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श्रीकृष्णचरितामृतम्-135

श्रीकृष्णचरितामृतम्-135


!! नख पे गिरवर लीयो धार, नाम “गिरधारी” पायो है !!


मेरे गिरधारी लाल !

बृजरानी नें नख पे गिरिवर उठाये हुए जब अपनें कन्हैया को देखा तो आश्चर्य से बोल उठीं ।

सब इस दिव्य झाँकी का दर्शन करके आनन्दित हो उठे थे ।

बृजवासी भूल रहे थे प्रलयकारी वर्षा के दुःख को……और भूलें क्यों नहीं सामनें खड़ा था गिरधारी ……….गिरवर को अपनी कनिष्ठिका में रखकर ……….नही नही ….कनिष्ठिका के नख पर ………….और ऊपर से वेणु नाद …………वेणु नाद इसलिये ताकि ये सब लोग भूख प्यास भूल जाएँ ……क्यों की ये वर्षा एक दो दिन की नही ….पूरे सात दिन सात रात तक बरसनें वाली थी ।

चरणों में नूपुर हैं , कमर में पीली काछनी है , गहरी नाभि है जिसके दर्शन हो रहे हैं ……..गले में झूलती वनमाला …..विशाल कन्धे पर चमचमाती पीताम्बरी है …….अधर पतले और अरुण हैं…….उठी हुयी नासिका है …..विशाल नेत्र हैं……..पर नेत्र चंचल हैं ।

सब चकित रह गए इस झाँकी के दर्शन करके …………..सबकुछ भूल गए ……….वस्त्र पूरे भींग गए हैं ……..पर किसी को भान भी नही है …….सबके नेत्रों के सामनें वह गिरधारी खड़ा है ।

दौड़ी बृजरानी अपनें गिरधारी लाल के पास…….तू हाथ हटा ! कितनी देर से हाथों को ऊपर किये खड़ा है……तेरी कोमल कलाइयाँ …….मुरक जायेगीं मेरे लाल !

बृजरानी का अपना वात्सल्य है ।

ए श्रीदामा ! मधुमंगल ! तुम अपनी अपनी लकुट क्यों नही लगाते …….मेरे लाला को ही सब दुःख देते हैं……मैया तो सबको डाँटनें लगी ।

हम भी कह रहे हैं इससे …….हाथ नीचे कर ले …..सुस्ता ले ……….तब तक हम अपनी लाठी लगाये रखेंगे……पर ये मानता ही नही ।

सभी सखाओं नें मैया बृजरानी को कहा ।

नही, मैया ! मैं ठीक हूँ…….तू और भीतर आजा……बाबा को भी बुला ले …………उसी समय बाबा भी अपनें परिकरों के साथ वहीं आगये थे …………बाबा ! सारे गौओं बछड़ों और वृषभों को यही ले आओ ……..यहाँ सब सुरक्षित हैं ।

आहा ! सर्वेश्वर श्रीकृष्ण, बृजवासियों की रक्षा करनें के लिये जो “गिरधारी” बन गया हो……वो बृजवासी भला यहाँ सुरक्षित नही होंगे !

पर देखो ना ! अब आप ही समझाओ………कितनी देर से गोवर्धन पर्वत को उठाया है इसनें…..अपनें हाथ नीचे करनें को बोलो ना !

ये सब हैं तो सही …….अपनी लकुटों में पर्वत को कुछ देर के लिये सम्भाल लेंगे । मैया बृजरानी नें अपनें पति बृजराज बाबा से कहा ।

हाँ हाँ, हाथ को नीचे कर ले……मनसुख भी जिद्द करनें लगा ….

तेरे हाथ को हम दबा देंगे …..तू बैठ जा ……..तेरे पाँव को हम दबा देते हैं ……तू जल पी ले …….मनसुख बोले जा रहा है ।

धीरे से कन्हैया नें मनसुख के कान में कहा …….”मैनें अगर अपनें हाथ नीचे कर लिये तो गोर्वधन पर्वत गिर जाएंगे”………

ओह ! सुन लो ये क्या कह रहा है ! मनसुख तो सब सखाओं को सुनानें लगा…….क्या कह रहा है ? श्रीदामादि सखा पूछनें लगे ।

ये कह रहा है इसनें अगर अपनी ऊँगली नीचे कर दी तो पर्वत गिर जायेगे……..ये सुनकर सब सखा हँसनें लगे…….

तो इसनें क्या सोच रखा है……इसकी ऊँगली पे टिके हैं इतनें बड़े गोवर्धन पर्वत , हमारी लाठी पे टिके हैं ।

और क्या ! मेरी ऊँगली पे ही तो हैं गोवर्धन !

कन्हैया नें भी कह दिया ।

अरे भाई ! रहनें दे……..थोडा सुस्ताले…..अपनें हाथ को नीचे कर ले …….हम दबा देते हैं……..बैठ जा !

मान नही रहे ये सखा ………….तो ठीक है ! ऐसा विचार कर कन्हैया नें थोड़ा हाथ नीचे जैसे ही किया …………

कट्ट कट्ट कट्ट , करके लाठियाँ टूटनें लगीं…….गोवर्धन पर्वत आनें लगे नीचे ।

कृष्ण बचा ! कन्हैया बचा !

सब चिल्लाये…….जोरों से चिल्लाये …..कन्हैया नें तुरन्त अपना हाथ ऊपर उठा लिया ……..तो गोवर्धन स्थिर हो गए फिर से ।

भैया ! लाला ! कन्हैया ! हमारी लाठी पे ना टिके तेरे गोवर्धन पर्वत …..पर तेरी ऊँगली पे कैसे टिक गए ?

हाँफते सखा सब पूछ रहे हैं कन्हैया से ।

क्यों उद्धव !

क्या ये बृजवासी कन्हैया को अभी भी भगवान नही मान रहे ?

तात ! भगवान मान लेंगे तो सारा का सारा “माधुर्य”, समाप्त ही न हो जाएगा ……ये तो अपना मानते हैं , सखा , भाई, पुत्र, प्रेमी यही सब मानते हैं ……..श्री कृष्ण, भगवान हैं ये बात तो ये सपनें में भी नही सोचते ……..इसलिये तो तात ! माधुर्य रस उमड़ पड़ा है इन ब्रजलीलाओं में । उद्धव नें विदुर जी को बताया ।

कन्हैया विचार करनें लगे ……..क्या उत्तर दूँ इन्हें …………अब बोलूँ – मैं भगवान हूँ ……इसलिये ऊँगली में सात कोस का गोवर्धन टिक गया ………तो ये सब हँसेंगे …………..

सोच विचार कर कन्हैया बोले – मुझे जादू आता है ………..मनसुख बोला …….वो तो हमें पता है तू बहुत बड़ा जादूगर है ।

“जब तुम लोग मेरी ओर देख रहे थे टकटकी लगाकर ……तब हे बृजवासियों ! मैने तुम्हारी सारी शक्ति खींचकर अपनी इस ऊँगली में डाल दी”………तुरन्त मनसुख बोला – ओह ! तभी हम सोच रहे कि इतनी कमजोरी क्यों आ रही है ।……..उद्धव ये प्रसंग सुनाते हुए बहुत हँस रहे थे । ……इस तरह से आनन्दमय वातावरण वहाँ का बन गया था ………….और इस आनन्द को और बढ़ाते हुये बृषभान जी भी वहाँ आगये …..उनके साथ बरसानें का पूरा परिकर था …….श्रीराधा जी साथ में थीं ……..वो जैसे ही आईँ ………अपनी श्रीराधा को कन्हैया नें जैसे ही देखा……..वो तो सब कुछ भूल गए ……..

ए ! ए ! ए ! मनसुख दौड़ा हुआ श्रीराधा और श्रीकृष्ण के बीच में आकर खड़ा हो गया ……और श्रीराधा रानी से बोला …….हम सब सखाओं की प्रार्थना है कृपा करके आज इस समय हमारे कन्हैया के सामनें मत आओ ……..नही तो !

क्या नही तो ? ललिता सखी नें आगे आकर कहा ।

तुम्हे स्मरण नही उस दिन की घटना ?

मनसुख नें ललिता सखी को स्मरण कराया ।

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गौचारण करके गोष्ठ में आये थे कन्हैया ………..गायों को दुहनें की तैयारी थी……..दूध दुहनें वाला पात्र रखा था अपनें दोनों पांवों में फंसा कर ……..और दुहनें जा ही रहे थे ……..दुह रहे थे ……तभी श्रीराधारानी वहाँ पर आगयीं …………..बस – कन्हैया नें जैसे ही श्रीराधा को देखा ………वो पांवों में फंसा पात्र गिर गया …..दूध फैल गया ………कन्हैया उस समय सब कुछ भूल गए थे ।

मनसुख बोला हे ललिते ! वहाँ तो दूध दुहनें का पात्र ही गिरा था कोई बात नही ……….पर यहाँ अगर दोनों के नयन मिल गए ….और ये पर्वत नीचे आजायेगा ……तो फिर जो होगा वो ……..

इतना कहकर मनसुख ललिता सखी के हाथ जोड़नें लगा ।

कृष्ण !

वर्षा का जल भीतर आरहा है…..महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया ।

देख लिया श्रीकृष्ण नें……..तभी नेत्र मूंद लिये और

“हे सुदर्शन चक्र ! यहाँ शीघ्र आओ”……आदेश था सुदर्शन चक्र को ।

देखते ही देखते चक्र वहाँ उपस्थित हुआ……..”तुम गोवर्धन पर्वत के ऊपर जाओ …..और जितना जल गिर रहा है ………उसे वहीँ के वहीं वाष्प बनाकर आकाश में ही उड़ा दो ” ।

जो आज्ञा भगवन् ! सुदर्शन चक्र गए गोवर्धन के ऊपर ……और सारे गिरते हुए जल को भाप बनानें लगे …………

पर कन्हैया नें अब तुरन्त अगस्त्य ऋषि का भी आव्हान किया …………

हे ऋषि ! आइये ! अब आप जल पीजिये………कन्हैया मुस्कुरा रहे थे ………मुस्कुराकर बोल रहे थे ।

पर उद्धव ! अगस्त्य ऋषि ? इनको जल पिलाना क्यों ?

उद्धव हँसते हुए बोले…तात ! एक समय के प्यासे थे अगस्त्य ऋषि ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-134

श्रीकृष्णचरितामृतम्-134


!! गोवर्धनधारी साँवरे !!


गोवर्धन प्रदक्षिणा के बाद खिलखिलाते हुये , आनन्द विभोर समस्त गोप गोपी अपनें अपनें घरों की ओर लौट रहे थे………सबके मुख में यही बात थी – कहाँ आनन्द आता था “इन्द्र पूजन” में……….अरी ! हमें तो छूनें कि भी मनाई थी …….बस हाथ जोड़कर फूल फेंकते रहो इन्द्र ध्वज में ।

ऊपर से व्रत और उपवास भी……..गोपियाँ बोल रही थीं ।

नजर उतारियो बृजरानी ! अपनें लाला के…….एक बूढी गोपी यशोदा जी को सलाह भी दे रही थी ।

अरी ! सबकी नजर कन्हैया पर ही तो थी…….सब कैसे घूर घूर के देख रहे थे ………नजर लग जायेगी कन्हैया के…….उतार दियो नजर …….नही तो हम उतार देंगी !

नही नही…..उतार दूँगी, अवश्य उतार दूँगी । बृजरानी कहतीं ।

छप्पन भोग में भी कितनौ आनन्द आयौ……..एक ग्वाला बोल रहा था ।

नयी रीत शुरू कर दी अपनें कन्हैया नें……आज तक तो देवों के पूजन में व्रत उपवास रखते थे……पर कन्हैया कि नई रीत …….देह को दुःख क्यों देना….प्रसाद है ये भोग…..इसे खूब खाओ और भजन करो…..भैया ! भरपेट ही भजन में मन लगै ! मनसुख बोला …..तो सब हँसे ।

श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ हैं ……उनका बरसाना आनें वाला है…..सखियाँ उनको छेड़ रही हैं……कन्हैया पीछे ही हैं……कभी कभी श्रीराधारानी किसी बहानें से पीछे मुड़ कर अपनें प्यारे को निहार लेती हैं ।

तभी –

काले काले मेघ आकाश में छा गए……..ये अचानक हुआ था ।

कार्तिक मास में इस तरह बादलों का छा जाना ……..किसी के समझ में नही आरहा था ……..भयानक मेघों कि गर्जना अब शुरू हो गयी थी ……..ग्वाल गोपी सब डर रहे थे ।

वर्षा शुरू हो गयी………..पर ये वर्षा कुछ अलग थी …….इनकी बुँदे प्रलयंकारी थे…….इतनें मोटे बून्द नभ से गिरते कभी किसी नें देखे नही थे…….अब तो हवा भी प्रचण्ड वेग से चल पड़ी थी ।

कुछ ही देर में चारों ओर जल ही जल दिखाई देनें लगा था ………

गौएँ भींग रही थीं ……….गोपियाँ इधर उधर वृक्षों के नीचे जहाँ जगह मिली वहीं खड़ी हो गयी थीं …….पर अब शीत के कारण वो सब कांपनें लगीं ……….जिनके बालक गोद में थे …….वो तो बैठ गयीं और अपनें बालक को छुपा कर वर्षा के जल से बचानें का प्रयास कर रही थीं ……पर वर्षा का रूप इतना रौद्र था कि कौन बच सकता था ।

गौएँ गोप गोपी अब शीत के कारण थर थर कांपनें लगे थे …………..उनको लगा उनके घर तो आज गिर ही जायेंगे ……जल मग्न होंने वाले हैं सब ………………..

कृष्ण ! कृष्ण ! कन्हैया ! भैया कान्हा ! लाला ! हमें बचा !

ये पुकार अब चारों ओर से चल पड़ी थी ………..सब श्रीकृष्ण को पुकार रहे थे……..हमें बचा लो भैया ! हमें बचा कन्हैया !

इस जल प्रलय से तो बृज मण्डल पूरा ही डूब जाएगा ।

आहा ! जैसे ही ये पुकार सुनी श्याम सुन्दर नें …………..

छपाक छपाक छपाक …… वे अरुण चारु चरण जल में दौड़ पड़े थे ।

मनसुख श्रीदामा मधुमंगल तोक इत्यादि ये सब अपनें कन्हैया के पीछे भागे ……कहाँ जाना है ? कहाँ जा रहे हो ?

कन्हैया कुछ नही बोल रहे ……..बस – नंगे चरण गोवर्धन कि ओर बढ़ रहे थे उनके ……….लाल मुख मण्डल हो गया था उनका ………उनसे देखी नही गयी थी अपनें बृजवासियों कि यह दशा ……..वर्षा और बढ़ गयी थी ………बीच बीच में मेघ कि भीषण गर्जना भी हो ही रही थी …….घना अन्धकार छा गया था पूरे बृजमण्डल में ।

गोवर्धन पर्वत के पास आकर थोडा रुके कन्हैया ..वो पूरे भींग गए थे उनकी पीली पीताम्बरी भींग के उनके देह से चिपक गयी थी मोर मुकुट भींग गया था……मनसुख इत्यादि सखा भी दौड़ते हुए पीछे आगये …….कन्हैया ! क्या करना है ?

“यहाँ एक गुफा देखी थी मैने”……..बड़ी जल्दी में थे कन्हैया……इधर उधर देख रहे थे…..तभी……”ये रही गुफा” ……

ये कहते हुए उस गुफा में कन्हैया प्रवेश कर गए……आजाओ ! तुम सब आजाओ ……भीतर से कन्हैया जोर से बोले……..पर ग्वाल बाल तो गुफा में आचुके थे……..ये लोग अकेले कन्हैया को कैसे छोड़ देते ।

देखो ! यहाँ ….यहाँ जल नही आरहा ………..कन्हैया नें सब सखाओं से कहा ………फिर कुछ सोच कर बोले ………अगर इस गुफा से गोवर्धन पर्वत को उठाया जाय …………और सब इस गोवर्धन पर्वत के नीचे आजायें तो हम सब बच जायेगे ……………

पहले तो मनसुख इत्यादि नें पर्वत को उठाना चाहा …………पर ऐसे कैसे उठ जाता ये सात कोस का विशाल पर्वत ………..

कन्हैया नें कहा …..रुको …….मैं कोशिश करता हूँ तुम सब भी मेरी सहायता करना ………मनसुखादि सखा बोले …….ठीक है …….हम अपनी लाठी लगा देंगे ।

देखते ही देखते ………….कन्हैया गोवर्धन पर्वत को उठानें लगे ……..और अहो ! गोवर्धन पर्वत उठ रहा था ।

मनसुख चिल्लाया ……..कन्हैया ! ये तो उठ गया पर्वत…….ओह ! ……अब पर्वत के मध्य में धीरे धीरे आगये थे कन्हैया ।

और अपनी सबसे छोटी ऊँगली कनिष्ठिका लगा दी थी ।

पर्वत के उठते ही वहाँ तो एक विशाल कक्ष सा बन गया था ………..हजारों हजार लोग वहाँ आसकते थे …….और वर्षा कि एक बून्द भी वहाँ नही आरही थी ।

मैं सब को बुलाकर लाऊँ ? मनसुख बाहर जानें लगा………

पर बाहर भीषण वर्षा थी…….और घना अन्धकार भी था ।

कन्हैया नें रोक दिया मनसुख को……और गिरवरधारी नें दूसरे हाथ से बाँसुरी निकाल , एक हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाये हुए…..और दूसरे हाथ, बाम हस्त से बाँसुरी को अधर में रख कर फूँक मार दी….

गूँजी बाँसुरी कि ध्वनि पूरे बृजमण्डल में………गौओं नें भागना शुरू किया उसी दिशा कि ओर जिधर से बाँसुरी कि ध्वनि आरही थी …….ग्वाल बाल गोपी बृजरानी बृजराज सब उसी ओर चल पड़े थे ।

पर आश्चर्य ये हुआ तात ! कि गोवर्धन अब मात्र सात कोस के नही पूरे बृजमण्डल में फैल रहे थे…….जो ग्वाल गोपी दुःखी थे उनके हृदय में अब आनन्द भर दिया था कन्हैया नें अपनी बाँसुरी से ।

और जैसे ही भींगते हुए गोवर्धन में आये ………ये क्या !

अद्भुत झाँकी थी – गिरिराज धरण की ।

छोटी ऊँगली में गोवर्धन पर्वत थे कन्हैया के , दूसरे हाथ से बाँसुरी अधर में धर कर बजा रहे थे ………..त्रिभंगी छटा थी इनकी …………..

गोप गोपी सब मन्त्रमुग्ध हो नाचनें लगे ……….इन्हें क्या चाहिए था यही तो ……अपना श्याम ! अपना “गोवर्धनधारी साँवरा” ।

कितना प्यारा लग रहा था ये आज ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-133

श्रीकृष्णचरितामृतम्-133


!! इन्द्र का कोप – “गोवर्धन पूजन” !!


आश्चर्य होता है तात ! देवराज इन्द्र, सर्वेश्वर से कुपित हो गए !

सर्वेश्वर के स्वजनों से कुपित हो गए !

तुम “देवराज” भी हो तो उनके कारण, तुम समस्त देवताओं के राजा भी हो तो सर्वेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जू के कारण ……तुम्हारा स्वर्ग भी है तो उन्हीं की कृपा से ……..हाँ ! तुम कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता हो …….अब “देवराज” तो तुम उनके लिये हो जो कर्म के आश्रित हैं ……..करते हैं और करनें का फल भोगते हैं …….पर जो सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के अपनें जन हैं ………जो कर्म के आश्रित नही अपनें श्रीकृष्ण के आश्रित हैं ……..क्या तुम उनका बाल भी बाँका कर सकते हो ? उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला सुनाते हुए कहते हैं –

तात ! कर्म नही करते बृजवासी ऐसा नही है …करते हैं …..पर उसका फल श्रीकृष्ण ही हैं ………फल अपनें लिये नही है …….तो फिर कर्मेन्द्रिय हाथ के देवता इन्द्र का यहाँ क्या काम ?

अज्ञानता इन्द्र की है यहाँ…..अहंकार इन्द्र का दिखाई देता है यहाँ ।

पर इतना तो विचार करो…….तुम एक देवता के राजा मात्र हो …….स्वर्ग के अधिपति ही तो हो ……..पर हमारे गोलोक बिहारी कन्हैया की एक पलक गिरती है तो तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र जन्मते हैं और मर भी जाते हैं ।

ओह ! इन्द्र को क्रोधोन्माद हो उठा …….सुर होंने के बाद भी आसुरी भाव नें इन्द्र को जकड़ लिया……..पर इन सबसे अपनें नन्हे कन्हैया को क्या फ़र्क पड़नें वाला था……..इसे आनन्द आता है ……इसका आहार ही है – अहंकार …….ये अहंकार का ही भोजन करता है ।

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क्या ! मेरी पूजा अर्चना त्याग दी उन अहीरों नें ?

देवराज इन्द्र एकाएक क्रोधित हो उठे थे अपनी अमरापुरी में ।

नारायण नारायण !

इतना ही नही……….तुम्हारा जो इन्द्र ध्वज था उसे भी उखाड़ कर फेंक दिया है उन बृजवासियों नें ।

देवर्षि नारद जी आँखें मटका मटका कर इन्द्र को बता रहे थे ।

उन गोपों नें आपकी घोर अवज्ञा की है देवराज ! आपका आव्हान तक नही किया गया इस वर्ष………

पूजा अर्चना किसकी हुयी बृजमण्डल में इस वर्ष ?

इन्द्र नें देवर्षि से पूछा ।

आपका तो घोर अपमान ही हो गया …….गोवर्धन पर्वत की पूजा की गयी है इस वर्ष……..आपका नाम भी लेना उन लोगों नें उचित नही समझा ………इन्द्र ! सदियों से चली आयी आपकी पूजा रोक दी गयी……..ये आपका घोर अपमान है !

देवर्षि आग लगा रहे हैं………..इन्द्र का कोप बढ़नें लगा था ।

किसनें किया ये दुस्साहस ? कौन है वो जिसनें मेरी पूजा छुड़वा कर गोवर्धन की पूजा करवाई ! इन्द्र के क्रोध से उसका सिहांसन हिल रहा था ।

कृष्ण ! बृजपति नन्द का पुत्र है …..कृष्ण नाम है उसका ।

देवर्षि बोले जा रहे हैं – बृजवासी तो आपकी पूजा करना चाहते थे ……पर उस कृष्ण नें ही आपकी पूजा रुकवा दी …..और गिरी पर्वत की पूजा करवाई……..आप कुछ करिये …..नारायण ! नारायण !

इतना पर्याप्त था ………..देवर्षि मुस्कुराते हुए चल दिए ।

जाओ ! डुबो दो पूरे बृजमण्डल को !

इन्द्र चीखा अपनें मेघों पर……..उस कृष्ण की बात मान कर मेरी पूजा त्याग दी ….मुझे त्याग दिया उन ग्वालों नें ………अब मैं देखता हूँ मेरे क्रोध से कैसे बचेंगे वो लोग ।

बहा दो पूरे बृज को………प्रलयंकारी मेघ बरसो बृज मण्डल में …..

गोपों के समस्त पशु धन को बहा कर नष्ट कर दो ……….गरजो बृज में जाकर ……….मेघ !

इन्द्र को अत्यधिक क्रोध चढ़ गया था……..क्रोध जब अधिक चढ़ जाए तब आसुरी भाव प्रवेश कर जाता है……..और ये आसुरी भाव ही तो था – गायों को बहा दो ! ……गौ धन को नष्ट कर दो ! बृजवासियों को डुबो दो अतिजल वृष्टि से ……।

इतनें पर भी शान्ति नही मिली इन्द्र को तो उसनें “सांवर्तक” नामक मेघ को बुलाया………उद्धव बोले – ये मेघ प्रलय में ही बरसता है ……..उसको बुलाकर आज्ञा दी कि बरसों …………बृज को जैसे ही भी बहा दो ……….बृजवासियों को डूबा कर मार दो ।

मैं भी आरहा हूँ ………ऐरावत हाथी में बैठकर ……और मेरे हाथ मे बज्र भी होगा……….ऐसे नही मरेंगें बृजवासी तो मैं बज्रपात करूँगा ।

उद्धव बोले – देवर्षि नारद ऊपर से इन्द्र के क्रोध का निरीक्षण कर रहे थे ………….वो हँसे – अरे पागल इन्द्र ! ये ऐरावत हाथी समुद्र से ही तो निकला है ……..और समुद्र भगवान नारायण का घर है …..ये ऐरावत नारायण की वस्तु है तुम्हारी नही ………..ऐरावत मूल रूप से नारायण का ही है ………उनका एक संकेत मिले तो सूंड से उठाकर पैरों से तुझे ही तेरा वाहन ऐरावत कुचल देगा ………और हाँ बज्र पर भरोसा मत करना ………..उस बज्र में भी उन्हीं की ही शक्ति है ।

लेकिन देवर्षि प्रसन्न होकर अब आगे की लीला देखनें लगे थे ……..कि लीलाधारी इस इन्द्र को कैसे मजा चखाते हैं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-132

श्रीकृष्णचरितामृतम्-132


!! सात कोस की परिक्रमा – “गोवर्धन पूजन” !!


अपना कन्हैया लग रहा है ना ये गोवर्धन ?

प्रकट होकर छप्पन भोग आरोग रहे गिरिराज महाराज को मनसुख नें देखा तो श्रीदामा से ही पूछ लिया ।

पर इसके तो चार हाथ हैं ……..हमारे कन्हैया के दो ही हैं ।

अगर चार हाथ के स्थान पर दो ही हाथ होते तो क्या कन्हैया नही लगता ये गोवर्धन ?

हाँ , मनसुख ! तू तो सच कह रहा है …….श्रीदामा का ध्यान अब गया ………अरे मुस्कुराहट भी कन्हैया जैसी ………खानें का तरीका भी कन्हैया जैसा ! नेत्र भी वैसे ही चंचल……..मनसुख अपनी बात कहकर अब ऐसे खड़ा है जैसे उसी नें इस बात को पकड़ा हो …….या इस रहस्य को उसी नें खोला हो ।

फिर कुछ देर बाद मनसुख श्रीदामा के कान में कहनें लगा ………..

ऐसा नही लग रहा…..ये गोवर्धन बहुत दिन का भूखा है ?

श्रीदामा की हँसी फूट पड़ी…………ऐसे नही बोलते ………कान काट देंगे गोवर्धन ! श्रीदामा नें हँसते हुए ही कहा ।

इन्द्र थोड़े ही है अपना गोवर्धन है ये……ये बस खाना जानता है ।

मनसुख फिर शान्त भाव से खड़ा रहा………..वो गोवर्धन महाराज की लीलाओं को देख रहा था । बृजवासी भोग लेकर आते …….पर गोवर्धन महाराज एक ही बार में सब खा जाते हैं ।

मनसुख फिर श्रीदामा के कान में कुछ कहनें लगा…….इस बार श्रीदामा नें सुनी नही उसकी बात ……तो थोडा जोर से बोला……ये गिरिराज गोवर्धन हमारे लिये भी कुछ छोड़ेगा या स्वयं ही सब खा जायेगा !

ये मनसुख के बोलते ही…….पता नही क्या हुआ…….गोवर्धन महाराज नें इशारे में मनसुख को आगे बुलाया…….

अब जा ! खूब बोल रहा था ……अन्तर्यामी हैं गोवर्धन महाराज ……मजाक उड़ा रहा था तू …..अब फल भुगत ….श्रीदामा नें कहा ।

अरे ! तो मैने क्या गलत बोला था…..सब पीछे देखनें लगे…….मनसुख को ही गोवर्धन महाराज नें अपनें पास बुलाया था ……कन्हैया नें खुश होकर मनसुख से कहा ……..तेरे भाग्य खुल गए देख ! तुझे ही बुला रहे हैं मनसुख ! जा …..प्रणाम करके आशीर्वाद ले ।

डरता हुआ मनसुख गोवर्धन महाराज के पास पहुँचा……..”मुझे भोग लगाओ”……गोवर्धन महाराज की गम्भीर वाणी गूँजी ।

भोग लगा मनसुख ! कन्हैया नें कहा ।

मनसुख नें पास में रखे भोग सामग्रियों से लड्डू उठाया और गोवर्धन महाराज को खिला दिया……..वो लौटनें लगा …….तो फिर वही आवाज गूँजी …….प्रसाद नही लोगे ? मनसुख खुश हो गया ……..वो मुड़ा तो वही लड्डू गोवर्धन महाराज नें मनसुख के हाथों में दे दिया था ।

जैसे ही खानें के लिये लड्डू तोड़ा मनसुख नें …….उसमें से दो कानों के कुण्डल निकले…….ले ! ये तेरे लिये दिया है कन्हैया ! तू रख ले ……लड्डू को तो खा गया पर उसमें से जो सुवर्ण के कुण्डल निकले थे उसे कन्हैया को दे दिया था ।

ये तो लड़कियों के कुण्डल हैं ………कन्हैया हँसे ।

हाँ, तो मेरी भाभी को पहना देना……….मनसुख सहजता में बोला ।

तेरी भाभी ? हाँ मेरी भाभी ! ला दे कुण्डल …..मैं उसी को दे देता हूँ ……ये कहते हुए श्रीराधा रानी के पास मनसुख गया और उनके हाथों में दे दिया…….लाल मुख मण्डल हो गया था श्रीराधारानी का शरमा गयीं थीं वो ।

हे बृजवासियों ! वर माँगों मैं तुम सबसे बहुत प्रसन्न हूँ ।

गोवर्धन नें अब भोग पानें के बाद सब से वर माँगनें के लिये कहा ।

तात ! अद्भुत बात ये हुयी वहाँ ……सबनें यही वर माँगा की कन्हैया के प्रति हमारा प्रेम ऐसे ही बढ़ता रहे ……..कन्हैया ही हमारा एक मात्र प्रिय हो ।…….उद्धव विदुर जी को ये कथा सुना रहे हैं ।

श्रीराधारानी नें हाथ जोड़कर और नेत्रों को बन्दकर के माँगा कि …….मेरा सुहाग श्रीकृष्ण ही बनें …………

मैया यशोदा नें माँगा – मेरे लाला पर कभी कोई विपदा न आये ।

पर कुल मिलाकर सबनें श्रीकृष्ण के लिये ही माँगा …….क्यों कि श्रीकृष्ण के सिवा इनका कोई है ही नही ।

“तथास्तु”………कहकर गोवर्धन महाराज अंतर्ध्यान हो गए थे ।

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पर एक आश्चर्य हो गया …….इस आश्चर्य से मनसुख बड़ा प्रसन्न है ।

सब लोग सोच रहे थे सारा का सारा भोग गोवर्धन महाराज पा लेंगे …और पा भी लिया था सारे थाल खाली हो गए थे ।

पर जैसे ही गोवर्धन महाराज अंतर्ध्यान हुये ……..थालों में भोग प्रसाद पहले जैसा था वैसा ही भर गया ।

कन्हैया नें साष्टांग प्रणाम किया गोवर्धन को ………फिर तो सबनें प्रणाम किया ………….मनसुख नें तो बारम्बार प्रणाम किया ………क्यों की भोग प्रसाद सामनें आगया था वापस ।

पंगत लगी अब ……..महर्षि शाण्डिल्य नें कन्हैया से पूछा ……प्रदक्षिणा पहले लगायी जाए या फिर भोग सब बैठकर पाएंगे !

हाथ जोड़कर कन्हैया नें कहा ……..नही , महर्षि ! ये अर्चना इन्द्र की नही है ……जिसमें भूखों रहना पड़े व्रत उपवास करना पड़े …..ये तो गोवर्धन महाराज का प्रसाद है ……..सब पाएंगे पहले प्रसाद ………फिर उसके बाद नाचते गाते गोवर्धन की परिक्रमा देंगे ।

महर्षि गदगद् हैं इस शालग्राम स्वरूप गोवर्धन की पूजा करके ।

अन्य कोई द्विज जब इस “गोवर्धन पूजा” का रहस्य जानना चाहता है ….तो महर्षि शाण्डिल्य उससे कहते ……..ये गोलोक धाम के विशाल शालग्राम हैं ………..शालग्राम से भी ज्यादा इनकी शिला पूजनें का फल है ……ये सदा हरिदासवर्य हैं ..यानि समस्त हरिदासों में श्रेष्ठ ।

सबनें प्रसाद पाया ……कढ़ी भात, बाजरे की खिचड़ी……..ये इस गोवर्धन पूजन में आवश्यक बना दिया था कन्हैया नें……..बाकी अन्य मिष्ठान्न ……..पकवान …….नाना प्रकार के व्यंजन……..पर ये अब सब प्रसाद है……..सबनें आनन्दित होकर प्रसाद पाया ।

अब ? महर्षि नें कन्हैया से पूछा ।

“परिक्रमा”…….गोवर्धन नाथ की प्रदक्षिणा…..कन्हैया नें कहा ।

आगे आगे गौ को किया गया……….सुन्दर सुन्दर गौएँ हैं ……हल्दी के छापे उनके देह पर लगाये गए थे ……सोनें से सींग मढ़ी गयी थी …..चाँदी से खुर मढ़े गए थे ।

इनको आगे आगे रखा गया……..ब्राह्मणों को इनके पीछे ……..जिसमें महर्षि शाण्डिल्य इत्यादि थे ………और उनके पीछे बृजराज जी बृषभान जी गणमान्य व्यक्ति थे ……..उनके पीछे बृजवासिन थीं ….सुन्दर सुन्दर सजी धजी गीत गाती हुयी चल रही थीं……….बरसानें वाली सखियाँ अलग थीं और नन्दगाँव की अलग ।

श्रीराधारानी नें आनन्दित होकर गीत गाना शुरू किया था …….सब पीछे गा रही थीं……”गोवर्धन महाराज तेरे माथे मुकुट विराज रह्यो” ।

दान घाटी से परिक्रमा प्रारम्भ हुई …………….सबनें प्रणाम किया इस भूमि को ….और चल पड़े ………आहा ! क्या दिव्य शोभा बन गयी थी उस गोवर्धन परिक्रमा की …………….बीच बीच में सखाओं के मध्य चल रहे कन्हैया दूसरो को नाचनें के लिये उकसाते ……….तब वो ग्वाला जब नाँचता तब हँस हँस कर सब पागल हो जाते ।

अब जतीपुरा में सब परिक्रमार्थी पहुँचे थे ………ये जतीपुरा गोवर्धन पर्वत का मुख कहा जाता है ……..यहाँ ग्वालों नें दूध से गिरी गोवर्धन का अभिषेक किया …………कुछ देर बैठे पूरी श्रद्धा से प्रणाम निवेदित करते हुए ये लोग बढ़े ।

राधा कुण्ड श्याम कुण्ड…….इन कुण्डों में सबनें स्नान किया था ।

पता ही नही चला सात कोस कैसे जल्दी पूरे हो गए ?

श्रीराधारानी नें ललिता सखी से कहा था ।

ऐसा लग रहा है मिनटों में पूरी हो गयी परिक्रमा !

क्यों की दान घाटी आ गयी थी ………….और अब परिक्रमा पूरी करके सब लोग अपनें अपनें घरों में जानें वाले थे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-131

श्रीकृष्णचरितामृतम्-131


!! छप्पन भोग की झाँकी – “गोवर्धन पूजन” !!


महर्षि ! आप पुरुषसूक्त का पाठ करें …..आपके साथ द्विजवर्ग भी जो आया हुआ है यहाँ, वो भी पाठ करेंगे ……उस समय यमुना जल से अभिषेक होगा गिरिराज गोवर्धन का ।

नन्दनन्दन नें हाथ जोड़कर महर्षि शाण्डिल्य को निवेदन किया था ।

इतनौ जल ? सात कोस के हैं तेरे गिरिराज भगवान ! इतनौ जल कौन लावैगो ? और यमुना जी तनिक दूर पे हूं हैं ।

मनसुख नें साफ मना कर दिया ।

महर्षि की ओर से मुड़कर मनसुख की ओर देखा कन्हैया नें ………अरे ! इतने ग्वाल बाल हो तो सही ……लै आओ जल !

श्रीदामा नें कहा – सात कोस के तेरे भगवान हमारे जल लावै तो भींग जांगे ? लाला कन्हैया ! इतनौ जल यमुना जी ते नही आ पावैगो !

अच्छो ? सोचनें लगे कन्हैया ।

रुको !

एकाएक तेजपूर्ण मुखमण्डल हो गया कन्हैया का …….उनके नेत्र बन्द थे ……..वो एक एक नाम का स्मरण कर रहे थे ……और उनके नाम लेनें मात्र से वो उपस्थित ।

गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी , गोमती, गोदावरी, मन्दाकिनी, अलकनन्दा, गण्डकी ……….इन सब नदियों का स्मरण किया बस – सब उपस्थित थीं वहाँ ।

देखते ही देखते …….एक दिव्य कुण्ड प्रकट हो गया………

महर्षि शाण्डिल्य नें उस जल का छींटा लिया स्वयं ……….आनन्दित होकर बोले – इसमें तो सम्पूर्ण तीर्थों का जल है ……….विश्व की सारी नदियों का जल इसमें समाया हुआ है………आचमन किया महर्षि नें …………और मुस्कुराते हुये उस कुण्ड का नाम भी रख दिया ……….

“मानसी गंगा”……क्यों की नन्दनन्दन नें अपनें मन से इन गंगा जी को प्रकट किया था ….इसलिये नाम रखा मानसी गंगा ।

अब तो सब बृजवासी आनन्दित हो मानसी गंगा से ही जल लेकर गोवर्धन महाराज पर चढानें लगे……….सात कोस के गिरी गोवर्धन का अभिषेक भी देखते ही देखते सम्पन्न हो गया था ।

चन्दन लगाया गोवर्धन को………..साष्टांग सबनें प्रणाम किया ।

अब ? सब मुड़े कन्हैया की ओर ।

अब क्या ! छप्पन भोग लगेगा गोवर्धन महाराज को ।

कन्हैया नें कहा ………और साथ ही साथ अपनें सखाओं को कहा ……..भोग के जितनें थाल हैं सबमें भोग सजाकर लाओ ….और यहाँ गोवर्धन भगवान के सामनें रख दो ……….सजाकर रखना ……पँक्ति बद्ध करके रखना …………..

कन्हैया की बात मानकर सब ग्वाले बैलगाड़ियों में चले गए …..उनमें रखे हुये थे भोग के थाल ……..उन्हीं थालों में विभिन्न प्रकार के भोग थे ……बस पँक्तिबद्ध खड़े हो गए सब…….एक ग्वाला दूसरे को थाल पकड़वाता है……..दूसरा तीसरे को …….ऐसे करके थाल को सजाया गया……..एक भोग छप्पन प्रकार के थे……..गिनती करनें के लिये जो ग्वाला बैठा था वो भी भूल रहा था, इतनें पदार्थ हो गए ।

सब आनन्दित हैं सब रस में भींगें हुए हैं ……गोपियाँ तो इतनी आनन्दित हैं कि वो बात बात में नाच उठती हैं………क्यों की इन्द्र यज्ञ में तो इनको छूनें की भी मनाई थी ….पर इस गोवर्धन पूजन में इनका अपना अधिकार था……इनके प्रियतम नें ही ये अर्चना रखी थी ।

रसगुल्ला, चन्द्रकला, रबड़ी, पेड़ा, मोहन थाल, लड्डू, मोहन भोग, जलेबी, राजभोग, रसभरी, इमरती, माखन, मलाई, मलाई के लड्डू, मालपुआ, खीर, खीरमोहन, दूध भात, बालूशाही ।

पूड़ी , कचौड़ी, बेढई, चूरमा वाटी, घेवर, चीला, हलुआ, खीर भोग, साग के प्रकार इतनें हैं कि वर्णन कठिन है…….दाल, मुंग की दाल, अरहर की दाल, दही बड़े कांजी बड़े , भात , मीठे भात , नमकीन भात , सादे भात ………और कढ़ी ……..बाजरे की रोटी …….बाजरे की खिचड़ी ……मीठी खिचड़ी नमकीन खिचड़ी ……..दही , छाँछ ।

तात ! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ ? अनेक प्रकार के भोग हैं और अनेक प्रकार के व्यंजन………..सबको सजा कर रखा गया गोवर्धन महाराज के सामनें……दिव्य झाँकी है इस छप्पन भोग की ।

अब ? महर्षि नें श्रीकृष्ण से ही पूछा ।

अब तुलसी दल भोग में छोड़ा जाए …..कन्हैया नें कहा ।

नही , ऐसे नही होगा…….तुमनें कहा था हे कृष्ण ! कि तुम्हारे गोवर्धन नाथ प्रकट होकर भोग स्वीकार करेंगे ! ऐसे भोग तो हम देवराज इन्द्र की लगाते रहते थे …..प्रत्यक्ष होकर भोग स्वीकार करें तब है ।

ग्वालों नें पीछे से आवाज उठाई ……

कन्हैया मुस्कुराये……और देखते ही देखते ……गोवर्धन पर्वत में एक दिव्य प्रकाश छा गया……..ग्वाल बाल कुछ देख नही पा रहे थे ।

तभी – “मैं तुम लोगों की पूजा अर्चना से अतिप्रसन्न हूँ ……….अब लाओ, मुझे भोग लगाओ ………मैं तुम्हारे भोग को स्वीकार करके तुम्हे अनुग्रहित करता हूँ” ………

दिव्य चतुर्भुज रूप धारण करके श्याम वर्ण के स्वयं श्याम सुन्दर ही प्रकट हो गए थे ……अन्तर इतना ही था कि नन्दनन्दन की दो भुजाएँ थीं गोवर्धन नाथ के चार भुजा ।

दर्शन करके बृजवासी आनन्दित हो उठे ………और अब तो वाणी भी सुन ली ………….”मैं तुम लोगों की अर्चना से अतिप्रसन्न हूँ “

बस – इतना सुनते ही सब बृजवासी उछल पड़े ……बोल – गोवर्धन नाथ की …..जय जय जय जय …….सब झूम उठे ।

लाओ ! भोग …..और लाओ ! गोवर्धन महाराज भोग स्वीकार कर रहे हैं ….भोग आरोग रहे हैं …..सब देखते हैं और रस में मग्न होते हैं ।

श्रीराधा जी इतनी देर तक शान्त थीं……..कुछ कह नही रही थीं ……कुछ कर नही रही थीं ……बस अपनी सखियों के साथ बैठीं थीं ।

पर अब………एकाएक हँसनें लगीं …….ललिता सखी नें देखा ….तो पूछ लिया ……प्यारी जू ! क्यों हँस रही हैं आप ?

पहचानों ये गोवर्धन कौन हैं ? हँसते हुये श्रीराधा जी नें ललिता सखी को कहा , कौन हैं ? ललिता सखी नें पूछा ।

हमारे श्याम सुन्दर ही तो हैं …………..ये कहते हुए श्रीराधा रानी हँसती रहीं ………”.स्वयं ही पुजारी स्वयं ही पूज्य” ……स्वयं पूजे और स्वयं पूजावे…….सखी ललिते ! श्याम सुन्दर अद्भुत लीलाधारी हैं ।

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“निवृत निकुञ्ज की लीला”

“निवृत निकुञ्ज की लीला”


गीताप्रेस गोरखपुर में पूज्य श्रीहरि बाबा महाराज की एक डायरी रखी है उसमें बाबा के द्वारा हस्तलिखित लेख है। उसमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव के जीवन की घटना लिखी है वृन्दावन की सेवा कुञ्ज की घटना है–

सेवा कुञ्ज में एक बार बाबा ने रात बिताई कि देखूँ तो सही क्या रास होता भी है ?

एक दिन रातभर रहे कुछ नही दिखा तो मन में यह नही आया की यह सब झूठ है।

दूसरे रात फिर बिताई मन्दिर बन्द होने पर लताओं मेंं छुप कर रात बिताई उस रात कुछ न के बराबर मध्यम-मध्यम सा अनुभव हुआ। एकदम न के बराबर उस दिव्य संगीत को सुना लेकिन उस संगीत की स्वर-लहरियों का ऐसा प्रताप हुआ की बाबा मूर्छित हो गये।

जब सुबह चेतना में आये तो सोचा कि अब दर्शन तो करना ही है ऐसा संकल्प ले लिया। बाबा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक बार और प्रयास किया की देखूँ तो सही रास कैसा होता है ?

तीसरी रात श्रीहरिबाबा के पूज्य गुरुदेव लताओं के बीच कहीं छुप गये आधी रात तक उन्होंने लिखा कि कही कुछ दर्शन नही हुआ। परन्तु प्रतीक्षा में रहे। कहते है मध्य रात्रि होने पर निधिवन (सेवाकुञ्ज) में एक दिव्य सुगन्ध का प्रसार होने लगा ; एक अलौकिक सुगन्ध। अब बाबा सावधान हो गये समझ गये की लीला आरम्भ होने वाली है ; बाबा अब और सावधानी से बैठ गये।

कुछ समय बाद बाबा को कुछ धीरे-धीरे नूपुरों के झन्कार की आवाज आने लगी। छण-छण-छण बाबा को लगा कोई आ रहा है। तब बाबा और सावधान हो गये बाबा ने और मन को संभाला और गौर से देखने का प्रयास जब किया।

बाबा ने देखा की किशोरीजी-लालजी के कण्ठ में गलबहियाँ डालकर धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाकर सेवा कुञ्ज की लताओं के मध्य से आ रही हैं। बाबा तो देखकर आश्चर्यचकित हो गये।

बाबा और सम्भल गये और बाबा ने लिखा आज प्रियाजी को देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा है आज प्रिया जी प्रत्येक लता के पास जाकर कुछ सूंघ रही थी।

लाला ने पूछा–‘हे किशोरीजी आप हर एक लता के पास क्या सूंघ रही हैं ? क्या आपको कोई सुगन्ध आ रही है ?’

श्रीकिशोरीजी ने कहा–‘लालजी आज हमें लगता है की हमारे आज इस निकुञ्ज वन में किसी मानव ने प्रवेश कर लिया है हमें किसी मानव की गन्ध आ रही है।’

इतना सब सुनकर बाबा की आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे। बाबा के मन में भाव आया कि सेवा कुञ्ज में प्रिया-प्रियतम विहार कर रहे है क्यों न जिस मार्ग पे ये जा रहे हैं उस मार्ग को थोड़ा सोहनी लगाकर स्वच्छ कर दूँ।

बाबा ने कल्पना कि नही-नही अरे अगर मार्ग को सोहनी से साफ किया तो मैने क्या सेवा की ? सेवा तो उस सोहनी ने की मैने कहाँ की तो फिर क्या करूँ ?

कल्पना करने लगे क्यों न इन पलकों से झाड़ू लगाने का प्रयास करूँ फिर ध्यान आया अगर इन पलकों से लगाऊँगा तो इन पलकों को श्रय मिलेगा आखिर फिर क्या करूँ ?

आँखों से अश्रु प्रवाह होने लगा कि मैं कैसे सेवा करूँ आज साक्षात प्रिया-प्रियतम का विहार चल रहा है मैं सेवा नही कर पा रहा कैसे सेवा करूँ ?

उसी क्षण प्रिया जी ने कहा–‘लालजी आज हमारे नित्यविहार का दर्शन करने के लिये कोई मानव प्रवेश कर गया है ? किसी मानव की गन्ध आ रही है।’

उधर तो बाबा की आँखों से अश्रु बह रहे थे, और इधर लालजी प्रियाजी के चरणों में बैठ गये लालजी का भी अश्रुपात होने लगा!

प्रियाजी ने पूछा–‘लालजी क्या बात है ? आपके अश्रु कैसे आने लगे ?’

श्रीजी के चरणो में बैठ गये श्यामसुन्दर नतमस्तक हो गये तब कहा–‘श्रीजी आप जैसी करुणामयी सरकार तो केवल आप ही हो सकती है। अरे! आप कहती हो की किसी मानव की गन्ध आ रही है!!

हे! श्रीजी जिस मानव की गन्ध आपने ले ली हो फिर वो मानव रहा कहाँ, उसे तो आपने अपनी सखी रूप में स्वीकार कर लिया।’

श्रीजी ने कहा–‘चलो फिर उस मानव की तरफ।’

बाबा कहते है–‘मैं तो आँख बन्द कर ध्यान समाधी में रो रहा हूँ कि कैसे सेवा करूँ? तभी दोनों युगल सामने प्रकट हो गये और बोले–‘कहे बाबा रास देखने ते आयो है ?’

न बाबा बोल पा रहे ; न कुछ कह पा रहे हो; अपलक निहार रहे हैं।

श्रीजी ने कहा–‘रास देखते के ताय तो सखी स्वरुप धारण करनो पड़ेगो। सखी बनैगो ?’ बाबा कुछ नही बोले।

करुणामयी सरकार ने कृपा करके अपने हाथ से अपनी प्रसादी ‘चन्द्रिका’ उनके मस्तक पर धारण करा दी।

इसके बाद बाबा ने अपने डायरी में लिखा, इसके बाद जो लीला मेंरे साथ हुई न वो वाणी का विषय था न वो कलम का विषय था।

यह सब स्वामीजी की कृपा से निवृत-निकुञ्ज की लीलायें प्राप्त होती है। स्वामीजी के रस प्राप्ति के लिये इन सात को पार करना होता है–

प्रथम सुने भागवत, भक्त मुख भगवत वाणी।

द्वितीय आराध्य ईश व्यास, नव भाँती बखानी।

तृतीय करे गुरु समझ, दक्ष्य सर्वज्ञ रसीलौ।

चौथे बने विरक्त, बसे वनराज वसीलौ।

पांचे भूले देह सुधि, तब छठे भावना रास की।

साते पावें रीति रस, श्री स्वामी हरिदास की॥

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-130

श्रीकृष्णचरितामृतम्-130


!! गोवर्धन को जाऊँ मेरी वीर – “गोवर्धन पूजन” !!


आहा ! महामहोत्सव का रूप ले लिया था “गोवर्धन पूजन” नें ।

कितनें सरल और निर्दोष थे ये सब बृजवासी …….प्रेम करते थे अपनें कन्हैया से……फिर जहाँ प्रेम होता है वहाँ प्रेमी की हर बात स्वीकार होती ही है……एक बार श्रीकृष्ण नें कहा……अपनें देवता को त्याग दो और मेरे देवता गोवर्धन की पूजा करो……त्याग दिया ।

देवता उत्पात मचायेगा……वज्रपात करेगा…..प्रलय ले आएगा …….

अब कुछ भी करे …….कन्हैया की बात हमें माननी ही है ……….क्यों की प्रेम है । उद्धव स्वयं उत्सव मूर्ति हैं…..आज इस उत्सव की लीला गाते हुये उद्धव आनन्दित हो उठे थे ।

तात ! प्रेम के लिये तात मात सुत दारा गृह – इन सबको छोड़ते तो देखा गया है ……पर इन बृजवासियों नें तो अपनें देवता को ही त्याग दिया …….प्रेम जो करवाये कम ही है – ये कहते हुए उद्धव हँसे ।

अमावस्या कल ही तो थी …….कार्तिक अमावस्या ……….क्या जगमग कर उठा था पूरा बृजमण्डल ……..दीप मालिकाएँ जगमगा उठीं थीं ।

आज प्रतिपदा है ……..कन्हैया नें अमावस्या के दूसरे दिन का ही मुहूर्त बताया था समस्त बृजमण्डल को …………..

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प्रातः उठकर स्नान किया बृजरानी नें ………….सुन्दर इत्र फुलेल लगाया …………लाल सुन्दर साड़ी पहनी …………..केशों को बांध कर जूड़ा बनाया ……..गजरा और लगा दिया उसमें ।

लाल बड़ी सी बन्दी माथे में ………आँखों में कजरा ।

कन्हैया को अच्छा लगता है उसकी मैया सजी धजी रहे ………..इसलिये ही ये सजती है …………..

“बहुत सुन्दर लग रही हो …….ऐसी लग रही हो जैसे मैं अभी तुम्हे ब्याह करके लाया हूँ” …………..हँसते हुए बृजराज नें बृजरानी को छेड़ा …….शरमा गयीं बृजरानी …….लाल मुखमण्डल हो गया था उनका ।

“बच्चों के सामनें आप कुछ भी बोलते हो “! यशोदा मैया अभी भी शरमा रही हैं …….गोरी मैया शरमाते हुये बहुत अच्छी लगती हैं ।

आप तो तैयार ही नही हुये ? बृजराज को देखकर मैया बोलीं ।

आइये इधर …………सुन्दर रेशमी पीली धोती बृजराज को दी ……..फिर वैसी ही बगलबन्दी ऊपर ………सुन्दर पटका जिसमें अद्भुत मोतियों का काम हुआ है ……….सिर में पगड़ी, हीरे की कलँगी उसमें और लगा दी………बाबा नें आज आभुषण धारण किये ……गले में मोतियों की माला….हाथों में सोनें के कडुवा…..हीरे उसमें जड़े हुए थे ।

और मस्तक में केशर का तिलक ……………

बाबा हँसे ……….बृजरानी ! अब बाहर आजाओ …………..लोग आगये हैं बाहर ………..और फिर बरसानें के बृषभान जी को भी तो लेकर चलना है और उनके साथ भी सुना है पूरा बरसाना ही चलेगा गोवर्धन पूजन के लिये ।

ये कहते हुये बृजराज बाहर आगये ……..बाहर कन्हैया हैं ……..गम्भीर हैं आज ………सब कन्हैया से ही पूछ रहे हैं ………….

कृष्ण ! कृष्ण ! महर्षि शाण्डिल्य पधार चुके थे उन्होंने कन्हैया को बुलाया ………..कन्हैया तुरन्त दौड़े हुये आये……..आज्ञा महर्षि ! सिर झुकाकर पूछा ।

गोवर्धन की पूजा किस विधि से की जाए ?

हे गुरुदेव ! गोवर्धन पर्वत स्वयं नारायण के स्वरूप हैं ………..इसलिये तुलसी , तुलसी की मञ्जरी …….यमुना जल , दूध दही घी मधु शर्करा इन सबसे गिरी गोवर्धन की अर्चना की जाए ।

नारायण , विष्णु, हरि, माधव केशव इन्हीं नामों का उच्चारण करते हुए गिरिराज गोवर्धन का पूजन हम सब करें ।

मुस्कुराकर महर्षि शाण्डिल्य नें श्रीकृष्ण की बात स्वीकार की ।

चलो ! चलो ! अब गाड़ियों को सजाया जाए……….कन्हैया प्रणाम करके महर्षि के पास से चले गए और दूसरी ओर जाकर बैलगाड़ियों को भी सजानें की व्यवस्था में स्वयं लग गए थे ।

गायों को सजाना है ना कन्हैया ? बलभद्र भैया नें आकर पूछा ।

हाँ …दाऊ ! उन्हें तो मुख्य सजाना है……उनको नहलाओ…..फिर हल्दी की छाप उनपर लगाओ…….सुवर्ण से उनकी सींग सजाओ …….चाँदी उनके खुर में लगाओ …….पीला वस्त्र उन्हें उढ़ाओ ।……बड़े भैया बलभद्र को समझा कर भेज दिया था कन्हैया नें

देखते ही देखते सहस्त्रों बैलगाड़ियाँ तैयार हो गयीं थीं ….गायों को स्वयं बलराम जी नें सजाया था ।

बैलगाड़ियों में छप्पन भोगों को रखा गया – छप्पन भोग, एक एक भोग, छप्पन प्रकार के थे …….अब सब अपनी अपनी बैलगाड़ियों में बैठ गए ……..सज धज कर आगे बृजपति ही चले …. भाई उपनन्दादि उनके साथ थे ………..

कन्हैया अपनें सखाओं के साथ बैठे …………इसी बैलगाडी की सबसे ज्यादा शोभा हो रही थी जिस में श्रीकृष्ण विराजे थे ।

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बरसानें से होकर जायेगें ये सब गोवर्धन के लिये ………..बरसानें वाले प्रतीक्षारत हैं………….जैसे ही गाड़ियाँ बरसानें से गूजरी सब आनन्दित हो उठे …….बृषभान जी और बृजराज दोनों गले मिले ……….बृजरानी और कीर्ति रानी दोनों प्रेम भाव से मिलीं और साथ में ही बैठीं ।

बृषभान नन्दिनी अपनी अष्टसखियों के साथ बैठीं हैं …………श्याम सुन्दर को निहार रही थीं पर जैसे ही श्याम सुन्दर नें श्रीराधारानी को देखा ………श्रीराधा नें दृष्टि घुमा ली ।

अब तो बैलगाड़ियों की लाइन बहुत लम्बी हो गयी थी ……पर दूर से देखनें में अद्भुत छटा लग रही थी इन सबकी ……….पीले पीले रेशमी वस्त्रों से सजे थे सारे बृषभ ।

गीत गाते हुए ……..जयजयकार करते हुए सब गोवर्धन की ओर चले जा रहे हैं……आनन्दित हैं सब ……….उत्साह उमंग अद्भुत है सबमें ।

बोलो – “गोवर्धन नाथ की” …….कन्हैया नें कहा ……..तो पीछे से सब बृजवासी बोल उठे – “जय जय जय जय” ।

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गोर्वधन में पहुँचकर साष्टांग प्रणाम स्वयं कन्हैया नें किया था ।

बस – फिर तो सब प्रणाम करनें लगे थे गिरी गोवर्धन को ।

महर्षि शाण्डिल्य नें पुरोहित अब कन्हैया को ही बना दिया ……….

महर्षि भी कन्हैया से ही पूछ रहे थे…क्या करना है ….क्या नही करना ।

पूजन की विधि जैसे शालग्राम भगवान की होती है वैसे ही हो रही थी ।

चौंसठ सुवर्ण के दोनों में यमुना जल डालकर उसमें तुलसी दल छोड़कर उन्हें पँक्ति बद्ध रखा गया था ………गोपियों को पूजन की आज्ञा नही दी गयी तो कन्हैया नें महर्षि शाण्डिल्य से कहा …..महर्षि ! ये इन्द्र याग नही है ………ये गिरी गोवर्धन की अर्चना है ….इसमें सबको अधिकार मिले ………..महर्षि नें स्वीकृती दी ।

अब तो सब गोपियाँ भी उत्साह से गोवर्धन का पूजन करनें लगीं थीं ।

बोलो – गिरिराज गोवर्धन की …….जय जय जय जय !

मनसुखा नाचते गाते बीच बीच में जयकारा लगा रहा था ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-129

श्रीकृष्णचरितामृतम्-129


!! श्रीकृष्ण की क्रान्ति – “गोवर्धन पूजन” !!


मेरे मात्र हाँ कह देनें से क्या होता है लाल ! समस्त बृजवासी मानें …..फिर सबसे पहले तो महर्षि शाण्डिल्य को माननी होगी तेरी बात ….वो समर्थन करेंगे तब जाकर गोर्वधन पूजन हो सकेगा ।

बृजराज बाबा नें अपनें पुत्र कन्हैया को समझाया था ।

तब देरी क्यों ? बुलाया जाए समस्त बृज के समाज को ……..और महर्षि शाण्डिल्य को भी ………गम्भीर होकर श्रीकृष्ण बोल रहे थे ।

“लो ! महर्षि पधार गए”……..बृजराज उठकर खड़े हो गए …….और बड़ी विनम्रता पूर्वक नमन किया था महर्षि शाण्डिल्य के चरणों में……और आसन दिया जिसमें महर्षि शाण्डिल्य विराजे ।

हे गुरुदेव ! मेरा पुत्र कुछ कहना चाहता है …………मैं तो इसका समर्थन नही करता…..क्यों की कर्मकाण्ड की रीति से इन्द्र पूजन हम कृषकों के लिये आवश्यक है …..तभी तो वर्षा होगी और अन्नों की उपज बढ़ेगी ।

बृजराज नें महर्षि शाण्डिल्य के सामनें अपनी बात रखी ।

हे कृष्ण ! तुम क्या कह रहे हो ? क्या ये बृजवासी इन्द्रयाग न करें ?

महर्षि नें श्रीकृष्ण का मत जानना चाहा ।

हाथ जोड़कर महर्षि को नमन करते हुए श्रीकृष्ण बोले थे –

भक्ति में दो ही पूजा चलती हैं महर्षि ! एक भगवान की या एक भक्त की …….इसके सिवा किसी की भी पूजा मान्य नही है ……….

श्रीकृष्ण गम्भीर विवेचना में उतर गए थे ।

गुरुदेव ! सकाम पूजा की अपेक्षा निष्काम को समस्त शास्त्रों नें और शास्त्रकारों नें श्रेष्ठ माना है …………देवताओं की पूजा सकाम ही होती है …….इसलिये इन देवों की पूजा से श्रेष्ठ भगवान की पूजा मानी जायेगी ….और भगवान से भी ज्यादा श्रेष्ठ उनके प्रिय भक्तों की पूजा है …..क्यों की भक्तों का जीवन सदैव दूसरों की सेवा में ही बीतता है ।

बड़े ध्यान से और मुस्कुराकर महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण की बातें सुन रहे थे और गदगद् हो रहे थे ।

हे गुरुदेव ! देवताओं में भी अहंकार उत्पन्न होता है ………..अहंकार ही नही देवताओं में तो आसुरी भाव का भी प्रकट होते देखा गया है ।

फिर आप तो सब जानते ही हैं ……आसुर भावापन्न देवता लोग अपनें ही पुजारी और उपासक का अहित करनें में भी देरी नही करते …….क्या महर्षि ! मैं सत्य नही कह रहा ? श्रीकृष्ण नें महर्षि से ही पूछा ।

मुस्कुराते हुये हाँ में सिर हिलाया महर्षि शाण्डिल्य नें ।

हे गुरुदेव ! पर भक्त कभी रुष्ट नही होते ……….आसुर भाव का उनमें उदय स्वप्न में भी नही होता …..दूसरे का हित …….वे सदैव दूसरे के हित के बारे में ही सोचते रहते हैं ………….करते रहते हैं ।

आप देखिये ना ! हमारे गोवर्धन पर्वत को ………..सदैव इन्होनें हमें दिया ही दिया है …….कभी लिया नही है……..इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस बार गोवर्धन नाथ की पूजा हो ……..मेरी कोई बात अगर आपको अनुचित लगी हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ …….इसका कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गए थे ।

महर्षि नें प्रसन्नमुद्रा में कहा – समस्त बृजवासियों को बुलाओ …….हे बृजराज ! श्रीकृष्ण की बातें सांख्योक्त हैं ……मैं तो समर्थन करता हूँ …..पर ये तुम्हारी प्राचीन परम्परा है…….समाज का भी समर्थन मिले इसलिये सबको बुलाओ …….समस्त बृजवासियों को ….और वो क्या कहते हैं उनकी भी सुनो !

जो आज्ञा गुरुदेव ! बृजराज नें महर्षि को प्रणाम किया …….और आज्ञा दी कि – आज सन्ध्या से पूर्व समस्त बृजवासी मेरे आँगन में एकत्रित हों……आवश्यक वार्ता करनी है ।

बृजराज की आज्ञा कुछ ही समय में पूरे बृजमण्डल में फ़ैल गयी थी ।

झुण्ड के झुण्ड सब आनें लगे नन्द के उस विशाल आँगन में ।

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ये क्या हो गया तुझे कन्हैया ! भला इन्द्र भगवान का भी कोई अपमान करता है ? मैया बृजरानी कन्हैया को समझा रही हैं ।

इन्द्र भगवान नही हैं मैया ! श्रीकृष्ण नें अपनी मैया को कहा ।

सब भगवान हैं ना ! सबमें भगवान हैं ना ! फिर इन्द्र भगवान क्यों नहीं ?

मैया बृजरानी का अपना तर्क है ।

सब भगवान हैं तो इन्द्र ही क्यों ? गोवर्धन क्यों नही ?

मेरी भोरी मैया ! इस बार मैं इन्द्र की पूजा बृज से बन्द करवा के ही रहूँगा ……….श्रीकृष्ण नें मुस्कुराते हुये कहा था ।

पर इन्द्र कुपित हो गया तो ? और उसनें प्रलयंकारी वर्षा कर दी तो ?

मेरी मैया ! मेरे गोवर्धन हमारी रक्षा करेंगे ………….वो सदैव हमारी रक्षा करते हैं …………..और इसके बाद भी इन्द्र में आसुरी भाव नें प्रवेश किया और बृज को डुबोनें का प्रयास किया तो फिर मैं भी इन्द्र से टकरा जाऊँगा ……….वो मुझे जानता नही है ….मैं भी अहीर कुमार हूँ …….वन पर्वतों में रहनें वाला – गोपाल ।

इतना कहकर वहाँ से चले गए थे श्रीकृष्ण ।

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सहस्त्रों बृजवासी अपनी अपनी बैल गाड़ियों में बैठकर नन्द आँगन में पहुँच गए हैं …….बृजराज नें भी सोचा नही था कि पूरा ही बृज मण्डल उमड़ पड़ेगा…..सब बैठे हैं…….उनका कन्हैया आज बोलेगा …..क्या बोलेगा किसी को पता नही ……दो दिन ही बचे हैं इन्द्र पूजन के ….तैयारियाँ चल रही है…..पर ये सभा क्यों बुलाई है नन्द महाराज नें ?

किसी को पता नही ……..पर सब इतना जानते हैं …….कि कन्हैया आज बोलेगा ………..।

कन्हैया आये……महर्षि शाण्डिल्य भी आये……बृजराज भी हैं ।

“इन्द्र की पूजा को त्याग कर हम सब एक नई और दिव्य परम्परा का प्रारम्भ करें ” – ब्रजपति के आदेश से कन्हैया नें प्रथम उस सभा में उठकर अपनी बात रख दी थी ।

“हम सब गोवर्धन की पूजा करें”………श्रीकृष्ण नें ये बात भी कह दी ।

ये कैसे हो सकता है ? हमारी सदियों से चली आरही परम्परा है ……

कुछ वृद्ध लोग उठे और विरोध करनें लगे थे ।

क्यों नही हो सकता ……और सदियों से चली आरही परम्परा अंध परम्परा भी तो हो सकती है ! और ये अंध परम्परा ही है …….क्यों हम किसी अहंकारी देवराज की पूजा करें ! क्यों ? श्रीकृष्ण गम्भीर होकर उच्च स्वर में बोले …………गोवर्धन नें क्या नही दिया हमें ……., फल, फूल, वन, जल , क्या इनके बिना हम जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं ? और हे मेरे बृजवासियों ! मेरी बात सुनो !

