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श्रीकृष्णचरितामृतम् – 66

(“श्रीकृष्णचरितामृतम्”- भाग 66)

!! “प्रेम का अद्भुत उदाहरण” – बृजवासी !!


क्या प्रेमी अज्ञानी होता है ?

ये प्रश्न विदुर जी का था ।

नहीं तात ! सच्चा ज्ञानी तो प्रेमी ही होता है ……बल्कि ज्ञानी से भी बड़ा होता है …….बात ये है कि …….भगवान की भगवत्ता और भक्तवत्सलता देखकर ज्ञानी तो आनन्दित हो उठते हैं ……पर प्रेमी के चित की कुछ और स्थिति हो जाती है ………ज्ञान प्रेम के उत्कर्ष को पाकर अभिभूत हो उठता है । तात ! सामान्य जीवन में भी प्रेम के आगे व्यवहारिकी ज्ञान दव जाता है……ये देखा गया है ! उद्धव जी बोले ।

ज्ञान की ऊँचाई ही प्रेम है…..क्यों की प्रेमी समझ जाता है कि…..मेरा प्रियतम ही मेरा सर्वस्व है…..वही सत्य है ,बाकी सब मिथ्या है झुठ है ।

पर बृजवासियों का प्रेम और अद्भुत है ……..आनन्द रस का दान कर रहे हैं कन्हैया………अभिभूत हैं समस्त बृजवासी……..पर इस आनन्द रस में उन बृजवासियों का जो ज्ञान है वो अगर रस समुद्र में डूब कर अभिभूत हो जाए तो इसमें आश्चर्य क्या ?

तो प्रेम सबसे बड़ा है ? विदुर जी नें पूछा ।

हाँ …….निःसन्देह तात ! उद्धव बोले ।

पर इन बृजवासियों का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है ….. उद्धव बड़े ठसक से बोले ।

कैसे ? कुछ बताओगे उद्धव ?

उद्धव मुस्कुराये और बतानें लगे थे ।

दूसरे दिन ही एक विशाल सभा लगी गोकुल में……….

बृजराज उस सभा के मुखिया थे……….इनके आठों भाई भी वहाँ उपस्थित थे………गोकुल के सब सम्माननीय व्यक्तित्व उस सभा की शोभा बढ़ा रहे थे ……महर्षि शाण्डिल्य पौर्णमासी इन सबका भी उच्च आसन था और ये उस आसन में विराजमान थे ।

सबसे प्रथम उपनन्द जी को बोलनें के लिये कहा गया………..

“मुझे लगता है गोकुल के अधिदेवता चले गए”…..उपनन्द बोल रहे थे ।

आप ये क्या कह रहे हैं ? उपनन्द जी से सभा में ही पूछा ।

हाँ ……..वो अर्जुन नामक वृक्ष ………उसके भीतर अधिदेवता रहते थे ………”तोक बालक” की बातों को हमें विस्मृत नही करना चाहिये ।

तोक बताओ तो ………क्या हुआ था वहाँ ? जब वृक्ष टूटे ?

तोक नें खड़े होकर कहा ……वृक्ष गिरे और उसमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट होकर फिर अंतर्ध्यान हो गए !

बैठो तोक ! उपनन्द जी नें बिठा दिया ।

वो अधिदेवता थे ……….और जिस भवन का, गाँव का, नगर का अधिदेवता ही चला जाए तो वहाँ रहना नही चाहिये ……..

क्या होगा ? एक बूढ़े ग्वाले ने खड़े होकर पूछा ।

अनिष्ट , अज्ञात हिंसा, प्रिय जन की हानि, भय, ये सब बना रहता है ।

उपनन्द जी नें सबको बताया …….और हाथ जोड़कर महर्षि शाण्डिल्य से भी पूछा …….ऋषिवर ! मैं ठीक कह रहा हूँ ना ?

महर्षि नें सिर “हाँ” में हिलाया था ।

देखिये ! राक्षसों का अत्याचार चरम पर है …………कंस नें अपनें यहाँ जमावड़ा लगा रखा है राक्षसों का ……..सम्पूर्ण पृथ्वी के राक्षसों का पालनहार बन बैठा है कंस ………….इसलिये ……….

पर हम अहीर हैं ……वीर हैं ….डरते नही हैं ……….ग्वालों के एक समूह नें अपनी अपनी लाठियां उठाईँ …………….

सुनो ! सुनो ! मुझे पता है हम वीर हैं ……लाठियों से भी हम कंस के राक्षसों का मुकाबला कर जायेंगें…….पर युद्ध प्रत्यक्ष हो तब ना ?

