
(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 82)
!! “जब सब सखा कन्हैया बनें” – बकासुर उद्धार !!
प्रेम तो इन बृजवासियों का है……सब कन्हैया से प्रेम करते हैं ।
तात ! गोकुल त्याग कर वृन्दावन आना ये अपनें आप में प्रेम का प्रमाण था इन बृजवासियों का ।
प्रत्येक बृजवासी , चाहे वो बालक हो या वृद्ध , चाहे पशु हों या पक्षी ……..यहाँ तक की बहती हुयी यमुना की धारा भी कन्हैया से प्रेम करती थी ………प्रेम अद्भुत है इस बृज का …..इसीलिये तो नन्दनन्दन यहाँ अवतरित हुये हैं ।
पर आज रात हो गयी है ……….किन्तु बरसानें का ये युवराज अभी तक सोया नही है ………क्यों ?
श्रीदामा भैया ! तुम सोते क्यों नही हो ?
श्रीजी नें बाहर घूमते अपनें भाई श्रीदामा से पूछा था ।
राधा ! क्या बताऊँ ! आज मैनें अपनी आँखों के सामनें जो देखा उससे मैं विचलित हूँ ……..बहुत विचलित ।
पर आज ऐसा हुआ क्या भैया !
बरसानें की वो लाडिली बात जानना चाहती है ।
वो दैत्य था……बछड़ा बनकर आगया था………हम सबनें उसे देखा………काला बछड़ा ।
ओह ! तो डर रहा है बरसानें का युवराज ! अपनें भाई को छेड़ा श्रीजी नें ।
नही …….लाली ! नही …….हमें डर नही लगता………पर झुठ नही बोलूंगा…….हाँ अपनें सखा कन्हैया को लेकर डर अवश्य लगता है ।
काँप गयीं थीं श्रीजी ।
क्या “उनको” कुछ हुआ ?
नहीं, हुआ नही, कन्हैया नें उस दैत्य को घुमाकर मार भी दिया ……..पर अन्य सखा कह रहे थे ………..गोकुल में तो आये दिन आते रहते थे अपनें कन्हैया को मारने के लिये दैत्य ……..जैसे – पूतना आयी थी …..शकटासुर कागासुर ………..और इन सबको राजा कंस ही भेजता है ………..ये लोग कन्हैया को मारना चाहते हैं ………श्रीदामा नें अपनी बहन राधिका को ये सारी बातें बता दीं थीं ।
कुछ होगा तो नही “उनको”………राधिका का हृदय काँप रहा है ।
सोच रहा हूँ क्या किया जाए……..जो भी हो हमारा कन्हैया बचा रहे ………बाकी तो हम रहें या न रहें…….अद्भुत प्रेम से भरे थे ये लोग ।
कुछ देर सोचनें के बाद ……श्रीदामा के मुखमण्डल में एक चमक आगयी थी ………………..हाँ …….ख़ुशी से उछल पड़े थे श्रीदामा ।
क्या हुआ श्रीदामा भैया ? राधिका नें पूछा ।
राजा कंस नें कन्हैया को तो देखा नही है …………वो अपनें दैत्यों को क्या बताता होगा ……….कि पीताम्बरी धारण करता है कन्हैया ……..बाँसुरी खोंस लेता है अपनी फेंट में …………वनमाला गले में रहती है उसके ……और मोर पंख सिर में लगाता है ।
श्रीदामा प्रसन्नता से बोला ……..अगर यही रूप हम सब सखा धारण कर लें ……तो कन्हैया तक राजा कंस के दैत्य पहुँच ही नही पाएंगे ।
छ वर्ष के हैं श्रीदामा …………..सब छोटे छोटे ही तो हैं ……..पर बालक मन को ये उपाय सूझा अपनें सखा की रक्षा के लिये ।
बस ……..”अब नींद आरही है ……..कल सुबह ही मैं सब सखाओं का यही श्रृंगार कराऊंगा …….जो कन्हैया करता है ……फिर तो किसी को कन्हैया तक पहुंचनें ही नही देंगे …………पहले हम से मिलो …..फिर हमारे कन्हैया से …………..ये कहते हुए हँसा श्रीदामा ……….और अपनें महल में चला गया ……..श्रीजी भी अपनें “प्रिय” का स्मरण करती हुयी अपनें महल में जाकर सो गयी थीं ।
क्या छटा है आज के वत्स चारण की…….एक कन्हैया कहाँ हैं आज …..सब सखा कन्हैया ही बन गए हैं …..सबके सिर में मोर पंख है ……सबकी फेंट में बाँसुरी है ……वनमाला है गले में झूलती हुयी ।
नन्दगाँव का हर व्यक्ति इन सबको देखकर हँस रहा है………
पर तात ! ये छोटे छोटे बालक लोग कन्हैया के प्रेम के चलते …….ओह ! उद्धव आनन्दित होते हैं……विचार करो तात विदुर जी !