इन्द्र कोई और नही हम ही हैं ……….हम हैं ……….हम पुण्य करते हैं ……तब हम ही देवता बनते हैं …….इन्द्र बनते हैं ब्रह्मा बनते हैं ।

ये कहते हुए कन्हैया नें सबके सामनें एक चींटी को दिखाया ……..ये चींटी सहस्त्र बार इन्द्र बन चुकी है …………..इसलिये इन्द्र की पूजा करनें का आग्रह त्यागो ………….

एक बूढ़े बृजवासी नें उठकर महर्षि शाण्डिल्य से पूछा… …..क्या कन्हैया सत्य कह रहा है महर्षि ?

महर्षि शाण्डिल्य नें सिर हाँ में हिलाया और मुस्कुराये ।

आकृति कैसी है ये मुख्य नही है……आकृति क़ैसी भी हो सकती है …पर्वत के रूप में भक्ति का दिव्य रूप हमारे सामनें है – गोवर्धन पर्वत ।

और कर्म मुख्य है ……..मात्र देवों के भरोसे रहनें से क्या होगा ?

पूरी सभा में स्तब्धता छा गयी थी ……जब श्रीकृष्ण बोल चुके थे ।

अगर इन्द्र की पूजा छोड़कर अनिष्ट हुआ तो ?

एक वृद्ध बृजवासी नें फिर उठकर ये भी पूछा ।

“हो सकता है …….और इन्द्र हमारे बृज मण्डल को डुबोनें का प्रयास भी कर सकता है……..पर क्या हम डरकर इन्द्र की पूजा कर रहे हैं ?

भय और प्रलोभन से की गयी उपासना , उपासना नही कहलाती , हे बृजवासियों !

क्या दिया है तुम्हे इन्द्र नें ? पर गोवर्धन सबकुछ देते रहते हैं ……नित्य निरन्तर देते रहते हैं ……….किन्तु उनमें कभी अहंकार नही आता ……इन्द्र अहंकार से ग्रस्त है …………इसलिये इस बार !

और क्यों ! एक सूखे बाँस को खड़ा कर देते हो आप लोग ……..और उसमें एक ध्वज लगाकर इन्द्र कहकर पूजा करते हो …….अरे ! इससे श्रेष्ठ तो ये है कि सामनें हमारे गोवर्धन पर्वत हैं ………दिव्य हैं ….अद्भुत हैं …..इनकी शोभा तो देखो ……..इनकी पूजा करो !

क्या करना होगा हमें ?

करतल ध्वनि से श्रीकृष्ण की बात का समस्त बृजवासियों नें समर्थन किया ………और पूछा ।

छप्पन भोग बनाओ …….गोवर्धन नाथ को भोग लगाओ …….और सब बड़े प्रेम से उस प्रसाद को पाकर पूरे सात कोस की प्रदक्षिणा करो ।

गौओं का पूजन, गौओं को खिलाओ ………..आगे आगे गौ को करके हम सब गाते बजाते परिक्रमा करते हैं ।

बोलते बोलते श्रीकृष्ण आवेश में आगये थे ।

देवराज इन्द्र को आज तक आपनें देखा है ? इन्द्र प्रत्यक्ष हुआ कभी ?

पर मेरे गोवर्धन प्रकट होंगे ……….वो तुम सबसे प्रत्यक्ष होकर भोग स्वीकार करेंगे ……..मेरे गोवर्धन नाथ ! इतना कहते हुए श्रीकृष्ण नें गोवर्धन को प्रणाम किया ।

ये सुनते और देखते हुए समस्त बृजवासी आनन्द से उछल पड़े थे ।

जय हो जय हो ….की ध्वनि से पूरा नन्द का आँगन गूँज उठा था। ।

आनन्द से सब अपनें अपनें घरों में लौट आये ……और गोवर्धन को ही आज से सबनें अपना इष्ट स्वीकार कर लिया ।

छप्पन भोग की तैयारियों में लग गए थे सब ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-128

श्रीकृष्णचरितामृतम्-128


!! उपासना किसकी, देवता की या भक्त की – “गोवर्धन पूजन” !!


हाँ तात !

उपासना किसकी ? एक अहंकारी देवता की या एक भक्त की ?

उद्धव पूछते हैं ।

देवता में अच्छाई के अहंकार हैं पर भक्त तो भाव और प्रेम के कारण नम्र है……..फिर किसकी उपासना एक अहंकार की या भाव और प्रेम से झुके प्रेमी हृदय की ?

देवता तो कोई भी हो सकता है …….पर भक्त होना अपनें आपमें धन्यता है……भक्त के होनें से ही पृथ्वी धन्य हो जाती है….भक्त के कारण ही वायुमण्डल भावपूर्ण हो उठता है ।….उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।

कार्तिक का महीना प्रारम्भ हुआ ही था ………..शीत ऋतु के आगमन की तैयारी थी ……..वातावरण बड़ा ही सुखप्रद हो उठा था ।

सात वर्ष के कन्हाई हो गए हैं ……….बृज मण्डल कन्हैया की इस अवस्था पर इठला रहा था ……….गौएँ चरानें आज नही गए कन्हैया ……..बस इधर उधर घूमते रहे दिन भर ……………फिर घर में आगये थे ……उनके साथ उनके सखा भी थे …..भूख लगी है कन्हैया को ।

मैया मैया ! कुछ खानें को दे ना !

रसोई में मैया यशोदा थीं उनके पास गए और कुछ माँगनें लगे थे ।

कुछ नही है, बाहर जा ! मैया नें कन्हैया को बाहर जानें को कहा ।

“पर तू पकौड़ी बना तो रही है” ……..तल रही थीं पकौड़ी यशोदा जी ।

हाँ , पकौड़ी बना रही हूँ पर भगवान के लिये …..तेरे लिए नही …..और पहले हमारा भगवान भोग लगायेगा फिर तू ……समझे ?

आज स्वभाव में कुछ तेजी थी मैया यशोदा के ।

पर – एक पकौड़ी ! छूनें ही जा रहे थे कन्हैया ।

मैने कहा ना ! छूना नही ……ये भगवान के लिए है ।

हँसे कन्हैया ……मैया बृजरानी को रोष हुआ ………हँसता क्यों है ?

क्यों की मैं ही तो हूँ सबसे बड़ा भगवान …….फिर ये दूसरा भगवान कौन आया है मेरे घर ? कन्हैया हँसते रहे ।

मैया यशोदा को पकौड़े तलनें थे इसलिये ज्यादा कुछ न बोलकर वो अपना काम करनें लगीं…..तभी कन्हैया नें एक पकौड़ी को छू लिया ।

रोष में आकर मैया यशोदा नें एक चपत कन्हैया के गाल में लगा दिया था……रोनें लगे कन्हैया…….यशोदा मैया नें रसोई से बाहर निकाल दिया कन्हैया को……वे रोते रोते बाबा बृजराज के पास गए ।

बड़े प्यार दुलार से अपनी गोद में बिठाया बाबा नन्द नें ……..फिर ताजा माखन खिलाया ……हाँ अब बताओ ! मेरे युवराज को किसनें मारा ?

आँसू पोंछते हुए कन्हैया बोले …….”मैया नें” ।

अरे ! सुनो ! मुझे तिल जौ और समिधा इनकी मात्रा ज्यादा चाहिए ………यज्ञ होगा और वर्षों की अपेक्षा इस बार ज्यादा बड़ा यज्ञ होगा ……अपनें सेवकों को बृजराज नें आज्ञा दे दी थी ।

बाबा ! क्या हो रहा है इस बार हमारे वृन्दावन में ?

सफेद बृजराज की दाढ़ी से खेलते हुए नन्दनन्दन नें पूछा था ।

मेरे लाल ! हम सब बृजवासी मिलकर इस बार देवराज इंद्र की पूजा करनें जा रहे हैं ………अपनें लाला को चूमते हुए नन्द बाबा नें कहा ।

क्यों ?

बड़ी मासूमियत से कन्हैया नें नन्दबाबा के मुख में देखते हुए पूछा ।

हाँ , बाबा ! क्यों ? इन्द्र की ही पूजा क्यों ?

प्रश्न सुनकर चौंक गए नन्दबाबा भी ……..क्या मतलब , क्यों ?

अरे मेरे लाल ! इन्द्र भगवान हैं ……..उनकी हम उपासना करेंगे पूजा करेंगे तो वे खुश होंगे ….और खुश होंगे तो वर्षा होगी …….और हम तो कृषक हैं ना लाला !

बाबा ! इन्द्र देवता है, हाँ देवता का राजा …….यही ना ?

बाबा ! पर इन्द्र भगवान नही है …….क्यों की जो भगवान होता है उसकी पूजा करो या न करो ….वो प्रसन्न होता ही है ।

कन्हैया अपनें बाबा बृजराज को समझा रहे हैं ।

इन्द्र एक देवता है …….इससे ज्यादा और कुछ नही ।

वर्षा इन्द्र के कारण नही होती ………कन्हैया नें अपनी बात कह दी ।

फिर किसके कारण होती है ये वर्षा ? बृजराज नें पूछा ।

गोर्वधन पर्वत के कारण ……वनों के कारण ……..यमुना के कारण …..हाँ बाबा ! यही सच है …………कन्हाई उठकर खड़े हो गए ……बाबा ! इन्द्र अगर हमारी पूजा से प्रसन्न होता है और पूजा न करनें से अप्रसन्न ……तो इसका मतलब …..वो अहंकारी है …….फिर अहंकारी की पूजा क्यों ? नही बाबा ! अहंकारी व्यक्ति कभी भी मेरी दृष्टि में पूज्य नही है ………….और इन को देखो ………मेरे गिरिराज गोवर्धन को …………ये तो भक्त हैं …..परम भक्त ………फल देते हैं …..जल देते हैं …………सबको छाँव देते हैं …………पर कभी आपसे पूजा की माँग की है !…………नही बाबा ! नही ………इनकी तलहटी में हम सब बृजवासी सुरक्षित हैं …………हमारे गौ वत्स सब सुरक्षित हैं …………बाबा ! हमारे पूज्य होनें चाहियें ये गोवर्धन पर्वत ।

तुम कहना क्या चाहते हो ? बृजराज नें कन्हैया से ही पूछा ।

मैं कहना चाहता हूँ अहंकारी की नही ….एक भक्त की पूजा करो बाबा !

मैं ये नियम समस्त जगत को बतानें आया हूँ …………..भक्त सबसे बड़ा होता है …….भक्त वो है …..जो भक्ति से भरा है …और भक्ति का अभिप्राय है सेवा ……….निष्काम सेवा …….क्या गोवर्धन की तरह कोई सेवा करता है ? पक्षियों की सेवा , वनों की सेवा , पशुओं की सेवा …..हम बृजवासियों की सेवा ……….और कुछ नही चाहते ये गोवर्धन पर्वत हमसे, ……निष्काम सेवा – बस ।

बाबा ! तब क्या हमें पूजा इनकी नही करनी चाहिए ? कन्हैया नें बाबा से ही अब पूछा ।

बाबा बृजराज चुप हो गए थे ………क्यों की बात सही थी कन्हैया की ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-127

श्रीकृष्णचरितामृतम्-127

!! “प्रेमधर्म” सब धर्मों से श्रेष्ठ है” – माथुर ब्राह्मणियों पर कृपा !!

हाँ , तात ! प्रेम धर्म से बड़ा कोई धर्म नही……धर्म का अभिप्राय यही होता है ना ! जिसनें हमें धारण किया है ? तो प्रेम नें ही हमें धारण किया है…….प्रेम से बड़ा तप और कुछ नही है ….प्रेम से बड़ा योग कुछ नही है…..प्रेम से बड़ा ज्ञान कुछ नही…..क्यों की प्रेमी ही सबसे बड़ा ज्ञानी है…..प्रेमी को ही ये पता रहता है कि ….मेरे प्रियतम के अलावा सब मिथ्या है सब झुठ है…..सत्य एक मात्र मेरा प्रियतम ही है ।

उद्धव उसी प्रसंग को भावपूर्ण होकर सुना रहे हैं……..

तात ! वो सब माथुर ब्राह्मणियां अपनें अपनें पतियों के यज्ञानुष्ठान को त्याग कर नन्दनन्दन के दर्शन करनें के लिये चल दी थीं ।

उद्धव ! उस यज्ञपत्नी का क्या हुआ जिसको उसके पति नें रोक दिया था…..वो तो विरह में डूब गयी होगी ? विदुर जी नें प्रश्न किया ।

तात ! वो तो अन्य यज्ञपत्नियों से पहले पहुँची ……..हाँ देह भले ही उसका यहीं था पर भावना से वो श्रीकृष्ण के पास ही थी ।

उनका अन्तःकरण श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में लग चुका था ।

उद्धव बोले – क्रिया का महत्व नही है इस प्रेम धर्म में …….इसमें तो भाव प्रधान है ।

श्याम सुन्दर एक शिला पर विराजे हैं…..पीताम्बर धारण किये हुए हैं ।

मुरलीमनोहर हैं…..वन माला उनके हृदय में झूल रही है…..उनका श्रृंगार पल्लवों से हुआ है ……..नट का सा रूप है ……चंचल उनकी चितवन है …….अद्भुत हास्य उनके मुखारविन्द पर खेल रही है ।

कानों में कमल के कुण्डल हैं …….उनकी घुँघराली अलकें उनके कपोलों पर लटक रही हैं । आहा !

उन ब्राह्मणियों नें कन्हैया के इस प्रेमपूर्ण झाँकी का जब दर्शन किया ……मुग्ध हो गयीं……..कुछ देर तक तो उन्हें देहभान भी न रहा ………वो चाहती थीं की आलिंगन करूँ नन्दनन्दन को…… चाहती थीं कि वे वृन्दावन बिहारी को …….उनकी सुरभित भुजाएँ इनके गले में पड़ें…….पर – देह भान भूल कर स्तब्ध हो निहारती रहीं वे सब ।

कुछ खिलाओगी भी या ऐसे ही देखती रहोगी ?

मनसुख नें उन ब्राह्मणियों को झंकझोरा ।

तब नन्दनन्दन को खीर अपनें हाथों से खिलानें लगीं ये सब ………….कोई भात और साग खिला रही हैं …….कोई हलुआ लाइ थी वो खिलानें लगी ।

मुग्ध हैं सब …….कुछ भान नही है इनको …..ये सब भूल चुकी हैं ।

सन्ध्या की वेला हुयी …….तब श्याम सुन्दर उठे ……और मुस्कुराते हुए बोले – आप लोग अब अपनें अपनें घरों में जाओ !

घरों में ? हँसी सब ब्राह्मणियां ………कौन सा घर ? कैसा घर ?

अब तो ये चरण ही हमारे घर हैं ………हम इनको छोड़कर कहीं नही जाएंगीं ……..हे नाथ ! हमें अपनें चरणों से दूर मत करो !

नेत्रों से अश्रु झरनें लगे उन ब्राह्मणियों के ।

पर हमारे पति हमें अब स्वीकार नही करेंगे । यज्ञ पत्नियों नें कहा ।

अरे ! स्वीकार की बात करती हो……..प्रेम और बढ़ेगा तुम्हारे प्रति तुम्हारे पतियों का…..श्रद्धा बढ़ेंगी…….तुम जाओ तो ।

नन्दनन्दन नें समझाया…..लौटनें की इच्छा नही थी इन सबकी……पर लौट गयीं………….।

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सामनें खड़े हैं इनके पति …………….डर रही थीं ये सब माथुर ब्राह्मणियाँ, पर एक अद्भुत घटना घट गयी ।

सब पतियों नें अपनी पत्नियों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ………अपनी पत्नियों के प्रति उनके मन में श्रद्धा जाग गयी थी ।

वे सब ब्राह्मण आपस में कह रहे थे …….यज्ञ हमनें किया ……..पर उसका फल तो इन्होनें प्राप्त किया ……….हमनें तो “स्वाहा स्वाहा” करके धूआँ मात्र उड़ाया ……..पर सर्वोच्च पुरुषार्थ प्रेम को तो इन्होनें ही पाया है ………यज्ञ का फल श्रीकृष्ण ही तो हैं ……….जो हमें नही इन्हें मिला है …….ऐसा कहते हुए सबनें अपनी पत्नियों को प्रणाम किया …..और ये भी कहा साथ में …….प्रेम धर्म ही सर्वोच्च धर्म है ।

कन्हैया भी अपनें सखाओं के साथ नन्दगाँव पहुँच गए थे ।

तात !

उद्धव नें ये प्रसंग भावपूर्ण होकर विदुर जी को सुनाया ।

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चोर श्रीनाथ जी

श्रीनाथ जी, एक भाव विभोर कथा।

श्रीनाथजी एक दिन भोर में अपने प्यारे कुम्भना के साथ गाँव के चौपाल पर बैठे थे।

कितना अद्भुत दृश्य है – समस्त जगत का पिता एक नन्हें बालक की भांति अपने प्रेमीभक्त कुम्भनदास की गोदी में बैठ क्रीड़ा कर रहा है तभी निकट से बृज की एक भोली ग्वालन निकट से निकली।

श्रीनाथ जी ने गुजरी को आवाज दी – इधर आ!

गुजरी ने कहा – बाबा! आपको प्यास लगी है क्या?

श्रीनाथजी ने कहा – मुझे नहीं, मेरे कुभंना को लगी है।

श्रीनाथजी कुभंनदास को प्यार से कुभंना कहते।

कुभंनदास जी कह रहे हैं – श्रीनाथ जी! मुझे प्यास नही लगी है।

श्रीनाथ जी ने गुजरी से कहा – इसको छाछ पिला!

जैसे ही गुजरी ने कुभंनदास जी को छाछ पिलायी, पीछे से श्रीनाथ जी ने उसकी पोटली मे से एक रोटी निकाली व
कुभंनदास जी ने देख लिया।

श्रीनाथ जी ने गुजरी से कहा – अब तू जा!

भोली ग्वालन बाबा को छाछ पिलाकर अपने कार्य को चली गयी।

गुजरी के जाते ही कुंभनदास जी ने श्रीनाथ जी से कहा – श्रीजी आपकी ये चोरी की आदत गई नहीं।

श्रीनाथजी ने आधी रोटी कुभंना को दी और आधी रोटी आप ने ली।

जैसे ही कुभंनदास जी ने ली तो श्रीनाथजी ने कहा – अरे कुभंना! तू चख तो सही।

कुभंनदास जी ने एक निवाला लिया और कहने लगे – बाबा! ये कैसा स्वाद है?

श्रीनाथ जी कह रहे है कि, ये गुजरी जब रोटी बनाती है तो मेरा नाम ले-ले कर बेलती है तो इसमें मेरे नाम की मिठास भरी है।

बाबा अब तू ही बतला इस प्रेमभरी रोटी को आरोगे बिना में कैसे रह सकूँ हूँ। ये भोली गुजरी लज्जावश श्रीमंदिर में मुझे ये सूखी रोटी पवाने तो कभी आयेगी नहीं इसीलिए बाबा मैंने स्वयं ही चुरा ली।


जय श्रीनाथ जी🙏

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-126

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 126 )

!! “देखन दै वृन्दावन चन्द” – माथुर ब्राह्मणियों का प्रेम !!


प्रेम में अधीरता ही धीरता है …….आहा ! प्रेम की अधीरता का रस वही ले सकता है ….जिसनें प्रेम को झक कर पीयो हो ……जीया हो ।

एक क्षण भी युगों के समान लगे , एक पल भी काटे न कटे …….लगे की काल ठहर गया क्या ? फिर इतना समय क्यों लग रहा है प्रियतम के मिलन में ! उफ़ ! तात ! ये अनुभव की बातें हैं ।

उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।

आज – गौ चारण करते करते मथुरा की सीमा में नन्दनन्दन पहुँच गए थे …….आज कुछ नही हैं पास में…….माखन मिश्री भी नही …..और घर से छाक भी अब आ नही सकता ……क्यों की दूर आगये हैं ।

क्या करें ? मथुरा की सीमा में ही नन्दनन्दन बैठ गए ………….

ग्वाल बाल सब थक गए थे वो सब भी बैठ गए ।

मनसुख के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ……….वो बारबार पोंछ रहा है ।

क्या हुआ मनसुख ! क्यों रो रहे हो? नन्दनन्दन नें बड़े प्रेम से पूछा था ।

“तुझे भूख लगी है”……ये कहते हुए फिर रोनें लगा ।

पर मुझे भूख नही है …….नन्दनन्दन हँसे ।

तू झूठ बोल रहा है………मनसुख के साथ सब ग्वाल सखा कहनें लगे ।

हमें भूख लगे कोई बात नही …..पर हमारा प्राण प्रिय सखा भूखा रहे !

श्रीदामा भी भावुक हो उठे थे ।

अच्छा ! अच्छा सुनो ! कन्हाई नें सबको शान्त किया ……..फिर इधर उधर देखनें लगे ……….सुगन्धित धूआँ उड़ रहा था पास में ………

कन्हैया बोले – वो देखो ! पास में यज्ञ हो रहा है ……….स्वाहा स्वाहा करके यज्ञपुरुष ब्राह्मण आहुति डाल हैं …..तुम जाओ ! और जाकर उनके पास जो जो खानें की सामग्रियाँ हैं मांग कर ले आओ !

लकड़ी अग्नि, यही सब खाओगे ? तोक नें कहा ।

हट्ट पागल ! खीर भी होगी ……हलुआ भी होगा ….क्यों की यज्ञ में इसकी भी आहुति दी जाती है ……….मनसुख थोडा समझदार बनकर सबको समझानें लगा ।

जाओ ! और माँग कर लाओ ……..हम यहीं बैठे हैं ।

कन्हैया इतना कहकर शान्त भाव से आसन बांध कर बैठ गए ।

सब ग्वाल सखा चल दिए उस ओर …..जिधर से धूम्र निकल रहा था ।



माथुर ब्राह्मण , पता नही कैसे प्रसन्न हो गया आज ये राजा कंस !

ब्राह्मण तो इसके शत्रु थे ……….एकाएक समस्त ब्राह्मणों को बुलाकर राजा कंस नें यज्ञ करनें की आज्ञा दे दी ……….और धन, धान्य स्वर्ण इत्यादि सब भरपूर दे दिया था ……..पर स्थान यज्ञ के लिये दिया ……….वृन्दावन और मथुरा की सीमा में ।

ब्राह्मण भोले थे ही …………आज राजा कंस प्रसन्न है उन्हें तो इसी बात से ही प्रसन्नता हो गयी थी ……….वृन्दावन के निकट यमुना के तट पर यज्ञ का आयोजन…………उनका परिवार भी वहीं रह रहा था …..क्यों की भोजन प्रसाद की व्यवस्था भी तो करनी थी ।

राजा कंस नें सम्पत्ती अकूत दे डाली थी ब्राह्मणों को ……….पता नही क्यों ? नही तो राजा कंस विप्र द्रोही ही तो था ।

स्वाहा ! स्वाहा ! स्वाहा ! सस्वर वैदिक मन्त्रों से यज्ञ हो रहा था …..ब्राह्मण शताधिक थे ……………….

बेचारे ये ग्वाल सखा वहाँ पहुँचे ………..पहले तो जाकर इन्होनें धरती में अपना मस्तक रखकर यज्ञ को और यज्ञ के देवता ब्राह्मणों को बड़ी श्रद्धा से नमन किया था ।

पर ब्राह्मणों नें ध्यान नही दिया ……….वैसे भी कोई छोटे छोटे बालकों पर कौन ध्यान देता है …………नही दिया ।

ये सब अहीर कुमार वहीं खड़े रहे …..इधर उधर देखते रहे ।

तोक सखा ने देखा ………खीर और हलुआ रखा हुआ है …और उसे भी यज्ञ कुण्ड में डालकर सब ब्राह्मण स्वाहा ! स्वाहा ! बोल रहे हैं ।

तोकसखा से रहा नही गया ………आहा ! हमारा कन्हैया वहाँ भूखा है और ये लोग अग्नि में डाल रहे हैं हलुआ खीर ?

हमें ये हलुआ दे दो ………बेचारे भोले बालक थे ये ………हमारे कन्हैया को भूख लगी है……….आप थोडा सा हलुआ दे दो ……….तोक नें विनती की ।

पर ब्राह्मणों नें सुनी नही ………सुनी भी तो कोई ध्यान नही दिया …..उपेक्षा कर दी इन बालको की ।

सुनो ! मेरी बात तो सुनो ! तोक सखा फिर बोलनें लगा …..तो श्रीदामा नें रोक दिया उसे ………ये लोग नही सुनेगें ! चलो यहाँ से !

श्रीदामा सबको लेकर वापस कन्हैया के पास लौटे ।

क्या लाये ? कुछ लाये ? कन्हैया नें उत्सुक हो पूछा ।

अग्नि कुण्ड का अंगार लाये हैं खाओगे ? श्रीदामा को गुस्सा आरहा था।

भाई ! हुआ क्या कुछ बताओ तो ? नन्दनन्दन नें जानना चाहा ।

अरे भैया ! क्या बतायें ……..हमारी ओर उन पण्डितों नें देखा भी नही ……..हमनें बारबार कहा ……..पर उन्होनें हमारी उपेक्षा कर दी ….

तोक सखा के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ………….तुझे भूख लगी है ……हमारा क्या है ? पर वहाँ कुछ नही मिला !

उठे कन्हाई ……तोक सखा के कन्धे में हाथ रखते हुए बोले ……सही स्थान पर नही गए तुम लोग ………अब मैं जहाँ बताता हूँ वहीं जाओ …….मुस्कुराते हुये कन्हैया बोले – उनकी पत्नियों के पास जाओ ……मेरा नाम लो …………

पर वहाँ भी हमनें तुम्हारा नाम लिया था ……..तोक आँसुओं को पोंछ कर बोला ।

सूखा है उनका हृदय …..आग में बैठ बैठकर सूख गया है उनका हृदय ….इसलिये मेरा नाम लो तो भी कोई असर नही होगा …….हाँ तुम जाओ अब यज्ञ पत्नियों के पास …..उन ब्राह्मण की ब्राह्मणियों के पास ।

तोक कुछ और बोलनें जा रहा था ……पर कन्हैया नें चुप करा दिया …..जाओ ………..मैं यहीं बैठा हूँ ।

सब सखा फिर चले गए थे वहीं यज्ञ मण्डप में ।



अरे ! ये लोग फिर आगये ? ब्राह्मण इन अहीर बालकों को देखकर क्रोध से इस बार भर गए थे ………इन्होनें अगर हमारी सामग्री छू ली तो सब अपवित्र हो जायेगा । पर इस बार ये सब कृष्ण सखा इनके शिविरों में गए ……….जहाँ इनकी पत्नियाँ यज्ञ के लिये भोग तैयार करती थीं ।

कौन हो तुम लोग ? कहाँ से आये हो ?

द्वार खटखटाया ग्वालों नें तो ब्राह्मणियों नें द्वार खोल दिया था ।

हम वृन्दावन से आये हैं ………….हम वृन्दावन में ही रहते हैं …….हमारे साथ हमारा “वृन्दावन बिहारी” भी आया है ……वो हमारा सखा है …उसे भूख लगी है ………….कुछ हो तो हमारे सखा के लिये दे दो !

सब सखाओं नें जल्दी जल्दी अपनी बात रख दी थी ।

आहा ! नेत्र सजल हो गए यज्ञ पत्नियों के ………..भाव उमड़ पड़ा ये नाम सुनते ही ………..क्या ! सच ! वृन्दावन बिहारी यहाँ आये हैं ?

तुम लोग सच कह रहे हो ? अरी ! सुन ! ये लोग सखा हैं श्रीकृष्ण के ? एक दूसरी से कहनें लगी ……..वो इन सबको देख रही है ……तुम सच कह रहे हो ? क्या श्रीकृष्ण यहीं हैं आस पास ?

सखाओं को अब आनन्द आनें लगा …….वाह ! बड़ा प्रभाव है हमारे कन्हैया का ? उसे भूख लगी है …..तोक नें फिर स्पष्ट कहा ।

ओह ! भूख लगी है उसे……….तो चलो ! ये जो भात है ……..इसे ही लेकर चलो ……..मेरे पास खीर भी है ….दूसरी यज्ञपत्नी बोली ।

मेरे पास साग भी है …………..तीसरी आगयी ……इस तरह सब ब्राह्मणियां एकत्रित हो गयीं ………..

पर ये सब तो “यज्ञ पुरुष” के भोग के लिये है ………..अगर हमनें ये सब सामग्री नन्दनन्दन को खिला दिया तो बड़े नाराज होंगें हमारे पतिदेव !

तब दूसरी हँसती हुयी बोली …….”.वो खुश कब थे हमसे ……वो नाराज ही रहते हैं …..इसलिये ये सब आज मत सोचो…………आज तो इन नयनों को धन्य बनाओ………आज तो इस जीवन को सार्थक करो …….चलो ! धर्म, नीति, मर्यादा , शील सबकुछ यहीं त्याग दो …..और नन्द नन्दन को निहारो …………आहा ! उनके चरणों में ये सब अर्पित !

ये कहते हुये भात, साग, खीर, सब लेकर चलीं ।

पर उनके पतियों नें यज्ञ करते हुए भी अपनी पत्नियों को उन ग्वालों के साथ जाते हुए देख लिया ।

अनुष्ठान है उससे उठ सकते नहीं हैं ये लोग ……पर एक ब्राह्मण उठ गया …….अपनी पत्नी को पकड़ लिया ……..और तो आगे चल दीं थीं ……पीछे कौन छूट गयी ये किसे परवाह ?

केश पकड़ कर बेचारी को वो ब्राह्मण अपनें घर में ले आया …….कमरे में बन्द कर दिया …………..बाहर से जंत्रित ताला लगा दिया ।

वो चीख पड़ी ……..एक झलक तो देखनें दो कन्हैया की, पतिदेव !

वो माधुर्य से भरा मुखारविन्द ! एक बार तो देखनें दो ……….हे पति ! क्या रखा है इस मिथ्या जाति के अभिमान में ? क्यों नही छोड़ देते ये मिथ्या दम्भ ? आप तो विद्वान् हो ! मेरे मन के प्रेम को तो देखो ……विशुद्ध प्रेम है ……….नन्दनन्दन को मैं देखना चाहती हूँ …….मैं भी उन्हें खीर खिलाना चाहती हूँ ………

पर उस ब्राह्मण का हृदय पसीजा नही ……….वो ब्राह्मणी रोते रोते वहीं मूर्छित हो गयी थी ।

अब तुम्हारे हृदय में कभी विकारों के अंकुर नही फूटेंगे …………क्यों की मैने चीरहरण के रूप में तुम्हारे काम विकारों का ही हरण किया था ।फिर ये क्या है , जो आपनें हमें लौटाया ? एक चतुर् गोपी बोल उठी ।मुस्कराते हुए श्याम सुन्दर बोले – ये तो प्रेम की प्रसादी है ………ये वासना नही ….ये तो उपासना है ……क्यों की प्रयास अब नही करना है …….बस मेरे प्रसाद की निरन्तर समीक्षा करनी है ।हमारे साथ महारास कब करोगे ? समस्त गोपियों नें एक स्वर में पूछा ।महारास ? मुस्कुराये श्याम सुन्दर…….प्रतीक्षा करो ।महारास की वेला आही है ………पर उसके लिये तीव्र प्रतीक्षा ।इतना कहकर हँसते खेलते श्याम सुन्दर चले गए ……गोपियाँ भी आह भरती हुयी श्याम सुन्दर की चारु चर्चा करती हुयी अपनें अपनें घरों में लौट आईँ…….और पल पल छिन छिन प्यारे के मिलन की प्रतीक्षा में बितानें लगीं ।

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“सांकरी खोर”


सांकरी गली एक ऐसी गली है जिससे एक – एक गोपी ही निकल सकती है और उस समय उनसे श्याम सुंदर दान लेते हैं | सांकरी खोर पर सामूहिक दान होता है | श्याम सुन्दर के साथ ग्वाल बाल भी आते हैं | कभी तो वे दही लूटते हैं, कभी वे दही मांगते हैं, और कभी वे दही के लिए प्रार्थना करते हैं |


साँकरी खोर प्रार्थन मन्त्र


दधि भाजन शीष्रा स्ताः गोपिकाः कृष्ण रुन्धिताः|
तासां गमागम स्थानौ ताभ्यां नित्यं नमश्चरेत ||


इस मन्त्र का भाव है कि गोपियाँ अपने शीश पर दही का मटका लेकर चली आ रही हैं और श्री कृष्ण ने उनको रोक रखा है | उस स्थान को नित्य प्रणाम करना चाहिए, जहाँ से गोपियाँ आ-जा रही हैं |


यहाँ जो ये राधा रानी का पहाड़ है वो गोरा है | सामने वाला पहाड़ श्याम सुंदर का है और वो शिला कुछ काली है | काले के बैठने से पहाड़ काला हो गया और गोरी के बैठने से कुछ गोरा हो गया | पहले राधा रानी की छतरी है फिर श्याम सुंदर की छतरी है और नीचे मन्सुखा की छतरी है | यहाँ दान लीला होती है | यहाँ नन्दगाँव वाले दही लेने आये थे एकादशी में तो सखियों ने पकड़कर उनकी चोटी बांध दी थी | श्याम सुंदर की चोटी ऊपर बाँध देती हैं और मन्सुखा की चोटी नीचे बांध देती हैं |


मन्सुखा चिल्लाता है कि हे कन्हैया इन बरसाने की सखियों ने हमारी चोटी बांध दी हैं |जल्दी से आकर के छुड़ा भई , तो श्याम सुंदर बोलते हैं कि अरे ससुर मैं कहाँ से छुड़ाऊं | मेरी भी चोटी बंधी पड़ी है | सखियाँ दोनों के साथ-साथ सब की चोटी बाँध देती हैं | और फिर सखियाँ कहती हैं कि चोटी ऐसे नहीं खुलेगी | राधा रानी की शरण में जाओ तब तुम्हारी चोटी खुलेगी | सब श्री जी की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं | तब श्री जी की आज्ञा से सब की चोटी खुलती हैं | श्री जी कहती हैं कि इनकी चोटी खोल दो | श्याम सुंदर प्यारे को इतना कष्ट क्यों दे रही हो ? गोपी बोली कि ये चोटी बंधने के ही लायक हैं |
ये लीला यहाँ राधाष्टमी के तीन दिन बाद होती है | उस दिन यहाँ श्याम सुंदर मटकी फोड़ते हैं और नन्दगाँव के सब ग्वाल बाल आते हैं | श्री जी और सखियाँ मटकी लेकर चलती हैं तो श्याम सुन्दर कहते हैं कि तुम दही लेकर कहाँ जा रही हो ? तो सखियाँ कहती हैं कि ऐ दही क्या तेरे बाप का है ? ऐसो पूछ रहे हो जैसे तेरे नन्द बाबा का है | दही तो हमारा है | वहाँ से श्याम सुंदर बातें करते हुए चिकसौली की ओर आते हैं और यहाँ छतरी के पास उनकी दही कि मटकी तोड़ देते हैं | जहाँ मटकी गिरी है वो जगह आज भी चिकनी है वो सब लोग अभी देख सकते हैं |


यहाँ बीच में (सांकरी खोर में) ठाकुर जी के हथेली व लाठी के चिन्ह भी हैं | ये सब ५००० वर्ष पुराने चिन्ह हैं | ये सांकरी गली दान के लिये पूरे ब्रज में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है | वैसे तो श्याम सुंदर हर जगह दान लेते थे पर दान की ३-४ स्थलियाँ प्रसिद्ध हैं | ये हैं बरसाने में सांकरी खोर, गोवर्धन में दान घाटी व वृन्दावन में बंसी वट , पर इन सब में सबसे प्रसिद्ध सांखरी खोर है क्योंकि एक तो यहाँ पर चिन्ह मिलते हैं और दूसरा यहाँ आज भी मटकी लीला चल रही है | राधाष्टमी के पांच दिन के बाद नन्दगाँव के गोसाईं बरसाने में आते हैं |
यहाँ आकर बैठते हैं उस दिन पद गान होता है |


(बरसानो असल ससुराल हमारो न्यारो नातो — भजन) मतलब बरसाना तो हमारी असली ससुराल है ! आज तक नन्दगाँव और बरसाने का सम्बन्ध चल रहा है जो रंगीली के दिन दिखाई पड़ता है | सुसराल में होली खेलने आते हैं नन्दलाल और गोपियाँ लट्ठ मारती हैं| वो लट्ठ की मार को ढाल से रोकते हैं और बरसाने की गाली खाते हैं | यहाँ मंदिर में हर साल नन्दगाँव के गोसाईं आते हैं और बरसाने की नारियाँ सब को गाली देती हैं | इस पर नन्दगाँव के सब कहते हैं “वाह वाह वाह !”
इसका मतलब कि और गाली दो | ऐसी यहाँ की प्रेम की लीला है | बरसाने की लाठी बड़ी खुशी से खाते हैं , उछल – उछल के और बोलते हैं कि जो इस पिटने में स्वाद आता है वो किसी में भी नहीं आता है | बरसाने की गाली और बरसाने की पिटाई से नन्दगाँव वाले बड़े प्रसन्न होते हैं | ऐसा सम्बन्ध है बरसाना और नन्दगाँव में |


साँकरी खोर में दान लीला भी सुना देते हैं | साँकरी खोर की लीला सुना रहे हैं | इसे मन से व भाव से सुनो | ध्यान लगाकर सुनोगे तो लीला दिखाई देगी | साँकरी खोर में गोपियाँ जा रही हैं | दही की मटकी है सर पर | वहाँ श्री कृष्ण मिले | कृष्ण के मिलने के बाद वो कृष्ण के रूप से मोहित हो जाती हैं और लौट के कहती हैं कि वो नील कमल सा नील चाँद सा मुख वाला कहाँ गया ? अपनी सखी से कहती हैं कि मैं साँकरी खोर गयी थी |
सखी हों जो गयी दही बेचन ब्रज में , उलटी आप बिकाई |
बिन ग्रथ मोल लई नंदनंदन सरबस लिख दै आई री
श्यामल वरण कमल दल लोचन पीताम्बर कटि फेंट री
जबते आवत सांकरी खोरी भई है अचानक भेंट री
कौन की है कौन कुलबधू मधुर हंस बोले री
सकुच रही मोहि उतर न आवत बलकर घूंघट खोले री
सास ननद उपचार पचि हारी काहू मरम न पायो री
कर गहि बैद ठडो रहे मोहि चिंता रोग बतायो री
जा दिन ते मैं सुरत सम्भारी गृह अंगना विष लागै री
चितवत चलत सोवत और जागत यह ध्यान मेरे आगे री
नीलमणि मुक्ताहल देहूँ जो मोहि श्याम मिलाये री
कहै माधो चिंता क्यों विसरै बिन चिंतामणि पाये री ||

तो एक पूछती है कि तू बिक गई ? तुझे किसने खरीदा ? कितने दाम में खरीदा ? बोली मुझे नन्द नन्दन ने खरीद लिया | मुफ्त में खरीद लिया | मेरी रजिस्ट्री भी हो गई | मैं सब लिखकर दे आयी कि मेरा तन, मन, धन सब तेरा है | मैं आज लिख आयी कि मैं सदा के लिए तेरी हो गई | मैं वहाँ गई तो सांवला सा, नीला सा कोई खड़ा था | नील कमल की तरह उसके नेत्र थे, पीताम्बर उसकी कटि में बंधा हुआ था | मैं जब आ रही थी तो अचानक मेरे सामने आ गया | मैं घूँघट में शरमा रही थी |
उसने आकर मेरा घूँघट खोल दिया और मुझसे बोला है कि तू किसकी वधु है ? किस गाँव की बेटी है ? वो मेरा अता पता पूछने लग गया |
ये वही ब्रज है,
यहाँ चलते – चलते अचानक कृष्ण सामने आ जाते हैं,
इसीलिए तो लोग ब्रज में आते हैं |
ये वही ब्रज है,
लोग भगवान को ढूँढते हैं और भगवान यहाँ स्वयं ढूंढ रहे हैं और
गोपियों का अता पता पूछ रहे हैं |
ये वही ब्रज है,

गोपी बोल नहीं रही है लज्जा के कारण और
श्याम उसका घूँघट खोल रहे हैं |
गोपी आगे कहती है कि जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है मुझे सारा संसार जहर सा लगता है | कहाँ जाऊं क्या करूं ? बस एक ही बात है दिन रात मेरे सामने आती रहती हैं | सोती हूँ तो, जागती हूँ तो उसकी ही छवि रहती है मेरे सामने | कौन सी बात ? किसकी छवि ?
गोपाल की !
घर में मेरी सास नन्द कहती हैं कि हमारी बहु को क्या हो गया है ?
वैद्य बुलाया गया कि मुझे क्या रोग है ? वैद्य ने नबज देखी और देखकर कहा सब ठीक है | कोई रोग नहीं है | केवल एक ही रोग है – चिंता ! कोई जो मुझे श्याम का रूप दिखा दे तो मैं उसको नील मणि दूंगी | जो मुझे श्याम से मिला दे, मुझे मेरे प्यारे से मिला दे | उसे मैं सब कुछ दे दूंगी |


बरसाना (१५संहिता अध्याय श्री गर्ग)
पृष्ठ ७८-७९


एक साँकरी खोर की बहुत मीठी लीला है |
एक दिन की बात है कि राधा रानी अपने वृषभान भवन में बैठी थीं | श्री ललिता जी व श्री विशाखा जी गईं और बोलीं कि हे लाड़ली तुम जिनका चिन्तन करती हो वो श्री कृष्ण – श्री नंदनंदन नित्य यहाँ वृषभानुपुर में आते हैं | वे बड़े ही सुन्दर हैं !
श्री राधा रानी बोलीं तुम्हें कैसे पता कि मैं किसका चिंतन करती हूँ ? प्रेम तो छिपाया जाता है |
ललिता जी व विशाखा जी बोलीं हमें मालूम है तुम किनका चिन्तन करती हो | श्रीजी बोलीं कि बताओ किसका चिन्तन करती हूँ ?
देखो ! कहकर उन्होंने बड़ा सुंदर चित्र बनाया श्री कृष्ण का | चित्र देखकर श्री लाड़ली जी प्रसन्न हो गयीं और फिर बोलीं कि तुम हमारी सखी हो | हम तुमसे क्या कहें ?


चित्र को लेकर के वो अपने भवन में लेट जाती हैं और उस चित्र को देखते – देखते उनको नींद आ जाती है | स्वप्न में उनको यमुना का सुन्दर किनारा दिखाई पड़ा | वहाँ भांडीरवन के समीप श्री कृष्ण आये और नृत्य करने लग गये | बड़ा सुंदर नृत्य कर रहे थे की अचानक श्री लाड़ली जी की नींद टूट गई और वो व्याकुल हो गयीं | उसी समय श्री ललिता जी आती हैं और कहती हैं कि अपनी खिड़की खोलकर देखो | सांकरी गली में श्री कृष्ण जा रहे हैं | श्री कृष्ण नित्य बरसाने में आते हैं | एक बरसाने वाली कहती है कि ये कौन आता है नील वर्ण का अदभुत युवक नव किशोर अवस्था वाला , वंशी बजाता हुआ निकल जाता है |


आवत प्रात बजावत भैरवी मोर पखा पट पीत संवारो |
मैं सुन आली री छुहरी बरसाने गैलन मांहि निहारो
नाचत गायन तानन में बिकाय गई री सखि जु उधारो
काको है ढोटा कहा घर है और कौन सो नाम है बाँसुरी वालो
श्री कृष्ण आ रहे हैं | कभी-कभी वंशी बजाते-बजाते नाचने लग जाते हैं | इसीलिए उन्हें श्री मद्भागवत में नटवर कहा गया है | नटवर उनको कहते हैं जो सदा नाचता ही रहता है | सखी ये कैसी विवश्ता है कि मैं अधर में खो गई और मिला कुछ नहीं | कौन है ? कहाँ रहता है ? बड़ा प्यारा है ! किसका लड़का है ? इस बांसुरी वाले का कोई नाम है क्या ?
ललिता जी कहती हैं कि देखो तो सही, श्री कृष्ण आ रहे हैं | आप अपनी खिड़की से देखो तो सही | वृषभानु भवन से खिड़की से श्री जी झांकती हैं तो सांकरी गली में श्री कृष्ण अपनी छतरी के नीचे खड़े दिखते हैं | उन्हें देखते ही उनको प्रेम मूर्छा आ जाती है | कुछ देर बाद जब सावधान होती हैं तो ललिता जी से कहती हैं कि तूने क्या दिखाया ? मैं अपने प्राणों को कैसे धारण करू ?
ललिता जी श्री कृष्ण जी के पास जाती हैं और उनसे श्री जी के पास चलने का अनुग्रह करती हैं |


ये राधिकायाँ मयि केशवे मनागभेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौवल्यवत् |
त एव में ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद्धयहैतुकस्फुर्जितभक्ति लक्षणाः ||३२||
वहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि हे ललिते, भांडीरवन में जो श्री जी के प्रति प्रेम पैदा हुआ था वो अद्भुत प्रेम था | मुझमें और श्री जी में कोई भेद नहीं है | दूध और दूध की सफेदी में कोई भेद नहीं होता है | जो दोनों को एक समझते हैं वो ही रसिक हैं | थोड़ी सी भी भिन्नता आने पर वो नारकीय हो जाते हैं |
ये बात शंकर जी ने भी कहा था गोपाल सहस्रनाम में |


गौर तेजो बिना यस्तु श्यामं तेजः समर्चयेत् |
जपेद् व ध्यायते वापि स भवेत् पातकी शिवे ||
हे पार्वती ! बिना राधा रानी के जो श्याम की अर्चना करता है वो तो पातकी है |
श्री कृष्ण बोले कि हम चलेंगे | उनकी बात सुनकर ललिता जी आती हैं और चन्द्रानना सखी से पूछती हैं कि कोई ऐसा उपाए बताओ जिससे श्री कृष्ण शीध्र ही वश में हो जाँय |

“गर्ग संहिता” वृन्दावन खंड अध्याय १६

तुलसी का माहात्म्य, श्री राधा द्वारा तुलसी सेवन – व्रत का अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसी देवी का प्रत्यक्ष प्रकट हो श्री राधा को वरदान
गर्ग संहिता वृंदावन खंड अध्याय १७
चन्द्रानना बोलती हैं कि हमने गर्ग ऋषि से तुलसी पूजा की महिमा सुना था | राधा रानी यहाँ पर तुलसी की आराधना करती हैं और गर्ग जी को बुलाकर आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक व्रत का अनुष्ठान करती हैं |
उसी समय तुलसी जी प्रगट होती हैं और श्री राधा रानी को अपनी भुजाओं में लपेट लेती हैं और कहती हैं कि हे राधे बहुत शीध्र श्री कृष्ण से तुम्हारा मिलन होगा |


उसी समय श्री कृष्ण एक विचित्र गोपी बनकर के आते हैं | अदभुत गोपी ! ऐसी सुन्दरता जिसका वर्णन नहीं हो सकता | गर्ग ऋषि ने उनकी सुन्दरता का वर्णन किया है कि उंगलियों में अंगूठियाँ , कौंधनी, नथ और बड़ी सुंदर बेनी सजाकर बरसाने में आते हैं और वृषभान के भवन में पहुंचते हैं | चार दीवार हैं उस भवन में और वहाँ पर बहुत पहरा है | उन पहरों में नारी रूप में पहुँच जाते हैं |
तो वहाँ क्या देखते हैं कि बड़ा सुंदर भवन है और सखियाँ अद्भुत सुन्दर वीणा मृदंग श्री राधा रानी को सुना रही हैं | उनको रिझा रही हैं | दिव्य पुष्प हैं, लताएं हैं, पक्षी हैं, जो श्री राधा नाम का उच्चारण कर रहे हैं | राधा रानी उस समय टहल रही थीं | श्री राधा रानी ने देखा कि एक बहुत सुंदर गोपी आयी है | उस गोपी को देखकर वे मोहित हो जाती हैं और उनको अपने पास बैठा लेती हैं | राधा रानी गोपी को आलिंगन करती हैं और कहती हैं कि अरे तुम ब्रज में कब आई ? हमने ऐसी सुन्दरी आज तक ब्रज में नहीं देखी है | तू जहाँ रहती है वो गाँव धन्य है | तुम हमारे पास नित्य आया करो | तुम्हारी आकृति तो श्री कृष्ण से मिलती जुलती है |


पर श्री जी पहचान नहीं पायीं | ये विचित्र लीला है | भगवान की लीला शक्ति है | श्री जी बोलीं कि जाने क्यों मेरा मोह तुम में बढ़ रहा है ?
तू मेरे पास बैठ जा | वो जब राधा रानी के पास बैठी तो बोली कि मेरा उत्तर की ओर निवास है (उत्तर में नन्दगाँव है) और हे राधे मेरा नाम है गोप देवी | हे राधे मैंने तेरे रूप की बड़ी प्रशंसा सुनी है कि तुम बड़ी सुंदर हो | इसीलिए मैं तुम्हें देखने आ गयी | तुम्हारा ये वृषभान भवन बड़ा सुंदर है जिससे लवन लताओं की अद्भुत सुगंधी आती है | फिर दोनों वहाँ बैठकर गेंद खेलती हैं |
संध्या होने पर गोप देवी कहती है कि अब मैं जाऊंगी और प्रातः काल आऊंगी | जब जाने का नाम लेती है तो श्री राधा रानी की आँखों में आंसू बहने लगते हैं | बोलती हैं कि सुन्दरी तू क्यों जा रही है ? पर गोप देवी यह कह कर चली जाती है कि कल प्रात: काल आऊंगी | रात भर श्री जी प्रतीक्षा करती रहीं |
उधर नन्द नंदन भी रात भर व्याकुल रहे | प्रातः काल फिर वे गोप देवी का रूप बना कर आते हैं तो श्री राधा रानी बहुत प्रेम से मिलती हैं |
राधा रानी बोलीं कि हे गोप देवी तू आज उदास लग रही है | क्या कष्ट है ? गोप देवी बोली कि हाँ राधे रानी हमें बहुत कष्ट है और उस कष्ट को दूर करने वाला दुनिया में कोई नहीं है | राधा रानी बोलीं कि नहीं गोप देवी तुम बताओ इस ब्रह्माण्ड में भी अगर कोई तुमको कष्ट दे रहा होगा तो मैं अपनी शक्ति से उसको दंड दूंगी |


गोप देवी नें कहा कि राधे तुम मुझे सताने वाले को दंड नहीं दे सकती | बोलीं क्यों ? बोले मुझे मालूम है तुम उसे दंड नहीं दे सकती हो | श्री जी बोलीं बताओ तो सही वो कौन है ? बोले अच्छा तो सुनो |
मैं एक दिन सांकरी गली में आ रही थी | एक नन्द का लड़का है | उसकी पहचान बताती हूँ | उसके हाथ में एक वंशी और एक लकुटी रहती है | उसने मेरी कलाई को पकड़ लिया और मुझसे बोला कि मैं यहाँ का राजा हूँ , कर लेने वाला हूँ | जो भी यहाँ से निकलता है मुझे दान देता है | तुम मुझे दही का दान दे जाओ | मैंने कहा कि लम्पट हट जा मेरे सामने से | मैं दान नहीं देती ऐसा कहने पर उस लम्पट ने मेरी मटकी उतार ली और मेरे देखते – देखते उस मटकी को फोड़ दिया | दही सब पी गया, मेरी चुनरी उतार ली और हँसता – हँसता चला गया |
यहाँ पर गोप देवी ने कृष्ण की बड़ी निंदा की है कि वो जात का ग्वाला है | काला कलूटा है | न रंग है न रूप है | न धनवान है न वीर है | हे राधे तुम मुझसे छुपाती क्यों हो ? तुमने ऐसे पुरुष से प्रेम किया है ! ये ठीक नहीं किया | यदि तुम कल्याण चाहती हो तो उस धूर्त को, उस निर्मोही को अपने मन से निकाल दो |
इतना सुनने के बाद श्री राधा रानी बोलीं अरी गोप देवी तेरा नाम गोप देवी किसने रखा ? तू जानती नहीं ब्रह्मा, शिव जी भी श्री कृष्ण की आराधना करते हैं |


यहाँ पर श्री कृष्ण की भगवत्ता का राधा रानी ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है !
राधा रानी बोलीं कि जितने भी अवतार हैं – दत्तात्रैय जी, शुकदेव जी, कपिल भगवान्, आसुरि और आदि ये सब भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते हैं | और तू उनको काला कलूटा ग्वाला कहती है ! उनके सामान पवित्र कौन हो सकता है | गौ रज की गंगा में जो नित्य नहाते हैं | उनसे पवित्र क्या कोई हो सक ता है ? क्या गौ से अधिक पवित्र करने वाली कोई वस्तु है संसार में |
राधा रानी बहुत बड़ी गौ भक्त थीं | यहाँ तक कि जब श्री कृष्ण ने वृषासुर को मारा था तो राधा रानी और सब गोपियों ने कहा था कि श्री कृष्ण हम तुम्हारा स्पर्श नहीं करेंगी | तुम को गौ हत्या लग गई है | हम तुम्हें छू नहीं सकती | ऐसी गौ भक्त थीं राधा रानी |


आगे राधा रानी कहती हैं कि तू उनकी बुराई कर रही है ? वो नित्य गायों का नाम जपते हैं | दिन रात गायों का दर्शन करते हैं | मेरी समझे में जितनी भी जातियाँ होगीं उनमें से सबसे बड़ी गोप जाति है | क्यों ? क्योंकि ये गाय की सेवा करते हैं | इसलिए गोप वंश से अधिक बड़े कोई देवता भी नहीं हो सकते | गोप देवी तू श्याम को काला कलूटा बताती है ? तो बता उस श्याम से भी कहीं अधिक सुंदर वस्तु है | स्वयं भगवान नीलकंठ शिव भी उनके पीछे दिन रात दौड़ते रहते हैं | राधा रानी बोलीं कि वे जटाजूट धारी, हलाहल विष को भी पीने वाले शक्तिधारी, सर्पों का आभूषण पहनने वाले उस काले कलूटे के लिए ब्रज में दौड़ते रहते हैं | तू उसे काला कलूटा कहती है ? सारा ब्रह्माण्ड जिस लक्ष्मी जी के लिये तरसता है वे लक्ष्मी जी उनके चरणों में जाने के लिये तपस्या करती हैं |


तू उन्हें निर्धन कहती है ? निर्धन ग्वाला कहती है ? जिनके चरणों को लक्ष्मी तरस रही हैं, तू कहती है कि उनमें न बल है और न तेज है | बता वकासुर, कालिया नाग, यमुलार्जुन, पूतना, आदि का वध करने वाला क्या निर्बल है ? कोटि – कोटि ब्रह्माण्ड का एक मात्र सृष्टा और उनको तू बलहीन कहती है ? सब जिनकी आराधना करते हैं तू उन्हें निर्दय कहती है ? वो अपने भक्तों के पीछे – पीछे घूमा करते हैं और कहते हैं कि भक्तों की चरण रज हमको मिल जाये और तू उनको तू निर्दय कहती है ?
जब ऐसी बातें सुनी तो गोप देवी बोली राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और हमारा अनुभव अलग है | ठीक है कालिया नाग को मारा होगा इन्होंने लेकिन ये कौन सी सुशीलता थी कि मैं अकेली जा रही थी और मुझ अकेली की उन्होंने कलाई पकड़ ली | ये भी क्या कोई गुण हो सकता है ?
गोप देवी की बात सुनकर राधा रानी बोलीं कि तू इतनी सुंदर होकर के भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ? बड़ी अभागिन है | तेरा सौभाग्य था पर अभागिन तुमने उसको अनुचित समझ लिया | तुमसे अभागिन संसार में कोई नहीं होगा |


गोप देवी बोली तो मैं क्या करती ? अपना सौभाग्य समझ के क्या अपना शील भंग करवाती ? श्री राधा रानी बोलीं अरी सभी शीलों का सार, सभी धर्मो का सार तो श्री कृष्ण ही हैं | तू उसे शील भंग समझती है?
बात बढ़ गई | तो गोप देवी बोली कि अगर तुम्हारे बुलाने से श्री कृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लुंगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वो निर्दय नहीं है | और यदि नहीं आये तो ? तो राधा रानी बोलीं कि देख मैं बुलाती हूँ और यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन, शरीर तेरा है |
शर्त लग गई प्रेम की | इसके बाद श्री जी बैठ जाती हैं आसन लगाकर और मन में श्री कृष्ण का आह्वान करने लग जाती हैं | बड़े प्रेम से बुलाती हैं | श्री कृष्ण का एक – एक नाम लेकर बुलाती हैं |

श्यामेति सुंदरवरेति मनोहरेति कंदर्पकोटिललितेति सुनागरेति |
सोत्कंठमह्नि गृणती मुहुराकुलाक्षी सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना||
(श्री राधासुधानिधी ३७)


इस श्लोक का मतलब मुझे एक बार पंडित हरिश्चंद्र जी ने समझाया था |
पहले तो राधा रानी ने ‘श्याम’ कहा और उसके बाद तुरंत बोलीं ‘सुंदर’ ताकि कहीं कोई ऐसा नहीं समझ ले कि श्याम तो काला होता है , तो तुरंत उसको सम्भाल लिया | अच्छा फिर सोचा सुंदर भी बहुत से होते हैं लेकिन सौत को सौत की सुन्दरता बुरी लगती है | अगर चित्त नहीं लुटा, अगर मन नहीं लुटा तो सुन्दरता किस काम की तो उन्होंने तुरंत कहा कि मन को हरण कर लेते हैं |
तो बोले कि मन तो गोद का एक बच्चा भी हर लेता है | बोलीं मन हरण करने का ढंग दूसरा है | बड़ा चतुर है | फिर सोचने लगी सुंदर हो पर चतुर नहीं हुआ तो किस काम का ? प्रेम में चतुरता तो चाहिये , नहीं तो भाव ही नहीं समझ पायेंगे | श्री जी बोलीं भाव समझने वाला है !


