR VAAS MAI ,
SRI VRINDAVAN DHAM ||


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श्रीराधाकवचम्

श्री राधिकायै नम:

।।अथ श्रीराधाकवचम्।।

महेश्वर उवाच:-

श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापति:।।1।।

ऋषिश्चन्दोऽस्य गायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम्।
श्रीकृष्णभक्‍तिसम्प्राप्तौ विनियोग: प्रकीर्तित:।।2।।

शिष्याय कृष्णभक्‍ताय ब्रह्मणाय प्रकाश्येत्।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात्।।3।।

राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये।
कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना।।4।।

मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा।
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।5।।

कृष्णेनोपासितो मन्त्र: कल्पवृक्ष: शिरोऽवतु।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकाङेन्तं वह्निजायान्तमेव च।।6।।

कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।
ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेन्तं वह्नि जायान्तमेव च।।7।।

मस्तकं केशसङ्घांश्च मन्त्रराज: सदावतु।
ॐ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।।8।।

सर्वसिद्धिप्रद: पातु कपोलं नासिकां मुखम्।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रियाङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्।।9।।

ॐ रां रासेश्वरीङेन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम्।
ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।।10।।

वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।11।।

कृष्णप्राणाधिकाङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सन्ततं पातु सर्वत:।।12।।

राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्।।13।।

पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।
उत्तरे सन्ततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी।।14।।

सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा।।15।।

महाविष्णोश्च जननी सर्वत: पातु सन्ततं।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम्।।16।।

यस्मै कस्मै न दातव्य गुढाद् गुढतरं परम्।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्‍तं न कस्यचित्।।17।।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालङ्कारचन्दनै:।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णोसमो भवेत्।।18।।

शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्।।19।।

एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधन: पुरा।
विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम्।।20।।

मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ।।21।।

बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय स:।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्‍तो भवेन्नर:।।22।।

नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च य:।
विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत्।।23।।

स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम्।
सर्वव्रतोपवासे च पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे।।24।।

सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं च सत्यरक्षणे।
नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे।।25।।

पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं च लभेन्नर:।
यत्फलं लभते नूनं पठनात् कवचस्य च।।26।।

राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने।
दावाग्नौ सङ्कटे चैव दस्युचौरान्विते भये।।27।।

कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने।
व्याधियुक्‍तो भवेन्मुक्‍तो धारणात् कवचस्य च।।28।।

इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि।
त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया।।29।।

श्रीनारायण उवाच।

इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारं च माधवम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्ग: साश्रुनेत्रो बभुव स:।।30।।

न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित्।
न पुष्करसमं तीर्थं नाश्रामो ब्राह्मणात् पर।।31।।

परमाणुपरं सूक्ष्मं महाविष्णो: परो महान्।
नभ परं च विस्तीर्णं यथा नास्त्येव नारद।।32।।

तथा न वैष्णवाद् ज्ञानी यिगीन्द्र: शङ्करात् पर:।
कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद।।33।।

स्वप्ने जागरणे शश्वत् कृष्णध्यानरत: शिव:।
यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयो:।।34।।

यथा शम्भुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधव:।
तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम्।।35।।

।।इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीराधिकाकवचं सम्पूर्णम्।।

जय जय श्री राधे

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भक्त नामावली

हमसों इन साधुन सों पंगति।
जिनको नाम लेत दुःख छूटत, सुख लूटत तिन संगति।।

मुख्य महंत काम रति गणपति, अज महेस नारायण।
सुर नर असुर मुनि पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण।।

वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना।
शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीणा।।

गोपी गोप द्रोपदी कुंती, आदि पांडवा ऊधो।
विष्णु स्वामी निम्बार्क माधो, रामानुज मग सूधो।।

लालाचारज धनुरदास, कूरेश भाव रस भीजे।
ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे।।

पदमावती चरण को चारन, कवि जयदेव जसीलौ।
चिंतामणि चिदरूप लखायो, बिल्वमंगलहिं रसिलौ।।

केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा।
विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, ब्रज के गूजरजट्टा।।

नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या।
भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव, अरु मधु गुसांई धन्या।।

रूप सनातन भज वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पत्ति।
व्यासदास हरिवंश गोसाईं, दिन दुलराई दम्पति।।

श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल विहारिणी दासी।
नागरि नवल माधुरी वल्लभ, नित्य विहार उपासी।।

तानसेन अकबर करमैति, मीरा करमा बाई।
रत्नावती मीर माधो, रसखान रीति रस गाई।।

अग्रदास नाभादि सखी ये, सबै राम सीता की।
सूर मदनमोहन नरसी अली, तस्कर नवनीता की।।

माधोदास गुसाईं तुलसी, कृष्णदास परमानन्द।
विष्णुपुरी श्रीधर मधुसूदन, पीपा गुरु रामानन्द।।

अलि भगवान् मुरारि रसिक, श्यामानन्द रंका बंका।
रामदास चीधर निष्किंचन, सम्हन भक्त निसंका।।

लाखा अंगद भक्त महाजन, गोविन्द नन्द प्रबोधा।
दास मुरारि प्रेमनिधि विट्ठलदास, मथुरिया योधा।।

लालमती सीता प्रभुता, झाली गोपाली बाई।
सुत विष दियौ पूजि सिलपिल्ले, भक्ति रसीली पाई।।

पृथ्वीराज खेमाल चतुर्भुज, राम रसिक रस रासा।
आसकरण मधुकर जयमल नृप, हरिदास जन दासा।।

सेना धना कबीरा नामा, कूबा सदन कसाई।
बारमुखी रैदास सभा में, सही न श्याम हंसाई।।

चित्रकेतु प्रह्लाद विभीषण, बलि गृह बाजे बावन।
जामवन्त हनुमन्त गीध गुह, किये राम जे पावन।।

प्रीति प्रतीति प्रसाद साधु सों, इन्हें इष्ट गुरु जानो।
तजि ऐश्वर्य मरजाद वेद की, इनके हाथ बिकानौ।।

भूत भविष्य लोक चौदह में, भये होएं हरि प्यारे।
तिन-तिन सों व्यवहार हमारो, अभिमानिन ते न्यारे।।

“भगवतरसिक” रसिक परिकर करि, सादर भोजन पावै।
ऊंचो कुल आचार अनादर, देखि ध्यान नहिं आवै।।

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श्री हित सेवक वाणी : Shree Hit Sevak Vani

।।श्रीहित राधावल्लभो जयति, श्रीहित हरिवंश चन्द्रो जयति।।


श्रीहित जस – विलास
( प्रथम प्रकरण ) पूर्व परिचय –


रसिक आचार्य श्री हित हरिवंश चन्द्र के पश्चात् इस रस का विशद प्रचार किया, श्री दामोदरदास सेवकजी ने। यह सेवकजी कौन थे और उन्होंने कैसे इसका व्यापक प्रचार किया? यह बात पाठकों को सेवकजी के चरित्र में मिलेगी; जो इसी ग्रन्थ में सम्बद्ध है हम यहाँ केवल सेवकजी के ग्रन्थ ‘सेवक वाणी’ की ही चर्चा करेंगे, जिसके आधार पर गोस्वामी हित हरिवंश चन्द्र द्वारा स्थापित-रस मार्ग ‘नित्य-विहार’ की नींव सुदृढ़ हुई और उसका प्रचार भी हुआ। विक्रम संवत १६०९ में दामोदर दास जी गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र के कृपापात्र शिष्य हुए। उन पर वंशी अवतार श्री हित हरिवंश महाप्रभु की कृपा हुई और उन्हें इष्ट-तत्व नित्य विहार रस का साक्षात्कार हुआ। तदुपरान्त उनके निर्मल हृदय में दिव्य वाणी का प्रादुर्भाव हुआ यही दिव्य वाणी ‘सेवक-वाणी’ के नाम से प्रख्यात हुई।

‘श्री सेवक वाणी’ एक दिव्य प्रसाद ग्रन्थ है। इसका प्राकट्य सेवकजी- दामोदरदास जी की महा प्रेमोन्मत्त दशा में हुआ है, अत: इसकी भाषा जटिल, क्लिष्ट, असम्बद्ध जैसी और ग्रामीण भाषा मिश्रित है फिर भी इसमें परम तत्व प्रेम का बड़ा विशद वर्णन है। सेवकजी के मत से गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र साक्षात् प्रेम तत्व के अवतार हैं। वे नित्य विहारी श्री राधावल्लभ लाल की प्रेम नादमयी एवं विश्व विमोहनी वंशी के स्वरूप हैं। जिस प्रकार प्रेम व्यापक और एक देशीय है, उसी प्रकार श्रीहरिवंशचन्द्र भी व्यापक प्रेम होते हुए भी व्यास मिश्र के कुल-दीपक हैं। वे प्रिया प्रियतम सखी एवं श्रीवन हैं। वे रस हैं. रस के आधार हैं और रसमय केलि के सूत्रधार एवं स्वयं रस केलि हैं। इसके सिवाय वे चराचर व्यापी प्रेम हैं, उनके सिवाय और कुछ नहीं हैं।

‘सेवक वाणी’ में कुल सोलह प्रकरण हैं। इन प्रकरणों में क्रमश: श्री हरिवंश का यश-विस्तार (अर्थात् वैभव ऐश्वर्य रूप) श्री हरिवंश का रसमय स्वरूप, उनके नाम का प्रताप, उनकी रसमयी वाणी (वचनावली) का प्रभाव, प्रताप उनके स्वरूप का विचार, उनके द्वारा प्रकाशित नित्य-विहार के उपासकों का धर्म-कर्तव्य, रस-रति, अनन्यता, श्रीहरिवंश की कृपा एवं कृपा हीनता के लक्षण; भक्तों के प्रति भाव; युगल की केलि का स्वरूप श्रीहरिवंश का नाम प्रभाव-धाम-ध्यान; श्रीहरिवंश मंगल गान, कच्चे एवं पक्के हित धर्मियों का स्वरूप; उनका कर्तव्य, अलभ्य वस्तु (नित्य विहार दाता श्रीहरिवंश) का लाभ और युगल किशोर के पारस्परिक मान के स्वरूप का वर्णन है। इसके सिवाय इस ग्रन्थ में अनेकों युक्तियों, तकों एवं प्रमाणों के द्वारा प्रेम-धर्म (हित-रीति) को ही सर्वोपरि बताया गया है। सेवकजी ने प्रेम जैसे अनिर्वचनीय विषय का बड़ी कुशलता के साथ केवल सोलह प्रकरणों में विस्तीर्ण एवं समुज्ज्वल वर्णन किया है। प्रेम तत्व की प्राप्ति के विविध साधनों (उपायों) का सप्रभाव वर्णन किया है उन्होंने इसमें। इस विचार से यदि इस ग्रन्थ को थोड़े शब्दों में श्रीराधावल्लभीय सम्प्रदाय का भाष्य ग्रन्थ कह दें तो कोई अत्युक्ति न होगी। जो लोग सेवक वाणी के तत्व एवं सिद्धान्तों से दूर हैं, अनभिज्ञ हैं, श्रीराधावल्लभीय नित्य-विहार रसोपासना मार्ग में ठीक-ठीक रीति से चलने में असमर्थ होंगे, ऐसा विज्ञ रसिक महानुभावों का मत ही नहीं वरं आग्रह है। जो सेवक बानी नहिं जानें। ताकी बात न रसिक प्रमानें ॥ अतएव प्रत्येक रसोपासक के लिये विशेषतया श्रीहित राधावल्लभीय साधक के लिये इस ग्रन्थ का प्रणयन-अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। इसके स्वाध्याय से प्रेम-जिज्ञासु का पथ प्रशस्त होगा।


पद – 1

श्रीहरिवंश – चंद्र सुभ सुभ नाम , सब सुख – सिंधु प्रेम रस धाम ।

जाम घटी बिसरै नहीं ॥

यह जु पस्यौ मोहि सहज सुभाव , श्रीहरिवंश नाम रस चाव ।

नाव सुदृढ़ भव तरन कौं ।

नाम रटत आईं सब सोहि , देहु सुबुद्धि कृपा करि मोहि ।

पोइ सुगुन माला रचौं ।

नित्य सुकंठ जु पहिरौं तासु , जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – ( श्रीहित दामोदर ‘ सेवक जी ‘ कहते हैं ) – अहो ‘ श्रीहरिवंश चन्द्र ‘ यह ऐसा पवित्र नाम है , जो सब सुखों का समुद्र और प्रेम रस का ( एक मात्र ) धाम है , ( इसीलिये मुझे ) यह घड़ी पहर के लिये भी नहीं भूलता । इसका सतत् स्मरण मानों मेरा सहज स्वभाव बन गया है । श्री हरिवंश नाम और श्रीहरिवंश रस के प्रति चाह – चौंप ही सुदृढ़ संसार ( आवागमन ) से पार होने के लिये नौका ( नाव ) है । इस नाम के रटते रहने से वह सब ( नित्य विहार – रस ) हृदय में आ गया किंतु हे श्रीहरिवंश चन्द्र ! अब आप कृपा करके मुझे सुबुद्धि दीजिये , जिससे मैं आपके सद्गुणों की सुन्दर माला पिरोऊँ और उसे सदा अपने कण्ठ में पहिनुँ । हे प्रेमियों ! मैं ( इस प्रकरण में ) श्रीहरिवंश यश का विलास वर्णन करता हूँ और श्रीहरिवंश का ही अंत तक गान करुंगा ।


पद – 2

श्रीवृंदावन वैभव जिती , बरनत बुद्धि प्रमानौं किती ।

तिती सबै हरिवंश की ।

सखी सखा क्यौं कहौं निबेर , तौ मेरे मन की अवसे ।

टेर सकल प्रभुता कहौं ।

हरि हरिवंश भेद नहिं होइ , प्रभु , ईश्वर जानैं सब कोइ ।

दोइ कहैं न अनन्यता ।

विस्वम्भर सब जग आभास , जस बरनौं हरविंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीवृन्दावन का जितना कुछ वैभव ( विस्तार ) है , वह सब श्रीहरिवंश का ही वैभव – विस्तार है जिसका मैं ( इस ग्रन्थ में ) वर्णन कर रहा हूँ । उसके ( समर्थन में ) कितने क्या प्रमाण दूँ ? नहीं दे सकता । ( वृन्दावन विलास में ) सखी और सखा ऐसे ( भेद पूर्वक ) अलग – अलग करके कैसे कहूँ ? यदि कहूँ तो यह मेरे मन की अज्ञता ही होगी । अत : स्पष्टतया पुकार – पुकार कर कह रहा हूँ कि यह सब प्रभुता ( वृन्दावन – लीला ) उन्हीं की है – उन्हीं का रूप है । हरि और हरिवंश में कोई भेद ही नहीं है । जैसे जो प्रभु ( नाम से ) है , वही ईश्वर है यह सभी जानते हैं । यदि [ इन दो नामों वाली एक वस्तु को अलग – अलग करके द्वैत – बुद्धि से ] दो कह दिया जाय तो अनन्यता ( सर्वत्र एक तत्व का दर्शन ) नहीं है । और भी जैसे जो विश्वम्भर ( अर्थात् सम्पूर्ण विश्व का भरण – पोषण करने वाला विष्णु भगवान् सगुण ब्रह्म ) है , वही सारे संसार में आभासित भी है ( अर्थात् निर्गुण निराकार रूप से व्यापक ब्रह्म भी है । इसी प्रकार श्रीहरिवंश ही सगुण निर्गुण सब रूपों में प्रकाशित हैं । ) अतः मैं उन्हीं सर्व रूप श्रीहरिवंश के यश – विस्तार का एवं उनका वर्णन करूँगा – गान करूँगा ।


पद – 3

जन्म कर्म गुन रूप अपार ,

बाढे कथा कहत विस्तार

बार – बार सुमिरन करौं ।

हौं लघुमति जु अंत नहिं लहौं ,

बुद्धि प्रमान कछू कथि कहौं ।

रहौं सरन हरिवंश की ।

सो धौं कहि मोहि केतिक मती ,

जस बरनत हारै सरसुती ।

तिती सबै हरिवंश की ।

देहु कृपा करि बुद्धि प्रकास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ

भावार्थ – ( श्रीहरिवंश के ) जन्म , कर्म , गुण एवं रूप अनन्त हैं – अपार हैं , सबका विस्तार कहते कथा बढ़ जायगी अतः ( मन – मन केवल ) उनका बारम्बार स्मरण ही कर लेता हूँ , क्योंकि मैं मन्द – बुद्धि हूँ । चूँकि उन सबका छोर – पता नहीं पा सकता फिर भी मैं अपनी ( यथा तथा ) बुद्धि के अनुसार कुछ कहूँगा । और उन्हीं श्रीहरिवंश की शरण में हूँ । भला , कहो तो मेरी ऐसी कितनी बुद्धि जो उनके सम्पूर्ण जन्म , कर्म , गुण , और रूपों का वर्णन कर सके ? जिन का यश वर्णन करते स्वयँ सरस्वती ( वाणी ) भी हारं जाती है । अतएव हे श्री हरिवंश ! कृपा करके आप मेरी बुद्धि में ( अपना स्वरूप ) प्रकाश कीजिये जिससे मैं आपके यश – वैभव का विलास वर्णन कर सकूँ । रसिक जनो ! मैं आद्यन्त श्री हरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 4

कलिजुग कठिन वेद विधि रही ,

धर्म कहूँ नहिं दीसत सही ।

कही भली कोउ ना करै ।।

उदबस विश्व भयौ सब देस ,

धर्म रहित मेदिनी नरेस ।

म्लेच्छ सकल पुहुमी बढ़े ।

सब जन करहिं आधुनिक धर्म ,

वेद विहित जानैं नहिं कर्म ।

मर्म भक्ति कौ क्यों लहैं ।

बूड़त भव आवै न उसास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।।

भावार्थ – उस समय ( जब श्रीहिताचार्य का प्राकट्य हुआ ) कलियुग में वेदों की रीति – पद्धतियों का पालन कठिन हो गया था । यथोचित – ठीक – ठीक धर्म ( और उसका आचरण ) तो कहीं देखने में भी नहीं आता था । कहीं कोई कही – समझायी भली बातों को करता – मानता ही नहीं था । संसार के सब देश उत्पथ गामी ( कुमार्ग में चलने वाले ) हो गये थे , सम्पूर्ण पृथ्वी और उस पर के नृपति गण भी धर्म से रहित हो गये थे । समस्त पृथ्वी पर म्लेच्छ ही म्लेच्छ बढ़ गये थे । ( उनके संग एवं प्रभाव से ) प्रायः सभी लोग ( वेद – शास्त्रोक्त धर्म को छोड़कर ) तात्कालिक ( लौकिक , भोग – परक , स्वेच्छाचार पूर्ण ) धर्म का आचरण करने लगे थे । जब कोई वेदोक्त कर्म मार्ग को ही नहीं जानते थे , तब फिर वे अज्ञ लोग भक्ति – मार्ग का ही मर्म कैसे पा लेते ? अतएव उस मर्म को न पा सकने के कारण कर्म , ज्ञान एवं भक्ति से हीन रहकर संसार रूप आवागमन समुद्र में डूब उतरा रहे थे , उनसे साँस भी लेते नहीं बनती थी अर्थात् वे संसार – सागर में पड़े हुए थे और अत्यन्त दुखी थे । अस्तु , मैं श्रीहरिवंश – यश का विलास वर्णन करता हूँ और श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा , ( जिन्होंने प्रकट होकर अपने प्रेम – ध र्म से समस्त अधर्मों का नाश कर दिया । )

पद – 5

धर्म – रहित जानी सब बदइ दुनी ,

म्लेच्छनि भार दुखित मेदिनी ।

धनी और दूजौ नहीं ।

करी कृपा मन कियौ विचार ,

श्रुतिपथ विमुख दुखित संसार ।

सार वेद – विधि उद्धरी ॥

सब अवतार भक्ति विस्तरी ,

पुनि रस – रीति जगत उद्धरी ।

करयौ धर्म अपनौ प्रगट ।

प्रगटे जानि धर्म को नास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जब आप ( श्रीहरिवंशचन्द्र ) ने समस्त संसार को धर्म से हीन जाना और उस पृथ्वी को म्लेच्छों के भार से दुखित देखा , जिसके एक मात्र स्वामी आप ही हैं अन्य नहीं । इसी प्रकार सारे विश्व को वेद – पथ से विमुख होकर दुखी होते देखकर आपने अनुग्रह पूर्वक प्रथम तो ( अनेकानेक वेदाचार्यों के रूप में प्रकट होकर ) वेदों की सार रूप पद्धति का प्रकाश किया ; पश्चात् ( भक्तिमार्ग के अनेक आचार्यों के रूप में अवतरित होकर ) प्राय : सभी भगवदावतारों की नवधा – भक्ति का विस्तार – प्रचार किया और ( सबके अन्त में स्वयं प्रकट होकर ) अपने निज धर्म रस – रीति ( महामधुर प्रेमलक्षणा पूर्ण निकुञ्ज – केलि ) का प्रकाश किया । इस तरह जो धर्म का नाश देखकर अपनी कृपा से परवश होकर इस भूतल पर श्रीहरिवंश चन्द्र नाम से प्रकट हुए हैं मैं उन्हीं के प्रेम – विलास का यशोगान करूँगा – केवल उन्हीं का गान करूँगा ।

पद – 6

मथुरा मंडल भूमि आपनी ,

जहाँ बाद प्रगटे जग धनी ।

भनी अवनि वर आप मुख ।

सुभ बासर सुभ रिक्ष विचार ,

माधव मास ग्यास उजियार ।

नारिनु मंगल गाइयो ।

तच्छिन देव दुंदुभी बाजिये ,

जै – जै शब्द सुरनि मिलि किये ।

हिये सिराने सबनि के ।

तारा जननि जनक रिषि व्यास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – मथुरा मण्डल ( या ब्रज मण्डल की ) भूमि जो आपकी अपनी ( नित्य ) भूमि है उसके अन्तर्गत ‘ बाद ‘ नामक ग्राम में सम्पूर्ण विश्व के स्वामी ये श्री हरिवशं चन्द्र प्रकट हुए । इस ब्रज – मण्डल की श्रेष्ठता का गान आपने स्वयं श्री मुख से अन्यत्र किया है । आपका प्राकट्य शुभ दिन , शुभ नक्षत्र , एवं शुभ लग्न – विचार में वैशाख मास की शुक्ल पक्षीय एकादशी को हुआ । तब जन्म के समय नारियों ने मर्गल गान किया और देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजायीं और जय – जय – जय के शुभ शब्द उच्चारण किये । आपके जन्म से सबके हृदय को शीतलता – शान्ति मिली । जिनकी माता श्री तारा रानी और पिता ऋषि श्रीव्यास मिश्र हैं , मैं उन श्रीहरिवंश के विलास का यशोगान करता हूँ और अन्त तक उन्हीं का गान करूँगा ।

पद – 7

श्रीभागवत जु शुक उच्चरी ,

तैसी विधि जु व्यास * विस्तरी ।

करी नंद जैसी हुती ॥

घर – घर तोरन बंदनवार ,

घर – घर प्रति चित्रहिं दरबार ।

घर – घर पंच शब्द बाजिये ।

घर – घर दान प्रतिग्रह होइ ,

घर – घर प्रति निर्तत सब कोइ ।

घर – घर मंगल गावहीं ॥

घर – घर प्रति अति होत हुलास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीशुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत महापुराण में जैसा कुछ श्रीकृष्ण जन्मोत्सव का वर्णन किया है और भगवान् वेद – व्यास ने उसे ग्रन्थ रूप में विस्तृत किया लिखा है एवं श्री नन्द राय जी ने जिस तरह वर्णित विषय को प्रत्यक्ष करके दिखाया अर्थात् बड़े उत्साह से श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया । तदवत् ‘ बाद ‘ ग्राम में भी घर – घर मंगल स्तम्भ और बन्दनवार – तोरणे सजायी गयीं । घर – घर में प्रत्येक ने अपने द्वार , दीवारों पर चित्र विचित्र रचना कर हृदय का उल्लास प्रकट किया । वहाँ घर – घर में मंगल – सूचक पञ्च शब्द ( दुन्दुभि आदि ) बजने लगे , प्रत्येक घर में दान दिये जाने लगे और घर – घर प्रति नृत्य गान राग रंग का समारोह प्रगट होने लगा । सब लोग व्यास – सुवन के जन्म के आनन्द में भरकर नाचने लगे । इस प्रकार घर – घर में सब लोग मंगल गाने लगे और बाद ग्राम के घर – घर में आनन्द का उल्लास होने लगा । मैं ऐसे मंगलमय श्रीहरिवंश के विलास का यश – गायन करता हूँ और उन्हीं को गाऊँगा भी ।

पद – 8

निर्जल सजल सरोवर भये ,

उखटे वृक्षनि पल्लव नये ।

दये सकल सुख सबनि कौँ ।

असन सैन सुख नित – नित नये ,

अन्न सुकाल चहूँ दिसि भये ।

गये अशुभ सब विश्व के ।

म्लेच्छ सकल हरि जस विस्तरहिं ,

परम ललित बानी उच्चरहिं ।

करहिं प्रजा पालन सबै ॥

अपनी – अपनी रुचि बस वास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ ( आपके प्रकट होते ही ) बहुत काल के सूखे हुए सरोवर भी जल पूर्ण हो गये , उकठे हुए शुष्क वृक्षों में भी नये – नये पल्लव ( पत्ते ) आ गये । इस तरह मानों सम्पूर्ण विश्व में आनन्द छा गया । सबको अब भोजन , शयन आदि के नित्य – नित्य नये – नये सुख मिलने लगे । सब के लिये सर्वत्र सर्वकाल अन्न सुलभ हो गया- कमी न रही । अधिक क्या , सारे विश्व के मानो अमंगल ही नष्ट हो गये । सभी म्लेच्छ लोग ( अपने अधार्मिक आचरणों को छोड़ कर ) श्रीहरि के यश का विस्तार करने लगे और उनका व्यवहार सरस एवं प्रेममय हो गया , ( मानो उन्होंने भी अपनी स्वाभाव जन्य कठोरता त्याग दी ) और ( दया एवं स्नेह पूर्वक पुत्रवत् अपनी ) प्रजा का पालन करने लगे । प्रजा अपनी अपनी रुचि के आवास स्थानों में ( अब निर्भय रूप से ) रहने लगी । ( जिनके जन्म होते ही यह सब आनन्द मंगल हो गया ) मैं ( उन परम प्रभावशाली ) श्रीहरिवंश का यशोगान करता हूँ और श्री हरिवंश का ही सर्वत्र गान करूँगा ।

पद – 9

चलहिं सकल जन अपने धर्म ,

ब्राह्मन सकल करहिं षट् कर्म ।

भर्म सबनि कौ भाजियौ ।

छूटि गई कलिजुग की रीति ,

नित – नित नव – नव होत समीति ।

प्रीति परस्पर अति बढ़ी ॥

प्रगट होत ऐसी विधि भई ,

सब भव जनित आपदा गई ।

नई – नई रुचि अति बढ़ी ।

सब जन करहिं धर्म अभ्यास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – अब सब लोग अपने अपने धर्म के अनुसार चलने लगे । समस्त ब्राह्मण गण अपने षट् कर्मों को यथावत् करने लगे , लोगों के भ्रम – संशय का निवारण हो गया और कलियुग की रीति ( कलह पाखण्ड आदि ) तिरोहित हो गयीं । सब लोगों में पारस्परिक प्रीति में अभिवृद्धि हुई और नित्य नव – नव प्रेम मैत्री के भाव जागृत हो उठे । आपके प्रकट होते ही कुछ ऐसा हुआ कि जन्म – मरण जन्य आपत्तियाँ संसार से नष्ट हो गयीं और लोगों की धर्म के प्रति अधिकाधिक रुचि होने लगी । सब लोग धर्म का पालन करने लगे । अस्तु , जिनके प्राकट्य मात्र से यह सब होने लगा मैं उन परम कृपामय श्रीहरिवंश के यश – विलास का वर्णन करता हूँ और उनके ही नाम , रूप , गुण , लीला , प्रभाव आदि का वर्णन – गान करूँगा ।

पद – 10

बाल विनोद न बरनत बनहि ,

अपनौ सो उपदेसत मनहि ।

गनहि कवन लीला जिती ।

सब हरि सम गुन , रूप अपार ,

महा पुरुष प्रगटे संसार ।

मार विमोहन तन धरयौ ।

छिन न तृपित सुभ दरसन आस ,

दुलरावत बोलत मृदु हास ।

व्यास मिश्र को लाड़िलौ ॥

मुदित सकल नहिं छाँड़त पास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – आपका बाल विनोद वर्णन करते नहीं बनता मैं ( तो केवल अपने ) मन को समझा रहा हूँ । भला उनकी जितनी लीलाएँ हैं उन्हें कौन गिन सकता है ? आपका रूप और सभी गुण श्रीहरि के गुणों के समान अपार हैं , क्योंकि ( स्वयं भगवान् ही ) महापुरुष ( रूप में ) संसार में प्रकट हुए हैं न ! तभी तो आपने कामदेव को भी मोहित कर देने वाला – मदन मोहन रूप धारण किया है । जिसे देखकर क्षण मात्र के लिये भी तृप्ति नहीं होती । उस पवित्र एवं मंगलमय दर्शन की आशा लालसा लगी ही रहती है । कितना सुन्दर है यह व्यास मिश्र का लाडला जो दुलराते , बोलते – बुलाते एक मीठी हँसी का अमृत सा बरसाता रहता है जिससे सब प्रसन्नता से उसे घेरे ही रहते हैं । उसकी समीपता को छोड़ना ही नहीं चाहते । श्री सेवक जी कहते हैं – रसिको ! मैं ऐसे प्रेमानन्दमय श्रीहरिवंश के यश का विलास वर्णन करता हूँ और उन्हीं सर्वोपरि श्रीहरिवंश का गान करता रहूँगा ।

पद – 11

अब उपदेश भक्ति को कह्यौ ,

जैसी विधि जाके चित रह्यो ।

लह्यौ सु मनवांछित सुफल ।।

सब हरि भक्ति कही समुझाइ ,

जैसी – जैसी जाहि सुहाइ ।

आइ चकल चरननि भजे ।

साधन सकल कहे अविरुद्ध ,

वेद – पुरान सु आगम सुद्धा

बुध – विवेकि जे जानहीं ॥

समुझ्यौ सबनि सु भक्ति उजास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ जिस साधक के चित्त में जिस प्रकार की इष्ट भावना थी आपने उसीके अनुरूप भक्ति का उपदेश दिया जिससे उसने अपने मनचाहा सुन्दर फल ( इष्ट सिद्धि ) प्राप्त कर लिया । इसके पश्चात् जिस – जिसको जैसी – जैसी रीति – पद्धति से प्रीति एवं रुचि थी आपने उसी – उसी प्रकार से उन्हें सम्पूर्णतया भगवद्भक्ति के मार्गों एवं लक्षणों का भेद प्रभेद समझा , इस प्रकार प्रायः सभी ( भक्तों ) ने आ- आकर आपके श्रीचरणों का सेवन किया । आपने वेद – पुराण शास्त्रों से प्रतिपादित शुद्ध ( केवल अनन्य भक्ति के ) साधनों का उपदेश भी किया ; जिन्हें ज्ञानी एवं विवेकी – जन ही जान – समझ सकते हैं । इस तरह जिनकी कृपा से समस्त जगत ने भक्ति के उज्ज्वल प्रकाश ( महत्व , प्रभाव आदि ) को समझा मैं उन्हीं श्रीहरिवंश चन्द्र का यश विलास वर्णन करता हूँ और उन्हीं का गान करता रहूँगा ।

पद – 12

अब अवतार भेद तिन कहे ,

सकल उपासक तिन मन रहे ।

कहे भक्ति साधन सबै ॥

मथुरा नित्य कृष्ण को वास ,

निस दिन स्याम न छाँड़त पास ।

तासु सकल लीला कही ।

कही सबनि की एक रीति ,

श्रवन – कथन सुमिरन परतीति ।

बीति काल सब जाइयौ ॥

उपज्यौ सबनि सुदृढ़ विस्वास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशह गाइ हौं ।

भावार्थ – ( पहले सामान्य भगवद्भक्ति का उपदेश करके ) अब ( विशेष रूप से ) भगवदावतारों का भेद उन ( अवतार उपासकों ) के प्रति कहा ( जो जिन अवतारों के प्रति प्रीति एवं निष्ठावान् थे । ) उस उपदेश को सुनकर उन उपासकों ने अपनी – अपनी इष्ट – निष्ठा दृढ़ की । इन्हें भी भक्ति के ( वे ही ) साधन बताये , ( जो नवधा – भक्ति के क्रम में हैं । ) ( समस्त अवतारों के बीज श्रीकृष्ण – अवतार का निरूपण करते हुए आपने बताया कि ) श्रीकृष्ण नित्य – निरन्तर मथुरा में निवास करते हैं । ये मथुरा – वासी श्यामसुन्दर मथुरा का सामीप्य ( निवास ) कभी छोड़ते ही नहीं । इनकी समस्त लीलाओं का भी वर्णन आपने किया । ( उपासना – साधना क्रम में भगवदावतार , भगवत्तत्व , एवं मथुरा वासी श्रीकृष्ण ) सभी भक्तों के लिये विश्वास पूर्वक गुण – लीला श्रवण , कथन , स्मरण आदि यही साधन एक ही रीति से आपने बताया । ( और यह भी कहा कि ) इस प्रकार नवधा भक्ति करते – करते ही ( जीवन का ) सारा समय व्यतीत होना चाहिये । श्रीसेवक जी कहते हैं कि आपकी इन बातों पर सबका सुदृढ़ विश्वास उत्पन्न हो गया , मैं ऐसे हरिवंश चन्द्र का यश विलास वर्णन और गुण – गान करता हूँ और करूँगा ।

पद – 13

अब जु कही सब ब्रज की रीति ,

जैसी सबनि नंद – सुत प्रीति ।

कीर्ति सकल जग विस्तरी ॥

बाल – चरित्र प्रेम की नींव ,

कहत सुनत सब सुख की सींव ।

जीवन ब्रज – वासिनु सफल ॥

ब्रज की रीति सु अगम अपार ,

विस्तरि कही सकल संसार ।

कारज सबहिनु के भये ॥

ब्रज की प्रीति रीति अनियास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जैसी सब ब्रज – वासियों की नन्द – नन्दन श्रीकृष्ण पर प्रीति थी और जैसी जो कुछ ब्रज की प्रीति – रीति है , जिसका सुयश सारे विश्व में अभी भी व्याप्त है , वह आपने कही । श्रीकृष्ण के बाल – चरित्र क्या हैं ? प्रेम की नींव ( मूल , बुनियाद ) जो वर्णन – गान कहते सुनते समस्त सुखों की सीमा रूप हैं । वे ( नन्द – किशोर ) श्रीकृष्ण सब ब्रज – वासियों के जीवन के संचित परम फल हैं । ब्रज की प्रीति जो अगम और अपार है , आपने उसका भी विस्तार पूर्वक वर्णन किया , जिससे सब के मनोरथ पूर्ण हो गये । ( आपने बताया कि यह ब्रज की प्रीति – रीति सहज – स्वाभाविक है साधन सिद्धा किंवा सहैतुकी नहीं । मैं ऐसे सर्वज्ञ , भक्ति विधायक श्रीहरिवंश चन्द्र का यशोगान करता हूँ और उन्हीं का वर्णन – गान करूँगा ।

पद – 14

जेहि विधि सकल भक्ति अनुसार ,

तैसी विधि सब कियौ विचार ।

सारासार विवेक कैं ।

अब निजु धर्म आपुनौं कहत ,

तहाँ नित्य वृंदावन रहत ।

बहत प्रेम – सागर जहाँ ।

साधन सकल भक्ति जात नौं ,

निजु निज वैभव प्रगटत आपुनौं ।

भनौं एक रसना कहा ।

श्रीराधा जुग चरन निवास ,

जस बरनौं हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अभी तक सार एवं असार के विवेक निर्णय के साथ उसी विधि – विधान साधन का विचार किया या उपदेश दिया जिस प्रकार से लोग भक्ति का आचरण कर सकें किन्तु अब इसके आगे अपना निज धर्म ( सहज धर्म ) कहते हैं- ( वह क्या है ? ) जहाँ नित्य वृन्दावन है और जिसमें नित्य प्रेम का समुद्र निरन्तर प्रवाहित रहता – उमड़ता रहता है । जिस तक पहुँचने का प्राथमिक एवं पूर्णतया साधन है भक्ति जन्य नवधा भेद भक्ति । जिससे आप अपने उसी निज – वैभव ( नित्य – विहार रस ) का प्रकाश करते हैं । मैं उस अवर्णनीय रस का अपनी एक जड़ जिह्वा से कैसे वर्णन कर सकता हूँ ? जिस नित्य विहार वैभव की अन्तिम गति परम आह्लादिनि रस रूपा श्रीराधा के युगल चरणों का निवास है । मैं उन्हीं नित्य – विहार तत्व प्रकाशक श्रीहरिवंश चन्द्र के यश विलास का वर्णन करता हूँ और उन्हीं श्रीहरिवंश चन्द्र के नाम , गुण , लीला , माहात्म्य एवं स्वरूप आदि का गान करता रहूँगा ।


श्रीहित रस – विलास
( द्वितीय प्रकरण )
पूर्व परिचय –

यश विलास नामक प्रथम प्रकरण में श्रीहरिवंश चन्द्र के व्यापक स्वरूप ( हित – तत्व ) का वर्णन किया गया और साथ ही उनके जन्म कर्म गुण एवं रूप की अनिर्वचनीयता कही गयी किन्तु फिर भी शाखा – चन्द्र न्याय से उक्त बातों की ओर संकेत भी किया गया । अन्तिम छन्द के पूर्व तक श्री कृष्ण भक्ति , ब्रज रस एवं उसके साधनों का विचार किया गया और अन्तिम छन्द में ” अब निजु धर्म आपुनो कहत ” कह कर नित्य विहार रस के वर्णन – कथन की प्रतिज्ञा की गयी । वही ‘ निजु धर्म ‘ नित्य विहार यहाँ ‘ रस विलास ‘ के नाम से वर्णन किया जायगा । ‘ यश – विलास ‘ नाम से प्रथम प्रकरण का अर्थ पाठकों ने समझ लिया होगा कि वह श्रीहरिवंश के यश वैभव विस्तार का वाचक है , इसी तरह यह दूसरा प्रकरण ‘ रस – विलास ‘ भी अपने नाम की सार्थकता रखता है । इसमें युगल किशोर के नित्य – विहार रस किंवा वृन्दावन रस – विलास के सूत्रों का संकेत है , इसलिये इसे रस विलास कहा गया है । किन्हीं किन्हीं के मत से इसे ‘ हरिवंश विलास ‘ भी कहा जाता है । ठीक भी है क्योंकि श्रीहरिवंश ही तो रस हैं । इस प्रकरण में क्रमश : केलि – विलास का स्वरूप , रस का स्वरूप , रसिकों का स्वरूप , रस – साधना का स्वरूप , रसोपासना का फल , रस की सर्वश्रेष्ठता , रसिकता एवं रस के समक्ष अन्य साधन एवं फलों की हेयता , रसिक चित्त की दृढ़ता और रसिक उपासक की सर्व निरपेक्ष बुद्धि की प्रशंसा आदि विषयों का वर्णन है ।

पद – 1

श्रीहरिवंश नित्य वर केलि ,

बाढ़त सरस प्रेम रस बेलि ।

मेलि कंठ भुज खेलहीं ।

बनितन गन मन अधिक सिरात ,

निरखि – निरखि लोचन न अघात ।

गात गौर – साँवल बनैं ।।

जूथ जूथ जुवतिनु के घनैं ,

मध्य किशोर – किशोरी बनें ।

गनैं कवन रति अति बढ़ी ।

नित – नित लीला नित – नित रास ,

सुनहु रसिक हरिवंश बिलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।।

भावार्थ – श्रीहरिवंश की यह श्रेष्ठ एवं नित्य रस – केलि ( नित्य विहार क्रीड़ा ) प्रतिक्षण सरस है एवं इसमें प्रेम रस रूपी लता नित्य वर्धमान रहती है । ( इस विहार में दोनों प्रिया – प्रियतम ) गल बहियाँ दिये सदा क्रीड़ा – परायण रहते हैं , जिनका दर्शन कर सहचरि – गणों का मन अधिकाधिक शीतल होता रहता है । वे देखती ही रहती हैं , इस विहार को , किन्तु देखते हुए भी उनके नेत्र अतृप्त बने रहते हैं ।

( नृत्य क्रीड़ा के समय की छटा भी बड़ी अपूर्व है । ) गौर – श्याम – तनु युगल किशोर भली प्रकार सुशोभित हैं और सब सहचरियों के मध्य में शोभा पा रहे हैं । युवती – गणों के अनेकानेक यूथ हैं । उस रास में अत्यधिक बढ़ी प्रीति का वर्णन कौन कर सकता है ? हौं ।

श्री सेवक जी कहते हैं- हे रसिकों ! सुनो , मैं श्रीहरिवंश विलास का जो वर्णन करूँगा , उसमें सदा – सदा ऐसा ही रास और सदा – सदा ऐसी ही लीलाएँ हैं अत : मैं ऐसे ही रसमय श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 2

लता भवन सुख शीतल छहाँ ,

श्रीहरिवंश रहत नित जहाँ ।

तहाँ न वैभव आन की ।

जब – जब होत धर्म की हानि ,

तब – तब तनु धरि प्रगटत आनि ।

जानि और दूजौ नहीं ।

जो रस रीति सबनि तें दूरि ,

सो सब विश्व रही भरपूरि ।

मूरि सजीवनि कहि दई ॥

सब जन मुदित करत मन हास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन के लता – भवन में जहाँ सुखमयी शीतल छाया है वहीं श्री हरिवंश चन्द्र नित्य – निरन्तर निवास करते हैं , वहाँ किसी दूसरे का कोई भी अधिकार या महत्त्व नहीं है , केवल श्री हरिवंश का ही एकमात्र स्वत्व है वहाँ । जब जब इस विश्व में ( रस – रीति रूप आपके निज ) धर्म की हानि – ग्लानि होती है तब – तब यह समझ कर कि ( मेरे सिवाय ) इसका कोई दूसरा रक्षक नहीं है आप मानव शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं ।

( इस सिद्धान्त से इस समय आपने प्रकट होकर ) वह रस रीति जो सारे विश्व में परिपूर्ण व्याप्त रहकर भी सबसे दूर – अलक्षित थी सबकी सञ्जीवनी उस जड़ी को वर्णन द्वारा ( ग्रन्थों में ) प्रकट कर दिया । जिसे पाकर सब रसिक जन मुदित हो गये सबके मन प्रसन्नता से खिल उठे ऐसा है रसिको ! श्रीहरिवंश का विलास , उसे आप सुनिये मैं उसका गान करूँगा ।

पद – 3

ललितादिक स्यामा अरु स्याम ,

श्रीहरिवंश प्रेम रस धामा ।

नाम प्रगट जग जानिये ॥

श्रीहरिवंश – जनित जहाँ प्रेम ,

तहाँ कहाँ व्रत – संयम – नेम ।

छम सकल सुख संपदा ॥

तहाँ जाति कुल नहीं विचार ,

कौन सु उत्तम कौन गँवार ।

सार भजन हरिवंश कौ ॥

या रस मगन मिटै भव – त्रास ,

सुनहु रसिक हरिवंश – विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ॥

भावार्थ – ललिता , विशाखा आदि सखियाँ , श्यामा – श्रीराधा , श्याम – श्रीकृष्ण और श्रीहरिवंश ये सब प्रेम रस के धाम हैं ( अथवा श्रीहरिवंश प्रेम रस धाम के ललिता विशाखादि , श्यामा और श्याम ये अनेक रूप हैं । ) विश्व में इनके नाम प्रगट हैं । जहाँ श्रीहरिवंश जनित ( अर्थात् श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकाशित ) प्रेम प्रकट हो रहा है वहाँ बेचारे व्रत , संयम और नियम कहाँ रह सकते हैं ? अपने आप भाग जाते हैं । वहाँ पूर्ण सुरक्षा ( क्षेम ) है , सम्पूर्ण सुख हैं और सब सम्पत्ति है । वहाँ न जाति विचार है और न कुल का ही । इसी तरह उत्तम कौन है और कौन गँवार है ? यह भी विचार – भेद नहीं ( वरं उस प्रेम राज्य में सब एक ही दृष्टि से केवल प्रेम – दृष्टि से देखे जाते हैं ) क्योंकि यह श्रीहरिवंश के द्वारा प्रकटित भजन सार रूप है ; ( द्वैत बुद्धि से उठा हुआ अद्वैतमय है । ) जो इस रस में मग्न हो जाता है , उसका सांसारिक क्लेश तत्काल मिट जाता है । ( अर्थात् प्रेमी के सामने जन्म – मरण को स्मृति ही कहाँ रह पाती है वह तो प्रेम – प्रवाह में बह जाती है । ) हे रसिक जनो ! आप श्रीहरिवंश – विलास का स्वरूप सुनिये , मैं ऐसे ( रसमय , भव – भीति विस्मारक ) श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुजस गाईयो ,

सो रस सब रसिकनि पाईयौ ।

कियौ सुकृत सबको फल्यौ ।

या रस में विधि नहीं निषेध ,

तहाँ न लगन ग्रहन के बेध ।

तहाँ कुदिन दिन कछु नहीं ।

नहिं सुभ – असुभ मान – अपमान ,

नहीं अनृत भ्रम कपट सयान ।

स्नान क्रिया जप – तप नहीं ।

ग्यान ध्यान तहाँ सकल प्रयास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने ( प्रिया प्रियतम का रस – विलास रूप ) जो सुयश गान किया है उस रस को समस्त रसिक जनों ने प्राप्त किया , मानो उन सबके सुकृतों ( किंवा प्रभु कृपा ) का उन्हें यही फल मिला । इस प्रेम रस में ( वेद – विहित ) विधि और निषेध नहीं है । यहाँ लग्न ( राशि नक्षत्र के योग ) और ग्रहण के वेध आदि के भी दोष नहीं हैं और दिन – कुदिन का भी कोई विचार नहीं है । यहाँ शुभ अशुभ , मान – अपमान , असत्य , भ्रम , कपट चतुराई आदि कुछ नहीं है । और तो क्या इस रस ( उपासना ) में स्नान , क्रिया ( कर्म काण्ड , सन्ध्या – तर्पण आदि ) जप , तप आदि किसी विषय की न तो महत्ता है और न आवश्यकता ही । यहाँ ज्ञान ( वेदान्त ज्ञान ) और ध्यान ( अष्टाङ्ग योग ध्यान धारणा ) केवल श्रम हैं – अतः व्यर्थ हैं ।

हे रसिको ! आप श्री हरिवंश विलास का श्रवण करें मैं इन्हीं प्रेम रस प्रकाशक विधि निषेधातीत श्रीहरिवंश का गान करूँगा ।

पद – 5

जहाँ श्रीहरिवंश प्रेम – उन्माद ,

तहाँ कहाँ स्वारथ निस्वाद ।

वाद – विवाद तहाँ नहीं ।

जे श्रीहरिवंश – नाद मोहिये ,

तिन फिर बहुरि न कुल – क्रम किये ।

जिये काल बस ना परे ।।

कुल बिनु कहौ कौन सौ चाक ,

सहज प्रेम रस साँचे पाक ।

रंक – ईश समुझत नहीं ।।

विप्र न शूद्र कौन कुल कास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जहाँ ( जिस हृदय में ) श्रीहरिवंश – चन्द्र की कृपा से उदय हुआ प्रेमोन्माद है , वहाँ स्वादहीन – नीरस स्वार्थ कैसे रह सकता है ? वहाँ वाद – विवाद भी नहीं रह सकता है । जो लोग श्री हरिवंश ( श्री हरि की वंशी ) के मधुर स्वर में मोहित हुए फिर उन्होंने कभी कुल कर्म ( लोक वेद धर्म ) तो किये ही नहीं । वास्तव में वे ही जीवित रहे ( जीवन युक्त हैं शेष मृतवत् हैं । ) वे कभी काल के वश में नहीं हुए , ( काल पर भी विजय पा गये । ) जो लोग सहज प्रेम रस में सच्चे एवं परिपक्व हैं वे ईश्वर को भी तो कुछ नहीं समझते फिर कुल ( कर्म ) के बिना उनका बिगड़ता ही क्या है । बेचारा कुल कर्म का चक्र है ही क्या उनके लिये ? ऐसे प्रेमी रसिकों के लिये ने कोई विप्र है न शूद्र । ( उनकी दृष्टि एक रसमयी हो चुकी है । ) उनके लिये कौन किस कुल का ? इस बात का विचार ही नहीं । ( सब एक सा है ) हे रसिको ! सुनिये ; मैं ( ऐसे प्रेम – स्वरूप ) श्री हरिवंश का विलास गा रहा हूँ और उसे ही गाता रहूँगा ।

पद – 6

या रस विमुख करत आचार ,

प्रेम बिना जु सबै कृत आर ।

भार धरत कत विप्र कौ ॥

श्रीहरिवंश किसोर अहीर ,

अरु तिन संग बनितन की भीर ।

तीर जमुन नित खेलहीं ॥

तिनकी दई जु जूठन खात ,

आचारी निज कहत खिस्यात ।

बात यहै साँची सदा ॥

श्रीहरिवंश कहत नित जास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – यदि कोई व्यक्ति इस प्रेम रस से विमुख हो कर आचार ( बहुत सी पवित्रताएँ ) भी करता है , तो उसके सभी कार्य प्रेम से रहित होने के कारण ‘ आर ‘ ( लोहे की वह नोंक जो बैलों के चूतड़ों में कोंची जाती है ) के समान हैं और वह केवल आचारी पुरुष व्यर्थ ही ब्राह्मणत्व के भार को ढो रहा है । श्रीहरिवंश किशोर ( अर्थात् आपके आराध्य तत्व श्रीराधावल्लभ लाल ) तो अहीर ( किशोर ) हैं जिनके साथ नित्य – निरन्तर कोटि – कोटि वनिताओं की अपार भीड़ रही आती है और ये सब यमुना के पुलिन पर सदा क्रीड़ा परायण रहते हैं ।

प्रेमीगण इन्हीं अहीर किशोर की प्राप्त गूंठन प्रसादी पाते हैं ( और जात्याभिमान से दूर रहते हैं । ) यदि उन्हें कोई आचारी कह दे ( तो उसे अपना अपमान समझकर ) खिसया उठते हैं और है भी यही बात सच्ची- त्रिकाल सच्ची । ( प्रश्न होता है कि ये लोग ऐसा क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि ) श्री हरिवंश चन्द्र ही तो इस बात को सदा कहते हैं ।

अतएव हे रसिक जनो ! आप श्री हरिवंश का विलास – रस सुनें ; मैं ऐसे अनुपम मार्ग – प्रदर्शक श्रीहित हरिवंश चन्द्र का गान करूँगा ।

पद – 7

निसि – दिन कहत पुकारि – पुकारि ,

स्तुति करहु देहु कोउ गारि ।

हार न अपनी मानिहौं ।

श्रीहरिवंश – चरन नहिं तजौं ,

अरु तिनके भजतिन कौं भजौं ।

लजौं नहीं अति निडर है ।

श्रीहरिवंश नाम बल लहौं ,

अपने मन भाई सब कहौं ।

रहौं शरन हरिवंश की ।

कहत न बनत प्रेम उज्जास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – ( श्री सेवकजी कहते हैं- ) मैं तो रात दिन पुकार – पुकार कर कहता हूँ और कहूँगा , फिर चाहे कोई मेरी स्तुति करे या गाली ही क्यों न दे पर मैं अपनी हार किसी प्रकार नहीं मानूँगा । श्रीहरिवंश के चरणों को नहीं छोडूंगा और उनका भजन करने वाले भक्तों ( किंवा उनके भजनीय श्री राधावल्लभलाल ) का ही मैं भजन ( सेवन ) करूँगा । मैं इसमें न तो लजाता हूँ और न डरता ही वरं पूर्ण निडर हूँ । मैं श्री हरिवंश नाम का बल प्राप्त करके यह सब अपनी मन भायी बातें कह रहा हूँ और रहता भी हूँ सदैव उन्हीं की शरण में । इन चरणों की शरण में मुझे जो प्राप्त है , उस प्रेम की उज्वलता कहते नहीं बनती । हे रसिको ! श्री हरिवंश का विलास सुनो , मैं ऐसे ( निर्भयकारी ) श्रीहरिवंश का ही गान करूँगा ।

पद – 8

जे हरिवंश प्रेम – रस झिले ,

क्यौं सोहैं लोगनि में मिले ।

गिल्यौ काल जग देखिये ॥

कर्म सकाम न कबहूँ करें ,

स्वर्ग न इच्छै नर्क न डरें ।

धरै धर्म हरिवंश कौ ॥

श्रीहरिवंश धर्म निर्बहैं ,

श्रीहरिवंश प्रेम लहैं ।

ते सब श्रीहरिवंश के ।

‘ सेवक ‘ तिन दासनि कौ दास ,

सुनहु रसिक हरिवंश विलास ।

श्री हरिवंशहि गाइ हौं ।

भावार्थ – जो कृपापात्र जन श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकाशित प्रेम रस से परिपूर्ण हो चुके हैं , वे भला जन साधारण में मिले हुए कैसे शोभा पा सकते हैं ? वे विश्व को काल कवलित देखा करते हैं ।

[ यहाँ तक प्रेम धर्म का वर्णन करके अब संक्षेपतः प्रेमियों के लिये साधन रूप से कुछ आवश्यक सूत्र बताते हैं कि- ] वह कभी भी सकाम कर्म न करे । न तो स्वर्ग की इच्छा करे और न नरकों से डरे ही । श्रीहरिवंश – धर्म को ही सदा धारण किये रहे और इसी का निवाह करे तो अवश्य श्रीहरिवंश रस ( प्रेम ) को प्राप्त कर लेगा । ( जो इस प्रकार से श्रीहरिवंश धर्म को धारण करते हैं ) वे निश्चित ही श्रीहरिवंश के निज जन हैं । ‘ सेवक ‘ ऐसे श्री हरिवंश – दासों का दास है । कितना महान् है यह धर्म ? अतः हे रसिको ! आप श्री हरिवंश का रस – विलास सुनें – आदर और प्रेम पूर्वक सुनें । मैं ऐसे लोक – विलक्षण प्रेमावतार श्रीहित हरिवंश का ही गान करूँगा ।


श्रीहित नाम प्रताप
( तृतीय प्रकरण )
पूर्व परिचय –

पहले एवं दूसरे प्रकरण में क्रमश : श्रीहरिवंश यश ( व्यापकत्व ) और रस – विलास का वर्णन किया गया । अब तीसरे प्रकरण में प्रथम श्रीहरिवंश नाम के स्मरण पूर्वक मंगलानुशासन करके रस – मार्ग की साधना का उपदेश करते हैं कि यदि कोई महाभाग्यवान् जीव उस दिव्य प्रेम रस का पान करने की अभिलाषा करता हो तो उसका क्या धर्म है ? उसे अपने साधन काल में किस क्रम से अपनी उपासना – साधना प्रारम्भ करनी चाहिये ? कोई पूछ सकता है कि प्रेम तो साधन – साध्य नहीं बल्कि कृपा – साध्य है ; फिर उसके लिये श्रीसेवक जी कैसे साधनों का विधान कर सकते हैं ? तो संक्षेप में इतना ही कथन पर्याप्त होगा कि वे प्रेम – प्राप्ति के साधनों के जो स्वरूप बता रहे हैं वे साधन भी प्रेम रूप हैं और प्रेम प्राप्ति के पूर्व , नियमों का पालन आवश्यक है क्योंकि प्रेम का महल नियमों की खाई के भीतर है किन्तु वे नियम भी प्रेम रूप हैं । नियमों के पालन के उपरान्त ही कोई उसे समझ सकता है । स्वेच्छाचारी व्यक्ति उस प्रेम के स्वरूप को कभी नहीं समझ सकता । खेत , बोने के पहले जोत कर साफ किया जाता है , तब उसमें बीज डाला जाता है तो वह ऊगता भी है । झाड़ – झंखाड़ युक्त खेत में बिना जोते ही बो देने से बीज तो व्यर्थ जाता ही है श्रम भी व्यर्थ जाता है ।

इसी प्रकार यहाँ श्रीसेवक जी ने साधन प्रेम के नियमों का विधान करके मानो चित्त भूमि को जोत कर तैयार किया है ।

पद – 1

श्रीहरिवंश नाम नित कहौं ,

नाम प्रताप नाम फल लहौं ।

नाम हमारी गति सदा ॥

जे सेवै हरिवंश सु नाम ,

पावै तिन चरननि विश्राम ।

नाम रटन संतत करें ॥

नाम प्रसंग कहत उपदेस ,

जहाँ यह धर्म धन्य सो देस ।

धन्य सु कुल जिहि जन्म भयौ ॥

धन्य सु तात धन्य सो माइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – ( श्रीसेवक जी कहते हैं कि मैं ) सदा सर्वदा श्रीहरिवंश कहा करूँ और इस नाम के प्रताप से नाम ही फल प्राप्त करूँ क्योंकि नाम ही सदा हमारी गति है । जो लोग श्रीहरिवंश इस सुन्दर नाम का सेवन करते हैं , वे उन्हीं ( श्रीहरिवंश ) के चरणों में विश्राम ( स्थान ) पाते हैं और निरन्तर इसी नाम को रटा करते हैं ।

यहाँ नाम प्रसंगवश ही यह बात विशेष कह रहा हूँ कि जहाँ यह ( श्रीहरिवंश ) धर्म है , वह देश धन्य है । जिस कुल में इस धर्म के पालन करने वाले का जन्म हुआ वह कुल भी धन्य है । वह पिता , वह माता धन्य है , ( जिन्होंने उसे जन्म दिया । )

भाइयो ! सब लोग चित्त देकर सदा ही श्रीहरिवंश – प्रताप – यश का श्रवण करो ।

पद – 2

प्रथम हृदै श्रद्धा श्रद्धा जो करै ,

आचारजनि* जाइ अनुसरै ।

जहाँ – जहाँ हरिवंश के ॥

रसिकनि की सेवा जब होइ ,

प्रीति सहित बूझहु सब कोइ ।

कौन धर्म हरिवंश कौ ॥

कौन सु रीति कौन आचरन ,

कौन सुकृत जिहिं पावै शरन ।

क्यौं हरिवंश कृपा करें ॥

तब सब धर्म कह्यौ समुझाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – ( यदि प्रभु कृपा से किसी के ) हृदय में ( इस धर्म के प्रति ) श्रद्धा का प्राथमिक उदय हो , तो वह जाकर श्रीआचार्य चरणों का अनुसरण करे । कौन से आचार्य ? श्रीहरिवंशचन्द्र के ( धर्मधारक एवं गोत्रज ) ; कहाँ पावे उन्हें ? जहाँ कहीं भी मिलें वे ; उन्हीं की शरण ले । जब उन आचार्यों – रसिकों की सेवा से उन्हें पूर्ण प्रसन्न करले तब उनसे प्रीति – पूर्वक पूछे कि श्रीहरिवंश का धर्म क्या है ? उस धर्म की रीतियाँ हैं क्या ? उनका आचरण कैसे किया जाय ? वह कौन – सा सत्कार्य है जिससे श्रीहरिवंश की चरण – शरण मिलती है ? और हम पर श्रीहरिवंश कैसे कृपा करेंगे ?

श्रद्धालु के इतना पूछने पर वे कृपालु रसिक आचार्य गण धर्म का पूर्ण स्वरूप समझा कर कहेंगे , उसे आप सब लोग भी चित्त लगाकर श्रवण कीजिये वह श्रीहरिवंश का प्रताप – यश ही तो है ।

पद – 3

प्रथमहिं सेवहु गुरु के चरन ,

जिन यह धर्म कह्यौ सब करन ।

नाम – प्रताप बताइयो ।।

जो श्री हरिवंश नाम अनुसरहु ,

निशिदिन गुरु को सेवन करहु ।

सकल समर्पन प्रान – धन ।।

गुरु – सेवा तजि करहिं जे बानि ,

यहै अधर्म यहै सब हानि ।

कानि न रसिकनि में रहै ।।

गुरु – गोविन्द न भेद कराइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश – प्रताप जस ।।

भावार्थ – ( इस प्रकार पूर्व कथित रीति से ) सर्व प्रथम श्रीगुरु चरणों का सेवन करो जिन्होंने इस ( हित ) धर्म के पालन करने के लिये आज्ञा दी और जिन्होंने नाम का प्रताप बताया है । यदि तुम वास्तव में श्रीहरिवंश नाम का अनुसरण ( आश्रय ) कर रहे हो तो तुम्हें चाहिये कि अपने प्राण , धन और सर्वस्व के समर्पण पूर्वक दिन रात श्रीगुरुदेव का ही सेवन करो । जो लोग श्री गुरु – सेवा को छोड़कर अन्य साधनों में मन लगाते हैं , यही उनका अधर्म और बड़ी भारी हानि है । ऐसे हठशील अधर्मी की रसिकों में कोई प्रतिष्ठा या मर्यादा मान नहीं रह पाता । अतएव सच्चे उपासक का धर्म है कि वह श्री गुरुदेव एवं गोविन्द में कोई भेद न देखे न करे ।

श्रीसेवक जी कहते हैं- रसिको । आप निरन्तर चित्त लगाकर श्रीहरिवंश का प्रताप – यश सुनिये ।

पद – 4

गुरु – उपदेश सुनहु सब धर्म ,

श्रीहरिवंश – नाम फल-मर्म ।

भर्म भग्यौ बचननि सुनत ॥

सुक मुख – वचन जु श्रवन सुनावहु ,

तब श्रीहरिवंश सु नाम कहावहु ।

मन सुमिरन बिसरै नहीं ॥

हरि , गुरु , चरन , सेवा अनुसरहु,

अर्चन – बंदन संतत करहु ।

दासंतनि करि सुख लहौ ॥

सख्य समर्पन भक्ति बढ़ाइ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – श्रीगुरुदेव के उपदेश से सम्पूर्ण धर्म का श्रवण करो , जिसका मर्म अर्थात् रहस्य श्रीहरिवंश नाम ही है । श्रीगुरु के प्रकाशमय वचनों को सुनते ही तुम्हारा भ्रमरूपी अज्ञान – अन्धकार भाग जायगा ।

पहले जब श्रीशुकदेव जी के श्रीमुख – वचन ( श्रीमद्भागवत पुराण ) तुम्हारे द्वारा सुने जायेंगे , तब तुम्हें ( सारासार विवेक होकर ) श्रीहरिवंश नाम में निष्ठा होगी तुम उस नाम को कह सकोगे । ( यदि इस प्रकार क्रम से तुम चल सके तो फिर तुम्हारा ) मन ( उन श्रीहरिवंश के ) स्मरण को कभी भूलेगा ही नहीं । फिर भी तुम साथ – साथ श्रीहरि ( राधावल्लभ लाल ) और श्रीगुरु के चरणों की सेवा का अनुसरण ही निरन्तर उनके प्रति अर्चन और वन्दन करते रहना एवं उनकी सेवा आदि करके दास्य सुख प्राप्त करना । पश्चात् नवधा क्रम से सख्य और अन्तिम आत्म – समर्पण पूर्वक सेवन करने से भक्ति अभिवृद्धि को प्राप्त होती है । श्रीहरिवंश प्रताप – यश की प्राप्ति का यही पथ है , उसे सब लोग चित्त लगाकर सुनिये ।

पद – 5

गुरु-उपदेश चलहु एहिं चाल ,

ऐसी भक्ति करै बहु काल ।

ये नव लच्छन भक्ति के ॥

यह हरि-भक्ति करै जब कोई ,

तब श्री हरिवंश नाम रति होइ ।

यह जो बहुत हरि की कृपा ॥

हरि-हरिवंश भेद नहिं करै ,

श्री हरिवंश नाम उच्च ।

छिन-छिन प्रति बिसरै नाहीं ॥

प्रीति सहित यह नाम कहाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश-प्रताप जस ॥

भावार्थ – श्रीगुरुदेव द्वारा उपदेश की गयी पद्धति का अनुसरण करते हुए बहुत काल तक भक्ति करता रहे। यदि कोई ऐसी नवधा भक्ति करता रहेगा, तो अवश्य उसकी श्री हरिवंश नाम में निष्ठा हो जायगी, यह श्रीहरि की बहुत बड़ी कृपा है। साधक को चाहिये कि वह हरि और हरिवंश में भेद बुद्धि न करके प्रतिक्षण हरिवंश नाम का ही उच्चारण करता रहे; इसका विस्मरण न करे- इसे भूले नहीं वरं प्रीति पूर्वक इस नाम को लिया ही करे। रसिको ! श्री हरिवंश का यह प्रताप यश चित्त लगाकर सुनो।

पद – 6

गुरु-उपदेश चलहु एहि रीति ,

श्री हरिवंश-नाम-पद-प्रीति ।

प्रेम मूल यह नाम है ॥

प्रेमी रसिक जपत यह नाम ,

प्रेम मगन निजु बन विश्राम ।

श्री हरिवंश जहाँ रहैं ॥

प्रेम प्रवाह परै जन सोइ ,

तब क्यौं लोक-वेद-सुधि होइ ।

जब श्रीहरिवंश कृपा करी ॥

व्रत-संयम तब कौन कराइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – यदि श्रीगुरुदेव के उपदेश के अनुसार इस (पर कही गयी नवधा-भक्ति एवं हरिवंश नाम-स्मरण की) रीति से चलोगे तो श्रीहरिवंश नाम और चरणों में प्रीति हो जायगी, क्योंकि यह (हरिवंश) नाम प्रेम का उद्गम स्थल है। प्रेमी रसिक जन इस नाम को जपते हैं और इस नाम के प्रताप से प्रेम मग्न हुए श्रीहरिवंश के निज-वन (ऐकान्तिक केलि भूमि श्रीवृन्दावन) में अचल विश्राम पा रहे हैं जहाँ निरन्तर श्रीहरिवंश रहते हैं। इस नाम का जाप जब प्रेम के प्रवाह में पड़ जायगा तो भला उसे लोक एवं वेद की मर्यादाओं की सुधि कैसे हो सकती है? जबकि उस पर स्वयं प्रेम रूप श्री हरिवंश ने कृपा की है, तब व्रत और संयम कौन कर सकता है? (अर्थात् प्रेमी तो केवल अपने प्रभु के रूप में तल्लीन हो जाता है, उसे फिर बाह्य आचारों और मर्यादाओं की खबर तक नहीं रह जाती।) हे रसिया! यह है श्रीहरिवंश का प्रताप-यश, आप चित्त देकर इसका श्रवण करें।

पद – 7

जब यह नाम हृदै आइ है ,

तब सब सुख-संपति पाइ है ।

श्रीहरिवंश सुजस कहै ।।

अरु अपनी प्रभुता नहिं सहै ,

तृन ते नीच अपनपौ कहै ।

सुभ अरु असुभ न जानही ।।

समुझै नहीं कछू कुल-कर्म ,

सूधौ चलै आपने धर्म ।

रसिकनि सौं प्रीतम कहै ।।

कबहुँ काल वृथा नहिं जाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ।।

भावार्थ – जब यह (श्री हरिवंश) नाम (साधक के) हृदय में आवेगा, तभी वह सब सुख और सम्पत्ति (प्रेमरूपी धन) प्राप्त करेगा और हरिवंश के पवित्र यश का गान करेगा। वह अपने आपको तृण से तुच्छ मानेगा अर्थात् उसका स्वाभिमान् होगी ‘लघुता’। वह अपने बड़प्पन का भार नहीं सह सकेगा; उसे शुभ एवं अशुभ दोनों से उपरामता हो जायगी। वह (प्रेम की इस उन्मत्त दशा में) कुलोचित आचार-विचार रूप कर्मों को भी नहीं समझना चाहेगा, वह तो सीधे सरल ढंग से अपने (अनन्य हित) धर्म का पालन करेगा। वह रसिकजनों को प्रिय-तम (इष्टवत् परम प्रिय) भाव से देखेगा, यही समझेगा और कहेगा ऐसे रस मग्न प्रेमी हित-धर्मी का एक क्षण भी कभी व्यर्थ नहीं जाता, क्योंकि वह सदा अपने भाव में विभोर है।सेवकजी कहते हैं- भाइयो ! चित्त लगाकर ऐसे महिमाशाली श्रीहरिवंश के प्रताप यश का श्रवण करो।

पद – 8

जब हरिवंश नाम जानि है ,

तब सब ही तें लघु मानि है ।

हँसी बोलै बहु मान दै ॥

तरु सम सहन शीलता होइ ,

परम उदार कहें सब कोइ ।

सोच न मन कबहूँ करै ॥

श्रीहरिवंश सुजस मन रहै ,

कोमल बचन चरन मुख कहै ।

परम सुखद सबकौं सदा ॥

दुखद बचन कबहूँ न कहाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जब उपासक श्री हरिवंश नाम (की यथार्थता) जानेगा तब वह अपने आपको सबसे छोटा (दीन) मान लेगा और सबको सम्मान देता हुआ ही उनसे हँसकर प्रसन्नता पूर्वक बोलेगा उसमें वृक्ष के समान सहनशीलता होगी और उसे सभी लोग परम उदार कहेंगे, उसे चिन्ता तो कभी किसी बात की न हो उसका मन श्रीहरिवंश के सुयश में ही रमेगा, उसकी वचन रचना (सम्भाषण-शैली) बड़ी कोमल होगी और वह सबके लिये सदा सर्वदा सुखद ही होगी वह दुःखद वचन तो कभी बोलेगा ही नहीं। आप लोग सब ऐसे श्रीहरिवंश प्रताप यश का गान सुनिये।

पद – 9

प्रगट धर्म जैसे जानियें ,

श्री हरिवंश नाम जा हिये ।

नाम सिद्धि पहिचानियें ॥

श्री हरिवंश नाम सब सिद्धि ,

सबै रसिक बिलसे नव निद्धि ।

भुगते दैहिं न जाँचहीं ॥

पोषन भरन न चिंता कराहिं ,

श्री हरिवंश विभव विलसाहिं ।

श्री बृंदावन की माधुरी ॥

गुन गावत जु रसिक सचु पाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जिसके हृदय में श्री हरिवंश नाम है, और उसे नाम की सिद्धि प्राप्त है इसके प्रकट लक्षण जैसे जाने पहचाने जायँ उनका वर्णन (ऊपर के छन्दों में किया गया ) है श्री हरिवंश नाम ही समस्त सिद्धियों की मूल सिद्धि है। समस्त प्रेमी रसिक जन इसी हरिवंश नाम रूप नव-निधि का विलास-सुख भोगते रहते हैं। इस नाम सिद्धि एवं नव-निधि के समक्ष वे अणिमा महिमा लघिमा..आदि सिद्धि निधियों को न तो भोगते न किसी को देते और न इनकी किसी से याचना ही करते हैं। वे प्रेम मतवाले रसिक इन्हें स्वयं तो माँगे और भोगेंगे ही क्यों? यहाँ तक कि वे अपने भोजन-भरण पोषण तक की चिन्ता नहीं करते और एक मात्र श्रीहरिवंश के रस वैभव का ही विलास करते हुए अपनी भजन-भावना में डूबे रहते हैं। वह वैभव है श्रीवृन्दावन की रस माधुरी। वे रसिक जन उसी वृन्दावन माधुरी रूप श्री हरिवंश की गुण-माला पिरोते और सुखी रहते हैं अत: आप सब भी उस प्रताप यश का श्रवण कीजिये।

पद – 10

श्री हरिवंश धर्म जे धरहिं ,

श्री हरिवंश नाम उच्चरहिं ।

ते सब श्री हरिवंश के ॥

श्रवन सुनहिं जे श्रीहरिवंश ,

मुख बरनत बानी हरिवंश ।

मन सुमिरन हरिवंश को ॥

ऐसे रसिक कृपा जो करहिं ,

तौ हमसे सेवक निस्तरहिं ।

जूठनि ले पावै सदा ॥

सेवक सरन रहे गुन गाइ ,

संतत सकल सुनहु चित लाइ ।

श्री हरिवंश प्रताप जस ॥

भावार्थ – जो लोग श्री हरिवंश धर्म को धारण करते और जो श्री हरिवंश नाम का उच्चारण ही करते हैं वे सभी श्री हरिवंश के ( निज-जन) हैं जो केवल अपने कानों से श्रीहरिवंश-नाम सुनते, जो मुख से उनकी वाणी (श्रीहरिवंश-रचित रस ग्रंथावली) का गान करते और जो मन-मन उन श्री हरिवंश का स्मरण ही करते हैं, (वे सभी श्री हरिवंश के निज-जन हैं।) यदि ऐसे रसिक जन कृपा कर दें तो हमारे जैसे (अयोग्य) ‘सेवक’ (दास) भी अपना निर्वाह पा सकते उद्धार पा सकते हैं, अन्यथा नहीं। हमारा धर्म है कि हम उनकी सदा जूठन प्रसादी पाया करें और उनके गुण गाते हुए उन्हीं की शरण में बने रहें।

श्री सेवक जी कहते हैं कि जिनके नाम का यह माहात्म्य है उन्हीं श्री हरिवंश का प्रताप यश यह गया जा रहा है इसे आप सब चित्त लगा कर सुनिये।


श्रीहित बानी – प्रताप
( चतुर्थ प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु की श्रीमुख – वाणी श्री राधा सुधा – निधि , हित चौरासी आदि काव्य ग्रन्थों का प्रताप परिचय दिया गया है कि उनमें क्या है ? उन वाणियों में वृन्दावन – वर्णन , नव -निकुञ्ज वर्णन , शरद – प्रावृट् वर्णन , हिंडोला , सुरत – विहार एवं सुरतान्त आदि का ही वर्णन है ।

यह श्रीहरिवंश वाणी रस से ओत – प्रोत है इसमें जिस मधुर शैली से वृन्दावन नित्य – विहार का वर्णन किया है ; वैसा कहीं किसी और वाणी – ग्रन्थों में नहीं किया गया । जो लोग इसे छोड़ कर अन्यत्र रस खोजते फिरते हैं , वे मानों ज्येष्ठ की लू – धधक में मृग की तरह जल खोजते फिरने का विफल प्रयास करते हैं ।

श्री हरिवंश – वाणी का श्रवण करते ही श्रीश्यामा और श्याम वश में हो जाते हैं , बस इससे अधिक इस हरिवंश वाणी के सम्बन्ध में और क्या परिचय दिया जाए ? इस प्रकरण में जो कुछ कहा गया है , वह अक्षरशः सत्य है । पाठक गण इस प्रकरण में उस वाणी की महिमा पढ़कर उस वाणी की माधुरी भी चखें , तब उन्हें इस प्रकरण की सत्यता का पता लगेगा । यदि वे सच्चे जौहरी हैं , तो परख सकेंगे कि ‘ सेवक जी ‘ जैसे रसज्ञ – रस – जौहरी ने कितने मूल्यावान् मणि परखे हैं।

पद – 1

समुझौ श्रीहरिवंश सु बानी । रसद मनोहर सब जग जानी ॥

कोमल ललित मधुर पद श्रैंनी । रसिकनि कौं जु परम सुख दैंनी ॥

श्रीहरिवंश नाम उच्चारा । नित बिहार रस कह्यौ अपारा ॥

श्रीबृंदावन भूमि बखानौं । श्रीहरिवंश कहे ते जानौं ॥

श्रीहरिवंश – गिरा रस सूधी । कछु नहिं कहौं आपनी बूधी ॥

श्री हरिवंश – कृपा मति पाऊँ । तब रसिकनि कौं गाइ सुनाऊँ ॥

भावार्थ – ( सेवक जी कहते हैं ) रसिक – जनो ! श्री हरिवंश की सुन्दर वाणी ( रचना ) को समझिये कि वह कितनी कोमल , मधुर ललित पदावली से युक्त है । इस वाणी की रस दान – शीलता और मनोहरता विश्व विख्यात है किन्तु यह प्रेमी रसिकों को तो परम सुख की दाता है । मैंने ( पूर्व तीन प्रकरणों में ) श्रीहरिवंश नाम उच्चारण पूर्वक अपरिमित नित्य – विहार रस का वर्णन किया है । अब श्रीवृन्दावन – भूमि का वर्णन करता हूँ जिसे मैंने श्री हरिवंश हूँ जिसे मैंने श्री हरिवंश के कथन ( वचन ) से ही जाना है । श्रीहरिवंश की वाणी सरल रस रूपा है । मैं ( उसे ही यहाँ ज्यों की त्यों कह दूंगा ) कुछ अपनी बुद्धि से नहीं कहूँगा । यदि श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से मैं सुबुद्धि प्राप्त करूँ तभी तो कुछ ( उस वाणी का वैभव ) रसिक जनों को सुना सकता हूँ , ( अन्यथा यह मेरी शक्ति के परे है । )

पद – 2

श्रीहरिवंश जु श्रीमुख भाखी । सो बन – भूमि चित्त में राखी ॥

हौं लघु मति नहिं लहौं प्रमाना । जानत श्रीहरिवंश सुजाना ॥

नव पल्लव फल – फूल अनंता । सदा रहत रितु सरद – बसंता ॥

श्री बृंदावन सुंदरताई । श्रीहरिवंश नित्य प्रति गाई ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशजी ने श्रीवृन्दावन का जो कुछ वर्णन किया है , मैंने उसी श्रीवन भूमि वर्णन को अपने चित्त में रख लिया है । यों तो मैं अत्यन्त अल्प मति हूँ ( वृन्दावन वर्णन और उसकी सौन्दर्य सिद्धि के ) कोई प्रमाण आदि जानता भी नहीं और न कहीं ( शास्त्रादि में ) खोजे ही पाता ; इस ( भूमि के यथार्थ रूप और वैभव ) को तो केवल सुजान ( परम चतुर ) श्रीहरिवंश ही जानते हैं ।

( ऐसा सब भाँति अगम्य एवं अगोचर श्रीवृन्दावन ) नवीन – नवीन पल्लव , फल और अनन्त फूलों से शोभित है , वहाँ नित्य शरद एवं वसन्त ऋतुएँ छायी रहती हैं । श्रीवृन्दावन की इस सुन्दरता का गान श्रीहरिवंशचन्द्र ने नित्य नव – नवायमान् रूप में किया है ।

पद – 3

श्रीवृंदावन नव – नव कुंजा । श्री हरिवंश प्रेम रस पुंजा ॥

श्रीहरिवंश करत नित केली । छिन – छिन प्रति नव – नव रस झेली ।

कबहुँक निर्मित तरल हिंडोला । झूलत – फूलत करत कलोला ॥

कबहुँक नव दल सेज रचावहिं । श्रीहरिवंश सुरत रति गावहिं ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन की नवीन – नवीन कुजें ही मानो श्रीहरिवंश के प्रेम की पुञ्ज ( समूह ) हैं । उन्हीं कुञ्जों में प्रतिक्षण नित्य नूतन रस का पान करते हुए श्रीहरिवंश ही युगल रूप से मानों निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं । कभी तरल ( चंचल ) हिण्डोल की रचना करते हैं , तो कभी उसमें युगल किशोर को झुलाते – झूलते , प्रसन्न होते और किलोल करते हैं । फिर कभी नवीन – नवीन कोमल पल्लवों की शैय्या रचते और ( उसमें युगल किशोर की रति केलि सम्पन्न कराके ) आप सुरत रति का गान करते हैं । श्रीवृन्दावन की नव निकुञ्जों में युगल की प्रेम – केलि के वर्णन पदों एवं श्लोकों में मिलेंगे ।

पद – 4

सुरत अंत छबि बरनि न जाई । छिन – छिन प्रति हरिवंश जु गाई ॥

आजु सँभारत नाहिंन गोरी । अंग – अंग छबि कहौं सु थोरी ॥

नैंन – बैंन – भूषन जिहिं भाँती । यह छबि मोपै बरनि न जाती ॥

प्रेम – प्रीति रस – रीति बढ़ाई । श्रीहरिवंश बचन सुखदाई ।

भावार्थ – श्रीहरिवंश जी ने अपनी वाणी में श्रीप्रियालाल की जिस सुरतान्त ( सुरत विहार के उपरान्त की ) छवि का प्रतिक्षण गान किया है , उसका वर्णन करना अति कठिन है । ( श्रीहरिवंश जी ने कहा है- ) ‘ आजु गोरी श्रीराधा अपने आपको सम्हाल नहीं पा रही हैं ; ” ( उसकी ऐसी सुरतालस छवि के विषय में जो कुछ कहूँ सो कम है । ( सुरतान्त समय में गोरी ) राधा के नयन , वचन , भूषण जैसे कुछ ( शिथिल , लज्जा , भय जागर एवं अस्त व्यस्त ) हैं , वह छवि मुझ से तो वर्णन करते ही नहीं बनती । ऐसी परम सुखदायी और प्रेम प्रीति रस रीति को बढ़ाने वाली है , श्रीहरिवंश की रस – पगी वचनावली !

पद – 5

बंशि बजाइ विमोहित नारी । बोली संग सु नित्यबिहारी ॥

परिरंभन चुंबन रस केली । बिहरत कुँवरि कंठ भुज मेली । ॥

सुंदर रास रच्यौ बन माँही । जमुना पुलिन कलपतरु छाँहीं ॥

रास – रंग – रति बरनि न जाई । नित – नित श्रीहरिवंश जु गाई ॥

भावार्थ – श्रीनित्यविहारी लाल ने वंशी बजाकर नारियों को मोहित कर लिया और अपने समीप बुला लिया , तत्पश्चात् आलिङ्गन एवं चुम्बन पूर्वक रस केलि होती है और कँवरि श्रीराधा , श्रीनित्यविहारी लाल से गलबहियाँ देकर विहार करती हैं । युगल – किशोर ने यमुना के तट पर विमल कल्पतरु की छाया तले श्रीवन में सुन्दर रास की रचना की ।

जिस रास रंग और प्रीति – रति का वर्णन असम्भव है , श्रीहरिवंश चन्द्र ने नित्य निरन्तर उसीका गान किया है ।

पद – 6

श्रीहरिवंश प्रेम रस गाना । रसिक बिमोहित परम सुजाना ॥

अंसनि पर भुज दिये बिलोकत । त्रिपित न सुंदर मुख अवलोकत ।।

इंदु बदन दीखत विवि ओरा । चारु सुलोचन तृषित चकोरा ॥

करत पान रस मत्त सदाई । श्री हरिवंश प्रेम रति गाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश के इस प्रेम रस गान पर परम सुजान रसिकगण किंवा परम रसिक युगल किशोर मोहित हैं । ( अपनी इस प्रेम रस वाणी में श्रीहरिवंश ने कहा है- ) युगल किशोर अपने कन्धों पर एक दूसरे की भुज लताओं को रखे हुए एक दूसरे की ओर देख रहे हैं किन्तु सुन्दर मुख माधुरी का पान करके तृप्त नहीं हो पाते हैं । दोनों दोनों की ओर ऐसे देख रहे हैं जैसे दोनों के चारु लोचन क्या हैं मानों प्यासे चार चकोर , जो सदा रस का पान कर – करके रस में मतवाले हो रहे हैं ।

श्रीहरिवंश ने उक्त प्रकार से युगल किशोर की पारस्परिक प्रेम रति का गान किया है ( ऐसा श्री सेवकजी कहते हैं । )

पद – 7

श्रीहरिवंश सुरीति सुनाऊँ । स्यामा – स्याम एक सँग गाऊँ ।।

छिन इक कबहुँ न अंतर होई । प्रान सु एक देह हैं दोई ।।

राधा संग बिना नहिं स्याम । स्याम बिना नहिं राधा नाम ।।

छिन – छिन प्रति आराधत रहहीं । राधा नाम स्याम तब कहहीं ।।

ललितादिकनि संग सचु पावै । श्रीहरिवंश सुरत – रति गावै ।।

भावार्थ – मैं हरिवंश की सुन्दर रीति ( प्रेम रीति को सुनाता हूँ जहाँ श्रीश्यामा – श्याम का एक साथ ( एकीभाव से ) गान किया गया है । ये दोनों कभी एक क्षण भर के लिये भी विलग नहीं होते- सदा एक साथ , मिले ही रहते हैं । ये श्यामा – श्याम प्राणों से तो एक और देह से दो विलग – विलग जान पड़ते हैं । श्यामसुन्दर श्रीराधा के सङ्ग बिना कहीं , कभी रह ही नहीं सकते , इसी प्रकार श्यामसुन्दर के बिना श्रीराधा का [ वहाँ दर्शन तो दूर ] नाम भी नहीं [ सुना जा सकता ] । श्यामसुन्दर क्षण – क्षण प्रति श्रीराधा की आराधना करते रहते हैं और इसी प्रकार श्रीराधा भी श्रीश्याम नाम कहती या रटती रहती हैं ।

इनकी ऐसी पारस्परिक आसक्ति से ललिता विशाखा आदि सहचरियाँ प्रेम सुख प्राप्त करती हैं और श्रीहरिवंश युगल की इस रस – विभोर सुरत रति का गान करते हैं ।

पद – 8

श्रीहरिवंश गिरा – जस गायें । श्रीहरिवंश रहत सचु पाय ॥

श्रीहरिवंश – नाम परसंगा । श्रीहरिवंश गान इक संगा ॥

मन – क्रम – बचन कहौं नित टेरें । श्रीहरिवंश प्राण – धन मेरैं ॥

सेवक श्रीहरिवंशहि गावै । श्रीहरिवंश – नाम रति पावै ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश की वाणी का यशोगान करने से श्रीहरिवंश प्रसन्नता प्राप्त करते हैं ; ( या श्रीहरिवंश की वाणी का गान करने से श्री ह – रि – वंश रूप चतुर्दूहात्मक परिकर युगल , वन और अलि सभी सुख प्राप्त करते हैं । ) श्रीहरिवंश का नाम और श्रीहरिवंश की वाणी एक ही संङ्ग रहती हैं- दोनों में अभेद है ।

मैं मन , वचन एवं कर्म से टेर – टेर कर स्पष्ट कहता हूँ कि मेरे प्राणधन श्रीहरिवंश ही हैं । यह सेवक श्रीहरिवंश का ही गान करता और उसके फलस्वरूप श्रीहरिवंश के नाम में रति हो , यह चाहता है अन्य कुछ नहीं ।

पद – 9

जयति जगदीस – जस जगमगत जगत – गुरु ,

जगत बंदित सु हरिवंश बानी ।

मधुर कोमल सुपद प्रीति आनंद – रस ,

प्रेम बिस्तरित हरिवंश बानी ॥

रसिक रस – मत्त श्रुति सुनत पीवंत रस ,

रसनि गावंत हरिवंश बानी ।

कहत हरिवंश हरिवंश हरिवंश हित ,

जपत हरिवंश हरिवंश बानी ॥

भावार्थ – जगत् के एकमात्र स्वामी ( नित्य विहारी श्रीराधावल्लभलाल ) के यशोगान से जगमगाती हुई , जगत् की गुरु रूपा – सर्वश्रेष्ठ , जगत् – वन्दनीय श्रीहरिवंश – वाणी ही उत्कर्ष को प्राप्त है । यह हरिवंश वाणी मधुर , कोमल सुन्दर पदों से युक्त एवं प्रीति आनन्द , रस तथा प्रेम – केलि का विस्तार करने वाली है । जिसे रसिक जन अपने कानों से सुनते ही रस से मत्त हो जाते और फिर जिसका पान करते ही रहते हैं , वे अपनी रसना से जिसका गान किया करते हैं , वह श्रीहरिवंश वाणी ही है । वे इसका गान करते , श्रवण करते इतने मतवाले हो जाते हैं कि ‘ श्रीहरिवंश ! हरिवंश ! ‘ ही जोर से कहते , ‘ हरिवंश ! हित – हरिवंश ! ‘ ही जपते और फिर श्रीहरिवंश नाम और हरिवंश – वाणी में एक हो जाते हैं ।

पद – 10

कही नित केलि रस – खेल बृंदाविपिन ,

कुंज तें कुंज डोलनि बखानी ।

पट न परसंत निकसंत बीथिनु सघन ,

प्रेम – विह्वल नहिं देह मानी ॥

मगन जित – जित चलत , छिन सुडगमग मिलत ,

पंथ बन देत अति हेत जानी ।

रसिक हित परम आनंद अवलोकतन ,

सरस विस्तरित हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – [ श्रीहरिवंश ने अपनी वाणी में ] नित्य – केलि रस – क्रीड़ा – कौतुक का गान किया है और कुञ्ज से कुञ्ज में डोलने – विहार करने का भी वर्णन किया है । युगल किशोर प्रेम से विह्वल हुए अपनी देह – दशा को भुलाकर एक दूसरे से लिपटे गलबहियाँ दिये हुए अत्यन्त सकरी [ लतामण्डित ] गलियों से होकर निकलते हैं , फिर भी उनके वस्त्र – लताओं में उलझते नहीं , लताओं का स्पर्श तक नहीं करते , इतने एकमेक हो जाते हैं दोनों । इस प्रकार प्रेम मग्न दशा में एक दूसरे से मिले – लिपटे जिधर – जिधर डगमगाते हुए चले जाते हैं , श्रीवन युगल का अत्यन्त स्नेह जानकर अपने आप उन्हें मार्ग दे देते हैं ।

इस रसकेलि का हितमय रसिक ललिता आदि अवलोकन करती और परमानन्द से पूर्ण हो जाती हैं ।

इस सुन्दर रस का विस्तार करती है श्रीहित हरिवंश की वाणी । [ ऐसा श्रीसेवकजी कहते हैं । ]

पद – 11

वंश रस नाद मोहित सकल सुंदरी ;

आनि रति मानि कुल छाँड़ि कानी ।

बाहु परिरंभ , नीवी उरज परस , हँसि ;

उमगि रति पति रमत रीति जानी ।

जूथ जुवतिनु खचित , रासमंडल रचित ,

गान गुन निर्त , आनंद दानी ।

तत्त थेइ थेइ करत , गतिव नौतन धरत ,

रास – रस रचित , हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – वंशी के रस – गान से मोहित समस्त सुन्दरियाँ अपनी कुल – मर्यादा त्याग कर प्रीति पूर्वक श्रीश्यामसुन्दर के समीप आईं और वहाँ आने पर श्रीलाल जी ने उनकी बाहुओं का आलिङ्गन , नीवी और उरोजों का स्पर्श एवं हास – परिहास के द्वारा उनमें रति – पति – मदन की उमङ्ग जगाकर उनसे रमण – विहार किया । पश्चात् युवती – यूथ में सुव्यवस्थित रास – मंडल की रचना की गयी और बड़ा ही आनन्द – दायक गान और कला पूर्ण नृत्य हुआ । वे सब नृत्य में ” ता थेई तत्ता थेई ” कहते और नवीन – नवीन गतियों को धारण करते हुए शोभा को प्राप्त हुए ।

उक्त प्रकार से रास – रस का वर्णन करने वाली है श्रीहरिवंश की वाणी ।

पद – 12

रास रस रचित बानी जु प्रगटित जगत ,

सुद्ध अविरुद्ध परसिद्ध जानी ।

स्याम – स्यामा प्रगट प्रगट अक्षर निकट ,

प्रगट रस श्रवत अति मधुर बानी ॥

सो बानी रसिक नित्य निसि – दिन रटत ,

कहत अरु सुनत रस – रीति जानी ।

ताहि तजि और गाऊँ न कबहूँ कछु ,

प्रान रमि रही हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने रास रस रचना – वर्णन से पूर्ण वाणी को जगत् में प्रकट किया जो शुद्ध , अविरुद्ध ( अनुकूल ) और प्रसिद्ध है । जिस वाणी के प्रत्येक अक्षर के निकट श्रीश्यामा – श्याम प्रकट हैं , जो अत्यन्त मधुर और प्रकट रूप से रस की धारा प्रवाहित वाली है । जिस वाणी का रसिक जन नित्य – निशिदिन गान करते रहते हैं और जिसका कथन – श्रवण करने से रस – रीति ज्ञात होती है । श्रीसेवकजी कहते हैं- मैं उस वाणी को छोड़कर कभी और कुछ गाऊँगा , कहूँगा ही नहीं ; क्योंकि मेरे प्राणों में तो केवल वही श्रीहरिवंश – वाणी ही रम रही है ।

पद – 13

भाग – अनभाग जानत जु नहिं आपनौं ,

कौन धौं लाभ अरु कौन हानी ।

प्रगट – निधि छाँड़ि कत फिरत रूँका * करत ,

भरम भटकत सु नहिं भूल जानी ।।

प्रीति बिनु रीति रूखी जु लागति सकल ,

जुगत करि होत कत कवित – मानी ।

रसिक जो सद्य चाहत जु रस – रीति फल ,

तौ कहौ अरु सुनौ हरिवंश – बानी ।।

भावार्थ – कितने ही लोग अपना भाग्य – दुर्भाग्य नहीं जानते और न यही जानते हैं कि क्या लाभ है और क्या हानि है ? यदि वे यह जान ही लेते तो क्यों प्रकट निधि ( भण्डार ) को छोड़कर जहाँ – तहाँ टुकड़ खोरी करते फिरते ? दुख है कि वे भ्रम में ही भटक रहे हैं उन्हें अपनी भूल का भी पता नहीं है ।

[ ऐसे भटके हुए लोगों से सेवकजी कहते हैं- ] अरे भाईयों ! तब फिर तुम व्यर्थ ही क्यों युक्तियों के द्वारा काव्यादि रचना करके कविताई का केवल स्वाभिमान लाद रहे हो ? अर्थात् केवल सुछन्द – रचना कर देने से कोई प्रेमी नहीं बन सकता । यदि तुम रसिक बनना चाहते हो ? अभी सद्य रस रीति का फल ( सुखास्वादन ) चाहते हो ? तो [ मेरी राय मान कर ] श्रीहरिवंश – वाणी को ही कहो और सुनो !

