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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 84

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 84)

!! “जे तो जूठो खावे” – भक्तिवश्य भगवान् !!

मनसुख ! ओ रे मनसुख ! तू नाय लाओ अपनें घर ते कछु खायवे कुँ ?

वनभोज में सब ग्वाल सखा कुछ न कुछ अपनें घर से लाये थे ……पर मनसुख कुछ नही लाया था …….लाता भी कहाँ से ……इसकी माँ “तपश्विनी पौर्णमासी” वो स्वयं फलाहार करती हैं……वो भी सप्ताह में एक बार…..मनसुख नन्द भवन में ही खाता है ……ये कहाँ से लाये !

इतना सब है तो ! कितना खायेगा तू ?

मनसुख नें सामनें रखे भोज्य पदार्थों को दिखाते हुए कहा ।

“पर हम तो तेरे घर का खाएंगे”………….प्यारा सखा है मनसुख ……..कन्हैया इसे बहुत प्रेम करते हैं ।

कुछ भी खिला दे अपनें घर का यार ! अजीब जिद्द है सखा की ।

मैं ? मनसुख कुछ सोचनें लगा ………….

अरे भाई ! इतना क्यों सोचते हो………जो भी हो ले आओ !

भद्र नें भी कहा ।

मनसुख कुछ सोच रहा है…….माता की कुटिया में मैने गुड़ देखा था ।

गुड़ खायेगा ? मनसुख नें एकाएक पूछा कन्हैया से…….

सारे सखा हँसनें लगे…….गुड़ खिलायेगा कन्हैया को !

ऐसा वैसा गुड़ नही है………बहुत स्वादिष्ट गुड़ है …….तुम लोगों नें खाया नही होगा…….मनसुख बोल रहा है ।

अब बोलता ही रहेगा या ला कर खिलायेगा भी ?

कन्हैया नें मनसुख को “शीघ्र जा” कहकर धक्का दिया ।

अच्छा ! अच्छा ! अभी गया ……बस गया और गुड़ लेकर आता हूँ । मनसुख अपनें घर की ओर दौड़ा ।

कुटिया में गया ……मनसुख की माता पौर्णमासी ध्यान में लीन थीं ।

मनसुख खोजनें लगा गुड़ …………पूरी कुटिया इधर उधर कर दी ……सारा सामान अस्त व्यस्त कर दिया ……..पर गुड़ नही मिला ।

विध्न हुआ ध्यान में तो पौर्णमासी का ध्यान टूटा ……..उनका पुत्र मनसुख कुछ खोज रहा है …………….

मौन हैं इस समय मनसुख की माता ……..इशारे में पूछा ……क्या चाहिये ? मनसुख चिल्लाके बोला ……गुड़ कहाँ है माँ ? मैने दो दिन पहले यहाँ गुड़ देखा था …………मनसुख चरणों में बैठ गया अपनी मैया के ………माँ ! कन्हैया नें आज पहली बार मुझ से कुछ खानें के लिये माँगा है……..बड़े प्रेम से माँगा है माँ ! गुड़ कहा ?

पौर्णमासी नें इशारे में ही कहा – उस थैले में गुड़ है ……..गुड़ पुराना है …..पुराना गुड़ फायदे मन्द होता है ।

मनसुख उछलता हुआ थैले को देखनें लगा …..एक काली सी गुड़ की ढेली थी ….ये गुड़ ! …..बड़े अनमनें ढंग से गुड़ को लेकर चल पड़ा मनसुख ।

पर गुड़ को पाने में जितनी शीघ्रता थी मनसुख को ….अब लेकर कन्हैया के पास जानें में नही है ।

पद मनसुख के बढ़ नही रहे कन्हैया की ओर ……गुड़ हाथ में ही है …..वो तोड़नें की कोशिश करता है …….पर नही टूट रहा ।

इतना कठोर गुड़…..हाय ! कोमल मेरा कन्हैया है …….वो इस गुड़ को खायेगा ?

मन दुःखी हो गया मनसुख का ………पहली बार कन्हैया नें मुझ से कुछ खानें को माँगा है …….और मैं ये गुड़ खिला रहा हूँ उसे !

मनसुख ये सब सोचते हुए जा रहा है ।

पहुँच गया कन्हैया के पास में ।

“ये रबड़ी तो खा ! बस ! इतनी ही खायेगा ?

एक सखा मनुहार कर रहा था ……कन्हैया मना कर रहे थे ।

मनसुख वहीँ रुक गया …..उसके पद आगे बढ़ नही रहे अब ।

वो रबड़ी खा रहा है ……उसके सखा उसे खीर खिला रहे हैं ….और मैं ?