इस तरह से श्री कृष्ण का आह्वान कर रही थीं | गोप देवी जो बैठी हुई थी उसका शरीर कुछ कांपने लगा | जैसे ही प्रेम का आकर्षण बढ़ा तो श्री कृष्ण समझ गये कि अब ये हमारा रूप छूटने वाला है | प्रेम में अद्भुत शक्ति होती है | श्री कृष्ण के शरीर में रोमांच होने लग गया और बोले कि अब मैं संभाल नहीं सकता अपने आपको |
उन्होंने देखा कि राधा रानी के नेत्रों में आंसू थे और वे मुख से श्री कृष्ण का नाम ले रही थीं |तुरंत श्री कृष्ण अपना रूप बदलकर श्री राधे राधे कहते आये | राधा रानी ने देखा कि श्री कृष्ण खड़े हैं | श्याम सुंदर ने कहा कि हे लाड़ली जी आपने हमें बुलाया इसलिये मैं आ गया | आप आज्ञा दीजिये | श्री जी चारों ओर देखने लगीं |
श्री कृष्ण बोले आप किसको देख रही हैं | मैं तो सामने खड़ा हूँ | बोली मैं तुम्हें नहीं उस गोप देवी को देख रही हूँ | कहाँ गई ? श्री कृष्ण बोले कौन थी ? कोई जा तो रही थी जब मैं आ रहा था | राधा रानी ने सारी बात बताई तो बोले कि आप बहुत भोली हैं | अपने महल में ऐसी नागिनों को मत आने दिया करो |
(ये है सांकरी खोर की लीला)


ब्रज भक्ति विलास के मत में – बरसाने में ब्रह्मा एवं विष्णु दो पर्वत हैं | विष्णु पर्वत विलास गढ़ है शेष ब्रह्मा पर्वत है | दोनों के मध्य सांकरी गली है | जहाँ दधि दान लीला सम्पन्न होती है |
सांकरी – संकीर्ण एवं खोर – गली | सभी आचार्यों ने यहाँ की लीला गाई है |

श्री हित चतुरासी – ४९
ये दोउ खोरि, खिरक, गिरि गहवर
विरहत कुंवर कंठ भुज मेलि |
अष्टछाप में परमानंद जी ने भी सांकरी खोर की लीला गाई है |


परमानन्द सागर २७३
आवत ही माई सांकरी खोरि |


हित चतुरासी – ५१
दान दै री नवल किशोरी |
मांगत लाल लाडिलौ नागर
प्रगत भई दिन- दिन चोरी ||
महावाणी सोहिली से
सोहिली रंग भरी रसीली सुखद सांकरी खोरि ||


केलिमाल – पद संख्या ६२
हमारौ दान मारयौ इनि | रातिन बेचि बेचि जात ||
घेरौ सखा जान ज्यौं न पावैं छियौ जिनि ||
देखौ हरि के ऊज उठाइवे की बात राति बिराति
बहु बेटी काहू की निकसती है पुनि |
श्री हरिदास के स्वामी की प्रकृति न फिरि छिया छाँड़ौ किनि ||


सांकरी खोर में दधि मटकी फूटने का चिन्ह व श्री कृष्ण की हथेली का चिन्ह भी है | विलासगढ़ की ओर का पर्वत कृष्ण पक्ष का होने से कुछ श्याम है, जिस पर ऊपर श्री कृष्ण की छतरी और नीचे मधु मंगल की छतरी है | दधिदान के अतिरिक्त यहाँ चोटी बन्धन लीला भी हुई थी जिसमें सखियों ने नटखट कृष्ण और मधु मंगल आदि की अलग अलग चोटी बाँधी थी | पीछे ‘श्री जी’ ने कृपा वश छुड़ाया | यह लीला इस गली में प्रति वर्ष भाद्र शुकल एकादशी को होती है , तथा दधिदान लीला त्रयोदशी में होती है |

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श्रीलाला बाबू (वृन्दावन/गोवर्धन)

कलकत्ता शहर है और शीतकाल की सन्ध्या की बेला। अस्ताचलगामी सूर्य अपनी मधुर किरणें बिखेर रहा है। पवन मन्द;मन्द बह रहा है। लालाबाबू पालकी पर निकले हैं सैर करने। पालकी के आगे हैं बन्दूकची और पोछे सिपाहियों और नौकरों की टोली। गंगा-तटपर पहुँचकर पालकी उतारी गयी, लता-पताओं के बीच एक सुरम्य और सुरभित स्थान में।
हुक्काबरदार ने झट चिलम भरकर लालाबाबू के सामने फरसी पर रख दी। कीनखाबमण्डित नरम तकिये का सहारा लेते हुए उन्होंने फरसी की नली मुँह में दबा ली। छल-छल करती बहती सुरधुनी के मधुर स्वर में हुक्के की गुड़-गुड़ बीच-बीच में सुर मिलाने लगी।
मुख से निकला सुगन्धित अम्बरी तम्बाकू का धुआँ कुण्डली बाँधकर आकाश में उड़ने लगा। लालाबाबू का मन एक अनिर्वचनीय आनन्द के झूले में झूलता हुआ धीमे-धीमे पेंग भरने लगा। उसी समय उनके हृदय में लगी एक चिनगारी ने विस्फोट किया और आनन्द का उत्सविषाद में विलीन हो गया।
पासकी एक झोपड़ी में दिन के परिश्रम से क्लांत, सोते हुए धीमर को जगाते हुए उसकी कन्या कह रही थी–‘बाबा, उठो ! दिन शेष ह्य गयौ–बाबा, उठो ! दिन डूब चला।
धीमर-कन्या का आह्वान तिर्यक् गति से जाकर भेद गया लालाबाबू के मर्मस्थल को। ‘बाबा, उठो दिन शेष हय गयौ’ यह शब्द बार-बार उनके हृदयाकाश में गूँजने लगे।
उनकी मोह-निद्रा भंग हुई। फरसी की नली मुँह से छूट गयी। महा ऐश्वर्यशाली, महाविलासी लालाबाबू अब वह लालाबाबू न रहे। सब कुछ त्यागकर कंगालवेश में वृन्दावन जाने के लिए कृतसंकल्प हो वे चल दिये घर की ओर।
किसी तरह रात व्यतीत की। दूसरे दिन कहा घरके लोगोंसे–‘मेरे जीवन की सन्ध्या आ गयी है। दिन डूबने को है। राधारानी की पुकार सुन पड़ी है। मैं जा रहा हूँ वृन्दावन।’ पत्नी, पुत्र, परिजनों के अनुरोध और कातर क्रन्दन की उपेक्षा कर वे चल दिये वृन्दावन की ओर।
लालाबाबू का असली नाम था श्रीकृष्णचन्द्र सिंह। आनुमानिक सन् १७७५ में उनका जन्म हुआ। उनके दादा गंगागोविन्द सिंह थे अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के शासनकाल में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवान थे।
उन्होंने अपनी असाधारण योग्यता से अपने वंश के लिए अर्जित की थी विशाल जमींदारी और अपरिमेय धनराशि। उनके भाई राधागोविन्द भी बहुत बड़ी धन-सम्पत्ति के मालिक थे। कृष्णचन्द्र सिंह के पिता प्राणकृष्ण थे। दोनों भाइयों की सम्पत्ति के एकमात्र उत्तराधिकारी और उस समय के पूर्व भारत के सबसे बड़े धनी-मानी व्यक्ति।
कृष्णचन्द्र उनके इकलौते बेटे थे। दादा गंगागोविन्दसिंह उन्हें प्यार से ‛लाला’ पुकारा करते थे। नौकर-चाकर और अन्य सभी लोग उन्हें आदर पूर्वक ‛लाला बाबू’ कहते थे। इसलिए वे इसी नाम से समस्त भारत में विख्यात हुए।
लाला बाबू की मेधा तो असामान्य थी ही, उनके पिता ने बड़े-से-बसे विद्वानों को उन्हें अँग्रेजी, फारसी और संस्कृत पढ़ाने को नियोजित किया। फलस्वरूप अल्प समय में ही उन्होंने इन भाषाओं में व्युत्पत्ति हासिल कर ली। श्रीमद्भागवत से उन्हें बहुत प्रेम था। उनमें इतनी दक्षता थी कि वे उसके किसी श्लोक की सुन्दर और रसमयी व्याख्या कर लोगों को चमत्कृत कर सकते थे।
उनका हृदय इतना कोमल था कि वे किसी का दुःख नहीं देख सकते थे। एक गरीब आदमी अर्थाभाव के कारण अपनी कन्या का विवाह नहीं कर पा रहा था। दुःखी होकर उसने उनसे प्रार्थना की। उन्होंने खजानची को आदेश दिया १०००) उसे तुरन्त दे देने का। खजानची ने प्राणकृष्ण सिंह से पूछा, तो उन्होंने कहा–‘अब लाला ने उस व्यक्ति को वचन दे ही दिया, तो इस बार तो उसे १०००) दे दो। पर लाला से कह दो कि इस प्रकार दान तभी करे जब स्वयं कुछ कमायी करने लगे या जमींदारी की आय बढ़ा ले।’
लाला बाबू को पिता की यह बात शूल की तरह चुभ गयी–‘कोटिपति गंगागोविन्द सिंह का पौत्र होते हुए मुझे इतना भी अधिकार नहीं कि मैं किसी गरीब की सामान्य सेवा कर सकूँ। तो ठीक है, अब अपने पैरों पर खड़ा होकर ही कुछ करूँगा।’
वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। कुछ ही दिनों में माता-पिता के रोने-धोने की उपेक्षा कर वर्धमान चले गये। फारसी और अँग्रेजी भाषाओं का अच्छा ज्ञान उन्हें था ही। वर्धमान कलेक्टरी के सेरेस्तादार पद पर उनकी नियुक्ति हो गयी। कार्य में असाधारण दक्षता प्रदर्शन करने के कारण पदोन्नति भी जल्दी-जल्दी होने लगी। इसी समय उन्होंने विवाह किया। एक पुत्र रत्न भी उत्पन्न हुआ।
सन् १८०३ में उड़ीसा प्रदेश अँग्रेजी सरकार के अधिकार में आ गया। तब उनकी नियुक्ति उड़ीसा के सर्वोच्च दीवान के पदपर हो गयी। श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीला-स्थली श्रीधाम पुरी में रहने का अवसर मिला। भक्तिलता बीज, जो जन्म से ही उनमें रोपित था, अंकुरित हो उठा और क्रमश: पल्लवित और पुष्पित होने लगा। राज-काज को छोड़ उनका बाकी समय भक्ति-शास्त्राध्ययन, नाम-जप और कीर्तनादि में बीतने लगा।
कुछ दिन बाद घर से संवाद आया पिता श्रीप्राणसिंह के परलोक-गमन का। घर छोड़ने के पश्चात् लालाबाबू ने घर लौटकर जाने का पिता का आग्रह कई बार ठुकरा दिया था। वे अपने इकलौते बेटे को एक बार फिर से देख लेने की अपूर्ण साध लिये ही परलोक सिधार गये थे। इसलिए लालाबाबू के हृदय में यह संवाद शूल-सा चुभकर रह गया। नेत्रों से बह पड़ी अविरल अश्रुधारा। हृदय में धधक उठी अनुताप की प्रबल ज्वाला।
कलकत्ते जाकर उन्होंने पिता का पारलौकिक कार्य विधि पूर्वक सम्पन किया। पिता की जमींदारी और धन-सम्पत्ति की देखभाल का भार अब उनके ऊपर आ पड़ा। इसलिए वे उड़ीसा की दीवानी का काम छोड़कर स्थायी रूप से कलकत्ते रहने लगे।
पर उनके जीवन में होने लगा एक अन्तर्द्वन्द। बार-बार मन में उठता एक प्रश्न–यह धन, ऐश्वर्य, मान-सम्मान सब किसलिए ? यह क्या चिरस्थायी हैं ? यदि नहीं, तो क्यों नहीं इन्हें त्यागकर उस पथ का सन्धान किया जाय, जिससे चिर शान्ति मिल सकती है ?
पर संसार के प्रति उनके दायित्व और कर्तव्य की भावना हर बार इस प्रश्न को दबा देती। उसी समय उन्हें प्राप्त हुआ उस धीमर कन्या के माध्यम से राधारानी का दिव्य आह्वान।
वृन्दावन जाकर उन्होंने अपनाया त्याग, तितीक्षा और कठोर व्रतमय साधन जीवन। सारा दिन भजन करते। सन्ध्या समय एक बार मधुकरी को जाते। जो मिल जाता उसी से उदरपूर्ति करते।
वृन्दावन में भग्न मन्दिरों और विग्रहों की सेवा-पूजा की दुर्दशा देख उनके प्राण रो दिये। कितना अच्छा होता यदि इनकी दशा सुधारने के लिए वे कुछ कर सकते। पर वे ठहरे कंगाल। उनकी लाचारी उन्हें कचोटने लगी। फिर खेल उठी मन में एक नयी तरंग- कंगाल मैं हूँ। प्रभु तो कंगाल नहीं।
उनकी विपुल सम्पत्ति में छोड़कर आया हूँ। उसमें से पत्नी और पुत्र का हिस्सा निकालकर अपना हिस्सा प्रभु की सेवा में लगाऊँ और स्वयं भिक्षा-वृत्ति से जीवन निर्वाह करूँ, तो भजन की दृष्टि से क्या कोई हानि होगी ? देव-देवालयों की सेवा होगी, वृन्दावन के धार्मिक अनुष्ठानों का उज्जीवन होगा।’
उन्होंने तदनुरूप कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही समय में उनकी बंगाल और उड़ीसा की जमींदारी से पचीस लाख रुपये की धनराशि आ गयी। उनके कर्मचारियों ने वृन्दावन में बहुत-सी जमीन-जायदाद खरीदना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे व्रजमण्डल के चौहत्तर परगने उन्होंने क्रय कर डालें। इनकी आय से भग्न मन्दिरों की मरम्मत, नये मन्दिर और धर्मशालाओं का निर्माण और जगह-जगह देव सेवा की सुव्यवस्था करने की एक विराट योजना बनायी गयी।
इस योजना में वृन्दावन में एक ऐसा सुरम्य मन्दिर बनवाने की परिकल्पना भी सम्मिलित थी, जिसमें राधा-कृष्ण के अति सुन्दर विग्रहों की स्थापना हो और शत-शत साधु-महात्माओं और गरीब दुःखियों के नित्य महाप्रसाद ग्रहण करने की सुव्यवस्था हो।
मन्दिरका निर्माण-कार्य प्रारम्भ हुआ। जयपुर अञ्चल से कीमती पत्थर क्रय करने के लिए लालाबाबू का कभी-कभी राजस्थान जाना होता। मार्ग में पड़ता भरतपुर। भरतपुर के महाराजा उनके पुराने बन्धु थे। उनके विशेष आग्रह के कारण उन्हें आते-जाते एक-दो दिन उनके यहाँ ठहर जाना पड़ता।
महाराजा के साथ घनिष्टता होने के कारण उन्हें एक बार बड़ी विपदा में पड़ना पड़ा। उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की राजस्थान के राजाओं के साथ एक सन्धि की बातचीत चल रही थी, जिसमें भरतपुर के महाराजा की प्रधान भूमिका थी।
किसी कारण उन्होंने सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। सर चार्ल्स मेटकॉफ उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तरफ से दिल्ली दरबार के रेजिडेन्ट पद पर नियुक्त थे।
उन्हें उनके कुछ कर्मचारियों ने समझा दिया कि महाराजा हस्ताक्षर करने को प्रस्तुत थे परन्तु लालाबाबू की कुमन्त्रणा के कारण नहीं किये। मेटकॉफ ने क्रुद्ध हो लालाबाबू को बन्दी बनाकर दिल्ली बुलवा मँगाया। विचार की व्यवस्था की जाने लगी।
लालाबाबू की गिरफ्तारी का संवाद सारे व्रजमण्डल में फैल गया। इसका विरोध करने के लिए सहस्रों व्रजवासी दिल्ली की ओर उमड़ पड़े। लालाबाबू की लोकप्रियता और उनके प्रभाव को देख मेटकॉफ बहुत चिंतित हुए। उनके और उनके परिवार के सम्बन्ध में गुप्तरूप से जाँच-पड़ताल करवायी।
पता चला कि उनके पूर्वपुरुष सदा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हितैषी रहे हैं। उसका उपकार भी उन्होंने बहुत किया है। मेटकॉफ की आँखें खुल गयीं और लालाबाबू को मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं, उन्हें महाराजा की उपाधि देना चाहा, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
धीरे-धीरे वृन्दावन का विशाल मन्दिर बनकर तैयार हो गया। मुरलीधर श्रीकृष्णचन्द्र की नयनाभिराम मूर्ति स्थापित हो गयी। अतिथिशाला में सैकड़ों लोगों के प्रसाद की व्यवस्था भी कर दी गयी। पर लालाबाबू स्वयं कंगाल वैष्णवों की तरह ही जीवनयापन करते हुए भजन करते रहे।
माघ का महीना था। कड़ाके की शीत पड़ रही थी। मन्दिर के एक कोने में खड़े लालाबाबू दर्शन कर रहे थे श्रीकृष्णचन्द्र की भुवनमोहन श्रीमूर्ति का। भावावेश में उनका देह विकम्पित हो रहा था। नेत्रों से बह रही थी प्रेमाश्रुधारा। उनके अन्तर में जाग उठी एक विचित्र अभिलाषा। उन्होंने भोग के थाल में से एक टिकिया मक्खन की उठाकर पुजारी को दी और कहा–‘यह मक्खन श्रीमूर्ति की चाँद पर रखना तो।’
पुजारी सुनकर अवाक् ! वह चुपचाप लालाबाबू के मुख की ओर देखता खड़ा रह गया। लालाबाबू ने फिर कहा–‘हाँ, हाँ, रक्खो तो, देखते क्या हो। मुझे आज श्रीमूर्ति की परीक्षा करनी है। इसकी विधिवत् प्राण-प्रतिष्ठा हुई है, सेवा भी षोडशोपचार से विधिवत् हो रही है। तो देखना है कि इसमें सचमुच प्राण हैं या नहीं। यदि हैं, तो इनके मस्तक के ताप से मक्खन पिघल जाना चाहिये।’
पुजारी क्या करता। उसने आज्ञा का पालन करते हुए मक्खन की टिक्की श्रीमूर्ति की चाँद पर रख दी और पूर्ववत् सेवा-पूजा का कार्य करने लगा। कुछ देर पश्चात् सचमुच मक्खन धीरे-धीरे पिघलकर श्रीमूर्ति के अङ्गपर बहने लगा। ऐसी भयंकर शीत में मक्खन का अपने-आप गल जाना सम्भव नहीं था। निश्चय ही उसका पिघलना इस बात का प्रमाण था कि श्रीविग्रह जीवित है।
श्रीकृष्णचन्द्र के मुखारविन्द से मक्खन बहता देख पुजारी और दर्शकगण जयध्वनि करने लगे। लालाबाबू भावावेशमें मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़े।
एक और दिन लालाबाबू के मन में एक और ढंग से श्रीमूर्ति की परीक्षा की बात आयी। उन्होंने सोचा कि यदि श्रीमूर्ति के सिर में ताप है तो नासिका में निःश्वास भी होगा अवश्य। क्यों न इसकी भी परीक्षा की जाय। उन्होंने पुजारी को थोड़ी-सी रुई देकर कहा–‘’इसे थोड़ी देर श्रीमूर्ति की नाक के नीचे लगाकर हाथ से पकड़े रहना। देखना कि श्रीमूर्ति में निःश्वास है या नहीं।’
पुजारी ने हँसते-हँसते रुई श्रीमूर्ति की नाक के नीचे लगा दी। देखा कि रुई में कम्पन होने लगा।
लालाबाबू के आनन्द की सीमा न रही। वे भावाविष्ट हो श्रीमूर्ति के सामने नाट्य-मन्दिर में लोट-पोट होने लगे।
एक दिन स्वप्न में श्रीकृष्णचन्द्र ने लाला बाबू से कहा–‘मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ। पर मुझे कुछ और भी भिक्षा चाहिये तुमसे।’
लालाबाबू ने चौंककर कहा–‘भिक्षा ? ऐसे क्यों कहते हो प्रभु ? आज्ञा करो न तुम्हारी और क्या सेवा करनी है मुझे ?’
‛जानते नहीं लालाबाबू ! मैं जन्म का भिखारी हूँ ? घर-घर भिक्षा माँगता डोलता हूँ ? मेरे लिए एक और मन्दिर का निर्माण करना है तुम्हें।’
‛एक और मन्दिर ? मैं तो सर्वस्व दानकर चुका हूँ प्रभु। मेरे पास अब बचा ही क्या है नये मन्दिर के लिए ? घर से अपने हिस्से के जो २५ लाख रुपये मँगाये थे, उसमें से तो अब कुछ भी नहीं बचा है।’
‛मैं जिस मन्दिर की बात कह रहा हूँ उसका निर्माण साधक के पास जो कुछ है उसे सबको दे चुकने के बाद ही होता है। सर्वस्व दानकर चुकने के बाद भक्त अपने हृदय में जो मन्दिर बनाता है, वही मेरे रहने का प्रिय स्थान है। तुम हृदय की वेदी पर मेरे रहने योग्य ऐसे हो एक प्रेम-मन्दिर का निर्माण करो। मैं तुमसे यह भिक्षा लेने के लिए ही आज तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूँ।’
‛तो प्रभु ! आप ही कृपाकर बतायें, इस हृदय को किस प्रकार बनाऊँ आपकी अवस्थिति के योग्य ?’
‛तुम ब्रजमण्डल के सब तीर्थों का दर्शन करो। उसके पश्चात् गोवर्धन में जाकर भजन करो।’
‛प्रभु ! मेरे द्वारा स्थापित इस श्रीमूर्ति में तो आप जाग्रत हो उठे हैं। इसे छोड़कर कैसे कहीं जाऊँ दयामय ?’
‛तुम समझते हो कि मेरा लीला-विलास तुम्हारे द्वारा स्थापित इस मूर्ति में ही निबद्ध है। वह तो सभी विग्रहों में रूपायित है। श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनके पार्षद श्रीरूप-सनातन आदि ने जिन लीला स्थलों का ब्रज में अन्वेषण किया है, वे क्या तुम्हारे द्वारा स्थापित विग्रह से कम जाग्रत हैं ?’
लालाबाबू के सन्देह के लिए अब कोई स्थान न रहा। वे ब्रज के सभी तीर्थों का दर्शन करने के पश्चात् गोवर्धन में एक कच्ची गुफा के भीतर रहकर भजन करने लगे। नित्य प्रातः गोवर्धन की परिक्रमा करते। दिन भर भजन में रहते। सन्ध्या समय एक बार मधुकरी को जाते।
उस दिन, जब वे गोवर्धन की परिक्रमा कर रहे थे, मन्दिर का पुजारी बोला–‘बाबा ! आज आप मधुकरी को न जायें। मैं सन्ध्या समय का ठाकुर का भोग-प्रसाद आपको पहुँचा दूँगा।’
सन्ध्या समय घनघोर वृष्टि हुई। प्रसाद लेकर बाहर जाना सम्भव ही न रहा। रात्रि में भी देर तक वृष्टि होती रही। पुजारी बड़े संकट में पड़ गया। सोचने लगा–‘बाबा कब से भूखे प्रतीक्षा में बैठे होंगे !’ श
वृष्टि जब कम हुई, वह गया मन्दिर के भीतर। यह देखकर अवाक् रह गया कि जो थाल बाबा के लिए सजाकर रखा था ठाकुर के सामने, वह वहाँ नहीं है ! क्या हुआ ? कोई तो मन्दिर के भीतर गया नहीं। पर अब सोच-विचार का समय कहाँ। पुजारी ने एक दूसरे थाल में सजाया भोग-प्रसाद और चला गया बाबा के पास।
उसे देखते ही बाबा बोले–‘यह क्या पुजारी बाबा ? और क्या ले ? आये ? पहले का ही बहुत-सा बच रहा है। वह देखो।’
पुजारी मन्दिर के भोग का थाल और खाद्य सामग्री गुफा में रखा देखकर चौंक पड़ा–‘यह थाल यहाँ कहाँ से आया ? कौन दे गया ?’
‛यह आप क्या कह रहे हैं ? आप ही तो दे गये हैं !’
‛मैं दे गया हूँ। मैं शपथ खाकर कहता हूँ मैं तो वृष्टि के कारण मन्दिर से बाहर ही नहीं हो सका। दृष्टि कम होने पर गया मन्दिर के भीतर, तो देखा, वहाँ ना थाल है और ना थाल में रखी सामग्री। फिर दूसरे मिट्टी के थाल में, जो फलादि मन्दिर में थे, लेकर आया हूँ।’
यह सुन लालाबाबू का देह सात्विक प्रेम-विकारों से परिपूर्ण हो अचेतावस्था में भूमि पर पड़ गया। चेतना आने पर अश्रु-गद्गद कण्ठ से वे कहने लगे–‘हाय प्रभु ! इस अधम के लिए इतना कष्ट किया ! और यह पहचान भी न सका। पहचानता भी कैसे ? यदि आप पहचान में न आना चाहें, तो किसकी शक्ति हैं, जो आपको पहचान सके। आपने क्यों इतने छल के साथ कृपा की प्रभो ? कृपा की तो कृपा में कृपणता क्यों कृपा-सिन्धु ?’
मथुरा के कृष्णदास बाबाजी की उन दिनों सिद्ध महात्मा के रूप में बड़ी ख्याति थी। उनका भक्तमाल का बँगला अनुवाद बँगला-भाषी लोगों में बहुत प्रिय था। लालाबाबू ने बहुत दिनों से मन ही मन उन्हें गुरुरूप में वरण कर रखा था।
उस दिन जब वे गोवर्धन-परिक्रमा के लिए गोवर्धन गये, तो उन्होंने उनके चरणों में गिरकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की। वे बोले–‘मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा। पर अभी समय नहीं हुआ है। तुम्हारे विषयी जीवन के सूक्ष्म संस्कार अभी कुछ शेष हैं। उन्हें तीव्र वैराग्य की अग्नि में भस्म करना होगा। उपयुक्त समय पर मैं स्वयं ही आकर तुम्हें दीक्षा दूँगा। तुम्हें मेरे पास आने की आवश्यकता नहीं।’
कुछ दिनों के लिए कौपीन कन्थाघारी लालाबाबू वृन्दावन जाकर रहने लगे। उनका वैराग्य और भजन दिनों-दिन बढ़ता गया। दिन भर भजन में रहते। सन्ध्या समय एक बार मधुकरी को जाते। बहुत दिन हो गये इस प्रकार पूर्ण वैराग्यमय जीवन व्यतीत करते-करते। पर गुरुदेव की कृपा फिर भी न हुई।
वे सोचने लगे कि उनमें कौन-सा ऐसा दोष है, जिसके कारण वे गुरुदेव की कृपा से अब तक वंचित हैं। एकाएक मन में आया–‘मैंने सारे ऐश्वर्य का त्याग कर कंगाल वेश तो धारण किया है, पर क्या मैं अपने अभिमान का पूर्ण रूप से त्याग कर पाया हूँ ? मैं मधुकरी के लिए कितने मन्दिरों और कुञ्जों में जाता हूँ; पर उस सेठ के कुञ्ज की ओर क्या मेरे पैर कभी बढ़े हैं ?’
रंगजी के विशाल मन्दिर के निर्माता सेठ लक्ष्मीचन्दजी लालाबाबू के प्रतिद्वन्द्वी थे। मन्दिर निर्माण, साधु-वैष्णव-सेवा और दान-दक्षिणा आदि में उनसे बराबर होड़ लगी रहती थी। जमीन-जायदाद को लेकर उनसे मुकदमा भी चल चुका था, जिसमें उनकी हार हुई थी। उनके प्रति पहले का द्वेष, सूक्ष्मरूप में अब भी बना हुआ था। यही कारण था कि लालाबाबू के पैर उधर नहीं पड़ते थे।
एक दिन रंगजी के मन्दिर में भिखारियों की बड़ी भीड़ थी। भीड़ में कन्धे पर भिक्षा की झोली डाले एक कनक कान्तिपूर्ण दीर्घ देहधारी भिखारी भी था। वह करताल बजा-बजाकर उच्च स्वर से कृष्णनाम कीर्तन कर रहा था। उसे पहचानते किसी को देर न लगी। तुरन्त दरबान ने सेठजी से जा कहा–‘लालाबाबू आपके द्वार पर भिक्षा के लिए खड़े हैं।’
सेठजी यह सुनकर चकित स्तम्भित रह गये। कुछ ही देर में वे स्वयं बाहर आये एक थाल में दाल, चावल, फल-मूल और सौ. अशर्फियाँ लेकर। लालाबाबू के सामने आदर पूर्वक मस्तक झुकाकर बोले–‘बाबूजी, आपके पदार्पण से आज इस दीन की कुटी पवित्र हुई। कृपाकर भिक्षा में यह थाल ग्रहण करें, जिससे मैं कृतार्थ होऊँ।’
लालाबाबू ने उत्तर दिया–‘मैं तो भिक्षा के लिए आया था सेठजी। आप जो दे रहे हैं यह तो भिक्षा नहीं।’
‛आपने ठीक समझा। यह भिक्षा नहीं है। मेरी क्या सामर्थ्य जो आपको भिक्षा दे सकूँ। आप राजा हैं, राजा-भिखारी होकर आपने मुझे पराजित कर दिया हैं। आपसे यह मेरी दूसरी पराजय है। इसलिए यह नजराना है।’
‛यह नहीं हो सकता, सेठजी कंगाल तो सदा कंगाल है। आपका यह थाल स्पर्श करने योग्य मैं नहीं हूँ। इसमें से एक मुट्ठी चावल मेरी झोली में डाल दें। इसके अतिरिक्त एक और भिक्षा देने की कृपा करें। जाने-अनजाने यदि मुझसे कभी कोई अपराध बन गया हो आपके चरणोंमें, तो क्षमा करें और आशीर्वाद दें, जिससे श्रीकृष्ण-भक्ति मेरे हृदय में उदित हो।’
लालाबाबू के इतना कहते ही दोनों ने एक दूसरे को अपनी बाँहों में भरकर एक दूसरे को प्रेमाश्रुओं से अभिषिक्त कर दिया।
लाला बाबू रङ्गजी के मन्दिर से अपनी भजन-कुटी को लौट रहे थे। उसी समय पथ में प्रसन्न मुद्रा में आते दीखे महात्मा कृष्णदास। भक्ति-पूर्वक उन्हें प्रणाम कर जैसे ही उठे, महात्मा ने प्रेम पूर्वक उन्हें आलिंगन कर लिया और कहा–‘लाला ! अब समय हो गया है तुम्हारी दीक्षा का।
शुभ लग्न में लालाबाबू की दीक्षा हो गयी। दीक्षा के उपरान्त उपदेश देते हुए गुरुदेव ने कहा–‘अब गोवर्धन में उसी गुफा में जाकर निरन्तर भजन करो। गुफा से तब तक न निकलना जब तक अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाय। इस बीच किसी मनुष्य का मुख भी न देखना।’
लालाबाबू आशानुसार रात-दिन गुफा में रहकर भजन करने लगे। कई वर्ष बाद उन्हें इष्टदेव के दर्शन हुए। उनकी दिव्य लीलाओं के भी दर्शन उन्हें होने लगे। उनकी निभृत तपस्या का अन्त हुआ। व्रजमण्डल के सिद्ध महात्मा के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन करने आने लगे।
एक बार सिंधिया महाराज व्रज गये वहाँ के तीर्थों के दर्शन करने के उद्देश्य से। वे जहाँ भी गये वहाँ उन्होंने प्रशंसा सुनी लालाबाबू के असाधारण त्याग, वैराग्य, भक्ति-भाव और परमार्थ में उनकी असाधारण उपलब्धियों की। उनके हृदय में उत्कण्ठा जागी उनसे दीक्षा लेने की। वे सदलबल गोवर्धन पहुँचे। लालाबाबू के सामने प्रणत हो उनसे दीक्षा के लिए प्रार्थना की।
उन्होंने कहा–‘महाराज ! यदि भगवान् को पाना चाहते हैं, तो केवल दीक्षा से कुछ न होगा। उन्हें पाने के लिए दोनों हाथ बढ़ाने होगे। एक हाथ से संसार को पकड़े रहेंगे, दूसरे से उनके चरण स्पर्श करना चाहेंगे, तो उनके चरणों की प्राप्ति कभी न होगी। आप दोनों हाथ बढ़ाने को तैयार हैं क्या ?’
सिंधिया महाराज तो दोनों हाथ बढ़ाने को तैयार थे नहीं। उन्होंने कहा–‘आप ठीक कहते हैं महाराज यह पथ सबके लिए नहीं है। इसके लिए चाहिये पूर्वजन्म की साधना और सुकृति।’ इतना कह वे लालाबाबू के चरणों में प्रणाम कर गोवर्धन चले गये।
इसी प्रकार जो भी व्रज में आता, लालाबाबू की प्रशंसा सुन उनके दर्शन अवश्य करता। उनकी गुफा के सामने इतनी भीड़ होने लगी कि उन्होंने चुपचाप किसी निर्जन स्थान में चले जाने का निश्चय किया।
अर्धरात्रि में अपनी गुफा से वे चल पड़े। उसी समय ग्वालियर से कुछ अश्वारोही आ रहे थे उनके दर्शन करने। दुर्भाग्य से रात्रि के अँधियारे में एक घोड़े के खुर से उनका पैर कुचल गया। कुछ ही दिनों में घाव ने असाधारण रूप धारण कर लिया।
भक्त लोग उन्हें वृन्दावन के मन्दिर में ले गये। बहुत दिनों तक चिकित्सा चलती रही। पर कोई लाभ न हुआ। भक्तों ने प्रश्न किया–‘प्रभु ! आपके प्राणप्रिय विग्रह श्रीकृष्णचन्द्र के सान्निध्य में भी आपको इतना कष्ट ! ऐसा क्यों ?’
रोगाक्रान्त लालाबाबू का मुखारविन्द एक अपूर्व आनन्द-किरण से मुकुलित हो उठा।
उन्होंने कहा–‘तुमने तो मेरे प्रभु का दिया यह दुःख हो देखा है। तुमने कब देखा है उनका दिया वह दिव्य आलोक, जो सदा मेरे हृदय में झलमल करता रहता है, जिसमें श्रीकृष्णचन्द्र और राधारानी का सुमधुर लीला-विलास चलता रहता है ? कौन-सा पलड़ा भारी है–दुःख का या आनन्द का ??’
धीरे-धीरे महाभागवत लालाबाबू की जीवन-धारा क्षीण पड़ने लगी। उनके इङ्गित पर लोग उन्हें ले गये यमुना तटपर। वहाँ युगल की प्रेममयी लीला का दर्शन करते-करते उन्होंने लीला में प्रवेश किया।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-125

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 125 )

!! महारास की पूर्व भूमिका – “चीरहरण प्रसंग” !!


प्रेम के साधक इस साधना में अपनें को खपा देते हैं ……..ये साधना है प्रतीक्षा की साधना । प्रतीक्षा ! हाँ ……..पत्ता भी हिले तो लगे वो आया ……..आहट भी हो तो लगे वो आया ……नभ में बादल भी छा जाएँ तो लगे वो आया ………हर पल हर क्षण “वो आया” की रट साधक लगाता रहता है …………….तात ! प्यारे की प्रतीक्षा कितनी सुखद और आनंददायी है ….ये तो प्रतीक्षा में बैठे प्रेमियों को ही पता है ………..दिन गिनना, आशाओं को लेकर दिन गिनना ……कोई पल ऐसा नही जाता जिसमें प्रियतम की सुखद स्मृति न हो ……….पर तात ! उद्धव इतना ही बोल पाये ।विदुर जी नें उद्धव से पूछा था – क्या गोपियों को कोई वर प्राप्त हुआ श्याम सुन्दर से ? या कोई आश्वासन ? हाँ तात ! वर मिला बृजांगनाओं को श्याम सुन्दर द्वारा ।”मैं आनें वाली शरद में तुम्हारे साथ महारास करूँगा ! बस उस समय तक तुम प्रतीक्षा करो ” ।उद्धव प्रसंग सुनानें लगे थे यमुना के तट पर ।

गोपियाँ भींगी हुयी हैं ………श्याम सुन्दर नें वस्त्र दिए गोपियों नें वस्त्र धारण किये थे………लजा रही हैं अभी भी ये गोपियाँ ।दृष्टि नीचे है इनकी………प्रिय के दर्शन करके मुखमण्डल लाल हो गया है…….हल्की मुस्कुराहट मुख में है…………इनके संकोच को हटाया श्याम नें……और प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया था ।स्त्रियों में लज्जा पुरुषों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही होती है …….बिना प्रिय के आगे बढ़े वे आगे बढ़ती नही हैं ।पर अब तो खुल गयीं ……क्यों की कमल की सुंगध लिए श्याम सुन्दर की भुजाओं नें कस लिया था इन्हें ।गोपियाँ अब चरणों में बैठ गयीं …….उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धार बह चली थी …….चरणों को ही निहारती रहीं वे सब ।क्या चाहती हो ? कमल नयन नें पूछा ।आपके ये चरणारविन्द !………एक गोपी बोली ……..दूसरी को अवसर मिला तो उसनें कहा – इन कोमल कोमल चरणों को अपनें वक्ष में रखना चाहती हैं ………पर डरती हैं प्रिय ! कि हमारे वक्ष तो कठोर हैं ……..पर आपके चरण ! ओह ! माखन से भी कोमल ।”पर हम ये चाहती हैं”……..तीसरी गोपी नें दूसरी गोपी की बातों को काटते हुये कहा……..आप अपनें चरणों से हमारे वक्ष को रौंद दें …..जिससे हमारी काम , जो हमें जला रही है वो शान्त हो जायेगी प्यारे !

“पर इसके लिये तुम्हे प्रतीक्षा करनी होगी”……श्याम सुन्दर मुस्कुराते हुये बोले ।क्यों ? अब भी क्यों प्रतीक्षा ? एक गोपी नें तुरन्त प्रश्न किया ।क्यों की पूर्ण अनन्यता अभी सिद्ध नही हुयी है ………मैं उसको ही प्राप्त होता हूँ जो मुझ में ही पूर्णरूप से आश्रित हो ………हे गोपियों ! तुम मेरे प्रति आश्रित हो ……….पर अभी कुछ और शेष है ……….इसलिये उस शेष की पूर्णता के लिये तुम लोग प्रतीक्षा करो ……….काम वासना अब तुम्हे छू नही सकती …….सिद्धों को योगियों को भी थोड़ी सी असावधानी के कारण गिरते देखा गया है ……पर तुम्हारे साथ ऐसा नही होगा……..मेरे प्रेमी कभी गिरते नही हैं ……..क्यों की मैं स्वयं उन्हें सम्भालता हूँ ।हम कुछ समझ नही रही हैं प्यारे ! स्पष्ट कहो …………गोपियों नें गम्भीरता के साथ पूछा ।तुम सब समझती हो …….श्रुति रूपा हो तुम लोग ……..वेदों की ऋचा हो तुम लोग ………मुस्कुराये श्याम सुन्दर ।धान का छिलका एक बार अलग हो जाये ……तो उसमें फिर कभी अंकुर नही फूट पाता ……..और अंकुर के फूटनें की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है …………ऐसे ही हे मेरी प्राण प्यारी गोपियों !

अब तुम्हारे हृदय में कभी विकारों के अंकुर नही फूटेंगे …………क्यों की मैने चीरहरण के रूप में तुम्हारे काम विकारों का ही हरण किया था ।फिर ये क्या है , जो आपनें हमें लौटाया ? एक चतुर् गोपी बोल उठी ।मुस्कराते हुए श्याम सुन्दर बोले – ये तो प्रेम की प्रसादी है ………ये वासना नही ….ये तो उपासना है ……क्यों की प्रयास अब नही करना है …….बस मेरे प्रसाद की निरन्तर समीक्षा करनी है ।हमारे साथ महारास कब करोगे ? समस्त गोपियों नें एक स्वर में पूछा ।महारास ? मुस्कुराये श्याम सुन्दर…….प्रतीक्षा करो ।महारास की वेला आही है ………पर उसके लिये तीव्र प्रतीक्षा ।इतना कहकर हँसते खेलते श्याम सुन्दर चले गए ……गोपियाँ भी आह भरती हुयी श्याम सुन्दर की चारु चर्चा करती हुयी अपनें अपनें घरों में लौट आईँ…….और पल पल छिन छिन प्यारे के मिलन की प्रतीक्षा में बितानें लगीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-124

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 124 )!!

अनुष्ठान पूर्ण हुआ – “चीरहरण प्रसंग” !!

गोपियों का अनुष्ठान पूर्ण हुआ ……….नही नही तात ! पूर्ण नही पूर्णतम । उद्धव बोले – पूर्ण तो तब होता जब देवी कात्यायनी प्रकट होतीं और वर देंतीं गोपियों को ……..कहतीं – जाओ तुम्हे नन्द नन्दन मिलेगा ……….पर यहाँ तो अद्भुत हो गया ……..देवी प्रकट नही हुयी स्वयं नन्दनन्दन ही प्रकट हो गए ………तात ! ये प्रेम की लीला है ……पर अलौकिक है ………..हाँ देखनें में लगता अवश्य है कि सामान्य लौकिक लड़का लड़की की तरह यहाँ सब चल रहा है ……पर नही ….ये तो परब्रह्म की अपनी आत्मक्रीड़ा है ………….वृत्ति ही गोपियाँ हैं और आत्मा स्वयं श्रीकृष्ण हैं……..अपनें से अपनें खेल कर रहे हैं ………यही तो लीला है ……….उद्धव नें कहा – और आगे का प्रसंग सुनानें लगे ।**************************************************बृजांगनाओं के आनन्द का कोई ठिकाना नही है …………हाँ ठण्ड लग रही है ………..शीतल जल है और ऋतु भी तो शीत है ।पर श्याम सुन्दर आज स्वयं आगये ……….सोचा था गोपियों नें कि कितना अच्छा हो भगवती प्रकट हो जातीं और आज वर प्रदान करतीं कि ….जाओ ! तुम्हे मिलेगा तुम्हारा प्यारा ……..पर यहाँ तो प्यारा ही आगया ………….पर -हे श्याम सुन्दर ! हमारे वस्त्र दे दो ! यमुना जल से गोपियों नें श्याम सुन्दर को पुकारा ।एक बार में नही सुना कन्हैया नें ……….जब दो तीन बार जोर से चिल्लाकर बोलीं ………..तब जाकर ।मुझ से कह रही हो ? हँसते हुए बोले नन्दलाल ।हाँ , तुमसे ही कह रही हैं ……….गोपियों नें कहा ।हाँ , कहो ? कन्हैया चपलता कर रहे हैं ।हमारे वस्त्र दे दो ! समस्त गोपियों नें हाथ जोड़कर कहा ।क्या ? फिर कहना ? श्याम सुन्दर की नटखट छबि ।हमारे वस्त्र दे दो ………बड़ी जोर से बोला था सबनें ।इधर उधर देखनें लगे कन्हाई ………कहाँ हैं ? अरी ! कहाँ हैं तुम्हारे वस्त्र ?ये लटके तो हैं……….गोपियों नें कहा ।ये ? ये तो पुष्प हैं मेरे कदम्ब वृक्ष के …….रसिक शेखर मुस्कुराये ।इतनें बड़े बड़े पुष्प ? गोपियाँ एक दूसरे को देखकर हँसी ।और क्या ! मेरो जे कदम्ब को वृक्ष दुनिया ते निरालो है ….जामें ऐसे हीं पुष्प लगें । रसिक शिरोमणि मुस्कुरा रहे हैं ये कहते हुए ।अच्छा ! विनोद मत करो ……..हमारे वस्त्र हमें दे दो ।एक गोपी नें गम्भीर होकर कहा ।आओ ले जाओ ! कन्हैया फिर मुस्कुराये ।कैसे आएं ? एक दूसरी को देखती लजाते हुये बोलीं ।क्यों ? जैसे पहले नहा रही थीं ……जैसे पहले गयीं थीं जल में ऐसे ही निकल कर आजाओ ..और वस्त्र ले जाओ….सहजता से बोले जा रहे हैं कन्हाई ।न ……नही आसकतीं ! सखियों नें स्पष्ट कहा ।पहले कोई नही था यहाँ ! इसलिये हम नहा रही थीं ।एक भोली सी गोपी , उसनें श्याम सुन्दर को कहा ।कोई नही था ? कैसे कोई नही था ? कन्हाई आकाश को देखते हुए बोले – क्या ये आकाश नही था ? फिर यमुना की ओर देखते हुए बोले ……….क्या ये यमुना नही थी …….और – अपनें नयनों को बन्दकर के कन्हाई बोले ……आहा ! क्या ये हवा तुम्हे छू कर गुजर नही रही थी ?तभी एक सखी नें नयनों के कटाक्ष चलते हुए कहा – पर तुम नही थे ना ! मैं ? गम्भीर हो गए श्याम , मैं कहाँ नही हूँ ……….क्या मैं ही यमुना में नही बह रहा ? सखियों ! क्या मैं ही हवा के रूप में तुम्हे नही छू रहा ………क्या मैं ही आकाश की शून्यता में दिखाई नही दे रहा ?मैं कहाँ नही हूँ ………..मैं सर्वत्र हूँ …….समस्त में हूँ ।रसिक शेखर आज अद्भुत रूप में आगये थे । सब कुछ अब मानों ठहर सा गया ………….प्रेम की लहरें चलनें लगी …….श्याम सुन्दर मुस्कुरानें लगे ……..गोपियाँ देहातीत होनें लगीं ।जब यहीं हैं हमारे तो लज्जा क्या ? शील, मर्यादा, लज्जा अब इन सबके लिये स्थान बचा ही कहाँ है ! अब तो बस रोम रोम में छाने लगा है प्रियतम …………..गोपियाँ बाहर आनें लगीं …………कन्हैया देख रहे हैं ………….आवरण भंग किया है वृत्तीयों का ………..कुछ छुपाव अब शेष नही था ………..प्रियतम ही जब घूँघट उठाये तो ये परम सौभाग्य है उस प्रेयसी का ………….दुर्भाग्य तो वह होता जब ज्ञानियों की तरह स्वयं ही घुँघट उठाना पड़ता ।रुको ! कन्हैया कूदे वृक्ष से ………..सब गोपियाँ अपनें अपनें हाथों को ऊपर उठाकर ……बोलो -हे श्याम सुन्दर हम सब तुम्हारी ही हैं ……….तुम्ह जो कहोगे हम वही करेंगी ……….आहा ! तात ! ये प्रेम की अंतिम स्थिति है ……जहाँ प्रेमी पूर्णरूप से आवरण रहित हो जाता है ……….बस वो है और मैं !नही नही …”.मैं” अब है ही नही ……बस तू ही तू है ।वस्त्र दे दिया कन्हैया नें……आलिंगन किया प्रगाढ़ अपनी गोपियों को ।हमारे साथ महारास करो प्यारे ! पुकार उठीं गोपियाँ ।बस मुस्कुराये श्याम सुन्दर ।इन सबका अनुष्ठान पूर्ण हुआ …….नही नही पूर्णतम ।भगवती कात्यायनी भी इन महाभाग्यशाली गोपियों को प्रणाम कर रही थीं ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-123

( “श्रीकृष्णचरितामृतम्” – भाग 123 )!!

“चीरहरण” – प्रेम की ऊँचाई में..!!

क्या ! परब्रह्म श्रीकृष्ण नें गोपियों का चीरहरण किया ? विदुर जी नें आश्चर्य से पूछा था ।क्यों ? इसमें आश्चर्य क्या ? तात ! उद्धव बोले – “लोक में रस की अनुभूति कब होती है ? जब माँ अपनें बच्चे को गोद में लेती है ….क्या उस समय माँ अपनें चीर को वक्ष से हटाकर बच्चे को दूध नही पिलाती ? माँ उस समय अपना चीर न हटाये …….तो बालक दूध पी पायेगा ?श्रृंगार रस में बिना चीर हटाये क्या प्रेमी प्रेयसी मिल सकते हैं ? ये चीर क्या है ? तात ! ज्ञानी लोग कहते हैं ……..अविद्या ही आवरण चीर है……इसको बिना हटाये ब्रह्म साक्षात्कार भी तो सम्भव नही है ।गम्भीर होगये उद्धव …….फिर कुछ देर बाद बोले – रस का अनुभव करना है …….श्रीकृष्ण के साथ तादात्म्य अनुभव करना है तो वासना रूपी चीर को हटाना ही पड़ेगा …………इसमें गलत क्या है ?हाँ , ज्ञान मार्ग में साधक अपनें अविद्या रूपी वस्त्र को फेंककर स्वयं ब्रह्म से जा एक हो जाते हैं …….पर ये प्रेम का मार्ग है ……इसमें साधक स्वयं नही …….प्रियतम आकर हमारे घूँघट को उठाते हैं ।विदुर जी मुस्कुराये ….और उद्धव को बोले – उद्धव ! तो तुमसे मैं इन दिव्य श्याम सुन्दर की लीलाओं को और सुनना चाहता हूँ ….क्यों की रस स्वरूप श्रीकृष्ण की इन लीलाओं से मैं तृप्त नही हो रहा मेरी अतृप्ति और बढ़ ही रही है…..मुझे ये प्रसंग विस्तार से सुनाओ ! विदुर जी नें हाथ जोडे उद्धव को ।**************************************************एक मास का अनुष्ठान था इन बृजगोपियों का …………और इस तरह पूर्ण श्रद्धा से इन्होनें अपना अनुष्ठान पूरा किया था ।आज अनुष्ठान की पूर्णता है……………एक महिनें कैसे बीत गए इनको पता ही नही चला …………..आज सब गोपियाँ अतिउत्साह से चलीं थीं अपनें घरों से …….विधि नही है इनके अनुष्ठान में………मन्त्र का जाप करती तो थीं पर अविधिपूर्वक ……….मन्त्र में न न्यास करन्यास अंगन्यास कुछ नही ।ओह ! उद्धव ! फिर तो इन बेचारी गोपियों का अनुष्ठान पूर्ण नही हुआ …..क्यों की विधि विहीन कर्मकाण्ड निष्फल है…..ऐसा शास्त्र कहते हैं ।और शास्त्र तो ये भी कहते हैं कि विधि हीन यज्ञ अनुष्ठान यजमान का अहित करता ही है ……..विदुर जी नें फिर प्रश्न कर दिया था ।तात !उद्धव हँसे – जो अपनें स्त्री, पुत्र, धन सुख, इनके लिये अनुष्ठान करते हैं ……उनको तो विधि की आवश्यकता है …….विधि नही है तो सच में नाश भी हो सकता है उस कर्ता का……पर – जिसे कुछ नही, मात्र “श्रीकृष्ण” ही चाहियें……उसके लिये तो फल स्वयं श्री कृष्ण ही आकर प्रदान करते हैं …..देवताओं को हट जाना पड़ता है वहाँ से ।उद्धव बोले – तात ! गोपियों के अनुष्ठान को अपूर्ण करनें की ताकत है किसी में ? स्वयं देवी कात्यायनी में भी नही है ।अब दर्शन करो – “उन गोपियों नें सुन्दर पवित्र हृदय से कात्यायनी भगवती की आराधना अनुष्ठान प्रारम्भ की थी ….एक महिनें तक का अनुष्ठान था उनका …….पूरा मार्गशीर्ष महीना ।वैसे तात ! श्रीकृष्ण प्रथम दिन ही उनकी कामना पूरी कर सकते थे ….पर नही किया …..कारण ? कारण ये कि …..जितना विरह प्रियतम के लिये हृदय में जलता रहेगा उतना ही प्रेम और और पक्व होकर मधुर बन जाएगा ……….प्रेम मार्ग में प्रतीक्षा की बड़ी महिमा है ।प्यारे के निरन्तर स्मरण से हृदय के समस्त अशुभ नष्ट हो जाते हैं ……..मलीन वासनाएं हृदय में जन्मों जन्मों के जमा हैं ……सूक्ष् रहती हैं वे वासनाएं …….वे भी जल जाएँ …….ऐसी कृपा करके एक महिनें तक श्याम सुन्दर नें गोपियों को अनुष्ठान करनें दिया ।आज अंतिम दिन है……ब्रह्ममुहूर्त से भी पूर्व 3 बजे ही आगयीं सब गोपियाँ, यमुना के घाट पर ……वस्त्रों को रख दिए किनारे में ….तात ! ये घाट स्त्रियों का था …और अन्धकार भी होता ही है उस समय ……क्यों की सुबह के तीन बज रहे थे …इस समय कौन आएगा वहाँ ?सम्पूर्ण वस्त्रों को उतार कर ……सब गोपियाँ खिलखिलाती हुयी यमुना में उतरीं…….खेलनें लगीं यमुना में……हाय ! उस दिन की बात ! एक गोपी बोलनें जा रही थी , पर चुप हो गयी !यमुना जल को उछालती हुयी दूसरी गोपी बोली ……….बता ना ! क्या हुआ था उस दिन ? क्या तुझे भी छेड़ दिया था उस प्यारे नें ।अरी ! छेड़ा कहाँ ………..हद्द कर दी थी उस दिन …….वैसे बात तो दो वर्ष पूर्व की है । ….वो सखी दो वर्ष पहले की बात बता रही थी ।सब गोपियाँ उसके पास आगयीं ………बता ना ? खेल रहे थे अपनें सखाओं के साथ गेंद श्याम सुन्दर ………..फिर चुप हो गयी वो सखी ……..अरी ! बोल ! हमसे कहा लाज ? गेंद खो गया खेलते हुए ………कहीं चला गया होगा ………..मैं उधर से गूजरी तो मेरे पीछे ही पड़ गया वो साँवरा ! क्या कहके ? दूसरी गोपी नें पूछा ।”मेरी गेंद तेनें छुपा ली है” ………हाय ! सब गोपियाँ हँसनें लगीं …….जोर जोर से हँसनें लगीं ………..उनकी खिलखिलाहट से वातावरण प्रेमपूर्ण हो गया था ।फिर क्या कहा तेनें ? जब हँसी कुछ रुकी तब एक गोपी नें पूछा ।मैं क्या कहती पागल ! मैं तो लाज के मारे ! कुछ देर रुक कर वो सखी फिर बोली ………….मुझ से कह रहा था ! तेनें दो दो गेंद क्यों छुपाएँ हैं ! गोपियों की हँसी अब फूट पड़ी थी………कोई हाय ! हाय वीर ! कहकर शरमा रही थीं तो कोई – नटखट नें कुछ और तो नही किया ? ये कहकर उस सखी को छेड़ भी रही थीं ।यहाँ होता ना ! मैं तो उसे बताती ………..एक गोपी को काम ज्वर चढ़ गया था ………..मैं उसके गालों को पकड़ कर …..वो बस इतना ही बोल पाईँ ……फिर तो दस बीस डुबकी एक साथ लगानें लगी वो यमुना में ।अरी ! ज्यादा डुबकी मत लगा….सर्दी है, कहीं सर्दी गढ़ लग गयी तो !गढ़ तो श्याम सुन्दर गया है , हाय ! सर्दी की क्या मज़ाल की वो गढ़ जाए ………..हाँ , गर्मी चढ़ रही है तुझे तो वीर ! लगा डुबकी …………ये कहते हुए सब गोपियाँ भी डुबकी लगानें लगीं …………एक दूसरे पर जल उछालनें लगीं ………..कमल पुष्प को तोड़कर एक दूसरे पर फेंकनें लगीं ।कमल के पराग चारों ओर फ़ैल रहे थे ……..उनकी सुगन्ध से वातावरण और मादक हो चला था …..उफ़ !************************************************ओह ! सखी ! बहुत समय हे गयो ……अब तो यमुना जल से बाहर निकलो ! एक गोपी सबको समझानें लगी ।और कात्यायनी भगवती की पूजा भी तो करनी है …………फिर मन्त्र का जाप भी …………चलो चलो ! सब गोपियाँ ये कहते हुए जैसे ही बाहर आनें को उद्यत हुयीं …………..वस्त्र कहाँ हैं हमारे ? एक गोपी नें देखा किनारे पर वस्त्र ही नही है ।फिर जल में बैठ गयीं शरमा कर……..वस्त्र कहाँ है ? एक दूसरी से पूछनें लगीं ….बन्दर ले गए ? नही नही …इतनें सुबह कहाँ बन्दर ? आँधी आई नहीं ……तूफ़ान आया नही ……फिर वस्त्र कहाँ गए ?तभी – वो देखो ! एक गोपी नें दिखाया ऊपर …….कदम्ब का वृक्ष था एक पुराना ……..वो वृक्ष यमुना के तट पर ही था ………..उसकी एक डाली यमुना के मध्य तक गयी थी ……………श्याम सुन्दर ! हाय ! ये कैसे आगये ? सखियाँ मत्त हो यमुना में अपनें अंगों को छुपा रही थीं ।पर श्याम सुन्दर नें कदम्ब के चारों ओर गोपियों के वस्त्रों को लटका दिया है …..लहँगा , फरिया सब इधर उधर ……और स्वयं उस डाल पर लेट गए हैं उल्टे …..और नीचे देख रहे हैं अपनी प्यारी गोपियों को ….कि मेरे बारे में ये क्या क्या कहती रहती हैं ।गोपियाँ आनन्दित हैं ……अति आल्हादित हैं ……….क्यों की अनुष्ठान पूर्ण हुआ है इनका ……….ये जिसको चाह रही थीं ……वो स्वयं प्रकट हो गया था ……”जिससे” माँग रही थीं नन्दनन्दन …..वो भगवती नही प्रकट हुयीं …..बल्कि “जिसे” माँग रही थीं वो प्रकट हो गया ….आहा !उद्धव की वाणी अवरुद्ध हो गयी आज ……….वो प्रेम के रस में सरावोर होगये थे …….”ये प्रेम की ऊँचाई इन गोपियों की” ……इतना ही बोल सके उद्धव………फिर मौन हो गए ।सच ! प्रेम अनुभूति है ……..शब्द से परे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-122

श्रीकृष्णचरितामृतम्-122

!! बृज गोपियों का अनुष्ठान !!

अनुष्ठान ? विदुर जी चौंकें ।उद्धव ! प्रेमी भला व्रत अनुष्ठान में क्यों लगनें लगा ?उसे इन नियमों में बन्धनें की आवश्यकता क्या ? राग प्रगाढ़ है …..प्रियतम के प्रति अनुराग दृढ है ……..फिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी व्रत अनुष्ठान की ? यमुना के किनारे बैठे श्रीकृष्ण लीला विदुर जी को सुना रहे उद्धव नें जब कहा …….गोपियों नें मार्गशीर्ष मास में कात्यायनी देवी का अनुष्ठान किया था ………ये सुनकर विदुर जी नें आश्चर्यचकित होकर पूछा ।क्यों ? प्रेमी क्यों पड़े व्रत अनुष्ठान में ? तात ! उद्धव हँसे ।आपको क्या लगता है……..प्रियतम को पानें की जो आग प्रेमी के मन में धधक रही होती है ……वो आपको बैठे रहनें देगी ? नहीं ! वो आपको दौडाती है ………वो आग आपको बेचैन कर देती है ….कैसे मिलेगा ? कहाँ मिलेगा ? और जैसे भी मिले …..गण्डा ताबीज़ जो बाँधना हो वो प्रेमी बाँधता है……चाहे गंगा में यमुना में हजारों बार डुबकी लगानी पड़े वो लगाता है …….कोई झूठ में भी कह दे ऐसा करो ….तुम्हे प्रिय मिलेगा …….वो करेगा ………तर्क का स्थान कहाँ है वहाँ ? बुद्धि तो कबकी जबाब दे चुकी है…….बुद्धि नें तो कब का साथ छोड़ दिया है उस प्रेमी का …..हृदय नें अपना आधिपत्य जमा लिया है ।तात ! उद्धव कह रहे हैं – प्रियतम को पानें के लिये चाहे कुछ भी करना पड़े प्रेमी करता है ….उसके लिए नियम मुख्य नही है …….उसके लिए प्रियतम मुख्य है ………..नियम में रहकर प्रेमी मिलता हो तो वो नियमों में रहेगा ….अगर नियम तोड़ने से वो मिलता है ……तो नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुये वो चलता है …………ये प्रेम है तात !********************************************भगवती कात्यायनी की उपासना करो ……उनका व्रत करो ….अनुष्ठान करो …….प्रातः काल ही उठकर यमुना स्नान करके ……बालुका में ही भगवती की मूर्ति बनाओ…….और मन्त्र का जाप करो ।एक ऋषि मिले थे मार्ग में……… उनसे गोपियों नें श्रीकृष्ण प्राप्ति की बात पूछी….तब हँसते हुए ऋषि नें ये उपाय बता दिया था ।मार्गशीर्ष का महीना अतिउत्तम है ………ये भी कह दिया ।गोपियों नें अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया था ……ब्रह्ममुहूर्त से पहले ही चली जाती थीं यमुना स्नान करनें के लिये ये गोपियाँ ……….उस समय कोई होता नही था आस पास ……खूब स्नान करतीं ……..खेलतीं …श्रीकृष्ण की चर्चा करते हुए उन्मत्त रहतीं………..नग्न स्नान था उनका ये …….कोई वस्त्र नही होते थे उनके देह में ………उन्मुक्त भाव होता था उस समय उन गोपियों को ।फिर बाहर आतीं…….वस्त्र धारण करतीं………सब मिलकर बालुका में ही कात्यायनी देवी की मूर्ति बनातीं …….हाथ जोड़तीं ………..पुष्प चढ़ातीं ………फिर आँखें बन्दकर के मन्त्र को बुदबुदातीं ….ऋषि नें क्या मन्त्र दिया था …..वो बेचारी भूल गयीं …..विनियोग भूल गयीं …….न्यास , करन्यास, अंगन्यास सब भूल गयीं ………..अब तो वो अपना ही मन्त्र बुदबुदा रही हैं ………..उफ़ ! तात ! सुनोगे इन बृज गोपियों का वो मन्त्र !उद्धव बताते हैं – “हे कात्यायनी देवी ! नन्द गोप का लाला हमें पति के रूप में मिले” , सब यहीं कहतीं ……….कितनी भोली प्रार्थना है ना! कितनी अबोध प्रार्थना ! घण्टों तक देवी को मनातीं….भगवती के चरणों में अपनें माथे को रखकर रोतीं ………गिड़गिड़ातीं ………नन्द गोप का सुत चाहिए इन्हें !उद्धव हँसे ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-121

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 121)

**!! “प्रेमी गोपाल” – एक झाँकी !!*

प्रेम की गली बहुत संकरी है ……उसमें एक ही जा सकते हैं ।प्रियतम का चिन्तन करते हुये वो प्रेमी भी अपनें आपको भूल जाता है ……फिर जब सामनें प्रियतम हो…..तब तो मात्रप्रिय ही है ….प्रेमी खो गया मिट गया……ये प्रेम गली है ही ऐसी ।

“सुनो ! इस गाय को उस स्थान में बाँध दो…….और उस भूरी को उधर”………….श्याम सुन्दर गौचारण करके गोष्ठ में आगये हैं ……..अपनें सखाओं को कह रहे हैं ……..समझा रहे हैं …………कि किस गौ को किस स्थान पर बाँधना है ।

“आहा ! सखी देख तो कितनें सुन्दर लग रहे हैं श्याम सुन्दर ……..हृदय से चरणों तक झूलती वनमाला ……और सिर में ?” श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ गोष्ठ में आचुकी हैं ……….और दूर खड़ी होकर श्याम सुन्दर को निहार रही हैं ।

सिर में ………….. गाय के खुर को बाँधनें की जो रस्सी होती है ना …….दूध दुहते समय गौ लात न मारे इसके लिये बाँधा जाता है ….उस रस्सी को श्याम सुन्दर नें अपनें सिर में बाँध रखा है ………पीताम्बरी को कमर में कस लिया है ……………और अपनी प्यारी गौ के पास बैठ गए हैं …………..मुस्कुराता उनका मुखारविन्द है ………..”

नही नही ……..अभी बछड़ों को मत हटाओ ……उन्हें भरपेट दूध पीनें दो …..जब स्वयं मुँह हटा लें तब दूध दुहना ……ग्वालों को कह रहे हैं श्याम सुन्दर ……..और हाँ …पहले शीतल जल से थन को धोना ….फिर दुहना …………अद्भुत ! श्याम सुन्दर सबको समझा रहे हैं ।

अच्छा भैया ! अब तू हमें सिखाएगा ? हमारे सामनें तू नंगा डोलता था …….मधुमंगल सखा श्याम सुन्दर को हँसते हुए बोला ।

श्रीराधारानी और सभी सखियाँ हँसीं …..खूब हँसी ……सखा भी हँसे ।

पर श्याम सुन्दर का ध्यान अभी गौ पर है……….

“नंगा तो मैं अभी भी डोल सकता हूँ”………..श्याम सुन्दर ये बोलकर स्वयं खुल कर हँसे………श्याम सुन्दर की हँसी जैसे ही गोष्ठ में गूँजी ……बछड़े उछलनें लगे आनन्द से………वो थन पर अपना मुँह लगाते हैं ……पर फिर मुँह हटाकर श्याम सुन्दर की ओर देखनें लग जाते हैं ………..और अपलक देखते रहते हैं ।

दूध पीयो ……………श्याम सुन्दर उनका मुँह थन की ओर कर देते हैं …….पर बछड़े इतनें आनन्दित हैं श्याम सुन्दर के साथ कि उछलते हुए फिर भाग जाते हैं ………..फिर , फिर लौटकर आते हैं ………।

आहा ! सखी ! देख !

आनन्द की धारा में बहते हुये श्रीराधारानी अपनी सखियों से कहती हैं……”.थन में मुँह न लगाकर श्याम सुन्दर को ही चाटनें लग गए हैं ये बछड़े……….श्याम सुन्दर हँसते हैं ……..बछडों को प्यार करते हैं……..चूमते हैं ।

श्रीराधारानी देख रही हैं ये सब लीला…….सखियों को इतना आनन्द आरहा है कि ………सबकुछ भूल गयी हैं …अपनें आपको भी ।

ऊपर देख ! कामधेनु जो स्वर्ग की गाय है ………वो तरस रही है …….आहा ! क्यों मैं नन्द गाँव की गाय नही बनी …..ऐसा क्या दुर्भाग्य था मेरा कि मैं स्वर्ग में आगयी …………..वो रो रही है ……अपनें आपको धिक्कार रही है ….और इन बृज की गायों की महिमा का गान कर रही है ।

क्यों न करे ! पूर्णब्रह्म को पाना बड़े बड़े योगियों को दुष्कर है …….पर ये गाय बछड़े ! इन्होनें पाया मात्र नही है ब्रह्म को , ये परब्रह्म को चाट रही हैं अपनी जीभ से …..इनके सौभाग्य से तो ब्रह्मा को भी चिढ हो रही होगी ।

देरी हो रही है ……..श्याम सुन्दर को घर भी जाना है …………

जब बछड़े थन में मुँह नही लगाते ……….लगाते भी हैं तो थोड़ा फिर श्याम सुन्दर के रूप को देखकर मत्त हो जाते हैं……तब श्याम स्वयं गौ के थन में अपना मुखारविन्द लगाकर दूध पीते हैं ।

पी रहे हैं ……..देख तो ! श्रीराधारानी की दशा प्रेमोन्मत्त हो चुकी है ।

तभी – श्याम सुन्दर की दृष्टि गयी श्रीराधारानी के ऊपर ………

बस ……इधर श्याम सुन्दर सबकुछ भूल गए ……गाय को दुहना है ये भी भूल गए …………अपनें आपको ही भूल गए …..बस श्रीराधा ही रह गयीं अब ………….दूध फ़ैल रहा है ………….गाय के .थन से दूध निरन्तर बह रहा है …….एक ही गाय के थन से नही …….गोष्ठ में जितनी गायें थीं …….सबके …..दूध की नदी मानों बह चली है………..

पर श्याम सुन्दर अपलक श्रीराधा को ही निहार रहे हैं ।

अपनी ईशता को ही श्रीजी के चरणों में चढ़ा दिया है श्याम सुन्दर नें ।

ये प्रेमी गोपाल है ! उद्धव बोले ।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 114

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 114)

!! उफ़ ! ये अनुराग !!

तात ! जीवन की सार्थकता अनुराग में ही है ।

यमुना के तट में बैठे हैं दो परमभागवत उद्धव और विदुर जी …..श्रीकृष्ण लीला का गान करके मत्त हैं ।

उद्धव स्वयं अनुराग में डूबकर बोल रहे हैं ।

जिस जीवन में प्रेम नही, वह जीवन नही जंजाल है ……..तात ! जो समय अपनें सनातन प्रियतम की प्रतीक्षा में न बीते वह समय क्या ?

उफ़ ! किसी के मिलनें की प्रतीक्षा ! पल पल छिन छिन गिना जाए वही तो समय की सार्थकता है ।

आँखें ! तात !, आँखें किसी के चितवन के लिये प्यासी बनी रहें …..यही तो आँखों की सार्थकता है !

उद्धव आज अनुराग के सुरभित जल में भींगें हुये हैं ।

कान सदैव किसी की मीठी बोली सुननें के लिये सदा उत्कंठित रहें ।

क्या यही कान की सफलता नही है ?

हृदय किसी के लिए तड़फता रहे ।……..हाँ, वो हृदय की क्या जो किसी की याद में न तड़फे ।

वो हृदय ही क्या जो किसी की मीठी स्मृति चुभती न रहे ।

स्मृति शून्य हृदय भी भला हृदय कहलानें योग्य भी है ?

किसी की उत्कंठा बिना काल यापन करना क्या काल की सार्थकता है ?

कुछ देर रूक गए उद्धव बोलते बोलते …………..यमुना के बहते जल को देखा ……..कमल खिले हुए हैं …….उनमें अपनी दृष्टि गड़ाई ……..फिर कुछ देर बाद बोले ………….

बृज की बृजांगनाएं विश्व वन्दनीय और परम भाग्यशाली है …….क्यों की उनकी हर चेष्टा में मात्र उनका वो साँवरा ही रहता है ।

उनके रोम रोम में साँवरा है ……प्रत्येक काल में उनका कन्हैया है …….हर वस्तु में वही वही है ………पल पल वे लीलामाधुरी का ही पान करती रहती हैं ।

ग्रीष्म ऋतु में घर में रहकर कन्हैया की लीलाओं का गान करती हैं …….जब बादल छा जाते हैं वर्षा ऋतु आ जाती है ………तब बादलों को देखकर अपनें श्याम घन की मधुर यादों में खो जाती हैं ………बारिश में भीगती हैं ……….कीच को अपनें देह में मलती हैं ……..कि मेरा कन्हैया इनमें चला है ………..चलता है …………..।

आकाश के इंद्र धनुष को देखती हैं ………तब नीले आकाश में कन्हैया ही इंद्र धनुष के रूप में दीखते हैं ……..वही नीलमणी …।

शरद प्रारम्भ हुआ………..कीच धरती की सूख गयी ………अब तैयार हो गया वृन्दावन …………नाना प्रकार के पुष्प खिल उठे हैं ………उसके सुगन्ध से महक रहा है पूरा वन प्रान्त ।

उस समय सुन्दर अतिसुन्दर कन्हैया सज धज के निकलते हैं ………बस ……..पुष्पों से पूरा मार्ग पटा दिया है इन गोपियों नें …………

उफ़ ! ये अनुराग भी …….उद्धव आज इतना ही बोले ।

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गौचारण वन

प्राचीन यमुना तट पर गौचारण वन स्थित है। इस स्थान पर श्रीवाराह देवजी एवं श्रीगौतम मुनि का आश्रम विराजित है। श्रीवाराह देवजी का नामानुसार इस वन का दूसरा नाम वाराह बन भी है। इसी गौचारण वन में श्रीकृष्णजी अपने सखाओं के साथ गौचारण लीला किया करते थे।

ततश्च पौगण्डवयः श्रिती बजे बभूवतुस्ती पशुपालसम्मती । गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैवृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ।। तन्माधवो वेणुमुदीरयन् वृतो गोपदिनः स्वयशो बलान्वितः। पशुन् पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद् विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ।। तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं महन्मनः प्रख्यपयः सरखता । वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना निरीक्ष्य रन्तुं भगवन् मनो दधे।।

अनुवाद श्रीशुकदेवजी कहते है – महाराज परीक्षित् | अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड अवस्था में अर्थात् छटे वर्ष में प्रवेश किया है। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी है। वे अपने सखा ग्वालवालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं के लिये हरी हरी घास से युक्त एवं रंग विरेंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे आगे गौएँ, उनके पीछे पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालवाल इस प्रकार बिहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजन कर रहे थे, कहीं झुण्ड के झुण्ड हिरण चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर सुन्दर पक्षी चहक रहे थे बड़े ही सुन्दर सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था। उनके खिले हुए कमलों के सौरभ से सुभाषित होकर शीतल मन्द सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन ही मन उसमें बिहार करने का संकल्प किया।

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ललिता जी और कृष्ण की लीला

काम्यक वन में ललिता कुण्ड है जिसमें ललिता जी स्नान किया करती थी, और सदा राधा और कृष्ण को मिलन की चेष्टा करती थी। एक दिन ललिता जी बैठे-बैठे हार बनाती है और बनाकर तोड देती, हर बार यही करती फिर बनाती और फिर तोड़ देती। फिर बनाती है फिर तोड़ देती है। नारद जी उपर से ये देखते है, तो आकर ललिता से पूछते है–‘आप ये क्या कर रही हो ?’