पद – 14

यहै नित केलि येई जु नाइक निपुन ,

यहै बन भूमि नित नित बखानी ।

बहुत रचना करत राग – रागिनी धरत ,

तान बंधान सब ठाँनि आनी ॥

ज्यौं मूंद नहिं मिलत टकसार रौं बाहिरी ,

लाख में गैर मुहरी जु जानी ।

यौं जु रस – रीति बरनत न ठाँई मिलत ,

जो न उच्चरत हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – श्रीसेवक जी कहते हैं- यह हरिवंश वाणी ही नित्य केलि है , यही निपुण नायक श्रीलाल एवं श्रीप्रिया जी है और यही श्रीवृन्दावन भूमि है , जिसका बखान ‘ नित्य – नित्य ‘ कहकर किया गया है , ( अर्थात् दम्पति , वन और अलिगणों से सम्पन्न चतुर्दूहात्मक नित्य विहार यह वाणी ही है । ) फिर क्यों लोग व्यर्थ ही बहुत सी रचना करते , राग – रागिनियों को धारण करते और अन्य – अन्य प्रकार के तान बन्धान ठानते हैं ? [ इसी श्रीहरिवंश वाणी में क्यों नहीं रमते ? यह तो निश्चित है कि ] जो सिक्का टकसाल से बाहर ढाला गया है उसकी बनावट ( ढाल ) टकसाली सिक्के से नहीं मिल सकती ; वह टकसाली मोहर छाप से हीन सिक्का तो लाखों में पहचान लिया जायगा । इसी प्रकार जो श्रीहरिवंश वाणी उच्चारण – गान नहीं करते उन्हें रस – रीति का वर्णन करते हुए भी रसिकों में ठाँव ठिकाना नहीं मिल सकता । [ चाहे भले ही वे अपने आपको रसिक कहा करें । जैसे बाहरी सिक्का , सिक्का होने पर भी टकसाली सिक्का नहीं कहा सकता इसी प्रकार श्रीहरिवंश – वाणी से दूर रहने वाला व्यक्ति रसिक कहलाकर भी टकसाली – पक्का मोहरी रसिक नहीं है ।

पद – 15

रसिक बिनु कहे सब ही जु मानत बुरौ ,

रसिकई कहौ कैसे जु जानी ।

आपनी आपनी ठौर जेही तहाँ ,

आपनी बुद्धि के होत मानी ॥

निपट करि रसिक जौ होहु तैसी कहौ ,

अब जु यह सुनौं मेरी कहानी ।

जौरु तुम रसिक रस रीति के चाडिले ,

तौरु मन देहु हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – ‘ रसिक ‘ न कहने पर तो सभी [ उपासक – गण ] बुरा मान लेते हैं ; [ कि हम रसिक क्यों नहीं , तुम्हीं क्यों ? ] किन्तु यदि उनसे पूछा जाय कि तुमने रसिकता कैसे जानी ? [ तो शायद बोल न आवेगा । तात्पर्य यह कि वे रसिक – फसिक तो कुछ हैं नहीं पर उनमें रसिक पने का मिथ्या अभिमान अवश्य है । ] वे रहते तो हैं अपनी उसी पुरानी ठौर ( स्थिति ) में , पर बुद्धि के मानी अवश्य बन जाते हैं [ कि हम भी रसिक हैं । ]

सेवक जी कहते हैं कि भाइयों ! यदि तुम सचमुच भीने सुलझे और पक्के रसिक हो तो वैसा स्पष्ट कहो ; अथवा अब यह मेरी कथा – चर्चा ही चित्त देकर सुनो । वह क्या ? तुम सचमुच रसिक तो हो नहीं पर हाँ ; यदि रसिक बनना चाहते हो , तुममें रस रीति पाने की चाह चाड़ -उसके तुम इच्छुक हो तो [ विश्वासपूर्वक ] श्रीहरिवंश – वाणी में मन दो । [ वही एकमात्र रसदात्री है । ]

पद – 16

वेद – विद्या * पढ़त कर्म धर्मनि करत ,

जलप तन – कलप की अवधि आनी ।

चारु गति छाँड़ि संसार भटकत भ्रमत ,

आस की पासि नहिं तोरि जानी ।।

सकल स्वारथ करत रहत जनमत – मरत ,

दुःख अरु सुक्ख के होत मानी ।

छाँड़ि जंजार कैसे न निश्चय धरत ,

एक किन रमत हरिवंश – बानी ।।

भावार्थ – अरे मूढ़ ! वेद – विद्याओं को पढ़ते , कर्म – धर्मों को करते और व्यर्थ जल्पना ( बकवास ) करते तो तेरे मरने की अवधि आ गयी । तू सुन्दर मार्ग और गति को छोड़कर संसार में भ्रमता भटकता है ; तू आशा की फाँसी भी तोड़ न पाया अर्थात् आशापाश से बँधा ही रहा । तू स्वार्थ के सब कार्यों को करते हुए बार – बार जन्मता और मरता ही रहा । दु : ख और सुखों का मिथ्या भोक्ता ( मानी ) बना रहा । अरे ! अब भी [ समय है ] इस माया – जंजाल को त्यागकर क्यों नहीं एक निश्चय धारण कर लेता [ कि श्रीहरिवंश – वाणी ही सर्वोपरि है ? ] और तब फिर क्यों इस हरिवंश – वाणी में नहीं रमता ? [ जहाँ तहाँ क्यों भटकता फिरता है ? इससे शान्ति कैसे पा सकेगा , अभागे ? ]

पद – 17

बृथा बलगन करत द्यौस खोवत सकल ,

सोवतन राति नहिं जाति जानी ।

ऐसैं भाँति समुझ्यौ न कबहूँ कछु ,

कौन सुख – दुःख को लाभ – हानी ॥

तब सुक्ख हरिवंश गुन नाम रसना रटत ,

और बहु वचन अति दुःख दानी ।

हानि हरिवंश के नाम अंतर परे ,

लाभ हरिवंश उच्चरत बानी ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू व्यर्थ बकबाद करता हुआ अपने सारे जीवन के दिन खो रहा है और सोते – सोते रातें जा रहीं हैं उन्हें भी बीतते नहीं जान पा रहा है । इसी प्रकार तूने यह भी कभी कुछ न समझा कि क्या सुख है , क्या दु : ख है , क्या लाभ है और क्या हानि है ? [ तू तो पूरा अनजान रहा पर ले मैं तुझे बताता हूँ कि ] सुख वही है , जो तेरी वाणी श्रीहरिवंश के गुण और नामों को रटती रहे और इसके सिवाय बाकी सब बहुत सा बोलना – कहना ही अत्यन्त दुःखप्रद है । श्रीहरिवंश – नाम स्मरण में अन्तराय पड़ना ही सबसे बड़ी हानि है और लाभ है- श्रीहरिवंश वाणी का उच्चारण करते रहना ।

पद – 18

नाम – बानी निकट स्याम – स्यामा प्रगट ,

रहत निसि – दिन परम प्रीति जानी ।

नाम – बानी सुनत स्याम – स्यामा सुबस ,

रसद माधुर्य अति प्रेम दानी ॥

नाम – बानी जहाँ स्याम – स्यामा तहाँ ,

सुनत गावंत मो मन मन जु मानी ।

बलित सुभ नाम बलि विसद कीरति जगत ,

हौं जु बलि बलि जाउँ हरिवंश – बानी ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] श्रीहरिवंश के नाम और वाणी के निकट श्रीश्यामा – श्याम उसे परम प्रेममयी जानकर दिन – रात प्रकट रूप से विद्यमान् रहते हैं । श्रीहरिवंश – नाम और वाणी को सुनते ही श्रीश्यामा – श्याम उस नाम – वाणी गायक के वशीभूत होकर उसके लिये माधुर्य – रस के दाता और महान् प्रेम के दाता बन जाते अर्थात् उसे प्रेम रस प्रदान कर देते हैं इस नाम और वाणी के प्रताप से । किं बहुना ? जहाँ नाम और वाणी हैं , श्रीश्याम और श्यामा भी वहीं हैं , [ अन्यत्र नहीं ; ] इस नाम और वाणी को सुनते और गाते रहने पर ही मेरा मन मानता है अर्थात् मुग्ध रहता है । मैं इस शुभ नाम [ श्रीहरिवंश ] की बलिहारी जाऊँ ; नाम की विश्वव्यापी कीर्ति की बलिहारी जाऊँ और बलिहारी जाऊँ इस श्रीहरिवंश – वाणी की ।

पद – 19

बलि बलि श्रीहरिवंश नाम बलि बलित विमल जस ।

बलि बलि श्रीहरिवंश कर्म – व्रत कृत सु नाम बस ॥

बलि बलि श्रीहरिवंश बरन धर्मनि गति जानत ।

बलि बलि श्रीहरिवंश नाम कलि प्रगट प्रमानत ॥

हरिवंश नाम सु प्रताप बलि , बलित जगत कीरति विसद ।

हरिवंश विमल बानी सु बलि , मृदु कमनीय सुमधुर पद ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] मैं हरिवंश नाम की बलि – बलि जाऊँ और उनके विमल यश की बलि – बलि जाऊँ और बारम्बार बलि जाऊँ उन श्रीहरिवंश की , जिन्होंने समस्त कर्म और व्रत आदि को नाम का ( अनुगत ) वशवर्ती बना दिया है । अहो ! श्रीहरिवंश वर्णाश्रम धर्म की भी गति ( शक्ति सामर्थ्य ) जानते हैं [ कि ये क्या कितनी शक्ति रखते हैं इस प्रेम राज्य में ? ] कलियुग में तो केवल नाम को ही प्रमाणित किया है श्रीहरिवंश ने , मैं इनकी बलिहारी , बलिहारी , बारम्बार बलिहारी जाता हूँ । मैं श्रीहरिवंश नाम की बलि हूँ और बलि हूँ उस नाम की विश्वव्यापी पवित्र कीत्ति की ! मैं श्रीहरिवंश की विमल वाणी की बलि हूँ और उस वाणी की कोमल मधुर और कमनीय पदावलि की बलि हूँ ।


श्रीहित स्वरूप सार संचयन
( पंचम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु साक्षात् प्रेम-तत्व के ही अवतार हैं। यह प्रेम व्यापक और एक देशीय भी है। प्रेम स्वयं ब्रह्म है। इस प्रकरण में श्रीहरिवंश के व्यापक हित स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि श्रीहरिवंश ही विश्व की उत्पत्ति पालन और प्रलय के कारण हैं एवं विश्वरूप कार्य भी वही हैं, वे प्रकृति, ब्रह्म और ब्रह्म विद्या भी हैं। श्रीहरिवंश सगुण रूप में व्यासनन्दन हैं। रूप, गुण और प्रेम की खानि हैं। वे प्रेम रस रूप, रसमय तत्व और कृपा के धाम हैं। वे सबकी आत्मा और मन हैं। श्रीहरिवंश ही सबके जीवन और प्राण हैं। किमधिकं श्रीहरिवंश ही सात्विक राजस तामस भाव, लोभ, शुभ कृत्य, शुद्ध विचार, पूजा, परमार्थ, विवेक, तृष्णा, वीर्य (बल) मंगलकारी, धीरता, यश, सुयश रस-लोलुपता आदि अनेक रूपों में हैं। और इसीलिये वे प्रेमी साधकों के लिये कुलदेव, जाति, ऋद्धि, सिद्धि, वेद-विधि, अद्वय तत्व, योग, सुखभोग, प्रतीति, प्रमाण, प्रियतम, प्रियता, श्रवण दर्शन और मनन करने के योग्य, संगीत सार तत्व और सर्वस्व हैं। उक्त बातों का विस्तार श्री सेवक जी के वचनों में इस प्रकार है

पद – 1

प्रथम प्रनम्य सुरम्य मति, मन-बुधि-चित्त प्रश्न।

चरन शरन सेवक सदा, जै जै श्री हरिवंश।

श्रीहरिवंश विपुल गुन मिष्टं, श्रीहरिवंश उपासक इष्टं।

श्रीहरिवंश कृपा मति पाऊँ, श्री हरिवंश विमल गुन गाऊँ।

गाऊँ हरिवंश नाम जस निर्मल, श्रीहरिवंश रमित प्रानं।

कारज हरिवंश प्रताप उद्दित, करन श्री हरिवंश भजन।

विद्या हरिवंश मंत्र चतुरक्षर, जपत सिद्धि भव उद्धरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्रीहरिवंश चरन शरणं॥१॥

भावार्थ – [श्री सेवक जी कहते हैं-] मैं सर्वप्रथम अपनी सुरम्य मति (सन्मति) से श्रीहरिवंश को प्रणाम करके फिर अपने मन, बुद्धि और चित्त से उनकी प्रशंसा करता हूँ। यह सेवक सदा श्रीहरिवंश की ही चरण-शरण में है। इन श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश के विपुल (बहुत-से) गुण हैं और सब गुण मधुर हैं। श्रीहरिवंश ही उपासकों के इष्ट तत्व हैं अथवा उपासक भी हैं और इष्ट भी, यदि मैं श्री हरिवंश चन्द्र की कृपा से सन्मति प्राप्त करूँ तो ही उनके निर्मल गुणों का गान कर सकता हूँ; अन्यथा नहीं। मैं श्रीहरिवंश के विमल यश और गुणों का गान करता हूँ; श्रीहरिवंश ही मेरे प्राणों में रम रहे हैं। ये हरिवंश विश्वरूप कार्य बनकर अपने प्रताप का उदय किये हुए हैं और यही हरिवंश विश्व के कारण भी कहे जाते हैं, (अर्थात् सृष्टि के कार्य और कारण दोनों ही आप हैं।) श्रीहरिवंश ही ब्रह्म – विद्या हैं और हरिवंश नाम के चार अक्षर ही वह महामंत्र है, जिसके जप करने से तत्काल सिद्धि मिल जाती है और संसार से उद्धार हो जाता है। ऐसे जगत-मंगल परायण किंवा विश्व के परम मंगल रूप श्री हरिवंश की जय हो, जय हो मैं उन्हें श्री हरिवंश की चरण-शरण में हूँ।

पद – 2

हरिरिति अक्षर बीज रिषि वंशी शक्ति सु अंस।

नख सिख सुंदर ध्यान धरि जै जै श्री हरिवंश।

श्री हरिवंश जी सुंदर ध्यानं, श्रीहरिवंश विसद विज्ञानं।

श्रीहरिवंश नाम-गुन-श्रूपं, श्रीहरिवंश प्रेम-रस रूपं॥

रसमय हरिवंश परम परमाक्षर, श्रीहरिवंश कृपा सदन।

आतम हरिवंश प्रगट परमानंद श्री हरिवंश पुराण में॥

जीवन हरिवंश विपुल सुख संपति, श्रीहरिवंश बलित बरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन सरन ॥२॥

भावार्थ – [इस सम्पूर्ण ग्रन्थ-सेवक वाणी में] ‘हरिवंश’ ये चार अक्षर बीज हैं और इसके [उपदेष्टा-प्रकाशक] ऋषि हैं वंशी। इस मंत्र की शक्ति है अंश (अर्थात् अपने लक्ष्य सखी स्वरूप जो श्रीराधा की अंश-किरण है, उसकी प्राप्ति।) [ इस हरिवंश मंत्र का छन्द चतुरक्षर ‘हरिवंश’ ही है और इसके देवता भी श्रीहरिवंश हैं;] जिनका नख-शिख सुन्दर ध्यान धारण करना कर्तव्य है ऐसे श्री हरिवंश की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश ही सुन्दर ध्यान हैं और श्रीहरिवंश ही पवित्र रहस्यात्मक ज्ञान हैं। श्री हरिवंश नाम ही उनके अपने गुण ( प्रेम) का स्वरूप है और श्रीहरिवंश ही प्रेम रस रूप हैं। रसमय श्रीहरिवंश ही परात्पर एवं सर्वश्रेष्ठ अक्षर (अविनाशी) तत्व हैं और श्रीहरिवंश ही कृपा के धाम हैं। प्रगट रूप से विराजमान् परमानंद जय श्री हरिवंश ही [प्रत्येक प्राणी की] आत्मा हैं तथा वस्तु-सिद्धि के प्रमाण-रूप मन भी वही हैं। श्रीहरिवंश ही जीवन, अनन्त सुख एवं अतुल सम्पत्ति हैं। मैं ‘हरिवंश’ इन वर्णों की बलिहारी जाता हूँ। जगत के कल्याण-परायण श्रीहरिवंश की जय हो। मैं इनकी ही चरण-शरण में हूँ।

पद – 3

सरन निरापक पद रमित, सकल असुभ-सुभ नंस।

देत सहज निस्चल भगति, जै जै श्री हरिवंश।

श्रीहरिवंश मुदित मन लोभं, श्रीहरिवंश वचन वर शोभा ।

श्री हरिवंश राय कृत कारं, श्रीहरिवंश त्रिसुद्ध विचारं॥

पूजा हरिवंश नाम परमारथ, श्री हरिवंश विवेक परं।

धीरज हरिवंश विरद बल धीरज, श्री हरिवंश अभद्र हैं ॥

तृस्ना हरिवंश सुजस रस लंपट, श्रीहरिवंश कर्म करना।

जै जै हरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन शरन॥३॥

भावार्थ – जो [श्रीराम के] रमणीय चरणों की शरण का निरूपण करने वाले हैं, जो समस्त पाप-पुण्यों का नाश करने वाले एवं सहज और अविचल भक्ति का दान करने वाले हैं, उन श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो। श्रीहरिवंश प्रसन्न मन के लोभ और श्रीहरिवंश ही श्रेष्ठ एवं शोभापूर्ण वचन हैं; (अर्थात् रस प्राप्ति के लोभ और रसमय मधुर वचन रचना रूप हैं।) श्रीहरिवंश ही शरीर धारण करने की कृत कार्यता (सफलता) हैं; [भाव यह कि शरीर-धारण करके जिसने श्रीहरिवंश को पा लिया उसने अपनी काया सफल कर ली।] श्रीहरिवंश ही मन, वचन, कर्म की पवित्रता पूर्ण त्रि शुद्ध विचार हैं। श्रीहरिवंश ही पूजा की पूजा हैं, इनका नाम ही परमार्थियों का परमार्थ है और श्रीहरिवंश ही परात्पर विवेक स्वरूप हैं। श्रीहरिवंश ही साधकों के धैर्य, बल, शक्ति और कीर्त्ति हैं और यही श्रीहरिवंश ही समस्त अमंगलों का हरण करने वाले हैं। वे ही रस की प्यास हैं, रस के सुयश रूप हैं, रस के लोलुप हैं और श्रीहरिवंश ही समस्त कर्मों के कर्ता किंवा करण (कारण, हेतु) हैं। इन जगत-मंगल परायण श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो, मैं इन्हीं श्रीहरिवंश की चरण-शरण में हूँ।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुगोत कुल, देव जाति हरिवंश।

श्रीहरिवंश स्वरूप हित, रिद्धि सिद्धि हरिवंश।।

श्रीहरिवंश विदित विधि वेदं, श्रीहरिवंश जु तत्व अभेदं।

श्रीहरिवंश प्रकासित जोगं,श्री हरिवंश सुकृत सुख भोग॥

प्रज्ञा हरिवंश प्रतीति प्रमाणित, प्रीतम श्रीहरिवंश प्रियं।

गाथा हरिवंश गीत गुन गोचर, गुपत गुनत हरिवंश गीत।।

सेवक हरिवंश राय संचित सब, श्रीहरिवंश धरम धरनं।

जै जै श्रीहरिवंश जगत मंगल पर, श्री हरिवंश चरन शरन॥४॥

भावार्थ – [प्रत्येक हित-धर्मी के] श्रीहरिवंश ही उत्तम गोत्र, कुल, देव हैं और जाति भी श्रीहरिवंश ही हैं। श्रीहरिवंश ही स्वयं हित (प्रेम) स्वरूप हैं और श्रीहरिवंश ही ऋद्धि-सिद्धि हैं। श्रीहरिवंश ही विख्यात वेद-विधि हैं। श्रीहरिवंश ही अभेद (सर्वव्यापक अद्वय ब्रह्म) तत्व हैं। प्रसिद्ध योग (अष्टांग योग) भी श्रीहरिवंश हैं और समस्त सुकृतों (पुण्यों) का सुख-भोग फल भी वही श्रीहरिवंश हैं। श्रीहरिवंश ही शुद्ध-बुद्धि, विश्वास एवं प्रमाणों से प्रमाणित प्रियतम हैं, (अर्थात् इष्ट रूप हैं) और वही श्रीहरिवंश प्रियता (प्रीति) भी हैं । श्रीहरिवंश गाथा (गान का विषय), गीत, गुण, गुप्त विषय, (गोपनीय) गोचर (प्रकट रूप), तत्व हैं और श्रीहरिवंश ही सबके सार रूप मननीय तत्व एवं जानने योग्य ज्ञेय-तत्व भी हैं। इस प्रकार सेवक जी ने सारतिसार तत्व का संचय किया है। सब तत्वों का सार तत्व श्रीहरिवंश ही है। और मैं उन्हीं श्रीहरिवंश के धर्म को धारण करता हूँ। ऐसे परम-मंगल रूप जगत के लिये कल्याण परायण श्रीहरिवंश की जय हो, जय हो; मैं इन्हीं श्रीहरिवंश की चरण-शरण में हूँ, यही मेरे सर्वस्व हैं।


श्रीहित धार्मिक-कृत्य
( षष्ठ प्रकरण )
पूर्व परिचय

श्री हित हरिवंश चन्द्र के प्रेम-मार्ग पर चलने वाले भक्तजन हित धर्मी कहे गये हैं क्योंकि वे हित धर्म का पालन करते हैं। इन धर्मियों के कर्त्तव्य कर्म क्या हैं? इसका ही इस प्रकरण में संक्षेप वर्णन है। यहाँ कर्तव्य-कर्मों की क्रियात्मक व्याख्या न होकर भावनात्मक व्याख्या है। क्योंकि भावना की शुद्धि और पुष्टि हो जाने पर क्रियाएँ अपने आप शुद्ध हो जाती हैं। अस्तु इस प्रकरण में क्रमशः हित धर्मियों का सङ्ग, श्रीहरिवंश-नाम स्मरण-गान, अनन्यता, निर्भरता और श्री हरिवंश के प्रति सर्वस्व-समर्पण के वर्णन के साथ अन्त में फल की प्राप्ति के निर्देश में बताया गया है कि

जब राधिका स्याम प्रसन्न भये।

तब नित्य समीप सो खैचि लिये।।

यह नित्य-विहार की प्राप्ति ही हित-धर्मी का अन्तिम लक्ष्य और फल है। प्रत्येक कर्त्तव्य, कर्म, धर्म, साधना उपासना का लक्ष्य अनन्त सुख की प्राप्ति है। वह अनन्त सुखों का मूल-श्रीसेवकजी के वर्णनानुसार श्रीहरिवंशचन्द्र द्वारा प्रकटित श्री वृन्दावन-विहार है, जिसकी प्राप्ति के लिये यथोचित विधानों का ही इस प्रकरण में सङ्केत है।

पद – 1

पहिले हरिवंश सुनाम कहाँ।

हरिवंश सधर्मिन संग लैहै।।

हरिवंश सु नाम सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥१॥

भावार्थ – सर्वप्रथम ‘ श्री हरिवंश’ यह सुन्दर नाम कहो, [तब उस नाम की कृपा से] श्रीहरिवंश के सुधर्मियों का सङ्ग प्राप्त होगा। सुखों की सम्पत्ति रूप श्री युगल किशोर जिनके हैं उन्हीं का यह श्री हरिवंश सुन्दर नाम सदा का अपना है-उनकी निज सम्पत्ति है।

पद – 2

हरिवंश सु नाम कौं नित कैं।

मिलि ही कहौ कृत्य सु धर्मिनु क॓॥

हरिवंश उपासना हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके ॥

भावार्थ – नित्य-निरंतर ‘ श्री हरिवंश’ इस नाम को ही रटते ( कहते ) रहो और मन मिलाकर [प्रीतिपूर्वक] सुधर्मियों के लीला चरित्रों (कृत्यों) का गान करो। [जो ऐसा करते हैं, और जिनकी सुखमयी सम्पत्ति केवल युगल सरकार हैं, [वही सच्चे धर्मी हैं, वास्तव में ] उन्हीं के श्रीहरिवंश उपासना है, [अन्य के नहीं।]

पद – 3

हरिवंश गिरा रस-रीति कहैं।

सुकृती जन संगठन नित्य रहैं ॥

कछु धर्म विरुद्ध नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो हरिवंश की वाणी और उनके द्वारा प्रकाशित राजनीति का कथन-वर्णन करता हो और सदा पुण्यात्मा (हित धर्मी-जनों) के सत्सङ्ग में रहता तथा सुख की संपत्ति युगल-दम्पत्ति ही जिनके अपने हों ऐसे धर्मियों के लिये [उनका यह कर्त्तव्य] कुछ भी धर्म विपरीत नहीं है।

पद – 4

हरिवंश प्रसंसत नित्य रहैं।

रस रीति विवर्धित कार्य कहै।

जु कछू कुल कर्म नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके।

भावार्थ – जो जन नित्य निरन्तर श्रीहरिवंश की ही प्रशंसा करते, (अर्थात् उनके लीला-गुण प्रभाव आदि का गान करते रहते हैं), [नित्य-विहार उपासना सम्बन्धी] रस-रीति के बढ़ाने वाले लीला-चरित्र, सेवा-भावना क्रिया आदि का कथन-श्रवण करते हैं एवं श्रीयुगल किशोर रूप सुख-सम्पदा जिनकी अपनी है वे सब तरह से कृतकृत्य हैं। उनके लिये अब कुछ भी व्यवहार आदि कर्म शेष नहीं हैं। [यदि वे कुल व्यवहारादि कृत्यों को न भी करें, तो उनको उससे कोई हानि नहीं हैं।]

पद – 5

हरिवंश सु नाम जु नित्य रटैं।

छिन जाम समान न नैंकु घंटे॥

विधि और निषेध नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो नित्य श्री हरिवंश नाम ही रटते हैं। जिनके नाम-स्मरण में घड़ी-प्रहर सब एक से ही बीतते हैं जो कभी जरा भी अपनी अविच्छिन्न धारा से हटते नहीं और न घटते ही हैं और जो सुख की सम्पदा दम्पत्तिजू (किशोर-किशोरी) से आत्मीयता रखते हैं, उनके लिये [शास्त्रीय] विधि-निषेध क्या? कुछ भी नहीं है, (अर्थात् वे विधि-निषेध के बन्धनों से ऊपर हो चुके हैं।)

पद – 6

हरिवंश सुधर्म जु नित्य करें।

हरिवंश कही सु नहीं बिसरे ॥

हरिवंश सदा निधि हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके।

भावार्थ – जो सदा श्रीहरिवंश के सुन्द धर्म का पालन करते हैं और श्रीहरिवंश ने जो कहा है, उसे नहीं भूलते। युगल सरकार से जिनका ऐकान्तिक प्रेम है, ऐसे प्रेमियों के लिये तो श्रीहरिवंश उनकी सदा की निधि हैं- वे उन प्रेमियों से विलग होना ही नहीं जानते।

पद – 7

हरिवंश प्रतापहिं जानत हैं।

हरिवंश प्रबोध प्रमानत हैं।

हरिवंश सु सर्वस्व हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो श्री हरिवंश के प्रताप (महत्व, स्वरूप) को ठीक-ठीक जानते हैं, जो श्री हरिवंश के द्वारा कहे गये वचनों को ही अपने लिये उत्तम बोध (विवेक, समझ) मानते हैं एवं सुख सम्पत्ति दम्पति ही जिनके अपने हैं उनके तो श्री हरिवंश ही सर्वस्व हैं।

पद – 8

हरिवंश विचार परे जु रहैं।

हरिवंश धरम्म बुरा निगाहें ॥

हरिवंश निबाहक हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनकैं॥

भावार्थ – जो श्री हरिवंश (विचारों के ही) परायण हैं उनके धर्म की धुरी को धारण करके उसे निभाना चाहते हैं, ऐसे अनन्य उपासकों के धर्म का निर्वाह श्री हरिवंश ही करते हैं, क्योंकि सुखमय सम्पत्ति दम्पत्ति के वे उपासक हैं।

पद – 9

हरिवंश रसायन पीवत हैं।

हरिवंश कहैं सुख जीवत हैं ॥

हरिवंश हृदय व्रत हैं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – अब जिनके श्रीयुगल किशोर ही सुख सम्पत्ति हैं वे श्रीहरिवंश-वाणी और श्रीहरिवंश-रसरीति को ही कहते [सुनते] हैं एवं श्री हरिवंश नाम को ही कहते और श्री हरिवंश नाम को ही सुनते हैं, (अर्थात् उनके लिये श्री हरिवंश नाम-वाणी के सिवाय और कहीं कुछ नहीं है।) ऐसे हित ध र्मियों के हृदय में तो श्री हरिवंश का ही एक दृढ़तम व्रत है।

पद – 10

हरिवंश कृपा हरिवंश कहै।

हरिवंश कहैं हरिवंश लहैं।

हरिवंश सु लाभ सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – कोई भाग्यवान् ही श्रीहरिवंश-कृपा से ‘श्री हरिवंश’ यह नाम कह पाता है और जो ‘श्री हरिवंश’ कहता है वह श्री हरिवंश को पाता भी है। सुखमय दम्पति (श्रीराम वल्लभ लाल) ही जिनकी सम्पत्ति है; उनके लिये तो श्रीहरिवंश ही परम लाभ हैं।

पद – 11

हरिवंश परायन प्रेम भरे।

हरिवंश सा मंत्र जपें सुधरे ॥

हरिवंश सु ध्यान सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश के रसमय प्रेमसे परिपूर्ण हैं जो भली प्रकार श्री हरिवंश’ इस सुन्दर मन्त्र का ही जप करते हैं और सुख-सम्पत्ति दम्पति ही जिनके सर्वस्व हैं, उन प्रेमियों के लिये श्रीहरिवंश ही सुन्दर ध्यान हैं।

पद – 12

नित श्रीहरिवंश सु नाम कहैं।

नित राधिका स्याम प्रसन्न रहें।

नित साधन और नहीं तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके॥

भावार्थ – जो नित्य निरन्तर श्री हरिवंश’ यही सुन्दर नाम कहता रहता है उस पर श्री राधिका एवं श्री श्याम सुंदर भी नित्य प्रसन्न रहते हैं । जिसके लिये सुख सम्पत्ति दम्पति जू सर्वस्व हैं, फिर उनके लिये और-और साधनों की क्या आवश्यकता है? अर्थात् उनके लिए तो और साधनों का महत्व ही नहीं है।

पद – 13

जब राधिका स्याम प्रसन्न भये।

तब नित्य समीप सु खैचि लये॥

हरिवंश समीप सदा तिनकैं।

सुख संपति दंपति जू जिनके ॥

भावार्थ – जब [श्री हरिवंश-कृपा से] श्री राम एवं श्रीश्याम प्रसन्न हुए तो उन्होंने [उस कृपापात्र अधिकारी जीव को अपने समीप सदा के लिये खींच लिया, जहाँ पर श्रीहरिवंश श्रीयुगल किशोर के समीप नित्य विराजते हैं, फिर तो ऐसे कृपापात्र के लिये सुख की सम्पत्ति श्री युगल किशोर श्रीराम वल्लभ लाल तो उनके अपने ही हैं।

पद – 14

नित नित श्रीहरिवंश-नाम, छिन-छिन जु रटत नर।

नित नित रहत प्रसन्न, जहाँ दंपति किशोर वर॥

जहाँ हरि तहाँ हरिवंश, जहाँ हरिवंश तहाँ हरि।

एक शब्द हरिवंश नाम, राख्यौ समीप करि॥

हरिवंश नाम सु प्रसन्न हरि, हरि प्रसन्न हरिवंश रति।

हरिवंश चरण सेवक जिते, सुनहु रसिक रसरीति गति॥१५॥

भावार्थ – जो जन सदा-सर्वदा प्रतिक्षण ‘श्रीहरिवंश’ नाम ही रटते रहते हैं, उन पर नव-किशोर वर दम्पति श्रीराधावल्लभलाल सदा-सदा प्रसन्न रहते हैं। यह सिद्धान्त है कि जहाँ पर श्री हरि हैं, वहाँ श्रीहरिवंश भी हैं और इसी प्रकार जहाँ श्रीहरिवंश’ हैं, वहाँ श्रीहरि भी अवश्य होंगे। यह दोनों की अभेद स्थिति तो ‘हरिवंश’ नाम से ही सिद्ध है कि इस ‘हरिवंश’ नाम ने एक ही शब्द से दोनों को समीप (एकीभाव) कर रखा है। श्री हरिवंश नाम (स्मरण भजन) से श्रीहरि प्रसन्न होते हैं और श्रीहरि की प्रसन्नता प्राप्त होने पर श्रीहरिवंश के चरणों की प्रीति प्राप्त होती है।

श्री सेवक कहते है-हे रसिकों! आप जो जन श्रीहरिवंश-चरणों के सेवक हैं, दास हैं अब रस रीति की गति (मार्ग, रहस्य का वर्णन) सुनिये।


श्रीहित-रस-रीति
( सप्तम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

छठे प्रकरण में ग्रन्थकार ने – “सुनहु रसिक रस रीति गति” कहकर इस प्रकरण के विषय का सङ्केत किया है। भाव यह कि यों तो सम्पूर्ण ग्रन्थ ही रसोपासना के सिद्धान्त का पोषक और प्रकाशक है किन्तु इस प्रकरण में विशेष रीति से रस विलास की ओर सङ्केत किया जायेगा ऐसा ग्रन्थकार का लक्ष्य प्रतीत होता है।

अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार श्री सेवक का सर्वप्रथम रस के प्रकाशक का वर्णन प्रथम छन्द में करके दूसरे में रस प्रवाहमयी यमुना का वर्णन करते हैं जिसके निकट (साक्षित्व में) यह रस-लीला होती है। चौथे छन्द में रस भूमि अधिष्ठान श्री वृन्दावन का वर्णन करके क्रमश पाँचवें और छठे में श्रीराधा और श्रीकृष्ण के किशोर रसिक स्वरूप का वर्णन करते हैं। सातवें छन्द में श्रीवन की बाह्य केलि रासादि का वर्णन करके आठवें में रति-विहार विषयक हास-परिहास का वर्णन करते हैं और अन्तिम नवम छन्द में श्रीहित-हरिवंश के इष्ट तत्व तल्प-विहार का वर्णन कर देते हैं।

इस वर्णन क्रम का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर पता चलेगा कि विहार-रस वर्णन का उद्गम और पर्यवसान किस सुन्दर क्रम से हुआ है कि अवतार-क्रम से लेकर नित्य-विहार तक स्थूल से सूक्ष्म तक एक लड़ी बँध गयी है।

सम्पूर्ण ग्रन्थ में केवल इसी प्रकरण के छठे छन्द में ‘वृषभान नन्दिनी’ पद देकर आप ब्रज रसिया अवतार लीला से नित्य विहार तक की एक श्रृंखला स्थापित कर देते हैं।

पद – 1

अब प्रथम छन्द में रस रीति प्रकाशक रसिक आचार्य श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु पाद के तात्विक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं

व्यास नंदन जगत आधार।

जगमगात जस, सब जग बंदनीय, जगभय विहंडन।

जग सोभा, जग संपदा, जग जीवन, सब जग मंडन।

जग मंगल, जग-उद्धरण, जग निधि, जगत प्रसंस।

चरन शरन सेवक सदा, सु जै जै श्री हरिवंश॥१॥

भावार्थ – व्यास नन्दन श्रीहरिवंशचन्द्र ही समस्त जगत् के आधार हैं, जिनका यश सारे विश्व में जगमगा रहा है। जो समस्त जगत् के वन्दनीय हैं, जो संसार के भय को नष्ट कर देने वाले हैं जो विश्व की शोभा, विश्व की एकमात्र सम्पत्ति, विश्व के जीवन और विश्व-भूषण हैं। ये जगत् का मंगल करने वाले, जगत का उद्धार करने वाले, विश्व की निधि और संसार से प्रशंसनीय हैं। ‘सेवक’ सदा-सदा इन्हीं की चरण-शरण में है, इन श्रीहरिवंशचन्द्र की जय-जय हो।

पद – 2

इस दूसरे छन्द में क्रीड़ा स्थली श्रीवन में स्थित श्रीयमुना जी का स्वरूप और उनके तटवर्ती लता- कुंज का वर्णन करते हैं क्योंकि ये लतागृह ही रस-क्रीड़ा के केन्द्र हैं

जयति जमुना विमल वर वारि।

सीतल तरल तरंगिनी, रत्न बद्ध विवि तटी विराजत।

प्रफुलित बिबिध सरोजगन, चक्रवादि कल हंस राज॥

कूल बिसद वन द्रुम सघन, लता भवन अति रम्य।

नित्य केलि हरिवंश हितसु ब्रह्मादिकनि अगम्य॥२॥

भावार्थ – निर्मल और श्रेष्ठ जल से युक्त श्रीयमुना जय-जयकार को प्राप्त हैं जो शीतल और चञ्चल तरंगों से पूर्ण हैं और जिनके दोनों तट रत्नादिकों से सुबद्ध सुशोभित हैं। जल में जहाँ अनेकों प्रकार के कमल खिल रहे हैं एवं चक्रवाक आदि पक्षियों और सुन्दर हंसों के समूह के समूह शोभित हैं। परम पावन पुलिन पर शोभित श्रीवन सघन द्रुमों से पूर्ण है एवं जहाँ पर अत्यन्त रमणीय लता-भवन विराज रहे हैं । यमुना के इसी तट पर श्री हित हरिवंश चन्द्र की नित्य केलि होती रहती है जो ब्रह्मा आदि के लिये अगम्य है।

पद – 3

श्री हित हरिवंश चन्द्र की प्रकाशित की हुई रस क्रीड़ा में युगल-किशोर का स्वरूप

मूल-सुघर सुंदर सुमति सर्वज्ञ।

संतत सहज सदा सदन, सघन कुंज सुख पुंज बरषत।

सौरभ सरस सुमन चैंन अजित सेन सुरंग हरषत॥

केलि बिसद आनंद रसद, बेलि बढ़त नित जाम।

ठेलि निगम-मग पग सुभग, खेलि कुँवर वर बाम॥

भावार्थ – श्री प्रिया लाल की यह जोड़ी नित्य और स्वाभाविक होने के साथ-साथ सुघर, सुन्दर, परम चतुर एवं सर्वज्ञ भी है। सदा-सर्वदा सघन कुञ्ज-सदन में सुख समूह की वर्षा करती रहती है। [उस सघन कुंज सदन में] सरस सुगन्ध युक्त कोमल पुष्पों से सज्जित शय्या पर विराजमान् होकर युगल-किशोर आनन्द-सुख प्राप्त करके हर्षित होते हैं। युगल-किशोर की केलि पवित्र एवं रसदायक है और जहाँ आनन्द रूपी लता नित्य ही उदित होती और बढ़ती रहती है। जहाँ युवती-शिरोमणि सुन्दरी श्री राम एवं कुँवर वर श्रीलाल जी वेद-मार्ग की मर्यादा को चरणोंसे ठेल अर्थात् तिरस्कृत कर निरन्तर क्रीड़ा परायण रहते हैं।

पद – 4

इस छन्द में युगल-किशोर की रस-रूपता का निर्देश किया जा रहा है

रसिक रमनी रसद रस राशि।

रस-सीवाँ, रस-सागरी, रस निकुंज, रसपुंज बरषत।

रसनिधि,सुविधा रसज्ञ, रस रेख रीति-रस, प्रीति हरषत॥

रस मूरति, सूरति सरस, रस बिलसनि रस रंग।

रस प्रवाह सरिता सरस, रति-रस लहरि तरंग।।४॥

भावार्थ – रसिक श्री लालजी एवं रमणी श्रीराधा दोनों ही रस के दाता और रस की राशि हैं। प्रियतम रस की सीमा और प्रिया रस की समुद्र रूपा हैं दोनों रसमय निकुंज भवन में रस समूह की वृष्टि करते रहते हैं। दोनों रस के भण्डार और भली प्रकार रसज्ञ हैं। दोनों रस की मर्यादा रेखा हैं, और रस रीति की प्रीति से ही प्रसन्न रहते हैं। युगल-किशोर रस की मूर्ति हैं जिनकी छवि बड़ी ही सरस है। आपका सुख विलास भी रसमय है और आनन्द क्रीड़ा भी रसमय। युगल-किशोर रस-धारामय रस सरिता भी हैं और उसमें उठने वाली रति रस की लहरें-तरङ्ग भी ये ही हैं।

पद – 5

इस छन्द में श्रीलाल जी के स्वरूप का वर्णन करते हैं

स्याम सुंदर उरसि बनमाल।

उरगभोग भुजदंड वर, कंबु कंठ मनिगन बिराजत।

कुंचितकच, मुख तामरस, मधु लंपट जनु मधुप राजत॥

सीस मुकुट, कुंडल श्रवण मुरली अधर त्रिभंगा।

कनक कपिस पट सोभिअत, (अति )जनु घन दामिनि संग॥

भावार्थ – श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के हृदय देश पर बनमाला शोभित है। श्रेष्ठ भुज-दण्ड उरग-भोगी मयूर के श्यामवर्ण के समान हैं और शंख सी ग्रीवा में मणि-समूहों की मालाएँ शोभित हैं । कमल से मुख के चारों ओर घुंघराले लगे इस प्रकार फबी हैं जैसे मधु के लोभी भ्रमर कमल का रस पान करने के लिये जुटे हों। आपके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और अधरों पर मुरली है। आप ललित त्रिभङ्गी गतिसे खड़े हैं। श्याम घन से दिव्य वपु पर पीले-पीले रेशमी वस्त्र ऐसे शोभा पा रहे हैं जैसे मेघों के साथ दामिनि।

पद – 6

पाँचवें छन्द में विशुद्ध रूप से रसमूर्ति श्री लालजी का वर्णन करके अब और प्रिया जी का वर्णन करते हैं

सुभग सुंदरी सहज सिंगार।

सहज सोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभानु नंदिनी।

सहजानंद कदंबिनी, सहज विपिन वर उदित चंदिनी॥

सहज केलि नित नित नवल, सहज रंग सुख चैन।

सहज माधुरी अंग प्रति, सु मोपै कहत बनै न ६ ॥

भावार्थ – परम सुन्दरों में भी सुन्दर, स्वाभाविक शृङ्गार, स्वाभाविक शोभा एवं सर्वांग प्रति सहज रूप लावण्यमयी श्री वृषभान नंदनी ही हैं। आप सहज (स्वाभाविक) आनन्द की समूह एवं विपिन राज श्री वृन्दावन में नित्य उदित स्वाभाविक चन्द्रिका हैं अनन्त ज्योति हैं। आपकी केलि (क्रीडा विलासादि) सहज स्वाभाविक,नित्य नित्य नवीन,सहजानन्द-समूह मई, सहज सुखमयी और सहज शान्तिमयी है। आपके अङ्ग-अङ्गों में सहज माधुर्य है, जो मुझसे कहते नहीं बनता अर्थात् अनिर्वचनीय है।

पद – 7

युगल सरकार के स्वरूप का परिचय देकर अब उनकी रस क्रीड़ा का वर्णन करते हैं

विपिन निर्यात रसिक रस राशि।

दंपति अति आनंद बस, प्रेम मंत्र निस्संक क्रीड़त।

चंचल कुंडल कर चरन, नैन लोल रति रंग ब्रीड़ा॥

झटकत पट चुटकी चटक, लटकत लट मृदु हास।

पटकत पद उघटत सबद, मटकत भृकुटि विलास॥

भावार्थ – रस की राशि युगल-किशोर रसिक-वर श्रीवृन्दावन में नृत्य कर रहे हैं- अत्यन्त आनन्द के वश में हुए प्रेम-मत्त दम्पति (युगल-किशोर) नि:शंक भाव से क्रीड़ा परायण हैं। क्रीड़ा के समय आपके कुण्डल चंचल हो उठते हैं। आप हाथों, चरणों एवं नेत्रों की चपलता से साक्षात् रति के आनन्द-विनोद को भी लजा देते हैं। कभी परस्पर में एक दूसरे के वस्त्रों को झटक देते हैं, तो कभी उँगलियों से चुटकियाँ चटकाते हैं। नृत्य में लटें लटक-लटक पड़ती हैं और आप मन्द और मधुर हास करते जाते हैं। साथ ही चरणों को ताल स्वर पूर्वक पटकते, [तदनुसार ता ता थेई आदि] शब्दों का उच्चारण करते और लीला पूर्वक अपनी भृकुटियों को भी मटकाते-नचाते हैं।

पद – 8

नवल नागरि नवल जुवराज।

नव नव वन घन क्रीड़ा, नव निकुंज वसंत सर्वस्व।

नव नव रति नित नित बढ़त, नयौ नेह नव रंग नयौ रसु॥

नव विलास कल हास नव, मधुर सरस मृदु बैन।

नव किशोर हरिवंश हित, सु नवल नवल सुख चैन॥

भावार्थ – नवल नागरी श्रीराधा एवं नव-युवराज श्रीकृष्ण इस नित्य नव-वन श्रीवृन्दावन में जो अत्यन्त सघन है, अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं और नव-निकुञ्ज में परस्पर के सर्वस्व दान पूर्वक सुख विलास करते हैं। दोनों में नित्य- नित्य नई नई रति-प्रीति की वृद्धि होती, नया स्नेह, नया ही आनन्द रङ्ग और नया ही विलास, नव-नव हास्यादि का माधुर्य, और सरस वचनावली का प्रकाश होता रहता है। श्रीहित हरिवंश के ये नव युगल किशोर नित्य ही नये-नये सुख एवं आनन्द का आस्वादन करते रहते हैं।

पद – 9

इस अन्तिम छन्द में रस विहार की सर्वोपरिता के साथ माधुर्य एवं रसानन्द का वर्णन करते हैं

नवल-नवल सुख चैन, न अपने आप बस।

निगम लोक मर्जाद, भंजि क्रीड़ा रंग रस॥

सुरत प्रसंग निसंक, करत जोई-जोई भावत मन।

ललित अंग चल भंगि, भाइ लज्जित सु कोक गन।

अद्भुत विचार हरिवंश हित, निरखि दासि सेवक जियत।

विस्तरत सुनत गावत रसिक, सु नित नित लीला-रस पियत॥९॥

भावार्थ – नवल युगल-किशोर नित्य नव-नव सुख एवं आनन्द के भण्डार हैं। वे केवल अपने आपके आधीन हैं, उन पर किसी और (वेद-शास्त्र-मर्यादा आदि) का कोई अधिकार या शासन नहीं है अत: ये युगलकिशोर समस्त वेद एवं लोक की मर्यादाओं को तोड़ताड़ कर अपने स्वच्छन्द आनन्द बिहार की क्रीड़ा करते रहते हैं। क्रीड़ा के अवसर पर सुरत-प्रसङ्ग आदि जो-जो कुछ इनके मन आता है-इन्हें अच्छा लगता है, नि:संकोच भाव से वही वही करते हैं। आपके अंगों के लालित्य चाञ्चल्य, भङ्गिमा एवं हाव-भावों को देखकर लोक-कलाओं के समूह भी लजाते हैं।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि यह निःशङ्क एवं लोक-वेदातीत, अद्भुत विहार श्रीहित- हरिवंश का ही है, अर्थात् उनके द्वारा प्रकटित है या उनका ही अपना रूप है; जिसका दर्शन करके दासियाँ (सखियाँ, सहचरियाँ, सहेलियाँ एवं सेविकाएँ सभी) अपना जीवन धारण करती हैं। सखियां इसी रस का विस्तार करती, गान करती, श्रवण करती और इसी लीला रस का निरन्तर पान करती हैं।


श्रीहित अनन्य टेक
( अष्टम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

प्रेम अपनी प्रथम अवस्था में किसी नाम रूप विशेष के आश्रयत्व में प्रकट होकर फिर अन्तिम अवस्था में व्यापक हो जाता है। उसे प्राथमिक अवस्था में एकान्तिक स्थिरता के लिये अनन्यता की आवश्यकता है। आवश्यकता क्यों है? यह एकान्तिक अनन्यता तो उसका सहज स्वभाव होता है। प्रेमी को अपने प्रेमास्पद की ही बातें प्रिय लगतीं हैं, वह उसे ही देखना चाहता और केवल उसी से सम्बन्ध रखना चाहता है। उस प्रेमी के लिये अपने प्रियतम के सिवाय सारा संसार (कुछ नहीं है) शून्य के बराबर है।

अस्तु, इस प्रकरण में सेवकजी ने ऐसी ही अनन्य निष्ठा का प्रकाशन किया है। आपने पूर्व प्रकरणों में श्रीहरिवंश तत्व का स्पष्टीकरण करके यह बता दिया कि श्रीहरिवंशचन्द्र केवल आचार्य नहीं; अपितु परात्पर प्रेम तत्व हैं जो सर्वव्यापक के साथ एकदेशीय, चर, अचर, स्थूल, सूक्ष्म और कारण से भी परे हैं। यही श्रीप्रिया हैं, यही प्रियतम श्रीकृष्ण, यही वृन्दावन हैं और यही सहचरिगण; अर्थात् नित्य विहार के दिव्य परिकर के मूल कारण आप ही हैं। इन प्रेम रूप श्रीहरिवंशचन्द्र की ही आराधना की आवश्यकता भी उन्होंने प्रकट की। साथ-साथ उस उपासना की शैली आदि का भी निरूपण किया। उसी शैली निरूपण के क्रम में अनन्यता भी एक विषय है।

प्रेम रस का साधक अपने इष्ट तत्व के प्रति अनन्य हो जाय, केवल उसी में डूब जाय, अपनी बुद्धि को बहुमुखी न बनाकर एकमुखी बनावे। यह किस प्रकार होगा? इसके लिये उन्होंने स्वयं अपनी निष्ठा का प्रकार और फल वर्णन करके उपासकों में एक विश्वास की लहर पैदा कर दी है। सेवक जी की अनुभव पूर्ण छाप के साथ-साथ उनकी “हरिवंश दुहाई” शपथ, इस प्रकरण की ही क्या इस सम्पूर्ण ग्रन्थ की आत्मा है। इस विश्वास और अनुभव के सम्बल के ही सहारे साधक का पथ पूर्ण होगा।

इस सम्पूर्ण प्रकरण में अनन्यता सम्बन्धी प्रायः आठ बातों पर विचार किया गया है वे बातें इस प्रकार हैं-समस्त कर्म-धर्म देवोपासना आदि के त्यागपूर्वक श्रीहरिवंश उपासना, इस उपासना में जाति-पाँति, कुल धर्म, विधि निषेध आदि को महत्व न देना, श्रीहरिवंश नाम की अनन्य निष्ठा, अनन्य भावेन रस मूर्त्ति श्रीराधावल्लभलाल के कैशोर रस में ही निष्ठा; मान-अपमानादि में समभाव; श्रीहरिवंशचन्द्र द्वारा वर्णित केलि रस में ही निष्ठा; अवतारों से उठकर अवतारी तत्व श्रीराधावल्लभ में ही स्थिरता, और सबके मूल श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम और रस में प्रीति ।

इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रकरण साधक के चित्त को सब ओर से समेट कर एकान्तिक बना देने का आदेश देता है। अब प्रथम छन्द में श्रीसेवकजी अपनी निष्ठा के विचार से सर्वस्व के तिरस्कार पूर्वक अपनी इष्ट उपासना का लक्ष्य प्रकाशित करते हैं

पद – 1

मूल कोउ बहुविधि देवतनि उपासी ।

कर्म धर्म कोउ करहु वेद विधि,

कोउ तीरथ तप ज्ञान ध्यान व्रत,

अरु कोड निर्गुन ब्रह्म उपासी ॥

कोउ जम नेम करत अपनी रुचि,

कोड अवतार कदंब उपासी।

मन क्रम वचन त्रिशुद्ध सकल मत,

हम श्रीहित हरिवंश उपासी ॥

भावार्थ – कोई वेदों की विधि (नियम) के अनुसार कर्म-धर्मों का पालन करते हो तो करो; यदि कोई बहुत प्रकार से देवताओं के ही उपासक हैं, कोई तीर्थाटन, तपस्या, ज्ञान-लाभ, ध्यान एवं व्रत उपवास आदि करते हैं और कोई निर्गुण ब्रह्म के ही उपासक हैं, इसी प्रकार कितने ही अपनी-अपनी रूचि के अनुसार यम-नियमादि का पालन करते हैं तो करें, यदि और कितने एक अवतार-समूह के उपासक हैं तो रहें तु हम तो मन, वचन और कर्म इन तीनों की शुद्धि पूर्वक समस्त मतों के भी सार रूप श्रीहित हरिवंश के ही उपासक हैं, अन्य किसी के नहीं।

पद – 2

जाति पाँति कुल कर्म धर्म व्रत, संसृति हेतु अविद्या नासी ।

सेवक रीति प्रतीति प्रीति हित, विधि निषेध श्रृंखला बिनासी ॥

अब जोई कही करैं हम सोई,आयुस लियें चलैं निज दासी ।

मन क्रम वचन त्रिसुद्ध सकल मत,हम श्रीहित हरिवंश उपासी ॥

भावार्थ – हमने श्रीहित हरिवंश उपासना को स्वीकार करके अपनी जाति, पाँति, कुलोचित कर्म, धर्म, व्रत और आवागमन के मूल कारण अविद्या का विनाश कर दिया है। सेवक की (मेरी) अपनी प्रतीति और प्रीति तो हित में है और इसीसे हमने वेदोक्त विधि और निषेधों की श्रृंखला का भञ्जन कर दिया है। श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने जो कुछ कहा है, हम वही वही करते और उन निजदासी की ही आज्ञाओं का पालन करते हैं। हम मन, वचन एवं कर्म से त्रिशुद्ध होकर समस्त मतों के सार श्रीहित हरिवंशचन्द्र की उपासना करते हैं उनके उपासक हैं।

पद – 3

जो हरिवंश कौ नाम सुनावै,तन-मन- प्रान तासु बलिहारी।

जो हरिवंश- उपासक सेवै सदा सेॐ ताके चरन विचारी ॥

जो हरिवंश-गिरा जस गावै, सर्वस दैऊँ तासु पर बारी।

जो हरिवंश कौ धर्म सिखावै, सोई तौ मेरे प्रभु तैं प्रभु भारी॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं-] जो कोई मुझे श्रीहरिवंश का नाम सुनाता है, उस पर मेरे तन, मन, प्राण सब न्यौछावर हैं। जो कोई श्रीहरिवंश के उपासक जनों का सेवन करता है मैं उसके चरणों का सदा सविचार (सतर्कता पूर्वक) सेवन करता हूँ। जो श्रीहरिवंश की वाणी (ग्रन्थ) का यशोगान करता है मैं उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँ और जो श्रीहरिवंश के धर्म (अनन्य हित धर्म) को सिखाता है वह तो मेरे प्रभु ( श्रीहरिवंशचन्द्र) से भी महान् प्रभु है, अर्थात् वह मेरे सर्वाधार प्रभु के तुल्य है।

पद – 4

श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, सुनि धुनि नित्य तहाँ मन दैहौं ।

श्रीहरिवंश सुनंत चलीं संग, हौं तिन संग नित्य प्रति जैहौं ।

श्रीहरिवंश विलास रास रस, श्रीहरिवंश संग अनुभहौं ।

जो हरि नाम जगत्त सिरोमनि, वंश बिना कबहूँ नहिं लैहौं ॥

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश ( श्रीकृष्ण की वंशी) की मधुर तान से विमोहित हो गयीं मैं भी उन्हीं (सखियों) की तरह सदा अपने मन को वहीं उसी रस में लगाऊँगा । जो श्रीहरिवंश (श्रीहरि की वंशी) सुनते ही [ श्रीकृष्ण से मिलने के लिये ] एक साथ होकर चल पड़ीं, मैं उन्हीं के साथ सदा-सदा [ सखि रूप से] चलूँगा। मैं श्रीहरिवंश के विलास और रास रस का अनुभव श्रीहरिवंश के ही साथ करूँगा और जो ‘हरि’ नाम त्रिलोकी में शिरोमणि है उसे भी मैं ‘वंश’ से रहित न लूँगा यदि लूँगा तो उसे ‘वंश’ के सहित ‘हरिवंश’ इस रूप में।

पद – 5

प्रेमी अनन्य भजंन न होइ, जो अंतरयामी भजैं मन में।

जौ भजि देख्यौ जशोदा कौ नंदन, ( तौ) विश्व दिखाई सबै तन में ॥

श्रीहरिवंश सुनाद विमोहीं, ते शुद्ध समीप मिलीं छिन में।

अब यामें मिलौनी मिलै न कछू, जब खेलत रास सदा बन में।।

भावार्थ – यदि अन्तर्यामी भगवान् का मन-मन में भजन किया जाय तो वह अनन्य प्रेमियों का भजन नहीं कहा जायेगा, यदि यशोदानन्दन बालकृष्ण के लिये कहें [कि यह अनन्य प्रेमियों का भजनीय स्वरूप है तो यह भी कहते नहीं बनता क्योंकि बालकृष्ण ] यशोदानन्दन ने अपने श्रीमुख में ही सारा विश्व दिखा दिया है (अर्थात् यह भी ऐश्वर्य भावों से पूर्ण बाल रूप है।) किन्तु जिन सखियों ने श्रीहरिवंश ( श्रीकृष्ण की वंशी) की सुमधुर ध्वनि सुनी और जो मोहित हुईं, वे समस्त प्रकार से शुद्ध होकर (अर्थात् ऐश्वर्य, ज्ञान, माहात्म्य आदि से रहित होकर) एक क्षण में ही प्रियतम नव किशोर से जा मिलीं। अतः स्पष्ट है कि इस रास रस में- [ रसोपासना में] और कुछ ज्ञान, ऐश्वर्य आदि की मिलावट तो हो ही नहीं सकती जबकि नवल किशोर सदा सर्वदा श्रीवन में रास- केलि करते रहते हैं (अर्थात् विशुद्ध रस की उपासना कैशोर भाव एवं विहार क्रीड़ा में ही है; अन्यत्र नहीं ।)

पद – 6

जौं बहु मान करै कोउ मेरौ, किये बहु मानत नाहिं बड़ाई।

जौं अपमान करै कोउ कैहूँ, किये अपमान नहीं लघुताई ॥

श्रीहरिवंश गिरा रस सागर, माँझ मगन्न सबै निधि पाई।

जौं हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – यदि कोई मेरा अत्याधिक मान-सम्मान करे तो भी मैं उसके द्वारा किये अपने इस अति सम्मान को अपनी कुछ बड़ाई (प्रभुता) नहीं मानता और यदि कोई मेरा किसी प्रकार का अपमान भी करे तो उसके ऐसा करने (अपमान करने ) पर अपनी लघुता (छोटापन) नहीं मानता क्योंकि मैंने तो श्रीहरिवंश वाणी रूपी रस समुद्र में मग्न होकर सम्पूर्ण आनन्द निधि पा ली है; इसलिये [मुझे इन द्वन्द्वों का कोई ध्यान ही नहीं है और जिनकी कृपा से यह स्थिति प्राप्त हुई है उन] श्रीहरिवंश को छोड़ कर मैं किसी और का भजन करूँ तो मुझे उन्हीं श्रीहरिवंश की ही दुहाई ( शपथ) है। (अर्थात् मैं श्रीहरिवंश को ही सर्वसार जानकर अनन्य भाव से उनका ही भजन करता हूँ।)

पद – 7

कही बन केलि निकुंज निकुंजनि, नव दल नूतन सेज रचाई।

नाथ बिरंमि-बिरंमि कही तब, सो रति तैसी धौं कैसे भुलाई ॥

सत्वर उठे महा मधु पीवत, माधुरी बानी मेरे मन भाई ।

जौं हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अपनी वाणी में वर्णन किया है श्रीवृन्दावन की प्रेम क्रीड़ा का। उस क्रीड़ा में आपने कुञ्ज निकुञ्जों में नवीन किशलय दलों से नूतन शय्या रचना का वर्णन किया है। विहार के प्रवाह में प्रियतम ने ‘विरमि विरमि’ ये जो शब्द कहे हैं वे जिस प्रीति से कहे हैं, वह रति भला कैसे भुलाई जा सकती है? इसी प्रकार आपके द्वारा वर्णित भाव कि ” श्रीलालजी, प्रियाजी का महा मधुर अधरामृत पीकर जागृत हो उठे”, इसकी मधुरता मेरे मन को अत्याधिक प्रिय लगी।

श्रीसेवक कहते हैं कि श्रीहरिवंश-वाणी के इस महा मधुर रस का आस्वादन करके भी यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़कर अन्य किसी का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है।

पद – 8

भुज अंसन दीनें बिलोकि रहे, मुख चंद उभै मधु पान कराई।

आपु विलोकि हृदै कियौ मान, चिबुक्क सुचारु प्रलोइ मनाई ॥

श्रीहरिवंश बिना यह हेत, को जानैं कहा को कहै समुझाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई।।

भावार्थ – युगल सरकार परस्पर एक दूसरे के कन्धों पर भुजाएँ अर्पित किये मुखकमल का दर्शन करते हुए मुख-माधुरी का पान कर रहे हैं। ऐसा हरिवंश वाणी, श्रीहित चौरासी पद संख्या ३२ में वर्णित है। जब [ प्रियतम के ] हृदय में स्वयं की छवि का दर्शन करके श्रीप्रियाजी ने मान कर लिया तो प्रियतम ने आपका सुन्दर चिबुक सहलाकर आपको मना लिया। श्रीहरिवंशचन्द्र के बिना भला कौन इस हित प्रीति को जान सकेगा और समझाकर कह सकेगा?

[ श्रीसेवकजी कहते हैं- ] ऐसे सर्वज्ञ, रसज्ञ एवं मर्मज्ञ श्रीहरिवंश को छोड़कर यदि मैं किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है अर्थात् मैं कभी भी उनका परित्याग नहीं कर सकता; वही मेरे सर्वस्व हैं।

पद – 9

श्रीहरिवंश सु नाद सुरीति, सुगान मिलैं बन माधुरी गाई ।

श्रीहरिवंश वचन्न रचन्न सु, नित्य किसोर किसोरी लड़ाई |

श्रीहरिवंश गिरा रस रीति सु, चित्त प्रतीति न आन सुहाई।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश-दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र ने अपनी सु वाणी में सुनाद ( सुन्दर वंशीनाद), सुरीति (रस-रीति) और सुगान (प्रेम रस गान) द्वारा वृन्दावन-माधुरी का गान किया है। श्री हरिवंश जी ने अपनी वचन-रचना (वाणी) के द्वारा नित्य किशोर एवं नित्य किशोरी का लाड़-दुलार किया है। श्रीसेवकजी कहते हैं मेरे चित्त को तो बस श्रीहरिवंशचन्द्र की वाणी में वर्णित रस-रीति का ही एकमात्र विश्वास है। मुझे इसके सिवाय और कुछ अच्छा ही नहीं लगता; अतएव यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़ किसी और का भजन करूँ, तो मुझे श्रीहरिवंश की ही शपथ है।

पद – 10

श्रीहरिवंश कौ नाम सु सर्वसु, जानि सु राख्यौ मैं चित्त समाई ।

श्रीहरिवंश के नाम प्रताप कौ, लाभ लह्यौ सो कह्यौ नहिं जाई ॥

श्रीहरिवंश कृपा तैं त्रिशुद्ध कै साँची यहै जु मेरे मन भाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – मैंने श्रीहरिवंश के इस सुन्दर नाम को ही अपना सु सर्वस्व समझकर चित्त में धारण कर रखा है और मैंने श्रीहरिवंश नाम प्रताप का जो लाभ पाया है वह तो मेरी वाणी द्वारा कहा भी नहीं जा सकता (अनिर्वचनीय है।) श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से मन-वचन, कर्म की त्रिशुद्धि के पश्चात् सत्य रूप से मेरे मन में यही बात अच्छी लगी कि यदि मैं श्रीहरिवंश को छोड़ किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही शपथ है।

पद – 11

देखे जु मैं अवतार सबै भजि, तहाँ-तहाँ मन तैसौ न जाई ।

गोकुलनाथ महा ब्रज वैभव, लीला अनेक न चित्त खटाई ॥

एक ही रीति प्रतीति बँध्यौ मन, मोहीं सबै हरिवंश बजाई।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – मैंने सब अवतारों को भजकर देख लिया [ उनमें कोई ऐसा आकर्षण विशेष नहीं है ] जिससे उनमें मन अपने आप यानि सहज रूप से नहीं लगता | गोकुलनाथ बालकृष्ण की वैभवपूर्ण ब्रज लीलाएँ भी अनेक हैं; तथापि उनमें भी मेरा चित्त रुचि नहीं मानता या वे लीलायें मेरे चित्त में नहीं खटातीं अपितु मेरा मन तो एक ही रीति की प्रतीति ( विश्वास) में बँध चुका है; वह क्या? जो श्रीहरिवंश ने डंके की चोट में अपनी रसरीति से सबको मोहित कर लिया है, किंवा श्रीहरि ने वंशी बजाकर जिस रीति से सबको मोहित कर लिया; बस उसी रस रीति की प्रतीति मेरे मन में है अन्य की नहीं; अतएव ऐसे रस रूप श्रीहरिवंश को छोड़कर यदि मैं किसी और का भजन करूँ तो करूँ कैसे ? यदि करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की दुहाई है अर्थात् मैं ऐसा त्रिकाल में नहीं कर सकता।

पद – 12

नाम अरद्ध हरै अघ पुंज, जगत्त करै हरि नाम बड़ाई।

सो हरि वंश समेत संपूरन, प्रेमी अनन्यनि कौं सुखदाई ॥

श्री हरिवंश कहंत सुनंत, छिन छिन काल वृथा नहिं जाई ।

जो हरिवंश तजौं भजौं औरहिं, तौ मोहि श्रीहरिवंश दुहाई ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश’ नाम का केवल आधा ‘हरि’ ही समस्त पाप-समूहों का नाश करने में समर्थ है इसलिये विश्व इस ‘हरि’ नाम का यशोगान करता है। किन्तु वही ‘हरि’ नाम वंश के साथ मिलकर ‘हरिवंश’ इस सम्पूर्ण रूप में अनन्य प्रेमियों के लिये सुखदायक बनता है केवल ‘हरि’ आधे रूप में नहीं। इस श्रीहरिवंश नाम का कथन-श्रवण करते कराते क्षण भर समय भी वृथा नहीं जाता, सब सार्थक होता है; अतएव मैं निरन्तर केवल इसी का भजन करता हूँ, यदि इस श्रीहरिवंश नाम को छोड़कर किसी और का भजन करूँ तो मुझे श्रीहरिवंश की ही दुहाई है।

पद – 13

श्रीहरिवंश सु प्रान, सु मन हरिवंश गनिज्जै ।

श्रीहरिवंश सु चित्त, मित्त हरिवंश भनिज्जै ॥

श्रीहरिवंश सु बुद्धि, बरन हरिवंश नाम जस।

श्रीहरिवंश प्रकाश, बचन हरिवंश गिरा रस ।

हरिवंश नाम बिसरै न छिन, श्रीहरिवंश सहाय भल।

हरिवंश चरन सेवक सदा, सपथ करी हरिवंश बल ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश मेरे सुन्दर प्राण हैं, श्रीहरिवंश ही सुन्दर मन हैं, ऐसा जानिये। श्रीहरिवंश ही सुन्दर चित्त और श्रीहरिवंश ही मित्र कहे जाते हैं। श्रीहरिवंश सुन्दर बुद्धि और श्रीहरिवंश के चार वर्ण ही सुयश हैं। श्रीहरिवंश के वचन ( प्रबोध, उपदेश) ही प्रकाश (दिव्य ज्ञान) और श्रीहरिवंश की वाणी रस रूपा है।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं सदा सर्वदा श्रीहरिवंश चरणों का ही सेवक हूँ। मुझे श्रीहरिवंश नाम एक क्षण के लिये भी नहीं भूलता और श्रीहरिवंश ही मेरे परम सहायक हैं; अतः मैंने उन्हीं के बल पर उन्हीं (श्रीहरिवंश) की शपथ ली है।


श्रीहित अकृपा-कृपा लक्षण
( नवम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

यों तो सब प्राणियों पर प्रभु की कृपा समान रूप से है ही; क्योंकि सब जीव उनके ही अंश हैं, किन्तु यहाँ पर ‘कृपा और अकृपा’ नाम से जिस कृपा का वर्णन किया गया है, इस का अभिप्राय विशेष कृपा से है। प्रभु कृपा से सम्पन्न जीव वही कहा जायगा जो प्रभु प्रेम से सम्पन्न होगा। श्रीहरिवंश-चरणाश्रित होकर युगल किशोर के दिव्य प्रेम रस का जिन किन्हीं बड़भागी जनों ने पान किया है, वे सब भी प्रभु कृपा से सम्पन्न हैं। जिन्होंने उसका आस्वादन नहीं किया, फिर वे कितने ही बड़े क्यों न कहलाते हों, कृपा से रीते कृपा रहित ही हैं। श्रीसेवकजी का यही मत है।

इस प्रकरण में श्रीहरिवंश कृपा से रहित जीवों का परिचय और श्रीहरिवंश कृपा सम्पन्न जीवों का परिचय दो खण्डों में अलग-अलग सोरठों में दिया गया है। प्रथम अकृपा के दस सोरठे इस प्रकार हैं

अकृपा लक्षण

पद – 1

सब जग देख्यौ चाहि, काहि कहौं हरि-भक्ति बिनु ।

प्रीति कहूँ नहिं आहि, श्रीहरिवंश-कृपा बिना ॥

भावार्थ – [ श्रीसेवकजी कहते हैं-] मैंने सब संसार को अच्छी प्रकार (छान बीनकर) देख लिया है। तब किसके लिये कह दूँ कि ये “हरि-भक्ति-विहीन” हैं अर्थात् ‘हरि-भक्ति’ तो सबमें है परन्तु श्रीहरिवंश कृपा के बिना प्रीति अवश्य कहीं नहीं हैं; [ क्योंकि श्रीहरिवंश कृपा में ही प्रीति का उदय है।]

पद – 2

गुप्त प्रीति कौ भंग संग प्रचुर अति देखियत ।

नाहिंन उपजत रंग, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – प्राय: देखा जाता है कि सङ्ग (आसक्ति) की प्रचुरता (अधिकता) से गुप्त प्रीति का विनाश (भंग) हो ही जाता है। अतएव श्रीहरिवंश कृपा के अभाव में [ यह विनाश होने पर ] आनन्द (रंग) की उत्पत्ति नहीं हो पाती।

पद – 3

मुख बरनत रस रीति, प्रीति चित्त नहिं आवई।

चाहत सब जग कीर्ति, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश – कृपा से विहीन लोग प्रेम से शून्य होने पर भी सारे संसार में अपनी कीर्ति फैलने की आशा लगाये रखते हैं। यद्यपि वे अपने मुख से प्रेम तत्व रस रीति का वर्णन भी करते हैं किन्तु उनके चित्त में प्रीति का उदय नहीं होता।

पद – 4

गावत गीत रसाल, भाल तिलक सोभित घना |

बिनु प्रीतिहिं बेहाल, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – चाहे कोई भले ही बड़े सरस गीत गाता हो और उसके ललाट पर अत्यन्त सुन्दर तिलक भी क्यों न हो ? किन्तु [इन बाह्य चिह्नों से क्या होता है?] वह तो श्रीहरिवंश कृपा रूप प्रेम प्राप्ति के बिना विह्वल ही देखा जायगा।

पद – 5

नाचत अतिहिं रसाल, ताल न सोभित प्रीति बिनु ।

जनु बींधे जंजाल, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – कुछ लोग अत्यन्त रसीले नृत्य करते और ताल भी देते हैं किन्तु प्रीति के बिना उनका नृत्य-ताल शोभा नहीं पाता। वे बेचारे श्रीहरिवंश कृपा के बिना तो नृत्य-ताल के जञ्जाल में ही बिंधे (उलझे) हैं।

पद – 6

मानत अपनौ भाग, राग करत अनुराग बिनु ।

दीसत सकल अभाग, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – कितने एक लोग हृदय में अनुराग के न रहने पर भी रागी ( प्रेमी) की सी क्रिया करके प्रेम दिखाते और अपने भाग्य की स्वयं सराहना करते हैं, [किन्तु यह सब उनका भ्रम है। ] उनका दुर्भाग्य तो स्पष्ट दीख रहा है कि वे श्रीहरिवंश कृपा से विहीन है; [ तब वहाँ अनुराग और सौभाग्य कहाँ ? ]

पद – 7

पढ़त जु वेद पुरान, दान न सोभित प्रीति बिनु ।

बींधे अति अभिमान, श्रीहरिवंश कृपा बिना।

भावार्थ – भले ही कोई वेद एवं पुराणों का पाठ कर रहा है एवं दान भी देता है किन्तु उसके दान और वेद-पाठ प्रेम के बिना शोभा नहीं पाते। वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना अभिमान का ही शिकार है। वेद पाठ और दान के अभिमान से बिद्ध है।

पद – 8

दरसन भक्त अनूप, रूप न सोभित प्रीति बिनु ।

भरम भटक्कत भूप, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – कुछ लोग दर्शनीय भक्त होते हैं [ अर्थात् रूप, रंग, अवस्था और शरीर की गठन आदि उनकी प्रत्येक स्थिति मनोहर होती है और तिस पर वे तिलक मुद्रा, छाप, कण्ठी, माला आदि से अपने आपको और भी सुसज्जित कर लेते हैं । ] इनका रूप भी अनूप (उपमा न दे सकने योग्य) होता है, किन्तु केवल एक प्रीति के बिना यह सब रूप-स्वाँग शोभा नहीं देता। ये भी अपने आपको ‘भक्तराज’ मानकर भ्रम (भ्रान्ति) में ही भटकते रहते हैं, क्योंकि इतना सब होने पर भी यदि श्रीहरिवंश कृपा नहीं है, तो प्रेम मिल नहीं सकता और प्रेम के बिना और सब कुछ नट के स्वांग से अधिक क्या है?

पद – 9

सुंदर परम प्रवीन, लीन न सोभित प्रीति बिनु ।

ते सब दीखत दीन, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – कोई सुन्दर है, परम चतुर है और प्रत्येक गुण में लीन है (अर्थात् उन-उन गुणों में पूरी तरह से उसका प्रवेश है) किन्तु यदि उसके प्रीति नहीं है, तो ये सारे गुण शोभा नहीं पाते। वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना दीन ही दीखता है और उसके सब गुण भी दीन दीखते हैं।

पद – 10

गुन मानी संसार, और सकल गुन प्रीति बिनु ।

बहुत धरत सिर भार, श्रीहरिवंश कृपा बिना ॥

भावार्थ – संसार गुण मानी है (अर्थात गुणों का ही आदर करना जानता है) यदि किसी के पास एक प्रीति के सिवाय अन्य सारे गुण हैं, तो क्या हुआ? वह तो श्रीहरिवंश कृपा के बिना प्रीति को न पाकर सारे गुणों का केवल बोझ अपने सिर पर रखे बैठा है। प्रेम के बिना उन गुणों की क्या महत्ता है ?

कृपा – लक्षण

श्रीहरिवंश कृपा से रहित जीवों की दशाओं का वर्णन करके अब कृपा सम्पन्न बड़भागी जनों का स्वरूप परिचय कराते हैं कि उनमें कौन-कौनसी विशेषताएँ प्रकट हो जाती हैं।

पद – 1

मुख बरनत हरिवंश, चित्त नाम हरिवंश रति ।

मन सुमिरन हरिवंश, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश की कृपा का यही प्रकट लक्षण है कि जिस पर इस कृपा का स्रोत बहता है, वह मुख से श्रीहरिवंश के गुण एवं लीलाओं का वर्णन करता, चित्त में श्रीहरिवंश-नाम से रति करता और मन में श्रीहरिवंश का ही स्मरण करता है।

पद – 2

सब जीवन सौं प्रीति, रीति निबाहत आपनी ।

श्रवण कथन परतीति, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – जो अपनी रीति (श्रीयुगल किशोर के नित्य विहार रस श्रीवन विहार में अनन्य निष्ठा) का निर्वाह करते हुए विश्व के सब जीवों से प्रीति (सम भाव) रखता और अपने इष्टदेव के गुण, लीला-चरित्र आदि के श्रवण कथन में विश्वास रखता हो, मानो वह श्रीहरिवंश की कृपा का पात्र है अथवा यही श्रीहरिवंश की कृपा का फल है कि उक्त गुणों का अपने में प्रकाश हो ।

पद – 3

शत्रु मित्र सम जानि, मानि मान अपमान।

सम दुख सुख लाभ न हानि, जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश कृपा का यह स्वरूप है कि कृपा पात्र शत्रु और मित्र में समभाव वाला हो जाय और मान एवं अपमान में भी सम हो जाय। उसके लिये न कुछ सुख रह जाय न दुख; न लाभ न हानि ही भाव यह कि उसके लिये सुख-दुःख एवं लाभ-हानि के द्वन्द्व चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले न हों अथवा श्रीहरिवंश- -कृपा पात्र जन की शत्रु मित्र, मान-अपमान, सुख-दुःख, लाभ और हानि में सम बुद्धि हो जाती है।

पद – 4

नित इक धर्मिन संग, रंग बढ़त नित नित सरस।

नित नित प्रेम अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – नित्य निरन्तर ऐकान्तिक (अनन्य ) धर्मियों का संग मिलना, नित्य नित्य सरस आनन्द की वृद्धि होना और नित्य प्रति अखण्ड अनुराग की प्राप्ति होना ही श्रीहरिवंश की कृपा है, क्योंकि बिना कृपा के ये सभी बातें सम्भव नहीं हैं।

पद – 5

निरखत नित्यबिहार, पुलकित तन रोमावली ।

आनंद नैन सुढार, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – नित्यविहार का दर्शन हो रहा हो, सम्पूर्ण शरीर आनन्द से पुलकित हो- रोमाञ्चित हो, नेत्रों से आनन्द के आँसुओं का प्रवाह ढल रहा हो, यह सब श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है।

पद – 6

छिन छिन रुदन करंत, छिन गावत आनंद भरि ।

छिन छिन हहर हसंत, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – जिस पर श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है, वह प्रेम में उन्मत्त होने के कारण क्षण-क्षण में रोदन करता; क्षण-क्षण में आनन्द से भरकर गाने लगता और फिर क्षण-क्षण में हँसने लगता है।

पद – 7

छिन छिन बिहरत संग, छिन छिन निरखत प्रेम भरि ।

छिन जस कहत अभंग, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा प्राप्त हो जाने पर प्रेमी प्रत्येक क्षण युगल सरकार के साथ श्रीवन में विहार करता, क्षण-क्षण में प्रेम से परिपूरित नेत्रों से उनकी महामधुर छबि का दर्शन करता और क्षण-क्षण में उनके शाश्वत यश का मस्ती के साथ गान करता है।

पद – 8

निरखत नित्य किसोर, नित्य नित्य नव नव सुरति ।

नित निरखत छबि भोर, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा से पूर्ण प्रेमी नित्य किशोर की नित्य नूतन प्रेम क्रीड़ा (सुरत विलास) का दर्शन करता और फिर प्रातः काल युगल किशोर की (सुरतालस पूर्ण ) छबि का भी दर्शन करता है (अर्थात् वह प्रेमी प्रभु कृपा से उस वस्तु को प्राप्त करता है, जो औरों के लिये अगम्य है। )

पद – 9

त्रिपित न मानत नैंन, कुंज रंध्र अवलोकतन।

यह सुख कहत बनैं न, यह जु कृपा हरिवंश की ॥

भावार्थ – युगल किशोर के ऐकान्तिक विहार को कुञ्ज रन्ध्रों (छिद्रों) से अवलोकन करते रहने पर भी मेरे नेत्र तृप्ति नहीं मानते। यह सुख कुछ कहते नहीं बनता [ इस दिव्य सुख में सराबोर करा देना ] यह श्रीहरिवंशचन्द्र की कृपा है।

पद – 10

कहा कहौं बड़भाग, नित नित रति हरिवंश हित ।

नित बर्धित अनुराग, यह जु कृपा हरिवंश की ।

भावार्थ – मैं अपने महान्तम भाग्य की क्या प्रशंसा करूँ; क्योंकि मेरे हृदय में नित्य नित्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र की रति का उदय हो रहा है और यह अनुराग नित्य प्रति बढ़ता ही जा रहा है। यह श्रीहरिवंशचन्द्र की ही कृपा है।

सेवकजी प्रकरण की समाप्ति करते हैं

पद – 11

नित बर्धित अनुराग भाग अपनौ करि मानत ।

नित्य नित्य नव केलि निरखि नैंननि सचु मानत ॥

नित नित श्रीहरिवंश नाम नव नव रति मानत।

नित नित श्रीहरिवंश कहत सोई सिर मानत ॥

आपुनौ भाग आपुन प्रगट कहत जु श्रीहरिवंश बल।

हरिवंश भरोसे भये निडर सु नित गर्जत हरिवंश बल ॥

भावार्थ – अनुराग के नित्य बढ़ने में ही मैं अपना अहो भाग्य मानता हूँ और नित्य नव नवायमान् केलि का अवलोकन कर परम सुख का अनुभव करता हूँ। श्रीहरिवंश नाम के प्रति ( जो विहार का भी मूल है) नित्य नयी प्रीति करता और श्रीहरिवंशचन्द्र ने जो कुछ कहा है उसे सदा सर्वश्रेष्ठ (शिरोमणि रूप) मानता हूँ।

श्रीसेवक जी कहते हैं कि मैं स्वयं अपना भाग्योदय श्रीहरिवंश बल से प्रकट कह रहा हूँ, क्योंकि मैं श्रीहरिवंश – विश्वास से सब प्रकार से निर्भय हो चुका हूँ। इसीलिये अपने विजय और भाग्योदय की गर्जना करता रहता हूँ।


श्रीहित भक्त – भजन
( दशम् प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में भक्तों (उपासकों) के एकमात्र भजनीय तत्व का निरूपण किया गया है। यों तो युगल किशोर प्राणिमात्र के भजनीय हैं। किन्तु युगल किशोर के चरणों में प्रीति उत्पन्न करा देने वाले साधक रसिक-भक्तजनों (उपासकों) के लिये युगलकिशोर से पहले रसिक जन ही भजनीय हैं। यह बात सिद्ध है कि भक्तों की कृपा के बिना भक्ति या प्रेम नहीं मिल सकता, अतएव मन, वचन, कर्म सर्वप्रकार से भजनीय केवल भक्तजन ही हैं। श्रीसेवकजी ने इस भजन के प्रकरण को दो विभागों में बाँट दिया है- एक भक्त भजन सिद्धान्त और दूसरा रस सिद्धान्त।

पहले भक्त भजन सिद्धान्त में भक्तों का स्वरूप, उनके प्रति अनन्य और पूज्य भाव, उनकी आराधना से लाभ आदि बातों का स्पष्टीकरण किया गया है और दूसरे रस सिद्धान्त में युगलकिशोर जो समस्त रसिक जनों के सर्वस्व हैं, उनके ऐकान्तिक विहार का स्वरूप प्रकट किया गया है। युगल किशोर का यह ऐकान्तिक-विहार हित तत्व से किस प्रकार ओतप्रोत है, यह भी प्रकट किया गया है। इस रसमय तत्व की उपलब्धि के लिये साधक क्या करे ? किस भावना से यह रस अनुभव में आ सकेगा, इस प्रकरण का अन्तिम विषय है।

अब प्रथम छन्द में आप यह बताते हैं कि भक्त कौन हैं और उनके प्रति किस प्रकार की पूज्य बुद्धि रखनी चाहिये ।

भक्त भजन-सिद्धान्त

पद – 1

श्रीहरिवंश सुधर्म दृढ़, अरु समुझत निजु रीति ।

तिनकौ हौं सेवक सदा (सु) मन क्रम वचन प्रतीति ॥

मन क्रम वचन प्रतीति प्रीति दिन चरन सँभारौं ।

नित प्रति जूठनि खाऊँ बरन भेदहिं न विचारौं ॥

तिनकी संगति रहत जाति कुल मद सब नसहिं ।

संतत ‘सेवक’ सदा भजत जे श्रीहरिवंशहिं ।

भावार्थ – जो श्रीहरिवंश धर्म में पक्के (दृढ़) हैं और अपनी रीति ( रसोपासना ) को भली प्रकार से समझते हैं, मैं उनका मन, वचन, कर्म एवं विश्वास पूर्वक सदा सर्वदा सेवक हूँ। मन, वचन, कर्म, विश्वास एवं प्रीति के साथ नित्य प्रति उनके चरणों को ही (सर्वस्व की तरह) सँभालता रहता हूँ। मैं उनके प्रति वर्ण भेद (जाति विचार) न मानकर सदा उनका जूँठन ही खाता हूँ या खाऊँ। उन (रस भीनें हरिवंश-धर्मी जनों) की संगति में रहते जाति, कुल आदि के सारे अहंकार नष्ट हो जाते हैं, अतएव मैं श्रीहरिवंश का भजन करने वाले जनों का सदा सर्वदा का सेवक हूँ, (ऐसा श्रीसेवक जी कहते हैं । )

पद – 2

सब अनन्य साँचे सुविधि, सबकौ हौं निजु दास।

सुमिरन नाम पवित्र अति, दरस परस अघ नास॥

दरस परस अघ नास, बास निजु संग करौं दिन।

तिन मुख हरि जस सुनत, श्रवन मानौं न त्रिपित छिन।

कलि अभद्र बरनत सहस, कलि कामादिक द्वंद्व तब। सेवक सरन सदा रहै, साँचे सुविधि अनन्य सब ॥

भावार्थ – जो भली प्रकार से सच्चे अनन्य रसिक हैं, मैं उन सबका निज दास हूँ। उन का नाम स्मरण अत्यन्त पवित्र होता है तथा उनका दर्शन-स्पर्श अघ नाशक है। जिनके दर्शन और स्पर्श से पापों का नाश हो जाता है मैं ऐसे रसिक अनन्यों का निरन्तर सहवास और ऐकान्तिक सहज संग करूँ, उनके मुख से श्रीहरि का सुयश सुनते हुए कभी मेरे कर्ण पुट (कान) एक क्षण भर को भी तृप्ति न माने। (उन रसिकों के द्वारा श्री हरि के सुयश) वर्णन किये जाने पर कलियुग के हजारों हजारों अमंगल, कलह, काम, क्रोध लोभ, मोहादि, द्वन्द्व वहाँ (सेवक के पास ) कैसे रह सकते हैं ? इसलिये जो सच्चे और भली प्रकार से अनन्य हैं, ‘सेवक’ उन सबकी चरण-शरण में सदा रहा आवे, यही अभिलाषा है, (अथवा सदा उनकी चरण शरण में रहता है । )

पद – 3

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ ।

रसिक अनन्य सजाति भजि, भली भली सब होइ ॥

भली भली सब होइ, जबहिं हरिवंश चरन रति ।

भली भली तब होइ, रचित रस रीति सदा मति ॥

भली भली सब होइ, भक्ति गुरु-रीति अगाधा।

भली भली सब होइ, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू श्रीराधावल्लभ का भजन करने वालों का भजन कर ( अर्थात् अनन्य रसिकों की सेवा कर) इसमें तो तेरा सब प्रकार मंगल लाभ होगा। तू रसिक अनन्यों के सजातीय (रसिक अनन्यों) का भजन कर, सब भला ही भला होगा। विशेष लाभ सुख तू तब पावेगा जब तू श्रीहरिवंश चरणों में रति करेगा और सब प्रकार भला ही भला तब होगा, जब तेरी मति (बुद्धि) श्रीहरिवंश-रचित रस-रीति में सदा के लिये लग जायगी। सब भला ही भला हुआ, ऐसा तो तब कहा जा सकेगा, जब श्रीगुरुदेव द्वारा बतायी गयी रीति ( रसमय हित भजन प्रणाली) में तेरी अगाध भक्ति हो जायगी और मूल बात तो यह है कि जब तू श्रीहरि राधा के भजनानन्दी रसिकों का भजन करने लग जायगा, तभी तेरा भला है- कल्याण ही कल्याण है।

पद – 4

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ ।

असुभ अनर्भल संग जन, विमुख तजौ सब कोइ ॥

विमुख तजौ सब कोइ, झूठ बोलत सच मानत।

दोष करत निरसंक, रंक करि संतन जानत॥

अभिमानी गर्विष्ठ, लोभ मद मत्त अगाधा।

दुष्ट परिहरौ दूर, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – हे भाई! तू श्रीराधावल्लभ का भजन करने वाले भक्तों का भजन सेवन कर, इससे तेरा सर्वविध मंगल होगा और तू अशुभ एवं बुरा सङ्ग त्याग दे, तथा जितने भी भगवद् विमुख जन उन सब को भी त्याग दे। इन विमुखों को इसलिये त्याग कि ये लोग झूठ बोलने में तो सुख मानते, निडर और निःशंक होकर दोष (अपराध) करते और सन्त-महात्माओं को (जो विरक्त और अकिञ्चन होते हैं, उन्हें) गरीब (भिखारी) मानते हैं। इन अभिमानी, गर्व से भरे हुए, लोभ और मद से अत्यन्त मतवाले दुष्टों को तू दूर से ही त्याग दे और श्रीहरि राधा के भजन करने वाले भक्तों का ही भजन सेवन कर।

पद – 5

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

जिते विनायक सुभ-असुभ, बिघ्न करैं नहिं कोई ॥

बिघ्न करै नहिं कोई, डरैं कलि काल कष्ट भय।

हरैं सकल संताप, हरषि हरि नाम जपत जय ॥

श्रीवृंदावन नित्य केलि, कल करत अगाधा।

हित हरिवंश किसोर, भजत भजि श्रीहरिराधा ॥

भावार्थ – अरे भाई ! तू श्रीराधावल्लभ के भक्तों का ही भजन सेवन कर इससे तेरा सब भला ही भला होगा और जितने भी विनायक, शुभ और अशुभ आदि हैं वे कोई भी तुझे विघ्न नहीं पहुँचा सकते। ये विनायक आदि बिघ्न तो पहुँचावेंगे नहीं और साथ-साथ तुझसे कलियुग के धर्म कलह, कष्ट, काल आदि भय मानेंगे। भक्तजन तेरे समस्त सन्तापों का हरण कर लेंगे। हर्ष पूर्वक श्रीहरि का नाम जपते-गाते तेरी सर्वत्र जय ही होगी। जो श्रीवृन्दावन में नित्य निरन्तर अगाध एवं परम सुन्दर केलि करते रहते हैं, उन श्रीहित हरिवंश किशोर श्रीहरि राधा का भजन करने वाले भक्तों का तू भजन कर।

पद – 6

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

त्रिविध ताप नारौं सकल, सब सुख संपति होइ ॥

सब सुख संपति होइ, होइ हरिवंश चरन रति ।

होइ विषय विष नास होइ वृंदावन बसि गति ॥

होइ सुदृढ़ सतसंग, होइ रस रीति अगाधा।

होइ सुजस जग प्रगट होइ पद प्रीति सु राधा ॥

भावार्थ – अरे भैय्या ! श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन करने से तेरा तो सब प्रकार से भला होगा तथा तेरे तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक) ताप ही क्या और भी सब प्रकार के शोक नाश को प्राप्त होकर तुझे समस्त सुख एवं सम्पत्ति भी प्राप्त होगी। सब सम्पत्ति प्राप्त होकर भी तुझे श्रीहरिवंश चरणों की प्रीति प्राप्त होगी, विषय भोग रूप विषों का नाश होगा और श्रीवृन्दावन का निवास प्राप्त होकर तेरी उत्तम गति (नित्य-विहार में प्राप्ति) भी होगी। तुझे सुदृढ़ सत्संग की प्राप्ति होगी और उसके फल स्वरूप युगल- सरकार की अगाध रस-रीति भी अनुभव होगी। तेरा सुयश संसार में फैल जायगा और श्रीराधा के सुन्दर-चरणों में तेरी अपार प्रीति हो जायगी। ( यह है, श्रीराधावल्लभ के भक्तों के भजन का फल ! )

पद – 7

श्रीराधाबल्लभ भजत भजि, भली-भली सब होइ ।

भीर मिटै भट जमन की, भय भंजन हरि सोइ ॥

भय भंजन हरि सोइ, भरम भूल्यौ भटकत कति ।

भगवत-भक्ति बिचारि, वेद भागौत प्रीति रति ॥

भक्त चरन धरि भाव, तरत भव सिंधु अगाधा।

हित हरिवंश प्रसंस, भजत भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन-सेवन करते सब भला ही भला होगा, यमराज के योद्धा दूतों का भय मिट जायगा; क्योंकि वे श्रीहरि (राधा वल्लभ) भय का नाश करने वाले हैं (तू जिनके भक्तों का सेवन करता है । ) जब तू यह जान गया कि वे श्रीहरि भय-भञ्जन हैं, तब भ्रम में भूला हुआ कहाँ भटकता फिरता है? भगवद्भक्ति का विचार मनन कर, वेद एवं श्रीमद्भागवत में वर्णित प्रीति में रति कर अर्थात् श्रीमद्भागवत में कही गई नवधा या प्रेम लक्षणा की रीति से श्रीराधा वल्लभ एवं उनके रसिक अनन्य भक्तों से प्रेम कर, और भक्तों के चरणों में भाव रख करके इस अगाध संसार-सागर को क्यों नहीं पार कर जाता? अरे! जिन भक्तों की प्रशंसा श्रीहरिवंश चन्द्र ने भी की है, तू राधावल्लभ के उन भक्तों का ही सेवन कर।

पद – 8

श्रीराधावल्लभ भजत भजि, भली भली सब होइ।

अन्य देव सेवी सकल, चलत पुँजी सी खोइ ॥

चलत पुँजी सी खोइ रोइ झखि द्यौस गँवावहिं।

सोइ छपत सब रैन, जोइ कपि सम जु नचावहिं॥

भोइ विषम विष विषय, कोई सतगुरु नहिं लाधा।

धोड़ सकल कलि कलुष, दोइ भजि श्रीहरि राधा ॥

भावार्थ – अरे भाई! श्रीराधावल्लभ के भक्तों का भजन करने से तेरा सर्वविध मंगल ही होगा। अन्य देवताओं का सेवन करने वाले अन्त में इस संसार से अपनी पूँजी खोकर चले जाते हैं। उनके साथ में कुछ नहीं जाता; क्योंकि उन्होंने सकाम भाव से लौकिक भोग ही देवताओं से प्राप्त किये थे, सो भोग कर ज्यों के त्यों रीते-भक्ति रहित चले जाते हैं।) वे अन्त काल में पूँजी खोकर तो जाते ही हैं, वरं जीवन में भी रो-झींख कर अपने दिन गमाते हैं, सारी रात सोकर नींद में व्यतीत करते हैं और उन्हें स्त्रियाँ अपना वशवर्ती बनाकर बन्दर की तरह नचाती हैं। उनका चित्त विषम (भीषण) विषय रूपी विष से व्याप्त हो जाता है और अन्त तक वे किसी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं कर पाते। अतएव हे भाई! तू अन्य देव सेवी लोगों की दशा देख सुनकर सचेत हो जा। श्री हरि राधा केवल इन दोनों का भजन कर और समस्त कलि कल्मषों ( कलियुग के पापों) को धो डाल ।

पद – 9

राधावल्लभलाल बिनु, जीवन जनम अकत्थ।

बाधा सब कुल कर्म कृत, तुच्छ न लागै हत्था ॥

तुच्छ न लागै हत्थ, सत्य समरथ न वियौ तब।

माथ धुनत हरि विमुख, संग जम-पथ चलत जब ॥

गाथ विमल गुन गान, कत्थ जस भवन अगाधा।

नाथ अनाथनि हित, समर्थ मोहन श्रीराधा ॥

भावार्थ – श्रीराधावल्लभलाल के बिना जीवन और जन्म दोनों अकृतकार्य (व्यर्थ) हैं। सारे कुलोचित कर्म और अन्य कर्म भी बाधा स्वरूप और तुच्छ हैं; अन्त में सहायक सिद्ध नहीं होते। अरे भाई! ये जब तुच्छ हैं, यहीं छूट जाते हैं और फिर कोई ऐसा दूसरा नहीं रहता जो समर्थ हो, तेरा साथी हो और तुझे (या उन हरि-विमुख जनों को) अपना सिर पीटते हुए, यमदूतों के साथ संयमनी पुरी के मार्ग में चलना ही पड़ता है तब तू [ इन कुल कर्मों को छोड़कर] श्रीराधामोहन के निर्मल चरित्रों एवं गुणों की गाथा के गीत क्यों नहीं गाता। अरे! उन्हीं का कथन कर, उन्हीं का श्रवण कर क्योंकि वे समर्थ श्रीराधामोहन ही समस्त अनाथों के नाथ हैं !!

