
(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 77)
!!”पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग 4 !!
ये लीला है , इसमें लीलायित स्वयं ब्रह्म हो रहा है …..ब्रह्म स्वयं लीला रचता है …..और फिर लीला ही बन जाता है …….वो रस लेता है …..रस स्वयं है …..फिर भी वह रस का रसिक है ।
तात ! लीला का कोई उद्देश्य नही होता….लीला का एक ही उद्देश्य है – आनन्द , रसानुभूति । उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
श्याम सुन्दर की बंशी चुरा ली श्रीराधारानी की सखियों नें…….क्यों की पूर्व में मुद्रिका श्याम नें राधा की चुराई थी……किन्तु तात ! कन्हाई भी कहकर गए कि……..मैं भी कृष्ण नही …….जो तुम्हे चोर बनाकर अपनी बाँसुरी वापस न ली तो………..
उद्धव कहते हैं – राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं ……..राधा ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं……फिर दोनों में चोरी कैसी ? और सखियाँ भी इनसे भिन्न कहाँ हैं ? वृन्दावन भी ब्रह्मस्वरूप ही है ……यानि धाम भी वही है ……तात ! यहाँ सब कुछ अद्वैत है …..किन्तु वह अद्वैत फिर रसानुभूति के लिये द्वैत बन जाता है …..यही तो अनादि लीला है ।
हूँ ………विदुर जी मुस्कुराते हैं ………..फिर कहते हैं – आगे सुनाओ उद्धव ! आगे कन्हाई नें कैसे अपनी बाँसुरी श्रीराधा रानी से ले ली ……..क्या लीला प्रकट हुयी……….सच में ! लीला चिन्तन एक अद्भुत साधना है …………और लीला तो अनन्त की लीला है ……इसलिये इसका तो कोई अंत ही नही है …….पर उद्धव ! कितनी लीला- कथा सुन लो …अघाते नही हैं ……….क्यों की रस है इसमें ……और रस ही तो कन्हाई है ।
विदुर जी ये कहते हुए मौन हो गए ……अब उन्हे आगे की लीला सुननी है । अब उद्धव उत्साहित होकर आगे सुनानें लगे थे ।
हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! हा कन्हाई !
कुञ्ज में ये आवाज धीमी धीमी आरही थी ।
हा नन्दनन्दन ! हा श्याम सुन्दर !
कोई पुकार रही है ……ललिते ! देख तो पुकार में करुणा भरी हुयी है ………..और हिलकियों से रो भी रही है………देख !
कुञ्ज में विराजीं श्रीराधा रानी नें अपनी सखी ललिता से कहा ।
हाँ ………हे स्वामिनी ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है……..मैं बाहर जाकर देखती हूँ………ऐसा कहते हुए ललिता सखी कुञ्ज से बाहर आगयीं थीं ।
हा श्याम ! हा श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन !
ललिता नें देखा ……सच में वह सखी तो बिलख रही थी ।
सुन अरी ! तू इतनी ब्याकुल क्यों हे रही है ……….क्या हुआ ?
और तू जिसका नाम ले रही है ना ! वो तो किसी काम का ही नही है ।
बस ऐसे ही मीठी मीठी बातें करता है ….और सबको फंसा लेता है ।
तू भी लगती है उस छलिया के जाल में फंस ही गयी …………सखी ! मेरी बात मान ………छोड़ दे उसे ……..वो तेरे लायक नही है ………तू कहाँ कोमलांगी , सुन्दर , कोमल देह तेरा …………क्यों इतनें सुन्दर देह में रोग लगा रही है …….मत कर प्रेम उस छलिया से ।
सखी !
हिलकियों से रो रही है वो सखी और ललिता को सम्बोधित करती हुयी कह रही है …………..सखी ! ये तो प्रेम है ………अब वे कैसे हैं ….कैसे नही हैं ……ये सब प्रेम कहाँ देखता है ………तो मैनें भी नही देखा ……..बस प्रेम हो गया ……….मेरे यहाँ आये थे खिलखिलाते हुये मुझे देखकर हँसनें लगे …….बस उसी समय मुझे उनसे प्रेम हो गया ……..और ये प्रेम की आग ऐसी जली कि आज मैं ही जल रही हूँ ।
ललिता नें उस सखी की बात सुनी …….फिर उसे पुचकाते हुए बोलीं …….अच्छा रो मत ……रो मत ……..मैं तुझे बताती हूँ ………कन्हाई मन का कपटी है…….हाँ मुख से मीठा मीठा बोलता है…….और तू ही नही है अकेली इस बृज में सबको पागल बनाया है उसनें …….मैं तो तेरे भले के लिये ही कह रही थी बाकी तेरी मर्जी !
ललिता सखी नें समझाया ……….कितनी सुन्दर है तू …साँवरी सखी ……मत लगा , ये रोग ………..बेकार हो जायेगी तू !
पर ये क्या ! ललिता की बातें सुनते ही वो सखी तो धरती में गिर गयी ……हां श्याम सुन्दर ! हा नन्दनन्दन ! …..