ललिता जी कहती है–‘मै कृष्ण के लिए हार बना रही हूँ।’
नारद जी ने कहा–‘हाँ वह तो मै देख ही रहा हूँ परन्तु आप बार बार बनाती है और तोड़ देती है–ऐसा क्यों ?’
ललिता जी कहती है–‘नारद जी ! मुझे लगता है कि ये हार छोटा होगा कृष्ण को, तो मैं तोड कर दूसरा बनाती हूँ, पर फिर लगता है कि ये बडा ना हो, तो उसे भी तोड देती हूँ–इसीलिए में बार-बार बनाकर तोडती हूँ।’
नारद जी कहते है–‘इससे तो अच्छा है कि भगवान को बुला लो और उनके सामने हार बना दो।’
नारदजी भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर कहते हैं–‘आज मुझे ललिता-कृष्ण की लीला देखनी है, कृष्ण और ललिता जी को नायक-नायिका के रूप में देखना है।’ और नारदजी श्रीकृष्ण को ले आते है ललिताजी के पास। ललिता जी उनके नाप का हार बनाकर पहना देती हैं।
श्रीकृष्ण ललिता जी से कहते है–‘आओ! मेरे साथ झूले पर बैठो।’
ललिता जी कहती हैं–‘अभी राधा जी आती होगीं–वे ही बैठेगी।
श्रीकृष्ण के जिद करने पर ललिता जी बैठ जाती है, क्योंकि गोपियों का उद्देश्य भगवान का सुख है।
नारद जी दोनों को झूले में देखकर बडे प्रसन्न होते हुए जाते हैं और वहाँ से सीधे राधा जी के पास आकर उनसे सामने ही गाने लगते है–‘कृष्ण-ललिता की जय हो!, कृष्ण-ललिता की जय हो!’
राधा जी कहती हैं–‘क्या बात है नारद जी ? आज कृष्ण-ललिता जी की जय कर रहे है।’
नारद जी कहते है–‘अहा ! क्या प्यारी जोडी है, झूले में ललिता और कृष्ण की। देखकर आनन्द आ गया।’ और नारद जी वहाँ से चले जाते है।
जब राधा रानी ये बात सुनती है तो उन्हें रोष आ जाता है, और वो झट ललिता कुण्ड में आकर देखती है कि कृष्ण ललिता जी के साथ झूला झूल रहे है और सारी सखियाँ झूला झुला रही हैं। वे वहाँ से चुपचाप चली जाती हैं।
जब बहुत देर हो जाती है और राधा रानी आती नहीं हैं, तो भगवान सोचते है, कि राधा जी अभी तक क्यों नहीं आई ? वे ढूँढने जाते है, देखते है कि राधा जी अपने निकुञ्ज में मान करते हुए बैठी हैं।
श्रीकृष्ण उन्हें मनाकर लाते हैं, और वो आकर माधव के साथ झूला झूलती हैं। ललिता-विशाखा सारी सखियाँ झूलाती हैं।
राधाजी की इच्छा होती है कि भगवान मेरे साथ-साथ ललिता जी को भी बिठाए झूले पर, राधा जी का इशारा पाकर भगवान अपनी दूसरी ओर ललिता जी को बिठा लेते हैं।
अब एक ओर राधाजी बैठी हैं तो दूसरी ओर ललिताजी हैं। सभी सखियाँ झूला रही हैं। कुछ देर बाद राधारानी की इच्छा होती है–दूसरी ओर श्रीकृष्ण विशाखा को बैठाए और मैं झूला झुलाऊँ। भगवान वैसा ही करते है।
एक ओर ललिताजी को ओर दूसरी ओर विशाखाजी को बैठा लेते हैं। राधारानी उन्हें झूला झुलाती हैं।
वास्तव में लीला मात्र है। जब भगवान कृष्ण चाहते है, कि राधा जी मान करें तो राधा रानी मान की लीला करती हैं। वरना राधा जी के अन्दर मान, द्वेष का लेशमात्र भी नहीं है, कभी किसी भी सखी के प्रति द्वेष या जलन डाह नहीं है। राधा एक भाव है जो प्रेम कि पराकाष्ठा है।

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श्री प्रेम निधि जी

एक भक्त थे .प्रेम निधि उन का नाम था..सब में भगवान है ऐसा समझ कर प्रीति पूर्वक भगवान को भोग लगाए..और वो प्रसाद सभी को बाँटा करते
यमुनाजी से जल लाकर..भगवान को स्नान कराते….
यमुना जी के जल से भगवान को जल पान कराता थे..
एक सुबह सुबह बहुत जल्दी उठे प्रेम निधि…मन मैं आया कि सुबह सुबह जल पर किसी पापी की, नीगुरे आदमी की नज़र पड़ने से पहेले मैं भगवान के लिए जल भर ले आऊँ ऐसा सोचा…
अंधेरे अंधेरे में ही चले गये..लेकिन रास्ता दिखता नही था..इतने में एक लड़का मशाल लेकर आ गया..और आगे चलने लगा..प्रेम निधि ने सोचा की ये लङका भी उधर ही चल रहा है ? ये लड़का जाता है उधर ही यमुना जी है..तो इस के पिछे पिछे मशाल का फ़ायदा उठाओ..नही तो कही चला जाएगा…फिर लौटते समय देखा जाएगा..
लेकिन ऐसा नही हुआ..मशाल लेकर लड़का यमुना तक ले आया..प्रेम निधि ने यमुना जी से जल भरा..ज़्यु ही चलने लगे तो एकाएक वह लड़का फिर आ गया.. आगे आगे चलने लगा..अपनी कुटिया तक पहुँचा..तो सोचा की उस को पुछे की बेटा तू कहाँ से आया..
तो इतने में देखा की लड़का तो अंतर्धान हो गया! प्रेम निधि भगवान के प्रति प्रेम करते तो भगवान भी आवश्यकता पङनें पर उन के लिए कभी किसी रूप में कभी किसी रूप में उन का मार्ग दर्शन करने आ जाते…
लेकिन उस समय यवनों का राज्य था..हिंदू साधुओं को नीचे दिखाना और अपने मज़हब का प्रचार करना ऐसी मानसिकता वाले लोग बादशाह के पास जा कर उन्हों ने राजा को भड़काया…की प्रेम निधि के पास औरते भी बहोत आती है…बच्चे, लड़कियां , माइयां सब आते है..इस का चाल चलन ठीक नही है..
प्रेम निधि का प्रभाव बढ़ता हुआ देख कर मुल्ला मौलवियों ने , राजा के पिठ्ठुओ ने राजा को भड़काया.. राजा उन की बातों में आ कर आदेश दिया की प्रेम निधि को हाजिर करो..
उस समय प्रेम निधि भगवान को जल पिलाने के भाव
से कुछ पात्र भर रहे थे…
सिपाहियों ने कहा , ‘चलो बादशाह सलामत बुला रहे ..चलो ..जल्दी करो…’ प्रेम निधि ने कहा मुझे भगवान को जल पिला लेने दो परंतु सिपाही उन्हें जबरदस्ती पकड़ ले चले
तो भगवान को जल पिलाए बिना ही वो निकल गये..अब उन के मन में निरंतर यही खटका था की भगवान को भोग तो लगाया लेकिन जल तो नही पिलाया..ऐसा उन के मन में खटका था…
राजा के पास तो ले आए..राजा ने पुछा, ‘तुम क्यो सभी को आने देते हो?’
प्रेम निधि बोले, ‘सभी के रूप में मेरा परमात्मा है..किसी भी रूप में माई हो, भाई हो, बच्चे हो..जो भी सत्संग में आता है तो उन का पाप नाश हो जाता है..बुध्दी शुध्द होती है, मन पवित्र होता है..सब का भला होता है इसलिए मैं सब को आने देता हूँ सत्संग में..मैं कोई संन्यासी नही हूँ की स्रीयों को नही आने दूं…मेरा तो गृहस्थी जीवन है..भले ही मैं गृहस्थ हो भगवान के आश्रय में रहता हूं परंतु फिर भी गृहस्थ परंपरा में ही तो मैं जी रहा हूँ..’
बादशाह ने कहा की, ‘तुम्हारी बात तो सच्ची लगती है..लेकिन तुम काफिर हो..जब तक तुण सही हो तुम्हारायह परिचय नही मिलेगा तब तक तुम को जेल की कोठरी में बंद करने की इजाज़त देते है..’बंद कर दो इस को’
भक्त माल में कथा आगे कहेती है की प्रेम निधि तो जेल में बंद हो गये..लेकिन मन से जो आदमी गिरा है वो ही जेल में दुखी होता है..अंदर से जिस की समझ मरी है वो ज़रा ज़रा बात में दुखी होता है..जिस की समझ सही है वो दुख को तुरंत उखाड़ के फेंकने वाली बुध्दी जगा देता है..क्या हुआ? जो हुआ ठीक है..बीत
जाएगा..देखा जाएगा..ऐसा सोच कर वो दुख में दुखी नही होता…
प्रेम निधि को भगवान को जल पान कराना था..अब जेल में तो आ गया शरीर..लेकिन ठाकुर जी को जल पान कैसे कराए यहां जेल में बंद होने की चिंता बिल्कुल नहीं थी यहां तो भगवान को जल नहीं पिलाया यही दुख मन में था यही बेचैनी तड़पा रही थी?..
रात हुई… राजा को मोहमद पैगंबर साब स्वप्ने में दिखाई दिए.. बोले, ‘ बादशाह! अल्लाह को प्यास लगी है..’
‘मालिक हुकुम करो..अल्लाह कैसे पानी पियेंगे ?’
राजा ने पुछा. बोले, ‘जिस के हाथ से पानी पिए उस को तो तुम ने जेल में डाल रखा है..’
बादशाह सलामत की धड़कने बढ़ गयी…देखता है की अल्लाह ताला और मोहमाद साब बड़े नाराज़ दिखाई दे रहे…मैने जिस को जेल में बंद किया वो तो प्रेम निधि है. बस एकदम आंख खुल गई.जल्दी जल्दी प्रेम निधि को रिहा करवाया…
प्रेम निधि नहाए धोए..अब भगवान को जल पान कराते है.. राजा प्रेम निधि को देखता है…देखा की अल्लाह, मोहमद साब और प्रेम निधि के गुरु एक ही जगह पर विराज मान है!
फिर राजा को तो सत्संग का चसका लगा..ईश्वर, गुरु और मंत्र दिखते तीन है लेकिन यह तीनों एक ही सत्ता हैं..बादशाह सलामत हिंदुओं के प्रति जो नफ़रत की नज़रियाँ रखता था उस की नज़रिया बदल गयी…
प्रेम निधि महाराज का वो भक्त हो गया..सब की सूरत में परब्रम्ह परमात्मा है ..राजा साब प्रेम निधि महाराज को कुछ देते..ये ले लो..वो ले लो …तो बोले, हमें तो भगवान की रस मयी, आनंद मयी, ज्ञान मयी भक्ति चाहिए..और कुछ नही…
जो लोग संतों की निंदा करते वो उस भक्ति के रस को नही जानते..
“संत की निंदा ते बुरी सुनो जन कोई l
की इस में सब जन्म के सुकृत ही खोई ll”
जो भी सत्कर्म किया है अथवा सत्संग सुना है वो सारे पुण्य संत की निंदा करने से नष्ट होने लगते है..
संतो की जय भक्तों की जय…..
करुणानिधान प्रभु की जय…

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मन प्रिया प्रियतम में कैसे लगे?

प्र०-महाराजजी, मैं बड़ा अशान्त रहता हूँ क्योंकि मेरा चित बढ़ा चंचल है, ये कैसे एकाग्र होकर के श्रीप्रिया-प्रियतम में लगेगा ?

समाधान – हमारी श्रीजी का एक नाम है – ‘चंचलचित्त आकर्षिणी अर्थात् जो लाल जू के चंचल चित्त को आकर्षित करती हैं, फिर हम लोग तो साधारण से जीव हैं । जो लाल जू ‘मदनमोहन, विश्वमनमोहन, मुनिमनमोहन और स्वमनमोहन हैं’ – उनके मन को

मोहनता की राशि किसोरी ।

भी मोहने वाली हमारी प्यारी जू मोहिनी हैं

जे मोहन मोहत सबकी मन, बँधे बंक चितवन की डोरी ॥

श्रीवयालीस लीला

वेणुः करान् निपतितः स्खलितं शिखण्डं भ्रष्टं च पीतवसनं व्रजराजसूनोः यस्याः कटाक्षशरपातविमूर्च्छितस्य तां राधिकां परिचरामि कदा रसेन ॥

(श्रीराधासुधानिधि -३८)

श्रीप्यारीजू ने मन्द मुस्कान से, तिरछी चितवन से कटाक्ष कर दिया तो अखिललोकचूड़ामणि मदनमोहन का मुकुट खिसक गया, वंशी गिर गयी, पीताम्बर गिर गया और सरकार बेसुध हो गए । हम सब लोग उन स्वामिनीजू के शरणागत हैं तो हमारा मन कितनी चंचलता करेगा, उसे आकर्षित होना ही पड़ेगा । सोचो, समष्टि मन के अधिष्ठातृ स्वयं श्रीलालजू महाराज हैं,

उनके मन को आकर्षित करने वाली मनमोहिनी प्यारी जू हैं, यदि हम उनके गोरे चरणारविन्द का आश्रय ले लें तो मन की चंचलता सदा सदा के लिए खत्म हो जायेगी, मन पंगु हो जाएगा अरे, ह आपकी बात जाने दो, श्रीलालजू का मन पंगु हो जाता श्रीहितसजनीजू कह रही हैं.

देखी माई अबला कैं बल रासि । अति गज मत्त निरंकुश मोहन, निरखि बँधे लट पाशि ॥ अब हीं पंगु भई मन की गति, बिनु उद्दिम अनियास । तब की कहा कहौं जब पिय प्रति, चाहत भृकुटि विलास ॥

(श्रीहितचतुरासी ५३)

हमारी प्यारी जू सिंहासन पर विराजमान थीं, श्रीलालजू निकुँज में पधार रहे थे उसी समय एक लट निकलकर प्यारी जू के कपोल पर आ गयी अत्यंत मदमत्त गज के समान निरंकुश मनमोहन अर्थात् जो सर्वेश्वर हैं, अखिललोकचूड़ामणि हैं, वे ऐसे प्रभु इनके सुंदर मुख पर लटकी हुई घुँघराले बालों की एक लट के दर्शन मात्र से उसके फंदे में बँध गये ।

श्री प्रियाजू के दर्शनमात्र से आरम्भ में ही श्रीलालजू के मन की गति बिना किसी उद्यम के ही पंगु हो गई अर्थात् लाल जू प्यारी जू की उस रूप माधरी को देखकर के शिथिल हो गए

हे सखि ! इनकी तो अभी ये हालत हो गयी और हाय! तब क्या होगा, जब प्यारी जू मंद-मंद मुस्कुराते हुए, प्यार भरी दृष्टि से लाल की ओर देखेंगी ?

अतः ऐसी श्रीकिशोरीजू के श्रीचरणों का आश्रय लेने के बाद मन से कह दो कि जा आज तुझे मुक्त करता हूँ, भाग ले जितना भाग पाये अब प्यारी जू अपने कृपा पाश से बाँधकर के सदा-सदा के लिए इस मन को पंगु कर देंगी।

हे प्यारी जू ! मैं बलहीन हूँ या मुझ अबला की आप ही बल हो । बस इतना हृदय में दीनता पूर्वक आ जाय तो जो वस्तु बड़ी बड़ी साधनाओं से प्राप्त नहीं होती, वह इससे प्राप्त हो जायेगी. जय श्रीरूपलाल हित हाथ बिकानी, निधि पाई मनमानी ।

मेरे बल श्रीवृन्दावनरानी ।

चंचल मन को वश में करने का दूसरा उपाय

श्रीहितधुवदासजी बता रहे हैं

मन तो चंचल सबनि तें, कीजै कौन उपाइ

साधन कौं हरि भजन है, कै सतसंग सहाइ ॥

प्रधान साधना है श्रीप्रिया प्रियतम का स्मरण और सहायक है सत्संग । यदि संतों के सत्संग को मनन करते हुए सुनें तो उससे बहुत लाभ होगा। निरंतर नाम जपने का अभ्यास और सत्संग ये निश्चित आपके मन को एकाग्र कर देंगे और प्रियालाल के चरणारविन्द में लगा देंगे।

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प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं

सात-आठ साल की एक लड़की अपने से दो-तीन साल छोटे एक बच्चे को गोद में उठाकर कहीं जा रही थी। लड़की कमजोर और दुबली-पतली थी जबकि उसकी गोद में जो बच्चा था वह काफी हृष्ट-पुष्ट था। इसके बावजूद लड़की तेजी से चली जा रही थी। एक राहगीर ने जब यह देखा तो उसने उत्सुकतावश लड़की से पूछा, ‘बेटा, इतना बोझ उठा कर भी तुम इतनी तेजी से कैसे चल लेती हो?’ ‘बोझ? नहीं यह तो मेरा भाई है।’, लड़की ने राहगीर को एक झटके में जवाब दिया और बिना रुके वह उसी रफ्तार में अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई।
इस घटना से आश्चर्य हो सकता है कि एक कमजोर और दुबली-पतली लड़की कैसे अपने जितना या अपने से ज्यादा बोझ उठा लेती है। कारण स्पष्ट है, लड़की अपने भाई को बहुत प्यार करती है। इसलिए उसका भाई उसके लिए बोझ नहीं लगता है। इस प्रसंग से कई चीजें स्पष्ट होती हैं।
जिस व्यक्ति, वस्तु या प्राणी को हम मन से चाहते हैं, जिसे प्यार करते हैं, जिसे अपना मानते हैं वह हमें बोझ नहीं लगता। जब कोई अपने लक्ष्य से प्यार करने लगता है तो उसे अपनी परेशानी नजर नहीं आती है। इसके विपरीत प्यार के अभाव में यह संसार हमारे लिए बोझ बना रहता है और इसी से हमारा जीवन भी कष्टमय हो जाता है। अपनेपन से किया गया हर कार्य हमें प्रसन्नता प्रदान करने में सक्षम होता है। बेगार या भार समझकर काम करने से आसान काम भी मुश्किल लगने लगता है और उसमें उत्कृष्टता नहीं आ पाती।
व्यक्ति ही नहीं, कार्य से भी हमें प्रेम करना सीखना चाहिए। हमें जीवनयापन के लिए कोई न कोई नौकरी, कला, व्यवसाय अवश्य अपनाना पड़ता है। अपनी नौकरी, कार्य या व्यवसाय से प्यार करना सीख लीजिए । जीवन में खुश रहने, आनंद पाने के लिए अथवा अपनी अर्जित प्रतिभा का सही इस्तेमाल करने के लिए अपनी पसंद की नौकरी, कार्य या व्यवसाय का चुनाव करना ही श्रेयस्कर होता है, लेकिन यह हमेशा संभव नहीं हो पाता और रुचि के अभाव में हम कार्य में आनंद नहीं ले पाते। ऐसे में किया जाने वाला कार्य ही नहीं, अक्सर पूरा जीवन बोझ लगने लगता है। जीवन से प्रसन्नता दूर होती चली जाती है।
जीवन को आनंदमय बनाने के लिए पहले तो यही जरूरी है कि हमें जो भी कार्य करना पड़ रहा है, उस कार्य में दक्षता व कुशलता प्राप्त करने की कोशिश की जाए। जो चीजें हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं उनसे घृणा करना अथवा उनकी उपेक्षा करना छोड़कर उनसे प्यार करना शुरू कर दीजिए।
दूसरे, उपरोक्त प्रसंग में लड़की अपने भाई को रोज उठाती है और तब से उठा रही थी जब वह बिल्कुल छोटा और हल्का था। उस लड़की की तरह जब हम किसी क्रिया को बार-बार दोहराते हैं तो वह क्रिया न केवल हमारे लिए अत्यंत सरल हो जाती है बल्कि इससे हमारी कार्य करने की क्षमता में भी वृद्धि होने लगती है।
तीसरे यदि कोई कार्य हमें नहीं आता लेकिन उस कार्य में विशेष दक्षता अथवा प्रवीणता हासिल करनी है तो उसे प्रारंभ से ही सीखना शुरू कर दीजिए। काम कितना ही कठिन और बड़ा क्यों न हो निरंतर अभ्यास करते-करते वह सरल व सुगम बन जाता है। अभ्यास के साथ-साथ क्षमता में वृद्धि होने लगेगी और कार्य से प्यार भी होने लगेगा, इसमें संदेह नहीं।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 113

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 113)

!! “प्रेम – रस” – श्रीधाम वृन्दावन !!

तात ! चिन्मय वृन्दावन है ये ……प्रत्येक ऋतु यहाँ का आनन्द प्रदान करनें वाला है …………वर्षा के बाद अब आया है शरद ऋतु ।

यमुना का जल निर्मल हुआ अत्यन्त निर्मल ………वृक्ष ऐसे लग रहे हैं जैसे स्नान करके तैयार हो गए हों ………पृथ्वी ने हरे हरे दूब की मानों चादर ओढ़ ली हो …….कमल खिले हैं उसकी सुगन्ध चारों ओर बह रही है……..आपको पता है तात ! स्वयं कमला ( लक्ष्मी ) नें आकर वृन्दावन में कमल उगाये हैं ……….और वहाँ वहाँ उगाये हैं जहाँ से उनके पति श्रीकृष्ण चन्द्र गुजरेंगे …….आहा !

वायु सुरभित बह रही है …………..

ये तो हुयी वृन्दावन की बात …….अब सुनो इस वृन्दावन में रहनें वाली गोपियों की भाव दशा ! उद्धव नें कहा ।

प्रातः से ही प्रतीक्षा में बैठ जाती हैं अपनें अपनें घरों के द्वार पर …….

कि हमारा कन्हैया अब यहाँ से गौचारण के लिये गुजरेगा ।

तात ! क्या प्रेममयी दृष्टि है इन गोपियों की !…….उद्धव बता रहे हैं ।

इनकी दृष्टि में जड़ और चेतन जैसा कुछ नही है……सब कुछ प्रेममय है ……….सब कुछ भावमय है ……….भाव का ही उल्लास है …..प्रेम का ही विलास है……..यही दृष्टि तो है इन गोपियों की …….प्रेम दृढ़ और गाढ़ है, …….तभी इन गोपियों को पर्वत भी प्रसन्न दिखाई देते हैं ……..यमुना ठहरी हुयी लगती है……….वृक्ष और लताएँ झूमनें लग जाते हैं ….पक्षियों का अद्भुत गान शुरू हो जाता है………मोर का नृत्य सबका मन मोह लेता है……………..

ये ध्यान है तात ! उद्धव नें अपनी बात बीच में रोककर कहा ।

कैसे ? विदुर जी पूछते हैं…….उद्धव मुस्कुराते हुए बोले –

प्रातः दर्शन किये गोपियों नें उन गौचारण में जाते हुए कन्हैया के ।

मोर मुकुट धारण किये हुए हैं …….नट के समान भेष है उनका ……..कानों में कनेर के पुष्पों को खोंस लिया है ……..दिव्य बैजयन्ती की माला है………अधरों में बांसुरी है ……….पीताम्बरी फहर रही है ….आहा ! क्या दिव्य रूप माधुरी है ………इसी रूप माधुरी का पान तो अपनें नेत्रों से गोपियों करती रहती हैं ।

क्या प्रेम में पौरुष का कोई स्थान नही है ? विदुर जी नें पूछा ।

तात ! आप नीति वाले हैं……नैतिकता का मापदण्ड लेकर चलते हैं …ये कहते हुए उद्धव हँसे ।

उद्धव ! मेरा प्रश्न है ये…तुम बताओ , क्या प्रेम में पुरुषार्थ नही होता ?

क्यों नही है तात ! प्रेम में ही तो असली पुरुषार्थ है ……….क्या जिससे प्रेम होता है ….उससे मिलनेँ का प्रयास नही होता ? वह प्रयास चाहे लौकिक हो या अलौकिक ……..क्या फ़र्क पड़ता है ?

प्रेम करनें वाले देवताओं को भी मनाते हैं…….और स्वयं भी धूप ताप वर्षा सबका सामना करते हुये……प्रेमी कहीं भी हो उसके पास जाते हैं ।

और अगर जाना असक्य हो ……तो मन तो प्रियतम के पास होता ही है ………..यही ध्यान है । ……….उद्धव नें कहा । .

परिवार में रहते हुए भी पूर्ण गृहस्थी होते हुए भी …….ये गोपियाँ सदैव कन्हैया के ही चिन्तन ध्यान में लगी रहती हैं ………..सदैव !

इनका मन उनके ही पास है ………नही नही …..इनका मन ही कन्हैया बन चुका है ……………ऐसी स्थिति कोई साधारण तो नही है !

ये है प्रेम रस …….जो एक मात्र श्रीधाम वृन्दावन में ही छलक रहा है ।

और फिर कहूँ तात ! सच्चा पुरुषार्थ और अन्तिम – प्रेम ही है ।

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केशी घाट

केशी घाट- भ्रमर घाट के निकट केशी घाट स्थित है। इस स्थान पर भगवान् श्रीकृष्ण ने केशी दैत्य का वध किया था।

श्रीकेशी दैत्य की मुक्ति

केशीदैत्य प्राचीन काल में श्रीइन्द्र के छत्र धारण करने वाला एक अनुचर था। उसका नाम कुमुद था, इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध करने से ब्रह्म हत्या पाप में लिखू हुए इस पाप से मुक्त होने के लिये इन्द्र ने एक अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के शुभ अश्व पर आरोहण के लिए कुमुद को इच्छा हुई। उसने घोड़े पर जब आरोहण करने की चेष्टा की तब दूसरे अनुचरों ने उसे देख लिया। वे कुमुद को पकड़ कर इन्द्र के पास ले गये। इन्द्र ने समस्त विवरण सुन क्रोध में कुमुद को अभिशाप दिया कि- “रे दुष्ट! तु राक्षस बन जा एवं अश्व रूप धारण करके मृत्युलोक में गमन कर। उसी अभिशाप से कुमुद ब्रज क्षेत्र में आगमन कर मयदानव के पुत्र केशी नाम से जन्म लेकर कंस का अनुचर बना कंस ने श्रीकृष्ण को हत्या के लिए केशी को वृन्दावन भेजा। केशीदैत्य ने विशाल अश्व का रूप धारण कर मथुरा से वृन्दावन को आगमन किया। उस दैत्य ने श्रीकृष्ण को देख पीछे के पैरों द्वारा आघात् करने को कोशिश की। तभी श्रीकृष्ण ने क्रोध से उसके दोनों पैरों को पकड़ घुमाया और ४०० हाथ दूर फेंक दिया। केशीदैत्य दोबारा उठकर क्रोध में मुहें फाड़कर श्रीकृष्ण की तरफ बढ़ने लगा। श्रीकृष्ण ने हँसते हँसते उसके मुँह में अपना बायां हाथ घुसा दिया। श्रीकृष्ण के हाथों के अति तप्त लौह सङ्कुश स्पर्श से (बराबर) केशी के सारे दाँत नष्ट हो गये एवं श्रीकृष्ण का हाथ बढ़ने लगा और अन्त में इससे केशीदैत्य का मुँह विदीर्ण हो उसके प्राण पखेरू उड़ गये। केशी के प्राण भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो गये।

तथाहि आदिवाराह वचन गंगा शत गुणं पुण्यं यत्र केशी निपतितः ।

तत्रापि च विशेषोऽस्त केशी तीर्थ वसुन्धरे ।

तस्मिन् पिण्ड प्रदानेन गया-पिण्ड फलं लभेत् ।।

जहाँ केशी दैत्य ने प्राण त्यागे थे वह स्थान गंगा से भी शतगुण श्रेष्ठ है। उस स्थान पर पिण्ड दान करने से गया पिण्ड दान करने का फल प्राप्त होता है। इस घाट के निकट प्राणगौर नित्यानन्द मन्दिर, श्रीमुरारीमोहन कुञ्ज, श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी की दन्त समाधि मन्दिर इत्यादि दर्शनीय है।

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अपने पुत्र को विष देने वाली दो भक्तिमती नारियाँ

१. पहली कथा : एक राजा बड़ा भक्त था । उसके यहाँ बहुत से साधु-सन्त आते रहते थे । राजा उनकी प्रेम से सेवा करता था । एक बार एक महान संत अपने साथियों समेत पधारे । राजा का सत्संग के कारण संतो से बडा प्रेम हो गया । वे सन्त राजा के यहाँ से नित्य ही चलने के लिये तैयार होते, परंतु राजा एक-न-एक बात ( उत्सव आदि) कहकर प्रार्थना करके उन्हे रोक लेता और कहता क्रि प्रभो ! आज रुक जाइये, कल चले जाइयेगा । इस प्रकार उनको एक वर्ष और कुछ मास बीत गये । एक दिन उन सन्तो ने निश्चय कर लिया कि अब यहां रुके हुए बहुत समय बीत गया ,कल हम अवश्य ही चले जायेंगे । राजाके रोकनेपर किसी भी प्रकर से नही रुकेंगे । यह जानकर राजा की आशा टूट गयी, वह इस प्रकार व्याकुल हुआ कि उसका शरीर छूटने लगा । रानी ने राजा से पूछकर सब जान लिया कि राजा सन्त वियोग से जीवित न रहेगा । तब उसने संतो को रोकने के लिये एक विचित्र उपाय किया । रानी ने अपने ही पुत्र को विष दे दिया; क्योकि सन्त तो स्वतन्त्र है, इन्हे कैसे रोककर रखा जाय ?

इसका और कोई उपाय नही है ,यही एक उपाय है । प्रात: काल होने से पहले ही रानी रो उठी, अन्य दासियाँ भी रोने लगी, राजपुत्र के मरने की बात फैल गयी । राजमहल मे कोलाहल मच गया । संत तो दया के सागर है, दुसरो के दुख से द्रवित हो जाते है । सन्तो ने सुना तो शीघ्र ही राजभवन मे प्रवेश किया और जाकर बालक को देखा । उसका शरीर विष के प्रभाव से नीला पड़ गया था, जो इस बातका साक्षी था कि बालक को विष दिया गया है । महात्माजी सिद्ध थे , उन्होने रानी से पूछा कि सत्य कहो, तुमने यह क्या किया ? रानी ने कहा – आप निश्चय ही चले जाना चाहते थे और हमारे नेत्रों को आपके दर्शनों की अभिलाषा है । आपको रोकने के लिये ही यह उपाय किया गया है ।

राजा और रानीकी संतो के चरणों मे ऐसी अद्भुत भक्ति को देखकर वे महात्मा जोरसे रोने लगे । संतो में राजा रानी की ऐसी प्रीति है कि केवल संतो को रोकने के लिए अपने पुत्र को ही विष दे दिया । संत जी का कण्ठ गद्गद हो गया, उन्हें भक्ति की इस विलक्षण रीति से भारी सुख हुआ । इसके बाद महात्माजी ने भगवान के गुणों का वर्णन किया और हरिनाम के प्रताप से सहज ही बालक को जीवित कर दिया । उन्हे वह स्थान अत्यन्त प्रिय लगा । अपने साथियों को- जो जाना चाहते थे, उन्हें विदा कर दिया और जो प्रेमरस मे मग्न संतजन थे, वे उनके साथ ही रह गये । इस घटना के बाद महात्माजी ने राजा से कहा कि अब यदि हमे आप मारकर भी भगायेंगे तो भी हम यहांसे न जायंगे ।


२. दूसरी कथा : महाराष्ट्र के राजा महीपतिराव जी परम भक्त थे । उनकी कन्या कन्हाड़ के राजा रामराय के साथ ब्याही थी, लेकिन घरके सभी लोग महा अभक्त थे । भक्तिमय वातावरण मे पलने वाली उस राजपुत्री का मन घबडाने लगा । अन्त मे जब उसे कोई उपाय नही सूझा तो उसने अपनी एक दासी से कह दिया कि इस नगर मे जब कभी भगवान के प्यारे संत आये तो मुझे बताना ।

एक दिन दैवयोग से उस नगर मे संतो की ( संत श्री ज्ञानदेवजी की) जमात आयी । उनके आनेका समाचार दासी ने उस राजपुत्री को दिया । अब उस भक्ता से सन्त अदर्शन कैसे सहन होता । उसने अपने पुत्र को विष दे दिया । वह मर गया, अब वह राजकन्या तथा दूसरे घरके लोग रोने तथा विलाप करने लगे । तब उस भक्ता ने व्याकुल होकर उन लोगों से कहा कि अब इसके जीवित होने का एक ही उपाय है, यदि वह किया जाय तो पुत्र अवश्य जीवित हो सकता है । वह चाहती थी कि किसी तरह संत जान यहां पधारे और इन अभक्त लोगो को संतो का महात्म्या पता लगे । रोते-रोते परिवार के सब लोगो ने कहा – जो भी उपाय बताओगी, उसे हम करेंगे । तब उस बाई ने कहा कि संतो को बुला लाइये ।

उन अभक्त लोगों ने पूछा कि सन्त कैसे होते है ? इसपर भक्ता ने कहा कि यह मेरे पिता के घर जो दासी साथ आई है , यह मेरे पिता के घर मे सन्तो को देख चुकी है । यह सब जानती हैंकि संत कैसे होते है, कहाँ मिलेंगे आदि सब बातों को यह बताएगी । पूछनेपर दासी ने कहा कि आज इस नगर मे कुछ सन्त पधारे है और अमुक स्थानपर ठहरे है । वह दासी राजा को साथ लेकर चली और सन्तो से बोलना सिखा दिया । दासी ने राजा से कहा कि संतो को देखते ही पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनके चरणों को पकड लीजियेगा । राजा ने दासी के कथनानुसार ही कार्य

किया । शोकवश राजा की आँखो से आँसुओं की धारा बह रही थी, परंतु उस समय ऐसा लगा कि मानो ये सन्त प्रेमवश रो रहे है । सहज विश्वासी और कोमल हृदय उन सन्तो ने भी विश्वास किया कि ये लोग प्रेम से रुदन कर रहे है । राजाने प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरे घर पधारकर उसे पवित्र कीजिये । राजा की विनती स्वीकारकर सन्तजन प्रसन्नतापूर्वक उसके साथ चले । दासी ने आगे ही आकर भक्ता रानी को साधुओं के शुभागमन की सूचना दे दी । वह रानी पौरी मे आकर खडी हो गयी । संतो को देखते ही वह उनके चरणों मे गिर पडी और प्रेमवश गद्गद हो गयी । आँखों मे आँसू भरकर धीरे से बोली – आप लोग मेरे पिता-माता को जानते ही होंगे, क्योंकि वे बड़े सन्तसेवी है । आपलोगों का दर्शन पाकर आज ऐसा मन मे आता है कि अपने प्राणों को आपके श्रीचरणों मे न्यौछावर कर दूँ । संतो ने पहचान लिया कि यह भक्त राजा महिपतिराव जी की पुत्री है।

उस भक्ता रानी की अति विशेष प्रीति देखकर सन्तजन अति प्रसन्न हो गये और बोले कि तुमने जो प्रतिज्ञा क्री है, वह पूरी होगी । राजमहल मे जाकर सन्तो ने मरे हुए बालक को देखकर जान लिया कि इसे निश्चय ही विष दिया गया है । उन्होंने भगवान का चरणामृत उसके मुख मे डाला । वह बालक तुरंत जीवित हो गया । इस विलक्षण चमत्कार को देखते ही राजा एवं उसके परिवार के सभी लोग जो भक्ति से विमुख थे, सभी ने सन्तो के चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की कि हमलोग आपकी शरण मे है । संतो का सामर्थ्य क्या है यह उन सब को पता लग गया । बार बार चरणों मे गिरकर प्रार्थना की तब सन्तो ने उन सभी को दीक्षा देकर शिष्य बनाया । जो लोग पहले यह तक नही जानते थे कि संत कैसे होते है- कैसे दिखते है ,उन लोगों ने वैष्णव बनकर सन्तो की ऐसे विलक्षण सेवा करना आरम्भ कर दिया, जिसे देखकर लोग प्रेमविभोर हो जाते थे।

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“झूलन लीला”

श्रावण का प्रिय मास है। आकाश में काली घटाएँ छायी हुयी हैं। बिजली कड़क रही है। बादल भी जोर-जोर से गर्जना कर रहे हैं। रिमझिम फुहारों की शीतलता शरीर को आनन्दित कर रही हैं। चम्पा, चमेली, मोगरा, मालती आदि पुष्पों की सुगन्ध हवा में फैली हुयी है। कोयल कुहू कुहू की मीठी तान छेड़ रही हैं। सरोवरों में हंस अठखेलियाँ कर रहे है। दादुर, मोर, पपीहे की आवाजों से सारा ब्रज क्षेत्र आनन्दित हो रहा है।
ऐसे सुखद वातावरण में ललिता सखी ने अपनी अन्य सखियों–विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, सुदेवी, चम्पकलता, रंगदेवी और तुंगविद्या आदि को बुला लिया। आज के सुहावने मौसम को और भी अधिक मधुर बनाने के लिये ये सखियाँ अपने वाद्य-यन्त्र भी साथ लायी हैं। वन में जाकर जब सखियों ने देखा कि कृष्ण अकेले ही कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी वादन कर रहे हैं तो वे तुरन्त ही बृषभानु भवन जा पहुँची और श्रीराधाजी को वन में ले जाने के लिये कहने लगीं। सखियों ने श्रीराधाजी को कुसुंभी रंग की साड़ी पहनायी और नख से सिर तक उनका फूलों से श्रृंगार किया और चल पड़ी अपने प्रियतम स्याम सुंदर से मिलने। जैसे कोई नदी सागर में मिलने को आतुर होती है उसी प्रकार श्रीराधा अपने प्रियतम स्याम सुंदर के अंक में समा जाने को आतर हो रही थीं।
रिमझिम बरसती फुहारों के बीच इन सखियों ने यमुना तट के पास के कुँज में एक दिव्य झूले का निर्माण किया। सखियों के आमन्त्रण पर श्रीराधा कृष्ण उस झूले पर विराजमान हो गये। ढोल, मृदंग आदि की थाप पर सखियाँ श्रीराधा कृष्ण को झूला झुलाने लगीं।
श्रीराधा माधव की इस माधुरी लीला से सारा वन क्षेत्र जीवन्त हो उठा। कोयल कूकने लगीं, मयूर नृत्य करने लगे, हिरन कुलाँचे मारने लगे। जिसने भी इस दिव्य आनन्द का दर्शन किया उसका जीवन धन्य हो गया।

हिंडोरे झूलत स्यामा-स्याम।
नव नट-नागर, नवल नागरी, सुंदर सुषमा-धाम।।
सावन मास घटा घन छाई, रिमझिम बरसत मेह।
दामिनी दमकत, चमकत गोरी बढ़त नित्य नव नेह।
हँसत-हँसावत रस बरसावत सखी-सहचरी-बृंद।
उमग्यौ आनँद-सिंन्धु, मगन भए दोऊ आनँद-कंद।।
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श्री निवासाचार्य जी-वृन्दावन


(कालावधि-1518-1603)

श्रीनिवासाचार्य जी, गौरांग महाप्रभु के प्रेम की मूर्ति थे। बंगदेश के चाकन्दी ग्राम में इनका जन्म हुआ। अल्प आयु में ही इन्होंने ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया। इनका पांडित्य सबके हृदय को आकर्षित कर लेता। श्री गोपाल भट्ट जी सदगुरुदेव हुए और जीव गोस्वामी जी ने इन्हें भक्ति शास्त्रों का अध्ययन कराया। गुरु आज्ञा से बंगाल क्षेत्र में प्रचुर गौड़ीय भक्ति का प्रचार किया। एक बार मानसी सेवा में होली लीला का आस्वादन कर रहे थे और ध्यान टूटने पर देखा कि सारे वस्त्र रंगे हुए हैं।

बंगदेश गंगातटवर्ती चाकंदी ग्रामवासी श्री गंगाधर भट्टाचार्य जी का चैतन्य महाप्रभु जी के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। महाप्रभुजी के सन्यास ग्रहण के समय चैतन्य-चैतन्य पुकारते हुए विक्षप्त दशा को प्राप्त हो गए। तब से लोग इन्हें चैतन्य दास पुकारने लगे। पूर्णस्वस्थ होने पर एक दिन श्रीजगन्नाथ पुरी की ओर पत्नी के साथ प्रस्थान किया। पूरी पहुँचकर महाप्रभु जी का दर्शन किया। रात्रि में जगन्नाथ भगवान ने स्वपन दिया – तुम घर चले जाओ। शीघ्र ही तुम्हारे एक सर्वांग सुंदर पुत्र होगा। जो प्रेम और पांडित्य से तुम्हारे कुल को धन्य करेगा। प्रातकाल महाप्रभु जी को प्रणाम करके आशीर्वाद प्राप्त करके वापस ग्राम आ गए। कुछ समय पश्चात अचल जगन्नाथ और सचल जगन्नाथ की कृपया से सन 1518 को वैशाखी पूर्णिमा के दिन लक्ष्मी प्रिया देवी के गर्भ से परम् रूपवान पुत्र का जन्म हुआ। इसी पुत्र का नाम हुआ श्रीनिवास। गौर नाम श्रवण करके अति प्रसन्न हो जाते थे। अपने मधुर स्वर से गौर-गौर का उच्चारण कर नृत्य करने लगते।
जब यह 5 वर्ष के हुए तो पिता जी ने चांकन्दी के महामहोपाध्याय धनंजय वाचस्पति को पढ़ाने लिखाने का भार सौपा। गुरमुख से जो श्रवण कर लेते तुरंत कंठ हो जाता। मेघा शक्ति के अति धनी थे। कुछ ही समय में व्याकरण, दर्शन आदि संपूर्ण शास्त्रों में निष्णात हो गए। संपूर्ण वैष्णव समाज में उनके पांडित्य की चर्चा होने लगी।
एक दिन पूरी में महाप्रभु जी ने कीर्तन करते हुए अचानक श्रीनिवास- श्रीनिवास उच्चारण किया। भक्तों ने कारण पूछा तो महाप्रभु जी बोले मेरे विशुद्ध प्रेम की मूर्ति श्री निवास का चाकंदी ग्राम में आविर्भाव होगा। इसलिए सभी गौर प्रेमी अब श्रीनिवास जी के पास आने जाने लगे।
कर्णानद के अनुसार वृंदावन के गोविंद देव ने गोस्वामी गणों से कहा था। मेरी शक्ति से मेरे प्रेम का ही श्रीनिवास के रूप में अविर्भाव हुआ है।

मोर शक्ति ते जन्म इहार करिला प्रकाश।
प्रेम रुपे जन्म हैल नाम श्रीनिवास॥

एक दिन अकस्मात पिताजी का निकुंज वास हो गया। ह्रदय में अत्यंत वेदना हुई क्योंकि गौर- लीला रसस्वादन के साथी थे। माँ विलाप कर रही थी। श्रीनिवास जी ने अब पुरी में महाप्रभु के दर्शन के लिए जाने का विचार किया। मां से आज्ञा ली, इच्छा ना होते हुए भी माँ ने आज्ञा प्रदान की। गौर प्रेम में अश्रु प्रवाहित करते हुए, बाह्य ज्ञान शून्य नीलाचल के पथ पर चले जा रहे हैं। मार्ग में अचानक किसी ने महाप्रभु जी के अंतर्ध्यान का समाचार सुनाया तो मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
महा प्रभु जी की कृपा हुई स्वपन में बोले – तुम नीलाचल चले जाओ। गदाधर आदि परिक्रमा वहाँ है। मुझे तुम्हारे द्वारा बहुत कार्य कराने हैं। श्रीनिवास जी प्रातः जी उठकर नीलाचल की ओर चल पड़े। कई दिनों के पश्चात पूरी पहुँचे। जगन्नाथ जी का दर्शन किया। जगन्नाथ जी की छद्ध रूप से प्रसाद का थाल दे गये, प्रसाद पाकर प्रभु की कृपा का अनुभव किया। फिर श्री गदाधर जी से मुलाकात की। श्री गदाधर जी ने इन्हें राय रामानंद जी और सार्वभौम जी के पास दर्शन कराने ले गए। गौर – विरह में निमग्न दोनों ने धैर्य धारण करके महाप्रभु जी की कुछ चर्चा की। इस प्रकार गौर- प्रेमियों के दर्शन एवं गौर -चर्चा मैं दिन बीतने लगा।
एक दिन गदाधर जी से भागवत पढ़ाने की प्रार्थना की तो गदाधर बोले – मेरी इच्छा बहुत थी तुम्हें भागवत पढ़ाने की लेकिन महाप्रभु जी के अश्रु जल से भागवत के कुछ अक्षर मिट गए हैं। इसलिए तुम वृंदावन जाकर जीव से भागवत अध्यन करो। कई दिनों की यात्रा के पश्चात भूखे-प्यासे श्रीनिवास जी मथुरा पहुंचे। यहां सूचना प्राप्त हुई के रूप, सनातन और रघुनाथ भट्ट जी का निकुंज प्रवेश हो गया। अत्यंत दुखी हुए और अर्ध वाह्य दशा में वृंदावन के गोविंद देव जी मंदिर में आकर गिर पड़े। जीव गोस्वामी जी दर्शन को पधारे तो देखा कि मंदिर में भीड़ है। वहाँ जाकर सभी को हटाया। अद्भुत दृश्य सामने था। श्रीनिवास जी के वपु में अष्ट सात्विक भाव, अश्रु, कम्प, पुलक रोमांच आदि प्रकट हो रहे थे। जीव गोस्वामी जी पहचान गए कि यह श्रीनिवास है। उनको उठा कर कुटिया में लाए। दो पहर बीतने पर वाह्य ज्ञान हुआ। जीव जी को प्रणाम किया। गोविंद देव जी का प्रसाद पवाया बगल वाली कुटिया में विश्राम करने को कहा।
दूसरे दिन जीव गोस्वामी जी गोपाल भट्ट जी के पास ले गए। और उनके द्वारा श्रीनिवास जी को दीक्षा दिलवा दी। श्रीनिवास ने गुरु सेवा को सर्वस मानकर अंग -सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया। शीघ्र ही कविराज आदि संतो के दर्शन करा लाए। अब वृंदावन में गुरु सेवा करते हुए श्री निवास जी जप, ध्यान, कीर्तन आदि दैनिक कृत्य करने लगे और जीव गोस्वामी जी के पास शास्त्र अध्ययन आरंभ किया। लीला स्मरण में श्रीनिवास का असाधारण अभिनिवेश देख श्री गोपाल भट्ट जी बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन लीला ध्यान में श्रीनिवास जी सुगंधित तेल, माला, चंदनादि से महाप्रभु जी की सेवा करके उनके पास खड़े होकर चँवर डुला रहे थे। उसी समय महाप्रभु जी के इशारे करने से दूसरे सेवक ने महाप्रभु जी के गले से माला उतारकर श्रीनिवास जी को पहना दी। ध्यान भंग होने पर देखा कि वही माला गले में पड़ी थी।
एक दिन बसंत के अवसर पर ब्रज लीला का ध्यान कर रहे थे। वहाँ होली लीला चल रही थी। अचानक किशोरी जी के हाथ का गुलाल शेष हो गया तो उसी समय मंजरी स्वरूप में श्रीनिवास जी ने गुलाल लाकर श्री किशोरी जी को दिया। ध्यान भंग हुआ तो देखा कि सारे वस्त्र होली के रंग से रंगे हुए हैं।
श्रीनिवास जी का ध्यान में तीव्र अनुराग था। थोड़े ही समय में यह श्रीमद्भागवत और भक्ति शास्त्रों में पारंगत हो गए और जीव गोस्वामी के द्वारा आचार्य ठाकुर की उपाधि प्राप्त की। श्री नरोत्तम ठाकुर, श्री श्यामानन्द प्रभु दोनों श्रीनिवास जी के सहपाठी थे। जीव गोस्वामी जी की बहुत इच्छा थी कि जिन भक्ति ग्रंथों की रचना श्री रूप जी, श्री सनातन जी, और स्वयं ने की है उन का प्रचार गौड़ देश में भली-भांति हो। जीव जी ने सभी भक्तों एवं संतों के मत से श्रीनिवास आचार्य जी को भक्ति के प्रचार के लिए भेजने का निश्चय किया। और नरोत्तम जी एवं श्यामानंद जी को उनकी सहायता के लिए सारे ग्रंथों को एक बड़े काठ के संदूक में बंद किया और दस शास्त्र धारी रक्षको को साथ करके दो बैल गाड़ी में बिठा कर विदा किया। गौड़ देश की सीमा के भीतर गोपालपुर ग्राम में विश्राम किया। अचानक एक लुटेरों का दिल आया और मारपीट कर बैलगाड़ी सहित ग्रंथों के संदूक को लेकर अदृश्य हो गए। प्रातः काल तीनो ने बहुत खोजा लेकिन कुछ पता ना चला। एक प्रहरी के हाथ ग्रन्थों की चोरी की सूचना जीव गोस्वामी जी को भेजी और नरोत्तम एवं श्यामानन्द जी ने कहा- तुम गौड़ देश जाकर भक्ति का प्रचार करो।
श्रीनिवासाचार्य जी ग्रंथों की खोज में पागल की भांति इधर-उधर भटकते रहे। विष्णुपुर राज्य में कृष्ण बल्लभ नाम के एक ब्राह्मण से मुलाकात हुई। वो इन्हें पाठ सुनने के लिए राज्य के राजा वीरहाम्वीर की सभा में ले गया। व्यास चक्रवती नामक एक ब्राहमण राजा को नित्य भागवत सुनाया करते थे। आज रास पंचाध्यायी का पाठ था। और वक्ता महाशय सिद्धांत विरुद्ध व्याख्या कर रहे थे। तब श्रीनिवासाचार्य जी ने प्रतिवाद कर के अद्भुभुत रसपूर्ण व्याख्या की। राजा अत्यंत प्रभावित हुआ। राजा ने उन्हें कुछ दिन रुकने का आग्रह करके एक निर्जन स्थान में वास दे दिया। श्रीनिवास जी ने विचार किया कि राजा से ग्रन्थ चोरी की बात कहूँ जो शायद ग्रंथ को खोजने में मेरी मदद कर दे। दूसरे दिन कथा के विश्राम के बाद राजा निवासाचार्य जी को अपने कक्ष में ले गया और परिचय पूछा। श्रीनिवास जी ने संपूर्ण बात कह दी। ग्रंथ चोरी की बात सुनकर राजा रोने लगा और बोला- महाराज! डाकुओं का सरदार मैं ही हूँ। मैं राजा होते हुए भी अपने सैनिकों को लूटने के लिए भेजता हूँ। आपके सारे ग्रंथ मेरे पास है। मैं आपका अपराधी हूँ। आप दंड दे या क्षमा करें। ऐसा कहकर फूट- फूट कर रोने लगा। श्री निवास जी ग्रंथ प्राप्ति की बात सुनकर अति प्रसन्न हुए और राजा का हृदय से लगा लिया।
अगले दिन श्रीनिवास जी ने राजा आदि अनेक परिकरो को अपना शिष्य बनाया, और ग्रंथ प्राप्ति का संदेश वृंदावन जीव गोस्वामी जी को और खेतुरी के निकट गोपालपुर नरोत्तम जी एवं श्यामानंद जी को भेजा। दोनों अत्यंत प्रसन्न हुए और आनन्द में नृत्य करने लगे। अब श्रीनिवासाचार्य जी ग्रंथों को लेकर अपनी मां के पास याजिग्राम पहुँचे। माँ अपने पुत्र को देखकर आनन्द में डूब गई। याजिग्राम में श्रीनिवास जी ने एक विद्यालय की स्थापना की अध्यापन का कार्य प्रारंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात श्रीनिवास जी का श्री गोपाल चक्रवर्ती की सुपुत्री द्रोपदी नाम की कन्या के साथ विवाह संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात द्रोपदी का नाम ईश्वरी ठकुरानी रखा। एक दिन श्रीनिवास घर के निकट वृक्ष के नीचे सत्संग कर रहे थे। एक युवक विवाह करके अपनी पत्नी को पालकी में विदा करा कर ला रहा था। श्रीनिवास ने उसे देखा और बोल पड़े- देखो! यह नवयुवक रूपवान और तेजस्वी है। लेकिन इसका यौवन प्रभु सेवा में न लगकर कामिनी सेवा में लगेगा। यह वचन उस युवक के कान में पड़ गए। बस तुरंत वह श्रीनिवास जी के चरणों में गिर पड़ा, और हमेशा के लिए दीक्षा लेकर सेवा में ही रह गया। महापुरुषो की दृष्टि पड़ते ही जीव का कल्याण हो जाता है।
श्री नरोत्तम ठाकुर के आग्रह पर श्रीनिवास जी एक महीने खेतुरी ग्राम पधारे। वहाँ बहुत विशाल उत्सव हुआ। दोल पूर्णिमा के दिन छय विग्रहों की धूम धाम से प्रतिष्ठा हुई। खूब संकीर्तन की धूम मची।
श्रीनिवास जी का दूसरा विवाह गोपालपुर ग्राम के राघव चक्रवर्ती की सुपुत्री श्री पद्मावती के साथ शुभ मुहूर्त में हुआ। विवाह के पश्चात पद्मावती जी का नाम हुआ गौरांग प्रिया। श्रीनिवास जी के तीन पुत्र एवं तीन कन्या हुईं।
एक बार श्रीनिवास जी विष्णु पुर ग्राम में लीला स्मरण कर रहे थे। लीला- स्मरण में मणि मंजरी स्वरूप से लीला के गंभीरतम प्रदेश में प्रवेश कर गए। शरीर निश्चल हो गया, श्वास बंद हो गया। दो दिन तक यही स्थिति रही, सभी घबरा गए सभी विचार करने लगे क्या करें ? उसी समय खेतुरी ग्राम से रामचंद्र जी आ गए और बोले — आप घबराइए मत, सब ठीक हो जाएगा। रामचंद्र जी श्रीनिवास जी के पास बैठकर ध्यान मग्न हो गए। करुणा मंजरी स्वरूप से लीला में प्रवेश कर के देखा कि अन्य मंजरियां यमुना जल के भीतर कुछ खोज रही है। पूछा तो पता चला कि किशोरी जी की बेसर खोज रही है। और जलक्रीडा करते समय गिर गई थी। यह भी खोजने लगे तो कमल पत्र के नीचे बेसर मिल गई। तुरंत गुरुदेव को प्रदान की। गुरुदेव ने गुण मंजरी (गोपाल भट्ट), गुण मंजरी ने रूप मंजरी (रूप गोस्वामी) को रुप मंजरी ने श्री जी को प्रदान की। किशोरी जी ने प्रसन्न होकर करुणा मंजरी को अपना चार्बित ताम्बूल देकर पुरस्कृत किया। उसी समय श्रीनिवास जी की समाधि टूट गई। रामचंद्र जी के हाथ में प्रसादी तांबूल देखकर सभी आश्चर्यचकित हुए। सबको कणिका प्रसाद प्राप्त हुआ। जीव का यही वास्तविक स्वरुप है। रामचंद्र जी खेतुरी में नरोत्तम दास जी के पास थे। एक दिन श्रीनिवास जी ने पत्र द्वारा रामचंद्र जी को शीघ्र याजि ग्राम आने का संदेश भेजा। पत्र पाते ही रामचंद्र जी गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर नरोत्तम ठाकुर से आज्ञा मांगी। दोनों हृदय से मिले क्योंकि अब यह अंतिम मिलन था। नरोत्तम ठाकुर बोले- मैं उस घड़ी की प्रतीक्षा करूँगा, जिस में हमारा मिलन पुनः होगा। रामचंद्र जी वहाँ से चल कर याजि ग्राम श्रीनिवास जी के पास आ गए। आकर गुरुदेव चरणों में प्रणाम किया। दो दिन बाद दोनों गुरु शिष्य श्री वृंदावन धाम प्रस्थान किया।
श्री वृंदावन धाम आने के पश्चात श्रीनिवास जी वापिस कहीं नहीं गए। श्रीराम चंद्रजी निरंतर गुरु सेवा में निरत रहते। सन 1603 कार्तिक शुक्ल अष्टमी को श्रीनिवास जी अपने निज स्वरूप मणि मंजरी रूप में श्यामा-श्याम के नृत्य लीला में प्रवेश कर गए। सन 1612 कार्तिक कृष्ण अष्टमी को रामचंद्रजी ने गुरुदेव के पथ का अनुसरण किया। श्री धाम वृंदावन में गोपेश्वर महादेव के निकट श्रीनिवास जी एवं श्री रामचंद्र जी दोनों की समाधि विराजमान हैं। श्री धाम वृंदावन वास करने का यही फल है कि इसी रज में रज होकर मिल जाए।

तजिकै वृंदाविपिन कौ, अन्य तीरथ जे जात।
छाडि विमल चिंतामणि, कौड़ी को ललचात्॥
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स्रोत: ‘ब्रज भक्तमाल’

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वृंदावन रस निरंतर कैसे मिलता रहे ?

प्र० महाराज श्री अभी मैं करीब १० वर्ष से वृन्दावन वास कर रहा हैं लेकिन अब वह आनंद प्राप्त नहीं होता है जो प्रारम्भ में वृन्दावन को देखकर एक नवीन उत्साह और आनंद की अनुभूति होती थी, इसका क्या कारण है ?