जो लोग भक्ति और भगवद्धर्म की महत्ता समझ कर भी उसे ग्रहण नहीं कर पाते उन कर्मठ और सशल्य लोगों का परिचय कराते है

पद – 10

कर्मठ कठिन ससल्य नित सोचत सीस धुनंत।

श्रीहरिवंश जु उद्धरी सोई रसरीति सुनंत ॥

सोइ रसरीति सुनंत अंत अनसहन करत सब।

जब जब जियनि विचारि सार मानत मन मन तब ॥

छिन छिन लोलुप चित्त, समुझि छाँड़त तातैं सठ।

करत न संत समाज, जिते अभिमानी कर्मठ ॥

भावार्थ – जब कठोर कर्मकाण्डी और सशल्य (बहुत देवी देवताओं के पूजने वाले) लोग श्रीहित हरिवंश चन्द्र के द्वारा प्रकट की गयी उस रीति का श्रवण करते हैं, तो अपनी कर्मठता और भटकन के लिये पश्चात्ताप करते हुए सिर पीटने लगते हैं। फिर कभी (अहंकार वश) उस रस रीति (की उत्तमता) को सुन समझकर भी उसके प्रति असहनीय भाव (विद्वेष) ले आते और अन्ततः विपरीत सा करने लगते हैं। किन्तु जब कभी सुस्थिर चित्त से विचार करते हैं तो मन ही मन रस रीति को ही सार मान कर उसकी बड़ाई भी करते हैं। ऐसा करने पर भी वे हैं तो वास्तव में लोलुप चित्त कर्मठ ही, अतः समझ-बूझ कर भी इस दिव्य रस रीति का त्याग कर देते हैं और अपनी कर्मठता में फँसे रहते हैं। इस प्रकार जितने भी अभिमानी कर्मठ (कर्म काण्ड में घोर निष्ठा वाले) हैं, वे (प्रेम भक्ति सम्पन्न) सन्तों का सङ्ग नहीं करते।

दसवें छन्द में अभक्त कर्मठों का स्वरूप बताया गया अब इसमें भावुक भक्तों की रहनी, भावना और उपासना आदि का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है

पद – 11

हित हरिवंश प्रसंस मन, नित सेवन विश्राम।

चित निषेध विधि सुधि नहीं, वितु संचित निधि नाम ॥

वितु संचित निधि नाम, काम सुमिरन दासंतन।

जाम घटी न विलंब, बाम-कृत करत निकट जन ।।

ग्राम पंथ आरन्य, दाम दृढ़ प्रेम ग्रथित नित।

ता मत रत सुख रासि, बाम दृश नव किसोर हित ॥

भावार्थ – अनन्य रसिक जन सदा अपने मन ही मन श्रीहरिवंश के रूप एवं गुणों की प्रसंसा और निरन्तर उनकी सेवन भक्ति में ही विश्राम करते अर्थात् स्थित रहते हैं। उनके चित्त में न तो विधि मार्ग की सुधि है और न निषेध की ही वे तो नाम निधि रूप परम धन का ही सञ्चय करते रहते हैं। उनका कार्य है भगवद् स्मरण और भगवद् सेवा वे इस सेवा कार्य में कभी घड़ी पहर का भी विलम्ब न करके अत्यन्त निकट जन (दासी) के भाव के समस्त दासी कृत्य (सेवायें ) करते रहते हैं। चे ग्राम में, मार्ग में, वन पर्वत में सर्वत्र एक प्रेम की ही दृढ़ डोरी से सर्वदा बँधे रहते हैं। इस प्रकार सुख शिवाम दृशा श्रीप्रिया जी एवं नव किशोर हित श्री लाल जी के सुख-चिन्तन के विचार में ही ये रसिक जन सदा रत रहते हैं, (अर्थात् सदा सेवा के ही विचार में मग्न रहते हैं।)

इस छन्द में सेवक जी श्रीराधा-परत्व पूर्वक श्रीवृन्दावन के अविचल विहार की प्रारंभिक रूप रेखा का दिग्दर्शन कराते हैं कि युगल सरकार किस प्रकार स्वच्छन्द भाव से अपनी क्रीड़ा सम्पन्न करते हैं

पद – 12

श्रीराधा आनन कमल, हरि अलि नित सेवंत।

नव नव रति हरिवंश हित, वृंदाविपिन बसंत ॥

वृंदाविपिन बसंत, परस्पर बाहु दंड धरि ।

चलत चरन गति मत्त, करिनि गजराज गर्व भरि ॥

कुंज भवन नित केलि, करत नव नवल अगाधा।

नाना काम प्रसंग करत मिलि हरि श्रीराध ॥

भावार्थ – श्रीहरि रूपी भ्रमर श्रीराधा-मुख कमल का निरन्तर सेवन करता रहता है, जहाँ दोनों के बीच में नित्य प्रति नव-नवायमान् रति ( प्रीति) के रूप में स्वयं श्रीहित हरिवंश ही हैं। यह क्रीड़ा नित्य वृन्दावन में होती है, जहाँ सदा ही वसन्त छाया रहता है। इस वासन्तिक श्रीवृन्दावन में युगल किशोर परस्पर में गलबहियाँ दिये मतवाली गति से पादविन्यास करते हुए समर्थ गजराज एवं मत्त करिणि (हथिनी) की भाँति झूमते चलते हैं। इसी प्रकार निरन्तर नव निकुञ्ज भवन में श्रीहरि और श्रीराधा दोनों मिलकर नाना प्रकार के काम-क्रीड़ा प्रसङ्ग (संयोग) और नित्य नूतन गंभीर क्रीड़ाएँ करते है।

इस छन्द में ‘नाना काम प्रसङ्ग’ के स्पष्ट रूप शय्या-विहार का संकेत करते हैं

पद – 13

मुख विहँस हरिवंश हित, रुख रस रासि प्रवीन।

सुख सागर नागर गुरू, पुहुप सैन आसीन ॥

पुहुप सैंन आसीन, कीन निजु प्रेम केलि बस।

पीन उरज वर परसि, भीन नव सुरत रंग रस ॥

खीन निरखि मद मदन दीन, पावत जु विलखि दुख।

मीनकेतु निर्जित सु लीन, प्रिय निरखि विहँसि मुख ॥

भावार्थ – रस राशि प्रवीण युगल किशोर को देखकर श्रीहित हरिवंश हँस पड़े। श्रीहित हरिवंश * ने देखा कि सुख-सागर स्वरूप चतुर शिरोमणि युगल किशोर पुष्प- शय्या पर विराजमान हैं। और वे अपनी स्वयं की प्रेम-क्रीड़ा के वशीभूत हो रहे हैं। प्रियतम ने प्रिया के पुष्ट एवं श्रेष्ठ उरोजों का स्पर्श किया और दोनों नव-सुरत-आनन्द के रस में सराबोर हो गये। दोनों की यह सुरतानन्दमयी दशा देखकर स्वयं कामदेव का अहंकार भी क्षीण हो गया और वह दीन होकर बहुत प्रकार से व्याकुल हो दुःख पाने लगा। अपने युगल प्रियतम की कामदेव को विजय करने की स्थिति किंवा काम के विलखने (दीन होने की दशा) का दर्शन करके श्रीहित हरिवंश चन्द्र हँस उठे।

श्रीहित हरिवंशचन्द्र युगल किशोर की रसमयी सुरत केलि के अवसर पर भी अपने ‘सजनि’ स्वरूप से उनके समीप निकुञ्ज भवन में शोभित रहते हैं और ‘हित’ स्वरूप से दोनों के हृदय में व्याप्त होकर रस क्रीड़ा सम्पन्न कराते हैं। अब इस विषय का परिचय दे रहे हैं

पद – 14

रस सागर हरिवंश हित लसत सरित वर तीर।

जस जग बिसद सुबिस्तरित बसत जु कुंज कुटीर ॥

बसत जु कुंज कुटीर भीर नव रँग भामिनि भर ।

चीर नील गौरांग सरस घन तन पीतांबर ॥

धीर बहत दक्षिन समीर कल केलि करत अस।

नीरज सैंन सु रचित वीर वर सुरत रंग रस ॥

भावार्थ – रस के सागर श्रीहित हरिवंशचन्द्र [ अपने निज स्वरूप सजनि भाव से ] निरन्तर सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी के तीर पर कुञ्ज कुटीर में निवास करते हुए शोभित रहते हैं; आपके पवित्र यश संसार में अच्छी तरह से व्याप्त हैं। आप उस कुञ्ज-कुटीर में निवास करते हैं, जहाँ नवरंग भामिनियों की भीड़ का प्रवाह सा रहा आता है। उन सबके मध्य में नील दुकूल धारिणि गौरांगी श्रीप्रियाजी एवं सरस घन की सी कांति से पूर्ण, पीताम्बरधारी श्रीलालजी शोभा पाते हैं। उस समय श्रीवन में दक्षिण दिशा का शीतल एवं सुगन्धित पवन धीरे-धीरे बह रहा है और युगल किशोर कुछ ऐसी सुन्दर केलि करते हैं कि कमल दलों से सुखद शय्या रचकर उस पर सुरत आनन्द रस के दोनों महान् योद्धा केलि मग्न हो जाते हैं।

अब वृन्दावन विहार के एक दूसरे अंग रास-क्रीड़ा एवं जल विहार की झाँकी कराते हैं कि वह भी वंशी रूप आचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र द्वारा पूर्ण होती है

पद – 15

पिय बिचित्र बन हरषि मन जिय जस बैंनु कुनंत ।

तिय तरुन्नि सुनि तुष्ट धुनि कियौ तहाँ गवन तुरंत ॥

कियौ तहाँ गवन तुरंत कंत मिलि बिलसत सर्वस।

तंतु रास मंडल जुरंत रस निर्त्त रंग रस ॥

संतत सुर दुंदुभि बजंत, बरषंत सुमन लिया।

अंत केलि जल जनुकि मत्त, इभराट करिनि पिय ॥

भावार्थ – प्रियतम श्रीलालजी ने श्रीवृन्दावन की विचित्र शोभा देखकर प्रसन्न मन हो अपने हृदय स्थित प्रिया यश का वेणु के द्वारा गान किया; तरुणी नारियों सखियों ने उस सुखमय ध्वनि का श्रवण किया और उन्होंने तुरन्त ही वहाँ (लालजी के समीप) गमन किया। वे प्रियतम से मिलकर अपने सर्वस्व दान पूर्वक विलास करने लगीं। श्रीवन में उस समय रसमय रासमण्डल एकत्र हुआ और रस पूर्ण नृत्य का आनन्द बरसने लगा। देवतागण निरन्तर दुन्दुभि बजाने लगे और मुग्ध होकर पुष्पों की वृष्टि करने लगे।

रास क्रीड़ा के पश्चात् अन्त में सब जल क्रीड़ा के लिये जल में प्रवेश कर ऐसे क्रीड़ा करने लगे जैसे मतवाला हाथी अपनी प्रियतमा करिणियों से क्रीड़ा करता है।

अब एक छन्द में शय्या विहार का वर्णन करते हैं-

पद – 16

हरि बिहरत बन जुगल जनु, तड़ित सु बपु घन संग ।

करि किसलय दल सैन भल, भरि अनुराग अभंग ॥

भरि अनुराग अभंग, रंग अपने सचु पावत।

अंग-अंग सजि सुभट, जंग मनसिजहिं लजावत ॥

पंगु दृष्टि ललितादि, तंक निरखत रंध्रनि करि।

मंग आदि रचि सिथिल, सजित उच्छंग धरत हरि ॥

भावार्थ – श्रीहरि श्रीवृन्दावन में विहार कर रहे हैं। उस समय युगल [ श्रीराधावल्लभ लाल] ऐसे शोभा पा रहे हैं, जैसे दामिनि अपने सुन्दर वपु से मेघ के सङ्ग फब रही हो। दोनों अभङ्ग अनुराग से भरे हुए किशलय दलों की सुन्दर शय्या रचकर अपने ही में सुख और आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। वे दोनों सुरत-रण के सुयोद्धा अपने अङ्ग अङ्गों से सजकर युद्ध में कामदेव को भी लजा रहे हैं। इस रस युद्ध को ललितादि सखियाँ | एकटक दृष्टि (थकित दृष्टि) से कुञ्ज भवन के छिद्रों से लगी हुई देख रही हैं और निकुंज भवन में श्रीलालजी प्रियतमा श्रीराधा की माँग रचकर शिथिल वेणी सजाते और उन्हें अपनी गोद में ले लेते हैं।

पुनः एक छन्द के द्वारा रति विहार का ही वर्णन करते हैं-

पद – 17

स्याम सुभग तन बिपिन घन, धाम बिचित्र बनाइ ।

तामैं संगम जुगल जन, काम केलि सचु पाइ ॥

काम केलि सचु पाइ, दाइ छल प्रियहिं रिझावत।

धाइ धरत उर अंक, भाइ गन कोक लजावत ॥

चाइ चवग्गुन चतुर, राइ रस रति संग्रामहिं ।

छाइ सुजस जग प्रगट, गाइ गुन जीवत स्यामहिं॥

भावार्थ – परम सुन्दर वपु श्रीश्याम सुन्दर ने श्रीवृन्दावन की सघन स्थली में विचित्र निकुञ्ज धाम की रचना की। उसमें युगल श्रीप्रिया लाल का मिलन होकर दोनों ही काम केलि का सुख प्राप्त कर रहे हैं। श्रीलालजी अपने छल और दावों से श्रीप्रियाजी को रिझा लेते हैं और लपक कर उन्हें अपनी गोद में लेकर हृदय से लगा लेते हैं। इस क्रीड़ा से मानों वे कोक-समूह को भी लज्जित कर रहे हैं। इस प्रकार चतुर शिरोमणि श्रीलालजी रति रस के संग्राम में चौगुना चाव प्राप्त कर रहे हैं, श्रीश्यामा का सुयश संसार में प्रगट है और आपकी इस गुणावली का गानकर करके ही श्यामसुन्दर अपना जीवन धारण करते हैं।

मानवती श्रीप्रियाजी को रासमण्डल में ले जाने के लिये सखी उद्दीपन विभाव- श्रीवृन्दावन का वर्णन कर रही है; जिसे सुनकर सम्भ्रम मानमयी श्रीप्रियाजी चल पड़ती हैं; जिससे उनका मान-जनित विरहज दुःख मिट जाता है। फिर माधव मास के सुहावने वासन्ती वन में समस्त नव-तरुणियों के साथ विहार सम्पन्न होता है।

पद – 18

सरिता तट सुर द्रुम निकट, अलिता सुमन सुबास ।

ललितादिक रसननि बिबस, चलि ता कुंज निवास ॥

चलि ता कुंज निवास, आस तव हित मग परषत।

रास स्थल उत्तम विलास, सचि मिलि मन हरषत ॥

तासु बचन सुनि चित हुलास, विरहज दुख गलिता।

दासंतन कुल जुवति, मास माधव सुख सलिता ॥

भावार्थ – [ मानवती श्रीप्रियाजी से हित सखी ने कहा- श्रीराधे! देखो; कितना सुन्दर सरित श्रेष्ठ ] यमुना जी का तट है और उसी तट के निकट कल्प वृक्ष है; जिसके सुमनों की सुगंध से भ्रमरगण थकित हो रहे हैं। रास में ललिता आदि सखियाँ रस से विवश हो रही हैं, अतः आप भी उस कुञ्ज निवास की ओर चलो चलो! प्रियतम भी उस निकुञ्ज निवास में आपकी ही आशा लगाये, उत्तम रासस्थल और उसके विलासों की रचना करके आपका मार्ग देख रहे हैं अतः आप भी प्रसन्न मन से चलकर उनसे मिलो।

[ श्रीसेवकजी कहते हैं-] कि उस सखी के वचन सुन कर श्रीप्रियाजी के चित्त में उल्लास हो आया और विरह-जनित सारे दुःख मिट गये। समस्त दासीगणों में श्रेष्ठ युवति श्रीराधा, माधव (रूप वसन्त) मास में सुखमयी सलिता (नदी) की तरह हैं।

इस छन्द में निकुञ्ज गत शय्या पर होती हुई ऐकान्तिक सुरत क्रीड़ा का वर्णन किया गया है जिसका दर्शन प्रातःकाल ललितादिक सखीगण कर रही हैं, सो भी चोरी-चोरी लता-भवन के रन्ध्रों से लगकर-

पद – 19

परषत पुलिन सुलिन गिरा, करवत चित सुर घोर ।

हरवत हित नित नवल रस, बरषत जुगल किसोर ॥

बरषत जुगल किसोर जोर नव कुंज सुरत रन ।

मोर चंद्र चय चलत, डोर कच सिथिल सुभग तन ॥

चोर चित्त ललितादि, कोर रंधनि निजु निरषत।

थोर प्रीति अंतर न, भोर दम्पति छबि परषत ॥

भावार्थ – युगल किशोर की रसमयी वाणी जो यमुना पुलिन का स्पर्श कर रही है अर्थात् पुलिन पर गूँज रही है और युगल किशोर का घो स्वर सखिजनों के चित्त का आकर्षण कर रहा है। युगल किशोर की रति क्रीड़ा को देखकर श्रीहित हर्षित हैं इस प्रकार युगल किशोर नित्य निरन्तर ही इस नूतन रस की वर्षा किया करते हैं। यह नव किशोर जुगल जोड़ी नव निकुञ्ज भवन में निरन्तर सुरत-केलि (रण) किया करती है। केलि अवसर में श्रीलालजी की मोर चन्द्रिका खिसक पड़ती, श्रीप्रियाजी के केशों की डोर शिथिल हो जाती तथा युगल के सुन्दर वपु भी शिथिल हो जाते हैं। युगल की निज सखी ललिता आदि कुंज छिद्रों से चित्र की भाँति अविचल भाव से लगी हुई चोरी-चोरी (छिपकर) इस क्रीड़ा का दर्शन (अवलोकन) करती हैं; क्योंकि उनके हृदय में थोड़ी नहीं वरं अपार प्रीति है; इसीलिये [ मत्सर रहित होकर] वे [ तत्सुख भाव से] प्रातःकाल दम्पति की छवि देखकर रही हैं और मुग्ध हो रही हैं।

अब बसंत केलि के रूपक से शय्या-गत सुरत विहार का वर्णन करते हैं

पद – 20

रितु बसंत बन फल सुमन, चित प्रसंन नव कुंज।

हित दंपति रति कुसल मति, बितु संचित सुख-पुंज ।

बितु संचित सुख-पुंज, गुंज मधुकर सुनाद धुनि ।

रुंज मृदंग उपंग धुंज, डफ झंझि ताल सुनि ॥

मंजु जुवति रस गान, लुंज इव खग तहाँ बिथकितु ।

भुंजत रास विलास कुंज नव, सचि बसंत रितु ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन के नव निकुञ्जों में फूल एवं फलों से परिपूर्ण बसन्त ऋतु छा रही है; जो चित्त को प्रसन्न करती है। ऐसे समय नव निकुञ्जों में हितमय दम्पति श्रीराधावल्लभलाल जो रति कला में परम चतुर है सुख-पुंज सम्पत्ति (रति विहार) का एकत्रीकरण (संचयन) कर रहे हैं; जिसमें मधुकर की गुञ्जार-ध्वनि के साथ अन्यान्य सुन्दर नाद भी सुन रहे हैं। तरह-तरह के वाद्य यथा रुँझा (रुंज), मृदङ्ग, उपङ्ग, डफ, झाँझें और धुंज आदि ताल पूर्वक बज रहे हैं। साथ ही सुन्दरी युवती जनों का रसमय गान हो रहा है, जिसे सुनकर पक्षीगण विशेष शिथिल होकर अचेतन से हो रहे हैं। इस प्रकार वसन्त ऋतु में नव-निकुञ्ज भवन की रचना करके युगल किशोर रास-विलास का सुख भोग भोगते हैं।

श्रीवृन्दावन विहार अनादि एवं अनन्त है अतः अब इस छन्द में उसकी अनिर्वचनीयता प्रकट करते हैं-

पद – 21

कहत कहत न कही परै, रहत जु मनहिं विचारि ।

सहत सहत बाढ़ भगति, गृह तन गुरु हित गारि ॥

गृह तन गुरु हित गारि, हार अपनी करि मानत।

चार वेद सुंमृति बिचारि, क्रम कर्म न जानत॥

डारि अविद्या करि बिचार, चित हित हरिवंशहि ।

नारि रसिक हृद बन बिहार, महिमा न परै कहि ॥

भावार्थ – श्रीवृन्दावन विहार का वर्णन कथन में नहीं आता, केवल मन ही मन में विचार कर रह जाते हैं। भाव यह कि यह अनुभव गम्य विषय है जो वर्णन में नहीं आ सकता। इस रस विहार के प्रति क्रमशः सहते सहते (धैर्य से) ही भक्ति बढ़ती है, अतएव इसके लिये साधक अपने घर कुटुम्ब, शरीर आदि को श्रीगुरु के चरणों में उनकी ही सेवा में गार दे – लगा दे। जो अपने आपको सम्पूर्ण रूप से सेवा में लगा देता है वह सदा अपनी हार ही मानता है अर्थात् चित्त में दीनता, सरलता, नम्रता आदि सद्भाव रखता है। [ ऐसा अनन्य शरणागत रसिक भक्त ] वेद (ऋक्, यजु, साम और अथर्व), सुन्दर स्मृतियाँ के विचार, वर्णाश्रम कर्म-धर्म आदि कुछ भी नहीं समझता अर्थात् समझकर भी उनकी ओर से बेपरवाह रहता है।

[ श्रीसेवकजी कहते हैं- भाई! तू ] अविद्या रूप महा मोह का परित्याग करके, विचारपूर्वक श्रीहरिवंश के चरणों में अपने चित्त को लगा- उन्हीं से प्रीति कर [ तभी इस विहार का अनुभव होगा।] अस्तु; यह नारि ( श्रीप्रिया एवं सखिजन) और रसिक (श्रीलालजी) के रसमय सरोवर श्रीवृन्दावन का विहार अनन्त महिमामय है, वाणी द्वारा कहने में सर्वथा अशक्य है।

प्रकरण के उपसंहार में ग्रन्थ के प्रतिपाद्य तत्व श्रीहित हरिवंशचन्द्र की महत्ता प्रदर्शित करते हुए स्वयं अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं

पद – 22

सेवक श्रीहरिवंश के जग भ्राजत गुन गाइ।

निसिदिन श्रीहरिवंश हित हरषि चरन चित लाइ ॥

हरषि चरन चित लाइ जपत हरिवंश गिरा-जस ।

मनसि बचसि चित लाइ जपत हरिवंश नाम-जस ॥

श्री हरिवंश प्रताप नाम नौका निजु खेवक ।

भवसागर सुख तरत निकट हरिवंश जु सेवक ॥

भावार्थ – भाइयों! यह सेवक तो श्रीहित हरिवंशचन्द्र के विश्व शोभित गुणों को ही गाता रहता है और दिन रात हर्षपूर्वक श्रीहित हरिवंशचन्द्र के चरणों में ही चित्त लगाये रखता है। वह हर्षपूर्वक चरणों में चित्त लगाकर श्रीहरिवंश की वाणी का ही सुयश गाता रहता है, तथा चित्त लगाकर मन एवं वाणी के द्वारा श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम का सुयश जपा करता

श्रीसेवकजी कहते हैं कि यह सेवक अपनी जीवन-नौका श्रीहित हरिवंश के नाम प्रताप से ही पार कर रहा है और श्रीहरिवंश की निकटता प्राप्त करके इतने महान् संसार सागर को सुखपूर्वक पार कर गया है।


श्रीहित नाम, प्रभाव धाम – ध्यान
(एकादश प्रकरण)
पूर्व परिचय

दशम प्रकरण की अन्तिम कुण्डलियों में जो रस सिद्धान्त कहा गया है, उस रस की प्राप्ति किनके चरणाश्रय से होगी, उस रस के अधिष्ठान, मूल किंवा विस्तारक कौन हैं? और उनका स्वरूप क्या है? यही सब इस एकादश प्रकरण के विषय हैं। प्रकरण के इस प्रथम छन्द में श्रीवृन्दावन – विलास का स्वरूप प्रकाशित किया गया है, जो हित का ही रूपान्तर मात्र है। दूसरे छन्द में स्पष्टतया आचार्य श्रीहित हरिवंश के कृपा वपु का वर्णन किया गया है, साथ ही उनके शील स्वभाव एवं गुणों का भी। तीसरे छन्द में नवधा भक्ति से भी परे प्रेम-लक्षणा का परिचय देकर चौथे छन्द में उस प्रेम-लक्षणा की प्राप्ति जिन श्रीहितचन्द्र की कृपा से होगी, उनका वर्णन है । पाँचवें छन्द में प्रकरण की फलस्तुति के रूप में नित्य विहार एवं श्रीहित हरिवंशचन्द्र की एकता, समीपता और नित्यता सूचित की गयी है-

पद – 1

सजयति हरिवंशचन्द्र नामोच्चारण बर्द्धित सदा सुबुद्धि,

रसिक अनन्य प्रधान सतु साधु मंडली मंडनो जयति ॥

जै जै श्रीहरिवंश हित प्रथम प्रणउँ सिर नाइ ।

परम रसद निर्विघ्न है जैसे कवित सिराइ ॥

सुकवित सुछंद गनिज्जै समय प्रबंध वन।

सुकवि विचित्र भनिज्जै हरि जस लीन मन ॥

श्रोता सोइ परम सुजान सुनत चित रति करै ।

सेवक सोइ रसिक अनन्य विमल जस विस्तरै ॥

सुजस सुनत बरनत सुख पायौ । कीर भृंग नारद सुक गायौ ।

श्रीवृंदावन सब सुखदानी। रतन जटित वर भूमि रवाँनी ॥

वर भूमि रवाँनि सुखद द्रुम बल्ली, प्रफुलित फलित बिबिध बरनं।

वर भूमि रवाँनि सुखद द्रुम बल्ली, प्रफुलित फलित बिबिध बरनं ।

नित सरद बसंत मत्त मधुकर कुल, बहु पतत्र नादहि करनं ।।

नाना द्रुम कुंज मंजु बर बीथी, बन बिहार राधा रमनं।

तहाँ संतत रहत स्याम स्यामा सँग, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – उन श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो, जिनके नाम उच्चारण मात्र से ही सदा सुबुद्धि बढ़ती रहती है। जो रसिक अनन्यों में प्रधान और साधु-मण्डली के भूषण हैं, ऐसे श्रीहरिवंशचन्द्र की सदा जय हो। श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम श्रीहित हरिवंशचन्द्र के चरणों में सिर झुकाकर (नम्रतापूर्वक) प्रणाम करता हूँ, जिससे [वर्णन रूप] यह कविता परम रसदायक बने और बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो जाय। सुन्दर कविता एवं सुछन्द उसी को गिनना चाहिये, जिसमें श्रीवृन्दावन के समय प्रबन्ध (श्रीयुगल किशोर की अष्ट प्रहर लीला, विहार, सेवा भावना) का वर्णन हो और विचित्र (विशेष, उत्तम) कवि भी उसी को गिनना कहना चाहिये, जिसका मन श्रीहरि के यशोगान में ही तल्लीन हो । परम सुजान श्रोता वही है, जो श्रीहरि के यश का श्रवण करते ही उनके प्रति प्रीति करने लग जाय; वही सेवक रसिक अनन्य सेवक (दास) है, जो युगल सरकार के पवित्र यश का प्रचार (विस्तार) करे जिस सुयश को सुनकर एवं वर्णन करके सभीने सुख प्राप्त किया है और जिसका गान कीर-भृंगराज एवं नारद-शुक ने किया है।

[ उन्होंने कहा है ] श्रीवृन्दावन ही समस्त सुखों के दाता हैं। यहाँ की भूमि परम श्रेष्ठ, रमणीय एवं रत्नों से जटित है। इस श्रेष्ठ भूमि श्रीवृन्दावन में रमणीय एवं सुखमय द्रुम (वृक्ष) और लताएँ हैं, जो नाना प्रकार के रखों [के फूल एवं फलों] से फूली फली हैं; जहाँ निरन्तर शरद एवं बसन्त ऋतुएँ छायी ही रहती हैं और लता-वृक्षों के पल्लवों पर बहुत से मधु मत्त भ्रमर मधुर निनाद (शब्द) करते रहते हैं। वृन्दावन में नाना प्रकार की द्रुमलता-कुञ्जे हैं, जो बड़ी ही सुहावनी हैं। जिस श्रीवृन्दावन की श्रेष्ठ गलियों में श्रीराधारमण सदैव विहार करते रहते हैं; मैं उसी वृन्दावन में निरन्तर श्रीश्यामा श्याम के समीप और साथ निवास करने वाले श्रीहरिवंशचन्द्र की चरण-शरण में हूँ।

अब श्रीहिताचार्य पाद का स्वरूप ध्यान वर्णन करते हैं-

पद – 2

रहत सदा सखि संगम रास रंग रस रसाल उल्लास।

लीला ललित रसालं सम सुर तालं वरषत सुख पुंजं ॥

अतुलित रस वरषत सदा सुख निधान बन बासि ।

अद्भुत महिमा महि प्रगट सुंदरता की रासि ॥

सुंदरता की रासि कनक द्रत देह दुति ।

बारिज बदन प्रसन्न हासि मृदु रंग रुचि ॥

सुभ्रू सुष्ठु ललाट पट सुंदर करनं।

नैंन कृपा अबलोकि प्रनत आरति हरनं ॥

सुंदर ग्रीव उरसि बनमालं।

चारु अंस वर बाहु बिसालं ॥

उदर सु नाभि चारु कटि देस।

चारु जानु सुभ चरन सुबेसं ॥

सुभ चरन सुबेस मत्त गजवर गति, पर उपकार देह धरन।

निज गुन विस्तार अधार अवनि पर, बानी बिसद सु बिस्तरनं ।।

करुनामय परम पुनीत कृपानिधि, रसिक अनन्य सभाऽभरनं।

जै जग उद्दोत व्यासकुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन शरनं ।।

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशचन्द्र सदा सखियों के संग में [ सखि रूप से ] रहते हुए रस के आनन्द-रंग और रसमय रास-उल्लास में डूबे रहते हैं । आपकी लीलाएँ बड़ी ही ललित और रसमयी हैं। रासोत्सव में तो मानो आप ताल – स्वर के समक्रम में सुख-समूह की ही वर्षा करते रहते हैं।

आप सुख निधान श्रीवृन्दावन में निरन्तर निवास करते हुए अतुलित रस की वर्षा करते रहते हैं। आपकी अद्भुत महिमा भूतल पर प्रकट है और आप सुन्दरता की राशि हैं। आपकी देह प्रभा सौन्दर्य राशि- पूर्ण एवं पिघले हुए स्वर्ण के जैसी है। विकसित कमल की तरह प्रसन्न मुख, मदु मुसकान, रूचिमय कान्ति, सुन्दर भृकुटियें, विशाल और देदीप्यमान् ललाट पटल, मनोहर युगल कर्ण एवं कृपा से भरी हुई आँखें जो एक दृष्टिपात से ही अपने प्रणत जनों के समस्त दुःखों का हरण कर लेती हैं। इसी प्रकार सुन्दर ग्रीवा (कण्ठ) हृदय-स्थल पर विराजमान् वनमाला, सुन्दर कन्धे और श्रेष्ठ एवं विशाल भुजाएँ, सुचारु उदर, नाभि और कटि देश हैं। ऐसी ही सुन्दर जंघाएँ और पवित्र सुन्दर चरण हैं।

इन पवित्र और सुहावन चरणों में मत्त गजराज की सी श्रेष्ठ गति है। जिन्होंने केवल पर उपकार के ही लिये देह धारण की है और अपने गुणों का विस्तार किया है। श्रीहिताचार्य ने रसिकों के आधार स्वरूप अपनी पावन और महान वाणी को भूतल पर प्रकट किया और उसका विस्तार किया है। जो करुणामय हैं, परम पावन हैं, कृपानिधि हैं एवं रसिक अनन्यों की सभा (समाज) के आभरण हैं, उन जगत को प्रकाशित करने वाले, व्यास मिश्र के कुल- दीपक परम दुलारे श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो; मैं इन्हीं के चरणों की शरण में हूँ।

रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने जिस सर्वोपरि रस भक्ति का प्राकट्य किया, अब उसका परिचय देते हैं –

पद – 3

सारासार विवेकी प्रेम पुंज अद्भुत अनुरागं।

हरि जस रस मधु मत्त सर्व त्यक्त्वा दुस्तज कुल कर्म॥

कर्म छाँड़ि कर्मठ भजै ग्यानी ग्यान विहाय ।

व्रतधारी व्रत तजि भजै श्रवनादिक चित लाय॥

श्रवनादिक चित लाय जोग जप तप तजे।

और कर्म सकाम सकल तजि सब भजे ॥

साधन बिबिध प्रयास ते सकल विहाबहीं।

श्रवन कथन सुमिरन सेवन चित लावहीं ॥

अर्चन बंदन अरु दासंतन सख्य और आत्मा समर्पन।

ये नव लच्छन भक्ति बढ़ाई तब तिन प्रेम लच्छना पाई ॥

पाई रस भक्ति गूढ़ जुग जुग जग, दुर्लभ भव इंद्रादि विधि।

आगम अरु निगम पुरान अगोचर, सहज माधुरी रूप निधिं ॥

अनभय आनंद कंद निजु संपति, गुपित सुरीति प्रगट करन।

जै जग उद्दोत व्यास कुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंशचन्द्र सार असार तत्व के परम विवेकी (क्षीर-नीर निर्णयकारी), प्रेम-पुञ्ज और अद्भुत अनुरागमय हैं। ये श्रीहरि का यश रूपी रसमय मधु पान करके मतवाले हो रहे हैं, और इसीलिये इन्होंने प्रायः अन्य सबके लिये दुस्त्यज कुल कर्मों का भी सर्वतः पूर्णरूपेण परित्याग कर दिया है।

[ आपके इस सुयश से आकर्षित होकर] कर्मठों ने कर्म त्यागकर और ज्ञानियों ने ज्ञान (वेदान्त- विचार) छोड़कर इनके उपदेशानुसार श्रीहरि का भक्ति-भाव से भजन ही किया। इसी तरह व्रत धारियों ने व्रतों का परित्याग करके चित्त लगाकर श्रवण [कीर्तन, स्मरण] आदि नवधा भक्ति के द्वारा भजन किया। अन्य योगी, जपी तपी आदि ने भी श्रवण आदि भक्ति में चित्त लगाकर योग, जप और तप आदि का त्याग कर दिया तथा और भी जो सकामी जन थे, उन सबने भी सकाम कर्मों के त्याग पूर्वक भक्ति ही की।

[ इस प्रकार जो लोग भक्ति की श्रेष्ठता समझकर] जितने भी प्रयासपूर्ण साधन हैं, उन्हें छोड़कर श्रवण-कथन, स्मरण, सेवन भक्ति में ही चित्त लगाते हैं और फिर अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण आदि नवधा भक्ति की ही वृद्धि करते रहते हैं, वही प्रेम-लक्षणा भक्ति प्राप्त करते हैं। अथवा उक्त कर्मठ, ज्ञानी, जपी, तपी और व्रतधारियों को अपने-अपने धर्मों का त्याग करके नवधा भक्ति के आश्रित होना चाहिए।

तब वे लोग उस गूढ़ रसमयी भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं जो जगत् में युग-युग तक दुर्लभ तो है ही अपितु इन्द्रादि देवगण, भगवान् शंकर एवं ब्रह्मा के लिये भी दुर्लभ है। यह प्रेम लक्षणा भक्ति वेद, शास्त्र एवं पुराणों के लिये भी अगोचर है और जो स्वाभाविक ही माधुर्य एवं रूप की भण्डार है। यह प्रेमाभक्ति भय रहित, आनन्द की मूल और श्रीहित की निज सम्पत्ति है, क्योंकि इन्होंने ही इस गुप्त एवं सुन्दर रस-रीति भजन को प्रकट किया है। अतः जगत् को इस प्रेम-लक्षणा का प्रकाश देने वाले व्यास कुल दीपक श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो।

इस छन्द में श्रीहित चन्द्र का स्वरूप और उनकी शरणागति का फल प्रकाशित करते हैं –

पद – 4

प्रगटित प्रेम प्रकासं सकल जंतु सिसरी कृत चित्तं ।

गत कलि तिमिर समूहं निर्मल अकलंक उदित जग चंद्रं ॥

विसद चंद्र तारातनय सीतल किरन प्रकासि ।

अमृत सींचत मम हृदै सुखमय आनंद रासि ॥

सुखमय आनंद रासि सकल जन सोक हर ।

समुझि जे आये सरन ते डरत न काल डर ॥

दियौ दान तिन अभय द्वन्द दुख सब घटे ।

नित नित नव नव प्रेम कर्म बंधन कटे ॥

कटे कर्म बंधन संसारी सुख सागर पूरित अति भारी ।

विधि निषेध श्रृंखला छुड़ावै ।

निज आलय बन आनि बसावै ॥

आलय बन बसत संग पारस के, आयस कनक समान भयं।

माँगौं मन मनसि दासि अपनी करि, पूरन काम सदा हृदयं ॥

सेवक गुन-नाम आस करि बरनै, अब निजु दासि कृपा करनं।

जै जग उद्दोत व्यासकुल दीपक, श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – [ श्रीहित हरिवंशचन्द्र ने] प्रेम के प्रकाश को प्रकट करके समस्त जीवों के चित्त को शीतल कर दिया। जगत में प्रेम रूपी इस निर्मल, निष्कलंक हरिवंश चन्द्र के उदय से कलि के अन्धकार (पाप) समूह) विनष्ट हो गये। ये पवित्र चन्द्र श्रीतारानन्दन (श्रीहरिवंश) अपनी शीतल किरणों को प्रकाशित करके मेरे हृदय में सुख पूर्ण आनन्दामृत राशि का सिंचन कर रहे हैं।

श्रीहरिवंशचन्द्र सुखमय हैं और आनंद की राशि हैं ये समस्त शरणागत जनों के शोकों का नाश करने वाले भी हैं; ऐसा समझकर जो जन इनकी शरण में आते हैं, वे फिर काल (मृत्यु) के डर से नहीं डरते। श्रीहरिवंशचन्द्र उन्हें अभय-दान दे देते हैं और उनके सभी द्वन्द्व (जन्म-मरण आदि) दुःख कट कर हृदय में नित्य प्रति नूतन प्रेम बढ़ता है।

श्रीहरिवंश की शरण आने वाले शरणागत के सांसारिक कर्म बन्धन कट कर हृदय में सुख का अत्यन्त विशाल सागर पूर्ण हो लहरा जाता है। श्रीहित चन्द्र उस शरणागत को वेदोक्त विधि निषेधों की साँकलों से छुड़ाकर अपने निज धाम श्रीवृन्दावन में ला बसाते हैं। निज-धाम श्रीवृन्दावन में बसते ही [ उस जीव का स्वरूप बदल जाता है अर्थात् वह ] पारस [ रूप श्रीहरिवंश ] का संग पाकर लोहे से स्वर्ण बन जाता है।

श्रीसेवक जी कहते हैं- हे श्रीहरिवंशचन्द्र! मैं अपने सच्चे मन से आपसे यही माँगता हूँ कि आप भी मुझे अपने मन में दासी स्वीकार कीजिये; क्योंकि आप सदा ही पूर्ण काम हृदय हैं। हे निज दासि! (अर्थात श्रीप्रियाजी के केलि कुञ्ज की विशेष अधिकारिणि और उनकी परम प्रिय सहचरि!) अब आप मुझ पर कृपा कीजिये। ‘सेवक’ इसी कृपा की आशा से तुम्हारे गुण और नामों का वर्णन करता है। [जिनकी कृपा से श्रीप्रियाजी के महलों की खास खबासी मिल सकती है, उन] जगत् प्रकाशक, व्यास कुल दीपक श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो, मैं इन्हीं की चरण-शरण में हूँ।

इस अन्तिम छंद में फलस्तुति वर्णन करते हैं –

पद – 5

पढ़त गुनत गुन नाम, सदा सतसंगति पावै ।

अरु बाढ़ रस रीति, विमल बानी गुन गावै ॥

प्रेम-लक्षना भक्ति, सदा आनँद हितकारी।

श्रीराधा जुग चरन, प्रीति उपजै अति भारी॥

निजु महल टहल नव-कुंज में, नित सेवक सेवा करन।

निसिदिन समीप संतत रहै, सु श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

भावार्थ – जो कोई श्रीहित हरिवंशचन्द्र के गुण एवं नामों को पढ़ेगा और मनन करेगा, वह सदा सत्संग संत रसिकों का सङ्ग प्राप्त करेगा। श्रीहित हरिवंशचन्द्र की विमल वाणी का गान करने से रस-रीति बढ़ेगी और सदा आनन्दमय एवं हितकारी प्रेम लक्षणा भक्ति का [ उसके हृदय में ] उदय होगा। श्रीराधा के युगल चरणों में अत्यन्त प्रीति उत्पन्न होगी।

श्रीसेवकजी कहते हैं वह श्रीराधा के निज-महल (ऐकान्तिक निकुञ्ज भवन) में सेवक रूप से सदा सेवा-टहल करेगा और अहर्निश श्रीहित हरिवंशचन्द्र का सामीप्य प्राप्त करेगा। ऐसे [ परम प्रतापमय ] श्रीहित हरिवंशचन्द्र की मैं चरण शरण में हूँ-वही मेरे एकमात्र सर्वाश्रय हैं।


श्रीहित मंगल – गान
( द्वादश प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में मंगलमय श्रीहरिवंशचन्द्र के मंगलमय नाम , रूप , गुण , प्रभाव एवं रहस्यादि का गान किया गया है , अत : इस प्रकरण का नाम ‘ मंगल – गान ‘ है । इसके पृथक् – पृथक् चार छन्दों में से प्रथम में वृन्दावन विहार का स्वरूप , द्वितीय में श्रीहरिवंश की महान् गुणावली , तृतीय में इनके द्वारा प्रकाशित प्रेम धर्म की महत्ता और चतुर्थ में इनके नाम – गुण आदि गान करने का फल बताया गया है । चारों छन्दों में श्रीहरिवंश का स्वरूप – वर्णन ही पिरोया सा है । यह प्रकरण गम्भीर , विचारणीय और नित्य पठनीय है ।

पद – 1

जै जै श्रीहरिवंश व्यास कुल मंगना ।

रसिक अनन्यनि मुख्य गुरु जन भय खंडना ।

श्री बृंदावन बास रास रस भूमि जहाँ ।

क्रीड़त स्यामा स्याम पुलिन मंजुल तहाँ ।

पुलिन मंजुल परम पावन त्रिविध तहाँ मारुत बहै ।

कुंज भवन विचित्र सोभा मदन नित सेवत रहै ।

तहाँ संतत व्यासनंदन रहत कलुष बिहंडना ।

जै जै श्री हरिवंश व्यास कुल मंडना ।

भावार्थ – व्यास मिश्र के वंश के भूषण श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो । रसिक अनन्यों में मुख्य गुरुवर्य एवं अपने [ आश्रित ] जनों के भय का खण्डन करने वाले [ श्रीहित हरिवंशचन्द्र ] की सदा जय हो , जय हो । यमुना के सुन्दर तट पर जहाँ श्रीश्यामा – श्याम क्रीड़ा करते रहते और जो रास – क्रीड़ा की रसमय भूमि है , उसी वृन्दावन में इनका नित्य निवास है । जिस परम – पवित्र पुलिन ( यमुना – तट ) पर सदा [ शीतल , मंद एवं सुगन्ध युक्त ] त्रिविध वायु बहता रहता है और जहाँ कुञ्ज भवनों की विचित्र शोभा है , कामदेव जिन कुञ्जों का निरन्तर सेवन करता है । ऐसे श्रीवृन्दावन में पापों को विनष्ट करने वाले व्यासनन्दन ( श्रीहरिवंशचन्द्र ) सदा – सर्वदा निवास करते रहते हैं । ऐसे व्यासकुल – भूषण श्रीहित हरिवंशचन्द्र की सदा जय हो , जय हो ।

पद – 2

जय जय श्रीहरिवंश चंद्र उद्दित सदा ।

द्विज कुल कुमुद प्रकाश विपुल सुख संपदा ।

पर उपकार बिचार सुमति जग विस्तरी ।

करुणा सिंधु कृपाल काल भय सब हरी ॥

हरी सब कलिकाल की भय कृपा रूप जुबपुधरयौ ।

करत जे अनसहन निंदक तिनहुँपै अनुग्रह करयौ ।

निरभिमान निर्वैर निरुपम निष्कलंक जु सर्वदा ।

जै जै श्रीहरिवंश चंद्र उद्दित सदा ॥

भावार्थ – सदा – सर्वदा उदित रहने वाले श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । जो [ प्रेम रूपी ] अनन्त सम्पत्ति से पूर्ण एवं द्विज समूह रूप कुमुदनी के प्रकाशक ( विकसित करने वाले ) हैं ; जिन्होंने परोपकार के विचार से ही अपनी भक्ति रूपी सुन्दर मति ( सबुद्धि ) का जगत् में विस्तार किया और जिससे उन कृपालु करुणा सिन्धु [ श्रीहरिवंश ] ने काल व्याल के समस्त भय का हरण कर लिया ।

जिन्होंने कलिकाल के समस्त भय का हरण कर लिया उन्हीं ने कृपा रूप दिव्य वपु को धारण किया है । जो लोग आपकी असहनीय निन्दा करने वाले थे , आपने उन पर भी अपना अनुग्रह किया । जो अभिमान से रहित , वैर भाव से रहित , अनुपमेय एवं कलंक से रहित हैं , उन सर्वदा उदय रहने वाले चन्द्र श्रीहरिवंश की जय हो , जय हो ।

पद – 3

श्री हरिवंश प्रसंसित सब दुनी ,

सारासार विवेकित कोबिद बहुगुनी ।

गुप्त रीति आचरन , प्रगट सब जग दिये ,

ज्ञान – धर्म – व्रत – कर्म , भक्ति किंकर किये ।

भक्ति ‘ हित जे सरन आये , द्वंद दोष जु सब घटे ,

कमल कर जिन अभय दीने , कर्म बंधन सब कटे ।

परम सुखद सुसील सुंदर , पाहि स्वामिनि मम धनी ,

जै श्री हरिवंश प्रसंसित सब दुनी ॥

भावार्थ – सम्पूर्ण विश्व के द्वारा प्रशंसित श्रीहित हरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । ये परम कोविद , अत्यन्त गुणवान और परमार्थ तत्व के सार और असार रहस्य के परम विवेकी हैं । आपने गुप्त रीति के आचरणों ( अर्थात् नित्य – विहार केलि की ऐकान्तिक रहनी और उपासना शैली ) का प्रकाश करके सारे विश्व को दान कर दिया और इसी नित्य – विहार प्रकाश के द्वारा आपने ज्ञान , कर्म , धर्म और व्रत आदि को भक्ति का दास बना दिया ।

जो लोग भक्ति की चाह से आपकी शरण में आये , उनके सारे द्वन्द्व – दु : ख क्षीण हो गये और जिसे इन्होंने अपना अभय कर – कमल प्रदान कर दिया उसके सारे कर्म – बन्धन कट गये ।

श्रीसेवकजी कहते हैं , हे परम सुखदाता , सुशील , एवं सुन्दर स्वामिन् ! हे मेरे समर्थ धनी ! ( प्रभु ) मैं आपकी शरण में हूँ , आप मेरी रक्षा कीजिये । हे समस्त विश्व से प्रशंसित श्रीहरिवंश । आपकी जय हो , विजय हो !

पद – 4

जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइ है ।

प्रेम लक्षणा भक्ति सुदृढ़ करि पाइ है ।

अरु बाढै रसरीति प्रीति चित चित ना टरै ।

जीति विषम संसार कीरति जग बिस्तरै ।।

बिस्तरै सब जग बिमल कीरति साधु संगति ना टरै ।

बास बंदाविपिन पावै श्रीराधिका जू कृपा करें ।

चतुर जुगल किसोर सेवक दिन प्रसादहिं पाई है ।

जै जै श्री हरिवंश नाम गुन जो नर गाइ है ।

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो । जो मनुष्य श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम एवं गुणों का गान करेगा , वह प्रेम – लक्षणा भक्ति को सुदृढ़ता पूर्वक प्राप्त करेगा , उसके चित्त में रस – रीति बढ़ेगी और प्रीति टाले नहीं टलेगी । वह भीषण संसार रूप आवागमन को जीतकर जगत् में अपनी कीर्ति विस्तृत करेगा ।

सारे संसार में अपनी निर्मल कीर्ति का विस्तार करके वह अविचल साधु – संगति को प्राप्त करेगा । वह श्रीवृन्दावन का निवास प्राप्त करेगा और श्रीराधा उस पर कृपा करेंगी अथवा वह वृन्दाविपिनेश्वरी किशोरी जू की कृपा से वृन्दावन – वास प्राप्त करेगा ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि युगल – किशोर का वह चतुर सेवक अपने प्रभु श्रीराधावल्लभलाल के कृपा प्रसाद को दिन – दिन ( नित्य प्रति ) प्राप्त करेगा , जो श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम एवं गुणों का नित्य प्रति गान करेगा । अस्तु ; ऐसे महिमाशाली श्रीहरिवंशचन्द्र की जय हो , जय हो ।


श्रीहित धर्मी धर्म विधान
( त्रयोदश प्रकरण )
पूर्व परिचय

इस प्रकरण में राधावल्लभीय हितधर्मियों के परम – धर्म का उल्लेख किया गया है । इसमें प्रधानतया रसिक अनन्यता की दृढ़ता , ध म के स्वरूप को समझने का आग्रह , रसिक अनन्यों के प्रति पूज्य और श्रेष्ठ भावना का आग्रह , मानव देह की महत्ता , सत्संग महिमा , सत्संग करने का आदेश , सत्संग विहीनता में जीवन की व्यर्थता , सत्संग किसका करे ? सत्संग से क्या होगा ? धर्मियों का स्वरूप एवं हित धर्मियों की कृपा की याचना – वाञ्च्छा ; बस इन्हीं विषयों का एक – एक छन्द में वर्णन है ।

इस प्रकरण में बड़ी सच्चाई और स्पष्टता से धर्म के स्वरूप का निरूपण किया गया है जिसका पालन करने से प्रत्येक हित – साध क सच्चा और पक्का धर्मी बन सकता है ।

अस्तु ; अब प्रथम छन्द में अन्यान्य साधनों का हेयत्व और हित धर्म- श्यामा श्याम पद प्रीति – की सर्वोपरिता का प्रकाश करते हुए हित धर्म को ही परम श्रेष्ठ धर्म बताते हैं ; जो शास्त्र एवं संत – सम्मत है ।

पद – 1

साधन विविध सकाम मत , सब स्वारथ सकल सबै जु अनीति ।

ज्ञान ध्यान ब्रत कर्म जिते सब , काहू में नहिं मोहि प्रतीति ॥

रसिक अनन्य निसान बजायौ , एक स्याम स्यामा पद प्रीति ।

श्रीहरिवंश चरन निज सेवक , विचलै नहीं छाँड़ि रसरीति ।।

भावार्थ – नाना प्रकार के साधन और सकाम उपासनाओं के मत , ये सब स्वार्थ – लाभ के लिये किये जाते हैं , इनमें शुद्ध स्वार्थ – रहित प्रेम का सर्वथा अभाव होता है अत : अनीति है । [ इस प्रकार के जितने भी ज्ञान , ध्यान , व्रत एवं कर्म हैं , मुझे इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं है । रसिक अनन्य [ नृपति श्रीहित हरिवंश ] ने जो केवल श्यामा – श्याम के चरणों के अनन्य प्रेम का डंका बजाया है ; उस रसरीति को छोड़कर श्रीहरिवंश – चरणों का निज सेवक [ मैं अथवा अन्य हितधर्मी कोई भी ] विचलित नहीं हो सकता अर्थात् अनन्य भाव से उसी रसरीति में स्थिर रहेगा ।

पद – 2

श्री हरिवंश धरम प्रगट्ट , निपट्ट कै ताकी उपमा कौं नाहिन ।

साधन ताकौ सबै नव लच्छन , तच्छिन बेग बिचारत जाहि न ॥

जो रसरीति सदा अबिरुद्ध , प्रसिद्ध बिरुद्ध तजत्त क्यौं ताहि न ।

जो पै धरमी कहावत हौ , तौ धरंमी धरम समुज्झत काहि न ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंशचन्द्र के द्वारा प्रकट किया गया धर्म अच्छी तरह से उजागर है और सर्वश्रेष्ठ है , जिसकी उपमा के लिये कोई दूसरा है ही नहीं । इस धर्म के साधन हैं- वही नौ लक्षणों से युक्त नवधा भक्ति ; अत : हे भाई ! तू अभी इसी क्षण से शीघ्र जिसका विचार नहीं कर रहा है उसका विचार कर !

यह रसरीति सदैव साधक के अनुकूल है । जो इसके प्रसिद्ध विरोधी हैं , तू उनका त्याग क्यों नहीं करता ? यदि तुम ‘ धर्मी ‘ कहलाते हो तो [ हित ] धर्मियों के वास्तविक धर्म को क्यों नहीं समझते ? अर्थात् समझने का प्रयास करो , समझो ।

पद – 3

जौ पै धरंमिनि सौं नहिं प्रीति , प्रतीति प्रमानत आन न आनिबौ ।

एकहिं रीति सबनि सौं हेत , समीति समेत समान न मानिबौ ।

बात सौं बात मिलै न प्रमान , प्रकृत्ति बिरुद्ध जुगत्ति को ठानिबौ ।

श्री हरिवंश के नाम न प्रेम , धरंमी धरंम समुझ्यौ क्यौं जानिबौ ।

भावार्थ – यदि [ श्रीहरिवंश ] धर्मियों से प्रीति और प्रतीति नहीं है और दूसरों को प्रमाण मानकर उन पर विश्वास करता है किन्तु धर्मियों के प्रति [ अपने हृदय में ] प्रीति एवं प्रतीति नहीं लाता है , यदि सभी मतावलम्बियों से एक ही रीति से हित करता है , हित – धर्मियों के प्रति विशेष समीति ( प्रीति , स्नेह , मित्रता आदि ) और सम्मान नहीं मानता ; यदि श्रीहरिवंश – धर्मियों की बातों से अपनी बातें नहीं मिलाता और अपनी हठधर्मी ही प्रमाणित करता है । यदि प्रकृति के विरुद्ध युक्तियाँ ठानता है और यदि श्रीहरिवंश के नाम से प्रेम नहीं है तो उस धर्मी ने धर्म के स्वरूप को क्या समझा है ? कुछ नहीं ऐसा जानना चाहिये ।

पद – 4

श्रीहरिवंश बचन्न प्रमानिकैं , साकत संग सबै जु बिसारत ।

संसृति माँझ बरियाइ कै पायौ , जु मानुष देह वृथा कत डारत ।

क्यौं न करत्त धरंमिनि कौ संग , जानि बूझि कत आन बिचारत ।

जौ पै धरंमी मरंमी हौ तौ , धरंमिनि सौं कत अंतर पारत ।

भावार्थ – [ एक बार ] श्रीहरिवंश के वचनों को प्रमाण मानकर [ फिर दूसरी बार प्रमाद वश ] शाक्त – उपासकों के संग में लगकर वे सब [ श्रीहरिवंश वचनों की बातें भुला देता है [ और शाक्तों के जैसा ही हो जाता है । ] अरे ! तूने इस जन्म – मरण रूप संसृति के बीच में जाने कैसे किस कठिनाई से मानव – देह पा ली है ; भला , उसे क्यों व्यर्थ किये डाल रहा है ? तू धर्मियों का सङ्ग क्यों नहीं करता ? क्यों जान बूझकर उन्हें अन्य ( पराया ) समझ रहा है ? यदि तू धर्म का मर्मी ( रहस्य जानने वाला या जानने की इच्छा वाला है ) तो फिर क्यों धर्मी जनों से अन्तर कर रहा है ? शीघ्र उनसे एकता , मिलन एवं सत्सङ्ग कर ।

पद – 5

धरंमी – धरम कह्यौ जु करौ , तौ धरंमिनि संग बड़ौ सब तैं ।

अपुनर्भव स्वर्ग जु नाहिं बराबर , तौ सुख मर्त्य कहौ कब तैं ।

कहौ काहे प्रमान बचन विसारत , प्रेमी अनन्य भये जब तैं ।

तब श्रीहरिवंश कही जु कृपा करि , साँचौ प्रबोध सुन्यौ अब तैं ॥

भावार्थ – धर्मीजनों ने जो धर्म का स्वरूप कहा है यदि उसे यदि उसे तुम करने लगो तो [ तुम्हें ज्ञात हो जायेगा कि ] धर्मियों का सङ्ग ही सबसे बड़ा ( उत्तम ) है । अरे ! जब उस [ सत्सङ्ग ] के बराबर अपुनर्भव ( मोक्ष ) एवं स्वर्ग भी नहीं हैं तो फिर भला मृत्युलोक के सुख कैसे बराबर हो सकते हैं ? यदि कोई पूछे कि कहो जी , किन [ वचनों ] के प्रमाण से तुम [ अन्य साधनों के समर्थक ] वचनों को भुला रहे हो तो कहना होगा कि जब से हम [ श्रीहरिवंश – वचनों के आधार से ] अनन्य प्रेमी हो गये हैं और श्रीहरिवंशचन्द्र ने कृपा करके जो कुछ कहा है , हमने जबसे प्रबोध रूप उन सत्य वाक्यों को सुना है ।

पद – 6

श्रीहरिवंश जु कही ‘ स्याम स्यामा ‘ पद कमल संगी सिर नायौ ।

ते न बचन मानत गुरु द्रोही , निसिदिन करत आपनौ भायौ ।

इत ब्यौहार न उत परमारथ , बीच ही बीच जु जनम गमायौ ।

जौ धरंमिनि सौं प्रीति करत नहिं , कहा भयौ धर्मी जु कहायौ ॥

भावार्थ – [ श्रीहरिवंश चन्द्र ने जो कुछ कहा है , उसे यहाँ उपरोक्त छन्द ” कहौ काहे प्रमान …………. प्रेमी अनन्य भये जब तें ” , के प्रमाण में उपस्थित करते हैं । ] श्रीहरिवंश चन्द्र ने कहा है कि ” मैंने श्रीश्यामा – श्याम के चरण – कमल प्रेमियों , भक्तों , रसिकों को अपना सिर झुका दिया है , पर गुरुद्रोही इन वचनों को मानते नहीं , दिन – रात अपनी मनमानी करते रहते हैं । ( इसका परिणाम यह होता है कि ) कि इधर ( संसार में ) उनका न तो व्यवहार बन पाता और न उधर परमार्थ ही बनता है । बस वे बीच में पड़े अपना जन्म खो देते हैं ।

इस प्रकार यदि कोई धर्मी सच्चे हित धर्मियों से प्रीति और सङ्ग नहीं करता , तो उसके धर्मी कहला जाने मात्र से क्या हो गया ? व्यर्थ है ।

पद – 7

करौ श्रीहरिवंश उपासिक संग , जु प्रीति तरंग सुरंग बह्यौ ।

करौ श्रीहरिवंश की रीति सबै , कुल – लोक – बिरुद्ध जु जाइ सह्यौ ।

करौ श्रीहरिवंश के नाम सौं प्रीति , जा नाम प्रताप धरम लह्यौ ।

जु धरमी धरम सरूप कह्यौ , बिसरौ जिन श्रीहरिवंश कह्यौ ॥

भावार्थ – तुम श्री हरिवंश के उस उपासक का सङ्ग करो जो प्रेम – तरा के सुन्दर आनन्द – ज में बह गया हो – सराबोर हो । तुम श्रीहरिवंश की ( अनन्य धर्म सम्बन्धी ) सभी रीतियों का पालन करो । यदि तुमसे अपने कुल एवं लोक का विरोध सहा जा सके तो । श्रीहरिवंश के नाम से प्रेम करो , जिस नाम के प्रताप से तुमने धर्म को प्राप्त किया है और धर्मियों के धर्म का स्वरूप जो कुछ श्रीहरिवंश ने कहा है , उस ( श्रीहरिवंश कथन- “ स्याम – स्यामा पद कमल संगी सिर नायौ ” ) को मत भूलो ।

पद – 8

श्रीहरिवंश धरमजे जानत , प्रीति की ग्रंथि तहीं मिलिखोलत ।

श्रीहरिवंश धरंमिनि माँझ , धरमी सुहात धरंम लै बोलत ॥

श्रीहरिवंश धरमी कृपा करें , तासु कृपा रस मादिक डोलत ।

श्रीहरिवंश की बानी समुद्र कौ , मीन भयौ जु अगाधकलोलत ॥

भावार्थ – जो रसिकजन श्रीहरिवंश धर्म को जानते हैं , वही विज्ञ रसिकजन मिलकर प्रीति की ग्रन्थियों ( गाँठों , उलझनों ) को सुलझा सकते हैं , अन्य नहीं । वही लोग श्रीहरिवंश धार्मियों के बीच में धर्मियों को सुहाती हुई धर्म – युक्त बातें बोल भी सकते हैं । यदि ऐसे हरिवंश धर्मी कृपा करें , तो उनकी कृपा से प्रायः सभी उपासक रस से उन्मत्त होकर विचरण कर सकते हैं । फिर जो कृपा – प्राप्त कर लेगा , ऐसा प्रेमी श्रीहरिवंश की वाणी रूप समुद्र की मछली बनकर उस अगाध रस – सागर में किलोल ( आनन्द – क्रीड़ा ) करता रहेगा ।

पद – 9

व्रत संजम कर्म जुधर्म जिते , सब सुद्ध – बिरुद्ध पिछानत हैं ।

अपनी अपनी करतूत करें , रस मादिक संक न आनत हैं ।

हरिवंश – गिरा रस रीति प्रसिद्ध , प्रतीति प्रगट्ट प्रमानत हैं ।

बलि जाउँ आपनैं धरंमिनि की , जे धरमी धरमहिं जानत हैं ॥

भावार्थ – जितने भी व्रत , संयम , कर्म आदि सुन्दर – सुन्दर धर्म हैं , वे सब इस शुद्ध धर्म ( श्रीहित धर्म ) के विरोधी ( विपरीत रूप ) हैं , ऐसा वे धर्मी गण समझते हैं और चूँकि ये उक्त अपनी – अपनी करतूत ( कर्त्तव्य ) करते भी हैं किन्तु रस से उन्मत्त धर्मी गण उनकी जरा भी परवाह नहीं करते वरं वे तो श्रीहरिवंश की वाणियों में वर्णन की गयी रस – रीति को ही विश्वास पूर्वक प्रकट रूप से प्रमाणित करते और मानते हैं ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि मैं अपने इन धर्मियों की बलिहारी जाता हूँ , जो धर्मी एवं धर्म के तत्व को जानते पहचानते हैं ।

पद – 10

श्रीहरिवंश धरंम सुनंत जु छाती सिरात धरंमिनि की ।

धरम सुनंत पुलक्कित रोमनि हौं बलि प्रेम धरंमिनि की ।

धरम सुनंत प्रसन्न कै बोलत , बोलनि मीठी धरंमिनि की ।

( जु ) धरम सुनाइ धरमहि जाचत , चाहौं कृपा जु धरंमिनि की ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश धर्म का वर्णन सुनते ही सच्चे धर्मी का हृदय शीतल हो जाता है । जो इस धर्म को सुनकर रोम – रोम से पुलकित हो उठता है , मैं ऐसे प्रेमी – धर्मी की बलिहार हूँ । ऐसा प्रेमी निज धर्म का नाम सुनते ही प्रसन्न होकर बोलता है और उसकी बोली ( वाणी ) भी बड़ी मधुर होती है । जो धर्मी गण धर्म का श्रवण कराके फिर धर्म ( की प्रीति , रुचि आदि ) की ही याचना करते हैं मैं ऐसे ही धर्मियों की कृपा चाहता हूँ ।

पद – 11

श्रीहरिवंश प्रसिद्ध धर्म समुझै न अलप तप ।

समुझौ श्रीहरिवंश कृपा सेवहु धर्मिनि जप ॥

धर्मी बिनु नहिं धर्म नाहिं बिनु धर्म जु धर्मी ।

श्री हरिवंश प्रताप मरम जानहिं जे मर्मी ॥

श्री हरिवंश नाम धर्मी जु रति तिन सरन्य संतत रहै ।

सेवक निसिदिन धर्मिनि मिलैं श्रीहरिवंश सुजस कहै ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र का प्रसिद्ध धर्म अल्प तपस्या से कोई नहीं समझ सकता , हाँ जब धर्मी जनों का सेवन ( रूप महातप ) करोगे , तभी श्रीहरिवंश कृपा का स्वरूप समझौगे । क्योंकि सच्चे धर्मी के बिना धर्म की प्राप्ति नहीं होती और जहाँ ( जिसके हृदय में ) धर्म नहीं है वह धर्मी नहीं , श्रीहरिवंश के प्रताप से ही कोई मर्मी इस रहस्य ( मर्म ) को जान पाते हैं अथवा धर्म और धर्मी के इस मर्म को जो जानते हैं वही मर्मी हैं ।

श्रीसेवकजी कहते हैं कि प्रत्येक सेवक का धर्म है कि श्रीहरिवंश नाम के मानने वाले धर्मियों के प्रति जो रति ( प्रीति ) करता है उन्हीं की शरण में वह सदा रहा आवे और दिन रात धर्मियों से मिलकर ( उनका सत्संग करते हुए ) श्रीहरिवंश के सुयश का गान करता रहे ।


श्रीहित काचे धर्मी धर्म विधान
( चतुर्दश प्रकरण )
पूर्व परिचय

तेरहवें प्रकरण में हित – धर्मियों के लिये उनके परम धर्म – सत्सङ्ग का आदेश किया गया । अब इस प्रकरण में कच्चे धर्मियों के स्वभाव , गुण , रहन – सहन , व्यवहार , आचरण , उपासना शैली , निष्ठा , धार्मिक रुचि , छल , द्वेष , घृणा , निन्दा , स्वार्थ आदि की ओर संकेत किया जा रहा है , क्योंकि बुराइयों और बुरों का परिचय होने पर ही उनका त्याग किया जाना सम्भव है ।

कच्चे धर्मी वे हैं , जो गुरु दीक्षा , कण्ठी , तिलक आदि के द्वारा बाह्य आचरणों से वैष्णव तो बन चुके हैं – वैष्णव या राधावल्लभीय तो कहे जाने लगे हैं किन्तु उनके चित्त में न तो भक्ति भावना ही आयी और न इष्ट – निष्ठा ( वैष्णवता ) ही बन पायी , अत : ऐसे लोग जो केवल नाम मात्र को ‘ हित धर्मी ‘ हैं ‘ काचे ‘ धर्मी हैं । इस प्रकरण के पूर्व प्रसंग में काचे धर्मियों के लक्षणों का वर्णन है और अन्त में उनके लिये उचित उपदेश है , इसीलिये इस प्रकरण का सम्पूर्ण नाम “ काचे धर्मी धर्म विधान ” है । प्रकरण के प्रारम्भिक तेरह छन्दों में काचे धर्मियों के लक्षण और शेष अन्त के पाँच छन्दों में ‘ काचे ‘ धर्मियों के लिये उपदेश है – यही उनके लिये ‘ विधान ‘ है ।

अस्तु अब प्रथम छन्द में ‘ काचे धर्मी ‘ की अहंमन्यता रूप छल छन्द का वर्णन करते हैं

पद – 1

श्रीहरिवंश धरंमिनि के सँग ,

आमैं ही आरौं जु रीति बखानत ।

आपुने जान कहैं जु मिलैं मन ,

उत्तर फेरि चवग्गुन ठानत ॥

बैठत जाय बिधर्मिनि में तब ,

बात धरम की एकौ न आनत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – श्रीहरिवंश – धर्म का स्वरूप यथार्थ रूप से न जानने पर भी सच्चे श्रीहरिवंश – धर्मियों के सङ्ग में बैठकर उन सबके समक्ष आगे ही आगे ( पूर्ण जानकार की तरह ) रस – रीति का बखान करता है । धर्मियों को अपना जानकर उनसे प्रथम तो अपनी मनमिल बातें करता है किन्तु पश्चात् ( बातों में सिद्धान्त भेद हो जाने पर ) उन्हीं से चौगुने उत्तर ठानता है । धर्मियों से तो बहुत विवाद करता है किन्तु जब विधर्मियों में जा बैठता है , तब धर्म – सम्बन्धी एक बात भी नहीं कह आती ।

( श्रीसेवकजी कहते हैं भाइयो ! ) इन कच्चे धर्मीजनों के ( छल ) छन्द सुनो । ये लोग सच्चे धर्मी जनों के धर्म का मर्म ( रहस्य ) नहीं जानते ।

पद – 2

बातनि जूठनि खान कहैं ,

मुख देत प्रसाद अनूठौड़ ही छाँड़त ।

ग्रंथ प्रमानिकै जो समुझाइये ,

तौ तब क्रोध रारि फिर माँड़त ॥

तच्छिन छाँड़ि प्रेम की बातहिं

फेरि जाति कुल रीति प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी धरंम मरंम न जानत ॥

भावार्थ – वह कच्चा धर्मी केवल बातों बातों ( वचनों ) में ( धर्मियों ) का उच्छिष्ठ ( गूंठा ) खाने की बात कहता है ( कि मैं तो आप धर्मी – जनों का गूंठा भी खा सकता हूँ , ) किन्तु अनूठा ( सर्वोत्तम , आश्चर्य महिमा मय ) प्रसाद देने पर भी त्याग देता है । यदि ग्रन्थों के प्रमाण द्वारा उसे ( प्रसाद का महत्त्व ) समझाया भी जाय , तो फिर वह उसके बदले में क्रोध पूर्वक झगड़ा ठान देता है । ( फिर कभी क्रोध आ जाने पर ) प्रेम की सब बातें भुलाकर अपनी जाति , कुल – रीति आदि की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने लगता है अर्थात् भगवत्प्रासाद की अपेक्षा जाति , कुल – रीति आदि अधिक महत्त्वशील हैं , ऐसा सिद्ध करने लगता है । )

यही सब कच्चे धर्मियों के छल छन्द हैं । ये लोग सच्चे धर्मियों के वास्तविक धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 3

धरंमिनि माँझ प्रसंन है बैठत ,

जाय बिधर्मिन माँझ उपासत ।

लालच लागि जहाँ जैसे तहाँ तैसे ,

सोई सोई तिन मध्य प्रकासत ।।

बादहिं होत कुम्हार को कूकर ,

खाली हृदै गुरु रीति न मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ॥

भावार्थ – ( वह कच्चा धर्मी ) इधर तो हित धर्मियों में प्रसत्र होकर बैठता अर्थात् इनकी सी बातें करता है और उधर विधर्मियों में जाकर उनकी सी उपासना करता है । लालच के लिये उन विधर्मी – जनों का सङ्ग करता है और उन जैसी बातें करने लगता है । प्रकाशित करने और न करने योग्य सभी विषयों को एकसा समझ कर अविचार पूर्वक प्रकाशित कर देता है । वह शून्य – हृदय ( धर्म के यथार्थ ज्ञान से हीन कच्चा धर्मी ) श्रीगुरु की रीति तो मानता नहीं ( और दूसरों की उपासना भी नहीं करता ) इस तरह व्यर्थ ही कुम्हार का कुत्ता बनता है । ये हैं कच्चे धर्मियों के छल – छन्द । सुनो , ये लोग धर्मियों के धर्म के मर्म को नहीं जानते और व्यर्थ जीवन खो देते हैं ।

पद – 4

नाना तरंग करत छिन ही छिन ,

रोवत रैंट न लार सँभारत ।

तच्छिन प्रेम जनाइ कहंत जु ,

मेरी सी रीति काहे न अनुसारत ॥

तच्छिन झगरि रिसाइ कहंत जु ,

मेरी बराबर औरनि मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ।

भावार्थ – वे कच्चे धर्मी क्षण – क्षण में नाना प्रकार की लीलायें करते हैं । ऐसा रोते हैं कि रोते हुए जोर से दहाड़ सी मारते और मुँह से गिरती हुई लार को भी नहीं सम्हालते , ( क्योंकि इसीसे तो उनकी प्रेम – विह्वलता प्रकट होती है न ! ) फिर उसी क्षण दूसरों से अपना प्रेम प्रकट करते हैं कि तुम भी मेरी ही जैसी रीति का अनुसरण क्यों नहीं करते ? ( अर्थात् करो , क्योंकि यही वास्तविक प्रेम है ) फिर उसी क्षण उन्हीं लोगों से क्रोध में भरकर कहने लगता है कि तुम लोग मेरे बराबर औरों को मानते हो ? ( अर्थात् मैं ही सर्वश्रेष्ठ प्रेमी हूँ , मेरे बराबर प्रेमी और हो ही कौन सकता है ? )

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) कि इन कच्चे धर्मियों के छल – छन्द सुन लो , ये लोग धर्मियों के धर्म का मर्म नहीं जानते वरं विचित्र पाषण्ड करते हैं ।

पद – 5

मेरौ सौ प्रेम मेरौ सौ कीरंतन ,

मेरी सी रीति काहे अनुसारत ।

मेरौ सौ गान मेरौ सौ बजाइबौ ,

मेरौ सौ कृत्य सबै जु बिसारत ॥

छाँड़ि मर्जाद गुरून सौं बोलत ,

कंचन काँच बराबर मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( कितने एक कच्चे धर्मी अपने प्रेमीपने का ढोंग दिखा कर दूसरों से कहते हैं कि- ) ” मेरे जैसा प्रेम – भाव , मेरे जैसा कीर्तन – भजन और मेरे ही जैसी सभी रीतियों का तुम लोग अनुसरण क्यों नहीं करते ? क्योंकि मेरे जैसा गान , मेरे जैसे वाद्य बजाना और मेरे जैसे सारे कृत्य ऐसे हैं कि जो ( तुमको प्रेम में तन्मय करके ) अन्य अब ( संसार ) को भुला देते हैं ।

ऐसे कहने वाले कच्चे धर्मी लोग अपने को श्रेष्ठ समझ कर शास्त्रीय मर्यादा का भी त्याग करके गुरु जनों से ( बेतुकी अमर्यादित ) बातें करते हैं । वे मूर्ख स्वर्ण और काँच को एक सा समझते हैं भाव यह कि – श्री गुरु चरणों का महत्त्व न जानकर उन्हें साधारण मनुष्य मान कर उन्हीं से अहंकार पूर्वक बातें करते हैं । यही सब कच्चे धर्मियों के छल – छन्द है , सुनो ! ये लोग सच्चे धर्मियों के धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 6

देखे जु देखे भले जु भले तुम ,

आपनौ और परायौ न जानत ।

हौं जु सदा रसरीति बखानत

मेरी बराबर ठागनि मानत ।।

कैसे धौं पाऊँ तिहारे हृदै कौं ,

आन द्वार के मोहि न जानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( कुछ कच्चे धर्मी अपने को किसी का श्रेष्ठ हितैषी प्रकट करते हुए कहते हैं- ) “ अजी ! देख लिया , खूब देख लिया , तुम बड़े भले हो , बड़े सीधे हो । इतने सीधे कि तुम्हें अभी अपने और पराये का भी बोध नहीं है , कि तुम्हारा अपना कौन है और पराया कौन ? अर्थात् मुझको भी पराया मान रहे हो , जो एक दम तुम्हारा अपना हूँ । मैं जो सदा रस – रीति का बखान करता रहता हूँ , मेरी बराबरी में उन ठगों को ( जो तुम्हें लूटते रहते हैं ) मानते हो । ( अर्थात् वे मेरे तुल्य तुम्हारे हितैषी नहीं हैं । ) मैं ( तो तुम्हारा इतना हितैषी हूँ और तुम मुझे अपना समझते ही नहीं ) अब तुम्हारे हृदय ( के प्रेम ) को कैसे पाऊँ ? ( क्योंकि तुम तो मुझे अपना समझते ही नहीं और मैं तुम्हारा इतना अनन्य मित्र हूँ कि केवल तुम्हीं से मेरा परिचय है ) अन्य द्वार ( सम्प्रदाय ) के लोग तो तुझे जानते पहचानते तक नहीं ।

( ऐसी कपट पूर्ण बातें करने वाले ) ये कच्चे धर्मी – गणों के छल – छन्द हैं , इन्हें सुनो ! ये धर्मियों के धर्म का मर्म ( रहस्य ) नहीं जानते ( और ऐसी बनावटी बातें करते हैं । )

पद – 7

और तरंग सुनौ अति मीठी ,

सखीन के नाम परस्पर बोलत ।

तच्छिन केस गहंत मुष्टि हनि ,

साकत सुद्ध बचावत डोलत ।।

तच्छिन बोलैं तू प्रेत तू राक्षस ,

फेरि परस्पर जाति प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौं छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं – इन कच्चे धर्मियाँ की ) एक अत्यन्त मीठी ( परिहास पूर्ण ) तरंग और भी सुनो , वे लोग पहले तो आपस में एक दूसरे को सखियों के नाम ले लेकर बुलाते हैं ; ( कहते हैं – अजी चम्पक लता जी ! अजी प्रेम लता जी ! इत्यादि ) किन्तु फिर दूसरे ही क्षण ( लड़ – झगड़ कर ) एक – दूसरे के केशों को पकड़ खींच – खींच कर चूंसे मारते हैं , ( सारा प्रेम – भाव और सखी भाव भुलाकर मार – पीट करने लगते हैं । ) इस प्रकार ये ( हित धर्मी तो ) लड़ते हैं और उनको बचाते फिरते हैं शुद्ध शाक्त – गण , ( क्योंकि वही तो इनके सच्चे हितैषी थे ) लड़ते – लड़ते क्रोध में आकर उस क्षण एक दूसरे को “ तू प्रेत ” ” तू राक्षस !! ” ऐसा कहकर परस्पर में एक दूसरे की जाति प्रमाणित करने लगते हैं ? ( अर्थात् जाति की नीचता साबित करने लगते हैं । )

ये सब कच्चे धर्मियों के छल – छन्द हैं , इन्हें सुनकर इनका त्याग करो , ये लोग सच्चे धर्मी के धर्म – रहस्य भेद को बिलकुल भी नहीं जानते ।

पद – 8

जान्यौ धरम देखी रसरीति जु ,

निष्ठुर बोलत बदन प्रकासित ।

ऐसे न वैसे रहे मँझरैंडव ,

पाछिलियौ जु करी निरभासित ॥

है हैं फेरि जैसे के तैसे हम ,

बारे ते आये संन्यासिनि मानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ॥

भावार्थ – ( जो पहले शैव संन्यासी थे किन्तु खाने पीने के लोभ से पीछे हित – धर्मी वैष्णव बन बैठे ) वे कच्चे धर्मी ( क्रोध के आवेश में अपने अनन्य धर्म की उपेक्षा करते हुए ) निष्ठुरता पूर्वक अपने मुख से ऐसा बकने लगते हैं कि- ” हमने तुम्हारे ( अनन्य ) धर्म को जान लिया और रस रीति को खूब देख लिया । ” इस प्रकार वे न तो इधर ( वैष्णव हित स्वामी धर्मी जनों ) के रहे और न उधर ( संन्यासी शैवो ) के ही , बेचारे बीच में ही लटक गये । अन्त में उन्होंने यह प्रकट किया कि अब हम तो फिर जैसे के तैसे हो जायँगे , क्योंकि हम तो बचपन से ही संन्यासी – शैवों को मानते आये हैं ; ( उनमें ही हमारी प्रीति और निष्ठा है , अत : संन्यासी हो जायँगे । वैष्णवता त्याग देंगे । )

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) -सुन लो । यही सब कच्चे धर्मी पाखण्डी धर्म ध्वजी लोगों के छल – छन्द हैं । ये सच्चे हित धर्मियों के धर्म का रहस्य क्या जानें ? क्योंकि ये तो पेटू स्वार्थी हैं । )

पद – 9

एक रिसाने से रूखे से दीखत ,

पूछत रीति भभूकत धावत ।

एक रँगमगे बोलत चालत ,

मामिलैंहु बपुरे जु जनावत ॥

एक बदन कै साँची साँची कहैं ,

चित्त सचाई की एकौ न आनत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।।

भावार्थ – कोई तो क्रोध से भरे हुए से और रूखे नीरस से दीखते हैं पर अनन्य रसिक धर्मी अवश्य कहलाते हैं । यदि उनसे रीति ( कायदे ) से भी कोई बात पूछो , तो आग सी उगलते हुए दौड़ते हैं , ( मानो खा जायँगे । ) कुछ एक बड़ी रङ्गमगी ( रसीली ) बातें करते हैं और साधारण स्थिति में भी दीनता का प्रदर्शन करते हैं , ( पर वास्तव में उनके हृदय में न तो रसिकता रहती और न दीनता ही । वे तो केवल शब्दाडम्बर मात्र करते हैं । ) कुछ एक लोग मुख से तो ‘ सत्य सत्य ‘ ( अर्थात् हम सत्य ही कहते हैं , झूठ सम्भाषण नहीं करते ) कहते हैं पर उनके चित्त में सच्चाई की एक भी बात नहीं आती और न रहती ।

( श्रीसेवकजी कहते हैं ) ये सब कच्चे धर्मियों के छल फरेब हैं इन्हें सुनो । ये लोग धर्मियों के धर्म का मर्म तो जानते नहीं छल का मर्म अवश्य जानते हैं ।

पद – 10

एक धरंम समुज्झे बिनाऽव ,

गुसाईं के है जु जगत्त पुजावत ।

मूल न मंत्र टटोरा की रीति ,

धरंमिनि पूछत बदन दुरावत ।।

एक मुलंमा ‘ सौ देत उघारि ,

जु बल्लभ सौं बल्लभ परमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम जानत ॥

भावार्थ – कोई एक कच्चे धर्मी , धर्म का स्वरूप समझे बिना ही केवल ( श्रीहरिवंश ) गोस्वामी के कहला कर जगत में अपने आपको पुजाते फिरते हैं । इनके पास न तो धर्म का मूल ( अर्थात् धर्म विषयक ज्ञान , धारणा , प्रीति आदि ) ही है और न मन्त्र ( रहस्य ) ही । केवल टटोरे ( अर्थात् अन्धे की भाँति टटोल कर किसी वस्तु का अनुमान करने ) की रीति से ये लोग अपना काम चलाते हैं । सच्चे धर्मियों के समक्ष मुँह छिपाने लगते हैं , जब इनसे धर्म – विषयक बातें पूछी जाती हैं ; ( क्योंकि धर्म से सर्वथा कोरे हैं । ) यदि कोई कच्चे धर्मी धर्म का स्वरूप बताने ही लगे तो मुलम्मा सा उघार देते हैं और वल्लभ शब्द से वल्लभ ( प्रियतम अर्थात् राधावल्लभ शब्द का अर्थ राधा के वल्लभ श्रीकृष्ण ) को प्रमाणित करने लगते हैं । सुनो , ये कच्चे धर्मियों के छल – छन्द हैं , ये लोग धर्मी गणों के धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 11

एक गुरून सौं वाद करंत ,

जु पंडित मानी है जीभहि ऐंठत ।

एक दरब्य के जोर बरब्बट ,

आसन चाँपि सभा मधि बैठत ॥

एक जु फेरि रीति उपदेसत ,

एक बड़े बै न बात प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौं छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।

भावार्थ – कोई एक ( कच्चे धर्मी ) गुरु – जनों से ही वाद – विवाद करते हैं । बड़े मानी पण्डित कहाकर जीभ ऐंठते- पाण्डित्य प्रकाशित करते हैं । कोई एक केवल द्रव्य के जोर से गुरु – जनों की बराबरी करते हुए सभा समाज में उनके आसन को दबाकर – समानता का अपना भाव प्रकट करते बैठते हैं । फिर कोई एक उन्हीं गुरुजी को वहीं रस – रीति का उपदेश करने लग जाते हैं । कोई एक बड़े बनकर अभिमान – वश दूसरों की बातों को ( सत्य होने पर भी ) प्रमाण ही नहीं मानते , ( अपनी ही अपनी धौंकते चले जाते हैं । ) ये हैं नकली धर्मी लोगों के छल छन्द । सुनो , ये धर्मी , धर्म का मर्म नहीं जानते ।

पद – 12

एक धरंमी अनन्य कहाइ ,

बड़ाई को न्यारी कै बाजी सी माँड़त ।

और के बाप सौं बाप कहंत ,

दरब्य के काज धरंमहिं छाँड़त ॥

बोलत बोल बटाऊ से लागत ,

है गुरुमानी न बात प्रमानत ।

काचे धरंमिनि के सुनौ छंद ,

धरंमी – धरंम मरंम न जानत ।

भावार्थ – तो सजातीय ( तुम्हारे सम उपासक अनन्य हित – धर्मी ) बन जाते और खर्च करने के समय विजातीय ( अन्य ) बन जाते हैं ( अर्थात् खीर में एक और महेरी में न्यारे हैं । )

पद – 13

लै उपदेश कहाय अनन्य ,

अन्हाइ अनर्पित जाइ गटक्कत ।

आस करें विषईनि के आगैं ,

जु देखे मैं जोरत हाथ लटक्कत ॥

केतिक आयु कितेक सौ जीवन ,

काहे बिनासत काज हटक्कत ।

श्रीहरिवंश धरंमिहिं छाँड़ि ,

घर घर काहे फिरत्त भटक्कत ॥

भावार्थ – कुछ कच्चे धर्मी श्रीगुरु उपदेश लेकर और अनन्य धर्मी कहला कर भी , स्नान मात्र करके प्रभु अर्पित किये बिना ही वस्तुओं को भोगने लगते हैं । इन लोगों को मैंने विषयी लोगों के सामने आशा पूर्वक हाथ जोड़ते और भीख के लिए हाथ लटकाते देखा है ।

( ऐसे लोलुप और अधर्मी लोगों के लिये श्री सेवकजी महाराज उपदेश करते हैं – कि ) अरे ! कितनी तो तुम्हारी आयु है और कितना थोड़ा तो तुम्हारा यह जीवन है फिर क्यों ( जबरदस्ती ) हटकते – बरजते हुए भी अपने काम बिगाड़ रहे हो ? ( भाव यह कि सच्चे धर्मी बन कर अपना जीवन सफल क्यों नहीं कर लेते ? ) भाई ! श्रीहरिवंश – धर्म को छोड़ कर क्यों घर – घर ( यहाँ – वहाँ दूसरी – दूसरी उपासनाओं में ) भटकते फिरते हो ?

पद – 14

साकत संग अगिन्न लपट्ट ,

लपट्ट जरत्त क्यौं संगति कीजै ।

साधु सुबुद्धि समान सु संतनि ,

जानिक सीतल संगति कीजै ॥

एक जु काचे प्रकृत्ति बिरुद्ध ,

प्रकृत्ति बिरुद्ध करें तौ का कीजै ।

जे आगि के दाझे गये भजि पानी में ,

पानी में आग लगै तौ का कीजै ।।

भावार्थ – ( श्रीसेवक जी कहते हैं- ) भाई ! शाक्तों का सङ्ग अग्नि की तीखी लपट है । लपट का स्वाभाविक धर्म है कि वह सब कुछ जला देती है । तब तू क्यों उस अग्नि लपट रूप शाक्त का सङ्ग करता है ? साधु जन सुन्दर बुद्धि से युक्त और सम – भाव पूर्ण सन्त हैं ऐसा जानकर उन सन्तों का ही शीतल ( शान्तिदायक ) संग कर । एक तो तू ( अपने धर्म में ही ) कच्चा है और वे ( शाक्त गण ) तेरे प्रकृति विरोधी ( अर्थात् तेरी सात्विक उपासना के विपरीत तमोगुण प्रधान उपासना युक्त ) है , फिर यदि वे तेरे लिये प्रकृति के विरुद्ध करते भी हैं , तो तू क्या कर सकेगा ? ( अर्थात् तू उनके उस विपरीत धर्म के प्रवाह में बह जायगा और दिनों दिन तेरा अपने धर्म से अन्तर पड़ता जायगा ) अन्ततोगत्वा तेरा यह हाल होगा कि जैसे कोई आग का जला – भुना शीतलता के लिये पानी में जाय किन्तु उस पानी में ही आग लग जाय तो वह क्या करे ? अर्थात् धर्म के कच्चे पन की आग के जले हुए शाक्त – सङ्ग रूप पानी में शान्ति के लिये गये पर वहाँ भी प्रकृति – विरोध की आग लग जाय तब तो कही शान्ति नहीं होगी । अत : शाक्त सङ्ग को छोड़कर सन्तों का शान्ति दायक सङ्ग करे । )

पद – 15

प्रीति भंग बरनत रस रीतिहि ,

श्रीहरिवंश बचन बिसरावहु ।

आप आपनी ठौर जहाँ तहाँ ,

करि विरुद्ध सब पै निदराबहु ।।

एक संसार दुष्ट की संगति ,

ताहू पै तुम पुष्ट करावहु ।

विनती करहुँ सकल धर्मिनि सौं ,

धर्मी है जिन नाम धरावहु ॥

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं- ) हे कच्चे धर्मी भाइयों ! वास्तव में तुम प्रीति से रहित ( प्रीति भङ्ग ) होने पर भी रस रीति का वर्णन करते हो और श्रीहरिवंशचन्द्र के वचनों को भुला रहे हो ( जो उन्होंने कहा है- “ साधुसँगति करि अनुदिन राती ” और ” स्याम – स्यामा – पद – कमल संगी सिर नायौ । ” साधु सङ्ग से प्रीति प्राप्त करके फिर प्रीति – रस – रीति का वर्णन शोभा देता है , केवल वाचिक नहीं । उपदेशक उपदेश देने मात्र से महान् नहीं कहा जा सकता न रसिक ही । भाई तुम अपनी – अपनी जगह पर ( स्थिति में ) ही रहते हो किन्तु ( श्रीहरिवंश वचन के विरुद्ध – आचरण ; शाक्त – सङ्ग , मनमुखी पन आदि ) कर कर के जगत में अपनी निन्दा अवश्य करा लेते हो । एक तो यह संसार ही दुष्ट – सङ्ग है , उस पर भी तुम उसी संसार की पुष्टि करा रहे हो ! ( अर्थात् शाक्तादि लोगों के सङ्ग से आवागमन ही तो बढ़ेगा ? ) अतएव मैं समस्त धर्मियों से विनय करता हूँ कि तुम धर्मी ( हित रस के अनन्य रसिक ) कहलाकर अब ऐसा ( बुरा ) नाम मत पैदा करो ! ( कि ये कच्चे धर्मी किंवा शाक्त – सङ्गी हैं । )

पद – 16

स्वारथ सकल तजि गुरु चरननि भजि ,

गुप्त नाम सुन कधि संतन सौं संग करि

काल – व्याल मुख परयौ कफ बात पित्त भरयौ ,

भ्रम्यौ कत अनन्य कहाय की जिय लाजधरि ॥

सेवक निकट रस रीति प्रीति मन धरि ,

हित हरिवंश कुल कानि सब परिहरि ।

काचे रसिकनि सौं बिनती करत ऐसी ,

गोबिंद दुहाई भाई जो न सेवहु स्यामा हरि ॥

भावार्थ – हे भाई ! तू अपने सारे स्वार्थों का त्याग कर , श्रीगुरु चरणों का भजन कर , अपने इष्ट देव श्रीराधावल्लभलाल के गुण एवं नामों का श्रवण – कथन कर और प्रेमी सन्तों का सत्सङ्ग कर । ( विचार करके देख ! ) तू काल रूपी सर्प के मुख में पड़ा है और तेरा नाशवान् शरीर कफ , वात एवं पित्त से भरा हुआ है । फिर तू किसलिये भ्रम में हो ? अरे , अपने अनन्य कहे जाने की लाज तो ( कम से काम ) अपने चित्त में धारण कर ।

श्रीसेवकजी कहते हैं – कि श्रीहरिवंश के सेवकों के निकट ( निवास करके या उनकी समीपता प्राप्त करके ) रस – रीति एवं प्रीति को अपने मन में धारण कर और श्रीहरिवंश के लिये ( उनकी प्राप्ति , प्रीति के लिये ) अपने कुल की मर्यादा , प्रतिष्ठा आदि सब ( बन्धनों ) का परित्याग कर दे । मैं कच्चे रसिकों से विनती करता हूँ कि हे भाइयो ! यदि तुम श्रीश्यामा – श्याम सेवन नहीं करते हो तो तुम्हें मेरी ओर से श्रीगेविन्द की दुहाई है जो ऐसा न करो । अर्थात् शपथ है , अत : श्रीश्यामा – श्याम का सेवन अवश्य करो ।

पद – 17

परखे सुनहु सुजान और कछु जहाँ कचाई ।

भक्त कहैं परसन्न न तरुता कहैं बुरबाई ॥

दियैं सराहैं सुख हैं दुख दिन राती ।

खैबैं कौं जु सजाति खरच कौं होत बिजाती ।

भावार्थ – ( श्रीसेवकजी कहते हैं- ) हे सज्जनो ! सुनो , उनमें और जो कुछ एवं जहाँ कहीं कच्चापन है , उसका भी वर्णन करता हूँ , मैंने जिसे परख लिया है । ये कच्चे लोग ‘ भक्त ‘ कहने पर प्रसन्न तो होते हैं किन्तु उनकी बुराई ( निन्दा ) कही जाने पर उनमें तरुता ( वृक्ष जैसी सहन – शीलता ) नहीं रहती । वे कुछ देने पर और सराहना किये जाने पर सुखी होते अन्यथा सब समय दिन रात दु : खी ही रहते हैं । आश्चर्य है कि ये खाने के लिये

पद – 18

प्रगटित श्री हरिवंश सूर दुंदुभि बजाइ बल ।

मदन मोह मद मलित निदरि निर्दलित दंभ दल ।।

भरम भाग्य भय भीत गर्व दुर्जन रज खंडन ।

लोभ क्रोध कलि कपट प्रबल पाखंड विहंडन ।।

तृष्णा – प्रपंच – मत्सर – बिसन सर्व दंड निर्बल करे ।

सुभ – असुभ दुर्ग बिध्वंसि बल तब जैति – जैति जग उच्चरे ॥

भावार्थ – श्रीश्यामा – श्याम का सेवन करने या श्रीहरिवंश धर्म का अनन्य भाव से पालन करने से उस साधक के हृदय में श्रीहरिवंश चन्द्र शूर – वीर दुन्दुभि बजाकर ( डंके की चोट से ) बल – पूर्वक प्रकट हो जाते हैं और काम , मोह , अभिमान , दम्भ , पाषण्ड आदि के दल को निरादरित करके मसल डालते हैं । ( उस उपासक के ) भ्रम , भाग्य ( कर्म – संस्कार , परिणाम ) , भय , भीति ( भय से उत्पन्न भाव ) गर्व आदि दुर्जनों के अभिमान ( रजोगुण – धर्म ) का खण्डन करके लोभ , क्रोध , कलह कपट आदि प्रबल पाषण्ड समूह को तहस नहस कर डालते हैं । इसी प्रकार तृष्णा प्रपञ्च , मत्सर ( डाह ) आदि सारे दोषों ( व्यसनों ) को भी अपने दण्ड बल से निर्बल कर देते हैं , पश्चात् पुण्य और पाप रूपी किलों को भी नष्ट – भ्रष्ट कर डालते हैं । तब सम्पूर्ण जगत् जय – जयकार का उच्चारण कर उठता है ।


श्रीहित अलभ्य – लाभ
( पंचदश प्रकरण )
पूर्व परिचय

अलभ्य उस वस्तु को कहते हैं जो कभी किसी को प्राप्त न हुई हो । ऐसी अलभ्य वस्तु है- श्रीहरिवंश नाम । यह पहले किन्हीं साधनों से भी किसी को प्राप्त नहीं था , श्रीहरिवंशचन्द्र ने कृपा पूर्वक जगतीतल पर प्रकट होकर अपने रूप का प्रकाश किया , जिससे कृपा पात्र जनों ने उन्हें जाना और उनके नाम के द्वारा उस अलभ्य वस्तु का लाभ किया , जो अभी तक किसी को प्राप्त न थी ; इसलिये इस प्रकरण में उस अलभ्य लाभ का वर्णन होने से इसका नाम अलभ्य – लाभ ‘ रखा गया है ।

इस अलभ्य लाभ के दृष्टि – गोचर होते हुए भी जो लोग इसका लाभ नहीं लेते मानो वे महा अभागे हैं ।

अस्तु यहाँ चार छन्दों में उस “ अलभ्य लाभ ” श्रीहरिवंश – नाम की महिमा , प्रभाव , गुण – माहात्म्य , नाम को ग्रहण न करने वाले का स्वरूप एवं दशा आदि का संक्षेपत : वर्णन किया गया है ।

पद – 1

श्री हरिवंश नाम है जहाँ तहाँ तहाँ उदारता ,

सकामता तहाँ नहीं कृपालुता विशेषिये ।

हरिवंश नाम लीन जे अजातसत्रु ते सदा ,

प्रपंच दंभ आदि दै तहाँ कछू न पेखिये ॥

हरिवंश नाम जे कहैं अनंत सुक्ख ते लहैं ,

दुराप प्रेम की दसा तहाँ प्रतच्छ देखिये ।

सोई अनन्य साधु सो जगत्र पूजिये सदा ,

सु धन्य धन्य विश्व में जनम सत्य लेखिये ॥

भावार्थ – जहाँ – जहाँ श्रीहरिवंश नाम है , वहाँ – वहाँ उदारता है । वहाँ सकामता ( फल की इच्छा ) नहीं है और कृपालुता तो विशेष रूप से है , ऐसा जानना चाहिये । जो उपासक श्रीहरिवंश – नाम में तल्लीन हैं , वे सदा ही अजात शत्रु ( अर्थात् जिनका शत्रु पृथ्वी क्या त्रिलोकी में उत्पन्न ही नहीं हुआ ऐसे ) हैं । उनके पास प्रपञ्च दम्भ से लेकर और भी बहुत से दोष पाखण्ड आदि कुछ भी नहीं देखे जाते । जो लोग ‘ श्रीहरिवंश ‘ नाम कहते रहते हैं , वे अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं और अत्यन्त गोपनीय प्रेम की दशा भी उनमें प्रत्यक्ष देखी जाती है ( अर्थात् श्रीहरिवंश नाम के प्रताप से वह अलभ्य प्रेम दशा भी प्रकट हो जाती है ) जो ऐसा ( उक्त गुणों से सम्पन्न ) है वही अनन्य साधु है , वही सदा – सर्वदा त्रिलोक पूज्य है । वही धन्य – धन्य है और विश्व में जन्म लेना उसी का सचमुच सार्थक है ।

पद – 2

श्रीव्यासनंदन नाम कौ अलभ्य लाभ जानिये ।

हरिवंशचंद्र जो कही सुचित्त है सबै लही ,

बचंन चारु माधुरी सु प्रेम सौं पिछानिये ।

सुनै प्रपंन जे भये अभद्र सर्व के गये ,

तिन्हें मिलैं प्रसंन है न जाति भेद मानियै ॥

सुभाग लाग पाइ हौ प्रसंसि कंठ लाइ हौ ,

सिराइ नैंन देखिकै अभेद बुद्धि आनियै ।

कृपालु कै सु भाखि हैं धरम पुष्ट राखि हैं ,

श्रीव्यासनंदन नाम कौ अलभ्य लाभ जानियै ॥

भावार्थ – निश्चय जानिये कि श्रीव्यासनन्दन नाम का लाभ ही वास्तव में अलभ्य लाभ है ।

श्रीहरिवंश चन्द्र ने जो कुछ कहा है , उसे सभी ( उनके शरणागतों ) ने सुचित्त भाव से प्राप्त किया है । हृदय में प्रेम होने से ही उस वाणी का माधुर्य समझ में आता है ( क्योंकि वह अन्य प्रकार पहचानी ही नहीं जा सकती । ) उस ( वचन माधुरी ) को सनुकर जो लोग ( श्रीहित हरिवंशचन्द्र के ) शरणागत ( भक्त ) हो गये , उनके समस्त अभद्र ( अमंगल , पाप ) विदा हो गये । ऐसे उन भक्तों से प्रसन्नता – पूर्वक मिलना चाहिये , उनसे जाति आदि का भेद ( अर्थात् जाति की उच्चता और हेयता ) नहीं माननी चाहिये । ऐसे प्रेमी मानो हमारे सौभाग्य को उदय करने के ही लिये मिलते हैं – अथवा उनसे सौभाग्य और लाग ( लगन ) प्राप्त हो सकेगी , वे तुमसे प्रसंशा – पूर्वक मिलेंगे और तुम्हें गले लगा लेंगे । तुम उनका दर्शन करके अपने नेत्र शीतल करो और उनके प्रति अभेद बुद्धि ( अर्थात् इष्टदेव श्रीराधावल्लभलाल और रसिक- -महानुभाव दो तत्व नहीं अपितु एक ही वस्तु – तत्व के दो रूप हैं ऐसी बुद्धि ) लाओ । वे भी तब कृपालु होकर तुम्हारे प्रति सुन्दर और मधुर वचनों का भाषण करेंगे , ( सदुपदेश देंगे ) और तुम्हारे धर्म को पुष्ट करके उसकी रक्षा करेंगे ।

( यह समस्त गुण श्रीहरिवंश नाम के ही हैं अत श्रीव्यासनन्दन श्रीहरिवंशचन्द्र के नाम को ही अलभ्य लाभ जानिये । इसके समान कोई अन्य लाभ तो है ही नहीं ।

पद – 3

हरिवंश नाम सर्व सार छाँड़ि लेत बहुत भार ,

राज बिभौ देखिकै विषै विषम भोवहीं ।

जोरु होत साधु संग ऑन करत प्रीति भंग ,

मान काज राजसीन के जु मुक्ख जोवहीं ॥

जहाँ तहाँ अन्न खात सखी कहत आप गात ,

सकल द्यौस द्वंद्व जात रात सर्व सोवहीं ।

प्रसिद्ध व्यासनंदन नाम जानि बूझि छोड़हीं ,

प्रमाद तें लिये बिना जनम बाद खोवहीं ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश नाम ही सबका सार है । कच्चे और अश्रृद्धालु धर्मी लोग उसे छोड़ कर अन्य – अन्य ( उपासना और धर्मों का ) व्यर्थ भार अपने सिर पर लेते हैं और किसी का राज्य – वैभव आदि देख करके विषम विषय – रस में लिप्त हो जाते हैं । यदि कदाचित् सौभाग्य से साधुजनों का सङ्ग प्राप्त हो भी गया तो उन साधुओं से भी और – और प्रकार की खटपट कर करके उनसे प्रीति तोड़ लेते हैं और सम्मान पाने के लिये राजसी लोगों का मुख देखते रहते हैं ।

ये लोग अनन्य तो बनते हैं पर जहाँ – तहाँ अन्न ( विना भोग लगी हुई वस्तु ) खाते फिरते और अपने आपको ( गुरु दीक्षा , कण्ठी , तिलक आदि होने से ) सखी – स्वरूप कहते हैं । उनके सारे दिन द्वन्द्व ( राग – द्वेष , इर्ष्या , असूया , झूठ – कपट आदि ) में ही चले जाते हैं और वे सारी रात सोया करते हैं , केवल कहने के सखी – स्वरूप हैं , भजन – भाव , सेवा , जप , पाठ आदि कुछ नहीं अपितु खाना – पीना और सोना यही सारे विपरीत आचरण हैं । खेद है कि प्रसिद्ध व्यास नन्दन ( श्रीहरिवंश ) नाम को जान बूझ कर छोड़ देते हैं और प्रमाद – वश उस महान् नाम के बिना ही अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ खो देते हैं ।

पद – 4

हरिवंश नाम हीन खीन दीन देखियै सदा ,

कहा भयौ बहुज्ञ द्वै पुरान वेद पढ्ढहीं ।

कहा भयौ भये प्रबीन जानि मानियै जगत्र ,

लोक रीझ सोभ कौं बनाइ बात गढ्ढहीं ॥

कहा भयौ किये करम जज्ञ दान देत – देत

फलनि पाइ उच्च – उच्च देवलोक चढ्ढहीं ।

परयौ प्रवाह काल के कदापि छूटि है नहीं ,

श्रीव्यासनंदन नाम जो प्रतीति सौं न रहीं ॥

भावार्थ – जो लोग श्रीहरिवंश नाम से हीन हैं – रहित हैं , वे सदैव दीन एवं ( धर्म से ) क्षीण देखे जाते हैं । क्या हुआ जो वे लोग बड़े भरी सुज्ञाता होकर पुराण एवं वेद पढ़ते रहते हैं ? यदि वे बड़े प्रवीण ( कुशल ) भी हो गये और उन्हें सारा जगत् जानने और मानने भी लगा । वे संसार को रिझाने के लिये गढ़ – गढ़ कर शोभामयी ( मीठी – मीठी ) बातें भी कहना सीख गये तो भी क्या ? यदि उन्होंने बहुत से कर्म किये , यज्ञ किये और दान दिये तो क्या ? अरे ! दान दे – देकर भोगों के उच्च फल पा गये और ऊँचे – ऊँचे लोकों ( स्वर्ग आदि ) में भी चले गये , तो इससे भी क्या हुआ ?

इतना सब होने पर भी वह व्यक्ति जो श्रीव्यासनंदन नाम को विश्वास पूर्वक नहीं रटता है , सदा ही भव ( आवागमन ) के प्रवाह में पड़ा रहेगा । वह कभी भी उस भव – प्रवाह से नहीं छूट सकता जब तक कि प्रतीति ( विश्वास ) और प्रीति ( प्रेम ) से श्रीव्यासनन्दन नाम को नहीं रटेगा ।


श्रीहित अबोलनौं
( षोडश प्रकरण )
पूर्व परिचय

‘ अबोलनौं ‘ का अर्थ है ‘ न बोलना ‘ इस न बोलने की स्थिति का सङ्केत मान से है । कभी – कभी क्रीड़ा – विलास में युगल किशोर के बीच में ऐसी स्थिति आ प्राप्त होती है , जहाँ श्रीप्रियाजी सब कुछ भूल कर चुप हो रहती हैं , किन्तु प्रेम – आशंका वश श्रीलालजी उसे ‘ मान ‘ समझ बैठते हैं । सेवक जी के मत से यह ‘ मान”प्रकट प्रेम रस सार ‘ है । यह प्रेम रससार कुञ्जान्तर मान नहीं , रूठना नहीं , क्रोध नहीं , घृणा नहीं और न सौतिया डाह जैसी कोई स्थिति ही है । यह है प्रेमाधिक्य का विलास । जब श्रीप्रियाजी अपने प्रियतम श्रीलाल जी के प्रेमाधिक्य से अपनी सुधि – बुधि खो बैठती , मौन हो जाती हैं तब श्रीलाल जी उनकी इस स्थिति को अपनी प्रेम – सम्भ्रम बुद्धि से ‘ मान ‘ समझ बैठते हैं , क्योंकि वे भी तो प्रेम – परवश होने के कारण अपनी बुद्धि खो बैठते हैं , अतएव वे श्रीप्रियाजी को मनाने लगते हैं ।

इस रहस्य को सर्वज्ञ हित सखी खूब समझती हैं , इसलिये श्रीप्रियाजी को वस्तु स्थिति समझाने की कोशिश करती हैं , ताकि मान जैसी स्थिति छूट जाय और दोनों पक्षों में रस की धारा बह चले ।

अन्तत : ऐसा ही होता है । इस अबोलनौ के नित्य – मिलन प्रसंग में प्रेम – विलास की अनिर्वचनीयता की जो अन्तिम – स्थिति दिखायी गयी है , उससे महाप्रभु श्रीहित हरिवंशचन्द्र के प्रेममय नित्य – विहार रस का कुछ अनुमान हो जाता है । अब प्रथम दोहे में यह बताना चाहते हैं कि महाप्रभु पाद की वाणी में किस प्रकार मान सम्भव हो सका ?