ललिता सखी घबडा गयी ……..उसे उठाया …….जल पिलाया ।
अच्छा तू कैसे ठीक होगी ? तुझे अभी कैसे शान्त करूँ मैं ?
हा श्याम सुन्दर ! बस एक बार दर्शन दे दो …..बस एक बार ।
वो फिर गिर गयी…….वो रोती ही जा रही है ।
ललिता के समझ में नही आरहा कि, क्या किया जाए………..
वो वापस कुञ्ज में गयी…….और श्रीराधारानी से प्रार्थना करनें लगीं ।
नही ….नही ………ललिते ! मैं कैसे श्यामसुन्दर बन जाऊँ ?
श्रीराधारानी नें साफ़ मना कर दिया ललिता सखी को ।
पर प्यारी जु ! आप अगर श्याम सुन्दर बन जाएँगी तो उस सखी के प्राण बच जायेगें …….नही तो उसका तो रो रोकर बुरा हाल है ।
हाँ ……वो श्याम सुन्दर के प्रेम में पागल हो गयी है……उसे श्यामसुन्दर के दर्शन हो जाएँ बस , …..हे कृपामयी ! आप श्याम सुन्दर का रूप धारण कर लो ……..और उसको दर्शन दे दो …..वो चली जायेगी …………ललिता सखी नें हाथ जोड़े श्रीजी के ।
पर मेरा श्रृंगार करेगा कौन ?
बिशाखा सखी आगे आयी ………….मैं कर दूंगी ।
ललिता नें कहा …..बिशाखा ! तुम शीघ्र श्रृंगार कर दो श्रीजी का ….श्याम सुन्दर बना दो…..मैं दूर से ही कराऊंगी और भेज दूंगी उसे ।
तात ! इधर बिशाखा श्रृंगार कर रही हैं राधा रानी का ………श्याम सुन्दर बना रही हैं राधा रानी को ……….
और उधर –
सखी ! तुझे श्याम सुन्दर के दर्शन करा दूँ तो ?
ललिता के मुख से ऐसा सुनते ही ……..वो सखी तो नाचनें लगी …….मैं तुम्हारा उपकार कभी नही भूलूंगी ………कृपा करो मेरे ऊपर …….नही तो मैं अपनें प्राण इसी यमुनाजी त्याग रही हूँ ।
ना ! ना ! ना ! ऐसा मत कर ..
……बस कुञ्ज में विराजे हैं श्याम सुन्दर !
अच्छा ! कहाँ हैं ? वो आनन्दित होती हुयी कुञ्ज की ओर भागी …..
अभी रूक …….मैं देखकर पूछकर आती हूँ ………..फिर तुझको लेकर चलूंगी ………ललिता कुञ्ज में जानें लगी ………तो सामनें बिशाखा आगयी …..इशारे में बोली ……..”श्रीजी तैयार हैं” ।
ललिता नें उस सखी को कहा …….ले सखी ! तेरे भाग्य ही खुल गए ……श्याम सुन्दर अब तुझे दर्शन देंगे ………….
नाचनें लगी वह सखी तो ……….मैं तुम्हारा उपकार भूल नही सकती ……..सखियों ! धन्य हो तुम धन्य हो ………।
ये रहे श्याम सुन्दर …….दर्शन कर सखी !
ललिता कुञ्ज में लेकर गयी उस सखी को, लताओं के मध्य राधा रानी श्याम सुन्दर का रूप धारण करके खड़ी हैं ।
ललिता नें दिखाया …………ये रहे श्याम सुन्दर !
वो सखी तो दौड़ी ……हा श्याम सुन्दर ! चरणों में गिर पड़ी ….हिलकियों से रो रही है …..कहाँ थे आप !
कुछ देर बाद वो सखी श्याम सुन्दर बनें श्रीराधा को देखनें लगी ।
हाँ ……मेरे श्याम सुन्दर आप ही हो …….लकुट, पीताम्बरी वही है …..मुकुट भी वही है ………..वनमाला भी वही है …….आहा !
और ? हँसी जोर से वो सखी ……..और “बाँसुरी भी वही है” !
ये कहते हुए सखी बनें श्याम सुन्दर नें राधारानी के हाथों से बाँसुरी छीन ली …………..
चोर हो तुम लोग……..ये कहते हुए कन्हैया हँसे जोर से हँसे ।
ललिता सखी तो देखती रह गयी…….राधा रानी भी अब हँस पड़ी थीं ।
मैने कहा था ना सखी ! कि मैं तुम्हे चोर बनाऊँगा ……..आज देखो ! चोर कौन है बताओ ? मेरी बाँसुरी चुराई …………..
ललिता सखी कुछ नही बोली ………क्या बोलतीं ।
राधारानी नें ही आगे बढ़कर कहा ……….पर गुरु तो आप ही हो …….ये मेरी सखियाँ हैं ……इन्हें कहा आवे चोरी करनो ………आपसे ही सीखीं हैं चोरी …………ये सुनते ही श्याम सुन्दर आगे बढ़े और अपनी प्रिया को आलिंगन में भर लिया था ।