समाधान : वह आनंद कम नहीं हुआ है, जैसे कोई नया व्यक्ति भांग खाए तो उस पर ज्यादा रंग चढ़ता है और जब दो-चार महीने बराबर खाता रहे तो फिर उतने डोज (खुराक) से काम नहीं चलता, भांग का डोज बढ़ाना पड़ता है तब रंग चढ़ता है, अब थोड़ी खुराक से काम नहीं चलेगा । ऐसे ही जब कोई संसार का त्रितापदग्ध थका हुआ जीव नया-नया वृन्दावन आता है तो परम रसमय वृन्दावन के संयोग से उसके मन को परम आनंद की अनुभूति होती है। अब जैसे-जैसे हम यहाँ रहने लगे तो अब हमारी यहाँ खुराक बढ़ गयी । अब जब हमारा वृन्दावन के प्रति चिन्दानंदमय भाव बढ़े तब हमें आनंद की अनुभूति होगी । ये न

समझा जाए कि हमारा भाव कम हो गया है, पर अब हमें उतने में तसल्ली होने वाली नहीं है; अब और खुराक बढ़ायी जाए ‘नाम-जप, वाणी-पाठ, सत्संग आदि’ ।

वृन्दावन धाम के वास से आपके हृदय में आनंद को हजम करने की ताकत बढ़ गयी अब थोड़े आनंद से काम नहीं चलेगा और आनंद चाहिए। जैसे नया साधक थोड़े में ही आनन्दित जाता है, पर जब वह भजन करता है तो उसके हृदय में जलन है क्योंकि अब उसका काम उतने आनंद में नहीं चलेगा, अब और आनंद की अनुभूति हो साधक की उत्तरोत्तर हजम करने की ताकत बढ़ती चली जाती है । जब साधक सत्संग के द्वारा ये बात नहीं समझता है तो उसको लगता है कि हमारा भजन घट रहा है, हमारा आनंद कम हो रहा है और वह विकल होकर अपने मार्ग से इधर उधर भटकने लगता है, इसलिए भटकने की जरूरत नहीं है ।

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श्री राधा रानी के नाम की महिमा


श्री राधा रानी के नाम की महिमा अनंत है। श्री राधा नाम को कोई मन्त्र नही है ये स्वयं में ही महा मन्त्र है। श्री राधारानी के नाम का इतना प्रभाव की सभी देवता और यहाँ तक की भगवान भी राधा जी को भी भजते है, जपते है। आपने कभी किसी भगवान को किसी महाशक्ति के पैर दबाते हुए देखता है। पर साक्षात भगवान श्री कृष्ण जी राधा रानी के चरणो में लोट लगते है। आइये किशोरी जी के नाम की महिमा को जानिए।

श्री राधे रानी बरसाने वाली है। सभी कहते है-

राधे, राधे, राधे , बरसाने वारी राधे।
क्योंकि श्री राधारानी साक्षात कृपा करने वाले है। वो गरजने वाली नही है। क्योंकि जो गरजते है वो बरसते नहीं। लेकिन हमारी प्यारी राधारानी बरसाने वारी है। वो बस अपनी कृपा भक्तों पर बरसाती रहती है। ब्रजमंडल की जो अधिष्ठात्री देवी हैं,वो हमारी श्यामा जी श्री राधा रानी हैं! आप जानते हो श्री राधारानी के नाम का जो आश्रय लेते है उसके आगे भगवन विष्णु सुदर्शन चक्र लेके चलते है। और पीछे भगवान शिव जी त्रिशूल लेके चलते है। जिसके दांये स्वयं इंद्र वज्र लेके चलते है और बाएं वरुण देवता छत्र लेके चलते है। ऐसा प्रभाव है हमारी प्यारी श्री राधारानी के नाम का। बस एक बार उनके नाम का आश्रय ले लीजिये। और उन पर सब छोड़ दीजिये। वो जरूर कृपा करेंगी।
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राधा रानी कृपा

राधे राधे जपते रहिये दिन और रात। गुरुदेव एक सीधा सा अर्थ बताते है श्री राधा नाम का- राह-दे । जो आपको रास्ता दिखाए वही वो हमारी श्री राधारानी है।

राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है। उनका सब कुछ श्रीकृष्ण को समर्पित है, लेकिन वे बदले में उनसे कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं। राधा हमेशा श्रीकृष्ण को आनंद देने के लिए उद्यत रहती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब सर्वस्व-समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन हो जाता है, तभी वह राधा-भाव ग्रहण कर पाता है। इसलिए कृष्णप्रेमरूपीगिरिराज का शिखर है राधाभाव। तभी तो श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने के लिए हर कोई राधारानीका आश्रय लेता है।

महाभावस्वरूपात्वंकृष्णप्रियावरीयसी।
प्रेमभक्तिप्रदेदेवि राधिकेत्वांनमाम्यहम्॥

जब वृन्दावन की महिमा गाई जाती है सबसे पहले यही बात आती है की राधा रानी के पग पग में प्रयाग बसता है।

श्री राधारानी के पग पग पर प्रयाग जहाँ, केशव की केलि-कुञ्ज, कोटि-कोटि काशी है।
यमुना में जगन्नाथ, रेणुका में रामेश्वर, तरु-तरु पे पड़े रहत अयोध्या निवासी हैं।
गोपिन के द्वार पर हरिद्वार बसत जहाँ बद्री, केदारनाथ , फिरत दास-दासी हैं।
तो स्वर्ग, अपवर्ग हमें लेकर करेंगे क्या, जान लो हमें हम वृन्दावन वासी हैं।
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राधा साध्यं, साधनं यस्य राधा |
मन्त्रो राधा, मन्त्रदात्री च राधा |
सर्वं राधा, जीवनं यस्य राधा |
राधा राधा वाचितां यस्य शेषं |

भूमि तत्व जल तत्व अग्नि तत्व पवन तत्व,
ब्रह्म तत्व व्योम तत्व विष्णु तत्व भोरी है।
सनकादिक सिद्ध तत्व आनंद प्रसिद्ध तत्व,
नारद सुरेश तत्व शिव तत्व गोरी है ॥
प्रेमी कहे नाग किन्नरका तत्व देख्यो,
शेष और महेश तत्व नेति-नेति जोरी है ।
तत्वन के तत्व जग जीवन श्रीकृष्ण चन्द्र,
कृष्ण हू को तत्व वृषभानु की किशोरी है।

हे राधे करुणामयी शुललिते हे कृष्ण चिंतामणि
हे श्री रास रसेश्वरी शुविमले वृन्दावनाधिश्वरि |
कान्ते कांति प्रदायनी मधुमयी मोदप्रदे माधवी
भक्तानंद समस्तसाख्य सरिते श्री राधिके पातु मां ||

“राधे तू बड़भागिनी , कौन तपस्या कीन्ह ।
तीन लोक तारन तरन , सो तेरे आधीन ॥ “


ब्रम्हवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने और श्रीराधा के अभेद का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि श्रीराधा के कृपा कटाक्ष के बिना किसी को मेरे प्रेम की उपलब्धि ही नहीं हो सकती। वास्तव में श्रीराधा कृष्ण एक ही देह हैं। श्रीकृष्ण की प्राप्ति और मोक्ष दोनों श्रीराधाजी की कृपा दृष्टि पर ही निभ्रर हैं।

श्री राधा नाम की महिमा का स्वयं श्री कृष्ण ने इस प्रकार गान किया है-“जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’ अक्षर सुन लेता हूँ, उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदान कर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे दौड़(धावति) लगा देता हूँ” ब्रज के रसिक संत श्री किशोरी अली जी ने इस भाव को प्रकट किया है।

आधौ नाम तारिहै राधा।

‘र’ के कहत रोग सब मिटिहैं, ‘ध’ के कहत मिटै सब बाधा॥

राधा राधा नाम की महिमा, गावत वेद पुराण अगाधा।

अलि किशोरी रटौ निरंतर, वेगहि लग जाय भाव समाधा॥

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श्री राधा रानी कौन है |

स्कंद पुराण के अनुसार राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें ‘राधारमण’ कहकर पुकारते हैं।

पद्म पुराण में ‘परमानंद’ रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है। इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता।
यदि श्रीकृष्ण के साथ से राधा को हटा दिया जाए तो श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व माधुर्यहीन हो जाता। राधा के ही कारण श्रीकृष्ण रासेश्वर हैं। भगवान श्री कृष्ण के नाम से पहले हमेशा भगवती राधा का नाम लिया जाता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति राधा का नाम नहीं लेता है सिर्फ कृष्ण-कृष्ण रटता रहता है वह उसी प्रकार अपना समय नष्ट करता है जैसे कोई रेत पर बैठकर मछली पकड़ने का प्रयास करता है।

वन्दौं राधा के परम पावन पद अरविन्द।
जिनको मृदु मकरन्द नित चाहत स्याम मिलिन्द।।


श्रीमद् देवीभाग्वत् नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि जो भक्त राधा का नाम लेता है भगवान श्री कृष्ण सिर्फ उसी की पुकार सुनते हैं। इसलिए कृष्ण को पुकारना है तो राधा को पहले बुलाओ। जहां श्री भगवती राधा होंगी वहां कृष्ण खुद ही चले आएंगे।
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भगवान कृष्ण को कौन पसंद है?
पुराणों के अनुसार भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि राधा उनकी आत्मा है। वह राधा में और राधा उनमें बसती है। कृष्ण को पसंद है कि लोग भले ही उनका नाम नहीं लें लेकिन राधा का नाम जपते रहें।

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रावल ग्राम

भाद्रपदमास की कृष्णपक्ष की अष्टमी ‘श्रीकृष्णजन्माष्टमी’ और भाद्रपदमास की शुक्लपक्ष की अष्टमी ’श्रीराधाष्टमी’ के नाम से जानी जाती है।

कृष्ण के ह्रदय में निवास करने वाली राधारानी बरसाना में पली-बढ़ी थीं,लेकिन उनका जन्‍म यहां से कुछ किमी दूर # रावल गांव में हुआ था जहां आज भी राधा-कृष्ण पेड़ के रूप में मौजूद हैं।
श्रीराधा का ननिहाल रावलग्राम में था। रक्षाबंधन के पर्व पर श्रीराधा की गर्भवती मां कीर्तिरानी अपने भाई को राखी बांधने आईं। राधाष्टमी के एक दिन पहले बरसाने के राजा वृषभानुजी अपनी पत्नी को लिवाने आए। प्रात: यमुनास्नान करते समय भगवान की लीला से कीर्तिरानी के गर्भ का तेज निकलकर यमुना किनारे बढ़ने लगा और यमुनाजी के जल में नवविकसित कमल के केसर के मध्य एक परम सुन्दरी बालिका में परिणत हो गया।

वही पर आज रावल मंदिर का गर्भ गृह है पूरे ब्रज मंडल में ये एक ही मंदिर है जहां घुटुरूनी चलत बाल्य राधारानी के दर्शन मिलते है

हर साल श्री राधाष्टमी यहां बहुत बड़े पैमाने पर मनाया जाता है

रावल गांव में स्थापित राधारानी के मंदिर के ठीक सामने एक प्राचीन बगीचा है यहां पर एक साथ दो पेड़ उसी मुद्रा में हैं जैसे राधा कृष्ण साथ खड़े होते हैं एक पेड़ श्‍वेत है तो दूसरा श्‍याम रंग का। राधा और कृष्‍ण पेड़ स्‍वरूप में आज भी यहां से यमुना जी को निहारते हैं।

वृषभानुजी उस बालिका को अपने साथ ले आए और अपनी पत्नी को लेकर बरसाना आ गए।

बरसाने में खबर फैल गई कि कीर्तिदा ने एक सुन्दर बालिका को जन्म दिया है। वृषभानुभवन में वेदपाठ आरम्भ हो गया, राजद्वार पर मंगल-कलश सजाए गए। शहनाई, नौबत, भेरी, नगाड़े बजने लगे।
श्रीराधा के जन्म का समाचार सुनकर व्रजवासी, जामा, पीताम्बरी, पटका पहनकर सिरपर दूध, दही और माखन से भरी मटकियाँ लेकर गाते-बजाते वृषभानुभवन पहुँच गए और राजा वृषभानु को बधाइयाँ देने लगे। तान भर-भर कर सोहिले गायी जाने लगीं। राजा वृषभानु के ऊंचे पर्वत पर बने महल के जगमोहन में श्रीराधा के पालने के दर्शन हो रहे थे। आँगन में बैठे गोप और बारहद्वारी में बैठी महिलाएँ सुरीले गीत गा रहीं थीं।
राजा वृषभानु ने श्रीराधा के झूलने के लिए चंदन की लकड़ी का पालना बनवाया जिसमें सोने-चांदी के पत्र और जवाहरात लगे थे। पालने में श्रीजी के झूलने के स्थान को नीलमणि से बने मोरों की बेलों से सजाया गया था।
नवजात बालिका श्रीराधा का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ अत: मूलशान्ति के लिए दिव्य औषधियों, वन की औषधियों, सर्वोषधि आदि से स्नान कराकर गाय के दूध, दही, घी, इत्र व सुगन्धित जल से अभिषेक किया गया और फिर सुन्दर श्रृंगार धारण कराकर दुग्धपान कराया गया।
गोपियाँ दही बरसा रही हैं और गोप दही-दूध-घी, नवनीत, हरिद्राचूर्ण, केसर तथा इत्र-फुलेल का घोल (दधिकांदा) बनाकर व्रजवासियों के ऊपर उड़ेल रहे हैं। प्रेममग्न व्रजवासियों के हृदय में जो राधारस भरा था वह मूर्तिमान होकर सबके मुख से निकल रहा है–

राधा रानी ने जन्म लियौ है।
सब सुखदानी ने जनम लियौ है॥
भानु दुलारी ने जनम लियौ है।
कीर्ति कुमारी ने जनम लियौ है॥
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“लालिहारण लीला”

एक समय की बात है, जब किशोरी जी को यह पता चला कि कृष्ण पूरे गोकुल में माखन चोर कहलाता है तो उन्हें बहुत बुरा लगा उन्होंने कृष्ण को चोरी छोड़ देने का बहुत आग्रह किया। पर जब ठाकुर अपनी माँ की नहीं सुनते तो अपनी प्रियतमा की कहाँ से सुनते। उन्होंने माखन चोरी की अपनी लीला को जारी रखा। एक दिन राधा रानी ठाकुर को सबक सिखाने के लिए उनसे रूठ गयीं। अनेक दिन बीत गए पर वो कृष्ण से मिलने नहीं आईं। जब कृष्णा उन्हें मनाने गया तो वहाँ भी उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। तो अपनी राधा को मनाने के लिए इस लीलाधर को एक लीला सूझी।
ब्रज में लील्या गोदने वाली स्त्री को लालिहारण कहा जाता है। तो कृष्ण घूंघट ओढ़ कर एक लालिहारण का भेष बनाकर बरसाने की गलियों में पुकार करते हुए घूमने लगे। जब वो बरसाने, राधा रानी की ऊँची अटरिया के नीचे आये तो आवाज देने लगे।

मैं दूर गाँव से आई हूँ, देख तुम्हारी ऊँची अटारी,
दीदार की मैं प्यासी, दर्शन दो वृषभानु दुलारी॥
हाथ जोड़ विनंती करूँ, अर्ज मान लो हमारी,
आपकी गलिन गुहार करूँ, लील्या गुदवा लो प्यारी॥

जब किशोरी जी ने यह आवाज सुनी तो तुरन्त विशाखा सखी को भेजा और उस लालिहारण को बुलाने के लिए कहा। घूंघट में अपने मुँह को छिपाते हुए कृष्ण किशोरी जी के सामने पहुँचे और उनका हाथ पकड़ कर बोले कि कहो सुकुमारी, तुम्हारे हाथ पे किसका नाम लिखूँ। तो किशोरी जी ने उत्तर दिया कि केवल हाथ पर नहीं मुझे तो पूरे श्री अंग पर लील्या गुदवाना है और क्या लिखवाना है, किशोरी जी बता रही हैं।

माथे पे मदन मोहन, पलकों पे पीताम्बर धारी,
नासिका पे नटवर, कपोलों पे कृष्ण मुरारी,
अधरों पे अच्युत, गर्दन पे गोवर्धन धारी,
कानो में केशव, भृकुटी पे चार भुजा धारी,
छाती पे छलिया, और कमर पे कन्हैया,
जंघाओं पे जनार्दन, उदर पे ऊखल बंधैया,
गालों पर ग्वाल, नाभि पे नाग नथैया,
बाहों पे लिख बनवारी, हथेली पे हलधर के भैया,
नखों पे लिख नारायण, पैरों पे जग पालनहारी,
चरणों में चोर चित का, मन में मोर मुकुट धारी,
नैनो में तू गोद दे, नंदनंदन की सूरत प्यारी,
और रोम रोम पे लिख दे मेरे, रसिया रास बिहारी॥

जब ठाकुर जी ने सुना कि राधा अपने रोम रोम पर मेरा नाम लिखवाना चाहती है, तो खुशी से बौरा गए प्रभू, उन्हें अपनी सुध न रही, वो भूल गए कि वो एक लालिहारण के वेश में बरसाने के महल में राधा के सामने ही बैठे हैं। वो खड़े होकर जोर-जोर से नाचने लगे। उनके इस व्यवहार से किशोरी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ की इस लालिहारण को क्या हो गया। और तभी उनका घूंघट गिर गया और ललिता सखी को उनकी साँवरी सूरत का दर्शन हो गया और वो जोर से बोल उठी कि “अरे ! ये तो बांके बिहारी ही है।” अपने प्रेम के इजहार पर किशोरी जी बहुत लज्जित हो गयीं और अब उनके पास कन्हैया को क्षमा करने के अलावा कोई रास्ता न था। ठाकुरजी भी किशोरी का अपने प्रति अपार प्रेम जानकर गदगद् और भाव विभोर हो गए।
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सबके प्रति भगवद्भाव नही बने तो क्या करें?

प्रo – महाराज जी, आप कहते हैं सबमें भगवान् के दर्शन करो पर व्यवहार में कुछ ऐसे भी लोग मिलते हैं कि जिनके प्रति भगवद्भाव बन ही नहीं पाता है, अतः हम क्या करें ?

समाधान – अनुकूलता में तो सबको भगवद् बुद्धि करने में सहजता होती है लेकिन प्रतिकूलता में भगवद्-बुद्धि हो जाना इसी बात की साधना करनी है । अगर हम प्रतिकूलता में भगवद्भाव कर गए तो पास हो जायेंगे । जब कोई हमसे मधुर व्यवहार करता है तो उसमें भगवान् को देखना सहज है लेकिन जब आकर हमें कोई गाली दे, धक्का मारे तो वहाँ भगवद्भाव करना कठिन होता है, यहीं तो परीक्षा होती है उपासक की इसीलिये हमें प्रत्येक स्थिति में भगवद्भाव करना ही है

ये क्रूरा अपि पापिनो न च सतां सम्भाष्यदृश्याश्च ये ।

सर्वान् वस्तुतया निरीक्ष्य परमस्वाराध्यबुद्धिर्मम ॥

(श्रीराधासुधानिधि २६४)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ ( गीता ५/१८)

‘ज्ञानीजन विद्या और विनम्रता से सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय हाथी कुत्ता चाण्डाल आदि में समदर्शी होते हैं अर्थात सर्वत्र तत्त्व रूप से प्रभु को ही देखते हैं ।’

पर एक बात की सावधानी रखनी है कि उपासक को व्यवहार सबसे नहीं करना है । ‘समदर्शन’ करना है लेकिन समवर्तन नहीं करना है हम गाय कुत्ता चांडाल ब्राह्मण सभी में भगवद्भाव रखें लेकिन समवर्तन अर्थात् व्यवहार एक समान नहीं करें। यदि व्यवहार सबके साथ समान करोगे तो पतन हो जाएगा क्योंकि कोई सिद्ध पुरुष तो अभी हो नहीं । इसलिए भगवान् ने ‘समदर्शिनः’ कहा है ‘समवर्तिनः’ नहीं ।

सबके साथ समान व्यवहार हो भी नहीं सकता है। जैसे चार स्त्रियाँ हैं- ‘माँ-बहन – पत्नी और बेटी’, चारों में समान भगवद्भाव हम कर सकते हैं लेकिन चारों से व्यवहार समान नहीं कर सकते व्यवहार अलग-अलग यथोचित ढंग से ही करना पड़ेगा । इसी तरह शरीर यद्यपि हमारा ही है हमको शरीर के सभी अंग बराबर प्रिय हैं लेकिन जब अधो अंगों का स्पर्श हो जाता है तो हम हाथ धुलते हैं। तो व्यवहार एक जैसा नहीं हो सकता है इसलिए व्यवहार में विषमता होती है अभी कोई दुष्ट आकर के भगवान्, गुरु या भक्तों की निंदा करे तो भगवद्भाव तो हम उसमें भी रखेंगे लेकिन व्यवहार उसके साथ वैसा ही करेंगे । अतः व्यवहार में समदर्शिता नहीं होती है। व्यवहार में भेद होना आवश्यक है, शास्त्राज्ञानुसार ही व्यवहार हो लेकिन तात्त्विक दर्शन अभेद हो । कहीं भी शरीर में अगर चोट लगती है तो हम समान रूप से उसका इलाज कराते हैं, वहाँ भेद नहीं करते हैं। भगवान् स्वयं भी व्यवहार में भेद करते हैं.

समदरसी मोहि कह सब कोऊ सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ (गी. (२९)

‘मैं सब प्राणियों में समभाव से व्यापक हूँ, न ही मेरा कोई अप्रिय है और न ही प्रिय है, किन्तु जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें और मैं उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’

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श्री कृष्ण और गणेश जी की बाल लीला

जिस दिन कान्हा खडे हुए मैया के सब मनोरथ पूर्ण हुये आज मैया ने गणपति की सवा मनि लगायी है। रात भर बैठ लडडू तैयार किये सुबह कान्हा को ले मन्दिर गयी पूजा करने बैठी और कान्हा को उपदेश देने लगी।

कान्हा! ये जय जय का भोग बनाया है पूजा करने पर ही खाना होगा। सुन कान्हा ने सिर को हिलाया है। ये कह मैया जैसे ही जाने को मुडी इतने मे ही गनेश जी की सूंड उठी उसने एक लडडू उठाया है कान्हा को भोग लगाया है।

कान्हा मूँह चलाने लगे जैसे ही मैया ने मुडकर देखा गुस्से से आग बबूला हुई क्यों रे लाला?

मना करने पर भी क्यों लडडू खाया है इतना सब्र भी ना रख पाया है मैया मैने नही खाया ये तो गनेश जी ने मुझे खिलाया रोते कान्हा बोल उठे।

*सुन मैया डपटने लगी वाह रे! अब तक तो ऐसा हुआ नही इतनी उम्र बीत गयी कभी गनेश जी ने मुझको तो कोई ऐसा फ़ल दिया नही अगर सच मे ऐसा हुआ है तो अपने गनेश से कहो एक लडडू मेरे सामने तुम्हे खिलायें। नही तो लाला आज बहुत मै मारूँगी झूठ भी अब बोलने लगा है । अभी से कहाँ से ये लच्छन लिया है।
सुन मैया की बातें कान्हा ने जान लिया मैया सच मे नाराज हुई कन्हैया रोते हुये कहने लगे।

गनेश जी एक लडडू और खिला दो नही तो मैया मुझे मारेगी।*
इतना सुनते ही गनेश जी की सूंड ने एक लडडू और उठाया और कान्हा को भोग लगाया।
इतना देख मैया गश खाकर गिर गयी और ये तो कान्हा पर बाजी उल्टी पड गयी।
झट भगवान ने रूप बदल माता को उठाया मूँह पर पानी छिडका होश मे आ मैया कहने लगी ।

आज बडा अचरज देखा लाला गनेश जी ने तुमको लडडू खिलाया है। सुन कान्हा हँस कर कहने लगे मैया मेरी तू बडी भोली है।

तूने जरूर कोई स्वप्न देखा होगा इतना कह कान्हा ने मूँह खोल दिया अब तो वहां कुछ ना पाया।

भोली यशोदा ने जो कान्हा ने कहा उसे ही सच माना नित्य नयी नयी लीलाएं करते हैं। मैया का मन मोहते हैं मैया का प्रेम पाने को ही तो धरती पर अवतरित होते हैं ।।

हरी बोल

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फुलवारी कुण्ड और साहसी कुण्ड

फुलवारी कुण्ड – मुक्ता कुण्डके पास ही फुलवारी कुण्ड घने कदम्बके वृक्षोंके बीचमें स्थित है।

प्रसंग – कभी श्रीराधाजी सखियोंके साथ यहाँ पुष्प चयन कर रही थीं। अकस्मात् कृष्णने आकर कहा- तुम कौन हो? प्रतिदिन मेरे बगीचे के पुष्पोंकी चोरी करती हो। इतना सुनते ही श्रीमती राधिकाजीने डपटते हुए उत्तर दिया मुझे नहीं जानते, मैं कौन हूँ? यह सुनते ही कृष्ण अपने अधरॉपर मुरली रखकर बजाते हुए अपने मधुर कटाक्षोंसे राधाजीकी तरफ देखकर चलते बने। कृष्णको जाते देखकर राधिकाजी विरहमें कातर होकर मूर्च्छित हो गई। ललिताजीने सोचा इसे किसी काले भुजंगने से लिया है। बहुत कुछ प्रयत्न करनेपर भी जब वे चैतन्य नहीं हुईं, तो सभी सखियाँ बहुत चिन्तित हो गई। इतनेमें कृष्णने ही सपेरेके देशमें अपने मन्त्र तन्त्रके द्वारा उन्हें झाड़ा तथा श्रीमतीजीके कानमें बोले- मैं आय गयो, देखो तो सही ।’ यह सुनना था कि श्रीमती राधिकाजी तुरन्त उठकर बैठ गयीं तथा कृष्णको पास ही देखकर मुस्कराने लगीं। फिर तो सखियोंमें आनन्दका समुद्र उमड़ पड़ा। यह लीला यहीं हुई थी।


साहसी कुण्ड – फुलवारी कुण्डसे थोड़ी ही दूर पूर्व दिशामें विलास वट और उसके पूर्व में साहसी कुण्ड है। यहाँ सखियों राधिकाजीको ढाढ़स बंधाती हुई उनका कृष्णसे मिलन कराती थीं पास ही वटवृक्षपर सुन्दर झूला डालकर सखियाँ श्रीराधा और कृष्णको मल्हार आदि रागोंमें गायन करती हुई झुलाती थीं। कभी-कभी कृष्ण वहीं राधिकाके साथ मिलनेके लिए अभिसारकर उनके साथ विलास भी करते थे।

इस साहसी कुण्डका नामान्तर सारसी कुण्ड भी है। कृष्ण और बलदेव सदैव एक साथ रहते, एक साथ खाते, एक साथ खेलते और एक साथ सोते भी थे। एक समय यहाँपर दोनों भाई खेल रहे थे। यशोदा मैया दोनोंको झूलती हुई यहाँ आई और बड़े प्यारसे उन दोनोंको सारसका जोड़ा कहकर सम्बोधन किया। तबसे इस कुण्डका नाम सारस कुण्ड हो गया।

इसके पास ही अगल बगलमें श्यामपीपरी कुण्ड, बट कदम्ब और क्यारी

बट कुण्ड आदि बहुतसे कुण्ड हैं। यहाँ वट वृक्षोंकी क्यारी थी।

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श्यामांगी कवियित्री

एकबार श्यामसुन्दर श्यामांगी कवियित्री का वेश धरकर श्री राधारानी से मिलने पहुँचे। कवियित्री वेश में श्यामसुन्दर बोले– ‘हे गुणनिधे! आप सकल कला पारङ्गत हो आपकी प्रशंसा सुनकर मैं दूर मथुरा से आई हूँ। उज्जयिनी के परम विद्वान से मैंने काव्यशास्त्र का अध्ययन किया है। मेरे श्री गुरुदेव भी मुझसे सदा प्रसन्न रहते हैं, परन्तु मेरे मनमे एक ग्लानि है।’
श्री राधारानी ने कहा– ‘कहो क्या ग्लानि है।’
श्यामांगी कवियित्री बोली– ‘रानी! मुझे केवल एक ही ग्लानि है, मेरे काव्यशात्र को यथार्थ में समझे ऐसा कोई मुझे आजतक मिला नही। मैंने आपकी कीर्ति सुनी है, रस शास्त्र में, भाषा शास्त्र में, आप बेजोड़ हैं। बस अपनी कुछ रचनाएं सुनाना चाहती हूँ।’
राधारानी ने मुस्कुराकर अनुमति दे दी। तब कवियित्री वेश धारी श्यामसुन्दर ने अद्भुत रस सिक्त कविता सरिता से सभी को आप्लुत कर दिया। एक तो कविता की अपूर्व रचना, तिस पर विषय माधुर्य सिंधु श्री राधा श्यामसुन्दर का अपूर्व केली विलास।
कविताओं को सुनकर सखियों में सात्विक भाव उदय हो गए। हिरणियाँ अपने पतियों के संग स्तम्भित हो श्यामसुन्दर की वाणी सुधा का पान करने लगीं। यमुना जी की गति स्तम्भित हो गई। कोकिलायें, भ्रमर ऐसे शांत हो गए मानो वे भी श्यामसुन्दर के मुख से केली विलास वर्णन सुन रहे हों। राधारानी भी विलासानन्द के स्मरण से अतिशय आनन्द में डूब गयीं।
जब राधारानी को थोड़ा चेत होते ही उन्हें शंका हुई कि ये कवियित्री निकुञ्ज विलास का वर्णन कैसे कर रही है ? ये रहस्य तो केवल श्यामसुन्दर जानते हैं। ललिता भी ये रहस्य नही जानती। रूप रति जानती हैं, पर वो किसी अनजानी स्त्री से कहेंगी नही। फिर इसे कैसे पता ? ध्यान से राधारानी ने उनके श्यामल अंगों को देखा, और देखते ही पहचान गयीं कि ये स्वयं श्यामसुन्दर ही हैं।
राधारानी बोली– ‘हे कवियित्री! तुम्हारी कला से हम सब अत्यन्त प्रसन्न हैं। हम तुम्हें एक प्रशस्ति पत्र देना चाहती हैं।’
यह कहकर उन्होंने एक कमल पत्र में अपनी उंगली को कलम बनाकर, अपने मस्तक कुमकुम की स्याही बनाकर लिखा– ‘प्रियतम श्याम! राधा आज आपको कवि अलंकार* की उपाधि देती है। परन्तु साथ में एक नाम भी देती है, ‘छल कला पण्डित’।’
ऐसा लिखकर श्रीराधा ने उस पर अपने लीला कमल की छाप लगा दी, फिर चुपचाप अपनी ही वेणी माला से उस पत्र को बांध दिया।
श्रीराधा बोली– ‘हे प्रिय कवियित्री! यह प्रशस्ति पत्र मैंने तुम्हेंं दिया। परन्तु यहाँ नही अपने गृह जाकर खोलना।’
श्यामसुन्दर प्रसन्न हो गए कि प्रिया जी ने कम-से-कम आज तो उन्हें नही ही पहचाना। आनन्द तो तब आएगा जब कल उनसे कहूँगा– ‘वाहः री तुम सबकी चतुराई तुम सब कल मुझे पहचान न पायीं।’ हाय! ललिता का मुँह तो देखते बनेगा।
यही सब सोचते हुए श्रीराधा के चरण वन्दन कर श्यामसुन्दर दौड़ते हुए निज गृह लौटे। वचन जो दिया था प्यारी को,घर लौटकर ही पढूंगा। घर आकर प्रशस्ति पत्र खोलकर पढ़ते ही श्यामसुन्दर हँस दिए– ‘वाहः प्यारी सबको छल सकता हूँ परन्तु तुम्हें नही।’

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“निवृत निकुञ्ज की लीला”




गीताप्रेस गोरखपुर में पूज्य श्रीहरि बाबा महाराज की एक डायरी रखी है उसमें बाबा के द्वारा हस्तलिखित लेख है। उसमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव के जीवन की घटना लिखी है वृन्दावन की सेवा कुञ्ज की घटना है–
सेवा कुञ्ज में एक बार बाबा ने रात बिताई कि देखूँ तो सही क्या रास होता भी है ?
एक दिन रातभर रहे कुछ नही दिखा तो मन में यह नही आया की यह सब झूठ है।
दूसरे रात फिर बिताई मन्दिर बन्द होने पर लताओं मेंं छुप कर रात बिताई उस रात कुछ न के बराबर मध्यम-मध्यम सा अनुभव हुआ। एकदम न के बराबर उस दिव्य संगीत को सुना लेकिन उस संगीत की स्वर-लहरियों का ऐसा प्रताप हुआ की बाबा मूर्छित हो गये।
जब सुबह चेतना में आये तो सोचा कि अब दर्शन तो करना ही है ऐसा संकल्प ले लिया। बाबा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक बार और प्रयास किया की देखूँ तो सही रास कैसा होता है ?
तीसरी रात श्रीहरिबाबा के पूज्य गुरुदेव लताओं के बीच कहीं छुप गये आधी रात तक उन्होंने लिखा कि कही कुछ दर्शन नही हुआ। परन्तु प्रतीक्षा में रहे। कहते है मध्य रात्रि होने पर निधिवन (सेवाकुञ्ज) में एक दिव्य सुगन्ध का प्रसार होने लगा ; एक अलौकिक सुगन्ध। अब बाबा सावधान हो गये समझ गये की लीला आरम्भ होने वाली है ; बाबा अब और सावधानी से बैठ गये।
कुछ समय बाद बाबा को कुछ धीरे-धीरे नूपुरों के झन्कार की आवाज आने लगी। छण-छण-छण बाबा को लगा कोई आ रहा है। तब बाबा और सावधान हो गये बाबा ने और मन को संभाला और गौर से देखने का प्रयास जब किया।
बाबा ने देखा की किशोरीजी-लालजी के कण्ठ में गलबहियाँ डालकर धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाकर सेवा कुञ्ज की लताओं के मध्य से आ रही हैं। बाबा तो देखकर आश्चर्यचकित हो गये।
बाबा और सम्भल गये और बाबा ने लिखा आज प्रियाजी को देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा है आज प्रिया जी प्रत्येक लता के पास जाकर कुछ सूंघ रही थी।
लाला ने पूछा–‘हे किशोरीजी आप हर एक लता के पास क्या सूंघ रही हैं ? क्या आपको कोई सुगन्ध आ रही है ?’
श्रीकिशोरीजी ने कहा–‘लालजी आज हमें लगता है की हमारे आज इस निकुञ्ज वन में किसी मानव ने प्रवेश कर लिया है हमें किसी मानव की गन्ध आ रही है।’
इतना सब सुनकर बाबा की आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे। बाबा के मन में भाव आया कि सेवा कुञ्ज में प्रिया-प्रियतम विहार कर रहे है क्यों न जिस मार्ग पे ये जा रहे हैं उस मार्ग को थोड़ा सोहनी लगाकर स्वच्छ कर दूँ।
बाबा ने कल्पना कि नही-नही अरे अगर मार्ग को सोहनी से साफ किया तो मैने क्या सेवा की ? सेवा तो उस सोहनी ने की मैने कहाँ की तो फिर क्या करूँ ?
कल्पना करने लगे क्यों न इन पलकों से झाड़ू लगाने का प्रयास करूँ फिर ध्यान आया अगर इन पलकों से लगाऊँगा तो इन पलकों को श्रय मिलेगा आखिर फिर क्या करूँ ?
आँखों से अश्रु प्रवाह होने लगा कि मैं कैसे सेवा करूँ आज साक्षात प्रिया-प्रियतम का विहार चल रहा है मैं सेवा नही कर पा रहा कैसे सेवा करूँ ?
उसी क्षण प्रिया जी ने कहा–‘लालजी आज हमारे नित्यविहार का दर्शन करने के लिये कोई मानव प्रवेश कर गया है ? किसी मानव की गन्ध आ रही है।’
उधर तो बाबा की आँखों से अश्रु बह रहे थे, और इधर लालजी प्रियाजी के चरणों में बैठ गये लालजी का भी अश्रुपात होने लगा!
प्रियाजी ने पूछा–‘लालजी क्या बात है ? आपके अश्रु कैसे आने लगे ?’
श्रीजी के चरणो में बैठ गये श्यामसुन्दर नतमस्तक हो गये तब कहा–‘श्रीजी आप जैसी करुणामयी सरकार तो केवल आप ही हो सकती है। अरे! आप कहती हो की किसी मानव की गन्ध आ रही है!!
हे! श्रीजी जिस मानव की गन्ध आपने ले ली हो फिर वो मानव रहा कहाँ, उसे तो आपने अपनी सखी रूप में स्वीकार कर लिया।’
श्रीजी ने कहा–‘चलो फिर उस मानव की तरफ।’
बाबा कहते है–‘मैं तो आँख बन्द कर ध्यान समाधी में रो रहा हूँ कि कैसे सेवा करूँ? तभी दोनों युगल सामने प्रकट हो गये और बोले–‘कहे बाबा रास देखने ते आयो है ?’
न बाबा बोल पा रहे ; न कुछ कह पा रहे हो; अपलक निहार रहे हैं।
श्रीजी ने कहा–‘रास देखते के ताय तो सखी स्वरुप धारण करनो पड़ेगो। सखी बनैगो ?’ बाबा कुछ नही बोले।
करुणामयी सरकार ने कृपा करके अपने हाथ से अपनी प्रसादी ‘चन्द्रिका’ उनके मस्तक पर धारण करा दी।
इसके बाद बाबा ने अपने डायरी में लिखा, इसके बाद जो लीला मेंरे साथ हुई न वो वाणी का विषय था न वो कलम का विषय था।
यह सब स्वामीजी की कृपा से निवृत-निकुञ्ज की लीलायें प्राप्त होती है। स्वामीजी के रस प्राप्ति के लिये इन सात को पार करना होता है–

प्रथम सुने भागवत, भक्त मुख भगवत वाणी।
द्वितीय आराध्य ईश व्यास, नव भाँती बखानी।
तृतीय करे गुरु समझ, दक्ष्य सर्वज्ञ रसीलौ।
चौथे बने विरक्त, बसे वनराज वसीलौ।
पांचे भूले देह सुधि, तब छठे भावना रास की।
साते पावें रीति रस, श्री स्वामी हरिदास की॥

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श्रीकृष्ण जन्मभूमि

आजसे लगभग ५२०४ वर्ष पहले वर्तमान द्वापरयुगके अन्तमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी महाअत्याचारी कंसके कारागारमें पिता श्रीवसुदेवजी एवं माता देवकीजीके पुत्रके रूपमें आविर्भूत हुये थे। उस समय वसुदेव एवं देवकीने चतुर्भुज स्वरूपमें उनका दर्शन किया। चारों हाथोंमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए, वक्षस्थलपर श्रीवत्स चिह्न, गलेमें कौस्तुभ मणि तथा मेघ श्यामल कान्तियुक्त अद्भुत दिव्य बालकको देखकर वे दोनों उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति एवं प्रार्थनासे भगवानने शिशुरूप धारण कर लिया तथा भगवानकी प्रेरणासे ही वसुदेवजी नवजात शिशुको गोदीमें उठाकर गोकुल महावन स्थित नन्दभवनमें रखनेके लिए चल पड़े। कारागारसे निकलते समय उनके हाथोंकी हथकड़ियाँ, पैरोंकी बेड़ियाँ, लोहे के कपाट स्वतः ही खुल गये । प्रहरी सो गये। रिमझिम वर्षा भी होने लगी। सारा मार्ग साफ हो गया। उफनती यमुनाको पारकर वसुदेवजी गोकुल नन्दभवनमें पहुँचे। वहाँ नन्दभवनमें यशोदाजीके गर्भसे द्विभुज श्यामसुन्दर और कुछ क्षण पश्चात् ही एक बालिका भी ( योगमाया) पैदा हुई थी। यशोदा प्रसव पीड़ासे कुछ अचेतन सी थी। वसुदेवजीके गृहमें प्रवेश करते ही द्विभुज कृष्णने वसुदेव पुत्रको आत्मसात् कर लिया। वसुदेवजी इस रहस्यको समझ नहीं पाये। कन्याको गोदमें लेकर चुपकेसे पुनः कंस कारागारमें लौट आये। पहलेकी भाँति कारागारके लौह कपाट बंद हो गये। वसुदेव और देवकीके हाथोंकी हथकड़ियाँ और पैरोंकी बेड़ियाँ पूर्ववत् लग गई। उसी रातमें कंसको पता लगते ही वह पागल सा विक्षिप्त हुआ हाथमें तलवार लेकर कारागारमें उपस्थित हुआ । उसने बहन देवकीके हाथोंसे कन्याको छीन लिया और कन्याके दोनों पैरोंको पकड़कर पृथ्वीपर पटक कर मारना चाहा, किन्तु कन्या अष्टभुजावाली दुर्गाका रूप धारणकर कंसको दुत्कारते हुए आकाश मार्गमें अन्तर्ध्यान हो गई।

श्रीकृष्णकी इस जन्मभूमिपर सर्वप्रथम श्रीकृष्णके प्रपीष श्रीवजनाभजीने एक विशाल मंदिरकी स्थापना की थी। कालान्तरमें उसी स्थानपर भारतके धार्मिक राजाओंने बड़े विशाल- विशाल मंदिरोंका क्रमशः निर्माण कराया। जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु जन्म भूमिमें पधारे थे, उस समय वहाँ एक विशाल मंदिर था । श्रीमन् महाप्रभुके भावपूर्ण मधुर नृत्य और कीर्त्तनको देख सुनकर उस मंदिरमें लाखों लोगोंकी भीड़ एकत्र हो गई। नृत्य-कीर्त्तन करते हुए श्रीमन् महाप्रभुजीके भावोंको देख दर्शकगण भाव विभोर हो गये।

यहीं पर श्रीचैतन्य महाप्रभुजीने बंगालके सुबुद्धिराय नामक राजाको आत्महत्या से बचाकर उन्हें परम भगवद्भक्त बना दिया। सुबुद्धिरायको बंगालके धर्मान्ध मुस्लिम शासकके द्वारा बलपूर्वक जातिभ्रष्ट किया गया था। वह पुनः हिन्दू बनना चाहता था, किन्तु उस समयके कट्टर हिन्दू पुरोहितों एवं व्यवस्थापकोंके निर्देशानुसार मृत्युसे पूर्व हिन्दू धर्ममें पुनः प्रवेश करनेके लिए कोई भी मार्ग शेष नहीं था। परन्तु करुणासागर श्रीचैतन्य महाप्रभुने एक बार श्रीकृष्णनामका उच्चारण करा कर उसे शुद्ध कर दिया तथा जीवन भर हरिनाम सङ्कीर्तन एवं वैष्णवोंकी सेवा करते रहनेका उपदेश प्रदानकर उसे कृतार्थ कर दिया। श्रीमन् महाप्रभुका ब्रज आगमन मुगल सम्राट हुमायूँके राजत्व काल में श्रीमन् महाप्रभुका ब्रज आगमन मुगल सम्राट हुमायूँके राजत्व कालमें हुआ। तत्पश्चात् यवनोंके द्वारा वह मंदिर ध्वंस कर दिये जानेके बाद ओरछाके महाराज वीरसिंह देवने १६१० ई. में तैंतीस लाख रुपया लगाकर आदिकेशवका बहुत विशाल श्रीमंदिर बनवाया। किन्तु, धर्मान्ध औरंगजेबने १६६९ ई. में उसे ध्वंस कर उसके बाहरी स्वरूपमें कुछ परिवर्तनकर उसे मस्जिदके रूपमें परिवर्तित कर दिया श्री आदिकेशवनीके पुजारियोंने प्राचीन विग्रहको जिला कानपुरमें स्थित राजधान नामक ग्राममें वर्तमान ईटावा शहरसे सतरह मील दूर छिपा दिया। आज भी वह विग्रह वहीं छोटेसे मंदिरमें स्थित है। किन्तु इनका विजय विग्रह वर्तमान जन्मस्थानके पीछे मल्लपुरा नामक स्थानमें आदिकेशव मन्दिरमें आज भी सेवित हो रहा है। उस श्रीविग्रहकी विशेषता यह है कि उसमें भगवान्‌के चौब्बीस अवतारोंकी मूर्त्तियाँ अङ्कित हैं। आदिकेशव कहे जानेसे वैष्णव भक्त लोग इसी मन्दिरमें दर्शन करते हैं। आजकल प्राचीन जन्मस्थानपर श्रीमदनमोहन मालवीय द्वारा संग्रहीत केशव कटरेपर एक विशाल श्रीमंदिरका निर्माण हुआ है। गीताप्रेस गोरखपुरके स्वर्गीय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दारजीकी प्रेरणा और श्रीडालमियाजी आदि सेठोंके प्रयाससे इस मंदिरका निर्माण हुआ। जन्मभूमि मथुराके मल्लपुरा मौहल्लेमें स्थित है। महाराज कंसके चाणूर आदि मल्ल इसी स्थानके निकटमें ही रहते थे। पासमें पोतरा नामक विशाल कुण्ड है। यह पहले कंस कारागारके अंदर ही स्थित था, जिसमें श्रीवसुदेव देवकीजी स्नान करते तथा अपने वस्त्रोंको धोते थे। कहा जाता है कि पुत्रोंके उत्पन्न होनेपर देवकीजीके वस्त्र इसीमें साफ किये जाते थे। पवित्रा कुण्डसे अपभ्रंश रूपमें इसका नाम पोतरा कुण्ड हुआ है।

पोतरा कुंड
प्रवेश द्वार
भव्य मंदिर
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“श्री नारायणदास भक्तमाली (मामा जी)”

“श्री नारायणदास भक्तमाली (मामा जी)”
मामाजी महाराज का जन्म बक्सर जिले के अंतर्गत बक्सर प्रखंड के पाण्डेयपट्टी ग्राम में एक चतुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में अश्विन कृष्ण षष्ठी संवत् 1990 तदनुसार दिन रविवार “10 सितम्बर 1933 ई.” को हुआ था।
इनके दादाजी का नाम मेघवर्ण चतुर्वेदी था, जो प्यार से मामाजी महाराज को मन्नाजी कह कर पुकारते थे। इनके पिताजी का नाम मधुसुधन चतुर्वेदी था, जो बहुत बड़े कर्मकांडी एवं ज्योतिषी में पारंगत थे। इनकी माताजी का नाम श्रीमती रामा देवी था, जो बिल्कुल संत ह्रदय, ममता की मूरत, कुशल गृहिणी थी।
मामाजी महाराज के माता पिता ने इनका शुभ नाम “श्रीमन्ननारायण चतुर्वेदी” रखा था। जो प्यार से “नारायण” जी भी कह कर पुकारा करते थे। मामाजी महाराज की प्रारंभिक शिक्षा बक्सर से ही संपन्न हुई तथा उच्च शिक्षा आरा तथा रांची से वाणिज्य विभाग से स्नातक की शिक्षा संपन्न हुई। बचपन से ही भगवद् गीता के प्रति झुकाव था, तथा प्रभु श्री राम में अनन्य भक्ति थी। धीरे-धीरे समय बीतता गया और 1952 ई. में मामाजी महाराज ने किसी शासकीय सेवा में पदाधिकारी के तौर पर नियुक्ति हुई। शासकीय पद पर तैनात रहने के दौरान आरा में पहली बार “महर्षि खाकी बाबा सरकार” के किसी कार्यक्रम में दर्शन का सौभाग्य मिला, दर्शन के उपरान्त मामाजी महाराज, खाकी बाबा से इतने प्रभावित हुए की 1955 ई. में ही शासकीय पदाधिकारी की सेवा त्याग कर तथा पद से इस्तीफा देकर “श्री खाकी बाबा सरकार” से दीक्षा लेकर उनका शिष्य बन गए, तथा उनके साथ रहने लगे। बाद में संत शिरोमणि स्वामी श्री रामचरण दास जी “श्री फलाहारी बाबा” के संपर्क में आए तथा उनकी खूब निष्ठा-भाव से सेवा की, इससे “श्री फलाहारी बाबा” ने प्रसन्न होकर मामाजी महाराज को “श्री नारायण दास” की उपाधि से विभूषित किया।
युगल सरकार की नित्य लीला स्थली श्रीधाम वृन्दावन में मामाजी ने साधना करने हुए श्रीधाम वृन्दावन में निवास करने लगे। वही साधना करते हुए सुदामाकुटीर में इन्हें भक्तमाल के रसज्ञ, मर्मज्ञ, “पं. श्री जगरनाथप्रसाद भक्तमाल” जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। जिनसे इन्होंने संत शिरोमणि “नाभादास” जी द्वारा रचित भक्तमाल का अध्ययन किया। संत सेवा तथा संतो के आशीर्वाद से भागवत कथा भी कहने लगे, तथा सरस कथा व्यास हुए। बिना भाव के व्यक्ति कितना भी ज्ञानी हो, उसकी अभिव्यक्ति में मधुरता नहीं आ पाती है। युगल सरकार के प्रति भक्तिभाव तथा जगजननी माँ सीताजी जनकपुर की उपासना से भक्ति रस में आकंठ डूब गए, तथा कथा के माध्यम से भक्ति के मधुर रस का वितरण करने लगे। बिहार के होने के नाते तथा श्री सीता माँ का मिथिलांचल का होने के नाते श्री सीता माँ को वो इस भक्ति भाव में कब बहन मानने लगे कुछ पता नहीं चला। सीताजी को अपनी बहन मानने के नाते प्रभु श्री राम को अपना बहनोई मानने लगे। इसी रिश्ते के कारण आगे चलकर “मामाजी” महाराज के नाम से विश्वविख्यात हुए।
मामाजी महाराज ने अनेकों नाटकों, पुस्तकों, दोहों, कविताओं की रचना की। जिसमें प्रमुखता से उनकी विश्वविख्यात भोजपुरी कविता जो प्रभु श्री राम को “पाहुन” कह गाए थे :-
“ए पहुना अब मिथिले में रहु ना,
जवने सुख बा ससुरारी में, तवने सुख कहू ना,,
ए पहुना अब मिथिले में रहु ना।…”
अद्भुत क्षमता थी मामाजी महाराज की लेखनी में, साथ ही उन्हें अंग्रेजी भाषा का भी बहुत ज्ञान था उन्होंने अंग्रेजी में भी टी शब्द से सैकड़ो वाक्य एक कविता के माध्यम से लिख डाले थे :-
“जगत में कोई ना परमानेन्ट, जगत में प्रभु ही परमानेंट…”
इस कविता में अंतिम शब्द में सैकड़ो बार टी शब्द का प्रयोग अलग-अलग वाक्यों का प्रयोग कर प्रमुखता से मामा जी द्वारा किया गया था।
भाषा का ज्ञान मामा जी महाराज के अंदर कूट-कूट कर भरा था, संस्कृत हो, हिंदी हो, अंग्रेजी हो, सही शब्द का सही प्रयोग मामाजी की लेखनी की महानतम श्रेणी को दर्शाता था। “मामाजी महराज” तथा उनके परम प्रिय गुरु महाराज “महर्षि खाकी बाबा सरकार” के प्रयासों के बदौलत आज भी बक्सर में “श्री सिय पिय मिलन महामहोत्सव” का कार्यक्रम हर वर्ष नवम्बर-दिसम्बर महीनें में होता है।
भक्तमाल रसज्ञ, मर्मज्ञ “पं. श्री जगरन्नाथप्रसाद जी भक्तमाली” की प्रथम पुण्यतिथि पर आयोजित “प्रिया प्रीतम मिलन महोत्सव” में पधारे जगतगुरु “श्री निम्बकाचार्य जी महाराज” ने “श्री मामाजी” महाराज के अंदर “जगरन्नाथप्रसाद भक्तमाल” जी के प्रति भाव देखकर उन्हें “पं. श्री जगरन्नाथप्रसाद भक्तमाल” जी का उत्तराधिकारी घोषित कर उन्हें “भक्तमाली” की उपाधि से विभूषित किया। इस तरह से मामाजी महाराज का पूरा नाम ” श्री नारायण दास भक्तमाली जी” हुआ।
ऐसी अद्भुत भाव, अभिव्यक्ति के स्वामी होते हुए भी मामाजी महाराज अत्यंत विनयशील, निराभिमानी एवं सरल थे, अतिथि सत्कार उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही थी। जो मानव एक बार परम पूज्य मामाजी महाराज का सान्निध्य का सुख पा लेता था, वह सदा के लिए उनका हो जाता था। हमेशा अपनी कथा के माध्यम से मामाजी ने सदा जीवन उच्च विचार जीवन जीने की कथा अपने भक्तों श्रोताओं के बीच कहा करते थे, जिससे भक्त तथा श्रोता जीवन जीने की कला सीखते थे। ऐसे सरस कथा अपनी मधुर वाणी से कहते थे की श्रोता जीवन जीने की इच्छा छोड़ कर बाकी बची जीवन की अभिलाषा भगवत भजन में लगाने लगते थे। मामाजी महाराज को दूसरे साधु, महात्माओं द्वारा उन्हें संतो की वाणी, भक्तों के चरित्र तथा मार्ग खोजने वाला व्यक्ति कहा गया है।
अचानक एक ऐसा दिन आया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, इस महान पुण्यात्मा की मृत्यु 75 वर्ष की आयु में एक सड़क दुर्घटना में अपने कृपा पात्र शिष्य श्री लक्ष्मणशरण दास जी तथा श्री ओम प्रकाश जी सहित 24 फरवरी 2008 में हो गई।
इस घटना से पूरे बक्सर सहित बिहार की जनता में शोक की लहर दौड़ गई, उनके अंतिम दर्शन को देश, विदेश से उनके अनेक शिष्यों भक्तों के साथ-साथ बक्सर की लाखों लाख जनता सड़को पर अपने बक्सर के गौरव की एक झलक देखने के लिए उमड़ पड़ी। सबकी आँखों में आश्रु भरे पड़े थे, सब नियति को दोष दे रहे थे, सबके अंदर उस दिन भगवान् की आस्था के प्रति गुस्सा का भाव था। किसी तरह भक्तों को समझा बुझाकर तथा मामाजी द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने की संकल्प के साथ “मामाजी” का अंतिम संस्कार हुआ।
पूज्य मामाजी द्वारा रचित कविता, दोहे, कहानी, नाटक, ग्रन्थ, श्लोक इत्यादि मामाजी महाराज से हमलोगों को दूर कभी नहीं होने देती हैं। साथ ही आपके द्वारा शुरू किया हुआ “श्री सिय पिय मिलन महामहोत्सव” में एक बार ऐसा लगता है हर साल आपके दर्शन हो जाते हैं।
आज भी मामाजी महाराज का आश्रम बक्सर नई बाजार में स्थित है, दर्शन की अभिलाषा लिए आए हुए भक्त यहाँ जाकर मामाजी के प्रति-मूर्ति के दर्शन कर उनकी यादों को जी सकते है। बक्सर वासी अपने आपको धन्य समझते हैं कि मामाजी जैसे महान सन्त ने बक्सर की धरती पर जन्म लेकर बक्सर का मान पूरे देश में बढ़ाया है। आप सदैव बक्सर के मनुष्य रूपी जीवों के दिलों में जिन्दा रहेंगे।
श्री नारायण दास भक्तमालि मामा जी महाराज की जय।
“जय जय श्री राधे”

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राधा तत्व का वर्णन शास्त्रो मे क्यों नही है?

प्र० महाराज जी ! जब हम शास्त्रों को पढ़ते हैं तो उसमें भगवत्तत्व, जीव-तत्त्व, माया – तत्त्व, भक्ति-तत्त्व आदि का तो स्पष्ट वर्णन मिलता है, परन्तु जिस राधा-तत्त्व की आप व्याख्या करते हैं, उसका वर्णन स्पष्ट रूप से शास्त्रों में नहीं मिलता, ऐसा क्यों?

समाधान : सबका सार है प्रेम और घनीभूत प्रेम का मूर्तिमान् स्वरुप हैं – ‘श्रीलाड़िलीजू; ‘सान्द्रानन्दामृतरसघनप्रेममूर्तिः किशोरी ।’
जैसे राजा का सारा वैभव (राज-काज आदि ) शास्त्रों में वर्णित होता है, लेकिन महारानी का वैभव ये प्रकट में वर्णित नहीं होता है क्योंकि वह राजा के हृदय की गुप्त बात है राजा जिसे पर्सनल मान लेता है उसे ही महल का रहस्य बताता है ये और यहाँ की अधीश्वरी श्रीराधा हैं, ‘जाके अधीन सदा ही साँवरो या ब्रज को सिरताज’, श्रीहरिवंशमहाप्रभुजी कह रहे हैं – वृन्दावन निजमहल है
जो रस नेति नेति श्रुति भाख्यो ।
ताको तैं अधरसुधारस चाख्यो ॥
श्रीकिशोरीजू श्रीलाल जू के हृदय का मूर्तिमान आह्लाद, मूर्तिमान प्रेम हैं तो हृदय की बात तो उसी को बताई जाती है जो पर्सनल होता है । इसीलिये आगम निगम अगोचर बात है किशोरी जू की । आगम-निगमादि ने जिसे नहीं देखा ‘नेति-नेति’ कहकर जिसे सम्बोधित किया वो परमतत्त्व वृन्दावन के रसिकाचार्यों ने अनुभव किया । श्रीहरिवंशमहाप्रभु जी लिखते हैं –

यद्वृन्दावनमात्रगोचरमहो यन्न श्रुतीकं शिरो
प्यारोढुं क्षमते न यच्छिवशुकादीनां तु यद्-ध्यानगम् ॥ (रा.सु.नि ७६)

‘जो केवल वृन्दावन में ही गोचर है, जिस तक श्रुति शिरोभाग (वेदान्त) भी पहुँचने में समर्थ नहीं है तथा जो शिव शुकादि के भी ध्यान में नहीं आता वो है ‘राधा-तत्त्व’ ।
‘ अलक्ष्यं राधाख्यं निखिलनिगमैरप्यतितरां
रसाम्भोधेः सारं किमपि सुकुमारं विजयते ॥ (रा.सु.नि. ५१)

‘जो समस्त आगम-निगम समुदाय से भी अलक्षित है, रससागर के सार उस किसी अनिर्वचनीय श्रीराधानामक सुकुमारतत्त्वकी जय हो।’

श्रीराधे श्रुतिभिर्बुधैर्भगवताप्यामृग्य सद्वैभवे (रा.सु.नि. २६९)

‘श्रुतियों, बुधजनों तथा भगवान् के द्वारा भी अन्वेषणीय है – श्रीकिशोरीजू का श्रेष्ठ वैभव ।’

अतः यह वृन्दावन का गूढ़ रहस्य है, ये किसी शास्त्र में लिखा नहीं मिलेगा, ये तो केवल सहचरी भावापत्र रसिकाचार्यों की वाणियों से ही उनके शरणागत होने पर जाना जा सकता है, तभी तो श्रीभगवतरसिकजी को कहना पड़ा
‘भगवत रसिक रसिक की बातें, रसिक बिना कोऊ समुझि सकै न ।

ज्यादा-से-ज्यादा पुराणों ने इतना ही वर्णन किया कि श्रीकृष्ण ‘शक्तिमान’ हैं और श्रीराधा एक ‘शक्ति’ हैं, बस इतना ही शास्त्र समझ पाए, इससे आगे ये नहीं समझ पाए कि वो शक्तिमान श्रीकिशोरीज के प्रति कैसे आसक्त चित्त हैं और पूर्ण रूप से उनके अधीन हैं। ये तो यहाँ के रसिक जन ही देख पाए

जै श्रीहित हरिवंश प्रताप रूप-गुन, वय बल श्याम उजागर
जाकी भ्रूविलास बस पशुरिव, दिन विथकित रस-सागर ॥ (श्रीहितचतुरासी ५२)

श्रीहिताचार्य कह रहे हैं कि जो श्यामसुन्दर प्रताप, रूप, गुण, वय और बल के लिए प्रसिद्ध हैं, वे रससिन्धु श्रीलालजू श्रीराधा के भृकुटि – विलास के वशीभूत होकर पशु की भाँति लाचार बने रहते हैं। इसी तरह से श्रीस्वामीहरिदासजी महाराज केलिमालजी में कहते हैं..

श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी चरन लपटाने दुहूँन री ॥ ४९॥
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रीझि रीझि पग परनि ॥ ५० ॥

ये जो श्यामा-श्याम की एकान्तिक नवनिभृत निकुँज की रसमयी क्रीड़ाएँ हैं, सहचरी भावापन्न महापुरुषजन एकान्त में जिनके चिन्तन में निमग्न रहते हैं – ये लीलाएँ वेदों के द्वारा भी अलक्षित हैं इसी कारण ‘राधा – तत्त्व’ का स्पष्ट वर्णन शास्त्रों में नहीं मिलता है ।

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भोली गोपी का कमाल


वृंदावन की एक गोपी रोज दूध दही बेचने मथुरा जाती थी,एक दिन व्रज में एक संत आये,गोपी भी कथा सुनने गई,संत कथा में कह रहे थे,भगवान के नाम की बड़ी महिमा है,नाम से बड़े बड़े संकट भी टल जाते है.नाम तो भव सागर से तारने वाला है,यदि भव सागर से पार होना है तो भगवान का नाम कभी मत छोडना.

कथा समाप्त हुई गोपी अगले दिन फिर दूध दही बेचने चली, बीच में यमुना जी थी. गोपी को संत की बात याद आई,संत ने कहा था भगवान का नाम तो भवसागर से पार लगाने वाला है,जिस भगवान का नाम भवसागर से पार लगा सकता है तो क्या उन्ही भगवान का नाम मुझे इस साधारण सी नदी से पार नहीं लगा सकता? ऐसा सोचकर गोपी ने मन में भगवान के नाम का आश्रय लिया भोली भाली गोपी यमुना जी की ओर आगे बढ़ गई.

अब जैसे ही यमुना जी में पैर रखा तो लगा मानो जमीन पर चल रही है और ऐसे ही सारी नदी पार कर गई,पार पहुँचकर बड़ी प्रसन्न हुई,और मन में सोचने लगी कि संत ने तो ये तो बड़ा अच्छा तरीका बताया पार जाने का,रोज-रोज नाविक को भी पैसे नहीं देने पड़ेगे.

एक दिन गोपी ने सोचा कि संत ने मेरा इतना भला किया मुझे उन्हें खाने पर बुलाना चाहिये,अगले दिन गोपी जब दही बेचने गई,तब संत से घर में भोजन करने को कहा संत तैयार हो गए,अब बीच में फिर यमुना नदी आई.संत नाविक को बुलाने लगा तो गोपी बोली बाबा नाविक को क्यों बुला रहे है.हम ऐसे ही यमुना जी में चलेगे.

संत बोले – गोपी! कैसी बात करती हो,यमुना जी को ऐसे ही कैसे पार करेगे ?

गोपी बोली – बाबा! आप ने ही तो रास्ता बताया था,आपने कथा में कहा था कि भगवान के नाम का आश्रय लेकर भवसागर से पार हो सकते है. तो मैंने सोचा जब भव सागर से पार हो सकते है तो यमुना जी से पार क्यों नहीं हो सकते? और मै ऐसा ही करने लगी,इसलिए मुझे अब नाव की जरुरत नहीं पड़ती.

संत को विश्वास नहीं हुआ बोले – गोपी तू ही पहले चल! मै तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ,गोपी ने भगवान के नाम का आश्रय लिया और जिस प्रकार रोज जाती थी वैसे ही यमुना जी को पार कर गई.

अब जैसे ही संत ने यमुना जी में पैर रखा तो झपाक से पानी में गिर गए,संत को बड़ा आश्चर्य,अब गोपी ने जब देखा तो कि संत तो पानी में गिर गए है तब गोपी वापस आई है और संत का हाथ पकड़कर जब चलि है तो संत भी गोपी की भांति ही ऐसे चले जैसे जमीन पर चल रहे हो.

संत तो गोपी के चरणों में गिर पड़े,और बोले – कि गोपी तू धन्य है! वास्तव में तो सही अर्थो में नाम का आश्रय तो तुमने लिया है और मै जिसने नाम की महिमा बताई तो सही पर स्वयं नाम का आश्रय नहीं लिया.

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 106

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 106)

!! “नृत्यति वनमाली” – अहो ! दिव्य झाँकी !!

हृद् के भीतर तल तक पहुँचे थे कन्हैया …………वे कूदे ही इस प्रकार थे कि ………..तल को छू लिया उनके चरणों नें ।

तात ! कालियनाग सो रहा था …………पर उसकी पत्नियां जागी हुयी थीं ………….अपलक देखती रहीं नन्दनन्दन को ।

उद्धव आनन्दित हैं आज …..गदगद् होकर इन लीला कथाओं का गान कर रहे हैं …………..हँसे उद्धव – तात ! कन्हैया की रूप माधुरी से आज तक कोई बच न पाया है …………नाग स्त्रियों को भी इसनें अपनें रूप पाश से बांध लिया था ……..अहो !

नाग पत्नियों नें आज तक ऐसा भुवन सुन्दर रूप देखा नही था ………

इतना सुकुमार अंग ! सांवला सलोना …..और फिर वो नयन ……कटीले , रसीले अधर ……….

फुफकारना चाहिए था इन्हें ……….पर एक ही दृष्टि में अपना हृदय दे बैठीं नन्दनन्दन को ………….पुकार उठीं …………

कौन हो बालक ! कहाँ से आये हो ? क्या नाम है तुम्हारा ? किस स्थान से आये हो और क्यों आये हो ?

नागपत्नियाँ एक नही थीं अनेक थीं ………….सबनें प्रश्न किये थे ।

उफ़ ! ये नन्दनन्दन मुस्कुरा और दिए …………..

मेरा नाम कन्हैया है ……….मैं यहीं बृज का हूँ ………….मेरा माता पिता बृजराज और बृजरानी हैं …………मैं उन्हीं का पुत्र हूँ ।

कुछ देर रुके .कन्हैया ……फिर सोते हुये कालियनाग को देखा ……..मुस्कुराते हुये एक चरण का प्रहार उसके देह पर किया ।

नही नही ……..ऐसा मत करो ………सब नाग पत्नियाँ पुकार उठीं ।

मैं तुम्हारे पति कलियनाग को नथनें आया हूँ ।

कन्हैया के मुखारविन्द से ये शब्द सुनते ही सब कहनें लगीं ……..पर क्यों ? क्यों नाथोगे हमारे पति को ?

श्रावण आरहा है …………….मैने अपनी प्रिया श्रीराधारानी को वचन दिया है कि मैं कालीय नाग को डोर बनाकर बरसानें में कदम्ब के वृक्ष पर झूला डालूँगा और उसमें हम दोनों झूलेंगे ………..कन्हैया नें अपना प्रेम प्रसंग छेड़ दिया था ।

तुम प्रेम करते हो ? क्या नाम बताया तुमनें ? नाग पत्नियाँ मुग्ध हैं नन्दनन्दन के रूप पर …….

हाँ ……बहुत प्रेम करता हूँ …………श्रीराधा ……यही नाम है उनका ।

पर ये काम तुमसे होगा नही ? क्यों की हमारे पति नागराज हैं ……..उन्हें अपनी क्रीड़ा का साधन मत समझो ………हे सुन्दर बालक ! एक बार वो जाग गए ना …….तो उनके विष से तुम्हारा ये रूप झुलस जाएगा ……………तुम जाओ यहाँ से …..जाओ !

तुम मेरे बारे में इतना क्यों सोच रही हो !

मुझे पुष्प चाहिये ……..नीलकमल के पुष्प……पता है मेरे बाबा कितनें दुःखी हैं ….मेरा पूरा बृजमण्डल दुःखी है ……कल तक अगर नीलकमल के पुष्प राजा कंस के पास न पहुँचे तो विध्वंस मचा देगा वो ।

हम दे देती हैं कमल के पुष्प ……जितनें चाहिये उतनें ले जाओ …..पर जाओ तुम यहाँ से ………नाग पत्नियाँ डर रही हैं ।

ना ,

बड़ी प्यारी झांकी थी ये कन्हैया की ………जब उन्होंनें मना किया ।

नीलकमल के पुष्प लेकर तेरा पति कालीय हमारे बृज में पहुँचायेगा ।

क्यों अपनी माता को जीवन भर दुःखी रखना चाहता है तू ……..क्यों अपनी प्रिया को जीवन भर आँसू देना चाहता है ?

तू मारा जाएगा बालक ! लौट जा …….हमारे पति अगर जाग गए ……

उसी समय उछलकर कन्हैया नें फिर अपनें चरण का प्रहार सोते हुये कालीय नाग के ऊपर किया था …………इस बार का प्रहार सबसे तेज था ……….वो उठ गया ……कालीय नाग फुफकारते हुए उठा ।

उसके मुख से विष निकल रहा था……वो और निकाल भी रहा था ।

डर से नागपत्नियां दूर खड़ी हो गयीं ।

सबसे पहले तो उठते ही कालीय नें कन्हैया को एक ही क्षण में बांध दिया चरण से लेकर मस्तक पर्यन्त …………..और उसके बाद विष छोड़नें लगा ……..हलाहल विष ।

कन्हैया मुस्कुराये……….अपनें श्रीअंग को कन्हैया नें फुलाना शुरू किया ………कालीय नाग की सारी नसें ढीली पड़ गयीं …….

बस उसी समय उछलते हुए कन्हैया उसके फण पर पहुँच गए ………और अपनें चरणों से प्रहार करनें लगे …….जोर से प्रहार किया ………

रक्त निकलनें लगा कालीय का …………….रक्त से यमुना का जल लाल होनें लगा ………..लाल ………..।

पर इतनी जल्दी हिम्मत कैसे हारता कालीय नाग वो फिर उठा …….और कन्हैया की और जैसे ही झपटा …………कन्हैया नें फिर उसे उछल कर अपनें चरणों से कुचल दिया ……….उसके फण को अपनें हाथों से मसल दिया ………….।

अहो ! ये क्या ! नाग पत्नियां देख रही हैं …………..विष का प्रभाव इस बालक पर नही हो रहा ….? वो समझ नही पा रहीं ……उसके पति अब थक गए हैं …………..उसके अंग शिथिल हो रहे हैं ।

कन्हैया नें अवसर देखा …….और कालीय नाग को पकड़ कर ऊपर लेकर आये …………..उसे घसीट रहे हैं …………अहो !

तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो ?

स्वर्ग में गए थे देवर्षि नारद जी …..और वहाँ देवराज की सभा में नाच रहे वाद्य बजा रहे गन्धर्वों को जाकर रोक दिया था ।

क्यों ? क्या हुआ ? देवर्षि ! क्या कुछ हो रहा है बृज में ?

देवराज को पता है देवर्षि बृज की ही बात कर रहे थे ।

हाँ ……आज तो अद्भुत होनें वाला है देवराज ! कालीय नाग पर हमारे नन्दनन्दन नृत्य करनें वाले हैं ………..हे गन्धर्वों ! यहाँ क्या वाद्य बजा रहे हो …….चलो ! बृज में चलकर बजाओ …………नन्दनदन को सुख मिलेगा …….और तुम्हारी कला धन्य हो जायेगी ।

देवर्षि की बातें सुनकर सब गन्धर्व चल दिए थे …….और साथ में देवता भी थे …………।

हे नागराज ! तुम अपनें रमणक द्वीप में जाओ ………..ये स्थान तुम्हारा नही है ……………मेरे बृजवासी तुम्हारे कारण बहुत दुःखी हैं ……..जीव जन्तु सब दुःखी हैं ………..तुम इस भूमि को छोड़ दो ।

जब हार गया कालीय नाग लड़ते लड़ते …………….वो थक गया …..उसका विषैला रक्त सब निकाल दिया कन्हैया नें ………….

तब वो अपनी समस्त पत्नियों के साथ कन्हैया के चरणों में नतमस्तक हो गया था ।

तब कन्हैया ने उसे समझाया था ।

पर आपका भक्त गरूण मुझे मार देगा………कालीय नाग नें कहा ।

नही मारेगा ……..क्यों की तुम मेरे भक्त बन चुके हो ………….मेरे चरण चिन्ह तुम्हारे मस्तक में हैं ………इसलिये कालीय ! तुम जाओ और रमणक द्वीप में ही निवास करो ……..नन्दनन्दन नें समझाया ।

सिर झुका लिया कालीय नाग नें …………….कन्हैया नें अवसर देखा …..और उछलते हुये उसके फण पर सवार हो गए थे ।

मैया देख ! मैया ! बाबा !

