
(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 96)
!! कुश्ती दंगल – “गौचारण प्रसंग” !!
अनन्त कि लीलाएँ भी अनन्त हैं …….मैं कहाँ तक गाऊँ ?
तात ! ये लीलाएँ रुकी नही हैं…….आज भी चल रही हैं ……..उद्धव कहते हैं – हाँ उस समय अधिकारी अनधिकारी सबको लीलाओं का सुख मिल जाता था, अवतार काल था वो ……पर अब मात्र अधिकारी के सन्मुख ही वो लीलाएँ प्रकट होती हैं ।
तात ! ब्रह्म कि लीलाएं हैं ये ….और मैं पूर्व में ही कह चुका हूँ – लीला का कोई उद्देश्य नही होता …….बस एक ही उद्देश्य है – अपनें आनन्द कि अभिव्यक्ति ……….तो हम लोगों का भी यही उद्देश्य होना चाहिये कि हृदय का आनन्द छलकनें लगे ………कन्हैया कि लीलाओं को सुनते गाते हुये हम अपनें भीतर के आनन्द को प्रकट होनें दें ……क्यों कि लीला का यही लक्ष्य है – अपनें आनन्द को चारों ओर फैलाना ।
विदुर जी आनन्दित हो उठते हैं…….सच कहा उद्धव ! क्यों कि ये कन्हैया आनन्द रूप ही हैं …….देखो उद्धव ! नभ में देखो ! बड़े बड़े तपश्वी बड़े बड़े सिद्ध योगिन्द्र तुम्हारे द्वारा गाई जा रही इन लीलाओं को सुनकर अपनें हृदय के सूखे आनन्द के सर को पुनः भर रहे हैं……….
क्यों बेकार में ज्ञान के शुष्क अरण्य में भटकें ? क्यों बेकार में नाक कान दवा कर योगी होनें का भ्रम फैलाएं …………..ये देखो ! आओ वृन्दावन ……….यहाँ वो ज्ञान का परमतत्व कन्हैया नृत्य कर रहा हैं ………योग का लक्ष्य वो आत्म तत्व यहाँ ग्वालों के साथ क्रीड़ा में मग्न है ………इसे देखो ! यही है जीवन का सार !
विदुर जी नें उद्धव से कहा – आप अब सुनाइये उन आनन्द पूर्ण गोपाल कि लीला………मैं जितना सुनता जा रहा हूँ मेरी प्यास और बढ़ रही है ……….उद्धव ! मुझे पिलाओ “श्रीकृष्णचरितामृतम्” ।
उद्धव सुनानें लगे –
कन्हैया ! तुझे किसनें मारा ?
दाऊ नें अपनें पास बुलाया आज वन में ………..और कन्हैया कि पीठ देखनें लगे थे ………ओह ! नेत्र सजल हो उठे दाऊ के ……..कन्हैया के सुकुमार पीठ में एक नन्हीं सी खरोंच आगयी थी ।
रक्त तो नही आया …….पर खरोंच अच्छे से ही लगी थी ।
नेत्र के जल छलछला आये थे दाऊ के……..तुझे ये चोट किसनें दी ?
कन्हैया को तो पता भी नही है कि उसके चोट भी लगी है ……..कहाँ ? कहाँ है चोट ?
यह क्या है ? दाऊ नें चोट को हल्के से छूते हुए कहा ।
अच्छा ये ? ये तो उस लता से है ………….कन्हैया नें सामनें कि एक लता बता दी ………….
तू उस लता के पुष्प लेनें गया था ? दाऊ अपनें छोटे भाई कि खरोंच भी कैसे देख लेते …….यह तो प्राणों से प्यारा है दाऊ भैया का ।
नही …..नही दाऊ भैया ! ……….मैं पुष्प लेनें गया था उधर ………….फिर दूसरी ओर दिखा दिया ।
तू उधर गया था पुष्प लेनें ? किधर ? दाऊ पूरी छान बीन करनें की सोच रहे हैं और क्यों न करें ……सुकुमार पीठ में खरोंच ?
मैं कदम्ब के पुष्प लेनें उधर गया था ….कन्हैया अब डर रहे हैं दाऊ से ।
क्यों की इनके मूड का कोई भरोसा नही है ………..कहो तो बड़ी बड़ी बातों को भी हँस कर टाल देते हैं ……….और कहो तो छोटी बातों को भी बड़ा बनाकर हंगामा कर देते हैं …………वैसे ये छोटी बात हो कैसे सकती है ….कन्हैया के खरोंच ? कठोर हृदय भी पिघल जाए ।
कितना सुकुमार तो है हमारा लाला ।
झूठ बोल रहा है तू ! लता उधर है और कदम्ब इधर है ……..पुष्प तोड़े तेनें कदम्ब से और खरोंच आयी लता से …….हैं ? दाऊ भैया को समझते देर न लगी कि ये साफ़ साफ़ झुठ बोल रहा है ।
पर ये क्या –
दूर खड़ा श्रीदामा रो रहा है ………….हिलकियों से रो रहा है ।
कन्हैया नें देख लिया है ……….वो दौड़ा श्रीदामा के पास …………
मत रो ….मत रो ….मैं नही कहूँगा दाऊ भैया से ……..मत डर मैं हूँ ना ?