टप् टप् आँसू बहनें लगे मनसुख के …….”.रहनें दे …….इस गुड़ को तू कन्हैया को मत खिला” ……….मन ने ही मनसुख को रोका ।

सब सखाओं नें देखा मनसुख आगया है ………..पर दूर खड़ा है …..पता नही क्यों ?

अब कन्हैया नें भी मनसुख को देखा ……..वो दौड़े उसके पास ।

मनसुख देख रहा है ………..ये जिद्दी है ………ये गुड़ तो अवश्य खायेगा …पर उसके कोमल जबड़ों को कितना कष्ट होगा ………..

कन्हैया दौड़ रहे हैं ……..पास में पहुंचनें ही वाले है ।

इसे मैं ही खा लेता हूँ ………कह दूँगा – कल ले आऊँगा गुड़ !

इतना कहकर मनसुख नें उस गुड़ को अपनें मुँह में डाल लिया ।

ये क्या किया मनसुख ! तू कुछ खा रहा है ……..कन्हैया मनसुख के पास पहुँच गए थे……और पूछ रहे थे मनसुख से ।

लड्डू है……मेरी मैया नें बनाये थे…..काजू, बादाम पिस्ता सब है इसमें….मनसुख जोर लगा रहा है जबड़ों में…..पर गुड़ टूटता ही नही ।

कन्हैया नें गम्भीर होकर कहा ……….हम तो आज तेरे घर का ही खाएंगे …….अब तू कुछ भी कर ……कन्हैया भी अड़ गए ।

देख ! कन्हैया ! जिद्द नही करते ………कल ले आऊँगा तेरे लिये लड्डू ….पक्का ………आज रहनें दे ।

मनसुख से मुँह फुला लिया कन्हैया नें………जा कुट्टी ! नही बोलता मैं तुझ से ।

मुँह फेर कर बैठ गए ।

मनसुख का हृदय तो काँप गया ……उसका सखा उससे रूठ गया है !

पास में आया …………वहीँ बैठ गया मनसुख भी ।

लाला !

ये कहते हुये नेत्रों से मनसुख के झरझर अश्रु बहनें लगे थे ।

लाला ! तेरा ये सखा बहुत गरीब है ……उसके पास कुछ नही है ……

कन्हैया ! ये कोई लड्डू नही …गुड़ है गुड़ ! तू क्या खायेगा इसे ।

क्यों , तू खा सकता है मैं क्यों नही खा सकता ? अब इस कान्हा के प्रश्न का क्या उत्तर दे मनसुख ।

देख ! तू कोमल है ……..और ये गुड़ बहुत कठोर है ……तुझ से टूटेगी भी नही …..फिर तेरे जबड़ों में कष्ट भी होगा ना ! मनसुख नें समझाना चाहा । पर ये जिद्दी मानें तब ना !

“मैं गुड़ को तोड़ दूँगा”…….ऐसा कहते हुए मनसुख का मुँह पकड़ा कन्हैया नें …………और उसके मुँह से वो गुड़ निकाल लिया ……देरी नही की …….अपनें मुख में उस गुड़ को तुरन्त डाल भी लिया था ।

नेत्र बरस रहे हैं मनसुख के ………जब जब कन्हैया कहता है ……तेरे गुड़ जैसा स्वाद आज तक नही आया……..ये कहते हुए अपनें नेत्र बन्द कर रहा है कन्हैया……उसे स्वाद आरहा है ……वो स्वयं आनन्दित है ।

इस लीला का दर्शन नभ से सभी देवी देवता कर रहे हैं ………इन प्रेमावतार की दिव्य लीलाओं से सब मुग्ध हैं ।

पर – नाक मुँह सिकोड़कर अपनें वाहन हंस को वापस चलनें के लिए कह रहे हैं विधाता ब्रह्मा ।

क्या हुआ ब्रह्मदेव ? ये लीला आपको प्रिय नही लगी क्या ?

महादेव नें पूछा ।

ये क्या लीला है ! किसी का जूठा खाना ? ये मर्यादा कहाँ की है ?

महादेव हँसे ……….”ये प्रेमावतार हैं…….इनकी लीलाओं को बुद्धि से मत आंको ……हे ब्रह्मदेव ! इस लीला में विशुद्ध प्रेम तत्व है और कुछ नही……..आहा !

तात ! पर पता नही क्यों भगवान महादेव के मना करनें पर भी आज ब्रह्मा बुद्धि से मापनें चले थे श्रीकृष्ण को …………..

ये बुद्धि से पकड़ में आया है आज तक !……….जो आज आजाता ।

उद्धव नें ये बात कही थी विदुर जी से ।

“भक्तिवश्य भगवान”……लम्बी आह भरते हुये विदुर जी भी बोले ।