सब उठ गए …..मानों सबके देह में फिर से प्राणों का संचार हो गया ।

आहा ! कालीय के फण पर वो नटवर नाच रहा था ……..उसकी वो भंगी अद्भुत थी ………अहो ! तभी उसनें अपनी फेंट से बाँसुरी भी निकाल ली ……….वो अपनें अपनें चरण एक एक फण पर पटक रहे थे ……….वो हर फण को झुका रहे थे ………….।

उसी समय गन्धर्वों नें वाद्य बजानें शुरू कर दिए ……………

फण से रक्त की बुँदे फूट रही थीं ………….वो कन्हैया के चरणों में गिर रही थीं ……..अहो ! अद्भुत शोभा हो गयी उससे भी …..ऐसा लग रहा था जैसे रक्त वर्ण के पुष्प नन्दनन्दन के चरणों में मानों कालीय नाग चढ़ा रहा हो ।

सब ग्वाल सखा नाच उठे …..पर मैया यशोदा चिल्लाईं –

कन्हैया ! आजा ! आजा ….ये कालियनाग तोहे खा जायगो ……

“नाय खायेगो , मेरो चेला बन गयो है”…कन्हैया मुस्कुराते हुये बोले थे ।

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रमणीय टटिया स्थान

श्री कुंज बिहारी श्री हरीदास
रमणीय टटिया स्थान, वृंदावन: (Ramaniy Tatiya Sthan Vrindavan) आइए जानिए हमारे गुरु स्थान के बारे में-

स्थान: श्री रंग जी मंदिर के दाहिने हाथ यमुना जी के जाने वाली पक्की सड़क के आखिर में ही यह रमणीय टटिया स्थान है। विशाल भूखंड पर फैला हुआ है।
किन्तु कोई दीवार, पत्थरो की घेराबंदी नहीं है केवल बांस की खपच्चियाँ या टटियाओ से घिरा हुआ है इसलिए तटिया स्थान के नाम से प्रसिद्ध है। यह संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी महाराज की तपोस्थली है।

यह एक ऐसा स्थल है जहाँ के हर वृक्ष और पत्तों में भक्तो ने राधा कृष्ण की अनुभूति की है, संत कृपा से राधा नाम पत्ती पर उभरा हुआ देखा है।

स्थापना: स्वामी श्री हरिदास जी की शिष्य परंपरा के सातवे आचार्य श्री ललित किशोरी जी ने इस भूमि को अपनी भजन स्थली बनाया था। उनके शिष्य महंत श्री ललितमोहनदास जी ने सं १८२३ में इस स्थान पर ठाकुर श्री मोहिनी बिहारी जी को प्रतिष्ठित किया था।

तभी चारो ओर बांस की तटिया लगायी गई थी तभी से यहाँ के सेवा पुजाधिकारी विरक्त साधू ही चले आ रहे है.उनकी विशेष वेशभूषा भी है।
विग्रह: श्रीमोहिनी बिहारी जी का श्री विग्रह प्रतिष्ठित है।

मंदिर का अनोखा नियम…
ऐसा सुना जाता है कि श्री ललितमोहिनिदास जी के समय इस स्थान का यह नियम था कि जो भी आटा-दाल-घी दूध भेट में आवे उसे उसी दिन ही ठाकुर भोग और साधू सेवा में लगाया जाता है।

संध्या के समय के बाद सबके बर्तन खाली करके धो माज के उलटे करके रख दिए जाते है,कभी भी यहाँ अन्न सामग्री की कमी ना रहती थी।

एक बार दिल्ली के यवन शासक ने जब यह नियम सुना तो परीक्षा के लिए अपने एक हिंदू कर्मचारी के हाथ एक पोटली में सच्चे मोती भर कर सेवा के लिए संध्या के बाद रात को भेजे।

श्री महंत जी बोले: वाह खूब समय पर आप भेट लाये है। महंत जी ने तुरंत उन्हें खरल में पिसवाया ओर पान बीडी में भरकर श्री ठाकुर जी को भोग में अर्पण कर दिया कल के लिए कुछ नहीं रखा।

ऐसे संग्रह रहित विरक्त थे श्री महंत जी।
उनका यह भी नियम था कि चाहे कितने मिष्ठान व्यंजन पकवान भोग लगे स्वयं उनमें से प्रसाद रूप में कणिका मात्र ग्रहण करते सब पदार्थ संत सेवा में लगा देते ओर स्वयं मधुकरी करते।
आज भी स्थान पर पुरानी परंपराओं का निर्वाहन किया जाता है जैसे की मिट्टी के दीपकों से उजाला किया जाता है किसी भी प्रकार से मन्दिर की सेवा में विद्युत का प्रयोग नही किया जाता है रागों के द्वार ही मोहिनी बिहारी जू को प्रसाद पवाया जाता है जगाया जाता है शयन कराया जाता है ।

मंदिर में विशेष प्रसाद:
इस स्थान के महंत पदासीन महानुभाव अपने स्थान से बाहर कही भी नहीं जाते स्वामी हरिदास जी के आविर्भाव दिवस श्री राधाष्टमी के दिन यहाँ स्थानीय ओर आगुन्तक भक्तो कि विशाल भीड़ लगती है। आज भी इस स्थान पर प्रतिदिन दर्शन करने हेतु पधारे सभी भक्तों एवं संतो के लिए गौ माता के शुद्ध घी में प्रसाद पवाया जाता है

श्री स्वामी जी के कडुवा ओर दंड के उस दिन सबको दर्शन लाभ होते है।
उस दिन विशेष प्रकार कि स्वादिष्ट अरबी का भोग लगता है ओर बटता है। जो दही ओर घी में विशेष प्रक्रिया से तैयार की जाती है यहाँ का अरबी प्रसाद प्रसिद्ध है। इसे सखी संप्रदाय का प्रमुख स्थान माना जाता है।

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प्रिया प्रियतम की चर्चा

“परमानन्दकन्द लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण ने एक बार देखा कि श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकारानी के हाथ मे एक ताज़ी चोट है , पूछने लगे- “यह चोट कब लगी?” कैसे लगी? कहॉं लगी?

श्रीराधा ने हँसकर कहा:-“यह तो महीनों से है!”

श्रीकृष्ण ने कहा :-“ यह तो ताज़ी है?”

श्रीराधा ने कहा:- “इस पर आने वाली पपड़ी निकाल देती हुँ , इस प्रकार इसे ताज़ी रखती हुँ ।”

श्रीकृष्ण ने कहा:- क्यों?

श्रीराधा ने कहा:- “यह घाव बड़ा सुखद है, यह तुम्हारे नख लगने से हुआ है,तुम्हारा स्मरण दिलाया करता है ,इसलिये मै कभी इसे सुखने नही देती !”

“ प्रियतम का दिया दु:ख भी सुखदायक होता है,इसीलिये कोई कष्ट,अभाव,चिन्तित नही करती, क्योंकि वह उसे प्रियतम का दिया दिखता है।”

“एक बार श्यामसुन्दर, श्रीराधा के साथ बैठे थे, और वंशी बजा रहे थे , उनके मन मे इच्छा हुई कि प्रिया जी का वंशी वादन सुनना चाहिये ,पर यह बात कहें कैसे? एक उपाय सोच लिया , जान-बूझकर एक तान बजाने मे भूल कर दी , प्रियाजी से नही रहा गया,और उन्होंने उन्हें स्वयं बजाकर बतला दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण को अपने संगीत से अधिक आनन्द श्रीराधिकारानी के संगीत मे आता है।”

“एक बार गोलोक में बडे़- बडे़ देवता , श्रीकृष्ण का दर्शन करने आये।

श्रीकृष्ण सो रहे थे , और उनके रोम रोम से “राधा-राधा” निकल रहा था,

श्रीराधा ने यह देखा तो सोचा- इतना अपार प्रेम है इनका मुझसे!

वे “कृष्ण -कृष्ण” कहती हुई प्रेमावेश मे मूर्छित हो गयीं। श्रीकृष्ण जागे , और उन्होंने देखा कि प्रियाजी के रोम -रोम से कृष्ण नाम निकल रहा है तो उन्हें अङ्क मे ले लिया और “राधे -राधे” बोलते मूर्छित हो गये , प्रेम मे।

यह क्रम देर तक चलता रहा, एक चैतन्य हो,और दूसरे का प्रेम देखे तो मूर्छित हो जाये, दूसरा चैतन्य हो तो उसकी भी वही दशा हो।

जब बहुत देर हुई तो श्रीराधिकारानी की परमसखी ललिता जी निकुञ्ज मे आयी ,उन्होंने यह अवस्था देखी तो चकित रह गयीं –

“अङ्कस्थितेऽपि दयिते किमपि प्रलापम्।”

संयोग मे वियोग का यह अद्भुत संवेदन!

तात्पर्य है कि जिसे प्रेम प्राप्त होता है , उसे एकाङ्गी, अथवा वियोगात्मक-संयोगात्मक प्रेम नही मिलता। प्रेम का सामरस्य, सामञ्जस्य,ऐकरस्य, प्रेमी-प्रियतम दोनो के एक हुये बिना नही होता।

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श्रीतिलोक जी सुनार



श्री त्रिलोक भक्त जी पूर्व देश के रहने वाले थे और जाति के सोनार थे। उन्होंने हृदय में भक्तिसार संत सेवा का व्रत धारण कर रखा था। एक बार वहां के राजा की लड़की का विवाह था।

उसने इन्हें एक जोड़ा पायजेब बनाने के लिए सोना दिया। परंतु इनके यहां तो नित्य प्रति अनेकों संत महात्मा आया करते थे। उनकी सेवा से इन्हें किंचित मात्र भी अवकाश नहीं मिलता था ।अतः आभूषण नहीं बना पाए। जब विवाह के दो ही दिन रह गए और आभूषण बनकर नहीं आया तो राजा को क्रोध हुआ और सिपाहियों को आदेश दिया कि तिलोक सुनार को पकड़ लाओ ।

सिपाहियों ने इन्हें तुरंत ही पकड़ कर ला कर राजा के सम्मुख कर दिया ।राजा ने इन्हें डाँट कर कहा कि ‘ तुम बड़े धूर्त हो ‘ ।समय पर आभूषण बनाकर लाने को कह कर भी नहीं लाए ।उन्होंने कहा- महाराज ! अब थोड़ा काम शेष रह गया है। अभी आपकी पुत्री के विवाह के दो दिन शेष हैं। यदि मै ठीक समय पर ना लाऊं तो आप मुझे मरवा डालना।

राजा की कन्या के विवाह का दिन भी आ गया, परन्तु इन्होंने आभूषण बनाने के लिए जो सोना आया था उसे हाथ से स्पर्श भी नहीं किया।फिर इन्होंने सोचा समय पर आभूषण न मिलने से अब राजा मुझे जरूर मार डालेगा ।

अतः डर के मारे जंगल में जाकर छिप गये । यथा समय राजा के चार-पांच कर्मचारी आभूषण लेने के लिए श्री तिलोक जी के घर आए । भक्त के ऊपर संकट आया जानकर भगवान ने श्री तिलोक भक्त का रूप धारण कर अपने संकल्प मात्र से आभूषण बनाया और उसे लेकर राजा के पास पहुंचे ।वहां जाकर राजा को पायजेब का जोड़ा दिया ।राजा ने उसे हाथ में ले लिया ।

आभूषण को देखते ही राजा के नेत्र ऐसे लुभाये कि देखने से तृप्त ही नहीं होते थे। राजा श्री तिलोक जी पर बहुत प्रसन्न हुआ। उनकी पहले ही सब भूल चूक माफ कर दी और उन्हें बहुत सा धन पुरस्कार में दिया ।श्री तिलोक रूप धारी भगवान मुरारी इस प्रकार धन लेकर श्री तिलोक भक्त के घर आकर विराजमान हुए ।

श्री तिलोक रूप धारी भगवान ने दूसरे दिन प्रातः काल ही महान उत्सव किया ।उसमें अत्यंत रसमय , परम स्वादिष्ट अनेकों प्रकार के व्यंजन बने ।साधु ब्राह्मणों ने खूब पाया। फिर भगवान एक संत का स्वरूप धारण कर झोली भर प्रसाद लिए वहां गए ।जहां श्री तिलोक भक्त छिपे बैठे थे ।

श्री तिलोक जी को प्रसाद देकर संत रूप धारी भगवान ने कहा – श्री तिलोक भक्त के घर गया था।उन्होंने भी खूब प्रसाद पवाया और झोली भी भर दी। श्री तिलोक भक्त ने पूछा – कौन तिलोक ?भगवान ने कहा- जिसके समान त्रैलोक्य में दूसरा कोई नहीं है। फिर भगवान ने पूरा विवरण बताया ।संत रूप धारी भगवान के वचन सुनकर श्री तिलोक जी के मन को शांति मिली ।

फिर भगवत प्रेम में मग्न श्री तिलोक जी रात्रि के समय घर आए। घर पर साधु-संतों की चहल-पहल तथा घर को धन-धान्य से भरा हुआ देखकर श्री तिलोक जी का श्री प्रभु के चरणों की ओर और भी अधिक झुकाव हो गया । वे समझ गए कि श्री प्रभु ने मेरे ऊपर महान कृपा की है। निश्चय ही मेरे किसी महान भाग्य का उदय हुआ है।

भक्त की कोई जाती नहीं होता

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राधा जू की कृपा

एक दिन श्री राधा रानी जी श्यामसुन्दर जी से मिलने निकुञ्ज जा रही थीं। मंजरियों ने श्री राधा रानी जी अनुपम माधुर्य श्रृंगार किया। श्री राधा रानी को सुन्दर मणि मनिकों से सुसज्जित लहँगा धारण कराया। लहँगा इतना अनुपम सुन्दर है कि उसे देख कर सभी सखियाँ हर्षित और पुलकित हो गयीं। सखियाँ सोचती हैं जब श्याम सुन्दर इसे देखेगे तो आनंदित हो जायेंगे।

प्रियाजी श्रृंगार करके निकुञ्ज की ओर चली जा रही हैं, सभी सखियाँ पीछे-पीछे उनके नामों के गुणों का गान करती चल रही हैं। लहँगा को छूकर कभी ब्रजरज अपने को धन्य कर रही है तो कभी निकुञ्ज की लता-पतायें अपने को धन्य कर रही हैं। मानों आज सभी में श्रीजी का स्पर्श पाने की होड़ लगी है।

वृक्ष की ऊँची डाल पर टंगा सूखा पत्ता भी श्री राधा की कृपा पाने के लिये व्याकुल हो रहा है। किस विधि श्रीजी की कृपा पा सके, उनकी राह में होते हुए भी उनकी कृपा से दूर है। यही विचार करते-करते उदास हो रहा है। तभी एक शीतल पवन का झोंका आया और सूखे पत्ते को डाल से अलग करके ले उड़ा। पत्ता उड़कर सीधा राधाजी के लहराते लहँगे पर जा गिरा। राधाजी की कृपा देखिये कि पत्ता लहँगे से टकरा कर नीचे नहीं गिरा अपितु लहँगे ने ही उसे गिरने से थाम लिया, और अपने साथ ही निकुञ्ज में ले चला।

निकुञ्ज का द्वार आया तो सभी सखियाँ द्वार पर रुक गयीं। श्री रूपमंजरी प्रिया जी को निकुञ्ज के अंदर ले गयी साथ में प्रियाजी की कृपा से सूखा पत्ता भी निकुञ्ज में प्रवेश कर गया। जो निकुञ्ज शिवजी, ब्रह्माजी, बड़े-बड़े महा मुनियो को दुर्लभ है उस निकुञ्ज में सूखे पत्ते का प्रवेश मिल गया। जिस निकुञ्ज में केवल सखियों और मंजरियों को ही आने की आज्ञा है उस परम आलौकिक निकुञ्ज के दर्शन आज श्री राधाजी की अहैतुकी कृपा से उसे सुलभ हो गये।

जब प्रियाजी सुकोमल फूलो से बने शय्या पर पर विराजमान हुई तो प्रिया जू ने उस सूखे पत्ते को अपने हाथो में लिया और अपने कपोलो से लगा लिया। प्रिया जी स्पर्श पाते ही वो सूखा पत्ता एक सुबासित कली बन गया और प्रिया जी ने उसे अपने निकुञ्ज में हमेशा के लिए रख लिया।

ऐसी है प्रियाजी की अहैतुकी कृपा जो एक बार उनकी शरण में आ जाये हमेशा-हमेशा के लिये वे उसे अपने आश्रय में ले लेती हैं।

“जय जय श्री राधे”

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क्या अयोग्य को गुरु की शरणागति प्राप्त होती है?

प्र०- महाराजश्री, मैं बिलकुल अयोग्य हूँ क्या आप मुझे भी शरणागति प्रदान करेंगे ?

समाधान शरणागति का प्रारम्भ ही यहाँ से होता है, जब तक कोई योग्यता, समझ या ज्ञान होता है तब तक पूर्ण शरणागति नहीं होती है । अर्जुन जब तक अपनी समझ का आश्रय लेते रहे तब तक गीत प्रारंभ नहीं हुई और जब अर्जुन ने कह दिया कि –

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता २/७)

‘कायरता रूप दोष से उपहत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त वाला मैं आपसे कल्याणकारी साधन के विषय में जानना चाहता हूँ, आप मुझे बताइये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ।’ तब भगवान् ने गीता सुनाना प्रारम्भ की। जब अपने में अयोग्यता नजर आती है, तभी ये भाव उदय होता है कि मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हैं; यही सच्ची शरणागति है ।

सुने री मैंने निरबल के बलराम ।

अपबल तपबल और बाहुबल चौथो बल है दाम ।

सूर किशोर कृपा ते सब बल हारे को हरिनाम ॥

जब तक कोई भी बल है तब तक शरणागत होने का नाटक हो सकता है, वास्तविक रूप से शरणागति नहीं हो सकती । जब तक साधक में साधकपना है, कर्तृत्वाभिमान है, तब तक मूढ़ता उसका संग नहीं छोड़ती, ‘अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।” ‘मैं कुछ कर सकता हूँ’, ऐसे अहंकार से जो युक्त है, वह विमूढात्मा है; और जहाँ ये भाव आया कि मैं किसी योग्य नहीं हूँ, में हार गया हे प्रभो ! बस वहीं से शरणागति प्रारम्भ होती है और जहाँ वह शरणागत हुआ तो समस्त दैवी सम्पदा उसके हृदय में प्रकाशित हो जाती है ।

अगर कुछ समझ, ज्ञान या सामर्थ्य है तो पूर्ण समझ, ज्ञान या सामर्थ्य नहीं आने वाली जब कोई सामर्थ्य नहीं रह जाती तो प्रभु बहुत सामर्थ्य दे देते हैं। जब तक द्रौपदी में सामर्थ्य रही तब तक प्रभु नहीं आये और जब कोई सामर्थ्य नहीं रहीं दोनों हाथ उठा दिए तो इतनी बड़ी सामर्थ्य प्रकट हो गयी कि १० हजार हाथियों का भुजाओं में बल रखने वाला दुस्सासन हार गया लेकिन साड़ी नहीं खींच पाया। इसीलिये शरणागति का तो सच्चा अधिकारी ही वही है जो अपने को पूर्ण अयोग्य समझता है।

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रोम रोम मे कृष्ण

. “रोम-रोम में कृष्ण”

एक बार की बात है महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारिका गये पर इस बार रथ अर्जुन चलाकर के ले गये। द्वारिका पहुँचकर अर्जुन बहुत थक गये इसलिए विश्राम करने के लिए अतिथि भवन में चले गये।
शाम के समय रूक्मणी जी ने कृष्ण को भोजन परोसा तो कृष्ण बोले–’घर में अतिथि आये हुए हैं हम उनके बिना भोजन कैसे कर लें ?’
रूक्मणी जी ने कहा–’भगवन आप आरम्भ करिये मैं अर्जुन को बुलाकर लाती हूँ।’ जैसे ही रूक्मणी जी वहाँ पहुँचीं तो उन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनके रोम-रोम से कृष्ण नाम की ध्वनि प्रस्फुटित हो रही है तो ये जगाना तो भूल गयीं और मन्द-मन्द स्वर में ताली बजाने लगीं।
इधर नारद जी ने कृष्ण से कहा–’भगवान भोग ठण्डा हो रहा है।’
कृष्ण बोले–’अतिथि के बिना हम नहीं करेंगे।’
नारद जी बोले–’मैं बुलाकर लाता हूँ।’ नारद जी ने वहाँ का नजारा देखा तो ये भी जगाना भूल गये और इन्होंने वीणा बजाना शुरू कर दिया।
इधर सत्यभामा जी बोली–’प्रभु भोग ठण्डा हो रहा है आप प्रारम्भ तो करिये।’
भगवान बोले–’हम अतिथि के बिना नहीं कर सकते।’
सत्यभामा जी बोलीं–’मैं बुलाकर लाती हूँ।’ ये वहाँ पहुँची तो इन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनका रोम-रोम कृष्ण नाम का कीर्तन कर रहा है और रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं नारद जी वीणा बजा रहे हैं तो ये भी जगाना भूल गयीं और इन्होंने नाचना शुरू कर दिया।
इधर भगवान बोले–’सब बोल के जाते हैं भोग ठण्डा हो रहा है पर हमारी चिन्ता किसी को नहीं है, चलकर देखता हूँ वहाँ ऐसा क्या हो रहा है जो सब हमको ही भूल गये।’
प्रभु ने वहाँ जाकर के देखा तो वहाँ तो स्वर लहरी चल रही है। अर्जुन सोते-सोते कीर्तन कर रहे हैं, रूक्मणी जी ताली बजा रही हैं, नारद जी वीणा बजा रहे हैं, और सत्यभामा जी नृत्य कर रही हैं।
ये देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये और प्रभु ने अर्जुन के चरण दबाना शुरू कर दिया। जैसे ही प्रभु के नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की बूँदें अर्जुन के चरणों पर पड़ी तो अर्जुन छटपटा के उठे और बोले–’प्रभु ये क्या हो रहा है।’
भगवान बोले–’अर्जुन तुमने मुझे रोम-रोम में बसा रखा है इसीलिए तो तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय हो’ और गोविन्द ने अर्जुन को गले से लगा लिया।
———-:::×:::———

“जय जय श्री राधे”
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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 107

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 106)

!! दावानल बिहारी !!

क्या छबि थी तात ! उद्धव भाव विभोर होकर बोले ।

शताधिक फण थे उस कालियनाग के ……..उस पर त्रिभंगी मुद्रा से खड़े थे वनवारी……..अधरों पर बाँसुरी रखे हुए थे …….मुस्कुराहट अन्य दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही थी……..नाग मणियों की बहुमूल्य माला नाग पत्नियों नें स्वयं अपनें हाथों से पहनाया था …..उसकी चमक अद्भुत थी ।

आजा ! आजा ! सब ग्वाल सखा पुकार उठे थे ……….उनको जो प्रसन्नता हो रही थी उसका वर्णन करना शब्दों में असम्भव ही है ।

मैया यशोदा के देह में तो मानों प्राणों का पुनः संचार हो गया था ।

लाला ! आजा !

वो भी पुकारनें लगी थीं ।

बलभद्र अपनें वक्ष को चौड़ा करके चल रहे थे ……सबको मानों ये बताना चाहते थे कि ……देखा ! मैने जो कहा था वही सच हुआ ना !

नन्दबाबा तो इतनें प्रसन्न थे कि अतिप्रसन्नता के कारण उनके मुख से शब्द भी नही निकल रहे थे ……………

बाबा !

कालीय नाग के फण से ही कन्हैया अपनें बाबा से बात करनें लगे ।

बाबा ! आप चिन्ता मत करो ….ये कालीय नाग एक करोड़ नीलकमल के पुष्प आज ही मथुरा में पहुँचा देगा……..नन्दबाबा नें जैसे ही अपनें पुत्र के मुख से ये सुना तो आनन्दाश्रु उनके नेत्रों से बह चले थे ।

मनसुख बोला …….लाला ! अब तौ आजा ! या नाग के ही फण में ठाडौ रहेगो !

मनसुख की बातें सुनकर कन्हैया मुस्कुराये …….और नाग के फण से ही कूदे …………सीधे अपनें ग्वाल सखाओं के मध्य में ।

सबसे प्रथम बलराम नें अपनें अनुज को हृदय से लगाया था ।

फिर तो मैया यशोदा ……बाबा नन्द ………सखा वृन्द सब ।

दूर खड़ी है …………….कोई अत्यन्त सुन्दरी ………………..

वो कौन है ? श्रीदामा नें आगे आकर कहा ……..मेरी बहन है …….उसनें जब सुना कि तू कालीदह में कूद गया ………वो उसी समय बरसानें से आगयी थी ।

कन्हैया नें देखा अपनी प्राणप्रिया श्रीराधा को ।

श्रीदामा के पीठ में हाथ रखते हुए अपनी प्रिया को देखते हुए बोले ……पर श्रीदामा ! मैं तेरी गेंद नही ला पाया !

पागल ! तेरे लिये मेरे प्राण भी न्यौछाबर लाला ! गेंद क्या चीज है ।

श्रीदामा बोलता रहा …….कन्हैया आगे बढ़े , श्रीराधा शरमा रही हैं ।

श्रावण मास में बुलवाया है मैने इस कालीय नाग को राधे ! इसी का झूला डालेंगे कदम्ब की डार पे…….सबके सामनें ही अपनी श्रीजी को हृदय से लगा लिया था उस नट नागर नें ।

रात हो रही है……..अब कहाँ जायेगें ! क्यों न आज की रात्रि यहीं बिताई जाए ? बृजराज नन्द जी नें समस्त गोपी गोपों से ये सलाह ली ।

कृष्ण से मतलब है इन सबको …………..इनके साथ कन्हैया है तो सब आनन्द ही आनन्द है ………..

मनसुख बोला – और आनन्द आवेगौ ! कन्हैया के साथ रात भर रहेंगे …….वाह ! इस तरह सब गोप और गोपी आनन्दित हो उठे थे ।

वहीं रोटी बनाई गोपिन नें ……………मैया यशोदा नें अपनें लाला और बरसानें की लाली को अपनें हाथों से माखन और रोटी खिलाई …….दाऊ बड़े प्रसन्न हैं ……..वो तो अपनें अनुज को देखकर ही गदगद् हैं आज ………….सबनें माखन रोटी खाई ………..माखन कुछ विप्र आगये थे उन्होंने ही दिया था ………..नन्द जी नें उस सब विप्रों को अपनें गले का हीरों का हार दक्षिणा स्वरूप दिया …….खूब आशीर्वाद देते हुये वो सब चले गए थे ।

रात्रि हो गयी थी ……….भोजन सबनें कर ही लिया था ……..कोमल पत्तों का विस्तर लगा दिया मैया नें ………..बाँसों का झुरमुट था यहाँ ….ऋतू ग्रीष्म थी …….गर्मी अच्छी पड़ रही थी ।

कन्हाई सो गए ……..पास में ही श्रीराधा भी सो गयीं ……

इस तरह सब निश्चिन्त होकर सो गए थे उस रात्रि को ।

पर –

लाला ! बचा ! कन्हैया बचा ! कन्हैया !

सब ग्वाल बाल एकाएक अर्धरात्रि को पुकारनें लगे थे ।

क्या हुआ ? क्यों चिल्ला रहे हो ? कन्हैया कच्ची नींद में उठ गए ……..आँखों को मलते हुए अपनें ग्वाल सखाओं से पूछनें लगे थे ।

देख ! सामनें देख लाला ! नन्द बाबा नें भी कहा ।

ओह ! गर्मी के कारण बाँस सूखे हुए हैं……..फिर उसपर हवा चली …..तो बाँस में रगड़ हुआ ……..चिंगारी प्रकट हुयी उससे ही इस वन में आग लग गयी थी……अब तो चारों ओर हाहाकार मच गया था ।

कन्हैया जैसे ही दौड़े उस आग के पास …………..उसी समय श्रीराधिका नें कन्हैया का हाथ पकड़ा और अपनी और खींचा ।

प्यारे ! ये दावानल है ………..ऐसे पी नही पाओगे इसे ……….भयानक आग है ये …………….अपनें से अत्यन्त निकट लाकर कन्हैया से कह रही थीं राधिका ।

फिर ? कैसे ? बस इतना ही बोल पाये थे कन्हैया ।

मेरे अधरों का पान करो …………ये अमृत है अधरामृत ! तभी तुम इस दावानल का पान कर सकोगे ………..नही तो झुलस जाओगे ….इतना कहकर राधिका नें अपनी ओर खींचा श्याम सुन्दर को ।

अग्नि के कारण धुँआ बहुत था वन में …..इसलिये कोई देख न सका …………इस दोनों सनातन प्रेमियों के अधर मिले ……….

शक्ति मिली शक्तिमान को………..

श्याम सुन्दर गए उस आग में ……..दावानल में ……….और अपनें स्वांस को जब खींचा अपनें भीतर ……….सारी की सारी अग्नि कन्हैया नें पी ली थी ……………..पी रहे थे ………..।

बिहार कर रहे थे दावानल के साथ ……….कन्हैया आज ………..

अग्नि शान्त हुयी ……अग्नि बूझ गयी………तभी वर्षा प्रारम्भ हो गया ।

झूम उठे थे सब ग्वाल बाल ……………

पर –

श्रीराधा रानी दूर खड़ी होकर अपनें प्यारे नन्दनन्दन को देख रही थीं ।

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वंशीवट

अमल प्रमाण श्रीमद्भागवतमें वर्णित प्रसिद्ध राधाकृष्णयुगलकी सखियों के साथ रासलीलाको प्रसिद्ध स्थली यही वंशीवट है गोपकुमारियोंकी कात्यायनी पूजाका फल प्रदान करनेके लिए रसिक बिहारी श्रीकृष्णाने जो वरदान दिया था, उसे पूर्ण करनेके लिए उन्होंने अपनी मधुर वेणुपर मधुर तान छेड़ दी। जिसे सुनकर गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर राका रजनीमें यहाँ उपस्थित हुई।” रसिकेन्द्रशेखर श्रीकृष्णने अपने प्रति समर्पित गोपियोंको धर्मव्यतिक्रमके बहानेसे अपने पतियोंकी सेवाके लिए उनके घरोंमें लौटनेकी बहुत-सी युक्तियाँ दीं किन्तु विदग्ध गोपियोंने उनकी सारी युक्तियोंका सहज रूपमें ही खण्डन कर दिया। शतकोटि गोपियोंके साथ यहींपर शारदीय रास आरम्भ हुआ। दो-दो गोपियोंके बीचमें एक कृष्ण अथवा दो कृष्णके बीच में एक गोपी। इस प्रकार विचित्र नृत्य और गीतयुक्त रास हो ही रहा था कि अन्यान्य गोपियोंको सौभाग्यमद और श्रीमती राधिकाजीको मान हो गया। इसे देखकर रसिकशेखर श्रीकृष्ण श्रीमती राधिकाजीका मान प्रसाधन तथा अन्यान्य गोपियोंके सौभाग्यमदको दूर करनेके लिए यहींसे अन्तर्धान हो गये। पुनः विरहिणी गोपियोंने ‘जयतितेऽधिकम्…’ विरह गीतको रोते-रोते उच्च स्वरसे गायन किया, जिसे सुनकर कृष्ण यहींपर प्रकट हुए। यहींपर इन्होंने मधुर शब्दोंसे गोपियोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी कि मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग करनेका तुम्हारा अवदान है। मैं इसके लिए तुम्हारा चिरऋणी हूँ, जिसे मैं कभी भी नहीं चुका सकता। यह रासलीला स्थली सब लीलाओंकी चूड़ामणि स्थली स्वरूप है। श्रीवज्रनाभ महाराजने इस रासस्थलीमें स्मृतिके लिए जिस वृक्षका रोपण किया था, कालान्तरमें वह स्थान यमुनाजीमें आप्लावित हो गया। साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व श्रीगदाधर पण्डितके शिष्य श्रीमधुपण्डितने उसकी एक शाखा लेकर इस स्थानमें गाढ़ दी थी। जिससे वह शाखा प्रकाण्ड वृक्षके रूपमें परिणत हो गई। यहाँपर भजन करते हुए श्रीमधुपण्डितने ठाकुर श्रीगोपीनाचनीको प्राप्त किया था। इस समय वंशीवटके चतुष्कोण परकोटेके चारों कोनोंमें चार छोटे-छोटे मन्दिर हैं। उनमें क्रमशः श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीविष्णुस्वामी एवं श्रीनिम्बार्काचार्यकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। आजकल इन मूर्तियोंके बदले कुछ दूसरी मूर्तियाँ भी यहाँ प्रविष्ट हो गई हैं। पहले इस स्थानमें गौड़ीय वैष्णव सेवा करते थे। बादमें ग्वालियर राजाके गुरु ब्रह्मचारीजीने इस स्थानको क्रय कर लिया। अतः तबसे यह स्थान निम्बार्क सम्प्रदाय के अन्तर्गत हो गया है।

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श्री जी के आभूषण

एक दिन श्यामसुंदर श्री राधा रानी की श्रृंगार कक्ष में गए और वहाँ एक पेटी जिसमें राधा रानी के सारे अलंकार आभूषण रखे थे, उस को खोला। एकांत ना मिलने के कारण बहुत दिनों से सोच रहे थे, आज मौका मिला भंडार गृह में कोई नहीं था एकांत था।
सबसे पहले श्यामसुंदर जी ने राधा रानी का हरिमोहन नामक कंठ हार निकाला और अपने हृदय से लगाया और सोचने लगे यह हार कितना सौभाग्यशाली है जो हमेशा प्रिया जी के हृदय के समीप रहता है। हमेशा उनकी करुणामयी धड़कन को सुनता है। उनकी हर धड़कन में श्याम-श्याम नाम को प्रतिपल सुनता है। कैसा अद्भुत सौभाग्य है इस हार का जो मेरी किशोरी जी के ह्रदय के समीप रहता है फिर हार को अपनी अधरों से लगा कर और अपने नैनों से लगाकर रख दिया।
फिर प्रिया जू की मांग की मोतियों की माला को अपने हृदय से लगाया और कहा- मोतियों की माला ये मेरा जीवन है, इसे प्रिया जी अपनी सिंदूर रेखा भरी मांग पर धारण करती हैं उसी से मेरा जीवन अस्तित्व है इसकी सौभाग्य की कैसे वंदना करो कैसे वंदना करूं ? अपने कपोलो से लगा कर भाव बिभोर हो गए नयन सजल हो गये प्रियतम के।
फिर श्याम सुंदर ने प्रिया जी की नथ को अपने हाथों से उठाया और कहने लगे नथ की सौभाग्य की बात कैसे करूं यह नथ प्रेम रीति से प्रिया जी के कोमल कपोलो (गालों) का अखंड सानिध्य प्राप्त है कैसे प्रिया जी के कपोलो की काँति स्पर्श प्राप्त है। कैसे नथ की सुधरता का वर्णन करूँ ?श्री प्रिया जू के नथ में प्रभाकरी नाम का मोती है यही मेरे जीवन का उजाला है।
फिर श्यामसुंदर ने विपक्ष मद मांर्दिनी नामक राधा जी की अंगूठियों को अपने हृदय से लगा लिया और कहने लगे- इन की अंगूठियों को पहनकर राधा रानी के हाथ सभी भक्तों को प्रेम और कृपा का दान करते हैं। कैसा अनुपम सौभाग्य है अंगूठियों का जिन्हें प्रिया जू अपने कोमल हाथों में धारण करती हैं तो फिर श्यामसुंदर अंगूठियों को अपनी उंगलियों में पहन लिया। इन अंगूठियों का कैसा अनुपम सौभाग्य है जो प्रिया जी की करुणामयी कृपामयी कोमल हाथों का सानिध्य प्राप्त है।
फिर श्यामसुंदर श्री राधा रानी के नूपुर पायलों को अपने हाथों से उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया। श्यामसुंदर भाव विभोर हो गए थे। उनके नैन सजल हो गए नैनों से अश्रु धारा बहने लगी। श्यामसुंदर ने प्रिया जी के नूपुरों को अपने अधरों से लगाया और उन्हें चूमा और कहने लगे कैसे सराहना करूं इन नूपुरों की ? परम करुणा में श्री राधा रानी अपने श्री चरणों में धारण करती हैं। प्रिया के श्री चरणों में मेरी जीवन धन है। कैसा सौभाग्य है इन नूपुरों का जो जिन्हें प्रिया जू श्री चरणों का सानिध्य मिला हुआ है। प्रिया जी के बिछिया और नुपर को देख कर कहने लगे प्रिया जी चाहे कोई योग्य हो या अयोग्य हो हर किसी को अपने उन्मुक्त भाव से आश्रय देती हैं।

राधा रानी की हाथ में अंगूठियां इस बात की साक्षी हैं कि राधा रानी की कर कमलों में जिनको जो वरदान दिया है वह सदा अमोघ है, और यह राधा रानी के कुंडल इस बात के साक्षी है की प्रिया जी सदा सब की सुनती हैं कोई भी सखी हो यह मंजरी हो ऐसी कोई नहीं जिसके कथन पर तो प्रिया ने ध्यान ना दिया हो। पिया जू हर अपने भक्तों की बात का ध्यान देती हैं यह कुंडल इस बात के साक्षी हैं कि प्रिया जी अपने भक्तों की बातें कितनी ध्यान से सुनती हैं। प्रिया जो की नथ इस बात की साक्षी है कि वह अपने हर भक्त की जीवन की सांसो का संचार करती हैं, जीवन प्राण हैं। अपने भक्तों पर प्रिया जी का हार इस बात का साक्षी है कि प्रिया जी अपने भक्तों को अपने हृदय में स्थान देती हैं। सभी आभूषणों को श्यामसुंदर ने अपने हृदय से लगाया श्यामसुंदर के नयन सजल हो गए और

उनके नैनों से अश्रुधारा बहने लगी। फिर श्यामसुंदर ने एक-एक करके सारे अलंकार पहने अपनी उंगलियों में प्रिया जू की अंगूठी पहनी। अपने पैरों में प्रिया जी की पायल पहनी अपने कानों में प्रिया जू का कुंडल पहना अपने गले में प्रिया जू का कंठहार पहना अपने कमर में प्रिया जू की करधनी जू पहनी। सभी अलंकारों को एक-एक करके धारण किया और भावुक होकर इस आनंद का अनुमोदन करने लगे जो प्रिया जी अलंकारों को पहन कर आनंद पाती हैं। उसी समय प्रिया जी रति और रूप मंजरी के साथ श्रृंगार कक्ष में आई और देखा श्यामसुंदर उनके अलंकारों की अपने अंगों पर पहने हुए हैं। श्यामसुंदर के इस छवि को देखकर प्रियाजी परम परमानंद पाया। प्रियाजी पुलकित कायमान हो गई। अपने प्रियतम का अद्भुत प्रेम अपने अलंकारों के प्रति देखकर कभी रूप मंजरी रतिमंजरी से कहने लगीं- कैसा अनुपम सौभाग्य है इन अलंकारों को जो आज श्यामसुंदर अपना प्रेम रस भर रहे हैं इन अलंकारों को। जिससे प्रिया जी जब इन्हें धारण करें श्याम सुंदर की प्रेम से सराबोर हो जाएँ ऐसे अलंकारों के सौभाग्य की जय हो।

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कृष्ण और बलराम जी की शरारत

एक दिन माता यशोदा दही मथकर माखन निकाल रहीं थीं। अचानक माँ को आनन्द देने के लिए बलराम और श्याम उनके निकट पहुँच गए। कन्हैया ने माँ की चोटी पकड़ ली और बलराम ने मोतियों की माला। दोनों माँ को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करने लगे।

बलराम कहते थे, माँ तुम पहले मेरी सुनो और कन्हैया कहते थे कि नहीं, माँ तुम्हें पहले मेरी सुननी पड़ेगी, मैया! मुझे भूख लगी है। भूख से मेरा बुरा हाल है। चलो ना जल्दी से मुझे माखन रोटी दे दो यशोदा जी ने कहा- बेटा! दूध पी लो या घर में अनेक प्रकार के पकवान बने हैं जो तुम्हारी इच्छा हो खा लो। कन्हैया ने कहा- नहीं, मैं तो केवल माखन रोटी ही खाऊँगा। मेवा पकवान मुझे अच्छे नहीं लगते। जब तक तुम मुझे माखन नहीं दे दोगी तब तक मैं तुम्हारी चोटी खीचता ही रहूँगा। माँ ने कहा- कन्हैया अगर तू माखन खायेगा तो तेरी यह चोटी छोटी रह जाएगी, कभी नहीं बढ़ेगी। कन्हैया ने कहा- माँ, तुम दाऊ भैया को तो कभी मना नहीं करती, वह जब भी माँगते हैं तुम उन्हें माखन रोटी दे देती हो। मुझे क्यों नहीं दे रहीं हो? माँ ने कहा- कान्हा देखो, पहले मैं दाउ को भी माखन रोटी नहीं देती थी, वह भी मेवा पकवान खाता था और दूध पीता था, तभी तो उसकी चोटी लंबी-चौड़ी है। यदि तुम भी दूध पीओगे तो तुम्हारी भी चोटी लंबी हो जाएगी। जाओ मेरे लाल अच्छे बच्चे जिद नहीं करते। कान्हा ने कहा- माँ तुम झूठ बोलती हो, कितनी बार मैने दूध पिया है पर मेरी चोटी अब तक नहीं बढ़ी।। आज तुम्हारा बहाना नहीं चल सकता। तुम्हें मुझे माखन रोटी देनी ही पड़ेगी। मैया ने कहा कान्हा दाउ अब बड़ा हो गया है। इसने तुमसे अधिक दिनों तक दूध पिया है। इसलिए दाउ की चोटी बढ़ गयी, जब तुम भी उतने ही दिनों तक दूध पी लोगे तब तुम्हारी भी चोटी बढ़ जाएगी। कन्हैया ने कहा- मैया मैं यह सब नहीं सुनूँगा तुम साफ-साफ बताओ मुझे माखन रोटी देती हो कि नहीं, यदि तुम मुझे माखन रोटी नहीं दोगी तो, जाओ मैं तुमसे बात नहीं करूँगा। ना ही तुम्हारी गोदी में आऊँगा। अब दाऊ भैया ही तुम्हारे पुत्र हैं, मैं भला तुम्हारा क्या लगता हूँ। माता यशोदा ने कहा- कान्हा तू तो मेरा प्राण है मैं भला तेरे बिना कैसे रह सकती हूँ। मेरे नन्हे लाल मैं तेरी बलैया लेती हूँ। तनिक रूको। मुझे माखन तो निकाल लेने दो, फिर तुम्हे जितना माखन चाहिए ले लेना। इस प्रकार माता यशोदा की आँखों से प्रेमाश्रु छलक पड़े। यशोदा मैया धन्य हैं। त्रिभुवन का भरण पोषण करने वाले प्रभु माखन के लिए बार-बार उनके हाथ फैलाते हैं। यशोदा मैया से बड़ा सौभाग्य भला किसका होगा।

“जय जय श्री राधे”

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एक अद्भुद लीला

“नागा बाबा (कदम खण्ड़ी)”

वृन्दावन में एक महात्मा जी का निवास था लोग उन्हें नागा बाबा के नाम से जानते थे जो युगल स्वरुप की उपासना किया करते थे। एक बार वे महात्मा जी संध्या वन्दन के उपरान्त कुंजवन की राह पर जा रहे थे, मार्ग में महात्मा जी जब एक वटवृक्ष के नीचे होकर निकले तो उनकी जटा उस वट-वृक्ष की जटाओं में उलझ गईं, बहुत प्रयास किया सुलझाने का परन्तु जब जटा नहीं सुलझी तो महात्माजी आसन जमा कर बैठ गए, कि जिसने जटा उलझाई है वो सुलझाने आएगा तो ठीक है नही तो मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा और बैठे-बैठे ही प्राण त्याग दूँगा।

तीन दिन बीत गए महात्मा जी को बैठे हुए। एक सांवला सलोना ग्वालिया आया जो पाँच-सात वर्ष का रहा होगा। वो बालक ब्रजभाषा में बड़े दुलार से बोला- “बाबा ! तुम्हारी तो जटा उलझ गईं, अरे मैं सुलझा दऊँ का” और जैसे ही वो बालक जटा सुलझाने आगे बढ़ा महात्मा जी ने डाँट कर कहा “हाथ मत लगाना पीछे हटो कौन हो तुम ?” ग्वालिया बोला “अरे हमारो जे ही गाम है महाराज ! गैया चरा रह्यो तो मैंने देखि महात्माजी की जटा उलझ गईं हैं, तो मैंने सोची ऐसो करूँ मैं जाए के सुलझा दऊँ।” महात्माजी बोले, न न न दूर हट जा। ग्वालिया- चौं ! काह भयो ? महात्माजी बोले, “जिसने जटा उलझाई हैं वो आएगा तो ठीक नहीं तो इधर ही बस गोविन्दाय नमो नमः” ग्वालिया, “अरे महाराज तो जाने उलझाई है वाको नाम बताए देयो वाहे बुला लाऊँगो।” महात्माजी बोले, “न जिसने उलझाई है वो अपने आप आ जायेगा। तू जा नाम नहीं बताते हम।”

कुछ देर तक वो बालक महात्मा जी को समझाता रहा परन्तु जब महात्मा जी नहीं माने तो उसी क्षण ग्वालिया के भेष को छुपा कर ग्वालिया में से साक्षात् मुरली बजाते हुए मुस्कुराते हुए भगवान बाँकेबिहारी प्रकट हो गए। सांवरिया सरकार बोले “महात्मन मैंने जटा उलझाई हैं ? लो आ गया मैं।” जैसे ही सांवरिया जी जटा सुलझाने आगे बढे। महात्मा जी ने कहा- “हाथ मत लगाना, पीछे हटो, पहले बताओ तुम कौन से कृष्ण हो ?” महात्मा जी के वचन सुनकर सांवरिया जी सोच में पड़ गए, अरे कृष्ण भी दस-पाँच होते हैं क्या ? महात्मा जी फिर बोले “बताओ भी तुम कौन से कृष्ण हो ?” सांवरिया जी, “कौन से कृष्ण हो मतलब ?” महात्माजी बोले, “देखो कृष्ण भी कई प्रकार के होते हैं, एक होते हैं देवकीनंदन कृष्ण, एक होते हैं यशोदानंदन कृष्ण, एक होते हैं द्वारकाधीश कृष्ण, एक होते हैं नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण। सांवरिया जी, “आपको कौन-सा चाहिए ?” महात्माजी, “मैं तो नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण का परमोपासक हूँ।” सांवरिया जी बोले, “वही तो मैं हूँ। अब सुलझा दूँ ?” जैसे ही जटा सुलझाने सांवरिया सरकार आगे बढे तो महात्माजी बोल उठे, “हाथ मत लगाना, पीछे हटो, बड़े आये नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण, अरे नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण तो किशोरी जी के बिना मेरी स्वामिनी श्री राधारानी के बिना एक पल भी नहीं रहते। तुम अकेले सौंटा से खड़े हो।”

महात्मा जी के इतना कहते ही सांवरिया जी के कंधे पर श्रीजी का मुख दिखाई दिया, आकाश में बिजली सी चमकी और साक्षात् वृषभानु नंदिनी, वृन्दावनेश्वरी, रासेश्वरी श्री हरिदासेश्वरी स्वामिनी श्री राधिका जी अपने प्रीतम को गल-बहियाँ दिए महात्मा जी के समक्ष प्रकट हो गईं और बोलीं, “बाबा ! मैं अलग हूँ क्या अरे मैं ही तो ये कृष्ण हूँ और ये कृष्ण ही तो राधा हैं, हम दोनों अलग थोड़े न है हम दोनों एक हैं।” अब तो युगल स्वरुप का दर्शन पाकर महात्मा जी आनंदविभोर हो उठे। उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, और जैसे ही किशोरी राधा-कृष्ण जटा सुलझाने आगे बढे़ महात्मा जी चरणों में गिर पड़े और बोले, “अब जटा क्या सुलझाते हो युगल जी अब तो जीवन ही सुलझा दो मुझे नित्य-लीला में प्रवेश देकर इस संसार से मुक्त करो दो।” महात्मा जी ने ऐसी प्रार्थना करी और प्रणाम करते-करते उनका शरीर शांत हो गया स्वामिनी जी ने उनको नित्य लीला में स्थान प्रदान किया। बरसाने से आठ किलोमीटर दूर वह स्थान ‘कदम खण्ड़ी’ गाँव में स्थित है, जहाँ नागा बाबा की समाधि है।

जय जय श्री राधे

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राधारानी का दिव्य नुपुर

श्री जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्णदास को भक्ति शास्त्र का ज्ञान दिया इसीलिए श्री जीव गोस्वामीजी दुखी कृष्णदास प्रभु के शिक्षा गुरु थे एवं उन्होंने ही इन्हें प्रिया-प्रियतम की नित्य रासलीला के क्षेत्र निधिवन में झाड़ू लगाने की सेवा प्रदान की। दुखी कृष्णदास सदा श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज-लीला के स्मरण में निमग्न रहते थे और प्रतिदिन कुंज की सोहिनी और खुरपे से सेवा करते थे। 12 साल तक दुखी कृष्ण दास इस तरहां ठाकुरजी की सेवा करते रहे और उनकी भक्ति में दिनों दिन डूबते रहे।
एक दिन जब कृष्णदास अपनी सोहिनी और खुरपा लेकर कुंज में आए तो उन्हें झाड़ू लगाते समय पहले तो रास लीला के निशान मिलते हैं और फिर अनार के पेड के नीचे वह दुर्लभ अलौकिक नूपुर दिखाई पडा, जिसे देखकर वे विस्मित हो गए उस अति सुन्दर अद्वितीय नुपुर कि चकाचौध से निधिवन प्रकाशमान हो रहा था, वे सोचने लगे यह अलौकिक नुपुर किसका है ? उन्होंने खुशी-खुशी उसे सिर माथे से लगाया, और उसे उठाकर उन्होंने अपने उत्तरीय में रख लिया और फिर वे रासस्थली की सफाई में लग गए।
जब ठाकुर जी के साथ राधा रानी रास लीला में नाच गा रहें थे, उसी दौरान राधारानी जब श्रीकृष्ण को अधिक आनंद प्रदान करने के लिए तीव्र गति से नृत्य कर रही थीं। उस समय रासेश्वरी के बाएं चरण से इन्द्रनील मणियों से जडित उनका मंजुघोष नामक नूपुर रासस्थली में गिर गया, किंतु रासलीला में मग्न होने के कारण उन्हें इस बात का पता न चला। नृत्य की समाप्ति पर राधा कृष्ण कुंजों में सजाई हुई शैय्या पर शयन करने चले जाते हैं, और अगली सुबह उठकर वे सब अपने घर चले जाते हैं। इधर प्रात: जब राधा रानी को यह मालूम हुआ कि उनके बाये चरण का मंजुघोषा नाम का नुपुर निधिवन में गिर गया है। थोडी देर पश्चात राधारानी उस खोए हुए नूपुर को ढूंढते हुए अपनी सखियों ललिता, विशाखा आदि के साथ जब वहां पधारीं तो वे लताओं की ओट में खडी हो गयीं, और ललिता जी को ब्रह्माणी के वेश में कृष्ण दास के पास भेजा, तब श्री ललिता सखी दुखी कृष्ण दास के पास पहुँची और उनसे कहा,- बाबा क्या तुम्हें यहाँ पर कोई नूपुर मिला है ? मुझे दे दो, किशोरी जी का है।
मंजरी भाव में दुखी कृष्णदास ने डूबे हुए उत्तर दिया, हम अपने हाथों से प्रियाजी को पहनाएँगी। इस पर राधारानी के आदेश से ललिताजी ने कृष्णदास को राधाजी का मंत्र प्रदान करके उन्हें राधाकुंड में स्नान करवाया, इससे कृष्णदास दिव्य मंजरी के स्वरूप को प्राप्त हो गए सखियों ने उन्हें राधारानीजी के समक्ष प्रस्तुत किया…उन्होंने वह नूपुर राधाजी को लौटा दिया। राधारानी ने प्रसन्न होकर नूपुर धारण करा उसके पहले ललिताजी ने उस नूपुर का उनके ललाट से स्पर्श कराया तो उनका तिलक राधारानीजी के चरण की आकृति वाले नूपुर तिलक में परिवर्तित • हो गया। राधारानी ने स्वयं अपने करकमलों द्वारा उस तिलक के मध्य में एक उज्ज्वल बिंदु लगा दिया। इस तिलक को ललिता सखी ने ‘श्याम मोहन तिलक’ का नाम दिया। कहीं काली बिंदी लगाते हैं। विशाखा सखी ने बताया की दुखीकृष्ण दास जी कनक मंजरी के अवतार हैं।

राधारानी ने श्री दुखीकृष्ण दास जी को मृत्युलोक में आयु पूर्ण होने तक रहने का जब आदेश दिया तो वे स्वामिनी जी से विरह की कल्पना करते ही रोने लगे। तब राधारानी ने उनका ढांढस बंधाने के लिए अपने हृदयकमल से अपने प्राण-धन श्रीश्यामसुंदर के दिव्य विग्रह को प्रकट करके ललिता सखी के माध्यम से श्यामानंद को प्रदान किया। यह घटना सन् 1578 ई. की वसंत पंचमी वाले दिन की है। श्यामानंदप्रभु श्यामसुंदरदेव के उस श्रीविग्रह को अपनी भजन कुटीर में विराजमान करके उनकी सेवा-अर्चना में जुट गए। सम्पूर्ण विश्व में श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं।

दुखी कृष्ण दास ने जब यह वृतांत श्री जीव गोस्वामी को सुनाया तो किशोरीजी की ऐसी • विलक्षण कृपा के बारे में सुनकर जीव गोस्वामी जी कृष्ण भक्ति में पागल हो गये और खुश होकर नृत्य करने लगे। कृष्ण प्रेम में रोते हुए जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्ण दास से कहा कि “तुम इकलौते ऐसे व्यक्ति हो इस संसार में जिसपर श्री राधारानी की ऐसी कृपा हुई है, और तुम्हारा स्पर्श पाकर में भी उस कृपा को प्राप्त कर रहा हूँ। आज से वैष्णव भक्त तुम्हें ‘श्यामानंद” नाम से जानेंगे, और तुम्हारे तिलक को “श्यामानन्दी” तिलक और श्री राधा रानी ने जो तुम्हें श्री विग्रह प्रदान किया है वो श्यामसुंदर नाम से प्रसिद्ध होंगे और अपने दर्शनों से अपने भक्तों पर कृपा करेंगे।

मन्दिर के पथ के उस पार एक गृह में श्री श्यामानंद प्रभु का समाधि स्थल है। राधाश्यामसुन्दर जी का मन्दिर वृन्दावन का पहला मन्दिर है जिसने मंगला आरती की शुरुआत की, और जो आज तक सुचारू रूप से हो रही है। कार्तिक मास में इस मन्दिर में प्रतिदिन भव्य झाँकियों के दर्शन होते हैं और अक्षय तृतीया पर दुर्लभ चन्दन श्रृंगार किया जाता है।

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श्रीगोपालदास बाबाजी ‘उत्सवी’

(वृन्दावन)


गङ्गा-तटपर एक निर्जन स्थान में श्रीमद्भागवत की कथा बैठी है। वक्ता हैं एक महात्मा, जिनके शरीर पर एक लंगोटी के सिवा और कुछ नहीं है। श्रोता हैं स्वयं गङ्गा महारानी। महात्मा तन्मय हो गङ्गा माता को लक्ष्य कर उच्च स्वर से कथा कह रहे हैं। गङ्गा कल-कल करती हुँकारें भर रही हैं। और कोई श्रोता वहाँ नहीं है। किसीको निमन्त्रण भी नहीं है।

पर भ्रमर निमन्त्रण की प्रतीक्षा कब करता है ? जहाँ भी पुष्प खिलता है, वहाँ पहुँच जाता है। पुष्प के सौरभ को पवन दिक्-विदिक् ले जाता है। उसी को भ्रमर निमन्त्रण मान लेता है। श्रीमद्भागवत की कथा में भी कुछ ऐसा ही दिव्य आकर्षण है। कथा की स्वर-लहरी से स्पन्दित आकाश के अणु-परमाणुओं ने जाकर स्पर्श किया कहीं दूर ध्यानमग्न बैठे परमहंस वृत्ति के एक महात्मा को। वे वहाँ आ विराजे कथा के दूसरे श्रोता के रूप में।

तीसरे श्रोता स्वयं श्रीनन्दनन्दन तो अलक्षित रूप से वहाँ रहे होंगे ही। उन्होंने कहा जो है-‘मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद-हे नारद ! मेरे भक्त जहाँ मेरा गुणगान करते हैं, मेरी लीला-कथा कहते हैं, वहाँ मैं जा बैठता हूँ।’ उन्हीं को लक्ष्य कर परमहंसजी ने कहा-‘जिनकी कथा हो रही है, उनके लिए कुछ भोग तो रखा नहीं। उन्हें माखन-मिश्री बहुत प्रिय हैं।

उसी समय शुभ्र वस्त्र धारण किये एक वृद्धा माखन-मिश्री लेकर वहाँ लायीं। नन्दनन्दन को माखन-मिश्री का भोग लगाया गया। कथा के पश्चात् दोनों महात्माओं ने उसका सेवन किया। उसके अलौकिक स्वाद और गंध से दोनों चमत्कृत हो गये। उसे ग्रहण करने के पश्चात् सात दिन तक उन्हें भूख नही लगी। एक दिव्य मस्ती बराबर छायी रही। दोनों ने समझ लिया कि माखन-मिश्री लाने वाली वृद्धा स्वयं गङ्गा महारानी ही थीं, अन्य कोई नहीं।

गङ्गा महारानी में इतनी निष्ठा रखने वाले और उन्हें श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने वाले यह महात्मा थे निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीमत् स्वभू-रामदेवाचार्य की परम्परा में जूनागढ़ के गोदाबाव स्थान के महन्त श्रीमत-सेवादासजी महाराज के शिष्य श्रीगोपालदासजी। टीकमगढ़के निकट किसी ग्राम में गौड़ ब्राह्मण कुल में सम्वत् १८६८ में उनका प्रादुर्भाव हुआ। बाल्यकाल में ही जूनागढ़ के श्रीसेवादासजी महाराज से दीक्षा ले वे चारों धाम की यात्रा को निकल पड़े। यात्रा समाप्त कर व्रज के अन्तर्गत कामवन में रहने लगे। परसरामद्वारे के पण्डित रघुवरदासजी से श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों का अध्ययन किया। भगवत्कथादि में आसक्ति के साथ-साथ उनका वैराग्य दिन-पर-दिन बढ़ता गया। कुछ दिन बाद वे केवल एक लंगोटी लगाये, बगल में श्रीमद्भागवत दबाये गंगा-तट पर चले गये। गङ्गा के किनारे-किनारे जहाँ-तहाँ विचरते रहे और गङ्गाजी को श्रीमद्भागवत सुनाते रहे। गंगा महारानी का आशीर्वाद ले व्रज लौट आये और वृन्दावन में रहने लगे।

वृन्दावनमें वे उदरपूर्ति मधुकरी द्वारा करते और आत्मपूर्ति भगवान् कघ लीला-कथाओं द्वारा। राधा-कृष्ण की दिव्य लीलाओं के मनन और कीर्तन में ही उनका सारा समय व्यतीत होता। उनकी श्रीमद्भागवत की कथा वृन्दावन में कहीं-न-कहीं होती रहती। कथा बड़ी रसमय होती। शुक सम्प्रदाय के रसिक सन्त श्रीसरसमाधुरीजी भी कथा में आया करते।

वैष्णव सेवा में उनकी बड़ी निष्ठा थी। कथाओं में जो भेंट आती, उससे महावन के निकट दाऊजी के मन्दिर में जाकर वैष्णव-सेवा कर दिया करते एक बार दाऊजी ने स्वप्न में वृन्दावन में ही वैष्णव-सेवा करते रहने का आदेश दिया। तब से वे वृन्दावन में सेवा करने लगे।

उन्हें प्रेरणा हुई श्रीनिम्बार्काचार्य का जन्मोत्सव मनाने की। उन्होंने इस उत्सव की प्रथा डाली, जो आज तक चली आ रही है। प्रतिवर्ष वे श्रीनिम्बार्काचार्य की जन्म-तिथि पर विशाल शोभायात्रा, श्रीमद्भागवत-सप्ताह, रास-लीला, समाज-गान और ब्राह्मण-वैष्णव-भोजन आदि की व्यवस्था करते। बड़ी धूमधाम से सारा उत्सव मनाते। उसके लिए उनके प्रभाव से धन भी पर्याप्त मात्रा में आ जाता। उसका एक-एक पाई खर्च कर अन्त में अपने लंगोटी और करुआ ले किनारे हो जाते। संचय एक पैसा भी न करते।

एक बार इस उत्सव के अवसर पर उन्होंने २०० ब्राह्मणों द्वारा श्रीमद्भागवत-पाठ की व्यवस्था की। पर उन्हें ज्वर हो आया। अतः धन की समुचित व्यवस्था न हो सकी। पाठ आरम्भ हो गया। वे चिन्ता में पड़ गये कि ब्राह्मणों को दक्षिणा कहाँ से दी जायगी। तब प्रियाजी ने स्वप्न में दर्शन दे ढाढ़स बंधाया। दूसरे दिन एक परदेसी साहूकार आया। उसने उत्सव का सारा भार अपने ऊपर ले लिया। कई दिन तक कथा-कीर्तन, रास और वैष्णव-भोजनादि का दौर आनन्दपूर्वक चलता रहा। अन्त में साहूकार ने मोहरों की दक्षिणा दे ब्राह्मणों को तृप्त किया। इन उत्सवों के कारण ही गोपालदासजी का नाम ‘उत्सवीजी’ पड़ गया।

गोपालदासजी भक्तमाल की कथा भी बहुत सुन्दर कहते। जिस शैली में भक्तमाल की कथा का आज प्रचलन है, उसका सूत्रपात्र उन्हीं से हुआ। उन्ही से प्रसिद्ध भक्तमाली टोपीकुञ्ज के श्रीमाधवदास बाबाजी ने भत्तमाल का अध्ययन किया।

उनकी जैसी कथनी थी, वैसी ही करनी थी। इसलिए उनकी वाणी में ओज था। उसका लोगों पर स्थायी और गंभीर प्रभाव पड़ता था। बहुत-से लोगों में उससे चमत्कारी परिवर्तन हुआ। बहुत-से उनसे मन्त्र-दीक्षा ग्रहण कर भक्ति-पथ के पथिक बने।

उनके शिष्यों में प्रधान थे बाबा हंसदासजी, बाबा श्यामदासजी, बाबा कारे कृष्णदासजी, बाबा किशोरीदासजी, बाबा राधिकादासजी, राजा भवानीसिंहजी और श्रीमती गोपाली बाई। इनके अतिरिक्त श्रीसुदर्शनदासजी (ललित प्रियाजी) जैसे बहुत-से रसिक महानुभावों ने उनसे भजन-प्रणाली- की शिक्षा ग्रहण की।

सम्वत् १९५२ में उन्हें निकुञ्ज-प्राप्ति हुई।

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क्या श्रीस्वामिनी जू ने मेरी पुकार नहीं सुनी ?

प्र०- महाराज जी ! मेरी वृन्दावन वास करने की दृढ़ इच्छा है, कई वर्षों से वृन्दावन भी आ रहा हूँ लेकिन यहाँ अभी तक वास नहीं हो पाया, मुझे लगता है कि श्रीस्वामिनी जू ने मेरी पुकार नहीं सुनी ?

समाधान : ऐसा हम नहीं मान सकते; इसलिये नहीं मान सकते क्योंकि श्रीकिशोरीजू का बहुत करुणामय स्वभाव है । यदि आपकी अन्यत्र आसक्ति या राग बना हुआ है और फिर आप प्रार्थना कर रहे हैं तो अलग बात है अन्यथा ऐसा हो ही नहीं सकता कि श्रीजी पुकार न सुनें ।

जैसे श्रीरामजी की शरण में विभीषणजी आये और प्रभु को प्रणाम करके अविरल भक्ति की याचना करने लगे तो रामजी ने पहले अविरल भक्ति नहीं दी, पहले समुद्र का जल मँगाकर उनका तिलक किया लंकाधिपति पद का तो विभीषणजी भगवान् की तरफ देखे कि प्रभु मैं तो ये नहीं चाहता, मैं तो आपके चरणारविन्दों की अविरल भक्ति चाहता हूँ । प्रभु बोले ‘नहीं नहीं, ये थी तुम्हारे अन्दर वासना। विभीषण जी ने स्वयं स्वीकार भी किया- ‘उर कछु प्रथम वासना रही ।’ (सुन्दरकाण्ड-५९) अतः आपके अन्दर जो अन्य कामना है, उसके हटने पर जब हृदय में सिर्फ एक माँग रह जाएगी कि मुझे वृन्दावन वास मिल जाए तो हम निश्चित कहते हैं स्वामिनी जू जैसा कृपालु कोई है ही नहीं और वृन्दावन वास के लिए कभी ऐसा हो ही नहीं सकता कि स्वामिनी जू अनसुना कर दें । बात होती है हमारी अन्य आसक्ति, अन्य चाह, अन्य माँग की; इसलिए फिर स्वामिनी जू अन्दर की बात देखती हैं। हम बाहर से कह रहे हैं ‘हा राधे ! – आपके सिवाय मेरा कोई नहीं’ लेकिन अन्दर से जाने कितनों को हम अपना माने बैठे हैं, इसलिए श्रीजी कहती हैं थोड़ा और ये संसार का राग देख ले, फिर जब असलियत में आकर के कहेगा कि आपके सिवाय मेरा कोई नहीं, उसी समय मैं इसे स्वीकार कर लूँगी और धामवास दे दूँगी ।

यदि उनकी अभी कृपा प्राप्त करनी है तो अन्य राग, अन्य आसक्ति का अभी इसी समय से त्याग कर दो । जितने सांसारिक सम्बन्ध हैं ये सब मिथ्या अर्थात् स्वापनिक हैं –

मात- तात – सुत-दार देह में, मति अरुझै मति मंदा ।

हित किशोर कौ है चकोर तू, लखि ‘वृन्दावन चन्दा’ ॥ अभी निश्चय करो कि प्रियालाल के सिवाय हमारा कोई नहीं है फिर आप देखो वृन्दावन वास होता है कि नहीं ।

श्रीलाड़िलीजू जैसा दयालु कोई है ही नहीं, दया की समुद्र हैं, कोई ये कहे कि राधा किशोरी हमारी बात नहीं सुनती हैं तो ये बात – हमारी समझ में नहीं आती है । श्रीहितध्रुवदास जी कहते हैं.