पद – 1

बानी श्रीहरिवंश की , सुनहु रसिक चित लाइ ।

जेहि विधि भयौ अबोलनौं , सो सब कहौं समुझाइ ॥

भावार्थ – हे रसिकों ! श्रीहरिवंश की वाणी ( श्रीहित चौरासी , राधा – सुधा निधि आदि ) में ‘ अबोलनौं ‘ ( मौन या मान ) जिस प्रकार से हुआ मैं वह सब समझा कर कहता हूँ , उसे चित्त लगाकर सुनो ।

पद – 2

श्री हरिवंश जु कथि कही , सोरु सुनाऊँ गाइ ।

बानी श्रीहरिवंश की , नित मन रही समाइ ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र ने अपने कथन में ( अपने शब्दों में ) जो कुछ कहा है , वही ( मानादि ) वर्णन करके मैं आपको सुनाऊँगा , क्योंकि श्रीहरिवंश की वाणी निरन्तर मेरे मन में समाई हुई है ।

पद – 3

श्रीहरिवंश अबोलनौं , प्रगट प्रेम – रस – सार ।

अपनी बुद्धि न कछु कहौं , सो बानी उच्चार ॥

भावार्थ – श्रीहरिवंश चन्द्र के द्वारा वर्णन किया गया अबोलनौं ( मौन ) प्रकट रूप से प्रेम रस का सार है , मैं उस विषय में अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहता वरं जैसा कुछ श्रीहरिवंश की वाणी में कहा गया है उनका उच्चारण है , ( मैं उन्हीं के शब्दों में कहता हूँ । )

पद – 4

श्रीहरिवंश जु क्रीडहीं , दंपति रस समतूल ।

सहज समीप अबोलनौं , करत जु आनँद मूल ॥

भावार्थ – श्रीहित हरिवंश चन्द्र स्वयमेव प्रेम रस समतुल्य दंपति के रूप में क्रीड़ा करते हैं और उस क्रीड़ा के मध्य सहज रूप से जो अबोलनौं ( मौन की स्थिति ) आ उपस्थित होती है वह आनन्द का मूल है । अर्थात उससे रसानन्द की निष्पत्ति होती है ।

पद – 5

काहे कौं डारति भामिनी , हौं जु कहत इक बात ।

नैंक बदन सनमुख करौ , छिन छिन कलप सिरात ॥

भावार्थ – सखी ने कहा – हे भामिनि ! मैं जो एक बात तुमसे कह रही हूँ , उसे क्यों टाल रही हो ? तनिक तो अपना श्रीमुख इनके सम्मुख करो । देखो , ( श्रीलालजी का ) एक – एक क्षण कल्प की भाँति बीत रहा है ।

पद – 6

वे चितवत तुव बदन बिधु , तू निज चरन निहारति ।

वे मृदु चिबुक प्रलोवहीं , तू कर सौं कर टारति ॥

भावार्थ – वे तो तुम्हारे मुख – चन्द्र को ही ( चकोर वत् ) देख रहे हैं और तुम अपने चरणों की ओर ( दृष्टि नीची किये ) निहार रही हो । वे तुम्हारे कोमल चिबुक को प्रेम पूर्वक सहलाते हैं और तुम ( अनादर पूर्वक ) उनके हाथ को अपने हाथों से टाल देती – झटक देती हो ।

पद – 7

बचन अधीन सदा रहै , रूप समुद्र अगाध ।

प्रान – रवन सौं कत करति , बिनु आगस अपराध ।।

भावार्थ – रूप के अगाध – समुद्र ये श्रीलाल जी सदा ही तुम्हारे वचनों के अधीन रहे आते हैं । इस प्रकार सदा अपने ही अनुकूल रहने वाले प्राण – रमण से तुम अकारण ( बिना किसी अपराध के ) ही क्रोध या मान क्यों करती हो ? ( एक दृष्टि से तो यह तुम्हारा मान भी उनके प्रति अपराध ही है । )

पद – 8

चितयौ कृपा करि भामिनी , लीने कंठ लगाइ ।

सुख सागर पूरित भये , देखत हियौ सिराइ ॥

भावार्थ – ( श्रीहित सखी के वचनों को सुनकर ) भामिनि ( श्रीप्रियाजी ) ने मान का त्याग करके ( श्रीलालजी की ओर प्रेम पूर्ण दृष्टि से देखा और ) उन्होंने अपने प्रियतम को गले लगा लिया , जिससे ( दोनों के मिलते ही मानो ) दो सुख – समुद्र पूर्ण होकर छलक उठे , जिसे देखकर ( श्रीहित अलि का ) हृदय शीतल हो गया ।

पद – 9

सेवक सरन सदा रहै , अनत नहीं विश्राम ।

बानी श्री हरिवंश की , कै हरिवंशहिं नाम ॥

भावार्थ – सेवकजी कहते हैं कि ‘ यह ‘ सेवक तो सदैव इन्हीं श्रीहरिवंश की शरण में रहता है , उसे तो अब अन्यत्र कहीं शान्ति ( विश्राम ) ही नहीं है । एक तो श्रीहरिवंश की वाणी अथवा दूसरे श्रीहरिवंश का नाम , इसके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं शान्ति ( विश्राम ) नहीं है ।

॥ जै जै श्री हरिवंश ॥


फल स्तुति

जयति जयति हरिवंश नाम रति सेवक बानी ।

परम प्रीति रस रीति रहसि कलि प्रगट बखानी॥

प्रेम संपती धाम सुखद विश्राम धरंमिनि ।

भनत गुनत गुन गूढ़ भक्त भ्रम भजत करंमिनि ॥

श्रीव्यासनंद अरबिंद चरन मद तासु रंग रस राचहीं।

‘श्रीकृष्णदास’ हित हेत सौं जे सेवक बानी बाँचहीं ॥

श्रीकृष्णचन्द्र महाप्रभु पाद

सेवक दरसायौ प्रगट हित मग सब सुख सार।

चलैं तिहीं अनुकूल जे पावैं नित्य विहार ॥

सेवै श्रीहरिवंश पद सेवक सो ही मान।

और कहै औरहि भजै सो विभिचारी जानि ॥

सेवक गिरा प्रमान करि सेवै व्यास कुमार।

सेवक सो ही जानिये और सकल विभिचार ॥

सेवक कही सो ही करै परसै नहिं कछु आन।

सेवक सो ही जानिये रसिक अनन्य सुजान ॥

एक महानुभाव

कै हरिवंसहि नाम धाम वृंदावन बस गति।

बानी श्रीहरिवंश सार संच्यौ सेवक मति ॥

पठन श्रवन जे करै प्रीति सौं सेवक बानी।

भव निधि दुस्तर जदपि होइ तिहिं गोपद पानी ॥

( श्री ) व्यासनंद परसाद लहि जुगल रहस दरसै जु उर।

धनि वृंदावन हित रूप बलि सुख विलसैं भावुक धाम धुर ॥

ग्रंथ सिंधु तें सोधि रंग कलि माँहि बढ़ायौ ।

यह हित कृपा प्रसाद अमी भाजन भरि पायौ ॥

रसिक मनौं सुर सभा आनि तिनकौं दरसायौ ।

श्री सेवक निज गिरा मोहिनी बाँटि पिवायौ ॥

पठन श्रवण निसि दिन करै दंपति सुधाम सुख लहै अलि |

बानी स्वरूप हरिवंश तन भनि वृंदावन हित रूप बलि।

॥ जै जै श्रीहरिवंश ।।

श्री सेवकवाणी-टीका ( पंचदश प्रकरण )

(७) पढ़त गुनत गुन नाम सदा सत संगति पावै ।

अरु बाढ़ रस रीति विमल बानी गुन गावै ॥

प्रेम लक्षणा भक्ति सदा आनँद हितकारी ।

श्रीराधा जुग चरन प्रीति उपजै अति भारी॥

निजु महल टहल नव कुंज में नित सेवक सेवा करन। निसिदिन समीप संतत रहै श्रीहरिवंश चरन सरनं ॥

(८) जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइहै।

प्रेम लक्षणा भक्ति सुदृढ़ करि पाइहै ॥

अरु बाढ़ रस रीति प्रीति चित ना टरै ।

जीति विषम संसार कीरति जग बिस्तरै ॥

बिस्तरै सब जग विमल कीरति साधु संगति ना टरै ।

बास वृंदा विपिन पावै श्रीराधिकाजू कृपा करै ।

चतुर जुगल किसोर सेवक दिन प्रसादहि पाई है।

जै जै श्रीहरिवंश नाम गुन जो नर गाइहै ।।

(९) हरिवंश नाम जे कहैं अनंत सुक्ख ते लहैं।

दुरापि प्रेम की दसा तहाँ प्रतच्छ देखिये।

इत्यादि वाक्यों से सिद्ध है कि श्रीहित हरिवंश चन्द्र का नाम मोक्ष-सुख से भी परे दिव्य प्रेममय नित्य विहार को प्रदान करने वाला है। जो ऐसा जानकर इस नाम की शरण लेते और फिर आराधन करते हैं; वही सुदृढ़ भव (अर्थात् लोक एवँ लोकान्तरों के आवागमन, जन्म-मरण आदि) से छूट कर नित्य किशोर श्रीराधावल्लभलाल के अत्यन्त निकट होकर श्रीवृन्दावन धाम में प्रेम केलि का सुख आस्वादन करते हैं। इनके सिवाय शेष सभी काल प्रवाह में पड़े हैं, जैसा कि श्रीध्रुवदास जी ने कहा है

हित ध्रुव और सुख देखियत जहाँ लगि,

सुनियत तहाँ लगि सबै दुख पासि हैं।

श्रीरसखानजी के मत से तो प्रेमी ही मरकर सच्चा जीवन पाता है और शेष सब जीते हुए भी मरे से हैं

प्रेम फाँसि में फँसि मरै सोई जियै सदाहि ।

प्रेम मरम जानै बिना मरि कोऊ जीवत नाहिं ॥

अतएव नित्य जीवन पाने के लिये प्रेम नाम श्रीहरिवंश का आश्रय लेना चाहिये।

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श्री स्फुट वाणी

Shri Hita Sfut Vani- श्री स्फुट वाणी



श्री वृंदावन धाम के रसिक संत श्री हित हरिवंश महाप्रभु द्वारा लिखित दोहे।


श्रीहित स्फुटवाणी – 1

व्दादश चन्द्र , कृतस्थल मंगल , बुद्ध विरुद्ध , सुर – गुरु बंक |

यद्दी दसम्म – भवन्न भृगू – सुत , मंद सुकेतु जनम्म के अंक ||

अष्टम राहु चतुर्थ दिवामणि , तौ हरिवंश करत नहिं संक |

जो पै कृष्ण – चरण मन अर्पित , तौ करि हैं कहा नवग्रह रंक ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 2

भानु दसम्म , जनम्म निसापति , मंगल – बुद्ध सिवस्थल लीके |

जो गुरु होंय धरम्म – भवन्न के , तौ भृगु – नन्द सुमन्द नवीके ||

तीसरौ केतु समेत विधु – ग्रस , तौ हरिवंश मन कर्म फीके |

गोविन्द छाँडि भ्रमंत दशौं दिस , तौ करि हैं कहा नवग्रह नीके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 3

नाजानौं छिन अन्त कवन बुधि घटहि प्रकासित |

छुटि चेतन जु अचेत तेउ मुनि भये विष वासित ||

पारासर सुर इन्द्र कलप कामिनि मन फंघा |

परि व देह दुख व्दन्द कौंन कर्म काल निकंघा ||

यहिं डरहिं डरपि हरिवंश हित , जिनव भ्रमहि गुण सलिल पर |

जिहिं नामन मंगल लोक तिहूँ , सु हरि – पद भजु न विलम्ब कर ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 4

तू बालक नहिं भरच्यौ सयानप , काहैं कृष्ण भजत नहिं नीके ।

अतिव सुमिष्ट तजिव सुरभिन – पय , मन बन्धत तन्दुल जल फीके ||

जै श्रीहित हरिवंश नरकगतिदुरभर , यमव्दारै कटियत नकछीके ।

भव अज कठिन मुनीजन दुर्लभ , पावत क्यों मनुज तन भीके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 5

चकई ! प्रान जु घट रहैं , पिय – बिछुरंत निकज्ज |

सर – अन्तर अरु काल निशि , तरफ तेज घन गज्ज ||

तरफ तेज घन गज्ज , लज्ज तुहि वदन न आवै |

जल – विहून करि नैंन , भोर किहिं भाय बतावै ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारि , वाद अस कौंन जु बकई |

सारस यह सन्देह , प्रान घट रहैं जु चकई ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 6

सारस ! सर बिछुरन्त कौ , जो पल सहै शरीर ।

अगिन अनंग जु तिय भखै , तौ जानै पर पीर ||

तौ जाने पर पीर , धीर धरि सकहि ब्रज तन ।

मरत सारसहिं फुट , पुनि न परचौ जु लहत मन ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारि , प्रेम विरहा बिनु वा रस |

निकट कन्त नित रहत , मरम कह जानैं सारस ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 7

तैं भाजन कृत जटित विमल चन्दन कृत इन्धन |

अमृत पूरि तिहिं मध्य करत सरषप खल रिन्धन ||

अदभुत धर पर करत कष्ट कंचन हल वाहत |

वार करत पाँवार मन्द वोवन विष चाहत ||

जै श्रीहित हरिवंश विचारिकैं , मनुज देह गुरु चरन गहि ।

सकहि तौ सब परपंच तजि , कृष्ण – कृष्ण गोविन्द कहि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 8

तातें भैया ! मेरी सौंह कृष्ण गुण संचु |

कुत्सित बाद विकारहिं परधन , सुन सिख मंद परतिय वंचु |

मणिगन -पुंज ब्रजपति छाँडत , हित हरिवंश कर गहि कंचु ||

पाये जान जगत में सब जन , कपटी कुटिल कलियुग – टंच |

इहिं परलोक सकल सुख पावत , मेरी सौं कृष्ण गुण संचु ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 9

मानुष कौ तन पाय , भजौ ब्रजनाथ कौं |

दर्वी लैंकै मूढ़ , जरावत हाथ कौं ||

जै श्रीहित हरिवंश प्रपंच , विषय रस मोहके |

हरि हाँ , बिन कंचन क्यौं चलें , पचीसा लोहके ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 10

तू रति रंगभरी देखियत है री राधे , तें रहसि रमी मोहन सौं व रैन |

गति अति सिथिल प्रगट पलटे पट , गौर अंग पर राजत ऐंन ||

जलज कपोल ललित लटकत लट , भृकुटि कुटिल ज्यौं धनुषधृतमैंन |

सुन्दरि रहव कँहव कंचुकि कत , कनक – कलस कुच बिचनखदैन ||

अधर विम्ब दलमलित आरसयुत , अरु आनन्द सूचत सखि नैंन |

जै श्रीहित हरिवंशदुरत नहिंनागरि , नागर – मधुप मथित सुखसैंन ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 11

आनँद आजु नन्द मैं व्दार |

दास अनन्य भजन रस कारन , प्रगटे लाल मनोहर ग्वार ||

चन्दन सकल धेनु तन मंडित , कुसुम – दास – सोभित आगार |

पूरन कुम्भ बने तोरन पर , बीच रुचिर पीपर की डार ||

युवति – युथ मिल गोप विराजत , बाजत पणव – मृदंग सुतार |

जै श्रीहित हरिवंश अजिर वर वीथिनु , दधि – मधि – दुग्ध – हरद के खार ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 12

मोहनलाल कैं रँग राँची |

मेरे ख्याल परौ जिन कोऊ , बात दशौं दिस माँची ||

कंत अनन्त करौ जो कोऊ , बात कहौं सुनि साँची |

यह जिय जाहु भलैं सिर ऊपर , हौ व प्रगट दै नाची ||

जाग्रत – सयन रहत उर ऊपर , मणि कंचन ज्यौं पाची |

जै श्रीहित हरिवंश डरौं काके डर , हौं नाहिंन मति काची ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 13

मैं जु मोहन सुन्यौ नु गोपाल कौ |

व्योम मुनियान सुर – नारि विथकित भई , कहत नहिं बनत कछु भेद यति ताल कौ ||

श्रवन कुण्डल छुरित रूरत कुन्तल ललित , रुचिर कस्तूरि चन्दन तिलक भाल कौ |

चन्द गति मन्द भई निरखि छबि काम गई , देखि हरिवंश हित बेष नंदलाल कौ ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 14

आजु तू ग्वाल गोपाल सौं खेलिरी |

छाँड़ि अति मान , वन चपल चलि भामिनी , तरु तमाल सौं अरुझ कनक की बेलिरी ||

सुभट सुन्दर ललन , ताप परबल दमन , तू व ललना रसिक काम की केलि री |

वैंनु कानन कुनित , श्रवन सुन्दरि सुनत , मुक्ति सम सकल सुख पाय पग पेलिरी ||

विरह – व्याकुल नाथ , गान गुन युवति तव , निरखि मुख , काम को कदन अवहेलि री |

सुनत हरिवंश हित , मिलत राधारबन , कंठ भुज मेलि , सुख – सिन्धु में झेलिरी ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 15

वृषभानु नन्दिनी राजत हैं |

सुरत – रंग – रस भरी भामिनी , सकल नारि सिर गाजत हैं ||

इत उत चलत परत दोऊ पग , मद गयंद गति लाजत हैं |

अधर निरंग , रंग गंडन पर , कटक काम कौ साजत हैं ||

उर पर लटक रही लट कारी , कटिव किंकिनी बाजत हैं |

जै श्रीहित हरिवंश पलटी प्रीतम पट , जुवति जुगति सब छाजत हैं ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 16

चलौ वृषभानु गोप के व्दार |

जनम लियौ मोहन हित श्यामा , आनंद – निधि सुकुमार ||

गावत जुवति मुदित मिलि मंगल , उच्च मधुर धुनि धार |

विविध कुसुम किसलय कोमल -दल , शोभित वन्दनवार ||

विदित वेद – विधि विहित विप्रवर , करि स्वस्तिनु उच्चार |

मृदुल मृदंग , मुरज , भेरी , डफ , दिवि दुन्दुभि रवकार ||

मागध सूत बंदी चारन जस , कहत पुकारि – पुकारि |

हाटक , हीर , चीर , पाटम्बर , देत सम्हारि – सम्हारि ||

चंदन सकल धेनु – तन मंडित , चले जु ग्वाल सिंगार |

जै श्रीहित हरिवंश दुग्ध – दधि छिरकत , मध्य हरिद्रा गारि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 17

तेरौई ध्यान राधिका प्यारी , गोवर्द्धन धर लालहिं |

कनक लता सी क्यौं न विराजति , अरुझी श्यामं तमालहीं ||

गौरी गान सु तान – ताल गहि , रिझवति क्यौं न गुपालहीं ||

यह जोवन कंचन – तन ग्वालिन , सफल होत इहीं कालहिं ||

मेरै कहे विलम्व न करि सखि , भूरि भाग अति भालहीं ||

जै श्रीहित हरिवंश उचित हौं चाहति , श्याम कंठ की मालहि ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 18

आरती मदन गोपाल की कीजियें |

देव ऋषि , व्यास , शुकदास सब कहत निजु , क्यौं न बिनु कष्ट रस – सिन्धु कौं पीजियें ||

अगर करि धूप कुमकुम मलय रंजित नव , वर्तिका घृत सौं पूरि राखौ ||

कुसुम कृत माल नंदलाल के भाल पर , तिलक करि प्रगट यश क्यौं न भाखौ ||

भोग प्रभु योग भरि थार धरि कृष्ण पै , मुदित भुज – दण्डवर चमर ढारौ ||

आचमन पान हित , मिलत कर्पूर – जल , सुभग मुख वास , कुल – ताप जारौ ||

शंख दुन्दुभि , पणव , घंट , कल नु रव , झल्लरी सहित स्वर सप्त नाचौ ||

मनुज – तन पाय यह दाय ब्रजराज भज , सुखद हरिवंश प्रभु क्यौं न याँचौ ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 19

आरति कीजै श्याम सुन्दर की |

नन्द के नन्दन राधिका वर की ||

भक्ति करि दीप प्रेम करि वाती |

साधु – संगति करि अनुदिन राती ||

आरति जुवति – युथ मन भावै |

श्याम लीला श्रीहरिवंश हित गावै ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 20

रहौ कोऊ काहू मनहिं दियें |

मेरै प्राणनाथ श्रीश्यामा , सपथ करौं तृण छिौं |

जे अवतार कदम्ब भजत हैं , धरि दृढ़ व्रत जु हिथें |

तेऊ उमगि तजत मर्यादा , वन बिहार रस पियें ||

खोये रतन फिरत जे घर – घर , कौंन काज ऐसे जिमैं |

जै श्रीहित हरिवंश अनत सचु नाहीं , बिन या रजहिं लियें ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 21

हरि रसना राधा – राधा रट |

अति अधीन आतुर यद्दपि पिय , कहियत हैं नागर नट ||

संभ्रम द्रुम , परिरंभन कुंजन , ढूँढ़त कालिन्दी – तट |

विलपत , हँसत , विषीदत , स्वेदत , सतु सींचत अँसुवनि वंशीवट ||

अंगराग परिधान वसन , लागत ताते जु पीतपट |

जै श्रीहित हरिवंश प्रसंषित श्यामा , प्यारी कंचन – घट ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 22

लाल की रूप माधुरी नैंनन निरख नैंक सखी |

मनसिज – मनहरन हास , साँवरौ सुकुमार रासि , नख – सिख अंग – अंगनि उमगि , सौभग – सींव नखी ||

रँगमँगी सिर सुरंग पाग , लटकि रही वाम भाग , चंपकली कुटिल अलक बीच – बीच रखी |

आयत दृग अरुन लोल , कुंडल मंडित कपोल , अधर दसन दीपति की छबि , क्यौं हूँ न जात लखी ||

अभयद भुज – दंड मूल , पीन अंश सानुकूल , कनक – निकष लसि दुकूल , दामिनी धरखी |

उर पर मंदार – हार , मुक्ता – लर वर सुढार , मत दुरद – गति , तियन की देह – दसा करखी ||

मुकुलित वय नव किसोर , वचन – रचन चित के चोर , मधुरितु पिक – शाव नूत – मंजूरी चखी |

जै श्री नटवत हरिवंश गान , रागिनी कल्याण तान , सप्त स्वरन कल इते पर , मुरलिका वरखी ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 23

दोउ जन भींजत अटके बातन |

सघन कुंज के व्दारै ठाढ़े , अम्बर लपटे गातन ||

ललिता ललित रूप – रस भीजी , बूंद बचावत पातन |

जै श्रीहित हरिवंश परस्पर प्रीतम , मिलवत रति रस घातन ||


श्रीहित स्फुटवाणी – 24

सबसौं हित निष्काम मति , वृन्दावन विश्राम |

श्रीराधाबल्लभलाल कौ , ह्रदय ध्यान मुख नाम ||

तनहिं राखि सतसंग में , मनहिं प्रेम रस भेव |

सुख चाहत हरिवंश हित , कृष्ण – कल्पतरु सेव ||

निकसि कुंज ठाढ़े भये , भुजा परस्पर अंस |

श्रीराधाबल्लभ – मुख – कमल , निरख नैंन हरिवंश ||

रसना कटौ जु अन रटौ , निरखि अनफूटौ नैंन |

श्रवण फूटौ जो अन सुनौं , बिनु राधा – जस बैंन ||

|| इति श्रीहित स्फुटवाणी संपूर्ण ||

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श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद

श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद

परमाचार्य श्री हित हरिवंश महाप्रभु ने अपने लाडले ठाकुर श्री हित राधावल्लभ लाल की रसोई पाक में प्रयुक्त होने वाली लकड़ी बीनने जैसी सेवा जिसे हम सामान्य बुद्धि के लोग अति लघु सेवा कार्य मानते हैं



निज कर-कमलों से कर जहाँ एक ओर प्रगट सेवा के महत्त्व को दर्शाया, वहीं दूसरी ओर सेवा कुंज की सघन निकुञ्जों में स्वेष्ट की सेवा-भावना में संलग्न रह मानसी-सेवा के महत्त्व को प्रगट किया, महत्त्व क्या प्रगट किया वह तो उनका नित्य चिन्तनीय विषय है, उसके बिना तो वह रह ही नहीं सकते । वास्तव में सेवक वही है, जो सेवा के बिना रह न पाये । यदि जिसे हम प्रियतम कहते हैं, उसका सतत् स्मरण न बना रहे तो हम कैसे प्रेमी ?

श्री हिताचार्य जी बात तो क्या कहें । उनके ग्रन्थों में युगल के रसमय लीला-विलास के बहुत भाँति से वर्णन मिलते हैं । नित्य सिद्ध बपुधारी होते हुए भी उन्होंने श्री राधा-सुधा निधि जी में एक साधक की भाँति अनेकानेक रसमयी अभिलाषाओं का चित्रन किया है । सम्प्रदायों के अन्यान्य अनेकों रसिक महानुभावों ने इस रसखेत वृन्दाविपिन में सतत् कीड़ा-पारायण हित दम्पति की अष्ट प्रहरीय सेवा परिचर्या का वर्णन अपनी वाणियों में किया है ।

समय-समय श्री राधावल्लभ लाल की अष्याम सेवा सम्बन्धी प्रकाशन होते रहे हैं । वृन्दावन रसोपासना में श्रीहित मूर्ति युगल-किशोर की अष्टयाम (आठ प्रहर) सेवा का विशेष महत्व है। श्रीहित राधावल्लभ सम्प्रदाय के अनेक आचार्य एवं रसिक सन्तों ने विविध अष्टयाम ग्रन्थ लिखे हैं।
परवर्ती काल में उन्हीं ‘अष्टयाम’ ग्रन्थों से समय समय की सेवा-भावना के पदों का संकलन करके कई अष्टयाम (सेवा भावना पदावली) के लघुकाय ग्रन्थ प्रकाशित होते रहे हैं। प्रस्तुत संग्रहीत अष्टयाम भी उसी परम्परा का एक क्रम है। इस संस्करण में शयन के पदों का विपुल संग्रह किया गया है। साथ ही श्रीराधावल्लभ जी का व्याहुला एवं रसिक नामावलि भी संग्रहीत कर दी गई है जो रसिक भक्तों के लिए अधिक उपयोगी है। सायंकालीन सन्ध्या आरती के पश्चात् गेय पदावली के साथ श्रीसेवक-वाणी का पंचम प्रकरण-‘श्रीहित इष्टाराधन’ विशेष रूप से इस संस्करण में संग्रहीत है, क्योंकि सन्ध्या आरती के पश्चात इस प्रकरण का गान प्रतिदिन ठा. श्रीहित ललित लाड़िली लाल जी महाराज विराजमान श्रीहिताश्रम के समक्ष किये जाने की एक सुष्ठु परम्परा स्थापित हो गयी है

संछिप्त मे पढ़े – (अष्ट्याम सेवा का अर्थ है दिन के आठ पहर की जाने वाली सेवा जिसमे मंगला, श्रृंगार सेवा, धूप सेवा, राजभोग सेवा, एवम् दोपहर को उत्थापन सेवा इसके पश्चात औलाइ, संध्या की आरती, संध्या धूप आरती और फिर ठाकुर जी को शयन कराया जाता है। इन्ही सब सेवाओ भावना को रसिक संतो ने अपने पदों मे सिंचित किया है और इन्ही सब पदों को ‘अष्ट्याम पद’ नामक न संकलन मे एकत्रित किया गया है।)

श्री राधावल्लभ लाल जी के यहाँ महाप्रभु द्वारा तय किये गए अष्ट्याम पद की रीति का आज भी नित्य प्रति पालन किया जा रहा है और बड़े भाव से सखियों द्वारा को इन अद्भुद पदों का गायन कर लाल जी को रिझाया जाता है अतः हित जू के लाडले श्री प्रिय-लाल से विनती है कि इन पदों के द्वारा हामारी मानसी सेवा भी स्वीकार करे ।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~1
मंगला के पूर्व पद

प्रथम श्री सेवक पद शिर नाऊँ।
करौ कृपा श्रीदामोदर मोपै , श्रीहरिवंश चरण रति पाऊँ।।
गुण गंभीर व्यासनन्दन जूके, तुव प्रसाद सुयश रस गाऊँ।
नागरीदास के तुमही सहायक, रसिक अनन्य नृपति मन भाऊ।।

व्याख्या :: सर्व प्रथम में श्री सेवक जी को सर नवा कर नमन करता हूँ।श्री दामोदर दास जी “सेवक जी” ने मुझ पर कृपा कि और में श्री हित हरिवंश जी के चरण कमलों का प्रेमी बन अनुराग का पान करू।। श्री व्यासनन्दन “श्रीहित जी” के गम्भीर गुणों का प्रसाद पाकर उनकी यश कीर्ति को रसमय होकर गाउ।श्री नागरीदास जी कहते है- आप ही मेरे सहायता करने वाले हो की मै श्री हित रसिक शिरोमणि अनन्य के मन को पसन्द आऊ।

प्रात समय नवकुंज द्वार पै, ललिताजू ललित बजाई बीना।
पौढ़े सुनत श्याम श्रीश्यामा, दम्पति चतुर प्रवीन प्रवीना।।
अति अनुराग सुहाग परस्पर, को कला गुण निपुण नवीना।
श्रीविहारनिदास बलि-बलि वन्दसि, यह मुदित प्राण न्यौछावर कीना।।

व्याख्या :: सुबह प्रातः के समय निकुन्ज द्वार पर श्री ललिता जी अनुराग के साथ वीणा वादन कर रही है।शैया पर लेटे हुए ही श्री श्यामाश्याम सुन रहे है वे श्री युगल ,श्रीवृन्दावन रस लीला में बड़े ही पारंगत प्रवीण से प्रवीण है।श्री युगल में प्रेम सौभाग्य एक-दूसरे के लिए अति-विशेष है, सभी प्रकार की कलाओं में निपुण गुण रखने वाले सदा श्री नवल किशोर किशोरी ही है।श्री बिहारिनि दास जी कहते है–मैं बलैयां लेते हुए उनकी वंदना करते हुए आनंदित हो अपने प्राण न्यौछावर करता हूँ।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~2
मंगला के पूर्व पद

अब ही नेक सोय है अरसाय।
काम केलि अनुराग रस भरे जगे रैन बिहाय।।
बार बार सपनेहु सूचत सुख रंग रंग के भाय।
यह सुख निरखत अलिजन प्रमुदित नागरीदास बलिजाय।।

व्याख्या :: अभी-अभी तो श्रीयुग्ल थोड़ा सा सोय है, आलस्य में है।प्रेम खेल के अनुराग रस का थोड़ा-थोड़ा पान कर ये भरपूर हो जगते हुए रात्रि बिताय है। अब श्रीश्यामाश्याम रात्रि लीला के प्रगट सुख के प्रत्येक रँग को स्वप्न में पसन्द कर रहे है।श्री नागरी दास जी कहते है–श्री नवल किशोर किशोरी के इस सुख को देखकर ललितादिक सभी सखियाँ अति-आनन्द में है और में उन पर बलिहारी हूँ।।

भोर भये सहचरी सब आई। यह सुख देखत करत बढ़ाई।।
कोउ बीना सारंगी बजावै। कोउ इक राग विभासहि गावै।।
एक चरण हित सो सहरावै। एक वचन परिहास सुनावै।।
उठि बैठे दोउ लाल रंगीले। विथुरी अलक सबै रंग ढ़ीले।।

व्याख्या :: जब प्रातः हो गयी तो सभी निज सखिया श्री राधावल्लभ लाल के निज महल में आ गयी, उनके रात्रि के सुख को देख कर प्रसन्न हो रही है।कोई एक सखी वीणा बजा रही है तो कोई एक राग विभासः में गान कर रही है। एक सखी प्रेम से विहल हो श्री युगल के चरणों को अति-कोमलता से सहला रही है ,एक सखी रुचि पूर्ण विनोद वर्णन कर रही है। दोनों श्री लाडिली लाल उठ कर बैठ गए है, उनके घुघराले बाल ललाट पर अस्तव्यस्त हो रहै है, उनके रँग रूप श्रंगार ढीला हो चला है।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~3
मंगला के पूर्व पद

घूमत अरुण नयन अनियारे। भूषन वसन न जात समहारे।।
कहुँ अंजन कहुँ पीक रही फबी। कैसे के कहि जात है सो छबि।।
हार बार मिलि कै अरुझाने। निशि के चिन्ह निरखि मुस्कयाने।।

व्याख्या :: श्रीयुगल जोड़ी के लाल कमल समान इधर-उधर फिरते हुए नेत्र अत्यधिक कटीले प्रतीत हो रहे है, वे अपने आभूषण व् वस्त्रो को सम्भाल भी नही पा रहे है।। कही उनके कपोल पर काजल और कही पर पान की पीक अत्यंत मनोरम लग रही है, इस सुन्दर से भी सुन्दर छबि का क्या वर्णन किया जाय, जिव्ह्या में इतनी शक्ति नही है।। श्री श्यामाश्याम के गले में सुन्दर हार बालों में उलझे हुए है।, श्री प्रियाप्रीतम रात्रि के सुख चिन्हों को देख-देख कर ,आपस में मुस्करा रहे है।।

निरखि निरखि निशि के चिन्हन, रोमांचित ह्वै जाहि।
मानो अंकुर मैन के, फिर उपजै तन माही।।

व्याख्या :: रात्रि सुख लीला की निशानियों को देख -देख कर ,श्री राधावल्लभ लाल अत्यधिक रोमांचित हुए जा रहै है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो कामनाओं के नव अंकुर ,दुबारा से शरीर में पैदा हो रहै हो।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~4
मंगला के पूर्व पद

जागो मोहन प्यारी राधा।
ठाड़ी सखी दरस के कारन, दीजे कुंवरि जु होय न बाधा।।
सुनत बचन हँसत उठे है युगलवर, मरगजे बागे फवि रहे दुहुँ तन।
वारत तन मन लेत बलैयां, निरख निरख फूलत मन ही मन।।
रंग भरे आनन्द जम्हावत, अंस अंस धरि बाहु रहे गसि।
जय श्रीकमलनयन हित या छबि ऊपर, वारौ कोटिक भानु मधुर शशि।।

व्याख्या :: हे प्यारे श्रीराधामोहन ! आप जागिये।आपकी सभी सखियाँ दर्शनों के लिये खड़ी हुई है, हे कुँवरि श्रीराधा ! इस दर्शन की बाधा को दूर कीजिए।।इतना सुनते ही श्रीश्यामाश्याम हसंते-हसंते उठ कर बैठ गये, श्रीयुगल श्रीअंगो पर सुशोभित वस्त्रो में शयन के कारण सलवटे पड़ी हुई है।सखियाँ अपने तन मन को न्यौछावर करते हुए ,उनके इस रूप की बलैयां ले रही है और उनको जितना देख -देख कर प्रफुल्लित हो रही है उतना ही उनका मन अन्दर ही अन्दर प्रसन्नता से फूल रहा है।।रात्रि के प्रेम-रंग में भरे हुए श्रीयुगल आनन्द पूर्वक जम्हाई ले रहे है और परस्पर अंसो पर बाहु रखकर गाढ़ आलिंगन में बंधे हुए है। श्रीहित कमलनयन जी महाराज कहते है– श्री राधावल्लभ लाल की इस छवि के ऊपर मै करोड़ो उदित होते हुए सूर्य एवं चन्द्रमाओ को न्यौछावर करता हूँ।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~5
मंगला आरती के पद

रोचक झल्लरी झनकार विविध कल बाजे बाजत।
सुन धाई अलि यूथ प्रेम भरि आरति साजत।।
करत मंगल आरती सखी हाथ कंचन थार।
मरगजे अम्बर बने तन टूटे छूटे उर हार।।

व्याख्या ::श्री जी की निज सखियों ने जब रुचिकर झांझ की मधुर झनकार के साथ बहुत प्रकार के बाजे बजाये। यह सुनकर रसिक सखियाँ दल में दौड़ कर आ गयी व् प्रेम से भरी हुई आरती सजाने लगी।।सखियो के हाथ में सोने की थालियों है और वे मंगल आरती करने लगी। इधर रात्रि के चिन्हों से भरे श्री राधावल्लभलाल सलवटे लिये पटाम्बर व् टूटे छूटे हार माला तन पर सुशोभित करे है।।

चौर चारु फहरात दुहुँ दिशि सुमुखी ढारति।
कर कपूर वर्तिका नेह आरती उतारति।।
इक गहकी गुण गावती एक बहु नृत्य दिखावति।
एक वारने लेत एक कुसुमनि वरषावति।।

व्याख्या :: श्री जी के दोनों दिशाओं में सुन्दर मुख वाली ,कामदेव को लजाने वाली सखियाँ चंवर को सुन्दर मनोहर तरीके से नचा नचाकर घुमा रही है।।एक सखी चाह या लालसा पूर्ण होने पर गुण गा रही है,एक सखी नृत्य दिखा रही है, एक निछावर हो बलेंया ले रही है, एक फूल की वर्षा कर रही है।।

अति शोभित गहवर बन जहँ तहँ कुँजे कमनी।
फूल बन्यो चहुँ ओर परम् शोभित जिहि अवनी।।
श्रीराधा हरि चरण कमल परसन हित सरसती।
अरुण उदय के भये कोटि विधि शोभा दरसती।।

व्याख्या :: अति शोभायमान गहवर वन है ,जहाँ-तहाँ सभी जगह कमनीय कुँजे है।जहां पर भी धरती पर नजर करे वहां चारो ओर परम् शोभायमान फूल ही फूल है।।श्रीराधामोहन के चरण कमलों को छू कर अपना हित प्राप्त करना है।प्रातः उदय के साथ ही श्री लाड़िलीलाल की करोड़ो प्रकार की शोभा दृष्टि होती है।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~6
मंगला के उपरान्त पद

नन्द के लाल हरयो मन मोर।
हौं अपने मोतिन लर पोवत कांकर डारि गयौ सखि भोर।।
बंक बिलोकनि चाल छबीली रसिक शिरोमणि नन्दकिशोर।
कहि कैसे मन रहत श्रवन सुनि सरस् मधुर मुरली की घोर।।
इन्दु गोविन्द बदन के कारण चितवन कौ भये नैन चकोर।
जय श्रीहित हरिवंश रसिकरस युवती तू लै मिली सखी प्राण अकोर।।

व्याख्या :: श्री नन्द के लाला ने मेरा मन हर लिया है।मैं तो अपनी मोतियों की लड़ी को पिरो रही थी , ऐरी सखी सुबह भोर में कंकड़ डाल गया वो।।तिरक्षि चलने की चाल देखने में अत्यन्त मनोहारी छैल-छबीली है क्योंकि वह तो रसिको में भी श्रेष्ठ से श्रेष्ठ श्री नन्द जी का लाल है। अब यह बताओ मन कैसे रह सकता है उसके बिना जब कानो में रसपूर्ण मधु का स्वाद घोलती मुरली सुनाई दे।। चन्द्रमा से भी अद्वतीय गोपपुत्र मनहर तन के कारण उसे देखने में नेत्र चकोर की भांति ताकते हुए अपलक चेतना रहित हो गये है।श्री हित हरिवंश महाप्रभु कहते है — रसिकरस स्त्री श्रीप्रिया जी उनकी समता पर मिलाप करती हुई जब मिलती है तब वह प्राणों से आलिंगन करते है और सखी यह रस पान करके ही तृप्त होती है।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~7
स्नान श्रृंगार सेवा के पद

स्नान कुंज में दोऊ आये। रतन जटित जहँ हौज सुहाये।।
जल सुगन्ध तिनमें अति सोहै। खिले कमल जिनमे मन मोहै।
तिन पर भृमर करत गुंजार। फूली झूल रही द्रुम डार।।

व्याख्या :: श्रीयुगल वर स्नान कुंज के अन्दर पधारे है ,जहाँ पर रत्नों से जड़ा हुआ सुन्दर स्नान कुण्ड शोभायमान है।। जिसके सुरभित जल की सुगन्ध अत्यधिक शोभा बढ़ा रही है, उसमे जो कमल खिले है वह मन को मोह रहे है।उन कमलो पर भौरे गुंजार कर रहे है व् रोमांचित हो व्रक्ष की डाले प्रफुल्लता उल्लास में झूल रही है।।

दोउ कुंज सुख पुंज है, तिनकौ एक ही घाट।
स्नान करत जहाँ जुगल वर, तहाँ अलिनुको ठाट।।

व्याख्या ::श्रीयुगल की दोनों कुंज घनी लता छाई है ,यह सुख का समूह है और श्री युगल का एक ही स्नान का घाट है। जिस स्थान पर श्री युगलवर स्नान करते है वहां पर सखियों के ठाठ -बाठ देखने लायक है।।

मज्जन करि बैठी चौकी पर हित कर सिंगार बनावत।
कारी सारी हरी कंचुकी अतरोटा पियरो पहिरावत।।

व्याख्या :: स्नान के बाद श्री प्रिया जी रत्न जड़ित फूलो से सजी चौकी पर विराजमान होती है, सखियाँ परम् हित के साथ उनका श्रंगार करती है।काले रंग की साड़ी, हरे रंग की अंगिया चोली, व् पल्ला तनसुख पीले रंग का पहनाती है।।

लाल लाल चीरा उपरेना पटुका झगा जु सुथन भावत।
बहु भूषन पहिराय तिलक दै हित ब्रजलाल सुभोग लगावत।।

व्याख्या :: श्री लाल जी को लाल पगड़ी ,दुपट्टा ,कमरबंध , झगला व् मनभावन पायजामा धारण कराया।बहुत प्रकार के आभूषण पहना कर उनका तिलक किया , श्री हित ब्रजलाल जी कहते फिर सुन्दर स्वादिष्ट भोग उनके समक्ष प्रस्तुत किया।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~8
स्नान श्रृंगार सेवा के पद

कर सिंगार राजत रंग भीने रीझ लाडिली लाल जिमावत।
कौर-कौर प्रति छबि अवलोकत बलि-बलि जूठन आपुन पावत।।
ललितादिक लीने कर चौरन निरखि-निरखि नैननि जु सिरावत।
जै श्रीहित हरिलाल निकट अलिरूपहि पानदान लै पान खवावत।।

व्याख्या: स्नान के बाद वस्त्र,आभूषण धारण होने के उपरांत, सभी सखियों ने मिल कर श्री युगल का श्रंगार कर उन्हें चन्द्रप्रभा वाली शैय्या पर विराजमान कराया ,रंग में आनन्द मग्न श्री लाडिलीलाल को रीझते हुए प्रसन्नता से भोग प्रस्तुत किया।एक एक कौर (गस्से) सुन्दर छवि का दर्शन करते हुए श्रीलाल जी बलिहारी होते श्री लाडिली को खिला रहे है और फिर स्वयं उनका प्रसादी भोग लगा रहे है।। श्री ललिताजी आदि सभी सखियों ने अपने हाथों को प्रसादी के लिये खोल रक्खे है और वे श्री युगल को देख-देख कर अपने नेत्रो को शीतल कर रही है। गो. श्रीहित हरिलाल जी कहते है-सखी स्वरूप में श्री राधावल्लभ लाल के निकट पान का डिब्बा लेकर उन्हें पान खिला रहे है।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~9
धूप आरती के पद

आज नीकी बनी श्रीराधिका नागरी।
ब्रज युवति यूथ में रूप अरु चतुरई- शील श्रंगार गुण सवन ते आगरी।।
कमल दक्षिण भुजा बाम भुज अंश सखि- गावति सरस् मिलि मधुर स्वर रागरी।
सकल विद्या विदित रहसि श्रीहरिवंश हित- मिलत नव कुंज वर श्याम बड़भागी।।

व्याख्या :: आज श्री राधिका जी सभी नारियों में उत्तम बनी हुई है।अरी सखी सभी ब्रज नारियों में रूप , सुशीलता व् श्रंगार की चतुरता आदि गुणों में सबसे आगे ,सर्वोत्तम है।। उनके दाहिने हस्त में कमल व् बाय भुजा के पास अंग सखि मिलकर रसपूर्ण मधुर स्वर में राग-रागनी गा रही है। श्री हित हरिवंश जी कह रहे है- श्री प्रिया जी सर्व-समस्त विधाओं से अवगत है और उन्हें नव कुञ्ज में अतियुवा श्री श्याम जी बड़ा भाग्य मानते हुए मिल गये है।।

आज नागरी किशोर भाँबती विचित्र जोर- कहा कहौ अंग-अंग परम् माधुरी।
करत केलि कण्ठ मेलि बाहु दण्ड- गण्ड-गण्ड परस सरस् रास लास मण्डली जुरी।।
श्यामसुन्दरी विहार बांसुरी मृदङ्ग तार-मधुर घोष नुपुरादि किंकिनी चुरी।
जय श्री देखत हरिवंश आलि निर्तनी सुगंध चालि- वारि फेर देत प्राण देहसौ दुरी।।

व्याख्या :: आज श्री नवलकिशोरकिशोरी जोड़ी विचित्र रूप से मन -भावन लग रही है,उनके श्री अंग-अंग की शोभा परम् माधुर्य का रूप विखेर रही है क्या वर्णन किया जाये।खेल -खेल में गल-बहियाँ दिये, कपोल से कपोल मिल रसपूर्ण ललित नृत्य रास मण्डली जुड़ गई है।।श्रीराधाश्याम सुन्दरी के विहार में मृदङ्ग एकतारा व् नुपर ,चूड़ी की झंकार मधुर स्वर फैला रही है। श्रीहित हरिवंश ओट में देखते हुए कहते है-सखियनि सहित में इनके नृत्य की सौरभ चाल पर चक्कर लगाते हुए तन से प्राण न्यौछावर कर दू।।

भाग 9A
श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
श्रंगार आरती

बनी श्रीराधा मोहन की जोरी।
इन्द्र नील मणि श्याम मनोहर,सातकुंभ तन गोरी।।
भाल विशाल तिलक हरि कामिनि, चिकुर चन्द्र बिच रोरी।
गज नायक प्रभु चाल गयंदनि, गति व्रषभान किशोरी।।
नील निचोल जुवति मोहन पट, पीत अरुण सिर खोरी।
(जय श्री) हित हरिवंश रसिक राधा पति सुरत रंग में बोरी।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~10
श्रंगार आरती

बेसर कौन की अति नीकी।
होड़ परी लालन अरु ललना चोंप बढ़ी अति जीकी।।
न्याव परयो ललिताजु के आगे कौन ललित कौन फीकी।
दामोदर हित बिलग न मानो झुकन झुकी है राधेजू की।।

व्याख्या:: दर्पण देखते समय श्रीश्यामाश्याम में यह होड़ लग गई है कि उन्हें धारण करायी गयी बेसर किसके अधिक फब रही है और इस बात पर बात होने लगी। कोई निर्णय न हो पाने पर दोनों ने इस सम्बन्ध में श्री ललिता जी की राय जाननी चाही।ललिता जी ने श्रीश्याम जी की ओर देखते हुए मुस्करा कर कहा कि आप इस बात का अपने मन में कोई विचार न करे तो मैं सत्य बात कहूँ कि श्रीराधे जू की बेसर अधिक शोभायमान हो रही है।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~11
युगल ध्यान

श्रीप्रिया बदन छबि चन्द्र मनो, प्रीतम नैन चकोर।
प्रेम सुधारस माधुरी, पान करत निसि भोर।।1।।

व्याख्या :: श्रीप्रिया जी के मुख की शोभा मानो चन्द्रमा है और श्रीप्रियतम जी के नेत्र रूपी चकोर रात-दिन उस चन्द्रमा को प्रेमामृतमयी माधुरी का पान करते रहते है।।1।।

अंगन की छवि कहा कहो, मन में रहत विचार।
भूषन भये भूषननिको, अति स्वरूप सुकुमार।।2।।

व्याख्या ::मन में इच्छा होते हुए भी श्रीराधावल्लभ लाल के अंगों की छवि का वर्णन करने में असमर्थ हूँ।ये दोनों सुकुमार इतने रूपवान है कि इनके श्री अंग भूषणों के भूषण बन गये है।।2।।

रंग मांग मोतिन सहित, शीश फूल सुख मूल।
मोर चन्द्रिका मोहिनी, देखत भूली भूल।।3।।

व्याख्या :: श्रीप्रिया जी की सिंदूर भरी मांग मोतियों के साथ अति – शोभायमान हो रही है और उसमें भी सुख का मूल , मस्तक पर सीसफूल शोभा की शोभा हो रहा है।श्रीप्रियतम के मस्तक पर मोहिनी मोरचन्द्रिका जो शोभा दे रही है उसको देख कर तो शरीर की समस्त सुध-बुध विस्मृत हो गयी है।।3।।

श्याम लाल बेंदी बनी, शोभा बनी अपार।
प्रगट विराजत शशिन पर, मनों अनुराग सिंगार।।4।।

श्रीप्रिया के मस्तक पर श्याम रंग की बेंदी और श्रीप्रियतम के मस्तक पर लाल रंग की बेंदी धारण है, जिससे इन श्री युगल की शोभा का कोई पार नही है। इन बेंदी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो श्रीयुगल चन्द्रमाओ पर अनुराग और श्रंगार विराजमान स्वयं हो गये हो।(अनुराग का वर्ण लाल है और श्रंगार का श्याम)।।4।।

कुण्डल कल तांटक चल, रहे अधिक झलकाइ।
मनो छवि के शशि भानु जुग, छबि कमलनि मिलिआइ।।5।।

व्याख्या :: श्री राधावल्लभ लाल के कपोल जो शोभा के कमल है उन पर सुन्दर कुण्डल पीली आभा के सूर्य व् चंचल तांटक (कर्ण फूल) सफेद आभा के चन्द्रमा, ऐसे झलमला रहे है जैसे चन्द्र व् सूर्य दोनों शोभा के कमलो पर मिलने आ रहे हो।।5।।

नासा बेसर नथ बनी, सोहत चञ्चल नैन।
देखत भाँति सुहावनी, मोहै कोटिक मैन।।6।।

श्री प्रिया जी की नासिका में नथ व् श्री प्रियतम जी की नासिका में बेसर अत्यधिक शोभायमान है और तो और इनके ऊपर दोनों के चंचल नेत्र शोभा की भी शोभा ।जिसको देखकर करोड़ो कामदेव स्वयं मोहित हो जाये।।6।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~12
युगल ध्यान

सुन्दर चिबुक कपोल मृदु, अधर सुरंग सुदेश।
मुसकनि वरषत फूल सुख, कहि न सकत छबि लेश।।7।।

व्याख्या :: श्रीराधावल्लभलाल की ठोड़ी सुन्दर है व् अधर सुन्दर लाल वर्ण के है। उनकी मुस्कान से सुख के फूल बरसते है जिसके कारण उनकी शोभा का लेशमात्र भी बखान नही हो पा रहा है।।7।।

अंगनि भूषनि झलकि रहे, अरु अञ्जन रंग पान।
नव सत सरवर ते मनों, निकसे कर स्नान।।8।।

श्रीप्रियाप्रियतम के अंगों में भूषण झलक रहे है और उनके नेत्र में अंजन व् अधरों में पान का रंग सुशोभित है।उनका दर्शन करके ऐसा मालूम होता है कि दोनों सोलह श्रंगार रूपी सरोवर में अभी -अभी स्नान करके निकले है।।8।।

कहि न सकत अंगन प्रभा, कुंज भवन रह्यौ छाइ।
मानो बागे रूपके, पहिरे दुहुन बनाइ।।9।।

व्याख्या:: श्रीप्रियाप्रियतम के अंगों की अनिवर्चनीय कान्ति से कुंज-भवन छाया हुआ है। इस कान्ति को देखकर ऐसा मालुम होता है कि दोनों ने सौन्दर्य के वस्त्र सुन्दर प्रकार से धारण कर रखे है।।9।।

रतनागंद पहुंची बनी , बलया बलय सुढार।
अंगुरिन मुंदरी फव रही, अरु मेहँदी रंग सार।।10।।

श्रीप्रिया जी की भुजाओं में रत्न जटित अंगद धारण हो रहे है एवं कलाइयों में पहुंची, चूड़ी और कड़े चढाव-उतार के साथ शोभायमान है। श्रीप्रिया जी की अंगुलियों में अंगूठियां सुशोभित है और वे अंगुलियां मेहंदी के इकसार रंग से रंजित है।।10।।

चन्द्रहार मुक्तावली, राजत दुलरी पोति।
पानि पदिक उर जग मगै, प्रतिविम्बित अंग जोति।।11।।

व्याख्या :: श्री प्रिया जी के वक्षस्थल पर चन्द्रहार, मोतियों की माला एवं पोत की बनी हुई दुलड़ी शोभायमान है तथा पान के आकार का पदक (लटकन) जगमगा रहा है जिसमें श्रीअंग की ज्योति का प्रतिविम्ब पड़ रहा है।।11।।

मनि मय किंकिन जाल छवि, कहौ जोइ सोइ थोर।
मनों रूप दीपावली, झलमलात चहुँ ओर।।12।।

श्रीप्रिया जी की कटि में धारण किंकिणी की छवि को मैं जितना भी कहूँ वह थोड़ा है। इसको देखकर ऐसा मालुम होता है मानो रूप के दीपकों की पंक्ति कटि के चारो ओर झलमला रही है।।12।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~13
युगल ध्यान

जेहर सुमिलि अनूप बनी, नूपुर अनवट चारु।
और छाँड़ि कै या छविहि, हिय कै नैन निहारु।।13।।

व्याख्या :: श्रीप्रिया जी के चरणों में जेहर (चरणों के आभूषण) बड़े सुन्दर ढंग से धारण की हुई है और उसके साथ सुन्दर नूपुर तथा अनवट (चरणों का आभूषण) धारण है। अन्य सब बातों का ध्यान छोड़कर इन चरणों की छवि को ह्रदय के नेत्रो से अर्थात ध्यान में देखना चाहिए।।13।।

विछुवनि की छवि कहा कहौ, उपजत रव रूचि दैन।
मनु शावक कल हंस के, बोलत अति मृदु बैन।।14।।

श्रीप्रिया जी के चरणों में धारण किए हुए बिछुओ की छवि को मैं कैसे वर्णन करू? उनमे से रुचिकारी शब्द निकलता रहता है जिसको सुनकर ऐसा मालूम होता है मानो कलहंस के बच्चे अत्यंत मृदु (कोमल) बोली बोल रहे हैं।।14।।

नख पल्लव सुठि सोहने, शोभा बढ़ी सुभाइ।
मानों छवि चन्द्रावली, कंज दलन लगि आइ।।15।।

व्याख्या::श्रीराधावल्लभलाल के चरणों के, नवीन कोपलों के समान लाल, सुन्दर नखों की शोभा सहज रूप से बढ़ी हुई है। उनको देखकर ऐसा मालूम होता है मानो छवि के चन्द्रमाओ की पंक्ति कमल के दलों में आकर लग गई है।।15।।

गौर वरन सांवल चरण, रचि मेंहदी के रंग।
तिन तरुवनि तर लुटत रहें, रति जुत कोटि अनंग।।16।।

श्रीयुगल के श्याम और गौर चरण मेहंदी के रंग से रँगे हुए है। इनके तलवो के नीचे रति सहित कोटि अंनग (कामदेव) लोटते रहते है।।16।।

अति सुकुमारी लाड़िली, पिय किशोर सुकुमार।
इक छत प्रेम छके रहै, अदभुत प्रेम विहार।।17।।

व्याख्या ::*लाड़िली श्री राधा अत्यन्त सुकुमारी है और उनके प्रियतम श्री श्यामसुन्दर भी किशोर अवस्था के सुकुमार है। ये दोनों अद्भुत प्रेमविहार में निमग्न रहकर अखण्ड प्रेम में छके रहते है।।17।।

अनुपम सांवल गौर छवि, सदा बसहु मम चित्त।
जैसे घन अरु दामिनी, एक संग रहै नित्त।।18।।

श्रीयुगल की अनुपम श्याम-गौर छवि मेरे ह्रदय में सदा उस प्रकार बसी रहे जैसे बादल और बिजली नित्य एक साथ आकाश में रहते है।।18।।

बरनै दोहा अष्टदस, युगल ध्यान रसखान।
जो चाहत विश्राम ध्रुव, यह छवि उर में आन।।19।।

व्याख्या :: श्री हित ध्रुवदास जी कहते है– मैंने श्रीयुगल का अत्यन्त रसपूर्ण ध्यान अठारह दोहो में वर्णन किया है। यदि परम् शान्ति प्राप्त करने की इच्छा है तो इस छवि को अपने ह्रदय में लाना चाहिए।।19।।

पलकनि के जैसे अधिक, पुतरिन सों अति प्यार।
ऐसे लाड़िली लाल के, छिन-छिन चरण संभार।।20।।

जैसे नेत्रो को पलको को पुतलियों से अत्यन्त प्यार होता है अर्थात जैसे पलक पुतलियों पर उनकी संभाल करते रहते है उसी प्रकार श्रीराधावल्लभलाल के चरणों को क्षण-क्षण में संभालना चाहिए अर्थात उनका स्मरण करना चाहिए।।20।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~14

दोउ जन भीजत अटके बातन।
सघन कुंज के द्वारे ठाड़े अंबर लपटे गातन।।
ललिता ललित रूप रस भीजी बूंद बचावत पातन।
जय श्री हित हरिवंश परस्पर प्रीतम मिलवत रतिरस घातन।।

व्याख्या :: श्रीहित वृन्दावन में वर्षा हो रही है और दोनों श्रीश्यामाश्याम सघन निकुन्ज के द्वार पर खड़े हुए बातों में अटके रहे है। वर्षा में भीग जाने के कारण उनके वस्त्र उनके श्रीअंगो से लिपटे हुए है। श्रीयुगल के कमनीय रूप-रस में भीगी हुई श्रीललिता जी कुंज के पत्तो को ठीक करके श्रीयुगल पर बूंदे न पड़ने देने के प्रयास में लगी हुई है।श्रीहित हरिवंश जी कहते है– अत्यन्त प्रिय श्री युगल प्रेम रस के घात-प्रतिघातों का आस्वादन कर रहे है और अपने भीगने का उन्हें रंचक भी ध्यान नही है।।

भोजन कुञ्ज में चलि आये।
जैसी ऋतु वैसी बैठक में, हित सौ लै बैठाये।।
भूषण वसन उतार उचित पुनि, औलाई पहिराये।
कुल्ला करि रुमाल पोंछि तब, निज दासी मन नैन सिराये।।

व्याख्या :: प्रिय सखियों के आग्रह पर श्रीराधावल्लभलाल भोजन कुञ्ज में पधारें है। जिस प्रकार की ऋतू -मौसम है उसी प्रकार का प्रेम से आसन बना कर उन्हें विराजित करती है।। आभूषण व् वस्त्र जो भी उचित लगे वह उतार कर पुनः औलाई धारण कराती है। मुख शुद्धि करा कर व् अंग वस्त्र से पोंछ कर ,तब फिर सखियाँ अपने मन के नेत्रो को शीतल कर रही है।।

मिली जेंवत लाडिलीलाल दोऊ षट विंजन चारु सवै सरसै।
मन की रस की रूचि जो उपजै सखी माधुरी कुञ्ज सबै परसै।।
हटके मन मोहन हारिरह्यौ भटु हाथ जिमावन कौ तरसै।
बीच ही कर कंपित छुटि परौ कबहुँ मुख ग्रास लियें परसै।।

व्याख्या:: श्रीलाडिलीलाल मिल कर भोजन कर रहे है, जहाँ छब्बीस प्रकार के सुन्दर मनोहर मुग्ध करने वाले रसपूर्ण व्यंजन है।श्रीयुगल के मन में रस पूर्ण जो रूचि कारक इच्छा होती है वही भोजन सामिग्री सखी माधुर्य के साथ कुञ्ज में परोस रही है।।संकोच व् मृदु स्वभाव के कारण श्री मोहन लाल मन रुकता है क्योंकि वह जैसे अपने हस्त कमल से भोजन खिलाने को तरस जाते है।बीच में उनका हाथ प्रेम में विह्ल हो कंपता हुआ छूट जाता है, कब मैं श्री प्रिया जी के मुख में ग्रास परोस सकूं।।

दृग सौ दृग जोर दोऊ मुस्काय भरे अनुराग सुधा बरसै।
मनों हार बिहार अहार करें तन में मनों प्राण परे करसै।।
सखी सौंज लिए चहुँ ओर खरी हरखे निरखे, दरसे , परसै।
सुख सिन्धु अपार कह्यौ न परै अवशेष सखी हरिवंश लसै।।

व्याख्या ::*नेत्रो से नेत्र मिलाकर श्रीयुगल मुस्करा रहे है उस समय प्रेम का अमृत बरष रहा है।मानो यह रसकेली क्रीड़ा आहार शरीर कर रहा और मानो प्राण शरीर से निकल कर एक-दूसरे के पास हो।। सखियाँ सभी सामिग्री लिए चारो ओर खड़ी है वे हर्षित है, ताकते हुए दर्शन कर रही है व् उन्हें परोस रही है। श्रीहित हरिवंश जी कहते है–यह सुख का समुद्र अपार है जो कहा नही जा सकता , शेष यही है कि सदा इसमें तैरते रहे।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~15

अली लै आई राजभोग के थार।
निखरी सखरी सामिग्री बहुबिधि रचि मधुर सलौनी विचार।।
दम्पति सन्मुख बैठी निज अलि, बीच धरयौ लै थार।
वे जैवति ये जिंवावती हित सों, कोऊ न मानत हार।।

व्याख्या :: सखियाँ सब राजभोग की थालियाँ सजा कर ले आयी है। पक्की व् कच्ची रसोई की बहुत प्रकार की सामिग्री की रचना मधुर कोमल विचार के साथ प्रस्तुत की है।।श्री युगल के पास उनकी निज सखियाँ बैठी है और मध्य में राजभोग की थालियाँ है।श्रीयुगल भोजन कर रहे है और यह सभी सखियाँ भोजन करा रही है और दोनों में से कोई भी प्रेम में कम नही है।।

प्रथम कौर प्यारी मुख दै पुनि, प्रीतम दै हँसि गारि।
मरम बिंधी बतियाँ बिच-बिच कहि, हँसत हँसावति नारि।।
कबहुँ कौर प्यारी निज अलि मुख, देत लेत अति प्यार।
सो प्रसाद लालन सब सहचरी, हँसि-हँसि देत उदार।।

व्याख्या :: श्री प्रीतम पहला ग्रास श्री प्रिया जी के मुख में देते है फिर हंसते हुए प्रसादी ग्रास लेते है। बीच-बीच में सखियाँ रहस्यपूर्ण उलझी हुई सी बातें करते हुए उन्हें हंसाती व् हंसती रहती है।। कभी श्री प्रिया जी अति प्यार से कौर (ग्रास) अपनी निजी सखियो को देती है व् स्वयम उनसे मुख में लेती है।वो प्रसाद हंस-हंस कर उदारता के साथ सब सखियाँ श्री लाडले को प्रदान करती है।।

ख्वाय प्याय अंचवन दै वीरी, प्रीतम लियो उगार।
बैठें आइ निज सिंहासन पै, निज दासी बलिहार।।

व्याख्या :: सखियो ने इस रस में डूबते श्री प्रीतम को खिलाने पिलाने के बाद आचमन करा कर पान की बड़ी प्रदान की और उन्हें उबारा।फिर सखियो ने आग्रह कर उन्हें अपने निज सिंहासन पर विराजमान कराया और इनकी इस लीला की सभी निज सखियाँ बलिहारी लेने लगी।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~16
राजभोग की आरती

नवल घन श्याम नवल वर राधिका,
नवल नव कुंज नवकेलि ठानी।
नवल कुसुमावली नवल सिज्या रची,
नवल कोकिल कीर भ्रंग गानी।।
नवल सहचरी व्रन्द नवल वीणा मृदङ्ग ,
नवल स्वर तान नव राग बानी।
(जै श्री) नवल गोपीनाथ हित नवल रसरीति सौ,
नवल हरिवंश अनुराग दानी।।

व्याख्या :: नवल श्रीघनश्याम और नवलाओ में श्रेष्ठ श्रीराधिका ने नवीन कुंज में नवीन प्रेम-केलि आरम्भ की है। नवल फूलों से नवीन सिज्या की रचना की गई है एवं नवीन कोकिल, कीर और भृमर गान कर रहे है। नवल सहचरियों का समूह नवल वीणा और मृदङ्ग बजा रहा है और नवीन स्वरों में नवीन तानें युक्त नवीन राग गा रहा है। नवल सहचरी भाव से भावित श्रीहित गोपीनाथ जी कहते है कि नवल श्रीहित हरिवंश जी नवीन रस रीति पूर्वक इस समय नवीन का दान कर रहे है।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~17
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

श्रीराधा मेरे प्राणन हूँ ते प्यारी।
भूलि हू मान न कीजै सुन्दरि हौ तौ शरण तिहारी।।
नेक चितै हंसि बोलिये मोतें खोलिये घूंघट सारी।
जय श्रीकृष्णदास हित प्रीति रीति बस भर लई अंकन बारी।।1।।

व्याख्या:: (श्री श्यामसुन्दर जी प्रेम विवश होकर श्रीप्रिया जी से कह रहे है कि) हे श्रीराधा, तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। हे सुन्दरि! मैं तो सदैव तुम्हारी शरण में रहता हूँ अतः तुम्हे मुझसे भूलकर भी मान नही करना चाहिए। तुम अपने घूंघट को खोलो और मंद मुस्कान सहित मेरी ओर देखो। गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्र जी कहते है इतना कहने के बाद श्रीश्यामसुन्दर जी ने प्रेम विवश होकर श्रीप्रिया जी को अपनी भुजाओं में भर लिया।।1।।

प्रीतम मेरे प्राणन हू तें प्यारौ।
निशिदिन उर लगाये रहौ हित सों नैक न करिहौ न्यारौ।।
देखत जाहि परम् सुख उपजत रूप रंग गुण गारौ।
जै श्रीकमलनयन हित सुनि प्रिय बैनन तन मन धन सब बारौ।।2।।

व्याख्या::*(इसके उत्तर में श्रीप्रिया जी ने प्रेम से गदगद स्वर में सखी से कहा कि) श्रीप्रियतम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। मैं उनको सदैव ह्रदय से लगाये रहती हूँ और एक क्षण के लिए भी अलग नही करना चाहती। वे रूप-रंग एवं गुणों के समूह है और उनको देख कर मेरे ह्रदय में परम् सुख उतपन्न होता है। गोस्वामी श्रीहित कमलनयन जी महाराज कहते है कि श्रीप्रिया जी के मुख से ऐसे प्रेममय वचन सुनकर सखियों ने उन पर अपने तन, मन,धन को न्यौछावर कर दिया।।2।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~18
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

श्रीराधा मेरे प्राणन हूँ ते प्यारी।
भूलि हू मान न कीजै सुन्दरि हौ तौ शरण तिहारी।।
नेक चितै हंसि बोलिये मोतें खोलिये घूंघट सारी।
जय श्रीकृष्णदास हित प्रीति रीति बस भर लई अंकन बारी।।1।।

व्याख्य :: (श्री श्यामसुन्दर जी प्रेम विवश होकर श्रीप्रिया जी से कह रहे है कि) हे श्रीराधा, तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। हे सुन्दरि! मैं तो सदैव तुम्हारी शरण में रहता हूँ अतः तुम्हे मुझसे भूलकर भी मान नही करना चाहिए। तुम अपने घूंघट को खोलो और मंद मुस्कान सहित मेरी ओर देखो। गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्र जी कहते है इतना कहने के बाद श्रीश्यामसुन्दर जी ने प्रेम विवश होकर श्रीप्रिया जी को अपनी भुजाओं में भर लिया।।1।।

प्रीतम मेरे प्राणन हू तें प्यारौ।
निशिदिन उर लगाये रहौ हित सों नैक न करिहौ न्यारौ।।
देखत जाहि परम् सुख उपजत रूप रंग गुण गारौ।
जै श्रीकमलनयन हित सुनि प्रिय बैनन तन मन धन सब बारौ।।2।।

व्याख्या ::(इसके उत्तर में श्रीप्रिया जी ने प्रेम से गदगद स्वर में सखी से कहा कि) श्रीप्रियतम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। मैं उनको सदैव ह्रदय से लगाये रहती हूँ और एक क्षण के लिए भी अलग नही करना चाहती। वे रूप-रंग एवं गुणों के समूह है और उनको देख कर मेरे ह्रदय में परम् सुख उतपन्न होता है। गोस्वामी श्रीहित कमलनयन जी महाराज कहते है कि श्रीप्रिया जी के मुख से ऐसे प्रेममय वचन सुनकर सखियों ने उन पर अपने तन, मन,धन को न्यौछावर कर दिया।।2।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~19
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

प्रीतम तुम मेरे दृगन बसत हौ।
कहा भोर ह्वै पूछत हौ कै चतुराई करि जु हँसत हौ।।
लीजिये परखि सरूप अपनों पुतरिनमें प्यारे तुम ही लसत हौ।
वृन्दावन हितरूप बलि गई कुंज लड़ावत हिय हुलसत हौ।।3।।

व्याख्या :: (इसके बाद श्रीप्रिया जी ने अपने श्री प्रियतम को सीधा संबोधन करते हुए उनसे कहा कि) हे प्रियतम ! आप मेरे नेत्रो में निवास करते हो।( मुझको मानवती देखकर आप कभी-कभी अपने प्रति मेरी प्रीति पर सन्देह करके जो प्रश्न कर बैठते हो तो उससे मुझे ऐसा लगता है कि)या तो आप भोले बन कर ऐसा प्रश्न कर रहे हो या मन ही मन चतुराई पूर्वक हंस रहे हो। हे प्यारे! अपने प्रति अगर मेरी प्रीति देखनी है तो मेरे नेत्रो में अपने स्वरूप को पहिचान लीजिए क्योंकि मेरी पुतलियों में आप ही निवास कर रहे हो। आपका ह्रदय श्रीहित वृन्दावन में मेरा लाड़-दुलार करने में ही उल्लसित होता है, इस बात को देखकर मैं तुम्हारे ऊपर बलिहार होती रहती हूँ।।3।।

ऐसी करौ नव लाल रँगीलेजू चित्त न और कहूँ ललचाई।
जे सुख दुःख रहे लग देहसौ ते मिट जांहि और लोक बड़ाई।।
संगति साधु वृन्दावन कानन तव गुन गानन मांझ विहाई।
छवि कंज चरण तिहारे बसौ उर देहु यहै ध्रुव कौ ध्रुवताई।।4।।

व्याख्या :: (श्रीहित ध्रुवदास जी की विनती)हे नवलकिशोर! आप ऐसा कीजिए जिससे मेरा मन आपको छोड़कर अन्य किसी वस्तु की ओर आकृष्ट न हो। दूसरी बात मैं आप से यह मांगता हूं कि मेरे शरीर से जो सुख-दुःख लग रहे है वे मिट जाए तथा संसार की मान-प्रतिष्ठा के प्रति मेरे मन में कोई आकर्षण न रहे। तीसरी बात मैं यह चाहता हूँ की साधु स्वभाव रसिक जनों के साथ में मेरा श्रीहित वृन्दावन वास हो तथा मेरा समय आपके गुण गान में व्यतीत हो। मेरी अन्तिम याचना यह है कि आपके चरण कमल मेरे ह्रदय में सदैव निवास करते रहें। श्रीहित ध्रुवदास जी कहते हैं कि मुझको आप यही ध्रुवता अर्थात स्थिरता प्रदान करें।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~20
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

शोभित आज रंगीली जोरी।
सुन्दर रसिक नवल मन मोहन अलबेली नव वयस किशोरी।।
वेशर उभय हंसन में डोलति सो छवि लेत प्राण चित चोरी।
हित ध्रुव मीन यह अखियाँ निरखत रूप प्रेमकी डोरी।।5।।

व्याख्या :: प्रेम रंग में रँगे रँगीले श्रीयुगल जोड़ी आज शोभा पर भी शोभा बनी हुई है।इस जोड़ी में परम् सुन्दर रसिक श्रीश्यामसुन्दर जी और नवीन अवस्था वाली अलबेली किशोरी श्री राधा जी है।।इस समय ये जोड़ी मन्द मुस्कान कर रही है जिसके कारण दोनों की नासिका में धारण की हुई बेसर चंचल बनी हुई है और यह छवि प्राण व् चित को चुरा रही है।श्रीहित ध्रुवदास जी कहते है– मेरे नेत्र जैसे मछली इस जोड़ी के छवि जाल में फंस के रह गए है और प्रेम स्वरूप श्रीराधावल्लभ लाल को परस्पर बांधने वाली रूप-प्रेम की डोरी को देख रहे है।।5।।

सहज स्वाभाव परयौ नवल किशोरी जू कौ, मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि है।
नेक हू न रिस कहूँ भूलि हू न होत सखि, रहत प्रसन्न सदा हिए मुँख हासि है।
ऐसी है ललित प्यारी लाल जू की प्राणनप्यारी, धन्य धन्य धन्य तेई जिनके उपासि है।
हित ध्रुव और सुख देखियत जहँ लगि, सुनियत तँह लगि सबै दुःख पासि है।।6।।

व्याख्या :: नवल किशोरी श्रीराधा जी का सहज स्वभाव है कि वे कोमलता,दयालुता और कृपालुता की खदान है।हे सखि, उनको भूलकर भी कभी क्रोध नही आता।उनके मुख पर और ह्रदय में सदा मुस्कान छाई रहती है जिससे वे सदा प्रसन्न बनी रहती है।प्यारे श्रीश्यामसुन्दर की ऐसी प्राण प्यारी सुकुमारी श्रीराधा जिनकी आराध्या है वे भाग्यशाली अनेक बार धन्य है। श्रीहित ध्रुवदास जी कहते है- इन नित्यकिशोरी श्रीराधा के भजन-सुख को छोड़कर जो अन्य सुख देखे या सुने जाते है वे सब दुःख के जाल है।।6।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~21
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊँ।
बैठी रहौ कुंजन के कोने श्याम राधिका गाऊँ।।
जो रज शिव सनकादिक याचत सो रज शीश चढाऊँ।
व्यास स्वामिनी की छवि निरखत विमल विमल यश गाऊँ।।7।।

व्याख्या :: (श्री हित हरिराम व्यास जी की विनती) हे किशोरी जी! श्री राधा जी! में तो केवल आपके चरणों की रज धूल को ही प्राप्त करना चाहता हूँ।आप जब श्री निकुन्ज में विराजमान हो , वही कुंज के किसी कोने में बैठ कर में श्रीश्यामाश्याम का गान करू।।जिस चरण रज स्वयम श्री शिव जी व् श्री सनकादिक आदि ऋषि याचना करते है उस चरण रज को में अपने मस्तक पर धारण करना चाहता हूँ।हे स्वामिनी जी! ये व्यास आपकी निकुन्ज लीला के विमल रस को उसी उज्ज्वलता के साथ गाता रहे।।7।।

किशोरी मोहि अपनी करि लीजै।
और दिये कछु भावत नाही वृन्दावन रज दीजै।।
खग मृग पँक्षि जे या बन के चरण शरण रख लीजै।
व्यास स्वामिनी की छवि निरखत महल टहलनी कीजै।।8।।

व्याख्या :: हे किशोरी! श्री राधा जी! आप मुझे अपना बना लीजिये।मुझे आपने अपार दिया है परन्तु मुझे और कुछ लेना अच्छा नही लगता, मुझे तो आप श्रीहित वृन्दावन की रज प्रदान करें।। इस वन के जितने पशु-पक्षि है वे मुझे, आपकी कृपा से,अपने चरणों की शरण में रख लै। श्रीहित व्यासदास जी कहते है कि मुझे आप हे स्वामिनी! अपने महल की टहलनी बना लीजिए , जिससे मै आपकी छवि सदैव देखता रहूँ।।8।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~22
धूप आरती एवं संध्या समय के पद

परम् धन राधा नाम अधार।
जाहि श्याम मुरली में गावत, सुमरत बारम्बार।।
वेद तंत्र अरु जन्त्र मन्त्र में, एहि कियौ निरधार।
सहचरि रूप धरयौ नँद नन्दन, तऊ न पायौ पार।।
श्रीशुक प्रगट कियौ नहि याते, जान सार कौ सार।
व्यासदास अब प्रगट बखानत, डार भार में भार।।9।।

व्याख्या :: मेरा परम् धन श्रीराधा नाम है जोकि मेरे प्राणों का आधार है।श्री श्यामसुन्दर अपनी मुरली में यही श्रीराधा नाम गाते है और बार-बार उनका सुमरन करते है।।वेद में, तंत्र ग्रन्थों में और जन्त्र- मन्त्र शास्त्र में यही श्रीराधा नाम का निर्धारण सर्व श्रेष्ठ मान कर किया गया है।श्री भगवान नँद- नन्दन ने अनेक अवतारों में अनेक रूप धारण किये किन्तु श्रीराधा नाम का पार नही पा सके।।श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेव जी ने इस नाम को अत्यन्त रहस्यमय समझ कर कही श्रीराधा नाम प्रगट रूप से उल्लेख नही किया।श्रीहित व्यासदास जी कहते है कि– मैने तो गोपनीयता के भार अपने सिर से उतारकर भाड़ में डाल दिया है और मैं अब श्रीराधा नाम की महिमा प्रगट रूप में वर्णन कर रहा हूँ।।9।।

ऐसो कब करिहौ मन मेरौ।
कर करुआ कामरि कांधे पै, कुंजन मांझ बसेरौ।।
ब्रजवासिन के टूक भूख में, घर घर छाछ महेरौ।
भूख लगै जब मांग खऊंगो, गनोँ न सांझ सबेरौ।।
रास विलास व्रत्त करपाऊँ, मेरे खूट न खेरौ।
व्यासदास होय वृन्दावन में, रसिक जनन को चेरौ।।10।।

व्याख्या :: हे श्रीवृन्दावनचंद्र ! मेरा ऐसा मन कब करंगे जब में हाथ में करूवा (मिट्टी का पात्र) और कन्धे पर कमरिया (छोटा कम्बल) रखकर श्रीहित वृन्दावन की कुन्जो में बस जाऊ।। जब मुझे भूख लगे तो में व्रजवासियों के घरों से रोटी का टुकड़ा, छाछ और महेरी (छाछ में बनाया हुआ बाजरे का दलिया) माँगकर भूख की शांति कर लूँ और सुबह-शाम की चिन्ता न करू अर्थात जब भी मधुकरी मिल जाय तभी अपनी उदर पूर्ति कर लूँ। मैं यह चाहता हूँ की आपका रास- विलास ही मेरे जीवन का एक मात्र आधार बन जाये, क्योंकि संसार में मेरा न कही घर है और न गांव अर्थात संसार की किसी वस्तु में मेरी आसक्ति शेष नही रह गई है। श्रीहित व्यासदास जी कहते है– अब तो मैं विदेही(देह की ममता शून्य) बनकर श्रीहित वृन्दावन में श्रीहरि-भक्तो का दास मात्र रह गया हूँ।।10।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~23
अथ संध्या भोग के पद

नमो-नमो जय श्रीहरिवंश।
रसिक अनन्य वेणुकुल मण्डन लीला मान सरोवर हंस।।
नमो (जयति) वृन्दावन सहज माधुरी रास विलास प्रसंश।
आगम निगम अगोचर राधे चरण सरोज व्यास अवतँश।।1।।

व्याख्या :: प्रारम्भ में मैं श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी को अनेक बार नमस्कार करके उनका जय-जयकार करता हूँ वे अनन्त रसिक है, वेणुकुल मण्डन है अर्थात श्रीकृष्ण लीला का गान करने वाले सब महानुभावो के समूह के भूषण है और लीला रूपी मान सरोवर में क्रीड़ा करने वाले राजहंस है। श्रीहित हरिवंश चन्द्र को नमस्कार करने के बाद मैं श्रीश्यामाश्याम के रास विलास में प्रशंसनीय बनी हुई श्रीहित वृन्दावन की सहज माधुरी को नमस्कार करता हूँ।श्रीहित व्यासदास जी कहते है– जिनके वास्तविक स्वरूप का परिचय न आगम ग्रन्थों में मिलता है, न वेदों में मिलता है और न पुराणों में मिलता है उन श्री राधा जी के चरण कमल मेरे कानों के भूषण है अर्थात मेरे कानों को इनका यश ही सबसे अधिक प्रिय है।।1।।

श्रीहरिवंश शरण जे आये।
श्रीव्रषभानु कुँवरि नँदनंदन निज कर अपनी चिठी चढाये।।
दियौ मुखराय कछु नहिं गोयौ किये मनोरथ मन के भाये।
श्रीव्यास सुवन चरणन रज परसत नागरीदास से रंक जिवावे।।2।।

व्याख्या :: जिन भाग्यशालियों ने श्रीहित हरिवंश जी की शरण ग्रहण की उनका नाम श्रीश्यामाश्याम जी ने अपने प्रेमियों की सूची में स्वयं अपने हाथ से लिख लिया। श्रीश्यामाश्याम जी ने उन शरणागत जीवो को अपने सहज सखी स्वरूप के दर्शन करा दिये, उनसे कुछ छिपाया नही तथा उनके मन- वांछित मनोरथ पूर्ण कर दिये।श्रीहित नागरीदास जी कहते है– श्रीव्यास नन्दन की चरणरज के स्पर्श से मेरे समान रंक(दीन-दुखी) भी जी उठे।।2।।

जिनके श्रीहरिवंश सहायक।
तेई सजन भजन अधिकारी वृन्दावन धन बसिवे लायक।।
अलक लड़े आनन्द भरे डोलै सिर पर व्यास सुबन सुखदायक।
कुँवरि कुँवर जाहि सुलभ नागरीदास रसिक शिरोमणि के गुण गायक।।3।।

व्याख्या :: जिन भाग्यशालियों के श्रीहरिवंशचन्द्र सहायक है वे ही श्रेष्ठ जीव भजन के अधिकारी है और सघन श्रीहित वृन्दावन में बसने योग्य है। वे कृपा पात्र जन आनन्द भरे चित्त से घूमते फिरते है क्योंकि उनके रक्षक सुखदायक श्रीव्यासनन्दन जी है। श्रीहित नागरीदास जी कहते है — व्यासनन्दन श्रीहित हरिवंशचन्द्र के गुणों का गान करने वाले जीवों को श्रीश्यामाश्याम सुलभ रहते है।।3।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~24
अथ संध्या भोग के पद

मेरे बल श्रीवृन्दावन रानी।
जाहि निरन्तर सेवत मोहन, वन विनोद सुख दानी।।
जिनकी चरण कृपा ते पाई, कुंज केलि रस सानी।
जय श्रीरूपलाल हित हाथ बिकानी, निधि पाई मनमानी।।4।।

व्याख्या :: श्रीहित वृन्दावन रानी मेरा एकमात्र बल है। श्रीहित वृन्दावन के लीला-विनोद का सुख देने वाले मदनमोहन श्रीश्यामसुन्दर उनका निरन्तर सेवन करते रहते है और उनके चरणों की कृपा से मैने रसमयी निकुन्ज क्रीड़ा पाई है। श्रीहित रूपलाल जी महाराज कहते है — मैं उनके हाथ बिक गया हूँ और मुझे मन वांछित निधि उनकी कृपा से मिल गई है।।4।।

रहौ कोउ काहू मनहि दिये।
मेरे प्राण नाथ श्रीश्यामा, शपथ करौ तृण छिये।।
जे अवतार कदम्ब भजत है, धरि दृढ़ व्रत जु हिये।
तेउ उमगि तजत मर्यादा ,वन विहार रस पिये।।
खोये रतन फिरत जे घर-घर, कौन काज ऐसे जिये।
जय श्रीहितहरिवंश अनत सचु नाही , बिनु या रजहि लिए।।5।।

व्याख्या :: कोई कही भी अपने मन को लगाये रहे, किन्तु मैं तो शपथ पूर्वक कहता हूँ की मेरे प्राणनाथ एकमात्र श्री श्यामा जी है। जो लोग दृढ़ता पूर्वक अनेक अवतारों का भजन करते है वे भी श्रीहित वृन्दावन के रसमयी प्रेमविहार रस का पान करके अपने मर्यादा-मार्ग का त्याग कर देते है। जो व्यक्ति हाथ में आये रत्न को खोकर घर-घर भीख मांगता फिरता है , उसके जीवन का कोई प्रयोजन नही होता। श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु जी कहते है– श्रीहित वृन्दावन की रज प्राप्त किये बिना अर्थात श्रीहित वृन्दावन की शरण ग्रहण किये बिना कही अनत शान्ति नही मिलती।।5।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~25
अथ संध्या भोग के पद

हरि हम कब ह्वै है ब्रजवासी।
ठाकुर नन्द किशोर हमारे ठकुराइन राधा-सी।।
सखी सहेली नीकी मिलि हैं हरिवंशी-हरिदासी।
बंशीवट की शीतल छाया सुभग बहै जमुना-सी।।
जाकी वैभव करत लालसा कर मीड़त कमला सी।
इतनी आस व्यास की पुजबौ वृन्दा विपिन-विलासी।।6।।

व्याख्या :: (श्रीहित व्यासदास जी की ब्रज वास के लिये प्रार्थना।)
हे हरि ! हम कब व्रजवासी होंगे? अर्थात हमको ब्रज का वास कब मिलेगा? जहाँ हमारे स्वामी नन्दकिशोर श्रीश्यामसुन्दर जी और स्वामिनी कुँवर किशोरी श्री राधा जी होंगी।जहाँ श्रीहित हरिवंश जी व् श्री हरिदास जी जैसी भली सखी-सहेली मिलेंगी। जहाँ वंशीवट की शीतल छाया विराजमान रहती हो और सुन्दर स्वरूप में रसरानी श्रीयमुना जी बहती रहती हो। जिस ब्रज के प्रेमवैभव की लालसा करके श्री लक्ष्मी जी भी अपने हाथों को मलते हुए पछताती रहती है।श्रीहित व्यासदास जी कहते है– श्रीहित वृन्दावन में रास- विलास करने वाले हे श्रीश्यामाश्याम, मेरी इस आशा को पूर्ण करो।।6।।

अब मैं श्रीवृन्दावन धन पायौ।
राधेजू चरण शरण मन दीनों श्रीहरिवंश बतायौ।।
सोयौ हुतौ विषय मन्दिर में हित गुरु टेरि जगायौ।
अब तो व्यास बिहार विलोकत शुक नारद मुनि गायौ।।7।।

व्याख्या :: अब मैंने श्रीहित वृन्दावन रूपी धन प्राप्त किया है। श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभु के उपदेश अनुसार मैंने श्री राधा जी के चरणों की शरण में अपना मन लगा दिया है।। मैं विषय- मन्दिर में सोया हुआ था, अर्थात विषय- वासना में फंसा हुआ था।मुझे श्रीहित गुरु (श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभु) आवाज देकर जगा दिया है( श्रीहित नवलदास जी द्वारा श्रीहित चतुराशी जी का पद जब कानो में पड़ा तभी श्रीहित व्यास दास जी ,श्रीहित वृन्दावन ,श्रीहित जी महाराज के पास आये।)श्रीहित व्यासदास जी कहते है– अब तो मैं उस नित्य विहार के दर्शन करता हूँ, जिसका गान श्रीशुकदेव जी व् श्री नारद जी ने किया है।।7।।

प्यारी लागै श्रीवृन्दावन की धूरि।
राधेजू रानी मोहन राजा राज सदा भरपूरि।।
कनक कलश करुवा महमूदी खासा ब्रज कमरनि की चूर।
व्यासहि श्रीहरिवंश बताई अपनी जीवन मूरि।।8।।

व्याख्या :: मुझे श्रीहित वृन्दावन की धूल प्यारी लगती है।जहां श्री राधा जी रानी है, श्रीमोहन जी राजा है और उनका राज्य सदैव एक छत्र है।जहां मिटटी का करुवा सुवर्ण पात्र के समान है और ब्रज के कमरा (कम्बल) की चूर (टुकड़ा) ही महमूदी खासा (बादशाहों का खास वस्त्र, एक अत्यन्त मुलायम कपड़ा जिसको सर्वप्रथम महमूद नामक कारीगर ने बनाया था।)है।श्रीहित व्यासदास जी कहते है– श्रीहित हरिवंशचन्द्र महाप्रभु ने इस श्रीहित वृन्दावन की धूल को अपनी जीवन मूरि (जीवन प्रदान करने वाली जड़ी) बताया है।।8।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~26
अथ संध्या भोग के पद

आय बिराजे महल में, संध्या-समयौ जानि।
आलि ल्याई भोग सब, मेवा अरु पकवान।।
संध्या भोग अली लै आई।
पेड़ा खुरमा और जलेबी (लडुआ खजला और इमरती) मोदक मगद मलाई।।
कंचन थार धरे भरि आगे, पिस्ता अरु बादाम रलाई।
खात खवाबत लेत परस्पर हंसन दसन चमकन अधिकाई।।9।।

व्याख्या :: श्रीराधावल्लभलाल संध्या समय जानकर महल में विराजमान हो गये और सखीगण अनेक प्रकार के मेवा व् पकवान उनके भोग के लिये लाई। सखीगण संध्या भोग ले आयी। इस भोग में उन्होंने श्रीयुगल को पेड़ा, खुरमा,जलेबी,लड्डू, खजला, इमरती, मगद के लड्डू और मलाई अर्पित की। सखियों ने इन सामिग्रीयों से सुवर्ण थाल भरकर श्रीयुगल के सामने रखें और जिन वस्तुओं में पिस्ता और बादाम मिल सकते थे उनमें वे मिला दिये। श्रीयुगल एक दूसरे को हंसते हुए खिला रहे है और उनके हंसने से उनकी दन्तावली की चमक प्रगट हो रही है।।9।।

अदभुत मीठे मधुर फल, ल्याई सखी बनाय।
खवावत प्यारे लालको, सु पहिले प्रियहि पवाय।।10।।

पाणि परस मुख देती बीरी पिय तिय तन नयनन में मुसिकाई।
ललितादिक सखी कमलनयन हित दिन मानत आपनो माई।।

व्याख्या :: इसके बाद सखियाँ अदभुत मीठे मधुर फल बनाकर ले आई और पहले श्री प्रिया जी को खिलाकर बाद में श्रीप्रियतम को खिला दिये।।10।।

भोग लगने के बाद, सखियों ने श्रीप्रिया जी को खिलाने के लिये श्री लाल जी के हाथ में पान लगाकर दिया और श्रीलाल जी ने श्रीप्रिया जी के अधरों का स्पर्श करते हुए उनके मुख में पान दिया तब श्रीप्रिया जी नेत्रो में मुस्काई। श्रीहित कमलनयन जी कहते है–श्रीप्रिया जी की मधुर मुस्कान देखकर श्री ललिता जी आदि सखियों ने अपने जीवन के उन क्षणों को धन्य माना।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~27
अथ संध्या भोग के पद

पाग बनी पटका बन्यौ, बन्यौ लाल को भेष।
श्रीराधावल्लभलाल की, सु दौरि आरती देख।।12।।

व्याख्या ::पगड़ी और पटका सहित श्रीराधावल्लभलाल का सुन्दर वेश बना है। उनकी संध्या आरती का दौड़कर दर्शन करना चाहिए।।।12।।

अथ श्री संध्या आरती

आरती कीजै श्याम सुन्दर की, नन्द के नन्दन राधिकावरकी।
भक्ति कर दीप प्रेम कर बाती, साधु संगति करि अनुदिनराती।।
आरति ब्रजयुवति यूथ मनभावै,श्यामलीला श्रीहरिवंश हितगावै।
आरति राधावल्लभलालकी कीजै, निरखि नयनछवि लाहौलीजै।।
सखि चहूँओर चँवर कर लीये, अनुरागन सों भीने हीये।
सनमुख वीणा मृदङ्ग बजावै, सहचरि नाना राग सुनावै।।
कंचनथार जटित मणि सोहै, मध्य बर्तिका त्रिभुवन मोहै।
घण्टा नाद कह्यौ नहि जाई, आनन्द मंगल की निधि माई।।
जयति-जयति यह जोरी सुखरासी, जय श्री रूपलाल हितचरण निवासी।
आरति राधावल्लभलालकी कीजै, निरखि नयनछवि लाहौलीजै।।

व्याख्या :: नन्दनन्दन राधिका पति श्रीश्यामसुन्दर की आरती करनी चाहिए।आरती में प्रेम की बत्ती डालकर भक्ति का दिपक रखना चाहिए और उसको प्रतिदिन साधु पुरुषों के संग के द्वारा जलाना चाहिए।इस प्रकार से तैयार की हुई आरती ब्रज युवतियों के समूह को प्रिय लगती है और इस प्रकार की आरती को देखकर श्रीहित हरिवंश श्रीश्यामाश्याम की लीला का गान करने लगते है।सखियाँ चारो ओर चंवर लिए खड़ी है और उनके ह्रदय प्रेम से भीगे हुए है। कई सखियाँ श्रीश्यामाश्याम के सामने बैठकर वीणा और मृदङ्ग बजा रही है और कई नाना प्रकार के राग सुना रही है।मणि-जटित सुवर्ण के थाल में आरती की बत्तियां त्रिभुवन को मोहित कर रही है। आरती के समय घण्टे का जो शब्द हो रहा है वह आनन्द मंगल की निधि है, उसका वर्णन नही किया जा सकता।श्रीहित रूपलाल जी महाराज कहते है–सुख की राशि श्रीयुगल की जय हो, मैं उनके चरणकमलो में निवास करता हूँ।श्रीराधावल्लभलाल की आरती चाहिए और उनकी छवि को देखकर नेत्रो को लाभान्वित करना चाहिए।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~28
अथ स्तुति के दोहा

चन्द्र मिटे दिनकर मिटै, मिटै त्रिगुण विस्तार।
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश कौ, मिटै न नित्य विहार।।1।।

जोरी युगल किशोरी की, और रची विधि बाद।
दृढ़ व्रत श्रीहरिवंश कौ, निबह्यौ आदि युगादि।।2।।

व्याख्या :: चाहे चंद्रसूर्य मिट जाये तथा त्रिगुण का विस्तार रूप यह सम्पूर्ण सृष्टि नष्ट हो जाये किन्तु सुदृढ़ व्रत वाले श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी का नित्य विहार अस्त नही होगा।(इसका कारण यह है कि श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी ने श्रीश्यामाश्याम जी के जिस नित्य विहार का प्रचार संसार में किया वह सहज रूप से त्रिगुण से परे स्थित है और इसलिए चन्द्र-सूर्य अथवा त्रिगुण-जनित सम्पूर्ण सृष्टि के नष्ट होने से उस पर कोई प्रभाव नही पड़ता)।।1।।

नित्य विहार वाले युगलकिशोर श्रीश्यामाश्याम की जोड़ी की रचना श्री ब्रह्मा जी के द्वारा नही की गयी है अर्थात श्री ब्रह्मा जी की बनाई हुई जोड़ियों से वह सर्वथा भिन्न है।इसीलिए श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी का, नित्यविहार के भजन का, सुदृढ़ व्रत अनादि-अनन्त निर्वाह होता चला आया है।।2।।

निगम ब्रह्म परसत नही, जौ रस सबते दूरि।
कियौ प्रकट हरिवंशजू, रसिकन जीवन मूरि।।3।।

रूप बेलि प्यारी बनी, सु प्रीतम प्रेम तमाल।
दोऊ मन मिलि एकै, भये श्रीराधावल्लभलाल।।4।।

व्याख्या :: उपनिषदों में जिसके स्वरूप का वर्णन किया है वह ब्रह्म भी जिसका स्पर्श नही कर पाता वह रस तत्व सर्वथा अप्राप्य (प्राप्त न होने योग्य) बना हुआ था। श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी ने पृथ्वी पर प्रकट होकर रसिक जनों के जीवन सर्वस्व उस तत्व को संसार में प्रकट किया।।3।।

(अब इस रस तत्व के प्रकट स्वरूप श्रीराधावल्लभलाल का परिचय देते हुए कहते है कि) प्यारी श्रीव्रषभान नन्दिनी रूप-सौन्दर्य की लता है और प्रियतम श्रीनँदनन्दन प्रेम के तमाल है।श्रीराधावल्लभलाल के रूप में इन दोनों के मन मिलकर एक हो रहे है।।4।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~29
अथ स्तुति के दोहा

निकसि कुंज ठाढ़े भये, भुजा परस्पर अंश।
श्रीराधावल्लभ मुखकमल, निरखि नयन हरिवंश।।5।।

व्याख्या :: (अब इन अदभुत श्रीराधावल्लभ लाल के दर्शन प्राप्त करने का उपाय बतलाते हुए कहते है कि) जो श्रीराधावल्लभ लाल परस्पर अंसो (कंधों) पर भुजा डाले हुए निकुन्ज मन्दिर के द्वार पर खड़े हुए है उनके मुख-कमल के दर्शन श्रीहितहरिवंशचन्द्र जी के नेत्रो से करने चाहिए अर्थात उनकी लिखी वाणी के प्रकाश में उन्हें देखना चाहिए।।5।।

रे मन श्रीहरिवंश भज, जो चाहत विश्राम।
जिहि रस बस ब्रजसुन्दरिन, छाँड़ि दिये सुखधाम।।6।।

व्याख्या :: हे मन! यदि तेरी इच्छा विश्राम प्राप्त करने की है तो हरि की वंशी के अवतार श्रीहितहरिवंश चन्द्र जी का भजन कर, जिस वंशी के रस के वश में होकर ब्रज की गोपिकाओं ने अपने ग्रहस्थ के सम्पूर्ण सुखों का त्याग कर दिया था।।6।।

निगम नीर मिलि एक भयो, भजन दुग्ध सम स्वेत।
श्रीहरिवंश हंस न्यारौ कियौ, प्रकट जगत के हेत।।7।।

व्याख्या :: श्री हित हरिवंश चन्द्र जी के अवतार ग्रहण करने के पूर्व भक्ति रूपी दूध में वैदिक कर्मकाण्ड रूपी पानी मिलकर उसी के समान सफेद बन गया था और उसको भक्ति रूपी दूध से अलग करना नितांत कठिन हो गया था। श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी रूपी हंस ने जगत के कल्याण के हेतु प्रकट होकर वैदिक कर्मकाण्ड रूपी पानी को भक्ति रूपी दूध से अलग कर दिया।।7।।

श्रीराधावल्लभ लाड़िली अति उदार सुकुमारि।
ध्रुव तो भूल्यौ ओर ते तुम जिन देहु बिसारि।।
तुम जिन देहु बिसारि ठौर मौको कहु नाही।
पिय रंग भरी कटाक्ष नेक चितवो मो माही।।
बढ़ें प्रीति की रीति बीच कछु होय न बाधा।
तुम हौ परम् प्रवीण, प्राण बल्लभ श्री राधा।।8।।

व्याख्या :: श्रीराधावल्लभ लाल की लाड़िली अति उदार सुकुमारी श्री राधा जी! मैं तो आरम्भ से ही भुला हुआ हूँ किन्तु आप मुझे न बिसराना (भूल कर भी अलग),क्योंकि अगर आपने मुझे बिसरा दिया तो मुझे अन्यत्र कही भी ठहर ने की जगह नही है।आप अपने प्रियतम के रंग से भरी हुई अर्थात प्रेम विहार रस से पूर्ण चितवन से थोड़ा मेरी ओर देखिये।जिससे मेरे ह्रदय में प्रीति की रीति की व्रद्धि हो और उसमें कोई भी बाधा न पड़े।क्योंकि ,हे प्राण प्रिय श्रीराधा जी ,आप परम् प्रवीण हो।।8।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~30
अथ स्तुति के दोहा

बिसरिहौ न बिसारिहौ यही दान मोहि देहु।
श्रीहरिवंश के लाड़िले मोहि अपनी कर लेहु।।9।।

व्याख्या :: श्रीहित हरिवंश जी के लाड़िले हे श्रीराधावल्लभलाल ! आप मुझको यह वरदान दीजिए कि न तो कभी मेरे द्वारा आप भुलाये जायेंगे और न कभी आप मुझे भूलेंगे और इस प्रकार मुझे आप अपना बना लीजिये।।9।।

कैसौउ पापी क्यों न हो श्रीहरिवंश नाम जो लेय।
अलक लड़ेती रीझि कै महल खवासी देय।।10।।

व्याख्या :: कोई कैसा भी पापी क्यों न हो यदि वह श्री हित हरिवंश नाम लेता है तो उस पर रीझ कर लड़ेती श्री राधा जी उसे अपने महल की दासी बना लेती है।।10।।