वो तो अप्रत्यक्ष युद्ध कर रहा है …….तुमनें देखा नही ……..पूतना, कागासुर, श्रीधर , शकटासुर ……..ये सब !

“पर हम डर कर भाग नही सकते”…….ग्वालों नें एक साथ हुंकार भरी ।

पर “बृजराज के लाल” को कुछ हो गया तो ?

उपनन्द जी नें ये बात कह दी थी ।

तात ! समस्त ग्वाला समाज काँप गया ……..ओह ! नही ….हमारे प्राण भले ही चले जाएँ …….पर कन्हैया को कुछ नही होना चाहिये ।4

सम्पूर्ण समाज एक स्वर में बोला ।

हम अपनें रक्त का एक एक बून्द बहा देंगें अपनें कन्हैया के लिये …….

पर संकट बना ही रहेगा……..और वृक्षों के गिरनें से इस गाँव का अधिदेवता भी तो चला गया है !

एक बूढी गोपी उठी……..तुम कब तक लाठी लेकर खड़े रहोगे …….पूतना की तरह कोई राक्षसी आई ……..और अपनें कन्हैया को मार कर चली गयी तो ?

ए बुढ़िया ! शुभ शुभ बोल …… सब ग्वाले आक्रोशित हो उठे थे ।

काल से भी भीड़ जायेंगें हम कन्हाई के लिए……..ग्वालों में आक्रोश बढ़ गया था ।

हमारे लाला पे कोई हाथ तो रखकर दिखाये……..काट के फेंक देंगें ।

ग्वाले कन्हैया के बारे में ऐसा वैसा कैसे सुन लेते ?

“हम दूध दही मथुरा भेजना बन्द करते हैं”…….सभा में ग्वालों का एक वर्ग ये भी कहनें लगा ।

शान्त रहो ! सब शान्त रहो………

“हमें इस गोकुल को त्यागना होगा”……….महर्षि शाण्डिल्य नें कहा ।

ग्वाले एक दूसरे का मुँह देखनें लगे……….

हाँ ………..बृजराज और बृजरानी अपनें लाला को लेकर वृन्दावन जाकर रहें ……..क्यों कि बृहत्सानुपुर ( बरसाना ) के राजा बृषभान जी बृजराज के मित्र भी हैं………वो स्थान दे देंगे ।

ये गलत है ……ऐसा नही होगा……..सम्पूर्ण सभा चिल्ला उठी ।

क्या गलत है ? क्या बृजराज को न भेजा जाए वृन्दावन ? क्या उनके पुत्र को यहीं कंस के द्वारा ……महर्षि शाण्डिल्य पूरा बोल भी नही पाये थे कि ….सभा उठ गयी …….सब ग्वालों नें अपनी अपनी लाठियां लहराए आकाश में……..

गलत ये है महर्षि ! कि हम नन्दलाल के बिना रह जाएँ ……..इसलिये हम सब जाएंगे………..

क्या ? बृजराज उठ गए सभा में बोलनें के लिये ।

हाँ …….गोकुल गाँव का हर व्यक्ति जाएगा वृन्दावन……..

सबनें यही कहा…………..एक स्वर में ।

“जाकर आजाना वापस गोकुल” ………..बृजराज नें कहा ।

नही ………हम वहीं रहेंगे……..हमारे राजा हैं आप नन्दराय ! ……हमें कैसे छोड़ सकते हैं……..हमारा युवराज कन्हैया है …..वो हमारा प्राण है …….हमारा ही नही समस्त बृज का प्राण है वो……वो जहाँ रहेगा हम सब भी वहीँ रहेगें ।

बृजराज नें हर्षित होते हुए कहा…….फिर चलो ! सब चलो वृन्दावन ………जब तक भवन की व्यवस्था नही होती तब तक हम लोग बैल गाडी को ही सजाकर उसमें रहेंगे ।

समस्त ग्वाल समाज नें आनंदित होकर करतल ध्वनि की …….

हम सब जायेंगे वृन्दावन……..चलो ! अब वृन्दावन ।

सभा को यही विराम दे दिया गया था ।

तात ! ये कैसा अद्भुत प्रेम है …………विलक्षण प्रेम है ।

अपनें गाँव को कोई त्याग सकता है भला ! अपनें पीढ़ीदर पीढ़ी के आवास निवास को कोई त्याग सकता है भला !…..पर कन्हैया के लिये – जो समस्त गोकुल का प्राणप्यारा था ….सबका दुलारा था उसके लिये इन बृजवासियों नें अपना गाँव, अपना आवास सब कुछ छोड़ दिया……..ये प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है तात !