पर तुझे चोट लगी उसका क्या ? इन नख नें तुझे खरोंचा है ………उफ़ ! कितना कष्ट हो रहा होगा तुझे ………….श्रीदामा बस रोये जा रहा है ।
क्या हुआ ? श्रीदामा क्यों रो रहा है ? दाऊ भैया वहीं आगये थे ।
नही नही …इसनें कुछ नही किया ! श्रीदामा नें कुछ नही किया …….इसका दोष नही है ………….कन्हैया को लग रहा है कि अब दाऊ कहीं श्रीदामा को पीट न दें ………..इसलिये ये अपनें सखा का बचाव कर रहा है ।
पर ये दाऊ हैं ………….श्रीदामा को शान्त कराया फिर पूछा ………
तब रोते रोते सच्ची बात बतानें लगा था श्रीदामा दाऊ भैया को ।
श्रीदामा ! आज मैं तुझ से लड़ूंगा …..कुश्ती !
कन्हैया नें ताल ठोकी थी ।
अरे जा ! एक ऐसी पटखनी दूँगा चित्त हो जाएगा तू !
श्रीदामा भी बोल उठा ।
ये कन्हैया हारता ही है अपनें सखाओं से ………..पर पता नही क्यों इसे हारनें में भी सुख मिलता है ………..कहाँ चली जाती है इसकी शक्ति सखाओं से लड़ते समय, पता नही ! वैसे तो बड़े बड़े दैत्यों को उठाकर पटक देता है ये …..पर अपनें सखाओं से हारता ही है .
अच्छा ! तो आ ना ! तू बोलता ज्यादा है श्रीदामा ! आज मैं ऐसा दांव सीख कर आया हूँ कि तू तो गया ! हये ! वो छ वर्ष का कन्हैया कैसे मुँह मटका मटका के बोल रहा था …….पर श्रीदामा भी तो छ वर्ष का ही है ……एक दो महीना आगे पीछे होगा ।
श्रीदामा नें पटके उतार कर रख दिए ……..अपनी माला , श्रृंग, लकुट सब रख दिया……..काँछनी ऊँची की ……….कमर कसा ।
फिर ताल ठोका इधर कन्हैया नें ………यमुना की सुकोमल बालुका है …..उसी पर ये कुश्ती दंगल आज हो रही है ।
फुदकता है कन्हैया ……उछलता ज्यादा है ये ……श्रीदामा गम्भीरता के साथ लड़ रहा है कुश्ती ……पर कन्हैया ? ये तो कुश्ती के नियम कानून सब को धता बताते हुये खेल रहा है ………..कुछ नही तो गुलगुली कर देता है श्रीदामा के पेट में …………चिड़िया की भाँति फुदकता है कन्हैया ………श्रीदामा के पैरों के नीचे से होकर निकल जाता है ……..इतनें में ही अपनी जीत समझ कर हँसता है ………..हाथ हिलाता है दर्शक बने अपनें सखाओं को ………….।
पर अब तो गुथ्थम गुत्था हो गयी श्रीदामा और कन्हैया में …….दोनों का मुख मण्डल लाल हो उठा है………श्रीदामा नें गिरा दिया कन्हैया को……….श्रीदामा खुश हो गया ……….”हार गया” …..वो जैसे अपनें दोनों हाथों को ऊपर करके चिल्लाया…….कन्हैया नें तुरन्त उठाकर उसे वापस गिरा दिया था……….पर मैने तुझे पहले गिराया है ……श्रीदामा बोल रहा है । ……पर .कन्हैया बोल रहा है – गिरानें से क्या होता है …….चित्त करना पड़ता है कुश्ती में ……….इसे कुछ पता ही नही ………….सब सखा ताली बजा रहे हैं……….श्रीदामा नें आज अपनी हार स्वीकार कर ली है ……..श्रीदामा अभी भी लेटा हुआ है बालू में ……..कन्हैया उसके पास है ………….और यमुना की बालू श्रीदामा के पेट और छाती में गिरा रहा है कन्हैया
तो तुम लोगों नें कुश्ती लड़ी आज ? दाऊ भैया बोल रहे हैं ।
श्रीदामा रो रहा है …………..पर इसमें इसका दोष नही है …….. कन्हैया नें कहा है ………….इसनें जान बूझ कर खरोंच नही लगाई है ।
मनसुख पारिजात का पत्ता तोड़कर ले आया था …..उस पत्ते के रस को खरोंच में लगा दिया दाऊ भैया नें ।
तुझे दर्द हो रहा होगा ना ! श्रीदामा को और रोना आरहा है ।
वो ये सोच सोचकर रो रहा है कि ……..अपना सखा कितना कोमल है उसको मेरी खरोंच लग गयी ……….।
अच्छा ! अब रोओ मत ……..दाऊ भैया नें इतना ही कहा ….और वहाँ से चले गए ……।
तू हार गया इसलिये रो रहा है ? कन्हैया नें फिर छेड़ा श्रीदामा को ।
तू हारा है ! श्रीदामा नें अपनें आँसू पोंछते हुए कहा ।
झूठे ! तुम बरसानें वाले सब झूठे हो……कन्हैया नें स्पष्ट कह दिया ।
झूठे चोर तो तुम नन्दगाँव वाले हो …….श्रीदामा कम थोड़े ही है ।
तो लड़, आ कुश्ती फिर हो जाए …………..इस छोटे से कन्हैया नें फिर ताल ठोकी ………….पर श्रीदामा के नेत्रों से फिर जल बहनें लगा ……..तेरे चोट लगेगी ! तू बहुत कोमल है …………..
कन्हैया कैसे अपनें सखा को इस तरह रोनें देता ……..श्रीदामा को हृदय से लगा लिया था ……….और बड़ी देर तक दोनों गले लगे रहे ।