महिमा तेरी कहा कहूँ श्रीहरिवंश दयाल।
तेरे द्वारे बटत हैं सहज लाड़िली लाल।।11।।

व्याख्या :: हे परम् दयालु श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी ! आपकी महिमा का वर्णन कोई क्या कर सकता है? क्योंकि आपके द्वार से सहज लाडिली लाल श्रीराधावल्लभलाल का दान होता है अर्थात जो आपका नाम लेते है उनको आप श्रीराधावल्लभलाल के प्रेम का दान कर देते है।।11।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~31
अथ स्तुति के दोहा

सब अधमन कौ भूप हों नाहिन कछु समझन्त।
अधम उधारन व्यास सुत यह सुनिके हर्षन्त।।12।।

व्याख्या :: यदि कोई जीव व्यास सुत श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी के सामने सच्चे ह्रदय से कहता है कि मैं सब अधमो का सिरताज हूँ और बुद्धिहीन हूँ तो अधमो का उद्धार करने वाले श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी इस बात को सुनकर प्रसन्न होते है।।12।।

बन्दौ श्रीहरिवंश के चरण कमल सुख धाम।
जिनकौ वन्दत नित्य ही छैल छबीलो श्याम।।13।।

मैं श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी के उस सहज सखी स्वरूप के सुखदाई चरण कमलों की वन्दना करता हूँ जिनका नित्य वंदन छैल छबीले श्रीश्यामसुन्दर करते है।(श्रीमदराधासुधानिधि में एवं वाणी ग्रन्थों में सर्वत्र श्रीराधा जी की कृपा प्राप्त करने के लिए श्रीश्यामसुन्दर को सखी जनों की चाटुकारिता (खुशामद)करते दिखाया गया है)।।13।।

श्रीहरिवंश स्वरूप कौ मन वच करौ प्रणाम।
सदा सदा तन पाइये श्री वृन्दावन धाम।।14।।

व्याख्या :: मैं श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी के स्वरूप को सनातन (नित्य) श्रीहितवृन्दावन धाम की प्राप्ति के लिए मन और वाणी से प्रणाम करता हूँ।।14।।

जोरी श्रीहरिवंश की श्रीहरिवंश स्वरूप।
सेवक वाणी कुंज में विहरत परम् अनूप।।15।।

श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी की जोड़ी श्रीश्यामाश्याम और स्वयं श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी सेवकवाणी रूपी कुंज में परम् अनुपम बिहार करते रहते है।।15।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~32
अथ स्तुति के दोहा

करुणानिधि अरु कृपानिधि श्रीहरिवंश उदार।
वृन्दावन रस कहन कौ प्रगट धरयौ अवतार।।16।।

व्याख्या :: करुणानिधि, कृपानिधि और कृपा करने में परम् उदार श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी ने श्रीहित वृन्दावन रस (नित्य विहार रस) के कथन के लिए पृथ्वी पर प्रकट रूप से अवतार धारण किया है।।16।।

हित की यहां उपासना हित के है हम दास।
हित विशेष राखत रहौ चित नित हितकी आस।।17।।

व्याख्या :: हमारे यहाँ हित की उपासना है, हित के हम दास है, प्राणिमात्र के प्रति अपने चित्त में विशेष हित रखते है तथा नित्य हित की ही आशा लगाये रहते है।।17।।

हरिवंशी हरि अधर चढ़ि गूँजत सदा अमन्द।
दृग चकोर प्यासे सदा पाय सुधा मकरन्द।।18।।

व्याख्या :: श्रीहरि की वंशी श्रीहरि के अधरों पर चढ़कर श्रीराधानाम का उच्च स्वर से सदा गुंजार करती रहती है। इस गुंजार में से जो नामामृत श्रवित हो रहा है उसके पराग का पान करके रसिकजनों के नेत्र सदैव प्यासे अर्थात अतृप्त बने रहते है(नाम और रूप का अभेद होने के कारण नाम-गुंजार में से रसिकजनों को श्रीराधा रूप की स्फूर्ति हो जाना स्वाभाविक है और उसके दर्शन से उनकी कभी तृप्ति नही होती)।।18।।

श्रीहरिवंशहि गाय मन भावै यश हरिवंश।
हरिवंश बिना न निकसिहौ पद निवास हरिवंश।।19।।

व्याख्या :: हे मेरे मन ! तू श्री हित हरिवंश चन्द्र जी का गानकर क्योंकि मुझे श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी का यश ही अच्छा लगता है।मैं अपने सुख से श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी के नाम को छोड़कर अन्य कुछ कहना नही चाहता और श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी के चरणकमलो में ही निवास करना चाहता हूँ अर्थात स्थित रहना चाहता हूँ।।19।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~33
स्तुति के पद

दीजै श्री वृन्दावन वास।
निरखूं श्रीराधबल्लभलाल लाल कौ,
लड़ेंती लाल कौ,
यह जोरी मेरे जीवन प्राण,
निरखूं श्रीराधबल्लभलाल कौ,
लड़ेंती लाल कौ।
मोर मुकुट पीताम्बर उर वैजन्ती माल निरखूं ०।।
यमुना पुलिन वंशीवट सेवाकुंज निज धाम।
मण्डल सेवा सुख धाम,मान सरोवर बादग्राम।।निरखूं०।।
बंशी वजावै प्यारो मोहना, लै लै राधा राधा नाम,लै लै प्यारी प्यारी नाम।।निरखूं०।।
देखो या व्रज की रचना नाचै नाचै युगल किशोर, नाचै नाचै नवलकिशोर ।।निरखूं०।।
चन्द्र सखी कौ प्यारौ।।
श्री राधाजू कौ प्यारौ।।
गोपिन को प्यारौ।।
बिरज रखवारौ।।
श्रीहरिवंश दुलारौ।।
दर्शन दीजो दीनानाथ, ऐ जी दर्शन दीजो हितलाल।।निरखूं०।।
यह जोरी मेरे जीवन प्राण।।निरखूं०।।
श्रीराधाबल्लभलाल कौ, लड़ेंती लाल कौ।।निरखूं०।।

व्याख्या :: स्पष्ट है।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~34
स्तुति के श्लोक

श्रीहित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु जी कृत

-: श्रीमदराधासुधानिधि से उद्धरत :-

प्रीतिं कामपि नाममात्र जनित प्रोद्दामरोमोदगमां।
राधा माधवयो: सदैव भजतो: कौमार एवोज्वलाम।।
व्रन्दारण्य नव प्रसून निचया नानीय कुंजान्तरे।
गूढ़ शैशव खेलनैर्वत कदा कार्यो विवाहोत्सव:।।1(56)।।

व्याख्या :: श्रीराधावल्लभलाल की प्रीत अवर्चनीय (कही नही जा सकती)है,केवल नाम लेने से ही रोम-रोम में उतपन्न अवाध (ना रूकने वाली) प्रेम होता है।श्रीराधामाधव युगल का भजन ध्यान हमेशा कुमार अवस्था के उज्ज्वल रूप में ही होता है।।श्रीहित वृन्दावन की रमणीय भूमि पर नवीन पुष्पो का चयन करके नाना प्रकार की कुन्जो की रचना बनी हुई है। इनके गुप्त बाल विनोदमय लीला खेल में कब मेरे द्वारा विवाह उत्सव रचा जायेगा।।1(56)।।

साभ्रूनर्तन चातुरी निरुपमा सा चारु नेत्रांचले।
लीला खेलन चातुरी वरतनो तादृग वचष्चातुरी।।
संकेतागम चातुरी नव नव क्रीड़ा कला चातुरी।
राधाया जयतातसुखीजन परीहाहोत्सवे चातुरी।।2(63)।।

व्याख्या :: कमनीय अंग वाली श्रीराधा जी की वह अनुपम भृकुटि नचाने की कुशलता, वह मनोहर नेत्र प्रान्त के लीला पूर्वक संचालक की निपुणता, वह वचन रचना की अनिवर्चनीय चातुरी, संकेत स्थान में आगमन की चातुरी, नवीन-नवीन क्रीड़ा कला की चातुरी और अपनी सखी जन के मध्य में हास-परिहास की चातुरी की जय हो।।2(63)।।

गौरांगे म्रदिमास्मिते मधुरिमा नेत्रांचले द्राघिमा।
वक्षओजे गरिमा तथैव तनिमा मध्ये गतौ मंदिमा।।
श्रोन्यां च प्रथिमा भ्रुवो: कुटिलमा विंबाधरे शोणिमा।
श्रीराधे हर्दिते रसेन जडिमा ध्यानेsस्तुमे गोचर:।।3(174)।।

व्याख्या :: हे श्रीराधा जी! आपके गौर अंगो की मृदुता, मंद हास की माधुरी, नेत्र प्रान्त की विशालता,उरोजों की गुरुता तथा कटि प्रदेश की कृशता, चाल की मंदता और नितंबो की स्थूलता, भृकुटि की वक्रता, अधरों की लालिमा(तथा आपके) ह्रदय में रस की (जो) स्तब्धता है (वह) मेरे ध्यान का विषय बने।।3(174)।।

जाग्रतस्वपन सुषुप्तिषु ।
स्फुरतुमें राधापदाब्जच्छटा।
वैकुण्ठे नरकेथवा मम गतिर्नान्यस्तु राधांविना।।
राधाकेलि कथा सुधांबुधि महा वीचीभिरांदोलितं।
कालिन्दी तट कुंजमन्दिर वरा लिंदे मनों विंदतु।।4(164)।।

व्याख्या :: जाग्रत,स्वपन और सुषुप्त तीनो अवस्थाओं में मेरे ह्रदय में श्रीराधा चरणकमल की छटा स्फुरित होती रहे, वैकुण्ठ लोक अथवा नरक में श्रीराधा जी के बिना मेरा अन्य कोई आश्रय न हो।(अपने प्रियतम के साथ) श्रीराधा जी की क्रीड़ा-कथा रूपी अमृत सागर की महान तरंगों में झकोरे खाता हुआ मेरा मन यमुना तट पर स्थित निकुन्ज मन्दिर के श्रेष्ठ आँगन में आनन्द पाता रहे।।4(164)।।

यदगोविंद कथा सुधारस ह्रदे चेतोमया जंरभितम।
यद्वा तद्गुण कीर्तनार्चन विभूषाधैर्दिन प्रापितम।।
यद्यतप्रीतिरकारि तत्प्रिय जनेष्वात्यन्तिकी तेनमे।
गोपेन्द्रात्मज जीवन प्रणयिनी श्रीराधिका तुष्यतु।।5(114)।।

व्याख्या :: श्रीगोविन्द के कथामृत रूप सरोवर में मैने जो अपने चित्त को डुबाया है अथवा गुणगान, पूजन, श्रंगार-सेवा आदि में जो काल व्यतीत किया है अथवा उनके प्रियजनों के प्रति अत्यन्त बढ़ी हुई जो प्रीति की है, उस सबके फल स्वरूप गोपराजकुमार श्रीश्यामसुन्दर की प्राण प्रिया श्रीराधा जी मुझ पर प्रसन्न हों।।5(114)।।

चन्द्रास्ये हरिणाक्षि देव सुनसे शोणाधरे सुस्मिते–चिल्लक्ष्मी
भुज वल्लिकम्बुरुचिर ग्रीवेगिरिन्द्रस्तानि।।
भन्जनमध्य व्रहन्नितम्ब कदली खण्डोंरूपादाम्बुज–प्रोनमीलन्नख
चन्द्रमण्डलि कदा राधेमया राध्यसे।।6(116)।।

व्याख्या :: हे चन्द्रमुखी, हे मृगनयनी, हे देवी (प्रकाशवती), हे सुन्दर नासिका वाली, लाल अधरों वाली, मन्द हंसने वाली, दिव्य शोभा युक्त भुजलता वाली, शुभ्र शंख जैसे कंठवाली, उन्नत कुच मण्डल वाली, कृश उदर वाली, स्थूल नितंब वाली, कदली खंभ के समान (सुढार) जंघा वाली, तथा जिनके नखचन्द्र मण्डलों में से प्रकाश की किरणें निकलती रहती है ऐसी श्री राधा जी, मैं कब आपकी आराधना करूँगा?।।6(116)।।

राधापाद सरोज भक्तिमचला मुदवीक्ष्य निष्कैतवां–प्रीतस्वं
भजतोपि निर्भर महाप्रेम्णाधिकम सर्वशः।।
आलिंगत्यथ चम्बुतिस्ववदना ताम्बूलमा स्येर्पये–तकण्ठेस्वां
वनमालि कामपि मम न्यस्येत्कथा मोहन:।।7(117)।।

व्याख्या :: श्री राधा जी के चरनकमलो में मेरी निष्कपट एवं निश्चल भक्ति।व् अपने निज भक्त से भी अधिक प्रीति करते हुए मुझ पर महा प्रेम प्रकट करते हुए सर्व आधारित होकर। मेरा आलिंगन तथा चुम्बन करंगे तथा अपना स्वाद लिया हुआ ताम्बूल मेरे मुख को प्रदान करंगे।मेरे कण्ठ में अपनी प्रसादी वनमाला श्री मोहन लाल जी कब मुझे प्रदान करंगे?।।7(117)।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~35
स्तुति के श्लोक

राधानाम सुधरसं रसयितुं जिव्ह्या तु मेविह्वला–
पादौ तत्पदकांकितासु चरतां व्रन्दाटवीवीथिषु:।।
तत्कर्मेव कर: करोतु ह्रदयं तस्या: पदंध्यायता–
त्तमदावोत्सवत: परं भवतुमें तत्प्राणनाथे रति:।।8(141)।।

व्याख्या :: अमृत रस से भरे हुए श्रीराधा नाम के रसास्वाद के निमित्त मेरी रसना व्याकुल बनी रहे। मेरे पग उनके चरणों से चिन्हित श्रीहित वृन्दावन की गलियों में विचरण करते रहे। (मेरे) हाथ उन्ही के (श्री राधा जी के) निमित्त कर्म करें, मेरा ह्रदय उन्ही का ध्यान करे और उनके (श्रीराधा जी के) भाव चाव के साथ – साथ उनके प्राणनाथ (श्रीश्यामसुन्दर जी) में मेरी प्रीति हो।।8(141)।।

व्रन्दारण्यनिकुंज सीमासुसदा स्वानँग रंगोत्सवै–
र्माद्यत्यदभुत माधवाधर सुधामाध्वीक संस्वादनै:।।
गोविन्दप्रिय वर्ग दुर्गम सखी व्रन्दैरनालक्षिता–
दास्यंदास्यति मेकदानु कृपया व्रन्दावनाधीश्वरी।।9(128)।।

व्याख्या :: सदा (नित्य) श्रीहित वृन्दावन की रमणीय निकुन्ज परिधि में विलास-रास के विभिन्न रंगों के उत्सवों में रहने वाली,श्रीश्यामसुन्दर के अदभुत अधरों के अमृत का पान कर स्वाद में आनन्द मत्त रहने वाली।श्रीगोविन्द जी के प्रिय परिकर समूह में दुर्गम -दुर्लभ श्रीहितवृन्दावन सखी गुणों में अलक्षित,श्रीहित वृन्दावन की एक-मात्र स्वामिनी (श्रीराधा जी) क्या कभी कृपा कर मुझे दासों के भी दास (कैंकर्य) बना अपनायेगी।।9(128)।।

श्रीगोपेन्द्र कुमार मोहन महा विद्यएस्फुरन्माधुरी–
सारस्फाररसांबुराशि सहज प्रस्यन्दि नेत्रांचले।।
करुण्यार्दकटाक्षभंगि मधुर स्मेरानना भोरुहे–
हाहास्वामिनी राधिके मयि कृपा दृष्टि मनाद्गीक्षिपि।।10(188)।।

व्याख्या :: श्री गोपो के स्वामी कुमार श्रीश्यामसुन्दर का भी मोहन करने की महाविद्या रसमाधुरी का झरना चलाने वाली,उस रस झरने की रसों की राशि केवल सहज नेत्रों के भावभंगिमा देखने में ही हो जाती है।हे करुणा समुद्र तिरक्षे नेत्रो की स्वामिनी! मधुर नेत्र भंगिमा के साथ परिचालन विशेष शोभा व् भावों में पूजनीय है,हा हा करता हूँ आपकी शरण में हूँ स्वामिनी श्री राधा जी मुझ पर भी तनिक कृपा दृष्टिपात कीजिये।।10(188)।।

धर्माद्यर्थ चतुष्टयं विजयतांकितदव्रथा वार्त्तया–
सैकान्तेश्वर भक्तियोगे पदवीत्वारोपिता मुर्ध्दनि।।
यो वृन्दावन सीम्नि कश्चनघनाश्चर्य: किशोरीमणि–
स्ततकैकर्यरसामृतादिहपरं चित्तेन मे रोचते।।11(77)।।

व्याख्या :: धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चार पुरषार्थो की जय हो अर्थात जो लोग इनमें विश्वास रखते है, वे रखे रहै, हम तो उनकी चर्चा को भी व्यर्थ मानते है।ईश्वर के प्रति एकान्त भक्ति योग को भी हम सिर माथे चढ़ाते है किन्तु उससे भी हमको क्या लेना-देना है? हमारे चित्त को तो श्रीहितवृन्दावन की सीमा में विराजमान किसी महान आश्चर्य रूपा नवकिशोरी के दास्य रस के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नही लगता।।11(77)।।

प्रेम्ण: सन्मधुरोज्ज्वलस्य ह्रदयं श्रंगार लीलाकला–
वैचित्रीपरमावधिर्भगवत: पूज्यैव कापीशता।।
ईशानी च शची महा सुख तनु: शक्ति: स्वतन्त्रापरा–
श्रीव्रन्दावननाथपटमहिषी राधैव सेव्या मम।।12(78)।।

व्याख्या :: प्रेम की श्रेष्ठतम जो मधुर उज्ज्वल श्रंगार लीला कला की स्वामिनी श्री लाल जी के ह्रदय में रहती है,वह विचित्रता की परम (चरम) सीमा है पूजनीया कोई अवर्चनीय ईश्वरी है भगवान श्रीकृष्ण की।श्री पार्वती जी और श्री इन्द्राणी जी अतिशय सुख स्वरूप वाली विग्रह है परन्तु ये स्वतंत्र पराशक्ति है,श्री वृन्दावन स्वामी के साथ सिंहासन पर आरूढ़ होने वाली रानी वह श्रीराधा जी का ही में सेवक हूँ।।12(78)।।

यज्जाप: सक्रदेव गोकुलपते राकर्षकस्तत्क्षणा–
द्यत्र प्रेमवतां समस्त पुरुरुषार्थपुस्फुरे तुच्छता।।
यन्नामांकित मन्त्र जापन पर: प्रीत्या स्वयं माधव–
श्रीकृष्णोपि तदद्भूतंस्फुरतुमे राधेति वर्ण द्वयम।।13(94)।।

व्याख्या :: जिसका एक बार भी उच्चारण गोकुलपति श्रीकृष्ण का तत्काल आकर्षण कर लेता है, जिसके प्रेमियों को समस्त पुरुषार्थो के प्रति तुच्छ बुद्धि हो जाती है, श्रीकृष्ण जी भी स्वयम प्रीति पूर्वक जिस नाम से अंकित मंत्र का जप करते है, वे अदभुत दो अक्षर “रा-धा” मेरे ह्रदय में स्फुरित हो।।13(94)।।

कालिन्दी तट कुञ्ज मन्दिर गतो योगीन्द्र वद्यत्पद–
ज्योतिधर्यान पर: सदा जपतियां प्रेमाश्रुपूर्णो हरि:।।
केनाप्यदभुतमुल्लसदृति रसा नँदेन संमोहिता–
सा राधेति सदा ह्रदिस्फुरतुमे विद्यापरा द्वयक्षरा।।14(95)।।

व्याख्या :: श्री यमुना तट वर्ती निकुन्ज–भवन में विराजकर प्रेम-अश्रुओ से भीगे हुए श्रीहरि, श्री शिव आदि योगीश्वरो की तरह, जिनकी चरण–ज्योति के ध्यान में तत्पर होकर जिसका जाप करते रहते है, किसी अदभुत एवं अनिर्वचनीय उल्लास से परिपूर्ण विहार–रस के आनन्द से सम्मोहित अर्थात अत्यधिक आकर्षक बनी हुई वह रा–धा दो अक्षरों वाली वेदातीत (वेदों के परे की) विद्या मेरे ह्रदय में स्फुरित हो।।14(95)।।

देवनामथ भक्तमुक्त सुह्रदा मत्यंत दूरं च–
यत्प्रेमानन्द रसं महा सुख करं चोच्चारितं प्रेमत:।।
प्रेन्णाकर्णयते जप्तयथया मुदागायत्यथा लिषवयं–
जल्पत्यश्रुमुखो हरिस्तद मृतं राधेति में जीवनम।।15(96)।।

व्याख्या :: जो देवताओं के लिए, भक्ति–भाव युक्त पुरुषो के लिए और श्रीकृष्ण के स्वजनों के लिए बहुत ही दूर है अर्थात अप्राप्य है। जो प्रेमानँद रस स्वरूप है।प्रेमपूर्वक उच्चारण करने पर जो अत्यन्त सुख देने वाला है। आंसुओं से जिनका मुख भीगा हुआ है ऐसे श्रीश्यामसुन्दर प्रेम विवश होकर जिसे सुनते है, जपते है और सखियों के मध्य में हर्षित होकर जिसका कीर्तन करते है वह श्रीराधा जी नामरूपी अमृत मेरा जीवन है (प्राण है)।।15(96)।।

लक्ष्म्या यश्चन गोचरी भवति यन्नापु: सखया: प्रभो:–
संभाव्योपि विरंचि नारद शिव स्वायं भुवध्येर्नय:।।
यो वृन्दावन नागरी पशुपति स्त्री भावलभ्य: कथं–
राधामाधवयोर्ममास्तुसरहो दास्याधिकरोत्सव:।।16(239)।।

व्याख्या :: जो श्री लक्ष्मी जी को भी गम्य नही है तथा जिसे श्रीकृष्ण जी के सखा भी नही प्राप्त कर सके,जो श्री ब्रह्मा जी श्री नारद जी श्री शिव जी व् श्री सनकादिकों को भी सम्भव नही है। जो श्री वृन्दावन की नागरी गोपिकाओं को भाव द्वारा लक्षयित हुआ, वह श्रीराधाश्यामसुन्दर जी का एकान्त कैंकर्य का रूप पूर्ण मधुरता का अधिकार मुझे कब प्राप्त होगा।।16(239)।।

मालाग्रन्थन शिक्षया मृदु मृदु श्रीखण्ड निर्घर्षणा–
देशेनादभुत मोदकादि विधिभि: कुञ्जान्त सन्मार्जने:।।
व्रन्दारण्यरहस्थलीषु विवशा प्रेमोर्तिभारोदगमा–
त्प्राणेशं परिचारिकै: खलुकदादास्यामयाधीश्वरी।।17(242)।।

व्याख्या :: माला गूथने की शिक्षा से तथा मुलायम कोमल चन्दन घिसने की आज्ञा से,स्वादिष्ट अदभुत मोदक आदि की निर्माण कला से तथा कुन्जो के अन्दर सम्मार्जन द्वारा।श्रीहित वृन्दावन की रमणीय एकान्त स्थली में प्रेम में भारी विवश हो लीला प्रारम्भ होने पर,इन उपर्युक्त विविध सेवाओं से मुझ दास द्वारा मेरी स्वामिनी अपने प्रियतम के साथ प्रसन्न हो कब मुझे सेवा में लेंगी।।17(242)।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~36
स्तुति के श्लोक

उच्छिष्ठामृत भुक्तवैव् चरितं श्र्रणवन्स्तवैव स्मर–
न्पदांभोज रजस्तवैव विचरन्कुंजास्तवैवालयान।।
गायन्दिव्य गुणांस्तवैव रसदे पस्यन्स्तवैवाकृतिं–
श्रीराधे तनुवांङ्गमनोभिरमलै: सोहन्तवैवाश्रित:।।18(240)।।

व्याख्या :: हे स्वामिनी! आपके उच्छिष्ट अमृत का भोगी बनू तथा आपके चरित्र का श्रवण व् स्मरण करू,आपके चरण रज का ही स्तवन करू तथा कुञ्ज भवन में विचरण करू।आपके दिव्य गुणों का गान करू तथा रस प्रदान करने वाली आपकी मधुर छवि (आकृति) को ही देखू, श्री राधा जी! में तन, वचन एवं मन से केवल आपके ही आश्रित रहू।।18(240)।।

आशास्य दास्यम व्रषभानु जाया– स्तीरे समध्यास्य च भानुजाया:।।
कदानुवृन्दावनकुञ्ज वीथी– ष्वहन्नु राधेह्यतिथिर्भवेयम।।19(197)।।

व्याख्या :: श्री व्रषभान नन्दिनी आपके दास होने की कामना मन में रखकर तथा श्री यमुना जी के किनारे पर निवास करते हुए श्री राधाजी।क्या कभी श्रीहित वृन्दावन की कुञ्ज गलियों में घूम सकूंगा तथा मैं कभी अतिथि की तरह भी वहां श्री राधा जी आपके पास होंगा।।19(197)।।

यत्र यत्र ममजन्म कर्मभि–र्नारकेsथपरमे पदेsथवा।
राधिका रति निकुन्जमण्डली–तत्र तत्र ह्रदि मे विराजिताम।।20(267)।।

व्याख्या :: मेरे कर्मो के परिणाम स्वरूप नरक में अथवा स्वर्ग में या फिर जहां कही भी मेरा जन्म हो वहां श्री राधां जी की केलि निकुन्ज मण्डली (श्रीप्रियाप्रियतम, सहचरी और श्रीहित वृन्दावन) मेरे ह्रदय में विराजमान रहै।।20(267)।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~37
स्तुति के श्लोक

उच्छिष्ठामृत भुक्तवैव् चरितं श्र्रणवन्स्तवैव स्मर–
न्पदांभोज रजस्तवैव विचरन्कुंजास्तवैवालयान।।
गायन्दिव्य गुणांस्तवैव रसदे पस्यन्स्तवैवाकृतिं–
श्रीराधे तनुवांङ्गमनोभिरमलै: सोहन्तवैवाश्रित:।।18(240)।।

व्याख्या :: हे स्वामिनी! आपके उच्छिष्ट अमृत का भोगी बनू तथा आपके चरित्र का श्रवण व् स्मरण करू,आपके चरण रज का ही स्तवन करू तथा कुञ्ज भवन में विचरण करू।आपके दिव्य गुणों का गान करू तथा रस प्रदान करने वाली आपकी मधुर छवि (आकृति) को ही देखू, श्री राधा जी! में तन, वचन एवं मन से केवल आपके ही आश्रित रहू।।18(240)।।

आशास्य दास्यम व्रषभानु जाया– स्तीरे समध्यास्य च भानुजाया:।।
कदानुवृन्दावनकुञ्ज वीथी– ष्वहन्नु राधेह्यतिथिर्भवेयम।।19(197)।।

व्याख्या :: श्री व्रषभान नन्दिनी आपके दास होने की कामना मन में रखकर तथा श्री यमुना जी के किनारे पर निवास करते हुए श्री राधाजी।क्या कभी श्रीहित वृन्दावन की कुञ्ज गलियों में घूम सकूंगा तथा मैं कभी अतिथि की तरह भी वहां श्री राधा जी आपके पास होंगा।।19(197)।।

यत्र यत्र ममजन्म कर्मभि–र्नारकेsथपरमे पदेsथवा।
राधिका रति निकुन्जमण्डली–तत्र तत्र ह्रदि मे विराजिताम।।20(267)।।

व्याख्या :: मेरे कर्मो के परिणाम स्वरूप नरक में अथवा स्वर्ग में या फिर जहां कही भी मेरा जन्म हो वहां श्री राधां जी की केलि निकुन्ज मण्डली (श्रीप्रियाप्रियतम, सहचरी और श्रीहित वृन्दावन) मेरे ह्रदय में विराजमान रहै।।20(267)।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~38
शयन भोग के पद

पय पै धरयौ कनक कटोर।
सुगंध ऐला मिल्यौ मिश्री लेत देत निहोर।।
(बलि जाऊँ) कबहुँ ये लै कबहुँ वे लै करि कटाक्षन कोर।।
वदन-विधु मनों सुधा पीवत सखिनु नैन चकोर।।

व्याख्या :: दूध के पास में स्वर्ण कटोरे रखे है।जिसमे सुगन्ध , इलाइची व् मिश्री मिली हुई है तथा कृतज्ञता पूर्वक श्री श्यामाश्याम एक दूसरे को अनुग्रह कर ले दे रहे है।में बल – बल जाऊ कभी तो ज्यादा व् कभी तो कम लेन-देन का क्रम नयनों के कोर के साथ अलग-अलग भाव भंगिमा में चल रहा है।श्रीयुगल कला के निधि है और इनके मुखारबिन्द से मानो सखियाँ चकोर की भांति अमृत का पान कर रही है।।

हँस-हँस दूध पियत पिय प्यारी।
चंदन बारि कनक चरु औट्यौ बारी कोटि सुधारी।।
मिश्री लौंग चिरौंजी एला कपूर सुगंध सँवारी।
उज्ज्वल सरस् सचिक्कन सुन्दर स्वाद सुमिष्ठ महारी।।

व्याख्या :: पिय प्यारी श्रीश्यामाश्याम हंस-हंस कर दूध पी रहे हैं। यह दूध चन्दन की लकड़ी जलाकर सुवर्ण के पात्र में गर्म किया गया है और उसके ऊपर करोड़ो अमृत न्यौछावर किये जा सकते है।दूध में मिश्री, चिरोंजी, लौंग, इलाइची और कपूर की सुगन्ध मिली हुई है। यह दूध उज्ज्वल रस युक्त एवं सचिक्कन है और उसका स्वाद अत्यन्त मधुर है।।

नवल नवेली अलवेली सुकुमारी जू कौ, रूप पिय प्रानन को सहज अहाररी।
व्यंजन सुभायन के नेह घृत सौंज बने,रोचक रुचिर हैं अनूप अति चारुरी।।
नैनन की रसना तृपित न होत क्यों हू, नई नई रूचि ध्रुव बढ़त अपार री।
पनिपको पानी प्याय पान मुसिक्यान ख्वाय,राखे उर सेज स्वाय पायो सुख सरारी।।

व्याख्या :: नवेली, अलवेली,सुकुमारी श्रीराधा जी का रूप श्री नवल प्रियतम जी के प्राणों का सहज आहार है। सुन्दर भावों के व्यंजन,जो रूप घृत (घी) में बने हुए है, अत्यन्त रुचिकारी व् सुन्दरता में अनुपम है। इन व्यंजनों को चाखकर श्रीश्यामसुन्दर की नेत्र रूपी रसना (जीभ) किसी प्रकार भी तृप्त नही होती है और श्री प्रियतम जी के मन में नई-नई और अपार रूचि निरन्तर बढ़ती रहती है।श्री प्रिया जी ने अपने श्रीप्रियतम जी को लावण्य रूपी पानी पिलाकर और मुसकान रूपी पान खिलाकर अपनी ह्रदयरूपी शैय्या पर सुला लिया जिससे श्रीप्रियतम जी को सुख का सार प्राप्त हो गया।।


श्री जी सेवा में अष्टयाम के पद
भाग~39
शयन आरती के पद

नागरी निकुन्ज ऐन किसलय दल रचित सेन, कोककला कुशल कुमरि अति उदाररी।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटी भंग, माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।।
मुखर नुपुरनि स्वाभाव किंकिणी विचित्र राव, विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,सींचत हरिवंश नैन सुरस सार री।।

व्याख्या:: हे सखी! प्रवीण श्री राधा जी निकुन्ज निवास स्थल पर नवपल्लवो के दल से सेंन शय्या रचि गयी है और श्री प्रिया जी रति विद्या में कुशल निपुण व् अति ही उदार है।हे सखी! कामकेलि के रँग में उनके प्रत्येक अंग -अंग के हाव – भाव व् उनके नयनों की कोर से उठती लहर अपने आप में सम्पूर्ण मधुरता की तरंग है जिस पर करोड़ो कामदेव भी छीन है।।प्रधान रूप से उनके नूपुरों स्वभाव अनुसार व् कमर की कोधनी रुनझुन स्वर बड़े ही विचित्र है ठकुराइन के और धीरे -धीरे स्वर का वेग कम हो जाता है श्री स्वामी स्वामिनी हास-परिहास में रतिविहार में चले जाते है।श्रीलाडिली जी श्री किशोर जी यह श्रीयुगल हंस-हंसिनी अपने समाज के साथ ऐसे ही राज करे और यह सुन्दर रस का सार श्रीहित हरिवंश जी के नेत्रो से अंतर्धारा सींचते रहे , हे सखी।।

चांपत चरन मोहनलाल।
कुँवरि राधे पलंग पौढ़ी सुन्दरी नव बाल।।
कबहुँ कर गहि नैन लावत कबहुँ छुवावत भाल
।नन्ददास प्रभु छवि विलोकत प्रीति के प्रतिपाल।।1।।

व्याख्या :: शयन समय शय्या पर श्री मोहन लाल जी श्री प्रिया जी के चरणों को धीरे से दबा रहे है।श्री सुकुमारी राधा जी नव बाल सिज्जा पलंग पर लेटी हुई है।श्री मोहन लाल जी कभी नेत्रो से रूप की चकाचोंध को हाथ बाध् कर देख रहे है और कभी अपनी ललाट (मस्तक) को चरणों में छुवा रहे है।श्रीहित नन्ददास जी कहते है – मैं प्रभु की यह छवि देख कर कह सकता हूँ प्रीति के वे ही केवल रक्षक और पालक है।।

लड़ैती जू के नैनन नींद घुरी।
आलस वश जीवन वश मद वश पिय के अंश ढुरी।।
पिय कर परस्यौ सहज चिबुक वर बाँकी भौह मुरी।
बावरीसखी हित व्यास सुवन बल देखत लतन दुरी।।2।।

व्याख्या :: सखी समाज,श्रीहित वृन्दावन एवं श्रीश्यामसुन्दर की एक मात्र लाड़ भाजन श्रीप्रिया जी के नेत्रो में नीद छाई हुई है।आलस्य एवं यौवन मद के वशीभूत होकर वे अपने श्रीप्रियतम जी क्व अंस (कन्धा) पर झुक गई है। श्रीप्रियतम जी ने सहज रूप से उनकी (श्री प्रिया जी की) चिबुक का स्पर्श किया तो उनकी भृकुटि चढ़ गई।बाबरी सखी कहती है — मैं श्रीहितव्यास नन्दन जी के कृपा बल से यह अत्यन्त रमणीय दृश्य लता की ओट से देख रही हूँ

अति सुंदर भाव

आलस नैन आवत घूम।
लाल चुटकी दै जगावत खुले ताकत भूम।।
खसित भुज पिय अंश तें सम्हराय कर लै चूम।
वृन्दावन हित रूप घूंघट बदन कर रह्यौ झूम।।3।।

व्याख्या :: श्री प्रिया जी के नेत्र आलस्य से झुके आ रहे है।श्रीश्यामसुन्दर जी श्री प्रिया जी को चुटकी बजाकर सावधान करते है और श्री प्रिया जी नेत्र खोलकर भूमि की ओर देखने लगती है।श्री प्रियतम जी के अंस पर रखी हुई श्री प्रिया जी की भुजा निद्रा के कारण खिसक जाती है तो श्री प्रियतम जी भुजा को यथास्थान स्थापित करके श्री प्रिया जी के कर को चूम लेते है। चाचा हित वृन्दावनदास जी कहते है कि श्री प्रिया जी के मुखारबिन्द पर रूप का घूंघट झूम रहा है।(जिसके कारण मुखारबिन्द पर दृष्टि नही ठहर रही)

जदेखों चित्रसारी बनी।
वत छनी।मध्य सेज विराज पौढ़े रसिक दंपति मनी।।
अंग अंग अंनग भीने राधिका धन धनी।
पद कमल सेवत तहाँ हित रूप एकै जनी।।4।।

व्याख्या :: हे सखी, देखो श्रीश्यामाश्याम जी की चित्रसारी(शयन कुञ्ज) शोभायमान है।इस कुंज के छिद्रों में मणियों के दीपक झलक रहे है, अर्थात कुञ्ज के छिद्रों में इस प्रकार की मणियाँ रखी है जो दीपक की भांति प्रकाश कर रही है।श्रीश्यामाश्याम जी के श्रीअंगो में से प्रगट होने वाली सुगन्ध के उदगार एक -दूसरे में छनकर दोनों के निकट पहुंच रहे है।रसिक शिरोमणि श्रीयुगल ने शैया के मध्य में विराजकर शयन किया और श्रीश्यामाश्याम के अंग-अंग में अंनग का रंग छा रहा है। इस समय एक मात्र श्रीहित रूपा सखी (हित सखी) श्रीश्यामाश्याम के चरणों को चाँप (दबा) रही है।।4।।

रस भरे सुभग हिंडोले झूलत।
अति सुकुमार रूपनिधि दोऊ सो छबि देखि परस्पर फूलत।।
नवल तरुनता अंग-अंग भूषण लसत सुभग उरजन मणिमाल।
उभयसिन्धु मनों बढ़े रूपके विच- विच झलकत रंग रसाल।।
रुचिर नील पट्पीत पवन वस्त्र उड़त उठत मनों लहरि उरंग।
हित ध्रुव दिनहि मीन सखियन दृग तृषित फिरत रसमे नितसंग।।

व्याख्या :: श्रीयुगल रस से परिपूर्ण मनोहारी झूला पर झूल रहे है।दोनों परम् कोमलता व् रूप की खदान है,वह रस में लीन एक-दूसरे की छवि को देख कर पल्लवित हो रहे है।।नयी तरुनता में उनका प्रत्येक अंग आभूषणों से शोभायुक्त है और मनोहर मणियों की माला वक्ष स्थल पर शोभायमान है।रूप के यह दोनो-समुद्र मानो बढ़ कर ऐसे लग रहे है कि रूप की लहर पे लहर झलमला रही हो और रँग रसपूर्ण कौतुक में बदल रहा हो।।रुचिकारी नीले व् पीले वस्त्र पवन के कारण उठ कर उड़ रहे है कि मानो नागकेसर की लहर हो।श्रीहित ध्रुवदास जी कहते है कि सखियों के नेत्र तैरती मछली की भांति रस में नित संग होते हुए भी प्यासे घूम रहे है अर्थात इतने रस-समुद्र में भी तृप्त नही है।।

………..•>( सेवा विश्राम )<•………..

इस पद के बाद,सेवाग्रह बन्द करके प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।अभी तक बताई इस सेवा की पद्धति को “अष्टयाम सेवा पद्धति” कहा जाता है।हमारे बाबा जी व श्रीगुरु जी महाराज गो. श्रीहित भजनलाल जी, श्री हित जू महाराज व श्री कृपासिंधु स्वामिनी व लाल जी की अदभुत कृपा से हम यह श्री जी सेवा की अष्टयाम विधि व्याख्या व संकलित कर आप रसिको तक पहुंचा सके।

राधेकृष्णावर्ल्ड की ओर से श्रीहित वृन्दावन धाम से रसिक परिकर को…

।।”जै जै श्री हित हरिवंश”।।
।। जै जै श्री हित हरिवंश ।।

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श्री हित राधा सुधा निधि जी


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 1

यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थमानी।
योगीन्द्रदुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि, तस्याः नमोऽस्तु वृषभानुभुवो दिशेऽपि।।१।।

जिनके दूकूल के उड़ने से खेलन रुचि ले वह धन्य पवन।जो नहीं प्राप्य योगीन्द्रों को, जो है सन्तत पावन कन-कन ॥

मधुसूदन हैं कृतकृत्य कहाँ, वृषभानु नन्दिनी भव्य जहाँ।

हो गति दुरूह का छोर वहाँ, उस ओर हमारा अमित नमन।।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 2

ब्रह्मेश्वरादिसुदुरुहपदारविन्दं, श्रीमत्पराग परमाद्भुत वैभवायाः।
सर्वार्थसाररसवर्षिकृपार्द्रदृष्टेस्तस्या नमोस्तु वृषभानुभुवो महिम्ने।।२।।

जो ब्रह्म शिवादिक से भी बढ़कर अतिशोभादि दुरूह कमलपद।

अद्भुत परम पराग विभव की सारभूत अति कृपा दृष्टि नद ॥

उन श्री श्री वृषभानु नन्दिनी की महिमा जो अकथ कथन।

नमस्कार हो पुनः पुनः अति विनय विनम्रित पुनः नमन ॥


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°3

यो ब्रह्मरुद्रशुकनारदभीष्ममुख्यैरालक्षितो न सहसा पुरुषस्य तस्य।
सद्यो वशीकरण चूर्णमनन्तशक्तिं तं राधिका चरणरेणुमनुस्मरामि।।३।।

जो ब्रह्म रुद्र शुक नारद भीष्म से भी दिये न दिखलाई।

शक्त्यनन्त उस परम पुरुष को वशीकरण वह कर पाई।।

ऐसी उस सम्पन्न शक्ति को सहसा आकर्षित करती जो।

उस राधा पद रज का सुमिरन, सन्तन कर भव दुख हरती जो।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°4

आधाय मूर्द्धनि यदा पुरुदारगोप्यःकाम्यं पदं प्रियगुणैरपि पिच्छ मौलेः।
भावोत्सवेन भजतां रस कामधेनुं तं राधिका चरणरेणुमहं स्मरामि||४||

मनः प्राण से नित उदार ऐसी गोपी गण गोकुल की।

मोर पंख धारी के सब गुण-सहित प्राप्य पद आकुल की।

भाव चाव भावोत्सव हित वे कामधेनु सी नित हुलसी।

भक्तों से ध्यायित नित-नित वह स्वामिनि पदरज मन विलसी।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°5

दिव्यप्रमोद रस सार निजाङ्गसङ्ग , पीयूषवीचि निचयैरभिषेचयन्ती।”
कन्दर्प कोटि शर मूर्च्छित नन्दसूनुसञ्जीवनी जयति कापि निकुञ्जदेवी।।5।।

जो सदा अपने अङ्ग-जो सदा अपने अङ्ग-सङ्ग रूप अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों स मूर्च्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो। अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों से मूच्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°6

तन्नः प्रतिक्षण चमत्कृत चारुलीलालावण्य मोहन महामधुराङ्गभङ्गि।

राधाननं हि मधुराङ्ग कलानिधान- माविर्भविष्यति कदा रससिन्धु सारम् ॥6।।

जिस आनन-कमल से प्रतिक्षण महामोहन माधुर्य के विविध अङ्गों की भङ्गिमा युक्त सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का लावण्य चमत्कृत होता रहता है और जो माधुर्य के अङ्गों की चातुरी का उत्पत्ति स्थान है, वही समस्त रस-सार-सिन्धु श्रीराधानन हमारे सम्मुख कब आविर्भूत होगा ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°7

यत्किङकरीषु बहुशः खलु काकुवाणी नित्यं परस्य पुरुषस्य शिखण्डमौलेः ।

तस्याः कदा रसनिधे- वृषभानुजायास्तत्केलिकुञ्ज भवनाङ्गण मार्जनीस्याम् ॥7।।

निश्चय ही, जिनकी दासियों से परम-पुरुष शिखण्ड-मौलि श्रीश्यामसुन्दर नित्य-निरन्तर कातर-वाणी द्वारा भूरि-भूरि प्रार्थना करते रहते हैं, क्या मैं कभी उन रसनिधि श्रीवृषभानुजा के केलि-कुञ्ज-भवन के प्राङ्गण की सोहनी देने वाली हो सकूँगी ? (जिसमें प्रवेश करने के लिये श्रीलालजी को भी सखियों से प्रार्थना करनी पड़ती है)।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 8

वृन्दानि सर्वमहतामपहायादूराद्वृन्दाटवीमनुसर प्रणयेन चेतः ।

सत्तारणीकृतसुभावसुधारसौघं राधाभिधानमिह दिव्यनिधानमस्ति ।।8।।

हे मेरे मन ! तू समस्त महच्चेष्टाओं ( महत् वृन्दों) को दूर से ही छोड़कर प्रीति-पूर्वक श्रीवृन्दाटवी का अनुसरण कर । जहाँ ‘श्रीराधा’ नामक एक दिव्य निधि विराजमान है । जो सज्जनों को भव से उद्धार करने वाले भाव रूप सुधा-रस का प्रवाह है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°9

केनापि नागरवरेण पदे निपत्य संप्रार्थितैकपरिरम्भरसोत्सवायाः ।

सभ्रूविभङ्गमतिरङ्गनिधेः कदा ते श्रीराधिके नहिनहीतिगिरः श्रृणोमि ॥9।।

हे श्रीराधिके ! कोई चतुर-शिरोमणि किशोर आपके श्रीचरणों में बारम्बार गिरकर आपसे परिरम्भण सुखोत्सव की याचना कर रहे हों और आप अपनी भ्रूलताओं को विभङ्गित कर-करके परम रसमय वचन ‘नहीं

नहीं’ ऐसा कह रही हों । हे अति कौतुक-निधि ! मैं आपके इन शब्दों को कब सुनूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°10

यत्पादपद्मनखचन्द्रमणिच्छटाया विस्फूजितं किमपि गोपवधूष्वदर्शि ।

पूर्णानुरागरससागरसारमूर्तिः सा राधिका मयि कदापि कृपां करोतु ॥10।।

जिनके पाद-पद्म-नख रूप चन्द्रमणि की किसी अनिर्वचनीय छटा का प्रकाश गोप-वधुओं में देखा जाता है, वही परिपूर्ण अनुराग-रस-समुद्र की सार-मूत्ति श्रीराधिका कभी मुझ पर भी कृपा करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°11

उज्जृम्भमाणरसवारिनिधेस्तरङ्गैरंगैरिव प्रणयलोलविलोचनायाः ।

तस्याः कदा नु भविता मयि पुण्यदृष्टिवृन्दाटवीनवनिकुञ्जगृहाधिदेव्याः ॥11।।

जिनके नेत्र प्रणय-रस से चञ्चल हो रहे हैं और जिनके अङ्ग उत्फुल्लमान् रस-सागर की तरङ्गों के समान हैं, उन श्रीवृन्दाटवी नवनिकुन्ज भवन की अधिष्ठात्री देवी की पवित्र दृष्टि मुझ पर कब होगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°12

वृन्दावनेश्वरि तवैव पदारविन्दं

प्रेमामृतैकमकरन्दरसौघपूर्णम् ।

हृद्यपितं मधुपतेः स्मरतापमुग्रं

निर्वापयत्परमशीतलमाश्रयामि ॥12।।

हे वृन्दावनेश्वरि ! आपके चरण-कमल एकमात्र प्रेमामृत-मकरन्द

रस-राशि से परिपूर्ण हैं, जिन्हें हृदय में धारण करते ही मधुपति श्रीलालजी

का तीक्ष्ण स्मरताप (काम-ताप) निर्वारित हो जाता है । मैं आपके उन्हीं

परम शीतल चरणारविन्दों का आश्रय ग्रहण करती हूँ, मेरे लिये उनके

सिबाय और कोई गति नहीं है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°13

राधाकरावचितपल्लववल्लरीके,

राधापदाङ्कविलसन्मधुरस्थलीके ।

राधायशोमुखरमत्तखगावलीके,

राधा-विहारविपिने रमतां मनो मे ॥13।।

हे मेरे मन ! तू श्रीराधा-करों से स्पर्श की हुई पल्लव-वल्लरी से मण्डित, श्रीराधा पदाङ्गों से शोभित, मनोहर स्थल-युक्त एवं श्रीराधा यशोगान से मुखरित मत्त खगावली-सेवित श्रीराधा कुञ्ज-केलि कानन श्री वृन्दावन में रमणकर !

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°14

कृष्णामृतं चलु विगाढुमितीरिताहं

तावत्सहस्व रजनी सखि यावदेति ।

इत्थं विहस्य वृषभानुसुतेह लप्स्ये

मानं कदा रसदकेलि कदम्ब जातम् ॥14।।

जब वे मुझसे कहेंगी-“अरी सखि ! श्रीकृष्णामृत^१’ अवगाहन करने के लिए चल” । तब मैं हँसकर कहूंगी-“हे सखि ! तब तक धैर्य रखो जब तक राशि नहीं  आ जाती।” (क्योंकि कृष्णामृत-अवगाहन तो रात्रि में ही अधिक उपयुक्त है ?) उस समय मेरे हास-मय वचनों से रसदायक केलि-समूह का एक अनुपम आनन्द उत्पन्न होगा । मैं कब श्रीवृषभानुनन्दिनी से इस रसमय सम्मान की अधिकारिणी होऊँगी ?

१-श्रीकृष्णामृत शब्द यहाँ क्लिष्ट है । ‘कृष्णा’ यमुना का एक नाम है । श्रीप्रियाजी ने सभी से यमुना-स्मान की ही बात कही यो; किन्तु सखी ने परिहास से आनन्व-पृद्धि के लिए कृष्णामृत पद का अर्थ किया ‘श्रीकृष्ण का एकान्त मिलनरस’ । जिसकी प्राप्ति रात्रि को ही सम्भव बताई, यही हास विशेष है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°15

पादांगुली निहित दृष्टिमपत्रपिष्णुं

दूरादुदीक्ष्यरसिकेन्द्रमुखेन्दुबिम्बम् ।

वीक्षे चलत्पदगतिं चरिताभिरामां-

झङ्कारनूपुरवतीं बत कहि राधाम् ।।15।।

अपने प्रियतम रसिक-पुरन्दर श्रीलालजी के मुखचन्द्र मण्डल को दूर से ही देखकर जिन्होंने लज्जा से भरकर अपनी दृष्टि को अपने ही चरणों की अंगुलियों में निहित कर दिया है और फिर जो सलज्ज गति से(निकुञ्ज-भवन की ओर) चल पड़ी हैं, जिससे चरण-नूपुर झंकृत हो उठे हैं। हाय ! वे अभिराम-चरिता श्रीराधा क्या कभी मुझे दर्शन देंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°16

उज्जागरं रसिकनागर सङ्ग रङ्गैः

कुंजोदरे कृतवती नु मुदा रजन्याम् ।

सुस्नापिता हि मधुनैव सुभोजिता त्वं

राधे कदा स्वपिषि मकर लालितांघ्रिः ।।16।।

हे श्रीराधे ! तुमने अपने पियतम रसिक नागर श्रीलालजी के साथ कुब्ज-भवन में आनन्द-विहार करते हुए मोद में ही सारी रात्रि जागकर व्यतीत कर दी हो तब प्रात:काल मैं तुम्हें अच्छी तरह से स्नान कराके मधुर-मधुर भोजन कराऊँ और सुखद शय्या पर पौढ़ाकर अपने कोमल करों से तुम्हारे ललित चरणों का संवाहन करू। मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°17

वैदग्ध्यसिन्धुरनुराग रसैकसिन्धुर्वात्सल्यसिन्धुरतिसान्द्रकृपैकसिन्धुः ।

लावण्यसिन्धुरमृतच्छविरूप सिन्धुः

श्रीराधिका स्फुरतु मे हृदि केलि सिन्धुः ॥17।।

जो विदग्धता की सिन्धु, अनुराग रस को एकमात्र सिन्धु, वात्सल्यभाव की सिन्धु अत्यन्त घनीभूत कृपा की एकमात्र सिन्धु, लावण्य की सिन्धु और छवि रूप अमृत की अपार सिन्धु हैं । वे केलि-सिन्धु श्रीराधा मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°18

दृष्ट्वैव चम्पकलतेव चमत्कृताङ्गी,

वेणुध्वनिं क्व च निशम्य च विह्वलाङ्गी।

सा श्यामसुन्दरगुणैरनुगीयमानैः

प्रीता परिष्वजतु मां वृषभानुपुत्री ॥18।।

जो अपने प्रियतम श्रीलालजी को देखते ही चम्पकलता के समान अङ्ग-अङ्ग से चमत्कृत हो उठती हैं, और कभी मन्द-मन्द वेणु-ध्वनि को सुनकर जिनके समस्त अङ्ग विह्वल हो उठते हैं । अहो ! वे श्रीवृषभानुनन्दिनी मेरे द्वारा गाये हुए अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुणों को श्रवणकर क्या कभी मुझे प्रीतिपूर्वक आलिङ्गन करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°19

श्रीराधिके सुरतरङ्गि नितम्ब भागे

काञ्चीकलाप कल हंस कलानुलापैः ।

मञ्जीरसिञ्जित मधुव्रत गुञ्जिताङ्घ्रिः

पङ्केरुहैः शिशिरयस्व रसच्छटाभिः ।।19।।

हे श्रीराधिके ! हे सुरत-केलि-रञ्जित नितम्ब-भागे ! अहा ! आपका यह काञ्ची-कलाप क्या है मानो कल हंसों का कल-कल अनुलाप है, और चरण-कमलों के नूपुरों की मन्द-मन्द झनकार ही मानों मतवाले भ्रमरों का गुञ्जन है । स्वामिनि ! आप अपने इसी मधुर-रस की छटा से

मुझे शीतल कर दीजिए।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°20

श्रीराधिके सुरतरङ्गिणि दिव्यकेलि

कल्लोलमालिनिलसद्वदनारविन्दे ।

श्यामामृताम्बुनिधि सङ्गमतीव्रवेगिन्यावर्त्तनाभि रुचिरे मम सन्निधेहि ॥20।।

हे दिव्यकेलि-तरङ्गमाले! हे शोभमान् वदनारविन्दे ! हे श्रीश्यामसुन्दर-सुधा-सागर-सङ्गमार्थ तीव्र वेगवती ! हे रुचिर नाभिरूप गम्भीर भंवर से शोभायमान् सुरत-सलिते ! ( मन्दाकिनि रूपे ! ) हे श्रीराधिके ! आप मुझे अपना सामीप्य प्रदान कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°21

सत्प्रेम सिन्धु मकरन्द रसौघधारा

सारानजस्रमभितः स्रवदाश्रितेषु ।

श्रीराधिके तव कदा चरणारविन्दं

गोविन्द जीवनधनं शिरसा वहामि ॥

जो अपने आश्रित-जनों पर सत्प्रेम ( महाप्रेम ) समुद्र के मधुर मकरन्द-रस की प्रबल धारा अनवरत रूप से चारों ओर से बरसाते रहते हैं तथा जो गोविन्द के जीवन-धन हैं, हे श्रीराधिके ! आपके उन चरणकमलों को मैं कब अपने सिर पर धारण करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°22

सङ्केत कुञ्जमनुकुञ्जर मन्दगामिन्यादाय दिव्यमृदुचन्दनगन्धमाल्यम् ।

त्वां कामकेलि रभसेन कदा चलन्तीं

राधेनुयामि पदवीमुपदर्शयन्ती ॥22।।

हे राधे ! आप काम-केलि की उत्कण्ठा से भरकर सङ्केत-कुण्ज में.पधार रही हों और मैं शीतलचन्दन, गन्ध, परिमल, पुष्पमाला आदि दिव्य और मृदु सामग्री लेकर आपको सङ्केत कुञ्ज का लक्ष्य कराती हुई मन्दमन्द कुनञ्जर-गति से आपका अनुगमन करूं, ऐसी कृपा कब करोगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°23

गत्वा कलिन्दतनया विजनावतारमुद्वरर्तयन्त्यमृतमङ्गमनङ्गजीवम् ।

श्रीराधिके तव कदा नवनागरेन्द्रं

पश्यामि मग्न नयनं स्थितमुच्चनीपे ।।23।।

हे श्रीराधिके ! आप स्नान करने के लिए कलिन्द-तमया यमुना के किसी निर्जन घाट पर पधारें और मैं आपके अनङ्ग-जीवनदाता श्रीअङ्गों का उद्वर्तन (उबटन) करूँ’, उस समय (तट के) उच्च कदम्ब पर स्थित नवनागर शिरोमणि श्रीलालजी को आपकी ओर निरखते हुए मैं कब देखूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°24

सत्प्रेम राशि सरसो विकसत्सरोजं

स्वानन्द सीधु रससिन्धु विवर्द्धनेन्दुम् ।

तच्छीमुखं कुटिल कुन्तलभृङ्गजुष्टं

श्रीराधिके तव कदा नु विलोकयिष्ये ।।24।।

हे श्रीराधिके ! आपका यह श्रीमुख पवित्र प्रेम-राशि-सरोवर का.विकसित सरोज है अथवा आपके अपने जनों को आनन्द देने वाला अमृत है किंबा रससिंधु का विवर्द्धन करने वाला पूर्णचन्द्र ? अहा ! जिस मुख-कमल के आस-पास काली-काली धुंघराली अलकावली मतवाले भृङ्ग-समूहों के

समान लटक रही है, कब आपके इस

मनोहर मुख-कमल का दर्शन करूँगी।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°25

लावण्य सार रस सार सुखैक सारे

कारुण्य सार मधुरच्छविरूप सारे ।

वैदग्ध्य सार रति केलि विलास सारे

राधाभिधे मम मनोखिल सार सारे ॥25।।

एक सर्व सारातिसार स्वरूप है, जो लावण्य का सार, रस का सार और समस्त सुखों का एक मात्र सार है; वही दयालुता के सार से युक्त मधुर छवि के रूप का भी सार है। जो चातुर्य का सार एवं रति-केलिविलास का भी सार है वही राधा नामक तत्व सम्पूर्ण सारों का सार है, इसी में मेरा मन सदा रमा करे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°26

चिन्तामणिः प्रणमतां व्रजनागरीणां

चूडामणिः कुलमणिर्वृषभानुनाम्नः ।

सा श्याम काम वर शान्ति मणिर्निकुञ्ज

भूषामणिर्हृदय-सम्पुट सन्मणिर्नः ॥26।।

.

जो आश्रित जनों के लिए समस्त फल-दाता चिन्तामणि हैं, जो व्रजनव – तरुणियों की चूङ़ामणि और वृषभानु की कुलमणि हैं जो श्रीश्यामसुन्दर के काम को शान्त करने वाली श्रेष्ठ मणि हैं । वही निकुञ्ज-भवन की भूषण-रूपा मणि तथा मेरे हृदय-सम्पुट की भी दिव्य मणि (श्रीराधा) हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°27

मञ्जुस्वभावमधिकल्पलतानिकुञ्ज

व्यञ्जन्तमद्भुतकृपारसपुञ्जमेव ।

प्रेमामृताम्बुधिमगाधमवाधमेतं

राधाभिधं द्रुतमुपाश्रय साधु चेतः ।।27।।

जिनका स्वभाब बड़ा ही कोमल है और जो सङ्कल्पाधिक काम-पूरक

कल्पलता के निभृत-निकुञ्ज में विराजती हुई अद्भुत कृपा-रस-पुक्ष का ही

प्रकाशन करती रहती हैं। हे मेरे साधु मन ! तू उसी राधा नामक प्रेमामृत

के अगाध और अबाध (अमर्यादित) अम्बुधि का शीघ्र आश्रय कर ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°28

श्रीराधिकां निज विटेन सहालपन्तीं

शोणाधर प्रसमरच्छवि-मन्जरीकाम् ।

सिन्दूर सम्वलित मौक्तिक पंक्ति शोभां

यो भावयेद्दशन कुन्दवतीं स धन्यः ।।

श्रीप्रियाजी अपने प्रियतम श्रीलालजी के साथ कुछ मधुर मधुर बातें कर रही हैं, जिससे उनके लाल-लाल ओठों से सौन्दर्य-राशि निकलनिकल कर चारों ओर फैल रही है । अहा ! जिनके विशाल भाल पर सिन्दूर-रञ्जित मोतियों की पंक्ति शोभायमान है और दन्त पंक्ति कुन्द-कलियों

को भी लज्जित कर रही है। वही धन्य हैं जो ऐसी श्रीप्रियाजी के भावनापरायण हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°29

पीतारुणच्छविमनन्ततडिल्लताभां

प्रौढानुराग मदविह्वल चारुमूर्त्तिम्।

प्रेमास्पदां व्रजमहीपति तन्महिष्योगोंविन्दवन्मनसि तां निदधामिराधाम् ।।29।।

जिनकी छवि पीत और अरुणिमा-मिश्रित स्वर्ण के समान है, आभा.अनन्त विद्युन्माला की दीप्ति के समान है । जिनकी सुन्दर मूर्त्ति प्रौढ अनुराग में विह्वल है और जो ब्रजराज एवं ब्रजरानी के लिए गोविन्द के समान प्रेमपात्र हैं। उन श्रीराधा को मैं अपने मन में धारण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°30

निर्मायचारुमुकुटं नव चन्द्रकेण

गुञ्जाभिरारचित हारमुपाहरन्ती।

वृन्दाटवी नवनिकुञ्ज गृहाधिदेव्याः

श्रीराधिके तव कदा भवितास्मि दासी।।30।।

स्वामिनि ! मैं नवीन-नवीन मयूर-चन्द्रिकाओं से निर्मित सुन्दर मुकुट एवं गुञ्जा-रचित हार आपके निकट पहुँचाऊँ। वृन्दावन नव-निकुञ्जगृह की अधिदेवी हे श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी दासी कब होऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°31

सङ्केत कुञ्जमनुपल्लवमास्तरीतुं

तत्तत्प्रसादमभित. खलु संवरीतुम् ।

त्वां श्यामचन्द्रमभिसारयितुं धृताशे

श्रीराधिके मयि विधेहि कृपा कटाक्षम् ॥31।।

स्वामिनि ! मैंने केवल यही आशा धारण कर रखी है कि उन-उन संकेत-कुजों में नवीन-नवीन पल्लवों की सुन्दर शय्या बिछाऊँ और वहाँ पर श्यामचन्द्र (श्रीलालजी) से मिलन कराने के लिए तुम्हें छिपाकर ले जाऊँ। तब आप मेरी इस सेवा से प्रसन्न हो उठें। हे श्रीराधिके ! आप तो मुझ पर अपने इतने ही कृपा-कटाक्ष का विधान कीजिए।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°32

दूरादपास्य स्वजनान्सुखमर्थे कोटि

सर्वेषु साधनवरेषु चिरं निराशः ।

वर्षन्तमेव सहजाद्भुत सौख्य धारां

श्रीराधिका चरणरेणुमहं स्मरामि ॥32।।

मैंने अपने स्वजन-सम्बन्धी वर्ग और कोटि-कोटि सम्पत्तियों के सुख को दूर से ही त्याग दिया है तथा (परमार्थ-सम्बन्धी) समस्त श्रेष्ठ साधनों में भी मेरी चिर निराशा हो चुकी है। अब तो मैं स्वभावतया अद्भुत सुख की धारा का हो वर्षण करने वाले श्रीराधिका-चरण-रेणु का स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°33

वृन्दाटवी प्रकट मन्मथ कोटि मूर्त्ते

कस्यापि गोकुलकिशोर निशाकरस्य ।

सर्वस्व सम्पुटभिव स्तनशातकुम्भ

कुम्भद्वयं स्मर मनो वृषभानुपुत्र्याः ॥33।।

हे मेरे मन ! तू श्रीवृषभानुनन्दिनी के स्वर्ण-कलशों के समान युगल स्तनों का स्मरण कर । जो वृन्दावन में प्रकट रूप से विराजमान कोटि कन्दर्प-मूर्त्ति किन्हीं गोकुल-किशोरचन्द्र के सर्वस्व-सम्पुट के समान हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°34

सान्द्रानुराग रससार सरः सरोजं

किं वा द्विधा मुकुलितं मुखचन्द्र भासा ।

तन्नूतन स्तन युगं वृषभानुजायाः

स्वानन्द सीधु मकरन्द घनं स्मरामि ॥34।।

घनीभूत प्रेम-रस-सार-सरोवर का एक सरोज मानो मुखचन्द्र का

प्रकाश पाकर दो रूपों में मुकुलित हो गया है और जो स्वानन्द-अमृत के

मकरन्द का सघन स्वरूप है, मैं श्रीवृषभानुनन्दिनी के उस नवीन स्तन-युग्म

का स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°35

क्रीडासरः कनक पङ्कज कुड्मलाय

स्वानन्दपूर्ण रसकल्पतरोः फलाय ।

तस्मै नमो भुवनमोहन मोहनाय,

श्रीराधिके तव नवस्तन मण्डलाय ।।35।।

श्रीराधिके ! केलि-सरोवर की कनक-पङ्कज-कली के समान अथवा

आपके अपने ही आनन्द से परिपूर्ण रसकरूपतरु के फल के समान त्रिभुवनमोहन श्रीमोहनलाल का भी मोहन करने वाले आपके नवीन स्तन-मण्डल

कों नमस्कार है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°36

पत्रावलीं रचयितुं कुचयोः कपोले

बद्धुं विचित्र कबरीं नव मल्लिकाभिः ।

अङ्गं च भूषयितुमाभरणैर्धृताशे

श्रीराधिके मयि विधेहि कृपावलोकम् ।।36।।

हे श्रीराधिके ! मैंने तो केवल यही आशा धारण कर रखी है और आप भी मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि का ऐसा ही विधान करें कि मैं आपके युगल-कुच-मण्डल और कपोलों पर  (चित्र-विचित्र) पत्रावली-रचना करू । मल्लिका के नवीन-नवीन पुष्पों को गूंथकर विचित्र रीति से आपका कबरीबन्धन करू’ और आपके सुन्दर सुकोमल अङ्गों में तदनुरूप आभरप आभूषित करूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°37

श्यामेति सुन्दरवरेति मनोहरेति

कन्दर्प-कोटि-ललितेति सुनागरेति ।

सोत्कण्ठमह्वि गृणती मुहुराकुलाक्षी

सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना ।।37।।

जो दिवस-काल में “हे श्याम ! हा सुन्दर वर ! हा मनोहर ! हे

कन्दर्प-कोटि-ललित ! अहो चतुर शिरोमणि !” ऐसे उत्कण्ठा-युक्त शब्दों से

बारम्बार गान करती हैं । वे आकुल-नयनी श्रीराधिका मुझ पर कब

प्रसन्न होंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°38

वेणुः करान्निपतितः स्खलितं शिखण्डं

भ्रष्टं च पीतवसनं व्रजराज सूनोः ।

यस्याः कटाक्ष शरपात विमूर्च्छितस्य

तां राधिका परिचरामि कदा रसेन ॥38।।

जिनके नयन-वाणों की चोट से श्रीव्रजराजकुमार की मुरली हाथ से छूट गिरती है। सिर का मोर-मुकुट खिसक चलता है और पीताम्बर भी स्थान-च्युत हो जाता है; यहाँ तक कि वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। अहा ! क्या मैं कभी ऐसी श्रीराधिका की प्रेम-पूर्वक परिचर्या करूँगी!

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°39

तस्या अपार रस-सार विलास-मूर्तेरानन्द-कन्द परमाद्भुत सौम्य लक्ष्म्याः ।

ब्रह्मादि दुर्गमगतेर्वृषभानुजायाः

कैङ्कय्र्यमेव ममजन्मनि-जन्मनि स्यात् ।।39।।

जो अपार रस – सार की विलास-मूर्त्ति, आनन्द की मूल एवं परमाद्भुत सुख की सम्पत्ति हैं एवं जिनकी गति ब्रह्मादि को भी दुर्गम है। उन श्रीवृषभानुनन्दिनीजू का कैङ्कर्य्य ही मुझे जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त

होता रहे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°40

पूर्णानुराग रसमूर्त्ति तडिल्लताभं

ज्योतिः परं भगवतो रतिमद्रहस्यम् ।

यत्प्रादुरस्ति कृपया वृषभानु गेहे

स्पास्किङ्करी भवितुमेव ममाभिलाषः ॥40।।

एक रहस्यमयी परम ज्योति है । जो परात्पर परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण को भी अपने आप में रमा लेती है। जिसकी कान्ति विद्युल्लता के समान देदीप्यमान् है और जो पूर्णतम अनुराग-रस की मूर्ति है । अहो !

कृपापूर्वक ही वह श्रीवृषभानु-भवन में प्रादुर्भूत हुई है। मेरी तो यही अभिलाषा है कि उसी की दासी हो रहूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°41

प्रेमोल्लसद्रस विलास विकास कन्दं

गोविन्द लोचन वितृप्त चकोर पेयम् ।

सिञ्चन्तमद्भुत रसामृत चन्द्रिकौरघैः

श्रीराधिकावदन-चन्द्रमहं स्मरामि ॥41।।

जो प्रेम से उल्लसित रम-विलास का विकास बीज है एवं गोविन्द के अतृप्त लोचन-चकोरों के लिये पेय स्वरूप है, उसी अद्भुत रसामृतचन्द्रिका-धारा-सिञ्चन कारी श्रीराधिका-मुख-चन्द्र का मैं स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°42

सङ्कत कुञ्ज निलये मृदुपल्लवेन

क्लृप्ते कदापि नव सङ्ग भयत्रपाढयाम् ।

अत्याग्रहेण करवारिरुहे गृहीत्वा

नेष्ये विटेन्द्र-शयने वृषभानुपुत्रीम् ॥42।।

मैं, रहस्य निकुन्ज गृह में कोमल-पल्लव-रचित रसिकेन्द्र-शय्या पर

नवीन सङ्गम के भय एवं लज्जा से भरी हुई श्रीवृषभानु-किशोरी को करकमल पकड़कर अत्यन्त आग्रह के साथ शयन-गृह में कभी ले जाऊँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°43

सद्गन्ध माल्य नवचन्द्र लवङ्ग सङ्ग

ताम्बूल सम्पुटमधीश्वरि मां वहन्तीम् ।

श्यामं तमुन्मद-रसादभि-संसरन्ती

श्रीराधिके कारणयानुचरीं विधेहि ।।43।।

 अधीश्वरि ! जब आप रस से उम्मद होकर श्रीलालजी के समीप पधारने लगें, उस समय मैं सुन्दर सुगन्धित मालाएं और नव-कर्पूर लवङ्गयुक्त ताम्बूल-सम्पुट (डवा) ले कर चलूं । हे श्रीराधिके ! कृपा करके आप.मुझे अपनी ऐसी ही अनुचरी बनाइये ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°44

श्रीराधिके तव नवोद्गम चारुवृत्त

वक्षोजमेव मुकुलद्वय लोभनीयम् ।

श्रीणीं दधद्रस गुणैरुपचीयमानं

कैशोरकं जयति मोहन-चित्त-चोरम् ॥44।।

हे श्रीराधिके ! चारु, वर्तुल, मुकुलित स्तन-द्वय द्वारा लोभनीय, नितम्ब विशिष्ट युक्त रस-स्वरूप श्रीकृष्ण के नित्य सेवनादि गुणों द्वारा बर्द्धमान् एवं मोहन के भी चित्त का हरण करने वाला आपका कैशोर जययुक्त हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°45

संलापमुच्छलदनङ्ग तरङ्गमाला

संक्षोभितेन वपुषा व्रजनागरेण ।

प्रत्यक्षरं क्षरदपार रसामृताब्धिं

श्रीराधिके तव कदा नु श्रृणोम्यदूरात् ।।45।।

अनेकों अनङ्गों की तरङ्गमाला उच्छलित हो-होकर जिनके श्रीवपु को आन्दोलित कर रही है. ऐसे व्रजनागर श्रीलालजी के साथ आप संलाप करती हों । जिस संलाप के अक्षर-अक्षर में अपार रसामृत-सिन्धु झरता

रहता है । हे स्वामिनि ! मैं समीप ही स्थित होकर आपके उस महामधुर संलाप को कब सुनूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°46

अङ्क स्थितेपि दयिते किमपि प्रलापं

हा मोहनेति मधुरं विदधत्यकस्मात् ।

श्यामानुराग मदविह्वल मोहनाङ्गी

श्यामामणिजयति कापि निकुञ्ज सीम्नि ।।46।।

यद्यपि अपने प्रियतम की गोद में स्थित हैं, फिर भी अकस्मात् ‘हा मोहन !’ ऐसा मधुर प्रलाप कर उठती हैं। ऐसी श्याम-सुन्दर के अनुरागमद से विह्वल मोहना ही कोई श्यामामणि निकुञ्ज-प्रान्त में जययुक्त विराजमान हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°47

कुजान्तरे किमपि जात-रसोत्सवायाः

श्रुत्वा तदालपित सिञ्जित मिश्रितानि ।

श्रीराधिके तब रहः परिचारिकाहं

द्वारस्थिता रस-हृदे पतिता कदा स्याम् ।।47।।

हे राधिके ! किसी अभ्यन्तर कुञ्ज-भवन में आप अपने प्रियतम के साथ किसी अनिर्वचनीय रसोत्सव में संलग्न हों, जिससे भूषण ध्वनि मिश्रित आपके मधुर आलाप का स्वर सुनाई दे रहा हो और मैं आपको एकान्त परिचारिका, कुञ्जद्वार में स्थित होकर उसे सुनें । और उसे सुनते ही प्रेम-विह्वल होकर रस के सरोवर में डूब जाऊँ । हे स्वामिनि ! ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°48

वीणां करे मधुमतीं मधुर-स्वरां तामाधाय नागर-शिरोमणि भाव-लीलाम् ।

गायन्त्यहो दिनमपारमिवाश्रु-वर्षैदुःखान्नयन्त्यहह सा हृदि मेऽस्तु राधा ॥48।।

अहो ! जो स्वर-लहरी भरी अपनी मधुमती नाम्नी वीणा को उठाकर कर-कमलों में धारण करके अपने प्रियतम नागर-शिरोमणि श्रीलालजी.की भाव-लीलाओं को गाती रहती हैं और बड़ी कठिनता से अपार सा दिन अश्रुओं को वर्षा द्वारा व्यतीत करती हैं। अहह ! ऐसी प्रेम-विह्वला श्रीराधा मेरे हृदय में निवास करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°49

अन्योन्यहास परिहास विलास केली

वैचित्र्य जृम्भित महारस-वैभवेन ।

वृन्दावने विलसतापहृतं विदग्धद्वन्द्वेन केनचिदहो हृदयं मदीयम् ॥49।।

अहो ! पारस्परिक हास-परिहास युक्त विविध-विलास-केलि की विचित्रता से उच्छलित महा रस-विभव के द्वारा श्रीवृन्दावन में विलास करने वाले किन्हीं विदग्ध युगल ने मेरे हृदय का अपहरण कर लिया है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°50

महाप्रेमोन्मीलन्नव रस सुधा सिन्धु लहरी परीवाहैर्विश्वं स्नपयदिव नेत्रान्त नटनैः ।

तडिन्माला गौरं किमपि नव कैशोर मधुरं पुरन्ध्रीणां चूडाभरण नवरत्नं विजयते ॥50।।

जिनके चपल नेत्रों का नर्तन ही महान्तम प्रेम के विकास का नूतनरस से परिपूर्ण सुधासिन्धु है । जिसकी लहरियों के प्रबाह से मानों विश्व को स्नान करा रही हैं। जो विद्युत-पंक्ति के समान गौर और समस्त ब्रजनव तरुणियों की नव-रत्न हैं- शिरोमणि भूषण हैं, वे कोई नव मधुर किशोरी सर्वोपरिता को प्राप्त है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 51

अमन्द प्रेमाङ्कश्लथ सकल निर्बन्धहृदयं

दयापारं दिव्यच्छवि मधुर लावण्य ललितम् ।

अलक्ष्यं राधाख्यं निखिलनिगमैरप्यतितरां रसाम्भोधेः सारं किमपि सुकुमारं विजयते ।।51।।

तीव्र प्रेम के कारण जिनके हृदय के समस्त बन्धन (आग्रह) शिथिल हो चुके हैं, जो दया की सीमा हैं एवं जिनकी दिव्य-छवि लावण्य-माधुर्य से अति-ललित हो रही है, वे निखिल-निगमों को भी अत्यन्त अलक्षित,

रस-समुद्र की सार-स्वरूपा कोई एक अनिर्वचनीय सुकुमारी है । उन श्रीराधा की जय हो, विजय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 52

दुकूलं विभ्राणामथ कुच तटे कंचुक पटं

प्रसादं स्वामिन्याः स्वकरतल दत्तं प्रणयतः।

स्थितां नित्यं पाश्र्व विविध परिचर्य्यैक चतुरां

किशोरीमात्मानं किमिह सुकुमारीं नु कलये ।।52।।

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अहो! मैं अपनी स्वामिनीजी के निज कर-कमलों के स्नेह-पूर्वक दिए हुए प्रसाद रूप दुकूल और कञ्चुकि-पट को अपनी कुच-तटी में धारण करूंगी और सदा अपनी स्वामिनी के पाव में स्थित रहकर विविध परिचाओं में चतुर सुकुमारी किशोरी के रूप में अपने आपको क्या यहाँ देखूँगी।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 53

विचिन्वन्ती केशान् क्वचन करजैः कंचुक पटं क्व चाप्यामुञ्चन्ती कुच कनक दीव्यत्कलशयोः ।

सुगुल्फे न्यस्यन्ती क्वचन मणि मञ्जीर युगलं कदा स्यां श्रीराधे तव सुपरिचारिण्यहमहो।।53।।

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अहो श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी सुपरिचारिका कब बनूंगी? जो कभी अपने कर-नखों से आपके केशों को सुलझाऊँ ? कभी आपके कनककलशों के समान गोल-गोल देदीप्यमान कुच-कलशों पर कञ्चुकि-पट धारण कराऊँ ? तो कभी आपके दोनों सुहावने गुल्फों में मणि के मञ्जीर युगल (नूपुर) पहनाऊँ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 54

अतिस्नेहादुच्चैरपि च हरिनामानि गृणतस्तथा सौगन्धाद्यैर्बहुभिरुपचारैश्च यजतः।

परानन्दं वृन्दावनमनुचरन्तं च दधतो मनो मे राधायाः पद मृदुल पद्मे निवसतु ॥54।।

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मैं अत्यन्त स्नेह-पूर्वक उच्च स्वर से श्रीहरि के नामों का गान करती रहूँ; सुगन्ध आदि अनेक उपचारों से उनका पूजन करती रहै तथा श्रीवृन्दावन में अनुचरण करती हुई परमानन्द को धारण करती रहूँ, इसके

साथ-साथ मेरा मन निरन्तर श्रीराधिका के मृदुल पाद – पद्मों में बसा रहे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 55

निज प्राणेश्वर्य्या यदपि दयनीयेयमिति मां

मुहुश्चुम्बत्यालिङ्गति सुरत मद माध्चव्या मदयति ।

विचित्रां स्नेहर्द्धि रचयति तथाप्यद्भुत गतेस्तवैव श्रीराधे पद रस विलासे मम मनः।।55।।

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‘मेरी प्राणेश्वरी की यह दया पात्र है’, ऐसा जानकर अद्भुत गतिशोल प्रियतम मेरा बार-बार चुम्बन करते हैं, और सुरत-मदिरा से मुझे उन्मद बना देते हैं । यद्यपि वे इस प्रकार विचित्र स्नेह-वैभव की रचना करते हैं; तथापि हे श्रीराधे ! मेरा मन तो आपके ही श्रीचरणों के रसबिलास में रहता है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 56

प्रीतिं कामपि नाम मात्र जनित प्रोद्दाम रोमोद्गमां राधा माधवयोः सदैव भजतोः कौमार एवोज्वलाम् ।

वृन्दारण्य नव-प्रसून निचयानानीय कुञ्जान्तरे गूढं शैशय खेलनैर्बत कदा कार्यो विवाहोत्सवः ॥56।।

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श्रीराधा – माधव किसी अनिर्वचनीय उज्ज्वल प्रीति – पूर्ण कौमार अवस्था का ही सेवन करते रहते हैं, जिनमें परस्पर के नामोच्चारण-मात्र में ही प्रफुल्लता-पूर्वक समस्त गेम पुलकित हो उठते हैं । अहो ! क्या कभी ऐसा होगा कि मैं श्रीवृन्दावन से नवीन-नवीन पुष्प चयन करवे लाऊँ, तथा

शैशवावस्था के खेल ही खेल में किसी गूढ़ कुञ्ज के भीतर हर्ष के साथ दोनों का विवाहोत्सव करूँ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 57

विपञ्चित सुपञ्चमं रुचिर वेणुना गायता

प्रियेण सहवीणया मधुरगान विद्यानिधिः ।

करीन्द्रवनसम्मिलन्मद करिण्युदारक्रमा कदा नु वृषभानुजा मिलतु भानुजा रोधसि ॥57।।

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जैसे मदमाती करिणी वन में गजराज से मिलन प्राप्त करने के लिये उदार गति से आती हो, ऐसे ही जो मद-गज-माती गति से पाद-विन्यास करती हुई श्रीयमुना के पुलिन पर आ पधारी हैं । तथा अपनी वीणा में सुमधुर गान करती हैं, क्योंकि इस कला की आप निधि हैं। अहा ! आपकी

 वीणा के पञ्चम स्वर में मिलाकर श्रीलालजी ने भी अपने वेणु की तान

छेड़ दी है । ऐसी श्रीवृषभानु-नन्दिनी अपने प्रियतम के साथ मुझे यमुना-तट पर कब मिलेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 58

सहासवर मोहनाद्भुत विलास रासोत्सवे

विचित्रवर ताण्डव श्रमजलाद्री गण्डस्थलौ।

कदा नु वरनागरी रसिक शेखरौ तौ मुदा

भजामि पद लालनाल्ललित जीवनं कुर्वती ।।58।।

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परम मनोहर हास-युक्त अद्भुत विलास-रासोत्सव में विचित्र और

उत्तमोत्तम नृत्य की गतियों के लेने से जिनके युगल गण्डस्थल श्रम-जल (प्रम्वेद) से गीले हो रहे हैं । जन नागरी-मणि श्रीप्रियाजी और रसिकशेखर श्रीलालजी के पद-कमलों के लालन से जीवन को सुन्दर बनाती हुई, कब आनन्द पूर्वक उनका भजन करूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 59

वृन्दारण्य निकुंज मंजुल गृहेष्वात्मेश्वरीं मार्गयन् हा राधे सविदग्ध दर्शित पथं किं यासिनेत्यालपन् ।

कालिन्दो सलिले च तत्कुच तटी कस्तूरिका पङ्किले स्नायं स्नायमहो कुदेहजमलं जह्यां कदा निर्मलः ॥59।।

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“हा राधे ! मैंने चतुर-सङ्गत द्वारा जो पथ आपको दिखलाया है, उस पर न चलोगी क्या ?” मै इस प्रकार विलाप करती और श्रीवृन्दावन के मंजुल निकुञ्ज-गृहों में आपको खोजती हुई फिरूँ तथा आपकी कुच-तटीचर्चित कस्तूरी से पङ्किल कालिन्दी-सलिल में बारम्बार स्नान करके अपने कुदेह-जनित मल को त्यागकर कब निर्मल होऊंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°60

पादस्पर्श रसोत्सवं प्रणतिभिर्गोविन्दमिन्दीवर

श्यामं प्रार्थयितु सुमंजुल रहः कुञ्जाश्च संमार्जितुम् ।

माला चन्दन गन्ध पूर रसवत्ताम्बूल सत्पानकान्यादातु च रसैक दायिनि तव प्रेष्या कदा स्यामहम् ॥60।।

रस की एकमात्र दाता मेरी स्वामिनि ! प्रणति के द्वारा आपके चरणों का स्पर्श ही जिनके लिये रसोत्सव रूप है, ऐसे इन्दीवर श्याम को आपके प्रति प्रार्थित करूं, सुन्दर सुमञ्जुल एकान्त निकुञ्ज-भवन का

मार्जन करूँ, तथा पुष्प-माल, चन्दन, इत्रदान (परिमल पात्र ), रस युक्त

ताम्बूल और अनेक प्रकार के सुस्वादु पेय पदार्थ आपके कुच-भवन में पहुँचाऊं, भला, कभी ऐसी टहल करने वाली दासी रूप में आप मुझे स्वीकार करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°61

लावण्यामृत वार्तया जगदिदं संप्लावयन्ती शरद्राका चन्द्रमनन्तमेव वदनं ज्योत्स्नाभिरातन्वती।

श्री वृन्दावनकुञ्ज मंजु गृहिणी काप्यस्ति तुच्छामहो कुर्वाणाखिल साध्य साधन कयां दत्वा स्वदास्योत्सवम्।।61।।

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जो इस जगत् को अपनी सौन्दर्य-सुधा-वाणी से संप्लावित करती हैं तथा जो अपने श्रीमुख की ज्योत्स्ना से मानो शरत्कालीन अनन्त चन्द्रमाओं का प्रकाश विस्तार करती हैं । अहो ! आश्चर्य है कि श्रीवृन्दावन

मजुल-निकुञ्ज-भवन की उन्हीं अनिर्वचनीय स्वामिनी ने अपनी सेवा का आनन्द देकर समस्त साध्य-साधन कथाओं को मेरे लिये तुच्छ कर दिया है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°62

दृष्ट्या क्वचन विहिता म्त्रेडने नन्दसूनोः

प्रत्याख्यानच्छलत उदितोदार संकेत-देशा।

धूर्तेन्द्र त्वद्भयमुपगता सा रहो नीपवाटयां नैका गच्छेत्कितव कृतमित्यादिशेत्कर्हि राधा ॥62।।

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हे कितव ! हे धूर्त्तशिरोमणि ! आपके दो-तीन-बार प्रार्थना करने पर (उसके उत्तर रूप में) जिन्होंने अपनी दृष्टि के द्वारा उदार संकेत स्थान का निर्देश कर दिया है ऐसी श्रीराधा तुम्हारे वचनों की आशङ्कावश (भयवश) तुमसे मिलने न जा सकेंगी; तब अनुचरी रूप में सङ्ग चलने के लिये मुझे कब आदेश करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°63

सा भ्रूनर्तन चातुरी निरुपमा सा चारुनेत्राञ्चले लीला खेलन चातुरी वरतनोस्तादृग्वचश्चातुरी।

संकेतागम चातुरी नव नव क्रीडाकला चातुरी

राधाय। जयतात्सखीजन परीहासोत्सवे चातुरी ।।63।।

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अहा ! श्रीराधा की निरुपम भृकुटियों की वह नर्तन् चातुरी! सुन्दर-सुन्दर नयन-कोरों का वह लीला-पूर्ण कटाक्ष ! एवं वर-वदनी

श्रीस्वामिनी की मनोहर वचन-चातुरी ! एकान्त में आगमन-निर्गमन की चातुरी के साथ-साथ नवीन केलि-कलाओं की विदग्धता और सखिजनों के हास-परिहास आनन्द की चातुरी ! सभी एक से एक बढ़कर हैं-सभी उत्कृष्ट हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°64

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उन्मीलन मिथुनानुराग गरिमोदार स्फुरन्माधुरी धारा-सार धुरीण दिव्य ललितानङ्गोत्सवः खेलतोः ।

राधा-माधवयोः परं भवतु नः चित्ते चिरार्त्तिस्पृशो कौमारे नव-केलि शिल्प लहरी शिक्षादि दीक्षा रसः ॥64।।

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श्रीराधा-माधव की कौमार-कालीन नवीन-केलि चातुरो-तरङ्गों की परस्पर उपदेश-रूप शिक्षा-दीक्षा का रस परावधि रूप से मेरे चित्त में उदित हो । अहा ! कितने मधुर हैं, ये थीराधा माधव ? दोनों के हृदयों में महानतम उदार अनुराग का विकाश हो रहा है, जिससे माधुर्य-धारा की सारधुरीण का स्फुरण हो रहा है । वह धुरीण क्या है ? दोनों की दिव्यतम ललित अनङ्ग उत्सव की क्रीड़ा, जो कुमार अवस्था में ही चित्त में बड़ी भारी आर्त्ति को उत्पन्न कर रही है, जिससे दोनों परस्पर एक दूसरे के श्रीअङ्गों का बारम्बार स्पर्श कर रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°65

कदा वा खेलन्तौ वजनगर वीथीषु हृदयं

हरन्तौ श्रीराधा व्रजपति कुमारौ सुकृतिनः ।

अकस्मात् कौमारे प्रकट नव कैशोर-विभवौ

प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादि निरतौ ॥65।।

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क्या कभी मैं श्रीराधा और श्रीव्रजपति-कुमार का दर्शन करके पूर्णता

को प्राप्त होऊँगी? जो किसी समय ब्रज-नगर की वीथियों में खेलते-फिरते

एकान्त पाकर अकस्मात् कोमारावस्था को त्याग कर नव किशोरता के वैभव को प्रकट करके दिव्य हास-परिहास में संलग्न हो गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम-केलि से सुकृती-जनों के हृदय का अपहरण कर रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°66

धम्मिल्लं ते नव परिमलैरुल्लसत्फुल्ल मल्लीमालं भालस्थलमपि लसत्सान्द्र सिन्दूर-बिन्दुम् ।

दीर्घापाङ्गच्छविमनुपमां चन्द्रांशु हासं प्रेमोल्लासं तव तु कुचयोर्द्वन्द्वमन्तः स्मरामि ॥66।।

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हे श्रीराधे ! सौरभ – उल्लसित – नूतन फुल्लमल्ली – माल – गुम्फित

आपकी वेणी, ललाट-पटल पर शोभित अत्यन्त लाल सिन्दूर विन्दु, बड़े-बड़े

नयनों की अनुपम कटाक्षच्छवि, प्रेमोल्लास-पूर्ण चाँदनी के समान मनोहर

हास और आपके युगल बक्षोज की रहस्यता का मैं स्मरण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°67

लक्ष्मी कोटि विलक्ष्य लक्षण लसल्लीला किशोरीशतैराराध्यं व्रजमण्डलेति मधुरं राधाभिधानं परम् ।

ज्योतिः किञ्चन सिञ्चदुज्ज्वलरस प्राग्भावमाविर्भवद्राधे चेतसि भूरि भाग्य विभवैः कस्याप्यहो जृम्भते ॥67।।

जिन व्रज-सुन्दरियों की लीलाओं में कोटि-कोटि लक्ष्मी-समूहों के विशेष लक्षणीय लक्षण शोभा पाते हैं, उन्हीं शत-शत किशोरियों का जो आराध्य है, एवं उज्ज्वल रस के प्रारम्भिक भाव का सिञ्चन करता हुआ देदीप्यमान (ज्योति-स्वरूप ) अति मधुर, श्रेष्ठ, श्रीराधा नामक तत्व है। वह [श्रीराधा तत्व ] ब्रजमण्डल-स्थित किसी भाग्यवान् ( महापुरुष ) के ध्यान-विभावित चित्त में महाभाग्य वैभव से ही विस्तार को प्राप्त होता है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°68

तज्जीयान्नव यौवनोदय महालावण्य लीलामयं सान्द्रानन्द घनानुराग घटित श्रीमूर्त्ति सम्मोहनम् ।

वृन्दारण्य निकुंज-केलि ललितं काश्मीर गौरच्छवि श्रीगोविन्द इव व्रजेन्द्र गृहिणी प्रेमैक पात्रं महः ॥68।।

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जो अपने नवीन यौवन के उदय-काल में महान्तम सौन्दर्य-लीला से युक्त है तथा जो घनीभूत आनन्द एवं घनानुराग-रचित मूर्त्ति श्रीलालजी का सम्मोहन कर लेता है, जिसकी गौर छवि नवीन केशर के समान है, जो श्रीवृन्दावन-निकुञ्ज-केलि में अति ललित है और जो ब्रजेन्द्र-गृहिणी यशोदा

किंवा कीर्तिदा के लिये श्रीगोविन्द के समान प्रेम का एक ही पात्र है, वह कोई अनिर्वचनीय तेज जय-जयकार को प्राप्त हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°69

प्रेमानन्द-रसैक-वारिधि महा कल्लोलमालाकुला व्यालोलारुण लोचनाञ्चल चमत्कारेण संचिन्वती।

किञ्चित् केलिकला महोत्सवमहो वृन्दाटवी मन्दिरे नन्दत्यद्भुत काम वैभवमयी राधा जगन्मोहिनी ॥69।।

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अहो ! प्रेमानन्द-रस के महान् समुद्र की तरङ्ग-मालाओं से आकुल एवं अपने अरुण और चम्चल नेत्राञ्चलों के चमत्कार (कटाक्ष) से केलिकला-महोत्सव का सिञ्चन करती हुई अद्भुत प्रेम-वैभवमयी जगन्मोहिनी अनिर्वचनीय श्रीराधा वृन्दावन के निकुञ्ज मन्दिर में आनन्द-बिहार

करती हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°70

वृन्दारण्य निकुञ्ज सीमनि नव प्रेमानुभाव भ्रमद्भ्रूभङ्गी लव मोहित व्रज मणिर्भक्तैक चिन्तामणिः ।

सान्द्रानन्द रसामृत स्रवमणिः प्रोद्दाम विद्युल्लता कोटि-ज्योतिरुदेति कापि रमणी चूडामणिर्मोहिनी ॥70।।

जिन्होंने नवीन प्रेमानुभाव-प्रकाशन-पूर्ण चञ्चल भ्र-भङ्गी के लेगमात्र से ही ब्रज-मणि श्रीलालजी को मोहित कर लिया, जो भक्तों के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये एक ही चिन्तामणि हैं, जो घनीभूत आनन्द रसामृत की निर्झरिणी-रूपा मणि हैं और जिनकी अङ्ग-ज्योति अत्यन्त प्रकाशमान कोटि-कोटि विद्युल्लताओं के समान है, वे कोई अनिर्वचनीया महा-मोहिनी रमणी-चूड़ामणि वृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में उदित हो रही हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°71

लीलापाङ्ग तरङ्गतैरुदभवन्नेकैकशः कोटिशः

कन्दर्पाः पुरदर्पटंकृत महाकोदण्ड विस्फारिणः ।

तारुण्य प्रथम प्रवेश समये यस्या महा माधुरीधारानन्त चमत्कृता भवतु नः श्रीराधिका स्वामिनी ॥71।।

जिनके तरुणावस्था के प्रथम प्रवेश-काल में ही हाव-भाव पूर्वक किये गये एक-एक अपाङ्ग-नर्तन से अत्यन्त दर्प-पूर्ण महा कोदण्ड की टङ्कार को शनैः-शनैः विस्फारित करने वाले कोटि-कोटि कन्दर्प उत्पन्न होते हैं, ऐसी महामाधुरी की अनन्त धाराओं से चमत्कृत श्रीराधिका हो मेरी स्वामिनी हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°72

यत्पादाम्बुरुहेक रेणु-कणिकां मूध्र्ना निधातुं न हि प्रापुर्ब्रह्म शिवादयोप्यधिकृतिं गोप्यैक भावाश्रयाः ।

सापि प्रेमसुधा रसाम्बुधिनिधी राधापि साधारणीभूता कालगतिक्रमेण बलिना हे दैव तुभ्यं नमः ॥72।।

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ओ दैव ! तुझे नमस्कार है ! धन्य है तेरी महिमा ! जिससे प्रेरित होकर काल-क्रम के प्रभाव-वश प्रेमात-रस-समुद्र श्रीलालजी की भी निधि.श्रीराधिका साधारण (सुलभ) हो गई हैं ! अहो ! जो गोपियों के भावों को

एक मात्र आश्रय हैं और जिनकी चरण-कमलों की रेणु के कण-मात्र को

ब्रह्मा, शिव आदि भी अपने सिर पर धारण करने की इच्छा रखते हुए भी प्राप्त नहीं कर पाते।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°73

दूरे स्निग्ध परम्परा विजयतां दूरे सुहृन्मण्डली भृत्याः सन्तु विदूरतो ब्रजपतेरन्य प्रसंगः कुतः।

यत्र श्रीवृषभानुजा कृत रतिः कुञ्जोदरे कामिना, द्वारस्था प्रिय किडुरी परमहं श्रोष्यामि कांची ध्वनिम् ॥73।।

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जहाँ कुञ्ज-भवन अभ्यन्तर भाग में परम-प्रेमी श्रीलालजी एवं श्रीवृषभानुनन्दिनीजू को रति-केलि होती रहती है, ब्रजपति श्रीलालजी के स्नेहीजनों की परम्परा वहाँ से दूर ही विराजे, एवं उनके सखा-गण भी दूर ही विराजमान रहें । भृत्य-वर्ग के लोग तो और भी दूर रहें । (इन लोगों के अतिरिक्त) अन्य-जनों का तो वहाँ प्रसङ्ग ही उपस्थित नहीं होता! यहाँ तो केवल उनकी परम-प्रिय किङ्करी ही द्वार पर स्थित रहकर विहारावसर क्वणित काञ्ची-ध्वनि श्रवण करती है या मैं श्रवण करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°74

गौराङ्गे म्रदिमा स्मिते मधुरिमा नेत्रांचले द्राघिमा वक्षोजे गरिमा तथैव तनिमा मध्ये गतौ मन्दिमा ।

श्रोण्यां च प्रथिमा भ्रुवोः कुटिलिमा बिम्बाधरे शोणिमा श्रीराधे हृदि ते रसेन जडिमा ध्यानेऽस्तु मे गोचरः ॥74।।

हे श्रीराधे ! आपके गौर-अङ्गों की मृदुलता, मन्द-मुस्कान की माधुरी, नेत्राञ्चलों की दीर्घता, उरोजों की पीनता, कटि-प्रान्त की

क्षीणता, पाद-न्यास की धीरता, नितम्ब-देश की स्थूलता, भ्रूलताओं की कुटिलता अधर-बिम्बों की रक्तिमा (ललाई) एवं आपके हृदय की रसावेशजन्य जड़ता मेरे ध्यान में प्रकट हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°75

प्रातः पीतपटं कदा व्यपनयाम्यन्यांशु कस्यार्पणात् कुञ्जे विस्मृत कञ्चुकीमपि समानेतुं प्रधावामि वा।

बध्नीयां कवरों युनज्मि गलितां मुक्तावलीमञ्जये नेत्रे नागरि रङ्गकैश्चपि दधाम्यङ्गं व्रर्ं वा कदा ॥75।।

हे नागरि! किसी समय प्रातःकाल आपने किसी का पीत-पट भ्रम में बदलकर पहिन लिया होगा, तब मैं उसे बदलकर नीलाम्बर धारण कराऊँगी । इसी प्रकार निकुञ्ज-भवन में आप अपनी कञ्चुकि भूल आई होगी, मैं दौड़कर उसे शीघ्रता पूर्वक लाऊँगी । विहार में आपकी कबरी

शिथिल हो गई होगी, उसे मैं पुनः बाँधकर संवार दूंगी। आपकी मुक्तामाल टूट गई होगी, उसे पिरो दूंगी और आपके नेत्रों में फिर से अञ्जन लगाकर, कस्तूरी, कुंकुम, मलय आदि के द्वारा अङ्गों के नख-क्षतों को लेपित कर दूंगी। स्वामिनि ! क्या कभी ऐसा होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°76

यद्वृन्दावन – मात्र गोचरमहो यन्नश्रुतीकं शिरोप्यारोढुं क्षमते न यच्छिव शुकादीनां तु यद्ध्यानगम् ।

यत्प्रेमामृत – माधुरी रसमयं यन्नित्य कैशोरकं तद्रूपं परिवेष्टुमेव नयनं लोलायमानं मम ।।76।।

अहो ! जो केवल श्रीवृन्दावन में ही दृष्टिगोचर होता है, अन्यत्र.नहीं। जिसका वर्णन करने में श्रुति-शिरोभाग उपनिषद् भी समर्थ नहीं हैं। जो शिव और शुक आदि के भी ध्यान में नहीं आता। जो प्रेमामृत-माधुरी

से परिपूर्ण है और जो नित्य किशोर है । उस रूप को देखने के लिये मेरे नेत्र खोजते फिरते हैं-चञ्चल हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°77

धर्माद्यर्थ चतुष्टयं विजयतां किं तद्वृथा वार्तया सैकान्तेश्वर – भक्तियोग पदवी त्वारोपिता मूर्द्धनि ।

यो वृन्दावन सोम्नि कञ्चन घनाश्चर्य्यः किशोरीमणिस्तत्कैङ्कयै रसामृतादिह परं चित्ते न मे रोचते ॥77।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये उत्तम चार फल यदि विश्व में उत्कृष्टता को प्राप्त हैं तो भले ही रहें, हमें इनकी व्यर्थ चर्चा से क्या ? और ईश्वर की उस एकान्त भक्ति-योग-पदवी को भी हम सिर-माथे चढ़ाते है, अर्थात् भक्ति-योग का आदर तो करते हैं पर उससे भी क्या लेना-देना

है ? हमारे चित्त को तो श्रीवृन्दावन की सीमा में विराजमान किसी घनीभूत आश्चर्यरूपा किशोरी-मणि के कैङ्कर्य रसामृत के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°78

प्रेम्णः सन्मधुरोज्ज्वलस्य हृदयं श्रृंगारलीलाकला वैचित्री परमावधिर्भगवतः पूज्यैव कापीशता ।

ईशानी च शची महासुख तनुः शक्तिः स्वतन्त्रा परा श्रीवृन्दावन नाथ पट्टमहिषी राधैव सेव्या मम ॥78।।

जो मधुर और उज्ज्वल प्रेम की प्राण-स्वरूपा, श्रृङ्गार-लीला की विचित्र कलाओं की परम अवधि, भगवान् श्रीकृष्ण की आराधनीया कोई अनिर्वचनीया शासन-की हैं। जो ईश्वर-रूप श्रीकृष्ण की शची हैं तथा परम सुखमय वपु-धारिणी परा और स्वतंत्रा शक्ति हैं । वे श्रीवृन्दावननाथ-श्रीलालजी की पटरानी श्रीराधा ही मेरी सेव्या-आराधनीया हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°79

राधा दास्यमपास्य यः प्रयतते गोविन्द सङ्गाशया सोयं पूर्ण सुधारुचेः परिचयं राकां विना कांक्षति ।

किञ्च श्याम रति-प्रवाह’ लहरी बीजं न ये तां विदुस्ते प्राप्यापि महामृताम्बुधिमहो बिन्दु परं प्राप्नुयुः ॥

जो लोग श्रीराधा के चरणों का सेवन छोड़कर गोविन्द के सङ्गलाभ की चेष्टा करते है, वे तो मानों पूणिमा-तिथि के बिना ही पूर्ण सुधाकर का परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। वे अज्ञ यह नहीं जानते कि

श्याम-सुन्दर के रति-प्रवाह की लहरियों का बीज यही श्रीराधा हैं। आश्चर्य है कि ऐसा न जानने से ही वे अमृत का महान् समुद्र पाकर भी उसमें से केवल एक बूंद मात्र ही ग्रहण कर पाते हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°80

कैशोराद्भुत माधुरी-भर धुरीणाङ्गच्छविं राधिका प्रेमोल्लास भराधिका निरवधि ध्यायन्ति ये तद्धियः ।

त्यक्ताः कर्मभिरात्मनैव भगवद्धर्मेप्यहो निर्ममाः सर्वाश्चर्य गतिं गता रसमयीं तेभ्यो महद्भ्यो नमः॥80।।

किशोरावस्था के अद्भुत माधुरी-प्रवाह से जिनके अङ्ग अङ्ग की छबि सर्वाग्रगण्य हो रही है, तथा जो प्रेमोल्लास-प्रवाह के द्वारा सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त हैं, ऐसी श्रीराधिका का जो महापुरुष तद्गत-चित्त से निरन्तर

ध्यान करते हैं, उन्होंने कमों को नहीं छोड़ा, वरन् कर्मों ने ही उन्हें छोड़ दिया है और वे परम श्रेष्ठ भगवद्धर्म की ममता से भी मुक्त होकर सर्वाश्चर्य पूर्ण परम रस-मयी गति को प्राप्त हो चुके हैं। उन महान पुरुषों

के लिये बारम्बार नमस्कार है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°81

लिखन्ति भुजमूलतो न खलु

शंख-चक्रादिकं विचित्र हरिमन्दिरं न रचयन्ति भालस्थले।

लसत्तुलसि मालिकां दधति कण्ठपीठे न वा

गुरोर्भजन विक्रमात्क इह ते महाबुद्धयः ॥81।।

श्रीगुरु के भजन रूप पराक्रम-युक्त वे कोई महाबुद्धिमान् पुरुष-गण इस पृथ्वी पर विरले ही हैं, जो न तो अपने बाहु-मूल में कभी शङ्ख-चक्रादि (वैष्णव-चिह्न) धारण करते और न कभी ललाट-पटल पर विचित्र हरिमन्दिर (तिलक) ही रचते हैं और न उनके कण्ठ-भाग में सुहावनी तुलसी की मालिका ही धारण होती है । (उन्हें तो इन सब बाह्य लक्षणों की सुधि ही नहीं, वे किसी अन्तरङ्ग रस में डूब रहे हैं।)

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°82

कर्माणि श्रुति बोधितानि नितरां कुर्वन्तु कुर्वन्तु मा गूढाश्चर्य्य रसाः स्त्रगादि विषयान्गृह्लन्तु मुञ्चन्तु वा।

कर्वा भाव-रहस्य पारग-मतिः श्रीराधिका प्रेयसः किञ्चिज्ज्ञैरनुयुज्यतां वहिरहो भ्राम्यद्भिरन्यैरपि ॥82।।

गूढाश्चर्य रूप उज्ज्वल रसाश्रित रसिक-गण वेदोक्त कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करें या न करें, माला,चन्दन आदि विषय-समूह अर्थात् भोगविलास के उपकरण गृहण करें या न करें। इससे उनको न कोई हानि है और

न लाभ ही । अहो ! श्रीराधाकान्त के भाव में पारङ्गत-मति ऐसे रसिक क्या.कभी अल्पज्ञ, वहिर्मुख अथवा अन्य सकाम पुरुषों में से किसी के साथ मिल सकते हैं ? क्या कभी इस प्रकार के लोगों के साथ उनका मेल खा सकता है ? नहीं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°83

अलं विषय वार्तया नरक कोटि वीभत्सया,

वृथा श्रुति कथाश्रमो वत विभेमि कैवल्यतः।

परेश-भजनोन्मदा यदि शुकादयः किं ततः,

परं तु मम राधिका पदरसे मनो मज्जतु ॥83।।

विषय-चर्चा बहुत हो चुकी, इसे बन्द करो; क्योंकि यह कोटि-कोटि नरकों के समान घृणित है । श्रुति-कथा भी व्यर्थ श्रम ही है । अहो ! हमें तो कैवल्य से भय प्रतीत होता है (क्योंकि वह नाम-रूप रहित है) । परम पुरुष भगवान् के भजन में उन्मत्त यदि कोई शुक आदि हैं, तो रहने दो; हमें उनसे क्या प्रयोजन ? हमारा मन तो केवल श्रीराधा के पद रस में ही डूबा रहे, (यह अभिलाषा है।)

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°84

तत्सौन्दय्र्य स च नववयो यौवनश्री प्रवेशः

सा दृग्भङ्गी स च रसघनाश्चर्य वक्षोज कुम्भः।

सोयं विम्बाधर मधुरिमा तत्स्मितं सा च वाणी सेयं लोला गतिरपि न विस्मर्यते राधिकायाः ॥84।।

अहा ! स्वामिनी श्रीराधिका का वह सौन्दर्य ! वह नवीन वय में यौवन-श्री का प्रवेश ! वह नेत्रों को भङ्गिमा ! घनीभूत रस और आश्चर्य से परिपूर्ण वे युगल स्तन-कलश ! इसी प्रकार लाल विम्बाफलों के समान अधरों की बह मधुरिमा, साथ ही मन्द-मन्द मुसकान और रसमयी वाणी ! एवं वह सोलापूर्ण पाद-न्यास (मन्द-मन्द चलना) तो भूलता ही नहीं !!