जगत का रक्षक , परब्रह्म श्रीकृष्ण , उनकी रक्षा करनें के लिये ये सब सखा……. उन्हीं का रूप धारण करके चल रहे हैं ।
वृन्दावन में पहुँचकर सब खेलनें लगे……और बछिया बछड़े चरनें लगे ।
तभी – बकासुर दैत्य आगया ……..बगुला का रूप धारण करके आया था ये ………और बगुला भी साधारण नही ……….विशाल ।
जाजलि ऋषि , बड़े साधन निष्ठ तपस्वी थे ।
सागर और गंगा जहाँ मिलते हैं ……..भगवान कपिल ऋषि का जहाँ निवास है ऐसे गंगा सागर में बैठ कर भगवान कपिल का सत्संग सुन रहे थे ………….भगवान कपिल बड़े ही प्रेम से अध्यात्म के गूढ़ तत्व का विवेचन करते ……उसी का बाद में ऋषि जाजलि मनन करते ……अपनें में ही शान्त चित्त रहनें वाले ये ऋषि ……पर उस दिन इनको क्रोध आगया था तात ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
वो असुर सागर से मछलियाँ पकड़ पकड़ कर खानें लगा था ।
मैं कहाँ अध्यात्म के चिन्तन में लीन……..पर उसी समय मछलियों का कोलाहल ….रुदन …….चीत्कार……..मैं इन सबको सुन सकता हूँ ।
ऋषि जाजलि की साधना में विघ्न हुआ……..वो वहाँ से उठकर दूसरे तट में चल गए थे ……ये तट इस बार सागर का नही …..गंगा जी का था ………पर ये क्या बात हुयी …….वो दैत्य यहाँ पर भी आ धमका ।
मेरा चित्त कभी अशान्त नही हुआ था ………….मैने उस दैत्य से कहा भी कि …….तुम कहीं और जाओ ……..मैं यहाँ साधना में लीन हूँ ।
पर वो मेरे जैसे ऋषि की बातों को क्यों सुननें लगा …………
बस मछलियों को ताक रहा था …….और एक साथ अपनी विशाल मुट्ठियों में भर लेता मछलियों को ……..और खा जाता ।
ऋषि नें उसे बहुत बार समझाया ……पर वो माना नही ………
“जा बगुला हो जा”……….श्राप दे दिया ऋषि नें ।
वो देखते ही देखते बगुला बन गया ……विशाल बगुला ।
उद्धव कहते हैं ……………..ऋषि जाजलि के श्राप से ही वो दैत्य बगुला बना मथुरा में एक दिन आगया था ………….पूतना को इसनें बहन बना लिया ………..पूतना भी इसे भाई मानती थी ।
आज बकासुर नें अपनी बहन पूतना के बारे में जब सुना ………..कि एक ग्वाले नें उसकी बहन को मार दिया …..तो .वो क्रोधित हो उठा ….और कंस से बोलकर वो वृन्दावन में चला आया था ।
वो बगुला ! सब सखा उस बगुले के पास में चले गए थे ।
बकासुर देख रहा है ……….ये तो सब कृष्ण हैं ……….वो कुछ समझ नही पा रहा था ………हाँ शान्त भाव से खड़ा रहा ………..और सबको देख रहा था ।