सहज सुभाव पर्यो नवल किसोरी जू की, मृदुता दयालुता कृपालुता की रासि हैं । नॅकहू न रिस कैहूँ भूलेहूँ न होत सखी, रहत प्रसन्न सदा हियै मुख हाँसि हैं ।

श्रीहितजू महाराज भी यही बात श्रीमद् राधासुधानिधि जी में

र्वात्सल्यसिन्धुरतिसान्द्र कृपैकसिन्धुः ।

कहते हैं – वैदग्ध्यसिन्धुरनुराग रसैकसिन्धु

लावण्यसिन्धु रमृतच्छवि रूपसिन्धुः

श्रीराधिका स्फुरतु मे हृदि केलिसिन्धुः ॥ (१७)

श्रीस्वामिनीजू कृपा, दया, वात्सल्य आदि की अगाध समुद्र हैं। अब अगाध समुद्र का हम कैसे भाव समझ पायेंगे । हमारे वात्सल्य सिन्धु प्रभु श्रीकृष्ण के एक अंश से अनंत माताओं का वात्सल्य है और एक माँ में इतना वात्सल्य होता है कि उसका लड़का उसके थप्पड़ मारे, लेकिन अगर बालक को जरूरत पड़ जाए उसके कलेजे की तो वह अपना कलेजा चीरकर उसी बालक को दे देगी, जिसने थप्पड़ मारा है । श्रीशंकराचार्य जी ने लिखा है –

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।

‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।’ श्रीकबीरदास जी भी एक पद में कहते हैं. –

66/118

सुत अपराध करै दिन केते, जननी के चित रहे न तेते ।

कर गहि केस करे जो घाता, तऊ न हेत उतारै माता ॥

ये है वात्सल्य का एक छोटा-सा नमूना । ऐसे हमारे श्रीकृष्ण बात्सल्यसिन्धु हैं और ऐसे श्रीलालजू को भी दुलार जहाँ से मिलता है, ऐसी हमारी महावात्सल्यमयी श्रीप्यारीजू हैं । इसलिए वह हमारी बात सुनती हैं लेकिन जब अन्दर अन्य आसक्तियों होती हैं तो फिर श्रीजी इन्तजार करती हैं कि जब पूर्ण तन्मय होकर के ये मेरी और देखेगा, तब मैं इसे स्वीकार कर लूँगी

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क्यों करते है कृष्ण राधारानी की पूजा?

राधा में ‘रा’ धातु के बहुत से अर्थ होते हैं। देवी भागवत में इसके बारे में लिखा है कि जिससे समस्त कामनायें, कृष्ण को पाने की कामना तक भी, सिद्ध होती हैं। सामरस उपनिषद में वर्णन आया है कि राधा नाम क्यों पड़ा ?

राधा के एक मात्र शब्द से जाने कितने जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं

र शब्द का अर्थ है = जन्म-जन्मान्तर के पापों का नाश ।

अ वर्ण का अर्थ है = मृत्यु, गर्भावास, आयु, हानि से छुटकारा ।

ध वर्ण का अर्थ है = श्याम से मिलन।

अ वर्ण का अर्थ है = सभी बन्धनों से छुटकारा

भगवान सत्य संकल्प हैं। उनको युद्ध की इच्छा हुई तो उन्होंने जय विजय को श्राप दिला दिया। तपस्या की इच्छा हुई तो नर-नारायण बन गये । उपदेश देने की इच्छा हुई तो भगवान कपिल बन गये। उस सत्य संकल्प के मन में अनेक इच्छाएं उत्पन्न होती रहती हैं। भगवान के मन में अब इच्छा हुई कि हम भी आराधना करें। हम भी भजन करें।

अब किसका भजन करें? उनसे बड़ा कौन है? तो श्रुतियाँ कहती हैं कि स्वयं ही उन्होंने अपनी आराधना की। ऐसा क्यों किया? क्योंकि वो अकेले ही तो हैं, तो वो किसकी आराधना करेंगे। तो श्रुति कहती हैं कि कृष्ण के मन में •आराधना की इच्छा प्रगट हुई तो श्री कृष्ण ही राधा रानी के रूप में आराधना से प्रगट हो गये।

“जय जय श्री राधे”

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 105

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 105)

!! जब शोकाकुल हुए बृजवासी – “कालीदह प्रसंग” !!

मैया यशोदा का हृदय “धक्क” करके रह गया ……

ओह ! ये एकाएक क्या हुआ ? बृजरानी कुछ समझ नही पा रही हैं ।

तभी कुछ श्वान ऊँची तान में रुदन करनें लगे ………..मैया नें अपनें कानों को बन्द कर लिया …….पर ये क्या ! मैया यशुमति के सिर से कौए उड़ रहे हैं……ये तो अपशकुन है …..मैया का हृदय काँप गया ।

बृजरानी ! मैं रसोई से दूध गर्म करके ले आई हूँ …………वो गोपी बोल ही रही थी कि उसके हाथ से वो सारा दूध गिर गया ………..उसका देह जल गया ……….बृजरानी दौड़ी उसके पास ……उसको तो कुछ नही हुआ …..पर दूध का फैलना अपशकुन ही है ।

बृजरानी अपनें कन्हैया के बारे में ही सोचनें लगी ……..आज वो कुछ अलग लग रहा था ………सुबह जल्दी भी उठ गया …….कह रहा था गौचारण करनें नही जाऊँगा ……….आज खेलूंगा …………सखाओं के साथ हम खेलनें जायँगे ………..कहाँ गया होगा वो ?

तभी – धूल से भरी आँधी चल पड़ी …………धूल ही धूल ……कुछ दिखाई नही दे रहा किसी को ।

भीतर रसोई में दही के बर्तन टूटकर गिरनें लगे …………यशोदा डर रही हैं ये सब देखकर ……….उनका हृदय काँप रहा है आज ………..

सूर्य का तेज भी कम हो गया ऐसा लगता है यशोदा मैया को ………

ओह ! ये क्या ! दिन में ही सियारों का झुण्ड गाँव में कैसे घुस आया ?

और सब सियार रोनें लगे थे ……….उनकी आवाज से नन्दगाँव का वातावरण बड़ा ही भयानक लग रहा था ।

रोहिणी दौड़ी हुयी आईँ बृजरानी के पास …………जीजी ! ये क्या हो रहा है आज ? मेरे तो कुछ समझ में नही आरहा …….ये सब अपशकुन है …………ये सब अच्छा नही है ।

रोहिणी ! कन्हैया कहाँ है ? देह कांपनें लगा बृजरानी का ………बता ना मेरा कन्हैया कहाँ है ?

जीजी ! आपके देह में ज्वर उठ रहा है …………आप इस तरह अज्ञात भय से भयभीत क्यों हो रही हैं ?

तभी …………..सामनें से बलराम को आते हुये देखा बृजरानी नें …….उठकर दौड़ पडीं ……….दाऊ ! तेरा भाई कहाँ है ? तू अकेला कैसे है यहाँ ? बता ! बलराम से यशुमति पूछ रही हैं ।

मैया ! वो आज मुझे लेके नही गया ……..मैने उससे कहा – मैं भी चलूँगा तेरे संग पर कहनें लगा ………..नहीं, तुम बड़े हो दादा …….हम छोटे हैं …….हमारे साथ तुम्हारा खेल बनता नही है …….आज हम ही जायेंगे तुम रहनें दो ………..बलराम नें अपनी बात बताई यशोदा मैया को ।

धड़ाम से गिर गयीं बृजरानी…………रोहिणी ! मेरा लाला आज कालीदह में ही गया है …….कल रात को मुझ से कह रहा था ……मैया ! कालीय नाग को मैं नथ कर लाऊँगा …….देख लेना !

वो अवश्य कालीय दह में ही गया है ……बृजरानी के अश्रु बह चले थे ।

दाऊ ! तू कहता था ना ……..सर्पों के बिल में अपना हाथ डालता है कन्हैया ……………..मैने उसे एक बार डाँटा भी था …….पर वो नही माना ……….ये सर्पों को गले में लटका लेना उसका खेल था ये ……पर उस नादान बालक को क्या पता कि कालीय नाग साधारण नही है ……………यशोदा मैया हिलकियों से रो रही हैं ।

देवता प्रमाद नही करते ………..वे शकुन और अपशकुन के माध्यम से मानव को अग्रिम सूचना देकर सावधान करते रहते हैं ……….बृजरानी ! तुमनें देखा ना ………कैसे अपशकुन हो रहे हैं……..उसी समय बृजपति वहीं आगये थे ……उन्होंने भी आते ही यही कहा……..चलो ! मुझे भी लग रहा है वो कालीदह में ही गया होगा ………क्यों की बलराम ! कल से ही वो अत्यन्त चिंतित था ……..”नीलकमल के पुष्प लानें की” राजा कंस का आदेश उसनें सुना था………वो अवश्य !

बृजपति के मुँह में अपना हाथ रख दिया यशोदा नें …….ऐसा मत कहिये ……मेरा लाला कालीदह में नही गया है ………वो ठीक है …उसे कुछ नही हुआ है ।

बलराम ! चलो ! कालीदह में जाकर देखें …….की उधर ही तो नही गया कन्हैया ? बृजपति जब चलनें लगे तो मैया यशोदा रोहिणी अन्य सभी गोपी और गोप, चल दिए थे कालीदह की ओर ।

खोजते खोजते कालीदह में ही सब पहुँच गए थे……..

दूर देखा ……बृजरानी का ह्रदय काँप रहा है……..दूर से देखा पीताम्बरी पहनें कुछ बालक धरती पर अचेत पड़े हैं ……….

ये तो मनसुख मधुमंगल श्रीदामा ? बृजपति उन्हें धरती में पड़ा देखकर दौड़ पड़े थे…….बृजराज के पीछे बलराम यशोदा रोहिणी सब गोपी ग्वाल भागे………..

मूर्छित पड़े हैं ये बालक ……..क्यों ? इन्हें क्या हुआ ? बृजरानी सबसे पूछ रही हैं……..मेरा कन्हैया कहाँ है ? सामनें देखा कदम्ब वृक्ष पर ………..कन्हैया की पीताम्बरी अटकी हुयी है……..उसके नीचे हृद है ……….वो खौल रहा है …….मेरा कन्हैया ! चीत्कार कर उठीं मैया यशोदा ।

मैया की चीत्कार सुनकर मनसुख उठा …………वो उठते ही रोनें लगा था ………….कहाँ है कन्हैया ? मनसुख ! बता कहाँ है मेरा कन्हैया ?

मैया यशोदा काँप रही हैं पूछते हुए …………..

” वो ! उस कदम्ब में चढ़ गया था ….और कूद गया कालीदह में ।”

मनसुख नें रोते हुए कहा ।

क्या ! कूद गया इस विषैले हृद में ? मैया यशोदा दौड़ पड़ी उसी कालीदह में ………..मेरा बेटा ! मेरा लाला ! वो यही गिरा है ………

खौल रहा है उस “हृद” का जल …………..मैया यशोदा कूद पड़तीं …..कूदनें ही जा रही थीं ……….पीछे से बलराम नें आकर पकड़ लिया …………विलाप करते हुए बृजराज नन्द जी भी कूदनें जा रहे थे उन्हें भी बलभद्र नें पकड़ कर बिठाया ।

क्यों हमें पकड़ रहा है बलराम ! क्यों ? मेरा लाला कूदा है इस कालीदह में …………अब हमें भी मरनें दे ………मैया फिर चीत्कार करते हुये दौड़ीं …….पर बलराम नें फिर सम्भाला ।

….मेरा लाला ! कूद गया इस कालीदह में !…विष से भरा हृद है ये तो .ओह ! कितना कष्ट हो रहा होगा उसे …..और मैं अभी तक ज़िंदा हूँ । मैया बाबा सब रोये जा रहे हैं ।

पर बेचारी भोली वात्सल्य की मारी मैया यशोदा ।

उसे कुछ नही हुआ …….उसे कुछ हो नही सकता !

दिव्य गम्भीर वाणी गूँजी बलभद्र की ।

एक अद्भुत तेज मुख मण्डल में व्याप्त हो गया था बलराम के ।

हँसे बलराम……….शेष अनन्त प्रभु हैं ये …………इसलिये उसी आवेश में हँसे और बोले – मैं कहता हूँ उसे कुछ नही होगा ……….वो ? सहस्र फण वाले शेषनाग में शयन करनें वाला है ………….ये कालिय क्या बिगाड़ेगा उसका………मेरी बात पर विश्वास कीजिये माँ ! और आप सबलोग ……..मेरा कन्हैया आएगा…….हम यहीं बैठे हैं वो अवश्य आएगा ।

बलभद्र के उस रूप को देखकर सब शान्त हो गए थे………बलराम जी अब शान्त भाव से बैठे हैं कालीदह में ………अन्य समस्त सखा भी जाग गए जो मूर्छित हो गए थे ।

तभी ………दाऊ ! देखो ! लाल लाल रंग हो रहा है यमुना का …..!

मनसुख नें कहा ।

………बृजरानी तो मूर्छित ही हो गयीं थीं ।

पर बलभद्र मुस्कुरा रहे थे शान्त भाव से ………

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मोती या मुक्ता कुण्ड

नन्दीश्वर तड़ागके उत्तरमें लगभग एक मीलपर मुक्ता कुण्ड अवस्थित है। करील और पीलूके वृक्षोंसे परिवेष्टित बहुत ही रमणीय स्थान है। कृष्ण गोचारणके समय सखाओंके साथ इस कुण्डमें गायोंको जल पिलाकर स्वयं भी जलपानकर विविध प्रकारकी क्रीड़ाएँ करते थे। किसी समय कृष्णने यहाँपर मुक्ताओंकी खेतीकर प्रचुर रूपमें मुक्ताएँ पैदा की थीं।

प्रसंग –

जब कृष्णने पौगण्ड अवस्थाको पारकर किशोर अवस्थामें प्रवेश किया, उस समय यशोदा मैया कृष्णकी सगाईके लिए चिन्ता करने लगीं। उनको वृषभानु महाराजकी कन्या सर्वगुणसम्पन्ना किशोरी राधिका बड़ी पसन्द थी। यह बात कीर्तिकाजीको मालूम हुई। उन्होंने अपने पति वृषभानुजीसे कहकर विविध प्रकारके कपड़े-लत्ते, अलंकार, प्रचुर मुक्ताओंको एक डलियामें भरकर नन्दभवनमें सगाईके लिए भेजा। ब्रजराजनन्द एवं ब्रजरानी यशोदा इसे देखकर बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु सिरपर हाथ रखकर यह सोचने लगे कि हमें भी बरसानामें इसके बदले सगाईके लिए इससे भी अधिक मुक्ताएँ भेजनी पड़ेगीं। किन्तु घरमें उतनी मुक्ताएँ नहीं हैं। इस प्रकार बहुत चिन्तित हो रहे थे। इतनेमें कृष्णने कहींसे घरमें प्रवेशकर माता-पिताको चिन्तित देख चिन्ताका कारण पूछा। मैयाने अपनी चिन्ताका कारण बतलाया। कृष्णने कहा कोई चिन्ताकी बात नहीं। मैं शीघ्र ही इसकी व्यवस्था करता हूँ। इसके पश्चात् कृष्णने अवसर पाकर उन मुक्ताओंको चुरा लिया और इसी कुण्डपर मिट्टी खोदकर उनको बो दिया। गायोंके दूधसे प्रतिदिन उन्हें सींचने लगे। इधर नन्दबाबा और मैया यशोदा मुक्ताओंको न देखकर और भी चिन्तित हो गयीं। उन्होंने कृष्णसे मुक्ताओंके सम्बन्धमें पूछा। कृष्णने

कहा- हाँ! मैंने उन मुक्ताओंकी खेती की है और उससे प्रचुर मुक्ताएँ निकलेंगी। ऐसा सुनकर बाबा और मैयाने कहा- अरे लाला! कहीं मुक्ताओंकी भी खेती होती है। कृष्णने मुस्कराकर कहा- हाँ, जब मेरी मुक्ताएँ फलेगीं तो तुम लोग देखना। बड़े आश्चर्यकी बात हुई। कुछ ही दिनोंमें मुक्ताएँ अंकुरित हुईं और उनसे हरे-भरे पौधे निकल आये। देखते-ही-देखते कुछ ही दिनों में उन पौधोंमें फल लग गये। अनन्तर उन फलोंके पुष्ट और पक जानेपर उनमेंसे अलौकिक प्रभा सम्पन्न उज्ज्वल दिव्य लावण्ययुक्त मुक्ताएँ निकलने लगीं। अब तो मुक्ताओंके ढेर लग गये। कृष्णने प्रचुर मुक्ताएँ मैयाको दीं। फिर तो मैयाने बड़ी-बड़ी सुन्दर ३-४ डलियाँ भरकर मुक्ता, स्वर्णालंकार और वस्त्र बरसाने में राधाजीकी सगाईके उपलक्ष्यमें भेज दिये।

इधर श्रीमती राधिकाजी एवं उनकी सखियोंको यह पता चला कि श्रीकृष्णने मुक्ताओंकी खेती की है और उससे प्रचुर मुक्ताएँ पैदा हो रही हैं। तो उन्होंने कृष्णसे कुछ मुक्ताएँ माँगीं। किन्तु कृष्णने कोरा उत्तर दिया कि जब मै मुक्ताओंको सींचनेके लिए तुमसे दूध माँगता था, तब तो तुम दूध देनेसे मना कर देती थीं। मैं अपनी गऊओंको इन मुक्ताओंके अलंकारसे सजाऊँगा, किन्तु तुम्हें मुक्ताएँ नहीं दूंगा। इसपर गोपियोंने चिढ़कर एक दूसरी जगह अपने-अपने घरोंसे मुक्ताओंकी चोरीकर जमीन खोदकर उन मुक्ताओंको बीजके रूपमें बो दिया। फिर बहुत दिनोंतक गऊओंके दूधसे उन्हें सींचा। वे अंकुरित तो हुई, किन्तु उनसे मुक्ता वृक्ष न होकर बिना फलवाले काटोंसे भरे हुए पौधे निकले।

गोपियोंने निराश होकर पुनः कृष्णके पास जाकर सारा वृत्तान्त सुनाया। कृष्णने मुस्कराकर कहा- चलो ! मैं स्वयं जाकर तुम्हारे मुक्तावाले खेतको देखूँगा। कृष्णने वहाँ आकर पुनः सारे मुक्ताके पौधोंको उखाड़कर उसमें पुनः अपने पुष्ट मुक्ताओंको बो दिया और उसे गायोंके दूधसे सींचा। कुछ ही दिनोंमें उनमें भी मुक्ताएँ लगने लगीं। यह देखकर गोपियाँ भी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं।

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श्री निवासाचार्य जी-वृन्दावन

(कालावधि-1518-1603)

श्रीनिवासाचार्य जी, गौरांग महाप्रभु के प्रेम की मूर्ति थे। बंगदेश के चाकन्दी ग्राम में इनका जन्म हुआ। अल्प आयु में ही इन्होंने ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया। इनका पांडित्य सबके हृदय को आकर्षित कर लेता। श्री गोपाल भट्ट जी सदगुरुदेव हुए और जीव गोस्वामी जी ने इन्हें भक्ति शास्त्रों का अध्ययन कराया। गुरु आज्ञा से बंगाल क्षेत्र में प्रचुर गौड़ीय भक्ति का प्रचार किया। एक बार मानसी सेवा में होली लीला का आस्वादन कर रहे थे और ध्यान टूटने पर देखा कि सारे वस्त्र रंगे हुए हैं।

बंगदेश गंगातटवर्ती चाकंदी ग्रामवासी श्री गंगाधर भट्टाचार्य जी का चैतन्य महाप्रभु जी के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। महाप्रभुजी के सन्यास ग्रहण के समय चैतन्य-चैतन्य पुकारते हुए विक्षप्त दशा को प्राप्त हो गए। तब से लोग इन्हें चैतन्य दास पुकारने लगे। पूर्णस्वस्थ होने पर एक दिन श्रीजगन्नाथ पुरी की ओर पत्नी के साथ प्रस्थान किया। पूरी पहुँचकर महाप्रभु जी का दर्शन किया। रात्रि में जगन्नाथ भगवान ने स्वपन दिया – तुम घर चले जाओ। शीघ्र ही तुम्हारे एक सर्वांग सुंदर पुत्र होगा। जो प्रेम और पांडित्य से तुम्हारे कुल को धन्य करेगा। प्रातकाल महाप्रभु जी को प्रणाम करके आशीर्वाद प्राप्त करके वापस ग्राम आ गए। कुछ समय पश्चात अचल जगन्नाथ और सचल जगन्नाथ की कृपया से सन 1518 को वैशाखी पूर्णिमा के दिन लक्ष्मी प्रिया देवी के गर्भ से परम् रूपवान पुत्र का जन्म हुआ। इसी पुत्र का नाम हुआ श्रीनिवास। गौर नाम श्रवण करके अति प्रसन्न हो जाते थे। अपने मधुर स्वर से गौर-गौर का उच्चारण कर नृत्य करने लगते।
जब यह 5 वर्ष के हुए तो पिता जी ने चांकन्दी के महामहोपाध्याय धनंजय वाचस्पति को पढ़ाने लिखाने का भार सौपा। गुरमुख से जो श्रवण कर लेते तुरंत कंठ हो जाता। मेघा शक्ति के अति धनी थे। कुछ ही समय में व्याकरण, दर्शन आदि संपूर्ण शास्त्रों में निष्णात हो गए। संपूर्ण वैष्णव समाज में उनके पांडित्य की चर्चा होने लगी।
एक दिन पूरी में महाप्रभु जी ने कीर्तन करते हुए अचानक श्रीनिवास- श्रीनिवास उच्चारण किया। भक्तों ने कारण पूछा तो महाप्रभु जी बोले मेरे विशुद्ध प्रेम की मूर्ति श्री निवास का चाकंदी ग्राम में आविर्भाव होगा। इसलिए सभी गौर प्रेमी अब श्रीनिवास जी के पास आने जाने लगे।
कर्णानद के अनुसार वृंदावन के गोविंद देव ने गोस्वामी गणों से कहा था। मेरी शक्ति से मेरे प्रेम का ही श्रीनिवास के रूप में अविर्भाव हुआ है।

मोर शक्ति ते जन्म इहार करिला प्रकाश।
प्रेम रुपे जन्म हैल नाम श्रीनिवास॥

एक दिन अकस्मात पिताजी का निकुंज वास हो गया। ह्रदय में अत्यंत वेदना हुई क्योंकि गौर- लीला रसस्वादन के साथी थे। माँ विलाप कर रही थी। श्रीनिवास जी ने अब पुरी में महाप्रभु के दर्शन के लिए जाने का विचार किया। मां से आज्ञा ली, इच्छा ना होते हुए भी माँ ने आज्ञा प्रदान की। गौर प्रेम में अश्रु प्रवाहित करते हुए, बाह्य ज्ञान शून्य नीलाचल के पथ पर चले जा रहे हैं। मार्ग में अचानक किसी ने महाप्रभु जी के अंतर्ध्यान का समाचार सुनाया तो मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
महा प्रभु जी की कृपा हुई स्वपन में बोले – तुम नीलाचल चले जाओ। गदाधर आदि परिक्रमा वहाँ है। मुझे तुम्हारे द्वारा बहुत कार्य कराने हैं। श्रीनिवास जी प्रातः जी उठकर नीलाचल की ओर चल पड़े। कई दिनों के पश्चात पूरी पहुँचे। जगन्नाथ जी का दर्शन किया। जगन्नाथ जी की छद्ध रूप से प्रसाद का थाल दे गये, प्रसाद पाकर प्रभु की कृपा का अनुभव किया। फिर श्री गदाधर जी से मुलाकात की। श्री गदाधर जी ने इन्हें राय रामानंद जी और सार्वभौम जी के पास दर्शन कराने ले गए। गौर – विरह में निमग्न दोनों ने धैर्य धारण करके महाप्रभु जी की कुछ चर्चा की। इस प्रकार गौर- प्रेमियों के दर्शन एवं गौर -चर्चा मैं दिन बीतने लगा।
एक दिन गदाधर जी से भागवत पढ़ाने की प्रार्थना की तो गदाधर बोले – मेरी इच्छा बहुत थी तुम्हें भागवत पढ़ाने की लेकिन महाप्रभु जी के अश्रु जल से भागवत के कुछ अक्षर मिट गए हैं। इसलिए तुम वृंदावन जाकर जीव से भागवत अध्यन करो। कई दिनों की यात्रा के पश्चात भूखे-प्यासे श्रीनिवास जी मथुरा पहुंचे। यहां सूचना प्राप्त हुई के रूप, सनातन और रघुनाथ भट्ट जी का निकुंज प्रवेश हो गया। अत्यंत दुखी हुए और अर्ध वाह्य दशा में वृंदावन के गोविंद देव जी मंदिर में आकर गिर पड़े। जीव गोस्वामी जी दर्शन को पधारे तो देखा कि मंदिर में भीड़ है। वहाँ जाकर सभी को हटाया। अद्भुत दृश्य सामने था। श्रीनिवास जी के वपु में अष्ट सात्विक भाव, अश्रु, कम्प, पुलक रोमांच आदि प्रकट हो रहे थे। जीव गोस्वामी जी पहचान गए कि यह श्रीनिवास है। उनको उठा कर कुटिया में लाए। दो पहर बीतने पर वाह्य ज्ञान हुआ। जीव जी को प्रणाम किया। गोविंद देव जी का प्रसाद पवाया बगल वाली कुटिया में विश्राम करने को कहा।
दूसरे दिन जीव गोस्वामी जी गोपाल भट्ट जी के पास ले गए। और उनके द्वारा श्रीनिवास जी को दीक्षा दिलवा दी। श्रीनिवास ने गुरु सेवा को सर्वस मानकर अंग -सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया। शीघ्र ही कविराज आदि संतो के दर्शन करा लाए। अब वृंदावन में गुरु सेवा करते हुए श्री निवास जी जप, ध्यान, कीर्तन आदि दैनिक कृत्य करने लगे और जीव गोस्वामी जी के पास शास्त्र अध्ययन आरंभ किया। लीला स्मरण में श्रीनिवास का असाधारण अभिनिवेश देख श्री गोपाल भट्ट जी बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन लीला ध्यान में श्रीनिवास जी सुगंधित तेल, माला, चंदनादि से महाप्रभु जी की सेवा करके उनके पास खड़े होकर चँवर डुला रहे थे। उसी समय महाप्रभु जी के इशारे करने से दूसरे सेवक ने महाप्रभु जी के गले से माला उतारकर श्रीनिवास जी को पहना दी। ध्यान भंग होने पर देखा कि वही माला गले में पड़ी थी।
एक दिन बसंत के अवसर पर ब्रज लीला का ध्यान कर रहे थे। वहाँ होली लीला चल रही थी। अचानक किशोरी जी के हाथ का गुलाल शेष हो गया तो उसी समय मंजरी स्वरूप में श्रीनिवास जी ने गुलाल लाकर श्री किशोरी जी को दिया। ध्यान भंग हुआ तो देखा कि सारे वस्त्र होली के रंग से रंगे हुए हैं।
श्रीनिवास जी का ध्यान में तीव्र अनुराग था। थोड़े ही समय में यह श्रीमद्भागवत और भक्ति शास्त्रों में पारंगत हो गए और जीव गोस्वामी के द्वारा आचार्य ठाकुर की उपाधि प्राप्त की। श्री नरोत्तम ठाकुर, श्री श्यामानन्द प्रभु दोनों श्रीनिवास जी के सहपाठी थे। जीव गोस्वामी जी की बहुत इच्छा थी कि जिन भक्ति ग्रंथों की रचना श्री रूप जी, श्री सनातन जी, और स्वयं ने की है उन का प्रचार गौड़ देश में भली-भांति हो। जीव जी ने सभी भक्तों एवं संतों के मत से श्रीनिवास आचार्य जी को भक्ति के प्रचार के लिए भेजने का निश्चय किया। और नरोत्तम जी एवं श्यामानंद जी को उनकी सहायता के लिए सारे ग्रंथों को एक बड़े काठ के संदूक में बंद किया और दस शास्त्र धारी रक्षको को साथ करके दो बैल गाड़ी में बिठा कर विदा किया। गौड़ देश की सीमा के भीतर गोपालपुर ग्राम में विश्राम किया। अचानक एक लुटेरों का दिल आया और मारपीट कर बैलगाड़ी सहित ग्रंथों के संदूक को लेकर अदृश्य हो गए। प्रातः काल तीनो ने बहुत खोजा लेकिन कुछ पता ना चला। एक प्रहरी के हाथ ग्रन्थों की चोरी की सूचना जीव गोस्वामी जी को भेजी और नरोत्तम एवं श्यामानन्द जी ने कहा- तुम गौड़ देश जाकर भक्ति का प्रचार करो।
श्रीनिवासाचार्य जी ग्रंथों की खोज में पागल की भांति इधर-उधर भटकते रहे। विष्णुपुर राज्य में कृष्ण बल्लभ नाम के एक ब्राह्मण से मुलाकात हुई। वो इन्हें पाठ सुनने के लिए राज्य के राजा वीरहाम्वीर की सभा में ले गया। व्यास चक्रवती नामक एक ब्राहमण राजा को नित्य भागवत सुनाया करते थे। आज रास पंचाध्यायी का पाठ था। और वक्ता महाशय सिद्धांत विरुद्ध व्याख्या कर रहे थे। तब श्रीनिवासाचार्य जी ने प्रतिवाद कर के अद्भुभुत रसपूर्ण व्याख्या की। राजा अत्यंत प्रभावित हुआ। राजा ने उन्हें कुछ दिन रुकने का आग्रह करके एक निर्जन स्थान में वास दे दिया। श्रीनिवास जी ने विचार किया कि राजा से ग्रन्थ चोरी की बात कहूँ जो शायद ग्रंथ को खोजने में मेरी मदद कर दे। दूसरे दिन कथा के विश्राम के बाद राजा निवासाचार्य जी को अपने कक्ष में ले गया और परिचय पूछा। श्रीनिवास जी ने संपूर्ण बात कह दी। ग्रंथ चोरी की बात सुनकर राजा रोने लगा और बोला- महाराज! डाकुओं का सरदार मैं ही हूँ। मैं राजा होते हुए भी अपने सैनिकों को लूटने के लिए भेजता हूँ। आपके सारे ग्रंथ मेरे पास है। मैं आपका अपराधी हूँ। आप दंड दे या क्षमा करें। ऐसा कहकर फूट- फूट कर रोने लगा। श्री निवास जी ग्रंथ प्राप्ति की बात सुनकर अति प्रसन्न हुए और राजा का हृदय से लगा लिया।
अगले दिन श्रीनिवास जी ने राजा आदि अनेक परिकरो को अपना शिष्य बनाया, और ग्रंथ प्राप्ति का संदेश वृंदावन जीव गोस्वामी जी को और खेतुरी के निकट गोपालपुर नरोत्तम जी एवं श्यामानंद जी को भेजा। दोनों अत्यंत प्रसन्न हुए और आनन्द में नृत्य करने लगे। अब श्रीनिवासाचार्य जी ग्रंथों को लेकर अपनी मां के पास याजिग्राम पहुँचे। माँ अपने पुत्र को देखकर आनन्द में डूब गई। याजिग्राम में श्रीनिवास जी ने एक विद्यालय की स्थापना की अध्यापन का कार्य प्रारंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात श्रीनिवास जी का श्री गोपाल चक्रवर्ती की सुपुत्री द्रोपदी नाम की कन्या के साथ विवाह संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात द्रोपदी का नाम ईश्वरी ठकुरानी रखा। एक दिन श्रीनिवास घर के निकट वृक्ष के नीचे सत्संग कर रहे थे। एक युवक विवाह करके अपनी पत्नी को पालकी में विदा करा कर ला रहा था। श्रीनिवास ने उसे देखा और बोल पड़े- देखो! यह नवयुवक रूपवान और तेजस्वी है। लेकिन इसका यौवन प्रभु सेवा में न लगकर कामिनी सेवा में लगेगा। यह वचन उस युवक के कान में पड़ गए। बस तुरंत वह श्रीनिवास जी के चरणों में गिर पड़ा, और हमेशा के लिए दीक्षा लेकर सेवा में ही रह गया। महापुरुषो की दृष्टि पड़ते ही जीव का कल्याण हो जाता है।
श्री नरोत्तम ठाकुर के आग्रह पर श्रीनिवास जी एक महीने खेतुरी ग्राम पधारे। वहाँ बहुत विशाल उत्सव हुआ। दोल पूर्णिमा के दिन छय विग्रहों की धूम धाम से प्रतिष्ठा हुई। खूब संकीर्तन की धूम मची।
श्रीनिवास जी का दूसरा विवाह गोपालपुर ग्राम के राघव चक्रवर्ती की सुपुत्री श्री पद्मावती के साथ शुभ मुहूर्त में हुआ। विवाह के पश्चात पद्मावती जी का नाम हुआ गौरांग प्रिया। श्रीनिवास जी के तीन पुत्र एवं तीन कन्या हुईं।
एक बार श्रीनिवास जी विष्णु पुर ग्राम में लीला स्मरण कर रहे थे। लीला- स्मरण में मणि मंजरी स्वरूप से लीला के गंभीरतम प्रदेश में प्रवेश कर गए। शरीर निश्चल हो गया, श्वास बंद हो गया। दो दिन तक यही स्थिति रही, सभी घबरा गए सभी विचार करने लगे क्या करें ? उसी समय खेतुरी ग्राम से रामचंद्र जी आ गए और बोले — आप घबराइए मत, सब ठीक हो जाएगा। रामचंद्र जी श्रीनिवास जी के पास बैठकर ध्यान मग्न हो गए। करुणा मंजरी स्वरूप से लीला में प्रवेश कर के देखा कि अन्य मंजरियां यमुना जल के भीतर कुछ खोज रही है। पूछा तो पता चला कि किशोरी जी की बेसर खोज रही है। और जलक्रीडा करते समय गिर गई थी। यह भी खोजने लगे तो कमल पत्र के नीचे बेसर मिल गई। तुरंत गुरुदेव को प्रदान की। गुरुदेव ने गुण मंजरी (गोपाल भट्ट), गुण मंजरी ने रूप मंजरी (रूप गोस्वामी) को रुप मंजरी ने श्री जी को प्रदान की। किशोरी जी ने प्रसन्न होकर करुणा मंजरी को अपना चार्बित ताम्बूल देकर पुरस्कृत किया। उसी समय श्रीनिवास जी की समाधि टूट गई। रामचंद्र जी के हाथ में प्रसादी तांबूल देखकर सभी आश्चर्यचकित हुए। सबको कणिका प्रसाद प्राप्त हुआ। जीव का यही वास्तविक स्वरुप है। रामचंद्र जी खेतुरी में नरोत्तम दास जी के पास थे। एक दिन श्रीनिवास जी ने पत्र द्वारा रामचंद्र जी को शीघ्र याजि ग्राम आने का संदेश भेजा। पत्र पाते ही रामचंद्र जी गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर नरोत्तम ठाकुर से आज्ञा मांगी। दोनों हृदय से मिले क्योंकि अब यह अंतिम मिलन था। नरोत्तम ठाकुर बोले- मैं उस घड़ी की प्रतीक्षा करूँगा, जिस में हमारा मिलन पुनः होगा। रामचंद्र जी वहाँ से चल कर याजि ग्राम श्रीनिवास जी के पास आ गए। आकर गुरुदेव चरणों में प्रणाम किया। दो दिन बाद दोनों गुरु शिष्य श्री वृंदावन धाम प्रस्थान किया।
श्री वृंदावन धाम आने के पश्चात श्रीनिवास जी वापिस कहीं नहीं गए। श्रीराम चंद्रजी निरंतर गुरु सेवा में निरत रहते। सन 1603 कार्तिक शुक्ल अष्टमी को श्रीनिवास जी अपने निज स्वरूप मणि मंजरी रूप में श्यामा-श्याम के नृत्य लीला में प्रवेश कर गए। सन 1612 कार्तिक कृष्ण अष्टमी को रामचंद्रजी ने गुरुदेव के पथ का अनुसरण किया। श्री धाम वृंदावन में गोपेश्वर महादेव के निकट श्रीनिवास जी एवं श्री रामचंद्र जी दोनों की समाधि विराजमान हैं। श्री धाम वृंदावन वास करने का यही फल है कि इसी रज में रज होकर मिल जाए।

तजिकै वृंदाविपिन कौ, अन्य तीरथ जे जात।
छाडि विमल चिंतामणि, कौड़ी को ललचात्॥
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स्रोत: ‘ब्रज भक्तमाल’

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परिवार की ओर से निश्चिन्तता कैसे आये?

प्र० – महाराज जी, परिवार की ओर से निश्चिन्तता कैसे आये, मुझे उनके भरण-पोषण की चिन्ता बनी रहती है ?

समाधान : आप निश्चिन्त रहिये, ‘प्रणत कुटुंब पाल रघुराई ।’ प्रभु अपने शरणागतों के परिवार का पोषण भी बहुत अच्छी तरह करते हैं। वो जगद्भर्ता हैं, विश्वम्भर हैं फिर अपने शरणागतों की, उनके परिवार की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं । आप निश्चिन्त रहिये, वह आपके परिवार का भी पालन-पोषण करेंगे और जो भगवद् शरणागति से भरण-पोषण होगा, वह अपने अहंकार से, अपनी कमाई से, आप नहीं कर सकते हो । प्रभु बहुत कृपालु हैं, बस हम उनके भरोसे हो जाएँ ।

देखो, एक भक्त हुए हैं ‘श्रीसोझाजी’ । वे गृहस्थी थे, स्त्री और एक नवजात शिशु उनके था । एक बार उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि हम कल विरक्त हो जायेंगे, या तो तुम इस बच्चे के साथ यहाँ रहकर के धर्मपूर्वक आचरण करते हुए भजन करो, या विरक्त होकर हमारे साथ चलो । वे बोलीं- ‘स्वामी ! हम तो आपके ही साथ चलेंगे ।” सोझा जी ने कहा लेकिन एक शर्त है न किसी से ममता-आसक्ति करनी है और न कोई भी वस्तु अपने साथ लेनी है, उन्होंने शर्त मान ली । अगले दिन वे दोनों दम्पती रात्रि के अंतिम प्रहर में घर से चल पड़े । रास्ते में सोझा जी ने देखा कि पत्नी बहुत पीछे-पीछे चल रही तो वे उसके लिए रुके, जब वह समीप आई तो वे देखते हैं कि वह गोद में नवजात शिशु को लिए हुए है । सोझा जी बोले – हमने कहा था तुम्हें किसी को अपने पास लेकर नहीं चलना है फिर इस बच्चे को क्यों अपने साथ लाई हो? उनकी स्त्री ने कहा कि वहाँ इसका पालन-पोषण कौन करेगा? उसकी बात सुनकर उन्होंने उसे जमीन पर कुछ चींटी-चींटा दिखाए और बोले कि देखो इनका पालन-पोषण कौन करता है, अनंत जीवों का पालन-पोषण प्रभु करते हैं और वही इस बच्चे का भी करेंगे। अगर तुम इस बच्चे का मोह नहीं छोड़ सकती तो लौट जाओ घर; वे रोने लगीं और बोलीं स्वामी! मैं आपको नहीं छोड़ सकती हूँ । सोझाजी ने कहा – यदि हमारे साथ चलना है तो इस बच्चे को यहीं रास्ते में ही किनारे पर छोड़ दो और चलो हमारे साथ । पति आज्ञा के कारण उन्होंने बच्चे को वहीं रास्ते में ही छोड़ दिया और सोझाजी के साथ चल दीं।

वे दोनों लोग कहीं दूर जंगल में रहने लगे और वहीं भजन करते । भजन करते हुए उन्हें १०-१२ वर्ष बीत गये किन्तु उनकी पत्नी के मन में एक बात रहती थी कि पता नहीं हमारे बच्चे को • कौन-सा जीव खा गया होगा, पता नहीं उसकी क्या दशा हुई होगी, परन्तु सोझा जी को विश्वास था कि भगवान् विश्व का भरण-पोषण करने वाले हैं, बच्चे का अहित नहीं हो सकता । पत्नी के मन की पुष्टता के लिए एक दिन सोझा जी ने उनसे कहा कि चलो हम एकवार जन्मभूमि चलते हैं; पत्नी के साथ वे अपने नगर में पहुँचे कोई उनको पहिचान नहीं पाया । वहाँ उन्होंने नगरवासियों से पूछा कि ‘क्या आप लोग सोझा जी को जानते हैं ?’ लोग बोले – हाँ. जानते हैं । ‘क्या उनके यहाँ एक संतान भी थी ?’ लोग बोले – हाँ. उनका एक नवजात शिशु था, जब वह अपनी पत्नी के साथ घर छोड़कर गए तो उस शिशु को रास्ते में ही छोड़ गए थे । सोझाजी ने पूछा तो फिर ‘उस बच्चे का क्या हुआ?’ लोग बोले- यहाँ का राजा उनमें बड़ी श्रद्धा रखता था, उसने सुना कि वैरागी होकर सोझा जी भजन के लिए चले गए, उसने उनकी खोज कराई किन्तु वे तो नहीं मिले लेकिन रास्ते में पड़ा हुआ उनका बच्चा मिल गया । राजा के कोई संतान नहीं थी अतएव राजा ने उसे गोद ले लिया और अब युवराज पद पर वो लड़का है । सोझा जी ने पत्नी से इशारे में कहा कि समझ गईं, अगर हम जीवन भर कमाते तो भी उसको वो सुख नहीं दे सकते थे जो भगवदाश्रित होने पर उसे प्राप्त हुआ और अब तुम्हारा लड़का युवराज है।

इसलिए यदि हम भगवदाश्रित हैं तो भगवान् क्या नहीं कर सकते हैं, भगवान् कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ हैं ।

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फूल तोड़ने की लीला

आज प्यारी जू गहवर वन में सखियों संग फूल बीनने आई है , फूल बीनते बीनते सभी सखियां प्यारी जू से कहने लगी कि प्यारी यह पीले गुलाब को देखिए कैसे यह आपकी तरफ देखकर खिलखिला रहा है , ऐसा कहना सखियों का एक मनोरथ है क्यो कि पीले गुलाब के रंग से सखियां प्यारी जू को प्रियतम के पीतांबर की तरफ ध्यान आकर्षित करवाना चाहती है जो वही किसी वृक्ष की डाल पर छुपकर बैठे प्यारी जू को निहार रहे है , पीला पीताम्बर थोड़ा नीचे लटके होने के कारण सखियों की दृष्टि में आ गया था ,इसलिए ही प्यारी जू को संकेत करके सावधान रहने के कारण पीले गुलाब की तरफ ध्यान आकर्षित करवाया ,लेकिन हमारी प्यारी जू तो है भोरी ,वो प्रियतम की इस चाल को नहीं समझ पाई, और पीले गुलाब के फूलों की तरफ जाने लगी , जैसे ही प्यारी जू ने पीले गुलाबो को पकड़ने के लिए हाथ ऊपर किया ,प्रियतम तो वैसे ही चतुर शिरोमणि ,वो तो पहले ही इसी तांघ में थे, झट से प्रियतम ने प्यारी जू का हाथ पकड़ लिया ।। प्यारी जू संकुचित हो गई और सखियों के सामने लज्जा से शर्मा गई ।। सखियां भी श्याम सुंदर से उलाहना देते हुए बोली , कि कभी कोई मौका छोड़ भी दिया करो , हर पल श्याम (भँवरे) की तरह ,राधा (फूल) का रसपान करने को लालायित ही रहते हो , हँसी की फुहार से गहवरवन खिल उठा ।।

┅•••⊰❉‼श्री हरिवंश‼❉⊱•••┅

राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा राधा

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 104

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 104)

!! कालीदह में कूदे श्याम !!

प्रातः उठते ही चल दिए थे कन्हैया ………..

ग्वाल बालों को उनके घरों से ले लिया था ………

“नहीं आज गैया चरानें नही जायेंगे”

….गोपाल नें अपनें सखाओं को कहा ।

क्यों ? सखाओं नें जब पूछा तो कन्हैया का उत्तर था – आज खेलेंगे ……बस खेलेंगे …….अब चलो ! कन्हैया को शीघ्रता है आज ।

पर कहाँ खेलेंगे ? मनसुख नें ही पूछा था ।

कालीदह में ………..कन्हैया नें उत्तर दिया ।

कालीदह ? मधुमंगल ,भद्र मनसुख भी चौंक गए थे ……..तभी बरसानें से श्रीदामा और सुबल भी आगये …………..कालीदह में खेलवे की कह रह्यो है कन्हैया ! मनसुख नें श्रीदामा को भी कहा ।

नाएं ….वामें तो कालीय नाग रहे है …………श्रीदामा भी डर गए ।

अरे ! कालीदह के भीतर थोड़े ही खेलेंगे ……बाहर खेलेंगे ……..और नाग तो भीतर रहता है ना ! कन्हैया की बात कौन टालेगा …………सब चल दिए कालीदह में खेलनें को ।

तात ! आज घर में किसी को कन्हैया नें कोई सूचना नही दी …कि वो कहाँ जा रहे हैं और खेलेंगे ………….और दाऊ भैया को भी लेकर नही गए …………..कारण तात ! अपनें दादा को कन्हैया ही बता चुके हैं ….कि आप शेष नाग हो और वो कालिनाग है ……….कहीं आपनें अपनें जाति का पक्ष ले लिया तो मेरे लिये भारी पड़ जाएगा ….इसलिये दाऊ दादा को बिना लिये गए थे आज कन्हैया ।

यहाँ तो कोई वृक्ष भी नही है……..न कोई लता न तृण …………

सखाओं नें देखा की कालीदह में कोई जीव जन्तु नही है ……बस यमुना की रेती हो रेती है …..।

वो देखो ! है तो सही कितना विशाल वृक्ष …..और कदम्ब का वृक्ष है ……..चलो चलो उसी के पास …………कन्हैया नें कदम्ब का वृक्ष दिखाया और ले चले उसके पास समस्त ग्वाल बालों को ।

वो कदम्ब यमुना के तट पर ही था …….विशाल कदम्ब था ।

ओहो ! उसके नीचे जैसे ही ग्वालों नें देखा …………….हृद का जल खौल रहा था विष के कारण ………….कोई जीव जन्तु लता कुछ भी नही था …….कहाँ से होता…….विष का प्रभाव था ।

ग्वाल बाल फिर बोले ………अरे ! यहाँ तो विष है …………नहीं लाला ! यहाँ नही नहानौ है ………अरे ! छुनौ हूँ नायँ ……..चल यहाँ ते ………ग्वालों नें वहाँ से चलनें के लिये कहा ।

यार ! तुम लोग डरते बहुत हो ………..चलो ! अपनी लकुट वृक्ष पर सबनें टिका दी ……..पीताम्बरी उतार कर रख दी वृक्ष में ही ……मोतिन की माला हार सब उतार दिया और वृक्ष में लटका दिया ।

चलो ! अब खेलते हैं…….अपनी काँछनी ऊपर उठाते हुए कन्हैया बोले ।

पर का खेलेंगे ? मनसुख नें पूछा ।

कन्दुक ….गेंद……..है किसी के पास ? कन्हैया नें पूछा ।

मनसुख नें सिर ना में हिलाया …….मधुमंगल नें भी……..पर सुबल नें इशारे में कहा …….श्रीदामा भैया के पास है गेंद ।

श्रीदामा ! ओ श्रीदामा ! गेंद है ? कन्हैया नें पूछा ।

हाँ है तो सही ……..पर ………श्रीदामा गेंद होनें के बाद भी देता नही है ।

क्यों ! क्या हुआ ? गेंद है तो दे……हम अब खेलेंगे ……दे गेंद !

कन्हैया माँगते हैं गेंद ।

देखो खोना नही……ये बहुत कीमती है गेंद…….स्वर्ण खचित गेंद है……..ये देखो……..श्रीदामा नें गेंद निकाल के दिखाई …………

कन्हैया बोले ……..है तो खेलने के लिये ही ना ! फिर ?

श्रीदामा नें गेंद दे दी कन्हैया को……….बस …उसी समय कन्हैया नें गेंद हाथ में जैसे ही ली……..खेल शुरू हो गया ।

श्रीदामा को देते हैं …..फिर श्रीदामा मधुमंगल को ..मधुमंगल मनसुख को ….मनसुख सुबल को ….सुबल भद्र को……..इस तरह खेल चल रहा है ……..यमुना की रेती है …….धूप के कारण रेत चमक रही है ।

“मुझे दे अब गेंद”………….श्रीदामा के पास बहुत देर से गेंद जा नही रही है …..जानबूझ कर कन्हैया श्रीदामा को गेंद दे ही नही रहे ।

पर इस बार भी नही दी कन्हैया नें श्रीदामा को गेंद ……………

श्रीदामा कन्हैया के पास गया ……….पर कन्हैया नें गेंद मनसुख की तरफ फेंक दी ………..श्रीदामा चिल्लाया …..मेरी गेंद है…..अब मैं किसी को खेलने नही दूँगा ………….।

कन्हैया नें कहा ……तेरी गेंद है ? ले अब खेल तू अपनी गेंद से …….

अरे ! ये क्या किया !

………गेंद जान बूझकर कन्हैया नें उस कालीदह में फेंक दिया था ।

दौड़कर श्रीदामा नें कन्हैया की फेंट पकड़ ली ……..गेंद दे मेरी !

कन्हैया नें बड़ी लापरवाही से कहा…….कल दे दूँगा……….

ऐसे कैसे कल दे दूँगा ? अभी दे ….अभी ! तूनें गेंद फेंकी कैसे ?

फेंट कस के पकड़ रखी है श्रीदामा नें कन्हैया की ।

देख श्रीदामा ! दो गेंद की जगह चार ले ले …….पर कल दूँगा अब ……..क्यों की अब तो गेंद गयी तेरी कालीदह में ! कन्हैया समझा रहे हैं ………पर श्रीदामा भी क्यों मानें कन्हैया की बात ……जानबूझकर कालीदह में डाली है गेंद ।

देख उधर ! कन्हैया नें ध्यान बंटाया श्रीदामा का ……और अपनी फेंट छुड़ाकर भागे ……….श्रीदामा पीछे भगा ………मैं छोड़ूँगा नही तुझे …..तू कहाँ तक भागेगा ………..!

पर ये क्या ! कन्हैया तो कदम्ब वृक्ष पर चढ़ गया ।

सब सखा स्तब्ध होकर देखनें लगे थे ।

अपनी काँछनी और ऊपर की कन्हैया नें ……….चढ़े और ऊपर …..।

तुझे गेंद चाहिये ? बोल तुझे तेरी गेंद चाहिये श्रीदामा ?

कन्हैया कदम्ब की सबसे ऊँची डाली पर चढ़ गए थे …………..

नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे श्रीदामा के ………………नही चाहिए गेंद ! तू आजा नीचे ! मनसुख चिल्लाया …………श्रीदामा को गेंद नही चाहिए तू आजा !

श्रीदामा नें जब नीचे देखा …..हृद में ……..खौल रहा था यमुना का जल कालीय नाग के विष के कारण ………….काँप गया श्रीदामा ………..ऊपर देखा उसनें उसका प्राणप्रिय सखा कदम्ब की चोटी पर चढ़ गया था ………..ओह ! ये अगर कूद गया तो ?

श्रीदामा नें अपनें आँसू पोंछे और जोर से चिल्लाया ………..गेंद नही चाहिये …….तू आजा ! तेरे लिये कल चार गेंद और ले आऊँगा ।

क्यों ! अब क्या हुआ ?

श्रीदामा की ही नही …..समस्त सखाओं की हिलकियाँ शुरू हो गयीं …….तू आजा ! कन्हैया ! तू आजा !

मैं कूद रहा हूँ………कन्हैया जोर से बोले ।

नही……..ऐसा मत कर……हाथ जोड़ते हुए सब रोनें लगे……नही ! तू आजा ! हम अब तुझ से कभी रुठेंगे नही ….झगड़ेंगे नही ……..श्रीदामा के साथ साथ सब गिड़गिड़ा रहे थे ।

पर ये क्या किया कन्हैया नें ? कूद गया कालीदह में ।

खौलता हुआ जल कालीदह का ………उसमें ही कूदा था ।

सब ग्वाल सखाओं की साँसें रुक गयीं ………स्तब्ध हो गए सब ……..

क्या कन्हैया कूदा कालीदह में ? सबका हृदय चीत्कार कर उठा था ।

ग्वाल सखा सब मूर्छित हो गए थे वहीं पर ………………

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दानघाटी

गोवर्धन पर्वतक बीच में जहाँ से आजकल मथुरा- काम्यवन का राजमार्ग जाता है उसे दानघाटी कहते हैं। यहाँ अभी भी इसपार से उसपार या उसपार से इसपार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक-झोंक के साथ दानलीला की है।

दानकेलि – कौमुदी तथा दानकेलि- चिन्तामणि

आदि गौड़ीय गोस्वामियों के ग्रन्थोंमें इस लीलाका सरस वर्णन है ।

प्रसंग –

किसी समय श्रीभागुरी ऋषि गोविन्द – कुण्ड के तट पर भगवत् प्रीति के लिए यज्ञ कर रहे थे, दूर-दूर से गोप-गोपियाँ यज्ञके लिए द्रव्य ला रही थीं। श्रीमती राधिका एवं उनकी सखियाँ भी दानघाटी के उसपार से दधि, दुग्ध, मक्खन तथा दूध से बने हुए विविध प्रकार के रबड़ी आदि द्रव्य ला रही थीं। इसी स्थान पर सुबल, मधुमंगल आदि सखाओं के साथ श्रीकृष्ण अपने लाठियों को अड़ाकर बलपूर्वक दान (टोलटैक्स) माँग रहे थे। गोपियोंके साथ उन लोगों की बहुत नोक-झोंक हुई। कृष्ण ने त्रिभंग ललित रूप में खड़े होकर भंगि से कहा क्या ले जा रही हो ?

गोपियाँ – भागुरी ऋषि के यज्ञके लिए दूध, दही, मक्खन ले जा रही हैं।

मक्खन का नाम सुनते ही मधुमंगल के मुखमें पानी भर आया। वह जल्दी से बोल उठा शीघ्र ही यहाँका दान देकर आगे बढ़ो। ललिता – तेवर भरकर बोली- कैसा दान? हमने कभी दान नहीं दिया।

श्रीकृष्ण – यहाँका दान चुकाकर ही जाना होगा।

श्रीमतीजी – आप यहाँ दानी कबसे बने? क्या यह आपका बपौती राज्य है?

श्रीकृष्ण – टेड़ी बातें मत करो ? मैं वृन्दावन राज्य का राजा वृन्दावनेश्वर हूँ।

श्रीमतीजी – सो, कैसे ?

श्रीकृष्ण – वृन्दा मेरी विवाहिता पत्नी है। पत्नीकी सम्पत्ति भी पतिकी होती है। वृन्दावन वृन्दादेवी का राज्य है, अतः यह मेरा ही राज्य है।

ललिता–अच्छा, हमने कभी भी ऐसा नहीं सुना। अभी वृन्दाजीसे पूछ लेते हैं।

तुरन्त ही सखीने वृन्दा की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए पूछा- वृन्दे ! क्या यह ‘काला’ तुम्हारा पति है?

वृन्दा – (तुनककर) कदापि नहीं। इस झूठे लम्पट से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। हाँ यह राज्य मेरा था, किन्तु मैंने इसे वृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधिकाजी को अर्पण कर दिया है। सभी सखियाँ ठहाका मारकर हँसने लगी। श्रीकृष्ण कुछ झेंप से गये, किन्तु फिर भी दान लेनेके लिए डटे रहे। फिर गोपियोंने प्रेमकलह के पश्चात् कुछ दूर भीतर दान- निवर्तन कुण्डपर प्रेमका दान दिया और लिया भी

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कृष्णावतार में किस देवता ने लिया कौन-सा अवतार ?

कृष्णावतार में किस देवता ने लिया कौन-सा अवतार?

श्रीकृष्णावतार से पहले जब भगवान ने देवताओं से पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के लिए कहा, तब देवताओं ने कहा -‘भगवन्! हम देवता होकर पृथ्वी पर जन्म लें, यह हमारे लिए बड़ी निंदा की बात है; परन्तु आपकी आज्ञा है, इसलिए हमें वहां जन्म लेना ही पड़ेगा फिर भी इतनी प्रार्थना है कि हमें गोप और स्त्री के रूप में वहां उत्पन्न न करें जिससे आपके अंग-स्पर्श से वंचित रहना पड़ता हो। ऐसा मनुष्य बन कर हममें से कोई भी शरीर धारण नहीं करेगा; हमें सदा आप अपने अंगों के स्पर्श का अवसर दें, तभी हम अवतार ग्रहण करेंगे।’

देवताओं की बात सुनकर भगवान ने कहा – ‘देवताओं! मैं तुम्हारे वचनों को पूरा करने के लिए तुम्हें अपने अंग-स्पर्श का अवसर अवश्य दूंगा।’

यह प्रसंग अथर्ववेद के श्रीकृष्णोपनिषत् से उल्लखित है।

श्रीकृष्ण के परिकर के रूप में किस देवता ने क्या भूमिका निभाई –

▪️ भगवान विष्णु का परमानन्दमय अंश ही नन्दरायजी के रूप में प्रकट हुआ।

▪️ साक्षात् मुक्ति देवी नन्दरानी यशोदा के रूप में अवतरित हुईं।

▪️ भगवान की ब्रह्मविद्यामयी वैष्णवी माया देवकी के रूप में प्रकट हुई हैं और वेद ही वसुदेव बने हैं; इसलिए वे सदैव भगवान नारायण का ही स्तवन करते रहते थे।

▪️ दया का अवतार रोहिणी माता के रूप में हुआ।

▪️ ब्रह्म ही श्रीकृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ।

▪️ शेषनाग बलरामजी बने।

▪️ वेदों की ब्रह्मरूपा ऋचाएं हैं, वे गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुईं। भगवान महाविष्णु को अत्यन्त सुन्दर श्रीराम के रूप में वन में भ्रमण करते देखकर वनवासी मुनि विस्मित हो गए और उनसे बोले – ‘भगवन्! यद्यपि हम पुनर्जन्म लेना उचित नहीं समझते तथापि हमें आपके आलिंगन की तीव्र इच्छा है।’

श्रीराम ने कहा – ‘आप लोग मेरे कृष्णावतार में गोपिका होकर मेरा आलिंगन प्राप्त करोगे।’

▪️ गोकुल साक्षात् वैकुण्ठ है। वहां स्थित वृक्ष तपस्वी महात्मा हैं।

▪️ गोप रूप में साक्षात् श्रीहरि ही लीला-विग्रह धारण किए हुए हैं।

▪️ ऋचाएं ही श्रीकृष्ण की गौएं हैं।

▪️ ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण की लकुटी का रूप धारण किया।

▪️ रुद्र (भगवान शिव) वंशी बने।

▪️ देवराज इन्द्र सींग (वाद्य-यंत्र) बने।

▪️ कश्यप ऋषि नन्दबाबा के घर में ऊखल बने हैं और माता अदिति रस्सी के रूप में अवतरित हुईं जिससे यशोदाजी ने श्रीकृष्ण को बांधा था। कश्यप और अदिति ही समस्त देवताओं के माता-पिता हैं।

▪️ भगवान श्रीकृष्ण ने दूध-दही के मटके फोड़े हैं और उनसे जो दूध-दही का प्रवाह हुआ, उसके रूप में उन्होंने साक्षात् क्षीरसागर को प्रकट किया है और उस महासागर में वे बालक बनकर पहले की तरह (क्षीरसागर में) क्रीड़ा कर रहे थे।

▪️ भक्ति देवी ने वृन्दा का रूप धारण किया।

▪️ नारद मुनि श्रीदामा नाम के सखा बने।

▪️ शम श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा बने।

▪️ सत्य ने अक्रूर का रूप धारण किया और दम उद्धव हुए।

▪️ पृथ्वी माता सत्यभामा बनी हैं।

▪️ सोलह हजार एक सौ आठ, रुक्मिणी आदि रानियां वेदों की ऋचाएं और उपनिषद् हैं।

▪️ जगत के बीज रूप कमल को भगवान ने अपने हाथ में लीलाकमल के रूप में धारण किया।

▪️ श्रीकृष्ण का जो शंख है वह साक्षात् विष्णु है तथा लक्ष्मी का भाई होने से लक्ष्मीरूप भी है।

▪️ साक्षात् कलि राजा कंस बना है।

▪️ लोभ-क्रोधादि ने दैत्यों का रूप धारण किया है। द्वेष चारुण मल्ल बना; मत्सर मुष्टिक बना, दर्प ने कुवलयापीड़ हाथी का रूप धारण किया और गर्व बकासुर राक्षस के रूप में और महाव्याधि ने अघासुर का रूप धारण किया।

▪️ गरुड़ ने भाण्डीर वट का रूप ग्रहण किया।

▪️ भगवान के हाथ की गदा सारे शत्रुओं का नाश करने वाली साक्षात् कालिका है।

▪️ भगवान के शांर्ग धनुष का रूप स्वयं वैष्णवी माया ने धारण किया है और काल उनका बाण बना है।

▪️ धर्म ने चंवर का रूप लिया, वायुदेव ही वैजयन्ती माला के रूप में प्रकट हुए है, महेश्वर खड्ग बने हैं। भगवान के हाथ में सुशोभित चक्र ब्रह्मस्वरूप ही है।

▪️ सब जीवों को ज्ञान का प्रकाश देने वाली बुद्धि ही भगवान की क्रिया-शक्ति है।

इस प्रकार श्रीकृष्णावतार के समय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वर्गवासियों को तथा सारे वैकुण्ठधाम को ही भूतल पर उतार लिया था ।

इस प्रसंग को पढ़ने का माहात्म्य इस प्रकार है –

▪️ इससे मनुष्य को सभी तीर्थों के सेवन का फल प्राप्त होता है ।

▪️मनुष्य देह के बंधन से मुक्त हो जाता है अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता है।

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 103

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 103)

!! कालिय नाग !!

कश्यप ऋषि , उनकी दो पत्नियां थीं …..

“कद्रु और विनीता” ।

……..विनीता शान्त भद्र स्वभाव की थीं ……वो भगवान नारायण के वाहन गरूण की माँ बनीं ……गरूण को जन्म दिया उन्होंने …….और कद्रु ? ये क्रोधी स्वभाव की होनें के कारण इनके पुत्र “सर्प – नाग” ये सब हुये ।

कन्हैया आज सोये नही हैं………इस कालिय नाग का इतिहास इन्हें जानना है……और वृन्दावन में ये कैसे आया…….ये भी समझना है ।

गरूण यहाँ क्यों नही आसकते ? कन्हैया सोच रहे हैं ।

गरूण का भोजन है सर्प नाग इत्यादि ……..फिर वृन्दावन में उनको क्यों नही बुलाया जा सकता ?

रमणक द्वीप से ये कालिय अपनें समस्त परिवार को भी यहीं वृन्दावन के इस “यमुना हृद” में ले आया था……..जिसके कारण यमुना में विष दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था …….क्या करें ?

तात ! कन्हैया अन्तर्यामी हैं ……इनसे कोई बात छुपी नही है ……..ये सब जानते हैं …….पर लीला कर रहे हैं …….तो लीला की मर्यादा का पालन भी तो आवश्यक है……लीला में आप सर्वान्तर्यामी नही बन सकते …..अगर बन गए तो लीला बनेगी ही नही ।

उद्धव नें विदुर जी को ये बात कही थी ।

गरूण की माँ विनीता दासी बन चुकी थीं नागों की माँ कद्रु की ।

छल किया कद्रु नें विनीता के साथ ……..और कपट से विनीता को दासी बना लिया ……अब माँ दासी बन गयी तो पुत्र भी दास ।

क्या सोच रहे हो कन्हैया ? दाऊ भैया नें जब देखा कि उनका अनुज आज सो नही रहा……तो कन्हैया से पूछ लिया……पर कन्हैया नें कोई उत्तर नही दिया…..तब दाऊ नें स्वयं ही कहा…….कालिय नाग के बारे में सोच रहे हो ?