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°85

यल्लक्ष्मी शुक नारदादि परमाश्चय्र्यानुरागोत्सवैः प्राप्तं त्वत्कृपयैव हि व्रजभृतां तत्तत्किशोरी-गणैः ।

तत्कैङ्कर्य्यमनुक्षणाद्भुत रसं प्राप्तुं धृताशे मयि श्रीराधे नवकुञ्ज नागरि कृपा-दृष्टिं कदा दास्यसि ॥85।।

हे नव- कुञ्ज नागरि ! मैं आपके उस कैङ्गय्र्य-प्राप्ति की आशा को धारण किये हुए हैं। जिससे क्षण-क्षण में अद्भुत रस की प्राप्ति होती है और जिसे उन अनुराग-उत्सव मयी ब्रज-किशोरी गणों ने प्राप्त किया था, जिन गोपी-जनों के अनुराग-उत्सव की लालसा लक्ष्मी, शुक, नारद आदि को भी रहती है। हे श्रीराधे ! मेरे लिये आप अपनी उस कृपा-दृष्टि का दान क्या कभी करोगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°86

लब्ध्वादास्यं तदति कृपया मोहन स्वादितेन,

सौन्दर्यश्री पदकमलयोर्लालनैः स्वापितायाः ।

श्रीराधाया मधुर-मधुरोच्छिष्ट पीयूष सारं,

भोजं-भोजं नव-नव रसानन्द मग्नः कदा स्याम् ॥86।।

श्रीस्वामिनीजी के युग-पद-कमल सौन्दर्यश्री की राशि हैं। उन चरणों को अच्छी तरह से पलोट कर प्यारे ने आपको शयन करा दिया है और श्री लालजी ने आपके मधुर-मधुर अमृत-सार रूप उच्छिष्ट प्रसाद को आपकी अत्यन्त कृपा से प्राप्त करके स्वाद लिया है, मैं उसी प्रसाद को प्राप्त करूं। इस प्रकार मैं आपका दास्य प्राप्त करके कब नव रसानन्द में मग्न होऊँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°87

यदि स्नेहाद्राधे दिशसि रति-लाम्पटय पदवीं

गतं ते स्वप्रेष्ठं तदपि मम निष्ठं शृणु यथा।

कटाक्षैरालोके स्मित सहचरैर्जात पुलकं

समाश्लिष्याम्युरचैरथ च रसये त्वत्पद रसम् ॥87।।

हे राधे ! रति-लाम्पटय-पदवी-प्राप्त अपने प्रियतम के प्रति जब आप स्नेहवश मुझे सौंप देंगी तब भी मेरी निष्ठा क्या होगी, उसे सुनिये-“मैं मन्द-मन्द मुसकान के साथ तिरछे नेत्रों से प्यारे की ओर देखूँगी बस

इतने मात्र से ही उनका शरीर रोमाञ्चित हो जायगा । पश्चात् मैं उन्हें.पुनः एक गाढ़-आलिङ्गन भी करूंगी, जिससे और भी वे प्रेम-विह्वल हो जावेंगे किन्तु इतना सब होते हुए भी मुझे आपके रस-मय चरण-कमलों का ही रसानुभव होगा”।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°88

कृष्णः पक्षो नवकुवलयं कृष्ण सारस्तमालो,

नीलाम्भोदस्तव रुचिपदं नाम रूपैश्च कृष्णा ।

कृष्णे कस्मात्तव विमुखता मोहन-श्याम मूर्ता,

वित्युक्त्वा त्वां प्रहसित मुखीं किन्नु पश्यामि राधे ॥88।।

“हे श्रीराधे ! कृष्ण-पक्ष अथवा श्रीकृष्ण के पक्ष वाले, नवीन नीलकमल, कृष्ण-सार मृग, श्याम-तमाल, नोल सजल मेघ एवं कृष्णा नाम रूप वाली कृष्णा (यमुना) ये सब के सब आपको प्रिय हैं, फिर क्या कारण है कि आपने श्याम-मूर्ति मनमोहन श्रीकृष्ण से ही विमुखता धारण कर

रखी है”? स्वामिनि ! इस प्रकार कहने के पश्चात् क्या मैं आपको प्रहसितमुखी (विगत-माना) न देख सकूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°89

लीलापाङ्गतरङ्गितैरिव दिशो नीलोत्पल श्यामला, दोलायत्कनकाद्रि मण्डलमिव व्योमस्तनैस्तन्वतीम् ।

उत्फुल्लस्थल पङ्कजामिव भुवं रासे पदन्यासतः श्रीराधामनुधावतीं व्रज-किशोरीणां घटां भावये ॥89।।

जिनके लीला-पूर्ण कटाक्षों की तरंगें मानों समस्त दिशाओं को नील-कमल की श्यामलता प्रदान करती हैं एवं जिनके स्तन-मण्डल आकाश में दोलायमान् कनक-गिरि का विस्तार करते हैं। जिनके द्वारा रास-मण्डल में किया गया.पाद-विन्यास पृथ्वी को प्रफुल्लित स्थल-कमल (गुलाब) की तरह सुशोभित करता है। श्रीराधा की अनुगामिनि उन व्रज-किशोरी-गणों की मैं भावना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°90

दृशौ त्वयि रसाम्बुधौ मधुर मीनवद्भ्राम्यतः,

स्तनौ त्वयि सुधा-सरस्यहह चक्रवाकाविव ।

मुखं सुरतरङ्गिणि त्वयि विकासि हेमाम्बुजं,

मिलन्तु मयि राधिके तव कृपा तरङ्गच्छटाम् ॥90।।

अहो राधिके ! आपका सम्पूर्ण श्रीवपु ही मानो एक विशाल रससमुद्र है। उस रस-सागर में आपके युगल-नयन ही मानों मीन की तरह भ्रमण करते फिरते हैं , एवं सुधा-सरिता में विहार करने वाले युगल

चक्रवाक आपके ये स्तन-द्वय ही हैं । हे सुरतरङ्गिणि ! आपका यह गौरमुख ही मानों विकसित स्वर्ण-कमल है । स्वामिनि ! मुझे आपके कृपातरङ्ग की छटा प्राप्त हो।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°91

कान्ताढ्याश्चय्र्य कान्ता कुलमणि कमला कोटि काम्यैक पादाम्भोजभ्राजन्नखेन्दुच्छवि लव विभवा काप्यगम्याकिशोरी।

उन्मर्याद प्रवृद्ध प्रणय-रस महाम्भोधि गम्भीर-लीला, माधुय्र्योज्जृम्भिताङ्गी मयि किमपि कृपा-रङ्गमङ्गी करोतु ॥91।।

जो अपने कान्त-धन से धनी हैं, जो आश्चर्यमयी कान्ताओं की कुलमणि हैं। जिनके पद-कमल-शोभी नख-चन्द्र का कान्ति-कण कोटि-कोटि कमलाओं का एक मात्र इच्छित वैभव है, एवं जिनका श्रीअङ्ग अमर्यादित प्रवृद्धमान् प्रणय-रस रूप महासिन्धु के गम्भीर लीला-माधुर्य से उल्लसित है। वे कोई सबसे अगम्य किशोरी अपने कृपा-रस से रञ्जित करके क्या मुझे

अङ्गीकार करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°92

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी-पुलिन मालती-मन्दिरे,

प्रविष्ट वनमालिनाललित-केलि लोली-कृते।

प्रतिक्षण चमत्कृताद्भुतरसैक-लीलानिधे,

विधेहि मयि राधिके तव कृपा-तरङ्गच्छटाम् ॥92।।

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी यमुना के पुलिनवर्ती मालती-मन्दिर में प्रवेश करके वनमाली श्रीलालजी ने अपनी ललित-केलि से जिनको चञ्चल कर दिया है, तथा प्रतिक्षण जिनसे अद्भुत लीला-रस का समुद्र चमत्कृत होता रहता है, ऐसी हे राधिके ! आप अपनी कृपा-तरङ्ग-छटा का मुझ पर

विस्तार कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°93

यस्यास्ते बत किङ्करीषु बहुशश्चाटूनि वृन्दाटवी, कन्दर्पः कुरुते तवैव किमपि प्रेप्सुः प्रसादोत्सवम् ।

सान्द्रानन्द घनानुराग-लहरी निस्यंदि पादाम्बुज, द्वन्द्वे श्रीवृषभानुनन्दिनि सदा वन्दे तव श्रीपदम् ॥93।।

वृन्दाटवी-कन्दर्प श्रीलालजी आपके प्रसादोत्सव की वाञ्छा से आपकी किङ्करियों की अत्यन्त हर्ष-पूर्वक अधिकाधिक चाटुकारी करते हैं तथा आपके जिन युगल चरण-कमलों से सदा ही घनीभूत आनन्द एवं अनुराग की लहरी प्रवाहित होती रहती है; हे वृषभानुनन्दिनि ! मैं आपके उन्हीं श्रीचरणों की सदा वन्दना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°94

यज्जापः सकृदेव गोकुलपतेराकर्षकस्तत्क्षणा

द्यत्र प्रेमवतां समस्त पुरुषार्थेषु स्फुरेत्तुच्छता।

यन्नामाङ्कित मन्त्र जापनपरः प्रीत्या स्वयं माधवः श्रीकृष्णोऽपि तदद्भुतं स्फुरतु मे राधेति वर्णद्वयम् ॥94।।

जिसका एक-बार मात्र उच्चारण गोकुल-पति श्रीकृष्ण को तत्क्षण आकर्षित करने वाला है, जिससे प्रेमियों के लिये अर्थ, धर्मादि समस्त पुरुषार्थों में तुच्छता का स्फुरण होने लगता है, एवं जिस नाम से अङ्कित

मन्त्रराज ( द्वादशाक्षर-मन्त्र ) के जपने में माधव श्रीकृष्ण भी सदा-सर्वदा प्रीति-पूर्वक संलग्न रहते हैं । वही अत्यद्भुत दो वर्ण ‘राधा’ मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°95

कालिन्दी-तट कुञ्ज-मंदिरगतो योगीन्द्र वद्यत्पदज्योतिर्ध्यान परः सदा जपति यां प्रेमाश्रुपूर्णो हरिः।

केनाप्यद्भुतमुल्लसद्गतिरसानन्देन सम्मोहिता,

सा राधेति सदा हृदि स्फुरतु मे विद्यापरा द्वयक्षरा ॥95।।

योगीन्द्रों के समान जिनकी चरण-ज्योति के ध्यान-परायण होकर प्रेमाश्रु-पूर्ण नेत्र तथा गद्-गद् वाणी से कालिन्दी-तट के किसी निकुञ्जमन्दिर में विराजमान् श्रीहरि भी स्वयं जिस नाम का जप करते हैं । वही

अनिर्वचनीय अद्भुत उल्लासमय एवं रति-रसानन्द से सम्मोहित ‘राधा’ इन दो अक्षरों को पराविद्या मेरे हृदय में सदा स्फुरित रहे।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°96

देवानामथ भक्त मुक्त सुहृदामत्यन्त दूरं च यत्,

प्रेमानन्द रसं महा सुखकरं चोच्चारितं प्रेमतः ।

प्रेम्णाकर्णयते जपत्यथ मुदा गायत्यथालिष्वयं, जल्पत्यश्रुमुखो हरिस्तदमृतं राधेति मे जीवनम् ॥96।।

जो देवताओं, भक्तों, मुक्तों और स्वयं श्रीलालजी के सुहृद्-वर्गों से भी अत्यन्त दूर है, जो प्रेमानन्द-रस स्वरूप है, जो प्रेम-पूर्वक उच्चरित होने पर महा सुखकर है। श्रीलालजो स्वयं जिसको श्रवण करते एवं जप करते हैं अथवा सखी-गणों के मध्य में प्रीति-पूर्वक गान भी करते हैं और कभी प्रेमाश्रु-पूर्ण मुख से जिसका बारम्बार उच्चारण करते हैं, वही ‘श्रीराधा’ नामामृत मेरा जीवन है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°97

या वाराधयति प्रियं व्रजमणिं प्रौढानुरागोत्सवैः,

संसिद्धयन्ति यदाश्रयेण हि परं गोविन्द सख्युत्सुकाः ।

यत्सिद्धिः परमापदैक रसवत्याराधनाते नु सा

श्रीराधा श्रुतिमौलि-शेखर-लता नाम्नी मम प्रीयताम् ॥97।।

जिस प्रकार ब्रजमणि प्रियतम उनका आराधन करते हैं, उसी प्रकार वे भी प्रकृष्ट अनुराग के उल्लास से परिपूर्ण होकर अपने प्रियतम का आराधन करती हैं। गोविंद के साथ सख्य-भाव-प्राप्ति के लिये उत्सुक-जन

भी जिनके आश्रय से परम-सिद्धि को प्राप्त होते हैं, जिनके आराधन से परम पद रूपा कोई रसवती सिद्धि प्राप्त होती है, वही श्रीराधा नाम्नी श्रुति-मौलि-शेखर-लता मुझ पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°98

गात्रे कोटि तडिच्छवि प्रविततानन्दच्छवि श्रीमुखे,

विम्बोष्ठे नव विद्रुमच्छवि करे सत्पल्लवैकच्छवि।

हेमाम्भोरुह कुड्मलच्छवि कुच-द्वन्द्वेऽरविन्देक्षणं,

वन्दे तन्नव कुञ्ज-केलि-मधुरं राधाभिधानं महः ॥98।।

जिसके गात्र में कोटि-कोटि दामिनियों की छवि है, जिसके मुख से मानो आनन्द-रूप छवि का ही विस्तार हो रहा है। विम्बोष्ठ में नव-विद्रुम की छवि तथा करों में सुन्दर नवीन पल्लवों की छवि जगमगा रही है।

जिसके युगल कुचों में स्वर्ण-कमल की कलियों की छवि है, उसी अरविन्दनेत्रा, नव-कुश-केलि-मधुरा राधा-नामक ज्योति की मैं वन्दना करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°99

मुक्ता-पंक्ति प्रतिमदशना चारुविम्बाधरोष्ठी,

मध्येक्षामा नव-नव रसावर्त गम्भीर नाभिः।

पीन-श्रोणिस्तरुणि मसमुन्मेष लावण्यसिन्धुर्वैदग्धीनां किमपि हृदयं नागरी पातु राधा ।।99।।

जिनकी मनोहर दन्तावली मुक्तापंक्ति के तुल्य है, चारु अधरोष्ठ बिम्बा-फल के समान हैं; कटि अत्यन्त क्षीण है और गम्भीर नाभि में नवनव रसों की भंवरें पड़ रही हैं। जिनका नितम्ब-देश विशेष पीन (पृथुल)

है, तथा नव-यौवन के विकास के कारण जो लावण्य की सिन्धु बन रही हैं। किन्हीं परम विदग्धाओं (चतुराओं) में भी कोई अनिर्वचनीय मणि रूपा नागरी श्रीराधा मेरी रक्षा करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°100

स्निग्धा कुञ्चित नील केशि विदलद्विम्बोष्ठि चन्द्रानने, खेलत्खञ्जन गञ्जनाक्षि रुचिमन्नासाग्र मुक्ताफले ।

पीन-श्रोणि तनूदरि स्तन तटी वृत्तच्छटात्यद्भुते, राधे श्रीभुजवल्लि चार वलये स्वं रूपमाविष्कुरु ॥100।।

हे सचिक्कन नील-कुञ्चित केशिनि ! हे पक्व-विम्बाधरे ! हे चन्द्रानने ! हे चञ्चल बजन-मान-मर्दन नयने ! हे रुचिर नासान-भागशोभित-मुक्ताफले ! हे पृथु-नितम्बे ! हे कृशोदरि ! स्तन तटी स्थित अद्भुत वर्तुल छटा युक्त हे श्रीराधे !

 हे भुजल्लि चारु बलये !! आप अपने (इस) रूप का (मेरे लिये) प्रकाश कीजिये-प्रत्यक्ष कीजिये ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°101

लज्जान्तः पटमारचय्य रचितस्मायं प्रसूनाञ्जलौ, राधाङ्गे नवरङ्ग धाम्नि ललित प्रस्तावने यौवने ।

श्रोणी-हेम-वरासने स्मरनृपेणाध्यासिते मोहने, लीलापाङ्ग विचित्र ताण्डव-कला पाण्डित्यमुन्मीलति ।।101।।

लज्जा-यवनिका डालकर मुसकान पुष्पाञ्जलि की रचना द्वारा ललित यौवन की प्रस्तावना की गई है। जहाँ कन्दर्प-नृपति द्वारा अधिष्ठित श्रोणी ही स्वर्ण-सिंहासन है। उस नव-रङ्ग-भूमि रूप श्रीराधाङ्ग में लीलापूर्ण कटाक्षों का विचित्र ताण्डव-कला-पाण्डित्य प्रकाशित हो रहा है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°102

सा लावण्य चमत्कृतिर्नव वयो रूपं च तन्मोहनं, तत्तत्केलि कला-विलास-लहरी-चातुर्यमाश्चर्य भूः ।

नो किञ्चित् कृतमेव यत्र न नुतिर्नागो न वा सम्भ्रमो,.राधा-माधवयोः स कोपि सहजः प्रेमोत्सवः पातु वः ।।102।।

अहा ! जिसमें लावण्य का वह चमत्कार ! वह नवीन वय और महा मोहन रूप ! वह केलि-कला-विलास की तरङ्गों की चातुरी विद्यमान है। जिस सर्वाश्चर्य की भूमि में। जहाँ किञ्चित् मात्र सोद्देश्य कर्म भी नहीं

है। जहाँ न तो स्तुति है, न अपराध और न सम्भ्रम ही। श्रीराधा-माधव का ऐसा कोई अनिर्वचनीय और स्वाभाविक प्रेमोत्सव तुम्हारी (रसिकजनों की) रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°103

येषां प्रेक्षां वितरति नवोदार गाढानुरागान्,

मेघश्यामो मधुर-मधुरानन्द मूर्तिर्मुकुन्दः ।

वृन्दाटव्यां सुमहिम चमत्कार कारीण्यहो किं,

तानि प्रेक्षेद्भुत रस निधानानि राधा पदानि ॥103।।

जिन चरणारविन्दों की महिमा श्रीवृन्दा कानन में चमत्कृत हो रही है। जो रस के अद्भुत निधान हैं एवं नवीन और उदार अनुराग-पूर्ण मधुर-मधुरानन्द-मूर्ति घनश्याम मुकुन्द भी जिनके दर्शन की अभिलाषा का

विस्तार करते रहते हैं; वे श्रीराधा-पद-कमल क्या मेरे नयन-गोचर होंगे?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°104

वलान्नीत्वा तल्पं किमपिपरिरभ्याधर-सुधां,

निपीय प्रोल्लिख्य प्रखर-नखरेण स्तनभरम् ।

ततो नीवीं न्यस्ते रसिक-मणिना त्वत्कर-धृते,

कदा कुञ्जच्छिद्रे भवतु मम राधेनुनयनम् ॥104।।

राधे ! रसिक-शिरोमणि प्रियतम ने आपको आग्रह पूर्वक केलिशय्या पर ले जाकर किसी अनिर्वचनीय प्रकार से परिरम्भण करके अधरसुधा का पान किया हो और उन्होंने अपने प्रखर नखों से आपके स्तनमण्डल को रेखाड़ित किया हो, तत्पश्चात् आपके दोनों कर-कमलों को

पकड़ कर नीबी-बन्धन का मोचन कर दिया हो; मैं निकुञ्ज भवन में रन्ध्र से लगी यह सब कब देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°105

करं ते पत्रालि किमपि कुचयोः

कर्तुमुचितं, पदं ते कुञ्जेषु प्रियमभिसरन्त्या अभिसृतौ।

दृषौ कुञ्जच्छिद्रैस्तव निभृत-केलिं

कलयितुं, यदा वीक्षे राधे तदपि भविता किं शुभ दिनम् ॥105।।

हे श्रीराधे ! मेरा ऐसा शुभ-दिन कब होगा, जब मैं आपके कुच-तटों पर अनिर्वचनीय पत्र-रचना करने के योग्य अपने हाथों को, कुञ्जो में प्रियतम के प्रति अभिसरण करती हुई आपका अनुगमन करने योग्य अपने

पदों को, एवं कुञ्ज-छिद्रों से आपकी रहस्य-केलि दर्शन-योग्य अपने दोनों

नयनों को देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°106

रहो गोष्ठी श्रोतुं तव निज विटेन्द्रेण ललितां,

करे धृत्वा त्वां वा नव-रमण-तल्पे घटयितुम् ।

रतामर्दस्त्रस्तं कचभरमथो संयमयितुं,

विदध्याः श्रीराधे मम किमधिकारोत्सव-रसम् ॥106।।

हे श्रीराधे ! आपके अति लम्पट प्रियतम के साथ आपका अपना मधुर रहस्यालाप श्रवण करने का, अथवा हाथ पकड़कर आपको नव-रमण शय्या तक पहुँचाने का, एवं केलि-सम्मद-विगलित आपके केश-पाश को संयत करने का अधिकारोत्सव-रस, क्या आप मुझे प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°107

वृन्दाटव्यां नव-नव रसानन्द पुञ्जे निकुञ्जे,

गुञ्जभृङ्गी-कुल मुखरिते मञ्जु- मञ्जु प्रहासै ।

अन्योन्य क्षेपण निचयन प्राप्त सङ्गोपनाद्यैः

क्रीडज्जीयासिक मिथुनं क्लृप्त केली-कदम्बम् ॥107।।

श्रीवृन्दावन-स्थित नव-नव रसानन्द-पुञ्ज-निकुञ्ज जो गुञ्जन-शील

भृङ्गी-कुल द्वारा मुखरित है, वहाँ मधुर-मधुर परिहास-पूर्वक परस्पर (गेंद) फेंकने, संग्रह करने और प्राप्त करके छुपा लेने, इत्यादि क्रीड़ाओं में रत केलि-समूह-सुसज्जित रसिक-मिथुन जय का प्राप्त हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°108

रूपं शारद-चन्द्र-कोटि-वदने धम्मिल्लमल्लीस्रजामामोदैर्विकली कृतालि-पटले राधे कदा तेऽद्भुतम् ।

ग्रैवेयोज्वल कम्बु-कण्ठि मृदुदोर्वल्ली चलत्कङ्कणे, वीक्षे पट्ट-दुकूल-बासिनि रणन्मञ्जीर पादाम्बुजे ॥108।।

हे शरत्कालीन कोटि चन्द्रवदने ! हे केश-पाश-गुम्फित-मल्लीमालआमोद-द्वारा भ्रमरावलि-विकल-कारिणे ! हे उज्ज्वल कण्ठाभरण – युक्त कम्बु-ग्रीवे ! हे मृदुल – वाहुवल्लरि – संचलत्कङ्कणे ! हे कौशेय दुकलधारिणि ! हे शब्दित नूपुर पादाम्बुजे ! हे श्रीराधे ! क्या मैं कभी आपके इस अद्भुत रूप को देखूँगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°109

इतोभयमितस्त्रपा कुलमितो यशः

श्रीरितोहिनस्त्यखिल शृङ्खलामपि सखीनिवासस्त्वया।

सगद्गद्मुदीरितं सुबहु मोहना काङ्क्षया,

कथं कथमयीश्वरि प्रहसितैः कदा म्त्रेडयसे ।।109।।

“अयि स्वामिनि ! सखी-निवास श्रीलालजी ने आपकी सुवहुल मोहन आकाङ्क्षा से एक ओर भय, दूसरी ओर लज्जा, इधर कुल तो उधर यश और श्री इत्यादि अखिल शृंखलाओं को तुम्हारे लिये ही नष्ट कर

दिया है”। मेरी इस सगद्गद् वचनावली को सुनकर आप ‘क्या-क्या’ कहकर हंसती हुई पूंछेगी, ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°110

श्यामेचाटुरुतानि कुर्वति सहालापान्प्रणेत्री मया, गृह्लाने च दुकूल पल्लवमहो हुङ्कृत्य मां द्रक्ष्यसि ।

विभ्राणे भुजवल्लिमुल्लसितया रोमस्रजालङ्कृतां, दृष्ट्वा त्वां रसलीन मूर्तिमथ किं पश्यामि हास्यं ततः ॥110।।

हे प्रणयिनि ! श्याम-सुन्दर तो आपकी चाटुकारी कर रहे हों, किन्तु आप मुझसे वार्तालाप कर रही हों और जब श्याम-सुन्दर आपके दुकूलपल्लव को पकड़ लें तब भी आप हुङ्कार-पूर्वक मेरी ओर ही (किञ्चित् रोषयुक्त) दृष्टि से देखें। जब प्रियतम आपकी भुजलता को पकड़ लें, तब आप उल्लसित होकर रोमावली से अलङ्कृत हो उठे । क्या आपकी ऐसी रसलीन मूर्ति को देखकर पश्चात् आपके हास्य को देखूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°111

अहो रसिक शेखरः स्फुरति कोपि वृन्दावने,

निकुञ्ज-नव-नागरी कुच-किशोर-केलि-प्रियः ।

करोतु स कृपां सखी प्रकट पूर्ण नत्युत्सवो,

निज प्रियतमा-पदे रसमये ददातु स्थितिम् ॥111।।

अहो ! नव-निकुञ्ज में नव-नागरी के कुचों के साथ किशोर-केलि जिन्हें प्रिय है एवं जो सखियों के प्रति निःसंकोच एवं पूर्ण विनय में ही हर्ष प्राप्त करते हैं, वे कोई रसिक-शेखर श्रीवृन्दावन में स्फुरित हो रहे हैं। ये मुझ पर कृपा करें और अपनी प्रियतमा के रसमय पद-कमलों में मुझे अविचल स्थान दें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°112

विचित्र वर भूषणोज्ज्वल-दुकूल-सत्कञ्चुकैः,

सखीभिरतिभूषिता तिलक-गन्ध-माल्यैरपि ।

स्वयं च सकला-कलाषु कुशली कृता नः कदा, सुरास-मधुरोत्सवे किमपि वेशयेत्स्वामिनी ॥112।।

जो सखि-गणों के द्वारा विचित्र एवं श्रेष्ठ आभूषण, उज्ज्वल दुकूल, उत्कृष्ट कन्चुकि, तिलक और गन्ध माल्यादि से विभूषित की गई हैं, एवं जिन्होंने समस्त विद्याओं एवं कलाओं में स्वयं ही हमें सुशिक्षित किया है वे स्वामिनी श्रीराधा सुरास-मधुरोत्सव में हमें कब प्रवेश देंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°113

कदा सुमणि किङ्किणी वलय

नूपुर प्रोल्लसन्, महामधुर मण्डलाद्भुत-विलास-रासोत्सवे।

अपि प्रणयिनो वृहद्भुज गृहीत कण्ठयो वयं,

परं निज रसेश्वरी-चरण-लक्ष्म बीक्षामहे ॥113।।

उत्कृष्ट मणिमय किङ्किणि, वलय, नूपुर-शोभित महा-मधुर मण्डल

के अद्भुत विलास-रासोत्सव में प्रियतम श्रीलालजी के द्वारा गृहीत-कण्ठ

होने पर भी हम कब केवल निज रसेश्वरी श्रीराधा के चरण-चिह्नों का ही

दर्शन करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°114

यद्गोविन्द-कथा-सुधा-रस-हृवे चेतो मया जृम्भितम्, यद्वा तद्गुण कीर्तनार्चन विभूषाद्यैर्दिनं प्रापितम् ।

यद्यत्प्रीतिरकारि तत्प्रिय-जनेष्वात्यन्तिकी तेन मे, गोपेन्द्रात्मज-जीवन-प्रणयिनी श्रीराधिका तुष्यतु ॥114।।

जो कुछ भी मैंने गोविन्द के कथा-सुधा-रस-सरोवर में अपने चित्त

को डुबाया है अथवा उनके गुण-कीर्तन, चरणार्चन, विभूषणादि-विभूषित करने में दिन लगाये हैं किंवा उनके प्रिय-जनों के प्रति जिस-जिस आत्यतिकी प्रीति का विधान किया है [या मेरे द्वारा हुआ है.] उस सबके द्वारा (फल स्वरूप) गोपेन्द्र-नन्दन श्रीकृष्ण की जीवन-प्रणयिनी  मुझ पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°115

रहो दास्य तस्या किमपि वृषभानोर्व्रजवरीयसः पुत्र्याः पूर्ण प्रणय-रस मूर्तेर्यदि लभे।

तदा नः किं धर्मैः किमु सुरगणैः किंच विधिना, किमीशेन श्याम प्रियमिलन-यत्नैरपि च किम् ॥115।।

यदि ब्रज-वरीयान् वृषभानुराय की पूर्ण-प्रेम-रस-मूर्ति पुत्री (दुलारी)

का हमें एकांत दास्य-लाभ हो जाय, तो फिर हमें धर्म से, देवता-गणों से,

ब्रह्मा और शङ्कर से, और अरे ! श्याम-सुन्दर के प्रिय-मिलन-यत्न से भी

क्या प्रयोजन है?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°116

नन्द्रास्ये हरिणाक्षि देवि सुनसे शोणाधरे सुस्मिते, चिल्लक्ष्मी भुजवल्लि कम्बु रुचिर ग्रीवे गिरीन्द्र-स्तनि ।

भञ्जन्मध्य वृहन्नितम्ब कदली खण्डोरु पादाम्बुजे, प्रोन्मीलन्नख-चन्द्र-मण्डलि कदा राधे मयाराध्यसे ।।116।।

हे चन्द्रवदनि ! हे मृग लोचनि ! हे देवि ! हे सुनासिके ! हे अरुण अधरे ! हे सुस्मिते ! हे सजीव शोभाशाली भुजवल्लि-युक्ते ! हे रुचिर शङ्खग्रीवे ! हे कनक-गिरि स्तन-मण्डले ! हे क्षीण-मध्ये ! हे पृथु नितम्बे ! हे कदली-खण्डोपम जानु-शालिनी ! हे चरण-कमलोद्भासित नख-चन्द्रमण्डल-भूषिते । हे श्रीराधे ! मैं आपकी आराधना कब करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°117

राधा-पाद-सरोजभक्तिमचलामुद्वीक्ष्य निष्कैतवां, प्रीतः स्वं भजतोपि निर्भर महा प्रेम्णाधिकं सर्वशः ।

आलिङ्गत्यथ चुम्बति स्ववदनात्ताम्बूलमास्येर्पयेत्, कण्ठे स्वां वनमालिकामपि मम न्यस्येत्कदा मोहनः ।।117।।

श्रीराधा-चरण-कमलों में मेरी नियपट एवं अचला प्रीति ( भक्ति).देखकर श्रीप्रियाजी के अद्वितीय भक्त (प्रेमी) श्रीमोहनलाल महाप्रेमाधिक्यपूरित निर्भर प्रीति-पूर्वक मेरा आलिङ्गन करके चुम्बन-दान करेंगे एवं अपना चर्षित-ताम्बूल मेरे मुख में देकर अपनी बनगाला भी मेरे कण्ठ में पहना देगे। ऐसा कब होगा?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°118

लावण्यं परमाद्भुतं रति-कला-चातुर्य्यमत्यद्भुतं, कान्तिः कापि महाद्भुता वरतनोर्लीलागतिश्चाद्भुता।

दृग्भङ्गी पुनरद्भुताद्भुततमा यस्याः स्मितं चाद्भुतं, सा राधाद्भुत मूर्त्तिरद्भुत रसं दास्यं कदा दास्यति ॥118।।

जिनका लावण्य परमाद्भुत है, जिनकी रति-कला-चातुरी अति अद्भुत है, जिन श्रेष्ठ-वपु की कोई अवर्णनीय कान्ति भी महा अद्भुत है, एवं जिनकी लीला-पूर्ण गति भी अति अद्भुत है । अहा ! जिनकी नेत्रभङ्गिमा अद्भुत से भी अद्भुततम है और जिनकी मन्द मुस्कान भी अद्भुत है, वे अद्भुत-मूर्त्ति श्रीराधा अपना अद्भुत रस-स्वरूप-दास्य मुझे कब प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°119

भ्रमद्भृकुटि सुन्दरं स्फुरित चारु विम्बाधरं,

गृहे मधुर हुङ्कृतं प्रणय-केलि-कोपाकुलम् ।

महारसिक मौलिना सभय कौतुकं बीक्षितं स्मरामि तव राधिके रतिकला सुखं श्रीमुखम् ॥119।।

हे श्रीराधिके ! मैं आपके रति-कला-सुख-पूर्ण श्रीमुख का स्मरण

करती हूँ । अहा ! जिसमें भृकुटियों का सुन्दर नर्तन हो रहा है, चारु विम्बाधर कुछ-कुछ फड़क रहे हैं। प्रियतम श्याम-सुन्दर के द्वारा भुज-लता के पकड़े जाने से मधुर हुङ्कार-स्वर निकल रहा है एवं जिसे महा-रसिकमौलि श्रीलालजी अत्यन्त भय एवं कौतुक-मय दृष्टि से देखते ही रहते हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°120

उन्मीलन्मुकुटच्छटा परिलसद्दिक्चक्रवालं स्फुरत्केयूराङ्गदहार-कङ्कणघटा निर्धूत रत्नच्छवि।

श्रोणी-मण्डल किङ्कणी कलरवं मञ्जीर-मञ्जुध्वनिं, श्रीमत्पादसरोरुहं भज मनो राधाभिधानं महः ॥120।।

हे मेरे मन ! तू तो श्रीराधा नामक ज्योति का ही भजन कर ! जिनके देदीप्यमान् मुकुट की छटा से दिशा-मण्डल विलसित हो रहा है। जो केयूर, अङ्गद, हार और कङ्कणों की छटा से रत्नों की शोभा को परास्त कर रही है। जिसमें नितम्ब-मण्डल की किङ्किणियों का कलरव हो रहा है

एवं चरण-कमलों के नपुरों की मधुर ध्वनि शब्दित हो रही है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°121

श्यामा-मण्डल-मौलि-मण्डन-मणिः श्यामानुरागस्फुरद्रोमोद्भेद विभाविता कृतिरहो काश्मीर गौरच्छविः ।

सातीवोन्मद कामकेलि तरला मां पातु मन्दस्मिता, मन्दार-द्रुम-कुंज-मन्दिर-गता गोविन्द-पट्टेश्वरी॥121।।

अहो ! जो समस्त नव-तरुणि-मौलि ललितादि सहचरियों की भी भूषण – मणि रूपा हैं, जिनकी आकृति श्यामानुराग – जन्य देदीप्यमान् रोमोद्गम से चिह्नित है, जिनकी गौर छवि केशर-तुल्य है एवं जो अतीव उन्मद काम केलि से तरल (चञ्चल ) हो रही हैं। वे कोई मन्दस्मिता,

मन्दार-द्रुम-कुञ्ज-मन्दिर-स्थिता, गोविन्द-पट्टेश्वरी मेरी रक्षा करें।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°122

उपास्य चरणाम्बुजे व्रज-भ्रता किशोरीगणैर्महद्भिरपि पूरुषैरपरिभाव्य

भावोत्सवे।

अगाध रस धामनि स्वपद-पद्य सेवा विधौ,

विधेहि मधुरोज्ज्वलामिव-कृतिं ममाधीश्वरि ॥122।।

हे व्रज – श्रेष्ठ किशोरी – गणाराध्य चरणाम्बुजे ! हे नारदादि महत्पुरुषों से भी अचिन्त्य भावोत्सवे ! हे स्वामिनि ! आप अगाध रस-धाम अपने चरण-कमलों की सेवा-विधि में मेरे लिये मधुर एवं उज्ज्वल कर्त्तव्य का ही विधान कीजिये।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°123

आनम्राननचन्द्रमीरित दृगापाङ्गच्छटा मन्थरं,

किञ्चिद्दर्शिशिरोवगुण्ठनपटं लीला-विलासावधिम् ।

उन्नीयालक-मंजरी कररुहैरालक्ष्य सन्नागरस्याङ्गेङ्गं तव राधिके सचकितालोकं कदा लोकये ॥123।।

हे श्रीराधिके ! क्या मैं कभी आपके लीला-बिलास-अवधि सचकित

अवलोकन का विलोकन करूंगी? कब? जब नागर-शिरोमणि श्रीलालजी के अङ्गों से आपके अङ्ग परस्पर आलिङ्गन-बद्ध होंगे, मैं अपने नखों से  आपकी अलक-मारी को ऊपर उठाकर देखूँगी कि आप अपने आनम्र मुखचन्द्र से कटाक्षों की छटा का प्रसरण कर रही हैं-वक्र अवलोकन कर रहीं

हैं; और उस छटा का दर्शन शिरोवगुण्ठन-पट से किञ्चित्-किञ्चित् ही

हो रहा होगा।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°124

राकाचन्द्रो वराको यदनुपम रसानन्द कन्दाननेन्दोस्तत्ताद्यक चंद्रिकाया अपि किमपि कलामात्र कस्याणुतोपि ।

यस्याः शोणाधर श्रीविधृत नव-सुधा-माधुरी-सार-सिन्धुः, सा राधा काम-बाधा विधुर मधुपति-प्राणदा प्रीयतां नः ॥124।।

जिनके अनुपम रसानन्द-कन्द मुख-चन्द्र को चन्द्रिका की कला के अणु से भी पूर्णिमा का चन्द्रमा तुच्छ है और जिनके गुलाबी अधरों ने सौन्दर्य-श्री की नव-सुधा-माधुरी के सार-रूप सिन्धु को धारण कर रखा है,

वे काम-बाधा-दुखित (विधुर) मधुपति श्रीलालजी की जीवन-दायिनि श्रीराधा हम पर प्रसन्न हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°125

राकानेक विचित्र चन्द्र उदितः प्रेमामृत-ज्योतिषां, वीचीभिः परिपूरयेदगणित ब्रह्माण्ड कोटिं यदि ।

वृन्दारण्य-निकुञ्ज-सीमनि तदाभासः परं लक्ष्यसे*, भावेनैव यदा तदैव तुलये राधे तव श्रीमुखम् ॥125।।

यदि अनेक-अनेक विचित्र राका-शशि उदित होकर अपनी प्रेमामृतज्योतिर्मयी तरङ्गों से अगणित कोटि ब्रह्माण्डों को आपूरित कर दें। तत्पश्चात् श्रीवृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में (स्थित) आप उसके आभास को

भाव-पूर्ण दृष्टि से देखें, तभी हे श्रीराधे ! मैं उस चन्द्र के साथ आपके श्रीमुख की तुलना किसी प्रकार कर सकती हूँ।

*पाठान्तर-लक्ष्यते।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°126

कालिन्दी-कूल-कल्प-द्रुम-तल निलय प्रोल्लसत्केलिकन्दा, वृन्दाटव्यां सदैव प्रकटतररहो बल्लवी भाव भव्या ।

भक्तानां हृत्सरोजे मधुर रस-सुधा-स्यन्दि-पादारविन्दा,

सान्द्रानन्दाकृतिर्नः स्फुरतु नव-नव-प्रेमलक्ष्मीरमन्दा ।।126।।

जो कालिन्दी-कूल-वर्ती कल्पद्रुम तल-स्थित भवन में उल्लसित केलि-विलास की मूल स्वरूपा हैं, जो श्रीवृन्दावन में सदा-सर्वदा प्रकटतर.रूप से विराजमान्, एकान्त सहचरी ललितादिकों के भावों से भव्य

(सुन्दर) है अर्थात् परम सुन्दरी हैं एवं जो भक्तों के हृदय-कमल में अपने चरणारविन्दों का स्थापन करके मधुर-रस-सुधा का निर्झरण करती हैं, वे घनीभूत आनन्द-मूर्ति नित्य अभिनव-पूर्ण प्रेमलक्ष्मी (श्रीराधा) मेरे हृदय में स्फुरित हों।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°127

शुद्ध प्रेमैकलीलानिधिरहह महातमङ्कस्थिते च, प्रेष्ठे विभ्रत्पबभ्रस्फुरदतुल कृपा स्नेह माधुर्य मूर्त्तिः ।

प्राणाली कोटि नीराजित पद सुषमा माधुरी माधवेन, श्रीराधा मामगाधामृतरस भरिते कहि दास्येभिषिञ्चेत् ॥127।।

जो पवित्र-प्रेम-लीला की एक मात्र उत्पत्ति स्थान हैं; कैसा आश्चर्य है कि अपने प्रियतम की गोद में रहते हुए भी जो (विच्छेद) भय को धारण किये हुए हैं तथा जिनकी चरण-सुषमा-माधुरी का नीराजन माधव श्रीकृष्ण ने अपनी कोटि-कोटि प्राण-पंक्तियों से किया है, वे अत्यधिक देदीप्यमान्

अतुल कृपा-स्नेह-माधुर्य-मूर्ति श्रीराधा क्या कभी अपने अगाध अमृत-भरित दास्य-रस से मुझे अभिषिञ्चित करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°128

वृन्दारण्य निकुञ्जसीमसु सदा स्वानङ्ग रङ्गोत्सवैर्माद्यत्यद्भुत माधवाधर-सुधा माध्वीक संस्वादनैः ।

गोविन्द-प्रिय-वर्ग-दुर्गम सखी-वृन्दैरनालक्षिता,

दास्यं दास्यति मे कदा नु कृपया वृन्दावनाधीश्वरी ॥128।।

जो सर्वदा श्रीवृन्दावन निकुञ्ज-सीमा में अपने अनङ्ग-रङ्गोत्सव के द्वारा माधव की अत्यद्भुत अधर-सुधा का आस्वादन करके उन्मत्त हो रही हैं तथा जो गोविन्द के प्रियजनों को भी दुर्गम, सखी-समुदाय के लिये अलक्षित हैं, वे श्रीवृन्दावनाधीश्वरी कभी मुझे कृपा-पूर्वक अपना दास्य

प्रदान करेंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°129

मल्लीदाम निबद्ध चारु कबरं सिन्दूर रेखोल्लसत्सीमन्तं नवरत्न चित्र तिलकं गण्डोल्लसत्कुण्डलम् ।

निष्कग्रीवमुदार हारमरुणं विभ्रद्दुकूलं नवं,

विद्युत्कोटिनिभं ‘ स्मरोत्सवमयं राधाख्यमीक्षेमहः ।।129।।

जिसकी सुन्दर कबरी नवीन-मल्लिका-दाम से निबद्ध है। सीमन्त सिन्दूर-रेखा से शोभित है। ( विशाल भाल ) नव-रत्नों के द्वारा विचित्र तिलक से युक्त है । गण्ड-मण्डल कुण्डलों से उल्लसित हैं । ग्रीवा में हेमजटित पदिक है और उदार हार (हृदय देश में ) शोभित हो रहा है।

जिसने अरुण-वर्ण का नव-दुकूल धारण कर रखा है, और कोटि दामिनियों के समान जिसको प्रभा है; ऐसे नित्य स्मर-उत्सवमय श्रीराधा नामक तेज का मैं दर्शन करती हूँ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°130

प्रेमोल्लासैकसीमा परम रसचमत्कार वैचित्र्य सीमा, सौन्दर्यस्यैक-सीमा किमपि नव-वयो-रूप-लावण्य सीमा।

लीला-माधुय्र्य सीमा निजजन परमोदार वात्सल्य सीमा, सा राधा सौख्य-सीमा जयति रतिकला-केलि-माधुर्य-सीमा ॥130।।

प्रेमोल्लास की चरम सीमा, परम रस (प्रेम ) चमत्कार विचित्रता को सीमा, सौन्दर्य को अंतिम सीमा, अनिर्वचनीय नवीन वय, रूप एवं लावण्य की सीमा; निजजनों के प्रति परम उदारता एवं वात्सल्यता की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, रति-कला-केलि-माधुरी की सीमा एवं

सुख की परम सीमा श्रीराधा ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°131

यस्यास्तत्सुकुमार सुन्दर पदोन्मीलन्नखेन्दुच्छटा, लावण्यैक लवोपजीवि सकल श्यामा मणी मण्डलम् ।

शुद्ध प्रेम-विलास मूर्तिरधिकोन्मीलन्महा माधुरी, धारा-सार-धुरीण-केलि-विभवा सा राधिका मे गतिः ॥131।।

जिनके उन सुकुमार एवं सुन्दर चरणों के प्रफुल्लित नवेन्दु की छटा के लावण्य का लव-मात्र ही समस्त श्यामा-रमणी मणियों के पूर्ण मण्डल का जीवन है। जो शुद्ध प्रेम-विलास की मूर्ति हैं एवं जो अधिकाधिक रूप में उन्मीलित महा माधुरी-धारा के सम्पतन को धारण करने में समर्थ हैं; वे केलि-विभव स्वरूपा श्रीराधिका ही मेरी गति हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°132

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी सलिल-बिन्दु सन्दोहभृन्, मृदूद्गति रतिश्रमं मिथुनमद्भुत क्रीडया।

अमंद रस तुन्दिल भ्रमर-वृन्द वृन्दाटवी,

निकुञ्ज वर-मन्दिरे किमपि सुन्दरं नन्दति ॥132।।

श्रीकलिन्दगिरि-नन्दिनी यमुना के जल-सीकरों को धारण किये हुए

एवं मृदुगतिशील वृद्धि-प्राप्त रतिश्रम से युक्त, कोई अनिर्वचनीय नागरीनागर (युगल) अमन्द रस से जड़ीभूत हो रहे हैं और भ्रमर-समूहाकीर्ण वृन्दावनस्थ वर निकुञ्ज-मंदिर में अद्भुत क्रीड़ा द्वारा आनन्दित हो रहे हैं।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°133

व्याकोशेन्दीवर विकसिता मन्द हेमारविन्द,

श्रीमन्निस्यंदन रतिरसांदोलि कन्दर्प-केलि।

वृन्दारण्ये नव रस-सुधास्यन्दि पादारविन्दं,

ज्योतिर्द्वन्द्वं किमपि परमानन्द कन्दं चकास्ति ।।133।।

जो प्रफुल्लित नील-कमल और पूर्ण विकसित स्वर्ण-कमल की शोभा से युक्त है, जो स्रवित रतिरस की आन्दोलन-शील काम-केलि से समन्वित है। जिसके चरण-कमल, नव रस-सुधा को प्रवाहित करते रहते हैं एवं जो अनिर्वचनीय परमानन्द की उत्पत्ति-स्थान है, ऐसी कोई अनिर्वचनीय युगल-ज्योति श्रीवृन्दावन में चमत्कृत हो रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°134

ताम्बूलं क्वचदर्पयामिचरणौ संवाहयामि क्वचिन्मालाद्यैः  परिमण्डये क्वचिदहो संवीजयामि क्वचित् ।

कर्पूरादि सुवासितं क्वच पुनः सुस्वादु चाम्भोमृतं, पायाम्येव गृहे कदा खलु भजे श्रीराधिका-माधवौ ।।134।।

अहा ! कभी ताम्बूल-वीटिका अर्पित करूंगी, कभी चरणों का संवाहन करूंगी, कभी माला, आभूषणादि से उन्हें आभूषित करूंगी, तो कभी व्यजन ही डुलाऊंगी और कभी कर्पूरादि-सुवासित सुस्वाद अमृतोपम

जल-पान भी कराऊंगी। इस प्रकार निकुञ्ज-भवन में कब निश्चय रूप से मैं

श्रीराधा-माधव युगल-किशोर की सेवा करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°135

प्रत्यङ्गोच्छलदुज्ज्वलामृत – रस – प्रेमैक – पूर्णाम्बुधि र्लावण्यैक सुधानिधिः पुरु कृपा वात्सल्य साराम्बुधिः ।

तारुण्य-प्रथम-प्रवेश विलसन्माधुय्र्य साम्राज्य भूर्गुप्तः कोपि महानिधिर्विजयते राधा रसैकावधिः ।।135।।

प्रेम का एक अनुपम परिपूर्णतम सागर है। जिसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों से नित्य-प्रति उज्ज्वल अमृत-रस उच्छलित होता रहता है । वह (प्रेममहानिधि ) लावण्य का भी अनुपम समुद्र है और अत्यधिक कृपामय

वात्सल्य-सार का भी अम्बुधि है वह तारुण्य के प्रथम-प्रवेश से विलसित माधुर्य-साम्राज्य को भूमि है, और रस की एकमात्र सीमा है । वही ‘राधा’ नामक कोई परम-गुप्त महानिधि सर्वोत्कर्ष-पूर्वक विराजमान है।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°136

यस्याः स्फूर्जत्पवनखमणि ज्योतिरेकच्छटायाः

सान्द्र प्रेमामृतरस महासिन्धु कोटिर्विलासः ।

सा चेद्राधा रचयति कृपा दृष्टिपातं कदाचिन्,

मुक्तिस्तुच्छी भवति बहुशः प्राकृता प्राकृतश्रीः ॥136।।

जिनकी प्रकाशमान पद-नख-मणि-ज्योति की एक छटा का विलास सघन प्रेमामृत-रस के कोटि-कोटि सिन्धुओं के समान है; वे श्रीराधा यदि कदाचित् कृपा दृष्टि-पात कर दें तो अनेक प्राकृत-अप्राकृत शोभायें और

मुक्ति भी मेरे लिये तुच्छ हो जायें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°137

कदा वृन्दारण्ये मधुर मधुरानन्द रसदे , प्रियेश्वर्याः केलीभवन नव कुञ्जानि मृगये ।

कदा श्रीराधायाः पद – कमल माध्वीक लहरी , परीवाहेश्चेतो मधुकरमधीरं मदयिता ।।137।।

 मैं मधुर से भी मधुर आनन्द – रस – प्रद श्रीवृन्दावन में प्रियेश्वरी श्रीराधा के केलि – भवन नव – कुञ्ज – पुओं का कब अन्वेषण करूंगी ? और श्रीराधा – पद – कमल – मकरन्द – लहरी के अनवरत वर्षण से मेरा मन – मधुकर कब अधीर और मद – मत्त हो जायगा ?

 श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°138

राधाकेलि – निकुञ्ज – वीथीषु चरनराधाभिधामुच्चरन् राराधा अनुरूपमेवपरमं धम्म रसेनाचरन् ।

राधायाश्चरणाम्बुजं परिचरन्नानोपचारमदा , कहि स्यां श्रुति शेखरोपरिचरन्नाश्चर्यचर्याचरन् ।।138।।

 श्रीराधा – केलि – निकुञ्ज – वोथियों में विचरण करते हुए , श्रीराधा – नाम का उच्चारण करते हुए , श्रीराधा के अनुरूप अपने परम धर्म ( अपने किङ्करी – स्वरूप ) का रस – पूर्वक आचरण करते हुए श्रीराधा – चरणाम्बुजों को विविध उपचारों के द्वारा मोद – पूर्वक परिचा करते हुए , एव आश्चर्य – रूप उपरोक्त चर्या का आचरण करती हुई मैं कच वेदातीत ( वेदोपरि ) आचरण करने के योग्य हो जाऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°139

यातायातशतेन सङ्गमितयोरन्योन्यवक्रोल्लस च्चन्द्रालोकन सम्प्रभूत बहुलानङ्गाम्बुधिक्षोभयोः ।

अन्तः कुञ्ज – कुटीर तल्पगतयोदिव्याद्भुत क्रीडयो , राधा – माधवयोः कदा नु शृणुयां मंजीर कांचीध्वनिम् ॥139।।

( श्रीराधा – माधव युगल – किशोर अपने किसी अत्यन्त गुप्त अनिर्वचनीय सङ्गम – विहार में संलग्न हैं । ) पारस्परिक वक्र नेत्र – क्षेपण रूप चन्द्र – दर्शन से दोनों ओर विस्तीर्ण अनङ्गाम्बुधि प्रकट हो रहे हैं । अहा ! और वे दोनों किसी परम एकान्त कुञ्ज – कुटीर – गत दिव्य तल्प पर विराजमान होकर किसी दिव्य एवं अद्भुत क्रीड़ा में रत हैं । जिससे श्रीराधा के चरण – मञ्जीर एवं माधव की कटि – किङ्किणि की सम्मिलित रूप से बड़ी ही मधुर ध्वनि यातायात ( विहार ) के कारण हो रही है । मैं उसे कब सुनंगी ? 

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°140

अहो भुवन – मोहनं मधुर माधवी- मण्डपे , मधूत्सव – समुत्सुकं किमपि नील – पीतच्छविः ।

विदग्ध मिथुनं मिथो दृढ़तरानुरागोल्लसन् , मदं मदयते कदा चिरतरं मदीयं मनः ॥140।।

अनिर्वचनीय मधूत्सव – समुत्सुक , पारस्परिक दृढ़तर अनुराग के उल्लास से उन्मद हुए अनुपम नील – पीत – छविमान् भुवन – मोहन विदग्ध युगल मेरे मन को कब सर्वदा मद – युक्त कर देंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°141

राधानाम सुधारसं रसयितुं जिह्वास्तु मे विह्वला , पादी तत्पदकाङ्कितासुचरतां वृन्दाटवी – वीथिषु ।

तत्कमव करः करोतु हृदयं तस्याः पदं ध्यायता तद्भावोत्सवतः परं भवतु मे तत्प्राणनाथे रतिः ।।141।

मेरी जिह्वा श्रीराधा – नामामृत – रस के आस्वादनार्थ सदा विह्वल ( लालचवती ) रही आवे । चरण श्रीराधा – पादाङ्कित वृन्दावन – वीथियों में ही विचरण करते रहें । दोनों हाथ उनके सेवा कार्यों में ही लगे रहें । हृदय सदा उनके मन्जुल चरण – कमलों का ही ध्यान करता रहे एवं उन्हीं श्रीराधा के रस – भावोत्सव – सहित श्रीराधा – प्राणनाथ लालजी में मेरी परम प्रीति हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°142

मन्दीकृत्य मुकुन्द सुन्दर पदद्वन्द्वारविन्दामल , प्रेमानन्दममन्दमिन्दु – तिलकाद्युन्माद कन्दं परम् ।

राधा – केलि – कथा – रसाम्बुधि चलद्वीचीभिरान्दोलितं , वृन्दारण्य निकुञ्ज मन्दिर वरालिन्दे मनो नन्दतु ॥142।।

श्रीमुकुन्द के युगल सुन्दर पदारविन्द का अमल अमन्द प्रेमानन्द चन्द्र – चूड़ शिवजी आदि के लिये भी परम उन्मादक मूल है , किन्तु मेरा मन उसको भी शिथिल करके श्रीराधा – केलि – कथा – रस – समुद्र की चञ्चल लहरियों से आन्दोलित वृन्दावनस्थ निकुंज – मन्दिर के श्रेष्ठ – प्राङ्गण में आनन्द को प्राप्त हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°143

राधानामैव कार्य  ानुदिन मिलितं साधनाधीश कोटि स्त्याज्यो नीराज्य राधापद – कमल – सुधा सत्पुमर्थाग्र कोटिः ।

राधा पादाब्ज लीला – भुवि जयति सदा मन्द मन्दार कोटिः , श्रीराधा – किङ्करीणां लुठति चरणयोरभुता सिद्धि कोटिः ॥143।।

अनुदिन श्रीराधा – नाम के श्रवण – कीर्तनादि के प्राप्त होने पर कोटि कोटि श्रेष्ठ साधन भी परित्याज्य हो जाते हैं । श्रीराधा – पद – कमल – सुधा पर कोटि – कोटि मोक्षादि पुरुषार्थ न्यौछावर हैं । [ तभी तो ] श्रीराधा – पादाब्ज लीला – भूमि श्रीवृन्दावन में अमन्द ( वैभव – शाली ) कोटि – कोटि कल्पतरु सदा विद्यमान रहते हैं और श्रीराधा – किङ्करी – गणों के चरणों में अद्भुत कोटि कोटि सिद्धियाँ लोटती रहती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°144

मिथो भड्गि कोटि प्रवहदनुरागामृत – रसो तरङ्ग भ्रूभङ्ग क्षुभित वहिरभ्यंतरमहो । मदाघूर्णन्नेत्रं रचयति विचित्रं रतिकला , विलासं तत्कुञ्ज जयति नव – कैशोर – मिथुनम् ॥144।।

परस्पर में हाव – भाव – समूह के विस्तार से अनुरागामृत रस बह चला है । जिससे गुगल किशोर भीतर और बाहर भी प्रेम क्षुब्ध हो रहे हैं । जिसमें धूनर्तन ही तरङ्ग हैं । इस रस से युगल के नेत्र मद – धूणित हो रहे हैं ; वे नव – किशोर मिथुन निकुञ्ज – भवन के मध्य में रति – विलास – कला की रचना करके सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°145

काचिद्वृन्दावन नवलता – मन्दिरे नन्दसूनो  र्दप्यदोष्कन्दल परीरम्भ निस्पन्द गात्री ।

दिव्यानन्ताद्भुत रसकलाः कल्पयन्त्याविरास्ते , सान्द्रानन्दामृत रस – घन प्रेम – मूत्तिः किशोरी ।।145।।

नन्द – नन्दन श्रीलालजी की दर्प – युक्त वाहु – लताओं के गाढ़ आलिङ्गन से जिनके समस्त अङ्ग शिथिल हो रहे हैं तथा जो अद्भुत एवं अनन्त रस कलाओं का विस्तार करती हैं । वे घनीभूत आनन्दामृत – रस एवं प्रेम – धन मुत्ति ( अनिर्वचनीय ) कोई किशोरी श्रीवृन्दावन के नव – लता – मंदिर में नित्य विराजमान हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°146

न जानीते लोकं न च निगमजातं कुल – परं परां वा नो जानत्यहह न सतां चापि चरितम् ।

रसं राधायामाभजति किल भावं व्रजमणी , रहस्ये तद्यस्य स्थितिरपि न साधारण गतिः ।।146।।

जो महानुभाव इस एकान्त देश में ब्रज – मणि श्रीकृष्ण और श्रीराधा के भाव और रस का निश्चय रूप से भजन करते हैं ; अहो ! वे न तो लोक को जानना चाहते हैं , न निगम समूह को ; न कुल परम्परा को जानने की इच्छा रखते हैं और न साधु – आचरण को ही । ऐसे रसिकों की स्थिति साधारण नहीं वरन् असाधारण है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°147

ब्रह्मानन्दैकवादाः कतिचन भगवद्वन्दनानन्द – मत्ताः , केचिद्गोविन्द – सख्याद्यनुपम परमानन्द मन्ये स्वदन्ते ।

श्रीराधा – किङ्करीणां त्वखिल सुख – चमत्कार – सारैक – सीमा , तत्पादाम्भोज राजन्नख – मणिविलसज्ज्योतिरेकच्छटापि।।147।।

कोई ब्रह्मानन्द वादी हैं , तो कोई भगवद्वन्दना ( दास्य – भाव ) में ही उन्मत्त हैं । कुछ लोग गोविन्द के सख्यादि ( मैत्री – भाव ) को ही परमानन्द मानकर उसके आस्वादन में लग रहे हैं किन्तु श्रीराधा – चरण – कमलों की शोभायमान् नख – मणि ज्योति की एक किरण मात्र ही श्रीराधा – किङ्करियों के लिये अखिल सुख – चमत्कार – सार की सीमा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°148

न देवब्रह्माद्यन खलु हरिभक्तर्न सुहृदा दिभिर्यद्वै राधा – मधुपति – रहस्य सुविदितम् ।

तयोर्दासीभूत्वा तदुपचित केली – रस – मये , दुरन्ताः प्रत्याशा दृशोर्गोचरयितुम्।।148।।

श्रीराधा – मधुसूदन का रहस्य न तो ब्रह्मादि देवताओं को ही विदित है न हरि – भक्तों को ही । और तो और श्यामसुन्दर के सखा आदिकों को भी वह सुविदित नहीं है किन्तु हरि । हरि !! मैंने उनको दासी होकर [ युगल की ] सम्बर्द्धमान् केलि को असमय में भी अपने नेत्रों से देखने की दुर्गम आशा कर रखी है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°149

त्वयि श्यामे नित्ये प्रणयिनि विदग्धे रसनिधौ , प्रिये भूयोभूयः सुदृढमति रागो भवतु मे ।

इति प्रेष्ठेनोक्ता रमण मम चित्ते तव वचो , वदन्तीति स्मेरा मम मनसि राधा विलसतु।।149।।

प्रियतम ने कहा- ” हे श्यामे ! हे नित्य प्रणयिनी ! हे विदग्धे ! हे प्रिये ! आप रस – निधि में बारम्बार मेरा सुदृढ़ अनुराग हो ” । इस प्रकार प्रिययम श्रीकृष्ण के द्वारा कहे जाने पर ” हे रमण ! मेरे हृदय में आपके ( यही ) वचन है ” यह कहती हुई मन्द हास – युक्ता श्रीराधा मेरे हृदय में सदा – सर्वदा विलास करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°150

सदानन्द वृन्दावन – नवलता – मन्दिर वरे ध्वमन्दैः कन्दर्पोन्मदरति – कला – कौतुक रसम् ।

किशोरं तज्ज्योतिर्युगलमतिघोरं मम भव , ज्वलज्ज्वालं शीतः स्वपद – मकरन्दैः शमयतु ॥150।।

श्रीवृन्दावन के नवलता – वर मन्दिर में तीव्र कामोन्मद – रति – के लि कला – कौतुक – रस स्वरूप एवं सदा आनन्द – मय किशोराकृति वह युगल ज्योति अपने चरण – कमलों के शीतल मकरन्द से मेरे अति – घोर ज्वलित ज्वाल – भव ( संसार ) को शान्त करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°151

उन्मीलन्नव मल्लिदाम विलसद्धम्मिल्लभारे वृह च्छोणी मण्डल मेखला कलरवे शिञ्जान ‘ मंजीरिणी ।

केयूराङ्गद कङ्कणावलिलसद्दोवल्लि दीप्तिच्छटे , हेमाम्भोरुह कुड्मलस्तनि कदा राधे दृशा पोयसे ।।151।

हे प्रफुल्लित नव मल्ली – माल – शोभामाना – कबरि – भारे ! हे पृथु नितम्ब – मण्डल – मेखला – कलरवे ! हे शब्दायमान भूपुर – धारिणि ! हे केयूर अङ्गद कङ्कणावलि – विलसित भुजलता – दीप्तिच्छटे । हे स्वर्ण – कमल – कलिका स्तनि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके इस रूप – रस को कब अपने नेत्रों से पान करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°152

अमर्यादोन्मीलत्सुरत रस पीयूष जलधेः , सुधाङ्गैरुत्तुङ्गैरिव किमपि दोलायित तनुः ।

स्फुरन्ती प्रेयोङ्के स्फुट कनक – पङ्केह मुखी , सखीनां नो राधे नयनसुखमाधास्यसि कदा।।152।।

प्रफुल्ल कनक – कमल – मुखी हे श्रीराधे ! मर्यादा का अतिक्रमण करके सुरत – रस का जो सुधा – समुद्र उद्भूत हुआ है , उसके अत्युच्च सुधा – स्वरूप अङ्गों के द्वारा आपका श्रीवपु अनिर्वचनीय रूप – यौवन से आन्दोलित सा हो रहा है । आप प्रियतम के अङ्क में चञ्चल हो रही हैं , हे स्वामिनि ! आप हम सखियों के नेत्र – सुख का विधान कब करोगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°153

क्षरन्तीव प्रत्यक्षरमनुपम प्रेम – जलधि , सुधाधारा वृष्टीरिव विदधती श्रोत्रपुटयोः ।

रसाद्री सन्मृद्वी परम सुखदा शीतलतरा , भवित्री कि राधे तव सह मया कापि सुकथा।।153।।

अहा ! जिसके अक्षर – अक्षर से अनुपम प्रेम – जलधि निर्धारित हो रहा है । जो कर्ण – पुटों में मानों अमृत – धारा – वृष्टि विधान करता है , एवं जो रस से सिक्त , परम कोमल , परम सुखद तथा परम शीतल है । हे श्रीराधे ! मेरे साथ कभी आपका वह रसमय सम्भाषण होगा जो सब प्रकार से अनिर्वचनीय है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°154

अनुल्लिख्यानन्तानपि सदपराधान्मधुपति महाप्रेमाविष्टस्तव परमदेयं विमृशति ।

तवैकं श्रीराधे गृणत इह नामामृत रसं , महिम्नः कः सीमां स्पृशति तब दास्यकैमनसाम् ।।154।।

हे श्रीराधे ! जो कोई आपके ‘ श्रीराधा ‘ इस एक ही अमृत – रूप नाम का गान अथवा स्मरण कर लेता है उसके अनन्त – अनन्त महत् अपराधों की आपके महाप्रेमाविष्ट प्रियतम मधुपति गणना न करके यह विचारने लगते हैं कि इसको ( इस नामोच्चार के बदले में ) क्या देना चाहिये ? अतएव जिन्होंने अपने मन में आपका एक – मात्र दास्य ही स्वीकार कर रखा है । उनकी महिमा – सीमा का स्पर्श कौन कर सकता है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°155

लुलित नव लवङ्गोदार कर्पूरपूर प्रियतम – मुख – चन्द्रोद्गीर्ण ताम्बूल – खण्डम् ।

घनपुलक कपोला स्वादयन्ती मदास्ये र्पयतु किमपि दासी – वत्सला कहि राधा।।155।।

कपूर की शीतलता के कारण जिनके कपोलों पर पुलक का उदय हो रहा है और जो अनियंचनीय रूप से दासी – वत्सला है । ऐसी श्रीराधा प्रिय तम श्रीकृष्ण के मुख – चन्द्र द्वारा चर्वित , नव – लयङ्ग – चूर्ण एवं प्रचुर कर्पर समन्वित ताम्बूल – खण्ड का आस्वादन करते – करते कब उस चवित ताम्बूल को मेरे मुख में अर्पण करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°156

सौन्दर्यामृत – राशिरद्भुत महालावण्य – लीला – कला , कालिन्दीवर – वोचि – डम्बर परिस्फूर्जत्कटाक्षच्छवि ।

सा कापि स्मरकेलि – कोमल – कला – वैचित्र्य – कोटि स्फुरत्प्रेमानन्द घनाकृतिदिशतु मे दास्यं किशोरो – मणिः।।156।।

काम – कलि – कोमल – कलाओं की कोटि – कोटि विचित्रताओं का विकास करने वाली , प्रेमानन्द – धन – मूति एवं सौन्दर्यामृत – राशि कोई अवर्णनीय किशोरी – मणि हैं । जिनकी नेत्र – कटाक्षच्छवि कालिन्दी के मनोहर बीचि बिलास की विशाल छवि की अपेक्षा अधिक चमत्कृत है । और अन्यान्य अद्भुत एवं महानतम लावण्य – लीलाएं भी जिनकी एक कला – अंश मात्र हैं , [ अथवा जो लीलाओं को निधान हैं । ये दिव्य किशोरी – मणि मुझे अपना दास्याधिकार प्रदान कर दासी रूप से स्वीकार करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°157

दुकूलमति कोमलं कलयदेव कौसुम्भकं , निबद्ध मधु – मल्लिका ललित माल्य – धम्मिल्लकम् ।

वृहत्कटितट स्फुरन्मुखर मेखलालंकृतं , कदा नु कलयामि तत्कनक – चम्पकाभं महः।।157।।

जिसने कसूभे रंग का अत्यन्त कोमल दुकूल धारण किया है , जिसकी कबरी बासन्ती – मल्लिका की ललित मालावली से निबद्ध है एवं जिसके विशाल कटि – तट ( नितम्ब भाग ) में देदीप्यमान् एवं मुखरित मेखला अलंकृत हो रही है । उस कनक – चम्पकमयी ज्योति को मैं कब देखूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°158

कदा रासे प्रेमोन्मद रस – विलासेद्भुतमये , दिशोर्मध्ये भ्राजन्मधुपति सखी – वृन्द – वलये ।

मुदान्तः कान्तेन स्वरचित महालास्य – कलया , निषेवे नृत्यन्ती व्यजन नव ताम्बूल – सकलैः।।158।।

प्रेमोन्मद रस – विलास पूरित अत्यन्त अद्भुत रास , जिसमें मधुपति श्रीलालजी के चारों ओर सखियां ऐसी शोभित हो रही हैं जैसे कङ्कण । इस रास में वे अपने प्रफुल्लित – चित्त कान्त – श्रीलालजी के साथ स्वरचित लास्य – कला – पूर्वक नृत्य कर रही हैं । मैं कब व्यजन एवं नव – ताम्बूल , शकल ( सुपारी ) आदि से उनकी सेवा करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°159

प्रसृमर पटवासे प्रेम – सीमा – विकासे , मधुर – मधुर हासे दिव्य भूषा – बिलासे ।

पुलकित दयितांसे सम्बलद्वाहु – पाशे , तदतिललित रासे कहि राधामुपासे।।159।।

 जिस रास में विस्तार – प्राप्त – पटवास , प्रेम – सीमा का विकास , मधुर मधुर हास , दिव्य आभूषणों का विलास , एवं श्रीप्रियाजी के पुलकित अंश पर सुवलित वाहू पास है ; उस रास में श्रीराधा की मैं कब उपासना ( अभ्यर्चना ) करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°160

यदि कनक – सरोज कोटि – चन्द्रांशु – पूर्ण , नव – नव मकरन्द – स्यन्दि सौन्दर्य – धाम ।

भवति लसित चञ्चत्खञ्जन द्वन्द्वमास्य , तदपि मधुर हास्यं दत्त दास्यं न तस्याः ।।160।।

यदि कोई सौन्दर्य – धाम स्वर्ण – कमल कोटि – कोटि चन्द्रों की किरणों से पूर्ण हो और जिससे नवीन – नवीन मकरन्द झरता ही रहता हो , वह कमल , सौन्दर्य का तो मानो धाम ही हो ; जिसमें दो खञ्जन खेल रहे हों ऐसा अनुपम कमल भी श्रीप्रियाजी के मुख – कमल के मधुर हास के दास्य को प्राप्त नहीं करता ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°161

सुधाकरमुधाकरं प्रतिपदस्फुरन्माधुरी , धुरोण नव चन्द्रिका जलधि तुन्दिलं राधिके ।

अतृप्त हरि – लोचन – द्वय चकोर – पेयं कदा , रसाम्बुधि समुन्नतं बदन – चन्द्रमीक्षे तव ।।161।।

जो सुधाकर ( चन्द्र ) को भी असत् कर दिखाने वाला है , जो पद – पद पर देदीप्यमान् माधुरी के श्रेष्ठतम् सार – रूप नवीन किरणों के समुद्र से पूरित है , जो श्रीहरि अतृप्त के युगल – लोचन – चकोरों का पेय है और जो रस – समुद्र द्वारा प्रकर्ष को प्राप्त है । हे श्रीराधे ! मैं आपके उस वदन – चन्द्र को कब देखूंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°162

अङ्ग – प्रत्यङ्ग रिङ्गन्मधुरतर महा कीत्ति – पीयूष सिन्धो रिन्दोः कोटिविनिदद्वदनमति मदालोल नेत्रं दधत्याः ।

राधाया सौकुमार्याद्भुत ललित तनोः केलि – कल्लोलिनीना मानन्दस्यन्दिनीनां प्रणय – रसमयान् कि विगाहे प्रवाहान।।162।।

जिनके मङ्ग – प्रत्यङ्ग से मधुरातिमधुर महा – कीति पीयूष – सिन्धु प्रवाहित होता रहता है , जिनका कोटि – कोटि चन्द्र – विनिन्दक शोभाशाली थोमुख अति मद – चञ्चल नेत्रों से युक्त है : अहो ! जो अत्यद्भुत सौकुमार्य से अति – ललित तनु हैं । क्या मैं ऐसी श्रीराधा की प्रणय – रसमयी आनन्द निझरिणी केलि – सरिता – प्रवाह में कभी अवगाहन करूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°163

मत्कण्ठे कि नखरशिखया दैत्यराजोडिस्म नाहं , मैवं पीडा कुरु कुच – तटे पूतना नाहमस्मि ।

इत्थं कीरैरनुकृत – वचः प्रेयसा – सङ्गतायाः , प्रातः श्रोष्ये तव सखि कदा केलि – कुजे मृजन्ती ।।163।।

” मेरे कण्ठ में नवाग्र – धात क्यों करते हो मैं कोई देत्यराज ( तृणावर्त ) तो है नहीं ? अरे ! मेरी कुष – तटी में पीड़ा मत दो मैं पूतना नहीं हूँ ” हे सखी ! प्रियतम – सङ्गम के समय तुम्हारे इन शुक – अनुकृत वचनों को प्रातः काल के लि – कुन का मार्जन करती हुई मैं कब सुनेगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°164

जाग्रत्स्वप्न सुषुप्तिषु स्फुरतु मे राधापदाब्जच्छटा , वैकुण्ठे नरकेथ वा मम गतिर्नान्यास्तु राधां विना ।

राधा – केलि – कथा – सुधाम्बुधि महावीचोभिरान्दोलितं , कालिन्दी – तट – कुञ्ज – मन्दिर – बरालिन्दे मनो विन्दतु ।।164।।

श्रीराधा – केलि – कथा – सुधा – समुद्र की महान लहरियों से आन्दोलित मेरा मन कालिन्दी – फलवर्ती श्रेष्ठ लता मन्दिर के प्राङ्गण में ही आनन्द पाता रहे और जागृत , स्वप्न एवं सुपुप्ति में भी श्रीराधा – पद – कमलो की छटा ही मेरे मन में स्फुरित होती रहे , कि वहुना , बैकुण्ठ अथवा नरक में भी धीराधा का अतिरिक्त मेरे लिये कोई अन्य गति न हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°165

अलिन्दे कालिन्दी – तट नवलता – मन्दिरवरे रतामर्दोभूतश्रमजल भरापूर्णवपुषोः ।

सुखस्पर्शनामोलितनयनयोः शीतमतुलं , कदा कुय्र्या सम्बीजनमहह राधा मुरभिदोः ।।165।।

अहा ! कालिन्दी – कूलवर्ती नव – लता – मन्दिर – गत – प्राङ्गण में रति केलि – मर्दन से उद्भूत ( प्रकट हुए ) श्रम – जल – प्रवाह से परिपूरित शरीर और सुख – स्पर्श से आमीलित ( मदे हुए ) नयन धीराधा – मधुसूदन को में कब अतुल शीतल सम्वीजन ( द्वारा ) बयार करूंगी?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°166

क्षणं मधुर गानतः क्षणममन्द हिन्दोलतः , क्षणं कुसुम वायुतः सुरत – केलि – शिल्पः क्षणम् ।

अहो मधुरसदस प्रणय – केलि वृन्दावने , विदग्धवरनागरी – रसिक -शेखरौ – खेलतः ।।166।।

अहो ! मधुर एवं श्रेष्ठ रस – केलिमय श्रीवृन्दावन में विदग्ध श्रेष्ठ , नागरी – मणि ( श्री प्रियाजी ) एवं रसिक – शेखर ( श्रीलालजी ) कभी तो मधुर मधुर गान से , कभी अगन्द ( वेगवान् ) हिण्डोल से , ( झूलकर ) कभी कुसुम सुरभित बायु के सेवन से , तो कभी सुरत – केलि – चातुरी का प्रकाश करके क्रीड़ा करते रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°167

अद्यश्याम किशोर मौलिरहह प्राप्तो रजन्या – मुखे , नीत्वा तां करयोः प्रगृह्य सहसा नीपाटवों प्राविशत् ।

श्रोष्ये तल्प मिलन्महा रतिभरे प्राप्तेपि शीत्कारितं , तद्वोची – सुख – तर्जनं किमु हरेः स्वश्रोत्र रन्ध्राधितम् ।।167।।

अहह ! आज सहसा सन्ध्या- समय श्याम – किशोर – मौलि उन ( श्रीराधा ) के दोनों हाथ पकड़कर एकान्त कदम्ब – अटवी में प्रवेश कर गये ; वहाँ केलि – तल्प – मिनित महा – रति प्रवाह को प्राप्त हुए श्रीलालजी के श्रवण रन्ध्रों के आधय – रूप ( श्रीराधा ) सुख – तरङ्ग के तर्जन – शीत्कार को क्या मैं श्रवण करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°168

श्रीमद्राधे त्वमथ मधुरं श्रीयशोदाकुमारे , प्राप्ते कैशोरकमतिरसाद्वल्गसे साधु – योगम् ।

इत्थं बाले महसि कथया नित्यलीला – वयःश्री , जातावेशा प्रकट सहजा किन्नु दृश्या किशोरी।।168।।

अहो ! यशोदानन्दन श्रीकृष्ण जो किशोरावस्था को प्राप्त हो ही चुके हैं , और श्रीमती राधे ! तुम भी प्रेमाधिनय के वश होकर उसी मधुर साधु योग को प्राप्त हो गई हो ; इस प्रकार कहते ही जिनका नित्य लीलानुकूल वयःश्री में प्रवेश हुआ है . ऐसी [ प्राकटब के साथ ही ] किशोरावस्था को प्राप्त किशोरी क्या हमारे दृष्टिगोचर होगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°169

एक काञ्चन चम्पकच्छवि परं नीलाम्बुद श्यामलं , कन्दप्पोत्तरल तथैकमपरं नैवानुकूल वहिः

किञ्चक बहुमान – भङ्गि रसवच्चाटूनि कुर्वत्परं , बीक्षे क्रीडति कुञ्जसोम्नि तदहो द्वन्द्वमहा मोहनम् ।।169।।

एक कनक – चम्पक – छविमान है , तो दूसरा सजन – सपन – नील – मेघवत् श्याम । एक कन्दर्प – ज्वर से चञ्चल हो रहा है , तो दूसरा अन्तर से अनुकूल होकर भी बाहर से प्रतिकूल है । ऐसे ही एक मान की अनेक भङ्गिमाओं से पूर्ण है तो दूसरा रस – पूर्ण वचनों के द्वारा चाटुकारी – परायण । अहो ! क्या मैं कलि – निकुञ्ज की सीमा में इन महा मोहन युगल को देख सकूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°170

विचित्र रति विक्रम दधदनुक्रमादाकुलं , महा मदन – वेगतो निभृत मञ्जु कुञ्जोदरे ।

अहो विनिमयन्नवं किमपि नील – पीतं पर्ट , मिथो मिलितमद्भुतं जयति पीत – नीलं महः ।।170।।

अहो । महा – मदन – वेग से आकुल होकर दोनों कभी तो अनुक्रब से विचित्र रति – पराक्रम को धारण करते हैं और कभी अनिर्वचनीय अभिनव नील – पीत पट का आपस में विनिमय करते हैं । इस प्रकार मञ्जुल निभृत निकुञ्ज – मन्दिर में भलौकिक अद्भुत गप से मिलित कोई दो अनिर्वचनीय नील – पीत ज्योति सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°171

करे कमलमद्भुतं भ्रमयतोमिथोंसापित , स्फुरत्पुलक दोर्लता युगलयोः स्मरोन्मत्तयोः ।

सहास – रस – पेशलं मद करीन्द्र – भङ्गीशत गति रसिकयोर्द्वयोः स्मरत चार वृन्दावने ।।171।

अद्भुत कमल को हाथों में घुमाते हए , एवं परस्पर स्कन्धों पर पुलकित भुजलता अर्पित किये हुए , कामोन्मत्त , वृन्दावन – विहारी , ररिक युगल की सहास – रस – सुन्दर , प्रात आत मदपूर्ण करीन्द्र – गतिमान भनिमाओं के समान गति का ( हे मेरे मन ! ) तू स्मरण कर ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°172

खेलन्मुग्धाक्षि मीन स्फुरदधरमणोविद्रुम – श्रोणि – भार , द्वीपायामोत्तरङ्ग स्मरकलभ – कटाटोप वक्षोरुहायाः ।

गम्भीरावर्तनाभेर्बहलहरि महा प्रेम – पीयूषसिन्धोः , श्रीराधाया पदाम्भोरुह परिचरणे योग्यतामेव मृग्ये ।।172।।

जिनके मुग्ध नयन ही चञ्चल – मीन हैं , देदीप्यमान अधर ही विदम मणि हैं , जिनके पृथु नितम्ब ही द्वीप हैं उस द्वीर – विस्तार के तरङ्गायित प्रदेश में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के समान युगल – कुच हैं , जिनकी नाभि गम्भीर आवत्तं के समान है । मैं ऐसो श्रीकृष्ण – प्रेमामृत – महासिन्धु – रूपा श्रीराधा के युगल – चरणारविन्दों की परिचर्या करने की योग्यता का अन्वेषण करती हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°173

विच्छेदाभास मानादहह निमिषतो गात्रविस्त्रसनादौ , चञ्चत्कल्पाग्नि – कोटि ज्वलितमिव भवेद्वाहभभ्यन्तरं च ।

गाढ स्नेहानुबन्ध – प्रथितमिव तयोरद्भुत प्रेम – मूत्तर्योः , श्रीराधा – माधवाख्यं परमिह मधुरं तद् द्वयं धाम जाने ।।173।।

कैसा आश्चर्य है कि केवल शरीर से ही विलग होने में निमेष – मात्र का वियोगाभास ही जिनके मन और देह के लिये प्रकाशमान कोटि प्रलयाग्नि – ज्वाला के समान प्रतीत होता है । बस . उन्हीं गाड़ – स्नेहानुबन्ध से ग्रथित ( गंथे हुए से ) अद्भुत प्रेम – मूर्ति श्रीराधा – भाधव – नामकः युगल को ही मैं इस संसार में ( अपना ) परम – मधुर आथय जानती हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°174

कदा रत्युन्मुक्तं कचभरमहं संयमयिता , कदा वा संधास्ये त्रुटित नव – मुक्तावलिमपि ।

कला वा कस्तूर्य्योस्तिलकमपि भूयो रचयिता , निकुञ्जान्तवृत्ते नव रति – रणे यौवन मणेः ।।174।।

नव – निकुञ्ज में नित्याभिनव रतिरण के उपरान्त , यौवन – मणि श्रीराधा के विगलित ( उन्मुक्त ) केश – पाश का मैं कब बन्धन करूंगी ? उनको टूटी मुक्ता – माला को कब पिरोऊँगी अथवा परदूरी – पङ्क के द्वारा तिलक को पुनः रचना कब करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°175

कि ब्रुमोन्यत्र कुण्ठोकृतकजनपदे धाम्न्यपि श्रीविकुण्ठे , राधा माधुर्य्य वेत्तापधुपतिरथ तन्माधुरी वेत्ति राधा ।

वृन्दारण्य – स्थलीयं परम – रस – सुधा – माधुरीणां धुरीणां , तद्वन्द्वं स्वादनीयं सकलमपि ददौ राधिका – किङ्करीभ्यः ।।175।।

अन्यत्र का तो बात ही क्या श्रीविकुण्ठ – धाम भी ( श्रीराधा – माधुर्य के अभाव से ) कृष्ठित – प्रदेश बन गया है , क्योंकि श्रीराधा के माधुर्य को केवल श्रीमाधव ही जानते हैं और श्रीमाधव के माधुर्यं को केवल श्रीराधा जानती हैं और इन आस्वादनीय युगल को परम रस – सुधा – माधुरी अग्रगण्य श्रीवृन्दारण्य – स्थली ने श्रीराधा – किरी – गणों को सम्पूर्ण रूप से प्रदान कर दिया है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°176

लसद्वदन – पङ्कजा नव गभीर नाभि- भ्रमा , नितम्ब – पुलिनोल्लसन्मुखर काञ्चि – कादम्बिनी ।

विशुद्ध रस – वाहिनी रसिक – सिन्धु – सङ्गोन्मदा , सदा सुर – तरङ्गिणी जयति कापि वृन्दावने ।।176।।

जिसमें प्रफुल्ल मुख ही कमल है । नव – गम्भीर नाभि ही भंवर है । नितम्ब ही पुलिन है । उस नितम्ब देश ( पुलिन ) में मुखरित काञ्ची ही मानो मेक – माला है । जिसमें केवल विशुद्ध रस ही प्रवाहित होता रहता है और जो रसिक – सिन्धु ( श्रीलालजी ) से सङ्गम करने के लिये उन्मद हो रही है । उस श्रीवृन्दावनस्थ अनिर्वचनीय मुर – तरङ्गिणी की सदा जय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°177

अनङ्ग नव रङ्गिणी रस – तरङ्गिणी सङ्गतां , दधत्सुख – सुधामये स्वतनु – नीरधौ – राधिकाम् ।

अहो मधुप – काकली मधुर – माधवी मण्डपे , स्परक्षुभितमेधते सुरत सीधुमत्त महः ।।177।।

अहो ! आश्चर्य तो देखो ! मधुप – मन्द – गुज्जन – पूरित मधुर माधवी मण्डप में कोई सुरतामृत – मत्त दिव्य ( नील ) ज्योति स्मर – पीड़ा से क्षुभित होकर भी वृद्धि को प्राप्त हो रही है । और उस दिव्य ज्योति ने अपने सुख सुधामय शरीर – समुद्र ही नव – नव अनङ्गों को भी अनुरञ्जित करने वाली रस – तरङ्गिणी श्रीराधिका को धारण कर रखा है !