कितना सुन्दर है ना ये बगुला …………सुबल सखा नें कहा ।
हाँ …..विशाल भी है ……..मैं बैठूँ इसके पीठ में ? मनसुख बोला ।
बकासुर देख रहा है …….वो समझ नही पा रहा कि इनमें से कौन है कृष्ण ……क्यों की सभी पीले वस्त्र पहनें हैं …..मोर मुकुट सबके है ।
मनसुख विनोद करते हुए बकासुर के पीठ में बैठ गया ।
बकासुर को लगा यही है कृष्ण ……….तो वो उड़ा ………..मनसुख नें देखा ……इतनी ऊँचाई तक तो कोई बगुला उड़ नही सकता ।
अब मनसुख चिल्लाया ………….अरे ! कन्हैया ! कन्हैया ! ये तो दैत्य है भाई ! बकासुर नें सुना ………..ये कृष्ण नही है ?
मनसुख चिल्लाये जा रहा है …………….कन्हैया कन्हैया !
बकासुर नीचे उतरा ………और यमुना में फेंक दिया मनसुख को ।
कन्हैया दौड़े ………तेज गति से दौड़े ……उनके सखाओं को कोई छेड़ दे ये इस नन्दनन्दन को स्वीकार कहाँ है ।
खानें के लिये दौड़ा बकासुर ………..चोंच अपनी खोल दी बकासुर नें …..
कन्हैया उसके चोंच में जाकर बैठ गए …………वो चोंच बन्द करना चाहता था ………पर कन्हैया खड़े हो गए चोंच में ही ।
और अपनें हाथों से उस बगुले की चोंच को ऊपर उठाते चले गए …..नीचे की चोंच पैर से दवा रखी है …..और ऊपर की चोंच को और ऊपर , ऊपर , और ऊपर…….चीर दिया बकासुर को कन्हैया नें ।
जय हो नन्दनन्दन की ………….जय हो यशोदा नन्दन की ।
मनसुख चिल्ला रहा है …………..श्रीदामा को बोला ………ऐसे उपाय मत बताया करो ……….कन्हैया सबसे भिड़ लेगा ………पर हमसे कुछ नही होगा …….बेकार में मैं आज मर जाता ! मनसुख बोला ……तो सब हँसे …………श्रीदामा नें कहा ……..ये मोर मुकुट तुझे ही शोभा देती है ……हमें नहीं ……….तू कुछ और है …….तू क्या है हमारी समझ में नही आता ! श्रीदामा के नेत्र सजल हो गए थे ।
अरे ! कुछ नही ………माखन खाता है खूब ये अपना कन्हैया …….इसलिये इसमें ज्यादा शक्ति है …….मनसुख का ये कहना है ।
सखाओं नें कन्हैया को बैठाया …….उसे माखन खिलानें लगे …….
अच्छा ! अच्छा बहुत हो गयी इसकी सेवा ……अब कुछ मेरी भी करो ……मुझे भी वो दैत्य ले गया था आकाश में ……..मर जाता मैं तो ?
सब सखा मनसुख की बातों पर हँसे …….कन्हैया तो मनसुख से हर समय प्रसन्न हैं ………ये कन्हैया को आनन्द देता रहता है ।
श्रीदामा को अपनें हृदय से लगाते हुए कन्हैया नें कहा था ………..मैं तुम सबसे बहुत प्रेम करता हूँ ……….सौगन्ध खाता हूँ अपनें बाबा की ।
कितना भोला है ना ! अपना कन्हैया ।