कन्हैया नें दाऊ भैया के मुख की ओर देखा….फिर सिर हाँ में हिलाया ।

मैने ही आकर सन्धि कराई थी सर्पों में और गरूण में……..शेष स्वरूप दाऊ नें कन्हैया से कहा ।

मुझे आना पड़ा था क्यों की गरूण और सर्पों में वो भीषण युद्ध छिड़ गया कि उसके समाप्त होनें की कोई आशा ही नही थी ………..मुझे बीच में आना पड़ा……….मैने जब पूछा ……..कि सर्पों ! बताओ गरूण क्या करे ऐसा जिससे उसकी माँ और वो तुम लोगों की दासता से मुक्त हो जाए ………तब सर्पों की माँ कद्रु नें कहा था ……..स्वर्ग से अमृत ले आए ये गरूण और हमारे पुत्रों को दे दें………बस विनीता और गरूण दासत्व से मुक्त ।

कन्हैया ! मैने गरूण की ओर देखा था…और उसी समय सिर झुकाकर गरूण चले गए अमरापुरी….दाऊ जी कन्हैया को बता रहे हैं ।

जैसे तैसे देवों से लड़ झगड़ के गरूण अमृत का कलश ले तो आये पृथ्वी में ……पर थक गए थे ………इसलिये वो यमुना किनारे कदम्ब की डाल पर बैठ गए ……….वैसे गरूण का भार वो कदम्ब सह नही पाता किन्तु अमृत के दो तीन बुँदे उस वृक्ष पर गिर गयीं थीं इसलिये गरूण का भार उसनें थाम लिया ।

गरूण को भूख लगी थी ………..क्यों की देवों से युद्ध करके अमृत छीना था उन्होंने …..श्रम तो हुआ था……क्षुधा से व्याकुल हो उठे थे गरूण ……….तभी यमुना में एक विशाल मत्स्य को देखा ………..बस ………झुक कर जैसे ही उस मछली को मुँह में लेना चाहा गरूण नें ……

वो छटपटाई……….पर गरूण को भी क्या पता था उसी यमुना में एक सौभरि नामक ऋषि तपस्या कर रहे हैं…….उनके तप में विघ्न हुआ …….मत्स्य को आहार बना रहे हो गरूण ! सौभरि लाल लाल नेत्रों से गरूण को देख रहे थे ……ये श्रीधाम वृन्दावन है …….यहाँ आकर तो कमसे कम जीव हिंसा मत करो ।

दाऊ नें अपनें कन्हैया से कहा……कन्हैया ! गरूण को अहंकार था कि …..मैं भगवान नारायण का वाहन….और इन ऋषि को क्या ये पता नही है कि मेरा आहार ही यही है …..मत्स्य या सर्प, मैं शाकाहारी कहाँ हूँ मेरे लिये यही आहार निश्चित किया है मेरे नारायण भगवान नें ।

पर गरूण कुछ भी सोचते रहें ………..उन तपश्वी नें तो श्राप दे दिया था गरूण को कि ……तुम अब वृन्दावन में आकर किसी जीव को अपना आहार नही बनाओगे …..अगर बनाया तो तुम स्वयं शक्तिहीन हो जाओगे ………..तपश्वी का श्राप पाकर गरूण सर्पों के पास भागे …….अमृत सर्पों को प्रदान किया ………..दासत्व से मुक्त होते ही सर्वप्रथम गरूण नें सर्पों को अपना आहार बनाना शुरू कर दिया था ……..सृष्टि में हाहाकार मच गया ………नाग सर्प अब बचेंगे नही ………ब्रह्मा चिंतित हो उठे ………तब हे कन्हैया ! मुझे फिर मध्यस्थता निभानी पड़ी ……….दाऊ नें कहा ……मैं फिर गया मैने समझाया गरूण को ………..कि इस तरह हिंसा मत करो …….तुम को आहार चाहिये तो नित्य चार पाँच सर्प यहाँ रख दिए जायेंगे तुम खा कर चले जाना ।

सर्पों को ये स्वीकार था…..वो बेचारे करते भी क्या गरूण के सामनें ।

और गरूण को मेरी बात माननी ही पड़ी ।

ये क्रम ठीक चलता रहा ………….पर एक नाग बड़ा दुष्ट था ……….कन्हैया अब मुस्कुराये ……कालिय ! हाँ कालिय नाग ।

उसके सौ फन थे ………..इसका ही उसे अहंकार था ।

वो कालिय नाग तो गरूण के लिये रखे हुए अपनें सर्पों को ही खानें लगा ……

ये देखकर गरूण को बहुत क्रोध आया …………

क्यों की एक दो दिन की बात नही थी ………….कई दिनों से ये क्रम उस कालिय नाग का चल रहा था ।

गरूण नें पीछा किया कालियनाग का ……….वो भागा …………समुद्र में चला गया ……….पर गरूण नें समुद्र को भी खंगाल डाला ।

कालीय नाग समुद्र से होता हुआ गंगा में आया ……और गंगा से होता हुआ यमुना में ……फिर यमुना से ही वृन्दावन आगया था ……..क्यों की उसको पता था – गरूण वृन्दावन में नही आसकते ….और आ भी जाएँ तो हिंसा नही कर सकते ।

ओह ! लम्बी साँस ली कन्हैया नें ……………..फिर इसनें अपनें परिवार को भी बुला लिया …..कन्हैया नें ही कहा ।

हाँ ……………दाऊ भैया बोले ।

तुम दोनों अभी तक जगे हुए हो…..अर्धरात्रि हो गयी है ….सो जाओ ……

यशोदा मैया उठ गयीं थीं और दोनों भाइयों को बातें करते हुए सुना तो डाँटनें लगीं ।

कन्हैया दाऊ भैया के कान में फुसफुसाए ……….दादा ! कल मैं कालीदह में जाऊँगा …………और कालीय नाग को नथ कर लाऊँगा ………

मैं भी चलूँगा तेरे साथ ……….दाऊ बोले ।

नहीं दादा ! तुम नही …………कन्हैया सहज रहे ।

क्यों ? दाऊ नें पूछा ।

क्यों की तुम भी तो शेषनाग हो ………….और वहाँ अपनें जाति का पक्ष तुमनें लिया तो ? ये कहते हुए कन्हैया हँसे ।

“तुम सोते हो या मैं पिटाई करूँ तुम्हारी ” ……..मैया नें इस बार अच्छे से डाँटा था ।

चुपचाप सो गए अब दोनों भाई – बलराम कृष्ण ।

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गोवर्धन मानसी गंगा लीला

मानसी गंगा गोवर्धन गाँव के बीच में है। परिक्रमा करने में दायीं और पड़ती है और पूंछरी से लौटने पर भी बायीं और इसके दर्शन होते हैं।

एक बार श्री नन्द-यशोदा एंव सभी ब्रजवासी गंगा स्नान का विचार बनाकर गंगा जी की ओर चलने लगे। चलते-चलते जब वे गोवर्धन पहुँचे तो वहाँ सन्ध्या हो गयी। अत: रात्रि व्यतीत करने हेतु श्री नन्द महाराज ने श्री गोवर्धन में एक मनोरम स्थान सुनिश्चित किया। यहाँ पर श्री कृष्ण के मन में विचार आया कि ब्रजधाम में ही सभी-तीर्थों का वास है, परन्तु ब्रजवासी गण इसकी महान महिमा से अनभिज्ञ हैं इसलिये मुझे ही इसका कोई समाधान निकालना होगा।

श्रीकृष्ण जी के मन में ऐसा विचार आते ही श्री गंगा जी मानसी रूप में गिरिराज जी की तलहटी में प्रकट हुई। प्रात:काल जब समस्त ब्रजवासियों ने गिरिराज तलहटी में श्री गंगा जी को देखा तो वे विस्मित होकर एक दूसरे से वार्तालाप करने लगे।

सभी को विस्मित देख अन्तर्यामी श्रीकृष्ण बोले कि इस पावन ब्रजभूमि की सेवा हेतु तो तीनों लोकों के सभी तीर्थ यहाँ आकर विराजते हैं परन्तु फिर भी आप लोग ब्रज छोड़कर गंगा स्नान हेतु जा रहे हैं। इसी कारण माता गंगा आपके सम्मुख आविर्भूत हुई हैं अत: आप लोग शीघ्र ही इस पवित्र गंगा जल में स्नानादि कार्य सम्पन्न करें।

श्री नन्द बाबा ने श्रीकृष्ण की इस बात को सुनकर सब गोपों के साथ इसमें स्नान किया। रात्रि को सब ने दीपावली का दान दिया तभी से आज तक भी दीपावली के दिन यहाँ असंख्य दीपों की रोशनी की जाती है।

श्रीकृष्ण के मन से आविर्भूत होने के कारण यहाँ गंगा जी का नाम मानसी गंगा पड़ा।

कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को श्री गंगा जी यहाँ प्रकट हुईं थीं। आज भी इस तिथि को स्मरण करते हुए हज़ारों भक्तगण यहाँ स्नान-पूजा-अर्चना-दीप दानादि करते हैं। भाग्यवान भक्तों को कभी-कभी इसमें दूध की धारा का दर्शन होता है।

मानसी गंगा लीला

एक बार राधा रानी जी अपनी सखियों के साथ माखन लेकर मानसी गंगा के तट पर आईं। मानसी गंगा में बहुत पानी है। सोचने लगीं कैसे पार करेंगी मानसी गंगा को।

तभी कृष्ण नाविक का भेष बदलकर आ गए और बोले – नाव से पार करा देता हूँ।

गोपियो ने कहा, बहुत भला नाविक है सभी सखियाँ और राधा रानी नाव में बैठ गये।

कृष्ण मन ही मन सोचने लगे आज आनन्द आएगा।

कृष्ण ने नाव चलाना आरम्भ किया। थोड़ी देर बाद कृष्ण बोले – मुझ भूख लग रही है, कुछ खिलाओ नहीं तो मैं नाव नहीं चला पाऊँगा, सब डूब जाओगी।

सखियों ने अपना सब माखन कृष्ण को दे दिया, कृष्ण सब खा गये फिर नाव चलानी आरंभ की, थोड़ी देर बाद बोले मैं थक गया हूँ, मेरे पैर दबाओ तभी नाव चला पाऊँगा।


सखियाँ पैर दबाने लगीं बहुत सेवा की। जब नाव बीच में पहुँची, तो कृष्ण ने नाव जोर से हिला दी। सब डर गयीं।

कृष्ण बोले – मेरी नाव पुरानी है, वजन अधिक है, डूब जायेगी, अपनी मटकी मानसी गंगा में फेंक दो।

जल्दी-जल्दी, गोपियों ने अपनी मटकियाँ मानसी गंगा में डाल दीं।

कृष्ण फिर बोले अभी भी नाव हिल रही है, डूब जायेगी, अपने गहने भी फेंक दो नहीं तो डूब जाओगी।

सबने अपने बहुमूल्य गहने भी मानसी गंगा में फेंक दिए फिर ठाकुर जी ने नाव चलायी।

ललिता जी को उनके वस्त्रों में मुरली दिख गयी।

ललिता जी बोलीं – अच्छा, श्यामसुन्दर है ये नाविक! अभी बताते हैं इस नाविक को। जैसे ही किनारा आया सभी सखियाँ उतर गयीं।

सब ने कहा, “ऐ नाविक! अपनी उतराई तो लेते जाओ और सबने पकड़कर श्याम सुंदर को मानसी गंगा में फेंक दिया और बोलीं, बहुत हमारे गहने, माखन मटकी, मानसी गंगा में डलवा कर खुश हो रहे थे। अब ये लो उसका प्रसाद।”

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त्रिलोचन जी


एक कथा है भक्तमाल में त्रिलोचन भक्त की, बड़े भारी भक्त थे और उनके यहाँ भक्त लोग आया करते थे, सदा भीड़ लगी रहती थी। ५०-५०, १००-१०० भक्त कीर्तन करते हुए आते और भोजन प्रशादी पाते।
ऐसी जगह भगवान् जरूर आते हैं और सेवा करने आते हैं, खाली ये ही नहीं कि भण्डारा पा के चले गये। त्रिलोचन जी के यहाँ भगवान् गये एक मजदूर का रूप बनाकर के नौकरी ढूँढ़ने कि हमको कोई नौकर रख ले। त्रिलोचन जी को जरूरत भी थी, क्योंकि १००-१००, ५०-५० के टोल आ जाएँ भक्त लोग और उनको भोजन बनाना, खिलाना। त्रिलोचन बैठे थे वहाँ और भगवान् एक मजदूर का रूप (फटी-सी एक फितूरी है, पाँव में जूता नहीं है, बहुत गरीब रूप) बनाकर आ गये। त्रिलोचन जी के यहाँ हर समय कीर्तन होता था, भगवान् के सच्चे भक्त थे। उनके यहाँ सैकड़ों भक्त प्रसाद पा रहे हैं, आ रहे हैं-जा रहे हैं; तो भगवान् गोपाल जी स्वयं पहुँचे एक मजदूर का रूप बनाकर के और जाकर के बोले-

कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
मैं तो दास पुराना दासों का, मैं तो दास पुराना दासों का॥

मजदूर रूप ठाकुर जी ने आवाज लगाई, “हमें कोई नौकर बना के रख ले, हम नौकरी माँगने आये हैं।”
त्रिलोचन जी भीतर से दौड़े, अरे ! हमारे यहाँ तो बहुत भीड़ रहती है, कोई आ गया, चलो बात करते हैं।
त्रिलोचन जी मजदूर रूप ठाकुर जी के पास गये और बोले, “अरे भैया ! तुम कौन हो, कहाँ से आये हो? तुम तो बड़े सुंदर सरल और आकर्षक हो तुम्हें देख कर तो एकाएक ही मुझे अपने ठाकुर जी का स्मरण होता है।”
ठाकुरजी हँस गये, समझ गए कि अब हमारा भक्त आ गया, बोले, “भाई ! देखो, मैं नौकरी ढूँढ़ने आया हूँ और एक साधारण सा नौकर हूँ मुझे नौकरी चाहिए।”
त्रिलोचन जी बोले, “अच्छा, भाई ! तुम नौकरी चाहते हो, तुम्हारा कोई पता-ठिकाना?”
मजदूर रूप ठाकुर जी बोले, “मेरे कोई माँ नहीं, मेरे कोई बाप नहीं।”
अब ठाकुर जी कह तो रहे हैं सच लेकिन त्रिलोचन भक्त समझ रहे हैं कि कहीं ऐसे अनाथ होयगो, काऊ ने पालन-पोषण कियो होयगो।
त्रिलोचन बोले, “तो भाई ! तेरी तनखाय क्या है? क्या लेगा तू?”
मजदूर रूप में श्रीठाकुर जी, “देखो जी, एक भी पैसा नहीं लूँगो।”
त्रिलोचन, “तो नौकरी काय बात की?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “मैं खाऊँ ज्यादा, या मारे मोय कोई नौकर नहीं रखे।”
त्रिलोचन जी, “भैया ! कितनो खावै?”
मजदूर रूप ठाकुर जी,“पाँच किलो।”
त्रिलोचन जी, “अच्छा, भैया ! खायवै की कमी तो है नहीं। यहाँ सैकड़ों भक्त भोजन करते हैं।” जो सेवा करता है, वहाँ घाटा नहीं रहता; चाहे कैसी भी सेवा हो।
त्रिलोचन जी, “भाई ! पाँच किलो हम रोज खवायेंगे तोय। और कोई तेरी ठहर, कोई शर्त?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “हमारी कोई निन्दा न करे तब हम नौकरी करते हैं। जा दिन कोई निन्दा करेगो, हम छोड़ के चले जायेंगे।”
त्रिलोचन जी, “अच्छा, भाई ! हम निन्दा क्यों करेंगे, हमारे यहाँ तो निन्दा को काम ही नहीं है, दिन-रात कीर्तन करैं और हमारे यहाँ जितने आवैं (कोई नातेदार, रिश्तेदार ‘सांसारिक सम्बन्धी’ नहीं आवैं), भगवान् के भक्त आवैं, उनकी सेवा कर लैगो?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “अरे, वही सेवा तो मैं जानूँ, भक्तन की सेवा मैं करूँ, याही मारे मैं तेरे दरवाजे आयो हूँ।” (त्रिलोचन जी ने मन में सोचा, अरे, ये तो कोई भगत मालूम पड़े।)
त्रिलोचन, “भाई ! भक्त बड़े-बड़े आवैं, टेढ़े-मेढ़े आवैं, रिसेले-गुस्सेले आवैं।”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “मैं सब झेल लूँगो।”
त्रिलोचन जी, “अच्छा ! तो भाई, ये कपड़ा पहन ले। फटे-फटे तेरे कपड़ा हैं।” त्रिलोचन जी ने मजदूर रूप ठाकुर जी की फटी सी फितूरी उतरवाय करके नए वस्त्र धारण कराये।
त्रिलोचन जी,“तेरो नाम का है? ”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “मेरो नाम है, अन्तर्यामी।”
त्रिलोचन जी, “अन्तर्यामी नाम तो बड़े जोर को रखो, कौन ने रखो भाई?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “पतौ नहीं साहब, मैंने पहले कह्यो, मेरी मैया-बाप नहीं।”
सब सच कह रहे हैं कि हम अन्तर्यामी भगवान् हैं लेकिन उनको पहिचान कौन सकै? मुश्किल तो ये है। फटे-फटे कपड़े में आये हैं, कोई पनहैया नहीं, जूती नहीं।
त्रिलोचन जी, “अच्छा भाई, अन्तर्यामी ! तू एक बात बताय कि सेवा कैसी कर सकैगो?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “सुनो,”

मैं तो दास पुराना दासों का।
सेवा करने में मैं हूँ बड़ा चातुर सेवक मैं पुराना।
सेवा ही की मैंने अब तक, सेवा धर्म ही जाना॥
कोई एक बार अजमा ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले॥
मैं तो दास पुराना दासों का।

त्रिलोचन जी, “भाई ! तू कैसी-कैसी सेवा कर सकै, ये भी बता दे?”

मजदूर रूप ठाकुर जी, सुनो, भाई !
कोई पग चप्पी करवा ले, चाहे सिर को मलवा ले।
कोई सेना नाई की सी मालिस भी करवाय ले॥
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेव करवा ले।
चाहे जूती गठवाय ले, अच्छी गाठूँ रविदास से।
चाहे कपड़ा सिलवाय ले, सिलूँ अच्छी परमेष्ठी से॥
कोई मुझसे कुछ करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले॥
मैं तो दास पुराना दासों का।

त्रिलोचन, “अरे भाई ! तू इतने काम जाने और तऊ तेरे ऊपर फटी सी फितूरी।”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “साहब ! हमने तो बता दियौ, हम सब काम जानैं लेकिन खावैं ज्यादा सो कोई नौकर नहीं रखे और रखउ ले तो बुराई करै, तो मैं भाग जाऊँ वहाँ ते।”
त्रिलोचन जी, “और क्या जाने? ”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “सुनो, भाई !”

चाहे चरखा चलवाय ले, अच्छी कातूँ मैं कबिरा से।
चाहे कपड़ा रँगवा ले, अच्छी रँग दूँ मैं नामा से॥
कोई सेवा कैसी भी करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा कर ले॥
मैं तो दास पुरानों दासों का।

त्रिलोचन जी, “अरे भाई ! तेरे में तो बड़े गुण हैं और कहा जानै?”
मजदूर रूप ठाकुर जी, “और सुनो, साहब !”

चाहे चक्की पिसवाये ले, पीसा जनाबाई संग मैंने।
चाहे नाच नचा ले मुझसे, नाचा मीरा संग मैंने॥
मनचाही से कुछ करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले॥
मैं तो दास पुराना दासों का।
कैसे भी गहना गढ़वाय ले, अच्छा गढ़ूँ त्रिलोकी भक्त से।
खेत जुताय ले कुम्भन जैसा, खेत कटाय ले धन्ना जैसा॥
कोई टहल सभी करवा ले, भक्तों की सेवा करवा ले।
कोई नौकरी में रख ले, भक्तों की सेवा करवा ले॥
मैं तो दास पुराना दासों का।

त्रिलोचन जी, “बस-बस, भैया ! तू तो बड़े काम को आदमी है और हमने तोय रख लियो।”
अब (ठाकुर जी) अन्तर्यामी सेवा करने लग गये और कोई जान नहीं पायो।
१०० साधु आ जायें, प्रसाद पायके जब सोवें तो उतने ही रूप धर लें और सबन्ह के जाय के पाँव दाबें, हर साधु सोचे हमारे ही पास है अन्तर्यामी।
काऊ ने सोचो प्यास लगी है तो पहले पहुँच जायें लौटा लेकर के। प्यासा साधु बोला, “अरे भाई ! अन्तर्यामी, तेरो नाम सच में अन्तर्यामी है, मोय प्यास लग रही और तू पहले से लौटा लेके आय गयो।”
अन्तर्यामी, “हाँ जी, मोय सेवा को अभ्यास है।”
ठाकुरजी ने बड़ी सेवा करी और १३ महीने तक सेवा करते रहे।
एक दिन त्रिलोचन भक्त की स्त्री गयीं पानी भरवे कुआ पै, तो वहाँ और गाँव की पनिहारी मिलीं (परस्पर में बातें करने लगीं),
पनिहारिन, “अरे वीर ! तेरे यहाँ तो बड़ो अच्छो सेवक आ गयो है अन्तर्यामी, सब काम कर दे।”
त्रिलोचन की स्त्री, “हाँ, सब काम कर दे, ढेर के ढेर बर्तन माँज दे, लकड़ी फाड़ दे, पानी भर दे, जहाँ जाय कोई काम बाकी नहीं रहे। काम करने की कहो और काम पूरो तैयार। लेकिन एक बात है, खावै बहुत, ५ किलो भोजन पूरो खाय जाय।”
उधर बुराई करी और इधर अन्तर्यामी गायब। उनकी ठहर थी कि हम से सेवा तुम जन्म भर करवा लो, लेकिन निन्दा करने पर चला जाऊँगा।
भगवान् शिक्षा दे रहे हैं कि हम लोगों को निन्दा नहीं करनी चाहिए (यह एक अक्षम्य पाप है)। महात्माओं ने लिखा है :-
संसार में सबसे बड़ी मैया मानी गयी, क्योंकि अपने हाथों से मल आदि धोवे बच्चा के, मैया पाप को नहीं धुल सकती है और जो दुष्ट लोग होते हैं वो जीभ से हम सबके पाप को निन्दा कर-करके अपनी जीभ से चाट-चाट के सब पाप को खा जाएँ। जो काम मैया नहीं कर सकती है वो काम निन्दक लोग (हम जैसे लोग) किया करते हैं, पाप तुमने किया निन्दा कर करके तुम्हारा सारा पाप खा लिया हमने जीभ से।
इसीलिये शास्त्र में कहा गया है, पराई निन्दा के समान पाप कुछ नहीं है।
तो जैसे ही अन्तर्यामी के बारे में त्रिलोचन जी की स्त्री ने पनहारिन से कहा कि अरी ! खावै बहुत, वैसे ही अन्तर्यामी गायब हो गये। अब गायब हो गये तो वहाँ सब काम फैल रहा है।
त्रिलोचन जी बोले, “अरे अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ! ओ रे अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ! ”
और दिना तो बुलाने की जरूरत नहीं थी, पहले ही हाजिर हो जाते थे। आज चिल्ला रहे हैं, अन्तर्यामी ! अन्तर्यामी ! ! अरे अन्तर्यामी ! ! !
कोई नहीं आ रहा है, त्रिलोचन जी समझ गये कि कोई न कोई किसी ने बुराई किया है, उसकी ठहर थी कि जिस दिन तुम बुराई करोगे हम यहाँ से चले जायेंगे।
भगवान् कभी नहीं चाहते हैं कि हमारा भक्त किसी की बुराई करे, निन्दा करे या पाप खावै। ये जीभ भगवान् के नाम के लिए है, भगवान् शिक्षा देते हैं कि तुम क्यों बुराई करते हो?
त्रिलोचन जी समझ गये थे, उतने में उनकी स्त्री आयी पानी भर के और उससे पूछा कि तेने क्या बुराई करी थी अन्तर्यामी की? पहले कुछ नहीं बोली चुप रही, बाद में कहा कि हाँ, अन्तर्यामी की निन्दा की थी पनिहारियों से कि ‘खावै बहुत’।
त्रिलोचन जी ने अपनी स्त्री से कहा, “अरे, तेने अन्तर्यामी को गायब करा दियौ।”
त्रिलोचन जी अन्तर्यामी के वियोग में पागल होकर के चारों ओर घूमने लग गये और पुकारने लगे,
अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ऽ !! कहाँ गया अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! ! !
मेरो प्राण अन्तर्यामी ! मेरो देह अन्तर्यामी !! ……………………………
मेरी मैया अन्तर्यामी ! मेरो बाबा अन्तर्यामी !! …………………………….
मेरो भैया अन्तर्यामी ! मेरो बन्धु अन्तर्यामी !! अन्तर्यामी ऽ ऽ ऽ ! ………..
सारा दिन बीत गया पागल की तरह, रात बीत गयी, अन्तर्यामी ! अन्तर्यामी ! ! चिल्लाते चिल्लाते। न खाना खा रहे हैं, न पानी पी रहे हैं। स्त्री भी चुप, क्या करे? पति पागल हो गया। दूसरा दिन बीत गया, दूसरी रात बीत गयी, अन्तर्यामी ! …. कहाँ? अन्तर्यामी! ! …..कहाँ?
चिल्लाते हुए तीन दिन-तीन रात बीत गयीं बिना खाये-पिये; तब आकाशवाणी हुई (बड़ी मीठी वाणी आकाश से आयी),“अरे त्रिलोचन जी !”
त्रिलोचन जी की ऊपर दृष्टि गयी, है तो कोई नहीं लेकिन आवाज आ रही है, बोले, “कौन है भैया !”
आकाशवाणी, “मैं हूँ तुम्हारा इष्ट, मैं ही तुम्हारे घर में सेवा करने के लिए आया था। देखो, हमारी-तुम्हारी ठहर थी कि जब निन्दा होगी तब हम वहाँ से चले जायेंगे। अब तुम भोजन करो, हमारी आज्ञा मानकर के। तुम कहो तो फिर से तुम्हारी सेवा कर सकता हूँ, बोलो क्या चाहते हो?”
अब त्रिलोचन जी चुप। भगवान् से कैसे कहें कि आप फिर से आओ, जूठे बर्तन माँजना, हमारी जूती को गाँठ देना, हमारे कपड़ों को धो देना, हमारी लंगोटी धो देना, कैसे कह सकता है भगवान् का भक्त।
त्रिलोचन जी हाय हाय करते हुए आर्तनाद करके पछाड़ खाकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े और रो रो कर कहने लगे– “प्रभु ! , यह मुझसे कैसा भीषण अपराध हुआ हाय आपने ऐसी नीच सेवायें किया, मोरी साफ करते थे, मल-मूत्र तक, जूठे बर्तन माँजते थे आप, जूती गाँठते थे, आपने क्या नहीं किया। मैं तो पापी हूँ, नीच हूँ, मुझको तो डूब कर मर जाना चाहिए, आपसे मैंने सेवा ली।

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वृंदावन वास कैसे करें?

प्र० – महाराज जी, वृन्दावन में मैं वास तो करना चाहता हूँ लेकिन मेरा यहाँ स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है इसीलिये मुझे धाम से बाहर रहना पड़ता है तो क्या ये ठीक है बाहर रहना ?

समाधान – श्रीनारायणस्वामीजी एक दोहे में कहते हैं कि इस भागवतिक मार्ग पर चलना बड़ा कठिन है, इस मार्ग पर कौन चल सकता है, तो कहते हैं.

नारायन अति कठिन है हरि मिलन की बाट । यामें पग पीछे धरे, प्रथम शीश दै काट ॥ इस मार्ग पर वही चल सकता है जो अपने आपको मिटा दे क्योंकि प्रेम गली अति साँकरी तामें दो न समाय ।

शरीर अस्वस्थ हुआ तो हम सोचते हैं कि हम दिल्ली कलकत्ता आदि किसी महानगर में चले जायेंगे । अरे, हम पूछते हैं। कि क्या वहाँ नहीं मरोगे या वहाँ अस्वस्थ नहीं होओगे? अगर यहाँ अस्वस्थ होगे तो श्रीजी की याद आयेगी, यहाँ अस्वस्थ होगे तो संतजन पूछेंगे कैसे हो? वहाँ अस्वस्थ होगे तो सखियाँ पूछेंगी । यहाँ वृन्दावन में वृंदा सखी का राज्य है, वह प्रत्येक जीव का निरीक्षण करती हैं । जैसे कोई भारतवासी है तो चाहे भले ही वह किसी भी गाँव में रहता हो लेकिन भारत सरकार के रजिस्टर में उसकी सारी जानकारी अंकित होती है

अब विचार करो, जब एक छोटी सी सत्ता अपनी प्रजा का इतना निरीक्षण करती है तो जो अखिललोकों की सत्ता है क्या वह आपका निरीक्षण नहीं करेगी कि आप वृन्दावन में कैसे हो, आपको क्या आवश्यकता है, कितने कष्ट में हो? क्या हमारी लाड़िली जू जो जू करुणासिन्धु हैं आपको तड़पते देख सकती हैं, पर हमें भरोसा लाड़िली जू का नहीं है, भरोसा तो हमें संसारियों का है । अगर हमें श्रीजी पर भरोसा है तो हमें प्रतिपल श्रीजी देख रही हैं । हमें अगले क्षण किस चीज की आवश्यकता है ये हमारी श्रीजी जानती हैं और बिना चाहे वह अपने आप दे देती हैं, लेकिन हमें तो भरोसा है पत्नी पुत्र का, बैंकबैलेंस और डॉक्टरों का, तो हमें अपने कर्मों को भोगना पड़ेगा, और अगर श्रीजी का भरोसा है तो आप निश्चित मानो सब यहीं बिना दवा के ठीक हो जाएगा क्योंकि हमारे प्रभु ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं सर्वसमर्थ हैं’ – जिनके संकल्प मात्र से सृष्टि की रचना, पालन और संहार होता है ‘भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई ।’ ऐसे सर्वसामर्थ्यशाली प्रभु जिन प्यारी जू के प्रेम के अधीन रहते हैं, हम ऐसी लाड़िलीजू के राज्य में रह रहे हैं और हमें तड़पकर कहीं और जाना पड़े कि वृन्दावन का वातावरण हमारे अनुकूल नहीं पड़ रहा है, तो फिर हमें अन्यत्र माया के वायुमंडल में ही प्राण त्यागने पड़ेंगे । इसमें दृढ़ता की आवश्यकता है कि अब जो होना हो सो होवे, मरूँ या जियूँ श्रीजी के धाम को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाउँगा

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“श्रीजी की प्रेम परीक्षा”

लीलाधारी भगवान कृष्ण की लीला अद्भुत है। एक बार तो श्रीराधाजी की प्रेम परीक्षा लेने के लिए नारी बन उनके महल में पहुँच गए। श्रीगर्ग संहिता में सुन्दर कृष्ण की कथा है।

शाम को श्रीराधाजी अपने राजमन्दिर के उपवन में सखियों संग टहल रही थीं, तभी बगीचे के द्वार के पास मणिमण्डप में एक अनजान पर बेहद सुन्दर युवती को खड़े देखा। वह बेहद सुन्दर थी। उसके चेहरे की चमक देख श्रीराधा की सभी सहेलियाँ अचरज से भर गईं। श्रीराधा ने गले लगाकर स्वागत किया और पूछा–


श्रीराधा ने कहा–’सुन्दरी सखी तुम कौन हो, कहाँ रहती हो और यहाँ कैसे आना हुआ ? तुम्हारा रूप तो दिव्य है। तुम्हारे शरीर की आकृति मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण जैसी है। तुम तो मेरे ही यहाँ रह जाओ। मैं तुम्हारा वैसे ही ख्याल रखूँगी जैसे भौजाई, अपनी ननद का रखती है।’

यह सुनकर युवती ने कहा–’मेरा घर गोकुल के नन्दनगर में नन्दभवन के उत्तर में थोड़ी ही दूरी पर है। मेरा नाम गोपदेवी है।

मैंने ललिता सखी से तुम्हारे रूप-गुण के बारे में बहुत सुन रखा था, इसलिए तुम्हें देखने के लोभ से चली आई।’

थोड़ी ही देर में गोपदेवी श्रीराधा और बाकी सखियों से साथ घुल-मिलकर गेंद खेलने और गीत गाने के बाद बोली–मैं दूर रहती हूँ रास्ते में रात न हो जाए इसलिए मैं अब जाती हूँ।’

उसके जाने की बात सुन श्रीराधा की आँखों से आँसू बहने लगे। वह पसीने-पसीने हो वहीं बैठ गईं। सखियों ने तत्काल पंखा झलना शुरू किया और चन्दन के फूलों का इत्र छिड़कने लगी।

यह देख गोपदेवी बोली–’सखी राधा मुझे जाना ही होगा। पर तुम चिन्ता मत करो सुबह मैं फिर आ जाऊँगी अगर ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और भाई की सौगंध है।’ यह कह वह सुन्दरी चली गई।

सुबह थोड़ी देर से गोपदेवी श्रीराधाजी के घर फिर आयी तो वह उसे भीतर ले गयीं और कहा–’मैं तुम्हारे लिए रात भर दुखी रही। अब तुम्हारे आने से जो खुशी हो रही है उसकी तो पूछो नहीं।’

श्रीराधाजी की प्रेम भरी बातें सुनने के बावजूद जब गोपदेवी ने कोई जवाब नहीं दिया और अनमनी बनी रही, तो श्री राधाजी ने गोपदेवी की इस खामोशी की वजह पूछी।

गोपदेवी बोली–’आज मैं दही बेचने निकली। संकरी गलियों के बीच नन्द के श्याम सुन्दर ने मुझे रास्ते में रोक लिया और लाज शर्म ताक पर रख मेरा हाथ पकड़ कर बोला–’मैं कर (टैक्स) लेने वाला हू्ँ। मुझे कर के तौर पर दही का दान दो।’

‘मैंने डपट दिया। चलो हटो, अपने आप ही कर लेने वाला बन कर घूमने वाले लम्पट। मैं तो कतई तुम्हें कोई कर न दूँगी।’

उसने लपक कर मेरी मटकी उतारी और फोड़कर दही पीने के बाद मेरी चुनरी उतार कर गोवर्धन की ओर चल दिया। इसी से मैं क्षुब्ध हूँ।’ श्रीराधाजी इस बात पर हँसने लगीं।

गोपदेवी बोली–’सखी यह हँसने की बात नहीं है। वह काला कलूटा, ग्वाला, न धनवान, न वीर, आचरण भी अच्छे नहीं, मुझे तो वह निर्मोही भी लगता है। सखी ऐसे लड़के से तुम कैसे प्रेम कर बैठी। मेरी मानो तो उसे दिल से निकाल दो।’

श्रीराधा जी बोलीं–’तुम्हारा नाम गोपदेवी किसने रखा ? वह ग्वाला है इसलिए सबसे पवित्र है। सारा दिन पवित्र पशु गाय की चरणों की धूल से नहाता है। तुम उन्हें निर्धन ग्वाला कहती हो ?

जिनको पाने को लक्ष्मी तरस रही हैं। ब्रह्माजी, शिवजी भी श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। उनको काला कलूटा और उसे निर्बल बताती हो। जिसने बकासुर, कालिया नाग, यमलार्जुन, पूतना जैसों का चुटकी में वध कर डाला। जो अपने भक्तों के पीछे-पीछे इसलिए घूमते हैं कि उनकी चरणों की धूल मिल जाये। उसे निर्दयी कहती हो।’

गोपदेवी बोली–’राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और मेरा अलग। किसी अकेली युवती का हाथ पकड जबरन दही छीनकर पी लेना क्या सज्जनों के गुण हैं ?’

श्रीराधाजी ने कहा–’इतनी सुन्दर होकर भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ! बड़ी अभागिन है। यह तो तेरा सौभाग्य था पर तुमने उसको गलत समझ लिया।’

गोपदेवी बोली–’अच्छा तो मैं अपना सौभाग्य समझ के क्या सम्मान भंग कराती ?’ अब तो बात बढ़ गई थी।

आखिर में गोपदेवी बोली–’अगर तुम्हारे बुलाने से श्रीकृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लूँगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वह निर्दयी नहीं है। और यदि नहीं आये तो ?’

इस पर राधा रानी बोलीं–’कि यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन तेरा।’

शर्त लगाकर श्रीराधा आँखें मूँद ध्यान में बैठ श्रीकृष्ण का एक-एक नाम लेकर पुकारने लगीं।

जैसे-जैसे श्रीराधा का ध्यान और दिल से की जाने वाली पुकार बढ़ रही थी सामने बैठी गोपदेवी का शरीर काँपता जा रहा था। श्रीराधा के चेहरे पर अब आँसूओं की झड़ी दिखने लगी।

माया की सहायता से गोपदेवी का रूप लिए भगवान श्रीकृष्ण समझ गये कि प्रेम की ताकत के आगे अब यह माया नहीं चलने वाली, मेरा यह रूप छूटने वाला है।

वे रूप बदलकर श्री राधे-राधे कहते प्रकट हो गए और बोले–’राधारानी आपने बुलाया। मैं भागता चला आ गया।’

श्रीराधाजी चारों ओर देखने लगीं तो श्रीकृष्ण ने पूछा–’अब किसको देख रही हैं ?’

श्रीराधाजी बोली–’गोपदेवी को बुलाओ, वह कहाँ गई ?’

श्रीकृष्ण बोले–’जब मैं आ रहा था तो कोई जा रही थी, कौन थी ?’

राधारानी ने उन्हें सारी बातें बतानी शुरू कीं और श्रीकृष्ण सुनने चले गए। मंद-मंद मुस्काते हुए श्रीकृष्ण ने कहा–आप बहुत भोली हैं। ऐसी नागिनों को पास मत आने दिया करें।’

“जय जय श्री राधे”

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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 102

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 102)

!! नीलकमल के पुष्प और बृजराज की चिन्ता !!

ए बालकों ! बताओ ये बृजपति नन्द जी का महल कहाँ पर है ?

दो दूत मथुरा के थे ……….वो गौचारण करके लौट रहे कन्हैया और उनके सखाओं से ये पता पूछ रहे थे ।

हम सब वहीं जा रहे हैं ………मनसुख नें सहजता में कहा ……और ये भी कहा …..कि तुम लोग हमारे पीछे आओ ।

कन्हैया उन दो दूतों को बड़े ध्यान से देख रहे थे …………वो दूत सहज थे कोई असुर नही थे, हाँ दूत अवश्य राजा कंस के थे ।

राजा कंस नें दूत क्यों भिजवाये ? चिन्ता कन्हैया को होनी स्वाभाविक थी …….क्यों कि ये सब तो बेचारे बहुत भोले हैं …….लाठी चलाना मात्र आता है इन्हें …….छल छिद्र इनमें कुछ है नहीं ……..और राजा कंस ! वो तो समूल बृज को ही नष्ट करनें में अपनी शक्ति को लगा रहा है ।

तुम कौन हो ? क्यों आये हो ?

मनसुख ही पूछ रहा है उन दूतों से ।

राजा कंस के दूत हैं …..और उनका कुछ सन्देश लाये हैं तुम बृजवासियों के लिये ।

मनसुख कन्हैया का मुख देखनें लगा …….भद्र , तोक , सुबल श्रीदामा सब कन्हैया का ही मुख तांकनें लगे थे ।

कन्हैया कुछ नही बोले …………..अभी क्या बोलते वो भी ।

चलो ! मेरे साथ …………..घर की ओर न जा जाकर कन्हैया गोष्ठ की ओर मुड़ गए उन दूतों के साथ ………क्यों की घर में क्या ले जाना ……बृजराज बाबा तो अभी गोष्ठ में ही होंगे ……और उनके साथ बृज के विशिष्ठ जन भी मिलेंगे ही ।

बाबा ! ये दूत हैं …………..मथुरा से आये हैं ….।

गोष्ठ में पहुँच कर अपनें नन्दबाबा से कन्हैया नें कंस के दूतों को मिलाया …..और स्वयं अपनें बाबा के पीछे खड़े हो गए ।

मथुरा से आये हो ? बृजराज कुछ और पूछते कि उन दूतों नें स्वयं ही सब कुछ बता दिया …………हम राजा कंस के दूत हैं …….उन्होंने आप लोगों के लिये कुछ सन्देश भिजवाया है ………..आप अगर कहें तो हम उस सन्देश को पढ़कर सुनाये ?

दूतों नें बृजराज को अपना परिचय और आनें का कारण सब बता दिया था ……………..दूत आगे कुछ बोलते ….उससे पहले ही उपनन्दादि अनेक बृज के विशिष्ठ जन भी वहाँ आगये थे उन दूतों को देखकर ।

हाँ ……..सुनाओ ! क्या सन्देश है राजा कंस का ।

बृजराज चिन्तातुर हो उठे थे…….उन्होंने अपनें पीछे देखा था …..कन्हैया खडे हैं …..और वार्ता को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं ।

“हे बृजराज ! आप कुशल होंगें …..और आपका समाज भी कुशल होगा ऐसी मैं भगवान रंगेश्वर महादेव से प्रार्थना करता हूँ ।”

दूतों नें राजा कंस का सन्देश सुनाना शुरू कर दिया था ।

“श्रावण मास आरहा है …….आपके संज्ञान में ये बात है ही कि मैं भगवान शिव का परमभक्त हूँ ……….मेरे आराध्य भगवान रंगेश्वर महादेव मैं उनकी पूजा अर्चना इस श्रावण मास में नीलकमल के पुष्पों से करना चाहता हूँ …………और ये नीलकमल यमुना के कालीदह में पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं ……..मुझे ज्यादा नही …..एक करोड़ नीलकमल के पुष्प मथुरा में आप चार दिनों के भीतर पहुँचा दें …..अन्यथा आप जानते हैं मैं क्या कर सकता हूँ ।

मेरी आज्ञा का पालन शीघ्र हो ।

आज्ञा से – महाराजा कंस “

लाल नेत्र हो उठे थे कन्हैया के …………..जब उन्होंने ये देखा कि उनके पिता बृजराज अपार चिन्ता के सागर में डूब गए हैं ।

कैसे ? कैसे आएंगे वो नीलकमल के पुष्प !

बृजपति कुछ नही बोल पा रहे…….क्या बोलते ।

दूत तो राजा कंस का सन्देश सुनाकर जा चुके थे ।

पर तभी आकाश की ओर देखा कन्हैया नें………पर ये क्या !

देवर्षि नारद ?

आकाश में खड़े होकर हाथ जोड़ रहे हैं देवर्षि कन्हैया को ।

अब मुस्कुराये कन्हैया …….क्यों की लीलाधारी तुरन्त सब समझ गए …….कि देवर्षि का ही सब किया धरा है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !

एकाएक देवर्षि उतरे थे उस दिन मथुरा में ।

राजा कंस नें स्वागत किया……..एकान्त में बैठ कर चरण धोये देवर्षि के……कब मारोगे कन्हैया को ?

देवर्षि नें ही राजा कंस के सिर में हाथ रखते हुए ये प्रश्न किया था ।

सारे उपाय निष्फल हो रहे हैं……….हे गुरुदेव ! मैने क्या नही किया …पूतना को भेजा पर मार दी गयी वो ………श्रीधर गया ……पर वो भी …….शकटासुर , कागासुर और तो और कल ही मैने सुना कि तालवन में रहनें वाला वो धेनुकासुर भी मारा गया ।

राजा कंस नें अपना दुःख सब सुनाया था देवर्षि को ।

मैं एक उपाय बताऊँ ?……….नयनों को नचाते हुए बोले थे देवर्षि ।

हाँ गुरुदेव ! अब बस आपका ही तो आसरा है ।

कंस नें हाथ जोड़कर कहा ।

श्रावण में रंगेश्वर महादेव की पूजा करो ………और उनके अभिषेक में नीलकमल के पुष्प अर्पित करो ………..देवर्षि बोलते चले गए ………एक करोड़ नीलकमल के पुष्प …………।

वो कहाँ मिलेंगें ? कंस अभी तक बात को समझा नही था ।

बृज में ….वृन्दावन में……यमुना में खिले हुए हैं नीलकमल के पुष्प…..

देवर्षि नें कहा …….पर कंस अभी भी समझा नही ।

यमुना में कहाँ हैं नीलकमल ? कंस स्वयं से पूछता है ।

नहीं हैं ………..पर वृन्दावन में यमुना का एक हृद है ………वहाँ कालिय नामक महाविषधर नाग रहता है …………..देवर्षि शान्त भाव से अब बोल रहे थे …………उसके विष का इतना प्रभाव है कि उस हृद के ऊपर से भी कोई पक्षी गुजर जाए तो वो विष उसे मार गिराता है ……..

कोई उस हृद का जल पी नही सकता ………….क्यों की विषैला है …..पीनें की बात छोड़ो उस हृद के जल को कोई छू नही सकता …….मर जाएगा जो छूयेगा भी तो ।

तो उसमें नीलकमल के पुष्प हैं ? कंस नें देवर्षि से पूछा ।

हाँ हैं …….क्यों की नीलकमल में विष का प्रभाव नही पड़ता …..

देवर्षि नें बताया ।

तो तुम मँगवाओ वृन्दावन से नीलकमल के पुष्प और एक करोड़ …..

बृजराज वहाँ के राजा हैं ….उनको पत्र लिखो …….और कहो कि तुम्हे एक करोड़ नीलकमल चाहियें ……….

कंस अब जाकर समझा.था …….तो खूब ठहाका लगाकर हँसा ।

और वो ला नही पाएंगे …….क्यों की वहाँ विष है ……..और नही ला पाएंगे नीलकमल तो मैं बृज में हिंसा का ताण्डव मचा दूँगा ………..कंस अपनें राक्षसी स्वभाव में आगया था ।

मैं अब जा रहा हूँ उपाय बता दिया है मैने….अब जो करना है तुम करो ।

इतना कहकर देवर्षि चले गए ।

तुरन्त कंस नें अपनें दूत बुलाये और पत्र देकर कर वृन्दावन में उन्हें भेज दिया था ।

कन्हैया को हाथ जोड़े हुए हैं अभी भी देवर्षि नारद जी ।

हे गोपाल ! हे बृजजनपाल ! यमुना की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गयी है……कालिय नाग जब से आया है इस हृद में……तब से पशु पक्षी वृक्ष सब के लिये ये जल घातक बना हुआ है ……..हे बृज के राज दुलारे ! आप यमुना जल को शुद्ध करें ……….कालिय को हटायें यहाँ से …………मैने इसलिये ये सब किया है नाथ ! ये कहते हुए देवर्षि नतमस्तक हो रहे थे नभ से ही ।

कन्हैया चल पड़े थे अब अपनें महल की ओर ……….कन्हैया को अपनें बाबा का वो सचिन्त मुख मण्डल ही स्मरण में आरहा था ।

पर ये कालिय नाग है कौन ? कन्हैया एकाएक फिर गम्भीर हो उठे ।

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श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्द देव

यह काम्यवनका सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है। यहाँ वृन्दादेवीका विशेष रूपसे दर्शन है, जो ब्रजमण्डलमें कहीं अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीश्रीराधा-गोविन्ददेव भी यहाँ विराजमान हैं। पासमें ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात् श्रीकृष्णका सिंहासन है। उसके निकट ही चरणकुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगलके श्रीचरणकमल पखारे गये थे। श्रीरूप – सनातन आदि गोस्वामियोंके अप्रकट होनेके पश्चात् धर्मान्ध मुगल सम्राट औरंगजेबके अत्याचारोंसे जिस समय ब्रजमें वृन्दावन, मथुरा आदिके प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुरके परम भक्त महाराजा ब्रजके श्रीगोविन्द श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधमाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहोंको अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्गमें इस काम्यवनमें कुछ दिनोंतक विश्राम किया। श्रीविग्रहोंको रथोंसे यहाँ विभिन्न स्थानोंमें पधराकर उनका विधिवत् स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था। तत्पश्चात् वे जयपुर और अन्य स्थानोंमें पधराये गये । तदनन्तर काम्यवनमें जहाँ-जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन-उन स्थानोंपर विशाल मन्दिरोंका निर्माण कराकर उनमें उन-उन मूल श्रीविग्रहोंकी प्रतिभू-विग्रहोंकी प्रतिष्ठा की गई। श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आईं, किन्तु वे ब्रजको छोड़कर आगे नहीं गई। इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवीका पृथक् रूप दर्शन है।

राधा गोविंद देव जी (जयपुर)
वृंदा देवी मंदिर (काम्यवन)
वृंदा देवी (काम्यवन)
वृंदा देवी (वृंदा कुंड)

श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरोंने ब्रजमण्डलकी लुप्त लीलास्थलियोंको प्रकाश किया है। इनके ब्रजमें आनेसे पूर्व काम्यवनको वृन्दावन माना जाता था किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभुने ही मथुराके सन्निकट श्रीधाम वृन्दावनको प्रकाशित किया। क्योंकि काम्यवनमें यमुनाजी चीरघाट, निधुवन, कालीयदह, केशीघाट, सेवाकुञ्ज, रास स्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेवकी स्थिति असम्भव है। इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरण पहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावनसे पृथक् काम्यवन है। वृन्दादेवीका स्थान वृन्दावनमें ही है। वे वृन्दावनके कुञ्जोंकी तथा उन कुज्जोंमें श्रीराधाकृष्ण युगलकी क्रीड़ाओंकी अधिष्ठात्री देवी हैं। अतः अब वे श्रीधाम वृन्दावनके श्रीरूप सनातन गौड़ीय मठमें विराजमान हैं। यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है।

श्रीगोविन्द मन्दिरके निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं।

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भक्त माधव दास जी

“भक्त के प्रारब्ध लेकर–बीमार पड़ गये श्रीजगन्नाथ भगवान्”

(भक्त माधव दास जी)

उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे, श्री माधव दास जी अकेले रहते थे, कोई संसार से इनका लेना देना नही। अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे, और उन्हीं को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे। प्रभु इनके साथ अनेक लीलाएँ किया करते थे। प्रभु इनको चोरी करना भी सिखाते थे भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे।
एक बार माधव दास जी को अतिसार (उलटी-दस्त) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे। कोई कहे महाराजजी हम कर दें आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही हैं वही मेरी रक्षा करेंगे। ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया वो उठने-बैठने में भी असमर्थ हो गये, तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुँचे और माधवदासजी को कहा की हम आपकी सेवा कर दें।
क्योंकि उनका इतना रोग बढ़ गया था कि उन्हें पता भी नही चलता था, कब वे मल मूत्र त्याग देते थे। वस्त्र गंदे हो जाते थे। उन वस्त्रों को जगन्नाथ भगवान अपने हाथों से साफ करते थे, उनके पूरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे। कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सकता, जितनी जगन्नाथ भगवान ने भक्त माधव दास जी की करते थे।
जब माधवदासजी को होश आया, तब उन्होंने तुरन्त पहचान लिया की यह तो मेरे प्रभु ही हैं। एक दिन श्री माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से – “प्रभु ! आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो। आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता।” ठाकुरजी कहते हैं – “देखो माधव ! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है। अगर उसको इस जन्म में नहीं काटोगे तो उसको भोगने के लिए फिर तुम्हें अगला जन्म लेना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता की मेरे भक्त को जरा से प्रारब्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े। इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नहीं टाल सकता। (भक्तों के सहायक बन उनको प्रारब्ध के दुखों से, कष्टों से सहज ही पार कर देते हैं प्रभु) अब तुम्हारे प्रारब्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे।” 15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदासजी से ले लिया।
वो तो हो गयी तब की बात पर भक्त वत्सलता देखो आज भी वर्ष में एक बार जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है (जिसे स्नान यात्रा कहते हैं)। स्नान यात्रा करने के बाद हर साल 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान आज भी बीमार पड़ते हैं। 15 दिन के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। कभी भी जगन्नाथ भगवान की रसोई बन्द नही होती पर इन 15 दिन के लिए उनकी रसोई बन्द कर दी जाती है। भगवान को 56 भोग नही खिलाया जाता, (बीमार हो तो परहेज तो रखना पड़ेगा)
15 दिन जगन्नाथ भगवान को काढ़ो का भोग लगता है। इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े का भोग लगाया जाता है। जगन्नाथ धाम मन्दिर में तो भगवान की बीमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं। काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। वहीं रोज शीतल लेप भी लगया जाता है। बीमार के दौरान उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है।
भगवान जगन्नाथ बीमार हो गए है और अब 15 दिनों तक आराम करेंगे। आराम के लिए 15 दिन तक मंदिरों पट भी बन्द कर दिए जाते है और उनकी सेवा की जाती है। ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएँ। जिस दिन वे पूरी तरह से ठीक होते हैं उस दिन जगन्नाथ यात्रा निकलती है, जिसके दर्शन हेतु असंख्य भक्त उमड़ते हैं।
खुद पे तकलीफ ले कर अपने भक्तों का जीवन सुखमयी बनाये, ऐसे भक्तवत्सलता है प्रभु जगन्नाथ जी की।

इस साल 14 जून को स्नान यात्रा हुई थी और 15 दिन बाद 1 जुलाई को रथयात्रा होगी

“जय जय श्रीजगन्नाथ जी”

जय जय श्री राधे

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राधावल्लभ सम्प्रदाय में एकादशी व्रत क्यों नहीं किया जाता है?

प्र०- महाराजजी ! शास्त्रों में एकादशी व्रत की बड़ी महिमा वर्णित है, अन्य समस्त वैष्णव सम्प्रदाय भी उसे स्वीकार करते हैं किन्तु राधावल्लभ सम्प्रदाय में एकादशी व्रत क्यों नहीं किया जाता है?

समाधान – हमारे यहाँ श्रीराधा- दास्य प्रधान निकुँज ( सहचरी -भाव ) की उपासना है । श्रीभगवतरसिकजी कहते हैं

नित्य किशोर उपासना, जुगल मन्त्र को जाप ।
जुगल मन्त्र को जाप, वेद रसिकन की बानी ।
श्रीवृन्दावन धाम, इष्ट श्यामा महारानी ॥

हम कोई भक्त संत या वैष्णव नहीं हैं । संत और भक्तों पर वैष्णव- शास्त्रों का पूर्ण शासन होता है । श्रीजी की दासी होने के कारण हमारे ऊपर शासन वृन्दावनेश्वरी श्रीस्वामिनी जू का एवं सहचरीभावापत्र रसिकाचार्यों की वाणियों का है ‘वेद रसिकन की बानी’, न कि किसी वेद-शास्र का ।

हम श्रीस्वामिनीजू की दासी हैं और आठों प्रहर उनकी सेवकाई में रहते हैं, उनको प्रतिपल लाड़ लड़ाते हैं, श्रीस्वामिनी जू को भोग लगाते हैं, अब लाड़िलीजू जो भोग पाती हैं, हम उनका उच्छिष्ट ही तो पायेंगे । श्रीहितध्रुवदासजी महाराज कहते हैं

श्रीराधावल्लभ लाल कौं, रुचि सौं जेवाबहु नित्त । सो जूँठन लै पाइयै, और न आनहु चित्त ॥ सुनि ‘ध्रुव’ धर्मी आन सौँ, कबहुँ न कीजै वाद । सब ते दिनहि निशंक है, लीजै महा प्रसाद ॥

श्रीप्यारीजू के एक कण सीथ प्रसादी पाने में कोटि-कोटि एकादशी व्रत का फल प्राप्त हो जाता है। श्रीराधावल्लभताल का भोग लगा और उसमें अगर हमने कह दिया कि आज हमारा एकादशी व्रत है और ये अन्न है, हम इसे नहीं पायेंगे, (ऐसा कहकर ) हमने उस महाप्रसाद का तिरस्कार कर दिया तो वृन्दावन के रसिकों ने लिखा है. –

करै व्रत एकादशी महाप्रसाद ते दूर । जमपुर बाँधे जायेंगे मुख में परिहै धूर ॥

श्रीवृन्दावनरस के रसिकों के लिए श्रीश्यामा-श्याम का भजन ही सारतत्त्व है । श्रीजी के महाप्रसाद के आगे करोड़ों-करोड़ों एकादशी व्रत भी व्यर्थ हैं । श्रीविशाखासखी के अवतार श्रीहरिरामव्यासजी कह रहे हैं –

कोटि-कोटि एकादशी महाप्रसाद को अंश ।
व्यासहि यह परतीत है जिनके गरु श्रीहरिवंश ।।

वैसे भी एकादशी की उत्पत्ति कैसे हुई ? पद्मपुराणानुसार में एक मुर नामक दैत्य हुआ है, उसको मारने के लिए सत्ययुग भगवान् की शक्ति (तेज के अंश) से एक कन्या प्रकट हुई, जिसका नाम एकादशी हुआ । भगवान् विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे द्वारा ये लोकमंगल कृत्य सम्पन्न हुआ अगर कोई तुम्हारी उपासना करेगा, तुम्हारा व्रत करेगा तो वह धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष और हमारे चरणों की भक्ति प्राप्त करेगा ।

अब देखिये, पुरुषार्थचतुष्टय और श्रीहरि के चरणों की भक्ति की प्राप्ति से एकादशी उपासना की सिद्धावस्था मानी जाती है और यहाँ इस रसोपासना में, श्रीहिताचार्यचरण कहते हैं-

धर्माधर्थचतुष्टये विजयतां किं तद् वृथावार्तया सैकान्तेश्वरभक्तियोगपदवी त्वारोपिता मूर्धनि ।

यो वृन्दावनसीति कश्चन घनाश्चर्या किशोरीमणिः तकैङ्गर्यरसामृतादिह परं चित्ते न मे रोचते ॥

(श्रीराधासुधानिधि-)

‘अरे! ये पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष), किसी के लिए आदरणीय होंगे तो बने रहें, हमारे लिए तो इनकी वार्ता व्यर्थ है; इसी तरह श्रीहरि का वह अनन्यभक्तियोग, उसको भी हम दूर से ही नमस्कार करते हैं, अर्थात् हमें उसकी भी चाह नहीं है; मुझे तो श्रीकिशोरीजू की दासता के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।’

इसलिए ये हमारी रसमयी उपासना है। यहाँ धर्म-अर्थ-काम मोक्ष और यहाँ तक कि ईश्वरभक्ति की भी वार्ता बेकार है ।

जहाँ अनन्त महामहिमामय श्रीस्वामिनीजू के चरणारविन्दों की अराधना है, जिन श्रीचरणों को अखिललोकचूड़ामणि स्वयं श्रीलालजू अपने हृदय पर धारण करते हैं, हम उनकी दासी हैं, अब हमें एकादशी की आराधना करने की जरूरत नहीं है । श्रीभक्तमालजी के रचयिता श्रीनाभाजी ने भी श्रीहरिवंशमहाप्रभु जी के चरित्र में भक्तमाल जी में लिखा है.

सर्वसु महाप्रसाद प्रसिधि ताके अधिकारी ।

विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी ॥

‘श्रीहितजू महाराज महाप्रसाद को ही सर्वस्व मानते थे और वे उसके अधिकारी थे । वे विधि-निषेध के दास नहीं थे, उन्होंने तो अनन्य उत्कट व्रत धारण किया था ।” इसलिए हमारे यहाँ तो एक ही व्रत है; श्रीसेवकजीमहाराज कहते हैं –

ज्ञान-ध्यान- व्रत-कर्म जिते सब, काहू में नहिं मोहि प्रतीति ।

रसिक अनन्य निशान बजायी, एक श्याम-श्यामा पद-प्रीति

‘ज्ञान, ध्यान, व्रत, धर्म-कर्म आदि जितने भी साधन हैं, मुझे इनमें किसी पर भी विश्वास नहीं है । श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी ने जो श्रीश्यामा-श्याम के चरणाश्रय का डंका बजाया है, मैं तो अनन्य भाव से उसी के आश्रित हूँ ।” ।

अतः हम जो श्रीजी को भोग लगायेंगे, वही पायेंगे । अगर कोई कहे कि एकादशी के दिन श्रीजी को फल का ही भोग लगादो इससे व्रत भी हो जायेगा और महाप्रसाद की निष्ठा में भी बाधा नहीं पड़ेगी । इसका उत्तर ये है कि जब श्रीजी को हम रोज पकवान (रोटी-सब्जी- कड़ी आदि) का भोग लगाते हैं तो आज हम फल का भोग क्यों लगाएँ? क्या श्रीजी को भी कोई व्रत करना अनिवार्य है? और जब हम श्रीजी को अन्न का भोग लगाते हैं तो हम फल क्यों पायें ? हम तो जो उनका उच्छिष्ट है, उसी को पायेंगे । इसीलिये हमारे यहाँ किसी भी व्रत की महिमा नहीं है केवल अनन्य व्रत की महिमा है ।

श्री हरिवंश चरन निजु सेवक, विचलै नहीं छाँड़ि रसरीति । ये धर्म सर्वश्रेष्ठ महाप्रेमरसस्वरुप है और ये उपासना महाप्रेमरसमयी सर्वोपरि उपासना है । नारदजीमहाराज कहते हैं (यो) वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छित्रानुरागं लभते ।

(नारदभक्तिसूत्र-४९)

‘जो वेदों द्वारा निर्दिष्ट कर्मों का भी भलीभाँति त्याग कर देता वह अविच्छिन्न अनुराग को प्राप्त करता है।”

वेदों का भी त्याग करने पर जिस अनुराग का अनुभव होता है, उस अनुराग का भी सार अनुरागरस वृन्दावन का नित्यविहार है । इसी तरह श्रीस्वामीहरिदासजी महाराज की उपसना में देख लीजिये न कोई ग्रह, न कोई नक्षत्र, न कोई व्रत-उपवास केवल आठों प्रहर श्रीश्यामा-श्याम को लाड़ लड़ाना । इधर ग्रहण पड़ रहा है और उधर पंगत लग रही होती है ।

निसबासर, तिथि- मास- रितु, जे जग के त्यौहार ।

ते सब देखौ भाव में, छाँड़ि जगत ब्यौहार ॥

(श्रीभगवतरसिकजी) ये वृन्दावन नित्य विहार रस है, ये कोई सनातन धर्म या वैष्णव-धर्म की उपासना नहीं है । ये महाप्रेमरस की उपासना है । इस प्रेमरस की प्रारम्भिक अवस्था में ही कैसी स्थिति आ जाती है, श्रीसुन्दरदासजी वर्णन कर रहे हैं –

न लाज तीन लोक की, न वेद को कह्यो करै ।
न संक भूत-प्रेत की, न देव जच्छ ते डरै ॥
सुनै न कान और की, दृशै न और इच्छना ।
कहै न मुख और बात, भक्ति प्रेम लच्छना ॥

ये प्रेमलक्षणा भक्ति का स्वरूप है । यहाँ से वृन्दावन रस की शुरुआत होती है । इसलिए महाप्रेमस्वरूप श्रीजी की सहचरी के भाव में हम केवल स्वामिनी जू की जूठन के अधीन हैं न कि किसी व्रत के। ये हमारा अनन्य व्रत है ।

आप जिस स्थिति पर हैं, जिस सम्प्रदाय से दीक्षित हैं और उस सम्प्रदाय की उपासना पद्धति के अनुसार जो कर रहे हैं वह आपके लिए बिल्कुल ठीक है, उसका निषेध नहीं है लेकिन वह हमारे ऊपर थोपा नहीं जा सकता और न ही हम आपके ऊपर अपनी उपासना-पद्धति थोप सकते हैं । अपनी-अपनी भावना के अनुसार उपासना पद्धति आचार्य कृपा से हृदय में उतरती है । जो हमारे ऊपर उतरी वह हमारे लिए ठीक है, जो आपके ऊपर आचार्य कृपा से उतरी, वह आपके लिए ठीक है । इसीलिये हमारे बहुत-से शास्त्र हैं और बहुत-से आचार्य स्वरुप भगवान् ने धारण किए, बहुत-सी उपासना पद्धतियाँ बताईं, अब इसमें जो जैसी भावना से है, वह वहाँ जुड़ जाता है । युक्त होता

जैसे किसी को खस, किसी को केवड़ा या किसी को चन्दन की सुगंध पसंद होती है, इसीलिये विविध प्रकार की सुगंध है, यद्यपि सुगन्ध तो एक ही है लेकिन स्वभाव के अनुसार विविध रूप धारण किये हुए है ।

ऐसे ही भगवान् तो एक ही हैं किन्तु उन्होंने विविध आचार्यों के रूप में, विविध स्वभाव वाले जीवों की विविध स्थितियों का पोषण करने के लिए विविध ग्रंथों-पंथों का निर्माण किया और विविध रूपों से आकर के उसको समझा रहे हैं । इसलिए कहीं किसी का निषेध नहीं है लेकिन एक से दूसरे का खंडन-मंडन नहीं किया जा सकता है । अगर किसी की भी उपासना पद्धति के प्रति हेय भाव किया गया तो ये अपराध है क्योंकि सभी उपासना पद्धतियाँ भगवत्स्वरुप आचार्यों द्वारा ही बनाई हुई हैं । सभी अपनी-अपनी जगह सही हैं । जो जहाँ जिस पद्धति का आश्रय लिए हुए है, वह तदनुसार चलता रहे पर दूसरे में हेय भाव न करे

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प्रेम भाव के अधीन हैं प्रभु : शिकारी और संत की कथा

एक बार की बात है। एक संत जंगल में कुटिया बना कर रहते थे और वो भगवान श्री कृष्ण का भजन करते थे। संत को यकींन था कि एक ना एक दिन मेरे भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात् दर्शन जरूर देंगे।
उसी जंगल में एक शिकारी आया। उस शिकारी ने संत कि कुटिया देखी। वह कुटिया में गया और उसने संत को प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन हैं और आप यहाँ क्या कर रहे हैं।
संत ने सोचा यदि मैं इससे कहूंगा कि भगवान श्री कृष्ण के इंतजार में बैठा हूँ। उनका दर्शन मुझे किसी प्रकार से हो जाये। तो शायद इसको ये बात समझ में नहीं आएगी। संत ने दूसरा उपाय सोचा। संत ने किरात से पूछा- भैया! पहले आप बताओ कि आप कौन हो और यहाँ किसलिए आये हो?
उस किरात ( शिकारी ) ने कहा कि मैं एक शिकारी हूँ और यहाँ शिकार के लिए आया हूँ।
संत ने तुरंत उसी की भाषा में कहा मैं भी एक शिकारी हूँ और अपने शिकार के लिए यहाँ आया हूँ।
शिकार ने पूछा- अच्छा संत जी, आप ये बताइये आपका शिकार कैसा दिखता है? हो सकता है कि मैं आपकी मदद कर दूँ?
संत ने सोचा इसे कैसे बताऊ, फिर भी संत कहते हैं- मेरा शिकार दिखने में बहुत ही सुंदर है, सांवरा सलोना है। उसके सिर पर मोर मुकुट है और हाथों में बंसी है। ऐसा कहकर संत जी रोने लगे।
किरात बोला: बाबा रोते क्यों हो ? मैं आपके शिकार को जब तक ना पकड़ लूँ, तब तक पानी भी नहीं पियूँगा और आपके पास नहीं आऊंगा।
अब वह शिकारी घने जंगल के अंदर गया और जाल बिछा कर एक पेड़ पर बैठ गया। यहाँ पर इंतजार करने लगा। भूखा प्यासा बैठा हुआ है। एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता और फिर तीसरा दिन। भूखे प्यासे किरात को नींद भी आने लगी।
बांके बिहारी जी को उस पर दया आ गई। भगवान उसके भाव पर रीझ गए। भगवान मंद मंद स्वर से बांसुरी बजाते आये और उस जाल में खुद फंस गए।
जैसे ही किरात को फसे हुए शिकार का अनुभव हुआ हुआ तो तुरंत नींद से उठा और उसने देखा… सांवरे सलोना , सिर पर मोर मुकुट है और हाथों में बंसी है। जैसा संत ने बताया था उनका रूप हूबहू वैसा ही था। वह अब जोर जोर से चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया, शिकार मिल गया।
शिकारी ने उस शिकार को जाल समेत कंध