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°178

रोमालीमिहिरात्मजा सुललिते बन्धूक – बन्धु प्रभा , सर्वाङ्गस्फुटचम्पकच्छबिरहो नाभी – सरः शोभना ।

वक्षोजस्तवका लसद्भुजलता शिजापतञ्च कृतिः , श्रीराधा हरते मनोमधुपतेरन्येव वृन्दाटवी ।।178।।

अहो ! जिनकी रोमावली यमुना के समान है । अङ्ग – प्रभा , बन्धूक बन्धु ( पुष्प – विशेष ) के समान है । जिनके सुललित सर्वाङ्ग में चम्पक की छवि प्रकट हो रही है । जो नाभि – सरोवर के कारण दर्शनीय ( शोभना ) बन रही हैं । जिनके वक्षोज ही पुष्प – गुच्छ हैं । भुजा ही लता – रूप में शोभित हैं और जिनके आभूषणों का शब्द ही मधुर झङ्कार है । ऐसो श्रीराधा दूसरी वृन्दाटवी के समान माधव के मन का हरण कर रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°179

राधामाधवयोविचित्र सुरतारम्भे निकुञ्जोदर स्त्रस्त प्रस्तर सङ्गतैर्वपुरलं कुर्वेङ्ग रागः कदा ।

तत्रैव त्रुटिताः स्रजो निपतिताः संधायभूयः कदा , कण्ठे धारयितास्मि मार्जन कृते प्रातः प्रविष्टास्म्यहम् ।।179।।

मैं प्रात : काल निकुञ्ज – मन्दिर के मध्य भाग के सम्मार्जन के लिये प्रविष्ट होकर श्रीराधा – माधव के विचित्र सुरत – केलि के आरम्भ में अस्त ब्यस्त शस्या में लगे हुए पङ्कलि अङ्गराग के द्वारा कब अपने शरीर को भूषित करूगी ? एवं वहीं टूटकर गिरी हुई उनको पुप्प – माला का पुनः संधान करके उसे कब कण्ठ में धारण करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°180

श्लोकान्प्रेष्ठ यशोङ्कितान् गृहशुकानध्यापयेत्कहिचिद् , गुञ्जा – मञ्जुलहार वर्हमुकुटं निर्माति काले क्यचित् ।

आलिख्य प्रियमूर्त्तिमाकुल कुचौ सङ्घट्टयेद्वा कदा प्येवं व्यापृतिभिर्दिन नयति मे राधा प्रिय स्वामिनी ।।180।।

कभी घर के तोतों को अपने प्रियतम के यश से अङ्कित श्लोकों का अध्यापन कराती हैं . तो कभी मंजुल गु

आ – हार और मोर – मुकुट का निर्माण करती हैं । कभी प्रियतम की प्रिय – मूर्त्ति का चित्रण करके उसे अपने आकुल युगल – कुचों से चिपका ही लेती हैं । इस प्रकार के व्यापारों द्वारा मेरी प्रिय स्वामिनी श्रीराधा अपना वियोग – पूर्ण दिन व्यतीत करती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°181

प्रेयः सङ्ग – सुधा सदानुभवनी भूयो भवद्भाविनी , लीला – पञ्चम रागिणी रति – कला – भङ्गी – शतोद्भाविनी ।

कारुण्य – द्रव – भाविनी कटि – तटे काञ्चोकलाराविणी , श्रीराधैव गतिर्ममास्तु पदयोः प्रेमामृत – श्राविणी ।।181।।

जो सदैव प्रियतम – सङ्ग सुधास्वादन का ही अनुभव करती हैं , जो नित्य नवीन भाविनी , ( कामिनी ) हैं , जो लीला – काल में पञ्चम – राग की अनुरागवती हैं , जो रतिकला की शत – शत भङ्गिमाओं का उद्भावन करने वाली हैं , जो करुण रस की सृष्टि की हैं , जो काटि – तट में काञ्ची – कला शब्द – कारिणी हैं , तथा जिनके पद – युगल से प्रेमामृत झरता ही रहता है , वे श्रीराधा ही मेरी एकमात्र गति है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°182

कोटीन्दुच्छवि हासिनी नव – सुधा – सम्भार सम्भाषिणी , वक्षोज द्वितयेन हेम – कलश श्रीगर्व – निर्वासिनी ।

चित्र – ग्राम – निवासिनो नव – नव प्रेमोत्सवोल्लासिनी , वृन्दारण्य – विलासिनो किमुरहो भूयाङ्दुल्लासिनी ।।182।।

जो कोटि – चन्द्रों की छवि का उपहास करने वाली हैं , जिनका सम्भाषण नवीनतम् सुधा – समूह से पूर्ण है । जो अपने युगल – वक्षोज से स्वर्ण कुम्भ के श्रीगर्व का निर्वासन करती हैं । ये प्रेगोत्सव – उल्लासमयी चित्र – ग्राम ( बृहत्सानु , बरसाना ) निवासिनी श्रीवृन्दारण्य – विलासिनी ( श्रीराधा ) क्या मेरे लिये एकान्त – हृदयोल्लास की दाता होंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°183

कदा गोविन्दाराधन ललित ताम्बूल शकलं , मुदा स्वादं स्वादं पुलकित तनुर्मे प्रिय सखो ।

दुकूलेनोन्मीलन्नव कमल किञ्जल्क रुचिना , गिपोताङ्गी सङ्गीतक निजकला : शिक्षयति माम् ।।183।।

गोविन्द की प्रसन्नता से प्राप्त हुए ललित ताम्बूल – खण्ड का बारम्बार स्वाद लेते – लेते जिनका शरीर पुलकित हो रहा है एवं जिन्होंने देदीप्यमान् नव – कमल – किञ्जल्क के रङ्ग का सुन्दर दुकूल अपने श्रीअङ्ग में धारण कर रखा है , वह मेरी प्रिय सखी श्रीराधा क्या कभी मुझे सङ्गीत – नाट्य में अपनी निपुणता की शिक्षा देंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°184

लसद्दशन – मौक्तिक प्रवर – कान्ति – पूरस्फुरन , मनोज्ञ नव पल्लवाधर – मणिच्छटा – सुन्दरम् ।

चरन्मकर – कुण्डलं चकित चारु नेत्राञ्चलं , स्मरामि तव राधिके बदनमण्डलं निर्मलम् ।।184।।

हे श्रीराधिके ! मैं आपके निर्मल बदन – मण्डल का स्मरण करती हैं । अहा ! जिसमें शोभायमान् दन्तावली मानों मोतियों की उज्ज्वल कान्ति मे पूर्ण है एवं अधर – पल्लव बड़े ही मनोज्ञ , देदीप्यमान और विद्रुम – मणि की छटा से भी अधिक सुन्दर हैं । कपोलों पर चञ्चल मकराकार कुण्डल और मुख – मण्डल पर चकित चारु नेत्राञ्चलों की अपूर्व शोभा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°185

चलत्कुटिल कुन्तलं तिलक – शोभि – भालस्थलं , तिल – प्रसव नासिका – पुट – विराजि मुक्ता – फलम् ।

कलङ्करहितामृतच्छवि समुज्ज्वलं राधिके , तवाति रति – पेशलं वदन – मण्डलं भावये ।।185।।

हे श्रीराधिके ! आपके जिस बदन – मण्डल में कुटिल अलकाबली चञ्चल हो रही है , भाल – स्थल तिलक से शोभित है , नासा पुट में तिल – पुष्प की भांति मुक्ताफल जगमगा रहा है और जो कलङ्क – रहित सजीव छवि से समुज्ज्वल है , आपके उस अति रस – पेशल ( रसाधिक्य सुन्दर ) बदन – मण्डल की मैं भावना करती है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°186

पूर्ण प्रेमामृत – रस समुल्लास सौभाग्यसारं , कुञ्जे – कुञ्जे नव रति – कला – कौतुकेनात्तकेलि ।

उत्फुलेन्दीवर कनकयोः कान्ति – चौरं किशोरं , ज्योतिर्द्वन्द्वं किमपि परमानन्द कन्दं चकास्ति ।।186।।

जो पूर्ण प्रेमामृत – रस के समुल्लास – सौन्दर्य के भी सार रूप हैं । जिन्होंने नवीन रति – कला के कोतुक से कुञ्जो – कुञ्जो में केलि करना अङ्गीकार किया है एवं जो विकसित – नील – कमल और कनक – कमल की कान्ति को भी हरण करने वाले हैं , वही किशोराकृति – ज्योति युगल किसी अनिर्वचनीय परमानन्द – कन्द स्वरूप में शोभा को प्राप्त हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°187

ययोन्मीलत्केली – विलसित कटाक्षैक कलया , कृतो वन्दी वृन्दाविपिन कलभेन्द्रो मदकलः ।

जडीभूतः क्रीडामृग – इव यदाज्ञा – लव कृते , कृती नः सा राधा शिथिलयतु साधारण – गतिम् ।।187।।

जिन्होंने किञ्चित् विकसित केलि – बिलास जन्य कटाक्षों की एक ही कला ये श्रीवृन्दावन के मदोन्मत्त गजराज किशोर ( श्रीलालजी ) को बन्दी बना लिया है । और ऐसा बन्दी कि पूर्ण चतुर होते हुए भी ये उनकी लेश मात्र आज्ञा के वशवर्ती बने क्रिड़ा – मृग की तरह जड़ हो रहे हैं । वही श्रीराधा मेरी साधारण गति ( संसार – गति ) को शिथिल करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°188

श्रीगोपेन्द्र – कुमार – मोहन – महाविद्ये स्फुरन्माधुरी , सारस्फार रसाम्बुराशि सहज प्रस्यन्दि – नेत्राञ्चले ।

कारुण्यार्द्र कटाक्ष – भङ्गि मधुरस्मेराननांभोरुहे , हा हा स्वामिनि राधिके मयिकृपा – दृष्टि मनाङ् निक्षिप ।।188।।

हे गोपेन्द्र – कुमार – मोहन – कारिणि महाविद्ये ! देदीप्यमान् माधुरी सार विस्तारक रस – समुंद्र का सहज प्रवाह करने वाले नेत्र – प्रान्त बाली प्रिये ! हे कारुण – स्निग्ध कटाक्ष – भङ्गिमासहिते ! हे मधुर मन्द हास्यमय वदन – कमले ! हे स्वामिनि ! हे श्री राधिके ! हा ! हा !! आप मुझ पर अपनी थोड़ी – सी ही तो कृपा – दृष्टि का विक्षेप कीजिये ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°189

ओष्ठ प्रान्तोच्छलित दयितोद्गीर्ण ताम्बूल रागा रागानुच्चैर्निज – रचितया – चित्र भङ्गयोन्नयन्ती ।

तिर्यग्ग्रीवा रुचिर रुचिरोदञ्चदाकुञ्चितधूः , प्रेयः पाश्वें विपुल पुलकैर्मण्डिता भाति राधा ।।189।।

जिन्होंने प्रियतम को अपना चर्वित ताम्बूल देने के लिये उसे अधरों तक लाया है , जिससे ओष्ठ – प्रान्त में लालिमा उच्छलित हो रही है । जो विचित्र भङ्गिमाओं के सहित स्वरचित विभिन्न रागिनियों का उच्च स्वर में गान कर रही हैं . इस कारण ग्रीवा कुछ तिरछी सी हो रही है और युगल रुचिर भू – रलताएँ कुछ – कुछ कुञ्चित ऊपर की और चढ़ रही हैं । मान – सिद्धि के आनन्द से विपुल – पुलकावलि – मण्डित वे श्रीराधा अपने प्रियतम के पार्श्व में शोभा पा रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°190

किं रे धुर्त्त – प्रवर निकटं यासि नः प्राण – सख्या , नूनंवाला कुच – तट – कर – स्पर्श मात्राद्विमुह्येत् ।

इत्थं राधे पथि – पथि रसान्नागरं तेनुलग्नं , क्षिप्त्वा भङ्गया हृदयमुभयोः कहि सम्मोयिष्ये ।।190।।

 ” क्यों रे धुर्त्त श्रेष्ठ | हमारी प्राण – प्यारी सखी के निकट क्यों चला आता है ? दूर ही रह । तू नहीं जानता कि सुकुमारी बाला को कुच – तटी का स्पर्श करने मात्र से हो तू विमुग्ध हो जायगा ! ” ” हे श्रीराधे ! इस प्रकार वाणी – चातुर्य्य के द्वारा में भाव तुम्हारे अनुगमन – शील रसिक – नागर को दूर हटाकर तुम दोनों के हृदय को विमुग्ध करूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°191

कदा वा राधायाः पदकमलमायोज्य हृदये दयेशं निःशेष नियतमिह जह्यामुपविधिम् ।

कदा वा गोविन्दः सकल सुखदः प्रेम करणा दनन्ये धन्ये ये स्वयमुपनयेत स्मरकलाम् ।।191।।

मैं कब श्रीराधा के करुणा – पूर्ण पद – कमलों को हृदय में धारण करके इस संसार में नित्य – आगत वेद – विधियों का अशेष रूप से त्याग कर दूंगी और कब सर्व – मुखद गोविन्द मुझे सेवाधिकार प्रदान करने के निमित्त मुझ अनन्य – धन्य को स्मर – कला ( निफुलान्तर सेवा – योग्य काम – कला ) का शिक्षण  करेंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°192

कवा चा प्रोद्दाम स्मर – समर – संरम्भ – रभस , स्वेदाम्भः प्लुत लुलित चित्राखिलतन्नू ।

गतो कुञ्ज – द्वारे सुख मरुति – संवीज्य परया , मुबाहं श्रीराधा – रसिक – तिलको स्यां सुकृतिनी ।।192।।

प्रकर्य काम – सङ्ग्राम के आवेश – युक्त वेग के कारण उत्पन्न हुए प्रस्वेद जल से जिनके युगल – वपु आर्द्र , ( गीले ) शिथिल और चित्रित हो रहे हैं , वे श्रीराधा और रसिक – शेखर दोनों कुलद्वार में समासीन हैं । मैं कब परम – हर्ष के साथ उन दोनों को बयार करके पुण्य – शालिनि बनुगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°193

मिथः प्रेमावेशाद्धन पुलक दोर्वल्लि रचित , प्रगाढ़ा श्लेवेणोत्सव रसभरोन्मीलित दृशौ ।

निकुञ्जक्लुप्तेवै नव कुसुम – तल्पेधि – शयितौ , कदा पत्सम्बाहादिभिरहमधोशौ नु सुखये ।।193।।

निकुञ्ज – भवनान्तर – स्थित नव – नव – पुष्प – रचित शय्या पर शयन करते हुए , एवं परस्पर प्रेमावेश – जनित घन पुलकाङ्कित भुजलताओं से आवेष्टित , गाड़ आलिङ्गन के उत्सव – रस से परिपूर्ण अर्थ निमोलित दृष्टि – युक्त युगल अधीश्वरों को मैं कब पादसम्बाहनादि सेवाओं के द्वारा सुख पहुँचाऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°194

मदारुण विलोचनं कनक – दपंकामोचनं , महा प्रणयमाधुरी रस – विलास नित्योत्सुकम् ।

लसन्नववयः थिया ललित भङ्गि – लीलामयं , हृदा तदहमुद्वहे किमपि हेमगौरं महः।।194।।

 जिनके युगल विलोचन मद से अरुण वर्ण के हो रहे हैं । जो ( अपनी गौरता से ) कुन्दन के भी मद का मोचन करती हैं । जो महा प्रणय – माधुरी के रस – विलास में नित्य उत्साह – पूर्ण हैं एवं जिनकी उल्लसित नवीन वयः श्री अत्यन्त ललित भङ्गि – लीलामयी है । में उन अनिर्वचनीय हेम – गोर ज्योति को अपने हृदय में धारण करती हूं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°195

 मदापूर्णन्नेत्रं नव रति – रसावेश – विवशो ल्लसद्गात्रं प्राण – प्रणय – परिपाटयां परतरम् ।

गिथो गाढाश्लेषादलयमिव – जातं मरकत , द्रुत स्वर्णच्छार्य स्फुरतु मिथुनं तन्मम हृदि ।।195।।

 मद – पूणित बिलोचन , नवीन रति रसावेश विवशता से उल्लासित वपु और प्राण – सहित प्रणय – परिपाटी में परतर , ( परम श्रेष्ठ ) पारस्परिक आलिङ्गन से वलयाकार – भूत , इन्द्र – नील मणि ( श्याम ) और बीभूत स्वर्ण छविमान ( गौर ) श्यामल गौर युगल मेरे हृदय में स्फूरित हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°196

परस्परं प्रेम – रसे – निमग्न मशेष सम्मोहन रूप – केलि ।

वृन्दावनान्तर्नवकुञ्जगेहे , तन्नीलपोतं मिथुन चकास्ति ।।196।।

 जो परस्पर प्रेम रस में निमग्न हैं और जिनकी केलि सम्पूर्ण चराचर के लिये सम्मोहन रूप है । ये कोई नील – पीत युगल श्रीवृन्दावनान्तर्गत नव कुञ्ज – भवन में शोभा पा रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°197

आशास्य – दास्यं – वृषभानुजाया स्तीरे समध्यास्य च भानुजायाः ।

कदा नु वृन्दावन – कुञ्ज – बीथी ध्वहं नु राधे ह्यतिथिर्भवेयम् ।।197।।

भानु – नन्दिनी श्रीयमुना के तट में अविचल भाव से स्थिर रहकर एवं वृषभानु – नन्दिनी के दास्य – भाव को मन में धारण करके मैं वृन्दावन की कुञ्ज – वीथियों में क्या कभी अतिथि ( अभ्यागत ) होऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°198

कालिन्दी – तट – कुञ्जे , पुञ्जीभूतं रसामृतं किमपि ।

अद्भुत केलि – निधानं , निरवधि राधाभिधानमुल्लसति।।198।।

कालिन्दी – तट के कुञ्ज में कोई अनिर्वचनीय पुञ्जीभूत रसामृत एवं निरवधि जद्भुत केलि – निधान श्रीराधा नामक स्वरूप उल्लसित हो रहा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°199

 प्रीतिरिव मूर्ति – मती रस – सिन्धोः सार सम्पदिव विमला ।

 वैदग्धीनां हृदयं – काचन वृन्दावनाधिकारिणी जयति ।।199।।

 मूर्तिमती प्रीति – स्वरूपा , रस – सिन्धु की विमल सार सम्पत्ति एवं चतुर – शिरोमणि सखियों की भी हृदय – रूपा कोई अनिर्वचनीय श्रीवृन्दा बनाधिकारिणी ( स्वामिनी ) सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°200

 रसघन मोहन मूत्ति , विचित्रकेलि – महोत्सवोल्लसितम् ।

 राधा – चरण विलोडित , रुचिर शिखण्डं – हरि वन्दे ।।200।।

 जिनका रुचिर मयुर – पिच्छ श्रीराधा चरणों में यत्र – तत्र विलोडित होता रहता है तथा जो विचित्र के केलि – महोत्सव से उल्लसित हैं , मैं उन रस धन – मोहन – मूर्ति हरि ( धीकरण ) की बन्दना करती है ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°201

कदा गायं गायं मधुर – मधुरोत्या मधुभिद श्चरित्राणि स्फारामृत – रस विचित्राणि बहुशः ।

मृजन्ती तत्केली – भवनमभिरामं मलयजच्छटाभिः सिञ्चन्ती रसहृद निमग्नास्मि भविता।।201।।

मैं कब मधुसूदन के घनीभूत अमृत – रस – पूर्ण विचित्र एवं अनन्त चरित्रों का मधुर मधुर रीति से गायन करती हुई और उनके अभिराम केलि – भवन का सम्मार्जन तथा मलयज मकरन्द से सिञ्चन करती हुई रस समुद्र में निमग्न होऊंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°202

उदञ्चरोमाञ्च – प्रचय – खचितां वेपथुमतों , दधानां श्रीराधामतिमधुर लीलामय तनुम् ।

कदा वा कस्तूर्या किमपि रचयन्त्येव कुचयो विचित्रां पत्रालीमहमहह वीक्षे सुकृतिनी ॥202।।

अहो ! कस्तुरी द्वारा अपने युगल कुचों पर अनिर्वचनीय विचित्र पावली की रचना कर पुण्यवती होकर , मैं कब उन पुलकित रोमावली से शोभित , कम्पायमाद , अति मधुर लीला – मय तनु – धारिणी श्रीराधा का दर्शन करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°203

क्षणं सोत्कुर्वन्ती क्षणमथ महावेपथुमती , क्षणं श्याम श्यामेत्यमुमभिलपन्ती पुलकिता ।

महा प्रेमा कापि प्रमद मदनोद्दाम – रसदा , सदानन्दा मूर्तिर्जयति वृषभानोः कुलमणिः ।।203।।

कोई अनिर्वचनीय वृषभानु – कुल – मणि किशोरी ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं । जो सदा आनन्द की मूर्ति , महा प्रेम – स्वरूपा एवं प्रमद मदन के लिये भी श्रेष्ठतम् रस की प्रदाता हैं । ( अत्यन्त प्रेम – वैचित्य के कारण ) जो किसी क्षण सीत्कार करने लगती हैं , तो दूसरे ही क्षण अत्यन्त कम्पित होने लगती हैं फिर किसी क्षण ” हे श्याम ! हे श्याम !! ऐसा प्रलाप करने लगती हैं , और पुलकित होने लगती हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°204

यस्याः प्रेमघनाकृतेः पद – नख – ज्योत्स्ना भरस्नापित स्वान्तानां समुदेति कापि सरसा भक्तिश्चमत्कारिणी ।

सा मे गोकुल भूप – नन्दनमनश्चोरी किशोरी कदा , दास्यं दास्यति सर्व वेद – शिरसां यत्तब्रहस्यं परम् ।।204।।

जिन प्रेम – घनाकृति किशोरी के पद – नव – ज्योत्स्ना – प्रवाह में स्नान करके ( भक्त ) हृदयों में कोई अनिर्वचनीय सरस चमत्कारिणी भक्ति सम्यक रूप से उदय हा जाती है । वे गोकुल – भूप – नन्दन ( श्रीलालजी ) के भी मन का हरण करने वालो किशोरी मुझे अपना सर्व वेद – शिरोमणि ( उपनिषद् का भी परम रहस्य – रूप ) दास्य कब प्रदान करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°205

कामं तूलिकया करेण हरिणा यालक्तकैरङ्किता , नानाकेलि – विदग्ध गोप – रमणी – वृन्दे तथा वन्दिता ।

या संगुप्ततया तथोपनिषदां हृद्येव विद्योतते , सा राधा – चरण – द्वयी मम गतिर्लास्यैक- लीलामयी ।।205।।

श्रीहरि के करकमलों द्वारा तूलिका से जिसमें यथेच्छ चित्रों की रचना की गई है । जो अनेक – अनेक केलि – चतुर गोप – रमणी – वृन्दो से बन्दित है एवं जो वेद – शिरोभाग ( उपनिषदों ) के हृदय में संगुप्त भाव से विद्यमान है , वही नृत्य – लीलामयो श्रीराधा – चरण – द्वयी मेरी गति है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°206

सान्द्र प्रेम – रसौध – वर्षिणि नवोन्मीलन्महामाधुरी , साम्राज्यैक – धुरीण केलि – विभवत्कारुण्य कल्लोलिनि ।

श्रीवृन्दावनचन्द्र – चित्त – हरिणी – बन्धु स्फुरद्वागुरे , श्रीराधे नव – कुञ्ज – नागरि तव क्रीतास्मि दास्योत्सवैः ।।206।।

हे घनीभूत प्रेम रस – प्रवाह – वषिणि ! हे नवीन विकसित महामाधुरी साम्राज्य की सर्वश्रेष्ठ केलि – विभव – युक्त करुणा – कल्लोलिनि ! ( सरिते ! ) है श्रीवृन्दावन – चन्द्र के चित्त रूप मृगी – बन्धु ( हरिन ) के लिये प्रकाशमान बन्धन – रूपे ! हे नवकुञ्ज – नागरि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके दास्योत्सव में बिक चुकी हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°207

स्वेदापूरः कुसुम चयनैर्दूरतः कण्टकाङ्को , वक्षोजेऽस्यास्तिलक विलयो हंत घर्माम्भसैव ।

ओष्ठः सख्या हिम – पवनतः सव्रणो राधिके ते , क्रूरास्वेवं स्वघटितमहो गोपये प्रेष्ठसङ्गम् ।।207।।

अहो । श्रीराधिके !! आपने स्वमेव प्रियतम के सङ्गम – विहार की जो रचना की है । मैं उसे क्रूर ( हास – परायण ) सखियों से यह कहकर छिपाऊंगी , कि ” दूर प्रदेश से पुष्प – चयन करने के कारण ही प्रिय – सखी के शरीर में स्वेद – प्रवाह है , आपके वक्षोजों को भी कण्टको ने क्षत – विक्षत किया है और ओष्ठ पर जो व्रण हैं वह भी हिम – वायु के स्पर्श से ही उद्भुत हैं । “

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°208

पातं – पातं पद कमलयोः कृष्णभृङ्गेण तस्या , स्मेरास्येन्दोर्मुकुलित कुच द्वन्द्व हेमारविन्दम् ।

पीत्वा वक्त्राम्बुजमतिरसान्नूनमंतः प्रवेष्टु मत्यावेशान्नखरशिखया पाटचमानं किमीक्षे ।।208।।

क्या मैं कभी ऐसा देखूंगी कि श्री प्रिया – मुख – कमल का मधुपान करके अत्यन्त प्रेमावेश में भरे हुए श्रीकृष्ण – मधुकर निकुञ्ज – भवन के भीतर फिर प्रवेश पा लेने के लिये बार – बार श्रीराधा – चरण – कमलों में गिरकर प्रार्थना कर रहे होंगे ? और [ जब निकुञ्ज – प्रवेश हो जायगा , तब ] उन मधुर हास्य – मयी चन्द्र – मुखी ( श्रीराधा ) के मुकुलित युगल – कुच रूप कनक – कमलों को अपनी नखर – शिवाओं से विदीर्ण करते होंगे ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°209

अहो तेमी कुञ्जास्तदनुपम रासस्थलमिदं , गिरिद्रोणो सैव स्फुरति रति – रङ्गे – प्रणयिनी ।

न बोक्षे श्रीराधां हर – हर कुतोपीति शतधा विदीर्येन्त प्राणेश्वरि मम कदा हन्त हृदयम् ।।209।।

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! यह सब वही कुंजे ! वही अनुपम रासस्थल तथा रति – रङ्ग – प्रणयिनी गिरि ( गोवर्द्धन ) गुहाएं है !! किन्तु हाय ! हाय !! बड़ा खेद है कि श्रीराधा कहीं नहीं दीखती ! हे प्राणेश्वरि । ऐसा होने पर मेरा हृदय कब शतधा ( शत खण्ड ) होकर विदीर्ण हो जायगा ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°210

इहैवाभूत्कुञ्जे नव – रति – कला मोहन तनोरहोऽत्रैवानृत्यद्दयित सहिता सा रसनिधिः ।

इति स्मारं – स्मारं तव चरित – पीयूष – लहरी , कदा स्यां श्रीराधे चकित इह वृन्दावन – भुबि ।।210।।

 अहो ! मोहन – तनु थीप्रियाजी की नव – रति – कला इसी कुक्ष में अनुष्ठित हुई थी और उन रस – निधि ने अपने प्राण – प्यारे के साथ इसी स्थल पर नृत्य किया था । ” हे श्रीराध ! इस प्रकार आपकी चरितामृत लहरी का स्मरण कर – करके में कब इस वृन्दावन में चकित हो रहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°211

श्रीमद्विम्बाधरे ते स्फुरति नव सुधा – माधुरी – सिन्धु कोटिर्नैत्रान्तस्ते विकोर्णाद्भुत कुसुम धनुश्चण्ड सत्काण्डकोटिः ।

श्रीवक्षोजे तवाति प्रमद रस – कला – सार – सर्वस्व कोटिः , श्रीराधे त्वत्पदाब्जास्रवति निरवधि प्रेम – पीयूष कोटिः ।।211।।

हे श्रीराधे । आपके श्रीसम्पन्न अधर – बिम्बों से नवीन अमृत – माधुरी के कोटि – कोटि सिन्धु स्फुरित होते रहते हैं । आपके नेत्र – कोणों से पुष्प – धन्या कामदेव के कोटि – कोटि प्रचण्ड शर बिखरते रहते हैं । आपके उरोजों में अति प्रमत्त रति – कला का सार – सर्वस्व कोटि – कोटि प्रकार से शोभा पाता है और आपके श्रीचरण – कमलों से प्रेम – पीयूष – कोटि निरवधि रूप से प्रवाहित होता रहता है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°212

सान्द्रानन्दोन्मदरसघन प्रेम – पीयूष मूर्तैः , श्रीराधाया अथ मधुपतेः सुप्तयोः कुञ्ज – तल्पे ।

कुर्वाणाह मृदु – मृदु पदाम्भोज – सम्बाहनानि , शय्यान्ते कि किमपि पतिता प्राप्त तन्द्रा भवेयम् ।।212।।

निविड़ आनन्दोन्मद – रस के घनत्व से प्रकट प्रेमामृत – मूति श्रीराधा और मधुपति श्रीलालजी के कुज – शय्या पर निद्रित हो जाने पर उनके अति कोमल पद – कमलों का सम्बाहन करते – करते मैं तन्द्रा प्राप्त होने पर शय्या के समीप ही क्या लूड़क रहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°213

राधा पादारविन्दोच्छलित नव रस प्रेम – पीयूष पुञ्जे , कालिन्दी – कूल – कुञ्जे हृदि कलित महोदार माधुर्य – भावः ।

श्रीवृन्दारण्य – वीथी ललित रतिकला – नागरी तां गरीयो , गम्भीरकानुरागान्मनसि परिचरन विस्मृतान्यः कदा स्याम् ।।213।।

कितना सुन्दर यमुना तट ! श्रीराधा – चरण – कमलाङ्कीत एवं नव रस – प्रेमामृत पुञ्ज !! और उस कूल पर विराजमाना मैं ? परम सुन्दर , अत्यन्त उदार एवं मधुर भावना से भावित मेरा हृदय । कौनसी मेरी भावना ? श्रीवृन्दावन – बीथी – ललित – कला – चतुरा में और अतुल तथा गम्भीर अनुराग को एकमात्र मूर्ति श्रीस्वामिनीजी को वह मानसी सेवा परिचर्या । तो क्या होगा इससे ? क्या होगा | मैं कब इस भावना से पूर्ण होकर अन्य सब कुछ भूल जाऊँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°214

अदृष्ट्वा राधांके निमिषमपि तं नागर – मणि , तया वा खेलन्तं ललित ललितानङ्ग कलया ।

कदाहं दुःखाब्धौ सपदि पतिता मूर्च्छितवती , न तामास्वास्यार्त्ता ” सुचिरमनुशोचे निज दशाम् ।।214।।

श्रीराधा के साथ अति ललित कन्दर्प – कला – केलि करते हुए नागरमणि श्रीकृष्ण को श्रीराधा के अङ्क में निमिय – मात्र के लिये भी न देशकर मूर्छित – वती मैं दुःख सागर में एकदम पतित होकर उसी वियोगार्ता ( श्रीप्रियाजी ) को आश्वासन न दे सकने के कारण अपनी उस ( विह्वल ) दशा की कब चिर अनुशोचना करूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°215

भूयोभूयः कमलनयने कि मुधावार्यतेऽसौ , वाङ्मात्रेअ्पि स्वदनुगमनं न त्यजत्येव धूर्तः ।

किश्चिद्राधे कुच – तटी – प्रान्तमस्य प्रदीयं श्चक्षुर्द्वारा तमनुपतितं चूर्णतामेतु चेतः ।।215।।

हे कमल नयने ! आप बार – बार केवल वाणी से ही इनका निवारण कर रही हैं और ये धूर्तराज आपका अनुगमन किसी प्रकार भी छोड़ते ही नहीं ; अतएव आप कुछ ऐसा कीजिये , जिससे इनका मृदुल चित्त इनके ही चक्षु – मार्ग से आपके कुच – तटी – प्रान्त में अनुपतित होकर चूर्ण – चूर्ण हो जाय ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°216

किंवा नस्तैः सुशास्त्रैः किमथ तदितैर्वर्त्मभिः सद्गृहीतै यंत्रास्ति प्रेम – मूतैर्नहि महिम – सुधा नापि भावस्तदीयः ।

किं वा वैकुण्ठ लदम्याप्यहह परमया यत्र मे नास्ति राधा , किन्त्वाशाप्यस्तु वृन्दावन भुवि मधुरा कोटि जन्मान्तरेअ्पि ।।216।।

जिनमें प्रेम – मूर्ति श्रीराधा की महिमा – सुधा किवा उनके भाव का वर्णन नहीं है उन सुशास्त्र समूहों से अथवा उन शास्त्र – विहित , साधुजन गृहीत मार्ग – समूहों से भी हमको क्या प्रयोजन है ? अहा ! जहाँ हमारी श्रीराधा नहीं है उस बैकुण्ठ – शोमा से ही हमको क्या ? किन्तु कोटि जन्मान्तरों में भी श्रीवृन्दावन – भूमि के प्रति हमारी मधुर आशा बनी रहे , यही बाञ्चछा है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°217

श्याम – श्यामेत्यनुपम रसापूर्ण वर्णैर्जपन्ती , स्थित्वा – स्थित्वा मधुर – मधुरोत्तारमुच्चारयन्ती ।

मुक्तास्थलान्नयन गलितानश्रु विन्दून्वहन्ती , हृष्यद्रोमा प्रति – पदि चमत्कुर्वती पातु राधा ।।217।।

श्रीकृष्ण – प्रेम से विह्वल होकर जो ” श्याम श्याम ! ” इन अनुपम वर्णो का जाप करती हैं । कभी अपने बड़े – बड़े नयनों से स्थूल मुक्ता – माला के समान अश्रु – बिन्दुओं का वर्षण ( पतन ) करती हैं तथा कभी प्रियतम आगमन के सम्भ्रम से पद – पद पर चमत्कृत हो उठती हैं , वे हर्ष – पूर्ण पुलकित – रोम्नि श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°218

ताद्दङ्मृर्तिर्व्रजपति – सुतः पादयोर्में पतित्वा , दन्ताग्रेणाथ धृत्वा तृणकममलान्काकुवादान्व्रवीति ।

नित्यं चानुव्रजति कुरुते सङ्गमायोद्यमं चे त्युद्वेगं मे प्रणयिनि किमावेदयेयं नु राधे।।218।।

 हे प्रणयिनि ! हे श्रीराधे ! मोहन – मूर्ति श्रीब्रजपति – कुमार ( लालजी ) मेरे चरणों में गिरकर एवं दन्ताग्र – भाग में तृण दबा कर निष्कपट चाटुकारी की वचनावली कहते हैं और निरन्तर ही मेरा अनुगमन भी करते हैं । उद्देश्य यह है कि मैं उनका आपके साथ सङ्गम करा दूं किन्तु मैं ( श्रीलालजी के इस प्रकार मेरे साथ व्यवहार – जन्य ) अपने उद्वेग का आपसे क्या निवेदन करूं ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°219

चलल्लीलागत्या कचिदनुचल्लद्धंस मिथुनं, क्वचित्केकिन्यग्रेकृत नटन चन्द्रक्यनुकृति ।

लताश्लिष्टं शाखि प्रवरमनुकुर्वत् क्वचिदहो , विदग्ध – द्वन्द्वं तद्रमत इह वृन्दावन – भुवि ।।219।।

अहो ! वे चतुर युगल इस वृन्दावन – भूमि में कहीं लीला – पूर्ण गति द्वारा हंस – मिथुन का अनुसरण करके , कहीं मयूरी के आगे मयूर की नटन भङ्गी की अनुकृति करके एवं कहीं लता – श्लिष्ट तश्बर का अनुकरण करके क्रीड़ा कर रहे है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°220

‘ व्याकोशेन्दीवराष्टा पद – कमल रुचा हारि कान्त्या स्वयायत् कालिन्दीयं  शीतलं सेवमानम् ।

सान्द्रानंदं नव – नव रसं प्रोल्लसत्केलि – वृन्दं , ज्योतिर्द्वन्द्वं मधुर – मधुरं प्रेम – कन्दं चकास्ति ।।220।।

जिन्होंने अपनी कान्ति से विकसित इन्दीवर ( नील – कमल ) एवं स्वर्ण – कमल की शोभा को भी हरण कर लिया है और जो कालिन्दी के सुरभित एवं शीतल बायु का सेवन करते रहते हैं वह सधन आनन्द – मय , मधुराति – मधुर एवं प्रेम की उत्पत्ति – स्थान युगल – ज्योति श्रीवृन्दावन में विराजमान हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°221

कदा मधुर सारिकाः स्वरस पद्यमध्यापयत्प्रदाय कर तालिकाः क्वचन नर्तयत्केकिनम् ।

क्वचित् कनक वल्लरीवृत तमाल लीलाधनं , विदग्ध मिथुनं तदद्भुतमुदेति वृन्दावने ।।221।।

कभी मधुर – स्वरा सारिकाओं को निज रस सम्बन्धी पद्यों का अध्यापन कराते हुए , कभी ताली बजा – बजाकर मयूरों को नचाते हुए , तो कहीं कनक – लता से आवृत तमाल के लीला – धन से धनी चतुर युगल श्रीवृन्दावन में जगमगा रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°222

पत्राली ललितां कपोल – फलके नेत्राम्बुजे कज्जलं , रङ्ग बिम्बफलाधरे च कुचयोः काश्मीरजा – लेपनम् ।

श्रीराधे नव – सङ्गमाय – तरले पादांगुली – पंक्तिषु , न्यस्यन्ती प्रणयादलक्तक – रसं पूर्णा कदा स्यामहम् ।।222।।

हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थलों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अघरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन कम तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्गलाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके मैं कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°223

श्रीगोबर्द्धनं एक एव भवता पाणौ प्रयत्नाद्धृतो , राधावर्ष्मणि हेम – शैल युगले दृष्टेपि ते स्याद्भयम् ।

तद्गोपेन्द्रकुमार मा कुरु वृथा गर्व परीहासतः , कार्ह्येवं वृषभानुनन्दिनि तव प्रेयांसमाभाषये ।।223।।

” हे गोपेन्द्र कुमार ! तुम व्यर्थ गर्व क्यों करते हो ! तुमने तो केवल एक ही गोवर्धन पर्वत को प्रयत्न – पूर्वक धारण किया था , किन्तु श्रीराधा तो अपने सुन्दर शरीर पर [ एक नहीं दो- दो] हेम – शैल धारण कर रही हैं । जिन्हें देखकर ही तुम्हें भय लगता है । ” हे वृषभानु नन्दिनि ! मैं कब परिहास – पूर्वक इस प्रकार आपके प्रियतम से कहूँगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°224

अनङ्ग जय मङ्गल ध्वनित किङ्किणी डिण्डिम , स्तनादि वर ताडनैर्नखर – दन्त – धातैर्युतः ।

अहो चतुर नागरी नव – किशोरयोर्मञ्जुले , निकुञ्ज – निलयाजिरे रतिरणोत्सवो जृम्भते ।।224।।

अहो ! मञ्जुल निज – भवनाङ्गण में चतुर मागरी और नव किशोर का अनङ्ग – जय – मन – ध्वनित किङ्कणी का शब्द , स्तनादि का वर ताडन और नखर – दन्ताघात से मुक्त रति – रणोत्सव प्रकाशित हो रहा है । हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थानों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अधरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन करू तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पंक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्ग लाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके में कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°225

यूनोर्वीक्ष्य दरत्रपा नट – कलामादीशक्ष्ययन्ती दृशोवृण्याना चकितेन सञ्चित महा रत्नस्तनं चाप्युरः ।

सा काचिद्वेवृषभानुवेश्मनि सखी मालासु बालावली , मौलिः खेलति विश्व – मोहन महा सारुप्यमाचिन्वती ।।225।।

 किन्हीं दो युवक – युवती की किञ्चित् लज्जा युक्त नटकला को देखकर जिन्होंने अपने नवांकुरित सञ्चित महा रत्न – स्तनों को चकित – भाव से ढाँप लिया । ढाँप क्या लिया ? मानो , जिन्होंने यौवन की पाठशाला में नेत्रों द्वारा यह प्रथम दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार विश्व के मोहन करने वाले महा – रूप – लावण्य का सञ्चयन करती हुई कोई अनिर्वचनीय ललनावृन्द – मौलि अपने सखी – वृन्द के साथ श्रीवृषभानु – भवन में खेल रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°226

ज्योतिः पुञ्जद्वयमिदमहो मण्डलाकारमस्या , वक्षस्युन्मादयति हृदयं किं फलत्यन्यदग्रे ।

भ्रू कोदण्डं नकृतघटनं सत्कटाक्षौघ वाणैः , प्राणान्हन्यात्किमु परमतो भावि भूयो न जाने ।।226।।

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! इस ( अज्ञात – यौवना वाला ) के वक्ष पर शोभित मण्डलाकार ये दो ज्योति – पुञ्ज [ जब अभी ही ] हृदय को उन्मत्त बना रहे हैं , फिर आगे चलकर उन्माद से भी अधिक क्या फल देंगे , यह देखना है और ये सत्कटाक्ष – प्रवाह – रूप बाण – समूह भ्रू – कोदण्ड का संयोग हुए बिना ही प्राणों का हनन करते हैं तो संयोग होने पर क्या होगा , यह नहीं कहा जा सकता ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°227

भोः श्रीदामन्सुबल वृषभस्तोक कृष्णार्जुनाद्याः , किंवो दृष्टं मम नु चकिता दृग्गता नैव कुञ्ज ।

काचिद्देवी सकल भुवनाप्लाविलावण्यपूरा दूरादेवाखिलमहरत प्रेयसो वस्तु सख्युः ॥227।।

 [ श्यामसुन्दर ने कहा- ” हे श्रीदाम , सुबल , वृषभ , स्तोक – कृष्ण , अर्जुन आदि सखाओ ! तुमने क्या देखा ? मेरी चकित दृष्टि ने कुञ्ज में प्रवेश न करने पर भी जो देखा है , उसे सुनो – अपने सौन्दर्य – प्रवाह से निखिल – भुवन को डुबा देने वाली एक अवर्णनीय देवी दूर से ही अपने प्रिय सखा मुझ श्रीकृष्ण की अखिल वस्तुओं का अपहरण कर लिया है । “

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°228

गता दूरे गावो दिनमपि तुरीयांशमभजद्वयं दातुं क्षांतास्तव च जननी बत्र्मनयना ।

अकस्मात्तूष्णीके सजल नयने दीन वदने , लुठत्यस्यां भूमौ त्वयि नहि वयं प्राणिणिषवः ।।228।।

 [ सखाओं ने कहा – हे श्याम सुन्दर ! ] हमारी गाय दूर निकल गयी हैं , दिन भी समाप्त हो आया है , हम लोग भी थकित से हो चुके हैं । उधर तुम्हारी जननी मार्ग पर दृष्टि लगाये बैठी हैं इधर अकस्मात् तुम्हारे पृथ्वी पर मूच्छित हो गिरने , चुप हो जाने एवं सजल नयन , दीन बदन हो जाने के कारण हम लोग भी निश्चय है कि अब प्राण नहीं धारण करना चाहते ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°229

नासाग्रे नव मौक्तिकं सुरुचिरं स्वर्णोज्ज्वलं विभ्रती , नानाभङ्गिरनगरङ्ग विलसल्लीला तरङ्गावलिः ।

राधे त्वं प्रविलोभय ब्रज – मणि रत्नच्छटा – मञ्जरी , चित्रोदञ्चित् कञ्चुकस्थि गत्योर्वक्षोजयोः शोभया ।।229।।

है राधे ! आपने अपनी नासिका के अग्रभाग में स्वर्णोज्ज्वल रुचिर नव – मौक्तिक धारण कर रखा है और आप / स्वयं | नाना – भङ्गि – विशिष्ट अनङ्ग – रङ्ग – बिलास – युक्त लीलान्तरङ्गों की अवलि आपके मुगल वक्षोज रत्नच्छटा – पुक्त चित्र – विचित्र कञ्चुकि से रुद्ध हैं – ढ़के हैं । अब आप इनकी अनुपम शोभा से ब्रज – मणि श्रीलालजी को सम्यक् प्रकार से प्रलुब्ध करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°230

अप्रेक्षे कृत निश्चयापि सुचिरं वीक्षेत दृक्कोणतो , मौने दाढर्चमुपाश्रितापि निगदेत्तामेव याहीत्यहो ।

अस्पर्शे सुधृताशयापि करयोर्धूत्वा वहिर्यापये द्राधाया इति मानदस्थितिमहं प्रेक्षे हसन्ती कदा ।।230।।

यद्यपि [ श्रीप्रियाजी ने प्रियतम की ओर ] न देखने का निश्चय कर लिया है , फिर भी नेत्र – कोणों से उनकी ओर देर तक देखती ही रहती हैं । अहो ! [ आश्चर्य है । मौन का दृढ़ता – पूर्वक आश्रय लेकर भी ” वहीं चले जाओ ” इस प्रकार कह ही देती हैं एवं स्पर्श न करने का निश्चय करके भी उन्हें दोनों हाथ पकड़कर बाहर निकालती हैं । मैं हंसते – हंसते श्रीराधा के मान की इस दुःस्थिति को कब देखंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°231

रसागाधे राधा हृदि – सरसि हंसः करतले, लसद्वंशस्रोतस्यमृत – गुण – सङ्गः , प्रति – पदम् ।

चलत्पिच्छोत्तंसः सुरचितवतंसः प्रमदया, स्फुरद्गुञ्जा – गुच्छः स हि रसिक – मौलिर्मिलतु माम् ।।231।।

अहा ! जो श्रीराधा हृदय – रूप अगाध सरोवर के हंस हैं , जिनके करतल में मुरली शोभित है , जिस मुरली के छिद्रों से सदा अमृत – गुण ( आनन्द ) पद – पद पर झरता ही रहता है । जिनके सिर पर चञ्चल मयूर चन्द्रिका तथा कानों में प्रमदाओं द्वारा सुरचित सुन्दर कर्ण – भूपण जगमगा रहे हैं एवं जिनके गले में प्रकाशमान गुञ्जा – गुच्छ ( माला ) योभित है वे रसिक – मोलि मुझे निश्चय ही मिलें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°232

अकस्मात्कस्याश्चिन्नव – वसनमाकर्षति परां , मुरल्या धमिल्ले स्पृशति कुरुतेन्या कर धृतिम् ।

पतन्नित्यं राधा – पद – कमल – मूले प्रज – पुरे , तदित्थं वीथोषु भ्रमति स महा लम्पट – मणिः ।।232।।

अहो ! वे सहसा किसी ( गोपी ) के नव – वसन को खींचने लगते हैं , तो दूसरी के केश – पाश को मुरली से स्पर्श करते हैं और किसी का हाथ ही पकड़ लेते हैं परन्तु वही श्रीराधा – पद – कमल – मूल में सदैव लोटते ही रहते हैं । इस प्रकार ब्रज – पुर की गलियों में ये महा लम्पट – मणि ( श्रीकृष्ण ) भ्रमण करते रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°233

एकस्या रतिचौर एव चकितं चान्यास्तनान्ते करं , कृत्वा कर्षति वेणुनान्य सदृशो धम्मिल्ल – मल्ली – स्रजम् ।

धत्तेन्या भुज – बल्लिमुत्पुलकितां संकेतयत्यन्यया , राधायाः पदयोर्लुंठत्यलममुं , जाने महा लम्पटम् ।।233।।

सखी ने कहा- मैं इस महा लम्पट को खूब जानती है । यह किसी एक सखी का तो रति – चोर है और किसी अन्य के स्तन पर चकित होकर कर – स्पर्श करता है । किसी अन्य सुनयनी की कबरी – स्थित मल्ली – माल को वेणु से खोंचता है , किसी की पुलकित भुज – लता को पकड़ लेता – धारण करता है , तो किसी अन्य के सहित कुञान्तर – प्रवेश का संकेत करता है । किन्तु श्रीराधा के चरणों में सम्पूर्ण रूप से लोटता ही रहता है , ( इसकी यहाँ एक नहीं चलती ” ) ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°234

प्रियांसे निक्षिप्तोत्पुलक भुज – दण्डः क्वचिदपि , भ्रमन्वृन्दारण्ये मद – कल करीन्द्राद्भुत – गतिः ।

निजा व्यंजन्नत्यद्भुत सुरत – शिक्षां क्वचिदहो , रहः कुञ्जे गुजा ध्वनित मधुपे कोडति हरिः ।।234।।

अहो ! वे श्रीलालजी कभी तो अपनी प्रियतमा के स्कन्ध पर पुलकित भुजदण्ड स्थापित करके मदोन्मत्त करीन्द्र की भांति अद्भुत गति से श्रीवृन्दावन में विचरण करते हैं और कभी मधुप – गुञ्जन मुखरित एकान्त कुञ्ज में स्वकीय अत्यभुत सुरत – शिक्षा की अभिव्यञ्जना करते हुए क्रीड़ा करते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°235

दूरे सृष्टचादि वार्ता न कलयति मनाङ् नारदादीन्स्वभक्ता ञ्र्छीदामाद्यैः सुहृद्भिर्न मिलति हरति स्नेह वृद्धिं स्वपित्रोः ।

किंतु प्रेमैक सीमां परम रस – सुधा – सिन्धु – सारैरगाधां , श्रीराधामेव जानन्मधुपतिरनिशं कुञ्ज – वीथीमुपास्ते ।।235।।

श्रीश्यामसुन्दर ने सृष्टि आदि की चर्चा ही दूर कर दी है । वे नारदादि निज भक्तों का बिलकुल विचार भी नहीं करते । श्रीदामा आदि मित्र वर्ग के साथ भी नहीं मिलते और पिता – माता की स्नेह – वृद्धि भी नहीं चाहते । किन्तु वही मधुपति ( श्रीकृष्ण ) मधुर – रस – सुधा – सिन्धु की सारभूता अगाध प्रेम की एकमात्र सीमा श्रीराधा को ही जानकर अहर्निश कुञ्ज – वीथी में ही स्थित रहते हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°236

सुस्वादु सुरस तुन्दिलमिन्दीवर वृन्द सुन्दरं किमपि ।

अधिवृन्दाटवि नन्दति राधा – वक्षोज भूषण – ज्योतिः ।।236।।

अहो ! सुस्वादनीय सुरस से पुष्ट अनिर्वचनीय नील – कमल – समूह के समान सुन्दर एवं श्रीराधा के वक्षोज की भूषण रूप कोई ज्योति श्रीवृन्दावन में आनन्दित हो रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°237

कान्तिः कापि परोज्ज्वला नव मिलञ्छ्रीचन्द्रिकोद्भासिनी , रामाद्यद्भुत वर्ण काञ्चित् रुचिर्नित्याधिकाङ्गच्छविः ।

लज्जा – नम्रतनुः स्मयेन – मधुरा प्रीणाति केलिच्छटा , सन्मुक्ता फल चारु हार सुरुचिः स्वात्मार्पणेनाच्युतम् ।।237।।

जो नवीन प्राप्त हुई शोभामयी चन्द्रिका का प्रकाश करने वाली हैं एवं अद्भुत वर्ण की सहचरियों में जटित मणि – सदृश हैं । जिनकी अङ्गच्छबि प्रतिक्षण अधिक – अधिक बढ़ती ही रहती है और जो उज्ज्वल मुक्ताफल के सुन्दर हारों से दीप्तिमान हैं । वे कोई लज्जा – नम्र – तनु एवं मन्द मुस्कान से मधुर के लिच्छटा – रूप परम उज्ज्वल अनिर्वचनीय कान्ति [ श्रीराधा ] अपने सर्वस्व – समर्पण के द्वारा अच्युत [ श्रीलाल जी ] को सन्तुष्ट कर रही है अथवा आप स्वयं सन्तुष्ट हो रही हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°238

यन्नारदाजेश शुकैरगम्यं वृन्दावने वञ्जुल मञ्जुकुञ्जे ।

तत्कृष्ण – चेतो हरणैक विज्ञमत्रास्ति किञ्चित्परमं रहस्यम् ।।238।।

यहीं श्रीवृन्दावन में मनोहर वेतम् – कुञ्ज में नारद , अज , ईश और शुकदेव के द्वारा भी सर्वथा अगम्य , श्रीकृष्ण के चित्त का हरण करने में एकमात्र विज्ञ कोई परम रहस्य विद्यमान है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°239

लक्ष्म्या यश्च न गोचरो भवति यन्नापुः सखायः प्रभोः , सम्भाव्योपि विरञ्चि नारद शिव स्वायंभुवाद्यैर्नयः ।

यो वृन्दावननागरी पशुपति स्त्रीभाव कथं , राधामाधवयोर्ममास्तु स रहो दास्थाधिकारोत्सवः ।।239।।

अहा ! जो लक्ष्मी के भी गोचर हैं जो प्रभु श्रीकृष्ण अपने सखाओं को भी प्राप्त नहीं हैं और जो ब्रह्मा , नारद , शिव , स्वायम्भुव आदि के लिये भी गम्य नहीं हैं , किन्तु वही वृन्दावन – नागरी गोपाङ्गनाओं के भावसे ही येन – केन प्रकार से लभ्य है । मुझ वही श्रीराधा – माधव का रहस्य दास्याधि कारोत्सव प्राप्त हो ; ( ऐसी वाञ्छा है । )

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°240

उच्छिष्टामृत भुक्तवैव चरितं श्रृण्वंस्तवैव स्मरन , पादाम्भोज रजस्तवैव विचरन्कुञ्जास्तवैवालयान् ।

गायन्दिव्य गुणांस्तवैव रसदे पश्यंस्तवैवाकृतिं , श्रीराधे तनुवाङ्गमनोभिरमलै सोहं तवैवाश्रितः ।।240।।

हे श्रीराधे ! हे रसदे !! तुम्हारी ही उच्छिष्ट अमृत – भोजी मैं तुम्हारे ही चरित्रों का श्रवण करती हुई , तुम्हारे ही कुञ्जालय में विचरण करती हुई , तुम्हारे ही दिव्य गुण – गणों का गान करती हुई एवं तुम्हारी ही रसमयी आकृति ( छबि ) का दर्शन करती हुई , शुद्ध काय , मन और वचन – द्वारा केवल तुम्हारी ही आश्रिता हूँ ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°241

क्रीडन्मीनद्वयाक्ष्याः स्फुरदधरमणी – विद्रुम श्रोणि – भार , द्वीपायामोन्तराल स्मर – कलभ – कटाटोप बक्षोरुहायाः ।

गम्भीरावर्तनाभेर्वहुलहरि – महा प्रेम – पीयूष सिन्धोः , श्रीराधायाः पदाम्भोरुहपरिचरणे योग्यतामेव चिन्वे ।।241।।

जिनके युगल – नेत्र मानो क्रीड़ा करते हुए मीन हैं । देदीप्यमान अधर ही विद्रुम मणि हैं । पृथुल नितम्ब – द्वय ही दो द्वीप – विस्तार हैं । जिनके अन्तराल में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के आडम्बर ( घेरे ) के सदृश स्तन – द्वय हैं । जिनकी नाभि मानो गम्भीर भंवर और जो श्रीहरि के विपुल – प्रेमामृत की सिन्धु स्वरूपा हैं । मैं उन श्रीराधा के युगल चरणार- बिन्दों की परिचर्य्या की केवल योग्यता का ही अन्वेषण करती है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°242

मालाग्रन्थन – शिक्षया मृदु – मृदु श्रीखण्ड – निर्घर्षणादेशेनाद्भुत मोदकादि विधिभिः कुञ्जान्त सम्मार्जनैः ।

वृन्दारण्य रहः स्थलीषु विवशा प्रेमार्त्ति भारोद्गमात प्राणेशं परिचारिकैः खलु कदा दास्या मयाधीश्वरी ।।242।।

श्रीवृन्दावन के निभृत – निकुञ्ज में विराजमान और अपने प्रियतम के प्रति प्रेमार्त्तिभार के उदय से विवश , अधीश्वरी श्रीराधा पुष्प – माला गुथने को शिक्षा देकर , मृदु – मृदु चन्दन पिसने का आदेश देकर , अद्भुत मोदकादि की रचना का विधान करके एवं कुल – प्रान्त – पर्यन्त – सम्मान की आज्ञा देकर परिचर्य्या- सम्बन्धी विस्तार – कार्य में मुझे कब दासी स्वीकार करेंगी ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°243

प्रेमाम्भोधिरसोल्लसत्तरुणिमारम्भेण गम्भीर द्दग्भेदाभङ्गि मुदुस्मितामृत नव ज्योत्स्नाचित श्रीमुखी ।

श्रीराधा सुखधामनि प्रविलसद्वृन्दाटवी – सीमनि , प्रेयोङ्के रति – कौतुकानि कुरुते कन्दर्प – लीला – निधिः ।।243।।

प्रेम – समुद्र – रस के उल्लास को तरुणिमा के आरम्भ के कारण जिनकी इष्टि – भङ्गिमा गम्भीर बन रही है । भङ्गिमा – सहित मृदु मुस्कान – अमृत की नव ज्योत्स्ना से जिनका श्रीमुख शोभित हो रहा है वही कन्दर्प – लीला – निधि स्वरूपा प्रीति श्रीराधा शोभायमान वृन्दावन की सुख – धाम कुञ्ज में प्रियतम के अङ्क में रति – कौतुक कर रही है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°244

शुद्ध प्रेम – विलास – वैभव – निधिः कैशोर शोभानिधिर्वैदग्धी मधुराङ्ग भङ्गिम – निधिलविण्य – सम्पन्निधिः ।

श्रीराधा जयतान्महारसनिधिः कन्दर्प – लीला – निधिः , सौन्दर्य्यैक सुधा निधिर्मधुपतेः सर्वस्वभूतो निधिः ।।244।।

अप्राकृत प्रेम – विलास वैभव की निधि , कैशोर – शोभा की निधि , विदग्धता – पूर्ण मधुर अङ्ग – भङ्गिमा को निधि , लावण्य – सम्पत्ति की निधि , महारास की निधि , काम – लीला की निधि , सौन्दर्य की एकमात्र सुधा – निधि एवं मधुपति श्रीलालजी को सर्वस्वभूत निधि श्रीराधा की जय हो ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°245

नीलेन्दीवरवृन्दकान्ति लहरी – चौरं किशोर – द्वयं त्वय्यै तत्कुचयोश्चकास्ति किमिदं रुपेण सम्मोहनम् ।

तम्मामात्म सखीं कुरु द्वितरुणीयं नौ दृढं श्लिष्यति , स्वच्छायामभिवीक्ष्य मुह्यति हरौ राधा – स्मितं पातु नः ।।245।।

श्रीप्रियाजी के युगल कुचों में अपनी परछाईयाँ देखकर श्रीलालजी ने कहा – ‘ प्रिये ! तुम्हारे इन युगल कुचों में नील – कमल समूह की कान्ति लहरी को भी चुराने वाले दो किशोर शोभा पा रहे हैं और उनके इस अनिर्वचनीय रूप से मेरा सम्मोहन हो रहा है । अतएव अब आप मुझको अपनी सखी बना ले जिससे यह दोनों युवा हम दोनों तरुणियों का दृढ आलिङ्गन करेंगे । इस प्रकार श्रीहरि के मोह को देखकर प्रकट हुआ श्रीराधा का मृदु हास्य हमारी रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°246

सङ्गत्यापि महोत्सवेन मधुराकारां हृदि प्रेयसः , स्वच्छायामभिवीक्ष्य कौस्तुभ मणौ सम्भूत शोका – क्रुधा ।

” उत्क्षिव्य प्रिय पाणिमेव विनयेत्युषत्वा गताया बहिः , सख्यै सास्त्र निवेदतानि किमहं श्रोष्यामि ते राधिके ।।246।।

है श्रीराधे ! सुख – सङ्ग महोत्सव में सम्मिलित होने पर भी प्रियतम के हृदय – स्थित कौस्तुभ – मणि में अपना मधुराकार प्रतिबिम्ब देखकर उत्पन्न क्रोध और शोक के कारण प्रियतम के हाथ को दूर हटाकर एवं ” अविनय ‘ ऐसा कहकर बाहर गयी हुई आपका अर्थ – पूर्ण निवेदन क्या मैं सुंनुगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°247

महामणि वरस्त्रजं कुसुम सञ्चयैरञ्चितं , महा मरकत प्रभा ग्रथित मोहित श्यामलम् ।

महारस महीपतेरिव विचित्र सिद्धासनं ,कदा नु तव राधिके कबर – भारमालोकये ।।247।।

हे श्रीराधिके ! जो महामणियों की श्रेष्ठ माला एवं कुसुम – कलाप से शोभित है , जिसने महा मरकत मणि की प्रमा से ग्रथित होकर श्यामलता को भी मोहित कर रखा है और जो रसराज शृङ्गार का भी सिंहासन है , उस आपके कबरी – भार को मैं कब देखूंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°248

मध्ये – मध्ये कुसुम – खचितं रत्न – दाम्ना निबद्धं , मल्लीमाल्यैर्घन परिमलर्भूषितं लम्बमानैः ।

पश्चाद्राजन्मणिवर कृतोदार माणिक्य – गुच्छं , धम्मिल्लं ते हरि – कर – धृतं कहिं पश्यामि राधे ।।248।।

हे श्रीराधे ! बीच – बीच में पुष्पों द्वारा खचित ; रत्नों की माला से बंधी हुई ; सघन परिमल युक्तः मालती – माल – भूषित , लम्बमान ; पीछे के भाग में महामणि माणिक्य – गुच्छ से शोभित एवं श्रीहरि के हाथों द्वारा रचित आपकी वेणी को मैं कब देखूगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°249

विचित्राभिर्भङ्गी विततिभिरहो चेतसि परं , चमत्कारं यच्छंल्ललित मणि – मुक्तादि ललितः ।

रसावेशाद्वित्तः स्मर मधुर वृत्ताखिलमहोद्भुतस्ते सीमन्ते नव – कनक – पट्टो विजयते ।।249।।

अहो श्रीराधे ! आपका सीमन्त – स्थित अद्भुत कनक – पट्ट ही सर्वतः जय जयकार को प्राप्त है । वह सुन्दर कनक – पट्ट ; ललित मणि – मुक्ताओं से जटित , रसावेश सम्पत्ति एवं समस्त काम – चरित्रों से पूर्ण है । स्वामिनि ! वह कनक – पट्ट आपकी विविध भङ्गिमाओं के द्वारा मानो हमारे चित्त को परम विस्मय और आनन्द प्रदान करता है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°250

अहोद्वैधीकर्तुं कृतिभिरनुरागामृत – रस प्रवाहैः सुस्निग्धैः कुटिल रुचिर श्याम उचितः ।

इतीयं सीमन्ते नव रुचिर सिन्दूर – रचिता , सुरेखा नः प्रख्यापयितुमिव राधे विजयते।।250।।

 हे श्रीराधे ! आपके सीमन्त में यह नव – रुचिर सिन्दूर – रचित सुरेखा हमको मानो यह विज्ञापित करने के लिये ही विजय को प्राप्त हो रही है कि अनुरागामृत – रस के सुस्निग्ध प्रवाह रूप क्रिया – विशेष के द्वारा कुटिल एवं रुचिर श्याम को द्विधा करना ही उचित है ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°251

 चकोरस्ते वक्त्रामृत किरण विम्बे मधुकरस्तव श्रीपादाब्जे जघन पुलिने खजनवरः ।

 स्फुरन्मीनो जातस्त्वयि रस – सरस्यां मधुपतेः , सुखाटव्यां राधे त्वयि च हरिणस्तस्य नयनम् ।।251।।

 हे श्रीराधे ! उन मधुपति श्रीलालजी के नयन तुम्हारे मुख – चन्द्र के चकोर , ( तुम्हारे ) श्रीचरण – कमल के मधुकर जघन – पुलिन के श्रेष्ठ खञ्जन , अहो ! आपकी रस सरसो ( कुण्डिका ) के चञ्चल मीन और [ आपके ] मुख अटवी रूपी श्रीवपु के हरिण हो रहे हैं ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°252

स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा मृदु – करतलेनाङ्गमङ्ग सुशीतं , सान्द्रानन्दामृत रस – हृदे मज्जतो मधावस्य।

 अङ्के पङ्केह सुनयना प्रेम – मूर्त्तिः स्फुरन्ती , गाढ़ाश्लेषोन्नमित चिबुका चुम्बिता पातु राधा ।।252।।

 जिनके सुशीतल अङ्ग प्रत्यङ्गों को बारम्बार अपने करतलों से स्पर्श करके माधव घनीभूत आनन्दामृत – रस – समुद्र में मग्न हो

 जाते हैं , जो अपने प्रियतम के अङ्क ( गोद ) में विराजमान है , गाढ़ालिङ्गन के कारण जिनका सुन्दर चिबुक कुछ ऊपर उठ रहा है , प्रियतम ने जिसका चुम्बन भी कर लिया है , इस कारण जो और भी चञ्चल हो उठी में बह कमल – दल सुलोचना प्रेम – मूर्त्ति श्रीराधा हमारी रक्षा करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°253

सदा गायं – गायं मधुरतर राधा – प्रिय – यशः , सदा सान्द्रानन्दा नव रसद राधापति – कथाः ।

सदा स्थायं – स्थायं नव निभृत राधा – रति – वने , सदा ध्यायं – ध्यायं विवश हृदि राधा – पद – सुधाः ।।253।।

मैं श्रीराधा के नव – निभृत केलि – कुञ्ज – कानन में स्थित रहती हुई , सदा मधुरतर श्रीराधा के प्रिय यशों का तथा धनीभूत नव – नव आनन्द रस – दायी श्रीराधापति की कथाओं का बारम्बार गान करती हुई एवं श्रीराधा – पद – सुधा का सवंदा ध्यान करती हुई कब विवश हृदय होऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°254

श्याम – श्यामेत्यमृत – रस संस्त्रावि वर्णाञ्जपन्ती , प्रेमौत्कण्ठयात्क्षणमपि रोमाञ्चमुचैर्लपन्ती ।

सर्वत्रोच्चाटनमिव गता दुःख – दुःखेन पारं  काङ्क्षत्यह्नो दिनकरमलं क्रुधयती पातु राधा ।।254।।

[ प्रियतम – वियोग के भ्रम से कभी तो ] अनुपम रस स्त्रावी शब्द ” हे श्याम ! हे श्याम !! ” ऐसे जपती हैं , तो दूसरे ही क्षण प्रेमोत्कष्ठा मे रोमाञ्च सहित हो जाती हैं और उच्च – स्वर से आलाप करने लगती है । चित्तं सब ओर से उच्चाटन को प्राप्त है और बहुत दु : ख के साथ दिन के व्यतीत हो जाने की बाञ्च्छा करती हैं एवं जो [कभी – कभी] सूर्य के प्रति अत्यधिक क्रोधित हो उठती हैं । ऐसी [ विह्वला ] श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°255

कदाचिद्गायन्ती प्रियरतिकला वैभवगतिं , कदाचिद्धचायन्तीप्रिय सह भविष्यद्विलसितम् ।

अलं मुञ्चामुञ्चेत्यति मधुर मुग्ध प्रलपितैर्नयन्ती श्रीराधा दिनमिह कदा नन्दयतु नः ।।255।।

कभी प्रियतम की रति – कला – वैभव – गति ( लीला – बिलास ) का गान करती हैं , तो कभी प्रियतम के सङ्ग होने वाले भावी विलास का ध्यान करती हैं । फिर कभी ” छोड़ो ! मुझे छोड़ो ? अरे बस : हो गया ?? ” इस प्रकार मधुर एवं मुग्ध प्रलाप करती हुई दिन व्यतीत करती हैं । ये श्रीराधा हमें कब आनन्दित करेंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°256

श्रीगोविन्द ब्रज – वर – वधू – वृन्द – चूडामणिस्ते , कोटि प्राणाभ्यधिक परम प्रेष्ठ पादाजलक्ष्मीः ।

कैङ्कर्य्यैणाद्भुत नव रसेनैव मां स्वीकरोतु , भूयोभूयः प्रति मुधुरधिस्वामि सम्प्रार्थयेहम् ।।256।।

हे सर्वश्रेष्ठ स्वामिन् ! हे श्रीगोविन्द ! मैं आपसे बारम्बार यही प्रार्थना करती हूँ कि व्रज – वर – वधू – वृन्द – चूड़ामणि [श्रीप्रियाजी ] जिनकी पादाब्ज – लक्ष्मी आपको अपने कोटि – कोटि प्राणों से भी अधिक प्रिय है , मुझे अपने अद्भुत नित्य – नवीन कैङ्कर्य्य में स्वीकार करें ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°257

अनेन प्रीता मे दिशतु निज कैङ्कर्य्य – पदवी , दवीयो दृष्टीनां पदमहह राधा सुखमयी ।

निधायैवं चित्ते कुवलय – रुचि वर्ह – मुकुटं , किशोरं ध्यायामि द्रुत कनकपीतच्छवि पटम् ।।257।।

अहो ! यह जो मैं तरल – सुवर्ण – सदृश पीतच्छवि वसन एवं मयूर पिच्छ – रचित मुकुट – धारी नीलेन्दीवर – कान्ति किशोर श्रीकृष्ण को अपने हृदय में धारण करके उनका ध्यान करती है । इससे सुखमयी श्रीराधा प्रसन्न होकर दूर – दर्शी लोगों के पद – स्वरूप अपनी कैङ्कर्य्य – पदवी मुझे प्रदान करे ।

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°258

ध्यायंस्तंशिखिपिच्छमौलिमनिशं तन्नाम – सङ्कीर्तय न्नित्यं तच्चरणाम्बुजं परिचरन्तन्मन्त्रवर्य्य जपन् ।

श्रीराधा – पद – दास्यमेव परमाभीष्टं हृदा धारयन , कर्हि स्यां तदनुग्रहेण परमोद्भूतानुरागोत्सवः ।।258।।

उन शिखि – पिच्छ – मौलिधारी श्रीकृष्ण का ध्यान करती हुई , उनके नामों का कीर्तन करती हुई , उनके चरण – कमलों की नित्य – परिचर्या करती हुई , उनके मन्त्रराज का जप करती हुई एवं अपना परम अभीष्ट – श्रीराधा पद – दास्य अपने हृदय में धारण करती हुई , मैं कब उनके अनुग्रह से परम अद्भुत अनुरागोत्सव – शाली होऊंगी ?

श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°259

श्रीराधा – रसिकेन्द्र रूप गुणवद्गीतानि संश्रावयन , गुजा मञ्जुल हार – वर्ह – मुकुटाद्यावेदयंश्चाग्रतः ।

श्याम – प्रेषित पूग – माल्य नव गन्धाद्यैश्च संप्रीणयंस्त्वत्पादाब्ज नखच्छटा रस हृदे मग्नः कदा स्यामहम् ।।259।।

श्रीराधा और रसिकेन्द्र के रूप गुणादि समन्वित गीत – समूह का श्रवण करती हुई , उन [ श्रीलालजी के आगे सुन्दर गुञ्जाहार और मोर मुकुटादि समर्पण करती हुई एवं श्याम – सुन्दर द्वारा प्रेषित सुपारी , माला , नवीन – गन्ध ( वादि ) के द्वारा आपको प्रसन्न करती हुई , मैं कब आपके चरण – कमल की नखच्छटा रूप रस – सरसी में मग्न होऊंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°260

क्वासौ राधा निगमपदवी दूरगा कुत्र चासौ , कृष्णस्तस्याः कुच – कमलयोरन्तरैकान्त वासः ।
क्वाहं तुच्छः परममधमः प्राण्यहो गर्ह्य कर्मा , यत्तन्नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य ।।260।।

कहाँ तो निगम पदवी से सुदूर वर्तमान श्रीराधा और कहाँ उनके युगल – कुच – कमलों के मध्य में एकान्त भाव से निवास करने वाले श्रीकृष्ण ? अहो ! और कहाँ मैं अति अधम गर्हित – कर्मा , तुच्छ प्राणी ? इतने पर भी जो उनके नाम का स्फुरण होता है , वह निश्चय ही श्रीवृन्दावन की ही महिमा है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°261

वृन्दारण्ये नव रस – कला – कोमल प्रेम – मूर्तै , श्रीराधायाश्चरण – कमलामोद – माधुर्य्य – सीमा ।
राधा ध्यायन रसिक – तिलकेनात्त केली – विलासां , तामेवाहं कथमिह तनुं न्यस्य दासी भवेयम् ।।261।।

जिन्होंने रसिक – तिलक श्रीलालजी के साथ केलि – विलास करना स्वीकार किया है , उन नव – रस – कला – कोमल – मूर्त्ति श्रीराधा का ध्यान करती हुई क्या में किसी प्रकार इस वृन्दावन में अपने शरीर को त्याग कर उनके चरण – कमल के आमोद – माधुर्य की अवधि – स्वरूपा दासी होऊंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°262

 हा कालिन्दि त्वयि मम निधिः प्रेयसा क्षालितोद्भूत , भो भो दिव्याद्भुत तरुलतास्त्वत्कर – स्पर्श भाजः ।
 हे राधायाः रति – गृह – शुकाः हे मृगाः हे मयूराः , भूयो भूयः प्रणतिभिरहं प्रार्थये बोनुकम्पाम् ।।262।।

हा कालिन्दि ! आप मेरी निधि – स्वसपा स्वामिनि तथा प्रियतम से क्षालित हुई है । अर्थात् आप में ही उन्होंने जल – विहार किया है । अहा ! दिव्य एवं अद्भुत तरुलता गण ! तुम उनके सुकोमल कर – स्पर्श – भाजन हो । श्रीराधा – रति – गृह – निवासी हे शुको ! हे मृगी ! हे मयूरो !! बारम्बार आपकी अनुकम्पा – प्राप्ति के लिये प्रणति पूर्वक प्रार्थना करती है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°263

वहन्ती राधायाः कुच – कलश – काश्मीरजमहो , जलक्रीडा वेशाद्गलितमतुल प्रेम – रसदम् ।
इयं सा कालिन्दी विकसित नवेन्दीवर रुचि स्सदा ‘ मन्दीभूतं हृदयमिह सन्दीपयतु मे ।।263।।

अहो ! जो जल – क्रीड़ा के आवेश से प्रक्षालित एवं अनुपम कुच कलशों में लगी हुई प्रेम – रस – प्रदायिनि केशर को वहन ( प्रवाहित ) करती रहती हैं । वही यह प्रफुल्लित नील – कमल की शोभा वाली कलिन्द – नन्दिनी यमुना मेरे इस मन्दीभूत हृदय को सदा सन्दीपित ( प्रकाशित ) करें ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°264

सद्योगीन्द्र सुदृश्य सान्द्र रसदानन्दैक सन्मूर्तयः , सर्वेप्यद्भुत सन्महिम्नि मधुरे वृन्दावने सङ्गताः ।
ये क्रूरा अपि पापिनो न च सतां सम्भाष्य दृण्याश्चये , सर्वान्वस्तुतया निरीक्ष्य परम स्वाराध्य बुद्धिर्मम ।।264।।

अद्भुत महिमा – पूर्ण मधुर वृन्दावन से जिनका सङ्ग है , वे भले ही क्रुर , पापी और सज्जनों के दर्शन – सम्भाषण के अयोग्य व्यक्ति हों किन्तु वे भी योगीन्द्र – गणों के सुन्दर दर्शनीय , सघन रसदायी और एकमात्र आनन्द की मूर्ति हैं । उनको वस्तुतया – उनके वास्तविक रूप में देखकर उनके प्रति मेरी परम आराध्य बुद्धि है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°265

यद्राधा – पद – किङ्करी – कृत सम्यम्भवेद्गोचरं , ध्येयं नैव कदापि यध्द्दि विना तस्याः कृपा – स्पर्शतः ।
यत्प्रेमामृत – सिन्धु – सार रसदं पापैकभाजामपि , तद्वृन्दावन दुष्प्रवेश महिमाश्चर्य्य हृदिस्फूर्जतु ।।265।।

जो श्रीराधा – चरणों में किङ्करी – भाव – पूर्ण हृदय वालो के लिये ही सम्यक् प्रकार से द्दष्टि – गत हो सकता है , जो उन [ श्रीराधा ] की कृपा के स्पर्श बिना कदापि हृदय में नहीं आता एवं जो एकमात्र पाप – भाजनों महापापियों – को भी प्रेमामृत – सिन्धु – सार – रस का दान करता है ! उस वृन्दावन को आश्चर्य्यगयी दुष्प्रवेश – महिमा मेरे हृदय में स्फुरित हो ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°266

राधाकेलि कलासु साक्षिणि कदा वृन्दावने पावने , वत्स्यामि स्फुटमुज्वलाद्भुत रसे ‘ प्रेमक – मत्ताकृतिः ।
तेजो – रूप निकुञ्ज एव कलबन्नेत्रादि पिण्डस्वितं , तादृक्ंस्वोचित दिव्य कोमल वपुः स्वीयं समालोकये ।।266।।

मैं कब प्रेम – विवशाकृति होकर श्रीराधा – केलि के साक्षी प्रकट उज्ज्वल – अद्भुत – रस – पूर्ण एवं पवित्र वृन्दावन में निवास बसँगी ? तथा नेत्र – पिण्टों में स्थित तेजोमय निकुञ्ज की भावना करती हुई उसी के अनुसार उपयोगी अपने कोमल वपु का कब अवलोकन करूंगी ?


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°267

यत्र – यत्र मम जन्म कर्मभिर्नारकेऽथ परमे पदेऽथवा ।
राधिका – रति – निकुञ्ज – मण्डली तत्र – तत्र हृदि मे विराजताम् ।।267।।

कर्मवशतः नरक में अथवा स्वर्ग में जहाँ – जहाँ मेरा जन्म हो अथवा परम पद में ही क्यों न चला जाऊं किन्तु वहाँ – वहाँ श्रीराधा – केलि कुञ्ज – मण्डली [ श्रीप्रिया , प्रियतम , सहचरि और वृन्दावन ] मेरे हृदय में विराजमान रहे ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°268

क्वाहं मूढमतिः क्व नाम परमानन्दैक सारं रसः ‘ , श्रीराधा – चरणानुभावकथया निस्यन्दमाना गिरः ।
लग्नाः कोमल कुञ्ज पुञ्ज विलसद्वन्दाटवी – मण्डले , क्रीडच्छीवृषभानुजा – पद – नख – ज्योतिच्छटा प्रायशः ।।268।।

कहाँ तो मूढ – मति मैं ? और कहाँ परमानन्द का भी सार और रस रूप उनका श्रीनाम ? तथापि श्रीराधा के चरणानुभाव – कथन – द्वारा दोलाय- मान् मेरा वाक्य – समूह , कोमल कुञ्ज – पुञ्ज विलसित श्रीवृन्दावन में संलग्न और प्रायशः ( अधिकतर ) क्रीड़ा – परायण श्रीवृषभानु – नन्दिनी को पद – नख ज्योति की छटा से युक्त है ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°269

श्रीराधे श्रुतिभिर्बुधैर्भगवताप्यामृग्यसद्वैभवे , स्वस्तोत्र स्वकृपात्र एव सहजो योग्योप्यहं कारितः ।
पद्येनैव सदापराधिनि महन्मार्ग विरुद्धयत्वदे काशेस्नेह जलाकुलाक्षि किमपि प्रीतिं प्रसादी कुरु ।।269

हे श्रीराधे ! आपका वैभव श्रुतियों , बुधजनों एवं स्वयं भगवान के लिये भी अन्वेषणीय है किन्तु फिर भी आपकी कृपा के द्वारा आपका स्तोत्र पद्य रूप करने के लिये मैं सहज योग्य बना दिया गया हूँ , अतएव हे स्नेह – जल – पूर्ण आकुल – नयनि ! सदापराधी एवं महत् मार्गों का भी विरोध करके एक मात्र तुम्हारी ही आशा रखने वाले मुझ पर अपनी अनिर्वचनीय कृपा – प्रीति का प्रसाद दीजिये ।


श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°270

 अद्भुतानन्द लोभश्चेन्नाम्ना ‘रस-सुधा-निधि’ ।
स्तबीयं कर्ण – कलशैर्गृहीत्वा पीयतां बुधाः ।।270।।

 हे बुधजनो ! यदि आपको अद्भुत आनन्दोपभोग का लोभ हो तो इस ” रस – सुधा – निधि ” नामक स्तव को प्राप्त करके – [ ग्रहण करके ] कर्ण – कलशों से पान कीजिये ।

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रसिक नाम ध्वनि


य जय राधावल्लभ गुरु हरिवंश | रँगीलो राधावल्लभ हित हरिवंश ।।
छबीलो राधावल्लभ प्यारौ हरिवंश । रसीलो राधावल्लभ जीवन हरिवंश ।।


श्रीवृन्दावन रानी राधावल्लभ नृपति प्रशंस हित के
बस यश रस उर धरिये करिये श्रुति अवतंस ।।१।।

वंशीवट यमुनातट धीर समीर पुलिन सुख पुञ्ज ।
बिहरत रंग रँगीलो हित सौं मण्डल सेवाकुञ्ज ।। २ ।।

ललिता विशाखा चम्पक चित्रा तुंगविद्या रंगदेवी ।
इन्दुलेखा अरु सखी सुदेवी सकल यूथ हितसेवी ।।३।।

श्रीवनचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र श्रीगोपीनाथ श्रीमोहन ।
नाद विन्दु परिवार रँगीलो हितसौं नित छवि जोहन ।।४।।

नरवाहन ध्रुवदास व्यास श्रीसेवक नागरीदास ।
बीठल मोहन नवल छवीले हित चरणन की आस ।।५।।

हरीदास नाहरमल गोविन्द जैमल भुवन सुजान।
खरगसेन हरिवंशदास परमानन्द के हित प्रान ।। ६ ।।

गंगा यमुना कर्मठी अरु भागमती ये बाई ।
हित के चरण शरण हवै के इन दम्पति सम्पति पाई ।।७।।

दास चतुर्भुज कन्हर स्वामी अरु प्रबोध कल्यान ।
स्वामीलाल दामोदर पुहकर सुन्दर हित उर आन। ८ ।।

हरीदास तुलाधर और यशवन्त महामति नागर।
रसिकदास हरिकृष्ण दोऊ ये प्रेम भक्ति के सागर ।। ६ ।।

मोहन माधुरीदास द्वारिकादास परम अनुरागी ।
श्यामशाह तूमर कुल हित सौं दम्पत्ति में मति पागी ।।१०।।

श्रीहित शरण भये अरु अब हैं फेरहु जे जन हवै हैं ।
प्रेम भक्ति उर भाव चाव सौं वृन्दावन निधि पैहैं।।११ ।।

रसिक मण्डली में या तन कौं तीके ढंग लगावौ ।
दम्पति यश गावौ हरसावौ हित सौं रीझ रिझावी ।।१२।।

देवन दुर्लभ नर देही सो तें सहजहि पाई।
मन भाई निधि पाई सो क्यों जान बूझ बिसराई । । १३ ।।

एक अहंता ममता ये हैं जग में अति दुख दाई ।
ये जब श्रीजू की ओर लगे तब होत परम सुखदाई । । १४ ।।

मात तात सुत दार देह में मति अरुझै मति मन्दा ।
श्रीहितकिशोर कौ ह्वै चकोर तू लखि श्रीवृन्दावन चन्दा । ।१५ ।।

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पुत्रदा एकादशी : रविवार 21 जनवरी 2024

पुत्रदा एकादशी : रविवार 21 जनवरी 2024

सफला एकादशी 2024 की दूसरी एकादशी है.

पुत्रदा एकादशी व्रत हिंदूधर्म में मनाए जाने वालें महत्वपूर्ण व्रतों में से एक है। इस व्रत को पूरे भारत देश में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। पुत्रदा एकादशी व्रत हिंदूपंचांग के अनुसार पौषमाह में मनाया जाता है। पश्चिमी पंचांग के अनुसार यह माह हर वर्ष जनवरी में पड़ता है। कहा जाता है कि इस व्रत में भगवान विष्णु की उपासना की जाती है और उनकी आस्था में ही व्रत भी रखा जाता है। यह व्रत पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है।

एकादशी का व्रत करते क्यों है ?

आएये जानते है एकादशी व्रत करते क्यों है ? 

भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त भी एकादशी, जन्माष्टमी, रामनवमी, गौर पौर्णिमा, नरसिंह जयंती, व्यास पूजा या और अन्य वैष्णव तिथि को उपवास करते है, व्रत रखते है। इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है ? वस्तुतः भक्तोंकी कोई भी भौतिक कामना नही होती । भक्त अपने आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह व्रत करते है ।

व्रत का पालन करना यह मूल सिद्धांत न होकर, भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा बढाना यह कारण है । उपवास करनेसे मन शुद्ध होता है, मन को वश में करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी श्रद्धा बढाना यह कारण है । मन को वश में करके भगवान श्रीकृष्ण की सेवा उत्तम प्रकारसे करने के लिए उपवास सहायक होता है। भगवान श्रीकृष्ण को एकादशी का व्रत सर्वाधिक प्रिय है अतः प्रत्येक वैष्णव जन को एकादशी करनी ही चाहिए।

पारण समय : 22 जनवरी सुबह 9.19 से पहले 

पारण का मतलब होता है की व्रत की कब समाप्ति करनी है ! इसमें अन्न का कोई भी प्रसादी ग्रहण करे ! जैसे की चावल रोटी या अन्य कोई भी व्यंजन ! उसे पहले ठाकुर जी को अर्पित करे उसके बाद ग्रहण करे 

व्रत की विधि

पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो व्रत रखना चाहते हैं, उन्हें दशमी को एक बार भोजन करना चाहिए। एकादशी के दिन स्नानादि के पश्चात गंगा जल, तुलसी दल, तिल, फूल पंचामृत से भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। इस व्रत में व्रत रखने वाले बिना जल के रहना चाहिए। अगर व्रती चाहें तो संध्या काल में दीपदान के पश्चात फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी तिथि को यजमान को भोजन करवाकर उचित दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद लें तत्पश्चात भोजन करें। ध्यान देने वाली बात यह है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो यह एकादशी का व्रत रख रहे हैं उन्हें अपने जीवनसाथी के साथ इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए इससे अधिक पुण्य प्राप्त होता है।

व्रत के नियम 

व्रत-उपवास करने का महत्व सभी धर्मों में बहुत होता है। साथ ही सभी धर्मों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। खास कर हिंदू धर्म के अनुसार एकादशी व्रत करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दशमी के दिन से ही कुछ अनिवार्य नियमों का पालन करना चाहिए।
01. दशमी के दिन मांस, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल आदि निषेध वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए।
02. रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भोग-विलास से दूर रहना चाहिए।
03. एकादशी के दिन प्रात: लकड़ी का दातुन न करें, नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और अंगुली से कंठ साफ कर लें, वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी ‍वर्जित है। अत: स्वयं गिरा हुआ पत्ता लेकर सेवन करें।
04. यदि यह संभव न हो तो पानी से बारह बार कुल्ले कर लें। फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर गीता पाठ करें या पुरोहितजी से गीता पाठ का श्रवण करें।
05. फिर प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि ‘आज मैं चोर, पाखंडी़ और दुराचारी मनुष्यों से बात नहीं करूंगा और न ही किसी का दिल दुखाऊंगा। रात्रि को जागरण कर कीर्तन करूंगा।’
06. तत्पश्चात ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश मंत्र का जाप करें। राम, कृष्ण, नारायण आदि विष्णु के सहस्रनाम को कंठ का भूषण बनाएं।
07. भगवान विष्णु का स्मरण कर प्रार्थना करें और कहे कि- हे त्रिलोकीनाथ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करना।
08. यदि भूलवश किसी निंदक से बात कर भी ली तो भगवान सूर्यनारायण के दर्शन कर धूप-दीप से श्री‍हरि की पूजा कर क्षमा मांग लेना चाहिए।
09. एकादशी के दिन घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। इस दिन बाल नहीं कटवाना चाहिए। न नही अधिक बोलना चाहिए। अधिक बोलने से मुख से न बोलने वाले शब्द भी निकल जाते हैं।
10.इस दिन यथा शक्ति दान करना चाहिए। किंतु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न आदि कदापि ग्रहण न करें। दशमी के साथ मिली हुई एकादशी वृद्ध मानी जाती है।
11. वैष्णवों को योग्य द्वादशी मिली हुई एकादशी का व्रत करना चाहिए। त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण करें।
12. एकादशी (ग्यारस) के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए।
13. केला, आम, अंगूर, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करें।
14. प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिए।
15. द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणा देना चाहिए।
16. क्रोध नहीं करते हुए मधुर वचन बोलना चाहिए।
इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है और उसके जीवन के सारे कष्ट समाप्त हो जाते हैं।

व्रत की कथा

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा- “हे भगवन् ! कृपा करके यह बतलाइए कि पौष शुक्ल एकादशी का क्या नाम है उसकी विधि क्या है और उसमें कौन-से देवता का पूजन किया जाता है।” भगवान श्रीकृष्ण बोले- “हे राजन ! इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण भगवान की पूजा की जाती है। इस चर और अचर संसार में पुत्रदा एकादशी के व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है। इसकी मैं एक कथा कहता हूँ सो तुम ध्यानपूर्वक सुनो।”
भद्रावती नामक नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई पुत्र नहीं था। उसकी स्त्री का नाम शैव्या था। वह निपुत्री होने के कारण सदैव चिंतित रहा करती थी। राजा के पितर भी रो-रोकर पिंड लिया करते थे और सोचा करते थे कि इसके बाद हमको कौन पिंड देगा। राजा को भाई, बांधव, धन, हाथी, घोड़े, राज्य और मंत्री इन सबमें से किसी से भी संतोष नहीं होता था। वह सदैव यही विचार करता था कि मेरे मरने के बाद मुझको कौन पिंडदान करेगा। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं का ऋण मैं कैसे चुका सकूँगा जिस घर में पुत्र न हो उस घर में सदैव अंधेरा ही रहता है। इसलिए पुत्र उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जिस मनुष्य ने पुत्र का मुख देखा है, वह धन्य है। उसको इस लोक में यश और परलोक में शांति मिलती है अर्थात उनके दोनों लोक सुधर जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म से ही इस जन्म में पुत्र, धन आदि प्राप्त होते हैं। राजा इसी प्रकार रात-दिन चिंता में लगा रहता था।
एक समय तो राजा ने अपने शरीर को त्याग देने का निश्चय किया परंतु आत्मघात को महान पाप समझकर उसने ऐसा नहीं किया। एक दिन राजा ऐसा ही विचार करता हुआ अपने घोड़े पर चढ़कर वन को चल दिया तथा पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा। उसने देखा कि वन में मृग, व्याघ्र, सूअर, सिंह, बंदर, सर्प आदि सब भ्रमण कर रहे हैं। हाथी अपने बच्चों और हथिनियों के बीच घूम रहा है। इस वन में कहीं तो गीदड़ अपने कर्कश स्वर में बोल रहे हैं, कहीं उल्लू ध्वनि कर रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा सोच-विचार में लग गया। इसी प्रकार आधा दिन बीत गया। वह सोचने लगा कि मैंने कई यज्ञ किए, ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन से तृप्त किया फिर क्यों मुझे दुख प्राप्त हुआ ?
राजा प्यास के मारे अत्यंत दुखी हो गया और पानी की तलाश में इधर-उधर फिरने लगा। थोड़ी दूरी पर राजा ने एक सरोवर देखा। उस सरोवर में कमल खिले थे तथा सारस, हंस, मगरमच्छ आदि विहार कर रहे थे। उस सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम बने हुए थे। उसी समय राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। राजा शुभ शकुन समझकर घोड़े से उतरकर मुनियों को दंडवत प्रणाम करके बैठ गया। राजा को देखकर मुनियों ने कहा- हे राजन! हम तुमसे अत्यंत प्रसन्न हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है, सो कहो। राजा ने पूछा- महाराज आप कौन हैं, और किसलिए यहां आए हैं। कृपा करके बताइए। मुनि कहने लगे कि हे राजन! आज संतान देने वाली पुत्रदा एकादशी है, हम लोग विश्वदेव हैं और इस सरोवर में स्नान करने के लिए आए हैं। यह सुनकर राजा कहने लगा कि महाराज मेरे भी कोई संतान नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक पुत्र का वरदान दीजिए। मुनि बोले- हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी है। आप अवश्य ही इसका व्रत करें, भगवान की कृपा से अवश्य ही आपके घर में पुत्र होगा।
मुनि के वचनों को सुनकर राजा ने उसी दिन एकादशी का व्रत किया और द्वादशी को उसका पारण किया। इसके पश्चात मुनियों को प्रणाम करके महल में वापस आ गया। कुछ समय बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण किया और नौ महीने के पश्चात उनके एक पुत्र हुआ। वह राजकुमार अत्यंत शूरवीर, यशस्वी और प्रजापालक हुआ।
श्रीकृष्ण बोले- “हे राजन ! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ता या सुनता है उसे अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।”

एकादशी सेवा

अगर आपमें से कोई भी वृंदावन में संत सेवा, जीव सेवा, गौ सेवा करवाना चाहते है तो अपना नाम और सेवा राशि इस नंबर पर भेज कर स्क्रीनशॉट भेजे ! 9460500125

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Shri Banke Bihari Ji

आपने वृंदावन के बांके बिहारी जी की मान्यता के बारे में खूब सुना होगा। मथुरा के वृंदावन में बांके बिहारी जी का विशाल मंदिर है, जिसके प्रांगण मे हर दिन देश-विदेश से आए हुए भक्तों का तांता लगा रहता है।



यहाँ लाल जी के एक झलक के लिए उनके प्रेमी लालायित रहते है केवल वो ही नही बिहारी जी भी अपने भक्तों से मिलने के लिए हर दिन नये श्रृंगार का अपनी बांकी अदाओं से उनके मन मे अपनी प्रेम का संचार करते रहते है


मंदिर का इतिहास


श्री राधा वल्लभ मंदिर के पास स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1864 में हुआ था तथा यह राजस्थानी वास्तुकला का एक नमूना है। इस मंदिर के मेहराब का मुख तथा यहाँ स्थित स्तंभ इस तीन मंजिला इमारत को अनोखी आकृति प्रदान करते हैं।

कहा जाता है कि इस मन्दिर को स्वामी श्री हरिदास जी के अनुयायियों के द्वारा 1921 मे पुनर्निर्माण कराया गया था, मंदिर के निर्माण के प्रारंभ मे किसी का धन नही लगाया गया था। । यह नई संरचना एक वास्तुशिल्प चमत्कार है और अपनी भव्यता और भव्यता के साथ प्रभु की महिमा को श्रद्धांजलि देता है। कहा जाता है कि गोस्वामियों ने इस मंदिर के निर्माण में आर्थिक योगदान दिया था।

मंदिर वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है, जिसे समकालीन राजस्थानी शैली में बनाया गया है। इस दिव्य संरचना की विशाल सुंदरता शिल्पकारों और बिल्डरों के कौशल के लिए बोलती है। यह उस कठिन परिश्रम और प्रयास को भी दर्शाता है जो इसके निर्माण में चला गया। परिसर के भीतर प्रचलित वातावरण इतना पवित्र है, कि मंदिर के धार्मिक और आध्यात्मिक उत्साह से मंत्रमुग्ध कर देता है।


बिहारी जी का श्री विग्रह


इस मंदिर में बांके बिहारी की काले रंग की प्रतिमा है। इस प्रतिमा में श्री श्यामा-श्याम का मिलाजुला रूप समाया हुआ है। यह वृंदावन के लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। बनठन कर रहनेवाले व्यक्ति को हिन्दी में बांका कहा जाता है। अर्थात बांका जो भी होगा वह सजीला भी होगा या बनाव-श्रृंगार से सजीला बनता है।

जब सजीले सलोनेपन की बात आती है तो कृष्ण की छवि ही मन में उभरती है। कृष्ण जी का एक नाम बांकेबिहारी है । श्री कृष्ण हर मुद्रा में बांकेबिहारी नहीं कहे जाते बल्कि “होठों पर बांसुरी लगाए”, “कदम्ब के वृक्ष से कमर टिकाए” हुए,”एक पैर में दूसरे को फंसाए हुए” तीन कोण पर झुकी हुई मुद्रा में ही उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है.भगवान तीन जगह से टेढ़े है.होठ,कमर और पैर. इसलिए उन्हें त्रिभंगी भी कहा जाता है। यही त्रिभंगी रूप मे ही बांके बिहारी जी मंदिर मे विराजमान है जिनके वाम भाग मे राधा जी गादी पर विराजित होकर हमें अपने सेवा और दर्शन का सौभाग्य दे रहे है।


विग्रह के बारे मे


आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह वृंदावन से स्थानान्तरित हुए, परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं।

  • श्रीबाँकेबिहारी जी केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं।
  • केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं
  • जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं। जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं।
  • चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है। इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है।

इनके दर्शन की भी बड़ी निराली पद्धति है अन्य मंदिरों की भाँति इनके सामने सर झुकाया नही जाता बल्कि संतो का कहना है की इनके मोटे मोटे आँखों से अपनी आँखे मिला कर अपना सारा प्रेम उड़ेल देना चाहिए।

एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी ने देखा कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय। इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें लाल जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं।

यह कथा प्रमाण देता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं। यही कारण है कि प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। रात्रि भर रास करके यहां बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं


बिहारी जी का प्राक्ट्य


स्वामी हरिदास से प्रसन्न होकर बांके बिहारी प्रकट हुए।
संगीत सम्राट तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास जी भगवान श्री कृष्ण को अपना आराध्य मानते थे। उन्होंने अपना संगीत कन्हैया को ही समर्पित कर रखा था। वे अक्सर वृंदावन स्थित श्री कृष्ण की रास लीला स्थली निधिवन में बैठकर संगीत से अपने प्यारे कन्हैया लाल को रिझाया करते थे। जब भी स्वामी हरिदास श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होते तो श्रीकृष्ण उन्हें दर्शन देते थे। एक दिन स्वामी हरिदास के शिष्य ने कहा कि बाकी लोग भी युगल सरकार (श्रीराधेकृष्ण की जोड़ी) के दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें दुलार करना चाहते हैं। उनकी भावनाओं का ध्यान रखकर स्वामी हरिदास भजन गाने लगे।
जब श्री श्यामा-श्यामा ने उन्हें दर्शन दिए तो उन्होंने भक्तों की इच्छा उनसे जाहिर की। तब राधा कृष्ण ने उसी रूप में उनके पास ठहरने की बात कही। इस पर हरिदास ने कहा कि “प्यारे जू मैं तो संत हूं, तुम्हें तो कैसे भी रख लूंगा, लेकिन राधा रानी के लिए रोज नए आभूषण और वस्त्र कहां से लाउंगा।” भक्त की बात सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराए और इसके बाद राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे।कृष्ण राधा के इस रूप को स्वामी हरिदास ने बांके बिहारी नाम दिया। आज भी बांके बिहारी मंदिर मे भक्तो को नित्य अनुपम लीलाओ के दर्शन होते है, जो भी श्री वृंदावन धाम मे स्वच्छ मन से जाता है वह बिहारी जी के प्रेम वर्षा मे भीगे बिना रह नही सकता। श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो जाने के पश्चात्, उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया।

बिहारी जी के दर्शन की एक विशेष व्यवस्था गोस्वामियो द्वारा की गई है जिसे झांकी दर्शन कहते है। इसमे श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं।

एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। बिहारी जी पर आस्था इतनी है कि दर्शनार्थ आये भक्तों में से एक जिन्हें आँखों से कुछ नहीं दिखता था,जिज्ञासा बस पूछा बाबा आप देखने में असमर्थ है, फिर भी बिहारी जी के दर्शन हेतु पधारे हैं। उन्होंने उत्तर दिया लाला मुझे नहीं दिखता है,पर बिहारी जी मुझे देख रहे हैं।


स्वामी श्री हरिदास जी


भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक ‘सखी संप्रदाय’ के प्रवर्तक थे, जिसे ‘हरिदासी संप्रदाय’ भी कहते हैं। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। इनकी छाप रसिक है। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं।

स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम आशुधीर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है।

हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। युवा होने पर माता-पिता ने हरिदास का विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु हरिदास की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज हरिदास के चरणों में लीन हो गया।

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुँचे। वहाँ उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने श्री प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं।

श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था।

स्वामी हरिदास के शरीरान्त की तिथि मात्र संवत 1665 विक्रमी ठहरती है। उनकी रचनाएँ शैली में तुलसीदास की कविता से अधिक पूर्ववर्ती नहीं हैं, जिनका देहावसान संवत 1680 में हुआ था। अत: प्रत्येक दशा में निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में ईसवी की सोलहवीं शती के अन्त और सत्रहवीं शती के आरम्भ में विद्यमान रहे।


मंदिर कि आरतियाँ


श्री बांके बिहारी जी अति सुकुमार और विलासी ठाकुर माने गए अतः इस बात को ध्यान मे रखते हुए उनके भोग विलास मे कोई खलल ना पड़े, यहाँ केवल 3 आरतियाँ ही की जाती है,
वह इस प्रकार है :-

  • श्रृंगार आरती :- 07:45AM
  • राजभोग आरती :- 11:55PM
  • शयन आरती :- 09:30PM

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Shri Radha Govind Dev Ji

ठाकुर श्री गोविन्ददेवजी महाराज के वर्तमान मंदिर परिसर में विराजमान होते ही जैसे जयपुर का भाग्य उदय हो गया इसके पश्चात ही इनके अनुपम अलौकिक वरद हस्त के संरक्षण में18 नवम्बर सन 1727 को गंगापोल पर जयपुर की नींव का पत्थर लगाया गया। दीवान विद्याधर और नंदराम मिस्त्री द्वारा वास्तु और अंक ज्योतिष पर आधारित योजना के अनुसार सवाई जयसिंह द्वितीय ने इस शहर को बसाकर तैयार कर दिया।



मंदिर मे तो गोविंद देव जी देखने को ही विराजित है असल मे बसते तो ये जयपुर के लोगों की सांसों में हैं ! ठाकुर जी इन भक्तों के सर्वश है .. अपनी आस्था और विश्वास के इन स्रोत के लिये जयपुर वासियों का हृदय सहज ही पुकार उठता है :
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या दविणं त्वमेव, त्वमेव सर्व मम देव देव ।।

इन अहैतु के कृपा सरोवर से भक्ति की एक स्वर्गिक गंगा बह चली, वृन्दावन मानो जयपुर में जीवित हो उठा..!


मंदिर का इतिहास


गोविन्द देव जी मंदिर वृंदावन का निर्माण ई. 1590 (सं.1647) में हुआ। बादशाह अकबर के शासन काल क में उनके मशहूर सेनापती, आमेर टीला नामक स्थान पर वृन्दावन के विशाल एवं भव्य लाल पत्थर के मंदिर का निर्माण करवाया | श्री रूप गोस्वामीजी का गोलोकवास सन् १५६३ में हो चुका था और उनके उत्तराधिकारी के रूप में श्री हरिदासजी गोस्वामी भगवान गोविंद देव जी के एकल सेवाधिकारियों की कड़ी में उनके पश्चात दूसरे सेवाधिकारी बने ।

औरंगजेब के शासनकाल में जब यवनों का धार्मिक उन्माद अपनी चरम सीमा पर था, सन् 1669 में तत्कालीन सेवाधिकारी श्री शिवराम गोस्वामी इन श्रीविग्रहों को राधाकुंड और बरसाना होते हुए कामाँ और फिर गोविन्दगढ़ एवं खवा (जमवारामगढ़) ठहरकर, सन् 1707 में गोविन्दपुरा गाँव (रोपाडा) लेकर पधारे। इसके पश्चात ये आमेर घाटी में कनक वृन्दावन पहुँचे तथा फिर घाटी के ऊपर आमेर के जयनिवास में और अन्त में ये शिरोमणि श्रीविग्रह सिटी पैलेस के जयनिवास उद्यान में सूरज महल में प्रतिष्ठित हुए: और यह राजप्रासाद का सुरज महल वर्तमान के मंदिर श्री गोविंद देव जी महाराज में परिवर्तित हो गया है !


गोविंददेव जी का विग्रह


जैसी कि कथा सुनी है, गोविन्ददेवजी भगवान कृष्ण के पड़पोते श्री बज्रनाभ ने एक बार अपनी दादीजी से पूछा कि उन्होंने तो भगवान के स्वरूप के साक्षात दर्शन किये थे- कैसे थे वे? श्री बज्रनाभ शिल्प में स्वयं बहुत सिद्धहस्त थे, उनके प्रश्न के जवाब में जैसा जैसा वर्णन उनकी दादीजी ने किया उन्होंने वैसे ही श्रीविग्रह का निर्माण किया;परन्तु पहली प्रतिमा देखकर उनकी दादीजी बोली कि संपूर्ण तो नहीं लेकिन श्रीविग्रह के चरण भगवान के चरणारविंदों से मिलते हैं।श्री बज्रनाभ ने दूसरा श्रीविग्रह बनाया, इसबार उनकी दादीजी ने बताया कि इस श्रीविग्रह का वक्षस्थल भगवान को वक्षस्थल के सादृश्य है।श्री बजनाम ने फिर तीसरा श्रीविग्रह बनाया और इस श्रीविग्रह के मुखारविंद के दर्शन कर उनकी दादीजी ने घूँघट कर लिया तथा संकेत किया कि यही तो श्रीकृष्ण की ‘श्रीमुख-छवि है ! इसलिए इनके श्रीविग्रह को ‘बजकृत ‘ भी कहते हैं।

पहले श्रीविग्रह ठाकुर मदन मोहन के नाम से जाने गये, जो वर्तमान मे करौली मे विराजमान है।
दूसरे गोपिनाथजी के नाम से विख्यात हुए भगवान का यह स्वरुप पुरानी बस्ती में भव्य मंदिर में विराजित है। और तीसरे श्रीविग्रह जन-जन की साँसों में बसने वाले भगवान श्री गोविन्द देव जी इस भूमि को धन्य किया है

प्रभु की लीलाओं की नित्य सहचरी राधारानी भगवान् श्रीगोविन्ददेवजी के वाम भाग में विराजित हो कर सन् 1666 में मंदिर में प्रतिष्ठित हुई ।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार श्रीराधारानी का यह श्रीविग्रह वृंदावन मे ही था जो वहाँ सवीत और पूजित हो रहा था । यवनों के बढ़ते हुए भय से सुरक्षा हेतु वृहदभानु के स्वर्गवास के पश्चात उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र ने इस श्रीविग्रह को पुरी में चकवेध नामक स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जहाँ ये ‘लक्ष्मी ठकुरानी’ के नाम से पूजित हुई। राजा प्रतापरुद्र के पश्चात उनके पुत्र राजा पुरूषोत्तम को जब यह मालूम हुआ कि गोविंद देव जी वृन्दावन में प्रगट हो चुके हैं तो उन्होंने को जो वास्तव में शक्ति स्वरूपा आद्याशक्ति श्रीराधारानी ही थीं, इस श्रीविग्रह वृन्दावन भेजा सन् 1666 (संवत 1690) में इनका विवाह समारोह रचाया गया था।

संवत 1764 की आसोज बुदी ग्यारस को (सन् १७२७) महाराजा जयसिंहजी द्वितिय ने ठाकुर जी की इत्र सेवा के लिये सखी विशाखा का श्रीविग्रह भेंट किया जो श्रीराम गोविंद देव जी महाराज के बाँयी ओर स्थापित किया गया। बाद मे सन् 1809 में पान (ताम्बूल) सेवा के लिये महाराजा सवाई प्रताप सिंह जी ने सखि ललिता का श्रीविग्रह ठाकुरजी को भेंट किया जिनको ठाकुर जी के दाहिनी ओर स्थापित किया गया।

भगवान शालिग्राम जी के विभिन्न श्रीविग्रह एक छोटे सिंहासन पर विराजित होकर श्रीराधा गोविंद देव जी के दाहिनी ओर मौजूद हैं ये काले कास्टी पत्थर के हैं और यह पूर्व सखियों के बीच भगवान श्रीकृष्ण का छोटा सा श्रीविग्रह है-यह ‘जुगल किशारी जू सिंहासन पर विराजित है


गोविंददेव जी का प्राक्ट्य


श्री गोविन्द देवजी, श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन जी का विग्रह करीब पांच हजार साल प्राचीन माना गया है। श्री बज्रनाभ शासन की समाप्ति के बाद मथुरा और अन्य प्रांतों पर यक्ष जाति का शासन हो गया, यक्ष जाति के भय और उत्पाद को देखते हुए पुजारियों ने तीनों विग्रह को भूमि में छिपा दिया।

गुप्त शासक नृपति परम जो वैष्णव अनुयायी थे। इन्होंने भूमि में सुलाए गए स्थलों को खोजकर भगवान कृष्ण के विग्रहों को निकाल कर फिर से भव्य मंदिर बनाकर विराजित करवाया। इधर दसवीं शताब्दी में मुस्लिम शासक महमूद गजनवी के आक्रमण बढ़ गए थे तो फिर से इन विग्रहों को प्रथ्वी में छिपाकर उस जगह पर संकेत चिन्ह अंकित कर दिए गये।

कई वर्षो तक मुस्लिम शासन रहने के कारण पुजारी और भक्त इन विग्रह के बारे में भूल गए। सोलहवीं सदी में ठाकुरजी के परम भक्त चैतन्यू महाप्रभु ने अपने दो शिष्यों रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को वृन्दावन भेजकर भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने के लिये कहा। दोनों शिष्यों ने मिल के भगवान श्री कृष्ण के लीला स्थलों को खोजा।

इस दौरान भगवान श्रीगोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को सपने में दर्शन दिए और उन्हें वृन्दावन के गोमा टीले पर उनके विग्रह को खोजने को कहा। सदियों से भूमि में छिपे भगवान के विग्रह को ढूंढकर श्री रुप गोस्वामी ने एक कुटी में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की। उस समय के मुगल शासक अकबर के सेनापति और आम्बेर के राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की। सन 1590 में वृन्दावन में लाल पत्थरों का एक सप्तखण्डी भव्य मंदिर बनाकर भगवान के विग्रह को विराजित किया। मुगल साम्राज्य में इससे बड़ा और कोई देवालय नहीं बना था।


श्री रूप और सनातन गोस्वामी जी


सनातन गोस्वामी (1488-1558 ई.) चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने ‘गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय’ के अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।

.श्री रूप गोस्वामी (1496 – 1564), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। ये सनातन गोस्वामी के भाई थे।

इन दोनो भाइयो पर श्री राधारानी की अहेतु की कृपा थी जिसके कुछ प्रसंग इस प्रकार है


प्रथम प्रसंग


एक बार रूप गोस्वामी राधाकुंड के किनारे बैठकर ग्रन्थ लेखन में इतने खो गए कि उन्हें ध्यान ही न रहा कि सूरज ठीक सिर के ऊपर आ गए हैं।
झुलसाती गर्मी के दिन थे किन्तु रूप गोस्वामी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था वह निरंतर
लिखते ही जा रहे थे। दूर से आते हुए श्रील सनातन गोस्वामी ने देखा कि रूप भाव मग्न होकर लेखन कर रहे हैं…. एवं एक नवयुवती उनके पीछे खडी हो कर अपनी चुनरी से रूप गोस्वामी को छाया किये हुए है।

सनातन जैसे ही निकट पहुंचे तो देखा कि वह नवयुवती तपाये हुए सोने के रंग की एवं इतनी सुन्दर थी कि माता लक्ष्मी, पार्वती एवं सरस्वती की सुन्दरता को मिला दिया जाये तो इस नवयुवती की सुन्दरता के समक्ष तुच्छ जान पड़ते। वह नवयुवती सनातन की ओर देख कर मुस्कुराई और अन्तर्धान हो गई। सनातन ने रूप को डांटा और कहा तुम्हें तनिक भी ध्यान है कि तुम क्या कर रहे हो ?

हम लोग भगवान् के सेवक हैं और सेवक का काम है स्वामी की सेवा करना ना कि स्वामी से सेवा स्वीकार करना। अतः तुम इस प्रकार श्रीराधारानी से कैसे सेवा करवा सकते हो, आज ही तुम अपने लिए एक कुटिया बनाओ ताकि दुबारा श्रीराधारानी को तुम्हारी वजह से कष्ट ना उठाना पड़े।


द्वितीय प्रसंग


राधाकुण्ड सेवा के दौरान श्री रूप गोस्वामीजी ने कई ग्रंथों की रचना की, एक दिन उन्होंने अपने एक ग्रन्थ में राधारानी के बालों की चोटी की महिमा में लिखा कि-राधारानी के बालों की चोटी काले नाग की तरह है जो उनके कमर पर ऐसे लहराती है जैसे कोई काला विषधर भुजंग लहरा रहा हो। रूप गोस्वामी के बड़े भाई श्री सनातन गोस्वामी ने जब यह पढ़ा तो उन्होंने श्री रूप गोस्वानी को इसके लिए डांट लगाईं और कहा तुम्हें कोई बढ़िया उपमा नहीं मिली ? राधारानी की चोटी को तुम विषधर भुजंग कहते हो, इसमें तुरन्त सुधार करो।

यह आदेश देकर श्री सनातन गोस्वानी स्नान हेतु यमुनाजी की ओर चल दिए, मार्ग में एक वन पड़ा और वन में श्री सनातन गोस्वामी ने देखा कि वन के एक कोने में कुछ नवयुवतियाँ एक पेड़ में झूला बनाकर झूल रही हैं। एक नवयुवती झूले में बैठी थी एवं बाकी युवतियाँ उसे घेरे हुए थी और उसे झूला झुला रही थीं। सनातन गोस्वामी ने देखा कि जो नवयुवती झूला झूल रही है उसकी पीठ पर एक काला नाग चढ़ रहा है जो किसी भी समय उस नवयुवती को डस सकता है। सनातन गोस्वामी दौड़ते हुए उन नवयुवतियों की ओर भागे और जोर से चिल्लाए- ओ लाली जरा देखो तो तुम्हारी पीठ पर एक बड़ा ही भयंकर काला नाग चढ़ा जा रहा है सावधान रहो। किन्तु युवतियों ने उनकी आवाज नहीं सुनी और झूलने में व्यस्त रहीं।

दौड़ते हुए सनातन उन नवयुवतियों के निकट पहुँचे और फिर से उन्हें सावधान किया, उनकी आवाज सुनकर झूले में बैठी हुए अति सुन्दर नवयुवती ने झूले में बैठे-बैठे ही मुड़कर सनातन गोस्वामी को देखा और मुस्कुरा कर अपनी समस्त सखियों के साथ अन्तर्धान हो गई।

सनातन उसी समय वापस मुड़े और रूप गोस्वामी के निकट जाकर बोले- “अपने लेखन में सुधार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुमने ठीक ही लिखा है राधारानी की चोटी सचमुच काले नाग जैसी ही है।”


मंदिर कि आरतियाँ


दैनिक सेवा अष्टयाम सेवा के नाम से जानी जाती है। दर्शनार्थियों के लिये दैनिक सात झाकियाँ खोली जाती हैं। प्रत्येक झांकी के अपने मधुर भजन कीर्तन होते हैं जो या तो हिन्दी में हैं या फिर बंगाली में। जब कीर्तन अपने पूरे समाँ में होते हैं तो ऐसा लगता है मानो स्वयं प्रभु भी आनंद से भक्तो के साथ झूम रहे है !

  1. मंगला आरती :- 04:30 AM
  2. धूप आरती :- 07:45 AM
  3. श्रृंगार आरती :- 09:45 AM
  4. राजभोग आरती :- 11:15AM
  5. ग्वाल आरती :- 05:30PM
  6. संध्या आरती :- 06:30PM
  7. शयन आरती :- 08:45PM

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Shri Radharaman Lal Ji : श्री राधारमण लाल जी

श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है | श्री राधा रमण जी उन वास्तविक विग्रहों में से एक हैं, जो अब भी वृन्दावन में ही स्थापित हैं ।
अन्य विग्रह जयपुर चले गये थे, पर श्री राधा रमणजी ने कभी वृन्दावन को नहीं छोड़ा। श्री राधारमण जी 1532 से ही वृंदावन मे विराजित है मन्दिर के दक्षिण पार्श्व में श्री राधा रमण जी का प्राकट्य स्थल तथा गोपाल भट्ट गोस्वामीजी का समाधि मन्दिर है । (गोपाल भट्ट गोस्वामी जी ने ही राधारमण के विग्रह को प्रगट किया था)



राधारमण जी का प्राक्ट्य


एक बार श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी अपनी प्रचार यात्रा के समय जब गण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे, उसी समय सूर्य को अर्घ देते हुए जब अंजुली में जल लिया तो एक अद्भुत शलिग्राम शिला श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अंजुली में आ गई|

जब दुबारा अर्घ देने को जल अंजुली मे भरा तो एक और शालिग्राम आ गए इस प्रकार एक-एक कर के बारह शालिग्राम की शिलायें उन्हे प्राप्त हुई | जिन्हे लेकर श्री गोस्वामी वृन्दावन धाम आ पहुंचे और यमुना तट पर केशीघाट के निकट भजन कुटी बनाकर श्रद्धा पूर्वक शिलाओं का पूजन- अर्चन करने लगे|

एक बार वृंदावन यात्रा करते हुए एक सेठ जी ने वृंदावनस्थ समस्त श्री विग्रहों के लिए अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र आभूषण आदि भेट किये| श्री गोपाल भट्ट जी को भी उसने वस्त्र आभूषण दिए|परन्तु श्री शालीग्राम जी को कैसे वे धारण कराते श्री गोस्वामी के हृदय में भाव प्रकट हुआ कि अगर मेरे आराध्य के भी अन्य श्रीविग्रहों की भांति हस्त-पद होते तो मैं भी इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता, और इन्हें झूले पर झूलता |

यह विचार करते-करते श्री गोस्वामी जी को सारी रात नींद नहीं आई| प्रात: काल जब वह उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने देखा कि श्री शालिग्राम जी त्रिभंग ललित द्विभुज मुरलीधर श्याम रूप में विराजमान हैं । यह 1599 विक्रम संवत वैशाख शुक्ल पूर्णिमा का दिन था|

श्री गोस्वामी ने भावविभोर होकर वस्त्रालंकार विभूषित कर अपने आराध्य का अनूठा श्रृंगार किया| श्री रूप सनातन आदि गुरुजनों को बुलाया और राधारमणजी का प्राकटय महोत्सव श्रद्धापूर्वक आयोजित किया गया|राधारमण जी गोस्वामी जी के झोपड़ी के निकट एक पीपल के नीचे प्रकट हुए थे। यह वही स्थान है जहां लगभग 4,500 साल पहले रास के दौरान श्री राधारानी से कृष्ण अंतर्हित हो गए थे जो गोपाल भट्ट गोस्वामी के बुलावे पर फिर से इस विग्रह के रूप में प्रकट हुए थे। जब कृष्ण उस स्थान से गायब हो गए, तो श्री राधा ने उन्हें रमन नाम से पुकारा; वह राधा का रमन था, इस प्रकार गोस्वामी जी ने इनका नाम “राधारमण” रखा। यही श्री राधारमण जी का विग्रह आज भी श्री राधारमण मंदिर में गोस्वामी समाज द्वारा सेवित है और प्रत्येक वर्ष वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को पंचअमृत के अभिषेक के साथ प्राक्ट्य उत्सव मनाया जाता है| और इन्ही के साथ गोपाल भट्ट जी के द्वारा सेवित अन्य 11 शालिग्राम शिलाएं भी मन्दिर में स्थापित हैं ।


राधारमण जी का विग्रह


राधारमण जी का श्री विग्रह वैसे तो सिर्फ द्वादश अंगुल का है, पर इनके दर्शन इतने मनोहारी है कि जिसे देख कर कोटिक कामदेव भी मूर्छित हो जाए। नेपाल में काली-गंडकी नदी से गोपाल भट्ट जी को 12 शालिग्राम मिले जो गोस्वामी जी के प्रेम से वशिभूत होकर ललित त्रिभंग , बंशी धारी के रूप मे प्रगट हो गए।
लाल जी की पीठ शालिग्राम शिला जैसी ही दिखती है अर्थात पीछे से देखने पर शालिग्राम जी के ही दर्शन होते है। फूलो से भी कोमल चरण, वेणु वादन की मुद्रा मे हस्त कमल और श्री मुख पर अति मनोहारी मुस्कान लिए राधारमण जी भक्तो के हृदय मे रमण कर रहे है|

वृंदावन के प्राचीन विग्रहो में गोविंद, गोपीनाथ और मदनमोहन जैसे नाम थे, लेकिन बाद में जब श्री राधा के विग्रह को उन मंदिरों में स्थापित किया गया, तो उन्हें राधा-गोविंद, राधा-गोपीनाथ, राधा-मदनमोहन के रूप में जाना जाने लगा। लेकिन श्री राधारमण देव एक ही रूप में राधा और कृष्ण हैं, अतः उनके साथ राधारानी का कोई अलग विग्रह नहीं है, हालांकि राधा के पवित्र नाम की पूजा उनके वाम भाग मे की जाती है।

राधारमण जी के बारे मे एक दिलचस्प बात यह है की कृष्ण के अन्य विग्रहो के जैसे ये बांसुरी नही पकड़ते। इसका कारण गोस्वामियो द्वारा यह बताया गया है की यह विग्रह बहुत छोटा और हल्का है और ना ही किसी सतह पर टिका है अतः जब वह ऊंचाई पर अपने सिंहासन पर बैठा हो, तो वह गिर सकता है यदि उनके कोमल हाथों में बांसुरी रखते हैं या बांसुरी को हाथो के बीच से निकालते हैं। इसके अलावा भोजन ( भोग ) को खाने के दौरान हर बार बांसुरी को निकालना और बदलना पड़ेगा , जिसके परिणामस्वरूप उसके कोमल हाथों को खरोंच लग सकता है और वह गिर सकता है। इसलिए भाव मे उन्हें बंशी बजाते हुए देखते है इसलिए बंसी को विग्रह के पास विराजित किया जाता है ताकि वह हमेशा उनके साथ रहे।


श्री विग्रह के बारे मे


इनका विग्रह तीन विग्रहो का मिलाजुला रूप है जिसमे

❖ मुखारविन्द “गोविन्द देव जी” के समान|
❖ वक्षस्थल “श्री गोपीनाथ” के समान|
❖ चरणकमल “मदनमोहन जी” के समान हैं|

इनके दर्शन मे ही इन तीनो विग्रहो के दर्शन हो जाते है अतः इनके दर्शन मात्र से ही तीनो ठाकुरो के फल एक साथ प्राप्त होता है


मंदिर का इतिहास


श्री राधा रमण मंदिर एक ऐतिहासिक मंदिर है जो प्रारंभिक आधुनिक काल के समय का है। वृंदावन में सबसे पुराने मंदिरों में से एक होने के नाते, यह एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व रखता है। मंदिर से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य है, जिसके अनुसार, मंदिर के रसोईघर में लगभग 500 वर्ष से लगातार आग जलती रही है जो मंदिर के निर्माण के समय जलाया गया था और इसी आग पर मंदिर मे ठाकुर जी को लगने वाली भोग सामग्री तैयार की जाती है।

श्री राधा रमण का मंदिर लगभग 500 साल पहले गोपाल भट्ट गोस्वामी (चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों में से एक) द्वारा बनाया गया था। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने तीस साल की उम्र में वृंदावन का दौरा किया। आगमन पर, उन्होंने चैतन्य महाप्रभु का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त किया। हालांकि, आशीर्वाद कोपिन (चैतन्य का लंगोटी), पट्टा, (लकड़ी का आसन), दुपट्टा (कपड़े का लंबा टुकड़ा) के रूप में थे। इन सभी के बीच, लकड़ी की सीट अच्छी तरह से संरक्षित है, और इसलिए, मंदिर में देखा जा सकता है।


श्रीगोपालभट्ट जी


गोपाल भट्ट गोस्वामी का आविर्भाव सन् 1503, मे श्री रंगक्षेत्र में कावेरी नदी के निकट स्थित बेलगुंडी ग्राम में श्री वैंकटभट्ट जी के घर हुआ था।गोपाल भट्ट गोस्वामी गनमंजरी और अनंगा मंजरी का संयुक्त अवतार है। गनमंजरी राधारानी की नौकरानियों में से एक है, जो मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार के सुगंधित पानी की सेवा करती है। अनंगा मंजरी राधारानी की छोटी बहन हैं, और गनमंजरी की तरह उनकी सहायक और अनुयायी भी हैं।

जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण यात्रा करते हुए श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन हेतु रंगक्षेत्र पधारे, तब वहाँ वैंकटभट्ट भी उपस्थित थे, और उन्हें अपने घर पर प्रसाद का निमंत्रण दिया। उस समय महाप्रभु ने चातुर्मास श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी के ही घर में किया, तब गोपाल भट्ट की आयु 11 वर्ष की थी। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने भी महाप्रभु की हर प्रकार से सेवा की और गोपाल से महाप्रभु का भी अत्यंत स्नेह हो गया। वहाँ से प्रस्थान करते समय महाप्रभु ने ही इन्हें अध्ययन करने को कहा और वृंदावन जाने की आज्ञा दी।

माता-पिता की मृत्यु के बाद वृंदावन आकर श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्री रूप-सनातन जी के पास रहने लगे थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्य लीला मे प्रवेश के समय रूप और सनातन गोस्वामी जी को स्वप्नदेश किया कि गोपाल भट्ट जो गौड़ीय वैष्णववाद के अगले गुरु के रूप में बैठेंगे। बाद मे गोपाल भट्ट ने अपने शिष्य दामोदर दास गोस्वामी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना, और उनके आशीर्वाद से, दामोदर दास गोस्वामी और उनके वंशज श्री राधारमण लाल की सेवा करेंगे, जो सभी पीढ़ियों के लिए विद्वानों और आध्यात्मिक शिक्षकों के रूप में भक्तों का मार्गदर्शन करेंगे।

पिछले 500 वर्षों से आज तक, श्री राधारमण मंदिर के गोस्वामी महाप्रभु के आदेश और गोपाल भट्ट गोस्वामी के निर्देशों का पालन करते रहे हैं, जो दुनिया में भक्ति का प्रचार करने और श्री राधारमण की पूजा करने के उद्देश्य से अपना जीवन समर्पित करते हैं। सन 1643 की श्रावण कृष्ण पंचमी को आप नित्य लीला में प्रविष्ट हो गए|श्री राधा रमण जी के प्राकट्य स्थल के पार्श्व में इनकी पावन समाधि का दर्शन अब भी होता है|


मंदिर कि आरतियाँ


श्री राधारमण मंदिर मे अष्ट्याम यानी आठ पहर अलग-अलग भाव से आरती, श्रृंगार और दर्शन होते है जो इस प्रकार है :-

  1. मंगला आरती : 04:45AM
  2. धूप श्रृंगार आरती : 09:00AM
  3. श्रृंगार आरती : 10:15AM
  4. राजभोग आरती : 12:15AM
  5. धूप संध्या आरती : 05:15PM
  6. संध्या आरती : 06:46PM
  7. औलाइ संदर्शन : 9:00PM
  8. शयन आरती : 09:15PM

  • मंगला आरती की बेला में हमारे प्यारे श्रीराधारमण जू की जब आरती होती हैं एक तो उनके मुख-मण्डल पर अल्साय हुए दर्शन प्रतीत होते हैं सभी भक्तों को। मंगला आरती पर 3 बत्ती द्वारा आरती सेवा होती हैं।
  • धूप आरती सुबह 9 बजे की जाती हैं। जिसमें श्रीराधारमण जू सज-संवरकर अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए अति लालायित रहते हैं। जितनी प्रतीक्षा भक्तों को रहती हैं उससे कहीं ज्यादा इन्हें। धूप आरती में 1 बत्ती द्वारा सेवा होती हैं।
  • श्रृंगार आरती दर्शन में श्रीराधारमण जू को पुष्पों की माला पहनाई जाती हैं। वोह पुष्प भी धन्य अति धन्य हैं जो श्रीठाकुर-ठकुरानी के अंगों का स्पर्श करते हैं। श्रृंगार आरती सेवा 5 बत्ती द्वारा होती हैं।
  • राजभोग में आरती सेवा गर्मीयों में पुष्पों द्वारा होती हैं। सर्दियों में आरती सेवा 5 बत्ती द्वारा की जाती हैं।
  • संध्या धूप आरती समय 1 बत्ती द्वारा सेवा की जाती हैं। परन्तु अगर कोई विशेष-विशेष उत्सव हो। जैसे प्राकटय् उत्सव-श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव इत्यादि तो 13 बत्ती द्वारा सेवा की जाती हैं।
  • किसी भी उत्सव के दिन संध्या समय मे एक और आरती होती है जिसे उत्सव आरती कहते है
  • संध्या आरती में 9 बत्ती द्वारा सेवा की जाती हैं संध्या समय जो परिवेश हैं प्राँगण का। विशेष ग्रीष्म ऋतु में श्रीठाकुर-ठकुरानी जी बाहर पधारते हैं। एक-एक अंग की छवि का दर्शन आहा ! जितना कहाँ जायें कम ही होगा। रसिक जनों द्वारा समाज गायन एवं भक्तवृन्द जनों द्वारा नृत्य। ह्रदय एवं आत्मा नाच उठती हैं।
  • औलाई दर्शन का आनन्द प्राप्त होता हैं। श्रीठाकुर जी गौ-चारण के पश्चात धुल-धुसरित वस्त्रों से घर पर पधारते हैं तब श्री यशोदा मैया श्रीठाकुर जी का अच्छी तरह से मार्जन कर हल्के वस्त्र धारण करवाती हैं। क्या सीमा होगी ऐसे आनन्द की। अगर एक बार इसका चिन्तन किया जायें तो जीव इसी में डूब जायें।
  • शयन आरती की सेवा 3 बत्ती द्वारा की जाती हैं। साथ में बांसुरी वादन की मधुरतम आवाज मदमस्त कर देती हैं। मन्दिर का परिवेश बिलकुल शान्त एवं आनन्दप्रदायक हो जाता हैं।

!! श्री राधारमण लाल की जय !!


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Shri Radhavallabh Lal Ji : श्री राधावल्लभ लाल जी

श्री राधावल्लभ जी अनोखे विग्रह में राधा और कृष्ण एक ही नजर आते हैं।
इसमें आधे हिस्से में श्री राधा और आधे में श्री कृष्ण दिखाई देते हैं। माना जाता है कि जो भी सारे पाप कर्मों को त्याग कर निष्कपट होकर सच्चे मन के साथ मंदिर में प्रवेश करता है सिर्फ उस पर ही भगवान प्रसन्न होते हैं और उनके दुर्लभ दर्शन उनके लिये सुलभ हो जाते हैं। लेकिन जिनके हृद्य में प्रेम और भक्ति की भावना नहीं होती वे लाख यत्न करने पर भी दर्शन नहीं कर पाते। इसी कारण इनके दर्शन को लेकर श्रद्धालुओं में भजन-कीर्तन, सेवा-पूजा करने का उत्साह रहता है



मंदिर का इतिहास


वृंदावन के सभी मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर में नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है यहाँ प्रत्येक दिन उत्सव मनाया जाता है जिसमे व्यहूला सबसे अधिक प्रचलित है। सवा चार सौ वर्ष पहले निर्मित मूल मंदिर को मुगल बादशाह औरंगजेबके शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। तब श्री राधा वल्लभ जी के श्रीविग्रहको सुरक्षा के लिए राजस्थान से भरतपुरजिले के कामां में ले जाकर वहां के मंदिर में स्थापित किया गया और पूरे 123 वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें फिर से यहां लाया गया।

वृंदावन के क्षतिग्रस्त मंदिर के स्थान पर अन्य नए मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के आचार्य श्रीहितमोहित मराल गोस्वामी के अनुसार मुगल बादशाह अकबर ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्व के अनुरूप 180 बीघा जमीन आवंटित की थी जिसमें से 120 बीघा अकेले राधा वल्लभ मंदिर को मिली थी। यह मंदिर श्री राधा वल्लभ संप्रदायी वैष्णवों का मुख्य श्रद्धा केन्द्र है। यहां की भोग राग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशज करते हैं।

मन्दिर का निर्माण संवत 1585 में अकबर बादशाह के खजांची सुन्दरदास भटनागर ने करवाया था। मुगल मन्दिर लाल पत्थर का है और मन्दिर के ऊपर शिखर भी था, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था।


राधावल्लभ जी का विग्रह


श्री राधावल्लभ लाल जी का विग्रह है और राधावल्लभ के साथ में श्रीजी नहीं हैं केवल वामअंग में मुकुट की सेवा होती है.

हरिवंश गोस्वामी श्री राधाजी के परम भक्त थे, और वंशी के अवतार थे. उनका मानना था कि राधा की उपासना और प्रसन्नता से ही कृष्ण भक्ति का आनंद प्राप्त होता है. अतः उन्हें राधाजी के दर्शन हुए एवं एकादशी के दिन राधाजी ने उन्हें पान दिया था, अतः उनके सम्प्रदाए में एकादशी को पान वर्जित नहीं है.

हित हरिवंश जी की इस प्रेममई उपासना को सखी भाव की उपासना माना गया है. और इसी भाव को श्री राधा वल्लभ लाल जी की प्रेम और लाड भरी सेवाओं में भी देखा जा सकता है. जिस प्रेम भाव तथा कोमलता से इनकी सेवा पूजा होती है वह देखते ही बनती है. श्री राधावल्लभ लाल जी आज भी अपनी बांकी अदाओं से अपने भक्तों के मन को चुरा रहे हैं |

राधावल्लभ लाल सौंदर्य का एक ऐसा महासागर है जहाँ दिव्य प्रेम की लहरें सदा बहती हैं और हमेशा बढ़ती रहती हैं। उनके दर्शन से भीतर कुछ हलचल होती है और दिल दिव्य प्रेम का अनुभव करने लगता है। श्री राधावल्लभ लाल की उपस्थिति और उनकी निकटता किसी के जीवन को आत्मनिर्भर बनाती है और किसी भी द्वंद्व से मुक्त करती है।

सिर से पैर तक उसके दिव्य रूप की ‘परिक्रमा’ (परिधि) करने से, जीव सहज रूप से दिव्य प्रेम से भर जाता है। जो दिव्य दंपत्ति के चरण कमलों की कामना करता है, उसे श्री वृंदावन धाम में शरण लेनी चाहिए, क्योंकि यह उनका अपना दिव्य निवास है।


श्री विग्रह के बारे मे


राधावल्लभ मंदिर में विराजमान इस अनूठे विग्रह में आधे भाग में कृष्ण और आधे में राधा रानी है। यहां पर कई सदियों से एक कहावत है ‘राधा वल्लभ दर्शन दुर्लभ’। यहाँ पर आठों पहर दर्शन की ही तैयारी चलती रहती है, सखी भाव मे यहाँ अष्टायम सेवा (8 पहर की जाने वाली सेवा) मे तल्लीन रहते है।

यहां हर किसी को दर्शन नहीं होते। केवल वही व्यक्ति इस मंदिर में दर्शन कर पाते हैं जिनके ह्रदय में प्रेम है, भावुकता है और भक्ति हैं। इसी लिए यहां आने वाले भक्तजन उन्हें रिझाने के लिए भजन-कीर्तन करते हैं। उन्हें पंखा झलते हैं और यथासंभव उनकी सेवा-पूजा कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। कहा जाता है जिस पर भी भगवान राधावल्लभ प्रसन्न हो जाएं उनकी उसे अपनी प्रेम-भक्ति का दान देकर अपने निज सखियों मे शामिल कर लेते है।


राधावल्लभ जी का प्राक्ट्य


हरिवंश महाप्रभु 31वर्ष तक देव वन में रहे.अपनी आयु के 32वें वर्ष में उन्होंने दैवीय प्रेरणा से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया.मार्ग में उन्हें चिरथावलग्राम में रात्रि विश्राम करना पडा. वहां उन्होंने स्वपन में प्राप्त राधारानी के आदेशानुसार आत्मदेव जी की दो पुत्रियों के साथ विधिवत विवाह किया. बाद में उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों और कन्यादान में प्राप्त “श्री राधा वल्लभ लाल” के विग्रह को लेकर वृंदावन प्रस्थान किया.

आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह कहा से आया इसपर संतो ने लिखा है – आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे , आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । उन पूर्वज ने कहा – हमे तो कुछ माँगना आता ही नही , आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही क्रिया कर के दीजिये । भगवान शिव ने कहा “तथास्तु “। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी है । कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे । भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व है , अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके है सो देना ही पड़ेगा । भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया ।

उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है । श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये ।

हिताचार्य जब संवत् 1591में वृंदावन आए, उस समय वृंदावन निर्जन वन था. वह सर्वप्रथम यहां के कालिदेह ( जहाँ कालियनाग का मर्दन हुआ ) पर रहे. बाद में उनके शिष्य बने दस्यु सम्राट नरवाहन ने राधावल्लभलाल का मंदिर बनवाया, जहां पर हित जी ने राधावल्लभके विग्रह को संवत् 1591की कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को विधिवत् प्रतिष्ठित किया.

कार्तिक सुदी तेरस श्री “हित वृन्दावन धाम का प्राकट्य दिवस” है. सर्व प्रथम इसी दिन श्री हित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभ लाल को लेकर पधारे और मदन टेर [ ऊँची ठौर ] पर श्री राधा वल्लभ लाल को विराजमान कर लाड-लड़ाया.उन्होंने पंचकोसी वृन्दावन में रासमण्डल,सेवाकुंज,वंशीवट, धीर समीर, मानसरोवर,हिंडोल स्थल, श्रृंगार वट और वन विहार नामक लीला स्थलों को प्रकट किया |


श्री हरिवंश महाप्रभु


इनके पिता का नाम पं. व्यास मिश्र जी था और श्रीमती तारा रानी थी। इनका निवास सहारनपुर ज़िले के देववन्द गाव के कश्यप गौत्र के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे।
श्री हरिवंश जी का जन्म विक्रम संवत् 1559 में वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार को प्रातः सूर्योदयकाल में हुआ था

उस दिन मोहिनी एकादशी है जिनका जन्म व्रज भूमि पर होता है ( केवल यही एक ऐसे आचार्य है जिनका जन्म व्रज धाम पर हुआ ) जो की ठाकुर जी के बंसी का प्राकट्य है !

सभी व्रज वासी ऐसे झूमे नाचे की अपने बच्चे के जन्म पर भी नहीं नाचे ! पुरे व्रज के लोग कितना आनंद लुटने में व्यस्त थे बच्चे बुठे सब बधाई गाने लगे ! बहुत ही अध्बुध दर्शय होता है ! वो फिर अपने गाव देववन्द आ जाते है ! और वहाँ भी बहुत बड़ा उत्सव करते है !

5 दिन हो जाते है, वहाँ नर्शिंग जी आ जाते है वो सबसे पहले हरिवश जी की 7 परिकर्मा करते है व्यास जी उनसे अनुरोध करते है की इनका नामकरण भी आप ही करे व्यास जी द्वारा जन्म कुंडली बना तो लेते है पर वो पूरी तरह कृष्ण जी की थी

फिर नरशी जी उनका नाम हरिवंश रखते है ( हरि के वंश है वो इसलिए उनका नाम रखा गया ) कोई हरिवंश जी के सामने राधा नाम लेता है तो वो किलकारी मारने लगता है !

हितहरिवंश महाप्रभु जी 16 वर्ष की आयु थी
अब व्यास जी को विवाह की चिंता हुई तो महाप्रभु जी का विवाह रुक्मणी जी से हुआ । उन्होंने उनकी भक्ति को आगे ही बढ़ाया । उनकी माता तरारानी और उनके पिता जी व्यास जी की इच्छा थी कि वो राधामाधव जी का दर्शन करें तो जीवन धन्य हो जाये तो उनको भी हरिवंशजी ने ठाकुर जी के प्रत्यक्ष दर्शन कराए !! फिर पहले माता का फिर पिता का शरीर पूरा हो जाता है ! श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का निकुंजगमन संवत् 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र संवत् 1590 में हुआ !

माता पिता की मृत्यु के उपरांत श्री हरिवंशजी को श्री जी ने सपने में आकर आदेश दिया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्तिपद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें | वो भजन करते करते पैदल निकल जाते है । रास्ते मे प्रेम बाँटते जाते है रास्ते मे एक शेर लेता होता है पर हरिवंशजी को सुध नही होती है उनका पैर उस के उप्पर पड़ गया था तो शेर खड़ा हो गया तब हरिवंशजी उनकी ठोड़ी ( Chin ) पकड़ कर बोलते है भाई हरि बोल हरि बोल । उतने में शेर में भी कृष्ण प्रेम का संचार हो जाता है। शेर के साथ हरिवंशजी खूब नाचे ।

चरथावल में आत्मदेव नामक ब्राह्मण के यहां ठाकुर श्रीराधाबल्लभजी विराजमान थे। आत्मदेव को श्री राधा जी ने स्वप्न में आज्ञा दी कि अपनी दोनों पुत्रियों ( कृष्णदासी एवं मनोहरी ) का विवाह श्रीहित हरिवंशजी से कर दो और दहेज में मुझे दे देना । यही सपना श्री जी का हरिवंश जी को भी आया । आत्मदेव ने श्री राधा जी की आज्ञा बताकर श्रीहित हरिवंशजी को ठाकुर श्री राम बल्लभ जी दे दिए और अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे कर दिया। चथड़ावल गांव में ही उनकी शादी हुई ।


मंदिर की आरती


ठाकुर जी की जो सेवाएं मन्दिर में होती हैं उन्हें ” नित्य सेवा ” कहा जाता है, जिनमें “अष्ट सेवा” होती हैं. “अष्ट आयाम ” का अर्थ एक दिन के आठ प्रहर से है| ये आठ सेवाएं इस प्रकार से हैं :-

  1. मंगला आरती : 5:00 – 6:00 AM
  2. धूप श्रृंगार आरती : 8:00 – 8:30 AM
  3. श्रृंगार आरती : 8:30 – 9:00 AM
  4. राजभोग आरती : 12:30 – 1:00 PM
  5. धूप संध्या आरती :- 5:00 – 5:15 PM
  6. उत्थापन औलाई :- 5:15 – 5:30 PM
  7. संध्या आरती :- 5:30 – 6:00 PM
  8. शयन आरती :- 9:00 – 9:30 PM

यहाँ पर सात आरती एवं पाँच भोग वाली सेवा पद्धति का प्रचलन है. यहाँ के भोग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशजों द्वारा सुचारू रूप से की जाती है. वृंदावन के मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर ही ऐसा है जिसमें नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है. इसके अलावा इस मन्दिर में व्याहुला उत्सव एवं खिचड़ी महोत्सव विशेष है


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Shri Hit Chaurasi Ji : श्रीहित चौरासी जी

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श्री हित चौरासी क्या है और किसकी रचना है ?


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श्री वृन्दावन रस प्राकट्यकर्ता कर्ता वंशी स्वरूप रसिक आचार्य महाप्रभु श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी महाराज द्वारा उद्गलित श्री हित चतुरासी श्री वृन्दावन रस की वाङगमय मूर्ति है। जिस रूप को वेदों ने रसो वै सः कहकर संकेत मात्र किया उसे ही उसी रस ने श्रीहित हरिवंश के रूप में प्रगट होकर जीवों पर कृपा करने के लिए वाणी का विषय बनाया जिसे हम श्री हित चतुरासी. स्फुट वाणी एवं श्रीराधा रस सुधा निधि के रूप में जानते हैं यह वाणी समुद्र की तरह अगाध एवं अपार है जिसे उनकी कृपा से ही समझा जा सकता है।

यहाँ ध्यान दे : क्योंकि इन्होंने अत्यन्त सूक्ष्म प्रेम की बात कही है। इस सूक्ष्म प्रेम का रस गान हित चौरासी की पदावली है। यद्यपि श्रीहरिवंश कृपा के बिना उस गाना रस में किसी का प्रवेश नहीं है तथापि चक्षु प्रवेश के ही लिये सही, उस विधा का इस प्राक्कथन में दिग्दर्शन कराया गया है अतएव पाठकों से विनम्र प्रार्थना है कि “हित चौरासी’ में जो कुछ है उसे रसिक जनों की कृपा के द्वारा समझे सुनें और अन्तर्गत करें।


जोई जोई प्यारो करे सोई मोहि भावे, भावे मोहि जोई सोई सोई करे प्यारे
मोको तो भावती ठौर प्यारे के नैनन में, प्यारो भयो चाहे मेरे नैनन के तारे
मेरे तन मन प्राण हु ते प्रीतम प्रिय, अपने कोटिक प्राण प्रीतम मोसो हारे
जय श्रीहित हरिवंश हंस हंसिनी सांवल गौर, कहो कौन करे जल तरंगिनी न्यारे।।1।।


प्यारे बोली भामिनी, आजु नीकी जामिनी भेंटि नवीन मेघ सौं दामिनी ।
मोहन रसिक राइ री माई तासौं जु मान करै, ऐसी कौन कामिनी ।
(जैे श्री) हित हरिवंश श्रवन सुनत प्यारी राधिका, रमन सौं मिली गज गामिनी ।।2।।


प्रात समै दोऊ रस लंपट, सुरत जुद्ध जय जुत अति फूल।
श्रम-वारिज घन बिंदु वदन पर, भूषण अंगहिं अंग विकूल।
कछु रह्यौ तिलक सिथिल अलकावालि, वदन कमल मानौं अलि भूल।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन रँग रँगि रहे, नैंन बैंन कटि सिथिल दुकुल ।।3।।


आजु तौ जुवती तेरौ वदन आनंद भरयौ, पिय के संगम के सूचत सुख चैन।
आलस बलित बोल, सुरंग रँगे कपोल, विथकित अरुन उनींदे दोउ नैंन।।
रुचिर तिलक लेस, किरत कुसुम केस;सिर सीमंत भूषित मानौं तैं न।
करुना करि उदार राखत कछु न सार;दसन वसन लागत जब दैन।।
काहे कौं दुरत भीरु पलटे प्रीतम चीरु, बस किये स्याम सिखै सत मैंन।
गलित उरसि माल, सिथिल किंकनी जाल, (जै श्री) हित हरिवंश लता गृह सैंन ।।4।।


आजु प्रभात लता मंदिर में, सुख वरषत अति हरषि जुगल वर।
गौर स्याम अभिराम रंग भरे, लटकि लटकि पग धरत अवनि पर ।
कुच कुमकुम रंजित मालावलि, सुरत नाथ श्रीस्याम धाम धर ।
प्रिया प्रेम के अंक अलंकृत, विचित्र चतुर सिरोमनि निजु कर ।
दंपति अति मुदित कल, गान करत मन हरत परस्पर|
(जै श्री) हित हरिवंश प्रंससि परायन, गायन अलि सुर देत मधुर तर ।।5।।


कौन चतुर जुवती प्रिया, जाहि मिलन लाल चोर है रैंन ।
दुरवत क्योंअब दूरै सुनि प्यारे, रंग में गहले चैन में नैन ।।
उर नख चंद विराने पट, अटपटाे से बैन ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधापति प्रमथीत मैंन ।।6।।


आजु निकुंज मंजु में खेलत, नवल किसोर नवीन किसोरी ।
अति अनुपम अनुराग परसपर, सुनि अभूत भूतल पर जोरी ।।
विद्रुम फटिक विविध निर्मित धर, नव कर्पूर पराग न थोरी ।
कौंमल किसलय सैंन सुपेसल, तापर स्याम निवेसित गोरी ।।
मिथुन हास परिहास परायन, पीक कपोल कमल पर झोरी ।
गौर स्याम भुज कलह मनोहर, नीवी बंधन मोचत डोरी ।।
हरि उर मुकुर बिलोकि अपनपी, विभ्रम विकल मान जुत भोरी ।
चिबुक सुचारु प्रलोइ प्रवोधत, पिय प्रतिबिंब जनाइ निहोरी ।।
‘नेति नेति’ बचनामृत सुनि सुनि, ललितादिक देखतिं दुरि चोरी ।
(जै श्री) हित हरिवंश करत कर धूनन, प्रनय कोप मालावलि तोरी ।।7।।


अति ही अरुन तेरे नयन नलिन री ।
आलस जुत इतरात रंगमगे, भये निशि जागर मषिन मलिन री ।।
सिथिल पलक में उठति गोलक गति, बिंध्यौ मोंहन मृग सकत चलि न री ।
(जै श्री)हित हरिवंश हंस कल गामिनि,संभ्रम देत भ्रमरनि अलिन री ।।8।।


बनी श्रीराधा मोहन की जोरी ।
इंद्र नील मनि स्याम मनोहर, सात कुंभ तनु गोरी ।।
भाल बिसाल तिलक हरि, कामिनी चिकुर चन्द्र बिच रोरी ।
गज नाइक प्रभु चाल, गयंदनी – गति बृषभानु किसोरी ।।
नील निचोल जुवती, मोहन पट – पीत अरुन सिर खोरी
( जै श्री ) हित हरिवंश रसिक राधा पति, सूरत रंग में बोरी ।।9।।


आजु नागरी किसोर, भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं अंग अंग परम माधुरी ।
करत केलि कंठ मेलि बाहु दंड गंड – गंड,
परस, सरस रास लास मंडली जुरी ।।
स्याम – सुंदरी विहार, बाँसुरी मृदंग तार,
मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी ।
(जै श्री)देखत हरिवंश आलि, निर्तनी सुघंग चलि,
वारी फेरी देत प्राँन देह सौं दुरी।।10।।


मंजुल कल कुंज देस, राधा हरि विसद वेस, राका नभ कुमुद – बंधु, सरद जामिनी ।
सांँवल दुति कनक अंग, विहरत मिलि एक संग ;नीरद मनी नील मध्य, लसत दामिनी ।।
अरुन पीत नव दुकुल, अनुपम अनुराग मूल ; सौरभ जुत सीत अनिल, मंद गामिनी ।
किसलय दल रचित सैन, बोलत पिय चाटु बैंन ; मान सहित प्रति पद, प्रतिकूल कामिनी ।।
मोहन मन मथत मार, परसत कुच नीवी हार ; येपथ जुत नेति – नेति, बदति भामिनी ।
“नरवाहन” प्रभु सुकेलि, वहु विधि भर, भरत झेलि, सौरत रस रूप नदी जगत पावनी ।।11।।


चलहि राधिके सुजान, तेरे हित सुख निधान ; रास रच्यौ स्याम तट कलिंद नंदिनी ।
निर्तत जुवती समूह, राग रंग अति कुतूह ; बाजत रस मूल मुरलिका अनन्दिनी ।।
बंसीवट निकट जहाँ, परम रमनि भूमि तहाँ ; सकल सुखद मलय बहै वायु मंदिनी ।
जाती ईषद बिकास, कानन अतिसै सुवास ; राका निसि सरद मास, विमल चंदिनि ।।
नरवाहन प्रभु निहारी, लोचन भरि घोष नारि, नख सिख सौंदर्य काम दुख निकंदिनी ।
विलसहि भुज ग्रीव मेलि भामिनि सुख सिंधु झेलि ; नव निकुंज स्याम केलि जगत बंदिनी।।12।।


नंद के लाल हरयौं मन मोर । हौं अपने मोतिनु लर पोवति, काँकरी डारि गयो सखि भोर ।।
बंक बिलोकनि चाल छबीली, रसिक सिरोमनि नंद किसोर । कहि कैसें मन रहत श्रवन सुनि, सरस मधुर मुरली की घोर ।। इंदु गोबिंद वदन के कारन, चितवन कौं भये नैंन चकोर ।
(जै श्री )हित हरिवंश रसिक रस जुवती तू लै मिलि सखि प्राण अँकोर ।।13।।


अधर अरुन तेरे कैसे कैं दुराऊँ ?
रवि ससि संक भजन किये अपबस, अदभुत रंगनि कुसुम बनाऊँ ||
सुभ कौसेय कसिव कौस्तुभ मनि, पंकज सुतनि लेे अंगनि लुपाऊँ |
हरषित इंदु तजत जैसे जलधर, सो भ्रम ढूँढि कहाँ हों पाऊँ ||
अंबु न दंभ कछू नहीं व्यापत, हिमकर तपे ताहि कैसे कैं बुझाऊँ |
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक नवरँग पिय भृकुटि भौंह तेरे खंजन लराऊँ।।14।।


अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी,औंगी मौंगी रहति गरब की माती |
हों तोसों कहत हारी सुनी री राधिका प्यारी निसि कौ रंग क्यों न कहति लजाती ||
गलित कुसुम बैंनी सुनी री सारँग नैंनी, छूटी लट, अचरा वदति, अरसाती |
अधर निरंग रँग रच्यौ री कपोलनि, जुवति चलति गज गति अरुझाती ||
रहसि रमी छबीले रसन बसन ढीले, सिथिल कसनि कंचुकी उर राती ||
सखी सौं सुनी श्रावन बचन मुदित मन, चलि हरिवंश भवन मुसिकाती।।15।।


आज मेरे कहैं चलौ मृगनैंनी |
गावत सरस जुबति मंडल में, पिय सौं मिलैं पिक बैंनी||
परम प्रवीन कोक विद्या में, अभिनय निपुन लाग गति लैंनी |
रूप रासि सुनी नवल किसोरी, पलु पलु घटति चाँदनी रैंनी ||
(जै श्री ) हित हरिवंश चली अति आतुर, राधा रमण सुरत सुख दैंनी|
रहसि रभसि आलिंगन चुंबन, मदन कोटि कुल भई कुचैंनी ।16।।


आजु देखि व्रज सुन्दरी मोहन बनी केलि |
अंस अंस बाहु दै किसोर जोर रूप रासि, मनौं तमाल अरुझि रही सरस कनक बेलि ||
नव निकुंज भ्रमर गुंज, मंजु घोष प्रेम पुंज, गान करत मोर पिकनि अपने सुर सौं मेलि |
मदन मुदित अंग अंग, बीच बीच सुरत रंग, पलु पलु हरिवंश पिवत नैंन चषक झेलि।।17।।


सुनि मेरो वचन छबीली राधा | तैं पायौ रस सिंधु अगाधा ||
तूँ वृषवानु गोप की बेटी | मोहनलाल रसिक हँसि भेंटी ||
जाहि विरंचि उमापति नाये | तापै तैं वन फूल बिनाये ||
जौ रस नेति नेति श्रुति भाख्यौ | ताकौ तैं अधर सुधा रस चाख्यौ ||
तेरो रूप कहत नहिं आवै | (जै श्री) हित हरिवंश कछुक जस गावै ।।18।।


खेलत रास रसिक ब्रजमंडन | जुवतिन अंस दियें भुज दंडन ||
सरद विमल नभ चंद विराजै | मधुर मधुर मुरली कल बाजै ||
अति राजत घन स्याम तमाला | कंचन वेलि बनीं ब्रज बाला ||
बाजत ताल मृदंग उपंगा | गान मथत मन कोटि अनंगा ||
भूषन बहुत विविध रँग सारी | अंग सुघंग दिखावतिं नारी ||
बरषत कुसुम मुदित सुर जोषा | सुनियत दिवि दुंदुभि कल घोषा ||
(जै श्री) हित हरिवंश मगन मन स्यामा | राधा रमन सकल सुख धामा || 19 ||


मोहनलाल के रस माती | बधू गुपति गोवति कत मोसौं, प्रथम नेह सकुचाती ||
देखी सँभार पीत पट ऊपर कहाँ चूनरी राती |
टूटी लर लटकति मोतिनु की नख विधु अंकित छाती ||
अधर बिंब खंडित, मषि मंडित गंड, चलति अरुझाती |
अरुन नैंन घुँमत आलस जुत कुसुम गलित लट पाती ||
आजु रहसि मोंहन सब लूटी विविध, आपनी थाती |
(जै श्री) हित हरिवंश वचन सुनी भामिनि भवन चली मुसकाती ||20||


तेरे नैंन करत दोउ चारी |
अति कुलकात समात नहीं कहुँ मिले हैं कुंज विहारी ||
विथुरी माँग कुसुम गिरि गिरि परैं, लटकि रही लट न्यारी |
उर नख रेख प्रकट देखियत हैं, कहा दुरावति प्यारी ||
परी है पीक सुभग गंडनि पर, अधर निरँग सुकुमारी |
(जै श्री) हित हरिवंश रसिकनी भामिनि, आलस अँग अँग भारी ||21||


नैंननिं पर वारौं कोटिक खंजन |
चंचल चपल अरुन अनियारे, अग्र भाग बन्यौ अंजन ||
रुचिर मनोहर बंक बिलोकनि, सुरत समर दल गंजन |
(जै श्री)हित हरिवंश कहत न बनै छबि, सुख समुद्र मन रंजन || 22||


राधा प्यारी तेरे नैंन सलोल |
तौं निजु भजन कनक तन जोवन, लियौ मनोहर मोल ||
अधर निरंग अलक लट छूटी, रंजित पीक कपोल |
तूँ रस मगन भई नहिं जानत, ऊपर पीत निचोल ||
कुच जुग पर नख रेख प्रकट मानौं,संकर सिर ससि टोल |
(जै श्री) हित हरिवंश कहत कछू भामिनि, अति आलस सौं बोल || 23 ||


आजु गोपाल रास रस खेलत, पुलिन कलपतरु तीर री सजनी |
सरद विमल नभ चंद विराजत, रोचक त्रिविध समीर री सजनी ||
चंपक बकुल मालती मुकुलित, मत्त मुदित पिक कीर री सजनी |
देसी सुघंग राग रँग नीकौ, ब्रज जुवतिनु की भीर री सजनी ||
मघवा मुदित निसान बजायौ, व्रत छाँड़यौ मुनि धीर री सजनी |
(जै श्री)हित हरिवंश मगन मन स्यामा, हरति मदन घन पीर री सजनी || 24 ||


आजू निकी बनी श्री राधिका नागरी
ब्रज जुवति जूथ में रूप अरु चतुरई, सील सिंगार गुन सबनितें आगरी ||
कमल दक्षिण भुजा बाम भुज अंस सखि, गाँवती सरस मिलि मधुर सुर राग री |
सकल विद्या विदित रहसि ‘हरिवंश हित’, मिलत नव कुंज वर स्याम बड़ भाग री || 25 ||


मोहनी मदन गोपाल की बाँसुरी |
माधुरी श्रवन पुट सुनत सुनु राधिके, करत रतिराज के ताप कौ नासुरी ||
सरद राका रजनी विपिन वृंदा सजनि, अनिल अति मंद सीतल सहित बासु री |
परम पावन पुलिन भृंग सेवत नलिन, कल्पतरु तीर बलवीर कृत रासु री ||
सकल मंडल भलीं तुम जु हरि सौं मिलीं, बनी वर वनित उपमा कहौं कासु री |
तुम जु कंचन तनी लाल मरकत मनी, उभय कल हंस ‘हरिवंश’ बलि दासुरी || 26 ||


मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर | राजत नागरि नव कुसल किशोर ||
जूथिका जुगल रूप मञ्जरी रसाल | विथकित अलि मधु माधवी गुलाल ||
चंपक बकुल कुल विविध सरोज | केतकि मेदनि मद मुदित मनोज ||
रोचक रुचिर बहै त्रिविध समीर | मुकुलित नूत नदित पिक कीर ||
पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज | किसलय सैन रचित सुख पुंज ||
मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग | बाजत उपंग बीना वर मुख चंग ||
मृगमद मलयज कुंकुम अबीर | बंदन अगरसत सुरँगित चीर ||
गावत सुंदरी हरी सरस धमारि | पुलकित खग मृग बहत न वारि ||
(जै श्री) हित हरिवंश हंस हंसिनी समाज | ऐसे ही करौ मिलि जुग जुग राज || 27 ||


राधे देखि वन की बात |
रितु बसंत अनंत मुकुलित कुसुम अरु फल पात ||
बैंनू धुनि नंदलाल बोली, सुनिव क्यौं अर सात |
करत कतव विलंब भामिनि वृथा औसर जात ||
लाल मरकत मनि छबीलौ तुम जु कंचन गात |
बनी (श्री) हित हरिवंश जोरी उभै गुन गन मात || 28 ||


ब्रज नव तरुनी कदंब मुकुट मनि स्यामा आजु बनी |
नख सिख लौं अंग अंग माधुरी मोहे स्याम धनी||
यौं राजत कबरी गुंथित कच कनक कंज वदनी |
चिकुर चंद्रिकनि बीच अरध बिधु मानौं ग्रसित फनी ||
सौभग रस सिर स्त्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी |
भृकुटि काम कोदंड नैंन सर कज्जल रेख अनी ||
तरल तिलक तांटक गंड पर नासा जलज मनी |
दसन कुंद सरसाधर पल्लव प्रीतम मन समनी ||
चिबुक मध्य अति चारु सहज सखि साँवल बिंदु कनी |
प्रीतम प्रान रतन संपुट कुच कंचुकि कसिब तनी ||
भुज मृनाल वल हरत वलय जुत परस सरस श्रवनी |
स्याम सीस तरु मनौं मिडवारी रची रुचिर रवनी ||
नाभि गम्भीर मीन मोहन मन खेलत कौं हृदनी |
कृस कटि पृथु नितंब किंकिनि वृत कदलि खंभ जघनी ||
पद अंबुज जावक जुत भूषन प्रीतम उर अवनी |
नव नव भाइ विलोभि भाम इभ विहरत वर कारिनी ||
(जै श्री) हित हरिवंश प्रसंसिता स्यामा कीरति विसद घनी |
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विस्व दुरित दवनी || 29 ||


देखत नव निकुंज सुनु सजनी लागत है अति चारु |
माधविका केतकी लता ले रच्यौ मदन आंगारु ||
सरद मास राका निसि सीतल मंद सुगंध समीर|
परिमल लुब्ध मधुव्रत विथकित नदित कोकिला कीर||
वहु विध रङ्ग मृदुल किसलय दल निर्मित पिय सखि सेज |
भाजन कनक विविध मधु पूरित धरे धरनी पर हेज ||
तापर कुसल किसोर किसोरी करत हास परिहास |
प्रीतम पानि उरज वर परसत प्रिया दुरावति वास ||
कामिनि कुटिल भृकुटि अवलोकत दिन प्रतिपद प्रतिकूल |
आतुर अति अनुराग विवस हरि धाइ धरत भुज मूल ||
नगर नीवी बन्धन मोचत एंचत नील निचोल |
बधू कपट हठ कोपि कहत कल नेति नेति मधु बोल ||
परिरंभन विपरित रति वितरत सरस सुरत निजु केलि |
इंद्रनील मनिनय तरु मानौं लसन कनक की बेली ||
रति रन मिथुन ललाट पटल पर श्रम जल सीकर संग |
ललितादिक अंचल झकझोरति मन अनुराग अभंग ||
(जै श्री) हित हरिवंश जथामति बरनत कृष्ण रसामृत सार |
श्रवन सुनत प्रापक रति राधा पद अंबुज सुकुमार||30||


आजु अति राजत दम्पति भोर |
सुरत रंग के रस में भीनें नागरि नवल किशोर ||
अंसनि पर भुज दियें विलोकत इंदु वदन विवि ओर |
करत पान रस मत्त परसपर लोचन तृषित चकोर ||
छूटी लटनि लाल मन करष्यौ ये याके चित चोर |
परिरंभन चुंबन मिलि गावत सुर मंदर कल घोर ||
पग डगमगत चलत बन विहरन रुचिर कुंज घन खोर |
(जै श्री) हित हरिवंश लाल ललना मिलि हियौ सिरावत मोर ||31||


आजु बन क्रीडत स्यामा स्याम ||
सुभग बनी निसि सरद चाँदनी, रुचिर कुंज अभिराम ||
खंडत अधर करत पारिरंभन, ऐचत जघन दुकूल |
उर नख पात तिरीछी चितवन, दंपति रस सम तूल ||
वे भुज पीन पयोधर परसत, वाम दृशा पिय हार |
वसननि पीक अलक आकरषत, समर श्रमित सत मार ||
पलु पलु प्रवल चौंप रस लंपट, अति सुंदर सुकुमार |
(जै श्री) हित हरिवंश आजु तृन टूटत हौं बलि विसद विहार ||32||


आजु बन राजत जुगल किसोर |
नंद नँदन वृषभानु नंदिनी उठे उनीदें भोर ||
डगमगात पग परत सिथिल गति परसत नख ससि छोर |
दसन बसन खंडित मषि मंडित गंड तिलक कछु थोर||
दुरत न कच करजनि के रोकें अरुन नैन अलि चोर |
(जै श्री) हित हरिवंश सँभार न तन मन सुरत समुद्र झकोर ||33||


बन की कुंजनि कुंजनि डोलनि |
निकसत निपट साँकरी बीथिनु, परसत नाँहि निचोलनि ||
प्रात काल रजनी सब जागे, सूचत सुख दृग लोलनि |
आलसवंत अरुन अति व्याकुल, कछु उपजत गति गोलनि ||
निर्तनि भृकुटि वदन अंबुज मृदु, सरस हास मधु बोलनि |
अति आसक्त लाल अलि लंपट, बस कीने बिनु मोलनि ||
विलुलित सिथिल श्याम छूटी लट, राजत रुचिर कपोलनि |
रति विपरित चुंबन परिरंभन, चिबुक चारु टक टोलनि ||
कबहुँ श्रमित किसलय सिज्या पर, मुख अंचल झकझोलनि |
दिन हरिवंश दासि हिय सींचत, वारिधि केलि कलोलनि ||34||


झूलत दोऊ नवल किसोर |
रजनी जनित रंग सुख सुचत अंग अंग उठि भोर ||
अति अनुराग भरे मिलि गावत सुर मंदर कल घोर |
बीच बीच प्रीतम चित चोरति प्रिया नैंन की कोर ||
अबला अति सुकुमारि डरत मन वर हिंडोर झँकोर|
पुलकि पुलकि प्रीतम उर लागति दे नव उरज अँकोर||
अरुझी विमल माल कंकन सौं कुंडल सौं कच डोर |
वेपथ जुत क्यों बनै विवेचत आनँद बढ़यौ न थोर ||
निरखि निरखि फूलतीं ललितादिक विवि मुख चंद चकोर |
दे असीस हरिवंश प्रसंसत करि अंचल की छोर ||35||


आजु बन नीकौ रास बनायौ |
पुलिन पवित्र सुभग जमुना तट मोहन बैंनु बजायौ ||
कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृग सचु पायौ |
जुवतिनु मंडल मध्य स्याम घन सारँग राग जमायौ ||
ताल मृदङ्ग उपंग मुरज डफ मिलि रससिंधु बढ़ायौ |
विविध विशद वृषभानु नंदिनी अंग सुघंग दिखायौ ||
अभिनय निपुन लटकि लट लोचन भृकुटि अनंग नचायौ |
ताता थेई ताथेई धरत नौतन गति पति ब्रजराज रिझायौ ||
सकल उदार नृपति चूड़ामनि सुख वारिद वरषायौ |
परिरंभन चुंबन आलिंगन उचित जुवति जन पायौ ||
वरसत कुसुम मुदित नभ नाइक इन्द्र निसान बजायौ |
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक राधा पति जस वितान जग छायौ || 36 ||


चलहि किन मानिनि कुंज कुटीर।
तो बिनु कुँवरि कोटि बनिता जुत, मथत मदन की पीर।।
गदगद सुर विरहाकुल पुलकित, स्रवत विलोचन नीर।
क्वासि क्वासि वृषभानु नंदिनी, विलपत विपिन अधीर।।
बंसी विसिख, व्याल मालावलि, पंचानन पिक कीर।
मलयज गरल, हुतासन मारुत, साखा मृग रिपु चीर ।।
(जै श्री) हित हरिवंश परम कोमल चित, चपल चली पिय तीर।
सुनि भयभीत बज को पंजर, सुरत सूर रन वीर ।।37।।


चलहि उठि गहरु करति कत, निकुंज बुलावत लाल |
हा राधा राधिका पुकारत, निरखि मदन गज ढाल ||
करत सहाइ सरद ससि मारुत, फुटि मिली उर माल |
दुर्गम तकत समर अति कातर, करहि न पिय प्रतिपाल ||
(जै श्री) हित हरिवंश चली अति आतुर, श्रवन सुनत तेहि काल |
लै राखे गिरि कुच बिच सुंदर, सुरत – सूर ब्रज बाल || 38 ||


खेल्यो लाल चाहत रवन |
रचि रचि अपने हाथ सँवारयौ निकुंज भवन ||
रजनी सरद मंद सौरभ सौं सीतल पवन |
तो बिनु कुँवरि काम की बेदन मेटब कवन ||
चलहि न चपल बाल मृगनैनी तजिब मवन |
(जै श्री) हित हरिवंश मिलब प्यारे की आरति दवन ||39||


बैठे लाल निकुंज भवन |
रजनी रुचिर मल्लिका मुकुलित त्रिविध पवन ||
तूँ सखी काम केलि मन मोहन मदन दवन |
वृथा गहरु कत करति कृसोदरी कारन कवन ||
चपल चली तन की सुधि बिसरी सुनत श्रवन |
(जै श्री) हित हरिवंश मिले रस लंपट राधिका रवन ||40||


प्रीति की रीति रंगिलोइ जानै |
जद्यपि सकल लोक चूड़ामनि दीन अपनपौ मानै ||
जमुना पुलिन निकुंज भवन में मान मानिनी ठानै |
निकट नवीन कोटि कामिनि कुल धीरज मनहिं न आनै ||
नस्वर नेह चपल मधुकर ज्यों आँन आँन सौं बानै |
(जै श्री) हित हरिवंश चतुर सोई लालहिं छाड़ि मैंड पहिचानै ||41||


प्रीति न काहु की कानि बिचारै |
मारग अपमारग विथकित मन को अनुसरत निवारै ||
ज्यौं सरिता साँवन जल उमगत सनमुख सिंधु सिधारै |
ज्यौं नादहि मन दियें कुरंगनि प्रगट पारधी मारै ||
(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारँग ज्यौं सलभ सरीरहि जारै |
नाइक निपून नवल मोहन बिनु कौन अपनपौ हारै ||42||


अति नागरि वृषभानु किसोरी |
सुनि दूतिका चपल मृगनैनी, आकरषत चितवन चित गोरी ||
श्रीफल उरज कंचन सी देही, कटि केहरि गुन सिंधु झकोरी |
बैंनी भुजंग चन्द्र सत वदनी, कदलि जंघ जलचर गति चोरी ||
सुनि ‘हरिवंश’ आजु रजनी मुख, बन मिलाइ मेरी निज जोरी |
जद्यपि मान समेत भामिनी, सुनि कत रहत भली जिय भोरी ||43||


चलि सुंदरि बोली वृंदावन |
कामिनि कंठ लागि किन राजहि, तूँ दामिनि मोहन नौतन घन ||
कंचुकी सुरंग विविध रँग सारी, नख जुग ऊन बने तरे तन ||
ये सब उचित नवल मोहन कौं, श्रीफल कुच जोवन आगम धन ||
अतिसै प्रीति हुती अंतरगत, (जैश्री) हित हरिवंश चली मुकुलित मन |
निविड़ निकुंज मिले रस सागर, जीते सत रति राज सुरत रन ||44||


आवति श्रीवृषभानु दुलारी |
रूप रासि अति चतुर सिरोमनि अंग अंग सुकुमारी ||
प्रथम उबटि मज्जन करि सज्जित नील बरन तन सारी |
गुंथित अलक तिलक कृत सुंदर सैंदूर माँग सँवारी ||
मृगज समान नैंन अंजन जुत रुचिर रेख अनुसारी |
जटित लवंग ललित नासा पर दसनावलि कृत कारी ||
श्रीफल उरज कँसूभी कंचुकि कसि ऊपर हार छबि न्यारी |
कृस कटि उदर गँभीर नाभि पुट जघन नितंबनि भारी ||
मनौं मृनाल भूषन भूषित भुज स्याम अंस पर डारी |
(जै श्री) हित हरिवंश जुगल करिनी गज विहरत वन पिय प्यारी ||45||


विपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रूचि,
स्याम स्यामा मिले सरद की जमिनी |
हृदै अति फूल समतूल पिय नागरी,
करिनि करि मत्त मनौं विवध गुन रामिनी ||
सरस गति हास परिहास आवेस बस,
दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी |
(जै श्री) हित हरिवंश सुनि लाल लावन्य भिदे,
प्रिया अति सूर सुख सुरत संग्रामिनी ||46||


वन की लीला लालहिं भावै |
पत्र प्रसून बीच प्रतिबिंबहिं नख सिख प्रिया जनावै ||
सकुच न सकत प्रकट परिरंभन अलि लंपट दुरि धावै |
संभ्रम देति कुलकि कल कामिनि रति रन कलह मचावै ||
उलटी सबै समझि नैंननि में अंजन रेख बनावै |
(जै श्री) हित हरिवंश प्रीति रीति बस सजनी स्याम कहावै ||47||


बनी वृषभानु नंदिनी आजु |
भूषन वसन विविध पहिरे तन पिय मोहन हित साजु ||
हाव भाव लावन्य भृकुटि लट हरति जुवति जन पाजु |
ताल भेद औघर सुर सूचत नूपुर किंकिनि बाजु ||
नव निकुंज अभिराम स्याम सँग नीकौ बन्यौ समाजु |
(जै श्री) हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ||48||


देखि सखी राधा पिय केलि |
ये दोउ खोरि खरिक गिरि गहवर, विहरत कुँवर कंठ भुज मेलि ||
ये दोउ नवल किसोर रूप निधि, विटप तमाल कनक मनौ बेलि |
अधर अदन चुंबन परिरंभन, तन पुलकित आनँद रस झेलि ||
पट बंधन कंचुकि कुच परसत, कोप कपट निरखत कर पेलि |
(जै श्री) हित हरिवंश लाल रस लंपट, धाइ धरत उर बीच सँकेलि ||49||


नवल नागरि नवल नागर किसोर मिलि, कुञ्ज कौंमल कमल दलनि सिज्या रची |
गौर स्यामल अंग रुचिर तापर मिले, सरस मनि नील मनौं मृदुल कंचन खची ||
सुरत नीबी निबंध हेत पिय, मानिनी – प्रिया की भुजनि में कलह मोंहन मची |
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत, रोष – हुंकार गर्व दृग भंगि भामिनि लची ||
कोक कोटिक रभस रहसि ‘हरिवंश हित’, विविध कल माधुरी किमपि नाँहिन बची |
प्रनयमय रसिक ललितादि लोचन चषक, पिवत मकरंद सुख रासि अंतर सची ||50||


दान दै री नवल किसोरी |
माँगत लाल लाड़िलौ नागर, प्रगट भई दिन दिन की चोरी ||
नव नारंग कनक हीरावलि, विद्रुम सरस जलज मनि गोरी |
पूरित रस पीयूष जुगल घट, कमल कदलि खंजन की जोरी ||
तोपैं सकल सौंज दामिनि की, कत सतराति कुटिल दृग भोरी |
नूपुर रव किंकिनी पिसुन घर, ‘हित हरिवंश’ कहत नहिं थोरी ||51||


देखौ माई सुंदरता की सीवाँ |
व्रज नव तरुनि कदंब नागरी, निरखि करतिं अधग्रिवाँ ||
जो कोउ कोटि कोटि कलप लगि जीवै रसना कोटिक पावै |
तऊ रुचिर वदनारबिंद की सोभा कहत न आवै ||
देव लोक भूलोक रसातल सुनि कवि कुल मति डरिये |
सहज माधुरी अंग अंग की कहि कासौं पटतरिये ||
(जै श्री) हित हरिवंश प्रताप रूप गुन वय बल स्याम उजागर |
जाकी भ्रू विलास बस पसुरिव दिन विथकित रस सागर ||52||


देखौ माई अबला के बल रासि|
अति गज मत्त निरकुंस मोहन ; निरखि बँधे लट पासि ||
अबहीं पंगु भई मन की गति ; बिनु उद्यम अनियास |
तबकी कहा कहौं जब प्रिय प्रति ; चाहति भृकुटि बिलास ||
कच संजमन व्याज भुज दरसति ; मुसकनि वदन विकास |
हा हरिवंश अनीति रीति हित ; कत डारति तन त्रास ||53||


नयौ नेह नव रंग नयौ रस, नवल स्याम वृषभानु किसोरी।
नव पीतांबर नवल चूनरी; नई नई बूँदनि भींजत गोरी।।
नव ‘वृंदावन हरित मनोहर नव चातक बोलत मोर मोरी।
नव मुरली जु मलार नई गति; श्रवन सुनत आये घन घोरी।।
नव भूषन नव मुकुट विराजत; नई नई उरप लेत थोरी थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश असीस देत मुख चिरजीवौ भूतल यह जोरी।।54।।


आजु दोउ दामिनि मिलि बहसीं।
विच लै स्याम घटा अति नौंतन, ताके रंग रसीं।।
एक चमकि चहुँ ओर सखी री, अपने सुभाइ लसी।
आई एक सरस गहनी में, दुहुँ भुज बीच बसी।।
अंबुज नील उमै विधु राजत, तिनकी चलन खसी।
(जै श्री) हित हरिवंश लोभ भेटन मन, पूरन सरद ससी।।55।।


हौं बलि जाऊँ नागरी स्याम।
ऐसौं ही रंग करौ निसि वासर, वृंदा विर्पिन कुटी अभिराम।।
हास विलास सुरत रस सिंचन, पसुपति दग्ध जिवावत काम।
(जै श्री) हित हरिवंश लोल लोचन अली, करहु न सफल सकल सुख धाम।।56।।


प्रथम जथामति प्रनऊँ (श्री) वृंदावन अति रम्य।
श्रीराधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्य।।
वर जमुना जल सींचन दिनहीं सरद बसंत।
विविध भाँति सुमनसि के सौरभ अलिकुल मंत।।
अरुन नूत पल्लव पर कूँजत कोकिल कीर।
निर्तनि करत सिखी कुल अति आनंद अधीर॥
बहत पवन रुचि दायक सीतल मंद सुगंध।
अरुन नील सित मुकुलित जहँ तहँ पूषन बंध ।
अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज।
सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्वज पुंज।।
रसिक रासि जहँ खेलत स्यामा स्याम किसोर।
उभे बाहु परिरंजित उठे उनींदे भोर।।
कनक कपिस पट सोभित सुभग साँवरे अंग।
नील वसन कामिनि उर कंचुकि कसुँभी सुरंग।॥।
ताल रबाब मुरज उफ बाजत मधुर मृदंग।
सरस उकति गति सूचत वर बँसुरी मुख चंग।।
दोउ मिलि चाँचरि गावत गौरी राग अलापि।
मानस मृग बल वेधत भृकुटि धनुष दृग चापि।।
दोऊ कर तारिनु पटकत लटकत इत उत जात।
हो हो होरी बोलत अति आनंद कुलकात।।
रसिक लाल पर मेलति कामिनि बंधन धूरि।
पिय पिचकारिनु छिरकत तकि तकि कुंकुम पूरि।।
कबहुँ कबहुँ चंदन तरु निर्मित तरल हिंडोल।
चढ़ि दोऊ जन झूलत फूलत करत किलो।।
वर हिंडोर झँकोरनी कामिनि अधिक डरात।
पुलकि पुलकि वेपथ अँग प्रीतम उर लपटात।।
हित चिंतक निजु चेरिनु उर आनँद न समात।
निरखि निपट नैंननि सुख तृन तोरतिं वलि जात।।
अति उदार विवि सुंदर सुरत सूर सुकुमार।
(जै श्री) हित हरिवंश करौ दिन दोऊ अचल विहार।।57।।


तेरे हित लैंन आई, बन ते स्याम पठाई: हरति कामिनि घन कदन काम कौ।
काहे कौं करत बाधा, सुनि री चतुर राधा; भैंटि कैं मैंटि री माई प्रगट जगत भौं।।
देख रजनी नीकी, रचना रुचिर पी की; पुलिन नलिन नव उदित रौंहिनी धौ।
तू तौ अब सयानी; तैं मेरी एकौ न मानी; हौं तोसौं कहत हारी जुवति जुगति सौं।।
मोंहनलाल छबीलौ, अपने रंग रंगीलौ; मोहत विहंग पसु मधुर मुरली रौ।
वे तो अब गनत तन जीवन जौवन तब; (जै श्री) हित हरिवंश हरि भजहि भामिनि जौ।।58।।


यह जु एक मन बहुत ठौर करि, कहु कौनें सचु पायौ।
जहँ तहँ विपति जार जुवती लौं, प्रगट पिंगला गायौ।
द्वै तुरंग पर जोरि चढ़त हठि, परत कौन पै धायौ।
कहिधौं कौन अंक पर राखै, जो गनिका सुत जायौ।।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रपंच बंच सब काल व्याल कौ खायौ।
यह जिय जानि स्याम स्यामा पद कमल संगि सिर नायौ।।59।।


कहा कहौं इन नैननि की बात।
ये अलि प्रिया वदन अंबुज रस अटके अनत न जात।।
जब जब रुकत पलक संपुट लट अति आतुर अकुलात।
लंपट लव निमेष अंतर ते अलप कलप सत सात।।
श्रुति पर कंज दृगंजन कुच बिच मृग मद हवै् न समात।
(जै श्री) हित हरिवंश नाभि सर जलचर जाँचत साँवल गात॥60॥


आजु सखी बन में जु बने प्रंभु नाचते हैं ब्रज मंडन।
वैस किसोर जुवति अंसुन पर दियैं विमल भुज दंडन।।
कोंमल कुटिल अलक सुठि सोभित अबलंबित जुग गंडन।
मानहु मधुप थकित रस लंपट नील कमल के खंडन।।
हास विलास हरत सबकौ मन काम समूह विहंडन।
|श्री) हित हरिवंश करत अपनौ जस प्रकट अखिल ब्रह्मंडन॥61॥


खेलत रास दुलहिनी दूलहु।
सुनहु न सखी सहित ललितादिक, निरखि निरखि नैंननि किन फूलहु।।
अति कल मधुर महा मौंहन धुनि, उपजत हंस सुता के कूलहु।
थेई थेई वचन मिथुन मुख निसरत, सुनि सुनि देह दसा किन भुलहु।।
मृदु पद न्यास उठत कुंकुम रज, अदभूत बहत समीर दुकूलहु।
कबहुँ स्याम स्यामा दसनांचल- कच कुच हार छुवत भुज मूलहु।।
अति लावन्य, रूप, अभिनय, गुन, नाहिन कोटि काम समतूलहु।
भृकुटि विलास हास रस बरषत (जै श्री) हित हरिवंश प्रेम रस झूलहु।।62।।


मोहन मदन त्रिभंगी। मोहन मुनि मन रंगी।।
मोहन मुनि सघन प्रगट परमानँद गुन गंभीर गुपाला।
सीस किरीट श्रवण मनि कुंडल उर मंडित बन माला।।
पीतांबर तन धातु विचित्रित कल किंकिनि कटि चंगी।
नख मनि तरनि चरन सरसीरूह मोहन मदन त्रिभंगी।।
मोहन बैंनु बजावै। इहिं रव नारि बुलावै।।
आईं ब्रज नारि सुनत बंसी रव गृह पति बंधु विसारे।
दरसन मदन गुपाल मनोहर मनसिज ताप निवारे।।
हरषित बदन बैंक अवलोकन सरस मधुर धुनि गाव।
मधुमय श्याम समान अधर धरे मोहन बैंनु बजावे।।
रास रचा बन माँही। विमल कलप तरु छाँहीं।।
विमल कलपतरु तीर सुपेशल सरद रैंन वर चंदा।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै तहाँ खेलत नंद नंदा।।
अदभुत ताल मृदंग मनोहर किंकिनि शब्द कराहीं।
जमुना पुलिन रसिक रस सागर रास रच्यो बन माँहि।।
देखत मधुकर केली। मोहे खग मृग बेली।।
मोहे मृगधैंनु सहित सुर सुंदरि प्रेम मगन पट छूटे।
उडगन चकित थकित ससि मंडल कोटि मदन मन लूटे।।
अधर पान परिरंभन अति रस आनँद मगन सहेली।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक सचु पावत देखत मधुकर केली।।63।।


बैंनु माई बाजै बंसीवट।
सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।
दसननि कुंद कली छवि लज्जित लज्जित कनक समान पीत पट।।
मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत करत विनोद संग बालक भट।
दास अनन्य भजन रस कारन हित हरिवंश प्रकट लीला नट।।64।।


मूल-मदन मदन धन निकुंज खेलत हरि, राका रुचिर सरद रजनी।
यमुना पुलिन तट सुरतरु के निकट, रचित रास चलि मिलि सजनी।।
वाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग; तैं न श्रवन सुन्यौ बैंनु बजनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु राधिका रमन, मोकौं भावै माई जगत भगत भजनी।।65।।


विहरत दोऊ प्रीतम कुंज।
अनुपम गौर स्याम तन सोभा वन वरषत सुख पुंज।।
अद्भुत खेत महा मनमथ कौ दुंदुभि भूषन राव।
जूझत सुभट परस्पर अँग अँग उपजत कोटिक भाव।।
भर संग्राम अमित अति अबला निद्रायत काले नैन।
पिय के अंक निसंक तंक तन आलस जुत कृत सैंन
लालन मिस आतुर पिय परसद उरु नाभि ऊरजात।
अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर विथकित वेपथ गात।।
नागरि निरखि मदन विष व्यापित दियौ सुधाधर धीर।
सत्वर उठे महामधु पीवत मिलत मीन मिव नीर।।
अवहीं मैं मुख मध्य विलोके बिंबाधर सु रसाल।
जागृत त्यौं भ्रम भयौ परयौ मन सत मनसिज कुल जाल।।
सकृदपि मयि अधरामृत मुपनय सुंदरि सहज सनेह।
तव पद पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह।।
प्रिया कहति कहु कहाँ हुते पिय नव निकुंज वर राज।
सुंदर वचन वचन कत वितरत रति लंपट बिनु काज।।
इतनौं श्रवन सुनत मानिनि मुख अंतर रहयौ न धीर।
मति कातर विरहज दुख व्यापित बहुतर स्वास समीर।।
(जै श्री) हित हरिवंश भुजनि आकरषे लै राखे उर माँझ।
मिथुन मिलत जू कछुक सुख उपज्यौ त्रुटि लव मिव भई साँझ।।66।।


रुचिर राजत वधू कानन किसोरी।
सरस षोडस कियें, तिलक मृगमद दियें,
मृगज लोचन उबटि अंग सिर खोरी।।
गंड पंडीर मंडित चिकुर चंद्रिका,
मेदिनि कबरि गुंथित सुरंग डोरी।
श्रवण ताटंक कै. चिबुक पर बिंदु दै,
कसूँभी कंचुकी दुरै उरज फल कोरी।।
वलय कंकन दोति, नखन जावक जोति,
उदर गुन रेख पट नील कटि थोरी।
सुभग जघन स्थली क्वनित किंकिनि भली,
कोक संगीत रस सिंधु झक झोरी।।
विविध लीला रचित रहसि हरिवंश हित;
रसिक सिरमौर राधा रमन जोरी।
भृकुटि निर्जित मदन मंद सस्मित वदन,
किये रस विवस घन स्याम पिय गोरी।।67।।


रास में रसिक मोहन बने भामिनी।
सुभग पावन पुलिन सरस सौरभ नलिन,
मत्त मधुकर निकर सरद की जामिनी।।
त्रिविध रोचक पवन ताप दिनमनि दवन,
तहाँ ठाढ़े रमन संग सत कामिनी।
ताल बीना मृदंग सरस नाचत सुधंग;
एक ते एक संगीत की स्वामिनी।।
राग रागिनि जमी विपिन वरसत अमी,
अधर बिंबनि रमी मुरलि अभिरामिनी।
लाग कट्टर उरप सप्त सुर सौं सुलप
लेति सुंदर सुघर राधिका नामिनी।।
तत्त थेई थेई करत गांव नौतन धरत,
पलटि डगमग ढरति मत्त गज गामिनी।
धाइ नवरंग धरी उरसि राजत खरी;
उभय कल हंस हरिवंश घन दामिनी।।68।।


मोहिनी मोहन रंगे प्रेम सुरंग,
मंत्र मुदित कल नाचत सुधगे।
सकल कला प्रवीन कल्यान रागिनी लीन,
कहत न बनै माधुरी अंग अंगे।।
तरनि तनया तीर त्रिविध सखी समीर।
मानौं मुनी व्रत धरयौ कपोती कोकिला कीर।।
नागरि नव किशोर मिथुन मनसि चोर।
सरस गावत दोऊ मंजुल मंदर घोर।।
कंकन किंकिनि धुनि मुखर नूपुरनि सुनि।
(जै श्री) हित हरिवंश रस वरषत नव तरुनी ॥69॥


आजु सँभारत नाँहिन गोरी।
फूली फिर मत्त करिनी ज्यौं सुरत समुद्र झकोरी।।
आलस वलित अरुन धूसर मषि प्रगट करत दृग चोरी।
पिय पर करुन अमी रस बरषत अधर अरुनता थोरी।।
बाँधत भृंगं उरज अंबुज पर अलकनि बंध किसोरी।
संगम किरचि किरचि कंचुकि बँध सिथिल भई कटि डोरी।।
देति असीस निरखि जुवती जन जिनकें प्रीति न थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश विपिन भूतल पर संतत अविचल जोरी।।70।।


स्याम सँग राधिका रास मंडल बनी।
बीच नंदलाल ब्रजवाल चंपक वरन,
ज्यौंव घन तडित बिच कनक मरकत मनी।।
लेति गति मान तत्त थेई हस्तक भेद,
स रे ग म प ध नि ये सप्त सुर नंदिनी।
निर्त रस पहिर पट नील प्रगटित छबी,
वदन जनु जलद में मकर की चंदिनी।।
राग रागिनि तान मान संगीत मत,
थकित राकेश नाम सरद की जामिनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु हंस कटि केहरी,
दूरि कृत मदन मद मत्त गज गामिनी।।71।।


सुंदर पुलिन सुभग सुख दाइक।
नव नव घन अनुराग परस्पर खेलत कुँवर नागरी नांइक।
सीतल हंस सुता रस बिचिनु परसि पवन सीकर मृदु वरषत।
वर मंदार कमल चंपक कुल सौरभ सरसि मिथुन मन हरषत।
सकल सुधंग विलास परावधि नाचत नवल मिले सुर गावत।
मृगज मयूर मराल भ्रमर पिक अदभुत कोटि मदन सिर नावत।
निर्मित कुसुम सैंन मधु पूरित भजन कनक निकुंज विराजत।
रजनी मुख सुख रासि परस्पर सुरत समर दोऊ दल साजत।।
विट कुल नृपति किसोरी कर धृत, बुधि बल नीबी बंधन मोचत।
‘नेति नेति’ वचनामृत बोलत प्रनय कोप प्रीतम नहिं सोचत ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक ललितादिक लता भवन रंध्रनि अवलोकत।
अनुपम सुख भर भरित विवस असु आनँद वारि कंठ दृग रोकत।।72।।


खंजन मीन मृगज मद मेंटत, कहा कहौं नैननिं की बातैं।
सनी सुंदरी कहाँ लौं सिखईं, मोहन बसीकरन की घातैं।
बंक निसंक चपल अनियारे, अरुन स्याम सित रचे कहाँ तैं।
डरत न हरत परयौ सर्वसु मृदु मधुमिव मादिक दृग पातैं॥
नैंकु प्रसन्न दृष्टि पूरन करि, नहिं मोतन चितयौ प्रमदा तैं।
(जै श्री) हित हरिवंश हंस कल गामिनि, भावै सो करहु प्रेम के नातैं।।73।।


काहे कौं मान बढ़ावतु है बालक मृग लोचनि।
हौंब डरनि कछु कहि न सकति इक बात सँकोचनी ।
मत्त मुरली अंतर तव गावत जागृत सैंन तवाकृति सोचनि।
(जै श्री) हित हरिवंश महा मोहन पिय आतुर विट विरहज दुख मोचनि ।।74।।


हौं जु कहति इक बात सखी, सुनि काहे कौं डारत?
प्रानरमन सौं क्यौंऽब करत, आगस बिनु आरत।।
पिय चितवत तुव चंद वदन तन, तूँ अधमुख निजु चरन निहारति।
वे मृदु चिबुक प्रलोइ प्रबोधत, तूँ भामिनि कर सौं कर टारति।।
विबस अधीर विरह अति कतर सर औसर कछुवै न विचारति।
(जै श्री) हित हरिवंश रहसि प्रीतम मिलि, तृषित नैंन काहे न प्रतिपारति||75||


नागरीं निकुंज ऐंन किसलय दल रचित सैंन,
कोक कला कुसल कुँवरि अति उदार री।
सुरत रंग अंग अंग हाव भाव भृकुटि भंग,
माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।
मुखर नूपुरनि सुभाव किंकनी विचित्र राव,
विरमि विरमि नाथ वदत वर विहार री।
लाड़िली किशोर राज हंस हंसिनी समाज,
सींचत हरिवंश नैंन सुरस सार री।।76।।


लटकति फिरति जुवति रस फूली।
लता भवन में सरस सकल निसि, पिय सँग सुरत हिंडोरे झूली।।
जद्दपि अति अनुराग रसासव पान विवस नाहिंन गति भूली।
आलस वलित नैंन विगलित लट, उर पर कछुक कंचुकी खूली।।
मरगजी माल सिथिल कटि बंधन, चित्रित कज्जल पीक दुकूली।
(जै श्री) हित हरिवंश मदन सर जरजर , विथकित स्याम सँजीवन मूली।।77।।


सुधंग नाचत नवल किसोरी।
थेई थेई कहति चहति प्रीतम दिसि, वदन चंद मनौं त्रिषित चकोरी।।
तान बंधान मान में नागरि देखत स्याम कहत हो हो होरी।
(जै श्री) हित हरिवंश माधुरी अँग अँग, बरवस लियौ मोहन चित चोरी।।78।।

रहसि रहसि मोहन पिय के संग री, लड़ैती अति रस लटकति।
सरस सुधंग अंग में नागरि, थेई थेई कहति अवनि पद पटकति।।
कोक कला कुल जानि सिरोमनि, अभिनय कुटिल भृकुटियनि मटकति।
विवस भये प्रीतम अलि लंपट, निरखि करज नासा पुट चटकति ॥
गुन गनु रसिक राइ चूड़ामनि रिझवति पदिक हार पट झटकति।
(जै श्री) हित हरिवंश निकट दासीजन, लोचन चषक रसासव गटकति।।79।।


वल्लवी सु कनक वल्लरी तमाल स्याम संग,
लागि रही अंग अंग मनोभिरामिनी।
वदन जोति मनौं मयंक अलका तिलक छबि कलंक,
छपति स्याम अंक मनौं जलद दामिनी।।
विगत वास हेम खंभ मनौं भुवंग वैनी दंड,
पिय के कंठ प्रेम पुंज कुंज कामिनी।
(जै श्री) सोभित हरिवंश नाथ साथ सुरत आलस वंत,
उरज कनक कलस राधिका सुनामिनी।।80।।


वृषभानु नंदिनी मधुर कल गावै।
विकट औंघर तान चर्चरी ताल सौं, नंदनंदन मनसि मोद उपजावै।।
प्रथम मज्जन चारु चीर कज्जल तिलक, श्रवण कुंडल वदन चंदनि लजावै।
सुभग नकबेसरी रतन हाटक जरी, अधर बंधूक दसन कुंद चमकावै।।
वलय कंकन चारु उरसि राजत हारु, कटिव किंकिनी चरन नूपुर बजावै।
हंस कल गामिनी मथति मद कामिनी, नखनि मदयंतिका रंग रुचि द्यावे ।।
निर्त्त सागर रभसि रहसि नागरि नवल, चंद चाली विविध भेदनि जनावै।
कोक विद्या विदित भाइ अभिनय निपुन, भू विलासनि मकर केतनि नचावै।।
निविड़ कानन भवन बाहु रंजित रवन, सरस आलाप सुख पुंज बरसावै।
उभै संगम सिंधु सुरत पूषन बधु, द्रवत मकरंद हरिवंश अली पावै।।81।।


नागरता की राशि किसोरी।
नव नागर कुल मौलि साँवरी, वर बस कियो चितै मुख मोरी।।
रूप रुचिर अंग अंग माधुरी, विनु भूषन भूषित ब्रज गोरी।
छिन छिन कुसल सुधंग अंग में, कोक रमस रस सिंधु झकोरी।
चंचल रसिक मधुप मौंहन मन. राखे कनक कमल कुच कोरी।
प्रीतम नैंन जुगल खंजन खग, बाँधे विविध निबंध डोरी।
अवनी उदर नाभि सरसी में, मनौं कछुक मदिक मधु घोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश पिवत सुंदर वर, सींव सुदृढ़ निगमनि की तोरी।।82।।


छाँड़िदैं मानिनी मान मन धरिबौ।
प्रनत सुंदर सुघर प्रानवल्लभ नवल,
वचन आधीन सौं इतौ कत करिबौं। ।
जपत हरि विवस तव नाम प्रतिपद विमल,

मनसि तव ध्यान ते निमिष नहिं टरिबौ।
घटति पलु पलु सुभग सरद की जामीनी,
भामिनी सरस अनुराग दिसि ढरिबौ।।
हौं जु कहति निजु बात सुनो मनि सखि,
सुमुखि बिनु काज घन विरह दुख भरी वै।
मिलत हरिवंश हित’ कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख सिंधु में तिरिबौ।।83॥


आजुब देखियत है हो प्यारी रंग भरी।
मोपै न दुरति चोरी वृषभानु की किशोरी;
सिथिल कटि की डोरी,नंद के लालन सौं सुरत लरी।।
मोतियन लर टूटी चिकुर चंद्रिका छूटी
रहसि रसिक लूटी गंडनि पीक परी।
नैननि आलस बस अधर बिंब निरस;
पुलक प्रेम परस हित हरिवंश री राजत खरी।।84||


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आमलकी एकादशी : Amalka Ekadashi 2024

आमलकी एकादशी : बुधवार 20 मार्च 2024
पारण समय : अगली सुबह से 08:21 के मध्य


आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया।

आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है।

भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।


एकादशी कथा


ब्रह्माण्ड पुराण में मान्धाता और वशिष्ठ संवाद में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की ‘आमलकी एकादशी’ का माहात्म्य इस प्रकार वर्णित हुआ है। एक बार मान्धाता जी ने वशिष्ठ जी से प्रार्थना की हे ऋषिवर ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, मुझ पर यदि आपकी कृपा है तो आप कृपा करके मुझे ऐसा व्रत बतलाइए जिसका पालन करने से मुझे वास्तविक कल्याण की प्राप्ति हो।

इसके उत्तर में वशिष्ठ जी ने प्रसन्नचित होकर कहा, हे राजन् ! मैं आपको शास्त्र के एक गोपनीय, रहस्यपूर्ण तथा बड़े ही कल्याणकारी व्रत की कथा सुनाता हूँ, जो कि समस्त प्रकार के मंगल को देने वाली है। हे राजन् ! इस व्रत का नाम आमलकी एकादशी व्रत है। यह व्रत बड़े से बड़े पापों का नाश करने वाला, एक हजार गाय दान के पुण्य का फल देने वाला एवं मोक्ष प्रदाता है।

पुराने समय के वैदिश नाम के नगर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र वर्ण के लोग बड़े ही सुखपूर्वक निवास करते थे। वहाँ के लोग स्वाभाविक रूप से स्वस्थ तथा ह्वष्ट-पुष्ट थे। हे राजन् ! उस नगर में कोई भी मनुष्य, पापात्मा अथवा नास्तिक नहीं था। इस नगर में जहाँ तहाँ वैदिक कर्म का अनुष्ठान हुआ करता था। वेद ध्वनि से यह नगर गूँजता ही रहता था।

उस नगर में चंद्रवंशी राजा राज करते थे। इसी चंद्रवंशीय राजवंश में एक चैत्ररथ नाम के धर्मात्मा एवं सदाचारा राजा ने जन्म लिया। यह राजा बड़ा पराक्रमी, शूरवीर, धनवान, भाग्यवान तथा शास्त्रज्ञ भी था। इस राजा के राज्य में प्रजा को बड़ा ही सुख था। सारा वातावरण ही अनुकूल था। यहाँ की सारी प्रजा विष्णु भक्ति परायण थी। सभी लोग एकादशी का व्रत करते थे। इस राज्य में कोई भी दरिद्र अथवा कृपण नहीं देखा जाता था। इस प्रकार प्रजा के साथ राजा, अनेकों वर्षों तक सुखपूर्वक राज करते रहे।

एक बार फाल्गुन शुक्लपक्षीय द्वादशी संयुक्ता आमलकी एकादशी आ गई। यह एकादशी महाफल देने वाली है, ऐसा जानकर नगर के बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री व पुरुष तथा स्वयं राजा ने भी सपरिवार इस एकादशी व्रत का पूरे नियमों के साथ पालन किया। एकादशी वाले दिन राजा प्रात: काल नदी में स्नान आदि समाप्त कर समस्त प्रजा के साथ उसी नदी के किनारे पर बने भगवान श्री विष्णु के मंदिर में जा पहुँचे। उन्होंने वहाँ दिव्य गंध सुवासित जलपूर्ण कलश छत्र, वस्त्र, पादुका आदि पंचरत्मों के द्वारा सुसज्जित करके भगवान की स्थापना की।

इसके बाद धूप-दीप प्रज्वलित करके आमलकी अर्थात आंवले के साथ भगवान श्रीपरशुराम जी की पूजा की और अंत में प्रार्थना की हे परशुराम ! हे रेणुका के सुखवर्धक ! हे मुक्ति प्रदाता ! आपको नमस्कार है। हे आमलकी ! हे ब्रह्मपुत्री, हे धात्री, हे पापनिशानी ! आप को नमस्कार। आप मेरी पूजा स्वीकार करें। इस प्रकार राजा ने अपनी प्रजा के व्यक्तियों के साथ भगवान श्रीविष्णु एवं भगवान श्रीपरशुराम जी की पवित्र चरित्र गाथा श्रवण, कीर्तन व स्मरण करते हुए तथा एकादशी की महिमा सुनते हुए रात्रि जागरण भी किया।


उसी शाम एक शिकारी शिकार करता हुआ वहीं आ पहुँचा। जीवों को हत्या करके ही वह दिन व्यतीत करता था। दीपमालाअों से सुसज्जित तथा बहुत से लोगों द्वारा इकट्ठे होकर हरि कीर्तन करते हुए रात्रि जागरण करते देख कर शिकारी सोचने लगा कि यह सब क्या हो रहा है ? शिकारी के पिछले जन्म के पुण्य का उदय होने पर ही वहाँ एकादशी व्रत करते हुए भक्त जनों का उसने दर्शन किया।

कलश के ऊपर विराजमान भगवान श्रीदामोदर जी का उसने दर्शन किया तथा वहाँ बैठकर भगवान श्रीहरि की चरित्र गाथा श्रवण करने लगा। भूखा प्यासा होने पर भी एकाग्र मन से एकादशी व्रत के महात्म्य की कथा तथा भगवान श्रीहरि की महिमा श्रवण करते हुए उसने भी रात्रि जागरण किया। प्रात: होने पर राजा अपनी प्रजा के साथ अपने नगर को चला गया तथा शिकारी भी अपने घर वापस आ गया और समय पर उसने भोजन किया।


कुछ समय बाद जब उस शिकारी की मृत्यु हो गई तो अनायास एकादशी व्रत पालन करने तथा एकादशी तिथि में रात्रि जागरण करने के प्रभाव से उस शिकारी ने दूसरे जन्म में विशाल धन संपदा, सेना, सामंत, हाथी, घोड़े, रथों से पूर्ण जयंती नाम की नगरी के विदूरथ नामक राजा के यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लिया। वह सूर्य के समान पराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमाशील, धर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ एवं अनेकों सद्गुणों से युक्त होकर भगवान विष्णु की भक्ति करता हुआ तथा एक लाख गाँवों का आध्पत्य करता हुआ जीवन बिताने लगा। वह बड़ा दानी भी था। इस जन्म में इसका नाम वसुरथ था।
एक बार वह शिकार करने के लिए वन में गया और मार्ग भटक गया। वन में घूमते-घूमते थका हारा, प्यास से व्याकुल होकर अपनी बाहों का तकिया बनाकर जंगल में सो गया।

उसी समय पर्वतों मे रहने वाले मलेच्छ यवन सोए हुए राजा के पास आकर, राजा की हत्या की चेष्टा करने लगे। वे राजा को शत्रु मानकर उनकी हत्या करने पर तुले थे।

उन्हें कुछ ऐसा भ्रम हो गया था कि ये वहीं व्यक्ति है जिसने हमारे माता-पिता, पुत्र-पौत्र आदि को मारा था तथा इसी के कारण हम जंगल में खाक छान रहे हैं।

किंतु आश्चर्य की बात कि उन लोगों द्वारा फेंके गए अस्त्रशस्त्र राजा को न लगकर उसके इर्द-गिर्द ही गिरते गए। राजा को खरोंच तक नहीं आई।

जब उन लोगों के अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गए तो वे सभी भयभीत हो गए तथा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सके। तब सभी ने देखा कि उसी समय राजा के शरीर से दिव्य गंध युक्त, अनेकों आभूषणों से आभूषित एक परम सुंदरी देवी प्रकट हुई।

वह भीषण भृकुटीयुक्ता, क्रोधितनेत्रा देवी क्रोध से लाल-पीली हो रही थी। उस देवी का यह स्वरूप देखकर सभी यवन इधर-उधर दौड़ने लगे परन्तु उस देवी ने हाथ में चक्र लेकर एक क्षण में ही सभी मलेच्छों का वध कर डाला।


जब राजा की नींद खुली तथा उसने यह भयानक हत्याकांड देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गया। साथ ही भयभीत भी हो गया। उन भीषण आकार वाले मलेच्छों को मरा देखकर राजा विस्मय के साथ सोचने लगा कि मेरे इन शत्रुऔ को मार कर मेरी रक्षा किसने की ? यहाँ मेरा ऐसा कौन हितैषी मित्र है ? जो भी हो, मैं उसके इस महान कार्य के लिए उसका बहुत-बहुत धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ। उसी समय आकाशवाणी हुई कि भगवान केशव को छोड़कर भला शरणागत की रक्षा करने वाला अौर है ही कौन ? अत: शरणागत रक्षक, शरणागत पालक श्रीहरि ने ही तुम्हारी रक्षा की है। राजा उस आकाशवाणी को सुनकर प्रसन्न तो हुआ ही, साथ ही भगवान श्रीहरि के चरणों में अति कृतज्ञ होकर भगवान का भजन करते हुए अपने राज्य में वापस आ गया और निष्टंक राज्य करने लगा।
वशिष्ट जी कहते हैं,” हे राजन् ! जो मनुष्य इस आमलकी एकादशी व्रत का पालन करते हैं वह निश्चित ही विष्णुलोक की प्राप्ति कर लेते हैं।”


एकादशी विधि


स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूँ। मेरा यह व्रत सफलता पूर्वक पूरा हो इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें। संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।
भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमत्रित करें। कलश में सुगन्धी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश के कण्ठ में श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।
द्वादशी के दिन प्रात: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।


एकादशी सेवा



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